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________________ जयला सहिदे कसायपाहुडे [ वेदगो ७ ३२८४. सादि० - अय्यादि० ध्रुव ० श्रद्धवाणु० दुविहो शि० - ० आदेसे ० | ओघेण लब्बीसंपवे० किं सादि० ४ १ सादि० प्रणादि० धुव० अधुवा वा । सेसहाखाणि सादि - अधुवास खाणाणि सादि श्रधुवाणि । एवं जावार्गदर्शक आचार्य श्री देसी १३० * एवममाणिय सामित्तं वच्वं । ९२८६ एवमणंतरपविदं समुत्तियागममणुमाणिय णिबंधरणं काढूण सामित्तं दव्वं । कुदो ? इमाणि हाणाणि असंजदपायोश्गाणि इमाणि च संजदपाओग्णाणि तत्थ वि असंजदपाओगे इमाणि सम्माइडिया प्रोग्गाणि इमाणि च मिच्दाइट्ठिपाओग्गाणि संजदपाओगेसु वि एदाणि उचसामगपाओग्गाणि एदाणि च खगपाओग्गाणि त्ति एवंविहविसेसस्स समुत्तिणाए सवित्थरमुवणिबद्धत्तादो । संपहिएदेश सुतेण समप्पिदत्यस्स परूवणमुचारणाबलेख वचसामो । तं जहादुविहो शि० - - श्रघे० आदेसे० । श्रघेण २८, २६, २४, २२ पवेसाणाणि कस्स ? अण्णद० सम्माइट्टि० मिच्छाइट्टि० सम्मामिच्छा ३२८७. सामना २८. सादि, अनादि, ध्रुव और अघुत्रानुगमकी अपेक्षा निर्देश दो प्रकारका है - ओघ और आदेश । श्रघसे २६ प्रकृतियों के प्रवेशक जीव क्या सादि हैं, क्या अनादि हैं, क्या ध्रुव हैं. या क्या अध्रुव हैं ? सादि, अनादि, ध्रुव और अधुत्र हैं। शेष स्थान सादि और अध्रुव हैं । आदेश से सब गतियों में सब स्थान सादि और अघुष हैं। इसी प्रकार अनाहारक मार्गणा तक जानना चाहिए । विशेषार्थ – २६ प्रकृतिक प्रवेशस्थान जीवोंके अनादि कालसे तब तक पाया जाता है जब तक प्रथमोपशम सम्यक्त्वकी प्राप्ति नहीं होती, इसलिए तो यह अनादि है। उसके बाद पुन: इसकी प्राप्ति सम्यवत्वसे च्युत हुए मिध्यादृष्टिके सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्व की उद्वेलना होने पर ही होती है, इसलिए वह सादि है । तथा अभव्योंके वह ध्रुव है और भव्यों के अध्रुव है । इस प्रकार २६ प्रकृतिक प्रवेशस्थान सादि आदिके भेदसे चारों प्रकारका बन जाता है । किन्तु शेष स्थानों की प्राप्ति जीवों के गुणस्थान प्रतिपक्ष होनेके बाद ही बनती है, इसलिए वे सादि और ध्रुव हैं। गतिसम्बन्धी सन मार्गणा कादाचित्क हैं, इसलिए उनमें सब स्थान सादि अभुव हैं यह उक्त कथनका तात्पर्य है । और * इस प्रकार अनुमान कर स्वामित्वको जान लेना चाहिए । ९ २८६. इस प्रकार पूर्व में कही गई समुत्कीर्तनाको अनुमान कर अर्थात् उसे हेतु बनाकर स्वामित्वको जान लेना चाहिए, क्योंकि ये स्थान असंयत्तप्रायोग्य हैं और ये स्थान संयत प्रायोग्य हैं। उसमें भी असंप्रायोग्य स्थानों में ये सम्यग्दृष्टिप्रायोग्य हैं और ये मिध्यादृष्टिप्रायोग्य हैं। संयतप्रायोग्यों में भी ये उपशामकप्रायोग्य हैं और ये क्षपकप्रायोग्य हैं इस प्रकारकी जो विशेषता है उसको विस्तार के साथ समुत्कीर्तनामें उपनिबद्ध कर दिया है। अब इस सूत्रके द्वारा सूचित होनेवाले अर्थका कथन उच्चारणा के बलसे करते हैं। यथा- ८७. स्वामित्वानुगमकी अपेक्षा निर्देश दो प्रकारका है- ओष और आवेश | मोघसे २८, २६, ०४ और २२ प्रकृतिक प्रवेशस्थान किसके होते हैं ? अन्यतर सम्यग्दृष्टि, मिध्यादृष्टि
SR No.090222
Book TitleKasaypahudam Part 10
Original Sutra AuthorGundharacharya
AuthorFulchandra Jain Shastri, Kailashchandra Shastri
PublisherMantri Sahitya Vibhag Mathura
Publication Year1967
Total Pages407
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Karma, & Religion
File Size13 MB
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