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________________ जयधवलासहिदे कसायपाहुडे [ बेदी ७ " ५५३. देसे रइय० मिन्द्र० सम्मामि० श्रताणु०४ उक० हिदिउदी० जह० अंतीमृ० अशुक० जह० एस० सम्मामि० उक० अणुक० जह० श्रंतो, हस्स - रदि० १० उक० अणुक० जह० एयसं०, उक० सच्चे ितेत्तीस सागरोवमाणि देखणाणि । वारसक० उक० हिदिउदी० जह० अंतीमु०, उक्क० तेवीस सागरो० देणाणि । श्रणुक्क० जह० 10, मुक्क० अंतोसु० एवं एवं स०-अरदि-सोग-भयदुर्गुछा० । वरि उक० द्विदिउदी० जह० एयस । एवं समाए | एवं पढमाए जाव छ िति । णवरि सगहिदी देखा | हस्स-रदि० अणुक० जह० एस० उ० अंतोसु० | आचार्य श्री सुविधिसागर जी महाराज 1 २५६ ६५५४. तिरिक्खेसु मिच्छ० - अरांता ०४ श्रोषं । 0 वरि अणुक० जह० अन्तर के बाद भी इनकी उदीरणा होने लगती है। यही कारण है कि यहाँ इनकी अनुत्कृष्ट स्थितिउदीरणा का जघन्य अन्तरकाल एक समय और उत्कृष्ट अन्तरकाल अन्तर्मुहूर्त कहा है। शेष कथन सुगम है। नौ नोकपायोंकी उत्कृष्ट स्थितिउदीरणाका जघन्य काल एक समय है, इसलिए इनकी अनुत्कृष्ट स्थितिउदीरणाका जयन्य अन्तरकाल एक समय कहा है। इन at areपायोंमें भय और जुगुप्साको छोड़कर शेष सात सप्रतिपक्ष प्रकृतियां है और इनका जघन्य बन्धकाल एक समय है, इसलिए इनकी उत्कृष्ट स्थितिउदीरणाका जघन्य अन्तरकाल एक समय बन जानेसे वह उक्त कालप्रमाण कहा है। शेष कथन स्पष्ट ही है। आगे गति मार्ग के सब भेदों में स्वामित्व और उक्त विशेषार्थ तथा अपनी-अपनी स्थिति आदिको ध्यान में रखकर स्पष्टोकरा कर लेना चाहिए। यदि कहीं कोई विशेषता होगी तो उसका संकेत करेंगे । ६५५३, आदेश से नारकियों में मिध्यात्व, सम्यमिध्यात्व और अनन्तानुबन्धी चतुष्ककी उत्कृष्ट स्थितिउदीरणाका जघन्य अन्तरकाल अन्तर्मुहूर्त हैं, अनुत्कृष्ट स्थित उदार का जघन्य अन्तर काल एक समय है, सम्यग्मिध्यात्वकी उत्कृष्ट और अनुत्कृष्ट स्थितिउदीरणाका जघन्य अन्तरकाल अन्तर्मुहूर्त है, हास्य और रविकी उत्कृष्ट और अनुत्कृष्ट स्थितिउदीरणाका जघन्य अन्तरकाल एक समय है तथा उत्कृष्ट अन्तरफाल सबका कुछ कम तेतीस सागर है। बारह कषायकी उत्कृष्ट स्थितिउदीरणाका जघन्य अन्तरकाल अन्तर्मुहूर्त है और उत्कृष्ट अन्तरकाल कुछ कम तेतीस सागर है। अनुत्कृष्ट स्थितिउदीरणाका जघन्य अन्तरकाल एक समय है और उत्कृष्ट अन्तरकाल अन्तर्मुहूर्त है। इसीप्रकार नपुंसकवेद, अरवि, शांक, भय और जुगुप्साके सम्बन्ध में जान लेना चाहिए। इतनी विशेषता है कि इनकी उत्कृष्ट स्थितिउदीरणाका जघन्य अन्तरकाल एक समय है । इसीप्रकार सातवीं पृथिवी में जान लेना चाहिए । इसीप्रकार प्रथम पृथिवीसे लेकर छठी पृथिवी तक जानना चाहिए। इतनी विशेषता है कि कुछ कम अपनीअपनी स्थिति कहनी चाहिए। इन पृथिवियोंमें हास्य पर रतिकी अनुत्कृष्ट स्थितिउदीरणा का जघन्य अन्तरकाल एक समय है और उत्कृष्ट अन्तरकाल अन्तर्मुहूर्त है। ६५५४. तियेवोंमें मिध्यात्व और अनन्तानुबन्धीचतुष्कका भंग अंघके समान है। १. ता० प्रती हरस-रंत्रि० अ० ज० ६० इति पाठः । २. ता०प्रतौ समहिदी सूयणा । उषक० अंतोमु० । तिरिक्लेसु इति पाठः ।
SR No.090222
Book TitleKasaypahudam Part 10
Original Sutra AuthorGundharacharya
AuthorFulchandra Jain Shastri, Kailashchandra Shastri
PublisherMantri Sahitya Vibhag Mathura
Publication Year1967
Total Pages407
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Karma, & Religion
File Size13 MB
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