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________________ [R] उत्तरपटिदीरणाए भुजगारपरूवणा ६१ ६२०० तत्थ ताब भुज०पवे० बुचदे । तं जहा – एको संजदासं जदो माणगी असंजमं षडियष्णो, पदमसमए भुजगारस्सादि कादूतरिंदो | वसमतो हुतमच्त्रिय भय - दुर्गुछोदयवसेण पुणो वि भुजगारपवेसगो जादो । मंतरं होई। अear एको उत्रसमसम्माइड्डी पमत्तापमससंजदो चदुमुदीरगो अय-दुगागमेण भुजगारस्सादि कारण पुणो सत्था चैव तोमुत्तमयिक्खियजीएतरिदो उवसम सेडिमारुहिय सव्धोवसमं कादृणोदरमाणमो लोभसंजलणमुदीरेद् | विदिय जम्मि इत्थवेदमुदीरे माणगो भुजगारपवंसगो जादो तम्मि लद्धमंतरं होई । ३ २०१. पदर प्रवेस श्रा बुवा मित्रा दुख लापयडीओ उदीरेमाणस्स -छोदय वोच्छेदे णप्पदरजाय परिणदस्तावरसमए अंतरं हो तो मुहुरोण भय-दुबासु उदयमागदासु पुणो वि अंतोमुदुशमंतरिदस्स तदुदयवच्छेदसमकालमप्पदरभाषण लद्धमंतरं होई । प्रधवा उवसमसेदिमारुदिय इत्थिवेदोदय वोच्छेदेणप्पदरस्सादि कातास्थि उपरि वढिय हेट्ठा श्रोदिण्णस्स भय- दुगुद्राणमुदीरणा हो तो मुहुण अस्य तदुदयवोच्छेदो जादो तत्थ लद्वमंतरं कायच्वं । १२०२. पहि अवदिपवे० उचदे – उवसामगो लोहसंजलणमुदोरेमाणो 'अवदसादि कारणादीरगो होतो मुहुत्त मंतरिय पुणो श्रोदरमाणो सुमसांषरायो २०५. उसमें सर्वप्रथम भुजगारप्रवेशकका कहते हैं। यथा- पाँच प्रकृतियोंकी उदीरणा करनेवाले एक संयतासंयत जीवने असंयमको प्राप्त होकर प्रथम समयमें भुजगारपदका आरम्भ"कर उसका अन्तर किया । पुनः सबसे उत्कृष्ट अन्तर्मुहूर्त काल तक रहकर अन्तमें भय और जुगुप्साके उदय द्वारा फिरसे जो भुजगारप्रवेशक हो गया उसके भुजगारपदका उत्कृष्ट अन्तर धम्र्मुहूर्त प्राम होता हूँ। अथवा चार प्रकृतियोंकी उदीरणा करनेवाला एक उपशमलभ्यग्दृष्टि प्रमत्त और अप्र. संयत जीव भय और जुगुप्सा आगमन द्वारा भुजगारपदका प्रारम्भ करके पुनः स्वस्थान में ही अन्तर्मुहूर्त कालतक अविवक्षित पर्यायके द्वारा उसका अन्तर करके उपशममेणि पर चढ़ा और वहाँ सर्वापम करके उतरते हुए लोभसंज्वलनकी उदीरणा करके तथा नीचे गिरकर जहाँ जाकर स्त्रीवेदकी उदीरणा करना हुआ भुजगारप्रवेशक हुआ वहाँ उस जीवके भुजगारपरका उत्कृष्ट अन्तर प्राप्त होता है। १ २०१. अब अल्पतरप्रवेशकका कहते हैं- नो या इस प्रकृतियोंकी उदीरणा करनेवाला कोई एक जीव भय और जुगुप्साकी उदयव्युच्छित्तिद्वारा अल्पसर पर्याय से परिणत हुआ । पुनः अनन्तर समय में उसका अन्तर होकर अन्तर्मुहूर्त काल के बाद भय और जुगुप्साके उदय में थाने पर फिर अन्तर्मुहूर्त काल तक उसका अन्तर किया। फिर उन दोनों प्रकृतियों की उदयव्युच्छित्ति के काल में ही अल्पतर पर्यायसे परिणत हुआ उसके अल्पतरपदका उत्कृष्ट अन्तर अन्तर्मुहूर्त प्राप्त होता है। अथवा उपशमरिण पर चढ़कर श्रीवेदकी उदयव्युच्छित्ति द्वारा अल्पतरपदका प्रारम्भकर और अविवक्षित पदद्वारा उसका अन्तर कर ऊपर चढ़ा। फिर नीचे सतरते हुए उसके भय और जुगुप्साकी उदीरणा होकर अन्तर्मुहूर्त काल बाद जहाँ उन दोनोंकी उदयत्र्युच्छित्ति होती है वहाँ अल्पतर पदका प्राप्त हुआ उत्कृष्ट अन्तर करना चाहिए । २०२. अब अवस्थितप्रवेशकका कहते हैं- लोभसंज्वलनकी उदीरखा करनेवाला उपशामक जीव अवस्थित पदका प्रारम्भ करके बादमें उसका अनुदीरक होकर अन्तर्मुहूर्त काल
SR No.090222
Book TitleKasaypahudam Part 10
Original Sutra AuthorGundharacharya
AuthorFulchandra Jain Shastri, Kailashchandra Shastri
PublisherMantri Sahitya Vibhag Mathura
Publication Year1967
Total Pages407
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Karma, & Religion
File Size13 MB
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