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________________ ५३६ जयधवलासहिढे कसायपाहुरे [वेदगो ७ जहण्णकालो ए यसमयमेत्तो। संपहि पणुवीसपवे० उच्चदे-विसंजोइदाणताणुनंधिचउक्केण उवममसम्माइटिणा उसमसम्मत्त द्वादुचरिमसमए सासणभावे पडिवराणे तस्स पढमसमा अणंताणुबंधीणमण्णदरपत्रसेण बावीसपवेसद्वाणं होण से काले उदयावलियबाहिरहिदसेसाणंताणुबंधितियस्म उदयावलियपवेसेण एणुवीसट्टाणं जादं । एवमेगसमयं पणुवीसपचेसहाणं होदूण तदणंतरसमए मिच्छत्तं पडिवण्णस छब्बीसं पवेसट्ठाणुप्पत्तीए णिरुद्धं पवेसट्ठाणं त्रिणटुं होइ । $ उकस्सेण अंतोमुत्तं ।। ३०२. तं जहा–सम्मामिच्छत्तं खविय जाव सम्मत्तं ण खवेह ताव बावीसपसेसगस्स अंतोमुहुत्तमेत्तो उकस्सकालो होइ । पणुवीसपवेसट्ठाणस्स वि अणंताणुबंधीहि अविसंजुतउवसमसम्माइटिकालो सयो चेव होइ । 8 तेवीसाए पयोर्णबक्सिगोपचिर कालाक्षाहीदि महाराज ६३०३, सुगर्म । ॐ जहएणुकस्सेण अंतोमुहत्तं । ३०४. न जहा–सम्मामिच्छत्तक्खवणकालो सन्चो व तेवीसपदेसगकालो होइ। चउधोसाए पयडोणं पवेसगो केवचिरं कालादो होदि ? अब पचीस प्रकृतियोंके प्रवेशकका कहते हैं जिसने भनन्तानुबन्धीचतुम्सकी विसंयोजना की है ऐसा उपशमसम्यग्दृष्टि जीव उपशमसम्यक्त्व के कालके द्विचरम समयमै सासादानभावको प्राम दुआ। उसके प्रथम समयमें अनन्तानुबन्धियों में से किसी एक प्रकृतिका प्रवेश होनेसे बाईस प्रकृतियोंका प्रवेशस्थान होकर तद् नन्तर समयमें उदयावलिके बाहर स्थित शेष अनन्तानुषन्धीचतुष्कके उदयावलिमें प्रवेश करनेसे पच्चीस प्रकृतियोंका प्रवेशस्थान हो गया। इस प्रकार पक समय तक पच्चीस प्रकृतियों का प्रवेशस्थान होकर तदनन्तर समयमें मिथ्यात्वको प्राम हुए उसके छब्बीस प्रकृतयोंके प्रवेशस्थान की उत्पत्ति हानेसे विवक्षित प्रवेशस्थान विनष्ट होता है। * उत्कृष्ट काल अन्तर्मुहूर्त है। F३०२. यथा-सम्यग्मियात्वका क्षय करके जब तक सम्यक्त्वप्रकृतिका क्षय नहीं करता है तब तक बाईस प्रकृतियोंके प्रवेशकका उत्कृष्ट काल अन्तर्मुहूर्त होता है। तथा जिसने अनन्तानुबन्धीचतुष्की विसंयोजमा नहीं की है ऐसे उपशमसम्यग्दृष्ट्रिका सब काल पचीस प्रकृतियों के प्रवेशकका उत्कृष्ट काल होता है। * तेईस प्रकृतियों के प्रवेशकका कितना काल है ? 5 ३०३, यह सूत्र सुगम है। * जघन्य और उत्कृष्ट काल अन्तमुहत है। ६३०४. यथा-सम्यग्मिथ्यात्वका सत्रका सब क्षपणाकाल तेईस प्रकृसियोंके प्रवेशकका काल होता है। * चौबीस प्रकृतियोंके प्रवेशकका कितना काल है ?
SR No.090222
Book TitleKasaypahudam Part 10
Original Sutra AuthorGundharacharya
AuthorFulchandra Jain Shastri, Kailashchandra Shastri
PublisherMantri Sahitya Vibhag Mathura
Publication Year1967
Total Pages407
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Karma, & Religion
File Size13 MB
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