SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 98
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ 我 ] उत्तरपडिउदीरणाए भुजगारपरूवणा ३१८२. सव्योवसमं कारण परिषदमाणगो पडमसमय मुहुमसांपराइयो पढमदेवो वा यवतव्यपवेसगो होइ चि भणिदं होइ । एवमोघो समचो एवं मगुस| नारि अवचव्व० पवे० पढमसमयदेवो त्तिण वत्तच्वं । आदेसेण पेरइय० । णवरि अवत्त ० रात्थि । एवं सव्वर० सव्यतिरिक्ख सच्चदेवा त्ति | गवरि वि०तिरिक्खचपञ्ज० - मासलपञ्ज-अहिमादि सुब्बा ति भुज- अप अट्टि० :- अचार्य श्री सुविधिसागर जी महाराज १ अण्णदरस्स । एवं जाव० । १ * एगजोवेण कालो । ६१८३. सामिनात रमेगजीवविसयो कालो बिहासियन्त्र त्ति भणिदं होइ स दुविहो णिसो-ओवादेसभेदेण । तत्थोवपरूवणमाहभुजगारपवेसगो केवचिरं कालादो होवि ? ॐ ६१८४. सुगमं । * जहण एयसमश्र । १८५ तं कथं ? सत्तण्डं पवेसगो होद्य द्विदो सम्माहड्डी मिकाहड्डी वा भयबामणदरं पवेसिय भुजगारपवेसगो जादो । पुणो विदियसमए ततियं चे उदीरेमाणस्स तस्स लद्धो एयसमयमेचो भुजगारपवेसगजहणकालो । एवमात्थ वि महासभवमेय समयो श्रणुगंतव्यो । ७ १८२. सर्वोपशम करके गिरनेवाला प्रथम समयवर्ती सूक्ष्मसाम्परायिक जीव अथवा प्रथम समयवर्ती देव वक्तव्यपदका प्रवेशक है यह उक्त कथनका तात्पर्य है । इस प्रकार रूपम हुई। इसी प्रकार मनुष्य त्रिकमें जानना चाहिए। किन्तु इतनी विशेषता है कि इनमें अवक्तव्यपदका प्रवेशक प्रथन समयवर्ती देव हैं यह नहीं कहना चाहिए। आदेश से सारकियोंमें प्रोध के समान भंग है। किन्तु इतनी विशेषता है कि इनमें अवकपद नहीं है । इसीप्रकार सब नारकी, सब विर्यश्व और सब देवोंमें जानना चाहिए। किन्तु इतनी विशेषता हूँ कि पोन्द्रिय तिर्थव्य अपर्याप्त, मनुष्य अपर्याप्त और अनुदिशसे लेकर सर्वार्थसिद्धि तक के देवा भुजगार, अल्पत्तर और अवस्थिसपद किसके होते हैं ? अन्यतरके होते हैं। इसी प्रकार अनाहारक मार्गणा तक जानना चाहिए । * एक जीवकी अपेक्षा काल । ६ १८३. स्वामित्व के बाद एक जीवविषयक कालका व्याख्यान करना चाहिए यह उक्त धनका तात्पर्य है । उसका प्रोघ और आदेशके भेद से दो प्रकारका निर्देश है। उनमेंसे ओघका कथन करने के लिए कहते हैं * भुजगारप्रवेशकका कितना काल है ? ६ १८४. यह सूत्र सुगम है । * जघन्य काल एक समय है । ३१८५. वह कैसे ? सात प्रकृतियोंका प्रवेशक होकर स्थित कोई एक मिध्यादृष्टि या सम्यग्दष्टि जीव भय और जुगुप्सामेंसे किसी एकका प्रवेश करा कर भुजगार प्रवेशक हो गया । पुनः दूसरे समय में उतनी प्रकृतियों की ही उदीरणा करनेवाले उसके भुजगारप्रवेशकका जघन्य काल एक समय प्राप्त हुआ । इसीप्रकार अन्यत्र भी यथासम्भव एक समय काल जान लेना चाहिए 1
SR No.090222
Book TitleKasaypahudam Part 10
Original Sutra AuthorGundharacharya
AuthorFulchandra Jain Shastri, Kailashchandra Shastri
PublisherMantri Sahitya Vibhag Mathura
Publication Year1967
Total Pages407
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Karma, & Religion
File Size13 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy