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मर्तिदेवी जैन ग्रन्थमाला : संस्कृत ग्रन्थाक-42
जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश
भाग-३
[ प - व ]
क्षु. जिनेन्द्र वर्णी
मान
भारतीय ज्ञानपीठ छठा संस्करण : 2002 - मूल्य : 180 रुपये
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ISBN 81-263-0763-3 (Set) 81-263-0786-2 (Part-III)
भारतीय ज्ञानपीठ
( स्थापना फाल्गुन कृष्ण 9, वीर नि. सं. 2470, विक्रम स. 2000, 18 फरवरी 1944)
.
पुण्यश्लोका माता मूर्तिदेवी की स्मृति में
साहू शान्तिप्रसाद जैन द्वारा सस्थापित
एव
उनकी धर्मपत्नी श्रीमती रमा जैन द्वारा सम्पोषित
मूर्तिदेवी जैन ग्रन्थमाला
इस ग्रन्थमाला के अन्तर्गत प्राकृत, संस्कृत, अपभ्रंश, हिन्दी, कन्नड़, तमिल आदि प्राचीन भाषाओं में उपलब्ध आगमिक, दार्शनिक, पौराणिक, साहित्यिक, ऐतिहासिक आदि विविध विषयक जैन साहित्य का अनुसन्धानपूर्ण सम्पादन तथा उनके मूल और यथासम्भव अनुवाद आदि के साथ प्रकाशन हो रहा है। जैन-भण्डारों की ग्रन्थसूचियाँ, शिलालेख - संग्रह, कला एवं स्थापत्य पर विशिष्ट विद्वानों के अध्ययन-ग्रन्थ और लोकहितकारी जैन साहित्य ग्रन्थ भी इस ग्रन्थमाला में प्रकाशित हो रहे हैं ।
प्रधान सम्पादक (प्रथम संस्करण) डॉ हीरालाल जैन एव डॉ आ.ने. उपाध्ये
प्रकाशक
भारतीय ज्ञानपीठ
18, इन्स्टीट्यूशनल एरिया, लोदी रोड, नयी दिल्ली- 110 003
मुद्रक
बी के ऑफसेट, नवीन शाहदरा, दिल्ली- 110 032
© भारतीय ज्ञानपीठ द्वारा सर्वाधिकार सुरक्षित
For Private Personal Use Only
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Moortidevi Jain Granthamala Sanskrit Grantha No 42
JAINENDRA SIDDHĀNTA KOŚA
[PART-III]
[9 - al
Kshu. JINENDRA VARNI
BLES
10
BHARATIYA JNANPITH
Sixth Edition : 2002
Price: Rs. 180
Page #4
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ISBN 81-263-0763-3 (Set)
81-263-0786 - 2 (Part-II)
BHARATIYA INANPITH (Founded on Phalguna Krishna 9, Vira N Sam 2470, Vikrama Sam 2000, 18th Feb 1944)
MOORTIDEVI JAIN GRANTHAMALA
FOUNDED BY
Sahu Shanti Prasad Jain In memory of his illustrious mother Smt. Moortidevi
and promoted by his benevolent wife
Smt. Rama Jain
In this Granthamala critically edited Jain agamic, philosophical, puranic, literary, historical and other original texts in Prakrit,
Sanskrit, Apabhramsha, Hindi, Kannada, Tamil etc are being published in the original form with their
translations in modern languages
Catalogues of Jain bhandaras, inscriptions, studies on art and architecture by
competent scholars and popular Jain literature are also being published
General Editors (First Edition) Dr Hiralal Jain and Dr A N Upadhye
Published by
Bharatiya Jnanpith 18, Institutional Area, Lodi Road, New Delhi-110 003
Printed at BK Offset, Naveen Shahdara, Delhi-110 032
© All Rights Reserved by Bharatiya Jnanpith
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संकेत-सूची
अ.ग श्रा..../ अन ध..1.1.. आ.अनु . आ.१..../.../.. आप्त प ../.../.. आप्त मी. इ उ/मू .... क.पा-18--/-.1.. का अ./मू. कुरल../... क्रिक... । क्रि.को.. क्ष.सा /मू. / गुण.श्रा.... गो.क./मू....... गो.क./जो प्र..... .. गो जी /मू....... गो.जी./जी प्र.../.../. ज्ञा..../.../... ज्ञा.सा.. चा पा/मू.../.. चा.सा .../... ज.प..../... जै.सा. ../... जै.पी... त अनु ... त वृ.../.../.../.. त.सा..../.../...
अमितगति श्रावकाचार अधिकार स /श्लोक सं. प. वंशीधर शोलापुर, प्र.सं., वि.सं. १९७६ अनगारधर्मामृत अधिकार सं / श्लाक स./पृष्ठ स.पं. खूबचन्द शोलापुर, प्र सं., ई.१६.१९२७ आत्मानुशासन श्लोक सं आलापपद्धति अधिकार स /सूत्र स /पृष्ठ स , चौरासी मथुरा, प्र.सं., वी. नि. २४५६ आप्तपरीक्षा श्लोक सं./प्रकरण सं./पृष्ठ सं, वीरसेवा मन्दिर सरसावा, प्र. स., वि.सं २००६ आप्तमीमांसा श्लोक सं. इष्टोपदेश/मूल याटीका श्लो.सं /पृष्ठ सं.(समाधिशतक्के पीछे) 4.आशाधरजी कृत टीका, वीरसेवा मन्दिर दिल्ली कषायपाहुड पुस्तक सं. भाग स./प्रकरणस /पृष्ठस./पंक्ति सं., दिगम्बर जैनसंघ, मथुरा,प्र.सं.,वि.सं २००० कार्तिकेयानुप्रेक्षा/मूल या टोका गाथा स , राजचन्द्र ग्रन्थमाला, प्र.स ई.१९६० कुरल काव्य परिच्छेद सं./श्लोक सं, प.गोविन्दराज जैन शास्त्री, प्र.सं..वी.नि.सं. २४८० क्रियाकलाप मुख्याधिकार स.-प्रकरण स./श्लोक स./पृष्ठ सं , पन्नालाल सोनी शास्त्री आगरा,वि.सं.१९१३ क्रियाकोश श्लोक सं, प.दौलतराम क्षपणसार/मूल या टीका गाथा सं /पृष्ठ स., जेन सिद्धान्त प्रकाशिनी संस्था, कलकत्ता गुणभद्र श्रावकाचार श्लोक सं. गोम्मटसार कर्मकाण्ड मूल गाथा स./पृष्ठ सं..जैन सिद्धान्त प्रकाशिनी संस्था. कलकत्ता गोम्मटसार कर्मकाण्ड/जीव तत्त्व प्रदोपिका टोका गाथा स /पृष्ठ सं./पक्ति सं..जैन सिद्धान्त प्रका, संस्था गोमट्टसार जीवकाण्ड/मूल गाथा स./पृष्ठ स., जेन सिद्धान्त प्रकाशिनो संस्था, कलकत्ता गोमट्टसार जीवकाण्ड/जीव तत्त्वप्रदीपिका टीका गाथा स./पृष्ठ सं./क्ति सं..जेनसिद्धान्त प्रकाशिनी संस्था ज्ञानार्णव अधिकार सं./दोहक सं./पृष्ठ स राजचन्द्र ग्रन्थमाला, प्र.सं./ई. १९०७ ज्ञानसार श्लोक सं. चारित्त पाहुड/मूल या टोका गाथा सं/पृष्ठ सं., माणिकचन्द्र ग्रन्थमाला, बम्बई,प्र.सं., वि.सं. १९७७ चारित्रसार पृष्ठ सं./पंक्ति सं., महावीर जी, प्रसं.. वी.नि २४८८ जंबूदोवपण्णत्तिस गहो अधिकार स./गाथा स. जैन संस्कृति संरक्षण सघ, शोलापुर, वि.सं.२०१४ जैन साहित्य इतिहास खण्ड सं./पृष्ठ सं., गणेशप्रसाद वर्णी ग्रन्थमाला, वी.नि. २४८१ जैन साहित्य इतिहास/पूर्व पीठिका पृष्ठ सं गणेशपसाद वर्णी ग्रन्थमाला, वा.नि. २४८१ तत्त्वानुशासन श्लोक स , नागसेन सूरिकृत, वीर सेवा मन्दिर देहली. प्र.स., ई. १९६३ तत्त्वार्थवृत्ति अध्याय सं./सूत्र सं /पृष्ठ संपंक्ति सं, भारतीय ज्ञानपीठ, बनारस, प्र.स ,ई १६४६ तवार्थसार अधिकार सं/श्लोक स./पृष्ठ सं ,जैनसिद्धान्त प्रकाशिनी संस्था कलकत्ता, प्रसई स.१६२१ तत्त्वार्थ सूत्र अध्याय सं /सूत्र सं तिलोयपग्णत्ति अधिकार सं गाथा से, जीवराज ग्रन्थमाला, शोलापुर, प्र.स..वि.सं. १६६६ तीर्थकर महावीर और उनकी आचार्य परम्परा, पृष्ठ स., दि जैन विद्वद्वपरिषद्, सागर, ई. १६७४ त्रिलोकसार गाथा सं., जैन साहित्य बम्बई, प्र. स., १९१८ दर्शनपाहुड/मूल या टोका गाथा सं./ पृष्ठ स , माणिकचन्द्र ग्रन्थमाला, बम्बई, प्र.म , विसं. १९७७ दर्शनसार गाथा स., नाथूराम प्रेमी, बम्बई, प्रसं., वि. १६७४ द्रव्यसंग्रह/मूल या टोका गाथा सं /पृष्ठ सं.. देहली, प्र स ई १९५३ धर्म परीक्षा श्लोक सं. धवला पुस्तक संखण्ड स , भाग, सूत्र/पृष्ठ स./पंक्ति या गाथा स , अमरावती, प्र. स. नयचक्र बृहद् गाथा सं श्रोदे मेवनाचार्यकृत, माणिकचन्द्र ग्रन्थमाला, बम्बई प्रस,वि.स ११७७ नयचक्र/श्रुत भवन दीपक अधिकार सं /पृष्ठ स., सिद्ध सागर, शोलापुर नियमसार मूल या टोका गाथा सं. नियमसार/तात्पर्य वृत्ति गाथा सं./कलश सं. न्यायदीपिका अधिकार सं./प्रकरण सं /पृष्ठ सं /पंक्ति म. वीरसेवा मन्दिर देहली. प्र.सं. वि.सं २००२ न्यायविन्दु/मूल या टोका श्लोक सं., चौखम्बा संस्कृत सीरीज, बनारस न्यायविनिश्चय/मूल या टीका अधिकार सं श्लोक /पृष्ठ संपंक्ति सं , ज्ञानपीठ बनारस न्यायदर्शन सुत्र/मूल या टीका अध्याय स /आह्निक सूत्र सं./पृष्ठ स मुजफ्फरनगर, द्वि सं..ई. १६३४ पचास्तिकाय/मूल या टीका गाथा सं /पृष्ठ सं., परमश्रुत प्रभावक मण्डल, बम्बई, प्र.सं.. वि १९७२ ५चाध्यायी/पूर्वाध श्लोक सं, पं देवकीनन्दन. प्र सं , ई. १९३२ पंचाध्यायी/उत्तरार्ध श्लोक स., ५ देवकीनन्दन, प्रसं. ई १६३२ पद्मनन्दि पंचविंशतिका अधिकार सं /श्लोक सं जीवराज ग्रन्थमाला, शोलापुर, प्र.सं ,ई १९३२ पंचसग्रह/प्राकृत अधिकार स गाथा स.. ज्ञानपीठ , बनारस प्र. सं ई. १६६० पचसंग्रह/संस्कृत अधिकार स./श्लोक संप सं./प्रा. की टिप्पणी.प्र.सं,ई १९६०
ति प.../... ती.... त्रि सा.... द पा./मू.../... द.सा.... द्र.सं./मू.......
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ध....1111/--. न च.बृ... न च /श्रुत /... नि.सा./भू... नि.सा/ता.वृ..../क... न्या दी...18-/.../... न्या.बि /मू.... न्या वि /मू..../.../..1 न्या.सू./मू./...//.. पं का./मू.../.. पं.ध/पू. . पंध/उ.. पं.वि........ प.सं./....... पं.सं./सं .../...
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पप्र/म्....1 पा.पु. ... पु.सि प्रसा ./मू ../.. प्रति सा .1 बा.अ... बो पा /मू./.. बृ जे श . भ आ/मू. ।। भा.पा./मू. /..
म बं..../... मूला... मो पं... मो.पा/मू .... मो.मा.प्र. ।।.. यु अनु.. यो सा.अ.../... यो सायो ... रक श्रा. र,सा.... रा.बा.. .../.../... रा.वा.हि..../.../.. ल.सा./मू ../.. ला स../.../... लि.पा /मू ... वसु श्रा.... वै.द...../../.... शी.पा./मू .. श्लो .वा. . .......
पद्मपुराण सर्ग/श्लोक सं., भारतीय ज्ञानपीठ बनारस, प्र.सं , वि.स. २०१६ परीक्षामुख परिच्छेद स /सूत्र सं./पृष्ठ स . स्याद्वाद महाविद्यालय, काशी, प्र.सं. परमात्मप्रकाश/मूल या टोका अधिकार सं./गाथा सं /पृष्ठ सं, राजचन्द्र ग्रन्थमाला, द्वि.सं..वि.स. २०१७ पाण्डवपुराण सगे स./श्लोक स..जीवराज ग्रन्थमाला, शोलापुर, प्र.सं, ई. १९६२ पुरुषाथ सिद्ध्युपाय श्लोक सं. प्रवचनसार/मूल या टोका गाथा सं./पृष्ठ स. प्रतिष्ठासारोद्धार अध्याय स./श्लोक सं. बारस अणुवेकरवा गाथा सं. बोधपाहुड/मूल या टोका गाथा स /पृष्ठ सं. माणिकचन्द्र ग्रन्थमाला, मम्बई, प्र.सं., वि. सं. १९७७ बृहत जैन शब्दार्णव/द्वितीय खड/पृष्ठ सं., मूलचद किशनदास कापडिया. सरत, प्र.सं..वी.नि. २४६० भगवती आराधना/मूल या टीका गाथा स /पृष्ठ स /पक्ति सं., सखाराम दोशी, सोलापुर, प्र.सं. ई. १६३५ भाव पाहुड/मूल या टीका गाथा सं/पृष्ठ सं., माणिकचन्द्र ग्रन्थमाला, बम्बई, प्र.सं.,वि सं. १९७७ महापुराण सर्ग सं./श्लोक स., भारतीय ज्ञानपीठ, बनारस, प्र स., ई. १६५१ महावन्ध पुस्तक सं./ प्रकरण सं./पृष्ठ सं., भारतीय ज्ञानपीठ, बनारस, प्र.स., ई. १९५१ मुलाचार गाथा सं..अनन्तकीर्ति ग्रन्थमाला, प्र. सं., वि.स १९७६ मोक्ष पचाशिका श्लोक स. मोक्ष पाहुड/मूल या टोका गाथा सं /पृष्ठ सं . माणिकचन्द्र ग्रन्थमाला, बम्बई, प्र. सं..वि. सं. १९७७ मोक्षमार्गप्रकाशक अधिकार स./पृष्ठ सं/पंक्ति सं , सस्ती ग्रन्थमाला, देहली, द्वि.सं., वि. स. २०१० युक्त्यनुशासन श्लोक सं.वीरसेवा मन्दिर, सरसावा, प्र. सं.ई १९५१ योगसार अमितगति अधिकार संश्लोक सं.. जैन सिद्धान्त प्रकाशिनी सस्था, कलकत्ता, ई सं. १६१८ योगसार योगेन्दुदेव गाथा स., परमात्मप्रकाशके पीछे छपा रत्नकरण्ड श्रावकाचार श्लोक सं. रयणसार गाथा सं. राजबार्तिक अध्याय सं./सूत्र स /पृष्ठ सं./पक्ति स., भारतीय ज्ञानपीठ, बनारस. प्र.स.वि स. २००८ राजवातिक हिन्दी अध्याय सं./पृष्ठ सं/पंक्ति सं. लब्धिसार/मूल या टीका गाथा सं/पृष्ठ सं., जैन सिद्धान्त प्रकाशिनी संस्था, कलकत्ता, प्र.सं. लाटी संहिता अधिकार सं श्लोक सं./पृष्ठ स. लिंग पाहूड/मूल या टोका गाथा सं./पृष्ठ सं , माणिकचन्द्र ग्रन्थमाला, प्र.सं., वि.सं. १९७७ बसुनन्दि श्रावकाचार गाथा सं, भारतीय ज्ञानपीठ बनारस, प्र. सं., वि.सं. २००७ वैशेषिक दर्शन/अध्याय स./आह्निक/सूत्र स /पृष्ठ सं . देहली पुस्तक भण्डार देहली, प्रसं, वि.सं.२०१७ शोल पाहुड/मूल या टोका गाथा सं/पंक्ति स., माणिकचन्द्र ग्रन्थमाला बम्बई, प्र. सं..वि.स. १९७७ श्लोकवार्तिक पुस्तक सं/अध्याय स सूत्र सवातिक सं/पृष्ठ स., कुन्थुसागर ग्रन्यमाला शोलापुर, प्र.सं.,
ई १९४६-१६५६ षटवण्डागम पुस्तक सं./खण्ड सं., भाग, सुत्र/पृष्ठ सं. सप्तभङ्गीतरङ्गिनी पृष्ठ सं/पंक्ति सं, परम श्रृत प्रभावक मण्डल, द्वि.सं., वि.सं. १९७२ स्याद्वादमञ्जरी श्लोक सं./पृष्ठ सं./पंक्ति सं, परम श्रुत प्रभावक मण्डल, प्र.स १६३१ समाधिशतक/मूल या टीका श्लोक सं /पृष्ठ स , इष्टोपदेश युक्त, वीर सेवा मन्दिर, देहली, प्र.सं., २०२१ समयसार/मूल या टोका गाथा स./पृष्ठ स /पंक्ति सं., अहिंसा मन्दिर प्रकाशन, देहली, प्र.सं.३१.१२.१९५८ समयसार/आत्मख्याति गाथा सं./कलश स. सर्वार्थसिद्धि अध्याय सं सूत्र सं/पृष्ठ स', भारतीय ज्ञानपीठ, बनारस, प्र.सं. ई. १३ स्त्रयम्भू स्तोत्र श्लोक सं, वीरसेका मन्दिर सरसावा, प्र. सं., ई. १९५१ सागार धर्मामृत अधिकार सं./श्लोक सं. सामायिक पाठ अमितगति श्लोक सं मिद्वान्तसार संग्रह अध्याय स./श्लोक स..जोवराज जेन ग्रन्थमाला, शोलापुर, प्र. सं. ई.१४५७ सिद्धि विनिश्चय/मून या टोका प्रस्ताव सं./श्लोक सं./पृष्ठ सं/पक्ति संभारतीय ज्ञानपीठ, प्र.सं. १९५९ सुभाषित रत्न सदोह नो क सं (अमित गति), जेन प्रकाशिनी संस्था, कलकत्ता, प्र.स. ई. १९१७ सूत्र पाहूड/मूल या टोका गाथा स /पृष्ठ म , मा णकचन्द्र ग्रन्थमाला बम्बई, प्र.सं.वि.स. १९७७ हरिवंश पुराण सग/श्लोक/स , भारतीय ज्ञान ठ, बनारस, प्र.सं.
ष.ख.../11/. सभ.त .../... स.म..../.../. स.श./मू.. . स.सा./मू....//... स.सा/आ. /क स.सि.../ स स्तो साध..../.. सा.पा.... सि.सा सं../ सि वि./... /... सु.र सं.... सू.पा/मू. 1.
नोट भिन्न-भिन्न कोष्ठकों व रेखाचित्रों में प्रयुक्त संकेतों के अर्थ मसे उस-उस स्थल पर ही दिये गये हैं।
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जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश
भाग - ३
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जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश
[ क्षु० जिनेन्द्र वर्णों ]
[ ५ ]
पंकप्रभा - १. १. पंकप्रभा नरकका लक्षण
जिसकी
स.सि./३/१/२०३/८ पङ्कप्रभासहचरिता भूमि पङ्कप्रभा । प्रभा कीचड़के समान है, वह पंकप्रभा ( नाम चतुर्थ ) भूमि है । (ति. प./२/२१): (रा. वा. / ३ / २ / ३ / १५६ /१८); (ज. प / ११ / ११३) ★ आकार व अवस्थानादि -- दे० नरक / ५ | लोक / २ । D. इसके नामकी सार्थकता
ति.प./२/२१ सक्करबालुव पंकाधूमतमातमतमं च समचरियं । जेण अवसेसाओ छप्yढवीओ वि गुणणामा | २१| रत्नप्रभा पृथिवी के नीचे शर्कराप्रभा, बालुकाप्रभा, पकप्रभा ये शेष छह पृथिवियाँ क्रमश शक्कर, बालु, कीचड़ की प्रभासे सहचरित हैं। इसलिए इनके भी उपर्युक्त नाम सार्थक है | २१|
पंकभाग -ति, १/२/१,१९ खरपंकबहुलभागारयणप्पहाए पुढवीए
पंकाजि य दोसदि एवं पंकबहुल भागो वि | १६ | [ बहुलभागे असुरराक्षसानामावासा । रा. ग.] - अधोलोकमें सबसे पहली रत्नप्रभा पृथ्वी है। उसके तीन भाग हैं- खरभाग, पकभाग व अम्बहुल भाग पंकबहुल भाग भी जो पंकसे परिपूर्ण देखा जाता है | १६ | इसमें असुरकुमारों और राक्षसोंके आवास स्थान है । (रा.वा./१/१/ ८/१६०/२०): (ज. प./११/११५-१२३)
* लोकमें पंकभाग पृथिवीका अवस्थान --- दे० भवन / ४ | पंकावती - पूर्व विदेहकी एक विभंगा नदी । दे० लोक /५/८०
पंचकल्याणक - दे० कल्याणक ।
पंचकल्याणकव्रत - दे० कल्याणकवत ।
पंचनद वर्तमान पंजाब ( म. पू. /प्र./ ४६ पं. पन्नालाल ) । पंचनमस्कार मंत्र माहात्म्य - आ० सिंहनन्दी (ई० श० १६) कृत
एक कथा ।
पंचपोरियाव्रत - व्रतविधान सं . १२१ - भादो सुदी पाँच दिन जान, घर पच्चीस माँटे पकवान । भादो सुदी पंचमीको पचीस घरोंमें पकवान माँटे। (यह बस श्वेताम्बर व स्थानकवासी आम्नायमें प्रचलित है ।)
5--दे० काल / ४ ।
पंचमकालपंचमीव्रत पाँच वर्ष तक प्रतिवर्ष भाद्रपद शु० ५ को उपवास तथा
नमस्कार मन्त्रका त्रिकाल जाप । ( व्रतविधान सं./८५) (किशर्नासह क्रियाकोश)
पंचमुष्ठी - शरीरके पाँच अंग । दे० - नमस्कार/१ में ध /८) । पंचवर्ण
एक ग्रह । दे० - ग्रह । पंचविशतिकल्याणभावनाव्रत
ह. पु. / ३४ / ११३ - ११६ पचीस कल्याण भावनाऍ है, उन्हे लक्ष्यक्र पचीस उपवास करना तथा उपवासके बाद पारणा करना, ग्रह पंचविशतिकन्याभावना है । ११३ | १. सम्यवश्व, २ विनय, ३. ज्ञान, ४ शील ५. सत्य, ६. श्रुत, ७, समिति, ८ एकान्त, ह. गुप्ति, १०. ध्यान, ११. शुक्लध्यान, १२. संक्लेशनिरोध, १३. इच्छानिरोध, १४ सवर, १५ प्रशस्तयोग, १६. संवेग, १७. करुणा, १८. उद्वेग, १६. भोगनिर्वेद, २०. संसारनिर्वेद, २१ भुक्तिवैराग्य; २२. मोक्ष, २३. मैत्री, २४. उपेक्षा और २५. प्रमोदभावना, ये पचीस कल्याण भावनाएँ हैं । ११४- ११६ । पंचविशतिका - दे० पद्मन न्दि पंचविशतिका । पंचशिखरी-पाँच कूटोंसे सहित होनेके कारण हिमवान् महाहिमवाद और निषधपर्वत पंचशिखरी नामसे प्रसिद्ध है। (ति, प./४/१६६२, १७३२, १७६७)
पंचशिर - कुण्डलपर्वतस्थ वज्रप्रभकूटका स्वामी नगेन्द्रदेव । दे० लोक / ५११२ । पंचतज्ञानव्रत - एक उपवास एक पारणाक्रमसे १६८ उप
पूरे करे । 'औ ह्रीं पञ्चश्रुतज्ञानाय नम:" इस मन्त्रका त्रिकाल जाप करे । ( तविधान संग्रह / ७२) (वर्धमान पु. / ...)
पंखसंग्रह - (पं.सं./प्र.१४/ A. N. Up) दिगम्बर आम्नायमें पंचसंग्रहके नामसे उल्लिखित कई ग्रन्थ उपलब्ध है। सभी कर्म सिद्धान्त विषयक हैं। उन ग्रन्थोंकी तालिका इस प्रकार है -१, दिगम्बर प्राकृत पंचसंग्रह - यह सबसे प्राचीन है। इसमें पाँच अधिकार हैं, १३२४ गाथाएँ है, और ५०० श्लोकप्रमाण गद्यभाग भी है। इस ग्रन्थके कर्ताका नाम व समय ज्ञात नहीं, फिर भी वि. श. ५-८ का अनुमान किया जाता है । (पं. सं./प्र.३६/A.N Up) २. श्वेताम्बर प्राकृत पंचसंग्रह - यह १००५ गाथा प्रमाण है । रचयिता ने स्वय
जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश
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पंचस्तूपसंघ
इसपर ८००० श्लोक प्रमाण स्वोपज्ञवृत्ति लिखी है जिसपर मलयागिरि कृत एक संस्कृत टीका भी है। इसका रचनाकाल वि० श०१०है। ३ दि० संस्कृत पंचसंग्रह प्रथम-पंचसंग्रह प्रा, १ के आधारपर आचार्य अमितगतिने वि०१०७३ (ई०१०१६) में रचा है। इसमें भी पाँच प्रकरण है, तथा इसका प्रमाण १४५६ श्लोक पद्य व,१००० श्लोक प्रमाण गद्य भाग है। ४ दि० संस्कृत पंचसंग्रह द्वि०-पचसग्रह प्रा०१ के आधारपर श्रीपाल सुत श्री डड्ढा नामके एक जैन गृहस्थने वि० श०११ में रचा था। इसकी समस्त श्लोक सख्या १२४३ तथा गद्यभाग ७०० श्लोक प्रमाण है। ५ पंचसंग्रह टीका-पंचसग्रहान १ पर दो संस्कृत टीकाय उपलब्ध है ।-एक वि० ११२६ में किसी अज्ञात आचार्य द्वारा लिखित है और दूसरी वि १६२० में समति कीति भट्टारक द्वारा लिखित है । विविध ग्रन्थो से उक्त प्रकरणों का स ग्रह होने से यह वास्तव में एक स्वतन्त्र ग्रन्थ जैसी है जिसे रचयिता ने 'आराधना नाम दिया है। चूणियों का शैली में रचित १४६ श्लोक प्रमाण तो इसमें गद्य भाग है और ४००० पलीक प्रमाण पद्य भाग । अधिकार सख्या पाच ही है। आ०पच नन्दि कृत अबू दीवपणति के एक प्रकरण को पूरा का पूरा
आत्मसात कर लेने के कारण यह पद्यनन्दि कृत प्रसिद्ध हो गई है। ६. इनके अतिरिक्त भी कुछ पच संग्रह प्रसिद्ध है जैसे गोमट्ट सार का अपर नाम पचसंग्रह है। श्री हरि दामोदर बेलकर ने अपने जिन रत्नकोष में 'पंचसंग्रह दीपक' नाम के किसी अन्य का उल्लेख किया है जो कि उनके अनुसार गोमटूटू सार का इन्द्र बामदेव
कृत पद्यानुवाद है। विशेष दे० परिशिष्ट । पंचस्तूपसंघ-दे० इतिहास/५/३ । पचाक-ध. १२/४.२.७.२१४/१७०/६ संखेज्जभागवड्ढो पंचको । त्ति घेत्तव्बो । -संख्यात भाग वृद्धिकी पंचांक संज्ञा जाननी
चाहिए । (गो, जी./मू./३२५/६८४) पंचाग्नि-पचाग्निका अर्थ पंचाचार । दे०-अग्नि । पंचाध्यायो-प राजमलजी (त्रि १६५०ई १५६३) द्वारा संस्कृत श्लोकोंमें रचित एक दर्शन शास्त्र। इस के दो ही अध्याय पूरे करके पण्डितजी स्वर्ग सिधार गये। अत' यह ग्रन्थ अधूरा है। पहले अध्यायमें ७६८ तथा दूसरेमें ११४४ श्लोक है ।(ती./४/८१) पंचास्तिकाय-विषय-दे० अस्तिकाय प्रिन्ध - राजा शिव कुमार
महाराज के लिए आ० कुन्द कुन्द (ई० १२७-१७६) द्वारा लिखित १७३ प्राकृत गाथा प्रमाण तत्त्वार्थ विषयक ग्रन्थ । (० २/२१)। इस पर आठ टीकार्य उपलब्ध है-१, आ० अमृत चन्द्र ई०१०५ १५५१ कृत तत्त्व प्रदीपिका। २ आ० प्रभा चन्द्र नं.४ (ई०५०१०२०) कृत पञ्चास्तिकाय प्रदीप । (जै ०/२/३४७)।३ आ.जयसेन (ई० २०११ अन्त १२ पूर्व) कृत तारपय वृत्ति (जै०/२/१२) ४. मलिषेण भट्टारक (ई० ११२८) कृत टोका। बाल चन्द्र (ई० श०१३ पूर्व) कृत कन्नड टीका (जै ०/२/१९४)। ६. प० हेमचन्द (ई०१६४३-१६७०) कृत भाषा वच निका। ७. भट्टारक ज्ञान चन्द (ई०१७१८) कृत टीका (पं० का०/०३५० पन्नालाल)। बुधजम (ई०१८३४) कृत भाषा टीका (ती०/४/२६८)। पंचेन्द्रिय जाति-दे० जाति/१ । पचेन्द्रिय जीव-दे० इन्द्रिय/४। पंजिका-क. पा.२/२,२२/२६/१४/८ वित्तिमुत्तविसमपयभंजियाए
पंजियववएसादो। - वृत्तिसूत्रोंके विषम पदोंको स्पष्ट करनेवाले विवरणको पंजिका कहते हैं।
पंडित--प.प्रम/२/१४ देहविभिण्णउ णाणमउ जो परमप्पु णिएइ।
परमसमाहि-परिट्ठियउ पंडिउ सो जि हवेइ ॥१४॥ जो पुरुष परमात्माको शरीरसे जुदा केवलज्ञानकर पूर्ण जानता है वही परमसमाधिमे तिष्ठता हुआ पडित अर्थात् अन्तरात्मा है । पंडितमरण-दे० मरण/१ । पप-राजा अरिकेसरीके समयके एक प्रसिद्ध जैन कन्नड कवि ।
कृतियॉ-- आदिपुराणचम्पू (म. पु/प्र. २० प पन्नालाल ), भारत या विक्रमार्जुनविजय। समय-वि. ६६८ (ई १४१) में 'विक्रमार्जुनविजय' लिखा गया था-(यशस्तिलकचम्पू/प्र २०/पं सुन्दरलाल)। पउमचरिउ-दे० पद्मपुराण । पक्ष-विश्वासके अर्थमे म. पु/३/१४६ तत्र पक्षो हि जैनाना कृस्न हिसाविवर्जनम् । मैत्रीप्रमोदकारुण्यमाध्यस्थै रुपबृहितम् ॥१४६। =मैत्री, प्रमाद, कारुण्य और माध्यस्थ्यभावसे वृद्धिको प्राप्त हुआ समस्त हिंसाका त्याग करना
जैनियोका पक्ष कहलाता है। (सा.ध./१/१६) । पक्ष-न्यायविषयक प. मु/३/२५-२६ साध्यं धर्म. क्वचित्त द्विशिष्टो वा धर्मी ॥२५॥ पक्ष इति
यावत ।२६। = कही तो (व्याप्ति कालमे) धर्म साध्य होता है और कही धर्मविशिष्ट धर्मी साध्य होता है। धर्मीको पक्ष भी कहते
है ।२५-२६॥ स्या म /३०/३३४/१७ पच्यते व्यक्ती क्रियते साध्यधर्मवैशिष्टयेन हेत्वादिभिरिति पक्ष । पक्षीकृतधर्मप्रतिष्ठापनाय साधनोपन्यास । जो साध्यसे युक्त होकर हेतु आदिके द्वारा व्यक्त किया जाये उसे पक्ष कहते है। जिस स्थलमे हेतु देख कर साध्यका निश्चय करना हो उस स्थल
को पक्ष कहते है। जैन सिद्धान्त प्रवेशिका--जहाँ साध्यके रहनेका शक हो । 'जैसे इस कोठेमें धूम है' इस दृष्टान्तमे कोठा पक्ष है।
२. साध्यका लक्षण न्या वि./मू /२/३८ साध्यं शक्यमभिप्रेतमप्रसिद्धम् ।.. १३॥ न्या. दो./३/२०/६६/६ यत्प्रत्यक्षादिप्रमाणाबाधितत्वेन साधयितुं शक्यम वाद्यभिमतत्वेनाभिप्रेतम, सदेहाद्याक्रान्तत्वेनाप्रसिद्धस्, तदेव साध्यम् । = शक्य अभिप्रेत और अप्रसिद्धको साध्य कहते है। (श्लो. वा. ३/१/१३/१२२/२६६) । शक्य वह है जो प्रत्यक्षादि प्रमाणोंसे बाधित न होनेसे सिद्ध किया जा सकता है। अभिप्रेत वह है जी वादीको सिद्ध करनेके लिए अभिमत है इष्ट है। और अप्रसिद्ध वह है
जो सन्देहादिसे युक्त होनेसे अनिश्चित है । वही साध्य है। प. मु./३/२०-२४ इष्टमबाधितमसिद्ध साध्यम् ।२०। सदिग्धविपर्यस्ताव्युत्पन्नानां साध्यत्वं यथा स्यादित्य सिद्ध पदम् ।२१। अनिष्टाध्यक्षादिबाधितयो साध्यत्व मा भूदितीष्टाबाधितवचनम् ।२२। न चासिद्धवदिष्ट प्रतिवादिन' ।२३। प्रत्यायनाय हि इच्छा वक्तुरेव ।२४। जो वादीको इष्ट हो, प्रत्यक्षादि प्रमाणोसे बाधित न हो, और सिद्ध न हो उसे साध्य कहते है ।२०। -सन्दिग्ध, विपर्यस्त और अव्युत्पन्न पदार्थ ही साध्य हो इसलिए सूत्र में असिद्ध पद दिया है ।२१॥ वादीको अनिष्ट पदार्थ साध्य नहीं होता इसलिए साध्यको इष्ट विशेषण लगाया है। तथा प्रत्यक्षादि किमी भी प्रमाणसे बाधित पदार्थ भी साध्य नहीं होते, इसलिए अबाधित विशेषण दिया है ।२२। इनमेंसे 'असिद्ध' विशेषण तो प्रतिवादीकी अपेक्षासे और 'इष्ट' विशेषण वादीकी अपेक्षासे है, क्योकि दूसरेको समझानेकी इच्छा वादीको ही होती है ।२३-२॥
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पक्ष
३. साध्यामास या पक्षाभासका लक्षण
वि./मू./२/२३/१२ ततोऽपम् साध्याभास विरुद्वादिसाधनाविषय" स्वत |३| इति साध्यसे विपरीत विरुद्धादि साध्याभास है । आदि सम्यसे अनभिप्रेत और प्रसिद्धका ग्रहण करना चाहिए, क्योंकि ये तीनों ही साधन विषय नहीं है, इसलिए ये साध्याभास है । ( न्या. दी./३/२०/७०/३) ।
१२-१४ तानिष्टाविपाभास |११| अनिष्ट मीमांसकस्यानित्यशब्द | १३ | सिद्ध श्रावण. शब्द. ११४॥ इष्ट असिद्ध और अबाधित इन विशेषणोसे विपरीत -अनिष्ट सिद्ध व बाधित ये पक्षाभास है। १२० शब्दकी अनिता मोमासको अनि है क्योंकि मीमांसक शब्दको नित्य मानता है | १३ | शब्द कानसे सुना जाता है यह सिद्ध है | १४ |
* बाधित पक्षामास या साध्याभासके भेद व लक्षण - दे० बाधित ।
४. अनुमान योग्य साध्योंका निर्देश
प. सु/३/३०-३३ प्रमाणोभयसिद्धे तु साध्यधर्मविशिष्टता ॥३०॥ अग्निमानय देश' परिणामी शब्द इति यथा ॥ ३१॥ व्याप्तौ तु साध्यं धर्म एव । ३२ । अन्यथा तदघटनात् ॥३३॥ - [ कही तो धर्म साध्य होता है और कही धर्मी साध्य होता है (दे० पस/१] वहाँ प्रमाणसिद्ध धर्मी और उभयसिद्ध धर्मीने ( साध्यरूप) धर्मविशिष्ट धर्मी साध्य होता है। जैसे- 'यह देश अग्निवाला है', यह प्रमाण सिद्ध धर्मीका उदाहरण है क्योकि यहाँ देश प्रत्यक्ष प्रमाणसे सिद्ध है। 'शब्द परिणमन स्वभाववाला है' यह उभय सिद्ध धर्मीका उदाहरण है; क्योकि, यहाँपर शन्दका धर्मी उभय सिद्ध है । ३०-३१। व्याप्ति में धर्म ही साध्य होता है। यदि व्याभिकालने धर्मको छोडकर धर्मी साध्य माना जायेगा तो व्याप्ति नही बन सकेगी । ३२-३३॥
५. पक्ष व प्रतिपक्षका लक्षण
न्या. सू./टी./१/४/४१/४०/१६ तो साधनोपालम्भी पक्षप्रतिपक्षाध्य व्यतिषक्तानुबन्धेन प्रर्तमानी पतिपक्षा४१ स्वा.सू./टी./१/२/१/४१/२९ एकाधिकरणस्यी विरुद्ध धर्मो पक्षप्रतिपक्षी प्रत्यनीकभावादस्त्यात्मा नास्यामेति नानाधिकरणी विरुद्धौ न पक्षप्रतिपक्षौ यथा नित्य आत्मा अनित्या बुद्धिरिति । -साधन और निषेध का क्रमसे आश्रय ( साधनका ) पक्ष है। और निषेधका आश्रय प्रतिपक्ष है (स्था में /३० / ३३४ / १६) एक स्थानपर रहनेवाले परस्पर विरोधी दो धर्म अपना मत ) और प्रतिपक्ष (अपने विरुद्ध मादीका मत अर्थाद प्रतिवादीका मत ) कहते है। जैसे कि - एक कहता है कि आत्मा है, दूसरा कहता है कि आत्मा नही है । भिन्न भिन्न स्थानमे रहनेवाले परस्पर विरोधी धर्म पक्ष प्रतिपक्ष नही कहाते । जैसे - एक ने कहा आत्मा नित्य है और दूसरा कहता है कि बुद्धि अमिय है।
६. साध्य से अतिरिक्त पक्षके ग्रहण का कारण
प. मु/३/३४-३६ । साध्यधर्माधार संदेहापनोदाय गम्यमानस्यापि पक्षस्य वचनम् ॥२४॥ साध्यधर्मिणि साधनधर्मायगोधनाय पक्षधर्मोपसंहारad | ३५ | को वा त्रिधा हेतुमुक्त्वा समर्थयमानो न पक्षयति ॥ ३६ ॥ - साध्यविशिष्ट पर्वतादि धर्माने हेतुरूप धर्मको समझाने के लिए जैसे उपनयका प्रयोग किया जाता है, उसी प्रकार साध्य ( धर्म ) के आधार में सन्देह दूर करनेके लिए प्रत्यक्ष सिद्ध होनेपर भी पक्षका प्रयोग किया जाता है। क्योंकि ऐसा कौन मादी प्रतिवादी है, जो कार्य, व्यापक, अनुपलम्भके भेदसे तीन प्रकारका हेतु कहकर समर्थन
३
करता हुआ भी पक्षका प्रयोग न करे ? अर्थात् सबको पक्षका प्रयोग करना ही पडेगा ।
* अन्य सम्बन्धित विषय
१ प्रत्येक पके लिए पश्पक्षका निषेध ३०/४२ पक्ष विपक्ष के नाम निर्देश- दे० अनेकांत ॥४१ ३ कालका एक प्रमाण दे० गणित / II / ४ |
पक्षपात
१. लक्षण व विषय आदि - दे० श्रद्धान |५| २ सम्यग्दृष्टिको पक्षपात नही होता - दे० सम्यग्दृष्टि |४| पक्षेप- “शलाका ।
पटच्चर—भरक्षेत्र मध्य का एक देश।०४। पटल --- १ त्रि. सा. / ४७६ / भाषा तिर्यकरूप बरोबर क्षेत्र विषै जहाँ विमान पाईए ताका नाम पटल है । २ Dix (ज. प / प्र १०७ ) विशेष दे. पट्टन — दे० पत्तन । नरव ५ वर्ग २९ पट्टावली- - दे० इतिहास / ४.५ । पणट्ठी (२६६) १६६५३६० गणित पण्यभवन सुमेरु पर्वत नन्दनादिनों भवन / दे० लोक /७ ।
पद
पण्हसवण- घरसेनाचार्यका ही दूसरा नाम हम भी है. क्योकि 'प्रज्ञाश्रमण' का प्राकृत रूप 'पण्हसवण' है। यह एक ऋद्धि है, जो सम्भवत धरसेनाचार्यको थी, जिसके कारण उन्हें भी कदाचित् 'पण्हसवण' के नामसे पुकारा गया है । बि० १५५६ में लिखी गयी बृहट्टिप्पणिका नामकी ग्रन्थ सूचीमें जो 'योनि प्राभृत' ग्रन्थका कर्ता 'पपण को बताया है, वह वास्तव मे घरसेनाचार्य की ही कृति थी। क्योकि सूचीमें उसे भूतबलिके लिए लिखा गया सूचित किया गया है .. १/३० / H L ) बै०धरसेन
पत्तन - ति प /४/१३६६ वररयणाणं जोणीपट्टणणामं विणिद्दिट्ठ ।
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= जो उत्तम रत्नोकी योनि होता है उसका नाम पट्टन कहा गया है। | १३ | त्रि सा / भाषा / ६७६) ।
"सेनाका एक अंग- दे० सेना ।
ध १३/५,५,६३/३३५/६ नावा पादप्रचारेण च यत्र गमनं तत्पत्तनं नाम । = नौकाके द्वारा और पैरोसे चलकर जहाँ जाते है उस नगरकी पत्तन मंशा है। पत्ति
-
/१/१। पूर्व में स्थित सोमदेवका
पत्नी - दे० स्त्री । पत्रचारणऋद्धि दे०
पत्रजाति पत्र जाति वनस्पतिमें भक्ष्याभक्ष्यविचार-दे० भक्ष्याभक्ष्य /४। पत्रपरीक्षा-आ० विद्यानन्य (०७७-४०) द्वारा संस्कृत भाषामे रचित न्याय विषयक ग्रन्थ है। इस पर पं जयचन्द छाबड़ा (ई० १८०६-१०३४) कृत भाषा टीका प्राप्त है। तो /२/६५०) ।
पद ---- १. गच्छ अर्थात् Number of Terms. २. सिद्ध पद आदिकी अपेक्षा
न्या. / वि /टी./१/७/१४० / २६ पद्यन्ते ज्ञायन्तेऽनेनेति पद । = जिसके द्वारा जाना जाता है वह पद है ।
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ध १०/४,२, ४, १/१८/६ जस्स जम्हि अवट्ठाणं तस्स तं पदं जहा सिद्धिखेत्तं सिद्धाणं पदं । अत्थालावो अत्थावगमस्स पद पद्यते गम्यते परिच्छिद्यते इति पदम् । • जिसका जिसमें अवस्थान है वह उसका पद अर्थात् स्थान कहलाता है। जैसे सिद्धिक्षेत्र सिद्धोका पद है ।
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पद
पद
अर्थालाप अर्थपरिज्ञानका पद है । ....पद शब्दका निरुक्त्यर्थ है जो जाना जाय वह पद है।
३. अक्षर समूहकी अपेक्षा न्या. सू /मू./२/२/५६४१३७ ते विभक्त्यन्ता. पदम् ।। -वों के अन्तमें यथा शास्त्रानुसार विभक्ति होनेसे इनका नाम पद होता है। २. पदक भेद १. अर्थपदादिकी अपेक्षा क. पा १/१,१/७२/१०/१ पमाणपदं अत्थपदं मज्झिमपदं चेदि तिविहं पद होदि। प्रमाणपद, अर्थपद और मध्यपद इस प्रकार वह तीन प्रकारका है। (ध./४,१,४५११६६/गा. ६); (ध.१३/५,५,४८/२६५/१३); (गो. जी./जी प्र./३३६/७३३/१) क पा. २/२-२२/१३४/१७/५ एत्थ पदं चउब्धिह, अत्थपदं, पमाणपदं, मज्झिमपदं, ववत्थापदं चेदि । = पद चार प्रकारका है-अर्थपद,
प्रमाणपद, मध्यमपद और व्यवस्थापद। ध.१०/४,२,४.१/१८/८ पदं दुबिह-ववस्थापदं भेदपदमिदि । . उक्कस्साणुक्कस्स - जहण्णाजहण्ण-सादि-अणादिधुव-अद्धुत्र - ओज-जुम्म
आम-विसिठ्ठ-णोमणोविसिटिउपदभेदेण एत्थ तेरस पदाणि। -- पद दो प्रकार है-व्यवस्था पद और भेदपद । . उत्कृष्ट, अनुत्कृष्ट, जघन्य, अजघन्य, सादि, अनादि, धव, अधव, ओज, युग्म, ओम, विशिष्ट और नोओम, नो विशिष्ट पदके भेदसे यहाँ तेरह पद हैं।
२. नाम उपक्रमकी अपेक्षा क. पा. १/१,१/चूर्णिसूत्र/१२३/३० णामं छठिवह। क.पा १/१.१/६२४/३१/१ एदस्स सुसस्स अस्थपरूवणं करिस्सामो। तं तहा-गोष्णपदे णोगोण्णपदे आदाणपदे पडिवखपवे अवचयपदे उवचयपदे चेदि । -नाम छह प्रकारका है। अब इस सूत्रके अर्थका कथन करते है। वह इस प्रकार है-गौण्यपद, नोगौण्यपद, आदानपद, प्रतिपक्षपद, अपचयपद और उपचय पद ये नामके छह भेद है। ध.१/१,१,१/७४/५ णामस्स दस द्वाणाणि भवति । तं जहा, गोण्णपदे
गोगोग्णपदे आदाणपदे पडिवक्खपदे अणादियसिद्ध'तपदे पाधण्णपदे णामपदे पमाणपदे अवयवपदे संजोगपदे चेदि । ध. १/१,१.१/७/४ सोऽवयवो द्विविधः, उपचितोऽपचित इति । • स संयोगश्चतुर्विधो द्रव्यक्षेत्रकालभावसंयोगभेदात् । = नाम उपक्रमके दस भेद है। ये इस प्रकार है-गौण्यपद, नोगौण्यषद, आदानपद, प्रतिपक्षपद, अनादिसिद्धान्तपद, प्राधान्यपद, नामपद, प्रमाणपद, अवयवपद जौर संयोगपद । अवयव (अवयवपद) दो प्रकारके होते है--उपचितावयव और अपचितावयव। तथा द्रव्यसंयोग, क्षेत्रसयोग, कालसयोग और भाव संयोगके भेदसे संयोग चार प्रकारका है। (ध, १/४,१,४५/१३५१४)
३. बीजपदका लक्षण ध.६/४,१,४४/१२७/१ सक्खित्तसहरयणमणंतत्थावगमहेदुभदाणेगलिगसंगय बोजपद णाम । - सक्षिप्त शब्द रचनासे सहित अनन्त अर्थोके ज्ञानके हेतुभूत अनेक चिह्नोंले संयुक्त बीजपद कहलाता है।
४. अर्थ पदादिके लक्षण ह पु./१०/२३-२५ एकद्वित्रिचतु.पञ्चषट् सप्ताक्षरमर्थवत् । पदमाद्य द्वितीयं तु पदमष्टाक्षरात्मकम् ॥२३॥ कोटयश्चैव चतुस्त्रिशत् तच्छतान्यपि षोडश । ज्यशीतिश्च पुनर्लक्षा शतान्यष्टौ च सप्ततिः ॥२४॥ अष्टाशीतिश्च वर्णाः स्युर्मध्यमे तुपदे स्थितः । पुर्वाङ्गपदसख्यास्यान्मध्यमेन पदेन सा '२५ = इनमें एक, दो, तीन, चार, पाँच, छ. और सात अक्षर तकका पद अर्थपद कहलाता है। आठ अक्षर रूप
प्रमाण पद होता है। और मध्यमपदमें (१६३४८३०७८८८) अक्षर होते है और अंग तथा पूर्वोके पदकी सख्या इसी मध्यम पदसे होती
है ।२३-२५॥ ध. १३/१०५,४८/२६/१३ तत्त्थ जेत्तिएहि अत्थोषलद्धी होदि तमत्थपदं णाम । यथा दण्डेन शालिभ्यो गौ निवारय, त्वमग्निमानय इत्यादयः (गो. जी)] एदं च अणव ठ्ठिद, अणियअक्रवरेहितो अत्थुवलदिसणादो। ण चेदमसिद्ध,अ विष्णु, इ काम , क ब्रह्मा इच्चेवमादिसु एगेगक्खरादो चेव अत्थुवल भादो। अट्ठक्खरणिप्फणं पमाणपदं । एद च अवटिदं, णियदट्ठसखादो।-सोलससदचोतोसं कोडी तेसीदि चेव लक्खाई। सत्तसहस्सट्ठसदा अट्ठासीदा य पदवण्णा ॥१८॥ एत्तियाणि अक्खराणि घेत्तूण एगं मज्झिमपदं होदि । एदं पि संजोगवरसखाए अवडिद, बुत्तपमाणादो अक्वरेहि व-िहाणीणमभावादो। = जितने पदोके द्वारा अर्थ ज्ञान होता है वह अर्थपद है। [ यथा 'गायको घेरि सुफेदको दंड करि' इसमें चार पद भये । ऐसे ही 'अग्निको ल्याओ' ऐ दो पद भये। यह अनवस्थित है, क्योंकि अनियत अक्षरों के द्वारा अर्थका ज्ञान होता हुआ देखा जाता है। और यह बात असिद्ध भी नहीं है, क्योंकि 'अ' का अर्थ विष्णु है, 'इ' का अर्थ काम है, और 'क' का अर्थ ब्रह्मा है; इस प्रकार इत्यादि स्थलोंपर एक एक अक्षरसे ही अर्थकी उपलब्धि होती है। आठ अक्षरसे निष्पन्न हुआ प्रमाणपद है। यह अवस्थित है, क्योंकि इसको आठ संख्या नियत है। सोलहसौ चौतीस करोड तिरासी लाख सात हजार आठ सौ अठासी (१६३४८३०७८८८) इतने मध्यपदके वर्ण होते हैं ॥१८॥ इतने अक्षरोंको ग्रहण कर एक मध्यम पद होता है। यह भी संयोगी अक्षरोको संख्याकी अपेक्षा अवस्थित है, क्योंकि, उसे उक्त प्रमाणसे संख्याकी अपेक्षा वृद्धि और हानि नहीं होती। (क. १११,१/७१/१०/२), (क. पा. २/२-२२/१३५१७/६), (गो. जी./जी. प्र./३३६/७३३/१) क. पा. २/२-२२/१३४/१७/८ जत्तिएण वक्तसमूहेण अहियारो समप्पदि तं ववत्थापदं सुवंतमिगत वा। -जितने वाक्योके समूहसे एक अधिकार समाप्त होता है उसे व्यवस्थापद कहते हैं । अथवा सुबन्त
और मिगन्त पदको व्यवस्थापद कहते है। क.पा २/२,२२/६४७५/७ जहण्णुक्कस्सपदविसयणिच्छए विवदि पादेति त्ति पदणिक्खेवो। -जो जघन्य और उत्कृष्ट पद विषयक निश्चयमें ले जाता है उसे पदनिक्षेप कहते है। ५. गौण्यपदादिके लक्षण
घ. १/१,१,१/७४/७ गुणानां भाको गौण्यम् । तद गौण्यं पदं स्थानमाश्रयो येषां नाम्ना तानि गौग्यपदानि । यथा, आदित्यस्य तपनो भास्कर इत्यादीनि नामानि । नोगौण्यपदं नाम गुणनिरपेक्षमनन्वर्थमिति यावत् । तद्यथा, चन्द्रस्वामी सूर्यस्वामी इन्द्रगोप इत्यादीनि नामानि । आदानपदं नाम आत्तद्रव्य निबन्धनम् ।" पूर्णकलश इत्येतदादानपदम् • अविधवेत्यादि । ..प्रतिपक्षपदानि कुमारी बन्ध्येत्येवमादीनि आदान-प्रतिपक्षनिबन्धनत्वात। अनादिसिद्धान्तपदानि धर्मास्तिरधर्मास्तिरित्येवमादीनि। अपौरुषेयत्वतोऽनादिः सिद्धान्त' स पदं स्थानं यस्य तदनादिसिद्धान्तपदम्। प्राधान्यपदानि आम्रवनं निम्बवनमित्यादीनि। बनान्त: सरस्वप्यन्येष्षविवक्षितवृक्षेषु विवक्षाकृतप्राधान्यचूतपिचुमन्दनिबन्धनत्वात् । नामपदं नाम गौडोऽन्धो द्रमिल इति गौअन्ध्रद्रमिलभाषानामधामत्वात् । प्रमाणपदानि शतं सहस्र द्रोण. खारी पल, तुला कर्षादीनि प्रमाणनाम्ना प्रमेयेषूपलम्भार ।"उपचितावयवनिमन्धनानि यथा गलगण्ड: शिलीपद' लम्बकर्ण इत्यादीनि नामानि । अवयवापचयनिमन्धनानि यथा, छिन्नकर्ण छिन्ननासिक इत्यादीनि नामानि ।" द्रव्यसंयोगपदानि, यथा, इभ्य गौथ दण्डी छत्री गर्भिणी इत्यादीनि द्रव्यसंयोगनिबन्धनत्वात तेषां । नासिपरश्वादयस्तेवामादानपदेऽन्तर्भावाव ।...
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पद
योगदान, माथुर या दाक्षिणात्य औदीच्य इत्यादीनि । यदि नामत्वेनामिवक्षितानि भवन्ति कासयोगपदानि यथा, शारद वासन्तक इत्यादीनि । न वसन्तशरद मन्तादीनि तेषां नामपवेऽन्तर्भावात् भावयोगदान कोधी मानी मायावी रा दोनि । न शीलसारस्यनिबन्धनयम सिहाग्निरावणादीनि नामानि सेनामपदेऽन्तर्भावात् न चैतेभ्यो व्यतिरिक्तं नामास्त्यनुपलम्भात् । = गुणोके भावको गौण्य कहते है। जो पदार्थ गुणों की मुख्यतासेव्यमदत होते है वे गोयपदार्थ है। पदार्थ
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पद अर्थाद स्थान या आश्रय जिन नामोके होते हैं उन्हे गौण्यपद नाम कहते है । जैसे—सूर्यको तपन और भास geet अपेक्षा उपन और भास्कर इत्यादि सज्ञाएँ है जिन संज्ञाओं गुणोंकी अपेक्षा न हो अर्थात् जो असार्थक नाम है उन्हे नगण्यपद नाम कहते है जैसे चन्द्रस्वामी सूर्यस्वामी, इन्द्रगोप इत्यादि नाम ग्रहण किये गये द्रव्यके निमित्तसे जो नाम व्यवहार में आते हैं, उन्हें आदानपद नाम कहते है । 'पूर्ण कलश' इस पदको आदानपद नाम समझना चाहिए। इस प्रकार 'अविधवा' इस पदको भी विचारकर आदानपदनाममें अन्तर्भाव कर लेना चाहिए। कुमारी वन्ध्या इत्यादिक प्रतिपक्षनामपद हैं क्योंकि आदानपद में ग्रहण किये गये दूसरे द्रव्यको निमित्तता कारण पडती है और यहाँपर अन्य द्रव्यका अभाव कारण पडता है। इसलिए आदानपदनामोंके प्रतिपक्ष कारण होनेसे कुमारी या वन्ध्या इत्यादि पद प्रतिपक्ष पदनाम जानना चाहिए। अनादिकाल से प्रवाह रूपसे चले जाये सिद्धान्तमापक पदोको अनादिसिद्धान्तपद नाम कहते है जैसे- धर्मास्तिकाय, अधर्मास्तिकाय इत्यादि अपौरुषेय होने सिद्धान्त अनादि है। वह सिद्धान्त जिस नामरूपपदका आश्रय हो उसे अनादिसिद्धान्तपद कहते है। बहुतसे पदार्थोंके होनेपर भी किसी एक पदार्थ की बहुलता आदि द्वारा प्राप्त हुई प्रधानतासे जो नाम बोले जाते है उन्हें प्राधान्यपढ़नाम कहते है जैसे आपन निम्भवन इत्यादि । वनमें अन्य अविवक्षित पोंके रहनेपर भी विमलासे saraarat प्राप्त आम्र और निम्बके वृक्षोंके कारण आम्रवन और निम्बवन आदि नाम व्यवहारमें आते है जो भाषाके भेदो जाते है उन्हें नामपद नाम कहते हैं जैसे-गोड, बान्भ, इमिल इत्यादि । गणना अथवा मापकी अपेक्षासे जो संज्ञाऍ प्रचलित है उन्हें प्रमाणपद नाम कहते है जैसे-सौ हजार मीण, खारी, पल तुला, कर्ष इत्यादि । ये सब प्रमाणपद प्रमेयों में पाये जाते हैं ।.. रोगादिके निमित्त मिलनेपर किसी अवयवके बढ जानेसे जो नाम बोले जाते हैं उन्हें उपचितावनपट नाम कहते है। जैसे गलगंड शिलोप, लम्बकर्ण इत्यादि । जो नाम अवयवोंके अपचय अर्थात उनके छिन्न हो जानेके गिमित्तसे व्यवहारमें आते है उन्हे अपचिताबयवपद नाम कहते है। जैसे- छिन्नकर्ण, छिन्ननासिक इत्यादि नाम !... हम्य, गौथ, दण्डी, छत्रो, गर्भिणी इत्यादि द्रव्य संयोगपद नाम हैं, क्योंकि धन, गूथ, दण्डा, छत्ता इत्यादि द्रव्यके संयोग से ये नाम व्यवहार में आते हैं। असि, परशु इत्यादि द्रव्यसंयोगषद नाम नहीं है, कि उनका आदानपद में अन्तर्भाव होता है। माधुर बालम, दाक्षिणात्य और औदीच्य इत्यादि क्षेत्रसंयोगपद नाम हैं, क्योंकि माथुर आदि संज्ञाएँ व्यवहारमें जाती है। जब माथुर आदि संज्ञाएँ नाम रूपसे विवक्षित न हों तभी उनका क्षेत्रसंयोगपदमें अन्तर्भाव होता है अन्यथा नहीं। शारद वासन्त इत्यादि काल संयोगपद नाम हैं। क्योंकि शरद और वसन्त ऋतुके संयोगसे यह संज्ञाएँ व्यवहार में आती हैं। किन्तु वसन्त शरद् हेमन्त इत्यादि संज्ञाओंका कालयोगपर नामोंमें ग्रहण नहीं होता, क्योंकि उनका नामपद में अन्तर्भाव हो जाता है। क्रोषी मानी, मायावी और लोभी इत्यादि नाम भावसंयोगपद हैं, क्योंकि, क्रोध, मान, माया और लोभ जादि भायोंके निमित्तसे ये नाम व्यवहारमें आते हैं। किन्तु
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पदस्थध्यान
जिनमें स्वभावकी सदृशता कारण हैं ऐसी यम, सिंह, अग्नि और रावण आदि संज्ञाऍ भावसंयोगपद रूप नहीं हो सकती है, क्योंकि उनका नामपद में अन्तर्भाव होता है । उक्त दश प्रकारके नामोंसे भिन्न और कोई नामपद नहीं है, क्योकि व्यवहारमें इनके अतिरिक्त अन्य नाम पाये जाते है । (ध. १/४, १,४५ /१३५ / ४ ), ( क पा. १ / ११ / ६२४ / ३९/९)।
३. श्रुतज्ञानके भेदोंमें कथित पदनामा ज्ञान व इस 'पद' ज्ञानमें अन्तर
घ. ६/१.११.१४/२३/३ कुदो एइस्स पदसणा | सोलहसायचोचीसकोडोओ ऐसी दिखा बहत्तरसव अट्ठासीदिअक्सरे घेण एवं दमुदपदं होदि । एवेहितो उप्पणभावदं पि उदारण पति उच्चदि । - प्रश्न - उस प्रकार से इस ( अल्पमात्र ) श्रतज्ञानके ( पाँचवें भेवकी) 'पद' यह संज्ञा कैसे है उत्तर सोलह सौ चौतीस करोड, तेरासी लाख अठहत्तर सौ अठासी (१६३४-३००) अक्षरोंको लेकर द्रव्य श्रुतका एक पद होता है। इन अक्षरोसे उत्पन्न हुआ भाव श्रुत भी उपचारसे 'पद' ऐसा कहा जाता है । पदज्ञान दे० श्रुतज्ञान/11
पवन
सर्वधन दे० गणित /11/५/
पदविभागी आलोचना - दे० आलोचना /१ । पदविभागी समाचार-३० मार पदसमासज्ञान दे० श्रुतज्ञान / II पवस्यध्यान र जनादिके अक्षर या
हीं' आदि बीज
मन्त्र अथवा पचपरमेष्ठीके वाचक मन्त्र अथवा अन्य मन्त्रोको यथा विधि कमलोंपर स्थापित करके अपने नाभि हृदय आदि स्थानों में चिन्तवन करना पदस्थ ध्यान है। इससे ध्याताका उपयोग स्थिर होता है और अभ्यास हो जानेपर अन्तमें परमध्यानकी सिद्धि होती है ।
१. पदस्थध्यानका लक्षण
द्र. सं / टी / ४८/२०५ में उद्धृत - पदस्थं मन्त्रवाक्यस्थं । -मन्त्र वाक्यों में जो स्थित है वह 'पदस्थध्यान' है ( प. प्र./टी./१/६/६ पर उधृत ); (भा. पा./टी./८६/२३६ पर उद्धृत ) । ज्ञा./२९/१ पदान्यवलम्ब प्रयानि योगिभिधीयते। सत्पदस्थ मतं ध्यानं विचित्रनयपारगैः |१| जिसको योगीश्वर पवित्र मन्त्रोंके अक्षर स्वरूप पदोंका अवलम्बन करके चिन्तवन करते हैं, उसको नयोंके पार पहुँचने वाले योगीश्वरोंने पदस्थ ध्यान कहा है |१|
४६४ माइज्ज उच्चरिऊन परमेट्ठिमंतपयमनसं । एक्रादि निविपयत्यमा मुणेय 1४६४| एक अक्षरको आदि लेकर अनेक प्रकार के पंच परमेष्ठी वाचक पवित्र मन्त्रपदका उच्चारण करके जो ध्यान किया जाता है उसे पदस्थ ध्यान जानना चाहिए |४६४ | ( गुण, श्रा./२३२) (द्र सं मू./४६/२०७ ) 1
द्र. सं /टी./५०-५५ की पावनिका- 'पदस्थध्यान ध्येय भूत मर्ह त्सर्वज्ञस्वरूप दर्शयामीति - पदस्थध्यानके ध्येय जो भी अहंत सर्वज्ञ हैं उनके स्वरूपको दिखाता है (इसी प्रकार गाधा२१ आदिकी पातनिकामैं सिद्धादि परमेष्ठियोंके लिए कही है।) नोट- पंचपरमेष्ठी रूप ध्येय दे०-ध्येय ।
२. पदस्थ ध्यानके योग्य मूलमन्त्रोंका निर्देश
१. एकाक्षरी मन्त्र १. ' (२३) (प्र. सं./टी. ४) २. प्रथम मा./३०/३९) (प्र.सं./टी./४१) १ अनाहत
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पदस्थध्यान
पदस्थध्यान
मन्त्र है' (ज्ञा /१८/७-८)। ४. माया वर्ण 'ही' (ज्ञा./३८/६७)। ५. 'भवी' (ज्ञा /३८/८१)। ६ 'स्त्री' (ज्ञा /३८/१०)। २.दो अक्षरीमन्त्र-१. 'अहं' (म.पु./२१/२३१), (वसु. श्रा/४६५), (गुण, श्रा/२३३); (ज्ञा सा/२१), (आत्मप्रबोध/११८-११६) (त. अनु./१०१)। २ 'सिद्ध' (ज्ञा./३८/५२) (द्र स /टी./४६)। ३ चार अक्षरी मन्त्र-'अरहंत' (ज्ञा /३८/५१) (द. स /टी/४६)। ४ पंचाक्षरी मन्त्र-१ 'अ सि. आ उ सा.' (वसु श्री /४६६), (गु श्रा/२३४) (त अनु/१०२), (द्र सं/टी./४६) २ ॐ ह्रा ही ह.होह, अ.सि, आ, उ.सा नम (ज्ञा ३८/५५)। ३. 'णमो सिद्धाग' या 'नमः सिद्धेभ्य' (म पु/२१/२३३), (ज्ञा./ ३८/६२)। ५. छ अक्षरी मन्त्र--१. 'बरहंतसिद्ध' (ज्ञा /३८/५०) (इ.स/टी./४६) । २ बर्हद्भ्यो नम (म. पु/२१/२३२) । ३ ॐ नमो अहंते' (ज्ञा,/३८/६३)। ४. 'अहंभ्य, नमोऽस्तु', ॐ नम सिद्धेभ्य' या 'नमो अर्ह सिद्धेभ्य' (त अनु /भाषा/१०८) ६ सप्ताक्षरी मन्त्र-१. णमो अरहताणं' (ज्ञा./३८/४०,६५,८५), (त. अनु /१०४) ।२.नम सर्व सिद्धेभ्यः (ज्ञा./३८/११०) १७. अष्टाक्षरी मन्त्र-'नमोऽईत्परमेष्ठिने' (म पु/२१/२३४) ८ १३ अक्षरी मन्त्रअर्हतसिद्धसयोगकेवली स्वाहा (ज्ञा /३८/५८)।६, १६ अक्षरी मन्त्र'अह सिद्धाचार्योपाध्यायसाधुभ्यो नम' (म. पु./२१/२३५), (ज्ञा। ३८/४८); (द्र.स/टी/४१)। १०.३५ अक्षरी मन्त्र- णमो अरहंताण, णमो सिद्धाण, णमो आइरीयाणं, णमो उवज्झायाण, णमो लोए सबसाहणं (द्र, स./टी/४६)।
५. ध्येयभूत वर्णमातृका व उसकी कमलोंमें स्थापना विधि ज्ञा /३८/२ अकारादि १६ स्वर और ककारादि ३३ व्यंजनपूर्ण मातृका है। ( इनमें 'अ' या 'स्वर' ये दोनो तो १६ स्वरोके प्रतिनिधि है। क.च,ट,त.प, ये पाँच अक्षर कवर्गादि पाँच वर्गों के प्रतिनिधि है। य और श' ये दोनो क्रमसे य,र,ल,व चतुष्क और श,ष,स,ह चतुष्क के प्रतिनिधि है। १ चतुदल कमलमें १६ स्वरोंके प्रतीक रूपसे कर्णिकापर 'अ' और चारो पत्तोंपर 'इ,उ,ए,ओ' की स्थापना करे । ( त अनु /१०३)२, अष्टदल कमलके पत्तोपर 'य,र,ल,व,श,ष,सह' इन आठ अक्षरोंकी स्थापना करें। (ज्ञा /३०/) २. कर्णिकापर 'अह' और आठौं पत्तोपर स्वर व व्यंजनोके प्रतीक रूपसे 'स्वर, क, च,ट.त.प.य,श,' इन आठ अक्षरोकी स्थापना करें। (त.अनु./१०५१०६१३ १६ दल कमलके पत्तोंपर 'अ,आ, आदि १६ स्वरोकी स्थापना करे । (ज्ञा /३८/३) ४ २४ दल कमलकी कणिका तथा २४ पत्तोपर क्रमसे 'क' से लेकर 'म' २५ वर्णों की स्थापना करे। (ज्ञा./ ३८/४)।
३. पदस्थध्यानके योग्य अन्य मन्त्रोंका निर्देश १. ॐ ह्री श्री अहं नम ' (ज्ञा /३८/६०)। २ ह्री ॐ ॐ ही हंस (ज्ञा /३८/८१)। ३ चत्तारि मगलं । अरहन्त गल सिद्धमगल। साहुमगल । केवलिपण्णत्तो धम्मो मगलं । चत्तारि लोगुत्तमा । अरहन्त लोत्तमा। सिद्ध लागुत्तमा। साहु लोगुत्तमा। केवलि पण्णत्तो धम्मो लोगुत्तमा। चत्तारि सरण पव्वज्जामि । अरहंत सरण पबज्जामि । सिद्धसरणं पवजामि। साहुसरणं पब्बजामि। केवलिपण्णत्तो धम्मो सरणं पनजामि (ज्ञा ३८/५७)। ४. ॐ जोग्गे मग्गे तच्चे भूदे भव्वे भविस्से अक्खे पक्रने जिणपारिस्से स्वाहा' (ज्ञा./३८/६१) ५. ॐ ह्री स्वह नमो नमोऽहंताण ही नम' (ज्ञा./३८/६१) ६. पापभक्षिणी मन्त्र-ॐ अर्हन्मुखकमलवासिनो पापात्मक्षयकरिश्रुतज्ञानज्वालासहसप्रज्वलिते सरस्वति मत्पाप हन हन दह दह क्षा क्षी संक्षी क्षक्षीरवरधवले अमृतसंभवे व बहू हूँ स्वाहा । (ज्ञा / ३८/१०४)। ज्ञा./३८/१११ इसी प्रकार अन्य भी अनेको मन्त्र होते है, जिन्हे द्वादशागसे जानना चाहिए।
१. मन्त्रों व कमलोंकी शरीरके अंगोंमें स्थापना दे.ध्यान/३/३ (शरीरमें ध्यानके आश्रयभूत १० स्थान हैं-नेत्र, कान, नासिकाका अग्रभाग, ललाट, मुख, नाभि, मस्तक, हृदय, ताल्लु और भौहे। इनमेसे किसी एक या अधिक स्थानोमे अपने ध्येयको स्थापित करना चाहिए । यथाज्ञा /२८/१०८-१०६ नाभिपङ्कजसलीनमवर्ण विश्वतोमुखम् ।१०८। सिवर्ण मस्तकाम्भोजे साकार मुखपङ्कजे। आकारं कण्ठकबस्थे स्मरोकार हृदि स्थितम् ।१०६/- पचाक्षरी मन्त्रके 'अ' को नाभिकमलमे 'सि' को मस्तक कमल में, 'आ' को कण्ठस्थ कमलमें, 'उ' का हृदयकमलमें,
और 'सा' को मुखस्थ कमल में स्थापित करे। त अनु./१०४ सप्ताक्षरं महामन्त्रं मुख-रन्धषु सप्तम् । गुरूपदेशतो ध्यायेदिच्छत् दूरश्रवादिकम् ।१०४।-सप्ताक्षरी मन्त्र (णमो अरहंताणं) के अवरोको क्रमसे दोनो आँखों, दोनों कानों, नासिकाके दोनों छिद्रों व जिह्वा इन सात स्थानोंमें स्थापित करें। ७. मन्त्रों व वर्णमातृकाकी ध्यान विधि १. अनाहत मन्त्र ('हे' ) की ध्यान विधि ज्ञा /३८/१०१६-२१,२८ कनककमलगर्भ कर्णिकायां निषण्णं विगतमलकलडू सान्द्रचन्द्रशुगौरम्। गगनमनुसरन्तं संचरन्तं हरित्यु. स्मर जिनवरकल्प मन्त्रराजं यतीन्द्र ॥१०॥ स्फुरन्तं भ्रलतामध्ये विशन्त बदनाम्बुजे । तालुरन्ध्रण गच्छन्त सवन्तममृताम्बुभि ।१६। स्फुरन्त नेत्रपत्रेषु कुर्वन्तमलके स्थितिम् । भ्रमन्तं ज्योतिषां चक्रे स्पर्द्धमानं सिताशुना ।१७। संचरन्तं दिशामास्ये प्रोच्छलन्तं नभस्तले। छेदयन्तं कलङ्कीर्घ स्फोटयन्तं भवभ्रमम् ।१८अनन्यशरण' साक्षात्तत्सलोनैकमानस' । तथा स्मरत्यसौ ध्यानी यथा स्वप्नेऽपि न सवलेत ।२०। इति मत्वा स्थिरीभूतं सर्वावस्थासु सर्वथा । नासाग्रे निश्चलं धत्ते यदि वा भ्रूलतान्तरे ।२१ क्रमात्प्रच्याव्य लक्ष्येभ्यस्ततोऽलक्ष्ये स्थिर मन । दधतोऽस्य स्फुरत्यन्तोतिरत्यक्षमक्षयम् ।२८-हे मुनीन्द्र । सुवर्णमय कमलके मध्य में कर्णिकापर विराजमान, मल तथा कलङ्कसे रहित, शरद-ऋतुके पूर्ण चन्द्रमाकी किरणोंके समान गौरवर्ण के धारक, आकाशमें गमन करते हुए तथा दिशाओमें व्याप्त होते हुए ऐसे श्री जिनेन्द्र के सदृश इस मन्त्रराजका स्मरण करें ।१०। धैर्यका धारक योगी कुम्भक प्राणायामसे इस मन्त्रराजको भौहकी लताओंमें स्फुरायमान होता हुआ, मुख कमलमें प्रवेश करता हुआ, तालुआके
४.मूल मन्त्रोंकी कमलों में स्थापना विधि १. सुवर्ण कमलकी मध्य कणिकामें अनाहत ( है ) की स्थापना करके
उसका स्मरण करना चाहिए । (/३८/१०)।२ चतुदल कमलकी कर्णिकामें 'अ' तथा चारो पत्तोपर क्रमसे 'सि.आ उ.सा.' की स्थापना करके पचाक्षरी मन्त्रका चिन्तवन करें। (वसु.श्रा./४६६) ३. अष्टदल कमल पर कणिकामें 'अ' चारो दिशाओवाले पत्तोपर 'सि.आ. उसा,' तथा विदिशाओवाले पत्तोपर दर्शन, ज्ञान, चारित्र व तपके प्रतीक 'द,ज्ञा,चा,त' की स्थापना करे । (वस.श्रा./४६७-४६८) (गुण, श्रा./२३५-२३६)।२. अथवा इन सब वर्गों के स्थानपर णमो अरहन्ताण आदि पूरे मन्त्र तथा सम्यग्दर्शनाय नम , सम्यग्ज्ञानाय नम' आदि पूरे नाम लिखे । (ज्ञा /३८/३६-४०) ३. कर्णिकामें 'अहं' तथा पत्र लेखाओपर पचनमोकार मन्त्रके वलय स्थापित करके चिम्तवन करे (वसु.श्रा,/४७०-४७१); (गु.श्रा /२३८-२३६ ) ।
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पदानुसारि द्धि
पदस्थध्यान
५. आत्मा व अष्टाक्षरी मन्त्रको ध्यान विधि ज्ञा /३८-६५-६६ दिग्दलाष्टकसंपूर्ण राजीवे सुप्रतिष्ठितम् । स्मरत्वात्मानमत्यन्तस्फुरद्ग्रीष्मार्कभास्करम् ।१५। प्रणवाद्यस्य मन्त्रस्य पूर्वादिषु प्रदक्षिणम् । विचिन्तयति पत्रेषु वर्ण कैकमनुक्रमाद ।६। अधिकृत्य छद पूर्व सर्वाशासंमुख परम् । स्मरक्ष्यष्टाक्षर मन्त्रं सहस के शताधिकम् ।१७) प्रत्यहं प्रतिपत्रेषु महेन्द्राशाद्यनुक्रमाव। अष्टरानं जपेद्योगी प्रसन्नामलमानस १८-आठ दिशा सम्बन्धी आठ पत्रोसे पूर्णकमलमें भले प्रकार स्थापित और अत्यन्त स्फुरायमान ग्रीष्मऋतुके सूर्यके समान देदीप्यमान आत्माको स्मरण करें ।।५। प्रणव है आदिमें जिसके ऐसे मन्त्रको पूर्वादिक दिशाओमें प्रदक्षिणारूप एक एक पत्र पर अनुक्रमसे एक एक अक्षरका चिन्तबन करै वे अक्षर ॐ णमो अरहताणं' ये है ।६। इनमेसे प्रथम पत्रको मुख्य करके, सर्व दिशाओके सम्मुख होकर इस अष्टाक्षर मन्त्रको ग्यारह सै बार चिन्तवन करै ।१७। इस प्रकार प्रतिदिन प्रत्येक पत्रमे पूर्व दिशादिकके अनुक्रमसे आठ रात्रि पर्यन्त प्रसन्न होकर जपै ।। ६. अन्तमें आत्माका ध्यान करे ज्ञा /३८/११६ विलीनाशेषकर्माण स्फुरन्तमतिनिर्मलम् । स्वं ततः पुरुषाकारंवाङ्गगर्भगतं स्मरेत ।११६ =मन्त्रपदोके अभ्यासके पश्चाव विलय हुए है समस्त कर्म जिसमे ऐसे अतिनिर्मल स्फुरायमान अपने आत्माको अपने शरीरमें चितवन करै ।११६।
छिद्रसे गमन करता हुआ, तथा अमृतमय जलसे भरता हुआ ॥१६॥ नेत्रकी पलकोपर स्फुरायमान होता हुआ, केशोमें स्थिति करता तथा ज्योतिषियोके समूहमे भ्रमता हुआ, चन्द्रमाके साथ स्पर्द्धा करता हुआ।१७। दिशाओमे स चरता हुआ, आकाशमे उछलता हुआ, कलं कके समूहको छेदता हुआ, संसारके भ्रमको दूर करता हुआ ।१८। तथा परम स्थानको (मोक्ष स्थानको) प्राप्त करता हुआ, मोक्ष लक्ष्मीसे मिलाप करता हुआ ध्याय १६॥ ध्यान करनेवाला इस मन्त्राधिपको अन्य किसीकी शरण न लेकर, इसहीमे साक्षाद तल्लीन मन करके, स्वप्नमें भी इस मन्त्रसे च्युत न हो ऐसा दृढ होकर ध्या ।२०। ऐसे पूर्वोक्त प्रकार महामन्त्रके ध्यानके विधानको जानकर, मुनि समस्त अवस्थाओमें स्थिर स्वरूप सर्वथा नासिकाके अग्रभागमें अथवा भौहलताके मध्यमे इसको निश्चल धारण करै ।२१। तत्पश्चात क्रमसे (लखने योग्य वस्तुओसे) छडाकर अलक्ष्यमे अपने मनको धारण करते हुए ध्यानीके अन्तरंगमें अक्षय तथा इन्द्रियोके अगोचर ज्योति अर्थात ज्ञान प्रकट होता है ।२८। (ज्ञा./२६/८२/८३) (विशेष दे. ज्ञा./सर्ग २१)। २. प्रणव मन्त्रकी ध्यान विधि ज्ञा./३८/३३-३५ हुत्कजकर्णिकासीनं स्वरव्यञ्जनवेष्टितम्। स्फीतमत्यन्तदुर्द्धर्ष देवदै त्येन्द्रपूजितम् ।३३। प्रक्षरन्मूनिसंक्रान्तचन्द्रलेखामृतप्लुतम्। महाप्रभावसंपन्न कर्मकक्षहुताशनम् ॥३४॥ महातत्त्वं महाबीजं महामन्त्र महत्पदम् । शरच्चन्द्रनिभं ध्यानी कुम्भकेन विचिन्तयेत् ॥३॥ - ध्यान करनेवाला संयमी हृदय कमलकी कणिकामें स्थिर और स्वर व्यञ्जन अक्षरोंसे बेढा हुआ, उज्ज्वल, अत्यन्त दुर्धर्ष, देव और दैत्योके इन्द्रोंसे पूजित तथा झरते हुए मस्तकमे स्थित चन्द्रमाकी (लेखा) रेखाके अमृतमे आदित, महाप्रभाव सम्पन्न, कर्म रूपी वनको दग्ध करनेके लिए अग्नि समान ऐसे इस महातत्त्व, महाबीज, महामन्त्र महापदस्वरूप तथा शरद्के चन्द्रमाके समान गौर वर्ण के धारक 'ओं' को कुम्भक प्राणायामसे चिन्तवन करे ।३३-३।। ३. मायाक्षर ( ह्रीं) की ध्यान विधि झा./३८/६८-७० स्फुरन्तमतिस्फीतं प्रभामण्डलमध्यगम्। संचरन्तं मुखाम्भोजे तिष्ठन्तं कर्णिकोपरि ६८। भ्रमन्तं प्रतिपत्रेषु चरन्तं वियति क्षणे । छेदयन्तं मनोध्वान्त सबन्तममृताम्बुभिः ६६ वजन्तं तालुरन्ध्र ण स्फुरन्त भूलतान्तरे । ज्योतिर्मयमिवाचिन्यप्रभावं भावयेन्मुनि' ७-मायांबीज 'ह्रीं' अक्षरको स्फुरायमान होता हुआ, अत्यन्त उज्ज्वल प्रभामण्डलके मध्य प्राप्त हुआ, कभी पूर्वोक्त मुखस्थ कमल में संचरता हुआ तथा कभी-कभी उसकी कणिकाके ऊपरि तिष्ठता हुआ, तथा कभी-कभी उस कमलके आठों दलोंपर फिरता हुआ तथा कभी-कभी क्षण भरमें आकाशमें चलता हुआ, मनके अज्ञान अन्धकारको दूर करता हुआ, अमृतमयी जलसे चूता हुआ तथा तालुआके छिद्रसे गमन करता हुआ तथा भौहोंकी लताओंमें स्फुरायमान होता हुआ, ज्योतिर्मयके समान अचिन्त्य है प्रभाव जिसका ऐसे माया वर्ण का चिन्तवन करे।
४. प्रणव, शून्य व अनाहत इन तीन अक्षरोंकी ध्यान विधि ज्ञा /३८/८६-८७ यदत्र प्रणवं शून्यमनाहतमिति त्रयम् । एतदेव विदु' प्राज्ञास्त्रैलोक्यतिलकोत्तमम् ।६। नासाग्रदेशसंलीनं कुर्वन्नत्यन्तनिर्मलम् । ध्याता ज्ञानमवाप्नोति प्राप्य पूर्व गुणाष्टकम् ।८७= प्रणव
और शून्य तथा अनाहत ये तीन अक्षर हैं, इनको बुद्धिमानोंने तीन लोकके तिलकके समान कहा है।६। इन तीनोंको नासिकाके अन भागमें अत्यन्त लीन करता हुआ ध्यानी अणिमा महिमा आदिक आठ ऋद्धियोको प्राप्त होकर, तत्पश्चाव अति निर्मल केवलज्ञानको प्राप्त होता है ।
८. धूम ज्वाला आदिका दीखना ज्ञा /३/७४-७७ ततो निरन्तराभ्यासान्मासै षड्भि स्थिराशयः । मुखरन्धाद्विनिर्यान्तीं धूमवर्ति प्रपश्यति ।७४॥ ततसंवत्सरं यावत्तथेवाभ्यस्यते यदि । प्रपश्यति महाज्वालां नि सरन्ती मुखोदराव ॥७॥ ततोऽतिजातसंवेगो निर्वेदालम्बितो वशी। ध्यायन्पश्यत्यविश्रान्त सर्वज्ञमुखपङ्कजम् ।७६। अथाप्रतिहतानन्दप्रोणितात्मा जितश्रम. । श्रीमत्सर्वज्ञदेवेशं प्रत्यक्षमिव वीक्षते ।७७) -तत्पश्चात वह ध्यानी स्थिरचित्त होकर, निरन्तर अभ्यास करनेपर छह महीनेमे अपने मुखसे निकली हुई धूयेको बतिका देखता है ।७४ यदि एक वर्ष पर्यन्त उसी प्रकार अभ्यास करै तो मुखमेंसे निकलती हुई महाग्निकी ज्वालाको देखता है ।७५। तत्पश्चात अतिशय उत्पन्न हुआ है धर्मानुराग जिसके ऐसा वैराग्यावल बित जितेन्द्रिय मुनि निरन्तर ध्यान करता-करता सर्वज्ञके मुख कमलको देखता है ।७६। यहाँसे आगे वही ध्यानी अनिवारित आनन्दसे तृप्त है आत्मा जिसका और जीता है दुख जिसने ऐसा होकर, श्रीमत्सर्वज्ञदेवको प्रत्यक्ष अवलोकन करता है ७७१
९. पदस्थ ध्यानका फल व महिमा ज्ञा /२८/श्लोक न. अनाहत 'हके ध्यानसे इष्टकी सिद्धि ।२२। ऋद्धि, ऐश्वर्य, आज्ञाकी प्राप्ति तथा ।२७। संसारका नाश होता है ।३०। प्रणव अक्षरका ध्यान गहरे सिन्दूरके वर्ण के समान अथवा मंगेके समान किया जाय तो मिले हुए जगत्को क्षोभित करता है।३६। तथा इस प्रणवको स्तम्भनके प्रयोगमे सुवर्ण के समान पीला चितवन कर और द्वेषके प्रयोगमें कज्जलके समान काला तथा वश्यादि प्रयोगमें रक्त वर्ण और कर्मोके नाश करने में चन्द्रमाके समान श्वेतवर्ण ध्यान करै ।३७१ मायाक्षर ह्रौंके ध्यानसे--लोकाग्र स्थान प्राप्त होता है।८० प्रणव, अनाहत व शून्य ये तीन अक्षर तिहू लोकके तिलक
है।८६। इनके ध्यानसे केवलज्ञान प्रगट होता है । 'ॐ णमो __अरहन्ताणं' का आठ रात्रि ध्यान करनेसे क्रूर जीव जन्तु भयभीत
हो अफ्ना गर्व छोड देते है।। पदानुसारि ऋद्धि-दे० ऋद्धि/२ ।
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पदार्थ
पति
पदाथ-न्या, सू./२/२/६३/१४२ व्यक्त्याकृतिजातयस्तु पदार्थ १६३।
व्यक्ति', 'आकृति', और 'जाति' ये सब मिलकर पदका अर्थ (पदार्थ) होता है। न्या वि/टी /१/७/१४०/१५ अर्थोऽभिधेय' पदस्यार्थ' पदार्थ ।-अर्थ अर्थात अभिधेय। पदका अर्थ सो पदार्थ । (अर्थात सामान्य रूपसे जो कुछ भी शब्दका ज्ञान है वा शब्दका विषय है वह शब्द 'पदार्थ'
शब्दका वाच्य है। प्र. सा/त.प्र.३ इह किल य. कश्चन परिच्छिद्यमान पदार्थ स सर्व एव द्रव्यमय गुणात्मका" पर्यायात्मका। - इस विश्वमें जो जानने में आनेवाला पदार्थ है वह समस्त द्रव्यमय, गुणमय और पर्यायमय है।
१. नव पदार्थ निर्देश प. का./मू./१०८ जीवाजीबा भावा पुण्ण पावं च आसवं तेसिं । संघरणिज्जरबधो मोक्खो य हवति ते अट्ठा १०८। जीव और अजीब दो भाव ( अर्थात मूल पदार्थ ) तथा उन दोके पुण्य, पाप, बासव, सवर, निर्जरा, मध और मोक्ष वह (नव) पदार्थ है।१०८(गो,
जी./मू./६२१/१०७५); (द. पा /टी./१६/१८)। न, च, वृ/१६० जीवाइ सततच्च पण्णत्तं जे जहत्थरूवेण । चेवणवपयत्था सपुण्णपावा पुणो होति ।१६०१ -जीवादि सप्त तत्वोंको यथार्थ रूपसे कहा गया है, उन्हीं में पुण्य और पाप मिला देनेसे नव पदार्थ बन जाते है। * अन्य सम्बन्धित विषय १. नव पदार्थका विषय-दे० तत्त्व । २. नव पदार्थ श्रद्धानका सम्यग्दर्शनमें स्थान-दे० सम्यग्दर्शन/II ३. द्रव्यके अर्थ में पदार्थ-दे० द्रव्य । ४. शब्द अर्थ व शानरूप पदार्थ-दे० नय//४।
भिधानप्राभृतत्रयस्यापि बीजपदं सूचितमिति । - पुढवीजलतेयबार' इत्यादि गाथाओं और तीसरी गाथा 'णिक्कम्मा अठ्ठगुणा' के तीन पदोसे गुणस्थान, जीवसमास, पर्याप्ति, प्राण, सज्ञा, चौदह मार्गणा
और उपयोगोंसे इस प्रकार क्रमसे बीस प्ररूवणा कही है ।१० इत्यादि गाथामें कहा हुआ स्वरूप धवल, जयधवल और महाधवल प्रबन्ध नामक जो तीन सिद्धान्त ग्रन्थ हैं उनके बीजपदकी सूचना ग्रन्थकारने की है। 'सव्वे सुद्धा हु सुद्धणया' इस तृतीय गाथाके चौथे पादसे शुद्ध आत्म तत्त्वके प्रकाशक पचास्तिकाय, प्रवचनसार और समयसार इन तीनों प्राभृतौका बीजपद सूचित किया है। गो.जी./जी, प्र/२६६/६४६/२ अत्राहेतुवादरूपे आगमे हेतुवादस्यानधिकारात अहेतुवादरूप आगमविर्षे हेतुवादका अधिकार नाहीं। इहाँ तो जिनागम अनुसारि वस्तुका स्वरूप कहनेका अधिकार जानना। सू. पा./पं. जयचन्द/१५४/५ तहाँ सामान्य विशेषकरि सर्व पदार्थ निका निरूपण करिये है सो आगम रूप (पद्धति) है। बहुरि जहाँ एक
आत्मा ही के आश्रय निरूपण करिये सो अध्यात्म है। रहस्यपूर्ण चिट्ठी पं. टोडरमल-समयसारादि ग्रन्थ अध्यात्म है और
आगमकी चर्चा गोम्मटसारमें है। परमार्थ वनिका प, बनारसीदास-द्रव्य रूप तो पुद्गल (कों) के
परिणाम हैं, और भाव रूप पुद्गलाकार आत्माकी अशुद्ध परिणतिरूप परिणाम है। वह दोनों परिणाम आगमरूप स्था। द्रव्यरूप तो जीवत्व ( सामान्य) परिणाम है और भावरूप ज्ञान दर्शन, मुख, वीर्य आदि अनन्त गुण (विशेष) परिणाम है। यह दोनों परिणाम अध्यात्मरूप जानने ।
पद्धति-Method (ध,५/प्र. २७) पद्धति-पद्धतिका लक्षण क. पा. २/२.२२/१२६/१४/ सुत्तवित्तिविवरणाए पद्धईववएसादो। सूत्र
और वृत्ति इन दोनोका जो विवरण है, उसकी पद्धति संज्ञा है।
२. आगम व अध्यात्म पद्धतिमें अन्तर १. आगम व अध्यात्म सामान्यकी अपेक्षा का./ता वृ./१७३/२५६/११ अर्थ पदार्थानामभेदरत्नत्रयप्रतिपादकानामनुकूलं यत्र व्याख्यानं क्रियते तदध्यात्मशास्त्र भण्यते वीतरागसर्वज्ञप्रणीतषड्व्यादिसभ्यश्रद्धानज्ञानवताद्यनृष्ठानभेदरत्नत्रयस्वरूपं यत्र प्रतिपाद्यते तदागमशास्त्र भण्यते। जिसमें अभेद रत्नत्रयके प्रतिपादक अर्थ और पदार्थोंका व्याख्यान किया जाता है उसको अध्यात्म शास्त्र कहते हैं । वीतराग सर्वज्ञ प्रणीत छ' द्रव्यों बादिका सम्यश्रद्धान, सम्यकहान, तथा व्रतादिके अनुष्ठान रूप रत्नत्रयके स्वरूपका जिसमें प्रतिपादन किया जाता है उसको आगम
शास्त्र कहते हैं। अ. स.टी./१३/४०/६ पुढविजलतेउवाऊ इत्यादिगाथाद्वयेन, तृतीयगाथापदत्रयेण च "गुणजीवापज्जसी पाणासण्णा य मग्गणाओ या उबोगो विय कमसो बीस तु परूवणा भणिया ।" इति गाथा. प्रभृति कथितस्वरूपं धवलजयधवचमहाधवलप्रवन्धाभिधानसिमान्तत्रयबीजपदं सचितम् । "सव्वे सुद्धाहमुखणया" इति शुद्धारमतत्वप्रकाशकं तृतीयगाषाचतुपादेन पश्चास्तिकायप्रवचनसारसमयसारा
२.पंच भावोंकी अपेक्षा स. सा /ता वृ./३२०/४०८/२१ आगमभाषयौपशमिकक्षायोपशभिकक्षायिक भावत्रय भण्यते। अध्यात्मभाषया पुनः शुद्धारमाभिमुखपरिणाम शुद्धोपयोग इत्यादि पर्यायसंज्ञा लभते। आगम भाषासे औपशमिक, क्षायोपशमिक और क्षायिक तीन भाव कहे जाते हैं। और अध्यात्म भाषामें शुद्धारमाके अभिमुख परिणाम, वा शुद्धोपयोग इत्यादि पर्याय नामको प्राप्त होते हैं। (इ.सं./टी./४५/१९४) द्र सं./अधिकार २ की चूलिका/८४/४ आगमभाषया...भव्यत्वसंशस्य पारिणामिकभावस्य संबन्धिनी व्यक्तिर्भग्यते । अध्यात्मभाषया पुनर्द्रव्यशक्तिरूपशुद्धपारिणामिकभावविषये भावना भण्यते, पर्यायानामन्तरेण निर्विकल्पसमाधिर्वा शुद्धोपयोगादिकं वेति। -आगम भाषासे भव्यत्व संज्ञाधारक जीवके पारिणामिक भावसे सम्बन्ध रखनेवाली व्यक्ति कही जाती है और अध्यात्म भाषा द्वारा द्रव्य शक्ति रूप शुद्धभावके विषयमें भावना कहते हैं। अन्य पर्याय नामोसे इसी द्रव्य शक्ति रूप पारिणामिक भावकी भावनाको निर्विकल्पध्यान, तथा शुद्ध उपयोगादिक कहते है।
३. पंचलब्धिकी अपेक्षा पं.का /ता. म./१५१/२१७/१४ यदाय जीवः आगमभाषया कालादि
लधिरूपमध्यात्मभाषया शुद्धास्माभिमुखपरिणामरूपं स्वसंवेदनशान लभते तदा सरागसम्यग्दृष्टि स्वा. पराश्रितधर्मध्यानमहिरङ्गसहकारित्वेनानन्तज्ञानादिस्वरूपोऽहमित्यादिभावना - स्वरूपमात्माश्रित घHध्यानं प्राप्य आगमकथितक्रमेण शुक्लध्यानभनुभूय"भावमोक्षं प्राप्नोतीति। -जब यह जीव आगम भाषासे कालादि लम्धि रूप
और अध्यात्म भाषासे शुखात्माभिमुख परिणाम रूप स्व संबेदन ज्ञानको प्राप्त करता है तब सराग सम्यग्दृष्टि होकर पावित धर्मध्यानकी बहिरंग सहकारि कारण रूप जो 'अनन्त ज्ञानादि स्वरूप में हूँ इत्यादि भावना स्वरूप आत्माश्रित धर्मध्यानको प्राप्त करके बागम
बनेन विवाहकोष
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पद्धति
कथित कमसे शुभ्यानको अनुभव करते हुए अनमोलको प्राप्त करता है। (द्र.सं./टी./२७/९५/२ प्र.सं./टी./४१/१६२/९१ समवसरणे मानस्तन्यावसीकन मात्रादेवामभाषया दर्शनचारित्रमोहनी यो पक्षमक्षयज्ञेन ध्यारमभाषया स्वशुद्धा त्माभिमुखपरिणामस ज्ञेन च कालादिलब्धिविशेषेण मिध्यात्वं विलय गतं । - ( इन्द्रभूति जब) समवसरणमे गये तब मानस्तभके देखने मात्र से ही आगम-भाषा में दर्शन मोहनीय तथा चारित्र मोहनीयके क्षयोपशमसे और अध्यात्म भाषामें निज शुद्ध आत्माके सन्मुख परिणाम तथा कालादि लब्धियोके विशेषसे उनका मिथ्यात्व नष्ट हो गया (प्र.सं./टी./२५/९६४/६
४. सम्यग्दर्शनकी अपेक्षा
स. सा./ता.वृ./१४५/२०८/१० अध्यात्मभाषया शुद्धात्मभावना विना आगमभाषया तु वीतरागसम्यक्त्वं विना बतदानादिकं पुण्यबन्धकारणमेव न च मुक्तिकारणम् । अध्यात्म भाषामें शुद्धात्माकी भावनाके बिना और आगम भाषासे वीतराग सम्यक्त्वके बिना व्रत दानादिक पुण्यगंधके ही कारण है, मुसिके कारण नहीं। प्र. सं./टी./३८ / १५६/४
तथाध्यात्मभाषया
परमागमभाषया पञ्चविशतिमलरहिता निजशुद्धात्मोपावरुचिता सम्यवधानमेव मुस्येति विज्ञेयम्। परमागम भाषासे पच्चीस दोषोंसे रहित सम्यग्दर्शन और अध्यात्म भाषासे निज शुद्धात्मा ही उपादेय है, इस प्रकार जो रुचि है उस रूप सम्यक्त्वकी भावना हो मुख्य है। ऐसा जानना चाहिए।
५. ध्यानकी अपेक्षा
स. सा./ता.वृ./२१५/२१२/१३ (अध्यात्म भाषा) परमार्थशब्दाभि चेयं... शुद्धात्मस वित्तिलक्षणं परमागमभाषया वीतरागधर्मध्यानशुक्लध्यानस्वरूपम् । (अध्यात्म भाषासे) परमार्थ शब्दका वाच्य शुद्धा संवित्ति है लक्षण जिसका उसे ही परमागम भाषासे वीतराग धर्मध्यान और शुक्लध्यान कहते हैं। पं.का./ता.वृ./१२०/२१६/१० (अध्यात्मभाषा शुद्धात्मानुभूतिलक्षणनिर्विकल्पसमाधिसाध्यागमभाषया रागादिविकल्परहितसुध्यानसाध्ये वा । - ( अध्यात्म भाषासे) शुद्धात्मानुभूति है लक्षण जिसका ऐसी निर्मिक समाधि साध्य है, और आगम भाषासे रागादि विकल्परहित शुक्लध्यान साध्य है (प. प्र./टी./१/१२/१/२) प्र. सं./टी./ ४८/२०१,२०४ ध्यानस्य तावदागमभाषया विचित्रभेदाः २०१। बध्यात्मभावया पुन. सहजशुद्धपरमचैतन्यशालिनि निर्भरानन्दमाशिनि भगवति निजात्मन्यपादेयमुद्धि कृत्वा परचाद ज्ञानोऽहम् इत्यादिरूपमयन्तरधर्मानमुच्यते। तथैवमनि निर्विकल्पसमाधिलक्षण शुक्लध्यानमिति । - आगम भाषाके अनुसार ध्यानके नाना प्रकारके भेद हैं । २०१३... अध्यात्म भाषासे सहज-शुद्धपरम चैतन्यशाली तथा परिपूर्ण आनन्दका धारी भगवान् निजात्मा है, उसमें उपादेय बुद्धि करके, फिर 'मैं अनन्त ज्ञानका धारक हूँ' इत्यादि रूपसे अन्तरंग धर्मध्यान है। उसी प्रकार निज शुद्धात्मामे निर्विकल्प ध्यानरूप शुक्लध्यान है।
६. चारित्रको अपेक्षा
पं.का./ता.वृ./१०/२२०/१५ ध्यात्मभाषया निद्वारमसंवि नुचरणरूप परमागमभाषया वीतरागपरमसामायिकसंज्ञ स्वचरितं चरति अनुमति - (अध्यात्मभाषासे) निज शुद्धात्माकी संविति रूप अनुचरण स्वरूप, परमागम भाषासे वीतराग परम सामायिक नामके स्वचारित्रको चरता है, अनुभव करता है । पं.का./ता.वृ./१०२/२४४/१५ कोऽपि शुद्धात्मानमुपादेय कृत्या आगमभाषया मोक्षं वा व्रततपश्चरणादिकं करोति । -जो कोई (अध्याम
भा० ३-२
पद्मगुल्म
भाषा सुद्धाराको उपादेय करके आगम भाषासे मोक्षको आय करके व्रत तपश्चरणादिक करता है ।
३. सर्क व सिद्धान्त पद्धति अन्तर
सं./टी./४४/११/४ तर्काभिप्रायेण सचावलोकनदर्शनं व्याख्यासम् । सिद्धान्ताभिप्रायेण उत्तरज्ञानोत्पत्तिनिमित्तं यत् प्रयत्न तद्रूप यत् स्वस्यात्मन. परिच्छेदनमलो हर्शन भव्यते = तर्क के अभिप्राय से सत्तावलोकनदर्शनका व्याख्यान किया । सिद्धान्तके अभिप्राय से जागे होनेवाले ज्ञानकी उत्पत्ति के लिए प्रयत्न रूप जो आत्माका अवलोकन वह दर्शन कहलाता है ।
३. सं/टी./४४/१६२/३ तर्फे मुख्य कृष्णा परसमयव्याख्यानं स्थूलव्या ख्यानं सिद्धान्ते पुनः स्वसमयव्याख्यानं मुख्यवृत्त्या सूक्ष्मव्याख्यानम् । तर्क में मुख्यतासे अन्यमतों का व्याख्यान होता है । स्थूल अर्थात विस्तृत व्याख्यान होता है। सिद्धान्त में मुख्यता से निज समयका व्याख्यान है, सूक्ष्म व्याख्यान है ।
४. उपसर्ग व अपवाद व्याख्यानमें अन्तर पं.का./ता.वृ/१४६/२१२/१ सकलश्रुतधारिणा ध्यानं भवति तदुत्सर्गवचन, अपवादव्याख्याने तु पञ्चसमितित्रिगुप्तिप्रतिपादकश्रुतिपरिज्ञानमात्रेणेव केवलज्ञान जायते। नाराचसपथ महननेन ध्यानं भवति तदप्पुत्सर्गवचनं मायव्याख्यानं पुनरपूर्वादिगुणस्थानवर्तिना उपशमक्षपग्योयध्यानं सवपेक्षया से नियम. अपूर्वादधस्तनगुणस्थानेषु धर्मध्याने निषेधकं न भवति ।
सकल
तधारियोंको ध्यान होता है यह उत्सर्ग बचन है, अपवाद व्याख्यानसे सो पाच समिति और तीन गुप्तिको प्रतिपादन करनेवाले शास्त्र के ज्ञानसे भी केवलज्ञान होता है।... वज्रवृषभनाराच नामको प्रथम संहननसे ही ध्यान होता है यह उत्सर्ग वचन है । अपवाद रूप व्याख्यान से तो अपूर्वादि गुणस्थानवर्त्ती जीवोंके उपशम व क्षपक श्रेणी में जो शुक्लध्यान होता है उसकी अपेक्षा यह नियम है। अपूर्वकरण गुणस्थानसे नीचेके गुणस्थानों में धर्मध्यानका निषेध नहीं होता है (द्र.सं./टी./५०/२३२/६) ।
* चारों अनुयोगोंकी कथन पद्धतिमें अन्तर पद्धति टीका है परिशिष्ट - दे० अनुयोग / १ । पद्म- १. चर्तीकी नव निधियों एक-दे० कापुरुष २ २. अपरविदेहस्थ एक क्षेत्र-दे० लोक / ५ /२३. कालका एक प्रमाण - दे० गणित / I / १२४१४. प्वाँ बलदेव था । अपरनाम राम था- दे० राम । ५. व मलदेव था। अपरनाम बल था । दे० शलाकापुरुष / ३६. म. पू. /६६ / श्लोक नं. पूर्व भवनं २ में धोपुर नगरके राजा प्रजापाल थे (७३) । फिर अच्युत स्वर्ग में देव हुए (७४) । वर्तमान भव हवे चक्रवर्ती हुए। (अपरनाम महापद्म था (ह. पु. / २०/१४) । विशेष परिचय- दे० शलाकापुरुष / २ ।
पद्मकीर्ति-पासणाहचरिउ (अपभ्रंश) के रचयिता सेनसंधी भट्टारक। गुरु- जिनसेन । समय- शक १६६ (ई. १०७७) (ती./३/२०५) | पद्मकूट -- १. पूर्व विदेहस्थ एक वक्षारगिरि-वे० लोक /५/३२. पूर्व विदेहस्थ पद्मकूट महारका एक कूट-दे० लोक/५/४२ कुण्डलबर पर्व का एक कूट- दे० / १२४, रुपक पदस्थ एक कूट-३० लोक/२/१३५. विद्याभ गजदन्तस्थ एक कूट० लोक /२/४ | पद्मगुल्म-म. पु. / ५६ / श्लोक विदेह क्षेत्रस्थ वरस देशकी सीमा नगरीके राजा थे (२-३) । चन्दन नामक पुत्रको राज्य देकर दीक्षा धारण कर ली (१५-१६) । विपाकसूत्र तक सब अंगोंका अध्ययन किया तथा चिरकाल तक घोर तपश्चरण कर तीर्थ कर प्रकृतिका बन्ध किया ।
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पद्मदेव
पद्मरथ
तत्पश्चात आरण स्वर्गमें देव हुआ (१७-१८)। यह शीतलनाथ पद्मनंदि पंचविशतिका-आ० पद्मनन्दिा ई०११ का उत्तरार्ध) भगवानका पूर्वका दूसरा भव है-दे० तीर्थंकर।
द्वारा सस्कृत छन्दोंमे रचित गृहस्थधर्म प्ररूपक ग्रन्थ है। इसमें २५ पद्म(देव)-१पद्माकूट वक्षारपर स्थित पद्मकूटका रक्षक देव-दे० लोक/४ अधिकार तथा कुल ८०० श्लोक है। (तो/३/१२६-१४०)!
२ श्रद्धानवान् वक्षारपर स्थित पद्मकूटका रक्षक देव-दे० लोक५/४ ३. रम्यकक्षेत्रका नाभिगिरि-दे० लोक/५/३ ४. दक्षिण पुष्कराध द्वीपका रक्षक व्यन्तर देव-दे० व्यतर/४।
पद्मनाभ-भट्टारक गुणको ति के शिक्षा शिष्य, संस्कृत के अधिकृत ५. कुण्डल पर्वतस्थ रजतकूट का स्वामी नागेन्द्र देव-दे० लोक/४२२ ।
कवि । कृतियशोधर चम्ति । समय-ई. १४०५-१४२५ । पद्मनंदि-दिगम्बर जैन आम्नायमें पद्मनन्दि नामके अनेकों
(ती./४/५४). आचार्य हुए है। १. कुन्दकुन्दका अपर नाम (समय-वि० १८४
पद्मनाभ--म.पू./५४/श्लोक पूर्व धातकीखण्डमे मगलावतीदेशके २२६ (ई० १२७-१७६) । वे कुन्दकुन्द । जै०/२/८६) २. नन्दिसत्र के
रत्नसंचय नामक नगरके राजा कनकप्रभका पुत्र था (१२१-१३१)। देशीयगण में चैकाल्य योगी के शिष्य और कुलभूषण के गुरु थे।
अन्तमें दीक्षा धारण कर ली। तथा ग्यारह अगोका पारगामी हो प्रमेयकमल मात्तण्ड के कर्ता प्रभाचन्द्र न०४ इनके सहधर्मा तथा
तीर्थकर प्रकृतिका बन्ध किया। आयुके अन्तमे समाधिपूर्वक विद्या शिष्य थे। आमिद्धकरण तथा कौमारदेव इनके अपर नाम है।
वैजयन्त विमानमें अहमिन्द्र हुआ (१५८-१६२)। यह चन्द्रप्रभु समय-ई०१३०-१०५३ । (दे०इतिहास/७/५) । (पं.वि/प्र.२/AIN.
भगवान के पूर्व का दूसरा भव है-दे० चन्द्रप्रभ । Up.) के अनुसार इनका समय ई० ११८५-१२०३ है परन्तु ऐसा मानने से ये न तो प्रभाचन्द्र नं.४ (ई०६१०-१०२०) के सहधर्माठहरते है
पद्मनाभचरित्र-आ० शुभचन्द्र ( ई०१५१६-१५५६) द्वारा रचित और न ही माघनन्दि कोल्हापुरीय (ई० ११०८ ११६६) के दादा गुरु हो सिद्ध होते है। ३. काष्ठा संघ की गुर्वावलो के अनुसार आप
संस्कृत छन्दबद्धग्रन्थ । हेमचन्द्र के शिष्य और यश कीति के गुरु थे। समय-वि० १००५ (ई०६४८): (दे० इतिहास/७/८)। ४ नन्दिसघ देशीयगम में वीर- पद्मपुराण-पद्मपुराणनामके कई ग्रन्थ उपलब्ध है, सभी राम नन्दि के प्रशिष्य, बालनन्द के शिष्य और प्रमेयकमल मार्तण्ड के
रावणकी कथाके प्रतिपादक है।-१ आ. विमल सूरी (ई. श ४) कृत कर्ता प्रभाचन्द्र न ४ के दीक्षा गुरु थे। माघनन्दि के शिष्य श्री. ० अधिकारों में विभक्त ११८ सर्ग प्रमाण अपभ्र श काव्य । (ती./२/ नन्दि के लिये आपने 'जंबूदीव पण्णति' की रचना की थी। कृतिये- २४७)। २. श्रा कीर्तिधर (ई ६००) कृत 'रामकथा के आधार पर जबूदीव पण्णति, धम्म रसायण, प्राकृत पच सग्रह को वृत्ति (संस्कृत आ. रविषेण द्वारा ई ६७७ में रचित सस्कृत पाबद्ध 'पद्य चरित', टोका) । समय-लगभग ई०१७-१०४३ । (दे० इतिहास//५), जैन जो छः खण्डों तथा १२ पत्रों में विभक्त २०,००० श्लोक प्रमाण है। २/८४-८५.(ती०/३/११०)।५ आ० वीर नन्दि के दीक्षा शिष्य और (ती/२/१७६) ३. कवि स्वयम्भू (ई ७३८.८४०) कृत 'पउम चरिउ' शानाणे व रचयिता शुभचन्द के शिक्षा शिष्य । कृतिये-पम- नामक अपभ्रश काव्य, जो.सन्धियों में विभक्त १२००० श्लोक विशतिका (सम्कृत), चरण सार (प्राकृत), धम्मरसायण (प्राकृत)।
प्रमाण है। ती/४/६८)। ४ कवि रइधू (ई. १४००-१४७६) कृत समय-वि० श०, १२, ई०२० ११ का उत्तरार्ध । वि०१२३८ तथा
'परम चरिउ' नामक अपभ्रंश काव्य (सी./४/REE)|५. चन्द्र कीर्ति १२४२ के शिला लेखो में आपका उल्लेख आता है। जै०/२/६/१६२) भट्टारक (ई. १५६७) कृत 'पद्यपुराण'(ती./१/४४१)। (ती०१३/१२५. १२१)1६. विद्यदेव के शिष्य । समय-वि० १३७३ पद्मप्रभ-म.पु/१२/श्लोक धातकीखण्डके पूर्व विदेहमें वत्सकामें स्वर्गवास हुआ। अत वि० १६१५-१३७३ (ई. १२५८-१३१६)। देशकी सुसीमानगरीके अपराजित नामक राजा थे (२-३)। फिर (प वि/२८/AN Up), (जै /२/८६)। ७ शुभ चन्द्र अध्यात्मिक उपरिम प्रैवेयकके प्रीतिकरविमानमें अहमिन्द्र हुए (१२-१४)। के शिष्य । समय-ई १२६३-१३२३ । ८. लघु पद्यनन्दि नाम के वर्तमान भवमे छठे तीथकर हुए है। विशेष परिचय-दे० भट्टारक । कृतिये--निघण्टु वैद्यक श्रावकाचार, यत्याचार कतिकुण्ड
तीर्थकर ।। पार्श्वनाथ विधान, देव पूजा, रत्रय पूजा, अनन्त कथा, परमात्म- पद्मप्रभ-मलधारीदेव-बीरनन्दि के शिष्य । कृतिय-पार्श्वनाथ प्रकाश को टीका। समय-वि०१३६२ (ई०१३०१)। (जै०/२१८६), स्तोत्र, नियमसार टोका । समय-वि १२४२ में स्वर्गवास हुआ, अत: (पof०/०२८/A.N. Up), (पं०का०(१० २/५० पन्ना लाल)। वि श १३ का द्वि चरण (ई. १९४०-११४)। (जै./२/१९)3B १ शुभ चन्द्र अध्यात्मो के शिष्य । शुभ चन्द्र का स्वर्गवास वि. १२७० (ती/३/१४)। में हुआ।तदनुसार उनका समय - वि० १३५०-१३८० (ई १२६३ई १३२३) । (पंबि/प्र. २८/A.N.Up.) । १०. नन्दिसंघ बनानार
पद्ममाल-१, सौधर्मस्वर्गका २३वों पटल-दे० स्वर्ग/१/३:२. गण को दिल्ली गददी की गुचिली के अनुसार आप प्रभाचन्द्रन .
सौधर्मस्त्रर्गके २३चे पटलका इन्द्रक-दे० स्वर्ग।। के शिष्य तथा देवेन्द्र को तिने सकल कीर्तिके गुरु थे। ब्राह्मण कुल में एत्मन्म हुए थे। गिरनार पर्वत पर इनका श्वेताम्मरों के साथ विवाद चला था जिसमें इन्होंने ब्राह्मी देवी अथवा सरस्वती की मूर्ति को
पद्मरथ-१. म पु/६०/श्लोक न घातकीखण्डमें अरिष्ट नगरीका बाचाल कर दिया था (शुभचन्द्र कृत पाण्डव पुराण श्ल १४ तथा
राजा था (२-३) । धनरथ पुत्रको राज्य देकर दीक्षित हो गया। शुभचन्द्र को गुर्वावलो श्ल ६३)। (रत्ननन्दि कृत उपदेश तर गिनी
तथा ग्यारह अगोका पाठी हो तीर्थकर प्रकृतिका बन्ध किया पृ १४८)। कृतियें जीरापल्ली पार्श्वनाथ स्तोत्र, भाना पद्धति.
(११)। अन्तमें सल्लेखना पूर्वक मरणकर अच्युत स्वर्ग में इन्द्रपद
प्राप्त किया (१२) यह अनन्तनाथ भगवात्का दूसरा पूर्वभव हैअनन्तव्रत कथा, वर्दमान चरित्र । समय-वि १४५० में इन्होंने
दे० अनन्तनाथ । २ ह.पु/२०/ श्लोक न 'हस्तिनापुरमें महापद्म चक्रआदि माथ भगवान की प्रतिमा स्थापित कराई थी। अत वि.
वर्तीका पुत्र तथा विष्णुकुमारका बड़ा भाई था (१४)। इन्होंने ही १३८५-१४५० । ई. १३२८-१३६६) । (जै /२/२९१). (ती /३/२२२)।
सिंहबल राजाको पकड लानेसे प्रसन्न होकर बलि आदि मन्त्रियोंको
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पद्मलेश्या
परघातनामकर्म
वर दिया था (१७) । इसी वरके रूपमें बलि आदि मन्त्रियोने सात दिनका राज्य लेकर अकम्पनाचार्यादि सात सौ मुनियोपर उपसर्ग
किया था ( २२)। पद्मलेश्या-दे० लेश्या। पद्मवान्-१. अपर विदेहस्थ एक क्षेत्र-दे० लोक/७ । २. विकृतवान् वक्षारका एक कूट-दे० लोक/७ । ३. पद्मवान् कूटका रक्षक देव ।
दे० लोक/७। पद्मसिंह-ध्यानविषयक ज्ञानसार ग्रन्थके रचयिता एक मुनि।।
समय-वि.१०६६ (ई०१०२६) (त,अनु०/१०६ का भावार्थ प० युगलकिशोर) (ती०/३/२८८)। पद्मसन-१. म पु./५६/श्लोक पश्चिम धातकीखण्डमे रम्यकावती
देशके महानगरका राजा था (२-३)। दीक्षित होकर ११ अगोका पारगामी हो गया। तथा तीर्थकर प्रकृतिका बन्ध कर अन्तमे समाधिपूर्वक सहस्रार स्वर्ग में इन्द्रपद प्राप्त किया (८-१०)। यह विमलनाथ भगवानका पूर्वका दूसरा भव है-दे० विमलनाथ । २ पचस्तूपसघको गुर्वावलोके अनुसार (दे० इतिहास/२/१७) आप धवलाकार वीरसेन स्वामीके शिष्य थे। (म पु/प्र./३१/५०)। ३ पुन्नाटस घकी गुर्वावलोके अनुसार आप वीरवितके शिष्य तथा व्याघहस्तके गुरु थे।-दे० इतिहास/५/१८ । पद्महद-हिमवान् पर्वतस्थ एक ह्रद । जिसमेंसे गंगा, सिन्धु व रोहितास्या ये तीन नदियाँ निकलती है। श्रीदेवी इसमें निवास
करती हैं-दे० लोक/३/81 पद्मांग-कालका एक प्रमाणविशेष-दे० गणित/I/११४ । पद्मा-रुचक पर्वत निवासिनी दिक कुमारी देवी-दे० लोक/९/१३। पगाल-विजयार्धकी उत्तर श्रेणीका नगर-दे० विद्याधर । पद्मावत विद्य त्प्रभ गज़दन्तस्थ एक कूट-दे० लोक/५/४। पद्मावती-१. विदेहस्थ रम्य का क्षेत्रकी मुख्य नगरीदे० लोक५/२.२. म.पु.७३/श्लोक अपने पूर्वभव सर्पिणीकी पर्यायमें कमठके आँठवे उत्तर भव महीपाल द्वारा लक्कडके जलानेपर मारी गयी (१०१-१०३)। परन्तु पार्श्वनाथ भगवानके उपदेशसे शान्तभावपूर्वक मरण करनेसे पद्मावती बनी (११८-११६)। इसीने भगवान पार्श्वनाथका उपसर्ग निवारण किया था (१३६-१४१)।
अत. यह पार्श्वनाथ भगवान की शासक यक्षिणी है-दे० यक्ष। पद्मावती कल्प-मक्लिषेण भट्टारक (ई. श १०कृत तान्त्रिक ग्रन्थ। पद्मासन-दे० आसन। पद्मोत्तर-१. भद्रशाल वनस्थ एक दिग्गजेन्द्र पर्वत-दे.लोक/१/३; २ कुण्डल पर्वतस्थ रजतप्रभ कूटका स्वामी नागेन्द्रदेव-दे.लोकश१२, ३. रुचक पर्वतके नन्द्यावर्त कूटपर रहनेवाला देव-दे०लोक/१३४.म पु./१८/श्लोक पुष्करार्धद्वीपके वत्सकावती देशमे रत्नपुर नगरका राजा था (२)। दीक्षित होकर ११ अंगोका पारगामी हो गया। तीर्थकर प्रकृतिका बन्ध कर आयुके अन्तमें संन्यासपूर्वक मरणकर महाशुक्र स्वर्गमें उत्पन्न हुआ (११-१३)। यह वासुपूज्य भगवान्का दूसरा
पूर्वभव है-दे० वासुपूज्य। पनसा-भरतक्षेत्रस्थ आर्यखण्डकी एक नदी-दे० मनुष्य/।। पन्नालाल-आप संघो गोत्री एक पण्डित थे। पं० सदासुखदासजीके आप शिष्य थे। रत्नचन्द्रजी वैद्य दूनीवालेके पुत्र थे । कृतियाँ१. राजवार्तिककी भाषावचनिका, २, उत्तरपुराणकी भाषावचनिकाः ३-२७००० श्लोकप्रमाण विद्वद्जन बोधक, ४. सरस्वती पूजा आदि। प० सदासुखदासजी (ई०१७६५-१८६७)के अनुसार
आपका समय-ई० १७७०-१८४०आता है। (अर्थ प्रकाशिका/प्र.५॥ पं पन्नालाल ), (र.क. श्रा./प्र. २४/५० परमानन्द)। परपरा-१. व्यवहारनिश्चयका परम्परा कारण है। -दे० नय, धर्म आदि वह वह विषय । २. आचार्य परम्परा-दे० इतिहास/४; ३. आगम परम्परा-दे० इतिहास/६ । परंपरा बंध-दे०बंधा। परंपराश्रय हेत्वाभास-दे० अन्योन्याश्रय। परंपरोपनिधा-दे० श्रेणी। पर-रा. वा/२/३७/१/१४७/२९ परशब्दोऽयमनेकार्थवचन' । क्वचिद्वयवस्थाया वर्तते-यथा पूर्व' पर इति । क्वचिदन्यार्थे वर्तते-यथा परपुत्र' परभार्येति अन्यपुत्रोऽन्यभार्येति गम्यते । क्वचित्प्राधान्ये वर्तते-यथा परमियं कन्या अस्मिन्कुटुम्बे प्रधानमिति गम्यते। क्वचिदिष्टार्थे वर्तते-यथा परंघाम गत इष्टं धाम गत इत्यर्थः। रा. वा./३/६/७/१६७/१७ परोत्कृष्टेति पर्यायौ।७।-पर शब्दके अनेक
अर्थ है जैसे-१, कही पर व्यवस्था अर्थमें वर्तता है जैसे-पहला, पिछला। २. कही पर भिन्न अर्थ में वर्तता है जैसे-'परपुत्र', 'परभार्या'। इससे 'अन्यका पुत्र', व 'अन्यकी स्त्री' ऐसा ज्ञान होता है । ३. कही पर प्राधान्य अर्थमे वर्तता है जैसे-इस कुटुम्बमें यह कन्या पर है। यहाँ 'प्रधान है' ऐसा ज्ञान होता है। ४ कहीं पर इष्ट अर्थ में वर्तता है जैसे-'परंधाम गत' अर्थात् अपने इष्ट स्थानपर गया ऐसा ज्ञान होता है । ५. पर और उत्कृष्ट ये पर्यायवाची नाम है। (प.प्र./ टी./१/२४/२६/८). स्या. म./४/१८/२७ परत्वं चान्यत्वं तच्चैकान्तभेदाविनाभावि । स्या. मं/२७/३०५/२७ परशब्दो हि शत्रुपर्यायोऽप्यस्ति । परत्व शब्द
एकान्तभेदका अविनाभावी है। इसका अर्थ अन्यपना होता है। 'पर'शब्द शत्रुशब्दका पर्यायवाची है। 4. ध /उ /३१७ स्वापूर्थि द्वयोरेव ग्राहक ज्ञानमेकश' ३६७। - ज्ञान
युगपत स्व और अपूर्व अर्थात् पर दोनों ही अर्थोका ग्राहक है। परकृति-न्या. सू./टी/२/१/६३/१०१/४ अन्यकतृ कस्य व्याहतस्य विधेर्वाद. परकृति । हुत्वा वपामेवाग्रेऽभिधाग्यन्ति अथ पृषदाज्य तदुह चरकाध्वर्यव' पृषदाज्यमेवाग्रेऽभिधारयन्ति "अग्ने प्राणा' पृषदाउस्तोममित्येवमभिदधतीत्येवादि। -जो वाक्य मनुष्योके कर्मोमें परस्पर विरोध दिखावे उसे 'परकृति' कहते है। जैसे-कोई तो वपाको स वे में रखकर प्रणीता में डालते है और कोई घृतको र वासे से प्रणीतामें डालते है, और उनकी प्रशंसा करते है।
परगणानुपस्थापना प्रायश्चित्त-दे० परिहारप्रायश्चित्त । परघातनामकर्म-स. सि./८/११/१/४ यन्निमित्त' परशस्त्रादेाघातस्तत्परघातनाम। -जिसके उदयसे परशस्त्रादिकका निमित्त पाकर व्याघात होता है, वह परघात नामकर्म है। (रा वा।
८/११/१४/५७८/३); (गो, क./जी, प्र./३३/२६/१६) ध,६/१,६-१,२८/५६/७ परेषां घात' परघात.। जस्स कम्मस्स उदएण परघाददू सरीरे पोग्गला णिप्फज्जति त कम्मं परघाद णाम । तं जहा-सप्पदाढासु विसं, विच्छियपुंछे परदुखहेउपोग्गलोवचओ, सिंह-वग्घच्छवलादिसु णहद ता, सि गिवच्चणाहीधत्तरादओ च परघादुप्पायया । = पर जीवोके घातको परघात कहते है। जिस कर्मके उदयसे शरीरमें परको घात करनेके कारणभूत पुद्गल निष्पन्न होते है, वह परघात नामकर्म कहलाता है। (ध./१३/५,५,१०१/३६४/१३) जैसे-सॉपकी दाढोमें विष, बिच्छूकी पूछमें पर दुखके कारणभूत पुद्गलोका संचय, सिंह, व्याघ्र और छवल ( शबल-चीता ) आदिमें (तीक्ष्ण ) नख और दन्त तथा सिगी, वत्स्यनाभि और धतूरा आदि विषैले वृक्ष परको दुख उत्पन्न करनेवाले है।
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परचतुष्टय
परम
* परघात प्रकृतिकी बन्ध उदय सत्त्व प्ररूपणा तथा
तत्सम्बन्धी शंका समाधान-दे. वह वह नाम । परचतुष्टय-दे० चतुष्टय । परचारित्र-दे० चारित्र/१ । परतन्त्रवाद
१. मिथ्या एकान्तकी अपेक्षा श्वेताश्वतरोपनिषद्/१२ काल स्वभावो नियतिर्यदृच्छाभूतानि यानि
पुरुषेति चित्तम् । सयोग एषा न त्वात्मभावादात्माप्यनीश सुखदुखहेतु।२। - आत्माको यह सुख व दुख स्वय भोगनेसे नहीं होते, अपितु काल, स्वभाव, नियति. यदृच्छा, पृथ्वी आदि चार भूत, योनिस्थान, पुरुष व चित्त इन नौ बातोके संयोगसे होता है, क्योंकि आत्मा दु ख-सुख भोगनेमें स्वतन्त्र नही है। २ सम्यगेकान्तको अपेक्षा प्र. सा (त. प्र/परि./नय नं० २६, ३४ अस्वभावनयेनायस्कारनिशिततीक्ष्णविशिखवत्सस्कारसार्थक्यकारि ।२६। ईश्वरनयेन धात्रीहटावलेह्यमानपान्थबालकवत्पारतन्त्र्यभोक्त १३४. आत्मद्रव्य अस्वभावनयसे सस्कारको सार्थक करनेवाला है ( अर्थात आत्माको अस्वभावनयसे संस्कार उपयोगी है), जिसकी (स्वभावसे नोक नहीं होती, किन्तु सस्कार करके ) लुहारके द्वारा नोक निकाली गयी हो ऐसे पैने बाणकी भॉति ।२६। आत्मद्रव्य ईश्वरनयसे परतन्त्रता भोगनेवाला है, धायकी दुकानपर पिलाये जानेवाले राहगीरके बालककी भॉति। * उपादान कारणकी भी कथंचित् परतन्त्रता
-दे० कारण/II/३। परत्वापरत्व-वै, द./७/२/२२/२५०/३ एकदिक्काभ्यामेककालाभ्यो सनिकृष्टविनकृष्टाभ्या परमपर च २१- परत्व और अपरत्व दो प्रकारसे होते है। एक देशसम्बन्धसे दूसरे कालसम्बन्धसे ।
( स सि./३/२२/२६२/१०)। रा. वा./५/२२/२२/४८११२३ क्षेत्रप्रशसाकाल निमित्ते परत्वापरत्वे। तत्र
क्षेत्रनिमित्ते तावदाकाशप्रदेशासपबहूत्वापेक्षे। एकस्यां दिशि महनाकाशप्रदेशानतीत्य स्थित पर', तत' अल्पानतीत्य स्थितोऽपरः । प्रशंसाकृते अहिसादिप्रशस्तगुणयोगात् परो धर्म:, तद्विपरीतोऽधर्मोऽपर, इति । कालहेतुके शतवर्ष पर, षोडशवर्षोऽपर इति। - १. परत्व और अपरत्व क्षेत्रकृत भी है जैसे-दूरवर्ती पदार्थ 'पर'
और समीपवर्ती पदार्थ 'अपर' कहा जाता है। २ गुणकृत भी होते है जैसे अहिसा आदि प्रशस्तगुणोके कारण धर्म 'पर' और अधर्म 'अपर' कहा जाता है। ३. कालकृत भी होते है जैसे-सौ वर्षवाला
वृद्ध 'पर' और सोलह वर्षका कुमार 'अपर' कहा जाता है। परद्रव्य-मो पा./मू १७ आदसहावादण्णं सश्चित्ताचित्तमिस्सियं हवइ । त परदव्वं भणिय अस्तित्व सम्बदरसोहि ।१७- आत्म स्वभावसे अन्य जो कुछ सचित्त (स्त्री, पुत्रादिक) अचित्त (धन, धान्यादिक ) मिश्र ( आभूषण सहित मनुष्यादिक ) होता है, वह सर्व परद्रव्य है । ऐसा सर्वज्ञ भगवान्ने सत्यार्थ कहा है।१७. प.प्र./मू./९/११३ जे णियदव्ब भिण्णु जड से पर-दव्यु वियाणि ।
पुग्गलु धम्माधम्मु गहु कालु वि पंचमु जाणि १११३॥ प.प्र./टी./२/१०/२२७/२ रागाविभावकर्म-शानावरणादिव्यकर्म शरी
रादिनोकर्म च बहिविषये मिथ्यात्वरागादिपरिणतासंवतजनोऽपि परद्रव्यं भण्यते।
प प्र./टी./२/११०/२२८/१४ अपध्यानपरिणाम एव परसंसर्गः।-जो
आत्म पदार्थसे जुदा जडपदार्थ है, उसे परद्रव्य जानो। और वह परद्रव्य पुद्गल, धर्म, अधर्म, आकाश और पाँचवॉ कालद्रव्य ये सब परद्रव्य जानो ।११३। अन्दरके विकार रागादि भावकम और बाहरके शरीरादि नोकर्म तथा मिथ्यात्व व रागादिसे परिणत असंयत जन भी परद्रव्य कहे जाते है ।१०। वास्तव मे अपध्यान रूप परिणाम ही परसंसर्ग (द्रव्य ) है ।११०॥ परनिमित्त-दे० निमित्त/१। परभविक प्रकृतियाँ-दे० प्रकृति अध/२। परम
१. पारिणामिकभावके अर्थमें न च वृ./३४७-३५६ अस्थित्ताइसहावा सुसंठिया जत्थ सामणविसेसा ।
अवरुप्परमविरुद्धा तं णियतच्चं हवे परमं ।३५७। होऊण जत्थ णट्ठा होसंति पुणोऽवि जत्थपज्जाया। बटुंता वति हु तं णियतच्चं हवे परमं ।३१८ णासतो वि ण णट्टो उप्पण्णो णेव संभव जंतो। सतो तियालविसये तं णियतच्चं हवे परमं ।३५९ - जहाँ सामान्य और विशेषरूप अस्तित्वादि स्वभाव स्व ब पर की अपेक्षा विधि निषेध रूपसे अविरुद्ध स्थित रहते है, उसे निज परमतत्त्व या वस्तुका स्वभाव कहते है ।३५७। जहाँ पूर्वकी पर्याय नष्ट हो गयी है तथा भावी पर्याय उत्पन्न होवेगी. और वर्तमान पर्याय वर्त रही है, उसे परम निजतत्त्व कहते है ।३५८जो नष्ट होते हुए भी नष्ट नही होता
और उत्पन्न होते हुए भी उत्पन्न नही होता, ऐसा त्रिकाल विषयक जीब परम निजतत्त्व है। आ. ५/६ पारिणामिकभावप्रधानत्वेन परमस्वभाव. । वस्तुमें पारि
णामिक भावप्रधान होनेसे वह परमस्वभाव कहलाता है। नि.सा /ता वृ./११० पारिणामिकभावस्वभावेन परमस्वभाव... स पञ्चम भाव' . उदयोदीरणक्षयक्षयोपशमविविधविकारविवर्जित। अतः कारणादस्यैकस्य परमत्वम् इतरेषां चतुर्णा विभावानामपरमस्वर। -(भव्यको) पारिणामिक भावरूप स्वभाव होनेके कारण परमस्वभाव है। वह पंचमभाव उदय, उदीरणा, क्षय, क्षयोपशम ऐसे विविध विकारोसे रहित है। इस कारणसे इस एकको परमपना प्राप्त है, शेष चार विभावोंको अपरमपना है।
२. शुद्धके अर्थमें पं. का./ता. वृ./१०४/१६/१६ परमानन्दज्ञानादिगुणाधारत्वात्परशम्बेन
मोक्षोभण्यते। परम आनन्द तथा ज्ञानादि गुणोंका आधार होनेसे
से 'पर' शब्दके द्वारा मोक्ष कहा जाता है। प.प्र./टी./१/१३/२१ परमो भावकमद्रव्यकर्म नोर्मरहितः। -परम
अर्थात् भावकर्म, द्रव्यकर्म व नोकर्म से रहित । द. सं./टी./४६/५/'परम' परमोपेक्षालक्षणं. 'शुद्धोपयोगाविनाभूतं
परमं 'सम्माचारित' सम्यक्चारित्रं ज्ञातव्यम् । -'परम' परम उपेक्षा लक्षणवाला (संसार, शरीर असंयमादिमें अनादर) तथा... शुबोपयोगका अविनाभूत उत्कृष्ट 'सम्मचारित्त' सम्यग्चारित्र जानना चाहिए। ३. ज्येष्ठ व उत्कृष्टके अर्थमें घ.१/४,१,३४४९/६ परमो ज्येष्ठ.। -परम शब्दका अर्थ ज्येष्ठ है। घ. १३/ ६/३२३/३ किं परमम् । असंखेज्जलोगमेत्तसंयमवियप्पा ।
-यहाँ (परमावधिके प्रकरणमें) परम शब्दसे असंख्यात लोकमात्र संयमके विकल्प अभीष्ट है। मो. पा./टी./६/३०८/१८ परा उत्कृष्टा प्रत्यक्षलक्षणोपलक्षिता मा प्रमाण यस्येति परम. अथवा परेषा भव्यप्राणिनी उपकारिणी मा लक्ष्मी
बैनेन्द्र तिवादकोश
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१३
परमाणु
परम अद्वैत समवशरणविभूतिर्यस्येति परमः । = 'परा' अर्थात उस्कृष्ट और 'मा' अर्थात प्रत्यक्ष लक्षणसे उपलक्षित प्रमाण, ऐसा उत्कृष्ट प्रमाण (केवल
परमाणुके भेद व लक्षण तथा अस्तित्वकी ज्ञान) जिसके पाया जाये सो परम है-वे अहंत है। अथवा 'पर'
सिद्धि अर्थात अन्य जो भव्यप्राणी 'मा' अर्थात उनकी उपकार करनेवाली
परमार्थपरमाणु सामान्यका लक्षण । लक्ष्मी रूप समवसरण विभूति, यह जिसके पायी जाये ऐसे अहंत परम है।
क्षेत्रका प्रमाणविशेष। ४. एकार्थवाची नाम
परमाणुके भेद ।
(कारण कार्य परमाणुका लक्षण। न. च. वृ/४ तच्च तह परमठ्ठ दव्वसहावं तहेव परमपरं । धेयं सुद्ध परमं एयट्ठा हुंति अभिहाणा 1४1 -तत्त्व, परमार्थ, द्रव्यस्वभाव, पर,
जघन्य उत्कृष्ट परमाणुके लक्षण । अपर, ध्येय, शुद्ध और परम ये सब एक अर्थके वाचक हैं।४। ।
द्रव्य व भाव परमाणुके लक्षण । त. अनु /१३६ माध्यस्थ्यं समतोपेक्षा वैराग्य साम्यमस्पृहा । वैतृष्ण्यं
परमाणुके अस्तित्व सम्बन्धी शंका समाधान । परमः शान्तिरित्येकार्थोऽभिधीयते ॥१३॥ माध्यस्थ्य, समता,
आदि, मध्य, अन्तहीन भी उसका अस्तित्व है। उपेक्षा, वैराग्य, साम्य, अस्पृहा, बैतृष्ण्य, परम, और शान्ति ये सब
परमाणुमें स्पर्शादि गुणोंकी सिद्धि । एक ही अर्थको लिये हुए है ।१३।। परम अद्वत-निर्विकाप समाधिका अपरनाम-दे० मोक्षमार्ग/२/५ ।
परमाणु निर्देश परम एकत्व
परमाणु मूर्त है।
-दे. मूर्त । परषि -दे ऋषि।
वास्तवमें परमाणु ही पुद्गल द्रव्य है।
परमाणुमें जाति भेद नहीं है। परमगुरु-दे० गुरु/१।
सिद्धोंवत् परमाणु निष्क्रिय नहीं। परमज्योति-निर्विकल्प समाधिका अपरनाम दे० मोक्षमार्ग/२/५ ।
परमाणु अशब्द है। परमतत्त्व
परमाणुकी उत्पत्तिका कारण । परमतत्त्वज्ञान
परमाणुका लोकमें अवस्थान क्रम । परमधर्म-दे० धर्म।।
लोक स्थित परमाणुओंमें कुछ चलित है कुछ अचलित। परमध्यान-निर्विकल्प समाधिका अपरनाम दे० मोक्षमार्ग/२/11
अनन्त परमाणु आजतक अवस्थित हैं। परमब्रह्म
नित्य अवस्थित परमाणुओंका कथंचित् निषेध ।
परमाणुमें चार गुणकी पाँच पर्याय होती है। परमभावग्राहकनय-दे० नय/1V/
परमाणुकी सीधी व तिरछी दोनों प्रकारकी गति परमभेदज्ञान-निर्विकल्प समाधिका अपरनाम-दे० मोक्षमार्ग/
सम्भव है।
-दे० गति/१। परमविष्णु
परमाणुमें कथंचित् सावयव व निरवयवपना परमवीतरागता
परमाणु आदि, मध्य व अन्तहीन होता है। परमसमता
परमाणु अविभागी व एकप्रदेशी होता है। परमसमरसीभाव
अप्रदेशी या निरवयवपनेमें हेतु । परमसमाधि
परमाणुका आकार ।
सावयवपनेमें हेतु। परमस्वरूप
निरवयव व सावयवपनेका समन्वय । परमस्वास्थ्य
परमाणुमें परस्पर बन्ध सम्बन्धी। --दे० स्कंध/२। परमहंस
स्कन्धमें परमाणु परस्पर सर्वदेशेन स्पर्श करते हैं या परमाणु-पुदगल द्रव्यके अन्तिम छोटेसे छोटे भागको परमाणु
एकदेशेन ।
-दे० परमाणु/३।। कहते है। सूक्ष्मताका द्योतक होनेसे चेतनके निर्विकल्प सूक्ष्म भाव भी कदाचित परमाणु कह दिये जाते हैं। जैनदर्शनमें पृथिवी आदिके परमाणुओंमें कोई भेद नहीं है। सभी परमाणु स्पर्श, रस, गन्ध व वर्णवाले होते है। स्पर्श गुणकी हलकी, भारी या कठोर
१. परमाणुके भेद व लक्षण तथा उसके अस्तित्वको नरमरूप पर्याय परमाणुमें नहीं पायी जाती है, क्योंकि वह संयोगी
सिद्धि वण्यमें ही होनी सम्भव है। इनके परस्पर मिलनेसे ही पृथिवी आदि तत्त्वोंकी उत्पत्ति होती है। आदि, मध्म व अन्तकी कल्पनासे
1. परमार्थ परमाणु सामान्यका लक्षण प्रतीत होते हुए भी एकप्रदेशी होनेके कारण यह दिशाओंवाला ति. प./२/६६ सत्येण सुतिक्खेण छेत्तुं भेत्तुं च जं किरस्सक्कं । जलयणअनुमान करने में आता है।
लादिहि णासं प एदिसो होदि परमाणू।१६। -जो अत्यन्त तीक्ष्ण जैनेन्द्र सिद्धान्त कोष
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परमाणु
शस्त्रसे भी छेदा या भेदा नहीं जा सकता, तथा जल और अग्नि आदिके द्वारा नाशको प्राप्त नहीं होता, वह परमाणु है ॥६६॥ स.सि./.पू. प्रदिश्यन्त इति प्रवेशा परमाणवः (२/१८/९१२/६) प्रदेशमाभावस्पर्शादिसामर्थ्येनाण्यन्ते राज्यन्त इत्यणमः । (२/२३/२१०/३ ) - प्रदेश शब्द की व्युत्पति प्रदिश्यन्ते' होती है। इसका अर्थ परमाणु है । (२/३८) एक प्रदेशमें होनेवाले स्पर्शाद पर्यायको उत्पन्न करने की सामर्थ्य से जो 'अभ्यन्ते' अर्थाद कहे जाते हैं वे अणु कहलाते है। (मा./५/२३/२/४१२/१२) ज.प./११/१० जस्स न कोई अणुदरो सो अओ होदि सम्यदव्यानं जावे पर अणुत्त तं परमाणू मुणेयव्त्रा । १७ । - सब द्रव्योमें जिसकी अपेक्षा अन्य कोई अणुत्तर न हो वह अणु होता है। जिसमें अत्यन्त अणुत्व हो उसे सब द्रव्योमे परमाणु जानना चाहिए ११७१
२. क्षेत्रका प्रमाण विशेष
=
ज. प./१३/२१ अट्ठहि तेहि या सण्णासण्णहि तह य दव्वेहि । महारियपरमाणु गिट्ठिो सम्यदरिसीहि |११| आठ सन्नासन्न इसे एक व्यावहारिक परमाणु (त्रुटिरेगू होता है। ऐसा सर्व दर्शियोने कहा है (विशेष दे० गणित /I/१/३)
३. परमाणुके भेद
न च वृ / १०१ कारणरूवाणु कज्जरूवो वा । ११०१| परमाणु दो प्रकारका होता है -- कारण रूप और कार्यरूप । (नि. सा./ता.वृ./२५) प्र. सा./ता.वृ./८०/९३६/१८) ।
नि. सा./ता.वृ/२५
अणवश्चतुर्भेदा कार्यकारणजघन्यो
।
- अधुओं के (परमाणुओके) चार भेद हैं। कार्य. कारण, जवण्य और उत्कृष्ट |
पं.का./ता.वृ./१२/२२/१६ द्रव्यपरमाणु भावपरमाणुं परमाणु दो प्रकारका होता है- द्रव्य परमाणु और भाव परमाणु ।
४. कारण कार्य परमाणुका लक्षण
नि सा./मू./२५ घाउचउक्कस्स पुणो जं हेऊ कारणंति तं णेयो। धाणं अवसानो गायो कपरमाणू २१ फिर जो पृथ्वी,
तेज
और वायु इन चार धातुओंका हेतु है, वह कारण परमाणु जानना, स्कन्धों के अवसानको (पृथक हुए अभिभागी अन्तिम दशको कार्य परमाणु जानना |२५|
•
पं. का/ता.वृ./८०/११६/१७ मोसी कन्यानां भेदको अजित स कार्य परमारुच्यते यस्तु कारकरतेषां स कारणपरमाणुरिति धोके = स्कन्धो भेदको करनेवाला परमाणु तो कार्य परमाणु है और स्वाधोका निर्माण करनेवाला कारण परमाणु है। अर्थात स्कन्धके विघटनसे उत्पन्न होनेवाला कार्य परमाणु और जिन परमाणुओ के मिलने कोई क बने वे कारण परमाणु है ।
५. जघन्य व उत्कृष्ट परमाणुके लक्षण
नि. साता २५ यम्यपरमाणुः स्निग्वरूक्षगुणानामानन्याभावात् रामवियमन्ययोरयोग्य इत्यर्थः स्निग्धरूक्षगुणानामनन्यतरस्योपरि
चतुर्भिसंबन्ध त्रिभिः पचभिर्विषयमन्ध अधमुरकृष्टपरमाणु, । वही ( कारण परमाणु ), एक गुण स्निग्धता या रूक्षता होनेसे सम या विषम बन्धको अयोग्य ऐसा जघन्य परमाणु है - ऐसा अर्थ है। एक गुण स्निग्धता या रूक्षताके ऊपर दो गुणबाने और चार गुणवाका समय होता है, तथा तीन गुणालेका और पाँच गुणवाका विषम अन्य होता है- यह उत्कृष्ट परमाणु है।
१४
१. परमाणुके भेद व लक्षण
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६. द्रव्य व भाव परमाणुका लक्षण पं./१२/२११/२० इव्यपरमाणुशब्देन द्रव्यसूक्ष्मत्वं प्रा भावपरमाणुशब्देन च भावसूक्ष्मत्वं न च पुद्गलपरमाणु द्रव्यशब्देनान्यं प्राय तस्य तु परमाणु परमाणुरिति कोऽयं । रागाद्य ुपाधिरहिता सूक्ष्मावस्था । तस्या सूक्ष्मत्व कथमिति चेत् । समाधिविषयादिति द्रव्यपरमाणुशब्दस्य व्याख्यानं । भावशब्देन तु तस्यैवात्मद्रव्यस्य स्वसंवेदनज्ञानपरिणामो ग्राह्य तस्य भावस्य परमाणु' । परमागुरिति कोऽर्थ । रागादिविकल्परहिता सूक्ष्मावस्था । तस्था. सूक्ष्मत्व कथमिति चेत् । इन्द्रियमनोविकल्पाविषयादिति भावपरमाणुशन्दस्य व्याख्यानं ज्ञातव्यं । द्रव्यपरमायु द्रव्यकी सूक्ष्मता और भाव परमाणुले भावकी सूक्ष्मता कही गयी है। उसमें पुद्गल परमाणुका कथन नहीं है। द्रव्य शब्दसे आत्म द्रव्य ग्रहण करना चाहिए। उसका परमाणु अर्थात् रागादि उपाधिसे रहित उसकी सूक्ष्मावस्था, क्योंकि वह निर्विकल्प समाधिका विषय है। इस प्रकार द्रव्य परमाणु कहा गया। भाव शब्दसे उसही आत्म द्रव्यका स्वसंवेदन परिणाम ग्रहण करना चाहिए। उसके भावका परमाणु अर्थात रागादि विकल्प रहित सूक्ष्मावस्था, क्योकि वह इन्द्रिय और मनके विकल्पोंका विषय नही है। इस प्रकार भावपरमाणु शब्दका व्याख्यान जानना चाहिए। (१. प्र./टी./२/३३/१५३/२) ।
रा. या हि १/२७/०३२ भाग परमाणु क्षेत्रकी अपेक्षा तो एक प्रदेश है। व्यवहार कालका एक समय है । और भाव अपेक्षा एक अविभागी प्रतिच्छेद है। वहाँ पूगलके गुण अपेक्षा तो स्पर्श, रस, गन्ध, म के परिणमनका अंश लीजिए। जीवके गुण अपेक्षा ज्ञानका तथा कषायका अंश लीजिए। ऐसे द्रव्य परमाणु ( पुद्गल परमाणु ) भाव परमाणु ( किसी भी द्रव्य गुणका एक अविभागी प्रतिच्छेद) यथा सम्भव
समझना ।
७. परमाणुके अस्तित्व सम्बन्धी शंका समाधान रा. वा. अप्रदेशत्वादभव (परमाणु) खरविषाणयदिति चेदन उपर 121 प्रदेशमात्रोऽणुन सरवदे इति रा. वा५/२६४-१६४२/२३ कथं पुनस्तेषामशूनामत्यन्तपरोक्षाणाद अस्तित्वसीयत इति चेत् उच्यते तदस्ति कार्याद ||१| नास परमाणुषु शरीरेन्द्रियमहाभूतादिलक्षणस्य फार्मस्य प्रादुर्भाव इति । प्रश्न- अप्रदेशी होनेसे परमाणुका खरविषाणकी तरह अभाव है। उत्तर--नहीं, क्योकि पहले कहा जा चुका है कि परमाणु एक प्रदेशी हैन कि सर्वथा प्रदेश शून्य । प्रश्न - अत्यन्त परोक्ष उन परमाणुओंके अस्तित्वकी सिद्धि कैसे होती है। उत्तरकार्यfare कारणका अनुमान किया जाना सर्व सम्मत है। शरीर, इन्द्रिय और महाभूत आदि स्कन्ध रूप कार्योंसे परमाणुओंका अस्तित्व सिद्ध होता है। क्योकि परमाणुओंके अभाव में स्कन्ध रूप कार्य नहीं हो सकते।
घ. १४/५,६,७६/२७/२ परमापूर्णा परमाणुभावेण सक्ष्यकालमवणाभावादो
भाव दे ण पोरगलभावेन उप्पादविणासन ज्जिएग परमाणूर्ण पिदव्वत्तसिद्धीदो। =! प्रश्न- परमाणु सदाकाल परमाणु रूपसे अबस्थित नहीं रहते इसलिए उनमें द्रव्यपना नहीं बनता उत्तर- नहीं, क्योकि परमाणुओका पुद्गल रूपसे उत्पाद और विनाश नहीं होता इसलिए उनमें द्रव्यपना भी सिद्ध होता है ।
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८. आदि मध्य अन्तहीन भी उसका अस्तित्व है रावा./२/११/५/४६४/६ आदिमध्यान्तव्यपदेश परमाणोः स्वाद्वा न वा यचस्तिः प्रदेशवरवं प्राप्नोति अथ नास्ति खरविषाणयदस्याभावः स्यादिति तन्न कि कारण विज्ञानवत्। यथा विज्ञानमादिमध्यान्तव्यपदेशाभावेऽप्यस्ति तथाणुरपि इति । उत्तरत्र च तस्या
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परमाणु
स्तित्वं वक्ष्यते । = प्रश्न- परमाणु क्या आदि, मध्य, अन्त सहित है। यदि सहित है तो उसको प्रदेशीपना प्राप्त हो जायेगा। और यदि रहित है तो उसका खरविषाणकी तरह अभाव सिद्ध होता है । उत्तर-- ऐसा नही है, क्योकि जैसे- विज्ञानका आदि मध्य व अन्त व्यपदेश न होनेपर भी अस्तित्व है उसी तरह परमाणुमे भी आदि, मध्य और अन्त व्यवहार न होनेपर भी उसका अस्तित्व है। २. परमाणु स्पर्शादि गुणोंकी सिद्धि
रा. वा. / २ /२०/२/१३३ / १ सूक्ष्मेषु परमाण्वादिषु स्पर्शादिव्यवहारो न प्राप्नोति ने रोष सूक्ष्मेष्वपि स्पर्शादय सन्ति तत्कार्येषु स्थूलेषु दर्शनानुमीयमाना, न ह्यत्यन्तमसतां प्रादुर्भावोऽस्तीति । घ. १/१.१.२२/२३/६ किंतु इन्द्रियग्रहणयोग्या न भवन्ति । ग्रहणा
।
योग्याना कथं स व्यपदेश इति चेन्न, तस्य सर्वदायोग्यत्वाभावात् । परमा सर्वदा न प्रणयोग्याचेन्न तस्यैव स्थूलकार्याकारण परितो योग्यत्वसम्भा प्रश्न सुक्ष्म परमापुओं ने स्पर्शादिमें का व्यवहार नहीं बन सकता ( क्योकि उसमें स्पर्शन रूप क्रियाका अभाव है ' उत्तर - यह कोई दोष नहीं है, क्योंकि सूक्ष्म परमाणु आदिमे भी स्पर्शादि है, क्योंकि परमाणुओं के कार्यरूप पदार्थोंमें स्पर्शादि उपलब्धि देखी जाती है। तथा अनुमान भी किया जाता है, क्योकि जो अत्यन्त असत् होते है उनकी उत्पत्ति नहीं होती है । (प. १/१.१.२३/२४०/४) रन जबकि परमाणुओंमें रहनेवाला स्पर्श इन्द्रियोंके द्वारा ग्रहण नही किया जा सकता तो फिर उसे स्पर्श सज्ञा कैसे दी जा सकती है। उत्तर-नहीं, क्योंकि परमाणुगत पके इन्द्रियोंके द्वारा प्रश करनेको योग्यताका सरेन अभाव नही है। प्रश्न- परमाणु रहनेवाला स्पर्श इन्द्रियों द्वारा कभी भी शहरा करने योग्य नहीं है। उत्तर-नहीं, क्योंकि, जब परमाणु स्थूल रूपसे परिणत होते हैं, तब तद्गत धर्मोकी इन्द्रियों द्वारा ग्रहण करनेकी योग्यता पायी जाती है (अथवा उनमें रूढिके स्पर्शादिका व्यवहार होता है। ( रा वा /२/२० ) । व. का./त प्र. ७८ द्रव्यगुणयोरविभक्तप्रदेशत्वात य एव परमाणो प्रदेश, स एव स्पर्शस्य स एव रसस्य, स एव गन्धस्य, स एव रूपस्येति । तत' चिरमाण गन्धगुणे, स्वचिदन्योक्यचि गन्धरस रूपगुणेषु अपकृष्यमाणेषु अविभक्तप्रदेश परमाणुरेव विनश्यतोति । न तदपरूष युक्त। ततः पृथिव्यप्तेजोवायुरूपस्य धातुचतुष्कस्यैक एव परमाणुः कारणम् । द्रव्य और गुणके अभिन्न होनेसे जो परमायुका प्रदेश है नही स्पर्शका है, नहीं रखता है, वही गन्धका है, वही रूपा है। इसलिए किसी परमाशु गन्ध गुण कम हो, किसी परमाणु गन्धगुण और रसगुण कम हो, किसी परमाणुमे गन्धगुण, रसगुण और रूपगुण कम हो, तो उस गुणसे अभिन्न अप्रदेशी परमाणु ही विनष्ट हो जायेगा। इसलिए उस गुणको न्यूनता युक्त नहीं है। इसलिए धातु चतुष्कका एक परमाणु ही कारण है ।
२. परमाणु निर्देश
१. वास्तव में परमाणु ही पुद्गल द्रव्य है
१/१/११-१०० प्रति गलत जो पुरणपणेहिं पोराला ते परना जादा इस दिड दिवाद 1881 वण्णरसगंधफासे पूरणगलाइ सव्वकालम्हि । खदं पि व कुणमाणा परमाणू पुग्गला तम्हा |१००| = क्योंकि स्कन्धोंके समान परमाणु भी पूरते है, और गाते है, इसलिए पूरण गलन किवाओके रहने से वे भी पुहगतके अन्तर्गत है, ऐसा दृष्टिवाद अंग में निर्दिष्ट है। परमाणु स्कन्धकी तर सर्व वर्ण, रस, गन्ध और स्पर्श, इन गुणों पूरण गलनको किया करते हैं, इसलिए ही है। (इ.पू./०/३६), (पं.का./त.प्र./०६)।
.
१५
२. परमाणु निर्देश
रा. मा./४/१/२/२६/४३४/१६ स्वाम्यहम् अणून नियमात् पुरमगहनक्रियाभावात इति ततः कि कारण। गुगापेक्षया । रूपरसगन्धस्पर्शयुक्ता हि परमानव एकगुणरूपादिपरिणता. द्वित्रिचतुः- संख्येयाऽसंख्येयाऽनन्तगुणत्वेन वर्धन्ते, तथैव हानिम उपयतीति गुणापेक्षया पूरणगलन क्रियोपपते पर मावपि गमविरुद्ध अथवा गुण उपचारकम्पन पुरणनयी भाववाचकत्या परमाणु लोप
"
चार 1 अथवा पुमांसो जीवा तै शरीराहारविषयकरणोपकरणादिभावेन गिल्यन्त इति पुद्गला । अण्वादिषु तदभावादपुद्गलत्वमिति चेत्, उक्तोत्तरमेतत् । प्रश्न- अणुओके निरवयव होनेसे तथा उनमें पूरण गलन क्रियाका अभाव होनेसे पुद्गल व्यपदेशके अभावका प्रसंग आता है ? उत्तर- ऐसा नहीं है क्योकि, गुणोंकी अपेक्षा उसमें
गलपनेकी सिद्धि होती है। परमाणु रूप, रस, गन्ध, और स्पर्शसे युक्त होते हैं, और उनमें एक, दो, तीन, चार, संख्यात, असंख्यात वीर अनन्त गुणरूपसे हानि-वृद्धि होती रहती है। अतः उनमें भी पूरण- गलन व्यवहार माननेमें कोई बाधा नही है । अथवा पुरुष यानी जीव जिनको शरीर, आहार, विषय और इन्द्रिय उपकरण आदिके रूप में निगलें - ग्रहण करे वे पुद्गल है। परमाणु भी स्कन्ध दशामें जोबोके द्वारा निगले जाते ही है, (अत. परमाणु पुद्गल है | ) नच १०१ मुत्तो एयपदेखी कारणरूपोख पोग्गलदव्व खधा बवहारदो भणिया | १०११ = जो मूर्त है, एक प्रदेशी है, कारण रूप है तथा कार्य रूप भी है ऐसा अणु ही वास्तव में पुद्गल द्रव्य कहा गया है। स्कन्धको तो व्यवहारसे पुद्गल द्रव्य कहा है । (नि.सा./ता.वृ./२६) ।
२. परमाणु जातिभेद नहीं है
-
स.सि./१/३/२६६/८ सर्वेषां परमाणुना सर्वरूपादिकार्यत्याशियोग्यस्वाभ्युपगमात् न च विपार्थिवादिशातिविशेषयुक्त परमाणवः सन्ति, जातिसंकरे रम्भदर्शनात्। सम परमाणुओमे सब रूपादि जातिसंकरेणारम्भदर्शनात् गुणाले कार्योंके होनेकी योग्यता मानी है। कोई पार्थिव आदि भिन्न भिन्न जाति अलग-अलग परमाणु है यह बात नही है, क्योकि जातिका सकर होकर सब कार्योंका आरम्भ देखा जाता है।
३. सिद्धवत् परमाणु निष्क्रिय नहीं
-
पं. का./त. प्र. / जीवानां सक्रियत्वस्य बहिरङ्गसाधनं कर्मनो कर्मोपचयरूपा पुद्गला इति ते पुद्गलकरणा । तदभावान्नि क्रियत्वं सिद्धानाम् पुगलानां सक्रियस्य महरसाधन परिणाम निर्वतक काल इति ते कालकरणा । न च कर्मादीनामिव कालस्या - भान । रातो न सिद्धानामिव निष्क्रिय हुगलानामिति । जीवोंको सक्रियपनेका बहिरंग साधन कर्म नोकर्म के सचय रूप पुद्गल है; इसलिए जीव पुद्गलकरण वाले है । उसके अभाव के कारण सिद्धोको निष्क्रियपना है को सक्रियता महिरंग साधन परिणाम निष्पादक काल है; इसलिए पुद्गल कालकरण वाले हैं। कर्मादिककी भाँति काल ( द्रव्य ) का अभाव नहीं होता, इसलिए सिद्धोकी भाँति पुद्गलोंको निष्क्रियपना नही होता ।
४. परमाणु अशब्द है
ति, प / २ / ६७... सद्दकारणमसद्द । खदतरिदं दव्वं तं परमाणु भणति बुधा | ७| = जो स्वयं शब्द रूप न होकर भी शब्दका कारण हो एवं स्कन्धके अन्तर्गत हो ऐसे द्रव्यको परमाणु कहते हैं। (ह.पु./0/ (१२). (दे० मूर्त /२/९) ।
पं. का./त.प्र./ ७८ यथा च तस्य ( परमाणो ) परिणामवशादव्यक्तो गन्धादिगुणोऽस्तीति प्रतिज्ञायते न तथा शब्दोऽभ्यष्यन्तोऽस्तीति
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परमाणु
=
शास शक्यते तस्यैरूप्रदेशस्थानेकप्रदेशात्मकेन शब्देन सह विरोधदिति । जिस प्रकार परमाणुको परिणामके कारण अव्यक्त गन्धादि गुण है ऐसा ज्ञात होता है उसी प्रकार शब्द भी अव्यक्त है ऐसा नहीं जाना जा सकता, क्योंकि एक प्रदेशी परमाणुको अनेकप्रदेशारमक शब्द के साथ एकत्व ड्रोनेमें विरोध है ।
५. परमाणुको उत्पत्तिका कारण
घ. १४/५ ६ / सू. ६८-६६ / १२० वग्गणणिरुवणिदाए उमा एयपदेसियपरमाणुोग्गलदव्ववग्गणा णाम कि भेदेण किं सघादेण किं भेदसघादेण ह उवरिल्लीणं दव्वाणं भेदेण || = - प्रश्न- वर्गणा निरूपणकी अपेक्षा एक प्रदेशी परमाणु पुद्गल द्रव्य वर्षणा क्या भेदसे उत्पन्न होती हैं, क्या संघातसे होती है, या क्या भेद सघात से होती है। ६८ उत्तर = ऊपर के द्रव्योंके ( अर्थात् स्कन्धों के ) भेदसे उत्पन्न होती हैं। (त सू./५/२०) (स सि / ५ / २७/२६६/२) ( रा वा / ५२७] १/४६४ / १०) ।
६. परमाणुका छोकर्मे अवस्थान क्रम
त. सू./१/१४ एकप्रदेशादिषु भाज्य पुगलानाम् ॥१४ रा. वा. /५/१४/२/४५६ / ३२ तद्यथा - एकस्य परमाणोरेकत्रैव आकाशप्रदेशेऽवगाह, द्वयोरेकत्रोभयत्र च बद्धयोरबद्धयोश्च त्रयाणामेकत्र द्वयोस्त्रिषु च मद्वानामवद्धाना च । एवं संख्येयासंख्येयानन्तप्रदेशानां स्कन्धानामेकसंख्येयास ख्येयप्रदेशेषु लोकाकाशे अबस्थानं प्रत्येतव्यम् । = पुद्गलोंका अवगाह लोकाकाशके एकप्रदेश आदिमें विकल्पसे होता है | १४| यथा- एक परमाणुका एक ही आकाश प्रदेशमें अवगाह होता है, दो परमाणु यदि बद्ध हैं तो एक प्रदेशमें यदि अबद्ध है तो दो प्रदेशोंमें, तथा तीनका बद्ध और अबद्ध अवस्थामें एक दो और तीन प्रदेशोंमें अवगाह होता है। इसी प्रकार बन्धविशेषसे सख्यात असंख्यात और अनन्त प्रदेशी स्कन्धोंका लोकका एक संख्यात और असंख्यात प्रदेशोंमें अवगाह समझना चाहिए। (प्र.सा./त.प्र / १३६) |
७. ढोकस्थित परमाणुओंमें कुछ चकित है कुछ refer
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गो.जी./३/२०३२ पोलह असंखेनादि हवंति चलिदा हु । चरिममहधम्मिय चलाचला होंति पदेसा | पुद्गल द्रव्यविषै परमाणु अर द्वणुक आदि संख्यात असंख्यात अनन्त परमाणुहैं। बहुरि अन्तका महास्कन्धवि के पर माणू अचलित हैं, बहुरि केह परमाणू चलित हैं ते यथायोग्य चंचल हो हैं ।
८. अनन्तों परमाणु आज तक अवस्थित
घ. ६/१.१ १.२६/४६/६ एम-वे तिरिण समयाई काण उस्से मे दादि अनादि अपजनसिदसवे हागावद्वावमानोंका एक, दो, तीन समयको आदि करके उत्कर्षतः मेरु पर्वत आदिमें अनादि-अनन्त स्वरूपसे एक ही आकारका अवस्थान पाया जाता है।
घ. ४/१४.४/गा. ११/३२० बंधर जहुतहेदू सादियमध गादियं चावि १६ | [ अदीदकाले बि सव्जीवेहि सव्यपोग्गलमणं तिभागो सजीवरासीदो अनंतगुणो, सव्वजीवरासिउवरिमवग्गादो अनंतगुणहीण, पोग्गलपुंजो भुमिदो (६.४२/१.२४/३२६/२) - गल परमाणु सादि भी होते हैं, अनादि भी होते है और उभय रूप भी होते हैं |११| अतीत कालमें भी सर्व जीनोंके द्वारा सर्वलोका अगन्तम भाग, सर्व जीवराशिसे अनन्तगुणा, और सर्व जीवराशिके
३. परमाणुओंमें कथंचित् सावयव निरवयवमा
उपरिम वर्गसे अनन्तगुणहीन प्रमाणवाला पुद्गलपुज भोगकर छोडा गया है । ( अर्थात् शेषका पुद्गल पुज अनुपयुक्त है । ) श्लोमा/२/भाषा/१/३/१२/१४ ऐसे परमाणु अनन्त पड़े हुए हैं जो
तक स्कन्धरूप नहीं हुए और आगे भी न होवेंगे । ( श्लो वा. २ / भाषा / १/५/८-१०/१७३/१० ) ।
९. नित्य अवस्थित परमाणुओंका कथंचित् निषेध रा.वा./४/२५/१०/४६२/११ व चानादिपरमाणुर्नाम दिस्ति भेदादणु ( त सू / ५ / २७ ) इति वचनात् । =अनादि काल से अबतक परमाणुकी अवस्थामें ही रहनेवाला कोई अ नहीं है। क्योकि सूत्रमें स्कन्ध भेदपूर्वक परमाणुओं की उत्पत्ति बतायी है।
१०. परमाणुर्मे चार गुणोंकी पाँच पर्याय होती हैं पं.का./एमरसनगंध दो फार्स संघशरिद द परमाण त वियाणा हि । १= वह परमाणु एक रसवाला, एक वर्णवाला, एक गन्धवाला तथा दो स्पर्शवाला है। स्कन्धके भीतर हो तथापि द्रव्य है ऐसा जानो (ति प/२/१७) (न.च.वृ./१०२), (रा.वा./२/३/६/ २००/२६) (/७/१३) (म.पु. २४/१४० ) ।
रामा /५/२५/१२-१४/४१६/१८ एकरसन गन्धोऽशु. १३ द्विस्पर्शो... | १४ | कौ पुन' द्वौ स्पर्शो । शीतोष्णस्पर्शयोरन्यतर स्निग्धरूक्षयोरम्यतरथ एकप्रदेशत्वाद्वविरोधिनो युगपदनवस्थानम् गुरुलघुमृदुकठिनस्पर्शानां परमाणुष्वभाव, स्कन्धविषयत्वात् । परमाणुमें एक रस, एक गन्ध, और एक वर्ण है। तथा उसमें शोत और उष्णमेंसे कोई एक तथा स्निग्ध और रूक्षमें से कोई एक, इस तरह दो अविरोधी स्पर्श होते हैं। गुरु-लघु और मृदु व कठिन स्पर्श परमाणुमें नहीं गये जाते, क्योंकि वे स्कन्धके विषय है । (नि.सा./ता. . / २०) ।
३. परमाणुओंमें कथंचित् सावयव निरवयवपना १. परमाणु आदि, मध्य व अन्त हीन होता है नि.सा./मू./१६ अचादि अत्तम असं व ईदिए । अविभागी ॐ दम परमाणु बियाणाहि २६
नि. सा./ता.वृ./२६ यथा जीवानां नित्यानित्यनिगोश दिसिद्धक्षेत्रपर्यन्तस्थितानां सहजपरमपारिणामिकभावसमायेण सहजनिश्चयनयेन स्वस्वरूपादप्रच्यवनवत्त्वमुक्तम्, तथा परमाणुद्रव्याणां पञ्चमभावेन परमस्वभावत्वादात्मपरिणतेरामैवादि, मध्यो हि आरमपरिमतेरात्मैव, अन्तोऽपि स्वस्यात्मैव परमाणु स्वयं ही जिसका आदि है, स्वयं ही जिसका अन्त है ( अर्थात जिसके आदिमें, अन्तमें और मध्य में परमाणुका निज स्वरूप ही है) जो इन्द्रियोंसे ग्राह्य नहीं है और जो अविभागी है, वह परमाणु द्रव्य जान | २६ ( स.सि./५/ २५/२१० पर उद्धृत); (ति.प./१/१), (रा.वा./३/१८/६/२००/२५) (रा.वा./५/२५/१/४११/१४ में उधृत ); (ज.प./१३/१६ ): (गो.जी./ जी. प्र./५६४/१००६ पर उद्धृत ) जिस प्रकार सहज परम पारिणामिक भावकी विवक्षाका आश्रय करनेवाले सहज निश्चय नवकी अपेक्षासे fate और अनित्य निगोदसे लेकर सिद्ध क्षेत्र पर्यन्त विद्यमान जोनको निजस्वरूपसे अच्युतपना कहा गया है, उसी प्रकार पंचन भावकी अपेक्षासे परमाणु द्रव्यका परम स्वभाव होनेसे परमाणु स्वयं हो अपनी परिणतिका आदि है, स्वयं ही अपनी परिणतिका मध्य है और स्वयं ही अपनी परिणतिका अन्त भी है।
पं.
स.प्र./०८ परभानीहि मूर्तयनिबन्धनभूता परसगन्धन आवेशमात्रेणैव भिद्यन्तेः वस्तुतस्तु यथा तस्य स एव प्रवेश, आदिः, स एव मध्यं स एवान्तः इति मूर्तस्व कार
वर्ग का परमाणुसे आदेश मात्र द्वारा ही भेद किया जाता है:
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परमाणु
वस्तुत... परमाणुका वही प्रवेश आदि है वही मध्य, और नही प्रदेश अन्त है ।
२. परमाणु अविभागी व एकप्रदेशी होता है
त सू./५/११ नाणो । ११ = परमाणुके प्रदेश नहीं होते । ११ । प्र.सा./मू. १३७ •• अपदेसो परमाणू तेण पदेसुग्भवो भणिदो | १३७१ -परमाणु अप्रदेशी है, उसके द्वारा प्रदेशोद्भव कहा है । ( ति प /१/१८) पं.का./सू०० राख्ने सिधा जो तो संविधान परमाणु सो सस्सदो असो एक्को अविभागी मुत्तिभवो ॥७७॥ = सर्व स्कंधोंका अन्तिम भाग उसे परमाणु जानो । वह अविभागी, एक शाश्वत, मूर्तिभव और अशुद्ध है (नसा/२६) (वि.प./१/१८) (इ.पु १०/२२ )
पं.का./मू. ७५... परमाणू पेन अनिभानी 1981 विभागी वह सचमुच ७५ परमाणु है । (मु.आ./२३१); (वि.प./१/१५); ( ध.१३ / ५,१,१३ / गा. २/ १३) ।
३. अप्रदेशी या निरवयवपनेमें हेतु
स.सि./५/११/२७६/६ अणो' 'प्रदेशा न सन्ति ' इति वाक्यशेषः । कुतो न सन्तीति चेद प्रदेशमाप्रत्वात् यथा जाकाशप्रदेशस्यैकस्य प्रदेशभेदाभावादप्रदेशममेनमगोरपि प्रदेशमात्रत्वात देशभेदाभावः किंच ततोऽल्पपरिणामाभावात् । न ह्यणोररुपीयानन्योऽस्ति यतोऽस्य प्रदेशा भिद्यरत् । ( अत स्वयमेवाद्यन्तपरिणामत्वादप्रदेशोऽणु.... यदि ह्यणोरपि प्रदेशा' स्यु'; अणुत्वमस्य न स्यात् प्रदेशप्रचयरूपत्वास, प्रदेशानामेवात्वं प्रसज्येत (रा.बा.) - परमाणुके प्रदेश नहीं होते, यहाँ सन्ति यह मानव शेष है। प्रश्न-परमाणुके प्रदेश क्यों नहीं होते ? उत्तर-क्योंकि वह स्वयं एक प्रदेश मात्र है। जिस प्रकार एक आकाश प्रदेश में प्रदेशभेद न होनेसे वह अप्रदेशी माना गया है उसी प्रकार अणु स्वयं एक प्रदेश रूप है इसलिए उसमें प्रदेश भेद नहीं होता। दूसरे अणुसे अल्प परिमाण नहीं पाया जाता। ऐसी कोई अन्य वस्तु नहीं जो परमाणुसे छोटी हो जिससे इसके प्रदेश भेदको प्राप्त होवें । ( अतः स्वयमेव आदि और अन्त होनेसे परमाणु अप्रदेशी है । यदि अणुके भी प्रदेशप्रचय हो तो फिर वह अणु ही नहीं कहा जायेगा, किन्तु उसके प्रदेश अणु कहे जायेंगे। (राजा./५/११/ १-३/४/२९) ।
ह. पु /७/३४-३५ नाशङ्कयानार्थतत्त्वज्ञेर्न भोंशानां समन्ततः । षट्केन युगपद्योगात्परमाणो षडराता | १४ | स्वल्पाका षडंशाश्च परमाणुश्च संहता । सप्तांशाः स्यु' कुतस्तु स्यात्परमाणो षडं शता । ३५। - तत्त्वज्ञोंके द्वारा यह आशंका नहीं होनी चाहिए कि सब ओरसे आकाशके छह अंशोंके साथ सम्बन्ध होनेसे परमाणुमें षडराता है | ३४ | क्योंकि ऐसा माननेवर आकाशके छोटे-छोटे वह वंश और एक परमायु सभ मिलकर मादा हो जाते हैं। अब परमाणु पहुंशता कैसे हो सकती है |३५|
घ. १३/५.२.२२/२३/२ तास सावयवो परमाणुसद्दाहवादी पुत्रअवयवभादो उवलंभे या व सो परमा भिज्न माणभेदपरं ततादो । ण च अवयवी चेव अवयवो होदि, अण्णपदस्थेत विमा महम्बीहिसमासापुववन्तोदो मिनासंबंध णिबंधण इं- पश्चयाणुववत्तीदो वा । ण च परमाणुस्स उद्घाधीमन्मभागाश्वयवसमत्थि, रोहित पुचदपरमास्स ववयविसणिदस्स अभावादो । एदम्हि गए अवलंबिज्जमाणे सिद्धं परमाणुस्स णिरवयवतं । १. परमाणु सावयव तो हो नहीं सकता, क्योंकि परमाणु शब्दके वाच्यरूप उसके अवयव पृथक् पृथक् नहीं पाये जाते । २. यदि उसके पृथक् पृथक् अवयव माने जाते हैं तो वह परमाणु नहीं ठहरता क्योंकि जिसने भेद होने चाहिए उनके अन्तको
भा० ३-३
१७
२. परमाणु सावयव व निरवयवपनेकी सिद्धि
वह अभी प्राप्त नहीं हुआ है । ३. यदि कहा जाय कि अवयबीको ही हम अवयव मान लेगे । सो भी कहना ठीक नहीं है, क्योंकि एक तो बहुव्रीहि समास अन्यपदार्थ प्रधान होता है, कारण कि उसके बिना वह बन नही सकता। दूसरे सम्बन्ध के बिना सम्बन्धका कारणभूत 'णिनि' प्रत्यय भी नहीं बन सकता । ४ यदि कहा जाय कि परमाणु ऊर्ध्व भाग अधोभाग और मध्य भाग रूपसे अवयव बन जायेगे। सो भी बात नही है, क्योकि इन भागो के अतिरिक्त अवयवी सज्ञावाले परमाणुका अभाव है। इस प्रकार इस नयके अवलम्बन करनेपर परमाणु निरवयव है, यह बात सिद्ध होती है ।
ध. १४/५,६,७७/५६/१ ( परमाणु णिरवयवत्तादो ( जे जस्स कज्जस्स आरभया परमाणू ते तस्स अवयवा होंति । तदारद्धकज्ज पि अवयवी होदि । न च परमाणू अण्णेहितो णिष्पज्जदि, तस्स आरंभयाणमण्णेसिमभावादी भावे याण एसो परमाणुः एतो हुमाणमणीसि संभवादो। ण च एगसंखं कियम्मि परमाणुम्मि ' विदियादिसंखा अत्थि एक्कस्स तुग्भावविरोहादो। किं च जदि परमाणुस्स अवयवो अत्थि तो परमाणुणा अवयविणा अभावप्यसंगादो। पा च एवं, कारणाभावेण सललज्जाणं पि अभावप्पसंगादो। णच कप्पियसरूवा अवयवा होति, अव्यवस्थापसंगादो । तम्हा परमाणुणा निरवयवेण हो वियपरमाहिती सकस अप्पत्ती, णिरवयमाणं पि परमापूर्ण समय समागमेण धूलकज्जुपीए विरोड़ासिद्धीदो । ५. परमाणु निरवयव होता है। जो परमाणु जिस कार्य के आरम्भक होते है वे उसके अवयव है, उनके द्वारा आरम्भ किया गया कार्य अवयवी है । ६. परमाणु अन्यसे उत्पन्न होता है यह कहना ठीक नही है, क्योकि उसके आरम्भक अन्य पदार्थ नहीं पाये जाते । और यदि उसके आरम्भक अन्य पदार्थ होते है ऐसा माना जाता है। तो वह परमाणु नहीं ठहरता, क्योकि इस तरह इससे भी सूक्ष्म अन्य पदार्थोंका सद्भाव सिद्ध होता है। ७. एक सख्यावाले परमाणु द्वितीयादि संख्या होती है यह कहना ठीक नहीं है. क्योकि एकको दो रूप मानने में विरोध जाता है। यदि परमाणुके अनयन होते है ऐसा माना जाय तो परमाणुको अवयवी होना चाहिए। परन्तु ऐसा है नहीं, क्योकि अवयव विभाग द्वारा अवयव संयोगका विनाश होनेपर परमाणुका अभाव प्राप्त होता है। पर ऐसा है नहीं, क्योकि कारणका अभाव होनेसे सब स्थूल कार्योंका भी अभाव प्राप्त होता है । ६. परमाणुके कल्पित रूप अवयव होते है, यह कहना भी ठीक नहीं है, क्योंकि इस तरह माननेपर अव्यवस्था प्राप्त होती है। इसलिए परमाणुको निरवयव होना चाहिए। १०. निरवयव परमाणुओंसे स्थूल कार्योंकी उत्पत्ति नहीं बनेगी यह कहना ठीक नहीं है, क्योंकि निश्वयन परमाणुओंके सर्वात्मना समागमसे स्थूल कार्यकी उत्पत्ति होनेमें कोई विरोध नहीं आता ।
४. परमाणुका आकार
म.पु / २४/१४८ अणव परिमण्डला १९४८ होते हैं।
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= वे
1
आचारसार/३/१२/२४ अणुश्च गतोऽभेद्यामयत्रः प्रचयशक्तिः । कायश्य स्कन्धभेदोत्थचतुरस्रस्त्वतीन्द्रियः | १३ | व्योमामूर्ते स्थितं नित्यं चतुर समन्धनम् भावारगाहहेतुश्चानन्तानन्तप्रवेशक ॥२४1अगल है, अमेध है, न है की जिसे युक्त होनेके कारण काया है, स्कन्धके भेवसे होता है। पौकोर और अतीन्द्रिय है | १३ | आकाश अमूर्त है, नित्य अवस्थित है, चौकोर अवगाह देने में हेतु है, और अनन्तानन्त प्रदेशी है | २४| ( तात्पर्य यह है कि सर्वत महान् आकाश और सर्वतः लघु परमाणु इन दोनोंका आकार चौकोर रूपसे समान है )
'परमाणु गोल
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परमाणु
परमात्मस्वरूप
होता है। परमाणुके अवयव नहीं होते यह कहना ठीक नहीं है, क्योकि यदि उसके उपरिम, अधस्तन, मध्यम और उपरिमोपरिम भाग न हों तो परमाणुका ही अभाव प्राप्त होता है। ३. ये भाग कल्पित रूप होते है यह कहना ठीक नहीं है, क्योंकि परमाणुमें ऊध्र्वभाग, अधोभाग, मध्यमभाग तथा उपरिमोपरिम भाग कल्पनाके बिना भी उपलब्ध होते है । तथा परमाणुके अवयव है इसलिए उनका सर्वत्र विभाग ही होना चाहिए ऐसा कोई नियम नहीं है, क्योंकि इस तरह माननेपर तो सब वस्तुओंके अभावका प्रसंग प्राप्त होता है। ४. जिनका भिन्न-भिन्न प्रमाणोंसे ग्रहण होता है और जो भिन्न-भिन्न दिशा वाले है वे एक है यह कहना भी ठीक नहीं है, क्योंकि ऐसा माननेपर विरोध आता है। ५. अवयवोसे परमाणु नही बना है यह कहना भी ठीक नहीं है, क्योंकि अवयवोंके समूह रूप ही परमाणु दिखाई देता है। तथा-६ अवयवोके संयोगका नाश होना चाहिए यह भी कोई नियम नहीं है, क्योकि अनादि सयोगके होनेपर उसका विनाश नहीं होता। इसलिए द्विप्रदेशी परमाणु पुद्गल वर्गणा सिद्ध होती है।
५. सावयवपनेमें हेतु प्र. सा /मू./१४४ जस्स ण संति पदेसा पदेसभेत्तं व तच्चदरे णा । सुण्ण जाण तमत्थ' अत्यंतरभूदमत्थीदो ।१४४। जिस पदार्थ के प्रदेश अथवा एक प्रदेश भो परमार्थत ज्ञात नहीं होते, उस पदार्थको शून्य जानो, क्योंकि वह अस्तित्वसे अर्थान्तर है ।१४४। न्या. वि /म./१/१०/३६६ तत्र दिग्भागभेदेन षडशा' परमाणव' । नो
चेत्पिण्डोऽणुमात्र' स्यात् [न च ते बुद्धिगोचरा] ।४० =दिशाओंके भेदसे छ. दिशाओंवाला परमाणु होता है, वह अणुमात्र ही नहीं है। यदि तुम यह कहो कि अणुमात्र ही है, सो यह कहना ठीक नहीं है,
क्योकि वह बुद्धिगोचर नहीं है। ध. १३/५.३,१८/१८/८ परमाणूणं णिरवयवत्तासिद्धीदो। 'अपदेस णेव
इंदिए गेज्म इदि परमाणूणं णिरवयवत्तं परियम्मे वुत्तमिदि णासंकणिज, पदेसो णाम परमाणू, सो जम्हि परमाणुम्हि समवेदभावेण णस्थि सो परमाणू अपदेसओ त्ति परियम्मे वुत्तो तेण ण हिरवयवत्तं तत्तो गम्मदे। परमाणू सावयवो त्ति कत्तो पव्वदे। खधभावण्णहाणुववत्तीदो। जदि परमाणू णिरवयवो होज्ज तो बवंधाणमणुप्पत्ती जायदे, अवयवाभावेण देसफासेण विणा सव्वफासमुवगएहितो खंधुप्पत्तिविरहादो। ण च एवं, उप्पण्णखंध्रुवलं भादो। तम्हा सावयवो परमाणू त्ति घेत्तव्यो। = परमाणु निरवयव होते है। यह बात असिद्ध है। 'परमाणु अप्रदेशो होता है और उसका इन्द्रियों द्वारा ग्रहण नहीं होता" इस प्रकार परमाणुओंका निरवयवपना परिकर्ममें कहा है। यदि कोई ऐसी आशका करे सो भी ठीक नहीं है, क्योंकि 'प्रदेशका अर्थ परमाणु है। वह जिस परमाणुमें समवेत भावसे नहीं है वह परमाणू अप्रदेशी है, इस प्रकार परिकर्ममें कहा है। इसलिए परमाणु निरवयव होता है, यह बात परिकर्मसे नहीं जानी जाती। प्रश्नपरमाणु सावयव होता है यह किस प्रमाणसे जाना जाता है। उत्तर-स्कन्ध भावको अन्यथा वह प्राप्त नहीं हो सकता, इसीसे जाना जाता है कि परमाणु सावयव होता है। यदि परमाणु निरवयव होते तो स्कन्धोकी उत्पत्ति नही हो सकती, क्योकि जब परमाणुओके अवयव नही होगे तो उनका एक देश स्पर्श नही बनेगा और एकदेश स्पर्श के बिना सर्व स्पर्श मानना ण्डेगा जिससे स्कन्धोकी उत्पत्ति माननेमें विरोध आता है । परन्तु ऐसा है नही, क्योंकि उत्पन्न हुए स्कन्धोकी उपलब्धि है। इसलिए परमाणु सावयव है ऐसा यहाँ ग्रहण
करना चाहिए । (ध. १३/५,३ २२/२३/१०)। घ १४/५,६,७६/१४/१३ एगपदेस मोत्तूण विदियादिपदेसाणं तत्थ पडिसेहकरणादो। न विद्यन्ते द्वितीयादय प्रदेशा यस्मिन् सोऽप्रदेश. परमाणुरिति । अन्यथा खरविषाणवत परमाणोरसत्त्वप्रसङ्गात् । ध. १४/५,६,७७/५६/११ पज्जवटिठयणए अवलं बिजमाणे सिया एगदेसेण
समागमो । ण च परमाणूणमवयवा णस्थि, उवरिमठिममज्झिमोवरिमोवरिमभागाणमभावे परमाणुस्स वि अभावप्पसंगादो। ण च एदे भागा सकप्पियसरूवा; उड्ढाधोमज्झिमभागाणं उवरिमोवरिमभागाण च कप्पणाए विणा अवलं भादो। ण च अवयवाणं सव्वस्थविभागेण होदब्वमेवेत्ति णियमो, सयलवत्थूणमभावप्पसगादो। ण च भिण्णपमाणगेज्माण भिण्गदिसाण च एयत्तमत्थि, विरोहादो (ण च अवयवेहि परमाणू णारद्धो, अवयवसमूहस्सेव परमाणुत्तदसणादो। ण च अवयवाण सजोगविणासेण होदब्वमेवेत्ति णियमो, अणादि-सजोगे तदभावादो। तदो सिद्धा दुपदेसियपरमाणुपोग्गलदव्ववग्गणा। -१. परमाणुके एक प्रदेशको छोडकर द्वितीयादि प्रदेश नहीं होते इस बातका परिकर्म में निषेध किया है। जिसमें द्वितीयादि प्रदेश नही है वह अप्रदेश परमाणु है यह उसकी व्युत्पत्ति है। (यदि अप्रदेश' पदका यह अर्थ न किया जाये तो जिस प्रकार गधेके सीगोंका असत्त्व है उसी प्रकार परमाणुके भी असत्त्वका प्रसग आता है। २. पर्यायार्थिकनयका अवलम्बन करनेपर कथाचित् एकदेशेन समागम
4.निरवयव व सावयवपनेका समन्वय गो. जी./जी./५६४/१००६ पर उद्धृत "षट् केन युगपद्योगात् परमाणोः षड शता । षण्णां समानदेशित्वे पिण्ड स्यादणुमात्रकं । सत्यं, द्रव्याथिकनयेन निरंशत्वेऽपि परमाणो पर्यायाथिकनयेन षडंशत्वे दोषाभावात् । = प्रश्न-छह कोणका समुदाय होनेसे परमाणुके छह अशपना संभव है। छहाँको समानरूप कहनेसे परमाणु मात्र पिण्ड होता है। उत्तर-परमाणुके द्रव्यार्थिक नयसे निरंशपना है, परन्तु पर्यायार्थिक नयसे छह अश कहने में दोष नहीं है। ध.१४४५,६,७७/१७ पर विशेषार्थ 'यहाँ-परमाणु सावयव है कि निरव
यव इस आतका विचार किया गया है। परमाणु एक और अखण्ड है, इसलिए तो वह निरवयव माना गया है, और उसमें ऊर्धादिभाग होते है इसलिए वह सावयव माना गया है। द्रव्यार्थिक नय अखण्ड द्रव्यको स्वीकार करता है और पर्यायार्थिकनय उसके भेदोंको स्वीकार करता है। यही कारण है कि द्रव्यार्थिक नयकी अपेक्षा परमाणुको निरवयव कहा है और पर्यायार्थिकनयकी अपेक्षा सावयव कहा है। परमाणुका यह विश्लेषण वास्तविक है ऐसा यहाँ समझना
चाहिए। परमात्मज्ञान-निर्विकल्प समाधिका अपर नाम-दे० मोक्ष
मार्ग/२/३। परमात्मतत्त्व-ध्यान योग्य परमात्मतत्त्व-दै० शिवतत्त्व । परमात्मदर्शन-निर्विकल्प समाधिका अपर नाम-दे० मोक्ष
मार्ग/२/१। परमात्मप्रकाश-समाधि तन्त्र के आधार पर प्रभाकर भट्ट के निमित्त, योगेन्दु देव (ई श ६) द्वारा मुनियों के लक्ष्म से रचित, ३५३ दीहा प्रमाण आध्यात्मिक अपभ्र श रचना । टीकायें१. आ० पद्मनन्दि न० ७ (ई० १३०५) द्वारा रचितः२.आ० ब्रह्मदेव (वि० श०१२ पूर्व ) कृत संस्कृत टीका; ३. आ० मुनिभद्र (ई०१३५०-१३१०) कृत कन्नड टीका; ४. आ० बालचन्द्र (ई० श०१३) कृत कन्नड टीका; ५.५० दौलतराम ( ई०१७७० ) कृत भाषा टीका। परमात्मभावना-निर्विकल्प समाधिका अपर नाम-दे० मोक्ष
मार्ग/२/१। परमात्मस्वरूप-निर्विकल्प समाधिका अपर नाम। -दे० मोक्षमार्ग/२/५॥
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परमात्मा
परमात्मा - परमात्मा या ईश्वर प्रत्येक मानवका एक काल्पनिक मना हुआ है। वास्तव में ये दोनों शम् शुद्धात्माके लिए प्रयोग किये जाते है । वह शुद्धात्मा भी दो प्रकारसे जाना जाता है-एक कारण रूप तथा दूसरा कार्यरूप । कारण परमात्मा देश कालावच्छिन्न शुद्ध चेतन सामान्य तत्व है, जो मुक्त व संसारी तथा चोटी व मनुष्य सबमें अन्वय रूपसे पाया जाता है। और कार्य परमात्मा वह मुक्तात्मा है, जो पहले संसारी था, पीछे कर्म काट कर मुक्त हुआ । अत कारण परमात्मा अनादि व कार्य परमात्मा सादि होता है। एकेश्वरवादियों का सर्व व्यापक परमात्मा वास्तव में वह कारण परमात्मा है और अनेकेश्वरवादियोका कार्य परमात्मा । अतः दोनोमें कोई विरोध नही है । ईश्वरकर्ताबाद के सम्बन्ध में भी इसी प्रकार समन्वय किया जा सकता है। उपादान कारणकी अपेक्षा करनेपर सर्व विशेषों में अनुगताकार रूपसे पाया जानेसे 'कारण परमात्मा' जगतके सर्व कार्योंको करता है और निमित्तकारणको अपेक्षा करने पर मुक्तात्मा वीतरागी होनेके कारण किसी भी कार्यको नही करता है। जैन लोग अपने विभावोका कर्ता ईश्वरको नही मानते, परन्तु कर्मको मान लेते है। यहाँ उनमें व जैनों ईश्वर कस्में केवसा नाम मात्रका अन्तर रह जाता है। यदि कारण तत्त्वपर दृष्टि डाले तो सर्व विभाव स्वत टल जाये और वह स्वयं परमात्मा बन जाये ।
१. परमात्मा निर्देश
१. परमात्मा सामान्यका लक्षण
स. श./टी./६/२२५/१५ परमात्मा संसारिजीवेभ्य उत्कृष्ट आत्मा । = संसारी जीवोमें सबसे उत्कृष्ट आत्माको परमात्मा कहते है ।
-
२. परमात्मा के दो भेद
१. कार्य कारण परमात्मा
नि सा/ता.वृ./७ निजकारणपरमात्माभावनोत्पत्नकार्यपरमात्मा स एव भगवाच अर्ह परमेश्वर' निज कारण परमात्माको भावना उत्पन्न कार्य परमात्मा, वही अर्हन्त परमेश्वर हैं। अर्थात् परमात्माके दो प्रकार है- कारण परमात्मा और कार्यपरमात्मा ।
२. सकल निकल परमात्मा
का. अ./ / ११२ परमप्पा वि य दुविहा अरहंता तह य सिद्धाय । १६२ | - परमात्मा के दो भेद है- अरहन्त और सिद्ध । प्र.सं./टी./४/५ सयोग्यो गिगुणस्थानद्वये विवक्षितेकदेशशुद्धनमेन सिद्धसदृश परमात्मा, सिद्धस्तु साक्षात् परमात्मेति । =सयोगी और अयोगी हम दो गुणस्थान में विवक्षित एक देश शुद्ध नयकी अपेक्षा सिद्धके समान परमात्मा है, और सिद्ध तो साक्षात् परमात्मा हैं ही।
३. कारण परमात्माका लक्षण
नि. सा./मू./१००-१०० कारणपरमतत्वस्वरूपाख्यानमेतत्-जाइनर मरणरहियं परम कम्ममयं सुधं । शाणाद घटसहार्थ अवम विगासमच्छेय 1१०७ अब्बामाहमनिरियमगोमं पुण्णपाणिमुक्कं । पुणरागमण विरहियं णिच्चं अचलं अणालंबं । १७८१ =कारण परमतत्त्व के स्वरूपका कथन है- ( परमात्म तत्त्व ) जन्म, जरा, मरण रहित, परम, आठकर्म रहित, शुद्ध, ज्ञानादिक चार स्वभाव वाला, अक्षय अविनाशी और अच्छे है ११७७] तथा अव्याबाध, अतीन्द्रिय, अनुपम, पुण्यपाप रहित, पुनरागमन रहित, नित्य, अचल और निरालंब है |
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१. परमात्मा निर्देश सश./मू./३०-३१ सर्वेन्द्रियाणि संन्यास्तमितेनान्तरात्मा यक्षणं पश्यते भाति तत्तत्व परमात्मनः ॥३०॥ य परात्मा स एवाऽहं योऽहं स परमस्तत । अहमेव मयोपास्यो नान्यः कश्चिदिति स्थिति । = सम्पूर्ण पाँचों इन्द्रियोंको विषयोंमे प्रवृत्तिसे रोककर स्थित हुए अन्तकरणके द्वारा क्षणमात्र के लिए अनुभव करने वाले जीवोके जो चिदानन्दस्वरूप प्रतिभासित होता है, वही परमात्माका स्वरूप है |३०| जो परमात्मा है वही मै हूँ, तथा जो स्वानुभवगम्य मै हूँ वही परमात्मा है । इसलिए मै ही मेरे द्वारा उपासना किया जाने योग्य हूँ, दूसरा मेरा कोई उपास्य नहीं ||३१|
प. प्र./मू./१/२३ देहादेवति जो बस देउ अणा- अतु केवल जाण फुरसत सो परमप्पू भिंतु ॥ १३३ - जो व्यवहार नयसे देहरूपी देवालय में बसता है पर निश्चयसे देहसे भिन्न है, आराध्य देव स्वरूप है. अनादि अनन्त है, केवलज्ञान स्वरूप है, निःसन्देह वह अचलित पारिणामिक भाव ही परमात्मा है |३३|
नि.सा./ता.३८ औदविकादिचतुर्ण भावान्तराणामगोचरत्वाद द्रव्यभाव नोकर्मोपाधिसमुपज नितविभावगुणपर्यायरहित', अनादिनिधनामुततीन्द्रियस्वभावशुद्ध सहजपरमपारिणामिकभावस्वभाव कर - णपरमात्मा ह्यात्मा । - औदयिक आदि चार भावान्तरोको अगोचर होनेसे को (कारण परमात्मा ) द्रव्यकर्म, भावकर्म और नोर्म रूप उपाधि जति विभाष गुणपर्यायों रहित है, तथा अनादि अनन्त अमूर्त अतीन्द्रिय स्वभाव वाला शुद्ध-सहज-परम-पारिणामिक भाव जिसका स्वभाव है - ऐसा कारण परमात्मा वह वास्तव में 'आत्मा' है।
४. कार्य परमात्माका लक्षण
मो. पा. सू./२ सम्मककनिको परमप्या मण्णए देवी ॥॥॥ धर्म कल कसे रहित आत्माको परमात्मा कहते है ॥५॥
सो
नि. सासू./० णिस्सेसदीसरहिओ सणापरमविभवजुद परमदपा उच्च तब्बिवरीओ ण परमप्पा ॥७॥ - निःशेष दोषसे जो रहित है, और केवलज्ञानादि परम वैभवसे जो संयुक्त है, वह परमात्मा कहलाता है उससे विपरीत परमात्मा नही है |७
प. प्र //१/१५-२५ अप्पा लद्धउ णाणमउ कम्म विमुक्के जेण । मेल्लिवि सलु वि दव्वु परु सो परु मुण हि मणेण । १५० केवल दंसण - णाणमउ केवल-२ त सुक्रख सहाउ। केवल वीरिउ सो मुणहि जो जि परावरु भाउ |२४| एहि त सहिजो पनि देउ सो तहि वि सह परम पर जो तइलोयहं भेउ | २५॥ - जिसने अष्ट कमको नाश करके और सब देहादि पर पोंको छोडकर केवलज्ञानमयी आरमा पाया है, उसको शुद्ध मनसे परमात्मा जानो । १५१ जो केवलज्ञान, केवलदर्शनमयी है, जिसका केवल सुख स्वभाव है, जो अनन्त वीर्य वाला है, वही उत्कृष्ट रूपवाला सिद्ध परमात्मा है | २४| इन लक्षणों सहित, सबसे उत्कृष्ट, निःशरीरी व निराकार, देव जो परमात्मा सिद्ध है, जो तीन नोकका ध्येय है, वही इस लोके सिरपर विराजमान है ॥२३॥
नि.सा./ता.वृ./ ७,३८ सकल विमलकेवलबोधकेवलदृष्टिपरमवीतरागात्मकानन्दायविभवसमृद्ध यस्लेवंविधत्रिकामनिरावरण नित्यानन्दे क स्वरूपनिजकारणपरमात्मभावनोत्पन्नकार्य परमात्मा स एव भगवान् अर्हन् परमेश्वर || आत्मन सहजवैराग्यप्रासादशिखरशिखामणे. परद्रव्यपराङ्मुखस्य पञ्चेन्द्रियप्रसरवर्जितगात्रमात्रपरिग्रहस्य परमजिनयोगीश्वरस्य स्वद्रव्यनिशितमतेरुपादेयो ह्यात्मा । सकलविमल ज्ञानदर्शन, परम-नीतरागात्मक आनन्द इत्यादि अनेक वैभवसे समृद्ध हैं, ऐसे जो परमात्मा अर्थात् त्रिकाल निरावरण, नित्यानन्द - एक स्वरूप निज कारण परमात्माकी भावनासे उत्पन्न कार्य परमात्मा वही भगवान् अर्हन्त परमेश्वर है 101 सहज
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परमात्मा
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३. ईश्वर निर्देश
वैराग्यरूपी महलके शिरवरका जो शिखामणि है, पर-द्रव्यसे जो पराड मुरव है, पाँच इन्द्रियोके विस्तार रहित देहमात्र जिसे परिग्रह है, जो परम जिन योगीश्वर है, स्व द्रव्यमे जिसकी तीक्ष्ण बुद्धि हैऐसे आत्माको 'आत्मा' वास्तव में उपादेय है। द्र सं/टी/१४/४७/४ विष्णु • परमब्रह्म .ईश्वर सुगत'- शिव . जिन'। इत्यादिपरमागमकथिताष्टोत्तरसहस्रसंख्यनाम-वाच्य परमात्मा ज्ञातव्य । - विष्णु, परमब्रह्म, ईश्वर, सुगत, शिव और 'जिन इत्यादि परमागममे कहे हुए एक हजार आठ नामोसे कहे जाने योग्य जो है, उसको परमात्मा जानना चाहिए।
५. परमात्मा कारण कार्य विमागकी सिद्धि स श (मू ६७-६८ भिन्नात्मानमुपास्यात्मा परो भवति तादृशः । वति
पि यथोपास्य भिन्न भवति ताशी १७ उपास्यात्मानमेवात्मा जायते परमोऽथवा। मथित्वात्मानमात्मैव जायतेऽग्निर्यथा तरु' 1801 - यह आत्मा अपमेसे भिन्न अहन्त सिद्ध रूप परमात्माकी उपासना-आराधना करके उन्हींके समान परमात्मा हो जाता है जैसे-दीपकसे भिन्न अस्तित्व रखनेवाली बत्ती भी दीपककी आराधना करके उसका सामीप्य प्राप्त करके दीपक स्वरूप हो जाती है 1१७ अथवा यह आत्मा अपने चित्स्वरूपको ही चिदानन्दमय रूपसे आराधन करके परमात्मा हो जाता है जैसे बाँसका वृक्ष अपनेको
अपनेसे ही रगडकर अग्नि रूप हो जाता है ।। न. च वृ./३६०,३६१ कारणकज्जसहावं समय णाऊण होइ ज्झायव्यं ।
कज्ज सुद्धसरूव कारणभूदं तु साहणं तस्स ३६०1 सुद्धो कम्मखयादी कारणसमओ हु जीवसम्भावो । खय पुणु सहावझाणे तह्मा तं कारणं झेयं ।३६१॥ = कारण और कार्य स्वभाव रूप समय अर्थात् आत्माको जानकर उसका ध्यान करना चाहिए। उनमें से शुद्ध स्वरूप अर्थात सिद्ध भगवान तो कार्य है और कारणभूत जो स्वभाव वह उसका साधन है । ३६०। वह कारण समय रूप जीवस्वभाव ही कर्मोंका क्षय हो जानेपर शुद्ध अर्थात् कार्य समय रूप हो जाता है। और वह क्षय स्वभावके ध्यानसे होता है उस लिए वह उसका कारणभूत ध्येय
प्र.सा./त प्र./६८ स्वयमेव भगवानात्मापि स्वपरप्रकाशनसमर्थ।
-भगवान आत्मा स्वयमेव ही स्वपरको प्रकाशित करने में समर्थ है। (और भी दे० परमात्मा /१/३)। * अन्य सम्बन्धित विषय १. परमात्माके एकार्थवाची नाम-दे० म. पु./२५/१००-२१७ २. पंच परमेष्ठीमें देवत्व
-दे० देव/1/१। ३. सच्चे देव, अर्हन्त
-दे० वह वह नाम। ४. सिद्ध
-दे० मोक्ष। २. भगवान् निर्देश
१. मगवानका लक्षण ध. १३१५,५.८२/३४६/८ ज्ञानधर्ममाहात्म्यानि भग., सोऽस्यास्तीति भगवान । -ज्ञान-धर्मके माहात्म्योका नाम भग है, वह जिनक है व भगवान् कहलाते है। ३. ईश्वर निर्देश
६. सकल निकल परमात्माके कक्षण का. अ./मू १६८ स-सरीरा अरहता केवल-णाणेण मुणिय सयलत्था । णाणसरीरा सिद्धा सबुत्तम-सुखसंपत्ता १६८ = केवलज्ञानसे जान लिये है सकल पदार्थ जिन्होने ऐसे शरीर सहित अर्हन्त तो सकल परमात्मा है । और सर्वोत्तम सुखकी प्राप्ति जिन्होको हो गया है तथा ज्ञान ही है शरीर जिनके ऐसे शरीर रहित सिद्ध निकल परमात्मा है। ति, सा/ता. वृ/४३ निश्चयेनौदारिक क्रियकाहार कतैजसकार्मणाभि
धानपञ्चशरीरप्रपञ्चाभावान्निकल । -निश्चयसे औदारिक, वैकि. यिक, आहारक, तेजस, और कामण नामक पाँच शरीरोके समूहका
अभाव होनेसे आत्मा नि कल अर्थात नि.शरीर है। स श/टी./२/२२३७ सकलात्मने सह कलया शरीरेण वर्तत इति सकलः स चासावात्मा । = कल अर्थात शरीरके साथ जो बर्त सो सकल कहलाता है और सकल भी हो और आत्मा भी हो वह सकलात्मा कहलाता है।
१. ईश्वरका लक्षण द्र.सं./टी /१४/४७/७ केवलज्ञानादिगुणैश्वर्ययुक्तस्य सतो देवेन्द्रादयोऽपि तत्पदाभिलाषिण* सन्तो यस्याज्ञा कुर्वन्ति स ईश्वराभिधानो भवति । -- केवलज्ञानादि गुण रूप ऐश्वर्यसे युक्त होनेके कारण जिसके पदकी अभिलाषा करते हुए देवेन्द्र आदि भी जिसकी आज्ञाका पालन करते हैं, अत: वह परमात्मा ईश्वर होता है। स.श/टी/६/२२५/१७ ईश्वर. इन्द्राद्यसंभविना अन्तरगयहिरङ्गषु
परमैश्वर्येण सदैव संपन्न। -इन्द्रादिकको जो असम्भव ऐसे अन्तरंग और अहिर ग परम ऐश्वर्यके द्वारा जो सदैव सम्पन्न रहता है, उसे ईश्वर कहते है। २. अपनी स्वतन्त्र कर्ता कारण शक्तिके कारण आत्मा ही ईश्वर है प्र. सा./त. प्र/३५ अपृथग्भूतकतृ करणवशक्तिपारमैश्वर्ययोगित्वादात्मनो य एव स्वयमेव जानाति- -आत्मा अपृथग्भूत कतृ'ख और करणत्वकी शक्तिरूप परमैश्वर्यवान है, इसलिए जो स्वयमेव जानता है । ३. ईश्वरकर्तावादका निषेध आप्त. प./४/६५१-६८/३२-४६ तनुकरणभुवनादौ निमित्तकारणत्वादीश्वरस्य । न चैतदसिद्धम्, यत्कार्य तद् बुद्धिमन्निमित्तकं दृष्टम, यथा वस्त्रादि । . नैकस्वभावेश्वरकारणकृतं विचित्रकार्यत्वात् ।। यत्र यदा यथा यत्कार्यमुत्पत्सु तत्र तदा तथा तदुत्पादनेच्छा माहेश्वरस्यैकैव ताहशी समुत्पद्यते। • ततो नान्वयव्यतिरेकयोापकयोरनुपलम्भोऽस्ति । - प्रश्न-ईश्वर शरीर इन्द्रिय व जगतका निमित्त कारण है । उत्तर-नहीं, क्योंकि इनसे पृथक् कोई ईश्वर दिखाई नहीं देता। प्रश्न-वस्त्रादिकी भाँति शरीरादि भी किसी बुद्धिमान्के बनाये हुए होने चाहिए। उत्तर-भिन्न स्वभाववाले पदार्थ एक स्वभाववाले ईश्वरसे उत्पन्न नहीं हो सकते । प्रश्न-यथावसर ईश्वरको वैसी वैसी इच्छा उत्पन्न हो जाती है जो विभिन्न कार्योको उत्पन्न करती है। उत्तर-इस प्रकार या तो सर्व जगदमें एक ही प्रकारका कार्य होता रहेगा या इच्छाके स्थानसे अतिरिक्त अन्य स्थानों में कार्यका अभाव हो जायेगा। प्रश्न-ईश्वरेच्छाके साथ भिन्न क्षेत्रों में रहने
७. वास्तव में आत्मा ही परमात्मा है ज्ञा./२१/७/२२१ अयमात्मा स्वयं साक्षात्परमात्मेति निश्चय । विशुद्धध्याननिर्धूत-न्धनसमुत्व र १७१ - जिस समय विशुद्ध ध्यानके बलसे कर्मरूपी इन्धनको भस्म कर देता है, उस समय यह आत्मा ही साक्षात् परमात्मा हो जाता है, यह निश्चय है ।७।
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३. ईश्वर निर्देश
परमात्मा वाली विभिन्न सामग्री के मिल जानेसे विभिन्न कार्योकी सिद्धि हो जायेगी। उत्तर-उपरोक्त हेतुमें कोई अन्वय व्यतिरेक हेतु सिद्ध नहीं होता। स्या, मं/६/पृ ४४-५६ यत्तावदुक्तं परै 'क्षित्यादयो बुद्धिमत्कर्त का., कार्यत्वाद घटवदिति' तदयुक्तम् । स चायं जगन्ति सृजन सशरीरोsशरीरो वा स्याव। प्रथमपक्षे प्रत्यक्षबाधः। तमन्तरेणापि च जायमाने तृणतरुपुरन्दरधनुरभ्रादौ कार्यत्वस्य दर्शनाव प्रमेयत्वादिवत साधारणानै कान्तिको हेतु.। द्वितीयविकल्पे पुनरदृश्यशरीरत्वे तस्य माहात्म्यविशेषः कारणम् ।"इतरेतराश्रयदोषापत्तेश्च । सिद्ध हि माहात्म्यविशेषे तस्यादृश्यशरीरत्वं प्रत्येतव्यम् । तत्सिद्धौ चमाहात्म्यविशेषसिद्धिरिति । अशरीरश्चेत् तदा दृष्टान्तदाान्तिकयो:षम्यम् । अशरीरस्य च सतस्तस्य कार्यप्रवृत्तौ कुत' सामर्थ्यम् आकाशादिवव ।...बहूनामेककार्य करणे वैमत्यसंभावना इति नायमेकान्त.। अनेककीटिकाशतनिष्पाद्यत्वेऽपि शक्रमून', "अथै तेष्वप्येक एवेश्वरः कर्तेति बपे। 'तहि कुबिन्दकुम्भकारादितिरस्कारेण पटधटादीनामपि कर्ता स एव किं न कल्प्यते ।। सर्वगतत्वमपि तस्य नोपपन्नम् । तद्धि शरीरात्मना, ज्ञानात्मना वा स्यात् । प्रथमपक्षे तदीयेनैव देहेन जगवत्रयस्य व्याप्तत्वाद इतरनिर्मेयपदार्थानाश्रयानवकाश'। द्वितीयपक्षे तु सिद्धसाध्यता। -स जगत्त्रयं निर्मिमाणस्तक्षादिवत् साक्षाद् देहव्यापारेण निर्मिमीते, यदि वा संकल्पमात्रेण । आद्य पक्षे एकस्यैव "कालक्षेपस्य सभवाइ बहीयसाप्यनेहसा न परिसमाप्तिः। द्वितीयपक्षे तु संकल्पमात्रेणैव कार्यकल्पना नियतदेशस्थायित्वेऽपि न किंचिद् दूषणमुत्पश्याम' |.. ....... स हि यदि नाम स्वाधीन सन् विश्वं विधत्ते, परमकारणिकश्च त्वया वर्ण्यते, तत्कथं सुखितदु.खिताद्यवस्थाभेदवृन्दस्थपुटित घटयति भुवनम् एकान्तशर्मसंपत्कान्तमेव तु किं न निर्मिमीते । अथ जन्मान्तरोपार्जिततत्तत्तदीयशुभाशुभकर्मप्रेरित सत् तथा करोतीति दत्तस्तहि स्ववशत्वाय जलाउजलिः ।.. कर्मापेक्षश्चेदीश्वरो जगत्कारणं स्यात् तर्हि कर्मणीश्वरत्वम, ईश्वरोऽनीश्वर' स्यादिति । · स खलु नित्यत्वेनैकरूपः सन्, त्रिभुवनसर्गस्वभावोsतत्स्वभावौ वा । प्रथम विधायां जगन्निर्माणात कदाचिदपि नोपरमेद । तदुपरमे तत्स्वभावत्वहानि | एवं च सर्गक्रियाया अपर्यवसानाद एकस्यापि कार्यस्य न सृष्टि । अतत्स्वभावपक्षे तु न जातु जगन्ति सृजेत् तत्स्वभावायोगाद् गगनवत् । अपि च तस्यैकान्तनित्यस्वरूपत्वे सृष्टिवत सहारोऽपि न घटते । ..एकस्वभावाव कारणादनेकस्वभावकार्योत्पत्तिविरोधात । स्वभावान्तरेण चेद् नित्यत्वहानि' । स्वभावभेद एव हि लक्षणमनित्यतायाः ।...अथास्तु नित्यः, तथापि कथं सततमेव सृष्टौ न चेष्टते। इच्छावशात चेत्, ननु ता अपीच्छः स्वसत्तामात्रनिबन्धनात्मलाभाः सदैव कि न प्रवर्तयन्तीति स एवोपालम्भः।" कार्यभेदानुमेयानां तदिच्छानामपि विषमरूपत्वाद नित्यत्वहानि' केन वार्यते ।...ततश्चायं जगत्सर्गे व्याप्रियते स्वार्थात, कारुण्याद वा। न तावत् स्वार्थात तस्य कृतकृत्यत्वात् । न च कारुण्यात....। ततः प्राक सज्जीवानामिन्द्रियशरीरविषयानुत्पत्तौ दुःखाभावेन कस्य प्रहाणेच्छा कारुण्यम्। सर्गोत्तरकाले तु दुःखिनोऽवलोक्य कारुण्याभ्यामुपगमे तदुत्तरमितरेतराश्रयम् कारुण्येन सृष्टि' सृष्टया च कारुण्यम् । इति नास्य जगत्कत त्वं कथमपि सिद्धयति।
प्रश्न-पृथिवी आदि बुद्धिमान्के बनाये हुए हैं, कार्य होनेसे घटके समान । दृश्य शरीरसे ? उत्तर-शरीर दीखता नहीं है। दूसरे, घास वृक्षादिको ईश्वरने अपने शरीरसे नहीं रचा है। अतः कार्य हेतुपना साधारण कान्तिक दोषका धारक है। प्रश्न-अदृश्य शरीरसे बनाये हैं। उत्तर-अदृश्य शरीरकी सिद्धिसे ईश्वरका माहात्म्य, तथा माहात्म्यसे शरीरकी सिद्धि होनेके कारण तथा दोनों ही होनेसे अन्योन्याश्रय दोष आता है। प्रश्न-ईश्वर शरीर रहित होकर मनाता है। उत्तर-दृष्टान्त ही बाधित हो जाता है। दूसरे, शरीर
रहित आकाश आदिकमे कार्य करनेकी सामर्थ्य नहीं है। अतः अशरीरी ईश्वर भी कार्य कैसे कर सकता है। प्रश्न-वह अनेक है। अनेक हो तो मतभेदके कारण कोई कार्य ही न बने। उत्तर-मतभेद होनेका नियम नहीं। बहुतसी चीटियाँ मिलकर बिल बनाती है। प्रश्न-बिल आदिका कर्ता ईश्वर है। उत्तर-तो घट-पट आदिका कर्ता भी इसे ही मानकर कुम्भकार आदिका तिरस्कार क्यो नही कर देते । प्रश्न-ईश्वर सर्वगत है इसलिए कर्ता है। उत्तर-शरीरसे सर्वगत है या ज्ञानसे । यदि शरीरसे तो जगदमे और पदार्थको ठहरनेका अवकाश न होगा। शरीर व्यापारसे बनाता है या सकल्प मात्रसे ? प्रश्न-शरीर व्यापारसे । उत्तर-तब तो एक कार्यमे अधिक काल लगनेसे सबका कर्ता नहीं हो सकता । प्रश्न-संकल्प मात्रसे । उत्तर-तब सर्वगतपनेकी आवश्यकता नही। परम क्रुणाभावके धारक ईश्वरने सुख-दुःखसे भरे इस जगतको क्यो बनाया । केवल सुख रूप ही क्यो नहीं बना दिया। प्रश्न-ईश्वर जीवोके अन्य जन्मोमें उपार्जित कर्मोसे प्रेरित होकर ऐसा करता है। उत्तर-इस प्रकार तो ईश्वर स्वाधीन न रहा। और कर्म की मुख्यता होनेसे हमारे मतकी सिद्धि हुई। दूसरे इस प्रकार कमोंका कर्ता ईश्वर न हुआ। जगत्के बनानेसे उसे कभी भी विश्राम न होगा। यदि विश्राम लेगा तो उसके स्वभावके घातका प्रसंग आयेगा। इस प्रकार कोई भी कार्य पूर्ण हुआ न कहलायेगा। प्रश्न-कर्तापना उसका स्वभाव नहीं है 1 उत्तर-तौ फिर वह जगत्का निर्माण ही कैसे करे, दूसरे एक ही प्रकारके स्वभावसे निर्माण तथा संहार दो ( विरोधी) कार्य नहीं किये जा सकते । प्रश्न-संहार करनेका स्वभाव अन्य है। उत्तर-नित्यताका नाश हो जायेगा। स्वभाव भेद ही अनित्यताका लक्षण है। कभी किसी स्वभाववाला और कभी किसी स्वभाववाला होगा। निरन्तर वह क्यों नही बनाता। शंका-जब इच्छा नही रहती तब बनाना छोड देता है। उत्तर-इच्छासे ही कर्तापनेकी सिद्धि है, तो सदा इच्छा' क्यों नहीं करता। दूसरे कार्योंकी नानारूपता उसकी इच्छाओको भी नानारूपताको सिद्ध करती है। अत. ईश्वर अनित्य है । ईश्वरने जगत्को किसी प्रयोजनसे बनाया या करुणा से। शका-प्रयोजनसे । उत्तर-कृतकृत्यता खण्डित हो जाती है। प्रश्नकरुणाभावसे । उत्तर-दुःख अनादि नही है, तो ईश्वरने इन्हे क्यों बनाया। प्रश्न-दुःख देखकर पीछेसे करुणा उत्पन्न हुई। उत्तरइससे तो इतरेतराश्रय दोष आया। करुणासे जगत रचना और जगत से करुणा उत्पन्न होना। दे० सव/१ (सत स्वभाव ही जगदका कर्ता है)।
४. ईश्वरवादका लक्षण १. मिथ्या एकान्तको अपेक्षा गो.क./मू./८८० अण्णाणी हु अणासो अप्पा तस्स य सुहं च दुक्खं च ।
सग्गं णिरयं गमण सब ईसरकयं होदि ।८००/-आत्मा अज्ञानी है, अनाथ है। उस आत्माके सुख-दुःख, स्वर्ग-नरकादिक, गमनागमन सर्व ईश्वरकृत है, ऐसा मानना सो ईश्वरवादका अर्थ है ।८००। (स. सि./८/१/५ की टिप्पणी)।
२. सम्यगेकान्तकी अपेक्षा स.सा./म्./३२२ लोयस्स कुणइ विण्हू समणाणवि अप्पओ कुणई।
-लोकके मतमें विष्णू करता है, वैसे ही श्रमणोंके मतमें आत्मा करता है। प.प्र./मू०/१/६६ अप्पा पंगुह अणुहरइ अप्पु ण जाइ ण एइ । भुवणत्तयह
वि मज्झि जिय विहि आणइ विहि णेइ ६६ हे जीव । यह आत्मा पंगुके समान है, आप कहीं न जाता और न आता है, तीनो लोकोमें जीवको कर्म ही ले जाता है, कर्म ही लाता है ।६६।
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परमाण्यात्मतरंगिनी
प्र.सा./त.प्र / परिनयनं ३४ ईश्वरनयेन धात्रीहट्टावलेह्य मानपान्थबालकवत्पारतन्त्र्यभोक्तृ । ३४ | आत्मद्रव्य ईश्वर नयसे परतन्त्रता भोगने वाला है । धायकी दुकानपर दूध पिलाये जानेवाले राहगीर के भालकी भाँति (दे० कर्म (१/१) ।
५. वैदिक साहित्य में ईश्वरवाद
१. ईश्वरके विविध रूप
१. वैदिक युगके लोग सर्व प्रथम सूर्य, चन्द्र आदि प्राकृतिक पदार्थों को ही अपना आराध्यदेव स्वीकार करते थे । २. आगे जाकर उनका स्थान इन्द्र, वरुण आदि देवताओको मिला, जिन्हे कि वे एक साथ या एक-एक करके जगत्के सृष्टिकर्ता मानने लगे । ३. इससे भी आगे जाकर वैदिक ऋषि ईश्वरको निश्चित रूप देनेके लिए सअसद जीवन-मृत्यु आदि परस्पर विरोधी शब्दो का वर्णन करने लगे । ४ इससे भी आगे ब्राह्मणग्रन्थोकी रचना के युग में ईश्वरके सम्बन्ध में अनेको मनोरंजक कल्पनाऍ जागृत हुईं। यथा-प्रजातिने एकसे अनेक होनेकी इच्छा की। उसके लिए उसने तप किया। जिससे क्रमश धूप, अग्नि, प्रकाश आदिकी उत्पत्ति हुई । उसीके अबिन्दु समुद्रमे गिर जानेसे पृथिवीकी उत्पत्ति हुई। अथवा उसके तपसे ब्राह्मणव जलकी उत्पत्ति हुई, जिससे सृष्टि बनो । ५. उपनिषद् युगमें कभी तो असद मृत्यु क्षुधा आदि जल, पृथ्वी आदिको उत्पत्ति मानी गयी है, कहीं ब्रह्मसे, और कही अक्षरसे सृष्टिकी रचना मानी गयी है । (स्या,मं/परिपृ. ४११ ) ।
२. ईश्वरवादी मत
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भारतीय दर्शनों में चापौ जैन, मीमासक, सारूप और योगदर्शन तथा वर्तमानका पाश्चात्य जगत् इस प्रकारके सृष्टि रचयिता किसी एक ईश्वरका अस्तित्व स्वीकार नहीं करता। परन्तु न्याय और वैशेषिक दर्शनी में ईश्वरको सृष्टिका रचयिता माना गया है (स्वा.म / परि. ग. पू. ४९३) ।
३. ईश्वर कर्तृत्वमें युक्तियाँ
इसके लिए वे लोग निम्न युक्तियाँ देते है -१ नैयायिकोका कहना है कि सृष्टिका कोई कर्ता अवश्य होना चाहिए, क्योंकि वह कार्य है । २ कुछ ईश्वरवादी पाश्चात्य विद्वान् कहते है कि यदि ईश्वर न होता तो उसके अस्तित्वको भावना ही हमारे हदयमे जागृत न होती । ३. वैदिक जनोका कहना है कि बिना किसी सचेतन नियन्ताके सृष्टिकी इतनी अद्भुत व्यवस्था सम्भव नहीं थी। अपने ऊपर आये आक्षेपोका उत्तर भी वे निम्न प्रकार देते है -- १. कृतकृत्य होकर भी केवल करुणाबुद्धिसे उसने सृष्टिकी रचना की । २. प्राणियो के पुण्य-पापके अनुसार होनेके कारण वह रचना सर्वथा सुखमय नही हो सकती । ३ शरीर रहित होते हुए भी उसने इच्छामात्र से उसकी रचना की है । ४. प्रत्यक्ष व अनुमान प्रमाणमे सिद्ध न होनेपर भी वह शब्द प्रमाणसे सिद्ध है (स्वा.मं./परि.ग. ४१३४१८ ) ।
* अन्य सम्बन्धित विषय
१. लोगों का ईश्वरवाद और जैनियोंका कर्म कर्तावाद एक ही
बात है-दे० कारक / कर्ता ।
२. मतिप्रकरण में ईश्वर में कर्तापनेका आरोप निषिद्ध नहीं
- दे० भक्ति ।
२. जीवका कचिर्ता अपना-दे०चैतना/३ परमाध्यात्मतरंगिनी -
"आ० अमृतचन्द्र (३० १०५-१५५) कृत संस्कृत छन्दबद्ध कलशोंकी आ० शुभचन्द्र भट्टारक (वि १५७३
२२
परमेष्ठी
३० १२९६) कृत संस्कृत टीका यह अधिकारी में विभक्त २३२ श्लोकप्रमाण है। विषय अध्यात्म है । (ती./३/३६६) ।
परमानंदात्मोपयोग अपर नाम दे० मोक्षमार्ग/२/५ । परमानन्द विलास देवीशस ( ई० १०५६-२०६०) द्वारा
रचित भाषापद संग्रह 1
परमार्थपरमार्थ
स./ सा // १५१ परमट्ठी स्वछ समओ सुद्धो जो केमली मुणी गाणी | तहि दिदा सहावे गुनियो पाति जिम्मा १५१। निश्चय जो परमार्थ है, समय है, सुख है, केवली है, मुनि है, ज्ञानी है, उस स्वभाव में स्थित मुनि निर्वाणको प्राप्त होते है । न.च.वृ./४ उच्च तह परमट्ठ दव्यसहाय सहेब परमपरं धेयं शुद्ध परमं यट्ठा हुति अभिहाणा |४| तत्त्व, परमार्थ, द्रव्यस्वभाव, पर, अपर, ध्येय, शुद्ध, और परम ये सब एक ही अर्थ को जनानेवाले है । ससा./ता.वृ./१५१/२९४/११९ उत्कृष्टार्थ परमार्थ धर्मार्थकाममोक्षलक्षणेषु परमार्थेषु परमष्टमोक्षलक्षणोऽर्थः परमार्थ अथवा मतिश्रुता वधिमन पर्यय केवलज्ञानभेदरहितत्वेन निश्चयेने कः परमार्थ सोऽपि परमात्मैद | उत्कृष्ट अर्थको परमार्थ कहते है। अर्थात धर्म, अर्थ, काम, मोक्षलक्षणा परमार्थ जो परम उत्कृष्ट है, ऐसा मोक्ष लक्षणवाला अर्थ परमार्थ कहलाता है। अथवा मति, श्रुत, अवधि, मनापर्यय न केवलज्ञानके भेरसे रहित होनेसे निश्चयसे एक ही परमार्थ है वह भी आत्मा ही है।
=
-शुद्धोपयोग अपर नाम- दे० मोक्षमार्ग / २ / ५ ६
परमार्थं तत्त्व - शुद्धोपयोग अपर नाम - दे० मोक्षमार्ग /२/५ । परमार्थ प्रत्यक्ष-०९।
·
परमार्थ बाह्य - स. सा./ता.वृ./१५२- १५३/२१७ भेदज्ञानाभावाद परमार्थमाह्या | १३२ | परमसामायिकमलभमानाः परमार्थमाह्याः | १५३| = भेदज्ञानके न होनेके कारण परमार्थबाह्य कहलाते है ११५२० परम सामायिकको नहीं प्राप्त करते हुए परमार्थ बाह्य होते है ॥१५३॥ परमावगाढ सम्यग्दर्शन -३० सम्यदर्शन २ परमावधिज्ञान दे० अज्ञान/१
-
परमावस्था दे० मोक्षमार्ग २/३ । परमेश्वर
कालीन सोलहवें तीर्थंकरदे० तीर्थंकर / २. आप एक कवि थे। आपने वागर्थ संग्रह पुराणग्रन्थ चम्पू रूपमें लिखा था। समय - ई० ७६३ से पूर्ववर्ती (म. पु. प्र. / ४८ प. पन्नालाल ); ३. परमात्मा के अर्थ में परमेश्वर - दे० परमात्मा । परमेश्वर तत्व/२१/७/२८५ नाभिस्कन्धाद्विनिष्कान्तं प
दरमध्यगम् । द्वादशान्ते सुविश्रान्तं तज्ज्ञेयं परमेश्वरम् ॥७॥ [ जो नाभिस्कन्ध से निकाला हुआ तथा हृदय कमल में से होकर द्वादशान्त ( तालुरंध ) में विश्रान्त हुआ ( ठहरा हुआ ) पवन है उसे परमेश्वर जानो क्योकि यह पवनका स्वामी है ॥७॥
परमेष्ठी- आप एक कवि थे। आपने वागर्थ संग्रह पुराणकी रचना की थी। आपका समय आ० जिनसेनके महापुराण (वि.८१७ ) से पहले बताया जाता है। (म. पु. / प्र./२१ / पं. पन्नालाल ) । परमेष्ठो
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स्व. तो /टी./३६ परमपदे तिष्ठति इति परमेष्ठी परमात्मा । जो परमपदता है वह परमेष्ठी परमात्मा होता है।
भा.पा./टी./१४६/२६३/८ परमे इन्द्रचन्द्र धरणेन्द्रवन्दिते पदे मिती वि
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परमेष्ठी गुणवत
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परिग्रह
परमेष्ठी। जो इद्र, चन्द्र, धरणेन्द्र के द्वारा वन्दित ऐसे परमपदमे तिष्ठता है वह परमेष्ठी होता है । ( स.श./टी./६/२२५) ।
२. निश्चयसे पंचपरमेष्ठी एक आत्माकी ही पर्याय है मो.पा./५ /१०४ अरुहा सिद्धायरिया उज्झाया साहु पंच परमेठी। ते वि हु चिट्ठहि आधे तम्हा आदाहु मे सरणं ।१०४।-अर्हन्त, सिद्ध, आचार्य, उपाध्याय अर साधु ये पंचपरमेष्ठी है. ते भी आत्माविषे ही चेष्टा रूप है, आत्माकी अवस्था है, इसलिए निश्चयसे मेरे आत्मा ही का सरणा है ।१०४। * अन्य सम्बन्धित विषय
१. पाँचों परमेष्ठीमें कथंचित् देवत्व-दे० देव/||१। २. अर्हन्त, सिद्ध, आचार्य, उपाध्याय व साधु-दे० वह वह नाम । ३. आचार्य, उपाध्याय, साधुमें कथंचित् एकता-दे० साधु/६ । ४. सिद्धसे पहले अर्हतको नमस्कार क्यों-दे० मंत्र/२।
परमेष्ठी गुणवत-अर्हन्तोके ४६, सिद्धोंके ८: आचार्योके ३६;
उपाध्यायोके २५ और साधुओके २८ ये सब मिलकर १४३ गुण है। निम्न विशेष तिथियोमें एकान्तरा क्रमसे १४३ उपवास करे और नमस्कार मन्त्रका त्रिकाल जाप्य करे। १४३ गुणोंकी पृथक् तिथियाँअर्डन्त भगवान्के १० अतिशयोकी १० दशमी; केवलज्ञानके अतिशयोंकी १० दशमी, देवकृत १४ अतिशयोंकी १४ चतुर्दशी, अष्ट प्रतिहार्योंकी ८ अष्टमी; चार अनन्तचतुष्टय की ४ चौथ-४६ । सिद्धोके सम्यक्त्वादि आठ गुणोंकी आठ अष्टमी। आचार्योंके बारह तपोकी १२ द्वादशी, छह आवश्यकोंकी ६ षष्ठी; पंचाचारकी पंचमी, दश धर्मोंकी १० दशमी, तीन गुप्तियोंकी तीन तीज-३६ । उपाध्यायके चौदह पूर्वोको १४ चतुर्दशी, ११ अंगोंकी ११ एकादशी-२५ । साधुओके ५ वतकी पाँच पंचमी; पाँच समितियोकी । पचमी, छह आवश्यकोंकी ६ षष्ठी, शेष सात क्रियाओंकी ७ सप्तमी-२८ । इस प्रकार कुल ३ तीज, ४ चौथ, २० पचमी: १२ छठ, ७ सप्तमी, ३६ अष्टमी, नवमी कोई नही, ३० दशमी, ११ एकादशी, १२ द्वादशी, त्रयोदशी कोई नही, २८ चतुर्दशी-१४३। (व्रतविधान संग्रह/पृ.११८ )। परमेष्ठी मंत्र- मंत्र/१/६ । परलोक-प.प्र/ती./११०/१०३/४ पर उत्कृष्टो वीतरागचिदानन्दै
कस्वभाव आत्मा तस्य लोकोऽवलोकनं निर्विकल्पसमाधौ वानुभवनमिति परलोकशब्दस्यार्थः, अथवा लोक्यन्ते दृश्यन्ते जोवादिपदार्थाः यस्मिन् परमात्मस्वरूपे यस्य केवलज्ञानेन वा स भवति लोक', परश्चासौ लोकश्च परलोक' व्यवहारेण पुन' स्वर्गापवर्गलक्षण परलोको भण्यते । =१. पर अर्थात उत्कृष्ट चिदानन्द शुद्ध स्वभाव आत्मा उसका लोक अर्थाव अवलोकन निर्विकल्पसमाधिमै अनुभवना यह परलोक है। २. अथवा जिसके परमात्म स्वरूपमें या केवलज्ञानमें जोवादि पदार्थ देखे जावे, इसलिए उस परमात्माका नाम परलोक है । ३. अथवा व्यवहार नयकर स्वर्गमोक्षको परलोक कहते है। ४. स्वर्ग और मोक्षका कारण भगवानका धर्म है, इसलिए केवल) भगवानको मोक्ष कहते है। परवश अतिचार-दे० अतिचार/१।
उनके दर्शन जिनके द्वारा 'परोद्यन्ते' अर्थात द्रषित किये जाते है वह राद्धान्त ( सिद्धान्त) परवाद कहलाता है। इस प्रकार परवादका कथन किया। परव्यपदश-स.सि 19/३६/३७२/१ अन्यदातृदेयार्पणं परव्यपदेश ।
- इस दानकी वस्तुका दाता अन्य है यह कहकर देना परव्यपदेश है। (रा. वा/७/३६/३/५५८/२४); (चा. सा./२७/५) परव्यपदेश नय-दे० नय/HI/५ । परशुराम यमदग्नि तापसका पुत्र ( बृहत् कथाकोष/कथा ५६/१० । परसंग्रह नय-दे० नय/III/४! परसमय-दे० मिथ्यादृष्टि। २ परसमय व स्वसमयके स्वाध्यायका
क्रम-दे० उपदेश/३/४-५ । परस्त्रा -दे०स्त्री;२ पर स्त्री गमनका निषेध-दे० ब्रह्मचर्य/३ । परस्थान सन्निकर्ष-दे० सन्निकर्ष । परस्पर कल्याणक व्रत-दे. कल्याणक व्रत । परस्पर परिहार लक्षण विरोध-दे० विरोध । परा--का.अ/मू./१६६ णोसेस-कम्म-णासे अप्प-सहावेण जा समुप्पत्ती। कम्मज-भाव-खए-विय सा विय पत्ती परा होदि ।समस्त कौंका नाश होनेपर अपने स्वभावसे जो उत्पन्न होता है उसे परा कहते है। और कर्मोंसे उत्पन्न होनेवाले भावोके क्षयमे जो उत्पन्न होता है उसे भी परा कहते है ।१६। मो पा./टी /६/३०८/१८ परा उत्कृष्टा । परा अर्थात् उत्कृष्ट । पराजय-शास्त्रार्थ में हार जीत सम्बन्धो-दे० न्याय/२ । परात्मा -स.श./टो.६/२२५/१५ परात्मा ससारिजीवेम्य. उत्कृष्ट
आत्मा । ससारीमेसे जो उत्कृष्ट आत्मा बन जाती है उसे परात्मा कहते है। परार्थ प्रमाण-दे० प्रमाण/१ ।
-दे० अनुमान /१। परावर्त-अशुभ नामकर्मकी २६ प्रकृतिमें-दे०प्रकृति बंध/२ । पराशर-पा.प्र./७/श्लोक-राजा शान्तनुका पुत्र (७६) तथा गागेय (भीष्म ) का पिता था (७८-८०)। एक समय धीवरकी कन्या गुणावतीपर मोहित हो गया। और उसकी सन्तानको ही राज्य मिलेगा' ऐसा वचन देकर उससे विवाह किया (८३-११५) । परिजा-भरत क्षेत्र आर्य खण्डका एक देश-दे० मनुष्य/४ । परिकम-दृष्टिप्रवाद अगका प्रथम भेद-दे० श्रुतज्ञान/III/२.
आचार्य कुन्दकुन्द (ई. १२७--१७६) द्वारा षटूखण्डागमके प्रथम तीन खण्डोंपर प्राकृत भाषामें लिखी गयी टीका । (दे०कुन्दकुन्द), (विशेष दे० परिशिष्ट)। परिकमोष्टक-गणित विषयक-सकलन, व्यकलन, गुणकार, भागहार, वर्ग, वर्गमूल, घन और घनमूल ये ८ विषय परिकर्माष्टक कहलाते है (विशेष दे० गणित /I11१)। परिगणित-Mathematics. (ज.प./प्र.१०७) । परिगृहीता-स.सि./७/२८/३६८/१। या (स्त्री) एकपुरुषभर्तृका
सा परिगृहोता। जिसका कोई एक पुरुष भर्ता है वह परिगृहीता कहलाती है । (रा.वा./७/२८/२/५५४/२८)। परिग्रह-परिग्रह दो प्रकारका है-अन्तरंग व बाह्य । जीवोका राग अन्तरंग परिग्रह है और रागी जीवोंको नित्य ही जो बाह्य पदार्थों
परवाव-ध.१३/५,५०१०/२८८/१ "मस्करी-कणभक्षाक्षपाद-कपिलशौद्धोदनि-चार्वाक-जैमिनिप्रभृतयस्तदर्शनानि च परोद्यन्ते दूष्यन्ते अनेनेति परवादो राद्धान्तः । परवादो ति गर्द।" मस्करी, कणभक्ष, अक्षपाद, कपिल, शौद्धोदनि, चार्वाक और जैमिनि आदि तथा
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परिग्रह
ये
का ग्रहण व सग्रह होता है, वह सब बाह्य परिग्रह कहलाता है। इसका मूल कारण होनेसे वास्तव में अन्तरग परिग्रह ही प्रधान है। उसके न होनेपर बाह्य पदार्थ परिषद् संज्ञाको प्राप्त नहीं होते, क्योंकि ये साधकको जबरदस्ती राग बुद्धि उत्पन्न करानेको समर्थ नहीं है। फिर भी अन्तरंग परिग्रहका निमित्त होनेके कारण श्रेयोमार्ग में इनका त्याग करना इष्ट है।
9
१ परिग्रहके लक्षण ।
*
परिग्रहके मेद
१
निज गुणोंका ग्रहण परिग्रह नहीं ।
३ वातादिक विकाररूप (शारीरिक) मूर्च्छा परिग्रह नहीं।
परिग्रहकी अत्यन्त निन्दा
परिग्रहका हिसामें अन्तर्भाव
*
*
५
*
5 29
*
गृहस्थ के ग्रहण योग्य परिग्रह
साधुके ग्रहण योग्य परिग्रह ।
२
परिग्रह त्याग व्रत व प्रतिमा
१
परिग्रह त्याग अणुव्रतका लक्षण ।
२
परिग्रह त्याग महाव्रतका लक्षण ।
३ परिग्रह त्याग प्रतिमाका लक्षण ।
४ परिग्रह त्याग व्रतको पाँच भावनाएँ ।
व्रतकी भावनाओं सम्बन्धी विशेष विचार दे०/२ ५ परिग्रह परिमाणाव्रतके पाँच अतिचार ।
६
परिग्रह परिमाण व्रत व प्रतिमामें अन्तर । परिग्रह त्यागको महिमा ।
परिग्रह त्याग व व्युत्सर्गं तपमें अन्तर - दे० व्युत्सर्ग / २ । परिग्रह परिमाण व क्षेत्र वृद्धि अतिचार में अन्तर
३
१
२
३
परिग्रह सामान्य निर्देश
४
५
६
8
१
२
- दे० ग्रंथ 1
कमका उदय परिग्रह आदिकी अपेक्षा होता है
-दे० हिंसा / १/४
समन्वय
दानार्थ भी धन संग्रहकी इच्छाका
-दे० उदय/२ । - ३० परिग्रह
-दे० दिग्वत । परिग्रह में कदाचित् किचित् अपवादका ग्रहण
- दे० अपवाद | विधिनिषेध
दे० दान /६ ।
अंतरंग परिग्रहकी प्रधानता
बाह्य परिग्रह नहीं अन्तरंग ही है ।
तीनों का सम्बन्धी परिग्रहमें इच्छाकी प्रधानता।
अभ्यन्तर के कारण बाह्य है, बाह्यके कारण अभ्यन्तर
नहीं ।
अन्तरंग त्याग ही वास्तव में व्रत है।
अन्तरंग त्यागके बिना बाह्य त्याग अतिचित्कर है।
बाह्य त्यागमें अन्तरंगको ही प्रधानता है।
बाह्य परिग्रहकी कथंचित् मुख्यता व गौणता
बाह्य परिग्रहको परिग्रह कहना उपचार है।
बाह्य त्यागके बिना अन्तरंग त्याग अशक्य है ।
२४
₹
१
२
३
४
५
६
१. परिग्रह सामान्य निर्देश
बाह्य पदार्थोंका आश्रय करके ही रागादि उत्पन्न होते है ।
बाह्य परिग्रह सर्वदा बन्धका कारण है।
बाह्याभ्यन्तर परिग्रह समन्वय
दोनोंमें परस्पर अविनाभावीपना ।
बाह्य परिग्रहके ग्रहणमें इच्छाका सद्भाव सिद्ध है।
बाह्य परिग्रह दुःख व इच्छाका कारण है ।
इच्छा हो परिग्रह ग्रहणका कारण है । आकिंचन्य भावनाले परिचहका त्याग होता है। अभ्यन्तरत्यागमें सर्वबाह्य त्याग अन्तर्भूत है । परिग्रह त्यागवतका प्रयोजन ।
निश्चय व्यवहार परिग्रहका नवायें ।
अचेलकत्व के कारण व प्रयोजन - दे० 'अचेलकत्व' ।
१. परिग्रह सामान्य निर्देश
१. परिग्रह के लक्षण
त. सू. /७/१७ मूर्च्छा परिग्रह |१७|= मूर्च्छा परिग्रह है |७| स.सि./४/११/२६२/५ लोभायोदयाद्विषयेषु सङ्ग परिग्रह स.सि./६/ १२ / ३३२/१० ममेदंबुद्धिलक्षण परिग्रह | ससि / ७ /१०/२६६/१० रागादयः पुनः कर्मोदयतन्त्रा इति अनात्मस्वभा
पाया। ततस्तेषु सङ्कल्पः परिग्रह इति युज्यते । १. लोभ कषायके उदयसे विषयो मंगको परिग्रह कहते है (रा.वा./४/२१ ३ / २३६/७ ), २. 'यह वस्तु मेरी है, इस प्रकारका संकल्प रखना परिग्रह है। (स.सि./०/१७/३२५/६ ) ( रा. ना./६/१२/३/५२५/२७) (त.सा /४/०७): ( साप / ४/५६) ३. रागादि तो हमके उदयसे होते है, अत: वह आत्माका स्वभाव न होनेसे हेय है । इसलिए उनमें होनेवाला संकल्प परिग्रह है। यह बात बन जाती है। (रावा /७/ १०/५/२४५/१०) ।
रामा/६/१५/३/२२५/२० ममेदं वस्तु अहमस्य स्वामीत्यात्मात्मीयाभिमान' संकल्पः परिग्रह हरमुच्यते। यह मेरा है मैं इसका स्वामी इस प्रकारका ममत्व परिणाम परिग्रह है ।
घ. १२/४,२८,६/२८२/९ परिगृह्यत इति परिग्रहः बाह्यार्थः क्षेत्रादि, परिगृह्यते अनेनेति च परिग्रह माह्मार्थमहेतुरत्र परिणामः । = परिगृह्यते इति परिग्रह' अर्थात् जो ग्रहण किया जाता है । इस निरुक्तिके अनुसार क्षेत्रादि रूप बाह्य पदार्थ परिग्रह कहा जाता है, तथा 'परिगृह्यते अनेनेति परिग्रह" जिसके द्वारा ग्रहण किया जाता है वह परिग्रह है, इस निरुक्तिके अनुसार यहाँ बाह्यपदार्थ के ग्रहण कारणभूत परिणाम परिग्रह कहा जाता है।
स सा.आ./२१० इच्छा परिग्रह इच्छा है वहीं परिग्रह है।
। =
२. निज गुणका प्रहण परिग्रह नहीं
स. सि./७/१७/३५५/६ यदि ममेदमिति संकल्प परिग्रह; संज्ञानाद्यपि परिग्रहः प्राप्नोति तदपि हि ममेदमिति संकाप्यते रागादिपरिणामबद मेष दोष 'प्रमत्तयोगाद् इत्यनुवर्तते। ततो ज्ञानदर्शनचा रिश्तोऽप्रमत्तस्य मोहाभावात्र मुर्च्छाऽस्तीति निष्परिग्रह सिद्धं । किच तेषां ज्ञानादीनामहेयत्वादात्मस्वभावत्वादपरिग्रहत्वस् ।
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१.परिग्रह सामान्य निर्देश
परिग्रह
-प्रश्न-'यह मेरा है' इस प्रकारका संकल्प हो परिग्रह है तो ज्ञानादिक भो परिग्रह ठहरते है, क्योकि रागादि परिणामोके समान ज्ञानादिकमे भो 'यह मेरा है। इस प्रकारका संकल्प होता है। उत्तरयह कोई दोष नही है, क्योकि 'प्रमत्तयोगात' इस पदको अनुवृत्ति होती है, इसलिए जो ज्ञान, दशन और चारित्रवाला होकर प्रमाद रहित है उसके मोहका अभाव होनेसे मुर्छा नहीं है, अतएव परिग्रह रहितपना सिद्ध होता है। दूसरे वे ज्ञानादिक अहेय है और आत्माके स्वभाव है इसलिए उनमे परिग्रहपना नही प्राप्त होता । (रा.वा /७/१७/४/५४५/१४)।
३. वातादि विकाररूप मूर्छा परिग्रह नहीं स.सि /७/१७/३५४/१ लोके वातादिप्रकोपविशेषस्य मर्छति प्रसिद्धिरस्ति तद्ग्रहण कस्मान भवति । सत्यमेवमेतत् । मूच्छिरय मोह सामान्ये वर्तते । “सामान्यचोदनाश्च विशेषेष्वव तिष्ठन्ते" इत्युक्त विशेषे व्यवस्थितः परिगृह्यते। - प्रश्न-लोकमे वातादि प्रकोप विशेषका नाम मूच्छा है ऐसी प्रसिद्वि है, इसलिए यहाँ इस मूच्र्वाका ग्रहण क्यो नहीं किया जाता । उत्तर-यह कहना सत्य है, तथापि मूच्छि धातुका सामान्य मोह अर्थ है. और सामान्य शब्द तहगत विशेषोमे ही रहते है, ऐसा मान लेनेपर यहाँ मूच्र्वाका विशेष अर्थ हो लिया गया है, क्योकि यहाँ परिग्रहका प्रकरण है। (रा वा // १७/२/५४५/३)। ४. परिग्रहकी अत्यन्त निन्दा
मैथुन कर्ममे रत होता है। नरकादिकमें जितने दुख है वे सब इससे उत्पन्न होते है। प. प्र /मू /२/८८-१० चेल्ला-चेल्ली-पुत्थियहि तूसइ मूढ णिभंतु । एयहि लज्जइ णाणियउ बधहं हेउ मुणतु ।८८) चट्टहि पट्टहि कुंडियहि चेल्ला-चेल्लियएहि । मोहु जणेविणु मुणिवरह उप्पहि पाडिय तेहि ८६। केण वि अप्पड वंचियउ सिरु लंचिवि छारेण । सयल वि संगण परिहरिय जिगवरलिगधरेण । -अज्ञानी जन चेला चेली पुस्तकादिकसे हर्षित होता है, इसमे कुछ सन्देह नहीं है, और ज्ञानीजन इन बाह्य पदार्थोसे शरमाता है, क्योकि इन सबौंको बन्धका कारण जानता है ।८८। पीछी, कमण्डलु, पुस्तक और मुनि श्रावक रूप चेला, अजिंका. श्राविका इत्यादि चेली-ये संघ मुनिबरोको मोह उत्पन्न कराके वे उन्मार्ग में डाल देते है।८। जिस किसीने जिनवरका भेष धारण करके भस्मसे सिरके केश लौच किये है, लेकिन सब परिग्रह नही छोड़े, उसने अपनी आत्माको ठग लिया । प्र. सा/त. प्र./२१३ २१६ सर्व एव हि परद्रव्यप्रतिबन्धा उपयोगोपराकत्वेन निरुपरागोपयोगरूपस्य श्रामण्यस्य छेदायतनानि तदभावादेवाच्छिन्नश्रामण्यम । उपधे . छेदत्वमैकान्तिक्मेव । वास्तवमे सर्व ही परद्रव्य प्रतिबन्धक उपयोगके उपरंजक होनेसे निरुपराग उपयोग रूप श्रामण्यके छेदके आयतन है। उनके अभावसे ही अच्छिन्न श्रामण्य होता है ।२१३। उपधिमे एकान्तसे सर्वथा श्रामण्यका छेद ही है। (और छेद हिसा है)। पु सि. उ./११६ हिसापयित्वात्सिद्वा हिंसान्तरङ्गसङ्गेषु । बहिरड्गेषु तु नियतं प्रयातु मूच्छेब हिसात्वम् ।११६॥ = हिसाके पर्याय रूप होने के कारण अन्तर ग परिग्रहमें हिसा स्वयं सिद्ध है, और बहिर ग परिग्रहमे ममत्व परिणाम ही हिसा भावको निश्चयसे प्राप्त होते है।११६॥ ज्ञा./१६/१२/१७८ संगात्कामस्तत. क्रोधस्तस्माद्धिसा तयाशुभम् । तेन श्वाभ्री गतिस्तस्यां दुखं वाचामगोचरम् ।१२. = परिग्रहसे काम होता है, कामसे क्रोध, क्रोधसे हिंसा, हिसासे पाप, और पापसे नरकगति होती है। उस नरकगतिमें वचनोके अगोचर अति दुःख होता है। इस प्रकार दुखका मूल परिग्रह है ।१२) प वि./१/५३ दुानार्थ मवद्यकारणमहो निम्रन्थताहानये, शय्याहेतु तृणाद्यपि प्रशमिना लज्जाकर स्वीकृतम् । यत्तरिक न गृहस्थयोग्यमपर स्वर्णादिक साप्रत, निर्ग्रन्थेष्वपि चेत्तदस्ति नितरा प्राय प्रविष्टः कलि ।५३१८जब कि शय्याके निमित्त स्वीकार किये गये लज्जाजनक तृण (प्याल) आदि भी मुनियो के लिए आर्त-रौद्र स्वरूप दुनि एवं पापके कारण होकर उनकी निर्ग्रन्थताको नष्ट करते है, तब फिर वे गृहस्थके योग्य अन्य सुवर्णादि क्या उस निर्ग्रन्थताके घातक न होंगे। अवश्य होंगे। फिर यदि वर्तमानमें निर्ग्रन्थ मुनि सुवर्णादि रखता है तो समझना चाहिए कि कलिकालका प्रवेश हो चुका
सु.पा/मू /१६ जस्स परिग्गहगहणं अप्पं बहुय च हवइ लिगस्स । सो
गरहिउ जिणवयणे परिगहरहिओ निरायारो।१६। जिसके मतमें लिगधारीके परिग्रहका अल्प वा बहुत ग्रहणपना कहा है सो मत तथा उस मतका श्रद्धावान पुरुष निन्दा योग्य है जाते जिनमत विष परिग्रह रहित है सो निरागार है निर्दोष है। मो. पा./सू 1७६ जे पचचेलसत्ता गंथग्गाहीय जायणासीला। बाधाकम्मम्मि रया ते चत्ता मोक्रवमग्गम्मि ७g) -जो पाँच प्रकारके ( अण्डज, कसिज, वल्कल, रोमज, चर्मज) वस्त्रमें आसक्त है, मॉगनेका जिनका स्वभाव है, बहुरि अध कर्म अर्थात पापकर्म विषै रत है, और सदोष आहार करते है ते मोक्षमार्गत च्युत है ।। 'लि पा /मू १५ सम्मूहदि रक्खेदि य अट्ट झाएदि बहुपयत्तेण। सो पावमाहिदमदो तिरिक्वजोणी ण सो समणो ।५। जो निग्रन्थ लिगधारी परिग्रह कू सग्रह करै है, अथवा ताका चिन्तवन करे है, बहुत प्रयत्नसे उसकी रक्षा कर है, वह मुनि मापसे मोहित हुई है बुद्धि जिसकी ऐसा पशु है श्रमण नही ।। (भ. आ./म /११२६
११७३)। र सा /मू /१०६ धणधण्ण पडिग्गहण समणाण दूसण होइ ।१०। - जो मुनि धनधान्य आदि सबका ग्रहण करता है वह मुनि समस्त मुनियो
को दूषित करनेवाला होता है। मू.आ /६१८ मूल छित्ता समणो जो गिण्हादो य बाहिर जोग । बाहिरजोगा सव्वे मूलविहूणस्स कि करिस्संति ९१८ - जो साधु अहिंसादि मूलगुणोको छेद वृक्षमूलादि योगोको ग्रहण करता है, सो मूलगुण रहित है । उस साधुके सब बाहरके योग क्या कर सकते है,उनसे कर्मोंका क्षय नही हो सकता।६१८1 स सि /७/१७/३५५/११ तन्मूला. सर्व दोषा' संरक्षणादयः सजायन्ते । तत्र च हिंसावश्यंभाविनी। तदर्थमनृतं जत्पति। चौयं वा आचरति मैथुने च कमणि प्रयतते। तत्प्रभवा नरकादिषु दुखप्रकारा। - सन दोष परिग्रह मूलक ही होते हैं। 'यह मेरा है' इस प्रकारके सकल्प होने पर सरक्षण आदि रूप भाव होते है। और इसमें हिसा अवश्यम्भाविनी है। इसके लिए असत्य बोलता है, चोरी करता है,
५, साधुके ग्रहण योग्य परिग्रह प्र. सा /मू /२२२-२२५ छेदो जेण ण विजदि गहणविसग्गेमु सेवमाणस्स । समणो तेणिह बट्टदु काल वेत्त वियाणित्ता १२२२१ अप्पडिकुट उवधि अपत्थणिज्ज असजदजणेहि । मुच्छादिजणणरहिद गेण्हदु समणो जदि वि अप्पं ।२२३। उवयरणं जिणमग्गे लिंग जहजादरूवमिदि भणिदं । गुरुवयण पि य विणओ सुत्तज्झयणं च णिहिटूठ १२२३॥ -जिस उपधिके (आहार-विहारादिकके ) ग्रहण विसर्जनमें सेवन करने में जिससे सेवन करने वालेके छेद नहीं होता उस उपधि युक्त काल क्षेत्रको जानकर इस लोकमें श्रमण भले वर्ते ।२२२। भले ही अल्प हो तथापि जो अनिन्दित हो, असयतजनोसे अप्रार्थनीय हो, और जो मुर्धादिको जनन रहित हो, ऐसा ही उपधि श्रमण ग्रहण करो।२२३। यथाजात रूप (जन्मजात-नग्न) लिग जिनमार्ग में
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भा० ३-४
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परिग्रह
उपकरण कहा गया है, गुरुके वचन, सूत्रोका अध्ययन, और विनय भो उपकरण कही गयी है ।२२। (विशेष देखो उपरोक्त गाथाओकी टोका)।
२. परिग्रह त्याग व्रत व प्रतिमा
१. परिग्रह त्याग अणुव्रतका लक्षण र. के श्रा/६१ धनधान्यादिग्रन्थ परिमाय ततोऽधिकेषु नि स्पृहता।
परिमितपरिग्रह स्यादिच्छापरिमाणनामापि।६१। =धन धान्यादि दश प्रकारके परिग्रहको परिमित अर्थात उसका परिमाण करके कि 'इतना रखेगे' उससे अधिकमे इच्छा नहीं रखना सो परिग्रह परिमाण व्रत है। तथा यहो इच्छा परिमाण वाला व्रत भी कहा जाता
है ।६११ (म. सि /७/२०/३५८/११), (स, सि /७/२६/३६८/११)। का अ//३३६-३४० जो लोहं णिहणित्ता सतोस-रसायणेण सतुटठो । णिण दि तिण्हा दुट्ठा मण्णं तो विणस्सर सव्व ।३३६। जो परिमाणं कुत्रादि धण-धण्ण-सुवण्ण-खित्तमाईणं । उवओग जाणित्ता अणुव्वदं पचम तस्स ।३४०१ -- जो लोभ कषायको कम करके, सन्तोष रूपी रसायनसे सन्तुष्ट होता हुआ, सबको विनश्वर जानकर दुष्ट तृष्णाका घात करता है। और अपनी आवश्यकताको जानकर धन, धान्य, सुवर्ण और क्षेत्र वगेरहका परिमाण करता है उसके पाँचवा अणुव्रत होता है ।३३६-३४०।
२. परिग्रह त्याग महाव्रतका लक्षण मु. आ/६,२६३ जोर णिबद्वा बद्धा परिग्गहा जीवसभवा चेव । तेसि
सक्कचाओ इयरम्हि य णिम्मओऽसगो।।। गाम णगरं रणं थूल सच्चित बहु सपडिववव । अव्य त्थ बाहिरत्थ तिविहेण परिग्गह बज्जे ।२६३। - जीवके आश्रित अन्तर ग परिग्रह तथा चेतन परिग्रह, व अचेतन परिग्रह इत्यादिका शक्ति प्रगट करके त्याग, तथा इनसे इतर जो सयम, ज्ञान शौचके उपकरण इनमे ममत्वका न होना परिग्रह त्याग महावत है ।। ग्राम, नगर वन क्षेत्र इत्यादि बहुत प्रकारके अथवा सूक्ष्म अचेतन एकरूप वस्त्र सुवर्ण आदि बाह्य परिग्रह और मिश्यात्वादि अन्तर ग परिग्रह - इन सबका मन, वचन, काय कुत कारित अनुमोदनासे मुनिको त्याग करना चाहिए। यह परिग्रह त्याग क्त है ।२६३॥ नि सा //६० सम्वेसि गथाण तागोणिखेक्ख भावणापुष । पचमवदमिदि भणिद चारित्तभर वह तस्स ।६०। -निरपेक्ष भावना पूर्वक सपिरिग्रहों का त्याग उस चारित्र भार वहन करनेवालोको पाँचवाँ वत कहा है।६०
२. परिग्रह त्याग व्रत व प्रतिमा मानकर अभ्यन्तर और बाह्य परिग्रहको आनन्द पूर्वक छोड देता है उसे निर्ग्रन्थ (परिग्रह त्यागी ) कहते है ।३८६। । सा ध/१/२३-२६ सग्रन्थविरतो य , प्राग्वतवातस्फुरधृति । नैते मे नाहमेतेषामित्युज्झति परिग्रहान् ।२३। एव व्युत्सृज्य सर्वस्व, मोहाभिभवहानये। किचित्काल गृहे तिष्ठेदौदास्य भावयन्सुधी ।२६। पूर्वोक्त आठ प्रतिमा विषयक व्रतोके समूहसे रफुरायमान है सन्तोष जिसके ऐसा जो श्रावक 'ये वास्तु क्षेत्रादिक पदार्थ मेरे नहीं है, और मै इनका नही हूँ' ऐसा मकल्प करके वास्तु और क्षेत्र आदिक दश प्रकारके परिग्रहोको छोड़ देता है वह श्रावक परिग्रह त्याग प्रतिमावान कहलाता है ।२३। तत्त्वज्ञानी श्रावक इस प्रकार सम्पूर्ण परिग्रहको छोड़कर मोहके द्वारा होनेवाले आक्रमणको नष्ट करनेके लिए उपेक्षाका विचारता हुआ कुछ कालतक धरमे रहे ॥२६॥ ला स/७/३६-४२ 'नवमतिमास्थान चत चास्ति गृहाश्रये। यत्र स्वर्णादिद्रव्यस्य सर्वतस्त्यजनं स्मृतम् ।३।। अस्त्यात्मक्शरीरार्थ वस्त्रवेश्मादि स्वीकृतम् । धर्मसाधनमात्रं वा शेष नि शेषणो यताम् ॥४१॥ स्यात्पुरस्तादितो यावत्स्वामित्व समयोषिताम् । तत्सर्व सर्वस्त्याज्य नि शल्यो जोबनावधि ।४२ व्रती श्रावककी नवम प्रतिमाका नाम परिग्रह त्यागप्रतिमा है। इस प्रतिमाको धारण करनेवाला श्रावक साना चॉदी आदि समस्त द्रव्यमात्रका त्याग कर देता है ।३।। तथा केवल अपने शरीरके लिए वस्त्र घर आदि आवश्यक पदार्थोको स्वीकार करता है अथवा धर्म साधनके लिए जिन-जिन पदार्थोंकी आवश्यकता पडतो है उनका ग्रहण करता है। शेष सबका त्याग कर देता है। भावार्थ--अपनी रक्षाके लिए वस्त्र, घर वा स्थान, अथवा अभिषेक पूजादिके वर्तन, स्वाध्याय आदिके लिए ग्रन्थ वा दान देनेके साधन रखता है। शेषका त्याग कर देता है।४१। इस प्रतिमाको धारण करनेसे पूर्व वह घर व स्त्रो आदिका स्वामी गिना जाता था परन्तु अब सबका जन्मपयंन्तके लिए त्याग करके निशल्य हो जाना पडता है ।४२॥
४. परिग्रह त्याग व्रतकी पाँच भावनाएँ
३ परिग्रह त्याग प्रतिमाका लक्षण र. क. श्रा/१४५ बाह्येषु दशसु वस्तुषु ममत्वमुत्सृज्य निममत्वरत ।
स्वस्थ सतोषपर परिचितपरिग्रहाद्विरत ।१४५। - जो बाह्यके दश प्रकारके परिग्रहो में ममताको छोडकर निर्ममतामे रत होता हुआ मायादि रहित स्थिर और संतोष वृत्ति धारण करने में तत्पर है वह सचित परिग्रहसे विरक्त अर्थात परिग्रहत्याग प्रतिमाका धारक है
।१४५। (चा सा /३८/६) वसु श्रा./२६४ मोत्तण बत्थमेतं परिग्गह जो विवज्जर सेसं । तत्थ विमुच्छ ण करेइ जाणइ सो सावओ णवमो ।२६] - जो वस्त्रमात्र परिग्रहको रखकर शेष सब परिग्रहको छोड़ देता है और स्वीकृत वस्त्रमात्र परिग्रहमें भी मूळ नही करता, उसे नवमां श्रावक जानो ।२६६( गुण श्रा/१८१) (द्र स.टी./४५/१६५/8)। का. अ/३८६ जा परिवज्जइ गथ अभतर-बाहिर च साण दो। पाव ति मण्णमाणो णिग्गयो सो हवे णाणी ।३८६। -जो ज्ञानो पुरुष पाप
त सू/७/८ मनोज्ञामनोनेद्रिन्य विषयरागद्वेषवर्जनानि पञ्च 1८1मनोज्ञ
और अमनोज्ञ इन्द्रियो के विषयोमे क्रमसे राग और द्वेषका त्याग करना ये अपरिग्रहवतकी पॉच भावनाएँ है ।। (भ. आ/मू /१२११) (चा. पा/मू /३६)। मू आ./३४१ अपरिग्गहस्स मुणिणो सहप्फरिसरसरूवगधेसु । रागहोसादीण परिहारो भावणा पच ३४१। =परिग्रह रहित मुनिके शब्द, स्पर्श, रस, रूप, गन्ध, इन पाँच विषयोमे राग द्वेग न होना-ये पाँच भावना परिग्रह त्याग महावत की है १३४११ स. सि/७/६/३४६/४ परिग्रहह्वान् शकुनिरिव गृहीतमासखण्डोऽन्येषा तदर्थना पतत्त्रिणामिहैव तस्करादीनामभिभवनीयो भवति तदर्जनरक्षणप्रक्षयकृताश्च दोषान् बहूनवाप्नोति न चास्य तृप्तिभवति इन्धनै रिवाग्ने लोभाभिभूतत्वाच्च कार्याकार्यानपेक्षो भवति प्रेत्य चाशुभा गतिमास्कन्दते लुब्धोऽयमिति गहितश्च भवतीति तद्विरमणश्रेय । एव हिसादिष्वपायावद्यदर्शन भावनीयम् ।" - जिस प्रकार पक्षी मासके टुकडेको प्राप्त करके उसको चाहनेवाले दूसरे पक्षियोंके द्वारा पराभूत होता है उसी प्रकार परिग्रहवाला भी इसी लोक्मे उसको चाहनेवाले चोर आदिके द्वारा पराभूत होता है। तथा उसके अर्जन, रक्षण और नाशसे होनेवाले अनेक दोषोको प्राप्त होता है, जैसे ईधनसे अग्निकी तृप्ति नहीं होती। यह लोभातिरेक्के कारण कार्य और अकार्यका विवेक नहीं करता, परलोक्मे अशुभ गतिको प्राप्त होता है । तथा 'यह लोभी है। इस प्रकारसे इसका तिरस्कार भी होता है इसलिए परिग्रहका त्याग श्रेयस्कर है। इस प्रकार हिसा आदि दोषोमे अपाय और अवद्यके दर्शनको भावना करनी चाहिए।
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३. अन्तरंग परिग्रहकी प्रधानता
परिग्रह
५. परिग्रह प्रमाणानुव्रतके पाँच अतिचार त म 18/२१ क्षेत्रवास्तुहिरण्यसुवर्ण धनधाग्यदासीदासकृप्यप्रमाणतिक्रमा ॥२९ क्षेत्र और वास्तुके, हिरण्य और सुवर्णके, धन और धान्य, दासी और दासके, तथा कुप्यके प्रमाणका अतिक्रम ये परिग्रह प्रमाण अणुचतके पॉच अतिचार है। ।२ (सा. ध/४/६४ मे
उधृत श्री सोमदेवकृत श्लोक)। र क श्रा/६२ अतिवाहनातिसंग्रहविस्मयलोभातिभारवहनानि । परिमितपरिग्रहम्य च विक्षेपा पञ्च लक्ष्यन्ते ।६२ =प्रयोजनमे अधिक सवारी रखना, आवश्यकीय वस्तुओं का अतिशय संग्रह करना, परका विभव देखकर आश्चर्य करना, बहुत लोभ करना, और किसीपर बहल भार लादना ये पॉच परिग्रहवतके अतिचार कहे जाते है।६२॥ सा घN६४ वास्तुक्षेत्रे योगाद धनधान्ये बन्धनात् कनक्रूप्ये । दाना- त्कुष्ये भावार-न गवादौ गर्भतो मितीमतीयात् ।६४) परित्रहपरिमाणाणुबतका पालक श्रावक मकान और खेतके विषयमे अन्य मकान और अन्य खेतके सम्बन्धसे, धन और धान्यके विषयमे व्याना बॉधनेसे, स्वर्ण और चाँदीके विषयमे भिन्नवातु वगैरहके विषयमें मिश्रण या परिवर्तनसे तथा गाय बैल आदिके विषयमे गर्भ से मर्यादाको उल्लङ्घन नही करे ६४।
६. परिग्रह परिमाण व्रत व प्रतिमामे अन्तर ला स /७/४०-४२ इत पूर्व सुवर्णादि सख्यामात्रापकर्षण । इत' प्रवृत्तिवित्तस्य मूलादुन्मूलन व्रतम् ।४०= परिग्रह त्याग प्रतिमाको स्वीकार करनेवालेके पहले सोना चॉदी आदि द्रव्योका परिमाण कर रखा था, परन्तु अब इस प्रतिमाको धारण कर लेनेपर श्रावक सोना चॉदी आदि धनका त्याग कर देता है।४
७. परिग्रह त्यागकी महिमा भ आ, म् /१९८३ रागविवागसतण्णादिगिद्धि अब तित्ति चस्क्याट्टिमुहं । णिस्सग णिवुइमुहस्स क्ह अग्इ अण तभागं पि ।११८३। -चक्रवर्तिका सुख राग भावको बढानेवाला तथा तृष्णाको बढानेवाला है। इसलिए परिग्रहका त्याग करनेपर रागद्वेषरहित मुनिको जो सुख होता है, चक्रवर्तीका सुख उसके अनन्त भागकी बराबरी नही कर सकता।११८३। (भ आ/मू /११७४-११८२ ) । ज्ञा /१६/३३/१८१ सर्वसगविनिर्मुक्त सवृताक्षः स्थिराशय' । धत्ते ध्यानधुरा धीर सयमी वीरवणिता ।३३। -समस्त परिग्रहोसे जो रहित हो और इन्द्रियोको सवररुप करनेवाला हो ऐसा स्थिरचित्त सयमी मुनि ही वर्धम न भगवान्की कही हुई ध्यानकी धुराको धारण कर सकता है ।३३।
म. सा /आ /२१५ वियोगबुद्धयैव केवलं प्रवर्तमानस्तु स किल न परिग्रह स्यात् । पूर्व बद्ध अपने कर्मके विपाकके कारण ज्ञानीके यदि उपभोग हो तो हो, परन्तु रागके वियोगके कारण बास्तबमें उपभोग परिग्रह भावको प्राप्त नही होता ।१४६। केवल वियोगबुद्धिसे (हेय बुद्धिसे) ही प्रवर्तमान वह ( उपभोग) वास्तवमे परिग्रह नहीं है। यो सा अ५७ द्रव्यमात्रनिवृत्तस्य नास्ति निवृ तिरेनसा। भावतोऽस्ति निवृत्तस्य तात्त्विकी स वृति. पुन १५७१-जो मनुष्य केवल द्रव्यरूपसे विषयोसे विरक्त है, उनके पापोकी निवृत्ति नही, किन्तु जो भावरूपसे निवृत्त है, उन्हीके वास्तविकरूपसे काँका सबर होता है।
२. तीनों काल सम्बन्धी परिग्रहमें इच्छाकी प्रधानता स.सा /आ/२१५ अतीतस्तावत् अतीतत्वादेव स न परिग्रहभावं बिभर्ति । अनागतस्तु आकाक्ष्याण एव परिग्रहभाग विभृयात प्रत्युत्पन्नस्तु स क्लि रागबुद्धचा प्रवर्तमानो दृष्ट । - अतीत उपभोग है वह अतीतके कारण ही परिग्रह भावको धारण नहीं करता। भविष्यका उपभोग यदि वाञ्छामे आता हो तो वह परिग्रह भावको धारण करता है, और वर्तमानका उपभोग है वह यदि रागबुद्धिसे हो रहा हो
तो ही परिग्रह भावको धारण करता है। प्र सा /ता वृ./२२०/२६६/२० विद्यमानेऽविद्यमाने वा बहिरङ्गपरिग्रहेऽभिलाषे सति निर्मलशुद्धात्मानुभूतिरूपा चित्तशुद्धि कर्तुं नायाति । -विद्यमान वा अविद्यमान बहिर ग परिग्रहकी अभिलाषा रहनेपर निर्मल शुद्धात्मानुभूति रूप चित्तकी शुद्धि करनेमे नही आती। ३. अभ्यन्तरके कारण बाह्य है, बाह्यके कारण अभ्यन्तर
नही प्र सा./ता बृ./२१८/२६२/२० अध्यात्मानुसारेण मूरूिपरागादिपरिणामानुसारेण परिग्रहो भवति न च बहिरङ्गपरिग्रहानुसारेण । अन्तरंग मूरुिप रागादिपरिणामोके अनुसार परिग्रह होता है बहिरंग परिग्रहके अनुसार नहीं। रा वा./हि/8/४६/७६७ विषयका ग्रहण तो कार्य है और मूर्छा ताका कारण है जाका मूर्छा कारण नष्ट होयगा ताकै बाह्य परिग्रहका ग्रहण कदाचित नही होयगा। बहुरि जो विषय ग्रहण कू तो कारण कहे अर मूर्छा के कारण न कहे, तिनके मतमें विषय रूप जो परिग्रह तिनके न होते मूच्छ का उदय नाही सिद्ध होय है। (तातै नग्नलिंगी भेषीको नग्नपनेका प्रसंग आता है।)
४. अन्तरग त्याग ही वास्तव में व्रत है दे० परिग्रह/२/२ में नि. सा /मू /६० निरपेक्ष भावसे किया गया त्याग
ही महावत है। दे० परिग्रह/१/२ प्रमाद हो वास्तवमे परिग्रह है, उसके अभावमे निज गुणो में मूर्छाका भी अभाव होता है।
५. अन्तरंग त्यागके बिना बाह्य त्याग अकिंचित्कर है भा. पा./मू /३,५,८६ बाहिरचाओ विहलो अब्भतरगंथजुत्तस्स ।। परिणामम्मि असुद्धे गये मुचेई बाहरे य जई। बाहिरगंधञ्चाओ भावविहूणस्स कि कुणइ ।। बाहिरसगचाओ गिरिसरिदरिक्दराइ आवासो । सयलो णाणाज्झयणो णिरत्यओ भावरहियाण ।८६।-जो अन्तर ग परिग्रह अर्थात् रागादिसे युक्त है उसके बाह्य परिग्रहका त्याग निष्फल है ।३। जो मुनि होय परिणाम अशुद्ध होते बाह्य ग्रन्थ । छोडे तौ वाह्य परिग्रहका रयाग है सो भाव रहित मुनिक कहा करै । कल भी नहीं करै ।। जो पुरुष भावनारहित है, तिनिका बाह्य परिग्रहका त्याग, गिरि, कन्दराओ आदिमें आवास तथा ध्यान अध्ययन आदि सब निरर्थक है।८। (भा.पा./म्./४८-५४)।
३. अन्तरग परिग्रहको प्रधानता
१. बाह्य परिग्रह, परिग्रह नही अन्तरंग हो है स सि19/१७/३१५/३ बाह्यस्य परिग्रहत्वं न प्राप्नोति, आध्यात्मिकस्य
सग्रहात । सत्यमेवमेतत, प्रधानत्वादभ्यन्तर एव संगृहीत' असत्यपि बाह्ये ममेद मिति संकल्पवान् सपरिग्रह एव भवति । प्रश्न-बाह्य वस्तुको परिग्रहपना प्राप्त नहीं होता क्योकि 'मू ' इस शब्दसे अभ्यन्तरका संग्रह होता है। उत्तर-यह कहना सही है; क्योकि प्रधान होनेसे अभ्यन्तरका ही सग्रह किया है। यह स्पष्ट ही है कि बाह्य परिग्रहके न रहनेपर भी 'यह मेरा है' ऐसा सकल्पवाला पुरुष परिग्रह सहित ही होता है। (रा. वा/७/१७/३५४५/६)। स सा /आ /२१४/क १४६ पूर्वबदनिजकर्मविपाकात ज्ञानिनो यदि भवत्युपभोग । तदभवत्वथ च रागवियोगात् नूनमे ति न परिग्रहभावम् ।१४६॥
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परिग्रह
२८८
४ बाह्य परिग्रहकी कथंचित मुख्यता व गौणता
नि सा //७५ चागो वैरग विणा एद दो बारिया भणिया ७॥
- वैराग्यके बिना त्याग विडम्बना मात्र है ।। ६. बाह्य त्यागमें अन्तरगकी ही प्रधानता है स सा/मू /२०७ को णाम भणिज्ज बुहो परदव्य मम इम हवदि दव्य ।
अध्याणमप्पणो परिगह तु णियद वियाणतो।२०७१ अपने आत्माको ही नियमसे पर द्रव्य जानता हुआ कौन सा ज्ञानी यह कहेगा कि यह परद्रव्य मेरा द्रव्य है ।२०७१ ( स.सा./न./३४)। स.सा/आ./२०७-२१३ कुतो ज्ञान: परद्रव्य न गृह.णातोति चेत् । ।
आत्मानमात्मन परिग्रह नियमेन विजानाति, ततो न ममेद स्वं नाहमस्य स्वामी इति परद्रव्य न परिगृह्णाति १२०७। इच्छा परिग्रहः । तस्य परिग्रहो नास्ति यस्येच्छा नास्ति। इच्छा त्वज्ञानमयो भाव', अज्ञानमयो भावस्तु ज्ञानिनो नास्ति । ततो ज्ञानी अज्ञानमयस्य भावस्य इच्छाया अभावादधर्म ( अधर्म, अशनं. पानम् २-११-२१३ ) नेच्छति। तेन ज्ञानिनो धर्म (आदि) परिग्रहो नास्ति। स.सा /आ.२८५-२८६ यदैव निमित्तभूत द्रव्य प्रतिक्रामति प्रत्याचष्टे च तदेव ने मित्तिकभूत भावं प्रतिकामति च यदा तु भाव प्रतिकामति प्रत्या चष्टे च तदा साक्षादकर्तव स्यात् ।२८३ समस्तमपि परद्रव्यं प्रत्याचक्षाणस्तन्निमित्त। स सा आ /२६५ किमर्थो बाह्यवस्तुप्रतिषेध । अध्यवसानप्रतिषेधार्थ । भाव प्रत्याचष्टे ।२०६।-प्रश्न-ज्ञानी परको क्यो ग्रहण नहीं करता । उत्तर-आत्माको हो नियमसे आत्माका परिग्रह जानता है, इसलिए 'यह मेरा' 'स्व' नहीं है. मै इसका स्वामी नही हूँ' ऐसा जानता हुआ परद्रव्यका परिग्रह नहीं करता।२०७१ २. इच्छा परिग्रह है। उसको परिग्रह नहीं है जिसके इच्छा नही है। इच्छा तो अज्ञानमय भाव है, और अज्ञानमयभाव ज्ञानीके नही होता है। इसलिए अज्ञानमय भावरूप इच्छाके अभाव होनेसे ज्ञानी धर्मको, (अधर्मको, अशनको, पानको) नही चाहता, इसलिए ज्ञानीके धर्मादिका परिग्रह नही है ।२१०-२१३। ३. जब निमित्तरूप परद्रव्यका प्रतिक्रमण व प्रत्याख्यान करता है, तब उसके नै मित्तिक रागादि भावोका भी प्रतिक्रमण व प्रत्याख्यान हो जाता है, तब वह साक्षात अकर्ता ही है ।२८। समस्त परद्रव्यका प्रत्याख्यान करता हुआ आत्मा उसके निमित्तसे होनेवाले भावका प्रत्याख्यान करता है ।२८६१ ४. अध्यवसान के प्रतिषेधार्थ ही बाह्यवस्तुका प्रतिषेध है। प्र. सा/त प्र/२२० उपविधीयमान प्रतिषेधोऽन्तरगच्छेदप्रतिषेध एव
स्यात् ।-किया जानेवाला उपधिका निषेध अन्तरंग छेदका ही निषेध है। का अ 'मू /३८७ बाहिरगविहीणा दलिद्द मावा सहावदो होति ।
अब्भतर-गथ पुण ण सक्कदेको विछ डेदु ।३८७१- बाह्य परिग्रहसे रहित दरिद्रो मनुष्य तो स्वभावसे ही होते है, किन्तु अन्तर ग परिग्रहको छाडनेमे कोई भी समर्थ नहीं होता।३८७।
२. बाह्य त्यागके बिना अन्तरग त्याग अशक्य है भ आ मू./११२० जह कुडओ ण सक्को सोधेदं तंदुलस्स सतुसस्स । तह
जीवत्स ण सका मोहमल सगसत्तस्स।११२०/- ऊपरका छिलका निकाले बिना चावलका अन्तर गमल नष्ट नहीं होता। वैसे बाह्य परिग्रह रूप मल जिसके आत्मामें उत्पन्न हुआ है, ऐसे जात्माका कर्ममल नष्ट होना अशक्य है ।११२०। (प्र.सा/त.प्र /२२०) (अन.ध/४/१०५)। प्र.सा.मू /२२० णहि हिरवेक्खो चागो ण हव दि भिवरखुस्स आसयविसुद्धी। अविसुद्धस्स य चित्ते कह णु कम्मरवओ बिहिओ।२२०॥ -यदि निरपेक्ष त्याग न हो तो भिक्षुके भावकी विशुद्धि नहीं होती;
और जो भावमे अविशुद्ध है उसके कर्मक्षय कैसे हो सकता है ।२२०॥ भा पा.मू /३ भावविमुद्धि णिमित्तं बाहिरगथस्स कीरए चाओ । बाह्य
परिग्रहका त्याग भाव विशुद्धिके अर्थ किया जाता है। क पा./१/१,१/शा ५०/१०४ सक्क परिहरियव्व असक्कगिजम्मि णिम्ममा समणा । तम्हा हिसायदणे अपरिहरं ते कथमहिसा ।५०-साधुजन जो त्याग करनेके लिए शक्य होता है उसके त्याग करनेका प्रयत्न करते है. और जो त्याग करनेके लिए अशक्य होता है उससे निर्मम होकर रहते है, इसलिए त्याग करनेके लिए शक्य भी हिसायतनके परिहार नहीं करनेपर अहिसा कैसे हो सकती है, अर्थात नहीं हो सक्ती ॥५०॥ स.सा/आ /२८४-२८७ यावन्निमित्तभूतं द्रव्यं न प्रतिक्राति न प्रत्याचष्टे च तावन्नै मित्तिकभूत भाव न प्रतिक्रामति न प्रत्याचष्टे च, यावत्तु भावं न प्रतिकामति न प्रत्याचष्टे तावरकर्तव स्यात् ।२८४-२८५ समस्तमपि परद्रव्यमप्रत्यचक्षाणस्तन्निमित्तक भाव न प्रत्याचष्टे १२८६-२८७१%१. जब तक उसके (आत्माके ) निमित्तभूत परद्रव्यके अप्रतिक्रमण-अप्रत्याख्यान है तब तक उसके रागादि भावोका अप्रतिक्रमण-अप्रत्याख्यान है, और जब तक रागादि भावोका अप्रतिक्रमण-अप्रत्याख्यान है, तब तक रागादि भावोका कर्ता ही है ।२८४-२८५४ समस्त पर द्रव्यका प्रत्याख्यान न करता हुआ आत्मा
उसके निमित्तसे होनेवाले भावको नही त्यागता २०६-२८७१ ज्ञा /१६/२६-२७/१८० अपि सूर्यस्त्यजेद्धाम स्थिरत्व वा सुराचल । न पुन सगसंकीर्णो मुनिस्यात्संवृतेन्द्रियः ।२६। बाह्यानपि च य' सङ्गान्परित्यक्तुमनीश्वर' । स क्लीन कर्मणा सैन्य क्थमग्रे हनिष्यति ।२७१ - कदाचित् सूर्य अपना स्थान छोड दे और सुमेरु पर्वत स्थिरता छोड़ दे तो सम्भव है, परन्तु परिग्रह सहित मुनि कदापि जितेन्द्रिय नही हो सकता ।२६। जो पुरुष बाह्यके भी परिग्रहको छोडनेमें असमर्थ है वह नपुंसक आगे कर्मोकी सेनाको कैसे हनेगा ।।२७। रा.वा /हि /8/४६/७६६ बाह्य परिग्रहका सद्भाव होय तो अम्यन्तरके ग्रन्थका अभाव होय नहो। जात विषयका ग्रहण तो कार्य है और मुर्छा ताका कारण है। जो बाह्य परिग्रह ग्रहण कर है सो मूर्धा तो कर है। सो जाका मूर्छा कारण नष्ट होयगा ताकै बाह्य परिग्रहका ग्रहण कदाचित् नही होयगा।
३. बाह्य पदार्थोंका आश्रय करके ही रागादि उत्पन्न
४ बाह्य परिग्रहकी कथचित् मुख्यता व गौणता
१. बाह्य परिग्रहको ग्रन्थ कहना उपचार है ध.१/४,१,६७/३२३/६ वध खेत्तादोणं भावगथसण्णा। कारणे कज्जोक्यारादो। व्यवहारणय पड़च्च खेत्तादी गथो, अन्भ तरगथकारणत्तादो एदस्स परिहरण णिग थत्त । -प्रश्न-क्षेत्रादिको भावग्रन्थ स ज्ञा कैसे हो सकती है। उत्तर-कारण मे कार्य का उपचार करनेसे क्षेत्रादिकोकी भावग्रन्थ सज्ञा बन जाता है। व्यवहारनयकी अपेक्षा क्षेत्रादिक ग्रन्य है, क्योकि वे अभ्यन्तर ग्रन्थके कारण है, और इनका त्याग करनेसे नियन्यता है।
स.सा /मू /२६५ वत्थु पडुच्च ज पुण अज्झवसाण तु होइ जीवाण । ण य वत्युदो दु बधो अज्झवसाणेण बधोत्थि ।२६।-जीवो के जो अध्यवसान होता है वह वस्तुको अवलम्बन कर होता है तथापि वस्तुसे बन्ध नही होता, अध्यवसानसे ही बन्ध होता है ।२६। ( क.पा १,/
गा ५१।१०५) ( दे राग./५/३)। प्रसा/मू/२२१ किध तम्हि णस्थि मुच्छा आर भो वा असजमो तस्स । तध परदवम्मि रदो कधमप्पाण पसाधयदि । उपधिके सद्भावमें उस भिक्षुके मूर्छा, आरम्भ या असयम न हो, यह कैसे हो सक्ता
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परिग्रह
५. बाह्याभ्यन्तर परिग्रह समन्वय
है। (कदापि नही हो सकता) तथा जो पर द्रव्यमे रत हो वह आत्माको कैसे साध सकता है ।
४. बाय परिग्रह सर्वदा बन्धका कारण है प्र सा /मू ।२१६ हपदि व ण हव दि बन्दो मम्हि जीवेऽध काय चेटम्हि । बधो धुबमुबंधोदो इदिसमणा छढिया सव्व ।२१। -(साधुके ) काय चेष्टा पूर्वक जीवके मरनेपर बन्ध होता है अथवा नही हाता, (किन्तु) उपधिसे-परिग्रहसे निश्चय ही बन्ध होता है। इसलिए श्रमणोने ( सर्व ज्ञदेवने ) सर्व परिग्रहको छोडा है ।२१६॥ ५. बाह्याभ्यन्तर परिग्रह समन्वय
१. दोनोंमे परस्पर अविनाभावीपना भ.आ./मू /१६१५-१६१६ अब्भतरसोधीए गथे णियमेग बाहिरे च यदि । अब्भतरमइलो चेव बाहिरे गेण्हदि हू गथे ।१६१५॥ अभतर सोधीए बाहिरसोधी वि होदि णियमेण । अब्भतरदोसेण हु कुणदि णरो बाहिरे दोसे ११६१६। अन्तर गशुद्धिसे बाह्यपरिग्रहका नियमसे त्याग होता है। अभ्यन्तर अशुद्ध परिणामोसे ही वचन और शरीरसे दोषोकी उत्पत्ति होती है। अन्तर गशुद्धि हानेसे बहिर गशुद्धि भी नियमपूर्वक होती है। यदि अन्तर गपरिणाम मलिन होगे तो मनुष्य शरीर और वचनोसे अवश्य दोष उत्पन्न करेगा ।१६१५--
प्र सा./त प्र./२१६ उपधे, तस्य सर्वथा तदविनाभावित्वप्रसिद्ध्य
देकान्तिकाशुद्रोपयोगसद्भावस्यैकान्तिकबन्धत्वेन छेदत्वमै कान्तिकमेव अतएव चापरैरप्यन्तरगच्छेदवत्तदनन्तरीयकत्वान्प्रागेव सर्व एवोपाधि प्रतिषेध्य ।२।= परिग्रह सर्वथा अशुद्धोपयोगके बिना नही होता, ऐसा जो परिग्रहका सर्वथा अशुद्धोपयोगके साथ अविनाभावित्व है उससे प्रसिद्ध होनेवाले एकान्तिक अशुद्धोपयोगके सद्भाव के कारण परिग्रह तो ऐकान्तिक बन्ध रूप है, इसलिए उसे छेद ऐकान्तिक ही है। इसलिए दूसरोको भी, अन्तरंगछेद की भॉति प्रथम ही सभी परिग्रह छोड़ने योग्य है, क्योकि वह अन्तर ग छेदके बिना नही होता । (प्रसा./त प्र/२२१), (दे० परिग्रह/४/३,४)। २. बाह्य परिग्रहके ग्रहणमे इच्छाका सद्भाव सिद्ध होता है स. सा./आ /२२०-२२३/क. १५१ ज्ञानिन् कर्म न जातु कर्तुमुचित किचित्तथाप्युच्यते, मक्षेत न जातु मे यदि पर दुर्भुक्त एवासि भो.। बन्ध. स्यादुपभोगतो यदि न तत्कि कामचारोऽस्ति ते, ज्ञान सन्वस बन्धमेष्यपरथा स्वस्यापराधाद्ध वम् । =हे ज्ञानी । तुझे कभी कोई भी कर्म करना उचित नहीं है तथापि यदि तू यह कहे कि "परद्रव्य मेरा कभी भी नहीं है और मै उसे भोगता हूँ" तो तुझसे कहा जाता है कि हे भाई, तू खराब प्रकारसे भोगने वाला है, जो तेरा नहीं है उसे तू भोगता है, यह महा खेदकी बात है । यदि तू कहे कि "सिद्धान्तमे यह कहा है कि परद्रव्यके उपभोगसे बंध नही होता इसलिए भोगता हूँ" तो क्या तुझे भोगनेकी इच्छा है तू ज्ञानरूप होकर निवास कर, अन्यथा ( यदि भोगनेकी इच्छा करेगा) तू निश्चयत अपराधसे बन्धको प्राप्त होगा।
३. बाह्यपरिग्रह दुःख व इच्छाका कारण है भ. आ./मू./१६१४ जह पत्थरो पडतो खोभेइ दहे पसण्णमवि पंक । खोभेइ पसंत पि कसाय जीवस्स तह गंथो ।१६१४। जैसे ह्रदमें पाषाण पडनेसे तलभागमें दबा हुआ भी कीचड क्षुब्ध होकर ऊपर आता है वैसे परिग्रह जीवके प्रशान्त कषायोको भी प्रगट करते है । १६१४। (भ. आ./मू /१६१२-१६१३) ।
कुरल/३१/१ मन्ये ज्ञानी प्रतिज्ञाय यकिचित परिमुञ्च ति। तदुत्पन्नमहादु खान्निजात्मा तेन रक्षित ११ = मनुष्यने जो वस्तु छोड दी है उमसे पैदा होने वाले दुःखसे उसने अपनेको मुक्त कर लिया है ।। प प्र/मू /१०८ पर जाणतु वि परम मुणि पर-संसग्गु चयति । परसग: परमप्पयह लक्खह जेण चलति ।१०८ परम मनि उत्कृष्ट आत्म द्रव्यको जानते हुए भी परद्रव्यको छोड़ देते है, क्योकि परद्रव्य के ससर्गसे ध्यान करने योग्य जो परमपद उससे चलायमान हो जाते है ।१०। ज्ञा /१६/२० अणुमात्रादपि ग्रन्थान्मोहनन्थि ढीभवेत । विसर्पति ततस्तृष्णा यस्या विश्व न शान्तये ।२० = अणुमात्र परिग्रहके रखनेसे मोहकर्मको ग्रन्थि दृढ होती है और इससे तृष्णाकी ऐसी वृद्धि हो जाती है कि उसकी शान्तिके लिए समस्त लोककी सम्पत्तिसे भी पूरा नही पडता है ।२०॥
४. इच्छा ही परिग्रह ग्रहणका कारण है भ. आ./मू./११२१ रागो लोभो मोहो सण्णाओ गारवाणि य उदिण्णा ।
तो तझ्या घेत्तुं जे गथे बुद्धी णरो कुणइ ।११२१। राग, लोभ और मोह जब मनमें उत्पन्न होते है तब इस आत्मामे बाह्यपरिग्रह ग्रहण करनेकी बुद्धि होती है ।११२१॥ (भ आ /मू /१६१२)।
५. भाकिचन्य मावनासे परिग्रहका त्याग होता है स, सा./आ./२८६-२८७ अध कर्मादीन पुद्गलद्रव्यदोषान्न नाम करोत्यात्मा परद्रव्यपरिणामत्वे सति आरमकार्यत्वाभावात, ततोऽधकर्मोदेशिकं च पुद्गलद्रव्य न मम कार्य नित्यमचेतनत्वे सति मत्कार्यत्वाभावात, इति तत्त्वज्ञानपूर्वक पुद्गलद्रव्यं निमित्तभूत प्रत्याचक्षाणो नैमित्तिकभूतं बधसाधक भाव प्रत्याचष्टे । = अध कर्म आदि पुद्गलद्रव्यके दोषोको आत्मा वास्तवमे नही करता क्योकि वे परद्रव्यके परिणाम है इसलिए उन्हे आत्माके कार्यत्वका अभाव है, इसीलिए अध'कर्म और औद्देशिक पुद्गलकर्म मेरा कार्य नहीं है क्योकि वह नित्य अचेतन है इसलिए उसको मेरे कार्यत्वका अभाव है," इस प्रकार तत्त्वज्ञान पूर्वक निमित्त भूत पुद्गल द्रव्यका प्रत्याख्यान करता हुआ आत्मा जैसे ने मित्तिक भूत बन्ध साधक भावका प्रत्याख्यान करता है। यो, सा. अ/६/३० स्वरूपमात्मनो भाव्यं परद्रव्यजिहासया। न जहाति परद्रव्यमात्मरूपाभिभावक ३० -विद्वानोंको चाहिए कि परपदार्थोके त्यागकी इच्छासे आत्माके स्वरूपकी भावना क्रै, क्योकि जो पुरुष आत्माके स्वरूपकी पर्वा नहीं करते वे परद्रव्यका त्याग कही कर सकते है ।३० सामायिक पाठ अमितगति/२४ न सन्ति बाह्या मम किचनार्था',
भवामि तेषा न कदाचनाहं। इत्थं विनिश्चिन्त्य विमुच्य बाह्य स्वस्थ सदा त्वं भव भद्र मुक्त्यै ।२४। ='किचित् भी बाह्य पदार्थ मेरा नहीं है, और न मै कभी इनका हो सकता हूँ,' ऐसा विचार कर हे भद्र । बाह्यको छोड और मुक्ति के लिए स्वस्थ हो जा ।२४। अन, ध/४/१०६ परिमुच्य करणगोचरमरीचिकामुज्झिताखिलारम्भ । त्याज्य ग्रन्थमशेष त्यक्त्वापरनिर्मम स्वशर्म भजेत् ।१०६। - इन्द्रिय विषय रूपी मरीचिकाको छोडकर, समस्त आरम्भादिकको छोडकर, समस्त गृहिणी आदि बाह्य परिग्रहको छोडकर तथा शरीरादिक परिग्रहोके विषयमें निर्मम होकर-'ये मेरे है। इस स कल्पको छोड़कर साधुआँको निजात्मस्वरूपसे उत्पन्न सुखका सेवन करना चाहिए।१०६। ६. अभ्यन्तर त्यागमें सर्व बाह्य त्याग अन्तर्भूत है स. सा./आ /४०४/क २३६ उन्मुक्तमुन्मोच्यमशेषतस्तत, तथात्तमादेयमशेषतस्तत् । यदात्मन. संहृतसर्वशक्तेः, पूर्णस्य संधारणमात्मनीह
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परिग्रह संज्ञा
२३जसने सर्वयोको समेट लिया है अपने होन कर लिया है ) ऐसे पूर्ण आत्माका आत्मामें धारण करना सोही सब छोड़ने योग्य सब छोड़ा है, और ग्रहण करने योग्य ग्रहण किया है ।२३६०
७. परिग्रह त्याग व्रतका प्रयोजन रा.वा./१/२६/१०/६२५/१४ निःसङ्गत्वं निर्भयत्वं जीविताशाव्युदास दोषोच्छेदो मोक्षमार्ग भावनापरत्वमित्येवमाद्यय व्युत्सर्गोऽभिधीयते द्विविध' । =नि स गत्व, निर्भयत्व, जीविताशात्याग दोषोच्छेद और मोक्षमार्ग भावनातत्परत्व आदिके लिए दोनो प्रकारका व्युत्सर्ग करना अत्यावश्यक है ।
८. निश्चय व्यवहार परिग्रहका नयार्थ
घ. ६/४,१.३०/३२३/७ महारणय पद्म सेवादी गयी. उन्मदरगंधकारणत्तादो । एदस्स परिहरणं णिग्गंथन्त । णिच्छयणयं पडुच मिच्छत्तादी गंथो, कम्मबंधकारणत्तादो । तेसि परिचागो णिग्ग थत्त । इगमगरण तिरयणाणुवजोगी बज्झन्भतरपरिग्गहपरिचाओ णिग्गथन्त | = व्यवहार नयकी अपेक्षा क्षेत्रादिक ग्रन्थ है, क्योंकि, वे अभ्यन्तर ग्रन्थके कारण हैं, और इनका व्याग करना निर्ग्रन्थता है । निश्चयrयकी अपेक्षा मिथ्यात्वादिक ग्रन्थ है, क्योकि वे कर्म के कारण है और इनका त्याग करना निर्ग्रन्थता है । नैगमनयकी अपेक्षा तो रत्नत्रयमें उपयोगी पडने वाला जो भी बाह्य व अभ्यन्तर परिग्रहका परित्याग है, उसे निर्मन्यता समझना चाहिए।
परिग्रह संज्ञा - दे० संज्ञा ।
परिग्रहानंदी रौद्रध्यान दे० रौद्रध्यान । परिग्राहकी क्रिया दे०किया/३/२ परिचारक
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भ.आ./मू./६४७,६४८,६०९ पिययम्मा दिवसमा सामभीरुणो धीरा । छंदहू पचया पच्चक्खाणम्मिय विदण्डू | ६४७॥ कप्पाप्पे कृसत्ता समाधिमुजरा सुदरहस्सा गौवा भया अड दालीस तू जिया ४८ जो जारिओ कालो भरदेरायदे होइ वासेसु । ते तारिसया तदिया चोद्दालीसं पि णिज्जवया । ६७९ । - जिनका धर्मपर गाढ प्रेम है और जो स्वयं धर्ममे स्थिर है। संसारसे और पापी जो हमेशा भक्त है। धैर्यमा और पकने अभिप्रायको जाननेवाले है, प्रत्याख्यानके ज्ञाता ऐसे परिचारक क्षपककी शुश्रूषा करने योग्य माने गये है । ६४७॥ ये आहारपानादिक पदार्थ योग्य है, इनका ज्ञान परिचारकोको होना आवश्यक है। क्षपकका चित्त समाधान करनेवाले, प्रायश्चित्त ग्रन्थको जाननेवाले, आगमज्ञ, स्वयं और परका उद्धार करनेमें कुशल, तथा जिनकी जगमें कीर्ति है ऐसे परिचायक यति है । ६४८। भरक्षेत्र और ऐरावत क्षेत्रमें समस्त देशोमे जो जैसा काल वर्तता है, उसके अनुसार नियपक समझना चाहिए।६०१
* सहलेखनागत क्षपककी सेवामें परिचारकों की संख्याका नियम - दे० सल्लेखना / ५ ।
परिचित द्रव्य निक्षेप - दे० निक्षेप /५/८ । परिणमन - १. ज्ञेयार्थ परिणमनका लक्षण
प्र. सारा ५२ उदयगतेषु पुद्गलकर्माशेषु सरसु संयमानो मोहरागद्वेषपरिणतलाव या परिणममलक्षणया क्रिपया युज्यमान क्रियाफलभूतं बन्धमनुभवति, न तु ज्ञानादिति । उदयगत पुद्गल कर्मायो अति चेतित होनेपर जाननेपर अनुभव करनेपर
-
३०
परिणाम
मोह राग द्वेष परिणत होनेसे ज्ञेयार्थ परिणमन स्वरूप क्रिया के साथ युक्त होता हुआ आत्मा क्रिया फलरूप बन्धका अनुभव करता है । किन्तु ज्ञानसे नही' ( इस प्रकार प्रथम ही अर्थ परिणमन क्रियाके फलभूत बन्धका समर्थन किया गया है। )
स. सा/ता वृ/१५/१५२/१० धर्मास्तिकायोऽयमित्यादि विकल्प या ज्ञेयत विचारकाले करोति जीव तदा शुद्धात्मस्वरूप विस्मरति तस्मिन्विकल्पे कृते सति धर्मोऽहमिति विकल्प उपचारेण घटत इति भावार्थ । = ' यह धर्मास्तिकाय है' ऐसा विकल्प जब जीव, ज्ञेयतत्व के विचार काल में करता है, उस समय वह शुद्धात्माका स्वरूप भूल जाता है ( क्योकि उपयोग में एक समय एक ही विकल्प रह सकता है) इसलिए उस विकल्प किये जानेपर मे धर्मास्तिकाय हूँ ऐसा उपचारसे अटित होता है। यह भावार्थ है।
प्रसा / प जयचन्द / ५२ ज्ञेय पदार्थरूपसे परिणमन करना अर्थात्
यह हरा है, यह पीता है' इत्यादि विकल्प रूपसे शेयरूप पदार्थों मे परिणमन करना यह कर्मका भोगना है, ज्ञानका नहीं ।...ज्ञेय पदार्थोंमें रुकना- उनके सन्मुख वृत्ति होना, वह ज्ञानका स्वरूप नही है । * अन्य सम्बन्धित विषय
१. परिणमन सामान्यका लक्षण । २. एक द्रव्य दूसरे द्रव्यरूप परिणमन नहीं कर सकता ।
- दे० विपरिणमन |
३. गुण भी द्रव्यवत् परिणमन करता है । ४. अखिल द्रव्य परिणमन करता है, द्रव्यांश नहीं ।
- दे० उत्पाद / ३ |
५. एक द्रव्य दूसरेको परिणमन नहीं करा सकता । - दे० कर्ता व कारण / III | ६. शुद्ध अन्यको अपरिणामी कहनेकी विवक्षा । दे० द्रव्य / २ । परिणम्य परिणामक शक्ति
ससा / आ / परि. / शक्ति न० १५ परात्मनिमित्तज्ञे यज्ञानाकार ग्रहणग्राहणस्वभावरूपा परिणम्यपरिणामकत्वशक्ति । = पर और आप जिनका निमित्त है ऐसे ज्ञेयाकार ज्ञानाकार उनका ग्रहण करना और ग्रहण कराना ऐसा स्वभाव जिसका रूप है, ऐसी परिणम्य परिणामara नाम पन्द्रहवीं शक्ति है । परिणाम - Result (घ, ४/प्र.२७ ) परिणाम-जीवके परिणाम हो संसारके या मोक्षके कारण है । वस्तुके भाजको परिणाम कहते हैं, और वह दो प्रकारका ग पर्याय । गुण अप्रवर्तमान या अक्रमवर्ती है और पर्याय प्रवर्तमान व क्रमवर्ती पर्यायरूप परिणाम तीन प्रकारके है शुभ, अशुभ और शुद्ध । तहाँ शुद्धपरिणाम ही मोक्षका कारण है ।
|
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१. परिणाम सामान्यका लक्षण
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- दे० द्रव्य / ५१
— दे० गुण / २ ।
१. समान अर्थ
प्र. सा. / / ६६ सदट्ठिदं सहावे दव्यं दम्बस्स जो हि परिणामो अत्ये सो सहायभवानी ॥११॥
प्र. सा / रा. प्र. / १०१ स्वभावस्तु द्रव्यपरिणामोऽभिहित । इम्यवृत्तेहि त्रिकोटिसमयस्पर्शिन्या प्रतिक्षणं तेन तेन स्वभावेन परिणमनाइ द्रव्यस्वभावभूत एव तावत्परिणाम-स्वभाव मे अवस्थित ( होने से ) द्रव्य सत है; द्रव्यका जो उत्पादव्यय धौव्य सहित परिणाम है; वह पदार्थों का स्वभाव है | ( प्र. सा./मू./ १०६) द्रव्यका स्वभाव परि णाम कहा गया है।'' द्रव्यकी वृत्ति तीन प्रकारके समयको ( भूत. भविष्यद' वर्तमान कालको) स्पर्शित करती है. इसलिए यह वृति
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परिणाम
अस्तित्व ) प्रतिक्षण उस उस स्वभावरूप परिणमित होनेके कारण या स्वभावभूत परिणाम है।
गो. जी. / जी /८/१५ उदयादिनिरपेक्ष परिणाम' । उदयादिकी अपेक्षा रहित सो परिणाम है।
२. भावके अर्थ में
त. सू / ५ / ४२ तद्भाव परिणाम |४२ | स. सि / ५ / ४२ / ३१७/५ धर्मादोनि द्रव्याणि येनात्मना भवन्ति स तद्भावस्तत्त्व परिणाम इति आख्यायते । धर्मादिक द्रव्य जिस रूपसे होते है यह राज्ञाय या तत्व है और इसे हो परिणाम कहते है। (रा या / २ / ४२ / २ / ५०३ / २ ।
घ १५/२०२ / ७ को परिणाम जिम सायादो मिध्याव असयम और कषायादिको परिणाम कहा जाता है ।
३ आत्मलाभ हेतुके अर्थ में
रा०वा / २/१/५/१००/२१ यस्य भावस्य द्रव्यात्मलाभमात्रमेव हेतुर्भवति नाभ्यनिमितमस्ति सपरिणाम इति परिभाष्यते। जिसके होने में द्रव्यका स्वरूप लाभ मात्र कारण है, अन्य कोई निमित्त नहीं है, उसको परिणाम कहा जाता है। ( स मि /२/१/१४६/६ ), ( प का . / त. प्र. / ५६ ) ।
=
४. पर्यायके अर्थ में
ससि /५/२०/२११ / ६ प्रव्यस्य पर्यायो धर्मान्तरनिवृत्ति पजनरूप अपरिस्पन्दात्मक परिणाम' | = एक धर्मको निवृत्ति करके दूसरे धर्म के पैदा करने रूप और परिस्पन्दसे रहित द्रव्यकी जो पर्याय है उसे परिणाम कहते है। ( रा. वा./५/२२/२१/४८१/१६), ( स. म / २७ / ३०४ / १६ ) ।
रावा / ५ / २२/१०/४००/३० द्रव्यस्य स्वजात्यपरित्यागेन प्रयोगविसालक्षणो विकार परिणाम | १०| द्रव्यस्य चेतनस्येतरस्य वाद्रव्यार्थिकनायस्य अभिक्षात स्वा द्रव्यजातिमहत पर्यायार्थिकनाशवान् मिता केनचिद पर्यायेण प्रादुर्भाव पूर्वव्ययनिवृतिपूर्वको विकार प्रयोगविसालक्षण परिणाम इति प्रतिपत्तव्य. । - द्रव्यका अपनी स्व द्रव्यत्व जातिको नहीं छोडते हुए जो स्वाभाविक या प्रायोगिक परिवर्तन होता है उसे परिणाम कहते है । द्रव्यत्व जाति यद्यपि द्रव्यसे भिन्न नहीं है फिर भी द्रव्याकिकी अविवक्षा और पर्यायार्थिकको प्रधानतामें उसका पृथक व्यवहार हो जाता है। तात्पर्य यह है कि अपनी मौलिक सप्ता
छोड़ते हुए पूर्व पर्यायी निवृतिपूर्वक को उत्तरपर्यायका उत्पन्न होना है वही परिणाम है। (नच. प./१०); (त सा./३/४६)। सि. वि. / टो./११/५/७०२/१० व्यक्तेन च तादात्म्यं परिणामलक्षणम् । = व्यक्तरूपसे तो तादात्म्य रखता हो, अर्थात् द्रव्य या गुणोंकी व्यक्तियो अथवा पर्यायोंके साथ तादात्म्य रूपसे रहनेवाला परिणमन, परिणामका लक्षण है।
न्या वि./टी./१/१०/१७८ / ११ परिणामो विवर्त । उसीमेंसे उत्पन्न हो होकर उसमे लीन हो जाना रूप विवर्त या परिवर्तन परि णाम है।
प. ध. / पू./११७ स च परिणामोऽवस्था । गुणोंकी अवस्थाका नाम परिणमन है और भो दे० 'पर्याय'
२. परिणाम के भेद
प्र. सा./मू./ १८१ सुपरिणामो पुण्णं असुहो पाव त्ति भणियमण्णेसु । परिणामो पण्णगदो दुक्खश्वयकारणं समये परके प्रति शुभ परिणाम पुण्य है और अशुभ परिणाम पाप है, ऐसा कहा है। (और
३१
परिणाम
भी देखो प्रणिधान) जो दूसरोके प्रति प्रवर्तमान नही है, ऐसा परिणाम ( शुद्ध परिणाम ) समयपर दुख क्षयका कारण है।
रा. वा /५/१२/१०/४००/३४ परिणामो द्विविध अनादिरादिमाश्च ।.. आदिमान् प्रयोगजो वैसिवश्च परिणाम दो प्रकारका होता है - एक अनादि और दूसरा आदिमान् । (स. सि /४/४२/३१७/६), (रा.वा./६/१२/२/५०३ / १) बादिमास दो प्रकार है-एक प्रयोगजन्य और दूसरा स्वाभाविक ।
घ. /१२/४,२,७,३२/२७/६ अपरियत्तमाणा परिणामा परियत्तमाणा णाम । तत्थ उक्कस्सा मज्झिमा जहण्णा त्ति तिविहा परिणामा । - अपरिवर्तमान और परिवर्तमान दो प्रकारके परिणाम होते है। उनमें उत्कृष्ट, मध्यम व जघन्यके भेदसे वे परिणाम तीन प्रकार के है । (गो, क / जी. प्र / १७७/२०७/१०) ।
पं. ध. / / ३२०,३२८ का भावार्थ परिणाम दो प्रकार के होते है-सर और विसदृश ।
१. परिणाम विशेषके लक्षण
१ आदिमान् व अनादिमान् परिणाम
रा.बा./५/२२/१०/४७७/४ अनादिर्लोकसंस्थानमन्दराकारादि । आदिमान् प्रयोगजो वैस्रसिकश्च । तत्र चेतनस्य द्रव्योपशमिकादिभाष कर्मोपमाद्यपेक्षोऽपौरुषेयत्वा वैखसिक हरयुच्यते। ज्ञानशीलभाव नादिलक्षण आचार्यादिपुरुषप्रयोगनिमित्तत्वात्प्रयोगज । अचेतनस्य च मृदादे घटसंस्थानादिपरिणाम कुशाहादिपुरुषप्रयोगनिमित्तत्वात् प्रयोग इन्द्रधनुरादिनानापरिणामी वैससिक तथा धर्मादेरचि योज्यः ।
।
।
रा. वा./५/४२/३/५०३/१० तत्रानादिर्धर्मादीना गरयुपग्रहादि । न तदस्ति धर्मादीनि द्रव्याणि प्रा पश्चाद्गत्युपपादि म्या पग्रहादि पश्चादीनि इति कि सहि अनादिरेषां सबन्धः आदिमरिच माह्यप्रत्ययापादितोत्पाद लोककी रचना सुमेरुपर्वत आदिके आकार इत्यादि अनादि परिणाम है। आदिमा दो प्रकारके है - एक प्रयोगजन्य और दूसरे स्वाभाविक चेतन द्रव्पके ओपशमिकादिभाव जो मात्र कमोंके उपशम आदिकी अपेक्षासे होते है । पुरुष प्रयत्नकी जिनमें आवश्यकता नहीं होती वे वैrसिक परिणाम है। ज्ञान, शील, भावना आदि गुरु उपदेशके निमित्तसे होते है, अतः ये प्रयोग है। अचेतन मिट्टो आदिका कुम्हार आदिके प्रयोग से होनेवाला घट आदि परिणमन प्रयोगज है और इन्द्रधनुष मेम आदि रूपसे परिणमन वैससि है।
"
धर्मादि द्रव्योंके गरनुपग्रह आदि परिणाम अनादि है, जबसे ये रूप है तभी से उनके ये परिणाम है। धर्मादि पहले और गत्युपग्रहादि बाद किसी समय हुए हों ऐसा नहीं है । बाह्य प्रत्ययों के आधीन उत्पाद आदि धर्मादि द्रव्योंके आदिमान् परिणाम है । २. अपरिवर्तमान व परिवर्तमान परिणाम
घ. १२/४.२,०७,३२/२०/८ अगुसमय बद्धमाणा होयमाणा च जे सकिलेस - विसोहिय परिणामा ते अपरियत्तमाणा णाम । जत्थ पुण ठाइदूण परिणामांतर गंतूण एग-दो आदिसमएहि आगमणं संभवदि ते परिणामा परियत्तमाणा णाम । प्रति समय बढनेवाले या हीन होनेवाले जो सनलेश या विशुद्धिरूप परिणाम होते है वे अपरिवर्त मान परिणाम कहे जाते है। किन्तु जिन परिणामों में स्थित होकर तथा परिणामान्तरको प्राप्त हो पुन. एक दो आदि समयों द्वारा उन्हीं परिणामों में आगमन सम्भव होता है उन्हे परिवर्तमान परिणाम कहते है। (गो. जी. १/१००/२००/१०
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परिणाम
३ सदृश व विसदृश परिणाम
पं. ध. / ५ / १८२ सहशोत्पादो हि यथा स्यादुष्ण परिणमन् यथा वह्नि । स्यादित्यसदृशजन्मा हरितात्पीतं यथा रसालफलम् | १२| सहश उत्पाद यह है कि जैसे परिणमन करती हुई अग्नि उष्णकी उष्ण ही रहती है, और आमका फल हरितवर्ण से पीतवर्ण रूप हो जाता है यह असदृश उत्पाद है | १८२०
पं. ध / पू / ३२७-३३० जोवस्य यथा ज्ञान परिणाम परिणमस्तदेवेति । सहास्योदाहतिरिति [जातैरनतिक्रमा ३२४५ यदि वा तदिह ज्ञान परिणाम परिणमन्न तदिति यत । स्वावसरे यत्सत्वं तदसत्त्व परत्र नययोगात् । ३२८ | अत्रापि च सदृष्टि सन्ति च परिणामतोऽपि कालाशा | जातेरनतिक्रमत सदृशत्वनिबन्धना एवं | ३२० अपि नययोगाद्विसदृशसाधनसिद्धयै त एव कालाशा । समय समयः
समय सोऽपीति बहुप्रतीतित्वात् ॥ ३३०| - जैसे जीवका ज्ञानरूप परिणाम परिणमन करता हुआ प्रति समय ज्ञानरूप ही रहता है यही ज्ञानत्वरूप जातिका उल्लघन नहीं करनेसे सदृशका उदाहरण है | ३२७ | तथा यहाँ पर वही ज्ञानरूप परिणाम परिणमन करता हुआ यह यह नहीं है 'अर्थात् पूर्वज्ञानरूप नहीं है। यह मिसहकार है क्योकि विवक्षित परिणामका अपने समय को सत्य है. दूसरे समय में पर्यायार्थिकनयकी अपेक्षासे वह उसका सत्त्व नहीं माना जाता है |३२| और इस विषय में भी खुलासा यह है कि परिणाम से जितने भी ऊर्ध्वाश कल्पनारूप स्वकाल के अंश है वे सब अपनी अपनी द्रव्यत्व जातिको उल्लंघन नहीं करनेके कारण से सदृशपनेके द्योतक है |३२| तथा वे ही कालके अश 'वह भी समय है, वह भी समय है, वह भी समय है' इस प्रकार समयोमे बहुतकी प्रतीति होनेसे पर्यायाधिकनकी अपेक्षाने निहताकी सिद्धिके लिए भी समर्थ
४ तीव्र व मन्द परिणाम
स. सि /६/६/३२३/१० बाह्याभ्यन्तरहेतुदीरणवशादुद्रिवत परिणामस्तीव । तद्विपरीतो मन्द । =बाह्य और उदीरणा वश प्राप्त होनेके कारण जो उत्कट परिणाम होता है वह तीव्रभाव है । मन्दभाव इससे उलटा है (रा. बा./६/६/१/५११ / ३२३।
४. सखना सम्बन्धी परिणमन निर्देश
भ.आ./वि/१०/२६४/१० उद्धाय परिणाम इति
जीव
=
व्यस्य क्रोधादिना दर्शनादिना वा भवनं परिणाम इति यद्यपि सामान्येनोकं तथापि व्यस्थ कार्यस्यालोचन मह परिणाम इति गृहीतस्तद्भाव परिणाम ऐसा पूर्वाचार्यका वचन है अर्थात् जीवारिक पदार्थ क्रोधादिक विकारोंसे अथवा सम्यग्दर्शनादिक पर्यायोसे परिणत होना यह परिणामशब्दका सामान्य अर्थ है । तथापि यहाँ यतिको अपने कर्तव्यका हमेशा खयाल रहना परिणाम शब्दक प्रकरण सगत अर्थ समझना चाहिए ।
५. परिणाम हो बन्ध या मोक्षका कारण
प्रो. सायो / १४ परिणा मैं बंधु जि कहिउ मोक्ख वि तह जि वियाणि । जाणे विणु जीव तहुँ तह भाव हु परियाणि | १४| परिणामसे ही tant बन्ध कहा है और परिणामसे ही मोक्ष कहा है । यह समझ कर, हे जीव तू निश्चयसे उन भावोंको जान | १४ |
६. माला के दानोंवत् सत्का परिणमन
प्र. सा./त.प्र / १६ स्वभावानतिक्रमास्त्रिलक्षणमेव सत्त्वमनुमोदनीयम् मुकादम घथेन हि परिगृहीतामिनि
फलदामनि समस्तेष्वपि स्वधाममुच्चकारात् मुक्ताफलेपूतरोरेषु
३२
परिदेवन
7
धामयुतरोतर सुन्तालानामुदयनात्पूर्वपूर्ण मुसाफसानामा सर्वत्रापि परस्परानुस्मृतिस्थ सूत्रस्यापस्थानाय प्रसिद्धि वरति रावेन हि परिगृहीतनिवृत्तिनाने समस्तेयपि स्वापसरेच्चास परिणामेत्तरोत्तरे वसरेषुत्तरोतर परिणामा नामुश्यनात्पूर्वपूर्व परिणामामामनुश्यना सर्वत्रापि परस्परानुस्मृतिश्याम्यानाम्यं प्रसिद्धिमवतरति स्वभाव से ही त्रिलक्षण परिणाम पद्धति (परिणामोको परम्परा) प्रवर्तमान द्रव्य स्वभावका अतिक्रम नही करता इसलिए सत्को त्रिलक्षण ही अनुमोदित करना चाहिए मोतियो हारको भांति जैसे जिसने (अमुक) लम्बाई ग्रहण की है ऐमे लटकते हुए मोतियो के हार में, अपनेअपने स्थानोंमें प्रकाशित होते हुए समस्त मोतियो पो पीके स्थानोंमें पीछे-पीछे मोती अगर होते है इसलिए, और पहले-पहले के मोती प्रगट नहीं होते इसलिए सर्वत्र परस्पर अनुस्मृतिका रचयिता सूत्र अवस्थित होनेसे त्रिह्मणश्व प्रसिद्धिको प्राप्त होता है। इसी प्रकार जिसने नित्य वृत्ति ग्रहण की है ऐसे रचित (परिममित) होते हुए मे अपने-अपने अवसरोमे प्रकाशित होते हुए समस्त परिणामोमें पीछे-पीछे अवसरोपर पीले-पीले परिणाम प्रगट होते है इसलिए और पहले-पहले के परिणाम नही प्रगट होते है इसलिए, था सर्वत्र परस्पर अनुस्मृति रचनेवाला प्रवाह अवस्थित होनेसे प्राप्त होटा है (सा. २३) (प्र. सा / १/८०) (१/४०२-४०३) ।
का/त प्र / १६ का भावार्थ मालाके दानोके स्थानपर बाँसके पर्व से सबके परिणमनकी सिद्धि
* अन्य सम्बन्धित विषय
१. उपयोग अर्थ में परिणाम ।
२. शुभ व अशुभ परिणाम।
३. अन्य व्यक्तिके गुप्त परिणाम भी जान लेने सम्भव है
४. परिणामोंकी विचित्रता निगोद से निकलकर मोक्ष |
|
=
-दे० उपयोग/11 - दे० उपयोग /lI |
- दे० विनय / ५।
- दे० जन्य / १ । ५ अगत गुणस्थानसे पहिले सर्व परिणाम अप प्रवृत्तकरण रूप होते है । - दे० करण / ४ । परिणाम प्रत्यय प्रकृतियाँ - दे० प्रकृति बन्ध / २ | परिणाम योगस्थान दे० योग / ५। परिणाम शक्ति
जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश
सा./आ०/१९ शक्ति में १६ व्यस्व भावभूतधौपव्ययोत्पादशतिमितरकालिमात्रमयी परिणामशक्ति द्रव्य स्वभाव ऐसे भव्य-व्यय-उत्पादो स्पर्शित जो समान रूप में असमान रूप परिणाम उन स्वरूप एक अलि मात्र पीसी परिणाम है। परिणाम शुद्ध प्रत्याख्यान - दे० प्रत्याख्यान / १ | परिणामी
-वह द्रव्योमें परिणामी अपरिणामी विभाग- दे० /२०
परिदावन - घ. १३/३,४,२९ / ४६ / १२ संतापजनन परिदावणं णाम ।
सन्ताप उत्पन्न करना परिदावण कहलाता है।
परिदेवन - सि./६/१२/२२६ / २ सपरिणामयम् गुण स्मरणानुकीर्तनपूर्वक स्वरानुपाभितापविषयमा रोदनं परिदेवनम् । =सक्लेशरूप परिणामोके होनेपर गुणोका स्मरण और दूसरेके उपकारको अभिलाषा करुणाजनक रोना परिदेवन है । (रा.वा./६/१९/६/५१६ / ३९ ) ।
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परिधि
परिषद
परिधि-१ Circumference (ज प्र/प्र १०७) २ परिधि
२. परिषह जयका लक्षण निकालनेकी प्रक्रिया-दे० गणित/11/७/२।
स सि /8/२/०६/६ परियहस्य जय परिपहज । - १९५८ । जतना परिपोडिन-कायोत्सर्ग का एक अतिचार-दे० व्युत्लग/१ ।
परिषह जय है ( रा वा/8/२/६/५६२/- ।। परिभोग-दे० भोग।
भ आ /वि/१९७१/११५६/१८ “दु खोपानपाते क रहला । पह
जय ।" दुख आनेपर भी सक्लेश परिणाम न होना ही परिषहपरिमह-वस्तिकाका एक दोघ-दे० 'वस्तिका'
जय है। परिमाण-Magnitude (ध ५ प्र २७)
का अ/म् / सो विपरिमह-विजओ हादि-पीडाण अहरउद्दाः । परिमाणहीन-Dinensionless (ध ५/ २७)।
सवणाण च मुणीण उपसम-भावेण ज सहण । - अत्यन्त भयानक
भूख आदिकी वेदनाको ज्ञानी मुनि जो शान्तभासे सहन करते है, परिमित--Finite. (जप./प्र १०७) ।
उसे परिषजय कहते हैं । । परिलेखा-दे० परीलेखा।
द्र स टी /३/१४६/१० "क्षुधादिवेदनाना तीवोदयेऽपि समतारूप परिवते-१ आहारका एक दोष-दे० आहार/II/४/४, २ बस्तिका परमसामायिकेन • निजपरमात्मभावनासंजातनिर्विकारनित्यानन्द___ का एक दोष-दे० बस्तिका ।
लक्षणसुखामृतम वित्तरचलनं स परिषहजय इति । -क्षुधादि बेदपरिवतन-१ अससंचार-दे० गणित/II/३/१।२ पंच परिवर्तन
नाओके तीव्र उदय होने पर भी.. समता रूप परम् सामायिक के द्वारा
निज परमात्माकी भावनासे उत्पन्न, विकार रहित, नित्यानन्द रूप रूप संसार-दे० संसार ।
सुखामृत अनुभवसे, जो नही चलना सो परिषहजन है। परिवत्ता -ध/४.१.५४/२६२/११ अविसरणह्र पुणो पुणो भावागमपरिमलण परियट्टणा णाम ! = ग्रहण किया हुआ अर्थ विस्मृत ३. परिषहके भेद न हो जावे, एतदर्थ बार-बार भावागमका परिशीलन करना परिवर्तना है । (ध.१४/५,६,१२/६/५)।
त.सू /१/१ क्षुत्पिपासाशीतोष्णदंशमशकनारन्यारतिस्त्रीचर्यानिषद्या
शय्याक्रोशवधयाचनालाभरोगतृणस्पर्शमलसत्कार पुरस्कारप्रज्ञाज्ञाना - परिशातन-ध.६/४,१,६६/३२७/१ तेसिं चेव अप्पिदसरीरपोग्ग
दर्शनानि ॥ ॥ = क्षुधा, तृषा, शीत, उष्ण, दंशमशक, नग्नता, लखधाणं संचएण विणा जाणिज्जरा सा परिसादणकदी णाम ।
अरति, स्त्री, चर्या, निषद्या, शय्या, आक्रोश, वध, याचना, अलाभ, - ( पाँचों गरीरोमेंसे) विवक्षित शरीरके पुद्गलस्कन्धोंकी सचयके
रोग, तृणस्पर्श, मल, सत्कार-पुरस्कार, प्रज्ञा, अज्ञान और अदर्शन इन बिना जो निर्जरा होतो है वह परिशातन कृति कहलाती है।
नाम वाले परिषह है ।। (मू आ /२५४-२५५), (चा.सा /१०८/३), * अन्य सम्बन्धित विषय
(अन.ध./६/८६-११२), (द्र.स/टी/३५/१४६/६ ) ।
* परिषहजय विशेषके लक्षण दे वह बह नाम। १. पॉचों शरीरोंकी संघातन परिशातन कृति
-~-दे० ध.६/३५५-४५१) । २. पाँचों शरीरोकी जवन्य उत्कृष्ट परिशातन कृति
२. परिषह निर्देश
-दे० ध.४/३३६-४३८ । ३. सघातन परिशातन ( उभयरूप) कृति -दे० सघातन ।
१. परिषहके अनुभवका कारण कषाय व दोष होते हैं परिशेष न्याय-(ध१/१.१,४४/२७६/१) यह भी नहीं यह भी
स सि./९/१२/४३१/४ तेषु हि अक्षीणकषायदोषत्वात्सर्वे संभवन्ति । नहीं तो शेष यह ही रहा।
-प्रमत्त यादि गुणस्थानोमें कषाय और दोषोके क्षीण न होने से सब परिषह-गर्मी, सर्दी, भूख, प्यास. मच्छर आदिकी बाधाएँ आनेपर
परिषह सम्भव है। आर्त परिणामोंका न होना अथवा ध्यानसे न चिगना परिषह जय २. परिषहकी ओर लक्ष्य न जाना ही वास्तविक है। यद्यपि अल्प भूमिकाओमे साधकको उनमें पीडाका अनुभव
परिषहजय है होता है, परन्तु वैराग्य भावनाओ आदिके द्वारा वह परमार्थ से चलित नहीं होता।
स सि./8/8/४२०/१० क्षुदबाधा प्रत्यचिन्तनं शुद्विजय । -वधाजन्य
बाधा का चिन्तन नही करना क्षधा परिषह जय है।
नोट-इसी प्रकार पिपासादि परिषहोकी ओर लक्ष्य न जाना ही वह १. भेद व लक्षण
वह नामकी परिघह जय है। -दे० वह वह नाम । १.परिषहका लक्षण
३ मार्गणाकी अपेक्षा परिषहों की सम्भावना त स/ मार्गाच्यवननिर्जराथ परिषाढव्याः परीषहा ।८ मार्ग से , चा.सा./१३२/७ नरकतिर्यग्गत्यो सर्वे परिषहा. मनुथ्यगतावाद्यभगा च्युत न होनेके लिए और कर्मोको निर्जराके लिए जो सहन करने
भवन्ति देवगतौ घातिकर्मोत्थपरिषहै सह वेदनीयोत्पन्नक्षुत्पिपायोग्य हो वे परिषह है ।।
सावधै सह चतुर्दश भवन्ति । इन्द्रियकायमार्गणयो सर्वे परिषहा' स, सि/8/२/४०६/८ क्षुदादिवेदनोत्पत्तौ वर्मनिर्जरार्थ सहन परिषहः । सन्ति वै क्रियकद्वितयस्य देवगतिभगा तिर्यग्मनुष्यापेक्षया द्वावि
- क्षुदादि वेदनाके होनेपर कर्मोकी निर्जरा करनेके लिए उसे सह शति. शेषयोगानां वेदादिमार्गणानां च स्वकीयगुणस्थानभङ्गा भवन्ति। लेना परिषह है । (रा. वा/8/२/६/५६२/६)
- नरक और तियंचगतिमें सब परिषह होती हैं। मनुष्यगतिमें रा, वा /8/२/६/२६२/२ परिषह्यत इति परीषह।६। -जो सही जाय ऊपर कहे अनुसार ( गुणस्थानवत् ) होती हैं। देवगतिमें घातीवह परिषह है।
कर्मके उदयसे होनेवाली सात परिषह और वेदनीयकर्म के उदयसे
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भा०३-५
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परिषह
३. शंका समाधान
होनेवाला क्षुधा, पिपासा और वध, इस प्रकार चौदह परिषह होती है। इन्द्रिय और कायमार्गणामें सब परिषह होती है। वैक्रियक और वैक्रियकमिश्रमे देवगतिकी अपेक्षा देवगतिके अनुसार और तिर्यच मनुष्यों की अपेक्षा बाईस होती है। शेष योग मार्गणा तथा वेदादि सब मार्गणाओमें अपने-अपने गुणस्थानों की अपेक्षा लगा लेना चाहिए। ४. गुणस्थानोंकी अपेक्षा परिषहोंकी सम्भावना (त. सू./४/१०-१२); (स सि./४/१०-१२/४२८.४३१); (रा.वा./६/१०
१२/६१३-६१४ ); ( चा.सा./१३०-१३२) ।
परिषहोंके कारणभूत कर्मों का निर्देश त.सू./३/१३-१६ ज्ञानावरणे प्रज्ञाज्ञाने ॥ १३ ॥ दर्शनमोहान्तराययोरदर्शनालाभौ ॥ १४ ॥ चारित्रमोहे नाग्न्यारतिस्त्रीनिषद्याक्रोशयाचनासत्कारपुरस्कारा ॥ १५॥ वेदनीये शेषा. ॥१६॥ = ज्ञानावरणके सद्भावमें प्रज्ञा और अज्ञान परिषह होते है । १३ ॥ दर्शनमोह और अन्तरायके सद्भावमे क्रमसे अदर्शन और अलाभ परिषह होते है ॥१४॥ चारित्रमोहके सद्भावमें नाग्न्य, अरति, स्त्री,निषद्या, आक्रोश, याचना और सत्कार-पुरस्कार परिषह होते है ॥ १५॥ बाकीके सब परिषह वेदनीयके सद्भावमें होते है ।। १६ ॥ (चा.सा./१२६/३) । * परिषह आनेपर वैराग्य भावनाओंका भाना भी
कथंचितू परिषहजय है।-दे०अलोभ, आक्रोश व बध परिषह ।
असम्भव
गुण- गुणकी स्थान विशे० १-७ /सामान्य चा.सा.
सम्भव
भवा
सम्भव
गुण-गुणकी।
प्रमाण स्थान विशे० २२१ १२ सामान्य चा.सा. क्षुधा, ११
पिपासा, अदर्शन
८
, . ,
शीत, उष्ण,
दंशमशक, चर्या, शय्या , बध,
सवेद चा सा. अदर्शन,२०
| अरति
७. परिषह जयका कारण व प्रयोजन त सू/8/- मार्गाच्यवननिर्जरा परिषोढव्याः परीषहा । स. सि /E/८/४१७/१३ जिनोपदिष्टान्मार्गादप्रच्यवमानास्तन्मार्गपरिक्रमणपरिचयेन कर्मागमद्वारं संवृण्वन्त औपक्रमिक कर्म फलमनुभवन्तः क्रमेण निर्जीर्ण कर्माणो मोक्षमाप्नुवन्ति । -जिनदेवके द्वारा कहे हुए मार्ग से नहीं च्युत होनेवाले, उस मार्गके सतत अभ्यास रूप परिचयके द्वारा कर्मागम द्वारको संवृत करनेवाले तथा औपक्रमिक कर्मफलको
अनुभव करनेवाले क्रमसे कर्मोंकी निर्जरा करके मोक्षको प्राप्त होते है। अन ध/६/८३ दुखे भिक्षुरुपस्थिते शिवपथाइभ्रस्यत्यदु.खाश्रितात् तत्सन्मार्गपरिग्रहेण दुरितं रोद्धू मुमुक्षुर्नवम्। भोक्तु च प्रतपनक्षुदादिवपुषो द्वाविंशति वेदना', स्वस्थो यत्सहते परीषहजय साध्य' स धोरै परम् ॥ ३॥ संयमी साधु बिना दुखोंका अनुभव किये ही मोक्षमार्गका सेवन करे तो वह उसमें दुखों के उपस्थित होते ही भ्रष्ट हो सकता है । जो मुमुक्षु पूर्वबद्ध कर्मोको निर्जरा करनेके लिए आत्मस्वरूपमें स्थित होकर क्षुधादि २२ प्रकारकी वेदनाओंको सहता है,
उसीको परिषह विजयी कहते है। द्र.सं./टी १५७/२२६/४ परीषहजयश्चेति.. ध्यानहेतव.। परिषहजय ध्यानका कारण है। *परिषहजय भी संयमका एक अंग है-दे० कायक्लेश।
तृणस्पर्श,
स.सि.
मोक्ष परम् ॥ ३ ॥ना स्वस्थो यस
" अवेद , स्त्री १६ १०- सामान्य स.सि. नारन्य, १४१ १३
| अरति. १४
स्त्री, निषद्या, आक्रोश, याचना। सरकारपुरस्कार अदर्शन
18-१२ मान क०चा.सा.,८१४
रहित ।
५. एक समयमें एक जीवको परिषहोंका प्रमाण
त.स /8/१७ एकादयो भाज्या युगपदेकस्मिन्न कानविंशतः।१७।
= एक साथ एक आत्मामें उन्नीस तक परिवह विकल्पसे हो सकते है ॥ १७ ॥ स.सि./६/१७ शीतोष्णपरिषहयोरेकः शय्यानिषद्याचर्याणां चान्यतम एव भवति एकस्मिन्नात्मनि । कुतः। विरोधात् । तस्त्रयाणामपगमे युगपदेकात्मनोतरेषा संभवाडेकोनविंशति विकलपा बोद्धव्या। - एक आत्मामें शीत और उष्ण परिषहों में से एक, शय्या, निषद्या और चर्या इनमें से कोई एक परिषह ही होते है, क्योंकि शीत और उष्ण इन दोनोंके तथा शय्या, निषद्या और चर्या इन तीनोंके एक साथ होनेमे विरोध आता है। इन तीनोंके निकाल देनेपर एक साथ एक आदमामें इतर परिषह सम्भव होनेसे सब मिलकर उन्नीस परिषह जानना चाहिए। (रा.वा./४/१७/२/६१५/२५)।
३. शंका समाधान
१.क्षुदादिको परिषह व परिषहजय कहनेका कारण भ.आ./मू. व टी./११७१/१९५६ सीदुण्हदसमसयादियाण दिण्णो परिसहाण उरो। सीदादिणिवारणाए गये णिययं जहत्तेण । १९७१ ॥ क्षुदादिजन्यदुःखविषयत्वात् क्षुदादिशब्दानाम् । तेन क्षुत्पिपासाशीतोष्णदंशमशकनारन्यादीनां परीषहवाचो युक्तिन विरुध्यते। -शोत, उष्ण इत्यादिको मिटानेवाला वस्त्रादि परिग्रह जिसने नियमसे छोड़ दिया है, उसने शीत, उष्ण, देश-मशक वगैरह परिषहाँको छाती आगे करके शूर पुरुषके समान जीत लिया है, ऐसा समझना चाहिए ॥ ११७६ ॥ क्षुदादिकोंसे उत्पन्न होनेवाला दुख क्षुदादि शब्दोंका विषय है, इस वास्ते क्षुधा, पिपासा, शीत, उष्ण, दंशमशक, नाग्न्य इत्यादिकोंको परिषह कहना अनुचित नहीं है।
.. केशलोचको परिषदों में क्यों नहीं गिनते स.सि./8/8/४२६/- केशलुठचसंस्काराभ्यामुत्पन्नखेदसहन मलसामान्यसहनेऽन्तर्भवतीति न पृथगुक्तम् । -केश लुब्चन या केशोंका संस्कार न करनेसे उत्पन्न खेदको सहना होता है, यह मल परिषह सामान्यमें ही अन्तर्भूत है। अत. उसको पृथक् नहीं गिनाया है। (रा.वा./६/६/२४/६१२/१) ।
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परिस्पन्द
परिहार प्रायश्चित्त परिषहजय व कायक्लेशमें अन्तर-दे० कायक्लेश ।
परिहार प्रायश्चित्त है। (रा वा/३/२२/९/६२९/३२), (त.सा/७/२६)
(भा पा./टी, ७८/२२३/१३) । ३. अवधि आदि दर्शन परिषहोंका भी निर्देश क्यो।
२. परिहार प्रायश्चित्तके भेद नहीं करते
ध. १३/१,४,२६/६२/४ परिहारो विहो अणवट्ठओ पर चिओ चेदि । रा.वा./8/8/३१/६१२/३३ नूनमस्मिस्तद्योग्या गुणा न सन्तीत्येवमादि
___-परिहार दो प्रकारका होता है-अनवस्थाप्य और पार चिक। वचनसहनमवध्यादिदर्शनपरीषहजय , तस्योपसरूपानं कर्तव्यमिति;
(चा.सा./१४४/४)। तन्न; कि कारणम् । अज्ञानपरीषहाविरोधाद । तत्कथमिति चेत् ।
चा, सा/१४४/४ तत्रानुपस्थापन निजपरगणभेदाइ द्विविध । - उपरोक्त उच्यते-अवध्यादिज्ञानाभावे तत्सहचरितदर्शनाभाव , आदित्यस्य
दो भेदोमें से अनुपस्थापन भी निजगण और परगणके भेदसे दो प्रकारप्रकाशाभावे प्रतापाभाववत । तस्मादज्ञानपरीषहेऽवरोध । = प्रश्न
___ का होता है। अवधिदर्शन आदिके न उत्पन्न होनेपर भी 'इसमें वे गुण नही है' आदि रूपसे अवधिदर्शन आदि सम्बन्धी परिषह हो सकती है, अत ३. निज गणानुपस्थापन या अनवस्थाप्यका लक्षण उसका निर्देश करना चाहिए था। उत्तर-ऐसा नहीं है, क्योकि ये
ध. १३/१,४,२६/६२/४ तत्थ अणवट्ठओ जहण्णेण छम्मासकालो उक्कादर्शन अपने-अपने ज्ञानोके सहचारी है अत: अज्ञानपरिषहमें ही स्सेण मारसवासपेरंतो। कायभूमीदो परदो चेव कयाविहारो पडिइनका अन्तर्भाव हो जाता है। जैसे-सूर्य के प्रकाशके अभावमें प्रताप
बंदणविरहिदो गुरुबदिरित्तासेसजणेसु कयमोणाभिग्गहो रखवायनही होता, उसी तरह अवधिज्ञानके अभावमें अवधिदर्शन नही
विलपुरिमड्ढेयट्ठाणणिविवयदीहि सोसिय-रस-रुहिर-मासो होदि । होता। अत. अज्ञानपरिषहमे ही उन उन अवधिदर्शनाभाव आदि
- अनवस्थाप्यपरिहार प्रायश्चित्तका जघन्य काल छह महीना और परिषहोका अन्तर्भाव है।
उत्कृष्ट काल बारह वर्ष है। वह काय भूमिसे दूर रहकर ही 'विहार
करता है, प्रतिवन्दनासे रहित होता है, गुरुके सिवाय अन्य सब ४. दसवें आदि गुणस्थानों में परिषहोंके निर्देश सम्बन्धी
साधुओके साथ मौन रखता है तथा उपवास, आचाम्ल, दिनके
पूर्वाधमें एकासन और निर्विकृति आदि तपों द्वारा शरीरके रस, स.सि./8/१०/४२८/८ आह युक्तं तावद्वीतरागच्छद्मस्थे मोहनीया
रुधिर और मांसको शोषित करनेवाला होता है। भावात् तत्कृतवक्ष्यमाणाष्टपरिषहाभावाच्चतुर्दशनियमवचनम् ।
चा, सा./१४५/१ तेन ऋष्याश्रमाइ द्वात्रिंशददण्डान्तरविहितविहारेण सूक्ष्मसाम्पराये तु मोहोदयसभावात् 'चतुर्दश' इति नियमो
बालमुनीनपि बंदमानेन प्रतिवन्दनाविरहितेन गुरुणा सहालोचयता नोपपद्यत इति । तदयुक्तम्, सन्मात्रत्वाव। तत्र हि केवलो लोभसंज्वलनकषायोदय, सोऽप्यतिसूक्ष्म'। ततो वीतरागछद्मस्थकल्प
शेषजनेषु कृतमौनव्रतेन विधृतपराड्मुखपिच्छेन जघन्यतः पञ्चपञ्चोप
वासा उत्कृष्टतः षण्मासोपघासा' कर्त्तव्याः, उभयमप्याद्वादशवर्षात्यात चतुर्दश' इति नियमस्तत्रापि युज्यते । ननु मोहोदयसहाया
दिति । ददिनन्तरोक्तान्दोषानाचरतः निजगणोपस्थापनं प्रायभावान्मन्दोदयत्वाच्च शुदादिवेदनाभावात्तत्सहनकृतपरिषहव्यपदेशो
श्चित्तं भवति ।-जिनको यह प्रायश्चित्त दिया जाता है वे मुनियोंनयुक्तिमवतरति । तन्न। किं कारणम् । शक्तिमात्रस्य विवक्षि
के आश्रमसे बत्तीस दण्डके अन्तरसे बैठते है, बालक मुनियोंको तत्वात् । सर्वार्थ सिद्धिदेवस्य सप्तमपृथिवीगमनसामर्थ्यव्यपदेशवत् ।
(कम उम्रके अथवा थोडे दिनके दीक्षित मुनियोको) भी वन्दना वीतरागछद्मस्थस्य कर्मोदयसद्भावकृतपरीषहव्यपदेशो युक्तिमवतरति ।-प्रश्न-वीतराग 'छद्मस्थके मोहनीयके अभावसे तत्कृत आगे
करते है, परन्तु बदले में कोई मुनि उन्हे वन्दना नहीं करता। वे कहे जानेवाले आठ परिषहोका अभाव होनेसे चौदह परिषहोके
गुरुके साथ सदा आलोचना करते रहते हैं, शेष लोगों के साथ बात
चीत नहीं करते है परन्तु मौनव्रत धारण किये रहते है, अपनी नियमका वचन तो युक्त है, परन्तु सूक्ष्मसाम्पराय गुणस्थानमें मोहनीयका उदय होनेसे चौदह परिषह होते है, यह नियम नहीं
पीछीको उलटी रखते हैं। कमसे कम पाँच-पाँच उपवास और मनता 1 उत्तर- यह कहना अयुक्त है, क्योंकि वहाँ मोहनीयकी
अधिकसे अधिक छह-छह महीनेके उपवास करते रहते है, और इस सत्तामात्र है। वहॉपर केवल लोभ संज्वलनकषायका उदय होता है,और
प्रकार दोनों प्रकारके उपवास १२ वर्ष तक करते रहते हैं यह निज वह भी अतिसूक्ष्म इसलिए वीतराग छमस्थके समान होनेसे सूक्ष्मसाम्प
गणानुपस्थापन नामका प्रायश्चित्त है। रायमें भी चौदह परिषह होते हैं यह नियम बन जाता है ।प्रश्न- आचार सार/६/५४ यह प्रायश्चित्त उत्तम, मध्यम, व जघन्य तोन प्रकारइन स्थानों में मोहके उदयकी सहायता न होनेसे और मन्द उदय से दिया जाता है। यथा--उत्तम-१२ वर्ष तक प्रतिवर्ष ६ महीनेका होनेसे क्षुधादि वेदनाका अभाव है, इसलिए इनके कार्यरूपसे परिषह' उपवास । मध्यम-१२ वर्ष तक प्रतिवर्ष प्रत्येक मासमें ५ से अधिक संज्ञा युक्तिको प्राप्त नहीं होती। उत्तर-ऐसा नहीं है, क्योकि यहाँ और १५ से कम उपवास । जघन्य-१२ वर्ष तक प्रतिवर्ष प्रत्येक मासशक्तिमात्र विवक्षित है। जिस प्रकार सर्वार्थ सिद्धिके देवके सातवी में ५ उपवास। पृथ्वीके गमनकी सामर्थ्यका निर्देश करते है, उसी प्रकार यहाँ भी १. परगणानुपस्थापन प्रायश्चित्तका लक्षण जानना चाहिए। अर्थात् कर्मोदय सद्भावकृत परिषह व्यपदेश हो सकता है । (रा. वा./६/१०/२-३१६१३/१०)।
चा. सा./१४५/४ स सापराध. स्वगणाचार्येण परगणाचार्य प्रति प्रोतव्यः
सोप्याचार्यस्तस्यालोचनमाकर्ण्य प्रायश्चित्तमहत्त्वाचार्यान्तरं *केवलीमें परिषही सम्बन्धी शंकाएं-दे० केवली/४। प्रस्थापयति, सप्तम यावत् पश्चिमश्च प्रथमालोचनाचार्य प्रति परिस्पन्द-१. आत्मप्रदेशोंका परिस्पन्द-दे० योग/१ । २. प्रस्थापपति, स एव पूर्वः पूर्वोक्तप्रायश्चित्तेनेनमाचरयति। -अपने जीवके चलिताचलित प्रदेश-दे. जोव/४] ३, परिस्पन्दात्मक
संघके आचार्य ऐसे अपराधीको दूसरे संघके आचार्यके समीप भेजते भावका विषय-दे० भाव ।
है, वे दूसरे संघके आचार्य भी उनकी आलोचना सुनकर प्रायश्चित्त परिहार-परस्पर परिहारलक्षणविरोध-दे० विरोध ।
दिये बिना ही किसी तीसरे सबके आचार्यके समीप भेजते हैं, इसी
प्रकार सात संघोंके समीप उन्हें भेजते हैं अन्तके अर्थाव सातवें परिहार प्रायश्चित्त
संधके आचार्य उन्हें पहिले आलोचना सुननेवाले आचार्य के स.सि./8/२२/४४०/९ पक्षमासादिविभागेन दूरतः परिवर्जन परिहार' । समीप भेजते है तब वे पहले ही आचार्य उन्हें ऊपर लिखा हुआ
-पक्ष महीना आदिके विभागसे संघसे दूर रखकर प्याग करना (निजगणानुपस्थापनमें कहा हुआ) प्रायश्चित्त देते हैं।
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परिहार विशुद्धि
परिहार विशुद्धि
५. पारचिक प्रायश्चित्तका लक्षण ध १३/५,४,२६/६२/७ जो सो पार चिओ सो एव विहो चेव होदि, कितु साधम्मियवजियखेत्ते समाचरेयव्यो । एत्थ उक्छस्सेण छम्मासक्ववण पि उवइ छ । = पार चिक तप भी इसी (अवस्थाप्य जैसा) प्रकारका होता है। किन्तु इसे साधर्मी पुरुषोसे रहित क्षेत्रमे आचरण करना चाहिए । इसमे उत्कृष्ट रूपसे छह मासके उपवासका भी उपदेश दिया गया है। आचार सार/६/६२-६४ स्वधर्मरहितक्षेत्रे प्रायश्चित्ते पूरो दिते। चार पारधिकं जैनधर्मात्यन्तरतेमतम् २॥ सघो:शविरोधान्तपुरस्त्रीगमनादिषु । दोषेष्ववन्ध पाप्येष पातकीति अहि कृत ।६॥ चतुर्विधन सधेन देशान्निष्कासितोऽप्यद । अपने धर्म से रहित अन्य क्षेत्रमें जाकर जहाँ लोग धर्मको नही जानते वहाँ पूर्व कथित प्रायश्चित्त करना पारं चिक है।६२। संध और राजासे विरोध
और अन्त पुरकी स्त्रियोंमे जाने आदि दोषोंके होनेपर उस पापीको चतुर्विध सधके द्वारा देशसे निकाल देना चाहिए। चा. सा/१४६/३ पारञ्चिकमुच्यते,. चातुर्वर्ण्य श्रमणा संघ स्भूय तमाहूय एष महापातकी समयबाह्यो न वन्द्य कति घोषयित्वा दत्वानुपस्थान प्रायश्चित्तदेशान्निर्धाटयन्ति । = पार चिक प्रायश्चित्तकी क्रिया इस प्रकार है-कि आचार्य पहले चारों प्रकारके मुनियोके संघको इकट्ठा करते हैं, और फिर उस अपराधी मुनिको बुलाकर घोषणा करते है कि यह मुनि महापापी है अपने मतसे बाह्य है, इसलिए वन्दना करनेके अयोग्य है। इस प्रकार घोषणा कर तथा अनुपस्थान नामका प्रायश्चित्त देकर उसे देशसे निकाल देते है। *परिहार प्रायश्चित्त किसको किस अपराधमें दिया जाता है-दे० प्रायश्चित्त /४ ।
-परिहार विशुद्धि अत्यन्त निर्मल चारित्र है जो अत्यन्त धीर व उच्चदर्शी साधुओको ही प्राप्त होता है।
१. परिहारविशुद्धि चारित्रका लक्षण स. सि /8/१८/४३६/७ परिहरणं परिहार प्राणिवधान्निवृत्ति । तेन विशिष्टा शुद्धिर्य स्मिस्तत्परिहारविशुद्धिचारित्रम् । = प्राणिवधसे निवृत्तिको परिहार कहते है। इस युक्त शुद्धि जिस चारित्रमें होती है वह परिहारविशुद्धि चारित्र है। (रा.वा./8/१८/८/६१७/१६) (त.
सा./६/४७); (चा, सा /८३/५); (गो. क /प्र /१४७/७१४/७)। पं.सं /प्रा./१/१३१ पंचसमिदो तिगुत्तो परिहरइ सया वि जोहु
सावज्ज। पंचजमेयजमो वा परिहारयसंजदो साह।१२। पाँच समिति और तीन गुप्तियोसे युक्त होकर सदा ही सर्व सावद्य योगका परिहार करना तथा पाँच यमरूप भेद सयम (छेदोपस्थापना) को अथवा एक यमरूप अभेद सयम (सामायिक) को धारण करना परिहार विशुद्धि सयम है, और उसका धारक साधु परिहार विशुद्धि संयत कहलाता है। (ध. १/१,१,१२३/गा. १८६/३७२), (गो जी./मू. ४७१), (पं. सं /१/२४१)। यो, सा. यो/१०२ मिच्छादिउ जो परिहरणु सम्मद्दसण-सुद्धि । सो परिहारविमुद्धि मुणि लहू पावहि सिव-सिद्धि ।१०२। --मिथ्यात्व आदि के परिहारसे जो सम्यग्दर्शनकी विशुद्धि होती है, उसे परिहारविशुद्धि समझो, उससे जोब शीघ मोक्ष-सिद्धिको प्राप्त करता
है।१०। ध, १/१,१,१२३/३७०/८ परिहारप्रधान' शुद्धिसयत परिहारशुद्धिसंयत ।
-जिसके ( हिंसाका ) परिहार ही प्रधान है ऐसे शुद्धि प्राप्त स यतों
को परिहार-शुद्धि-सयत कहते है।। द्र.सं./टी./३/१४८/३ मिथ्यात्वरागादिविकल्पमालाना प्रत्याख्यानेन परिहारेण विशेषेण स्वात्मनः शुद्धिर्मग्यपरिहारविशुद्धिश्चारित्र
मिति ।- मियाल राणादि निकलप मलाला प्रत्याख्यान अर्थात त्याग करके विशेष रूपमे जो पात्मशुद्धि असा निर्मलता, सो परिहार विशुद्धि चारित्र है।
२. परिहारावशुद्धि संयम विधि भ आ/वि /२५/३६४/२० जिनमल पस्थासमर्था क्लपस्थितमाचार्य
मुक्ला परिहारसयम गृहन्ति इति परिहारिका भण्यन्ते । शेषास्तेपामनपहा रिका । वसतिमाहार च मुक्त्वा नान्यद गृहन्ति । सयमार्य पनिनेखन गहन्ति। चनुबिमानुपसर्गा-महन्ते। दृढतयो निरन्तर ध्यानान हितचित्ता। त्रय , पञ्च, सप्त, नब षणा नियन्ति । रोगेण बदनयोपद्र ताश्च तत्प्रतिकार चन कुर्वन्ति ।। रवाध्यायकालप्रतिलेखनादिकाश्च क्रियान सन्ति तेषा। श्मशानमध्येऽपि तेषा न ध्यान प्रतिष्धि । आवश्यकानि यथाकाल कुर्वन्ति। अनुज्ञाप्य देवकुलादिषु वसन्ति । आसीधिका च निधी धिका च निष्क्रमणे प्रवेशे च संपादयन्ति । निर्देशक मुक्त्वा इतरे दशविधे समाचारे वर्तन्ते । उपकरणादिक्षानं, ग्रहण, अनुपालन, विनयो, वंदना सल्लापश्च न तेषामस्ति सघन सह। तेषा । परस्परेणास्ति सभोग । मौनाभिग्रहरतास्तिस्रो भाषा मुब वा प्रष्टव्याहृतिमनुज्ञाकरणी प्रश्ने च प्रवृत्ता च मार्गस्य शक्तिम्य वा योग्यायोग्यत्वेन शय्य,घरगृहस्य, बसतिर वामिनो वा प्रश्न... व्यावादि. कण्टकादिविधे स्वयं न निराकुर्वन्ति । परे गदि निशर्मस्तूष्णीमवतिष्ठन्ते । तृतीययाम एव नियोगतो भिक्षार्थ गच्छन्ति । यत्र क्षेत्रे छटग चर्या अपुनरुक्ता भवन्ति तत्क्षेत्रमा सप्रयोग्य शेषमयामिति वर्जयन्ति। -जिनकल्पको धारण करनेमे असमर्थ चार या पाँच साधुस पमे परिहारविशुद्धि सयम धारण करते है। उनमे भी एक आचार्य कहलाता है। शेषमे जो पीछे से धारण करते है उन्हे अनुपहारक कहते है। ये साधु बस्तिका, आहार, सरतर, पीछी व कमण्डलके अतिरिक्त अन्य कुछ भी ग्रहण नहीं करते। धैर्य पूर्वक उपसर्ग सहते है। वेदना आदि आनेपर भी उसका प्रतिकार नहीं करते । निरन्तर ध्यान व स्वाध्यायमे मग्न रहते है। श्मशानमे भी ध्यान करनेका इनको निषेध नहीं । यथाकाल आवश्यक क्रियाएँ करते है। शरीरके अगोको पीछीसे पोछने की क्रिया नहीं करते। बस्तिकाके लिए उसके स्वामीसे अनुज्ञा लेता तथा नि सही असहीके नियमों को पालता है। निर्देशको छोडकर समस्त समाचारोको पालता है। अपने साधर्मी के अतिरिक्त अन्य सबके साथ आदान, प्रदान, वन्दन, अनुभाषण आदि समस्त व्यवहारोका त्याग करते है। आचार्य पदपर प्रतिष्ठित परिहार सयमी उन व्यवहारोका त्याग नहीं करते। धर्मकार्यमे आचार्य से अनुज्ञा लेना, विहारमे मार्ग पूछना, वस्तिकाके स्वामीसे आज्ञा लेना, योग्य अयोग्य उपकरणों के लिए निर्णय करना, तथा क्सिीका सन्देह दूर करनेके लिए उत्तर देना, इन कार्योके अतिरिक्त वे मौनमै रहते है, उपसर्ग आनेपर स्वयं दूर करनेका प्रयत्न नहीं करते, यदि दूसरा दूर करे तो मौन रहते है। तीसरे पहर भिक्षाको जाते है। जहाँ छ भिक्षाएँ अपुनरुक्त मिल सके ऐसे स्थान में रहना ही योग्य समझते है। ये दोपस्थापना चारित्रके धारी होते है।
३. गुणस्थानों की अपेक्षा स्वामित्व ष ख १/१,१/म १२६/३७५ परिहार-सुद्धि-संजदा दोसु ढाणेसु पमत्तसजद-ट्ठाणे अप्पमत्त-स्जद-ट्टाणे ।१२६ - परिहार-शुद्धिसंयत प्रमत्त और अप्रमत्त इन दो गुणस्थानोंमे ही होते है ।१२६॥ (द्र स/टी/११/९४८/२), (गो जी म्/४६७,६८१)।
४. उत्कृष्ट व जघन्य स्थानोंका स्वामित्व ध, ७/२,११,१६६/५६६/१एमा परिहारसुद्धिस जमलद्धी जहणिया क्स्स होदि। सबसकिलिस मामाइयछेद बछावण भिमुहचरिम
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३७ परिहार विशुद्धि
परिहार विशुद्धि समयपरिहारसुद्धिसंजदस्स । = यह जघन्य परिहारशुद्धि सयमलब्धि ८.शंका समाधान सर्व सक्लिष्ट सामायिक-छेदोपस्थापना शुद्धि संयमके अभिमुख हए अन्तिम समयवर्ती परिहार शुद्धिसंयतके होती है।
ध, १/१,१,१२६/२७५/५ उपरिष्टास्किमित्ययं स यमो न भवेदिति चेन्न,
ध्यानामृतसागरान्तर्निमग्नात्मना वाचंयमानामुपसंहतगमनागम५, परिहार संयम धारणमें आयु सम्बन्धी नियम
नादिकायव्यापाराणा परिहारानुपपत्ते । प्रवृत्तः परिहरति नाप्रवृत्तध/१/८/२७१/३२७/१० तीसं वासेण विणा परिहारसुद्धिसंजमस्य स्ततो नोपरिश्टात् संयमोऽस्ति। संभवाभावा। -तीस वर्ष के बिना परिहार विशुद्धि संयमका होना
ध १/१,१,१२६/३७६/२ परिहारर्धरुपरिष्टादपि सत्त्वात्तत्रास्यास्तु संभव नहीं है । (गो. जी./मू./४७२/८८१)।
सत्त्वमिति चेन्न, तत्कायस्य परिहरणलक्षणस्यासत्त्वतस्तत्र तदध.७/२,२.१४६/१६७/८ तीसं वस्साणि गमिय तदो वासपुधत्तेण तित्थ
भावात ।-प्रश्न-ऊपरके आठवें आदि गुणस्थानों में यह सयम क्यो यरपादमूले पच्चक्खाणणामधेयपुव्व पढिदूण पुणो पच्छा परिहार
नहीं होता। उत्तर-नही, क्योकि, जिनकी आत्माएँ ध्यानरूपी सुद्धिसजभं पडिव जिय देसूणपुवकोडिकालमच्छिदूण देबेसुप्पण्णस्स
सागरमे निमग्न है, जो वचन यमका (मौनका) पालन करते है और वत्तव्वं । एवमछतीसवस्सेहि ऊणिया पुधकोडी परिहारसुद्धि
जिन्होंने आने जाने रूप सम्पूर्ण शरीर सम्बन्धी व्यापार सकुचित सजमस्स कालो वुत्तो। के वि आइरिया सोलसबस्सेहि के वि
कर लिया है ऐसे जीवोंके शुभाशुभ क्रियाओंका परिहार बन ही नहीं बावीसवस्से हि ऊणिया पुवकोडी त्ति भणं ति । तीस वर्षोंको सकता है। क्योंकि, गमनागमन रूप क्रियाओमें प्रवृत्ति करनेवाला ही बिताकर (फिर संयम ग्रहण किया। उसके ) पश्चात् वर्ष परिहार कर सकता है प्रवृत्ति नहीं करनेवाला नही। इसलिए ऊपरके पृथक्त्वसे तीर्थ करके पादमूलमे प्रत्याख्यान नामक पूर्वको पढ़कर आठवे आदि गुणस्थानों में परिहार शुद्धि सयम नहीं बन सकता है। पुन' तत्पश्चात् परिहारविशुद्धि संयमको प्राप्तकर और कुछ कम
प्रश्न-परिहार ऋद्धिकी आठवें आदि गुणस्थानोमे भी सत्ता पाथी पूर्व कोटि वर्ष तक रहकर देवों में उत्पन्न हुए जीवके उपर्युक्त
जाती है, अतएव वहाँपर इस संयमका सद्भाव मान लेना चाहिए। काल प्रमाण कहना चाहिए । इस प्रकार अडतीस वर्षोसे कम पूर्वकोटि
उत्तर--नही, क्योंकि, आठवे आदि गुणस्थानोमे परिहार ऋद्धि वर्ष प्रमाण परिहार शुद्धि संयतका काल कहा गया है। कोई आचार्य पायी जाती है, परन्तु वहॉपर परिहार करने रूप कार्य नही पाया सोलह वर्षोंसे और कोई बाईस वर्षोंसे कम पूर्वकोटि वर्षप्रमाण कहते जाता, इसलिए आठवे आदि गुणस्थानों में इस सयमका अभाव है। है। (गो, जी./जी. प्र/४७३/८८१/१२, ७१६/११५४/११)।
ध,५/१,८,२७१/३२७/८ एत्य उवसमसम्मत्तं णस्थि, तीसं बासेण विणा परिहारसुद्धिसंजमस्य सभवाभावा। ण च तेत्तियकाल मुबसमसम्मत्त
स्सावट्ठाणमत्थि, जेण परिहारसुद्धिसंजमेण उबसमसम्मत्तस्मुबली 4. इसकी निर्मलता सम्बन्धी विशेषताएँ
होज्ज । ण च परिहारसुद्धिसंजमछह तस्स उवसमसेडीचडणहूँ ध.७/२,२,१४६/१६७/८ सयमही होण• बासपुधत्तेण तित्थयरपाद- दसणमोहणीयस्सुवसामण्णं पि सभवइ, जेवसमसेडिम्हि दोण्ह मूले पच्चक्रवाणणामधेयपुव्व पढिदूण पुणो पच्छा परिहारसुद्धिसंजर्म पि सजोगो होज्ज । प्रश्न-(परिहारविशुद्धिसंयतोके उपसम पडिवज्जिय ।-सर्व सुखी होकर• पश्चात् वर्ष पृथक्त्वसे तीर्थकर- सम्यक्त्व क्यों नहीं होता १) उत्तर-१. परिहार शुद्धि सयतोंके के पाद मूलमें प्रत्याख्यान नामक पूर्वको-पढ़कर पुन, तत्पश्चात
उपशम सम्यक्त्व नही होता है क्योकि, तीस वर्ष के बिना परिहारपरिहार विशुद्धि संयमको प्राप्त करता है। (गो जी./जी,प्र/४७३/ शुद्धि संयमका होना सम्भव नहीं है। और न उतने कालतक १६७/८)।
उपशम सम्यक्त्वका अवस्थान रहता है, जिससे कि परिहारशुद्धि संयमके साथ उपशम सम्यक्त्व की उपलब्धि हो सके । २. दूसरी बात
यह है कि परिहारशुद्धि सयमको नही छोडनेवाले जीवके उपशम ७. इसके साथ अन्य गुणों व ऋद्धियोंका निषेध
श्रेणीपर चढ़नेके लिए दर्शन मोहनीय कर्मका उपशम हाना भी पं. सं /प्रा /१/१६४ मणपज्जवपरिहारो उवसमसम्मत्त दोण्णि आहारा ।
सम्भव नहीं है, जिससे कि उपशम श्रेणीमे उपशम सम्यक्त्व और एदेसु एक्कपयदे णस्थि त्ति असेसयं जाणे ११६४ - मन पर्ययज्ञान
परिहारशुद्धि संयम, इन दोनोका भी संयोग हो सके । परिहार विशुद्धि सयम, प्रथमोपशम सम्यक्त्व और दोनों आहारक अर्थात आहारकशरीर और आहारक अंगोपाग, इन चारों में से किसी एकके होनेपर, शेष तीन मार्गणाएँ नहीं होती ऐसा जामना चाहिए। ९. अन्य सम्बन्धित विषय ।१४। (गो. जी./मू./७३०/१३२५) । ध.४/१,३,६/१२३/७ (परिहारसुद्धिसंजदेसु) समत्तसंजदे तेजाहार
१. अप्रशस्त वेदोंके साथ परिहार विशुद्धिका विरोध -देवहा । णत्थि। -परिहार विशुद्धि संयतके तैजससमद्धात और आहारक समुद्धात ये दो पद नहीं होते।
२. परिहार विशुद्धि व अपहृत संयममें अन्तर। -सयम/२ । ध.४१,८,२७१/३२७/१० ण च परिहारसुद्धिसंजमछद्द'तस्स उबसम- ३. परिहार विशुद्धि संयमसे प्रतिपात संभव है। -दे० अन्तर/१ । सेडीचडण दसणमोहणीयस्सुवसामण्ण पि संभवह। - परिहार ४. सामायिक, छेदोपस्थापना व परिहार विशुद्धिमें अन्तर। विशुद्धि सयमको नही छोड़नेवाले जीवके उपशमश्रेणीपर चढ़नेके
-दे० छेदोपस्थापना। लिए दर्शन मोहनीय कर्मका उपशम होना भी संभव नही है । अर्थात
५. परिहार विशुद्धि संयममें क्षायोपशमिक भावों सम्बन्धी। परिहारविशुद्धि संयमके उपशम सम्यक्त्व व उपशमश्रेणी होना
-दे० स यत/२ । सम्भव नही। (गो. जी./जी, प्र./७१५/१२)।
६. परिहार विशुद्धि संयममें गुणस्थान, जीवसमास, मार्गणाध.१४/५,६,१५८/२४७/१ परिहारसुद्धिसजदस्स विउव्वण रिद्धी( ए) आहाररिद्धीए च सह विरोहादो। - परिहारशुद्धिसयतजीवके
स्थानके स्वामित्व सम्बन्धी २० प्ररूपणाएँ। -दे० 'सत। विक्रियाऋद्धि और आहारक ऋद्धिके साथ इस संयम होनेका ७. परिहार विशुद्धि संयतके सत्, संख्या, स्पर्शन, विरोध है। (गो जी./जी.प्र/७१५/११५४/११); (गो. क./जी. प्र./ काल, अन्तर, भाव व अल्प बहुत्व रूप ११६/११३/६)
आठ प्ररूपणाएँ।
-दे० वह वह नाम ।
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परीक्षा
३८
परोक्ष
८ परिहार विगुद्धि म-ममे कमाका अन्य, उदय व सत्व।
---दे०वह वह नाम । ९ ममी मार्गणाआमे आयके अनुसार व्यय होनेका नियम ।
- दे. मार्गशा।
परीक्ष-प्रमाग भेदामेसे परोक्ष भी एक है। इन्द्रियो व विचारणा द्वारा जो कुछ भी जाना जाता है वह सत्र परोक्ष प्रमाण है । छमस्थोको पदार्थ विज्ञानके लिए एकमात्र यही साधन है। स्मृति, तर्क, अनुमान आदि अनेको इसके रूप है। यद्यपि अविशद व इन्द्रियो आदिसे होनेके कारण इसे परोक्ष कहा गया है, परन्तु यह अप्रमाण नहीं है, क्योकि इसके द्वारा पदार्थ का निश्चय उतना ही दृढ होता है, जितना कि प्रत्यक्षके द्वारा ।
परीक्षा --
ग्या पू/टो /१:१/२/८/८ नतिम्य पालथणमुपाते न वेति प्रमाणैरव मारण परीक्षा । म उहिष्ट पदार्थ के जो लश्या कहे गये, वे टीक है या नहीं, इसका प्रमाण द्वारा निश्चग र धारण करनेको
परीक्षा कहते है। तत्त्वार्याधिगम भाष्य/२/१५ दहा ऊहा तक परीक्षा विचारणा जिज्ञासा
इत्यनन्तरम् । -ईहा, ऊहा, तक, परीक्षा, विचारणा और जिज्ञासा ये एकार्थवाची शब्द है। (और भी दे० विचय)। न्या. टी/१/६/८ विरुदनानायुक्तिप्राबल्दोबल्यावधारणाय प्रवर्लमानो विचार परीक्षा। सा खल्वेत्र चेदेव स्यादेव स्थादित्येव प्रवर्तते । - परस्पर विरुद्ध अनेक युक्तियोमेसे कौनसी युक्ति प्रबल है और कौनसी दुर्बल है इस बातके निश्चय करने के लिए 'यदि ऐसा माना जायेगा ता ऐमा होगा, और उसके विरुद्ध ऐसा माना जायेगा तो ऐसा होगा' इस प्रकार जो विचार किया जाता है उसको परीक्षा कहते है।
* अन्य सम्बन्धित विषय १ तचज्ञान परीक्षाको प्रधानता २ परोक्षामें हेतुका स्तन ३ श्रद्धानमे परीक्षाकी मुख्यता ४ देव, शास्त्र, गुरु आदिकी परीक्षा ५ साबुकी परीक्षाका विधि निषेध व उपाय ६ परीक्षामें अनुभवकी प्रधानता
-दे० न्याय/२।
-दे० हेतु। -दे० श्रद्धान/२। -दे० वह वह नाम ।
-दे० विनय/५ ॥ -दे० अनुभव/३।
१. पशेक्ष प्रमाणका लक्षण १ इन्द्रियसापेक्षशान प्र. सा /मू /५८ जं परदो विण्णाणं त 'तु परोक्ख त्ति भणिदमठेसु ।५८
= परके द्वारा होनेवाला जो पदार्थ सम्बन्धी विज्ञान है, वह परोक्ष कहा गया है । (प्र सा./म् /४०), (स. सि./१/११/१०१/५); (रा. वा./
१/११/७/५२/३०), (प्र.सा/ता. बृ./५८/७६/१२) रा. वा /१/११/६/१२/२४ उपात्तानुपात्तपरप्राधान्यादवगम' परोक्षम् ।। उपात्तानी न्द्रियाणि मनश्च, अनुपातं प्रकाशोपदेशादि पर तत्प्राधान्यादवगमः , परोक्षम्। तथा मतिश्रुतावरणक्षयोपशमे सति ज्ञस्वभावस्यात्मन स्वमेवार्थानुपलब्धुमसमर्थस्य पूर्वोक्तप्रत्ययप्रधान ज्ञान परायत्तत्वात्तदुभय परोक्षमित्युच्ये। उपात्त-इन्द्रियाँ और मन तथा अनुपात्त-प्रकाश उपदेशादि 'पर' है। परकी प्रधानतासे होनेवाला ज्ञान परोक्ष है। (स सा /आ /१३/क ८), (त. सा /१/१६) (ध.६/१,१,४५/१४३/३)(ध.१३/५,५,२१/२१२/१), (प्र सा/त प्र./ ५५), (गो जी/जी.प्र/३६६/७६५/८) तथा उसी प्रकार मतिज्ञानावरण और श्रुतज्ञानावरणका क्षयोपशम होनेपर ज्ञस्वभाव परन्तु स्वय पदार्थों को ग्रहण करनेके लिए असमर्थ हुए आत्माके पूर्वोक्त प्रत्ययोकी प्रधानतासे उत्पन्न होनेवाला ज्ञान पराधीन होनेसे
परोक्ष है । (म सि /१/११/१०१/५), (ध, १/४,१,४५/१४४/१)। प्र सा/त प्र/५८ यत्त खलु परद्रव्यभूतादन्त करणादिन्द्रियात्परोप
देशादुपलब्धे सस्कारादालोकादेर्वा निमित्ततामुपगमारस्व विषयमुपगतस्यास्त्र परिच्छेदन तत् परत प्रादुर्भवत्परोक्षमित्यालक्षाते । --निमित्तता प्राप्त जो परद्रगभूत अन्त करण (मन ) इन्द्रिय, पर पदेश, उपलब्ध (जाननेको शक्ति) सस्कार या प्रकाशादिक है, उन द्वारा होने वाला स्व विषयभून पदार्थ का ज्ञान पर के द्वारा प्रगट होता है इसलिए परोक्षके रूपमे जाना जाता है। (द स /टी1M २७/१२)
२. अविशदशान प मु/-/१ (विशद प्रत्यन प मु /२/१) परोक्षमितरत् ।१६ -विद अति रपट ज्ञान का प्रत्यक्ष कहते है। इससे भिन्न अर्थात् अविशद
को पर प्रमाण वदते है। न्या दी/३/१/५१/१ अविशदप्रतिभास परोक्षम् । यस्प ज्ञानस्य प्रतिभासो विशो न भनति तपरोक्षमित्यर्थ । अवैशद्यमस्पष्ट
। = अविशद प्रतिभासको परोक्ष कहते है। जिस ज्ञानका प्रतिमास विशद नही है वह परोक्षप्रमाण है। अविशदता अस्पष्टताको करते है। (म भ त /४७/१०)
परीक्षामूख-आ० माणिक्यनन्दि (ई०१००३) द्वारा सस्कृत भाषामे रचित सूत्रनिबद्ध न्यायविषयक ग्रन्थ है । इसमे छह अधिकार है, और कुल २०७ सूत्र हैं। इसपर दो टीकाएँ उपलब्ध है- प्रभाचन्द्र म०४ (ई०६५०- १०२०) कृत प्रमेयकमलमानण्ड नामकी सरक्त टीका और प जयचन्द छाबडा (ई० १८०६)'कृत भाषा टोका।
(ती./३/११) परीक्षित-१.अभिमन्यु का पुत्र था। कृष्णजोके द्वारा इस को राज्य मिना था। (पा पु./२२/३३) । २, कुरुवंशी राजा था। पाचाल देश (कुरुक्षेत्र ) मे राज्य करता था। (राजा जनमेजयका पिता था) समय-ई०पू० १४७०-१४५० (भारतीय इतिहास /२८६) विशेष
दे० इतिहास/३/३। परोत-Trams (ज प /प्र. १०७) (दे० 'गणित'/I/११) । परोतानंत-दे० अनन्त ।
परीतासंख्यात-दे० असंख्यात ।
परोलखा-भ आ/वि/६/११६ पडिलेहा आराधनाया व्याक्षेपेण बिना मिशिभ पति न वा राज्याय देशरय ग्रामनगरादेस्तत्र प्रधानस्य वा शोभनं वा नेति एव निरूपणम् । पडिलेहा-आराधनामे यदि विन्न उपस्थित हो तो आराधनाकी सिद्धि नहीं होती। अत उसको निर्विघ्नताके लिए राज्य, देश, गाँव, नगरका शुभ होगा या अशुभ होगा उसका पालोकन करना।
२. परोक्ष ज्ञानके भेद-१. मति श्रुतकी अपेक्षा त सू १/११ आय परोक्षम् ।११।। - आदिके दो ज्ञान अर्थात मति
और मुतज्ञान परोक्ष प्रमाण है । (ध १/४,१,४५/१४३/), (न च. वृ/ १७१), (ज प/१३/५३)। द्र स टी /१/१५/२ शेषचतुष्टय परोक्षमिति । = शेष कुमति, कुश्रुत,
मति और तज्ञान ये चार परोक्ष है।
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पर्याप्ति परोक्ष
नि, सा /ता वृ./१२ मतिश्रुतज्ञानद्वितयमपि परमार्थत परोक्षम् । २. स्मृति आदि की अपेक्षा
व्यवहारत प्रत्यक्षं च भवति। - भति और श्रुज्ञान दोनो ही त स /१/१३ मति' स्मृति सज्ञा चिन्ताभिनित्रोध इत्पनन्तरम् ।
परमार्थ से परोक्ष है और व्यवहारसे प्रत्यक्ष होते है। मति, स्मृति, मना चिन्ता और अभिनिबोध ये पर्यायवाची
प्र सा /ता वृ/१२/७३/१५ इन्द्रियज्ञान यद्यपि व्यवहारेण प्रत्यक्ष नाम है।
भण्यते, तथापि निश्चयेन केवलज्ञानापेक्षया परोक्षमेव । - इन्द्रियन्या समू/२/२/2/8 प्रत्यक्षानुमानोपमानशब्दा प्रमाणानि ।।
ज्ञान यद्यपि व्यवहारसे प्रत्यक्ष कहा जाता है, तथापि निश्चयनयसे न्या व/मु /२/२/९/१०६ न चतुष्ट बमैतियापित्तिसभवाभाव
केवलज्ञानकी अपेक्षा परोश ही है । ( न्या. दी/२/११२/३४/२)। प्रामाण्यात् ।। न्यायदर्शनमे प्रमाण चार होते है-प्रत्यक्ष, अनुमान,
प.ध./1/७०० आभिनिबोधिकबोधो विषयविषयिसंनिकर्षजस्तउपमान और शब्द ।३। प्रमाण चार ही नही होते है किन्तु ऐतिह्य,
स्मात । भवति पर नियमादपि च मतिपुरस्सर श्रुत ज्ञानम् 1०००। अथपित्ति सम्भव और अभाव ये चार और मिलकर आठ प्रमाण है।
- मतिज्ञान विषय विपयीके सन्निकर्ष से उत्पन्न होता है, और श्रुतप मु/३/२ प्रत्यक्षादिनिमित्त स्मृतिप्रत्यभिज्ञानतर्मनुमानागभेदं
ज्ञान भीनियमसे मतिज्ञान पूर्वक होता है, इसलिए वे दोनो ज्ञान २। वह परोक्षज्ञान प्रत्यक्ष आदिकी सहायतासे होता है और
परो, कहलाते है ।७७०१ (प.ध/पू /७०१,७०७ ) । उसके स्मृति, प्रत्यभिज्ञान, तर्क, अनुमान और आगम पाँच भेद
* इन्द्रिय ज्ञानकी परोक्षता सम्बन्धी शंका समाधान है ।२। (स्या म./२८/३२१/२१); (न्या. दी./३/8३/५३/१)। स्या म./२८/३२२/५ प्रमाणान्तराणा पुनरपित्त्युपमानस भवप्राति
-दे० श्रुतज्ञान/1/1 भैतिह्यादीनामात्रैव अन्तर्भावः । = अर्थापत्ति, उपमान, सम्भव, * मतिज्ञानका परमार्थमें कोई मूल्य नही प्रातिभ, ऐतिह्य आदिका अन्तर्भाव प्रत्यक्ष और परोक्ष प्रमाणो मे हो
-दे० मतिज्ञान/२। जाता है।
* सम्यग्दर्शनकी कथंचित् परोक्षता ३. परोक्षामासका लक्षण
-दे० सम्यग्दर्शन/I/३ । प. म./६/७ वैशद्योऽपि परोक्ष तदाभास मीमासकस्य करणस्य ज्ञानवत ।
५. परोक्षज्ञानको प्रमाणपना कैसे घटित होता है परोक्षज्ञानको विशद मानना परोक्षाभास है, जिस प्रकार परोक्ष
रा वा/१/१२/७/१२/२६ अत्राऽन्ये उपालभन्ते- परोक्ष प्रमाणं न रूपसे अभिमत मीमांसकोंका इन्द्रियज्ञान विशद होनेसे परोक्षाभास
भवति, प्रमीयतेऽनेनेति हि प्रमाणम्, न च परोक्षेण किंचित्प्रमीयतेकहा जाता है।
परोक्षरवादेव इति, सोऽनुपालम्भ । कुत । अतएव । यस्मात 'परायत * मति श्रृत ज्ञान-दे० वह वह नाम ।
परोक्षम्' इत्युच्यते न 'अनवबोध' इति । -प्रश्न-'जिसके द्वारा
निर्णय किया जाये उसे प्रमाण कहते हैं इस लक्षणके अनुसार परोक्ष * स्मृति आदि सम्बन्धी विषय-दे० मति ज्ञान/३ । होनेके कारण उससे (इन्द्रिय ज्ञानसे) किसी भी बातका निर्णय नहीं * स्मृति आदिमें परस्पर कारणकार्यमाव
किया जा सकता, इसलिए परोक्ष नामका कोई प्रमाण नहीं है । -दे० मतिज्ञान/३।
उत्तर-यह शंका ठीक नहीं है, क्योंकि यहाँ परोक्षका अर्थ अज्ञान
या अनवबोध नही है किन्तु पराधीन ज्ञान है । १. मति श्रत ज्ञानकी परोक्षताका कारण
परोदय--परोदय वन्धी प्रकृतियाँ-दे० उदय/७। प्र सा /मू /५७ परदव्य ते अक्वाणेव सहावो त्ति अपणो भणिदा ।
परोपकार-दे० उपकार । उबलद्ध तेहि कध पच्चख अप्पणो होदि ।५७ -वे इन्द्रियों परदव्य है, उन्हे आत्मस्वभावरूप नहीं कहा है, उनके द्वारा ज्ञात आरमा
पर्यकासन-दे० आसन । का प्रत्यक्ष कैसे हो सकता है अर्थाद नहीं हो सकता ।५७)
पर्यनुयोज्योपेक्षण निग्रहस्थानरा. वा /२/८/१८/१२२/६ अप्रत्यक्षा घटादयोऽग्राहकनिमित्तग्राह्यत्वाइ
न्या सू /१२/२१/३१७ निग्रहस्थानप्राप्तस्यानिग्रह पर्यनुयोज्यो पेक्षणम् । धूमाद्यनुमिताग्निवत् । अग्राहकमिन्द्रियं तद्विगमेऽपि गृहीतरमरणात्
।२१। निग्रहथानमें प्राप्त हुएका निग्रह न करना 'पर्यनुयोज्योपेक्षण' गवाक्षवत । इन्द्रियों अग्राहक है, क्योकि उनके नष्ट हो जानेपर
नामक निग्र स्थान हाता है। (श्लो वा, ४/न्या./२४४/४१४/२७ मे भी स्मृति देखी जाती है। जैसे खिडकी नष्ट हो जानेपर भी उसके
उद्धृत)। द्वारा देखनेवाला स्थिर रहता है उसी प्रकार इन्द्रियोसे देखनेवाला
पर्यवसन्न-निश्चय । ( स भ त /४/१)। ग्राहक आत्मा स्थिर है, अत अग्राहक निमित्तसे ग्राह्य होनेके कारण टन्द्रिय ग्राह्य पदार्थ परोक्ष ही है।
पघात-योनि स्थानमें प्रवेश करते ही जीव वहाँ अपने शरीरके. क पा १/१,१४११६/२४/३ मदि-सुदणाणाणि परोक्खाणि, पाएण तत्ा योगा कुछ पुद्गल वर्गणाओंका ग्रहण या आहार करता है। तत्पश्चाव
अविसदभावदसणादो। मति और श्रुत ये दोनो ज्ञान परोक्ष है, उनके द्वारा क्रमसे शरीर, श्वास, इन्द्रिय, भाषा व मनका निर्माण क्योकि इनमे प्राय अस्पष्टता देखी जाती है।
दरता है । यद्यपि स्थूल दृष्टि से देख्नेपर इस कार्य मे बहुत काल लगता प मु/२/१२ सावरणत्वे करण जन्यत्वे च प्रतिबन्धसंभवात १२= आव- है, पर सूक्ष्म दृष्टिसे देखने पर उपरोक्त छहाँ कार्यकी शक्ति एक अन्तरण सहित और इन्द्रियोकी सहायतासे होनेवाले ज्ञानका प्रतिबन्ध मुहूर्त मे पूरी कर लेता है। इन्हे ही उसकी छह पर्याप्तियाँ कहते है। सभव है। इसलिए वह परोक्ष है)।
एकेन्द्रियादि जीवोको उन-उनमें सम्भव चार, पाँच, छह तक पर्यान्या. वि./वृ /१/३/६६/२४ इद तु पुनरिन्द्रियज्ञान परिस्फुटमपि प्तियाँ सम्भव है। जब तक शरीर पर्याप्ति निष्पन्न नहीं होती, तब नात्ममात्रापेझ तदन्यस्येन्द्रियस्याप्यपेक्षणात् । अत एक.नधिकलत्या तक वह निवृत्ति अपर्याप्त सज्ञाको प्राप्त होता है, और शरीर पर्याप्ति परोक्षमेवेति मतम् । इन्द्रियज्ञान यद्यपि विशद है परन्तु आत्ममात्र- पूर्ण कर चुकनेपर पर्याप्त कहलाने लगता है, भले अभी इन्द्रिय आदि की अपेक्षासे उत्पन्न न होकर अन्य इन्द्रिया दिककी अपेक्षासे उत्पन्न चार पर्याप्तियाँ पूर्ण न हुई हों। कुछ जीव तो शरीर पर्याप्ति पूर्ण किये होता है. अतः प्रत्यक्षज्ञानके लक्षण में एकाग विकल होनेसे परोक्ष ही बिना ही मर जाते हैं, वे क्षुदभवधारी, एक श्वासमे १८ बार जन्ममाना गया है।
मरण करनेवाले लब्ध्यपर्याप्त जीव कहलाते है।
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पर्यास
१
१
२
३
५
६
७
८
१
*
२
*
भेद व लक्षण
पर्याप्त अपर्याप्त सामान्यका लक्षण ।
पर्याप्त अपर्याप्त नामकर्मके लक्षण ।
पर्याप्त मेद ।
छहों पर्याप्तियों के लक्षण |
निर्वत पर्यापर्यास लक्षण।
पर्याप्त व अपर्याप्त निर्वृतिके लक्षण ।
लब्ध्यपर्याप्तका लक्षण ।
अतीत पर्याप्तका लक्षण ।
१
२
पर्याप्त निर्देश व तत्सम्बन्धी शंकाएँ
षट् पर्याप्तियोंके प्रतिष्ठापन व निष्ठापन काल सम्बन्धी नियम |
गर्म शरीरकी उत्पत्तिका क्रम
३० जन्म / २ / था।
कमदयके कारण पर्याप्त व अपर्याप्त पर्याप्तापर्याप्त प्रकृतिबोका बंध उदय व स
- दे० वह वह नाम ।
कितनी पर्याप्त पूर्ण होनेपर पर्याप्त कहलायें।
३
४ विग्रहमतिमै पर्याप्त कहें या अपर्याप्त ।
५
निवृति अपर्याप्तको पर्याप्त कैसे कहते हो।
६ इन्द्रिय पर्याप्ति पूर्ण हो जानेपर भी माझापैका ग्रहण
क्यों नहीं होता।
पर्याप्त व प्राणों अन्तर ।
उच्छ्वास पर्याप्ति व उच्छ्वास प्राणोंमें अन्तर ।
- दे० उच्छ्वास | पर्याप्तापर्याप्त जीवोंमें प्राणोंका स्वामित्व ।
- दे० प्राण/१
३ पर्याप्तापर्यातका स्वामित्व व तत्सम्बन्धी शंकाएँ ।
पर्याशियोंका काय मार्गणानें अन्तर्भाव ।
-दे० मार्गणा। सभी मार्गणाओं में आपके अनुसार व्यय होनेका नियम । -दे० मार्गमा । पर्याप्तों की अपेक्षा अपर्याप्त जीव कम है। - ६० अन्यत्व/२/६/२ किस जीवको कितनी पर्याप्तियों सम्भव है । अपर्याप्तोंको सम्बत्व उत्पन्न क्यों नहीं होता। जब मिश्रयोगी व समुदूधात केवली में सम्यक्त्व पाया जाता है, तो अपयश में क्यों नहीं।
- ३० आहारक /४/et एक जीनमें पर्याप्त अपर्याप्त दोनों भाव कैसे सम्भव है। - ३० बाहारक /४/६ पर्याप्त नियमसे सम्मूमि ही होते हैं।
० मूर्च्छन ।
४०
*
१. भेद व लक्षण
अपर्याप्तकोंके जन्म व गुणस्थान सम्बन्धी ।
- दे० जन्म / ६ । - दे० लेश्या / ५ ।
पर्याप्त अवस्थामै लेवायें। अपर्याप्त कालमें सर्वोत्कृष्ट क्लेश व विशुद्धि समय नहीं । ० विशुद्धि । अपयशावस्थामें विभंग ज्ञानका अभाव ।
-दे० अवधिज्ञान/1
पर्याप्तपर्याप्त गुणस्थान, जीवसमास, मार्गणा स्थानके स्वामित्व सम्बन्धी १० प्ररूपणाएँ । - दे० सत् । पाप सत् (अस्तित्व, संख्या, क्षेत्र, स्पर्शन,
काल, अन्तर, भाव, अल्पबहुत्वरूप आठ प्ररूपणाएँ । - दे० वह वह नाम । अपर्याप्तावस्थामै आहारक मिश्रकाययोगी, तिच नारक, देव आदिकोंमें सम्यक्त्व व गुणस्थानोंके विधि निषेध सम्बन्धी शंका समाधान ।-- दे० वह वह नाम । अपर्याप्तकोंसे लौटे हुए जीवोंके सर्व लघु कालमें संयमादि उत्पन्न नहीं होता । अपर्याप्त अवस्थामें तीनों सम्यक सम्बन्धी नियम आदि ।
- दे० संयम / २० सद्भाव व अभाव - दे० जन्म / ३०
१. भेद व लक्षण
१. पर्याप्ति - अपर्याप्त सामान्यका लक्षण
-
पं. सं / प्रा / १ / ४३ 'जह पुण्णापुण्णाई गिह-घड-वस्थाइयाई दव्वाईं । सह पुण्यापुण्णाओं पत्तियरा मुणेयन्या ॥४३॥ जिस प्रकार गृह, घट, वखादिक अचेतन इम्य पूर्व और वपूर्ण दोनो प्रकारके होते हैं, उसी प्रकार जीव भी पूर्ण और अपने दोनों प्रकार के होते हैं। पूर्ण जीवोंको पर्याप्त और अपूर्ण जीवोंको अप जानना चाहिए। (ध. २/११/गा. २११/११७); (पं.सं./ /९/१२७); (गो, जी / मु. / ११ / ३२६) ।
१/१.१.२४/२४०/४ पर्यानीनामर्ध निम्पन्नावस्था अपर्याप्त जीवनहेतुत्वं तत्स्थमनपेक्ष्य शक्तिनिष्पत्तिमा पर्यानिरुच्यते । घ. १/१.१००/३१९/६ आहारशरीर निष्पतिः पर्याष्ट पर्याप्तियोंकी अपूर्णताको अपर्याप्त कहते हैं। इन्द्रियादिमें विद्यमान जीवनके कारणपने की अपेक्षा न करके इन्द्रियादि रूप शक्तिकी पूर्णतामात्रको पर्याप्त कहते है | २५० आहार शरीरादिको निष्पत्तिको पर्याप्त कहते है। १११ (ध.१/१.१.४०/२६०/१० )
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का अ. / मू / १३४ - १३५ आहार-हरीरीदियणिस्सा मुसा भास-मणसाणं परिणयाबारे जाओससीओ | १३४१ तस्सेवकारण पुग्गलान जाहू विपत्ती सा पद ॥१३३॥ - आहार शरीर, इन्द्रिय आदिके व्यापारोंमें अर्थात् प्रवृत्तियों में परिणमन करने की जो शक्तियों है, उन शक्तियोंके कारण जो गल स्कन्ध है उन पुद्गल स्कन्धोंकी निष्पत्तिको पर्याप्त कहते है । गो जी जी प्र/२/२१/१ परि समन्याय, अष्ठि-पर्याप्तिः शक्तिनिष्पत्तिरित्यर्थ । चारों तरफसे प्राप्तिको पर्याप्ति कहते है ।
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पर्याप्त
२. पर्याप्त अपर्याप्त नामकर्मके लक्षण
•
स. सि./८/११/३६२/२ यदुदयाहारादिपर्याप्तिनिवृत्ति तत्पर्याप्तिनाम | विषयभावहेतुचर्याशनान जिसके उदयसे आहार विधपर्याप्त्यभावहेतुरपर्याप्तिनाम । आदि पर्याप्तियोको रचना होती है वह पर्याप्त नामकर्म है जो प्रकारको पर्याशियो के अभागका हेतु है मह अपना कर्म है । (रा. वा./८/११/३१.३३ / ५७६/११ ); (ध. ६/१,६-१,२८/६२/३ ); (मो.क./जी.प्र./१३/३०/९.१३) ।
घ. १३/५,५,१०१/३६५/७ जस्स कम्मस्सुदपण जीवापजत्ता होति तं कम्मं पज्जत्त णाम । जस्स कम्मसुदएण जीवा अपज्जत्ता होति तं - जिस कर्म के उदयसे जीव पर्याप्त होते हैं वह कम्ममपज्जत्त णाम । पर्याप्त नामकर्म है जिस कर्म के उदयसे जीन अपर्याप्त होते हैं यह अपर्याप्त नामकर्म है।
३. पर्याप्ति के भेद
मू. आ /१०४५ आहारे य सरोरे तह इंदिय आणपाण भासाए । होंति मणो वि य कमसो पज्जत्तीओ जिणमादा । १०४५। - आहार, शरीर, इन्द्रिय, श्वासोच्छ्रास, भाषा और मन ऐसे पर्या कहो है (भोपा./२४), (पं.स./९/२४), (स.सि./६/९९/ ३२ / ३), (ध. २/१,१/गा २१८/४१७ ); ( रा वा / ८ / ११ / ३१ / ५७६/ १३) (१९.९.१४/२५४/४ ) ( १/१.१,००/३१२/१) (गो. जो // ९९२/३२६) ( का.अ./मू./१०४-१३४) (प.स./ /९/९२८). (गो.क./जी.प्र./१३/२०/१). (गो.जी./जी.प्र./९११/२२६/१०) |
=
४. छह पर्याप्सियोंके लक्षण
भ. १/९.१.२४/१५४/६ वारीरनामक मोंदयात गलविपाकिन आहारवर्गमागतगलस्कन्ध समवेतानन्तु परमाणु निष्पादित आमानक्षेत्रस्था कर्मस्कन्धसमन्धतो मूर्तीभूतमात्मानं समवेतत्वेन समाश्र - यन्ति । तेषामुपगतानां खलरसपर्यायै परिणमनशक्तेनिमित्तानामातिराहारपर्याप्ति । तं खलभाग तिलखलोपममस्थ्यादिस्थिरावयतिलसमान रसमार्ग रसरुधिरवसाशुक्रादिनानपरौदारिकादिशरीरयपरिणामश्वयुपेतानां स्कन्धामामवासि शरीरपर्याचिः योग्यदेशस्थित रूपादिविशिष्टार्थ ग्रहणशयुत्पत्तेनिमित्त पुद्गलप्रचयावाप्तिरिन्द्रियपर्याप्तिः । ... उच्छ् वासनिस्सरणशतेर्निमितलावाशरानपानपर्याभावावर्गणाः
।
..
४१
स्कन्दाचतुभिधभाषाकारेण परिणमनशतेर्निमित्तनोगतप्रचयावातिषापर्याप्ति । मनीवर्गगा स्कन्धनिअनु धृतार्थशक्तिनिमित्तः मन पर्या द्रव्यमनोऽष्टम्भेनानुभूतार्थस्म रणरुत्पतिर्मनः पतिर्वा शरीर नामकर्मके उदयसे जो परस्पर अनन्त परमाणुओके सम्बन्धसे उत्पन्न हुए है, और जो आत्मासे व्याप्त आकाश क्षेत्रमे स्थित है, ऐसे पुद्गल विपाकी आहारकवर्गणा सम्बन्धी पुद्गल स्कन्ध, कर्म स्कन्धके सम्बन्धसे कथं - चिमूर्तपने को प्राप्त हुए है, आत्माके साथ समवाय रूपसे सम्बन्धको प्राप्त होते है, उन खल भाग और रस भागके भेदसे परिणमन करने की शक्तिसे बने हुए आगत पुद्गल स्कन्धोंकी प्राप्तिको आहार पर्याप्ति कहते है । : तिलकी खलीके समान उस खल भागको हड्डी आदि कठिन अवयव रूपसे और तिल तेलके समान रस भागको रस, रुधिर, वसा, वीर्य आदि द्रव अवयव रूपसे परिणमन करनेवाले औदारिकादि दोन शरीरोकी शक्तिसे युक्त पुहगत स्कन्धोंकी प्राप्तिको शरीर पर्याप्त कहते है । योग्य देशमें स्थित रूपादिसे युक्त पदार्थोंके ग्रहण करने रूप शक्तिकी उत्पत्तिके निमित्त भूत पुद्गल प्रचयको प्राप्तिको इन्द्रियपर्याप्त कहते हैं। उच्वास और निःश्वास रूप शक्तिको पूर्णताके निमित्तत हगढ़ प्रचयकी प्राप्तिको आनपान पर्याप्त कहते है ।... भाषावर्गणाके स्कन्धोंके निमित्तसे चार
..
भा० ३-६
१. भेद व लक्षण
प्रकारकी भाषा रूपसे परिणमन करनेकी शक्तिके निमित्तभूत नोकर्मयतप्रचयको प्राप्तिको भाषापर्याति कहते है अनुभूत अर्थके स्मरण रूप शक्तिके निमित मनोवर्गणा स्कन्धों से निष्पन्न पुद्गल प्रचयको मन पर्याप्ति कहते है । अथवा द्रव्यमनके आलम्बनसे अनुभूत अर्थके स्मरणरूप शक्तिको उत्पत्तिको मन - कहते है। गोजी/जी/११/२२६ / १२ अत्र औदारिकने क्रियिकाहारकशरीरनामकर्मोदप्रथममयादि कृला दरीत्रपट्र्यापिर्यायपरिण मनयोग्यतस्कन्धात् खत्तरसभागेन परिणमपितु पर्या शिनामकर्मोदयामष्टमस भूतात्मन शक्तिनिष्पतिराहारपयति तथा गिलस्कन्धाना खभागम् अस्यादिस्थिरायमरूपेण रसभार्ग रुधिरादिद्रारूपे च परिणमयितु' शक्तिनिष्पति शरीरपर्याप्त आवरणयोर्यान्तरायक्षयोपशमभि भितात्मनो योग्य देशावस्थितरूपादिविषयापारे शक्तिनिष्पतिर्जातिनामकर्मोदयजनितेन्द्रियपर्याप्ति' आहारवर्गमायागतस्कन्धा उच् वासनिश्वासरूपेण परिणमयि उच्छवासनिश्यासनामयजनितशक्तिनिष्पत्तिरुवासनिश्वासपर्यात स्वरनामकर्मोदयमशाद भाषावर्गणामास्कन्धाद सत्पात्योभवानुभवभाषारूपेण परिणमवि शक्तिनिष्पति भाषापर्याप्त मनोवागलस्कन्धान् अंगोपागनामकर्मोदयबलाधानेन द्रव्यमनोरूपेण परिणमवितुं द्रव्यमनोबलाधानेन यावरणवीर्यान्तराय क्षयोपशमविशेषेणगुणदोषविचारानुस्मरणप्र विधानलक्षणभागमन परिणम शक्तिनिष्पत्तिर्मन पर्याप्तिः । - औदारिक, वैक्रियक वा आहारक इनमें से किस ही शरीररूप नामकर्म की प्रकृतिके उदय होनेका प्रथम समय से लगाकर, जो तीन शरीर और छह पर्याप्त रूप पर्याय परिणमने योग्य पुद्गल स्कन्धको खलरस भागरूप परिणामावनैको पर्याप्तिनामा नामकर्मके उदयसे ऐसी शक्ति निपजे-जैसे तिलको पेलकर खल और तेल रूप परिणमा, तेसे कोई पुद्गलतो खल रूप परिण मात्रै कोई पुद्गल रस रूप। ऐसी शक्ति होनेको आहार पर्याप्त कहते है । खलरस भागरूप परिणत हुए उन पुद्गल स्कन्धों में से वभागको हड्डी, धर्म आदि स्थिर अवयवरूपते और रसभागको रुधिर, शुकइत्यादि रूपसे परिणमानेकी शक्ति हो, उसको शरीर पर्याप्त कहते है । मति श्रुत ज्ञान और चक्षु अचक्षु दर्शनका आबरण तथा वीर्यान्तराय कर्मके क्षयोपशमसे उत्पन्न जो आत्माके यथा योग्य द्रव्येन्द्रियका स्थान रूप प्रदेशोंसे वर्णादिकके ग्रहणरूप उपयोगकी शक्ति जातिनामा नामकर्मसे निपजै सो इन्द्रिय पर्याप्ति है । आहारक वर्गणारूप पुद्गलस्कन्धोंकी श्वासोश्वास रूप परिमालकी वाणि हो. श्वासोश्वास नामकर्मसे निपजे सो श्वासोश्वास पर्याप्त है । स्वरनामकर्मके उदयसे भाषा वर्गणा रूप पुद्गल स्कन्धोको सत्य, असत्य, उभय, अनुभय भाषारूप परिणमावनेकी शक्तिकी जो निष्पत्ति होइ सो भाषापर्याप्ति है। मनोवर्गणा रूप जो पुद्गलस्कन्ध, उनको अंगोपांग नामकर्मके उदयसे द्रव्यमनरूप परिणमावनेकी शक्ति होइ, और उसी द्रव्यमनके आधारसे मनका आवरण अर वीर्यान्तराय कर्मके क्षयोपशम विशेषसे गुणदोष विचार, अतीतका याद करना, अनुगतमें याद रखना इत्यादि रूप भावमनकी शक्ति होइ उसको मन पर्याप्ति कहते है ।
५. निर्ऋति पर्याप्तापर्याप्त के लक्षण गो.जी././१२९/३३१ तस्य उदये णिमणियजन्ति मिडियाहोदि । जाव सरीरमपुण्णं णिव्वत्ति अपुण्णगो भवति । १२११ पर्याप्तिनामकर्मके उदयसे एकेन्द्रियादि जीव अपने-अपने योग्य पर्याप्तियोंकी सम्पूर्णताको शक्तिले युत होते हैं। जन तक शरीर पूर्ण नहीं होती, उतने काल तक अर्थात् एक समय कम शरीरपर्याप्ति सम्बन्धी अन्तर्मुहूर्त पर्यन्त निवृत्ति अपयश कहते है। अर्था
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पर्या
पत्ति जब शरीर पर्यास पूर्ण हो जाती है तब निवृत्ति पर्याप्त कहते हैं। १२१ का.अ./१३६ गोमयजन्ति पजाब समणोदि तावित अपुण्य मन पुणो भन्दे पुण्यो | १३६॥ जीवपर्यास को ग्रहण करते हुए जब तक मन पर्याप्तिको समाप्त नही कर लेता तबतक निवृत्यपर्याप्त कहा जाता है। और जब मन पर्याप्तिको पूर्ण कर लेता है तब (निवृत्ति) पर्याप्त कहा जाता है।
६. पर्याप्त व अपर्याप्त निर्वृतिके लक्षण
घ १४ / ५, ६,२८७/३५२/८ जहण्णाउ अबधो जहण्णियापज्जन्तणिव्वत्तीणाम भवस्स पढमसमयप्पहुडि जान जहणाउवबधस्स चरिमसमयो त्ति ताव एसा जहणिया णिव्त्रत्ति त्ति भणिद होदि । ••जहण्णधोतो संतं कुदो जीवणियाणा विसेसादो (१२५३/६
८. १४/५६६४६/५०४/२ घात खुदा भवग्गणस्वरितत्तो स अद्धाणं गतूण सुहुमणिगोदजीव अपज्जत्ताणं बघेण जहणणं जं णिसेया भवग्गणं तस्स जहणिया अपणसमिति सिन्धा । १४/५.६.६६२/१६/१० सरीरजती पतिविसी सरीरनिव्यतिटूट्ठाण णाम । १. जघन्य आयुबन्धकी जघन्य पर्याप्तनिवृत्ति सज्ञा है । भवके प्रथम समयसे लेकर जघन्य आयुबन्धके अन्तिम समय तक यह जघन्य निवृति होती है यह उक्त कथनका तात्पर्य है । यहाँ जघन्य बन्ध ग्रहण करना चाहिए जघन्यसत्त्व नहीं, क्योंकि अन्यथा जीवनीय स्थान विशेष अधिक नहीं बनते । २० घात क्षुल्लक भव ग्रहण के ऊपर उससे सख्यातगुणा अध्वान जाकर सूक्ष्म निगोद अपर्याप्त जीवोंके जघन्य निषेक क्षुल्लक भव ग्रहण होता है। उसकी जघन्य अपर्याप्त निवृति सज्ञा है । ३, शरीरपर्याप्तिकी निवृतिका नाम शरीर नि तिस्थान है।
७. लयपर्यातका लक्षण
भ १/१.१.४०/२६०/११
अपयशनामकर्मोदयजनितशनस्याविभक्ति
वृत्तय अपर्याप्ता । = अपर्याप्त नामकर्म के उदयसे उत्पन्न हुई शक्ति जिन जीवोंकी शरीर पर्याप्त पूर्ण न करके मरने रूप अवस्था विशेष उत्पन्न हो जाती है, उन्हें अपर्याप्त कहते है ।
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गो. जी /मू./१२२ उसे दु अनुग्णरस य सगसगजन्य विदि तोमर अपजस साडु | १२२॥ अपर्याप्त नामकर्म के उदयसे एकेन्द्रियादि ने जो अपने-अपने योग्य पर्यायोंको पूर्ण न करके उच्छ्वासके अठारहवे भाग प्रमाण अन्तर्मुहूर्त मे ही मरण पाव ते जीन सन्धि कहे गये है।
का अ./मू./१२० उसासद्वारसमे भागे जो मरदि म य समाणेदि । एक्को वि य पज्जती लद्धि अपुण्णो हवे सो दु ११३७ जो जीव श्वासके अठाहने भागमे मर जाता है, एक भी पर्याप्तिको समाप्त नही कर पाता. उसे लब्धि अपर्याप्त कहते है ।
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गो. जी जो / १२२ / ३३२/४ ला स्वस्थ पर्याप्तिनिष्ठापनयोग्यतया अपर्याप्ता अनिष्पन्ना लब्ध्यपर्याप्ता इति निरुक्ते । -लब्धि अर्थात् अपनी पर्यामियॉकी सम्पूर्ण ताकी योग्यता तोहिरि अपर्याप्त अर्थात निष्पन्न न भये ते सन्धि अपर्याप्त कहिए ।
८. अतीत पर्याप्तिका लक्षण
घ. २/१, १/४१६/१३ एदासि छण्हमभावो अदीद पज्जत्ती णाम । छह पर्यायोंके अभावको अतीत पर्याप्त कहते है।
२. पर्याप्त निर्देश व तत्सम्बन्धी शंकाएँ
२. पर्याप्त निर्देश व तत्सम्बन्धी शंकाएँ
१. षट् पर्याप्तियोंके प्रतिष्ठापन व निष्ठापन काल सम्बन्धी नियम
१. सामान्य नियम
घ. १/१.१.२४/२६४/६ सा (आहारपर्यास) च नान्तर्मुहूर्त मन्तरेण समयेके वोपजायते आत्मनोऽक्रमेण तथाविधपरिणामाभावाच्छरीरोपादानप्रथमखमयादारभ्यान्तर्मुहुर्ते नाहारपर्या शर्मिष्पद्यत इति यावत् । -साहारपर्याप्त' पश्चादन्तर्मुहुर्तेन निष्पद्यते। सापि तत पश्चादन्तर्मुहूर्तादुपजायते । एषापि तस्मादन्तर्मुहूर्त काले समतीते भवेत्। एषापि (भाषापर्याहि अपि) पश्चादन्तर्मुहूर्ता
एतासा प्रारम्भोऽक्रमेण जन्मसमयादारम्य तासां सत्त्वाभ्युपगमात् । निष्पत्तिस्तु पुन क्रमेण । =वह आहार पर्याप्ति अन्तर्मुहूर्त के बिना केवल एक समयमे उत्पन्न नहीं हो जाती है, क्योंकि आत्माका एक साथ आहारपर्याप्त रूपसे परिणमन नही हो सकता है। इसलिए शरीरको ग्रहण करनेके प्रथम समयसे लेकर एक अन्तर्मुहुर्त में आहारपर्या पूर्ण होती है। वह शरीर पर्याप्ति आहार पर्याप्तिके पश्चात एक अन्तर्मुहूर्तमे पूर्ण होती है यह इन्द्रियपर्यात भी शरीरपर्याप्त के पश्चाद एक अन्तर्मुहुर्त में पूर्ण होती है। नासोमा पर्यात भी इन्द्रियपति एक अन्तर्मुहूर्त परचाय पूर्ण होती है भाषा पर्याप्ति भी आनपान पहिले एक अन्तर्मुहूर्त पश्चाद पूर्ण होती है.इन हो पर्याप्तयोका प्रारम्भ युगपद होता है, क्योंकि जन्म समयसे लेकर ही इनका अस्तित्व पाया जाता है । परन्तु पूर्णता क्रमहोती है । (गो. जी./मू. व. जी. प्र / १२०/३२८ ) । २. गतिकी अपेक्षा
मु. आ /१०४९ पज्जतीपाता भिण्मुहुरोण होति गायल्या अणु'समयं पज्जती सव्वेसि चोववादीण | १०४८। मनुष्य तिर्यंच जीव पर्या सियोकर पूर्ण अन्तर्मुहूर्त में होते है ऐसा जानना और जो देव नारकी है उन सबके समय-समय प्रति पूर्णता होती है । १०४८ ॥ दि. प / अधिकार/गाया न पायेण णिरय मिले जावूर्णता मुहूत्तमेते ।
मी पावसाकस्सिम भयजुदो हो |२/१९३३ उपजते भवने उनवादपुरे महारि सय पाति उपजत जादा अतोमुहतेग 1३/२००१] जायंते रसोए उबादपुरे महारिहे सपने जादा य मुहुसेणं छप्पज्जन्त्तीओ पार्वति । ८/५६७॥ - नारकी जीव.. उत्पन्न होकर एक अन्तर्मुहूर्त कालमें यह पर्याप्तियोको पूर्ण कर आकस्मिक भयसे युक्त होता है । (२/३१३)। भवनवासियो के भवन में (देव) उत्पन्न होनेके पश्चात् अन्तर्मुहुर्त मे ही वह पर्याप्तियोको प्राप्त कर लेते है | (२०६) देव सुरलोकके भीतर एक मुहूर्त में ही छह पयोको प्राप्त कर लेते है | ( ८ ५६८ ) ।
२. कर्मोदयके कारण पर्याप्त व अपर्याप्त संज्ञा घ. ३/१,२,७०/३९१/२ एत्थ अजयमेग अपनन्तणामकम्मोदयसहिदजीवा घेत्तव्वा । अण्णा पज्जत्तणामकम्मोदयसहितणिव्वत्ति अपज्जन्त्ताण पि अपज्जत्तवयणेण गहणप्पसगादो। एवं पज्जन्ता इदि पुणे पज्जतणामकम्मोदयसहिदजीवा घेत्तम्या अण्णाज्जामकम्मोदयसहिद शिव्यतित गहनाववतीयो यहाँ सूत्रमें अपर्याप्त पदसे अपयश नामकर्मके उदयसे युक्त जीवाण करना चाहिए। अन्यथा पर्याप्त नामकर्मके उदयसे युक्त निवृत्त जीवोंका भी अपर्याप्त इस वचनसे ग्रहण प्राप्त हो जायेगा । इसी प्रकार पर्याप्त ऐसा कहनेवर पर्याप्त नामकर्मके उदयसे युक्त जीवोका ग्रहण करना चाहिए। अन्यथा पर्याप्त नामकर्म के उदयसे युक्त निवृत्यपर्याप्त जीवोंका ग्रहण नहीं होगा ।
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पर्याप्ति
२. पर्याप्ति निर्देश व तत्सम्बन्धी शंकाएँ
३. कितनी पर्याप्ति पूर्ण होनेपर पर्याप्त कहलाये ध. १/१,१,७६/३१५/१० किमेकया पर्याप्त्या निष्पन्न उत साकल्यैन निष्पन्न इति' शरीरपर्याप्दया निप्पन्न पर्याप्त इति भण्यते।
प्रश्न-(एकेन्द्रियादि जीव अपने-अपने योग्य छह, पाँच, चार पर्याप्तियोमेंसे) किसी एक पर्याप्तिसे पूर्णताको प्राप्त हुआ पर्याप्तक कहलाता है या सम्पूर्ण पर्याप्तियोसे पूर्णताको प्राप्त हुआ पर्याप्तक कहलाता है ? उत्तर-सभी जीव शरीर पर्याप्तिके निष्पन्न होनेपर पर्याप्तक कहे जाते है।
४. विग्रह गतिमें पर्याप्त कहें या अपर्याप्त ध, १/१,१,६४/३३४/४ अथ स्याद्विग्रहगतौ कार्मणशरीराणी न पर्याप्तिस्तथा पर्याप्तीना षण्णां निष्पत्तेरभावात् । न अपर्याप्तास्ते आरम्भात्प्रभृति आ उपरमादन्तरालावस्थायामपर्याप्तिव्यपदेशात् । न चानारम्भकस्य स व्यपदेश. अतिप्रसङ्गात् । ततस्तृतीयमप्यवस्थान्तर वक्तव्यमिति नैष दोष., तेषामपर्याप्तेष्वन्तर्भावात् । नातिप्रसङ्गोऽपि कामणशरीरस्थितप्राणिनामिवापर्याप्तकै सह सामाभावोपपादैकान्तानुवृद्धियोगैर्गत्यायु प्रथमद्वित्रिसमयवर्त नेन च शेषप्राणिनां प्रत्यासत्तेरभावात्। ततोऽशेषस सारिणामवस्थाद्वयमेव नापरमिति स्थितम् । प्रश्न-विग्रह गतिमें कार्मण शरीर होता है, यह बात ठीक है। किन्तु वहॉपर कार्मणशरीरवालोके पर्याप्ति नही पायी जाती है, क्योकि, विग्रहगतिके काल में छह पर्याप्तियोकी निष्पत्ति नहीं होती है। उसी प्रकार विग्रहगतिमें वे अपर्याप्त भी नहीं हो सकते है, क्योकि, पर्याप्तियोके आरम्भसे लेकर समाप्ति पर्यन्त मध्यकी अवस्थामे अपर्याप्ति यह संज्ञा दी गयी है। परन्तु जिन्होने पर्याप्तियोका आरम्भ ही नहीं किया है ऐसे विग्रह गति सम्बन्धी एक दो और तीन समयवर्ती जीवोको अपर्याप्त संज्ञा प्राप्त नहीं हो सकती है, क्योकि ऐसा मान लेनेपर अतिप्रसग दोष आता है इसलिए यहाँ पर्याप्त और अपर्याप्तसे भिन्न कोई तीसरी अवस्था ही कहना चाहिए। उत्तर-यह कोई दोष नही है, क्योकि ऐसे जीवोका अपर्याप्तोंमें ही अन्तर्भाव किया है, इससे अतिप्रसग दोष भी नही आता है, क्योकि कार्मण शरीरमें स्थित जीवोके अपर्याप्तकों के साथ सामाभाव, उपपादयोगस्थान, एकान्तवृद्धियोगस्थान और गति तथा आयु सम्बन्धी प्रथम, द्वितीय और तृतीय समयमे होनेवाली अवस्थाके द्वारा जितनी समीपता पायी जाती है, उतनी शेष प्राणियोके नहीं पायी जाती है। अत' सम्पूर्ण प्राणियोकी दो अवस्थाएँ ही होती हैं। इनसे भिन्न कोई तीसरी अवस्था नहीं होती है।
५. निवृति अपर्याप्तको पर्याप्त कैसे कहते हो ध. १/१,१.३४/२५४/१ तदुदय (पर्याप्तिनामकर्मोदय ) वतामनिष्पण
शरीराणा कथं पर्याप्तव्यपदेशो घटत इति चेन्न, नियमेन शरीरनिष्पादकानां भाविनि भूततदुपचारतस्तदविरोधात् पर्याप्तनामकर्मोदयसहचराद्वा। प्रश्न-पर्याप्त नामकर्मोदयसे युक्त होते हुए भी जब तक शरीर निष्पन्न नही हुआ है तबतक उन्हे (निवृत्ति अपर्याप्त जीवोको) पर्याप्त कैसे कह सकते है । उत्तर - नहीं, क्योकि, नियमसे शरीरको उत्पन्न करनेवाले जीवोके, होनेवाले कार्यमे यह कार्य हो गया, इस प्रकार उपचार कर लेनेसे पर्याप्त संज्ञा कर लेने में कोई विरोध नही आता है। अथवा, पर्याप्त नामकर्म के उदयसे युक्त होनेके कारण पर्याप्त संज्ञा दी गयी है। ६. इन्द्रिय पर्याप्ति पूर्ण हो जानेपर भी बाह्यार्थका
ग्रहण क्यों नहीं होता घ. १/१,१,३४/२५५/५ न चेन्द्रियनिष्पत्तौ सत्यामपि तस्मिन् क्षणे बाह्यार्थ विषयविज्ञानमुत्पद्यते तदा तदुपकरणाभावात् । = इन्द्रिय
पर्याप्तिप्तर्ण हो जानेपर भी उसी समय बाह्य पदार्थ सम्बन्धी ज्ञान उत्पन्न नहीं होता है, क्योंकि उस समय उसके उपकरण रूप द्रव्ये - न्द्रिय नही पायी जाती है। ७. पर्याप्ति व प्राणों में अन्तर १. सामान्य निर्देश ध. १/१,१,३४/२५६-२५७/२ पर्याप्तिग्राणयो' को भेद इति चेल, अनयोहिमवद्विन्ध्ययोरिव भेदोपलम्भात् । यत आहारशरीरेन्द्रियानापानभाषामन-शक्तीना निप्पत्ते' कारणं पर्याप्तिः। प्राणीति एभिरास्मेति प्राणा' पञ्चेन्द्रियमनोवाकायानापानायषि इति ।२५६। पर्याप्तिप्राणाना नाम्नि विपत्तिपत्तिर्न वस्तुनि इति चेन, कार्यकारणयोभैंदात, पर्याप्तिष्वायुषोऽसत्त्वान्मनोवागुछ वासप्राणानामपर्याप्तिकालेऽसत्त्वाच्च तयोर्भेदात् । तत्पर्याप्तयोऽप्यपर्याप्तकालेन सन्तीति तत्र तदसत्त्वमिति चेन्न, पर्याप्तीनामर्धनिष्पन्नावस्था अपर्याप्ति', ततोऽस्ति तेषा भेद इति । अथवा जीवनहेतुत्वं तत्स्थमनपेक्ष्य शक्ते निष्पत्तिमात्रं पर्याप्तिरुच्यते, जीवनहेतवः पुनः प्राणा इति तयोर्भेद । -प्रश्न-पर्याप्ति और प्राण में क्या भेद है ? उत्तरनही, क्योंकि, इनमें हिमवान और विन्ध्याचलके समान भेद पाया जाता है। आहार, शरीर, इन्द्रिय भाषा और मनरूप शक्तियोंकी पूर्ण ताके कारणको पर्याप्ति कहते है। और जिनके द्वारा आत्मा जीवन संज्ञाको प्राप्त होता है उन्हे प्राण कहते है, यही इन दोनोमें अन्तर है ।२५६। प्रश्न-पर्याप्ति और प्राणके नाममें अर्थात कहने मात्रमें अन्तर है, वस्तुमें कोई विवाद नहीं है, इसलिए दोनोका तात्पर्य एक ही मानना चाहिए। उत्तर-नहीं, क्योंकि कार्य कारणके भेदसे उन दोनोमें भेद पाया जाता है, तथा पर्याप्तियोंमे आयुका सद्भाष नही होनेसे और मन, वचन, बल तथा उच्छ बास इन प्राणोंके अपर्याप्त अवस्थामे नही पाये जानेसे भी पर्याप्ति और प्राणोमें भेद समझना चाहिए । प्रश्न-वे पर्याप्तियाँ भी अपर्याप्त काल में नहीं पायी जाती है, इससे अपर्याप्त काल में उनका (प्राणोंका) सद्भाव नहीं रहेगा। उत्तर-नही, क्योकि, अपर्याप्त कालमे अपर्याप्त रूपसे उनका (प्राणोंका ) सद्भाव पाया जाता है। प्रश्न- अपर्याप्त रूपसे इसका तात्पर्य क्या है ? उत्तर-पर्याप्तियोंकी अपूर्णताको अपर्याप्ति कहते है, इसलिए पर्याप्ति, अपर्याप्ति और प्राण इनमें भेद सिद्ध हो जाता है। अथवा इन्द्रियादिमे विद्यमान जोवनके कारणपनेकी अपेक्षा न करके इन्द्रियादि रूप शक्तिकी पूर्णता मात्रको पर्याप्ति कहते है और जीवनके कारण है उन्हें प्राण कहते है। इस प्रकार इन दोनों में भेद समझना चाहिए। (का, अ./टी./१४१/८०/१); (गो. जी./म.प्र/ ३४२/३४४/१४)। २. भिन्न-भिन्न पर्याप्तियोंकी अपेक्षा विशेष निर्देश ध.२/१,१/४१२/४ न (एतेषां इन्द्रियप्राणाणा) इन्द्रियपर्याप्तावन्तर्भावः,
चक्षुरिन्द्रियाद्यावरणक्षयोपशमलक्षणेन्द्रियाणां क्षयोपशमापेक्षया बाह्यार्थग्रहणशक्त्युत्पत्तिनिमित्तपुद्गलप्रचयस्य चैकत्व विरोधात् । न च मनोबलं मन.पर्याप्तावन्तर्भवति, मनोवर्गणास्कन्धनिष्पन्नपुद्गलप्रचयस्य तस्मादुत्पन्नात्मबलस्य चैकत्वविरोधात। नापि वाग्बलं भाषापर्याप्तावन्तर्भवति; आहारवर्गणास्कन्धनिष्पन्नपुद्गलप्रचयस्य तस्मादुत्पन्नाया भाषावर्गणास्कन्धाना श्रोत्रेन्द्रिय ग्राह्यपर्यायेण परिणमनशक्तेश्च साम्याभावात् । नापि कायबलं शरीरपर्याप्तावन्तर्भवति; बीर्यान्तरायजनितक्षयोपशमस्य खलरसभागनिमित्तशक्तिनिबन्धनपुद्गलप्रचयस्य चैकत्वाभावात् । तथोच्छ्वासनिश्वासप्राणपर्याप्तयो कार्यकारणयोरात्मपुद्गलोपादानयोभेंदोऽभिधातव्य इति। उक्त (प्राणों सम्बन्धी) पाँचों इन्द्रियोका इन्द्रिय पर्याप्तिमें भी अन्तर्भाव नहीं होता है, क्योकि, चक्षु इन्द्रिय आदिको आवरण करनेवाले कमौके क्षयोपशम स्वरूप
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पर्याप्ति
पर्याय
इन्द्रियोको और क्षयोपशमकी अपेक्षा बाह्य पदार्थों को ग्रहण करनेकी शक्तिके उत्पन्न करनेमें निमित्त भूत पुद्गलोके प्रचयको एक मान लेने में विरोध आता है। उसी प्रकार मनोबलका मन पर्याप्तिमे अन्तभवि नही होता है, क्योकि मनोवर्गणाके स्कन्धोसे उत्पन्न हुए पुद्गल प्रचयको और उससे उत्पन्न हुए आत्मबल (मनोबल) को एक माननेमे विरोध आता है। तथा वचन बल भी भाषा पर्याप्तिमे अन्तर्भूत नहीं होता है, क्योकि आहार वर्गणाके स्कन्धोसे उत्पन्न हुए पुढंगलप्रचयका और उससे उत्पन्न हुई भाषा वर्गणाके स्कन्धोका श्रोत्रेन्द्रियके द्वारा ग्रहण करने योग्य पर्यायसे परिणमन करने रूप शक्तिका परस्पर समानताका अभाव है। तथा कायबलका भी शरीर पर्याप्तिमे अन्तर्भाव नही होता है, क्योकि, वीर्यान्तरायके उदयाभाव
और उपशमसे उत्पन्न हुए क्षयोपशमकी और खलरस भागकी निमित्तभूत शक्तिके कारण पुद्गल प्रचयकी एकता नही पायी जाती है। इसी प्रकार उच्छ्वास, निश्वास प्राण कार्य है और आत्मोपादानकारणक है तथा उच्च वास नि श्वास पर्याप्ति कारण है और पुद्गलोपादान निमित्तक है। अत: इन दोनोमें भेद समझ लेना चाहिए । ( गो. जी./जी. प्र./१२६/३४१/११) ।
रूप कारण होनेसे प्रथम सम्यक्त्वकी उत्पत्तिका अताभाव है। प्रश्न-अत्यन्ताभाव क्या है। उत्तर-करणपरिणामोका अभाव ही प्रकृतमें अत्यन्ताभाव कहा गया है। पर्याप्तिकाल-दे० काल। पर्याय--पर्यायका वास्तविक अर्थ वस्तुका अंश है। व अन्वयी
या सहभूह तथा क्षणिक व्यतिरेकी या क्रमभावीके भेदसे वे अश दो प्रकारके होते है । अन्वयीको गुण और व्यतिरेकीको पर्याय कहते है। वे गुणके विशेष परिणमनरूप होती है। अंशकी अपेक्षा यद्यपि दोनो ही अंश पर्याय है, पर रूढिसे केवल व्यतिरेकी अंशको ही पर्याय कहना प्रसिद्ध है। वह पर्याय भी दो प्रकारकी होती है-अर्थ व व्यंजन । अर्थ पर्याय तो छहो द्रव्योमें समान रूपसे होनेवाले क्षणस्थायी सूक्ष्म परिणमनको कहते है। व्यंजन पर्याय जीव व पुद्गलकी संयोगी अवस्थाओंको कहते है । अथवा भावात्मक पर्यायोको अर्थपर्याय और प्रदेशात्मक आकारोको व्यंजनपर्याय कहते है। दोनों ही स्वभाव व विभावके भेदसे दो प्रकारकी होती है। शुद्ध द्रव्य व गुणोंकी पर्याय स्वाभाविक और अशुद्ध द्रव्य व गुणोकी विभाविक होती है। इन धव व क्षणिक दोनों अंशोंसे ही उत्पाद व्यय प्रौव्यरूप वस्तुकी अर्थ क्रिया सिद्ध होती है ।
३. पर्याप्तापर्याप्तका स्वामित्व व तत्संबन्धी शंकाएँ १.किस जोवको कितनी पर्याप्तियाँ सम्भव हैं
ष. खं. १/१,१/सू -७१-७५ सणि मिच्छाइटिठ-प्पटुडि जाव असंजद
सम्माइटूिठ त्ति ७१ पच पज्जत्तीओ पच अपज्जत्तीओ १७२। बोईदिय-पहाड जाब अण्णिपचिदिया त्ति।७३। चत्तारि पज्जत्तीओ चत्तारि अपज्जतीओ।७४। एइदियाण १७५१ सभी पर्याप्तियाँ (छह पर्याप्तियों) मिथ्यादृष्टिसे लेकर असंयत सम्यग्दृष्टि गुणस्थान तक होती है ।७१। पाँच पर्याप्तियाँ और पॉच अपर्याप्तियाँ होती है ।७२। वे पॉच पर्याप्तियाँ द्वीन्द्रिय जीवोसे लेकर असज्ञी पचे. न्द्रियपर्यन्त होती है ।७३। चार पर्याप्तियाँ और चार अपर्याप्तियाँ होती है ।७४। उक्त चारो पर्याप्तियॉ एकेन्द्रिय जीवोके होती है। 1७४ (मू.आ./१०४६-१०४७)। ध २/१,१/४१६/८ एदाआ छ पज्जत्तीओ सण्णि पज्जत्ताणं । एदेसि
चेव अपज्जत्तकाले एदाओ चेव असमत्ताओ छ अपज्जत्तीओ भवति । मणपज्जत्तोए विणा एदाओ चेत्र पच पज्जत्तीओ असण्णिपंचिदिय-पज्जत्तप्पहुडि जाव बीई दिय-पज्जत्ताण भवति । तेसि चेव अपज्ज ताण एदाओ चेव अणिपण्णाओ पच अपज्जत्तीओ बुच्च ति। एदाओ चेव-भासा-मणपजत्तीहि विणा चत्तारि पज्जतीओ एइ दिय-पज्जत्ताण भवति । एदेसि चेव अपज्जत्तकाले एदाओ चेव असपुण्णाओ चत्तारि अपजत्तीओ भवति। एदासि छहमभावो अदीद-पज्जत्तीणाम्। -छहो पर्याप्तियाँ सज्ञी-पयप्तिके होती है। इन्ही सज्ञा जोवो के अपर्याप्तकालमे पूर्णताको प्राप्त नहीं हुई ये ही छह अपर्याप्तियाँ होती है। मन पर्याप्सिके बिना उक्त पाँचो ही पर्याप्तियाँ असो पचेन्द्रिय पर्याप्तोसे लेकर द्वीन्द्रिय पर्याप्तक जीवो तक होती है। अपर्याप्तक अवस्थाको प्राप्त उन्ही जीवोके अपूर्णताको प्राप्त वे ही पाँच अपर्याप्तियाँ होती है। भाषा पर्याप्ति और मन.पर्याप्तिके बिना ये चार पर्याप्तियाँ एकेन्द्रिय जीवों के होती हैं। इन्हीं एकेन्द्रिय जीवो के अपर्याप्त कालमे अपूर्णताको प्राप्त ये ही चार अपर्याप्तियों होती है। तथा इन छह पर्याप्तियोके अभावको अतीत पर्याप्ति कहते है। २. अपर्याप्तोंको सम्यक्त्व उत्पन्न क्यों नहीं होता
भेद व लक्षण पर्याय सामान्यका लक्षण अंश व विकार । पर्यायके भेद (द्रव्य-गुण; अर्थ-व्यंजन; स्वभाव विभाव; कारण-कार्य)। कर्मका अर्थ पर्याय
दे० कर्म/१/१॥ | द्रव्य पर्याय सामान्यका लक्षण ।
समान व असमान द्रव्य पर्याय सामान्यका लक्षण । गुणपर्याय सामान्यका लक्षण । गुणपर्याय एक द्रव्यात्मक ही होती है। व व पर पर्यायके लक्षण। कारण व कार्य शुद्ध पर्यायके लक्षण। ऊर्ध्व क्रम व ऊर्ध्व प्रचय।
-दे० क्रम । पर्याय सामान्य निर्देश गुणसे पृथक् पर्याय निर्देशका कारण । पर्याय द्रव्यके व्यतिरेकी अंश हैं। पर्यायमें परस्पर व्यतिरेक प्रदर्शन-दे० सप्तभंगी//३ । पर्याय द्रव्यके क्रम भावी अंश है। पर्याय स्वतन्त्र है। पर्याय व क्रियामें अन्तर। पर्याय निर्देशका प्रयोजन। पर्याय पर्यायीमें कथंचित् भेदाभेद -दे० द्रव्य/४ । पर्यायोंको द्रव्यगुण तथा उन्हें पर्यायोंसे लक्षित करना
-दे० उपचार/३। परिणमनका अस्तित्व द्रव्यमें, या द्रव्यांशमें या पर्यायोंमें
-दे० उत्पाद/३। पर्यायका कथंचित् सत्पना या नित्यानित्यपना
-दे० उत्पाद/३ ।
ध. ६/१,१,६,११/४२६/४ एथवितं चेव कारणं । को अच्चंताभावकरणपरिणामाभावो ।यहाँ अर्थाद अपर्याप्तको में भी पूर्वोक्त प्रतिषेध
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पर्याय
१. भेद व लक्षण
स्वभाव-विभाव अर्थ व्यंजन व द्रव्य गुण
पर्याय निर्देश १ अर्य व व्यंजन पर्यायके लक्षण व उदाहरण ।
अर्थ व गुणपर्याय एकार्थवाची है। व्यजन व द्रव्य पर्याय एकार्थवाची है। | द्रव्य व गुणपर्यायसे पृथक् अर्थ व व्यंजन पर्यायके निदेशका कारण। सब गुण पर्याय ही है फिर द्रव्य पर्यायका निर्देश क्यों ।। अर्थ व व्यजन पर्यायका स्वामित्व । व्यंजन पर्यायके अभावका नियम नहीं। अर्थ व व्यंजन पर्यायोंकी सूक्ष्मता स्थूलता :(दोनोका काल, २ व्यजन पर्यायमें अर्थपर्याय, स्थूल; व सूक्ष्म पर्यायोंकी सिद्धि)। स्वभाव द्रव्य व व्यंजन पर्याय । विभाव द्रव्य व व्यंजन पर्याय । | स्वभाव गुण व अर्थपर्याय । १२ विभाव गुण व अर्थपर्याय । १३ | स्वभाव व विभाव गुण व्यंजन पर्याय । १४ स्वभाव व विभाव पर्यायोंका स्वामित्व । | सादि-अनादि व सदृश-विसदृश परिणमन
-दे० परिणाम।
यही स ग्रह प्रस्तार क्षणिक रूपसे विवक्षित व शब्द भेदसे भेदको प्राप्त
हुआ विशेष प्रस्तार या पर्याय है। स सा./आ./३४५-३४८ क्षणिकत्वेऽपि वृत्त्यशानाम् । वृत्त्यशो अर्थात
पर्यायोका क्षणिकत्व होनेपर भी-। 4.ध./पू /२६,११७ पर्यायाणामेतद्धर्म यत्त्व शकल्पनं द्रव्ये ।२६। स च परिणामोऽवस्था तेषामेव (गुणानामेव) ११७ द्रव्यमें जो संश कल्पना की जाती है यही तो पर्यायोका स्वरूप है ।२६। परिण मन गुणोकी हो अवस्था है। अर्थात् गुणोको प्रतिसमय होनेवाली अवस्थाका नाम पर्याय है। ३. द्रव्य विकारके अर्थमे त. सू./५/४२ तद्भाव परिणाम ।४२। -उसका होना अर्थात प्रतिसमय बदलते रहना परिणाम है। ( अर्थात् गुणोके परिणमनको पर्याय
कहते है।) स. सि./५/३८/३०६-३१०/७ दव्व विकारो हि पज्जवो भणिदो। तेषा विकारा विशेषारमना भिद्यमाना. पर्याया । =१. द्रव्यके विकारको पर्याय कहते है। २. द्रव्यके विकार विशेष रूपसे भेदको प्राप्त होते है
इसलिए वे पर्याय कहलाते है । (न. च. वृ/१७) । न, च. श्रुत/पृ. ५७ सामान्यविशेषगुणा एकस्मिन् धर्मणि वस्तुत्वनिष्पादकास्तेषां परिणाम पर्याय' । -सामान्य विशेषात्मक गुण एक द्रव्यमें वस्तुत्वके बतलानेवाले है उनका परिणाम पर्याय है।
४. पर्यायके एकार्थवाची नाम स.सि /१/३३/१४१ पर्यायो विशेषोऽपवादो व्यावृत्तिरित्यर्थः ।
= पर्यायका अर्थ विशेष, अपवाद और व्यावृत्ति है। गो, जी/मू./५७२/१०१६ ववहारो य वियप्पो भेदो तह पज्जओत्ति एयो ।५७२। = व्यवहार, विकल्प, भेद और पर्याय ये सब एकार्थ
है।५७२। स. म./२३/२७२/११ पर्ययः पर्यव. पर्याय इत्यनर्थान्तरम् । पर्यय,
पर्यव और पर्याय ये एकार्थवाची है। पं.ध./पू./६० अपि चाश• पर्यायो भागो हारोविधा प्रकारश्च ।
भेदश्छेदो भंग शब्दाश्चैकार्थवाचका एते।६०/ अश, पर्याय, भाग, हार, विधा, प्रकार तथा भेद, छेद और भंग ये सब एक ही अर्थ के वाचक है।६। २. पर्यायके दो भेद १. सहभावी व क्रममावी श्ल.वा./४/१/३३/६०/२४५१ य. पर्याय स द्विविध' क्रमभावी सहभावी
चेति । =जो पर्याय है वह क्रमभावी और सहभावी इस ढंगसे दो प्रकार है।
२. द्रव्य व गुण पर्याय प्र. सा./त. प्र./६३ पर्यायास्तु द्रव्यात्मका अपि गुणात्मका अपि ।
- पर्याय गुणात्मक भी है और द्रव्यात्मक भी। (प.ध./पू./२५, ६२-६३,१३५)। पं.का./ता. वृ./१६/३५/१२ द्विधा पर्याया द्रव्यपर्याया गुणपर्यायाश्च ।
- पर्याय दो प्रकारकी होती हैं-द्रव्य पर्याय और गुणपर्याय । (पं.ध./पू./११२) ।
३. अर्थ पर्याय व व्यंजन पर्याय पं. का./ता. वृ./१६/३६/८ अथवा द्वितीयप्रकारेणार्थव्यंजनपर्यायरूपेण द्विधा पर्याया भवन्ति । अथवा दूसरे प्रकारसे अर्थपर्याय व व्यंजनपर्यायरूपसे पर्याय दो प्रकारकी होती है। (गो. जी./मू /५८१) (न्या. दी./३/१७७/१२०)।
१.भेद व लक्षण
१. पर्याय सामान्यका लक्षण १. निरुक्ति अर्थ रा. वा./१/३३/१/१५/६ परि समन्तादायः पर्याय' । = जो सर्व ओरसे भेदको प्राप्त करे सो पर्याय है। (ध. १/१,१,१/८४/१); (क. पा १/१, १३-१४/७१८१/२१७/१); (नि. सा./ता. वृ.१४) । आ. प६ स्वभावविभावरूपतया याति पति परिणमतीति पर्याय इति पर्यायस्य व्युत्पत्ति । जो स्वभाव विभाव रूपसे गमन करती है पर्येति अर्थात् परिणमन करती है वह पर्याय है। यह पर्यायकी व्युत्पत्ति है । (न. च./श्रुत/पृ०५७)
२. द्रव्यांश या वस्तु विशेषके अर्थ में स. सि./१/३३/१४१/१ पर्यायो विशेषोऽपवादो व्यावृत्तिरित्यर्थः।
- पर्यायका अर्थ-विशेष, अपवाद और व्यावृत्ति है। रा. वा/१/२६/४/८/४ तस्य मिथो भवनं प्रति विरोध्यविरोधिनां धर्माणामुपात्तानुपात्तहेतुकानां शब्दान्तरात्मलाभनिमित्तत्वाद अर्पितव्यवहारविषयोऽवस्थाविशेष पर्यायः ।४।-स्वाभाविक या नैमित्तिक विरोधी या अविरोधी धर्मों में अमुक शब्द व्यवहारके लिए विवक्षित
द्रव्यकी अवस्था विशेषको पर्याय कहते है। ध.६/४,१,४५/१७०/२ एष एव सदादिरविभागप्रतिच्छेदनपर्यन्तः संग्रहप्रस्तारः क्षणिकत्वेन विवक्षित. वाचकभेदेन च भेदमापन्न. विशेषविस्तार. पर्यायः । -सवको आदि लेकर अविभाग प्रतिच्छेद पर्यन्त
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पर्याय
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१. भेद व लक्षण
द्रव्यके सम्बन्धसे उत्पन्न होनेवाली समानजातीय द्रव्य पर्याय कही जाती है। अब असमान जातीय द्रव्य पर्याय कहते है-भवान्तरको प्राप्त हुए जीवके शरीर नोकर्म रूप पुद्गलके साथ मनुष्य, देवादि पर्याय रूप जो उत्पत्ति है वह चेतन जीवकी अचेतन पुद्गल द्रव्यके साथ मेलसे होनेके कारण असमानजातीय द्रव्य पर्याय कही जाती है।
४. स्क्भाव पर्याय व विभाव पर्याय न. च. वृ/१७-१६ पज्जय द्विविध. ॥१७। सम्भावं खुविहावं दव्वाण पज्जयं जिणुद्दिछ।१८। दव्वगुणाण सहावा पज्जायंतह विहावदो णेयं ।१६-पर्याय दो प्रकारकी होती है-स्वभाव ब विभाव । तहाँ द्रव्य व गुण दोनों को ही पर्याय स्वभाव व विभावके भेदसे दो-दो प्रकारकी जाननी चाहिए। (पं का./ता, वृ/१६/३६/१६)।। आ. प./३ पर्यायास्ते द्वेधा स्वभाव विभावपर्यायभेदात् । विभावद्रव्यव्यजनपर्याय' • विभावगुणव्यजनपर्याय स्वभावद्रव्यव्यंनपर्याय. • स्वभावगुणव्यजनपर्याय. । - पर्याय दो प्रकारकी होती हैस्वभाव व विभाव । ये दोनो भी दो-दो प्रकारकी होती है यथाविभाव-द्रव्य व्यजनपर्याय, विभावगुण व्यजनपर्याय, स्वभाव द्रव्य- व्यंजन पर्याय व स्वभाव गुण व्यंजन पर्याय । (प. प्र./टी /१/५७)। प्र.सा./त प्र./६३ द्रव्यपर्याय । स द्विविध , समानजातीयोऽसमानजातीयश्च । • गुणपर्याय' । सोऽपि द्विविध' स्वभावपर्यायो विभावपर्यायश्च । - द्रव्य पर्याय दो प्रकारकी होती है-समानजातीय
और असमान जातीय। ..गुणपर्याय दो प्रकारकी है-स्वभाव पर्याय व विभाव पर्याय। (पं. का./ता.व./१६/३५/१३) । ५. कारण शुद्ध पर्याय व कार्य शुद्ध पर्याय नि.सा./ता.वृ.१५ स्वभावविभावपर्यायाणा मध्ये स्वभावपर्यायस्तावत् द्विप्रकारेणोच्यते । कारणशुद्भपर्याय कार्यशुद्धपर्यायश्चेति। स्वभाव पर्यायो व विभाव पर्यायोके बीच प्रथम स्वभाव पर्याय दो प्रकारसे कही जाती है-कारण शुद्धपर्याय, और कार्यशुद्भपर्याय ।
३. द्रव्य पर्याय सामान्यका लक्षण प्र.सा./त प्र/१२ तत्रानेकद्रव्यात्मकैक्यप्रतिपत्तिनिबन्धनो द्रव्यपर्याय.।
-- अनेक द्रव्यात्मक एकताकी प्रतिपत्तिको कारणभूत द्रव्य पर्याय है। (पं.का./ता. वृ./१६/३५/१२)। वंध./पू /१३५ यतरे प्रदेशभागास्ततरे द्रव्यस्य पर्यया नाम्ना ।।१३५॥
द्रव्यके जितने प्रदेश रूप अश है, उतने वे सब नामसे द्रव्यपर्याय है।
५. गुणपर्याय सामान्यका लक्षण प्रसा/त.प्र./१३ गुणद्वारेणायतानैक्यप्रतिपत्तिनिबन्धनो गुणपर्याय १६३। - गुण द्वारा आयतकी अनेकताकी प्रतिपत्तिको कारणभूत
गुणपर्याय है ।६३। पं.का /ता बृ /१६/३६/४ गुणद्वारेणान्वयरूपाया एकत्वप्रतिपत्तेर्निबन्धनं कारणभूतो गुणपर्याय । = जिन पर्यायोंमें गुणोंके द्वारा अन्वयरूप
एकत्वका ज्ञान होता है, उन्हे गुणपर्याय कहते है। पंध/पू /१३५ यतरे च विशेषास्ततरे गुणपर्यया भवन्त्येव ।१३५॥
- जितने गुणके अंश है, उतने वे सब गुणपर्याय ही कहे जाते है ।१३।। (पं.ध./पू./६१ )।
१. गुणपर्याय एक द्रव्यात्मक ही होती हैं प्र.सा/त प्र /१०४ एकद्रव्यपर्याया हि गुणपर्याया' गुणपर्यायाणामेक
द्रव्यत्वात् । एकद्रव्यत्व हि तेषां सहकारफलवत् । -गुण पर्याय एक द्रव्य पर्याय है, क्योकि गुण पर्यायोको एक द्रव्यत्व है । तथा वह द्रव्यत्व आम्रफल की भॉति है। पं का./ता. वृ./१६/३६।५ गुणपर्यायः, स चैकद्रव्यगत एव सहकारफले हरितपाण्डरादिवर्णवत् । = गुणपर्याय एक द्रव्यगत ही होती है, आनमें हरे व पीले रंगकी भॉति ।
७. स्व व पर पर्यायके लक्षण मोक्ष चाशत/२३-२५ केवलिप्रज्ञया तस्या जघन्योऽस्तु पर्याय । तदाऽनन्त्येन निष्पन्न सा द्य तिर्निजपर्यया' ।२३। क्षयोपशमवैचित्र्य ज्ञेयवैचित्र्यमेव वा। जीवस्य परपर्याया. षट्स्थानपतितामी १२५ = केवलज्ञानके द्वारा निष्पन्न जो अनन्त अन्तद्युति या अन्तर्तेज है वही निज पर्याय है ।२३। और क्षयोपशमके द्वारा व ज्ञेयोके द्वारा चित्र-विचित्र जो पर्याय है सो परपर्याय है। दोनो ही षट्स्थान पतित वृद्धि हानि युक्त है ।२४
४. समान व असमान जातीय द्रव्यपर्यायका लक्षण प्र.सा./त.प्र./६३ तत्र समानजातीयो नाम यथा अनेकपुदगलात्मको द्वयणुकरूयणुक इत्यादि, असमानजातीयो नाम यथा जीवपुद्गलात्मको देवो मनुष्य इत्यादि । =समानजातीय वह है-जैसे कि अनेक पुद्गलात्मक द्विअणुक त्रिअणुक, इत्यादि; असमानजातीय वह है
जैसे कि जीव पुद्गलात्मक देव, मनुष्य इत्यादि । प्र.सा/त प्र./५२ स्वलक्षणभूतस्वरूपास्तित्वनिश्चितस्यैकस्यार्थस्य स्वलक्षणभूतस्वरूपास्तित्व निश्चित एवान्यस्मिन्नर्थे विशिष्टरूपतया संभावितात्मलाभोऽर्थोऽनेकद्रव्यात्मक पर्याय । • जीवस्य पुद्गले सस्थानादिविशिष्टतया समुपजायमान, संभाव्यत एव । -स्वलक्षण भूत स्वरूपास्तित्वसे निश्चित अन्य अर्थ में विशिष्ट (भिन्न-भिन्न ) रूपसे उम्पन्न होता हुआ अर्थ ( असमान जातीय ) अनेक द्रव्यात्मक पर्याय है। .. जो कि जीव की पुद्गल में संस्थानादिसे विशिष्टतया उत्पन्न होती हुई अनुभवमें आती है। पं.का./ता.वृ./१६/३५/१४ द्वे त्रीणि वा चत्वारीत्यादिपरमाणुपुद्गलद्रव्याणि मिलित्वा स्कन्धा भवन्तीत्यचेतनस्यापरेणाचेतनेन सबन्धासमानजातीयो भण्यते । असमानजातीय कथ्यते-जीवस्य भवान्तरगतस्य शरीरनोकर्मपुद्गलेन सह मनुष्यदेवादिपर्यायोत्पत्तिचेतनजीवस्याचेतनपुद्गलद्रव्येण सह मेलापकादसमानजातीयः द्रव्यपर्यायो भण्यते। -दो, तीन वा चार इत्यादि परमाणु रूप पुद्गल द्रव्य मिलकर स्कन्ध बनते है, तो यह एक अचेतनकी दूसरे अचेतन
८. कारण व कार्य शुद्ध पर्यायके लक्षण नि, सा /ता बृ /१५ इह हि सहजशुद्धनिश्चयेन अनाद्यनिधनामूर्तातीन्द्रियस्वभावशुद्धसहज ज्ञानसहजदर्शनसहजचारित्रसहजपरमवीत - रागसुखारमकशुद्धान्तस्तत्त्वस्वरूपस्वभावानन्तचतुष्टयस्वरूपेण सहाचितपंचमभावपरिणतिरेव कारण शुद्धपर्याय इत्यर्थ । माद्यनिधनामूर्तातीन्द्रियस्वभावशुद्धसभूतव्यवहारेण केवलज्ञान-केवलदर्शनकेवलसुख केवल शक्तियुक्तफलरूपानन्तचतुष्टयेन साद्ध' परमोत्कृष्टक्षायिकभावस्य शुद्धपरिणतिरेव कार्यशुद्धपर्यायश्च । सहज शुद्ध निश्चयसे, अनादि अनन्त, अमूर्त, अतीन्द्रिय स्वभाववाले और शुद्ध ऐसे सहजज्ञान-सहजदर्शन-सहजचारित्र-सहज परमवीतरागसुखात्मक शुद्ध अन्तस्तत्त्व रूप जो स्वभाव अनन्तचतुष्टयका स्वरूप उसके साथकी जो पूजित पचम भाव परिणति वही कारण शुद्धपर्याय है। सादिअनन्त, अमूर्त अतीन्द्रिय स्वभाववाले, शुद्धसभूत व्यवहारसे, केवलज्ञान-केवलदर्शन-केवलसुख-केवलशक्तियुक्त फलरूप अनन्त चतुष्टयके साथकी परमोत्कृष्ट क्षायिक भावकी जो शुद्ध परिणति वही कार्य शुद्ध पर्याय है।
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पर्याय
२. पर्याय सामान्य निर्देश
१. गुणसे पृथक पर्याय निर्देशका कारण
या वी/१/०८/१२९/४ यद्यपि सामान्यविशेषी पर्यायी तथापि सतह निमन्धनमाचन्दव्यवहारविषयत्वागस्तायो पृथग् निर्देश । यद्यपि सामान्य और विशेष भी पर्याय है, और पर्यायों के कथनसे उनका भो कथन हो जाता है- उनका पृथक् निर्देश (कथन) करनेकी आवश्यकता नही है तथापि संकेतज्ञानमें कारण होनेसे और जुदा-जुदा शब्द व्यवहार होनेसे इस आगम प्रस्तावमें ( आगम प्रमाणके निरूपण मे ) सामान्य विशेषका पर्यायोसे पृथक् निरूपण किया है।
२. पर्याय अभ्यके व्यतिरेकी अंश हैं
स, सि /५/३८/३०६/५
होती है न ५७) (प. का. प्र./५); (सा./ता ./१३/१२९/१२), ( प्र [टी] /२/५७), (ध. पू. १६५)। प्रसा/त प्र / ८०, ६५ अन्वयव्यतिरेका पर्याया ।८० पर्याया आयतविशेषा ॥६५॥ - अन्वय व्यतिरेक वे पर्याय है। 50 पर्याय आयत विशेष है । ६५ । (प्र. सा / त प्र / १३ ) ।
=
पं. का/त प्र / ५ पदार्थास्तेषामवयवा अपि प्रदेशाख्या' परस्परव्यतिरेकाया उच्यन्ते । पदार्थोंके जो अवयव है वे भी परस्पर व्यतिरेकवाले होनेसे की है। अध्यात्मकमल मार्तण्ड | वीरसेवा मन्दिर /२/१
व्यतिरेकिणो हानित्यास्तत्काले द्रव्यतन्मयाश्चापि । ते पर्याया द्विविधा द्रव्यावस्थाविशेषधर्मांशा || जो व्यतिरकी है और अनित्य है तथा अपने कालमें द्रव्यके साथ तन्मय रहती है। ऐसी द्रव्यकी अवस्था विशेष, या धर्म, या अश पर्याय कहलाती है ||
३. पर्याय द्रव्य के क्रम मावी अंश है
आप / ६ क्रमवर्तिन पर्याया, पर्याय एकके पश्चात दूसरी, इस प्रकार क्रमपूर्वक होती है। इसलिए पर्याय क्रमवर्ती कही जाती है। ( स्याम / २२ / २६७/२२ ) ।
व्यतिरेकिण पर्याया । पर्याय व्यतिरेकी
घ
प. प्र./मू./५७ कम-भुव पज्जउ कुत्तु ॥ ५७१ = द्रव्यकी अनेक रूप परिगति क्रमसे हो अर्थात् अनित्य रूप समय-समय उपजे, विनशे, वह पर्याय कही जाती है। (प्र. सा / स. प्र. १०) (नि साता प १०७), (पं का /ता वृ./५/१४/६ ) ।
प. सु. /४/एफस्मित् द्रव्ये कमभाविनः परिणामा पर्याया आत्मनि विद -एक ही द्रव्यमें क्रमसे होनेवाले परिणामोको कहते है जैसे एक ही आत्मामे हर्ष और विषाद ।
४७
१. पर्याय स्वतन्त्र हैं
पं. ध / ५०/५६, ११७ वस्त्वस्ति स्वत. सिद्धं यथा तथा तत्स्वतश्च परिणामि अपि नित्या प्रतिसमयं विनापि यत्नं हि परिणमन्ति गुणा | ११७१ - जैसे वस्तु स्वतः सिद्ध है वैसे ही वह स्वत' परिणमनशील भी है।गुण निरय है तो भी वे निश्चय करके स्वभाव से ही प्रतिसमय परिणमन करते रहते है ।
५. पर्याय व क्रियामै अन्तर
रा. वा./५/२२/२१/४८९/१६ भावो द्विविधः - परिस्पन्दात्मकः अपरिस्पन्दात्मकश्च । तत्र परिस्पन्दात्मक. क्रियेत्याख्यायते, इतरः परिणामः । = भाव दो प्रकारके होते हैं- परिस्पन्दात्मक व अपरिस्पन्दात्मक | परिस्पन्द क्रिया है तथा अन्य अर्थात् अपरिस्पन्द परिणाम अर्थात् पर्याय है।
३. स्वभाव विभाव अर्थ व्यंजन व द्रव्यगुण "
,
६. पर्याय निर्देशका प्रयोजन
पं.का./११/४९/५ अत्र पर्यायरूपेणानित्यत्वेऽपि शुद्धद्रव्यार्थिकनयेनाविनश्वरमनन्तज्ञानादिरूपशुद्धीवास्तिकामाभिधानं रागादिपरिहारेणोपादेयरूपेण भावनीयमिति भावार्थः पर्याय रूपसे अनियम होनेपर भी शुद्ध व्याधिक नयसे अविनश्वर अनन्त ज्ञानादि रूप शुद्ध जीवास्तिकाय नामका शुद्धात्म द्रव्य है उसको रागादिके परिहार के द्वारा उपादेय रूपसे भाना चाहिए, ऐसा भावार्थ है ।
३. स्वभाव विभाव, अर्थ व्यंजन व द्रव्य गुण पर्याय निर्देश
१. अर्थ व व्यंजन पर्यायके लक्षण व उदाहरण
-
ध. ४/१,५,४/३३७/८ वज्जसिलार्थ भादिसु वंजणसण्णिदस्स अवट्ठाणुवलभादो । मिच्छत्तं पि वंजणपज्जाओ। वज्रशिला, स्तम्भादिमें व्यंजन संज्ञिक उत्पन्न हुई पर्यायका अवस्थान पाया जाता है। मिध्याल भी व्यंजन पर्याय है। प्र.सा./त.प्र./२० इम्पाणि क्रमपरिणामेनेयतिद्रव्यै क्रमपरिणामेनार्यन्त इति वा अर्थ पर्याया' । जो द्रव्यको क्रम परिणामसे प्राप्त करते है, अथवा जो द्रव्योके द्वारा क्रम परिणामसे प्राप्त किये जाते है ऐसे 'अ' हैं।
"
निसा / ता.पू./गा. पदानिवृद्धिरूपा सुश्मा परमागमामायादभ्युपगमा १४ व्ययते स्कूटी कियते अनेनेति व्यञ्जनपर्यायः । कुतः, लोचनगोचरत्वात् पटादिवत् । अथवा सादिसनिधनमूर्त विजातीयविभावस्वभावत्वात् श्यमान विनाशस्य रूप | १५ | नरनारकादिव्यपर्याया जीवानां पंचसारप्रपञ्चानां पृडुगलानां स्थूलस्थादिस्कन्पया १६८ प हानि वृद्धि रूप सूक्ष्म, परमागम प्रमाणसे स्वीकार करने योग्य अर्थ पर्यायें (होती है ) | १६८ | जिससे व्यक्त हो- प्रगट हो वह व्यंजन पर्याय है। किस कारण पटादिकी भाँति चक्षु गोचर होनेसे ( प्रगट होती हैं) अथवा सादि-सात मूर्त विजातीय विभाव-स्वभाववासी होनेसे दिखकर नष्ट होनेवाले स्वरूप वाली होनेसे ( प्रगट होती है । ) नर-नारकादि व्यजन पर्याय पाँच प्रकारकी संसार प्रपंच वाले जीवोके होती है।
लोको स्थूल स्थूल आदि स्कन्ध पर्याये (आंजन पर्यायें होती हैं॥९६८० (निसा./ता.वृ./१५)। बसु.आ./२५ सहमा अवायविसथा खमरवणो या विट्ठा। जपज्जायागतागिरगोयरा चिरविवथा ॥२३॥ अर्थ पर्याय सूक्ष्म है, अवाय (ज्ञान) विषयक है, अत शब्दसे नही कही जा सकती है और क्षण-क्षणमें बदलती हैं, किन्तु व्यंजन पर्याय स्थूस है, शब्द गोचर है अर्थात् शब्दसे कही जा सकती है और चिरस्थायो २५.का./ता.वृ./ १२ / ३६ / ६)
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CI
न्या. दी./३/९७७/१२०/६ अर्थपर्यायो भूतत्वभविष्यत्वसंस्पर्श रहितशुद्ध वर्तमानकाला वस्तुस्वरूपम्। तदेतनविषयममन्यभियुक्ता । व्यजनं व्यक्तिः प्रवृत्तिनिवृत्तिनिबन्धनं जा नयनाद्यर्थक्रियाकारित्वम् । तेनोपलक्षित' पर्यायो व्यञ्जनपर्याय', मृदादेर्पिण्ड स्थास-कोश-कुशल-पट-कपालादयः पर्यायाः । भूत और भविष्य के उल्लेखरहित केवल वर्तमान कालीन वस्तु स्वरूपको अर्थपर्याय कहते है। आचार्योंने इसे सूत्र नयका विषय माना है। व्यक्तिका नाम व्यंजन है और जो प्रवृत्तिनिवृत्ति में कारणभूत 'जलके ले आने आदि रूप अर्थ क्रियाकारिता है वह व्यक्ति है। उस व्यक्तिसे युक्त पर्यायको व्यंजन पर्याय कहते है । जैसे-मिट्टी आदिको पिण्ड स्थास, कोश, कुशल, घट और कपाल आदि है।
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पर्याय
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३. स्वभाव विभाव, अर्थ व्यंजन व द्रव्यगुण""
प्र. सा./ता. वृ /८०/१०१/१७ शरीराकारेण यदात्मप्रदेशानामवस्थानं स व्यन्जनपर्यायः, अगुरुलघुगुणषड्बृद्धिहानिरूपेण पतिक्षण प्रवर्तमाना अर्थपर्याया. । शरीरके आकार रूपसे जो आत्म-प्रदेशोका अवस्थान है वह व्यंजन पर्याय कहलाती है। और अगुरुलधु गुणकी षट् वृद्धि और हानिरूप तथा प्रतिक्षण बदलती है, वे अर्थ पर्याय होती है।
२. अथ व गुण पर्याय एकार्थवाची हैं पं. ध//६२ गुणपर्यायाणामिह केचिन्नामान्तर वदन्ति बुधा'। अर्थो
गुण इति वा स्यादेकार्थादर्थ पर्याया इति च ।६२। -यहाँ पर कोईकोई विद्वान् अर्थ कहो या गुण कहो इन दोनोका एक ही अर्थहोनेसे अर्थ पर्यायौंको ही गुणपर्यायोका दूसरा नाम कहते है ।६२॥
३. व्यंजन व द्रव्य पर्याय एकार्थवाची है ध, ४/१.५.४/३३७/६ वंजणपज्जायस्स दव्बत्तन्भुवगमादो। -व्यजन
पर्यायके द्रव्यपना माना गया है। (गो जी./मू.५८२)। पं.ध/पू /६३ अपि चोद्दिष्टानामिह देशांशैर्द्रव्यपर्यायाणा हि । व्यञ्जनपर्याया इति केचिन्नामान्तरे वदन्ति बुधा' १६३ कोई-कोई विद्वान् यहाँ पर देशाशोके द्वारा निर्दिष्ट द्रव्यपर्यायोंका ही व्यंजन पर्याय यह दूसरा नाम कहते है ।६३॥ १. द्रव्य व गुण पर्यायसे पृथक् अर्थ व व्यंजन पर्यायके निर्देशका कारण पं.का./ता. वृ./१६/३६/१६ एते चार्थ व्यंजनपर्यायाः । अत्र गाथा
च ये द्रव्यपर्याया' गुणपर्यायाश्च भणितास्तेषु च मध्ये तिष्ठन्ति । तहि किमर्थं पृथक्कथिता इति चेदेकसमयवर्तिनोऽर्थपर्याया भण्यन्ते चिरकालस्थायिनो व्यञ्जनपर्याया भण्यन्ते इति कालकृतभेदज्ञापमार्थम् ।-प्रश्न-यह जो अर्थ व व्यंजन पर्याय कही गयी है वे इस गाथामे कथित द्रव्य व गुण पर्यायोंमे ही समाविष्ट है, फिर इन्हे पृथक क्यो कहा गया । उत्तर-अर्थ पर्याय एक समय स्थायी होती है और व्यंजन पर्याय चिरकाल स्थायी होती है, ऐसा काल कृत भेद दर्शानेके लिए ही इनका पृथक् निर्देश किया गया है। ५. सब गुण पर्याय ही हैं फिर द्रव्य पर्यायका निर्देश
६. अर्थ व व्यंजन पर्यायका स्वामित्व ज्ञा/६/१० धर्माधर्मनभ.काला अर्थपर्यायगोचरा । व्यजनाख्यस्य सबन्धौ द्वावन्यौ जीवपुगगलौ ।४०। धर्म, अधर्म, आकाश और काल ये चार पदार्थ तो अर्थ पर्याय गोचर है, और अन्य दो अर्थात जीव पुदगल व्यजन पर्यायके सम्बन्ध रूप है ।४।। प्र.सा./ता वृ/१२६/१८१/२१ धर्माधर्माकाशकालाना मुख्यवृत्त्यैकसमयवर्तिनोऽर्थ पर्याया एव जीवपुद्गलानामर्थपर्यायव्यञ्जनपर्यायाश्च । =धर्म. अधर्म, आकाश, कालको तो मुख्य वृत्तिसे एक समयवर्ती अर्थ पर्याय ही होती है, और जीव व पुद्गलमें अर्थ व व्यजन दोनो पर्याय होती है। (का अ./टो /२२०/१५४/६) ।
७. व्यंजन पर्यायके अभाव होनेका नियम नहीं है ध ७/२.२.१८७/१७८/३ अभविय भावो णाम वियंजणपज्जाओ, तेणेदस्स विणासेण होदयमण्णहा दव्वत्तप्पसंगादो त्ति होदु वियंजणपज्जाओ, ण च वियजणपउजायस्स सव्वस्स विणासेण होदव्य मिदि णियमो अत्थि, एयतवादप्पसंगादो। ण च ण विणस्सदि त्ति दवं होदि उपाय-दि -भंग-संगयस्स दव्वभावग्भुवगमादो । -प्रश्न-- अभव्य भाव जीवकी व्यंजन पर्यायका नाम है, इसलिए उसका विनाश अवश्य होना चाहिए, नही तो अभव्यत्वके द्रव्यत्व होनेका प्रसग आ जायेगा। उत्तर-अभव्यत्व जीवकी व्यंजनपर्याय भले ही हो, पर सभी उयंजनपर्यायका अवश्य नाश होना चाहिए, ऐसा कोई नियम नहीं है, क्योंकि ऐसा माननेसे एकान्तवादका प्रसंग आ जायेगा। ऐसा भी नहीं है कि जो वस्तु विनष्ट नहीं होती वह द्रव्य ही होना चाहिए, क्योंकि जिसमें उत्पाद, धौव्य और व्यय पाये जाते है, उसे द्रव्यरूपसे स्वीकार किया गया है। ८. अर्थ व व्यंजन पर्यायोंकी स्थूलता सूक्ष्मता
२. दोनोंका काल घ, १/४,१,४८/२४२-२४४/६ अत्य पज्जाओ एगादिसमयावट्ठाणो सण्णा सबंध वज्जिओ अप्पकालावट्ठाणादो अनविसोसादो वा। तत्थ जो सो जहण्णुक्सेहि अंतोमुत्तासंखेज्जलोगमैत्त कालावठाणो अणाइअणतो वा ।२४२-२४३। असुद्धो उजुसुदणओ सो चक्रनुपासियवेंजणपज्जयविसओ। तेसिं कालो जहण्णेण अंतोमुहूत्तमुक्कस्सेण छम्मासा संखेज्जा वासाणि वा। कुदो चक्रिवदियगेझवेजण-पज्जायाणामप्पहाणीभूदव्वाणमेत्तियं कालमव ठाणुवल भादो। - १. अर्थपर्याय थोडे समय तक रहनेसे अथवा प्रतिसमय विशेष होनेसे एक आदि समयतक रहनेवाली और संज्ञा-संज्ञी सम्बन्धसे रहित है। और व्यंजन पर्याय जघन्य और उत्कर्षसे क्रमश अन्तर्मुहूर्त और असख्यात लोक मात्र कालतक रहनेवाली अथवा अनादि अनन्त है। (पृ २४२-२४३) २. अशुद्ध ऋजुसुत्र नय चक्षुरिन्द्रियकी विषयभूत व्यजन पर्यायको विषय करनेवाला है। उन पर्यायोंका काल जघन्यसे अन्तर्मुहुर्त और उत्कर्षसे छह मास अथवा संरख्यातवर्ष है क्योकि चक्षुरिन्द्रियसे ग्राह्य व्यंजन पर्यायें द्रव्यकी प्रधानतासे रहित होती हुई इतने काल तक अवस्थित पायी जाती है। वसु. श्रा./२५ खणखइणो अत्थपज्जया दिट्ठा २ =अर्थपर्याय क्षण
क्षणमे विनाश होनेवाली होती है। अर्थात एकसमयवर्ति होती है। (प्र.सा./ता. वृ./७/१०१/१८); (पं.का./ता.व./१६/३६/६ व १८)।
२. व्यंजनपर्यायमें विलीन अर्थपर्याय प्र. सा/त प्र/४/६४/१ (द्रव्य, क्षेत्र, काल ) भावप्रच्छन्नेषु स्थूलपर्यायान्तीनसूक्ष्मपर्यायेषु सर्वष्वपि. द्रष्टुत्व प्रत्यक्षत्वात । - (द्रव्य, क्षेत्र, काल) व भावप्रच्छन्न स्थूलपर्यायों में अन्तर्लीन सूक्ष्म पर्याये है वास्तवमें वह उस अतीन्द्रिय ज्ञानके द्रष्टापन (दृष्टिगोचर) है।
क्यों
पं. ध./पू./१३२-१३५ ननु चैन :सति नियमादिह पर्याया' भवन्ति
यावन्त' । सर्वे गुणपर्याया वाच्या न द्रव्यपर्याया केचित् ११३२॥ तन्न यतोऽस्ति विशेषः सति च गुणानां गुणत्ववत्वेऽपि । चिदचिद्यथा तथा स्याद क्रियावतो शक्तिरथ च भाववती।१३३॥ यतरे प्रदेशभागस्ततरे द्रव्यस्य पर्यया नाम्ना। यतरे च विशेषास्ततरे गुणपर्यया भवन्त्येव ।१३॥-प्रश्न-गुणोके समुदायात्मक द्रव्यके माननेपर यहाँ पर नियमसे जितनी भी पर्याय होती है, वे सब गुण पर्याय कही जानी चाहिए, किसीको भी द्रव्य पर्याय नहीं कहना चाहिए ।१३२। उत्तर-यह शंका ठीक नही है, क्योंकि सामान्यपनेसे गुणवत्वके सदृश रहते हुए भी गुणों में विशेष भेद है, जैसे-आत्माके चिदात्मक शक्ति रूप गुण और अजीव द्रव्योके अचिदात्मक शक्ति रूप गुण ऐसे तथा वैसे ही द्रव्यके क्रियावती शक्ति रूप गुण और भाववती शक्ति रूप गुण ऐसे गुणों के दो भेद हैं ।१३३। जितने द्रव्य प्रदेशरूप अंश है, वे सब नामसे द्रव्य पर्याय है और जितने गुणके अश है वे सब गुण पर्याय कहे जाते है ।१३।। भावार्थ-'अमुक द्रव्यके इतने प्रदेश है', इस कल्पनाको द्रव्यपर्याय कहते हैं। और प्रत्येक द्रव्य सम्बन्धी जो अनन्तानन्त गुण हैं। उनकी प्रतिसमय होनेवाली षट् गुणी हानि वृद्धिसे तरतमरूप अवस्थाको गुणपर्याय कहते है।
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पर्याय
.../९७९ ले निन्नाश्च पर्ययाः सूक्ष्मा । १७५। -स्थूली में सूक्ष्मकी तरह स्थूल पर्यायोगे भी सूक्ष्मपर्याय अन्तर्शन होती है।
३. स्थूल व सूक्ष्म पर्यायोंकी सिद्धि
प. पू./१७२१०३,१० का भावार्थ-तत्र व्यतिरेक. स्यात् परस्परा भावलक्षणेन यथा अशविभाग पृथगिति सहान सतामेव ॥ १७२॥ तस्मात् व्यतिरेकत्वं तस्य स्यात् स्थूलपर्यय स्थूल' । सोऽयं भवति न सोऽय यस्मादेतावतैव ससिद्धि. । १७३ | तदिदं यथा स जीवो देवो मनुजाद्भवन्नथाप्यन्य । कथमन्यथात्वभावं न लभेत स गोरसोऽपि नयात् | १८० = नरकादि रूप व्यजन पर्याये स्थूल है. क्योकि उनमें एकजातिपनेकी अपेक्षा सदृशता रहते हुए भी व्यतिरेक देखा जाता है। अर्थात 'यह वह है' यह वह नही है', ऐसा लक्षण घटित होता है । १७२ - १७३ | परन्तु अर्थ पर्यायें सूक्ष्म है। क्योंकि, यद्यपि निरयता तथा नियता होते हुए भी कम कचित् सदृशता तथा विसदृशता होती है । परन्तु उसका काल सूक्ष्म होनेके कारण क्रम प्रतिसमय लक्ष्यमें नही आता । इसलिए 'यह वह नही है' तथा 'वह ऐसा नहीं है' ऐसी विवक्षा बन नहीं सकती ।
९. स्वभाव द्रव्य व व्यंजन पर्याय
नि. सा. / . / ९५.२८ डम्मोपाधिविवज्जिय पज्जाया ते सहायमिदि भणिया | १५ | अण्णणिरावेक्खो जो परिणामो सो सहावपज्जावो |२८| पाधि रहित पर्याये वे स्वभाव (द्रव्य) पर्याये वही गयी है |१| अन्यकी अपेक्षा रहित जो परमाणुका परिणाम यह (इगत द्रव्यकी) स्वभान पर्याय है
न. च. वृ / २१,२५,३० दव्वाणं खुपयेसा जे जे सहाव संठिया लोए । ते ते पुण पज्जाया जाण तुम दविणसब्भावं | २१| देहायारपएसा जे थक्का उयकम्मणिमुक्का । जीवस्स णिच्चला खलु ते सुद्धा दव्वपज्जाया | २५ | जो खलु अणाइणिहणो कारणरूवो हु कज्जरुवो वा । परमाणुपोग्गलाणं सो दव्वसहावपज्जाओ 1३०1 सब द्रव्योंकी जो अपने-अपने प्रदेशोंकी स्वाभाविक स्थिति है वहीं द्रव्यकी स्वभाव पर्याय जात २१ कर्मोसे निर्मु सिद्ध जीवो जो देहाकार रूपसे प्रदेशोकी निश्चल स्थिति है वह जीवकी शुद्ध या स्वभाव द्रव्य पर्याय है | २५ | निश्चयसे जो अनादि निधन कारण रूप तथा कार्य रूप परमाणु है वही पुद्गल द्रव्यकी स्वभाव द्रव्य पर्याय है । ३०१ (नि.सा./ता वृ./२८), (पं. का./ता वृ./५/१४/१३), (प. प्र. टी / ५७) । आ./३ स्वभावव्यजन पर्यायारपरमशरीरात् किचिन्नसिद्ध. पर्याया अविभागो पुद्गल परमाणु स्वभावव्यपर्याय। = चरम शरीरसे किचित् न्यून जो सिद्ध पर्याय है वह (जीव द्रव्यको) स्वभाव द्रव्य व्यजन पर्याय है। अविभागी पुद्गल परमाणु द्रव्यकी स्वभाव द्रव्य व्यंजन पर्याय है । (द्र.सं./टी / २४/६६/११) । पं.का./ता.वृ./१६/३६/११ स्वभावव्यञ्जनपर्यायो जीवस्य सिद्धरूप | = जीवको सिद्ध रूप पर्याय स्वभाव व्यंजन पर्याय हैं ।
१० विभाव द्रव्य व व्यंजन पर्याय
नि.सा.// ९३.२८ शरणारयतिरिवरा पञ्जाया ते विभावमिदि भविदा ११६ धरून पुमो परिणाम सो विहाओ |१८ - मनुष्य, नारक, तिथंच और देवरूप पर्याये में (जोब द्रव्यकी) विभाव पर्यायें कही गयी है । १५ । तथा स्कन्ध रूप परिणाम वह (गल द्रव्यकी विभान पर्याय नही गयी है।
न.च.वृ./ २३.३३ ज चदुर्गादिदेहीणं देहायारं पदेसपरिमाणं । अह विग्गहगइजोवे तं दव्वविहावपज्जायें | २३ | जे सखाई खंधा परि
भा० ३-७
*
पर्याय
जामिआ दुअणुआ दिख धेहि । ते विय दव्बविहावा जाण तुमं पोग्गलाण च |३३| = जो चारो गतिके जीवोका तथा विग्रहगतिमें जीवोंका देहाकार रूपसे प्रदेशोका प्रमाण है, वह जीवकी विभाव द्रव्य पर्याय है । २३। और जो दो अणु आदि स्कन्धो से परिणामित संख्यात स्कन्ध है वे पुद्गलोकी विभाव द्रव्य पर्याय तुम जानो । ३३ । (प. प्र. / टी./५७), (प का . / ता वृ / ५ /१४/१३) |
आ प ० / ३ विभावद्रव्यच्यब्जन पर्यायाश्चतुर्विधा नरनारकादिपर्याया अथवा चतुरशीतिलक्षा योनय । पुद्गलस्य तु द्वयणुकादयो विभावद्रव्यव्यञ्जनपर्याया । = = चार प्रकारकी नर नारकादि पर्याये अथवा चौरासी लाख योनियाँ जीव द्रव्यकी विभाव द्रव्य व्यजन पर्याय है। तथा दो अणुकादि पुद्गलद्रव्यकी विभाव द्रव्य व्यजन पर्याय है। पं. काता, ./१६/२६/१०.१९) ।
का
=
-
१६ सुरनारकति मनुष्यलक्षणा परद्रव्यसंबन्धनिवृतवादशुद्धाश्चेति । देव नारक-तियंच मनुष्य स्वरूप पर्याये परद्रव्य के सम्बन्धसे उत्पन्न होती है इसलिए अशुद्ध पर्याये है। (प.का / ता. वृ./१६/३५ /१८) |
नि सा./ता.वृ/२८ स्कन्दपर्याय स्वजातीयविशुद्ध इति । = स्कन्ध पर्याय स्व जातीय बन्धरूप लक्षणसे लक्षित होनेके कारण अशुद्ध है ।
११. स्वभाव गुण व अर्थ पर्याय
न. च. वृ /२२,२७,३१ अगुरुल हुगा अणता समय समयं स समुन्भवा जे वि । दव्वाणं ते भणिया सहावगुणपज्जया जाण ॥२२॥ णाणं दसण सुह बीरियं च ज उहयकम्मपरिहीणं । त सुद्ध जाण तुम जीवे गुणपज्जयं सव्वं ॥ २६॥ रूवरसगधफासा जे थक्का जेसु अणुकदव्बेसु । ते चैव पोग्गलाणं सहावगुणपज्जया गया । ३१। द्रव्योके अगुरुलघु गुणके अनन्त अविभाग प्रतिच्छेदोकी समय-समय उत्पन्न होनेवाली पर्याये है हो स्वभाव गुणपर्याय कही गयी हैं, ऐसा तुम जानो | २२ | द्रव्य व भावकर्मसे रहित शुद्ध ज्ञान, दर्शन, मुख व वीर्य जीव द्रव्यकी स्वभाव गुणपर्याय जानो । २३| ( प्र / टी / १/५७) एक अणु रूप पुद्गल द्रव्यमे स्थित रूप, रस, गन्ध व वर्ण है, वह पुद्गल अव्यको स्वभाव गुण पर्याय जानो ॥३१॥ (पं. काता /५/१४१७/१३)।
बा. १/२ अगुरुतविकारा स्वभावयास्ते द्वादशमा पवृद्धिरूपा षड्हानिरूपा । - अगुरुलघु गुणके विकार रूप स्वभाव पर्याय होती है । वे १२ प्रकारकी होती है, छह वृद्धि रूप और छह हानि रूप । प्र. सा./त प्र. / १३ स्वभावपर्यायो नाम समस्तद्रव्याणामात्मीयात्मीयागुरुलघुगुणद्वारेण प्रतिस गीयमानपट् स्थानपतितवृद्धिहा निनानात्वानुभूति । समस्त द्रव्योके अपने-अपने अगुरुलघुगुण द्वारा प्रतिसमय प्रगट होनेवाली षट् स्थानपतित हानिवृद्धि रूप अनेकत्वकी अनुभूति स्वभाव गुण पर्याय है (प का प्र./९६), (पं.प्र./टी./ १/४०): (पं.का./ता.वृ./१६/३६/०)।
पं.का./ता.वृ./पंक्ति परमाणु वर्णादिम्यों
वर्णान्तरादिपरिणमन स्वभावगुणपर्याय (३/१४/२४) सुद्धा पर्याया अनुरुपुगुणपदवानिवृद्धिरूपेण पूर्वमेव स्वभावगुणपर्यायव्याख्यानकाले सर्वद्रव्याणा कथिता (१६/१६/१४) । = = वर्ण से वर्णान्तर परिणमन करना यह परमाणुको स्वभाव गुणपर्याय है । (५/१४/१४)। शुद्धगुण पर्यायकी भाँति सर्व द्रव्योंकी अगुस्ताकी पर हानि वृद्धि रूपसे शुद्ध अर्थ पर्याय होती है।
१२. विभाव गुण व अर्थ पर्याय
न च / २४,३४ / म दिसुदओहीमणपज्जयं च अण्णाणं तिणि जे भणिया । एवं जोवस्स इमे विभावगुणपज्जया सव्वे ॥ २४॥ रूपाइय जे उत्ता जे
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पर्याय
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विट्ठा दुअआहसंघ से गला भगिया महावगुणपणा सव्वे | २४| = मति, श्रुत, अवधि व मन पर्यय ये चार ज्ञान तथा तीन अज्ञान जो कहे गये है ये सब जीव द्रव्यकी विभावगुण पर्याय है । (२४) द्वि अणुकादि स्कन्धोमें जो रूपादिक कहे गये है, अथवा देखे गये हैं वे सब पुद्गल द्रव्यकी विभाव गुण पर्याय है । (पंका / या वृ/२/१४/१२), ( का / न./९६/३६/४) (१.टी./२/५०) ।
प्र सा / त प्र / १३ विभाषपर्यायो नाम रूपादीनां ज्ञानादीनां वा स्वपरप्रत्ययवर्तमानपूर्वोत्तरावस्यावतीर्ण] तारतम्योपदशितस्य भावविशेषानेकत्वापत्ति | = रूपादिके वा ज्ञानादिके स्व परके कारण प्रवर्तमान पूर्वोत्तर अवस्थामे होनेवाले तारतम्यके कारण देखनेमे आनेवाले स्वभावविशेष रूप अनेक विभावगुणपर्याय है।
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पं. का/ता.वृ / १६ / ३६ / १२ अशुद्धार्थ पर्याया जीवस्य षट्स्थानगतकषायानिवृद्धि विशुद्धिस क्लेशरूपशुभाशुभलेश्यास्थानेषु ज्ञातव्या । गलस्य विभावार्थपर्याया इत्रकादि चिरकाल स्थायिनो ज्ञातव्याः । =जीव द्रव्यकी विभाव अर्थ पर्याय, कषाय, तथा विशुद्धि सस्ते रूप शुभ व अशुभलेश्यास्थानों में पद स्थान गत हानि वृद्धि रूप जाननी चाहिए। द्वि-अणुक आदि स्कन्धोमें ही रहने वाली तथा चिर काल स्थायी रूप, रसादि रूप पुदगल द्रव्य की विभाव अर्थ पर्याय जाननी चाहिए ।
१३. स्वभाव व विभाव गुण व्यञ्जन पर्याय
स्वभावगुणव्यञ्जन
आप / ३ विभावगुणव्यञ्जनपर्याया मत्यादय । पर्याया अनन्तचतुष्टय स्वरूपा जीवस्य । रसरसान्तरगन्धगन्धान्तरादिविभावनपर्याया वर्णगन्धरसेकेका विरुद्धस्पर्शद्वयं स्वभाव गुणव्यञ्जनपर्याया ।मति आदि ज्ञान जीव द्रव्यकी विभाव गुण व्यजन पर्याय है. तथा केवलज्ञानादि अनंत चतुष्टय स्वरूप जीवकी स्वभाव गुण व्यजन पर्याय है। रससे रसान्तर तथा गध से गधान्तर पृद्गल द्रव्यकी विभाव गुण व्यंजन पर्याय है। तथा परमाणुसे रहने वाले एक वर्ण, एक गध, एक रस तथा अविरुद्ध दो स्पर्श पुद्गल द्रव्यकी स्वभाव गुण व्यंजनपर्याय है ।
१४. स्वभाव व विभाव पर्यायोंका स्वामित्व
कावृ/२०/६/१४ परिणामिनी जीवपुद्गली स्वभावविभावपरिणामाभ्या शेपचारि द्रव्याणि विभावव्यञ्जनपर्यायाभावाद मुख्यवृत्त्या अपरिणामीनि ।
पका सा वृ/९६/६४/१० एते समानजातीया असमानजातीयाश्च अनेन्द्रध्यात्मिकरूपा पर्याया जीवगलयोरेव भवन्ति अखा एव भवन्ति । कस्मादिति चेत् । अनेकद्रव्याणां परस्परसश्लेषरूपेण सबन्धात् । धर्माद्यन्यद्रव्याणा परस्परमश्लेषसबन्धेन पर्यायो न घटते परस्पर सबन्धेनाशुद्धपर्यायोऽपि न घटते । १ स्वभाव तथा विभाव पर्यायो द्वारा जोब व पुद्गल द्रव्य परिणामी है । शेष चार द्रव्य निभाव व्यजन पर्यायके अभावको मुख्यतासे अपरिणामी है | २०७ २. ये समान जातीय और असमान जातीय अनेक द्रव्यात्मक एक रूप द्रव्य पर्याय जीव व पुद्गलमे ही होती है, तथा अशुद्ध ही होती है । क्योकि ये अनेक द्रव्योके परस्पर सश्लेश रूप सम्बन्धसे होती है। धर्मादिक द्रव्योकी परस्पर संश्लेषरूप सम्बन्धसे पर्याय घटित नहीं होती, इसलिए परस्पर सम्बन्धसे अशुद्ध पर्याय भी उनमे घटित नहीं होती।
५०
पल्लव विधान व्रत
प.प./टी./१/२० धर्माधर्माकाशकालाना विभाव पर्यायास्तुपचारेण घटाकाशमित्यादि । धर्म आकाश तथा काम द्रव्योके विभाग गुणपर्याय नही है । आकाशके घटाकाश, महाकाश इत्यादिकी जो कहावत है, वह उपचारमात्र है ।
पर्यायज्ञान - दे०
० श्रुतज्ञान / II ।
पर्यायनय - दे० नय / I/५/४१
पर्यायवत्त्व-रा. वा. / २ / ७ /१३/११२ /२२ पर्यायवत्त्वमपि साधारण सर्वद्रव्याणां प्रतिनियतपर्यायोत्पते । कर्मोदयाद्यपेक्षाभावादपि पारिणामिक प्रतिनियत पयोकी उत्पति होनेसे पर्यायत्त्व
भी सभी द्रव्योमे पाया जाता है । तथा कर्मोदय आदिकी अपेक्षाका अभाव होनेसे यह भी पारिणामिक है ।
पर्याय समासज्ञान - दे० श्रुतज्ञान / II
पर्यायार्थिक नय -१ ० नय / IV/१४ २ व्यार्थिक व पर्या यार्थिक कि नय नहीं है ० नय/1/९/६२. निक्षेपी
का पर्यायार्थिक नयमे अन्तर्भाव-- दे० निक्षेप / २ ।
पर्युदासाभाव०
पर्व
प्रोषधका
(१ स सि./०/२९/१६२/२ शब्द पर्वमाथी अर्थ पर्व है । २. कालका एक प्रमाण विशेष- दे० गणित / J / १ | पर्वत-लोकमे स्थित पर्यो को दे० लोक ३/२/८२. प. ५/११/ श्लोक हीरकदम्बक गुरुका पुत्र था 'अर्जेर्यष्टव्यम्' शब्दका राजा
के द्वारा विपरीत समर्थन कराने पर लोगोंके द्वारा धिक्कारा गया। उससे दुखी होकर कुतर्क करने लगा (७५) । अन्त में मृत्यु के पश्चात् राक्षस बनकर इस पृथ्वीपर हिसायज्ञकी उत्पत्ति की (१०३ ) / ( म.पु / 67/942-8kk) 1
पल
"कालका प्रमाण विशेष- दे० गणित // १/४२ तोलका एक प्रमाण विशेष - दे० गणित / 1 /१/२ ।
पलायमरण - दे० ० मरण /१
पलाशगिरिलोक / ७ । पलिकुंचन - सामान्य अतिचारका एक भेद-दे० अतिचार/१ । पल्य-१ रा. मा./३/२०/०/२००/११ पश्यामि कुशला इत्यर्थः । =पत्यका अर्थ गड्ढा । २ पत्य प्रमाण के भेद व लक्षण तथा उनकी प्रयोग विधि - दे० गणित / I / १ / ५२. A measure of Time. पल्लव दक्षिणमे काचीके समीपवर्ती प्रदेश । यहाँ इतिहास प्रसिद्ध पल्लव वशी राजाओका राज्य था । ( म पु / प्र ५०/५ पन्नालाल ) । पल्लव विधान व्रत की विधि दो प्रकारसे कही गयी - इस व्रतकी है-लघु व बृहद लघु विधि - क्रमश १.२. ३,४,५,४,३.२, १ इस प्रकार २५ उपवास एकान्तरा क्रमसे करें । नमस्कार मन्त्रका त्रिकाल जाप करे । ( व्रत विधान संग्रह / पृ ५० ) वर्द्धमान पुराण ) ।
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1
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"भद्रशालवनमें स्थित एक दिग्गजेन्द्र पर्वत - दे०
० ०० ००० ००००
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पवनंजय
२. बृहद विधि - बृहद विधानसंग्रह / पृ. ५०
कृष्ण पक्ष
मास
आश्विन
कार्तिक
मंगसिर
पौष
माघ
फाल्गुन
क्षेत्र
वैशाख
ज्येष्ठ
आषाढ
श्रावण
भाद्र
उपवास
तिथि
६,१३
१२
११
२,१५
४,७,१४
४.८.८६११
४,१०
१०
पांडव
१३-१५ का तेला
४,६,८,१४
६-७
बेला तिथि
१०-११
५-७
१-२
१३-१४ का तेला
१०
२,१२
उपवास
तिथि
शुक्ल पक्ष
१४
३.१२
२.१३
५,७,१५
१०
१.११
७,१०
६.१३
८.१०
१५
८-१०
१५
३,१५
६-१५
बेला तिथि
७-८
२-३
१२-१३
6-69 का तेला
कुल- ४ तेला, ७ बेला व ४८ उपवास ।
नमस्कार मन्त्रका निकाल जाप्य करना चाहिए। (किशनसिह क्रिया कोष ।
११-१३
का तेला
पवनंजय
पू/ १२ / लोक आदित्यपुरके राजा प्रह्लादका पुत्र था ( ८ ) । हनुमानका पिता था (३०७) । पवन दे० पवन । पवाइज्नमाण जो उपदेश आचार्य सम्मत होता है और चिरकालसे अविच्छिन्न सम्प्रदायके क्रमसे चला आता हुआ शिष्य परपराके द्वारा लाया जाता है वह पवाइज्जमाण कहा जाता है । पशु १ ५. १२/५.५.१४० / ३६२ / १२ सरोमन्या पादो नाम जो रोयते है वे पशु कहलाते है २ मुनियों के लिए पशु सग निषेध । -दे० सगति ।
पश्चात् स्तुति-१ बाहारका एक दोष ६० आहार / II २.
-
वस्तिका का एक दोष- देव वस्तिका ।
पश्चातानुपूर्वी – दे० आनुपूर्वी । पश्यन्ती -- दे० भाषा | पांचाल - १. भरतक्षेत्र मध्य आर्यखण्डका एक देश - दे० मनुष्य / ४; २. कुरुक्षेत्र के पूर्ववर्ती देश चर्मण्यती नदी तक विस्तृत था दो भाग थे - उत्तर व दक्षिण। उत्तर पाचालकी राजधानी अहिच्छत्रा ( अहिक्षेत्र ) और दक्षिण पाचालकी राजधानी कम्पिला थी। ( म.
पु / प्र. ४६ / पं पन्नालाल ) ।
- श्रुतावतारकी पट्टावली के अनुसार भगवान् वीरके पश्चात मूल परम्परा में तीसरे ११ अगधारी थे । समय- वी. नि. ३८३-४२०
पांडुर
( ई० पू० १४४ - १०५ ) - दे० इतिहास / ४ / १ । २.पा.पु / सर्ग / श्लोक युधिष्ठिर, भीम, अर्जुन, नकुल सहदेव मे पाँचों कुरुवंशी राजा पाण्डुके पुत्र होनेसे पाण्डव कहलाते थे (८२१७) भीमके मनसे अपमानित होने तथा इनका राज्य हड़पना चाहनेके कारण कौरव राजा दुर्योधन इनसे द्वेष करता था (१०/३४-४०)। उसी द्वेष व उसने इनको साक्षागृह जलाकर मारनेका पत्र किया, पर किसी प्रकार पाण्डव बहाँसे बच निकले ( १८ /६०, ११५,१६६ ) | और अर्जुन स्वयंवरमे द्रौपदी व गाण्डीव धनुष प्राप्त किया ( १५/१०२)। वहीं पर इनका कौरवो से मिलाप हुआ ( १५/१४३, १८२ - २०२ ) तथा आधा राज्य बॉटकर रहने लगे ( १६ / २-१ ) परन्तु पुन दुर्योधनने जुमे इनका सर्व राज्य जीतकर इन्हे बारह वर्ष अज्ञातवास करनेपर माध्व किया ( १६ / ९४.१०१-१२२) सहायनमें इनकी दुर्योधनके साथ मुठभेड हो गयी (१०/८७-२२१)। जिसके पश्चात इन्हें विराट नगर में राजा विराटके यहाँ छद्मवेशमें रहना पडा (१०/२३०) | द्रौपदीपर दुराचारी दृष्टि रखनेके अपराध में यहाँ भीमने राजाके साले की चक व उसके १०० भाइयो को मार डाला ( १७/२७८ ) । छद्मवेशमे ही कौरवो भिडकर अर्जुनने राजाके गोकुलको रक्षा की ( १३ / ९५९)। अन्तमें कृष्ण जरासन्ध युद्धमें इनके द्वारा सब कौरव मारे गये ( १६ / ११.२० / २६६ ) | एक विद्याधर द्वारा हर ली गयी द्रौपदीको अर्जुनने विद्या सिद्ध करके पुन प्राप्त किया ( २१ / ११४, ११८ ) । तत्पश्चात भगवान नेमिनाथके समीप जिन दीक्षा धार (१४/१५) शत्रुजय गिरि पर पोर तप किया (२३ / ९२) दुर्योधनके भानजे कृत दुस्सह उपसर्गको जीरा युधिष्ठिर, भीम व अर्जुन मुक्त हुए और कुल व सहदेव सर्वार्थसिद्धि में देव हुए ( २५/५२-१३६) । पांडव पुराण - १ देवप्रभ सूरि (वि. १२००) कृत मूल पाण्डव पुराण के आधार पर भट्टारक शुभ चन्द्र (वि १६०८. ई. १५५१) द्वारा रचित, २५ पर्वों में विभक्त ५१०४ श्लोक प्रमाण संस्कृत छन्द बद ग्रन्थ (ती /३/३६७) २ यश कीर्ति (त्रि १५३५ - १६१३) कृत अपभ्रंश काव्य । (ती./३/४९९) । ३. वादि चन्द्र (ई. १६०१) कृत । पांडु - १. चक्रवर्तीकी नम निधियों से एक० ताका पुरुष २. पा. पु / सर्ग / श्लोक भीष्मके सौतेले भाई व्यासका पुत्र था (७/ ११७ ) । अन्धकवृष्णिकी कुन्ती नामक पुत्री से छद्मवेश सम्भोग किया। उससे कर्ण नामक पुत्र उत्पन्न हुआ (७/१६४-१६६,७/२०४) । तत्पश्चात् उसकी छोटी बहन मद्री सहित कुन्तीसे विवाह किया (८/२४-१००) कुन्तीसे युधिष्ठिर, अर्जुन व भीम, तथा नदी से नकुल व सहदेव उत्पन्न हुए। ये पाँचो ही आगे जाकर पाण्डव नामसे प्रसिद्ध हुए ( ८ / १४३ - १७५) । अन्तमे दीक्षा धारण कर तीन मुक्त हुए और दो समाधि पूर्वक स्वर्गने उत्पन्न हुए (१/१२७-१३८) । पांडुकंबला शिला- सुमेरुपर्वतपर एक शिला, जिसपर पश्चिम विदेहके तीर्थंकरों का जन्म कल्याणक सम्बन्धी अभिषेक किया जाता है।-३० लोक /३/८/४
1
—
पांडुक१. १. विजयार्ध की उत्तर श्रेणीका एक नगर- दे० विद्याधर; २. कुण्डल पर्वतस्य माहेन्द्रका स्वामी नागेन्द्र देव दे० लोक १२० पांडुकवन - सुमेरु पर्वतका चतुर्थ मन इसमे ४ चैत्यालय है। - ३० सोन/२/६/४
।
५१
पांडुर -
१. दक्षिण क्षीरवर द्वीपका रक्षक देव-दे० व्यन्तर । २ कुण्ड पर्वतस्य हिमवल्कूटका स्वामी मागेन्द्रदेव दे० लोक/४/१२/ पांडुशिला
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- सुमेरु पर्वत पर स्थित एक शिला जिसपर भरत - क्षेत्र के तीर्थंक्रोका जन्म कल्याण के अवसर पर अभिषेक किया जाता है । ३० लोक
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पाड्य
पात्रकेसरी
UTTETr
पांडय-मध्य आर्यखण्डस्थ देश-दे० मनुष्य/४| पांड्यवाटक-मलयगिरिके मध्यभागमै एक पर्वत। -दे०
मनुष्य/४। पांड्य-मद्रासके अन्तर्गत वर्तमान केरल देश। (म पु./प्र. ५०/पं. पन्नालाल)।
शुतापि-आकाशोपपन्न देव।-दे० देव/II/३। पांशुमूल-विजयार्धकी दक्षिण श्रेणीका एक नगर---दे० विद्याधर । पाक्षिक श्रावक-दे० श्रावक/३। पाटलीपुत्र-बिहार प्रान्तकी राजधानी बर्तमान पटना (म. पु./प्र
४/५. पन्नालाल)। पाणिमुक्तागति-दे० विग्रहगति/२ । पाताल-१. विमलनाथ भगवान्का शासक यक्ष-दे०तीर्थ कर/५/३ २ लवण समुद्रको तली में स्थित बडे-बडे खड।ये तीन प्रकारके है
उत्तम, मध्यम व जघन्य ( दे. लोक/४/१)। पातालवासा-रावा./४/२३//२४२/१४ पातालवासिनो लवणोदादिसमुद्रावासा सुस्थितप्रभासादय। -लवण आदि समुद्रोमें भली प्रकार रहनेवाले प्रभास आदि देव पातालवासी कहलाते है। पात्र-मोक्षमार्ग में दानादि देने योग्य पात्र सामान्य भिखारी लोग
नही हो सकते। रत्नत्रयसे परिणत अविरत सम्यग्दृष्टिसे ध्यानारूत योगी पर्यन्त ही यहाँ अपनी भूमिकानुसार जघन्य, मध्यम व उत्कृष्ट भेदरूप पात्र समझे जाते है। महावतधारी साधु भी यदि मिथ्यादृष्टि है तो कुपात्र है पात्र नहीं। सामान्य भिखारी जन तो यहाँ अपात्रकी कोटिमे गिने जाते है। तहाँ दान देते समय पात्रके अनुसार ही दातारकी भावनाएं होनी चाहिए ।
तत्त्वके विचार करनेवालोके भेदसे जिनेन्द्र भगवानने हजारों प्रकारके पात्र बतलाये है। वसु.श्रा./२२१ तिविहं मुणेह पत्तं उत्तम-मज्झिम-जहण्णभेएण । - उत्तम
मध्यम व जघन्यके भेदसे पात्र तीन प्रकारके जानने चाहिए । (पु.सि, उ./१७१); (प.वि /२/४८), (अ ग.श्रा./१०/२) ।
३. नाममात्रका जैन भी पान है सा. ध /२/१४ नामत स्थापनातोऽपि, जैन पात्रायतेतराम् । स लभ्यो द्रव्यतो धन्यै वितस्तु महात्मभिः ।५४ - नामनिक्षेपसे और स्थापनानिक्षेपसे भी जैन विशेष पात्रके समान मालूम होता है। वह जैन द्रव्यनिक्षेपसे पुण्यात्माओके द्वारा तथा भावनिक्षेपसे महास्माओके द्वारा प्राप्त किया जा सकता है।५४|
४. उत्तम, मध्यम व जघन्य पात्रके लक्षण बा. अ./१७-१८ उत्तमपत्तं भणियं सम्मत्तगुणेण स जुदो साहू । सम्मादिट्ठी सावय मज्झिमपत्तोहु विण्णेयो ॥१५ णिद्दिट्ठो जिणसमये अविरदसम्मो जहण्णपत्तोत्ति ।१८। =जो सम्यक्त्व गुण सहित मुनि हैं, उन्हें उत्तम पात्र कहा है, और सम्यक्त्वदृष्टि श्रावक है, उन्हे मध्यम पात्र समझना चाहिए ।१७ तथा व्रतरहित सम्यग्दृष्टिको जघन्य पात्र कहा है ॥१८॥ (ज. प./२/१४४-१५१); ( प. वि./२/४८); (वसु. श्रा/२२१-२२२) (गुण, श्रा./१४८-१४६); (अ.ग श्रा./१०/४); (सा.ध./५/४४)। र.स./१२४ उवसम णिरीह झाणज्झयणाइमहागुणाजहादिट्ठा । जेसि ते मुणिणाहा उत्तमपत्ता तहा भणिया ।१२४। -उपशम परिणामोको धारण करनेवाले, बिना किसी इच्छाके ध्यान करने वाले तथा अध्ययन करने वाले मुनिराज उत्तम पात्र कहे जाते हैं ॥१२४॥
५. कुपात्रका लक्षण ज प/२/१५० उअवाससोसियतणू णिस्संगो कामकोहपरिहोणो। मिच्छत्तसं सिदमणो णायव्यो सो अपत्तो त्ति ।१५०। =उपासोसे शरीरको कृश करनेवाले, परिग्रहसे रहित, काम, क्रोधसे विहीन परन्तु मनमें मिथ्यात्व भावको धारण करनेवाले जीवको अपात्र (कुपात्र) जानना चाहिए।१५० वसु. श्रा./२२३ वय-तव-सोलसमग्गो सम्मत्तविवज्जियो कुपत्तं तु ।२२३।
-जो बत, तप और शीलसे सम्पन्न है, किन्तु सम्यग्दर्शनसे रहित है, वह कुपात्र है। ( गुण. श्रा./१५०), (अ.ग. श्रा./१०/३४-३६); (पं वि./२/४८)
६ अपात्रका लक्षण बा अ/१८ सम्मत्तरयणरहियो अपत्तमिदि संपरिक्खेजो। -सम्य
वत्वरूपी रत्नसे रहित जीवको अपात्र समझना चाहिए। वसु. श्रा./२२३ सम्मत्त-सील-वयवज्जिओ अपत्त हबे जीओ। २२३ ।
-सम्यक्त्व, शील और वतसे रहित जीव अपात्र है। (पं.वि./२/ ४८); (अ.ग. श्रा./१०/१६-३८) । * अन्य सम्बन्धित विषय १. पात्र अपात्र व कुपात्रके दानका फल
-दे० दान। २. नमस्कार योग्य पात्र अपात्र
-दे० विनय/४। ३. ज्ञानके योग्य पात्र अपात्रका लक्षण -दे० श्रोता। ४. शान किसे देना चाहिए और किसे नहीं -दे० उपदेश/३ । पात्रकसरी-१. आप ब्राह्मण कुलसे थे। न्यायशास्त्रमें पारंगत
थे। आचार्य विद्यानन्दिकी भाँति आप भ समन्तभद्र रचित देवागमस्तोत्र सुननेसे ही जैनानुयायी हो गये थे। आपने त्रिलक्षण
१. पात्र सामान्यका लक्षण र, सा./१२५-१२६ दसणसुबो धम्मकाणरदो संगवज्जिदो णिसल्लो।
पत्त विसेसो भणियो ते गुणहीणो दु विवरीदो ।१२। सम्माइ गुणविसेस पत्तविसेसं जिणेहि णिहिट्ठ 1१२६। -जो सम्यग्दर्शनसे शुद्ध है धर्म ध्यान में लीन रहता है, सब तरहके परिग्रह व मायादि शष्योसे रहित है, उसको विशेष पात्र कहते है उससे विपरीत अपात्र है । १२५। जिसमे सम्यग्दर्शनको विशेषता है उसमें पात्रपनेकी विशेषता समझनी चाहिए ।१२६। स. सि./9/३६/३७३/८ मोक्षकारणगुणसंयोग पात्र विशेषः। मोक्षके कारणभूत गुणोसे सयुक्त रहना यह पात्रकी विशेषता है। अर्थात जो मोक्षके कारणभूत गुणोसे संयुक्त होता है वह पात्र होता है । (रा.वा/७/38/५/५५६/३१)। सा ध/१/१३ यत्तारयति जन्मान्धे, स्वाश्रितान्मानपात्रवत । मुक्त्यर्थगुणसंयोग-भेदात्पात्र विधा मतम् ।४३। = जो जहाजकी तरह अपने
आश्रित प्राणियोको ससाररूपी समुद्रसे पार कर देता है वह पात्र वहलाता है, और वह पात्र मोक्षके कारणभूत सम्यग्दर्शनादि गुणोके
सम्बन्धसे तीन प्रकारका होता है ।४३॥ प्र सा./ता वृ./२६०/३५२/१५ शुद्धोपयोगशुभोपयोगपरिणतपुरुषा' पात्रं भवन्तीति । - शुद्धोपयोग अथवा शुभोपयोगसे परिणत जीव पात्र कहलाते है।
२. पात्रके भेद र. सा./१२३ अविरददेसमहन्वयआगमरुइणं विचारतच्चण्हं । पत्ततर
सहस्सं णिहिटठं जिणवरिदेहि ।१२३॥ = अविरत सम्यग्दृष्टि, देशवतो, श्रावक, महावतियोके भेदसे, आगममे रुचि रखनेवालों तथा
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पात्रकेसरीस्तोत्र
पाप
कदर्थन, तथा जिनेन्द्रगुणस्तुति (पात्रकेसरी स्तोत्र ) ये दो ग्रन्थ लिखे। समय-पूज्यपादके उत्तरवर्ती और अकलं कदेवसे पूर्ववर्ती है-ई श६ (दे० इतिहास ७/१). (ती /२/२३८-२४०) २. श्लोकवार्तिककार आ. विद्यानन्दि (ई०७७५-८४०) की उपाधि । (दे० विद्यानन्दि) 1 ( जैन हितैषी, पं. नाथूराम)।
पात्रकेसरीस्तोत्र-आचार्य पात्र केसरी (ई श ६-७) द्वारा
सस्कृत श्लोकोमें निबद्ध जिनेन्द्रकी स्तुतिका पाठ है। इसमें ५० श्लोक है। (ती०२/२४०)। पात्र दत्ति-दे० दान। पाद-१. क्षेत्रका प्रमाण विशेष-दे० गणित///३; २.( प्रत्येक
शताब्दीमे चार पाद होते है। प्रत्येक पाद २५ वर्षका माना जाता है।); ३ वर्गमूलका अपरनाम -दे० गणितII/९/01 पादुकार-वसतिकाका एक दोष-दे० 'वसतिका'। पाद्य स्थिति कल्प-भ. आ./वि/४२१/६९६/१० पज्जो समण
कप्पो नाम दशम । वर्षाकालस्य चतुर्ष मासेषु एकत्रैवावस्थान भ्रमणत्यागः। स्थावरजंगमजोवाकुला हि तदा क्षिति । तदा भ्रमणे महानसंयम: इति विशत्यधिक दिवसशतं एकत्रावस्थानमित्ययमुत्सर्ग.। कारणापेक्षया तु होनाधिकं वावस्थान, संयतानां आषाढशुद्धदशम्या स्थिताना उपरिष्टाच्च कार्तिकपौर्णमास्यास्त्रिशद्दिवसावस्थानं। वृष्टिबहुलता, श्रुतग्रहणं, शक्त्यभाववैयावृत्त्यकरणं प्रयोजनमुद्दिश्य अवस्थानमेकत्रेति उत्कृष्ट काल । मार्यां, दुर्भिक्षे, ग्रामजनपदचलने वा गच्छनाशनिमित्ते समुपस्थिते देशान्तरं याति । पौर्णमास्यामाषाढयामतिक्रान्तायां प्रतिपदादिषु दिनेषु याति । यावच्च त्यक्ता विंशतिदिवसा एतदपेक्ष्य हीनता कालस्य एष । वर्षा कालमें चार मासमें एक ही स्थानमें रहना अर्थात् भ्रमणका त्याग यह पाद्य नामका दसवां स्थिति कल्प है। वर्षाकालमे जमीन स्थावर और त्रस जीवोसे व्याप्त होती है। ऐसे समयमे मुनि यदि विहार करेगे तो महा असयम होगा। इत्यादि दोषोसे बचने के लिए मुनि एक सौ बीम दिवस एक स्थानमें रहते है, यह उत्सर्ग नियम है। कारण वश इससे अधिक या कम दिवस भी एक स्थानमें ठहर सकते है । आषाढ शुक्ला दशमीसे प्रारम्भ कर कार्तिक पौर्ण मासीके आगे भी और तीस दिन तक एक स्थान में रह सकते है। अध्ययन, वृष्टिकी अधिकता, शक्तिका अभाव, वैयावृत्त्य करना इत्यादि प्रयोजन हो तो अधिक दिन तक रह सकते है। .. मारी रोग, दुर्भिक्षमें ग्रामके लोगोंका अथवा देशके लोगोका अपना स्थान छोडकर अन्य ग्रामादिकमें जाना, गच्छ का नाश होनेके निमित्त उपस्थित होना, इत्यादि कारण उपस्थित होनेपर मुनि चातुर्मासमें भी अन्य स्थानोंपर जाते है। • इसलिए आषाढ पूर्णिमा व्यतीत होनेपर प्रतिपदा वगैरह तिथिमें अन्यत्र चले जाते है। इस प्रकार बीस दिन एकसौ बीसमे कम किये जाते हैं, इस तरह कालकी हीनता है।
* वर्षायोग स्थापना निष्ठापना विधि (दे० कृतिकर्म/४ ) पान-मू.आ./६४४ पाणाणमणुग्गहं तहा पाणं। १६४४ अशनादि
चार प्रकारके आहारमें-से, जिससे दस प्राणोंका उपकार हो वह पान है।६४४ पानक-१-आहारका एक भेद-दे० आहार /1/१ भ.आ./मू/७००/८८२ सत्थं बहलं लेवडमलेवडं च ससित्ययमसिस्थं । छविहपाणयभेयं पाणयपरिकम्मपाओग्ग ७०० ='स्वच्छ (गर्म जल); बहल ( इमलीका पानी आदि), लेवड (जो हाथको चिपके); अलेवड (जो हाथको न चिपके जैसे माड): ससिक्थ ( भातके दानों
सहित मांड) ऐसा छह प्रकारका पानक आगममे कहा है। [इन
छहों के लक्षण-दे० वह वह नाम । ] पानदशमी व्रत-व्रतविधान संग्रह/१३० पान दशमि वीरा दश पान । दश श्रावक दे भोजन ठान । -दश श्रावकोको भोजन कराकर फिर स्वयं भोजन करे, वह पान दशमी व्रत कहलाता है। (नवल साहकृत वर्द्धमान पुराण) पानांग कल्पवृक्ष-दे० वृक्ष/१। पाप-निरुक्ति.स.सि./६/३/३२०/३ पाति रक्षति आत्मानं शुभादिति पापम् । तद सद्वेद्यादि। जो आत्माको शुभसे बचाता है, वह पाप है। जैसे
असाता वेदनीयादि । (रा. वा/६/३/१/५०७/१४) । भ. आ/वि /३७/१३४/२१ पाप नाम अनभिमतस्य प्रापक । - अनिष्ट पदार्थों की प्राप्ति जिससे होती है ऐसे कर्मको (भावोको) पाप कहते है। २. अशुभ उपयोग प्र सा /मू./१८१ सुहपरिणामो पुण्ण असुहो पावं त्ति भणियमण्णेसु ।
परके प्रति शुभ परिणाम पुण्य है, और अशुभ परिणाम पाप है। द्र.सं मु/३८ असुहभावजुत्ता. पावं हवं ति खलु जीवा 1१८ - अशुभ
परिणामोसे युक्त जीव पाप रूप होते है। स. म./२७/३०२/१७ पापं हिसादि क्रियासाध्यमशुभं कर्म । = पाप हिसादिसे होनेवाले अशुभकर्म रूप होता है।
३. निन्दित आचरण पं. का /मू./१४० सण्णाओ य तिलेस्सा इं दियवसदा य अत्तरदाणि । णाणं
च दुप्पउत्त मोहो पाक्प्पदा होति ११४०। चारो सज्ञाएँ, तीन लेश्याएँ, इन्द्रिय वशता, आर्त रौद्रध्यान, दु प्रयुक्त ज्ञान और मोह
यह भाव पाप प्रद है ।१४०। न. च. वृ./१६२ अहवा कारणभूदा तेसि च वयव्वयाइ इह भणिया। ते
खलु पुण्णं पावं जाण इम पवयणे भणिय ।१६२५ = अशुभ वेदादिके कारण जो अवतादि भाव है उनको शास्त्रमे पाप कहा गया है। यो सा. अ/8/३८ निन्दकत्वं प्रतीक्ष्येषु नै वृण्यं सर्वजन्तुषु । निन्दिते
चरणे राग. पापबन्धविधायक' ३८१ = अर्हन्तादि पूज्य पुरुषोकी निन्दा करना, समस्त जीवोमे निर्दय भाव रहना, और निन्दित आचरणों में प्रेम रखना आदि बधका कारण है।
२. पापका आधार बाह्य द्रव्य नहीं स, सि./६/११/३३०/१ परमकरुणाशयस्य नि शल्यस्य संयतस्योपरि
गण्डं पाटयतो दु स्वहेतुत्वे सत्यपि न पापबन्धो बाह्य निमित्तमात्रादेव भवति। - अत्यन्त दयालु किसी वैद्यके फोड़ेकी चीर-फाड और मरहम पट्टी करते समय नि शल्य संयतको दुख देने में निमित्त होनेपर भी केवल बाह्य निमित्त मात्रसे पाप बन्ध नही होता। दे० पुण्य/१/४ (पुण्य व पापमें अन्तरंग प्रधान है)।
३. पाप (अशुभ नामकर्म) के बन्ध योग्य परिणाम त.सू /६/३,२२.. अशुभ पापस्य ।। योगवक्रता विसंवादनं चाशुभस्य नाम्न' ।२२। =अशुभ योग पापासवका कारण है ।३. योग वक्रता
और विसंवाद ये अशुभ नामकर्म के आस्रव है ।२२। प. का /म् /१३६ चरिया पमादबहुला कालुस्सं लोलदा य विसयेसु ।
परपरितावपवादो पावस्स य आसवं कुणदि ।१३६ = बहु प्रमादवाली चर्या, कलुषता, विषयोके प्रति लोलुपता, परको परिताप करना तथा परके अपवाद बोलना-वह पापका आस्रव करता है ।१३।। मू. आ./२३५ पुण्णस्सासवभूदा अणुकंपा सुद्ध एव उवओगो। विवरीदं पावस्स दु आसवहेउं वियाणादि ।२३५! - शुभसे विपरीत
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पाप
पारिणामिक
निर्दयपना मिथ्याज्ञानदर्शनरूप उपयोग पापकर्मके आस्रवके कारण
है ।२३५॥ रा. वा /६/२२/४/५२८/१८ चशब्द' क्रियते अनुक्तस्यास्रवस्य समुच्चयार्थ । क. पुनरसौ। मिथ्यादर्शन-पिशुनताऽस्थिरचित्तस्वभावताकूटमानतुलाकरण - सुवर्ण मणिरत्नाद्यकृति - कुटिलसाक्षित्वाङ्गोपाङ्गच्यावनवर्ण गन्धरसस्पर्शान्यथाभावन-यन्त्रपचरक्रियाद्रव्यान्तरविषय - सबन्धनिकृतिभूयिष्ठता- परनिन्दात्मप्रशसा-नृतवचन परद्रव्यादानमहारम्भपरिग्रह- उज्ज्वलवेषरूपमद - परुषासभ्यप्रलाप-आक्रोशमौवर्य-सौभाग्योपयोगय शीकरण प्रयोगपरकुतूहलोत्पादनालकारा - दर - चैत्यप्रदेशगन्धमाल्यधुपादिमोषण-विलम्बनोपहास-इष्टिकापाक - दवाग्निप्रयोग-प्रतिमायतनप्रतिश्रयारामोद्यानविनाशनतीवक्रोधमान - मायालोभ-पापकर्मोपजीवनादिलक्षण । स एष सर्वोऽशुभस्य नाम्न आस्रव । -च शब्द अनृक्तके समुच्चयार्थ है। मिथ्यादर्शन, पिशुनता, अस्थिरचित्तस्वभावता, भूठे बाट तराजू आदि रखना, कृत्रिम सुवर्ण मणि रत्न आदि बनाना, झूठी गवाही, अग उपागोका छेदन, वर्ण गन्ध रस और स्पर्शका विपरीतपना, यन्त्र पिजरा आदि बनाना, माया बाहूल्य, परनिन्दा, आत्म प्रशसा, मिथ्या भाषग, पर द्रव्यहरण, महार भ, महा परिग्रह; शौकीन वेष, रूपका घमण्ड, कठोर असभ्य भाषण, गानो बकना, व्यर्थ बक्वास करना, वशीकरण प्रयोग, सौभाग्योपयोग, दूसरेमे कौतूहल उत्पन्न करना, भूषणोमें रुचि, मंदिरके गन्धमाल्य या धूपादिका चुराना, लम्बी हसी, ईटोका भट्टा लगाना, वनमे दावाग्नि जलबाना, प्रतिमायतन बिनाश, बाश्रय-विनाश, आराम-उद्यान विनाश, तीच काध, मान, माया व लभ और पापकर्म जीविका आदि भी अशुभ नामके आस्रवके कारण है। (स. सि./६/२२/३३७/१२); ( ज्ञा /3/8-७)।
६ अन्य सम्बन्धित विषय १ व्यवहार धर्म परमार्थतः पाप है।
-दे० धर्म/४ २ पापानुबन्धी पुण्य ।
-दे० मिथ्यादृष्टि/४। ३ पुण्य व पापमें कथंचित् भेद व अभेद। -दे० पुण्य/२,४ । ४. पापकी कथचित इष्टता ।
-दे० पुण्य/३॥ ५ पाप प्रकृतियोंके भेद ।
-दे० प्रकृतिबन्ध/२। ६. पापका आस्रव व बन्ध तत्वमें अन्तर्भाव । -दे० पुण्य/२/४ । ७. पूजादिमे कथंचित् सावध हे फिर भी वे उपादेय है।
-दे० धर्म/५/१॥ ८. मिथ्यात्व सबसे बड़ा पाप है। -दे० मिथ्यादर्शन । ९ मोह राग द्वेषमे पुण्य-पापका विभाग । -दे० राग/२।
४. पापका फल दु.ख व कुगतियों की प्राप्ति त. सू.19/8-१० हिसादिष्विहामुत्रापायवादर्शनम् ।। दुरखमेव वा ।१०। हिसादिक पाँच दोषो मे ऐहिक और पारलौकिक उपाय और अवद्यका दर्शन भारने योग्य है ।। अथवा हिसादिक दुख ही है ऐसी भावना करनी चाहिए ।१०। प्र, सा./म./१२ असहोदयेण आदा कुणरो तिरियो भवीय णेरड्यो। दुक्खसहस्से हि सदा अभिंधुदो भमदि अच्चता ।१२। -अशुभ उदयसे कुमानुष, तिच, और नारकी होकर हजारो दुखोसे सदा पीडित होता हुआ (संसारमे) अत्यन्त भ्रमण करता है ।१२। ध, १/१,१,२/१०५/५ काणि पावफलाणि। णिरय - तिरियकुमाणुसजोणीसु जाइ-जरा-मरण-बाहि-बेयणा-दालिदादीणि | - प्रश्न-पापके फल कौनसे है। उत्तर-नरक, तिर्यच और कुमानुषकी योनियोमें जन्म, जरा, मरण, व्याधि, वेदना और दारिद्र आदिकी प्राप्ति पापके फल है।
पापोपदेश-दे० अनर्थदण्ड । पामिच्छ-वसतिकाका एक दोष । -दे० बसतिका। पामीर -ज.प // /A.N.Up.H L Jain "पामौरका पूर्व प्रदेश चीनी तुर्किस्तान है । (१४०) । हिन्दुकुशपर्वतका विस्तार वर्तमान भूगोलके अनुसार पामीर प्रदेश और काबुल के पश्चिम कोहे बाबा तक माना जाता है । (४१)। वर्तमान भूगोलके अनुसार पामीरका मान १५०x१५० मील है। वह चारो ओर हिन्दुकुश, काराकोरम, काशार, कर्तार पहाडोसे घिरा हुआ है। -पौराणिक कालमे इसका नाम मेरुमण्डल या काबीज था। पारंचिक परिहार प्रायश्चित्त-दे० परिहार-प्रायश्चित्त ।
पारपरिमित---Transfinite Cardinals या finite Card:___nals -(ध.५/प्र /२८)।
पारमार्थिक प्रत्यक्ष-दे० प्रत्यक्ष । पारा -भरत आर्य खण्डको एक नदी --दे० मनुष्य/४ । पारामृष्य-आहारका एक दोष-दे० आहार/II/४| पाराशर-एक विनयवादी-दे० वैनयिक । पारिणामिक-प्रत्येक पदार्थ के निरुपाधिक तथा त्रिकाली स्वभावको उसका पारिणामिक भाव कहा जाता है। भले ही अन्य पदार्थोंके सयोगकी उपाधिवश द्रव्य अशुद्ध प्रतिभासित होता हो, पर इस अचलित स्वभावसे वह कभी च्युत नहीं होता, अन्यथा जीव घट बन जाये और घट जीव।
५. पाप अत्यन्त हेय है
स. सा./आ/३०६ यस्तावदज्ञानिजनसाधारणोऽप्रतिक्रमणादि. स शुद्वात्मसिद्धयाभावस्वभावत्वेन स्वयमेवापराधस्वाद्विषकुम्भ एव । - प्रथम तो जो अज्ञानजनसाधारण (अज्ञानी लोगोको साधारण ऐसे) अप्रतिक्रमणादि है वे तो शुद्ध आत्माकी सिद्धिके अभाव रूप स्वभाववाले है इसलिए स्वयमेव अपराध स्वरूप होनेसे विषकुम्भ ही है। (क्योकि वे तो प्रथम ही त्यागने योग्य है।) प्र.सा./त. प्र./१२ ततश्चारित्रलवस्याप्यभावादत्यन्तहेय एवायमशुभोप.
योग इति । = चारित्रके लेशमात्रका भी अभाव होनेसे यह अशुभोपयोग अत्यन्त हेय है।
१. पारिणामिक सामान्यका लक्षण स. सि /२१/१४६/ द्रव्यात्मलाभमानहेतुक परिणाम.। [स.सि./२/७/ १६१/२]" पारिणामिकत्वम् कर्मोदयोपशमक्षयक्षयोपशमानपेक्षिरवात / - १. जिसके होने में द्रव्यका स्वरूप लाभ मात्र कारण है वह परिणाम है। (पं का./त प्र/५६) । २, कर्मके उदय, उपशम, क्षय और क्षयोपशमके बिना होनेसे पारिणामिक है। (रा.वा./२/१/५/१००/२१)। रा, बा /२/७/२/११०/२२ तद्भाबादनादिद्रव्यभवनसंबन्धपरिणामनिमित्तवात पारिणामिका इति । रा.वा /२/9/१६/११६/१७ परिणाम स्वभाव. प्रयोजनमस्येति पारिणामिक' इत्यन्वर्थसंज्ञा। -कर्मके उदय, उपशम, क्षय और क्षयोपशमकी अपेक्षा न रखनेवाले द्रव्यको स्वभावभूत अनादि पारिणामिक शक्तिसे ही आविर्भूत ये भाव परिणामिक है। (ध, १/१,१,८/१६१/३);
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पारिणामिक
पारिणामिक
(ध.१/१,७,३/१६६/११); (गो.क./मू./८१५/६८); (नि.सा/ता, वृ/४१), (गो,जी/जी.प्र./८/२४/१५)। परिणाम अर्थात् स्वभाव ही है प्रयोजन जिसका वह पारिणामिक है. यह अन्वर्थ संज्ञा है। (न च वृ/३७५), (पंकात प्र/५६)। ध./१,७,१/१८५/३ जो चउहि भावेहि पुवुत्त हि वदिरित्तो जीवाजीवगओ सो पारिणामिओ णाम । =जो क्षायिकादि चारो भावोसे व्यतिरिक्त जीव अजीवगत भाव है, वह पारिणामिक भाव है। न. च वृ /३७४ कम्मज भावातीदं जाणगभाव विसेस आहार। त परिणामो जोवो अचेयणं भवदि इदराण ।३७४। =जो मजनित
औदयिका दि भावोसे अतीत है तथा मात्र ज्ञायक भाव ही जिसका विशेष आधार है, वह जीवका पारिणामिक भाव है, और अचेतन भाव शेष द्रव्योका पारिणामिक भाव है। प.ध/उ /१७१ कृत्स्नमनिरपेक्ष. प्रोक्तावस्थाचतुष्टयात । आत्मद्रव्यत्वमात्रात्मा भाव. स्यात्पारिणामिक १७१। = कर्मोके उदय, उपशमादि चारो अपेक्षाओसे रहित केवल आत्म द्रव्यरूप ही जिसका स्वरूप है वह पारिणामिक भाव कहलाता है ।१७१। .. साधारण असाधारण पारिणामिक भाव निर्देश
वचनाच्छुद्धनिश्चयेन नास्ति त्रय, मुक्तजीवे पुन सर्वथैव नास्ति, इति हेतोरशुद्वत्वं भण्यते । तत्र शुद्धाशुद्धपारिणामिकमध्ये शुद्धपारिणामिभावो ध्यानकाले ध्येयरूपो भवति ध्यानरूपो न भवति, कस्मात् ध्यानपर्यायस्य विनश्वरत्वात, शुद्धपारिणामिकस्तु द्रव्यरूपत्वादविनश्वर , इति भावार्थ । प्रश्न- शुद्ध पारिणामिक परमभावरूप जो शुद्ध निश्चयनयकी अपेक्षासे जीव गुणस्थान तथा मार्गणा रथानोसे रहित है ऐसा पहले कहा गया है और अब यहाँ भव्य-अभव्य रूपसे मार्गणाएँ भी आपने पारिणामिक भाव कहा, सो यह तो पूर्वापर विरोध है ? उत्तर-पूर्व प्रमगमे तो शुद्ध पारिणामिक भावकी अपेक्षासे गुणस्थान और मार्गणाका निषेध किया है, और यहॉपर अशुद्ध पारिणामिक भाव रूपसे भव्य तथा अभव्य ये दोनो मार्गणामें भी घटित होते है। प्रश्न-शुद्ध-अशुद्ध भेदसे पारिणामिक भाव दो प्रकारका नहीं है किन्तु पारिणामिक भाव शुद्ध ही है। उत्तर-वह भी ठीक नही, क्योकि, यद्यपि सामान्य रूपसे पारिणामिक भाव शुद्ध है ऐसा कहा जाता है तथापि अपवाद व्याख्यानसे अशुद्ध पारिणामिक भाव भी है। इसी कारण "जीव भव्याभव्यत्वानि च" (त सू./२/७) इस सूत्रमें पारिणामिक भाव तीन प्रकारका कहा है। उनमे शुद्ध चैतन्यरूप जो जीवत्व है वह अविनश्वर होनेके कारण शुद्ध द्रव्यके आश्रित होनेसे शुद्ध द्रव्याथिक नयकी अपेक्षा शुद्ध पारिणामिक भाव कहा जाता है। तथा जो कमसे उत्पन्न दश प्रकारके प्राणो रूप जीवत्व है वह जीवत्व, भव्यत्व तथा अभव्यत्व भेदसे तीन तरहका है
और ये तीनो विनाशशील होनेके कारण पर्यायके आश्रित होनेसे पर्यायाथिक नयकी अपेक्षा अशुद्ध पारिणामिक भाव कहे जाते है। प्रश्न-इसकी अशुद्धता किस प्रकारसे है। उत्तर-- यद्यपि ये तीनो अशुद्ध पारिणामिक व्यवहार नयसे ससारी जीवमे है तथापि "सब्वे सुद्धा हु •सुद्धणया" (द्र, स/मू/१३)। इस बचनसे तीनो भाव शुद्ध निश्चयनयकी अपेक्षा नही है, और मुक्त जीवोमे तो सर्वथा ही नहीं है, इस कारण उनको अशुद्धता कही जाती है। उन शुद्ध तथा अशुद्ध पारिणामिक भावोमे-से जो शुद्ध पारिणामिक भाव है वह ध्यानके समय ध्येय यानी- ध्यान करने योग्य होता है, ध्यान रूप नही होता। क्योकि, ध्यान पर्याय विनश्वर है और शुद्ध पारिणामिक द्रव्यरूप होनेके कारण अविनाशी है, यह साराश है। (स. सा/ता.कृ./३२०/४०८/१५), (द्र.स./टो /५७/२३६/६)।
त.सू./२/७ जीवभव्याभव्यत्वानि च । स सि./२/७ जीवत्व भव्यत्वमभव्यत्वमिति त्रयो भावा, पारिणामिका
अन्यद्रव्यासाधारणा आत्मनो वेदितव्या । ननु चास्तित्वनित्यत्वप्रदेशवत्वादयोऽपि भावा' पारिणामिका सन्ति । अस्तित्वादय पुनर्जीवाजीवविषयत्वात्साधारणा इति चशब्देन पृथग्गृह्यन्ते । - जीवत्व, भव्यत्व और अभव्यत्व ये तीन पारिणामिक भावके भेद है।७। ये तीनो भाव अन्य द्रव्योमे नही होते इसलिए आत्माके (असाधारण भाव) जानने चाहिए। (रा वा /२/७/१/११०/१६), (ध ५/१,७,१/१६२/४ ), (गो. क / ८१४/६६०); (त. सा/२/८), (नि. सा/ता. वृ/४१) । अस्तित्व, नित्यत्व और प्रदेशवत्त्व आदिक भी पारिणामिक भाव है। ये अस्तित्व आदिक तो जीव और अजीब दोनोमे साधारण है इसलिए उनका 'च' शब्दके द्वारा अलगसे ग्रहण किया है। रा. वा./२/७/१२/१११/२८ अस्तित्वान्यत्व-कर्तृत्व-भोक्तृत्व-पर्यायवत्त्वासर्वगतत्वानादिसंततिबन्धनबद्धत्व-प्रदेशवत्त्वारूपत्व - नित्यत्वादिसमुच्चयार्थश्चशब्द' ।१२। =अस्तित्व, अन्यत्व, कतृत्व, भोक्तृत्व, पर्यायवत्त्व, असर्वगतत्व अनादिसन्ततिबन्धनबद्धत्व, प्रदेशवत्त्व, अरूपत्व, नित्यत्व आदिके समुच्चयके लिए सूत्र में च शब्द दिया है।
३. शुद्धाशुद्ध पारिणामिक भाव निर्देश द्र. सं./टी./१३/३८/११ शुद्धपारिणामिकपरमभावरूपशुद्धनिश्चयेन गुणस्थानमार्गणास्थानरहिता जीवा इत्युक्तं पूर्वम, इदानीं पुनर्भव्याभव्यरूपेण मार्गणामध्येऽपि पारिणामिकभावो भणितं इति पूर्वापरविरोध' । अत्र परिहारमाह-पूर्व शुद्धपारिणामिकभावापेक्षया गुणस्थानमार्गणानिषेध कृत इदानी पुनर्भव्याभव्यत्वद्वयमशुद्धपारिणामिकभावरूप मार्गणामध्येऽपि घटते। ननु-शुद्धाशुद्धभेदेन पारिणामिकभावो द्विविधो नास्ति किन्तु शुद्ध एव, नैव-यद्यपि सामान्य रूपेणोत्सर्गव्याख्यानेन शुद्धपारिशामिकभावः कथ्यते तथाप्यपवादव्याख्यानेनाशुद्धपारिणामिकभावोऽप्यस्ति । तथाहि- 'जीवभव्याभव्यत्वानि च" इति तत्वार्थ सूत्रे त्रिधा पारिणामिकभावो भणित', तत्र-शुद्धचैतन्यरूपं जीवत्वम विनश्वरत्वेन शुद्धद्रव्याश्रितत्वाच्छुद्धद्रव्यार्थिकसंज्ञ' शुद्धपारिणामिकभावो भण्यते, यत्पुन' कर्मजनितदशप्राणरूपं जीवत्व, भव्यत्वम, अभव्यत्वं चेति त्रयं, तद्विनश्वरत्वेन पर्यायाश्रितत्वात्पर्यायार्थिकसंज्ञस्त्वशुद्धपारिणामिकभाव उच्यते। अशुद्धत्वं कथमिति चेत-यद्यप्येतदशुद्धपारिणामिकत्रयं व्यवहारेण संसारिजीवेऽस्ति तथा 'सब्वे सुद्धा हु सुद्धणया' इति
४. पारिणामिक भाव अनादि निरुपाधि व स्वामाविक
होता है पं का /त. प्र./१८ पारिणामिकस्त्वनादिनिधनो निरुपाधि' स्वाभाविक एव । पारिणामिक भाव तो अनादि अनत, निरुपाधि, स्वा
भाविक है। द्र. सं टो./५७/२३६/८ यस्तु शुनद्रव्यशक्तिरूप शुद्धपारिणामिकपरम
भावलक्षणपरमनिश्चयमोक्षः स च पूर्वमेव जीवे तिष्ठतीदानी भविष्यतीत्येवं न । शुद्ध द्रव्यकी शक्ति रूप शुद्ध पारिणामिक परमभाव रूप परमनिश्चय मोक्ष है वह तो जोवमे पहले ही विद्यमान है, वह परम निश्चय मोक्ष अब होगा ऐसा नहीं है।
* अन्य सम्बन्धित विषय १. शुद्ध पारिणामिक भावके निर्विकल्प समाधि आदि अनेकों नाम ।
-मोक्षमार्ग/२/५। २. जीवके सर्व सामान्य गुण पारिणामिक है। -दे० गुण/२। ३ जीवत्व व सिद्धत्व ।
-दे० वह वह नाम।
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पारितापिकी क्रिया
पार्श्वस्थ
४. ओदयिकादि भावों में भी कथंचित् पारिणामिक व जीवका स्वतत्त्वपन।
-दे० भाव/२॥ ५ सासादन, भव्यत्व, अभव्यत्व, व जीवत्वमें
कचित् पारिणामिक व औदायकपना। -दे वह वह नाम। ६ सिद्धों में कुछ पारिणामिक भावोंका अभाव -दे० मोक्ष/३। ७. मोक्षमार्ग में पारिणामिक भावकी प्रधानता। -दे. मोक्षमार्ग।। ८. ध्यानमें पारिणामिक भावकी प्रधानता। -दे० ध्येय।
बाह्य पारिषद देधियॉ क्रमसे ७००,६००,५००, ४००, ३००, २०० और १०० है ।३२७ पाथिवी धारण-दे० पृथिवी। पाश्व-नेमिनाथ भगवान का शामक यक्ष-दे० तीर्थ कर/५/३ । पावकृष्टि-दे० कृष्टि । पाश्वनाथ-म. पु/७३/श्लोक पूर्वके नवमें भवमें विश्वभूति ब्राह्मण
के घरमें मरुभूति नामक पुत्र थे (७-६) । फिर वज्रघोष नामक हाथी हुए (११-१२)। वहाँसे सहस्रार स्वर्ग में देव हुए (१६-२४)। फिर पूर्व के छठे भवमे रश्मिवेग विद्याधर हुए ( २५-२६)। तत्पश्चात् अच्युत स्वर्ग मे देव हुए (२६-३१)। बहाँसे च्युत हो वज्रनाभि नामके चक्रवर्ती हुए (३२)। फिर पूर्व के तीसरे भवमें मध्यम प्रैवेयकमें अहमिन्द्र हुए (४०) फिर आनन्द नामक राजा हुए (४१४२) । वहाँसे प्राणत स्वर्ग में इन्द्र हुए (६७-६८ )। तत्पश्चात वहाँसे च्युत होकर वर्तमान भव में २३ वे तीर्थकर हुए। अपरनाम 'सुभौम' था।१०। (और भी दे म. पु/७३/१६६) विशेष परिचय-दे० तीर्थंकर/५॥ पाश्वनाथ काव्य पंजिका-आचार्य शुभचन्द्र (ई० १५१६
१५५६) द्वारा रचित संस्कृत काव्य ग्रन्थ । पाश्वं पंडित-पार्श्वनाथ पुराण के रचयिता एक कन्नड़ कवि।
समय- ई १२०५ । (ती./४/३११) ।
पारितापिकी क्रिया--दे० क्रिया/३/२ । पारियात्र-विन्ध्य देशका उत्तरीय भाग (ज प/प्र/१४ A. N.
Up. होरालाल)। पारिषद-१ पारिषद देवोंका लक्षण स सि./४/४/२३६/४ वयस्यपीठमर्द सदृशा परिषदि भवा' पारिषदाः।
- जो सभामे मित्र और प्रेमी जनोके समान होते है वे पारिषद कहलाते है। (रा. वा./४/४/४/२१२/२६), (म.पु/२२/२६) । ति प/३/६७ बाहिरमझम्भतरत डयसरिसा हवं ति तिप्परिसा ।६७।
-राजाकी बाह्य, मध्य और अभ्यन्तर समितिके समान देवोमे भी तीन प्रकारकी परिषद्ध होती है। इन परिषदो में बैठने योग्य देव कमश बाह्य पारिषद, मध्यम पारिषद और अभ्यन्तर पारिषद कहलाते है । (त्रि सा./२२४), (ज प./११/२७०)। ज प /११/२७१-३८२ सविदा चंदा य जदू' परिसाणं तिणि होति णामाणि । अब्भतरमझिमबाहिरा य कमसो मुणेयव्वा।२७१। बाहिरपरिसा णेया अइरु'दा पिट्ठुरा पयंडा या बठा उज्जुदसत्था अवसारं तत्थ घोसति ।२८०। वेत्तलदागहियकरा मज्झिम आरूढवेसधारी य। कंचुइकद अतेउरमहदरा बहुधा ।२८। वव्वरिचिलादिखुज्जाकम्मतियदासिचे डिवग्गो य। अतेउराभिओगा कर ति णाणाविधे धेमे ।२८२१ = अभ्यन्तर, मध्यम और बाह्य, इन तीन परिषदोके, क्रमश समिता, चन्दा व जतु ये तीन नाम जानना चाहिए ।२७१। (ति सा/२२६) बाह्य पारिषद देव अत्यन्त स्थूल, निष्ठुर, क्रोधी, अविवाहित और शस्त्रोसे उद्यक्त जानना चाहिए। वे वहाँ 'अपसर' (दूर हटो) की घोपणा करते है ।२८०। वेत रूपी लताको हाथ में ग्रहण करनेवाले, आरूढ वेषके धारक तथा कंचुकीकी पोषाक पहने हुए मध्यम ( पारिषद ) बहुधा अन्त पुरके महत्तर होते है ।२८१। वर्वरो, किराती, कुब्जा, कर्मान्तिका, दासी और चेटो इनका समुदाय ( अभ्यन्तर पारिषद ) नाना प्रकारके वेषमे अन्त पुरके अभियोगको करता है ।२८। * भवनवासी आदिइन्द्रोंके परिवारमें पारिषदोका प्रमाण
-दे० भवनवासी आदि भेद ।
ण-पार्श्व पुराण नामके कई ग्रन्थ लिखे गये है। १. पद्म कीर्ति ( ६४२) कृत संस्कृत काव्य जिसमें अधिकार है। यह १६०० श्लोक प्रमाण है । कविवर भूधरदास जी (वि १७८६) ने इसका भाषानुवाद किया है । २ वादि राज (ई १०२५) कृत 'पार्श्वनाथ चरित्र' नामक सस्कृत काव्य । (ती/३/१२)। ३, पद्मकीर्ति (ई.१०७७) कृत अपभ्रश कान्छ। (तो /३/२०५) । ४. सकल कीर्ति (ई १४०६. १४४२) कृत सस्कृत रचना । (ती/३/३३४)| कवि रइधु (ई१४३६) कृत अपभ्रश काव्य (ती/४/१६८)। ६. वादि चन्द्र (वि. १६३७. १६६४) कृत १५८० छन्द प्रमाण । (ती/४/७२) ।
२. कल्पवासी इन्द्रोके पारिषदोंकी देवियोंका प्रमाण ति, प/८/१२४-३२७ आदिमदो जुगलेसु बम्हादिमु चउसु आणद
च उक्के । पुह पुह सचिदाण अभतरपरिसदेवीओ।३२४। पचसयचउसयाणि तिसया दोसयाणि एक्कसयं । पण्णासं पुवो दिदठाणेसं मज्झिमपरिसाए देवीओ।३२६। सत्तच्छपंचचउतियदुगएक्कसयाणि पुवठाणेसु । सविदाणं होति हु बाहिरपरिसाए देवीओ।३२७) -आदिके दो युगल, ब्रह्मादिक चार युगल और आनतादिक चारमें सब इन्द्रो की अभ्यन्तर पारिषद देवियों क्रमश' पृथक्-पृथक् ५००, ४००, ३००, २००, १००,५० और पच्चीस जाननी चाहिए ।३२४-३२॥ पूर्वोक्त स्थानोमें मध्यम पारिषद देवियाँ क्रमसे ६००, ५००, ४००, ३००, २००, १००, और ५० है ।३२६। पूर्वोक्त स्थानोंमें सब इन्द्रोके
पाश्वस्थभ, आ./मू./१२६६,१२६६ केई गहिदा इंदियचोरेहि कसायसावदेहि वा। पथ छडिय णिज्जति साधुसत्थस्स पासम्मि ।१२६६। इंदिय कसाय गुरूपसणेण चरण तणं व पस्सतो। णिद्धम्मोहू सबित्ता सेवदि पासस्थ सेवायो। १३००। कितनेक मुनि इन्द्रिय रूपी चोर
और कषायरूप हिस्र प्राणियोसे जब पकड़े जाते हैं तब साधुरूप व्यापारियोका त्याग कर पार्श्वस्थ मुनिके पास जाते है। १२६६। पार्श्वस्थ मुनि इन्द्रिम कषाय और विषयों से पराजित होकर चारित्र को तृण के समान समझता है । उसकी सेवा करने वाला भी पार्श्वस्थ
तुल्य हो जाता है । १६०० । मू आ /५६४ दसणणाणचारित्तेतविणए णिच्चकाल पासत्था। एदे अवंदणिज्जा छिहप्पेही गुणधराणाम् ।५६४। -दर्शन, ज्ञान, चारित्र, और तप विनयसे सदा काल दूर रहनेवाले और गुणी संयमियोके सदा दोषों को देखनेवाले पावस्थादि हैं। इसलिए नमस्कार करने योग्य नहीं है ।।६।। भ, आ./वि /१६५०/१७२२/३ निरतिचारसयममार्ग जानन्नपि न तत्र वर्तते, किंतु सयममार्गपार्श्वे तिष्ठति नै कान्तेनासंयत., न च निरतिचारसयमः सोऽभिधीयते पार्श्वस्थ इति ।.... उत्पादन षणादोषदृष्ट वा भुक्ते, नित्यमेकस्यां वसतौ वसति, एकस्मिन्नेव संस्तरे शेते, एकस्मिन्नेव क्षेत्रे वसति। गृहिणा गृहाभ्यन्तरे निषधां करोति,...
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पिंडस्थध्यान
पिड-द्र.स/टी/३/११४/पिण्डस्य कोऽर्थ । मन्द्रत्वस्य बाहुक्य___ स्येति। -पिण्ड शब्दका अर्थ गहराई या मोटाई है। पिडस्थध्यान-पिण्डस्थ ध्यानकी विधिमें जीव अनेक प्रकारकी
धारणाओ द्वारा अपने उपयोगको एकाग्र करनेका उद्यम करता है। उसीका परिचय इस अधिकारमें दिया गया है।
१ पिंडस्थध्यानका लक्षण व विधि सामान्य
पार्वाभ्युदय
लिखमप्रतिलेख वा गृह्णाति.सुचीकर्तरि न ग्राही, सीवनप्रक्षा- लनावधूननरजनादिबहुपरि कर्मव्यापृतश्च वा पार्श्वस्थ । क्षारचूर्ण सौवीरलवणसर्पिरित्यादिक अनागाढकरणेऽपि गृहीत्वा स्थापयत् पार्श्वस्थ ।-अतिचार रहित संयममार्गका स्वरूप जानकर भी उसमे
जो प्रवृत्ति नही करता है, परन्तु संयम मार्गके पास ही वह रहता है, यद्यपि वह एकातसे असयमो नही है, परन्तु निरतिचार संयमका पालन नहीं करता है, इसलिए उसको पार्श्वस्थ कहते है। जो उत्पादन व एषणा दोष सहित आहार ग्रहण करते हैं, हमेशा एक ही वस्तिकामें रहते है, एक ही सस्तरमें सोते है. एक ही क्षेत्रमे रहते है, गृहस्थोके घरमे अपनी बैठक लगाते है। जिसका शोधना अशक्य है अथवा जो सोधा नहीं गया उसको ग्रहण करते है। सुई, कैंची .. आदि वस्तुको ग्रहण करते है। सीना, धोना, उसको टकना, रंगाना इत्यादि कार्यों में जो तत्पर रहते है ऐमे मुनियोको पार्श्वस्थ कहते है। जो अपने पास क्षारचूर्ण सोहाग चूर्ण, नमक, घी वगैरह पदार्थ कारण न होनेपर भी रखते है उनको पार्श्वस्थ कहना चाहिए। चा. सा./१४३/३ यो वसतिषु प्रतिबद्ध उपकरणोपजीवी च श्रमणाना पार्वे तिष्ठतोति पार्श्वस्थ । -जो मुनि बसतिकाओमें रहते है, उपकरणोसे हो अपनी जीविका चलाते है, परन्तु मुनियोके समीप रहते है उन्हे पावस्थ कहते है । (भा. पा./टी/१४/१३७/१७) । * पावस्थ साधु सम्बन्धी विषय-दे० साधु/५ ।
पाश्वाभ्युदय-आ० जिनसेन (ई०८१८-८७८) द्वारा रचित संस्कृत काव्य ग्रन्थ है। पार्श्वनाथ भगवान्का वर्णन करनेवाला यह काव्य ३६४ मन्दाक्राता वृत्तोमें पूर्ण हुआ है। काव्य रचनाकी दृष्टिसे कवि कालिदासके मेघदूतसे भी बढ़कर है। (ती./२/३४०) । पालंब-भगवान वीरके तीर्थ में अन्तकृतकेवली हुए-दे० अन्तकृत। पालक-राजा अवन्तिका पुत्र मालवा (मगध ) का राजा था।
अवन्ती व उज्जैनो इनकी राजधानी थी, बडा धर्मात्मा था। वीर निर्वाणके समय मगधपर इसीका राज्य था। मगधकी राज्य वंशावलीके अनुसार इसके पश्चात् नन्द वशका राज्य प्रारम्भ हो गया। तदनुसार इनका समय-बी, नि.पू. ६०-० ई०पू०५८६-५२६ आता है (ह.पु/६०/४८८); (ति. प./४/१४०६), (विशेष दे० इतिहास/३/४) । पाहुड़-१. दे० प्राभृत, २. आचार्य कुन्दकुन्द ( ई० १२७-१७६) द्वारा
८५ पाहुड ग्रन्थोंका रचा जाना प्रसिद्ध है, पर उनमें से निम्न १२ ही उपलब्ध है-१समयसार, २ प्रवचनसार, ३ नियमसार, ४ पचास्तिकाय, ५. दर्शन पाहुड, ६ सुत्रप्राहुड, ७. चारित्र पाहुड ८. बोध पाहुड, ६. भावपाहुड, १०. मोक्षपाहुड, ११. लिगपाहुड, १२. शील
१.पिडस्थं स्वात्मचिन्तनम् द्र.सं./टी./४८/२०५ पर उद्धृत-पिण्डस्थ स्वात्मचिन्तनम् ।
-निजात्माका चिन्तवन पिण्डस्थ ध्यान है। (प प्र/टी/१/६/६ पर उद्धृत), (भा. पा /टी./८६/२३६ पर उधृत)।
२. अहतके तुल्य निजात्माका ध्यान वसु. श्रा /४५६ सियकिरणविप्फुरतं अट्ठमहापाडिहेरपरियरिय ।
माइज्जइ ज णियय पिडत्थ जाण त माण ।४५६! -श्वेत किरणोंसे विस्फुरायमान और अष्ट महा प्रातिहार्योसे परिवृत (संयुक्त) जो निज रूप अर्थात् केवली तुल्य आत्मस्वरूपका ध्यान किया जाता है उसे पिण्डस्थ ध्यान जानना चाहिए १४५६। (ज्ञा./३७/२८,३२); (गुण० श्रा०/२२८)। ज्ञानसार/१६-२१ निजनाभिकमलमध्ये परिस्थितं विस्फुरद्रवितेज.. ध्यायते अहं दूपं ध्यानं तत् मन्यस्व पिण्डस्थं ।१६। ध्यायत निजकरमध्ये भालतले हृदयकन्ददेशे। जिनरूप रवितेज पिण्डस्थं मन्यस्व ध्यानमिदं ।२०। - अपनी नाभिमें, हाथमें, मस्तकमें, अथवा हृदयमें कमलकी कल्पना करके उसमें स्थित सूर्यतेजवत स्फुरायमान अर्हन्तके रूपका ध्यान करना पिण्डस्थ ध्यान है ।१६-२०
३. तीन लोककी कल्पना युक्त निजदेह वसु श्रा./४६०-४६३ अहवा णाहि च वियप्पिऊण मेरु अहोविहायम्मि ।
झाइज्ज अहोलोयं तिरियम्म तिरियए वीए ४६०उड्ढम्म उड्डलोयं कप्पविमाणाणि संधपरियंते । गोविज्जमयागीवं अणुद्दिस अणुपएसम्मि ४६॥ विजय च वइजयंतं जयंतमवराजियं च सव्वस्थ । झाइज्ज मुहपएसे णिलाडदेसम्मि सिद्धसिला ४६॥ तस्मुवरि सिद्धणिलयं जह सिहर जाण उत्तमगम्मि। एवं ज णियदेह झाइज्जइ तं पि पिंडत्थं ४६३ =अथवा अपने नाभि स्थानमें मेरु पर्वतकी कल्पना करके उसके अधोविभागमें अधोलोकका ध्यान करे, नाभि पार्श्ववर्ती द्वितीय तिर्यविभागमें तिर्यग्लोकका ध्यान करे। नाभिसे ऊर्ध्व भागमें ऊर्ध्वलोकका चिन्तबन करे। स्कन्ध पर्यन्त भागमें कल्प विमानोंका, ग्रीवा स्थानपर नवग्रैवेयकोका, हनुप्रदेश अर्थाद ठोडीके स्थानपर नव अनुदिशोका, मुख प्रदेशपर विजय. वैजयन्त, जयन्त, अपराजित, और सर्वार्थ सिद्धिका ध्यान करे। ललाटदेशमें सिद्धशिला, उसके ऊपर उत्तमागमें लोक शिखरके तुल्य सिद्ध क्षेत्रको जानना चाहिए। इस प्रकार जो निज देहका ध्यान किया जाता है, उसे भी पिडस्थध्यान जानना चाहिए ।४६०-४६३। (गुण० श्रा०/२२१-२३१); (ज्ञा./३७/३०)।
पाहुड।
-दर्शन पाहडसे लेकर शील पाहुड पर्यन्त आठ ग्रन्थ अष्टपाहुडके नामसे प्रसिद्ध है। इनमें से अन्तिम दो लिंग पाहुड व शील पाहुडको छोडकर शेष छ. षट् प्राभूत कहलाते है। षट्प्राभृतपर आ० श्रुतसागर (ई०१४७३-१५३३) कृत सस्कृत टीका उपलब्ध है। और आठों ही पाहुडपर 40 जयचन्द छाबडाने ई०१८१० में देशभाषामय बचनिका लिखी है। पाहुड़िक-वसतिकाका एक दोष-दे० बसतिका। पिगल-चक्रवर्तीको नव निधियोमेंसे एक-दे० शलाकापुरुष/२। पिजरा-ध. १३/५,३,३०/३४/१ तित्तिरलावादिधरणठ्ठ रइद
कलिजकलावो पंजरो णाम। तीतर और लाव आदिके पकडनेके लिए जो अनेक छोटी-छोटी पचे लेकर बनाया जाता है उसे पिजरा कहते हैं।
१. द्रव्य रूप ध्येयका ध्यान करना त, अनु-/१३४ ध्यातु पिण्डे स्थितश्चैव ध्येयोऽर्थो ध्यायते यतः। ध्येयं पिण्डस्थमित्याहुरतएव च केचन ।१३४। - ध्येय पदार्थ चूकि ध्याताके शरीरमें स्थित रूपसे ही ध्यानका विषय किया जाता है, इसलिए कुछ आचार्य उसे पिण्डस्थ ध्येय कहते है। नोट-ध्येयके लिए-दे० ध्येय ।
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पिच्छिका
५८
पिशाच
२. पिंडस्थ ध्यानको पाँच धारणाएँ
१.पिंडस्थ ध्यानकी विधिमें पाँच धारणाओंका निर्देश ज्ञा /३७/२-३ पिण्डस्थ पञ्च विज्ञेया धारणा वीरवर्णिता'। सयमी यास्वस्मुढो जन्मपाशान्निकृन्तति ।। पार्थिवी स्यात्तथाग्नेगी श्वसना वाथ वारुणी। तत्त्वरूपवती चेति बिज्ञयास्ता यथाक्रमम 1३ = पिंडस्थ ध्यानमे श्री वर्धमान स्वामीसे कही हुई जो पॉच धारणाएँ है, उनमें सयमी मुनि ज्ञानी होकर ससार रूपी पाशको काटता है ।२। वे धारणाएँ पार्थिवी, आग्नेयी तथा श्वसना, वारुणी और तत्त्वरूपवती ऐसे यथाक्रमसे होती है ।२-३ (त अनु १८३) । २. पाँचों धारणाओंका संक्षिप्त परिचय त. अनु /१८४-१८७ आकार मरुता पूर्य कुम्भित्वा रेफवह्निना। दग्ध्वा स्ववपुषा कम, स्वतो भस्म विरेच्य च ।१८४। ह मत्रो नभसि ध्येय क्षरन्नमृतमात्मनि । तेनाऽन्यत्तद्विनिर्माय पीयूषमयमुज्ज्वलम् ॥१८॥ तत' पञ्चनमस्कार पञ्चपिण्डाक्षरान्वित । पञ्चस्थानेषु विन्यस्तै विधाय सकला क्रियाम।१८६। पश्चादात्मानमहन्त ध्यायेन्निर्दिष्टलक्षणम् । सिद्ध वा ध्वस्त कर्माणममूत ज्ञानभास्वरम् १८७१ - (नाभिकमलकी कणिकामें स्थित ) अर्ह मन्त्रके 'अ' अक्षरको पूरक पवनके द्वारा पूरित और ( कुम्भक पवनके द्वारा) कुम्भित करके, रेफ () की अग्निसे ( हृदयस्थ ) कर्मचक्रको अपने शरीर सहित भस्म करके और फिर भस्मको ( रेचक पवन द्वारा ) स्वयं विरेचित करके 'ह' मन्त्रको आकाशमें ऐसे ध्याना चाहिए कि उससे आत्मामे अमृत कर रहा है और उस अमृतसे अन्य शरीरका निर्माण होकर वह अमृतमय और उज्ज्वल बन रहा है। तत्पश्चात पंच पिडाक्षरों (हाँ ह्री ह.ह्रौ ह्र), से ( यथाक्रम) युक्त और शरीरके पॉच स्थानोंमें विन्यस्त हुए पच नमस्कार मन्त्रोसे-(णमो अरहताण आदि पॉच पदोसे) सकल क्रिया करके तदनन्तर आत्माको निर्दिष्ट लक्षण अर्हन्त रूप ध्यावे अथवा सकलकर्म-रहित अमूर्तिक और ज्ञानभास्कर ऐसे सिद्ध स्वरूप ध्यावे ॥१८४-१८७।-विशेष दे० वह वह नाम ।
३. तत्त्ववती धारणाका परिचय ज्ञा./३७/२६-३० मृगेन्द्रविष्टरारूढ दिव्यातिशयसंयुतम् । कल्याणमहिमोपेत देवदैत्योरगाचितम् ॥२६॥ विलीनाशेषकर्माणं स्फुरन्तमतिनिर्मलम् । स्व तत पुरुषाकार स्वाङ्गागर्भगतं स्मरेत् ।३०।-तत्पश्चात (वारुणी धारणाके पश्चात् ) अपने आत्माके अतिशय युक्त, सिहासनपर आरूढ, कल्याणकी महिमा सहित, देव दानव धरणेन्द्रादिसे पूजित है ऐसा चिन्तवन करै ।२६। तत्पश्चात विलय हो गये हैं आठ कर्म जिसके ऐसा स्फुरायमान अति निर्मल पुरुषाकार अपने शरीरमे प्राप्त हुए अपने आत्माका चिन्तवन रै। इस प्रकार तत्त्वरूपवती धारणा कही गयी।३०। (ज्ञा०/३७/२८) । * अहेन्त चिन्तवन पदस्थ आदि तीनों ध्यानों में
होता है-दे० ध्येय। ४. पिण्डस्थ ध्यानका फल ज्ञा./३७/३१ इत्य विरत स योगी पिण्डस्थे जात निश्चलाभ्यास'। शिवसुखमनन्यसाध्य प्राप्नोत्यचिरेण कालेन ।३१। इस प्रकार पिण्डस्थ ध्यानमें जिसका निश्चल अभ्यास हो गया है वह ध्यानी मुनि अन्य प्रकारसे साधने में न आवे ऐसे मोक्षके सुखको शीघ्र ही प्राप्त होता
है।३१॥ पिच्छिकाभ. आ/मु./१८ रयसेयाणमगहणं मद्दव सुकुमालदा लघुत्तं च । जत्थेदे पच गुणा तं पडिलिहण पसंसति ।१८। जिसमें ये पाँच गुण हैं उस
गोधनोपकरण पिच्छिक गादिकी साधुजन प्रशंसा करते है-धुलि
और पसेवमे मैलीन हो, कोमल हो, कडी न हो। अर्थात् नमनशील हो, और हलकी हो। (म. आ /६१०)।
२. पिच्छिकाकी उपयोगिता भ. आ./मू./१७-१८ इरियादाणणिखेचे विवेगठाणे णिसीयणे सयणे ।
उव्वत्तण परिवत्तण पसारणा उटणामस्से ।।६। पडिलेहणेण पडिलेहिज्जइ चिण्ह च होइ सगपक्खे। विस्सासिय च लिग संजदपडिरूवदा चेव ।१७। जब मुनि बैठते है, खडे हो जाते है, सो जाते है, अपने हाथ और पॉव पसारते है, सकोच लेते है, जब वे उत्तानशयन करते है, कर्वट बदलते है, तब वे अपना शरीर पिच्छिकासे स्वच्छ करते है।६। पिच्छिकासे ही जीव दया पाली जाती है। पिच्छिका लोगोमे यति विषयक विश्वास उत्पन्न करनेका चिह है। तथा पिच्छिका धारण करनेसे वे मुनिराज प्राचीन मुनियो के प्रतिनिधि स्वरूप है, ऐसा सिद्ध होता है ।१७। (मू आ /१११)। मू.आ/8१२,६१४ उच्चार पस्सवण णिसि सुत्तो उट्टिदोह काऊण । अप्पडिलिहिय सुवतो जीववहं कुणदि णियदतु ।।१२। णाणे च कमणादाणणिक्खेवे सयणासण पयत्ते । पडिलेहणेण पडिले हिज्जइ लिग च होइ सपक्खे । (४)। -रातमे सोतेसे उठा फिर मलका क्षेपण मूत श्लेष्मा आदिका क्षेपणकर सोधन बिना किये फिर सो गया ऐसा साधु पीछीके बिना जीवहिसा अवश्य करता है।६६२। कायोत्सर्गमें गमनमे कमडलु आदिके उठानेमें, प्रस्तकादिके रखने में, शयनमें, झूठनके साफ करनेमे यत्नसे पीछीकर जीवोकी हिसा की जाती है,
और यह मुनि मयमी है ऐसा अपने पक्षमे चिह्न हो जाता है ।।१४। पिठरपाक-वैशेषिक दर्शनका एक सिद्धान्त।
यक-आकाशोपपन्न देव-दे० देव/11/३। पित्त-औदारिक शरीरमें पित्त धातु निर्देश-दे० औदारिक१/७ ।
पिपासा-१. पिपासा परीषहका लक्षण स सि /६/६/४२०/१२ विरुद्धाहारगृष्मातपपित्तज्वरानशनादिभिरुदीर्णा शरीरेन्द्रियोन्माथिनो पिपासा प्रत्यानाद्रियमाणप्रतिकारस्य पिपासानलशिखा धृतिनवमृदुघटपूरितशीतलसुगन्धिसमाधिवारिणा प्रशमयत पिपासामहनं प्रशस्यते। -जो अतिरूक्ष आदि विरुद्ध आहार, ग्रीष्म कालीन आतप, पित्तज्वर और अनशन आदिके कारण उत्पन्न हुई तथा शरीर और इन्द्रियोका मंथन करनेवाली पिपासाका प्रतिकार करने में आदर भाव नही रखता और पिपासारूपी अग्निको सन्तोषरूपी नूतन मिट्टीके घडेमे भरे हुए शीतल सुगन्धि समाधि रूपी जलसे शान्त कर रहा है उसके पिपासाजय प्रशसाके योग्य है । (रा वा /8/8/३/६०८/२४ ), (चा सा./११०/३)।
* क्षुधा व पिपासा परीषहमें अन्तर- धा। पिशाच-कायोत्सर्गका एक अतिचार-दे० व्युत्सर्ग/१ । पिशाच-* पिशाचोंके वर्ण परिवार अवस्थानादि
-दे० व्यंतर/१/२। १.पिशाचोंके भेद ति प./६/४८-४६ कुमंडजवरवरकरवससं मोहा तारआ य चोक्खकरवा । कालमहकाल चोक्खा सतालया देहमहदेहा ४८। तुहिअपवयणणामा ... कुष्माण्ड, यक्ष, राक्षस, समोह, तारक, अशुचिनामक काल, महाकाल, शुचि, सतालक, देह, महादेह, तूष्णीक, और प्रवचन नामक, इस प्रकार ये चौदह पिशाचोके भेद है।४८-४६ । (ति सा./ २७१-२७२)।
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पिशुलि
पुण्य
पाप रूप ही है । लौकिकजनोके लिए यह अवश्य ही पापकी अपेक्षा बहुत अच्छा है। यद्यपि मुमुक्षु जीवोको भी निचली अवस्थासे पुण्य प्रवृत्ति अवश्य होती है, पर निदान रहित होने के कारण, उनका पुण्य पुण्यानुबन्धी है, जो परम्परा मोक्षका कारण है। लोकिक जीवोंका पुण्य निदान व तृष्णा सहित होनेके कारण पाषानुवन्धी है, तथा ससारमें डुबानेवाला है। ऐसे पुण्यका त्याग ही परमार्थ से योग्य है।
पुण्य निर्देश भावपुण्यका लक्षण । द्रव्य पुण्य या पुण्यकर्मका लक्षण । पुण्य जीवका लक्षण । पुण्य व पापमें अन्तरंगकी प्रधानता । पुण्य ( शुभ नामकर्म ) के बन्ध योग्य परिणाम । पुण्य प्रकृतियोंके भेद । -दे० प्रकृतिबन्ध/२। राग-द्वेषमें पुण्य-पापका विभाग। -दे० राग/२ । पुण्य तत्त्वका कर्तृत्व। -दे० मिथ्यादृष्टि/४ ।
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पिशुलि-गो. जी /भाषा/३२६/७००/१३ का भावार्थ (श्रुत ज्ञानके पर्याय, पर्याय-समास आदि २० भेदोके प्रकरणमे, प्रक्षेपक प्रक्षेपक नामके श्रुतज्ञानको प्राप्त करनेके लिए अनतका भाग देनेकी जो प्रक्रिया अपनायी गयी है) वैसे ही क्रमते जीवराशिमात्र अनंतका भाग दोए जो प्रमाण आवै सो सो क्रमले पिशुलि पिशुलि-पिशुलि
जानने। पिष्टपेसन-दे० अतिप्रसग । पिहित-१ आहारका एक दोष-दे० आहार/II/४/४:२. वसतिका
का एक दोष-दे० वसतिका । पिहितानव-१(ह.पू./२७/८ ) एक दिगम्बर आचार्य, २. एक
जैन मुनि (हपु/२७/६३)। ३ पद्मप्रभ भगवान के पूर्व भवके गुरु (ह पु/६०/१५६) ४ बुद्धकोति ( महात्मा बुद्ध ) के गुरु थे। पार्श्वनाथ भगवान्की परम्परामे दिगम्बराचार्य थे। (द सा/प्रशस्ति/२६ प. नाथूराम प्रेमी) इनके शिष्य बुद्धकीतिने बौद्धधर्म चलाया था (द सा //६-७)। पीठ-दसवे रुद्र थे।-दे० शलाका पुरुष/७ । पीठिका मंत्र-दे० मत्र/१/६ । पीड़ा-दे. वेदना। पीत लेश्या-दे० लेश्या। पुंडरीक-१. छठे रुद्र थे।-दे० शलाका पुरुष/७ । २ अपने पूर्व के
दूसरे भवमे शल्य सहित मर करके देव हुआ था। वर्तमान भवमें छठे नारायण थे। अपरनाम पुरुष पुण्डरीक था। -दे० शलाकापुरुष/४। ३ श्रुतज्ञानका १२वॉ अंग बाह्य-दे० श्रुतज्ञान/III | ४ पुष्करबर द्वीपका रक्षक व्यन्तर देव-दे० व्यन्तर/४।५ मानुषोत्तर पर्वतका रक्षक व्यन्तर-दे०व्यन्तर/४। ६ विजयाध की दक्षिण श्रेणीका एक नगर-दे० विद्याधर । पुंडरीक हद-शिखरी पर्वतस्थ एक ह्रद जिस मेंसे स्वर्ण कूला, रक्ता व रक्तोदा ये तीन नदियाँ निक्लती है। लक्ष्मीदेवी इसमें निवास
करती है-दे० लोक/३।६।। पूंडरीकिणी-रुचक पर्वत निवासिनी दिक्कुमारी देवी। -दे०
लोक/५/१३। पुंडरीकिनी-पूर्व विदेहस्थ पुष्क्लावर्त की मुख्य नगरी । अपरनाम
पुष्कलावती-दे० लोक/५/२ । पुंड्र वर्तमान बगालका उत्तर भाग। अपरनाम गौड्र या पौंड्र।
भरतक्षेत्र पूर्व आर्य खण्डका एक देश-दे० मनुष्य/४ । पुंडवर्धन-पूर्व देशमे एक नगरी है। 'महिमा नगरीका अपरनाम प्रतीत होता है। क्योकि अर्हद्वलि आचार्य द्वारा यहाँ यति सम्मेलन बुलाया गया। और धरसेनाचार्यने महिमा नगरीमें साधुओको बुलानेके लिए पत्र लिखा था। महिमा नगरीवाला साधु सघ और अहं द्वलि आचार्यका साधु सम्मेलन एकार्थवाची प्रतीत होते है। (ध.१/प्र. १४.३१) । पुण्य-क्षौद्रवर द्वीपका रक्षक व्यन्तर देव-दे० व्यन्तर/४ । पुण्य-जीवके दया, दानादि रूप शुभ परिणाम पुण्य कहलाते है। यद्यपि लोकमें पुण्यके प्रति बडा आकर्षण रहता है, परन्तु मुमुक्षु जीव केवल बन्धरूप होनेके कारण इसे पापसे किसी प्रकार भी अधिक नही समझते । इसके प्रलोभनसे बचनेके लिए वह सदा इसकी अनिष्टताका विचार करते है। परन्तु इसका यह अर्थ नहीं कि यह सर्वथा
पुण्य व पापमें पारमार्थिक समानता दोनों मोह व अज्ञानकी सन्तान है। परमार्थसे दोनों एक है।
दोनोंकी एकतामे दृष्टान्त । ४ दोनों ही बन्ध व संसारके कारण है।
दोनों ही दुःखरूप या दुःखके कारण है।
दोनों ही हेय है, तथा इसका हेतु । ७. दोनोंमें भेद समझना अज्ञान है।
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पुण्यकी कथंचित् अनिष्टता पुण्य कथंचित् विरुद्ध कार्य करनेवाला है।
-दे० चारित्र/५/५। संसारका कारण होनेसे पुण्य अनिष्ट है। शुभ भाव कथंचित् पापबन्धके भी कारण हैं। वास्तवमें पुण्य शुभ है ही नहीं। अशानीजन ही पुण्यको उपादेय मानते है। शानी तो पापवत् पुण्यका भी तिरस्कार करते है। शानी पुण्यको हेय समझता है। शानी व्यवहार धर्मको भी हेय समझता है।
-दे० धर्म/2/11 | शानी तो कथचित् पापको ही पुण्यसे अच्छा सम
झता है। | मिथ्यात्वयुक्त पुण्य तो अत्यन्त अनिष्ट है हो।। ९ मिथ्यात्वयुक्त पुण्य तीसरे भव नरकका कारण है।
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| पुण्यकी कथंचित् इष्टता १ पुण्य व पापमें महान् अन्तर है। २ । इष्ट प्राप्तिमें पुरुषार्थसे पुण्य प्रधान है।
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पुण्य
३ पुण्यकी महिमा व उसका फल ।
४
पुण्य करनेकी प्रेरणा
पुण्यकी इष्टता व अनिताका समन्वय
१
पुण्य दो प्रकारका होता है ।
२
भोगगुरुक ही पुण्य निषिद्ध है योगमूलक नहीं। ३ पुण्यके निषेधका कारण व प्रयोजन ।
पुण्य छोडनेका उपाय व क्रम हेय मानते हुए भी ज्ञानी विषय धर्म करता है। साधुकी शुभ क्रियाओंको सीमा ।
सम्बन्दृष्टिका पुण्य निरीह होता है।
पुण्यके साथ पाप प्रकृतिके बन्धका समन्वय ।
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५
- दे० धर्म / ६ 1 वचनार्थ व्यवहार-दे० मिध्यादृष्टि / ४ ० साधू/२।
१. पुण्य निर्देश
१. भाव पुण्यका लक्षण
=
प्र. सा./मू./१८१ सुपरिणामो पुष्णणं भणियमण्णे परके प्रति शुभपरिणाम पुण्य है । (पं का./त.प्र./ १०८ ) ।
स.सि./१/३/३२० / २ पुनात्यात्मानं पूयतेऽनेनेति मा पुग्यम् ।
जो
आत्माको पवित्र करता है, या जिससे आत्मा पवित्र होता है वह पुण्य है। (रा. ना. ६/३/४/५०० /११) ।
-
न. च. वृ./१६२ अहवा कारणभूदा तेसि च वयन्वयाइ इह भणिया । ते खलु पूर्ण पाव जाण इम पवयणे भणियं । १६२॥ उन शुभ वेदादिके कारणभूत जो मतादि कहे गये है, उसको निश्चयसे पुण्य जानो, ऐसा शास्त्रमें कहा है। पं.का./ता.वृ/१००/१०२/- रामपुजापहावश्यकादिरूपो जीवस्य शुभपरिणामो भावपुण्यं दान पूजा पडावश्यकादि रूप जीव के शुभपरिणाम भावपुण्य है। ० उपयोग/11/४ जी बया आदि शुभोगयोग है |१| नहीं पुण्य है | दे० धर्म / १/४ (पूजा, भक्ति, दया, दान आदि शुभ क्रियाओ रूप व्यवमहारधर्म पुण्य है। (उपयोग/२/७), (पुण्य / १२ / ४) ।
२. द्रव्य पुण्य या पुण्य कर्मका लक्षण
•
६०
- इष्ट
भ, आ./वि./२८ / १३४ / २० पुण्य नाम अभिमतस्य प्रापक । पदार्थोंकी प्राप्ति जिससे होती हो वह कर्म पुण्य कहलाता है। काता १००/१०२/२ भाग पुण्यनिमितेनोपन सद्यादिशुभप्रकृतिरूप. पुद्गल परमाणुपिण्डो द्रव्यपुण्य भाव पुण्यके निमित्तसे उत्पन्न होनेवाले साता वेदनीय आदि ( विशेष दे० प्रकृतिबन्ध / २ ) शुभकृतिरूप पुगल परमाणु का पिण्डद्वय पुण्य है। खम. / २०/३०२ / १६ पुण्य दानादिक्रियोपार्जनीयं शुभकर्म दान आदि क्रियाओसे उपार्जित किया जानेवाला शुभकर्म पुण्य है। ३. पुण्य जीवका लक्षण
यू.आ./ / २२४ सम्मलेन सुदेश व विरदीर कसायगिगुणेहि । जो परिणदो सो पुष्णो.. | २३४॥ सम्यक्ख, श्रुतज्ञान, व्रतरूप परि
१. पुण्य निर्देश
णाम तथा कषाय निग्रहरूप गुणोसे परिणत आत्मा पुण्य जीव है । (गो.जी./मू./६२२) । ब्र. सं./मू./३०/१५०
=
- शुभ परिणामो से युक्त जीव पुण्य रूप होता है।
४. पुण्य व पाप अन्तरंगकी प्रधानता
भावता पावहमति खलु जीवा ।
आप्त. मो. / २-६५ पाप ध्रुव परे दुखात् पुण्यं च सुखतो यदि । अचेतनाकषाय च ध्येयाता निमित्तत । पुण्य ध्रुवं स्वतो दुखापाप च सुखतो यदि । वीतरागो मुनिविद्वास्ताभ्या युज्ज्यान्निमितत ॥१३॥ विरोधा ना भयैकात्म्य स्याद्वादन्यायविद्विषा । अवाच्यकान्यमिति युज्यते ॥ ६४॥ विशुद्ध पेट स्वपरस्थ सुलाल पुण्यपापासुन स्वा -यदि परका दुख उपजानेसे पाप और परको सुख उपजानेसे पुण्य होने का नियम हुआ होता तो कंटक आदि अचेतन पदार्थोंको पाप और दूध आदि अचेतन पदार्थोको पुण्य हो जाता। और वीतरागी मुनि (यसमिति पूर्वक गमन करते हुए कदाचित द्र जीवोके बधका कारण हो जानेसे बन्धको प्राप्त हो जाते |१२| यदि स्वयं अपनेको ही दुख या सुख उपजानेसे पाप-पुण्य होनेका नियम हुआ होता तो वीतरागी मुनि तथा विद्वानुजन भी बन्धके पात्र हो जाते; क्योकि उनको भी उस प्रकारका निमित्तपना होता है | १३ | इसलिए ऐसा मानना ही योग्य है कि स्व व पर दोनोको सुख या दुखमें निमित्त होनेके कारण, विशुद्धि व संक्लेश परिणाम उनके कारण तथा उनके कार्य ये सब मिलकर ही पुण्य व पापके आसव होते हुए पराश्रित पुण्य व पापरूप एकान्तका निषेध करते है |४| यदि विशुद्धि व सस्तेश दोनों ही स्वव परको सुख व दुःखके कारण न हो तो आपके मतमें पुण्य या पाप कहना ही व्यर्थ है|१५|
•
मो पापं जयचन्द / ६०/१०२/२४ केवलमा सामायिकादि निरारम्भ कार्यका भेष धार में तो कि विशिष्ट पुण्य है नाहीं शरीरादिक माह्य वस्तुसी जह है। केवल जहको किया फल तो आमाको लागे नाहीं । विशिष्ट पुण्य तौ भावनिकै अनुसार है |... अतः पुण्यपापके बन्ध में शुभाशुभ भाव ही प्रधान है।
५. पुण्य ( शुभ नामकर्म ) के बन्ध योग्य परिणाम
// ११५ रागो जस्स पत्यो अनुकंपासंसिदो व परिणामो
चितहि किस पूर्ण जीवरस आसवदि ॥ १३४॥ - जिस जीनको प्रशस्त राग है. अनुकम्पायुक्त परिणाम है, और चित्तमें पता का अभाव है उस जीवको पुण्य आस्रव होता है ।
+
मू. आ./मू./२३५ पुण्णस्सासवभूदा अणुकपा सुद्ध एव उनओगा । = जीवोपर दया, शुद्ध मन वचन कायकी क्रिया तथा शुद्ध दर्शन ज्ञानरूप उपयोग ये पुण्यकर्म के आसवके कारण है । (क पा. १/११/ गा. २/१०५) ।
सू./६/२१ तद्विपरीत सुभस्य ॥१३॥
स.सि./६/२३/१३७/६ कायवाङ्मनसामृश्वमविसंवादनं द्विसमुचितस्य च विपरीत ग्राह्यम् धार्मिकदर्शन सभ्रमसद्भावोपनयन संसरणाभीरुताप्रमादवर्जनादि' । तदेतच्छुभनामकर्मादिकारणं वेदितव्य काय, वचन और मनकी सरलता तथा अविसंवाद ये उस (अशुभ) से विपरीत है । उसी प्रकार पूर्व सूत्रकी व्याख्या करते हुए च शब्दसे जिनका समुच्चय किया गया है, उनके विपरीत आस्रवोंका ग्रहण करना चाहिए। जैसे- धार्मिक पुरुषों व स्थानोका दर्शन करना, आदर सत्कार करना, सद्भाव रखना, उपनयन, संसारसे डरना, और प्रमादका त्याग करना आदि । ये सब शुभ नामकर्मके आसवके कारण है (रा.वा./६/२३/२/५२८/ २०) (गो.क./ /०/१०४): (त, सा./४/४८) ।
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पुण्या
तारिकतासवेत्पुण्यं
अतसे पुण्यकर्मका आखत्र
उ. सा./४/२१ होता है ।
यो सा./अ./४/२० अर्हदादौ परा भक्ति कारुण्य सर्वजन्तुषु पावने चरणे राग पुण्यबन्धनिबन्धनम् |३७| = अर्हन्त आदि पाँचों परमेष्ठियो में भक्ति, समस्त जीवोपर करुणा और पवित्रचारित्र में प्रीति करनेसे पुण्य बन्ध होता है । शा./३/३-० यमप्रशम निर्वेद चिन्तावम्बितमेयादिभावनारू मन सूते सुभाव 11 विश्वव्यापार निर्मुक्त श्रज्ञाना शुभraare विज्ञेय वच सत्यं प्रतिष्ठितम् ॥५॥ सुगुप्तेन सुकायेन कायोत्सर्गेन वानिशम् । स चिनाति शुभ कर्म काययोगेन संयमी ॥७॥ =यम (बत), प्रशम, निर्वेद तथा तत्त्वोंका चिन्तवन इत्यादिका अबलम्बन हो, एवम् मैत्री, प्रमोद, कारुण्य और माध्यस्थ्य इन चार भावनाओकी जिसके मनमे भावना हो, वही मन शुभास्रव उत्पन्न करता है | ३ | समस्त विश्वके व्यापारोसे रहित तथा श्रुतज्ञानके अवलम्बनयुक्त और सत्यरूप पारिणामिक वचन शुभास्रव के लिए होते हैं । ५। भले प्रकार गुप्तरूप किये हुए अर्थात् अपने वशीभूत किये हुए कायसे तथा निरन्तर कायोरस सबमी गुनि शुभ कर्मको संचय करते है।
२. पुण्य व पाप में पारमार्थिक समानता
१. दोनों मोह व अज्ञानकी सन्तान हैं।
पं. का // १२१ मोहो रागो दोसी चित्तपसादो य जस्स भावम्मि विज्जदि तस्स सुहो वा असुहो वा होदि परिणामो | १३११ = = जिसके भाव में मोह, राग, द्वेष अथवा चित्त प्रसन्नता है उसे शुभ अथवा अशुभ परिणाम होते हैं । ( तहाँ प्रशस्त राग व चित्तप्रसादसे शुभपरिणाम और अप्रशस्तराग, द्वेष और मिथ्यात्वसे अशुभ परिणाम होते है इसी गाथाकी उ. प्र. टीका)।
/ /२/१३ मोसवहॅ हेड जिउ जो गवि जाणइ कोइ सो पर मोहिं करइ जिय पुण्णु वि पाउ वि दोइ ॥ ५३॥ =बन्ध और मोक्षका कारण अपना विभाव और स्वभाव परिणाम है, ऐसा भेद जो नही जानता है, वही पुण्य जौर पाप इन दोनोको मोहसे करता है। (न.च.वृ./ २६१) ।
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२. परमार्थसे दोनों एक हैं
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स. सा / आ./ १४५ शुभोऽशुभो वा जीवपरिणाम केवलाज्ञानमयत्वादेकस्तदेकरवे सति कारणामेदाय एवं कर्म शुभोऽशुभ वा गल परिणाम केवसङ्गगलमयत्वादेकस्त देकर सति स्वभावाभेदादेक कर्म शुभोऽशुभ फलपाक के लगलम वादेकस्वे करने सत्यनुभवाभेदावेकं कर्म शुभाशुभ मोक्षन्धमान तु प्रत्येक जीवपुद्गलमयत्वादेकौ तदनेकत्वे सत्यपि केवलपुद्गलमयबन्धमार्गाश्रितत्वेनाश्रयाभेदादेकं कर्म शुभ व अशुभ जोवपरिणाम केवल अज्ञानमय होनेसे एक है, अत उनके कारणमें अभेद होनेसे कर्म एक ही है शुभ और अशुभ गतपरिणाम केवल पुगलमय होनेसे एक है, अतः उनके स्वभाव में अभेद होनेगे कर्म एक है शुभ व अशुभ फलरूप विपाक भी केवल पुद्गलमय होनेसे एक है, अत उनके अनुभव या स्वादमे अभेद होनेसे दोनो एक है । यद्यपि शुभरूप (व्यवहार) मोक्षमार्ग केवल जीनमय और अशुभरूप अन्यमार्ग केवल पुद्गलमय होनेसे दोनो में अनेकता है, फिर भी कर्म केवल पुद्गलमयी बन्धमार्गके ही आश्रित है अत उनके आश्रयमे अभेद होनेसे दोनों एक हैं।
३. दोनोंकी एकतामें दृष्टान्त
स सा./न./१४६ सोमणियं पि णियत मंदि कात्ताय पि जह पुरिसं चदि एवं जी हम ना कवं कम्म ११४६ | जैसे
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२. पुण्य व पाप मे पारमार्थिक समानता
लोहेकी बेडी पुरुषको बाँधती है, वैसे ही सोनेकी बेडी भी पुरुषको बाँधती है। इसी प्रकार अपने द्वारा किये गये शुभ व अशुभ दोनो ही कर्म जीवको बाँधते है वो सायो /०२), (प्र. सा./त. प्र/७७ ); (प.प्र./टी./१/१६६-१६७/२०६/१६) ।
स. सा.आ./९४४/ १०१ एको दूरात्यजति मदिरा मभिमाना दन्य शूद्र स्वयमहमिति स्नाति नित्यं तयैव । द्वावप्येतौ युगपदुदरान्निर्गतौ शूद्रिकाया, शूद्रौ साक्षादपि च चरतो जातिभेदभ्रमेण | १०११ - (शूद्रा के पेट से एक ही साथ जन्मको प्राप्त दो पुत्रोमेंसे एक ब्राह्मणके यहाँ और दूसरा शूद्रके यहाँ पला ( उनमे से ) एक तो 'मै ब्राह्मण हूँ इस प्रकार ब्राह्मणसके अभिमानसे घूरते ही मदिराका त्याग करता है, उसे स्पर्श तक नही करता, और दूसरा 'मै स्वयं शूद्र हॅू' यह मानकर नित्य मदिरासे ही स्नान करता है, अर्थात उसे पवित्र मानता है । यद्यपि दोनो साक्षात शूद्र है तथापि वे जातिभेदके भ्रमसहित प्रवृत्ति करते है । (इसी प्रकार पुण्य व पाप दोनो ही यद्यपि पूर्वोक्त प्रकार समान है, फिर भी माह दृष्टि के कारण भ्रमवश अज्ञानीव इनमें भेद देखकर पुण्यको अच्छा और पापको बुरा समझता है ) ।
स सा./आ./१४० कुशीतशुभाशुभम्या सह रागसंग प्रतिषिद्धी मन्धहेतुत्वाद कुशलमनोरमा मनोरम करेयुनीरागसंसर्गवद-जैसे कुशील मनोरम और अमनोरम हथिनीरूप कुनीकेसाथ हाथीका राग और संसर्ग उसके बन्धनका कारण है, उसी प्रकार कुशील अर्थात् शुभाशुभ कर्मो के साथ राग और ससर्ग बन्धके कारण होनेसे, शुभाशुभ कर्मोंके साथ राग और ससर्ग करनेका निषेध किया गया है ।
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४. दोनों ही वग्ध व संसार के कारण है।
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स.सि./१/४/१५/३ ह पुण्यपापग्रहणं कर्तव्य 'नन पदार्थान्येरप्युक्तत्वाद । न कर्तव्यम्, आसवे बन्धे चान्तर्भावाद । - प्रश्न - सूत्र में (सात तत्त्वोके साथ) पुण्य पापका ग्रहण करना चाहिए, क्योंकि पदार्थ नौ है ऐसा दूसरे बाचायोंने भी कथन किया है ? उत्तर - पुण्य और पापका पृथक ग्रहण नहीं करना चाहिए, क्योकि, उनका आस्रव और बन्धमें अन्तर्भाव हो जाता है । ( रा. वा / १/४/२८/२७/३०), (द्र सं./टी./ अधि० २ / चूलिका / पृ. ८१ / १०) घ. १२/४,२८,३/२७६/७ कम्मर्षधो हि गाम सुहासुहपरिणामे हितो जायदे | = कर्मका बन्ध शुभ व अशुभ परिणामोसे होता है ।
न च बृ./२६६.३७६ अग्रह सह चिय कम्मं विपि व्यभावभेग पिय पच्य मोहं संसारा तेण जोवरस | २६६ | भेटुयारे जइया बट्ठदि सो विर्या सुहासुहाधीणो । तझ्या कत्ता भणिदो संसारी तेण सो आदा । ३७६ । कर्म दो प्रकारके है- शुभ व अशुभ। ये दोनो भी द्रव्य व भावके भेदसे दो-दो प्रकारके है। उन दोनोकी प्रतीति मोह और मोहसे जीवको संसार होता है | २६६| जबतक यह जीव भेद और उपचाररूप व्यवहारमें वर्तता है रामक नह शुभ और अशुभके आधीन है। और तभी तक वह कर्ता कहलाता है, उससे ही आत्मा संसारी होता है । ३७६ ।
त सा / ४ / १०४ ससारकारणत्वस्य द्वयोरप्यविशेषत । न नाम निश्चये नास्ति विशेष पुण्यपापयो । १०४ । निश्चयसे दोनों ही ससारके कारण है, इसलिए पुण्य व पापमें कोई विशेषता नहीं है। (चो. सा./ अ / ४/४० ) ।
प्र. सा./त.प्र./ १८१ तत्र पुण्यपुद्गलबन्धकारणत्वात् शुभपरिणाम' पुण्यं, पापपुद् गलबन्धकारणत्वादशुभपरिणाम. पापम् । पुण्यरूप पुद्गल - कर्मके बन्धका कारण होनेसे शुभपरिणाम पुण्य है और पापरूप इगलके बन्धका कारण होनेसे अशुभपरिणाम पाप है।
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स. सा./आ./१५०, १०३ कर्म सर्वमपि सर्वविदो यह अन्धसाधनमुशन्स्मविशेषाद। तेन सर्वमपि त्यतिषिद्ध ज्ञानमेव मिहितं
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पुण्य
३. पुण्यकी कथंचित् अनिष्टता
शिवहेतु.॥१०३। क्योकि सर्वज्ञदेव समस्त (शुभाशुभ) कर्मको अविशेषतया बन्धका साधन कहते है, इसलिए उन्होने समस्त ही काँका निषेध किया है। और ज्ञानको ही मोक्षका कारण कहा है। (प. ध /उ./३७४) । पं. ध /उ./७६३ नेह्य प्रज्ञापराधत्वान्निर्जराहेतुरङ्गत । अस्ति नाबन्धहेतुर्वा शुभो नाप्यशुभावहात ७६३। -बुद्धिकी मन्दतासे यह भी आशंका नही करनी चाहिए कि शुभापयोग एकदेशसे निर्जराका कारण हो सकता है। कारण कि, निश्चयनयसे शुभोपयोग भी ससारका कारण होनेसे निर्जरादिकका हेतु नही हो सकता और न वह शुभ ही कहा जा सकता है।
५. दोनों ही दुःखरूप या दुःखके कारण है स. सा./मू./४५ अट्ठविहं पिय कम्म सव्य पुग्गलमय जिणा विति। जस्स फलं त बुच्चइ दुवं ति विपच्चमाणस्स ।४५ - आठो प्रकारका कर्म सब पुद्गलमय है, तथा उदयमें आनेपर सबका फल दुख है, ऐसा जिनेन्द्र भगवान ने कहा है। (प ध/उ./२४०)। प्र. सा./मू /७२-७५ णरणारयतिरियसुरा भजति जदि देहस भव दुक्ख ।
कि सो महो वा असुहो उबओगो हवदि जीवाण ७ि२। कुलिसाउहचक्कधरा मुहोवोगप्पगेहि भोगेहि । देहादीण विद्धि कर ति सुहिदा इवाभिरदा ।७३। जदि सति हि पुयाणि य परिणामसमुभवाणि विविहाणि । जणयति विसयतण्हं जोवाण देवतान्ताना ७४। ते पुण्ण उदिण्णतिण्हा दुविहा तण्हाहि विसयसोक्वाणि । इच्छन्ति अणुभवति य आमरण दुक्खस तत्ता ।७५॥ = मनुष्य, नारकी, तिर्यच और देव सभी यदि देहात्पन्न दुखको अनुभव करते हैं तो जीबोका वह ( अशुद्ध) उपयोग शुभ और अशुभ दो प्रकारका कैसे हो सकता है ।७२। बज्रधर और चक्रधर (इन्द्र व चक्रवर्ती) शुभापयोगमूलक भोगोके द्वारा देहादिकी पुष्टि करते है ओर भागोमें रत वर्तते हुए सुखो-जैसे भासित हाते है ।७३। इस प्रकार यदि पुण्य नामकी कोई वस्तु विद्यमान भा है तो वह देवो तकके जावाका विषय तृष्णा उत्पन्न करते है ।७४। और जिनकी तृष्णा उदित है ऐसे वे जीव तृष्णाओके द्वारा दु.खी होते हुए मरण पर्यन्त विषयसुखोको चाहते है, और दु खोसे सन्तप्त होते हुए और दुखदाहको सहन न करते हुए उन्हे भोगते है ।७३ ( देवादिकाके वे सुख पराश्रित, बाधासहित और बन्धके कारण होनेसे वास्तवमे दु ख
ही है-दे० मुख/१)। यो.सा./अ./६/२५ वर्मतोऽपि भवो भोगो दत्ते दु खपरम्परा। चन्दनादपि सपन्न' पावक, प्लोषते न किम् ।२५। जिस प्रकार चन्दनसे उत्पन्न अग्नि भी अवश्य जलाती है, उसी प्रकार धर्मसे उत्पन्न भो भोग
अवश्य दु:ख उत्पन्न करता है। पं.घ./उ./२५० न हि कर्मोदय कश्चित् जन्तार्य. स्यात्सुखावह. । सर्वस्य कर्मणस्तत्र वैलक्षण्याव स्वरूपतः ।२५०1 = कोई भी कर्मका उदय ऐसा नही जो कि जीवको सुख प्राप्त करानेवाला हो, क्योकि स्वभावसे सभी कर्म आत्माके स्वभावसे विलक्षण है। मो. मा, प्र./४/१२१/११ दोन्यौ हो आकुलताके कारण है, तातै बुरे ही है। ...परमार्थत जहाँ आकुलता है तहाँ दुख ही है, तातै पुण्यपापके उदयको भला-बुरा जानना भ्रम है। दे० सुरख/१ ( पुण्यसे प्राप्त लौकिक सुख परमार्थ से दु ख है।)
६. दोनों ही हेय हैं तथा इसका हेतु स. सा./मू./१५० रत्तो बधदि कम्म मचदि जीवो विरागस पत्तो। एसो जिणोवदेसो तम्हा कम्मेसु मा रज्ज ।१५०। -रागी जीव कर्म बांधता है और वैराग्यको प्राप्त जीव कर्मसे छूटता है, यह जिनेन्द्र भगवानका उपदेश है। इसलिए तू कर्मोमें प्रीति मत कर ।
अर्थात समस्त कर्मोका त्याग कर । (और भी दे० पुण्य/२/३ मे स.सा./
आ/१४७, तथा पुण्य/२/४ मे स सा/आ/१५०/क १०३)। स, सा /आ./१६३/क.१०६ संन्यस्तमिदं समस्तमपि तत्कर्मव मोक्षाथिना, सन्यस्ते सति तत्र का किल कथा पुण्यस्य पापस्य वा। सम्यक्त्वादिनिजस्वभावभवनान्मोक्षस्य हेतुर्भवत्, नैष्कर्म्यप्रतिबद्धमुद्धतरस ज्ञानं स्वय धावति ।१०।। -मीक्षार्थीको यह समस्त ही कर्ममात्र त्याग करने योग्य है। जहाँ समस्त कर्मोंका त्याग किया जाता है, तो फिर वहाँ पुण्य व पाप ( को अच्छा या बुरा कहने) की क्या बात है। समस्त कर्मोका त्याग होनेपर, सम्यक्त्वादि अपने स्वभावरूप होनेसे, परिणमन करनेसे मोक्षका कारणभूत होता हुआ, निष्कर्म अवस्थाके साथ जिसका उद्धतरस प्रतिबद्ध है, ऐसा ज्ञान
अपनेआप दौडा चला आता है। स सा./आ/१५० सामान्येन रक्तत्वनिमित्तत्वाच्छ्रभमशुभमुभयकर्माविशेषेण बन्धहेतु साधयति, तदुभयमपि कर्म प्रतिषेधयति ।
-सामान्यपने रागीपनकी निमित्तताके कारण शुभ व अशुभ दोनो कर्मोको अविशेषतया बन्धके कारणरूप सिद्ध करता है, और इसलिए (आगम) दोनो कर्मोंका निषेध करता है। प्र. सा./त. प्र./२१२ यतस्तदविनाभाविना अप्रयताचारत्वेन प्रसिद्ध्यद
शुद्धोपयोगसद्भाव षट्कायप्राणव्यपरोपप्रत्ययवन्धप्रसिद्ध्या हिसक एव स्यात् । ततस्तैस्त. सर्वप्रकार शुद्धोपयोगरूपोऽन्तरगच्छेद: प्रतिषेध्यो यैर्यस्तदायतनमात्रभूत. प्राणव्यपरोपरूपो बहिरङ्गच्छेदो दूरादेव प्रतिषिद्ध स्यात। --जो अशुद्धोपयोगके बिना नही होता ऐसे अप्रयत आचारके द्वारा प्रसिद्ध (ज्ञात ) होनेवाला अशुद्धोपयोगका सद्भाव हिसक ही है, क्योकि, तहाँ छह कायके प्राणोके व्यपरोपके आश्रयसे होनेवाले बन्धकी प्रसिद्धि है। (दे० हिसा/१)। इसलिए उन-उन सर्व प्रकारोसे अशुद्धोपयोगरूप अन्तर गच्छेद निषिद्ध है, जिन-जिन प्रकारोसे कि उसका आयतनमात्रभूत परप्राणव्यपरोपरूप बहिर गच्छेद भी अत्यन्त निषिद्ध हो । इ.स./टो./३८/१५६/७ सम्यग्दृष्टेर्जीवस्य पुण्यपापद्वयमपि हेयम् ।
सम्यग्दृष्टि जीवके पुण्य और पाप दोनो हेय है । (पं. का./ता, वृ./१३९/१६४/१४)। पं.ध./उ./३७४ उक्तमाक्ष्य सुखं ज्ञानमनादेयं दृगारमन । नादेय कर्म
सर्व च तद्वद् दृष्टोण्लन्धित. ३७४। जैसे सम्यग्दृष्टिको उक्त इन्द्रियजन्य सुख और ज्ञान आदेय नही होते है, वैसे ही आत्मप्रत्यक्ष होनेके कारण सम्पूर्ण कर्म भी आदेय नही होते है।
७. दोनों में भेद समझना अज्ञान है प्र. सा/मू./७७ ण हि मण्णदि जो एव णत्थि विसेसो त्ति पुण्णपावाणं । हिडदि घोरमपार ससार मोहस छन्नो ७७) ='पुण्य और पाप इस प्रकार कोई भेद नहीं है' जो ऐसा नही मानता है, वह मोहाच्छादित होता हुआ घोर अपार संसारमें परिभ्रमण करता है। (प.प्र./मू/२/५५) । यो सा./अ/१६ सुखदु खविधानेन विशेष' पुण्यपापयो । नित्यं सौख्यमपश्यद्भिर्मन्यते मन्दबुद्धिभि ।। -अविनाशी निराकुल सुखको न देखनेवाले मन्दबुद्धिजन ही सुख व दुखके करणरूप विशेषतासे पुण्य व पापमें भेद देखते है।
३. पुण्यकी कथंचित् अनिष्टता
.. ससारका कारण होनेसे पुण्य अनिष्ट है स सा./मू./१४५ कम्ममसुह कुसील सुहम्मं चावि जाणह सुसील । कह त होदि सुसील ज ससार पवेसेदि ।१४५। -अशुभम कुशील है और शुभकर्म सुशील है, ऐसा तुम (मोहबश) जानते हो।
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३. पुण्यकी कथंचित अनिष्टता
पुण्य
किन्तु वह भला सुशील कैसे हो सकता है, जब कि वह संसारमें प्रवेश कराता है। प्र. सा./त.प्र./७७ यस्तु पुनरनयो विशेषमभिमन्यमानो धर्मानुराग
मवलम्बते स खलुपरक्तचित्त भित्तितया तिरस्कृतशुद्धोपयोगशक्तिराससार शारीर दुखमेवानुभवति । -जो जीव उन दोनो (पुण्य व पाप) मे अन्तर मानता हुआ धर्मानुराग अर्थात पुण्यानुरागपर अवलम्बित है, वह जीव वास्तवमें चित्तभूमिके उपरक्त होनेसे, जिसने शुद्धोपयोग शक्तिका तिरस्कार किया है, ऐसा वर्तता हुआ,
ससार पर्यन्त शारीरिक दु.खका ही अनुभव करता है। का, अ/मू /४१० पुण्ण पि जो समिच्छदि ससारो तेण ईहिदो होदि। पुण्णं सुगईहेदु' पुण्णखएणेव णिबाण ।४१०१ -जो पुण्यको भी चाहता है, वह ससारको चाहता है, क्योकि, पुण्य सुगतिका कारण है। पुण्यका क्षय होनेसे ही मोक्ष होता है। २. शुभ माव कथचित् पापबन्धके भी कारण हैं
परिग्रहसे रहित है, इसलिए वह परिग्रहकी इच्छासे रहित है। इसी कारण वह धर्म अर्थात् पुण्य (ता वृ टोका) को नही चाहता इसलिए उसे धर्म या पुण्यका परिग्रह नहीं है। वह तो केवल उसका
ज्ञायक ही है। का अ/मू./४०६,४१२ एदे दहप्पयारा पावं कम्मस्स णासिया भणिया। पुण्णस्स य सजणया परपुण्ण त्थ ण कायव्वं ।४०६॥ पुण्णे वि ण आयर कुणह ।४१२१ - ये धर्मके दश भेद पापकर्मका नाश और पुण्यकर्मका बन्ध करनेवाले कहे जाते है, परन्तु इन्हे पुण्यके लिए नहीं करना
चाहिए ।४०६॥ पुण्यमे आदर मत करो।४१२। नि. सा./ता वृ/४१/क. ५६ सुकृतमपि समस्त भोगिनां भोगमूलं, त्यजतु परमतन्वाभ्यासनिष्णातचित्त... भवविमुक्तय...५६ - समस्त पुण्य भोगियो के भोगका मूल है। परमतत्त्वके अभ्यासमें निष्णात चित्तबाले मुनीश्वर भवसे विमुक्त होनेके हेतु उस समस्त शुभकर्मको छोडो।
७. ज्ञानी तो कथचित् पापको ही पुण्यसे अच्छा समझते
प.प्र/मू /२/५६-५७ वर जिय पाव: सुंदर णाणिय ताइँ भणति ।
जोवह दुक्खइँ जणिवि लहु सिवमइ जाड़े कुणति ५६। म पुणु पुण्णई भन्लाइ णाणिय ताइ भण ति । जोवह रज्जइँ देवि लहु दुरखइँ जाई जण ति ।५७ हे जीव । जो पापका उदय जीवको दुख देकर शीघ्र ही मोक्षके जाने योग्य उपायोमें बुद्धि कर देवे, तो वे पाप भी बहुत अच्छे है।६। और फिर वे पुण्य भी अच्छे नहीं जो जीवको राज्य देकर शीघ्र ही नरकादि दुखोको उपजाते है ( दे० अगला शीर्षक) ऐसा ज्ञानी जन कहते है।
रा, वा /६/३/9/५०७/२६ शुभ पापस्यापि हेतुरित्यविरोध । -शुभपरिणाम पापके भी हेतु हो सकते है. इसमे कोई विरोध नहीं है। (विशेष दे० पुण्य/५)।
३. वास्तवमें पुण्य शुभ है ही नहीं। प.ध /3/७६३ शुभो नाप्यशुभावहात् ७६३१ - निश्चयनयसे शुभोपयोग भी ससारका कारण होनेसे शुभ कहा ही नही जा सकता।
४. अज्ञानीजन ही पुण्यको उपादेय मानते हैं स.सा./मू./१५४ परमठ्ठ बाहिरा जे ते अण्णाणेण पुण्णमिच्छति ।
ससारगमणहेदु वि मोक्रबहेदु अजाण तो ॥१५४॥ -जो परमार्थ से बाह्य है, वे मोक्ष के हेतुको न जानते हुए ससार गमनका हेतु होने पर भी, अज्ञानसे पुण्यको (मोक्षका हेतु समझकर ) चाहते है। (ति प./४/५३)। मो, पा/म./५४ सुहजोएण सुभाव परदव्वे कुणइ रागदो साहू। सो तेण हु अण्णाणी णाणी एत्तो हु विवरीओ।४। - इष्ट वस्तुओके संयोगमे राग करनेवाला साधु अज्ञानी है। ज्ञानी उससे विपरीत होता है अर्थात वह शुभ व अशुभ कर्म के फलरूप इष्ट अनिष्ट सामग्रीमे रागद्वेष नहीं करता। प.प्र./मू/२/५४ द सणणाणचरित मउ जो णवि अप्पु मुणेइ। मोक्खहें कारणु भणिवि जिय सो पर ताई करेइ ।।४। - जो सम्यग्दर्शनज्ञान चारित्रमयी आत्माको नहीं जानता वही हे जोव। उन पुण्य व पाप दोनोको मोक्षके कारण जानकर करता है। (मो, मा प्र/७/२२६/१७।
५. ज्ञानी तो पापवत् पुण्यका भी तिरस्कार करता है ति, प.//५२ पुण्णेण होइ विहओ विहवेण मओ मएण मइमोहो। मइमोहेण य पावं तम्हा पुण्णो वि वज्जेओ ।।२१ = कि पुण्यसे विभव, विभवसे मद, मदसे मतिमोह और मतिमोहसे पाप होता है, इसलिए पुण्यको भी छोड़ना चाहिए-(ऐसा पुण्य हमें कभी न
हो-प.प्र.) (प.प्र./मू./२/६०)। यो,सा./यो/७१ जो पाउ विसो पाउ मुणि सव्वु को विमुणेइ । जो
पुण्णु वि पाउ वि भणइ सो बुह को वि हवेइ।७१। - पापको पाप तो सब कोई जानता है, परन्तु जो पुण्यको भी पाप कहता है ऐसा पण्डित कोई बिरला ही है।
६. ज्ञानी पुण्यको हेय समझता है स. सा./मू./२१० अपरिग्गहो अणिच्छो भणिदो णाणी य णिच्छदे धम्म । अपरिग्गहो दुधम्मस्स जाणगो तेण स होई।२१०। -ज्ञानी
८. मिथ्यात्वयुक्त पुण्य तो अत्यन्त अनिष्ट हैं भ बा /मू./५७-६०/१८२-१८७ जे वि अहिंसादिगुणा मरणे मिच्छत्तकडुगिदा होति । ते तस्स कडुगदोद्रियगदं च दुद्ध हवे अफलाणा जह भेसज पि दोस आवहइ विसेण संजुद सते। तह मिच्छत्तविसजुदा गुणा वि दोसावहा होति ।५८ दिवसेण जोयणसयं पि गच्छमाणो सगिच्छिद देस । अण्ण तो गच्छतो जह पुरिसोणेव पाउणादि १६। धणिदं पि स जमतो मिच्छादिट्ठी तहा ण पावेई । इट्ट णिव्वुइ मग उग्गेण तवेण जुत्तो वि ।६०१ = अहिंसा आदि पाँच व्रत आत्माके गुण है, परन्तु मरण समय यदि ये मिथ्यात्वसे संयुक्त हो जायें तो कडवी तुम्बीमे रखे हुए दूधके समान व्यर्थ हो जाते है ।७। जिस प्रकार विष मिल जानेपर गुणकारी भी औषध दोषयुक्त हो जाता है, इसी प्रकार उपरोक्त गुण भी मिथ्यात्वयुक्त हो जानेपर दोषयुक्त हो जाते है। जिस प्रकार एक दिनमें सौ योजन गमन करनेवाला भी व्यक्ति यदि उलटी दिशामें चले तो कभी भी अपने इष्ट स्थानको प्राप्त नहीं होता, उसी प्रकार अच्छी तरह व्रत तप आदि करता हुआ
भी मिथ्यादृष्टि कदापि मोक्षको प्राप्त नहीं हो सकता ।५६-६०॥ प.प्र./मू /२/५६ जे णिय-दसण-अहिमुहा सोक्खु अणंतु लहति । ति विणु पुण्णु करता वि दुक्खु अणतु सहति ॥५६॥ -- जो सम्यग्दर्शनके संमुख है, वे अनन्त सुखको पाते है, और जो जीव सम्यक्त्व रहित है वे पुण्य करते हुए भी, पुण्यके फलसे अल्पसुख पाकर ससारमें अनन्त दुख भोगते है। प प्र/मू /२/५० बर णियद सण अहिमुह मरणु वि जीव लहेसि । मा णियदसणविम्मुहउ पुण्णु वि जीव करेसि ।। -हे जीव । अपने सम्यग्दर्शनके समुख होकर मरना भी अच्छा है, परन्तु सम्यग्दर्शनसे विमुख होकर पुण्य करना अच्छा नही है।५८। दे० भोग-(पुण्यसे प्राप्त भोग पापके मित्र है)।
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पुण्य
४. पुण्यकी कथंचित् इष्टता
दे० पुष/१/१ (प्रशस्त भी राग कारणकी विपरीतता से विपरीत रूपसे
फलित होता है। पं.ध.उ./४४४ नापि धर्म' क्रियामात्र मिथ्यादृष्टेरिहार्थत । नित्यं रागादिसद्भावात प्रत्युताधर्म एव स ।४५४। -मिथ्याष्टिके सदा रागादिभावका सद्भाव रहनेसे केवल क्रियारूप व्यवहार धर्मका अर्थात् शुभयोगका पाया जाना भी धर्म नही है। किन्तु अधर्म ही है।४४४। भा पा /पं. जयचन्द/११७ अन्यमतके श्रद्धानीकै जो कदाचित् शुभ लेश्याके निमित्त पुण्य भी बन्ध होय तौ ताकू पाप हीमें गिणिये।
९. मिथ्यात्व युक्त पुण्य तीसरे भव नरकका कारण है भ, आ /वि./५८/१८५/६ मिथ्यादृष्टेर्गणा पापानुबन्धि स्वल्पमिन्द्रियसुख दत्त्वा बहारम्भपरिग्रहादिषु आसक्तं नरके पातयन्ति - मिथ्यादृष्टिके ये अहिंसादि गुण (या वत) पापानुबन्धी स्वल्प इन्द्रियमुखकी प्राप्ति तो कर देते है, परन्तु जीवको बहुत आरम्भ और परिग्रहमे
आसक्त करके नरकमें ले जाते है। पप्र टी/२/१७/१७४/- निदानबन्धोपार्जितपुण्येन भवान्तरे राज्यादि
विभूतौ लब्धाया तु भोगान् त्यक्तुं न शक्नोति तेन पुण्येन नरकादिदुःख लभते रावणादिवत् । -निदान बन्धसे उत्पन्न हुए पुण्यसे भवान्तरमें राज्यादि विभूतिकी प्राप्ति करके मिथ्यादृष्टि जीव भोगोका त्याग करनेमे समर्थ नहीं होता, अर्थात उनमें आसक्त हो जाता है। और इसलिए उस पुण्यसे बह रावण आदिकी भाँति नरक आदिके दु खोको प्राप्त करता है। (द्र सं./टी./३८/१६018), (स, सा./ता. वृ २२४-२२७/३०५/१७)।
४. पुण्यकी कथंचित् इष्टता
१. पुण्य व पापमें महान् अन्तर है भ आ /मू./६१ जस्स पुण मिच्छदिद्विस्स णत्थि सील वदं गुणो चावि।
सो मरणे अप्पाण' कह ण कुणइ दीहसंसार ।६१ = जब वतादि सहित भी मिथ्यावृष्टि संसारमे भ्रमण करता है (दे० पुण्य/३/८) तब
तादिसे रहित होकर तो क्यो दीर्घ ससारी न होगा। मो. पा /मू./२५ वर वरतवेहि सग्गो मा दुक्ख होउ णिरइ इयरेहि। छायातवट्ठियाणं पडिवालंताण गुरुभेय ।२५। जिस प्रकार छाया और आतपमें स्थित पथिकोके प्रतिपालक कारणोमें बडा भेद है, उसी प्रकार पुण्य व पापमे भी बडा भेद है। बत, तप आदि रूप पुण्य श्रेष्ठ है, क्योकि उससे स्वर्गकी प्राप्ति होती है और उससे विपरीत अबत व अतप आदिरूप पाप श्रेष्ठ नहीं है, क्योकि उसमे नरककी प्राप्ति होती है। ( इ उ /३); ( अन. ध./८/१५/७४०)। त. सा /४/१०३ हेतुकार्यविशेषाभ्यां विशेष पुण्यपापयो । हेतु शुभा
शुभौ भावी कार्ये चैव सुखासुखे ।१०३ -हेतु और कार्यको विशेपता होनेसे पुण्य और पापमें अन्तर है । पुण्यका हेतु शुभभाव है और पापका अशुभभाव है । पुण्यका कार्य सुख है और पापका दुख है।
२. इष्ट प्राप्तिमें पुरुषार्थसे पुण्य प्रधान है भ. आ /मू /१७३१/१५६२ पाओदएण अत्यो हत्थ पत्तो वि णस्सदि णरस्स। दूरादो वि सपुण्णस्स एदि अत्थो अयत्तेण ।१७३१। =पापका उदय आनेपर हस्तगत द्रव्य भी नष्ट हो जाता है और पुण्यका उदय आनेपर प्रयत्नके बिना ही दूर देशसे भी धन आदि इष्ट सामग्रीकी प्राप्ति हो जाती है। (कुरल काव्य/३८/६); (पं.वि/१/१८८)। और भी. नियति/३/५ ( देव ही इष्टानिष्टको सिद्धिमें प्रधान है। उसके सामने पुरुषार्थ निष्फल है।)
आ. अनु./३७ आयु श्रीर्व पुरादिक यदि भवेत्पुण्य पुरोपाजितं, स्यात सर्व न भवेन्न तच्च नितरामायासितेऽप्यात्मनि ।३७ -यदि पूर्वोपार्जित पुण्य है तो आयु, लक्ष्मी और शरीरादि भी यथेच्छित प्राप्त हो सकते हैं, परन्तु यदि वह पुण्य नही है तो फिर अपनेको क्लेशित करनेपर
भी वह सब बिलकुल भी प्राप्त नही हो सकता। (पं वि/१/१८४)। पबि//३६ वाञ्छत्येव सुखं तदत्र विधिना दत्तं परं प्राप्यते। =
ससारमे मनुष्य सुखकी इच्छा करते है परन्तु वह उन्हे विधिके द्वारा दिया गया प्राप्त होता है। का अ/मू./४२८,४३४ लच्छि वंछेह णरो णेव सुधम्मेसु आयरं कुणइ । बीएण विणा कत्थ वि कि दीसदि सस्स णिपत्ती ।४२८. उज्जमरहिए वि लच्छिसंपत्ती। धम्मपहावेण. १४३४- यह जीव लक्ष्मी तो चाहता है, किन्तु सुधर्मसे (पुण्यक्रियाओंसे ) प्रीति नहीं करता। क्या कहीं बिना बीजके भी धान्यकी उत्पत्ति देखी जाती है ।।४२८॥ धर्म के प्रभावसे उद्यम न करनेवाले मनुष्यको भी लक्ष्मीकी प्राप्ति हो जाती है।४३४ (पं. वि./१/१८६)। अन. ध /१/३७,६० विश्राम्यत स्फुरत्पुण्या गुडखण्डसितामृत । स्पर्धमाना' फलिष्यन्ते भावा स्वयमितस्तत ॥३७॥ पुण्यं हि समुखीनं चेत्सुखोपायशतेन किम् । न पुण्य समुखीनं चेत्सुखोपायशतेन किम् । ६०। -हे पुण्यशालियो। तनिक विश्राम करो अर्थात अधिक परिश्रम मत करो। गुड, खाण्ड, मिश्री और अमृतसे स्पर्धा रखनेवाले पदार्थ तुमको स्वयं इधर उधरसे प्राप्त हो जायेगे ।४२८। पुण्य यदि उदयके सम्मुख है तो तुम्हे दूसरे सुखके उपाय करनेसे क्या प्रयोजन है, और वह सन्मुख नही है तो भी तुम्हे दूसरे सुत्रके उपाय करनेसे
क्या प्रयोजन है ।।४३६। स. सा /ता, वृ./प्रक्षेपक २१६-१/३०९/१३ अनेन प्रकारेण पुण्योदये सति सुवर्ण भवति न च पुण्याभावे । - इस प्रकारसे (नागफणीकी जड, हथिनीका मूत, सिन्दूर और सीसा इन्हे भट्टीमे धौकनीसे धौकनेके द्वारा) सुवर्ण केवल तभी बन सकता है, जब कि पुण्यका उदय हो, पुण्यके अभावमे नहीं बन सकता।
३. पुण्यकी महिमा व उसका फल कुरल काव्य/४/१-२ धर्मात साधुतर कोऽन्यो यतो विन्दन्ति मानवा ।
पुण्य स्वर्गप्रद नित्य निर्वाणं च सुदुर्लभम् ।। धर्मान्नास्त्यपरा काचित सुकृतिदेहधारिणाम् । तत्त्यागान्न परा काचिद् दुष्कृतिदेहभागिनाम् ।२। -धर्म से मनुष्यको स्वर्ग मिलता है और उसीसे मोक्षकी प्राप्ति भी होती है, फिर भला धर्मसे बढकर लाभदायक वस्तु और क्या है। १॥ धर्म से बढकर दूसरी और कोई नेकी नहीं, और उसे भुला देनेसे बढकर और कोई बुराई भी नहीं ॥२॥ घ. १/१,१,२/१०५/४ काणि पुण्ण-फलाणि । तित्थयरगणहर-रिसि
चक्कवट्टि-बलदेव-वासुदेव-सुर-विज्जाहर-रिद्धीओ। -प्रश्न-पुण्यके फल कौनसे है। उत्तर-तीर्थकर, गणघर, ऋषि, चक्रवर्ती, बलदेव, वासुदेव, देव और विद्याधरोकी ऋद्धियाँ पुण्यके फल है। म. पू./१७/१६१-१६६ पुण्याद् विना कुतस्तादृगरूपसंपदनीदृशी। पुण्याद् विना कुतस्ताहम् अभेद्यगात्रवन्धनम् ।१९११ पुण्याइ विना कुतस्ताङ निधिरत्नद्धिरू जिता। पुण्याद विना कुतस्तादृग इभाश्वादिपरिच्छद. १६२ = पुण्यके बिना चक्रवर्तके समान अनुपम रूप, सम्पदा, अभेद्य शरीरका बन्धन, अतिशय उत्कट निधि, रत्नोंकी ऋद्धि, हाथी घोडे आदिका परिवार १११-१४२० (तथा इसी प्रकार) अन्त पुरका वैभव, भोगोपभोग, द्वीप समुद्रोकी विजय तथा सर्व आज्ञा व ऐश्वर्यता आदि ।१६३-१६६। ये सब कैसे प्राप्त हो सकते है। (पं. वि /१/१८८)। पं.वि /१/१८६ कोऽप्यन्धोऽपि सुलोचनोऽपि जरसा ग्रस्तोऽपि लावण्यवान्, नि.प्राणोऽपि हरिविरूपतनुरप्याद्य ष्यते मन्मथ । उद्योगोज्झित
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५. पुण्यकी अनिष्टता व इष्टताका समन्वय
पुण्य
चेष्टितोऽपि नितरामालियते च श्रिया, पुण्यादन्यदपि प्रशस्तमखिलं ५. पुण्यकी अनिष्टता व इष्टताका समन्वय जायेत् यद्दुर्घटम् ।१६। -पुण्यके प्रभावसे कोई अन्धा भी प्राणी निर्मल नेत्रोका धारक हो जाता है, वृद्ध भी लावण्ययुक्त हो जाता है, १. पुण्य दो प्रकारका होता है निर्बल भी सिंह जैसा बलिष्ठ हो जाता है, विकृत शरीरवाला भी
प्र. सा./मू /२५५ ब त. प्र./२५६ रागो पसत्यभूदो वत्थुविसेसेण फलदि कामदेवके समान सुन्दर हो जाता है। जो भी प्रशंसनीय अन्य
विवरीदं । णाणाभूमिगदाणिह बीजाणिव सस्सकालम्हि ॥२५॥ समस्त पदार्थ यहाँ दुर्लभ प्रतीत होते है, वे सब पुण्योदयसे प्राप्त हो
शुभोपयोगस्य सर्वज्ञव्यवस्थापितवस्तुषु प्रणिहितस्य पुण्योपचयपूर्वजाते है ।१८६॥
कोऽपुनर्भवोपलम्भ' किल फलं, तत्तु कारणवैपरीत्याद्विपर्यय एव । का.अ./म./४३४ अलियवयणं पि सच्चं... धम्मपहावेण णरो अणओ
तत्र छद्मस्थव्यवस्थापितवस्तूनि कारणवैपरीत्यं तेषु व्रतनियमाध्ययनवि सहकरो होदि ।४३४। धर्मके प्रभावसे जीवके झूठ वचन भी
ध्यानदानरतत्वप्रणिहितस्य शुभोपयोगस्यापुनर्भवशून्यकेवलपुण्यासच्चे हो जाते है, और अन्यान्य भी सब सुखकारी हो जाता है।
पसदप्राप्ति । फलवै परीत्यं तत्सुदेवमनजत्वं । जैसे इस जगत में अनेक ४. पुण्य करनेकी प्रेरणा
प्रकारकी भूमियों में पडे हुए बीज धान्यकालमें विपरीततया फलित
होते हैं, उसी प्रकार प्रशस्तभूत राग वस्तु भेदसे विपरीततया फलता कुरल काव्य/४/३ सत्कृत्यं सर्वदा कार्य यदुदर्के सुखावहम् । पूर्ण शक्ति है ।२५॥ सर्वज्ञ स्थापित वस्तुओंमें युक्त शुभोपयोगका फल पुण्यसमाधाय महोत्साहेन धीमता ।३। -अपनी पूरी शक्ति और पूरे संचय पूर्वक मोक्षकी प्राप्ति है। वह फल कारणकी विपरीतता होनेसे उत्साहके साथ सत्कर्म सदा करते रहो।
विपरीत ही होता है। वहाँ छद्मस्थ स्थापित वस्तुमै कारणम पु./३७/२०० तत. पुण्योदयोद्भूता मत्वा चक्रभृतः श्रियम् । चिनुध्वं
विपरीतता है, (क्योंकि) उनमें व्रत, नियम, अध्ययन, ध्यान, दान भो बुधा' पुण्यं यत्पुण्यं सुखसंपदाम् ।२००। - इसलिए हे पण्डित
आदि रूपसे युक्त शुभोपयोगका फल जो मोक्षशून्य केवल पुण्यास्पदजनो। चक्रवर्तीकी विभूतिको पुण्यके उदयसे उत्पन्न हुई मानकर,
की प्राप्ति है, वह फलकी विपरीतता है। बह फल सुदेव मनुष्यत्व उस पुण्यका संचय करो, जो कि समस्त सुख और सम्पदाओंकी
है। (अर्थात पुण्य दो प्रकारका है-एक सम्यग्दृष्टिका और दूसरा दुकानके समान है ।२००।
मिथ्यादृष्टिका । पहिला परम्परा मोक्षका कारण है और दूसरा केबल
स्वर्ग सम्पदाका)। आ. अनु /२३,३१,३७ परिणाममेव कारणमाहु. खलु पुण्यपापयोः प्राज्ञाः ।
दे० मिथ्याष्टि/४ (सम्यग्दृष्टिका पुण्य पुण्यानुबन्धी होता है और तस्मात्पापापचय. पुण्योपचयश्च सुविधेय. ।२३। पुण्यं कुरुष्व कृतपुण्य
मिथ्यादृष्टिका पापानुबन्धी)। मनीदशोऽपि, नोपद्रवोऽभिभवति प्रभवेच्च भूत्यै। संतापयअगद
दे० धर्म/७/८-१२ ( सम्यग्दृष्टिका पुण्य तीर्थकर प्रकृति आदिके बन्धका शेषमशीतरश्मिः, पषु पश्य विदधाति विकाशलक्ष्मीम् ।३।
__ कारण होनेसे विशिष्ट प्रकारका है)। इत्यार्याः सुविचार्य कार्यकुशलाः कार्येऽत्र मन्दोद्यमा द्रागागामि
दे० पुण्य/३/8 ( और मिथ्याष्टिका पुण्य निदान सहित व भोगमूलक भवार्थमेव सततं प्रीत्या यतन्ते तराम ॥३७॥ -विद्वात् मनुष्य
होनेके कारण आगे जाकर कुगतियोंका कारण होता है, अत' अत्यन्त निश्चयसे आत्मपरिणामको ही पुण्य और पापका कारण बतलाते
अनिष्ट है)। हैं, इसलिए अपने निर्मल परिणामके द्वारा पूर्वोपार्जित पापकी
दे० मिथ्याष्टि/४ (मिध्यादृष्टि भोगमूलक धर्मकी श्रद्धा करता है। निर्जरा, नवीन पापका निरोध और पुण्यका उपार्जन करना चाहिए ।२३। हे भव्य जीव ! तू पुण्य कार्यको कर, क्योंकि, पुण्यवान प्राणीके
मोक्षमूलक धर्मको वह जानता ही नहीं)। ऊपर असाधारण उपद्रव भी कोई प्रभाष नहीं डाल सकता है। उलटा
१. भोगमूलक पुण्य ही निषिद्ध है योगमूलक नहीं वह उपद्रव ही उसके लिए सम्पत्तिका साधन बन जाता है ।३१५ इसलिए योग्यायोग्य कार्यका विचार करनेवाले श्रेष्ठ जन भले प्रकार पं.वि./७/२५ पुंसोऽर्थेषु चतुर्षु निश्चलतरो मोक्षः पर सरसुख., शेषाविचार करके इस लोकसम्बन्धी कार्यके विषयमें विशेष प्रयत्न नहीं स्तद्विपरीतधर्मकलिता हेया मुमुक्षोरतः। तस्मात्तत्पदसाधनस्वधरणो करते हैं, किन्तु आगामी भवोंको सुन्दर बनानेके लिए ही वे निरन्तर धर्मोऽपि नो संमत', यो भोगादिनिमित्तमेव स पुन. पापं बुधैर्मन्यते प्रीति पूर्वक अतिशय प्रयत्न करते हैं ।३७१
२१-धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष इन चार पुरुषार्थों में केवल मोक्ष 4. वि./१/१८३-१८८ नो धर्मादपरोऽस्ति तारक इहाश्रान्तं यतध्वं पुरुषार्थ ही समीचीन मुखसे युक्त होकर सदा स्थिर रहनेवाला है। बुधा' १८३॥ निधूताखिलदुःखदापदि सुहृद्धर्मे मतिर्धार्यता शेष तीन पुरुषार्थ उससे विपरीत (अस्थिर) स्वभाववाले हैं। अतएव १८६। अन्यतरं प्रभवतीह निमित्तमात्र, पात्रं बुधा भवत निर्मल
वे मुमुक्षुजनके लिए छोड़नेके योग्य हैं। इसलिए जो धर्मपुरुषार्थ पुण्यराशे. १८८। -इस संसारमें डूबते हुए प्राणियोंका उद्धार करने
उपर्युक्त मोक्षपुरुषार्थ का साधक होता है वह हमें अभीष्ट है, किन्तु वाला धर्मको छोडकर और कोई दूसरा नहीं है। इसलिए हे जो धर्म केवल भोगादिका ही कारण होता है, उसे विद्वज्जन पाप ही विद्वज्जनो । आप निरन्तर धर्मके विषयमें प्रयत्न करें ।१३। निश्चय
समझते हैं। से समस्त दुखदायक आपत्तियोंको नष्ट करनेवाले धर्ममें अपनी __ दे. धर्म/७ ( यद्यपि व्यवहार धर्म पुण्य प्रधान होता है, परन्तु यदि बुद्धिको लगाओ।१८६। (पुण्य व पाप ही वास्तवमें इष्ट संयोग व निश्चय धर्मकी ओर झुका हुआ हो तो परम्परासे निर्जरा व मोक्षका वियोगके हेतु है) अन्य पदार्थ तो केवल निमित्त मात्र हैं। इसलिए कारण होता है।) हे पण्डित जन ! निर्मल पुण्यराशिके भाजन होओ अर्थात पुण्य प.प्र./टी./२/६०/१८२/१ इदं पूर्वोक्तं पुण्य भेदाभेदरत्नत्रयाराधनारहिउपार्जन करो ।१८।
तेन दृष्टश्रुतानुभूतभोगाकाक्षारूपनिदानबन्धपरिणामसहितेन जीवेन का. अ./मू./४३७ इय पञ्चवं पेच्छइ धम्माहम्माण विविहमाहप्पं । यदुपाजितं पूर्वभवे तदेव मदमहंकार जनयति बुद्धिविनाशं च
धम्म आयरह सया पावं दूरेण परिहरह।४३७१ -हे प्राणियो! इस करोति । न च पुन' सम्यक्त्वादिगुणसहित भरतसगररामपाण्डवादिप्रकार धर्म और अधर्मका अनेक प्रकार माहात्म्य प्रत्यक्ष देखकर सदा पुण्यबन्धवत् । मदाहंकारादिविकल्पं त्यक्त्वा मोक्षं गताः। भेदाधर्मका आचरण करो, और पापसे दूर ही रहो।
भेद रत्नत्रयकी आराधनासे रहित तथा दृष्ट श्रुत व अनुभूत भोगोंदे० धर्म/५/२ (सावध होते हुए भी पूजा आदि शुभ कार्य अवश्य करने की आकांक्षारूप निदानभन्धसे सहित होनेके कारण ही, जीवोके कर्तव्य है)
द्वारा पूर्वमें उपार्जित किया गया वह पूर्वोक्त पुण्य मद व अहंकार
शेष तीन पुरुषसमीचीन मखर मोक्ष इन चारन स पुन पाप धनवधरणो वे मुमुक्षजनक उससे विपरीतत होकर सदासयों में केवल मान
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भा० ३-९
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पुण्य
पुण्यास्रव कथाकोश
सुख प्राप्त करानेकी सामर्थ्य है उसे स्वर्गसुखकी प्राप्ति कितनी दूर है अर्थात् कौन बडी बात है। का. अ./४११-४१२ जो अहिलसेदि पुण्णं सकसाओ 'बिसयसोवखतबहाए । दूरे तस्स विसोही विसोहिमू लाणि पुण्णाणि ।४११। पुण्णासाए ण पुण्ण जदो णिरीहरस पुण्णसंपत्ती। इय जाणिऊण जइणो पुण्णो वि म( ण ) आयरं कुणह ।४१२। जो कषाय सहित होकर विषयतृष्णासे पुण्यकी अभिलाषा करता है उससे विशुद्धि और विशुद्धिमूलक पुण्य दूर है।४११। तथा पुण्य की इच्छा करनेसे पुण्य नहीं होता, बल्कि निरीह ( इच्छा रहित) व्यक्तिको ही उसकी प्राप्ति होती है। अत ऐसा जानकर हे यतीश्वरो। पुण्यमें भी आदरभाव मत करो।४१२॥
उत्पन्न करता है तथा बुद्धिको भ्रष्ट करता है, परन्तु सम्यक्त्वादि गुणोसे सहित पुण्य ऐसा नहीं करता। जैसे कि भरत, सगर, राम व पाण्डवादिका पुण्य, जिसको प्राप्त करके भी वे मद और अहंकारादि विकल्पोंके त्यागपूर्वक मोक्षको प्राप्त हो गये। (प प्र./टी./२/५७/१७६/८)।
३. पुण्यके निषेधका कारण व प्रयोजन प्र सा /मू /११ धम्मेण परिणदप्पा अप्पा जदि सुद्धसंपयोगजुदो। पावदि णिव्वाणमुह सुहोवजुत्तो व सग्गसुह ।११। -धर्मसे परिणत स्वरूपवाला आत्मा यदि शुद्ध उपयोगमे युक्त हो तो मोक्ष सुरखको प्राप्त करता है, और यदि शुभोपयोग वाला हो तो स्वर्ग सुखको प्राप्त करता है ( इसलिए मुमुक्षुको शुद्धोपयोग ही प्रिय है शुभोपयोग नहीं।) (बा अ/४२), (ति.प/४/५७) । दे० पुण्य/२/६-(अशुद्धोपयोग होनेके कारण पुण्य व पाप दोनों
त्याज्य है।) का. अमू./४१० पुण्ण पि जो समिच्छदि ससारो तेण ई हिदो होदि। पुण्णं सुगई-हेदु पुण्ण-खएणेव णिव्वाणं ।४१० = जो पुण्यको चाहता है वह ससारको चाहता है क्योंकि पुण्य सुगतिका कारण है। पुण्य क्षय होनेसे ही मोक्ष होता है। (अत' मुमुक्ष भव्य पुण्यके क्षयका प्रयत्न करता है, उसकी प्राप्तिका नही।) नि.सा/ता. वृ/४१/क १६ सुकृतमपि समस्तं भोगिना भोगमूलं, त्यजतु परमतत्त्वाभ्यासनिष्णातचित्त । उभयसमयसारं सारतत्त्वस्वरूपं, भजतु भवविमुक्त्यै कोऽत्र दोषो मुनोश' IRRI =समस्त सुकृत ( शुभ कर्म ) भोगियोके भोगका मूल है, परमतत्त्वके अभ्यासमे निष्णात चित्तबाले मुनीश्वर भवसे विमुक्त होनेके हेतु उस समस्त शुभकर्म को छोडो और सारतत्वस्वरूप ऐसे उभय समयसारको भजो। इसमे क्या दोष है। प्र सा /ता वृ/१८०/२४३/१६ अय परिणाम' सर्वोऽपि सोपाधित्वात् बन्धहेतुरिति ज्ञात्वा बन्धे शुभाशुभसमस्तरागद्वेषविनाशार्थं समस्तरागाद्यपाधिरहिते सहजानन्दै कलक्षणसुखामृतस्वभावे निजात्मद्रव्ये भावना कर्तव्येति तात्पर्यम्। शुभ व अशुभ समस्त ही परिणाम उपाधि सहित होनेके कारण बन्धके हेतु है (दे० पुण्य/२/४)। ऐसा जानवर, बन्धरूप समस्त शुभाशुभ रागद्वेषका विनाश करनेके लिए, समस्त रागादि उपाधिसे रहित सहजानन्द लक्षणवाले सुखामृत स्वभावी निजात्मद्रव्यमें भावना करनी चाहिए ऐसा तात्पर्य है । (प का./ता.वृ/१२८-१३०/१६३/११) । दे० धर्म/७/२ ( शुद्धभावका आश्रय करनेपर ही शुभभावोंका निषेध
किया है सर्वथा नही।) मो, मा प्र 10/३१/१४ प्रश्न-शास्त्रविः शुभ-अशुभ को समान का है (दे० पुण्य/२), तात हमकों तौ विशेष जानना युक्त नाही. उत्तर-जे जीव शुभोपयागको मोक्षका कारण मानि, उपादेय मान, शुद्धोपयोगको नाही पहिचान है, तिनिकौं शुभ-अशुभ दोऊनिकों अशुद्धताकी अपेक्षा वा बन्धकारणकी अपेक्षा समान दिखाये है, बहुरि शुभ-अशुभका परस्पर विचार कीजिए, तौ शुभभावनि विर्षे कषाय मद हो है, तातै बन्ध हीन हो है । अशुभ भावनिवि कषाय तोत्र हो है, तातै बन्ध बहुत हो है। ऐसे विचार किए अशुभकी अपेक्षा सिद्धान्त विष शुभको भला भी कहिये है। (दे० पुण्य/४/१ तथा पुण्य/५/५)।
१. सम्यग्दृष्टिका पुण्य निरीह होता है इ. उ/४ यन्न भाव शिव दत्ते द्यौ कियद्दूरवर्तिनी। यो नयत्याशु
गम्युति कोशार्दू किं स सीदति ।४। जो मनुष्य किसी भारको स्वेच्छासे शीघ्र दो कोस ले जाता है, वह उसी भारको आधाकोस ले जानेमे कैसे खिन्न हो सकता है। उसी प्रकार जिस भावमें मोक्ष-
५. पुण्यके साथ पाप प्रकृतियोंके बन्ध सम्बन्धी समन्वय रा. वा /६/३/७/१०७/२३ स्यादेतव-शुभ. पुण्यस्येत्यनिर्देश, • कुतः ।
घातिकर्मबन्धस्य शुभपरिणामहेतुत्वादिति; तन्न; कि कारणम् । इतरपुण्यपापापेक्षत्वाद, अधातिकर्मसु पुण्यं पापं चापेक्ष्येदमुच्यते । कुतः। घातिकर्मबन्धस्य स्वविषये निमित्तत्वात् । अथवा नैवमवधारणं क्रियते---शुभ. पुण्यस्यैवेति । कथं तर्हि । शुभ एव पुण्यस्येति । तेन शुभ पापस्यापि हेतुरित्यविरोध । यद्येव शुभ पापस्यापि [हेतु ] भवतिः अशुभ. पुण्यस्यापि भवतीत्यभ्युपगम कर्तव्य', सर्वोत्कृष्टस्थितीनाम् उत्कृष्टसंक्लेशहेतुकत्वात । .. तत' सूत्रद्वयमनर्थकमिति; नानर्थकम, अनुभागबन्ध प्रत्येतदुक्तम् । अनुभागबन्धो हि प्रधानभूत. तन्निमित्तत्वात सुखदुःख विपाकस्य। तत्रोत्कृष्ट विशुद्धपरिणामनिमित्त सर्व शुभप्रकृतीनामुत्कृष्टाणुभागबन्धः । उत्कृष्टसंक्लेशपरिणामनिमित्त सर्वाशुभप्रकृतीनामुत्कृष्टानुभागबन्ध' । शुभपरिणाम. अशुभजधन्यानुभागबन्धहेतुत्वेऽपि भूयस शुभस्य हेतुरिति शुभ' पुण्यस्येत्युच्यते, यथा अल्पापकारहेतुरपि बहूपकारसद्भाबादुपकार इत्युच्यते। एवमशुभ' पापस्येत्यपि। -प्रश्न-जब घाति कर्मोंका बन्ध भी शुभ परिणामोंसे होता है तो 'शुभ. पुण्यस्य' अर्थात् 'शुभपरिणाम पुण्यास्रवके कारण है' यह निर्देश व्यर्थ हो जाता है। उत्तर-१, अघातिया कर्मों में जो पुण्य और पाप प्रकृतियाँ है, उनको अपेक्षा ही यहाँ पुण्य व पाप हेतुताका निर्देश है, घातियाकी अपेक्षा नहीं। २. अथवा शुभ पुण्यका ही कारण है ऐसा अवधारण नहीं करते हैं, किन्तु 'शुभ ही पुण्यका कारण है' यह अवधारण किया गया है। इससे ज्ञात होला है कि शुभ पापका भी हेतु हो सकता है। प्रश्नयदि शुभ पापका और अशुभ पुण्यका भी कारण होता है; क्योंकि सब प्रकृतियोंका उत्कृष्ट स्थितिबन्ध उत्कृष्ट संक्लेशसे होता है (दे० स्थिति/४), अत: दोनों सूत्र निरर्थक हो जाते है। उत्तरनहीं, क्योकि यहाँ अनुभागबन्धकी अपेक्षा सूत्रोको लगाना चाहिए। अनुभागबन्ध प्रधान है, वही सुख-दुखरूप फलका निमित्त होता है। समस्त शुभ प्रकृतियोका उत्कृष्ट अनुभागबन्ध उत्कृष्ट विशुद्ध परिणामोसे और समस्त अशुभ प्रकृतियोका उत्कृष्ट अनुभागबन्ध उत्कृष्ट संक्लेश परिणामोसे होता है (दे० अनुभाग/२/२)। यद्यपि उत्कृष्ट शुभ परिणाम अशुभके जघन्य अनुभागबन्धके भी कारण होते है, पर बहुत शुभके कारण होनेसे 'शुभ पुण्यस्य' सूत्र सार्थक है। जैसे कि घोडा अपकार करने पर भी बहुत उपकार करनेवाला उपकारक ही माना जाता है। इसी तरह अशुभ' पापस्य' इस सूत्र में
भी समझ लेना चाहिए। पुण्यप्रभ-क्षौद्रवर द्वीपका रक्षक देव-दे० व्यतर/४ । पुण्यास्रव कथाकोश-४५०० श्लोकोमें रचित । (ती./३१७) ।
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शरीराहारविषघातसे पूरण और अथवा
आदिके
पुद्गल
६७
पुद्गल पुदगल-जो एक दूसरेके साथ मिलकर बिछुडता रहे, ऐसा पूरण
मूर्तस्वभाव, १५ अमूर्त स्वभाव, १६ एकप्रदेशम्वभाव,१७. अनेकप्रदेशगलन स्वभाबी मूर्तीक जड पदार्थ 'पुद्गल' ऐसी अन्यर्थ संज्ञाको
स्वभाव, १८. विभावस्वभाव, १६. शुद्धस्वभाव, २०. अशुद्धस्वभाव,
और २१, उपचरितस्वभाव। (तथा २२. अनुपचरित स्वभाव, २३. प्राप्त होता है। तहाँ भी मूलभूत पुद्गल पदार्थ तो अविभागी परमाणु
एकान्तस्वभाव, और २४. अनेकान्त स्वभाव (न.च../७० की टी) ही है। उनके परस्पर बन्धसे ही जगत् के वित्र विचित्र पदार्थोका
ये द्रव्यो के विशेष स्वभाव है। उपरोक्त कुल २४ स्वभावोमेसे अमूर्त, निर्माण होता है, जो स्कन्ध कहलाते है। स्पर्श, रस, गन्ध, वर्ण मे
चैतन्य व अभव्य स्वभावसे रहित पुद्गलके २१ सामान्य विशेष पुद्गलके प्रसिद्ध गुण है।
स्वभाव है (न. च वृ./७०)। १.पुद्गल सामान्यका लक्षण १. निरुक्तथर्थ
५. पुद्गल द्रब्यके विशेष गुण
त. सू./१२३ रूपर्शरसगन्धवर्णवन्त' पुद्गला' ।२३। -पुद्गल स्पर्श, रस, रा,बा1/१/२४,२६/४३४/१२ पूरण गलनान्वर्थ मंज्ञरवान पुद्गला' ।२४।।
गन्ध और वर्णवाले होते है। (न.च. वृ./१३); (ध, १५/३३/६); भेदसघाताम्या च पूर्यन्ते गलन्ते चेति परणगलनारिमको क्रियामन्तर्भाव्य पुदगलशब्दोऽन्वर्थ- ... पुद्गलानाद्वा (२६॥ अथवा पुमासो
(प्र. सा./त. प्र./१३२)।
न, च. वृ./१४ बण्ण रस पंच गंधा दो फासा अट्ठ णायब्बा ।१४। पाँच जीवा, ते. शरीराहारविषयकरणोपकरणादिभावेन गिल्यन्त इति
वर्ण, पाँच रस, दो गन्ध, और आठ स्पर्श ये पुद्गलके विशेष गुण है। पृद्गला' । =भेद और संघातसे पूरण और गलनको प्राप्त हो वे
आ. प./२ पुद्गलस्य स्पर्शरसगन्धवर्णा मूर्त्तत्वमचेतनत्वमिति षट् । पुद्गल है यह पुद्गल द्रव्यकी अन्वर्थ संज्ञा है ।२४। अथवा पुरुष यानी
- पुदगल द्रव्यके स्पर्श, रस, गन्ध, वर्ण, मूर्तत्व और अचेतनत्व, ये जीव जिनको शरीर, आहार विषय और इन्द्रिय-उपकरण आदिके
छह विशेष गुण है। रूपमें निगलें अर्थात ग्रहण करें वे पुद्गल है ।२६।
प्र. सा./त प्र./१२६, १३६ भाववन्तौ क्रियावन्तौ च पुदगलजीवी परिनि, सा/ता, वृह गलनपूरणस्वभावसनाथः पुद्गल' जो गलन
णामाद्भेदसंघाताभ्यां चोत्पद्यमानावतिष्ठमानभज्यमानत्वात् ।१२।। पूरण स्वभाव सहित है, वह पुद्गल है। (द्र, सं./टी./१५/१०/१२);
गद्धगलस्य बन्धहेतुभूतस्निग्धरुक्षगुणधर्मत्वाच्च ।१३६। -पुद्गल तथा (द्र. सं./टी./२६/७४/९)।
जीव भाववाले तथा क्रियावाले है। क्योंकि परिणाम द्वारा तथा २. गुणोंकी अपेक्षा
संघात और भेदके द्वारा वे उत्पन्न होते है टिकतें है और नष्ट होते
है ।१२। (पं. का./ता, वृ/२७/५७/६); (पं.ध/उ./२५) । बन्धके त. स./५/२३ रपर्शरसगन्धवर्ण वन्त' पुद्गला. १२३१ -स्पर्श, रस, गन्ध
हेतुभूत स्निग्ध व रुक्षगुण पुद्गलका धर्म है ।१३६। और वर्ण वाले पुद्गल होते हैं ।
६. पुद्गलके प्रदेश १.पुद्गलके भेद
नि. सा./मू ३५ संखेज्जासंखेज्जाणं तप्रदेशा हवं ति मुत्तस्स ॥३५॥ = १. अणु व स्कन्ध
पुद्गलोंके संख्यात, असंख्यात और अनन्त प्रदेश है। १० (त. सू./ त. सू./५/२५ अणव' स्कन्धाश्च ।२१ -पुद्गलके दो भेद है-अण
१/१०); (प. प्र.मू./२/२४); (द्र.सं./मू./२५ ) । और स्कन्ध।
प्र. सा./त. प्र/१३५ द्रव्येण प्रदेशमात्रत्वादप्रदेशत्वेऽपि द्विप्रदेशादिसंख्ये
यासंख्येयानन्तप्रदेशपर्यायेणानवधारितप्रदेशत्वात्पुद्गलस्य । - पुद्गल २. स्वभाव व विभाव
द्रव्य यद्यपि द्रव्य अपेक्षासे प्रदेशमात्र होनेसे अप्रदेशी है । तथापि दो नि. सा./ता. वृ./२० पुद्गल द्रव्यं तावद विकल्पद्वयसनाथम् । स्वभाव- प्रदेशोंसे लेकर सख्यात, असंख्यात और अनन्त प्रदेशोंवाली पर्यायोपुद्गलो विभावपुद्गलश्चेति । -पुद्धगल द्रव्यके दो भेद हैं-स्वभाव- की अपेक्षासे अनिश्चित प्रदेशवाला होनेसे प्रदेशवान है (गो.जी./ पुद्गल और विभाव पुदगल ।
मू/५८५/१०२५)। ३. देश प्रदेशादि चार भेद-दे० स्कन्ध/१।
७. शब्दादि पुद्गल द्रव्यको पर्याय हैं ३. स्वभाव विभाव पुदगलके लक्षण
त सू/१/२४ शब्दबन्धसौम्यस्थौल्यसंस्थानभेदतमश्छायाऽऽतपोद्योतनि. सा/ता. वृ/ तत्र स्वभावपुद्गल' परमाणु' विभावपुद्गल स्कन्धः ।
वन्तश्च ।२४। तथा वे पुद्गल शब्द, बन्ध, सूक्ष्मत्व, स्थूलत्व, उनमे, परमाणु वह स्वभावपुद्गल है और स्कन्ध वह विभाव
सस्थान, भेद, अन्धकार, छाया, आतप, और उद्योतवाले होते है। पुद्गल है।
।२४। अर्थात् ये पुद्गल द्रव्यकी पर्याय है। (द्र.सं./म./१६)।
रा, वा./५/२४/२४/४६०/२४ स्पर्शादयः परमापूनां स्कन्धानां च भवन्ति ४. पुद्गलके २१ सामान्य विशेष स्वमाव
शम्दादयस्तु स्कन्धानामेव व्यक्तिरूपेण भवन्ति ।...सौक्ष्म्यं तु अन्त्यआ.प./४स्वभावा कथ्यन्ते। अस्ति स्वभाव नास्तिस्वभावः नित्यस्वभावः मणुष्वेव आपेक्षिकं स्कन्धेषु । -स्पर्शादि परमाणुओके भी होते हैं अनित्यस्वभाव' एकस्वभाव' अनेकस्वभाव' भेदस्वभाव. अभेदस्वभावः स्कन्धोंके भी पर शब्दादि व्यक्त रूपसे स्कन्धोंके ही होते है।.. भव्यस्वभाव अभब्यस्वभावः परमस्वभावः द्रव्याणामेकादशसामान्य
सौक्ष्म्य पर्याय तो अणुमें ही होती है, स्कन्धोंमें तो सौक्ष्म्यपना स्वभावाः । चेतनस्वभावः, अचेतनस्वभावः मूर्तस्वभाव. अमूर्तस्वभाव'
आपेक्षिक है। (और भी दे०-स्कन्ध/१)। एकप्रदेशस्वभावः अनेकप्रदेशस्वभाव. विभावस्वभाव. शुद्धस्वभावः अशुद्धस्वभाव, उपचरितस्वभाव एते द्रव्याणां दश विशेषस्वभावाः।
८. शरीरादि पुद्गलके उपकार हैं जीवपुद्गलयोरेकविशतिः। स्वभावोंको कहते है। १. अस्तिस्वभाव, त.सू/१६-२० शरीरवाड्मन प्राणापाना. पुद्गलानाम् ॥१६॥ सुख२. नास्तिस्वभाव, ३ नित्यस्वभाव, ४. अनित्यस्वभाव, ५. एकस्व- दुखजीवितमरणोपग्रहाश्च ॥२०॥ भाव, ६. अनेकस्वभाव, ७.भेदस्वभाव, ८.अभेदस्वभाव, ६. भव्य- स. सि./१/२०/२८/२ एतानि सुखादीनि जीवस्य पुगलकृत उपकार, स्वभाव, १० अभव्यस्वभाव, और ११. परमस्वभाव, ये द्रव्यों के मूर्तिमद्ध'तुसंनिधाने सति तदुत्पत्ते.। = शरीर, वचन मन और ११ सामान्य स्वभाव है। १२. चेतस्वभाव, १३. अचेतनस्वभाव, १४. प्राणापान यह पुद्गलोका उपकार है ।१६। सुख, दुख, जीवन और
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पुद्गल
मरण ये भी पुद्गलोके उपकार है | २०| ये सुखादि जीवके पुद्गल कृत उपकार है, क्योकि मूर्त कारणोंके रहनेपर ही इनकी उत्पत्ति होती है।
९. पुद्गलमें अनन्त शक्ति है
पं.
१२६ नेोऽनङ्गोऽसि
।
तापिरमशक्ति प्रतिकर्म प्रकृता यैर्नानारूपासु वस्तुत १६२५| इस प्रकार कथन ठीक नहीं है। क्योकि वास्तवमें प्रत्येक कर्मकी प्रकृति, प्रदेश, स्थिति और अनुभाग द्वारा अनेक रूप होकी अयि शक्तियों के विषय में तुम अनभिज्ञ हो |२५|
१०. पृथिवीजल आदि सभी में सर्वगुणोंकी सिद्धि
प्र. स. १३२ वरगंधफासा विज्जेते पुग्लास्मादोडीपरियत्तस्य सहो सो पोरगलो चित्तो ११३२ | =वर्ण, रस, गन्ध और स्पर्श (गुण) सूक्ष्मसे लेकर पृथ्वी पर्यन्तके (सर्व) पुइगलके होते है, जो विविध प्रकारका शब्द है वह पुद्गल अर्थात पौगलिक पर्याय है | १३२
६८
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रा. मा /५/१५/१६/४१३/६ पृथिवी तानद पटादिलक्षणा स्पर्शादिशब्दाचारिमा सिद्धा अम्भोऽपि तद्विकारस्यात् तदात्मक साक्षाद गन्धोपलब्धेश्च । तत्संयोगिनां पार्थिवद्रव्याणां गन्धः तद्गुण श्योपलभ्यत इति चेत नः साध्यत्वाय तद्वियोगकालादर्शनात् तदविनाभावाच्च तद्गुण एवेति निश्चय कर्तव्य. - गन्धवदम्भ रसवत्त्वात् आम्रफलवत् । तथा तेजोऽपि स्पर्शादिशब्दादिस्वभाव तत्कार्यवाद घटपद स्पर्शादिमतां हि काष्ठादीनां कार्यं तेज' । किंच तत्परिणामात । उपयुक्तस्य हि आहारस्य स्पर्शादिगुणस्य वातपित्तश्लेष्म विपरिणाम। पितं च जठराग्नि तस्मात् स्पर्शादिमत्तेज. । तथा स्पर्शादिशब्दादिपरिणामो वायुः स्पर्शवाद पटादिवत् किच तत्परिणामात उपयुक्तस्य हि आहारस्य स्पर्शादिगुणस्य वातपित्तश्लेष्मविपरिणाम' । वातश्च प्राणादि ततो वायुरपि स्पर्शादिमान् इत्यवसेयः । एतेन 'चतुस्त्रिगुगा पृथिव्यादव पार्थिवादिजातिभिन्ना 'इति दर्शन प्रत्युक्तस्पट पट आदि स्पर्शादिमान पदार्थ पृथिमी है। जल भी गलका विकार होनेसे पुद्गलात्मक है। उसमें गन्ध भी पायी जाती है । 'जलमें संयुक्त पार्थिव द्रव्योंकी गन्ध आती है, जल स्वयं निर्गन्ध है यह पक्ष असिद्ध है। क्योंकि कभी भी गन्ध रहित जल उपलब्ध नहीं होता और न पार्थिव द्रव्योंके संयोगसे रहित हो । गन्धस्पर्शका अविनाभावी है । अर्थात पुद्गलका अविनाभावी है। अत' वह जलका गुण है । जल गन्धवाला है, क्योंकि वह रसवाला है। जैसे कि आम अग्नि भी स्पर्शादि और शब्दादि स्वभाववाली है खोकि वह पृथिवीवासी पृथ्वीका कार्य है जैसे कि घा स्पर्शादिवाली लकड़ी से अग्नि उत्पन्न होती है यह सर्व विदित है।
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गल परिणाम होनेसे खाये गये स्पर्शादिगुणवाले बाहारका बात पित्त और कफरूपसे परिणाम होता है। पित्त अर्थात् जठराग्नि । अत' तेजको स्पर्श आदि गुणवाला ही मानना ठीक है । इसी तरह वायु भी स्पर्शादि और शन्दादि पर्यायवाची है, खोकि उसमें स्पर्श गुण पाया जाता है जैसे कि घटमें। खाये हुए अन्नका वात पित्त श्लेष्म रूपसे परिणमन होता है। बात अर्थाद वायु अत वायुको भी स्पर्शादिमान मानना चाहिए। इस प्रकार नैयायिकों का यह मत खण्डित हो जाता है कि पृथ्वी में चार गुण, जलमें गन्ध रहित तीन गुण, अग्निमें गन्ध रस रहित दो गुण, तथा वायुमें केवल स्पर्श गुण है ( रा या /२/२०/४/९२३/१०). (रा. मा./३/३/२/०४१/५): (रा. वा./ ५/२३/३/४०४/२०)।
प.सा./त/ १३२ सर्व पुलाना स्पर्शादिचतुष्कोपेतत्वाभ्युपगमात् । व्यक्तस्पर्शादिकानां चन्द्रकान्तारनियवानामारम्भकैरेव पुग
लैरव्यक्तगन्धाव्यक्तगन्धरसाव्यक्तगन्धरसवर्णानामब् ज्योतिरुदरमरुता मारम्भदर्शनात् । =सभी पुद्गल स्पर्शादि चतुष्क युक्त स्वीकार किये गये हैं। क्योकि जिनके स्पर्शादि चतुष्क व्यक्त है ऐसे चन्द्रकान्त मणिको, अरणिको और जौ को जो पुद्गल उत्पन्न करते है उन्होंके द्वारा जिसको गन्ध अव्यक्त है ऐसे पानी की, जिसकी गन्ध तथा रस अव्यक्त है ऐसी अग्निकी, और जिसकी गन्ध, रस तथा वर्ण अव्यक्त है ऐसी उदर वायुकी उत्पत्ति होती देखी जाती है ।
११. अन्य सम्बन्धित विषय
१. पुद्गलका स्वपरके साथ उपकार्य उपकारक मान ।
पुन्नाग
- दे० कारण / III / १ -दे० अस्तिकाय ।
२. पुद्गल द्रव्यका अस्तिकायपना ।
३. वास्तवमें परमाणु दो पुद्गल द्रव्य है। ४. पुद्गक मूर्त है।
५. पुद्गल अनन्त व क्रियावान है। ६. अनन्तों पुद्गलोंका छोकने अवस्थान व अनगाह । -३० आकाश/१।
- दे० गति / ११ सम्भावना । -३० पर्याय / ३ |
७. पुद्गलकी स्वभाव व विभाव गति । ८. पुद्गमें स्वभाव व विभान दोनों पर्यायोंकी
११. जीवको कचित् पुद्गल व्यपदेश । १२. पुद्गल विपाकी कर्म प्रकृतियाँ। ११. द्रव्यभावकर्म, कार्मणशरीर, द्रव्यभाव मन, व वचनमें पुद्गलपना ।
९. पुद्गल सर्वगुणोंका परिणमन स्व जातिको उल्लंघन नहीं कर सकता ।
- दे० गुण / २० १०. संसारी जीव व उसके भाव भी पुद्गल कहे जाते हैं ।
- ३० मूर्त | - दे० जीव / १/३०
- दे० प्रकृति बंध / २ ।
- दे० परमाणु / २ | - ० मूर्त / ४ ।
-- दे० द्रव्य |
जेवेन्द्र सिद्धान्त कोश
-६० पूर्व / २०
पुद्गल क्षेप - स. सि./७/३१/३६६ / ११ लोष्टादिनिपात. ग क्षेप प्रमाणके किये हुए स्थान से बाहर देता आदि फेंकनाकर अपना प्रयोजन सिद्ध करना पुद्गलक्षेप नामका देशव्रतका अतिचार है ।
पुद्गल परिवर्तन दे० संसार/२ |
पुदगल बन्ध दे० स्कन्ध/२ पुनरक्त निग्रहस्थान
श्या सू./टी./३/२/१४-१५ / २१२ शब्दार्थयो] पुनर्वचनं पुनरुक्तमयत्रानुवादा। ९४॥ अदापन्नस्य स्वशन्देन पुनर्वचनम् ॥१५- पुन रुक्त दो प्रकारका है— शब्द पुनरुक्त व अर्थ पुनरुक्त। उनमें से अनुवाद करनेके अतिरिक्त जो शब्दका पुन' कथन होता है, उसे शब्द पुनरुक्त कहते है । १४ एक शब्दसे जिस अर्थ की प्रतीति हो रही हो उसी अर्थ को पुनः अन्य शब्दसे कहना अर्थपुनरुक्त है | १५ | ( श्लो. वा. ४/ न्या. / २३२/४०८/१३ पर उद्धृत) ।
-
स. मंत/१४/४ स्वजन्यनो समानाकारबोधन क्यो तरकालीनवाक्यत्वमेव हि पुनरुक्तत्वम् । एक वाक्य जन्य जो बोध है, उसी बोधके समान बोध जनक यदि उत्तरकालका वाक्य हो तो यही पुनरुक्त शेष है (प. प्र./टी./२/२११) ।
पुनर्वसु नक्षत्र दे० नक्षत्र ।
पुन्नाग-मध्य आर्य खण्डका एक देश-३० मनुष्य / ४ ।
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पुन्नाट
पुरुष पुंडरीक
२. चेतन आत्मा पु. सि. 18 अस्ति पुरुषश्चिदात्मा विवर्जित स्पर्शगन्धरसवर्णे।। गुणपर्यय-समवेत. समाहित' समुदयव्ययधौव्यै । -पुरुष अर्थात आत्मा चेतन स्वरूप है। स्पर्श, गन्ध, रस व वर्णादिकसे रहित अमूर्तिक है। गुण पर्याय संयुक्त है। उत्पाद, व्यय, धौव्य युक्त
है 181
गो. जी./जी. प्र./२७३/५६५/१ पुरुगुणे सम्यग्ज्ञानाधिकगुणसमूहे प्रबतते, पुरुभोगे नरेन्द्रनागेन्द्रदेवेन्द्राद्यधिकभोगचये, भोक्तृत्वेन प्रवर्तते, पुरुगुणं कर्म धर्मार्थकाममोक्षलक्षणपुरुषार्थसाधनरूपदिव्यानुष्ठान करोति च । पुरूत्तमे परमेष्ठिपदे तिष्ठति पुरूत्तम. सन् तिष्ठति इत्यर्थः तस्माव कारणाव स जीव. पुरुष इति। -जो उत्कृष्ट गुण सम्यग्ज्ञानादिका स्वामी होय प्रवर्ते, जो उत्कृष्ट इन्द्रादिकका भोग तीहि विषै भोक्ता होय प्रवर्ते, बहुरि पुरुगुणकर्म जो धर्म, अर्थ, काम, मोक्षरूप पुरुषार्थ को करै। और जो उत्तम परमेष्ठीपदमें तिष्ठे, तातै वह जीव पुरुष है।
२. माव पुरुषका लक्षण गो, जी./जी. प्र./२७१/५६१/१५ वेदोदयेन स्त्रियां अभिलाषरूपमेथुनसंज्ञाकान्तो जीवो भावपुरुषो भवति । -पुरुष वेदके उदयतें पुरुषका अभिलाष रूप मैथुन संज्ञाका धारक जीव सो भाव पुरुष
पुन्नाट-कर्नाटक (मैसूरके समीपवर्ती प्रदेश) (ह. पु./प्र./४) । पुन्नाट संघ-दे० इतिहास/५/३; ७/८ । पुमान्-जीवको पुमान् कहनेकी विवक्षा-दे० जीव/१/३। पुर-दे० नगर। पुराकल्प-न्या सू/टी./२/१२/६४/१०१/६ ऐतिह्यसमाचरितो विधि. पुराकल्प इति । ऐतिह्य सहचरित विधिको पुराकल्प
कहते हैं। पुराण-हरिवंश आदि १२ पुराणोके नाम निर्देश (दे० इतिहास/१०
में राज्यवंशोंके नाम निर्देश)। पुराण संग्रह-२४ तीर्थ करोके जीवन चरित्रके आधारपर रचे
गये पुराण संग्रह नामके कई ग्रन्थ उपलब्ध है-१.आचार्य दामनन्दि कृत ग्रन्थमें ६ चरित्रोका संग्रह है। आदिनाथ, चन्द्रप्रभु, शान्तिनाथ, नेमिनाथ, पार्श्वनाथ, वर्धमान चरित्र । कुल ग्रन्थ १६६४ श्लोक प्रमाण है। इसका काल ज्ञात नहीं है। २ आचार्य श्रीचन्द्र द्वारा वि. सं. १०६६में रचा गया । (ती/४/१३१) । ३. आचार्य सकलकी ति द्वारा (ई. १४०६-१४४२) में रचा गया। (ती./३/३३४) । पुराणसार-आ० श्रीचन्द्र (ई० १४६८-१५१८) द्वारा रचित ग्रन्थ । पुरु-विजयाको उत्तर श्रेणीका एक नगर-दे० विद्याधर । पुरुढ वंश-मालवा (मगध देश) के राज्यवश। इस वंशका दूसरा
नाम मुरुड वंश या मौर्यवंश भी है। (दे० इतिहास/३/४)। पुरुरवा-(म, पु/६२/८७-८८ एक भील था। एक समय मुनिराजके
दर्शनकर मद्य, मांस व मधुका त्याग किया। इस व्रतके प्रभावसे सौधर्म स्वर्गमें देव हुआ। यह महावीर भगवानका दूरवर्ती पूर्व भव है। उनके मरीचिके भवकी अपेक्षा यह दूसरा पूर्व भव है।
-दे० महावीर। पुरुष-भरतक्षेत्रस्थ दक्षिण आर्य खण्डका एक देश-दे० मनुष्य/४। पुरुष-१. उत्तम कर्मको सामर्थ्य युक्त पं.सं./प्रा./१/१०६ पुरु गुण भोगे सेदे करेदि लोयम्हि पुरुगुणं कम्म। पुरु उत्तमो य जम्हा तम्हा सो वण्णिओ पुरिसो।१०६। - जो उत्तम गुण और उत्कृष्ट भोगमें शयन करता है, लोकमें उत्तम गुण और कर्मको करता है, अथवा यतः जो स्वय उत्तम है, अत: बह पुरुष इस नामसे वर्णित किया गया है ।१०६। (ध. १/१, १,१०१/गा. १७१/ ३४१); (गो. जी./मू./२७३) । ध. १/१,१,१०१/३४१/४ पुरुगुणेषु पुरुभोगेषु च शेते स्वपितीति पुरुषः । सुषुप्तपुरुषवदनुगतगुणोऽप्राप्तभोगश्च यदुदयाज्जीवो भवति स पुरुषः अङ्गनाभिलाष इति यावत् । पुरुगुणं कर्म शेते करोतीति वा पुरुष' । कथं स्त्यभिलाष पुरुगुणं कर्म कुर्यादिति चेन्न, तथाभूतसामर्थ्यानुबिद्धजीवसहचरितत्वादुपचारेण जीवस्य तत्कर्तृत्वाभिधानात । = जो उत्कृष्ट गुणों में और उत्कृष्ट भोगोमें शयन करता है उसे पुरुष कहते है अथवा, जिस कर्म के उदयसे जीव, सोते हुए पुरुषके समान, गुणोसे अनुगत होता है और भोगोको प्राप्त नहीं करता है उसे पुरुष कहते हैं। अर्थात स्त्री सम्बन्धी अभिलाषा जिसके पायी जाती है, उसे पुरुष कहते हैं । अथवा जो श्रेष्ठ कर्म करता है, वह पुरुष है। (ध.६/ १,६-१,२४/४६/१)1 प्रश्न-जिसके खी-विषयक अभिलाषा पायी जाती है, वह उत्तम कर्म कैसे कर सकता है । उत्तर-नही, क्योंकि, उत्तम कर्मको करने रूप सामर्थ्यसे युक्त जीवके स्त्रीविषयक अभिलाषा पायी जाती है अत' वह उत्तम कर्मको करता है, ऐसा कथन उपचारसे किया गया है।
३. द्रव्य पुरुषका लक्षण स. सि./२/१२/२००/६ पंवेदोदयात् सुते जनयत्यपत्यमिति पुमान् ।
-पुंवेदके उदयसे जो अपत्यको जनता है वह पुरुष है। (रा. वा./ ____२/१२/१/१५७/४)। गो.जी./जी.प्र./२७१/५६१/१८ वेदोदयेन निर्माणनामकर्मोदययुक्तागोपाङ्गनामकर्मोदयवशेन श्मश्रुकूर्चशिश्नादिलिगाइकितशरीरविशिष्टो जीवो भवप्रथमसमयादि कृत्वा तद्भवचरमसमयपर्यन्तं द्रव्यपुरुषो भवति । -निर्माण नामकर्मका उदय संयुक्त पुरुष वेद रूप आकारका विशेष लिये अंगोपांग नामकर्मका उदय तें मछ दाढी लिंगादिक चिह्न संयुक्त शरीरका धारक जीव सो पर्यायका प्रथम समयतै लगाय अन्त समय पर्यंत द्रव्य पुरुष हो है । ४. पुरुष वेद कमका लक्षण स. सि.14/8/३८६/२ यस्योदयात्पौस्नान्भावानास्कन्दति स पुंवेदः ।
-जिसके उदयसे पुरुष सम्बन्धी भावोंको प्राप्त होता है वह पंवेद है।
* अन्य सम्बन्धी विषय १. पुरुष वेद सम्बन्धी विषय ।
-दे. वेद । २. जीवको पुरुष कहनेकी विवक्षा। -दे०जीव/१/३। ३. आदि पुरुष।
-दे० ऋषभ । ४. ऊर्ध्वमूल अधःशाखा रूप पुरुषका स्वरूप।
-दे० मनुष्य/२। ५. पुरुषवेदके बन्ध योग्य परिणाम । -दे० मोहनीय/३/६ ।
पुरुषतत्त्व सांख्य व शैव मान्य पुरुष तत्त्व-दे० वह वह नाम । पुरुषदत्ता-१. एक विद्या-दे० विद्या: २. भगवाच सुपार्श्वनाथकी
शासक यक्षिणी-दे० तीर्थंकर/३/३ । पुरुष पुंडरीक-दे० पुंड्रीक।
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पुरुषपुर
पुरुषार्थ
पुरुषपुर-वर्तमान पेशावर नगर (म. पु/प्र.५०/५० पन्नालाल ) । पुरुषप्रभ-व्यन्तर देवोका एक भेद-दे० व्यन्तर । पुरुषवाद-दे० अद्वैतवाद । पुरुष व्यभिचार-दे० नय/III/६/८ । पुरुष सिंह-म. प्र./६९/श्लोक पूर्वके दूसरे भवमे राजगृह नगरका ।
राजा सुमित्र था (५७)। फिर महेन्द्र स्वर्ग में देव हुआ (६३-६५)। बहाँसे च्युत होकर वर्तमान भवमें वॉ नारायण हुआ (७१)। (विशेष दे० शलाकापुरुष ) । पुरुषाद्वैत-दे० अद्वैत। पुरुषार्थ-पुरुष पुरुषार्थ प्रधान है, इसलिए लौकिक व अलौकिक सभी क्षेत्रों में वह पुरुषार्थ से रिक्त नहीं हो सकता। इसीसे पुरुषार्थ चार प्रकारका है-धर्म, अर्थ, काम व मोक्ष। इनमे से अर्थ व काम पुरुषार्थका सभी जीव रुचि पूर्वक आश्रय लेते है और अकल्याणको प्राप्त होते है। परन्तु धर्म ब मोक्ष पुरुषार्थका आश्रय लेनेवाले जीव कल्याणको प्राप्त करते है। इनमेंसे भी धर्म पुरुषार्थ पुण्य रूप होनेसे मुख्यतः लौकिक कल्याणको देनेवाला है, और मोक्ष पुरुषार्थ साक्षात् कल्याणप्रद है।
१. चतुःपुरुषार्थ निर्देश
१. पुरुषार्थका लक्षण स म /१५/१६२/विवेलख्यातिश्च पुरुषार्थः। -( सारण्य मान्य ) पुरुष
तथा प्रकृतिमें भेद होना ही पुरुषार्थ है। अष्टशती-पौरुष पुनरिह चेष्टितम् । = चेष्टा करना पुरुषार्थ है।
२. पुरुषार्थके भेद ज्ञा /३/४ धर्मश्चार्थश्च कामश्च मोक्षश्चेति महर्षिभि.। पुरुषार्थोऽयमुद्दिष्टश्चतुर्भेद पुरातनै 181 -महर्षियोंने धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष यह चार प्रकारका पुरुषार्थ कहा है।४। (प.वि./७/३५) ।
५. मोक्ष पुरुषार्थ ही महान् व उपादेय है प.प्र./स./२/३ धम्म अत्थहँ कम्मह वि एयह सयल है मोक्खु । उत्तमु पभणहिं णाणि जिय अण्णे जेण ण सोक्खु ।३। - हे जीव । धर्म, अर्थ
और काम इन सब पुरुषार्थों में से मोक्षको उत्तम ज्ञानी पुरुष कहते है, क्योंकि अन्य धर्म, अर्थ कामादि पुरुषार्थों में परमसुख
नहीं है। ज्ञा./३/५ त्रिवर्ग तत्र सापायं जन्मजातङ्कदूषितम् । ज्ञात्वा तत्त्वविद. साक्षाद्यतन्ते मोक्षसाधने ।। चारों पुरुषार्थोंमें पहिले तीन पुरुषार्थ नाश सहित और ससारके रोगोंसे दूषित हैं, ऐसा जानकर ज्ञानी पुरुष अन्तके परम अर्थात् मोक्षपुरुषार्थ के साधन करने में ही लगते है। क्योंकि वह अविनाशी है। प.वि./9/२५ पुंसोऽर्थेषु चतुषु निश्चलतरो मोक्षः परं सत्सुख ।
शेषास्तद्विपरीतधर्मकलिता हेया मुमुक्षोरत । ..॥२५॥ - चारो पुरुषार्थों में केवल मोक्ष पुरुषार्थ ही समीचीन सुरवसे युक्त होकर सदा स्थिर रहनेवाला है। शेष तीन इससे विपरीत स्वभाव वाले होनेसे छोडने योग्य है ।२४
६. मोक्षमार्गका यथार्थ पुरुषार्थ क्या है प्र.सा./मू./१२६ कत्ता करणं कम्मं फलं च अप्पत्ति णिच्छिदो समणो।
परिणमदि णेव अण्णं जदि अप्पाणं लहदि सुद्धं । यदि श्रमण 'कर्ता, कर्म, करण और कर्म फल आत्मा है' ऐसा निश्चय वाला होता हुआ अन्यरूप परिणमित नहीं हो तो वह शुद्धात्माको उपलब्ध करता है।१२६। त. सु./१/१ सम्यग्दर्शनज्ञानचारित्राणि मोक्षमार्ग 10 -सम्यग्दर्शन,
सम्यग्ज्ञान, और सम्यक्चारित्र ये तीनों मिलकर मोक्षका मार्ग है। प्र. सा./त. प्र./. य एव...आरमान परं च...निश्चयत परिच्छिनत्ति, स एव सम्यगवाप्तस्वपरविवेक' सकल मोह क्षपयति । जो निश्चयसे . आत्माको और परको जानता है। वही (जीव), जिसने कि सम्यग्रूपसे स्व परके विवेकको प्राप्त किया है, सम्पूर्ण मोहका क्षय करता है। प्र.सा./त प्र./१२६ एवमस्य बन्धपद्धती मोक्षपद्धतौ चात्मानमेकमेव भाव
यत. परमाणोरिवैकत्वभावनोन्मुखस्य परद्रव्यपरिणतिर्न जातु जायते। .. ततः परद्रव्यासंपृक्तत्वात्मविशुद्धो भवति । इस प्रकार (षट् कारकी रूपसे ) बन्धमार्ग तथा मोक्षमार्गमें आश्मा अकेला ही है, इस प्रकार भानेवाला यह पुरुष, परमाणुकी भाँति एकत्व भावनामें उन्मुख होनेसे, उसे परद्रव्यरूप परिणति किंचित् नहीं होती। इसलिए परद्रव्यके साथ असम्बद्धताके कारण सुविशुद्ध होता है। पु सि. उ./११,१५ सर्व विवत्तॊत्तीर्ण यदा स चैतन्यमचलमाप्नोति। भवति तदा कृतकृत्य सम्यक्पुरुषार्थ सिद्धिमापन्न ॥११॥ विपरीताभिनिवेशं निरस्य सम्यग्व्यवस्य निजतत्त्वं । यत्तस्मादविचलनं स एव पुरुषार्थ सिद्धयुपायोऽयं ॥१५॥ -जिस समय भले प्रकार पुरुषार्थ की सिद्धिको प्राप्त उपर्युक्त अशुद्ध आत्मा सम्पूर्ण विभावोके पारको प्राप्त करके अपने निष्कंप चैतन्यस्वरूपको प्राप्त होता है, तब यह आत्मा कृतकृत्य होता है ।११। विपरीत श्रद्धानको नष्ट कर निज स्वरूपको यथावद जानके जो अपने उस स्वरूपसे च्युत न होना वह ही पुरुषार्थसिद्धिका उपाय है ।१५॥
७. मोक्षमें भी कथंचित् पुरुषार्थका सद्भाव स. म //08/२० प्रयत्नश्च क्रियाव्यापारगोचरो नास्त्येव, कृतकृत्यत्वात् । वीर्यान्तरायक्षयोत्पन्नतस्त्वस्येव प्रयत्न. दानादिलब्धिवत । --प्रश्न-मुक्त जीवके कोई प्रयत्न भी नहीं होता, क्योंकि मुक्त जीव कृतकृत्य है ? उत्तर-दानादि पाँच लब्धियोकी तरह वीर्यान्तरायकर्मके क्षयसे उत्पन्न वीर्य लब्धि रूप प्रयत्न मुक्त जीवके होता है।
३. अथ व काम पुरुषार्थ हेय हैं भ, आ./मू /१८१३-१८१६/१६२८ असहा अत्था कामा य...1१८१३॥ इहलोगियपरलोगियदोसे पुरिसस्स आवहइ णिच्च । अत्थो अणत्यमूलं महाभयं मुत्तिपडिपंथो ।१८१४। कुणिमकुडिभवा लहुगत्तकारया अप्पकालिया कामा। उवधो लोए दुक्खवहा य ण य होंति सुलहा (१८१५। -अर्थ पुरुषार्थ और काम पुरुषार्थ अशुभ है ।१८१३॥ इस लोकके दोष और परलोकके दोष अर्थ पुरुषार्थ से मनुष्यको भोगने पड़ते है। इसलिए अर्थ अनर्थका कारण है, मोक्ष प्राप्तिके लिए यह अर्गलाके समान है ।१८१४। यह काम पुरुषार्थ अपवित्र शरीरसे उत्पन्न होता है, इससे आत्मा हत्की होती है, इसकी सेवासे आमा दुर्गतिमें दुख पाती है। यह पुरुषार्थ अल्पकाल में ही उत्पन्न होकर नष्ट होता है और प्राप्त होनेमें कठिन है। १८१५।। * पुण्य होने के कारण निश्चयसे धर्म पुरुषार्थ हेय है
-दे० धर्म/४/५॥ ४. धर्म पुरुषार्थ कथंचित् उपादेय है भ,आ./म./१८१३ एओ चेव सुभो णवरि सब्बसोक्वायरो धम्मो।- एक
धर्म (पुरुषार्थ) ही पवित्र है और वही सर्वसौख्योका दाता है ।१८१३।। (प.वि./७/२५)।
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पुरुषार्थ
२. पुरुषार्थको मुख्यता व गोणता
१. ज्ञान हो जानेपर भी पुरुषार्थ ही प्रधान है।
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जो मोहरागदोसे मिगदि उपलम्भ जोह सुवदे सो सम्वोक्स पावदि अचिरेण काले अत एव सर्वारम्भेण मोहक्षपणाय पुरुषकारे निषीदामि। =जो जिनेन्द्र के उपदेशको प्राप्त करके मोह-राग-द्वेषको हनता है यह अल्प कालमें सर्व दुखोसे होता है इसलिए सम्पूर्ण प्रयत्नपूर्वक मोहका क्षय करनेके लिए मै पुरुषार्थ का आश्रय ग्रहण करता हूँ । २. यथार्थ पुरुषार्थ से अनादिके कर्म क्षण भरमें नष्ट हो जाते हैं
। ।
कुरल./६२/१० शश्वत्कर्मप्रसक्तो यो भाग्यचक्रे न निर्भर । जय एवास्ति तस्याहो अनि भाग्यविपर्यये । १० जो भाग्य चलके भरोसे न रहकर लगातार पुरुषार्थ किये जाता है वह विपरीत भाग्यके रहनेपर भी उसपर विजय प्राप्त करता है | १०| १.प्र.५७ पिट्ठे तुति राहु कम्म पृथ्व किया। सो पर जे जाहि जोड़ा देह वसंतु ण काई 1200 - जिस परमात्माको देस्यनेसे शीघ्र ही पूर्व उपार्जित कर्म चूर्ण हो जाते है। उस परमात्मा को देह में बसते ! भी हे योगी तू क्यों नहीं जानता । २७१ (१. प्र / हुए .३२) ।
1
३. पुरुषार्थ द्वारा अयथा काल भी कमका विपाक हो जाता है
ज्ञा. / ३५/२७ अपक्वपाक क्रियतेऽस्ततन्द्वैस्तपोभिरुग्रैर्वरशुद्धियुक्तैः । क्रमाढगुगश्रेणिसमाश्रयेण सुसंवृतान्त करणेर्मुनीन्द्रः ॥ २७
:
७१
- नष्ट
हुआ प्रमाद जिनका ऐसे मुनीन्द्र उत्कृष्ट विशुद्धता सहित होते हुए उपके द्वारा अनुक्रमसे गुणप्रेमी निर्जराका आश्रय करके बिना पके को भी पकाकर स्थिति पूर्ण हुए बिना ही निर्जरा करते हैं |२७| ( ज्ञा. / ३५/३६ ) ।
दे. पूजा निर्जरा, तप, उदय, उदीरणा, धर्मध्यान आदि = ( इनके द्वारा असमयमें कमौका पाक होकर अनादिके कर्मोंको निर्जरा होनेका निर्देश किया गया है।
४. पुरुषार्थकी विपरीतता अनिष्टकारी है
स सा. / . / १६० ज्ञानमनादिस्वपुरुषापराधं प्रवर्तमानकर्ममलावादेवमास्थाय सर्व सर्वमध्यात्मानमविजानदज्ञानभावेन वेदमेयमनतिष्ठते। ज्ञान अर्थाद आश्नद्रव्य, अनादि काल से अपने पुरुषार्थ के अपराध से प्रवर्तमान कर्ममलके द्वारा लिप्त या व्याप्त होनेसे ही. बन्ध अवस्था में सर्व प्रकार से सम्पूर्ण अपनेको जानता हुआ, इस प्रकार प्रत्यक्ष अज्ञान भावसे रह रहा है।
५. स्वाभाविक क्रियाओं में पुरुषार्थ गौण है
. /उ. / ३७६,८१७ प्रयत्नमन्तरेणापि दृडूमोहोपशमो भवेत् । अन्तमुहूर्तमात्रं च गुणश्रेण्यनतिक्रमाद | २०११ नेद स्यात्पौरुषाय किंतु नून स्वभावतः। ऊर्ध्वगुणश्रेणी यत सिद्धियोत्तरम्॥१७॥ - भव्यत्व, काललब्धि आदि सामग्रीके मिलनेपर प्रयत्नके बिना भी गुण श्रेणी निर्जरा के अनुसार अन्तर्मुहूर्त में ही दर्शन मोहका उपम हो जाता है | ३०१ | निश्चयसे तरतमरूपसे होनेवाली शुद्धताका उत्कर्षपना पौरवाधीन नहीं होता, स्वभावसे ही सम्पन्न होता है. कारण कि उत्तरोत्तर श्रेणी निर्जराने स्वयमेव शुद्धताकी तरतमता होती जाती है।८१७॥
पुलवि
दे० केवली (केवली के आसन, विहार व उपदेशादि बिना प्रयत्नके ही होते है।
६. अम्य सम्बन्धित विषय
१. कर्मोदयमें पुरुषार्य कैसे चले।
- दे० मोक्ष
२. मन्दोदयमें ही सम्यक्त्वोत्पत्तिका पुरुषार्थ कार्यकारी है। -३० उपशम / २/२
२. नियति भवितव्यता, देव व कालपिके सामने पुरुषार्थकी गौणता व समन्वय - दे० नियति ।
४. पुरुषायें व कालब्धि भाषाका ही भेद है।
- दे० पद्धति ।
पुरुषार्थ नय - प्र.सा./ / परि नय नं. २२ पुरुषकारमयेन पुरुषा कारोपलब्धमधुकुक्कुटीकपुरुषकारवादीवद्यत्नसाध्यसिद्धि |३२| आत्मद्रव्य पुरुषकार नयसे जिसकी सिद्धि यत्न साध्य है ऐसा है, जिसे पुरुषकारसे नीलूका वृक्ष प्राप्त होता है ऐसे पुरुषकारवादीको भाँति । पुरुषार्थवाद-गोस् /८१० आलसको विरुस्यो फ किंचि ण भंजदेवखीरादिपाणं ना पउसे विणा हि ॥१०॥ - आलस्यकरि संयुक्त होय उत्साह उद्यम रहित होइ सो विभी फलको भोगवे नाही। जैसे- स्तनका दूध उद्यमही ते पीवनेमे आवे है पौरुष विना पौवनेमें न आने से से सर्व पौरुष करि सिद्धि है, ऐसा पौरूपवाद है |
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पुरुषार्थ सिद्धयुपाया अमृतचन्द्र
(to (ok-2kk)
द्वारा रचित संस्कृत छन्द बद्ध ग्रन्थ । इसमें २४३ श्लोक है। इस पर प० टोडरमल ( ई० १७६६ ) ने भाषामें टीका लिखी है । परन्तु उसे पूरी करनेसे पहिले ही विधिने उनसे शरीर छीन लिया। उनकी इस अधूरी कृतिको उनके पीछे पं० दौलतराम ( ई० १७७० ) ने पूरा किया। (जे २/१७३ (सी./२/४०८) पुरुषोत्तम - १. व्यन्तर देवोंका एक भेद - दे० व्यंतर । २ म. पु / ६०/५०-६६ पूर्वभवन २ में पोदनपुरका राजा वसुषेण था फिर अगले भयमे सहसार स्वर्ण में देन हुआ। मर्तमान भयमे चौघा नारा यण हुआ । विशेष परिचय - दे० शलाका पुरुष / ४ ॥ पुरस्कार परिषदे० सत्कार |
पुरोत्तम- - विजयार्ध की दक्षिण श्रेणीका एक नगर-दे० विद्याधर । पुरोहित - पुलवि - १४/५, ६,६३/ पृष्ठ नं./पंक्ति
- चक्रवर्तीके चौदह रत्नोंमेंसे एक-दे० शलाका पुरुष / २ |
पुलवियाओ णिगोदा ति भणति (८५/१४) आवासन्तरे द्विदाओ कच्छउ डरबक्सारतो पिपिसिवियाहि समानाओ दियाओं शाम एस्केकाहि आवासे ताओ अस खेज्जलोगमेत्ताओ होति । एक्केक म्हि एक्केक्किस्से पुलविया असंखेज्जोगमेचाणि निगोदसरीराणि ओराचिय-तेजाकम्मइयपोग्गतोमायाय कारणानि कन्द्र उर्ड डर न स्वार पुल मियाए अंतोटूट्ठिददव्वसमाणाणि प्रधपुध अनंताणं तेहि णिगोदजीवेहि आउणाणि होति । (८६/८ पुसपियाँको ही निगोद कहते है। (८३/१४), घ. १४/५.६.५२/४००/१) जो आवासके भीतर स्थित है और जो कच्छउड अण्डर वक्खारके भीतर स्थित पिशवियोके समान है उन्हे पुलवि कहते है। एक-एक आवास में वे असख्यात लोक प्रमाण होती है। तथा एक-एक आवासकी अलग-अलग एक-एक पुलविमें असंस्थात लोक प्रमाण शरीर होते है जो कि बहारिक तैजस और कार्मण पुद्गलोके उपादान कारण होते है और जो कच्छउडअडर
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पुलाक
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पुष्पसेन
वक्रवार पुलविके भीतर स्थित द्रव्योंके समान अलग-अलग अनन्ता
पुष्पदंत-१. उत्तर क्षीरवर द्वीपका रक्षक व्यन्तर देव। -दे० नन्त निगोद जीवोसे आपूर्ण होते है। (विशेष दे० वनस्पति/३/७)।
व्यन्तर/४ । २. म. पु/१०/२-२२ "पूर्वके दूसरे भवमें पुष्कर द्वीपपुलाक
के पूर्व दिग्विभागमें विदेह क्षेत्रकी पुण्डरोकिणी नगरीके राजा स. सि./१/४६/४६०/उत्तरगुणभावनापेतमनसो वतेष्वपि क्वचित्कदा- महापद्म थे। फिर प्रागत स्वर्गमें इन्द्र हुए। वर्तमान भवमें वे चित्परिपूर्णतामपरिप्राप्नुवन्तोऽविशुद्धपुलाकसादृश्यात्पुलाका इत्यु- तीर्थकर हुए। अपरनाम सुविधि था। विशेष परिचय-दे० तीर्थच्यन्ते।
कर/५ । ३. यह एक कवि तथा काश्यप गोत्रीय ब्राह्मण थे। केशव स. सि /8/४७/४६१/११ प्रतिसेवना-पञ्चानां मूलगुणानां रात्रिभोजन- उनके पिता और मुग्धा उनको माता थी। वे दोनों शिवभक्त वर्जनस्य च पराभियोगाद् बलादन्यतमं प्रतिसेवमान' पुलाको थे। उपरान्त जैनी हो गये थे। पहले भैरव राजाके आश्रय थे, भवति ।-१. जिनका मन उत्तर गुणोंकी भावनासे रहित है, जो पीछे मान्यखेट आ गये। वहाँके नरेश कृष्ण तृ० के भरतने इन्हें कही पर और कदाचित बतोंमें भी परिपूर्णताको नहीं प्राप्त होते है
अपने शुभतुङ्ग भवनमें रखा था। महापुराण ग्रन्थ श.१५(ई. वे अविशुद्ध पुलाकके समान होनेसे पुलाक कहे जाते है। (रा वा./
१०४३ ) में समाप्त किया था। इसके अतिरिक्त यशोधर चरित्र व १/४६/२/६३६/१६), (चा. सा./१०१/१) । २. प्रतिसेवना-दूसरों- नागकुमार चरित्रकी भी रचना की थी। यह तीनों प्रन्थ अपके दबाव वश जबर्दस्तीसे पाच मूल गुण और रात्रि भोजन वर्जन- भ्रंश भाषामें थे। समय-ई. श. ११ (जै.हि.सा. इ/२७ कामता) वतमेंसे किसी एक को प्रतिसेवना करनेवाला पुलाक होता है (रा.वा./ ई.६६५ (जीवन्धर चम्पू/प्र. ८/A N. Up.); ई. १५६ (पउम ६/४७/६३८/४) (चा.सा./१०४/१)
चरिउ/प्र. देवेन्द्रकुमार ), (म. पु/प्र.२०/पं. पन्नालाल)। ४. आप रा. वा. हि/8/४६/७६३ मूलगुणानि विर्षे कोइ क्षेत्र कालके वशते राजा जिनपालितके समकालीन तथा उनके मामा थे। इस परसे विराधना होय है तातै मूलगुण में अन्यमिलाप भया, केवल न भये । यह अनुमान किया जा सकता है कि राजा जिनपालितकी राजधानी तातै परालसहित शाली उपमा दे संज्ञा कही है।
वनवास ही आपका जन्म स्थान है। आप वहाँसे चलकर पुण्ड्रवर्धन * पुलाकादि पाँचों साधु सम्बन्धी विषय-दे० साधु/५ ।
अर्हदबलि आचार्य के स्थान पर आये और उनसे दीक्षा लेकर तुरत पुष्कर-१. मध्य लोकका द्वितीय द्वीप-दे० लोक/४/४ । २. मध्य
उनके साथ ही महिमानगर चले गये जहाँ अर्हलिने बृहद् यति
सम्मेलन एकत्रित किया था। उनका आदेश पाकर ये वहाँसे ही लोकका तृतीय सागर -दे० लोक/५/१।
एक अन्य साधु भूतबलि ( आचार्य) के साथ धरसेनाचार्यकी सेवार्थ ३. पुष्कर द्वोपके नामकी सार्थकता
गिरनार चले गये, जहाँ उन्होंने धरसेनाचार्यसे षट्खण्डका ज्ञान
प्राप्त किया। इनकी साधनासे प्रसन्न होकर भूत जातिके व्यन्तर स सि /३/३४/४ यत्र जम्बूवृक्षस्तत्र पुष्करं सपरिवारम् । तत एव तस्य
देवोने इनकी अस्त-व्यस्त दन्तपंक्तिको सुन्दर कर दिया था। द्वीपस्य नाम रूढे पुष्करद्वीप इति। मानुषोत्तरशैलेन विभक्तार्ध
इसीसे इनका नाम पुष्पदन्त पड गया। विबुध श्रीधर के श्रुतावत्वात्पुष्कराधसंज्ञा । जहाँ पर जम्बू द्वीपमें जम्बू वृक्ष है पुष्कर द्वीप मे अपने वहाँ परिवारके साथ पुष्करवृक्ष है। और इसीलिए इस द्वीप
तारके अनुसार आप वसुन्धरा नगरी के राजा नरवाहन थे। गुरु से का नाम पुष्करद्वीप रूढ हुआ है ।.. इस द्वीपके (मध्य भागमें मानु
ज्ञान प्राप्त करके अपने सहधर्मा भूतमलिजी के साथ आप गुरु से षोत्तर पर्वत है उस, मानुषोत्तर पर्वतके कारण ( इसके) दो विभाग
विदा लेकर आषाढ शु ११ को पर्वत से नीचे आ गए और उसके हो गये है अत. आधे द्वीपको पुष्कराध यह संज्ञा प्राप्त हुई।
निकट अकलेश्वर में चातुर्मास कर लिया। इसकी समाप्ति के * पुष्कर द्वीपका नकशा-दे० लोक/४/२१
पश्चात् भूतमलि को वहां ही छोडकर आप अपने स्थान बनवास'
लौट आये, जहां अपने भानजे राजा जिनपालित को दीक्षा देकर पुष्करावर्त-वर्तमान हस्तनगर । अफगानिस्तानमें है । (म. पु/
आपने उन्हे सिद्धान्त का अध्ययन कराया। उसके निमित्त से आपने प्र.५०/प. पन्नालाल)।
'वीसदि सूत्र' नामक एक ग्रन्थ की रचना की जिसे अवलोकन के
लिये आपने उन्हीं के द्वारा भूतबलि जी के पास भेज दिया। समयपुष्कल-१. पूर्व विदेहका एक क्षेत्र-दे० लोक५/२,२. पूर्व विदेहस्थ
वी. नि. ५६३-६३३ (ई०६६-१०६) । (विशेष दे० कोश १ एकशिल वक्षारका एक कूट-दे० लोक/४,३. पूर्व विदेहस्थ एक
परिशिष्ट २/११)। शिल वक्षारपर स्थित पुष्कलकूटका रक्षक देव-दे० लोक/५/४। पूष्कलावती-पूर्व विदेहके पुष्कलावर्त क्षेत्रको मुख्य नगरी। अपर- पुष्पदंत पुराण-आ. गुणवर्म (ई. १२३० )कृत (ती./४/३०६) । नाम पुण्डरी किनी। -दे० लोक/५।२।
पूष्पनंदि-१. आप तोरणाचार्यके शिष्य और प्रभाचन्द्र के गुरु थे। पुष्कलावत-१. पूर्व विदेहस्य एक क्षेत्र-दे० लोक/७। २. पूर्व
समय-वि ७६० (ई.७०३) (जैन सिद्धान्त प्रकाशिनी संस्था विदेहस्थ एकशिल वक्षारका एक कूट व उसका रक्षक देव। -दे० लोक/७।
द्वारा प्रकाशित समयसारकी प्रस्तावनामें K. B. Pathak)। २.
राष्ट्रकूट वंशी राजा गोविन्द तृतीयके समयके अर्थात श. स. ७२४ पुष्प-पुष्प सम्बन्धी भक्ष्याभक्ष्य विचार-दे. भक्ष्याभक्ष्य/४।। और ७१६ केदो ताम्र पत्रोंके अनुसार आप तोरणाचार्य के शिष्य और पुष्पक-आनत प्राणत स्वर्गका तृतीय पटल व इन्द्रक। -दे० प्रभाचन्द्र नं.२ के गुरु थे। तथा कुन्दकुन्दान्वयमें थे। तदनुसार स्वर्ग/५/३।
आपका समय शक सं.६५०(ई,७२८) होना चाहिए। (प. प्रा./पुष्पक विमान-राजा वैश्रवणको जीतकर रावणने अत्यन्त सुन्दर
प्र. ४-५/प्रेमीजी), (स. सा./प्र./K. B. Pathak)। पुष्पक विमानको प्राप्त किया। (प.पु/८/२५८)।
पुष्पमाल-विजयार्धकी उत्तरश्रेणीका एक नगर - दे० विद्याधर । पुष्पचारण ऋद्धि-दे० ऋद्धि।
पुष्पमाला-नन्दन वनमें स्थित सागर कूटको स्वामिनी दिक्कुमारी पुष्पचल-विजयाधकी उत्तर श्रेणीका एक नगर। -दे० विद्या
देवी-दे० लोका धर।
पुष्पसेन-आप एक दिगम्बर आचार्य थे। मूल संघकी गुर्वावलीके जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश
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पुष्पांजली व्रत
पूजा
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अनुसार अकलंक भट्ट के सधर्मा और छत्रचूडामणिके कर्ता वादीभ सिहके गुरु थे । समय-ई०७२०-७८० -दे० इतिहास/७/१। पुष्पांजली-भृतकालीन चौदहवें तीर्थंकर-दे० तीर्थंकर/५ । पष्पांजली व्रत-इस व्रतकी विधि तीन प्रकारसे वर्णन की गयी है--उत्तम, मध्यम व जघन्य । पाँच वर्ष तक प्रतिवर्ष भाद्रपद, माघ व चैत्र शुक्लपक्षकी--उत्तम-५-६ तक लगातार पाँच उपवास । मध्यम-५,७,६ को उपवास तथा ६,८ को एकाशन । जघन्य१६ को उपवास तथा ६-८ तक एकाशन 'ओह्री पंचमेरुस्थ अस्सी जिनालयेभ्यो नमः' इस मन्त्रका त्रिकाल जाप्य । (व्रत विधान सं..
पृ.४१), (क्रियाकोष )। पुष्य-एक नक्षत्र-दे० नक्षत्र । पुष्यमित्र-१. मगध देशाकी राज्य वंशावलीके अनुसार यह शक जातिका सरदार था। जिसने मौर्य काल में ही मगधके किसी भागपर अपना अधिकार जमा लिया था। तदनुसार इनका समय वी.नि. २५५-२८५ (ई.पू २७१-२४६) है । विशेष (दे० इतिहास/३/४) २. म. पु./७४/७१ यह वर्धमान भगवान्का दूरवर्ती पूर्व भव है-दे० वर्धमान ।
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पूजा-राग प्रचुर होनेके कारण गृहस्थों के लिए जिन पूजा प्रधान धर्म है, यद्यपि इसमें पंच परमेष्ठीको प्रतिमाओंका आश्रय होता है, पर तहाँ अपने भाव ही प्रधान है, जिनके कारण पूजकको असंरण्यात गुणी कर्मकी निर्जरा होती रहती है। नित्य नैमित्तिकके भेदसे वह अनेक प्रकारकी है और जल चन्दनादि अष्ट द्रव्योंसे की जातो है। अभिषेक व गान नृत्य आदिके साथ की गयी पूजा प्रचुर फलप्रदायी होती है। सचित्त, व अचित्त द्रव्यसे पूजा, पचामृत व साधारण जलसे अभिषेक, चावलौकी स्थापना करने वन करने आदि सम्बन्धी अनेकों मतभेद इस विषयमें दृष्टिगत हैं, जिनका समन्वय करना ही योग्य है।
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। ३ पूजा निर्देश व मूर्ति पूजा
एक जिन या जिनालयकी बन्दनासे सबकी वन्दना हो जाती है। एकको वन्दनासे सबकी वन्दना कैसे हो जाती है। देव व शास्त्रकी पूजामें समानता । साधु व प्रतिमा भी पूज्य है। साधुकी पूजासे पाप कैसे नाश होता है। सम्यग्दृष्टि गृहस्थ भी पूज्य नहीं -दे० विनय/।। देव तो भावोंमें हैं मूर्तिमें नहीं। फिर मूर्तिको क्यों पूजते है। पूजा योग्य प्रतिमा -दे० चैत्य चैत्यालय/१। एक प्रतिमामें सर्वका संकल्प । पार्श्वनाथको प्रतिमापर फण लगानेका विधि निषेध । बाहुबलिकी प्रतिमा सम्बन्धी शंका समाधान । क्षेत्रपाल आदिको पूजाका निषेध -दे० मूढता। पूजा योग्य द्रव्य विचार अष्ट द्रव्यसे पूजा करनेका विधान । अष्ट द्रव्य पूजा व अभिषेकका प्रयोजन व फल । पंचामृत अभिषेक निर्देश व विधि । सचित्त द्रव्यों आदिसे पूजाका निर्देश। चैत्यालयमें पुष्प वाटिका लगानेका विधान -दे० चैत्य चैत्यालय/२। सचित्त व अचित्त द्रव्य पूजाका समन्वय । निर्माल्य द्रव्यके ग्रहणका निषेध । पूजा विधि पूजाके पाँच अंग होते हैं। पूजा दिनमें तीन बार करनी चाहिए। एक दिनमें अधिक बार भी वन्दना करे तो निषेध नहीं
-दे०वन्दना। रात्रिको पूजा करनेका निषेध । चावलोंमें स्थापना करनेका निषेध । स्थापनाके विधि निषेधका समन्वय ।
पूजाके साथ अभिषेक व नृत्य गानादिका विधान । ७ द्रव्य व भाव दोनों पूजा करनी योग्य है।
पूजा विधानमें विशेष प्रकारका क्रियाकाण्ड । | पूजा विधानमें प्रयोग किये जानेवाले कुछ मन्त्र
-दे० मन्त्र। | पूजामें भगवान्को कर्ता हर्ता बनाना -दे० भक्ति/१। पंच कल्याणक
-दे० कल्याणक। | देव वन्दना आदि विधि
-दे० वन्दना। स्तव विधि
-दे० भक्ति/३। पूजामें कायोत्सर्ग आदिकी विधि -दे० बन्दना । पूजासे पूर्व स्नान अवश्य करना चाहिए। पूजाके प्रकरणमें स्नान विधि -दे० स्नान ।
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| भेद व लक्षण पूजाके पर्यायवाची नाम। पूजा के भेद-१. इज्यादि भेद: २. नाम स्थापनादि । | इज्यादि पाँच मेदोंके लक्षण । नाम, स्थापनादि पूजाओंके लक्षण । निश्चय पूजाके लक्षण। | पूजा सामान्य निर्देश व उसका महत्त्व
पूजा करना श्रावकका नित्य कर्तव्य है। | सावध होते हुए भी पूजा करनी चाहिए
-दे० धर्म/५/२। सम्यग्दृष्टि पूजा क्यों करे -दे० विनय/३ । | प्रोषधोपवासके दिन पूजा करे या न करे
-दे० प्रोषध/४। पूजाकी कथंचित् इष्टता अनिष्टता -दे० धर्म/४-६ । नंदीश्वर व पंचमेरु पूजा निर्देश। पूजामें अन्तरंग भावोंकी प्रधानता । जिन पूजाका फल निर्जरा व मोक्ष । जिन पूजा सम्यग्दर्शनका कारण है
-दे० सम्यग्दर्शन/III/11
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भा०३-१०
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पूजा
७४
१. भेद व लक्षण
अर्हदाद्य दिश्य
वाचा गुणसंस्तवन बक्षिणीकरण-प्रणम
१.भेद व लक्षण
सन्ध्याओंमें उपासना करना तथा इनके समान और भी जो पूजाके
प्रकार है वे उन्हीं भेदोमें अन्तर्भूत है ।३२-३३। १. पूजाके पर्यायवाची नाम म. पु./६७/१६३ यागो यज्ञ' क्रतु. पूजा सपर्येज्याध्वरो मख । मह
४. नाम, स्थापनादि पूजाओंके लक्षण इत्यपि पर्यायवचनान्यर्चनाविधे ।१६३। याग, यज्ञ, क्रतु. पूजा, १. नामपूजा सपर्या, इज्या, अध्वर, मख और मह ये सब पूजा विधिके पर्यायवाची
वसु. श्रा./३८२ उच्चारिऊण णाम अरुहाईण विसुद्धदेसम्मि। पुप्फाणि जं शब्द है ।१३।
खि विज्जंति वणिया णामपूया सा ।३८२। -अरहन्तादिका नाम २. पूजाके भेद
उच्चारण करके विशुद्ध प्रदेशमें जो पुष्प क्षेपण किये जाते है वह नाम १. इज्या आदिको अपेक्षा
पूजा जानना चाहिए ।३८२। ( गुण. श्रा./२१३ )। म. पु/३८/२६ प्रोक्ता पूजाई तामिज्या सा चतुर्धा सदार्चनम् । चतुर्मुख
२ स्थापना पूजा मह' कल्पद्रुमाश्चाष्टाह्निकोऽपि च ।२६। -पूजा चार प्रकारकी है बसु. श्रा./३८३-३८४ सम्भावासभावा दुविहा ठवणा जिणेहि पण्णत्ता। सदार्चन (नित्यमह), चतुर्मुख (सर्वतोभद्र), कल्पद्रुम और अष्टाह्निक । सायारवंतवत्थुम्मि जं गुणारोवणं पढमा ।३८३। अक्खय-बराडओ वा (ध.८/३, ४२/१२/४) (इसके अतिरिक्त एक ऐन्द्रध्वज महायज्ञ भी अमुगो एसो त्ति णियबुद्धीए । संकप्पिऊण वयणं एसा विझ्या असहै जिसे इन्द्र किया करता है। तथा और भी जो पूजाके प्रकार है वे भावा ।३८४ =जिन भगवान्ने सद्भाव स्थापना और असद्भाव स्थाइन्हीं भेदोमें अन्तर्भूत है। (म. पु./२८/३२-३३), (चा. सा./४३/१);
पना यह दो प्रकारकी स्थापना पूजा कही है। आकारवाच वस्तुमें (सा घ./१/१८; २/२५-२६)
अरहन्तादिके गुणोका जो आरोपण करना, सो यह पहली सद्भाव २. निक्षेपोंकी अपेक्षा
स्थापना पूजा है । और अक्षत, वराटक ( कौडी या कमलगट्टा आदिमे
अपनी बुद्धिसे यह अमुक देवता है, ऐसा संकल्प करके उच्चारण वसु. श्रा/३८१ णाम-ट्ठवणा-दवे-खित्ते काले वियाणाभावे य। छवि
करना, सो यह असद्भाव स्थापना पूजा जानना चाहिए ।३८३-३८४। हपूया भणिया समासओ जिणवरिदेहि ।३८१नाम, स्थापना, (गुण, श्रा./२१४-२१५) । द्रव्य, क्षेत्र, काल और भावकी अपेक्षा संक्षेपसे छह प्रकारको पूजा जिनेन्द्रदेवने कही है।३८१ (गुण. श्रा./२१२) ।
३. द्रव्यपूजा ३. द्रव्य व भावकी अपेक्षा
भ. आ./वि./४७/१५९/२१ गन्धपुष्पधूपाक्षतादिदानं अहंदाद्य दिश्य भ. आ./वि./४७/१५६/२० पूजा द्विप्रकारा द्रव्यपूजा भावपूजा चेति ।
__ द्रव्यपूजा । अभ्युत्थानप्रदक्षिणीकरण-प्रणमनादिका-कायक्रिया च ।
वाचा गुणसंस्तवनं च। -अर्हदादिको के उद्देश्यसे गंध, पुष्प, धूप, - पूजाके द्रव्यपूजा और गावपूजा ऐसे दो भेद है।
अक्षतादि समर्पण करना यह द्रव्यपूजा है। तथा उठ करके खडे ३. इज्या आदि पाँच भेदोंके लक्षण
होना, तीन प्रदक्षिणा देना, नमस्कार करना वगैरह शरीर क्रिया
करना, वचनोंसे अहं दादिकके गुणोको स्तवन करना, यह भी द्रव्यम. पु/३८/२७-३३ तत्र नित्यमहो नाम शश्वज्जिनग्रहं प्रति ।
पूजा है। (अ. ग. श्रा./१२/१२ । स्वगृहान्नीयमानार्चा गन्धपुष्पाक्षतादिका ।२७। चैत्यचैत्यालयादीनां
वसु. श्रा/४४५-४५१ दव्वेण य दव्वस्स य जा पूजा जाण दवपूजा सा । भक्त्या निर्मापणं च यत् । शासनीकृत्य दानं च ग्रामादीना सदार्चनम्
दव्वेण गंध-सलिलाइपुश्वभणिएण कायव्वा ।४४८१ तिविहा दव्वे पूजा १२ या च पूजा मुनीन्द्राणां नित्यदानानुषङ्गिणी। स च नित्यमहो
सच्चित्ताचित्तमिस्सभेएण। पच्चक्खजिणाईणं सचित्तपूजा जहाजोग्ग। ज्ञेयो यथाशक्त्युपकल्पितः ॥२६॥ महामुकुटबद्धश्च क्रियमाणो
४४६ तेसि च सरीराणं दव्वसुदस्सवि अचित्तपूजा सा : जा पुण महामहः । चतुर्मुखः स विज्ञेय. सर्वतोभद्र इत्यपि ॥३०) दत्वा
दोण्हं कीरइ णायव्वा मिस्सपूजा सा ।४५० अहवा आगम-णोआगकिमिच्छकं दानं सम्राभिर्य. प्रवर्त्यते। कल्पद्रुममह सोऽयं जगदा
माइभेएण बहुविहं दव्वं । णाऊण दव्वपूजा कायव्वा मुत्तमग्गेण । शाप्रपूरणः ॥३१॥ आष्टाह्निको मह सार्वजनिको रूढ एव सः । महा
१४५१। =जलादि द्रव्यसे प्रतिमादि द्रव्यकी जो पूजा की जाती है, नैन्द्रध्वजोऽन्यस्तु सुरराजै' कृतो मह' ॥३२॥ बलिस्नपनमित्यन्य.
उसे द्रव्यपूजा जानना चाहिए। वह द्रव्यसे अर्थात जल गन्धादि त्रिसन्ध्यासेवया समम् । उक्तेष्वेव विकल्पेषु ज्ञयमन्यच्च तादृशम् ।
पूर्वमें कहे गये पदार्थ समूहसे करना चाहिए ।४४८(ब. ग. श्रा./१२ 1३३।-प्रतिदिन अपने घरसे गन्ध, पुष्प, अक्षत आदि ले जाकर
१३) द्रव्यपूजा, सचित्त, अचित्त और मिश्रके भेदसे तीन प्रकारकी है। जिनालयमें श्री जिनेन्द्रदेवकी पूजा करना सदार्चन अर्थात नित्यमह
प्रत्यक्ष उपस्थित जिनेन्द्र भगवान् और गुरु आदिका यथायोग्य पूजन कहलाता है ।२७॥ अथवा भक्ति पूर्वक अर्हन्त देवकी प्रतिमा और
करना सो सचित्तपूजा है। उनके अर्थात जिन तीर्थकर आदिके मन्दिरका निर्माण कराना तथा दानपत्र लिखकर ग्राम, खेत आदि
शरीरकी और द्रव्यश्रुत अर्थात् कागज आदिपर लिपिबद्ध शास्त्रकी का दान भी देना सदार्चन कहलाता है ।२८। इसके सिवाय अपनी जो पूजा की जाती है, वह अचित्तपूजा है। और जो दोनोकी पूजा शक्तिके अनुसार नित्यदान देते हुए महामुनियोकी जो पूजा की जाती
को जाती है वह मिश्रपूजा जानना चाहिए ।४४६-४५०॥ अथवा आगमहै उसे भी नित्यमह समझना चाहिए ।२६॥ महामुकुटबद्ध राजाओके
द्रव्य और नोआगमद्रव्य आदिके भेदसे अनेक प्रकारके द्रव्य निक्षेपद्वारा जो महायज्ञ किया जाता है उसे चतुर्मुख यज्ञ जानना चाहिए। को जानकर शास्त्र प्रतिपादित मार्गसे द्रव्यपूजा करना चाहिए। इसका दूसरा नाम सर्वतोभद्र भी है।३०। जो चक्रवर्तियों के द्वारा
॥४५( गुण, श्रा./२१६-२२१)। किमिच्छक दान देकर किया जाता है और जिसमें जगत्के सर्व जीवोंकी आशाएँ पूर्ण की जाती है, वह कल्पद्रुम मामका यज्ञ
४. क्षेत्रपूजा कहलाता है।३१। चौथा अष्टाह्निक यज्ञ है जिसे सब लोग करते है और बसु. श्रा./४५२ जिणजम्मण-णिक्खमणे णाणुप्पत्तीए तित्थचिण्हेसु । जो जगत में अत्यन्त प्रसिद्ध है। इनके सिवाय एक ऐन्द्रध्वज महायज्ञ णिसिहीसु खेत्तपूजा पुव्वविहाणेण कायव्वा ।-जिन भगवानकी जन्म भी है जिसे इन्द्र किया करता है। (चा. सा./४३/२); (सा. घ./२/ कल्याणक भूमि, निष्क्रमण कल्याणक भूमि, केवलज्ञानोत्पत्तिस्थान, २५-२६) । बलि अर्थात् नैवेद्य चढाना, अभिषेक करना, तीन तीर्थ चिह्न स्थान और निषीधिका अर्थात निर्वाण भूमियोंमें पूर्वोक्त
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पूजा
२. पूजा सामान्य निर्देश व उसका महत्त्व
प्रकारसे पूजा करना चाहिए यह क्षेत्रपूजा कहलाती है।४५२ (गुण, ।१६। जो जीव भक्तिसे जिनेन्द्र भगवान् का न दर्शन करते है, न श्रा./२२२)।
पूजन करते है, और न ही स्तुति करते है उनका जीवन निष्फल है,
तथा उनके गृहस्थको धिक्कार है ।१॥ श्रावकोको प्रातःकालमें उठ ५. कालपूजा
करके भक्तिसे जिनेन्द्रदेव तथा निर्ग्रन्थ गुरुका दर्शन और उनकी मु. श्रा./४५३-४५५ गब्भावयार-जम्माहिसेय-णिक्रवमण णाण-णिव्वाणं ।
वन्दना करके धर्म श्रवण करना चाहिए। तत्पश्चात् अन्य कायोंको जम्हि दिणे सजाद जिणण्हवणं तद्दिणे कुज्जा ।४५३॥ गंदीसरढदिवसेसु
करना चाहिए ।१६। तहा अण्णेसु उचियपव्वेतु । जं कीरइ जिणमहिमा विण्णेया कालपूजा
बो, पा./टी./१७/८५ पर उद्धृत-उत्तं सोमदेव स्वामिना-अपूजयित्वा सा४५५-जिस दिन तीर्थंकरोके गर्भावतार, जन्माभिषेक, निष्क्र
यो देवान मुनीननुपचयं च । यो भुञ्जीत गृहस्थः सन् स भुञ्जीत पर मणकल्याणक, ज्ञानकल्याणक और निर्वाणकल्याणक हुए है, उसदिन तमः। -आचार्य सोमदेवने कहा है कि जो गृहस्थ जिनदेवकी भगवान् का अभिषेक करे। तथा इस प्रकार नन्द श्वर पर्व के आठ
पूजा और मुनियोकी उपचर्या किये बिना अन्नका भक्षण करता है। दिनो में तथा अन्य भी उचित पर्यों में जो जिन महिमा की जाती है,
वह सातवे नरकके कुम्भीपाक बिलमें दुःखको भोगता है। (अ.ग, वह कालपूजा जानना चाहिए १४५३॥ ( गुण. श्रा./२५३-२२४ )
श्रा./१/५५)। ६. भावपूजा
पं. ध./उ./७३२-७३३ पूजामप्यर्हतां कुर्याद्यद्वा प्रतिमा तद्धिया। भ.आ/वि./४७/१५६/२२ भावपूजा मनसा तद्गुणानुस्मरणं । -मनसे
स्वरव्यञ्जनानि संस्थाप्य सिद्धानप्यचंयेत्सुधी १७३२। सूर्युपाध्यायउनके (बर्हन्तादिके ) गुणोका चिन्तन करना भावपूजा है। (अ. ग.
साधूनां पुरस्तत्पादयो. स्तुतिम् । प्राग विधायाष्टधा पूजां विदध्यात्स
त्रिशुद्धितः १७३३। - उत्तम बुद्धिवाला श्रावक प्रतिमाओमें अर्हन्तश्रा./१२/१४)। वसु, श्रा./४५६-४५८ काऊणाणंतचउट्ठयाइ गुणकित्तणं जिणाईणं । ज
की बुद्धिसे अर्हन्त भगवानकी और सिद्ध यन्त्रमे स्वर व्यंजन आदि बंदणं तियाल कीरइ भावच्चणं तं खु।४५६ पंचणमोकारयएहि अहवा
रूपसे सिद्धोकी स्थापना करके पूजन करे १७३२॥ तथा आचार्य उपाजाव कुणिज्ज सत्तीए। अहवा जिणिदथोत्तं बियाण भावचणं तं पि
ध्याय साधुके सामने जाकर उनके चरणोकी स्तुति करके त्रिकरणकी ।४५७ ज झाइज्जइ झाणं भावमहंत विणि दिट्ठ।४५८ = परम
शुद्धिपूर्वक उनकी भी अष्ट द्रव्यसे पूजा करे १७३३। (इस प्रकार नित्य भक्तिके साथ जिनेन्द्र भगवान के अनन्त चतुष्टय आदि गुणोका कीर्तन
होनेवाले जिनबिम्ब महोत्सवमें शिथिलता नहीं करना चाहिए। करके जो त्रिकाल वन्दना की जाती है, उसे निश्चयसे भावपूजा जानना
1(७३६)। चाहिए।४५६॥ अथवा पच णमोकार पदोंके द्वारा अपनी शक्तिके अनुसार जाप करे। अथवा जिनेन्द्र के स्तोत्र अर्थात् गुणगानको भाव
२. नंदीश्वर व पंचमेरु पूजा निर्देश
भार प्रकारका ध्यान किया ति.प.//८३,१०१,१०३ वरिसे वरिसे चउविहदेवा गंदीसरम्मि जाता है वह भी भावपूजा है ।४१८॥
दीवम्मि.। आसाढकत्तिएसु फरगुणमासे समायन्ति।८३। पुवाए कप्प५.निश्चय पूजाका लक्षण
वासी भवणसुरा दक्विणाए वेतरया। पच्छिम दिसाए तेसु जोइसिया
उत्तरदिसाए ।१०० यिणियविभूदिजोग्ग महिमं कुव्वं ति थोत्तस, श./मू./३१ य' परात्मा स एवाहं योऽहं स परमस्ततः । अहमेव मयो
बहलमुहा। गंदीसरजिणमंदिरजत्तासु बिउलभत्तिजुदा ।१०११ पास्यो नास्य कश्चिदितिस्थिति ।३१। जो परमात्मा है वह ही मै
पुचण्हे अवरण्हे पुव्वणिसाए वि पच्छिमणिसाए । पहराणि दोणिहूँ तथा जो स्वानुभवगम्य मैं हूँ वही परमात्मा है, इसलिए मै ही
दोणि वरभत्तीए पसत्तमणा ।१०२१ कमसो पदाहिणेणं पुण्णिमयं मेरे द्वारा उपासना किया जाने योग्य हूँ, दूसरा कोई अन्य नही।
जाव अट्ठमीदु । तदो देवा विविहं पूजा जिणिदपडिमाण कुव्वंति। इस प्रकार ही आराध्य-आराधक भावकी व्यवस्था है।
११०३। -चारो प्रकारके देव नन्दीश्वरद्वीपमें प्रत्येक वर्ष आषाढ, प. प्र/मू./१/१२३ मणु मिलियउ परमेसरहें परमेसरु वि मणस्स !
कार्तिक और फाल्गुन मासमे आते है ।८३। नन्दीश्वरद्वीपस्थ जिन
मन्दिरोकी यात्रामें बहुत भक्तिसे युक्त कल्पवासी देव पूर्व दिशामें, बीहि वि समरसि-हाहं पुज्ज चडाव कस्स। -विकल्प
भवनवासी दक्षिणमें, व्यन्तर पश्चिम दिशामें और ज्योतिषदेव रूप मन भगवान आत्मारामसे मिल गया और परमेश्वर भी मनसे
उत्तर दिशामें मुखसे बहुत स्तोत्रोका उच्चारण करते हुए अपनीमिल गया तो दोनो ही को समरस होनेपर किसकी अब मै पूजा
अपनी विभूतिके योग्य महिमाको करते है ।१००-१०१। ये देव करूं। अर्थात् निश्चयनयकर अब किसीको पूजना सामग्री चढाना
आसक्त चित्त होकर अष्टमीसे लेकर पूर्णिमा तक पूर्वाह्न, अपराल, नही रहा । १२३॥ दे० परमेष्ठी-पाँचों परमेष्ठी आत्मामें ही स्थित हैं, अतः वही मुझे
पूर्वरात्रि और पश्चिमरात्रिमें दो-दो पहर तक उत्तम भक्ति पूर्वक
प्रदक्षिण क्रमसे जिनेन्द्र प्रतिमाओकी विविध प्रकारसे पूजा करते शरण है।
है।१०२-१०३॥
ज, प./५/११२ एवं आगंतूर्ण अहमिदिवसेसु मंदरगिरिस्स । जिण२. पूजा सामान्य निर्देश व उसका महत्त्व
भवणेसु य पडिमा जिणिदईदाण पूयंति ।११२। -इस प्रकार अर्थात १. पूजा करना श्रावकका नित्य कर्तव्य है
बडे उत्सव सहित आकर वे (चतुनिकायके देव ) अष्टाह्निक दिनोंमें
मन्दर ( सुमेरु ) पर्वतके जिन भवनोंमें जिनेन्द्र प्रतिमाओं की पूजा वसु. श्रा./४७८ एसा छबिहा पूजा णिच्च धम्माणुरायरत्तेहिं । जह करते हैं ।११।
जोग्ग कायव्वा सव्वेहि पि देसविरएहि ।४७८ - इस प्रकार यह छह __ अन, ध./६/६३ कुर्वन्तु सिद्धनन्दीश्वरगुरुशान्तिस्तवैः क्रियामष्टौ । प्रकार (नाम, स्थापनादि) की पूजा धर्मानुरागरक्त सर्व देशबती शुच्यूर्जतपस्यसिताष्टम्यादिदिनानि मध्याह्न । आषाढ, कार्तिक श्रावकोको यथायोग्य नित्य ही करना चाहिए ।४७८!
और फाल्गुन शुक्ला अष्टमीसे लेकर पूर्णिमा पर्यन्तके आठ दिनों पं.वि /६/१५-१६ ये जिनेन्द्रं न पश्यन्ति पूजयन्ति स्तुवन्ति न । तक पौर्वाहिक स्वाध्याय ग्रहणके अनन्तर सब संघ मिला कर, सिद्धनिष्फलं जीवितं तेषां तेषां धिक् च गृहाश्रमम् ॥१॥ प्रातरुत्थाय भक्ति, मन्दीधर चैत्यभक्ति, पंचगुरुभक्ति और शान्तिभक्ति द्वारा कतं व्यं देवतागुरुदर्शनम् । भक्त्या तद्वन्दना कार्या धर्मश्रुतिरुपासका। अष्टाह्निक क्रिया करे । ६३ ।
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पूजा
पूजा निर्देश व मूर्ति पूजा
4.वि./१०/४२ नाममात्रकथया परात्मनो भूरिजन्मकृतपापस क्षय.।४२।
परमात्माके नाममात्रको कथासे हो अनेक जन्मोके संचित किये पापोका नाश होता है। पं. वि./६/१४ प्रपश्यन्ति जिन भक्त्या पूजयन्ति स्तुवन्ति ये। ते च दृश्याश्च पूज्याश्च स्तुत्याश्च भुवनत्रये ।१४। -जो भव्य प्राणी भक्तिसे जिन भगवानका पूजन, दर्शन और स्तुति करते है वे तीनो लोकों में स्वयं ही दर्शन, पूजन और स्तुतिके योग्य हो जाते है अर्थात स्वयं भी परमात्मा बन जाते है। सा. ध./२/३२ दृक्पूतमपि यष्टारमह तोऽभ्युदयश्रियः। श्रयन्त्यहम्पूर्वि
कया, कि पुनर्ब तभूषितम् ॥३२॥ अहंन्त भगवान्की पूजाके माहात्म्यसे सम्यग्दर्शनसे पवित्र भी पूजकको पूजा, माज्ञा, आदि उत्कर्षकारक सम्पत्तियाँ 'मै पहले, मै पहले', इस प्रकार ईर्ष्यासे प्राप्त होती है, फिर व्रत सहित व्यक्तिका तो कहना ही क्या है ।३२॥ दे० धर्म/5/8 ( दान, पूजा आदि सम्पक व्यवहारधर्म कर्मोंकी निर्जरा तथा परम्परा मोक्षका कारण है।)
सर्व पूजाकी पुस्तकों में अष्टाह्निकपूजा "सवौषडाहूय निवेश्य ठाभ्या सानिध्यमनीय वषड्पदेन । श्रीपञ्चमेरुस्थजिनालयानां यजाम्यशीतिप्रतिमाः समस्ता आहूय सवौषडिति प्रणीत्य ताभ्यां प्रतिष्ठाप्य सुनिष्ठितार्थान् । वषड् पदेनैव च संनिधाय नन्दीश्वरद्वीपजिनान्समर्च ।। ='सवौषट्' पदके द्वारा बुलाकर, 'ठ' 8' पदके द्वारा ठहराकर, तथा 'वषट्' पदके द्वारा अपने निकट करके पाँचो मेरुपर्वतोपर स्थित अस्सी चैत्यालयों की समस्त प्रतिमाओकी मै पूजा करता हूँ।१। इसी प्रकार 'सवौषट्' पदके द्वारा बुलाकर, 'ठ'ठ.' पदके द्वारा ठहराकर, तथा 'वषट् के द्वारा अपने निकट करके हम नन्दीश्वरद्वीपके जिनेन्द्रोंकी पूजा करते है।
३. पूजामें अन्तरंग मावोंकी प्रधानता ध.१/४,१,१/८/७ ण ताव जिणो सगवदणाए परिणयाण चेव जीवाणं पावस्स पणासओ, वीयरायत्तस्साभावप्पसगादो। " परिसेसत्तणेण जिणपरिणयभावी च पावपणासओ त्ति इच्छियव्यो, अण्णहा कम्मक्खयाणुववत्तीदो। -जिन देव वन्दन जीवोंके पापके बिनाशक नही है, क्योकि ऐसा होनेपर वीतरागताके अभावका प्रसंग आवेगा। ""तब पारिशेष रूपसे जिन परिणत भाव और जिनगुण परिणामको पापका विनाशक स्वीकार करना चाहिए।
४. जिनपूजाका फल निर्जरा व मोक्ष भ. आ./भू./७४६,७५० एया वि सा समत्था जिणभत्ती दुग्गई णिवारेण । पुण्णाणि य पूरेदु आसिद्धि पर परसुहाण ७४६। बीएण विणा सस्सं इच्छदि सो वासमभएण विणा। आराधणमिच्छन्तो आराधणभत्तिमरतो।७५० - अकेली जिनभक्ति ही दुर्गतिका नाश करनेमें समर्थ है, इससे विपुल पुण्यकी प्राप्ति होती है और मोक्षप्राप्ति होने तक इससे इन्द्रपद, चक्रवर्तीपद, अहमिन्द्रपद और तीर्थकरपदके सुखोकी प्राप्ति होती है १७४६ आराधना रूप भक्ति न करके ही जो रत्नत्रय सिद्धि रूप फल चाहता है वह प्ररुष बीजके बिना धान्य प्राप्तिकी इच्छा रखता है, अथवा मेघके बिना जलवृष्टिकी इच्छा करता है ।७५०1 (भ.आ./मू./७५३), (र.सा/१२-१४); (भा.पा./ टी./८/१३२ पर उदधृत), (वसु.श्रा /४८६-४६३)। भा पा./मू /१५३ जिणवरचरण बुरुहं णमंति जे परमभत्तिराएण । ते
जम्मवेलिमूलं खणं ति वरभावसत्येण ।१५३। =जे पुरुष परम भक्तिसे जिनवरके चरणकू नमें है ते श्रेष्ठ भावरूप शस्त्रकरि संसाररूप वेलि
का जो मूल मिथ्यात्व आदिकर्म ताहि सणे है । म् आ /५०६ अरहतणमोकारं भावेण य जो करेदि पयदमदी। सो सव्वदुक्खमोक्वं पावदि अचिरेण कालेण १५०६। -जो विवेकी जीव भावपूर्वक अहरन्तको नमस्कार करता है वह अति शीघ समस्त दु खोसे मुक्त हो जाता है।५०६ (क.पा.१/१/गा.२/8), (प्र.सा/
ता.व./७६/९०० पर उद्धृत)। क. पा.१/9/8/२ अरहतणमोकारो संपयिबंधादो असंखेनगुणकम्मक्ख
यकारओ त्ति । -अरहन्त नमस्कार तत्कालीन बन्धकी अपेक्षा असंख्यातगुणी कर्म निर्जराका कारण है। (ध. १०/४,२,४,६६/२८६/४)। घ.६/१,६-६,२२/गा.१/४२८ दर्शनेन जिनेन्द्राणां पापसंघातकजरम।
शतधा भेदमायाति गिरिर्वबहतो यथा। ध. ६/१.६-६,२२/४२७/६ जिणविबदसणेण णिवत्तणिकाचिदस्स वि मिच्छत्तादिकम्मकलावस्स खयदंसणादो। -जिनेन्द्रों के दर्शनसे पाप सघात रूपी कुजरके सौ टुकडे हो जाते है, जिस प्रकार कि बज्रके आघातसे पर्वतके सौ टुकड़े हो जाते है ।। जिन बिम्बके दर्शनसे निधत्त और निकाचित रूप भी मिथ्यात्वादि कर्म कलापका क्षय देखा जाता है।
१. एक जिन या जिनालयकी वन्दनासे सबकी वन्दना
हो जाती है क. पा १/१,१/१८७/११२/५ अणं तेसु जिणेसु एयवंदणाए सव्वेसि पि वंदणुववत्तीदो।"एगजिणवदणाफलेण समाणफलत्तादो सेसजिणवदणा फलवता तदो सेसजिणवंदणासु अहियफलाणुवलेभादो एक्कस्स चेव वंदणा कायव्वा, अणं तेसु जिणेसु अक्रमेण छदुमत्थुपजोगपडतीए विसेसरूवाए असंभवादो वा एकस्सेव जिणस्स बंदणा कायब्वा त्ति ण एसो वि एयंतग्गहो कायव्वी; एयंतावहारणस्स सव्वहा दुग्णयत्तप्पसंगादो। एक जिन या जिनालयकी वन्दना करनेसे सभी जिन या जिनालयकी वन्दना हो जाती है। प्रश्नएक जिनकी वन्दनाका जितना फल है शेष जिनोकी बन्दनाका भी उतना ही फल होनेसे शेष ज़िनोकी वन्दना करना सफल नहीं है। अत: शेष जिनोकी वन्दनामें फल अधिक नहीं होनेके कारण एक ही जिनकी वन्दना करनी चाहिए । अथवा अनन्त जिनोमें छद्मस्थके उपयोगकी एक साथ विशेषरूप प्रवृत्ति नहीं हो सकती, इसलिए भी एक जिनकी वन्दना करनी चाहिए। उत्तर-इस प्रकारका एकान्ताग्रह भी नही करना चाहिए, क्योंकि इस प्रकारका निश्चय करना दुर्नय है। २. एककी वन्दनासे सबकी वन्दना कैसे होती है क.पा/१/१,१/८६-८७/१११-११२/५ एक्कजिण-जिणालय-बदणा ण
कम्मवयं कुणइ, सेसजिण-जिणालय-चासण. 18८६ ण ताव परखवाओ अत्थि; एक्कं चैव जिणं जिणालयं वा वंदामि त्ति णियमाभावादो। ण च सेसजिणजिणालयाणं णियमेण वदणा ण कया चेवः अणतणाण-दसण-विरिय-सुहादिदुवारेण एयत्त मावण्णेसु अणतेसु जिणेसु एयवंदणाए सव्वेसि पि वंदणुववत्तीदो । ८७
प्रश्न-एक जिन या जिनालयकी वन्दना कर्मोका क्षय नहीं कर सकती है, क्योकि इससे शेष जिन और जिनालयोकी आसादना होती है ! उत्तर-एक जिन या जिनालयकी वन्दना करनेसे पक्षपात तो होता नहीं है, क्योकि वन्दना करनेवालेके 'मै एक जिन या जिनालयकी वन्दना करूगा अन्यकी नही' ऐसा प्रतिज्ञा रूप नियम नहीं पाया जाता है। तथा वन्दना करनेवालेने शेष जिन
और जिनालयोकी वन्दना नहीं की ऐसा भी नहीं कहा जा सकता, क्योकि अनन्त ज्ञान, दर्शन, वीर्य, सुख आदिके द्वारा अनन्त जिन एकत्वको प्राप्त है। इसलिए उनमें गुणों की अपेक्षा कोई भेद नहीं
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पूजा
है अतएव एक जिन या जिनालयकी वन्दनासे सभी जिन या जिनालयकी वन्दना हो जाती है। ३. देव व शास्त्रकी पूजामें समानता सा, ध./२/४४ ये सजन्ते श्रुतं भक्त्या, ते यजन्तेऽजसा जिनम् । न किचिदन्तरं प्राहुराप्ता हि श्रुतदेवयो ४४। जो पुरुष भक्तिसे जिनवाणीको पूजते है, वे पुरुष वास्तवमें जिन भगवानको ही पूजते है, क्योंकि सर्वज्ञदेव जिनवाणी और जिनेन्द्रदेवमें कुछ भी अन्तर नहीं कहते है।४४॥
४. साधु व प्रतिमा भी पूज्य है बो. पा./मू /१७ तस्य य करइ पणाम सव्वं पुज्ज च विणयवच्छल्लं । जस्स य द सण णाणं अत्थि धुर्व चेयणा भावो ।१७। - ऐसे 'जिनबिंब अर्थात आचार्य प्रणाम करो, सर्व प्रकार पूजा करो, विनय करो, वात्सल्य करो, काहै तें-जाके ध्र व कहिये निश्चयतें दर्शन ज्ञान पाइये है बहुरि चेतनाभाव है। बो. पा./टी./१७/८५/ह जिनबिम्बस्य जिनबिम्बमूर्तेराचार्यस्य प्रणाम नमस्कारं पञ्चाङ्गमष्टाङ्ग बा कुरुत। चकारादुपाध्यायस्य सर्वसाधोश्च प्रणाम कुरुत तयोरपि जिनबिम्बस्वरूपत्वाव । सर्वां पूजामष्टविधमचनं च कुरुत यूयमिति, तथा विनय · वैयावृत्यं कुरुत यूय ।... चकारात्पाषाणादिघाटितस्य जिनबिम्बस्य पञ्चामृत स्नपन,अष्टविधैः पूजाद्रव्यैश्च पूजन कुरुत यूयं । -जिनेन्द्रकी मूर्ति स्वरूप आचार्यको प्रणाम, तथा पंचाङ्ग वा अष्टांग नमस्कार करो। च शब्दसे उपाध्याय तथा सर्व साधुओंको प्रणाम करो, क्योंकि वह भी जिनबिम्ब स्वरूप है।.. इन सबकी अष्टविध पूजा, तथा अर्चना करो, विनय, एवं वैयावृत्य करो ।...चकारसे पाषाणादिमें उकेरे गये जिनेन्द्र भगवान्के बिम्बका पंचामृतसे अभिषेक करो और अष्टविध पूजाके द्रव्यसे पूजा करो, भक्ति करो और भी दे० पूजा |२१) । दे० पूजा/१/४ आकारवान व निराकार वस्तुमें जिनेन्द्र भगवान्के गुणो___ की कल्पना करके पूजा करनी चाहिए। दे० पूजा/२/१ ( पूजा करना श्रावकका नित्य कर्तव्य है।)
५. साधुको पूजासे पाप नाश कैसे हो सकता है ध.१/४,१,१/११/१ होदु णाम सयलजिणणमोकारो पावप्पणासओ, तस्थ
सव्वगुणाणमुवतंभादो। ण देसजिणाणभेदेसु तदणुवल भादो त्ति । ण, सयलजिणेसु व देसजिणेसु तिण्हं रयणाणमुबलभादो। तदो सयलजिणणमोक्कारो व्व देसजिणणमोक्कारो वि सव्वकम्मक्खयकारओ ति दछन्बो। सयलासयलजिणठियतिरयणाण ण समाणत्तं ।... संपुण्णतिरणकज्जमसंपुण्णतिरयणाणि ण करेति, असमणत्तादो त्ति ण, णाण-दसण-चरणाणमुप्पणसमाणत्तु वलंभादो। ण च असमाणाणं कज्ज असमाणमेव त्ति णियमो अस्थि, संपुण्ण ग्गिया कोरमाणदाहकज्जस्स तदवयवे वि उबलं भादो, अमियघडसएण कीरमाण णिव्विसोकरणादि कज्जस्स अमियस्स चलुवे वि उवल भादो वा।
प्रश्न-सकलजिन नमस्कार पापका नाशक भले ही हो, क्योकि उनमे सब गुण पाये जाते हैं। किन्तु देशजिनोंको किया गया नमस्कार पाप प्रणाशक नहीं हो सकता, क्योकि इनमें वे सब गुण नही पाये जाते ? उत्तर-नहीं, क्योंकि सकल जिनोंके समान देशजिनो में भी तीन रत्न पाये जाते है। इसलिए सकल जिनोंके नमस्कार के समान देश जिनोंका नमस्कार भी सब कर्मोका क्षयकारक है, ऐसा निश्चय करना चाहिए। प्रश्न-सकल जिनों और देशजिनोंमे स्थित तोन रत्नोकी समानता नहीं हो सकती क्योंकि सम्पूर्ण रत्नत्रयका कार्य असम्पूर्ण रत्नत्रय नहीं करते, क्योंकि, वे असमान है। उत्तर-नहीं, क्योंकि ज्ञान, दर्शन और चारित्रके
३. पूजा निर्देश व मूर्तिपूजा सम्बन्धमे उत्पन्न हुई समानता उनमें पायी जाती है। और असमानोंका कार्य असमान ही हो ऐसा कोई नियम नही है, क्योंकि सम्पूर्ण अग्निके द्वारा किया जानेवाला दाह कार्य उसके अवयवमें भी पाया जाता है, अथवा अमृतके सैकड़ो घडोंसे किया जानेवाला निर्विषीकरणादि कार्य चुल्लू भर अमृतमें भी पाया जाता है।
६. देव तो मावों में है मूर्ति में नहीं प.प्र.//९/१२३४१ देउ ण देउले गवि सिलए णवि लिप्पड़ णवि चित्ति। अखउ गिर जणु णाणमउ सिउ संठिउ सम-चित्ति ।१२३॥ -आन्म देव देवालयमें नहीं है, पाषाणकी प्रतिमामें भी नहीं है, लेपमें भी नहीं है, चित्रामकी मुतिमें भी नहीं है। वह देव अविनाशी है, कर्म अंजनसे रहित है, केवलज्ञान कर पूर्ण है, ऐसा निज परमात्मा समभावमें तिष्ठ रहा है ।१२३. (यो. सा यो./४३-४४) यो, सा.यो./४२ तित्थहि देवलि देउ णवि इम सुइकेवलि वृत्त । देहा
देवलि देउ जिणु एहउ जाणि णिरुतु ॥४२॥ श्रुतकेवलीने कहा है कि तीर्थो में देवालयोमें देव नहीं है, जिनदेव तो देह देवालयमें विराजमान हैं ४२॥ ओ.पा./टी./१६२/३०२ पर उद्धुत-न देवो विद्यते काष्ठे न पाषाणे न मृण्मये । भावेषु विद्यते देवस्तस्माद्भावो हि कारणं १॥ भावविहूणउ जीव तुहं जइ जिणु वहहि सिरेण । पत्थरि कमलु कि निप्पजइ जइ सिचहि अमिएण २ = काष्ठकी प्रतिमामें, पाषाणकी प्रतिमामें अथवा मिट्टीकी प्रतिमामें देव नहीं है। देव तो भावों में है। इसलिए भाव ही कारण है । हे जीव । यदि भाव रहित केवल शिरसे जिनेन्द्र भगवानको नमस्कार करता है तो वह निष्फल है, क्योंकि क्या कभी अमृतसे सींचनेपर भी कमल पत्थरपर उत्पन्न हो सकता है ।२। दे० पूजा/१/५ (निश्चयसे आत्मा ही पूज्य है।)
७. फिर मूर्तिको क्यों पूजते हैं भ. आ./वि./४७/१६०/१३ अर्हदादयो भव्याना शुभोपयोगकारणतामुपा
यन्ति । तद्वदेतान्यपि तदीयानि प्रतिबिम्बानि । यथा...स्वपुत्रसदृशदर्शनं पुत्रस्मृतेरालम्बनं। एक्मर्हदादिगुणानुस्मरणनिबधनं प्रतिबिम्बम् । तथानुस्मरणं अभिनवाशुभप्रकृतेः सवरणे, सममिति सकलाभिमतपुरुषार्थ सिद्धिहेतुतया उपासनीयानीति । जैसे अर्हदादि भव्योको शुभोपयोग उत्पन्न करनेमे कारण हो जाते है, वैसे उनके प्रतिविम्ब भी शुभोपयोग उत्पन्न करते है। जैसे-अपने पुत्रके समान ही दूसरेका सुन्दर पुत्र देखनेसे अपने पुत्रकी याद आती है। इसी प्रकार अर्हदादिके प्रतिविम्ब देखनेसे अहंदादिके गुणोका स्मरण हो जाता है, इस स्मरणसे नवीन अशुभ कर्मका संवरण होता है। .. इसलिए समस्त इष्ट पुरुषार्थकी सिद्धि करनेमें, जिन प्रतिबिम्ब हेतु होते है, अत: उनकी उपासना अवश्य करनी चाहिए। भ. आ./वि./३००/५११/१५ चेदियभत्ता य चैत्यानि जिनसिद्धप्रतिबिम्बानि कृत्रिमाकृत्रिमाणि तेषु भक्ता.। यथा शत्रूणां मित्राणां वा प्रतिकृतिदर्शनाइद्वेषो रागश्च जायते। यदि नाम उपकारोऽनुपकारो वा न कृतस्तया प्रतिकृत्या तत्कृतापकारस्योपकारस्य वा अनुसरणे निमित्ततास्ति तवज्जनसिद्धगुणा. अनन्तज्ञानदर्शनसम्यवत्ववीतरागत्वादयस्तत्र यद्यपि न सन्ति, तथापि तद्गुणानुस्मरणं संपादयन्ति सादृश्यात्तच्च गुणानुस्मरणं अनुरागात्मक ज्ञानदर्शने संनिधापयति । तेच संवरनिर्जरे महत्यौ संपादयतः । तस्माच्चैत्यभक्तिमुपयोगिनी कुरुत। -हे मुनिगण । आप अर्हन्त और सिद्धको अकृत्रिम और कृत्रिम प्रतिमाओंपर भक्ति करो। शत्रुओं अथवा मित्रोंकी फोटो अथवा प्रतिमा दीख पडनेपर द्वेष और प्रेम उत्पन्न होता है। यद्यपि उस फोटोने उपकार अथवा अनुपकार कुछ भी नहीं किया है, परन्तु बह शत्रुकृत उपकार और मित्रकृत उपकारका स्मरण होने में कारण
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पूजा
७८
४. पूजायोग्य द्रव्य विचार
है। जिनेश्वर और सिद्धोके अनन्तज्ञान, अनन्तदर्शन, सम्यग्दर्शन, वीतरागतादिक गुण यद्यपि अर्हत्प्रतिमामें और सिद्ध प्रतिमामे नही है, तथापि उन गुणोंका स्मरण होनेमें वे कारण अवश्य होती है, क्योकि अईत और सिद्धोका उन प्रतिमाओमे सादृश्य है। यह गुण स्मरण अनुरागस्वरूप होनेसे ज्ञान और श्रद्धानको उत्पन्न करता है,
और इनसे नवीन कर्मोंका अपरिमित सवर और पूर्वसे बंधे हुए कर्मोकी महानिर्जरा होती है । इसलिए आत्म स्वरूपकी प्राप्ति होने में सहायक चैत्य भक्ति हमेशा करो। (ध.६/४,१,१/८/४), (अन ध./
प्रदीप्त किरणोसे युक्त रत्नमयी दीपकोंसे, और पके हुए कटहल, केला दाडिम एव दाख इत्यादि फलोसे पूजा करते है ।२२३-२२६। (ति.
५/५/१०४-१११, ७/४८; ८/५८६)। ध./३,४२/१२/३ चरु-वलि-पुप्फ-फल-गंधधूवदीवादीहि सगभत्तिपगासो अच्चणा णाम । चरु, बलि, पुष्प, फल, गन्ध, धूप और दीप आदिकोसे अपनी भक्ति प्रकाशित करनेका नाम अर्चना है। (ज. प०/५/११७)। वसु. श्रा./४२०-४२१. अक्खयचरु-दीवेहि-य धूवेहि फलेहि विविहेहि । १४२०। बलिवत्तिएहि जावारएहिं य सिद्धत्थपण्णरुवखेहि। पुव्वुत्तुवयरणेहि य रएज्जपुज्ज सविहवेण ।४२२ -(अभिषेकके पश्चात) अक्षत- चरु, दीपसे, विविध धूप ओर फलोसे, बलि वर्तिकोसे अर्थात पूजार्थ निर्मित अगरबत्तियोसे जवारकोसे, सिद्धार्थ (सरसो) और पर्ण वृक्षोंसे तथा पूर्वोक्त (भेरी, घंटादि ) उपकरणोसे पूर्ण वैभवके साथ या अपनी शक्तिके अनुसार पूजा रचे ।४११-४२१) (विशेष दे० वसु. श्रा, (४२५-४४१), (सा. ध./२/२५.३१); (बो. पा./टी./१७/ ८५/२०)।
८. एक प्रतिमामें सर्वका संकल्प र.क श्रा/प. सदासुख/११६/१७३/३ एक तीर्थकरकै हु निरुक्ति द्वारै
चौबीसका नाम सम्भवै है। तथा एक हजार आठ नामकरि एक तीर्थकरका सौधर्म इन्द्र स्तवन क्यिा है, तथा एक तीर्थकरके गुणनिके द्वारे असंख्यात नाम अनन्तकालतें अनन्त तीर्थकरके हो गये है। तातै हूँ एक तीथंकरमे एकका भी सकल्प अर चौबीसका भी सकल्प सम्भवै है। ..अर प्रतिमाकै चिन्ह है सो नामादिक व्यवहारके अर्थि है। अर एक अरहन्त परमात्मा स्वरूपकरि एक रूप है अर नामादि करि अनेक स्वरूप है। सत्यार्थ ज्ञानस्वभाव तथा रत्नत्रय रूप करि वोतराग भावकरि पंच परमेष्ठी रूप हो प्रतिमा जाननी।
९. पार्श्वनाथकी प्रतिमापर फण लगानेका विधि निषेध र. क श्रा./पं. सदामुख/२३/३६/१० तिनके (पद्मावतीके) मस्तक ऊपर पाश्वनाथ स्वामीका प्रतिबिम्ब अर ऊपर अनेक फणनिका धारक सर्पका रूप करि बहुत अनुराग करि प्रजें है, सो परमागमत जानि निर्णय करो । मूढलोकनिका कहिवो योग्य नाही। चर्चा समाधान/चर्चा नं.७० प्रश्न-पार्श्वनाथजीके तपकाल विर्षे
धरणेन्द्र पद्मावती आये मस्तक ऊपर फणका मण्डप किया। केवलज्ञान समय रहा नाही। अब प्रतिमा विर्षे देखिये। सो क्योंकर सभवै । उत्तर-जो परम्परा सौ रीति चली आवै सो अयोग्य कैसे कही जावै।
१०. बाहुबलिकी प्रतिमा सम्बन्धी शंका समाधान चर्चा समाधान/शंका न०६६ -प्रश्न-बाहुबलिजी की प्रतिमा पूज्य है कि नहीं । उत्तर-जिनलिग सर्वत्र पूज्य है। धातुमें, पाषाणमें जहाँ है तहाँ पूज्य है। याही ते पाँचो परमेष्ठीकी प्रतिमा पूज्य है।
२. अष्ट द्रव्य पूजा व अभिषेकका प्रयोजन व फल सु. श्रा/४८३-४१२ जलधारणिक्खेवेण पावमलसोहणं हवे णिय । चंदणवेवेण णरो जावइ सोहग्गसंपण्णो ४८३॥ जायइ अक्रवयणिहिरयणसामियो अक्खएहि अक्वोहो । अक्खीणलद्धिजुत्तो अक्षयसोक्वं च पावेइ ।४८४! कुसुमेहि कुसेसयवयणु तरुणीजणजयण कुसुमवरमाला । बलएणच्चियदेहो जयइ कुसुमाउहो चेव ।४८५। जायइ णिविजदाणेण सत्तिगो कंति-तेय सपण्णो। लावण्णजल हिवेलातर गसंपावियसरीरो १४८६। दीवहिं दीवियासेसजीवदव्वाइतञ्चसम्भावो। सम्भावजणियकेवलपईवतेएण होइ णरो ४८७। धूवेण सिसिरयरधवलकित्तिधवलियजयत्तओ पुरिसो। जायइ फलेहि संपत्तपरमणिव्वाणसोक्खफलो ४८ घंटाहि घंटसदाउलेसु पवरच्छराणमझम्मि । सकीडइ सुरसंघायसेविओ वरविमाणेसु ।४८६। छत्तेहिं एयछत्तं भुजइ पुहवी सवत्तपरिहीणो। चामरदाणेण तहा विज्जिज्जइ चमरणिवहेहि ४६०। अहिसेयफलेण णरो अहि सिचिज्जइ सुदंसणस्सुवरि खीरोयजलेण सुरिदप्पसहदेवेहि भत्तीए ४६११ विजयपडाएहि णरो सगाममुहेसु विजइओ होइ । छक्लंडविजयणाहो णिप्पडिवखो जसस्सी य ४९ -पूजनके समय नियमसे जिन भगवान्के आगे जलधाराके छोडनेसे पापरूपी मैलका संशोधन होता है। चन्दन रसके लेपसे मनुष्य सौभाग्यसे सम्पन्न होता है।४८३। अक्षतोंसे पूजा करनेवाला मनुष्य अक्षय नौ निधि और चौदह रत्नोंका स्वामी चक्रवर्ती होता है, सदा अक्षोभ और रोग शोक रहित निर्मय रहता है, अक्षीण लब्धिले सम्पन्न होता है, और अन्तमें अक्षय मोक्ष सुखको पाता है ।४८४ पुष्पोंसे पूजा करनेवाला मनुष्य कमलके समान सुन्दर मुखवाला, तरुणीजनोके नयनोसे और पुष्पोंकी उत्तम मालाओके समूहसे समचित देह वाला कामदेव होता है 1४८५॥ नैवेद्यके चढानेसे मनुष्य शक्तिमान, कान्ति और तेजसे सम्पन्न, और सौन्दर्य रूपी समुद्रकी वेलावर्ती तर गोसे सप्लावित शरीरवाला अर्थात अति सुन्दर होता है।४८६। दीपोंसे पूजा करनेवाला मनुष्य, सद्भावोके योगसे उत्पन्न हुए केवल ज्ञानरूपी प्रदीपके तेजसे समस्त जीव द्रव्यादि तत्त्वोके रहस्यको प्रकाशित करनेवाला अर्थात केवलज्ञानी होता है। १४८७१ धूपसे पूजा करनेवाला मनुष्य चन्द्रमाके समान त्रैलोक्यव्यापी यशवाला होता है। फलोंसे पूजा करनेवाला मनुष्य परम निर्वाणका सुखरूप फल पानेवाला होता है।४८८/--जिन मन्दिरमें घंटा समर्पण करनेवाला पुरुष घटाओके शब्दों से व्याप्त श्रेष्ठ विमानोमें सुर समूहसे सेवित होकर अप्सराओंके मध्य क्रीडा करता है ।४८ छत्र प्रदान करनेसे मनुष्य, शत्रु रहित होकर पृथ्वीको एक-छत्र भोगता है । तथा
४. पूजायोग्य द्रव्य विचार
1. अष्टद्रव्यसे पूजा करनेका विधान ति, प./३/२२३-२२६ भिगार कलसदप्पणछत्तत्तयचमरपहुदिदम्वेहि । पूर्जति फलिहद डोवमाणवरवारिधारेहि ।२२३। गोसोरमलयचंदणकुकुमपकेहि परिमलिल्ले हि । मृत्ताल पूजे हि स लोए तंदुले हि सयलेहि १२२४। वरविविहकुसुममालासएहि धूवंगरंगगंधेहि । अमयादो मुहुरेहि णाणाविहदिव्यभवखेहि (२२५॥ धूवेहि सुगधेहि रयणपईवेहि दित्तकरणेहि। पक्केहि फणसकदलीदाडिमदरवादियफलेहिं ।२२६ - वे देव झारी, कलश, दर्पण, तीन छत्र और चामरादि द्रव्योंसे, स्फटिक मणिमय दण्डके तुल्य उत्तम जलधाराओसे, सुगन्धित गोशीर, मलय, चन्दन, और कुंकुमके पंकोसे, मोतियोके पुजरूप शालिधान्यके अखण्डित तन्द्रलोंसे, जिनका रंग और गन्ध फैल रहा है ऐसी उत्तमोत्तम विविध प्रकारकी सैकड़ों मालाओसे; अमृतसे भी मधुर नाना प्रकारके दिव्य नैवेद्योंसे, मुगन्धित धूपोसे,
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पूजा
चमरोंके दानसे चमरोके समूहों द्वारा परिवीजित किया जाता है। जिन भगवान्के अभिषेक करने से मनुष्य सुदर्शन मेरुके ऊपर सीरसागर के जलसे सुरेन्द्र प्रमुख देवोके द्वारा अभिषिक्त किया जाता है । |४६१ | जिन मन्दिर में विजय पताकाओंके देनेसे संग्रामके मध्य विजयी होता है तथा षट्खण्डका निष्प्रतिपक्ष स्वामी और यशस्वी होता है |४६२
सा. घ. / २ / ३०-३१ बारा रजस' शमाय पदयो, सम्यक्प्रयुक्ताई' सद्गन्धस्तनुसौरभाय विभवा-च्छेदाय सन्त्यक्षता । यष्टुः खरिदविजखजे चरुरुमा स्वाम्याय दीपस्त्विषे । धूपो विश्वदृगुत्सवा मिटा पासा (३० नीरा श्वाव्यपुर ग्रामरज्यन्यनोभिग्यो विशुद्ध यया कल्पते ताप दाय |३१| = अरहन्त भगवान्के चरण कमलो में विधि पूर्वक चढाई गयी जलकी धारा पूजक के पापोके नाश करनेके लिए, उत्तम चन्दन शरीरमें सुगन्धिके लिए अक्षत व स्थिरता के लिए, पुष्पमाता मन्दरमाताकी प्राधिके लिए, नैवेद्य लक्ष्मीपतित्व के लिए, दीप कान्ति के लिए धूप परम सौभाग्यके लिए फल इच्छित वस्तुकी प्राधिके लिए और वह अर्ध अन पदको प्राप्तिके लिए होता है |१०| • सुन्दर गद्य पद्यात्मक काव्यों द्वारा आश्चर्यान्वित करनेवाले बहुतसे गुणोके समूह से मनको प्रसन्न करनेवाले जल चन्दनादिक द्रव्यों द्वारा जिनेन्द्रदेवको पूजनेवाला भव्य सम्यग्दर्शनकी विशुद्धिको पुष्ट करे है, जिस दर्शनशुद्धिके द्वारा तीर्थंकरपदकी प्राप्तिके लिए समर्थ होता है |२१|
"
३. पंचामृत अभिषेक निर्देश व विधि
सा./६/२२ आश्य स्नपन विशोध्य तदितां पीठ चतुष्कुम्भयुक कोणाया सकुशश्रियां जिनपति न्यस्तान्तमाप्येष्टदिक्-नीराज्याम्बुरसाज्य दुग्धदधिभिः सिक्त्वा कृतोद्वर्तनं सिक्तं कुम्भजलैश्च गन्धसलिलै संप्रज्य वा स्मरेत् ॥ २२१ = अभिषेककी प्रतिज्ञा कर अभिषेक स्थानको शुद्ध करके चारों कोनोमें चार कलशसहित सिहासनपर जिनेन्द्र भगवादको स्थापित करके आरती उतारकर इष्ट दिशामें स्थित होता हुआ जल, इक्षुरस, घी. और दही के दुग्ध, द्वारा अभिषित करके पदानुशेन युक्त तथा पूर्व स्थापित कलशके जलसे तथा सुगन्ध युक्त जलसे अभिषिक्त जिनराजकी अष्टद्रव्य से पूजा करके स्तुति करके जाप करे | २२| ( बो. पा/टी./१७/०५/११) (दे० सावध / ७)
४. सचित यों आदिसे पूजाका निर्देश द्रव्यों १. विलेपन व सजावट आदिका निर्देश
७९
ति प./५/१०५ कुंकुमप्पूरेहिं चदणकालागरुहि अण्णेहि । ताणं विलेवणाईं ते कुव्र्वते सुगंधेहि । १०५१ = वे इन्द्र कंकुम, कर्पूर. चन्दन, कालागुरु और अन्य सुगन्धित क्योंसे उन प्रतिमाओका विलेपन करते है | १०३ | (वसु० श्रा०/४२०); (अ. ५/२/१९५) (३० सावध / ७) ।
घ. श्रा / २९०० ४०० परिचीणपट्टाइएहि महिमहुविहितहा उन्लो उपरि चंदनयममिमहानेहि २६२ सपिंद चंदवराय साईहि मुचादामेहि वहा किंकिमिह विविदेहि |२| रोहि चामरेहि यदप्यभिगार तालमटेहि कलसेहि पुडिशिय-पदीनमिरहेहि [२००१] - प्रतिमाकी प्रतिष्ठा करते समय मंडप में चबूतरा बनाकर वहाँ पर ) चीनपट्ट (चाइना सिल्क ) कोशा आदि नाना प्रकारके नेत्राकर्षक वस्त्रोसे निर्मित चन्द्रकान्त मणि तुल्य चतुष्कोण चंदोवेको तानकर, चन्द्र, अर्धचन्द्र, मुमुद, वराटक ( कौडी) आदिसे तथा मोतियोंकी मालाओं से, नाना प्रकार की छोटी घंटियोंके समूहसे छात्रोंसे पमरोसे, दर्पणोसे,
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४. पूजायोग्य द्रव्य विचार
भृङ्गारसे, तालवृन्तोसे से पुष्पपटलोंसे सुप्रतिष्शक ( स्वस्तिक) और दीप समूहों आषित करे 11८-४००
२. हरे पुष्प व फोंसे पूजन
पि. ५/१००, १११ सयमा य चंपयमाला पुणावादीह अच्चति ताओ देवा तुरहीहिं कुतुममालाहि ॥१००१ दवखादाडिमकदलीणारं यमाहुलिगचूदेहि । अण्णेहि वि पक्केहि फलेहि पूजति जिणणाहं |१११ | = वे देव सेवन्ती, चम्पकमाला, पुंनाग और नाग प्रभृति सुगन्धित पुष्पमालाओं से उन प्रतिमाओकी पूजा करते
१०० (प./५/११५); (मो.पा./टी./६/७८/पर उधृत (दे० सावद्य / ७) | दाख, अनार, केला, नारगी, मातुलिंग, आम तथा अन्य भी पके हुए फलोसे वे जिननाथकी पूजा करते है | १११ | (ति.प./३/२२६) ।
प./११/२४२ जिनेन्द्र प्राप्ति पूजाममरे कनकाम्बुजे
द्रुमपुष्पा
दिभि कि न पूज्यतेऽस्मद्विधैर्जनैः ॥ ३४५॥ देवोंने जिनेन्द्र भगवान् - की सुवर्ण कमलसे पूजा की थी, तो क्या हमारे जैसे लोग उनकी साधारण वृक्षोंके फूलोंसे पूजा नहीं करते है 1 अर्थात् अवश्य करते
२४५ |
म.पू./१०/२५२ परिणतफलभेद राम्ररूपित्थैः पनससकुचमोचेरुचिर नतिरे श्रम्यैः गुरुचरण
सपर्यामातनोदाततश्री १२५२१
म.पु. ७८/४०१ राद्विलोक्य समुत्तभक्ति स्नानविबुद्धिभाक् । तत्सरीसंभूतप्रसवैर्षहुभिर्जिनात् । ४६६ | ( अभ्यर्च्य ) जिनकी लक्ष्मी बहुत विस्तृत है ऐसे राजा भरतने पके हुए मनोहर आम, जामुन, कैथा, कटहल, बडहल, केला, अनार, बिजौरा, सुपारियोंके सुन्दर गुच्छे और नारियलोके चरणोंकी पूजा की २१
( जिन मन्दिर के स्वयमेव वाटल गये) यह अतिशय देख जीवन्धर कुमारकी भक्ति और भी बढ गयी, उन्होंने उसी सरोवर में स्नान कर विशुद्धता प्राप्त की और फिर उसी सरोवरमें उत्पन्न हुए बहुत से फूल ले जिनेन्द्र भगवान्की पूजा की | ४०६ | वसु. श्री. / ४३१-४४१ मालइ कर्यन - कणयारि-चं पयासोय वउल-तिल एहि । मंदारणायचंय मुध्यत सिवारेहिं 1४३१ कणवीर-महियाहि कन्यगारमचकुंद किंकराएहिं सुरबज जुहिया पारिजात-जाव गरेहिं १४३२ सोम कृष्पि मे हिम- मुन्तादामे हि बहुवियहि जिणपय-पंकयजुयलं पुज्जिज्ज सुरिदसममहिये ।४३३ | जंबीर- मोचदाडिम-कवि-स-गालिएरेहि । हिताल-ताल- खज्जूर-लिंबूनार-चारेहिं |४४०| पूईफल- हिंदु- आमलय- जंबु - विल्लाइसुरहिमिट्ठेहि । जिणपयपुरओ रयणं फलेहि कुज्जा पक्के ह | ४४१ | - मासती कदम्ब, कर्मकार ( कनेर), चंपक, अशोक, मकुल, तिलक, मन्दार, नागचम्पक, पद्म ( लाल कमल ) उत्पल (नील कमल ) सिंदुवार ( वृक्ष विशेष या निर्गुण्डी ) कर्णवीर (कर्नेर ), मल्लिका, कचनार, मचकुन्द, किंकरात ( अशोक वृक्ष ) देवोंके नन्दन वनमें उत्पन्न होनेवाले कल्पवृक्ष, जुही, पारिजातक, जपाकुसुम और तगर (आदि उत्तम वृक्षोंसे उत्पन्न ) पुष्पोंसे, तथा सुवर्ण चाँदीसे निर्मित फुलोसे और नाना प्रकारके मुलाफोकी माताओंके द्वारा, सौ जासिके इन्होंने पूजित जिनेन्द्रके पद-पकज गुगलको पूजे । ४३१-४३३॥ जंबीर ( नीबू विशेष ) मोच (केला), अनार, केचित्य (कमी या कैंथ) पनस, नारियल हिवाल, साल, खजूर निम्बू, नारंगी, अचार (चिरौंजी ), पूगीफल (सुपारी), तेन्दु, आँवला, जामुन, विवफल आदि अनेक प्रकार के सुगन्धित मिष्ट और सुमन फलोंसे जिन चरणोंकी पूजा करे ।४४०-४४११ (र... /पं. सदासुख दास / १११ / १७० / १) ।
सा. प./२/२०/११६ पर फुटनोट
है। इससे मन्दिर में नाटिकाएँ होनी चाहिए।
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के लिए पुष्पोंकी आवश्यकता पड़ती
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पूजा
चोदा। पुज्ज विस्था रुपय-सुवण्या
चावलोकने रखे हुए
५. पूजा-विधि ३. भक्ष्य नैवेद्यसे पूजन
५. पूजा-विधि ति प./ १०८ बहुविहरसवंतेहिं वरभक्खेहिं विचित्तरूवेहि । अमय- १. पजाके पाँच अंग होते हैं
सरिच्छेहि सुरा जिणिदपडिमाओ मयंति ।१०८। - ये देवगण बहुत प्रकारके रसोसे संयुक्त, विचित्र रूप वाले और अमृतके सदृश उत्तम र, क.श्रा /पं सदासुख दास/११६/१७३/१५ व्यवहारमें पूजनके पाँच भोज्य पदार्थोंसे (नैवेद्यसे) जिनेन्द्र प्रतिमाओंकी पूजा करते है ।१०८
अंगनिकी प्रवृत्ति देखिये है-आह्वानन १; स्थापना २, संनिधिकरण (ज.प./५/११६)।
३; पूजन ४, विसर्जन । वसु श्रा./४३४-४३५ दहि-दुद्धसप्पिमिस्सेहि कलमभत्ते हि बहुप्पया- २. पजा दिनमें तीन बार करनी चाहिए रेहि। तेवद्वि-विजणेहि य बहुविहपक्कण्णभेएहिं ।४३४। रुप्पय-सुवण्ण
सा. ध /२/२५. भक्त्या ग्रामगृहादिशासन विधा दानं त्रिसन्ध्याश्रया कसाइथालि णिहिए हि विविहभक्खेहि। पुज्ज वित्थारिज्जो भत्तीए
सेवा स्वेऽपि गृहेऽर्चन च यमिना, नित्यप्रदानानुगम् ।२५।- शास्त्रोक्त जिणिदपयपुरओ १४३५॥ म चाँदी, सोना, और कांसे आदिकी
विधिसे गाँव, घर, दुकान आदिका दान देना, अपने घरमे भी अरिथालियोमें रखे हुए दही, दूध और घीसे मिले हुए नाना प्रकारके
हन्तकी तीनों सन्ध्याओमें की जानेवाली तथा मुनियोको भी चावलोके भातसे, तिरेसठ प्रकारके व्यंजनोंसे तथा नाना प्रकारकी
आहार दान देना है बादमें जिसके, ऐसी पूजा नित्यमह पूजा कही जातिवाले पकवानोसे और विविध भक्ष्य पदार्थोंसे भक्तिके साथ
गयी है ॥२५॥ जिनेन्द्र चरणो के सामने पूजन करे।४३४-४३५
३. रात्रिको पूजा करनेका निषेध र. क श्रा/प. सदासुख/११६/१६६/१७ कोई अष्ट प्रकार सामग्री बनाय
चढावै, केई सू का जब, गेहूँ, चना, मक्का, बाजरा, उडद, मूंग, मोठ ला.. स /६/१८७ तत्रार्द्ध रात्रके पूजा न कुर्यादईतामपि । हिंसाहेतोरवश्य इत्यादि चढावै, केई रोटी, राबडी, बावडीके पुष्प, नाना प्रकारके स्याद्रात्रौ पूजाविवर्जनम् ॥१८७१ =आधी रातके समय भगवान हरे फल, तथा दाल-भात अनेक प्रकारके व्यंजन चढावें । केई मेवा, अरहन्त देवकी पूजा नही करनी चाहिए क्योंकि आधी रातके समय मोतिनीके पुष्प, दुग्ध, दही, घी. नाना प्रकारके घेवर, लाडू, पेडा, पूजा करनेसे हिंसा अधिक होती है। रात्रिमें जीवोका संचार अधिक बर्फी, पूडी, पूवा इत्यादि चढावै है ।
होता है, तथा यथोचित रीतिसे जीव दिखाई नहीं पडते, इसलिए
रात्रिमें पूजा करनेका निषेध किया है (र. के. श्रा./पं. सदासुख दास/ ५. सचित्त व अचित्त द्रव्य पूजाका समन्वय
११४/१७१/१)। ति.प/३/२२१...। अमयादो मुहुरेहि णाणाविहदिव्यभक्खे हि ।२२५॥ मो.मा.प्र.६२८०/२ पापका अंश बहुत पुण्य समूह विष दोषके अर्थ ___- अमृतसे भी मधुर दिव्य नैवेद्योसे १२२५। ...
नाहीं, इस छलकरि पूजा प्रभावनादि कार्यनिविर्षे रात्रिविर्षे नि. सा./६७५ दिवफलपुष्फहत्था ॥१७॥ - दिव्य फल पुष्पादि पूजन दीपकादिकरि वा अनन्तकायादिकका संग्रह करि बा अयत्नाचार द्रव्य हस्त विर्षे धारे हैं। (अर्थात-देवोंके द्वारा ग्राह्य फल पुष्प प्रवृत्तिकरि हिंसादिक रूप पाप तौ बहुत उपजावे, अर स्तुति भक्ति दिव्य थे।)
आदि शुभ परिणाम निविर्षे प्रवर्ते नाही,वा थोरे प्रवर्ते,सो टोटा घना र. क. श्रा/पं. सदासुख दास/११६/१७०/8 यहाँ जिनपूजन सचित्त- नफा थोरा वा नफा किङ्ग नाहीं। ऐसा कार्य करनेमे तो बुरा ही द्रव्यनित हूँ अर अचित्त द्रव्यनित हूँ.. करिये है। दो प्रकार आगम
दीखना होय। की आज्ञा-प्रमाण सनातन मार्ग है अपने भावनिके अधीन पुण्यबन्ध- ४. चावलोंमें स्थापना करनेका निषेध के कारण है। यहाँ ऐसा विशेष जानना जो इस दुषमकालमें विकलत्रय जीवनिकी उत्पत्ति बहुत है। तातै ज्ञानी धर्मबुद्धि है
वसु. श्रा./३८५ हूंडावसप्पिणीए विइया ठवणा ण होदि कायव्वा। लोए ते तो पक्षपात छांडि जिनेन्द्रका प्ररूपण अहिंसा धर्म ग्रहण करि
कुलिंगमइमोहिए जदो होइ संदेहो ।३८५। - हुंडावसर्पिणी काल में जेता कार्य करो तेता यत्नाचार रूप जीव-विराधना टालि करो
दूसरी असद्भाव स्थापना पूजा नहीं करना चाहिए, क्योंकि, कुलिंगइस कलिकाल में भगवानका प्ररूपण नय विभाग तो समझे नाहीं...
मतियोसे मोहित इस लोकमें संदेह हो सकता है। (र. क. श्रा./ अपनी कल्पना ही ते यथेष्ट प्रवर्ते है।
पं. सदासुख दास/११६/१७३/७)।
र. क. पा./पं सदासुख दास/११६/१७२/२१ स्थापनाके पक्षपाती स्थापना ६. निर्माल्य द्रव्यके ग्रहणका निषेध
बिना प्रतिमाका पूजन नाहीं करें। बहुरि जो पीत तन्दुलनिकी नि. सा./मू./३२ जिणुद्धारपत्तिट्ठा जिणपूजातित्थवंदग विसयं। धणं
अतदाकार स्थापना ही पूज्य है तो तिन पक्षपातीनिके धातु पाषाणजो भुजई सो भुजइ जिणदिठ्ठ णरयगयदुवं ।३२२ = श्री जिन
का तदाकार प्रतिबिम्ब स्थापन करना व्यर्थ है। तथा अकृत्रिम
चैल्यालयके प्रतिबिम्ब अनादि निधन है तिनमें ह पूज्यपना मन्दिरका जीर्णोद्धार. जिनबिम्ब प्रतिष्ठा, मन्दिर प्रतिष्ठा, जिनेन्द्र भगवान की पूजा, जिन यात्रा, रथोत्सव और जिन शासनके आय
नाहीं रहा। तनोकी रक्षाके लिए प्रदान किये हुए दानको जो मनुष्य लोभवश ५. स्थापनाके विधि निषेधका समन्वय ग्रहण करे, उससे भविष्यवमें होनेवाले कार्यका विध्वस कर अपना स्वार्थ सिद्ध करे तो वह मनुष्य नरकगामी महापापी है।
र. क. पा./प.सदासुख/११६/१७३/२४ भावनिके जोडके अर्थि आह्वान
नादिकमें पुष्प क्षेपण करिये है, पुष्पनि ॥ प्रतिमा नहीं जाने । ए तो रा वा /६/२२/४/५२८/२३ चेत्यप्रदेशगन्धमाल्यधूपादिमोषण...अशुभस्य
आह्वाननादिकनिका संकल्प पुष्पांजलि क्षेपण करिये है। पूजनमें नाम्न आस्रव ।
पाठ रच्या होय तो स्थापना कर ले नहीं होय तो नाहीं करें। रा.वा /६/२७/१/५३१/३३ देवतानिवेद्यानिवेद्यग्रहण ( अन्तरायस्यास्रवः)। अनेकांतिनिकै सर्वथा पक्ष नाहीं। =१. मन्दिरके गन्ध मान्य धूपादिका चुराना, अशुभ नामकर्मके
१. पूजाके साथ अभिषेक व नृत्य शान आदिका विधान आसवका कारण है। २ देवताके लिए निवेदित किये या अनिवेदित किये गये द्रव्यका ग्रहण अन्तराय कर्मके आस्लवका कारण है। ति. प./८/५८४-५८७ खीरद्धिसलिलपूरिदकंचणकलसेहि अह सह(त सा./४/५६)।
स्से हिं। देवा जिणाभिसेयं महाविभूदीए कुर्वति ॥५८४१ बज्जतेस जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश
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पूजा
मद्दल जय टापडहकाहलादीसुं दिव्वेसुं तुरेसु ते तिणपूज पकुति १८ भिंगार कलसप्पणछत्तत्तयचमरपहुदिदव्वेहि । पूज काढूण तदो गधीहि अच्चति ॥ ३८६ तो हरिण राणावियाई दिव्वाई | बहुरसभावजुदाइ णच्चति विचित्त भगीहि १५८७ | उक्त (वैमानिक) देव क्षीरसागर के जलसे पूर्ण एक हजार आठ सुवर्ण कलशोके द्वारा महाविभूतिके साथ जिनाभिषेक करते है ।५८४१ मईल, जयघंटा, पटह और काहल आदिक दिव्य वादित्रो के बजते रहते वे निजको करते हैं । उक्त देव शृंगार कलश, दर्पण, तीन छत्र और चामरादि द्रव्योंसे पूजा करके पश्चात् जल, गन्धादिकसे अर्चन करते है |५८६ | तत्पश्चात् हर्ष से देव विचित्र शैलियोसे बहुत रस व भावोसे युक्त दिव्य नाना प्रकारके नाटकोको करते है । उत्तम रहनोसे विभूषित दिव्य कन्याएँ विविध प्रकारके स्वीको करती है । अन्तमें जिनेन्द्र भगवान् के चरितोंका अभिनय करती है । (५/११४), ( ति प / ३ / २१८-२२७), ( ति प /५/१०४-११६); (और भी दे ० पूजा/४/३) ।
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७. द्रव्य व भाव दोनों पूजा करनी योग्य हैं।
अगा / १२ / १५ कुर्वत पूजा जिनाना जिन्ना न विद्यइये लोके दुर्लभ वस्तु पूजितम्॥१२॥ जीता है ससार जिनने ऐसे जिन देवनिक द्रव्य भावकरि दोऊ ही प्रकार पूजा को करता जो पुरुष को इसोक परलोकवि उत्तम वस्तु दुर्लभ नाहीं । ९५० ८. पूजा विधान में विशेष प्रकारका क्रियाकाण्ड
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म पू. ३८ / ०१-०५ रात्रार्चनादिधी पत्र पत्रमान्वित। जिना मभित स्थाप्य समं पुण्याग्निभिस्त्रिभि. 1७१| त्रयोऽग्नयोऽर्ह दुगणवो मे हुतास्ते प्रणेता सिद्वाविध पाया 15. आहुतिर्मन्त्रपूर्वका विधेया विभि ईष्यैः पुंस्त्रोपतिकाम्यया 19 सम्मन्यास्तु यथान्नाम वक्ष्यीऽन्यत्र पर्वणि । सप्तधा पीठिकाजातिमन्त्रादिप्रविभागतः ॥७४॥ विनियोगस्तु सर्वासु क्रियास्वेषा मतो जिने । अव्यामोहादतस्तज्ज्ञै. प्रयोज्यास्त उपासकै ७५ = इस आधान ( गर्भाधान ) क्रियाकी पूजा जिनेन्द्र भगवान्की प्रतिमा दाहिनी ओर तीन चक, बॉयों और तीन छत्र और सामने तीन पवित्र अग्नि स्थापित करें 1991 अर्हन्त भगवान् (तीर्थंकर) निर्वाणके समय, गणधर देवोके निर्वाणके समय और सामान्य केवलियोंके निर्वाणके समय जिन अग्नियो में होम किया गया था ऐसी तीन प्रकारकी पवित्र अग्नियाँ सिद्ध प्रतिमाकी देवीके समीप तैयार करनी चाहिए 1०२ प्रथम ही अर्हत देवकी पूजा कर चुकने के बाद शेष बचे हुए द्रव्यसे पुत्र उत्पन्न होनेकी इच्छाकर मन्त्रपूर्वक उन तीन अग्नियो आवृति करनी चाहिए |७३। उन आहुतियो के मन्त्र पीठिका मन्त्र, जातिमन्त्र आदिके भेद से सात प्रकार के है | ७४| श्री जिनेन्द्र देवने इन्हीं मन्त्रोंका प्रयोग समस्त कियाओं (पूजा विधानादिने माया है। इसलिए उस विषय जानकार श्रावकोको व्यामोह (प्रमाद) छोड़कर उन मन्त्रोका प्रयोग करना चाहिए 1७५ | ( और भी देखो यज्ञमें आर्ष यज्ञ); (म. पु / ४७ / ३४७-३५४) ।
म. ५ / ४०/८०-८१ सियापसिंनिधौ मन्त्रान् जपेदप्टोसरं शतम् । गन्धपुष्पाक्षतार्घादि निवेदनपुर सरम् 1501 सिद्ध विद्यस्ततो मन्त्रैरेभिः कर्म समाचरेत् । शुक्लवासाः शुचिर्यज्ञोपवीत्यव्यग्रमानसः ॥८१॥ - सिद्ध भगवान्की प्रतिमाके सामने पहले गन्ध, पुष्प, अक्षत और अर्घ आदि समर्पण कर एक सौ आठ बार उक्त मन्त्रोंका जप करना चाहिए |०| तदनन्तर जिसे विद्याएँ सिद्ध हो गयी हैं, जो सफेद वस्त्र पहने है, पवित्र है, यज्ञोपवीत धारण किये हुए है, जिसका चित्त आकुलतासे रहित है ऐसा द्विज इन मन्त्रोंसे समस्त क्रियाएँ करे । ८१)
भा० ३-११
८१
पूज्यपाद ३० अग्नि गार्हपत्य आदि तीन अग्नियका निर्देश व उनका उपयोग ।
९. गृहस्थोंको पूजासे पूर्व स्नान अवश्य करना चाहिए तिलक चम्पू ३२८ स्नानं विधाय विधिवत्कृतदेवकार्य विवेकी पुरुषको स्नान करनेके पश्चात शास्त्रोक्त विधि से ईश्वर भक्ति (पूजाअभिषेकादि) करनी चाहिए। (रा. पं. सदासुख दास / १९६/ १६८/१४) ।
चर्चा समाधानकानं
केवलज्ञानकी साक्षात्पूजा विन्होन नाही. प्रतिमा पूजापूर्वक ही कही है (और भी दे० स्नाम)। पूजाकल्प - दे० पूजापाठ ।
S
पूजापाठ जैन आम्नायमें पूजा विधानादि सम्बन्धी कई रचनाएँ प्रसिद्ध है--१० आचार्य पूज्यपाद (१००५) कुछ जैनाभिषेक २. अभयनन्दि ( ई० श० १०-१९) कृत श्रेयोविधान । ३ आ० अभयनन्दि ( ई० श० १०-१९) कृत पूजाकल्प । ४ आ० इन्द्रनन्दि (ई० श० १०-११) कृत अकुरारोपण . ० इन्द्रनन्दि (ई० ० १०-११) कृत प्रतिमासंस्कारारोपण । ६. आ० इन्द्रनन्दि ( ई० श० १०-११ ) कृत मातृका यन्त्र पूजा 1७. आ० इन्द्रनन्दि ( ई० श० १०-११) कृत शान्तिचक्रपूजा । ८ ० नयनन्दि ( ई० ६१३-१०४३) कृत सकल विधि विधान आ० श्रुतसागर (ई० १४४७-१९२३) कृ विक्राक पूजा १० आ० सागर (१० १४८० १५२३) कृत
तस्कन्धा । (eft./8/201 ११. आ० मग्लिषेण ( ई० ११२८ ) द्वारा विरचित ज्वालिनी करप | १२. आ० मक्लिषेण (ई० ११२८) द्वारा विरचित पद्मावती कल्प । १३. आ० मक्लिषेण ( ई० ११२८) द्वारा विरचित वज्रपंजर विधान । १४. प. आशाधर ( ई० ११७३-१२४३) द्वारा रचित जिनयज्ञ कल्प । १५ पं. आशाघर (ई० ११७३ - १२४३) द्वारा रचित नित्यमहोद्योत । १६. आ० पद्मनन्दि ( ई० १२८० - १३३०) कृत कलिकुण्डपार्श्वनाथ विधान । १७. आ० पद्मनन्दि ( ई० १२८०- १३३० ) कृत देवपूजादि । १८. पं. आशाधरके निरयमहोद्योतपर आ० सागर (ई० १४०३१५३३) कृत महाभिषेक टीका । १६. कवि देवी दयाल ( ई० १७५५१७६७) द्वारा भाषामें रचित चौबीसी पाठ । २० कवि वृन्दावन (ई० १७११-१८४८) द्वारा भाषामें रचित चौबीसी पाठ । २१. कवि वृन्दावन ( ई० १७११-१८४८) द्वारा हिन्दी भाषामें रचित समवसरण पूजापाठ " २२. पं सतलाल ( ई० श० १७-१८) द्वारा भाषा छन्दोमें रचित सिद्धचक्र विधान, जो श्री जिनसेनाचार्य द्वारा महापुराण में रचित जिन सहस्रनामके आधारपर लिखा गया है । २३. प. संतलाल ( ई० श० १०-१० दशलक्षण जग २४. पं. सदासुख (३० २०१३ - १८६३) कृत नित्य पूजा । २५. पं. पन्नालाल ( ई० १७१३-१८६३) कृत हिन्दी भाषामें रचित सरस्वती पूजा २६ प मनरंग लाल (३० १०००) द्वारा रचित भाषा छन्द बद्ध चौबीसी पाठ पूजा । २७ प मनर ग लाल ( ई० १७६३ - १८४३ ) द्वारा रचित सप्तऋद्धिपूजा । पूज्यपाद आप कर्णाटक देशस्थ 'कोले' नामक ग्राम माधय भट्ट नामक एक ब्राह्मणके पुत्र थे । माताका नाम श्रीदेवी था। सर्पके मुँहमें फँसे हुए मेढकको देखकर आपको वैराग्य आया था। आपके सम्बन्ध में अनेक चमत्कारिक इन्तुकथाएँ प्रचलित है। अग्रोक्त शिलालेख के अनुसार आप पाँवमें गगनगामी लेप लगाकर विदेह क्षेत्र जाया करते थे । श्रवणबेलगोलके निम्न शिलालेख नं० १०८ ( श. सं. ११३५ ) से पता चलता है कि आपके चरण प्रक्षालनके जल के स्पर्शसे लोहा भी सोना बन जाता था जैसे श्रीज्यपादमुनिरप्रतिमोषधिया देहवर्शमात्रः । त्पादस्पर्शर्शप्रभावात्कालायसं किल तदा कनकीचकार । घोर तपश्चरण आदि के
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पूति
पूर्णभद्रकूट
द्वारा आपके नेत्रोकी ज्योति नष्ट हो गयी थी। शान्त्यष्टकके पाठसे वह पुन प्रगट हो गई। आपका असली नाम देवनन्दि है। नन्दिसघ की पट्टावली के अनुसार आप यशोनन्दि के शिष्य है (दे इतिहास ७/३) बुद्धि की प्रखरता से आप जिनेन्द्रबुद्धि और देवों के द्वारा पूजितचरण होने से पूज्यपाद कहलाते थे। आपके द्वारा रचित निम्न कृतियां है -१ जैनेन्द्र व्याकरण, २. मुग्धबोध व्याकरण, ३. शब्दावतार, ४. छन्दशास्त्र, ५ वैद्यसार (वैद्यकशास्त्र), ६ सर्वार्थ सिद्धि, ७ इष्टोपदेश, ८ समाधिशतक, ६. सारसंग्रह, १० जन्माभिषेक, ११ दशभक्ति, १२ शान्त्यष्टक । समय-पट्टावली में श स. २५२-३०८ (वि ३८७-४४३) (दे इतिहास/0/२), कोथवि. ७३५, प्रेमीजी-वि श६, आई.एस पवते-वि. ५२७, मुख्तार साहब-गगराज दुविनीत (वि. ५००-५३५) के गुरु तथा इनके शिष्य वज़नन्दिनन्दि ने वि५२६ में द्रविडसंघ की नीव डाली इसलिये वि श.६, युधिष्ठर मीमासा-जैनेन्द्र व्याकरण में लिखित महेन्द्रराज वि. ४७०-५२२ के गुप्त वशीय चन्द्रगुप्त द्वि० थे इसलिये वि श ५ का अन्त और ६ का पूर्व । प. कैलाशचन्द इससे सहमत है (जै /२/२६२-२६४) डा नेमिचन्द ने इन्हे वि श ६ में स्थापित किया है । (ती./२/२२५)।
पूति-आहारका एक दोष-दे० आहार/II/४/४ । पूतिक-वसतिकाका एक दोष-दे० वसतिका ।
-दे० कर्म/११३।
ज्ञा०/२६/४ द्वादशान्तात्समाकृष्य य समीर प्रपूर्यते । स पूरक इति ज्ञेयो वायुविज्ञानको विदै. ४ = द्वादशान्त कहिए तालुवेके छिद्रसे अथवा द्वादशबगुल पर्यन्तसे वैचकर पवनको अपनी इच्छानुसार अपने शरीरमे पूरण क्रै, उसको वायुविज्ञानी पण्डितोने पूरक पवन कहा है।४। * पुरक प्राणायाम सम्बन्धी विषय-दे० प्राणायाम ।
गये। बुद्ध कहते हैं कि वह मरकर अवीचि नरकमें गया। (द, सा./ प्र ३२-३४/प्रेमीजी)।३ द. सा./प्र ५२ पर 4. वामदेव कृत संस्कृतभावसंग्रहका एक निम्नउद्धरण है..... वीरनाथस्थ संसदि ।१८५। जिनेन्द्रस्य ध्वनिग्राहिभाजनाभावतस्तत । शक्रेणात्र समानीतो ब्राह्मणो गोतमाभिध ।१६। सद्य' स दीक्षितस्तत्र सध्वने' पात्रता ययौ। तत देवसभा त्यक्त्वा निर्ययौ मस्करी मुनि ।१७। सन्त्यस्माददयोऽप्यत्र मुनयः श्रुतधारिण । तास्त्यक्त्वा सध्वने' पात्रमज्ञानी गोतमोऽभवत १८८० सचिन्त्यैवं क्रुधा तेन दुर्विदग्धेन जल्पितम् । मिथ्यात्व कर्मण' पाकादज्ञानत्वं हि देहिनाम् १८४ा हेयोपादेयविज्ञान देहिना नास्ति जातुचित्। तस्मादज्ञानतो मोक्ष इति शास्त्रस्य निश्चय ।११० = वीरनाथ भगवान्के समवशरणमें जब योग्य पात्रके अभावमें दिव्यध्वनि निर्गत नहीं हुई, तब इन्द्र गोतम नामक ब्राह्मणको ले आये। वह उसी समय दीक्षित हुआ और दिव्य ध्वनिको धारण करनेकी उसी समय उसमें पात्रता आ गयी, इससे मस्करि-पूरण मुनि सभाको छोडकर बाहर चला आया। यहाँ मेरे जैसे अनेक भूतधारी मुनि है, उन्हे छोडकर दिव्यध्वनिका पात्र अज्ञानी गोतम हो गया, यह सोचकर उसे क्रोध आ गया। मिथ्यात्व कर्मके उदयसे जीवधारियो को अज्ञान होता है। उसने कहा देहियोको हैयोपादेयका विज्ञान कभी हो ही नहीं सकता। अतएव शास्त्रका निश्चय है कि अज्ञानसे मोक्ष होता है। पूरणकश्यपका मतउसके मतसे समस्त प्राणी बिना कारण अच्छे-बुरे होते है। संसारमें शक्ति सामर्थ्य आदि पदार्थ नहीं है। जीव अपने अदृष्टके प्रभावसे यहाँ-वहाँ संचार करते है। उन्हे जो सुख-दुख भोगने पडते है, वे सब उनके अदृष्टपर निर्भर है। १४ लाख प्रधान जन्म, ५०० प्रकारके सम्पूर्ण और असम्पूर्ण कर्म, ६२ प्रकारके जीवनपथ, ८ प्रकारकी जन्मकी तहे. ४६०० प्रकारके कर्म, ४६०० भ्रमण करनेवाले संन्यासी, ३००० नरक, और ८४ लाख काल है। इन कालोके भीतर पण्डित और मूर्ख सबके कष्टोंका अन्त हो जाता है। ज्ञानी और पण्डित कर्मके हाथ से छुटकारा नही पा सकते। जन्मकी गतिसे सुख और दुखका परिवर्तन होता है। उनमें ह्रास और वृद्धि होती है । पूरिमद्रव्य निक्षेप-दे० निक्षेप/५/६ । पूर्ण-१. क्षौद्रवर समुद्रका रक्षक व्यन्तरदेव (ति प.)-दे० व्यंतर/४, २ इक्षुवर द्वीपका रक्षक व्यन्तरदेव ( ह. पु.)-दे० व्यंतर/४ । पूर्णधन-प. पु/५श्लोक विजयार्धकी दक्षिण श्रेणी में चक्रवाल
नगरका विद्याधर राजा था। राजा सुलोचनके द्वारा अपनी पुत्री इसको न देकर सगर चक्रवर्तीको दिये जानेपर, इसने राजा सुलोचनको मार दिया। (७७-८०) और स्वयं उसके पुत्र द्वारा मारा गया (८६)। इसीके पुत्र मेघवाहनको राक्षसोके इन्द्र द्वारा राक्षस द्वीपकी प्राप्ति हुई थी, जिसकी सन्तानपरम्परासे राक्षसवंशकी उत्पत्ति हुई-(दे० इतिहास/७/१२)।। पूर्णप्रभ-उत्तर क्षौद्रवर समुद्रका रक्षक व्यन्तर देव (ति प )-दे०
व्यंतर/४; २. इक्षुवर द्वीपका रक्षक व्यन्तर देव (ह. पू.)-दे० व्यंतर/४। पूर्णभद्र-यक्ष जातिके व्यन्तर देवोका एक भेद-दे० यक्ष; २. इन यक्ष जातिके देवोंने बहुरूपिणी विद्या सिद्ध करते समय रावणकी रक्षा की थी। ३ ह.प/४३/१४६-१५८ अयोध्या नगरीके समुद्रदत्त सेठका पुत्र था। अणुव्रत धारण कर सौधर्मस्वर्ग में उत्पन्न हुआ। यह
कृष्णके पुत्र प्रद्युम्नकुमारका पूर्वका पाँचवाँ भव है।-दे० प्रद्य म्न । पूर्णभद्रकूट-१. विजयाध पर्वतस्थ एक कूट - दे० लोक/१/४ ।
२ माल्यवान् पर्वतस्थ एक कूट-दे० लोक/५/४।
पूरण अन्तर पूरणकरण-दे० अन्तरकरण/२। पूरणकाल-दे० काल/१६/२। पूरनकश्यप-पूरन कश्यपका परिचय-१. बौद्धग्रन्थ महापरिनिर्वाण सूत्र, महावग्ग, औदिव्यावाहन आदिके अनुसार यह महात्मा बुद्धके समकालीन ६ तीर्थ करोमेसे एक थे। एक म्लेच्छ स्त्रीके गर्भसे उत्पन्न हुए थे। कश्यप इनका नाम था। इससे पहले ६६ जन्म धारण करके अब इनका सौवा जन्म हुआ था इसीलिए इनका नाम पूरन कश्यप पड़ गया था। गुरुप्रदत्त नाम द्वारपाल था। वह नाम पसन्द न आया । तब गुरुसे पृथक होकर अकेला वनमे नग्न रहने लगे और अपनेको सर्वज्ञ व अहंत आदि कहने लगे। ५०० व्यक्ति उनके शिष्य हो गये। बौद्धोके अनुसार वह अवीचि नामक नरकके निवासी माने जाते है। सुत्तपिटकके दोघनिकाय (बौद्धग्रन्थ ) के अनुसार वह असम में पाप और सत्कर्म मे पुण्य नहीं मानते थे। कृत कर्मोका फल भविष्यत्में मिलना प्रामाणिक नहीं। बौद्ध मतवाले इसे मखलि गोशाल कहते है। २. श्वेताम्बरीसूत्र 'उवासकदसाग के अनुसार वह श्रावस्तीके अन्तर्गत शरवणके समीप उत्पन्न हुआ था। पिताका नाम 'मखलि' था। एक दिन वर्षामे इसके माता-पिता दोनों एक गोशालमें ठहर गये। उनके पुत्रका नाम उन्होंने गोशाल रखा। अपने स्वामीसे झगडकर वह भागा। स्वामीने वस्त्र खेंचे जिससे वह नग्न हो गया। फिर वह साधु हो गया। उसके हजारो शिष्य हो
पर्णभद्र मान बहुरूपिण
अमन उत्पन्न प्रदान ।
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पूर्णभद्रदेव
पूर्णभद्रदेव -
विजयार्ध पर्वतस्थ पूर्णभद्र कूटका स्वामी देव ० लोक२/४६२. वनस्य पूर्णभटका रक्षक एक देव - दे० लोक / ५/४ ।
*१
पूर्णांक - Integar (प. ५/प्र.२८ ) ।
पूर्णिमा - चन्द्रमाके भ्रमण से पूर्णिमा प्रकट होनेका क्रम - ३० ज्योतिषी/२/८ ।
पूर्व कालका प्रमाणविशेष - दे० गणित //१/४ |
पूर्वकृष्टि - दे० कृष्टि
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पूर्वगत -- १. दृष्टि प्रवाद अगका चौथा भेद - दे० श्रुतज्ञान /III/१ ।
२. घ. १/१,१,२/११४/७ पुव्वाण गयं पत्त-पुत्र सरुव वा पुव्वगयमिदि । =जो पूर्वोको प्राप्त हो, अथवा जिसने पूर्वोके स्वरूपको प्राप्त कर लिया हो उसे पूर्वगत कहते है।
पूर्वज्ञान - दे० श्रुतज्ञान / 111/ पूर्वचरहेतु- -दे० हेतु ।
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पूर्वदिशा — पूर्व दिशाकी प्रधानता - दे० दिशा ।
पूर्व मीमांसा - ० दर्शन ।
पूर्ववत् अनुमान दे० अनुमान/१
पूर्वविद् - स. सि./६/२७/४५३ /४ पूर्व विद... श्रुतकेत्र लिन इत्यर्थं । "पूर्व अर्थावली (रा.वा./६/२०/२/६३२/३०) | रा. बा. हि. /६/२७/०४ प्रमत्त अप्रमत्त मुनि भी पूर्व येशा है। पूर्वविदेह - १ सुमेरु पर्वतकी दिशामें स्थित कच्छादि १६ क्षेत्रोको पूर्व विदेश कहते हैं। २. निषेध व नील पर्वतस्थ एक कूट व उसका स्वामी देव - दे० लोक / ७ २ सौमनस गजदन्तस्थ एक कूट व उसका रक्षक देव - दे० लोक / ७ । पूर्व समसज्ञान०/II/ १ पूर्वं स्तुति -
- वसतिकाका एक दोष-दे० वसतिका आहारका एक दोष -- दे० आहार / I 1 /४/४
पूर्व स्पर्धक ० स्क पूर्वांग - -कालका एक प्रमाण विशेष - दे० गणित / I / १/४ पूर्वानुपूर्वी – दे० आनुपूर्वी ।
पूर्वापर संबंध - दे० संबंध
पूर्वाभाद्रपद - एक नक्षत्र - दे० नक्षत्र ।
पूर्वाषाढ एक न० नक्षत्र
D
पूषमांडो - भगवान्नेमिनाथकी शासक पक्षी० यक्ष पृच्छनास. सि./६/२५/४४३/४ सशयच्छेदाय निश्चितता धानाय वा परानुयोग पृच्छना । • संशयका उच्छेद करनेके लिए अथवा निश्चित बलको पुष्ट करनेके लिए प्रश्न करना पृच्छना है । (रा. वा / १/२३/२/६२४/१९) (सा./७/१०); ( अन.ध. /०/०४ ); (घ१४/२६.१३/६/३) ।
रा. बा./६/२७/२/६२४/१९ बारमोन्नतिपरातिसंधानीपासर्षप्रहस नादिविवर्जित' संशयच्छेदाय निश्चितबलाधानाय वा ग्रन्थस्या
स्य तदुभयस्य वा परं प्रत्यनुयोग पृच्छनमिति भाव्यते । - आरमो प्रति परातिसम्धान परोपहास संघर्ष और प्रहसन आदि दोषो रहित हो सायद या निर्णयको पृष्टिके लिए ग्रन्थ अर्थ या उभयका दूसरेसे पूछना पृच्छना है। (चासा / १२२ / १)।
८३
पृथिवी
ध. १/४.१.५५/२६२/८ तत्व आगने अमुरिया वा उपजोगो - आगममे नही जाने हुए अर्थ के विषय पूछना भी उपयोग है। पुच्छनी भाषा ३० भाषा पृच्छाविधि
।
१०/१२/२०/२८५/६ द्रव्य-गुण-पर्यय-विधि
=
निषेधविषयप्रश्न पृच्छा, तस्या. क्रम अक्रमश्च अक्रमप्रायश्चित च विधीयते अस्मिन्निति पृच्यानिधि श्रुतम्। अथमा पृष्टो साविधीयते यतेऽस्मिन्निति पृच्दानिधि एवं पृ विभित्ति गई। विधानं विधि या विधि पृष्ाविधि स विशिष्यतेऽनेनेति विधिविशेष अदाचार्योपाध्यायसाधवोऽनेन प्रकारेण प्रष्टव्या प्रश्नभङ्गाश्च इयन्त एवेति यत सिद्धान्ते निरूप्यन्ते ततस्तस्य पृच्छाविधिविशेष इति संज्ञेत्युक्त भवति । १ द्रव्य गुण और पर्यायके विधि निषेध विषयक प्रश्नका नाम पृच्छा है। उसके क्रम और अक्रमका तथा प्रायश्चित्तका जिसमें fair faया जाता है वह पृच्छा विधि अर्थात् श्रुत है २ अथवा पूछा गया अर्थ पृथ्छा है, वह जिसमे निहित की जाती है अर्थात् कही जाती है वह पृथ्याविधि है। इस प्रकार पृथ्याविधिका क्थन किया। विधान करना विधि है पृच्छाकी विधि विधि है। वह जिसके द्वारा विशेषित की जाती है यह पृथाविधि विशेष है। अरिहन्त आचार्य, उपाध्याय और साधु इस प्रकारसे पूछे जाने योग्य है तथा श्नोके भेद इतने ही है. ये सब चूँ कि सिद्धान्तमें निरूपित किये जाते है अत उसकी पृच्छा - विधिविशेष यह संज्ञा है, यह उक्त कथनका तात्पर्य है ।
पृतना - सेनाका एक अंग - दे० सेना ।
-
पृथक्त्व
१ अन्याय के अर्थ ।
प्र. सा./त.प्र / १०६ प्रविभक्तप्रदेशत्वं हि पृथक्त्वस्य लक्षणम् । ( भिन्न) प्रदेशत्व पृथक्त्वका लक्षण है । इ.सी./४८/२०३/६ द्रव्यगुणपर्यायाणाभि
पृथक् = द्रव्य, गुण और पर्यायके भिन्नपनेको पृथक्त्व कहते है । २. एकसे नौकेबीचकी गणना
स. सि / २ / ८ / ३४ /४ पृथक्त्वमित्यागमसंज्ञा तिसृणा कोटीनामुपरिनवानामध' । = पृथक्त्व यह आगमिक संज्ञा है। इससे तीन से ऊपर और नौ के नीचे मध्यकी किसी सख्याका बोध होता है ।
• विभक्त
भग्यते ।
शुक्लध्यान ।
पृथक्त्व विक्रिया - दे० विक्रिया । पृथक्त्व वितर्क विचार दे० पृथिवी च पर्वतनिवासिनी कुमारी देवी०३/१३ पृथिवी - यद्यपि लोक में पृथिवीको तत्त्व समझा जाता है, परन्तु जैन दर्शनकारोने इसे भी एकेन्द्रिय स्थावरकी कोटि में गिना है । इसी अवस्था भेदसे उसके कई भेद हो जाते है इसके अतिरिक्त यौगिक अनुष्ठानोमे भी विशेष प्रकारसे पृथिवी मण्डल या पार्थवेयी धारणाकी कल्पना की जाती है। सात नरकोकी सात पृथिवियोके साथ निगोद मिला देनेसे आठ पृथिवियों कही जाती है ( ६०भूमि) सिद्धलोकको भी अष्टम भूमि कहा जाता है ।ता है।
★ पृथिवी सामान्यका लक्षण दे० भूमि / १ ।
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१. पृथिवीके भेद
१. कायिकादि चार भेद ।
ससि /२/११/१०२/३ पृथिव्यादीनामार्षे चातुर्विध्यमुक्त प्रत्येकम् । तत्कथमिति चेत् उच्यते पृथिवीपृथिवीकाय पृथिवीकायिक
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पृथिवी
पृथिवी
पृथिवीजीव इत्यादि 1-प्रश्न-आर्ष में पृथिवी आदिक अलग-अलग चार प्रकारके कहे हैं. सो ये चार-चार भेद किस प्रकार प्राप्त होते है। उत्तर-पृथिवी, पृथिवीकाय, पृथिवीकायिक और पृथिवीजीव ये प्रथिवीके चार भेद है। (रा, वा./२/१३/१/६२७/२२), (गो. जी./ जी.प्र/१८२/४६६/8)।
२. मिट्टी आदि अनेक भेद म. आ./२०६-२०७ पुढवी य बालुगा सक्करा य उबले सिला य लोणे य ।
अय तंव तउ य सीसय रुप्प सुवण्णे य वइरे य ।२०६। हरिदाले हिगुलए मणोसिला सस्सगजण पवाले या अभपडलग्भवालु य वादरकाया मणिविधीया ।२०७१ गोमझगे य रुजगे अंके फलहे य लोहिदके या चदप्पभ वेरुलिए जलकंते सूरकंते य १२०८० गेरुय चदण वव्वग वगमोए तह मसारगल्लो या ते जाण पुढविजीवा जाणित्ता परिहरेदब्बा ।२०।। -१. मिट्टी आदि पृथिवी, २. बालू, ३. तिकोन चौकोन रूप शर्करा, ४. गोल पत्थर, ५ बडा पत्थर, ६. समुद्रादिका लवण (नमक), ७. लोहा, ताँबा, ६. जस्ता, १०. सीसा, ११, चॉदी, १२ सोना. १३. हीरा, १४ हरिताल, १५. इंगुल, १६. मैनसिल, १७ हरार गवाला सस्यक, १८. सुरमा, १६. मूंगा, २०. भोडल (अबरख), २१ चमकतो रेत, २२, गोरोचन वाली कर्केतनमणि, २३. अलसी पुष्पवर्ण राजवर्तकमणि, २४. पुलकवर्णमणि, २५, स्फटिक मणि, २६ पद्मरागमणि, २७. चन्द्रकातमणि, २८ वैडूर्य (नील) मणि, २६. जलकांतमणि, ३०. सूर्यकांत मणि, ३१. गेरूवर्ण रुधिराक्षमणि, ३२ चन्दनगन्धमणि, ३३. विलावके नेत्रसमान मरकतमणि, ३४ पुरवराज, ३५ नीलमणि, तथा ३६. विद्रुमवर्णवाली मणि इस प्रकार पृथिवीके छत्तीस भेद है। इनमें जीवों को जानकर सजीवका त्याग करे ।२०६-२०६। (प.स./प्रा./२/७७), (ध.१/१,१,४२/गा. १४६/ २७२), (त.सा /२/५८-६२): (पं.स./सं./२/१५५); (और भी दे० चित्रा)
भाव', भाविनि भूतवदुपचारतस्तेषामपि तदव्यपदेशोपपत्ते । अथवा पृथिवीकायिकनामकर्मोदयवशीकृताः पृथिवीकायिकाः । - पृथिवी रूप शरीरको पृथिवीकाय कहते है, वह जिनके पाया जाता है उन जीवोको पृथिवीकायिक कहते है। प्रश्न--पृथिवीकायिकका इस प्रकार लक्षण करनेपर कार्मणकाययोगमें स्थित जीवोके पृथिवीकाय पना नही हो सकता। उत्तर-१. यह बात नहीं है, क्यो कि, जिस प्रकार जो कार्य अभी नहीं हुआ है, उसमे यह हो चुका है इस प्रकार उपचार किया जाता है, उसी प्रकार कार्मणकाय योगमैं स्थित पृथिवीकायिक जीवोके भी पृथिवीकायिक यह संज्ञा बन जाती है। २ अथवा जो जीव पृथिवीकायिक नामकर्मके उदयके वशवर्ती है उन्हें पृथिवीकायिक कहते है। ४. प्राणायाम सम्बन्धी पृथिवी मण्डलका लक्षण ज्ञा./२/१९ क्षितिबीजसमाकान्त दूतहेमसमप्रभम् । स्याद्वज्रलाब्छनोपेत चतुरस्र धरापुरम् ॥१६॥ - क्षितिबीज जो पृथ्वी बीजाक्षर सहित गाले हुए सुवर्ण के समान पीतरक्त प्रभा जिसकी और वज्रके चिन्ह संयुक्त चौकोर धरापुर अर्थात पृथिवीमण्डल है। ज्ञा./२६/२४ धोणाविवरमापूर्य किचिदुष्ण पुरंदर.। वहत्यष्टाछुल. स्वस्थ' पीतवर्णः शनै. शनै १२४ - नासिकाके छिद्रको भले प्रकार भरके कुछ उष्णता लिये आठ अंगुल बाहर निकलता, स्वस्थ, चपलता रहित, मन्द-मन्द बहता, ऐसा इन्द्र जिसका स्वामी है ऐसे पृथिवीमण्डलके पवनको जानना ।२४॥ ज्ञर./सा./५७ । चतुष्कोणं अपि पृथिवी श्वेत जल शुद्ध चन्द्राभं ।५७।
- श्वेत जलवत शुद्ध चन्द्रमाके सदृश तथा चतुष्कोण पृथिवी है ।
२. पृथिवीकायिकादि भेदोंके लक्षण स, सि./२/१३/१७२/४ तत्र अचेतना वैश्रसिकपरिणामनिवृत्तिा काठिन्य
गुणात्मिका पृथिवी। अचेतनत्वादसत्यपि पृथिवीनामकर्मोदये प्रथन क्रियोपलक्षित वेयम् । अथवा पृथिवीति सामान्यम्, उत्तरत्रयेऽपि सदभावात् । काय' शरीरम् । पृथिवीकायिकजीवपरित्यक्त' पृथिवीकायो मृतमनुष्यादिकायवत् । पृथिवीकायोऽस्यास्तीति पृथिवीकायिक । तत्कायसंबन्धवशीकृत आत्मा। समवाप्तपृथिवीकायनामकर्मोदय कार्मण काययोगस्थो यो न तावत्पृथिवीं कायत्वेन गृह्णाति स पृथिवीजीव । अचेतन होनेसे यद्यपि इसमें पृथिवी नामकर्मका उदय नही है तो भी प्रथम कियासे उपलक्षित होनेके कारण अर्थात विस्तार आदि गुणवाली होनेके कारण यह पृथिवी कहलाती है। अथवा पृथिवी यह सामान्य भेद है, क्योकि आगेके तीन भेदोंमें यह पाया जाता है। कायका अर्थ शरीर है, अत. पृथिवीकायिक जीवके द्वारा जो शरीर छोड़ दिया जाता है वह पृथिवीकाय कहलाता है। यथा मरे हुए मनुष्य आदिकका शरीर । जिस जीवके पृथिवी रूप काय विद्यमान है उसे पृथिवीकायिक कहते है। तात्पर्य यह है कि यह जीष पृथिवीरूप शरीरके सम्बन्धसे युक्त है। कार्मण योगमें स्थित जिस जीवने जबतक पृथिवीको काय रूपसे ग्रहण नही किया है तबतक वह पृथिवीजीव कहलाता है। (रा. वा./२/१३/१/१२७/ २३); (गो. जी (जी प्र./१८२/४१६/६) । ३. पृथिवीकायिकादिके लक्षणों सम्बन्धी शंकासमाधान ध. १/१,१,३६/२६५/१ पृथिव्येब काय पृथिवीकाय' स एषामस्तीति पृथिवीकायिका । न कामणशरीरमात्रस्थितजीवानां पृथिवीकायत्वा
५. पार्थिवीधारणाका कक्षण ज्ञा./३७/४-६ तिर्यग्लोकसमं योगी स्मरति क्षीरसागरम् । निशब्द
शान्तकल्लोल हारनीहारसंनिभम् ।४। तस्य मध्ये सुनिर्माणं सहस्रदलमम्बुजम् । स्मरत्यमितभादीप्तं द्रुतहेमसमप्रभम् ।। अब्जरागसमुद्भूतकेसरालिविराजितम् । जम्बूद्वीपप्रमाणं च चित्तभ्रमररब्जकम ६। स्वर्णाचलमयी दिव्या तन्न स्मरति कर्णिकाम् । स्फुरत्पिङ्गप्रभाजालपिशगितदिगन्तराम् ।७। शरच्चन्द्रनिभं तस्यामुन्नतं हरिविष्टरम् । तत्रात्मानं सुखासीनं प्रशान्तमिति चिन्तयेत् ।। रागद्वेषादिनि शेषकलङ्कक्षपणक्षमम्। उ क्तं च भवोद्भूतं कर्मसंतानशासने ।।। प्रथम ही योगी तिर्यग्लोकके समान नि.शब्द, कल्लोल रहित, तथा भरफके सदृश सफेद क्षीर समुद्र का ध्यान करे।४। फिर उसके मध्य भागमें सुन्दर है निर्माण जिसका और अमित फैलती हुई दीप्तिसे शोभायमान, पिघले हुए सुवर्ण की आभावाले सहस्र दल कमलका चिन्तवन करे 1५. उस कमलको केसरोकी पंक्तिसे शोभायमान चित्तरूपी भ्रमरको रंजायमान करनेवाले जम्बूद्वीपके बराबर लाख योजनका चितवन करै । तत्पश्चात उस कमलके मध्य स्फुरायमान पीत रंगकी प्रभासे युक्त सुवर्णाचलके समान एक कणिकाका ध्यान करे ।७। उस कर्णिकामें शरद चन्द्र के समान श्वेतवर्ण एक ऊँचा सिहासन चितवन । उसमें अपने आत्मको सुख रूप, शान्त स्वरूप, क्षोभ रहित ८ तथा समस्त कर्मोंका क्षय करने में समर्थ है ऐसा चिन्तवन करै ।हा
६. अन्य सम्बन्धित विषय
१. पृथिवीमें पुद्गलके सर्वगुणोंका अस्तित्व। -दे० पुद्गल/२ । २. अष्टपृथिवी निर्देश।
-दे० भूमि/१॥ ३. मोक्षभूमि वा अष्टम पृथिवी
-~दे० मोक्ष/१। ४. नरक पृथिवी।
-दे० नरक।
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पृथिवी कोंगणि
प्रकार
५. सूक्ष्म तैजसकायिकादिकोंका लोकमें सर्वत्र अवस्थान।
-दे० सूक्ष्म/३। ६. बादर तैजसकायिकादिकोंका भवनवासियोंके
विमानोंमें व नरकोंमें अवस्थान । -दे० काय/२५ ७. मार्गणाओंमें भावमार्गणाकी इष्टता तथा वहाँ
आयके अनुसार ही व्यय होनेका नियम। -दे० मार्गणा। ८. बादर पृथिवीकायिक निर्वृत्यपर्याप्तमें सासादन गुणस्थानकी सम्भावनः।
-दे. जन्म/४। ९. कर्मोंका बन्ध उदय व सत्त्व। -दे० वाह-वह नाम । १०. पृथिवीकायिक जीवोंमे गुणस्थान, जीवसमास, मार्गणा स्थान आदि सम्बन्धी २० प्ररूपणाएँ।
-दे० सत् । ११ पृथिवीकायिक जीवोंकी सत् (अस्तित्व), सख्या,
क्षेत्र, स्पर्शन, काल, अन्तर, भाव, अल्प बहुत्व रूप आठ प्ररूपणाएँ।
-दे० वह-वह नाम।
पृथिवी कोंगणि-अपरनाम श्री पुरुष-दे० श्री पुरुष । पृथिवीपाल-पानीपतका निवासी था। वि. १६६२ में श्रुत पंचमी
रासकी रचना की। (हि. जै. सा. इ./१३५/कामता)। पृथिवीसिह-जयपुर नरेश। समय-वि.स.१८२७ (ई० १७७७);
(मो. मा. प्र./प्र. २६/पं. परमानन्द शास्त्री)। पृथु-कृष्णके भाई बलदेवका १५वाँ पुत्र -दे. इतिहास/७/१० । पष्टक-सौधर्म स्वर्गका २८ वाँ पटल व इन्द्रक -दे० स्वर्ग/५ । पेय-अन. ध./७/१३ जलादिकम पेयं । -जल, दुग्धादि पदार्थ पेय
कहे जाते है । (ला. सं /२/१७) । पेशि-औदारिक शरीर में मांस पेशियोंका प्रमाण-दे० औदारिक१/७ पप्पलाद-एक अज्ञानवादी-दे० अज्ञानवाद । पशुन्य-रावा./१/२०/१२/७५/१२ पृष्ठतो दोषाविष्करणं पैशुन्यम् ।
-पीछेसे दोष प्रकट करनेको पैशुन्य वचन कहते है। (ध. १/१,१,२/ ११६/१२), (ध १/४/१,४५/२१७/३) । घ.६/४,२,८,१०/२८५/५ परेषा क्रोधादिना दोषोभावनं पैशुन्यम् ।
क्रोधादिके कारण दूसरोके दोषोको प्रकट करना पैशुन्य कहा जाता है। (गो. जी./जी, प्र./३६५/७७८/२०)। नि. सा /ता. व ६२ कर्णेजपमुखविनिर्गत नृपतिकर्णाभ्यर्णगत चैक- पुरुषस्य एककुटुम्बस्य एकप्रामस्य वा महद्विपत्कारण वच पैशुन्यम् । =चुगलखोर मनुष्यके मुंहसे निकले हुए और राजाके कान तक पहुँचे हुए, किसी एक पुरुष, किसी एक कुटुम्ब अथवा किसी एक ग्रामको महाविपत्तिके कारणभूत ऐसे वचन वह पैशुन्य है। रा. वा. हि /६/११/१०० पैशुन्य कहिये पर तै अदेख सका भावकरि
खोटी कहना। पोतस. सि /२/३३/१६०/१ किचित्परिवरणमन्तरेण परिपूर्णावयवो योनिनिर्गतमात्र एव परिस्पन्दादिसामोपेतः पोतः । जिसके सब अवयव बिना आवरणके पूरे हुए हैं और जो योनिसे निकलते ही हलन-चलन आदि सामर्थ्यसे युक्त है उसे पोत कहते है। (रा. वा./२/ ३३/३/१४४/१): (गो. जी./जी. प्र./४/२०७५) । * पोतज जन्म विषयक-दे. जन्म/२।
पोतकर्म-दे निक्षेप/४ । पोदन-भरतक्षेत्रका एक नगर-दे० मनुष्य/४ । पोन्न-कृष्णराज तृतीयके समयमें शान्ति पुराण जिनाक्षर माले के रचयिता एक प्रतिभाशाली कन्नड कवि। समय-वि. १०२६ (ई० ६७२); (यशस्तिलक चम्पू./प्र. २०/पं. सुन्दरलाल) (ती/४/३०७) । पौंड-दे० पुंड्र। पौर-सौराष्ट्र देशमें वर्तमान पोरबन्दर (नेमिचरित/प्र./प्रेमी) । पौरुष-दे० पुरुषार्थ । पौरुषेय-आगमका पौरुषेय व अपौरुषेत्वपना-दे० आगम/६ । पौलोमपुर-भरत क्षेत्रका एक नगर । सम्भवत. वर्तमान पालमपुर
-दे० मनुष्य/४। प्रकरणसम जाति-न्या सुम. व टी/११/१३/२६४ उभयसाधात प्रक्रियासिद्ध प्रकरणसम ।१६। अनित्यशब्द' प्रयत्नानन्तरीयकत्वाद घटवदित्येक पक्ष प्रवर्तयति द्वितीयश्च नित्यसाधात् । एवं च सति प्रयत्नानन्तरीयकत्वादिति हेतुर नित्यसाधयेणोच्यमानेन हेतौ तदिदं प्रकरणानतिवृत्त्या प्रत्यवस्थान प्रकरणसमः। - उभयके साधर्म्यसे प्रक्रियाकी सिद्धि हो जानेसे प्रकरण समा जाति है। (कहीं-कहीं उभयके वैधHसे भी प्रक्रियाकी सिद्धि हो जानेके कारण प्रकरणसम जाति मानी जाती है।) ।१६। जैसे-शब्द अनित्य है प्रयत्नानन्तरीयकत्वसे (प्रयत्नकी समानता होनेसे) घटकी नाई। इस रोतिसे एक पक्षको प्रवृत्त करता है और दूसरा नित्यके साधर्म्य से शब्दको नित्य सिद्ध करता है ऐसा होनेसे प्रयत्नानन्तरीयकत्व हेतु अनित्यत्व साधर्मसे कथन करनेपर प्रकरणको अनत्तिवृत्तिसे प्रत्यवस्थान हुआ इसलिए 'प्रकरणसम' है। (श्लो वा. ४/न्या./३८१-३८३/५०८-५०४) । प्रकरणसम हेत्वाभासन्या सू./सू. व.टी./१/२/७/४६ यस्मात्प्रकरणचिन्ता स निर्णयार्थ मपदिष्टः प्रकरणसम । प्रज्ञापनं त्वनित्य' शब्दो नित्यधर्मानुपलब्धेरित्यनुपलभ्यमानः सोऽयमहेतुरुभौ पक्षौ प्रवर्तयन्नन्यतरस्य निर्णयाय प्रकल्पते। -विचारके आश्रय अनिश्चित पक्ष और प्रतिपक्षको प्रकरणसम कहते है ।७। जैसे-किसीने कहा कि 'शब्द अनित्य है, नित्यधर्मके ज्ञान न होनेसे' यह प्रकरणसम है। इससे दो पक्षोमेंसे किसी पक्षका भी निर्णय नहीं हो सकता। जो दो धर्मों में एकका भी ज्ञान होता कि शब्द अनित्य है कि नित्य । तो यह विचार ही क्यो प्रवृत्त होता । (श्लो वा. ४/न्या./पु.४/२७३/४२६/१६)। न्या. दी./३९४०/८७/६ प्रतिसाधनप्रतिरुद्धो हेतुः प्रकरणसम.। यथा... न्या. दी1386/RS/ प्रतिमान
अनित्य शब्दो नित्यधर्मरहितत्वात् इति। अत्र हि नित्यधर्मरहितत्वादिति हेतु प्रतिसाधनेन प्रतिरुद्धः । कि तत्प्रतिसाधनम् । इति चेत्; नित्य' शब्दोऽनित्यधर्मरहितत्वादिति नित्यत्वसाधनम् । तथा चासत्प्रतिपक्षत्वाभावारप्रकरणसमत्वं नित्यधर्मरहितत्वादिति हेतो।
-विरोधी साधन जिसका मौजूद हो वह हेतु प्रकरणसम अथवा , सत्प्रतिपक्ष हेत्वाभास है। जैसे शब्द अनित्य है, क्योकि वह नित्यधर्म रहित है यहाँ नित्यधर्म रहितत्व हेतुका प्रतिपक्षी साधन मौजूद है। वह प्रतिपक्षी साधन कौन है। शब्द नित्य है, क्योंकि वह अनित्यके धर्मोंसे रहित है इस प्रकार नित्यताका साधन करना उसका प्रतिपक्ष साधन है। अत' असत्प्रतिपक्षताके न होनेसे 'नित्य धर्मरहितत्व' हेतु प्रकरणसम हेत्वाभास है। प्रकार-पं.ध./पू./६० अपि चाश. पर्यायो भागो हारो विधा प्रकारश्च । भेदश्छेदो भङ्ग शब्दाश्चैकार्थवाचका एते ६०) -और अंश,
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प्रकारक सूरि
पर्याय, भाग, हार, विधा, प्रकार तथा भेद, छेद और भंग ये सब शब्द एक ही अर्थ के वाचक है | ६०|
प्रकारक सूरि - दे० प्रकुर्त्री ।
प्रकाश- घ १/१, १,४/१४५/६ स्वतो व्यतिरिक्त बाह्यार्थावगति' प्रकाशः । = - अपने से भिन्न बाह्य पदार्थोंके ज्ञानको प्रकाश कहते है । प्रकाश शक्तिससा / आ / परि / शक्ति नं १२ स्वयं प्रकाशमान विशदस्वसंवित्तिमयी प्रकाशशक्ति । - अपने आप प्रकाशमान स्पष्ट अपने अनुभवमयी प्रकाश नामा भारहवी शक्ति है। प्रकोणक-
त्रि. सा / ४७५ सेढीणं विच्चाले पुष्कपइण्णय इव द्वियविमाणा । होति पण्णणामा सेढिदयहीणरासिसमा | ४७५। श्रेणी बद्ध विमानोंके अन्तरासमे बिखेरे हुए पुष्पोको भाँति पंक्ति रहित जहाँ यहाँ स्थित हो उन विमानो ( वा बिलो) को प्रकीर्णक कहते है । ।४७५ (त्रि सा./ १६६ ) ।
द्र.सं./ टी / ३५ / ११६/२ दिग्विदिगष्टकान्तरेषु पक्तिरहितत्वेन पुष्पप्रचरत् यानि तिष्ठन्ति तेषा प्रकीर्णकसंज्ञा चारो दिशा और विदिशाओमीचमे पतिक बिना बिखरे हुए पुष्पों के समान... जो बिले है, उनकी 'प्रकर्णक' सज्ञा है।
प्रकीर्णक तारे
ति, प. / ७ / ४६४ दुविहा चररअचराओ पहण्णताराओ = प्रकीर्णक तारे चर और अचर दो प्रकारके होते है ।
★ प्रकीर्णक तारोंका अवस्थान व संख्या दे० ज्योतिष२/२४ प्रकीर्णक देव
स.सि./४/४/२३१६ प्रकोणका पौरजानपदकपा
=जो गाँव
और शहर में रहनेवाली के समान है उन्हें प्रकीर्णक कहते है (रा या / ४/४/८/२१३/८); (म./२२/२६)।
-
ति १ / २ / ६७ पाया परिजनसरिदा प्रकीर्णक देव पीर जन अर्थात् प्रजा हवा होते है (त्रि सा/२२३-२२४) ।
* भवनवासी आदिके इन्होंके परिवारमें प्रकीर्णकों का
प्रमाण ३० भवनवासी आदि देव | वह वह नाम ।
प्रकीर्णक बिल नरक/३/३१ प्रकीर्णक विमान - दे० विमान / १ | स्वर्ग /५/५ प्रकुर्वी - भ. आ /४५५,४५७ जो णिक्खवणपवेसे सेज्जासंथार उवधिसो ठागागासे अगण विकिचाहारे ४५५ अपपरिस्सममगणित्ताखवयस्स सव्वपडिचरणे । वह तो आयरिओ पकुव्वओ णाम सो होई |४५७१ =क्षपक जत्र वस्तिका में प्रवेश करता है; अथवा बाहर आता है उस समय में, वस्तिका, सस्तर और उपकरण इनके शोधन करनेमें खड़े रहना, बेठना, सोना, शरीर मल दूर करना, आहार पानी लाना आदि कार्य में जो आचार्य क्षपक्के ऊपर अनुग्रह करते है । सर्व प्रकार क्षपककी शुश्रूषा करते है, उसमें बहुत परिश्रम पडने पर भी वे खिन्न नही होते है ऐसे आचार्यको प्रकुर्वी आचार्य कहते है।
--
प्रकृति - साख्य व शैव मत मान्य प्रकृति तत्त्व - दे० वह वह दर्शन प्रकृति बंध-राग-द्वेषादिके निमित्तसे जीव के साथ पौगलिक कमीका बन्ध निरन्तर होता है । (दे० कर्म ) जीवके भावोकी विचित्रताके अनुसार वे कर्म भो विभिन्न प्रकारको फलदान शक्तिको लेकर आते है, इसीसे में विभिन्न स्वभाव या प्रकृतिणाले होते हैं। प्रकृतिकी
८६
प्रकृति बंध
अपेक्षा उन कर्म मूल ८ मेव है, और उत्तर ४ भेद है। उत्तरो उत्तर भेद असंख्यात हो जाते है । सर्व प्रकृतियोंमें कुछ पापरूप होती है. कुछ पुण्य रूप कुछ विभागी, कुछ क्षेत्र व विपाकी,
•
कुछ धवबन्धी, कुछ अध व बन्धी इत्यादि ।
१
भेद व लक्षण
१ प्रकृतिका लक्षण -- १. स्वभाव के अर्थ में, २ एकार्थवाची नाम |
२
प्रकृति बन्धका लक्षण |
३ कर्मप्रकृतिके भेद - १, मूल व उत्तर दो भेद २ मूल
प्रकृतिके आठ भेद; ३. उत्तर प्रकृतिके २४० भेदः ४ असंख्यात भेद ।
४
५
सादि-अनादि वन-अवबन्धी प्रकृतियोंके लक्षण 1 सान्तर - निरन्तर, व उभयबन्धी प्रकृतियोंके लक्षण । ६ परिणाम, भन न परमनिक प्रत्यय रूप प्रकृतियोंके लक्षण ।
७
बन्ध व सत्त्व प्रकृतियोंके लक्षण ।
८
भुजगार व अल्पतर बन्धादि प्रकृतियोंके लक्षण ।
२
प्रकृतियों का विभाग निर्देश
१
पुष्य पाप प्रकृतियोंकी अपेक्षा ।
२
जीव, पुद्गल, क्षेत्र व भवविपाकीकी अपेक्षा ।
३ परिणाम, भव व परभविक प्रत्ययकी अपेक्षा ।
४
अन्ध व अबन्ध योग्य प्रकृतियों की अपेक्षा । उदय व सत्य व संक्रमण योग्य प्रकृतियों
५
६
*
१
२
३
२ प्रकृति बन्ध निर्देश
*
सान्तर, निरन्तर व उभय बन्धीकी अपेक्षा । सादि अनादि बन्धी प्रकृतियोंकी अपेक्षा ।
ध्रुव व अध्रुवबन्धी प्रकृतियोंकी अपेक्षा । समतिपक्ष व अमतिपक्ष प्रकृतियोंकी अपेक्षा । प्रकृतियोंमें घाती अघातीकी अपेक्षा । - दे० अनुभाग । अन्तर्भाव योग्य प्रकृतियाँ ।
— दे० वह वह नाम ।
- दे० उदय / ७ ।
स्वोदय परोदय बन्धी प्रकृतियाँ । उदय व्युच्छिसिके पहले पीछे वा युगपत् बन्ध व्युच्छित्तिवाली प्रकृतिया ।
"
- दे० उदय / ७ ।
द्रव्यकर्मकी सिद्धि आदि ।
- ३० कर्म / ३ ।
आठ प्रकृतियोंके आठ उदाहरण । सिद्धोंक आठ गुणों में किस-किस प्रकृतिका निमित्त है। - दे० मोक्ष / ३ |
पुण्य व पाप प्रकृतियोंका कार्य अघातिया कर्मोंका कार्य ।
प्रकृति बन्धमें योग कारण है। -३० म्प/२/१। किस प्रकृतिमै १० करणोंसे कितने करण संभव है।
-दे० करण / २ |
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प्रकृति बंध
१. भेद व लक्षण
* *
* प्रत्येक प्रकृतिकी वर्गणा भिन्न है। -दे० वर्गणा/२। * | कर्म प्रकृतियोंके साकेतिक नाम। --दे० उदय/६/१ ।
* norm"
| प्रकृति बंध विषयक शंका समाधान
वध्यमान व उपशान्त कर्ममें 'प्रकृति' व्यपदेश कैसे। | प्रकृतियोंकी सख्या सम्बन्धी शका । | एक ही कम अनेक प्रकृति रूप कैसे हो जाता है। एक ही पुद्गल कर्ममें अनेक कार्य करनेकी शक्ति कैसे। आठों प्रकृतियों के निर्देशका यही बम क्यों।
ध्रुवबन्धी व निरन्तर बन्धी प्रकृतियोंमें अन्तर । ७ । प्रकृति व अनुभागमें अन्तर ।
सामान्य प्रकृति बन्धस्थान ओध प्ररूपणा। विशेष प्रकृति बन्धस्थान ओघ प्ररूपणा। आयु प्रकृति बन्ध सम्बन्धी प्ररूपणा। -दे० आयु । मोहनीय बन्ध स्थान ओघ प्ररूपणा। नामकर्म प्ररूपणा सम्बन्धी सकेत । नामकर्म बन्धके योग्य आठ स्थानोंका विवरण । नामकर्म बन्ध स्थान ओघ प्ररूपणा । जीव समासोंमें नामकर्म बन्धस्थान प्ररूपणा। नामकर्म बन्ध स्थान आदेश प्ररूपणा । बन्ध, उदय व सत्त्वकी संयोगी प्ररूपणाएँ ।
-दे० उदय/ | मूल उत्तर प्रकृतियोंमें जघन्योत्कृष्ट बन्ध तथा अन्य
सम्बन्धी प्ररूपणाओंकी सूची। मूल उत्तर प्रकृति बन्ध व बन्धको विषयक सत्, संख्या, क्षेत्र, स्पर्शन, काल, अन्तर व अल्पबहुत्व प्ररूपणाएँ।
-दे० बह-वह नाम।
१४
"sur
५ | प्रकृति बन्ध सम्बन्धी कुछ नियम
युगपत् बन्ध योग्य सम्बन्धी। सान्तर निरन्तर बन्धी प्रकृतियों सम्बन्धी। ध्रुव अध्रुव बन्धी प्रकृतियों सम्बन्धी । विशेष प्रकृतियोंके बन्ध सम्बन्धी कुछ नियम । सान्तर निरन्तर बन्धी प्रकृतियों सम्बन्धी नियम । मोह प्रकृति बन्ध सम्बन्धी कुछ नियम । १. क्रोधादि चतुष्ककी बन्ध व्युच्छित्ति सम्बन्धी
दृष्टिभेद ।
२. हास्यादिके बन्ध सम्बन्धी शंका-समाधान। ७ [नामकर्मकी प्रकृतियोंके बन्ध सम्बन्धी कुछ नियम ।
तीर्थकर प्रकृति बन्ध सम्बन्धी नियम । - दे० तीर्थंकर । आयु प्रकृतिबन्ध सम्बन्धी प्ररूपणा नियमादि ।
-दे० आयु। | प्रकृतियोंमें सर्वघाती देशघाती सम्बन्धी विचार ।
-दे० अनुभाग।
१. भेद व लक्षण
१. प्रकृतिका बक्षण-१. स्वभावके अर्थमें 4. सं./प्रा./४/५१४-११५ पयडी एत्थ सहावो....५१४। एकम्मि महुर
पयडी।...५१५॥ प्रकृति नाम स्वभावका है।...१५१४। जैसे-किसी एक वस्तुमें मधुरताका होना उसकी प्रकृति है ॥५१॥ (पं. सं/सं./ ३६६-३६७); (ध. १०/४,२,४,२१३/५१०/८)। स. सि./८/३/३७८/९ प्रकृति, स्वभावः। निम्बस्य का प्रकृति । तिक्तता। गुडस्य का प्रकृति'। मधुरता। तथा ज्ञानावरणस्य का प्रकृतिः । अर्थानवगम।...इत्यादि । = प्रकृतिका अर्थ स्वभाव है। जिस प्रकार नीमकी क्या प्रकृति है। कड आपन। गुडकी क्या प्रकृति है। मीठापन । उसी प्रकार ज्ञानावरण कर्मकी क्या प्रकृति है । अर्थका ज्ञान न होना । • इत्यादि। (रा. वा./८/३/४/५६७/१); (पं.ध/
प्रकृति बन्धके नियम सम्बन्धी शंकाएँ प्रकृति बन्धको व्युच्छित्तिका निश्चित कम क्यों। तिर्यग द्विकके निरन्तर बन्ध सम्बन्धी। | पंचेन्द्रिय जाति औदारिक शरीरादिके निरन्तर बन्ध
सम्बन्धी। तिर्यग्गतिके साथ साताके बन्ध सम्बन्धी। हास्यादि चारों उत्कृष्ट संक्लेशमें क्यों न बर्थे । विकलेन्द्रियोंमें हुण्डक संस्थानके बन्ध सम्बन्धी।
-दे० उदय/५
*
ध, १२/४,२,१०,२/३०३/२ प्रक्रियते अज्ञानादिक फलमनया आत्मन. इति प्रकृतिशब्दव्युत्पत्ते ।. जो कम्मरखं धो जीवस्स वट्टमाणकाले फलं देह जो च देइस्सदि, एदेसिं दोण्णं पि कम्मक्खंधाण पडित सिद्ध।-१. जिसके द्वारा आत्माको अज्ञानादि रूप फल किया जाता है वह प्रकृति है, यह प्रकृति शब्दकी व्युत्पत्ति है । .. २.जो कर्म स्कन्ध वर्तमानकाल में फल देता है और जो भविष्यत्में फल देगा. इन दोनों ही कर्म स्कन्धोकी प्रकृति संज्ञा सिद्ध है। २. एकार्थवाची नाम गो. क./म./२/३ पयडी सोलसहावो. .....२॥ == प्रकृति, शील और
स्वभाव ये सब एकार्थ है। पं.ध./पू/४८ शक्तिलक्ष्म विशेषो धर्मो रूपं गुण, स्वभावश्च । प्रकृतिः
शीलं चाकृतिरेकार्थवाचका अमी शब्दा. १४८ -शक्ति, लक्षण, विशेष, धर्म, रूप, गुण तथा स्वभाव, प्रकृति, शील और आकृति ये सब एकार्थवाची है।
२. प्रकृति बन्धका लक्षण नि. सा./ता. वृ./४० ज्ञानाबरणाद्यष्टविधकर्मणां तत्तद्योग्यपुद्गलद्रव्यस्वीकार' प्रकृतिबन्धः। =ज्ञानावरणादि अष्टविध कर्मोके उस कर्मके योग्य ऐसा जो पुदगल द्रव्यका स्व-आकार वह प्रकृति बन्ध है।
Na-
७ प्रकृति बन्ध विषयक प्ररूपणाएँ
सारणीमें प्रयुक्त संकेतोंका परिचय । २. बन्ध व्युच्छित्ति ओघ प्ररूपणा ।
सातिशय मिथ्यादृष्टिमें बन्ध योग्य प्रकृतियाँ। सातिशय मिथ्यादृष्टिमें प्रकृतियोंका अनुबन्ध । बन्ध व्युच्छित्ति आदेश प्ररूपणा।
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प्रकृति बंध
१. भेद व लक्षण
३. कर्म प्रकृतिके भेद
उपशान्तकषायादवतरत सूक्ष्मसापराये। यत्कर्म यस्मिन् गुणस्थाने १. मूल व उत्तर दो भेद
व्युच्छिद्यते तदनन्तरोपरितनगुणस्थानं श्रेणि तत्रानारूढे अनादिबन्ध'
स्यात्, यथा सूक्ष्मसापरायचरमसमयादधस्तत्पश्चकस्य । तु-पुन. अभभू आ./१२२१ दुविहो य पडिबधो मूलो तह उत्तरो चेव । प्रकृति
व्यसिद्धेध वबन्धो भवति निष्प्रतिपक्षाणां बन्धस्य तत्रानाद्यनन्तत्वात। बन्ध मूल और उत्तर ऐसे दो प्रकारका है ।१२२१॥ (प.सं./प्रा./२/१)
भव्य सिद्ध अध्र वअन्धो भवति । सूक्ष्मसापराये बन्धस्य व्युच्छिन्त्या (क. पा. २/२-२२/ चूर्ण सूत्र/६४१/२०) (रा. वा./८/३/११/५६७/२०);
तत्पश्चकादीनामिव । जिस कर्मके बन्धका अभाव होकर फिर बन्ध (ध. ६/१,६-१,३/५/६); (पं. सं./सं /२/१)
होइ तहाँ तिस कर्म के बन्ध को सादि कहिये । जैसे-ज्ञानावरणको २. मूल प्रकृतिके आठ भेद
पाँच प्रकृतिका बन्ध सुक्ष्म साम्पराय गुणस्थान पर्यन्त जीवके था। ष. खं. १३/०५/सू १९/२०५."कम्मपयडी णाम सा अट्टविहा-णाणावर
पीछे वही जीव उपशान्त कषाय गुणस्थानको प्राप्त भया तब णीयकम्मपयडी एवं सणावरणीय-वेयणीय-मोहणीय-आउअ
ज्ञानावरण के बन्धका अभाव भया। पीछे वही जीव उतर कर सूक्ष्मणामा-गोद-अंतराइयकम्मपयडी चेदि ।। -नोआगम कर्म द्रव्य
साम्परायको प्राप्त हुआ वहाँ उसके पुन. ज्ञानावरणका बन्ध भया तहाँ प्रकृति आठ प्रकारको दर्शनावरणीय, वेदनीय, मोहनीय, आयु, नाम,
तिस बन्धको सादि कहिये। ऐसे ही और प्रकृतिनिका जानना। गोत्र और अन्तराय कर्म प्रकृति ।१६ (ष खं. ६/१,६-१/सू. ४-१२/
जिस गुण स्थानमें जिस कर्मकी व्युच्छित्ति होइ, तिस गुणस्थानके ६-१३); (त. सू./८/४); (मू आ./१२२२); (प.स./प्रा./२/२);
अनन्तर ऊपरिके गुणस्थानको अप्राप्त भया जो जीव ताके तिस (न. च. वृ./४); (गो. क./मू./८/७); (द्र, स./टी/३१/१०/६)।
कर्मका अनादि बन्ध जानना। जैसे-ज्ञानावरणकी व्युच्छित्ति
सूक्ष्मसाम्परायका अन्त विर्षे है। ताके अनन्तर ऊपरकै गुणस्थानको ३. उत्तर प्रकृतिके १४८ मेद
जो जीव अप्राप्त भया ताकै ज्ञानावरणका अनादिबन्ध है। ऐसे ही त. सू./८/५ पञ्चनवद्वयष्टाविशतिचतुर्द्विचत्वारिंशद्विपञ्चभेदा अन्य प्रकृतियोंका जानना। -बहरि अभव्य सिद्ध जो अभव्यजीव यथाक्रमम् ।। -आठ मूल प्रकृतियोके अनुक्रमसे पाँच, नौ, दो, तीहिविः ध्र बबन्ध जानना। जाते नि.प्रतिपक्ष जे निरन्तर बन्धी अट्ठाईस, चार, ब्यालोस, दो और पाँच भेद है ।। (विशेष देखो- कर्म प्रकृतिका बन्ध अभव्यके अनादि अनन्त पाइए है। बहुरि उस उस मूल प्रकृतिका नाम) (ष वं /६/१,६-१/सू./पृ.१३/१४; भव्यसिद्धविर्षे अधव बन्ध है जात भव्य जीवक बन्धका अभाव १५/३१, १७/३४,१६/३७:२५/४८:२६/४६१४५/७७:४६/७८); (ष. खं.
भी पाइए वावध भी पाइए। जैसे-ज्ञानावरण पंचककी सूक्ष्म साम्पराम १३/५,५/सू./पृ.२०/२०६६८४/३६३; ८८/३५६६०/३५७६६/३६२,१०१/
विष अन्धकी व्युच्छित्ति भई । नोट-(इसी प्रकार उत्कृष्ट, अनुत्कृष्ट ३६३,१३३/३८८,१३७/३८६), (पं सं/प्रा/२/४), (गो क.मू./२२)
तथा जघन्य व अजधन्य बन्धकी अपेक्षा भी सादि अनादि ध्रुव १५), (पं.सं/सं./२/३-३५) ।
अध व विकल्प यथा सम्भव जानना । (गो क./जी./प्र/६९/७५/१५)।
गो.क./भाषा/80/७५/४ विवक्षित बन्धका बीचमें अभाव होइ ४. असंख्यात भेद
बहुरि जो बन्ध होइ सो सादिबन्ध है। बहुरि कदाचिव अनादि तें गो क./म् /७/६ तं पुण अट्टविहं वा अडदालसयं असखलोग वा। ताणं बन्धका अभाव न हुवा होइ तहाँ अनादिबन्ध है। निरन्तर बन्ध पुण घादित्ति अ-घादित्ति य होति सण्णाओ।७। सामान्य कर्म हुआ करे सो भवबन्ध है। अन्तर सहित बन्ध होइ सो अध वबन्ध आठ प्रकार है, वा एक सौ अडतातीस प्रकार है, वा असंख्यात लोक कहते है। प्रमाण प्रकार है। तिनकी पृथक-पृथक धातिया व अधातिया ऐसी ५. सान्तर, निरन्तर व उमय बन्धी प्रकृतियों के लक्षण सज्ञा है ।
घ. ८/३,६/१७/८ जिस्से पयडीए पच्चओ णियमेण सादि अधुओ पं. ध./उ /१००० उत्तरोत्तरभेदैश्च लोकासंख्यातमात्रकम् । शक्तितोs- अतोमुहत्तादिकालावट्ठाई सा गिरतरबंधपयडी। जिस्से पयडीए नन्तसज्ञश्च सर्वकर्मकदम्बकम् ॥१०००। (अवश्यं सति सम्यक्त्वे
अद्धाक्खएण बंधवोच्छेदो संभवइ सा सांतरबंधपयडी। -जिस तल्लब्ध्यावरणक्षति (प ध/८५६) - उत्तरोत्तर भेदोकी अपेक्षासे
प्रकृतिका प्रत्यय नियमसे सादि एवं अध्र तथा अन्तर्मुहूर्त आदि कर्म असंख्यात लोक प्रमाण है। तथा अपने अविभाग प्रतिच्छेदोके
कालतक अवस्थित रहनेवाला है, वह निरन्तर बन्धी प्रकृति है। शक्तिकी अपेक्षासे सम्पूर्ण कर्मों का समूह अनन्त है ।१०००। (ज्ञानसे
जिस प्रकृतिका काल क्षयसे बन्ध व्युच्छेद सम्भव है वह सान्तरबन्धी चेतनावरण-स्वानुभूत्यावरण कर्मका नाश अवश्य होता है। इत्यादि
प्रकृति है। और भी दे० नामकर्म)।
गो. क /भाषा/ ४०६-४०७/५७०/१७ जैसे-अन्यगतिका जहाँ बन्ध १. सादि-अनादि व ध्र व-अध्र वबन्धी प्रकृतियोंके लक्षण पाइये तहा तौ देवगति सप्रतिपक्षी है सो तहाँ कोई समय देवगतिका 4. स /प्रा/४/२३३ साइ अबधाबंधइ अणाइबंधो य जीवकम्माणं । बन्ध होई कोइ समय अन्य गतिका बन्ध होइ तातै सान्तरबन्धी है। धुवबधो य अभब्वे बंध-विणासेण अधुवो होज २३३। -विवक्षित
जहाँ अन्य गतिका बन्ध नाहीं केवल देवगतिका बन्ध है तहाँ देवगति कर्म प्रकृतिके अबन्ध अर्थात् बन्ध विच्छेद हो जानेपर पुनः जो उसका
निष्प्रतिपक्षी है सो तहाँ समय समय प्रति देवगतिका बन्ध पाइए बन्ध होता है, उसे सादिबन्ध कहते है। जीव और कर्म के अनादि
तातै निरन्तर बन्धी है । तातै देवगति उभयबन्धी है। कालीन बन्धको अनादिबन्ध कहते है। अभव्यके बन्धको धवबन्ध
६.परिणाम,मव व परमविक प्रत्यय रूप प्रकृतियोंके लक्षण कहते है। एक बार बन्धका विनाश होकर पुनः होनेवाले बन्धको ल, सा./जी, प्र./३०६-३०७-३८८ पञ्चविशतिप्रकृतयः परिणामप्रत्ययाः,
अध्र वबन्ध कहते है । अथवा भव्यके बन्धको अध वमन्ध रहते है। आत्मनो विशुद्धिसंक्लेशपरिणामहानिवृद्धयनुसारेण एतत्प्रकृतमनुभाध ८/३,६/१७/७ जिस्से पयडीए पच्चओ जत्थ कत्थ वि जीवे अणादि- गस्य हानिवृद्धिसद्भावात।३०६॥ चतुस्त्रिशत्प्रकृतयो भवप्रत्यया । एता
धुवभावेण लगभइ सा धुवनधीपयडी 1 = जिस प्रकृतिका प्रत्यय सामनुभागरय विशुद्धिसंक्लेशपरिणामहानिवृद्धि निरपेक्षतया विवक्षित. जिस किसी भी जीवमें अनादि एव ध्र व भावसे पाया जाता है वह भवाश्रयेणैव षट्स्थानपतितहानिवृद्धिसंभवात । अतः कारणादवस्थितध्रुव-बन्ध प्रकृति है।
विशुद्धिपरिणामेऽयुपशान्तकषाये एतच्चतु स्त्रिशत्प्रकृतीनां अनुभागोगो. के./भू. व टी./१२३/१२४ सादि-असंधमधे सेडिअणारुढगे अणादीहु। दयस्त्रिस्थानसंभवो भवति । कदाचिदीयते कदाचिद्वर्धते कदाचिद्धाअभव्यसिद्धम्हि धुवो भवसिद्ध अधुवो बंधो।१२३सादिबन्धः निवृद्धिभ्यां विना एकादृशं एवावतिष्ठते ।३०७।- पच्चीस प्रकृति परिअबन्धपतितस्य कर्मण पुनर्बन्धे सति स्यात, यथा ज्ञानावरणपञ्चकस्य णाम प्रत्यय है। इनका उदय होनेके प्रथम समय में आत्माके विशुद्धि
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प्रकृति बंध
संक्लेश परिणाम हानि वृद्धि लिये जैसे पाइए तेसे हानि वृद्धि लिये इनका अनुभाग तहाँ उदय होइ । वर्तमान परिणामके अनुसार इनका अनुभाग उरकण अपकर्षण हो है ॥१०६॥ पीतीस प्रकृति भव प्रत्यय है। आमा परिणाम जेसे होई तिनको अपेक्षा रहित पर्याय होका आश्रय करि इनका अनुभाग विषै षट् स्थान रूप हानि वृद्धि पाइये है इनका अनुभागका उदय इहाँ । उपशान्तकषाय गुण स्थान मे ) तीन अवस्था लीऍ है। कदाचित् हानि रूप, कदाचित् वृद्धि रूप, कदाचित अपस्थित जसा का तैसा रहे है 12001 घ. ६/१.१-८/१४/२६३/२४ विशेषार्थ नामको जिन प्रकृतियोका परभव सम्बन्धी देवगतिके साथ बन्ध होता है उन्हे परभविक नामकर्म कहा है।
भा० ३-१२
--
७. बन्ध व सत्व प्रकृतियोंके लक्षण
=
घ. १२ / ४,२,१४,३८ / ४६५/११ जासि पयडीण ट्ठिदिसतादो उवरि कहि विकाले ट्ठिदिबधो संभवद ताओ बंधपयडोओ णाम । जासि पुण पडणं बधो चैव स्थि, बधे संते वि जासि पयडीणं टूठिदि संताद उवरि सम्यकात बंधी ण संभवदि, ताओ संतपपडीओ. संतपहाता व आहारदुग-विश्ययराण हटवितादो उर बधो अस्थि, सम्माभादी उम्ह सम्मामिच्छता व दाणि तिणि वि सतकम्माणि । - जिन प्रकृतियोका स्थिति सबसे अधिक किसी भी कालमे बन्ध सम्भव है, वे बन्ध प्रकृतियाँ कही जाती है। परन्तु जिन प्रकृतियोका बन्ध ही नहीं होता है और बन्धके होनेपर भी जिन प्रकृतियोका स्थिति सत्त्व से अधिक सदा काल बन्ध सम्भव नही है वे सत्य प्रकृतियों है, क्योकि सत्त्वकी प्रधानता है । आहारक द्विक और तीर्थकर प्रकृतिका स्थिति सत्त्वसे अधिक बन्ध सम्भव नहीं है, क्योकि वह सम्यग्दृष्टियोमे नही पाया जाता है। इस कारण सम्यक्त्व व सम्यग्मिथ्यात्व के समान तीनो ही सम प्रकृतियों है।
णाम ।
.. •
८. भुजगार व अल्पतर वन्धादि प्रकृतियोंके लक्षण म. ४२७०/१४२/२ याओ एणि द्विदीओ मचदि वर्णतरादिसहासमये अप्पदरादो महूदर बंधदिति एसो भुजगारबंधो णाम यावी एणि टिवीओ बंधदि अतरउस्सकादिविदिक्कते समये बहुदरादो अप्पदरं बंधदित्ति ऐसो अप्परबंधो नाम या एण्णि रहिदीजो गंधदि असर ओसका विश्वस्सकादिविदि समत्तियाओ सियाओ दित्ति एसो अवटू ठिदिबधो णाम । अबंधदो बधदि त्ति एसो अवत्तब्बबधो वर्तमान समय में जिन स्थितियोको बाँधता है उन्हे अनन्तर अतिक्रान्त समयमे घटी हुई बाँधी गयी अल्पतर स्थितिसे तर गाँधता है यह भुजगारबन्ध है। वर्तमान समय में जिन स्थितियोंको बता है, उन्हें अनन्तर अतिक्रान्त समयमें बड़ी हुई बाँधी गयी बहुतर स्थितिसे अल्पतर बाँधता है यह अल्पतरबन्ध है । " वर्तमान समयमे जिन स्थितियोको बाँधता है, उन्हें अनन्तर अतिक्रान्त समय में घटी दुई वा बढी हुई बाँधी गयी स्थिति उतनी ही बाँधता है, यह अवस्थित बन्ध है । अर्थात - प्रथम समयमे अल्पका बध करके अनन्तर बहुतका बन्ध करना भुजगारबन्ध है । इसी प्रकार बहुतका बन्ध करके अल्पका बन्ध करना अल्पतरबन्ध है । पिछले समयमे जितना बन्ध किया है, अगले समयमें उतना ही बन्ध करना अवस्थितबन्ध है ( गो . / . / ४६६ / ६१५:५६३-६६४/७६४) (गो.क./जी. प्र. / ४५२/६०२/५) बंधका अभाव होनेके भार पुन ता है यह अव्यबन्ध है । गोक/जी/४००/६१८/१० सामान्येन कृ बन्ध । सामान्यपनेसे भय विवक्षाको किये बिना अवक्तव्यवन्ध है । २. प्रकृतियोंका विभाग निर्देश १. पुण्य पाप रूप प्रकृतियोंकी अपेक्षा रा.सू./८/२५-२६
शुभायुर्नामगोत्राणि पुण्यम् ॥ २३॥ अतोऽन्यत्पापम् ।
८९
२. प्रकृतियोंका विभाग निर्देश
॥२६॥ सातावेदनीय, शुभ आयु, शुभ नाम और शुभ गोत्र ये प्रकृतियाँ पुण्यरूप है | २५ | इनके सिवा शेष सब प्रकृतियाँ पाप रूप है । २६॥ (म./९६९ // २०) (गो जी/जी/६४२ १०६५/३ ) ।
(
पंस / प्रा / ४५३- ४५६ सायं तिण्णेवाऊग मणुयदुग देवदुव य जाणाहि । पंचसरीरं पचिदियं च संठाणमाईय । ४५३ | तिणि य अंगोवग सत्य विहायगइ आइसघयण । वण्णचउक्कं अगुरु य परघादुस्सास उज्जीवं 1४५४ | आदाव तसचउवकै थिर सुह सुभग च सुस्सर णिमिणं । आदेज्जं जसकित्ती तिथयर उच्च बादाल १४५५| जाणातरायदस्य दंसणणव मोहणीय छब्बीसं । णिरयगइ तिरियदोण्णि य तेसि तह आणुपुब्वीयं । ४५६ | संठाणं पंचैव य सघयण चैव होति पंचैव । वण्णचउक्कं अपसत्य विहायगई य उवधायं । ४५७| एईदियणिरयाऊ तिष्णि य वियलिदियं असायं च । अप्पजत्त थावर सुहुमं साहारणं णाम । ४५८ | दुब्भग दुम्सरमजस अणाइज्जं चेव अथिरमसुह च । णीचागोदं च तहा वासीदी अप्पसत्यं तु |४५६ | गो.क./४२,४४/४४-४५ सट्टी बादानमा ४२ मंद पडिमेवे अगदि सर्व दुधदुरसीदिदरे 1889 पुण्यप्रकृतियाँ साता वेदनीय, नरकामुके बिना सीन आयु. मनुष्य द्विक, देवद्विक, पाँच शरीर, पंचेन्द्रिय जाति, आदिका समचतुरस्त्र संस्थान, तीनों गोपान प्रदास्त विहायोगति, आदिव्य वचवृषभनाराच संहनन, प्रशस्तवर्ण, गन्ध, रस, स्पर्श, अगुरुलघु, परघात, उच्छ्वास, उद्योत, आतप, त्रस चतुष्क, स्थिर, शुभ, सुभग, सुस्वर, निर्माण, आय यशस्कीर्ति तीर्थकर और उगो ये ग्यानीस प्रशस्त, शुभ या पुण्य प्रकृतियाँ है ।४५३-४५५१२ पाप प्रकृतियाँज्ञानावरणकी पाँच, अन्तरायको पाँच, दर्शनावरणकी नौ, मोहनीयकी अम्मीस, नरकगति नरकापूर्वी तिि
पूर्वी आदिके बिना शेष पाँच संस्थान आदिके बिना शेष पाँचो सहनन, अप्रशस्त वर्ण चतुष्क, अप्रशस्त विहायोगति, उपघात, एकेन्द्रिय जाति, नरकायु, तीन विकलेन्द्रिय जातियाँ, असाता वेदनीय, अपर्याप्त, स्थावर, सूक्ष्म, साधारण, दुर्भग, दुस्वर, अपकीर्ति, अनादेय, अस्थिर, अशुभ, और नीचो ये व्यासी (८) प्रशस्त अशुभ या पापप्रकृतियों है ।४३६-४६३०२, भेड़ अपेक्षासेम प्रकृति पुण्य रूप है और अमेद निरपच ५ संघात और १६ वर्णादिक घटाइये ४२ प्रकृति प्रशस्त है ॥४२॥ भेद विवक्षाकरि बन्ध रूप प्रकृतियाँ है, उदयरूप १०० प्रकृतियाँ है । अभेद विवक्षाकरि वर्णादि १६ घटाइ बन्धरूप ८२ प्रकृति है उदय रूप प्रकृति है ४४ (स.सि //२५-२६/४०४/३), (रा बा./ ८/२५-२६/०६/६.१२) (मो.क./ / ४१-२२/४४), (इ.सं./टी./ १८/१४०/९०) (सस/४/२७५-२०१४)।
२. जीव, पुद्गल, क्षेत्र व भवविपाकीकी अपेक्षा
प्रा.४६०४१३ पमरस छतिय छ पंच दोणि पंच यहमति अट ठेव सरीरादिय फाता न पडीओ आणुपुथ्वी ४१ अगुरुमलगुमधाया परघाया आदमुज्जोन विषयाम व पतेयविर- सुदरणामानि व चुंग्गल विभागा ४१० आऊणि भवनिवागी खेत्तविवागी उ आणुपुब्वी य अवसेसा पयडोओ जीवविवागी मुणेयव्वा । ४६२१ वेयणोय गोय घाई - णभगई जाइ आण नित्थयरं । तस-जस वायर- पुण्णा सुस्सर - आदेज्ज- सुभगजुयलाइ |४६३॥ -- १. शरीर नामकर्मसे आदि लेकर स्पर्श नामकर्मको प्रकृतियाँ आनुपूर्वीसे शरीर ५, बन्धन ५ और संघात ५, इस प्रकार १५० संस्थान ६, अंगोपांग ३, संहनन ६, वर्ण ५, गन्ध २, रस ५० और स्पर्श आठ, तथा अगुरुलघु, उपधात, परघात, आतप उद्योत निर्माण, प्रत्येक शरीर. साधारण वशरीर, स्थिर, अस्थिर, शुभ और अशुभ ये सर्व ६२ प्रकृतियाँ पुद्गल विपाकी है, (क्योंकि इन प्रकृ
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प्रकृति बंध
तियोंका फल स्वरूप विपाक पुद्गल रूप शरीरमें होता है । ) २ आयु कर्मकी चारो प्रकृतियाँ भवविपाकी है ( क्योकि इनका विपाक नरकादि भवो होता है।) ३. चारों आनुपूर्वी प्रकृतियों क्षेत्रविपाकी है क्योंकि हम विपाक विग्रह गतिरूपमे होता है) ४ शेष ७८ प्रकृतियाँ जीवविपाकी जानना चाहिए, ( क्योकि उनका विपाक जीवमें होता है ।४६०-४६२| वेदनीयकी २ गोत्रकी २, पातिकको ४७ विहायोगति २ गति ४ जाति ५. नासोच्छ्वास १, तोर्थकर १, तथा त्रस, यश कोर्ति, बादर, पर्याप्त, सुस्वर, आदेय और सुभग, इन सात युगलोकी १४ प्रकृतियाँ इस प्रकार सर्व मिलाकर ७८ प्रकृतियाँ जीव विपाकी है ।४६३| (रा. वा. /- /२३/०/५/०२/२२), (घ. १४/गा, १-४/१३-१४) (गो. यू. ४०-५०/ ४०) (पं.स./स./४/३२६-३३३ ) ।
३. परिणाम, मव व परभविक प्रत्ययको अपेक्षा
*
ल सा / जी / ३०६-३०० बोदय प्रकृतयस्तै जसकार्मणशरीरवर्णगन्धरसस्पर्श स्थिस्थिरशुभाशुभगुरुनिनामानो द्वादश भना देययशस्कीर्तय उच्चैर्गोत्रं पञ्चान्तररायप्रकृतय. केवलज्ञानावरणीय निद्रा प्रचलापेति पञ्चविंशतिप्रकृतय परिणामप्रत्यया २०६ माधिमनयज्ञानावरणचतुष्टयं चक्षुरचक्षुरधिदर्शनावरणत्रयं सातासात वेदनीयद्वयं मनुष्यायुर्मनुष्यगतिपञ्चेन्द्रियजात्यौदारिशरीरतदोपाङ्गाय हमनत्रयषट्संस्थानोपधातपरातोवासविहायोगति प्रत्येक सादरपर्याप्स्वनामप्रकृतयश्चतुर्वि - शतिरिति चतुस्त्रिंशत्प्रकृतिभवप्रत्यया । ३०७। १. तेजस, कार्माण शरीर, वर्णादि ४, स्थिर, अस्थिर, शुभ, अशुभ, अगुरुलघु, निर्माण ये नामकर्मकी अबदी १२ प्रकृति र सुभग आधे यश कीर्ति, उच्चगोत्र, पाँच अन्तराय, केवलज्ञानावरण, केवलदर्शनावरण अर निद्रा, प्रचला ये पचीस प्रकृति परिणाम प्रत्यय है । ३०६ । २. अवशेष ज्ञानावरणको ४, दर्शनावरणकी ३, वेदनीयकी २, मनुष्यायु, मनुष्यगति पचेन्द्रिय जाति, श्रदारिक शरीर, औदारिक अगोपाग, आदिके तोन संहनन, ६ संस्थान, उपघात, परघात, उच्छूबास, विहायोगति दो प्रत्येक त्रस बादर, पर्याप्त स्वरकी दो ऐसे ३४ प्रकृति भव प्रत्यय है ।
•
"
घ. ८/११-१२/२६३ / २६ पर विशेषार्थ-परभनिक नाम को प्रक्रतियाँ कमसे कम २७ और अधिक से अधिक ३० होती है । -१. देवगति, २ पचेन्द्रिय जाति, ३-६ औदारिक शरीरको छोड़कर चार शरीर, ७ समचतुरससरथान, वैक्रियिक और ६. आहारक अगोपांग १० देवयानुपूर्वी ११. वर्ग १२ ध १३. रस १४. स्पर्श. १५-१८ अगुरुलघु आदि चार, १६ प्रशस्त विहायोगति, २०-२३. सादि चार, २४, स्थिर, २५. शुभ, २६, सुभग, २७, सुस्वर, २. आय २६ निर्माण और ३० तीर्थंकर । इनमेसे आहारक शरीर, आहारक अगोपाग और तोथंकर, ये तीन प्रकृतियाँ जब नहीं तो राम शेष २७ ही बँधती है।
४. बन्ध व अबन्ध योग्य प्रकृतियोंकी अपेक्षा १. अन्य योग्य प्रकृतियों
पं सं / प्रा . / २ / ५ पंच णव दोणि छब्बीसमयि चउरो कमेण सत्तट्ठी । दोणिय पंच व भगिया एवाओ घडीओ 18- ज्ञानावरणीयकी पाँच, दर्शनावरणीयकी नौ, वेदनीयकी दो, मोहनीयकी छब्बीस, आयुकर्मकी चार, नामकर्मकी सडसठ, गोत्रकर्म की दो और अन्तरायकर्म की पाँच, इस प्रकार १२० बँधने योग्य उत्तर प्रकृतियाँ कही गयी है ॥५॥ (गोक /मू./३५/४०) ।
गो. क /मू./१०/४९ भेवेदरे बंधे हति मीरा- भेद विवक्षा मित्र और सम्यमत्य प्रकृति बिना १४६ प्रकृतियाँ बन्ध योग्य है। अर अभेद विवक्षासे १२० प्रकृतियाँ बन्ध योग्य है ।
Po
२. प्रकृतियोका विभाग निर्देश
२. बन्ध अयोग्य प्रकृतियाँ
पं. स. / प्रा / २ / ६ वण्ण-रस-गंध-फासा चउ च हगि सत्त सम्ममिच्छत्त । होति अबधा बधण पण पण सघाय सम्मत्तं |६| -चार वर्ण, चार रस, एक गन्ध, सात स्पर्श, सम्यग्मिथ्यात्व, सम्यक्त्वप्रकृति, पाँच बन्धन और पाँच सघाउ. ये अट्ठाईस (२८) प्रकृतियों बन्धके अयोग्य होती है ।।
५. सान्तर निरन्तर व उमय बन्धीको अपेक्षा पं. सं./३/७४-७७ तित्थयराहारदुअ चउ आउ धुवा य वेइ चउवण्णं । एयाणं सव्वाण पयडीण णिरतरो बधो |७४ | सठाण संघयणं अंतिमदस्यं च साइ उज्जोयं । इगिविगलिदिय थावर सढित्थी अरइ सोय असं च ॥७५॥ दुब्भग दुस्सरमसुभ सुहुम साहारणं अध्पया गिरयदुमणादेयं असायमधिर विहायमपत्य १७६॥ च तीसं पयडीणं बधो नियमेण संतरो भणिओ। बत्तीस सेसियाण बंधो समयम्मि उभओ वि ॥७७॥
घ. ८/३६/१०/२ तास नामपि सो कीरत जहा-सादा वेदणीयपुरिसवेद हस्रदितिरनगर-मगुस्सग - देवगड- चिदिय-जादि ओरालिय-वेउब्विय सरीर समचउरससंठाण - ओरालिय- वेडब्बिय सरीर अगोवंग- वज्जरिसह - वइरणारायणसरीरसंघडण - तिरिवखगड़मस्सगइ देवगड़पाओग्गाणुपुव्वि परधादुस्सास पसत्थ-विहा यगड तस बादर पज्जन्त- पत्ते यसरीर थिर-सुह-सुभग सुस्सर आदेज्ज-जसविधि-णीचागोदमिति खातर गिरतरंग बज्झमाणपयडीओ - १. तीर्थंकर आहारकडिक, चारो आयु और मवबन्धी तालीस प्रकृतियों, इन सब चौवन प्रकृतियोका निरन्तर बन्ध होता है 1७४ । २. अन्तिम पाँच संस्थान, अन्तिम पाँच सहनन, साता वेदनीय, उद्योग, एकेन्द्रिय जाति, तीन विकलेन्द्रिय जातियाँ, स्थावर, नपुंसक वेद, स्त्रीवेद, अरति शोक, अयश कीर्ति, दुर्भग, दुःस्वर, अशुभ, सूक्ष्म, साधारण, अपर्याप्त नरकद्विक, अनादेय, असातावेदनीय, अस्थिर, और अप्रशस्त विहायोगति इन चौतीस प्रकृतियोका नियमसे सान्तर बन्ध कहा गया है
"
(ध. ८/३.६/९६/६ ) । ३ शेष बची बत्तीस प्रकृतियोका बन्ध परमागममें उभय रूप अर्थात् सान्तर और निरन्तर कहा गया है । ७७३ उनका नाम निर्देश किया जाता है। वह इस प्रकार है- सातावेदनीय, पुरुष वेद, हास्य, रति तिर्यग्गति, मनुष्यगति, देवगति, पंचेन्द्रियजाति बीदारिक शरीर वैक्रियिक शरीर, समचतुरखसंस्थान, औदारिक शरीरागोपाग, वैक्रिमिक शरीरागोपाग, वज्रभनाराषशरीर संहनन, तिर्यगुमनुष्य न देवगति पूर्वी परघात, उच्छ्वास, प्रशस्तविहायोगति, त्रस, बादर, पर्याप्त, प्रत्येक शरीर, स्थिर, शुभ, सुभग, सुस्वर, आदेय, यशकीति, नीच गोत्र, उच्चगो मे सान्तर निरन्तर रूपसे वैधनेवाली है। (घ ८/३.६/गा, /१०-१२/१०). ( गो . / /४०४-४००१५६८६ सं./सं./३/१२-१०१)
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६. सादि अनादि बन्धी प्रकृतियोंकी अपेक्षा
२/२२२६ बनायो व बंधोदुम्म छकस्स । तइए साइयसेसा अणाइधुव सेसओ आऊ | २३५ उत्तरपयडीसु तहा ध्रुवियाणं बंध चउवियप्पो दु । सादिय अधुवियाओ सेसा परियन्तमाणीओ 1२३६ । १. मूल प्रकृतियोंकी अपेक्षा-ज्ञानावरण, दर्शनावरण, मोहनीय, नाम, गोत्र और अन्तराय, इन छह कर्मोंका सादि, अनादि, धव और अधु व चारों प्रकारका बन्ध होता है । वेदनीय कर्मका सादि बन्धको छोड़कर शेष तीन प्रकारका बन्ध होता है। आयुकर्मका अनादि और ध ुव बन्धके सिवाय शेष दो प्रकारका बन्ध होता है ।२३५ | २. उत्तर प्रकृतियोंकी अपेक्षा उत्तर प्रकृतियोंमें जो सेतालीस बनन्धो प्रकृतियाँ है. उनका चारो प्रकारका बन्ध होता है। तथा शेष बच्ची जो तेहत्तर प्रकृतियाँ है, उनका सादिमन्ध और अमव मन्ध होता है । २३६। ( गो . / . / १२४ / १२६)
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४. प्रकृति बंध विषयक शंका-समाधान
प्रकृति बंध
..ध्रव व अध्रुव बन्धी प्रकृतियोंकी अपेक्षा
३. अघातिया कर्मोंका कार्य प संप्रा/४/२३७ आवरण निग्ध सव्वे कमाय मिच्छत्त णिमिण
___क. पा. १/१,९/७०/१६ पर विशेषार्थ-जिनके उदयका प्रधानतया कार्य बण्णचद् । भयणिदागुरुतेयाकम्मुवघाय धुवाउ सगदाल ।२३७॥
संसारको निमित्तभूत सामग्रीको प्रस्तुत करना है, उन्हें अधातिया१ ध्र वबन्धी प्रकृतियाँ-पाँच ज्ञानावरण, नौ दर्शनावरण, पाँच
कर्म कहते है। अन्तराय, सभी अर्थात् सोलह कषाय, मिथ्यात्व, निर्माण, वर्णादि
दे० वेदनीय/२ (वेदनीयकर्मके कारण नाना प्रकारके शारीरिक सुख दुखचार, भय, जुगुप्सा, अगुरुलघु, तैजस शरीर, कार्मण शरीर, और
___ के कारणभूत बाह सामग्रीकी प्राप्ति होती है।) उपघात, ये सैंतालीस धवबन्धी प्रकृतियों है ।२३७१ (पं.स./प्रा./ ४. प्रकृति बन्ध विषयक शंका-समाधान २४), (प स/स./२/४२-४३); (पं. स /स/४/१०७-१०८); १. बध्यमान व उपशान्त कम में 'प्रकृति' व्यपदेश कैसे (गो क/जी प्र./१२४/१२६/६)।
घ. १२/४,२,१०,२/३०३/२ प्रक्रियते अज्ञानादिक फलमनया आत्मनः २. अध्र धबन्धी प्रकृतियॉ-निष्प्रतिपक्ष और सप्रतिपक्षके भेदसे
इति प्रकृतिशब्दव्युत्पते। उदीर्णस्य भवतु नाम प्रकृतिव्यपदेश., परिवर्तमान (अध वबन्धी) प्रकृतियोके दो भेद है। अत देखो फलदातृत्वेन परिणतत्त्वात् । न बध्यमानोपशान्तयोः, तत्र तदभावा'अगला शीर्षक'।
दिति । न, विष्वपि कालेषु प्रकृति शब्दसिद्ध । तेण जो कम्मक्खंधो 1. सप्रतिपक्ष व अप्रतिपक्ष प्रकृतियोंकी अपेक्षा
जीवस्स बट्टमाणकाले फलं देइ जो च देहस्सदि, एदेसिं दोण पि प. स./प्रा./२३८-२४० परदादुस्सासाणं आयावुज्जीवमाउ चत्तारि ।
कम्मवंधाणं पयडित सिद्ध। अधवा, जहा उदिण्ण वट्टमाणकाले तित्थयराहारदुर्य एक्कारस होति सेसाओ ।२३। सादियरं वेयावि
फलं देदि. एवं बज्झमाणुवसंतापि वि वट्टमाणकाले वि देति फल, हस्साइचउक पच जाईओ। संठाणं संघयणं छच्छक चउक आणु
तेहि विणा कम्मोदयस्स अभावादो । ...भूदभबिस्सपज्जायाणं पुवीय य १२३६। गइ चउ दोय सरीरं गोयं च य दोण्णि अंगबंगा
बट्टमाणत्तभुवगमादो बा गमणयम्मि एसाबुप्पत्ती घडदे । य १२३६। दह जुयलाण तसाइ गयणगइदुअं विसठिपरिवत्ता ।२४०।
-जिसके द्वारा आत्माको अज्ञानादि रूप फल किया जाता है वह १.निष्प्रतिपक्ष प्रकृतियों-परघात, उच्छवास, आतप, उद्योत, चारो
प्रकृति है, यह प्रकृति शब्दकी व्युत्पत्ति है। प्रश्न-उदीर्ण कर्म आयु, तीर्थकर और आहारक द्विक ये ग्यारह अधू व निष्प्रतिपक्ष
पुद्गल स्कन्धकी प्रकृति संज्ञा भले ही हो, क्योकि वह फलदान प्रकृतियाँ हैं ।२३८(पं.सं /प्रा./२१०); (गो, कम्./१२५); (पं. सं./ स्वरूपसे परिणत है। बध्यमान और उपशान्त कर्म-पुदगल स्कन्धोंस/२/४४), (पं.स/सं./४/१०६-११०)।
को यह संज्ञा नहीं बन सकती, क्योंकि, उनमे फलदान स्वरूपका २. सप्रतिपक्ष प्रकृतियाँ-साता वेदनीय, असाता वेदनीय, तीनों वेद,
अभाव है ? उत्तर-१. नहीं, क्योकि तीनो ही कालोमें प्रकृति शब्दकी हास्यादि चार (हास्य, रति, अरति, और शोक), एकेन्द्रियादि ५
सिद्धि की गयी है। इस कारण जो कर्म-स्कन्ध वर्तमान कालमें फल जातियों, छह संस्थान, छह सहनन, ४ आनुपूर्वी, ४ गति, औदारिक
देता है और भविष्यतम फल देगा, इन दोनो ही कर्म स्कन्धोंकी और वैक्रियक ये दो शरीर तथा इन दोनोके दो अंगोपांग, दो गोत्र,
प्रकृति संज्ञा सिद्ध है। २ अथवा जिस प्रकार उदय प्राप्त कर्म वर्तमान त्रसादि दश युगल त्रिस, बादर, पर्याप्त, प्रत्येक, स्थिर, शुभ, सुस्वर,
कालमें फल देता है, उसी प्रकार बध्यमान और उपशम भावको सुभग. आदेय यश कीर्ति ये २०) और दो विहायोगति, ये बासठ
प्राप्त कर्म भी वर्तमान काल में भी फल देते है, क्योंकि, उनके बिना सप्रतिपक्ष अध वबन्धी प्रकृतियाँ है ।२३६-२४०। (प.स/प्रा /२/
कर्मोदयका अभाव है। ३. अथवा भूत व भविष्यत् पर्यायोको ११-१२), (गो क./म./१२५/१२७); (प. सं / स /२/४५-४६); (प. सं./ वर्तमान रूप स्वीकार कर लेनेसे नैगम नयमें यह व्युत्पत्ति बैठ स./४/१११-११२)
जाती है। ९. अन्तर्माध योग्य प्रकृतियाँ
२. प्रकृतियोंकी संख्या सम्बन्धी शंका गो, क /मू./३४/३६ देहे अविणाभावी बंधणसंघाद इदि अबंधुदया।
ध ६/१.६-१,१३/१४/५ अद्वैव मुलपयडीओ। त कुदो णव्वदे। अठ्ठवष्णचउक्केऽभिण्णे गहिदे चत्तारि बधूदये ।३४ पाँचों प्रकारके
कम्मजणिदकज्जेहितो पुधभूदकज्जस्स अणुवलंभादो। -प्रश्न-यह शरीरोंका अपना-अपना बन्धन व संघात अविनाभावी है। इसलिए
कैसे जाना जाता है कि मूल प्रकृतियाँ आठ ही है। उत्तर-आठ बन्ध और उदयमें पाँच बन्धन व पाँच संघात ये दशों जुदे न कहे
कर्मोके द्वारा उत्पन्न होनेवाले कार्योसे पृथग्भूत कार्य पाया नहीं शरीर प्रकृति विषै गर्भित किये। तथा अभेद विवक्षासे वर्णादिककी
जाता, इससे जाना जाता है कि मूल प्रकृतियाँ आठ ही है। मूलप्रकृति चारही ग्रहण की, २० नहीं।
नोट-(उत्तर प्रकृतियोकी संख्या सम्बन्धी शका समाधान-दे०-उस ३. प्रकृति बन्ध निर्देश
उस मूल प्रकृतिका नाम)। १. आठ प्रकृतियोंके आठ उदाहरण
३. एक ही कर्म अनेक प्रकृति रूप कैसे हो जाता है प. सं./प्रा./२/३ पड़ पडिहारसिमज्जाडि चित्त कुलालभंडयारीणं ।
स. सि./८/४/३८१/२ एकेनात्मपरिणामेनादीयमानाः पुद्गला ज्ञानाजह एदेसि भावा तह विय कम्मा मुणेयव्वा ।। - पन (देव-मुखका वरणाद्यनेकभेदं प्रतिपद्यन्ते सकृदुपभुक्तान्नपरिणामरसरुधिरादिवत् । आच्छादक वस्त्र) प्रतीहार (राजद्वारपर बैठा हुआ द्वारपाल) असि -एक बार खाये गये अन्नका जिस प्रकार रस, रुधिर आदि रूपसे (मधुलिप्त तलवार) मद्य (मदिरा) हडि (पैर सानेका खोडा) चित्रकार अनेक प्रकारका परिणमन होता है उसी प्रकार एक आत्मपरिणामके (चितेरा) कुम्भकार और भण्डारी (कोषाध्यक्ष) इन आठोंके जैसे द्वारा ग्रहण किये गये पुदगल ज्ञानाबरणादि अनेक भेदोको प्राप्त होते अपने अपने कार्य करनेके भाव होते है, उस ही प्रकार क्रमशः कर्मोक है। (गो क /जी. प्र/३३/२७/४) । भी स्वभाव समझना चाहिए।३। (गो. क./मू./२१/१५), (गो. क./
रा वा/८/२/३,७/५६८/8 यथा अन्नादेरभ्यवह्रियमाणस्यानेकविकारजी.प्र./२०/१३/१३); (द्र, सं./टी./३३/१२/८)।
समर्थवातपित्तश्लेष्मरबलरसभावेन परिणामविभाग तथा प्रयोगा२. पुण्य व पाप प्रकृतियोंका कार्य
पेक्षया अनन्तरमेव कर्माणि आवरणानुभवन-मोहापादन-भवधारणप. प्र./मू./२/६३ पावें णारउ तिरिउ जिउ पुण्णे अमरु बियाणु। मिस्से नानाजातिनामगोत्र-व्यवच्छेदकरणसामर्थ्यवैश्वरूप्येण आत्मनि
माणुस-गइ लहइ दोहि वि खइ णिब्वाणु।६३ = यह जीव पापके सनिधानं प्रतिपद्यन्ते ।३। यथा अम्भो नभस' पतदेकरसं उदयसे नरकगति और तिर्यच गति पाता है, पुण्यसे देव होता है, भाजनविशेषात विष्वग्रसत्वेन विपरिणमते तथा ज्ञानशक्त्युपपुण्य और पापके मेलसे मनुष्य गतिको पाता है, और दोनोंके क्षयसे रोधस्वभावाविशेषात् उपनिपतव कर्म प्रत्यासर्व सामर्थ्यभेदात मोक्षको पाता है। (और भी दे०-'पुण्य' व 'पाप'।
मत्याद्यावरणभेदेन व्यवतिष्ठते ।। १. जिस प्रकार स्वाये हुए
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प्रकृति बंध
४. प्रकृति बन्ध विषयक शंका-समाधान भोजनका अनेक विकारमे समर्थ वात, पित्त, श्लेष्म, खल, रस वचनं तत्समीपे तन्निबन्धनत्वात । .. आयुनिवन्धनानि हि प्राणिनां आदि रूपसे परिणमन हो जाता है । उसी तरह बिना किसी प्रयोगके सुखादीनि ।२०। तदनन्तरं नामवचनं तदुदयापेक्षत्वात प्रायो नामोदकम आवरण, अनुभव, मोहापादन, नाना जाति नाम गोत्र और यस्य ।२११ ततो गोत्रवचनं प्राप्तशरीरादिलाभस्य सशब्दअन्तराय आदि शक्तियोसे युक्त होकर आत्मासे अन्ध जाते है।३। नाभिव्यक्तेः ।२२। परिशेषादन्ते अन्तरायवचनम् ।२३१ -१. ज्ञान२. जैसे-मेघका जल पात्र विशेषमें पड़कर विभिन्न रसोमे परिणमन से आत्माका अधिगम होता है अत' स्वाधिगमका निमित्त होनेसे वह कर जाता है (अथवा हरित पल्लव आदि रूप परिणमन हो जाता है। प्रधान है, अत ज्ञानावरणका सर्वप्रथम ग्रहण किया है ।१६। २. (प्रसा.) उसी तरह ज्ञान शक्ति का उपरोध करनेसे ज्ञानावरण साकारोपयोग रूप ज्ञानसे अनाकारोपयोगरूप दर्शन अप्रकृष्ट है परन्तु सामान्यत' एक होकर भी अबान्तर शक्ति भेदसे मत्यावरण श्रुतावरण बेदनीय आदिसे प्रकृष्ट है क्योकि उपलब्धि रूप है, अत दर्शनावरणआदि रूपसे परिणमन करता है। इसी तरह अन्य कर्मों का भी मूल का उसके बाद ग्रहण किया।१७। ३. इसके बाद वेदनाका ग्रहण और उत्तर प्रकृति रूपसे परिणमन हो जाता है ।
किया है, क्योकि, वेदना ज्ञान-दर्शनकी अव्यभिचारिणी है, घटादि ध १२/४,२,८,११/२८७/१० कम्मइयवग्गणाए पोग्गनक्वंधा एयसरूवा रूप विपक्षमें नही पायी जाती ।१८। ४ ज्ञान, दर्शन और सुख-दुःख कध जीवसबधेण अट्ठभेदमाढउक्कते। ण, मिच्छत्तासजम-कसाय- वेदनाका विरोधी होनेसे उसके बाद मोहनीयका ग्रहण क्यिा है। जोगपच्चयाबळंभबलेण समुप्पण्णसत्तिसं जूत्तजीवसबधेण कम्म- यद्यपि मोही जीवीके भी ज्ञान, दर्शन, सुखादि देखे जाते है फिर इयपोग्गलक्खधाणं अट्ठकम्मायारेण परिणमण पडिविरोहाभावादो। भी प्राय मोहाभिभूत प्राणियोको हिताहितका विवेक आदि नहीं -प्रश्न-कार्मण वर्गणाके पौद्गलिक स्कन्ध एक स्वरूप होते हुए रहते। अत. मोहका ज्ञानादिसे विरोध कह दिया है ।१६। ५. जीवके सम्बन्धसे कैसे आठ भेदको प्राप्त होते है । उत्तर-नही, क्योकि प्राणियोको बायु निमित्तक सुख-दुख होते है। अत' आयुका क्थन मिथ्यात्व, असयम, कषाय और योगरूप प्रत्ययोके आश्रयसे उत्पन्न इसके अनन्तर किया है। तात्पर्य यह है कि प्राणधारियोको ही र्म हुई आठ शक्तियोसे सयुक्त जीवके सम्बन्धसे कार्मण पुद्गल-स्कन्धो- निमित्तक सुखादि होते है और प्राण धारण वायुका कार्य है ।२०॥ का आठ कर्मोके आकारसे परिणमन होने में कोई विरोध नहीं है। ६ आयुके उदयके अनुसार ही प्राय गति आदि नामकर्मका उदय ४. एक ही पुदगल कर्ममें अनेक कार्य करनेकी शक्तिकैसे होता है अत' आयुके बाद नामकर्मका ग्रहण किया है ।२१। ७ शरीर रा. वा./८/४/8-१४/५६८/२६ पुद्गलद्रव्यस्यैकस्यावरणसुखदु खादिनिमि
आदिकी प्रापिके बाद ही गोत्रोदयसे शुभ अशुभ अादि व्यवहार होते त्तत्वानुपपत्तिविरोधात हा न वा, तत्स्वाभाव्यादग्नेहपाकप्रताप
है। अत. नासके बाद गोत्रका कथन किया गया है ।२२॥ ८. अन्य प्रकाशसामर्थ्यवत् ।१०। अनेकपरमाणुस्निग्धक्षबन्धापादितानेका
कोई कर्म बचा नही है अत अन्तमें अन्तराय का कथन किया गया स्मकस्कन्धपर्यायार्थादेशात स्यादनेकम् । ततश्च नास्ति विरोधः।
है १२३ ।११। पराभिप्रायेणेन्द्रियाणां भिन्नजातीयाना क्षीराद्य पयोगे वृद्धिवत् । गो.क././१६-२० अन्भरहिदादु पुव्वं णाणं तत्तो हि दसणं होदि ।
"यथा पृथिव्यप्तेजोवायुभिरारब्धानामिन्द्रियाणा भिन्नजाती- सम्मत्तमदो विरिय जीवाजीवगदमिदि चरिमे ।१६। आउबलेण याना क्षीरघृतादिवेकमप्युपयुज्यमानम् अनग्राहक दृष्ट तथेदमपि
अवठिदि भवस्स इदि णाममाउपुवं तु । भवमस्सिय णीचुच्च इदि इति ।१२। वृद्धिरेकब, तस्या घृताद्यनुग्राहकमिति न विरोध इति,
गोदं णामपुवं तु १८। णाणस्स दंसणस्स य आवरणं वेयणीयतन्न, कि कारणम्। प्रतीन्द्रियं वृद्धिभेदाव। यथै वेन्द्रियाणि
मोहणीयं । आउगणामं गोदतरायमिदि पढिदमिदि सिद्ध ॥२०॥ भिन्नानि तथैवेन्द्रियवृद्धयोऽपि भिन्ना ।१३। यथा भिन्नजातीयेन -१. आत्माके सब गुणों में ज्ञानगुण पूज्य है, इस कारण सबसे पहले क्षीरेण तेजोजातीयस्य चक्षुषोऽनुग्रह ,तथेव आत्मर्मणोश्चेतनाचेतन- कहा। उसके पीछे दर्शन, तथा उसके भी पीछे सम्यक्त्वको कहा है। त्वार अतुल्यजातीय कर्म आत्मनोऽनग्राहकमिति सिद्धम् । प्रश्न- तथा वीर्य शक्ति रूप है। वह जीव व अजीव दोनीमें पाया जाता है। पुद्गल द्रव्य जब एक है तो वह आवरण और सुख-दुखादि अनेक जीवमें तो ज्ञानादि शक्तिरूप, और अजीव-पुद्गलमें शरीरादिकी कार्योका निमित्त नही हो सकता। उत्तर-ऐसा ही स्वभाव है। शक्ति रूप रहता है। इसी कारण सबसे पीछे कहा गया है। इसीजैसे एक ही अग्निमे दाह,पाक, प्रताप और सामर्थ्य है उसी तरह एक लिए इन गुणोंके आवरण करनेवाले कर्मोका भी यही क्रम माना है। ही पुद्गलमे आवरण और सुख दुखादिमे निमित्त होनेकी शक्ति है, ।१६। २. (अन्तराय कर्म कथ चित अघातिया है, इसलिए उसको इसमे कोई विरोध नही है। २. द्रव्य दृष्टिसे पुदगल एक होकर भी सर्व कर्मों के अन्तमे कहा है) दे० अनुभाग/३/५। ३. नामकर्मका अनेक परमाणुके स्निग्धरूक्ष वन्धसे होनेवाली विभिन्न स्कन्ध पर्यायो- कार्य चार गति रूप शरीरकी स्थिति रूप है। वह आयुकर्म बलसे की दृष्टि से अनेक है, इसमे कोई विरोध नही है। ३ जिस प्रकार ही है। इसलिए आयुकर्मको पहले कहकर पीछे नामकर्मको कहा है। वैशेषिकके यहाँ पृथिवी, जल, अग्नि और वायु परमाणुओसे निष्पन्न और शरीरके आधारसे ही नीचपना व उत्कृष्टपना होता है, इस कारण भिन्न जातीय इन्द्रियोका एक ही दूध या धी उपकारक होता है उसी नामकर्मको गोत्रके पहले कहा है ।१८। ४. ( वेदनीयकर्म कथंचित प्रकार यहाँ भी समझना चाहिए। ४. जैसे इन्द्रियाँ भिन्न है वैसे घातिया है। इसलिए उसको घातिया कर्मोके मध्यमें कहा । दे० अनुउनमें होनेवाली वृद्धियों भी भिन्न-भिन्न है। जैसे पृथिवी जातीय भाग/३/४)। ५. इस प्रकार ज्ञानावरण, दर्शनावरण, वेदनीय, दूधसे तेजो जातीय चक्षुका उपकार होता है उसी तरह अचेतन
मोहनीय, आयु, नाम, गोत्र और अन्तराय यह कर्मों का पाठकम सिद्ध कर्मसे भी चेतन आत्माका अनुग्रह आदि हो सकता है। अतः भिन्न
हुआ ॥२०॥ जातीय द्रव्योमे परस्पर उपकार माननेमे कोई विरोध नहीं है। ५. आठों प्रकृतियोंके निदेशका यही क्रम क्यों
६. ध्रवबन्धी व निरन्तरबन्धी प्रकृतियोंमें अन्तर रा. वा./८/४/१६-२३,७६६/२० क्रमप्रयोजन ज्ञानेनात्मनोऽधिगमात् । ध८/३,६/१७/७ णिरतरबधस्स धुवबंधस्स को विसेसो। जिस्से पयडीए ततो दर्शनावरणमनाकारोपलब्धे। • साकारोपयोगाद्धि अनाकारो- पच्चओजस्थ करथे वि जीवे अणादिभ्रषभावेण लम्भइ साधुचर्षधषयडी। पयोगो निकृष्यते अन भिव्यक्तग्रहणात् । उत्तरेभ्यस्तु प्रकृष्यते अर्थी- जिस्से पयडीए पच्चो णियमेण सादि-अधुओ अंतोमुत्तादिकालापलब्धितन्त्रत्वात ।१७। तदनन्तरं वेदनावचनं तदव्यभिचारात् ।। बछाई सा णिरंतरबंधपयडी। -प्रश्न-निरन्तर पन्ध और ज्ञानदर्शनाव्यभिचारिणी हि वेदना घटादिष्वप्रवृत्त ।।१८। ततो ध्र वबन्धमें क्या भेद है। उत्तर-जिस प्रकृतिका प्रत्यय जिस किसी मोहाभिधानं तद्विरोधात ।...क्वचिद्विरोधदर्शनातन सर्वत्र । भी जीवमें अनादि एवं ध व भावसे पाया जाता है। वह घु घबन्ध मोहाभिभूतस्य हि कस्यचित हिताहितविवेकादिर्नास्ति।१६। आयु- प्रकृति है, और जिस प्रकृतिका प्रत्यय नियमस सााद एष बभब तथा
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प्रकृति बंध
५. प्रकृति बन्ध सम्बन्धी कुछ नियम
अन्तर्मुहर्त आदि काल तक अवस्थित रहनेवाला है वह निरन्तर बुढिदंसणादो । तम्हा ण पयडी अणुभागो त्ति घेत्तबो। = प्रश्नबन्धी प्रकृति है।
प्रकृति अनुभाग क्यो नही हो सकती। उत्तर-१. नहीं, क्योकि, प्रकृति ७. प्रकृति और अनुमागमें अन्तर
योगके निमित्तसे उत्पन्न होती है, अतएव उसकी कषायसे उत्पत्ति
होने में विरोध आता है। भिन्न कारणोंसे उत्पन्न होनेवाले कार्योमें एकघ. १२/४,२,७,१६६/8/७ पयडी अणुभागो किण्ण होदि। ण, जोगादो रूपता नहीं हो सकती, क्योंकि इसका निषेध है। दूसरे, अनुभागकी उम्पज्जमाणपयडीए कसायदो उत्पत्तिविरोहादो। ण च भिण्णकार- वृद्धि प्रकृतिकी वृद्धिमें निमित्त होती है, क्योकि, उसके महान होनेपर गाणं कजाणमेयत्तं, विप्पडिसेहादो। कि च अणुभागवुड्ढी पयडि- प्रकृतिके कार्य रूप अज्ञानादिककी वृद्धि देखी जाती है। इस कारण वुढिणिमित्ता, तीए महतीए संतीए पयडिकज्जस्स अण्णाणादियस्स प्रकृति अनुभाग नहीं हो सकती, ऐसा जानना चाहिए। ५. प्रकृति बन्ध सम्बन्धी कुछ नियम १. युगपत् बन्ध योग्य सम्बन्धी -(गो. क./जी, प्र./200/88/१)।
(प्रत्यनीक, अन्तराय, उपधात, प्रद्वेष, निह्नव, आसादन) ये छहो युगपत ज्ञानावरण वा दर्शनावरण दोनोंके बन्धको कारण है। २. सान्तर निरन्तर बन्धी प्रकृतियो सम्बन्धी--(ध.८/३३/१)।
(विवक्षित उत्तर प्रकृतिके बन्धकालके क्षीण होनेपर नियमसे ( उसी मल प्रकृतिको उत्तर ) प्रतिपक्षी प्रकृतियोंका बन्ध सम्भव है। ३. ध्रुव अध्रुव बन्धी प्रकृतियों सम्बन्धो-(ध, ८/२६/४०)
मल नियम-(ओघ अथवा आदेश जिस गुणस्थान में प्रतिपक्षी प्रकतियोंका बन्ध होता है उस ओघ या मार्गणा स्थानके उस गुणस्थानमें उन प्रकृतियोका अध व बन्धका नियम जानना। तथा जिस स्थानमे केवल एक ही प्रकृतिका बन्ध है, प्रतिपक्षीका नहीं, उस स्थानमें ध्र व ही बन्ध जानो। यह प्रकृतियाँ ऐसी है जिनका बन्ध एक स्थानमें ध्रव होता है तथा किसी अन्य स्थानमें अध व हो जाता है। ४. विशेष प्रकृतियोंके बन्ध सम्बन्धी कुछ नियम-ध.प्र.); (गो. क./जी, प्र./भा./पृ )।
प्रमाण
प्रकृति
बन्ध सम्बन्धी नियम
|
प्रमाण
प्रकृति
बन्ध सम्बन्धी नियम
१-२ शान दर्शनावरण गो./600/RCE IS ज्ञानावरणी
दर्शनावरणी
३. वेदनीय ध./११०/४०, साता
घ./११८ घ. ११/३१२
असाता साता, असाता
।
४. मोहनीय घ/१४ । पुरुष वेद ध/६० | हास्य, रति विशेष दे० आगे शीर्षक न०६
५. आयु गो./६३४/८३६ | तिर्यंचायु गो./६४५/६०५ | मनुष्यायु घ./६३,६५ | आयु सामान्य
६. नाम गो./७४५/EKE | नरक, देवगति
पं. स./प्रा./३/६८) तीर्थ कर
सम्यक्त्व सहित ही बँधे । दोनो युगपत बंधती है। पं.स /प्रा./३/ आ० द्विक
संयम गो./५२८/६८६ अगोपाग सा० वस पर्याप्त व अपर्याप्त सहित
ही बंधे। ध./६६ वैक्रि० अगोपाग नरक देव गति सहित ही बॅधे औ०
तियंच मनुष्यगति सहित ही बॅधे ।
, नरकगतिके साथ न बंधे शेष| गो./१२८/६८६ सहनन सामान्य
त्रस पर्याप्त व अपर्याप्त प्रकृति गतिके साथ बंधे।
सहित ही बंधे। चारों गति सहित बंधे।।
|घ/६६ आनुपूर्वी सामान्य उस उस गति सहित ही बंधे, दोनो प्रतिपक्षी है एक साथ
अन्य गति सहित नहीं। न बँधे। गो,/५२८/६८६ परघात
त्रस स्थावर पर्याप्त सहित ही बॅधे। गो./१२४/६८३ आतप
पृथिवीकाय पर्याप्त सहित ही बंधे। नरक गति महित न बंधे। गो/५२४/६८३/
उद्योत
तेज, वात, साधारण वनस्पति, बादर, सूक्ष्म तथा अन्य सर्व सूक्ष्म नही बॉधते अन्यत्र
बॅधती है। | गो./५२८/६८६ / उच्छ्वास सप्तम पृथ्वीमें नियमसे बँधे ।
बस स्थावर पर्याप्त सहित ही बंधे।। तेज, वात, कायको न बंधे। ।
प्रशस्त अप्रशस्त | त्रस पर्याप्त सहित ही बँधे । उस उस गति सहित ही थे।
विहायोगति
सुस्वर-दुस्वर ध/७४
स्थिर नरक गतिके साथ न बंधे। मनुष्य तियंच पर्याप्त ही बँधे
शुभ अपर्याप्त नहीं।
ध./२८ यश कीति देव नारकी न बाँधे अन्य त्रस ध./७४ तीर्थकर
नरक व तिर्यचगतिके साथ न स्थावर बाँधते है।
विशेष दे० आगे शीर्षक नं०७ बंधे। देव नरक गति सहित न बंधे।। ७. गोत्र
घ/२२ उच्चगोत्र । नरक तिर्यंच गतिके साथ नबंधे। देव नरक गति सहित ही बंधे। नोट-जहाँ नियम नहीं कहा वहाँ सर्वत्र ही बन्ध सम्भव जानना ।
गो/७४५/१०३
गो./५४६/७०८ ||
एकेन्द्रि० जाति
अप० औ० व औ०
मिश्र शरीर बै० शरीर
घ/६६
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प्रकृति बंध
५. सान्तर निरन्तर बम्धी प्रकृतियों सम्बन्धी नियम (प.)
प्रकृति
निरन्तर बन्धके स्थान
प्रमाण
१. वेदनीय
२. मोहनीय
८,२८२,३६४
६०
६०
३. नाम
१४,३३२
| साता
पुरुष वेद
हास्य
रति
तियंचगति
२११,२३४, २५२, मनुष्यगति ३१५,३२२,२१८
६८.२७६.३१४, देवगति पंचे० जाति
६६.२०८
७,२११, ३८२, बी० शरीर
३१५
पद्म शुक्ल लेश्यावाले तियंच मनुष्य १-२ गुणस्थान तक ७-८ गुणस्थान
६. मोह प्रकृति बन्ध सम्बन्धी कुछ नियम
१. क्रोधादि चतुष्कको बन्ध व्युच्छित्ति सम्बन्धी दृष्टि भेद
घ. ८/३.२४/२६/७ क्रोधजल बिगडे जो अबसेसो अणिमट्ठिद्वार मादिभागो दहि सज्जे खंडे को राज्य बहुभाने एमभागावसेसे माणसं जलणस्स बंधवोच्छेदो । पुणो तम्हि एगखंडे सेज्जखंडे कदे तुम एमडासेसे मायावध बोच्छेदो त्ति । कधमेदं णव्वदे। 'सेसे सेसे संखेज्जे भागे गंतूणेत्ति' निच्ानि सादो कसायचा सुतं विरुदि चिपुते सच्च विक्रम, किंतु एवं तुम्ही एत्थ व कायो इयमेव तं चैव सच्चमिदि सुदकेवलीहि पच्चक्खणाणीहि वा विणा अवहारिज्जमाणे मिच्छतपसं गादो। संज्वलन क्रोधके मिनट होनेपर जो दोष अनिवृत्तिनादरकालका संस्थातन भाग रहता है उसके संख्यात खण्ड करनेपर उनमें बहुत भागको बिताकर एक भाग शेष रहनेपर संज्वलन मानक बन्ध व्युच्छेद होता है। पुन एक खण्डके संख्यात खण्ड करनेपर उनमें बहुत खण्डोंको बिताकर एक खण्ड शेष रहनेपर
*
९४
तेज, वात, काय, सप्त पृ०, तेज, बात कायसे उत्पन्न हुए, नि. अप, जीव या अन्य यथायोग्य मार्गणागत जीव । आनतादि देव, तथा सासादनसे ऊपर, तथा आनतादिसे आकर उत्पन्न हुए यथा योग्य प. व नि. अप. आदि कोई जीव । भोग भूमिया वि. मनुष्य तथा सासादनसे ऊपर। सनकुमारादिदेव नारकी, भोग भूमिज, तिर्यच मनुष्य । तथा सासादनसे ऊपर । तथा उपरोक्त देवोंमे आकर उत्पन्न हुए पर्याप्त व नि अप जीव ( पृ. २५६ ) अन्य कोई भी योग्य मार्गगागत जीव सनत्कुमारादि देव नारकी ब वहाँसे आकर उत्पन्न हुए यथायोग्य प.नि. अप, जीव । तथा सासादन से ऊपर या अन्य
प्रमाण
६८,२५६
४७
६६.१६१
39
६८.२५६,३१४
६६.२११
६६.२०८ ६९२७६.३९४
६६.२१९
15
६६ ६८.२५६,३९४
E
४. गो २४४,२८२,३१४
२८
१६६-९०६.२४ ३४
प्रकृति
जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश
बै० शरीर औ०० अंगोपांग
समचतुरस्र सं०
वज्र ऋषभ नाराच ति०, मनुदेव
त्यापूर्वी
परघात
उच्छ्वास प्रo विहायोगति
प्रत्येक
त्रस
सुभग
सुस्वर
बादर
५. प्रकृति बन्ध सम्बन्धी कुछ
पर्या
स्थिर
आदेय
शुभ यशःकीर्ति
उच्च गोत्र
नीच गोत्र
-
निरन्तर बन्धके स्थान
कोई भी मार्गकागत जीन ।
तेज, वात काय । देवगतिवद ।
औदारिक वैक्रियक शरीरयव
देवगतिव
देवरी।
उस उस गतिवत्
पंचेन्द्रिय जातिवत
देवगतिव
जातिव
"3
देवगतिवत्
19
पंचेन्द्रियवत
नियम
प्रमत्त सयतसे ऊपर देवगतिमत्
प्रमत्त सयत से ऊपर
सज्वलन मायाका बन्ध व्युच्छेद होता है । प्रश्न- यह कैसे जाना जाता है ? उत्तर- 'शेष शेषमें संख्यात बहुभाग जाकर इस वीप्सा अर्थात दो बार निर्देशसे उछ प्रकार दोनों प्रकृतियोंका व्युच्छेदकाल जाना जाता है। प्रश्न- कषाय प्राभृतके सूत्र से तो यह सूत्र विरोधको प्राप्त होता उत्तर ऐसी आशंका होनेपर कहते हैं कि सचमुच में काय प्राभूतके सूत्र से यह सूत्र मिरज है, परन्तु यहाँ एकान्तग्रह नहीं करना चाहिए, क्योंकि, 'यही सत्य है' या 'वही सत्य है' ऐसा श्रुतकेवलियो अथवा प्रत्यक्ष ज्ञानियोंके बिना निश्चय करनेपर मिथ्यात्वका प्रसंग होगा ।
२. हास्यादिके बन्ध सम्बन्धी शंका-समाधान
पद्म, शुक्ल लेश्याबाले तिर्यंच
मनुष्य १-२ गुणस्थान । नरक व तिर्यंचगति के साथ नहीं
चा तियंचगति।
तेज व वायुकाय तथा सप्तम पृथिवीमें निरन्तर बन्ध होता है।
ध. ८/३,२८/६० / १० वरि हस्स-रदीओ तिगइसंजुत्तं बंधइ, तब्बंधस्स गिरयगइमधेण सह विरोहादो। इतना विशेष है कि हास्य और रतिको सोन गतियोंसे संयुक्त बाँधता है, क्योंकि इनके मका नरकगतिके बन्धके साथ विरोध है ।
क. पा. ३/३,२२/१८/७ एदाणि चत्तारि वि कम्माणि उक्कस्ससंकिले सेण किण्ण बंज्कंति । ण साहावियादो। प्रश्न- ये स्त्री वेदादि चारो
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प्रकृति बंध
कर्म उत्कृष्ट सक्लेशसे क्यो नहीं बँधते ? उत्तर—नही, क्योकि उत्कृष्ट सक्लेश से नहीं बँधने का इनका स्वभाव है । क. पा. ३/३.२२/९४८०/२० उस ठिदिवसका वाली किरण बज्झति । अश्वसुहत्ताभावादी साहावियादो वा । प्रश्न - उत्कृष्ट स्थितिके बन्धकालमे ये चारो (क. पा. ३/३,२२/ चूर्ण सूत्र / १४८५/२७०) स्त्रोवेद पुरुषवेद, हास्य और रति) प्रकृतियों क्यों नही बचती है। उत्तर- १. क्योकि यह प्रकृतियाँ अत्यन्त अशुभ नही है इसलिए उस काल में इनका बन्ध नही होता । २. अथवा उस समय न बँधनेका इनका स्वभाव है।
७. नामकर्मकी प्रकृतियोंके बन्ध सम्बन्धी कुछ नियम १. गति नामकर्म
घ. ८/३.८/३३/८ तेउन काइया वाउक्काइयमिच्छाहट्टीणं सत्तमपुढविणेर'इयमिच्छाइट्ठीण च भवपडिबद्धसकिलेसेण निरंतर बंधोवलं भादो । .. सलमढविलासमाग तिरिक्समगई मोतृणमाभावादी घ. ८/३.१८/४०/४ आगदादिदेने पिरसरमधे सह अग्नत्य सारमधूमल भादो। प. ८/२.१४०/२०८/१० अपव्यत्तद्वार तासि बंधाभावादशे से जसकायिक और मायुकायिक मिध्यादृहियो तथा सप्तम पृथिवी के नारकी मिध्यादृष्टियों के भवसे सम्बन्ध सक्लेशके कारण उक्त दोनों (तिर्यद्वय) प्रकृतियोका निरन्तर बन्ध पाया जाता है। सप्तम पृथ्वी के सासादन सम्यग्दृष्टियोंके तिर्यग्गतिको छोड़कर अन्य गतियोका बन्ध नहीं होता / १३/-) आनतादि देवोगे ( मनुष्यद्विकको ) निरन्तर बन्धको प्राप्तकर अन्यत्र सान्तर बन्ध पाया जाता है /४७/४) अपर्याप्त कालमें उनका ( देव व नरक गतिका) बन्ध नहीं होता । ( गो . क./ जी. प्र / ५४६ / ७०८ / १ ) 1
ध. ६/११-२६२/१०३ /२ णिरमईए सह जासिमनकमेम उदओ बरिय ताओ णिरयगईए सह बधमागच्छति त्ति केई भणति, तण्ण घडदे | - कितने ही आचार्य यह कहते है कि नरकगति नामक नामकर्मकी प्रकृति के साथ जिन प्रकृतियोंका युगपत उदय होता है, वे प्रकृतियाँ नरकगति नामकर्म के साथ बन्धको प्राप्त होती हैं। किन्तु उनका यह कथन घटित नहीं होता ।
।
गो. क / जो प्र. / ७४५/०६६/२ अटाविंशतिकं नरदेवगतियुतत्वादसंज्ञि शितिर्यक् कर्मभूमि मनुष्या एव विग्रहगतिशरोर मिश्रकालावतीत्य शरीरकाले एव मध्नन्ति अठाईसका बन्ध नरक-देवगति युत है । इसलिए असज्ञी सज्ञो तियंच वा मनुष्य है, ते विग्रहगति मिश्रशरीरको उल्ल घकर पर्याप्त काल में बाँधता है। २. जाति नामकर्म
मो. जी. प्र. ७४३/११/१ देवेषु भवनश्यतौचानामेवै केन्द्रियपर्यातमेव व २५ एवं भवनत्रिक सौधर्म ठिक देवनिक एकेन्द्रिय पर्याप्त युत ही पचीसका बन्ध है ।
३. शरीर नामकर्म
९५
घ. ८/२.३०/०२/१० अपुष्यस्तुवरिमसमभागे किरण बंधो। न गो.क./ /५२५/०४/३ आहारकद्वयं देवगत्येवमनन्ति । कुद्धः । समन्धस्थानमितराभिर्गतिभिर्न मन्नातीति कारणाय । गो/जी/४६/०९/१ नात्र देवगस्याहारकद्वय अप्रमत्ताकरण
योरेव समन्धसंभवात् । - अपूर्व करण के उपरिम सप्तम भागमें इन (आहारक द्विक) का बन्ध नहीं होता . ) आहारक द्विक देवगति सहित ही मान्धे जातै सयतके योग्य जो बन्धस्थान सो देवगति बिना अभ्यगति सहित बान्धे नाहीं (यो क./५२५)। देवगति बहारक कि सहित स्थान न संभव है जातें इसका मन्ध अप्रमत्त अपूर्वकरण मिये ही सम्भने है।
५. प्रकृति बन्ध सम्बन्धी
कुछ
नियम
४. अंगोपांग नामकर्म
ध. ६/१,६-२,७६/११२ एइंदियाणमंगोवंगं किण्ण परूविदं । ण । गो.क.जी. प्र./२२८/६०६ / ११९ प्रसापर्यासपर्यायन्यतरभयेनैव पदसंहननानां प्रयोपाङ्गानां चैक्टर बन्धयोग्यं नान्येन ।-१, एकेन्द्रिय जीवों के अगोपांग नहीं होते। २. इस पर्याप्त ना अपर्याप्तनि विधे एक किसी प्रकृति सहित छह संहनन, तीन अंगोमाग एकएक बंध ही है।
५. सस्थान नामकर्म
घ. ६/११-२.१८/२०१७ निगलिदिया मधोउदो विठा मेवेति ।
जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश
t
घ. ६/११-२००६/१९२/८ ए दिया संठामाणि किम पविदामि। ण पञ्चवयव परूविदलक्खणपं चसं ठाणाणं समूहसरुवाणं छ संठाणस्थितविरोहा । - १. विकलेन्द्रिय जीवोके हुंडक सस्थान इस एक प्रकृतिका ही बन्ध और उदय होता है । ( भावार्थ - तथापि सम्भव अवयवोकी अपेक्षा अन्य भी संस्थान हो सकते हैं, क्योंकि प्रत्येक aaraमें भिन्न-भिन्न सस्थानका प्रतिनियत स्वरूप माना गया है । किन्तु आज यह उपदेश प्राप्त नही है कि उनके किस अवयबमें कौनसा संस्थान किस आकार रूपसे होता है । (ध. ६/१,६-२१/८/ २०१८ भावार्थ ) २. एकेन्द्रिय जीवोंके यहाँ संस्थान नहीं बतलाये क्योंकि प्रत्येक अवयव में प्ररूपित लक्षणवाले पाँच संस्थानोंको समूहस्वरूपसे धारण करनेवाले एकेन्द्रियोंके पृथक् पृथक् छह संस्थानोंके अस्तित्वका विरोध है । ( अर्थात् एकेन्द्रिय जीवोंके केवल हुडकसंस्थान ही होता है। )
६. संहनन नामकर्म
प. ६/१६-२.६६/९२३/० देवगदी सह संवाणि किरण मति ।
ण. 1
प्र.
गो. क/जी. १/५२०/६०५/१० सापर्याप्त्रपष्टियोरन्यतरमन्धेने व पट्संहनाना चैकतर वग्धयोग्यदेवगति के साथ हो संहनन नहीं बंधते २. सपना अपने एक किसी प्रकृति सहित छह संहनन में से... एकका बन्ध होता है ।
७. उपघात व परघात नानकर्म
गो.क./जी. २०१६६६/१२ पर्याप्तनेय समं वर्तमानस
सस्थानराम्य नियमादुच्छ् वासपरघातौ बन्धयोग्यौ नान्येन । पर्याप्तके साथ वर्तमान सब हो स स्थावर तिनिकर सहित उच्छ्वास परघात बन्ध योग्य है, अन्य सहित नही ।
८. आतप उद्योत नामकर्म
घ. ६/१,६-२,१०२/१२६ / १ देवगदीए सह उज्जोवस्स किण्ण बंधो होदि । ण । = देवगतिके साथ उद्योत प्रकृतिका बन्ध नहीं होता । गो.क./टी./२२४/६५३ भूमादरपज्जसे मादान मंजोग । उतिगुणतिरिक्त पसत्याणं एयदरणेण । ५२४ पृथ्वी काय बादरपर्याप्तेनातप बन्धयोग्यो नान्येन । उद्योतस्तेजोवातसाधारणवनस्पतिसबन्धिवाद र सूक्ष्माण्यन्यसमन्धिसूक्ष्माणि च अप्रशस्तत्वात् त्यक्त्वा शेषतिर्यक् संबन्धिवादरपर्याप्तादिप्रशस्तानामन्यतरेण बन्धयोग्य उत' पृथ्वी कायमादरपर्याप्तना सपोथोसाम्यतर, भादराकाय पर्या प्रत्येकमनस्पतिपययोरन्यतरेणोत च पदािसिकं, इन्द्रियत्रन्द्रियचतुरिन्द्रियासं पिचेन्द्रियसंचेिन्द्रियकर्मान्यसरेणीतं त्रिशरकं च भवति। पृथ्वीका भारत सहित ही आप प्रकृति बन्धयोग्य है अन्य सहित मन्ये नाहीं बहुरि उद्योत प्रकृति है सो तेज वायु साधारण वनस्पति सम्बन्धी बादर सूक्ष्म अन्य सबन्धी सूक्ष्म ये अप्रशस्त हैं तातें इन बिना अवशेष तिच सम्बन्धी बादर पर्याप्त आदि प्रशस्त प्रकृतिनिधि किसी
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प्रकृति बंध
4
प्रकृति सहित बन्न योग्य है तातें पृथ्वीकाय मादरपर्याप्त सहित आप उद्योग एक प्रकृति संयुक्त छब्बीस प्रकृति रूपन्ध स्थान है, वा बादर अपकायिक पर्याप्त प्रत्येक वनस्पति पर्याव किसी कार सहित उद्योत प्रकृति संयुक्त छब्बीस प्रकृति रूप बन्ध स्थान हो है। और बेन्द्री सेन्द्री, चन्द्र, पंचेद्रिसीदन्द्रिय बसी विषे किसी एक प्रकृतिकरि सहित प्रयोत प्रकृतिसंयुक्त तीस प्रकृतिरूप बन्धस्थान सम्भव है। ९ नामकर्म
•
पर्या
गो.क./जी. ५२०/६०६/१२ पर्याप्तम सर्ग वर्तमान सर्वप्रसस्थानराम्यां नियमावृच्छवासपरपाती बन्धयोग्य नान्येन सहित वर्तमान सर्व ही प्रस स्थावर विनिकर सहित घात बन्धयोग्य है अन्य सहित नहीं ।
बास पर
१०. विहायोगति नामकर्म
गोक / जी, प्र / ५२८/६८५/१९
सपर्याप्तबन्धेनैव सुस्वर दुस्वरयो प्रशस्त विहायोगरयोश्चैकतर बन्धयोग्यं नान्येन । त्रस पर्याप्त सहित ही सुस्वर दुस्वर दिएका वा प्रशस्त अप्रास्तविहायोगदिनिषे एकका बन्ध योग्य है अन्य सहित नहीं । ( देवगति के साथ अशुभ प्रकृति नहीं मंती (५.८/१.१२.१०/१२४/४)
१२ सुख-दुस्वर, दुभंग-सुभग, आदेय अनादेय घ. ६/१६-२६/११/१ दुभग दुस्सर अगावे
व विवादो सकिले काले वि बज्झमाणेण तित्ययरेण सह किण्ण बंधो। ण तेसिं बंधा तिथयरबधेण सम्मत्तेण य सह विरोहादो । संकिलेसकाले वि सुभग सुस्सर आदेज्जाणं चैव बधुवलभा । = सक्लेश काल में भी धनेवाले तीर्थंकर नामकर्म के साथ बबन्धी होने पर भी ) दुर्भग, दुस्वर और अनादेय इन प्रकृतियोका बन्ध नहीं होता है. क्योंकि उन प्रकृतियोंके बन्धका तीर्थकर प्रकृतिके साथ और सम्यदर्शन के साथ विरोध है । संक्लेश-कालमें भी सुभग- दुस्वर और आदेय कृतियोका ही बन्ध पाया जाता है ।
ध. ६/१,६-२,६८/१२४/४ का भावार्थ - ( देवगति के साथ अप्रशस्त प्रकृतियों का बन्ध नही होता है । )
मोक / जो / ५२८/६८५/१२ सपर्याप्तेनेव सुस्वर- दु. स्वरयो... एकतर बंधयोग्यं नान्येन स पर्याप्त सहित ही स्मर-दुस्वर विधै एकका बन्ध योग्य है अन्य सहित नहीं ।
१२. पर्याप्त अपर्याप्त नामकर्म
।
गो. का. ज. प्र. ०४/०१० / २ एकेन्द्रियार्यास्पद बनारकेभ्योऽन्ये सस्थावरमनुष्य मिध्यादृश्य एवं बध्नन्ति एकेन्द्रिय अध : अपर्याप्त सहित है ताते इस स्थानको देव नारकी बिना अन्य त्रस स्थावर तिर्यंच या मनुष्य मिथ्यादृष्टि ही बाँधे है ।
१२. स्थिर अस्थिर नामकर्म
घ ६ / १०६-२,६३ / ९२२/४ संकिलेसद्धाए बज्झमाण अप्पज्जत्तेण सह विरादी विसोहिपाटी संघविरोहा। ध ६ / १,६ - २६३/१२४/४ एथ अत्थिरादीनं किण्ण बंधो होदि । ण एदासि विसोहीए बंधविरोहा । - संक्लेशकाल में बँधनेवाले अपर्याप्त नामकर्म के साथ स्थिर आदि विशुद्धि कालमे मँघनेवाली शुभ प्रकृति मन्यका विराध है। २ इन अस्थिर आदि अशुभ प्रकृतियोंका (देवगति रूप) विशुद्धिके साथ धनेका विरोध है।
१४. यशः अवश नामकर्म
घ. ६/१६-२०६८/१२४/४ का भावार्थ ( देवगतिके साथ कृतियो के बँधनेका विरोध है ।)
अप्रशस्त
९६
६. प्रकृति बन्धके नियम सम्बन्धी शंकाएं
[घ] ८/३६/२०/० जसकिति पुण निरयगई मोतृण तिगत बंधदि । - यशःकीर्तिको नरकगतिको छोर तीन गरियोसे संयुक्त है।
६. प्रकृति बन्धकी नियम सम्बन्धी शंकाएँ
१. प्रकृति बन्धकी व्युच्छित्तिका निश्चित कम क्यों
ध. ६/१,१-३,२/१३६/७ कुदो एस बंधवोच्छेदकमो । असुह- असुहयरअहतमभेण पमडीणमवाणशे प्रश्न- यह प्रकृतियो के मन्धव्युच्छेदका क्रम किस कारण से है उत्तर अशुभ, अशुभतर और अशुभतमके भेदसे प्रकृतियोंका अवस्थान माना गया है। उसी अपेक्षासे यह प्रकृतियोंके बन्ध व्युच्छेदका क्रम है ।
२. तिर्यगाति द्विकके निरन्तर बम्ध सम्बन्धी
F
घ. ८/३३/३,८/३३/७ होदु सांतरबंधो पडिवक्त्रपयडीणं बंधुवल भादो; मणिरतरमधो, तरस कारणावभादो ति बुझे रुपये एस दोस्रो, तेस्काइयावाकाइयमिच्छाइट्ठीय समविशेरह मिच्छाइट्ठी च भयपद्धिसंकिलेसेण निरंतरं धोवभादो। प्रश्न- प्रतिपक्षभूत प्रकृतियोंके बन्धकी उपलब्धि होनेसे ( तिर्यग्गति व तिर्यग्गति प्रायोग्यानुपर्वी प्रकृतियोका) सान्तर बन्ध भले ही हो, किन्तु निरन्तर बन्ध नहीं हो सकता, क्योंकि उसके कारणोका अभाव है। उत्तर-यह कोई दोष नहीं है, क्योकि, तेजकायिक और पामुकाविक मिध्यादृष्टियों तथा सप्तम पृथिवीके नारकी मिथ्यादृष्टियोके भवसे सम्बद्ध संक्लेश के कारण उक्त दोनों प्रकृतियोंका निरन्तर बन्ध पाया जाता है ।
३. पंचेन्द्रिय जाति औदारिक शरीरादिके निरन्तर बन्ध सम्बन्धी
ध. / ३.३२४ / ३११ / १ चिदिजादि ओरातियसरी अंगो पर वादसास-स-मादरपणात पसे यसरीराणं मिच्याइ ठिम्हि सांतर निरंतरी, सणक्कुमारादिदेवणेरइए निरंतरबंधुवलं भादो । विग्गहगदी कधं निरंतरदा । ण, सत्ति पडुच्च निरंतरत्तु वदेसादो । -पंचेन्द्रिय जाति औदारिक वारीसंगोपांग परमात, मास. समावर पर्याप्त और प्रत्येक शरीरका मिध्यादृष्टि गुणस्थान में सान्तर - निरन्तर बन्द होता है, क्योंकि, सनत्कुमारादि देव और नारकियों में उनका निरन्तर बन्ध पाया जाता है। प्रश्न--विग्रहगतिमें बन्धकी निरन्तरता कैसे सम्भव है उत्तर-नहीं, क्योकि वाणिकी अपेक्षा उसको निरन्तरताका उपदेश है।
४. तिर्यग्गतिके साथ लाताके बन्ध सम्बन्धी
ध. ८/३, १३ / ४० / १ अप्पसत्थाए तिरिक्खगईए सह कधं सादबंधो। ण, णिरयगई व अच्चतिय अप्पसत्यत्ताभावादो । = प्रश्न - अप्रशस्त तिर्यग्गति के साथ कैसे साता वेदनीयका बन्ध होना सम्भव है । उत्तर- नहीं, क्योंकि तिर्यग्गति नरकगतिके समान अत्यन्त अप्रशस्त नहीं है।
५. हास्यादि चारों उत्कृष्ट संगलेशमें क्यों न बँधे
क. पा. ३/३,२२/११८/ ७ एदाणि चत्तारि वि कम्माणि उक्कस्ससंकिलेसेण किरण बज्मंति। ण, साहावियादो। ! प्रश्न--ये स्त्रीवेद आदि (स्त्रीवेद, पुरुषवेद, हास्य और रति) चारों कर्म उत्कृष्ट संपलेसे नहीं बँधते है उत्तर नहीं, क्योंकि उत्कृष्ट संश्लेशसे नहीं बँधनेका इनका स्वभाव है ।
जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश
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प्रकृति बंध
७. प्रकृति बन्ध विषयक प्ररूपणाएँ
१. सारणी में प्रयुक्त संकेतोंका परिचय
मिथ्या०
सम्य० मिश्र०
अनन्तानु० अप्र०
प्र०
सं०
नपु०
पृ०
हा० चतु० तिर्य०
मनु०
नरक, तिर्य०, मनु०
देव द्वि०
२. बन्ध म्युच्छित्ति ओघ प्ररूपणा
गुण स्थान
मिथ्यात्व
सासादन
मिश्र
असंयत
संयतासंयत
प्रमत्त
अप्रमत्त
अपूर्व ० / १ अपूर्व ० / २-५ अपूर्व ०/६
अपूर्व ० /७
•
मिथ्यात्व सम्यक्त्वमोहनीय मिश्र मोहनीय
अनन्तानुमन्धी चतुष्क
अप्रत्याख्यान चतुष्क प्रत्याख्यान चतुष्क संज्वतन नपुंसक वेद
पुरुष बेद
हास्य, रति, जरति शोक
तियंच
मनुष्य
49
व्युच्छित्तिको प्रकृतियाँ
देवायु
निद्रा, प्रचला
भा० ३-१३
अप्रत्याख्यान ४ बज्रऋषभ नाराच, औ० द्विक,
९७
•
नरक, तिर्य०, मनु, देव, त्रिक०
17 चतु०
१. कुल बन्ध योग्य प्रकृतियाँ
संघात
दृष्टि नं ० १ वर्णादिक ४ की २० उत्तर प्रकृतियोंमें से एक समयमें अन्यतम चारका हो बन्ध होता है । तातै १६का ग्रहण नाहीं । बन्धन, की १० प्रकृतियोंका स्वस्व शरीरमें अन्तर्भाव हो जानेसे इन १० का भी ग्रहण नाहीं । सम्यक्व व मिश्र मोहनीय उदय योग्य है परबन्ध योग्य नहीं, मिथ्यात्वके ही तीन टुकडे हो जानेसे इनका सत्व हो जाता है । तातें कुल बन्ध योग्य प्रकृतियाँ १४८-(१६+१०+२ ) == १२० । देखो ( प्रकृति बन्ध ) ।
दृष्टि नं०२ (पं/सं/२) १४८ प्रकृतियाँ ही अपने-अपने निमित्त को पाकर मन्त्र और उदयको प्राप्त होती है।
प्रत्याख्यान ४
अस्थिर, अशुभ, अयश कीर्ति, आसाता, अरति, शोक
21
आनु०
औ०
वै०
आ०
औ०, बै० आ० द्विक
" चतु०
मिथ्याध्य, नपुं०, इंटक, पाटिका, १४ इन्द्रिय, स्थावर आप सूक्ष्म अपर्याप्त, साधारण, नरक त्रिक = १६
अनन्तानु० चतु०, स्थान० त्रिक०, दुर्भग, दुस्बर, अनादेय, न्य० परि०, स्वाति, कुब्ज, वामन, वज्रनाराच, नाराच, अर्धनाराच, कीलित, प्रशस्त विहायो० स्त्री० तिर्यकत्रिक, उद्योत, नीचगोत्र-२५
तीर्थ ०
८/०१-३८/३०-०३) (म. नं. १/३ १६-२६/२२-४९); ( सं . २/१-२६ ४/३००-३२२.५/४००-४८१) (रा. मा./१/१/२५-२६/६१०-५६१); (गौ. क./६६५-१०२/०२-८६ )
/सं. २/११-३६: ४ / ११४ ) |
भु०
म०
वै क्रि० घटक
मनुष्य त्रिक = १०
turr
तीर्थंकर, निर्माण, शुभ विहायो० पंचेन्द्रिय तेजस, कार्माण, आ० डि. क्रि० द्वि०, समचतु०, देव द्वि०, वर्ण, गन्ध, रस, स्पर्श, अगुरुलघु, उपघात, परघात, उच्छ्वास, त्रस, बादर, पर्याप्त, प्रत्येक, स्थिर, शुभ, सुभग, सुस्वर, आदेय ।
हास्य, रति, भय, जुगुप्सा ।
.३०
- ४
जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश
७. प्रकृति बन्ध विषयक प्ररूपणाएँ
यह वह गति, अनूपूर्वी वायु
वह वह गति, आनुपूर्वी, यथायोग्य शरीर व अंगोपांग
आनुपूर्वीय
औदारिक
वैकिसक
तीर्थ ० ० द्वि०-३
आहारक
वह वह शरीर व अंगोपांग
दशरीर, अंगोपांग, नन्धन व संघात तीर्थंकर
देव व
मनुष्यायु
भुज्यमान आयु
बध्यमान आयु
गरक गति व जानुपूर्वी देवगति आनुपूर्वी वैक्रिक शरीर व अंगोपांग
अबन्ध
पुन बन्ध प्रकृतियाँ प्रकृतियाँ
कुलबन्ध योग्य
अबन्ध पुन बन्ध
| १२० ३
१०१
| देव व मनु० | ७४ तीर्थंकर
आहारकदिक ५७
५८
娃
२६
Bak
१०१ २५७६
७४ | ७४
७७ १०६७
६७ ४ ६३
썅
छ
| शेष बन्ध योग्य
५६ |
५८
५६
Dones or or
५७
५६
५६
५६ ३० २६
२६ ४ २२
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________________
प्रकृति बंध
७. प्रकृति बन्ध विषयक प्ररूपणाएं
गुण स्थान
व्युच्छित्तिकी प्रकृतियाँ
अबन्ध पुनः बन्ध
कुलबन्ध योग्य
अबन्ध पुन' बन्ध
व्युच्छित्ति | शेष गन्ध योग्य
सत्त्व पुरुष वेद सत्त्व | स्त्री वेद सत्व नपुंसक वेद स्थान | सहित चढा | स्थान | सहित चढ़ा | स्थान | सहित
د
س
م
م
पुरुष वेद संज्वलन क्रोध
पुरुष वेद । | संज्वलन क्रोध
१३ पुरुष वेद
| संज्वलन
م
क्रोध
مه
ance
,
, मान ४ , माया ३ , लोभ, २
४ ३
vili
سه
मान , माया . लोभ
, मान , माया , लोभ
له
ज्ञानावरणी, दर्शनावरणी ४, अन्तराय यश.कीर्ति, उच्चगोत्र-१६
सू० सा० उपशान्त क्षीण सयोगी
x
साता वेदनीय
-
-
३. सातिवाय मिथ्याष्टिमें बन्ध योग्य प्रकृतियाँ
(ध.६/१३४); (ल. स./११-१५/४६-५२)
-
गति मार्गणा
कुल बन्ध योग्य
बन्धके अयोग्य प्रकृतियाँ
बन्ध योग्य प्रकृतियाँ
मनुष्यगति
असाता, स्त्रीवेद, नपंसक वेद, आयु चतुष्क, अरति, शोक, नरकगति, तिर्यग्गति, मनुष्यगति, एकेन्द्रिय जाति, द्विइन्द्रिय, त्रीन्द्रिय. चतुरिन्द्रिय जाति, औदारिक शरीर, आहारक शरीर, न्यग्रोधादि ५ संस्थान. औदारिक अंगोपांग, आहारकांगोपांग, छहों संहनन, नरकआनुपूर्वी, तिर्यग्गतिआनुपूर्वी, मनु० आनुपूर्वी,आतप, उद्योत, अप्र० वि०गति, स्थावर सूक्ष्म, अपर्याप्त, सा० शरीर, अस्थिर, अशुभ, दुर्भग, दुस्वर, अनादेय, अयश कीर्ति, तीर्थकर, नीचगोत्र। -४६
ज्ञानावरणी, १ दर्शनावरणी, साता, मिथ्यात्व, अनन्तान०१६, पुरुष वेद, हास्य. रति, भय, जुगुप्सा, देवगतिद्विक, पंचे० जाति. वै क्रियक शरीर द्विक २, तेजस व कार्माण शरीर, समचतुरस्र सं०, वर्ण, गन्ध, रस, स्पर्श, अगुरुलघु, उपघात, परघात, उच्छवास, प्रशस्त विहायो०. बस, बादर, पर्याप्त, प्रत्येक शरीर, स्थिर. शुभ, सुभग, मुस्वर, आदेय, यश कीर्ति, निर्माण, उच्चगोत्र,५ अन्तराय ।
तिर्यग्गति देवगति
४६-मनुष्य चतुष्क तथा वन ऋषभ नाराच संहनन+ देव चतुष्क ।
-४८
७१-देव चतुष्क+ मनुष्य चतुष्क + वज्रऋषभ नाराच संहनन
-७२
नरक गति१-६ पृथिवी ७वीं पृथिवी
१००
४८-तियंच द्विक, नीचगोत्र+मनुष्य द्विक
उच्चगोत्र ४८-उद्योत
-ge
७२-मनुष्यद्विक, उच्चगोत्र + तिथंच द्विक
नीच गोत्र ७२+उद्योत
|58
जैनेन्द्र सिदान्त कोश
Page #106
--------------------------------------------------------------------------
________________
प्रकृति बंध
९९
9. सातिशय मिथ्यादृष्टिमें प्रकृतियोंका चतुःबन्ध (ध. ६/२००-२१३ )
संकेत–उत, उत्कृष्ट; अनु. - अनुत्कृष्ट; द्विस्थान - निम्ब व काजीर रूप अनुभाग, चतुःस्थान- गुड, खाण्ड, शर्करा, अमृतरूप अनुभाग; अन्त को, को, अन्तः कोटाकोटी सागर ।
नं.
प्रकृति
१] [दानावरणीय
|
२ दर्शनावरणीय
पाँचौ
१- ३ स्त्यान० त्रिक
२४-६
शेष ६
१ वेदनीय
९ साता
२ असाता
४ मोहनीय
दर्शन मोह
१) सम्यक्त्व प्रकृति
२ मिथ्यात्व
३ सम्यग्मिथ्यात्व चारित्र मोह -
१ अनन्तानु० चतु०
२ अप्रत्या० चतु०
३ प्रत्या० चतु० ४ संज्व० चतु० १७ स्त्री वेद
१८ पुरुष वेद १६ नपुंसक वेद
२०- हास्य, रति
२१
२२- अरति शोक
"
२३
२४ - भय, जुगुप्सा
|२५|
५ आयु
| चारों
६ नाम
१ नरक गति
प्रकृति स्थिति
39
D
नहीं
नहीं
है
shy
== : we and
नहीं
नहीं
नहीं
नहीं
19
२ १-४ इन्द्रिय जाति नहीं पंचेन्द्रिय जाति
अंत को को द्वि स्थान
2
नहीं
כ
अंत को को नहीं
बन्ध
39
अनुभाग
नहीं
६७.
32
'चतु. स्थान नहीं
देवगति तिच मनुष्य धते है, देवनारकी नहीं। तिर्यंच
।
अंत को को द्वि स्थान उत वा अनु.
अनुत्कृष्ट
"
39
नहीं
नहीं
अंत को को द्विस्थान
नहीं
द्वि स्थान उत वा अनु नहीं
नहीं
"
नहीं
अंत को को द्वि स्थान
नहीं
नहीं
अंत को को द्वि स्थान
नहीं
"
तिच गति अंत को को द्वि स्थान सप्तम पृथिवीके नारकीको ही बँधती है अन्यको नहीं । मनुष्य गति अंत को को] चतुस्थान | है देवनारकी हो बाँधते है सियंच नहीं।
है | अंत को को द्विस्थान
प्रदेश
अनुत्कृष्ट
उत वा अनु. अनुत्कृष्ट
नहीं
नही अंत को को. चतु स्थान
35
नहीं
39
नहीं
अनुत्कृष्ट
नह
अनुत्कृष्ट
नहीं
अनुत्कृष्ट
नहीं
ט
अनुत्कृष्ट
नं.
ਸਾਰਿ
३ औदारिक शरीर देव नारकीका 4.
ति मनु को बा तेजस पशरीर
| कार्याण
अनुत्कृष्ट
४
५
६
अगोपांग
निर्माण
बन्धन
संघात
१४
समचतुरस्र, सं.
शेष पाँच संस्थान
६ संहनन (देव न
नारकी हीको) वज्र
ऋषभ नाराच
वज्र नाराच शेष चार
१०- स्पर्शादि चतु प्रश
१३
नरकानुपूर्वी (सप्त पृथिवी में ही ) तिर्यगानुपूर्वी
(देव व नारकीको
ही मनुष्यानुपूर्वी
तिर्म मनुष्यको ही देवानुपूर्वी
१५ अगुरुलघु
१६ उपघात
११७
अप्र.
परधात १८ आतप
१६ (सप्त पृथिवी में ही)
उद्योत
२० उच्छ् वास
२१ विहायोगति ग्र
11
२२ प्रत्येक
२३ साधारण
२४ त्रस
२५ स्थावर २६
सुभग
सुस्वर
२७ दुर्भग अनुत्कृष्ट २८ २६ दु. स्वर नहीं |३० शुभ ३१ अनुत्कृष्ट
अशुभ
अप्र.
जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश
बन्ध
स्थिति | अनुभाग
प्रकृति हैं अंत को को. चतु स्थान
49
नहीं
है
"
99
34
91
-स्वस्व शरीरवत्---
है अंत को को. चतुःस्थान | अनुत्कृष्ट
|
1
-स्व स्व शरीरवस --
19
है अंत को को. चतुःस्थान उत वा अनु नहीं नहीं नहीं
नहीं
..
७. प्रकृति बन्ध विषयक प्ररूपणाएँ
*• = =
नहीं
pic/abc/
= the feathers the athew the answer they the athew othe
नहीं
नहीं
नहीं
है
"
नहीं अंत को को.
नहीं
है अंत
है
"
नहीं
नहीं
15
अंत को को. चतु. स्थान उत वा अनु.
द्वि स्थान
"
39
נו
नहीं
"
नहीं चतुःस्थान अनुत्कृष्ट
"
अंत को को चतुस्थान
द्वि स्थान
33
33
चतुःस्थान
द्वि स्थान
33
22
नहीं
अंत को को.
'चतुस्थान
नहीं
है अंत को को चतुःस्थान
अत को.को. चतुःस्थान
चतुःस्थान
ཝཱ, ?
प्रदेश
अनुष्कृष्ट
उत वा अनु नहीं
33
" उत वा अनु. अनुत्कृष्ट
"
नहीं
13
नहीं
को को चतुस्थान
नहीं
चतु. स्थान नहीं
नहीं
है अंत को को. चतुःस्थान
नहीं
नहीं
नहीं
अंत को को पशु-स्थान
नहीं
15
नहीं नहीं
अनुष्कृष्ट
उत वा अनु
ע
अनुत्कृष्ट
"
"
33
नहीं नहीं
FETTERE
नहीं
अनुरपृष्ट
अनुत्कृष्ट
नहीं
अनुत्कृष्ट
नहीं
नहीं
अनुत्कृष्ट नहीं
Page #107
--------------------------------------------------------------------------
________________
प्रकृति बंध
नं.
प्रकृति
३२ मादर
३३ सूक्ष्म २४ पर्याश ३५ अपर्याप्त ३६ स्थिर
३७ अस्थिर ३८ आदेय
३६ अनादेय
४० यश कीर्ति
मार्गणा गुण
स्थान
१-२ पृथिनी पर्या ४-६,
37
७ पृथिवी पर्याप्त
१ पृथिवी अप०
१
४
५. बन्धयुच्छित्ति आदेश प्ररूपणा
१
२-४
१
२
प्रकृति
स्थिति
. अंत को को
१
the the the other the amhas the ath
४
नहीं
है
नही
नहीं
नहीं
है
बन्ध
अनुभाग |
चतु स्थान
नहीं
चतु'स्थान
नहीं
नहीं
अंत को को. नहीं
अंत को. को, नहीं
अंत को.को. नहीं
चतु स्थान
नहीं
अंत को को. चतुस्थान
चतुःस्थान नहीं
व्युच्छित्तिकी प्रकृतियाँ
मिथ्या झुंड, नपुं०. सृपाटिका
ओघवत
ओघवत
-४ - २५
१०
१००
प्रदेश
अनुत्कृष्ट
नहीं
अनुत्कृष्ट
नहीं
अनुकृष्ट
नहीं
अनुत्कृष्ट
नहीं
अनुत्कृष्ट
मिथ्याव, हुडक, नपुं०, सृपाटिका + सासादनकी २५
तिर्यगायु -२८ ओधवत् ९० - मनुष्यायु = १
अबन्ध
१ गतिमार्गणा
१ नरक गति (म.नं. १४३०/४१ ) ( सामान्य बन्ध योग्य - १२० ( देव त्रिक, वैक्रि० द्वि, आहा० द्वि०, १-४ इन्द्रिय, स्थावर, आतप, सूक्ष्म, अप०, साधारण, नरकत्रिक )
/सू. ४३-१२/१३-११२) (गो.क./१०१-१००/१२)
१६- १२०-१६ - १०९: गुण स्थान -४
तीर्थंकर
मनुष्यायु
प्रकृति
| ४१ | अयश कीर्ति
४२ तीर्थंकर
प्रथम पृथिवी पर्यावत्
७ गोत्र -
बन्ध योग्य - १०१ -- तीर्थंकर = १००, गुणस्थान - 8 मिथ्या, हुंडक, नपुं०,
स्पाटिका-४
उच्च
(म पृ० में ही नीच
८ अन्तराय
पाँचों
- सामान्यवत्
तीर्थंकर
पुनः बन्ध
उच्च, मनु० दि०
बन्ध योग्य - १०१ - मनुष्यायु, तीर्थंकर ६६; गुणस्थान ४
*
मनुष्यायु तीर्थ
उच्च,
मनु०
दि०
तीर्थंकर
जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश
१०१
24
७१
७०
१००
मियाल
"
सृपाटिका, तिर्यगायु -- ओघवत् २५ - तिर्यगायु - २४
ओघवत् १० - मनुष्यायु -
बन्धयोग्य - १०१ - मनुष्य व तिर्यगायु ( मिश्रयोगमें आयु नहीं बँधे ) - ६६; गुणस्थान = २;
(नरक अपर्याप्त सासादन न होय )
कुल
बन्ध अबन्ध योग्य
७. प्रकृति बन्ध विषयक प्ररूपणाएँ
प्रकृति | स्थिति
नहीं
६६
११
६७
७०
है
६६
७०
है अंश को. को. चतुस्थान
अनुभाग
नही नहीं
३
33
१
बन्ध
अंत को को द्वि स्थान
पुन. बन्ध
१
अनुत्कृष्ट
द्वि स्थान उत वा अनु
बन्ध
१००
§ m
७०
१००
Www
७१
२५
ब्युच्छि - त्ति
१०
६६
५
६१ २४
७०
७०
४
प्रदेश
नहीं
६
२८
35
अनुत्कृष्ट
शेष बन्ध योग्य
ह
७१
७०
६२
*
६१ ६७
७०
६१
७०
६२
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--------------------------------------------------------------------------
________________
प्रकृति बंध
१०१
७. प्रकृति बन्ध विषयक प्ररूपणाएँ
शेष
गुण
मार्गमा
अबन्ध
व्युच्छि
व्युच्छित्तिकी प्रकृतियाँ
पुनबन्ध
पुन'
बन्ध
अवन्ध
बन्ध
स्थान
बन्ध
त्ति
योग्य
योग्य
२-६ पृथिवी अप०
बन्धयोग्य-१०१-मनुष्यायु, तिथंचायु, तीर्थकर १८, गुणस्थान-१,
। १८
| मिथ्यात्व, हुंडक, नपुं०, सृपाटिका+सासादनकी २५तिर्यचायु -२८ ।
| ८ } २८ ] ७० ७वीं पृथिवी अप० भन्धयोग्य- १०१ - मनूष्य तिर्यचायु, तीर्थकर, मनुष्य द्वि०, उच्चगोत्र =६ गुणस्थान-१ उपरोक्त -२८ |
५ | | | १५ | २८ | ५७ २ तियंच गति-(म../९/३८/४२); (प. रवं./८/सू.३-७४/११२-१६०); (गो.क./१०८-१०६/६३-६१) सामान्य प० । बन्धयोग्य-१२०-तीर्थकर, आहारक द्विक-११७ गुणस्थान
ओघवत्
-१६ ओघवव २५+ वज्र ऋषभ, औ० द्वि०, मनुष्य त्रिक-३१
देवायु
अप्रत्याख्यान
देवायु
प्रत्याख्यान ४
---- सामान्य तिर्यवत् --→
पंचेन्द्रिय प० पं.योनिमती ५० पंचेन्द्रिय नि. अप०
मन्धयोग्य-१२०-तीर्थकर, आहारक द्विक, चारों आयु, नरक द्विक १११, गुणस्थान १, २, ४ ओधवव १६-नरक त्रिक -१३ | देव द्वि०, वैक्रि०
म
द्वि०
ओघवव २५+ वज्र वृषभ, औ० द्वि०, मनु० द्वि०-तिर्यगायु-२६
६४
६४ अप्रत्यारण्यान ४ ४
देव द्वि०, वैक्रि० ६५
द्वि० । बन्धयोग्य-१२०-तीर्थकर आहारक द्वि०. देव त्रिक, नरक त्रिक, वैक्रि०द्विक-१०६% गुणस्थान-१
तिर्यंच ल० अप० ३ मनुष्य गतिः सामान्य प० ।
बन्धयोग्य-१२०; गुणस्थान-१४ ओघवत्
-१६ तीर्थ०, आ.द्वि० ओघवत् २५, वज्र ऋषभ, औ० द्वि०, मनु० त्रि०
देवायु
देवाय तीर्थ |
अप्रत्याख्यान ४ प्रत्याख्यान ४
१०७ । १३ ।
६-१४
--- ओघवत मनुष्यणी ५०
-- सामान्य मनुष्यवत -→ मनु०नि० अप बन्धयोग्य-१२०--४ आयु, नरक द्विक, आ० द्वि-११२ गुणस्थान-१, २, ४, ६, १३ | १ | ओघवत् १६-नरक त्रिक-१३ | देवद्विक, वैक्रि०
( १९२ । ।
द्वि, तीर्थ २ ओघवद २५+ बज्र ऋषभ+
औ० द्वि+मनु० द्वि०,तिर्यगायु -२६ अप्रत्याख्यान ४, प्रत्याख्यान ४
देव द्विक, वैकि० ६५ द्वि०, तीर्थ,
जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश
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--------------------------------------------------------------------------
________________
प्रकृति बंध
१०२
७. प्रकृति बन्ध विषयक प्ररूपणाएँ
मार्गणा
गुण स्थान
पुनः
व्युच्छित्तिकी प्रकृतियाँ
अबन्ध
पुन' बन्ध
कुल मन्ध अबन्ध योग्य
बन्ध
बन्ध
व्युच्छि
बन्ध त्ति
योग्य
| अपूर्वकरण ओघवद ३६-आ० द्वि-३४+हवे की ५, १०३
की १५, ६ की ६-११ साता वेदनीय
मनु. ल. अप.
बन्ध योग्य-१२०-देव त्रिक, नरक त्रिक, वैक्रि० वि०, आ० वि०, तीर्थ -१०: गुणस्थान १
देवगतिःसामान्य
(प. खं.८/सु.७७-१०१/१५८) (गो.क./१११-११२/८-१०१) मन्धयोग्य-१२०-सूक्ष्म, अपर्याप्त, साधारण, २-४ इन्द्रिय, नरकत्रिक, देवत्रिक, वै क्रि० द्वि०, आहारक द्वि०-१०४, गुणस्थान-४ बन्धयोग्य सामान्यकी १०४-तीर्थकर-१०३,
भवनत्रिकदेव पर्याप्त
मिथ्या, हुंडक०, नपुं०, सपा
टिका, एकेन्द्रि०,स्थावर,
आतप ओघवव २५
मनुष्यायु ओधवव
| मनुष्यायु । ७०
------भवन त्रिक वत----→ बन्ध योग्य-सामान्य देववत -१०४, गुणस्थान-४
करूप. देवी. प.
सौधर्म ईशान । पर्याप्त
मिथ्या, हुंडक, नपुं०, सपाटिका, तीर्थकर एकेन्द्रि०स्थावर, आतप-७
ओघवत्
मनुष्यायु ओघवत
मनुष्यायु,तीर्थ०, ७० अन्ध योग्य-१०४-एकेन्द्रिय, स्थावर, आतप-१०१: गुणस्थान-४
सनरकुमा
रादि १० स्वर्ग पर्याप्त
मिथ्यात्व, हुडक,
नए०, तीर्थकर सृपाटिका ओघवत्
| मनुष्यायु ओघवत
मनुष्यायु,तीर्थ, ७० बन्ध योग्य =१०४-एकेन्द्रि०, स्थावर, आतप, तियंचत्रिक, उद्योत-१७; गुणस्थान-४
-१०
(आनतादि२ ४ स्वर्ग ( व नव ग्रै.प.
| मिथ्यात्व, हुंडक, नपुं० । तीर्थ कर सृपाटिका ओघकी २५-तिर्यक्तिक, उद्योत
| मनुष्यायु ओघवत
मनुष्यायु, तीर्थ, ७० बन्ध योग्य-सौधर्मके चतुर्थ गुणस्थानवत-७० गुणस्थान केबल-१(चतुर्थ)
(पंच अनुत्तर व नव अनु
दिश प०
जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश
Page #110
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________________
प्रकृति बंध
१०३
७. प्रकृति बन्ध विषयक प्ररूपणाएं
मार्गणा
गुण स्थान
व्युच्छित्तिकी प्रकृतियाँ
अबन्ध
पुन. बन्ध
बन्ध | अबन्ध
शेष | बन्ध व्युच्छि. बन्ध बन्ध
योग्य
योग्य
| ६४ ।
भवन. त्रि. अप. वन्ध योग्य-१०४-तीर्थकर, मनुष्य व तिर्यगायु-१०१: गुणस्थान-१,२
भवनत्रिक पर्याप्तवत -७ ओघवत २५-तियंचायु -२४ नोट-सम्यग्दृष्टि यहाँ नहीं
उपजते। कल्प. देवी.अप,
-भवनत्रिक अपर्याप्तवत----→ सौधर्म ईशान बन्ध योग्य-सामान्य देवकी १०४-मनुष्य, तिथंचायु-१०२: गुणस्थान-१,२,४ अप० सौधर्मपर्याप्तवत् ७ । तीर्थ कर
। १०१ । ७ ओघवत् २५-तिर्यंचायु -२४ ।
१४ । २४ ओघवत् १०-मनुष्यायु -६
| तीर्थकर । ७० (सनत्कुमा
अन्ध योग्य-सामान्य देवकी १०४-एकेन्द्रि०, स्थावर, आतप, मनुष्य, तिथंचायु-१६ गुणस्थान १,२,४ २ रादि १० (स्वर्ग अप० मिथ्यात्व, हुंडक, नपुं०, तीर्थ कर
६६ १ सृपाटिका ओघवव २५-तियचायु -२४
४ २४ ७० ओघवत् १०-मनुष्यायु -६
। तीर्थकर |
। ७१ । १ ६२ आनतादि ४ बन्ध योग्य = सामान्यकी १०४-एकेन्द्रि०, स्थावर, आतप, तिर्यचत्रिक, उद्योत, मनुष्यायु-६६; गुणस्थान-१,२,४ स्वर्गव नव प्रै० अप०
१ मिथ्यात्व, हुंडक, नपुं० । तीर्थ कर
सृपाटिका ओघवद २५-तिर्यक
त्रिक व उद्योत ४ ओघवत १०-मनुष्यायु ६
। तीर्थ कर अनुदिशव |
बन्ध योग्य-सौधर्म पर्याप्त या नि० अपर्याप्तवत् ४ थे की ७०% गुणस्थान - केवल -१ (चतुर्थ) ५ अनुत्तर अप० २. इन्द्रिय मार्गणा-(प. वं. दामू. १०२.१३६/१५८-९९२): (गो. क./११३-११४/१०२-१०४) सर्व एकेन्द्रिय बन्ध योग्य ओघकी १२०-तीर्थकर, आहार द्वि०, देवत्रिक, नरकत्रिक, वैक्रि० वि०-१०६ गुणस्थान २
ओघवत १६-नरकत्रिक
+मनु० ति० आयु -१५ | ओघको २५+वज्र ऋषभ, औ०
वि०, मनु० द्वि ३०-तिर्यगायु सर्व विकलेन्द्रिय
२६
----- एकेन्द्रियवत् ----→ पंचे० पर्याप्त
----- ओघवत् -- -→ पंचे. नि. अप बन्ध योग्य =ओघकी १२०-४ आयु, नरक द्विक, आहा० द्वि०-११२ गुणस्थान - १,२०४,६,१३ ओघवत् १६-नरकत्रिक -१३ देव द्विक, वै क्रि०
११२ । ५ । | द्वि० तीर्थ ओघवत् २५-तियचायु -२४
४ | २४ अप्रत्याख्यान ४, प्रत्या०४,
देव द्वि० ० औ० द्वि०, वज्र ऋषभ
द्वितीर्थ मनु० द्वि०
| १०६
१०४
७५ ! १३
जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश
Page #111
--------------------------------------------------------------------------
________________
प्रकृति बंध
७. प्रकृतिबन्ध विषयक प्ररूपणाएं
दोष
मार्गणा
गुण
स्थान
बन्ध
६
व्युच्छित्तिकी प्रकृतियों अबन्ध पुन बन्ध
| बन्ध अबन्ध
बन्ध व्युच्छि० बन्ध योग्य
योग्य अपूर्वकरणकी ओघवत ३६-आ० द्वि०४३४+वे की ५, १०३ को १६, ६ठे को साता वेदनीय १ बन्ध योग्य ओधकी १२०-देवत्रिक, नरकत्रिक, वैक्रि० द्वि०, आ० द्वि०, तीथं०-१०६% गुणस्थान-१
१३
पंचे० ल० अप०
३. काय मार्गणा--(ष. वं. ८/सू. १३७-१३६/११२-२००), (गो क /११४-११५/१०४-१०६)
-
--- एकेन्द्रिय बत् -----→
पृथिवी, अपव। प्रत्येक वन, तेज, वात काय
| बन्ध योग्य-ओघकी १२०-देवचिक, नरकत्रिक, वै० द्वि०, आ० द्वि०, तीर्थ०, मनुष्यत्रिक, उच्चगोत्र-१०५
गुणस्थान-१
वन०काय साधारण
गुणस्थान-१
----- एकेन्द्रियवत् ---
वसकाय प० त्रसकाय नि० अप० सिकायत०अप०
गुणस्थान-१४ गुणस्थान-१,२,४,६,१३ गुणस्थान-१
-- ओघवत् ---→ --पंचेन्द्रिय निर्वृति अपर्याप्तवत्-→ -- तिथंच लन्ध्यवर -→
! ४ योग मार्गणा-
(ष खं/८/सू. १४०-१६०/२०१-२४२); (गो. क./११५-११६/१०६-११६)
सामान्य मन वचन योग बन्धयोग्य = ओघवत् १२०, गुणस्थान-१४
---
ओधवत्
--→
दोनोके सत्य व अनुभय बन्धयोग्य ओघवत्-१२० गुणस्थान-१४
---
ओघवत
--→
दोनो के असत्य व उभय । अन्धयोग्य-ओघवत्-१२०, गुणस्थान-१२
.-
ओघवत्
सामान्य काययोग
बन्धयोग्य
ओघवत् -१२०; गुणस्थान-१४
---
ओघवत् --→
औ० काययोग
बन्धयोग्य =ओघवत्-१२०, गुणस्थान-१४
+--- मनुष्यगतिवत् --→
औ० मि० काययोग
१०९
१५
६४
२६ । ६५
बन्धयोग्य-- ओघकी १२०-आ० द्वि, नरक द्वि०,देव, नरक आयु, -१९४; गुणस्थान-१,२,४ मिथ्या०, नपुं०, हुंडक, सुपा- तीथंकर, देव टिका, १-४ इन्द्रिय, स्थावर, द्वि०, बै० द्वि०
आतप, सूक्ष्म, अपर्याप्त, साधारण, तिर्यग, मनुष्यायु १५ अनन्तानु०४, स्त्यानत्रिक०, दुर्भग, दुस्वर. अनादेय, न्यग्रो० परि०, स्वाति, कुब्ज, वामन, वज्रनाराच, नाराच, अर्धनाराच कीलित, अप्रशस्त विहायो०, स्त्रीवेद, तिर्यग् द्विक, उद्योत. नीचगोत्र, मनुष्यद्विक, औ० द्वि०, वज्र वृषभ -२६ देव द्विक, वै० द्वि०. तीर्थकर,
देवद्विक, वै० । तथा शेष सर्व ६६
द्वि० तीर्थ, साता
७०
जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश
Page #112
--------------------------------------------------------------------------
________________
प्रकृति बंध
१०५
७. प्रकृतिबन्ध विषयक प्ररूपणाएं
गुण
मार्गणा
व्युच्छित्तिकी प्रकृतियाँ
शुचिपत्ति की प्रकृतियों
अबन्ध । पुन मन्ध
अबन्ध
पुन' बन्ध
वा अनन्ध पुनः भन्ध सुच्या का
अबन्ध पुन.
बन्ध । योग्य
शेष |बन्ध व्युच्छि० बन्ध बन्ध
योग्य
स्थान
वैकि० काय० योग
वै० मि० काययोग
पान
आहारक काययोग
बन्धयोग्य-सामान्य देववत् १०४, गुणस्थान-४
- सौधर्म ईशान प० देववत् -→ बन्धयोग्य =नि० अप० देववत् १०२, गुणस्थान = १, २, ४
-- सौधर्म देव नि० अप० बर -→ बन्धयोग्य ओधके ६ठे गुणस्थानव-६३, गुणस्थान - केवल १(छठी)
t-- ओघ के छठे गुणस्थानवत -→ बन्धयोग्य ओघ प्रमत्त गुणस्थानकी-६३-देवायु ६२, गुणस्थान- केवल १(छठा)
-- ओषके छठे गुणस्थानवत् → बन्धयोग्य औ० मि० की ११३-मनुष्य, तिर्यंचायु-१११: गुणस्थान-१, २, ४, १३
उपरोक्त दो आयु रहित औ० मि० वत -→
आ० मि० काययोग
कार्माण काययोग
उपरास
५ वेद मार्गणाः
-(प. खं./८/सू. १६६-१८७/२४२-२६६) (गो. क./मू./११६/११४ )
स्त्री वेद पर्याप्त
स्त्री वेद नि० अप०
१०७
६४
पुरुष वेद पर्याप्त
| बन्धयोग्य ओघवत्-१२०-तीर्थंकर, आहारक द्विक, देवगति-११६; गुणस्थान -६
- देवगति, आ० द्वि०, तीर्थ०, रहित ओघवत् -→ बन्धयोग्य- श्रोधवत १२०-चारो आयु, आ० द्वि०, तीर्थ०, नरक वि०, देव द्वि०, वै० द्वि०-१०७ गुणस्थान -२ ओघवत्-१६-नरकत्रिक-१३
१०७ | १३ ओघवत-२५-तियंचायु-१४ ।
१४ । बन्धयोग्य ओघकी १२०; गुणस्थान -६
-- ओघवत् -→ बन्धयोग्य =ोधकी १२०-४ आयु, नरक द्विव, आद्वि- ११२: गुणस्थान-१, २, ४ | ओघकी १६-नरकत्रिक १३ देव द्वि०, तीर्थ,
|११२ ।
वैक्रि० द्वि० ओघवत -२५-तियंचायु-२४ ओघवत्-१०- मनुष्यायु-६
तीर्थ ०, देव द्वि० ७० | वैद्वि०
पुरुष बेद नि० अप०
नपु० वेद प० बन्धयोग्य ओघकी १२०-तीर्थ०. आ० दि०, देवगति ११६ गुणस्थान है
-- उपरोक्त ४ प्रकृति रहित ओघवत् -- नपं वेद० नि० अप० । बन्धयोग्य-ओघकी १२०-चारों आयु, आ० दि०, नरक द्वि०, देव वि०,वे०वि०-१०८ गुणस्थान १,२,४,
| ओघवत् १६-नरकत्रिक =१३ तीर्थकर
ओधवत् २४-तिर्यंचायु -२४ ओघवत १०-मनुष्यायु -६ ।
तीर्थ कर । ७० ( यह स्थान केवल प्रथम पृथ्वी नारकीको ही सम्भव है ।)
६. कषाय मागेणा-- (ध //सू १८८-२०६/२६९-२७१), (गो क /भाषा/११६/११५)
क्रोध, मान, माया
बन्धयोग्य = ओघवत १२०: गुणस्थान ६
ओघवत्
लोभ
बन्धयोग्य = ओघवत् १२०: गुणस्थान - १०
ओघवत
अकषायी
बन्धयोग्य-साता वेदनीय १, गुणस्थान-११, १२, १३
ओघवत्
ओघवत् |
।
७. शान मार्गणाः-(ध //सू २०७-२२४/२७६-२६७ ) ( गो क /भा /११६/११५/१६)
मति, श्रुत अज्ञान | बन्धयोग्य - १२०- आ० द्वि०, तीर्थ० - ११७, गुणस्थान-२ र व विभग ज्ञान
--
ओघवत्
--
जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश
भा०३-१४
Page #113
--------------------------------------------------------------------------
________________
प्रकृति बंध
७. प्रकृतिबन्ध विषयक प्ररूपणाएं
शेष
बन्ध
बन्ध व्युच्छि. बन्ध
योग्य
।
।
पून मार्गणा व्युच्छित्तिकी प्रकृतियाँ अबन्ध पुन' बन्ध स्थान
बन्ध अबन्ध योग्य
। । मति, श्रुत अवधिज्ञान | बन्धयोग्य-ओधके चतुर्थगुणस्थानको-७७-आ० द्वि-७६, गुणस्थान ४-१२
-- ओधवत् -→ मनापर्ययज्ञान बन्ध योग्य - बोधके ६ठे गुणस्थान की ६३+ आहारक द्वि०-६५: गुणस्थान ६-१२
-- ओघवत् -→ केवलज्ञान
बन्धयोग्य-ओधके १३ वें गुणस्थानवत-१, गुणस्थान २ (१३,१४)
---
-आषद
-
-
--
--
-
।
।। ओवर | |
८.संयम मार्गणा-(प.ख./स./२२५-२१२/२६८-३१८); (गो.क./भा./११६/११६/१०)
।
सामायिक व छेदो
। बन्धयोग्य-ओधके ६ठे गुणस्थानकी-६३+ आ० द्वि०-६१: गुणस्थान-६-१
।
।
---
----ओघवत्--------
परिहार विशुद्धि
| बन्धयोग्य - ओधके ६ठे गुणस्थानकी -६३+ आ० द्वि०=६५: गुणस्थान-६-७
सूक्ष्म साम्पराया
| बन्धयोग्य - ओधके १० गुणस्थानवत्-१७; गुणस्थान-१०वॉ
यथाख्यात
बन्धयोग्य-साता वेदनीय १: गुणस्थान ११-१४
--ओघवत्-------
संयमासंयम
| मन्धयोग्य-ओघके पंचम गुणस्थानवत् == ६७: गुणस्थान ५ वॉ
--ओघवत्-------
असंयत
| बन्धयोग्य ओघकी १२०-आ० द्वि०-११८, गुणस्थान १-४
------ओघवत् (आ.द्विरहित)----
९. दर्शन मार्गणा-(प. खं.८/सु./२५३-२५७/३१८-३१६): (गो. क./भाषा/११६/११७/३)
चक्षु अचक्षु
बन्धयोग्य-१२% गुणस्थान-१२
-- - ओघवत
-
ओघवत
-
-
-
अवधि
बन्धयोग्य ओधके चतुर्थ गुणस्थानको म ७७+आ० द्वि०-७६, गुणस्थान-४-१२
-
-
ओघवत्-
-
-→
जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश
Page #114
--------------------------------------------------------------------------
________________
प्रकृति बंध
मार्गणा
केवल
पीत
पद्म
शुक्ल
भव्य
अभव्य
१०. लेश्या मार्गणा (प... २५०-२०४/२२०-३५०) (गो. . / / १११-१२०/११७-१२० )
बन्धयोग्य - ओघकी १२० आ० द्वि०-११८: गुणस्थान - १-४
कृष्ण, नील, कपोत
गुण
स्थान
क्षायिक सम्यक्त्व
वेदक सम्यक्त्व
१
२-७
१
व्युच्छित्तिकी प्रकृतियाँ
२-७
१०७
=
अबन्ध
पुन' बन्ध
बन्ध योग्य ओघके १३ वे गुणस्थानवत् = १ साता; गुणस्थान १३-१४
२
३-१३
अलेश्या
बन्धयोग्य = x ; गुणस्थान= १४ वॉ
1
११. भव्य मार्गणा ( सू २००-२७०/३३८-३६२) (गो. क, भा./१२०-१२१/१२१/७)
बन्धयोग्य - ओघवत् १२० ; गुणस्थान = १४
←
१२. सम्यक्व मार्गणा - (०/ २०१-३११/३६२-३०६): (गो.क./भा० / १२०-१२१/१०)
कुल बन्ध
योग्य
१०५
10 for
-
१०४ ३
बन्धयोग्य - पद्म लेश्याकी १०८ - तियंच त्रिक, उद्योत - १०४ गुणस्थान १३ मध्या०डक नपुं० तीर्थ ०. सृपाटिका ४। आ० द्वि० ओकी २५ - तिर्यत्रिक उद्योत
२१
बन्धयोग्य - ओघवत् १२० - आ० द्वि०, तीर्थ० ११७; गुणस्थान
जीवनद
बन्ध योग्य ओघको १२० - सूक्ष्म, अपर्याप्त, साधारण, २-४ इन्द्रिय, नरक त्रिक= १११: गुणस्थान ७
मिथ्या डक, नपुं. पाटिका | तीर्थंकर,
१११
३
एकेन्द्रिय, स्थावर, आतप ७ आ० द्वि०
अवन्ध
६७
७. प्रकृतिबन्ध विषयक प्ररूपणाएं
ओघवत्
बन्धयोग्य - ओधकी १२०-१-४ इन्द्रिय, स्थावर, आतप, सूक्ष्म, अपर्याप्त, साधारण, नरक त्रिक १०८ गुणस्थान ७ मिथ्या० हुडक नपुं० पाटिका | तीर्थ० ४ आ० द्वि०
C
१०५
१०१
/ )
T
जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश
३
बन्धयोग्य - ओधके चतुर्थ गुणस्थानकी ७७ + आहा० द्वि० = ७६; गुणस्थान ४-१४
ओघवत्
ओषद
बन्धयोग्य ओधके चतुर्थ गुणस्थानकी ७७+ आहा० द्वि० ७६; गुणस्थान ४-७
पुन बन्ध
जोषवत
जोवनद ओमवत
ओमजद
शेष
बन्ध व्युच्छि बन्ध योग्य
ओघवत्
ओघवत् (४-६ तक आ० द्वि० का बन्ध नही)
1
|
१०८ ७ १०१
१०१
I
1
-
४
↑
।
६७ २१ ७६
।
T
६७
1
↑
↑
Page #115
--------------------------------------------------------------------------
________________
प्रकृति बंध
मागंगा
प्रथमोपदशम
द्वितीयोपशम
सम्यग्मध्यादृष्टि
सासादन मिथ्यादर्शन
असज्ञी
अनाहारक
गुण स्थान
गुण
स्थान
१
२
३
४
५
६
५
६
७
४-७
८-११
१
१४. आहारक मार्गणा
आहारक
१२. संधी मार्गणा (प../. १२०-३२२ / ३८६३६०) (पीक /भा/१२९/१२३/४) बन्धयोग्य = अ घवत् १२०, गुणस्थान = १-१२
संशो
२
पिकी प्रकृतियाँ
-
| आ० द्वि०
२
| बन्धयोग्य-प्रोधके चतुर्थ गुणस्थानको 33+ आ० द्वि० मनुष्य देवायु ७७, गुणस्थान - ४-० / ओघवत् १० - मनुष्यायु प्रत्याख्यान ४ अस्थिर, अशुभ, अयश असाता, अति, शोक,
X
अन्धयोग्य प्रथमोपमकी
=६ = ४
= ६
बन्धयोग्य = १२०, गुण सं० १३
बन्ध स्थान
१०८
आयु रहित ७ कर्म अथवा आयु सहित ८ कर्म
"
बन्धयोग्य = ओघके ३ रे गुणस्थानवत् =७४, गुणस्थान - ३ रा बन्धयोग्य ओघके दूसरे गुणस्थानवत् १०१ ; गुणस्थान २ रा | बन्धयोग्य = ओधकी १२० - तीर्थ० आ० द्वि० = ११७, गुणस्थान- पहला
| बन्धयोग्य - ओधकी १२० - तीर्थ० आ० द्वि० = ११७, गुणस्थान-२ वत् १६ + नरक बिना
२ आयु = १६ ओघवन २५ + वज्र ऋषभ०, बी० द्वि०, मनु त्रिक, २६
=
11
अबन्ध
आयुके बिना ७ कर्म
आयु रहित ७ कर्म अथवा आयु सहित ८ कर्म
कुल पुन बन्ध बन्ध याग्य
आ० द्वि०
= ७७, गुणस्थान = ४-११ ( ल. सा. / जी प्र./२२०/२६५)
गुण स्थान
ह
૩૭
६६
१०
११
१२
१३
१४
६२
婦
- प्रथमोपद
जोवनंद
जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश
३. सामान्य प्रकृतिवन्ध स्थान ओघ प्ररूपणा
प्रमाण पंस / प्रा०/३/४४४/२९६-२२०४/२४१) (//३/११-१२.४/०४-८५, ४/९९२) शतक/२०४२)।
-ओघवत्
११७
हृद
अबन्ध
७. प्रकृतिबन्ध विषयक प्ररूपणाएँ
ओषयत
कामणद
आयु बिना ७
99
X
पुन. बन्ध
11
आयु व मोह रहित ६
एक मेदनीय
बन्ध स्थान
शेष
अन्य व्युच्यि गन्य
योग्य
६६
२
१७
६८
∞ m
४
"
२६
牌
ફર
५६
t
१६ १८
६६
Page #116
--------------------------------------------------------------------------
________________
प्रकृति बंध
७. विशेष प्रकृतिवन्ध स्थान ओघप्ररूपणा
प्रति
प्रति
स्थान स्थान
प्रकृति भंग
स..
१ ज्ञानावरणीय
गुण स्थान
३
१-१२ गुणस्थान
१-२ गुणस्थान
3-4/1
e fu
वेदनीय
१-६ गुणस्थान ७- १३
२ दर्शनावरणीय (प. सं/प्रा/४/२४३), (पं सं/- (४/१९४
( शतक / ४३); (प. स्वं /६/सू./०-१६/८२-००),
( गो . / ४३१-४६२/६०६-६०१)
१
X
"
संगुणस्थान
सातिशय
२ सासादन
३ मिश्र
कुल स्थान
ॐ
कुल बन्ध योग्य
१
१
मोहनीय
नोट- देखो पृथक् सारणी
(पं. स. प्र./५/४-२४) ( प स (सं./५/१-३०);
[] ६/८१) (गो.क./४५८) X पाँचो प्रकृतियों
१
१
३
१
Ε
६
१
प्रकृतियोंका विवरण ० गुणस्थान
२
१
कुल स्थान
प्रति स्थान प्रकृति
प्रात स्थान भ
सर्व प्रकृतियाँ
- स्त्यान० त्रिक
चक्षु, अचक्षु, अवधि, केवल
२
(ध. ६/८७-८८), ( गो . क. / ४५८ )
१ मिथ्यादृष्टि - २६ | ( सम्यक् प्रकृति व मिश्र रहित )
सामान्य
१ २२ | ६
दोनों में अन्यतमसे २भग
केवल साता का एक भग
१०९
प्रकृतियो व भगोका विवरण
हास्य रति तथा अरति शोक में से १ युगल x अन्यतम वेद =२x३=६
२२ १२२ ९२६ - अरति शोक, स्त्री, नपु. = २२ २४ ( मिथ्यात्व व नपु० रहित ) १ २१ | ४
५ आयुः
१
२
३
४ अविरत सम्यक् १६ ( अनन्ता० चतु व स्त्री वेद रहित ) क्षा०, वेदक, १७५ २ कृतकृत्य, वे०, उप०
१
मिश्रवत्
४
५-७
८
६ | नाम कर्म
देखो पृथक् सारणी ७ गोत्र—
मिथ्यादृष्टि
सामान्य व
सासादन
सातिशय मिध्या०३-१०
अन्तराय
१-१२
सं गुणस्थान
( हास्य युगल या अरति युगल ) x ७ अप्रमत्त सयत - | ( स्त्री वेद या पुरुष वेद) = ४
१६ ( अनन्ता० चतु० व स्त्री वेद रहित )
८ अपूर्व करण - /vii १ | १७ | २ | ( हास्य युगल या अरति युगल ) x ६ अनिवृत्ति करण ( पुरुष वेद )
=२
2/2-2/v
t/vi
ε/vii
e/vur
५ संयतासंयत१५ उपरोक्त ४ सम्य० सहि०
६ प्रमत्त संयत- ११ चारो प्रकार के सम्य०
सहित
8/1X
१० सूक्ष्म साम्पराय
जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश
कुल स्थान
प्रकृति (च./१/१८-१०१)
१
१
१
X
ह
८. मोहनीयवन्ध स्थान ओघ प्ररूपणा
(सं./६/२००४/पं.सं.प्रा.४/२४६-२३१) ( सं / प्रा/७/२६- २१.३००-३०२), (पं. सं/सं./४/११८-१२३), (पं.सं./
स./५/-३३-३७,३२७-३२१ ) ( सप्ततिका / १४ ४२ ); ( गो क / ४६३-६७८ /६०६-६७८ )
१
७. प्रकृतिबन्ध विषयक प्ररूपणाएँ
१
२
२
१
१
४
विशेष देखो पृथक सारणी बायु ३/११
१
प्रति प्रति
स्थान स्थान
१
(ध. ८/१११-११२)
२
१
१
१
१
१
कुल बन्ध योग्य
कुल स्थान
प्रति स्थान प्रकृति प्रति स्थान भंग
X
१
५
४
३
X
१ १ १
२
२
१
प्रकृतियों का विवरण
१
चारोंमें अन्यतम से ४ भग
नरक रहित अन्यतम एक
X
देव मनुष्या एक
देवाय
अन्यतम एक
(मिश्रवत १६ - अप्रत्या० ४ = १५ ) | १३ | २ | मिश्रवत्
उच्च
सर्व प्रकृतियों
प्रकृतियों व भगका विवरण
(प्रत्या० चतु० रहित ) मिश्रवत्
अरति शोक रहित )
सं०
चतु०, हास्य, रति, भय,
जुगुप्सा, पुरुष वेद
५ १ सं० चतु०, पुरुष वैद
४
१
सं० चतु०
३
१
सं० मान, माया, लोभ
१२ १
लोभ
१
अप्रमत्तवत् (सं० चतु०, पुरुष मेद)
स० माया, स० लोभ
Page #117
--------------------------------------------------------------------------
________________
प्रकृति बंध
११०
७. प्रकृतिबन्ध विषयक प्ररूपणाएँ
५. नाम कर्म प्ररूपणा सम्बन्धी संकेत
समूहीकरण
सकेत
कुल बन्ध प्रकृति प्रकृति
प्रकृतियोंका विवरण
ध/8
धू व बन्धी प्रतिपक्षी युगल
यु०
३
समूहों में से अन्यतम
समूह/५
त्रस/२
वस सहित ही बंधने
योग्य समूह त्रसमें बंधने योग्य त्रस स्थावर दोनोंको विशेष प्रकृतियाँ
तैजस, कार्माण, अगुरुलघु, उपघात, निर्माण, वर्ण, रस, गन्ध, स्पर्श त्रस-स्थावर, बादर-सूक्ष्म, पर्याप्त-अपर्याप्त, प्रत्येक-साधारण, स्थिरअस्थिर, शुभ-अशुभ, सुभग-दुर्भग, आदेय-अनादेय, यश-अयश, (इन । युगलोंको १८ में से प्रतियुगल अन्यतम अन्ध होनेसे-६) चार गति, पाँच जाति, तीन शरीर, ६ संस्थान, चार आनुपूर्वी ( अन्यतम बन्ध होनेसे ५) छ सहनन, ३ अंगोपांग (सकी बन्धने योग्य २) (संहनन औदारिकके साथ बँधते है। दुस्वर-सुपर, प्रशस्त-अप्रशस्त विहायोगति, ( इनमें से २)। उश्वास, परघात। तीर्थकर व आहारक द्वय ( देव नारकके मनुष्य सहित व मनुष्यके देवगति सहित ही बंधे)। आतप (पृथ्वी काय बादर पर्याप्त सहित ही बंधे) उद्योत (पृथ्वी, अप, प्रत्येक वनस्पति, बादर पर्याप्त व त्रस सहित ही
त्रस यु/२ उ, परघात/२ ती. आ./३
पृ.बा/१ उद्योत/१
१०. नाम कर्म बन्धके पाठ स्थानोंका विवरण (पं.सं /प्रा./-४/२५६-३०४/५/५३-६६); (गो, क./५३० १६८८ );(पं स /स./४/१३६-१८८); (पं. सं./सं/५/६२-१११); नोट-ध्र व/ आदि संकेत-दे० सारणी नं०६
प्रत्येक भगमें प्रकृतियो व स्वामियोका विवरण भंग नं. प्रकृतियाँ भंग | स्वामी नं०
प्रकृतियोंका विवरण
स्वामियोंका विवरण
Ho स्थानमें
यश-कीर्ति
4/७,६,१० गुणस्थान धु-JE, स्थावर, अपर्याप्त, सूक्ष्म, साधारण, । सूक्ष्म अप०(पृथिवी, अप, तेज, वायु)+ अस्थिर, अशुभ, दुर्भग, अनादेय, अयश, साधारण बनस्पति के बन्धक तिर्य० द्वि०, एकेन्द्रिय, औ० शरीर हुडक =२३ / उपरोक्त २३-सूक्ष्म+ बादर
-२३ बा० अप पृ०, तेज, अप०, वायु)+गाधा.
बन०के बन्धक -सूक्ष्म, साधारण+बादर, प्रत्येक =२३ । बा० अप० प्रत्येक वनस्पतिके बन्धक -१ ध्रु./8, स्थावर, पर्याप्त, सूक्ष्म, साधारण, सू०प० प्र०(पृ०,तेज,अप,वायु,)+ साधा. स्थिर, शुभ या अस्थिर अशुभ, दुभंग, बन के बन्धक अनादेय, अयश., तिर्य द्वि०, एकेन्द्रिय, औ० शरीर, हुंडक (स्थिर, अस्थिर, शुभ व अशुभ, इन दो युगलोंकी अन्यतम दो से चार भंग) उपरोक्त २५-सूक्ष्म+बादर उपरोक्तवत् ४ भग। भा०प० साधारण वनस्पतिके बन्धक १ |
-२५
उपरोक्त (स्थिर, शुभ, यश इन तीन युगलोंसे
भंग -२५
आतप रहिताबा०प०( पृ० अप, तेज वायु )
जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश
Page #118
--------------------------------------------------------------------------
________________
प्रकृति बंध
१११
७. प्रकृतिबन्ध विषयक प्ररूपणाएं
|
स्थानमें | कुल
कुल
प्रत्येक भंगमें प्रकृतियों व स्वामियों का विवरण प्रकुतियोंका विवरण
स्वामियोका विवरण
। प्रकृतियाँ
स्वामी नं०
भग
1v१७-२४
| उपरोक्त २५-सूक्ष्म, साधारण + बादर, प्रत्येक - २५ | बादर पर्याप्त प्रत्येक वनस्पति ( उद्योत (स्थिर, शुभ, यश इन तीन युगलोंसे ८ भंग) | रहित )
| V
२५-४८
४६-५६
१-5
| ध्र ,स, अप०,बादर,प्रत्येक, दुर्भग, अनादेय,
स्थिर,शुभ व यश इन तीन युगलों में अन्यतम -८ | तिर्य द्वय, २-५ इन्द्रिय (8) में अन्यतम, आ० अप०, द्वी, त्री, चतुरेन्द्रिय ( उद्योतरहित ) द्वय सृपाटिका, हुंडक (३२ भंग) =२५ संज्ञी, असंज्ञी, पंचेन्द्रियके बन्धक -५ उपरोक्त २५-तिर्य० द्वय + मनुष्य द्वय =८ भंग | अप० मनुष्यके बन्धक ( उपरोक्त ) बा०प० पृ० की २५ + आतप - बा०प० पृथिवी ( आतप युत) -१
(उसी व ८ भंग) ( उपरोक्त ) बा०प० पृ० की २५+ उद्योत बा०प० पृ० अप, बनस्पति (उद्योत युत)-३
(उसी वव ८ भंग) विकलत्रय अप० की २५ (उसीवत् ३२ भंग)=२६ बा०द्वी० त्री० चतुरेन्द्रिय उद्योत सहित)
४ असज्ञी पंचे० ( ,) =४ ध्र व/,त्रस, आदर, पर्याप्त, प्रत्येक, सुभग, देवगतिके बन्धक आदेय स्थिर,शुभ व यश इन तीन युगलोंमें अन्यतम ३ से ( ८ भंग), देवद्वय, पंचेन्द्रिय, वैक्रि० द्वय, समचतुरस्त्र, सुस्वर व प्रशस्त विहायो०, उच्छ्वास, परवात (८भंग) =२८
१७-४८
नरक गतिके बन्धक
५.६,त्रस, नादर, पर्याप्त, प्रत्येक, दुर्भग, अनादेय अस्थिर, अशुभ, अयश, नारद्वय, वैक्रि० द्वय, पंचे०, हुंडक, दुस्वर, अप्रशस्तविहायो०, उछवास, परघात
६
।।
१-३२
२६१२४८० ७
६२८८
ध्रु./६,स, बादर, पर्याप्त, प्रत्येक दुर्भग, अना- बा०प०वी० त्री० चतुरेन्द्रिय तथाअसंज्ञी देय स्थिर शुभ व यश इन तोन युगलों में | पंचेन्द्रियका बन्धक ( उद्योत रहित ).-४ अन्यतम ३ से भंग),तिर्य द्वय, औ० वय, २-५ इन्द्रिय, इन ४ में अन्यतमसे (४ भंग) हुंडक, सृपाटिका, दुस्वर अप्रशस्त विहायो, उच्छवास, परघात (८४४-३२ भंग) =२६/
| प० संज्ञी पंचेन्द्रियका बन्धक
11]३३-६४०//६,प्रस, बादर, पर्याप्त, प्रत्येक सभग.
आदेय, स्थिर, शुभ, यश इन पाँच युगलोंमें अन्यतम से (३२ भंग)-तिर्य० द्वय, औ० द्वय, पंचेन्द्रिय, ६ संस्थानों में अन्यतम १से (६भंग),६संहननमें अन्यतम १से(६ भंग), स्वर द्वय व, विहायोगति द्वय इन दो युगलोंमें अन्यतम २ से (४भंग),उच्छ्वास, परघात
(३२x६x६x४-४६०८ भंग)
11४६४१-११८० उपरोक्त २१-तिर्य द्वय+मनुष्य द्वय, (उसी
वत् ४६०८ भंग)
प० मनुष्यका बन्धक नारकी
जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश
Page #119
--------------------------------------------------------------------------
________________
प्रकृति बंध
७. प्रकृति बन्ध विषयक प्ररूपणाएँ
प्रत्येक भंगमें प्रकृतियों व स्वामियों का विवरण
स्थान नं० में
| प्रकृति
कुल भग | स्वामी
Fol
भंग नं०
प्रकृतियो व भंगोंका विवरण
स्वामियों का विवरण
६२८१- ६२८१-१२४८०
| ध/स, बादर, पर्याप्त, प्रत्येक, सुभग, आदेय, | देवगति व तीर्थ करके बन्धक
स्थिर, शुभ, यश इन ३ युगलोंमें अन्यतम ३ के ८ भंग, देव द्वय, वैक्रि० द्वय, पंचेन्द्रिय, समचतुरस्त्र, सुस्वर, प्रशस्त विहायो०, उच्छ्वास, परघात, तीर्थकर (३२०० भंग) (८ भग) =२६
६२८८
|७| ३० | १२८६
१-३२
(नं ६/1 की २६+ उद्योत) (उसीवत् भंग-३२)
| प० द्वी, त्री; चतुः, असंज्ञी पं.(उद्योतयुत)-४
1 ३३-३२० ध्र.हि त्रस, बादर, पर्याप्त, प्रत्येक, स्थिर, शुभ, मनुष्य व तीर्थकरका बन्धक
सुभग, यश, आदेश, अनादेयमें अन्यतम १ के २ भंग, मनुष्य द्वय, औ०द्वय, पंचेन्द्रिय, ६ सस्थानों में अन्यतम १ के ६ भंग, ६ सहननोमें अन्यतम १ केभग, स्वर द्वय, विहायोगति द्वय इन दो युगलोमें अन्यतम २ से चार भंग, उच्छ्वास,
परघात-(२x६x६x४-२८८ भंग)+तीर्थ.-३० ३२१-३३८ नं ६/1v की २६-तीर्थकर + आहार० द्वि० | देव व आहारक का बन्धक
| ( उसीवत भग-८) Helv की २६+ आहार० द्वि०, (उसी वद देव गति,आहारक व तीर्थकर काबन्धक-१ भंग ८)
११. नाम कर्म बन्ध स्थान ओध प्ररूपणा-(प. सं./प्रा./५/४०३-४१७) (प. सं सं./५१४१६-४२८)
गुण
गुण स्थान
गुण स्थान
बन्ध स्थान
बन्ध स्थान
स्थान
बन्ध स्थान
هه
| २३/1-111, २५/1-V1, २६/1-1ii,
२८/1-11, २६/1-111, ३०/२८/1, २६/1-111, ३०/२८/1, २६/17 २८/1, २६/1v, ३०/11
२८/1, २६/1v २८/1, २६/v २८/1, २६/1v, ३०/111, ३१/1 २८/1, २६/1v, ३०/11, ३१/३, १/1
م
नोट-इनकी विशेषता यथायोग्य सत्त्व तथा व्युच्छित्ति वाला सारणियोसेजानना आदेशकी अपेक्षा भी यथायोग्य लगा लेना।
سه به
१२. जीव समासों में नामकर्म बन्ध स्थान प्ररूपणा-(गो. क /७०४-७११/८७८-८८१)
कुल
जीव समास
कुल स्थान
प्रति स्थान प्रकृतियाँ
स०
जीव समास
प्रति स्थान प्रकृतियाँ
स्थान
२३,२५,२६,२६,३०
५
२३,२५,२६,२६.३०
अपर्याप्त सातौ जीव समास पर्याप्त एकेन्द्रिय सुक्ष्म
10730
एकेन्द्रिय बादर विकले न्द्रिय असंज्ञी पंचेन्द्रिय सज्ञी पंचेन्द्रिय
२३,२५,२६,२८,२६,३० २३,२५,२६,२८,२६,३०,३१,१
-
जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश
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प्रकृति बंध
११३
७. प्रकृति बन्ध विषयक प्ररूपणाए
२३.नाम कम बन्ध स्थान आदेश प्ररूपणा--(पं. स./प्रा./५/४१६-४७२);(गो, क./७१८-७२८/८८४-८६४)
मार्गणा
कुल स्थान
प्रतिस्थान प्रकृतियाँ
नं०
मार्गणा
कुल स्थान
प्रतिस्थान प्रकृतियाँ
१. गति मार्गणा१। नरक गति
तिर्यच ३ मनुष्य ४ | देव
२८,२६,३०,३१,१ २८,२६,३०,३१
२६.३० २३,२५,२६,२८,२६,३० २३,२५,२६,२८,२६,३०,३१,१ २५,२६,२६,३०
८. सयम मार्गणा१। सा० छेदो० २ परि० वि० ३ सुक्ष्म सा० ४ यथाख्यात ५। देश संयत ६ | असंयत
x0
२. इन्द्रिय मार्गणा
२८,२६ २३,२५,२६,२८.२६,३०
६
।
२३,२५,२६,२६,३०,३१
९. दर्शन मार्गणा
१। एकेन्द्रिय २ विकलेन्द्रिय ३। पंचेन्द्रिय
८
।
२३,२५,२६,२८,२६,३०,३१,१
२३,२५,२६२८,२६,३०,३१,१
३. काय मार्गणा
२ अचश्च ३ | अवधि ४ केवल
२८,२६,३०,३१.१
१| पृ० अप वनस्प० २ तेज, वायु
२३,२५,२६,२६,३०,३१
१०. लेश्या मार्गणा
३ त्रस
८
२ ३,२५,२६,२८,२६,३०,३१,१
१ | कृष्णादि तीन २ पीत ३ पद्म ४ | शुक्ल
४. योग मार्गणा१। सर्व मन, वचन
औदारिक औ०मिश्र
c.mm
२३,२५,२६,२८,२६,३० २५,२६,२८,२६,३०,३१ २८,२६,३०,३१ २८,२६,३०,३१.१
२३,२५,२६,२८,२६,३०,३१,१
"
११. भव्य मार्गणा
वैक्रि०
२३,२५,२६,२८,२६,३० २५,२६,२६,३०
mucc com in
१। भव्य
अभव्य
२८,२६
२
१ वै० मिश्र
आहारक | आ० मिश्र ८ । कार्माण
।
२३,२५,२६,२८,२६,३०,३१,१ २३,२५,२६,२८, २९, उद्योत सहित के ३०
२३,२५,२६,२८,२६,३०
१२. सम्यक्त्व मार्गणा
५. वेद मार्गणा१ | स्त्री वेद २ नपु० वेद ३ पुरुष वेद
२३,२५,२६,२८,२६,३०,३१,१
or mr-xur
१| क्षायिक
वेदक उपशम सम्य० मि०
सासादन ६ मिथ्यादृष्टि
२८,२६,३०,३१.१ २८,२६,३०,३१ २८.२६,३०,३१.१ २८,२६ २८,२६,३० २३,२५,२६,२८,२६,३०
६. कषाय मार्गणा१। सर्व सामान्य
१ । सर्व सामान्य
८
।
(यथा योग्य) २३,२५,२६,२८,२६,
। ३०,३१.१
१३. संशी मार्गणा
1२ असंज्ञो
२३,२५,२६,२८,२६,३०,३१.१ २३,२५,२६,२८,२६,३०
२३,२५,२६,२८,२६,३०
१४ आहारक मार्गणा
७. शान मार्गणा१। मति, श्रुत अज्ञान ।
विभग
मति, श्रुत, अवधि ४ मन पर्यय
केवल
war xxx
२८,२६,३०,३१,१
१ | आहारक
अनासयोगी अना० अयोगी
२३,२५,२६,२८,२६,३०,३१,१ २३,२५,२६,२८,२६,३०
जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश
भा०३-१५
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प्रकृतिवाद
***
१४. मूळ उत्तर प्रकृतियों में जघन्योत्कृष्ट बन्ध तथा अन्य सम्बन्धी प्ररूपणाओंकी सूची
विषय
नं.
प्रमाण
१ मूल व उत्तर प्रकृतियोकी स्वस्थान व म.अं. १ / ६५परस्थान सन्निकर्ष प्ररूपणा ।
१३२
स्वस्थान व
२ मूल व उत्तर प्रकृतिके द्रव्य, क्षेत्रादि या प्रकृति प्रदेशादि चार प्रकार बन्ध अपेक्षा उत्कृष्ट जघन्यादि रूप परस्थान सन्निकर्ष प्ररूपणए । ३ सर्व असर्व, उत्कृष्ट - अनुत्कृष्ट, जघन्यअजयन्य, आदि अनादि और धनअध व प्रकृति बन्ध प्ररूपणाओकी ओघ आदेश समुत्कीर्तना ।
४ नाना जीवोकी अपेक्षा उत्तर प्रकृतियो म. बं १ / १३३का भंगविचय |
१४०
घ २/३७०४७६
म. बं.
३१
१/२६
प्रकृतिवाद- - दे० सांख्य दर्शन ।
प्रक्रम दे० उपक्रम ।
प्रक्रिया - Process, १ Operation, (घ. ५/२० ) । प्रक्षेपक - ( गो जी. / भाषा / ३२६ / ७००/८ का भावार्थ- पर्यायसमास ज्ञानका प्रथम भेद विषै पर्याय ज्ञानतें जितने बंधे तिसने जुदे की ' पर्याय ज्ञानके जेते विभाग प्रतिच्छेद है तौहि प्रमाण इस विमहित जानना । यहु जघन्य ज्ञान है इस प्रमाणका नाम जघन्य स्थाप्या । इस जघन्य जीवराशि मात्र अनंतका भाग दीए जो प्रमाण आवै ताका नाम प्रक्षेपक जानना । इस प्रक्षेपककौ जीवराशि मात्र अनतका भाग दीए जो प्रमाण आवै जो प्रक्षेपक प्रक्षेपक जानना । प्रगणना - घ ११ / ४,२,६, २४६/३४९/१० तत्थ पगणणा णाम इमिस्से
मिस्से द्विदीए मंधकारणवाणि दिदिबंधवाणायाणि एत्तियाणि तियाणि होति ति दिदिबंधक सामट्ठाणाणं प्रमाणं परुवेदि । == प्रगणना नामक अनुयोगद्वार अमुक अमुक स्थिति के बन्धके कारण स्थितिबन्धाध्यवसानस्थान इसने इतने होते है, इस प्रकार स्थितिबन्धाध्यवसानस्थानोके प्रमाणकी प्ररूपणा
करता है।
प्रज्ञप्तिरामनाथ की शासक यक्षिणी ०2/2 २. एक विद्या दे० विद्या ।
१.
-
प्रज्ञा - प्रज्ञा व ज्ञानमे अन्तर- दे० ऋद्धि /२/७ ।
प्रज्ञाकरगुप्त - एक बौद्ध भ्रमण था धर्मकीर्ति इसके गुरु थे। प्रमाणवार्तिकाकारको इन्होने रचना की थी। समर्थ सं. १६०-७२० (सि.नि./ प्र.२१/१ महेन्द्र ) |
प्रज्ञापन नय दे० नय / I/५ ।
प्रज्ञापरीषहससि /१/१/४२०/४
पूर्वप्रकीर्णकविशारदस्य शब्दन्यायाध्यारण
निपुणस्य मम पुरस्तादितरे भास्करप्रभाभिखद्योतयतिरा नावभासन्त इति विज्ञानमदनिरास प्रज्ञापरिषहजय प्रत्येतव्यः ।
मै अग, पूर्व और प्रकीर्णक शास्त्रोमें विशारद हूँ तथा शब्दशास्त्र, न्यायशास और अध्यात्मशासने निपुण हूँ। मेरे आगे दूसरे जन सूर्य
प्रज्वलित
की प्रभासे अभिभूत हुए द्योतके उद्योतके समान मिलत नहीं सुशोभित होते हैं इस प्रकार विज्ञानमा निरास होना महापरि जय मानना चाहिए (रा मा./१/३/२६/६१२/११) (चा. सा./ १२७/४) ।
२. प्रज्ञा व अज्ञान परपहमें अन्तर
XX
स.सि /१२/१०/२३५/७ प्रज्ञाज्ञानयोरपि विरोधाइयुगपद संभवः ज्ञानापेक्षया प्रज्ञापरिषह' अवधिज्ञानाद्यभावापेक्षया अज्ञानपरिषह इति नास्ति विरोध । - प्रश्न- प्रज्ञा और अज्ञान परीषहमें भी विरोध है, इसलिए इन दोनोंका एक साथ होना असम्भव है ? उत्तरएक साथ एक आमा ज्ञानको अपेक्षा प्रज्ञापरीह और अवधिज्ञान आदिके अभाव की अपेक्षा अज्ञान परीषद रह सकते है, इसलिए कोई विरोध नहीं है (रा. बा./१/१०/३/६१५/१८ ) ।
३. प्रज्ञा व अदर्शन
परीषहमें अन्तर
रा. मा/// ३९/६९३/२
प्रदर्शनमपि ज्ञानाविनाभावीति प्रज्ञापरीषहे तस्यान्तर्भाव प्राप्नोतीति'; नैष दोषः, प्रज्ञायां सत्यामपि क्वचित्तत्त्वार्थ श्रद्धानाभावाद व्यभिचारोपलब्धे । = प्रश्न- श्रद्धान रूप दर्शनको ज्ञानाविनाभावी मानकर उसका प्रज्ञा परीषहमें अन्तर्भाव किया जा सकता है उत्तर-नहीं, क्योंकि कभी-कभी प्रज्ञाके होनेपर भी तत्वार्थ श्रद्धानका अभाव देखा जाता है, अतः व्यभिचारी है।
४. प्रज्ञा व अज्ञान दोनोंका एक ही कारण क्यों
रा. वा०/६/१३/१-२ / ६१४/१४ ज्ञानावरणे अज्ञानं न प्रज्ञेति नः अन्यज्ञानावरणसद्भावे तद्भावात् |१| प्रज्ञा हि क्षायोपशमिकी अन्यस्मित् ज्ञानावरणे सति मदं जनयति न सकलावरणक्षय इति प्रज्ञाज्ञाने ज्ञानावरणे मति प्रादु·स्त इत्यभिसंबध्यते ॥ मोहादिति चेव नः सहभेदानां परिगणितत्वात २- मोहभेदा हि परिगणिता दर्शनचारित्रयामासतुभावेन तत्र नायमन्तर्भवति चारित्रोऽपि प्रज्ञापरीषद्भावाद, ततो ज्ञानावरण एवेति निश्चय कर्त्तव्य' । = १. ज्ञानावरण के उदयसे प्रज्ञा और अज्ञान परीषह होती है । क्षायोपशमिकी प्रज्ञा अन्य ज्ञानावरणके उदयमें मद उत्पन्न करती है, समस्त ज्ञानावरणका क्षय होनेपर मद नही होता । अत प्रज्ञा और अज्ञान दोनो ज्ञानावरणसे उत्पन्न होते है। २. मोहनीयकर्म भेद गिने हुए है और उनके कार्य भी दर्शन चारित्र आदिका नाश करना सुनिश्चित है अत 'मै बडा विद्वान् हूँ । अत यह प्रज्ञामद मोहका कार्य न होकर ज्ञानावरणका कार्य है। क्योंकिचारित्रवालीके भी प्रज्ञापरिषह होती है ।
प्रज्ञापिनी भाषा दे० भाषा
प्रज्ञाश्रवण ऋद्धि - दे० ऋद्धि /२/७६
प्रचय - १. ३० क्रम/ १, २ Common difference, (ज. प./ प्र १०७) ।
प्रचला - दे० निद्रा ।
प्रच्छना - दे० पृच्छना |
प्रच्छन्न
प्रजापाल - सुकच्छ देशके श्रीपुर नगरका राजा था। जिन दीक्षा धारण कर ली थी। आयुके अन्तमें समाधि सहित मरणकर अच्युत स्वर्ग में उत्पन्न हुआ । (म. प्र / ६६ / ६७-७५ ) यह पद्म चक्रवर्तीका पूर्व तीसरा भर है -- दे० पद्म ।
प्रज्वलित तीसरे नरकका छठा पटल दे० नरक/५ ।
आलोचनाका एक दोष-दे० आलोचना /२ ।
जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश
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११५
प्रणय-गो, जी / जी, प्र. / ३४/६४/६ बाह्यार्थेषु ममत्वरूप प्रणय' । - बाह्य पदार्थनिविषै ममत्वरूप भाव सो प्रणय कहिए स्नेह है ।
प्रणय
प्रणाम दे० नमस्कार ।
प्रणिधान
1
-भ. आ /मू / ११६-११८ / २७१ पणिधाणं पि यदुविहं इंदिय णोई दियं च बोधव्वं । सद्दादि इदियं पुण कोधाईयं भवे इदर | ११६ । सहरसरूपगंधे फासे य मणोहरे य इयरे य । नं रागदोसगमणं पंचवि होदि पणिधाण १११० मोहंदियपणिधाण कोधो माथ तव माया य । लोभो य णोकसाया मणपणिधाणं तु त बज्जे ॥ ११८ - प्रणिधान के इन्द्रिय प्रणिधान नोइन्द्रिय प्रणिधान ऐसे दो भेद है। स्पर्श, रस, गन्ध, वर्ग और शब्द मे इष्ट और अनिष्ट ऐसे दो प्रकार के है। इनसे आत्मामें रागद्वेषकी उत्पत्ति होती है, इसको इन्द्रिय विधान कहते है। स्पर्शनेन्द्रिय रसनेन्द्रिय, मारिद्रय, पशुरिद्रिय और भीप्रेन्द्रिय प्रणिधान ऐसे पाँच भेद है ।११६-११७ क्रोध, मान, माया, लोभ, हास्य, रति, अरति, शोक, भय, जुगुप्सा तथा तीनो वेद, इन सर्वके परिणामोको नोइन्द्रिय प्रणिधान कहते है। (मु. आ. / २६६-३०० ) ।
आ/२१८ पाप म सुनि पस तह आपस च समिदीतु यगुती मसत्यं समम्पसस्यं तु । २६८० - प्रणिधानके भी दो भेद है-शुभ और अशुभ पाँच समिति और तीन मूडियो में जो परि णाम है वे शुभ होते हैं और शेष इन्द्रियविषयो में जो परिणाम है। वह अशुभ है | २६८ा
रा. वा./७/३३/२/५५७/७ दुष्ठु प्रणिधानमन्यथा वा दु प्रणिधानम् |२| प्रणिधानं प्रयोग परिणाम इत्यनर्थान्तरम् पाप्रणिधानं दुःप्रणिधानम्, अन्यथा वा प्रणिधानं दु प्रणिधान तत्र क्रोधादिपरिणामवशाल दृष्ठ प्रणिधानं शरीरावयवानाम् अनिभृतमवस्थानम्, वर्ण संस्काराभावाऽर्थागमकत्व चापलादिवाग्गतम्, मनसोऽनर्पितत्वं
यथा प्रणिधानम् - परिणाम प्रयोग व प्रणिधान मे एकार्यबाची शब्द है । दु प्रणिधानका अर्थ दुष्ट या पापरूप प्रणिधान है या अन्यथा प्रणिधानको दुःप्रणिधान कहते है। तहाँ क्रोधादि कषायोके यश होकर दुष्ट प्रणिधान होता है और शरीरका विचित्र विकृति रूपसे हो जाना, निरर्थक अशुद्ध वचनोका प्रयोग करना और मनका उपयोग न लगना ये अन्यथा प्रणिधान है। ( और भी दे० उपयोग / II / ४ / १, २ तथा मनोयोग / ५ ) ।
न्या. सू/टी./३/२/४३ /२०८ / १४ सुस्मृर्षया मनसो सुस्मूषित लिङ्गचिन्तनं चार्थ स्मृतिकारणम् । मनको एक स्थानमें लगानेका 'नाम' प्रणिधान है। प्रणिधि
मायाका एक भेद - दे० माया / २ ) ।
धारणं प्रणिधानं स्मरणकी इच्छा
प्रतर-१. area अथवा ( Particular unit, २ जगत् प्रतर, राजू प्रतर व तिर्यक् प्रतर दे० गणित / I / २ / ७, १/३ ।
प्रतरसमुद्घात - दे० केवली / ७ | प्रतरांगुल (अगुल ) १ ३० गणित //१/२
प्रतरात्मक अनंत आकाश - Infmite Plane area प्रतिकुंचन-पायाका एक भेद-३० मामा / २० प्रतिक्रमण[—asu ga keegaïk-ks - g ज्ञान / IIT /
प्रतिक्रमण व्यक्तिको अपनी जीवन यात्रामें क्या मश पद पद पर अन्तरग व बाह्य दोष लगा करते है, जिनका शोधन एक श्रेयोare लिए आवश्यक है । भूतकालमे जो दोष लगे है उनके शोधनार्थ प्रायश्चित पश्चाताप व गुरुके समझ अपनी निन्दा-गर्दा करना
प्रतिक्रमण
प्रतिक्रमण कहलाता है । दिन, रात्रि, पक्ष, मास, सवत्सर आदि में लगे दोषों को दूर करने की अपेक्षा वह कई प्रकार है ।
१. भेद व लक्षण
१ प्रतिक्रमण सामान्यका लक्षण
१. निरुक्तयर्थ
स सि./ १ / १२ / ४४० / ३ मिध्यादुष्कृताभिधानादभिव्यक्तप्रतिक्रिम प्रतिक्रमशस् 'मेरा दोष मिथ्या हो' गुरु ऐसा निवेदन करके अपनी प्रतिक्रिया व्यक्त करना प्रतिक्रमण है । ( रा वा./१/२२/३/६२१/१८ ) (तसा /७/२३६)
1
गो. जी जी म/ ३६०/०६०/२ प्रतिक्रम्यादिदोषो निराक्रियते अनेनेति प्रतिक्रमणं । प्रमादके द्वारा किये दोषोका जिसके द्वारा निराकरण किया जाता है, उसको प्रतिक्रमण कहते है । २. दोष निवृत्ति
B
रा. वा / ६ / २४/१२/२२०/१२ अतीतदोषनिवर्तनं प्रतिक्रमण
रा
दोषोकी निवृति प्रतिक्रमण है। (स.सा./ता. ९/३०६/०८/१ ) (भा. पा./टी./००/२२९/१४)।
घ. ८/३.४१/०४ / ६ पंचमहय चउरासीदिवखगुणगणक्लखिए समुपकल पखालणं पडिक्कमणं णाम । चौरासी लाख गुणोके समूहसे संयुक्त पाँच महाव्रतो में उत्पन्न हुए मलको धोनेका नाम प्रतिक्रमण है।
भा आम. ४२९/६१२/१२ अपेतादिकल्पस्थितस्य यद्यतिचारी भवेद प्रतिक्रमणं कर्तव्यमित्येषोऽष्टमः स्थितिकल्प - अचलतादि कल्पमे रहते हुए जो मुनिको अतिचार लगते है उनके निवारणार्थ प्रतिकमण करना अष्टम स्थितिकल्प है ।
२. मिथ्यामें दुष्कृत
=
मू. आ./२६ दव्वे खेत्ते काले भावे य किदावराहसोहणय । णिदणगरहणजुत्तो मणवचकायेण पडिक ॥२६॥ द्रव्य क्षेत्र, काल और भाव में किया गया जो व्रतमें दोष उसका शोधना, आचार्यादिके समीप आलोचनापूर्वक अपने दोषोको प्रकट करना, यह मुनिराजका प्रतिक्रमण गुण होता है | २६
नि. सा./मू./१५३ वयणमयं पडिकमणं जाण सज्झाउ | १५३। -वचनमय प्रतिक्रमण यह स्वाध्याय जान ।
ध./१२/५.४.२६/६०/- गुरुणमालोचनाएगा सरवेण निव्वेयस्स पुणो न करेमि ति जमराहादो जिस परिक्रमणं नाम पायच्चिन्त । - गुरुओके सामने आलोचना किये बिना सवेग और निर्वेदसे युक्त साधुका फिर कभी ऐसा न करूँगा यह कहकर अपने अपराधसे निवृत्त होना प्रतिक्रमण नामका प्रायश्चित्त है । ( अन ध / ७ / ४७ ) ( भा. पा. / ७८ / २२३ / ५ ) ।
भा. आ / वि / ६ / ३२ / १६ स्वकृतादशुभयोगात्प्रतिनिवृति प्रतिक्रमण = स्वत के द्वारा किये हुए अशुभ योगसे परावर्त होना अर्थाद 'मेरे अपराध मिथ्या होवे' ऐसा कहकर पश्चात्ताप करना प्रतिक्रमण है । २. निश्चय प्रतिक्रमणका लक्षण
१. शुद्ध नयकी अपेक्षा
1
सा. सा. ३ कम्म पुत्रक सहाहमणेयस्थिरविसेस ततो णियत्त अप्पयं तु जो सो पडिक्कमणं । ३८३३ = पूर्वकृत जो अनेक प्रकार के विस्तार वाला शुभ व अशुभ कर्म है, उससे जो आत्मा अपनेको दूर रखता है वह आत्मा प्रतिक्रमण है | ३३
..
नि सा/मू./८३-८४ मोत्तूण वयणरयण रागादीभाववरणणं किच्चा । अप्पा जो भार्यादि जस्स दु होदित्ति पडिकमणं |३| आराहणाइ
जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश
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प्रतिक्रमण
1
वह मोचूण बिराह विशेष सो पडिकगण उमर पडिकमणमओ हवे जम्हा | ४| वचन रचनाको छोडकर, रागादि भावोका निवारण करके, जो आत्माको ध्याता है, उसे प्रतिक्रमण होता है। जो (जीव) विराधनाको विशेषत छोडकर आराधनाने वर्तता है, वह (जीव ) प्रतिक्रमण कहलाता है, कारण कि वह प्रतिक्रमण इसी प्रकार अनाचारको छोड़कर आचारमे, उगमार्गका त्याग करके जिनमार्गमे, शल्य भावको छोड़कर नि राज्य भाव से, arrant छोडकर त्रिगुप्ति गुप्तसे, आर्त-रौद्र ध्यानको छोडकर धर्म अथना शुभ ध्यानको मध्यादर्शन आदिको छोड़कर सम्यकदर्शनको भाता है वह जीव प्रतिक्रमण है । (नि सा./मू./८५-१९ ) । भ.आ./वि/१०/४६/१०] कृतातिषारस्य यतस्तद विचारपराङ्मुखतो योगत्रयेण हा दुष्टं कृतं चिन्तितमनुमन्तं चेति परिणाम. प्रतिक्रमणम् । - जब मुनिको चारित्र पालते समय दोष लगते हैं तब, मन बचनयोगसे मैने हा । दुष्ट कार्य किया कराया व करनेवालोंका अनुमोदन किया यह अयोग्य किया ऐसे आत्माके परिणामको प्रतिक्रमण कहते है।
२. निश्चय नयकी अपेक्षा
नि. सा. // उत्तमत्र आदा हि हिदा हदि सुणिवराकम् । तम्हा दु झाणमेव हि उत्तम अट्ठस्स पडिकमणं । उत्तमार्थ ( अर्थात् उत्तम पदार्थ सच्चिदानन्द रूप कारण समयसार स्वरूप ) आत्मामें स्थित मुनिवर कर्मका घात करते हैं, इसलिए ध्यान ही वास्तव में उत्तमार्थ का प्रतिक्रमण है । ८२ । ( न च वृ./ ३४६ ) ति. प./१/४६ पडिकमणं पडिसरणं पडिहरणं धारणा णियत्ती य । जिंदगरुणसोही सम्मति मियादभानगर ४६| निजात्मा भावनासे प्रतिक्रमण, प्रतिसरण, प्रतिहरण, धारणा, निवृत्ति, निन्दन, गई और शुद्धिको प्राप्त हो ॥४६॥ यो सा. ब/२/५० कुताना कर्मणा पूर्व सर्वेषां पाकमी आत्मीय परित्याग प्रतिक्रमणमीर्यते ५०० पहिले किये हुए कमोंके प्रदत्त फलोको अपना न मानना प्रतिक्रमण कहा जाता है ।५०
-
प्र साता २००/२८९/१४ निजामपरिणतिलक्षणा या तु क्रिया सा निश्चयेन बृहत्प्रतिक्रमणा भण्यते । निज शुद्धात्म परिणति है लक्षण जिसका ऐसी जो किया है, वह निश्चय नयसे बृहत्पतिक्रमण कही जाती है ।
३. प्रतिक्रमणके भेद
१. देवसिक आदिकी अपेक्षा
म. आ / १२०,६१३ पढमं सव्वदिचारं विदियं तिविह हवै पडिकमणं । पास्त्र परिचय जानीबुतम च । १२० पडिकमण देवसियं रादिय हरियाणा में मोधव्न पनिलय चादुम्मासय संवारगुप्तमट्ठच । ६१३॥ पहला सर्वातिचार प्रतिक्रमण है अर्थात् दीक्षा ग्रहण से लेकर सब तपश्चरण के कालतक जो दोष लगे हो उनकी शुद्धि करना, दूसरा त्रिविध प्रतिक्रमण है वह जलके बिना तीन प्रकारका आहारका त्याग करनेमें जो अतिचार लगे थे उनका शोधन करना और तीसरा उत्समार्थ प्रमण है उसमें जीवन पर्यंत जलपीनेका त्याग किया था, उसके दोषोकी शुद्धि करना है, ।१२० | अनिपारोसे निवृत्ति होना यह प्रतिक्रमण है वह देवसिक रात्रिक ऐपिक, पाक्षिक चतुर्मासिक, सांवत्सरिक, और उत्तमार्थ प्रतिक्रमण ऐसे सात प्रकार है /११३/ (क. पा १), (२.९/६०० / ९९३/६) ( गो. जी / जी. प्र / ३६७/७१०/३ ) ।
२. द्रश्य क्षेत्र आदिकी अपेक्षा
भ. आ
/११६/२०५ / १४ प्रतिक्रमणं प्रतिनिवृत्ति पोडा भियते नामस्थापनादव्यक्षेत्रकालभावविकल्पेन । केषाचिद्वयाख्यान । चतुर्वि
११६
१. भेद व लक्षण
धमित्यपरे ।
अशुभसे निवृत्त होना प्रतिक्रमण है, उसके छह भेद है - नाम, स्थापना, द्रव्य, क्षेत्र, काल और भाव प्रतिक्रमण । ऐसे कितने आचार्यों का मत है । कोई आचार्य प्रतिक्रमणके चार भेद कहते है ।
४. नाम स्थापनादि प्रतिक्रमणका लक्षण भ.आ./वि./ ११६/२७५/१४ अयोग्यनाम्नामनुच्चारणं नामप्रतिक्रमणं । • आप्ताभासप्रतिमायां पुरः स्थिताया यदभिमुखतया कृताञ्जलिपुटता, शिरोवनति न कर्तव्यम् एवं सा स्थापना पराभवति स स्थावरस्थापनानामविनाशनं अमई में अतानं वा परिहारप्रतिक्रमण गमोत्पादने षणादोषदुष्टन मसतीनां उपकरणानों, भिक्षाणां च परिहरणं अयोग्याना चाहारादीना, गुदस्य च कारणानां सक्तेाहेतुनां वा निरसने व्यतिक्रमण उदककई मनसस्थावर निचितेषु क्षेत्रेषु गमनादिवर्जनं क्षेत्रप्रतिक्रमणं । यस्मिन्मा क्षेत्रे वसतो रत्नत्रयहानिर्भवति तस्य वा परिहार । ... रात्रिध्यात्रयस्वाध्यायावश्यक कालेषु गमनागमनादिव्यापाराकारणात् कालप्रतिक्रमणं । आर्स शुभपरिणामा पुण्याभूताश्च शुभ परिणामा; इह भावशब्देन गृह्यन्ते, तेभ्यो निवृत्तिभवप्रतिक्रमण इति । अयोग्य नामोका उच्चारण न करना यह नाम प्रतिक्रमण है। आभासी प्रतिमा के जागे खड़े होकर हाथ जोडना, मस्तक नवाना, द्रव्यसे पूजा करना, इस प्रकार के स्थापनाका त्याग करना, अथवा त्रस, वा स्थावर जीवोकी स्थापनाओ का नाश करना, मर्दन तथा ताडन आदिका त्याग करना स्थापना प्रतिक्रमण है |... उद्गमादि दोष युक्त वसतिका, उपकरण व आहारका त्याग करना. अयोग्य अभिलाषा, उन्मत्तता तथा संक्लेश परिणामको बढाने वाले आहारादिका त्याग करना, यह सब द्रव्य प्रतिक्रमण है । पानी, कीचड, त्रसजीव, स्थावर जीवोसे व्याप्त प्रदेश तथा रत्नत्रयकी हानि जहाँ हो ऐसे प्रदेशका त्याग करना क्षेत्र प्रतिक्रमण है |.. रात्रि, तीनों सन्ध्याओमें, स्वाध्यायकाल, आवश्यक क्रियाके कालो में आने जानेका त्याग करना यह काल प्रतिक्रमण है। आर्त रौद्र इत्यादिक अशुभ परिणाम व पुण्यासवके कारणभूत शुभ परिणामका त्याग करना भाव प्रतिक्रमण है ।
1
भ, आ / वि. / ५०६ / ०२९/१४ हा दुष्कृतमिति वा मन प्रतिक्रमणं सूत्रो कचारणं राज्य प्रतिक्रमणं कायेन रादनाचरणं कायतिक्रम - किये हुए अतिचारोका मनसे त्याग करना यह मन प्रतिक्रमण है। हाय मैने पाप कार्य किया है ऐसा मनसे विचार करना यह मन. प्रतिक्रमण है। सूत्रोका उच्चारण करना यह वाक्य प्रतिक्रमण है । शरीर के द्वारा दुष्कृत्योका आचरण न करना यह कायकृत प्रतिक्रमण है। * आलोचना व प्रतिक्रमण रूप उभय प्रायश्चित - दे० प्रायश्चित्त
५. अप्रतिक्रमणका लक्षण
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स. सा./ता, वृ/ २०७/३८६/१७ अप्रतिक्रमण द्विविध भवति शानि नाभि ज्ञानिनाति चेति अज्ञानिनाश्रितं यदप्रतिक्रमणं द्विषयकषायपरिणतिरूपं भवति ज्ञानिजी प्रतिक्रमणं तु शुद्धात्मसम्यकू द्वानामानुष्ठानलक्षणं त्रिशुतिरूपं अतिक्रमण दो प्रकारका है ज्ञानीजनों के आश्रित और अहामी जनो के साभित अज्ञानी जनो के आश्रित जो अप्रतिक्रमण है वह विषय कषायकी परिणति रूप है अर्थात हेयोपादेयके विवेकशून्य सर्वथा अत्याग रूप निरर्गल प्रवृत्ति है । परन्तु ज्ञानी जीवोके आश्रित जो अप्रतिक्रमण है। वह शुद्धात्मा के सम्यग्श्रद्धान ज्ञान व आचरण लक्षण वाले अभेद रत्नत्रयरूप या त्रिगुप्ति रूप है ।
स. सा./ता वृ / २८३/३६३/८ पूर्वानुभूत विषयानुभवरागादिस्मरणरूपमप्रतिक्रमणं द्विविधः द्रव्यभावरूपेण-पूर्वानुभूत विषयका
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प्रेतिक्रमण
अनुभव व रागादि रूप अतिक्रमण दो प्रकारका है- द्रव्य व भाव अप्रतिक्रमण ।
ससा / २९४-२८५ अतीतकाल मे जो पर द्रव्योका ग्रहण " किया था उनको वर्तमानमे अच्छा जानना, उनका संस्कार रहना, उनके प्रति ममत्वभावका होना सो द्रव्य अप्रतिक्रमण है । उन द्रव्योके निमित्तसे जो रागादि भाव ( अतीत कालमे ) हुए थे, उनको वर्तमान में भले जानना, उनका संस्कार रहना, उनके प्रति ममत्व भाव रहना सो भाव अप्रतिक्रमण है ।
२. प्रतिक्रमण विधि
१. आदि व अन्त तीर्थों में प्रतिक्रमणकी नितान्त आवश्यकता
म् आ / ६२८,६३० इरियागोयरसुमिणादिसव्वमाचरदु मा व आचरदु । पुरिमचरिमादु सव्वे सव्वं णियमा पडिकमंदि । ६२८| पुरिमचरिमादु जम्हा चलचित्ता चैव मोहलक्खा य । तो सव्व पडिक्कमण अधलघोडयोि ३० ऋषभदेव और महावीर प्रभुके शिष्य इन सब ईर्यागोचरी स्वप्नादिसे उत्पन्न हुए अतीचारोको प्राप्त हो अथवा मत प्राप्त हो तो भी प्रतिक्रमणके सत्र दडकोको उच्चारण करते हैं ६२॥ आदि अन्तके तोर्थ करके शिष्य चलायमान चित्त वाले होते है, मूढ बुद्धि होते है इसलिए वे सब प्रतिक्रमण दण्डक उच्चारण करते है । इसमें अन्धे घोडेका दृष्टान्त है कि सब ओषधियो के करने से वह सूझता है । ६३० (मु.आ./६२६) (म. आ / वि. / ४२१२ / ६१६/५) | २. शिष्यों का प्रतिक्रमण आलोचना पूर्वक और गुरुका आलोचना के बिना ही होता है
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सू. आ./६१० काऊ म किदिया पहिय अजलीकरणदो आतोचि सुविहिदो गारव माण च मोतून ६१० विनयकर्म करके, शरीर आसनको पीछी व नेत्र शुद्ध करके, अंजलि क्रियामें सुख हुआ निर्मप्रवाशा साधु ऋद्धि आदि गौरव और जाति आदिके मानको छोड़कर गुरुसे अपने अपराधोका निवेदन करे | ६१८ | रा० वा./१/२२/४/६२१/२२ इदमयुक्त वर्तते । 'किमत्रायुक्तम् । अनालोचयत' न किचिदपि प्रायश्चित्तम्' इत्युक्तम्, पुनरुपदिष्टम् – 'प्रति क्रमणमात्रमेव शुद्धिकरम्' इति एतदयुक्तम् । अथ तत्राप्यालोचनापूर्वमभ्युपगम्यते भव्यर्थ ने दोष सर्व प्रति मालोचनापूर्वकमेव किंतु पूर्व गुरुणाम्यनुज्ञात शिष्येव कर्त्तव्यम् इदं पुनर्गुरुणेवानुष्ठेयम् । शका - पहिले कहा है आलोचना किये बिना कुछ भी प्रायश्चित्त नहीं होता और अब कह रहे है कि प्रतिक्रमण मात्र हो शुद्धिकारी है। इसलिए ऐसा कहना अयुक्त है। यहाँ भी आलोचना पूर्वक ही जाना जाता है इसलिए तदुभय प्रायश्चित्तका निर्देश करना व्यर्थ है । उत्तर- यह कोई दोष नही है वास्तव में सभी प्रतिक्रमण आलोचना पूर्वक हो होते है। किन्तु यहाँ इतनी विशेषता है कि तदुभय प्रायश्चित गुरुकी आज्ञा शिष्य करता है । जहाँ केवल प्रतिक्रमणसे दोप शुद्धि होती है वहाँ वह स्वयं गुरुके द्वारा ही किया जाता है, क्योकि गुरु स्वय किसी अन्य से आलोचना नहीं करता ।
३. अल्प दोष में गुरु साक्षी आवश्यक नहीं
घ. १३/५,४,२६/६०/६० ए६ ( पडिक्कमण पायच्छित्त ) कत्थ होदि । अप्पाराहे गुरुहि विणा मागहि होदि जब अपराध छोटा सा हो और गुरु समीप न हो, तब यह (प्रतिक्रमण नामका प्रायश्चित है। चा, सा./१४१/४ अस्थिताना योगाना धर्मकथादिव्याक्षेप हेतुसं निधानेन
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२. प्रतिक्रमण विधि
विस्मरणे सरपालोचन पुनरनुष्ठायकस्य स वेग मिर्वेदपदस्य गुरुविरहित स्यास्यात्पापराधस्य पुनर्न करोमि मिथ्या मे दुष्कृतमित्येवमादिभिषा दर्शन प्रतिक्रमण धर्म कथादिमें कोई विघ्न के कारण उपस्थित हो जानेपर यदि कोई मुनि अपने स्थिर योगोको स जाय तो पहिले आलोचना करते हैं और फिर वे यदि संवेग और वैराग्यमें तत्पर रहे समीपमें गुरु न हो तथा छोटा सा अपराध लगा हो तो मै फिर कभी ऐसा नही करूंगा यह मेरा पापमिष्या हो' इस प्रकार दोषो से अलग रहना प्रतिक्रमण कहलाता है।
४. प्रतिक्रमण करनेका विषय व विधि
यू. आ / ६१६-६१० पडिक मिदन्दव्यं सच्चिसाचित्त मिरिय तिथि प्रेयं च गिहावीय कालो दिवसादिकासह २११६ मि परिक्रमण वह चैन अजमे परिक्रमण कसाएस परिक्रमण लोगे य अप्पसरथे ॥ ६१० सचित अचित मित्ररूप जो त्यागने योग्य द्रव्य है वह प्रसिमित है, पर आदि क्षेत्र है. दिवस मुहूर्त आदि काल है। जिस द्रव्य आदिसे पापास्रव हो वह त्यागने योग्य है । ६१६ । मिथ्यात्वका प्रतिक्रमण, उसी तरह असंयमका प्रतिक्रमण, क्रोधादि कषायोका प्रतिक्रमण, और योगोका प्रतिअशुभ क्रमण करना चाहिए । ६१७ | ०प्रतिक्रमण / २/२ (गुरु समक्ष विनय सहित शरीर व आसनको पीछी व नेत्र से शुद्ध करके करना चाहिए ) ।
दे० कृति कर्म / ४ ( देवसिकादि प्रतिक्रमणमे सिद्ध भक्ति आदि पाठोका उच्चारण करना चाहिए ) ।
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मु. आ./६६३-६६ ते पाणे गारेचनुमासिवरिपरिमेसु । पाऊण ठति धीरा घणिदं दुक्खनखयद्वाए | ६६३० का ओहद चितिदु इरियग्वधस्स अतिचार । तं सव्वं समाणित्ता धम्म सुक्क च पिज्जत दिवसिय पिखियचद्मासिव रिसपरिमे तं सव्वं समाणित्ता धम्मं सुवक च झायेज्जो | ६६५। भक्त पान ग्रामान्तर, चातुर्मासिक, वार्षिक उत्समार्थ जानकर धीर पुरुष अतिशय कर दुखके क्षय निमित्त कायोत्सर्गमे तिष्ठते है ।६६३ ॥ कायोत्सर्गमे मिला. ईधि अतिचारके नाशको चितवन रा मुनि उन सब नियमोको समाप्तकर धर्मध्यान और शुक्लध्यान चिन्तयन करो। ६६४| इसी प्रकार देवसिक रात्रिक, पाक्षिक, चातुवार्षिक उत्समार्थ इन सब नियमोको पूर्ण कर धर्मध्यान और शुक्लध्यान ध्यावै ॥ ६६५॥
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५. प्रतिक्रमण योग्य काल
३० प्रतिक्रमण / १/३ दिन रात्रि, पक्ष, वर्ष व आके अन्तमे देव सिकादि प्रतिक्रमण किये जाते है। )
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अन घ. / १/४४ योगप्रतिक्रमविधि प्रागुक्तो व्यावहारिक । कालक्रमनियमोऽत्र न स्वाध्यायादिवद्यत 1४४| = रात्रि योग तथा प्रतिक्रमणका जो पहले विधान किया गया है, वह व्यावहारिक है क्योंकि इनके विषय का क्रमका अर्थात् सममानुपूर्वीका या काल और क्रमका नियम नहीं है। जिस प्रकार स्वाध्यायादि ( स्वाध्याय, देव वन्दन और भक्त प्रत्याख्यान ) के विषयमे काल और क्रम नियमित माने गये है उस प्रकार रात्रियोग और प्रतिक्रमणके विषय में नही ॥४४॥
★ प्रतिक्रमणमें कायोत्सर्गके कालका प्रमाण
★ प्रतिक्रमण प्रायश्चित्त किसको तथा प्रतिक्रमणके अतिचार
जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश
- दे० व्युत्सर्ग / १ | कब दिया जाता है,
-- दे० प्रायश्चित /४/२ ।
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प्रतिक्रमण
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३. प्रतिक्रमण निर्देश
३. प्रतिक्रमण निर्देश
१. प्रतिक्रमण व सामायिकमें अन्तर भ, आ/वि /११६/२७६/८ सामायिकस्य प्रतिक्रमणस्य च को भेद । सायद्ययोगनिवृत्ति. सामायिक । प्रतिक्रमणमपि अशुभमनोवाकायनिवृत्तिरेव तत्कथं षडावश्यकव्यवस्था । अत्रोच्यते-सव्व सावज्जजोगं पच्चत्वामाति वचनाद्विसादिभेदमनुगदाय सामान्येन सर्वसावद्ययोगनिवृत्ति' सामायिक । हिसादिभेदेन सावद्ययोगविकल्प कृत्वा ततो निवृत्ति प्रतिक्रमण । इद त्वन्याय्य प्रतिविधानं । योगशब्देन वीर्यपरिणाम उच्यते। सच क्षायोपश मिको भावस्तती मिवृत्तिरशुभकर्मादाननिमित्तयोगरूपेण अपरिणतिरात्मन' सामायिकं । मिथ्यात्वामयमकषायाश्च दर्शनचारित्रमोहोदयजा औदयिका । । तेभ्यो बिरतियावृत्ति प्रतिक्रमण । -प्रश्न -सामायिक और प्रतिक्रमणमे क्या भेद है। सावध मन वचन कायकी प्रवृत्तियोसे विरक्त होना यह सामायिकका लक्षण है। और अशुभ मनोबाकायकी निवृत्ति होना यह प्रतिक्रमण है। अर्थात् प्रतिक्रमण और सामायिक इनमें कुछ भी भेद नहीं है। इसलिए छ आवश्यक क्रियाओकी व्यवस्था कैसे होगी। उत्तर--'सर्वसावध योगोका मै त्याग करता हूँ' ऐसा बचन अर्थात प्रतिज्ञा सामायिकमे की जाती है । हिसादिकोके भेद पृथक्न ग्रहण कर सामान्यसे सर्व पापोका त्याग करन्ग सामायिक है। और हिसादि भेदसे सावध योगके विकल्प करके उससे विरक्त होना प्रतिक्रमण है। "इस रीतिसे ऊपरके प्रश्नका कोई विद्वान उत्तर देते है परन्तु यह उनका उत्तर अयोग्य है। योग शब्द. से वीर्य परिणाम ऐसा अर्थ होता है । वह वीर्य परिणाम वीर्यान्तराय कर्मके क्षयोपशमसे उत्पन्न होता है, इसलिए वह क्षायोपशमिक भाव है। ऐसे योगसे निवृत्त होना यह सामायिक है। मिथ्यात्व, असंयम और कषाय ये दर्शन व चारित्रमोहनीय कर्मके उदयसे आत्मामें उत्पन्न होते है । .. ऐसे परिणामोसे विरक्ति होनायह प्रतिक्रमण कहा गया है।
२. प्रतिक्रमण व प्रत्याख्यानमें अन्तर क. पा. १/१,१/११/१ पञ्चक्रवाणपडिक्कमणाण को भेओ। उच्चदे, सर्गगट्ठियदोसाणं दब-खेत्त-काल-भावविसयाणं परिचाओ पञ्चखाणं णाम । पच्चक्रवाणादो अपञ्चक्रवाणं गतूण पुणोपच्चक्रवाणस्सागमण पडिकमणं । प्रश्न-प्रत्याख्यान और प्रतिक्रमण में क्या भेद है। उत्तर-द्रव्य, क्षेत्र, काल और भाबके निमित्तसे अपने शरीरमे लगे हुए दोषोका त्याग करना प्रत्याख्यान है। तथा प्रत्यारख्यानसे अप्रत्याख्यानको प्राप्त होकर पुन: प्रत्याख्यानको प्राप्त होना प्रतिक्रमण है।
३. प्रतिक्रमणके भेदोंका परस्परमें अन्तर्भाव क पा. १/१,१/१८८/११३/६ सव्वायिचारिय-तिविहाहारचायियपटिक्कम
णाणि उत्तमट्ठाणपडिकमणम्मि णिवदंति । अठ्ठावीसमूलगुणाइचारविसयसव्वपडिकमणाणि इरियावयपडिक्कमम्मि णिवदंति, अवगयअइचारविसयत्तादो। -सर्वातिचारिक और त्रिविधाहार त्यागिक नामके प्रतिक्रमण उत्तम स्थान प्रतिक्रमणमे अन्तर्भूत होते है। अट्ठाईस मूलगुणोके अतिचारविषयक समस्त प्रतिक्रमण ईर्यापथ प्रतिक्रमणमे अन्तर्भूत होते है, क्योकि प्रतिक्रमण अवगत अतिचारोको विषय करता है। * निश्चय व्यवहार प्रतिक्रमणकी मुख्यता गौणता
-दे० चारित्र । प्रतिज्ञांतर-न्या.स/मय.टी//३/३/३१० प्रतिज्ञातार्थ प्रतिषेधे धर्मविकल्पात्तदर्थ निर्देश. प्रतिज्ञान्तरम् ।३। प्रतिज्ञातार्थोऽनित्य' शब्द ऐन्द्रियकत्वाइ घटवदित्युक्त योऽस्य प्रतिषेध प्रतिदृष्टान्तेन हेतु
व्यभिचार. सामान्य मैन्द्रियक नित्यमिति तस्मिश्च प्रतिज्ञातार्थप्रतिषेधे धर्म विकल्पादिति दृष्टान्तप्रतिदृष्टान्तयो साधर्म्ययोगे धर्मभेदात्सामान्यमै न्द्रियक सर्वगतमै न्द्रियकस्त्वसर्वगतो घट इति धर्मविकल्पात्तदर्थ निर्देश इति साध्य सिद्धयर्थ कथं यथा घटोऽसर्वगत एवं शब्दोऽप्यसर्वगतो घटव देवानित्य इति तत्रानित्य' शब्द इति पूर्वा प्रतिज्ञा असर्वगत इति द्वितीया प्रतिज्ञा प्रतिज्ञान्तर तत्कथं निग्रहस्थानमिति न प्रतिज्ञाया' साधनं प्रतिज्ञान्तरं कितु हेतुदृष्टान्तौ साधनं प्रतिज्ञाया तदेतदसाधनोपादानमनर्थकमिति। अनार्थक्यान्निग्रहरथानमिति ।३। -वादी द्वारा प्रतिज्ञात हो चुके अर्थ का प्रतिवादी द्वारा प्रतिषेध करनेपर वादी उस दूषणका उद्धार करनेकी इच्छासे धर्मका यानी धर्मान्तरका विशिष्ट कल्प करके उस प्रतिज्ञात अर्थका अन्य विशेषणसे विशिष्टपने करके कथन कर देता है, यह प्रतिज्ञान्तर है।३। जैसे-शब्द अनित्य है ऐन्द्रियिक होनेसे घटके समान, इस प्रकार वादीके कहनेपर प्रतिवादी द्वारा अनित्यपनेका निषेध किया गया। ऐसी दशामें वादी कहता है कि जिस प्रकार घट असर्वगत है, उसी प्रकार शब्द भी अध्यापक हो जाओ और उस ऐन्द्रियक सामान्यके समान यह शब्द भी नित्य हो जाओ। इस प्रकार धर्मकी विकल्पना करनेसे ऐन्द्रियिकत्व हेतुका सामान्य नामको धारनेवाली जाति करके व्यभिचार हो जानेपर भी वादी द्वारा अपनी पूर्वकी प्रतिज्ञाकी प्रसिद्धिके लिए शब्दके सर्वव्यापकपना विकल्प दिखलाया गया कि तब तो शब्द असर्वगत हो जाओ। इस प्रकार वादीकी दूसरी प्रतिज्ञा तो उस अपने प्रकृत पक्षको साधनेमें समर्थ नहीं है। इस प्रकार वादीका निग्रह होना माना जाता है। किन्तु यह प्रशस्त मार्ग नही है। (श्लो वा.४/न्या १३०/३५४/१६ में इसपर चर्चा की गयी है)। प्रतिज्ञा-न्या दी./३/३१/७६/४ तत्र धर्मधर्मसमुदायरूपस्य पक्षस्य वचनं प्रतिज्ञा। यथा-पर्वतोऽयमग्निमान् इति । = धर्म और धर्मीके समुदायरूप पक्षके कहनेको प्रतिज्ञा कहते है। जैसे—यह पर्वत
अग्निवाला है। न्या. सू/टी /१/१/३६/३८/१० साध्यस्य धर्मस्य धर्मिणा संबन्धोपादान प्रतिज्ञार्थ । अनित्य शब्द इति प्रतिज्ञा। =धर्माके द्वारा साध्य धर्मका सिद्ध करना प्रतिज्ञाका अर्थ है । जैसे-किसीने कहा कि शब्द
अनिवार्य है। प्रतिज्ञाविराध-न्या. सू./म. व टी/५/२/४/३११ प्रतिज्ञाहेत्वोविरोध. प्रतिज्ञाविरोध ४ गुणव्यतिरिक्तद्रव्यमिति प्रतिक्षा। रूपादितोऽर्थान्तरस्यानुपलब्धेरिति हेतुः सोऽय प्रतिज्ञाहेत्वोर्विरोध कथं यदि गुणव्यतिरिक्तं द्रव्य रूपादिभ्योऽर्थान्तरस्यानुपलब्धि!पपद्यते। रूपादिभ्योऽर्थान्तरस्यानुपलब्धि गुणव्यतिरिक्त द्रव्यमिति नोपपद्यते गुणव्यतिरिक्त च द्रव्यं रूपादिभ्यश्चार्थान्तरस्यानुपलब्धिरिति विरुध्यते ब्याहन्यते न संभवतीति । -- प्रतिज्ञावाक्य और हेतुवाक्यका विरोध हो जाना प्रतिज्ञाविरोध है ।४। द्रव्य, गुणसे भिन्न है यह प्रतिज्ञा हुई और रूपादिकोसे अर्थान्तरकी अनुपलब्धि होनेसे, यह हेतु है। ये परस्पर विरोधी है क्योकि जो द्रव्य गुणसे भिन्न है, तो रूपादिकोसे भिन्न अर्थकी अनुपलब्धि इस प्रकार कहना ठीक नही होता है। और जो रूप आदिकोसे भिन्न अर्थ की अनुपलब्धि हो तो 'गुणसे भिन्न द्रव्य' ऐसा कहना नही बनता है। इसको प्रतिज्ञाविरोध नामक निग्रहस्थान कहते है। (श्लो वा. ४/न्या. १४२/३५६/२२ मे इसपर चर्चा)। प्रतिज्ञा संन्यास-(श्लो बा.४/मू व टी/१/२/५/३११ पक्षप्रतिषेधे प्रतिज्ञातापिनयन प्रतिज्ञासन्यास.।। अनित्य शब्द ऐन्द्रियक्त्वादित्युक्ते परो बयारसामान्यमै न्द्रियक न चामित्यमेव शब्दोऽप्यन्द्रियको न चानित्य इति । एवं प्रतिषिद्ध पक्षे यदि व याव
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प्रतिज्ञा हानि
प्रतिभा
क' पुनराह अनित्य. शब्द इति । सोऽयं प्रतिज्ञातार्थनिह्नव प्रतिज्ञासन्यास इति। -पक्षके निषेध होनेपर प्रतिज्ञात 'माने हुए अर्थका छोड देना' 'प्रतिज्ञा संन्यास कहलाता है। जैसे-इन्द्रिय विषय होनेसे शब्द अनित्य है इस प्रकार कहनेपर दूसरा कहे कि 'जाति इन्द्रिय विषय है और अनित्य नहीं। इसी प्रकार शब्द भी इन्द्रिय विषय है पर अनित्य न हो। इस प्रकार पक्षके निषेध होनेपर यदि कहे कि कौन कहता है कि शब्द अनित्य है, यह प्रतिज्ञा किये हुए अर्थका छिपाना है। इसीको प्रतिज्ञासंन्यास कहते है ( श्लो. वा. ४/न्या, १७८/३७४/१६ में इसपर चर्चा )। प्रतिज्ञा हानि-न्या. सू /म. व टी./५/२/२/३०६ प्रतिदृष्टान्तधर्माभ्यानुज्ञा स्वदृष्टान्ते प्रतिज्ञाहानि. १२। ऐन्द्रियकत्वाद नित्यः शब्दो घटवदिति कृते अपर आह । दृष्टमै न्द्रियकत्वं सामान्ये नित्ये कस्मान्न तथा शब्द इति प्रत्यवस्थिते इदमाह यद्यन्द्रियक सामान्यं नित्यं कामं घटो नित्योऽस्त्विति । = साध्यधर्म के विरुद्ध धर्म से प्रतिषेध करनेपर प्रति दृष्टान्तमें माननेवाला प्रतिज्ञा छोडता है इसको 'प्रतिज्ञाहानि' कहते हैं। जैसे--'इन्द्रियके विषयहोनेसे घटकी नाई शब्द अनित्य है' ऐसी प्रतिज्ञा क्रनेपर दूसरा कहता है कि 'नित्य जातिमें इन्द्रिय विषयत्व है। तो वैसे ही शब्द भी क्यों नहीं'। ऐसे निषेधपर यह कहता है कि 'जो इन्द्रिय विषय जाति नित्य है तो घट भी नित्य हो', ऐसा माननेवाला साधक दृष्टान्तका मित्यत्व मानकर 'निगमन' पर्यन्त ही पक्षको छोडता है। पक्षका छोडना
HT प्रतिज्ञाका छोडना है, क्योंकि पक्ष प्रतिज्ञाके आश्रय है। (श्लो. वा. ४/न्या./१०२/३४५/ह में इसपर चर्चा)। प्रतिग्रह-दे० भक्ति/२/६ । प्रतिघात-स.सि /२/४०/१६३/६ मूर्तिमतो मूत्यन्तरेण व्याघात' प्रतिघात। -एक मूर्तीक पदार्थका दूसरे मूर्तीक पदार्थके द्वारा जो । व्याघात होता है, उसे प्रतिपात कहते हैं । (रा.वा./२/४०/९/१४६/४)। प्रतिघाती-स्थूल व सूक्ष्म पदार्थों में प्रतिघाती व अप्रतिधातीपना
-दे० सूक्ष्म/३। प्रतिच्छन्न-भूत जातिके व्यन्तर देवोंका एक भेद-दे० भूत। प्रतिजीवीगुण-दे० गुण/१ । प्रतितंत्र सिद्धांत-दे० सिद्धान्त । प्रतिदृष्टांतसमा-न्या सु./म. व टी /१/९//२६१ दृष्टान्तस्य कारणानपदेशात् प्रत्यवस्थानाच्च प्रतिदृष्टान्तेन प्रसगप्रतिदृष्टान्तसमौ हा क्रियाहेतुगुणयोगी क्रियावान लोष्ट इति हेतु पदिश्यते न च हेतुमन्तरेण सिद्धिरस्तीति प्रतिदृष्टान्तेन प्रत्यवस्थान प्रतिदृष्टान्तसम.1 क्रियावानात्मा क्रियाहेतुगुणयोगाइ लोष्टव दित्युक्ते प्रतिदृष्टान्त उपादीयते क्रियाहेतुगुणयुक्तमाकाश निष्क्रियं दृष्टमिति । क. पुनराकाशस्य क्रियाहेतुर्गुणो वायुना संयोग, संस्कारापेक्ष वायुवनस्पतिसंयोगवदिति। - वादीके द्वारा कहे गये दृष्टान्तके प्रतिकूल दृष्टान्त स्वरूप करके प्रतिवादी द्वारा जो दूषण उठाया जाता है, वह प्रतिदृष्टान्तसमा जाति इष्ट की गयी है। इसका उदाहरण यो है कि (क्रियावत्त्व गुणके कारण आत्मा क्रियावाला है जैसे कि लोष्ट ) इस ही आत्माके क्रियावत्त्व साधनेमे प्रयुक्त किये गये दृष्टान्तके प्रतिकूल दृष्टान्त करके दूसरा प्रतिवादी प्रत्यवस्थान देता है कि क्रियाके हेतुभूत गुणके ( वायुके साथ ) युक्त हो रहा आकाश तो निष्क्रिय देखा जाता है। उस हीके समान आत्मा भी क्रिया रहित हो जाओ। यदि यहाँ कोई प्रश्न करे कि क्रियाका हेतु आकाशका कौनसा गुण है। प्रतिवादीकी ओरसे उत्तर यों है कि वायुके साथ आकाशका जो सयोग है, वह क्रियाका कारण गुण है। जैसे-कि वेग नामक
संस्कारको अपेक्षा रखता हुआ, वृक्षमे वायुका संयोग क्रियाका कारण हो रहा है। अत आकाशके समान आत्मा क्रिया हेतुगुणके सद्भाव होने पर भी क्रियारहित हो जाओ। (श्लो. वा ४/न्या. ३६४/४८६/ १ में इसपर चर्चा)। प्रतिनीत-कायोत्सर्गका एक अतिचार-दे० व्युत्सर्ग/१ । प्रतिपक्ष-दे० पक्ष । प्रतिपत्तिक ज्ञान-दे० श्रुतज्ञान/II प्रतिपत्तिक समास ज्ञान-दे० श्रुतज्ञान III प्रतिपद्यमान स्थान-दे० लब्धि/५ । प्रतिपातस सि./१/२४/१३०/८ प्रतिपतनं प्रतिपात' । = गिरनेका नाम प्रतिपात
है । (रा वा./१/२४/१/८५/१६)। रा.वा./१/२२/४/८२/४ प्रतिपातीति विनाशो विद्य व प्रकाशवत् ।
-प्रतिपाती अर्थात बिजलीकी चमक्की तरह विनाशशील बीचमें ही छूटनेवाला ( अवधिज्ञान )। प्रतिपाती-प्रतिपाती संयम लब्धि स्थान-दे० लब्धि/५ । प्रतिपाती अवधिज्ञान-दे० अवधिज्ञान/६ । प्रतिपाती मनःपर्यय ज्ञान-दे० मन.पर्यय/२ ।
छना-दे० समाचार। प्रतिबंध-प्रतिबन्ध निमित्त या कारण-दे० निमित्त/१ । प्रतिबध्य-प्रतिबंध्य प्रतिबन्धक विरोध-देविरोध । प्रतिबद्धता-१.क्षण व प्रतिबुद्धताका लक्षण घ./८/३,४१/८/१० खण-लवा णाम काल विसेसा । सम्मइसण-णाण-बदसील-गुणाणमुज्जालण कलंक-पक्रवालण संधुक्खणं वा पडिबुझणं णाम, तस्य भावो पडिबुज्झणदा । खण-लवं पडि पडिबुज्मणदा खणलवपडिबुज्झणदा।क्षण और लव ये काल विशेषके नाम है। सम्यग्दर्शन, ज्ञान, व्रत और शील गुणोंको उज्ज्वल करने, मल को धोने, अथवा जलानेका नाम प्रतिबोधन है और इसके भावका नाम प्रतिबोधनता है। प्रत्येक क्षण व लवमें होने वाले प्रतिबोधको क्षणलव प्रतिबुद्धता कहा जाता है।
प्रतिपच्छना० सम
२. एक इसी भावनामें शेष भावनाओंका समावेश ध/८/३,४१/८/१२/तीए एक्काए वि तित्थयरणामकम्मस्स बंधो । एत्थ वि पुव्वं व सेसकारणाणमंतब्भावो दरिसेदव्यो। तदो एवं तित्थयरणामकम्मबंधस्स पंचमं कारणं । उस एक ही क्षण-लव प्रतिबुद्धतासे तीर्थकर नामकर्मका बन्ध होता है। इसमें भी पूर्वके समान शेष कारणोका अन्तर्भाव दिखलाना चाहिए। इसलिए यह तीर्थंकर नामकर्म के बन्धका पाँचवाँ कारण है। प्रतिबोध-ध/३,४१/८५/१० सम्मईसण-णाण-बद-सील-गुणाणमुज्जालण कलंकपक्रवालणं सधुक्रवणं वा पडिबुज्झणं णाम सम्यग्दशन-ज्ञान, व्रत और शील गुणो को उज्ज्वल करने, मलको धोने अथवा जलाने का नाम प्रतिबोधन है । प्रतिभग्न-क. पा/३/१,२२/१४०६/२३१/8 उक्कस्सद्विदि बघतो पडिहग्गपढमादिसमएसु सम्मत्त ण गेण्हदि त्ति जाणावण?मतोमुहुत्तद्ध' पडिभग्गो त्ति भणिद । प्रतिभग्न शब्द का अर्थ उत्कृष्ट स्थिति बंधके योग्य उत्कृष्ट संवलेश रूप परिणामोसे प्रतिनिवृत्त होकर विशुद्धिको प्राप्त हुआ होता है।
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प्रतिभाग
१२०
प्रतिसूर्य
प्रतिभा-श्लो० वा/३/१/२०/१२४/६६२/३ उत्तर-प्रतिपत्ति. प्रतिभा प्रतिष्ठा विधान-१ प्रतिष्ठाविधान क्रम-प्रमाण-(क) वसुकैश्चिदुक्ता सा श्रुतमेव, न प्रमाणान्तरं, शब्दयोजनासद्भावात् । नन्दि प्रतिष्ठापाठ परिशिष्ट ।४(ख )वसुन ग्दिश्रावकाचार(ग) वसुअत्यन्ताभ्यासादाशुप्रतिपत्तिरशब्दजा कूटद्रुमादायकृताभ्यासस्याशु- नन्दिप्रतिष्ठापाठ । १ आठ दस हाथ प्रमाणाप्रतिमा निर्माणा(ख /३६३. प्रवृत्ति प्रतिभापर प्रोक्ता । सा न श्रुत, सादृश्यप्रत्यभिज्ञानरूपत्वा
४०१) २. प्रतिष्ठाचार्य में इन्द्रका सकल्प (ख०/४०२-४०४) ३. मण्डपमें त्तस्यास्तयो पूर्वोत्तरयोहि दृष्टदृश्यमानयो कूटद्रुमयोः सादृश्यप्रत्य
सिहासनकी स्थापना ( रख /४०५-४०६) ४ मण्डपकी ईशान दिशामें भिज्ञा झटित्येकर्ता परामृषन्ती तदेवेत्युपजायते। सा च मतिरेव
पृथक् वेदीपर प्रतिमाका धूलिक्ल शाभिषेक (ख./४०७-४०८); निश्चितेत्याह । उत्तरकी समीचीन प्रतिपत्ति हो जाना प्रतिभा है ।
५. प्रतिमाकी प्रोक्षण विधि ( ख./४०६);६. आकारकी प्रोक्षण विधि किन्ही लोगोंने उसको न्यारा प्रमाण माना है। किन्तु हम जनो के
(स्व./१०६), ७.गुणारोपण, चन्दन तिलक, मुखावर्ण, मन्त्र न्यास न्यारे प्रमाणस्वरूप नहीं है क्योकि वाचक शब्दोकी योजनाका सद्भाव
व मुखपट (ख१११-४२१) ८ प्रतिमाके कंकण बन्धन, काण्डक है। किन्तु अत्यन्त अभ्यास हो जानेसे झटिति, कूट, वृक्ष, जल
स्थापन, यव ( जो) स्थापन, वर्ण पूरक, और इक्षु स्थापन, विशेष आदिमें उस प्रतिभाके अनुसार प्रवृत्ति हो जाती है। जो यह
मन्त्रोच्चारण पूर्वक मुखोद्धाटन (ग./११२/१११), ६.रात्रि जागरण, अनभ्यासी पुरुषकी प्रतिभा है, वह तो श्रृत नही है। क्यों कि पहिले
चार दिन तक पूजन ( ख/४२२-४२३) १० नेत्रोन्मीलन । कहीं देख लिये गये और अब उत्तर कालमें देखे जा रहे कूट, वृक्ष आदिके एकपनमे झट सादृश्य प्रत्यभिज्ञा उपज जाती है । अत. वह २. उपरोक्त अंगोंके लक्षण मतिज्ञान ही है। प्रतिभाग-लब्ध (ध/प्र०३)।
१. प्रतिमा सर्वांग सुन्दर और शुद्ध होनी चाहिए। अन्यथा प्रतिष्ठा
कारकके धन जन हानिको सूचक होती है । ( क./१-८१) २. जलपूर्ण प्रतिभूत-भूत जातिके व्यन्तर देवोका एक भेद-दे० भूत।
घटमे डालकर हुई शुद्ध मिट्टीसे कारीगर द्वारा प्रतिमापर लेप कराना प्रतिमा-१.मूर्ति रूप प्रतिमा-दे० चैत्य चैत्यालय।२ सल्लेखना
धूलिकलगाभिषेक कहलाता है। (ग./७०-७१) ३, सधवा स्त्रियों गत साधुकी १२ प्रतिमाएं -दे० सल्लेखना/४/११/२ ॥३. श्रावककी ११
द्वारा मॉजा जाना प्रोक्षण कहलाता है। (ग/७२); ४ सर्वोषध जल से प्रतिमाएँ-दे० श्रावक(१।
प्रतिमाको शुद्ध करना आवर शुद्धि है। (ग/७३-८६);५ अरहप्रतिमान प्रमाण-दे० प्रमाण/५ ॥
तादिकी प्रतिमामें उन उनके गुणो का संकल्प करना गुणारोपण है।
(ग./१५-१००); ६ प्रतिमाके विभिन्न अगोपर बीजाक्षरोका लिखना प्रतियोगी-१.जिस धर्ममे जिस धर्मका अभाव होता है वह धर्म मत्र संन्यास है । (ग./१०१-१०३) ७. प्रतिमाके मुखको वस्त्रसे ढाँकना
उस अभावका प्रतियोगी कहलाता है जैसे-घटमें पटत्व । २. वह मुखपट विधान है। (ग./१०७); ८. प्रतिमाको आँखमें काजल डालना वस्तु जो अन्य वस्तुपर आश्रित हो।
नेत्रोन्मीलन कहलाता है। नोट-यह सभी क्रियाएँ यथायोग्य प्रतिरूप-भूत जातिके व्यन्तर देवोका भेद-दे० भूत । व्यंतर२/१॥
मन्त्रोच्चारण द्वारा निष्पन्न की जाती है। प्रतिरूपक-स सि /७/२७/३६७/- कृत्रिमै हिरण्यादिभिर्वञ्चनापूर्व- ३. अचलप्रतिमा प्रतिष्ठा विधि को व्यवहार प्रतिरूपकव्यवहार बनावटी चाँदी आदिसे कपट
स्थिर या अचल प्रतिमा की स्थापना भी इसी प्रकार की जाती है । केवल पूर्वक व्यवहार करना प्रतिरूपक व्यवहार है। (रा.वा./७/२७/५/५५४/
इतनी विशेषता है कि आकर शुद्वि स्वस्थानमें ही करें। (भित्ति या १७) इसमें मायाचारीका भी दोष आता है-दे० मात्रा/२ ।
विशाल पाषाण और पर्वत आदिपर) चित्रित अर्थात उकेरी गयी, प्रतिलेखन-दे० पिच्छि।
रंगादिसे बनायी गयी या छापी गयी प्रतिमाका दर्पणमें प्रतिबिम्ब प्रतिलोम क्रम-पघ./१०/२८७ भाषा-सामान्यकी मुख्यता तथा
दिखाकर और मस्तकपर तिलक देकर तत्पश्चात प्रतिमाके मुख विशेषकी गौणता करनेसे जो अस्ति-नास्ति रूप वस्तु प्रतिपादित
वस्त्र देवे। आकर शुद्वि दर्पणमे करे अथवा अन्य प्रतिमामें करे। होती है उसे अनुलोम क्रम कहते है। तथा विशेषकी मुख्यता और
इतना मात्र ही भेद है, अन्य नहीं । (ख/४४३-४४५) सामान्यकी गौणता करनेसे जो अस्ति नास्ति रूप वस्तु प्रतिपादित प्रतिष्ठा तिलक-आ० ब्रह्मदेव ( ई श ११अन्त) द्वारा रचित होती है उसे प्रतिलोम क्रम कहते है।
सस्कृत भाषाका एव ग्रन्थ । (ती [३।३१३) प्रति विपला-कालका एक प्रमाण विदोष-दे० गणित/११/४। प्रतिष्ठापना शुद्धि-दे० समिति/१ । प्रति विपलांस-कालका एक प्रमाण विशेष --दे० गणिता/१/४।। प्रतिष्ठापना समिति-दे० समिति/१ । प्रतिश्रमण अनुमति-दे० अनुमति ।
प्रतिष्ठा पाठ-१ आ. इन्द्रनन्दि (ई श.१०मध्य) कृत वेदी प्रतिश्रुति-मपु./२/६३-६६ प्रथम कुलकर थे। सूर्य चन्द्रमाको देख
तथा प्रतिमा की शुद्धि व प्रतिष्ठा विधान विषयक ग्रन्थ है। कर भयभीत हुए लोगोंके भयको इन्होने दूर किया था। विशेष
२ आ० वमुनन्दि ( जयसेन) (ई.१०६८-१११८) कृत १२४ संस्कृत दे. शनाका पुरुष/३।
श्लोक प्रमाण प्रतिष्ठा सार संग्रह (ती /३/२३१) । ३.पं० आशाधर प्रतिषेध-दे० निषेध ।
(ई. ११७३-१२४३) कृत संस्कृत ग्रन्थ ।
प्रतिष्ठित-प्रतिष्टित प्रत्येक वनस्पति-दे० वनस्पति/३ । प्रतिष्ठाघरव १३/१४/सु ४०/२४३ धरणी धारणा ठरणा कोट्ठा पदिट ठा ४० प्रतिष्ठन्ति बिनाशेन विना अस्यामर्था इति
प्रतिसरण-स.सा./ता.७/३०६/३८८/१० प्रतिसरणं सम्यक्त्वादिप्रतिष्ठा =धरणी, धारणा, स्थापना, कोष्ठा और प्रतिष्ठा ये एकार्थ
___गुणेषु प्रेरणं ।- सम्यक्त्वादि गुणोकी प्रेरणा करना प्रतिसरण है। नाम है।४०। जिसमें विनाशके बिना पदार्थ प्रतिष्ठित रहते है वह प्रतिसारी ऋद्ध-दे० ऋद्धि/२/४ । बुद्धि प्रतिष्ठा है।
पह हनुमानजीका मामा था। जो कि हनुमानकी माता प्रतिष्ठाचार्य-दे० आचार्य/३।
अजनाको जगलसे लाया था। (प.पु/१७/३४५-३४६) ।
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प्रतिसेवना कुशील साधु
१२१
प्रत्यक्ष
देश व सकल प्रत्यक्षके लक्षण । देश प्रत्यक्ष ज्ञानकी विशेषताएँ--
दे० अवधि व मन पर्यय । सकल प्रत्यक्ष शानकी विशेषताएँ- दे० केवलज्ञान । प्रत्यक्षाभासका लक्षण।
प्रतिसेवना कुशील साधु-दे० कुशील । प्रतिसेवी अनुमती-दे० अनुमति । प्रतिहरण-स.सा/ता वृ./३०६/३८८/१० प्रतिहरणं मिथ्यात्वरागादिदोषेषु निवारणं ।-मिथ्यात्व रागादि दोषोका निवारण करना प्रतिहरण कहलाता है। प्रतींद्र-दे० इंद्र। प्रतीक-Symbol (ज.प./प्र./१०६) । प्रतीच्छना-ध.६/४,१,५५/२६२/८ आइरियभडाइएहि परुविज्जमाणत्थावहरणं पडिच्छणा णाम । =आचार्य भट्टारकों द्वारा कहे जाने वाले अर्थ के निश्चय करनेका नाम प्रतीच्छना है। ध.१४/५.६.१२/8/४ आइरिएहि कहिज्जमाणत्थाणं सुणणं पडिच्छण णाम । -आचार्य जिन अर्थोंका कथन कर रहे हों उनका सुमना प्रतीच्छना है। प्रतीच्य-पश्चिम दिशा। प्रतीति-ध.१/१,१,११/१६६/७ दृष्टि श्रद्धा रुचिः प्रत्यय इति यावत ।- दृष्टि, श्रद्धा, रुचि और प्रत्यय (प्रतीति ) ये पर्यायवाची नाम है। पं.ध./उ./४१२ प्रतीतिस्तु तथेति स्यात्स्वीकार....४१२।- तत्त्वार्थका स्वरूप जिस प्रकार है, वह उसी प्रकार है, ऐसा स्वीकार करना प्रतीति कहलाती है। प्रतीत्य सत्य-दे० सत्य/१। प्रत्यक-पश्चिम दिशा। प्रत्यक्ष-विशद ज्ञानको प्रत्यक्ष कहते हैं। वह दो प्रकारका हैसांव्यवहारिक व पारमार्थिक । इन्द्रिय ज्ञान साव्यवहारिक प्रत्यक्ष है, और इन्द्रिय आदि पर पदार्थोसे निरपेक्ष केवल आत्मामें उत्पन्न होने वाला ज्ञान पारमार्थिक प्रत्यक्ष है । यद्यपि न्यायके क्षेत्रमें सांव्यबहारिक ज्ञानको प्रत्यक्ष मान लिया गया है, पर परमार्थसे जैन दर्शनकार उसे परोक्ष ही मानते है। पारमार्थिक प्रत्यक्ष भी दो प्रकारका है-सकल व विकल । सर्वज्ञ भगवान्का त्रिलोक व त्रिकालवी केवलज्ञान सकल प्रत्यक्ष है, और सीमित द्रव्य, क्षेत्र, काल व भाव विषयक अवधि व मन'पर्ययज्ञान विकल या देश प्रत्यक्ष है।
प्रत्यक्ष ज्ञान निर्देश तथा शंका समाधान प्रत्यक्षशानमें सकल्पादि नहीं होते। स्वसंवेदन प्रत्यक्ष ज्ञानकी विशेषताएँ- दे० अनुभव । मति व श्रुतशानमें भी कथंचित् प्रत्यक्षता परोक्षता
दे० शुतज्ञान 1/41 अवधि व मन.पर्ययकी कथंचित् प्रत्यक्षता परोक्षता
दे० अवधिज्ञान/३। | अवधि व मतिशानकी प्रत्यक्षतामें अन्तर
दे० अवधिज्ञान/३। केवलशानको सकल प्रत्यक्ष और अवधिज्ञानको विकल प्रत्यक्ष क्यों कहते है। सकल व विकल दोनों ही प्रत्यक्ष पारमार्थिक हैं। सांव्यवहारिक प्रत्यक्षकी पारमार्थिक परोक्षता
दे० श्रुतज्ञान/I/ ४ | इन्द्रियोंके बिना भी ज्ञान कैसे सम्भव है।
इन्द्रिय निमित्तिक ज्ञान प्रत्यक्ष और उससे विपरीत परोक्ष होना चाहिए- दे० श्रुतज्ञान/I/५ । सम्यग्दर्शनको प्रत्यक्षता परोक्षता-दे० सम्यग् /I/३ ।
भेद व लक्षण
प्रत्यक्ष शान सामान्यका लक्षण१.आमाके अर्थमे; २. विशद ज्ञानके अर्थ में; ३. परापेक्ष रहितके अर्थ में। प्रत्यक्ष शानके भेद१. सांव्यवहारिक व पारमार्थिक, २. दैवी, पदार्थ व |
आत्म प्रत्यक्ष। प्रत्यक्ष शानके उत्तर भेद१. साव्यवहारिक प्रत्यक्ष के भेदः २. पारमार्थिक प्रत्यक्षके भेद: ३. सकल व विकल प्रत्यक्षके भेद । सांव्यवहारिक व पारमाथिक प्रत्यक्षके लक्षण। साव्यवहारिक प्रत्यक्ष शानकी विशेषताएँ
दे० मतिज्ञान।
१.भेद व लक्षण १. प्रत्यक्ष ज्ञान सामान्यका लक्षण १. आत्माके अर्थमें प्र. सा./भू /५८ जदि केवलेण णादं हवदि हि जीवेण पच्चक्खं 11८1
यदि मात्र जीवके ( आरमाके) द्वारा ही जाना जाये तो वह ज्ञान प्रत्यक्ष है। स सि./१/१२/१०३/१ अक्ष्णोति व्याप्नोति जानातीत्यक्ष आत्मा। तमेव प्रतिनियतं प्रत्यक्षम् । - अक्ष, ज्ञा और व्याप् धातुएं एकार्थवाची होती हैं, इसलिए अक्षका अर्थ आत्मा होता है ।...केवल आत्मासे होता है वह प्रत्यक्षज्ञान कहलाता है। (रा. वा/१/१२/२/ ५३/११/) (ध.१/४,१,४५/४५/४) (प्र.सा./त. प्र./५७) (स सा./ आ./१३/ क ८ के पश्चात् ) ( स म./२८/३२१/८) (न्या. दी./२/8 १६/३६/१) (गो जी./जी. प्र./३६९/७६६/७)। प्र. सा./त. प्र./२१ सवेदनालम्बनभूता सर्वद्रव्यपर्याया प्रत्यक्षा एव
भवन्ति ।-संवेदनकी (प्रत्यक्ष ज्ञानकी) आलम्बनभूत समस्त द्रव्य पर्याये प्रत्यक्ष ही है। प्र. सा./त प्र./५८ यत्पुनरन्तकरणमिन्द्रिय परोपदेश...आदिकं वा समस्तमपि परद्रव्यमनपेक्ष्यात्मस्वभावमेव के कारणत्वेनोपादाय सर्वद्रव्यपर्यायजातमेकपद एवाभिव्याप्य प्रवर्तमान परिच्छेदनं तद केवलादेवात्मन' संभूतत्वात् प्रत्यक्षमित्यालक्ष्यते। -मन, इन्द्रिय, परोपदेश आदिक सर्व परद्रव्योकी अपेक्षा रखे बिना एकमात्र आत्मस्वभावको ही कारणरूपसे ग्रहण करके सर्व द्रव्य पर्यायोके
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भा०३-१६
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प्रत्यक्ष
१२२
१. भेद व लक्षण
समूहमे एक समय ही व्याप्त होकर प्रवर्तमान ज्ञान केवल आत्माके द्वारा ही उत्पन्न होता है, इसलिए प्रत्यक्षके रूपमे माना जाता है।
२. विशद शानके अर्थमें न्या. वि./मू./१/३/१०/१५ प्रत्यक्षलक्षण प्राहु स्पष्ट साकारमजसा। द्रव्यपर्यायसामान्य विशेषात्मवेदनम् ।३। -स्पष्ट और स विकल्प तथा व्यभिचार आदि दोष रहित होकर सामान्य रूप द्रव्य और विशेष रूप पर्याय अर्थोंको तथा अपने स्वरूपको जानना ही प्रत्यक्षका लक्षण है ।३। (श्लो. वा./३/१/१२/४.१७/१७४.१८६)। सि. वि./मू /१/१६/७८/१६ प्रत्यक्ष विशदं ज्ञानं । -विशद ज्ञान ( प्रति
भास ) को प्रत्यक्ष कहते है । (प. मु/२/३) (न्या. दी./२/११/२३/४) स. भ..त./४७/१० प्रत्यक्षस्य वैशद्य' स्वरूपम् । -वैशद्य अर्थात निर्मलता वा स्वच्छता पूर्वक स्पष्ट रीतिसे भासना प्रत्यक्ष ज्ञानका स्वरूप है।
३. परापेक्ष रहितके अर्थमें रा. बा /१/१२/१/१३/४ इन्द्रियानिन्द्रियानपेक्षमतोतव्यभिचार साकारग्रहणं प्रत्यक्षम् ।। -इन्द्रिय और मनको अपेक्षाके बिना व्यभिचार रहित जो साकार ग्रहण होता है, उसे प्रत्यक्ष कहते है । (त, सा,/१/ १७/१४)। प.ध./पू./६६६ असहायं प्रत्यक्षं .६६६। -असहाय ज्ञानको प्रत्यक्ष कहते है। २. प्रत्यक्ष ज्ञान के भेद १. सांव्यवहारिक व पारमाथिक स्या म /२८/३२१/६ प्रत्यक्ष द्विधा-साव्यवहारिक पारमार्थिक च। -
साव्यवहारिक और पारमार्थिक ये प्रत्यक्षके दो भेद है। (न्या. दी, (२/६२९/३१/६)।
२. देवी, पदार्थ व आत्म प्रत्यक्ष न्या. वि./टी./९/३/११/२५ प्रत्यक्ष त्रिविध देवै दीप्यतामुपपादितम् । द्रव्यपर्यायसामान्य विशेषात्मवेदनम् ।३६० - प्रत्यक्ष तीन प्रकारका होता है--१ देवो द्वारा प्राप्त दिव्य ज्ञान, द्रव्य व पर्यायोको अथवा सामान्य व विशेष पदार्थोको जानने वाला ज्ञान तथा आत्माको प्रत्यक्ष करनेवाला स्वसंवेदन ज्ञान ।
स्था. म/२८/३२१/८ तद्विविधम् क्षायोपशमिकं क्षायिक च । वह (पारमार्थिक प्रत्यक्ष) क्षायोपशमिक और क्षायिकके भेदसे दो प्रकारका है।
३. सकल और विकल प्रत्यक्षके भेद ससि /१/२०/१२५/२ देशप्रत्यक्षमवधिमन पर्ययज्ञाने । सर्वप्रत्यक्ष केवलम् । प्रदेश प्रत्यक्ष अवधि और मन पर्यय ज्ञानके भेदसे दो प्रकारका है। सर्व प्रत्यक्ष केवलज्ञान है । ( वह एक ही प्रकारका होता है।) (रा. वा/१/२१/७८/२६ की उत्थानिका) (ध.१/४,१,४५/१४२-१४३/ ७) (न. च. वृ./१७१), (नि, सा/ता, वृ./१२)-(त.प./१३/४७), (स्या, म./२/३२१/8 ), (द्र.सं./टी./५/१५/१ ) (पं.ध./पू./६६६) ।
४. सांव्यवहारिक व पारमार्थिक प्रत्यक्षके लक्षण प. मु./२/५ इन्द्रियानिन्द्रियनिमित्तं देशत: सांव्यवहारिकं । जो ज्ञान स्पर्शनादि इन्द्रिय और मनको सहायतासे होता हो उसे साव्यवहारिक प्रत्यक्ष कहते है। स्या. म./२८/३२१/८ पारमार्थिक पुनरुत्पत्तौ आत्ममात्रापेक्षम् । पार
मार्थिक प्रत्यक्षकी उत्पत्तिमें केवल आत्मा मात्रकी सहायता रहती है। द्र. स./टी./५/१५/६ समीचीनो व्यवहारः सव्यवहार' । प्रवृत्तिनिवृत्ति
लक्षण' सव्यवहारो भण्यते । सव्यवहारे भव साव्यवहारिक प्रत्यक्षम् । यथा घटरूपमिदं मया दृष्टमित्यादि । समीचीन अर्थात् जो ठीक व्यवहार है वह संव्यवहार कहलाता है; संव्यवहारका लक्षण प्रवृत्ति निवृत्तिरूप है। संव्यवहारमें जो हो सो साव्यवहारिक प्रत्यक्ष है।
जैसे घटका रूप मैने देखा इत्यादि। न्या.दी./२/६११-१३/३१-३४/७ यज्ज्ञानं देशतो विशदमीषन्निर्मलं तत्साव्यवहारिकप्रत्यक्षमित्यर्थ. ११। लोकसंव्यवहारे प्रत्यक्षमिति प्रसिद्धस्वारसांव्यवहारिकप्रत्यक्षमुच्यते। । इदं चामुख्यप्रत्यक्षम, उपचारसिद्धत्वात् । वस्तुतस्तु परोक्षमेव मतिज्ञानत्वात ।१२। सर्वतो विशद पारमाथिकप्रत्यक्षम् । यज्ज्ञानं साकल्येन स्पष्ट तत्पारमार्थिकप्रत्यक्ष मुख्यप्रत्यक्षमिति यावत् ।१३। -१ जो ज्ञान एक देश स्पष्ट, कुछ निर्मल है वह सांव्यवहारिक प्रत्यक्ष है।११। यह ज्ञान लोक व्यवहार में प्रत्यक्षप्रसिद्ध है, इसलिए सांव्यवहारिक प्रत्यक्ष कहा जाता है। यह साव्यवहारिक प्रत्यक्ष अमुख्य अर्थात् गौणरूपसे प्रत्यक्ष है, क्योकि उपचारसे सिद्ध होता है। वास्तवमे परोक्ष ही है, क्योकि मतिज्ञान है ।१२। २ सम्पूर्ण रूपसे प्रत्यक्ष ज्ञानको पारमार्थिक प्रत्यक्ष कहते है। जो ज्ञान सम्पूर्ण प्रकारसे निर्मल है, वह पारमाथिक प्रत्यक्ष है । उसीको मुख्य प्रत्यक्ष कहते है।
५. देश व सकल प्रत्यक्षके लक्षण ध १/४,१,४५/१४२/७ सक्लप्रत्यक्ष केवलज्ञानम्, विषयीकृतत्रिकालगोचराशेषार्थत्वात् अतीन्द्रियस्वाद अक्रमवृत्तित्वात् निर्व्यवधानाव आत्मार्थ सनिधानमात्रप्रवर्तनात् । अवधिमन पर्ययज्ञाने विकलप्रत्यक्षम, तत्र साकल्येन प्रत्यक्षलक्षणाभावात् । -१ केवलज्ञान सकल प्रत्यक्ष है, क्योकि, वह त्रिकालविषयक समस्त पदार्थोंको विषय करनेवाला, अतीन्द्रिय, अक्रमवृत्ति, व्यवधानसे रहित और आत्मा एवं पदार्थकी समीपता मात्रसे प्रवृत्त होनेवाला है । ( ज प/१३/४६) २ अवधि और मन पर्यय ज्ञान विकल प्रत्यक्ष है, क्योकि उनमें राकल प्रत्यक्षका लक्षण नही पाया जाता (यह ज्ञान विनश्वर है । तथा मूर्त पदार्थोमे भी इसकी पूर्ण प्रवृत्ति नही देखी जाती। (क पा. १/१,१/ ६१६/१)। ज, प./१३/५० दवे खेत्ते काले भावे जो परिमिदो दु अवबोधो। बहुविधभेदपभिण्णो सो होदि य वियलपच्चरखो ।५०जो ज्ञान द्रव्य, क्षेत्र, काल, भावमे परिमित तथा बहुत प्रकारके भेद प्रभेदोसे युक्त है वह विकल प्रत्यक्ष है।
३. प्रत्यक्ष ज्ञानके उत्तर भेद १. साव्यवहारिक प्रत्यक्षके भेद प्या, म./२८/३२१/६ साव्यवहारिक द्विविधम् इन्द्रियानिन्द्रियनिमित्त-
भेदात। तद् द्वितयम् अवग्रहहाबायधारणाभेदाइ एकैकशश्चतुर्वि. कल्पम् । = साव्यवहारिक प्रत्यक्ष इन्द्रिय और मनसे पैदा होता है। इन्द्रिय और मनसे उत्पन्न होनेवाले उस साव्यवहारिक प्रत्यक्षके अवग्रह, ईहा, अवाय और धारणा चार चार भेद है। (न्या. दी./२/ ६११-१२/३१-३३)।
२. पारमार्थिक प्रत्यक्षके भेद R. सि /१/२०/१२/६ तद् द्वेधा-देशप्रत्यक्ष सर्व प्रत्यक्ष च। वह प्रत्यक्ष ( पारमार्थिक प्रत्यक्ष ) दो प्रकारका है-देश प्रत्यक्ष और सर्व प्रत्यक्ष । (रा. वा/१/२१ उत्थानिका 10८/२५) (ज, प./१३/४६) (द्र, स./टी./५/१५/१), (प. धम् 14६७)। ध.१/४,१,४५/१४२/६ तत्र प्रत्यक्षं द्विविधं, सकलविकल प्रत्यक्षभेदात ।
--प्रत्यक्ष सकल प्रत्यक्ष व विकल प्रत्यक्षके भेदसे दो प्रकारका है। (न्या दी/२/8१३/३४/१०)।
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प्रत्यक्ष
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यादी/२/३१३-१४/२४-२६ तत्र कतिपयषिर्य विक १३॥ सम्य १. कुछ पदार्थोंको विषय करनेवाला ज्ञानविल पारमार्थिक है ।१३ २ समस्त द्रव्य और उनको समस्य जानेवाले ज्ञानको कल प्रध्यक्ष कहते है। १४) (स भ.
त. / ४७ / १३ ) ।
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०६६६ अयमान समस्या प्रत्यक्ष क्षायिकमिदमातीत सुमतदक्षायिका देश महाधिमनय अवज्ञानम् देशं नोइन्द्रियमनाद प्रत्यक्षमितरनिरपेक्षात् । ६६६ १. जा ज्ञान सम्पूर्ण कर्मोके क्षयसे उत्पन्न होनेवाला साक्षात प्रत्यक्षरूप अतीन्द्रिय तथा क्षायिक सुखरूप है वह यह अविनश्वर सकल प्रत्यक्ष है | ६६८ २. अवधि व मन पर्यय रूप जो ज्ञान है वह देशप्रत्यक्ष है क्योंकि वह केवल अनिन्द्रिय रूप मनसे उत्पन्न होनेके कारण देश तथा अन्य बाह्य पदार्थोंसे निरपेक्ष होनेके कारण प्रत्यक्ष कहलाता है | ६६६ |
६. प्रत्यक्षाभासका लक्षण
प.मु./६/६ वैशद्य े प्रत्यक्षं तदाभासं बौद्धस्याकस्माद्दर्शनाद्वह्नि विज्ञानवत् | ६| प्रत्यक्ष ज्ञानको अविशद स्वीकार करना प्रत्यक्षाभास कहा जाता है। जिस प्रकार बौद्ध द्वारा प्रत्यक्ष रूपसे अभिमत-आकस्मिक धूमदर्शनसे उत्पन्न अग्निका ज्ञान अमिशद होनेसे प्रत्यक्षाभास है।
२. प्रत्यक्ष ज्ञान निर्देश तथा शंका समाधान
१. प्रत्यक्ष ज्ञान में संकल्पादि नहीं होते.
श्लो. वा. ३/२/१२/२०/१८८/२३ संकेतस्मरणोपाया दृष्टसंकल्पनात्मिका । नैषा व्यवसिति स्पष्टा ततो युक्ताश्रजन्मनि | २०| जो कल्पना सकेत ग्रहण और उसके स्मरण आदि उपायोसे उत्पन्न होती है, अथवा दृष्ट पदार्थ में अन्य सम्बन्धियोका या इष्ट-अनिष्टपनेका सकल्प करना रूप है, वह कल्पना श्रुत ज्ञानमे सम्भवती है । प्रत्यक्षमें ऐसी कल्पना नहीं है। हॉ, स्वार्थ निर्णयरूप स्पष्ट कल्पना तो प्रत्यक्षमे है । जिस कारण इन्द्रियजन्य प्रत्यक्षमें यह कल्पना करना समुचित है।
२. केवलज्ञानको सकल प्रत्यक्ष और अवधिज्ञानको विकल प्रत्यक्ष क्यों कहते हो
१२३
क पा १/१२/११६/ १ कोहिमणपाणिनियल पक्त्राणि अश्येगदेसम्म विसदसरूवेण तेसि पउत्तिदंसणादो। केवल सयलपञ्चवख पञ्चकवीकयतिकाल विसयासेसदव्वपज्जयभावादो। =अवधि व मन. - पर्ययज्ञान विकस प्रत्यक्ष है, क्योंकि पदार्थोंके एकदेशमे अर्था मूर्तीक पदार्थोकी कुछ व्यजन पर्यायोमे स्पष्ट रूपसे उनकी प्रवृत्ति देखी जाती है । केवलज्ञान सकल प्रत्यक्ष है, क्योकि केवलज्ञान त्रिकाल के विषयभूत समस्त द्रव्यों और उनकी समस्त पर्यायो की प्रत्यक्ष जानता है । दे०/१५ (परापेक्ष, अक्रम से समस्त द्रव्योको जानता है वह केवलज्ञान है । कुछ ही पदार्थोंको जाननेके कारण अवधि व मन पर्यय ज्ञान विल प्रत्यक्ष है। )
३. सकल व विकल दोनों ही प्रत्यक्ष पारमार्थिक हैं
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या दी /२/१३१६/६७ / १ नम्वस्तु केवलस्य पारमार्थिकअवधिमन ययोस्तु न युक्त विकसत्यादिति चेत् नः साकम्पने कश्योर विषयोपाधिकत्वात् । तथा हि-सर्वद्रव्यपर्यायविषयमिति केवल सकलम् । अवधिमन पर्ययौ तु कतिपयविषयत्वाद्विक्लौ । नैतावता तयो पारमार्थिकत्वच्युति । केवलवत्तयोरपि वैशद्य स्वविषये
२. प्रत्यक्ष ज्ञान निर्देश तथा शंका समाधान
साकल्येन समस्तीति तावपि पारमार्थिकावेव । प्रश्न- केवलज्ञानको पारमार्थिक कहना ठीक है, परन्तु अवधि व मन पर्ययको पारमार्थिक कहना ठीक नही है । कारण, वे दोनो विकल प्रत्यक्ष है। उत्तर--- नही, सकलपना और विकलपना यहाँ विषयकी अपेक्षासे है, स्वरूपत नही। इसका स्पष्टीकरण इस प्रकार है-चूँकि केवलज्ञान समस्त इन्त्रो और पर्यायोको विषय करनेवाला है. इसलिए वह सकत प्रत्यक्ष कहा जाता है । परन्तु अवधि और मन. पर्यय कुछ पदार्थोको विषय करते है, इसलिए वे विकल कहे जाते है । लेकिन इतने से उनमें पारमार्थिकी हानि नहीं होती। क्योंकि पारमार्थिकताका कारण सकलार्थविषयता नहीं है-पूर्ण निर्मलता है और वह पूर्ण निर्मलता केवलज्ञानकी तरह अवधि और मन. पर्यय में भी अपने विषय विद्यमान है। इसलिए वे दोनो भी पारमार्थिक है। ४. इन्द्रियोंक बिना भी ज्ञान कैसे सम्भव है
रा. वा./१/१२/४-५/५३/१६ करणात्यये अर्थस्य ग्रहणं न प्राप्नोति, न ह्यकरणस्य कस्यचित् ज्ञानं दृष्टमिति; तन्न, कि कारणम् । दृष्टत्वात् । थम् ईवाय यथा रथस्य कर्ता अमीशः उपकरणापेक्षो रथं करोति स तदा न शतया पुनरीक्ष. तपषायपरिप्र विशेष. सबाह्योपकरणगुणानपेक्षः स्वशक्त्यैव रथं निर्वर्तयन् प्रतीतः, तथा कर्ममलीमस आत्मा क्षायोपशमिकेन्द्रियानिन्द्रियप्रकाशाद्य पकरणापैक्षोऽसति स एव पुन क्षयोपशमविशेषे च सति करणानपेक्षः स्वकावा वैशि को विरोध. 181 ज्ञानदर्शनस्वभावत्वाच्च भास्करादिवत् ॥५। प्रश्न- इन्द्रिय और मन रूप बाह्य और अभ्यन्तर करणोके बिना ज्ञानका उत्पन्न होना ही असम्भव है। बिना करणके तो कार्य होता ही नही है। उत्तर- १. असमर्थ के लिए बसूला करीत आदि बाह्य साधनोकी आवश्यकता होती है । जैसे- रथ बनानेवाला साधारण रथकार उपकरणोसे रथ बनाता है किन्तु समर्थ तपस्वी अपने ऋद्धि बलले बाह्य वसूला आदि उपकरणोके बिना संकल्प मात्रसे रथको बना सकता है । उसी तरह कर्ममलीमस आत्मा साधारणतया इन्द्रिय और मनके बिना नहीं जान सकता पर वही आत्मा जब ज्ञानावरणका विशेष क्षयोपशम रूप शक्तिवाला हो जाता है, या ज्ञानावरणका पूर्ण क्षय कर देता है, तब उसे बाह्य उपकरण के बिना भी ज्ञान हो जाता है ।४। २. आत्मा तो सूर्य आदिकी तरह स्वयंप्रकाशी है, इसे प्रकाशन में परकी अपेक्षा नही होती। आत्मा विशिष्ट क्षयोपशम होनेपर या आवरण क्षय होनेपर स्वशक्तिसे ही पदार्थोंको जानता है । ५॥
प. २/१.१.२२/९६८/४ नामच्या दिज्ञामारकमपेक्षते केवलमिति चेन्न क्षायिकक्षायोपशमिकयो साधम्र्म्याभावाय प्रश्न जिस प्रकार मति आदि ज्ञान, स्वय ज्ञान होनेसे अपनी उत्पत्तिमे कारककी अपेक्षा रखते है, उसी प्रकार केवलज्ञान भी ज्ञान है, अतएव उसे भी अपनी उत्पत्तिमे कारककी अपेक्षा रखना चाहिए। उत्तर-नहीं, क्योकि क्षायिक और क्षायोपशमिक ज्ञानमें साधर्म्य नहीं पाया जाता ।
घ. ७/२,१,१७/६६/४ णाणसहकारिकारणइ दियाणामभावे कथं णाणस्स अत्थित्तमिदि चे ण, णाणसहाव मोग्गल दव्वाणुपण्णउप्पाद-व्यअदव्यस्स विवासाभावा । ण व एक्कं कज्जं एक्कादो चैव कारणदो सव्वत्थ उत्पज्जदि ३दियाणि खीणावरणे भिंष्णजादीए पुष्पत्तिम्हि सहकारिकारणं होति ति नियमो अइम्पसंगादी, अण्णहा मोक्खाभावप्प संगा । तम्हा अणिदिएस करणव्यवहणादिदं णाणमत्थितम् वा च तपिकारण अपट्टस णिहाणेण तदुप्पत्तीदो ! - प्रश्न- ज्ञानके सहकारी कारणभूत इन्द्रियो के अभाव मे ज्ञानका अस्तित्व किस प्रकार हो सकता है। उत्तर- नहीं, क्योकि ज्ञान स्वभाव और पुद्गल द्रव्य से अनुत्पन्न, तथा उत्पाद, व्यय एव धौव्यसे उपलक्षित जीव द्रव्यका विनाश न
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प्रत्यक्ष बाधित पक्षाभास
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प्रत्यभिज्ञान
होनेमे इन्द्रियोके अभावमे भी ज्ञानका अस्तित्व हो सकता है। एक कार्य सर्वत्र एक ही कारणसे उत्पन्न नही होता। इन्द्रियाँ क्षीणावरण जीवके भिन्न जातीय ज्ञानकी उत्पत्तिमे सहकारी कारण हो, ऐसा नियम नहीं है, क्योकि ऐसा माननेपर अतिप्रसंग दोष आ जायेगा, या अन्यथा मोक्षके अभावका प्रसग आ जायेगा। इस कारण अनिन्द्रिय जीवी में करण, कम और व्यवधानसे अतीत ज्ञान होता है. ऐसा ग्रहण करना चाहिए। यह ज्ञान निष्कारण भी नही है, क्योकि आत्मा और पदार्थ के सन्निधान अर्थात सामीप्यसे वह उत्पन्न होता है। ध,६/४,१,४५/१४३/३ अतीन्द्रियाणामवधि-मन पर्ययकेबलाना कथं प्रत्यक्षता। नैष दोष', अक्ष आत्मा, अक्षमई प्रति वर्तत इति प्रत्यक्षमवधि-मन.पर्ययकेवलानीति तेषा प्रत्यक्षत्वसिद्धः =प्रश्नइन्द्रियोकी अपेक्षासे रहित अवधि, मन पर्यय और केवलज्ञानके प्रत्यक्षता कैसे सम्भव है। उत्तर-यह कोई दोष नहीं है, क्योकि, अन शब्दका अर्थ आत्मा है, अतएव अक्ष अर्थात् आत्माकी अपेक्षा कर जो प्रवृत्त होता है वह प्रत्यक्ष है। इस निरुक्तिके अनुसार अवधि, मन - पर्यय, और केवलज्ञान प्रत्यक्ष है। अतएव उनके प्रत्यक्षता सिद्ध है। (न्या. दी./२/६१८-१६/३८), (न्या दो. की टिप्पणीमें उद्धत न्या.
कु./पृ. २६: न्या. नि./पृ. ११)। प्र. सा./त, प्र./१६/ उत्थानिका-कथमिन्द्रियै विना ज्ञानानन्दाविति।
अयं खल्वात्मा शुद्धोपयोगसामर्थ्याव प्रक्षीणघातिकर्मा, स्वपरप्रकाशकत्वलक्षणं ज्ञानमनाकुलत्वलक्षण सौख्य च भूत्वा परिणमते। एवमात्मनो ज्ञानानन्दी स्वभाव एव । स्वभावस्य तु परानपे त्वादिन्द्रियविनाप्यात्मनो ज्ञानामन्दी सभवत । -प्रश्न-आत्माके इन्द्रियोके विना ज्ञान और आनन्द कैसे होता है। उत्तर-शुद्धोपयोगकी सामर्थ्य से जिसके घातीकर्मयको प्राप्त हुए है, . स्वयमेव, स्वपर प्रकाशकता लक्षण ज्ञान और अनाकुलता लक्षण सुख होकर परिणमित होता है। इस प्रकार आत्माका शान और आनन्द स्वभाव ही है। और स्वभाव परसे अनपेक्ष है, इसलिए इन्द्रियोके बिना भी
आत्माके ज्ञान आनन्द होता है। न्या. दी./२/१२२,२८/४२-२०/८ तत्पुनरतीन्द्रियमिति कथम् । इत्थम्
यदि तज्ज्ञानमैन्द्रियिकं स्यात् अशेषविषयं न स्यात् इन्द्रियाणा स्वयोग्यविषय एव ज्ञानजनकत्वशक्ते सूक्ष्मादीना च तदयोग्यत्वादिति । तस्मात्सिद्ध तदशेषविषय ज्ञानमनै न्द्रियकमेवेति ।२२। तदेवमतीन्द्रियं केवलज्ञानमहंत एवेति सिद्धम् । तद्वचनप्रामाण्याच्चा. वधिमन'पर्य योरतोन्द्रिययो' सिद्धिरित्यतीन्द्रियप्रत्यक्षमनवद्यम् । = प्रश्न-(सूक्ष्म पदार्थोंका प्रत्यक्ष ज्ञान ) अतीन्द्रिय है यह कैसे। उत्तर-इस प्रकार यह ज्ञान इन्द्रियजन्य हा तो सम्पूर्ण पदार्थोको जाननेवाला नही हो सकता है, क्योकि इन्द्रियाँ अपने योग्य विषयमें हो ज्ञानको उत्पन्न कर सकती है। और सूक्ष्मादि पदार्थ इन्द्रियोके योग्य विषय नहीं है। अत वह सम्पूर्ण पदार्थ विषयक ज्ञान अनै न्द्रि यक ही है ।२२१ इस प्रकार अतीन्द्रिय केवलज्ञान अरहन्तके ही है, यह सिद्ध हो गया। और उनके वचनोको प्रमाण होनेसे उनके द्वारा प्रतिपादित अतीन्द्रिय अवधि और मन पर्यय ज्ञान भी सिद्ध हो गये। इस तरह अतीन्द्रिय प्रत्यक्ष है उसके मानने में कोई दोष या बाधा नही है। प्रत्यक्ष बाधित पक्षाभास-दे बाधित । प्रत्यक्ष बाधित हेत्वाभास-दे० बाधित । प्रत्यनीक-गो. क जी. प्र८००/६७६/८ श्रुततद्धरादिषु अविनयवृत्ति प्रत्यनीक प्रतिकूलतेत्यर्थ । -श्रुत व श्रुतधारको मे अविनय रूप प्रवृत्ति का प्रतिकूल होना प्रत्यनीक कहलाता है ।
प्रत्यभिज्ञानस. सि 12/३१/३०२/३ तदेवेद मिति स्मरण प्रत्यभिज्ञानम् । तदकस्मान भवतीति योऽस्य हेतु स तद्भाव । भवनं भाव । तस्य भावस्तद्भाव' । येनात्मना प्रारदृष्ट वस्तु तेनैवात्मना पुनरपि भावात्तदेवेदमिति प्रत्यभिज्ञायते। वह यही है' इस प्रकारके स्मरणको प्रत्यभिज्ञान कहते है। वह अकस्मात् तो होता नहीं, इसलिए जो इसका कारण है वही तदभाव है। तात्पर्य यह है कि पहले जिस रूप वस्तुको देखा था, उसी रूप उसके पुन होनेसे 'बहो यह है' इस प्रकारका प्रत्यभिज्ञान होता है। (स्या, म /१८/२४५/१) (न्या. सू /मू. व. टी /३/२/२/
१८५)। प, मु./२/५ दर्शनस्मरणकारणकं संकलनं प्रत्यभिज्ञान. ।। प्रत्यक्ष __ और स्मरणको सहायतासे जो जोड रूप ज्ञान है, वह प्रत्यभिज्ञान है। स्या. मं./२८/३२१/२५ अनुभवस्मृतिहेतुक तिर्य गूर्वतासामान्यादिगोचर संकलनात्मक ज्ञानं प्रत्यभिज्ञानम् । यथा तज्जातीय एवार्य गोपिण्ड' गोसदृशो गवय. स एवाय जिनदत्त इत्यादि । -वर्तमानमें क्सिी वस्तु के अनुभव करनेपर और भूत काल में देखे हुए पदार्थ का स्मरण होनेपर तिर्यक् सामान्य और ऊर्ध्वता सामान्य आदिको जानने वाले जोड रूप ज्ञानको प्रत्यभिज्ञान कहते है। जैसे---यह गोपिड उसी जातिका है, यह गवय गौके समान है, यह बही जिनदत्त है इत्यादि (न्या. दी/३/८/५६/२) । न्या. दी./३/१०/५७/३ केचिदाहु'-अनुभवस्मृतिव्यतिरिक्तं प्रत्यभिज्ञानं नास्तीति, तदसव, अनुभवस्य वर्तमानकालवति विवर्त्तमात्रप्रकाशकलम स्मृतेश्चातीतविवर्त्तद्योतकत्वमिति तावद्वस्तुगति । कथ नाम तयोरतीतवर्तमान.. | कोई कहता है कि अनुभव व स्मृतिसे अतिरिक्त प्रत्यभिज्ञान नामका कोई ज्ञान नही है। सो ठीक नहीं है क्योकि अनुभव केवल वर्तमान कालबर्ती होता है और स्मृति अतीत विवर्त द्योतक है, ऐसी वस्तुस्थिति है। ( परन्तु प्रत्यभिज्ञान दोनो का जोड रूप है।
२. प्रत्यभिज्ञानके भेद न्या.वि/टो./२/५०/७६/२४प्रत्यभिज्ञा द्विधा मिथ्या तथ्या चेति द्विप्रकारा
प्रत्यभिज्ञा दो प्रकारको होती है-१. सम्यक् व २. मिथ्या । प. मु./३/... प्रत्यभिज्ञान तदेबेद तत्सहशं तद्विलक्षण तातियोगीत्यादि । -१. यह वही है, २ यह उसके सदृश है, ३. यह उससे विलक्षण है. ४. यह उससे दूर है, ५. यह वृक्ष है इत्यादि अनेक प्रकारका प्रत्यभिज्ञान होता है। न्या. दी./३/६/६/६ तदिदमेकत्व सादृश्य तृतीये तु पुन वैसादृश्यम्- प्रत्यभिज्ञानम् । एवमन्येऽपि प्रत्यभिज्ञाभेदा यथाप्रतीति स्वयमुत्पेक्ष्या । -वस्तुओमें रहने वाली १. एक्ता २, सादृशता और ३ विसदृशता प्रत्यभिज्ञाके विषय है। इसी प्रकार और भी प्रत्यभिज्ञानके भेद अपने अनुभवसे स्वयं विचार लेना।
३. प्रत्यभिज्ञानके भेदोंके लक्षण न्या. वि./मू. व.टी./२/५०-५१/७६ प्रत्यभिज्ञा द्विधा [ काचित्सादृश्यविनिबन्धना ] 101 काचित् जल विषया न तच्चका दिगोचरा साहशस्य विशेषेण तन्मात्रातिशायिना रूपेण निबन्धनं व्यवस्थापन यस्या सा तथेति । सैव कस्मात्तथा इत्याह-प्रमाणपूर्विका नान्या [दृष्टिमान्द्यादिदोषत ] इति ॥५१॥ प्रमाण प्रत्यक्षादिपूर्व कारणं यस्या सा काचिदेव नान्या तच्चक्र विषया यत .. दृष्टेमरीचिकादर्शनस्य मान्द्य यथावस्थिततत्परिचित्ति प्रत्य पाटबम् आदिर्यस्य जलाभिलाषादे स एव दोषस्तत इति । -१. सम्यक् प्रत्यभिज्ञान प्रमाण पूर्वक होता है जैसे-जल में उठने वाले चक्रादि को न देख कर केवल जल मात्रमे, पूर्व गृहीत जलके साथ सादृश्यता देखनेसे 'यह
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प्रत्यय
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१. प्रत्ययके भेद व लक्षण
प्रत्यय विषयक प्ररूपणाएँ सारणीमें प्रयुक्त सकेतोंका अर्थ । प्रत्ययोंकी उदय व्युच्छित्ति (सामान्य व विशेष) ओघ प्ररूपणा। प्रत्ययोंकी उदय व्युच्छित्ति आदेशप्ररूपणा । प्रत्यय स्थान व भंग प्ररूपणा। १. एक समय उदय आने योग्य प्रत्ययों सम्बन्धी सामान्य नियम। २. उक्त नियमके अनुसार प्रत्ययोके सामान्य भग। ३. उक्त नियम के अनुसार भंग निकालनेका उपाय । ४. गुणस्थानोकी उपेक्षा स्थान ब भंग। किस प्रकृतिके अनुभाग बंधमें कौन प्रत्यय निमित्त है।। कर्मबंधके रूपमें प्रत्ययों सम्बन्धी शकाएँ-दे० बध/५।।
जल ही है। ऐसा निर्णय होता है। २. मिथ्या प्रत्यभिज्ञान प्रमाण पूर्वक नहीं होता, बल्कि दृष्टिकी मन्दता आदि दोषोके कारणसे कदाचित मरीचिकामें भी जल की अभिलाषा कर बैठता है। प.मु./३/५-१० प्रत्यभिज्ञान तदेवेदं तत्सदृश तद्विलक्षणं तत्प्रतियोगीत्यादि । यथा स एवायं देवदत्तः।६। गोसदृशो गवय ।। गोविलक्षणो महिष ।। इद मस्माइदूर हा वृक्षोऽयमित्यादि ।१०। न्या. दी./३/8८-६/५६/५ यथा स एवाऽय जिनदत्त', गोसदृशो गवया, गोविलक्षणमहिष इत्यादि । अत्र हि पूर्व स्मिन्नुदाहरणे जिनदत्तस्य पूर्वोत्तरदशाद्वयव्यापकमेकत्वं प्रत्यभिज्ञानस्य विषय । तदिदमेकत्व प्रत्यभिज्ञानम् । द्वितीये तु पूर्वानुभूतगोप्रतियोगिकं गवयनिष्ठ सादृश्यम् । तदिदं सादृश्य प्रत्यभिज्ञानम् । तृतीये तु पुन प्रागनुभूतगोप्रतियोगिक महिषनिष्ठ वैसादृश्यम् । तदिदं वैसादृश्यप्रत्यभिज्ञानम् । = जैसे वही यह जिनदत्त है, गौके समान गवय होता है, गायसे भिन्न भैसा होता है, इत्यादि । यहाँ १. पहले उदाहरणमें जिनदत्तकी पूर्व और उत्तर अवस्थाओमे रहने वाली एकता प्रत्यभिज्ञानका विषय है। इसीको एकत्व प्रत्यभिज्ञान कहते है । २. दूसरे उदाहरण में, पहले अनुभव की हुई गायको लेकर गवयमें रहने वाली सदृशता प्रत्यभिज्ञानका विषय है। इस प्रकारके ज्ञानको सादृश्य प्रत्यभिज्ञान कहते हैं। ३, तीसरे उदाहरणमे पहले अनुभव की हुई गायको लेकर भै सामें रहनेवाली विसदृशता प्रत्यभिज्ञानका 'विषय है, इस तरहका ज्ञान वैसादृश्य प्रत्यभिज्ञान कहलाता है। ४ यह प्रदेश उस प्रदेशसे दूर है इस प्रकारका ज्ञान तत्प्रतियोगी नामका प्रत्यभिज्ञान कहलाता है। यह वृक्ष है जो हमने सुना था। इत्यादि अनेक प्रकारका प्रत्यभिज्ञान होता है । * स्मृति आदिज्ञानोंकी उत्पत्तिका क्रम-दे० मतिज्ञान/३। * स्मृति व प्रत्यमिज्ञान में अन्तर-दे० मतिज्ञान/३ ।
४. प्रत्यमिज्ञानामासका लक्षण प.मु/६/६ सदृशे तदेवेद तस्मिन्नेव तेन सदृश यमलकवदित्यादि प्रत्यभिज्ञानाभासं ।।। -सदृशमे यह वही है ऐसा ज्ञान; और यह वही है इस जगह है-यह उसके समान है, ऐसा ज्ञान प्रत्यभिज्ञानाभास कहा जाता है जैसे-एक साथ उत्पन्न हुए पुरुषमें तदेवेदं की जगह तत्सदृश और तत्सदृशकी जगह तदेवेदं यह ज्ञान प्रत्यभिज्ञानाभास कहा जाता है ।। प्रत्यय-वैसे तो प्रत्यय शब्दका लक्षण कारण होता है, पर रूढि वश
आगममें यह शब्द प्रधानत कमकि आस्रव व बन्धके निमित्तोके लिए प्रयुक्त हुआ है। ऐसे वे मिथ्यात्व अविरति आदि प्रत्यय है, जिनके अनेक उत्तर भेद हो जाते है।
१. प्रत्ययके भेद व लक्षण
१.प्रत्यय सामान्य का लक्षण रा.वा./१/२१/२/७६/- अयं प्रत्ययशब्दोऽनेकार्थ.। क्वचिज्ज्ञाने वर्तते, यथा 'अर्थाभिधानप्रत्यया' इति । क्वचिच्छपथे वर्तते, यथा परद्रव्यहरणादिषु सत्यपालम्भे 'प्रत्ययोऽनेन कृतः' इति। क्वचिद्धेतौ वर्तते, यथा 'अविद्याप्रत्यया सस्कारा' इति ।-प्रत्यय शब्दके अनेक अर्थ है। कहीपर ज्ञानके अर्थ में वर्तता है जैसे-अर्थ, शब्द, प्रत्यय (ज्ञान)। कहींपर कसम शब्दके अर्थ में वर्तता है जैसे - पर आदिके चुराये जानेके प्रसंगमें दूसरेके द्वारा उलाहना मिलनेपर 'प्रत्ययोऽनेन कृत' अर्थात् उसके द्वारा कसम खायी गयी। कहींपर हेतुके अर्थ में वर्तता है जैसे-अविद्याप्रत्यया संस्कारा'। अर्थात
अविद्याके हेतु संस्कार है। ध.१/१,१,११/१६६/७ दृष्टि श्रद्धा रुचि' प्रत्यय इति यावत् । = दृष्टि,
श्रद्धा, रुचि और प्रत्यय ये पर्यायवाची नाम है। भ.आ /वि /८२/२१२/३ प्रत्ययशब्दोऽनेकार्थ । क्वचिज्ज्ञाने वर्तते यथा
घटस्य प्रत्ययो' घटज्ञानं इति यावत् । तथा कारणवचनोऽपि 'मिथ्यात्वप्रत्ययोऽनन्त संसार' इति गदिते मिथ्यात्वहेतुक इति प्रतीयते । तथा श्रद्धावचनोऽपि 'अयं अत्रास्य प्रत्यय' श्रद्धतिगम्यते । प्रत्यय शब्दके अनेक अर्थ है जैसे 'घटस्य प्रत्यय' घटका ज्ञान, यहाँ प्रत्यय शब्दका ज्ञान ऐसा अर्थ है। प्रत्यय शब्द कारणवाचक भी है जैसे-'मिथ्यात्वप्रत्यय अनन्तससार' अर्थात इस अनंत संसारका मिथ्यात्व कारण है। प्रत्यय शब्दका श्रद्धा ऐसा भी अर्थ होता है जैसे 'अब अत्रास्य प्रत्ययः' इस मनुष्यकी इसके ऊपर श्रद्धा है। २. प्रत्ययके भेद-प्रभेद १. बाह्य व अभ्यन्तर रूप दो भेद क.पा. १/१,१३-१४/२८४/१ तत्थ अभंतरो कोधादिदव्व कम्मक्खंधा... बाहिरो कोधादिभावकसायसमुप्पत्तिकारण जीवाजीवप्पयं बज्मदव्यं । क्रोधादि रूप द्रव्यकर्मों के स्कन्धको आभ्यन्तर प्रत्यय कहते है। तथा क्रोधादि रूप भाव कषायकी उत्पत्तिका कारणभूत जो जीव और अजीव रूप बाह्य द्रव्य है वह बाह्य प्रत्यय है।
भेद व लक्षण प्रत्यय सामान्यका लक्षण । प्रत्ययके भेद-प्रभेद बाह्य-अभ्यन्तर, मोह-राग-द्वेष, मिथ्यात्वादि ४ वा ५, प्राणातिपातादि २८, चारके ५७ भेद । प्रमादका कषायमें अन्तर्भाव करके पाँच प्रत्यय ही चार बन जाते है। प्राणातिपातादि अन्य प्रत्ययोंका परस्परमें अन्तर्भाव
नहीं होता। ५.६ ५ अविरति व प्रमादमें अन्तर, ६ कषाय व अविरति
में अन्तर।
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प्रत्यय
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२. मोह राग द्वेष तीन प्रत्यय
न.च.वृ./३०१ पच्चयवतो रागा दोसामोहे य आसवा तेसि ।।३०१ = राग, द्वेष और मोह ये तीन प्रत्यय है, इनसे कर्मोंका आव होता है | २०१
२. मिध्यात्वादि चार प्रत्यय
दु
स.सा./मू / १०१-११० सामण्णपच्चया खलु चउरो भण्णंति बधकत्तारो । मिच्छतं अविरमण कसाय जोगाय बोद्धव्वा । १०६ । तेसि पुणो वि य इमो भणिदो भेदी तेरस वियप्यो मादिट्ठी आदी जान सजोगिस्स चरमं । ११० - चार सामान्य प्रत्यय निश्चय से बन्धके कर्ता कहे जाते है, वे मिथ्यात्व अविरमण तथा कषाय और योग जानना |१०| (सं./प्र./४/००) (ध.७/२१०मा / २ / ६) ( ध ८/३६/११/१२ ) (न.च.वृ / ३०२ ) ( यो.सा./३/२) ( पं का /त प्र० / १४६ ) और फिर उनका यह तेरह प्रकारका भेद कहा गया है। जो कि मियाद लेकर योगकेवली (गुणस्थान है ।११०
४. मिथ्यात्वादि पाँच प्रत्यय
त सू /८/१ मिथ्यादर्शनाविरतिप्रमादवषाययोगा बन्धहेतव |१| = मिथ्यादर्शन, अविरति प्रमाद, श्याम और योग ये बन्धके हेतु है ११। (मु.आ./ १२९६) ।
५. प्राणातिपात आदि २८ प्रत्यय
/१२/४.१/१-११/२०५ नम-मवहार-संगहाणं णाणावरणीयवेयणा पाणादिवादपच्चए |२| मुसावादपञ्चए | ३| अदत्तादाणपञ्चर |४| मेहुणा || परिग्मपथए । राणिपथ 11 एवं कोह मा माया लोह-राग-दोस मोह-पेम्मपचए 1 निदानपचर
"
हा अभक्खाप-कह-र-र-वहि-यदि माग मायमोस - मिच्छाणाण - मिच्छदं सण-पओअपच्चए |१०| एवं सत्तण्णं कम्माण | ११ | - नैगम, व्यवहार, और संग्रह नयकी अपेक्षा ज्ञानावरणीय वेदना - प्राणातिपात प्रत्ययसे; मृषावाद प्रत्ययसे; अदत्तादान प्रत्ययसे, मैथुन प्रत्यय परिषद् प्रत्ययसे रात्रि भोजन प्रत्ययसे, क्रोध, मान, माया, लोभ, राग, द्वेष, मोह और प्रेम प्रत्ययोसे; निदान प्रत्ययसे; अभ्याख्यान, कलह, पैशुन्य, रति, अरति, उपधि, निकृति, मान, मेय, मोष, मिथ्याज्ञान, मिथ्यादर्शन और प्रयोग इन प्रत्ययोसे होती है | २- १०१ इसी प्रकार शेष सात कर्मोंके प्रत्ययोंकी प्ररूपणा करनी चाहिए|११|
६. चार प्रत्ययोंके कुल ५७ भेद
संत्रा/४/७० मिच्यासंजम हुति हु कसाय जोगा य बंधक से पच दुवालस भेया कमेण पणुवीस पण्णस्सं 1991 - मिथ्यात्व, असयम, कषाय और योग ये चार कर्मबन्धके मूल कारण है । इनके उत्तर भेद क्रमसे पाँच, बारह, पच्चीस और पन्द्रह है । इस प्रकार सब मिलकर कर्म बन्धके सत्तावन उत्तर प्रत्यय होते है 1७७ (घ) ३.६/२१/१) (गो.सू./०८/१५०)
३. प्रमादका कषायमें अन्तर्भाव करके पाँच प्रत्यय हो चार बन जाते हैं
६/०/२.१०/११/११ च धकारणाम कर पमादायो । कसायेस. कसायवदितिपादन भादो प्रश्न- पूर्वोक्त
१. प्रत्ययके भेद व लक्षण
(मिथ्यात्व, प्रमाद, कषाय, और योग) चार बन्धके कारणो मे प्रमादका कहाँ अन्तर्भाव होता है ' उत्तर-कषायोमे प्रमादका अन्तर्भाव होता है, क्योंकि, कषायोंसे पृथक् प्रमाद पाया नहीं जाता । ( घ. १२/ ४,२,८,१०/२८६/१०)
४. प्राणातिपात आदि अन्य प्रत्ययोंका परस्पर में अन्तमव नहीं किया जा सकता
ध. १२/४,२,८-१/पृ./पं. ण च पाणदिवाद-मुसावाद अदत्तादाणाणमंत - रंगा कोधादिपचरस अतन्मानो बचि तसो तेसि भेदभावो (२८२/८) । ण च मेहुणं अतरंगरागे णिपददि, तत्तो कथंचि एदस्स भेदु भादो (२०२७) | मोहन्ययोकोहादि सिदितिकामनिज्मदे अमयनामयमी वरिगण्यरुवाणमगसंस्था कारण जाणं एगाणेगसहावा बारमेगन्त्तविरोहाहो ( २०४ / १० ) । पेम्परयो लोभ-राम-पचर पविसदि रि पुणरुतो किम्प जायदे । ण, तेहितो एदस्स कधंचि भेदुवलं भादो । तं जहा बकत्थे ममेदं भावो लोभो । ण सो पेम्म, ममेदं बुद्धीए अपडिग्गहिदे वि दववाहले परदारे वा पेम्मुवलं भादो। ण रागो पेम्मं, माया लोहहस्सरसि शगस्स अवयवो अनयनरूपेम्मतविरोहादी (२८४ / १) प प एसओ मिच्यत्तपचर पविसदि मिच्छत्तसहचारिस्स मिच्छत्तेण एयन्तविरोहादो। ण पैम्मपञ्चर परिसद संपमापयविसम्म पेम्मम्मि संपयवियम्यि निदाणस्स १वेसविरोहादो । - १. प्राणातिपात, मृषावाद और अदत्तादान इन अंतरग प्रत्ययोका क्रोधादिक प्रत्ययोमे अन्तर्भाव नहीं हो सकता, क्योंकि, उनसे इनका कथचित् भेद पाया जाता है । २० मैथुन अन्तरग रागमे गर्भित नहीं होता, क्योंकि, उससे इसमें कथं चित् भेद पाया जाता है ( २८२ / ७) । ३. प्रश्न- मोह प्रत्यय चूँकि क्रोधादिकमें प्रविष्ट है अतएव उसे कम क्यो नहीं किया जाता है । उत्तर- नहीं, क्योकि क्रमश व्यतिरेक व अन्वय स्वरूप, अनेक व एक संख्या वाले, कारण व कार्य रूप तथा एक व अनेक स्वभावसे संयुक्त अवयव अवयवीके एक होनेका विरोध है ( २८३ / १० ) । ४. प्रश्न - चूँकि प्रेम प्रत्यय लोभ व राग प्रत्ययो में प्रविष्ट है अतः वह पुनरुक्त क्यो न होगा ? उत्तर-नहीं, क्योंकि उनसे इसका कथचित् भेद पाया जाता है। वह इस प्रकार मे - बाह्य पदार्थों में 'यह मेरा है' इस प्रकार के भाको लोभ कहा जाता है। वह प्रेम नहीं हो सकता, क्योंकि, यह मेरा है' ऐसी बुद्धि अविषयभूत भी दाक्षाफल अथवा परस्त्रीके विषयमें प्रेम पाया जाता है। राग भी प्रेम नहीं हो सकता, क्योकि, माया, लोभ, हास्य, रति और प्रेमके समूह रूप अवयवी कहलाने वाले रागके अवयव स्वरूप प्रेम रूप होनेका विरोध है । ( २८४ / ३) । ५. यह (निदान) प्रत्यय मिथ्यात्व प्रत्यय में प्रविष्ट नहीं हो सकता, क्योंकि वह मिध्यात्वका सहचारी है, अत मिथ्या
के साथ उसकी एकताका विरोध है । वह प्रेम प्रत्यय में भी प्रविष्ट नहीं होता, क्योंकि, प्रेम सम्पत्ति एवं असंपत्ति दोनोको विषय करने वाला है, परन्तु निदान केवल सम्पत्तिको ही विषय करता है, अतएव उसका प्रेममे प्रविष्ट होना विरुद्ध है ।
५. अविरति व प्रमाद
अन्तर
रा. वा./८/१/३२/५६५/४ अविरते प्रमादस्य चाविशेष इति चेत्, न; विरतस्यापि प्रमाददर्शनात् । ३२ | विरतस्यापि पञ्चदश प्रमादाः सभयन्ति विकथाकामेद्रियनिद्राणयक्षमा प्रश्न अनिरति और प्रमादमे कोई भेद नहीं है ? उत्तर- नहीं, क्योकि विरतके भी
जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश
-
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प्रत्यय
१२७
२. प्रत्यय विषयक प्ररूपणाएँ
विकथा, कषाय, इन्द्रिय, निद्रा और प्रणय ये पन्द्रह प्रमादस्थान देखे जाते है, अतः प्रमाद और अविरति पृथक-पृथक् है ।
२. प्रत्ययोंकी उदय व्युच्छित्ति ओघ'प्ररूपणा
६. कषाय व अविरतिमें अन्तर
१. सामान्य ४ वा ५ प्रत्ययोंकी अपेक्षा कुल बन्ध योग्य प्रत्ययः-१ स सि /८/९/३७६/५ मिथ्यात्व, अविरति,
प्रमाद, कषाय और योग-। २. पं स प्रा/४/७८-७६ मिथ्यात्व, अविरति. कषाय और योग-४. (घ.८३ ६/गा. २०-२१/२४); (पं. सं./सं/४/१८-२१) (गो क./मू. (७८७-७८८ ) ।
गुण स्थान
पाँच प्रत्ययोंकी अपेक्षा चार प्रत्ययोंकी अपेक्षा (सं. सि.)
(पं.सं.) व्युच्छित्ति कुल व्यु शेष व्युच्छित्ति कुल व्यु. शेष
बन्ध । । प्र० बन्ध
प्र०
१ मिथ्यात्व ५
रा, वा/८/१/३३/५६५/७ स्यादेतव-कषायाविरत्योर्नास्ति भेद' उभयोरपि हिसादिपरिणामरूपत्वादितिः तन्न, कि कारणम् । कार्यकारणभेदोपपत्ते । कारणभूता हि कषाया कार्यात्मिकाया हिंसाद्यविरतेरान्तरभूता इति । यस प्रश्न-हिंसा परिणाम रूप होनेके कारण कषाय और अविरतिमें कोई भेद नही है । उत्तर-ऐसा नहीं है, क्योकि इनमे कार्य कारणकी दृष्टिसे भेद है। कषाय कारण है और हिंसादि अविरति कार्य। ध, ७/२,१,७/१३/७ असजमो जदि क्साएसु चेव पददि तो पुध तदुवदेसो किमळं कीरदे । ण एस दोसो, ववहारणयं पडुच्च तदुवदेसादो। -प्रश्न -यदि असंयम कषायोमें ही अन्तर्भूत होता है तो फिर उसका पृथक् उपदेश किस लिए किया जाता है। उत्तर-यह कोई दोष नहीं, क्योंकि व्यवहार नयको अपेक्षासे उसका पृथक् उपदेश किया गया है। दे. प्रत्यय/४ (प्राणातिपातादि अन्तर ग प्रत्ययों का क्रोधादि प्रत्ययोंसे कथंचित् भेद है)।
१४ मिथ्यात्व | ४ x ४ बस अविरति ३
سه سه
१३ | अविरति
अविरति
| प्रमाद |७-१० कषाय ११-१३ योग १४ - ४
x wwwwx
mornxx
कषाप योग
ل س مي xX
२. विशेष ५७ प्रत्ययोंकी अपेक्षा
प्रमाण-(पं. सं./प्रा /८०-८३); (ध ८/३,६/२२-२४/१); (गो. क./मू./
७८६-७६०/६५२) कुल बन्ध योग्य प्रत्यय--मिथ्यात्व ५; अविरति १२, कषाय २५, योग १५-५७ ।
व्युच्छित्ति
अनुदय
बच०
| गुणस्थान
पुन उदय
शेष उदय योग्य
कुल उदय योग्य
अनुदय पुनः उदय
उदय 6 xxव्युच्छित्ति
م
२. प्रत्यय विषयक प्ररूपणाएँ १. सारणीमें प्रयुक्त संकेतोंका अर्थ अनं० चतु० अनन्तानुबन्धी क्रोध, मान, माया, लोभ अनु० मन० वच० अनुभय मन, व अनुभय वचन
भय वचन अधिक
अविरति आ० द्वि०
आहारक व आहारक मिश्र आकमि०
आहारक मिश्र औ० द्वि० औदारिक व औदारिक मिश्र उ० मन० बच० उभय मन व वचन नपुं०
नपुसक वेद
पुरुषवेद प्रत्या० चतु० प्रत्याख्यानावरण क्रोध, मान, माया, लोभ मन०४
सत्य, असत्य, उभय व अनुभय मनोयोग मि० पचक पाचो प्रकारका मिथ्यात्व वच०४
चार प्रकारका वचनयोग वैद्वि०
वैक्रियक व वैक्रियक मिश्र स क्रोध संज्वलन क्रोध हास्यादि६ हास्य, रति, अरति, शोक, भय, जुगुप्सा
م
س
मिपंचक आकद्वि० अनन्ता० चतु० .
औ००मि०
व कार्मण ४ अप्रत्या० चतु०
औ० बै०४३ | ३ सहिंसा, वै० । द्वि०-७
कार्मण
४६/७३६
प्रत्या० चतु० औ० मि० शेष ११ अवि- | कार्मण
- रति-१५ ६ | आ० द्वि०
आद्वि०२२
२२४ २२२
जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश
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प्रत्यय
गुण स्थान
-
8/1
६ /
/ui
F/iv
2/v
६/v1
E/vii
१०
११
१२
१३
१४
नं०
हास्यादि
नपुं०
स्त्री वेद
पुरुष वेद
व्युच्छित्ति
सं० क्रोध
सं० मान
सं० माया
बादर लोभ सूक्ष्म सोभ
X
असत्य व उ० मन
व वचन सत्य, अनु० मन वचन | औ०वि० कार्मण
X
१ गति
१ नरक
२ तिच
३ मनुष्य ४ देव
२ इन्द्रिय
१ एकेन्द्रिय
गुण
४
५
१४
४
२
२ वीडिय
३ त्रीन्द्रिय
२
४ चतुरिन्द्रिय २
१४
अनुदय
पुन उदय
२
help
balk hea v w x x x x a & a wa
२२ १६
१५
१४
३. प्रत्ययों की उदय व्युच्छित्ति आदेश प्ररूपणा
पं. सं. / प्रा/४/८४-१०० कुल उदय योग्य प्रत्यय =:
५७
१३
१२/
X
११
१०
नोट- यहाँ प्रत्येक मार्गाने केवल उदय योग्य प्रत्ययोके निर्देश रूप सामान्य प्ररूपणा की गयी है। गुणस्थानोकी अपेक्षा उनकी प्ररूपणा तथा यथा योग्य ओघ प्ररूपणाके आधारपर जानी जा सकती है।
१०
औ०मि० ५ कार्मण
पुन उदय
उदय
औ० द्वि, आ० द्विक, स्त्री, पुरुष वेद
बै० द्वि, आ० द्वि० २० डिस
औ० द्विक, आ०वि० नपुं०
२२ ६ १६
१६ १ १५
१५ १ ९४
१४ १ १३
१३ १ १२
१२ १ ११
११ १ १०
१० १०
१० १
ह
obsahe
६ ४
२ ७ ७
उदयके अयोग्य प्रत्ययोके नाम
बै० द्वि०, आ० द्विक०, बच०४, मन०४, स्पर्शसे अतिरिक्त अविरति, स्त्री, पुरुष वेद - १६ उपरोक्त ११- रसनेन्द्रिय+ अनु० वचन उपरोक्त १० मानेन्द्रिय -१६ उपरोक्तरिन्द्रिय-१५
६
&
उदय योग्य
६ ५९
=8 ५३
=२
५५
५२
३८
= १७ ४० ४१
४२
५७
१२८
m
मार्गणा
३ काय
१. स्थावर
२. त्रस
४ योग
५
वेद
१. पुरुष २. स्त्री
३. नपुंसक
६ कषाय
ज्ञान
१. कुमति व कुभुत २ विभंग
कुल कषाय १६ ह
५. केवलज्ञानी
गुण स्थान
१ आहारक द्विक १-१३ स्वस्व उदय योग्यके बिना के बिना शेष शेष १४ = १४ (विशेष दे. १३ योग
उदय )
२. आहारक द्विक ६
८ संयम
१
१ सामायिक व छेदोपस्थापना
१४
जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश
२. प्रत्यय विषयक प्ररूपणाएँ
उदयके अयोग्य प्रत्ययो के नाम
२
बै० द्वि० आ० द्वि०, मन ४, बच०४, स्पर्श रहित ५. अविरति स्त्री. पुरुष
१६
X
आ० द्वि०
ओ०मि०, २०मि० कार्मन, आ० द्वि०
३. मति अवधि
४-१२ मिध्याख पंचक, अनसा चतु० အင် ४. मन पय ६-१२ मि० पंचक, अविरति ११.
संज्व० चतुके बिना १२ कषाय, स्त्री व नपु० वेद, बौ० मिश्र, आ० द्वि०, बै० द्वि०, कार्मण ५+१२+११+२+६-३७
१३, १४ मि० पंचक, १२ अविरति, १३ कषाय, वै० ० द्विक, आ० द्विक, असत्य व अनु० मन व वचन ४ ५+१२+२५+४+४=५०
५ मिथ्यात्व १२ अविरति [सं०] चतु अतिरिक्त १२ काय. स्त्री व नपुं० वेद, आ० द्विकके मिना १४ योग (दे० सद) =५+१२+१२+२+१४४५
२
स्त्री व नपुं० वेद आहारक द्विक, स्त्री व नपुं०
४ =४
अनन्तानु० क्रोधादि कषायों में अपने अपने चार के शेष १२
बिना =१३
-२
६-१ मि० पंचक १२ अविरति सं० चतुके बिना १२ कपाय, औ० मि०, बै० द्वि०, कार्मण ५+१२+१२+१+२+१३३
२. परिहार वि० ६-७ उपरोक्त ३३, स्त्री व नपुं०,
आ० द्वि०
३७
उदय
योग्य
३८
१७
४३
१२
烧
५३
५३
४५
x
५२
४८
२०
७
२४
२०
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________________
प्रत्यय
१२९
२. प्रत्यय विषयक प्ररूपणाएँ
गुण
उदय
40
मार्गणा
उदयके अयोग्य प्रत्ययों के नाम
स्थान
योग्य
३ सूक्ष्म सा० १० बाँ
मि० पचक, १२ अविरति, कषाय २५ सूक्ष्म लोभ २४, औ० मि०, वै० द्वि०, आ० द्विक, कार्मण ५+१२+२४+१+२+२,१ ।
-४७ ४ यथाख्यात ११-१४ मि०पंचक, अविरति, २५ कषाय,
वै० द्वि०, आ० द्वि० -४६ ५. असयमी १-४ | आ० द्वि० ६. देशसंयमी अनन्ता व अप्रत्या० चतु०, मि०
पचक, वै० द्वि०, औ० मि०, आ० द्वि०, कार्मण
८+५+२+१+२+१-२० दर्शन- । १. चक्षु व अचक्षु १२ | २. अवधि द० | ४-१२ मिथ्यात्व पंचक, अनन्तानु०
४. प्रत्यय स्थान व मंग प्ररूपणा १. एक समय उदय आने योग्य प्रत्ययों सम्बन्धी सामान्य नियम
१. पाँच मिथ्यात्वोमेंसे एक काल अन्यतम एक ही मिथ्यात्वका उदय सम्भव है। २. छ इन्द्रियोकी अविरतिमें से एक काल कोई एक ही इन्द्रियका उदय सम्भव है। छ' कायको अविरतिमें से एक काल एकका, दोका,तीनका,चारका,पाँचका या छहोका युगपत् उदय सम्भव है। ३. कषायों में क्रोध, मान माया, व लोभमेसे एक काल किसी एक कषायका ही उदय सम्भव है। अनन्तानुबन्धी अप्रत्याख्यानावरण, प्रत्याख्यानावरण और संज्वलन इन चारोमें गुणस्थानों के अनुसार एक काल अनन्ता० आदि चारोका अथवा अप्रत्या० आदि तीनका, अथवा प्रत्या० व संज्वलन दो का अथवा केवल संज्वलन एकका उदय सम्भव है। हास्य-रति अथवा शोक-अरति इन दोनो युगलोमेसे एक काल एक युगलका ही उदय सम्भव है। भय व जुगुप्सामें एक काल दोनोंका अथवा किसी एकका अथवा दोनोका ही नहीं, ऐसे तीन प्रकार उदय सम्भव है। ४ पन्द्रह योगोंमें गुणस्थानानुसार किसी एकका ही उदय सम्भव है। २. उक्त नियमके अनुसार प्रत्ययोंके सामान्य भंग
नोट - घटामें दर्शाया गया ऊपरका अंक एक काल उदय आने योग्य प्रत्ययोकी गणना और नीचे वाला अक उस विकल्प सम्बन्धी भगोकी गणना सूचित करता है।
एक विवरण
कालिक भंग प्रत्यय
प्रत्यय
चतु०
३. केवलदर्शन १३-१४ | मि० पंचक, १२ अविरति,
२५ कषाय, वै० द्वि०, आ० द्वि० असत्य व अनु० मन वच०४-५०
संकेत
१०.
लेश्या१ कृष्णादि ३ २. पीतादि ३
१-४
आ० द्वि०
भव्य१ भव्य २३ अभव्य
आ०वि०
सम्यक्त्व१. उपशम
४६
अनन्तानु० चतु०, मिथ्यात्व पचक, आ० द्वि० ११ मिथ्या० पचक, अनन्तानु०
२. वेदक, क्षायिक
चतु
३ सासादन २रा । मिथ्या० पंचक, आ० द्वि० -७ ४. मिथ्यादर्शन १ आ० द्वि० ५. मिश्र३रा मिथ्या० पंचक, अनन्तानु०,
चतु०, आ० द्वि०, औ० मि० वै० मि०, कार्मण =१४
मिथ्या० मि १५ पाँचो मिथ्यात्वोमे से अन्यतम एक
का उदय छहो इन्द्रियोको अविरतिमेंसे १
अन्यतम एकका उदय का ११ पृथ्वी काय सम्बन्धी अविरति का २/१ पृथ्वी व अप काय सम्बन्धी अविरति २ का ३/१ । पृथ्वी, अप व तेज काय सम्बन्धी
। अविरति का ४/१ | पृथ्वी, अप, तेज व वायु काय | ४
| सम्बन्धी अविरति का ४१ पाँचों स्थावर काय सम्बन्धी
अविरति का ६/१ छहो काय सम्बन्धी अविरति कषाय अनन्त ४/४. अनन्तानु० आदि चारो सम्बन्धी
| क्रोध या, मान, या माया, या लोभ अना. ३/४ अप्रत्याख्यान आदि तीनो सम्बन्धी
। क्रोध, या मान, या माया, या लोभ प्रत्या २/४ प्रत्याख्यान व सज्वलन सम्बन्धी
क्रोध, या मान, या माया, या लोभ सं०१/४ संज्वलन क्रोध, या मान, या माया,
या लोभ यु०२/२ हास्य-रति, या शोक अरति, इन २
दोनों युगलों में से किसी एक युगल
का उदय वै० १/३
तीनों वेदों में से किसी एक का उदय भय १/२ भय व जुगुप्सामें से किसी एकका उदय १ भय २/१
भय व जुगुप्सा दोनोका उदय २
asी
२
१३ संशी
१. असज्ञी
। २
५
।
मन सम्बन्धी अविरति, ४ मन०, अनुय यके बिना ३ वचन०, वै. द्वि०, आ० द्वि०
१+४+३+२+२=१२
२ संज्ञी
१४ आहारक
१ आहारक २ अनाहारक
कार्मण कुल योग १५- कार्मण -१४
४३
जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश
भा०३-१७
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________________
प्रत्यय
मूल प्रत्यय
योग
स्थान
न०
१
२
३
४
७
संकेत
८
यो० १/२ यो० १/१०
| ४ ४
मो०१/१३ मन, वचन, औदारिक, औदारिक १ मिश्र, वैसिक क्रिक
कार्मण इनसे किसी एकका उदय
आहारक व आहारक मिश्रमे से एक ४ मन, ४ वचन औदारिक व वैक्रियक इन दोनो में से किसी एकका उदय
४ मन, ४ वचन, औदारिक इन नौ मेसे एक
यो० १/६
यो० १/७
भग
विवरण
सत्य व अनुभय मन, सत्य व अनुभय, ओदारिक, औदारिक मिश्र व कार्मण इन सात मेसे एक योग
३. उक्त नियमके अनुसार भग निकालनेका उपाय
कुछ प्रत्यय शुभ हैं और कुछ अन विमक्षित गुणस्थानके सर्व स्थानो मे उदय आने योग्य प्रत्यय ध ुव है और स्थान प्रति स्थान परिवर्तित किये जाने वाले बम है हाँ मिथ्या इन्द्रिय अविरति वेद हाम्यादि दोनों युगल, अनन्तानुबन्ध आदि को मान, माया, लोभ और योग ये ध्रुव है । क्योकि सर्व स्थानो इनका एक एक ही विकल्प रहता है । काय अविरति और भय व जुगुप्सा अधव है क्योकि प्रत्येक स्थानमे इनके विकल्प घट या बढ जाते है। कही एक कायकी हिंसा रूप अविरति है और कहीं दो आदि कायोकी । कहीं भयका उदय है और कही नही और कही भय व जुगुप्सा दोनोंका उदय है । विवक्षित गुण स्थानके आगे हाँ उदय आने योग्य व प्रत्ययोका निर्देश कर दिया गया है। उन वोदयी प्रत्ययोकी गणनामें क्रमसे निम्न प्रकार ध्रुवोदयी प्रत्ययोको जोडनेसे उस उस स्थानके भग निकल आते है।
विवरण
९ ध्रुव + का १/१
२१+०२/१
४ का १/१
एक कालिक भग
प्रत्यय
१/२+भय २/१
१
१
|१३
११
१०
१३०
६
का १/१+भय १/२
का २/११/२, अव+का
४+ का ४ / १, ध्रुव + का ३/१+भय, ध्रुव + का २/१+ भय २/१
४ ध्रुव + का ५/१, ध ुत्र + का ४ / १+ भय, ध्रुव + का ३/१ + भय २/१ ४+६/१ + का ५ / १ + भय, ध्रुव + का ४ / १ + भय २/१
३ | ध ुव+का ६/१+ भय १/२, ध्रुव + का ५ / १ + भय २ / १
१ ध्रुव + का ६/९, भय २/१
४. गुणत्वानांकी अपेक्षा स्थान व भंग
प्रमाण - पं. सं / प्रा.४/१०१-२०३) (गोक. व टी./७६२-०६४/१५७-१६८ ) ।
गुण प्रत्यय
कुल
स्थान स्थान भग
१
धव
अनंत ८
विसं
१
सामान्य
२
३
४
५
६
७
८
8/1
8/11
E/vi
E/v
ध्रुव
१०
११
१२
१३
१४
ध ुव
८
धव
८
८
ध ुव
३
१
8/111 १
६/iv
१
६/v
१
१
१
१.
१
१
१.
१
X
T
२४
जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश
-
२४
1
२४
।
२४
२४
1
२
4-19
५-७
६१०१११२ १३ १४ १५ १६ 13,8,8,8,8,31T → मिश्रवत् ←--- इ. १/६+ १/३+२/२+१२/४ + यो. १/६ ६.१०.११ १२
१४
२०६ Vixy.p ॐ ॐ ४ ×, १/३+२/२ज्य १/४+यो, १६ अपना पुरुष ने + २/२+ सव १/४+वो १/२
१
३
२
२
२
१
१
x
२. प्रत्यय विषयक प्ररूपणाएं
मि. १/५+१६+ वे. १/३+ यु. २/२ + अप्र. ३ / ४+यो १/१०
= ६ १०१११२ १३ १४ १५ १६ १७ 9131 1831
मि. १/५+ १/२+ वे. १/३+२/२ + अनन्त ४/४ + यो, १/१२
१०
११ १२ १३ १४ १५ १६ १७ १८ 2381818181319 ई. ९/६ + १/३ २/२ अनन्त ४/४+यो २/१३
१० ११ १२ १३ १४ १५ १६ १७ १, ३, ४, ४४, ४,
१
विवरण
इं. १/६ + वे. १/३+यु २/२ + अप्र. २/४+यो, १/१०
५+ भय १/२
५+ भय २/१
--→ प्रमत्तवत् -->
वे. १/३ + सं. १/४+यो, १/६
31
मे १/२ + स्त्री या पुरुषस १/४+ यो १/६
"
x
----
पुरुषवेद + सं. १/४ + यो १९/६
स १/४+ यो १/६
स १/३ ( मान, या माया, या लोभ) + यो १/६
स. १ / २ ( माया या लोभ + यो १/६ स लोभ + यो. १/१
स लोभ (सूक्ष्म) + यो. १/६
यो. १/६
५ किस प्रकृति के अनुभाग बन्धमें कौन प्रत्यय निमित है
४/४४८६ सायं च उपपचइयो मिच्यो सोलहरुपच्या पतीसं । सेसा तिपच्चया खलु तित्ययराहार वज्जा दु । ४८८ | सम्मन्त
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________________
प्रत्यय नाम
I
गुणिमित तित्थयर सजमेण आहारं बज्भंति से सियाओ मिच्छत्ताई हे अहि |४८६| = साता वेदनीयका अनुभाग बन्ध चतुर्थ (योग) प्रत्ययसे होता है। मिथ्यात्व गुणस्थानमे बन्धसे व्युच्छिन्न होने वाली (दे० प्रकृतिबन्ध/०/४) सोसह प्रकृतियों मिध्याव प्रत्ययक है। दूसरे गुणस्थान में बन्धसे व्युच्छिन्न होने वाली पच्चीस और चीने मधसे होने वाली एस. (दे० प्रकृति बन्ध १०/४) ये पैतीस प्रकृतियों कि है क्योंकि इनका पहले गुणस्वामियात्यकी प्रधानठारी और दूसरे से चौथे तक असयमकी प्रधानता से बन्ध होता है। तीर्थंकर और आहारकद्विपके बिना दोष सर्व प्रकृतियों (दे० प्रकृतिबन्ध ७/४) प्रिय है। क्योंकि उनका पहले गुणस्थानमे मिध्यात्वकी प्रधानता, दूसरे चौथे गुणस्थान में असंयमकी प्रधानतासे, और आगे कषायकी प्रधानता से बन्ध होता है 1४८८ | तीर्थंकर प्रकृतिका बन्ध सम्यक्त्व गुणके निमिचसे और आहारक डिकका यमके निमिससे होता है |४|
प्रत्यय नाम दे० नाम ।
३० वय १
प्रत्यय मल- दे० मल/१ । प्रत्यधिक बन्ध प्रत्यवेक्षणससि / ७/३४ / ३७०/६ जन्तव सन्ति न सन्ति वेति प्रत्यवेक्षणं चक्षुर्व्यापार जीव है या नहीं है इस प्रकार देखना प्रत्यवेक्षण कहलाता है (रा.वा./७/२४/१/५६७/२२ ) ( चा. सा. २२/५)।
से
प्रत्याख्यान - आगामी कालमें दोष न करनेकी प्रतिक्षा करना प्रत्याख्यान है । अथवा सीमित कालके लिए आहारादिका त्याग करना प्रत्याख्यान है। त्याग प्रारम्भ करते समय प्रत्याख्यानकी प्रतिष्ठापना और अवधि पूर्ण होने पर उसकी निष्ठापना की जाती है। वीतराग भाव सापेक्ष किया गया प्रत्याख्यान ही वास्तविक है।
१. भेद व लक्षण
१. प्रत्याख्यान सामान्यका लक्षण
२. व्यवहार नयकी अपेक्षा
मू आ./२७ णामादीनं छष्ण अजोरगपरिवज्जणं तिकरणेण । पच्चक्वाण णेयं अणागयं चागमे काले । २७ नाम, स्थापना, द्रव्य क्षेत्र. काल और भाव इन छहोमे शुभ मन, वचन व काय से आगामी काल के लिए अयोग्यका त्याग करना प्रत्याख्यान जानना ॥२७॥
रा. वा' (६/२४/१२/५३०/१४ अनागतदोषापोहनं प्रत्याख्यानम् । भविध्यत्मे दोष न होने देनेके लिए सन्नद्ध होना प्रत्याख्यान है। (भ. आ./वि/११/२०६/२१) (भा पा./टी./०७/२२१/१६) ।
१/१.१ १.२३/२४/४जी महत्वमाई ति एयो - प्रत्याख्यान, संयम और महाव्रत एक अर्थ वाले है ।
घ. ८ / ३,४१ / ८५/१ महत्त्रयाण विणासण मलारोहणकारणाणि तहाण हातिराहा करेमि त्ति मणेासोचिय परासीदितवखयमुपहिग्गहो परखार्थ पाम महामलोके विनाश मनोपादनके कारण जिस प्रकार न होगे वैसा करता हूँ, ऐसी मनसे आलोचना करके चौरासी लाख व्रतोकी शुद्धिके प्रतिग्रहका नाम प्रत्याख्यान है । निसा ता वृ/२५ महारयावाद मुनयो क्या देन देन पुनर्योग्यास प्रदिशम्यानारुपय रावहारप्रत्याख्यानस्वरूपम्। मुनि दिन दिनमे भोजन करके फिर योग्य काल पर्यन्त अन्न, पान, खाद्य, और लेह्यकी रुचि यह व्यवहार प्रत्याख्यानका स्वरूप है ।
छोड़ते है
1
१३१
२. निश्चय भयकी अपेक्षा
स. सा. / / ३०४ कम्म ज हम जहिय भावन्हि बमद भविस्सं तत्तो नियत्तए जो सो पच्चक्रवाण हवइ चेया । ३८४१ = भविष्यत कालका शुभ व अशुभ कर्म जिस भावमें बन्धता है, उस भावसे जो आत्मा निवृत्त होता है, वह आत्मा प्रत्याख्यान है । ३८४ | नि सा./मू./गा मोत्तूण सयलजप्पमणागय सुहमसुहवारण किच्चा | अप्पा जो भायदि पच्चवखाण हवे तस्स || यिभावं वि मुच्चइ परभाव णेव गेव्हए केई । जाणदि पस्सदि सम्बं सोह इदि चितर पाणी ७ सम्म मे सव्वभूदेसु वेरं मज्मं ण केणवि । आसाए
सरित्ताणं समाहि पडिवज्जए । १०४ | समस्त जल्पको छोडकर और अनागत शुभ व अशुभका निवारण करके जो आत्माको ध्याता है, उसे प्रत्याख्यान कहते है । ६५। जो निजभावको नहीं छोड किचित् भी परभावको ग्रहण नहीं करता, सर्व को जानता देखता है, वह मै हूँ - ऐसा ज्ञानी चितवन करता है । ६७ सर्व जीवोके प्रति मुझे समता है, मुझे किसी के साथ वैर नही है; वास्तव में आशाको छोड़कर मै समाधिको प्राप्त करता हूँ | १०४ ॥
यो सा. अ /५/५१ आगम्यागोनिमित्तानां भावानां प्रतिषेधनं । प्रत्याख्यानं समादिष्टं विविक्तात्मविलोकिन । ५१३ जो महापुरुष समस्त कर्मज वासनाओसे रहित आत्माको देखने वाले है, उनके
जो पापो के आनेमे कारण भागोका स्थान है, उसे प्रत्याख्यान कहते है
३. द्वादशांगका एक अंग
द्वादशांग १४ पूमेसे एक पूर्व है। दे० /777/
Lo
प्रत्याख्यानके भेद
प्रस्यास्यान
१. सामान्य भेद
मू आ./६३७-६३६ अपागदसदिकत कोडीसदिदं हि पे सागारमणागार परिमाणागर्द अपरिसेस | ६३७१ अद्वाणगदं णवम दसमं तु सहेबुग निवाणवियमा पिरुतिसा जगदखि ६१८| विजय साभास हमदिय अषाढणाम परिणामे एवं पच्चक्खाण चदुब्बिध होदि णादव्वं । भविष्यत् कालमें उपवास आदि करना जैसे चौदसका उपवास तेरसको वह १. अनागत प्रत्याख्यान है । २. अतिक्रान्त, ३ कोटीसहित ४ निखंडित, ५. साकार, ६ अनाकार, ७ परिमाणगत, ८ अपरिशेष, ६. अध्वगत १० सहेतुक प्रत्याख्यान है। इस प्रकार सार्थक प्रत्याख्यान के दस भेद जनमत जानने चाहिए ६३७६ १ विनयकर २ अनुभाबाकर, ३, अनुपालनकर, ४ परिणामकर शुद्ध यह प्रत्याख्यान चार प्रकार भी है । ६३|
२ नाम स्थापनादि भेद
भ आ /वि./११६/२७६/२१ तच्च (प्रत्याख्यानं) नामस्थापनाद्रव्यक्षेत्रकाल भावविकल्पेन षड्विधं • यह प्रत्याख्यान नाम, स्थापना, द्रव्य, क्षेत्र, काल, और भाव ऐसे विकल्पसे छ प्रकारका है।
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३. प्राख्यानके भेदोंके लक्षण सामान्य भेदोंके लक्षण
विणओ सह गाम-ईसण
सू. आ / ६४०-६४३ कवियम्मं काचारिय परिचय
मदि तं तु । ६४०१ अणुभासदि गुरु अक्खर पदवजणं कमविसुद्ध घोसविसुद्धी सुद्ध एद अणुभासासु ॥ ६४९० आपके उसमे यदुक्त कतारे पालिद ण भरगं एवं अणुपालणासुद्ध ६४२॥ रागेण व दोसेण व मण
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प्रत्याख्यान
परिणामे सिदं ज तु तं पुण पराभावच तु गाव | ६४ - १ सिद्ध भक्ति आदि सहित कायोत्सर्गपरूप विनय, व्यवहार विनय ज्ञान-विनय दर्शन व चारित्र विनय- इस तरह पाँच प्रकारके विनय सहित प्रत्याख्यान वह विनयकर शुद्ध होता है । ६४० | २ गुरु जैसा कहे उसी तरह प्रत्याख्यानके अक्षर, पदव व्यञ्जनोंका उच्चारण करे, वह अक्षरादि क्रमसे पढना, शुद्ध गुरु लघु आदि उच्चारण शुद्ध होना वह अनुभाषणा शुद्ध है । ६४१ । २. रोग, उपसर्गमे, भिक्षाकी प्राप्तिके अभाव मे मनमे जोपासन क्रिया भग्न न हो वह अनुपालना शुद्ध है । ६४२ । ३, राग परिणामसे अथवा द्वेष परिणामसे मनके विकारकर जो प्रत्याख्यान दूषित न हो वह प्रत्याख्यान भावविशुद्ध है।
२. निक्षेप रूप भेदोंके लक्षण
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१३२
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म आ / वि. / ११६/ २०६/२२ अयोग्यं नाम नोच्चारयिष्यामीति चिन्ता नामप्रत्याख्यान । आप्ताभासाना प्रतिमा न पूजयिष्यामीति, योगत्रयेण सस्थावरस्थापनापीडा न करिष्यामीति प्रणिधानं मनस. स्थापनाप्रत्याख्यानं । अथवा अर्हदादीना स्थापनां न विनशयिप्यामि नेवानावर रात्र करिष्यामीति वा अयोग्याहारोपकरणद्रव्याणि न ग्रहीष्यामीति चिन्ताप्रबन्धो द्रव्यप्रत्याख्यान । अयोग्यानि वानिष्प्रयोजनानि संयमहानि संक्लेशं वा सपादयन्ति यानि क्षेत्राणि तानि त्यक्ष्यामि इति क्षेत्रप्रत्याख्यान | कालस्य दु परिहार्यत्वात् कालसध्याया क्रियायां परिहृतायां काल एव प्रत्याख्यातो भवतीति ग्राह्य तेन संध्याकासादिष्यध्ययनगमनादिकं न सपादविष्यामीति पेठ कालप्रध्याख्यानं भावोऽशुभपरिणाम न निर्वर्तयिष्यामि इति संकल्पकरणं भावप्रत्याख्यानं तद्विविध मूलगुणप्रत्याख्यानमुत्तरण गुणप्रत्याख्यानमिति । अयोग्य नामका मैं उच्चारण नहीं करूँगा ऐसे सकल्पको नाम प्रत्याख्यान कहते २. आभास हरिहरादिकोकी प्रतिमाओंकी ने पूजा नहीं करूँगा, मनसे, वचनसे और कायसे त्रस और स्थावर जीवोकी स्थापना मै पीडित नही करू ँगा ऐसा जो मानसिक संकल्प वह स्थापना प्रत्याख्यान है । अथवा अर्हदादि परमेष्ठियोकी स्थापनाउनकी प्रतिमाओका मै नाश नही करूँगा, अनादर नहीं करूँगा, यह भी स्थापना प्रत्याख्यान है । ३. अयोग्य आहार, उपकरण गैरह पदार्थो को ग्रहण मै न करूँगा ऐसा संकल्प करना, यह द्रव्य प्रत्याख्यान है । ४. अयोग्य व जिनसे अनिष्ट प्रयोजनकी उत्पत्ति होगी, जो सयमकी हानि करेगे अथवा संक्लेश परिणामोको उत्पन्न करेगे, ऐसे क्षेत्रोको मै त्यागू गा, ऐसा मंकल्प करना क्षेत्र प्रत्याख्यान है । ५. कालका त्याग करना शक्य ही नही है, इसलिए उस काल में होनेवाली क्रियाओको त्यागनेसे कालका ही त्याग होता है, ऐसा यहाँ समझना चाहिए। अर्थात संध्याकाल रात्रिकाल वगैरह समयमें अध्ययन करना, आना-जाना इत्यादि कार्य मै नही करूँगा, ऐसा संकल्प करना काल प्रत्याख्यान है । ६. भाव अर्थात् अशुभ परिणाम उनका मै त्याग करूगा ऐसा सकल्प करना वह भाव प्रत्याख्यान है । इसके दो भेद है मूलगुण प्रत्याख्यान और उत्तरगुण प्रत्याख्यान । ( इनके लक्षण दे० प्रत्याख्यान / ३) ।
२. मन, वचन, काय प्रत्यारुवानके लक्षण
म आ / वि / ५०६/०२० / १५ मनसातिपारादीन्न करिष्यामि इति मन प्रत्याख्यानं । वचसा तन्नाचरिष्यामि इति उच्चारणं । कायेन तन्नाचरिष्यामि इत्यंगीकार १ मनसे मै अतिचारोको भविष्यत् कालमें नही करू ँगा ऐसा विचार करना यह मन प्रत्याख्यान है । २. अतिचार मे भविष्यत् में नहीं करूंगा ऐसा बोलना ( कहना ) यह वचन प्रत्याख्यान है । ३. शरीरके द्वारा भविष्यत् कालमे अतिचार नहीं करना यह काय प्रत्याख्यान है ।
३. प्रत्याख्यान निर्देश
२. प्रत्याख्यान विधि
न वा
१. प्रत्याख्यान प्रतिष्ठापना व निष्ठापना विवि अन.घ./६/३६ प्राणयात्रा चिकीर्षायां प्रत्यारम्यानमुपोषित नाप्यविधि प्रतिष्ठयेत्॥१६॥ यदि भोजन करनेकी इच्छा हो तो पूर्व दिन जो प्रत्याख्यान अथवा उपवास ग्रहण किया था उसकी विधि पूर्वक क्षमापणा (निष्ठापना) करनी चाहिए । और उस निष्ठापनाके अनंतर शास्त्रोक्त विधिके अनुसार भोजन करके अपनी शक्तिके अनुसार फिर भी प्रत्याख्यान या उपवासकी प्रतिष्ठापना करनी चाहिए (यदि आचार्य पास हो तो उनके समक्ष प्रश्वाख्यानकी प्रतिपनाया निशाना करनी चाहिए।)
३० कृतिकर्म / २ / २ प्रत्याख्यान प्रतिष्ठापन व निष्ठापनमें भक्ति वादि पाठोका क्रम । )
२. प्रत्याख्यान प्रकरण में कायोत्सर्गके कालका प्रमाण
३० व्युत्सर्ग/ १ (अन्धादिके प्रारंभ में पूर्णकालमें स्वाध्यायमें बंधना मे, अशुभ परिणाम होनेमें जो कायोत्सर्ग उसमें सत्ताईस उच्छ्वास करने योग्य है ) ।
३. प्रत्याख्यान निर्देश
१. ज्ञान व विराग ही वास्तव मे प्रत्याख्यान ससा // २४
भावे जम्हा पश्चखाई परेति मा सम्हा पापा विमा मुणेयन्न ॥१४- जिससे अपने अतिरिक्त सर्व पदार्थो को 'पर है' ऐसा जानकर प्रत्याख्यान करता है, उससे प्रत्याख्यान ज्ञान ही है, ऐसा नियमसे जानना । अपने ज्ञानमें त्याग रूप अवस्था ही प्रत्याख्यान है, दूसरा कुछ नही । नि.सा./ / १०५-१०६ पिसायरस तस्स सूरस्स यवसायियो । संसारभयभोदस्स पञ्चवखाणं सुह हवे | १०५ । एवं भेदभासं जो कुव्वइ जीवकम्मणो णिच्चं । पञ्चक्खाण सक्कदि धरिदे सो संजमो णियमा । १०६ । - जो नि कषाय है, दान्त है, शूरवीर है, व्यवसायी है और संसारसे भयभीत है, उसे सुखमय (निश्चय) प्रश्वाख्यान है | १०५ | इस प्रकार जो सदा जीव और कर्मके भेदका अभ्यास करता है, वह संयत नियमसे प्रत्याख्यान धारण करनेको शक्तिमान है । १०६ । स साता २०३० निर्विकारस्य संविवि प्रश्याख्यानं - निर्मिकार स्वसंवेदन ज्ञानको प्रत्याख्यान कहते है।
* निश्चय व्यवहार प्रत्याख्यानकी मुख्यता गौणता
-दे० चारित्र
२ सम्यक्त्व रहित प्रत्याख्यान प्रत्याख्यान नहीं भ.आ./वि./ ११६/२७७/१० सति सम्यक्त्वे चैतदुभयं प्रत्याख्यानं । सम्यक्त्व यदि होगा तभी यह दो तरहका (दे० अगला शीर्षक ) प्रत्याख्यान गृहस्थ व मुनिको माना जाता है । अन्यथा वह प्रत्याख्यान इस नामको नही पाता ।
३. मूल व उत्तर गुण तथा साधु व गृहस्थके प्रश्याख्यानमें अन्तर
कारणत्वसव्यपदेशो
भ. जा./वि./११/२००२ उत्तानो तेषु वर्तसे तो सरकासभावितस्थादमानादिकं उत्तरगुण इति उच्यते । •• तत्र सयतानां जीवितावधिक मूलगुणप्रत्याख्यानं ।
तास पहाना अधुमतानि सगुणवतव्यपदेशमाजि भवन्ति तेषां विविध प्रत्याख्यानं अल्पकालिक, जीवितादिकं चेति । पक्षमास
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प्रत्याख्यानावरण
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प्रत्यासत्ति
२.प्रत्याख्यातावरण में मी कथंचित् सम्यक्त्व घातक
गो क./जी प्र./५४६/७०८/११ अनन्तानुबन्धिना तदुद यसहचरिताप्रत्याख्यानादीना च चारित्रमोहत्वेऽपि सम्यक्त्वसयमघातक्त्वमुक्त तेषा तदा तच्छक्तवोदयात। अनन्तानुबन्ध्यप्रत्याख्यानोदयरहितप्रत्याख्यानसज्वलनोदया सकल संयम (ध्नति)। -अनंतानुबन्धीके और इसके उदयके साथ अप्रत्याख्यानादिकके चारित्र मोह-पना होते हुए भी सम्यक्त्व और सयमका घातकपना कहा है। अनतानुबन्धी और अप्रत्याख्यानके उदय रहित, प्रत्याख्यान और सज्वलनका उदय है तो वह सकल सयमको धातती है।
३. प्रत्याख्यानावरण कषायका वासना काल गो, क./मु व टी./१६/१७/१० उदयाभावेऽपि तत्संस्कारकालो बासनाकाल सच प्रत्याख्यानावरणानामेकपक्ष । - उदयका अभाव होते हुए भी कषायोका सस्कार जितने काल रहे, उसको वासना काल कहते है। उसमे प्रत्याख्यानावरणका बासना काल एक पक्ष है।
षण्मासादिरूपेण भविष्यत्काल सावधिक कृत्वा तत्र स्थूल हिसानृत- स्तयाब्रह्मपरिग्रहान्न चरिष्यामि इति प्रत्याख्यानमल्पकालम् । आमरणमवधि कृत्वा 7 करिष्यामि स्थूल हिसादीनि इति प्रत्याख्यान जीविताबधिक च। उतरगुणप्रत्याख्यान सयतसयतासयतयोरपि अल्पकालिक जीवितावधिक बा। परिगृहीतस यमस्य सामायिवादिक अनशनादिक च वर्तते इति उत्तरगुणत्वं सामायिकादेस्तपसश्च । भविष्यत्कालगोचराशनादित्यागात्मकत्वात्प्रत्याख्यानत्वं ।- १. उत्तरगुणोको कारण होनेसे व्रतो मे मूलगुण यह नाम प्रसिद्ध है, मूलगुण रूप जो प्रत्यारण्यान व मूल गुण प्रत्याख्यान है। बतोके अनतर जो पाले जाते है ऐसे अनशनादि तपोको उत्तरगुण कहते है।"२. मुनियोको मूलगुण प्रत्याख्यान आमरण रहता है। सयतासयतके अणुवतीको मूलगुण कहते है। गृहस्थ मूल गुण प्रत्यख्यान अल्पकालिक और जीवितावधिक ऐसा दो प्रकार कर सकते है। पक्ष, मास, छह महीने आदि रूपसे भविष्यत् कालकी मर्यादा करके उसमे स्थूल हिसा, असत्य, चोरी, मैथुन सेवन, और परिग्रह ऐसे पंच पातक मै नही करूँगा ऐसा सकल्प करना यह अल्पकालिक प्रत्याख्यान है। 'भै आमरण स्थूल हिसादि पापोको नही करूंगा' ऐसा सकल्प कर त्याग करना यह जीवितावधिक प्रत्याख्यान है। ३ उत्तर गुण प्रत्याख्यान तो मुनि और गृहस्थ जीबितावधिक और अल्पाधिक भी कर सकते है । जिसने सयम धारण किया है, उसको सामायिकादि और अनशनादिक भी रहते है, अत सामायिक आदिकोको और तपको उत्तरगुणपना है। भविष्यत्कालको विषय करके अनशनादिकोका त्याग किया जाता है । अत उत्तरगुण रूप प्रत्याख्यान है, ऐसा माना जाता है । (और भी दे० भ. आ./वि ११६/२७७/१८) * प्रत्याख्यान दप्रदिन.म.में अन्तर--- दे० प्रतिक्रमण/३। ४.प्रत्याख्यानका प्रयोजन अन. ध./8/३८ प्रत्यारण्यानं बिना दैवात् क्षीणायु स्याद्विराधक । तदलपकालमप्यल्पमप्यर्थ पृथुचण्डवत् ।३८। -प्रत्याख्यानादिके ग्रहण बिना यदि कदाचित् पूर्वबद्ध आयुकर्म के बशसे आयु क्षीण हो जाय तो वह साधु विराधक समझना चाहिए। किन्तु इसके विपरीत प्रत्याख्यान सहित तत्काल मरण होनेपर थोडी देरके लिए और थोड़ा सा ग्रहण किया हुआ प्रत्याख्यान चण्ड नामक चाण्डालकी तरह महान फल देनेवाला है। प्रत्याख्यानावरण-मोहनीय प्रकृतिके उत्तर भेद रूप यह एक कर्म विशेष है, जिसके उदय होनेपर जोव विषयोका त्याग करनेको समर्थ नहीं हो सक्ता ।
४. अन्य सम्बन्धित विषय १ प्रत्याख्यानावरण प्रकृतिकी सन्ध उदय सत्त्व प्ररूपणा तत्सम्बन्धी नियम व शंका समाधान आदि।
दे० बह वह नाम । २. कषायोकी तीव्रता-मन्दतामें प्रत्याख्यानावरण नही बल्कि लेश्या कारण है।
-दे० कषाय/३ । ३ प्रत्याख्यानावरणमें दशों करण सम्भव हैं -दे० करण/२ । ४ प्रत्याख्यानावरणका सर्वधातीपना -दे० अनुभाग/४ ।
१. प्रत्याख्यानावरणका लक्षण स. सि./4/8/३८६/६ यदुदयाद्विरति कृत्स्ना सयमाख्या न शक्नोति
तु ते कृत्स्न प्रत्याख्यानमावृण्वन्त प्रत्याख्यानावरणा क्रोधमानमायालोभा । -जिसके उदयसे सयम नामवाली परिपूर्ण विरतिको यह जीव करने में समर्थ नही होता है वे सकल प्रत्याख्यानको आवृत करने वाले प्रत्याख्यानावरण क्रोध, मान, माया और लोभ है। (रा वा./८/8/५/५७५/२) (पं. स./प्रा /१/११०,११५) (गा. क., म् /२८३) (गो. जी/मू/४५)। घ. १३/५.५,६५/३६०/११ पच्चक्खाण महव्वयाणि तेसिमाधारण १म्म
पच्चरखाणावरणीय । तं चउबिह कोह-माण-माया-लोहभेएण। = प्रत्यारण्यानका अर्थ महावत है। उनका आवरण करनेवाला वर्म प्रत्याख्यानाबरणीय है। वह क्रोध, मान, माया और लोभके भेदसे चार प्रकारका है। (ध.६/१,६-१,२३/४४/४) (गो जी./जी, प्र/ २८३/६०८/१५) । (गो. क./जी. प्र./३३/२८/४) (गो 6/जो. प्र/ ४५/४६/१३।
प्रत्याख्यानावरणी भाषा-दे० भाषा। प्रत्यागाल-दे० आगाल। प्रत्यामुंडा- ख. १३/५-५/सू. ३६/२४३ आवायो धवसायो बुद्धी विण्णाणी आउ डी पच्चाउंडी ३६। प्रत्यर्थमामुण्ड्यते सकोच्यते मीमा सितोऽर्थ अनयेति प्रत्यामुण्डा । - अवाय, व्यवसाय, बुद्धि, विज्ञाप्ति, आमुडा और प्रत्यामुडा ये पर्याय नाम है ।३६। जिसके द्वारा मौमासित अर्थ अलग अलग 'आमुड्यते' अर्थात् सकोचित किया जाता है, वह प्रत्यामुडा है। प्रत्यावलि-दे० आवलि । प्रत्यास-ध १२/४,२,१४,४३/४६७/१० प्रत्यास्यते अस्मिन्निति प्रत्यास
जीवेण ओट्ठद्धखेत्तस्स खेत्तपच्चासे त्ति सण्णा । जहाँ समीपमें रहा जाता है वह प्रत्यास कहा जाता है। जीवके द्वारा अवलम्बित क्षेत्रको क्षेत्रात्यास सज्ञा है। प्रत्यासत्ति रा, वा हि./१/७/६४ निकटताका नाम प्रत्यासत्ति है। वह द्रव्य, क्षेत्र, काल व भावके भेदसे चार प्रकार है । तिनके लक्षण निम्न प्रकार है१ कोई पर्यायकै कोई पर्यायरि समवाय ते निकटता है। जैसे स्मरणके और अनुभवकै एक आत्मा विषै समवाय है (यह द्रव्य प्रत्यासत्ति है ) । २. बगुलाकी पक्तिके और जल के क्षेत्र प्रत्यासत्ति है। ३, सहचर जो सम्यग्दर्शन ज्ञान सामान्य, तथा शरीर विषै जीव ओर स्पर्शन विशेष, तथा पहले उदय होय भरणी-कृतिका नक्षत्र, तथा कृतिका-रोहिणी नक्षत्र--इनके काल प्रत्यासत्ति है। ४. गऊगवयका एक रूप, केवली-सिद्धके केवल ज्ञान का एक स्वरूपपना ऐसे भाव प्रत्यास त्ति है।
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प्रत्याहार
प्रत्याहार
म. / २२/२३० प्रत्याहारस्तु तस्योपसंहती चित्तनिवृति 19301 - मनकी प्रवृत्तिका सोच कर लेने पर जो मानसिक सन्तोष होता है उसे प्रत्याहार कहते है | २३०
शा./२०/१-३ समाकृष्येन्द्रियार्थेभ्य साक्ष घेत शान्थी । यत्र यत्रेच्छया धत्ते स प्रत्याहार उच्यते |१| नि सङ्गसवृतस्वान्त' कुवृतेन्द्रियमी समयमा ध्यानतन्त्रे स्थित ॥२॥ गोचरेभ्यो हृषीकाणि तेभ्यश्चित्तमनाकुलम् । पृथक कृत्य वशी धत्ते ललाटेऽत्यन्त निश्चलम् |३| -जो प्रशान्त बुद्धि विशुद्धता युक्त मुनि अपनी इन्द्रियों और मनको इन्द्रियों के विषयोच कर जहाँ जहाँ अपनी इच्छा हो तहाँ तहाँ धारण करें सो प्रत्याहार कहा जाता है |१| निसग और सवर रूप हुआ है मन जिसका कछुएके समान कोच रूपयों जिसकी ऐसा मुनि हो राग द्वेष रहित होकर ध्यान रूपी तन्त्र में स्थिर स्वरूप होता है | २| वशी मुनि विषयो से तो इन्द्रियोंको पृथक करे और हडियोको विषयसे पृथक करे अपने मनको निराकृत करके अपने ललाटपर निश्चलता पूर्वक धारण करें। यह विधि प्रत्याहार में कही है
★ प्रत्याहार योग्य नेत्र बाट आदि
प्रत्युत्पन्न नय - दे० नय // ५। प्रत्यूष काल - प्रात' का सन्धि काल ।
बुद्ध
प्रत्येक बुद्ध दे० प्रत्येक बुद्धि ऋद्धि दे० बुद्ध ।
प्रत्येक शरीर नामकर्म - ३० पति
।
-
प्रत्येक शरीर वर्गणा — दे० वनस्पति /१ । प्रथम स्थिति - दे० स्थिति/१ ।
० स्थान
प्रथमानुयोग -१ आगम सम्बन्धी प्रथमानुयोग- दे० अनुयोग / १, २ दृष्टिवादका तीसरा मेद ३० श्रुतज्ञान / 11
F
प्रथमोपशम विधि - दे० उपशम /२ |
प्रमयोपशम सम्यक्त्व दे० सम्यग्दर्शन / IV/ प्रदक्षिणा
दे० ध्यान / २/३ ।
ध. १३/५.४,२८/८६/१ वदणकाले गुरुजिणजिणहराण पदक्खिण काऊण मसण पदाहिण णाम । = वन्दना करते समय गुरु, जिन और जिनगृहकी प्रदक्षिणा करके नमस्कार करना प्रदक्षिणा है । बन, ध /८/१२ दीयते निर्वाणयोगिनीश्वरे हि मन्यमानेष्यधीयानस्तद्भक्ति प्रदक्षिणा ॥१२॥ जिस समय मुझ संयमी चेत्य - मुमुक्ष वन्दना या निर्वाण वन्दना अथवा योगिवन्दना यद्वा नन्दीश्वर चैत्य बन्दना किया करते है, उस समय उस सम्बन्धी भक्तिका पाठ बोलते हुए वे प्रदक्षिणा दिया करते है ।
* प्रदक्षिणा प्रयोग विधि-२०
प्रदुष्ट कायोत्सर्गका एक अतिचार-३० व्युत्सर्ग/१०
प्रदेश -
* १ Space Point ( ज प / प्र १०७) । Location, Points or Place as decimal Place ( ( ध ५/२०१
१३४
प्रदेश
प्रदेश- आकाशके छोटेसे छोटे अविभागी अंशका नाम प्रदेश है, अर्थात एक परमाणु जितनी जगह घेरता है उसे प्रदेश कहते है । जिस प्रकार अखण्ड भी आकाशमें प्रदेश भेदकी कल्पना करके अनन्त प्रदेश बताये गये है, उसी प्रकार सभी द्रव्योमें पृथक् पृथक् प्रदेश की गणनाका निर्देश किया गया है । उपचारसे पुद्गल परमाणुको भी प्रदेश कहते है और इस प्रकार इगल कमौके प्रदेशोका शीवके प्रदेश के साथ बन्ध होना प्रदेश बन्ध कहा जाता है ।
१
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३
染
२
१
२
३
प्रदेश व प्रदेश बन्ध निर्देश
प्रदेशका लक्षण :- १, परमाणु के अर्थ में २, आकाशका अंश २. पर्यायके अर्थ में। स्वन्धका भेद प्रदेश
-३०/१
पृथक् पृथक् इन्दोंमें प्रदेशोंका प्रमाण
द्रव्योंमे प्रदेश कल्पना सम्बन्धी लोकके आठ मध्य प्रदेश जीवके चलिताचलित प्रदेश
९
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प्रदेश बन्धका लक्षण |
प्रदेश बन्धके भेद |
कर्म प्रदेशोंगे रूप, रस व गन्धादि
अनुभाग व प्रदेश बन्धमें परस्पर सम्बन्ध
- दे० वह वह द्रव्य ।
युक्ति - दे० द्रव्य ४ । - दे० लोक / २ । -३० जीव/४।
- दे० अनुभाग/र |
स्थिति यन्ध व प्रदेश बन्धमें सम्बन्ध दे०स्थिति / ३।
प्रदेश बंध सम्बन्धी नियम व प्ररूपणाएँ
बहुत्व प्रदेशका निमित्त योग है प्रदेश संयोग सम्बन्धी शकाएँ *योग स्थानों व प्रदेश में सम्बन्ध
वित्रोपचयोमें दानि वृद्धि सम्बन्धी नियम ।
एक समयबद्ध प्रदेशोंका प्रमाण
समयम वर्गणाओंमें अल्पबहुत्व विभाग। पाँचों शरोरोंमें बद्ध प्रदेशों व विसोपचयोंमें अल्प१० अम्पबहुत्व । -दे० घा
- दे०
- दे० योग/२ । - ६० योग ३ |
- दे० ईर्यापथ ।
४
योग व प्रदेश बंधमें परस्पर सम्बन्ध । स्वामित्वकी अपेक्षा प्रदेश बंध प्ररूपणा ।
५
६ प्रकृतिबंधकी अपेक्षा स्वामित्व प्ररूपणा ।
७
८
एक योग निमित्तक देश अल्प क्यों ।
सम्यक्त्व व मिश्र प्रकृतिको अन्तिम फालिमें प्रदेशों सम्बन्धी दो मत ।
व अल्पबहुत्व रूप प्ररूपणाएँ प्रदेश सत्य सम्बन्धी नियम
अन्य प्ररूपणाओं सम्बन्धी विषय सूची ।
मूलोत्तर प्रकृति, पंच शरीर, व २३ प्रदेशों सम्बन्धी संख्या, क्षेत्र, स्पर्शन का
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वर्गणाओंके अंतर, भान
-दे० वह वह नाम । - दे० सत्त्व /२ |
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प्रदेश
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प्रदेश बन्ध सम्बन्धी नियम व प्ररूपणाएँ १. प्रदेश व प्रदेश बन्ध निर्देश
अणतपदे सिय-अणंताणतपदेसियवग्गणाए दब्बा ते विसेसहीणा
अणं तेहि विस्सासुवचएहि उवचिदा १५२६। तदो अगुलस्स अस१. प्रदेशका लक्षण
खेज्जदिभाग गंतूणं तेसि पंचविहा हाणी-अणतभागहाणी असं१. परमाणुके अर्थमें
खेज्जभागहाणी संखेज्जभागहाणी संखेज्जगुणहाणी असंखेज्जगुणहाणी
१५२७ [टीका--तत्थ एक्के किस्से हाणीए अद्धाणभंगुलस्स असंस. सि./२/३८/१६२/६ प्रदिश्यन्त इति प्रदेशा' परमाणत्र' । प्रदेश
खेज्जदिभागो।] एवं चदुण्णं सरीराण ।५२८। -चार शरीरोमें शब्दको व्युत्पत्ति 'प्रदिश्यन्ते' होतो है। इसका अर्थ परमाणु है।
बन्धी नोकर्म वर्गणाओकी अपेक्षा-विखसोपचय प्ररूपणाकी अपेक्षा ( स सि /५/८/२७४/७) (रा वा /२/३८/९/१४७/२८) ।
एक-एक जीव प्रदेशपर कितने विससोपचय उपचित है।५२०॥ २ आकाशका अंश
अनन्त विनसोपचय उपचित है जो कि सब जीवोसे अनन्त गुणे है प्र. सामू १४० आगासमणुणि विट्ठ आगासपदेससण्णया भणिदं ।
१५२१ वे सब लोकमेंसे आकर बद्ध हुए है ।।२२। उनकी चार प्रकारसम्वेसि च अणूण सक्कदि तं देदुमवगासं १४०। == एक परमाणु जितने
की हानि होती है-द्रव्यहानि, क्षेत्रहानि, कालहानि और भावहानि आकाशमे रहता है उतने आकाशको 'आकाश प्रदेश के नामसे कहा
1५२३। द्रव्यहानि प्ररूपणाकी अपेक्षा औदारिक शरीरकी एक प्रदेशी
वर्गणाके जो द्रव्य है वे बहुत है जो कि अनन्त विलसोपचयोसे गया है। और वह समस्त परमाणुओको अवकाश देनेमे समर्थ है ११४०। ( रा वा//१/८/४३२/३३) (न च वृ./१४१) (द सं./मू./
उपचित है ।५२४। जो द्विप्रदेशी वर्गणाके द्रव्य है वे विशेषहीन है २७) ( गो जी /मू /५६१/१०२६) (नि सा./ता, वृ/३५-३६)।
जो अनन्त विनसोपचयोसे उपचित है ।५२५। इसी प्रकार त्रिप्रदेशी, क. पा /२/२,२/६१२/७/१० निर्भाग आकाशावयव (प्रदेश ) = जिसका
चतु प्रदेशी, पंचप्रदेशी, छहप्रदेशी, सातप्रदेशी, आठप्रदेशी. नौदूसरा हिस्सा नही हो सकता ऐसे आकाशके अवयवको प्रदेश
प्रदेशी, दसप्रदेशी, सख्यातप्रदेशी, असख्यातप्रदेशी, अनन्तप्रवेशी
और अनन्तानन्तप्रदेशी वर्गणाके जो द्रव्य है विशेषहीन है जो कहते है।
प्रत्येक अनन्त विखसोपचयोसे उपचित है ।५२६। उसके बाद अगुलके ४ पर्यायके अर्थमें
असंख्यातवे भाग प्रमाण स्थान जाकर उनकी पाँच प्रकारकी हानि पं. का /त, प्र./५ प्रदेशाख्या परस्परव्यतिरेकित्वात्पर्याया उच्यन्ते । होती है-अनन्त भागहानि, असख्यात भागहानि, सख्यात भागम प्रदेशनामके उनके जो अवयत्र है वे भी परस्पर व्यतिरेकवाले हानि. संख्यात गुणहानि और असख्यात गुणहानि ।५२७ [टीकाहोनेसे पर्याय कहलाती हैं।
उनमेसे एक-एक हानिका अध्धान अगुलके अस ख्यातवे भाग प्रमाण
है। इसी प्रकार चार शरीरोकी प्ररूपणा करनी चाहिए ।५२८॥ २. प्रदेश बन्धका लक्षण
नोट-बिलकुल इसी प्रकार अन्य तीन हानियोका कथन करना त. सु /८/२४ नामप्रत्यया सर्वतोयोगविशेषात्सूक्ष्मै कक्षेत्रावगाहस्थिता' चाहिए । (ष, खं. १४/५,६/सू०५२६-५४३/४४५-४६३ ) । सर्वात्मप्रदेशेष्वनन्तानन्तप्रदेशा. २४॥ - कर्म प्रकृतियो के कारणभूत
२. एक समयप्रबद्ध में प्रदेशोंका प्रमाण प्रति समय योग विशेषसे सूक्ष्म, एकक्षेत्रावगाहो और स्थित अनन्तानन्त पुद्गलपरमाणु सब आत्म प्रदेशोमे ( सम्बन्धको प्राप्त ) होते प सं /प्रा /४/१६५ पंचरस-पंचवण्णेहि परिणयदुगंध चदुहि फासेहि। है ।२४। (मू आ./१२४१), (विशेष विस्तार दे० स.सि /८/२४/४०२), दवियमणतपदेस जीवेहि अणं तगुणहीण ४६५/- पॉच रस, पाँच ( ध/उ/६३३)।
वर्ण, दो गन्ध और शीतादि चार स्पर्शसे परिणत, सिद्ध जीवोसे स, सि /८/३/३७६/७ इयत्तावधारणं प्रदेश । कर्मभावपरिणतपुद्गल- अनन्तगुणितहीन, तथा अभव्य जीवोसे अनन्तगुणित अनन्तप्रदेशो स्कन्धाना परमाणुपरिच्छेदेनावधारण प्रदेशः । - इयत्ता ( सख्या) पुद्गल द्रव्यको यह जीव एक समय में ग्रहण करता है ।४६५। (गो. का अवधारण करना प्रदेश है । (प स./प्रा./४/५१४)। अर्थात् कर्म क /मू./१६१), (द्र. स./टी./३३/६४/१), (पं. सं./सं./४/३३७ ) । रूपसे परिणत पुद्गलस्कन्धोका परमाणुओको जानकारी करके
३. समयप्रबद्ध वर्गणाओंमें अल्पबहत्व विभाग निश्चय करना प्रदेश बन्ध है। (रा वा /८/३/७/५६७/१२) ।
ध. ६/१,६-७,४३/२०१/६ ते च कम्मपदेसा जहण्णवग्गणाए बहुआ, तत्तो ३. प्रदेश बन्धके भेद
उवरि वग्गणं पडि विसेसहीणा अण तभागेण । भागहारस्स अद्ध' (प्रदेश बन्ध चार प्रकारका होता है-उत्कृष्ट, अनुत्कृष्ट, जधन्य व गंतूण दुगुणहीणा । एवं णेदन जाव चरिमवग्गणेत्ति । एव चत्तारि अजघन्य।)
य बंधा परूविदा होति। -वे कर्म प्रदेश जघन्य वर्गणामें बहुत होते
है उससे ऊपर प्रत्येक वर्गाके प्रति विशेषहीन अर्थात् अनन्तवें २. प्रदेश बन्ध सम्बन्धी नियम व प्ररूपणाएं
भागसे हीन होते जाते है। और भागाहारके आधे प्रमाण दूर जाकर
दुगुनेहीन अर्थात् आधे, रह जाते है। इस प्रकार यह क्रम अन्तिम १. विनसोपचयों में हानि वृद्धि सम्बन्धी नियम
वर्गणा तक ले जाना चाहिए। इस प्रकार प्रकृति बन्धके द्वारा यहाँ ष वं. १४/५.६/सू ५२०-५२८/४३८४४४ विस्सासुवचयपरूवणदाए चारो ही वन्ध प्ररूपित हो जाते है। एक्केक्कम्हि जीवपदेसे केवडिया विस्सासुवचया उबचिदा ।।२०। अण ता विस्सासुवचया उवचिदा सव्वजीवेहि अण तगुणा ।५२११ ते
४. योग व प्रदेश बन्धौ परस्पर सम्बन्ध च सवलोगागदेहि बदा ५२२१ तेसि चउब्धिहा हाणी-दव्यहाणी म. ६/१२-१३४ का भावार्थ-उत्कृष्ट योगसै उत्कृष्ट प्रदेशबन्ध तथा खेत्तहाणी कालहाणी भावहाणी चेदि ।५२३। दबहाणिपत्रणदाए जघन्य योगसे जघन्य प्रदेशबन्ध होता है। ओरालियसरीरस्स जे एयपदे सियवग्गणाए दव्या ते बहुआ अणं तेहि विस्सासुबचएहि उबचिदा । ५२४। जे दुपदेसियवग्गणाए दबा ते
५ स्वामित्वकी अपेक्षा प्रदेशबन्ध प्ररूपणा विसेसहीणा अण ते हि विस्सासुबचएहि उवचिदा ।५२५॥ एवं तिपदे- पं स./प्रा./४/५०२-५१२). (गो. क /मू./२१०-२१६/२५६)। सिय-चदुपदेसिय-पंचपदेसिय - छप्पदेसिय-सत्तपदे सिय - अठ्ठपदे- संकेत-१ सही सज्ञी, पर्याप्त, उत्कृष्ट योगसे युक्त, अल्प प्रकृतिका सिय - णवपदे सिय - दसपदेसिय - सखेजपदेसिय-असखेज्जपदेसिय- बन्धक उत्कृष्ट प्रदेशबन्ध करता है। २ असजी असशी, अपर्याप्त,
जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश
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प्रदेश
जघन्य योगसे युक्त, अधिक प्रकृतिका बन्धक, जघन्य प्रदेशबन्ध करता है । ३. सू. ल. / १ - सूक्ष्म निगोद लब्ध्यपर्याप्त, जघन्य योग से युक्त जीवके अपनी पर्यायका प्रथम समय । ४. सूल / २ -- सूक्ष्मनिगोद लब्ध्यपर्याप्तकी आयु बन्धके विभाग प्रथम समय । ५. सू. ल. / च=चरम भवस्थ तथा तीन विग्रहमेसे प्रथम विग्रहमे स्थित निगोदिया जीव 1
उत्कृष्ट प्रदेशबन्ध
गुण स्थान
१. मूल प्रकृति प्ररूपणा
११,२, ४-६ आयु
मोह
१-६
१०
१-६
४ ४-६
सू. ल० / १ आयुके बिना
सात कर्म
ज्ञानावरणी दर्शनावरणी वेद-सू.२ आयु नीय, नाम, गोत्र, २. उत्तर प्रकृति प्ररूपणा
अन्तराय
१
No war
6)
प्रकृतिका नाम
१०
जघन्य प्रदेशबन्ध
गुण
स्थान व
स्वामित्व
स्त्यान०, निद्रानिद्रा, प्रचला अविरत प्रचला, अनन्तानु० चतु, स्त्री व सम्य० नबेद, नरकतिर्यग व देव गति पचेन्द्रियादि पाँच जाति, औदारिक, तैजस, व कार्मण शरीर, न्यग्रोधादि ५ संस्थान, वज्रनाराचआदि ५ सहनन, ओदारिक अंगोपाग, स्पर्श रस, अमत गन्ध, वर्ण, नरकार्णी, तिर्य-सयत गानुपूर्वी मनुष्यगस्यानुपूर्वी असी अगुरुलघु, उपघात, परघात, उच्छवास आतप, उद्योत, अप्रशस्त विहा०, त्रस, स्थावर, बादर सूक्ष्म, पर्याप्त अपर्याप्त सूच] प्रत्येक साधारण, स्थिर. अस्थिर, शुभ, अशुभ, दुभंग, दुस्वर, अनादेय, अयश, निर्माण, नोगो ६६ असाता, देव व मनुष्यायु, देवगति, देवत्यार्थी वैयिक शरीर व अगोपाग, समचतुरख संस्थान, आदेय, सुभग, सुस्वर, प्रदास्तविहायोगति
भ
नाराचसहनन
= १३ ==8
अप्रत्याख्यान चतुष्क हास्य, रति, अरति, शोक, भय, जुगुप्सा, निद्रा, प्रचला,
तीर्थंकर
ह
प्रत्याख्यान चतुष्क आहारक द्विक
पुरुष वेद, सज्वलन चतुष्क - ५ ज्ञानावरणकी ५. दर्शनावरणकी चक्षु आदि ४ अन्तराय ५. साता, यशस्कीर्ति, उच्चगोत्र - १७
प्रकृतिका
नाम
१३६
देवगति, व आनुपूर्वी, वैक्रि
यक शरीर व अंगापाग, तीर्थ
कर
=k
आहारक द्वय
देवायुमरका नरकगति व आनुपूर्वी =8
उपरोक्त ब
रिक्त शेष बची
=१०६
4. प्रकृति बन्धकी अपेक्षा स्वामित्व प्ररूपणा प्रमाण तथा संकेत -- (दे० पूर्वोक्त प्रदेशबन्ध प्ररूपणा नं० १) ।
नं०
१
२
१-४
५
9 m
७
Τ
३
१
مل
२
x & o
४
१
२-५
६-१०
११-१४ १४- १७
१७- २३
२४
२५
२६
५
१
२
३
६
१
२
३
२. प्रदेशबन्ध सम्बन्धी नियम व प्ररूपणाएँ
ज्ञानावरण
पाँचो
दर्शनावरण
प्रकृतिका नाम
चक्षु, अचक्षु अवधि व केवल
दर्शन
निद्रा
निद्रानिद्रा
प्रचला
प्रचलाप्रचला वेदनीय-
साता
असाता
मोहनीय
मिथ्यात्व
अनन्ता० चतु०
अप्रत्या० चतु०
जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश
प्रत्या० चतु० सज्वलन चतु०
हास्य, रति, अरति, शोक,
भय, जुगुप्सा
स्त्री वेद
आयु
पुरुष "
नपु०”
नरकायु
तिर्यग
मनुष्य
देवायु
नामकर्म
गति -
नरक
तिर्यग्
मनुष्य
देव
जातिएकन्द्रियादि पाँचो
शरीर-औदारिक बै क्रियक
आहारक तेजस
स्वामित्व व गुणस्थान
उत्कृष्ट
१०
१०
१०
१
१० १
१०
१-६
aao or w
४-६
१
१०
१
१
१
१-६
13
१
१
१
१-६
जघन्य
७
१
सू.स./
"
22
33
"
33
22
כג
22
असंशो सू. ल / च
सू
१
सूच १६ त
सम्य०
असज्ञी
सू./
37
अविरत
सम्य०
अप्रमत्त
सू. ल. / च
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प्रदेश
१३७
२. प्रदेशबन्ध सम्बन्धी नियम व प्ररूपणाएँ
स्वामित्व व गुणस्थान
स्वामित्व व गुणस्थान
प्रकृतिका नाम
नं.
प्रकृतिका नाम
उत्कृष्ट
जघन्य
उत्कृष्ट
जघन्य
सल/च
-
inar .
अविरत अप्रमत्त सू ल./च
अनादेय अयश-कीति तीर्थ कर गोत्रउच्च नीच अन्तरायपॉचो
कार्मण अंगोपांगऔदारिक वैक्रियक आहारक निर्माण बन्धन संघात सस्थानसमचतुरन शेष गैंचो संहननवज्र वृषभ नाराच
शेष पाँचो १०-१३, स्पर्श, रस, गन्ध वर्ण
आनुपूर्वीनरक तिर्यग व मनुष्य देव
७. एक योग निमित्तक प्रदेश बंधमें अल्पबहुत्व क्यों
असंज्ञी
.
अविरत सम्य०
ल/च
. . .
ध १०/४,२,४,२१३/१११/३ जदि जोगादो पदेसबधो होदि तो सब्वकम्माणं पदेसपिंडस्स समाणतं पावदि, एगकारणत्तादो। ण च एवं, पूविल्लप्पाबहुएण सह विरोहादो त्ति। एवं पच्चवद्विदसिस्सस्थमुत्तरसुत्तावयवो आगदो 'णवरि पडिविसेसेण विसेसाहियाणि' त्ति। पयडी णाम सहाओ, तस्स विसेसो भेदो, तेण पयडिविसेसेण कम्माणं पदेसमधहाणाणि समाणकारणत्ते बि पदेसेहि विसेसाहियाणि । - प्रश्न-यदि योगसे प्रदेश बन्ध होता है तो सब कर्मोके प्रदेश समूहके समानता प्राप्त होती है, क्योकि उन सबके प्रदेशबन्धका एक ही कारण है । उत्तर-परन्तु ऐसा है नहीं, क्योकि, वैसा होनेपर पूर्वोक्त अल्पबहुत्वके साथ विरोध आता है। इस प्रत्यवस्था युक्त शिष्यके लिए उक्त सूत्रके 'णवरि पडिविसेसेण विसैसाहियाणि' इस उत्तर अवयव का अवतार हुआ है । प्रकृतिका अर्थ स्वभाव है, उसके विशेषसे अभिप्राय भेदका है। उस प्रकृति विशेषसे कर्मो के प्रदेश बन्धस्थान एक कारणके होनेपर भी प्रदेशोसे विशेष अधिक है।
. .
८. सम्यक्त्व व मिश्र प्रकृतिकी अन्तिम फालिमें प्रदेशों सम्बन्धी दो मत
अगुरुलघु उपघात परघात आतप उद्योत उच्छ्वास विहायोगति--- प्रशस्त अप्रशस्त प्रत्येक त्रस सुभग सुस्वर शुभ सुक्ष्म पर्याप्त स्थिर आदेय यश कीर्ति साधारण स्थावर दुर्भग दु.स्वर অহ্ম बादर अपर्याप्त अस्थिर
.: + +
amme + + + + +
क पा ४/३.२२/६६३६/३३४/११ जइवसहाहरिएण उवलद्धा वे उवएसा।
सम्मत्तचरिमफालीदो सम्मामिच्छत्तचरिमफाली असखे० गुणहीणा 'त्ति एगो उवएसो । अवरेगो सम्मामिच्छत्तचारिमफाली तत्तो विसेसाहिया त्ति । एत्थ एदेसि दोण्ह पि उवएसाण णिच्छयं काउमसमत्येण जवसहाइरिएण एगो एत्थ विलिहिदो अवरेगो डिदिसंकमे । तेणेद वे वि उबदेसा थप्प कादुण वत्त व्वा त्ति । -यतिवृषभाचार्यको दो उपदेश प्राप्त हुए। सम्यक्त्वकी अन्तिम फालिसे सम्यगमिध्यात्यकी अन्तिम फालि असंख्यातगुणी हीन है यह पहला उपदेश है । तथा सम्यग्मिथ्यात्वको अन्तिम फालि उससे (सभ्यक्त्वकी अन्तिम फालिसे) विशेष अधिक है यह दूसरा उपदेश है। इन दोनो हो उपदेशोका निश्चय करनेमे असमर्थ यतिवृषभाचार्यने एक उपदेश यहाँ लिखा और एक उपदेश स्थिति सक्रममें लिखा, अत' इन दोनो हो उपदेशोको स्थगित करके उपदेश करना चाहिए।
जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश
भा० ३-१८
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प्रदेशत्व
१३८
प्रभाचंद्र
९. अन्य प्ररूपणाभों सम्बन्धी विषय सूची
(म. बं. ६/६...पृ.)
भुजगारादि- ज. उ. | षट्विषय ज.उ.पद
वृद्धि | गुण उत्तर
पद हानि | वृद्धि
ओघ व आदेशसे अष्ट कर्म प्ररूपणा १ मूल | समुत्कीर्तना
६/१०-१०२/६/१४६
५३-५४ १४७/७४ ६/१२५-१२६
भंगविचय
जीवस्थान व अध्यवसायस्थान
६/१५४-१५६/८३, ८४
प्रद्युम्न-ह. पु./सर्ग/श्लोक-अपने पूर्व के सातवें भवमें शृगाल था
(४३/११५) छठे भक्में ब्राह्मणपुत्र अग्निभूति (४३/१००), पाँचवें भवमें सौधर्म स्वर्ग में देव (४६/१३६ ), चौथे भवमें सेठ पुत्र पूर्ण भद्र (४३/१५८) तीसरे भवमें सौधर्म स्वर्गमें देव (४३/१५८), दूसरे भवमें मधु ( ४३/१६०) पूर्व भवमें आरणेन्द्र था (४३/४०) । वर्तमान भवमें कृष्णका पुत्र था ( ४३/४० ) जन्मते ही पूर्व वैरी असुरने इसको उठाकर पर्वतपर एक शिलाके नीचे दबा दिया (४३/४४) तत्पश्चात कालसंबर विद्याधरने इसका पालन किया (४३/४७) युवा होनेपर पोषक माता इनपर मोहित हो गयी (४३/५५) । इस घटनापर पिता कालसंबरको युद्धमें हरा कर द्वारका आये तथा जन्ममाताको अनेकों बालक्रीड़ाओं द्वारा प्रसन्न किया (४७/६७)। अन्तमें दीक्षा धारण की ( ६१/३६), तथा गिरनार पर्वतपरसे मोक्ष प्राप्त किया ( ६५/१६-१७) प्रद्युम्न चरित्र-१. आ० सोमकीर्ति ( ई० १४७४ ) द्वारा विरचित संस्कृत छन्द बद्ध ग्रन्थ । इसमें १६ सर्ग तथा कुल ४८०० श्लोक हैं । २. आ० शुभचन्द्र ( ई०१५१६-१५५६) द्वारा रचित संस्कृत छन्द बद्ध ग्रन्थ। प्रधान वाद-दे० सांख्यदर्शन । प्रध्वंसाभाव-दे० अभाव । प्रबंध काल-दे० काल/१। प्रभंकर-सौधर्म स्वर्गका २७ वाँ पटल व इन्द्रक-दे० स्वर्ग/२/३ ॥ प्रभंजन-१. मानुषोत्तर पर्वतका एक कूट व उसका स्वामी भवन
वासी वायुकुमारदेव-दे० लोकशि१० ।
उत्तर
सन्निकर्ष भंग विचय
६/२६४-५६५/१७८ ६/५६६-५६६/३५०-३५४
प्रदेशत्वरा. वा./२/७/१३/११३/१ प्रदेशवत्त्वमपि साधारण संख्येयासंख्येयानन्तप्रदेशोपेतत्वात सर्वद्रव्याणाम् । तदपि कर्मोदयाद्यपेक्षाभावात पारिणामिकम् । = प्रदेशवत्त्व भी सर्व द्रव्यसाधारण है, क्योंकि सर्व द्रव्य अपने अपने संख्यात, असंख्यात वा अनन्त प्रदेशोंको रखते हैं । यह कर्मों के उदय आदिको अपेक्षाका अभाव होनेसे पारिणामिक है । आ. प./६ प्रदेशस्य भावः प्रदेशत्वं क्षेत्रत्वं अविभागिपुद्गलपरमाणुनावष्टब्धम् । = प्रदेशके भावको प्रदेशत्व अर्थात क्षेत्रत्व कहते हैं। वह अविभागी पुद्गल परमाणुके द्वारा घेरा हुआ स्थान मात्र होता है। * षट् द्रव्यों में सप्रदेशी व अप्रदेशी विभाग
दे० द्रव्य/३। प्रदेश विरच-ध. १४/५,६,२८७/३५२/३ कर्म पुद्गलप्रदेशो विरच्यते
अस्मिन्निति प्रदेश विरचः कर्म स्थितिरिति यावत् । अथवा विरच्यते इति विरच: प्रदेशश्चासौ विरचश्च प्रदेश विरचः बिरच्यमानकर्मप्रदेश इति यावत् । - कर्म पुदल प्रदेश जिसमें विरचा जाता है अर्थात स्थापित किया जाता है वह प्रदेश विरच कहलाता है। अभिप्राय यह है कि यहाँपर प्रदेश विरचसे कर्म स्थिति ली गयी है। अथवा विरच पदकी निरुक्ति यह है-विरच्यते अर्थात जो विरचा जाता है उसे विरच कहते हैं। तथा प्रदेश जो बिरच वह प्रदेश विरच कहलाता है । प्रदेश विरच्यमान कर्म प्रदेश यह उसका अभिप्राय है। प्रदोष-स. सि./६/१०/३२०/१० तत्त्वज्ञानस्य मोक्षसाधनस्य कोत ने कृते कस्यचिदनभिव्याहरतः अन्तःपैशुन्यपरिणामः प्रदोषः। तत्त्वज्ञान मोक्षका साधन है, उसका गुणगान करते समय उस समय नहीं बोलने वालेके जो भीतर पैशुन्य रूप परिणाम होता है वह प्रदोष है। (रा.बा./६/१०/१/५१७) (गो. क./जी. प्र./८००/१७६/६)। गो, क./जी. प्र./८००/898/8 तत्प्रदोषः तत्त्वज्ञाने हर्षाभावः । - तत्त्व
ज्ञानमें हर्ष का अभाव होना प्रदोष है।। रा, बा, हि./६/१०/४६४-४१५ कोई पुरुष (किसी अन्यकी) प्रशंसा करता होय, ता. कोई सराहै नाहीं, ता. सुनकर आप मौन रावै अन्तरंग विषै बा सूं अदेखसका भाव करि तथा (वाकू) दोष लगाबनेके अभिप्राय करि वाका साधक न करे ताके ऐसे परिणाम . प्रदोष कहिए।
प्रभ-सौधर्म स्वर्गका २१ वाँ पटल व इन्द्रक ।-दे० स्वर्ग/५ प्रभा-रा. वा./३/१/४/१५४/२३ न दीप्तिरूपैव प्रभा। किं तहि । द्रव्याणां स्वात्मैव मृजा प्रभा यत्संनिधानात् मनुष्यादीनामयं संव्यवहारो भवति स्निग्धकृष्णप्रभमिदं रूक्षकृष्णप्रभमिदमिति ।
केवल दीप्तिका नाम ही प्रभा नहीं है किन्तु द्रव्यों का जो अपना विशेष विशेष सलोनापन होता है, उसीको कहा जाता है कि यह स्निग्ध कृष्णप्रभावाला है। यह रूक्ष कृष्ण प्रभा वाला है। प्रभाकर भट्ट-१. योगेन्दुदेवके शिष्य दिगम्बर साधु थे। योगेन्दु देवके अनुसार इनका समय भी ई.श.६ आता है । (प.प्र./प्र. १००/A. N. Up) मीमांसकोंके गुरु थे। कुमारिल भट्टके समकालीन थे। समय-(ई० ६००-६२५) (प. प्र./प्र./१००/A. N. up (स्याद्वाद सिद्धि/प्र. २०/ पं. दरबारी लाल कोठिया) (विशेष दे. मीमांसा दर्शन)। प्रभाकर मत-दे० मीमांसक दर्शन । प्रभाचंद्र-इस नाम के अनेकों आचार्य हुए हैं-१. नन्दिसंघ बला
स्कारगण की गुर्वावली के अनुसार लोकचन्द्र के शिष्य और नेमिचन्द्र के गुरु । समय-शक ४५३-४७८ (ई०५३१-५५६)। (दे. इतिहास/ ७/२)। २. अकलंक भट्ट (ई०६२०-६८०) के परवर्ती एक आचार्य जिन्होंने गृद्धपिच्छ कृत तरवार्थ सूत्र के अनुसार एक द्वितीय तत्वार्थ सूत्र की रचना की। (ती./२/३००)। ३. राष्ट्रकूट के नरेश गोविन्द तृ. के दो ताम्रपत्रों (शक ७११-४२४) के अनुसार आप तोरणाचार्य के शिष्य और पुष्पनन्दि के शिष्य थे। समय-लगभग शक ७१०-०६४
ई०७८८-८३२)। (जै./२/११३)। ४. महापुराण के कर्ता जिन मेन (ई०८१८-८७८) से पूर्ववर्ती जो कुमारसेन के शिष्य थे। कृतिन्याय का ग्रन्थ 'चन्द्रोदय'। समय-ई०७६७ (ह. पु./प्र.८/पं. पन्ना लाल)। ५. नन्दिसंघ देशीयगण गोलाचार्य आनाय में आप पदनन्दि
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प्रभाव
सैद्धान्तिक के शिष्य और आभरण
कौमारदेव
थे ।
धर्मा थे। परीक्षामुख के कर्ता माणिक्यनन्दि आपके शिक्षा गुरु कृतिये प्रमेयम मार्तण्डान्द्रा विवरण, शाकटायन न्यास, शब्दाम्भोज भास्कर, समाधितन्त्र टीका, आत्मानुशासन टीका, समयसार टीका, प्रवचनसार सरोज भास्कर, पञ्चास्तिकाय प्रदीप, लघु द्रव्य संग्रह वृत्ति, महापुराण टिप्पणी ग कथा कोष, क्रिया कलाप टीका और किन्हीं विद्वानों के अनुसार रत्नकरण्ड श्रावकाचार को टीका भी समय- पं. महेन्द्र कुमार के अनुसार वि. १०३७-११२२; पं. कैलाश चन्दजी के अनुसार ई० १५०१०२० । (दे. इतिहास/७/५); (जै /२/३४८, १/३८८); (ती./३/४६, ५० ) । ६. नन्दिसंघ देशीयगण में मेघचन्द्र त्रैविद्य द्वि. के शिष्य और वीरनन्दि व शुभचन्द्र के महधर्मा । (दे. इतिहास / ७/५) । ७. सेन गण के भट्टारक बाल चन्द के शिष्य । कृतियें- सिद्धान्तसार की कन्नड़ टीका और पं. कैलाश चन्दजी के अनुसार रत्नकरण्ड श्रावकाचार की टीका । समय - वि. श. १३ ( ई० ११८५- १२४३) । नन्दि संघ बलात्कार गण की अजमेर गद्दी के अनुसार आप रत्न कीर्ति भट्टारक के शिष्य और पद्मनन्दि के शिष्य थे। समय- वि. श. १२ पूर्व अथवा लि. १२१०-१३०३ ई० १२५३-१६२८)
इतिहास /
-
३/४) । (दे०इतिहास/७/३) । ६. श्रुत मुनि ( ई० १३४१ वि० १३६८) के शिक्षा गुरुसमा १४ का उत्तरार्ध (३० श० १४ पूर्व ) । (जै./२/१६५, ३४६)। १०. काष्ठासंधी आचार्य । गुरु परम्पराहेमकीर्ति, धर्मचन्द्र, प्रभाचन्द्र कृति- तत्त्वार्थ रत्न प्रभाकर । समय वि. १४८३ ई० १४३२/२/११-३००) १९ नन्दिसंप बलात्कार गण दिल्ली शाखा जो पीछे चित्तौड़ शाखा के रूप में रूपान्तरित हो गई । गुरु-जिनचन्द्र । समय- वि. १५७१-१५८६ ( ई० १५९४-९५२६) । (ती./३/३८४) ।
प्रभाव - स. सि. /४/२०/२५१/७ शापानुग्रहशक्तिः प्रभावः । शाप और अनुग्रह रूप वातिको प्रभाव कहते हैं (रा. मा./४/२०/२/२/ २३५ / १३ ) ।
प्रभावती -
पूर्व विदेहस्थ वत्सकावती देशकी मुख्य नगरी ।
दे० लोक/७ ।
प्रभावना - १ प्रभावना अंगका लक्षण
१. निश्चयकी अपेक्षा
स. सा./मू./२३६ विज्जारहमारूढो मणोरहपहेसु भमइ जो चेदा । सो जापानी सम्मदिट्ठा मुणेो ॥२३६॥ जो पेटमा विद्यारूपी रथपर आरूढ हुआ, मन रूपी रथके पथमें ( ज्ञानरूपी रथके चलने के मार्ग में भ्रमण करता है, वह जिनेन्द्र भगवादके ज्ञानकी प्रभावना करनेवाला सम्यग्दृष्टि जानना चाहिए । २३६ । । रा.वा./६/२४/१/५२६/१५ सम्यग्दर्शनज्ञानचारित्ररत्नत्रय प्रभावेन आत्मनः प्रकाशन प्रभावनम् । =सम्यग्दर्शन ज्ञान चारित्र रूप रत्नत्रय के प्रभाव से आत्माको प्रकाशमान करना प्रभावना है। (चा. सा./५/४ ) (पु. सि. उ. / ३० ) ।
१३९
६. सं./टी./३१/१००/१ निश्ययेन पुनस्तस्यैव व्यवहारप्रभावना गुणस्य तेन मियाभूति समस्त विभावपरिणामरूपपरसम यामाहा शुद्धोपयोग ज्ञानेन विशुद्धानदर्शनस्वभावशुद्धात्मनः प्रकाशनमनुभवनमेव प्रभावनेतिहार प्रभावना गुणके बल से मिथ्यात्व - विषय कषाय आदि सम्पूर्ण विभाव परिणामरूप परसमयके प्रभावको नष्ट करके शुद्धोपयोग लक्षणवाले स्वसंवेदन ज्ञानसे, निर्मल, ज्ञान, दर्शन रूप स्वभाव वाली निज
प्रभावन
शुद्धात्माका जो प्रकाशन अथवा अनुभवन, वह निश्चयसे प्रभावना है।
=
घ. १६ मोहारतिक्षतः शुद्धः शुद्धातरस्ततः जीवः शुद्धतमः कश्चिदस्तीत्यात्मप्रभावन। १८१६। कोई जीव मोह रूपी शत्रुके नाश होनेसे सुख और कोई जीव शुद्धसे शुद्धसर तथा कोई जीम शुद्धतम हो जाता है, इसी तरह उत्तरोत्तर शुद्धताका प्रकर्ष ही आत्मप्रभावना कहलाती है।८१
स. सा. / पं. जयचन्द / २३६ प्रभावनाका अर्थ प्रकट करना है, उद्योत करना है इत्यादि; इसलिए जो अपने ज्ञानको निरन्तर प्रगट करता हैमहाता है, उसके प्रभावना अंग होता है।
२. व्यवहारकी अपेक्षा
२. क. श्र. १ अज्ञानतिमिरव्याशिनपाकृत्य यथायथम् जिनशासनमाहात्म्यप्रकाशः स्यात्प्रभावना ॥१८॥ =अज्ञान रूपी अन्धकार के विनाशको जिस प्रकार बने उस प्रकार दूर करके जिनमार्गका समस्त मतावलम्बियों में प्रभाव प्रगट करना सो प्रभावना नामका आठवाँ अंग है । (का. अ./ ४२२-४२३ ) । सू. आ./२६४ धम्मका य बाहिरजोगे चाहिं धम्मो पहाविदव्वो जीवेसु दयाणुकंपाए | २६४ | महापुराणादि धर्मकथा के व्याख्यान करनेसे, हिंसा दोष रहित तपश्चरण कर, जीवोंकी दया
अनुकम्पा कर, जैन धर्मकी प्रभावना करनी चाहिए। आदि शब्दसे परवादियों को जीतना, अष्टांगनिमित ज्ञान, पूजा, दान आदि से भी प्रभावना करनी चाहिए | २६४ |
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रा. वा./६/२४/१२/५३०/१० ज्ञानरविप्रभया पर समायोसीयोरातिरस्कारिण्या, सत्तपसा महोपवासादिलक्षणेन सुरपतिविष्टर प्रकम्पनहेतुना जिनपूजया वा भव्यजनमतपण्डोधनप्रभया सद्धर्म प्रकाशन मार्गप्रभावनमिति संभाव्यते । पर समय रूपी जुगनुओं के प्रकाशको पराभूत करनेवाले ज्ञानरविकी प्रभारी इन्द्र के सिंहासनको कंपा देनेवाले महोपवासादि सम्यक् तपोंसे तथा भव्यजन रूपी कमलों को विकसित करने के लिए सूर्यप्रभा के समान जिन पूजाके द्वारा सद्धर्मका प्रकाश करना मार्ग प्रभावना है । ( स. सि. / ६ / २४ / ३३६/५ ) (पू. सि. उ. १०) (चा. सा./५/३) (भा. पा./टी./००/२२१/१६)।
(इ.सं./टी./४१/१०७/२)
ध. ८/३,४१/११/१ आगमट्ठस्स पवयणमिदि सण्णा । तस्स पहावणं णाम णणणं तव्बुडिदकरणं च तस्स भावो पवग्रण पहावणदा । = आगमार्थ का नाम प्रवचन है, उसके वर्णजनन कीर्ति विस्तार या वृद्धि करनेको प्रवचनकी प्रभावना और उसके भावको प्रवचनप्रभावनता कहते हैं ।
भा.आ./वि./४५/१५०/५ धर्मस्थेषु मातरि पितरि भ्रातरि मानुरागो वात्सल्यं, रत्नत्रयादरो वात्मनः । प्रभावना माहात्म्यप्रकाशन रत्नत्रयस्य तद्वतां वा । रत्नत्रय और उसके धारक श्रावक और मुनिगणका महत्त्व बतलाना, यह प्रभावना गुण है । ऐसे गुणों से सम्यक्त्वक वृद्धि होती है ।
पं. घ. /उ./८१८-०१६ बाह्यः प्रभावनाङ्गोऽरिस विद्यामन्वादिभिः। तपोदानादिभिधर्मोत्कर्षो विधीयताम् १८१८ परेषामपकर्षाय मिष्यामि चमत्कारकर किचित्तद्विधेयं महात्मभिः| १६ | = विद्या और मन्त्रोंके द्वारा, बलके द्वारा, तथा तप और दानके द्वारा जो जैन धर्मका उत्कर्ष किया जाता है, वह प्रभावना अंग कहलाता है । तत्त्वज्ञानियोंको यह करना चाहिए | १८| मिथ्यात्व के. को बढ़ाने वाले मिध्यादृष्टियाँका अपकर्ष करनेके लिए जो कुछ चामत्कारिक क्रियाएँ हैं, वे भी महात्माओंको करनी चाहिए ११
जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश
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प्रभास
२. इस एक भावना में शेष १५ भावनाओंका समावेश
घ. ०/३०४२ / ११ / ३
पयणहायणस्स एणविशुनदादीहि अविणाभावादी । तेणेदं पण्णरसमं कारणं क्योकि, उत्कृष्ट, प्रवचन प्रभावनाका दर्शनादितादिको साथ अविनाभाव है। इसलिए यह पन्द्र कारण है ।
★ एक मार्ग प्रभावनासे तीर्थंकरत्व बंध संभव
-
प्रभास - १ लवण समुद्रकी नैर्ऋत्य व वायव्य दिशामे स्थित द्वीप व उसके स्वामी देव - दे० लोक४/१ २. दक्षिण लवण समुद्रका स्वामी देव - दे० लोक/४/१ । ३ धातकी खण्डका रक्षक व्यन्तर देव - दे० लोक /४/२ ।
प्रभु
१०० बाईकम्मलयादी केला
विदिवपरमो
हामी पट्ट होई १०१ पाति कर्मोके से जिसने केवलज्ञानके द्वारा परमार्थको जान लिया है, सकल तत्त्वोका जिसने उपदेश दिया है, तथा निजस्वभावको जिसने प्राप्त कर लिया है, वह प्रभु होता है | १०८ ॥
पं का./त.प्र / २७ निश्चयेन भावकर्मणा, व्यवहारेण द्रव्यकर्मणामासववनसंवरण निर्जरणमोक्षमेषु स्वयमीत्याद प्रभु
निश्चयसे
भाव कर्मोंके आसव, बध, सवर, निर्जरा और मोक्ष करनेमे स्वय समर्थ होनेसे आत्मा प्रभू है। व्यहारसे प्रव्यकमोंके आसय, मध आदि करनेमें स्वयं ईश होनेसे वह प्रभु है ।
दे० भावना / २
पं. का./ता.वृ./२०/८०/११ निश्चयेन मोक्षमोक्षकारण रूपशुपरिणामपरिणमनसमर्थाय चाशुद्वनयेन संसारसारकारणरूपाशुद्रपरिणामपरिणमनसमर्थख्याय प्रभुर्भवति । निश्चयसे मोक्ष और मोक्षके कारण रूप शुद्ध परिणामसे परिणमनमे समर्थ होनेसे, और अशुद्ध नयसे ससार और संसारके कारण रूप परिणामसे परिणमनमें समर्थ होनेसे यह आत्मा प्रभु होता है।
प्रभुत्व शक्तिससा / आ / परि / शक्ति नं ७ अखण्डित प्रतापस्वाग्यशालित्वलक्षणा प्रभुत्वशति जिसका प्रताप अरण्डित है. ऐसा वात शोभायमानता जिसका लक्षण है, ऐसो प्रमुख
शक्ति है ॥७॥
प्रमत्त संयत- - दे०
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पं.का.
निर्वतमस्ताविकारशक्तिमात्रं प्रभुत्वं
प्राप्त
किये हुए समस्त ( आत्मिक) अधिकारोकी शक्ति मात्र रूप प्रभुत्व होता है।
१० सयत ।
प्रमाण-स्वव पर प्रकाशक सम्यग्ज्ञान प्रमाण है। जैनदर्शनकार की भांति इन्द्रियविषय व सविर्षको प्रमाण नहीं मानते । स्वार्थ व परार्थ के भेदसे अथवा प्रत्यक्ष व परोक्षके भेदसे वह दो प्रकार है । परार्थ तो परोक्ष ही होता है, पर स्वार्थ प्रत्यक्ष व परोक्ष दोनो प्रकारका होता है। तहाँ मतिज्ञानात्मक स्वार्थ प्रमाण तो साव्यवहारिक प्रत्यक्ष है, और श्रुतज्ञानात्मक स्वार्थ परोक्ष हैं। अवधि, मन पर्यय और केवल ये तीनो ज्ञान पारमार्थिक प्रत्यक्ष है । नैयायिकों के द्वारा मान्य अनुमान, उपमान, अर्थापत्ति, ऐतिह्य व शब्दादि सत्र प्रमाण यहाँ श्रुतज्ञानात्मक परोक्ष प्रमाणमे गर्भित हो जाते है। पहले न जाना गया अपूर्वपदार्थ प्रमाणका विषय है, और वस्तुकी सिद्धि अथवा हित प्राप्ति व अहित परिहार इसका फल है ।
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भेद व लक्षण
प्रमाण सामान्यका लक्षण ।
तर्क
प्रमाणके भेद | अन्य अनेकों भेद - अनुमान, उपमान, आगम, शायभिज्ञान शब्द, स्मृति, अर्थापत्ति आदि। - दे० वह वह नाम
न्यायकी अपेक्षा प्रमाणके भेदादिका निर्देश ।
प्रमाणके भेदोंके लक्षण 1
प्रत्यक्ष व परोक्ष प्रमाण । परार्थं प्रमाण ।
प्रमाणके भेदों का समीकरण
प्रमाणाभासका लक्षण ।
प्रमाणका प्रामाण्य
प्रामाण्यका लक्षण ।
प्रमाण ज्ञानमें अनुभवका स्थान । स्वत व परतः दोनोंसे होता है।
प्रमाण
--दे० परीक्ष
प्रमाण निर्देश
ज्ञान ही प्रमाण है ।
सम्यग्ज्ञान ही प्रमाण है मिथ्याज्ञान नहीं ।
सम्यक् व मिथ्या अनेकान्तके
दे० अनेकात/९
प्रमाण व नय सम्बन्ध ।
-३० नय / 1 /२ व 11/ परोक्षज्ञान देशतः और प्रत्यक्ष ज्ञान सर्वतः प्रमाण है ।
सम्यग्यानी आत्मा ही कचित् प्रमाण है।
प्रमाणका विषय ।
- दे० वह वह नान
-
-दे० अनुमान, हेतु
प्रमाणका फल |
वस्तु विवेचनमे प्रमाण नयका स्थान । - दे० न्याय / १
प्रमाणका कारण ।
उपचार में कथंचित् प्रमाणता । प्रमाणाभासके विषयादि ।
४ प्रमाण, प्रमेय, प्रमाताके भेदाभेद संबन्धी
शंका
-दे० उपचार/४
-३० अनुभ
प्रमाण ज्ञान स्व पर व्यवसायात्मक होता है ।
- दे० ज्ञान / I/३ वास्तवमे आत्मा ही प्रामाण्य है ज्ञान नहीं ।
ज्ञानको प्रमाण कहनेसे प्रमाणका फल किसे मानोगे । ज्ञानको प्रमाण माननेसे मिथ्याज्ञान भी प्रमाण हो जायेगा ।
सन्निकर्ष व इन्द्रियको प्रमाण माननेमें दोष ।
प्रमाण व प्रमेयको सर्वथा मिन माननेमे दोष ।
ज्ञान व आत्माको भिन्न माननेमे दोष ।
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प्रमाण
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७
८
प्रमाणको लक्ष्य और प्रमाकरणको लक्षण माननेमे
दोष ।
प्रमाण और प्रमेयमें कचित् भेदाभेद ।
प्रमाण व उसके फलों में कचित् भेदाभेद ।
५ गणनादि प्रमाण निर्देश
१
*
प्रमाणके भेद - १ गणनाको अपेक्षा २ निक्षेपकी अपेक्षा |
अन्य अनेकों भेद - अंगुल, सख्यात, असख्यात, अनंत, सागर, पल्य आदि प्रमाण ।
- दे० वह वह नाम ।
गणना प्रमाणके भेदोंके लक्षण । ३ निक्षेप रूप प्रमाणके लक्षण । गणना प्रमाण सम्बन्धित विषय ।
- दे० गणित ।
१. भेद व लक्षण
१ प्रमाण सामान्यका लक्षण १. निरु अर्थ
ससि / २ /१०/१० / २ प्रभिगोति प्रमीयतेऽनेन प्रमितिमात्र या प्रमा णम् जो अच्छी तरह मान करता है, जिसके द्वारा अच्छी तरह मान किया जाता है या प्रमितिमात्र प्रमाण है । (रा.वा./१/१०/ १/४६/१३ )
क.पा/१/११/२७/३७/६ प्रमीयतेऽनेनेति प्रमाणम् । जिसके द्वारा पदार्थ जाना जाता है उसे प्रमाण कहते है । ( आप./६) (स.म. / २८ / ३०७/१८ ) ( न्या. दी /१/६१०/११ ) २. अन्य अर्थ
१. आहारका एक दोष- दे०आहार / II / ४ । २. वसतिकाका एक दोष - दे० वसतिका; ३. Measure ( ज प / प्र १०७ )
२. प्रमाणके भेद
त. सू / २ / १०-१२ भावार्थ - प्रमाण दो प्रकारका है- प्रत्यक्ष व परोक्ष (ध. / ४.१.४४ / १४२ / ६) ( न च / १७० ) (१.मु / ९/१०२/२) (ज. १/१३/४०) (गो.जी.प. जी / २६६ / ६४० ) (ससा / आ./१३/क. ८ की टीका) ( स.न. /३० /३३१/२) (स्या. म. २८/२००११) (म्या.वी./२/११/२३) स.सि./१/६/२० / ३ तत्र प्रमाणं द्विविधं स्वार्थ परार्थं च । प्रमाण के दो भेद है - स्वार्थ और परार्थ । (रा. वा / १/६/४/३३/११ ) मा.सू //१/१/३/१ प्रत्यक्षानुमानोपमानशब्दाप्रमाणानि प्रत्यक्ष अनुमान, उपमान और शब्द के भेदसे प्रमाण चार प्रकारका है।
B
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३. प्रमाण के भेदोंके लक्षण
स.सि./१/६/२०/४ ज्ञानात्मकं स्वार्थं वचनात्मक परार्थम् । ज्ञानात्मक प्रमाणको स्वार्थ प्रमाण कहते है और वचनात्मक प्रमाण परार्थ प्रमाण बहलाता है (रा.वा./१/३/४/२३/११) (सि.वि. / /२/४/१२३) ( स.भ. त./१/६)
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४. प्रमाण के भेदोंका समीकरण
स.सि./१/६/२० / ३ तत्र स्वार्थं प्रमाणं श्रुतवर्जम् ( वर्ज्यम् ) । श्रुत पुन. स्वार्थ भवति परार्थं च । श्रुतज्ञानको छोडकर शेष सब ( अर्थात् शेष चार ) ज्ञान स्वार्थ प्रमाण है परन्तु श्रुतज्ञान स्वार्थ और पदार्थ दोनो प्रकारका है। ( इस प्रकार स्वार्थ व परार्थ भी प्रत्यक्ष व परोक्षमे अन्तर्भुत है।)
रा.वा./१/२०/१५/००/१० एतान्यनुमानादीनि ते अन्तर्भवन्ति तस्मासेवा पृथगुपदेशो न क्रियते स्वपरप्रतिपतिि अन्तर्भवति । अनुमानादिका ( अनुमान, उपमान, शब्द, ऐतिह्य, अर्थापति, सभव और अभाव प्रमाणका ) स्वप्रतिपत्तिकालमे अनक्षर समे और परंप्रतिपत्तिकालमे अक्षर श्रुतमें अन्तर्भाव होता है। इसलिए इनका पृथक् उपदेश नही किया है । आप / सविकल्प मानस तच्चतुर्विधम् । मतिश्रुतावधिमन पर्ययरूप निर्विकल्पं मनोरहितं केवलज्ञानं मति, बुत, अधि मनपय ये चार विकल्प है, और केवलज्ञान निर्विक और ननरहित है। इस प्रकार से भेद भी प्रत्यक्ष व परोक्षमें ही गर्भित हो जाते है।)
२ प्रमाण निर्देश
५. प्रमाणाभासका लक्षण
स.म. त/७४ /४ मिथ्यानेकान्त प्रमाणाभासः । = मिथ्या अनेकान्त प्रमाणाभास है ।
३० प्रमाण / ४२ ( सशयादि रहित मिथ्याज्ञान प्रमाणाभास है 1 ) दे० प्रमाण / २ / ८ ( प्रमाणाभास के विषय संख्यादि । )
२. प्रमाण निर्देश
१. ज्ञान ही प्रमाण है
ति. प./१/८३ गाणं होदि पमाण ज्ञान ही प्रमाण है। सू./१२/३/१२ १/२३/१५:१०/२/६३), (थ. १/१.१.१/ (म.प./ १७०), (प. मु०/१/१) (प.प./५/५४९) । २. सम्यग्ज्ञान ही प्रमाण है मिध्याज्ञान नहीं
श्लो. वा ३ / २ / १० /३८ / ६५ मिथ्याज्ञानं प्रमाणं न सम्यगित्यधिकारत. । यथा यत्राविसंवादस्तथा तत्र प्रमाणता |३८| सूत्रमे सम्यक्का अधिकार चला आ रहा है, इस कारण संशयादि मिथ्याज्ञान प्रमाण नही है। जिस प्रकार जहाँपर अविसंवाद है वहाँ उस प्रकार प्रमाणपन व्यवस्थित है |
(सि वि. / १२ / १०).
तसा / २ / ३२ मति तावभिश्चैव मध्यसमवायिन मिध्याज्ञानानि कथ्यन्ते न तु तेषां प्रमाणता ॥३५॥ मिथ्यात्वरूप परिणाम होनेसे मंति, भूत व अवधिज्ञान मिध्याज्ञान कहे जाते है ये ज्ञान मिथ्या हो तो प्रमाण नही माने जाते ।
० प्रमाण /४/२ सशयादि सहित ज्ञान प्रमाण नहीं है।
-
जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश
३. परोक्षज्ञान देशतः और प्रत्यक्षज्ञान सर्वतः प्रमाण है रीमा ३/९/१०/११/६६ स्वार्थे मतिज्ञानं प्रमाणं देशराः स्थितं ।
अवध्यादि तु कार्त्स्न्येन केवलं सर्ववस्तुषु ॥ ३६॥ स्वविषयमें भी एक देश प्रमाण है मति, श्रुतज्ञान। अवधि व मन पर्यय स्व विषयमे पूर्ण प्रमाण है । और केवलज्ञान सर्वत्र प्रमाण है ।
मा २/२/६/१०-२३/३८३ में भाषाकार द्वारा समन्तभद्राचार्यका उधृत वाक्य - मिथ्याज्ञान भी स्वाशकी अपेक्षा कथंचित् प्रमाण है । दे० ज्ञान / III / २ / ० ( ज्ञान वास्तव में मिया नहीं है कि मिध्यात्वरूप अभिप्रायवश उसे मिथ्या कहा जाता है।
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प्रमाण
१४२
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४. सम्यग्ज्ञानी आत्मा ही कथचित् प्रमाण है घ. १ / ४१.४५ / ९४९/६ कि प्रमाण निर्वाचनोधविशिष्ट आत्मा प्रमाणम् । प्रश्न- प्रमाण किसे कहते है। उत्तर- निर्बाध ज्ञानसे विशिष्ट आल्माको प्रमाण कहते है । ( ध ६/४,१,४५ / १६४/६ ) । अ. स./टी./४४/१०/१० सपविमोहविभ्रमरहितवस्तुहानस्वरूपामैव प्रमाणम् । स च प्रदीपवत् स्वपरगतं सामान्यं विशेषं च जानाति । तेन कारणेनाभेदेन तस्यैव प्रमाणत्वमिति । - सराय-विमोह-विभ्रमसे रहित जो वस्तुका ज्ञान है, उस ज्ञानस्वरूप आत्मा ही प्रमाण है । जैसे- प्रदीप स्व पर प्रकाशक है, उसी प्रकार आत्मा भी स्व और परके सामान्य विशेषको जानता है, इस कारण अभेदसे आत्मा के ही प्रमाणता है।
५. प्रमाणका विषय
घ. १ / ४.१०४५/१६६ / १ प्रकर्षेण मान प्रमाणम् सकलादेशौत्यर्थ । तेन प्रकाशिताना प्रमाणग्रहीतानामित्यर्थ प्रकर्ष अर्थात् संशयादिसे रहित वस्तुका ज्ञान प्रमाण है, अभिप्राय यह कि जो समस्त धर्मोको विषय करनेवाला हो वह प्रमाण है । ( क पा. ९/११७४ / २१० / ३ ) । घ. १/४,२, १३,२५४/४५७/१२ संतविसयाण पमाणाणमसते वावारविरोदादोसदको विषय करनेवाले प्रमाणोके असतमें प्रवृत्त होनेका विरोध है।
प./१/१ स्वार्थ व्यवसायात्मकं ज्ञानं प्रमाण १० अपना और अपूर्व पदार्थका निश्चय करानेवाला ज्ञान प्रमाण है।
प. मु. /४/१ सामान्यविशेषात्मा तदर्थो विषय । सामान्य और विशेष - स्वरूप अर्थात द्रव्य और पर्यायस्वरूप पदार्थ प्रमाणका विषय होता
है । १
दे० न. /I/३ (सकलादेशी, अनेकान्तरूप व सर्व नयात्मक है । )
६. प्रमाणका फल
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F
1
सिवि /मू./१/३/१२ प्रमाणस्य फल साक्षात् सिद्धि स्वार्थविनिश्चय. - स्व ब पर दोनों प्रकारके पदार्थोंकी सिद्धिमे जो अन्य इन्द्रिय आदिकी अपेक्षा किये बिना स्वयं होता है वह ज्ञान ही प्रमाण है। न. च. वृ / १६६ कज्ज सयलसमत्थ जोवो साहेइ वत्थुगहणेण । वत्थू मानसिद्ध रात का जिम्मेण १६ वस्तुके ग्रहणसे ही जीन कार्य की सिद्धि करता है, और वह वस्तु प्रमाण सिद्ध है। इसलिए प्रमाण ही सकल समर्थ है ऐसा तुम नियमसे जानो ।
प्रमाण
मु / १ / २ हिताहितप्राप्तिपरिहारसमर्थं हि प्रमाण १२ मु/२/१ अज्ञाननिसिनोपादानोपपेक्षाच फलं ॥१॥ हो हलकी प्राप्ति और अहितके परिहार करनेमें समर्थ है |२| अहान की निवृत्ति, त्यागना, ग्रहण करना और उपेक्षा करना यह प्रमाणके फल है | १| ( और भी-दे० /४/१) ।
७. प्रमाणका कारण
६०० हेतुस्तस्ममुभुत्सो सदिग्धस्याथवा च मातस्य सायंमनेक इव्यं हस्तामलवे कामस्य ॥ ६०७ हाथ रखे हुए ऑवलेको भाँति अनेक रूप द्रव्यको युगपत् जाननेकी इच्छा रखनेवाले सन्दिग्धको अथवा अज्ञानीको तत्त्वोकी जिज्ञासा होना प्रमाणका कारण है । ६७७॥
८. प्रमाणामासके विषय आदि प./६/२०७२ पक्षमेक प्रमाणमित्यादिसख्याभास ॥२२॥ लौकावविकस्य प्रत्यक्षत परलोकादिनिषेधस्य परमुवाचासिद्धेरपिय
२. प्रमाण निर्देश
स्वाद २६ सौगतसायी भाकर मिनीयाना प्रत्यक्षानुमानागमोपमार्थापत्त्यभावेरेकैकाधिकैर्व्याप्तिवत् ॥ अनुमानादेस्तद्विपये प्रमाणान्तर ८ तर्कस्येव व्यचरखे प्रमाणान्तर १५६। अप्रमाणस्याव्यवस्थापकत्वात् । प्रतिभासभेदस्य च भेदकत्वात् १६० विषयाभास सामान्यं विशेषो द्वयं वा स्वतन्त्र' | ६१| तथाऽप्रतिभारतनाय कार्याकरणाथ [२] समर्थस्य करणे सर्वोपरिपेक्षवाद || परापेक्षणे परिणामिवमन्यथा तदभावात ६४ स्वयम समर्थयाकार६१ फलाभास प्रमाणादभिभव या | ६६ । अभेदे तव्यवहारानुपपत्ते ॥ ६७॥ व्यावृत्त्यापि न तत्कल्पना फलान्तराद् व्यावृत्त्याऽफलत्वप्रसगात् । ६८ प्रमाणान्तराइ व्यावृत्त्येवाप्रमाणत्वस्य || तस्माद्वास्तवो भेद | ७० 1 भेदे स्वात्मान्तरवत्तदनुपपत्ते 1७१ | समवायेऽतिप्रसग । ७२ । १ संख्याभास प्रत्यक्ष ही एक प्रमाण है। इस प्रकार एक या दो आदि प्रमाण मानना संख्याभास है । ५५॥ चाकि लोग एक प्रत्यक्ष प्रमाण मानते है, परन्तु उसके द्वारा न तो वे परलोक आदिका निषेध कर सकते है और न ही पर बुद्धि आदिका क्योकि विषय ही नहीं है । २६| नौ लोग प्रत्यक्ष व अनुमान दो प्रमाण मानते है । साख्य लोग प्रत्यक्ष, अनुमान व आगम तीन प्रमाण मानते है । नैयायिक लोग प्रत्यक्ष, अनुमान, आगम व उपमान ये चार प्रमाण मानते है । प्रभाकर लोग प्रत्यक्ष, अनुमान, आगम, उपमान व अर्थापत्ति ये पाँच प्रमाण मानते है, और जैमिनी लोग प्रत्यक्ष, अनुमान, आगम उपमान, अर्थापत्ति व अभाव ये छह प्रमाण मानते है । इनका इस प्रकार दो आदिका मानना संख्याभास है । ५७१ चार्वाक लोग परलोक आदिके निषेधके लिए स्वमान्य एक प्रमाणके अतिरिक्त अनुमानका आश्रय लेते है।८। इसी प्रकार बौद्ध लोग व्याप्तिकी सिद्धिके लिए स्वमान्य दो प्रमाणो के अतिरिक्त एक तर्कको भी स्वीकार कर लेते है |५६ | यदि संख्या भगके भय से वे उस तर्कको प्रमाण न कहे तो व्याप्तिकी सिद्धि ही नहीं हो सकती। दूसरे प्रत्यक्षादिसे विलक्षण जो तर्क उसका प्रतिभास जुदा ही प्रकारका होनेके कारण वह अवश्य उन दोनोसे पृथक् है | ६० २. विषयाभास -- प्रमाणका विषय सामान्य ही है या विशेष ही है, या दोनो ही स्वतन्त्र रहते प्रमाणके विषय है, ऐसा कहना भास है ।६१० क्योकि न तो पदार्थमे वे धर्म इस प्रकार प्रतिभासित होते है, और न इस प्रकार मानने से पदार्थ में अर्थक्रिवाकी सिद्धि हो सकती है । ६२ । यदि कहोगे कि वे सामान्य व विशेष पदार्थ में अर्थक्रिया करानेको स्वय समर्थ है तो उसमे सदा एक ही प्रकारके कार्यकी उत्पत्ति होती रहनी चाहिए । ६३॥ यदि कहोगे कि निमित्तो आदिकी अपेक्षा करके वे अर्थक्रिया करते है, तो उन धर्मोंको परिणामी मानना पडेगा, क्योकि परिणामी हुए बिना अन्य का आश्रय सम्भव नही है । ६४ । यदि कहोगे कि असमर्थ रहते ही स्वय कार्य कर देते है तो भी ठीक नहीं है, क्योंकि असमर्थ धर्म कोई भी कार्य नही कर सकता ।६५। ३ फलाभास-प्रमाणसे फल भिन्न ही होता है या अभिन्न ही होता है, ऐसा मानना फलाभास है । ६६ । योकि सर्वथा अभेद पक्ष में तो यह प्रमाण है ओर यह उसका फल' ऐसा व्यवहार ही सम्भव नहीं है । ६७॥ यदि व्यावृत्ति द्वारा अर्थात अन्य अफलसे जुदा प्रकारका मानकर फलकी कल्पना करोगे तो अन्य फलसे व्यावृत्त होनेके कारण उसीमें अफलकी कल्पना भी क्यो न हो जायेगी । ६। जिस प्रकार कि बौद्ध लोग अन्य प्रमाणकी व्यावृत्तिके द्वारा अप्रमाणपना मानते है । इसलिए प्रमाण व फल में वास्तविक भेद मानना चाहिए ॥ ६६-००१ सर्वथा भेव पक्षने 'यह इस प्रमाणका फल है' ऐसा नहीं कहा जा सकता ।७९। यदि समवाय द्वारा उनका परस्पर सम्बन्ध बैठानेका प्रयत्न करोगे तो अतिप्रसंग होगा, क्योंकि, एक, नित्य व व्यापक समवाय नामक पदार्थ भला एक ही आत्मामे प्रमाण व फलका समवाय क्यो करने लगा। एकदम सभी आत्मा के साथ उनका सम्बन्ध क्यो न जोड देगा | ७२ ॥
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प्रमाण
३. प्रमाणका प्रामाण्य
१. प्रामाण्यका लक्षण
न्या. दी /१/१०/११/७ पर प्रत्यक्ष निर्णयसे उद्धृत -- इदमेव हि प्रमाणस्य प्रमाणत्वं यत्प्रमितिक्रिया प्रति साधकतमत्वेन करणत्वम् । -प्रमाण वही है जो प्रमिति क्रियाके प्रति साधकतमरूपसे करण ( नियमसे कार्यका उत्पादक ) हो ।
न्या दी / २ / ६१८ / १४ / ११ किमिदं प्रमाणस्य प्रामाण्यं नाम । प्रतिभातविषयाव्यभिचारित्वम् । प्रश्न- प्रमाणका यह प्रामाण्य क्या है, जिसमें 'प्रमाण' प्रमाण कहा जाता है, अप्रमाण नही। उत्तर - जाने हुए विषयमे व्यभिचार ( अन्यथापन ) का न होना प्रामाण्य है। इसके होनेसे ही ज्ञान प्रमाण कहा जाता है और इसके न होनेसे अप्रमाण कहा जाता है ।
२. स्वतः च परतः दोनोंसे होता है
श्लो. वा. ३/१/१०/१२६ - १२७/११६ तत्राभ्यासात्प्रमाणत्वं निश्चितं स्वत एव नः । अनभ्यासे तु परत इत्याहु, । अत अभ्यामदशामें ज्ञान स्वरूपका निर्णय करते समय हो युगपद उसके प्रमाणपनका भी निर्णय कर लिया जाता है परन्तु अनभ्यासदशाने तो दूसरे कारणोसे ( परत. ) ही प्रमाणपना जाना जाता है। ( प्रमाण परीक्षा ), (प. सु./१/१३), (भ्या पी./१/२०१६)"
दे० ज्ञान / I/३ (प्रमाण स्व पर प्रकाशक है ।)
२. वास्तव में आत्मा ही प्रामाण्य है ज्ञान नहीं ५.६/४.१.४०/९४२/२ ज्ञानस्यैव प्रामाण्यं किमिति नेष्यते न जानाति परिमिति जीवादिपदार्थानिति ज्ञानारमा तस्यैव प्रामाण्याभ्युपगमात् । न ज्ञानपर्यायस्य स्थितिरहितस्य उत्पाद - विनाशलक्षणस्य प्रामाण्यस् तत्र त्रिलक्षणाभावत । अवस्तुनि परिच्छेदलक्षणार्थ क्रियाभावात्, स्मृति-प्रत्यभिज्ञानुसंधानप्रत्ययादीनामभावप्रसंगास - प्रश्न- ज्ञानको ही प्रमाण स्वीकार क्यो नहीं करते । उत्तर-नहीं, क्योकि 'जानातीति ज्ञानम्' इस निरुक्तिके अनुसार जो जीवादि पदार्थो को जानता है वह ज्ञान अर्थात् आत्मा है, उसीको प्रमाण स्वीकार किया गया है । उत्पाद व व्ययस्वरूप किन्तु स्थिति से रहित ज्ञान पर्यायके प्रमाणता स्वीकार नहीं की गयी, क्योकि उत्पाद, व्यय और भौव्यरूप लक्षणत्रयका अभाव होनेके कारण अवस्तु स्वरूप उसमे परितिरूप अर्थक्रियाका अभाव है, तथा स्थिति रहित ज्ञान पर्यायको प्रमाणता स्वीकार करनेपर स्मृति प्रत्यभिज्ञान व अनुसन्धान प्रत्ययोके अभावका प्रसंग आता है ।
४. प्रमाण, प्रमेय, प्रमाताके भेदाभेद सम्बन्धी शंका
समाधान
=
१. ज्ञानको प्रमाण कहनेसे प्रमाणका फल किसे मानोगे स.सि /१/१०/१७/१ यदि ज्ञानं प्रमाणं फलाभावः । नैष दोष अधिगमे प्रीतिदर्शनाव । ज्ञस्वभावस्यात्मन कर्ममलीमसस्य करणासन्धनादनिश्चये प्रीतिरुपजायते । सा फलमित्युच्यते। उपेक्षा अज्ञाननाशो वा फलम्। प्रश्न- यदि ज्ञानको प्रमाण मानते है तो फलका अभाव हो जायेगा । ( क्योकि उसका कोई दूसरा फल प्राप्त नही होता ।) उत्तर - यह कोई दोष नही है; क्योकि पदार्थ के ज्ञान होनेपर प्रीति देखी जाती है। वही प्रमाणका फल कहा जाता है | अथवा अपेक्षा या अज्ञानका नाश प्रमाणका फल है। (रा.वा./ १/१०/१००/४०/४) (प. मु./१/२) ।
૪૩
४. प्रमाण, प्रमेय, प्रमाताके भेदाभेद सम्बन्धी... २. ज्ञानको हो प्रमाण माननेसे मिथ्याज्ञान भी प्रमाण हो जायेंगे
क. पा १ / ११ / २८/४२ / २ णाणस्स पमाणत्ते भण्णमाणे संसयाणज्भवसायविवज्जयणाणामपि पमागतं पसज्ज ण प सह ेण तेसि पमाणत्तस्स ओसारित्तादो। प्रश्न-ज्ञान प्रमाण है ऐसा कथन करने पर सशय, अनध्यवसाय, और विपर्यय ज्ञानोको भी प्रमाणता प्राप्त होती है । उत्तर— नही, क्योकि, प्रमाणमे आये हुए 'प्र' शब्द के द्वारा संशयादिक प्रमाणता निषेध कर दिया है।
दे० प्रमाण / २ / २ सूत्र में सम्यक् शब्द चला आ रहा है इसलिए सम्यग्ज्ञान ही प्रमाण हो सकते है. मिथ्याज्ञान नही (ज्या दी/१/१८/२)
३. सन्निकर्ष व इन्द्रियको प्रमाण माननेमें दोष
1
=
स, सि, १/१०/१०/पंं. अथ संनिकर्षे प्रमाणे सति इन्द्रिये वा को दोष' । यदि संनिकर्ष प्रमाणम् मयप्रशनामग्रहणप्रसङ्ग । न हि ते इन्द्रियै सनिकृष्यन्ते । अत सर्वज्ञत्वाभाव स्यात् । इन्द्रियमपि यदि प्रमाण स एव दोष, अल्पविषयत्वात् चक्षुरादीनां ज्ञेयस्य चापरिमाणवाद सर्वेन्द्रियसनिकपभागश्च ६ / निक इन्द्रिये या प्रमाने सति अधिगम' फलमन्तर युज्यते इति तदयुक्तम्। यदि संनिकर्ष प्रमाण अर्थाधिगमफलं तस्य फिलेनाधिगमेनापि टेन भवितव्यमिति अर्थादीनामप्यधिगम प्राप्नोतीति । प्रश्न सन्निकर्ष या इन्द्रियको प्रमाण माननेमे क्या दोष है। उत्तर- १. यदि सन्निकर्षको प्रमाण माना जाता है तो सूक्ष्म व्यवहित और विप्रकृष्ट पदार्थोके ग्रहण न करनेका प्रसंग प्राप्त होगा; क्योकि इनका इन्द्रियोसे सम्बन्ध नहीं होता । इसलिए सर्वज्ञताका अभाव हो जाता है । २ यदि इन्द्रियको प्रमाण माना जाता है तो वही दोष आता है, क्योकि, चक्षु आदिका विषय अप है और शेय अपरिमित है ३, दूसरे सण इन्द्रिया सन्निकर्ष भी नहीं बनता क्योकि पक्षु और मन प्राव्यकारी नहीं है। इसलिए भी सन्निकर्षको प्रमाण नहीं मान सकते। प्रश्न - ( ज्ञानको प्रमाण माननेपर फलका अभाव है ) पर सन्निकर्ष या इन्द्रियको प्रमाण माननेपर उससे भिन्न ज्ञान रूप फल बन जाता है उत्तर - यह कहना युक्त नही है, क्योंकि यदि सन्निकर्षको प्रमाण और अर्थ के ज्ञानको फल मानते है, यो सन्निकर्ष दोगे रहने वाला होनेसे उसके फल रूप ज्ञानको भी दो मे रहने वाला होना चाहिए इसलिए घटपटादि पदार्थों के भी ज्ञानकी प्राप्ति होती है । ( रा. वा./१/१०/१६-२२/५१/५), (पं ध / पू. / ७२५-७३३ ) ।
7
-
४. प्रमाण व प्रमेयको सर्वथा भिन्न मानने में दोष
स. सि/१/१०/१८/३ यदि जीवादिरधिगमे प्रमार्ग प्रमाणाधिगमे च अन्यत्प्रमाण परिकल्पयितव्यम् । तथा सत्यनवस्था । नानवस्था प्रदीपवत् । यथा घटादीना प्रकाशने प्रदीपो हेतु स्वस्वरूपप्रकाशनेऽपि स एव न प्रकाशान्तरं सूर्य तथा प्रमाणमपीति अवश्यं चैतदभ्युगन्तव्य प्रमेयवत्यमाणस्य प्रमाणन्तरपरिकल्पनाया स्वाधिगमाभावात् स्मृत्यभाव । तदभावाद व्यवहारलोप स्यात् । प्रश्नयदि जीवादि पदार्थों के ज्ञानमे प्रमाण कारण है तो प्रमाणके ज्ञानमें अन्य प्रमाणको कारण मानना चाहिए। और ऐसा माननेपर अनवस्था दोष प्राप्त होता है ? उत्तर - जीवादि पदार्थोके ज्ञानमें कारण मानने पर अनवस्था दोष नही आता, जैसे दीपक । जिस प्रकार घटादि पदार्थोके प्रकाश करनेमे दीपक हेतु है और अपने स्वरूपको प्रकाश करने में भी वही हेतु है, इसके लिए प्रकाशान्तर नही दूँढना पडता है। उसी प्रकार प्रमाण भी है, यह बात अवश्य मान लेनी चाहिए । अब यदि प्रमेयके समान प्रमाणके लिए अन्य प्रमाण माना जाता है तो
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प्रमाण
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५. गणनादि प्रमाण निर्देश
इनकी सिद्धि कैसे हो । उत्तर-वस्तुतः संज्ञा, लक्षण, प्रयोजन आदिकी भिन्नता होनेसे प्रमाता, प्रमाण और प्रमेंयमें भिन्नता है तथा पृथक्-पृथक् रूपसे अनुपलब्धि होने के कारण अभिन्नता है। निष्कर्ष यह है कि प्रमेय प्रमेय ही है किन्तु प्रमाण प्रमाण भी है और प्रमेय भी।
स्वका ज्ञान नही होनेसे स्मृतिका अभाव हो जाता है, और स्मृतिका अभाव हो जानेसे व्यवहारका लोप हो जाता है। (रा. बा./१/१०/ १०/५०/१६)।
५. ज्ञान व आत्माको मिन्न मानने में दोष स. सि./९/१०/६७/५ आत्मनश्चेतनत्वात्तत्रैव समवाय इति चेत् । न,
ज्ञस्वभावाभावे सर्वेषामचेतनत्वात् । ज्ञस्वभावाभ्युपगमे वा आत्मन' स्वमतविरोध स्यात् । प्रश्न-आत्मा चेतन है, अत: उसीमे ज्ञानका समवाय है। उत्तर-नही, क्योकि आत्माको शस्वभाव नहीं मानने पर सभी पदार्थ अचेतन प्राप्त होते है। यदि आत्माको 'ज्ञ' स्वभाव माना जाता है, तो स्वमतका विरोध होता है । रावा./१/१०/६/५०/१५ स्यादेतत्-ज्ञानयोगाज्ज्ञातृत्वं भवतीति; तन्न, कि कारणम् । अतत्स्वभावत्वे ज्ञातृत्वाभाव.। कथम् । अन्धप्रदीपसयोगवत् ! यथा जात्यन्धस्य प्रदोपस योगेऽपि न द्रष्टुत्वं तथा ज्ञानयोगेऽपि अज्ञस्वभावस्यात्मनो न ज्ञातृत्वम् । = प्रश्न-ज्ञानके योगसे आत्माके ज्ञातृत्व होता है। उत्तर-ऐसा नहीं है, क्योकि अतत् स्वभाव होनेपर ज्ञातृत्वका अभाव है। जैसे-अन्धेको दीपकका सयोग होने पर भी दिखाई नहीं देता यत' वह स्वयं दृष्टि शून्य है, उसी तरह ज्ञ स्वभाव रहित आत्मामे ज्ञानका सम्बन्ध होने पर भी भी ज्ञत्व नही आ सकेगा। ६. प्रमाणको लक्ष्य और प्रमाकरणको लक्षण मानने में
८. प्रमाण व उसके फलमें कथंचित् भेदाभेद प.मु /५/२-३ प्रमाणाद भिन्न भिन्न च ।२। य' प्रमिमोते स एव निवृत्ताज्ञानो जहात्यादत्त उपेक्षते चेति प्रतीते ।। = फल प्रमाणसे कथचित् अभिन्न और क्थंचित् भिन्न है। क्योकि जो प्रमाण करता है-जानता है उसीका अज्ञान दूर होता है और वही किसी पदार्थ का त्यागवा ग्रहण अथवा उपेक्षा करता है इसलिए तो प्रमाण और फलका अभेद है किन्तु प्रमाण फल की भिन्न-भिन्न भी प्रतीति होती है इसलिए भेद भी है ।२-३॥
५. गणनादि प्रमाण निर्देश १. प्रमाणके भेद १. गणना प्रमाणकी अपेक्षा
गणना-प्रमाण
दोष
लौकिक
लोकोत्तर
मान उन्मान अवमान गणना प्रतिमान तत्प्रमाण
रस- बीज- मान मान
द्रव्य
क्षेत्र
काल (दे० काल)
भाव
सख्या उपमान अवगाह विभाग साकार अनाकार (दे० संख्या ) I क्षेत्र निष्पन्न
। (१)+(२)
पन्य सागर सूर्य
___गुंल
प्रतरा- गुल
घना- जगत गुल श्रेणी
जगत- प्रतर
जगत घन
पं.ध/पू./५३४-५३५ स यथा चेत्प्रमाणं लक्ष्य तल्लक्षण प्रमाकरणम् ।
अव्याप्तिको हि दोष सदेश्वरे चापि तदयोगात् ।७३४॥ योगिज्ञानेऽपि तथा न स्यात्तल्लक्षण प्रमाकरणम् । परमाण्वादिषु नियमान्न स्यात्तत्सनिकर्षश्च । - यदि प्रमाणको लक्ष्य और प्रमावरण को उसका लक्षण माना जाये तो निश्चय करके अव्याप्ति नामक दोष आयेगा, क्योकि प्रमाणभूत ईश्वर के सदैव रहने पर भी उसमे 'प्रमाकरण प्रमाण' यह प्रमाणका लक्षण नहीं घटता है ।७३४। तथा योगियोके ज्ञानमे भी प्रमाका करणरूप प्रमाणका लक्षण नहीं जाता है, क्योकि नियमसे परमाणु वगैरह सूक्ष्म पदार्थों में इन्द्रियोका सन्निकर्ष भी नही होता है ।७३५॥
७. प्रमाण और प्रमेयमें कथंचित् भेदाभेद रा, वा/१/१०/१०-१३/५०/१६ प्रमाणप्रमेययोरन्यत्वमिति चेत्, न;
अनवस्थानात ।१०। प्रकाशवदिति चेत्, न; प्रतिज्ञाहाने ॥११॥ अनन्यत्वमेवेति चेत; न, उभयाभावप्रसङ्गात । यदि ज्ञातुरनन्यत्प्रमाण प्रमाणाच्च प्रमेयम्, अन्यतराभावे तदविनाभाविनोऽवशिष्टस्याप्यभाव इत्युभयाभावप्रसङ्ग । कथ तहि सिद्धि ।१२। अनेकान्तात सिद्धि ।१३। स्यादन्यत्वं स्यादनन्यत्वमित्यादि । सज्ञालक्षणादिभेदात् स्यादन्यत्वम्, व्यतिरेकेणामुपलब्धे स्यादनन्यत्वमित्यादि । तत सिद्धमेतत्-प्रमेयं नियमाव प्रमेयम, प्रमाण तु स्यात्प्रमेयम इति ।
-प्रश्न-जैसे दीपक जुदा है और घडा जुदा है, उसी तरह जो प्रमाण है वह प्रमेय नहीं हो सकता और जो प्रमेय है वह प्रमाण नहीं है। दोनोके लक्षण भिन्न-भिन्न है। उत्तर-१. जिस प्रकार बाह्य प्रमेयोसे प्रमाण जुदा है उसी तरह उसमें यदि अन्तरङ्ग प्रमेयता न हो तो अनवस्थादूषण होगा। २ यदि अनवस्थादूषण निवारणके लिए ज्ञानको दोपककी तरह स्व-परप्रकाशी माना जाता है, तो प्रमाण
और प्रमेयके भिन्न होनेका पक्ष समाप्त हो जाता है । ३ यदि प्रमाता प्रमाण और प्रमेयसे अनन्य माना जाता है, तो एकका अभाव होने पर, दूसरेका भी अभाव हो जाता है। क्योकि दोनो अविनाभावी है, इस प्रकार दोनोके अभावका प्रसंग आता है। प्रश्न-तो फिर
सरव्या या द्रव्य प्रमाण
क्षेत्र प्रमाण
काल प्रमाण
संदर्भ न. १.-(रा वा /३/१८/२-५/२०५-२०६/१६ ) (गो. जी /भाषा/
पृ. २६०) । सदर्भ नं. २-(मू आ./११२६ ) (ति. प./१/१३-१४) (ध. ३/१,२,६७/गा. ६५/१३२) (ध.४/१,३,२/गा. ५/१०) (गो. जी /भाषा./३१२/७)। २. निक्षेप रूप प्रमाणोंकी अपेक्षा ध, १/१,१,१४८०/२ पमाण पंचविहं दव्व-खेत्त-काल-णयप्पमाणभेदेहि । भाव-पमाण पंचविह, आभिणिबोहियणाण सुदणाण
ओहिणाण मणपज्जवणाणं केवलणाणं चेदि णय-प्पमाणं सत्त विहं, णेगम-सगह-बव हारुज्जुसुद-सद्द-समभिरूढ-एवभूदभेदेहि । -द्रव्य, क्षेत्र, काल, भाव और नयके भेदसे प्रमाणके पॉच भेद है। .. मति, श्रुत, अवधि, मन पर्यय और केवलज्ञानके भेदसे भावप्रमाण पाँच प्रकार है। (क पा /१/१,१/१२७/३७/१,६२८/४२/१); (ध. १/१, १,२/१२/४) नैगम, सग्रह, व्यवहार, ऋजुसूत्र, शब्द, समभिरूढ़
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प्रमाण
और एवंभूतनयके भेदसे नयप्रमाण सात प्रकार का है। दे० निक्षेप /१ नाम स्थापनादिकी अपेक्षा भेद ।
२. गणना प्रमाण के भेदक लक्षण
रा.वा /३/३८/३/२०५/२३ तत्र मानं द्वेधा रसमानं बोजमानं चेति । घृतादिद्रव्यपरिच्छेदकं षोडशिकादि रसमानम् । कुडवादि बीजमागए। कुष्ठतगरादिभाण्डं येनोत्क्षिप्य मीयते तदुन्मानम्। निवर्त नाभा क्षेत्रं येनावगाह्य मोयते तदयमानं दण्डादि एकद्वित्रिचतुरादिगणितमान गणनामानम् । पूर्वमानापेक्षं मानं प्रतिमानं प्रतिमल्लवत् । चत्वारि महिधिका तृणफलानि श्वेतसर्षप एकः, इत्यादि मागधकप्रमाणम् । मणिजात्यजात्यश्वादेर्द्रव्यस्य दीप्त्युच्छ्रागुणविशेषादिपरिमाणवरणे प्रमाणमस्येति तत्प्रमाणम्। यथामणिरत्नस्य शिवक्षेत्रमुपरि व्याप्नोति तावत्रमा मुकूटं मुण्यमिति। अश्वस्य च यावामुच्छ्रायस्तावतामार्ण सुवर्ण कूटं मुख्य-१, मानके दो भेद हैं- रसनाम व भीमान भी आदि तरल पदार्थोंको मापनेकी छटंकी आदि रसमान है। और धान्य मापने के कुडव आदि बोजमान है । २. तगर आदि द्रव्योको ऊपर उठाकर जिनसे तोला जाता है वे तराजू आदि उन्मान है । ३. खेत मापनेके डंडा आदि अवमान है । ४ एक दो तीन आदि गणना है । ५. पूर्व की अपेक्षा आगे मानोकी व्यवस्था प्रतिमान है जैसे--चार मेहदीके फलोका एक सरसो इत्यादि मगध देशका प्रमाण है। ६. मणि आदिकी दीप्ति, अश्वादिकी ऊँचाई गुण आदिके द्वारा मूल्य निर्धारण करने के लिए समाणका प्रयोग होता है जैसे—मणिकी प्रभा ऊपर जहाँ तक जाये उतनी ऊँचाई तक सुवर्णका ढेर उसका मुल्य होगा घोडा जितना ऊंचा हो उतनी ऊँची सुवर्ण मुद्राएँ घोडेका मूल्य है । आदि । नोट-लोकोत्तर प्रमाणके भेदोके लक्षण दे० अगला शीर्षक ।
३. निक्षेप रूप प्रमाणोंके लक्षण
नोट - नाम स्थापनादि प्रमाणोंके लक्षण-- दे० निक्षेप । रावा./३/३०/४/२०६/१० द्रव्यमाणं जघन्यमध्यमोत्कृटस् एकपरमाणु द्वित्रिचतुरादिप्रदेशात्मकम् आमहास्कन्धात् । क्षेत्रप्रमाण जघन्य - मध्यमोत्कृष्टमेकाकाशद्वित्रिचतुरादिप्रदेशनिष्यन्ननासर्व लोकाद
1
काप्रमाणं जघन्यमध्यमस्मद्वचतुरादिसमयनिष्पन्नम् आ अनन्तकालात् । भावप्रमाणमुपयोग. साकारानाकारभेदः जघन्यसुक्ष्मनिगोतस्य मध्यमोऽन्यजीवाना उत्कृष्ट केनलिन द्रव्य प्रमाण एक परमाणु से लेकर महास्कन्ध पर्यन्त, क्षेत्र प्रमाण एक प्रदेशसे लेकर सर्व लोक पर्यन्त, और काल प्रमाण एक समयसे लेकर अनन्त काल पर्यन्त जघन्य, मध्यम और उत्कृष्टके भेदसे तीन तीन प्रकारका है । भाव प्रमाण अर्थात् ज्ञान दर्शन उपयोग। वह जघन्य सूक्ष्म निगोदके, उत्कृष्ट केवलीके, और मध्यम अन्य जीवोके होता है।
..
घ. १/१,९,९/८०/२ तत्थ दव्ब-पमाण संखेज्जमसंखेज्जमणतय चेदि । मार्ग एय-पदेशादि कालपमाण समयावलियादि । = संख्यात, असंख्यात और अनन्त यह द्रव्य प्रमाण है । एकप्रदेश आदि क्षेत्र प्रमाण है । एक समय एक आवली आदि काल प्रमाण है । .पा/२/१२/२०१४९.१)
क.पा./१/११/२७/३८-३६/६ पल तुला कुडवादी णि दव्व- पमाण', दव्व तर परिच्छित्तिकारणत्तादो। दव्वपमाणेहि मविदजव-गोहूम आदिसणाओ उनमारभनघणाओ ति ण तैसि माणसं कि पमेयतमेव । अगुतादि ओमाहाओ लेन्तपमानं 'प्रमीयन्ते अ बाह्यन्ते अनेन दोषद्रव्यानि इति अस्य प्रमाणत्वसिद्ध पल तुला और कुडव आदि द्रव्यप्रमाण है। क्योंकि, ये सोना, चाँदी, गेहूँ आदि दूसरे पदार्थोंके परिमाणके ज्ञान कराने में कारण पडते है ।
भा० ३-१९
**
१४५
प्रमाद
किन्तु द्रव्यप्रमाण रूप पल, तुला आदि द्वारा मापे गये जो गेहूँ आदिमे ओ कुडन और तुला आदि सहाएँ व्यवडत होती है, वे उपचार निमित्तक है, इसलिए उन्हें प्रमाणता नही है, किन्तु वे प्रमेय रूप ही हैं। अंगुल आदि रूप अवगाहनाएँ क्षेत्रप्रमाण है. क्योंकि, जिसके द्वारा शेष द्रव्य प्रमित (अवगाहित किये जाते है, उसे प्रमाण कहते है, प्रमाणकी इस व्युत्पत्ति के अनुसार अंगुल आदि रूप क्षेत्रको भी प्रमाणता सिद्ध है। प्रमाणनयतस्वालंकार - ० मानिकपनन्दि (१०१००३-९०२८) द्वारा रचित परीक्षामुख ग्रन्थकी श्वेताम्बराचार्य वादिदेव सूरि ( ई० ६० १११७-११६६ ) द्वारा रचित टीका । न्यायविषयक ग्रन्थ है । इस ग्रन्थका दूसरा नाम स्याद्वादरत्नाकर भी है। प्रमाण निर्माण नामकर्म - दे० नामकर्म | प्रमाण पद दे० पद प्रमाण परीक्षा -आ० विद्यानन्द सं० १ ( ई० ७७५-८४०) कृत संस्कृत छन्दबद्ध न्यायविषयक ग्रन्थ । (ती /३/३५५) प्रमाण मीमांसा -१, आ० विद्यानन्दि ( ई० ७७५-८४०) द्वारा संस्कृत भाषामे रचित न्यायविषयक ग्रन्थ है। २. खेताम्मराचार्य हेमचन्द्र सूरि ( ई० १०८८-११७३ ) द्वारा रचित न्यायविषयक
ग्रन्थ ।
प्रमाण योजन- क्षेत्रका प्रमाण विशेष- दे० गणित /I/१/३ । प्रमाण राशि - गणित में विवक्षित प्रमाण कर जो फल या उत्तर होये । विशेष गत17/५/२
प्रमाण विस्तार -आ० धर्मभूषण ( ईं० श० १४ ) द्वारा संस्कृत
भाषामें रचित न्यायविषयक ग्रन्थ ।
प्रमाण संग्रह - आ० अकलंक भट्ट ( ई० ६२०-६०० ) रचित न्याय विषयक यह ग्रन्थ बहुत जटिल है । संस्कृत गद्य व पद्य निवद्ध है, तथा इनकी अन्तिम कृति है । इसपर आ० अनन्तवीर्य ( ई० ६७५१०२५) कृत प्रमाण संग्रहालंकार नामकी एक संस्कृत टीका उपलब्ध है । इसमे प्रस्ताव तथा कुल ७२ कारिकाएँ है । स्वयं अकल कदेवने इन कारिकाओं पर एक विकृति लिखी है। दोनो मिलकर कुल गद्य व पद्य प्रमाण ८०० श्लोक प्रमाण है । प्रमाण सप्तभंगी - दे० सप्तभगी/२ ।
प्रमाणांगुल
क्षेत्र प्रमाणका एक भेद--दे० गणित / I/१/३, ६
प्रमाता
सू./१/१०त्र यस्येप्सा जिहासामयुतस्य प्रवृत्तिः स प्रमाता = जो वस्तुको पाने या छोड़नेकी इच्छा करता है उसे प्रमाता कहते है।
★ प्रमाता व प्रमाण में कथञ्चित् भेदाभेद- दे० प्रमाण | ४ | प्रमाद १. कषायके अर्थ
स.सि./ ०/१३/३/२/२ प्रमाद सपा अवस्थाको रहते है।
= प्रमाद कषाय सहित
घ. ७/२,१,७/११/११ चदुसंजलण णवणोकसायाण तिव्बोदओ । =चार सज्वलन कषाय और नव नोकषाय, इन तरहके तीव्र उदयका नाम प्रमाद है ।
२ अनुत्साह के अर्थ में
1
स.सि./ / २ / २०४/८ स च प्रमाद कुसेपनादर अच्छे कार्योंके करने मे आदर भावका न होना यह प्रमाद है । (रा.वा./८/१/३०/५६४/२०)।
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माद अतिचार
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प्रयोज्यता
.पु/६२/३०५ काय पाकचेतसा वृत्तिव॑तानां मनकारिणी। या सा प्रमार्जन-दे० प्रमाजित । षष्ठगुणस्थाने प्रमादो बन्धवृत्त ये ३०५ = छठवें गुणस्थानमे व्रतीमें सशय उत्पन्न करनेवाली जो मन, वचन, कायकी प्रवृत्ति है उसे
प्रमाजित-स सि ७/३३/३७०/8 मृदूपकरणेन यत्क्रियते प्रयोजन प्रमाद कहते है, यह बन्धका कारण है।
तत्प्रमार्जितम् । कोमल उपकरणमे जो (जीवोको बचानेका ) प्रयो1. सा/आ./३०७/क. ११० क्षायभरगौरवादलसता प्रमादो यत.। जन साधा जाता है । वह प्रमार्जित (या प्रमार्जन) कहलाता है।
- कषायके भारके भारी होनेको आलस्यका होना कहा है, उसे प्रमाद (रा. वा /७/३४/२/५५७/२४ ) (चा. सा./२२/५) । कहते है।
प्रमिति-न्यास/प, १/११ यदर्थविज्ञानं सा प्रमिति ।-जाँचने1 सा./५/१० शुद्धयष्टके तथा धर्मे क्षान्त्यादिदशलक्षणे । योऽनुत्साह
पर जो ज्ञात हो उसे प्रमिति कहते है। स सर्वज्ञैः प्रमाद परिकीर्तित ।१० -आठ शुद्धि और दश धर्मोमे जो उत्साह न रखना उसे सर्वज्ञदेवने प्रमाद कहा है।
प्रमृशा-भरत क्षेत्र आर्य खण्डकी एक नदी-दे० मनुष्य/४। । सं./टो /३०/८८/४ अभ्यन्तरे निष्प्रमादशुद्वात्मानुभूतिचलनरूप.,
प्रमेय-स्या, में /१०/११०/२६ द्रव्यपर्यायात्मक वस्तु प्रमेयम्, इति बहि विषये तु मूलोत्तरगुण मलजनश्चेति प्रमादः । - अन्तर गमें प्रमाद
तु समीचीनं लक्षणं सर्वसंग्राहकत्वात् । -द्रव्य पर्याय रूप वस्तु ही रहित शुद्धात्मानुभवसे डिगाने रूप, और बाह्य विषयमे मूलगुणो तथा
प्रमेय है यही प्रमेयका लक्षण सर्व सग्राहक होनेसे समीचीन है। उत्तरगुणोमें मैल उत्पन्न करने वाला प्रमाद है।
न्या. सू./वृ. १/११ योऽर्थ. प्रमीयते तत्प्रमेयं । - जो वस्तु जॉची जावे २. अप्रमादका लक्षण
उसे प्रमेय कहते है। घ.१४/५,६,६२/६/११ पंच महब्बयाणि पंच समदीयो तिण्णि गुत्तीओ प्रमेयकमलमातण्ड-आ० माणिक्यनन्दि ( ई०६२५-१०२३) णिस्सेसक्सायाभावो च अप्पमादो णाम। - पाँच महाव्रत, पाँच कृत परीक्षामुखपर आ० प्रभाचन्द (ई०६५०-१०२०) द्वारा रचित समिति, तीन गुप्ति और समस्त कषायों के अभावका नाम अप्रमाद है। विस्तृत टोका। यह न्याय विषयक ग्रन्थ है। (जै ।।३८८)। ३. प्रमादके भेद
प्रमेयत्व गुण-आ. १./६ प्रमेयस्य भाव. प्रमेयत्वम् । प्रमाणेन
स्वपरस्वरूप परिच्छेद्य प्रमेयम् । -प्रमेयके भावको प्रमेयत्व कहते पं.सं./प्रा /१/१५ विकहा तहा कसाया इंदियणिदा तहेव पणओ य । है। प्रमाणके द्वारा जो जानने योग्य स्व पर स्वरूप वह प्रमेय है। चदु चदु पण एगेग होति पमादा हु पण्णरसा ।१३ -- चार विकथा,
प्रमेयरत्न कोश-आ० चन्द्रप्रभ सुरि ( ई० १९०२) द्वारा विरचार कषाय, पाँच इन्द्रिय, एक निद्रा, और एक प्रणय ये पन्द्रह प्रमाद होते है ।१५। (ध. १/१,१,१४/गा. ११४/१७८) (गो. जी /म् /३४/ चित न्यायविषयक ग्रन्थ । ६४)(पं.सं./स./१/३३) ।
प्रमेय रत्नाकर-40 आशाधर ( ई०११७३-१२४३) द्वारा रचित रा. वा./-/१/३०/५६४/२६ प्रमादोऽनेकविध ।३०। भावकायविनयेर्या
न्याय विषयक संस्कृत भाषा बद्ध ग्रन्थ । पथभक्ष्यशयनासनप्रतिष्ठापनवाक्यशुद्धिलक्षणाष्ट विधसयम- उत्तम - क्षमामार्दवार्जबशौचसत्यस यमतपस्त्यागाकिचन्यब्रह्मचर्यादिविष -
प्रमाद--स. सि./७/११/३४६/७ बदनप्रसादादिभिरभिव्यज्यमानासानुत्साहभेदादनेकविधं प्रमादोऽवसेय । -भाव, काय, विनय,
न्तर्भावितराग' प्रमोद। -मुखकी प्रसन्नता-आदिके द्वारा भीतर ईपिथ, भक्ष्य, शयन, आसन, प्रतिष्ठापन और वाक्यशुद्धि इन
भक्ति और अनुरागका व्यक्त होना प्रमोद है। (रा.वा./७/११/२/आठ शुद्धियो तथा उत्तम क्षमा, मार्दव, आर्जब, शौच, सत्य, सयम,
५३०/१६)। तप, त्याग, आकिचन्य और ब्रह्मचर्य इन धर्मोमे अनुत्साह या अना
भ आ/वि./१६६६/१५१६/१५ मुदिता नाम यतिगुणचिन्ता यतयो हि दर भावके भेदसे प्रमाद अनेक प्रकारका है । (स सि /८/९/३७६/३)।
बिनीता, विरागा, विभया, विमाना, विरोषा, विलोभा इत्यादिका । भ. आ./वि १६१२/८१२/४ प्रमाद पञ्चविधः। विकथा , कषाया',
= यतियों के, गुणोका विचार करके उनके गुणो में हर्ष मानना यह इन्द्रियविषयासत्तता, निद्रा, प्रणयश्चेति । अथवा प्रमादो नाम
प्रमोद भावनाका लक्षण है। यतियोमें नम्रता, वैराग्य, निर्भयता, संक्लिष्टहस्तकर्म, कुशीलानुवृत्ति, बाह्यशास्त्रशिक्षण, काव्यकरण,
अभिमान रहितपना, निदोर्षता और निर्लोभपना ये गुण रहते है। समितिष्वनुपयुक्तता। -प्रमादके पाँच प्रकार है-विकथा, कषाय, इन्द्रियोके विषयोमे आसक्ति, निद्रा और स्नेह, अथवा सबिलष्ट हस्त
(ज्ञा०/२७/११-१२) कर्म, कुशीलानुवृत्ति, बाहाशास्त्र, काव्यकरण और समितिमें उप- प्रयोग-ध १४/४, २, ८१/२८६/६ पओएण जोगपच्चओ परूविदो । योग न देना ऐसे भी प्रमादके पाँच प्रकार है।
मन, वचन एवं काय रूप योगोको प्रयोग शब्दसे ग्रहण किया
गया है। * अन्य सम्बन्धित विषय
प्रयोग कर्म-दे० कर्म । १. प्रमादके ३७५०० भेद तथा इनकी अक्षसंचार विधि । प्रयोग क्रिया-दे० क्रिया/३/२।
--दे० गणित/II/३।
प्रयोग बन्ध-दे० बध/१ । २. प्रमाद कर्मबन्ध प्रत्ययके रूपमें । -~-दै० बन्ध/१॥ ३. प्रमादका कषायमें अन्तर्भाव ।
--दे० प्रत्यय/१। प्रयोजन-न्या सू./म् /टी/१/१/२४/३० यमर्थ मधिकृत्य प्रवर्तते ४. प्रमाद व अविरति प्रत्ययमें अन्तर । -दे० प्रत्यय/१। तत्प्रयोजनम् ।२४। समर्थ माप्तव्य हातव्यं बाध्यवसाय तदास्ति हानी५. साधुको प्रमाद वश लगनेवाले दोषोकी सीमा -दे० स यत/३ । मायमनुतिष्ठति प्रयोजन तद्वेदितव्यम्। - जिस अर्थ को पाने या
छोडने योग्य निश्चय करके उसके पाने या छोडनेका उपाय करता प्रमाद अतिचार-दे० अतिचार१।
है, उसे प्रयोजन कहते है। प्रमाद चरित-दे० अनर्थदण्ड ।
प्रयोज्यता--प्रयोजनके वश । जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश
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प्ररूपणा
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प्रवचन
प्ररूपणाध. १/१,१,८/१५९/६ प्ररूपणा निरूपणा प्रज्ञापनेति यावत् । -प्ररूपणा,
निरूपणा और प्रज्ञापना ये एकार्थवाची नाम है। ध. २/१,१/४११/८ परूवणा णाम कि उत्त होदि । ओधादेसेहि गुणेसु जीवसमासेमु पज्जत्तापज्जत्तबिसेसणेहि विसेसिऊण जा जीवपरिक्खा सा परूवणा णाम। -प्रश्न-प्ररूपणा किसे कहते है। उत्तर--सामान्य और विशेषको अपेक्षा गुणस्थानोमे (२० प्ररूपणाओ में) पर्याय और अपर्याप्त विशेषणोसे विशेषित करके जो जीवौकी परीक्षा की जाती है, उसे प्ररूपणा कहते है।
२. बीस प्ररूपणाओंके नाम निर्देश प,स /प्रा /२/२ गुणजोवा पज्जत्ती पाणा सण्णा य मग्गणाओ य ।
उव ओगो विय कमसो वीस तु प्ररूवणा भणिया ।। -गुणस्थान, जीवसमास, पर्याप्ति, प्राण, सज्ञा, चौदह मार्गणाएँ और उपयोग, इस प्रकार क्रमसे ये बीस प्ररूपणा कही गयी है ।२। (गो, जी /मू./ २/३१), (पं.सं./सं./१/११) विशेष दे० अनुयोग/२।
* प्ररूपणाओंका मार्गणा स्थानों में अन्तर्भाव प्रलंब-१. एक ग्रह-दे० ग्रह।
२. भ. आ./वि./११२३/११३०/१६ प्रलम्ब द्विविध मूलप्रलम्ब, अग्रप्रलम्ब च । कंदमूल फलारव्यं, भूम्यनुप्रवेशि कन्दमूलप्रलम्ब, अडकुरप्रवालफलपत्राणि अग्रप्रलम्बानि ।प्रलम्बके मूल प्रलम्ब और अग्र प्रलम्ब ऐसे दो भेद है। कन्द मूल और अंकुर जो भूमिमे प्रविष्ट । हुए है उनको मूल प्रलम्ब कहते है। अकुर, कोमल पत्ते, फल, और कठोर पत्ते इनको अग्रप्रलम्ब कहते हैं।
प्रलय-१. जैन मान्य प्रलयका स्वरूप ति.प./४/१५४४-१५५४ उणवण्णदिवसविरहिदइगिवीससहस्सवस्सविच्छेदे । जतुभयकरकालो पलयो त्ति पयट्टदे घोरो ।१५४४) ताहे गरुवगभीरो पसरदि पवणो रउद्दसवट्टो। तरुगिरिसिलपहुदी] कुणोदि चुण्णाइ सत्तदिणे ।१५४५॥ तरुगिरिभगेहि णरा तिरिया य लहंति गुरुवदुक्खाइ । इच्छति वसणठाण विलवति बहुप्पयारेण ११५४६। गंगासिंधुणदीणं वेयड्ढवणंतरम्मि पविसति। पुह पुह सस्नेज्जाई बाहत्तरि सयलजुबलाइ ११५४७। देवा बिज्जाहरया कारुण्णपरा गराण तिरियाण। सखेज्जजीवरासि खिव ति तेसं पएसेसं ॥१५४८ ताहे गभीरगज्जी मेष मुचति तुहिणवारजलं । विससलिलं पत्तक्क पत्तेक्क सत्तदिवसाणि ॥१५४६। धूमो धूली बज्जं जलंतजाला य दुप्पेच्छा। परिसंति जलदणिवहा एक्केक्कं सत्त दिवसाणि ।१५३०। एव कमेण भरहे अज्जाख डम्मि जोयणं एक्कं । चित्ताए उवरि ठिदा दज्झइ वढिगदा भूमी ।१५५१॥ वज्जमहग्गिबलेण अज्जखडस्स बढिया भूमी। पुबिल्लख धरूव मुत्तूण जादि लोयतं ।१५५२१ ताहे अज्जाखड दप्पणतलतुलिदकतिसमषट । गयधूलिपककलुस होइ सम सेसभूमीहि ११५५३। तत्थुवस्थिदणराणं हत्य उदओ य सोलस वस्सा। अहवा पण्णरसाऊ विरियादी तदणुरूवा य (१५५४१ = अवसपिणी कालमे दुखमदुखमा कालके उनचास दिन कम इकोस हजार वर्षोके बीत जानेपर जन्तुओको भयदायक घोर प्रलयकाल प्रवृत्त होता है ।१५४४। उस समय पर्वत व शिलादिको चूर्ण कर देनेवाली सात दिन सवर्तक वायु चलती है ।१५५५। वृक्ष और पर्वतोके भग होनेसे मनुष्य एवं तियंच बस्त्र और स्थानकी अभिलाषा करते हुए बहुत प्रकारसे विनाप करते है ।१५४६। इस समय पृथक्-पृथक् मख्यात व सम्पूर्ण बहत्तर युगल गगा-सिन्धु नदियोको वेदो और विजयावनमे प्रवेश करते है।१५४७।इस समय देव और विद्याधर दयाई होकर मनुष्य और तियंचो मेसे संख्यात जीव राशि
को उन प्रदेशोमे ले जाकर रखते है ११५४८। उस समय गम्भीर गर्जनासे सहित मेघ तुहिन और क्षार जल तथा विष जलमेसे प्रत्येक सात दिन तक बरसाते है ११५४६। इसके अतिरिक्त वे मेधोके समूह धूम, धूलि, वज्र एव जलती हुई दुष्प्रेक्ष्य ज्याला, इनमेसे हर एकको सात दिन तक बरसाते है 1१५५०। इस क्रमसे भरत क्षेत्रके भीतर आर्यखण्डमें चित्रा पृथ्वीके ऊपर स्थित वृद्धिगत एक योजनकी भूमि जलकर नष्ट हो जाती है ।१५५१। वज्र और महाग्निके बल से आर्यखण्डकी बढ़ी हुई भूमि अपने पूर्ववर्ती स्कन्ध स्वरूपको छोडकर लोकान्त तक पहुंच जाती है ।१९५२। उस समय आर्य खण्ड शेष भूमियोंके समान दर्पण तलके सदृश कान्तिसे स्थित और धूलि एवं कीचडकी क्लुषतासे रहित हो जाता है ।१५५३। वहॉपर उपस्थित मनुष्योंकी ऊँचाई एक हाथ, आयु सोलह अथवा पन्द्रह वर्ष प्रमाण
और वीर्यादिक भी तदनुसार ही होते है ।१५५३३ (म. पु./७३/४४७४५६), (त्रि. सा/०६४-८६७)। * प्रलयके पश्चात् युगका प्रारम्भ-दे. काल/४। * अन्य मत मान्य प्रलयका स्वरूप-दे० वैशेषिक व सांख्य दर्शन। प्रलाप-दे० वचन । प्रवक-भरत क्षेत्र पूर्व आर्य खण्डका एक देश-दे० मनुष्य/४। प्रवचन-१.पिशाच जातीय व्यन्तर देवोका भेद-दे० पिशाच ।
२. श्रुतज्ञानका अपरनाम-दे० श्रुतज्ञान I/२। प्रवचनध, १/१,१.१/२०/७ आगमो सिद्ध'तो पवयणमिदि एयट्ठो। -आगम,
सिद्धान्त और प्रवचन, ये शब्द एकार्थवाची है। ध. ५/३,४१/80/१ सिद्ध तो बारहगाणि पवयणं, प्रकृष्ट प्रकृष्टस्य वचन प्रवचन मिति व्युत्पत्ते । • पवयणं सिद्ध तो बारहं गाइ, तरथ भवा देस-महत्वहणो असजदसम्माइट्ठिणो च पवयणा। -सिद्धान्त या बारह अगोका नाम प्रवचन है, क्योकि, 'प्रकृष्ट वचन प्रवचन, या प्रकृष्ट (सवज्ञ) के वचन प्रवचन है' ऐसी व्युत्पत्ति है। सिद्धान्त या बारह अंगोका नाम प्रवचन है, तो इसमें हानेवाले देशवती, महाव्रती
और असंयत सम्यग्दृष्टि प्रवचन कहे जाते है । (चा. सा/५६४)। ध.१३/५,५५१०/२८३/६ प्रकर्षण कुतीनालीढतया उच्यन्ते जीवादय, पदार्था. अनेनेति प्रवचनं वर्णपक्यात्मक द्वादशाङ्गम् । अथवा, प्रमाणाद्य विरोधेन उच्यतेऽर्थोऽनेन करणभूतेनेति प्रवचनं द्वादशाङ्गं भावश्रुतम् । = प्रकर्ष से अर्थात् कुतीोके द्वारा नही स्पर्श किये जाने स्वरूपसे जीवादि पदार्थोका निरूपण करता है, इसलिए वर्णपक्त्यात्मक द्वादशागको प्रवचन कहते है । (भ,आ. वि./३२/१२१/२२) अथबा कारण त इस ज्ञानके द्वारा प्रमाण आदिके अविरोध रूपसे जीवादि अर्थ कहे जाते है, इसलिए द्वादशाग भावभूतको प्रवचन कहते है। भ, आ./वि/४६/१५४/२२ रत्नत्रय प्रवचनशब्देनोच्यते। तथा चोक्तम्जाणद सणचरित्तमेगं पधयणमिति । प्रवचनका अर्थ यहाँ रत्नत्रय है 'रत्नत्रयको प्रवचन कहते है', आगमके ऐसे वाक्यसे भी यह सिद्ध होता है। (भ. आ/वि./११८५/११७१/१४)। गो, जी./जी.प्र/१८/४२/१७ प्रकृष्टं वचन यस्यासौ प्रवचन' आप्तः, प्रकृष्टरय बचनं प्रवचन-परमागमः, प्रकृष्टमुच्यते-प्रमाणेन अभिधीयते इति प्रवचनपदार्थ , इति निरुक्त्या प्रवचनशब्देन तत्त्रयस्याभिधानात् । प्रकृष्ट है वचन जिसके ऐसे आप्त प्रवचन कहलाते है, अथवा प्रकृष्ट अर्थात उस आप्तके वचन रूप परमागमको प्रवचन कहते है, अथवा प्रकष्ट अर्थात् प्रमाणके द्वारा जिसका निरूपण किया जाता है ऐसे पदार्थ प्रवचन है। इस प्रकार निरुक्तिके द्वारा प्रवचनके आप्त, आगम और पदार्थ ये तीन अर्थ होते है।
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प्रवचन प्रभावना
१४८
प्रवाहण जैवलि
२. अष्ट प्रवचन माताका लक्षण मू. आ./२६७ प्रणिधाणजोगजुत्तो पचसु समिदीसु तीसु गुत्तीसु । स
चरित्ताचारो अढविधो होड णायव्वो।२६७) आठ प्रवचन भातासे आठ भेद चारित्रके होते है-परिणामके सयोगसे पॉच समिति तीन गुप्तियो में न्याय रूप प्रवृत्ति वह आठ भेद वाला चारित्राचार है ऐसा जानना ।२६७ भ, आ./वि /११८५/११७१/१४ एव पञ्च समितय तिखो गुप्तयश्च प्रवचनमातृकाः।-तीन गुप्ति और पाँच समितियोको प्रवचन माता कहते है।
प्रवचनाद्धा-ध.१३/10.10/२८४/२ अद्धा काल, प्रकृष्टाना शोभनाना वचनानामहा काल. यरया श्रुतौ सा पवयणद्धा श्रुतज्ञानम् । अद्धा कालको कहते हैं, प्रकृष्ट अर्थात् शाभन वचनोका काल जिस श्रुतिमे होता है, वह प्रवचनाद्धा अर्थात् श्रुतज्ञान है। प्रवचनार्थ-ध. १३/१४,१०/२८२/१२ द्वादशाङ्गवर्ण कलापो वचनम्
अर्यते गम्यतै परिच्छिद्यते इति अर्थो नव पदार्था वचन च अर्थश्च बचनार्थों, प्रकृष्टौ निरवद्यौ बचनार्थी यस्मिन्नागमे स प्रवचनार्थ · ।... अथवा, प्रकृष्टवचनै रर्यते गम्यते परिच्छिद्यते इति वचनार्थो द्वादशाङ्गभावश्चतम् । सकलसयोगाक्षरै विशिष्टवचनरचनारचित्तबदर्थ विशिष्टोपादानकारण विशिष्टाचार्यसहायैः द्वादशाङ्गमुत्पाद्यत इति यावत् ।-१ द्वादशाग रूप वौँका समुदाय वचन है, जो 'अर्यते गम्यते परिच्छिद्यते' अर्थात् जाना जाता है वह अर्थ है। यहाँ अर्थ पदसे नौ पदार्थ लिये गये है। वचन और अर्थ ये दोनो मिलकर बचनार्थ कहलाते है। जिस आगममैं वचन और अर्थ ये दोनो प्रकृष्ट अर्थात निर्दोष है उस आगमकी प्रवचनार्थ संज्ञा है। २... अथवा, प्रकृष्ट बचनोके द्वारा जो 'अर्यते गम्यते परिच्छिद्यते' अर्थात जाना जाता है वह प्रवचनार्थ अर्थात् द्वादशांग भावश्रुत है। जो विशिष्ट रचनासै आरचित है, बहुत अर्थवाले है, विशिष्ट उपादान कारणोसे सहित है, और जिनको हृदयंगम करनेमें विशिष्ट आचार्योंकी सहायता लगती है, ऐसे सकल सयोगी अक्षरीसे द्वादशांग उत्पन्न किया जाता है । यह कथनका तात्पर्य है। प्रवचना-ध. १३१५,५,५०/२८३/8 प्रकृष्टानि वचनान्यस्मिन्
सन्तीति प्रवचनी भावागम'। अथवा प्रोच्यते इति प्रवचनोऽर्थ., सोऽत्रास्तीति प्रवचनी द्वादशाङ्गग्रन्थ' वर्गोपादानकारण । १. जिसमें प्रकृष्ट बचन होते है वह प्रवचनी है, इस व्युत्पत्तिके अनुसार भावागमका नाम प्रवचनी है। २ अथवा जो कहा जाता है वह प्रवचन है, इस व्युत्पत्तिके अनुसार प्रवचन अर्थको कहते है। वह इसमें है इसलिए वर्णोपादानकारणक द्वादशाग ग्रन्थका नाम प्रवचनी
३. इन्हें माता कहनेका कारण भ. आ /मू /१२०५ एदाओ अट्ठरवयणमादाओ णाणदसणचरित्तं । रक्वं ति सदा मुणिओ मादा पुत्त व पयदाओ ११२०॥ -ये अष्ट प्रवचन माता मुनिके ज्ञान, दर्शन और चारित्रकी सदा ऐसे रक्षा करती है जैसे कि पुत्रका हित करनेमे सावधान माता अपायोसे उसको बचाती है ।१२०५॥ (म.आ/३३६) (भ.आ./वि./११८६/११७१/३) * मोक्षमार्गमें अष्ट प्रवचन माताका ज्ञान ही पर्याप्त है दे० ध्याता/१; श्रुतकेवली /२। प्रवचन प्रभावना-दे० प्रभावना। प्रवचन भक्ति-दे० भक्ति/२। प्रवचन वात्सल्य-दे० वात्सल्य । प्रवचन संनिकष-ध १३/११/१०/२८४/४ उच्यन्ते इति वचनानि जीवाद्यर्था. प्रकर्षेण वचनानि सनिकृष्यन्तेऽस्मिन्निति प्रवचनसंनिकर्षों द्वादशागश्रुतज्ञानम्। क संनिकर्ष। एकस्मिन् वस्तुन्येकस्मिन् धर्म निरुद्ध शेषधर्माणा तत्र सत्यासत्व विचार सत्स्वप्ये करिमन्नुत्कर्षमुपगते शेषाणामुत्कर्षानुत्कर्षविचारश्च सनिकर्ष । अथवा प्रकर्षण वचनानि जोवाद्या. संन्यस्यन्ते प्ररूप्यन्ते अनेकान्तात्मतया अनेनेति प्रवचनस न्यास.। -- जो कहे जाते हैं' इस व्युत्पत्तिके अनुसार बचन शब्द का अर्थ जीवादि पदार्थ है। प्रकर्ष रूपसे जिसमे वचन सन्निकृष्ट होते है, वह प्रवचन सन्निकर्ष रूपसे प्रसिद्ध द्वादशाग श्रुतज्ञान है। प्रश्न-सन्निकर्ष क्या है। उत्तर-१. एक वस्तुमे एक धर्म के विवक्षित होनेपर उसमें शेष धोके सत्त्वासत्त्वका विचार तथा उसमे रहनेवाले उक्त धर्मोमेसे किसी एकधर्मके उत्कर्षको प्राप्त होनेपर शेष धर्मों के उत्कर्षानुत्कर्ष का विचार करना सन्निकर्ष कहलाता है। २. अथवा, प्रकर्ष रूपसे वचन अर्थात जीवादि पदार्थ अनेकान्तात्मक रूपसे जिसके द्वारा संन्यस्त अर्थात प्ररूपित किये जाते है, वह प्रवचन सन्यास अर्थात् उक्त द्वादशांग भूतज्ञान ही है। श्रुतज्ञानका अपरनाम है--दे० श्रुतज्ञान/I/२ । प्रवचनसार-आ० कुन्दकुन्द (ई०१२७-१७६) कृत २७५ प्राकृत गाथा प्रमाण, ज्ञान ज्ञेय व चारित्र विषयक प्राकृत ग्रन्थ (ती./२/१११)। इस पर अनेक टीकाये उपलब्ध है-१. अमृत चन्द्र (ई०१०५-६४५) कृत 'तत्व प्रदीपिका' (स स्कृत)। (जै./२/१७३)। २. प्रभाचन्द्र (ई. ६५०-१०२०) कृत 'प्रवचन सरोज भास्कर' (संस्कृत)। (जै /२/१६५) । ३. मल्लिषेण (ई०११२८) कृत संस्कृत टीका । ४. आ. जयसेन (ई.का ११-१२अथवा १२-१३) कृत 'तारपर्य वृत्ति' (संस्कृत)। (जै./२/२६२)। ५. प. हेमचन्द (ई०१६५२) कृत भाषा टीका।
प्रवचनीय-ध १३१५३,५०/२८१/३ प्रबन्धेन वचनीय व्याख्येयं प्रतिपादनीयमिति प्रवचनीयम् । प्रबन्ध पूर्वक जो बचनीय अर्थात् व्याख्येय या प्रतिपादनीय होता है, वह प्रवचनीय कहलाता है। प्रवरवाद-ध १३/५,५.५०/२८७/८ स्वर्गापवर्गमार्गस्याद्रत्नत्रयं प्रबरः। स उद्यते निरूप्यते अनेनेति प्रवरवाद । स्वर्ग और अपवर्गका मार्ग हानेसे रत्नत्रयका नाम प्रवर है उसका वाद अर्थात कथन इसके द्वारा किया जाता है, इसलिए इस आगमका नाम प्रवरवाद है। प्रवतक साधु-भ.आ./मूलाराधना/६२६/८३१/४ पबत्ती अल्पश्रुत'
सन्सर्वसंधमर्यादाचरितज्ञ प्रवर्तकः । म जो ज्ञानसे अल्प है, पन्तु सर्व सघकी मर्यादा योग्य रहेगी, ऐसे आचरणका जिसको ज्ञान है उसको प्रवर्तक साधु कहते है। प्रवाद-स्या.म./३०/३३४/१४ प्रकर्षण उद्यते प्रतिपाद्यते स्वाभ्युपगतोऽर्थो यैरिति प्रबादा । जिसके द्वारा इष्ट अर्थ को उत्तमतासे प्रतिपादित किया जाय, उसे प्रवाद कहते है। प्रवाल-मानुषोत्तर पर्वतस्थ एक कूट-दे० लोक/५/१० । प्रवाल चारणऋद्धि-दे० ऋद्धि/। प्रवाह क्रम-दे० क्रम/२। प्रवाहण जैवलि-पाचाल देश (कुरुक्षेत्र) का कुरुवंशी राजा था। जनमेजयका पोता था तथा शतानीकका पुत्र था। समय-ई पू.
प्रवचनमारोद्धार -- श्वेताम्बराम्नायमें श्री नेमिचन्द्रसूरि (ई.
श.११) द्वारा विरचित लोक्के स्वरूपका प्ररूपक गाथा बद्ध ग्रन्थ है। इसमे २७६ द्वार तथा १५६६ गाथाएँ है। (जै /२/EE-६३) ।
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प्रविचार
१४०० ( १३८०१ ) ( भारतीय इतिहास / पु. १ / पृ. १८६ ) विशेष दे० इतिहास /३/२१
प्रविचार स स /४/०-१/२४१-२४२/३ प्रविचारो मैथुनोपसेवनम् ०२४१ विधारी हि वेदमात्र शिकार २४२] मैथुनके उपसेवन को प्रविचार कहते है । ७१२४१। प्रविचार वेदनाका प्रतिकार मात्र है । ( रा. वा / ४/७/१/२१४/१६ ), ( रा वा /४/९/२/२१५/३२), (ध. १/ १,१,६८/३३८-३३६/६. ४ ) ।
प्रविष्ट कायोर्गका एक अतिचार-३० सर्ग /१। प्रवृत्ति -
न्या. सू. / उत्थानिका / १ / २ / २ / २ / ५ तस्य प्रयुक्तस्य समीहा प्रवृत्तिरित्युच्यते । जानकर ) ज्ञाता के पाने या छोडनेकी प्रवृत्ति है ।
५
२. प्रवृत्तिके भेद व उनके लक्षण
=
न्या. सू./टी./१/१/२/८/६ त्रिविधा चास्य शास्त्रस्य प्रवृत्तिरुद्द शो लक्षणं परीक्षा चेति । तत्र नामधेयेन पदार्थमात्रस्थाभिधानमुद्देश रात्रीदरस्य तत्यव्यवच्छेदक लक्षणस्य वालक्षण पापद्यते न वेति प्रमाणैरवधारणं परीक्षा शास्त्रकी प्रवृत्ति तीन । - प्रकारकी है जैसे उहश्य, लक्ष्य और परीक्षा, इनमेसे पदार्थोके नाममात्र कथनको उद्द ेश्य कहते है । उद्दिष्ट पदार्थ के अयथार्थ बोधके निवारण करनेवाले धर्मको लक्षण कहते है। उद्दिष्ट पदार्थ जो लक्षण किये गये है, वे ठीक है या नही, इसको प्रमाण द्वारा निश्चय कर धारण करनेको परीक्षा कहते है । ★ प्रवृत्ति में निवृत्ति अंश दे० संबर / २१
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* प्रवृत्ति व निवृत्तिसे अतीत भूमिका ही व्रत है। - दे० व्रत / ३ ।
प्रवेणी - भरतक्षेत्र आर्य खण्डकी एक नदी- दे० मनुष्य / ४ ॥ प्रव्रज्या - बेराग्यको उत्तम भूमिकाको प्राप्त होकर मुमुक्षु व्यक्ति अपने सब सगे सम्बन्धियोमा मॉगकर, गुरुकी शरण में जा सम्पूर्ण परिग्रहका त्याग कर देता है और ज्ञाता द्रष्टा रहता हुआ साम्य जीवन वितानेकी प्रतिज्ञा करता है। इसे ही प्रव्रज्या या जिन दीक्षा कहते है । पंचम कालमे भी उत्तम कुलका व्यक्ति प्रवज्या ग्रहण करने के योग्य है।
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( ज्ञातु.) ईप्सा जिहासा= ( प्रमाणसे किसी वस्तुको इच्छा सहित चेष्टाका नाम
६
19
प्रवज्या निर्देश
प्रव्रज्याका लक्षण |
जिन दीक्षायोग्य पुरुषका लक्षण
१
२
३ म्लेच्छ भूमिन भी कदाचित् दीक्षाके योग्य है ।
४
दीक्षाके अयोग्य पुरुषका स्वरूप ।
५
पंचम कालमे भी दीक्षा सम्भव है। छह संहननमे दीक्षाकी सम्भावना। स्त्री व नपुसकको निर्ग्रन्थ दीक्षाका निषेध ।
- दे०
- दे० वेट/७/४। सत् शूद्रमें भी दीक्षाकी योग्यता । —दे वर्णव्यवस्था/४ ।
दीक्षाके अयोग्य काल
मव्रज्या धारणका कारण ।
१४९
२
१
२
३
दीक्षा योग्य ४८ संस्कार ।
- दे० संस्कार / २ ।
भरत पनीने भी दीक्षा धारण की थी-६० लिग ३
अवश्या विधि
तत्त्वज्ञान होना आवश्यक है।
प्रव्रज्या
वर्ग से विदा लेनेका विधिनिषेध ।
सिद्धों को नमस्कार ।
दीक्षा दान विषयक कृतिक • दे० कृतिकर्म / ४ | द्रव्य व भाव दोनों लिंग युगपत् ग्रहण करता है । - दे० लिग /२,३ ।
पहले अप्रमत्त गुणस्थान होता है, फिर प्रमत्त । -३० गुणस्थान / २।
आर्थिकको भी कदाचित मग्नताकी आशा । - ३० /१/४
१. प्रव्रज्या निर्देश
१. प्रव्रज्याका लक्षण
..
मो.पा./गाथा न हिमोहा बाबीसपरीपहा जिवकषाया। पावार भविमुक्का पन्जा एरिसा भणिया । ४५ । सत्तू मित्ते य समा पसंसणिद्दा अलद्धिलद्धिसमा । तणकणए समभावा पव्वज्जा एरिसा भणिया व्हजायसरूवतरिसा अवलयि गिराउदा संता परकिय णिलयणिवासा पव्वज्जा एरिसा भणिया । ५११ सरीरसंक्कारवज्जिया रूपा ॥५२॥ गृह और परिग्रह तथा उनके ममत्व से जो रहित है. बाईस परीषह तथा कषायोको जिसने जीता है. पापारम्भसे जो रहित है, ऐसी प्रव्रज्या जिनदेवने कही है । ४५। जिसमें शत्रु-मित्रमें, प्रशसा - निन्दामे, लाभ व अलाभमे तथा तृण व काचनमें समभाव है, ऐसी प्रव्रज्या कही है ॥४७॥ यथाजात रूपधर लम्बायमान भुजा, निरायुध, शाना, दूसरो के द्वारा बनायी हुई षस्तिकामे दास | २१| शरीर के सस्कार से रहित, तथा तैलादिके मर्दन से रहित रूक्ष शरीर सहित ऐसी प्रव्रज्या कही गयी है । ५२१ - ( विशेष दे० बो. पा/मू. व. टी ।
२. जिन दीक्षा योग्य पुरुषका स्वरूप
=
म पू/१/१५८ समुत्तस्य ननुमत दीक्षायोग्यत्वमाम्नात सुपुखस्य सुमेधस' | १३८ | जिसका कुल गोत्र विशुद्ध है. चारित्र उत्तम है, मुख सुन्दर है और प्रतिमा अच्छी है, ऐसा पुरुष ही दीक्षा ग्रहण करनेके योग्य माना गया है ।१५८ यो सीआ/८/२१ मोसो वस्त्र कश्याजागो नरो योग्यो लिङ्गस्य ग्रहणे मत | ५११ - जो मनुष्य शान्त होगा उनके लिए समर्थ होगा. निर्दोष ब्राह्मण, क्षत्रिय और वैश्य इन तीन वर्णोमे से किसी एक वर्णका और सुन्दर शरीर के अवयवोका धारक होगा वही निर्ग्रन्थ लिगके ग्रहण करनेमे योग्य है अन्य नही । ( अन ध // == ), ( दे० वर्ण व्यवस्था / १/४ ) ।
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प्र. सा / ता वृ / २२ प्रक्षेपक गा० १० / ३०५ वण्णेसु तीस एको क्ल्ला
+
यो तो वयसा सुमुह कुधारहिंदो गगणे हवदि तवोसो । जोग्गो । ब्राह्मण, क्षत्रिय और वैश्य इन तीन वर्णोमे से किसी एक
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प्रव्रज्या
२. प्रवज्या विधि
वर्णका, नोरोग, तपमें समर्थ, अति आलस व वृद्वत्वसे रहित योग्य
आयुका, सुन्दर, दुराचारादि लोकोपवादसे रहित, पुरुष ही जिन लिगको ग्रहण करनेके योग्य होता है ।१०।
३. म्लेच्छ व सत्शुद्ध भी कदाचित् दीक्षाके योग्य है ल. सा./जी प्र/१६/२४६/१६ म्लेच्छभूमिजमनुष्याणा सकलसंयमग्रहणं कथं सभवतीति नाश कितव्य दिग्विजयकाले चक्रवतिना सह आर्यखण्डमागताना म्लेच्छराजाना चक्रवक्ष्यादिभि सहजातवैवाहिकसबन्धानां सयमप्रतिपत्तेरविरोधात । अथवा तत्कन्यकाना चक्र वादिपरिणीताना गर्भपुत्पन्नस्य मातृपक्षापेक्षया म्लेच्छव्यपदेशभाज' संयमसंभवात तथाजातीयकाना दीक्षाहत्वे प्रतिषेधाभावात् ।
प्रश्न-म्लेच्छ भूमिज मनुष्यके सकलस यमका ग्रहण कैसे सम्भव है। उत्तर-ऐसी शंका नही करनी चाहिए। जो मनुष्य दिगविजयके कालमे चक्रवर्तक साथ आर्य खण्डमें आते है, और चक्रवती आदि के साथ उनका वैवाहिक सम्बन्ध पाया जाया है, उनके सयम ग्रहणके प्रति विरोधका अभाव है। अथवा जो म्लेच्छ कन्याएँ चक्रवर्ती आदिसे विवाही गयो है, उन कन्याओके गर्भ से जो पुत्र उत्पन्न होते है वे माताके पक्षसे म्लेच्छ है, उनके दीक्षा ग्रहण सम्भव है। दे० वर्णव्यवस्था/४/२ ( सशूद्र भो क्षुल्लकदीक्षाके योग्य है)।
६. दीक्षाके अयोग्य काल म पु./३६/१५६-१६० ग्रहोपरागग्रहणे परिवेषेन्द्रचापयो । बक्रग्रहोदये मेघपटलस्थगितेऽम्बरे ॥१५६॥ नष्टा धिमासदिनयो संक्रान्तौ हानिमत्तिथौ । दीक्षाविधि मुमुचणा नेच्छन्ति कृतबुद्धय ।१६० जिस दिन ग्रहोका उपराग हो, ग्रहण लगा हो, सूर्य चन्द्रमापर परिवेष ( मण्डल ) हो, इन्द्रधनुष उठा हो, दुष्ट ग्रहोका उदय हो, आकाश मेघ पटलसे ढका हुआ हो, नष्ट मास अथवा अधिक मासका दिन हो, संक्रान्ति हो अथवा क्षय तिथिका दिन हो, उस दिन बुद्धिमान आचार्य मोक्षकी इच्छा करनेवाले भव्योके लिए दीक्षाकी विधि नहीं करना चाहते अर्थाद उस दिन किसी शिष्यको नवीन दीक्षा नहीं देते है ।१५६-१६०
७. प्रव्रज्या धारणका कारण ज्ञा./४/१०,१२ शक्यते न वशीकतु गृहिभिश्चपलं मन । अतश्चित्तप्रशान्त्यर्थं सद्भिस्त्यक्ता गृहे स्थिति ।१०। निरन्तरानिलदाहदुर्गमे कुवासनाध्वान्तविलुप्तलोचने । अनेकाचिन्ताज्वर जिहितात्मना, नृणां गृहे नात्महितं प्रसिद्धयति ।१२। -गृहस्थग) घर में रहते हुए अपने चपलमन को वश करनेमे असमर्थ होते है, अतएव चित्तकी शान्तिके अर्थ सत्पुरुषोने घरमे रहना छोड दिया है और वे एकान्त स्थानमें रहकर ध्यानस्थ होनेको उद्यमी हुए है ।१० निरन्तर पीडा रूपी आर्त ध्यानकी अग्निके दाहसे दुर्गम, बसनेके अयोग्य, तथा काम क्रोधादिकी कुवासना रूपी अन्धकारसे विलुप्त हो गयी है नेत्रोकी दृष्टि जिसमे, ऐसे गृहोमें अनेक चिन्ता रूपी ज्वरसे विकार रूप मनुष्योके अपने आत्माका हित कदापि सिद्ध नही होता ।१२। (विशेष दे० ज्ञा//८-१७)।
४. दीक्षाके अयोग्य पुरुषका स्वरूप भ आ/वि /७७/२०७/१० यदि प्रशस्त शोभनं लिड्ग मेहन भवति ।
चर्मरहितत्वं, अतिदीर्घत्वं, स्थूलत्व, असकृदुत्थानशीलतेत्येवमादिदोषरहित यदि भवेत् । पसत्व लिगता इह गृहोतेति बीजयोरपि लिङ्गशब्देन ग्रहण । अतिलम्ञमानतादिदोषरहितता। यदि पुरुष लिगमे दोष न हो तो औत्सर्गिक लिग धारण कर सकता है। गृहस्थके पुरुष लिगमें चर्म न होना, अतिशय दीर्घता, बारम्बार चेतना होकर ऊपर उठना, ऐसे दोष यदि हो तो वह दीक्षा लेनेके लायक नहीं है। उसी तरह यदि उसके अण्ड भी यदि अतिशय लम्बे हो, बडे हो तो भी गृहस्थ नग्नताके लिए अयोग्य है । (और भी दे० अचेलक-व/४) । यो, सा आ /८/५२ कुलजातिबयोदेहकृत्यबुद्धिक्रुधादय । नरस्य कुत्सिता व्यङ्गार तदन्ये लिङ्गयोग्यता ।५२ - मनुष्य के निन्दित कुल, जाति, वय, शरीर, कर्म, बुद्धि, और क्रोध आदिक व्यग-हीनता हैनिर्ग्रन्थ लिगके धारण करनेमे बाधक है, और इनसे भिन्न उसके ग्रहण करनेमें कारण है। बो. पा/टी./४६/११४/१ कुरूपिणो हीनाधिकाङ्गस्य कुष्ठादिरोगिणश्च प्रवज्या न भवति । =कुरूप, हीन वा अधिक अंग वालेके, कुष्ठ आदि रोगों वालोके दीक्षा नही होती है। ५. पंचम काल में भी दीक्षा सम्भव है म पू/४१/७५ तरुणस्य वृषस्योच्चै नदतो विहृतीक्षणात । तारुण्य एव श्रामण्ये स्थास्यन्ति न दशान्तरे।७५-समवशरण में भरत चक्रवर्तीके स्वप्नोका फल बताते हुए भगवान ने कहा कि-ऊँचे सरसे शब्द करते हुए तरुण बैलका विहार देखनेसे सूचित होता है कि लोग तरुण
अवस्थामे ही मुनिपदमे ठहर सकेगे, अन्य अवस्थामे नही ।७५॥ नि सा/ता वृ/१४३/क २४१ कोऽपि कापि मुनिर्बभूव सुकृती काले कलावयल, मिथ्यात्वादिकलङ्कपङ्करहित सद्धर्मरक्षामणि । सोऽय सप्रति भूतले दिवि पुनर्देवैश्च संपूज्यते, मुक्तानेकपरिग्रहव्यतिकर' पापाटवीपावकः ।२४१- कलिकालमे भी कही कोई भाग्यशाली जीव मिथ्यात्वादि रूप मल कीचडसे रहित और सद्धर्म रक्षा मणि ऐसा समर्थ मुनि होता है। जिसने अनेक परिग्रहके विस्तारको छोडा है, और जो पापरूपी अटवी को जलानेवाली अग्नि है, ऐसा यह मुनि इस काल भूतलमे तथा देव लोकमे देवोसे भी भली भॉति पूजता है।
२. प्रव्रज्या विधि १. तत्वज्ञान होना आवश्यक है मो. मा. प्र/६/२६४/२ मुनि पद लेने का क्रम तो यह है-पहलै तत्त्वज्ञान होय, पीछे उदासीन परिणाम होय, परिषहादि सहने की शक्ति होय तब वह स्वयमेव मुनि बना चाहै । २. बन्धुवर्गसे विदा लेनेका विधि निषेध १ विधि प्र. सा./मू./२०२ आपिच्छ बंधुवग्गं विमोचिदो गुरुकलत्तपुत्तेहि ।
आसिज्ज णाणद सणचरित्ततववी रियायारं ।२०२। -( श्रामण्यार्थी) बन्धुवर्गसे विदा मागकर बडोसे तथा स्त्री और पुत्रसे मुक्त होता हुआ ज्ञानाचार, दर्शनाचार, चारित्राचार, तपाचार और बीर्याचारको अगीकार करके १२०२(म. पु./१७/१९३)। म पु/३८/१५१ सिद्धार्चना पुरस्कृत्य सर्वानाहूय सम्मतान् । तत्साक्षि सुनवे सर्व निवेद्यातो गृहं त्यजेत् ।१५१- गृहत्याग नामकी क्रियामें सबसे पहले सिद्ध भगवानका पूजनकर समस्त इष्ट जनोको बुलाना चाहिए और फिर उनकी साक्षी पूर्वक पुत्रके लिए सब कुछ सौपकर गृहत्याग करना चाहिए ।१५१। २. निषेध प्र सा/ता, वृ /२०२/२७३/१० तत्र नियमो नास्ति । कथमिति चेत् ।... तत्परिवारमध्ये यदा कोऽपि मिथ्यावृष्टिर्भवति तदा धर्मस्योपसर्ग करोतीति । यदि पुन कोsपि मन्यते गोत्रसम्मतं कृत्वा पश्चात्तपश्चरण क्रोमि तस्य प्रचुरेण तपश्चरणमेव नास्ति कथमपि तपश्चरणे गृहीतेऽपि यदि गोत्रादि ममत्वं क्रोति तदा तपोधन एव
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प्रव्रज्याकाल
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प्रसेनजित
न भवति । बन्धुवगसे विदा लेनेका कोई नियम नहीं है। क्योकि .. यदि उसके परिवार में कोई मिथ्यादृष्टि होता है, तो वह धर्मपर उपसर्ग करता है । अथवा यदि कोई ऐसा मानता है कि पहले बन्धुवर्गको राजी करके पश्चात् तपश्चरण करूं तो उसके प्रचुर रूपसे तपश्चरण हो नही होता है। और यदि जैसे कैसे तपश्चरण ग्रहण करके भी कुलका ममत्व करता है, तो तब वह तपोधन ही नही होता है। प्र. सा./प. हेमराज/२०२/२७३/३१ यहाँपर ऐसा मत समझना कि विरक्त होवे तो कुटुम्बको राजो करके ही होवे। कुटुम्ब यदि किसी तरह राजी न होवे तब कुटुम्बके भरोसे रहनेसे विरक्त कभी होय नही सकता । इस कारण कुटुम्बसे पूछनेका नियम नही है।
३. सिद्धोंको नमस्कार म. प्र./१०/२०० तत पूर्वमुख स्थित्वा कृतसिद्धनमस्क्रिय । केशान
लुब्चदाबद्धपत्यक पञ्चमुष्टिकम् ।२००। तदनन्तर भगवान् (धृषभदेव) पूर्व दिशाकी ओर मुहकर पद्मासनसे विराजमान हुए और सिद्ध परमेष्ठीको नमस्कार कर उन्होने पच मुष्टियोंमें केश लोच किया।
२००। और भी दे० कल्याणक/२। स्या म /३१/३३६/१२ न च होनगुणत्वमसिद्धम् । प्रवज्यावसरे सिद्धभ्यस्तेषा नमस्कारकरणश्रवणात्। -अहन्त भगवान में सिद्धोंकी अपेक्षा कम गुण है, अईन्त दीक्षाके समय सिद्धोको नमस्कार करते है। प्रव्रज्याकाल-दे० काल/१। प्रव्रज्या क्रिया-दे० संस्कार/२। प्रवज्यागुरु-दे० गुरु/३ । प्रशंसा प्रशमस. सि./६/२५/३३६/१२ गुणोद्भावनाभिप्राय प्रशंसा। = गुणोको प्रगट करनेका भाव प्रशंसा है । ( स. सि./७/२३/३६४/१२) (रा. वा/ ६/२५/२/५३०/३० ) ( रा. वा./७/२३/१/५५२/१२)।
प्रशस्त-स सि./६/२८/४४६/१ कर्मनिर्दहनसामर्थ्यात्प्रशस्तम् ।
-जो ( ध्यान ) कर्मोको निर्दहन करनेकी सामर्थ्य से युक्त है, वह प्रशस्त है । (रा वा./६/२८/४/६२७/३४) प्रशस्त उपशम-दे० उपशम/१। प्रशस्तपाद-शेषिकसूत्रके भाष्यकार-समय ई० श ५-६ (स. म./
परि-ग/पृ ४१८/१२)। प्रशांति क्रिया-दे० सस्कार/२ । प्रश्न-१ स, भंत.// प्राश्निकनिष्ठजिज्ञासाप्रतिपादक वाक्यं हि प्रश्न इत्युच्यते । = प्रश्नकर्ताके पदार्थको जाननेकी जो इच्छा है, उस इच्छाके प्रतिपादक जो वाक्य है, उनको ही प्रश्न कहते है। २ Problem (ध. ६/प्र./२८) । प्रश्न कुशल साधु-भ आ /वि /४०३१५६२/१० प्रश्नकुशलतोच्यते
चैत्यसयतानायिका. श्रावकाश्च, बालमध्यमवृद्धाश्च पृष्ट्वा कृतगवेषणो याति इति प्रश्नकुशल । -चैत्य, मुनि, आयिका, श्रावक, बाल मध्यम और वृद्धोको पूछकर निर्यापकाचार्य गवेषण करता है,
यह प्रश्न कुशल साधु कहलाता है। प्रश्न व्याकरण-द्वादशाग श्रुतज्ञानका दसवा अंग
दे० श्रुत्तज्ञान/III प्रश्नोत्तर श्रावकाचार-आ, सकलकीर्ति (ई० १४०६-१४४२) द्वारा विरचित संस्कृत ग्रन्थ है। इसमे २४ सर्ग और ४६२८ पद्य है। जिनमें २५४१ प्रश्नोका उत्तर देकर श्रावकोके आचारका विशद वर्णन किया गया है। ती /३/३३३)। प्रसंग-न्या सू./टी /१/२/१८/५३/२२ स च प्रसग साधर्म्यवैधा
भ्यां प्रत्यवस्थानमुपालम्भ प्रतिषेध इति । उदाहरणसाधासाध्यसाधनहेतु रित्यस्योदाहरणवैधयेण प्रत्यवस्थानम् । वादी द्वारा व्यतिरेक दृष्टांत रूप उदाहरणके विधर्मापन करके ज्ञापक हेतुका कथन कर चुकनेपर प्रतिवादी द्वारा साधर्म्य करके, अथवा वादी द्वारा अन्वय दृष्टात रूप उदाहरणके समान धर्मापन करके ज्ञापक हेतुका कथन करनेपर पुन प्रतिवादी द्वारा विधर्मापन करके प्रत्यवस्थान ( उलाहना) देना प्रसग है। (श्लो.वा.४/न्या./३१०/४५७/१ में इस पर चर्चा)।
* अति प्रसंग दोष-दे० अतिप्रसंग। प्रसंगसमा जाति-न्या सू./मू व.टी/१/१/४/२६१ दृष्टान्तस्य
कारणानपदेशात् प्रत्यवस्थानाच्च प्रतिदृष्टान्तेन प्रसगप्रतिदृष्टान्तसमौ ।। साधनस्यापि साधनं वक्तव्यमिति प्रसङ्गन प्रत्यवस्थान प्रसङ्गसम प्रतिषेध । क्रियाहेतुगुणयोगी क्रियावान लोष्ट इति हेतु पदिश्यते न च हेतुमन्तरेण सिद्धिरस्तीति। -वादीने 'जिस प्रकार साध्यका भी साधन कहा है, वैसे ही साधनका भी साधन करना या दृष्टान्तकी भी बादीको सिद्धि करनी चाहिए इस प्रकार प्रतिवादी द्वारा कहा जाना प्रसगसमा जाति है। जैसे-क्रियाके हेतुभूत गुणोका सम्बन्ध रखने वाला डेल क्रियावान क्सि हेतुसे माना जाता है। दृष्टान्तकी भी साध्यसे विशिष्टपने करके प्रतिपत्ति करनेमे वादीको हेतु कहना चाहिए। उस हेतुके बिना तो प्रमेयको व्यवस्था नहीं हो
सकती है। ( श्लो. वा ४/न्या./३५६-३६३/४८७ में इसपर चर्चा )। प्रसज्याभाव-दे० अभाव । प्रसेनजित-१.यह तेरहवे कुलकर हुए है। (म.पु./३/१४६)विशेष दे० शलाका पुरुष/५ । २ यादववंशी कृष्णका १६वॉ पुत्र-दे० इतिहास/४/१०।
* अन्य सम्बन्धित विषय १. प्रशंसा व स्तुतिमें अन्तर २. अन्य दृष्टि प्रशंसा ३. स्व प्रशंसाका निषेध
दे० अन्यदृष्टि ।
दे० निंदा।
प्रशम-4 ध/उ /४२६-४३० प्रशमो विषयेषूच्चैविक्रोधादिकेषु
च । लोकासख्यातमात्रेषु स्वरूपाच्छिथिलं मनः ॥४२६। सद्य' कृतापराधेषु यद्वा जीवेषु जातुचित् । तद्वधादिविकाराय न बुद्धि-प्रशमोमतः ।४२७॥ हेतुस्तत्रोदयाभाव स्यादनन्तानुबन्धिनाम् । अपि शेषकषायाणा नून मन्दोदयोऽशत १४२८) सम्यक्त्वेनाविनाभूत प्रशम परमो गुणः । अन्यत्र प्रशममन्येऽप्याभास' स्यात्तदत्ययात् ।४३०॥ - पचेन्द्रियोके विषयोमे और लोकके असंख्यातवे भाग प्रमाण तीव भाव क्रोधादिकोमें स्वरूपसे शिथिल मनका होना ही प्रशम भाव कहलाता है।४२६॥ अथवा उसी समय अपराध करनेवाले जीवोपर कभी भी उनके वधादि रूप विकारके लिए बुद्धिका नही होना प्रशम माना गया है।४२७। उस प्रशम भावकी उत्पत्तिमें निश्चयसे अनन्तानुबन्धो कषायोका उदयाभाव और प्रत्याख्यानादि कषायोंका मन्द उदय कारण है।४२८। ( द. पा./प. जयचन्द/२) सम्यक्त्वका अविनाभावी प्रशम भाव सम्यग्दृष्टिका परम गुण है । प्रशम भावका झूठा अहकार करनेवाले मिथ्यादृष्टिके सम्यक्त्वका सद्भाव न होनेसे प्रशमाभास होता है।
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प्रस्तर
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प्राण
प्रस्तर-ध १४/५,६,६४१४१५/७ सग्गलोअसे डिबद्धपइण्णया विमाणपत्थडाणि णाम । तत्थ (णिरय ) तण-पइण्णया गिरयपत्थडाणि णाम।-स्वर्गलोकके श्रेणीबद्ध और प्रकीर्णक विमान प्रस्तर कहलाते है और वहाँके (नरकके) प्रकीर्णक नरक प्रस्तर कहलाते है। विशेष दे नरक /५/३, स्वर्ग 11/११ । प्रस्तार-अक्ष संचार गणितमें अंकों का स्थापन करना प्रस्तार है।
विशेष दे० गणित/II/३/१॥ प्रस्ताव-न्या.वि./टी./२/१६/५३१/३ प्रस्तूयते प्रमाण-फलत्वेना
धिक्रियते इति प्रस्ताव प्रस्तुयते अर्थात प्रमाणके फल रूपसे 'जिसका ग्रहण किया जाता है, ऐसा हेयोपादेय तत्त्वका निर्णय
प्रस्ताव है। प्रस्थ-१.रा.बा/१/३३/७/१७/११ प्रतिष्ठन्तेऽस्मिन्निति प्रस्थ./जिसमे धान्य आदि मापे जा रहे है उसको प्रस्थ कहते है । २. तोलका एक प्रमाण विशेष-दे० गणित /1/१/२ ।
प्रस्थापक-ध.६/१,६-८,१२/२४७/७ कदकरणिज्जपढमसमयप्पहुडि
उपरि णिठ्ठवगो उच्चदि = कृतकृत्य वेदक होनेके प्रथम समयसे लेकर ऊपरके समय में दर्शनमोहको क्षपणा करनेवाला जीव निष्ठापक कहलाता है। गो क /जो.प्र./५५०/७४४/१० दर्शनमोहक्षपणाप्रारम्भप्रथमसमयस्थापितसम्यक्त्वप्रकृतिप्रथम स्थित्यान्तर्मुहूर्तावशेषे चरमसमयप्रस्थापक' । अनन्तरसमयादाप्रथमस्थितिचरम निषेकं निष्ठापक । -दर्शनमोह क्षपणाके प्रारभ समयमें स्थापी गयी सम्यक्त्व प्रकृतिकी प्रथम स्थितिका अन्तर्मुहूर्त अवशेष रहनेपर, उसके अन्त समय पर्यन्त तो प्रस्थापक कहलाता है। और उसके अनन्तर समयसे प्रथम स्थितिके
अन्त निषेक पर्यन्त निष्ठापक कहलाता है। प्रहरण-दे० अलौद्र । प्रहरा-भरत क्षेत्रस्थ आर्य खण्डकी एक नदी-दे० मनुष्य/४ । हासत-१ हनुमान के पिता पधनञ्जयका मित्र (प.पु/१६/१२७) २. मातङ्ग वंशका एक राजा-दे० इतिहास/9/8। प्रहार संक्रामिणी-एक मन्त्र विद्या-दे० विद्या। प्रह्लाद-१. राजा पद्मका मन्त्री-विशेष दे० बलि । २. आदित्यपुर
का राजा । हनुमानका बाबा था। (प.पु/१५/७-८)। प्राक्-पूर्व दिशा। प्राकाम्य ऋद्धि-दे० ऋद्धि/३ । प्राकार-ध. १४/५,६,४२/४०/७ जिणहरादोणं रक्खटूठप्पासेसु ट्ठविदओलित्तीओ पागारा णाम । पकिटाहि घडिदवरंडा वा पागारा णाम ।-जिनगृह आदिकी रक्षाके लिए पार्श्वमे जो भीते बनायी जाती है वे प्राकार कहलाती है, अथवा पकी हुई ईटोसे जो वरण्डा बनाये जाते है वे प्राकार कहलाते है। प्राकृत संख्या -Natural Number ( ज.प्र./प्र.१०७) । प्रागभाव-दे० अभाव। प्राच्य-१. पूर्व दिशा, २. प्राची दिशाकी प्रधानता-दे. दिशा। प्राण-कालका प्रमाण विशेष – दे० गणित/1/१/४ । प्राण--जीवमे जीवितव्यके लक्षणोको पाण कहते है, वह दो प्रकार
है-निश्चय और व्यवहार । जीवकी चेतनत्व शक्ति उसका निश्चय प्राण है और पॉच इन्द्रिय, मन, वचन, काय, आयु व श्वासोच्छ्वास
ये दस व्यवहार प्राण हैं। इनमें से एकेन्द्रियादि जीवोंके यथा योग्य ४,६,७ आदि प्राण पाये जाते है। १. प्राण निर्देश व तत्सम्बन्धी शंकाएँ १. प्राणका लक्षण १ निरुक्ति अर्थ पं.सं./प्रा /१/४५ बाहिरपाणे हि जहा तहेव अभंतरेहि पाणेहि । जीवंति
जेहि जीवा पाणा ते होंति बोहव्वा ।४५ - जिस प्रकार बाह्य प्राणके द्वारा जीव जीते है उसी प्रकार जिन अभ्यन्तर प्राणोके द्वारा जीव जीते है, वे प्राण कहलाते है ।४५॥ (ध./१,१,३४/गा.१४१/२५६) (गो.
जी /मू./१२६/३४१) (प.सं/सं./१/४१)। ध./२/१.१/४१२/२ प्राणिति जीवति एभिरिति प्राणा' | जिनके द्वारा
जीव जीता है उन्हे प्राण कहते है। गो.जी./जी.प्र./२/२१/ह जीवन्ति-प्राणति जीवितव्यवहारयोग्या भवन्ति जीवा यैस्ते प्राणा: ।= जिनके द्वारा यह जीव जीवितव्य रूप व्यवहारके योग्य है, उनको प्राण कहते है।
२ निश्चय अथवा भाव प्राण प्रसा/त.प्र./१४५ अस्य जीवस्य सहजविजृम्भितानन्तज्ञानशक्तिहेतुके...वस्तुस्वरूपतया सर्वदानपायिनि निश्चयजीवत्वे"। इस जीवको, सहजरूपसे प्रगट अनन्त ज्ञान शक्ति जिसका हेतु है.. वस्तुका स्वरूप होनेसे सदा अविनाशी निश्चय जीवत्व होनेपर भी...। पं का./त प्र/३० इन्द्रियबलायुरुच्छ्वासलक्षणा हि प्राणा । तेषु चित्सामान्यान्वयिनो भावप्राणाः। -प्राण इन्द्रिय, बल, आयु तथा उच्छवास रूप है। उनमें (प्राणोमें) चित्सामान्य रूप अन्वय वाले
वे भाव प्राण हैं। (गो.जी./जी.प्र./१२६/३४१/११) दे जीव/१/१ निश्चयसे आत्माके ज्ञानदर्शनोपयोग रूप चैतन्य प्राण है। स्या.मं /२७/३०६/६ सम्यग्ज्ञानादयो हि भावप्राणा' प्रावचनिकैर्गीयन्ते । -पूर्व आचार्योंने सम्यग्दर्शन ज्ञान व चारित्रको भाव प्राण कहा है।
३. व्यवहार वा द्रव्य प्राण पं.का./त प्र/30 पुद्गलसामान्यान्वयिनो द्रव्यप्राणा' - पुद्गल सामान्य
रूप अन्वयवाले वे द्रव्यप्राण है। गो.जी./जी.प्र./१२६/३४१/१० पौद्गलिकद्रव्येन्द्रियादिव्यापाररूपाः द्रव्यप्राणा. - पुद्गल द्रव्यसे निपजी जो द्रव्य इन्द्रियादिक उनके प्रवर्तन रूप द्रव्य प्राण है।
२. अतीत प्राणका लक्षण ध. २/१,१/४१६/१ दसण्इं पाणाणमभावो अदीदपाणो णाम । दशों __ प्राणोके अभ वको अतीत प्राण कहते है।
३. दश प्राणों के नाम निर्देश म.आ/११६१चय इंदियपाणा मणवचकाया दु तिण्णि भलपाणा।
आणप्पाणप्पाण्णा आउगपाणेण होंति दस पाणा ।११६१-पाँच इन्द्रिय प्राण, मन, वचन काय बल रूप तीन बल प्राण, श्वासोच्छवास प्राण और आयु प्राण इस तरह दस प्राण है। (पंसं./प्रा./१/४६) (ध २/१,१/४१२/२) (गो जी./म् /१३०/३४३) (प्र.सा /त.प्र./१४६) (का.अ././१३६) (प.सं./सं /१/१२४) (पं.ध./उ./५३१) ।
४. इन्द्रिय व इन्द्रिय प्राणमें अन्तर घ२/१,१/४१२/३ नै तेषामिन्द्रियाणामेकेन्द्रियादिष्वन्तर्भाव चक्षुरादि
क्षयोपशमनिबन्धनानामिन्द्रियाणामेकेन्द्रियादिजातिभि साम्या
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प्राण
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१. प्राण निर्देश व तत्सम्बन्धी शंका समाधान
भावात् । = इन पाँचो इन्द्रियो ( इन्द्रिय प्राणो)का एकेन्द्रिय जाति आदि पाँच जातियो में अन्तर्भाव नही होता है, क्योकि चक्षुरिन्द्रियावरण आदि कर्मोके क्षयोपशमके निमित्तसे उत्पन्न हुई इन्द्रियोकी एकेन्द्रिय जाति आदि जातियोके साथ समानता नहीं पायी जाती है। * उच्छवास व प्राणमें अन्तर-दे० उच्छ्वास । * पर्याप्ति व प्राणमें अन्तर--दे० पर्याप्ति/२ ।
५. आनपान व मन, वचन कायको प्राणपना कैसे है ध.१/१,१,३४/२५६/४ भवन्त्विन्द्रियायुष्काया, प्राणव्यपदेशभाज तेषामाजन्मन आमरणाद्भवधारणत्वेनोपलम्भात । तत्रैकस्याप्यभावतोऽसमता मरणसंदर्शनाच्च । अपि तूच्छवासमनोवचसा न प्राणव्यपदेशो युज्यते तान्यन्तरेणापि अपर्याप्तावस्थाया जीवनोपलम्भादिति चेन्न, तैबिना पश्चाजीवतामनुपलभ्यतस्तेषामपि प्राणत्वविरोधात् ।
प्रश्न-पाँचो इन्द्रियॉ, आयु और काय बल, ये प्राण संज्ञाको प्राप्त हो सकते है, क्योकि वे जन्मसे लेकर मरण तक भव धारण रूपसे पाये जाते है। और उनमें से किसी एकके अभाव हो जानेपर मरण भी देखा जाता है। परन्तु उच्छवास, मनोबल और वचन बल इनको प्राण मज्ञा नहीं दी जा सकती है, क्योकि इनके बिना भी अपर्याप्त अवस्थामे जीवन पाया जाता है। उत्तर-नही, क्योकि उच्छवास, मनोबल और बचन बलके बिना अपर्याप्त अवस्थाके पश्चात पर्याप्त अवस्थामे जीवन नहीं पाया जाता है, इसलिए उन्हे प्राण मानने में कोई विरोध नहीं है।
६. प्राणोंके त्यागका उपाय प्र. सा./मू./१५१ उस्थानिका-अथ पुद्गलप्राणसंततिनिवृत्तिहेतुमन्तरङ्ग ग्राह्यति--जो इ दियादिविजई भवीय उवओगमप्पगं झादि । कम्मे हि सो र जदि किह तं पाणा अणुचर ति ।१५१५ - अब पौद्गलिक प्राणोकी सन्ततिकी निवृत्तिका अन्तर ग हेतु समझाते है-जो इन्द्रियादिका बिजयी होकर उपयोग मात्रका ध्यान करता है, वह कर्मों के द्वारा रंजित नहीं होता, उसे प्राण कैसे अनुसरण कर सकते है। अर्थात् उसके प्राणोका सम्बन्ध नहीं होता। ७. प्राणोंका स्वामित्व १. स्थावर जीवोंकी अपेक्षा स, सि/२/१३/१७२/१० कति पुनरेषा (स्थावराणा) प्राणा । चत्वार' स्पर्शनेन्द्रियप्राणा कायबल प्राणा' उच्छ्वासनिश्वासप्राण' आयुप्राणश्चेति । स्थावरों के चार प्राण होते है-स्पर्शनेन्द्रिय, कायबल, उच्छवास-निश्वास और आयु प्राण । (रा वा/२/१३/३/१२८/१६) (ध, २/१.१/४१८/११), (का. अ./मू १४०)। २. त्रस जीवोंकी अपेक्षा स. सि /२/१४/१७६/६ द्वीन्द्रियस्य तावत् षट् प्राणा', पूर्वोक्ता एव रसनवाक्प्राणाधिका । त्रीन्द्रियस्य सप्त त एव प्राणप्राणाधिका । चतुरिन्द्रियस्याष्टौ त एव चक्षु प्राणाधिका । पञ्चेन्द्रियस्य तिरश्चोऽसज्ञिनो नव त एव श्रोत्रप्राणाधिका । संज्ञिनो दश त एवं मनोबलप्राणाधिका । = पूर्वोक्त (स्पशेन्द्रिय, कायबल, उच्छ्वास, और आयु प्राण इन) चार प्राणोमे रसना प्राण और वचन प्राण इन दो प्राणो के मिला देनेपर दोइन्द्रिय जीवो के छह प्राण होते है। इनमे घाणके मिला देनेपर तीन इन्द्रिय जीवके सात प्राण होते है। इनमें चक्षु प्राण के मिला देनेपर चौइन्द्रिय जीवके आठ प्राण होते है। इनमें श्रोत्र प्राणके मिला देनेपर तिर्यच असज्ञीके नौ प्राण होते है। इनमें मनोबल के मिला देनेपर सज्ञी जीवोके दस प्राण होते है। (रा वा/
२/१४/४/१२६/१), (पं.सं /प्रा./१/४७-४६), (ध. २/१,१/४१८/१), (गो. जी./म् /१३३/१४६ ), ( का अ./म् /१४०) । ३. पर्याप्तापर्याप्तकी अपेक्षा पं सं./प्रा /१/५० पंचवरख-दुए पाणा मण बचि उस्सास ऊणिया सव्वे । कणक्विगंधरसणारहिया सेसेसु ते अण्णेसु।५० -अपर्याप्त पंचेन्द्रिय द्विकमे मन-वचन-बल और श्वासोच्छवास इन तीनसे कम शेष सात प्राप्त होते है। अपर्याप्त चतुरिन्द्रिय, श्रीन्द्रिय, द्वीन्द्रिय तथा एकेन्द्रियके कमसे कर्णेन्द्रिय, चक्षुरिन्द्रिय, घाणेन्द्रिय और रसनेन्द्रिय कम करनेपर छह, पाँच, चार और तीन प्राण होते है। (ध. २/१,१/४१८/१), ( गो जी /मू. व टी/१३३/३४६), (का, अ./ मू /१४१), (प स./स /१/१२६)। ४ सयोग अयोग केवलीकी अपेक्षा दे० केवली/५/१०-१३, १. सयोगकेवलीके चार प्राण होते है-बचन, श्वासोच्छवास, आयु, और काय । उपचारसे तो सात प्राण कहे जाते है। २. अयोगकेवलीके केवल एक आयु प्राण ही होता है। ३. समुद्वात अवस्थामे केवली भगवान के ३,२ व १ प्राण होते है-श्वासोच्छवास, आयु और काय ये तीन, श्वासोच्छवास कम करने पर दो, तथा काय बल कम करनेपर केवल एक आयु प्राण होता है। ८. अपर्याप्तावस्थामें भाव मन क्यों नहीं घ ८/१,१,३५/२५६/८ भावन्द्रियाणामिव भावमनस उत्पत्तिकाल एव सत्त्वादपर्याप्तकालेऽपि भावमनस. सत्त्वमिन्द्रियाणामिव किमिति नोक्तमिति चेन्न, बाह्येन्द्रियैरग्राह्यद्रव्यस्य मनसोऽपर्याप्त्यवस्थायामस्तित्वेऽङ्गीक्रियमाणे द्रव्यमनसो विद्यमाननिरूपणस्यासत्त्वप्रसङ्गात् । पर्याप्तिनिरूपणात्तदस्तित्वं सिद्धये दिति चेन्न, बाह्यार्थस्मरणशक्तिनिष्पत्तौ पर्याप्तिव्यपदेशतो द्रव्यमनसोऽभावेऽपि पर्याप्तिनिरूपणोपपत्ते । न बाह्यार्थस्मरणशक्ते प्रागस्तित्वं योग्यस्य द्रव्यस्योत्पत्ते प्राक् सत्त्व विरोधात् । ततो द्रव्यमनसोऽस्तित्वस्य ज्ञापकं भवति तस्यापर्याप्त्यवस्थायामस्तित्व निरूपण मिति सिद्धम् । = प्रश्न-जीवके नवीन भवको धारण करनेके समय ही भावेन्द्रियोकी तरह भाव मनका भी सत्त्व पाया जाता है, इसलिए जिस प्रकार अपर्याप्त काल में भावेन्द्रियोका सद्भाव कहा जाता है उसी प्रकार वहाँ पर भावमनका सद्भाव क्यो नही कहा। उत्तर नही, क्यो कि, बाह्य इन्द्रियोके द्वारा नही ग्रहण करने योग्य वस्तभत मनका अपर्याप्तिरूप अबस्थामे अस्तित्व स्वीकार कर लेनेपर, जिसका निरूपण विद्यमान है ऐसे द्रव्यमनके असत्त्वका प्रसंग आ जायेगा । प्रश्न-पर्याप्तिके निरूपणसे ही द्रव्यमनका अस्तित्व सिद्ध हो जायेगा। उत्तर१ नही क्योकि, बाह्यार्थ की स्मरण शक्तिकी पूर्ण तामे ही पर्याप्ति इस प्रकारका व्यवहार मान लेनेसे द्रव्यमनके अभावमें भी मन,पर्याप्तिका निरूपण बन जाता है। २ बाह्य पदार्थोवी स्मरण रूप शक्तिके पहले द्रव्य मनका सद्भाव बन जायेगा ऐसा कहना भी ठीक नही है, क्योकि व्य मनके योग्य द्रव्गकी उत्पत्तिके पहले उसका सत्व मान लेनेमे बिरोध आता है। अत अपर्याप्तिरूप अवस्थामे भावमनके अस्तित्वका निरूपण नहीं करना द्रव्यमनके अस्तित्वका ज्ञापक है, ऐसा समझना चाहिए। * गुणस्थान, मार्गणारथान, जीवसमास आदि २० प्ररूपणाओं में प्राणों का स्वामिन-दे० सत् । * प्राणोंका यथायोग्य मार्गणा स्थानों में अन्तर्भाव
-दे० मार्गणा। *जीवको प्राणी हनेकी पिवक्षा-दे० जीव/१/३ ॥
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भा०३-२०
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प्राण
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प्राणायाम
ध्यानाचा शुद्ध प्राणोसे सध्यातव्य इति प्राणसहित शुद
२. निश्चय व्यवहार प्राण समन्वय
१.प्राण प्ररूपणामें निश्चय प्राण अभिप्रेत है ध.२/१,६/१०४/३ दबे दियाणं णिप्पत्ति पडुच्च के वि दस पाणे भणति ।
तण्ण घडदे। कुदो। भावि दियाभावादो। अध दबिदियस्स जदि गहणं कीरदि तो सण्णीणमपज्जत्तकाले सत्त पाणा पोडिदूण दो चेव पण्णा भवति, पंचण्ह दव्वे दियाणामभावादो।-कितने ही आचार्य द्रव्येन्द्रियोकी पूर्णताको अपेक्षा ( केवलो के ) दस प्राण कहते है, परन्तु उनका ऐसा कहना घटित नही होता है, क्योकि सयोगी जिनके भावेन्द्रियाँ नही पायी जाती है। यदि प्राणोमे द्रव्येन्द्रियोका ही ग्रहण किया जावे तो सज्ञी जीवो के अपर्याप्त कालमे सात प्राणो के स्थानपर कुल दो ही प्राण कहे जायेगे, क्योकि उनके द्रव्येन्द्रियोका अभाव है।
२. दश प्राण पुद्गलात्मक हैं जोवका स्वभाव नहीं प्र. सात प्र./१४७ तन्न जोवस्य स्वभावत्वमवाप्नोति पुद्गलद्रव्यनिवृत्तत्वात् । - वह उसका (प्राण जीवका) स्वभाव नहीं है,
क्योकि वह पुद्गल द्रव्यसे रचित है। प्र.सा/ता. वृ/१४५ व्यवहारेण "आयुराद्यशुद्धप्राणचतुष्केनापि सबद्ध
सन् जीवति। तच्च शुद्धनयेन जीवस्वरूप न भवति । = व्यवहार नयसे. आयु आदि चार अशुद्ध प्राणोसे सम्बद्ध होनेसे जीता है। वह शुद्ध नयसे जीवका स्वरूप नही है।
३. दश प्राणों का जीवके साथ कथंचित् भेदाभेद स. सा./ता वृ/३३२ ३४४/४२३/२४ कायादिप्राणै सह कथ चिद् भेदाभेद । कथ । इति चेत्, तप्ताय पिण्डवद्वर्तमानकाले पृथक्त्व कर्तु नायाति तेन कारणेन व्यवहारेणाभेद.। निश्चयेन पुनर्भरणकाले कायादिप्राणा जीवेन सहैव न गच्छन्ति तेन कारणेन भेद । कायादि प्राणोके साथ जीवका कथंचित भेद व अभेद है। वह ऐसे है कि तपे हुए लोहेके गोलेकी भॉति वर्तमान कालमें वे दोनों पृथक नहीं किये जानेके कारण व्यवहार नयसे अभिन्न है। और निश्चय नयसे क्योंकि मरण काल मे कायादि प्राण जीवके साथ नहीं जाते इसलिए भिन्न है। प.प्र./टी /२/१२७/२४४४ स्त्रकीयप्राणहृते सति दुखोत्पत्तिदर्शनादव्यवहारेणाभेद । यदि पुनरेकान्तेन देहात्मनोहेंदा एव तहि परकीयदेहधाते दुरव न स्यान्न च तथा। निश्चयेन पुनर्जीव गतेऽपि देहो न गच्छतीति हेतोर्भेद एव । अपने प्राणोका घात होने पर दुखकी उत्पत्ति होती है अत व्यवहार नयकर प्राण और जीवको अभेद है।
यदि एकान्तगे प्राणोको सर्वथा जूदे माने तो जैसे परके शरीरका घात होनेपर दुख नही होता वैसे अपने देहका घात होनेपर दुख नही होना चाहिए। इसलिए व्यवहार नयसे एकत्व है निश्चयसे नही, क्योकि देहका विनाश होनेपर भी जीवका विनाश नहीं होता है। इसलिए भेद है।
४. निश्चय व्यवहार प्राणोंका समन्वय प्र. सा./त प्र./१४५ अशास्य जीवस्य सहजविज म्भितानन्तज्ञानशक्तिहेतुके त्रिसमयावस्थायित्व लक्षणे वस्तुस्वरूपभूततया सर्वदानपायिनि निश्चयजीवत्वे सत्यपि ससारावस्थायामनादिप्रवाहप्रवृत्तपुद्गलसश्लेषदूषितात्मतया प्राणचतुष्काभिस बद्वत्वं व्यवहारजीवत्वहेतुर्विभक्तव्योऽस्ति । - अब इस जीवको सहज रूप (स्वाभाविक ) प्रगट अनन्त ज्ञान शक्ति जिसका हेतु है, और तीनो कालोमे अवस्थायित्व जिसका लक्षण है, ऐसा बस्तुका स्वरूपभूत होनेसे सर्वदा अविनाशी जीवत्व होने पर भी, ससारावस्थामें अनादि प्रवाह रूपसे प्रवर्तमान पुदगल सश्लेषके द्वारा स्वय दूषित होने से उसके चार प्राणोसे सयुक्तता है, जो कि व्यवहार जीवत्व का हेतु है और विभक्त करने योग्य है।
स्या, मं/२७/३०६/8 ससारिणो दशविधद्रव्यप्राणधारणाद् जीवा' सिद्धाश्च ज्ञानादि भावप्राणधारणाइ इति सिद्धम् । = संसारी जीव द्रव्य प्राणों की अपेक्षासे और सिद्ध जीव भाव प्राणोकी अपेक्षासे जीव कहे जाते है।
५.प्राणोंको जाननेका प्रयोजन पं. का /ता. वृ./३०/६८/७ अत्र शुद्धचैतन्यादिशुद्धप्राणसहित' शुद्धजीवास्तिकाय एवोपादेय रूपेण ध्यातव्य इति भावार्थ, यहाँ शुद्ध चैतन्यादि शुद्ध प्राणोसे सहित शुद्ध जीवास्तिकाय ही उपादेय रूपसे ध्याना चाहिए, ऐसा भावार्थ है। द्र. स /टी./१२/३१/६ अत्रेतेभ्यो भिन्नं निजशुद्धात्मतत्त्वमुपादेयमिति भावार्थः । =अभिप्राय यह है कि इन पर्याप्ति तथा प्राणोसे भिन्न
अपना शुद्धात्मा ही उपादेय है। प्राणत-१. कल्पवासी देवोका एक भेद-दे० स्वर्ग/३ । २. कल्पवासी देवोका स्वस्थान-दे० स्वर्ग/२/२ । ३. कल्प स्वोंका १४वॉ काप -~-दे० स्वर्ग:/३१४ आनतप्राणत स्वर्ग का द्वितीय पटल-दे० स्वर्ग/५/३ प्राणवाद-द्वादशाग श्रुतज्ञानका ११वाँ पूर्व-दे० श्रुतज्ञान/IIII प्राण संयम-दे० संयम । प्राणातिपातध १२/४,२,८.२/२७५/११ पाणादिवादो णाम पाणे हितो पाणीण विजोगो। सो जत्तो मण-बयण-कायवावारादीहितो ते वि पाणादिवादो। पाणादिवादो णाम हिंसाविसयजीववावारो। प्राणातिपातका अर्थ प्राणोसे प्राणियोका वियोग करना है। वह जिन मन, वचन या कायके व्यापारादिकोसे होता है, वे भी प्राणातिपात ही कहे जाते है। प्राणातिपातका अर्थ हिसाविषयक जीवका व्यापार है। प्राणातिपातिकी क्रिया-दे० क्रिया/३ । प्राणापान-दे. उच्छवास । प्राणायाम-श्वासको धीरे-धीरे अन्दर स्वेचना कुम्भक है, उसे
रोके रखना पूरक है, और फिर धीरे-धीरे उसे बाहर छोडना रेचक है। ये तीनो मिलकर प्राणायाम सज्ञाको प्राप्त होते है। जै नेतर लोग ध्यान व समाधिमे इसको प्रधान अंग मानते है, पर जैनाचार्य इसको इतनी महत्ता नही देते, क्योकि चित्तकी एकाग्रता हो जानेपर श्वास निरोध स्वत. होता है।
१.प्राणायाम सामान्यका लक्षण म. पु/२१/२२७ प्राणायामो भवेद् योगनिग्रह शुभभावन' | - मन,
वचन और काय इन तीनों योगोका निग्रह करना तथा शुभभावना रखना प्राणायाम कहलाता है।
२. प्राणायामके तीन अंग ज्ञा /२६/३ त्रिधा लक्षणभेदेन संस्मृत पूर्वसूरिभि । पूरक' कुम्भकश्चैव रेचकस्तदनन्तरम् ।२६। -- पूर्वाचार्योने इस पवनके स्तम्भन स्वरूप प्राणायामको लक्षण भेदसे तीन प्रकारका कहा है--पूरक, कुम्भक और रेचक ।
३. प्राणायामका स्वरूप ज्ञा /२६/8 पर उद्धृत-समाकृष्य यदा प्राणधारण स तु पूरक । नाभिमध्ये स्थिरी कृत्य रोधन स तु कुम्भक ।१। यत्कोष्ठादतियत्नेन नासाब्रह्मपुरातनै । बाहि प्रक्षेपणं वायो स रेचक इति स्मृत ।२।
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प्राणायाम
१५५
२. प्राणायाम निर्देश
कार्यरूपो विकल्पः । स च मोहकारण भवतीति। बायुगरकरय च कार्य न च मुक्तिरिति । यदि मुक्तिरपि भवति तहि वायुधारणाकारकाणामिदानीतनपुरुषाणां मोक्षो कि न भवतीति भावार्थ । पातजलिमतवाले वायु धारणा रूप श्वासोच्छवास मानते है, वह ठीक नहीं है, क्योकि वायु धारणा वाछा पूर्वक होती है, और बाछा है वह मोहसे उत्पन्न विकल्प रूप है, वांछा मोहका कारण है । । वायु धारणासे मुक्ति नही होती, क्योकि वायु धारणा शरीरका धर्म है, आत्माका नही। यदि वायु धारणासे मुक्ति होवे तो व.यु धारणाको करनेवालोको इस दुखम कालमें मोक्ष क्यो न होवे । अर्थात कभी नही होती। ६. प्राणायाम शारीरिक स्वास्थ्यका कारण है ध्यानका
नहीं
ज्ञा/२६/१०.१७ शनै शर्मनोऽजस' वितन्द्रं सह वायुना। प्रवेश्य हृदयाम्भोजकर्णिकाया नियन्त्रयेत ।१०। अचिन्त्यमतिदूर्लक्ष्य तन्मण्डलचतुष्टयम् । स्वर वेद्य प्रजायेत महाभ्यासात्कथचन ।१७१ -- जिस समय पवनको तालुरन्ध्रमे खेचकर प्राणको धारण करें, शरीरमे पूर्णतया थामै सो पूरक है, और नाभिके मध्य स्थिर करके रोकै सो कुम्भक है, तथा जो पवनको कोठेसे बडे यत्नसे बाहर प्रक्षेपण करे सो रेचक है, इस प्रकार नासिका ब्रह्मके जाननेवाले ब्रह्म पुरुषोने कहा है ।१-२। इस पवनका अभ्यास करनेवाला योगी निष्प्रमादी होकर बडे सरनसे अपने मनको वायुके साथ मन्द मन्द निरन्तर हृदय कमलकी कणिकामें प्रवेश कराकर वही ही नियन्त्रण करै ।१०। यह मण्डलका चतुष्टय (पृथ्वी आदि ) है, सो अचित्य है, तथा दुर्लक्ष्य है, इस प्राणायामके बड़े अभ्याससे तथा बडे कष्टसे कोई प्रकार अनुभव गोचर है ।१७। * ध्यानमें प्राणायामका स्थान दे० पदस्थ ध्यान/७/१। ४. प्राणायामके चार मण्डलोंका नाम निर्देश ज्ञा./२६/१८ तत्रादौ पार्थिव ज्ञेयं वारुणं तदनन्तरम् । मरुत्पूर तत' स्फीतं पर्यन्ते बह्निमण्डलम् ॥१८॥ -उन चारोमेसे प्रथम तौ पार्थिव । मण्डलको जानना, पश्चाद वरुण (अप) मण्डल जानना, तत्पश्चात पवन मण्डल जानना और अन्तमे बढे हुए वह्नि मण्डल को जानना। इस प्रकार चारोके नाम और अनुक्रम हैं। * चारों मण्डलोंका स्वरूप-दे० वह वह नाम । ५. मोक्षमार्गमें प्राणायाम कार्यकारी नहीं रा. वा./8/२७/२३/६२७/ प्राणापान निग्रहो ध्यानमिति चेतन, प्राणापान निग्रहे सति तदुभूतवेदनाप्रकर्षात आश्वेत्र शरीरस्य पात, प्रसज्येत । तस्मान्मन्दमन्दप्राणापान प्रचारस्य ध्यान' युज्यते ।- प्रश्नश्वास च्छ्वासके निग्रहको ध्यान कहना चाहिए। उत्तर-नहीं, क्योकि इसमें श्वासोच्छवास रोकनेकी वेदनासे शरीरपात होनेका प्रसग है। इसलिए ध्यानावस्थामें श्वासोच्छ्वासका प्रचार स्वाभा विक होना चाहिए। ज्ञा./३०/४-६ सम्यक्समाधिसिद्धयर्थ प्रत्याहार' प्रशस्यते । प्राणायामेन विक्षिप्त मन स्वास्थ्यं न विन्दति ।४. बायो सचारचातुर्यमणिमाद्यङ्गसाधनम् । प्राय. प्रत्यूहबीज स्यान्मुनेर्मुक्तिमभीप्सतः ।। किमनेन प्रपञ्चेन स्वसदेहातहेतुना। सुविचार्येव तज्ज्ञयं यन्मुक्ते
जिमनिमम 1७संविग्नस्य प्रशान्तस्य वीतरागस्य योगिन' । वशीकृताक्षवर्गस्य प्राणायामो न शस्यसे।। प्राणस्यायमने पीडा तस्यां स्यादातसभव. । तेन प्रच्याव्यते नून ज्ञाततत्त्वोऽपि लक्षित
। -प्राणायाममें पवनके साधनसे विक्षिप्त हुआ मन स्वास्थ्यको नही प्राप्त होता, इस कारण भले प्रकार समाधिकी सिद्धिके लिए प्रत्याहार करना प्रशस्त है।४। पवनका चातुर्य शरीरको सूक्ष्म स्थूलादि करनेरूप अंगका साधन है, इस कारण मुक्तिकी वाचा करनेवाले मुनिके प्राय विध्नका कारण है।६। पवन सचारकी चतुराई के प्रप चसे क्या लाभ, क्योकि यह आत्माको सन्देह और पोडाका कारण है। ऐसे भले प्रकार विचार करके मुक्तिका प्रधान कारण होय सो जानना चाहिए ।७। जो मुनि समार देह और भोगोसे विरक्त है, कषाय जिसके मन्द हैं, विशुद्ध भाव युक्त है, बीतराग और जितेन्द्रिय है, ऐसे योगीको प्राणायाम प्रशंसा करने योग्य नहीं 14। प्राणायाममे प्राणोको रोकनेसे पीडा होती है, पीडासे आर्त ध्यान होता है। और उस आर्त ध्यानसे तत्त्वज्ञानी मुनि भी अपने लक्ष्यसे छुडाया जाता है ।। प प्र./टी./२/१६२ न च परकल्पितवायुधारणरूपेण श्वासनासो ग्राह्य । स्मादिति चेत वायुधारणा तावदी हापूविका, ईहा च मोह
ज्ञा./२६/१००-१०१ कौतुकमात्रफलोऽयं पर पुरप्रवेशो महाप्रयासेन । सिद्धयति न वा कथं चिन्महतामपि कालयोगेन ।१००। • समस्तरोगक्षयं वपु स्थैर्यम् । पवनप्रचारचतुर' करोति योगी न सदेह' ।१०१। = यह पुर प्रवेश है सो कौतुक मात्र है फल जिसका ऐसा है, इसका पारमार्थिक फल कुछ भी नहीं है। और यह बडे-बडे तपस्वियोके भी बहुत कालमे प्रयास करनेसे सिद्ध होता है ।१००। समस्त रोगोका क्षय करके शरीरमें स्थिरता करता है, इसमें कुछ भी सन्देह नही है ।१०१३ प. प्र./टी./२/१६२/२७४/१० कुम्भकपूरकरेचकादिसंज्ञा वायुधारणा क्षणमात्र भवत्येवात्र क्तुि अभ्यासवशेन घटिकाप्रहरदिवसादिष्वपि भवति तस्य वायुधारणस्य च कार्य देहारोगत्वलघुत्वादिकं न च सुक्तिरिति । कुम्भक, पूरक और रेचक आदि वायु धारणा क्षणमात्र होती है, परन्तु अभ्यासके वशसे घडी, पहर, दिवस आदि तक भी होती है । उस वायुधारणाका फल ऐसा है, देह अरोग्य होती है, सब रोग मिट जाते है, शरीर हलका हो जाता है, परन्तु इस वायु धारणासे मुक्ति नहीं होती है। ७. ध्यानमें वायु निरोध स्वतः होता है करना नहीं
पड़ता प प्र/टी /२/१६२/२७४/५ यदायं जीको रागादिपरभावशून्यनिर्विकल्प
समाधौ तिष्ठति तदायमुच्छ्वासरूपो वायु सिकाछिद्रद्वयं वर्जयित्वा स्वयमेवानीहितवृत्त्या तालुप्रदेशे यत् केशात शेषाष्टमभागप्रमाण छिद्र तिष्ठति तेन क्षणमात्रं दशमद्वारेण तदनन्तरं रन्ध्रण कृत्वा निर्गच्छतीति। = जब यह जीव रागादि परभावोसे शून्य निर्विकल्प समाधिमें होता है, तब यह श्वासोच्छ्वासरूप पवन नासिकाके दोनो छिद्रोको छोडकर स्वयमेव अवांछीक वृत्तिसे तालुबाके बालकी अनीके आठवे भाग प्रमाण अति सूक्ष्म छिद्रमें ( दसवे द्वारमै ) होकर बारीक निकलती है, नासाके छेदको छोड़कर तालुरन्धमे (छेदमें) होकर निकलती है। वह संयमीके वायुका निरोध स्वयमेव स्वाभाविक होता है वाछा पूर्वक नहीं।)
८. प्राणायामकी कथंचित् उपादेयता व कारण ज्ञा./२६/श्लोक नं -सुनिर्णीतसुसिद्धान्त · प्राणायाम' प्रशस्यते। मुनिभियान सिद्धयर्थं स्थैर्यार्थ चान्तरात्मन ।१। अत साक्षारस विज्ञथ पूर्वमेव मनीषिभि । मनागप्यन्यथा शक्यो न कर्तृ चित्त निर्जय ॥२॥ शनै शनैर्मनोऽजल वितन्द्र सह वायुना । प्रवेश्य हृदयाम्भोजकर्णिकाया नियन्त्रयेत ।१०। विकल्पा न प्रसूयन्ते विषयागा निवर्तते । अन्त स्फुरति विज्ञानं तत्र चित्ते स्थिरीकृते ।१११ एवं भावयत स्वान्ते यात्यविद्या क्षयं क्षयात । विमदीस्युस्तयाक्षाणि कषायरिपुभि समम् ।१२। स्थिरीभवन्ति चेतांसि प्राणायामावलम्बिनाम् । जगवृत्त
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प्राणासंयम
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प्राभृतक ज्ञान
च नि शेषं प्रत्यक्षमिव जायते ।१४। स्मरगरलमनोविजय पवनप्रचारचतुर करोति योगी न संदेह ।१०१। -भले प्रकार निर्णय रूप किया है सत्यार्थ सिद्धान्त जिन्होने ऐसे सुनियोने ध्यानकी सिद्धिके तथा मनकी एकाग्रताके लिए प्राणायाम प्रशंसनीय कहा है।१। ध्यानकी सिद्धि के लिए, मनको एकाग्र करनेके लिए पूर्वाचार्योने प्रशंसा की है । इसलिए बुद्धिमान पुरुषोको विशेष प्रकारसे जानना चाहिए, अन्यथा मनको जीतने में समर्थ नही हो सकते ।२। साधुओको अप्रमत्त होकर प्राणवायुके साथ धीरे-धीरे अपने मनको अच्छी तरह भीतर प्रविष्ट करके हृदयकी कणिकामें रोकना चाहिए। इस तरह प्राणायामके सिद्ध होनेसे चित्त स्थिर हो जाया करता है, जिससे कि अन्तर गमें संकल्प विकल्पोका उत्पन्न होना बन्द हो जाता है, विषयोकी आशा निवृत्त हो जाती है, और अन्तरं गमें विज्ञानकी मात्रा बढ़ने लगती है।१०-११। और इस प्रकार मन वश करके भावना करते हुए पुरुषके अविद्या तो क्षणमात्रमे क्षय हो जाती है, इन्द्रियाँ मद रहित हो जाती है, कषाय क्षीण हो जाती है ।१२। प्राणायाम करने बालोके मन इतने स्थिर हो जाते है कि उनको जगतका सम्पूर्ण वृत्तान्त प्रत्यक्ष दीखने लगता है ।१४। प्राणायामके द्वारा प्राण वायुका प्रचार करनेमें चतुर योगी कामदेव रूप विष तथा अपने मनपर विजय प्राप्त कर लिया करता है ।१०११
प्राभूत-१. आहारका एक दोष-दे० आहार/II/४/४५ २. समय प्राभृत या षट् प्राभृत आदि नामके ग्रन्थ-दे० पाहुड । १. पाहुड़ या प्राभूत सामान्यका लक्षण क पा./मु. १,१२-१३/६२६६/३२६ चूर्णसूत्र-पाहडे त्ति का णिरुत्ती।
जम्हा पदेहि पुद (फुड ) तम्हा पाहुडं।। क. पा १/१,१२-१३/१२६७/३२५/१० प्रकृष्टेन तीर्थकरेण आभृतं प्रस्थापित इति प्राभृतम्। प्रकृष्टैराचार्ये विद्या वित्तवद्भिराभृतं धारित व्याख्यातमानीतमिति वा प्राभृतम् । = पाहुड इस शब्दकी क्या निरुक्ति है । चूकि जो पदोसे स्फुट अर्थात व्यक्त है, इसलिए वह पाहुड़ कहलाता है । जो प्रकृष्ट अर्थात तीर्थकरके द्वारा आभृत अर्थात प्रस्थापित किया गया है वह प्राभृत है। अथवा जिनके विद्या ही धन है, ऐसे प्रकृष्ट आचार्योंके द्वारा जो धारण किया गया है, अथवा व्याख्यान किया गया है, अथवा परम्परासे लाया गया है, वह प्राभृत है। सा. सा/ता. वृ/परिशिष्ट/पृ. ५२३ यथा कोऽपि देवदत्तो राजदर्शनार्थ किचित्सारभूतं वस्तु राझं ददाति तत्प्राभृत भण्यते। तथा परमात्माराधकपुरुषस्य निर्दोषिपरमात्मराजदर्शनार्थमिदमपि शास्त्र प्राभृत। कस्मात् । सारभूतत्वात् इति प्राभृतशब्दस्यार्थः।-जिस प्रकार कोई देवदत्त नामका पुरुष राजाके दर्शनार्थ कोई सारभूत वस्तु भेट देता है, उसे प्राभूत कहते है। उसी प्रकार परमात्माके आराधक पुरुषके लिए निर्दोष परमात्म राजाके दर्शनार्थ यह शास्त्र प्राभूत है, क्योकि यह सारभूत है। ऐसा प्राभृत शब्दका अर्थ है।
प्राणासंयम-दे० संयम। प्रातर-मध्य आर्यखण्डका एक देश-दे० मनुष्य/४ । प्रातिहार्य-दे० आहेत। प्रात्ययको क्रिया-दे० क्रिया/३/२। प्राथमिक-Elermentary, Primative (ध./५/पू /२८) । प्रादुष्कार-१. आहारका एक दोष-दे० आहार/11/४/४ ।
२. बसतिकाका एक दोष-दे० वसतिका। प्रादोषिक काल-म. आ /२७० का भावार्थ-जिसमें रातका भाग है वह प्रदोषकाल है अर्थात रातके पूर्वभागके समीप दिनका पश्चिम भाग वह सुबह शाम दोनों कालोमे प्रदोषकाल जानना। प्रादोषिकी क्रिया-दे० क्रिया/३/२। प्राप्ति ऋद्धि-दे० ऋद्धि/३ । प्राप्ति समा जाति-न्या, समु./१/१/७/२६० प्राप्य साध्यमप्राप्य वा हेतोः प्राप्त्याविशिष्टतत्त्वाप्राप्त्यासाधवत्वाच्च प्राप्त्यप्राप्तिसमौ १७ -हेतुको साध्यके साथ जो प्राप्ति कर के प्रत्यवस्थान दिया जाता है, वह प्राप्ति समा जाती है। और अप्राप्ति करके जो फिर प्रत्यवस्थान दिया जाता है, वह अप्राप्ति समा जाति है। (दृष्टान्तजैसे कि पर्वतो वह्निमात् धूमाव' इत्यादि समीचीन हेतुका वादी द्वारा कथन किये जा चुकने पर प्रतिवादी दोष उठाता है कि यह हेतु क्या साध्यको प्राप्त होकर साध्यकी सिद्धि करावेगा क्या अन्य प्रकारसे भी। साध्य और हेतु जन्य दोनो एक ही स्थानमे प्राप्त हो रहे है, तो गायके डेरे और सूधे सीग के समान भला उनमेसे एकको हेतुपना और दूसरेको साध्यपना कैसे युक्त हो सकता है। · अप्राप्तिसमाका उदाहरण यो है कि बादीका हेतु यदि साध्यको नही प्राप्त होकर साध्यका साधक होगा तर तो सभी हेतु प्रकृत साध्यके साधन बन बैठेगे अथवा वह प्रकृत हेतु अकेला ही सभी साध्यको साध्य डालेगा (श्लो. बा.४/न्या /३५३-३५८/४८५ में इसपर चर्चा) । प्राप्य कर्म-दे० कर्ता/१। प्राप्यकारी इंद्रियाँ-दे० इन्द्रिय/२।
२. निक्षेप रूप भेदोंके लक्षण नोट-नाम स्थापनादिके लक्षण-दे० निक्षेप । क. पा.१/१,१३-१४/१२१२-२६६/३२३-३२४ तत्त्थ सचित्तपारडं णाम
जहा कोसल्लियभावेण पट्टविज्जमाणा हयगय बिलयायिया। अचित्तपाहुई जहा मणि-कणयरयणाईणि उवायणाणि । मिस्सयपारडं जहा ससुवण्णकरितुरयाण कोसल्लियपेसणं । २६२। आण तहेउदव्यपट्ठवण पसस्थभावपाहूड । वइरकलहादिहेउदव्यपवणमप्पसत्थभावपाहुड । मुहियभावपाहुडस्स पेसणोबायाभावादो ।२६४। जिणवइणा • उझियरायदोसेण भव्वाणमणवज्जबुहाइरियपणालेण पठविददुवालसगवयणकलावो तदेगदेसो वा। अबर आण दमेत्ति पाहुड । २६कलहणिमित्तगद्दह-जर-खेटयादिदव्यमुवयारेण फलहो, तस्स विसज्जणं कलहपाहुड। - उपहार रूपसे भेजे गये हाथी घोडा और स्त्री आदि सचित्त पाहुड़ है। भेट स्वरूप दिये गये मणि, सोना और रत्नादि अचित्त पाहुड़ है। स्वर्ण के साथ हाथी और घोडेका उपहार रूपसे भेजना मिश्र पाहुड है ।२६२३ आनन्दके कारणभूत द्रव्यका उपहार रूपसे भेजना प्रशस्त नोआगम भाव पाहुड़ है। तथा वैर और कलह आदिके कारणभूत द्रव्यका उपहार रूपसे भेजना अप्रशस्त नोआगम भाव पाहुड़ है। मुख्य नोआगम भाव पाहुड़ (ज्ञाताका शरीर) भेजा नही जा सकता है, इसलिए यहाँ औपचारिक (बाह्य) औपचारिक नोआगमभाव पाहुडका उदाहरण दिया गया है । १२६४। जो राग और द्वेषसे रहित है ऐसे जिन भगवान्के द्वारा निर्दोष श्रेष्ठ विद्वान् आचार्योकी परम्परासे भव्य जनोके लिए भेजे गये बारह अंगोके वचनोका समुदाय अथवा उनका एकदेश परमानन्द दोग्रन्थिक पाहुड कहलाता है। इससे अतिरिक्त शेष जिनागम आनन्दमात्र पाहुड है ।२६५। गधा, जीर्ण वस्तु और विष आदि द्रव्य कलहके निमित्त है, इसलिए उपचारसे इन्हे भी क्लह कहते है। इस कलहके निमित्तभूत द्रव्यका भेजना कलह पाहुड़ कहलाता
है।२६६। प्राभूतक ज्ञान-दे० श्रुतज्ञान/III
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प्राभृतकप्राभृतकज्ञान
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प्रायश्चित्त
शंका समाधान
दूसरेके परिणाम कैसे जाने जा सकते है। २ | तदुभय प्रायश्चित्तके पृथक् निर्देशकी क्या आवश्यकता।
प्राभृतकप्राभृतकज्ञान-दे० श्रुतज्ञान/U | प्राभृतक प्राभृतक समास ज्ञान-दे० श्रुतज्ञान/I1 । प्राभृतक समास ज्ञान-दे० श्रुतज्ञान/II । प्रामाण्य-१ न्या वि/टी./१/१२८/४८१/२० प्रमाणर्म प्रामाण्यं परिच्छिन्तिलक्षण । प्रमाणका कर्म सो प्रामाण्य है, वह पदार्थ के निश्चय करने रूप लक्षण वाला होता है। प्रामृष्य- आहार का एक दोष-दे आहार II/४/४ | प्रायश्चित्त-प्रतिरामय लगनेवाले अन्तर ग व बाह्य दोषोकी निवृत्ति करके अन्तर्शोधन करने के लिए किया गया पश्चात्ताप या दण्डके रूपसे उपकास आदिका ग्रहण प्रायश्चित्त कहलाता है, जो अनेक प्रकारका हाता है। बाह्य दोषोका प्रायश्चित्त पश्चात्ताप मात्रसे हो जाता है। पर अन्तरंग दोषोका प्रायश्चित्त गुरुके समक्ष सरल मनसे आलोचना पूर्वक दण्डको स्वीकार किये बिना नही हो सकता है। परन्तु इस प्रकार के प्रायश्चित्त अर्थात् दण्ड शास्त्रमे अत्यन्त निपुण व कुशल आचार्य ही शिष्यकी शक्ति व योग्यताको देखकर देते है, अन्य नही।
प्रायश्चित्त विधान प्रायश्चित्तके योग्य कुछ अपराधोंका परिचय । अपराधोके अनुसार प्रायश्चित्त विधान । शूद्रादि छनेके अवसर योग्य प्रायश्चित्त । अयोग्य आहार ग्रहण सम्बन्धी प्रायश्चित्त ।
-दे० भक्ष्याभक्ष्य/१। | यथा दोष प्रायश्चित्तमें कायोत्सर्गके कालका प्रमाण।
-दे० व्युत्सर्ग/१।
| भेद व लक्षण | प्रायश्चित्त सामान्यका लक्षण-१ निरुक्त्यर्थ, २. निश्चयकी अपेक्षा, ३ व्यवहारकी अपेक्षा। प्रायश्चित्तके भेद । प्रायश्चित्तके भेदोंके लक्षण । आलोचन, प्रतिक्रमण, विवेक, व्युत्मर्ग, तप व परिहार प्रायश्चित्त सम्बन्धी विषय ।-दे० बह वह नाम ।
प्रायश्चित्त निर्देश प्रायश्चित्तकी व्याप्ति अंतरगके साथ है। प्रायश्चित्तके अतिवार । अपराध होते ही प्रायश्चित्त लेना चाहिए । बाह्य दोपका प्रायश्चित्त स्वय तथा अन्तरंग दोषका गुरुके निकट लेना चाहिए। शियके दोषोंको गुरु अन्यपर प्रगट न करे।
-दे० गुरु/२। | आत्म भावनासे न्युत होनेपर पश्चात्ताप ही प्रायश्चित्त है। दोप लगनेपर प्रायश्चित्त होता है सर्वदा नहीं। प्रायश्चित्त शास्त्रको जाने बिना प्रायश्चित्त देनेका निषेव । प्रायश्चित्त ग्रन्थके अध्ययनका अधिकार सबको नहीं।
__ -दे० श्रोता। शक्ति आदिके सापेक्षा ही देना चाहिए। आलोचना पूर्वक ही लिया जाता है। प्रायश्चित्तके योग्यायोग्य काल व क्षेत्र । प्रायश्चिन्तका प्रयोजन व माहात्म्य ।
१. भेद व लक्षण १. प्रायश्चित्त सामान्यका लक्षण १. निरुक्ति अर्थ रा, या./६/२२/१/६२०/२८ प्रायः साधुलोक , प्रायस्य यस्मिन्कर्मणि चित्त तत्प्रायश्चित्तम् । अपराधो ग प्राय', चित्त शुद्धि, प्रायस्य चित्त प्रायश्चित्तम्, अपराधविशुद्धिरित्यर्थ । प्रायः साधु लोक, जिस क्रियामे साधुओका चित्त हो वह प्रायश्चित्त । अथवा प्राय
अपराध उसका शोधन जिससे हो वह प्रायश्चित्त । ध. १३/५४,२६/गा ६/५६ प्राय इत्युच्यते लोकश्चित्त तस्य मनो भवेत् । तच्चित्तग्राहक कम प्रायश्चित्तमिति स्मृतम् ।। प्राय' यह पद लोकवाची है और चित्तसे अभिप्राय उसके मनका है। इसलिए उस चित्तको ग्रहण करनेवाला कर्म प्रायश्चित्त है, ऐसा समझना चाहिए ।। (भ.आ./वि./५२६/७४७ पर उद्धृत गा) नि सा /ता. वृ /११३,११६ प्राय' प्राचुर्येण निर्विकार चित्त प्रायश्चित्तम् ।११३। बाधो ज्ञानं चित्तमित्यनर्थान्तरम् ।११६1 -प्रायश्चित्त अर्थात् प्राय चित्त-प्रचुर रूपसे निर्विकार चित्त ।११३। बोध, ज्ञान
और चित्त भिन्न पदार्थ नहीं है ।११६।। अन ध./७/३७ प्रायो लोकस्तस्य चित्त मनस्तच्छाद्विकृरिक्रया । प्राये तपसि वा चित्त निश्चयस्तन्निरुच्यते ।३७। प्राय शब्द का अर्थ लोक और चित्त शब्दका अर्थ मन होता है। जिसके द्वारा साधर्मी
और सघमें रहने वाले लोगोका मन अपनी तरफसे शुद्ध हो जाये उस क्रिया या अनुष्ठानको प्रायश्चित्त कहते है । ( का अ/टी./४५१) पद्मचन्द्र काष/पृ २५८ प्रायस् + चित्+क्त। प्रायस्-तपस्या, चित्तनिश्चय । अर्थात निश्चय सयुक्त तपस्याको प्रायश्चित्त कहते है। २ निश्चयकी अपेक्षा नि सा /मू./गा. कोहादिसम्भावयरख पाहुदिभावणाए णिग्गहणं । पायच्छित्त भणिद णिस गुण चिता य णिच्छयदो।११४। उक्किट्ठो जो बोहो णाण तरसेव अप्पणो चित्त । जो धरइ मुणी णिच्च पायच्छितं हवे तरस ।११६। कि बहुणा भणिएण दु वरतवचरणं महे सिणं सव्वं । पायचित्त जाणह अणेयकम्माण खयहेउ ।११७। अप्पसरूवालंबणभावेण दु सव्वभावपरिहार। सक्कदि काउ' जीवो तम्हा झाण हवे सव्यं ।११। -क्रोधादि स्वकीय भात्रोके (अपने विभावभावोके) क्षयादिकी भावना में रहना और निज गुणोका चिन्तवन करना वह निश्चयसे प्रायश्चित्त कहा है ।११४। उसी (अनन्त धर्मवाले)
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प्रायश्चित्त
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२. प्रायश्चित्त निर्देश
आत्माका जो उत्कृष्ट ज्ञान अथवा चित्त उसे जो मुनि नित्य धारण करता है, उसे प्रायश्चित्त है ।११६। बहुत कहने से क्या । अनेक कोके क्षयका हेतु ऐसा जो महर्षियोका उत्तम तपश्चरण वह सब प्रायश्चित्त जान ११७ आत्म स्वरूप जिसका अबलम्बन है, ऐसे भावोसे जोव सर्व भावोका परिहार कर सकता है, इसलिए ध्यान सर्वस्व है ।११।। (विशेष विस्तार दे०नि, सा /मू व ता वृ./११३-१२१)। का अ/मू./४५५ जो चितह अप्पाण णाण-सरूव पुणो पुणो णाणी। विकह-विरत्त चित्तो पायच्छित्तं वरं तस्स ४५५। जो ज्ञानी मुनि ज्ञान स्वरूप आत्माका बारम्बार चिन्तन करता है, और विक्थादि प्रमादोसे जिसका मन विरक्त रहता है, उसके उत्कृष्ट प्रायश्चित्त होता है ।४५॥ ३ व्यवहारकी अपेक्षा मू आ./३६१,३६३ पायच्छित्त ति तवो जेण विसुज्झदि हु पुव्वक्यपा।
पायच्छित्त पत्तोति तेण वृत्त । ३६३ पोराणवम्मखमण खिवणं णिज्जरणं सोधणं धुमणं । पुच्छणमुछिवर्ण छिदण ति पायचित्तस्स णामाई 1३६३। - व्रतमें लगे हुए दोषोको प्राप्त हुआ यति जिससे पूर्व किये पापौसे निर्दोष हो जाय वह प्रायश्चित्त तप है ।३६११ पुराने कर्मों का नाम, क्षेपण, निर्जरा, शोधन, धावन, पुच्छन (निराकरण )
उत्क्षेपण, छेदन (द्वैधीकरण ) ये सब प्रायश्चित्त के नाम है ।३६॥ स सि //२०/४३६/६ प्रमाददोषपरिहार प्राय चित्तम् । = प्रमाद जन्य दोषका परिहार करना प्रायश्चित्त तप है। (चा सा /०३७/२) (अन ध०/७/३४)। घ. १३/१४,२६/१६/८ कयावराहेण सस वेयणिवेएण सगावराहणिरायरहण जमणुट्टाणं कीरदि तप्पायच्छित्त णाम तबोकम्म । = सवेग
और निवेदसे युक्त अपराध करनेवाला साधु अपने अपराधका निराकरण करनेके लिए जो अनुष्ठान करता है वह प्रायश्चित्त नामका
तप कर्म है। का.अ./मू./४५१ दोसं ण करेदि सय अण्ण पि ण कारएदि जो तिविह। कुव्वाण पिण इच्छदि तस्स विसोही परा होदि ।४५१। जो तपस्वी मुनि मन वचन कायसे स्वयं दोष नही करता, अन्यसे भी दोष नही क्राता तथा कोई दोष करता हो तो उसे अच्छा नहीं मानता, उस मुनिके उत्कृष्ट विशुद्धि (प्रायश्चित्त ) होती है ।४५१।
२. प्रायश्चित्तके भेद मू. आ./३६२ आलोयण पडिक्मणं उभय विवेगो तहा विउस्सग्गो । तव छेदो मूल पिय परिहारो चेव सद्दहणा ।३६२ = आलोचना, प्रतिक्रमण, तदुभय, विवेक, व्युत्सर्ग, तप, छेद, मूल, परिहार और श्रद्धान ये दश भेद प्रायश्चित्तके है ।३६२। (ध १३/५.४,२६/गा ११/६०) (चा.
सा./१३७/३) ( अन. ध /७/३७ की भाषा अथवा :७-५७)। त स./६/२२ आलोचनप्रतिक्रमणतदुभयविवेकव्युत्सर्गतपश्छेदपरिहारोपस्थापना ।२२। आलोचना, प्रतिक्रमण, तदुभय, विवेक, व्युत्सर्ग, तप, छेद, परिहार और उपस्थापना यह नब प्रकारका प्रायश्चित्त
है ।२२। अन.ध./७/५६ व्यवहारनयादित्थं प्रायश्चित्तं दशात्मकम् । निश्चयात्तदसख्येयलोकमात्रभिदिष्यते 1५६) व्यवहार नयसे प्रायश्चित्तके दश भेद है। किन्तु निश्चयनयसे उसके असरख्यात लोक प्रमाण भेद होते है। ३. प्रायश्चित्तके भेदोंके लक्षण १ तदुभय स सि /8/२२/४४०/७ (तदुभय) संसर्गे सति विशोधनात्तदुभयम् ।
- आलोचना और प्रतिक्रमण इन दोनोका संसर्ग होनेपर दोषोका शोधन होनेसे तदुभय प्रायश्चित्त है। (रा. वा /8/२२/४/६२१/२०) ( अन, ध./७/४८)।
ध. १३/५,४,२६/१०/१० सगावराहं गुरुणमालोचिय गुरुसविखया अवराहादो पडिणियत्ती उभय णाम पायच्छितं । - अपने अपराधकी गुरुके सामने आलोचना करके गुरुकी साक्षिपूर्वक अपराधसे निवृत्त होना उभय नामका प्रायश्चित्त है।
२. उपस्थापना या मूल स. सि/8/२२/४४०/१० पुनर्दीक्षाप्रापणमुपस्थापना। = पुन, दीक्षा वेना
उपस्थापना प्रायश्चित्त है। (रा वा./१/२२/१०/६२१/३४ ) (ध, १३/ ५,४,२६/६२/२) ( च सा /१४४/३) ( अन, ध./७/१५) ।
३ श्रद्धान घ. १३/५,४,२६/६३/३ मिच्छत्तं गतूण ट्ठियस्स महव्ययाणि घेत्तूण अत्तागम-पयत्थसद्दहणा चेव (सदहण ) पायच्छित्त। -मिथ्यात्वको प्राप्त होकर स्थित हुए जीवके महानतोको स्वीकार कर आप्त आगम और पदार्थोका श्रद्धान करने पर श्रद्वान नामका प्रायश्चित्त होता है। (चा सा/१४७/२ ) ( अन ध/७१३७) । २. प्रायश्चित्त निर्देश
१. प्रायश्चित्तको व्याप्ति अन्तरंगके साथ है भ. आ./म./१०५/५६४ आलोचणापरिणदो सम्म सपच्छिओ गुरुसयास। जदि अतरम्मि काल करेज्ज आराहओ होई । --में अपने अपराधोका स्वरूप गुरुके चरण समीप जाकर कहूँगा, ऐसा मनमें विचार कर निकला मुनि यदि मार्गमे ही मरण करे तो भी वह आराधक होता
है।४०। (भ आ /म् /४०६-४०७/५६५) । दे० प्रतिक्रमण/२/२/२ निजात्म भावनासे ही निन्दन गर्हण आदि
शुद्धिको प्राप्त होता है। २. प्रायश्चित्तके अतिचार भ आ./वि /४८७/००७/२० प्रायश्चित्तातिचारनिरूपणा-तत्रातिचारा। आवं पियअणुमाणियमित्यादिकाश्च । भूतातिचारेऽस्य मनसा अजुप्सा । अज्ञानत , प्रमादात्कर्म गुरुत्वादालयाच्चेद अशुभकर्मबन्धननिमित्त अनुष्ठित, दुष्ट कृतमिति एवमादिक प्रतिक्रमणातिचार । उक्तोभया तिचारसमवायस्तदुभयातिचार' । प्रायश्चित्त तपके अतिचार-आकंपित अनुमानित वगैरह दोष (दे० आलोचना/२) इस तपके अतिचार है । ये अतिचार होनेपर इसके विषयमे मनमें ग्लानि न करना अज्ञानसे, प्रमादसे, तीव्र कर्म के उदयसे और आलस्यसे मैने यह अशुभ कर्म का बंध करनेवाला कर्म क्यिा है, मैने यह दृष्ट कर्म किया है, ऐसा उच्चारण करना प्रतिक्रमण के अतिचार है।
आलोचना और प्रतिक्रमणके अतिचारको उभयातिचार कहते है। नोट-विवेक, आलोचना आदि तपके अतिचार -दे० वह वह नाम ।
३. अपराध होते ही प्रायश्चित्त लेना चाहिए भ. आ /मु. व. वि./५४१/७५७ उत्थानिका-जाते अपराधे तदानीमेव कथितव्यं न कालक्षेप कार्य इति शिक्षयति क्ले परे व परदो काह दसणच रित्तसोधित्ति । इय सप्पमदीया गयं पि काल ण याणं ति 1५४१॥ तत सशल्य मरणं तेषा भवति इति। व्याधय., कर्माणि, शत्रवश्चौपेक्षितानि बद्धमलानि पुनर्न सुखेन विनाश्यन्ते। अथवा अतिचारकाल गत चिरातिक्रान्तं नैव जानन्ति । ये हि अतिचारा' प्रतिदिनं जातास्तेषां कालं, संध्या रात्रिदिन इत्यादिक पश्चादालोचनाकाले गुरुणा पृष्टास्तावन्न बकर जानन्ति विस्मृतत्वाच्चिरातीतस्य ।' अपि शब्देन क्षेत्रभावौ वातिचारस्य हेतू न जानन्ति ।. इह स्मृतिज्ञानागोचर इति केषांचिद्वार यानं । - आराधनामे अतिचार होनेपर उसी क्षणमे उनका गुरुके समय कथन करना चाहिए, कालक्षेप करना योग्य नही, ऐसा उपदेश देते है।-१ बल परसो अथवा
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प्रायश्चित्त
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२ प्रायश्चित्त निर्देश
नरसोमे दर्शन-ज्ञान व चारित्रको शुद्धि करूंगा, ऐसा जिन्होने अपने मनभे सकल्प किया है, ऐसे मुनि अपना आयु कितना नष्ट हुआ है यह नही जानते अर्थात उनका सशल्य मरण होता है ।५४१। रोग, शत्रु और इनकी उपेक्षा करनेसे ये दृढमूल होते है। पुन, उनका नाश सुरवसे कर नहीं सकते। अथवा जो अतिचार होकर बहुत दिन व्यतीत हो चुके है, उनका स्मरण होता नहीं। जो अतिचार हुए है, उनके सन्ध्या, दिन, रात्रि, इत्यादि रूप काल का स्मरण गुरुके पूछनेपर शिष्योको होता नही, क्योकि अतिचार होकर बहुत दिन व्यतीत हो चुके हैं। इसी प्रकार क्षेत्र, भाव और अतिचारके कारण इनका भी स्मरण नही होता, वे अतिचार स्मृतिज्ञानके अगोचर है। ऐसा कोई आचार्य इस गाथाका व्याख्यान करते है। ४. बाह्य दोषका प्रायश्चित्त स्वयं तथा अन्तरंग दोषका
गुरुके निकट लेना चाहिए प्र, सा /म् /२११-२१२ पयदम्हि समारद्ध छेदो समणस्स कायचेटुम्हि । जायदि जदि तस्स पुणो आलोयणपुब्विया किरिया ।२११। छेदुवजुत्ता समणो समणं ववहारिणं जिणमदम्हि । आसेज्जालोचित्ता उबदिह्र तेण काय १२१२। -यदि श्रमणके प्रयत्न पूर्वक की जानेवाली कायचेष्टामें छेद होता है तो उसे आलोचना पूर्वक क्रिया करना चाहिए ।२११। किन्तु यदि श्रमण छेदमें ( अन्तरंग छेदमें ) उपयुक्त हुआ हो तो उसे जैनमतमे व्यवहार कुशल श्रमणके पास जाकर आलोचना करके ( दोषका निवेदन करके) जैसा उपदेश दें वैसा करना चाहिए ।२१२॥ ५. आत्म भावनासे च्युत होनेपर पश्चात्ताप ही प्राय
श्चित्त है इ. उ /मू /३६ निशामयति नि शेषमिन्द्रजालोपमं जगत् । स्पृहयत्यात्मलाभाय गत्वान्यत्रानुतप्यते ।३१। -योगीजन इस समस्त जगत्को इन्द्रजालके समान देखते है, क्योकि उनके आत्म स्वरूपकी प्राप्तिकी प्रबल अभिलाषा उदित रहती है। यदि कारणवश अन्य कार्य में प्रवृत्ति हो जाती है, तब उसे संताप होता है। ६. दोष लगनेपर प्रायश्चित्त होता है सर्वदा नहीं रा. वा /8/२२/१०/६२२/१ भयत्वरण विस्मरणानवबोधाशक्तिव्यसनादिभिर्महावतातिचारे सति प्राक् छेदाद षड्विधं प्रायश्चित्तं विधेयं । - डरकर भाग जाना, सामर्थ्यकी हीनता, अज्ञान, विस्मरण, यवनादिकोंका आतंक, इसी तरहके रोग अभिभव आदि और भी अनेक कारणोसे महावतोमे अतीचार लग जानेपर तपस्वियोके छेदसे पहलेके छहों प्रायश्चित्त होते है। (चा सा./१४२/१); (अन.ध. ७/५३)। ७. प्रायश्चित्त शास्त्रको जाने विना प्रायश्चित्त देनेका
निषेत्र भ. आमू /४५१ ४५३/६७८ मोत्तूण रागदोसे ववहार पट्ठवेइ सो तस्स । ववहारकरणकुसलो जिणवयणविसारदो धीरो।४५ ववहारमयण तो बवहरणिज्ज च बवहर तो खु । उस्सीयदि भवपंके अयसं कम्मच आदियदि ।४५२। जह ण करेदि तिगिच्छ' वाधिस्स तिरिच्छओ अणिम्मादो। ववहारमयण तो ण सोधिकामो विज्झेइ १४५३। -जिन प्रणीत आगममे निपुण, धैर्यवान, प्रायश्चित्त शास्त्रके ज्ञाता ऐसे आचार्य राग-द्वेष भावना छोडकर मध्यस्थ भाव धारण कर मुनिको प्रायश्चित्त देते है ।४५१) ग्रन्थसे, अर्थसे और मैसे प्रायश्चित्त का स्वरूप जिसको मालूम नही है वह मुनि यदि नव प्रकारका प्रायश्चित्त देने लगेगा तो वह संसारके कीचडमे फंसेगा और जगत्मे
उसकी अकीर्ति फैलेगी ।४५२। जैसे-अज्ञवैद्य रोगका स्वरूप न जाननेके कारण रोगकी चिकित्सा नही कर सकता। वैसे ही जो आचार्य प्रायश्चित्त ग्रन्थके जानकार नहीं है वे रत्नत्रयको निर्मल करनेकी इच्छा रखते हुए भी निर्मल नही कर सकते १४५३॥ ८. शक्ति आदिसे सापेक्ष ही देना चाहिए रा. वा/६/२२/१०/६२२/८ तदेतन्नवविध प्रायश्चित्तं देशकालशक्तिसंयमाद्यविरोधेनाल्पानल्पापराधानुरूप दोषप्रशमनं चिकित्सितवद्विधेयं । जीवस्यासंख्येयलोकमात्रपरिणामा परिणाम विकल्पा. अपराधाश्च तावन्त एव न तेषां ताबद्विकल्प प्रायश्चित्तमस्ति व्यवहारनयापेक्षया पिण्डीकृष्य प्रायश्चित्तविधानमुक्तं । -देश, काल, शक्ति और सयममें किसी तरहका विरोध न आने पावे और छोटा बडा जैसा अपराध हो उसके अनुसार वैद्यके समान दोषोंका शमन करना चाहिए। प्रत्येक जीवके परिणामोके भेदोकी संख्या असंख्यात लोक मात्र है, और अपराधोकी सख्या भी उतनी है, परन्तु प्रायश्चित्तके उतने भेद नही कहे है। ऊपरके लिखे (६ वा १०) भेद तो केवल व्यवहार नयकी अपेक्षासे समुदाय रूपसे कहे गये है। (भ आ./वि./६२६/८२८/२०), ( चा, सा /१४७/२), ( अन, ध/७/६८)। ९. आलोचना पूर्वक ही लिया जाता है भ. आमू./६२०-६२१ एत्थ दु उज्जुगभावा ववहारिदव्या भवति ते
पुरिसा। स का परिहरिदव्वा सो से पट्टाहि जहि विसुद्धा ।।२०। पडिसेवणादिचारे जदि आज पदि तहाकम्म सन्वे । कुव्वं ति तहो सोधि आगमवबहारिणो तस्स ।६२१। जो ऋजु भावसे आलोचना करते है, ऐसे पुरुष प्रायश्चित्त देने योग्य है और जिनके विषय में शंका उत्पन्न हुई हो उनको प्रायश्चित्त आचार्य नहीं देते है। इससे सिद्ध हुआ कि सर्वातिचार निवेदन करनेवाली में ही ऋजुता होती है, उसको ही प्रायश्चित्त देना योग्य है ।२०। यदि द्रव्य, क्षेत्र, काल और भावके आश्रयसे हुए सम्पूर्ण दोष क्षपक अनुक्रमसे कहेगा तो प्रायश्चित्त दानकुशल आचार्य उसको प्रायश्चित्त देते है ।६२१॥ १०. प्रायश्चित्तके योग्यायोग्य काल व क्षेत्र भ. आ/मू /५५४-१५६ आलोयणादिया पुण होइ पसत्थे य सुद्धभावस्स ।
पुठ्वण्हे अवरण्हे ब सोमतिहिरवखवेलाए ।५५४६ णिप्पत्तकंटइल्लं विज्जुदं सुबखरुक्खक्ड्डदड्ढ । सुण्णधररुद्ददेउलपत्थररासिट्टियापुंज ॥५५॥ तणपत्तक्छारिय असुइ सुसाणं च भग्गपडिद वा। रुद्दाण खुद्दाणं अधिउत्ताण च ठाणाणि १५५६। अण्णं व एषमादी य अप्पसत्थ हवेज्ज जं ठाणं । आलोचणं ण पडिच्छदि तत्थ गणीसे अबिग्घत्थ १५५७ अरह तसिद्धसागरपउमसर खीरपुप्फफलभरियं । उज्जाणभवणतोरणपासादं णागजक्रवघर १५५८१ अण्ण च एवमादिया सुपसत्थ हवइ ज ठाण । आलोयणं पडिच्छदि तस्य गणीसे अविरघत्थं ।५५६। -१ विशुद्व परिणामवाले इस धपक्की आलोचना प्रतिक्रमणादिक क्रियाएँ दिनमे और प्रशस्त स्थानमें होती है। दिवसके पूर्व भागमे अथवा उत्तर भागमे, सौम्य तिथि, शुभ नक्षत्र, जिस दिनमे रहते है उस दिन होती है ।५५४) २ जो क्षेत्र पत्तोसे रहित है, कॉटोसे भरा हुआ है, बिजली गिरनेसे जहाँ जमीन फट गयी है, जहाँ शुष्क वृक्ष है, जिसमें कटुरससे वृक्ष भरे है, जो जल गया है, शून्य घर, रुद्रका मन्दिर, पत्थरों का ढेर और ईटोका ढेर है, ऐसा स्थान आलोचनाके योग्य नहीं है ।५५५। 'जिसमे सूखे पान, तृण, काठके पुंज है, जहाँ भस्म पडा है, ऐसे स्थान तथा अपवित्र श्मशान, तथा फूट हुए पात्र, गिरा हुआ घर जहाँ है वह स्थान भी धर्य है। रुद्र देवताओ, और क्षुद्रदेवताओ इनके स्थान भी वर्त्य समझने चाहिए ।१५६। ऊपरके स्थान बय॑ है वैसे ही अन्य भी जो अयोग्य स्थान है, उनमें भी क्षपककी आलोचना आचार्य सुनते
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प्रायश्चित
नहीं क्योंकि ऐसे स्थानों में जातोचना करनेसे पककी कार्यसिद्धि नहीं होगी । ५५०० ३ बर्हन्तका मन्दिर, सिद्धोका मन्दिर, समुद्र के समीपका प्रदेश, जहाँ सीरवृक्ष है, जहाँ पुष्प व फलीसे लदे वृक्ष है ऐसे स्थान, उद्यान, तोरण द्वार सहित मकान, नागदेवताका मन्दिर, यक्ष मन्दिर, ये सब स्थान क्षपककी आलोचना सुननेके योग्य हैं । ५५८ | और भी अन्य प्रशस्त स्थान आलोचना के योग्य है, ऐसे प्रशस्त स्थानोगे क्षपकका कार्य निर्विघ्न सिद्ध हो इस हेतु से आचार्य बैठकर आलोचना सुनते है ॥२३६॥
११. प्रायवित्तका प्रयोजन व माहात्म्य
रा. वा / १/२२/१/६२०/२६ प्रमाददोषव्युदास भावप्रसादो नै शक्यस् अस्थावृत्तिमा सयमावाद माराधनमित्येवमादीनां सिद्धयर्थं प्रायश्चित्तं नवविधं विधीयते । == प्रमाद दोष व्युदास, भाव प्रसाद, नि शल्यत्व, अव्यवस्था निवारण, मर्यादाका पालन, संयमकी दृढता, आराधना सिद्धि आदिके लिए प्रायश्चित्तमे विशुद्ध होना आवश्यक है। (भा पा. / टी / ७८ / २२४ / ६ ) | घ. /१३/५.४,२६/ १०/६० कृतानि कर्माण्यतिदारुणानि भवा गा. म विगर्हणेन । प्रकाशनात्समरणारच तेषामस्यन्तगुलोद्धरणं मदामि 1१०1] अपनी ग करनेसे, दोषोका प्रकाशन करनेसे और उनका संवर करनेसे किये गये अतिदारुण कर्म कृश हो जाते है। अब उनका समूल नाश कैसे हो जाता है, यह कहते है | १०| ( का.अ./यू. /४५१-४५२ ) ।
३. शंका समाधान
१. दूसरेके परिणाम कैसे जाने जाते हैं
भ.आ./नि./६२६/०२८/२० क परिणामो ज्ञायते इति चेद सहवासेन तीव्रकोपस्तीमान इत्यादिकं सुज्ञातमेव तत्कार्योपसम्भाव समेष वा परिवृप कोहभवत परिणामोऽविचारसमकालं वृत्तः । - प्रश्न - दूसरेके परिणाम कैसे जाने जा सकते है ? उत्तर - १. सहवाससे परिणाम जाने जा सकते है, २, अथवा उसके कार्य देखने पर उसके तीव्र या मन्द क्रोधादिकका स्वरूप मालूम होता है । ३. अथवा जब तुमने अतिचार किये थे तब तुम्हारे परिणाम कैसे थे', ऐसा उसको पूछकर भी परिणामोंका निर्णय किया जा सकता है। विशेष-दे० विनय /५/१) ।
२. समय प्रायश्चित्तके पृथक् निर्देशकी क्या आवश्यकता तदुभय दे प्रतिक्रमण / २ / २] सभी प्रतिक्रमण नियमसे आलोचना पूर्वक होते हैं। गुरु स्वयं अन्य किसीसे आलोचना नही करता है। इसलिए गुरुसे अतिरिक्त अन्य शिष्योकी अपेक्षा तदुभय प्रायश्चित्तका पृथ निर्देश किया गया है ।
४. प्रायश्वित्त विधान
१. प्रायश्चित्तके योग्य कुछ अपराधोंका परिचय भ./वि./४५०/६७६/८ पृथिवी, आपस्तेजो वायुः... सचित्त द्रव्य... तृणफलकादिर्क अति ससतं उपकरण मिश्र एवं त्रिविधा द्रव्यप्रतिसेवना। वर्षा...अर्ध योजनम्। ततोऽधिक्षेत्रगमनं प्रतिषिक्षेत्रगमनं विरुद्वरागमनं चित्राप्यगमनं ततो रक्षणीया गमन |---उन्मार्गेण वा गमनद अन्त पुरप्रवेश' । अनुज्ञातगृहभूमिगमनम् इत्यादिना क्षेत्रप्रतिसेवना आवश्यककालादयस्मिन्काले आवश्यककरणम्। वर्षावग्रहातिक्रम इत्यादिना कालप्रतिसेवना । वर्ष:, प्रमाद, अनाभोग भयं प्रशेष इत्यादिकेषु परिणामेषु प्रवृत्तिर्भावसेवा पृथ्वी, पानी आदि सचित्त द्रव्य, तृणका सस्तर फलक
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४. प्रायश्चित विधान
वगैरे अचित्त द्रव्य, जीव उत्पन्न हुए है ऐसे उपकरणरूप मिश्राद्रव्य, ऐसे तीन प्रकार के द्रव्योका सेवन करनेसे दोष लगते है यह द्रव्य प्रतिसेवना है । वर्षाकालमे ( मुनि) आधा योजन से अधिक गमन करना, निषिद्ध स्थानमे जाना, विरुद्व राज्यमे जाना, जहाँ रास्ता टूट गया ऐसे प्रदेश मे जाना, उन्मार्ग से जाना, अन्त परमे प्रवेश करना, जहाँ प्रवेश करने की परवानगी नहीं है ऐसे गृह जमीन मे प्रवेश करना यह क्षेत्रति सेबना है । आवश्यक के नियत कालको उल्लघन कर अन्य समय में सामायिकादि करना, वर्षाकाल योगका उल्लेखन करना यह काल प्रतिसेवना है । दर्प, उन्मत्तता, असावधानता, साहस, भय इत्यादि रूप परिणामोमे प्रवृत्त होना भाव प्रतिसेवना है।
२. अपराधोंके अनुसार प्रायश्चित विधान १. आलोचना
रा. वा / १/२२/१०/६१९ / ३६ विद्यायोगोपकरणग्रहणादिषु प्रश्नविनयमन्तरेण प्रवृत्तिरेव शेष इति तस्य प्रायश्चित्तमःलोचनमात्रम् । = विद्या और ध्यानके साधनो के ग्रहण करने आदिमे प्रश्न विनयके बिना प्रवृत्ति करना दोष है, उसका प्रायश्चित आलोचना मात्र है । भाषा/टी ७८/२२३/१४ आचार्यमपृष्ट्वा आतापनादिकरणे पुस्तक पिचादिपरोपकरणग्रहणे परपरोसे प्रमादत आचार्यादिवचनाकरणे सघनाम पृष्ट्वा स्वसंघ गमने देशकालनियमेनावश्यकर्तव्यवत विशेषस्य धर्मवादि उपासनेन विस्मरणे सति पुन करणे अन्यत्राणि चैि आलोचनमेव प्रायश्चितम्। आचार्य के बिना पूछे आतापनादि करना, दूसरे साधुको अनुपस्थितिमें उसकी पीछी आदि उपकरणीका ग्रहण करना, प्रमादसे आचार्यादिको आज्ञाका उल्लघन करना, आचार्य से बिना पूछे सघमे प्रवेश करना, धर्म कथादिके प्रसगसे देश काल नियत आवश्यक कर्तव्य व व्रत विशेषोका विस्मरण होनेपर उन्हे पुन. करना, तथा अन्य भी इसी प्रकारके दोषोंका प्रायश्चित्त आलोचना मात्र है। (अन. ध. /७/५३ भाषा ) ।
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२. प्रतिकमण
रा. वा / १/२२/१०/६२१/३७ देशकालनियमेनावश्यं कर्तव्यमित्यास्थिताना योगानां धर्मकथा दिव्याक्षेप हेतुहिधानेन विस्मरणे सति पुनरनुष्ठाने प्रतिक्रमणं तस्य प्रायश्चितम्। देश और कालके नियमसे अवश्य कर्तव्य विधानको धर्म कथादिके कारण भूल जानेपर पुन करने के समय प्रतिक्रमण प्रायश्चित्त है ।
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ध. १३/५४,२६/६०/६ एदं ( पडिक्कमण पायच्छित्त) कत्थ होदि । अप्पावराहे गुरु हि विणा वट्टमाणम्हि होदि । जब अपराध छोटा सा हो, गुरु पास न हो तब यह प्रतिक्रमण प्रायश्चित्त होता है। भा. पा / टी / ७८/२२३/१८ षडिन्द्रियवागादिदुष्परिणामे, आचार्यादिषु हस्तपादादिस घट्टने, जतसमितिसि स्वपातिपारे वैशुन्यकल हादिकरणे. वैयावृत्यस्वाध्यायादित्रमा गोचरगतस्य सिगोत्थाने अन्यसंक्लेशकरणादौ च प्रतिक्रमण प्रायश्चित्त भवति । दिवसान्ते राज्यन्ते भोजनगमनादौ च प्रतिक्रमण प्रायश्चित्त । = छहों इन्द्रिय तथा वचनादिकका दुष्प्रयोग, आचार्यादिके अपना हाथ-पाँव आदिका टकरा जाना, व्रत, समिति गुप्तिमे छोटे-छोटे दोष लग जाना, वैशुन्य तथा कलह आदि करना वैयावृत्य तथा स्वाध्यायादि प्रमाद करना, गोचरीको जाते हुए लिंगोत्थान हो जाना, अन्यके साथ संक्लेश करनेवाली क्रियाओके होनेपर प्रतिक्रमण करना चाहिए । यह प्रायश्चित्त सायंकाल, पौर प्रा. काल तथा भोजनादिके जाने के समय होता है । ( अन. ध. / ७ / ५३ भाषा ) ।
३. तदुभय
१३/५४६६/१०/११ उभयं नाम पाव दुस्सु मिणदणादिसु स्वप्न देखने आदि प्रायश्चित होता है (सा./९४९/६)।
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एवं कम होदि अमसरोपर दुभय
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प्रायश्चित्त
४. प्रायश्चित्त विधान
साहुस्स होदि। -जिसने ( बार-बार ) अपराध किया है। (रा.वा./ १/२२/१०/६२२/५) । जो उपवास आदि करने में समर्थ है, सम प्रकार बलवान है, सब प्रकार शूर और अभिमानी है, ऐसे साधुको दिया जाता है । (चा, सा /१४३/१); (अन, ध./७/५४)।
भा, पा./टी /७७/२२४/१ लोचनखच्छेदस्वप्नेन्द्रियातिचाररात्रिभोजनेषु पक्षमाससंवत्सरादिदोषादौ च उभयं आलोचनप्रतिक्रमणप्रायश्चित्त । -केश लोंच, नखका छेद, स्वप्नदोष, इन्द्रियोका अतिचार, रात्रि भोजन, तथा पक्ष, मास व सवत्सरादिके दोषोमें तदुभय प्रायश्चित्त होता है । ( अन.ध./७/५३ भाषा)। ४. विवेक रा. वा //२२/१०/६२२/२ शक्तयनिगृहनेन प्रयत्नेन परिहरत' कुतश्चि
कारणादप्रासुकग्रहणग्राहणयो प्रासुकस्यापि प्रत्यारख्यातस्य विस्मरणात प्रतिग्रहे च स्मृत्वा पुनस्तदुत्सर्जनं प्रायश्चित्तम् । शक्तिको न छिपाकर प्रयत्नसे परिहार करते हुए भी किसी कारणवश अप्रासुकके स्वय ग्रहण करने या ग्रहण करानेमें छोडे हुए प्रासुकका विस्मरण हो जाये और ग्रहण करनेपर उसका स्मरण आ जाये तो उसका पुन उत्सर्ग करना (ही विवेक) प्रायश्चित्त है। (चा. सा/१४२/२)। ध, १३/५,४,२६/६०/१२ एदं (विवेगो णाम पायच्छितं ) कत्थ होदि। जम्हि स ते अणियत्तदोसो सो तम्हि होदि। जिस दोषके होनेपर उसका निराकरण नहीं किया जा सकता, उस दोषके होनेपर यह विवेक नामका प्रायश्चित्त होता है।
५. व्युत्सर्ग रा. वा./६/२२/१०/६२२/४ दुःस्वप्नदुश्चिन्तनमलोत्सर्जनमूत्रातिचारमहानदीमहावीतरणादिषु व्युत्सर्गप्रायश्चित्तम् । - दुस्वप्न, दुश्चिन्ता, मलोत्सर्ग, मूत्रका अतिचार, महानदी और महाअटवीके पार करने आदिमें व्युत्सर्ग प्रायश्चित्त है । (चा. सा/१४२/३)। ध. १३/५,४,२६/६१/३ विउस्सग्गो णाम पायच्छित्तं । सो कस्स होदि । कयावराहस्स णाणेण दिढणवट्ठस्स बज्जसंघडणस्स सीदवादादवसहस्स ओघसूरस्स साहूस्स होदि । - यह व्युत्सर्ग प्रायश्चित्त जिसने अपराध किया है, किन्तु जो अपने विमल ज्ञानसे नौ पदार्थों के स्वरूपको समझता है, बज्र संहननवाला है; शीत-वात और आतपको सहन करनेमे समर्थ है, तथा सामान्य रूपसे शुर है, ऐसे साधुके होता है। भा. पा./टी/०८/२२४/३ मौनादिना लोचकरणे, उदरकृमिनिर्गमे, हिममशकादिमहावातादिसह तिचारे, स्निग्धभूहरिततृणप कोपरिगमने, जानुमात्रजलप्रवेशकरणे, अन्यनिमित्तवस्तुस्वोपयोगकरणे, नाबादिनदीतरणे, पुस्तकप्रतिमापातने, पंचस्थावरविधाते, अदृष्टदेशतनुमलविसर्गादौ, पक्षादिप्रतिक्रमण क्रियाया, अन्ताख्यानप्रवृत्यन्तादिषु कायोत्सर्ग एव प्रायश्चित्तम् । उच्चारप्रस्रवणादौ च कायोत्सर्ग प्रसिद्ध एव । म मौनादि धारण किये बिना ही लौच करनेपर; उदर में से कृमि निकलनेपर; हिम, दंश-मशक यद्वा महाबातादिके संघर्ष से अतिचार लगनेपर, स्निग्ध भूमि, हरित तृण, यद्वा कर्दम आदिके ऊपर चलनेपर, घोटुओंतक जल में प्रवेश कर जानेपर, अन्य निमित्तक वस्तुको उपयोगमें ले आनेपर; नावके द्वारा नदी पार होनेपर; पुस्तक या प्रतिमा आदि के गिरा देनेपर, पचस्थावरोका विषात करनेपर, बिना देखे स्थानपर शारीरिक मल छोडनेपर, पक्षसे लेकर प्रनिक्रमण पर्यन्त व्याख्यान प्रवृत्त्यन्तादिकोमे केवल कायोत्सर्ग प्रायश्चित्त होता है।
और थूकने और पेशाब आदिके करने पर कायोत्सर्ग करना प्रसिद्ध ही है । ( अन ध./७/५३ भाषा)।
६. तप ध १३/५,४,२६/६१/६ एवं ( तवो पायच्छित्त ) कस्स होदि । तिविदियस्स जोवणभरत्थस्स बलव तस्स सत्तसहायरस कयावराहस्स होदि।
- जिमकी इन्द्रियों तीव है, जो जवान है, बलवान् है, और सशक्त है, ऐसे अपराधी साधुको दिया जाता है । (चा सा /१४२/५ ) ।
भ. आ /मू /२६२/५०६ पिंडं उवधि सेजामविसोधिय जो खु भंजमाणो हु । मूलठ्ठाणं पत्तो बालोत्तिय णो समणबालो ।२६२ । - उद्गगमादि दोषोसे युक्त आहार, उपकरण, वसतिका इनका जो साध ग्रहण करता है वह मूलस्थानको प्राप्त होता है। वह अज्ञानी है, केवल नग्न है, न
यति है न गणधर । ध १३/५,४२६/१२/२ मूल णाम पायच्छित्त । एद कस्स होदि। अव रिमिय अबराहस्स पासत्थोसण्ण-कुसीलसच्छदादिउव्वदृट्ठियस्स होदि । -अपरिमित अपराध करनेवाला जो साधु (रा. वा/8/२२/१०/६२२/ ५)। पाश्वस्थ, अवसन्न, कुशील, और स्वच्छन्द आदि होकर कुमार्गमें स्थित है, उसे दिया जाता है । (चा सा./१४२/३): (अन. ध/७/५५), ( आचारसार/पृ ६३)। ९. अनवस्थाप्य परिहार चा. सा/१४४/४ प्रमादादन्यमुनिसंपन्धिनमृर्षि छात्र गृहस्थं वा परपाखण्डिप्रतिबद्धचेतनाचेतनद्रव्यं वा परस्त्रियं वा स्तेनयता मुनीत प्रहरतो वाऽन्यदप्येवमादि विरुद्धाचरितमाचरतो नव दशपूर्वधरस्यापि त्रिकसहननस्य जितपरिषहस्य दृढधर्मिणो धीरस्य भवभीतस्य निजगुणानुपस्थापनं प्रायश्चित्तं भवति । ददिनन्तरोक्तान्दोषानाचरत' परगणोपस्थापनं प्रायश्चित्तं भवति । -१, प्रमादसे अन्य मुनि सम्बन्धी ऋषि, विद्यार्थी, गृहस्थ वा दूसरे पारवं डीके द्वारा रोके हुए चेतनात्मक बा अचेतनात्मक द्रव्य, अथवा परस्त्री आदिको चुरानेवाले, मुनियोको मारनेवाले, अथवा और भी ऐसे ही विरुद्ध आचरण करनेवाले, परन्तु नौ वा दस पूर्वोके जानकर, पहले तीन संहननको धारण करनेवाले परीषहोको जीतनेवाले, धर्म में दृढ रहनेवाले, धीर, वीर और संसारसे डरनेवाले मुनियोके निजगणानुपस्थापन नामका प्रायश्चित्त होता है। २. जो अभिमानसे उपरोक्त दोषो को करते है, उनके परगणानुपस्थापना प्रायश्चित्त होता है। (आचार सार/पृ. ६४), (अन ध/9/५६ भाषा)। दे० आगे पारंचिक्में ध/१३ विरुद्ध आचरण करनेवालोको दिया जाता है।
१०. पारंचिक परिहार भ आ /म् /१६३७/१४८३ तित्थयरपवयणसुदे आइरिए गणहरे महढोए । एदे आसाद'तो पावइ पार चिय ठाण ।१६ ७। तीर्थ कर, रत्नत्रय, आगम, आचार्य, गणधर, और महर्द्धिक मुनिराज इनकी आसादना करनेवाला पार चिक नामक प्रायश्चित्त को प्राप्त होता है ।१६३७। - ध १३/५४.२६/६३/१ एदाणि दो वि पायच्छित्ताणि णरिदविरुद्धाचरिदे
आइरियाण णय-दसपुव्वहर ण होदि । - ये दोनो (अनवस्था, तथा पार चिक) दो प्रकार के प्रायश्चित्त राजाके विरुद्ध आचरण करनेपर (रा. वा/8/२२/१०/६२२/५) नौ और दश पूर्वोको धारण करनेवाले आचार्य करते है। चा, सा /१४६/३ तीर्थंकरगणध्रगणिप्रबचनसघाद्यासादनकारक्स्य नरेन्द्र विरुद्धाचरितस्य राजानमभिमतामात्यादीना दत्तदीक्षस्य नृपकुलवनितासे वितस्यैवमाद्यन्यैर्दोषैश्च धर्मदूषकस्य पार चिके प्रायश्चित्त भवति। - जो मुनि, तीर्थकर, गणधर, आचार्य और शास्त्र व संध आदिकी झूठी निन्दा करनेवाले है, बिस्द्र आचरण करते है, जिन्होने किसी राजाको अभिमत ऐसे मन्त्री आदिको दीक्षा दी है, जिन्होने राजकुल की स्त्रियोका सेवन किया है, अथवा ऐसे
ध. १३/५,४.२६/६१/४ छेदो णाम पायच्छित्त। एदं कस्स हादि । उववासा दिख मस्स ओवबलस्स ओघसुरस्स गम्बियस्स क्याबराहस्स
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प्रायोगिक बन्ध
प्रोषधोपवास
जैसे--पुत्र आदि। २. उत्तरधातकीखण्ड द्वीपका रक्षक देव-दे. व्य तर/४। प्रियकारिणी-भगवान महावीरकी माता-दे० तीर्थकर/11 प्रियदर्शन-१ महोरग नामा जाति व्यन्तर देवोका एक भेद-दे० महोरग, २. सुमेरु पर्वतका अपरनाम-दे० सुमेरु। ३ उत्तर धातकी खण्ड द्वीप रक्षक देव-दे० लोक/४/२ ।
अन्य दोषोके द्वारा धर्म मे दोष लगाया है, ऐसे मुनियोके पार चिक प्रायश्चित्त होता है । (आचारसार/पृ०६४). (अन. ध /७/५६ भाषा)।
११. श्रद्धान या उपस्थापन अन. ध /७/५७ गत्वा स्थितस्य मिथ्यात्वं यद्दीक्षाग्रहणं पुन. । तच्छूद्वानमिति ख्यातमुपस्थापनमित्यपि ।५७१ - जो साधु सम्यग्दर्शनको छोडकर मिथ्यात्वमें ( मिथ्यामार्गमे ) प्रवेश कर गया है। उसको पुन दीक्षा रूप यह प्रायश्चित्त दिया जाता है। इसका दूसरा नाम उपस्थापन है। कोई-कोई महावतोका मूलोच्छेद होनेपर पुन । दीक्षा देनेको उपस्थापन कहते है।
३. शूद्रादि छुनेके अवसर योग्य प्रायश्चित्त आराधनासार/२/७० कपाली, चाण्डाल, रजस्वला स्त्रीको छूनेपर सिरपर कमण्डलसे पानीको धार डाले जो पैरोतक आ जाये। उपवास करे
तथा महामन्त्रका जाप करे। प्रायोगिक बन्ध-दे० बन्ध/१ । प्रायोगिक शब्द-दे० शब्द । प्रायोगिको क्रिया-दे० क्रिया/२/४ । प्रायोग्य लब्धि-दे० लब्धि/२ ।। प्रायोपगमन चारित्र-दे० सल्लेखना/३ । प्रायोपगमन मरण-दे० सल्लेखना/३ । प्रारम्भ क्रिया-दे० क्रिया/३१२ । प्रावचन-१. श्रुतज्ञानका अपर नाम है -दे० श्रुतज्ञान/I/२।
२. ध.१३/५,५,५०/२८०/११ प्रवचने प्रकृष्टशब्दकलापे भव ज्ञानं द्रव्यश्रुत वा प्रावचनं नाम । -प्रवचन अर्थात प्रकृष्ट शब्द कलापमें होनेवाला ज्ञान या द्रव्य श्रुत प्रावचन कहलाता है। प्राविष्कृत-बसतिकाका एक दोष-दे० वसतिका। प्रासाद-ध १४/५,६,६२/३६/३ पक्कसइला सइला आवासा पासादा णाम । -ईटों और पत्थरोके बने हुए पत्थरबहुल आवासोको प्रासाद कहते है। प्रासुकमू. आ./४८५ पगदा असो जह्मा तह्मादो दव्वदात्ति तं दव । पासुगमिदि। जिसमें से एकेन्द्रिय जीव निकल गये है वह प्रासुक
प्रियांमत्र-एक राजपुत्र था। (म पु./७४/२३४-२४०) यह वर्धमान
भगवानका पूर्वका चौथा भव है-दे० वर्धमान । प्रियोद्भव क्रिया-दे० सस्कार/२ | प्रीतिकर----१.म.पु /सर्ग/श्लोक पुण्डरीकिणी नगरी के राजा प्रियसेनका पुत्र था (६/१०८)। स्वयंप्रभु मुनिराजसे दीक्षा ले अवधिज्ञान व आकाशगमन विद्या प्राप्त की (8/११०)। ऋषभ भगवानको जबकि वे भोग भूमिज पर्यायमें थे (दे० ऋषभनाथ) सम्बोधनेके लिए भोगभूमिमें जाकर अपना परिचय दिया (६/१०५)। तथा सम्यग्दर्शन ग्रहण कराया (६/१४८) । अन्तमें केवलज्ञान प्राप्त किया (१०/१) । २ म पु /७६/श्लोक अपनी पूर्व की शृगालीकी पर्यायमें रात्रिभोजन त्यागके फलसे वर्तमान भवमें कुबेरदत्तसेठके पुत्र हुए (२३८-२८१) । बाल्यकाल में ही मुनिराजके पास शिक्षा प्राप्त की (२४४-२४८) । विदेशमें भाइयों द्वारा धोखा दिया जानेपर गुरुभक्त देवोंने रक्षा की (२४१-३८४) । अन्तमें दीक्षा ले मोक्ष प्राप्त किया (३८७३८८)। ३ प.पू./७७/श्लोक अरिंदम राजाका पुत्र था (६५)। पिताके कीट बन जानेपर पिताकी आज्ञानुसार उसको (कीटको) मारने गया। तब कीट विष्टामें घुस गया (६७)। तब मुनियोसे प्रबोधको प्राप्त हो दीक्षा धारण की (७०)। ४. नब ग्रैवेयकका नव पटल व इन्द्रक-दे० स्वर्ग/५/३। प्रीतिक्रिया-दे० संस्कार/२। प्रत्य भाव न्या.स/मू /१/१/१६/२२ पुनरुत्पत्ति प्रेत्यभाव' ।
मरकर फिर किसी शरीरमें जन्म लेनेको प्रेत्यभाव कहते हैं। प्रम-ध./१४/४,२,८.६/२८४/१ प्रियत्वं प्रेम।-प्रियताका नाम प्रेम है।
* अन्य सम्बन्धित विषय १. प्रेम सम्बन्धी विषय २. प्रेमप्रत्यय बन्ध कारणके रूपमे ३.प्रेम व कषायादि प्रत्ययोंके रूपमें ।
-दे० वात्सत्य।
-दे० बंध/५॥ --दे० प्रत्यय/१।
घ.६/३,४१/८७/५ पगदा ओसरिदा आसवा जम्हा त पासु, अथवा जं णिखज्ज तं पासुअ। कि । णाणदंसण-चरित्तादि । जिससे आस्रव दूर हो गये है उसका नाम (वह जीव) प्रासुक है, अथवा जो निरवद्य है उसका नाम प्रासुक है । वह ज्ञानदर्शन व चारित्रादिक ही
हो सकते है। नि.सा./ता वृ/६३ हरितकायात्मकमूक्ष्मप्राणिसचारागोचरं प्रासुकमित्यभिहितम् । हरितकायमय सूक्ष्म प्राणियों के संचारको अगोचर वह प्रासुक (अन्न) ऐसा (शास्त्रमे) कहा है। * जलादि प्रातुक करनेकी विधि-दे. जलगालन । * वनस्पति आदिको प्रासुक करने की विधि-दे० सचित्त। * बिहारके लिए प्रासुक मार्ग-दे० बिहार/१।। प्रास्थल-भरत क्षेत्र उत्तर आर्य खण्डका एक देश-दे० मनुष्य/४ । प्रिय-१ क पा./१/१,१३-१४/६२१६/२७२/६ स्वरुचिविषयीकृत वस्तु प्रिय, यथा पुत्रादि । जो वस्तु अपनेको रुचे उसे प्रिय कहते है।
प्रेरक निमित्त-दे० निमित्त/१॥ प्रेष्य प्रयोग-ससि /३१/३६६/१० एव कुर्विति नियाग. प्रेष्य
प्रयोग 1= ऐसा करो इस प्रकार काम में लगाना प्रेष्यप्रयोग है। रावा./७/३१/२/५५६/४ परिच्छिन्नदेशाबहि स्वयमगत्वा अन्यमप्य
नीयव्यप्रयोगेण वाभिप्रेतव्यापारसाधन प्रेष्यप्रयोग । स्वीकृत मर्यादासे बाहर स्वय न जाकर और दूसरेको न बुलाकर भी नौकरवे
द्वारा इष्ट व्यापार सिद्ध करना प्रेष्य प्रयोग है । (चा सा./१६/१) प्रोक्षण विधि-प्रतिष्ठाके समय प्रतिमाकी प्रोक्षण विधि-दे०
प्रतिष्ठा विधान । प्रोषधोपवास-पर्वके दिनमे चारो प्रकार के आहारका त्याग करके धर्म ध्यान दिन व्यतीत करना प्रौषधोपवास कहलाता है, उस दिन आरम्भ करने का त्याग होता है। एक दिनमें भोजनकी दो वेला मानी जाती है। पहले दिन एक वेला, दूसरे दिन दोनो वेला और
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प्रोषधोपवास
तीसरे दिन पुन एक वेला, इस प्रकार चार बेलामें भोजनका त्याग होने के कारण उपवासको चतुर्भत बेलेको भक्त आदि कहते है। व्रत प्रतिमा प्रोषधीषवास सातिवार होता है, और प्रोषधोपवास प्रतिमा में निरतिचार ।
१. भेद व लक्षण
१. उपवास सामान्यका लक्षण १. निश्चय
का.अ./मू / ४३६ उवसमणो अक्खाणं उनवासो वण्णिदोसमासेण । जम्हा भुजता वि य जिदिदिया होति उबवासा ।४३६१ - तीर्थंकर, गणधर आदि युनिन्होने उपशमनको उपवास कहा है. इसलिए पुरुष भोजन करते हुए भी उपवासी है।
य
अनध / ७/१२ स्वार्थादुपेत्य शुद्धात्मन्यक्षाणा बसनाल्लयात् । उपवासोसनस्वायत्त्राद्यपेयमि गम् १२ पूर्वक व धातुसे उपनाम बनता है अर्थात उपसर्गका अर्थ उपेय हट तथा वसू धातुका अर्थ निवास करना या लीन होना होता है । अतएव इन्द्रियोंके अपनेअपने विषयसे हटकर शुद्धात्म स्वरूपमें लीन होनेका नाम उपवास है। इस
२. व्यवहार
स.सि./७/२१/३६९/३ शब्दादिग्रहण प्रति निवृतोत्सुक्यानि पञ्चापीन्द्रि याण्युपेत्य तस्मिन् वसन्तीत्युपवास । चतुर्विधाहारपरित्याग इत्पर्थ पाँच इन्द्रियों के सम्वादि विषयों से हटकर उसमें निवास करना उपवास है । अर्थात् चतुर्विध आहारका त्याग करना उपवास है। (रा.मा./०/२१/८/१४/ सा./ ०/१०)।
२. उपवासके भेद
म.प्र. २८० उत्तम मम जहां तिविद्धं पोसणा विहारामुट्ठि - तीन प्रकारका प्रोषध विधान कहा गया है-उत्तम, मध्यम, जघन्य | अन ध / ७ /१४ उपवासो बरो मध्यो जघन्यश्च त्रिधापि स कार्यो विरले. विरक्त पुरुषोका उत्तम, मध्यम व जघन्यमे से कौन सा भी उपवास प्रचुर पातकोकी भी शीघ्र निर्जरा कर सकता है। * अक्षयनिधि आदि अनेक प्रकारके व्रत ३० मत १९
३. प्रोषधोपवासका लक्षण
...// १०१ चतुराहारविसर्जनमा प्रोषध कृति स प्रोषधोपवासो यदुपोष्यारम्भमाचरति । १०६ । चार प्रकारके आहारका त्याग करना उपवास है। एक बार भोजन करना प्रोषध है। जो धारणे पारनेके दिन प्रोषधसहित गृहार भादिको छोडकर उपवास करके आरंभ करता है, वह प्रोषधोपवास है। स.सि./७/२१/६१/२ मा प्रोषधे उपवासः प्रोषधोपवास. । = प्रोषधका अर्थ पर्व है । पर्व के दिनमें जो उपवास किया जाता है हमे प्रवास कहते है ( वा १०/२१/१६४८/६). (सा. ध. / ५ / ३४) ।
का.अ./मू./३३०-२५१ हा विणण ही सग्ग-गंधादी जो परिहवी पाणी बेरग्नाभ्रमण किया। दो पिस उववास एय भत्तणित्रियडी । जो कुणदि एवमाई तस्स वय पोसह विदियं । ३५६ | = जो श्रावक सदा दोनो पर्वोमे स्नान, विलेपन, भूषण, स्त्री समर्ग गंध, धूप, दीपादिका रुपान करता है। वैराग्यरूपी भूषणभूषित होकर उपवास या एक बार भोजन, वा निर्विकृति भजन करता है। उसके प्राषधोपवास नामका शिक्षावत होता है १३५८-३५६१
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४. प्रोषधोपवास सामान्यका स्वरूप
// १६-१० पर्ययम्या क्षाराव्य प्रोषधोपयासस्तु । चतुरभ्यवहार्याणां प्रत्याख्यान सदेच्छाभि । १६ । पञ्चाना पापानामलंक्रियारम्भगन्धपुष्पाणाम् । स्नानाञ्जननस्यानामुपवासे परिहति कुर्यात |१०| धर्मामृतं ससृष्ण प्रवणाभ्या पितु पायायात् ज्ञानध्यानप वा भवसन्दा ११८ चर्दशी तथा अमी दिन सदावत विधानकी इच्छासे चार तरह के भोजनके त्याग करनेको प्रवास जानना चाहिए । १६ उपवास के दिन पाँचो पापोका शृङ्गार, आरम्भ, गन्ध, पुष्प, स्नान, अञ्जन तथा नश्य (सूघने योग्य) वस्तुञ्जका व्याग करे १० (सु.आ./२१३) उपवास के दिन आलस्य रहित हो कानोसे अतिशय उत्कंठित होता हुआ धर्म रूपी अमृतको पोयें तथा दूसरोंको पिलाने अथवा ज्ञान-ध्यानमेतत्पर होने खा.स./६/९१५-१६०) ।
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१. भेद व लक्षण
ससि /०/२१/३६२/४ स्वशरीरसस्कारकारणस्नानगन्धमान्याभरणादिविरहित शुचावकाशे साधुनिवासे चैत्यालये स्वप्राषधोपवासगृहे या धर्मका प्रवणावचिन्तनविहितान् करणः सन्नुपवसेझिरारम्भ श्रावक. 1 = प्रोषधोपवासी श्रावकको अपने शरीर के सस्कार के कारण, स्नान, गन्ध, माला और आभरणादिका त्याग करके किसी पवित्र स्थानमें वैश्यालय मे या अपने प्रोषधोपयासके लिए नियत किये गये घरमें धर्म कथा सुनने-सुनाने और चिन्तवन करनेमे मनको लगाकर उपवास करना चाहिए और सब प्रकारका आरम्भ छोड देना चाहिए। ( रा वा / ७ / २१/२६/५४६/३५), (का अ / ३५८) |
६/२०४ चयं च कर्तव्यं धारणावि दिनक्रम परयोषितका प्राश्वात्मकतप्रके १२०४१ - धारणाके दिन से लेकर पारणाके दिन तक, तीन दिन उसे ब्रह्मचर्म पालना चाहिए। यह ध्यान में रखना चाहिए। व्रती श्रावकके लिए परस्त्रीका निषेध तो पहले ही कर चुके हैं, यहाँ तो धर्मपत्नी ध्यानकी बात बतायी जा रही है। व्रत विधान सग्रह / पृ. २२ पर उधृत प्रात सामायिक सत तात्कालिक क्रियाम्। धीताम्बरधरो धीमान् जिनध्यानपरायणम् ॥ १॥ महाभिषेकमभुत्यै जिनागारे व्रतान्वितै । कर्तव्यं सह संघेन महापूजादिकोत्सवम् |२| ततो स्वगृहमागत्य दानं दद्यात् मुनीशिने । निर्दोष प्राशु शुद्ध मधुरं तृष्टिकारण ३ प्रत्याख्यानो भूत्वा रातो गया जिनालय प्रिपरी कार्याक्तिजिना लयम् |४| विवेकी, व्रती श्रावक प्रात काल ब्राह्म मुहूर्त में उठकर सामायिक करे, और बाद में शौच आदि से निवृत्त होकर शुद्ध साफ वस्त्र धारण कर श्रीजिनेन्द्र देवके ध्यानमे तत्पर रहे |१| श्री मन्दिरजीमें जाकर सबको आश्चर्य करे ऐसा महाभिषेक करें, फिर अपने संघके साथ समारोह पूर्वक महा पूजन करे २] यत विधान स. पू. २७ पर उद्धृत । पश्चात अपने घर आकर मुनियोको निर्दोष प्रामुक, शुद्ध, मधुर और सृष्टि करनेवाला आहार देकर शेष बचे हुए आहार सामग्री को अपने कुटुम्बके साथ सानन्द स्वयं आहार करे |३ | फिर मन्दिरजी मे जाकर प्रदक्षिणा देवे और व्रत विधान में कहे गये मन्त्रोका जाप्य करे |४|
५. उत्तम, मध्यम व जघन्य प्रोषधोपवासका स्वरूप
पु. सि. उ. / १५२-१५६ मुक्तसमस्तारम्भ प्रोषधदिन पूर्व वासरस्याओं 1 उपवासं गृह्णीयान्ममत्वमपहाय देहादी । १५२ ॥ श्रित्वा विविक्तवसति समस्तसाव वयोगमानीय सर्वेन्द्रियार्थं विरत कायमनोवचन
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मिति २५ धर्मध्यानाशको वासरमतिवाहाविहित सान्ध्यविधि। शुचिसंस्तरे त्रियामां गमयेत्स्वाध्यायजितनिद्रः १६४४ प्रात प्रोरथाय ततः कृखा साकालिक क्रियाकल्प निर्वर्तयेद्यथोक्तं जिनपूजां प्राशुकैव्ये १२५ उक्तेन ततो विधिना नखा
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प्रोषधोपवास
२. प्रोषधोपवास व उपवास निर्देश
दिवस द्वितीयरात्रि च। अतिवाहयेत्प्रयत्नादर्द्ध च तृतीयदिवसस्य ११५६। उपवाससे पूर्व दिन मध्याह्नको समस्त आरम्भसे मुक्त होकर, शरीरादिकमें ममत्वको त्यागकर उपवासको अंगीकार कर ।१५२॥ पश्चात समस्त सावद्य क्रियाका त्यागकर एकान्त स्थानको प्राप्त होवे । ओर सम्पूर्ण इन्द्रिय विषयोसे विरक्त हो त्रिगुप्तिमे स्थित होवे । यदि कुछ चेष्टा करनी हो तो प्रमाणानुकूल क्षेत्रमे धर्मरूप ही क्रे ।१५३। कर ली गयी है प्रात काल और सन्ध्याकालीन सामायिकादि क्रिया जिसमे ऐसे दिनको धर्मध्यानमें आसक्ततापूर्वक बिता कर, पठन-पाठनसे निद्राको जीतता हुआ पवित्र सथारे पर रात्रिको बितावे ।१५४॥ तदुपरान्त प्रात को उठकर तात्कालिक क्रियाओसे निवृत्त हो प्रासुक द्रव्योसे जिन भगवान् की पूजा करे ।१५। इसके पश्चात् पूर्वोक्त विधिसे उस दिन और रात्रिको प्राप्त होके तीसरे दिनके आधेको भी अतिशय यत्नाचार पूर्वक व्यतीत करै ।१५६।
चाहिए ।२६० जरूरी कार्यको समझकर सावध रहित यदि अपने घरू आरम्भको करना चाहे, तो उसे भी कर सकता है, किन्तु शेष विधान पूर्वके समान है ।२६०-२६१॥ ३, जघन्य-जो अष्टमी आदि पर्व के दिन आचाम्ल निर्विकृति, एक स्थान अथवा एकभक्तको करता है, उसे जघन्य प्रोषधोपवास समझना ।२६२। - ( गुण. श्रा। १७०-१७४), (का अ/मू /३७३-३७४ ); (सा. ध /५/३४-३६), (अन. ध /७/१५), (चा. पा /टी./२५/४५/१६) ।
६. प्रोषधोपचास प्रतिमाका लक्षण र क श्रा./१४० पर्व दिनेषु चतुर्ब पि मासे मासे स्वशत्ति मनिगृह्य । प्रोषधनियमविधायी प्रणिधिपर प्रोषधानशन. १४०। --जो महीने महीने चारो ही पर्वोमें ( दो अष्टमी और चतुर्दशीके दिनोमे) अपनी शक्तिको न छिपाकर शुभ ध्यानमे तत्पर होता हुआ यदि अन्तमें प्रोषधपूर्वक उपवास करता है वह चौथी प्रोषधोपवास प्रतिमाका धारी है ।१४०1 (चा सा /३७/४) (द्र स /४५/१६५)।
वसु. श्रा./२८१-२६२ सत्तमि-तेरसि दिवसम्मि अति हिजणभोयणावसाणम्मि। भोत्तूण भंजणिज्जं तत्य वि काउण मुहसुद्वि २८श पक्वालिऊण वयणं कर-चरणे णियमिऊण तत्थेत्र । पच्छा जिणिदभवण गंतूण जिणं णमसित्ता १२८२। गुरुपुरओ किदियम्मं वदणपुब्वं कमेण काऊण । गुरुसक्खियमुबवास गहिऊण चउठिवहं विहिणा १२८३। बायण-कहाणुपेहण-सिवरखावण-चितगोवओगेहि। णेऊण दिवससेसं अवगण्यि वदणं किच्चा ।२८४। रयणि समयम्हि ठिच्चा काउसग्गेण णिययसत्तीए। पडिलेहिऊण भूमि अप्पपमाणेण सथारं ।२८५। दाऊण किचि रन्ति सइऊण जिणालए णियधरे वा। अहवा सयल रत्ति काउसग्गेण णेऊण ।२८६। पच्चूसे उदिठत्ता बंदणविहिणा जिणं णमंसिता। तह दव्व-भाव पुज्ज णिय-सुय साहूण काऊण ।२८७ उत्तविहाणेण तहा दियह रत्ति पुणो वि गमिऊण । पारण दिवसम्मि पुणो पूर्य काऊण पुव व २८८ ग तूण णिययगेह अतिहिविभाग च तत्थ काऊण । जो भुजइ तस्स फुड पोसह विहि उत्तम होइ।२८६। जह उक्कस्सं तह मज्झिम वि पोसहविहाणमुचिट्ठ। णवर विसेसो सलिल छडित्ता वज्जए सेसं ।२६० मुणिऊण गुरुबकज्जं सावज्जविवज्जिय णियारंभ । जइ कुणइ तं पि कुज्जा सेस पुवं व णायव्व ।२६१। आय बिल णिव्वयडी एयट्ठाण च एय भत्तं वा। जं कीरइ त णेय जहण्णयं पोसहविहाण ।२९२१ - १. उत्तम-सप्तमी और त्रयोदशीके दिन अतिथिजनके भोजनके अन्तमें स्वय भोज्य वस्तुका भोजन कर और वही पर मुखशुद्धिको करके, मॅहको और हाथ-पाँवको धोकर वहाँ ही उपवास सम्बन्धी नियमको करके पश्चात जिनेन्द्र भवन जावर और जिन भगवान्को नमस्कार करके, गुरुके सामने बन्दना पूर्वक क्रमसे कृतिर्म करके, गुरुकी साक्षीसे विधिपूर्वक चारो प्रकारके आहारके त्याग रूप उपवासको ग्रहण कर शास्त्र-वाचन, धर्मकथा-श्रवण-श्रावण, अनुप्रेक्षा चिन्तन, पठन-पाठनादिके उपयोग द्वारा दिवस व्यतीत करके, तथा अपराह्निक वन्दना करके, रात्रिके समय अपनी शक्तिके अनुसार कायोत्सर्ग से स्थित होकर, भूमिका प्रतिलेखन करके और अपने शरीरके प्रमाण बिस्तर लगाकर रात्रिमे कुछ समय तक जिनालयमें अथवा अपने घरमें सोकर, अथवा सारी रात्रि कायोत्सर्गसे बिताकर प्रात काल उठकर वन्दना विधिसे जिन भगवान्को नमस्कार कर तथा देव-शास्त्र और गुरुकी द्रव्य वा भाव पूजन करके पूर्वोक्त विधानसे उसी प्रकार सारा दिन और सारी रात्रिको भी बिताकर पारणाके दिन अर्थात नवमी या पूर्ण मासीको पुन' पूर्ष के समान पूजन करनेके पश्चात् अपने घर जाकर और वहाँ अतिथिको दान देकर जो भोजन करता है, उसे निश्चयसे उत्तम प्रोषधोपवास होता है । २८१२८१ । २ मध्यम-जिस प्रकार उत्कृष्ट प्रोषधोपवास विधान कहा गया है, उसी प्रकारसे मध्यम भी जानना चाहिए। विशेषता यह है कि जलको छोडकर शेष तीनो प्रकारके आहारका त्याग करना
७. एकमक्तका लक्षण मु आ./३५ उदयत्यमणे काले णालीतियबज्जियम्हि मज्झम्हि । एकम्हि
दुअ तिये वा मुहुत्तकालेय भत्त तु ।३५॥ = सूर्य के उदय और अस्तकालकी तीन घडी छोडकर, वा मध्याह्न कालमे एक मुहूर्त, दो मुहूर्त, तीन मुहूर्त कालमें एक बार भोजन करना वह एकभक्त मूल गुण है।३५
. चतुर्थभक्त आदिके लक्षण ह. पु /३४/१२५ विधीनामिह सर्वेषामेवा हि च प्रदर्शना। एकश्चतुर्थकाभिरख्यो द्वौ पष्ठ तु त्रयोऽष्टम' । दशमाद्यास्तथा वेद्या. षण्मास्यतोपवासका. ।१२। - उपवास विधिमे चतुर्थक शब्दसे एक उपवास, षष्ठ शब्दसे बेला, और अष्ट शब्द से तेला लिया गया है, तथा इसी प्रकार आगे दशम शब्दसे चौडा आदि छह मास पर्यन्त उपवास
समझने चाहिए। (भ. आ /भाषा./२०६/४२५ )। मू. आ./भाषा /३४८ एक दिनमें दो भोजन वेला रही है। (एक वेला धारणके दिनकी. दो वेला उपवासके दिनकी और एक बेला पारणके दिनकी, इस प्रकार ) चार भोजन वेलाका त्याग चतुर्थ भक्त अथवा उपवास कहलाता है। छह वेलाके भोजनका त्याग षष्ट भक्त अथवा बेला (२ उपवास) कहलाता है। इसी प्रकार आगे भी चार-पाँच आदि दिनोंसे लेकर छह उपवास पर्यन्त उपवासोके नाम जानने
चाहिए। ब्रतविधान सं 1पृ २६ मात्र एक बार परोसा हुआ भोजन सन्तोष पूर्वक
खाना एकलठाना कहलाता है।
२.प्रोषधोपवास व उपवास निर्देश
१.प्रोषधोपवासके पाँच अतिचार त. सू./७/३४ अप्रत्यवेक्षिताप्रमार्जितोत्सर्गादानसंस्तरोपक्रमणानादरस्मृत्यनुपस्थानानि 1281 -अप्रत्यवेक्षित अप्रमार्जित भूमिमें उत्सर्ग, अप्रत्यवेक्षित अप्रमार्जित वस्तुका आदान, अप्रत्यवेक्षित अप्रमार्जित संस्तरका उपक्रमण, अनादर और स्मृतिका अनुपस्थान ये प्रोषधोपवास ब्रतके पाँच अतिचार है। (र. क. श्रा./११०)।
१.प्रोषधोपवास व उपवास सामान्यमें अन्तर र.क. श्रा./१०१ चतुराहारविसर्जनमुपवास प्रोषध सकृदभुक्तिः। स प्रोषधोपवासो येदुपोष्यारम्भमाचरति ।१०६।- चारो प्रकारके आहारका त्याग करना उपवास है । और एक बार भोजन करना प्रोषध है।
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प्रोषधोपवास
२. प्रोषधोपवास व उपवास निर्देश
तथा जो एकाशन और दूसरे दिन उपवास करके पारणाके दिन एकाशन करता है, वह प्रोषधोपवास कहा जाता है ।१०६।
३. प्रोषधोपवाद व प्रोषध प्रतिमाओं में अन्तर चा,सा/३७/४ प्रोषधोपवास मासे चतुर्वपि पर्व दिनेषु स्वकीया शक्तिमनिगृह्य प्रोषधनियम मन्यमानो भवतीति व्रतिकस्य यदुक्त शील प्रोषधोपवासस्तदस्य व्रतमिति । - प्रोषधोपवास प्रत्येक महीनेके चारों पौंमे अपनी शक्तिको न छिपाकर तथा प्रोषधके सब नियमोको मानकर करना चाहिए। व्रती श्रावकके जो प्रोषधोपवास शील रूपसे रहता था वही प्रोषधोपवास इस चौथी प्रतिमावालेके बत रूपसे रहता है। ला. सं./७/१२-१३ अस्त्यत्रापि समाधानं वेदितव्यं तदुक्तवत् । सातिचार च तत्र स्यादत्रातिचारवर्जितम् ॥१२॥ द्वादशवतमध्येऽपि विद्यते प्रोषधं व्रतम् । तदेवात्र समारख्यान विशेषस्तु विवक्षित ।१३। -व्रत प्रतिमामें भी प्रोषधोपवास कहा है तथा यहाँ पर चौथी प्रतिमा में भी प्रोषधोपवास व्रत बतलाया है इसका समाधान वही है कि व्रत प्रतिमामें अतिचार सहित पालन किया जाता है। तथा यहाँ पर चौथी प्रतिमामें वही प्रोषधोपवास व्रत अतिचार रहित पालन किया जाता है। तथा व्रत प्रतिमा वाला श्रावक कभी प्रोषधोपवास करता था तथा कभी कारणवश नही भी करता था परन्तु चतुर्थ प्रतिमा वाला नियमसे प्रोषधोपवास करता है यदि नहीं करता तो उसकी चतुर्थ
प्रतिमाको हानि है। यही इन दोनोमे अन्तर है ।१३। । वसु. श्रा/टी./३७८/२७७/४ प्रोषधप्रतिमाधारी अष्टम्यां चतुर्दश्या च प्रोषधोपवासमझीकरोतीत्यर्थ । व्रते तु प्रोषधोपवासस्य नियमो नास्तीति। प्रोषध प्रतिमाधारी अष्टमी और चतुर्दशीका उपवास नियमसे करता है और व्रत प्रतिमामें जो प्रोषधोपवास व्रत बतलाया है उसमें नियम नही है।
१. उपवास अपनी शक्तिके अनुसार करना चाहिए ध. १३/५,४,२६/५६/१२ पित्तप्पकोवेण उववास अक्खयेहि अद्धाहरेण उपवासादो अहियपरिस्समे हि । । - जो पित्तके प्रकोपवश उपवास करने में असमर्थ है, जिन्हे आधा आहारकी अपेक्षा उपवास करने में
अधिक थकान होती है उन्हे यह अवमौदर्य तप करना चाहिए। चा. पा/टी /२५/४५/१६ तदपि त्रिविधं प्रोषधोपवास भवति यथा कर्तव्यम् । = वह प्रोषधोपवास भी उत्तम, मध्यम व जघन्यके भेदसे तोन प्रकार का है। उनमे से कोई भी यथाशक्ति करना चाहिए। सा. ध./२/३५ उपवासाक्षमै कार्योऽनुपवासस्तदक्षमै । आचाम्लनिविकृत्यादि, शक्त्या हि श्रेयसे तप ।३५॥ -- उपवास करने में असमर्थ श्रावकोके द्वारा जलको छोडकर चारो प्रकारके आहारका त्याग किया जाना चाहिए, और उपवास करनेमे असमर्थ श्रावकोके द्वारा आचाम्ल तथा निविकृति आदि रूप आहार किया जाना चाहिए, क्योकि शक्तिके अनुसार किया गया तप कल्याण के लिए होता है ।३॥ * उपवास साधुको भी करना चाहिए-दे० सयत/३ । * व्रत भंग करनेका निषेध-दे० व्रत/१॥ * उपवासमें फलेच्छाका निषेव-दे० अनशन/१ । ५. अधिकसे अधिक उपवासोंकी सीमा घ. ६/४,१,२२/८७-८६/५ जो एक्कोववास काऊणं पारिय दो उववासे
करे दि. पुणरवि पारिय तिणि उबवासे क्रेदि। एवमेगुत्तरवड्ढीए जाव जीविदतं तिगुत्तिगुत्तो होदूण उबवासे क्रेतो उग्गुग्गतको णाम। एव सते छम्मासे हितो बड्ढिया उपवासा होति । तदो
णेद घडदि त्ति । ण एस दोसो, घादाउआणं मुणीणं छम्मासोश्वासणियमभुवगमादो, णाप्पादाउआणं, तेसिमकाले मरणाभावो । अघादाउआ वि छम्मासोववासा चेव होति, तदुवरि सकिलेसुप्पत्तोदो त्ति उत्ते होदु णाम एसो णियमो सस किलेसाणं सोवक्कमाउआप च, ण सक्लेिसविरहिद णिरुवक्कम्माउआण तवोबलेणुप्पण्णविरियंतराइयक्खओवसमाणं तव्वलेणेव मदीकसायादावेदणीओदयाणामेस णियमो, तत्थ तबिरोहादो। तवोबलेण एरिसी सत्ती महाणम्मुपज्ज दि त्ति कध णव्वदे। एदम्हादो चेव सुत्तादो। कुदो। छम्मासे हितो उपरि उबवासाभावे उग्गुग्गतवाणुववत्तीदो। जो एक उपवासको करके पारणा कर दो उपवास करता है, पश्चात फिर पारणा कर तीन उपवास करता है। इस प्रकार एक अधिक वृद्धिके साथ जीवन पर्यन्त तीन गुप्तियोसे रक्षित होकर उपवास करनेवाला उग्रोग्रतप ऋद्विका धारक है । प्रश्न - ऐसा होनेपर छह माससे अधिक उपवास हो जाते है। इस कारण यह घटित नहीं होता ? उत्तर-यह कोई दोष नही है, क्यो कि, घातायुष्क मुनियोके छह मासोके उपवासका नियम स्वीकार किया है, अघातायुष्क मुनियोके नहीं, क्योकि, उनका अकालमें मरण नहीं होता। प्रश्न-अघातायुष्क भी छह मास तक उपवास करनेवाले ही होते है, क्योकि, इसके आगे सम्लेशभाव उत्पन्न हो जाता है ! उत्तर-इसके उत्तर में कहते है कि सक्लेश सहित और सोपकमायुष्क मुनियोके लिए यह नियम भले ही हो, किन्तु सक्लेशभावसे रहित निरुपक्रमायुष्क और तपके बलसे उत्पन्न हुए वोर्यान्तरायके क्षयोपशमसे सयुक्त तथा उसके बलसे ही असाता वेदनीयके उदयको मन्द कर चुकनेवाले साधुओके लिए यह नियम नहीं है, क्योकि उनमें इसका विरोध है। प्रश्न-तपके बलसे ऐसी शक्ति किसी महाजनके उत्पन्न होती है, यह कैसे जाना जाता है। उत्तर-इसी सूत्रसे ही यह जाना जाता है, क्यो कि छह माससे ऊपर उपवासका अभाव माननेपर उग्रोग्र तप बन नहीं सकता। घ १३/५,४,२६/५५/१ तत्थ चउत्थ-
छ ट्ठम-दसम-दुवालसपक्रव-मासउन-अयण-स बच्छरेसु एसणपरिचाओ अणेसणं णाम तवी । -चौथे, छठे, आठवे, दसवे और बारहवे एषणका ग्रहण करना तथा एक पक्ष, एक मास, एक ऋतु, एक अयन अथवा एक वर्ष तक एषणका त्याग
करना अनेषण नामका तप है। म पु/१०/२८-२६ का भावार्थ-आदिनाथ भगवान ने छह महीनेका
अनशन लेकर समाधि धारण की। उसके पश्चात् छह माह पर्यन्त अन्तराय होता रहा। इस प्रकार ऋषभदेवने १ वर्षका उत्कृष्ट तप किया। म पु/३६/१०६ गुरोरनुमतेऽधीती दधदेकविहारिताम् । प्रतिमायोगमावर्षम् आतस्थे किल स वृत ।१०६। = गुरुकी आज्ञामें रहकर शास्त्रो का अध्ययन करने मे कुशल तथा एक विहारीपन धारण करनेवाले जितेन्द्रिय बाहुबलीने एक वर्ष तक प्रतिमा योग धारण किया 1१०६। (एक ष पश्चात् उपवास समाप्त होनेपर भरतने स्तुति की तब हो केवलज्ञान प्रगट हा गया)। (म. पु/३६/१८)।
६. उपवास करने का कारण व प्रयोजन पु.सि उ /१५१ सामायिकसस्कार प्रतिदिनमारोपित स्थिरीकर्तुम् । पक्षाईयो यारपि कर्तव्योऽवश्यमुपवास ।१५१४ - प्रतिदिन अंगीकार किये हुए सामायिक रूप सस्कारको स्थिर करनेके लिए पक्षोके अर्व भाग-अष्टमी चतुर्दशी के दिन उपवास अवश्य ही करना चाहिए।१५१
७. उपवासका फल व महिमा पु.सि उ/१५७-१६० इति य षोडशायामान् गमयति परिमुक्तसकलसावद्य । तस्य तदानी नियत पूर्ण महिसावत भवति ।१५७। भोगो
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प्रोषधोपवास
भोगतो. म्यावर हिंसा भवेविलामीमा भोगोपभोगविरा वति न लेशोऽपि हिंसाया |१३८ । वाग्गुप्तेर्नास्त्यनृतं न समस्तादानविरहत. स्तेयम्। नामझामैथुनरुच, सहो नागेऽप्यर्थस्य १५६ इत्थमयोचितहि प्रयाति महामतित्वमुपचारात् उदयति चरित्रमोहे सभते तु न संयमस्थान १९६० जो जीम इस प्रकार सम्पूर्ण पाच क्रियाओसे परिमुक्त होकर १६ पहर गमाता है, उसके इतने समय तक निश्चय पूर्वक सम्पूर्ण अहिसा व्रत होता है | १५० भोगोपभोग हेतु से स्थावर जीवोकी हिसा होती है, किन्तु उपवासधारी पुरुषके भोगोपभोगके निमित्तसे जरा भी हिंसा नहीं होती है १५८ होनेसे झूठ वचन नहीं है, मैथुन, अवसायान और शरीर में ममत्वका अभाव होनेसे क्रमश. अब्रह्म चोरी व परिग्रहका अभाव है । १५६ | उपवास में पूर्ण अहिसा व्रतको पालना होनेके अतिरिक्त अवशेष चारों व्रत भी स्वयमेव पलते है । इस प्रकार सम्पूर्ण हिंसा से रहित व प्रोषधोपवास करनेवाला पुरुष उपचारसे महाव्रतीपनेको प्राप्त होता है । अन्तर केवल इतना रह जाता है कि चारित्रमोहके उदय रूप होनेके कारण संयम स्थानको प्रा नही करता है।
म विधान सं/पृ. २४ पर उस अनेकपुण्यसंतानकारणं स्वनिबन्धनम् । पापधतं च क्रमादेतत् व्रतं मुक्तिवशीकरम् | १| यो विधत्ते व्रतं सारमेतत्सर्व सुखावहम्। प्राप्य षोडशमं नाकं स गच्छेत् क्रमश. शिवम् |२| व्रत अनेक पुण्यको सन्तानका कारण है, स्वर्गका कारण है, सुसारके समस्त पापों का नाश करनेवाला है | १| जो महानुभाव सर्व खोरपायक श्रेष्ठ मत धारण करते हैं, वे सोलहवे स्वर्ग सुखको अनुभव कर अनुक्रमसे अविनाशी मोक्ष सुखको प्राप्त करते हैं |२|
★ उपवास भी कथंचित् सावध है - दे० सावद्य ।
३. उपवासमें उद्यापनका स्थान
१. उपवास के पश्चात् उद्यापन करनेका नियम
धर्म परीक्षा /२०/२२ उपवासको विधि पूर्वक पूरा करनेपर फलकी छा करनेवालोंको उद्यापन भी अवश्य करना चाहिए |२२|
सा. ध. /२/७८ पश्चम्यादिविधि कृष्णा, शिवान्ताभ्युदयप्रदम् । उद्योत येद्यथापनि प्ररमन मोक्ष पर्यन्त इन्द्र चक्रम आदि पदोंको प्राप्त करानेवाले पंचमी पुष्पांजली मुकावली तथा रत्नत्रय आदिक मत विधानको करके आर्थिक शक्तिके अनुसार उद्यापन करना चाहिए, क्योंकि नैमित्तिक क्रियाओंके करनेमे मन अधिक उत्साहको प्राप्त होता है। विधानसंग्रह २३ पर सम्पूर्णे ह्यनुकर्तव्यं स्वशस्वी बुधे सर्वथा न्यारत्यादिमतोद्यापनसद्विधौ प्रत मर्यादा पूर्ण हो जानेपर स्व शक्तिके अनुसार उद्यापन करे, यदि उद्यापनकी शक्ति न होवे तो व्रतका जो विधान है उससे दूने व्रत करे । २. उद्यापन न हो तो दुगुने उपवास करे
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धर्म परीक्षा /२०/२३ यदि किसीकी विधि पूर्वक उद्यापन करनेकी सामर्थ्य न हो तो द्विगुण (दुगुने काल तक दुगुने उपवास) विधि करनी चाहिए क्योकि यदि इस प्रकार नहीं किया जाये तो प्रत विधि कैसे पूर्ण हो । ( व्रत विधान सं./ पृ. २३ पर उदधृत) ।
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३. उद्यापन विधि
विधानसंग्रह २३ परत कर्तव्यं जिनागारे महाभिषेकमद्भुतम्। सर्वश्चतुविधै सार्धं महापूजाविकोत्सव १ चन्द्रभृङ्गातिकादय धर्मोस्करणान्येव देय भक्त्या स्वातित |२| पुस्तकादिमहादानं भक्त्या देयं वृषाकर महोत्सव विधेय
1
४. उपवास के दिन धावकके कर्तव्य अकर्तव्य
सुवाद्यगीतादिनने || चतुर्विधाय सघायाहारदानादिकं मुदा । आमन्त्र्य परमभक्त्या देयं सम्मानपूर्वकम् |४| प्रभावना जिनेन्द्राणां गासनं चैत्यधामनि । कुर्वन्तु यथाशक्त्या स्तोक चोद्यापन मुदा १५१ = खूब ऊँचे-ऊँचे विशाल जिन मन्दिर बनवाये और उनमें बड़े समारोह पूर्वक प्रतिष्ठा कराकर जिन प्रतिमा विराजमान करे । पश्चात् चतु प्रकार संघ के साथ प्रभावना पूर्वक महाभिषेक कर महापूजा करे |१| पश्चात् घण्टा, झालर, चमर, छत्र, सिहासन, चन्दोवा, भारी, भृंगारी, आरती आदि अनेक प्रकार धर्मोपकरण शक्तिके अनुसार भक्तिपूर्वक देवे [२] आचार्य बादि महापुरुयोंको धर्मबुद्धि तथा ज्ञानवृद्धि हेतु शास्त्र प्रदान करे। और उत्तमोत्तम बाजे, गीत और नृत्य आदिके अत्यन्त आयोजनसे मन्दिरमें महात् उत्सव करे || चतुर्विध संघको विशिष्ट सम्मान के साथ भक्ति पूर्वक बुलाकर अत्यन्त प्रमोदसे आहारादिक चतु प्रकार दान देवे |४| भगवान् जिनेन्द्रके शासनका माहात्म्य प्रगट कर खूब प्रभावना करे। इस प्रकार अपनी शक्तिके अनुसार उद्यापनका व्रत विसर्जन करे |५|
४. उपवास के दिन श्रावकके कर्तव्य अकर्तव्य
१. निश्चय उपवास ही वास्तवमें उपवास है
ध. १३/५,४,२६/५५/३ ण च चउत्रिह आहारपरिच्चागो चेव अणेसणं, रागादीहि सह तपास असणावगमाद अत्र श्लोक:अप्रेवृत्तस्य दोषेभ्यस्सहवासो गुणै. सह । उपवासस्स विज्ञेयो न शरीरविशोषणम् |६| पर इसका यह अर्थ नहीं कि चारों प्रकारके आहारका स्याग ही अणेषण कहलाता है। क्योंकि रागादिके त्यागके साथ ही उन चारोंके त्यागको अनेषण स्वीकार किया है। इस विषयमें एक श्लोक है - उपवास में प्रवृत्ति नहीं करनेवाले जीवको अनेक दोष प्राप्त होते है और उपवास करनेवालेको अनेक गुण, ऐसा यहाँ जानना चाहिए। शरीर के शोषणको उपवास नहीं कहते । दे० प्रोषधोपयास १/१ इन्द्रिय विषयोंसे हटकर आत्मस्वरूपमें तीन होनेका नाम उपवास है | )
२. उपवास के दिन आरम्भ करे तो उपवास नहीं बंधन होता है
का.आ./मू./३७८ उववास कुवं तो आरंभ जो करेदि मोहादो। सो जिय देहं सोसदि ण-भाइए कम्मलेसं पि ३७५॥ जो उपवास करते हुए मोहवश आरम्भ करता है वह अपने शरीरको सुखाता है उसके शमात्र भी कमकी निर्जरा नहीं होती ॥१७॥ विधनसंग्रह २० पर उपविषवारम्भस्यागो यत्र विधीयते । उपवास' स विज्ञेयो शेषं लडूबनं विदुः कषाय, विषय और आरम्भका जहाँ संकल्प पूर्वक त्याग किया जाता है, वहाँ उपवास जानना चाहिए। शेष अर्थात् भोजनका त्याग मात्र लंघन है।
३. उपवासके दिन स्नानादि करनेका निषेध
इन्द्रनन्दि संहिता / १४ पव्वदिणेण वयेसु विण दंतकट्ठण अचमंतपं । ण हाणंजणणस्साणं परिहारा तस्स सण्णेओ | १४ | पर्व और अतके दिनो में स्नान, अंजन, नस्य, आचमन और तर्पणका त्याग समझना चाहिए | १४ |
दे. प्रोषधोपवास/ १/४ ( उपवास के दिन स्नान, माला आदिका त्याग करना चाहिए ) ।
४. उपवासके दिन धावकले कर्तव्य
१२. गृहस्थ को छोड़कर मन्दिर अगा निर्जन प्रसतिका में जाकर निरन्तर धर्मध्यानमें समय व्यतीत करना चाहिए।
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प्रोष्ठिल
५. सामायिकादि करे तो पूजा करना आवश्यक नहीं ला. सं./६/२०२ यदा सा क्रियते पूजा न दोषोऽस्ति तदापि वै । न क्रियते सा तदाप्यत्र दोषो नास्तीह कश्चन । २०२ = प्रोषधोपवासके दिन भगवाद अरन्सदेवकी पूजा करे तो भी कोई दोष नहीं है। यदि उस दिन बह पूजा न करे ( अर्थात् सामायिकादि साम्यभाव रूप क्रियामें बितावे ) तो भी कोई दोष नही है । २०२ ॥
६. रात्रिको मन्दिरमें सोनेका कोई नियम नहीं
वसु श्रा./२८६ दाऊण किंचि रत्ति सहऊणं जिणालए नियघरे वा अहवा सयल रत्ति काउस्सेण णेऊण | २८६ | - रात्रिमें कुछ समय तक जिनालय अथवा अपने घर में सोकर अथवा सारी रात्रि कायोत्सर्ग में बताकर अर्थात भिकुल न सोकर |१६|
प्रोष्ठिल १. यह भावि कालीन नवें तीर्थकर हैं। अपरनाम प्रश्नकीर्ति है ० सोर्थंकर / ५२ श्रुतावतार की पट्टावली के अनुसार आप भरनाहु प्रथम (तपसी) के पश्चात् ११ अंग दश पूर्वधारी हुए। आपका समय - वी. नि. १७२ १६१. ( ई. पू. ३५५० २२६) दृष्टि नं.३ के अनुसार बी. नि. २३२-२५९.३०
४/४
संवत् इतिहास /
प्लुत स्वर-दे० अक्षर
[]
फल --- १. फल बनस्पतिके भेद प्रभेद व लक्षण - दे० वनस्पति / १ । २. फलोंका भक्ष्याभक्ष्य विचार-दे० भक्ष्याभक्ष्य / ४ | ३ कर्मोंका फल दान - ३० उदय; ४. कर्म फल चेतना - ३० चेतना / १ । फल चारण अद्धि
०४ मी
दश कर लेय। दश व
फलदशमी व्रत घर घर देय । यह व्रत श्वेताम्बर आम्नाय में प्रचलित है। (बत विधान /. १२०) (नवसाहत वर्तमान पु० )
फल रस- दे० रस ।
फल राशि राशिक विधानमें जो उत्तर या फलके रूप प्राप्त
होता है०/11/५/२
फालि - दे० काण्डक ।
फाहियान चीनी यात्री था। ई० ४०१ में भारत में खाया था। ई० ४०५ तक भारत में रहा । ( वर्तमान भारत इतिहास ) ( हिस्ट्री आफ़ लिटरेचर) । फिलिप्स - -यूनान देशका राजा था। मकदूनिया राजधानी थी। सम्राट् सिकन्दर इसका पुत्र था। समय - ई० पू० ३६०-३१६ (वर्त मान भारत इतिहास ) ।
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फूल दशमी व्रत - यह व्रत श्वेताम्बर आम्नाय में प्रचलित है । फूल दशमि दश फूलनि माल । दश सुपात्र पहिनाय आहार । (विधान सं. पू. १३०) ( नवलसाह वर्धमान पु० ) । फेनमालिनी | - अपर विदेहस्थ एक विभंगा नदी- दे० लोक /५/८
[ब]
खण्डमा एक देश० मनुष्य ४१, देश पूर्ववर्ती क्षेत्र प्राचीन राजधानी कर्ण
बंग भरत क्षेत्र पूर्व वर्तमान मंगाल
१६७
बंध
सुवर्ण (मनसेना) थी. और वर्तमान राजधानी कालीपारी ( कलकत्ता ) है ।
बध - अनेक पदार्थोंका मिलकर एक हो जाना बन्ध कहलाता है । वह तीन प्रकारका है, जीवबन्ध, अजीबबन्ध और उभयबन्ध । संसार व धन आदि बाह्य पदार्थोंके साथ जीवको बाँध देनेके कारण जीवके पर्याय भूत मिथ्यात्व व रागादि प्रत्यय जीवबन्ध या भावगन्ध है। निर्माणका कारण परमाणुओंका पारस्परिक बन्ध अजीव बन्ध या पुद्गलबन्ध है । और जीवके प्रदेशोके साथ कर्म प्रदेशका अथवा शरीरका बन्ध उभयबन्ध या द्रव्यबन्ध है । इनके अतिरिक्त भी पारस्परिक संयोगसे बन्धके अनेक भेद किये जा सकते है । द्रव्य व भावबन्धमें भावबन्ध ही प्रधान हैं, क्योंकि इसके बिना कर्मों व शरीरका जीवके साथ बन्ध होना सम्भव नहीं है। मिथ्यात्व आदि प्रत्ययोंके निरोध द्वारा द्रव्य बन्धका निरोध हो जानेसे जीवको मोक्ष प्रगट होती है।
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बन्ध सामान्य निर्देश
बन्ध सामान्य निर्देश
१. निति अर्थ २. गति निरोध हेतु जीव व कर्म प्रदेशोंका परस्पर बन्ध ।
बन्धके भेद प्रभेद
१. बन्धके सामान्य भेदः २. नो आगम द्रव्य बन्धके
भेद; ३. नो आगम भाव अन्धके भेद ।
वैसिक व प्रायोगिक बन्धके भेद
१. वैखसिक व प्रायोगिक सामान्य २. सादि अनादि वैकि
कर्म व नोकर्म बन्धके लक्षण
१.
कर्म व नोकर्म सामान्यः २. आलापनादि नोकर्म
बन्ध
जीव व अजीव बन्धके लक्षण
१.
जीव भावबन्ध सामान्य; २. भावबन्धरूप जीवबन्ध
३. द्रव्यबन्ध रूप उभयबन्ध
* अजीव बन्ध ।
बन्ध और युतिमें अन्तर ।
अनन्तर व परम्परा बन्धका लक्षण ।
विपाक व अविपाक प्रत्यधिक जीव भावमन्यके लक्षण ।
विपाक व अविपाक प्रत्यधिक अधीन भवन्
बन्ध अबन्ध व उपरतबन्धके लक्षण । एक सामरिक बन्धको बन्ध नहीं कहते।
प्रकृति स्थिति आदि । स्थिति व अनुभागबन्धकी प्रधानता।
- दे० स्थिति / २ |
-- दे० वह वह नाम ।
आस्रव व बन्धमें अन्तर । बन्धके साथ भी कथंचित् संवरका
-दे० स्कन्ध ।
- ३० पुति ।
जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश
मूल उत्तर प्रकृतियोंके बन्धकी प्ररूपणाएँ ।
--३० स्थिति २।
- दे० आसव / २ | अंश ।
- ३० नंबर /२/५।
- दे० प्रकृतिवन्ध / ६।
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बंध
२
१
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३
૪
५. अमूर्त जीवसे मूर्तं कर्म कैसे बॅधे
९
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६ मूर्त कर्म व अमूर्त जीवके बन्धमें दृष्टान्त |
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४
सत्त्व के साथ बन्धका सामानाधिकरण्य नहीं है ।
बन्ध उदय व सत्त्वमें अन्तर ।
द्रव्यबन्धकी सिद्धि
शरीरसे शरीरभारी अभिन्न कैसे है।
जीव व कर्मका बन्ध कैसे जाना जाये ।
जीव प्रदेशोंमें कर्म स्थित है या अस्थित |
जीवके साथ कमका गमन के समय है।
१
२.
३
५
६
- दे० सव/२ ।
-दे० उदय /२ ।
१. क्योंकि जीव भी कचित् मूर्त है २ जीव कर्मबन्ध अनादि है ।
कर्म जीवके साथ समवेत होकर पते है या असमवेत होकर ।
कमवद्ध जीव चेतनता न रहेगी।
जीनव शरीरका एकल व्यवहारसे है।
- दे० कारक /२/२
बन्ध पदार्थकी क्या प्रामाणिकता । विस्रसोपचय रूपसे स्थित वर्गणाएँ ही बँधती है ।
कर्म बन्धमें रागादि भावबन्धकी प्रधानता
द्रव्य व भाव कर्म सम्बन्धी ।
द्रव्य, क्षेत्रादिकी अपेक्षा कर्मबन्ध होता है ।
अज्ञान व रागादि ही वास्तवमें बन्धका कारण है ।
- दे० कर्म/ ३ ।
ज्ञान आदि भी कथचित् बन्धके कारण है ।
ज्ञानकी कमी बन्धका कारण नहीं, तत्सहभागी कर्म ही बन्धका कारण है ।
जघन्य कषायांश स्वप्रकृतिका बन्ध करनेमें असमर्थ है ।
परन्तु उससे मन्य सामान्य तो होता ही है।
भावबन्धके अभाव में द्रव्यबन्ध नहीं होता ।
कर्मोदय बन्धका कारण नहीं रागादि दी है।
रागादि बन्धके कारण है तो माझ द्रव्यका निषेध क्यों।
द्रव्य व मावबन्धका समन्वय
एक क्षेत्रागाहमात्रका नाम द्रव्यवन्ध नहीं।
जीन व शरीरकी भिन्नता हेतु ।
जीव व शरीर में निमित्त व नैमित्तिकपना भी कचित् मिथ्या है।
जीव व कर्मवन्ध केवल निमित्तकी अपेक्षा है।
निश्चयसे कर्म जीवसे बँधे ही नहीं ।
बन्न अवस्थामै दोनों द्रव्योंका विभाव परिणमन हो जाता है।
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जीवबन्ध बतानेका प्रयोजन । उभयमन्य बताने का प्रयोजन। उभयबन्धका मतार्थ 1
बन्ध टालने का उपाय । अनादि कर्म कैसे करे ।
१. बन्ध सामान्य निर्देश
-- दे० मोक्ष / ६ ।
कर्मवन्धके कारण प्रत्यय
बन्धके कारण प्रत्ययका निर्देश व स्वामित्यादि ।
- दे० प्रत्यय |
कर्मबन्ध में सामान्य प्रत्ययका कारणपना ।
प्रत्ययोंके सद्भावमें वर्गणाओंका युगपत् कर्मरूप परिणमन क्यों नहीं होता।
एक प्रत्ययसे अनन्त वर्गणाओंमें परिणमन कैसे ।
मन्यके प्रत्ययोंमें मिथ्यात्वकी प्रधानता क्यों ।
कषाय और योग दो प्रत्ययोसे बन्धमें इतने भेद क्यों ।
अविरति कर्मबन्धमें कारण कैसे।
योग के कारणपने सम्बन्धी शंका समाधान
जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश
- दे० योग ।
१. बन्ध सामान्य निर्देश
१. बन्ध सामान्यका लक्षण २. निरु अर्थ
रा. वा / १/४/१०/२६/३ बध्यतेऽनेन बन्धनमा वा मन्धः १०॥ रा. वा./१/४/१७/२६ / ३० बन्ध इव बन्ध. ।
रा वा / ५ / २४/१/४८५/१० वध्नाति बध्यतेऽसौ बध्यतेऽनेन बन्धनमावा बन्ध' ।
रा वा /८/२/११/५६६/१४ करणादिसाधनेष्वयं बन्धशब्दो द्रष्टव्य । तत्र करणसाधन तावत्--- बध्यतेऽनेनात्मेति बन्ध. - १. जिनसे कर्म बँधे यह कर्मका नाम है (१/४/१०) २. बन्दकी भौत होनेसे बन्ध है । ( १/४/१७ ) । ३. जो बन्धे या जिसके द्वारा बाँधा जाये या बन्धनमात्रको बन्ध कहते हैं । (५/२४/१) ४ बन्ध शब्द करणादि साधनमे देखा जाता है। करण साधनकी विवक्षामे जिनके द्वारा कर्म बँधता है वह बन्ध है ।
२ गति निरोध हेतु
सि/०/२५/६६/२ अभिमत देशगतिनिरोधहेतुबन्ध किसीको अपने स्थानमे जानेगे रोकने के कारको चरम कहते है। रा. वा/७/२३/२/५०३/१६ अभिमतदेशगमनं प्रत्युरसुकस्य तराधि हेतु करिज्ज्वादिभिमन्धते
आदि में रस्सी में इस प्रकार बाँध देना जिससे वह इष्ट देशको गमन न कर सके, उसको बन्ध कहते है । ( चा सा /८/६ ) |
३ जीव व कर्म प्रदेशका परस्पर बन्ध
-
रा. वा./१/४/१७/२६ / २६
आत्मकर्मणोरन्योन्यप्रवेशानुप्रवेश लक्षणो
बन्ध |१७| = कर्म प्रदेशोका आत्मा प्रदेशोमे एक क्षेत्रावगाह हो जाना बन्ध है ।
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बंध
घ. १४/५,६,१/२/३ दव्वस्स दव्वेण दव्व-भावाणं वा जो संजोगी समओवा सो बधो णाम । - द्रव्यका द्रव्यके साथ तथा द्रव्य और भावका क्रमसे जो सयोग और समवाय है वही बन्ध कहलाता है । विशेष- ३०/१/५
२. बन्धके भेद-प्रभेद
१. बन्ध सामान्यके भेद
रा मा /१/७/१४/४०/६ बन्ध: सामान्यादेवाय एक द्विविध. शुभाशुभभेदात विधाभावोभयनिकल्पात चतु प्रकृतिस्थित्यनुभागप्रदेशभेदात् पञ्चधा मिथ्यादर्शनादिहेतुभेदात, षोढा नामस्थापना
क्षेत्रका सप्तधा तैरेव भवाधिकै अश्वा ज्ञानावरणादिमूलप्रकृतिभेदाव । एवं संरूपेयासवान भवति हेतुफलभेशव।
रा. वा./२/१०/२/१२४ / २४ बन्धो द्विविधो द्रव्यबन्धो भावबन्धश्चेति । रा./५/२४/६/४००/१७ मोडिया नियोग 14 रा. वा./८/४/१५/५६६/१० एकादय. संख्येया विकल्पा भवन्ति - शब्दत'
I
।
कस्ता सामान्यादेक. कर्मबन्ध स एम पुण्यपापमेवान द्विविध', त्रिविधो बन्ध अनादिः सान्त' अनादिरनन्त', सादि सान्तश्चेति भुजाकाराक्पतरावस्थितभेदाद्वा प्रकृतिस्थिनुभव प्रदेशाच्चतुर्विध । द्रव्य क्षेत्रकाल भवभावनिमित्तभेदात् पञ्चविधः । जीवनका विपद पोडा व्यपदिश्यते रागद्वेषमो कोषमानमायालोभहेतुभेदात् सप्तमी वृत्तिमनुभवति ज्ञानावरणादिविक उपादष्टधा । एव संख्येया विकल्पा' शब्दतो योज्या । चशब्देनाध्यवसायस्थानविकश्पाद असंख्येया अनन्तानन्तप्रदेशस्कन्धपरिणामविधिरनन्त', ज्ञानावरणाद्यनुभवाविभागपरिच्छेदापेक्षया वा अनन्त । १ सामान्यसे एक प्रकार है- ( रा. वा./१ तथारावा. / ८ ) । २, पुण्य-पापके भेदसे दो प्रकार है- ( रा. वा. / १ तथा रा. वा / ) । अथवा द्रव्यभावके भेदसे दो प्रकारका है- ( रा. वा. २) अथवा बेसिक या प्रायोगिक भेदसे दो प्रकार है- ( था, प. ९४/५.६ / सू. २६ / २०) (स सि / ५ / २४ / २६६/७). (रा. बा.५) (त. सा./३/६७) । ३ द्रव्य, भाव व उभय या जीव, पुद्गल व उभयके भेदसे तीन प्रकार है (रा. बा./१) (प्र सा./ / १०० ). (घ. १३/५५.८२/३४७/७) ( पं. ध. /उ. /४६) अथवा अनादि सान्त अनादि अनन्त व सादि सान्तके भेदसे तीन प्रकार है । (रा.वा./5), ४. प्रकृति, स्थिति, अनुभव व प्रदेशके भेदसे चार प्रकार है - (मृ. आ / १२२१ ) ( त सू./८/३ ), ( रा. वा / १ तथा रा. वा./८), (गो
/ /८१/०३), (स./मू./२२) (प.ध/द / ६३५० ५. मिष्याव. अविरत, प्रमाद, कषाय और योगके भेदसे पाँच प्रकारका है । (रा. वा./ १ ) । अथवा द्रव्य, क्षेत्र, काल, भाव व भवके भेदसे पाँच प्रकार है । (रा.वा./८ ) । ६ नाम, स्थापना, द्रव्य, क्षेत्र काल व भावके भेद छह प्रकार है । (रा. वा. / १ ) । अथवा षटकाथ जोवोके भेदसे छह प्रकार है - ( रा. वा / ८ ) । ७ नाम, स्थापना, द्रव्य, क्षेत्र, काल, भाव व भवके भेदसे सात प्रकार है- ( रा. वा./१) अथवा राग, द्व ेष, मोह, क्रोध, मान, माया, लोभके भेदसे सात प्रकार है- (रा. वा./८ ) । ८ ज्ञानावरणादि मूल प्रकृतियोके भेदसे आठ प्रकार है । ( रा वा / १ तथा रा. वा /८ ), ( प्रकृति बन्ध / १ )। ६. वाचक शब्दोकी अपेक्षा संख्यात; अध्यवसाय स्थानोको अपेक्षा असंख्यात, तथा कर्म प्रदेशकी अथवा कम अनुभाग प्रति
अपेक्षाअन
प्रकार है । ( रा. वा / १ तथा रा वा / ८ ) ।
२ नोआगम द्रव्यबन्धके मेद
ब. सं. १४ / ५ ६ / सूत्र न. / पृष्ठ नं. जो सो णो आगमदो दो सो सुविहो-पोधो चैव विस्तरामधी पेम (२८/२०) जो सो विस्तसाधो नाम सो दुमिहो- सादिपवित्सामधी व अनादि
भा० ३-२२
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१. बन्ध सामान्य निर्देश
fareसाबंधो चेव ( २८/२८ ) । जो सो थप्पो पओअबंधो णाम सो दुबिहो - कम्मबधो चैव णोकम्मबंधो- चेव ( ३८ / ३६ ) | जो सो णोकम्मबंधो णाम सो पञ्चविहो- आलावणबंधो अल्लीवणबंधो सबंधी सरोरवंधी सरीरवधो चेदि (४०/३०) जो सो सरीरबधी णाम सो वो औरातियसरीरमंधी asarसरीर घो आहारसरीरबंधो तैयासरीरमधी कम्मtuसरीरपो पेषि (४४/४१) जो सो सरीरबंधो नाम सो दुविहो - सादियसरी रिबंधों चैव अणादियसरी रिबंधो चेव ( ६१ / ४४ ) । जो सो थप्पोकम्मबधो णाम यथा कम्मेति तहा णेदव्वं ( ६४ / ४६ ) । - १. नोआगम 'द्रव्यबन्ध दो प्रकारका है-प्रायोगिक व वैसिक (स.सि./५/२४/२१४/०) ( रा या / ५ / २४/६/४८०/१७); (त.सा./३/६७) । २ वैखसिक दो प्रकारका है-सादि व अनादि । ( रा. वा / ५ / २४ /७/४८७/१६) । ३. प्रायोगिक दो प्रकार है-कर्म नोकर्म (सि/५/२०/२१६/१०), (रा. वा /५/२४/६/४००३४), ( सा. / ३ / ६७ ) । ४. नोकर्म बन्ध पाँच प्रकारका है-आलापन, अल्ल लीगन, संश्लेष शरीर व शरीरी (रा. बा./५/२४/१/४८०/१५) ५ शरीरबन्ध पाँच प्रकार है- औदारिक, बैंकिक आहारक पर व कार्मण (रा. वा/२/२४/१४८८३), (विशेष दे० शरीर) ६ शरीरी बन्ध दो प्रकार है-सादि व अनादि ( रा. वा./५/२४/६/ ४८८ / १४ ) । ७. कर्म बन्ध कर्म अनुयोग द्वारवत् जानना अर्थात् ज्ञानावरणादिरूप] मूल व उथर प्रकृतियोकी अपेक्षा अनेक भेद-प्रभेद रूप है रा वा ५/२४/१/४००/३४), (विशेष०१ २. नो आगम भागबन्धके भेद
·
ष. . १४/५,६ / सूत्र नं / पृष्ठ नं. जो सो णोआगमदो भावबंधो नाम सो दुनिहो जीवभाववधी पे जीवभावो चेन (११/६) जो सो जो भावनाम सो तिविहो- विवागपचयो जीवभावबंधो चेपइयो जीवभावबधो चैव ( १४ / ९ ) । जो सो अविवागपच्चइयो जीवभावबंधो णाम सो दुबिहो -- उसमियो अविवागपञ्चड्यो जीवभावबंधो चेव खइयो यो जीवभाव चे १६/१२) जो सोखजीवभाव बंधो णाम सो तिविहो विवागपञ्चइयो अजीवभावबंधो चेव अविवागपायो जीवभावबंधी चैव समयपचयो जीवभावमथो व (२/२२० ) । = १ नो आगम भावबन्ध दो प्रकारका है- जीव भाव बन्ध और अजीव भावबन्ध ( १३ / ९ ) । २ जीव भावबन्ध तीन प्रकारका है - विपाक प्रत्ययिक जीवभावबन्ध अविपाक प्रत्ययिक terranन्ध और तदुभय प्रत्यधिक जीवभाव ( १४ / ६) । ३, अविपाक प्रत्ययिक जीवभावबन्ध दो प्रकारका है - औपशमिक अविपाक कि जीवभावबन्ध और सारिक अविपाकप्रत्ययक जीवभावबन्ध (१६/ १२ ) । ४. अजीव भावबन्ध तीन प्रकारका हैविपाक प्रत्ययिक अजीवभावबन्ध, अविपाक प्रत्ययिक अजीव भावअन्य और समय प्रत्यक भाव २ /१२ ) ।
-
३. वैसिक व प्रायोगिक बन्धके लक्षण कि व प्रायोगिक सामान्य
१
|
ससि /४/२४/२६६/७ पुरुष योगान वैखिक पुरुषप्रयोगनिमित्त प्रायोगिक पुरुष प्रयोग निरपेक्ष बेसिक है और पुरुष प्रयोग सापेक्ष प्रायोगिक (रावा/४/२४/८-१/४००/३०). (१२/५.६/३० /३० /१) ( सा./३/६०) ।
२. मादि, अनादि वैसिक
१०/२०१६/ / पृष्ठ न जो सो गरिया नाम की तिविहो - धम्मन्थिया अधम्मस्थिया अगाएन्थिमा चेदि (९/२६) ।
जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश
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बंध
१. बन्ध सामान्य निर्देश
जो सो थप्पो सादियविस्ससाबंधो णाम तस्स इमो णिसो-वेमादा णिद्धदा वेमादा ल्हुक्रवदा बधो (३२/३०)। से त बधणपरिणाम पप्प से अम्भाणवा मेहाण वा सज्माणं वा विज्जणं वा उकाण वा कणयाणं बा दिसादाहणं वा धूमकेदूणं वा इंदाउहाणं वा से खेत्तं पप्प कालं पप्प उड्ड पप्प अयणं पप्प पोग्गलं पप्प जे चामपणे एवमादिया अमंगलप्पडडीणि बंधणपरिणामेण परिणमति सो सम्वो सादियविस्ससाबंधो गाम (३०/३४) - अनादि वैस सिक बन्ध तीन प्रकारका है-धर्म, अधर्म तथा आकाश ( ३०/२१)। इनके अतिरिक्त इनके भी तीन-तीन प्रकार है-सामान्य, देश व प्रदेशमें परस्पर बन्ध । स्निग्ध रूक्ष गुणके कारण पुद्गल परमाणुमें बंध सादि वै नसिक है (३२/३०) वे पुदगल बन्धनको प्राप्त होकर विविध प्रकारके अभ्ररूपसे,मेष, सन्ध्या , बिजली, उल्का, कनक, दिशादाह, धूमकेतु, इन्द्रधनुष रूपसे, तथा क्षेत्र, काल, ऋतु, अयन और पुद्गल के अनुसार जो बन्धन परिणामरूपसे परिणत होते हैं, तथा इनको लेकर अन्य जो अमंगलप्रभृति बन्धन परिणाम रूपसे परिणत होते हैं, वह सब सादि वित्रसाबन्ध हैं । ( ३७/३४ ), (रा. वा./५/२४/७/४८७/१६) । रा. वा./५/२४/७/४८७/२५ कालाणूनामपि सतत परस्परविश्लेषाभावात अनादिः। - इसी प्रकार काल, द्रव्य आदि में भी बन्ध अनादि है।
णाम सो दुबिहो-सादियसरीरिबंधो वेब अणादियसरी रिबंधो चेव ।६श जो सो मादिग्रसरी रिबंधो णाम सो जहा सरीरबंधो तहा णेदव्यो ।६। जो अणादियसरी रिबंधो णाम यथा अण्णं जीवमझपदेसाण अण्णोण्णपदेसबधो भवदि सो सब्बो अणादियसरी रिबधो णाम ६३। ( इतरेषां प्रदेशानां कर्मनिमित्तसंहरण विसर्पणरवभावस्वादादिभात् । रा.वा.)। -१. जो आलापनबन्ध है उसका यह निर्देश है--जो शकटो का, यानो का, युगोंका, गड्डियोंका, गिल्लियोका, रथो, स्यन्दनो, शिविकाओ, गृहों, प्रासादो, गोपुरों, और तोरणोका काष्ठसे, लोह, रस्सी, चमडेकी रस्सी और दर्भमे जो बन्ध होता है तथा इनसे लेकर अन्य द्रव्योसे आलापित अन्य द्रव्योंका जो बन्ध होता है वह सब आलापनबन्ध है।४१। २. जो अल्लीवणबन्ध है उसका यह निर्देश है--कटकोंका, कुण्डों, गोबरपीड़ों, प्राकारों और शाटिकाओका तथा इनसे लेकर और जो दूसरे पदार्थ हैं उनका जो बन्ध होता है अर्थात अन्य द्रव्यसे सम्बन्धको प्राप्त हुए अन्य द्रव्यका जो बन्ध होता है वह सब अल्लीवणबन्ध है ।४। ३. जो संश्लेषबन्ध है उसका यह निर्देश है-जैसे परस्पर संश्लेषको प्राप्त हुए काष्ठ और लाखका बन्ध होता है वह सब संश्लेषबन्ध है ।४।-विशेष दे० श्लेष। ४. जो शरीरबन्ध है वह पाँच प्रकारका है-औदारिक, बै क्रियिक, आहारक, तैजस और कार्मण शरीरबन्ध ४४ औदारिक
औदारिक शरीरबन्ध ।४। औदारिक-तेजसशरीरबन्ध ।४६। औदारिक-कार्मण शरीरबन्ध ।४७१ औदारिक-तैजस कार्मण शरीरबन्ध 1४८। वै कियिक-बैक्रियिक शरीरबन्ध ।४।। क्रियिक-तैजस शरीरबन्ध ।५०। वे क्रियिक-कार्मण शरीरबन्ध ।११। वै क्रियिक-ौ जस कार्मण शरीरबन्ध ।५२। आहारक-आहारक शरीरबन्ध ।।३। आहारकतजस शरीरबन्ध ।५४। आहारक-कामेण शरीरबन्ध । आहारकतैजस-कार्मण शरीरबन्ध ५६। तै जस-तैजस शरीरबन्ध ।।७। सैजसकार्मण शरीरबन्ध ५८। कार्मण-कार्मण शरीरबन्ध ५६। वह सब शरीरबन्ध है ।६०। ५. जो शरीरिबन्ध है वह दो प्रकारका है-सादि शरीरिवन्ध और अनादि शरिरिबन्ध ।६। जो सादि शरीरिवन्ध है-बह शरीरबन्धके समान जानना चाहिए ।२। जो अनादि शरीरिबन्ध है। यथा-जीवके आठ मध्यप्रदेशोका परस्पर प्रवेशबन्ध होता है यह सत्र अनादि शरीरिबन्ध है ।६३। (जीवके इतर प्रदेशोंका बन्ध सादि शरीरिबन्ध है रा.बा.), (रा. वा./५/२४ ६/ ४८८/३६)। ५. जीव व अजीयबन्धके क्षण
१. कर्म व नोकर्मबन्धके लक्षण १. कर्म व नोकर्म सामान्य रा, वा./५/२६//४८७/३४ कर्मबन्धो ज्ञानावरणादिरष्टतयो वक्ष्यमाणः । नोकर्मबन्धः औदारिकादिविषय.। - ज्ञानावरणादि कर्मबन्ध हैविशेष दे० -प्रकृतिबन्ध । और औदारिकादि न कर्मबन्ध है-विशेष दे० शरीर। रा. वा.//भूमिका/५६१/५ मातापितृपुत्रस्नेहसंबन्ध. नोकर्मबन्धः ।
-माता, पिता पुत्र आदिका स्नेह सम्बन्ध नोकर्म बन्ध है। 20 आगे बध.२/५/३ ( जोव व पुद्गल उभयबन्ध भी कर्मबन्ध कह
लाता है।) २. आलापन आदि नोकर्म बन्ध प.व. १४/५.६/सू. ४१-६३/३८-४६ जो सो आलावणव धो णाम तस्स इमो णिसो-सेस गहाग वा जाणाणं वा जुगाण' बा गड्डीण बा गिल्लीण वा रहाणं वा संदणाणं वा सिवियाणं वा गिहाणं वा पासादाणं वा गोधुराणं वा तोरणाणं वा से कट्टण या लोहेण वा रज्जुणा वा बभेण वा दम्भेण बा जे चामण्णे एबमादिया अण्णदब्याणमण्णदव्वे हि आलावियाण बंधोहोदि सो सम्बो आलावणबंधो जाम ।४१। जो सो अल्लीवणबंधो णाम तस्स इमो णिहसो से कडयाण' वा कुड्डाणं वा गोवरपीडाणं वा पागाराणं बा साडियाणं वा जे चामण्णे एवमादिया अण्णदबाणमण्णदब्वेहि अल्लोविदाणं बंधो होदि सो सब्बी अल्लोवणबंधोणाम ४२ जो सो स सिलेसबंधो णाम तस्स इमो णि सो-जहा कट्ठ-जवण अण्णोण्णसं सिलेंसिदाण बधो संभवदि सो सव्यो संसिलेसबंधो णाम ।४। जो सा सरीरमधी णाम सोपंचबिही-ओरालियसरीरबधो वेउव्वियसरीरबंधो आहारसरीरबंधो तेयासरीरबंधो कम्मश्यसरीरबंधी चेदि ४४ ओरालिय-ओरालियसरीरबंधो ।४५ ओरालिय-तेयासरीरबंधो।४६ ओरालिय-कम्मइयसरीरब नौ ।४७ ओरालिय-तेयाकम्मइयसरीरबंधो।४८ बेउब्धियवेउब्धियसरीरबधो ।४। बेउयिय-तैयासरीरबंधी।५०। बेउठिवयकम्मइयसरीरबधो ५१। बेउविषय-तेया-कम्मइयसरीरबंधो ।२। आहार-आहारनरीरबंधो । १३. आहार-तेयासरीरबंधो।५४। आहारकम्मश्यसरीरबंधो५५॥ आहार-तेया-कम्मइयसरीरबंधी ॥५६॥ तेयातैयासरीरबंपो।५७५ तेया-कम्मश्यसरीरबधो।५८ कम्मइय-कम्मइयसरीरबंधो ५६। सो सम्बो सरीरबंधो णाम ।६। जो सो सरीरिबंधो
१. जीवबन्ध सामान्य ध.१३/११.८२/३४७/८,११ एगसरोरठिदाणमण ताणताणं णिगोदजीवाण अण्णोपणबंधो सो' (तथा) जेण कम्मेण जीवा पण ताणता एकम्मि सरीरे अच्छति तं कम जीवबंधो णाम । =एक शरीरमें स्थित अनन्तानन्त निगोद जीव तथा जिस कर्मके कारणसे वे इस प्रकार रहते हैं, वह कर्म भी जीवबन्ध है।
२. भावबन्ध रूप जीवबन्ध प्र. सा /मू/१७५ उबओगमओं जीवो मुज्झदि रज्जेदि वा पदुस्सेदि ।
पप्पा बिविधे विसये जी हि पुणो तेहिं सबंधो ।१७। जो उपयोगमय जीव विविध विषयों को प्राप्त करके मोह-राग-द्वेष करता है, वह जीव उनके द्वारा अन्धरूप है। रा.वा./२/१०/२/१२४/२४ क्रोधादिपरिणामवशीकृतो, भावबन्धः ।
-क्रोधादि परिणाम भानबन्ध है। भ.आ./वि./३०/१३४/१६ मध्यन्ते अस्वतन्त्रीक्रियन्ते कार्मण द्रव्याणि येन परिणामेन आत्मनः स अन्ध' । कर्मको परतन्त्र करनेवाले आत्मपरिणामोका नाम बन्ध-भावबन्ध है।
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१. बन्ध सामान्य निर्देश
प्र. सा./त. प्र/१७६-१७७ येने व माहरूपेण रागरूपेण द्वेषरूपेण वा भावेण पश्यति जानाति च तेनैवोपरज्यते एव । योऽयमुपराग' स खलु स्निग्धरूझत्वस्थानीयो भावबन्ध ॥१७६। यस्तु जीवस्यौपाधिकमोहरागद्वेषपर्यायैरेकत्वपरिणाम' स केवलजीवबन्ध' ११७७१ = जिस मोह-राग वा द्वषरूप भावसे देखता और जानता है, उसीसे उपरक्त होता है, यह तो उपराग है यह वास्तवमें स्निग्ध रूक्षत्व स्थानीय भावबन्ध है ।१७६। जोवका औपाधिक मोह-राग-द्वेषरूप पर्यायके साथ जो एकत्व परिणाम है, सो केवल जीवबन्ध है। द्र.सं /मू. ३२ बज्झदि कम्म जेण दु चेदणभावेण भावबधो सो १३२॥
-जिस चेतन परिणामसे कर्म बंधता है, वह भावबन्ध है ।३२॥ द्र. सं./टी./३२/११/१० मिथ्यात्वरागादिपरिणतिरूपेण बाशुद्ध चेतन
भावेन परिणामेन बध्यते ज्ञानावरणादि कर्म येन भावेन स भावबन्धो भण्यते। -मिथ्यात्व रागादिमें परिणति रूप अशुद्ध चेतन भाव स्वरूप जिस परिणामसे ज्ञानावरणादि कर्म बँधते है, वह परिणाम भावबन्ध कहलाता है।
३. द्रन्यबन्धरूप जोवपुद्गल उभयबन्ध त. स./८/२ सकषायरवाज्जीवः कर्मणो योग्याच पुद्गलानादत्ते स बन्धः
कषाय सहित होनेसे जीव कर्मके योग्य प्रदगलौको ग्रहण करता है, वह बन्ध है ।। स.सि./१/४/९४/४ आत्मकर्मणोरन्योन्यप्रवेशानुप्रवेशात्मकोऽजीवः।
आत्मा और कर्म के प्रदेशोंका परस्पर मिल जाना अजीव बन्ध है। (रा.वा./१/४/१७/२६/२६)। स.सि./८/२/३७७/११ अतो मिथ्यादर्शनाखावेशादाद्रीकृतस्यात्मनः सर्वतो योगविशेषात्तेषां सूक्ष्मै कक्षेत्रावगाहिनामनन्तानन्तप्रवेशाना पद्धगलानां कर्मभावयोग्यानामविभागेनोपश्लेषो बन्ध इत्यारख्यायते। यथा भाजनविशेष प्रक्षिप्तानां विविधरसबीजपुष्पफलाना मदिराभावेन परिणामस्तथा पुदगलानामप्यात्मनि स्थितान योगकषायवशारकर्मभावेन परिणामो वेदितव्यः। मिथ्यादर्शनादिके अभिनिवेश द्वारा गीले किये गये आत्माके सब अबस्थाओं में योग विशेषसे. उन सूक्ष्म एक क्षेत्रावगाही अनन्तानन्त कर्मभावको प्राप्त होने योग्य पुदगलोंका उपश्लेष होना बन्ध है। यह कहा गया है। जिस प्रकार पात्र विशेषमें प्रक्षिप्त हुए बिविध रसवाले बीज, फल और फलोंका मदिरा रूपसे परिणमन होता है, उसी प्रकार आत्मामें स्थित हुए पुद्गलोका भी योग और कषायके निमित्तसे कर्मरूपसे परिणमन जानना चाहिए । (रा.बा/८/२/८-६/५६६/३); (क.पा./१/१३,१४/ /१२५०-२६१/४ ) (ध. १३/५.५,२/३४७/१३); (द्र.सं./मू.व.टी./३२); (गो.क./जी प्र./३३/२७/२)। न.च../१५४ अप्पपरसामुत्ता पुग्गलससी तहाविहा गेया। अण्णोणं -मिल्लता बंधोखलु होइ णिशाह १९५४-आत्म प्रदेश और पुदगलका अन्योन्य मिलन बन्ध है (जीव बन्ध है का, अ.); (का.अ./मू./ २०३); (द्र.सं./टी/२८/८५/११)। ध १३/५,५,८२/३४७/१० ओरालिय-वेउब्बिय-आहार-तेया-कम्मइयवग्गगाणं जोवार्ण जो बंधी सो जीवपोग्गलबंधी णाम । औदारिकवैक्रियक-आहारक-तैजस और कार्मण बर्गणाएं: इनका और जीवों
का जो मंध है वह जीव-पुदगल बंध है। भ.प्रा./वि./३८/१३४/१०मध्यते परवशतामापद्यते आत्मा येन स्थितिपरिणतेन कर्मणां तत्कर्म बन्धः। स्थिति परिणत जिस कर्मके द्वारा
बारमा परतन्त्र किया जाता है. वह कर्म 'बन्ध' है। प्र.सा./तप्र./१७७ यः पुनः जीवकर्म पुद्गलयोः परस्परपरिणाम निमित्तमात्रत्वेन विशिष्टतरः परस्परमवगाह' स तदुभयबन्धः । जीव और कर्म पुदगलके परस्पर परिणाम के निमित्तमात्रसे जो विशिष्टतर परस्पर अवगाह है सो उभयबंध है । (पं.ध./3/४७)।
गोक./जी प्र./४३८/११/१४ मिथ्यात्वादिपरिणामैर्यत्पुद्गलद्रव्यं ज्ञाना
वरणादिरूपेण परिणमति तच्च ज्ञानादीन्यावृणोतीत्यादि संबन्धो बन्ध । मिथ्यात्वादि परिणामों के द्वारा जो पुद्गल द्रव्य ज्ञानाबरणादि रूप परिणमित होकर ज्ञानादिको आवरण करता है। इनका यह संबंध है सो बंध है। पं.ध./उ./१०४ जीवकर्मोभयो बन्ध' स्यान्मिथः साभिलाषुकः । जीव'
कर्मनिबद्धो हि जीयबद्ध' हि कर्म तत् ।१०४।-जो जीव और कर्मका परस्परमें एक दूसरेकी अपेक्षासे अन्ध होता है, वह उभयबन्ध कहलाता है। क्योकि जीव कर्मसे बंधा हुआ है तथा वह कर्म जीवसे बँधा हुआ है।
६. अनन्तर व परम्पराबन्धका लक्षण घ. १२/४,२,१२,१/३७०/७ कम्मश्यवग्गणाए रिठदपोग्गलवरवधा मिच्छ
तादिपच्चएहि कम्मभावेण परिणदपढमसमए अणं तरबंधा। कधमेदेसिमणं तरबंधत्तं । कम्मइयवग्गणपजयपरिच्चत्ताणं तरसमए चेव कम्मपञ्चएण परिणयत्सादो।..संधविदियसमयप्पाहूडि कम्मपोग्गलवरवंधाणं जीवपदेसाणं च जो बंधो सो परंपरबंधो णाम । "पढमसमए बंधो जादो, विदियसमये वि तेसिं पोग्गलाणं बंधो चेव, तिदियसमये वि बंघो चेब, एवं बंधस्स णिरंतरभावो बंधपर परा णाम । ताए बंधापरंपराबंधा त्ति दब्बा । घ. १२/४,२,१२,४/३७२/२ णाणावरणीयकम्मरवधा अणं ताणता णिरतरमण्णोण्णेहि संबद्धा होदूण जे दिहा ते अणं तरबंधा णाम ।...अण'ताणता कम्मपोग्गलवरवंधा अण्णोणसंबद्धा होद्रण सेसकम्मरवधेहि असंबद्धा जीवदुवारेण इदरेहि संबंधमुवगया परंपरबंधा णाम । -१. कार्मण वर्गणा स्वरूपसे स्थित पुदगल स्कन्धोंका मिथ्यावादिक प्रत्ययकोंके द्वारा कर्म स्वरूपसे परिणत होनेके प्रथम समयमें जो बन्ध होता है उसे अनन्तरबन्ध कहते हैं ।...चूकि वे कार्मण वर्गणा रूप पर्यायको छोड़नेके अनन्तर समयमें ही कर्म रूप पर्यायसै परिणत हुए हैं, अतः उनकी अनन्तरबन्ध संज्ञा है । ...अन्ध होनेके द्वितीय समयसे लेकर कर्म रूप पुद्गल स्कन्धों और जीवप्रदेशोंका जो गन्ध होता है उसे परम्परा बन्ध कहते हैं।...प्रथम समयमें बन्ध हुआ. द्वितीय समयमें भी उन पुगलोंका बन्ध ही है, तृतीय समयमैं भी बन्ध ही है, इस प्रकारसे बन्धकी निरन्तरताका नाम अन्ध परम्परा है। उस परम्परासे होनेवाले बन्धोंको परम्परा बन्ध समझना चाहिए। २ जो अनन्तानन्त ज्ञानावरणीय कर्म रूप स्कन्ध निरन्तर परस्परमें सम्बद्ध होकर स्थित हैं वे अनन्तर बन्ध है ।...जो अनन्तानन्त कर्म-पुद्गल स्कन्ध परस्परमें संबद्ध होकर शेषकर्म संबद्धोंसे असंबद्ध होते हुए जीबके द्वारा इतर स्कन्धोंसे सम्बन्धको प्राप्त होते हैं, वे परम्परा बन्ध कहे जाते हैं। ७. विपाक व अविपाक प्रत्ययिक जीव माव बन्धके बक्षण ध. १४/५.६.१४/१०/२ कम्माणमुदओ उदीरणा वा विवागो णाम । विवागो पञ्चओ कारणं जस्स भावस्स सो विवागपञ्चइओ जीवभावबंधो णाम। कम्माणमुदयउदीरणाणमभावो अविधागो णाम । कम्माणमुघसमो नओ वा अविवागो ति भणिदं होदि । अविवागो पञ्चओ कारणं जस्स भावस्स सो अविवागपञ्चश्यो जीवभावबंधो णाम । कम्माणमुदय-उदीरणाहितो तवसमेण च जो उपज्जइ भावो सो तदुभयपञ्चइयो जीवभावमंधो णाम । -कर्मोके उदय और उदीराको विपाक कहते हैं। और विपाक जिस भावका प्रत्यय अर्थात् कारण है उसे बिपाक प्रत्यायिक जीवभावबन्ध कहते है (अर्थात जीवके औदयिक भाव वे० उदय/8)। कर्मोके उदय और उदीरणाके अभावको अविपाक कहते
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बंध
१७२
२. द्रव्य बन्धकी सिद्धि
है। कर्माके उपशम और क्षयको अविपाक कहते है, यह उक्त कथनका तात्पर्य है। अविपाक जिस भावका प्रत्यय है उमे अविवाक प्रत्ययिक जीव भावबन्ध कहते हे। (अर्थात जीवके औपशमिक व क्षायिक भाव (दे० उपशम/६)। मौके उदय और उदीरणासे तथा इनके उपशमसे जो भाव उत्पन्न होता है, उसे तदुभय प्रत्ययिक जीवभावबन्ध कहते है। ( अर्थात् जीवके क्षायोपशमिक भाव -~-दे०क्षायोपशम)।
८. विपाक अधिपाक प्रत्यायिक अजीवभावबन्ध ष. ख. १४/५,६/सू. २१-२३/२३-२६-पओगपरिणदा बण्णा पओगपरिणदा सदा पओगपरिणदा गधा पओगपरिणदा रसा पयोगपरिणदा फासापओगपरिणदा गदी पओगपरिणदा ओगाहणा पओगपरिणदा संठाणा पओगपरिणदा खंधा पओगपरिणदा खधदेसा पओगपरिणदा खधपदेशा जे चामण्णे एवमादिया पओगपरिणदसजुत्ता भावा सो सव्वो विवागपच्चइओ अजीव भावबधो णाम ।२१. जे चामण्णे एवमादिया विस्ससापरिणदा सजुत्ता भावा सो सम्बो अविवागपञ्चइओ अजीवभावबधो णाम ।२२। जे चामण्णे एकमादिया पओअविस्ससापरिणदा सजुत्ता भावा सो सव्वो तदुभयपञ्चइओ अजीवभावअधोणाम ॥२३॥ घ. १४/५,६,२०/२२/१३ मिच्छत्तासजम-कसाय-जोगेहितो पुरिसपओगेहि वा जे णिप्पण्णा अजीवभावा तेसि विवागपञ्चइओ अजीवभावबधो त्ति सण्णा । जे अजीवभावा मिच्छत्तादिकारणे हि विणा समुप्पण्णा तेसिमविवागपच्चइओ अजीवभावबधो त्ति सपणा जे दोहि वि कारणेहि समुप्पण्णा तेसिं तदुभयपञ्चइयो अजोवभावबधो त्ति सण्णा । -१, मिथ्यात्व, असयम, कषाय और योगसे या पुरुषके प्रयत्नसे जो अजीव भाव उत्पन्न होते है उनकी विपाक प्रत्ययिक अजीवभावबन्ध सज्ञा है। जैसे प्रयोग परिणत वर्ण, प्रेयोग परिणत शब्द, प्रयोग परिणत गन्ध, प्रयोग परिणत रस, प्रयोग परिणत स्पर्श, प्रयोग परिणत गति, प्रयोग परिणत अवगाहना, प्रयोगपरिणत सस्थान, प्रयोग परिणत स्कन्ध, प्रयोगपरिणत-स्कन्धदेश और प्रयोग परिणत स्कन्धप्रदेश, ये और इनसे लेकर जो दूसरे भी प्रयोग परिणत संयुक्त भाव होते है वह सब विपाक प्रत्यायिक अजीवभावबन्ध है ।२१ २ जो अजीब भाव मिथ्यात्व आदि कारणोके बिना उत्पन्न होते है उनकी अविवाक प्रत्ययिक अजीय भाव बन्ध यह सज्ञा है। जैसे पूर्व कथित वर्ण, गन्ध आदिसे लेकर इसी प्रकारके विस्रसा परिणत जो दूसरे सयुक्त भाब है वह अविपाक प्रेत्य यिक अजीव भावबन्ध है ।२२। ३. जो दोनो ही कारणोसे उत्पन्न होते है उनको तदुभय प्रत्यायक अजीव भावबन्ध यह सज्ञा है । यथा पूर्व कथित हो वर्ण-गन्ध आदिसे लेकर प्रयोग और विलसा दोनोसे परिणत जितने भी सयुक्त भाव है वह सब तदुभय प्रत्ययिक अजीव भावबन्ध है।।
९. बन्ध अबन्ध व उपरतबन्धके लक्षण गो. क./भाषा/६४४/८३८ वर्तमान काल विषै जहाँ पर नव सम्बन्धी
आगामो आयुका बन्ध होई तहाँ बन्ध कहिये जो आगामी आयुका अतीतकाल विषै बन्धन भया, वर्तमान काल विषै भी न हो है। तहाँ अबन्ध कहिये । जहाँ आगामी आयुका पूर्व बन्ध भया हो और वर्तमान काल विर्षे बन्ध न होता हो तहाँ उपरतबन्ध कहिये । २. द्रव्य बन्धको सिद्धि
१. शरीरसे शरीरधारी अमिन्न कैसे है ध.६/४,१,६३/२७०/५ कध सरोरादो सरीरी अभिण्णो। सरीरदाहे जीवे दाहोपल भादो, सरीरे भिज्जमाणे छिज्जमाणे च जीवे वेयणोवल भादो
सरीरागरिसणे जीवागरिसणदं सणादो, सरीरगमणागमणेहि जीवस्स गमणागमण सणादो, पडियारख ड्याण व दोणं भेदाणुवल भादो, एगीभूददुद्वोदय व एगतेणुवल भादो। -प्रश्न-शरीरसे शरीरधारी जीब अभिन्न केसे है। उत्तर-चू कि शरीरका दाह होनेपर जीवमे दाह पाया जाता है, शरीरके भेदे जाने और छेदे जानेपर जीवमें वेदना पायी जाती हे, शरीरके खीचनेमे जीवका आकर्षण देखा जाता है, शरीरके गमनागमनमें जीवका गमनागमन देखा जाता है, प्रत्याकार (म्यान) और खण्डक (तलवार) के समान दोनोमे भेद नही पाया जाता है। तथा एकरूप हुए दूध और पानी के समान दोनो एकरूपसे पाये जाते है । इस कारण शरीरसे शरीरधारी अभिन्न है ।
२. जीव व कर्मका बन्ध कैसे जाना जाये क पा १/१,१/३ ४०/५७/७ तं च कम्म जीवसबद्ध चैव । तं कुदो णव्वदे। मुत्तेण सरीरेण कम्मज्जेण जीवस्स सवधण्णहाणुववत्तीदो। ण च सबथो; सरीरे छिज्जमाणे जीबस्स दुनखुवल भादो।
जीवे गच्छते ण सरीरेण गंतव्य, जीवे रुठे कंप पुलउग्गमघम्मादओ सरीरम्मि ण होज्ज सव्वेसि जीवाणं केवलणाण. . सम्मत्तादओ होज्ज; सिद्धाण वा तदो चेव अण तणाणादिगुणा ण होज्ज । ण च एव, तहाणभुवगमादो। प्रश्न--कर्म जीवसे सम्बद्ध ही है यह कंसे जाना जाता है। उत्तर-१. यदि कर्मको जीवसे सम्बद्ध न माना जाये तो कर्म के कार्य रूप मूर्त शरीरसे जीवका सम्बन्ध नही बन सकता है. इस अन्यथानुपपत्तिसे प्रतीत होता है कि कर्म जीवसे सबद्ध ही है। २. शरीरादिके साथ जीवका सबन्ध नही है ऐसा कहना भी ठीक नहीं है, क्योकि शरीरके छेदे जानेपर जीवको दुख की उपलब्धि होती है। ३. जीवके गमन करनेपर शरीरको गमन नहीं करना चाहिए।४ . जीवके रुष्ट होनेपर शरीरमे कप, दाह पसीना आदि कार्य नही होने चाहिए। जीवकी इच्छासे शरीरका गमन सिर और अगुलियोका सचालन नही होना चाहिए। ६. सम्पूर्ण जीवोके केवलज्ञान.. सम्यक्त्वादि गुण हो जाने चाहिए । ७. या सिद्धोके भी ( यह केवल ज्ञानादि गुण ) नही होने चाहिए । ८. यदि कहा जाये कि अनन्तज्ञानादि गुण सिद्धोके नही होते है तो मत होओ सो भी कहना ठीक नहीं है, क्योकि ऐसा माना नही गया है।
३. जीवप्रदेशोमें कर्म स्थित है या अस्थित घ १२/१, २,११, १/३६४/६ जदि कम्मपदेसा ठ्ठिदा चेव होति तो जीवेण देस तरगदेण सिद्धसमासेण होदव । कुदो। सयलकम्मा
भावादो। ध. १२/४,२,११, २/३६५/७ जीवपदेसेसु दिअद्दजल ब संचरतेसु तत्थ समवेदकम्मपदेसाण पि सचर णुवल भादो। जीवपदेसेसु पुणो कम्मपदेसा ठ्ठिदा चेव, पूविल्लदेस मोत्तूण देसतरे दिठदजीवपदेसेसु समवेदकम्मवरख धुवल भादो। ध १२/४, २, ११,३/३६६/५ छतुमत्यस्स जीवपदेसाण के सि पि चलणा
भावादो तत्थ दि कम्मरवधावि टिदा चेत्र होति, लत्थेव केसि जीवपदेसाणं संचालुवल भादो तत्थ दिक्म्मपखंधा वि सचल ति, तेण ते अदिठदा त्ति भग्ण ति ।-प्रश्न-(जीव प्रदेशमे समबायको प्राप्त कर्म प्रदेश स्थित है कि अस्थित) उत्तर-१. यदि कर्म प्रदेश स्थित ही हो तो देशान्तरको प्राप्त हुए जीवको सिद्ध जीवके समान हो जाना चाहिए, क्योकि उस समय उसके समस्त कर्मोका अभाव है। २. मेघोमें स्थित जलके समान जीव प्रदेशोका संचार होने पर उनमे समवायको प्राप्त कर्म प्रदेशोका भी सचार पाया जाता है। परन्तु जीव प्रदेशो मे कम प्रदेश स्थित ही रहते है, क्योकि, जीव प्रदेशोके पूर्व के देशको छोडकर देशान्तरमे जाकर स्थित
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२. द्रव्य बन्धको सिद्धि
होनेपर उनमे समवायको प्राप्त कर्म स्कन्ध पाये जाते है। इससे जाना जाता है कि जोवप्रदेशोके देशान्तरको प्राप्त होनेपर उनमे कर्मप्रदेश स्थित ही रहते है। ३ छमस्थके किन्ही जीव प्रदेशोका चुकि सचार नही होता अतएव उनमे स्थित कर्म प्रदेश भी स्थित ही होते है। तथा उसी छद्मस्थके किन्ही जोव प्रदेशोका चुकि सचार पाया जाता है अतएव उनमे स्थित कर्मप्रदेश भी संचारको प्राप्त होते है, इसलिए वे अस्थित कहे जाते है।
४. जीवके साथ कौंका गनन कैसे सम्भव है ध, १२/४,२,११,१/३६४/४ कध कम्माणं जीवपदेसेसु समवेदाणं गमणं
जुज्जदे । ण एस दोसो, जोवपदेसेसु जोगवसेण संचरमाणेसु तदपुधभ्रदाण कम्मकावंधाण पि संचरण पडि बिरोहाभावादो। घ.१२/३, २,११, २/३६५/११ अ ह म ज्झमजीवपदेसाण सकोचो विकोचो वा णत्थि त्ति तत्य ठ्ठिदकम्मपदेसाण पि अद्विदत्त णस्थि त्ति । तदो सब्वे जोव पदेसा कम्हि वि काले अट्ठिदा होति त्ति सुत्त. वयणं ण घडदे। ण एस दोसो, ते अट्ठमज्झितजीवपदेसे मोत्तूण सेसजीवपदेसे अरिसदूण एदस्स मुत्तस्स पवुत्तीदो। = प्रश्न-जीव प्रदेशोंमें समवायको प्राप्त कर्मोका गमन कैसे सम्भव है । उत्तर-यह कोई दोष नहीं है, क्योकि योगके कारण जीवप्रदेशोका संचरण होनेपर उनसे अपृथग्भूत कर्मस्कन्धोके भी सचारमें कोई विरोध नही आता ! प्रश्न--यत जोवके आठ मध्यप्रदेशोका कोच अथवा विस्तार नहीं होता अत उनमें स्थित कर्मप्रदेशोका भी अस्थितपना नही बनता और इसलिए सब जीवप्रदेश किसी भी समय अस्थित होते है, यह सूत्र वचन घटित नही होता। उत्तर-यह कोई दोष नहीं है, क्यो कि, जीवके उन आठ मध्य प्रदेशोको छोडकर शेष जीवप्रदेशोका आश्रय करके इस सूत्रको प्रवृत्ति हुई है।
अमुतत्ताणुववत्तीदो। -क्योकि संसारी जीव मूर्त आठ कर्मों के द्वारा अनादि कालीन बन्धनसे बद्ध है, इसलिए वह अमूर्त नहीं
हो सकता । (ध १३/३२/८)। ध १५/३३-३४/१ ण च बट्टमाणबंधघडावणट्ठ जीवस्स वि रूवित्त बोत्त जुत्तं,-मिच्छत्तासजम-कसायजोगा जीवादी अपुधभूदा कम्मइयबगणक्रवधाणं तत्तो पुवभूदाण कध परिमांतरं मंपादे ति। ण एस दोसो, बुत च-राग-द्वेषायूष्मासयोग-वात्मदीप आवर्ते। स्कन्धानादाय पुन परिणमयति ताश्च कर्म तया ।।८। प्रश्नवर्तमान बन्धको घटित करानेके लिए पुद्गल के समान जीवको भी रूपी कहना योग्य नहीं है तथा मिथ्यात्व, अमयम, कषाय और योग ये जीवसे अभिन्न होकर उससे पृथग्भूत कार्मण वर्गणाके स्कन्धोंके परिणामान्तर ( रूपित्व ) को कैसे उत्पन्न करा सकते है ! उत्तरयह कोई दोष नही है। • कहा भी है-ससारमें रागद्वेष रूपी उष्णतासे संयुक्त वह आत्मारूपी दीपक योग रूप बत्तीके द्वारा ( कार्मण वर्गणाके ) स्कन्धो ( रूप तेल ) को ग्रहण करके फिर उन्हे कर्मरूपी ( कज्जल ) स्वरूपसे परिणमाता है। दे० मूर्त/8-१०( कर्मबद्ध जीव व भावकर्म कथ चित मूर्त है।)
५. अमूर्त जीवसे मूर्त कर्म कैसे बँधे १ क्योंकि जीव भी कयंचित् मूर्त है स. सि./२/७/१६१/६ न चामूर्ते कर्मणा बन्धो युज्यत इति । तन्न,
अनेकान्तात । नायमेकान्त' अमूतिरेवात्मेति । कर्मबन्धपर्यायापेक्षया तदावेशात्स्यान्मूर्त. । शुद्धस्वरूपापेक्ष्या स्यादमूर्त ।- प्रश्न-अमूर्त आत्माके कर्मोंका बन्ध नहीं बनता है ? उत्तर-आत्माके अमूर्तत्वके विषय में अनेकान्त है। यह कोई एकान्त नहीं कि आरमा अमूर्ति ही है। कर्म बन्धरूप पर्यायकी अपेक्षा उससे युक्त होनेके कारण कथंचित मूर्त है और शुद्ध स्वरूपकी अपेक्षा कथ चित् अमूर्त है । (त. सा./२/१६), (पं.का /त प्र./२७), (इ. स./टी./७/२०/१)। प. १३/५,३,१२/११/१ जीव-पोग्गलदव्याणममुत्त-मुत्ताण कधमेयत्तण संबधो। ण एस दोमो, ससाराबत्याए जीवाण मसुत्तत्ताभावादो। जदि ससारावस्थाए मुत्तो जीवो, कध णिवुओ सतो अमुत्तत्तमल्लियइ । ण एस दोसो, जीवस्स मुत्तत्तणिबधणकम्माभावे तज्जणिदमुत्तत्तस्म वि तत्थ अभावेण सिद्धाणममुत्तभाव सिद्धीदो।
प्रश्न-जीवद्रव्य अमूर्त है और पुद्गल द्रव्य मूर्त है। इनका एकमेक सम्बन्ध कैसे हो सकता है। उत्तर-यह कोई दोष नहीं है, क्योकि ससार अवस्थामे जोवोके अमुर्तपना नहीं पाया जाता। - प्रश्न-यदि संसारअवस्थामें जीव मूर्त है, तो मुक्त होनेपर वह अमूर्तपनेको कैसे प्राप्त हो सकता है। उत्तर-यह कोई दोष नही है, क्योंकि जीवमे मूर्तत्वका कारण कर्म है अत कर्मका अभाव होनेपर तज्जनित मूर्तत्वका भी अभाव हो जाता है और इसलिए सिद्ध जीवोके अमूर्त पनेकी सिद्र हो जाती है। (यो सा
अ./४/३५)। ध. १३/५,५,६३/३३३/६ मुत्तट्टकम्मे हि अणा दिबंधणबद्धस्स जीवस्स
२ जीव कर्मवन्ध अनादि है स, सि 12/२/३७७/४ कर्मणो जीव. सकषायो भवतीत्येक वाक्यम् । एतदुक्त भवति–'कर्मण ' इति हेतु निर्देश कर्मणो हेतोर्जीव सकषायो भवति नामकर्मस्य कषायलेपोऽस्ति। ततो जीवकर्मणोरनादिसंबन्ध इत्युक्त भवति। तेनामूर्तो जीवो मूर्तेन कर्मणा कथं बध्यते इति चोद्यमपाकृत भवति। इतरथा हि बन्धस्यादिमत्त्वे आत्यन्तिकी शुद्धि दधत सिद्धस्येव बन्धाभाव प्रसज्येत । - 'कर्मणो जीव' सकषायो भवति' यह एक वाक्य है। इसका अभिप्राय है कि 'कर्मण ' यह हेतुपरक निर्देश है। जिसका अर्थ है कि कर्मके कारण जोव कषाय सहित होता है, कषाय रहित जीवके कषायका लेप नहीं होता। इससे जीव और कर्मका अनादि सम्बन्ध है यह क्थन निष्पन्न होता है। और इससे अमूर्त जीव मूर्त कर्मके साथ कैसे बॅधता है इस प्रश्नका निराकरण हो जाता है। अन्यथा बन्धको सादि माननेपर आत्यन्तिक शुद्धिको धारण करनेवाले सिद्ध जीवके समान ससारी जीवके बन्धका अभाव प्राप्त होता है। (रा.बा./८/२/४/५६/२२), (क. पा. १/१,१/४१/५६/३), (त, सा./५/१७-१८) (द्र स./टो./७/२०/४)। प. प्र./मू /१/५६ जीवहे कम्मु अणाइ जिय जणिय उ कम्मु ण तेण । कम्मे जीउ वि जणिउ णवि दोहिं वि आइ ण तेण हा हे आत्मा । जीवो के कर्म अनादि कालसे है, उस जीवने कर्म नहीं उत्पन्न किये, कर्मोंने भी जोव नही उपजाया, क्योंकि जीव कर्म इन दोनोका ही
आदि नही है, किन्तु अनादिके है । पं.का./त प्रे/१३४ अथ निश्चयनयेनामूर्तो जीवोऽनादिमूर्तकर्म निमित्त
रागादिपरिणामस्निग्ध सन् विशिष्टतया मूर्तानि कर्माण्यवगाहते, तत्परिणामनिमित्तलब्धात्मपरिणाममूर्त कर्म भिरपि विशिष्टतयाऽवगाह्यते च । अय त्वन्योन्यावगाहात्मको जीवमूर्त कर्मणोर्बन्धप्रकार. । एकममर्तस्यापि जीवस्य मूर्तेन पुण्यपापर्मणा कथं चिटबन्धो न विरुध्यते ।१३४। निश्चयनयसे अमूर्त है ऐसा जीव, अनादि मूर्त कर्म जिसका निमित्त है, ऐसे रागादि परिणामके द्वारा स्निग्ध वर्तता है, मूर्त कर्मोंको विशिष्ट रूपसे अवगाहता है, और उस परिणामके निमित्तसे अपने परिणामको प्राप्त होते है, ऐसे मूर्तकर्म भी जीवको विशिष्ट रूपसे अवगाहते है। यह जीव और मूर्तकर्मका अन्योन्य अवगाह स्वरूप बन्ध प्रकार है। इस प्रकार अमूर्त ऐसे जीवका भी मूर्त पुण्य-पापके साथ कथंचित् बन्ध विरोधको प्राप्त नही होता।१३४॥
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बंध
गो क/मू / २/३ जीवंगाण अणाइ संबंधो। क्णयोवलेमल वा ताणत्थितं सयं सिद्ध 121 - जिस प्रकार सुवर्ण और पाषाण यद्यपि भिन्नभिन्न वस्तु है, तथापि इनका सम्बन्ध अनादि है, नये नहीं मिले है । उसी प्रकार जीव और कर्मका सम्बन्ध भी अनादि है | २ | इनका अस्तित्व स्वयं सिद्ध है । प/२५ तथानादि स्वतो बन्यो
कुरा के कृत प्रश्नो • जीव और पुद्गल स्वरूप कर्मका अन्ध स्वयं अनादि है. इसलिए किस कारण से हुआ, किसने किया तथा कहाँ हुआ, यह प्रश्न आकाशके फूलकी तरह व्यर्थ है । ( पं. ध / उ / ६, ६-७०) 1
६. मूर्त कर्म व अमूर्त जीवके बन्धमें दृशन्त
बालक्स्य
प्र सा./मू व त प्र / १७४ उत्थानिका - अथैव ममूर्तस्याप्यात्मनो बन्धो भवतीति सिद्धान्तयति - रूवादिएहिरहिदो पेच्छदि जाणादि मादीणि । दव्वाणि गुणे य जधा तह बंधो तेण जाणीहि ॥ १७४ | दृष्टान्तद्वारेणाबालगोपालप्रकटितम् । तथाहि यथा गोपालस्वा पृथगस्थित मुली बलीवर्दा पो जान तश्च न बलीवर्देन सहास्ति मबन्ध विषयभावावस्थितनलीवर्दनिमियामीकरपर्शज्ञानोब उपमहारसाधकत्वस्व तथा लामो नाम पशुस्वान्न कर्मग सहास्ति संबंध एकावगाहमायावस्थित कर्म इगल निगरागद्वेषादिभावसन्ध क 'पुद्गलबन्धव्यबहारसाधकस्त्वस्त्येव । - अब यह सिद्धान्त निश्चित करते है कि आत्मा के अमूर्त होनेपर भी इस प्रकार बन्ध होता है - जैसे रूपादि रहित (जीव ) रूपादिक द्रव्योको तथा गुणोका देखता है और जानता है, उसी प्रकार उसके साथ बन्ध जानो । १७४ | आबालगोपाल सभीको प्रगट हो जाय इसलिए दृष्टान्त द्वारा समझाया गया है । यथा - बाल गोपालका पृथक् रहनेवाले मिट्टी के बैलको अथवा ( सच्चे) बेलको देखने और जाननेपर बेलके साथ सम्बन्ध नहीं है तथापि विषय रूप से रहनेवाला बैल जिनका निमित्त है ऐसे उपयोग रूढ वृषभाकार दर्शन ज्ञानके साथका सम्बन्ध बैलके साथ के सम्बन्ध रूप व्यवहारका साधक अवश्य है । इसी प्रकार आत्मा अरूपित्वके कारण स्पर्श 'शून्य है । इसलिए उसका कर्मगलो के साथ सम्बन्ध नहीं है, तथापि एकावगाह रूपसे रहनेवाले धर्म पुद्गल जिनके निमित्त है, ऐसे उपयोगारूढ राग द्वेषादि भावोके साथका सम्बन्ध कर्म पुद्गलोके साथ के बन्धरूप व्यवहारका साधक अवश्य है ।
१७४
3
..
कर्म जीवके साथ समवेत होकर बँधते हैं या असमवेत होकर
ध. १२/४,२८,२/२७७/११ कम्मइयक्खधा कि जीवेण समवेदा सता गाणावरणीयपनाएण परिणमति अहो असमवेदा । णादिपक्खो णोकम्मवदिरित्तस्स कम्मइयबधस्स कम्मसरूवेण अपरिणदस्स जीवे समवेदस्स अणुवल भादो । विदिओ विपक्खा जुज्जदे, जीवे असमवेदन कम्मरधा गागाबरणीयरूय परिणमगर हादो। अविरोहे वा जीवो संसारावत्थाएं अमुत्तो होज्ज, मुत्तदव्वैहि संबंधाभावादो। ण च एव जीवगमणे शरीरस्स संबंधाभावेण आग
गादो, जौवाटोपुधभूद' सरीरमिदि अणुहवाभावादी च । ण पच्छा दोपणं पि सबंधो, एत्थ परिहारो बुच्चदे - जीव समवेदकाले चैव कम्मइयक्खधा ण णाणावरणीय सरूवेण परिणमति (ति) ण पुव्युत्तदोसा ढुक्क ति । - प्रश्न- कार्मण स्कन्ध वया जीव में समवेत होकर ज्ञानावरणीय पर्याय रूपसे परिणमते है, अथवा असमवेत होकर १ १. प्रथम पक्ष तो सम्भव नहीं है, क्योकि नोकर्म से भिन्न और कर्म स्वरूपसे अपरिणत कार्मण हुआ स्कन्ध जीव में समवेत नही
३. कर्मबन्धमे रागादिभाव बन्धकी प्रधानता
पाया जाता · २. भी गिग नहीं है, क्योंकि जीवमे असमवेत कार्मण स्कन्धोके ज्ञानावरणीय स्वरूपसे परिणत होनेका विरोध है । यदि विरोध न माना जाय तो ससार अवस्थामे जीवको अमूर्त होना चाहिए, क्योंकि, मूर्त द्रव्यों से उसका कोई सम्बन्ध नहीं है । परन्तु ऐसा है नहीं क्योंकि, जीवके गमन करनेपर शरीरका सम्बन्ध न रहनेसे उसके गमन न करनेका प्रेसंग आता है । दूसरे, जीवसे शरीर पृथक् है, ऐसा अनुभव भी नहीं होता । पीछे दोनोका सम्बन्ध होता है, ऐसा भी सम्भव नही है। उत्तरजीवसे समवेत होनेके समयमे ही कार्मण स्कन्ध ज्ञानावरणी स्वरूप से नहीं परिणमते है। तव पूर्वी दोष यहाँ नहीं हूँ कते । ८. कर्मबद्ध जीव चेतनता न रहेगी
१२/४.२.१.६/२०/२ निश्चयण-पोल मनाएका भट्टससरुवस्स कध जीवत्त जुज्जदे । ण. अविणट्टणाण-द सणणाणमुवल भेण जीवत्थित्तसिद्धीदो। ण तत्थ पोग्गलबखधो वि अस्थि, पहाणीकयजीवभावादी । ण च जीवे पोग्गलप्पवेसो बुद्धिकओ चैव, परमत्थेण वितत्तो सिमभेवल भादो । - - प्रश्न- चेतना रहित मूर्त पुद्गल स्कन्धो के साथ समवाय होनेके कारण अपने स्वरूप ( चैतन्य व अ) से रहित हुए जो जीव वीकार करना कैसे युक्तियुक्त है ? उत्तर - नहीं, क्योंकि, विनाशको नही प्राप्त हुए ज्ञान दर्शन के पाये जाने से उसमे जीवत्ववा अस्तित्व सिद्ध है। वस्तुत' उसमे पुद्गल स्कन्ध भी नहीं है, क्योंकि, यहाँ जीव भावको प्रधानता की गयी है। दूसरे, जीवमे पुद्गल स्कन्धोका प्रवेश बुद्धि पूर्वक नहीं किया गया है, क्योंकि, यथार्थत भी उससे उनका अभेद पाया जाता है।
९ बन्ध पदार्थकी क्या प्रमाणिकता
इस
ससि / ८ / २६/४०५ / ३ एवं व्याख्यात सप्रपञ्च बन्धपदार्थ । अवधिमन पके ममज्ञानप्रध्यक्षमा गम्यस्तदुपदिष्टमानुमेयः । प्रकार विस्तार से बन्ध पदार्थं का व्याख्यान किया। यह अवधिज्ञान, मन पर्ययज्ञान, और केवलज्ञान रूप प्रत्यक्ष प्रमाणगम्य है और इन ज्ञानवाले जीवो द्वारा उपदिष्ट आगमसे अनुमेय है ।
१०. विसोपचय रूपसे स्थित वर्गणाएँ ही हैं तसू / ८ / २८ नामप्रत्यया सर्व तोयोगविशेषात्सूक्ष्मै कक्षेत्रावगाह स्थिताः सर्वात्मप्रदेशेष्वनन्तानन्तप्रदेशा |२४| कर्म प्रकृतियोंके कारणभूत प्रतिसमय योग विशेषसे सूक्ष्म, एक क्षेत्रावगाही और स्थित अनन्तानन्तपुद्गल परमाणु सब आत्मप्रदेशो मे ( सम्बन्धको प्राप्त ) होते है । सा./मू./१६८, १७० जगाचा सदो लोगो । हुमेहि बादरेहि य अप्पाग्गेहि जोग्गेहि ११६८ । ते ते कम्मत्तगदा पोग्गलकाया पुणो वि जीवरस । सजायते देहा देहंतरसक्मं पप्पा | १७० - लोक सर्वत सूक्ष्म तथा बादर और कर्मस्वके अयोग्य तथा योग्य पुद्गल स्वन्धो के द्वारा ( विशिष्ट प्रकार से ) अवगाहित होकर गाढ भरा हुआ है । १६८ । ( इसमे निश्चित होता है कि पुद्गल पिण्डोका लानेवाला आत्मा नही है । ( प्र सा. / टी / १६८ ) कर्मरूप परिणत देहान्तररूप परिवर्तन प्राप्त करके पुन पुन जीवके शरीर होते है ।
३. कर्म बन्धमे रागादि भाव बन्धकी प्रधानता १. द्रव्य, क्षेत्रादि की अपेक्षा कर्म बन्ध होता है रा. वा./३/२०/२/२०५/४ द्रव्य-भव क्षेत्र - कालभावापेक्षत्वात् कर्मअन्धस्य द्रव्य, भव, क्षेत्र, काल और भावको अपेक्षासे कर्मका बन्ध होता है ।
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१७५
३. कर्मबन्धमें रागादि भावबन्धकी प्रधानता २. अज्ञान व राग ही वास्तवमें बन्ध है
प्रसा./त प्र./१७६ योऽयमपुरागः स खलु स्निग्धरूक्षत्वस्थानीयो भाव
बन्धः । अथ पुनस्तेनैव पौद्गलिक कर्म बध्यत एव । - जो यह राग १. अशान
है वह वास्तव में स्निग्ध रूक्षत्व स्थानीय भावबन्ध है। और उसीसे ससा /मू./१५३ उत्थानिका-अथ ज्ञानाज्ञाने मोक्षवन्धहेतू नियमयति- अवश्य पौद्गलिक कर्म बंधता है । ( प्र सा/ता. प्र /१०८ ) । वदणियमाणि धरता सीलाणि तहा तब च कुव्वता। परमठ्ठबाहिरा प्र. सा/त. प्रे/१७६ अभिनवेन द्रव्यकर्मणा रागपरिणतो न मुच्यते.. जे णिवाणं ते ण विदंति ।१५३। -ज्ञान ही मोक्षका हेतु है और बध्यत एव संस्पृशतवाभिनवेन द्रव्यमणा चिरसंचितेन पुराणेन च अज्ञान ही बन्धका हेतु है यह नियम है-बत नियमको धारण करते न मुच्यते रागपरिणतः। ततोऽवधार्यते द्रव्यबन्धरय साधकतमहुए भी तथा शील और तप करते हुए भी जो परमार्थ से बाह्य है वे
त्वाद्रागपरिणाम एव निश्चयेन वन्धः। =राग परिणत आत्मा नवीन मिर्वाणको प्राप्त नहीं होते। (प ध/उ./१०३५)।
द्रव्यकर्मसे मुक्त नहीं होता।राग परिणत जीव संस्पर्श करने में स सा/आ/३११/क १६५ तथाप्यस्यासी स्थाद्य दिह किल बन्ध' प्रकृ- आनेवाले नवीन द्रव्यकर्मसे और चिरसंचित पुराने द्रव्यकर्मसे तिभि. स खत्वज्ञानस्य स्फुरति महिमा कोऽपि गहन ।१६। इस बँधता ही है, मुक्त नहीं होता। इससे निश्चित होता है कि द्रव्या जगत में प्रकृतियोके साथ यह (प्रगट) बन्ध होता है, सो बास्तवमे अन्धका साधकतम होनेसे राग परिणाम ही निश्चयसे बंध है। अज्ञानकी कोई गहन महिमा स्फुरायमान है।
त. अनु./८ स्युमिथ्यादर्शन-ज्ञान-चारित्राणि समासत' । बन्धस्य हेतवो२. रागादि
ऽन्यस्तु त्रयाणामेव विस्तर ।। = मिथ्यादर्शन-ज्ञान व चारित्र ये
तीनो सक्षेपसे बन्धके कारण हैं । बन्धके कारण रूपमें अन्य जो कुछ पं.का /मू /१२८,१४८ जो खलु ससारत्थो जीवो तत्तो दु परिणामो। परि
कथन है वह सब इन तीनोका विस्तार है ।। णामादो कम्म कम्मादो होदि गदिसु गदी ।१२८, भाव णिमित्तो बधो
द्र, सं./टी/३२/११/१० परमात्मनो...निर्मलानुभूतिस्तद्विपक्षभूतेन भावो रदिरागदो समोह जुदो ।१४८ -१ जो वास्तव में संसार स्थित
मिथ्यात्वरागादिपरिणतिरूपेण वाशुद्धचेतनभावेन परिणामेन बध्यते जीव है, उससे ( स्निग्ध ) परिणाम होता है । परिणामसे कर्म और
ज्ञानावरणादि कर्म । - परमात्माकी निर्मल अनुभूतिसे विरुद्ध कर्म से गतियोमें भ्रमण होता है ।१२८। (पं का./मू /१२६-१३०)। २. बन्धका निमित्त भाव है । भात्र रति-राग-द्वेष मोहसे युक्त है
मिथ्यात्व रागादिमें परिणतिरूप अशुद्ध-चेतन-भावस्वरूप परिणामसे
ज्ञानावरणादि कम बंधते है। ११४८। (प्र.सा./मू./१७६)।
दे० बंध./२/१/१ में ध. १५ ( राग-द्वेषसे संयुक्त आत्मा कर्मबन्ध करता स. सा./५/२३७-२४१ जह णाम को वि पुरिसो णेय भत्तो दु रेणु बहुलम्मि । ठणम्मि ठाणम्मि य करेइ सस्थेहि वायामं ।२३७१ जो सो दुणेह भावो तम्हि गरे तेण तस्स रयबंधो। णिच्छयदो विष्णेयं ३. ज्ञान आदि मी कथंचित् बन्धके कारण हैं ण कायचेट्ठाहि सेसाहि ।२४०॥ एवं मिच्छादिट्ठी वट्टन्तो बहुविहासु चिट्ठासु । रायाई उवओगे कुठबंतो लिप्पइ रयेण ।२४११ = जैसे कोई
स सा./मू /१७१ जम्हा दु जहण्णादो णाणगुणादो पुणोवि परिणमदि। पुरुष ( अपने शरीरमें ) तैलादि स्निग्ध पदार्थ लगाकर और बहुत-सी
अण्णत्तं गाणगुणो तेण दु सो बंधगो भणिदो ।१७१। -क्योंकि ज्ञानधूलिवाले स्थानमे रहकर शस्त्रोके द्वारा व्यायाम करता है ।१३७१
गुण जघन्य ज्ञानगुण (क्षायोपशमिक ज्ञान) के कारण फिरसे भी उस पुरुषमें जो वह तेलादिकी चिकनाहट है उससे उसे धूलिका बन्ध
अन्य रूपसे परिणमन करता है, इसलिए ( यथारख्यात चारित्र अवहोता है, ऐसा निश्चयसे जानना चाहिए, शेष शारीरिक चेष्टाओसे
स्थासे नीचे ) वह ( ज्ञानगुण) काँका बंधक कहा गया है । नहीं होता।२४०। इसी प्रकार बहुत प्रकारकी चेष्टाओमें अर्तता हुआ
दे० आयु/३ (सरागसंयम, संयमासंयम तथा सम्यग्दर्शन देवायुके मिथ्यादृष्टि अपने उपयोगमे रागादि भावोको करता हुआ कर्मरूपी
आखकका कारण है । (पं.ध./3/१०६)। रजसे लिप्त होता है ।२४१। ( अत' निश्चित हुआ कि उपयोगमें जो
दे० प्रकृति बंध/५/७/३ (आहारक शरीरके बंधमें ६-७ गुणस्थानका राग आदिक हैं, वही बन्धके कारण है ।) (यो सा. अ/४/४-५)।
संयम ही कारण है।) मू. आ./१२१६ मिच्छादसण अविरदि कसाय जोगा हवं ति बधस्स। ४. ज्ञानकी कमी बन्धका कारण नहीं, तत्सहमावी कर्म
आऊसज्झत्रसाणं हेदव्यो ते दु णायव्वा ।१२१६३ = मिथ्यादर्शन अविरति, कषाय, योग और आयुका परिणाम-ये कर्मबन्धके कारण
ही बन्धका कारण है जानने चाहिए।
स. सा./आ./१७२ यावज्ज्ञान सर्वोत्कृष्टभावेन द्रष्टुं ज्ञातुमनुचरित क. पा. १/१.१/गा. ५१/१०५ वत्थुपडुच्च त पुण अज्झवसाणं त्ति भणइ
वाशक्त सत् जघन्यभावेनैव ज्ञानं पश्यति जानात्यनुचरति तावत्तबवहारो। ण य बत्थुदो हु बधो बधो अज्झप्पजोएण। यद्यपि वस्तुकी
स्यापि जघन्यभावान्यथानुपपत्त्यानुमीयमानाबुद्धिपूर्वक कर्म कलकअपेक्षा करके अध्यवसान होते है, ऐसा व्यवहार प्रतिपादन करता है. विपाकसद्भावात् पुद्गलकर्मबन्ध स्यात् । - ज्ञानी जबतक ज्ञानको परन्तु केवल वस्तुके निमित्तसे बन्ध नहीं होता, बन्ध तो आत्मपरि
सर्वोत्कृष्ट भावसे देखने, जानने और आचरण करने में अशक्त वर्तता णामो ( रागादि ) से होता है। (स. सा/आ/२६५)।
हुआ जघन्यभावसे ही ज्ञानको देखता है, जानता और आचरण घ. १२/४,२,८,४/२८०/१ ण च पमादेण विणा तियरण साहणट्ट गहिद
करता है, तबतक उसकी अन्यथा अनुपपत्तिके द्वारा जिसका अनुमान बज्झट्ठो णाणावरणीयपच्चओ, पच्चयादो अणुप्पण्णस्स पच्चयत्तविरो
हो सकता है ऐसे अबुद्धिपूर्वक कर्मकल कके विपाकका सद्भाव होनेसे, हादो। -प्रमादके बिना रत्नत्रयको सिद्ध करने के लिए ग्रहण किया
पुद्गल कर्म का बंध होता है। गया बाह्य पदार्थ ज्ञानावरणीयके बन्धका प्रत्यय नहीं हो सकता, ५. जघन्य कषायांश स्वप्रकृतिका बन्ध करनेमें असक्योंकि जो प्रत्ययसे उत्पन्न नहीं हुआ है, उससे प्रत्यय स्वीकार करना
मर्थ है विरुद्ध है। न. च वृ/३६६ असुद्धसंवेयणेण अप्पा बधेइ कम्म णोकम्मं । - अशुद्ध ध. ८/३,२२/१४/७ उवसमसेडिम्हि कोधपरिमाणुभागोदयादो अणंतसंवेदनसे अर्थात रागादि भावोसे आत्मा कर्म और नोकर्मका बन्ध गुणहाणेण वूणाणुभागोदएण कोधसलजणस्स बंधाणुवल भादो । = उपकरता है । (पं.का./ता. वृ./१४७/३१३)।
शम श्रेणीमे क्रोधके अन्तिम अनुभागोदयकी अपेक्षा अनन्तगुण हीन,
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बंध
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४. द्रव्य व भावबन्धका समन्वय
अनुभागोदयसे संज्वलन क्रोधका बन्ध नही पाया जाता । ( इसी प्रकार मान, भाया लोभमे भी जानना)। प्र सा /ता, वृ /१६१२२७/११ परमचैतन्यपरिणत्तिलक्षणपरमात्मतत्त्वभावनारूपधर्म्यध्यानशुक्लध्यानबलेन यथा जघन्यस्निग्धशक्तिस्थानीये क्षीणरागत्वे सति जघन्यरूक्षशक्तिस्थानीये क्षीणद्वेषत्वे च सति जलवालुकयोरिव जोवस्य बन्धो न भवति। - परम चेतन्य परिणति है लक्षण जिसका ऐसे परमारम तत्त्वको भावनारूप धर्मध्यान और शुक्लध्यानके बलसे जसे जघन्य-स्निग्ध, शक्ति स्थानीय क्षीण राग होनेपर, और जघन्य-रूक्ष-शक्ति स्थानीय क्षीण द्वेष होनेपर जल और रेतको भॉति जोबके बन्ध नही होता है । ६. परन्तु उससे बन्धसामान्य तो होता ही है ध ८/३,३६/७७/३, सोलसकसायाणि सामण्णपच्चइयाणि, अणुमेत्तकसाए वि सते तसि बधुबलभादो। -सोलह (ज्ञानावरण, ५ अन्तराय, ४ दर्शनावरण, यश कीति, उच्च गोत्र) कर्म कषाय सामान्यके निमित्तसे बँधनेबाले है, क्योकि, अणुमात्र कषायके भी होनेपर उनका बन्ध पाया जाता है।
७. भावबन्धके अमावमें द्रव्यबन्ध नहीं होता प सा /म् /२७० एदाणि णत्थि जेसि अज्झवसाणाणि एवमादीणि । ते
असुहेण सुहेण व कम्मेण मुणो ण लिप्पति ।२७० - यह ( अज्ञानमिथ्यादर्शन-अचारित्र) तथा ऐसे और भी अध्यबसान जिनके नहीं है वे मुनि अशुभ या शुभकर्मसे लिप्त नहीं होते ।२७०।
८. कर्मोदय बन्धका कारण नहीं रागादि ही है प्र. सा /ता वृ/४३/५६/१२ उदयगता ज्ञानाबरणादि मूलोत्तर कर्म प्रकृतिभेदा स्वकीयशुभाशुभफलं दत्वा गच्छन्ति न च रागादिपरिणामरहिता सन्तो बन्ध कुर्वन्ति । तेषु उदयागतेषु सत्सु कर्मांशेषु मूढोरक्तो दुष्टो व भवति स बन्धनमनूभवति । तत स्थितमेतत् ज्ञानं बन्धकारणं न भवति कर्मोदयेऽपि, किन्तु रागादयो बन्धकारणमिति ।४। प्र. सा./ता वृ/४५/५८/१६ औदयिका भावा बन्धकारणम् इत्यागमवचन तर्हि वृथा भवति । परिहारमाह-औदयिका भावा बन्धकारण भवन्ति, पर किन्तु मोहोदयसहिताः। द्रव्यमोहोदयेऽपि सति यदि शुद्धात्मभावनाबलेन भावमोहेन न परिणमति तदा बन्धो न भवति । यदि पुन. कर्मोदयमात्रेण बन्धो भवति तहि संसारिणा सर्वदैव कर्मोदयस्य विद्यमानत्वात्सर्वदेव बन्ध एव न मोक्ष इत्यभिप्राय । -१, उदयको प्राप्त ज्ञानावरणादि मूलोत्तर प्रकृतिके भेद अपने-अपने शुभ वा अशुभ फल को देकर झड जाते है। रागादि परिणाम होनेके कारण बन्ध नही करते है। परन्तु जा उदयको प्राप्त कर्मांशो में मोही, रागी व द्वेषी होता है वह बन्धको प्राप्त होता है। इसलिए ग्रह निश्चय हुआ कि ज्ञान बन्धका कारण नहीं होता, न ही कमका उदय बन्धका कारण होता है, किन्तु रागादि ही बन्धके कारण होते है । प्रश्न-औदयिक भावबन्धके कारण है, यह आगमका वचन वृथा हो जायेगा। उत्तर-औदयिक भावबन्धके कारण होते है, किन्तु मोहके उदय सहित होनेपर हो। द्रव्य मोहके उदय होनेपर भी शद्वात्म भावनाके बलसे भाव मोहरूपसे परिणमन नही करता है. तो । बन्ध नही हप्ता है। यदि कर्मोदय मात्रसे बन्ध हुआ होता तो ससारो जीबोके सर्वदा ही कर्मका उदय विद्यमान होनेके कारण सदा
ही बन्ध होता रहता, मोक्ष कभी न होती। दे० उदय/३/३,४ ( मोह जनित औदयिक भाव हो भन्धके कारण है अन्य नही । वास्तवमै मोहजनित भाव ही औदयिक है, उसके बिना
सब क्षायिक है।) पंध/उ./१०६४ जले जम्बालवन्नून स भावो मलिनो भवेत् । बन्धहेतु
स एव स्यादव तश्चाट कर्मणाम् ।१०६४। -जलमे काईकी तरह निश्चयसे बह औदयिक भाव मोह ही मलिन होता है, और एक वह भावमोह हो आठो कोके बन्धका कारण है।
९. रागादि बन्धके कारण है तो बाह्यद्रव्यका निषेध क्यों ध १२/४,२,८,४/२८१/२ एवं विववहारो किमठ कीरदे सुहेण णाणा. वरणीयपच्चयपडिबोहणट्ठ कज्जपडिसेहदुवारण कारणपडिसेहटूठं च ।
प्रश्न-इस प्रकारका व्यवहार (घतादि) किस लिए किया जाता है। उत्तर-सुखपूर्वक ज्ञानावरणीयके प्रत्ययोका प्रतिबोध करानेके लिए तथा कार्य के प्रतिषेध द्वारा कारण का प्रतिषेध करनेके लिए भी उपर्युक्त व्यवहार किया जाता है। स. सा /आ /२६५ अध्यवसानमेव बन्धहेतुन तु बाह्यवस्तु । तर्हि किमर्थो बाह्यवस्तुप्रतिषेध । अध्यवसानप्रतिषेधार्थ । अध्यबसानस्य हि बाह्यवस्तु आश्रयभूतं, न हि बाह्यवस्त्वनाश्रित्य अध्यवसानमात्मानं लभते।-अध्यवसान ही मन्धका कारण है, बाह्य वस्तु नही । प्रश्नयदि बाह्यवस्तु बन्धका कारण नहीं है, तो बाह्यवस्तुका निषेव किस लिए किया जाता है। उत्तर-अध्यवसानके निषेधके लिए बाह्यवस्तुका निषेध किया जाता है। अध्यवसानको बाह्यवस्तु आश्रयभूत है, बाह्यवस्तुका आश्रय किये बिना अध्यवसान अपने स्वरूपको प्राप्त नही होता, अर्थात उत्पन्न नहीं होता। ४. द्रव्य व भाव बन्धका समन्वय
१. एक क्षेत्रावगाह मात्र का नाम द्रव्य बन्ध नहीं पं.ध/3/४४ न केवल प्रदेशाना बन्ध सबन्धमात्रत । सोऽपि भावैरशुद्धधै स्यात्सापेक्षस्तद्वद्वयोरिति ।४४- इस प्रकार उन जीव और कर्मोके अशुद्ध भावोसे अपेक्षा रखनेवाला वह बन्ध भी केवल प्रदेशोके सम्बन्ध मात्रसे ही नही होता है।४४। (प.ध./उ./१११)
२. जीव व शरीरकी मिन्नतामें हेतु ध.६/,१,६३/२७१/४ जीवसरीरादो भिण्णो, अणादि-अण तत्तादो सरीरे
सादि-सातभाग्दसणादो, सवसरोरेसु जीवस्स अणुगमदसणादो सरीरस्स तदणुवल भादो, जीवसरीराणमकारणत्त [सकारणत्त] दसणादो। सकारण शरीर, मिच्छत्तादि आसवफलत्तादो, णिकारणो जीबो, जोवभावेण धुबत्तादो सरीरदाहच्छेद-भेदे हि जोवस्स तवणुवलं भादो । १. जीव शरीरसे भिन्न है, क्योकि वह अनादि अनन्त है, परन्तु शरीरमे सादि सान्तता पायी जाती है। २. सब शरीरोमें जीव का अनुगम देखा जाता है, किन्तु शरीरके जीवका अनुगम नही पाया जाता।३ तथा जाव अकारण और शरीर सकारण देखा जाता है। शरीर सकारण है, क्योकि वह मिथ्यात्वादि आस्रवोका कार्य है, जीव कारण रहित है, क्योकि वह चेतन भावकी अपेक्षा नित्य है। ४. तथा शरीरके दाह और छेदन भेदनसे जीवका दाह एव भेदन नही पाया जाता। ३. जीव व शरीरमें निमित्त व नैमित्तिकपना भी कथंचित मिथ्या है ध १/१,१,३३/२३४/१ तह (जोवप्रदेशस्य) भ्रमणावस्थाया तत (शरीरस्य) समवायाभावात् । = जीव प्रदेशोकी भ्रमणरूप अवस्थामें शरीरका उनसे समवाय सम्बन्ध नही रहता। प.ध/पू०/२७०-२७१ अपि भवति बध्यबन्धकभावो यदि वानयोर्न शक्यमिति । तदनेकत्वे नियमात्तबन्धस्य स्वतोऽप्यसिद्धत्वाद १२७०। अथ चेदवश्यमेत निमित्तनै मित्तिकत्वमस्ति मिथ, । न यत' स्वय स्वतो वा परिणममानस्य किं निमित्ततया ।२७१।- शरीर और आत्मामे बन्ध्यबन्धक भाव है यह भी आशका नहीं करनी चाहिए,
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बंध
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क्योकि नियमसे दोनोंमे एकस्व होनेपर स्वयं उन दोनोंका बन्ध भी असिद्ध है (२७० ) यदि कहो कि परस्पर इन दोनोमें निमित्त नैमित्तिकपना अवश्य है तो यह भी ठीक नहीं है क्योंकि स्वयं अथवा स्वत परिणममान वस्तुके निमित्तपनेसे क्या फायदा | २७१।
४. जीव व कर्म बन्ध केवळ निमित्त की अपेक्षा है प्रसा./त.प्र./९०४ आत्मनो नोरूपत्वेन स्पर्शशून्यस्नान कर्म सहास्ति संबन्ध एकावगाहभावावस्थितकर्म पुद्गल निमित्तोपयोगाधिरूढ रागद्वेषादिभाव सबन्धः कर्म पुगलबन्धव्यवहार साधकस्त्वस्त्येव । - आत्मा अरूपित्वके कारण स्पर्शशून्य है, इसलिए उसका धर्मो के साथ सम्बन्ध नही है, तथा एकावगाह रूपसे रहनेवाले कर्म जिनके निमित है, ऐसे उपयोगारूढ रागद्वेषादि भामके साथका सम्बन्ध कर्मपुद्गलोके साथके बन्धरूप व्यवहारका साधक अवश्य है ।
निश्चयसे कर्म जीवसे बँधे ही नहीं
स सा./मू / ५७ एएहि य संबंधी जब खीरोदयं मुणेदव्वो ण य हुति तस्स तापि उओगगुणाधिन जम्हाइन वर्णादि भाक दु साथ जीवोका सम्बन्ध दूध और पानीका एक क्षेत्रावगाह रूप सयोग सम्बन्ध है ऐसा जानना । क्योंकि जीव उनसे उपयोगगुणसे अधिक ५] (वा. अनु. ६)
स सा./मू./१६६ पुढबीपिंडसमाणा पुव्वणिबद्धा दुपश्ञ्चया तस्स । कम्मसरीरेण द्रुते बद्धा सव्वे दिगाणिस्स । १ हाउस ज्ञानी के पूर्व नदकर्म समस्त प्रथम मिट्टी के उसके समान है, और वे कार्मण शरीरके साथ बँधे हुए है | १६६ ( पं. ध. /उ. / १०५६ ) ।
६. बन्ध अवस्थामें दोनों द्रव्योंका विभाव परिणमन हो
जाता
पं. ६.४५, १०६ ११० अयस्कान्तीपासुची तयो पृथम् अस्ति शक्तिविभावाख्या मियो बन्धाधिकारिणी ॥ ४५ ॥ जीवभावविकारस्य हेतु स्वातद्द्वारा यथा प्रत्युपकारक १९०३ तन्निमित्ततोऽप्यर्थस्यानिमित्तक १११०१ दोनो जीम और कर्मों में भिन्न-भिन्न परस्परमे बन्धको करानेवाली चुम्बक पत्थर के द्वारा त्रिचनेवाली लोहेको सुईके समान विभावनामकी शक्ति है । ४४1
द्रव्यकर्म जीव ज्ञानादिक भावोंके विकारका कारण होता है, और जीवके भावोंका विकार द्रव्यकर्मके आस्रवका कारण होता है [१०] अर्थाजन वैभाविक भावकेनिमित्त पृथक् भूत का प्रगत ज्ञानावरणादि कर्मरूप परिणत हो जाते है ।११०
वे अशुद्धता ( दोनों अपने गुणोंसे च्युत हो जाते है।
•
७. जीवबन्ध बतानेका प्रयोजन
त्र, सा / ता वृ / १७६/२४३/६ एवं रागपरिणाम एव बन्धकारण ज्ञात्वा समस्त रागा शिविर जात्यागेन विज्ञानदर्शनस्वभानिजाम निरन्तर भावना कर्त्तव्येति । इस प्रकार राग परिणाम ही बन्धका कारण है, ऐसा जानकर समस्त रागादि विकल्पके त्याग द्वारा विशुद्धज्ञान दर्शन स्वभाव है जिसका ऐसे निजात्मतत्त्वमें हो निरन्तर भावना करनी चाहिए।
८. उमय बन्ध बतानेका प्रयोजन
सा./ता वृ./ २०-२२/४८/ पर उद्धृत गा, १ की टीका - अत्रैव ज्ञात्वा सहजानन्दे भावे निजात्मनि रसिः कर्तव्या पि
भा० ३ - २३
५. कर्म बम्ध के कारण प्रत्यय
•
विरतिरित्यभिप्राय । यहाँ इस प्रकार (उभयबन्धको) जानकर सहज आनन्द एक भिज आत्मस्वभाव में ही रति करनी चाहिए । उससे अर्थात निजात्म स्वभावसे ऐसे परद्रव्यमें विरति करनी चाहिए. ऐसा अभिप्राय है (द्र से टी./३३/६४/१०) । द्र.सं./टी./७/२०/६ अयमत्रार्थः - यस्यैवापूर्तस्यात्मन प्राप्त्यभावादमादिसारे प्रमितोऽय जीव स एवामुर्ती पचेन्द्रियविषयत्यागेन निरन्तर ध्यातव्य | इसका तात्पर्य यह है कि जिस अमूर्त आत्माकी प्राप्ति के अभाव से इस जीमने अनादि संसार में भ्रमण किया है, उसी अमूर्तिक शुद्ध स्वरूप आत्माको यो विषयो
त्याग करके ध्याना चाहिए।
९. उमय बन्धका मतार्थ
पं.का./ता.वृ./२७/११/१३ द्रव्यभावकर्मसंयुक्तस्थानं च सदामुक्तनिराकरणार्थमिति मतार्थो ज्ञातव्य । द्रव्य भाव कर्मके संयुक्तपनेका व्याख्यान आत्माको सदामुक्त माननेवाले सदाशिववादियो निराकरणार्थ किया गया है. ऐसा मतार्थ जानना चाहिए (पं.का./ ता वृ./ १२ / १६२ | ) ( प प्र /टो / १/५६ ) ।
१०. बन्ध टालने का उपाय
स सा./मू./ आ / ७१ जश्या इमेण जीवेण अप्पणी आसवाण य तहेब । नाद होदि विसेसंतर तु तश्या ण बधो से ७१) ज्ञानमात्रादेव बन्धनिरोध' सिध्येत् ।
स. सा. / आ /७१/०४७ परपरिणतिमुज्झत् खंडयभेदवादानिदमुदितमखण्डं ज्ञानमुच्चण्डमुच्चै । ननु कथमवकाश' कर्तृकर्मप्रवृत्ते रिह भवति कथं वा पौद्गल कर्मबन्ध |४७| = जब यह जीव आत्माका और आस्रवोका अन्तर और भेद जानता है तब उसे बन्ध नही होता |७१| ऐसा होनेपर ज्ञान मात्र बन्धका निरोध सिद्ध होता है। परपरिणति को छोड़ता हुआ, भेदके कथनोको तोड़ता हुआ, यह अखण्ड और अत्यन्त प्रचण्ड ज्ञान प्रत्यक्ष उदयको प्राप्त हुआ है । अहो। ऐसे ज्ञानमें परद्रव्य) ककर्म की प्रवृत्तिका अवकाश कैसे हो सकता है। तथा पौद्गलिक कर्मबन्ध भी कैसे हो सकता है ? वि/१२/४८ मद्धो मुक्तो भान याति यदीयेन यथा तदेव पुरमश्नुते पान्थ |४८) = जो जीव आत्माको निरन्तर कर्म से बद्ध देखता है वह कर्मबद्ध ही रहता है, किन्तु जो उसे मुक्त देखता है, यह मुक्त हो जाता है। ठीक है कि जिस मार्ग जाता है उसी मार्गको प्राप्त हो जाता है |
५. कर्म बन्धके कारण प्रत्यय
१. कर्मबन्ध में सामान्य प्रत्ययका कारणपना
/ १२ / ४.२४/२९३/२०५ जाणिव जाग पघटानामि ... योगस्थान है से ही प्रदेशम स्थान है । स.प्रा.४/२९२ जोगा पवपिदेसा हिंदि अनुभाग कायदो | १३जी प्रकृति बन्ध और प्रदेशको योग तथा स्थिति मन्य और अनुभागको क्या करता है (स. सि ८/३/३७६ पर उद्धृत ) ( ध १२ / ४,२, ८, १३ /गा ४ / २०६ ) ( रा. वा. ८/३/६/१०/१०/१६१०) (१३४) ( स ( .२३) (गो क. / / २५० / ३६४ ) ( प स सं /४/२६५) (दे० अनुभाग /२/१) ।
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बंध
बंधक
१ बन्धके प्रत्ययोंमें मिथ्यात्वकी प्रधानता क्यों
प.ध./उ./१०३७-१०३८ सर्वे जीवमया भावा दृष्टान्तो बन्धसाधक । एकत्र व्यापक कस्मादन्यत्राव्यापकः कथम् ।१०३७१ अथ तत्रापि केषां चित्संज्ञिना बुद्धिपूर्वक । मिथ्याभावो गृहीताख्यो मिथ्यार्थाकृतिसं स्थितः ॥१०३८। - प्रश्न-जबकि सब ही भाव जीवमय हैं तो कहींपर कोई एक भाव (मिथ्यात्व भाव) व्यापक रूपसे मन्धका साधक दृष्टान्त क्यों, और कहीं पर कोई एक भाव (इतर भाव) व्याप्य रूपसे ही बन्धके साधक दृष्टान्त क्यो ? उत्तर-उसमें व्यापक रूपसे बन्धके साधक भावोमें भी किन्ही संज्ञी प्राणियोके बस्तुके स्वरूपको मिथ्याकारमें गृहीत रखनेवाला गृहीत नामक बुद्धिपूर्वक मिथ्यात्व भाव पाया जाता है ।१०३८।
२. प्रत्ययोंके सद्भाव में वर्गणाओंका युगपत् कर्मरूप परिणमन क्यों नहीं ध.१२/४,२,८,२/२७६/६ पाणादिवादो जदि णाणावरणीयबन्धस्स पच्चओ
होज तो तिहबणे ठिद कम्मइयवंधा णाणावरणीयपच्चएण अकमेण किण्ण परिणमते, कम्मजोगत्तं पडिविसेसाभावादो। ण, तिरवणभंतरकम्मइयरवंधेहि देसविसयपच्चासत्तीए अभावादो जदि एक्खेत्तोगाढाकम्मइयरवंधा पाणादिवादादो कम्मपज्जाएण परिणमंति तो सव्ववलोगगयजीवाणं पाणादिवादपच्चारण सब्वे कम्मइयखंधा. अक्कमेण णाणावरणीयपज्जाएण परिणदा होति । पच्चासत्तीए एगोगाहणविसयाए संतीए विण सम्वे कम्मइयवधा णाणावरणीयसरूवेण एगसमएण परिणम ति, पत्त दम दहमाणदहणम्मि व जीवम्मि तहाविहसत्तीए अभावादो। किं कारणं जीवम्मि तारिसी सत्ती णस्थि । साभावियादो।' प्रश्न- यदि प्राणातिपात (या अन्य प्रत्यय ही ) ज्ञानावरणीय (आदि ) के बन्धका कारण है तो तीनों लोको में स्थित कार्मण स्कन्ध ज्ञानावरणीय पर्यायस्वरूपसे एक साथ क्यों नही परिणत होते हैं, क्योकि, उनमें कर्म योग्यताकी अपेक्षा समानता है। उत्तर-नही, क्योकि, तीनो लोकोके भीतर स्थित कार्मण स्कन्धोमें देश विषयक प्रत्यासत्तिका अभाव है। प्रश्न-यदि एक क्षेत्रावगाह रूप हुए कार्मण स्कन्ध प्राणातिपातके निमित्तसे कर्म पर्याय रूप परिणमते हैं तो समस्त लोकमें स्थित जीवोके प्राणातिपात प्रत्ययके द्वारा सभी कार्मण स्कन्ध एक साथ ज्ञानावरणीय रूप पर्यायसे परिणत हो जाने चाहिए। उत्तर-एक अवगाहनाविषयक प्रत्यासत्तिके होने पर भी सब कार्मण स्कन्ध एक समयमें ज्ञानावरणीय स्वरूपसे नही परिणमते है, क्योकि. प्राप्त इंधन आदि दाह्य वस्तुको जलानेवाली अग्निके समान जीव मे उस प्रकारकी शक्ति नही है। प्रश्न-जीवमे वेसी शक्ति न होनेका कारण क्या है। उत्तर-उसमें
वैसी शक्ति न होनेका कारण स्वभाव ही है। ध १५/३४६ जदि मिच्छत्तादिपच्चएहि कम्मइयवग्गणवंधा अट्ठकम्मागारेण परिणमति तो एगसमएण सबकम्मइयवग्गणवंधा कम्मगारेण [कि ण] परिणम ति,णियमाभावादो।ण; दव्व-खेत्त-कालभावे त्ति चदुहि णियमेहि णियमिदाण परिणामुवल भादो। दवेण अभव सिद्धिएहि अणंतगुगाओ सिद्धाणमणंतभागमेत्ताओ चेव बग्गणाओ एगममएण एगजीवादो कम्म सरूवेण परिणम ति ।
प्रश्न-यदि मिथ्यात्वादिक प्रत्ययो के द्वारा कार्मण वर्गणाके स्कन्ध आठ कर्मरूपसे परिणमन करते है, तो समस्त कार्मण वर्गणा के स्कन्ध एक समयमे आठ कर्मरूपसे क्यो नही परिणत हो जाते, क्योकि, उनके परिणमनका कोई नियामक नही है । - उत्तर -नही, क्योकि द्रव्य, क्षेत्र, काल और भाव, इन चार निग्रामको द्वारा नियमको प्राप्त हुए उक्त स्कन्धोका मरूपसे परिणमन पाया जाता है। यथाद्रव्यकी अपेक्षा अभवसिद्धिक जीवोसे अनन्तगुणी और सिद्ध जीवोके अनन्तये भाग मात्र ही वर्गणाएँ एक समयमें एक जीवके साथ कर्म स्वरूपसे परिणत होती है।
५. कषाय और योग दो प्रत्ययोंसे बन्धमें इतने भेद क्यों ध १२/४,२,८,१४/२६०/४ कधं दो चेव पच्चयो अट्ठणं कम्माणं बत्तीसाण पयडि-टूठिदि-अणुभाग-पदेसबंधाण कारणत्त पडिवज्जते। ण, असुद्धपज्जवठिए उजुसुदे अणं तसत्तिसंजुत्तेगदव्यत्थितं पडिविरोहाभावादो।-प्रश्न-उक्त दो ही (योग व कषाय ही) प्रत्यय आठ कर्मोके प्रकृति, स्थिति, अनुभाग और प्रदेश रूप बत्तीस बन्धोंकी कारणताको कैसे प्राप्त हो सकते है। उत्तर-नहीं, क्योकि अशुद्ध पर्यायार्थिक रूप अजुसूत्र नयमें अनन्त शक्ति युक्त एक द्रव्य के अस्तित्व में कोई विरोध नहीं है।
१. अविरति कर्म बन्धमें कारण कैसे ध. १२/४,२,८,३/२७६-२८१/६ कम्मबंधो हि णाम, सुहासहपरिणामेहितो
जायदे, · असंतवयण पुण ण सुहपरिणामो, णो असहपरिणामो पोग्गलस्स तपरिणामस्स वा जीवपरिणामत्तविरोहादो। तदो णासंतवयणं णाणावरणीयबंधस्य कारणं । •ण पाणादिवादपच्चओ वि, भिण्ण जीवविसयस पाण-पाणिविओगस्स कम्मबधहे उत्तविरोहादो। णाणावरणीयबंधणपरिणामजणिदो वहदे पाणपाणिवियोगो बयणकलाबो च । तम्हा तदो तेसिमभेदो तेणेव कारणेण णाणावरणीयबंधस्स तेसि पच्चयत्त पि सिद्ध। -प्रश्न-कर्मका बन्ध शुभ व अशुभ परिणामोंसे होता है। १. परन्तु असत्य वचन न तो शुभ परिणाम है और न अशुभ परिणाम है, क्योकि पुद्गलके अथवा उसके परिणामके जीव परिणाम होनेका विरोध है। इस कारण असत्य वचन ज्ञानावरणीयके बन्धका कारण नहीं हो सकता। .. २. इसी प्रकार प्राणातिपात भी ज्ञानावरणीयका प्रत्यय नहीं हो सकता, क्यो कि, अन्य जीव विषयक प्राण-प्राणि वियोगके कर्म बन्धमें कारण होनेका विरोध है। उत्तर-प्रकृतमें प्राण-प्राणि वियोग और वचन कलाप चूकि ज्ञानावरणीय बन्धके कारणभूत परिणामसे उत्पन्न होते है अतएव उससे अभिन्न है। इस कारण वे ज्ञानावरणीय बन्धके प्रत्यय भी सिद्ध होते है। बंधक-१. बन्धकके भेद नोट-नाम स्थापनादि भेद । दे० निक्षेप।
३. एक प्रत्ययले अनन्त वर्गणाओं में परिणमन कैसे
घ १२/४.२,८२/२२८/१२ कधमेगो पाणादिवासो अणते कम्मइयक्वंधे
गाणावरणीय सरूवेण अक्कमेण परिणमावेदि, बहुसु एक्कस्य अक्कमेण वुत्तिविरोहादो । ण, एयस्स पाणादिवादस्स अण तसत्तिजुत्तस्स तद विरोहादो | प्रश्न-प्राणातिपात रूप एक ही कारण अनन्त कामण स्वन्धोका एक साथ ज्ञानावरणीय स्वरूपसे कैमे परिणमाता है. क्योकि बहुतो में एकको युगपत वृत्तिका विरोध है। उत्तरनही, क्योकि, प्राणातिपात रूप एक ही कारणके अनन्त शक्तियुक्त होनेसे वैसा होने में कोई विरोध नहीं आता।
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बंधन
8.1/8.1-1/2-2/6
छद्मस्थ
पथिक
शान्त कषाय
तद्वयतिरिक्त नोआगम द्रव्यनिक्षेप
1
'
कर्म
। साम्परायिक
1
केवली सूक्ष्म साम्परायिक
1
क्षीण कषाष असाम्प्रायादिक
I
असाम्प्रायादिक
उपशामक
"" 1
सचित्त अचित्त मिश्र
क्षपक
नोकर्म
I
सूक्ष्म साम्प्रायादिक
T
अनिवृत्तिकरण अनादि अनन्त
बादर साम्परायिक
T
साम्प्रायादिक
|
अनादि
बादर
साम्प्रा
यादिक
क्षपक उपशामक
अनादि सान्त
१७९
पूर्व करण
२. बन्धकके भेदोंके लक्षण
घ. ७/२.१.२/५/१ र सचिणोकप्रबंधया जहा हरी बधया, अस्सा बंधया इच्चेस्मादि । अचित्तणोकम्मदव्य बंधया तहा कट्ठाणं बंधया, सुप्पाणं बंधया कड्याणं बधया इच्चेवमादि । मिस्समोकदम्बमया जहा साहरगाण हत्थी बंधा इच्चेवमादि (४ / ८ ) । -- तत्थ जे बचपाहुडजाणया उवजुत्ता आगमभावबंधया णाम । पोआगमभावया जहा को माग-माय सोमाई बनावार करे ता (४/१९ ) । -सचिनो कर्म जैसे हाथी बाँधनेवाले, घोडे बाँधनेवाले इत्यादि। अचित्तनो कर्मद्रव्यबन्धक जैसे लकड़ी बाँधनेवाले सूपा बाँधनेवाले कट चटाई मांधनेवाले इत्यादि । मिश्र नोकर्म द्रव्य बन्धक जैसे- आभरणो सहित हाथियो के बाँधनेबाले इत्यादि । (2/-) उनमें भूके जानकार और उसमें उपयोग रखनेवाले आगमभाव बन्धक है। नो आगम भावबन्धक जैसे - क्रोध, मान, माया, लोभ व प्रेमको आत्मसात् करनेवाले | नोट - इनके अतिरिक्त शेष भेदोके लक्षण- दे० निक्षेप ।
4
बंधन - १ बन्धन नामकर्मका लक्षण
स.सि./८/१२/२०६ / १२ शरीरनामस्मदयनशापान ढगा नामग्योन्यप्रदेशसंश्लेषण यतो भवति तद्बन्धननाम (तस्याभावे शरीरप्रदेशानां दारुनिचयवत् असपर्क स्यात् ग वा० ) । =शरीर नामकर्म के उदयसे प्राप्त हुए पुङ्खगतोका अन्योन्य प्रदेश सश्लेष जिसके निमित्तसे होता है, वह बन्धन नामकर्म है। इसके अभाव में शरीर सकडियो हेर जैसा हो जाता है। रामा) (राया /८/१९/६/२०६/२४) (१३/५.२.१०१/२६४/१) (मोकजी प्र./३३/२१/१)।
घ. ६/१,६-१,२८/५२/११ सरीरट्ठमागयाण पोग्गलक्खधाण जीव संबद्धाण जेहि पोग्यते हि जीवस हि पचोदहि परोपर कीरह तेसि पोला सरीखपणा करणे यादो क्सारसादा सरोरवणाम् जीवस्थ होज्ज सो बालुवाका पुरिससरीर व सरीर होज्न परमाणुणमणो
मघा
बकुश
भावा ।
- शरीरके लिए आये हुए जीव सम्बद्ध पुद्गल स्कन्धों का जिन जीव सम्बद्ध और उदय प्राप्त पुद्गलोके साथ परस्पर बन्ध किया जाता है उन पुद्गल स्कन्धोंको शरीर बन्धन संज्ञा कारणमें कार्यके उपचारसे, अथवा कर्तृ' निर्देशमे है । यदि शरीर बन्धन नामकर्म जीवके न हो, तो बालुका द्वारा बनाये पुरुष शरीर के समान जीवका शरीर होगा, क्योकि परमाणुओका परस्परमे बन्ध नहीं है।
२. बन्धन नाककर्मके भेद
. . ६/१.१९/१२/०० तं शरीरमपणामकम्म च ओरालिमसरोर] भ्रणणाम वेडमिसरीरघणणाम आहारसरीरबंधणणामं तेजासरीरबंधणणाम कम्मइयसरीरबंधणणामं चेदि |३२| -जो शरीर बन्धन नामकर्म है यह पाँच प्रकारका है- औदारिक शरीर बन्धन नामकर्म, वैक्रियिक शरीर बन्धन नामकर्म, आहारक दशरीर बन्धननामकर्म, जसवारीर बन्धननामकर्म और कार्मणशरीर मन्धन नामकर्म ( ११/५२ / ९०२/२६०), (पं.सं./प्र/ १९), (प.से.प्रा./२/४/५ ४०१, ६) (म.मं./१/६/२६).
(गो, फ / जी प्र / १३ / २६/१)
★ बन्धन नामकर्मकी बम्ध उदय सत्य प्ररूपणाएँ तथा तत्सम्वन्धी नियम शंकादि - दे० वह वह नाम ।
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बंधन बद्धत्व - रा. वा./२/७/१३/११२/२७ अनादिसंततिबन्धनबद्धत्वमपि साधारणम् । कस्मात् । सर्वद्रव्याणां स्वात्मीयसंतानबन्धनमद्धवं प्रत्यनादित्वादणि हि प्रयाणि जीवधर्माधर्माकालाख्यानि प्रतिनियतानि पारिणामिकचैतन्योपयोग गतिस्थिव्ययकाशदान वर्तनापरिणाम वर्ग-गंध-रस-पादपर्याय - संतानबन्धनानि कमोंदवाद्यपेक्षाभावादपि पारिणामिन्स् । यदस्यानादितिबन्धन तदसाधारणमपि सन्न पारिशानिक कर्मोदयनिमित्य -अनादि भन्न म भी साधारण गुण है। सभी द्रव्य अपने अनादिकालीन स्वभाव सन्ततिसे बद्ध है, सभीके अपने-अपने स्वभाव अनादि अनन्त है । अर्थात् जीव, धर्म, अधर्म, आकाश, काल और पुद्गल नामके द्रव्य क्रमश. पारिणामि चैतन्य उपयोग गरियान स्थितिदान अवकाशदान, दर्शनापरिणाम, और वर्ग-गन्ध-रस और स्पर्शादि पर्याय सन्तानके मन्धनसे मद है। इस भावमे कर्मोदय आदिकी अपेक्षा न होनेसे पारिणामिक है। और जो यह अनादिकालीन कर्मबन्धन ता जीवमें पायी जाती है, वह पारिणामिक नही है, किन्तु कर्मोदय निमित्तक है ।
बंध विधान
१४/२६.९/२/२ - द्विदिअशुभाग-पवेसमेद भिण्णा बंधवियप्पा बधविहाण णाम । = प्रकृति, स्थिति, अनुभाग और प्रदेश भवभेदको 918 हुए अन्धके मेदोको मन्ध विधान कहते हैं।
बंधसमुत्पत्तिक स्थान दे० अनुभाग १ |
बंध स्थान - स. सा / / ५३ ५५ यानि प्रतिविशिष्टप्रकृति परिपागलक्षणानि मन्यस्थानानि भिन्न-भिन्न प्रकृतियोंके परिणाम जिनका लक्षण है ऐसे जो बन्ध स्थान |
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बंध स्पर्श दे० स्पर्श । बंधावलि - दे० आवली ।
बकुश -
स.सि ६/४/४६० मध्ये प्रतिस्थिता अडिरामा शरीरोपकरण विभूषानुवर्तिनोऽविविक्तपरिवारा मोहबतयुक्ता बकुशा । शबलपर्यायवाची बकुश । - जो निर्ग्रन्थ होते है, व्रतोंका अखण्ड
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बडा नगर
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बप्पदेव
रूपसे पालन करते है, शरीर और उपकरणोकी शोभा बढ़ाने में लगे मनोविकारमकुर्व तो मम पुराकतदुष्कर्मफलमिदमिमे वराका कि रहते है, परिकारसे घिरे रहते है ( ऋद्धि और यशकी कामना रखते कुर्वन्ति, शरीरमिद जल बुद्धबुद्वद्विशरणस्वभावं व्यसनकारणमेतैहै, सात और गौरत्र के आधार है ( रा. वा.) और विविध प्रकारके र्बाध्यते, सज्ञानदर्शनचारित्राणि मम न केनचिदुपहन्यते इति चिन्तमोहसे युक्त है, वे बकुश कहलाते है। यहाँ पर बकुश शब्द 'शबल' यतो बासिलक्षणचन्दनानुलेपनसमदर्शिनो बधपरिषहक्षमा मन्यते। (चित्र-विचित्र ) शब्द का पर्यायवाची है। (ग. वा./8/४६/२/६३६/- - तीक्ष्ण तलवार, मूसर और मुद्गर आदि अस्त्रोके द्वारा ताडन २१) (चा सा /१०१/२ )।
और पीडन आदिसे जिसका शरीर तोडा मरोडा जा रहा है तथापि
मारने वालोपर जो लेशमात्र भी मन में विकार नहीं लाता, यह मेरे २. बकुश साधुके भेद
पहले किये गये दुष्कर्मका फल है, ये बेचारे क्या कर सक्ते है, यह स. सि./8/४७/४६९/१२ बकुशो द्विविध - उपकरण-बधुश शरीरबकुश- शरीर जल के बुलबुले के समान विशरण स्वभाव है, दुरव के कारणको
श्चेति। तत्रोपकरणबकुशो बहुविशेषयुक्तोपकरणाकाभी। शरीर- ही ये अतिशय बाधा पहुंचाते है, मेरे सम्यग्ज्ञान, सम्यग्दर्शन और सस्कारसेवी शरीरबकुश | - बकुश दो प्रकार के होते है,-उपकरण सम्यक चारित्रको कोई नष्ट नहीं कर सक्ता इस प्रकार जो विचार बकुश और शरीरबकुश। उनमेसे अनेक प्रकार की विशेषताओको करता है वह वसूलीसे छीलने और चन्दनसे लेप करने में समदर्शी लिये हुए उपकरणोको चाहनेवाला उपकरण बकुश होता है, तथा होता है, इसलिए उसके बध परीषह जय माना जाता है। (रा.बा./ शरीरका संस्कार करनेवाला शरीर-बकुश है।
६/६/१८/६११/४), (चा सा./१२६/३)। रा वा/8/४७/४/६३८/५ वकुशो द्विविध --उपकरणबश शरीर
बध वचन-दे० वचन । बकुशश्चेति । तत्र उपकरणाभिवक्तचित्तो विविधविचित्रपरिग्रहयुक्त.
बध्यघातक विरोध-दे० विरोध । बहुविशेषयुक्तोपकरणकाक्षी तत्संस्कारप्रतीकारसेवी भिक्षुरुपकरणबकुशो भवति । शरीरमस्कारसेवी शरीरबकुश । - बकुश दो प्रकार
बध्यमान आयु-दे० आयु । के है-उपकरण-बकुश और शरीर-बकुश । उपकरणो में जिसका चित्त आसक्त है, जो विचित्र परिग्रह युक्त है, जो सुन्दर सजे हुए
बध्यमान कम-ध. १२/४, २,१०,२/३०३/४ मिथ्यात्वाविरतिउपकरणोकी आकांक्षा करते है तथा इन सस्कारोके प्रतीकारकी सेवा
प्रमादकषाय-योगै कर्मरूपतामापाद्यमान कार्मणपुद्गलस्कन्धो करनेवाले भिक्षु उपकरण बकुश है। शरीर सस्कारसेवी शरीर
बध्यमान । मिथ्यात्व, अविरति, प्रमाद, पाय और योगके बकुश है। (चा सा/१०४/१)।
द्वारा कर्म स्वरूपको प्राप्त होने वाला कार्मण पुद्गल स्कन्ध बध्यमान भ. आ./वि./१६५०/१७२२/८ रात्रौ यथेष्ट शेले, सस्तर च यथाकाम
कहा जाता है। बहुतरं करोति, उपकरणबकुशो। देहबकुश दिवसे वा शेते च य
बनवारी लाल मावनपुरके निवासी जैन पण्डित थे। खतौलीके पार्श्वस्थ । -जो रातमे सोते है, अपनी इच्छाके अनुसार बिछौना
चैत्यालय में वि. १६६६ मे भविष्यदत्तचरित्र रचा जो कि कवि धनभी बडा बनाते है. उपकरणोका संग्रह करते है, उनको उपकरण
पालके अपभ्रश ग्रन्थका पद्यानुवाद है। (हि.जे. सा. इ./१०५ बकुश कहते है। जो दिनमे सोता है उसको देहवकुश कहते है।
कामता)। * बकुश साधु सम्बन्धी विषय-दे० साधु ।
बनारसोदास-आगरा निवासी श्रीमान वैश्य थे। इनका जन्म बड़ा नगर-राजस्थानमे कोटाका प्रदेश। (जेन साहित्य इति- जौनपुर में रखरगसेनके घर माघ शु ११ वि १६४३में हुआ था। पहिले हास । पृ २५६/प्रेमी जी)।
आप श्वेताम्बर आम्नायमे थे बादमे दिगम्बर हो गये। कुछ समय तक जवाहरातका व्यापार भी क्यिा । वेदान्ती विचारोके कारण अध्यात्मी
कहलाते थे। महाकवि गोस्वामी तुलसीदासके समकालीन थे। बद्ध-प ध /1/६६ मोहकर्मावृतो बन्न । - मोहनी व कर्म से आवृत
आपकी निम्न कृति में प्रसिद्ध है-१ नवरस पद्यावली (यह एक ज्ञानको बद वहते है ।
शृगार रसपूर्ण रचना थी जो पीहो विवेक जागृत होने पर इन्होंने
जमुनामे फेक दी।) २ नाममाला, ३ नाटक समयसार (घि १६९३) बधस सि./६/११/३२६/२ - आयुरिन्द्रियबलप्राण वियोगकारण
। बनारसी विलास (यि १७०१), ५ कर्म प्रकृति विधान (वि १७००); वध ।
है. अर्थ कथन (बि १६१८)। समय-वि १६५३-१७००(ई १५८७स. सि /9/२५/२६६/२ दण्डकठावेत्रादिभिरभिघात प्राणिना वध , १६५४) । (जै./२/२०३)। (ती/४/२४८) । न प्राणव्य पर पणम्, तत प्रागेत्राम्य विनिवृत्तत्वात्। -१ आयु, इन्द्रिय और श्वासोवासका जुदा कर देना बप है। (ग गा- बनारसी विलास- बनारसीदास (ई०१७०१ द्वारा रचित ११/५/५१६/२८), ( प टी /२/१२७): २ डडा, चाबुक और
आध्यात्मिक भाषा पद स ग्रह । (ती/४/२५४) । बेंत आदिसे प्राणियो को मारना वध है। यह बध का अर्थ प्राणोका वियोग करना नहीं लिया गया है. क्योकि अतिचारके पहले ही बप्पदव-उत्कालका ग्रामके समीप 'मणल्ली' ग्राममे आपने हिसाका त्याग कर दिया जाता है । ( रा वा /9/२५/२५५/१८) । आचार्य शुभन द ब रविनन्दिसे ज्ञान व उपदेश प्राप्त करके षट् खण्डप प्र/टी/२/१२७/२/-18 निश्चयेन मिथ्यात्वविषयक्षाय परिणाम
के प्रथम ५ खण्डोपर ६०००० श्लोक प्रमाण व्याख्या प्रज्ञप्ति नामकी रूपवध वकीय । - निश्चयकर मिथ्यात्व विषय पाय परिणाम
टोका तथा कषाय पाहुड की भी एक उच्चारणा नामकी संक्षिप्त टीका रूप निजघात ।
लिखी। पीछे वाटग्राम (बडौदा) के जिनालय में इस टीका के दर्शन बध परिषह-"स सि/8/8/2318 निशितग्शसनमुगलमुगरा
करके श्री बीरसेनस्वामीने षट्खण्डके पॉच खण्डोपर धवला, नामकी द्रिप्रहरणताइन पीडनादिभिापाद्यमान शरीरस्य व्यापदकेषु मनागपि टोका रची थी । समय-ई० श०१(विशेष दे. परिशिष्ट)।
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बल
बल -१ मन, वचन, व काय बल-दे० वह वह नाम । २. तुल्य बल विरोध दे० विरोध ।
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-दे० ऋद्धि /६ ।
बल ऋद्धि
बलचंद्रमणमेलगोला शिलालेख नं. ७ के अनुसार आप दिगम्बराचार्य धर्मसेन नं २ ( ई०६७५ ) के शिष्य थे। समयवि. ७५७ ( ई० ७०० ) (भ, आ (प्र. १६ / प्रेमी) |
बलदेव --- १. पुन्नाट संघकी गुर्वावलीके अनुसार आप मित्रवीरके शिष्य तथा मित्रकके गुरु थे । समय ( ई० रा० १ का पूर्व ) (दे० इति ७/८); २ श्रवणबेलगोला के शिलालेख नं. १५ के आधारपर कनकसेनके गुरु थे। समय - वि. ७०७ (३० ६५०) (भ.आ./प्र. १६/प्रेमी) ३ श्रवणबेलगोला के शिलालेख नं. ७ के आधारपर आप धर्मसेनके गुरु थे । समय - वि० ७५७ ( ई० ७००) (भ. आ / प्र. ११ / प्रेमी जी) ४. ह. पु / वर्ग/ श्लोक में वसुदेवका पुत्र था (१२/१०) कृष्णको जन्मते ही नन्द गोके पर पहुँचाया (१३/१२) वहाँ जाकर उसको शिक्षित किया (३५/६४) द्वारकाकी रक्षाके लिए द्वैपायन मुनिसे प्रार्थना करनेपर केवल प्राण भिक्षा मिली (६१ / ४८-०६) जंगलमें जरतकुमार द्वारा कृष्णवे मारे जानेपर (६३ / ७) ६ माह तक कृष्ण के शवको लिये फिरे (६३/११-६०) फिर देवके (जो पहले सिद्धार्थ नामक सारथि था ) सम्मोधे जानेपर (६३/६१-०१) दीक्षा धारण कर (४१/७२) घोर तप किया (७५ / ११४) । सौ वर्ष तपश्चरण करनेके पश्चात् स्वर्ग में देव होकर (६/३३) सरकारको सम्बोधा (१२/४२-२४) विशेष दे० शलाका पुरुष / ३ |
बलदेव सूरि - आप भगवती आराधनाकार आचार्य शिवकोट (शिवार्य) के गुरु बताये जाते हैं। आप स्वयं चन्द्रनन्दि नामक आचार्य के शिष्य थे। तदनुसार आपका समय ई० श० १ पूर्वार्ध जाता है। (भ का प्र.१६/प्रेमी जी।
बलभद्र - १ सुमेरु सम्बन्धी नन्दन वनमें स्थित एक प्रधान कूट व उसका स्वामी देव । अपरनाम मणिभद्र है । - दे० लोक ३/६ । २. सनत्कुमार स्वर्गका छठा पटल व इन्द्रक-दे० स्वर्ग /५/३,
बलमद - दे० मद । बलमित्र - श्वेताम्बर आम्नायके अनुसार इनका अपरनाम बसुमित्र था। [३०] बहुमित्र
बलाक पिच्छ— सघकी गुर्वावलीके अनुसार आप आचार्य उमास्वामी के शिष्य थे। समन्तभद्र आचार्य के समकालीन तथा सोहाचार्य तृतीयके सहधर्मा मे लोहाचार्य नाम नन्दिसंघमे आता है । पर इनका नाम उसी नन्दिसघके देशीय गण नं०२ में आता है। अर्थात् ये देशीय गण न. २ के अग्रणी थे। समय- वि. १००-२०० २२०-२११) विशेष दे० इतिहास / ०११, ४ बलात्कार गणनन्दि की एक शाखा दे० इतिहास /५/२ बलाधान कारण दे० निमिच / १ । बलि१. पूजा ( प प्र / २ / १३६ ); २. आहारका एक दोष-दे० आहार II / ४/४ ३. वसतिकाका एक दोष – दे० वसतिका । ४. ह. पु/२०/ श्लाक नं० उज्जयनी नगरीके राजा श्रीधर्माके ४ मन्त्री थे । बलि प्रह्लाद, बृहस्पति व नमुचि । ( ४ ) एक समय राजाके संग मुनि वन्दनार्थ जाना पडा (८) । आते समय एक मुनिसे वादविवाद हो गया जिसमें इनको परास्त होना पडा ( १० ) ।
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बहिरात्मा
इससे क्रुद्ध हो प्रतिकारार्थ रात्रिको मुनि हत्याका उद्यम करनेपर वनदेवता द्वारा कील दिये गये। तथा देशसे निकाल दिये गये (११)राचाद इतनागपुर मे राजा पद्मके मन्त्री हो गये। वहाँ उनके शत्रु सिहरको जीतकर राजासे वर प्राप्त किया (१७) मुनि सघ के हस्तनागपुर पधारनेपर वर के बदले में सात दिनका राज्य ले (२२) नरमेध महने महाने, सकल मुनिसंधको अग्नि होम दिया (२३) जिस उपसर्ग को विष्णु कुमार सुनिने दूर कर इन चारोको देश निकाला दिया (६०) ।
बलींद्र वर्तमानकालीन सातवें प्रतिनारायण थे। अपरनाम] प्रहरण व प्रह्लाद था । ( म. पु / ६६ / १०६) विशेष परिचय - दे० शलाका पुरुष / ५ बल्लाक देव कर्नाटक देशस्थ होय्सलका राजा था। इसके समयमैं कर्नाटक देशमें जैन धर्मका प्रभाव म गढा विष्णुमर्धन के उत्तराधिकारी नारसिंह और उसके उत्तराधिकारी बन्लाक देव हुए। 1 विष्णुवर्धन द्वारा किया गया जैनियोपर अत्याचार इसने दूर किया । यद्यपि ध ३ / प्र ४ के अनुसार इनका समय ई० ११०० बताया गया है, परन्तु उपरोक्त कथनके अनुसार इनका समयई० १२६३-१९१० आना चाहिए .. १/४ / HIn Jain ) ।
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बहल का वि/७००/८८२ / ६ तितिणी काफलरसप्रभृति च अन्यबलं । कांजी, द्राक्षारस, इमलीका सार, वगैरह गाढ पानकको बहल कहते है ।
बहिरात्मा -
भोपा.// हत्थे फुरियमणो इदियदारेण । निग्रहं अध्यादि विडीओ II नियदेहसारे पिच्छिऊण परविग्गह पयत्तेन । अच्चेयणं पि गहिरं भाइज्जइ परमभाषण | हा = बाह्य धनादिकमे स्फुरत अर्थात् तत्पर है मन जिसका, वह इन्द्रियोंके द्वारा अपने स्वरूपसे च्युत है अर्थात् इन्द्रियोको ही आत्मा मानता हुआ अपनी देहको ही आत्मा निश्चय करता है, ऐसा मिध्यादृष्टि महिारमा है (सवा ७) (१.प्र./मू./१/१३ )
बहिरात्मा मिथ्यात्व भाव से जिस प्रकार अपने देहको आत्मा मानता है, उसी प्रकार परका देहको देख अचेतन है फिर भी उसको आत्मा माने है, और उसमें बड़ा यत्न करता है ||
नि. सा. / / ९४१९५२ आवास्यपरिहीण समणो सो होदि महिरप्पा १४६) अतरबाहिरजप्पे जो बट्टइ सो हवेइ बहिरप्पा | १५०/-. फागनियो समय महिरप इदि विजानीहि । १५१० पर् आवश्यक क्रियाओसे रहित श्रमण वह बहिरात्मा है | १४ | और जो असा जन्यमे वर्तता है, वह महिमा है | १५० अथवा ध्यान से रहित आत्मा बहिरात्मा है ऐसा जान । १५१ ।
र सा / १३५-१३७ अपणाणज्भाणज्यणमुहमियरसायणप्पाण । माजी भुजइ साहु महिण्या | १३३ बेहतर पुस मित्ताविहारण भाव सो चैन वेद महररूपा | १३४ | - आत्मा के ज्ञान, ध्यान व अध्ययन रूप सुखामृतको छोड़कर इन्द्रिय सुखको भगता है, सो ही बहिरात्मा है । १३५॥ देह, कलत्र, पुत्र व मित्रादिक जो ना विभाविक रूप है, उनमें अन्नापनेकी भावना करनेवाला बहिरात्मा होता है | ११७|
यो सायो / ७ मिच्छा-द सण- मोहियउ पर अप्पा ण मुणेइ। सो बहि
रप्पा जिण भणिउ पुण स्सार भमेइ 191 जो मिथ्यादर्शन से मोहित जीव परमात्माको नहीं समझता, उसे जिन भगाउने महिरात्मा कहा है, यह जीव पुन पुन ससारमे परिभ्रमण करता है | ७|
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बहिर्यानक्रिया
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बारह तप व्रत
बहुश्रुत-ध.८/३.४१/८६/७ बारसंगपारयाबहुसुदाणाम। जो बारह
अंगों के पारगामी हैं वे बहुश्रुत कहे जाते हैं। बहुश्रुत भक्ति-दे० भक्ति/२॥ बाकी-Substraction (ध.५/प्र. २८) । बाण-१. Hght ofa segment (ज.प./प्र. १०७) २. बाण
निकालनेकी प्रक्रिया-दे० गणित/11/७/३ | बाणभट्ट-१. इन्होंने कादम्बरी व हर्ष चरितकी रचना की थी।
समय-वि०६६७-७०७ (क्षत्र चूडामणि/प्र./प्रेमी)। बाणा-भरतक्षेत्रस्थ आर्य खण्डकी एक नदी-दे० मनुष्य/४ । बावर-दे० सूक्ष्म । सहनानी -दे० गणित/I/२/। बादरायण-एक अज्ञानवादी थे-दे० अज्ञानवाद । वेदान्तके सर्व ___ प्रधान ब्रह्मसूत्रों के ई० ४०० में कर्ता हुए हैं-दे० वेदान्त । वादाल-(पणही) २ = ४२६४६६७२६५-३० गणित//१/१ । बाधित-1. बाधित विषयके भेद
प.मु/१/१५ बाधितः प्रत्यक्षानुमानागमलोकस्ववचनैः ॥१५॥ - प्रत्यक्ष,
अनुमान, आगम, लोक एवं स्ववचन बाधितके भेदसे षधित पाँच प्रकार है ।१५। ( न्या. दी./३/६६३/१०२/१४)। २. बाधितके भेदोंके लक्षण
ज्ञानसार/३० मदमोहमानसहित' रागद्वेषैनित्यसंतप्तः। विषयेषु तथा
शुद्ध' बहिरात्म। भण्यते सैष. ।३०। - जो मद, मोह व मान सहित है, राग-द्वेषसे नित्य संतप्त रहता है, विषयों में अति आसक्त है, उसे बहिरात्मा कहते है ।३० का./अ./मू./१६३ मिच्छत्त-परिण दप्पा तिब्ध-कसारण सुट्छ आविट्ठो। जीवं देह एक्क मण्णं तो होदि बहिरप्पा १६३। - जो जीव मिथ्यात्व कर्मके उदय रूप परिणत हो, तीव्र कषाय में अच्छी तरह आविष्ट हो,
और जीव तथा देहको एक मानता हो, वह बहिरात्मा है ।१६।। प्र. सा./ता, बृ./२३८/३२६/१२ मिथ्यात्वरागादिरूपा अहिरामावस्था।
-मिथ्यारव व राग-द्वेषादि कषायों से मलीन आत्माकी अवस्थाको अहिरात्मा कहते हैं। द्र, सं./टी./१४/४६/८ स्वशुद्धात्मसं वित्तिसमुत्पन्नबास्तवसुरवारप्रतिपक्ष
भूतेनेन्द्रिगसुखेनासक्ती बहिरात्मा.. अथवा देहरहितनिजशुद्धात्मदयभावनालक्षणभेदज्ञानरहितत्वेन देहादिपरद्रव्येवेकरवभावनापरिणतो बहिरात्मा,...अथवा हेयोपादेयविचारकचित्तं निर्दोषपरमात्मनो भिन्ना रागादयो दोषा., शुद्धचैतन्यलक्षण आत्मा, इत्युक्तलक्षणेषु नितदोषारमासु त्रिषु वीतरागसर्वज्ञप्रणीतेषु अन्येषु वा पदार्थेषु यस्य परस्परसापेक्षनयविभागेन श्रद्धानं ज्ञानं च नास्ति स बहिरात्मा। -१. निज शुद्धात्माके अनुभबसे उत्पन्न यथार्थ सबसे विरुद्ध जो इन्द्रिय सुख उसमें आसक्त सो बाहिरात्मा है। २. अथवा देह रहित निज शुद्धात्म व्यकी भावना रूप भेदविज्ञानसे रहित होने के कारण देहादि अन्य द्रव्यों में जो एकत्व भावनासे परिणत यानी-देहको ही आत्मा समझता है सो बहिरात्मा है। ३. अथवा हेयोपादेयका विचार करनेवाला जो 'चित्त' तथा निर्दोष परमात्मासे भिन्न रागादि 'दोष' और शुद्ध चैतन्य लक्षण का धारक 'आत्मा' इन (चित्त, दोष व आत्मा) तीनोंमें अथवा सर्वज्ञ कथित अन्य पदार्थों में जिसके परस्पर सापेक्ष नयों द्वारा श्रद्धान और ज्ञान नहीं है वह अहिरामा है।
२. बहिरात्मा विशेष का. अ./टी./१६३ उत्कृष्टा बहिरात्मा गुणस्थानादिमे स्थिताः। द्वितीये मध्यमा, मिश्रे गुणस्थाने जघन्यका इति। -प्रथम मिथ्यात्व गुणस्थानमें जीव उत्कृष्ट बहिरात्मा है, दूसरे सासादन गुणस्थान में स्थित मध्यम बहिरात्मा है, और तीसरे गुणस्थान वाले जघन्य बाहि
रात्मा है। बहिर्यानक्रिया-दे०संस्कार/२ । बहु-मतिज्ञानका एक भेद-दे० मतिज्ञान/४ । बहुकेतु-विजया की दक्षिण श्रेणीका एक नगर-दे० विषाधर । बहुजनपुच्छा दोष-दे० आलोचना/४ । बहुमान - मू आ./२८३ सुत्तस्थ जपं तो वार्यतो चाचि णिज्ज
राहेतु' । आसादणं ण कुज्जा तेण किई होदि बहुमाणे ।२८३ ऑगपूर्वादिका सम्मक अर्थ उच्चारण करता वा पढ़ता, पढ़ाता हुआ जो भव्य कर्म निर्जराके लिए अन्य आचार्जका वा शास्त्रों का अपमान नहीं करता है वही बहुमान गुणको पालता है। भ, आ./बि १४६/२६१/३ बहुमाणे सन्मान | शुचेः कृताञ्जलिपुटस्य अनाक्षिप्तमनसः सादरमध्ययनम् । पवित्रतासे, हाथ जोड़कर, मनको एकाग्र करके बड़े आदरमे अध्ययन करना बहुमान बिनय है। बहुमुखी--विजया की दक्षिण श्रेणीका एक नगर-दे० 'विद्याधर'। बहुरूपिणी--भगवान नेमीनाशकी यक्षिणी-दे० तीर्थ कर ।।३ । बटुबत्रा-भरत क्षेत्रस्य आर्य रखण्डकी एक नवी-दे० मनुष्य/४।। बहुविध-मतिज्ञानका एक भेड-दे० मतिज्ञान/४ ।
प. मु./६/१६-२० तत्र प्रत्यक्षबाधितो 'यथा-अनुष्णोऽग्निद्रव्यत्वाजलवत।१६। अपरिणामी शब्दः कृतकस्वाद घटवत ।१७। प्रेक्ष्यासुखप्रदो धर्मः पुरुषाश्रितस्वादधर्मवत १८। शुचि नरशिरः कपाल प्राण्यगत्वाचघुक्तिवत ।१६। माता मे बन्ध्या पुरुषसंयोगेऽप्यगर्भववारप्रसिद्धबन्ध्यावतु ।२०-१. अग्नि ठण्डी है क्योंकि द्रव्य है जैसे जल । यह प्रत्यक्ष बाधितका उदाहरण है। क्योंकि स्पर्शन प्रत्यक्षसे अग्निकी शीतलता बाधित है ।१६ शब्द अपरिणामी है, क्योंकि वह किया जाता है जैसे 'घट', यह अनुमानबाधितका उदाहरण है ।१७। धर्म परभवमें दुःख वेनेवाला है क्योंकि वह पुरुषके अधीन है जैसे अधर्म। यह आगम बाधितका उदाहरण है, क्योंकि यहाँ उदाहरण रूप 'धर्म' तो परभव में सुख देनेवाला है ।१८। मनुष्यके मस्तककी खोपड़ी पवित्र है क्योंकि वह प्राणीका अंग है. जिस प्रकार शेख, सीप प्राणीके अग होनेसे पवित्र गिने जाते हैं, यह लोकबाधितका उदाहरण है ।११। मेरी माँ बाँझ है क्योंकि पुरुषके संयोग होनेपर भी उसके गर्भ नहीं रहता। जैसे प्रसिद्ध बंध्या स्त्रीके पुरुषके संयोग रहनेपर भी गर्भ नहीं रहता। यह स्ववचनबाधितका उदाहरण है, क्योंकि मेरी माँ और बाँझ ये बाधित वचन है ।२०/( न्या. दी./३/६/१०२/१४ )।
बानमुक्त-भरत क्षेत्रमें दक्षिण आर्यस्खण्डका एक वेश-३० मनुष्य/४॥ बानर-मातर मनुष्य नहीं तिर्यच्च होते हैं ( म. पु./८/२३०) । बारस अणुवेक्खा -आ. कुन्दकुन्द (ई० १२७-१७६) कृत वैराग्य विषयक प्राकृत गाथाओं में निबद्ध ग्रन्थ है। इस प्रथम बारह वैराग्य भावनाओका कथन है। इसपर कोई टीका उपलब्ध नही है। (ली./२/११४)। बारह तप वत-शुक्ल पक्षकी किसी तिथि को प्रारम्भ करके प्रथम १२ दिनमें १२ उपवास, आगे १२ एकाशन, १२ काजिक ( जल व भातका आहार), १२ निगोरस (गोरसरहित भाजन), १२ अल्पाहार. १२ एक लठाना (एक स्थापर मौन सहित भोजन),
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बारह बिजोरा व्रत
१२ मुंगके आहार, १२ मोठके आहार, १२ चोलाके आहार, १२ चनाके २. बालीकी दीक्षा सम्बन्धी दृष्टिभेद आहार, १२ में मात्र जल, १२ घृत रहित आहार । इस प्रकार क्रमोमें
प. पु./8/के अनुसार सुग्रीव के भाई बालीने दीक्षा धारण कर ली थी। बारह-मारह दिनका अन्तराय चलकर मौन सहित भोजन करे। तथा
परन्तु म. पु/६८/१६४ के अनुसार बाली लक्ष्मणके हाथों मारा नमस्कार मन्त्रका त्रिकाल जाप्य करना। इस प्रकार कुल १४४ दिनमें
गया था। व्रत समाप्त होता है। (बतविधान सं./पृ.११५); (किशनसिंह
बालुकाप्रभा-स.सि./३/१/२०३/८ बालुकाप्रभासहचरिता भूमिक्रियाकोष)।
लुकाप्रभा।-जिसकी प्रभा बालुकाकी प्रभाके समान है, वह बारह बिजोरा व्रत-एक वर्षको २४ द्वादशियोंके २४ उपवास
बालुका प्रभा है। (इसका नाम सार्थक है); (ति, प./२/२१); करे तथा नमस्कार मन्त्रका त्रिकाल जाप्य करे (व्रतविधान संग्रह।
(रा. वा./३/१/३/१५८/१८)। पृ. ६) (बर्द्धमान पुराण )।
* वालुका प्रमा पृथिवीका आकार व अवस्थान बारह वशमी वत-यह व्रत श्वेताम्बर आम्मायमें प्रचलित है।
बारा दशमी महारी लेय, बाराबारा वश घर देय।' (बत विधान -० नरक/५/११ । संग्रह । पृ. १३१) ( नवलसाहकृत बर्द्धमान पु.)।
बासी भोजन-बासी भोजनका निषेध-दे० भक्ष्याभक्ष्य/२। बाल-रा. वा./६/१२/७/१२२/२८ यथार्थ प्रतिपत्यभावादज्ञानिनो
बाहुबली-१. मागकुमार चरित के रचयिता एक कन्नड़ कवि। बाला मिथ्यादृष्टयादयः । यथार्थ प्रतिपत्तिका अभाव होनेसे
समय-ई० १९६०। (ती./४/३११)२.म. पु./सर्ग/श्लोक म. अपने पूर्व मिथ्यावृष्टि आदिको अज्ञानी अथवा बाल कहते हैं।
भव नं.७ में पूर्व विदेह बत्सकावती देशके राजा प्रीतिवर्धनके मन्त्री बालक्रिया-दे० क्रिया/३/३ ।
थे (८/२११) फिर छठे भवमें उत्तरकुरुमें भोग भूमिज हुए (/२१२), बालचंद्र-१. ई० ७०० के एक दिगम्बराचार्य (वे. बलचन्द्र) ।
पाँचवें भवमें कनकाभदेव (८/२१३) चौथे भवमें वनजंघ ( आदिनाथ २. समयसार, प्रवचनसार, पञ्चास्तिकाय, तत्त्वार्थ सूत्र व परमात्म
भगवानका पूर्व भव) के 'आनन्द' नाम पुरोहित हुए (८/२१७ ) प्रकाश के कन्नड़ टीकाकार । समय-वि. श. १२ का अन्त (ई. श.
तीसरे भवमें अधोग बेयकमें अहमिन्द्र हूर (६/१०) दूसरे भवमें १३ पूर्व) । (ज./२/१९४)। ३. अभयचन्द्र के शिष्य, श्रुतमुनि के
बज्रसेनके पुत्र महाबाहु हुए ( ११/१२) पूर्व भव में अहमिन्द्र हुए शिक्षा गुरु। भावत्रिभंगी तथा द्रव्य संग्रह की टीका के कर्ता।
(४७/३६५-३६६) वर्तमान भव में ऋषभ भगवान के पुत्र बाहुबली हुए
(१५/4) बड़ा होनेपर पोदनपुरका राज्य प्राप्त किया (१७/७७)। समय-शक ११६६-१२३३ (ई० १२७३-१३११) । (जै /२/५६. ३७८)।
स्वाभिमानी होनेपर भरतको नमस्कार न कर उनको जल, मल्लब बालतप-दे० धर्म/२/६/1
दृष्टि युद्ध में हटा दिया (३६/६०) भरलने कुन होकर इनपर चक्र बालनंदि-नन्दिसंघ देशीयगण के अनुसार आप वीरनन्दि नं.३
चला दिया, परन्तु उसका इनपर कुछ प्रभावमआ (३६/३६)। के शिष्य तथा जम्बूदीवपण्णत्तिके कर्ता पद्मनन्दि नं. ४ (ई. इससे विरक्त हो इन्होंने दीक्षा ले ली (३६/१०४)। एक वर्षका ६६३-१०४३ ) के गुरु थे। पद्मनन्दिनं. ४ के अनुसार इनका समय प्रतिमा योग धारण किया (३६/१०६ ) एक वर्ष पश्चात भरतने ई. १६८-१०२३ आता है।-दे० इतिहास/9/५ (पं.सं./प्र.३६/A.N.
आकर भक्तिपूर्वक इनकी पूजा की तभी इनको केवनलब्धिकी प्राप्ति Up.); (प.वि./प्र./१२/A.N.Up.);(ज.प./प्र.१३/AN Up);
हो गयी (१६/१८५) । अन्त में मुक्ति प्राप्त की । ३. बाहुबलीजी के एक (व, सु, श्रा./प्र./१८/पं, गजाधरलाल)।
भी शष्य न थी-२० शल्य ४। बाइब नीजीकी प्रतिमा सम्बन्धी बाल मरण-दे० मरण/१।
दृष्भेिद-दे० पूजा/३/१०।।
बाहुल्य-१. Hight. (त्रि, सा./टो./१७०) २. Width (ज.प./ बालवत-दे० चारित्र/३/१० ।
प्र./१०७)। बालाग्र क्षेत्रका प्रमाण विशेष/अपरनाम केशाग्र-दे० गणित/I/१।। बाह्य--१. स. सि./8/११/४३६/३ बाह्यद्रव्यापेक्षरवाल्पर प्रत्यक्षवाच बालाचार्य-दे० आचार्य/३।
बाह्यत्वर । - बाह्य द्रव्य के आलम्बनसे होता है, और दूसरों के देखने में
आता है, इसलिए इसे बाह्य ( तप) कहते है। २. परमार्थ बाह्य-३० बालाबित्य-ई.श.में एक औद्धमतानुयायी राजा था। परमार्थ । इसने नालन्दाके मठ बनवाये थे।
बाह्य उपकरण इन्द्रिय-दे० रिद्रय/१ । बालाविश्य-कबेर देशका राजा था। एक बार मलेच्छों द्वारा बाह्यकारण-दे० कारण/11/१ ।
पकड़ा गया। इसकी अनुपस्थितिमें इसकी पुत्रीने पुरुषके वेश में राज्य किया। बहुत समय पीछे बनवासी रामने इसे मुक्त कराया।
बाह्यतप-दे० षह वह नाम । (पपु/३४/३६-१७)।
बाह्मनिवृति इन्द्रिय-दे० इन्द्रिय/१ । बालिस्त-क्षेत्रका प्रमाण विशेष, अपरनाम वितस्ति-दे०
बाह्य परिग्रह आदि-दे बह वह विपश्य । गणित/11१।
बाह्य वर्गणा-दे० वर्गणा। बाली--प. पु.// श्लोक नं. किष्किन्धपुर के राजा सूर्य रजका पुत्र बिदुसार-मगध सम्राट् अशाकका पिता था। समय- जैन के
था (१) राम ब रावणके युद्ध होनेपर विरक्त हो दीक्षा धारण कर अनुसार ई.पू. ३०२-२७७ लोक इतिहासाके अनुसार ई.पू. २६८-२७३ ली (१०)। एक समय रावणने क्रुद्ध हो तपश्चरण करते समय इनको
-देहातहास/३/४। पर्वत सहित उठा लिया। तम मुनि बालीने जिन मन्दिरकी रक्षार्थ बिब-१. Disc. (ज.प./प्र.१०७) । २.बी.पा./मू./१६ जिण भिवं पैरका अंगूठा दबाकर पर्वतको स्थिर किया (१२) अन्त में इन्होंने णाणमय सजमसुदध सुवीयराय च। जं देई दिनरन सिकाया कम्मरवयनिर्वाण प्राप्त किया (२२१)।
कारणे सुद्धा १६ - जो ज्ञानमयो है, संयममे शुद्ध है, अतिशय बीतबैनेन्द्र सिद्धान्त कोश
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बिबसार
वृहत्त्रयम
राग है, और कर्मकै क्षयका कारण है, हाट है ऐसी दीक्षा और दिक्षा यो सा अ14/८२ बुद्धिमक्षाश्रया । -जो इन्द्रियोंके अवलम्बनसे हो देता है। ऐसा जिनबिम्ब अदि जिनेन्द्र भगवानका प्रतिविम्ब वह बुद्धि है। स्वरूप आचार्य का स्वरूप है।
स म /1८८/३० बुद्धिशब्देन ज्ञानमुच्यते । बुद्धिका अर्थ ज्ञान है । निवसार-मगधराज श्रेणिकका अपर नाम। समय-ई.पू. ६०१. न्या. सू./मू /१/१/१५/२० बुद्धिरुपल धिनिमित्यनयान्तरम् । = बुद्धि, १५२ । (दे. इतिहास/३/४) ।
___ उपलब्धि और ज्ञान इनका एक ही अर्थ है । केवल नामका भेद है। बिल-नारकियोंके जन्म स्थान । दे० नरक ५/३ ।
बुद्धिऋद्धि-दे० ऋद्धि/२। बाज-१ श्रीजरूप बनस्पतिके भेद व लक्षण-दे० वनरपति/१ । बुद्धिकीति-अपरनाम महात्मा बुद्ध था-दे० बुद्ध । (द सा./मू । २ श्रीजोधा भक्ष्य भक्ष्य विचार-दे०सचित्त/५। ३. श्रीज में जीबका
___७.८), (द स /प्रशस्ति २६/नाथूराम)। जन्म होने सम्बन्धी नियम--दे० जन्म/२।
बुद्धिकूट-रुक्मि पर्वतस्थ एक कूट-दे० लोक/७ । बीजगणित--AIKOI (ज प/प्र.१०७), (ध./५/प्र २८)। बुद्धिदेवी-रुक्मि पर्वतस्थ महापुण्डरीक हद व बुद्धिकूट की स्वामिनी बीजपद--दे० पद।
देवी-दे० लोक/3/8,५/४। बीजबुद्धिऋद्धि--- दे० ऋद्धि/२॥
बुद्धिल-दे० बुद्धिलिग। बीजमानप्रमाण-दे० प्रमाण/५ ।
बुद्धिलिंग-भूतावतारकी पट्टाबली के अनुसार अपका अपरनाम बोजसम्यक्त्व-दे० सम्यग्दर्शन/1१।
बुद्विल था। आप भद्रबाहु श्रुतकेवलीके पश्चात नवे ११ अगव १०
पूर्वधारी हुए है । समय - वो. नि. २६५-३१५ । ई पू २३२-२१२)बीजा-आर्यखण्ड की नदी-दे० मनुष्य/४।
दृष्टि नं. ३ के अनुसार बी नि. ३५५-३७ ।-दे० इतिहास/४/४ । बीजाक्षर-दे० अक्षर ।
बुद्धेशभवनव्याख्यान-आ विद्यानन्दि ( ई ७८५-८४०) कृत बीथी--Orbit ( ज ५/प्र.१०७ ) ।
सस्कृत भाषाबद्ध न्याय विषयक ग्रन्थ । बोसाय-ल.सा./भाषा/२२८/२०५/७ जिन (कर्मनि) की बोस बुध--१ एक ग्रह-दे० 'ग्रह , २ बुध ग्रहका लोक्य अवस्थान-दे० कोडाकोडी (सागर ) उत्कृष्ट स्थिति है, ऐसे नाम गोत्र तिनि । ज्योतिष/२।३ स्या म/२-/२५८/२६ बुध्यन्ते यथावरियत वस्तुबोसिय कहिए।
तन्वं सारेतरजिषमविभागविचारणया इति बुधा । -प्रथावस्थित
वस्तु तत्त्वको सार व असारके विषय विभागकी विचारणाके द्वारा जो बुद्ध-१. बुद्ध सामान्य का लक्षण
जानते है, वे बुध है। प. प्र/टी/१/१६/२१/५ बुद्धोऽनन्तज्ञानादिचतुष्टयसहित इति । केवल
बुधजन आप जयपुर निवासो खण्डेलवाल जैन पण्डित थे। असली ज्ञानादि अनन्त चतुष्टय महित होनेसे अन्मा बुद्ध है। (द्र.स /
नाम वृद्धिचन्द । अपर नाम बुधजन, विधिचन्द । कृतियें-तत्त्वार्थ चूलिका/२८/८०१)। भा पा/टी/१४६/२६३/१४ बुद्धचत सर्व जातोति बुद्ध । -बुद्धिके
बोध (वि. १८७१), बुधजन सतसई (वि १८७६); पञ्चास्तिकाय
भाषा (वि. १८११) बुधजन विलास (वि. १८९२); योगसार भाषा; द्वारा सब कुछ जानता है, इसलिए बुद्ध है ।
पदसंग्रह । समय-वि. १८७१-१८१२ (ई. १८१४-१८३५) । २ प्रत्येकबुद्ध व बोधितबुद्ध के लक्षण
(ती./४/२६८)। स. मि /१०/१/७२/8 स्वशक्तिपरोपदेशनिमित्तज्ञानभेदात् प्रत्येकबुद्ध- बुधजनविलास-बुधजन द्वारा (ई. १८३५ ) मे रचित भाषा बाधितविकासपा । अपनी शक्तिरूप निमित्तसे होनेवाले ज्ञानके भेद- पदस ग्रह । (ती./४/२६८)। से प्रत्येक बुद होते है। और परापदेशरूप निमित्तसे होनेवाले ज्ञानके
बुधजनसतसई-प. बुधजन द्वारा (३,१८२२) में रचित भाषा भेदसे बाधित बुद्ध हाते है । (रा वा/१०/8/८/६४७/११)।
पदसग्रह । (ती //REE) ति, प./४/१०२२ कम्माण उपसमेण य गुरूवदेस विणा वि पावेदि ।
बुलाकीदास-आगरे निवासी गोयलगोत्री अग्रवाल दिगम्बर जैन सणाणसवप्पगम जोए पत्तंयबुद्रा सा १०२२। जिसके द्वारा गुरु उपदेश के बिना ही कर्मो के उपशमसे सम्यग्ज्ञान और तपके विषयमे हिन्दी कवि। इनकी माता जेनी पण्डित हेमचन्दकी पुत्री थी। पिताका प्रगति होती है, वह प्रत्प्रेकबुद्धि ऋद्धि कहलाती है । (रा वा /2/३६ / नाम नन्दलाल था। आपने भारत भाषामें पीण्डर पुराणकी रचना की ३/२०२/२४ ), ( भ आ /वि/३४/१२/११) ।
थी। समय - वि १७५४ (ती०४/२६३) । १७० कामता)। * स्वय बुद्धका लक्षण दे० स्वयंभू ।
बूचीराज-१, शभचन्द्र सिद्धान्तिक के शिष्य एक गृहस्थ । समय
शक १०१५-१०३७ (ई०१०६३-१११५) । (ध०२/१२)। २. अपभ्र श बुद्धगुप्त-ई.श ५ में एक बौद्ध मतानुसारी राजा था, इसने नालन्दा
कवि । कृतियें-मयणजुज्झ (मदनयुद्ध); सन्तोष तिलक जयमाल, के मठ बनवाये थे।
चेतनपुद्गल धमाल, टंडाणागीत इत्यादि । समय-वि. १५८६ बुद्धस्वामो-ई.श ८ में हतुकथा श्लोक सग्रहके रचयिता एक जैन (ई०१५३२) । (ती/४/२३०)। कवि थे। ( जीवधरचम्पू/प्र १८/A. N. Up.)।
बृहत् कथा-बृहत कथाकोष, बृहत् कथा मञ्जरी, बृहत कथा सरिद बुद्धि
सागर-दे० कथा कोष । ष. व १३/५,५/सू ४०/२४३ आवायो ववसायो बुद्धी विण्णाणी आउडी। ब्रहत् क्षेत्र समास-त्रिलोकप्रज्ञप्ति के समक्षक, पांच अधिकार पञ्चाउडी।३६. ऊहितोऽथो बुद्धयते अवगम्यते अनया इति बुद्धि । तथा ६५६ प्राकृत गाथाबद्ध, त्रिलोक प्ररूपक, श्वेताम्बर ग्रन्थ । -अवाय, व्यवसाय, बुद्धि, विज्ञप्ति. आमुण्डा और प्रत्यामुण्डा ये रचयिता जिनभद्र गणी क्षमाश्रमण (वि ६२०) जै./२/६२। पर्याय नाम है।३६. जिसके द्वारा ऊहित अर्थ 'बुद्धयते' अर्थात बृहत् त्रयम-अकलक भट्ट रचित सस्कृत भाषानद्ध न्याय विषयक जाना जाता है वह बुद्धि है।
ग्रन्थ (द अकलंक भट्ट)।
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बृहत् संग्रहिणी सूत्र
बृहत् संग्रहिणी सूत्र - जिनभद्र गणी क्षमाश्रमण (बि. ६२०) द्वारा
रचित प्राकृत भाषाबद्ध श्वेताम्बर ग्रन्थ । अपर नाम संघायणी । (जै./२/१२)।
बृहत् सर्वज्ञ सिद्धि - अनन्तकीर्ति (ई.) द्वारा रचित संस्कृत भाषाबद्ध न्याय विषयक ग्रन्थ । (ती./३/१६७) ।
बृहद्गृह — विजयार्थी दक्षिण अशीका एक नगर विद्याधर । बृहद् बल
"रामाकृष्ण द्वारा संशोधित इक्ष्वाकु व शावली के अनुसार वैवस्वतयम की १०२वीं पीढ़ी में विद्यमान राजा जो महाभारत युद्ध में मारा गया। समय-ई पू. १५५० -- दे. महाभारत ।
बृहस्पति - १ एक ग्रह - दे० ग्रह, २ इसका लोकमे अवस्थान- दे० ज्योतिष / २२. चक्रवर्तीका मन्त्री और मलिका सहवर्ती । -दे० बलि ।
-दे०
बेलंधर
समुद्रस्य कौस्तुभ व कौस्तुभाभास पर्वतके स्वामीदेव - दे० लोक / ७ । लवण समुद्र के अपर बेलन्धर नामवाले नागकुमार जाति भवनवासी देवोंकी ४२००० नगरियाँ हैं । बेलड़ी- व्रतविधान सं/पृ. २६ केवल पानी और मिर्च मिलाकर खाना सो बेलडी कहलाता है ।
बेलन - -Cylinder. (ज. प. / प्र १०७ ) ।
बेलनाकार - Cylinderical / २९ ) - ६० गणित/11/७/६ बेलावत प्रथमदिन दोपहरको एकाशन विवक्षित दो दिनों में उपवास तथा अगले दिन दोपहरको एकाशन करे। ( ह. पु / ३४ /
)
( व्रतविधान स / पृ. १२३ ) ।
-
बोद्दनराय अमोघवर्ष । बोधपाहुड़ - - आ. कुन्दकुन्द ( ई १२७-१७६) कृत आयतन चैत्यगृह आदि ११ विषयों सम्बन्धी सति परिचायक ६२ प्राकृत गाथाओमे निबद्ध ग्रन्थ है । इसपर आ० श्रुतसागर (ई १४८१-१४६६ ) कृत संस्कृत टीका और पं. जयचन्द छाबड़ा ( ई १८६७) कृत देशभाषा वचनिका उपलब्ध है । (ती./२/११४) ।
बोधायन सूत्र टीकार०
राष्ट्रकूटका राजा था। अपरनाम अमोघवर्ष था - दे०
बोधि प. प्र/टी./१/१/१६/८ सम्यग्दर्शनज्ञानचारित्राणामप्राप्तप्राण सम्यग्दर्शन, ज्ञान, चारित्रकी प्राप्ति नहीं होती और इनका पाना ही बोधि है (इ सं /टी./३३/९४२/१)।
बोधि
बोधिदुर्लभ अनुप्रेक्षा - दे० अनुप्रेक्षा । बोधि दे०
बौद्धदर्शन -- १. सामान्य परिचय
१. इस मतका अपरनाम सुगत है । सुतिको तीर्थंकर, वुद्ध अथवा धर्मधातु कहते है । ये लोग साल सुगत मानते है- विपर्या शिखी, विश्वभू, क्रकुच्छन्द, काचन, काश्यप और शाक्यसिह । ये लोग बुद्धः भगाको मानते है र बुझतीन रेखाओ चिह्नित होते है। बौद्धसाधु चमर, चमडेका आसन व कमण्डलु रखते है । मुण्डन कराते हैं। सारे शरीरको एक गेरुवे वस्त्र से ढके रहते है ।
* उत्पत्ति व आचार-विचार
१. का उपदेशक समानता के कारण जैन
को कोई-कोई
एक मानता है, पर वास्तव में में ऐसा नहीं है। जैन शास्त्रोंमें इसकी उत्पत्ति सम्बन्धी दृष्टियाँ प्राप्त है ।
भा० ३-२४
१८५
२. उत्पत्ति सम्बन्धी दृष्टि नं १
द.सा./मू./६० श्री पारख नाथतीर्थे सरयूतीरे पलाशनगरस्थ पिहितास्रवस्य शिष्यो महाश्रुतो बुद्धिकीतिमुनि |६| तिमिपूर्णाशन. अभिगतप्रवज्यात परिभ्रष्टः । रक्ताम्बरं धृत्वा प्रवर्तितं तेन एकान्तम् ॥७॥
बौद्धदर्शन
1 =
गी. जी./जी.प./१६ मुखदर्शनादय. एकान्त मिध्यादृश्य. श्रीपार्श्वनाथ भगवानके तीर्थमे सरयू नदी के तटवर्ती पलाश नामक नगर में पिहिता
सानुका शिष्य बुद्धिकीर्ति मुनि हुआ, जो महाश्रुत व बडा भारी शास्त्रज्ञ था । ६। मछलियोका आहार करनेसे वह ग्रहण की हुई दीक्षासे भ्रष्ट हो गया और रक्ताम्बर ( लाल वस्त्र ) धारण करके उसने एकान्त मतकी प्रवृत्ति की 101 बुद्धदर्शन आदिक ही एकान्त मिध्यादृष्टि है।
सा/२६ प्रेमी जी बुकीति सम्भवत बुद्धदेव (महात्मा बुद्ध का ही नामान्तर था । दीक्षासे भ्रष्ट होकर एकान्त मत चलानेसे यह अनुमान होता है कि यह अवश्य ही पहले जैन साधु था । बुद्धिकीर्तिको पिहितास्रव नामक माधुका शिष्य बतलाया है। स्वयं ही आत्मारामजी ने लिखा है कि पिहितास्रव पार्श्वनाथको शिष्य परम्परामें था । श्वेताम्बर ग्रन्थोंसे पता चलता है कि भगवान् महावीर के समय में पार्श्वनाथ की शिष्य परम्परा मौजूद भी २. उत्पत्ति सम्बन्धी दृष्टि नं. २
धर्म परीक्षा / २ / ६ रुष्ट श्रीवीरनाथस्य तपस्वी मौडिलायन । शिष्य' श्री पार्श्वनाथस्य विदधे बुद्धदर्शनम् । ६ । शुद्धोदनसुत बुद्ध परमात्माममलनी। भगवा पार्श्वनाथकी शिष्य परम्परामें मौहितायन नामका तपस्वी था। उसने महावीर भगवान् से रुष्ट होकर बुद्धदर्शनको चलाया और शुद्धोदनके पुत्र बुद्धको परमात्मा कहा ।
द सा./ प्र / २७ प्रेमी जी नं. १ व नं. २ दृष्टियो में कुछ विरोध मालूम होता है. पर एक तरहसे उनकी संगति बैठ जाती है । महावग्ग आदि मौद्ध ग्रन्थोसे मालूम होता है कि मौडिसायन और सारीपुत्त दोनो बुद्धदेव के शिष्य थे । वे जब बुद्धदेवके शिष्य होने जा रहे थे, तो उनके साथी सजय परिवाजकने उन्हे रोका था। इससे मालूम होता है कि 'धर्म' परीक्षाकी मान्यता के अनुसार मे अवश्य पहले जैन रहे होंगे।
परन्तु इस प्रकार वे बुद्धके शिष्य थे न कि मतप्रवर्तक । सम्भवत बौद्धधर्म के प्रधान प्रचारको में से होनेके कारण इन्हें प्रवर्तक कह दिया गया हो। बस न. १ व नं. २ की संगति ऐसे बैठ जाती है कि भगवान् पार्श्वनाथ के तीर्थ मे पिहितास्रव मुनि हुए । उनके शिष्य बुद्धदेव हुए, जिन्होंने बौद्धधर्म चलाया और उनके शिष्य मौलायन हुए जिन्होने इस धर्म का बहुत अधिक प्रचार किया । ४. बौद्ध लोगोंका आचार-विचार
दसा // ८-६ मासस्य नास्ति जीवो यथा फले दधिदुग्धशर्करा च । तस्मात्त वाञ्छन् तं भक्षत् न पापिष्ठ |८| मद्य न वर्जनीयं द्रवद्रव्यं यथा नलं तथा एतत् । इति लोके घोषयित्वा प्रवर्तित सर्वसाध - फल, दूध, दही, शक्कर आदिके समान मासमें भी जीव नही है । अतएव उसकी इच्छा करने और भक्षण करनेमें पाप नही है |८| जिस प्रकार जल एक तरल पदार्थ है उसी प्रकार मद्य भी तरल पदार्थ है, वह त्याज्य नहीं है । इस प्रकारकी घोषणा करके उस (क) ने संसार सम्पूर्ण पापकर्मको परिपाटी चलामी ||
द सा / प्र / २७ प्रेमी जी, उपरोक्त बात ठीक मालूम नही होती, क्योंकि धर्म प्राणिधा ती निषेध करता है यह 'मांसमें जीव नहीं है यह कैसे कह सकता है दूसरे वौद्ध साधुओंके विनयपिटक आदि ग्रन्थोंमे दशशील ग्रहण करनेका आदेश है, जो एक प्रकारसे बौद्धधर्मके मूलगुण है, उनमें से पाँचवा शील इन शब्दों में ग्रहण करना पडता है। 'मै मद्य या किसी भी मादक द्रव्यका सेवन नही करू गा',
ऐसी
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नौवर्धन
सकता ।
दशामें मद्य सेवनकी आज्ञा बुद्धदेवने दी होगी, यह नहीं कहा जा स. म. / परि० / ३८५ यद्यपि बौद्ध साधु जीव दया पालते है, चलते हुए भूमिको बुहार कर चलते है, परन्तु भिक्षा पात्रों में आये हुए मांसको भी शुद्ध मानकर खा लेते है। ब्रह्मचर्य आदि क्रियाओमे दृढ रहते हैं । ३. बीच सम्प्रदाय
१. बुद्ध निर्वाणके पश्चाद बौद्ध लोगों में दो सम्प्रदाय उत्पन्न हो गये । महासंधिक व स्थविर । ई० पू० ४०० की वैशाली परिषद्मे महा संदिकाखाली हो गये महासचिक, एक व्यहारिक, लोक, महुतीय शवादी पैतिक अपर शैस और उपरस स्वरवादी १९ में विभक्त हुए मक्त सर्वास्तिवाद, धर्मक्षिक, महीशासक, काश्यपीय, सौत्रान्तिक, वात्सपुत्रीय, धर्मोत्तरीय, भद्रानीय सम्मितीय और छागरिका। सर्वावादी वैभाषिक) और सोचा अतिरिक्त इन शाखाओंका कोई विशेष उस अम नहीं मिलता। (परि. ख ३८४) । २. बौद्धों के प्रधान सम्प्रदाय निम्न प्रकार हैं
T महायान या महासंधिक
(प्रधान)
विज्ञानवाद
या
योगाचार
T माध्यमिक
या शुन्यवाद
महायानका लक्ष्य पर कल्याणपर है ये लोग श्रावक vent दशभूमि स्वीकार करते हैं।
-
बौद्ध 1
1
हीनयान या स्थविरवादी (बी)
T वैभाषिक
४. प्रवर्तक साहित्य व समय
8.
7 सौत्रान्तिक
हीनयानका लक्ष्य अर्हत पदकी प्राप्ति मात्र है। ये लोग श्रावक पद की चार भूमि स्वीकार करते हैं।
स. म. / परि. ख / ३८६-३८६ १. विनय पिटक, मुत्तपिटक, और अभिधम्म free a freeत्रय हो बौद्धोंका प्रधान आगम है। इनमें से के पाँच खण्ड-दोषनिकाय मनिन निकाय, संयुक्त निकाय, अंगुरमिला और निकाय (भारतीयदर्शन)। २. सौत्रान्तिकों में धर्मत्राता (३० १००) कृत पंचवस्तु विभाषा शास्त्रः, संयुकाभिधर्महृदयशास्त्र अमदान सूत्र घोष (२०१०) इस अभि धर्मामृत शास्त्र: बुद्धदेव ( ई० १०० ) का कोई शास्त्र उपलब्ध नहीं है; सुमित्र ( ई० १००) कृत अभिधर्मप्रकरणपाद, अभिधर्म धातुकाय पद, agrat निकाय तथा आर्यवसुमित्र, बोधिसत्त्व, संगीत शास्त्र - ये चार विवाद व उनके ग्रन्थ प्रसिद्ध हैं । ( स. म. / परिख / ३८८) | ३. वैभाषिकों में- कात्यायनी पुत्रका ज्ञान प्रस्थानशास्त्र या विशाखा सारीपुत्रका धर्मस्वन्धः पूर्णका धातुकाय, मौलायनका प्रति शास्त्र: वेवक्षेमका विज्ञानकाय: सारीपुत्रका संगीतिपर्याय और
मित्रका प्रकरणवाद प्रसिद्ध ग्रन्थ है। इनके अतिरिक्त भी ०४२०-५०० में बने अभिधर्मकोश ( वैभाषिक कारिका तथा उसका भाष्य लिखा) यशोमित्र ने इस ग्रन्थपर अभिधान धर्मकोश व्याख्या लिखी। सपभद्रने समय प्रदीप, न्यायानुसार नामक ग्रन्थ हि दिनागने भी प्रमाणसमुच्चय, न्यायप्रवेश हेतुकहरु प्रमाणसमुच्चय वृत्ति, आलम्बन परीक्षा, त्रिकाल परीक्षा आदि न्याय ग्रन्थोंकी रचना को ४ इनके अतिरिक्त भी धर्मकीर्ति (०६२५)
दर्शन
विनोददेव, शान्तभद्र, धर्मोत्तर ( ई० ८४१) रत्नकीर्ति, पण्डित अशोक, रत्नाकर, शान्ति आदि विद्वात् इन सम्प्रदायोके उल्लेखनीय विद्वात् हैं ।
५. मूळ सिद्धान्त विचार
१. बौद्ध दर्शनमे दुःखसे निवृत्तिका उपाय हो प्रधान है तत्त्व या प्रमेयोंका विचार नहीं । ये लोग चार आर्य सत्य मानते हैं - संसारदुःखभय है. दुःख समुदय अर्थात दुःखका कारण, दुख निरोध अर्थात दुःखनादाकी सम्भावना और दु:ख निरोधगामिनी प्रतिपद अर्थात् दुःख नाका उपाय । २. संसार दुखमय है। दुख परम्पराका मूल अविद्या है । अविद्या हेतुक परम्पराको प्रतीत्यसमुत्पाद कहते हैं। वह निम्न प्रकार १२ भागों में विभाजित है । १ अविव्यासे संस्कार, २, संस्कार से विज्ञान, ३, विज्ञानसे नामरूप, ४. नामरूपसे षडायतन ( मन सहित पाँच इन्द्रियों). २. पायतन से स्पर्धा, ६. स्पर्धा वेदना, ७. वेदमासे तृष्णा, तृष्णासे उपादान, ६ उपादानसे भव (संसार में होनेकी प्रवृत्ति) १०. भवसे जाति, ११. जातिसे जरा, १२. जरासे मरण । ३. १. सम्मादिट्ठि ( आर्य सत्योंकर ज्ञान ), २. सम्मा संकम्प (रागादिके त्यागका दृढ़ निश्चय), ३. सम्मानाचा (सत्य वचन), ४ सम्मकम्पन्त (पापका त्याग ) ५. सम्माआजीव ( न्यायपूर्वक आजीविका), 4. सम्मा मायाम (अशुभसे निवृत्ति और शुभप्रवृति ७. सम्मासत्ति (चित्त शुद्धि), ८. सम्मा समाधि (चित्त की एकाग्रता) | ये आठ दुःख निवृत्तिके उपाय है। बुद्धत्व प्राप्तिकी श्रेणियाँ है- श्रावकपद, प्रत्येक अर्थात् जन्मसे ही सम्यग्दृष्टि व बोधिसत्व अर्थात् स्वव पर कल्याणकी भावना ।
बुद्ध
६. श्रावककी भूमियाँ
१. हीनयान स्थविर बाद) चार भूमियों मानते हैं-सोप (सम्यग्दृष्टि आदि साधक ); सकृद्रगामी ( एक भवावतारी ), अनागामी ( चरम शरीरी), अईद (बोधिको प्राप्त ) २ महायान (महा) दस भूमियाँ मानते हैं-१, दिया ( पर श्याणकी भावनाका उदय ), २. बिमला ( मन, वचन, काय द्वारा शीलपारमिताका अभ्यास व साधना ), ३. प्रभाकरी (धैर्यपारमिताका अभ्यास अर्थात तुम्बाकी क्षति) ४ अचिष्मती (मी पारमिताका अभ्यास अर्थात् चित्तको साम्यता ); ६. अभिमुक्ति (प्रज्ञा पारमिताका अभ्यास अर्थात् समताका अनुभव, सबपर समान दयाका भाव ) ७. दूरंगमा ( सर्वज्ञश्वकी प्राप्ति), अचला ( अपनेको जगदसे परे देखता है ), ६. साधनति ( लोगों के कष्याणार्थ उपाय सोचता है) १०. धर्ममेव (समाधिनिष्ठ होकर अन्त अवस्था ) |
को प्राप्त
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० हीनयान बैमा पिकको अपेक्षा तस्यविचार जगद व चित्त सन्तति दोनोंकी पृथक्-पृथक् ससाको स्वीकार करते हैं। तहाँ जगत्को सत्ता बाहर में है जो इन्द्रियों द्वारा जानने में आती है, और चित्त सन्ततिको सत्ता अन्तरंग में है। यह लोग क्षणभंगबादी हैं । १. समस्त जगव तीन भागो में विभक्त है -स्कन्ध, आयतन, धातु । २. स्कन्ध पाँच है-चार स्कन्धोंका सम्बन्ध मानसिक वृत्तियों से है । ३. आयतन १२ हैं- मन सहित ग्रह इन्द्रियाँ तथा छह इनके विषय । इन्हें धातु कहते हैं। इनसे छह ही प्रकारका ज्ञान उत्पन्न होता है । अत्माका ज्ञान इन्द्रियों से नहीं होता, इसलिए आत्मा कोई वस्तु नहीं है। मनमें ६४ धर्म है और शेषमें एक-एक है । ४. धातु १८ हैं - ६ इन्द्रिय धातु ( चक्षु धातु, श्रोत्र धातु प्राणधातु, रसमाधातु कायधातु, मनोधातु), ६ इन्द्रियोंके विषय (रूपधातु, शब्द, गन्ध, रस, स्प्रष्टव्य तथा धर्मधातु), ६ विज्ञान ( चक्षु
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बौद्धदर्शन
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विज्ञान, श्रोत्रं, माण, रसना, काय और मनाविज्ञान वा अन्त देयके भावका ज्ञान । ५. धर्म-भूत और चित्तके उन सूक्ष्म तत्वोंकी धर्म कहते हैं जिनके आपात में प्रतिवाससे समस्त जगदकी स्थिति होती है। सभी धर्म सत्तात्मक हे तथा क्षणिक है। ये दो प्रकारके है - असंस्कृत व संस्कृत । नित्य, स्थायी, शुद्ध व अहेतुक (पारिगामिक) धर्मोको असंस्कृत कहते हैं. असंस्कृत धर्म हीन हैंप्रतिसंख्या निरोध, अप्रतिसंख्या निरोध तथा आकाश । प्रज्ञाद्वारारागादिक साख धर्मोका निरोध (अर्थात् धर्मध्यान) प्रति ख्या निरोध कहलाता है बिना प्रशासन धर्माका निरोध (अर्थात शुक्लध्यान) अप्रतिसंख्या निरोध कहलाता है। अतिसया हो वास्तविक निशेध है। आवरण के अभावको आकाश कहते हैं। यह नियम परिवर्तनशील है। संस्कृतधर्म पार हैं-रूप, चित्त, चैतसिक, तथा चित्त विइनमें भोरुप ११. चिका बेसिक ४६ और पित्त २६ भेद है। पाँच इन्द्रिय तथा पाँच उनके विषय तथा अविज्ञप्ति में ग्यारह रूप अर्थात् भौतिक पदार्थोके भेद है। इन्द्रियों व उनके विषयोंके परस्पर आघातसे चित्त उत्पन्न होता है। यहां मुख्य तव है । इसी में सब संस्कार रहते हैं। इसका स्वतन्त्र ससा नहीं है, क्योकि हेतु प्रत्ययमे उत्पन्न होती है। यह एक है. पर उपाधिया के कारण इसके अनेक भेद-प्रभेद है । यह प्रतिक्षण बदलता है। इस लोक व परलोकमें यही आता-जाता है । चित्त से धनिष्ट सम्बन्ध रखनेवाले मानसिक व्यापारको चेतसिक या चित संप्रयुक्त धर्म कहते हैं । इसके ४६ प्रभेद हैं। जो धर्म न रूप धर्मा में और न चित्त धर्मो में परिगणित हा, उन्हे चित्त विप्रयुक्त धर्म कहते हैं । इनकी सख्या १४ है । ८. निर्वाण-एक प्रकारका असंस्कृत या स्वाभाविक धर्म है, जिसे अहं जम सत्य मार्ग अनुसरण से हारी है। यह स्वतन्त्र, सद व नित्य है। यह ज्ञानका आधार है। यह एक है तथा सर्व भेद इसमें विलीन हो जाते हैं। यह आकाशवत् अनन्व अपरिमित व अनिर्वचनीय है।
4. हीनयान सौश्रातिककी अपेक्षा तत्र विचार
९. अन्तर जगत् सत् है पर बाह्य जगत् नहीं। वह केवल चिसमें उत्पन्न होने वाले धर्मोपर निर्भर है। इनके में हुए द 'निर्वाण' धर्मोके अनुवाद रूप है. यह असंस्कृत धर्म नहीं है, क्योंकि मार्ग के द्वारा उत्पन्न होता है । ३. इनके मत में उत्पत्तिसे पूर्व व विनाश के पश्चात दशकी स्थिति नहीं रहती. अत यह अनित्य ह ४. तागत दो वस्तुओं में कार्यकारण भाव मे लोग नहीं मानते। ६. वर्तमान कालके अतिरिक्त भूत, भविध्यद काल भी नहीं है। ६. इसके महमें परमाणु निरवयव होता है। इनके संघटित होनेपर भी यह पृथक ही रहते हैं। केवल उनका परिमाण हो बढ़ जाता है । ७, प्रतिसंख्या व अप्रतिसंख्या धर्मो में विशेष भेद नहीं मानते। प्रतिसंख्या निरोध हा द्वारा रागादिकला निरोध हो जानेगर भविष्य में उसे कोई मन होगा और अख्या निरोध कानादा हो जानेपर दुःख की निवृत हो जायेगी जिससे कि वह भवचक्रसे छूट जायेगा।
।
९. महायान योगाचार या विज्ञानवादकी अपेक्षा तस्यविचार
|
१. बाह्य जगत असत् है । २. चित्त या विज्ञान ही एक मात्र परम तत्व है चित हो की प्रवृति मुक्ति होती है। सभी वस्तु एक मात्र चित्तकेय है। अविद्या कारण हाता ज्ञान में भेद मालूम होता है। वह दो प्रकारका हे -प्रवृत्ति विज्ञान व आलय
१८७
बौद्धदर्शन
विज्ञान । ३. आलय विज्ञानको तथागत गर्भ भी कहते हैं । समस्त कायिक, वाचिक व मानसिक विज्ञानोंके | वासना रूप बीज आलय विज्ञानरूप चित्तमें शान्त भावसे पड़े रहते हैं, और समय आनेपर व्यवहाररूप जगत् में प्रगट होते हैं। पुनः इसी में उसका लय भी हो जाता है। एक प्रकार से यही बालय विज्ञान व्यावहारिक जीवात्मा है ४. बाल विज्ञान क्षणिक विज्ञानोंकी सन्तति मात्र है। इसमें शुभ तथा अशुभ सभा वासनाएँ रहती हैं। इन वासनाओं के साथ-साथ इस आलय में सात और भी विज्ञान हैं, जैसे-चक्षुविज्ञान, श्रोत्र, घाण, रसना, काय, मनो तथा विलष्ट मनो विज्ञान। इन सबमें मनो विज्ञान आलय के साथ सदैव कार्य में लगा रहता है और साथ ही साथ अन्य छह विज्ञान भी कार्य में लगे रहते हैं। व्यवहार में आनेवाले मे सात विज्ञान प्रवृतिविहान' कहलाते हैं मस्तुतः प्रवृति विज्ञान आलय विज्ञानपर ही निर्भर है।
१०. महायान माध्यमिक या शून्यवादकी अपेक्षा तत्वविचार
1
१. व दृष्टिले न बाह्य जगत्को सत्ता है न अन्तर्जगतकी । २. सभी शुन्यके गर्भ में विलीन हो जाते हैं। यह न सत् है और न असत, न उभय हे न अनुभय । वस्तुतः यह अलक्षण है। ऐसा शून्य ही एक मात्र परम तत्व है। यह स्वलक्षण मात्र है। उसकी सत्ता दो प्रकारकी संवृति सत्य और परमार्थ सम्म ३ सवृत्ति सत्य पारमार्थिक स्वरूपका आवरण करनेवाली है। इसीको अविया मोह आदि कहते हैं। यह संवृति भी दो प्रकारकी है-तथ्य संमृति व मिथ्या संवृति । जिस घटनाको सत्य मानकर लोकका व्यवहार चलता है उसे लोक संवृत्ति या तथ्य संवृति कहते हैं और जो घटना यद्यपि किसी कारण से उत्पन्न अवश्य होती है पर उसे सभी लोग सत्य नहीं मानते, उसे मिथ्या संवृत्ति कहते हैं । ४. परमार्थ सत्य निर्माण है। इसे शुन्यता तथा कोटि धर्मा आदि भी कहते हैं। निःस्वभावता ही वस्तुतः परमार्थ सत्य है। अनिर्बंधनीम है। (बोर भी दे० शुन्यवाद।
१५. प्रमाण विश्वार
१. हीनयान वैभाषिक सम्यग्ज्ञानको प्रमाण कहते हैं। वह दो प्रकार है - प्रत्यक्ष व अनुमान । २. कल्पता व भ्रान्तिसे रहित ज्ञान प्रत्यक्ष है। यह चार प्रकारका है इपिज्ञान. मनोविज्ञान (ज्ञान), आत्मसंवेदन (सुख-दुःख आदि चैसिक धर्मोका अपने स्वरूप प्रगट होना ); योगिज्ञान (सहभूत अर्थोकी चरमसीमा भाला ज्ञान ), प्रत्यक्ष ज्ञान स्वक्षण है, यही परमार्थ सत्य है। ३ अनुमान दो प्रकार है-स्वार्थ व परार्थ हेतु पक्ष व विपक्षको ध्यान रखते हुए जा हाम] स्वत हो उसे स्वार्थ कहते हैं। उपदेशादि द्वारा दूसरे से प्राप्त किया गया ज्ञान परार्थानुमान है। ४. इसमें तीन प्रकारके हेतु होते हैं - अनुपलब्धि, स्वभाव व कार्य। किसी स्थान विशेषपर घटका न मिलना उसकी अनुपलब्धि है। रवभाव सत्तामात्र भावी हेतु स्वभाव हेतु हैं। धुएँ रूप कार्यको देखकर अग्नि रूप साध्यका अनुमान करना कार्य हेतु है। इन तोनोंके अतिरिक्त अन्य हेतु नहीं है। अनुमान ज्ञान बास्तविक है हेतुमें प सपक्ष और विपक्ष व्यावृत्ति मे दोनों जाते रहनी चाहिए अन्यथा वह हेलाभास होगा ५. हेत्वाभास दोन प्रकार है-असिद्ध बिरुद्ध और अनैकान्तिक। ६. अनुभव दो प्रकार है--ग्रहण व अध्यवसाय । ज्ञानका निर्विकल्प रूप ( दर्शन ) ग्रहण कहलाता है। तत्पश्चात होनेवाला साकार ज्ञान अध्यवसाय कहलाता है। चक्षु, मन व श्रोत्र दूर होते अपने विषयका ज्ञान प्राप्त करती है किन्तु अन्य इन्द्रियोंके लिए अपने-अपने farai साथ सन्निकर्ष करना आवश्यक है ।
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ब्रह्म
१२. जैन व बौद्धधर्मकी तुलना
शुद्ध पार्थिक सूत्र नयकी अपेक्षा मौसमदर्शन भी एक निरवयव, अविभागी, एक समयवर्ती तथा स्वलक्षण निर्विकल्प ही तत्व मानता है । अहिंसाधर्म तथा धर्म व शुक्लध्यानकी अपेक्षा भी दोनों में समानता है । अनेकान्तवादी होनेके कारण जैनदर्शन तो उसके विपक्षी द्रव्यार्थिक नयसे उसी तत्त्वको अनेक सावयव, विभागी, नित्य व गुण पर्याय युक्त आदि भोम्बीकार कर लेता है । परन्तु एकान्तवादी होनेके कारण मौर्शन उसे सर्वथा स्वीकार नहीं करता है । इस अपेक्षा दोनोंमें भेद है। बौद्धदर्शन ऋजुसूत्र नयाभासी है। (दे० अनेकान्त /२/१ ) एकत्व अनेकत्वका विधिनिषेध व समन्वय दे० दव्य / ४ ) निष्यत्व व अनित्यत्रका विधि निषेध व समन्वय दे० उत्पाद / २ ।
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ब्रह्म- पुष्पदन्त भगवा
दे
देवोंका एक भेद - दे० स्वर्ग / ३, ३ ब्रह्मयुगल का तृ० पटल - दे० स्वर्ग/५: ४. कल्पवासी स्वर्गीका पाँचवा कल्प-- दे० स्वर्ग /५/२ ।
१. ब्रह्मका लक्षण
स.सि./०/९६/३/४/४ अहिंसादयो गुणा यस्मिद् परिपात्यमाने 'हन्ति वृद्धिमुपयान्ति न अहिंसादि गुण जिसके नाम करनेपर बढ़ते है वह ब्रह्म कहलाता है। ( चा. सा / १५/२० घ. ६/४.९.२१/१४/२
शान्तिपुरमा
चारित्रं पंचम समिति त्रिगुप्यार. महा अर्थ पाँच व्रत, पाँच समिति और तीन गुप्ति स्वरूप चारित्र है, क्योंकि, वह शान्तिके पोषणका हेतु है । इस टी / १४/००/५ परममहसह निजशुद्धात्मभावनासमुत्पन्नमुखा मृतमस्य सत उर्वशीरम्भातिलोसमाभिर्देयाभिरपि ब्रह्मचर्यवतं न खण्डितं स परमब्रह्म भण्यते । परमब्रह्म नामक निज शुद्ध आत्माको भावनासे उत्पन्न सुखामृत से तृप्त होनेके कारण उर्वशी. तिलोत्तमा, रंभा आदि देवकन्याओं द्वारा भी जिसका ब्रह्मचर्य स्खण्डित न हो सका अत' वह 'परम ब्रह्म' कहलाता है ।
यस्य
२. शब्द ब्रह्मका लक्षण
स सा/आ./५ इह कह सकतोद्भासि स्यात्पदमुद्रित शब्दमा । - समस्त वस्तुओंको प्रकाश करनेवाला और स्पात पर चिडिय शब्द ब्रह्म है..।
* अन्य सम्बन्धित विषय
१. सर्व जीव एक के अंश नहीं है०/२
२. परम ब्रह्म अपरनाम दे० मोहमार्ग /२/५
३. आदि ब्रह्मा - दे० ऋषभ ।
ब्रह्मऋषि - दे० ऋषि । ब्रह्मचर्यक्योंकि
- अध्यात्म मार्ग में ब्रह्मचर्यको सर्व प्रधान माना जाता है, में रमता ही वास्तविक चर्य है। निश्चयसे देखनेपर क्रोधादि निग्रहका भी इसी में अन्तर्भाव हो जानेसे इसके १०० भंग हो जाते है । परन्तु खोके त्यागरूप ब्रह्मचर्यकी भी लोक व परमार्थ दोनों क्षेत्रो में बहुत महत्ता है । वह ब्रह्मचर्य अणुव्रत रूपसे भी ग्रहण किया जाता है महाव्रत रूपसे भी । अब्रह्म सेवन से चित्त भ्रम आदि अनेक दोष होते हैं, अत. विवेकी जनोको सदा ही अपनीअपनी शक्तिके अनुसार दुराचारिणो थियोके पर खो स्वोके भी सायेसे बचकर रहना चाहिए, और इसी प्रकार स्वीका पुरुषोसे बचकर रहना चाहिए। यद्यपि को भी क यावद्य कहा जाता है, परन्तु फिर भी इसका पालन करना श्रेयस्कर है।
वा
१
३
४
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५
६
१
२
४
५
*
-
६
१ वेश्या गमनका निषेध |
२
परस्त्री निषेध ।
१
6 ू
*
भेद व लक्षण
ब्रह्मचर्य सामान्यका लक्षण ।
ब्रह्मचर्य विशेष के लक्षण |
ब्रह्मचर्य महात अणुव्रत लक्षण प्रतिमाका लक्षण
पोर व अधोरण अह्मचर्य प० ।
शीलफे लक्षण ।
शीलके १८००० भंग व भेद !
ब्रह्मचर्य निर्देश
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दश च
ब्रह्मचर्य ि
चर्य व्रतकी पाँच भावनाएँ। ब्रह्मचर्य धर्मके पालनार्थ 'कुछ भावनाएँ ब्रह्मचर्य अणुमके अतिचार पीके दस दोष ।
उसकी भावनाओं व अतिचारी सम्बन्धी विशेष विचार - दे० व्रत / २ ।
अब्रह्मका निषेध व ब्रह्मचर्यकी प्रधानता
ब्रह्म सेवनमें दाष ।
काम व कामके १० विकार
अब्रह्मका हिंसामें अन्तर्भाव ब्रह्मचर्य भी कचित् सालय है
शीलकी प्रधानता । ब्रह्मवर्षकी महिमा।
ब्रह्मचये
दुराचारिणी स्त्रीका निषेध
धर्मपत्नी के अतिरिक्त मगरत स्त्रीका निषेध - दे० स्त्री ।
स्त्रीके लिए पर पुरुषादिका निषेध ।
परस्त्री त्याग सम्बन्धी ।
ब्रह्मचर्य व्रत व प्रतिमामे अन्तर ।
- दे० धर्म /८ ।
1
समाधान
स्त्री पुरुषादिका सहवास मात्र अब्रहा नहीं हो सकता ।
२ मेवुनके लक्षण से हस्तक्रिया आदि अब्रा सिद्ध न
होगा।
-दे० काम ।
-३० हिंसा१/४ - दे० सावध ।
१. भेद व लक्षण
१. ब्रह्मचर्य सामान्यका लक्षण - १. निश्चय
भ. अ / /८७८ जीवो बंभा जीवम्मि चैव चरिग्राहबिज्ज जा जनिदो । जाण बभचेर विमुक्का रदेहतित्तिस्स १८७८ | = जीव ब्रह्म है. जीव टी मे जो मुनिकी वर्मा होती है उसको परदेहकी सेवा रहित महत्चर्य जान' (द्र स / टी / ३५/१०१ पर उद्धृत ) |
वि / १२ / २ आत्मा ब्रह्म विविक्तबोधनिलयो यत्तत्र चर्यं पर। स्वाङ्गागविवर्जितेकमनसस्तद्ब्रह्मचर्यं मुने । 12 ब्रह्म शब्दका अर्थ
=
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ब्रह्मचर्य
निर्मल ज्ञानस्वरूप आत्मा है, उस आत्मामें लीन होनेका नाम ब्रह्म चर्य है। जिस सुनिका मन अपने शरीरके भी सम्बन्धमें निर्ममत्व हो चुका है, उसी ब्रह्मचर्य होता है जन ध/४/६०)। अन अ./५/५५ चरणं ब्रह्मणि गुरावस्वाध्येण यदा चरण परेनि ३-मैथुन कर्म से सर्वथा निवृत वर्णोंकी आत्म के उपदेष्टा गुरुओकी प्रीति पूर्वक अधीनता स्वीकार कर ली गयी है, अथवा ज्ञान और आत्मा के विषय में स्वतन्त्रतया की गयी प्रवृतिको चर्य कहते है। २. व्यवहारकी अपेक्षा
अ / ० स तो इत्थीण तासु मुयदि दुम्भावस् । सो बम्हरमा सुखद धरदि 501 जो पुण्यात्मा कि सारे सुन्दर अंगोको देखकर उनमें रागरूप बुरे परिणाम करना छोड़ देता वही दुर्द्धर चर्यको धारण करता है। (प.नि./१/१०४) । सि./१/६/४९३/३ अनुभूतानामरणकथास्त्री सायना - सनादिवर्जनाद ब्रह्मचयं परिपूर्ण भवतिष्ठते । स्वतन्त्रवृत्तिनिवृत्यर्थो वा गुरुकुलवासी ब्रह्मचर्यम् । अनुभूत खीका स्मरण न करनेसे, स्त्री विषयक कथाके सुननेका त्याग करनेसे और खोसे बैठनेका श्याग करनेसे परिपूर्ण मह्मचर्य होता है वृत्तिका स्याग करनेके लिए गुरुकुतमे निवास करना ब्रह्मचर्य है। (रा. या ३/४/२२/६६८/२०) । भ आ / ४६/९६४ / १६ नवा ब्रह्मचर्य का पालन करना ब्रह्मचर्य है । पं. वि / १२ / २
सटकर सोने व अथवा स्वतन्त्र
नव प्रकार के
स्वाङ्गासंग विवर्जितै कमनसस्तद्ब्रह्मचर्यं मुने । एवं पता स्वमातृम मित्रमा वृद्धाय विजितेन्द्रियो यदि तदा स ब्रह्मचारी भवेत् |२| जो अपने शरीर मे निर्ममत्व हो चुका है, वह इन्द्रियविजयी होकर आदि खियोको क्रमसे माता, बहन और पुत्री के समान समझता है, तो वह मुनि ब्रह्मचारी होता है।
का अ/यू. ४०३ जो परिहरेदि सगं महिला व परसदे रूपं कामकहादि-निरीहो णव विह बंभ हवे तस्स |४०३ | जो मुनि स्त्रियोके सगसे बचता है, उनके रूपको नहीं देखता, काम कथादि नही करता उसके नवधा ब्रह्मचर्य होता है । ४०३१
२. ब्रह्मचर्य विशेषके लक्षण
१. दस प्रकारका ब्रह्मचर्य
भ, आ./मू./८७-८८१ उत्थानिका- मनसा वचसा शरीरेण परशरीरगोचरव्यापारातिशयं दधात्यागाद शनिचर्य भवतीति वक्तुकामो मे विसाभितासो छविमोक्खो य मणिदरसमा सदयसेवा तदिविद्यालय चैन सकारो का अदीदसुमरणमणागद भिलासे। इससे विम्ब सविह एवं 150 एवं विसग्गिमूदं अब भ दसविषि गाय आबाद महोदवाने क
- मनसे, वचनसे और शरीरसे परशरीरके साथ जिसने प्रवृत्ति करना छोड दिया है, ऐसा मुनि दस प्रकार के अब्रह्मका त्याग करता है । तब वह दस प्रकार के ब्रह्मचर्योंका पालन करता है। ग्रन्थकार अब दस प्रकारके अमाका वर्णन करते है -१ स्त्री सम्बन्धी विषयोंकी अभिलाषा, २ वत्थमोक्खो - अपने इन्द्रिय अर्थात लिंगमें विकार होना, ३ वृष्यरस सेवा - पौष्टिक आहारका ग्रहण करना, जिससे बल
वीर्यकी वृद्धि हो । ४. संसक्तद्रव्यसेवा - स्त्रीका स्पर्श अथवा उसकी शय्या आदि पदार्थोंका सेवन करना । ५ तदिद्रियालोचन - स्त्रियों के सुन्दर शरीरका अवलोकन करना । ६. सत्कार - स्त्रियोका
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१. भेद व लक्षण
सत्कार करना, ७. सम्माण - उनके देहपर प्रेम रखकर वस्त्र आदिसे सत्कार करना । अतीत स्मरण - भूतकालमे की रति, क्रीडाओका स्मरण करना, अनागताभिलाष-भविष्यत् कालमें उनके साथ ऐसी क्रीडा करूगा ऐसी अभिलाषा मनमें करना । इष्टविषय सेवामनोवांछित सौध, उद्यान वगैरहका उपभोग करना । ये अब्रह्मके दस प्रकार है । ७६८० ये दस प्रकारका अब्रह्म विष और अग्निके समान है, इसका आरम्भ मधुर, परन्तु अन्त कडुआ है । (ऐसा जानकर जो इसका त्याग करता है वह दस प्रकारके ब्रह्मचर्य का पालन करता है। अन ध/२/६१) (भा. पाटी (१६/२४६ पर उत २. न प्रकारका ब्रह्मचर्य
-
का अ /टी./४०३ तस्य मुने महादत्रकार कृतकारितानुमतगुणितमनोवचनकायै कृत्वा स्त्रीसंग वर्जयतीति ब्रह्मचर्य स्यात् । जो मुनि स्त्री सगका त्याग करता है उसीके मन, वचन, काय और कृतकारित अनुमोदनाके भेदसे नौ प्रकारका मचर्य होता है। (भ पा/टी./१६/२४५/२२) ।
३. महाचर्य महान व अणुचतका लक्षण
१ महाव्रत
नि सा./मू./५६ दट्ठूण इच्छिरूवं वांछाभावं वित्तदे तासु । मेहुणपरिणामो जहव तुरीयमद ५६१ - स्त्रियोका रूप देखकर उनके प्रति या भावकी निवृत्ति अथवा मैथुनसंज्ञा रहित जो परिणाम वह चौथा व्रत है । (चा पा / टी / २८/४७/२४) । आ./२१२ मदुसुदा भगिणीवियदणित्थियि च परूि इत्यिकहादिणियत्ती तिलोयपुज्जं हवे बंभ [८] अच्चित्तदेवमाणूसतिरिया च मेहुणं बहुधा तिमिहेषण सेवाद चिंपि णीहि पदमणो । २हरा - जो वृद्धा बाला यौवनवाली स्त्रीको देखकर अथवा उनकी तस्वीरोको देखकर उनको माता पुत्री बहन समान समझ स्त्री सम्बन्धी कथादिका अनुराग छोड़ता है, वह तीनों लोकोंका पूज्य ब्रह्मचर्य महाव्रत है। चित्र आदि अचेतन, देवी, मानुषी, तिर्यचनी सचेतन स्त्री ऐसी चार प्रकार स्त्रीको मन, वचन कायसे जो नही सेवता तथा प्रयत्न मनसे ध्यानादिमें लगा हुआ है, यही
२२
२. अनुक्त
5
र. क / ५६ न तु परदारान् गच्छति न परान् गमयति च पापभीतेर्यत् । सा परदारनिवृत्तिः स्वदारसोपानामपि ॥५६॥ जो पापके भय से न तो पर स्त्रीके प्रतिगमन करे और न दूसरोको गमन कराने, वह पर स्त्री त्याग तथा स्वदार सन्तोष नामका अणुवत है । ५६ (सा, ध / ४ / ५२) ।
ससि /७/२०/३५८/१० उपात्ताया अनुपात्तायाश्च पराङ्गनाया संगान्नि वृचरतिगृहीति चतुर्थ मस्त गृहस्थ के रवीकार की हुई या मणुव्रतम् । बिना स्वीकार की हुई परस्त्रीका सग करनेसे रति हट जाती है इस लिए उसके परस्त्री नामका चौथा अणुवत होता है । (रा. वा./७/२०/ ४/५४७/१३) ।
व था / २१२ पव्वे हरियसेवा अगगकीडा सया
=
बंभवारी जिणेहि भणिओपणम् ॥ २१२१ अमी, चतुर्दशी आदि पर्व के दिनो स्त्री-सेवन और सदैव अनग क्रीडाका त्याग करनेवाले प्रवचन में भगवान्ने] स्थूल ब्रह्मचारी कहा है २१२/१६
का अ/मू./३३७-३३८ असुइ-मयं दुग्गंध महिला - देह विरच्चमाणो जो । रूव लावण्ण पिय मण मोहण कारणं मुणइ १३३७| जो मण्णदि परमहिले जपणी बहिणी आई सारिच्छ मग ययणे कायण विनभ
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ब्रह्मचर्य
बई सो हवे जो स्त्रीके शरीरको अशुचिमय और दुर्गन्धित जानकर उसके रूप- लावण्यको भी मन में मोहको पैदा करनेवाला मानता है। तथा मन-वचन और कायसे परायी स्त्रीको माता, बहन और पुत्री के समान समझता है, वह श्रावक स्थल ब्रह्मचर्यका धारी है। पा.पा./२१/४३/२१ माचये स्वारसंतोष परवारनिवृत्ति कस्यचित्सर्वस्त्री निवृति स्वस्त्री सन्तोष अथवा परस्त्री से निवृत्तिवा किसी के सर्वथा स्त्रीके त्यागका नाम ब्रह्मचर्य व्रत है ।
४. माधवं प्रतिमाका लक्षण
=
रक प्रा./१४२ मलषोणं मलयोनि गलन्मतं प्रतिगधिभर पश्यन्न मनङ्गाद्विरमति यो ब्रह्मचारी | १४३१ जो मलके बीजभूत, महको उत्पन्न करनेवाले, मलप्रवाही दुर्गंधयुक्त, जानक मा ग्लानियुक्त अंगको देखता हुआ काम सेवन से विरक्त होता है, यह मचर्य प्रतिमाका भारी ब्रह्मचारी है ॥१४३॥
वसु. श्रा / २१७ पुत्तणवविहाणं पि मेहुणं सव्वदा विवज्जंतो । इस्थिकहाइगिवितोत्तमगुणरं भयारी यो २७ जो पूर्वी नौ प्रकार के मैथुनको सर्वदा याग करता हुआ स्त्रीकथा आदि भी निवृत हो जाता है, वह सातवे प्रतिमा रूप गुणका धारी ब्रह्मचारी श्रावक है। २१७ गुणा १००), (प्र.सं./टी./४५/८), (का अ./२८४), (सा. ध. / ७ /१७), (ला. सं /६/२५ ) ।
५. शीलके लक्षण
शील पा./ /४०.सी विसयविरागो 1४० पंचेन्द्रिय विषयसे विरक्त होगा शोल कहलाता है।
- व्रतोकी रक्षाको शील
घ. ८/३, ४१/८२/५ वद परिरक्खण सीलं णाम । कहते है । ( प. प्र /टी./२/६७) । अन. घ. /४/१७२ शीलं व्रतपरिरक्षणमुपैतु शुभयोगवृत्तिमितरहतिम् । संज्ञाक्षविरतिरोधी क्ष्नादियममलात्यय क्षमादश्च ॥ १७२॥ जिसके
द्वारा व्रतोकी रक्षा की जाय उसको शील कहते है। संज्ञाओंका परिहार और इन्द्रियोंका निरोध करना चाहिए, तथा उसममादि दस धर्मको धारण करना चाहिए । १७२ ॥ ० प्रकृति
प्रकृति शोस और स्वभान ये एकार्थमाची है)।
६. शीलके १८००० मंग व भेद १. सामान्य भेद
-
भा. पा./पं. जयचन्द / १२०/२४०/१ शीलकी दोय प्रकार प्ररूपणा है - एक तो स्वय पर विभाग अपेक्षा है जर दूसरी स्त्री के ससर्ग की
अपेक्षा है ।
१. स्वद्रव्य परद्रव्यके विभागकी अपेक्षा
यू. बा./१०१०१०२०जीए करणे सण्णा इंदिय भोम्गादि सम
अयोग्येहि भरथा अट्ठारहसील सहस्साहं | १०१७ तिह सुहसंजोगी जोगो करणं च असुहसंजोगो । आहारादी सण्णा फासंदिय इदिया या । १०१८ | पुढविगदगागणिमारुदपत्तेयअणं तकायिया चैव । विगतिगचपचेदिय भोम्मादि हरदि दस पदे २०११ म अज्जव लाघव तक संजमो आकिचणदा । तह होदि बंभचेर सच्च चागो य दस धम्मा १०२०१ = १. तीन योग तीन करण चार सज्ञा पाँच इन्द्रिय दस पृथ्वी आदिक काय, दस मुनि धर्म- इनको आपस में गुणा करने से अठारह हजार शील होते है । १०१७ । २. मन, वचन, कायका शुभकर्मके ग्रहण करनेके लिए व्यापार वह योग है और अशुभके लिए प्रवृत्ति वह करण है । आहारादि चार संज्ञा है, स्पर्शन आदि पाँच इन्द्रियों है | १०१०१ पृथ्वी, जल, तेज, वायु, प्रत्येक वनस्पति साधारण वनस्पति, दो इन्द्रिय, तेइन्द्रिय, चन्द्र पचेन्द्रिय पृथिवी आदि दस है । १०१६। उम क्षमा, माम
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२. ब्रह्मचर्य निर्देश
शौच, रूप, संयम, किचन्य, मह्मचर्य, सत्य त्याग मे दस मुनिधर्म है | १०१०१ (भा.पा./डी / ११०/२६७/६), (भा.पा.. जयचन्द / १२०/२४०/४)
२. स्त्री संसर्गकी अपेक्षा
•
काष्ठ, पाषाण, चित्राम (३ प्रकार अचेतन स्त्री ) xमन अर काय - (२४२६) (यहाँ वचन नाही) कृत कारित अनुमोदना (६३१८) पाँच इन्द्रिय (१-५-१० ) । द्रव्यभाव (१०x२ - १००) । क्रोधमान माया लोभ (१८०x४ - ०२०) । ये तो अतन स्त्रीके आश्रित कहे देवी, मनुष्यणी, तिर्यचिनी (३ प्रकार चेतन, स्त्री) x मन, वचन, काय (१५३-६) कृत-कारित अनुमोदना (Ex३ - २७) । पंचेन्द्रिय (२७४५ - १३५) । द्रव्य भाव (१३५x२२७० ) । चार संज्ञा ( २७०x४ = १०८०) । सोलह कषाय (१०८०x१६ - १७२८० ) । इस प्रकार चैतन स्त्रीके आश्रित १०२०० भेद कहे। कुल मिलाकर (७२०+१०२८०) शीतके १८००० भेद हुए (भा.पा/टी./११/
२६७/१४) (मा. पापं जयचन्द / १२०/२४०) |
२. ब्रह्मचर्य निर्देश
१. ब्रह्मचर्य व्रतकी ५ भावनाएँ
भ.आ./
१२९० महिलालोयणपुर दिसरणं सन्तनसहिवहाह पणिदरसेहिय विरदी भावना पंच बंभस्स । १२१०१ स्त्रियों के अंग देखना, पूर्वानुभूत भोगादिका स्मरण करना, स्त्रियाँ जहाँ रहती है वहाँ रहना, शृंगार कथा करना, इन चार बातोंसे विरक्त रहना, तथा बल व उन्मत्तता, उत्पादक पदार्थों का सेवन करना, इन पाँच Water त्याग करना ये ब्रह्मचर्यकी पाँच भावनाएँ है । १२१०। (मु. आं./३४०) चा पा./मू. (१५)। ख. सू. /७/०
=
स्त्रीरागकथाश्रवणतन्मनोहराङ्गनिरीक्षण पूर्वरतानुस्मरण
पृथ्येष्ठरसस्वशरीरसंस्कारयागाः पञ्च 101 - स्त्रियों में रागको पैदा करनेवाली कथा सुननेका श्याग, स्त्रियोंके मनोहर अंगों को देखनेका त्याग, पूर्व भोगोंके स्मरणका त्याग, गरिष्ठ और इष्ट रसका श्याग तथा अपने शरीरके संस्कारका व्याग में ब्रह्मचर्यकी पाँच भावनाएँ है एम
स. सि / ७ /६/३४७ /११ अब्रह्मचारी मदविभ्रमोदभ्रान्तचित्तो वनगज इव वासिता तो विवश धन्धपरिक्लेशाननुभवति मोहाभिमा कार्याकार्यानभिज्ञो न चिरकुसमाचरति पराड़नालिङ्गनसद कृतर तिश्चैव वैरानुबन्धिनो दिनवधवन्धसर्वस्वहरणादीनपायान् प्राप्नोति प्रेत्य चाशुभ गतिमश्नुते गर्हितश्च भवति अतो विरतिरात्महिता । जो अब्रह्मचारी है, उसका चित्त मदसे भ्रमता रहता है । जिस प्रकार वनका हाथी हथिनीसे जुदा कर दिया जाता है, और विवश होकर उसे वध, बन्धन, और क्लेश आदि दू खोको भोगना पड़ता है, ठीक यही अवस्था अब्रह्मचारीकी होती है। मोहसे अभिभूत होनेके कारण वह कार्य अकार्य विवेक रहित होकर कुछ भी उचित आचरण नहीं करता । पर स्त्रीके रागमें जिसकी रति रहती है, इसलिए वह बैरको बढानेवाले लींगका छेदा जाना, मारा जाना, बाँधा जाना और सर्वस्वका अपहरण किया जाना आदि दुलोको और परलोकमें अशुभगतिको प्राप्त होता है। राधा गर्हित होता है । इसलिए अब्रह्मका स्याग आत्महितकारी है।
२. ब्रह्मवयं धर्मके पालनायें कुछ भावनाएँ
भ.आ./मू./८८२/६१४ कामका इत्यिका दोसा असुचित्तबुद सेवा य संगीति इत्थीषु वे मदोष स्त्रीकृत दोष शरीरकी पवित्रता और संसर्ग दोष इन पाँच कारणो से स्त्रियों से वैराग्य उत्पन्न होता है
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ब्रह्मचर्य
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३. अब्रह्मका निषेध व ब्रह्मचर्यकी प्रधानता
रा. वा./8/4/२७/१६६/३० ब्रह्मचर्यमनुपालयन्तं हिसादयो दोषा न
शन्ति । नित्याभिरतगुरुकुलावासमधिवसन्ति गुणसंपद। वराङ्गनाविलास विभ्रमविधेयीकृत' पापैरपि विधेयी क्रियते । अजितेन्द्रियता हि लोके प्राणिनामवमानदात्रीति । एवमुत्तमक्षमादिषु तत्प्रतिपक्षेषु च गुणदोषविचारपूविकाया क्रोधादिनिवृत्तौ सत्यां तन्निवन्धनकर्माखवाभावात महान संबरो भवति ।-ब्रह्मचर्यको पालन करनेवालेके हिंसा आदि दोष नहीं लगते। नित्य गुरुकुल वासीको गुण सम्पदाएँ अपनेआप मिल जाती हैं। स्त्री विलास विभ्रम आदिका शिकार हुआ प्राणी पापोंका भी शिकार बनता है। संसारमें अजितेन्द्रियता बडा अपमान कराती है। इस तरह उत्तम क्षमादि गुणोंका तथा क्रोधादि दोषोंका विचार करनेसे क्रोधादिकी निवृत्ति होनेपर तन्निमित्तक कोका आस्रब रुककर महान संवर होता है। पं. वि./१/१०५ अविरतमिह तावत्पुण्यभाजो मनुष्या'. हृदि विरचितरागाः कामिनीना वसन्ति । कथमपि न पुनस्ता जातु येषां तदधी, प्रतिदिनमतिनम्रास्तेऽपि नित्यं स्तुवन्ति ।१०।-लोकमें पुण्यवान पुरुष रागको उत्पन्न करके निरन्तर ही स्त्रियोके हृदयमें निवास करते है। ये पुण्यवान पुरुष भी जिन मुनियोंके हृदयमें वे स्त्रियाँ कभी
और किसी प्रकारसे भी नहीं रहती हैं उन मुनियोंके चरणोंकी प्रतिदिन अत्यन्त नम्र होकर नित्य ही स्तुति करते हैं ।१०।
३. ब्रह्मचर्य अणुव्रतके अतिचार १. स्वदार संतोष व्रतकी अपेक्षा दे० ब्रह्मचर्य/१/१/२(स्वस्त्री भोगाभिलाष, इन्द्रियविकार, पुष्टरससेवा, स्त्री द्वारा स्पर्श की हुई शय्याका सेवन करना, स्त्रीके अंगोपांगका अवलोकन करना, स्त्रीका अधिक सरकार करना, स्त्रीका सम्मान करना, पूर्वभोगानुस्मरण, आगामी भोगाभिलाष, इष्ट विषय सेवन ये दस अब्रह्मके प्रकार है । ) मू आ./85६-६६८ पढ़म विउलाहारं विदिय काय सोहणं । तदियं गन्धमलाइ चउत्थं गीयवाइयं ६ तह सयणसोधणपि य इस्थिससग्गपि अत्थसगण । पुम्वरदिसरणमिदियविसयरदी पणीदरससेवा । दस विहमवंभविणं संसारमहादुहाणमावाहं । परिहरेइ जो महप्पा सो दढभव्वदो होदि IEEE१. बहुत भोजन करना, २. तैलादिसे शरीरका संस्कार करना, ३. सुगन्ध पुष्पमालादिका सेवन, ४. गीत-नृत्यादि देखना, ५. शय्या-क्रीडागृह या चित्रशाला आदिकी खोज करना,६.क्टाक्ष करती स्त्रियोके साथ खेलना, ७. आभूषण वस्त्रादि पहचानना, ८ पूर्व भोगानुस्मरण, ६. रूपादि इन्द्रियविषयों में प्रेम, १० इष्ट व पुष्ट रसका सेवन, ये दस प्रकारका अब्रह्म ससारके महा दुखोंका स्थान है। इसको जो महारमा सयमी त्यागता है, वही दृढ ब्रह्मचर्य व्रतका धारी होता है। त सू./७/२८ परविवाहकरणेत्वरिकापरिगृहीतापरिगृहीतागमनानगकोडाकामतीवाभिनिवेशा: ।२८। - पर विवाह्करण, इत्वरिकापरिगृहीतागमन, इत्व रिका-अपरिगृहीतागमन, अनङ्गक्रीडा, और काम तीवाभिनिवेश ये स्वदारसन्तोष अणुवतके पाँच अतिचार है ।२८१ (र. के. श्रा./६०)। ज्ञा./११/७-६ आद्य शरीरसस्कारो द्वितीय वृष्यसेवनम् । तौर्यत्रिकं तृतीयं स्यात्ससर्गस्तुर्य मिष्यते ।७। योषिद्विषयसकल्प' पञ्चम परिकीर्तितम् । तदङ्गवीक्षण षष्ठं संस्कार सप्तमं मतम् ।। पूर्वानुभोगसभोगस्मरणं स्यात्तदष्टमम् । नवम भाविनी चिन्ता दशम वस्तिमोक्षणम् 18/- प्रथम तो शरीरका संस्कार करना, २ पुष्टरसका सेवन करना, ३, गीत-वादित्रादिका देखना-सुनना, ४. स्त्रीमें किसी प्रकार का संकल्प वा विचार करना, ५. स्त्रीके अंग देखना, ६ देखनेका संस्कार हृदयमें रहना, ७ पूर्व में किये भोगका स्मरण करना, ८
आगामी भोगनेकी चिन्ता करनी, १०. शुक्रका क्षरण । इस प्रकार मैथुनके दश भेद है, इन्हें ब्रह्मचारीको सर्वथा त्यागने चाहिए।७-६ । २. परस्त्री त्याग व्रतकी अपेक्षा सा. ध./३/२३ कन्यादूषणगान्धर्व-विवाहादि विवर्जयेत् । परस्त्रीव्यसनत्यागवतशुद्धिविधित्सया ॥२३ - परस्त्री व्यसनका 'त्यागी श्रावक परस्त्री व्यसनके त्यागरूप बतकी शुद्धिको करनेकी इच्छासे कन्याके लिए दूषण लगानेको और गान्धर्व विवाह आदि करनेको छोडे ।२३। ला. सं/२/१८६,२०७ भोगपत्नी निषिद्धा स्यात्सर्वतो धर्मवेदिनाम ।
ग्रहणस्याविशेषेऽपि दोषो भेदस्य संभवात् ।१६। एतत्सर्व परिज्ञाय स्वानुभूति समक्षतः । पराङ्गनासु नादेया बुद्धि(धनशालिभिः ।२०७१ “धर्मके जाननेवाले पुरुषों को भोगपत्नीका पूर्ण रूपसे त्याग कर देना चाहिए, क्योंकि यद्यपि विवाहित होनेके कारण वह ग्रहण करने योग्य है, तथापि धर्मपत्नीसे वह सर्वथा भिन्न है, सब तरहके अधिकारोंसे रहित है, इसलिए उसका सेवन करनेमें दोष है ।१८६। (धर्मपत्नी आदि भेद-दे० स्त्री०)। अपने अनुभव और प्रत्यक्षसे इन सबको स्त्रियोंके भेदोंमें समझकर बुद्धिमान पुरुषोंको परस्त्रियों का सेवन करनेमें अपनी बुद्धि कभी नहीं लगानी चाहिए ।२०७१ ३. वेश्या त्याग व्रतकी अपेक्षा सा.ध./३/२० त्यजेत्तौर्यत्रिकासक्ति, वृथाटया विङ्गसङ्गतिम् । नित्यं पण्याङ्गनात्यागी, तद्गगेहगमनादि च ।२०।- वेश्या व्यसनका त्यागी, श्रावक गीत, नृत्य और वाद्यमें आसक्तिको, बिना प्रयोजन धूमनेको, व्यभिचारी पुरुषोंकी संगतिको, और वेश्याके घर आने-जाने आदिको सदा छोड़ देवे ॥२०॥
१. शीलके दस दोष द. पा. टी./E/E/४ कास्ता' शीलविरोधना: स्त्रीसंसर्ग: सरसाहार सुगन्धसंस्कार कोमलशयनासनं शरीरमण्डनं गीतयादित्रश्रवणम् अर्थग्रहण कुशीलसंसर्ग राजसेवा रात्रिसंचरणम् इति दशशील विराधना । १ स्त्रीका संसर्ग, २. स्वादिष्ट आहार, ३ सुगन्धित पदार्थोसे शरीरका संस्कार, ४. कोमल शय्या व आसन आदिपर सोना, बैठना, ५. अलंकारादिसे शरीरका शृङ्गार, ६. गीत वादित्र श्रवण, ७ अधिक धन ग्रहण, ८. कुशीले व्यक्तियोकी स गति, ६. राजाकी सेवा, १०. रात्रिमें इधर-उधर घूमना, ऐसे दस प्रकारसे शीलकी विराधना होती है। ३. अब्रह्मका निषेध व ब्रह्मचर्यकी प्रधानता
1. वेश्या गमनका निषेध बसु. श्रा./८८-६३ कारुय-किराय-चडाल-डोंब पारसियाणमुच्छिट्ठं । सो भवरखेच जो सह वसइ एयरत्ति पि वेस्साए।८८ारतं णाऊण णर सव्वस्सं हरइ बंचणसएहिं । काऊण मुयइ पच्छा पुरिस चम्मट्ठिपरिसेसं १८६। पभणइ पुरओएयस्स सामी मोत्तण णस्थि मे अण्णो । उच्चइ अण्णस्स पुणो करेइ चाडूणि बहुयाणि 1१०1 माणी कुलजा सूरो वि कुणइ दासत्तर्ण पिणीचाण । वेस्सा करण बहुग अवमाण सहइ कामंधो।।१। जे मज्जमंसदोसा वेस्सा गमणम्मि होति ते सव्वे। पाव पि तत्थहिट्ठ पावइणियमेण सविसेस ।१२) पावेण तेण दुक्ख पावइ संसारसायरे धोरे । तम्हा परिहरियव्वा वेस्सा मण-वयण-काएहि 1६३-जो कोई भी मनुष्य एक रात भी वेश्याके साथ निवास करता है, वह कारु (लुहार ), चमार, किरात (भौल), चण्डाल, डोब ( भगी)
और पारसी आदि नीच लोगोका जूठा खाता है। क्योकि, वेश्या इन सभी लोगोंके साथ समागम करती है।४८। वेश्या, मनुष्यको अपने ऊपर आसक्त जानकर सैकड़ो व चणाओसे उसका सर्वस्व हर लेती है और पुरुषको अस्थि-चर्म परिशेष करके, छोड देती है।
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ब्रह्मचर्य
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३. अब्रह्मका निषेध व ब्रह्मचर्यको प्रधानता
यह एक पुरुषके सामने कहती है कि तुम्हे छोडकर तुम्हारे सिवाय मेरा स्वामी कोई नही है। इसी प्रकार वह अन्यसे भी कहती है और अनेक खुशामदी बाते करती है ।१०। मानी, कुलीन, और शूरवीर भी मनुष्य वेश्यामें आसक्त होनेसे नीच पुरुषोंकी दासताको करता । है, और इस प्रकार वह कामान्ध होकर वेश्याके द्वारा किये गये अपमानोको सहता है।६१। जो दोष मद्य-मांसके सेवन में होते हैं, वे सब दोष वेश्यागमन में भी होते है। इसलिए वह मद्य और मास सेवनके पापको तो प्राप्त होता ही है, किन्तु वेश्या-सेवनके विशेष अधर्मको भी नियमसे प्राप्त होता है ।१२। वेश्या सेवन जनित पापसे यह जीव घोर ससार सागरमे भयानक दुखौंको प्राप्त होता है, इसलिए मन, बचन और कायसे वेश्याका सर्वथा त्याग करना चाहिए ।६३। न्ला स./२/१२६-१३२ पण्यस्त्री तु प्रसिद्धा या वित्तार्थ सेवते नरम् ।
तन्नाम दारिका दासी वेश्या पत्तननायिका 1१२६॥ तत्त्याग सर्वत श्रेयात् श्रेयोऽर्थ यता नृणाम् । मद्य-मासादि दोषान्वै नि शेषान् त्यवतुमिच्छताम् ।१३०। आस्ता तत्सङ्गमे दोषो दुर्गती पतनं नृणाम् । इहैव नरकं नूनं वेश्यासक्तचेतसाम् ।१३१। उक्तं च या. खादन्ति पल पिबन्ति च सुरा, जल्पन्ति मिथ्यावच । स्निह्यन्ति द्रविणार्थमेव विदधत्यर्थ प्रतिष्ठाक्षतिम् । नीचानामपि दूरवक्रमनसः पापारिमका. कुर्वते, लालापानमनिशं न नरकं वेश्या विहायापरम् । रजकशिलासहशीभि कुक्कुरकर्षरसमानचरिताभि । वेश्याभिर्यदि संग कृतमिव परलोकवार्ताभि । प्रसिद्ध बहुभिस्तस्या प्राप्ता दुःखपरंपराः। श्रेष्ठिना चारुदत्तेन विख्यातेन यथा परा. ॥ ..जो स्त्री केवल धनके लिए पुरुषका सेवन करती है, उसको वेश्या कहते है, ऐसी वेश्याएँ ससारमें प्रसिद्ध हैं, उन वेश्याओंको दारिका, दामी, वेश्या वा नगरनायिका आदि नामोंसे पुकारते है ।१२६। जो मनुष्य मद्य, मास आदिके दोषोको त्यागकर अपने आत्माका कल्याण करना चाहते है, उनको वेश्या सेवनका त्याग करना चाहिए ।१३०॥ वेश्या सेवनसे नरकादिक दुर्गतियोमें पडना पड़ता है। और इस लोकमें भी नरकके सदृश यातनाएँ व दुख भोगने पड़ते है ।१३१। कहा भी है-यह पापिनी वेश्या मांस खाती है, शराब पीती है, झूठ बोलती है, धनके 'लिए प्रेम करती है, अपने धन और प्रतिष्ठाका नाश करती है और कुटिन मनसे वा बिना मनके नीच लोगोंकी लारको रात-दिन चाटती है, इसलिए वेश्याको छोडकर ससारमें कोई नरक नहीं है। वेश्या तो धोबीको शिलाके सदृश है, जिसपर आकर ऊँच-नीच अनेक पुरुषों के घृणितसे घृणित और अत्यन्त निन्दनीय ऐसे वीर्य वा लार आदि मन आकर बहते है, अथवा वह वेश्या कुत्ते के मुंहमे लगे हुए हडके खप्परके समान आचरण करती है ऐसी वेश्याके साथ जो पुरुष समागम करते है, के साथ-साथ परलोककी बातचीत भी अवश्य कर लेते हैं अर्थात् वह नरक अवश्य जाते है। इस वेश्या सेवनमे आसक्त जाबोने बहुत दु.ख जन्म-जन्मान्तर तक पाये है। जैसे अत्यन्त प्रसिद्ध सेठ चारुदत्तने इस वेश्या सेवनसे ही अनेक दुख पाये थे।१३२१
२. परस्त्री निषेध कुरल/१५/१० परमन्यत्कृत पापमपराधोऽपि वा घरम् । पर न साध्वी स्वसले कांक्षिता प्रतिवे शनी ।१०। - तुम कोई भी अपराध और दूसरा केसा भी पाप क्यो न क्रो पर तुम्हारे पक्षमें यही श्रेयस्कर है
कि तुम पडोसोको स्त्र से सदा दूर रहो। वसु श्रा /गा, न णिस्ससइ रुयइ गायइणियब सिर हणइ मयिले पड़द । परमहिलमलभमाणो असप्पलाव पि जंपेहा ।११३।अह भुजइ परमहिल अणियमाण बलाधरेऊण । ।११८। अह का वि पाव बहुला असई णिण्णासिऊग णियसीलं । सयमेव पच्छियाओ उवरोहवसेण अप्पाण ।११। जइ देड जह वि तत्थ सुण्णहर वंडदेउनयमझम्मि। सच्चित्ते भपभोओ साकव कि तत्थ पाउणइ ।१२० सोऊण कि पि सह सहसा
परिवेवमाणसव्वंगो। तहुक्कड़ पलाइ पखलई चउद्दिस णियइ भयभीओ।१२१॥ जछ पुणकेण वि दीसइ णिज्जइ तो बधिऊण णिवगेहं। चोरस्स णिग्गहं सो तत्थ वि पाउणइ सविसेसं ।१२२। परलोयम्मि अणंत दुक्रव पाउणइ इह भव समुद्दम्मि। परयारा परमहिला तम्हा तिविहेण व जिज्जा ।१२४। -पर स्त्री लम्पट पुरुष जब अभिलषित परमहिलाको नहीं पाता है, तब वह दीर्घ निश्वास छोडता है, रोता है, कभी गाता है, कभी सिरको फोडता है और कभी भूतल पर गिरता है और असत्प्रलाप भी करता है ।११३। नहीं चाहनेवाली किसी पर-महिलाको जबर्दस्ती पकडकर भोगता है। ।१९। यदि कोई पापिनी दुराचारिणी अपने शीलको नाश करके उपरोधके वशसे कामी पुरुषके पास स्वय उपस्थित भी हो जाय, और अपने आपको सौप भी देवे ।११६। तो भी उस शून्य गृह या खंडित देवकुलके भीतर रमण करता हुआ वह अपने चित्तमें भयभीत होनेसे वहाँपर क्या मुख पा सकता है ।१२०। बहॉपर कुछ भी जरा-सा शब्द सुनकर सहसा थर-थर काँपता हुआ इधर-उधर छिपता है, भागता है, गिरता है और भयभीत हो चारों दिशाओंको देखता है ।१२। इसपर यदि कोई देख लेता है तो वह बाँधकर राजदरबारमें ले जाया जाता है और वहाँपर वह चोरसे भी अधिक दण्डको पाता है ।१२२॥ पर स्त्री-लम्पटी परलोकमें इस ससार समुद्रके भीतर अनन्त दुखको पाता है। इसलिए परिगृहीत या अपरिगृहीत परस्त्रियोको मन, वचन कायमे त्याग करना चाहिए।१२४। ला. सं./२/२०७ एतत्सर्व परिज्ञाय स्वानुभूमिसमक्षत । पराङ्गनाम्म नादेया बुद्धि(धनशालिभि. ।२०७१ - अपने अनुभव और प्रत्यक्षसे इन सब स्त्रियोके भेदोंको (दे० स्त्री) समझकर बुद्धिमान पुरुषों को परस्त्रियों के सेवन करने में अपनी बुद्धि कभी नहीं लगानी चाहिए ।२०७१ (ला सं 11/६०)।
३. दुराचारिणी स्त्रीका निषेध सा ध/३/१० भजन मद्यादि भाज* स्त्री-स्तारशे सह ससृजन् । भुक्त्यादौ चैति साकोर्ति मद्यादि विरतिक्षतिम् ।१०। मद्य, मांस आदिको खानेवाली स्त्रियोको सेवन करनेवाला और भोजनादिमें मद्यादिके सेवन करनेवाले पुरुषों के साथ ससर्ग करनेवाला बतधारी पुरुष निन्दा सहित मद्य-त्याग आदि मूलगुणोकी हानिको प्राप्त होता है ।१०।
४. स्त्रीके लिए परपुरुषादिका निषेध भ आ./मू /EM४ जह सोलरक्वयाण पुरिसाणं णिदिदाओ महिलाओ।
तह सोलरक्वयाणं महिलाण णिदिदापुरिसा।६६४! == शीलका रक्षण करनेवाले पुरुषको स्त्री जैसे निन्दनीय अर्थात् त्याग करने योग्य है, वैसे शीनका रक्षण करनेवाली स्त्रियोको भी पुरुष निन्दनीय अर्थात त्याज्य है।
५. अब्रह्म सेवनमें दोष भ आ /मू /१२२ अवि य वहो जीवाणं मेहूणसेवाए होइ बहुगाणं । तिलणालीए तत्ता सलायवेसो य जोणीए।१२२॥ -मैथुन सेवन करनेसे वह अनेक जीव का वध करता है। जैसे तिलकी फल्ली में अग्निसे तपी हुई सलई प्रविष्ट होनेसे सब तिन जलकर खाक होते है वैसे मैथुन सेवन करते समय योनिमें उत्पन्न हुए जीवोका नाश होता है ।२२। (विशेष विस्तार दे० भ आ./मू /८६०-१११७), (पु.सि /उ./१०८) । स्या मं/२३/२७६/२५ र उद्धृत मेहुण सणारूतो णवलक्ख हणेइ मुहमजीबाण । केवलिणा पण्णत्ता सहहि अव्वा सया काल ।३। इत्थीजणीए संभवति बेइ दिया उजे जीवा। इको व दो व तिण्णि व लबखपत्त उ उक्कोस ।४। पुरिमेण सह गयाए तेसि जीवाण होइ उद्दयण । वेणुगदिट्ठ तेण तत्तायसन्लागणाएण ।। पचि दिया मणुस्सा
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ब्रह्मचर्य
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४. शंका-समाधान
एगणर भुत्तणारिगम्भम्मि। उक्कोसं णवलवरखा जापति एगवेलाए ।६। णव लबखाणं मझे जायइ इकस्स दोण्ह व समत्ती। सेसा पुण एमेत्र य बिलय बच्चति तत्थेत्र 191 केवली भगवादने मैथुनके सेवन में नौ लाख सूक्ष्म जीवोका घातत्वताया है,इसमें सदा विश्वास करना चाहिए ।३। तथा स्त्रियोकी योनिमें दो इन्द्रिय जीव उत्पन्न होते है। इन जीवोकी सख्या एक, दो, तीनसे लगाकर लाखोतक पहुँच जाती है।४। जिस समय पुरुष स्त्री के साथ सभोग करता है, उस समय जैसे अग्निसे तपायी हुई लोहेकी सलाईको बॉसकी नली में डालनेसे नलीमें रखे तिल भस्म हो जाते है, वैसे ही पुरुषके सयोगसे योनिमे रहनेवाले सम्पूर्ण जीवोंका नाश हो जाता है। पुरुष और स्त्रीके एक बार संयोग करनेपर स्त्रीके गर्भ में अधिक से अधिक नौ लाख पंचेन्द्रिय मनुष्य उत्पन्न होते है।६। इन नौलाख जीवों में एक या दो जीव जीते है बाकी सब जीव नष्ट हो जाते है ।७। ६. शीलकी प्रधानता शी. पा./म./१६ जीवदयादम सच्चं अचोरियं बंभचेरसंतोसे। सम्म६ सण जाणं तओ य सीलस्स परिवारो।१६! == जीव दया, इन्द्रिय दमन, सत्य, अचौर्य, ब्रह्मचर्य, सम्यग्दर्शन, ज्ञान, तप ये सर्व शीलके परिवार है ।१६॥
७. ब्रह्मचर्यकी महिमा भ, आ./मू /१११५/११२३ तेल्लोकाडविडहणो कामग्गी बिसयरुवरखपज्जलिओ। जोव्वणतेणिल्लचारी जंण डहइ सो बइ धण्णो ।१११५॥ -कामाग्नि विषयरूपी वृक्षोका आश्रय लेकर प्रज्वलित हुआ है, त्रैलोक्यरूपी वनको यह महाग्नि जलानेको उद्यत हुआ है। परन्तु तारुण्य रूपी तृणपर सचार करनेवाले जिन महात्माओको वह जलाने में असमर्थ है वे महात्मा धन्य है। (अन, ध./४/६६) । अन./१/६० या ब्रह्मणि स्वात्मनि शुद्धबुद्धे चर्या परद्रव्यमुच्चप्रवृत्ति । तब्रह्मचर्य व्रतसार्वभौमं ये पान्ति ते यान्ति पर प्रमोदम् ॥६॥ -शुद्ध और बुद्ध अपने चित्स्वरूप ब्रह्ममें परद्रव्योंका त्याग करनेवाले व्यक्तिको अप्रतिहत परिणति रूप जो चर्या होती है उसीको ब्रह्मचर्य कहते हैं। यह बत समस्त बतोमें सार्वभौमके समान है जो पुरुष इसका पालन करते है। वे ही पुरुष सर्वोत्कृष्ट आनन्द-मोक्ष सुखको प्राप्त किया करते हैं ।६०। स्या. म /२३/२७७/२५ पर उद्धृत एकरात्रौषितस्यापि या गतिब्रह्मचारिणः । न सा ऋतुसहस्रण प्राप्त शक्या युधिष्ठिर । हे युधिष्ठिर। एक रात ब्रह्मचर्यसे रहनेवाले पुरुषको जो उत्तमगति मिलती है, वह गति हजारो यज्ञ करनेसे भी नही होगी।
स्त्रैण पौस्न रूप रति परिणाम न होनेसे बाह्य मे रति परिणाम रहित दो द्रव्योके रहनेपर भी मेथुनका व्यवहार नहीं होता। -स्त्री और पुरुषके कर्म पक्षमें पाकादि क्रिया और बन्दनादि क्रियामें मैथुनत्वका प्रसग उचित नही है, क्योकि स्त्री और पुरुपके संयोगसे होनेवाला कर्म वहाँ विवक्षित है, पाकादि क्रिया तो अन्य से भी हो जाती है। (स. सि /७/१/३५३/११)। २.मैथुनके लक्षणसे हस्तक्रिया आदिमें अब्रह्म सिद्ध नहीं होगा रा. वा./७/१६/५-८/५४३-५४४/३३ न वेतद्युक्तम् । कुत.. एकस्मिन्नप्रसङ्गात् । हस्तपादपुद्गलसघट्टनादिभिरब्रह्मसेवमाने एकस्मिन्नपि मैथुनमिष्यते, तन्न सिद्ध्यति ।५। यथा स्त्रीषुसयो रत्यर्थे सयोगे परस्पररतिकृतस्पर्शाभिमानात् सुरव तथैकस्यापि हस्तादिसंघट्टनात स्पर्शाभिमानस्तुल्यः । तस्मान्मुख्य एव तत्रापि मैथुनशब्दलाभ: रागद्वेषमोहाविष्टत्वात् । यथै कस्यापि पिशाचवशीकृतत्वात सद्वितीयत्व तथैकस्य चारित्रमोहोदयाविष्कृतकाम पिशाचवशीकृतस्वाव सद्वितीयत्व सिद्धे. मैथुन व्यवहारसिद्धि.। -प्रश्न- यह मैथुन. का लक्षण युक्त नहीं है, क्योकि एक ही व्यक्तिके हस्तादि पुद्गल के रगडसे अबके सेवन करने पर भी मैथुन क्रिया मानी गयी है । परन्तु इससे (मैथुनके लक्षणसे) वह सिद्ध न होगी। उत्तर-जिस प्रकार स्त्री और पुरुषका रतिके समय संयोग होनेपर स्पर्श सुख होता है, उसी तरह एक व्यक्तिका भी हाथ आदिके संयोगसे स्पर्श सुखका भान होता है, अत हस्तमैथुन भी मैथुन कहा जाता है, यह औपचारिक नहीं है, क्योकि राग, द्वेष, मोहसे आविष्ट है। (अन्यथा इससे कर्म बन्ध न होगा)।७। यहाँ एक ही व्यक्ति चारित्र मोहके उदयसे प्रकट हुए कामरूपी पिशाचके सम्पर्कसे दो हो गया है और दोके कर्म को मैथुन कहने में कोई बाधा नहीं है।
४. शंका-समाधान
१. स्त्री पुरुषादिका सहवास मान अब्रह्म नहीं हो सकता रा. वा./७/१६/६/५४४/१४ मिथुनस्य भाव (मैथुन) इति चेन्न द्रव्यद्वयभवनमात्रप्रसगादिति, तदसत अभ्यन्तरपरिणामाभावे बाह्यहेतुरफलत्वात। अभ्यन्तरचारित्रमोहोदयापादितम्त्रैण पौस्नात्मक रतिपरिणामाभावात बाह्यद्रव्यद्वयभवनेऽपि न मैथुनम् । स्त्रीपुसमो. कर्मेति चेन्न पच्यादिक्रियाप्रसगात इति, तदसाप्रतम, कुत' तद्विषयस्यैव ग्रहगात् । तयोरेव यत्कम तदिह गृह्यते, पच्यादिर्म पुन अन्येनापि क्रियते। नमस्काराद्य पयुक्तस्य बन्दनादिमिथुनकमणि न मैथुनम् । = "मिथुनस्य भाव ' इस पक्ष में जो दो स्त्री-पुरुष रूप द्रव्योकी सत्ता मात्रको मैथुनरवका प्रसग दिया जाता है, वह उचित नही है, क्योंकि अभ्यन्तर चारित्र मोहोदय रूपी परिणामके अभाव मे बाह्य कारण निरर्थक है। उसो तरह अभ्यन्तर चारित्रमोहोदय के
३. परस्त्री त्याग सम्बन्धी ला. सं /२/श्लोक नं ननु यथा धर्मपत्न्या यैव दास्या क्रियैब सा। विशेषानुपलब्धेश्च कथं भेदोऽवधार्यते ॥१८६। मैव स्पर्शादि यद्वस्तु बाह्य विषयसंज्ञिकम् । तद्ध तुरतादृशो भावो जीवस्यैवास्ति निश्चयात् ।१६१। दृश्यते जलमे कमेकरूपं स्वरूपत । चन्दनादिवनराजि प्राप्य नानात्तमध्यगात ११२॥ त्याज्यं वत्स परस्त्रीषु रति तृष्णोपशान्तये। विमृश्य चापदां चक्र लोकद्वयविध्य सिनीम् ।२०६। आस्ता यन्नरके दुख भावतीब्रानुवे दनाम् । जातं परांगनासक्ते लोहागनादिलिगनात् ।२१२। इहैवानर्थसंदोहो यावानस्ति सुदुस्सह तावान्न शक्यते वक्तुमन्वयोषिन्मतेरित ।२१३१ - प्रश्न-विषय सेवन करते समय जो क्रिया धर्मपत्नी में की जाती है ही क्रिया दासीमे की जाती है। अत क्रियामे भेद न होनेसे उन दोनोमे कोई भेद नही होना चाहिए।१८। उत्तर--कर्मधरामे वा परिणामोमे शुभ अशुभपना होने में स्पर्श करना या विषय रोवना आदि बाह्य वस्तु ही कारण नहीं है किन्तु जो बोके वैसे परिणाम होना ही निश्चय कारण है। ( अर्थात् दासीके भेवन ती लालसा होती है इससे तोव अशुभ कर्मका बग्ध होता है) १९६१: जल एक स्वरूपका होनेपर भी चन्दनादि बनराजिको प्राप्त होने पर पात्रके भेदसे नाना प्रकारका परिणत हो जाता है। उसी प्रकार दासी व धर्मपत्नी के साथ एक सी क्रिया होने पर भी पात्र भेदसे परिणामोमे अन्तर होता है तथा परिणामोमे अन्तर होनेसे शुभ व अशुभ कर्मबन्ध में अन्तर पड़ जाता है ।११२। हे वत्स । परस्त्री में प्रेम करना आपत्तियोका स्थान है, वह परस्त्री दोनो लोकोके हितका नाश करनेवाली है, यही समझकर अपनी तृष्णा व लालसाको शान्त करनेके लिए परस्त्रीमे प्रेम करना छोड।२०६। परस्त्री सेवनेवालोको नरकमे उनकी तीन लालसाके
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भा० ३-२५
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भक्ति
२. भक्ति विशेष निर्देश
बहुश्रुतभातका साथ अनुराग बहुत, और प्रति
४. व्यवहार भक्तिमें ईश्वर कर्तावादका निर्देश भा. पा/म् /१६३ ते मे तिहुवणमहिया सिद्धा सुद्धा णिर जणा णिच्चा। दितु बर भाव सुद्धि दसण णाणे चरित्ते य १६३। जो नित्य है, निरजन है, शुद्ध है तथा तीन लोकके द्वारा पूजनीक है, ऐसे सिद्ध भगवान ज्ञान-दर्शन और चारित्रमे श्रेष्ठ उत्तम भावकी शुद्धता
दो।१६३। प्रसा.//1. पणमामि वढमाणं तित्थं धम्मस्स कत्तारं .
तीर्थ रूप और धर्म के कर्ता श्री वर्धमान स्वामीको नमस्कार हो।। पं. वि /२०/१,६ त्रिभुवनगुरो जिनेश्वर परमानन्दै क्कारण कुरुष्व । मयि किकरेऽत्र करुणा तथा यथा जायते मुक्ति ।१। अपहर मम जन्म दया कृत्वेत्येकत्र वचसि वक्तव्ये। तेनातिदग्ध इति मे देव बभूव पाल पित्वम् ।६। तीनो लोको के गुरु और उत्कृष्ट सुखके अद्वितीय कारण ऐसे हे जिनेश्वर । इस मुझ दासके ऊपर ऐसी कृपा कीजिए कि जिससे मुझे मुक्ति प्राप्त हो जाये ।। हे देव । आप कृपा करके मेरे जन्म ( संसार ) को नष्ट कर दीजिए. यही एक बात मुझे आपसे कहनी है। परन्तु कि मै इस संसारसे अति पीडित हूँ, इसलिए मै बहुत बकवादी हुआ हूँ। थोस्सामि दण्डक/७ कित्तिय वदिय महिया' एदे लोगोत्तमा जिणा सिद्धी। आरोग्गणाणलाह दितु समाहिं च मे बोहिं 1७1 - वचनोंसे कीर्तन किये गये, मनसे वन्दना किये गये, और कायसे पूजे गये ऐसे ये लोकोत्तम कृतकृत्य जिनेन्द्र मुझे परिपूर्ण ज्ञान, समाधि और बोधि प्रदान करे ।
२. भक्ति विशेष निर्देश
१. महन्त, आचार्य, बहुश्रुत व प्रवचन भक्तिके लक्षण स, सि /६/२४/३३६/४ अर्हदाचार्येषु बहुश्रुतेषु प्रवचने च भावविशुद्धियुक्तोऽनुरागो भक्ति । =अर्हन्त, आचार्य, बहुत, और प्रवचन इनमे भावोकी विशुद्धताके साथ अनुराग रखना अरहन्तभक्ति आचार्य भक्ति, बहुश्रुतभक्ति, और प्रवचनभक्ति है। (रा. वा/६/२४/ १०/५३०/६), (चा.सा/५१/ ५/१): (भा.पा./टी./७७/२२२/१०)। ध. ८/३,४१/८४-६०/४ तेसु ( अरहतेमु ) भत्ती अरहतमत्ती। अरहतवुत्ताणूट्ठाणाणुवत्तणं तदणट्ठाणपासो वा अरहंतभत्ती णाम भारसंगपारया बहुमुदा णाम, तेसु भत्ती-तेहि वमरवाणिद आगमस्थाणुवत्तणं तदणूट्ठाणपासो वा बहुमुदभत्ती। तम्हि (पवयणे') भत्ती तस्थ पदुप्पादिदस्थाणुट्ठाणं । ण च अण्ण हा तत्थ भत्ती सभवई, असं प्रणे संपुण्णववहारविरोहादो। अरहन्तोमें जो गुणानुरागरूप भक्ति होती है, वह अरहन्त भक्ति कहलाती है । अथवा अरहन्तके द्वारा उपदिष्ट अनुष्ठान के अनुकूल प्रवृत्ति करने या उक्त अनुष्ठानके स्पर्शको अरहन्त भक्ति कहते है। जो बारह अंगोके पारगामी है वे बहुश्रुत कहे जाते है, उनके द्वारा उपदिष्ट आगमार्थ के अनुकूल प्रवृत्ति करने या उक्त अनुष्ठान के स्पर्श करनेको बहुश्रुतभक्ति कहते हैं ।...प्रवचनमें (दे० प्रवचन ) कहे हुए अर्थका अनुष्ठान करना, यह प्रवचनमें भक्ति कही जाती है। इसके बिना अन्य प्रकारसे प्रवचन में भक्ति सम्भव नहीं है, क्योकि असम्पूर्ण में सम्पूर्ण के व्यवहारका विरोध है।
५. प्रसन्न हो इत्यादिका प्रयोजन
आप्त. परि/टी /२/८/६ प्रसाद, पुन: परमेष्ठिनस्तद्विनेयान प्रसन्नमनविषयत्वमेव, वीतरागाणा तुष्टिलक्षणप्रसादादसम्भवात् को पासभववत् । तदाराधकजनै स्तु प्रसन्नेन मनसोपास्यमानो भगवान 'प्रसन्न.' इत्यभिधीयते, रसायनवत् । यथैव हि प्रसन्नेन मनसा रसायनमासेव्य तत्फलमवाप्नुवन्त सन्तो 'रसायनप्रसादादिदमस्माकमारोग्यादिफलं समुत्पन्नम्' इति प्रतिपाद्यन्ते तथा प्रसन्नेन मनसा भगवन्तं परमेष्ठिनमुपास्य तदुपासनफलं श्रेयोमार्गाधिगमलक्षण प्रतिपाद्यमानस्तद्विनेयजना 'भगवत्परमेष्ठिन प्रसादादस्मा श्रेयोमार्गाधिगम सपन्न' इति समनुमन्यन्ते । = परमेष्ठीमें जो प्रसाद गुण कहा गया है, वह उनके शिष्योका प्रसन्न मन होना ही उनकी प्रसन्नता है, क्योकि वीतरागोके तुष्टनात्मक प्रसन्नता सम्भव नही है। जैसे क्रोधका होना उनमें सम्भव नहीं है। किन्तु आराधकजन जब प्रसन्न मनसे उनकी उपासना करते है तो भगवानको 'प्रसन्न' ऐसा कह दिया जाता है । जैसे प्रसन्न मनसे रसायन ( औषधि ) का सेवन करके उसके फलको प्राप्त करनेवाले समझते है और शब्द व्यवहार करते है कि 'रसायन' के प्रसादसे यह हमे आरोग्यादि फल मिला। उसी प्रकार प्रसन्न मनसे भगवान् परमेष्ठीकी उपासना करके उसके फल-श्रेयोमार्गके ज्ञानको प्राप्त हुए उनके शिष्यजन मानते है कि भगवन् परमेष्ठी के प्रसादसे हमें श्रेयोमार्ग का ज्ञान हुआ। मो. मा. प्र/५/३२६/१७ उस ( अर्हत ) के उपचारसे यह विशेषण (अध
मोद्धारकादिक ) सम्भव है। फल तो अपने परिणामनिका लागै है । दे० पूजा/२/३ जिन गुण परिणत परिणाम पापका नाशक समझना
चाहिए।
२. सिद्ध भक्तिका लक्षण नि, सा./म् /१३४-१३५ सम्मत्तणाण चरणे जो भत्ति कुणइ साबगो समणो। तस्स दुणिज्बुदि भत्तो होदि त्ति जिणेहि पण्णत्त ।१३४॥ मोक्खं गयपुरिसाण गुणभेदं जाणिऊण तैसि पि।' जो कुणदि परमभक्ति ववहारणयेण परिकहियं ॥१३॥ - जो श्रावक अथवा श्रमण सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान और सम्यग्चारित्रकी भक्ति करता है, उसे निवृतिभक्ति (निर्वाण की भक्ति ) है, ऐसा जिनोंने कहा है ।१३४॥ जो जीव मोक्षगत पुरुषोका गुणभेद जानकर उनकी भी परम भक्ति करता है, उस जीवके व्यवहार नगसे निर्वाण भक्ति कही है ।१३५॥ द्र.सटी/2011 पर उद्धृत-सिद्धोऽहं सुद्धोऽह अण तणाणाइगुण
समिद्रोह । देहपमाणो णिच्चो असंखदेसो अमुत्तो य। इति गाथाकथितसिद्धभक्तिरूपेण । =मै सिद्ध हूँ, शुद्ध हूँ, अनन्तज्ञानादि गुणोका धारक हूँ, शरीर प्रमाण हूँ, नित्य हूँ, असरख्यात प्रदेशी हूँ, तथा अमूर्तिक हूँ।१। इस गाथामे कही हुई सिद्धभक्तिके रूपसे । पं का /त प्र/१६६ शुद्वात्मद्रव्य विश्रान्तिरूपां पारमार्थिकी सिद्वभक्तिमनुबिभ्राण, · | == शुद्वात्म द्रव्यमे विश्रान्तिरूप पारमार्थिक सिद्ध
भक्ति धारण करता हुआ । द्र.सं./टी/१७/01/८ सिद्धपदनन्तज्ञानादिगुणस्वरूपोऽहमित्यादि व्यवहारेण सविकल्पसिद्धभक्तियुताना । 'मै सिद्ध भगवान के समान अनन्तज्ञानादि गुण रूप हूँ' हत्यादि पवहारसे सविक्लप सिद्धभक्तिके धारकः ।
३. योगिमत्तिका लक्षण नि. सा./मू /१३७ रायादीपरिहारे अप्पाणं जोदु जंजदे साहू। सो जोग
भत्तिजुत्तो इदरस्स य वह हवे जोगी।१३७१ जो साधु रागादिके परिहारमे आत्माको लगाता है ( अर्थात् आत्मामें आत्माको लगाकर रागादिका परिहार करता है ) वह योगिभक्ति युक्त है, दूसरेको योग किस प्रकार हो सकता है ।१९७1/1न मा/म/१३८)।
* सहलेखनाकी स्मृति-दे० भ, आ. अमित./२२४८-२२४२)।
* भक्तिका महत्व-देविनय/२ तथा पूजा/२/४।
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३. स्तव निर्देश
भक्ति
३. स्तव निर्देश १. स्तव सामान्यका लक्षण १. निश्चय स्तवन स. सा./मू./३१-३२ जोइन्दिये जिणित्ता णाणसहावाधिों मुणदि आदं ।
तं खलु जिदिदियं ते भणति ये णिच्छिदा साह ।३१। जो मोहं तु जिणित्ता णाणसहावाधियं मुणइ आदं। तं जिदमोह साहु परमट्ठवियाणया विति ।३२॥ - जो इन्द्रियोंको जीतकर ज्ञान स्वभावके द्वारा अन्य द्रव्यसे अधिक आत्माको जानते है उन्हे,जो निश्चयनयमें स्थित साधु हैं वे वास्तवमें जितेन्द्रिय कहते है ।३१। जो मुनि मोहको जीतकर अपने आत्माको ज्ञान स्वभावके द्वारा अन्य द्रव्य भावोसे अधिक जानता है, उस मुनिको परमार्थ के जाननेवाले जितमोह कहते है । ( इस प्रकार निश्चय स्तुति कही)। यो सा अ1५/१८ रत्नत्रयमयं शुद्ध चेतन चेतनात्मक । विविक्तं स्तुवतो नित्यं स्तबजे स्तूयते स्तव 18-जो पुरुष रत्नत्रय स्वरूप शुद्ध, चैतन्य गुणोंके धारक और समस्त कर्मचनित उपाधियोंसे रहित आत्माकी स्तुति करता है, स्तवनके जानकार महापुरुषोने उसके स्तवनको उत्तम स्तवन माना है।४। द्र स./टी /१/४/१२ एकदेशशु निश्चयनयेन स्वशुद्धात्माराधनालक्षण
भाषस्तवनेन. नमस्करोमि । एक देश शुद्ध निश्चयनयकी अपेक्षासे निज शुद्ध आत्माका आराधन करने रूप भावस्तवनसे नमस्कार करता हूँ।
१. भहन्तादिमेंसे किसी एक भक्तिमें शेष १५ भाव- नाओंका समावेश 1८/३.४१/०६/४ कधमेस्थ सेसकारणाणं सभयो। बुच्चदे अरहतवुत्ताणु
ट्राणाणुवत्तण तदणुट्टाणपासो वा अरहतभत्ती णाम। ण च एसा दसण विमुज्झदादी हि विणा ण सभव इ. विरोहादो। दंसणं विसुज्झदादीहि विणाएदिस्से (बहुमुदभत्तीए) असभवादो। एत्थ (पवयण भत्तीए) सेसकारणाणमतभावो वत्तव्यो। प्रश्न-इसमें शेष कारणोकी सम्भावना कैसे है। उत्तर-अरहन्तके द्वारा उपदिष्ट अनुठानके अनुकूल प्रवृत्ति करने को या उक्त अनुष्ठानके स्पर्शको अरहन्तभक्ति कहते हैं। यह दर्शन विशुद्धतादिको के बिना सम्भव नहीं है, क्योंकि ऐसा होनेमें विरोध है। यह (बहुश्रुत भक्ति) भी दर्शनविशुद्धि आदिक शेष कारणोके बिना सम्भव नही है। इस (प्रवचन भक्ति ) में शेष कारणोंका अन्तर्भाव कहना चाहिए। * दशभक्ति निर्देश व उनकी प्रयोग विधि --दे० कृतिकर्म। * प्रत्येक भक्तिके साथ भावत आदि करनेका विधान -दे० कृतिकर्म।
७. साधुकी आहारचर्या सम्बन्धी नवभक्ति निर्देश म पु./२०/८६-८७ प्रतिग्रहमित्युच्चै स्थानेऽस्य विनिवेशनम् । पादप्रधावनं चर्चा मति' शुद्धिश्च सा त्रयी।८६ विशुद्धिश्चाशनस्येति नवपुण्यानि दानिनाम् । • 1001 =मुनिराजका पडिगाहन करना, उन्हे उच्चस्थानपर विराजमान करना, उनके चरण धोना, उनकी पूजा करना, उन्हे नमस्कार करना, अपने मन, वचन, कायकी शुद्धि और आहारकी विशुद्धि रखना, इस प्रकार दान देने वाले के यह नौ प्रकारका पुण्य अथवा नवधा भक्ति कहलाती है। (पू. सि उ १६८), (चा. सा/२६/३ पर उद्धृत ): ( वसु. श्रा/२२५), ( गुण,श्रा./१५२), (का. अ./प. जयचन्द/३६०)।
६ नवधा भक्तिका लक्षण वसु श्रा/२२६-२३१ पत्तं णियपरदारे दद ठूणण्णत्थ वा विमग्गित्ता।
पडिगहणं कायञ्च णमोत्थु ठाहु त्ति भणिऊण (२२६ णेऊण णि ययगेह णि रवज्जाणु तह उच्चठाणम्मि। ठविऊण तओ चलणाणधोवणं होइ कायब ।२२७। पाओदयं पवित्तं सिरम्मि काऊण अच्चणं कुज्जा। गंधक्खय-कुसुम-णेवज्ज-दीव-धूवे हि य फले हि ।२२८। पुष्फ जलि रिखवित्ता पयपुरओ बदण तओ कुज्जा। चऊण अट्टरुद्द मणसुद्धी होइ कामव्वा ।२२६३ णिट्छर-कक्कस वयणाइवज्जण तं विमाण वचिसुद्धि । सम्वत्थ स पुड गस्स होइ तह कायसुदी वि २३०। चउदसमलपरिसुद्ध जंदाणं सोहिऊण जइणाए। संजमिजणस्स दिज्जइ सा णेया एमणासुद्धी ।२३। पात्रको अपने घरके द्वारपर देखकर अथवा अन्यत्रसे विमार्गणकर, 'नमस्कार हो, ठहरिए'. ऐमा कहकर प्रतिग्रह करना चाहिए ।२२।। पुन' अपने घरमे ले जाकर निर्दोष तथा ऊँचे स्थानपर बिठाकर, तदनन्तर उनके चरणोको धोना चाहिए ।२२७। पवित्र पादोदकको सिरमें लगाकर पुन गन्ध, अक्षत, पुष्प, नैवेद्य, दीप, धूप और फलोसे पूजन करना चाहिए १२२८४ तदनन्तर चरणोके समीप पुष्पाजलि क्षेपण कर वन्दना करे। तथा आर्त और रौद्र ध्यान छोडकर मन शुद्धि करना चाहिए ।२२६॥ निष्ठुर और क्र्कश आदि वचनोके त्याग करनेको बचनशुद्धि जानना चाहिए, सब ओर सपूटित अर्थात् विनीत अंग रखनेवाले दातारके कायशुद्धि होती है ।२३०। चौदह मलदोषो (दे० आहार/I/२/३) से रहित, यरनसे शोधकर, सयमी जनको जो आहार दान दिया जाता है, वह एषणा शुद्धि जानना चाहिए। * मन वचन काय तथा आहार शुद्धि-दे० शुद्धि ।
२. व्यवहार स्तवन वा स्तुति रव स्तो/मू.८६ गुण-स्तोकं सदुल्लङ्घ्य तहहुत्बकथास्तुतिः। -- विद्यमान गुणोकी अल्पताको उल्लंघन करके जो उनके बहुत्वकी क्था (अढा
चढाकर कहना ) की जाती है उसे लोकमे स्तुति कहते है।६। स. सि./७/२३/३६४/११ मनसा ज्ञान चारित्रगुणोद्भावनं प्रशंसा, भूता
भूतगुणोद्भाववचनं संस्तव । - ज्ञान और चारित्रका मनसे उद्भावन करना प्रशंसा है, और जो गुण है या जो गुण नही है इन दोनो का सद्भाव बतलाते हुए कथन करना सस्तव है। (रा. वा /७/२३/१/
५५२/१२)। ध,०/३,४१/८४/१ तीदा नागद-बट्टमाणकाल विसयपच परमेसराण भेदमकाऊण णमो अरहंताणं णमो जिणाण मिच्चादि णमोक्कारो दम्य ठियणिसधणो थवो णाम ।-अतीत, अनागत और बर्तमानकालविषयक पाँच परमेष्ठियोके भेदको न करके 'अरहन्तोको नमस्कार हो, जिनोको नमस्कार हो' आदि द्रब्यार्थिक निबन्धन नमस्कारका नाम स्तव है। द्र. सं /टी १/४/१३ असद्भूतव्यवहारनयेन तत्प्रतिपादक्वचनरूपद्रव्यस्तवनेन च नमस्करोमि । = असत व्यवहार नयकी अपेक्षा उस निज शुद्ध आत्माका प्रतिपादन करनेवाले वचन रूप तव्य स्तवनसे नमस्कार करता हूँ।
३. स्तव आगमोपसंहारके अर्थमें घ, १/४.१,५५/२६३/२ बारसंगसघारौ सयलंगबिसयपणादो थवो णाम।
तम्हि जो उवजोगो वायण-पुच्छणपरियट्टणाणुवेक्वणसरूवो सो वि थओवयारेण - सब अगोंके विषयोकी प्रधानतासे बारह अगोके उपस हार करनेको स्तव कहते है। उसमें जो वाचना, पृच्छना, परिवर्तना और अनुप्रेक्षण स्वरूप उपयोग है वह भी उपचारसे स्तव कहा जाता है। ध.१४/५.६,१२/६/६ सबसुदणाणविसओ उब जागो थवो म।- समस्त श्रुतज्ञानको विषय करनेवाला उपयोग स्तब कहलाता है।
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ब्राह्मण
भंग
६ सबके द्वारा सम्मान किया जाना रूप मान्याहता अधिकारः १० अन्य जनोके सयोगमें आनेपर स्वयं उनसे प्रभावित न होकर उनको अपने रूपमें प्रभावित कर लेना रूप सम्बन्धान्तर अधिकार । इन दश प्रकारके गुणोका धारक ही वास्तव में द्विज या ब्राह्मण है।
* ब्राह्मण वर्णकी उत्पत्तिका इतिहास-दे० वर्ण व्यवस्था। ब्राह्मी-भगवान ऋषभ देवकी पुत्री थी, जिसने कुमारी अवस्थामें दीक्षा धारण कर ली थी। (म.पू./१२/४२)।
[भ]
विकार भावको प्राप्त होकर धर्मके द्रोही बन जायेगे । जो प्राणियोकी हिसा करने में तत्पर है तथा मधु और मांसका भोजन जिन्हे प्रिय है ऐसे ये अधर्मी ब्राह्मण हिंसारूप धर्म की घोषणा करेंगे ॥५१॥ इस प्रकार यद्यपि यह ब्राह्मणोकी सृष्टि कालान्तर में दोषका बीज रूप है तथापि धर्म सृष्टिका उल्लंघन न हो इसलिए इस समय इसका परिहार करना भी अच्छा नहीं है ।५५५
६. ब्राह्मण अनेक गुण सम्पन्न होता है म. पु./३६/१०३-१०७ स यजन् याजयन् धीमान् यजमानैरुपासित ।
अध्यापयन्नधीयानो वेदवेदाङ्गविस्तरम् ।१०३। स्पृशन्नपि महीं नैव स्पृष्टो दोषैर्महीगते । देवत्वमात्मसात्कुर्याद इहैवाभ्यचितैर्गुणै 1१०४ नाणिमा महिमैवास्य गरिमैव न लाघवम् । प्राप्ति' प्राकाम्यमीशित्वं वशित्व चेति तद्गुणा' ॥१०॥ गुणैरेभिरुपारूढमहिमा देवसाद्भवम् । विभ्रक्लोकातिग धाम मह्यामेष महीयते ।१०६। धयराचरितै सत्यशौचक्षान्तिदमादिभिः। देवब्राह्मणता श्लाघ्यो स्वस्मिन् संभावयत्यसौ ।१०७१ - पूजा करनेवाले यजमान जिसकी पूजा करते है, जो स्वयं पूजन करता है, और दूसरोसे भी कराता है, और जो वेद और वेदांगके विस्तारको स्वय पढ़ता है, तथा दूसरोको भी पढाता है, जो यद्यपि पृथिवीका स्पर्श करता तथापि पृथिवी सम्बन्धी दोष जिसका स्पर्श नहीं कर सकते है, जो अपने प्रशंसनीय गुणोसे इसी पर्यायमें देवत्वको प्राप्त हुआ है ।१०३-१०४। जिसके अणिमा ऋद्धि (छोटापन) नहीं है किन्तु महिमा (बडप्पन) है. जिसके गरिमा अद्धि है, परन्तु लघिमा नहीं है। जिसमें प्राप्ति, प्राकाम्य, ईशित्व और वशित्व आदि देवताओंके गुण विद्यमान है ।१०। उपर्युक्त गुणोसे जिसकी महिमा बढ रही है, जो देव रूप हो रहा है, जो लोकको उक्ल घन करनेवाला उत्कृष्ट तेज धारण करता है ऐसा यह भव्यपृथ्वीपर पूजित होता है ।१०६। सत्य, शौच, क्षमा और दम आदि धर्म सम्बन्धी आचरणोंसे वह अपनेमें प्रशसनीय देव ब्राह्मणपनेकी सम्भावना करता है ।१०७
७. ब्राह्मणके नित्य कर्तव्य म पु /३८/२४.४६ इज्यां वार्ता च दत्ति च स्वाध्याय सयम तप । श्रृतोपासकसूत्रत्वात स तेभ्यः समुपादिशत ।२४। तदेषा जातिसंस्कार दढयन्निति सऽधिराट् । स प्रोवाच द्विजन्मेभ्यः क्रियाभेदानशेषत 1४६। -भरतने उन्हे उपासकाध्ययनांगसे इज्या, वार्ता, दत्ति, स्वाध्याय, संयम और तपका उपदेश दिया।२४। (क्रिया और मन्त्रसे रहित केवल नाम मात्रके द्विज न रह जाये) इसलिए इन द्विजोकी जातिके संस्कारको दृढ करते हुए सम्राट भरतेश्वरने द्विजों के लिए नीचे लिखे अनुसार क्रियाओंके समस्त भेद कहे।४। (गर्भादानादि समस्त क्रियाएँ-दे० संस्कार/२)। १. ब्राह्मण में विद्याध्ययनकी प्रधानता म.पू/४०/१७४-२१२ का भावार्थ (द्विजोके जीवनमे दस मुख्य अधिकार
है। उनको यथाक्रमसे कहा जाता है-१. बालपनेसे ही उनको विद्या अध्ययन करना रूप अतिबाल विद्या अधिकार है; २. अपने कुलाचारकी रक्षा करना रूप कुलावधि अधिकार, ३ समस्त वर्णीमे श्रेष्ठ होना रूप वर्गोत्तम अधिकारः ४ दान देनेकी योग्यता भी इन्ही में होती है ऐसी पात्रत्व अधिकारः ५. कुमागियोकी सृष्टिको छोडकर क्षात्रिय रचित धर्म सृष्टिकी प्रभावना करना रूप सुष्टयधिकारता अधिकार, ६. प्रायश्चित्तादि कार्यों में स्वतन्त्रता रूप व्यवहारेशिता अधिकार, ७ किसी अन्यके द्वारा अपनेको गुणोमें हीन न होने देना तथा लोकमें ब्रह्महत्याको महान् अपराध समझा जाना रूप अवध्याधिकार, ८. गुणाधिकताके कारण किसी अन्यके द्वारा दण्ड नही पा सक्ना रूप अदण्ड्यता अधिकार.
भग-१. सप्त भग निर्देश-दे० सप्तभंगी/१। २ अक्षरके अनेको भंग
-दे० अक्षर, ३. द्वित्रि संयोगी भग निकालना-दे० गणित/I1/४/१ ४ अक्ष निकालना-दे० गणित/I11३। ५. भरत क्षेत्र मध्य आर्य रखण्डका एक देश-दे० मनुष्य/४ । भंग-१. भंग सामान्यका लक्षण
१. खण्ड, अंश वा भेदके अर्थ में गो, क./जी प्र/३५८/५१५/१४ अभिन्नसंख्यानां प्रकृतीना परिवर्तन भङ्ग', संख्याभेदेने करवे प्रकृतिभेदेन वा भंग' = एक सख्या रूप प्रकृतियोंमें प्रकृतियोका बदलना सो भग है अथवा संख्या भेदकर एकत्वमें प्रकृति भेदके द्वारा भंग होता है। दे० पर्याय/१/१ (अंश, पर्याय, भाग, हार, विधा, प्रकार, भेद, छेद और भग ये एकार्थ वाचक है।) २. श्रुतज्ञानके अर्थ में ध. १३/११०/२८४/१३ अहिंसा-सश्यास्तेय-शील-गुण-नय-वचन
द्रव्यादिविकरूपा भंगा । ते विधीयन्तेऽनेनेति भंगविधि श्रुतज्ञानम् । अथवा भगो वस्तु विनाश स्थित्युत्पत्त्य विनाभावी, सोऽनेन विधीयते निरूप्यत इति भंगविधि श्रुतम् । -१. अहिसा, सत्य, अस्तेय, शील, गुण, नय, वचन और द्रव्याथिक्के भेद भंग कहलाते है। उनका जिसके द्वारा विधान किया जाता है वह भंगविधि अर्थात श्रुतज्ञान है। २ अथवा, भगका अर्थ स्थिति और उत्पत्तिका अविनाभावी वस्तु विनाश है, जिसके द्वारा विहित अर्थाद निरूपित किया जाता है वह भगविधि अर्थात श्रुत है।
२. मंगके भेद गो क /मू /२०/६१ बोधादेन संभव भावंमूलूत्तरं ठवेदूण | पत्तेये
अविरुद्ध परसगजोगेवि भंगा हु १८२०। - गुणस्थान और मार्गणा स्थान में मूल व उत्तर भावोको स्थापित करके अक्ष सचारका विधान कर भावोके बदलनेसे प्रत्येक भग, अविरुद्ध परसंयोगी भंग, और स्वसं योगी भग होते है।
भावनिके भग गो क /मू /८२३/६६६
स्थानगत
पदगत गो,क/मू /८४४/१०८
जातिपद
सर्वपद गो क जी,प्र/८५६/१०३०
पिण्डपद
प्रत्येक्पद
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भंडार दशमीवत
३. भंगके भेदोंके लक्षण
१. जहाँ जुदे जुदे भाव कहिये तहाँ प्रत्येक भंग जानने। (जैसे औदयिक भाव, उपशमभाव, क्षायिक भाव इत्यादि पृथक-पृथक (गो. क / भाषा / ८२०/६६२) २. जहाँ अन्य अन्य भावके संयोग रूप अग होड़ वहाँ पर संयोग कहिये जैसे औधिक औपानिक द्विसंयोगी या औवधिक क्षायोपशमिक पारिणामिक त्रिसंयोगी निपातिक भाष) ( गो . भाषा / ५२०/६१२) २. जहाँ निज भावके भेदनिका संग रूप ही भग होइ तहाँ स्वसंयोगी कहिये (जैसे सायिक सम्यक क्षायिक चारित्रयाला द्विसंयोगी क्षायिक भाव ) (गो, क. / भाषा / ८२०/६१२) ४. एक जीव कै एकै काल जितने भाव पाये तिनके समूहका नाम स्थान है, ताकि अपेक्षाकरि जे भग करिये तिनको स्थानगत कहिये (गो. क / भाषा / ८२३ / ११६ ) ५ एक जीवके एक काल जे भाव पाइये तिनकी एक जातिका वा जुदे जुदेका नाम पद कहिये ताकी अपेक्षा जे भग करिये तिनको पदगत कहिये (गो, क / भाषा/०२/११६) ६ जहाँ एक जातिका ग्रहण कीजिये जैसे मिश्रभाव (सायोपशमिक भाग) विज्ञानके चार भेद होते भी एक ज्ञान जातिका ग्रहण है। ऐसे जाति ग्रहणकरि जे भंग करिये ते जातिगत भंग जानने (गो. क / भाषा/०४४/२०१८) | ७. जे जुदे जुदे सर्व भावनि (जैसे क्षायोपशमिकके ही ज्ञान दर्शनादि भिन्न-भिन्न भावनिका) का ग्रहणकरि भंग कीजिये ते सर्वपदगत भंग जानने गोक / भाषा/४४/१०१०) ८. जो भाव समूह एकै काल एक जीवके एक एक ही सम्भवे सर्व न सम्भव जैसे चारों गति विधे एक जीवके एक काल विषै एक गति ही सम्भवे प्यारो न सम्भये तिस भाव समूहको पिडपट् कहिये । (गो. क / भाषा / ८५२६/१०३१) । ६ जो भाव एक जीवकै एक काल विषै वि युगपत भी सम्भवे ऐसे भान तिनि की प्रत्येकपद कहिये । (जैसे अज्ञान, दर्शन, सम्धि आदि क्षायोपशमिक भाव ।
।
भंडार दशमीव्रत -यह व्रत भडार दशमिव्रत शक्ति जुपाय, (विधान सं./पृ. १३९) ( भक्त गणितकी भागहार विधिमें भाज्य राशिको भागहार द्वारा भक्त किया गया कहते है। दे० गणित /11 / २ / ६ ।
भक्त प्रत्याख्यान मरण - दे० सल्लेखना / ३ ।
श्वेताम्बर आम्नाय में प्रचलित है । दस जिन भवन भंडार चढ़ाय । नान पू ) ।
भक्तामर कथा -१ आ. रायमल (ई. १६१०
) द्वारा भाषा
में रचित कथा । २. पं जयचन्द छावडा ( ई १८१३) द्वारा हिन्दी भाषा में रचित कथा । भक्तामर स्तोत्रआ. मानतुंग ( ई. श. ७ पूर्व ) द्वारा रचित आदिनाथ भगवान् का संस्कृत छन्दबद्ध स्तोत्र । इसे आदिनाथ स्तोत्र भी कहते है । इनमें ४८ श्लोक है । (ती./२/२७५) । भक्ति - १. साधुओंकी नित्य नैमित्तिक क्रियाओके प्रयोग में आनेबाली निम्न दस भक्तियाँ है। सिद्ध भक्ति २. तमक्ति ३. चारित्र भक्ति, ४, योगि भक्ति: ५. आचार्य भक्ति, ६. पंच महागुरु भक्ति, भक्ति वीर भक्ति चतुर्विंशति तीर्थंकर भक्ति; ह. १० समाधि भक्ति । इनके अतिरिक्त भी ११. निर्वाण भक्ति, १२. नन्दीश्वर भक्ति, और शान्ति भक्ति आदि ३ भक्तियाँ है । परन्तु मुख्य रूपसे १० ही मानी गयी है। इनमें प्रथम ६ भक्तियाँ तथा निर्वाण भक्ति संस्कृत व प्राकृत दोनों भाषा में प्राप्त हैं। शेष सब संस्कृत में है । ( १ ) प्राकृत भक्तिके पाठ आ. कुन्दकुन्द व पद्मनन्दि ( ई १२७-१७६ ) कृत है । ( २ ) संस्कृत भक्तिके पाठ आ. पूज्यपाद ( ई. श. ५ ), कृत है। तथा अन्य भी भक्ति पाठ उपलब्ध है । यथा(३) भुतसागर (ई. १४०३-१९३३) द्वारा रचित सिमक्ति ।
१९७
भक्ति
(किया/पृ. १६७) २. प्राथमिक भूमिकामे अस आदिक भक्ति मोक्षमार्गका प्रधान अंग है । यद्यपि बाहरमें उपास्यको कर्ता आदि बनाकर भक्ति की जाती है । परन्तु अन्तर ग भावो के सापेक्ष होनेपर ही यह सार्थक है अन्यथा नहीं। आमस्पर्शी ची भक्तिसे तीर्थंकरय पदकी प्राप्ति तक भी सम्भव है। इसके अतिरिक्त साइको आहारदान करते हुए नवधा भक्ति और साधुके निरयके कृतिकर्म में चतुर्विशतिस्तव आदि भी भक्ति ही है।
१. भक्ति सामान्य निर्देश
१. भक्ति सामान्यका लक्षण - १. निश्चय
4
नि, सा./ता.वृ/१३४ निजपरमात्मतत्त्वसम्यक् श्रद्धानामनोधारणात्मकेषु शुद्धरत्रयपरिणामेषु भजनं भतिराराधनेत्यर्थ' एकादशपदेषु श्रावकेषु सर्वे शुद्धरत्नत्रयभक्ति कुर्वन्ति । * निज परमात्म तत्व के सम्यक् श्रद्धान- अवबोध- आचरणस्वरूप शुद्ध रत्नत्रय परिणामोका जो भजन वह भक्ति है, आराधना ऐसा उसका अर्थ है। एकादशपदी श्रावकों में सब शुद्ध रत्नत्रयकी भक्ति करते है ।
ससा / ता / १०३-१०६/२४२/११ भक्तिः पुन निश्चयेन वीतरागसम्यग्दन] शुद्धात्म स्वभावनारूपा चेति । निश्चय नयसे वीतराग सम्यग्दृष्टियोके शुद्ध आत्म तत्त्वकी भावनारूप भक्ति होती है।
२. व्यवहार
निसा // ११४ मोक्संगपुराणं गुणभेद आणि कुमदि परम भक्ति वमहारणयेण परिकहियं ॥१३३॥
गत पुरुषोका गुणभेद जानकर उनकी भी परम भक्ति करता है, उस जीवको व्यवहार नयसे भक्ति कही गयी है।
स. सि. / ६ / २४ / ३३६/४ भावविशुद्धियुक्तोऽनुरागो भक्ति भावकी विशुद्धिके साथ अनुराग रखना भक्ति है।
1
म बा. / वि. / ४० / ९५६ / २० का भती. अदादिगुणानुरागो भक्ति - अदादि गुणोंमे प्रेम करना भक्ति है (भा.पा./टी./०७/२२१/१०) | स. साता १०१-१०८/२४३/९९ भक्ति. पुन सम्यवान भण्यते यनहारेण सरागसम्यग्दृष्टीनां पंचपरमेष्ठयाराधनारूपा व्यवहार से सराग सम्यग्दृष्टियोके पंचपरमेष्ठीको आराधनारूप सम्यक् भक्ति होती है। पं. ध/उ/४७० तत्र भक्तिरनौद्धत्यं वाग्वपुश्चेतसां शमात् । । उन दोनो में दर्शन मोहनीयका उपशम होनेसे वचन काय और मन सम्बथी उतपनेके अभावको भक्ति कहते है।
२. निश्चय मक्ति ही वास्तविक मक्ति है।
सेसिपि जो जो जीव मोक्ष
स. सा./मू./३० णयरम्मि यण्णिदे जह ण वि रण्णो वण्णणा कदा होदि । देहगुणे ते ण केवलिगुणा ख़ुदा होति ॥३०॥ जैमे नगरका वर्णन करनेपर भी राजाका वर्णन नहीं किया जाता इसी प्रकार शरीरके गुणका स्तवन करनेपर बेबसीके गुणोंका स्तवन नहीं होता है । ३०१ ३. सच्ची भक्ति सम्यग्दृष्टिको ही होती है
THREE
घ. १२.४१/०६/५ च एसा ( बरं इत भत्ती ) समुदादीह दिया संभव विरोहादो यह अर्हन्त भक्ति) दर्शन विशुद्धि । - ( आदिके बिना सम्भव नही है, क्योकि ऐसा होनेमें विरोध है । मोमा, प्र. / ७/३२७/८ यथार्थपनेकी अपेक्षा तौ ज्ञानी के साची भक्ति है - अज्ञानीक नाही है ।
*
जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश
१२. दौलत / २ / १४३/२५६ बाह्य लौकिक भक्ति इससे संसार के प्रयोजनके लिए हुई, वह गिनती में नहीं। ऊपरकी सब बाते निःसार (धोथी) है, भाव ही कारण होते है, सो भाव-भक्ति मिध्यादृष्टि के नहीं होती ( सम्पग्दृष्टिके ही होती है ) ।
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ब्रह्मचर्य तप ऋद्धि
ब्रह्मोत्तर
कारण गरम लोहे की स्त्रियोसे आलिगन करानेसे तो महा दुख होता है, किन्तु इस लोकमे भी अत्यन्त असह्य दुख व अनेक अनर्थ उत्पन्न होते है ।२१२-२१३॥
४. ब्रह्मचर्य व्रत व ब्रह्मचर्य प्रतिमा में अन्तर सा. ध./७/१६ प्रथमाश्रमिण प्रोक्ता, ये पञ्चोपनयादयः। तेऽधीत्य शास्त्रं स्वीकुर्य-दरानन्यत्र नैष्ठिकात ।१६। -जो प्रथम आश्रमवाले (ब्रह्मचर्याश्रमी) मौजी बन्धन पूर्वक व्रत ग्रहण करनेवाले उपनय आदिक पाँच प्रकारके ब्रह्मचारी (दे० ब्रह्मचारी) कहे गये है वे सब नैष्ठिकके बिना शेष सब शास्त्रोको पढ़कर स्त्रीको स्वीकार करते है। दे० ब्रह्मचर्य/१/३-४ (द्वितीय प्रतिमाम ग्रहण किये एक ब्रह्मचर्य अणुव्रतमें तो अपनी धर्मपत्नीका भोग करता था। परन्तु इस ब्रह्मचर्य प्रतिमाको स्वीकार करनेपर नव प्रकारसे तीनोकाल सम्बन्धी समस्त स्त्रीमात्रके सेवनका त्याग कर देता है)। ब्रह्मचर्य तप ऋद्धि-घोर व अघोर गुण ब्रह्मचर्य तप ऋद्धि
-दे० ऋद्धि। ब्रह्मचारीदे० ब्रह्मचर्य/१/१ मेप वि. (जो ब्रह्ममे आचरण करता है, और इन्द्रिय विजयी होकर वृद्धा आदिको माता, बहन व पुत्रीके समान समझता है वह ब्रह्मचारी होता है)। २. ब्रह्मचारीके भेद
उन्हे अदीक्षा ब्रह्मचारी कहते है। ५. जो कुमार अवस्थामें ही मुनि होकर शास्त्रोका अभ्यास करते है। तथा पिता, भाई आदि कुटुम्बियोके आश्रयसे अथवा घोर परिषहोके सहन न करनेसे किंवा राजाकी विशेष आज्ञासे अथवा अपनेआप ही जो परमेश्वर भगवान अरहंत देवकी दिगम्बर दीक्षा छोडकर गृहस्थ धर्म स्वीकार करते हैं उन्हे गूढ ब्रह्मचारी कहते है । ६. समाधि मरण करते समय शिखा (चोटी) धारण करनेसे जिसके मस्तकका चिह्न प्रगट हो रहा है। यज्ञोपवीत धारण करनेसेसे जिसका उरोलिंग (वक्षस्थल चिह) प्रगट हो रहा है । सफेद अथवा लालरंगके वस्त्रके टुक्डेकी लंगोटी धारण करनेसे जिसकी कमरका चिह्न प्रगट हो रहा है, जो सदा भिक्षा वृत्तिसे निर्वाह करता है। जो स्नातक वा व्रती है, जो सदा जिन पूजादिमें तत्पर रहते है । उन्हे नैष्ठिक ब्रह्मचारी कहते है।
४. ब्रह्मचारीका वेष दे० संस्कार/२/३ में व्रतचर्या क्रिया (जिसने मस्तक्पर शिखा धारण की है, श्वेत वस्त्रकी कोपीन पहनी है, जिसके शरीरपर एक वस्त्र है, जो भेष और विकारसे रहित है, जिसने व्रतोका चिह्न स्वरूप यज्ञोपवीत धारण किया है, उसको ब्रह्मचारी कहते है)।
* पाँचों ब्रह्मचारियोंको स्त्रीके ग्रहण सम्बन्धी -दे० अर ब्रह्मदत्त-१२ वॉ चक्रवर्ती था।-विशेष दे० शलाका पुरुष । ब्रह्मदेव-बाल ब्रह्मचारी होने के कारण ही आपका यह नाम पड़
गया । कृतियें-द्रव्यसंग्रह टीका, परमात्म प्रकाश टीका, तत्त्व दीपक, ज्ञान दीपक, त्रिवर्णाचार दीपक, प्रतिष्ठा तिलक, विवाह पटल, कथाकोष । समय-इनकी भाषा क्योकि जयसेन आचार्य के साथ शब्दशः मिलती है इसलिये डा. एन, उपाध्ये जयसेनाचार्य (वि. श. १२-१३) के परवर्ती मानकर इन्हे वि. श. १३-१४ में स्थापित करते है। परन्तु डा. नेमिचन्द्र के अनुसार जयसेन तथा पं. आशाधर ने ही इनका अनुसरण किया है, इन्होंने उनका नहीं। जयसेनाचार्य ने पंचास्तिकाय की टीका में द्रव्यसंग्रह की टीका का नामोल्लेख किया है। अत: इनका समय उनसे पूर्व अर्थात् वि श. ११-१२ सिद्ध होता है । (ती/३/३११.३१३) ।
(जै २/२०३,३६३)।
चा. सा./४२/१ तत्र ब्रह्मचारिण, पंचविधा - उपनयावल बादीक्षागूढनैष्ठिकभेदेन ! - ब्रह्मचारी पाँच प्रकारके होते है-उपनय, अवलंब, अदीक्षा, गूढ और नैष्ठिक । (सा. ध./७/१९) ।
३. ब्रह्मचारी विशेषके लक्षण ध १/४,१,१०/६४/२ ब्रह्म चारित्रं पंचवत-समिति त्रिगुप्त्यात्मकम् .
शान्तिपुष्टिहेतुत्वात्। अघोरा शान्तगुणा यस्मिन् तदधोरगुणं, अघोरगुणं ब्रह्म चरन्तीति अघोरगुणब्रह्मचारिण । तेसि तबोमहाप्येण डमरादि-मारि-दुभिक्ख.. रोहादिपसमणसत्ती समुप्पण्णा ते अघोरगुणत्रम्हचारिणो ति उत्तहोदि। -१ ब्रह्मका अर्थ पाँच व्रत, पाँच समिति और तीन गुप्ति स्वरूप चारित्र है, क्योकि वह शान्तिके पोषणका हेतु है। अघोर अर्थात शान्त है गुण जिसमें वह अघोर गुण है, अघोर गुण ब्रह्मका आचरण करनेवाले अघोरगुण ब्रह्मचारी कहलाते है। जिनके तपके प्रभावसे इमरादि, रोय,...रोध आदिको नष्ट करनेकी शक्ति उत्पन्न हुई है वे अघोरगुण ब्रह्मचारी है। चा.सा/४२/१ तत्रोपनयब्रह्मचारिणो गणधरसूत्रधारिण' समभ्यस्तागमा गृहधर्मानुष्ठायिनो भवन्ति । अवलम्बब्रह्मचारिण क्षुल्लकरूपेणागममभ्यस्य परिगृहोतगृहावासा भवन्ति । अदोक्षाब्रह्मचारिण वेषमन्तरेणाभ्यस्तागमा गृहधर्मनिरता भवन्ति । गूढब्रह्मचारिण' कुमारश्रमणा सन्त' स्वीकृतागमाभ्यासा बन्धुभिर्दु सहपरीषहैरात्मना नृपतिभिर्वा निरस्तपरमेश्वररूपा गृहवासरता भवन्ति । नैष्ठिक्ब्रह्मचारिण समाधिगतशिग्वालक्षितशिरोलिङ्गा गणधरसूत्रोपलक्षितोरोलिगा, शुक्लरक्तवसनखण्डकौपीनल क्षितकटीलिङ्गा स्नातका भिक्षावतयो देवतार्चनपरा भवन्ति । २. जो गणधर सूत्रको धारण कर अर्थात यज्ञोपवीतको धारणकर उपासकाध्ययन आदि शास्त्रोका अभ्यास करते है और फिर गृहस्थधर्म स्वीकार करते है उन्हे उपनय ब्रह्मचारी कहते है। ३ जो क्षुल्लकका रूप धर शास्त्रोका अभ्यास करते है और फिर गृहस्थ धर्म स्वीकार करते है उन्हे अवलम्ब ब्रह्मचारी कहते है। ४. जो बिना ही ब्रह्मचारीका वेष धारण किये शास्त्रोका अभ्यास करते है, और फिर गृहस्थधर्म स्वीकार करते है
ब्रह्मराक्षस-राक्षस जातीय व्यन्तर देवोंका भेद-दे० राक्षस ब्रह्मवाद-दे० अद्वैतवाद । ब्रह्मविद्या-आ मल्लिषेण (ई. ११२८) द्वारारचित सस्कृत छन्द
बद्ध अध्यात्मिक ग्रन्थ । ब्रह्मसन-लाइ आगड संघकी गुर्वावलोके अनुसार आप जयसेनके शिष्य तथा वीरसेनके गुरु थे। समय-वि. १०८० (ई. १११३) (सि सा. स की प्रशस्ति/१२/८८-६५) (जयसेनाचार्यकृतधर्मरत्नाकर ग्रन्थकी प्रशस्ति। (सि सा. स /H //
AN. Up.) -दे० इतिहास/७/१०। ब्राह-लान्तव स्वर्गका प्रथम पटल व इन्द्रक-दे० स्वर्ग/५/३ । ब्रह्माद्वित-दे वेदान्त । २. अद्वैत। ब्रह्मश्वर-शीतलनाथ भगवान्का शासक यक्ष-दे० तीर्थकर//३ । ब्रह्मोत्तर-१. ब्रह्म स्वर्गका चौथा पटल व इन्द्रक-दे० स्वर्ग/५/३;
२. कल्पवासी स्वर्गीका छठा कल्प-दे० स्वर्ग/१/२ ब्रह्मोत्तर-१, रूपवासी देवोका एक भेद-दे० स्वर्ग/३ । २.
कल्पवासी देवोका अवस्थान--दे० स्वर्ग/११३
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ब्राह्मण
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ब्राह्मण
ब्राह्मण-जेन आम्नायमें अणुवतधारी विवेकवान् श्रावक ही सुसंस्कृत होने के कारण द्विज या ब्राह्मण स्वीकार किया गया है, केवल जन्मसे सिद्ध अविवेकी व अनाचारी व्यक्ति नहीं।
१. ब्राह्मण व द्विजका लक्षण
म.पु/३८/४३-४८ तप'श्रुतं च जातिश्च त्रयं ब्राह्मण्य कारणम्। तपश्रुताम्या यो हीनो जातिब्राह्मण एव स १४३१ ब्राह्मणा व्रतसंस्कारात् ।।४६। तप'श्रुताभ्यामेवातो जातिसस्कार इष्यते। असस्कृतस्तु यस्ताभ्यां जातिमात्रेण स द्विज ।४७ द्विजातो हि द्विजन्मेष्ट क्रियातो गर्भतश्च य । क्रियामन्त्रविहोनस्तु केवल नामधारक. १४८ = १ तप, शास्त्रज्ञान और जाति ये तीन ब्राह्मण होनेके कारण है। जो मनुष्य तप और शास्त्रज्ञानसे रहित है वह केवल जातिसे ही ब्राह्मण है ।४३। अथवा व्रतोंके संस्कारसे ब्राह्मण होता है ।४६।२. द्विज जातिका सस्कार तपश्चरण और शास्त्राभ्याससे ही माना जाता है, परन्तु तपश्चरण और शास्त्राभ्याससे जिसका सस्कार नहीं हुआ है वह जातिमात्रसे द्विज कहलाता है ।४७। जो एक बार गर्भ से और दूसरी बार क्रियासे इस प्रकार दो बार उत्पन्न हुआ हो उसको दो बार जन्मा अर्थात द्विज कहते है (म पु/३६/६३)। परन्तु जो क्रियासे और मन्त्र दोनोंसे रहित है वह केवल नामको धारण करने वाला द्विज है।४८
२. ब्राह्मणके अनेकों नामोंमे रत्नत्रयका स्थान म पु./३६/१०८-१४१ का भावार्थ-जन्म दो प्रकारका होता है-एक
गर्भ से दूसरा संस्कार या क्रियाओसे । गर्भ से उत्पन्न होकर दूसरी बार संस्कारसे जन्म धारे सो द्विज है। केवल जन्मसे ब्राह्मण कुलमें उत्पन्न होकर द्विजपना जतलाना मिथ्या अभिमान है। जो ब्रह्मासे उत्पन्न हो सो ब्राह्मण है । जो बिना योनिके उत्पन्न हो सो देव है। जिनेन्द्रदेव, स्वयभू, भगवान्, परमेष्ठी ब्रह्मा कहलाते है। उस परमदेव सम्बन्धी रत्नत्रयकी शक्ति रूप सस्कारसे जन्म धारनेवाला ही अयोनिज, वेबब्राहाण या देव द्विज हो सकता है। स्त्रयभूके मुखसे सुनकर सस्कार रूप जन्म होता है. इसीसे द्विज स्वयम्भूके मुखसे उत्पन्न हुआ कहा जाता है। व्रतोके चिह्न रूपसे सूत्र ग्रहण करे सो ब्राह्मण है केवल डोरा लटकानेसे नहीं। जिनेन्द्रका अहिंसामयी सम्यकधर्म न स्वीकार करके वेदोमे कहे गये हिसामयी धर्मको स्वीकार करे वह ब्राह्मण नही हो सकता।
३. ब्राह्मणत्वमें गुण कर्म प्रधान है जन्म नही द्र सं./टी /३/१०६ पर उधृत-जन्मना जायते शूद्र क्रियया द्विज उच्यते। श्रुतेन श्रोत्रियो ज्ञेयो ब्रह्मचर्येण ब्राह्मण ॥११- जन्मसे शूद्र होता है, क्रियासे द्विज कहलाता है, श्रुत श स्त्रमे श्रोत्रिय और ब्रह्मचर्यसे ब्राह्मण जानना चाहिए। दे ब्राह्मण/१ तप शास्त्रज्ञान और जाति तीनसे ब्राह्मण होता है। अथवा
व्रतसंस्कारसे ब्रह्मण है। म. पु./३८/४२ विशुद्धा वृत्तिरेवैषां षटतयोष्टा द्विजन्मनाम् । योऽतिकामेदिमा सोऽज्ञो नाम्नैव न गुणै द्विज १४२ - यह ऊपर कही हुई छह प्रकारकी विशुद्धि (पूजा, विशुद्धि पूर्वक खेती आदि करना रूप वार्ता, दान, स्वाध्याय, सयम और तप ) वृत्ति इन द्विजोके करने योग्य है । जो इनका उल्लघन करता है, वह मूर्ख नाममात्रसे ही द्विज
है, गुणसे द्विज नहीं है ।४२॥ धर्म परीक्षा/१७/२४-३४ सदाचार कदाचारके कारण ही जाति भेद होता
है, केवल ब्राह्मणोकी जाति मात्र ही श्रेष्ठ है ऐसा नियम नहीं है।
वास्तव में ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य और शूद्र यह चारोही एक मनुष्य जाति है। परन्तु आचार मात्रसे इनके चार विभाग किये जाते है ।२५। कोई कहे है कि, ब्राह्मण जातिमें क्षत्रिय कदापि नहीं हो सकता क्योकि चावलोंकी जातिमें कोदों कदापि उत्पन्न हुए नहीं देखे ।२६। प्रश्न--तुम पवित्राचारके धारकको ही ब्राह्मण कहते हो शुद्ध शीलकी धारी ब्राह्मणीसे उत्पन्न हएको ब्राह्मण क्यों नही कहते । उत्तर-ब्राह्मण और ब्राह्मणीका सदाकाल शुद्ध शीलादि पवित्राचार नही रह सकता, क्योंकि बहुत काल बीत जानेपर शुद्ध शीलादि सदाचार छूट जाते है, और जाति च्युत होते देखे जाते है ।२७-२८॥ इस कारण जिस जातिमें सयम-नियम-शील-तप-दान-जितेन्द्रियता और दयादि वास्तबमें विद्यमान हों उसको ही सत्पुरुषाने पूजनीय जाति कहा है ।२६। शील संयमादिके धारक नीच जाति होनेपर भी स्वर्गमें गये हैं । और जिन्होंने शील संयमादि छोड दिये ऐसे कुलीन भी नरकमें गये है ।३१॥
४. जैन श्रावक ही वास्तविक ब्राह्मण है म पु/३६/१४२ विशुद्धवृत्तयस्तस्माज्जैना वर्णोत्तमा हिजा: । वर्णान्त:
पातिनो नैते जगन्मान्या इति स्थितम् ।१४२६ म पु/४२/१८५-१८६ सोऽस्त्यमीषां च यद्वेदशास्त्रार्थमधमद्विजा' । तादृश बहुमन्यन्ते जातिवादावलेपत. १८५। प्रजासामान्यतै बैषा मता वा स्यानिष्कृष्टता। ततो न मान्यतास्त्येषां द्विजा मान्या' स्युराहता ।१८६ = इससे यह बात निश्चित हो चुकी कि विशुद्ध वृत्तिको धारण करनेवाले जैन लोग ही सब वर्गों में उत्तम है। वे ही द्विज है। ये ब्राह्मण आदि वर्गों के अन्तर्गत न होकर वर्णोत्तम है
और जगत्पूज्य है ।१४२॥ चूकि यह सब ( अहंकार आदि) आचरण इनमें (नाममात्रके अक्षरम्लेच्छ ब्राह्मणों में ) है और जातिके अभिमानसे ये नीच द्विज हिसा आदिको प्ररूपित करनेवाले वेद शास्त्रके अर्थ को बहुत कुछ मानते है। इसलिए इन्हें सामान्य प्रजाके समान ही मानना चाहिए अथवा उससे भी निकृष्ट मानना चाहिए । इन सब कारणोसे इनकी कुछ भी मान्यता नही रह जाती है, जो द्विज अरहन्त भगवान् के भक्त है वही मान्य गिने जाते हैं । १८५-१८६।
५. वर्तमानका ब्राह्मण वर्ण मर्यादासे च्युत हो गया है म. पु./४१/४६-५१, ५५ आयुष्मन् भवता सृष्टा य एते गृहमेधिनः । ते तावदुचिताचारा यावत्कृतयुगस्थिति ।४६। ततः कलयुगेऽभ्यर्णे जातिवादावलेपत' । भ्रष्टाचारा' प्रपत्स्यन्ते सन्मार्गप्रत्यनीक्ताम् ।४७१ तेऽपि जातिमदाविष्टा वयं लोकाधिका इति । पुरागमै लॊकं मोहयन्ति धनाशया ।४८। सत्कारलाभसंवृद्धगर्वा मिथ्यामदोद्धता.। जमान प्रकारयिष्यन्ति स्वयमुत्पाद्य दु श्रुती ४ात इमे कालपर्यन्ते विक्रिया प्राप्य दुई श । धर्मद्रुहो भविष्यन्ति पापोपहतचेतमा १५०। सत्त्वोपधात निरता मधुमासाशनप्रिया । प्रवृत्तिलक्षणं धर्म घोषयिष्यन्त्यधामिका ॥१॥ इति कालान्तरे दोषमोजमप्येतदजसा। नाधुना परिहर्तव्य धर्म सृष्टयनातिकमात् ॥५५॥ = ऋषभ भगवान् भरतके प्रश्न के उत्तरमें कहते है कि-हे आयुष्मन् । तूने जो गृहस्थोंकी रचना की है, सो जब तक कृतयुग अर्थात् चतुर्थ कालकी स्थिति रहेगी, तब तक तो ये उचित आचार-विचारका पालन करते रहेगे। परन्तु जब कलियुग निकट आ जायेगा, तब ये जातिवादके अभिमानसे सदाचारसे भ्रष्ट होकर मोक्षमार्गके विरोधी बन जायेगे।४६। पंचम काल में ये लोग, हम सब लोगोमे बडे है, इस प्रकार जातिके मदमे युक्त होकर केवल धनकी आशासे खोटे-खोटे शास्त्रोको रचकर लोगोको मोहित रेगे ।४७। सत्कारके लाभसे जिनका गर्व बढ रहा है और जो मिथ्या मदसे उधृत हो रहे है ऐसे ये ब्राह्मण लोग स्वय शास्त्री को बनाकर लोगोको ठगा करेंगे।४। जिनकी चेतना पापसे दूषित हो रही है ऐसे ये मिथ्यादृष्टि लोग इतने समय तक
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भक्ति
भक्ष्याभक्ष्य
गो. क /मू./७३/८८ सयला सवित्थर ससंखेव वण्णणसस्थ थय होइ नियमेण 1८८-सकल अग सम्बन्धी अर्थको विस्तारसे वा संक्षेपसे विषय करनेराले शास्त्रको स्तव कहते है।
४. स्तुति आगमोपसहारके अर्थमें ध.६/४,१,५५/२६३/३ बारसंगेसु एक्कगोबसंघारो युदी णाम । तम्हि जो उवजोगो सो विथुदि त्ति घेत्तव्यो । बारह अंगोमेसे एक अगके उपसहारका नाम स्तुति है। उसमें जो उपयोग है, वह भी स्तुति है
ऐसा ग्रहण करना चाहिए। ध ११५,६,१३/६/६ एगंग बिसओ एयपुत्र विसा वा उवजोगो थुदी णाम ।- एक अग या एक पूर्वको विषय करनेवाला उपयोग (या शास्त्र गो. क, ) स्तुति कहलाता है। (गो. क./F./८८)। * प्रशंसा व स्तुतिमें अन्नर-दे० अन्यदृष्टि ।
२. चतुर्विंशतिस्तवका लक्षण मू. आ /२४ उसहादिजिणवराणं णामणिरुत्ति गुणाणुकित्ति च । काऊण
अचिदूण य तिसुद्धपणमो थओ णेओ ।२४- ऋषभ अजित आदि चौबीस तीर्थ करोके नामकी निरुक्तिके अनुसार अर्थ करना, उनके असाधारण गुणोको प्रगट करना, उनके चरणोको पूजकर मन वचनकायकी शुद्धतासे स्तुति करना उसे चतुर्विशतिस्तव कहते है। ( अन, ध./८/३७)। रा वा /६/२४/११/५३०/१२ चतुर्विंशतिस्तव तीर्थकरगुणानुकीर्तनम् ।
-तीर्थक्रोके गुणो का कीर्तन चतुर्विंशतिस्तव है। (चा. सा./५६/१), (भा. पा./टी /७७/२२१/१३)। भ. आ बि./११६/२०४/२७ चतुर्विंशतिसंख्याना तीर्थ कृतामत्र भारत प्रवृत्ताना वृषभादीना जिनवरत्वादिगुणज्ञानश्रद्धानपुरस्सरा चतुर्विशतिस्तवनपठनक्रिया नोआगमभावचतुविशतिस्तव इह गृह्यते । मन इस भरतक्षेत्रमे वर्तमानकालमे वृषभनाथसे महावीर तक चौबीस । तीर्थकर हो गये है। उनमे अर्हन्तपना वगैरह अनन्तगुण है, उनको जानकर तथा उसपर श्रद्धान रखते हुए उनकी स्तुति पढना यह नोआगमभाव चतुर्विशतिस्तव है।
३. स्तवके भेद मू. आ|५३८ णामट्ठवणा दव्वे खेत्ते काले य होदि भावे । एसो
थवम्हिणे ओ गिवखेको छपिहो होइ ।५३८ नाम, स्थापना, द्रव्य, क्षेत्र, काल, और भाव स्तबके भेदसे चौबीस तीर्थकरोके स्तवनके छह भेद है । ( अन ध/८/३८)।
४. स्तवके भेदोंके लक्षण भ. आ./वि /५०६/७२८/११ मनसा चतुर्विंशति तीर्थकृता गुणानुस्मरण 'लोगस्मुज्जोययरे' इत्येवमादीना गुणानां वचन ललाटविन्यस्तकरमुकुलता जिनेभ्य कायेन मनसे चौबीस तीर्थंकरोके गुणोका स्मरण करना, वचनमे लोयस्सुज्जोययरे' इत्यादि श्लोकामे कही हुई तीर्थ कर स्तुति बोलना, ललाटपर हाथ जोडकर जिनेन्द्र भगवान्
को नमस्कार करना ऐसे चतुर्विशतिस्तुतिके तीन भेद होते है। क पा, १/१,१/८/११०/१ गुगाणुसरणबारेण च उबीसह पि तित्ययराणं णामट्ठसहस्सग्रहण णामत्थओ। कट्टिमाकट्टिम जिणपडिमाण सम्भावासम्भावट्ठवणाए विदाण बुद्धीए तित्ययरेहि एयत्त गयाण तिरथयराण तासेसगुणभरियाणं कित्तणं वा ठ्वणाथवो णाम।। चउबीसह पि तित्थयरसरोराण असेसवेयणुम्मुक्काण चउसटूिठ लक्रवणायुगाण सुहस ठाणसं घडणाण' सुवण्णद डसुरहिचामरविराइयाण सुहवण्णाण सरूवाणुसरणपुरस्सर तषिकत्तणं दव्यत्थओ णाम । तेसि जिगणमण तणाण-दसण-विरियसुहसम्मत्तव्याबाह-विरायभावादि गुणाणुसरण गरूवणाओ भावत्थओ णाम । = चौबीस तीर्थ
करोके गुणोके अनुसरण द्वारा उनके एक हजार आठ नामोव । ग्रहण करना नामस्तव है। जो सद्भाव असद्भावरूप स्थापनामे बुद्धिके द्वारा तीर्थक्रोसे एकत्वको प्राप्त है, अतएव तीर्थकरोके समस्त गुणोको धारण करती हैं, ऐसी जिन प्रतिमाआके स्वरूपका अनुसरण (कीर्तन) करना स्थापनास्तव है। जो अशेष वेदनाओ से रहित है
स्वस्तिकादि चौसठ लक्षण चिह्नोसे व्याप्त है, शुभ सस्थान व शुभ सहनन है सुवर्णदण्डसे युक्त चौसठ सुरभि चामरो से सुशोभित हैं, तथा जिनका वर्ण शुभ है, ऐसे चौबीस तीर्थ वरोके शरीरोके स्वरूपका अनुसरण करते हुए उनका कीर्तन करना द्रव्यस्तव है (क्षेत्र व कालस्तव दे० अगला प्रमाण अन ध ) उन चौबीस जिनोके अनन्तज्ञान, दर्शन, वीर्य, और अनन्त सुख, क्षायिक सम्यक्त्व, अव्यायाध, और बिरागता आदि गुणोके अनुसरण करनेकी प्ररूपणा करना भावस्तव
है। (अन. घ./८/३६-४४)। अन. ध /८/४२-४३ क्षेत्रस्तवोऽईता स स्यात्तत्स्वर्गावतरादिभिः । पूतस्य पूर्वनाद्यादेर्यत्प्रदेशस्य वर्णनम् ।४२। कालस्तवस्तीर्थ कृता स ज्ञेयो यदनेहस'। तद्गर्भावतराद्य धक्रियादृप्तस्य कीर्तनम् ।४३ -तीर्थकरोके गर्भ, जन्म आदि कल्याणकोके द्वारा पवित्र हुए नगर वन पर्वत आदिके वर्णन करनेको क्षेत्रस्तव कहते है। जैसे--अयोध्यानगरी, सिद्धार्थ वन, व कैलास पर्वत आदि ।४२॥ भगवान के गर्भ, जन्म, तप, ज्ञान और निर्वाण कल्याणकोको प्रशस्त क्रियाओसे जो महत्ताको प्राप्त हो चुका है ऐसे समयका वर्णन करनेको कालस्तव कहते है ।४३
५. चतुर्विंशतिस्तव विधि मू आ /५३६०५७३ लोगुज्जोराधम्मतित्थयरे जिणवरे य अरहते । कित्तण केवलिमेव य उत्तमबोहि मम दिसंतु ॥५३६। चउर गुलं तरपादो पडिलेयि अजली कयपसत्यो। अब्बबारिवतो वुत्तो कुण दि य चउवीसथोत्तय भिक्खू ।५७३। जगत्का प्रकाश करनेवाले उत्तम क्षमादिधर्म तीर्थ के करनेवाले सर्वज्ञ प्रशसा करने योग्य प्रत्यक्षज्ञानी जिनेन्द्र देव उत्तम अर्हन्त मुझे बोधि दे ।५३६। जिसने पैरोका अन्तर चार अगुल किया है, शरीर भूमि चित्तको जिसने शुद्ध कर लिया हो, अजलिको करनेसे सौम्य भाववाला हो, सब व्यापारोसे रहित हो, ऐसा स यमी मुनि चौबीस तीर्थ करो की स्तुति करे ।५७३। ६. चतुर्विंशतिस्तव प्रकरणमें कायोत्सगके कालका प्रमाण मू आ/६६१ उद्देसे णिद्देशे मज्झाए वंदणे य परिधाणे। सत्तावीसुस्सासा काओसग्गम्हि कादवा ६६१। ग्रन्यादिके आरम्भमे, पूर्ण ताकालमे, स्वाध्यायमे, वन्दनामे, अशुभ परिणाम हानेमे जो कायोत्सर्ग उसमें सत्ताईस उच्छ्वास करने योग्य है । ६ नोट--वास्तवमे इस क्रियाका कोई विशेष विधान नही है। प्रत्येक क्रियामे पढी जाने वाली भक्तिके पूर्व में नियमसे चतुर्विशति रतुति पढ़ी जाती है। अत प्रतिक्रमण, वन्दनादि क्रियाओमे इसका अन्तर्भाव हो जाता है। भक्ष्याभक्ष्य-मलमार्गमे यद्यपि अन्तरग परिणाम प्रधान है, परन्तु उनका निमित्त होनेके कारण भोजनमें भक्ष्याभक्ष्यका विवेक रखना अत्यन्त आवश्यक है। मद्य, मास, मधु व नवनीत तो हिसा, मद व प्रमाद उपादक हानेके कारण महाविकृतियाँ है ही, परन्तु पंच उदुम्बर फल, कन्दमूल, पत्र व पुष्प जातिकी वनस्पतियाँ भी क्षुद्र त्रस जोबोकी हिसा के स्थान अथवा अनन्तकायिक होने के कारण अभक्ष्य है । इनके अतिरिक्त बासी, रस चलित, स्वास्थ्य बाधक, अमर्यादित, सदिग्प व अशोधित सभी प्रकार की वाद्य वस्तुएँ अभक्ष्य है। दालो के साथ दूब व दहोका संयोग होनेपर विदल सज्ञावाला अभक्ष्य हो जाता है। विवेकी जनोको हन सबका त्याग करके शुद्ध अन्न जल आदिवा ही ग्रहण करना योग्य है।
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भक्ष्याभक्ष्य
२०१
१. भक्ष्याभक्ष्य सम्बन्धी सामान्य विचार
भक्ष्यामक्ष्य सम्बन्धी सामान्य विचार बहु पदार्थ मिश्रित द्रव्य एक समझा जाता है। | रुग्णावस्थामे अभक्ष्य भक्षणका निषेध । द्रव्य क्षेत्रादि तथा स्वास्थ्य स्थितिका विचार । अभय वस्तुओंको आहारले पृथक् करके वह आहार
ग्रहणकी आज्ञा। नीच कुलीनोंके हाथका तथा अयोग्य क्षेत्रमें रखे अन्न
पानका निषेध । छआछूत व नीच ऊँच कुलीन विचार ।-दे० भिक्षा । सूतक पातक विचार।
-दे० सूतक। अभक्ष्य पदार्थोके खाये जानेपर तयोग्य प्रायश्चित्त । पदार्थों की मर्यादाएँ। पदार्थोंको प्रासुक करनेकी विधि। -दे० सचित्त । जल शुद्धि ।
-दे० जल। अभक्ष्य पदार्थ विचार बाईस अभक्ष्योंके नाम निर्देश मद्य, मांस, मधु व नवनीत अभक्ष्य है। चर्म निक्षिप्त वस्तुके त्यागमें हेतु। -दे० मास । भोजनसे हड्डी चमडे आदिका स्पर्श होनेपर अन्तराय हो जाता है।
-दे० अन्तराय। * मद्य, मांस-मधु व नवनीतके अतिचार व निषेध ।
-दे०वह वह नाम । ३ चलित पदार्थ अभक्ष्य है। दुष्पक्व आहार।
-दे० भोगोपभोग/१। बासी व अमर्यादित भोजन अभक्ष्य है। रात्रि भोजन विचार। -दे० रात्रि भोजन । अॅच र व मुरब्बे आदि अभक्ष्य है। बीधा व संदिग्ध अन्न अभक्ष्य है। अन्न शोधन विधि।
--दे० आहार/I/२। सचित्ताचित्त विचार।
-दे० सचित्त। गोरस विचार दहीके लिए शुद्ध जामन । गोरसमे दुग्धादिके त्यागका क्रम। दूध अभक्ष्य नहीं है। दूध मासुक करनेकी विधि।
-दे०जल । | कच्चे दूध-दहीके साथ विदल दोष । पक्के दूध-दहीके साथ विदल दोष । द्विदलके भेद । वनस्पति विचार पंच उदुम्बर फलोंका निषेध व उसका कारण । | सूखे हुए भी उदुम्बर फल वर्जनीय है ।
-दे० भक्ष्याभक्ष्य/४/१ | अनजाने फलोंका निषेध ।
| कंदमूलका निषेध व कारण । ४ | पुष्प व पत्र जातिका निषेध ।
१. भक्ष्याभक्ष्य सम्बन्धी सामान्य विचार
१. बहु पदार्थ मिश्रित द्रव्य एक समझा जाता है क्रियाकोष/१२५७ लाडू पेडा पाक इत्यादि औषध रस और चूरण
आदि । अहुत बरतु करि जो नियजेह, एक द्रव्य जानो बुध तेह । २. रुग्णावस्थामें अभक्ष्य भक्षणका निषेध ला. सं./२/८० मूलबीजा यथा प्रोक्ता फलकाद्याकादयः । न भक्ष्या देवयोगाद्वा रोगिणाप्यौषधच्छलात ८०।-उपरोक्त मूलबीज और अग्रवीज आदि अनन्तकायिक जो अदरख आदि बनस्पति उन्हे किसी भी अवस्थामें भी नहीं खाना चाहिए। रोगियों को भी औषधिके बहाने उनका प्रयोग नहीं करना चाहिए। ३ द्रव्य क्षेत्रादि व स्वास्थ्य स्थितिका विचार भ, आ./मू /२५५/४७६ भत्तं खेत्तं कालं धादं च पडच्च तह तवं कुज्जा । जादो पित्तो सिभो व जहा खोभ्र ण उवयांति =अनेक प्रकारके भक्त पदार्थ, अनेक प्रकारके क्षेत्र, काल भी-शीत, उष्ण, व वर्षा काल रूप तीन प्रकार है, धातु अर्थात् अपने शरीरकी प्रकृति तथा देशकालका विचार करके जिस प्रकार वात-पित्त-श्लेष्मका क्षोभ न होगा इस
रोतिसे तप करके क्षपकको शरीर सल्लेखना करनी चाहिए ।२५॥ दे० आहार/I/३/२ सात्त्विक भोजन करे तथा योग्य मात्रामें करे जितना
कि जठराग्नि सुगमतासे पचा सके। र. क, श्रा/६ यदनिष्टं तदवतयेद्यच्चानुपसेव्यमेतदपि जह्यात् । प्रभिसंधिकृता विरतिविषयाद्योग्या व्रतं भवति ।८६-जो अनिष्ट अर्थात शरीरको हानिकारक है वह छोडै, जो उत्तम कुलके सेवन करने योग्य ( मद्य-मास आदि) नही वह भी छोडै, तो वह व्रत, कुछ व्रत नहीं कहलाता, किन्तु योग्य विषयोसे अभिप्राय पूर्वक किया हुआ त्याग
ही वास्तविक व्रत है। आचारसार/४/६४ रोगोका कारण होनेसे लाडू पेडा, चावल, के बने पदार्थ वा चिकने पदार्थोंका त्याग द्रव्यशुद्धि है। ४. अभक्ष्य वस्तुको आहारसे पृथक करके वह आहार ग्रहण करनेकी आज्ञा अन, ध/१/४१ कन्दादिषट् कं त्यागाहमित्यन्नाद्विभजेन्मुनिः । न शक्यते विभक्तुं चेत त्यज्यतां तर्हि भोजनम् ४१श-कन्द, बीज, मूल, फल, कण और कुण्ड ये छह वस्तुएँ आहारसे पृथक की जा सकती है। अतएव साधुओंको आहारमें ये वस्तुएँ मिल गयी हों तो उनको पृथक कर देना चाहिए। यदि कदाचित् उनका पृथक करना अशक्य हो तो आहार ही छोड देना चाहिए । (मू. आ /भाव./४८४); (और भी दे विवेक/१)। ५. नीच कुलीनोंके हाथका तथा अयोग्य क्षेत्रमें रखे मोजन-पानका निषेध भ. आ /भाषा / ६७५ अशुद्ध भूमिमें पड्या भोजन, तथा म्लेछादिकनिकरि स्पा भोजन, पान तथा अस्पृश्य शूद्रका लाया जल तथा शूद्रादिकका किया भोजन तथा अयोग्य क्षेत्रमें धरया भोजन, तथा मास भोजन करने वालेका भोजन, तथा नीच कुलके गृह निमै प्राप्त भया भोजन जलादिक अनुपसेव्य है । यद्यपि प्रासुक होइ हिंसा रहित होइ तथापि अणुपसेव्यापणात अंगीकार करने योग्य नहीं है । (और भी दे. वर्णव्यवस्था/४/१)। ६. अभक्ष्य पदार्थों के खाये जानेपर तद्योग्य प्रायश्चित्त दे. प्रायश्चित्त/२/४/४ में रा. वा. कारण वश अप्रासुकके ग्रहण करने में प्रामुकका विस्मरण हो जाये और पीछे स्मरण आ जाय तो विवेक ( उत्सर्ग) करना ही प्रायश्चित् है।
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भा०३-२६
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भद्रशाल वन
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भरत
भद्रशाल वन-समेरु पर्वतके मुलमें स्थित बन। इसकी चारो
दिशाओमें चार जिन चैत्यालय है-दे० लोक/३/६ । भद्रा-१. वर्तमान भादर' नदी। जसदणके पासके पर्वतसे निकली है और नवी मन्दरसे आगे अरब सागरमे गिरती है। (नेमिचरित प्रस्तावना/प्रेमीजी ), २ रुचक पर्वत निवासिनी दिक्कुमारी देवो
दे० लोक/५/१५ । भद्रा व्याख्या-दे० बाचना। भद्राश्व-विजया की उत्तर श्रेणीका एक नगर-दे० विद्याधर। भय-कायोत्सर्गका एक अतिचार-दे० व्युत्सर्ग।१। भयस. सि./८/४/३८६/१ यदुदयादुद्वेगस्तभयम् । = जिसके उदयसे उद्वेग । होता है वह भय है। (रा वा /८/६/४/५७४/१८), (गो. क जी.प्र/
३३/२८/८)। ध.६/१,६-१,२४/४७/8 भीतिर्भयम् । कम्मवंधेहि उदयमागदेहि जीवस्स भयमुप्पज्जइ तेसिं भय मिदि सण्णा, कारणे कज्जुवयारादो। =भीतिको भय कहते है। उदयमें आये हुए जिन कम स्कन्धोके द्वारा जीवके भय उत्पन्न होता है उनकी कारण में कार्यके उपचारसे 'भय' यह सज्ञा है। घ. १३/५,५,६४/३३६/८ परचक्कागमादओ भयं णाम । घ. १३/५.६०६६/३६१/१२ जस्स कम्मस्स उदएण जोबस्स सत्त भयाणि
समुप्पज्जति त कम्मं भयं णाम | पर चक्रके आगमनादिका नाम भय है। अथवा जिस कर्मके उदयसे जीवके सात प्रकारका भय उत्पन्न होता है, वह भय कर्म है।
२. भयके भेद मू. आ./५३ इहपरलोयत्ताणं अगुत्तिमरण च वेयणाकस्सि भया । -
- इसलोक भय, परलोक, अरक्षा, अगुप्ति, मरण, वेदना और आकस्मिक भय ये सात भय है। (स. सा./आ /२२८/क० १५५-१६०); 14 सा./ता. बृ./२२८/३०६/8); (पं.ध./उ./५०४-५०५); (द. पा./२ ५. जयचन्द ), (रा. वा.हि./६/२४/५१७)।
१ सातों मयोंके लक्षण स सा./पं. जयचन्द/२२८/क० १५५-१६० इस भवमें लोकोंका डर रहता है कि ये लोग न मालूम मेरा क्या बिगाड करेंगे, ऐसा तो इस लोकका भय है, और परभवमें न मालुम क्या होगा ऐसा भय रहना परलोकका भय है ।१५। जिसमें किसीका प्रवेश नहीं ऐसे गढ, दुर्गादिकका नाम गुप्ति है उसमें यह प्राणी निर्भय होकर रहता है। जो गुप्त प्रदेश न हो, खुला हो, उसको अगुप्ति कहते है, वहाँ बैठनेसे जीवको जो भय उत्पन्न होता है उसको अगुप्ति भय कहते है ।१५८॥ अकस्मात भयानक पदार्थसे प्राणीको जो भय उत्पन्न होता है वह
आकस्मिक भय है। पं. ध /उ./श्लोक नं. तत्रेह लोकतो भोति. क्रन्दितं चात्र जन्मनि । इष्टार्थस्य व्ययो माभून्माभून्मेऽनिष्टसगम ३०६। परलोक परत्रात्मा भाविजन्मान्तरांशभाक्। ततः कम्प इव त्रासो भौति परलोकतोऽस्ति सा ।।१६। भद्रं चेज्जन्म स्वर्लोके माभून्मे जन्म दुर्गतौ। इत्याद्याकुलितं चेत. साध्वसं पारलौकिकम् १५१७ वेदनागन्तुका बाधा मलाना कोपतस्तनौ। भीति प्रागेव कम्प स्यान्मोहाद्वा परिदेवनम् । ५२४। उल्लाघोऽहं भविष्यामि माभून्मे वेदना क्वचिव । मूच्छव वेदनाभी तिश्चिन्तनं वा मुहमह ।।२अत्राणं क्षणिकैकान्ते पक्षे चित्तक्षणादिवत। नाशात्प्रागंशनाशस्य त्रातुमक्षमतात्मन।५३१ असज्जन्म सतो नाशं मन्यमानस्य देहिन । कोऽवकाशस्ततो मुक्ति
मिच्छतोऽगुप्तिसाध्वसात् ।५३७॥ तद्भीतिर्जीवित भूयान्मा भून्मे मरणं क्वचित् । कदा लेभे न वा देवात इत्याधि स्वे तनुव्यये ।५४०। अकस्माज्जातमित्युच्चैराकस्मिकभयं स्मृतम् । तद्यथा विद्य दादीनां पातात्पातोऽसुधारिणाम् ॥५४३। भीतिर्भूयाद्यथा सौस्थ्यं माभूदौस्थ्य कदापि मे । इत्येव मानसी चिन्ता पर्याकुलितचेतसा १५४४॥ १. मेरे इष्ट पदार्थ का वियोग न हो जाये और अनिष्ट पदार्थ का सयोग न हो जाये इस प्रकार इस जन्ममे क्रन्दन करनेको इहलोक भय कहते है। २ परभवमे भावि पर्यायरूप अशको धारण करने वाला आत्मा परलोक है और उस परलोकसे जो कपनेके समान भय होता है, उसको परलोक भय कहते हैं ।५१६। यदि स्वर्ग में जन्म हो तो अच्छा है, मेरा दुर्गतिमें जन्म न हो इत्यादि प्रकारसे हृदयका आकुलित होना पारलौकिक भय कहलाता है ।।१७। ३. शरीरमें वात, पित्तादिके प्रकोपसे आनेवाली बाधा वेदना कहलाती है। मोहके कारण विपत्तिके पहले ही करुण क्रन्दन करना वेदना भय है ।५२४। मै निरोग हो जाऊँ, मुझे कभी भी वेदना न होवे, इस प्रकारकी मूर्छा अथवा बार-बार चिन्तवन करना वेदना भय है ।५२५॥ ४, जैसे कि बौद्धोंके क्षणिक एकान्त पक्षमें चित्त क्षण प्रतिसमय नश्वर होता है वैसे ही पर्यायके नाशके पहले अशि रूप आरमाके नाशकी रक्षाके लिए अक्षमता अत्राणभय ( अरक्षा भय) कहलाता है ।५३१। ५. असत् पदार्थ के जन्मको सबके नाशको माननेवाले, मुक्तिको चाहनेवाले शरीरधारियोको उस अगुप्ति भयसे कहाँ अवकाश है ।५३७५ ६. मै जीवित रहूँ, कभी मेरा मरण न हो, अथवा दैवयोगसे कभी मृत्यु न हो, इस प्रकार शरीरके नाशके विषयमे जो चिन्ता होती है, वह मृत्युभय कहलाता है ।५४०। ७ अकस्मात उत्पन्न होने वाला महान् दुख आकस्मिकभय माना गया है। जैसे कि बिजली आदि के गिरनेसे प्राणियोंका मरण हो जाता है।५४३। जैसे मै सदैव नीरोग रहूँ, कभी रोगी न होऊँ, इस प्रकार व्याकुलित चित्त पूर्वक होनेवाली चिन्ता आकस्मिक भोति कहलाती है ।५४४। * भय प्रकृतिके बंधयोग्य परिणाम-दे० मोहनीय/३ । * सम्यग्दृष्टिका मय भय नहीं-दे० नि.शंकित । * मय द्वेष है-दे० कषाय/४। भय संज्ञा-दे० संज्ञा। भरणी-एक नक्षत्र दे० नक्षत्र । भरत-१.म. पु./सर्ग/श्लोक न. पूर्व भव न.८ में वत्सकावतीदेश
का अतिगृधनामक राजा (८/१६१) फिर चौथे नरकका नारकी (41 १९२) छठे भवमें व्याघ्र हुआ (८/१६४) पाँचवे मे दिवाकरप्रभ नामक देव (८/२१०) चौथे भवमें मतिसागर मन्त्री हुआ (८/११५) तीसरे भवमें अधोवेयकमें अहमिन्द्र हुआ (६/६०-६२) दूसरे भवमें सुबाहु नामक राजपुत्र हुआ (११/१२) पूर्व भवमें सर्वार्थसिद्धिमें अहमिन्द्र हुआ (११/१६०); (युगपत् सर्व भव के लिए दे० म पु/४७/३६३-३६४ ) वर्तमान भवमें भगवान ऋषभ देवका पुत्र था ( १५/१५८) भगवानको दीक्षाके समय राज्य (१७/७६) और केवलज्ञानके समय चक्र तथा पुत्ररत्नकी प्राप्ति की (२४/२) छह खण्डको जीतकर (३४/३) बाहुबलीसे युद्धमें हारा (३५/६०) क्रोधके वश भाईपर चक्र चला दिया, परन्तु चक्र उनके पास जाकर ठहर गया ( ३४/६६ ) फिर एक वर्ष पश्चात इन्होंने योगी बाहुबलीकी पूजा की ( ३६/१८५) एक समय श्रावकोकी स्थापना कर उनको गर्भावय आदि क्रियाएँ। (३८/२०-३१०) दीक्षान्वय क्रियाओ (३६/२-८०८) षोडश संस्कार व मन्त्री आदिका उपदेश दिया (४०/२-२१६) आयुको क्षीण जान पुत्र अर्ककीतिको राज्य देकर दीक्षा धारण की। तथा
) का पुत्र या
हबल की प्राप्तिका (१
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भरत कूट
तत्क्षण मन पर्यय व केवलज्ञान प्राप्त किया । ( ४६ / ३६३-३६५ ) (विशेष दे० लिंग / २) फिर चिरकाल तक धर्मोपदेश दे मोक्षको प्राप्त किया (४७/३८) भगवाद के सुरम्य श्रोता ( ७६/५२१) तथा प्रथम चक्रवर्ती थे। विशेष परिचय- दे० शलाकापुरुष । २. प. पु. / सर्ग / श्लोक न राजा दशरथका पुत्र था ( २५/३५ ) माता केकयी द्वारा वर मॉगनेपर राज्यको प्राप्त किया था ( २५/१६२ ) । अन्तमे रामचन्द्र जी के बनवाससे लौटनेपर दीक्षा धारण की (८६ / ६) और कर्मोंका नाशकर मुक्तिको प्राप्त किया ( ८७/१६) । ३. यादववंशी कृष्णजीका २२ पुत्र ३० इतिहास / १० / २ । ४. ई० ६४५-६०२ में मान्यखेटके राजा कृष्ण तृतीयके मन्त्री थे । (हि. जै. सा. इ / ४६ कामता ) ।
भरत कूट - १. विजयार्ध पर्वतकी उत्तर व दक्षिण श्रेणियोपर स्थित कूट व उसके एक बेन दे० लोक २/४०२ हिमवाद पतस्थ भरत कूट व उसका स्वामी देव - दे० लोक /५/४, | भरत क्षेत्र - १ अढाई द्वीपोमें स्थित भरत क्षेत्रका लोकमें अवरथान व विस्तार आदि दे० लोक / २/२ इसमे वर्तनेवाले उत्सर्पिणी व अवसर्पिणी कालकी विशेषताएँ- दे० काल ।
३. रा बा./१/१०/१२/१००/६ विजयार्थस्य दलित जलस्तरत गहासिन्ध्यामध्यभागे निमीता नाम नगरी द्वादशयोजनायामा, नवयोजनविस्तारा तस्यामुत्पन्न सर्वराजलक्षणसंपन्नो भरतो नामाचाचक्रधर पट्खण्डाधिपति अवसर्पिण्या राज्यविभागकाले तेनादी वाद तथोगारत इत्याख्यायते वर्ष अथमा जगतोनादित्वादहेतुका अनादिसमन्धपारिणामिकी भरतसंज्ञा । - विजयार्धमे, मुझसे उत्तर और गंगा-सिन्धु नदियों के मध्य भागने १२] योजन सम्बी योजन चोडी विनीता नामकी नगरी थी। उसमे भरत नामका षट्खण्डाधिपति चक्रवर्ती हुआ था । उसने सर्व प्रथम राज्य विभाग करके इस क्षेत्रका शासन किया था अत इसका ( इस क्षेत्रका ) नाम भरत पडा अथवा, जेसे ससार अनादि है उसी तरह क्षेत्र आदिके नाम भी किसी कारण से अनादि है ।
भरतेश्वराभ्युदय -
आशाधर ( ई० ११७३-१२४३ ) द्वारा संस्कृत काव्य में रचित ग्रन्थ । भरुकच्छ-भरत क्षेत्र पश्चिम आर्य खण्डका एक देश-दे० मनुष्य / ४ ।
भर्तृप्रपंच-वेदान्त प्रत्थोके टीकाकार थे यह वैश्वानर उपासक थे । ब्रह्मके पर व अपर दोनो भेदोको सत्य मानते थे । समय-ई. श ७ ( स. म / परि च / ४४० ) ।
भर्तृहरि - १. राजा विक्रमादित्य के बड़े भाई थे। तदनुसार इनका समय ई. पू ३७ जाता है (हा ४ / पन्नालाल ) २. चीनी यात्री हरिसने भी एक तु हरिका उलेख किया है। जिसकी मृत्यु ई० ६५० में हुई बतायी है। समय ई० ६२-६३० ४ पं. पन्नालाल ) । ३. राजा सिंहलके पुत्र व राजा मुजके छोटे भाई थे । राजा मुजने इन्हे पराक्रमी जानकर राज्यके लोभसे देश से निकलवा दिया था। पीछे ये एक तापसके शिष्य हो गये और १२ वर्षकी कठिन तपस्या के पश्चात् स्वर्ण रसकी सिद्धि की । ज्ञानार्णव के रचयता आचार्य शुभचन्द्र के लघु भ्राता थे। उनसे सम्बोधित होकर इन्होने दिगम्बर दीक्षा धारण कर ली थी। तब इन्होने शतकत्रय लिखे । विद्यावाचस्पतिने तत्त्वबिन्दु नामक ग्रन्थमे इनको धर्मबाह्य बताया है, जिससे सिद्ध होता है कि अवश्य पीछे जाकर जैन साधु
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गये थे । राजा मुंजके अनुसार आपका समय - वि. १०६०-१९२५ ( ई० १००३ १०६ ) - विशेष वे० इतिहास / २ / १ (ज्ञा.प्र./१० पक्षा तास ४ आप ई० से ४५० में एक अजैन बड़े वैय्याकरणी थे। आपके गुरु मसुरात थे। (सि. मि. / २२/१० महेन्द्र); (०शुभचन्द्र
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भव
स.सि /१/२१/१२५/६ आयुर्नामकर्मोदयनिमित्त आत्मन पर्यायो भव आयुनामकर्म के उदयका निमित पाकर जो जीवकी पर्याय होती है उसे भय कहते है। (रा. वा /१/२१/१/०६/६ ) 1
ध १०/४, २, ४, ८ / ३५/५ उत्पत्तिवारा भवा । उत्पत्तिके वारीका नाम भव है।
भवन
थ. १५/२/६/९४ उप्पण्णनमपहूडि जान चरिमसमप्ति जो अवस्थाविसेसो सो भवो णाम । उत्पन्न होनेके प्रथम समयसे लेकर अन्तिम समय तक जो विशेष अवस्था रहती है, उसे भव कहते है ।
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भ, आ /वि/२५/०५/१८ पर उद्धृत - देहो भवोत्ति उच्चदि । देह को भव कहते है।
२. क्षुल्लक मवका लक्षण
ध १४/५.६,६४६/५०४/२ आउअबधे सते जो उवरि विस्समणकालो सव्वजहणणो तस्स खुद्दा भवग्गण ति सण्णा । सो तत्तो उबर होदि असलेयावर खुद्दाभवहणं ति बुझे आयु बन्धके होनेपर जो सबसे जघन्य विश्रमण काल है उसकी क्षुल्लक भव ग्रहण सज्ञा है । वह आयु बन्धकालके ऊपर होता है । असंक्षेपाद्धा के ऊपर ( मृत्युपर्यन्त ) क्षुल्लक भवग्रहण है ।
★ अन्य सम्बन्धित विषय
१ सम्यग्दृष्टिको भव धारणकी सीमा २. आवकको भव धारणकी सीमा ३ एक अन्तर्मुहूर्त में सम्भव क्षुद्रभवका प्रमाण ४. नरक गतिमें पुनः पुनः भन धारणकी सीमा ५ लब्ध्यपर्याप्तकों में पुन - पुन. भव धारणकी सीमा
-६० दर्शन/
- दे० श्रावक / २ ॥ - दे० आयु / ७ । ३० जन्म /६/१०। - दे० आयु / ७ ।
भवन भवनोमे रहनेवाले देवोको भवनवासी देव कहते हैं जो असुर आदिके भेद से १० प्रकारके है। इस पृथिवीके नीचे रत्नप्रभा आदि सात पृथिवियो मेसे प्रथम रत्नप्रभा पृथिवीके तीन भाग हैखरभाग, पकभाग व अब्बहुल भाग। उनमेसे खर व एक भाग में भवनवासी देव रहते है, और अम्बहुल भाग में प्रथम नरक है। इसके अतिरिक्त मध्य लोकमे भी यत्र-तत्र भवन व भवनपुरो में रहते है ।
१. भवन व भवनवासी देव निर्देश
१. भवनका लक्षण
ति. प. ३ / २२ रयणप्पहार भनणा | २२| रत्नप्रभा पृथिवीपर स्थित (भवनवासी देवोके) निवास स्थानोको भवन रहते है (ति प./ 4/७), (त्रि सा / २६४ ) ।
जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश
घ. १४ / ५, ६, ६४९/४६५/५ वलहि- कूडविवज्जिया सुरणरावासा भवणाणि नाम । = बलभि और कूटसे रहित देवो और मनुष्यो के आवास भवन कहलाते है।
२. भवनपुरका लक्षण
का
ति प / ३ / २२ दीवसमुद्दाण उवरि भवनपुरा | २२| द्वीप समुद्रोके ऊपर स्थित भरनवासी देवोंके निवास स्थानोको भवनपुर कहते है। (सि. प./६/०), (त्रि. सा./२१४)
३. भवनवासी देवका लक्षण
स.सि /४/१०/२४३/२ भवनेषु वसन्तीत्येवंशीला भवनवासिन' । - जिनका स्वभाव भवनोमे निवास करना है वे भवनवासी कहे जाते है (रा.वा./२/१०/२/२१६/३) ।
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भक्ष्याभक्ष्य
सास./२/७ उदुम्बरफलान्येव नादेवानि इगारमभि नि साधारणान्येव साहूराभितानि च ॥७८॥ सम्यग्दृष्टियोको उम्बर फल नहीं खोने चाहिए क्योकि वे नित्य साधारण (अनन्तकायिक ) है । तथा अनेक त्रस जीवोसे भरे हुए है ।
दे, श्रावक /४/१ पाँच उम्बर फल तथा उसीके अन्तर्गत खूबी व सॉपकी छतरी आदि भी त्याज्य है ।
२. अनजाने फलोंका निषेध
दे.
उदुम्बर उदुम्बर त्यागी, जिन फलो का नाम मालूम नही है। ऐसे सम्पूर्ण अजानफलो को नहीं खाये
३. कंदमूलका निषेध व कारण
भ.आ./मू./१५३३/१४९४ यति
मदीयं कुसीन पुरुष प्याज, लहसुन वगैरह कन्दोंका भक्षण नही करते है। .आ./२५ दलवीय अपरिगष्यकं तु आम कि पि Marati fasच्छति ते धीरा । २५। अग्नि कर नही पके पदार्थ फल कन्दमूल बीज तथा अन्य भी जो कच्चा पदार्थ उसको अभक्ष्य जानकर वे धीर मुनि खानेकी इच्छा नही करते। ( भा. पा./मू./१०३) । रा/८५ अव
विधातामणिराणि
फल थोडा परन्तु इस हिंसा अधिक होनेसे सचिन्त मूली, गाजर, आर्द्रक,... इत्यादि छोड़ने योग्य है । ८५ । ( स सि./७/२१/ ३६९/१० ) ।
"
भ.आ./लि. ९२०६/९२०४/१६ फल अदारित मूल पत्र, साकु क च वर्जयेत् । - नहीं विदारा हुआ फल, मूल, पत्र, अकुर और कन्दका त्याग करना चाहिए। (यो. सा. अ / ८ /६३ ) साध - / / /१६-१७ नातीरणकालादिवर्जयेत्। आजन्म तद्वभुजां ह्यल्प, फलं घातश्च भूयसाम् । १६। अनन्तकाया सर्वेऽपि, सदा या दवा यदेकमणि सहन्तुं प्रवृत्ती हृदयनन्तकार 1१०1 धार्मिक धावक, माली, सूरम, कलींदा और द्रोणपुष्प आदि सम्पूर्ण पदार्थोंको जीवन पर्यन्तके लिए धो देवे क्योंकि इनके खाने वालेको उन पदार्थोंके खानेमें फल थोडा और घात बहुत जीवोका होता है | १६ | दयालु श्रावकोके द्वारा सर्वदाके लिए सब ही साधारण वनस्पति त्याग दी जानी चाहिए क्योकि एक भी उस साधारण वनस्पतिको मारनेके लिए प्रवृत्त व्यक्ति अनन्त जीवोंको मारता है|१७|
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चा. पा. टी / २१/४२/१० मूतनासिका चिनीकन्दलफलकुशुम्भशाक्कलिंगफलसूरणकन्दस्यागश्चमूम्ही कमलकी डी लहसुन, तुम्बक फल, कुसुभेका शाक, कलिग फल, आलू आदिका त्याग भी कर देना चाहिए ।
भा. पा/टी./१०१/२५४/३ कन्दं सूर सनं पण्डाल हस्तां शाकं उत्पत्तमूलं वनेर आईवरवर्णिनी हरित्यर्थ किमपि ऐव अशित्वा भ्रमिस्त्वं हे जीव अनन्तससारे । - कन्द अर्थात् सूरण, लहसुन, आलू, छोटी या बडी शालूक, उत्पलमूल (भिस), शूगर, अरू गीली हल्दी आदि इन पदार्थोंमे से कुछ भी खाकर हे जीव तुझे अनन्त संसारमे भ्रमण करना पडा है । ला. स / २ / ७६-८० अत्रोदुम्बर शब्दस्तु नून स्यादुपलक्षणम् । तेन साधारणास्त्याज्या ये वनस्पतिकायिका ७१ ॥ मूलबोजा यथा प्रोक्ता फलकाचार्जकादय' । न भक्ष्या देवयोगाद्वा रोगिणाम्योषधच्छलात् |८०|= यहाँपर जो उदुम्बर फलोका त्याग कराया है वह उपलक्षण मात्र है। इसलिए जितने वनस्पति साधारण या अनन्तकायिक है उन सबका त्याग कर देना चाहिए । ७६। ऊपर जो अदरख आ आदि मुलमीज, अग्रबीज, पौरखीजादि अनन्तकायात्मक
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भगवती आराधना
साधारण बतलाये है. उन्हे कभी न खाना चाहिए। रोग हो जानेपर भी इनका भक्षण न करे |50|
४. पुष्प व पत्र जातिका निषेध
भा.पा./ १०३ कंदमूल बी फ पसादि किचि सच्चितं । अभिम मागग भमिओखि असारे १०३ जमीकन्द, भोज अर्थात् चनादिक अन्न, मूल अर्थात् गाजर आदिक, पुष्प अर्थात् फूल, पत्र अर्थात् नागरवेल आदिक इनको आदि लेकर जो कुछ सचित्त वस्तुको गर्व से भक्षण कर, हे जीव ' तू अनन्त ससार मे भ्रमण करता रहा है।
र. कश्रा / ८५ निम्बकुसुमं कैतकमित्येवमवहेयं ८५२ - नीम के फूल, बेलको याद वस्तुएँ छोडने योग्य है। ससि /७/२/१६९/२० केयर्जुनादीनि वेकादीनि बहुजन्तुयोनिस्थानान्यनन्तकायव्यपदेशार्हाणि परिहर्तव्यानि बहुघातास्वाद-जो महूत जन्तुओं की उत्पतिके आधार है और जिन्हे अनन्तकाय कहते है, ऐसे केतकी के फूल और अर्जुनके फूल आदि तथा अदरख और मूली आदिका त्याग कर देना चाहिए, क्योकि इनके नये फल कम है और धारा बहुत जोगोका है ( रा माजर २०/२५०/४)
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=
गुण १०० मूलफलं च शाकादि पुष्प बीज करीरक अशमुख त्यजेन्नीरं सचित्तविरतो गृही ॥१७८॥ - सचित्तविरत श्रावक सचित्त मूल, फल, शाक पुष्प, बोज, करीर व अप्रासुक जलका त्याग कर देता है (वसु. श्रा / २६५ )
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बसु श्रा / ५८ तरुपसूणाइ । णिच्चं तसससिद्धाई ताई परिवज्जियसंशित रहते है।
लाई ५८ वृक्षो के फूल नित्य अजीब
इसलिए इन सबका त्याग करना चाहिए | सा/२/१६ द्रोणपुष्पादि वर्जयेद आजन्म तद्वभुजां य फलं प्रातरसा द्रोणपुत्पादि सम्पूर्ण पदार्थको जीवन पर्यन्तके लिए छोड़ देवे। क्योंकि इनके खाने में फल थोडा और घात बहुत जीनोका होता है (सा/२/१३)।
लास / २ / ३५ ३७ शाकपत्राणि सर्वाणि नादेयानि कदाचन । श्रावकैसदोषस्य वर्जनार्थं प्रयत्नत |३५| तत्रावश्यं त्रसा' सूक्ष्मा केचि - त्यु ष्टिगोचरा । न त्यजन्ति कदाचित्त शाकपत्राश्रयं मनाक् ॥३६॥ तस्माद्धर्मार्थना सुनमात्मनो हितमिच्या आताम्बूल दल स्थाय पारदर्शनाते 120 पूर्वक मासके दोषोका त्याग करनेके लिए सब तरहकी पत्तेवाली शाक भाजी भी कभी ग्रहण नहीं करनी चाहिए। ३५। क्योंकि उस पत्तेवाले शाकने सूक्ष्म प्रस जीव अवश्य होते है । उनमेंसे कितने ही जीव तो दृष्टिगोचर हो जाते है और कितने ही दिखाई नहीं देते। किन्तु मे जीम उस पत्तेवाले शाकका आश्रय कभी नहीं छोड़ते । ३६ । इस लिए अपने आत्माका कल्याण चाहनेवाले धर्मात्मा जीवोको पत्तेवाले सब शाक तथा पान तक छोड़ देना चाहिए और दर्शन प्रतिमाको धारण करनेवाले श्रावको को विशेषकर इनका त्याग करना चाहिए |३७|
भगवती आराधना आ. शिवकोटि
कृत मे २००६ प्राकृत गाथा बद्ध यत्याचार विषयक ग्रन्थ है। इस ग्रन्थपर निम्न टीकाएँ उपलब्ध है- (१) आराधना प जिका नामकी एक टीका है जिसका कर्ता व काल अज्ञात है । (२) अ. अपराजित (वि. ७६३ ) द्वारा विरचित विजयोदया नाम की विस्तृत संस्कृत टीका । (२) इस ग्रन्थकी गाथाओ के अनुरूप आ. अमितगति ( ई १८३ - १०२३) द्वारा रचित स्वतत्र श्लोक । ( ४ ) पं. आशाधर (ई. ११७३-१२४३ ) द्वारा विरचित मूल आराधना नाम की संस्कृत टीका । ( ५ ) पं शिवजित (वि १८१८ ) द्वारा विरचित भावार्थ दीपिका नाम की भाषा टीका । (६) प सदासुखदास (ई. १७६५-१८६६ ) द्वारा विजयोदया टीकाकी देशभाषा रूप टीका (जे/२/१२६. १२८)
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भगवतीदास
भगवतीदास-१. दिसी गद्दी के अट्टारक महोन्द्र के शिष्य अम्बाला निवासी एक अपभ्रंश कवि जिन्होंने अन्त समय में मुनि
धारण करके समाधि पूर्वक देह त्याग किया था। कृतियेंटंडाणा रास, बनजारा रास, आदित्यवार रास पखवाडा रास, खिचड़ी रास, समाधि रास, योगी रास, मनकरहा रास, रोहिणीबत रास, अनन्त चतुर्दशी चौपाई, चुनडी मुक्ति रमणी, ढमाल राजमती नेमीसुर संज्ञानी ढमाल, वीर जिनेन्द्र स्तुति, आदिनाथ-शान्तिनाथ विनती, अनमी, अनुप्रेक्षाभावना सुगन्ध दशमी कथा. आदित्यवार कथा । समय-कृतियों का रचना काल वि १६८०-१७०० ( ई० १६२३-१६४३)। (ती./३२ सास आदि के कर्ता भैया भगवती दास नामक एक गृहस्थ कवि । समय - वि. १७३१-१७५५ (ई०] १६०४-१६६८) । (ती./४/२६३)। १४६ कामता ) ।
भगवान्- -दे० परमात्मा ।
भगीरथम म पु. / ४८ / श्लोक - भगलिदेश के राजसिंह विक्रमका दोहता था । सगर चक्रवर्तीने इसको राज्य दिया था (१२७)। सगर चक्रवर्तीके मोक्षके समय इन्होने दीक्षा धारण कर गंगा के तटपर योग धारण किया। तब देवोने इनके चरणोका प्रक्षालन किया, वह जल गंगा नदी में मिल गया, इसीसे गंगा नदी तीर्थ कहलाने लगी। वहीं से आप मोक्ष पधारे (१९३८-१४६) । प. पु. / ५ / श्लोक नं. के अनुसार सगर चक्रवर्तीका पुत्र था । (२५४, २८१ ) भगवान् के मुखसे अपने पूर्व भव सुनकर मुनियोंमें मुखिया बन योग्य पद प्राप्त किया ( २६४ ) । भट्ट (प्रभाकर) मत –३० मीमांसा दर्शन ।
भट्ट भास्कर - वेदान्तकी एक शाखा के प्रवर्तक । समय-ई. श. १० ।- दे० भास्कर वेदान्त ।
भट्टाकलंक - १ प्रसिद्ध नाचार्य ३०२. ई. १६०४ में शब्दानुशासन (कन्नड व्याकरण ) के क्र्ता ( प प्र. / प्र.१००/ AN.UP.४/१९२।
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भट्टारकर बर्हन्त, सिद्ध, साधुको भट्टारक कहा गया है। (ध. ३ / मगल / १ ), २. इन्द्र भट्टारक ग्रन्थ कर्ता हुए ( ध १ / १२६-१३० ), ३. अर्हन्तके लिए भट्टारक शब्दका प्रयोग किया गया है । (ध. ६/१३० ) ।
भदन्त -१ सु आ / भाषा / ८८६ जो सब कल्याणोंको प्राप्त हो वह भदन्त है । २ साधुका अपर नाम - दे० अनगार ।
भद्र १.सा./१/१ धर्मस्थोऽपि समं
कर्मताऽद्विप भद्र अस्तद्विपर्ययात मिध्यामतने स्थित होता हुआ भी निष्यापकी मन्दता समीचीन न े नहीं करनेवाला व्यक्ति भद्र कहलाता है। उससे विपरीत अभद्र कहलाता है । २. आपके अपरनाम यशोभद्र व अभय थे- दे० यशोभद्र । ३ रुचक पर्वतस्य एक फूट दे० लोक /२/११ ४. नन्दीश्वर समुद्रका रक्षक व्यन्तर देव - दे० व्यतर / ४ ।
भद्रक -यक्ष जातिके व्यन्तर देवोका एक भेद-दे० यक्ष । भद्रकाली- -विद्याधर विद्या- दे० विद्या ।
भद्रपुर - भरत क्षेत्रका एक नगर-दे० मनुष्य / ४ ।
भद्रबाहु - (१) मूल श्रुतावतार के अनुसार ( दे० इतिहास ) ये पाँचवे श्रुतकेवली थे । १२ वर्ष के दुर्भिक्षके कारण इनको उज्जैनी छोडकर दक्षिणकी ओर प्रस्थान करना पड़ा था। सम्राट् चन्द्रगुप्त मौर्य भी उस समय उनसे दीक्षा लेकर उनके साथ ही दक्षिण देशको चले गये थे । श्रवणबेलगोलमें चन्द्रगिरि पर्वतपर दोनो की समाधि हुई है।
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भद्रलपुर
१२००० साधुओं के संघ का बहुभाग यद्यपि इनके साथ दक्षिण की ओर चला गया था तदपि कुछ भाग ऐसा भी था जो प्रमादवश नहीं गया अथवा बीच में ही अटक गया। परिस्थितिवश शैथिल्य को अपना लेने के कारण वह धीरे-धीरे आगे जाकर वि. १३६ में श्वेताम्बर संघ के रूप में परिणत हो गया (विशेष दे. श्वेताम्बर) इस प्रकार श्वेताम्बर तथा दिगम्बर संघ भेद की नींव भी इन्हीं के काल में पड़ी थी। गुलसंध की पट्टानी में इनका काल मी. नि. १२३१६२ (ई.पू. ३६४-३६६) दिया गया है, परन्तु दूसरी ओर चन्द्रगुप्त मौर्य का काल विद्वान् लोग ई. ३२६-३०२ (मो. नि. २०१-२२४ ) .I निर्धारित करते हैं । इन दोनों के मध्य लगभग ६० वर्ष का अन्तर है जिसे पाटने के लिये कैलाशचन्द जी ने युक्त ढंग से इनके काल को ६० वर्ष नीचे उतार लिया है। तदनुसार इनका काल बीन. १८०-२२२ ( ई. पू. ३४७ - ३०५ ) प्राप्त होता है। विशेष दे० कोश १ परिशिष्ट २/३)
(२) दूसरे भद्रा मे है जिन्हें संघ की पट्टावली में अष्टांग घर अथवा आचारांगधर कहा गया। नन्दीसंघ की पट्टावली में चरम निमित्तधर कहकर परम्भरा गुरु के रूप में इन्हे नमस्कार किया गया है। इनकी शिष्य परम्परा में क्रमश मोहचार्य, असो, माघनन्दि तथा जिनचन्द्र ये चार आचार्य प्राप्त होते है । यहाँ इन जिन चन्द्र को कुन्दकुन्द का गुरु बताया गया है। दूसरी ओर आ. देवसेन ने अपने भावसंग्रह में इनका नाम भद्रबाहु गणी बताकर द्वादशवर्षीय दुर्भिक्ष तथा दिगम्बर श्वेताम्बर संघ भेद के साथ इनका सम्बन्ध स्थापित किया है। तदनुसार इनके शिष्य शान्त्याचार्य और उनके शिष्य जिनचन्द्र थे। जो अपने गुरु को मारकर सघ के नायक बन गए थे। इन्होंने हो विश्य-पोषण के अर्थ उसे श्वेताम्बर संघ के रूप में परिणत किया था। यद्यपि दोनों ही स्थानों में जिनचन्द्र को भद्रबाहू की शिष्य परम्परा में बताया गया है और दोनों के कालों में भी केवल ३६ वर्ष का अन्तर है, परन्तु दोनों के जीवन वृतों में इतना बडा अन्तर है कि इन्हें एक व्यक्ति मानने को जी नहीं चाहता। तथापि यदि जिस किस प्रकार इन्हें एक व्यक्ति घटित कर दिया जाय तो दोनों के प्रगुरु अथवा परम्परा गुरु भद्रबाहु भी एक व्यक्ति सिद्ध हो जाते हैं। इतना होने पर भी इनकी एक्ता या द्वितसा के विषय में सम्देह बना ही रहता है सूतसंघ की पावती तथा नन्दिसंघ की पट्टावली दोनों के अनुसार इनका काल वी. नि. ४२-५१५ (वि. २२-४५) माना गया है। (विशेष दे. कोष परिशिष्ट २/४)
12) श्वेताम्बर संपा. १०) के रुद्र गणी को यदि स्वतन्त्र व्यक्ति माना जाय तो उन्हें विश १ के चरम पाद पर स्थापित किया जा सकता है 1
भद्रबाहु
चरित्र1- आ. रनकीर्ति (ई. १९९०) द्वार संस्कृत छन्दबद्ध ग्रन्थ है, इसमें चार परिच्छेद तथा ४६ श्लोक है ।
·
भद्रमित्र म. प्र./५१/क्सी नं सिंहपुर के राजाका मन्त्री इसके
रत्न लेकर मुकर गया (१४८-१४१) प्रतिदिन न रोने-चिल्लाने पर (१६५) राजाकी रानोने मन्त्रीको जुरमें जीतकर न प्राप्त किये ( १६८ - १६६ ) । राजाने इसकी परीक्षा कर इसके रत्न व मन्त्रीपद देकर उपनाम सत्यघोष रख दिये। ( १७१-१७३) । एक बार बहुत सा धन दान दिया, जिसको इसकी माँ सहन न कर सकी। इसीके निदान में उसने इसे व्याघ्री बनकर खाया (१८८५-१९१)। आगे चौथे इसने मोक्ष प्राप्त किया- दे० प
भगलपुर भरत क्षेत्रका एक नगर दे० मनुष्य ४
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भक्ष्याभक्ष्य
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२. अभक्ष्य पदार्थ विचार
अन ध/५/४० पूमादिदोषे त्यवत्वापि तदन्न विधिवच्चरेत् । प्रायश्चित्तं नखे किचित्त केशादौ त्वन्नमुत्सृजेत् ।४१ = चोदह मतो ( दे आहार/II/४) भेसे आदिके पीव रक्त मास,हड्डो और चर्म इन पाँच दापोको महादोष माना है। अतएव इनमे मसक्त आहारको केवल छोड ही न दे किन्तु उसको छोडकर आगमोक्तविधिसे प्रायश्चित्त भी ग्रहण करे । नखका दोष मध्यम दर्जका है। अतएव नख युक्त आहारको छोड देना चाहिए, किन्तु कुछ प्रायश्चित्त लेना चाहिए। केश आदिका दोष जघन्य दर्जे का है। अतएव उनसे युक्त आहार केवल छोड देना चाहिए।
७. पदार्थों की मर्यादाएँ नोट-(ऋतु परिवर्तन अष्टालिकासे अष्टाह्निका पर्यन्त जानना चाहिए)। (बत विधान स./३१), ( क्रिया कोष)।
मर्यादाएँ पदार्थ का नाम
शीत । ग्रीष्म
२. मद्य, भांप, मधु व नवनीत अमश्य है भ आ./वि./१२०६/१२०४/१६ मासं मधु नवनीत च बजयेत 'तत्स्पृ
टानि सिद्धान्यपि च न दद्यान्न खादेत, न स्पृशेच्च । -मास, मधु व मक्खनका त्याग करना चाहिए। इन पदार्थोका स्पर्श जिसको हुआ
है, वह अन्न भी न खाना चाहिए और न छूना चाहिए। पु सि.उ/७१ मधु मद्य नबनोत पिशित च महाविकृतयस्ता । बलम्यन्ते न वतिना तद्वर्णा जन्तवस्तत्र ७१।-शहद, मदिरा, मक्रवन और मास तथा महा विकारोको धारण किये पदार्थ व्रती पुरुषको भक्षण करने योग्य नही है क्योकि उन वस्तुओमें उसी वर्ण व जातिके जीव ह ते है ।७१।
। वर्षा
बूरा
। १मास १५ दिन । ७ दिन दूध ( दुहनेके पश्चात) २ घडी | २ घडी
| २ घडो दूध ( उबालनेके पश्चात् ) ८ पहर |८ पहर ८ पहर नोट- यदि स्वाद बिगड जाये तो त्याज्य है। दहा (गर्म दूधका) ८पहर ८ पहर ८ पहर अ ग.श्रा/६/८४), (सा, १६ पहर |१६ पहर १६ पहर ध./३/११), (चा.पा.टो./। २१/४३/१७)। छछ - बिलोते समय पानी डाले ४पहर ४पहर | ४ पहर पीछे पानी डाले तो
२ घडी २ घडी | २ घडी
(जब तक स्वाद न बिगड़े) तेल
घी
७ दिन । ५ दिन
३ दिन
३. चलित रस पदार्थ अमक्ष्य है भ. आ./वि / १२०६/१२०४/२० विपन्नरूपरसगन्धानि, कुथितानि पुष्पि
तानि, पुराणानि जन्तसंस्पृष्टानि च न दद्यान्न खादेत न स्पृशेञ्च । - जिनका रूप, रस व गन्ध तथा स्पर्श चलित हुआ है, जो कुथित हुआ है अर्थात फूई लगा हुआ है, जिसको जन्तुओने स्पर्श किया है ऐसा
अन्न न देना चाहिए, न खाना चाहिए और न स्पर्श करना चाहिए। अ. ग. श्रा./६/८५ आहारो नि शेषो निजस्वभावादन्यभावमुपयात । योऽनन्तकायिकोऽसौ परिहर्त्तव्यो दयालीलै ।। -जो समस्त आहार अपने स्वभावते अन्यभावको प्राप्त भया, चलितरस भया, बहुरि जो अनन्तकाय सहित है सो वह दया सहित पुरुषोके द्वारा त्याज्य है। चा. पा/टी./२१/४३/१६ सुललितपुष्पितस्वादचलितमन्न त्यजेत् । ___-अकुरित हुआ अर्थात जडा हुआ, फुई लगा हुआ या स्वाद चलित
अन्न अभक्ष्य है। ला. स./२/५६ रूपगन्धरसस्पर्शाच्चलित नैव भक्षयेत् । अवश्यं त्रसजीवाना निकोतानां समाश्रयात् ।।६। - जो पदार्थ रूप गन्ध रस और स्पर्शसे चलायमान हो गये है, जिनका रूपादि बिगड़ गया है, ऐसे पदार्थों को भी कभी नहीं खाना चाहिए। क्योकि ऐसे पदार्थोमे अनेक त्रस जीबोकी, और निगोद राशिकी उत्पत्ति अवश्य हो जाती है।
१. बासी व अमर्यादित भोजन अमक्ष्य है अ ग. श्रा./६/८४ • दिवस द्वितयोषिते च दधिर्मथिते • त्याज्या। दो 'दिनका बासी दही और छाछ त्यागना योग्य है। (सा, ध/३/
११), (ला. सं./२/५७) । चा. पा/टी./२१/४३/१३ लवणतैलघृतधृतफलसधान मुहूर्तद्वयोपरिनवनीतमासादिसेविभाण्डभाजनवर्जनं ।.. षोडशहरादुपरि तक दधि च त्यजेत् । -नमक, तेल व धीमें रखा फल और आचारको दो मुहूर्त से ऊपर छोड़ देना चाहिए । तथा मकवन व मास जिस बर्तनमे पका हो वह बर्तन भी छोड देना चाहिए। सोलह पहरसे ऊपरके दहीका भी त्याग कर देवे। ला. सं./२/३३ केवलेनाग्निना पक्व मिश्रितेन घृतेन वा । उषितान्नं न भुञ्जीत पिशिताशनदोषवित ।३३। -जो पदार्थ रोटी भात आदि केवल अग्निपर पकाये हुए है, अथवा पूडी कचौडो आदि गर्म धीमें पकाये हुए है अथवा परामठे आदि घी व अग्नि दोनोके सयोगसे पकाये हुए है। ऐसे प्रकारका उषित अन्न मास भक्षणके दोषोके जानने वालोको नहीं खाना चाहिए । (प्रश्नोत्तर श्रावकाचार )।
५. अँचार व मुरब्बे आदि अभक्ष्य है बसु श्रा./५८ · संघाण णिच्चं तससंसिद्धाई ताइ परिवज्जियव्याई
५८ ॲचार आदि नित्य त्रस जीवोसे ससिक्त रहते है, अत: इनका त्याग कर देना चाहिए। (सा ध/३/११)।
२ घडी
२ घडी ६ घण्टे २ पहर
२ घडी ६ घण्टे २ पहर
६ घण्टे २ पहर
११
आटा सर्व प्रकार मसाले पीसे हुए नमक पिसा हुआ
मसाला मिला दे तो खिचडी. कढी, रायता, (तरकारी अधिक जल वाले पदार्थ रोटी, पूरी, हलवा, बड़ा आदि । मौन वाले पकवान बिना पानीके पकवान मीठे पदार्थ मिला दही गुड मिला दही व छाछ
४ पहर
, ४ पहर
८पहर
८पहर पहर ७ दिन ५ दिन २ घडी २ घडी सर्वथा अभक्ष्य
३ दिन
२ घडी
|
२. अभक्ष्य पदार्थ विचार
१.बाईस अमक्ष्यों के नाम निर्देश बत विधान सं./पृ. १६ ओला धोखडा निशि भोजन, बहुबीजक, बैगन,
सधान/ बड, पीपल, ऊमर, कठूमर, पाकर-फल, जा होय अजान । कन्दमूल, माटी, विष, आमिष, मधु, माखन अरु मदिरापान। फल अति तुच्छ, तुषार, चलितरस जिनमत ये बाईस अवान ॥
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भक्ष्याभक्ष्य
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४. बनस्पति विचार
ला.स /२/२६ योक्ति न भक्ष्य स्यादन्नादि पलदोषत। आसवारिष्ट
४. कच्चे दूध-दही के साथ विदल दोष संधानथानादीना कथात्र का ५॥ जहाँ बासी भोजनके भक्षणका त्यागका कराया, वहाँपर आसन, अरिष्ट, सन्धान व अथान अर्थात
सा ध/५/१८ आमगोरससपृक्त, द्विदल प्रायशोऽनबम् । वर्षास्वदलित अॅचार-मुरब्बेको तो बात ही क्या।
चात्र नाहरेत ।१८। कच्चे दूध, दही व मट्ठा मिश्रित द्विदलको,
बहुधा पुराने द्विदलको, वर्षा ऋतु में बिना दले द्विदलको नही खाना १.बीधा व सन्दिग्ध अन्न अभक्ष्य है
चाहिए ।१८। (चा पा./२१/४३/१८)। अ. ग श्रा/६/८४ विद्ध' पुष्पितमन्न कालिङ्गद्रोणपुष्विका त्याज्या।
बत विधान सं./पृ ३३ पर उद्धृत-योऽपक्कतकं द्विदलान्नमिश्र भुक्त =ीधा और फूई लगा अन्न और कलीदा व राई ये त्यागना योग्य
विधत्ते मुस्त्रबाष्पसगे। तस्यास्यमध्ये मरणं प्रयत्ना सन्मूछिका है। (चा. पा /टो./२४/४/१६)
जीवगणा भवन्ति ।- कच्चे दूध दही मट्ठा व द्विदल पदार्थोके मिलनेला.स /२/श्लोक न विद्ध त्रसाश्रित यावद्वर्ज येत्तदभक्ष्यवत् । शतश.
से और मुखकी लारका उनमें सम्बन्ध होनेसे असख्य सम्मुर्छन शोधित चापि सावद्यानै गादिभि ।१६। सदिग्ध च यदन्नादि श्रित त्रस जीव राशि वैदा होती है, इसके महान् हिंसा होती है। अत' वा नाश्रित त्रसै । मन.शुद्धिप्रसिद्धार्थ श्रावक क्वापि नाहरेत् ॥२०॥
वह सर्वथा त्याज्य है। (ला, सं/२/१४५) । शोधितस्य चिरात्तस्य न कुर्याद ग्रहणं कृती। कालस्यातिकमाइ भूयो दृष्टिपूतं समाचरेत् ।३२। धुने हुए या बीधे हुए अन्नमें भी अनेक त्रस
५. पक्के दूध-दहीके साथ विदक दोष जीव होते है। यदि सावधान हाकर नेत्रोके द्वारा शोधा भी जाये तो बत विधान स./पृ. ३३ जब चार मुहरत जाहीं, एकेन्द्रिय जिय उपजाही। भो उसमेसे सब त्रस ज बोका निकल जाना असम्भव है। इसलिए बारा घटिका जब जाय, बेइन्द्रिय तामें थाय । षोडशघटिका हूँ सैकडों बार शोधा हुआ भो घुना व बोधा अन्न अभक्ष्यके समान जबही, तेइन्द्रिय उपजे तबही। जब बीस घडी गत -जानी, उपजै त्याज्य है ।१६। जिस पदार्थमे त्रस जोबोके रहनेका सन्देह हा । चौइन्द्रिय प्राणी। गमिया घटिका जब चौबीस, पचेन्द्रिय जिय (इसमें त्रस जोब है या नही ) इस प्रकार सन्देह बना ही रहे तो भी पूरित तीस । है है नही सशय आनी, यो भाषै जिनवर वाणी। श्रावकको मन शुद्धिके अर्थ छोड देना चाहिए ।२०। जिस अन्नादि बुधि जन लाख ऐसो दोष, तजिये ततछिन अघकोष। कोई ऐसे पदार्थको शोधे हुए कई दिन हो गये हों उनको ग्रहण नही करना कहवाई, खै है एक याम ही माही। मरयाद न सधि है मूल तजि है, चाहिए। जिस पदार्थको शोधनेपर मर्यादासे अधिक काल हो गया
जे बत अनुकूल । खावे मे पाय अपार छाडे शुभगति है सार। है, उनको पुन शाधकर काममे लेना चाहिए ॥३२॥
६. द्विदलके भेद ३. गोरस विचार
वत विधान सग्रह/पृ. ३४ १, अन्नद्विदल-मूग, मोठ, अरहर, मसूर, उर्द,
चना, कुलथी आदि । २ काष्ठ द्विदल-चारोली, बादाम, पिस्ता, १. दहीके लिए शुद्ध जामन
जीरा, धनिया आदि। ३ हरीद्विदल-तोरइ, भिण्डी, फदकुली, बत विधान स./३४ दही बांधे कपडे माही, जब नीर न बूद रहाही। घीतोरई, खरबूजा, ककड़ी, पेठा, परवल, सेम, लौकी, करेला, खीरा तिहि को दे बडी सुखाई राखे अति जतन कराई। प्रासुक जलमे धो आदि घने बाज युक्त पदार्थ । नोट-(इन वस्तुओमें भिण्डी व लीजे, पयमाही जामन दोजे। मरयादा भाषी जेह, यह जावन सो परवलके बोज दो दाल वाले नहीं होते फिर भी अधिक बीजोकी लव लीजै । अथवा रुपया गरमाई, डारे पयमें दधि थाई।
अपेक्षा उन्हे । द्वदलमे गिनाया गया है। ऐसा प्रतीत होता है। और २. गोरसमें दुग्धादिके त्यागका क्रम
रखरबूजे व पेठेके बीजसे ही द्विदल होता है, उसके गूदेसे नही। ४
शिखरनी-दही और छाछमे कोई मीठा पदार्थ डालनेपर उसकी क. पा. १/१,१३,१४/गा.१९२/पृ. २५४ पयोबतो न दध्यत्ति न पयोऽत्ति
मर्यादा कुल अन्तर्मुहूर्त मात्र रहती है। १. काजी- दही छाछमें राई दधिवत । अगोरसवतो नो चेत तस्मात्तत्त्व त्रयात्मकम् ।११२॥ व नमक आदि मिलाकर दालके पकोडे आदि डालना। यह सर्वथा = जिसका केवल दूध पीनेका नियम है वह दही नही खाता दूध ही अभक्ष्य है पीता है, इसी प्रकार जिसका दही खानेका नियम है वह दूध नही पीता है और जिसके गोरस नही खानेका व्रत है, वह दूध और दही
४. वनस्पति विवार दोनोको नही खाता है। १११२। ३. दूध अमक्ष्य नहीं है
१. पंच उदुम्बर फलों का निषेध व कारण सा. ध /२/१० पर उदघृत फुटनोट-मासं जीवशरीर, जीवशरीर भवेन्नपुसि उ/७२ ७३ यो निस्दुम्बर युग्म प्लक्षन्यग्रोधपिप्पलफलानि । या मासम् । यद्व निम्ब। वृक्षो, वृक्षस्तु भवेन्न वा निम्ब ह। शुद्ध दुग्ध त्रसजीवाना तस्मात्तंषा तभक्षणे हिसा १७२। यानि तु पुनर्भवेयु न गोमास, वस्तुवै चिध्यम दृशम् । विषघ्न रत्ममाहेयं विषं च विपदे कालोच्छिन्नत्रसाणि शुष्काणि । भजतस्तान्यपि हिसा विशिष्टरागादियत ।१० हेय पल पय पेय, समे सत्यपि कारणे। विषद्रोरायुषे पत्रं, रूपा स्यात् ।७३। ऊमर, कमर, पिलखन, बड और पीपलके फल मूल तु मृतये मतम् ।११ जो जोवका शरीर है वह मास है ऐसी त्रस जीवोकी गे नि है इस कारण उनके भक्षणमें उन त्रस जीवोंकी तर्क सिद्ध व्याप्ति नहीं है, किन्तु जो मास है वह अवश्य जीवका शरीर हिसा होती है ।७२। और फिर भी जो पाँच उदुम्बर रूखे हुए काल है ऐसी व्याप्ति है। जेसे जो वृक्ष है बह अवश्य नीम है ऐसी व्याप्ति पाकर भ्रस जीवोसे रहित हो जाये तो उनको भी भक्षण करनेवालेके नहीं अपितु जो नीम है वह अवश्य वृक्ष है ऐसी व्याप्ति है ।। गायका विशेष रागादि रूप हिसा हाती है 1७३। ( सा. ध /२/१३)। दूध तो शुद्ध है. मास शुद्ध नहीं। जैसे-सर्पका रत्न तो विषका वसु श्रा५८ उंबार-बड-पिपल पिपरीय-सधाण-तरुपसूणाइ । णिच्च नाशक है किन्तु विष प्राणोका घातक है। यद्यपि मास और दूध तसस सिद्धाई ताह परिवज्जिनवाइ ।५८५-ऊंबर, मड, पीपल, कटूदोनोकी उत्पत्ति गायसे है तथापि ऊपरके दृष्टान्तके अनुसार दुध ग्राह्य मर और पाकर फल. इन पाँचो उदुम्बर फल, तथा सधानक है मास त्याज्य है। एक यह भो दृष्टान्त है कि-विष वृक्षका पत्ता (ॲचार ) और वृक्षोके फूल ये सब नित्य त्रस जीवोसे ससिक्त अर्थात् जीवनदाता वा जड मृत्युदायक है ।११॥
भरे हुए रहते है, इसलिए इनका त्याग करना चाहिए ।५८।
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भवन
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२. भवनवासी इन्द्रोंका वैभव
१. भवनवासी देवोके भेद त.सू./२/१० भवनवासिनोऽसुरनागविद्य त्सुपर्णाग्निवातस्तनितोदधि
द्वीपदिक्कुमारा ।१० -भवनवासी देव दस प्रकार है-असुरकुमार, नागकुमार, विद्यु कुमार, सुपर्ण कुमार, अग्निकुमार, बातकुमार, स्तनितकुमार, उदधिकुमार, द्वीपकुमार और दिक्कुमार । (ति.प/ ३/६),(त्रि.सा/२०६)।
स्तनितकुमारोमै घोष और महाघोष, विद्युत्कुमारोमें हरिषेण और हरिकान्त, दिक्कुमारोमें अमितगति और अमितवाहन, अग्निकुमारोमें अग्निशिखी और अग्निवाहन, वायुकुमारोमें वेलम्ब और प्रभंजन नामक इस प्रकार दो-दो इन्द्र क्रमसे उन असुरादि निकायोमें होते है ।१४-१६। (इनमें प्रथम नम्बरके इन्द्र दक्षिण इन्द्र है और द्वितीय नम्बरके इन्द्र उत्तर इन्द्र है। (ति. प/६/१७-१६) ।
५. मवनवासी देवोंके नामके साथ 'कुमार' शब्दका
३. भवनवासियोंके वर्ण, आहार, श्वास भादि
तात्पर्य
देवका नाम
वर्ण मुकुट चैत्य वृक्ष आहारका श्वासो- | ति.प./३ | चिह्न ति.प./लअन्तरालच्छवासका १११-१२० ति प./ ३/१३८ ।
मू आ./ अन्तराल
११४६ | ति.प./३/ त्रि.सा./
ति.प/३/| ११४-११७ २१३
१११-११६ त्रि सा २४ त्रि सा./२४८
प्रविचार (ति प./२/१३०)
असुरकुमार
कृष्ण
चूडा
अश्वत्थ
मणि
१५०० | १५ दिन (मू आ) १००० वर्ष १२३ दिन
स. सि./४/१०/२४३/३ सर्वेषा देवानामवस्थितवय स्वभावत्वेऽपि वेषाभूषायुधयानवाहनक्रीडनादि कुमारव देषामाभासत इति भवनवासिषु कुमारव्यपदेशो रूढ । यद्यपि इन सब देवोका बय और स्वभाव अवस्थित है तो भी इनका वेष, भ्रषा, शास्त्र, यान, वाहन और क्रीडा आदि कुमारोके समान होती है, इसलिए सब भवनवासियोमें कुमार शब्द रूढ है। (रा, बा/४/१०/७/२१६/२०); (ति. प/३/१२५-१२६) । ६. अन्य सम्बन्धित विषय १. असुर आदि भेद विशेष ।
-दे बह वह नाम । २. भवनवासी देवोंके गुणस्थान, जीव समास, मार्गणा
स्थानके स्वामित्व सम्बन्धी २० प्ररूपणाएँ । -दे० सत्। ३. भवनवासी देवोंके सत् ( अस्तित्व ) संख्या, क्षेत्र, स्पर्शन, काल, अन्तर, भाव, अल्पबहुत्व रूप आठ प्ररूपणारे।
-दे० वह वह नाम । ४. भवनवासियों में कर्म प्रकृतियोंका बन्ध, उदय व सत्त्व ।
-दे०वह वह नाम । ५. भवनवासियों में सुख-दुःख तथा सम्यक्त्व व गुणस्थानों आदि सम्बन्ध ।
-दे० देव/I/३ ६. भवनवासियोमें सम्भव कषाय, वेद, लेश्या, पर्याप्ति आदि ।
-दे० वह वह नाम। ७. भवनवासी देव मरकर कहा उत्पन्न हों और कौनसा गुणस्थान या पद प्राप्त करें।
-दे. जन्म/६ । ८. भवनत्रिक देवोंकी अवगाहना।
-दे० अवगाहना/२।
दिन | १२ मुहूर्त
काय प्रविचार
७२ दिन
| नागकुमार काल श्याम सर्प सप्तपर्ण सुपर्ण कुमार श्याम गरुड शाल्मली द्वीपकुमार
हाथी जामुन उदधि कुमार | काल श्याम मगर | वेतस । स्तनित कुमार
स्वस्तिक कदम विद्य त कुमार बिजलीवत वज्र । | प्रियगु दिक्कुमार | श्यामल सिंह शिरीष अग्निकुमार | अग्निज्वाल कलश पलाश
वातब वायुकुमार । नीलकमल | तुरग राजद्रुम
इनके सामानिक, प्रायस्त्रिश 11 पारिषद व प्रतीन्द्र |१००० वर्ष की आयुवाले देव १ पल्य की,, ,, ,
स्व इन्द्रवत् स्व इन्द्रवद
२ दिन
श्वासो
* मवनवासियोंके शरीर सुख-दुःख भादि
-दे० देव/II/२|
२. भवनवासी इन्द्रोंका वैभव
१. भवनवासी देवोंके इन्द्रोंकी संख्या ति. ५/३/१३ दससु कुलेसु पुह पुह दो दो इंदा हवं ति णियमेण । ते एकस्सि मिलिदा वीस विराज ति भूदी हिं ।१३। - दश भवनवासियोंके कुलोमें नियमसे पृथक-पृथक् दो-दो इन्द्र होते है। वे सब मिलकर २० इन्द्र होते है, जो अपनी-अपनी विभूतिसे शोभायमान है।
२. भवनवासी इन्द्रोंके नाम निर्देश ति प./३/१४-१६ पढमो हु चमरणामो इंदो वइरोमणो त्ति विदिओ य। भदाणंदो धरणाण दो वेणू य वेणुदारी य १४। पुण्णव सिद्रजलपहजलकता तह य घोसमहघोसा । हरिसेणो हरिकंतो अमिदगदी अमिदवाहणग्गिसिही ॥१५॥ अग्गिवाहणणामो वेल बपभंजणाभिधाणा य। एदे असुरप्पहुदिसु कुलेसु दोद्दो कमेण देविदा ।१६। असुरकुमारोमें प्रथम चमर नामक और दूसरा वैरोचन इन्द्र, नागकुमारों में भूतानन्द और धरणानन्द, सुपर्णकुमारों में वेणु और वेणुधारी, द्वीपकुमारोमें पूर्ण और वशिष्ठ, उदधिकुमारोमें जलप्रभ और जल कान्त,
१. भवनवासियों की शक्ति व विक्रिया ति, प./३/१६२-१६ का भाषार्थ-दश हजार वर्षकी आयुबाला देव १००
मनुष्योंको मारने व पोसनेमें तथा डेढ़सौ धनुष प्रमाण लम्बे चौड़े क्षेत्रको बाहुओंसे वेष्टित करने व उखाइनेमें समर्थ है। एक पख्यकी आयुवाला देव छह खण्डकी पृथिवीको उखाडने तथा वहाँ रहनेवाले मनुष्य व तिर्यञ्चोको मारने वा पोसने में समर्थ है। एक सागरकी आयुवाला देब जम्बूद्वीपको समुद्र में फेक्ने और उसमें स्थित मनुष्य व तियचोंको पोसणेमें समर्थ है। दश हजार वर्ष की आयुवाला देव उत्कृष्ट रूपसे सौ, जघन्यरूपसे सात, मध्यरूपसे सौसे कम सातसे अधिक रूपों की विक्रिया करता है। शेष सब देव अपने-अपने अनधिज्ञानके क्षेत्रोके प्रमाण विक्रियाको पूरित करते है। सख्यात व असख्यात वर्ष की आयुबाला देव क्रमसे मख्यात व असंख्यात योजन जाता व उतने ही योजन आता है।
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भवन
५. भवनवासी इन्द्रोंका परिवार
स = सहस्र
ति प / ३ /७६-६६ (त्रि सा / २२६-२३५ )
देवियोका परिवार
ام
७ अनीक
में से प्रत्येक
युक्त
अभ्यं० मध्य बाह्य आत्मरक्ष
18
Akajik
الات
योग
此
It Deb
26
इन्द्रों के
नाम
भा० ३- २७
सहस्र
८१२८ स.
७६५०
७९१२ स.
६३५० स.
20
२४० स.
२२४ स.
२०० स
३० स३२ स२५६ स
२८ स. २६ स २८ स.
६४ स. ३३
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४० स. १६ स. ५६ स.
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३. भवनवासी देवियोंका निर्देश
१. इन्द्रोंकी प्रधान देवियोंका नाम निर्देश
ति प /३/२०१४ हा श्यामेा देोगामा सुभिधाना णिरुवमरूधराओ चमरे पचग्गमहिसोओ ० उमापउमसिरीओ कणयसिरी कणयमालमहपउमा । अग्गमहिसोउ बिटिए |१४| = चमरेन्द्र के कृष्णा, रत्ना, सुमेधा देवी नामक और मुकदा या सुकान्ता ( शुकाठ्या ) नामकी अनुपम रूपको धारण करनेवाली पाँच
महिषियों है | | ( त्रि. सा / २३६ ) द्वितीय इन्द्रके पद्मा, पद्मश्री, कनकी, कनकमाला और महापद्मा, ये पाँच अग्रदेवियाँ है ।
२०९
४. भावन लोक परविय्या संति । छस्सहस्सं च समं पत्तेक्कं विविहरूहि || = चमरेन्द्रको अग्रमहिषियोमेंमे प्रत्येक अपने साथ अर्थात् मूल शरीर सहित, अनुपम रूप लावण्यसे युक्त आठ हजार प्रमाण विक्रिया निर्मित रूपों को धारण कर सकती है | १२| ( द्वितीय इन्द्रकी देवियाँ तथा नागेन्द्रो व गरुडेन्द्रो (सुपर्ण) की देवियोंकी विडियाका प्रमाण भी आठ हजार है। ( ति प /३/६४-६६ ) । द्वीपेन्द्रादिकों की देवियों में से प्रत्येकके मूल शरीरके साथ विविध प्रकारके रूपोसे छह हजार प्रमाण विक्रिया होती है ॥ ६८ ॥
३. इन्द्रों व उनके परिवार देवकी देवियाँ
वि. १ ३/१०१-१० (त्रि. सा. २३०-२३६)
इन्द्रका नाम
चमरेन्द्र
वैरोचन
भूतानन्द धरणानन्द
बेशु
वेणुधारी
शेष सर्व
इन्द्र
दे० भवनवासी /२/५
स्व इन्द्रवत स्व इन्द्रवत्
स्व इन्द्रवत्
४. भावन लोक
२. प्रधान देवियोंकी विक्रियाका प्रमाण ति./३/१२.३० चमरग्निममहिसोगं असहस्सविकृष्णा संति। पत्तेक्कं अप्पसमं णिरुवमलावण्णरूहि । १२ । दीविद पहुटीणं देवीण जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश
पारिषद
२५० २०० १५० १०० ५० १०० ३२
३०० २५० २०० २०० १६० १४०
१६० १४० १२०
91
| १४० १२० १०००
स्व इन्द्रवत् ::::::
११
::::::
११
19
११
14
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::::::
१. भावन लोक निर्देश
दे० रत्नप्रभा ( मध्य लोककी इस चित्रा पृथिवीके नीचे रत्नप्रभा पृथिवी है । उसके तीन भाग हैं - खरभाग, पंकभाग, अम्बहुल भाग । ) ति प /३/७ पपुवीए खरभाए सभागमि भवणसुराणं भवणइ होंति वररयणसोहाणि 191 रत्नप्रभा पृथिवीके खरभाग और एक भागमै उत्कृष्ट रत्नोसे शोभायमान भवनवासी देवोंके भवन है ।७१
रा. वा /२/१/८/१६०/२२ तत्र खरपृथिवीभागस्योपधयेक योजन सहस परित्यज्य मन्यमभागेषु चतुर्दश योजनसहस्रपु किनरकिपूरुष सप्ताना व्यन्तराणा नागवद्य त्सुपर्णाग्निवातस्तनितोदधिद्वीपदिवकुमाराणानवाना भवनवासिना पायासा । पलभागे असुरराक्षसानामावासा = खर पृथिवी भागके ऊपर और नीचे की ओर एक-एक हजार योजन छोड़कर मध्यके १४ हजार योजनमें किन्नर, किम्पुरुष आदि सात व्यन्तरोके तथा नाग, विद्यय, अग्नि, बास्तमित, दधि द्वीप और दिक्कुमार इन नव भवनवासियों के निवास है। पलहुल भागमे असुर और राइसोके आवास है। (ह. पु/४/५०-५१ ५६-६५), (ज. १ / ११ / १२३-१२७ ) ।
3
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दे० व्यंतर/४/१,५ ( खरभाग, पंकभाग और तिर्यक् लोकमे भी भवन - बासियों के निवास ई)।
* मावन लोकमै बादर अप व तेज कायिकका अस्तित्व - २० काय/२/५ ।
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भवन
भावन लोक
असुरों के जातरिक नौ पकार भवन वासियों के ७३८ लाख भवन
तथा राक्षस के अतिरिक्त ७ प्रकार व्यन्तर देवों के भवन
११ चित्रा १००० येो०
वैय००० यो
लोहियाक १०००।
असार ल्लि १०००० गोदक १०००
सवाल ९००० योन
यो
७ ज्योतिरस १०००
अजन १००००
जनमूल 100 यो०)
अंक
स्फटिक १००० यो० चन्दन
१३ वर्चगत
16. बहल
शैल १००० यो० पाषाण 100 असुरो के ३४००० भन तथा राधासोकभव
नरक के
ऊपर
दक्षिण
foco
उत्तर
4
२१०
४. भावन लोक
ति //१३१-१३३ का भावार्थ (शोक विनिश्चयके अनुसार कुटवर दीपके कुण्ड पर्वतपरकेर्यादाओमे १६ टोबर १६ नागेन्द्र रहते है ।१३१-१३३। )
याजन
१६००० योजन
१८०००० योजन
२. भवनवासी देवोंके निवास स्थानोंके भेद व लक्षण ति, प / ३ / २२-२३ भवणा भरणपुराणि आवासा अ सुराग होदि तिविहा णं रणपहार भवणा दीवसमुद्दाण उवरि भवणपुरा | २२ | दहसेलदुमादीणं रम्माण उवरि होति आवासा । णागादीण केसि तियणिलया भवणमेकमसुराणं |२३| भवनवासी देवोके निवास स्थान भवन, भवनपुर और आवासके भेदसे तीन प्रकार होते है। इनमें से रत्नप्रभा पृथिवीमे स्थित निवासस्थानोको भवन, द्वीप समुद्रोके ऊपर स्थित निवासस्थानोको भवनपुर, और तालाब, पर्वत और वृक्षादिके ऊपर स्थित निवासस्थानोको आवास कहते है। नागकुमारादिक देवोमेंसे किन्हींके तो भवन, भवनपुर और आवास तीनो ही तरहके निवास स्थान होते है, परन्तु असुरकुमारोके केवल एक भवन रूप ही निवासस्थान होते है ।
३. मध्य लोकमें मवनवासियोंका निवास पि./४/२०१२. २९२६ का भावार्थ (जम्बुद्वीपके मित्र देवकुरु व उत्तरकुरुमें स्थित दो प्रमक पर्वतोके उत्तर भागमे सीता नदीके दोनो ओर स्थित निषेध, देवकुरु, सूर, सुलस, विद्य ुत् इन पाँचो नामोके युगलोरूप १० द्रहोमे उन उन नामवाले नागकुमार देवोके निवासस्थान (आवास) है । २०६२-२१२६ । )
ति ५/४/२७८०-२७८२ का भावार्थ ( मानुषोत्तर पर्वतवर ईशान दिशा के नाभि पर हनुमा नामक देव और भकूट धा भवनेन्द्र रहता है | २७ १० वायव्य दिशाके वेलम्ब नामक और नैऋत्य दिशा के सर्वशन पर भारी रहता है २००२ अग्नि दिशाके तपनीय नामक कूटपर स्वातिदेव और रत्नकूटपर वेणु नामक भवनेन्द्र रहता है | २७० )
४. खर पंक भागमें स्थित भवनोंकी संख्या
ति प /३/११-१२, २०-२१), ( रा. वा /४/१०/८/२१६/२६ ); (ज प / ११ / १२४ - १२७ ) ।
ल लाख
देवोका नाम
असुरकुमार
नागकुमार सुपर्णकुमार
झीपकुमार
उदधिकुमार
स्तनित कुमार विद्य ुत कुमार
दिस्कुमार
अग्निकुमार
वायुकुमार
जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश
उत्तरेन्द्र
३४ ल
४४ ल
३८ ल
४० ल
५० ल
भवनोकी सख्या
दक्षिणे
३० ल
४० ल
३४ ल ३६ ल
59
४६ ल
कुल योग
***
६४ ल
८४ ल
७२ ल ७६ ल
५. भवनोंकी बनावट व विस्तार आदि
ति. प /३/२५-६१ का भावार्थ ( ये सब देवो व इन्द्रोके भवन समचतुकोण तथा वज्रमय द्वारोसे शोभायमान है | २५| ये भवन बाहल्य में ३०० योजन और विस्तार में संख्यात व असख्यात योजन प्रमाण है १२६-२७| भवनोकी चारो दिशाओ में उपदिष्ट योजन प्रमाण जाकर एक-एक दिव्यवेदी ( परकोट ) है |२८| इन वेदियोकी ऊँचाई दो कोस और विस्तार ५०० धनुष प्रमाण है |२| गोपुर द्वारोसे युक्त और उपरिम भागमें जिनमन्दिरोसे सहित के वेदियों हैं |३०| वेदियोके बाह्य भागो में चैत्य वृक्षोसे सहित और अपने नाना वृक्षीसे युक्त पवित्र अशोकवन, सप्तच्छदवन, चंपकवन और आम्रवन स्थित है । ३१ । इन वेदियो के भागमें सर्वत्र १०० योजन ऊँचे वेत्रासन के आकार बहुमध्य रत्नमय महाकूट स्थित है |४०| प्रत्येक कूटपर एक-एक जिन भवन है | ४३ | कूटोके चारों तरफ भवनवासी देवीके प्रासाद है । ५६ । सब भवन सात, आठ, नौ व दश इत्यादि भूमियों (मजिलो ) से भूषित• • जनता भूषणाला मैथुनाला जगाला (परिगृह और यन्त्रशाला ( सहित ) -सामान्यगृह, गर्भगृह, कदलीगृह, चित्रगृह, आसनगृह, नादगृह, और लतागृह इत्यादि गृहविशेषो से सहित.. पुष्करिणी, वापी और कूप इनके समूह से युक्त गवाक्ष और कपाटों से सुशोभित नाना प्रकारकी पुत्तलिकाओसे सहित अनादिनिधन
१५७ ६ १६
4. प्रत्येक भवन में देवों को वस्ती
वि. २६२७
भदेव सतिस २६ संखातीदा सेयं छत्तीससुरा य होदि संखेज्जा । 1२७ = सख्यात योजन विस्तारवाले भवनो मे और शेष असंख्यात योजन विस्तारवाले भवन में असंख्यात भवनवासी देव रहते है ।
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६६ ल
७७२ ल
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भवनतापि आकाशोपपत्र देव
भवनतापि आकाशोपपन्न देव - दे० दे० /11 / ३ |
भवन भूमि दे० समवशरणको ७ वी भूमि । भव परिवर्तन रूप संसार--३० संसार / २। भवप्रत्यय ज्ञान दे० अवधिज्ञान / १,६ भव प्रत्यय प्रकृतियों-दे० प्रकृतिबन्ध/२ । भव विचय धर्मध्यान- - दे० धर्म ध्यान / १ । भव विपाको प्रकृतियों ०२ भव स्थिति स्थिति में फायरिथति अन्तर दे०स्थिति/२ | भवाद्धा - गो. जी. / भाषा/२५०/५६६/१२ पर्यायसम्बन्धी (पर्याय विशेष मे परिभ्रमणका उत्कृष्ट काल ) तो भवाद्धा है ।
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भवितव्य ०४
भविव्यवत कथा भट्टारक श्रीधर (ई. पा. १४ ) की एक प्राकृत छन्द बद्ध रचना । (ती /३/१८७)
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भविष्यदत्त चरित्र -
रायमल्लई १६३६-१६१०).
(ती./४/-३)।
२. पं. पद्म सुन्दर (ई० १५६७ ) कृत संस्कृत काव्य | भविष्यवाणी-आगममे अनेको विषयो सम्बन्धी भविष्यवाणी की
गया है । यथा
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२११
ति. १ /४/१४-१, १४६३-१४६५ मउडधरेसु चरिमो जिणदिवख धरदि तोय तो मरा पे मेहति १४११ वीससहस्से दिसया सचारवदराणि मुदतित्थ धम्मपट्टण सादिदो १४६३० तेत्तियमेकाले जम्मिस्सादि चाम्पसमा विणी तुम्मेोविय असूयको य पण १४४ उमदेहिम जुतो सम्लगार सि राग कुरो को तोओ १२६५१ मुनिदीक्षा सम्बन्धीमुकुटधरोमें अन्तिम चन्द्रगुप्तने जिनदीक्षा धारण की। इसके पश्चाद मुकुटधारी दीक्षाको धारण नही करते । १४८१ । २ द्रव्य श्रुतके व्युच्छेद सम्वन्धी तीर्थं धर्म प्रवर्तनका कारण है. यह बीस हजार तीन सौ सतरह (२०११० वर्षोंने काल दोषसे व्युको प्राप्त हो जायेगा | १४६३ | ३. चतुसघ सम्बन्धी- इतने मात्र समयमे (२०३१७ वर्ष तक ) चातुर्वर्ण्य सब जन्म लेता रहेगा | १४ ६३ ४ मनुष्य की वृद्धि सम्बन्धी किन्तु काय अविनीत दुर्बुद्धि, असूयक, सात भय व आठ मोमे सयुक्त, शव्य एव गारवोसे सहित, कलह प्रिय, रागिष्ठ, क्रूर एव क्रोधी होगा | १४६५ ॥
देन भरत महाराज १६ ना फल वर्णन करते हुए भगवान् ऋषभदेवने पमकालमे होनेवाली घटनाओ सम्बन्वो भावष्य वाणी की।
भव्य संगार ने एक नेको यता सहित मंगारी जोबोको भव्य और वैसन्ति जो अभव्य बहते हे। परन्तु इसका यह अर्थ नहीं कि सारे जो अवमुक्त हो जायेगे । यदि यह सम्यक् पुरुषार्थ करे त मुक्त हो सकता है अन्यथा नहीं, ऐसा अभिप्राय है। मे भा कुछ ऐसे होते हे जो कभी भी उस प्रकारका पुरुषार्थ नही करेगे, ऐने जोवोका अभवन समान भव्य वहा जाता है और न जानेपर पुरुषार्थ करेंगे उन्हें दूर कहा जाता है। जोयाका न भव्य कह सकते है न अभव्य ।
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भव्य
१. भेद व लक्षण
१. मव्य व अभव्य जीवका लक्षण
सस /२/०/१६१/३ सम्यग्दर्शनादिभावेन भविष्यतीति भव्य । तद्विपरीतोऽभव्य । जिसके सम्यग्दर्शन आदि भाव प्रकट होनेकी योग्यता है वह भव्य कहलाता है। अभव्य इसका उलटा है। ( रा था /२/७/२/१११/०)
पस / प्रा / १५५-१५६ संखेज्ज असखेज्जा अण तकालेण चावि ते णियमा । सिज्झति भव्यजीवा अभव्वजी वाण सिज्यंति । १५५ । भविया सिद्धी जेसि वीवाणं ते भवंति भवसिद्धा । तव्विवरीयाभव्त्रा ससाराओ ण सिज्झति । १५६। - जो भव्य जीव है वे नियमसे संख्यात, असख्यात व अनन्तकालके द्वारा मोक्ष प्राप्त कर लेते है परन्तु अभव्य जीव कभी भी मोक्ष प्राप्त नही कर पाते है। जो जीव सिद्ध पदकी प्राप्ति योग्य है उन्हे भयसिद्ध कहते है और उनसे विपरीत जो जो ससारसे छूटकर सिद्ध नहीं होते वे अभव्य है । ९४४ १५६। ( ४.१ / १.२.१४२/गा, १९९ / ३६४ ) ( रा. मा /१/७/११/६०४/१४), (प ७/२,१.२/७/५), (न.च.वृ./१२७) (गोजी २५७/१७) १/४.५५०/२०६/२ भवतीति भव्य आगम) वर्तमान कालमें
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है इसलिए उसकी भव्य सज्ञा है । नि सा./ता वृ / १५६ भाविकाले स्वभावानन्त चतुष्टयात्म सहजज्ञानादिगुणै भवनयोग्या भव्या एतेषा विपरीता ह्यभव्याः: भविष्यकालमें स्वभाव - अनन्त चतुष्टयात्मक सहज ज्ञानादि गुणोरूपसे भवन ( परिणमन) के याग्य (जीव ) वे भव्य हैं, उनसे विपरीत (जीव ) वे वास्तवमे अभव्य है । ( गो जी./जी. प्र./७०४ / ११४५/८ ) । इस /टी./२१/०४/४ की वृतिका स्वशुद्धात्मसम्यक् अद्वानज्ञानानुचरणरूपेण भविष्यतीति भव्यः । - निज शुद्ध आत्मा के सम्यक् श्रद्धान, ज्ञान तथा आचरण रूपसे जो होगा उसे भव्य कहते है । २. मध्य अमय जीवकी पहिचान
प्रसा / तू / ६२ णो मद्दहति सोक्खं सुहेसु परमंति विगदधादीण । सूणिदूण ते अभव्या भव्वा वा त पडिच्छति । 'जिनके घातोकर्म नष्ट हो गये है, उनका सुव (सर्व) सुखोमें उत्कृष्ट है' यह सुनकर जो श्रद्धा नही करते वे अभव्य है, और भव्य उसे स्वीकार ( आदर ) करते है श्रद्वा करते हैं। पं.वि./२/१३ प्रतिप्रीति येन वापि हि श्रुता निश्चित स भवेभ्यो भाविनिर्गनभाजनम्॥ २३॥उस आत्मतेजके प्रति मन प्रमको वारण करके जिसने उसकी बात भी सुनी है वह निश्चय से भव्य है । वह भविष्य मे प्राप्त होनेवाली मुक्तिका पात्र है ।२२
३. भव्य मार्गण के भेद
१९४९/२१२ भन्यावादे अस्थि रसिया भ सिलिया । १४९। == भव्यमार्गणाने अनुवाद से भव्यसिद्ध और अभव्यसिद्ध जीव होते है १४१। ( द्र. स /टी./१३/३८/६ ) | घ. /२०/२१/९६/६ सिद्धिवि अरिय अभवसिखिया वि नामिद्विया व अभवसिद्विया वि अत्थि । =भव्यमिद्विक जब होते है, अभाद्विक जीव होते है और भव्यसिद्विक तथा raffe इन दोनो विकल्पोसे रहित भी स्थान होता है ।
ग. जी / जी / ७०५ / ११४१ / २ भव्य स च आसन्नभव्य दूरभव्य अभव्यभव्यश्चेति त्रेधा । = भव्य तीन प्रकार है- आसन्न भव्य, दूर भव्य और भव्यसम भव्य ।
४. आसन व दूर भव्य जीवके लक्षण
प्रसा / त प्र / ६० ये पुनरिदमिदानीमेव वच प्रतीच्छन्ति ते शिश्रियो भोजन ममासन्नभव्या भवन्ति । ये तु पुरः प्रतीच्छन्ति ते भव्या
जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश
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भव्य
२१२
इति । =जो उस ( केवली भगवान्का सुख सर्व सुखोमे उत्कृष्ट है ) । वचनको इसी समय स्वीकार (श्रद्धा) करते है वे शिवश्रीके भाजन आसन्न भव्य है । और जो आगे जाकर स्वीकार करेंगे वे दूर भव्य है ।
गो. जी भाषा / ००४/१९४४/२ जे धोरे कामे मुक्त होते होड़ ते आसन्न भव्य है । जे बहुत काल मे मुक्त होते होइ ते दूर भव्य है । ५. अभव्य समभव्य जीवका लक्षण
पा/२/२२२/१२/१२/११ अभव्य अभयसमागमले चि गोदभावमुपगए जो भव्य है या अभीके समान निव्य fariदको प्राप्त हुए भव्य है । गो.जो. / भाषा/७०४/१९४४/३ जे विकास विषै मुक्त होनेके नाही केवल मुक्त होनेको योग्यता हो कौ धरे है ते अभव्य सम भव्य है ।
६. अतीत मध्य जीवका लक्षण
पं सं . / प्रा./१/१५७ ण य जे भव्त्राभव्त्रा मुत्तिसुहा होति तीदससारा । ते जीवाणायव्वा णो भव्वा णो अभव्वा य । १५७ - जो न भव्य है और न अभव्य है, किन्तु जिन्होने को कर लिया है और अतीत ससार है । उन जीवोको नो भव्य नो अभव्य जानना चाहिए। गोजी// ५५६) (पं.स./ स / २ / २८५ ) ।
७. भव्य व अभव्य स्वभावका लक्षण
आ.प./६ भाविकाले परस्वरूपाकारभवनाद्व भव्यस्वभाव | कालत्रयेऽपि परस्वरूपाकारा भवनादभव्यस्वभाव भाविकालमे पर स्वरूपके ( नवीन पर्यायके ) आकार रूपसे होनेके कारण भव्यस्वभाव है। और तीनो कालमें भी पर स्वरूपके ( पर द्रव्य के ) आकार रूपसे नहीं होने के कारण अभव्य स्वभाव है।
यस्य सर्वदा अभूतपय भाव्यमिति द्रव्यस्य सर्वदा भूतपर्यायैरभाव्यमिति । पंक २७/०६/११ / ता वृ /
निर्विकार चिदानन्दस्वभावपरिणामेन भवन परिणमम भव्यत्व अतीतमिध्यात्वरागादिभावपरिणामेनाभव
नमपरिणमनमभव्यत्व | - द्रव्य सर्वदा भूत पर्याय रूपसे भाव्य (परिणमित होने योग्य ) है । द्रव्य सर्वदा भूत पर्यायी रूप से अभाव्य ( न होने योग्य ) है ( त प्र ) निर्विकार चिदानन्द एक स्वभाव रूपसे होना अर्थात् परिणमन करना सो भव्यत्व भाव है। और
पं
•
हुए विभाव रागादि विभात्र परिणाम रूपसे नहीं होना अर्थात् परिणमन नहीं करना अभव्यत्व भाव है । ता वृ ।
२. भव्याभव्य निर्देश
१. सम्यक्त्वादि गुणोंकी व्यक्तिकी अपेक्षा भव्य अमध्य व्यपदेश है
रा. बा. /०/६/८-१/२०१ / २२ न सम्यग्दर्शनानचारित्रशक्तिभावाभावान्या भव्य कतेक २३ सम्पादिव्यक्तिभावाभावाभ्या भव्याभव्यत्वमिति विकल्प कनकेतरपाषाणवत् । यथा कनकभावव्यक्तियोगमवाप्स्यति इति कनकपाषाण इत्युच्यते तदभावादन्धपाषाण इति । तथा सम्यक्त्वादिपर्यायव्यक्तियोगार्हो य स भव्यतद्विपरीतोऽभव्य इति चोच्यते । =भव्यत्व और अभव्यत्व विभाग ज्ञान, दर्शन और चारित्रकी शक्ति सद्भाव और अज्ञानकी अपेक्षा नही है। प्रश्न- तो किस आधारसे यह विकल्प कहा गया है उत्तराको प्रगट होनेकी योग्यता और अयोग्यताको अपेक्षा है जैसे जिसमे वर्ण पर्याय प्रगट होनेकी योग्यता है नह कनकपाषाण कहा जाता है और अन्य अन्धपाषाण । उसो तरह
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२. भव्याभव्य निर्देश
सम्यग्दर्शनादि पर्यायोकी अभिव्यक्तिकी योग्यता नाला भव्य तथा अन्य अभव्य है./८/६/३८२/६) २. भव्य मार्गमा गुणस्थानों का स्वामित्व
१/११/१४२-१४३/३१४ सिद्धिया एजाज गिगति १ अभवसिद्धिया एक दियहुडि जान सि मिच्छा४ि३ भव्य सिद्ध जीव एकेन्द्रिय लेकर अयोगि केवल गुणस्थान तक होते है | १४२ ] सिद्ध जीव एकेन्द्रियसे लेकर सज्ञी मिथ्यादृष्टि गुणस्थान तक होते हैं । १४३ ॥
पस / प्रा./१/६७ खोणताभव्वम्मि य अभव्वे मिच्छ्रमेय तु । भव्य मार्गणाकी अपेक्षा भव्य जीवोके क्षोण कषायान्त बारह गुणस्थान होते
है । ( क्योकि सयोगी व अयोगीके भव्य व्यपदेश नहीं होता ( प. स. / प्रा. टो /४/६७) अभव्य जीवोके तो एकमात्र मिथ्यात्व गुणस्थान होता है । ६७
* मध्य मार्गणा में जीवसमास आदि विषयक २० प्ररूपणाएँ - दे० सव |
* मध्य मार्गणाकी सत् संख्या आदि ८ प्ररूपणाएँ
-दे० वह वह नाम ।
★ मध्य मार्गणा कमका अन्ध उदय सव - दे० वह वह नाम ।
३. सभी भव्य सिद्ध नही होते
पस / प्रा/१/१५४ सिद्धत्तणस्य जोग्गा जे जोवा ते भवति भवसिद्धा ।
उमलविगमेणियमा ताणं कणको पलाणमिव । जो जीव सिद्धत्व अवस्था पानेके योग्य है वे भव्यसिद्ध कहलाते है । किन्तु उनके कनकपल ( स्वर्ण पाषाण ) के समान मलका नाश होनेमें नियम नहीं है। (विशेषार्थ जिस प्रकार स्वर्ण पाषाण मे स्वर्ण रहते हुए भी उसको पृथक किया जाना निश्चित नही है। उसी प्रकार सिद्धत्व की योग्यता रखते हुए भी कितने ही भव्य जीव अनुकूल सामग्री मिलनेपर भी मोक्षको प्राप्त नही कर पाते ) | ( ध /१/१.१,४/गा १५/१५० ) (गो जी.//५४) (पं. रा स / २ / २०३) ।
रा वा / १/३/६/२४/२ केचित् भव्या संख्येयेन कालेन सेत्स्यन्ति, केचिदसंख्येपेन केचिदनन्तेन अपरे जनानन्तेन सेत्स्यन्ति । कोई भव्य संख्यात, कोई असख्यात और कोई अनन्तकालमे सिद्ध होंगे । और कुछ ऐसे है जो अनन्त काल में भी सिद्ध न होगे ।
घ. ४/१.५.३९०/४००/ ४ च सन्तिता सि पि बीए होइव्यमिदि नियमो अस्थि सव्त्रस्स ति हेमपासा स्स हेमपज्जाएण परिणमणष्पसंगा। ण च एव अणुबलभा । यह कोई नियम नही है कि rant शक्ति रखनेवाले सभी जीवो उसकी व्यक्ति होना ही चाहिए, अन्यथा सभी स्वर्ण पाषाणके स्वर्ण पर्यायसे परिणमनका प्रसंग प्राप्त होगा । किन्तु इस प्रकारसे देखा नहीं जाता ।
४. मिध्यादृष्टिको कथंचिद् अभव्य कह सकते हैं कपा४/३.२२/१२/१२/२ अवसिदिय
भणिमिच्छा
पाओगे त्ति घेत्तम् । उक्तस्सट्ठि विअणुभागबधे पडुच्च समाणतणेण अभव्यववएस पडि विरोहाभावादो। सूत्र में अभवसिद्धिपाआगे ऐसा कहनेपर उसका अर्थ मिध्यादृष्टिके योग्य ऐसा ऐना चाहिए क्योकि स्थिति और उस्कृष्ट अनुभागको अपेक्षा समानता होनेसे मिथ्यादृष्टिको अभव्य हमे कोई विरोध नही आता है।
जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश
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भव्य
५. शुद्ध नयसे दोनों समान हैं और अशुद्ध नयसे
असमान
स./ /४ महिन्त परश्येति त्रिधात्मा सर्वदेहिषु। 181-हिरात्मा अन्तरात्मा और परमात्मा ये तोन प्रकारके आत्मा सर्व यो
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द्र स / टी / १४ / ४८ / १ त्रिविधात्मसु मध्ये मिथ्यादृष्टिभव्यजीवे बहिरात्मा व्यक्तिरूपेण तिष्ठति, अन्तरात्मपरमात्मद्वय शक्तिरूपेण भाविनैगमनयापेक्षा तिपय पुनर्बहिराच्या व्यक्तिरूपेण अन्तरात्म परमात्मद्वय शक्तिरूपेणैव च भाविनै गमनयेनेति । यद्यभव्यजोवे परमात्मा शक्तिरूपेण वर्त्तते तर्हि कथमभव्यत्वमिति चेत् परमात्मा केलानादिरूपेण तिर्न भविष्यतीत्यभव्यत्व शक्ति पुन शुद्धसेनोभयत्र गमाना यदि पुन शक्तिरूपेणाप्यभव्यजीवे केवलज्ञानं नास्ति तदा केवलज्ञानावरणं न घटते भव्याभव्यद्वय पुनरशुद्धमयेनेति भावार्थ । एवं यथा मिथ्यादृष्टिसज्ञे बहिरात्मनि नयविभागेन दर्शितमात्मत्रयं तथा शेषगुणस्थानेष्वपि । तद्यथाबहिरात्मारस्थायामन्तरात्म परमात्मद्वयं शक्तिरूपेण भाविने गमनयेन व्यरूपेण च विज्ञेय अन्तरात्मावस्थाया तु वहिरात्मा भूतपूर्व न्यायेन घृतघटवत् परमात्मस्वरूप तु शक्तिरूपेण भाविने गमनयेन, व्यक्तिरूपेण च । परमात्मावस्थाया पुनरन्तरात्मबहिरात्मद्वय भूतपूर्वनयेनेति । तीन प्रकारके आत्माओ में जो मिथ्यादृष्टि भव्य जीव है. उसमें बहिरात्मा तो व्यक्ति रूपसे रहता है और अन्तरात्मा तथा परमात्मा ये दोनो शक्ति रूपसे रहते है, एवं भावि नैगमनयकी अपेक्षा व्यक्ति रूपसे भी रहते है मिध्यादृष्टि अभव्य जीव में बहिरामा व्यक्ति रूपसे और अन्तरात्मा तथा परमात्मा ये दोनो शक्ति रूपसे ही रहते है. भावि गमनयकी अपेक्षा भी अभव्यमें अन्तरारमा तथा परमात्मा व्यक्ति रूपमे नहीं रहते। प्रश्न- अभव्य जीवमे परमात्मा शक्तिरूपसे रहता है तो उसमे अभव्यत्व कैसे उत्तरअभव्य जीव मे परमात्मा शक्तिकी केवलज्ञान आदि रूपसे व्यक्ति न होगी इसलिए उसमे अभव्यत्र है। शुद्ध नयकी अपेक्षा परमात्माकी शक्ति तो मिथ्यादृष्टि भव्य और अभव्य इन दोनो में समान है। यदि अभव्य जीवमे शक्ति रूपसे भी केवलज्ञान न हो तो उसके केवलज्ञानावरण कर्म सिद्ध नही हो सकता। साराश यह है कि भव्य व अभव्य ये दोनो अशुद्ध नयसे है। इस प्रकार जैसे मित्र्यादृष्टि बहिरात्मामें नय विभागमे तानो आत्माओको बतलाया उसी प्रकार शेष तेरह गुणस्थानों ने भी घटित करना चाहिए जैसे कि बहिरात्मा की दशामे अन्तरात्मा तथा परमात्मा ये दोनो शक्ति रूपसे रहते है और भावि नैगमनयसे व्यक्ति रूपसे भी रहते है ऐसा समझना चाहिए । अन्तरात्माकी अवस्थामे बहिरात्मा भूतपूर्व न्याय से घृतके घटके समान और परमात्माका स्वरूप शक्तिरूपसे तथा भावि नैगमनयकी अपेक्षा व्यक्ति रूपसे भी जानना चाहिए। परमात्म अवस्था में अन्तरात्मा तथा बहिरामा पूर्व नयको अपेक्षा जानने चाहिए (स. दा. डी. ४) । दे०पारिणामिक शुद्ध नयसे भव्य भव्य भेद भी नहीं किये जा सकते। सर्व जोन शुद्ध चेतन्य मात्र है।
३. शंका-समाधान
१. मोक्षकी शक्ति है तो इन्हें अमव्य क्यों कहते है सस/६/२/१८२/२ भवस्य मन पर्ययज्ञानशक्ति केवलज्ञानशक्तिश्च स्याद्वा न वा । यदि स्यात् तस्याभव्यत्वाभाव । अथ नास्ति तत्तारणना व्यर्थेति । उच्यते - अदेशवचनान्न दोष, । द्रव्यार्थादेशात पर्यज्ञानशक्ति संभव । पर्यायार्यादेशात्तच्छवत्यभाव । यद्येव भव्याभवनविकल्पा नापपद्यते उभयत्र तच्छक्तिसद्
२१३
३. शंका-समाधान
=
भावात् । न शक्तिभावाभावापेक्षया भव्याभव्यविकल्प इत्युच्यते । - प्रश्न - अभव्य जीवके मन पर्ययज्ञानशक्ति और केवलज्ञानशक्ति होती है या नहीं होती। यदि होती है तो उसके अभव्यपना नही बनता। यदि नही होती है तो उसके उक्त दो आवरण- कर्मोंकी कल्पना करना व्यर्थ है। उत्तर- आदेश वचन होनेसे कोई दोष नहीं है। अव्ययाधिक नयकी अपेक्षा मन पर्ययज्ञान और केवलज्ञान शक्ति पायी जाती है पर पार्थिक नयको अपेक्षा उसके उसका अभाव है। प्रश्न- यदि ऐसा है तो भव्याभव्य विकल्प नहीं बन सकता है क्योंकि दोनोंके मन पर्ययज्ञान और वेयत्तज्ञान शक्ति पायी जाती है। उत्तर- शक्तिके सद्भाव और असद्भावको अपेक्षा भव्याभव्य विकल्प नही कहा गया है। ( अपितु व्यक्तिके सद्भाव और असद्भावकी अपेक्षा यह विकल्प कहा गया है । ( दे० भव्य / २ / १ ), ( रा. वा / ८/६/८-१/५०१/२५), (गो. क जो प्र/३३/२०१८), (बोर भी वे / भव्य /२/५)।
२. अभव्य सममव्यको भी भव्य कैसे कहते हैं। रावा./२/७/१/१२९/६ योऽनन्तेनापि कालेन न सत्स्यव्यसायभव्य एस चैव न भव्यराश्यन्तर्भावाद .. यथा योऽनन्तकालेनापि कनकपाषाणो न कनकी भविष्यति न तस्यान्ध पाषाणत्वं कनकपाषाणशक्तियोगात् यथा वा आगामिकासो योऽनन्तेनापि कालेन नागमिष्यति न तस्यागामित्व हीयते तथा भव्यस्यापि स्वशक्तियोगाइ असत्यामपि व्यक्तौ न भव्यत्वहानि । प्रश्न- जो भव्य अनन्त काल में भी सिद्ध न होगा वह तो अभव्यके तुल्य ही है। उत्तरनहीं, वह अभव्य नहीं है, क्योंकि उसमें भव्यत्व शक्ति है। जैसे कि कनक पाषाणको जो कभी भी सोना नहीं बनेगा अन्धपाषाण नहीं कह सकते अथवा उस आग. मी कालको जो अनन्त कालमें भी नहीं आयेगा अनागामी नही कह सकते उसी तरह सिद्धि न होनेपर भी भव्यत्व शक्ति होनेके कारण उसे अभव्य नही कह सकते। वह भव्य राशिमें ही शामिल है।
।
B
१/१.१.१४९/२०/० मुकिमनुपगच्छता कथं पुनर्भव्यत्वमिति पेन मुक्तिगमनादेशात न च योग्याः सर्वेऽपि नियमेन निष्कलङ्का भवन्ति सुवर्ण पाषाणेन व्यभिचारात् । प्रश्नमुक्तिको नही जानेवाले जीवोके भव्यपना कैसे बन सकता है । उत्तर- नहीं, क्योंकि, मुक्ति जानेकी योग्यताकी अपेक्षा उनके भव्य सज्ञा बन जाती है। जितने भी जीव मुक्ति जानेके योग्य होते है वे सब नियमसे कलक रहित होते है, ऐसा कोई नियम नहीं है, क्योकि, सर्वथा ऐसा मान लेनेपर स्वर्ण पाषाण में व्यभिचार आ जायेगा ( ४ / १.२.२१०/४०० / ३)।
कथचित् अनादि सान्तपना
२. मध्यख परख ०/२.२ / १३-१८४/१०६ भवाणुयादेण भवसिद्धिया केचिर कालादो होति ॥११३॥ अनादि जनसिदो ॥१६४॥ ध ७ / २.२, १८४ / १७६/८ कुदो। अणाइसरूवेणागयस्स भवियभावस्स अजोगिचरिमसमए विणासुवल भादो । अभवियसमाणी वि भवियजो अस्थि ति अणादिश्रो अपजनसिदो भवियभावो किष्ण परूविदो । ण, तत्थ अविणाससत्तीए अभावादो । सत्तीए चैव एत्थ अहियारो मसीए परि ति अगादि रूपासिदसुतण्णहामी प्रश्न- भव्यमपणा के अनुसार जीन भव्यसिद्धिक कितने कालतक रहते है । १८३१ उत्तर- जीव अनादि सान्त भव्यसिद्भिव होता है | १८४| क्योकि अनादि स्वरूपसे आये हुए भव्यभावका अयोगिकेवली के अन्तिम समयमे विनाश पाया जाता है। प्रश्नअभव्य के समान भी तो भव्य जीव होता है, तब फिर भव्य भावको अनादि और अनन्त क्यों नहीं प्ररूपण किया। उत्तर- नहीं, क्योकि
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भव्य
ranean अविनाश शक्तिका अभाव है, अर्थात् यद्यपि अनादि से अनन्त कालतक रहनेवाले भव्य जीव है तो सही, पर उनमें शक्ति रूपसे तो ससार विनाशकी सम्भावना है, अविनाशित्वकी नहीं । प्रश्न- यहाँ, भव्यत्व शक्तिका अधिकार है, उसकी व्यक्तिका नहीं, यह कैसे जाना जाता है। उत्तर-- भव्यत्वको अनादि सपर्यवसित कहनेवाले सूत्रको अन्यथा उपपत्ति बन नही सकती, इसीमे जाना जाता है कि यहाँ भव्यत्व शक्तिसे अभिप्राय है ।
४. मन्यत्वमें कथंचित् सादि- सान्तपना
घ. नं. ७/२,२ / सू. १८६५/१७७ ( भवियाणुत्रादेण) सादिओ सपज्जवसिदो ११८६ |
घ ७/२.२.१८५/१७७/३ अभविओ भवियभाव ण गच्छदि भवियाभवियभावाणमच्चताभात्रपग्मिहियाण मेयाहियरणतविरोहादो या सिद्धो भविओ होहि गट्टासेसावरणं पूणरूप्पत्ति विरोहादी सम्हा भविय भावो व सादिति व एस होतो. जनडियनमाणादण डिवणे सम्मत्ते अणादि-अनंतो भवियभावो अतादीदससारादो. पडिवण्णे सम्मत्ते अण्णो भवियभावो उप्पज्जर, पोग्गल परियहस्स अयमेतसाराद्वाद एवं समन- समापि परियट्टसंसाराणां जीवाणं पुध-पुध भवियभावो वत्तव्वो । तदो सिद्ध भवियाण सादि-सांतत्तमिदि । ( भव्यमार्गणानुसार ) जीव सादि सान्त भव्यसिद्धिक भी होता है । १८५ प्रश्न - अभव्य भव्यत्वको प्राप्त हो नहीं सकता, क्योकि भव्य और अभव्य भाव एक दूसरे के अत्यन्ताभावको धारण करनेवाले होनेसे एक ही जीवमें क्रमसे भी उनका अस्तित्व माननेमें विरोध आता है। सिद्ध भी भव्य होता नहीं है, क्योंकि जिन जीवोके समस्त कर्मास्रव नष्ट हो गये है उनके पुन उन कर्मास्रवोकी उत्पत्ति माननेमें विरोध आता है। भव्यश्व सादि नही हो सकता ? उत्तर - यह कोई दोष नहीं है, क्योंकि पर्यायार्थिक नयके अवलम्बन से जबतक सम्यक्त्व ग्रहण नहीं किया तबतक जीवका भव्यत्व अनादि-अनन्त रूप है, क्योंकि तबतक उसका संसार अन्तरहित है । किन्तु सम्यक्त्वके ग्रहण कर लेने पर अन्य ही भव्यभाव उत्पन्न हो जाता है, क्योकि, सम्यक्त्व उत्पन्न हो जानेपर फिर केवल अर्धल परिवर्तनमात्र कालतक संसार में स्थिति रहती है । इसी प्रकार एक समय कम उपार्ध पुद्गल परिवर्तन ससारवाले, दो समय कम उपार्ध पुद्गल परिवर्तन ससारवाले आदि जीवोके पृथक-पृथक भव्यभावका कथन करना चाहिए। इस प्रकार यह सिद्ध हो जाता है कि भव्य जीव सादि-सन्त होते है।
अत'
५. मध्यामन्यस्य पारिणामिकपना कैसे है
४/१०/२३/२३० अभवसिद्धिय ति को भावी पारिणामित्रो भावो ॥६३॥
ध. / प्र, ५/१,७,६३/२३०/९ कुदो । कम्माणमुदएण उवसमेण खएण खओवसमे वा अवतारतीदोभवियत्तस्स वि पारिणामिओ चै
२१४
भागाभाग
भानो, कम्माणमुदयश्वसम-मय खोक मेहि भयात्तदो । प्रश्न- अभव्य सिद्धिक यह कौन-सा भाव है। उत्तर- पारिणामिक भाव है। क्योंकि, कर्मके उपशमय अथवा क्षयोपशन से अभव्यत्व भाव उत्पन्न नहीं होता है। इसी प्रकार भव्यत्व भी पारि णामिक भाव ही है, क्योंकि, कर्मोंके उदय, उपशम क्षय ओर क्षयोपशम से भव्यत्व भाव उत्पन्न नही होता। (रा.वा./२/७/२/ ११०/२१) ।
६. अन्य सम्बन्धित विषय
१. अभव्य भाव जीवकी नित्य व्यंजन पर्याय है -३० पर्याय /३/७ । २, मोक्षर्पे भव्यत्वभावका अभाव हो जाता है पर जीवत्वका नहीं - दे० जीवख / ५१ २. निर्व्यय अभव्यों में अनन्तताकी सिद्धि कैसे हो -२० अनन्त / २ । ४ मोक्ष जाते-जाते भव्य राशि समाप्त हो जायेगी- दे० मोक्ष / ६ । ५. भव्य व अन्य कर्मभि औदयिक है ०२ ६. भव्यत्व व अभव्यत्व कथंचित् अशुद्धपारिणामिक भाव है - दे० पारिणामिक / ३ भव्यकुमुद चन्द्रिका - आशाचर (ई. १९०३-१२४३) की संस्कृत भाषाबद्ध रचना ।
पं
भव्यजन कण्ठाभरण- कवि अर्हदास (वि. ग. १४ प्रारम्भ) कृत २४२ पद्य प्रमाण, पौराणिक समीक्षा तथा जैनाचार विषयक हिन्दी काव्य । (ती./४/५३) ।
भव्य सेन - वस्ती नगरी सवनायक एकादशनिवारी तपस्वी थे। मुनिगुने एक विद्याधर द्वारा रामी रेवतीको धर्मवृद्धि भेजी, परन्तु इनके लिए कोई सन्देश न भेजा। तब उस विद्याधरने इनकी परीक्षा ली, जिसमें ये असफल रहे। (बृ. क. को / कथा नं. ७ / २१-२६ ) । भव्यस्पर्श - दे० स्पर्श / १ ।
भाग - Division ( ध ५ / प्र, २७) २, अंश, पर्याय, भाग, हार. विधा, प्रकार, भेद, छेद और भंग एकार्थवाची है- दे० पर्याय /९/१ । भागचन्द - महावीराष्टक, अमितगति श्रावकाचार वचनिका प्रमाण
परीक्षा वचनिका, उपदेश सिद्धान्त रत्नमाला वचनिका, पदसग्रह आदि के कर्ता एक हिन्दी कवि । समय-विश. ११-२० (ई. श. ११ उत्तरार्ध) (४२ भागहार - Divor] दे० गणित / II /२/५।
भागाभाग — कुल द्रव्यमेंसे विभाग करके कितना भाग किसके हिस्से में आता है, इसे भागाभाग कहते है। जैसे एक समयप्रबद्ध सर्व कर्म प्रदेशोंका कुछ भाग ज्ञानावरणीको मिला, उसमें से भी चौथाई -चौथाई भाग मतिज्ञानावरणीको मिला। इसी प्रकार कर्मोके प्रकृति, स्थिति, अनुभाग व प्रदेशमधमें, उनके चारों प्रकारके सव अथवा भुजगार व अस्पतर बन्धक जीवों आदि विषयोंमें यथायोग्य करके विस्तृत प्ररूपणाएं की गयी है जिनके सन्दर्भोंकी सूची नीचे दी गयी है
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भागाभाग
नं०
४
9
१
२
३
४
२
१
२
३
४
६
प्रकृति विषयक
प्रकृति
अष्ट कर्म वन्ध सम्बन्धी ( म. मं
जघन्य उत्कृष्ट बन्ध
उत्तर प्र०
जघन्य उत्कृष्ट बन्धके स्वामियोंमें
भुजगारादि पदके स्वामियोंमें
वृद्धि हानि रूप पदोंके स्वामियो
१ ३७८-३७६
२
२०४-२४६ १४१-१४०
स्थिति विषयक
प्र०
*13.7 - )
/- नं. $40
|
२ ४५०-४५२
२ ५०६-५१
कषायोके सत्वासत्त्वकी अपेक्षा --
१ ३७८-३७६
मोहनी कर्म सस्व सम्बन्धी (क.)
जघन्य उत्कृष्ट सत्त्व स्थानोंके स्वामियोकी अपेक्षा -
कर्म समासश्वको अपेक्षा
२
६७ ६६
२ १६०-६७
२८,२४,२३ आदि सत्त्व स्थानो की अपेक्षा
२
३८६-३१६
२ ३५०-३५३
भुजगार दि पोंके स्वामियोंकी अपेक्षा
२
३
३०२-३०४ ७६८-०६६
३
1
१६८-१६६
वृद्धि हानि रूप पदोके स्थागियोकी अपेक्षा
३
२१५
उत्तर प्र०
३
४४-४५१
३
३
- १०३ ४६१-८०३
३
११६-११८
१०४-१०८
* अन्य सम्बन्धित विषय
२
१. जोवोंका संख्या विषयक भागाभाग - दे० मख्या ३/४-६ जघन्य उत्कृष्ट योग स्थानोंमें स्थित जीवोंका ओव व आदेशसे भागाभाग । -80 (18 10/8/t) 1 ३. प्रथमादि योग वर्गणाओंमें जीव प्रदेशोंका ओघ व आदेशसे भागाभाग । -३० ( १०/२०४८/१९) जघन्य उत्कृष्ट अवगाहना स्थानों में स्थित टीका ओवव आदेश से भागाभाग ।
-३० (५.१२/२०/१६)
४
३६५-३६७
अनुभाग विषयक
मूल प्र०
४
१४६-९८६
४
२८६
४
३६२
८८-१२
१५२
५. १७६
उत्तर प्र०
४
३१४
जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश
४६८
k
६१८
५
३४-१५०
५
४६०-४६२
५ ५४७-५४६
मूल प्र०
६
१२७
भागाभाग
प्रदेश विषयक
उत्तर प्र०
५७०-५७१
५. जमन्य उत्कृष्ट क्षेत्रोंमें स्थिति जीका ओर व आदेशले भागाभाग । - दे० ( ध ३२ / १६ ) ।
६. २१ वर्गणाओंमें परमाणुओंका भागाभाग ।
- दे० ( ध १४/१६०-१६३ ) ७ पोच शरीरोंके जघन्य उत्कृष्ट व उभय स्थितिमें स्थित जीवों के निषेकका भागाभाग । -- दे० (ष ख १४ सू ३३१-३३१ / ३७० ) । ८. आठ कमको मूलोत्तर प्रकृतियोंके प्रकृति रूप भेदोंकी, समय [प्रदाता] व क्षेत्र प्रयासको अपेक्षा प्रमाणका परस्पर भागाभाग । -३० ( १२/३ १२९/०१
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भागाहार
भाव
भारद्वाज-१. एक ब्राह्मण पुत्र (म. पु./७४/७६) यह वर्धमान भगवानका दूरवर्ती पूर्वभव है-दे० वर्धमान । २. भरतक्षेत्र उत्तर आर्य खण्डका एक देश-दे० मनुष्य/४।
भारामल्ल-१. नागौरका राजा। कोट्यधीशधनकुबेर इसकी
उपाधि थी। समय-इ. श. १६ (हि जै सा. इ./३६ कामता)। २. परशुरामके पुत्र थे। पहले फरूखाबाद और पीछे भिण्ड रहे थे। ये वास्तवमें एक कवि नहीं अपितु तुकबन्द थे। इन्होंने सोमकीर्तिके संस्कृत चारुदत्त चरित्रके आधारपर हिन्दी चौपाई दोहा छन्दमें चारुदत्त चरित्र रचा, इसके अतिरिक्त शील कथा, दर्शनकथा, निशिभोजन कथा भी रची। समय-वि. १८१३ । हिं. जै सा. इ./ २१८ कामता), (चारुदत्त चरित्र/प्र./परमेष्ठीदास)।
भागव-भरत क्षेत्र पूर्व आर्य खण्डका एक देश-दे० मनुष्य/४ ।
मागाहार-१. दे० सक्रमण/९/२, २. भागाहार सम्बन्धी प्रक्रिया।
-दे० गणित/U/१६। भाग्य-नियति/३। भाग्यपुर-वर्तमान हैदराबाद (दक्कन) (म.पु./प्र ५०/५०
पन्नालाल )। भाजक-Divisor (ध.६/प्र. २८)।-(दे० गणित/II/१/६ )। भाजनांग कल्पवृक्ष-दे० वृक्ष/१। भाजित-गणितकी भागाहार विधिमें भाज्य राशिको भागहार
द्वारा भाजित किया गया कहते है।-(दे० गणित/II/१/६ )। भाज्यप-गणितकी भागहार विधिमें जिस राशिका भाग किया जाय
वह भाज्य है।-दे० गणित/II/१/६। भाटक जीविका-दे० सावद्या। भाद्रवन सिंहनिष्क्रिडित व्रत-निम्न प्रस्तारके अनुसार एक
वृद्धि क्रमसे १-१३ तक उपवास करना, फिर एक हानि कमसे १३ से १तक उपवास करना। बीचके सर्व स्थानों में एकाशना या पारणा करना । प्रस्तार-१, २, ३, ४, ५, ६, ७, ८,६, १०, ११, १२, १३, १३, १२, ११, १०,६८,७,६,५४, ३, २,१-१७५ । नमस्कार मन्त्र
का त्रिकाल जाप करे / (बत विधान सं./पृ.५८)। भानु-कृष्ण का सत्यभामा रानीसे पुत्र था (ह पु./४४/१) अन्तमे
दोक्षा धारणकर मुनि हो गया था ( ह. पु./६१/३१) । भानुकील-नन्दी सबके देशीय गण की गुर्वावलीके अनुसार
आप गण्ड विमुक्तदेव के शिष्य थे। समय-वि. १२१५१२३६ (ई ११५८-११८२), (ध.२/प्र.४/H.L. Jain) दे० इतिहास/ ७/५ ।
भार्गवाचार्यकी वंश परम्परा-भार्गव धनुर्विद्याके प्रसिद्ध
आचार्य थे। जिनकी शिष्य परम्परामें कौरवों और पाण्डवोके गुरु द्रोणाचार्य हुए थे। उन भार्गवाचार्यकी शिष्यपरम्परा निम्न प्रकार है। इनका प्रथम शिष्य आत्रेय था। फिर क्रमसे कौथुमि-अमरावर्त-सित-बामदेव-कपिष्टल-जगरस्थामा, सरवर-शरासन-रावणविद्रावण और विद्रावणका पुत्र द्रोणाचार्य था। जो समस्त भार्गव वंशियोके द्वारा वन्दित था। उसका पुत्र अश्वत्थामा था। (ह पु./ ४५/४३-४८)।
व-चेतन व अचेतन सभी द्रव्यके अनेको स्वभाव है। वे सब उसके भाव कहलाते है। जीव द्रव्यको अपेक्षा उनके पाँच भाव है
औदयिक, औपशमिक, क्षायिक, क्षायोपशमिक और पारिणामिक । कर्मों के उदयसे होनेवाले रागादि भाव औदयिक । उनके उपशमसे होनेवाले सम्यक्त्व व.चारित्र औपशामिक है । उनके क्षयसे होनेवाले केवलज्ञानादि क्षायिक है। उनके क्षयोपशमसे होनेवाले मतिज्ञानादि क्षायोपशमिक है। और कर्मोंके उदय आदिसे निरपेक्ष चैतन्यत्व आदि भाव पारिणामिक है। एक जीवमें एक समयमें भिन्न-भिन्न गुणों की अपेक्षा भिन्न-भिन्न गुणस्थानोंमें यथायोग्य भाव पाये जाने सम्भव है, जिनके संयोगी भगोंको सन्निपातिक भाव कहते हैं। पुदगल द्रव्यमें औदयिक, क्षायिक व पारिणामिक ये तीन भाव तथा शेष चार द्रव्योमें केवल एक पारिणामिक भाव ही सम्भव है।
भानुगुप्त --- मगध देशको राज्य वंशावली (दे० इतिहास ) के अनुसार यह गुप्तवंशका छठा व अन्तिम राजा था। इसको हुण राजा तोरमाण व मिहिरकुल ने ई०५०० ३५०७ मे परास्त करके गुप्तव शका विनाश कर दिया । समय-ई०४६०-५०७ दे० ( इतिहास/३/४)।
भानुदिनन्दिसघ बलात्कारगणकी गुर्वावली के अनुसार आप
नेमिचन्द्र नं०१ के शिष्य और सिहन्दि न. १ के गुरु थे। समय-विक्रम शक स. ४८७-५०८ (ई० ५६५-५८६) -दे० इतिहास/७/२।
भानुमती-धिनको पत्नी (पा. पु./१०/१०८)। भानुमत्र-मालवा । मगध ) देशके राज्यवंशमे अग्निमित्रके स्थानपर श्वेताम्बर आम्नायमें भानुमित्र नाम लिया जाता है अत;
अग्निमित्रका ही अपरनाम भानुमित्र है।-दे० अग्निमित्र । भामंडल- पु./सर्ग/श्लोक सीताका भाई था (२६/१२१) पूर्व वैरसे किसी देव ने जन्म लेते ही इसको चुराकर (२६/१२१) आकाशसे नीचे गिरा दिया (२६/१२६)। बीच में ही किसी विद्याधरने पकड़ लिया और इसका पोषण किया (२६/१३२)। युवा होनेपर बहन सोतापर मुग्ध हो गया ( २८/२२२) परन्तु जाति स्मरण होनेपर अत्यन्त पश्चात्ताप किया (३०१३) । अन्तमें वज्रपातके गिरनेसे मर गया (१११/१२) ।
भेद व लक्षण भाव सामान्यका लक्षण१. निरुक्ति अर्थ २ गुणपर्याय के अर्थ में । * भावका अर्थ वर्तमान पर्यायसे अलक्षित द्रव्य
-दे० निक्षेप/७/१। ३ कर्मोदय सापेक्ष जीव परिणामके अर्थ में। ४. चित्तविकारके अर्थ में। ५. शुद्धभावके अर्थ में। ६ नवपदार्थ के अर्थ में। भावोंके भेद-१ भाव सामान्यकी अपेक्षा; २. निक्षेपोकी अपेक्षा, ३ कालकी अपेक्षा; ४ जीवभावकी अपेक्षा। औपशमिक, क्षायिक व औदयिक भाव निर्देश
-दे० उपशम, क्षय, उदय।
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भाव
२१७
१. भेद व लक्षण
* | पारिणामिक, क्षायोपशमिक व सान्निपातिक भाव
निर्देश-दे० वह वह नाम । प्रतिबन्ध्य प्रतिबन्धक, सहानवस्था, बध्यघातक आदि भाव निर्देश।-दे० विरोध । व्याप्य-व्यापक, निमित्त-नैमित्तिक, आधार आधेय, भाव्य भावक, ग्राह्य-ग्राहक, तादात्म्य, संश्लेष आदि भाव निर्देश-दे० संबन्ध । शुद्ध-अशुद्ध व शुभादि भाव-दे० उपयोग/II | स्व-पर भावका लक्षण। निक्षेप रूप भेदोंके लक्षण। काल व भावमें अन्तर-दे० चतुष्टय ।
१.भेद व लक्षण
१. भाव सामान्यका लक्षण एक ग्रह है--दे० ग्रह। १. निरुक्ति अर्थ रा वा /९/१/२८/६ भवन भवतीति वा भाव । होना मात्र या जो
होता है सो भाव है। ध.५/१,७,१/१८४/१० भवनं भाव:, भूतिर्वा भाव इति भावसहस्स विउप्पति । - 'भवनं भाव' अथवा 'भूतिर्वा भाव ' इस प्रकार भाव शब्दकी व्युत्पत्ति है। २ गुणपर्यायके अर्थ में सि.वि./टी/४/१६/२६८/१६ सहकारिसंनिधौ च स्वतः कथं चित्प्रवृत्तिरेव भावलक्षणम् । विसदृश कार्य की उत्पतिमें जो सहकारिकारण होता है, उसकी सन्निधिमें स्वत हो द्रव्य कथंचित उत्तराकार रूपसे
जो परिणमन करता है, वही भावका लक्षण है। घ. १/१,१,८/गा १०३/१५१ भावो खलु परिणामो।पदार्थोके परिणाम___ को भाव कहते है । (पं. ध./उ २६ )। ध. १/१,१,७/१५६/६ कम्म-कम्मोदय-परूबणाहि विणा...छ-वष्टि-हाणिट्ठिय-भावसंखमतरेण भाववण्णणाणुववत्तीदो वा। - कर्म और कर्मोदयके निरूपणके बिना अथवा षट् गुण हानि व वृद्धिमें स्थित भावकी संख्याके बिना भाव प्ररूपणाका वर्णन नही हो सकता।
पंच भाव निर्देश द्रव्यको ही भाव कैसे कह सकते है। भावोंका आधार क्या है। पंच भावोंमें कथचित् आगम व अध्यात्म पद्धति
-दे० पद्धति । पंच भाव कथचित् जीवके स्वतत्त्व है। सभी भाव कथचित् पारिणामिक है। सामान्य गुण द्रव्यके पारिणामिक भाव है
-दे० गुण/२/११ । छहों द्रव्योंमें पच भावोंका यथायोग्य सत्त्व । पॉचों भावोकी उत्पत्तिमें निमित्त । पोच भावोंका कार्य व फल । सारणीमें प्रयुक्त सकेत सूची।
पंच भावोंके स्वामित्वकी ओष प्ररूपणा । १० पंच भावांके स्वामित्वकी आदेश प्ररूपणा ।
भावोंके सत्त्व स्थानोंकी ओष प्ररूपणा । अन्य विषयों सम्बन्धी सूचीपत्र ।
ध.५/१,७.१/१८७/8भावो णाम दव्वपरिणामो।-द्रव्यके परिणामको भाव कहते है। अथवा पूर्वापर कोटिसे व्यतिरिक्त वर्तमान पर्यायसे उपलक्षित द्रव्यको भाव कहते है। दे०निक्षेप/७/१) (ध.१/४,१,३/ ४३/५)। प्र. सा/त. प्र./१२६ परिणाममात्रलक्षणो भाव । भाषका लक्षण __ परिणाम मात्र है । (स, सा/ता. वृ/१२६/१८०/)। त अनु./१०० भाव' स्याद्गुण-पर्ययौ ।१०० - गुण तथा पर्याय दोनों
भाव रूप है। गो जी./जी प्र/१६५/३६१/६ भाव' चित्परिणाम ।-चेतनके परिणाम
को भाव कहते है। पंध./पू /२७६,४७६ भाव परिणाम किल स चैव तत्त्वस्वरूपनिष्पत्ति ।
अथवा शक्तिसमूहो यदि वा सर्वस्वसार' स्यात् ।२७। भाव परिणाममम शक्तिविशेषोऽथवा स्वभाव स्यात् । प्रकृति स्वरूपमात्रं लक्षणमिह गुणश्च धर्मश्च १४७६-निश्चयसे परिणाम भाव है, और वह तत्त्वके स्वरूपकी प्राप्ति ही पड़ता है। अथवा गुणसमुदायका नाम भाव है अथवा सम्पूर्ण व्यके निजसारका नाम भाव है ।२७६। भाव परिणाममय होता है अथवा शक्ति विशेष स्वभाव प्रकृति स्वरूपमात्र आत्मभूत लक्षण गुण और धर्म भी भाव कहलाता है।४७४। ३. कर्मोदय सापेक्ष जीव परिणामके अर्थ में स. सि /१/८/२६/८ भाव औपशमिकादिलक्षण 1=भावसे औपशमिका
दि भावो का ग्रहण किया गया है। (रा, बा./२/८/६/४२/१७)। पं. का./त प्र/१५० भाव खल्वत्र विवक्षित कर्मावृतचैतन्यस्य क्रमप्रवर्तमानज्ञप्ति क्रियारूप । यहाँ जो भाव विवक्षित है वह कर्मावृत चैतन्यको क्रमानुसार प्रवर्तती ज्ञप्तिक्रिया रूप है। ४ चित्तविकारके अर्थमें पप्र/टी./१/१२१/१११/८ भावश्चित्तोस्थ उरते।=भाव अर्थात
चित्तका विवार।
| भाव-अमाव शक्तियाँ भावकी अपेक्षा वस्तुमें विधि निषेव-दे० सप्तभ गी/५ । जैन दर्शनमे वस्तुके कथचित् भावाभावकी सिद्धि
-दे० उत्पाद,व्यय धौव्य२/७/ | आत्माकी भावाभाव आदि शक्तियोके लक्षण ।
भाववती शक्तिके लक्षण। भाववान् व क्रियावान् द्रव्योका विभाग
-दे० द्रव्य/३/३। अभाव भी वस्तुका धर्म है-(दे० सप्तभ गी/४ )।
भा०३-२८
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भाव
५. शुद्ध भावके अर्थ में
द्र.सं./टी./३६/१५०/१३ निर्विकारपरमचैतन्यचिच्च मत्कारानुभूतिसजातसहजानन्दस्वभावसुखामृतरसास्वादरूपो भाव इत्याध्याहार | - निर्विकार परम चैतन्य थिय नगरकारके अनुभव से उत्पन्न सहज आनन्द स्वभाव सुखामृत के आस्वाद रूप, यह भाव शब्दका अध्याहार किया गया है।
चैतन्य शुद्ध
प्र. सा./ता.वृ / ११५/१६१/१४ शुद्धचैतन्यं भाव' | = भाव है।
= शुद्ध
भा. पाटी /६६/२१०/१८ भाव आत्मरुचि जनसम्ययकारणभूत हेतुभूत - आत्माकी रुचिका नाम भाव है, जो कि सम्यक कारण है।
६. नव पदार्थ अर्थ
पं. का./त.प्र / १०७ भावाः खलु कालकलितपञ्चास्तिकायविकल्परूपा नव पदार्थाः । काल सहित पचास्तिकायके भेदरूप नवपदार्थ के वास्तव में भाव है।
२. माचके भेद
१. भाव सामान्यके भेद
रा. वा./५/२२/२१/४६१/११ द्रव्यस्य हि भावो द्विविध परिस्पन्दात्मक, अपरिस्पन्दात्मकश्च द्रव्यका भाव दो प्रकारका है परिस्पन्दारम और अपरिस्पन्दात्मक (रा. वा/६/६/२/१२/१३)। रा. वा. हि/४ चूलिका./पृ. ३६८ ऐसे भाव छह प्रकारका है। जन्मअस्तित्व-निवृत्ति-वृद्धि- अपक्षय और विनाश ।
२. निक्षेप की अपेक्षा
नोट- नाम स्थापनादि भेद-दे० निक्षेप / १
ध. ५/१,७,१/१९४/७ तव्वदिरित्त णोआगमदव्वभावो तिविहो सचित्ताचित्त- मिस्सएण | णोआगमभावभावो पचविहंनो आगमद्रव्य भावनिक्षेप, सचित्त, अचित्त और मिश्रके भेदसे तीन प्रकारका है। नो आगम भावनिक्षेप पाँच प्रकार है । ( दे० अगला शीर्षक )
३. कालकी अपेक्षा
1
ध. ५ / १,७,१/१८८/४ अणादिओ अपज्जवसिदो जहा अभव्वाणमसिद्धदा, धम्मत्थि अस्स गमणहेदुत्तं, अधम्मत्थि अस्सठिदिउत्त, आगासस्स गाह का परिणामत्तमित्यादि अनाविश्री सपज्जनसिदो जहा - भव्वस्स असिद्धदा भव्वन मिच्छत्तमसंजदो इम्यादि सावित्री अजयसिदो जहा केपलगाण केवलसमिच्चादि । सादिओसपज्जबसिदो जहा सम्मत्तसंजम पच्छायदाण जमादि-१ भाव अनादि निधन है। जैसेअभव्य जीवोके असिद्धता, धर्मास्तिकाय गमनहेतुता, अधर्मास्तिकायके स्थितिहेतुता, आकाश द्रव्यके अवगाहना स्वरूपता, और काल के परिणमन हेतुता आदि । २. अनादि सान्तभाव जैसे- भव्य जीवकी असिद्धता, भव्यत्व, मिथ्यात्व असयम इत्यादि । ३. सादि अनन्तभाव - जैसे - केवलज्ञान, केवलदर्शन इत्यादि । ४ सादि सान्त भाव, जैसे सम्यक्त्व और सयम धारण कर पीछे आये हुए जीवीके मिथ्यात्व असंयम आदि ।
--
४. जीव भावकी अपेक्षा
पं.का./मू. ५६ उदयेण उक्समेग य खयेग दुहि मिस्सिदेहि परिणामे गुता जीवगुणा उदयमे, उपदानसे, ससे, क्षयोपशमसे और परिणामसे युक्त ऐसे ( पॉच) जीव गुण (जीवके परिणाम ) है। ( सू २/१) (४/१०/गा ५) १८०) (६.५ / १,००१ / १८४/
२१८
२. पंचनव निर्देश
१३:१८८/६ ) ( सा/२/३ ) ( गो . / / ८१३/६८०) (४.घ. ख. / ६६५-६६६ ) ।
रा. वा /२/७/२२/११४/१ आर्षे सानिपातिकभाव उक्त - आर्षमे सान्निपातिक भाव भी कहा गया है।
एक
३. स्व पर भावका लक्षण
रा. वा / हि /९/७/६७२ मिथ्यादर्शनादिक अपने भाव (पर्याय ) सो स्वभाव है। ज्ञानावरणादि कर्मका रस सो पर भाव है ।
४. निक्षेप रूप भेदों का लक्षण
घ ५ / १,७,१/१८४/८ तत्थ सचित्तो जीवदव्त्रं । अचित्तो पोग्गल धम्माधम्म - कालागासदव्वाणि । पोरगल जीव दव्वाणं सुजोगो वधचिज्जच्चतरत्तमावण्णो णोआगममिस्सदव्वभावो णाम । जीव द्रव्य सचित भाव है। पुद्गल, धर्मास्तिकाय, अधर्मास्तिकाय, काल और आकाश द्रव्य अचित्तभाव है । कथचित् जात्यन्तर भावको प्राप्त डुगल और जीव द्रव्योका सयोग नोआगममिश्र भावनिक्षेप है।
२. पंचभाव निर्देश
१. द्रव्यको ही भाव कैसे कह सकते हैं।
ध, ५/१,७,१/१८४/८ क्धं दव्त्रस्स भावव्यवएसो । ण, भवन भाव', भूतिर्वा भाव इति भावसदस्स विउप्पत्ति अवल बणादो। प्रश्नद्रव्यके 'भाव' ऐसा व्यपदेश कैसे हो सकता है। उत्तर-नहीं, क्योंकि, 'भवनं भाव ' अथवा 'भूतिर्वा भाव ' इस प्रकार भाव शब्दकी व्युत्पत्ति अलम्बनसे इनके भी 'भाव' ऐसा व्यपदेश मन जाता है ।
२. मावका आधार क्या है
-
घ. ५/१,७/१/१८८/४ कत्थ भावो, दव्बम्हि चेव, गुणिव्यदिरेगेण गुणाणमसभवा । प्रश्न-भाव कहॉपर होता है, अर्थात् भावका अधिकरण क्या है। उत्तर-भाव द्रव्यमे ही होता है, क्योकि गुणीके विना गुणोका रहना असम्भव है ।
३. पंचभावका कथंचित् जीवके स्वतस्व है।
"
त. सू./२/१ जोवस्य स्वतत्त्वम् 1१1 ( स्वो भावोऽसाधारणो धर्म. रा. वा ) । =ये पाँचो भाव जीवके स्वतत्त्व हैं । (स्वभाव) अर्थात् जीवके असाधारण धर्म ( गुण ) है | ( त सा /२/२ ) । रा.वा./१/२/१०/२०/२ स्यादेतद- सम्यवत्वकर्म पुद्गलाभिधायित्वेऽप्यदोष इति तन्न; कि कारणम् । मोक्षकारणत्वेन स्वपरिणामस्य विवतिरास औपशमिकादिसम्यग्दर्शनमात्मपरिणामवाद मोक्षकारणत्वेन विवक्ष्यते न च सम्यकर्मपर्याय. पौसिकत्वेऽस्य परपर्यायत्वात् प्रश्न- सम्य नामकी कर्मप्रकृतिका निपा होनेके कारण सम्यक्त्व नामका गुण भी कर्म पुद्गलरूप हो जावे । इसमें कोई दोष नहीं है उत्तर नहीं, कोकि, अपने आत्माके परिणाम ही मोक्ष के कारणरूपसे विवक्षित किये गये है औपशमिकादि सम्यग्दर्शन भी सीधे आग्मपरिणामस्वरूप होनेसे ही मोक्षके कारणरूपसे विवक्षित किये गये है, सम्यक्त्व नामकी कर्म. पर्याय नहीं, क्योंकि वह तो पौगलिक है । पं.का./५६ जी ऐसे (पाँच) जीवगुण ( जीवके भाव ) है । उनका अनेक प्रकारसे कथन किया गया है ( १/१,९/८/६०१७) ।
जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश
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भाव
४. सभी भाव कथंचित् पारिणामिक है।
दे० सासादन / २ / ६ सभी भावोंके पारिणामिकपनेका प्रसंग आता है तो आने दो, कोई दोष नहीं है। ध. ४/२.८.१/२४२/१
अल्प
पाबहु पारिणामिण भावे -अप परिणामिक भान होता है।
क.पा १/९.११-१४/२८४/२२६/६ ओह भाव साओ एवं गमादिचउण्ड णयाण । तिन्ह सद्दणयाणं पारिणामिण भावेण कसाओ, कारण विणा कज्जुप्पत्तीदो। कषाय औदयिक भावसे होती है। यह नैगमादि चार नयोकी अपेक्षा समझना चाहिए। शब्दादि तीनों नयोकी अपेक्षा तो काय पारिनामिक भावसे होती हैं, क्योकि इन नयोको दृष्टिमें कार के भिना कार्योंको उत्पति होती है।
=
५. छहीं द्रव्योंमें पंचभावका यथायोग्य सव
६. ५/१०,१/१८६/० जीवेसु पचभावाणवलं भाव से
पच
भावा अस्थि, पोरगलदब्वेसु ओदडयपारिणामियाण दोण्ह चेत्र भाषाणमुवसंभा, धम्माधम्मकालागासदव्वे एक्स्स पारिणामिय भावस्सेवलंभा । जीवोमें पाँचो भाव पाये जाते है किन्तु शेष द्रव्योमे तो पाँच भाव नही है, क्योंकि, पुद्गल द्रव्यो में औदयिक और पारिणामिक, इन दोनों ही भावोकी उपलब्धि होती है, और धर्मास्तिकाय, अथर्मास्तिकाय, आकाश और काल द्रव्यों ने केवल एक पारिणामिक भाव ही पाया जाता है । ( ज्ञा./६/४१) ।
६. पाँचों मावों की उत्पति निमित्त
1
ध. ५/१,७,१ / १८१/१ केण भावो । कम्माणमुदएण खणखओवसमेण कम्माणमुवसमेण सभावदो वा । तत्थ जीवदव्वस्त भावा उत्तपचकारणहितो होंति । पोग्गलदव्यभाषा पूर्ण कम्मोदरण मिस्सासादो वा उत सेसा च दग्नागं भाषा सहाबंद उत्पति = प्रश्न - भाव किससे होता है, अर्थात् भावका साधन क्या है । उसर - भावकर्मके उदयसे, क्षयसे, क्षयोपशम से कर्मोके उपहमसे, अथवा स्वभावसे होता है। उनमें से जीव द्रव्यके भाव उक्त पाँचो ही कारणोसे होते है, किन्तु इगल द्रव्यके भाव कम उसे अथवा स्वभाव से उत्पन्न होते है । शेष चार द्रव्योके भाव स्वभावसे ही उत्पन्न होते है।
७. पाँच मावोंका कार्य व फल
स. सा./मू. व टी./१७१ जह्मा दु जहणादो णाणगुणादो पुणोचि परिणमदि । अण्णत णाणगुणो तेण दुसो बधगो भणिदो | १७१ ॥ स तु यथाख्यातचारित्रावस्थामा अस्तावभाविगाबादरेव स्यात् । = क्योकि ज्ञानगुण जघन्य ज्ञानगुणके कारण फिरसे भी अन्यरूपसे परिणमन करता है, इसलिए वह कर्मोका बन्धक कहा
२. पंचभाव निर्देश
गया है । १७१ | वह ( ज्ञान गुणका जघन्य भावसे परिणमन ) यथाख्यात चरित्र अवस्थाके नीचे अवश्यम्भावी रागका सद्भाव होनेमे बन्धका कारण ही है ।
घ ७/२,१.७/गा. ३/१ ओदश्या मंधरा उबसम स्वय मिस्सया य मोक्खयरा भाबो दू पारिणामित्रो करणोभवबजियो होहि || जव यिक भाव बन्ध करनेवाले है, औपशमिक, क्षायिक और क्षायोपशमिक भाव मोक्षके कारण है, तथा पारिणामिक भाव बन्ध और मोक्ष दोनोंके कारण से रहित हैं ।।
२१९
८. सारणी में प्रयुक्त संकेत सूची
आहारक
औदयिक
औदारिक
औपशमिक
क्षयोपशमिक
आ०
औद०
अदा●
औप०
संयो०
क्षा०
नपुं०
पंचे०
प्रमाण
स. पू.
२/९६४ ३/१६६
४/१६८ ।
२. पंच मायके स्वामित्वको ओष प्ररूपणा
·
५/१६६
4/२०१
०/२०१
८/२०४
११
सायिक
नपुंसक वेद
पद्रिय
(प. ५/१७/सू २-६/१६४-२०५). (रा. वा / १/१/१२-२४/५८८११०), (गो. जी / ५०/११-१४) ।
मार्गणा
६/२०५
मिथ्यादृष्टि
सासादन
मिश्र
असंयत सम्य०
सयतासयत
प्रमत्त सयत अप्रमत्त सयत
अपूर्वं करण-सूक्ष्म
साम्पराय उपशामक
८-१० ( क्षपक) उपशान्त कषाय क्षीण कषाय योगी व अयोग
जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश
मूल
भाव
प०
पारि०
पु०
मनु०
मि०
afis
सम्य०
सामा०
"T
क्षा० क्षाо
पर्याम
पारिणामिक
पुरुष वेद
औद० पारि सयो० श्रद्धानांशकी प्रगटताकी अपेक्षा
मनुष्य
मिश्र
वैक्रियक
सम्यक
सामान्य
औरक्षा | दर्शनमोहकी मुख्य
सयो०
औद० असंयम ( चारित्र मोह) की मुख्यता क्षयो० | चारित्र मोह (संयमासंयम) की मुख्यता
"
1
अपेक्षा
मिथ्यात्वकी मुख्यता दर्शन मोहको मुख्यता
91
(संयम )
औप० एक देश उपशम चारित्र व भावि उपचार
"
क्षा० एक देश क्षय व भावि उपचार औप० उपराम चारिक मुख्ता क्षायिक चारित्रकी मुख्यता सर्वधातियों का क्षय
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भाव
२२०
२. पंचभाव निर्देश
ओघवत्
कारण
४११
१/२
१०. पंच मावोंके स्वामित्वकी आदेश प्ररूपणा
प्रमाण मार्गणा गुण मूल
कारण (ष.ख. १४१,सू. ५-६३/१९४-२३८), (प. खं.७/२,१/सू. ५-६१/
स्थान भाव
पु/सू. ३०-११३); (ध. १/४,१,६६/३१५-३१७)।
५/२६
असंयत औद० प्रमाण प.ख./ मार्गणा
१/२७ सौधर्म १-४ ओघवत् स्थान भाव पु./सू.
उपरिम
ग्रैवेयक १. गतिमार्गणा
अनुदिश ७/५ १. नरकगति सा
[ सर्वार्थ सि० | औद० नरकगति उदयकी मुख्यता
४ । औप०क्षा० द्वितीयोपशम सम्य१११० मिथ्यात्वकी मुख्यता
क्षयो० क्त्वापेक्षया पारि० ओघवत्
| असंयत औद० । ओघवत् ७/१२
क्षयो० १/१३ औप० क्षा
२. इन्द्रिय मार्गणा क्षयो ७/१५ (१-५ इन्द्रिय सा।
स्व स्व इन्द्रिय (मति५/१४ | औद०
| ज्ञानावरण) की अपेक्षा प्रथम पृथिवी सामान्यवत सामान्यवत || ३० पंचेन्द्रिय पर्याप्त १-१४ | ओघवत
ओघवत् १-३
शेष सर्व तियंच १ औद० । | मिथ्यात्वापेक्षया ४ औप. क्षयो. क्षायिक सम्यग्दृष्टि || ७/१७ / अनिन्द्रिय । क्षा० | सर्व ज्ञानावरणका क्षय
प्रथम पृथिवीसे ऊपर नहीं जाता। वहाँ क्षा० ३. काय मार्गणा सम्यग् नहीं उपजता।||७/२८- पृथिवी त्रस
उस उस नामकर्मका असंयत औद०
उदय ७/७ । २.तियंच सा औद० तियंचगतिके उदयकी
पर्यन्त सा० मुख्यता
स्थावर
औद० मिथ्यात्व अपेक्षा ५/१६ | पंचे. सा.व १-५ ओघवत ओघवत्
|२/३१ त्रस व त्रस प० । १-१४ ओघवत् __ ओघवत् पचे०प०
७/३१ । अकायिक
|क्षा० | नामकर्मका सर्वथा क्षय ५/१६ योनिमति प० १,२,३,५ | "
४ औप क्षयो| बद्धायुष्क क्षायिक सभ्यना.योग मार्गणा
वहाँ उत्पन्न नहीं होता। और वहाँ नया क्षा०11०/३३ । मन वच० काय | क्षयो. वीर्यान्तराय इन्द्रिय व सम्य० नही उपजता।
नोइन्द्रियावरणका क्षयोअसंयत | औद०
पशम मुख्य ७/ ६३. मनुष्य सा० मनुष्यगतिके उदयकी|| ७/३५ अयोगी सा०
क्षा शरीरादि नामकर्मका मुख्यता
निर्मूल क्षय सामा० मनु० । १-१४ । ओघवत्
ओघवत्
१/३२ | मन वचन १-१४ ओघवत् । ओघवत | प० मनुष्यणी
काय औदा० ४. देव सा०
औद० देवगतिके उदयकी १/३३ औदा०मिश्र १-२ । मुख्यता
क्षा०क्षयो० प्रथमोपशममें मृत्युका | आदेश सामान्य १-४ ओघवत ओघवत्
| अभाव । द्वितीयो०मुख्य भवनत्रिक १,२,३ .
१/३५ असयत औद० औदा. मिश्रमें नहीं
वैक्रि० मिश्रमें जाता है। देवदेवी
१३ व सौधर्म
क्षा० वैक्रियक
ओघवत्
ओघवत् ईशानदेवी
४/३८ वैक्रि० मिश्र १,२,४
ओधवत औपशमिक भाव
द्वितीयोपशमकी अपेक्षा ४ औप. क्षयो. क्षा० सम्यक्त्वीकी
आ.व आ० | ६ क्षयो. प्रमत्तसयतापेक्षया उत्पत्तिका वहाँ अभाव है तथा नये कार्मण १,२४, ओघवत्
ओघवत क्षायिक सम्यकी
१३ । उत्पत्तिका अभाव
३
१४ क्षा
सा०
६/१६
१/३७ | वक्र
५/३६
मिश्र
५५० कामण
-
-
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________________
भाव
२२१
२. पंचभाव निर्देश
-ram
राण
VA TOT
प्रमाण
मार्गणा
____ कारण
कारण
प्रमाण मार्गणा
गुण स्थान
मूल भाव
कारण
भाव
मुख्य
9/
५. वेद मार्गणा
९. दर्शन मार्गणा 1७/३४ स्त्री पु नप सा. औद० चारित्रमोह (वेद) उदय || ७/५७ | चक्षु अचक्षु । क्षयो. स्व स्व देशघातीका
मुख्य | अवधि सा०
| उदय ७/३६ | अवेदी सा०
औप०क्षावे से ऊपर वेदका|| ७/५8 केवलदशन सा० क्षा० दर्शनावरणका निर्मुल क्षय उपशम वा क्षय मुख्य ५/५६ चक्षु अचश्नु १-१२ ओघवत
ओघवद ५१४१ स्त्री, पु. न १-१ ओघवत् ओधवत
५/५७ अवधिदर्शन ४-१२ १/४२ | अपगतवेद -१४ ,
१५८केवल दर्शन १३-१४५ ६. कषाय मार्गणा
१० लेश्या मार्गणा ७/४१ | चारों कषाय सा| ३१ । औद० । चारित्र मोहका उदय || ७/६१ | छहो लेश्या सा. औद० | कषायोके तीवमन्द
अनुभागोका उदय ७/४३ | अकषायी सा० औप०क्षा० ११वे मे औप०, १२-१४| ७/६३ अलेश्य सा०
क्षा० कषायोंका क्षय में क्षा (चा मोहापेक्षा) ५६ कृष्ण, नील, १-४ ओघवत्
ओघवत् १/४३ | चारो कषाय |१-१० ओघवत्
ओधवत
कापोत १/४४ | अकषाय ११-१४
१/६० पीतपद्य
५/६१ | शुक्ल १-१३ ७. शान मार्गणा
११. भव्य मार्गणा ७/४५ : ज्ञान व अज्ञान । क्षयो० स्व स्व ज्ञानाबरणका | सा०
क्षयोपशम ७/६५ | भव्य, अभव्य | पारि०
सुगम ७/४७ केवलज्ञान
केवल ज्ञानावरणका क्षय
सा० १५ मति श्रुत अज्ञान, १-२ | ओघवत
ओघवत्
न भव्य न
क्षायि० | विभग
अभव्य | मति, श्रुत, ४-१२
भव्य
ओधवत् ओघवत अवधिज्ञान
५/६३ अभव्य
पारि० उदयादि निक्ष मन पर्यय ज्ञान ६-१२
(मार्गणापेक्षया) १/४८ | केवलज्ञान १३-१४ "
। औद० | गुणस्थानापेक्षया ८. संयम मार्गणा
१२. सम्यक्त्व मार्गणा ७/ १सयम सा०
औपक्षाचारित्रमोहका उपशम ||६६ । सम्यक्त्व सा०। औप०क्षा० दर्शनमोहके उपशम, क्षय व क्षयोपशम
क्षयो० क्षय, क्षयो० अपेक्षा क्षयो० मुख्य सामायि, छेदो- सामान्य
७/७१ क्षायिक सामान्य
दर्शनमोहका क्षय पस्था०
७/७३ | वेदक
क्षयो० | ., ,क्षयोपशम ७/११ | परिहार विशुद्धि , क्षयो० चारित्रमोहका क्षयोपशम|| ७/७५ | उपशम ! औप०
उपशम ७/५३ / सूक्ष्म साम्पराय औप०क्षा० उपशम व क्षायिक दोनो|| ७/७७ | सासादन ..
पारि०
| उप०क्षय० क्षयोनिपक्ष श्रेणी है ७/७४ सम्यग्मिथ्यात्व,
क्षयो० मिश्रित श्रद्धानका सद्भाव यथारख्यात
|७/८१ | मिथ्यात्व
औद० दर्शनमोहका उदय | सयतासंयत अप्रत्याख्यानावरणका 1/६४ सम्यक्त्व सा०४-१४ ओघवत्
ओघबद क्षयोपशम ५/६५ क्षायिक
दर्श नमोहका क्षय ७/५५ | असंयत औद० चारित्रमोहका उदय
औद०
असं यतखकी अपेक्षा १४१ संयम सा०६-१४ ओघवत ओघवत
चारित्र मोहापेक्षया १/५० सामायिक,
क्षा० दर्शन मोहापेक्षया छेदोप०
औप० चारित्रमोहापेक्षया परिहार विशुद्धि ६-७
वा० दर्शनमोहापेक्षया ५/५२ सूक्ष्म साम्पराय १०
दर्शन व चारित्र मोहा५५३ | यथाख्यात
पेक्षया | संयतासयत
१/७४/ वेदक
क्षयोः दर्शनमोहापेक्षया ५५५ | असयत
| औद० चारित्रमोहापेक्षा
2/४७
|क्षा०
७/५४
लियो०
क्षा०
५/६८
५-७
क्षयो०
१/७०
५/५१
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________________
भाव
प्रमाण
मार्गणा
पु/सू.
५/७७ वेदक
५/७६ उपशम
외대
५/८२
२/८३
치
५/६ सासादन
५/८७ सम्यग्मिध्यादृष्टि
५/८८ ५/ मिध्यादृष्टि
१२. संधी मार्गणा
७/८३
सज्ञी सामान्य
11
७/८५ असंज्ञी ०नसंज्ञी अशी ५/१ सङ्गी ५/६० बसंज्ञी
१४. आहारक मार्गणा
७/८६ | आहारक सा०
७ /११ अनाहारक सा०
५/६३
गुण
मूल
स्थान भाव
५-७
४
11
५-७
"
८-११
२
३
क्षयो०
औप०
औद
क्षयो०
औप०
ओपनय
| अयो०
औद०
क्षा०
१-१२ बोद
औद०
औ
औद०
५/६१ आहारक १-१२ ओद ५/१२ अनाहारक १,२,४
१३ ओष १४ क्षा०
क्षा०
कारण
दर्शन व चारित्रमोहापेक्षा
दर्शन मोहापेक्षा
चारित्र मोहापेक्षा
दर्शन मोटापेक्षा दर्शन चारित्र मोहापेक्षा
ओष
11
२२२
17
"
नो इन्द्रियावरण देश
घातीका उदय
सर्व
31
, का सर्वथा क्षय
53
औदा० वैक्रि० व आ०
शरीर नामकर्म का उदय
औदा०] वैकि० आ० शरीर नामकर्मका
उदय । जस व कार्यमा नहीं।
तिसर्वका
उदय
अयोग केवली व सिद्धो में सर्व कमौका सम
ओपन
कार्मण काय योगवत्ओघवत् कार्मण वर्गणाओके
आगमनका अभाव
११. भावोंके सत्त्व स्थानोंकी ओघ प्ररूपणा (घ. २/१.०२ /गा. १३-१४/१६४) (गो./मू./८२०/११२ नोट - औदयिकादि भावोके उत्तर भेद-दे० वह वह नाम
गुण स्थान
२
३
५
१ औद० क्षयो० ३ १० औद० २१ (सर्व) + क्षयो १० (३ अज्ञान, ३४ व पारि० २ दर्शन पारि० ३ (जोवल
५ भव्यत्व, अभव्यत्व
बी० २० (सर्व मिथ्यात्) यो १० ३२ (उपरोस ) + पारि०२ ज
मूल भाव
४ पाँचों
5
w
"
११०
=
39
उपशमक व क्षपक
पाँचो
::
कुल भाव
कुल भंग
११ पाँचो
:
जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश
२. पंचभाव निर्देश
:
::
५ २६० २० (उपरोक्त )+क्षयो० १२ २६
(३ ज्ञान, ३ दर्शन, ५ लब्धि १ सम्यक्र)
+ उप० १+क्षा० + १ (सम्य०) + पारि०
31
उत्तर भाव
elit
::
औद २० (सर्व मिथ्यात्व ) + क्षयो० १० ३३ (मिश्रित ज्ञान, ३ दर्शन, ५ लब्धि) + पारि० २ (जीवत्व, भव्यस्व )
५३४ ० ११ मनुष्यगति ४ बाय ३ लिंग, २१ शुक्ल लेश्या, असिद्ध, अज्ञान) + क्षयो० १२ (४ ज्ञान, ३ दर्शन, ५ लब्धि) उप० २ (सम्य०, चारित्र ) + ज्ञा० २ (सम्य०, चारित्र+पा०ि२ (जीवरम
२ (जीवश्व व भव्यत्व)
औट. १४ ( १ मनुष्य, १ तिर्यग्गति, ४ कषाय, ३१ ३ लिंग, ३ शुभलेश्या, १ असिद्ध.१ अज्ञान) +०१३ (२ज्ञान दर्शन ५
१ संयमासयम ९ सम्यक्त्व) + उप० १+ [झा० १ (सम्बर) पारि०१
औद० १३ (मनुष्यगति, ३ लिग, ३ शुभ- ३१ लेश्या, ४ कषाय १ असिद्ध, १ अज्ञान) + क्षयो० १४ (४ ज्ञान, ३ दर्शन, ५ लब्धि,
१ सम्य०, सराग चारित्र) + १ उप०+ १ क्षा० ( सम्य० ) + पारि० ( जीवत्व भव्यत्व)
११
श्या २१
औद०५ (मनुष्यगति, सुख असिद्ध, अज्ञान, कषाय ) + क्षयो० १२ (४ ज्ञान, ३ दर्शन, ५ लब्धि) + उप०२) ( सम्य०, चारित्र ) +क्षा० २ ( सम्य० चारित्र) + पारि० २ ( उपरोक्त)
५ ३५ | उपरोक्त २३ ( औद० ४+क्षयो० १२ + २१ उप० २+क्षा० १+ पारि० २ ) - लोभ, क्षा० चारित्र
१२ औद०
इ० क्षा० ४ १६ उपरोक्त २१ – उ००२ (सम्य० चारित्र) २० इयो०पारि + क्षा० चारित्र
१३ श्रीद० झा० २ ९० औ०३ (मनुष्यगति, शुक्ल लेश्या १४ पारि० (सर्व)+पारि० २
असिद्धम) + जीवरम, भय्या उपरोक्त १४ - शुक्ल लेश्या
१४
13
१३
सि० क्षा० पारि० २ ५ क्षा० ४ ( सम्य०, दर्शन, ज्ञान, चारित्र) ५ + पारि० (जीव)
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भाव
२२३
२. पंचभाव निर्देश
१२. अन्य विषयों सम्बन्धी सूचीपत्र प्रकृति
स्थिति मूल प्र० । उत्तर प्र० मूल प्र० उत्तर प्र०
अनुभाग
प्रदेश
। मूल प्र०
।
उत्तर प्र० ।
मूल प्र०
उत्तर प्र०
अष्टकर्म बन्धके स्वामियों सम्बन्धीजघन्य उत्कृष्ट बन्धके स्वामी
। ३११-४२३ । २२१-२२२ । १६५-६६
२६६--
४१५-४२६
-
भुजगारादि पदोंके स्वामी
३
वृद्धि हानिरूप पदों के स्वामी
ताडपत्र नष्ट
२ | मोहनीय कर्मके स्वामियों सम्बन्धी-(क. प./न.)
जघन्य उत्कृष्ट पदोके स्वामी
२
।
भुजगारादि पदोंके स्वामी
३ . वृद्धि हानि पदोंके स्वामी
४ | २८, २४ आदि सत्त्व स्थानोके स्वामी
सत्त्व असत्त्वका भाव सामान्य
३ अन्य विषय-(क. पा./-पु नं)
कषायोका ओघ आदेशसे भाव
इन.
नोकर्म बन्धकी सघातन परिशातनमे कृति की ज० उ० आदि पदों सम्बन्धी ओघ व आदेश प्ररूपणा
४२८-४२६ अधः कर्मादि षट्कर्म के स्वामी
(ध./-पु.न)
१७२-१७५ पाँच शरीरोंके २, ३, ४ आदि भंगोंके स्वामी
२३ प्रकार वर्गणाके स्वामी
१४ १५२-१५३
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भावकर्म
३. भाव अभाव शक्तियाँ
१. आत्माको भावाभाव आदि शक्तियोंके लक्षण
पं.का./मू.वत. प्र. / २१ एवं भावमभाव भावाभावं अभावभावं च । गुणपजये हि सहिदो संसारमा कुदि जीनो २१ जीवद्रव्यस्य • तस्यैव देवादरूपेण प्रादुर्भवतो भावकर्तृवमुक्त तस्यैव चमनुष्यादिपर्यायरूपेण व्ययतोऽभावकतु' लगायत तस्यैव च सती देवादिपर्यावस्योच्छेदनारममाणस्य भावाभावक स्वमुदितः तस्यैव चासत पुनर्मनुष्यादिपर्यायस्योत्पादमारभमाणस्याभावभाव
ममिति गुण पर्याय सहित जीव धमय करता हुआ भाव, अभाव, भावाभाव और अभावभावको करता है । २१ । देवादि पर्याय रूपसे उत्पन्न होता है इसलिए उसीको ( जीव द्रव्यको ही ) भावका ( उत्पादका) कर्तृत्व कहा गया है। मनुष्यादि पर्याय रूपसे नाशको प्राप्त होता है, इसलिए उसीको अभावका (व्ययका ) कहा गया है। सद ( विद्यमान ) देवादि पर्यायका नाश करता है, इसलिए उसीको भावाभावका ( सदके विनाशका) कर्तृ व कहा गया है, और फिरसे असद (अभिमान) मनुष्यादि पर्यायका उत्पाद करता है इसलिए उसीको अभावभावका (असत्के उत्पादका) कर्तृत्व कहा गया है ।
स सा/आ./परि/शक्ति नं. २२-४० भूतावस्थश्वरूपा भागात ॥३३० शून्यावस्थत्वरूपा अभावशक्ति. 1३४ - भवत्पर्यायव्ययरूपा भावाभावशक्ति |३३| अभवत्पर्यायोदयरूपा अभावभाव 1241 भवत्पर्यायभवनरूपा भावभावशक्ति । ३७॥ अभवत्पर्यायाभवनरूपा अभावभाव ३८ कारकानुगत किया निष्कान्तभवनमामी भावशति ३६ विद्यमान अवस्थारूप भवति (अनुक अवस्था जिसमें विद्यमान हो उस रूप भावशक्ति ) |३३| शून्य (अविद्यमान अवस्थायुक्तता रूप अभावशक्ति । ( अमुक अवस्था जिसमें अविद्यमान हो उस रूप अभावशक्ति) | ३४ | प्रवर्त्तमान पर्यायके व्ययरूप भावाभावशक्ति | ३५१ अप्रवर्तमान पर्यायके उदय रूप अभावभावशति ३६ अपमान पर्यायके भवन रूप भावभावशक्ति |३७| अप्रवर्तमान पर्यायके अभवनरूप अभावभावशक्ति |३८| (कर्ता कर्म आदि ) कारको के अनुसार जो क्रिया उससे रहित भवनमात्रमयी ( होने मात्रमयी) भावशति ॥३१॥
२. भाववती शक्तिका क्षण
=
२२४
प्र, सा./त.प्र १२६ तत्र परिणाममात्रलक्षणो भावः । भावका लक्षण परिणाम मात्र है ।
११४ भाग शक्तिविशेषस्तत्परिणामोऽय या निरशांयो । - शक्तिविशेष अर्थात् प्रदेशत्व से अतिरिक्त शेष गुणों को अथवा तरतम अंशरूपसे होनेवाले उन गुणोके परिणामको भाव कहते हैं (पं.प./ २६)।
भावकर्म दे० कर्म भाव त्रिभंगी
श्रुत मुनि (वि श १४ उत्तरार्ध) कृत, जीव के औपशमिकादि भावों का प्रतिपादक, ११६ प्राकृत गाथाओं का संकलन (जे./१/४४२)
३ |
भावनय - दे० नय / I / ५/३ | भावना-भावना ही पुण्य-पाप, राग-वैराग्य, ससार व मोक्ष आदिका कारण है, अतः जीवको सदा कुत्सित भावनाओका त्याग करके उत्तम भावनाएँ भानी चाहिएँ । सम्यक् प्रकारसे भायी सोलह प्रसिद्ध भावनाएँ व्यक्तिको सर्वोत्कृष्ट तीर्थंकर परमे भी स्थापित करनेको समर्थ है।
१. भावना सामान्य निर्देश
१. भावना सामान्य व मति, श्रुत ज्ञान सम्बन्धी
भावना
भावना
रा वा / ०/३/२/३/२६
बोर्यान्तरागक्षयोपशमचारित्रमोहोपशमक्षयोपशमादोपादनामाभाग कारमना भाव्यन्ते या इति भावना नीर्मान्तराम क्षयोपशम चारिमोहोमदाम क्षयोपशम और अगोपांग नामकर्मोदयकी अपेक्षा रखनेवाले आत्मा द्वारा जो भायी जाती है - जिनका बार-बार अनुशीलन किया जाता है, वे भावना है।
काखा/४६/८६/९ ज्ञातेऽर्थे पुन. पुनश्चिन्तनं भावना जाने हुए अर्थ को पुन: पुनः चिन्तन करना भावना है । ★ मतिज्ञान ३० वह वह नाम
*
--
।
२. पाँच उत्तम भावना निर्देश
भ आ./मू./१०० २०३ तवभावना य सुदसत्तभावणेगत भाषणे चैव । fatafaभावणाविय असं किलिद्वावि पंचविहा । १८७१ तवभावणार पंचेदियाणि दताणि तस्स वसति । इदियजोगायरिओ समाधिकरणाणि सो कुण १८८ सुदभावणाए णाणं दसणत संजम च परिणम तो ओगपणा सहमविदो माह | १६४ देि भेसिदो विहु कयावराधो व भीमरूवेहि । तो सत्तभावणाए बह भर णिग्भओ सयलं । ९६६ ॥ एयत्तभावणाए ण कामभोगे गणे सरीरे वा । सज्जह वेरग्गमणो फासेदि अणुत्तरं धम्म |२००१ कसिणा परीसहब अम्भु वह विसोरसम्यान दुपहरी अन्पता । २०२॥ विदिषणिकछो जोइसोमबाई पिदिभावणार सूरो संपुष्णमगोरहो होई | २०३३ प भावना, श्रुतभावना, सत्त्व भावना, एकत्व भावना, और धृतिनल भावना ऐसी पाँच भावनाएँ अस क्लिष्ट है । १८७ ( अन. ध./७/ १००) तपश्चर से इन्द्रियो का मद नए होता है,
हो जाती है, सो तब इन्द्रियोको शिक्षा देनेवाला आचार्य साधुरत्नत्रय में जिनसे स्थिरता होती है ऐसी तप भावना करते है ।१८ श्रुतकी भावना करना अर्थात तद्विषयक ज्ञानमे बारम्बार प्रवृत्ति करना श्रुत भावना है। इस श्रुतज्ञानकी भावनासे सम्यग्ज्ञान, दर्शन, तप संयम इन शोको प्राप्ति होती है । १६४। वह मुनि मोस्ट किया गया, भयंकर व्याघ्रादिरूप धारण कर पीडित किया गया तो भी सत्व भावनाको हृदय में रखकर दुखोको सहनकर और निर्भय होकर संयमका सम्पूर्ण भार धारण करता है । ११६ | एकत्व भावनाका आश्रय लेकर विरक्त हृदयसे मुनिराज कामभोगमे, चतुर्विध संघ, और शरीर मे आसक्त न होकर उत्कृष्ट चारित्र रूप धारण करता है |२००१ चार प्रकार के उपसर्गों के साथ भूख प्यास, शीरा, उष्ण बने रह बाईस प्रकारके दुखोको उत्पन्न करनेवाली बावोसपरीषह रूपी सेना, दुर्धर सकटरूपी वेगरी युक्त होकर जब मुनियोपर आक्रमण करती है। तब अल्प शक्तिके धारक मुनियोको भय होता है | २०२॥ धैर्यरूपी परिधान जिसने बाँधा है ऐसा पराक्रमी मुनि प्रतिभावनाय धारण कर सफल मनोरथ होता है ॥२०३॥
पं. का/ता / १०३/२५४/१३ अनशनादिद्वादशविधनि सतपश्चरण तपोभावना, तस्याः फलं विषयकषायजयो भवति प्रथमानियोगचरपानियोगकरण नियोगम्यानियोगभेदेन चतुर्विध आगमाभ्यासः
भावना...मुसोत्तर गुणानुष्ठानविषये निर्गनवृत्ति समभावना तस्या फलं घोरोपसर्ग परीषहप्रस्तावेऽपि निर्गहनेन मोक्ष साधयति पाण्डवादिवत । एगो मे सस्सदो अप्पा णाणद सणलवखणी । सेसा मे बाहिरा भावा सव्वे सजोगलबखणा (भा.पा /मू./५६),
जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश
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भावना विधि व्रत
भावना
२२५
(मु. आ/४८), (नि सा./मू./१०२), इत्येकरवभावनया तस्या' फल स्वजनपरजनादौ निर्मोहत्वं भवति। मानापमानसमताबलेनाशनपानादौ यथालाभेन सतोषभावना तस्या, फल आत्मोस्थसुखतृप्त्या विषयसुखनिवृत्तिरिति । - अनशन आदि बारह प्रकारके निर्मल तपको करना सो तपोभावना है। उसका फल विषयकषायपर जय प्राप्त करना होता है। प्रथमानुयोग, चरणानुयोग, करणानुयोग और द्रव्यानयोगके भेदसे चार प्रकारके आगमका अभ्यास करना श्रुतभावना है। मूल और उत्तरगुण आदिके अनुष्ठानके विषय में गाढ वृत्ति होना सो सत्त्वभावना है, धोर उपसर्ग अथवा परीषहके आनेपर भी पाण्डवादिकी भॉति उसको दृढतासे मोक्ष प्राप्त होती है, यही इसका फल है। "ज्ञान दर्शन लक्षणवाला शाश्वत एक आत्मा मेरा है। शेष सब संयोग लक्षणवाले भाव मुझसे बाह्य है।" (भा. पा./मू 1५६), (मू. आ/४८), (नि. सा./१०२) यह एकत्व भावना है। स्वजन व परजनमें निर्मोहत्व होना इस भावनाका फल है।.. मान अपमानमें समतासे. अशनपानादिमें यथा लाभमे समता रखना सो सन्तोष भावना है।
आत्मासे उत्पन्न सुख में तृप्ति और विषय सुखसे निवृत्ति ही इसका
३. पाँच कुत्सित भावनाएँ भ आ./मू /१७६/३१६ कंदपदेवखिम्भिस अभिओगा आसुरी य सम्मोहा । एदाहु संकिलिट्ठा पंचविहा भावणा भणिदा। कान्दी (कामचेष्टा) कैत्विषी (क्लेशकारिणी) आभियोगिकी (युद्धभावना), आसुरी ( सर्वभक्षणी) और संमोही ( कुटुम्ब मोहनी)। इस प्रकार ये पाँच भावनाएँ संक्लिष्ट कही गयी है ।१७।। (मू. आ। ६३), (ज्ञा /४/४१), (भा. पा/टी./१३/१३७ पर उद्धृत)। ४, अन्य सम्बन्धित विषय १. मैत्री प्रमोद आदि भावनाएँ
-देव्रत/२॥ २. पाँच कुत्सित भावनाओंके लक्षण
-दे०वह वह नाम। ३. सम्यग्दर्शन ज्ञान चारित्रकी भावना -दे० वह वह नाम । ४. वैराग्य भावनाएँ
-दे० वैराग्य। ५. महाव्रतकी पॉच भावनाएँ
-दे०वह वह व्रत। ६. व्रतोंकी पाँच-पाँच भावनाएँ मुख्यतः साधुओंके लिए,
और गोणतः श्रावकोंके लिए कही गयी है --दे० व्रत/२। ७ परमात्म भावनाके अपरनाम -दे० मोक्षमार्ग/२/५। ८. भावना व ध्यानमें अन्तर
-दे० धर्मध्यान/३ ।
प्रवचनवत्सलता, प्रवचनप्रभावनता और अभीक्ष्ण ज्ञानोण्योगयुक्तता, इन सोलह कारणोसे जीव तीर्थकर चाम-गोत्रकर्मको बाँधते है।४१॥ (म. १/३४/३५/१६)। त. सू./६/२४ दर्शनविशुद्धिविनयसपन्नता शीलवतेष्वनतीचारोऽभीक्ष्ण
ज्ञानोपयोगसवेगौ शक्तितस्त्यागतपसी साधुसमाधियावृत्त्यकरणमहदाचार्यबहुश्रुतप्रवचनभक्तिरावश्यकापरिहाणिर्गिप्रभावना प्रवचनवत्सन्न त्वमिति तीर्थ करत्वस्य ।२४। - दर्शनविशुद्धि, विनयसम्पन्नता, शील और बतोका अतिचार रहित पालन करना, ज्ञानमें सतत उपयोग, सतत संवेग, शक्तिके अनुसार त्याग, शक्तिके अनुसार तप, साधुसमाधि, वैयावृत्त्य करना, अरहन्तभक्ति, आचार्यभक्ति, बहुश्रुतभक्ति, प्रवचनभक्ति, आवश्यक क्रियाओको न छोडना, मोक्षमार्गकी प्रभावना और प्रवचनवात्सल्य ये तीर्थ कर नामकर्म के आसव है ।२४। (द्र, सं /टी/३८/१५६/१) । *षोडशकारण भावनाकि लक्षण-दे०वह वह नाम । २. सर्व वा किसी एक भावनासे तीर्थकरत्वका बन्ध सम्भव है स. सि./६/२५/३३६/६ तान्येतानि षोडशकारणानि सम्यग्भाव्यमानानि व्यस्तानि समस्तानि च तीर्थकरनामकस्सिवकारणानि प्रत्येतव्यानि।
ये सोलह कारण है। यदि अलग-अलग इनका भले प्रकार चिन्तन किया जाता है तो भी ये तीर्थंकर नामकम के आस्रवके कारण होते है और समुदाय रूपसे सबका भले प्रकार चिन्तन किया जाता है तो भी 'ये तीर्थंकर नामकर्म के आस्रवके कारण होते हैं। (रा. वा। ६/२४/१२/५३०/२२), (ध ८/३,४१/११/६); (चा, सा.७/५७/२)। ध ८/३,४१/पृष्ठ पंक्ति-तीए दसण विमुज्झाए एक्काए वि तित्थयरकम्म अंधति । (८०/६)। तदो विणयसंपण्णदा एक्काए वि तित्थयरणामकम्म मणुआ बंधं ति । (८१/४)। तीए आवासयापरिहीणदाए एक्काए वि। (८५/)। तीए (खणलवपडिबुझणदाए) एक्काए वि। (८५/१२)। तीए (लद्धिस वेगसंपण्णदाए) तित्थयरणामकम्मस्स एकाए विबेधो । (८६/४)। ताए एवं विहार एकाए ( वेज्जावच्चजोगजुत्तदाए) बि1 (८८/१०)। उस अकेली दर्शनविशुद्धि भावनासे अथवा अकेली विनयसम्पन्नतासे, अथवा अकेली आवश्यक अपरिहीनतासे, अथवा अकेली क्षणलव प्रतिबद्धतासे, अथवा अकेली लब्धिसंवेगसम्पन्नतासे, अथवा अकेली वैयावृत्य योगयुक्ततासे तीर्थ कर नामकर्मका बन्ध होता है। ३. एक-एकमें शेष १५ मावनाओंका समावेश चा, सा/१०/२ एकैकस्यां भावनायामविनाभाविन्य इतरपञ्चदश भावना. । प्रत्येक भावना शेष पन्द्रही भावनाओकी अविनाभावी है क्योंकि शेष पन्द्रहोके बिना कोई भी एक नहीं हो सकती।(विशेष दे० यह वह नाम)। * दर्शन विशुद्धि भावनाकी प्रधानता-दे० दर्शन विशुद्धि/३। भावना पचीसोवत-प्रथम दश दशमीके १०, पाँच पंचमीके १,
आठ अष्टमीके ८, दो पडिमाके २, इस प्रकार पाँच माह पर्यन्त २५ उपवास करे, तथा नमस्कार मन्त्र का त्रिकाल जाप करे। (बतविधान स/पृ.४६)। भावना पद्धात-भट्टारक पद्मनन्दि (ई. १३२८-१३६८) कृत ३४
सस्कृत पद्य प्रमाण जिनस्तवन। (ती०/३/३२४) । भावना विधि व्रत-प्रत्येक व्रतकी भावनाओके हिसाबसे पाँच
व्रतोको २५ भावनाओको भाते हुए एक उपवास एक पारणा क्रमसे २५ उपवास पूरे क्रे । ( ह. पु/३४/११३ ) ।
२. षोडश कारण भावना निर्देश
१. षोडश कारण भावनाओं का नाम निर्देश ष खं. ८/३/मू. ४१/७६ दंसणविसुज्झदाए विणयसंपण्णदाए सीलव्बदेसु णिरदिचारदाए आवासएस अपरिहीणदाए खण-लवपडिबुझणदाए लद्धिसवेगसंपण्णदाए जधाथामे तधातवे, साहूणं पासुअपरिचागदाए साहूणं समाहिसंधारणाए साहूणं वेजाबच्चजोगजुत्तदार अरहतभत्तीए बहुसुदभत्तीए पवयणभत्तीए पवयणवच्छलदाए पवयणप्पभावणदाए अभिक्रवण णाणोबजोगजुत्तदाए इच्चेदेहि सोलसेहि कारणेहि जीवा तित्थयरणामगोदं कम्म बंधति ।४१॥ - दर्शन विशुद्धता, विनय सम्पन्नता, शीलवतोमे निरतिचारता, छह आवश्यकोमे अपरिहीनता, क्षणलवप्रतिबोधनता, लब्धिसंवेगसम्पन्नता, यथाशक्ति तप, साधुओको प्रामुक परित्यागता, साधुओको समाधिसधारणा, साधुओकी वेयावत्ययोगयुक्तता, अरहन्तभक्ति, बहुश्रुतभक्ति, प्रवचनभक्ति,
जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश
भा०३-२९
Page #233
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भाव निक्षेप
भाव निक्षेप दे० निक्षेप
भाव निर्जरा - दे० निर्जरा / १
भाव परमाणु - ३० परमाणु
भाव परिवर्तन रूप संसार - दे० संसार / २ ।
भाव पाहुड़ आ. कुन्दकुन्द (ई. १२०-१७९) कृत. जीवशुभ अशुभ व शुद्ध भाव प्ररूपक, १६५ प्राकृत गाथाओ में निबद्ध ग्रन्थ है । इसपर आ. श्रुतसागर (ई. १४८१-१४६६) कृत संस्कृत टोका और पं. जयचन्द छाबडा (ई. १८६७) कृत भाषा वचनिका उपलब्ध है। (eft./9/39)
भाव बंध२० बंधार
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भाव मल दे० मल । भाव मोक्ष दे० मो भाव लिंग/ भावलेयादे०/१
भाव शुद्धि दे० शुद्धि
भाव श्रुतज्ञान[०१.२
भाव संग्रह - १. आ. देवसेन द्वारा वि. १००५ में रचित ७०१ प्राकृत गाथा प्रमाण, मिथ्यात्व प्ररूपक ग्रन्थ (जे /१/४१७, ४२९); (ती /२/ ३६६ ) । २. वामदेव (वि. श. १४ उत्तरार्ध) कृत ७८२ संस्कृत श्लोक प्रमाण, उपयु युक्त नं १ को छाया मात्र (जै./१/४२६) ।
•
भाव संवर
समर / १
भाव सत्य - दे० सत्य / १ । भावसिंह
व मानसिह दोनों सहयोगी थे कथाकोषकी रचना करते हुए अधूरा छोड़कर ही स्वर्ग सिधार गये । शेष भाग वि. १७६२ में जीवराजजीने पूरा किया था। समय - १७६२ (हिं. जैसा इ/१७८ कामता ) ।
भावसेन त्रैविध्य - मूल संघ सेनगण के नैयायिक विद्वान् आचार्य । कृतियें - प्रमाप्रमेय, कथाविचार, शाकटायन व्याकरण टीका, कातन्त्र रूपमाला, न्याय सूर्याबली, मुक्ति भुक्ति विचार, न्यायदीपिका, सिद्धान्तसार, सप्तपदार्थी टीका । समय ई. श. १३ का मध्य (ती /३/२५६, २५६) भावार्थ-आगम का अर्थ करने की विधि। (वे आगम ज्ञान / ३) । भावार्थ दीपिका - पं शिवजित (वि०१८१८) कृत भगवती आराधनाकी भाषा टीका-दे० भगवती आराधना । भावास्रव दे० आस्रव / ११
भावि नैगम नय दे० नव / 111/२ भावेंद्रिय - ३० इन्द्रिय
-
भाव्य भावक भाव - दे० संबंध | भाषा साधारण बोलचालको भाषा कहते है । मनुष्योंकी भाषा साक्षरी तथा पशु पक्षियोकी निरक्षरी होती है। इसी प्रकार आमन्त्रणी आक्षेपिणी आदि के भेदसे भी उसके अनेक भेद है ।
१. भाषा सामान्यके भेद
स. सि. / ५ / २४/२६४/१२ शब्दों द्विविधा भाषालक्षणो विपरीतश्चेति । भाषालक्षणो द्विविध साक्षरोऽनक्षरश्चेति । =भाषा रूप शब्द और अभाषा शब्द इस प्रकार शब्दोके दो भेद है । भाषात्मक शब्द दो
२२६
(रा. वा./४/२४/२/४०५/२३)
प्रकार है-साक्षर और अनक्षर (ध. १३/५.२.२६/२२९/९); (पं. काता, . ७६/१३४/२); (सं. टी./१६/१२/२ गो. जी जी प्र./३१५/६०३/२४) । ;; २. अक्षरात्मक भाषाके भेद व लक्षण
स. सि./५/२४/२६५/१ अक्षरीकृतः शास्त्राभिव्यञ्जकः संस्कृतविपरीत. भेदादार्यम्लेच्छव्यवहारहेतुः । - जिसमे शास्त्र रचे जाते है. जिसमें आर्य और म्लेच्छोंका व्यवहार चलता है ऐसे संस्कृत शब्द और इससे विपरीत शब्द ये सब साक्षर शब्द है । ( रा. वा /५/२४/३/४०८५ | २४) (पं.का./ता.वृ./७६/१३५/६ ) ।
भाषा
ध. १३/१.२.२६/२२१/९९ अक्खरगया अनुनादिसदिय पज्जतभासा । सा दुविहा - भासा कुभासा चेदि । तत्थ कुमासाओ कीरपार सिय- सिंघल वव्वरियादीण विणिग्गयाओ सत्तसयभेदभिण्णाओ | भासाओ पुण अट्ठारस हवंति तिकुरुक- तिलाढ तिमरहट्टतिमाल- तिगड- सिमानदभासभेदेण । उपपासे रहित इन्द्रियोंबाले संज्ञी पंचेन्द्रिय पर्याप्त जीवोकी भाषा अक्षरात्मक भाषा है। वह दो प्रकारकी है--भाषा और कुमाषा उनमें कुभाषाएँ काश्मीर देशवासी, पारसीक, सिहत और वर्बरिक आदि जनो के ( सुखसे) निकली हुई सात सौ भेदोंमें विभक्त है । परन्तु भाषाऍ तीन कुरुक ( कर्णाढ) भाषाओं, तीन लाढ भाषाओं, तीन मरहठा ( गुर्जर ) भाषाओं, तीन मालन भाषाओं, तीन गौड भाषाओं, और तीन भाग भाषाओंके भेदसे अठारह होती है (पं.का./ता.वृ./ मंगलाचरण / पृ. ४/५ ) ।
प्र. सेटी १६/५२/१ त्रध्यारामक संस्कृतप्राकृपशाचादिभाषाभेदेनार्थमनुष्यादिव्यवहारहेतुर्यहुधा अक्षरात्मक भाषा संस्कृत प्राकृत और उनके अपभ्रंश रूप पैशाची आदि भाषाओंके भेदसे आर्य व म्लेच्छ मनुष्योके व्यवहार के कारण अनेक प्रकारकी है।
RFC
३. अनक्षरात्मक भाषाके भेद व लक्षण
स.सि / २४/२६५/२ अनक्षरात्मको होन्द्रियादीनामविज्ञानस्वरूपप्रतिपादन हेतु' | जिससे उनके सातिशयज्ञान का पता चलता है। ऐसे द्वि इन्द्रिय आदि जीवीके शब्द अनक्षरात्मक शब्द है । (रा. बा./५/२४/२/४०५/२२) ।
ध. १३/५,५,२६/२२१/१० तत्थ अणक्खरगया बीइंदिय पहुडि जान असणिपंचिदिया मुहसमुब्भुदा बालमृअसणिप चिदियभासा च । - द्वीन्द्रिय से लेकर असंज्ञी पंचेन्द्रिय पर्याप्त जीवोके मुखसे उत्पन्न हुई भाषा तथा बालक और मुक संज्ञी पंचेन्द्रिय जीवोकी भाषा भी अनक्षरात्मक भाषा है । पं.का./ता.वृ./७१/१२४/७ अनक्षरात्मको द्वन्द्रयादिशब्दरूपी दिव्यध्वनिरूपश्च । अनक्षरात्मक शब्द द्वीन्द्रियादिके शब्दरूप और दिव्यध्वनि रूप होते हैं ।
४. दुर्भाषाके भेद
ज्ञा./१८/६ पर उद्धृत - कर्कशा परुषा कवी निष्ठुरा परको पिनी । छेद्याहकुरा मध्यकुशातिमानिनी भयकरी भूतहिसाकरी चेति दुर्भा दशधा त्यजेत् । 121 = कर्कश, परुष, कटु, निष्ठुर, परकोपी, छेद्यकुरा, मध्यकृशा, अतिमानिनी, भयंकरी, और जीवो की हिसा करनेबाला है. इनको न. ५ /१/१६६-१६६)। ५. आमंत्रणी आदि भाषा निर्देश
जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश
भ. आ / मू. वि / १९१४-१९१६ / १११३ आमतणि आणवणी जायणि संपुच्छणीय पण्णवणी । पच्चक्खाणी भासा भासा इच्छालोमा य | ११६५ | संसयवयणी य तहा असच्चमोसा य अट्ठमी भागा। नवमी अण खरगदा असच्चमोसा हवदि णेया | ११६६ । टी० - आमतणी
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भाषा
या वाचा परोऽभिमुखीक्रियते सा आमंत्रणी हे देवदन्त इत्यादि अगृहीतसकेतानभिमुखी करोति तेन न मृषा गृहीतागृहीत संकेतयोः प्रतीतिनिमित्तमनिमित्तं चेति ह्यात्मकता । स्वाध्यायं कुरुत, विरमता यमात् इत्यादिका अनुशासनवाणी आनवणी । चोदिताया ' क्रियाया' करणमकरणं वापेक्ष्या ने कान्तेन सत्या न मृषैव वा । जायणी ज्ञानोपकरणं पव्यादिकं मा भवद्भिर्दातव्यं इत्यादिका पाचन । दातुरपेक्षया पूर्ववदुभयरूपा निरोधवेदनास्ति भवता न वेति प्रश्नवाक् सपुच्छणी यद्यस्ति सत्या न चेदिततरा । वेदना भावाभावमपेक्ष्य प्रवृत्तेरुभयरूपता । पण्णवणी नाम धर्म्मकथा । सा बहून्निर्दिश्य प्रवृत्ता के श्चिन्मनसि करणमितरं रकरण चापेक्ष्य करणत्वाद्विरूपा । पञ्चवाणी नाम केन चिगुरुमननुज्ञाप्य इव क्षीरादिक काल मया पायात इयुक्त कार्यान्तरमुद्दिश्य तत्युदितं गुरुणा प्रत्याख्यानावधिकालो न पूर्ण इति नैकान्तत सत्यता गुरुवचनात्प्रवृत्तो न दोषायेति न मृषैकान्त । इच्छानुलोमा य ज्वरितेन पृष्टं घृतशर्करामिल] शरीरं शोभनमिति यदि परो न्याय शोभनमिति । माधुर्यादिस्य गुणसद्भावं नरवृद्धिनिमित्तचापेक्ष्य न शोभन मिति वचो न मृषेकान्ततो नापि सत्यमेवेति द्वयात्मकता | ११६५। संसयमयणी किमर्य स्थागुरुत पुरुष इत्यादिकाद्वयोरेकस्य सजामितरस्याभावं चापेक्ष्य द्विरूपता । अणक्खरगदा अगुलिस्फोटादिध्वनिः कृताकृत के पुरुषापेक्षया प्रद्यौतिनिमित्ततामनिमित च प्रतिपद्यते इत्युभयरूपा-१. जिस भाषा से दूसरोको अभिमुख किया जाता है, उसको आमन्त्रणी सम्बोधिनी भाषा कहते है। जैसे'हे देवदत्त यहाँ आओ' देवदत्त शब्दका संकेत जिसने ग्रहण किया है उसकी अपेक्षासे यह वचन सत्य है जिसने सकेत ग्रहण नहीं किया उसकी अपेक्षा से असत्य भी है । २. आज्ञापनी भाषा- जैसे स्वाध्याय करो, असे विरक्त हो जाओ, ऐसी आज्ञा दी हुई क्रिया करने से सत्यता और न करनेसे असत्यता इस भाषामें है, इसलिए इसको एकान्त रीति से सत्य भो नही कहते और असत्य भी नहीं कह सकते हैं । ३. ज्ञानके उपकरण शास्त्र और संयमके उपकरण पिच्छादिक मेरे को दो ऐसा कहना यह वाचनो भाषा है। दाताने उपर्युक्त पदार्थ दिये तो यह भाषा सत्य है और न देनेकी अपेक्षासे असत्य है । अतः यह सर्वथा सत्य भी नहीं है और सर्वथा असत्य भी नहीं है। ४. प्रश्न पूछना उसको प्रश्नभाषा कहते है । जैसे--तुमको निरोधमेंकारागृहमें वेदना दुख है या नहीं वगेरह यदि वेदना होती हो तो सत्य समझना न हो तो असत्य समझना । वेदनाका सद्भाव और असद्भावकी अपेक्षा इसको सत्यासत्य कहते है । ५. धर्मोपदेश करना इसको प्रज्ञापनी भाषा कहते है । यह भाषा अनेक लोगोको उद्देश्य कर कही जाती है । कोई मनःपूर्वक सुनते है और कोई सुनते नहीं, इसकी अपेक्षा इसको असत्यभूषा कहते है ६. किसीने गुरुका अपनी तरफ लक्ष न खींच करके मैने इतने काल तक क्षीरादि पदार्थोंका त्याग किया है ऐसा कहा। कार्यांतरको उद्देश्य करके वह करो ऐसा गुरुने कहा प्रवाख्यानकी मर्यादाका काल पूर्ण नही हुआ तब तक वह एकान्त सत्य नहीं है। गुरुके वचनानुसार प्रवृत्त हुआ है इस वास्ते असत्य भी नहीं है । यह प्रत्याख्यानी भाषा है । ७. इच्छानुलोमा - ज्वरित मनुष्यने पूछा घी और शक्कर मिला हुआ दूध अच्छा नहीं है यदि दूसरा कहेगा कि वह अच्छा है, तो मधुरतादिक गुणोका उसमें सद्भाव देखकर यह शोभन है ऐसा कहना योग्य है। परन्तु ज्वर वृद्धिको वह निमित्त होता है इस अपेक्षासे वह शोभन नही है, अत सर्वथा असत्य और सत्य नही है इसलिए इस वचन में उभयात्मकता है | ११६५। ८ सशय वचन - यह असत्यमृषाका आठवाँ प्रकार है । जेसे - यह ठूठ है अथवा मनुष्य है इत्यादि । इसमे दोनोमें से एक की सत्यता है और इतरका अभाव है। इस वास्ते उभयपना इसमें है । ६. अनक्षर वचन - चुटकी बजाना, अगुलिसे इशारा करना, जिसको चुटकी बजानेका सकेत मालूम है उसकी अपेक्षासे उसको वह
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भिक्षा
प्रतीतिका निमित्त है, और जिसको संकेत मालूम नही है उसको अप्रतीतिका निमित्त होती है । इस तरह उभयात्मकता इसमें है ११६६। (मू आ./३१५-३१६ ); (गो. जी /मू./२२५-२२६/४८५) ।
६. पश्यन्ती आदि भाषा निर्देश
रा.पा./१/२०/२६० सम्दासमादी वाणी चार प्रकारको मानते है पश्यन्ती, मध्यमा, वैखरी, सूक्ष्मा । १. पश्यन्ती - जामे विभाग नाहीं । सर्वं तरफ सकोचा है कम जाने ऐसी पश्यन्ती कहिएलब्धि के अनुसार द्रव्य वचनको कारण जो उपयोग। ( जैन के अनुसार इसे ही उपयोगात्मक भाव वचन कहते है । ) २. मध्यमाबक्ताकी बुद्धि तो जाको उपादान कारण है, बहुरि सासोच्छ्वासको संधि अनुक्रम प्रवर्ती ताकू मध्यमा कहिए शब्द वर्गणा रूप द्रव्य वचन । ( जैन के अनुसार इसे शब्द वर्गणा कहते है | ) २. वैखरी कण्ठादिके स्थाननिको भेदकर पवन तिसरा ऐसा जो छाका सोस है कारण जा ऐसी अक्षर रूप प्रीता सरी कहिए (अर्थाव) द्रियग्राह्म पर्याय स्वरूप द्रव्य वचन (जनके अनुसार इसे इसी नाम से स्वीकारा गया है।) ४ सूक्ष्मा - अन्तर प्रकाश रूप स्वरूप ज्योति रूप नित्य ऐसी सूक्ष्मा कहिए।... क्षयोपशमसे प्रगटी आमाकी अक्षरको ग्रहण करनेकी तथा कहनेकी शक्ति रूप लब्धि । ( जैनके अनुसार इसे लब्धि रूप भाव वचन स्वीकारा गया है। )
अन्य सम्बन्धित विषय
१. अभाषात्मक शब्द
२. अभ्याख्यान व कलह आदि रूप भाषा २. काल पैशुन्य आदि
४ असम्बद्ध प्रलाप आदि
५ गुणवाची, कियानाची आदि शब्द ६. आगम व अध्यात्म भाषामें अन्तर ७. चारो अनुयोगों की भाषा में अन्तर ८. ढोलादिके शब्दको भाषात्मक क्यों कहते है
भाषा पर्याप्त ०/९
भाषा वर्गणा दे० / ९ भाषा समितिदे०समिति/
- दे० ० शब्द | - दे० वचन |
- दे० वह वह नाम |
- दे० वचन । - दे० नाम / ३ । -दे० पद्धति ।
- दे० अनुयोग ।
- दे० शब्द ।
भासुर एक दे०
भास्कर 'जीवन्धरचरित्र के रचयिता एक कन्नडकवि । समयई. ९४२४। (ती./४/३११)
भास्करनंदि - तचार्य की सुखबोधिनी वृत्ति (संस्कृत) तथा ध्यानस्तव के रचयिता । जिनचन्द्र के शिष्य । समय-विश १४ का अन्त (ई श. १४) । (ती./३/३०६) । (जै./२/२६६) । भास्कर वेदांत - द्वैताद्वैत- दे० वेदात ३ /
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भिक्षा -- साम्यरसमे भीगे होनेके कारण साधुजन लाभ-अलाभ समता रखते हुए दिनमे एक बार तथा दातारपर किसी प्रकारका भी भार न पडे ऐसे गोचरी आदि वृत्तिसे भिक्षा ग्रहण करते है, वह भी मौन सहित रसस्वाद से निरपेक्ष यथा न केवल उदर पूर्ति के लिए करते है। इतना होनेपर भी उनमे याचना रूप दीन व हीन भाव जागृत नहीं होता। भक्ति पूर्वक किसीके प्रतिग्रह करनेपर अथवा न करनेपर श्रावक के घर में प्रवेश करते है, परन्तु विवाह व
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भिक्षा
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१. भिक्षा निर्देश व विधि।
यज्ञशाला आदिमें प्रवेश नहीं करते, नीच कुलीन, अति दरिद्री व अति धनाढयका आहार ग्रहण नहीं करते है।
१.भिक्षा निर्देश व विधि
१. साधु मिक्षा वृत्तिसे आहार करते हैं मू आ./८१६, ६३७ पयणं व पायणं वाण करे ति अ णेव ते करावेंति ।
पयणार भणियत्ता संतुठाभिक्रवमेत्तेण ।१६। जोगेसु मूल जोगं भिक्खाचरियं च वणियं सुत्ते । अण्णे य पुणो जोगा विण्णाणविहीण एहि कया ।६३७१ - आप पकाना दूसरेसे पकवाना न तो करते है न कराते है वे मुनि पकानेके आरम्भसे निवृत्त हुए एक भिक्षा मात्रसे सन्तोषको प्राप्त होते है ।८१६। आगममें सब मूल उत्तरगुणोके मध्य में भिक्षा चर्या ही प्रधान व्रत कहा है, और अन्य जो गुण है वे चारित्र हीन साधुओ कर किये जानने ।६३७ (प्र सा/म./२२६ ), (प. पू./ ४/१७)। २. यथा काल, वृत्ति परिसंख्यान सहित मिक्षार्थ चर्या करते हैं रा. वा./8/६/१६/१६७/१६ भिक्षाशुद्धि' आचारसूत्रोक्तकालदेशप्रकृतिप्रतिपत्तिकुशला चन्द्रगतिरिव हीनाधिकगृहा, विशिष्टापस्थाना...। - आचार सूत्रोक्त कालदेश प्रकृतिकी प्रतिपत्ति में कुशल है। चन्द्रगतिके समान हीन या अधिक धरोंकी जिसमें मर्यादा हो, विशिष्ट विधानवाली हो ऐसी भिक्षा शुद्धि है। भ. आ./वि /१५०/३४५/१० भिक्षाकालं, बुभुक्षाकालं च ज्ञात्वा गृहीतावग्रह', ग्रामनगरादिकं प्रविशेदीर्यासमितिसंपन्न.। -भिक्षाका समय, और क्षुधाका समय जानकर कुछ वृत्तिपरिसंख्यानादि नियम ग्रहण कर ग्राम या नगरमें ईर्यासमितिसे प्रवेश करे ।
भिक्षा निर्देश व विधि साधु भिक्षा वृत्तिसे आहार लेते है। यथा काल, वृत्ति परिसंख्यान सहित भिक्षार्थ चर्या
करते है। ३ भिक्षा योग्य काल।
मौन सहित व याचना रहित चर्या करते है। द्वारापेक्षण पूर्वक श्रावकके घरमें प्रवेश करते है।
-दे० आहार/II/१/४ भिक्षावृत्ति सम्बन्धी नवधा भक्ति। -दे० भक्ति/२। दातारकी अवस्था सम्बन्धी विशेष विचार ।
-दे० आहार/II/५। | कदाचित् याचनाकी आशा। ६ | अपने स्थानपर भोजन लानेका निषेध ।
गोचरी आदि पाँच भिक्षा वृत्तियोंका निर्देश । बर्तनोंकी शुद्धि आदिका विचार। चौकेमें चींटी आदि चलती हो तो साधु हाथ धोकर
अन्यत्र चले जाते है। -दे० अन्तराय/२। दातारके घरमें प्रवेश करने सम्बन्धी नियम
व विवेक अभिमत प्रदेशमें आगमन करे अनभिमतमें नहीं। वचन व काय चेष्टा रहित केवल शरीर मात्र दिखाये। छिद्रमेंसे झॉक कर देखनेका निषेध । गृहस्थके द्वारपर खडे होनेकी विधि। चारों ओर देखकर सावधानीसे वहॉ प्रवेश करे। सचित्त व गन्दे प्रदेशका निषेध ।। सूतक पातक सहित घरमें प्रवेश नहीं करते।
-दे० सूतक। व्यस्त व शोक युक्त गृहका निषेध। पशुओं व अन्य साधु युक्त गृहका निषेध । बहुजन ससक्त प्रदेशका निषेध । उद्यान गृह आदिका निषेध । | योग्यायोग्य कुल व घर १ विधर्मी आदिके घरपर आहार न करे। २ नीच कुलीनके घरपर आहार न करे । ३ | शुद्रसे छुनेपर स्नान करनेका विधान ।
| अति दरिद्रीके घर आहार करनेका निषेध । ५ कदाचित् नीच घरमें भी आहार ले लेते है । ६ | राजा आदिके घरपर आहारका निषेध ।
कदाचित् राजपिंडका भी ग्रहण। मध्यम दर्जे के लोगोंके घर आहार लेना चाहिए।
३. मिक्षा योग्य काल भ. आ./वि./१२०६/१२०३/२२ भिक्षाकाल', बुभुक्षाकालोऽवग्रहकालश्चेति कालत्रयं ज्ञातव्यं । ग्रामनगरादिषु इयता कालेन आहारनिष्पत्तिर्भवति, अमीषु मासेषु, अस्य वा कुलस्य वाटस्य वार्य भोजनकाल इच्छायाः प्रमाणादिना भिक्षाकालोऽवगन्तव्यः । मम तीवा मन्दा वेति स्वशरीरव्यवस्था च परीक्षणीया। अयमवग्रह, पूर्व गृहीत । एवंभूत आहारो मया न भोक्तव्य' इति अद्यायमवग्रहो ममेति मीमांसा कार्या । -भिक्षा काल, बुभुक्षा काल और अवग्रह काल ऐसे तीन काल हैं। गाँव, शहर वगैरह स्थानोमे इतना काल व्यतीत होनेपर आहार तैयार होता है। अमुक महीनेमें अमुक कुलका, अमुक गलीका अमुक भोजन काल है यह भिक्षा या भोजन कालका वर्णन है ।१। आज मेरेको तीव्र भूख लगी है या मन्द लगी है । मेरे शरीरकी तबियत कैसी है, इसका विचार करना यह बुभुक्षा काल का स्वरूप है। अमुक नियम मैने कल ग्रहण किया था। इस तरहका आहार मैने भक्षण न करनेका नियम लिया था। आज मेरा उस नियमका दिन है। इस प्रकारका विचार करना अवग्रह काल है। आचारसार//EE जिस समय बच्चे अपना पेट भरकर खेल रहे हों
१८ जिस समय श्रावक बलि कर्म कर रहे हों अर्थात देवताको भातादि नैवेद्य चढा रहे हो, वह भिक्षा काल है। सा. ध./६/२४ में उधृत-प्रसृष्टे विण्मूत्रे हृदि सुविमले दोषे स्वपथगे विशुद्ध चोद्वारे क्षुदुपगमने वातेऽनुसरति । तथाऽग्नाबुद्रिक्ते विशदकरणे देहे च सुलघौ, प्रयुज्जीताहारं विधिनियमितं काल. स हि मत.। मल मूत्रका त्याग हो जानेके पश्चात, हृदयके प्रसन्न होनेपर, वात पित्त और कफ जनित दोषोंके अपने-अपने मार्गगामी होनेपर मलवाहक द्वारोंके खुलनेपर, भूखके लगनेपर, वात या धायुके ठीक-ठीक अनुसरण होनेपर, जठराग्निके प्रदीप्त होनेपर, इन्द्रियों के प्रसन्न होनेपर, देहके हलका होनेपर, विधि पूर्वक तैयार किया हुआ, नियमित आहारका ग्रहण करे। यही भोजनका काल माना गया है।
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भिला
यहाँ 'काले' इस पदके द्वारा भोजनके कालका उपदेश दिया गया है। चर्चा समाधान / प्रश्न ५३/पृ. ५४ यदि आवश्यकता पडे तो मध्याह्न काल में भी चर्या करते है ।
दे. अनुमति / ६ - अनुमति त्याग प्रतिमाधारो दोपहर को आहार लेता है । दे. रात्रि भोजन / १-प्रधानत दिन का प्रथम पहर भोजन के योग्य है। दे, प्रोषधपवास /१/७ दोपहर के समय भोजन करना साधु का एक भक्त नामक मूल गुण है।
किंचि
8.
मौन सहित व याचना रहित चर्या करते हैं सू. आ./-१०-८१८ पनि भिपिडा पनि 'जायते। मोणदेण मुनियो परति भित्र अभासता । देहीति दीपक भासं च्छति एरिसं वतुं अनि गीदि अलाभेन गय मोणं भंजदे धीरा । ८१८| मुनिराज भोजनके लिए स्तुति नहीं करते और न कुछ माँगते है । वे मौन व्रतकर सहित नहीं कुछ कहते हुए भिक्षाके निमित्त विचरते है। तुम हमको प्रास दो ऐसा करुणा रूप मलिन वचन कहनेकी इच्छा नहीं करते। और भिक्षा न मिलनेगर सीट आते है, परन्तु वे धीर मुनि मौनको नहीं छोड 15851
कुरल. का./१०७/१,६ अभिक्षुको वरीवर्ति भिक्षो' कोटिगुणोदय' । - याचनास्तु वदान्येना निजादचिणे च मे |१| एकोऽपि याचनाशब्दो जिहाया निर्वृति परा । वरमस्तु स शब्दोऽपि पानीयार्थं हि गो' कृते | ६| = भीख न मांगने वाले से करोड गुणा वरिष्ट होने पर भी भिखारी है, भले ही वह किन्हीं उत्साही दातारों से ही क्यों न मांगे |१| गाय के लिये पानी मागने के लिये भी अपमानजनक याचना तो करनी पड़ती ही है । ६।
रा. मा./३/६/१६/१०/१० भिक्षादिगिमा प्राकाहारबैषणप्रणिधाना = दीन वृत्तिसे रहित होकर प्राक आहार हूँढना भिक्षा शुद्धि है । (चा. सा० / ७८/१) १
दे० भिक्षा / २ / २ याचना करना, अथवा अस्पष्ट शब्द बोलना आदि निषिद्ध है । केवल बिजलीकी चमक के समान शरीर दिखा देना पर्याप्त है।
आ. अनु / ९५९ प्राप्तागमार्थ सब सन्ति गुणा कलत्रमप्रावृत्तिरसि माति नृवयाच्या १५१ गुण ही तेरी स्त्रियों है। ऐसा तथा किसी से याचना करने रूप वृत्ति भी तुझमें पार्यो नही जाती । अब तू वृथा ही याचनाको प्राप्त हो है, सो तेरे लिए इस प्रकार दीन बनना योग्य नहीं ।
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५. कदाचित् याचनाकी आज्ञा
भ. आ // १२०१ / १२०६ उग्गहणायणमवचिए वहा भावना तदर | १२०१ = आगमसे अविरुद्ध ज्ञान व संयमोपकरणकी याचना करनी तृतीय अर्थात अचौर्य महाबतकी भावना है। कुरल / १०६/२८ अपमान बिना भिक्षा प्राप्यते या सुदैवत । प्राप्तिकाले तु संप्राप्ता सा भिक्षा हर्षदायिनी ॥२॥ याचा यदि नैव पुन धर्मका । काष्ठपुत्तलनृत्य स्यात् तदा संसारजालकम् || बिना तिरस्कार के पा सको तो मागना आनन्ददायी है । २ । धर्म प्रवर्तक याचको के अभाव में संसार कठपुतली के नाच से अधिक न हो सकेगा 15
३० अपनार / २ / २ (लेजमा गत क्षपककी भैयात्यके अर्थ काचित निर्यापक साधु आहार माँगकर लाता है । ) दे० आलोचना/५/कति दोष आचार्यकी वैयावृत्यके लिए साधु आहार माँगकर लाता है | )
६. अपने स्थानपर भोजन लानेका निषेध
यू.आ./१२. अभिच
ताण पडसिन
ज्जेति | १२ | =... ...अन्य स्थानसे आया सूत्रके विरुद्ध और सूत्र से निषिद्ध ऐसे आहारको वे मुनिया देते है।१२।
१. भिक्षा निर्देश व विधि रावा./७/१/१६/५३५/७ ने संयमसाधनम् आनीय भोक्तव्यमिति । = ला कर भोजन करना यह संयमका साधन भी नहीं है । भ.आ./वि./१९८५/११७१/१२ कचिद्भाजने दिवैव स्थापितं आत्मवासे भुञ्जानस्यापरिग्रहवतलोप स्यात् । = पात्र में रखा आहार वसतिका में ले जाकर खाने से अपरिग्रह व्रत की रक्षा कैसे होगी ।
७. गोचरी आदि पाँच मिक्षा वृत्तियोंका निर्देश
१.सा./ / ११६ वर सिमणमवण गोयारसम्भपुरणभगर पाउन उप्पयारे विश्व भिक्खु ११६ -मुनियोंकी चर्चा पाँच प्रकारको मतायी गयी है- उदग्निशमन, अक्षग्रक्षण, गोचरी, श्वभ्रपूरण और भ्रामरी ।११६ (चा, सा./८/३ ) | मू. आ /८१५ अक्खोमक्खणमेत्तं भजंति । गाडीके धुरा चुपरनेके समान आहार लेते हैं ।
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रा. मा./१/६/१६/१०/२० वा साभालाभयोः सरसविरसयोश्च समसंतोष भाग्यते यथा सतीसालंकारमरयुवतिभिरुपनीय मानपास गौसौन्दर्य निरीक्षण र गमेनाति यथा गोलूपं नानादेशस्थ यथालाभमभ्यवहरति न योजनासं पदमवेक्षते तथा भिक्षुरपि भिक्षापरिवेषजमुनतिरूपवेषविलासा लोकनिरुत्सुकः शुष्कद्रमाहारयोजना विशेष पानपेक्षमाण यथागतमश्नाति इति गौरिव चारो गोचार इति व्यपदिश्यते, तथा गवेषणेति च यथा वाकट रत्नभारपरिपूर्ण देन केनचिद स्नेहेन अक्षतेपं कृत्वा अभिलतिदेशान्तरं वणिगुपनयति तथा मुनिरपि गुणरत्नभरितां तनुंशकटीमनस्यभिक्षारमेन अभिसमाधिपतनं प्रापयतीत्यक्षक्षणमिति च नाम निरू यथा भाण्डागारे समुत्थितमनमशुचिना शुचिना वा वारिणा शमयति गृही तथा यतिरपि उदराग्नि प्रशमयतीति उदराग्निप्रशमनमिति च निरुच्यते । दातृजनबाधया बिना कुशलो मुनिर्धमरवदाहरतीति भ्रमराहार इत्यपि परिभाष्यते येन केनचित्प्रकारेण स्वभ्रपूरणवदुदरगर्त मनगारः पूरयति स्वादुनेतरेण वेति स्वभ्रपूरणमिति च निरुच्यते । =यह लाभ और अलाभ तथा सरस वीर बिरसमें समान सन्तोष होनेसे भिक्षा कही जाती है। १ गोचरी - जैसे गाय गहनोंसे सजी हुई सुन्दर युवतिके द्वारा लायी गयी घासको खाते समय घासको ही देखती है लानेवालीके अंगसौन्दर्य आदिको नही; अथवा अनेक जगह यथालाभ उपलब्ध होनेबाले पारेके पुरेको ही खाती है उसकी सजावट आदिको नहीं देखती, उसी तरह भिक्षु भी परोसने वालेके मृदु ललित रूप वेष और उस स्थानकी सजावट आदिको देखनेकी उत्सुकता नही रखता और न आहार सूखा है या गीता या कैसे चाँदी आदि के बरतनों में रखा है या केसी उसकी योजना की गयी है' आदिकी ओर ही उसकी दृष्टि रहती है। वह तो जैसा भी आहार प्राप्त होता है जैसा खाता है। अत भिक्षाको गौ की तरह चार-गोचर या गवेषणा कहते है । [२] अक्षम्रक्षण जैसे कि राम बाविसे सदी हुई गाडीमें किसी भी तेलका लेपन करके (ओगन देकर) उसे अपने इष्ट स्थानपर ने जाता है उसी तरह मुनि भी गुण रत्नसे भरी हुई शरीररूपी गाडीको निर्दोष भिक्षा देकर उसे समाधि नगरतक पहुँचा देता है, अत इसे अक्षम्रक्षण कहते हैं । ३. उदाग्निप्रशमन - जैसे भण्डार में आग लग जानेपर शुचि या अशुचि कैसे भी पानी से उसे बुझा दिया जाता है, उसी तरह यति भी उदराग्निका प्रशमन करता है, अत इसे उदराग्निप्रशमन कहते हैं । ४. भ्रमराहार -- दाताओंको किसी भी प्रकारको बाधा पहुँचाये बिना मुनि कुशलतासे भ्रमर की तरह आहार ले लेते है । अत: इसे भ्रमराहार या भ्रामरीवृत्ति कहते है। २. गर्त पूरण- जिस किसी भी प्रकारसे गड्डा भरनेकी तरह मुनि स्वादु या अस्वादु अन्नके द्वारा पेटरूप गड्ढे को भर देता है। अत इसे स्वधपुरण भी कहते है।
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भिक्षा
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२. दातारके घर में प्रवेश करने सम्बन्धी नियम....
८ बर्तनोंकी शुद्धि आदिका विचार भ, आ./वि /१२०६/१२०४/१६ दातुरागमनमार्ग अबस्थानदेश, कडु
च्छकभाजनादिक च शोधयेत् . खण्डेन भिन्तेन वा कडकच्छुकेन दीयमानं वा । दाताका आनेका रास्ता, उसका खडे रहनेका स्थान, पलो और जिसमे अन्न रखा है ऐसे पात्र-इनकी शुद्धताकी तरफ विशेष लक्ष्य देना चाहिए। टूटो हुई अथवा खण्डयुक्त हुई ऐसे पलीके द्वारा दिया हुआ आहार नहीं लेना चाहिए। २. दातारके घरमें प्रवेश करने सम्बन्धी नियम व विवेक
१. अभिमत प्रदेशमें गमन करे अनभिमतमें नहीं भ आ/मू./१२०६/१२०६ बज्जणमणण्णुणादगिहप्पवेसस्स गोयरादीसु । ११२०६। - गृहके स्वामीने यदि घरमें प्रवेश करनेकी मनाही
की होगी तो उसके घरमें प्रवेश करना यतिको निषिद्ध है। भ. आ./वि./१५०/३४४/२१ अन्ये भिक्षाचरा यत्र स्थित्वा लभन्ते भिक्षा, यत्र वा स्थिताना गृहिण प्रयच्छन्ति तावन्मात्रमेव भूभाग यति प्रविशन्न गृहाभ्यन्तरम्। तदद्वारकाधु क्लङ्घने कुप्यन्ति च गृहिण । -इतर भिक्षा माँगने बाले साधु जहाँ खडे होकर भिक्षा प्राप्त करते है, अथवा जिस स्थानमें ठहरे हुए साधुको गृहस्थ दान देते है, उतने ही भूप्रदेशतक साधु प्रवेश करे. गृहके अभ्यन्तर भागमे प्रवेश न करे क्योकि द्वारादिकोका उल्लघन कर जानेसे गृहस्थ कुपित होगे। (भ. आ./वि /१२०६/१२०४/१२), (भ. आ/पं. सदासुख/ २५०/१३१/१)। भ. आ./वि /१२०६/१२०४/पंक्ति न. द्वारमर्गतं कवाट वा नोद्धाटयेत् ।१०। परोपरोधव जिते, अनिर्गमनप्रवेशमार्गे गृहिभिरनुज्ञातस्तिष्ठेत् । ।१५। यदि द्वार बन्द होगा, अर्गलासे बन्द होगा तो उसको उधाडना नही चाहिए ।१०। परोपरोध रहित अर्थात् दूसरोका जहाँ प्रतिबन्ध नही है ऐसे घरमें जाने-आनेका मार्ग छोडकर गृहस्थोके प्रार्थना करनेपर खडे होना चाहिए ।११। (और भी देखो अगला शीर्षक)।
२. वचन व काय चेष्टारहित केवल शरीर मात्र दिखाये भ आ /वि/१२०६/१२०४/१३ यात्रामव्यक्तस्वनं वा स्वागमनिवेदनाथ न कुर्यात् । विद्य दिव स्वा तन च दर्शयेद, कोऽमलभिक्षा दास्यतीति अभिसधि न कुर्यात। -याचना करना अथवा अपना आगमन सूचित करनेके लिए अस्पष्ट बोलना या रखकारना आदि निषिद्ध है। बिजलीके समान अपना शरीर दिखा देना पर्याप्त है। मेरे को कौन
श्रावक निर्दोष भिक्षा देगा ऐसा संकल्प भी न करे। आचारसार//१०८ क्रमेणायोग्यागारालि पर्यटना प्राङ्गणाभितं । विशेन्मौनी विकारागसज्ञाया चोज्झितो यति । क्रम पूर्वक योग्य घरोके आगेसे घूमते हुए मौन पूर्वक घरके प्रागण तक प्रवेश करते है। तथा शरीरके अंगोपागसे किसी प्रकारका इशारा आदि नही
करते है। चर्चा समाधान/प्रश्न ५३/पृ. ५४ - प्रश्न-व्रती तो द्वारापेक्षण करे पर
अवती तो न करे। उत्तर-गृहस्थके ऑगनमें चौथाई तथा तीसरे भाग जाइ चेष्टा विकार रहित देह मात्र दिखावे। फिर गृहस्थ प्रतिग्रह करे। भ. आ/प सदासुखदास/२५०/१३१/८ बहुरि गृहनिमें तहाँ ताई प्रवेश करे जहाँ ताई गृहस्थनिका कोऊ भेषी अन्य गृहस्थीनिकै आनेकी अटक नही होय। बहुरि अगणमे जाय खड़े नही रहे। आशीर्वादादिक मुखतें नही कहै। हाथकी समस्या नहीं करे। उदरकी कृशता नहीं दिखावै । मुखकी विवर्णता नहीं करे। हुकारादिक। सैन सज्ञा
समस्या नही करै, पड़िगाहे तो खडे रहे, नहीं पडिगाहे तो निकसि अन्य गृहनिमें प्रवेश करै। ३. छिद्र में-से झाँककर देखनेका निषेध भ आ./वि./१२०६/१२०४/१६ छिद्रद्वारं कवाट, प्राकारं वा न पश्येत्
चौर इव । -चोरके समान, छिद्र. दरवाजा, क्विाड तट वगैरहका अवलोकन न करे।
४. गृहस्थके द्वार पर खड़े होने की विधि भ. आ./वि /१२०६/१२०४/१५ अनिर्गमनप्रवेशमार्गे गृहिभिरनुज्ञातस्तिष्ठेव । समे विच्छिद्रे, भूभागे चतुरङ्गुलपादान्तरो निश्चल कुड्यस्तम्भादिकमनवलम्ब्य तिष्ठेत् । -घरमें जाने-आनेका मार्ग छोडकर गृहस्थोके प्रार्थना करनेपर खडे होना चाहिए। समान छिद्र रहित ऐसी जमीन पर अपने दोनो पाँवोमें चार अगुल अन्तर रहेगा इस तरह निश्चल खडे रहना चाहिए। भीत, खम्ब वगैरहका आश्रय न लेकर स्थित खडे रहना चाहिए।
५. चारों ओर देखकर सावधानीसे वहाँ प्रवेश करे भ. आ. वि./१५०/३४५/३ द्वारमप्यायामविष्कम्भहीन प्रविशत गात्रपीडासकुचिताङ्गस्य विवृताधोभागस्य वा प्रवेश दृष्ट्वा कुप्यन्ति वा। आत्मविराधना मिथ्यात्वाराधना च । द्वारपार्श्वस्थजन्तुपीडा स्वगात्रमई ने शिक्यावलम्बितभाजनानि वा अनिरूपितप्रवेशी वा अभिहन्ति । तस्मादूर्व तिर्यक् चावलोक्य प्रवेष्टव्य । -दीर्घता व चौडाईसे रहित द्वारमे प्रवेश करनेसे शरीरको व्यथा होगी, अगोंको सकुचित करके जाना पडेगा। नीचेके अवयवोको पसार कर यदि साधु प्रवेश करेगा तो गृहस्थ कुपित होगे अथवा हास्य करेगे। इससे साधुको आत्म विराधना अथवा मिथ्यात्वाराधना होगी। संकुचित द्वारसे गमन करते समय उसके समीप रहनेवाले जीवोको पीडा होगी. अपने अवयवोका मर्दन होगा। यदि ऊपर साधु न देखे तो सीकेमें रखे हुए पात्रोको धक्का लगेगा अत साधु ऊपर और चारो तरफ देखकर प्रवेश करें।
६. सचित्त व गन्दे प्रदेशका निषेध भ आ./वि./१५०/पृ. नं./4.नं, गृहिभिस्तिष्ठ प्रविशेत्यभिहितोऽपि नान्धकारं प्रविशेत्रसस्थावरपीडापरिहतये। (३४४/२२) तदानीमेव लिप्ता, जल सेकादा, प्रकीर्णहरितकुसुमफलपलाशादिभिनिरन्तरी, सचित्तमृत्तिकावती, छिद्रबहुला, विचरत्रसजीवाना (३४५/4 ) मुत्रासक पुरोषादिभिरुपहता भूमि न प्रविणेत ( ३४५/८)-गृहस्थोंके तिष्ठो, प्रवेश करो ऐसा कहनेपर भी अन्धकारमें साधुको प्रवेश करना युक्त नहीं । अन्यथा त्रस व स्थावर जीवोंका विनाश होमा। (३४४/ २२) तत्काल लेपो गयी, पानीके छिडकावसे गीली की गयी, हरातृण, पुष्प, फल, पत्रादिक जिसके ऊपर फैले हुए है ऐसो. सचित्त मिट्टीसे युक्त, बहुत छिद्रोसे युक्त, जहाँ उस जीव फिर रहे है । "जो मूत्र, रक्त, विष्टादिसे अपवित्र बनो है, ऐसी भूमिमें साधु प्रवेश न करे। अन्यथा उसके संयमकी विराधना होगी व मिथ्यात्व आराधनाका दोष लगेगा। भ. आ /वि /१२०६/१२०४/३,७.११ अकर्द मेनानुदकेन अनसहरितबहुलेन वमना ३) तुषगोमयभस्मबुसपलाल निश्चयं, दलोपलफलादिक च परिहरेत ७१ पुष्पै. फलै/जैविकीर्णा भूमि वर्जयेत् । तदानीमेव लिप्तां । -जिसमें कीचड नही है, पानी फैला हुआ नही है, जो प्रस व हरितकाय जन्तुओसे रहित है, ऐसे मार्ग से प्रयाण करना चाहिए । • धानके छिलके, गोबर, भस्मका ढेर, भूसा, वृक्षके पत्ते, पत्थर फलकादिको का परिहार करके गमन करना चाहिए। जो जमीन पुष्प, फल और बोजोसे व्याप्त हुई है अथवा हालमे ही लीपी गयी है उस परसे जाना निषिद्ध है।
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भिक्षा
७. व्यस्त व शोक युक्त गृहका निषेध
भ.आ./वि./२२०६/१२०४ / २२ तथा कुटुम्बिषु व्यग्रविषण्णदीनमुखेषु च "सुनो तिष्ठेत् जहाँ मनुष्य, किसी कार्यने तत्पर दीखते हो, रिशन्न दीख रहे हो उनका सुख दीनता युक्त दीख रहा हो तो यहाँ ठहरना निषिद्ध है ।
८. पशुओं व अन्य साधु युक्त प्रदेशका निषेध
"
भ. जा./वि./१५०/३४४/९२ तथा भिक्षानिमित्तं गृह प्रवेष्टुकामः पूर्व लोकमेरिकन मतीबद महिष्य प्रसूता मा गाव दुष्टा वा सारमेया, भिक्षाचरा. श्रमणा सन्ति न सन्तीति । सन्ति चेन्न प्रविशेत् । यदि न बिभ्यति ते यत्नेन प्रवेशं कुर्यात् । ते हि भोता यति बाधन्ते स्वयं वा पलायमाना त्रसस्थावरपीडां कुर्यु.। क्लिश्यन्ति, महति का गदी पतिता मृतिमुपेयु गृहीतभिक्षाणां ना तेष निर्गमने गृहस्थे प्रत्याख्यान वा दृष्ट्वा श्रुत्वा वा प्रवेष्टव्यं । अन्यथा बहर आयाता इति दातुमशक्ता' कस्मैचिदपि न दद्यः । तथा च भोगान्तराय कृत स्यात् । क्रद्धा परे भिक्षाचरा निर्भत्सनादिकं कुर्युरस्माभिराशया प्रविष्ट गृह किमर्थं प्रविशतीति] [...... ( एलर्क वत्स वा नातिक्रम्य प्रविशेत्। मीता पलायनं कुर्मुरात्मानं मा पातयेयु' ) । भिक्षा के लिए श्रावक घरमें प्रवेश करते समय प्रथमत' इस घर में बैल, भैंस, प्रसूत गाय दुष्ट कुत्ता, भिक्षा मांगनेवाले साधु है या नहीं यह अवलोकन करे, यदि में होंगे तो प्रवेश करे अथवा उपर्युक्त प्राणी साधुके प्रवेश करनेसे भयमुक्त न होने तो यहाँ सान धान रहकर प्रवेश करे। यदि वे प्राणी भययुक्त होगे तो उनसे यतिको बाधा होगी । इधर-उधर वे प्राणी दौडेगे तो त्रसजीवोंका, स्थावर जीवोंका विनाश होगा अथवा साधुके प्रवेशसे उनको बलेश होगा । किंवा भागते समय गड्डे गिरकर मृत्यु नश होगे जिन्होने भिक्षा ली है ऐसे अन्य साधु घरसे बाहर निकलते हुए देखकर अथवा गृहस्थोके द्वारा उनका निराकरण किया हुआ देखकर वा सुनकर तदनन्तर प्रवेश करना चाहिए। यदि मुनिवर इसका विचार न कर आमक गृहमें प्रवेश करें तो बहुत लोक आये है ऐसा समझकर दान देनेमें असमर्थ होकर किसीको भी दान न देंगे। अत विचार बिना प्रवेश करना लाभातरायका कारण होता है। दूसरे भिक्षा माँगनेवाले पाखंडी साधु जैन साधु प्रवेश करने पर हमने कुछ मिलनेकी आशासे यहाँ प्रवेश किया है, यह मुनि क्यो यहाँ आया है ऐसा विचार मनमें लाकर निर्भर्त्सना तिरस्कारादिक करेगे ... घरमें बछडा अथवा गाय का बछडा हो तो उसको लांघकर प्रवेश न करे अन्यथा वे डरके मारे पलायन करेगे वा साधुको गिरा देंगे । भ.आ./वि./१२०६/१२०४/१० बालवत्स, एलकं, शुनो वा नोब्लडूषयेत् । .... भिक्षाचरेषु परेषु लाभार्थिषु स्थितेषु तद्गेह न प्रविशेत् । =छोटा बछड़ा, बकरा और कुत्ता इनको लाँघ कर नहीं जाना चाहिए।... जहाँ अन्य भिक्षु आहार नामके लिए खड़े हुए हैं, ऐसे घर में प्रवेश करना निषिद्ध है ।
९. बहुजन संसक्त प्रदेशका निषेध
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रा. बा./६/६/१६/२६७/१६ भिक्षाशुद्धि दोनानाथदानशाला विवाहयजनगेहादिपरिवर्तनोपलक्षिता -दीन अनाथ दानशाला विवाह
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यज्ञ भोजनादिका जिसमें परिहार होता है, ऐसी भिक्षा शुद्धि है। भ, आ /वि/१५०/३४५/७ गृहिणा भोजनार्थं कृतमण्डल परिहारा, देवताघ्युषिता निकटीभूतनानाजनामन्तिकस्यासन वायनामासीनशयित पुरुष भूमि न प्रविशेत् जहाँ गृहस्थोके भोजन के लिए रंगावती रची गयी है, देवताओ की स्थापनासे युक्त, अनेक लोग जहाँ बैठे है, जहाँ आसन और शय्या रखे है, जहाँ लोक बैठे है और सोये हैं . ऐसी भूमि में साधु प्रवेश न करे ।
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३. योग्यायोग्य कुल व घर
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भ.आ./वि./१२२०६/१२०४ / ८ न गीतनृत्यबहुत उपिता वा गृह प्रविशेत्। यज्ञशाला, रामशाला, विवाहगृह वार्यमाणानि रक्ष्यमाणानि, अन्यमुक्तानि च गृहाणि परिहरेत् । जहाँ पताकाओंकी पंक्ति सजायी जा रही है ऐसे घरमे प्रवेश न करे ।..न्यज्ञशाला दानशाला, विवाहगृह, जहाँ प्रवेश करनेकी मनाई है, जो पहरेदारो से युक्त है, जिसको अन्य भिक्षुकोंने छोड़ा है ऐसे गृहों का त्याग करना चाहिए।
१०. उद्यान गृह आदिका निषेध
भ.आ./वि/१२०६/१२०४ / ९४ रहस्यगृह, वनगृहं कदलीलतागुल्मगृह, नागान्धर्मशालाश्व अभिनन्द्यमानोऽपि न प्रविशेद एकांतगृह, उद्यानगृह, कलियोसे बना हुआ गृह, लतागृह, छोटे-छोटे वृक्षोसे आच्छादित गृह, नाटयशाला, गन्धर्वशाला इन स्थानों में प्रतिग्रह करनेपर भी प्रवेश करना निषिद्ध है।
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३. योग्यायोग्य कुल व घर
१. विधर्मी आदिके घरपर आहार न करे
दे० आहार // २/२ अनभिज्ञ साधर्मी और आचार क्रियाओको जाननेवाले भी विधर्मी द्वारा शोधा या पकाया गया, भोजन नहीं ग्रहण करना चाहिए।
दे० भिक्षा / ३ / २ नीच कुल अथवा कुलिगियोके गृहमै आहार नहीं लेना चाहिए ।
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क्रियाकोष / २०८-२०६ जैनधर्म जिनके घर नाही । आन-आन देव जिनके घर माही |२०११ तिनको छूआ अथवा करको । कबहू न खावे तिनके घरको २०६
२. नीच कुलीनके घर आहार करनेका निषेध
मू. आ. / ४१८, ५०० अभोजगिहपवेसणं |४६८ | कारणभूदा अभोयणस्सेह |५००१ - अभोज्य घरमें प्रवेश करना भोजन त्यागका कारण है, अर्थात् २१ वाँ अन्तराय है ।
२९ धरि को मुंह विषय संपुर्णादि पोसए पि पावदि बालसहभागि सो समणो |२१| जो गिधारी व्यभिचारिणो स्त्रीके घर भोजन करते है, और 'यह वही धर्मात्मा है इस प्रकार उसकी सराहना करते है। सो ऐसा लिंगधारी बालस्वभावको प्राप्त होता है, अज्ञानी है, भाव विनष्ट है, सो श्रमण नहीं है |२१|
रा. या /६/६/१८/१०/१७ भिलाशुद्धि लोकहित कुल परिवर्जन परा
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- भिक्षा शुद्धि लोक गर्हित कुलोका परिवजन या त्याग करानेबाली है।
भ, आ./वि / ४२१/६१३/१४ ऐतेषां पिण्डो नामाहार' उपकरणं वा प्रतिलेखनादिक शय्याधरपिण्डस्तस्य परिहरणं तृतीय स्थितिकल्पः । सति शय्याधरपिण्डग्रहणे प्रच्छन्नमयं योजयेदाहारादिकं । धर्मफललोभाद्यो वा आहारं दातुमहमी दरिद्रो हुन्थो वा न चासौ वसति प्रयच्छेत् । सति मसती आहारादाने वा लोको मां निन्दति स्थिता बसावस्य बतयो न चानेन मन्दभाग्येन तेषां आहारे दत्त इति । यते स्नेहरच स्यादाहार वसति व प्रति तस्मिमहकारितया । तत्पिण्डाहणे तु नोक्तदोषसंस्पर्शः इनके के ० शय्याधर) आहारका और इनकी पिच्छिका आदि उपकरणोका त्याग करना यह तीसरा स्थिति है । यदि इन शय्याधरोके घरमें मुनि आहार लेंगे तो धर्म फल के लोभसे ये शय्याधर मुनियोको आहार देते है ऐसी निन्दा होगी जो आहार देनेमे असमर्थ हैं, जो दरिद्री है, लोभी कृपण है, वह मुनियोंको वसतिका दान न देवे। उसने वसतिका दान किया तो भो इस मन्दभाग्य मुनिको आश्रय दिया परन्तु आहार नहीं दिया ऐसी लोग निन्दा करते है। जो वसतिका और आहार दोनो देता है
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भिक्षा
उसके ऊपर मुनिका स्नेह भी होना सम्भव है क्योकि उसने मुनिपर बहुत उपकार किया है । अत उनके यहाँ मुनि आहार ग्रहण नहीं करते । भ आ / वि / १२०६ / १२०४/८ मत्ताना गृहं न प्रविशेत् । सुरापण्याडूनालोकगर्हितकुलं वा । ... ..उत्क्रमाढचकुलानि न प्रविशेत् । मत्त पुरुषोंके घरमें प्रवेश न करे । मदिरा अर्थात मदिरा पीनेवालोका स्थान, वेश्याका घर, तथा लोक निन्द्य कुलोका त्याग करना चाहिए। आचार विरुद्ध चलनेवाले श्रमन्त लोगोके घरका त्याग करना चाहिए।
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आचारसार/ ०/१०१-१०० कोटवाल, वेश्या, बन्दीजन, नीच कर्म करने वालेके घर में प्रवेशका निषेध है ।
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३. योग्यायोग्य कुल व पर
सा. घ. / २ / ३३/१०६ पर फुटनोट- यस्तेऽस्तु दुर्जनस्पर्शात्स्नानमन्यद्विगर्हितं । दुर्जन (अर्थात् अस्पर्श चाण्डाल आदिके साथ स्पर्श होनेपर मुनिको स्नान करना चाहिए । अन च./२/५१ तद्वच्चाण्डालादिस्पर्श स्पर्श हो जानेपर अन्तराय हो जाता है।
चाण्डालादिका
साध / ३ / १० / १८६ पर फुटनोट- मद्यादिस्वादिगेहेषु पानमन्नं च नाचरेत् । तदामूत्रादिस पकं न कुर्वीत कदाचन । = मद्य पीनेवालो के घरोमें अन्न पान नहीं करना चाहिए। तथा मल मूत्रादिका सम्पर्क भी उस समय नहीं करना चाहिए।
बो.पा/टो / ४८/११२/१५ किं तदयोग्य गृह यत्र भिक्षा न गृह्यते इत्याहगायकस्य तलारस्य, नीचकर्मोपजीविन. मालिकस्य विलिङ्गस्य वेश्यायास्तै लिकस्य च |१| अस्थायमर्थ गायकस्य गन्धर्वस्य गृहे न भुज्यते । तलारस्य कोटपालस्य, नोचकर्मोपजीविन चर्मजलशकटा देवका भावस्यापि गृहे न भुज्यते । मासिकस्य पुष्योपजीविन विलिङ्गस्य भरतस्य, वेश्याया गणिकाया, तैलिक्स्य घाचिकस्य । दीनस्य सूतिकायाश्च छिपकस्य विशेषत । मद्यविक्रयिणो मद्यपायिसंसर्गिणश्च न २ दीनस्य श्रावकोऽपि सन् यो दीनं भाषते । सूर्तिकाया या बालकाना जनन कारयति । अन्यत्सुगमं । शालिको मारिचैव कुम्भकारस्तिापितातिविशेया पचेते पञ्चकारव | ३| रजकस्तक्षकश्चैव अय सुवर्णकारक । दृषत्कारादयश्चेति कारवो बहव. स्मृता ॥४॥ क्रियते भोजन गेहे यतिना मोक्तुमिच्छना । एवमादिकमप्यन्यच्चिन्तनीय स्वचेतसा । ५ । वर स्वहस्तेन कृत पाको नान्यत्र दुर्दशा । मन्दिरे भाजन यस्मात्सर्वसावधसगम | ६| = वे अयोग्य घर कौनसे है जहाँसे साधुको भिक्षा ग्रहण नही करनी चाहिए। सो बताते है अर्थात मानेकी आजीवि का करनेवाले गन्धर्व लोगोके घरमे भोजन नही करना चाहिए। तलार अर्थात् कोतवाल के घर तथा चमडेका तथा जल भरनेका तथा रथ आदि हाँकने इत्यादिका नीचकर्म करनेवाले श्रावको घरमे भी भोजन नहीं करना चाहिए। माती अर्थाद मोकी आजीविका करने वाले घर तथा कुलिगियो के घर तथा वेश्या अर्थात् गणिकाके घर और तेलीके घर भो भोजन नही करना चाहिए |१| इसके अतिरिक्त निम्न अनेक घरोमे भोजन नही करना चाहिए - श्रावक होते हुए भी जो दोन वचन कहे, सूतिका अर्थात जिसने हाल ही में बच्चा जना हो, छिपी (कपडा र गनेवाले), मद्य बेचने वाले, मद्य पीनेवाले, या उनके संसर्ग में रहने २ जुना माली, कुम्हार, तिलहर अर्थाव तेलो, नावि अर्थात् नाई इन पाँचोको पाँच कारव कहते है | ३| रजक (धात्री), तक्षक (लढाई), लुहार, सुनार, दृषत्कार अर्थात पत्थर घडनेवाले इत्यादि अनेक कारण है |४| ये तथा अन्य भी अपनी बुद्धिसे विचारकर, मोक्षमार्गी यतियोको इनके घर भोजन नहीं करना चाहिए |५| अपने हाथसे पकाकर खा लेना अच्छा है परन्तु ऐसे कुदृष्टि व नीचकर्मोपजीवी लोगोके घरमे भोजन करना योग्य नही है, क्योकि इससे सर्व साधका प्रसंग आता है ।
२.
सेने स्नान करवान
पहु
आचारसार २७० दृष्टे कपालिचाण्डालपुष्यस्यादिके सति पोषितो मन्त्र प्रागुप्लुत्याशु दण्डवत् 1901 कपाली, चण्डाली और रजस्वला स्त्रोसे छूने पर सिरपर कमण्डल से पानीकी धार डाले, पाँवो तक आ जाये । उपवास करे। महा मन्त्र का जाप करे ।
जो
४. अति दरिडीके घर आहार करनेका निषेध रा.वा./१/८/१६/५१७/१८ भिक्षावृद्धिः दीनानाथ... गेहादिपरिवर्जनोपलक्षिता । -दीन अनाथोके घरका त्याग करना भिक्षा शुद्धि है।
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भ. आ./वि./१२०६/१२०४/६ दरिद्रकुलानि उत्क्रमाढयकुलानि न प्रविशेत् | अतिशय दरिद्री लोगोंके घर तथा आचार विरुद्ध श्रमन्तोंके घर में भी प्रवेश न करे ।
बो. पा./टी./ ४८ / ११२ पर उद्धृत दीनस्य श्रवकोऽपि सन् यो दीनं भाषते । = श्रावक होते हुए भी जो दीन वचन कहे, उसके घर भोजन नहीं करना चाहिए ।
५. कदाचित् नीच घरमें भी आहार ले लेते हैं
सू. आ./८१३ जग्गादममुष्णा भिवख विचमिकुले घरपंतिहि हिंडे ति य मोणेण मुणी समादिति । ८१३ | नीच उच्च तथा मध्यम कुलो में गृह पंक्ति के अनुसार वे मुनि भ्रमण करते है और फिर मौन पूर्वक अज्ञात अनुज्ञात भिक्षाको ग्रहण करते है । ८१३॥ ६. राजा आदिके घरपर आहारका निषेध भ.आ./वि./४२९/६१२/१८ राजपिण्डाग्रहणं चतुर्थस्थिति
राज शब्देन स्वाप्रभूतिकुले जाता. राजते रायति इति वा राजा राजसदृशो महर्द्धिको भण्यते । तस्य पिण्ड' । स त्रिविधो भवति । आहार बनाहार, उपधिरिति तत्राहारचतुर्विधो भवति अशनादिभेदेन । तृणफलकपीठादि अनाहार, उपधिर्नाम प्रतिलेखनं वस्त्रं पात्र वा । एवंभूतस्य राजपिण्डस्य ग्रहणे को दोष इति चेद अप्रोच्यते द्विविधा दोषा आत्मसमुत्था परसपुरथा मनुजतिकृपेने तिर्यक्कृता द्विविधा प्रामाण्यमनुमेशत्। ते द्विप्रकारा अपि द्विभेदा दुष्टा भद्राश्चेति । हया, गजा, गावो, महिषा, मेन्द्रा, श्वानश्च ग्राम्या दृष्टा । दुष्टेभ्य. संयतोपघात । भद्राः पलायमाना स्वयं दुखिता. पातेन अभिघातेन वा प्रतिनो मारयन्ति या भावनोलंघनादिपरा प्राणिन आरण्यकास्तु व्यद्वीपम वानरा वा राजगृहे बन्धनमुक्ता यदि क्षुद्रास्तत आत्मविपत्तिर्भद्राश्चेत्पलायने पूर्वदोष. । मानुषास्तु तलवरा म्लेच्छ भेदा, प्रेष्या दासाः दास्यः इत्यादिका दश राजगृहं प्रविशन्तं मताः प्रमत्ता प्रमुदिताश्च दासादय उपहसति, आक्रोशयन्ति बारयन्लि वा अवरुद्धाया स्त्रिया मैथुनसज्ञया माध्यमाना पुत्रार्थिन्यो वा बलात्स्वगृहं प्रवेशयन्ति भोगार्थं । विप्रकीर्ण रत्नसुवर्णादिक परे गृहीत्वा अत्र संयता अयाता इति दोषमध्यारोपयन्ति । राजा विश्वस्त भ्रमणेषु इति धमणरूपं गृहीस्वागत्य दृष्टा खलीकुर्वन्ति । ततो रुष्टा अविब्रेकिन दूषयन्ति श्रमणान्मारयन्ति वध्नन्ति वा एते परसमुद्धमा शेषा आत्मसमुद्धवास्तुच्यन्ते राजकुले आहार न शोधयति अष्टमाहूत गृहाति विकृतिसेवनादिगासदोष मन्दभाग्यो वा इष्टवान रत्नादिकं गृहीयानामरूप रामवलोकयानुरस्ता भवेत् ता विभूति अन्त पुराणि यान वा विलोक्य निदानं कुर्यात् । इति दोषसभवो यत्र तत्र राजपिण्डग्रहणप्रतिषेधो । = - राजाके यहाँ आहार नही लेना चाहिए यह चौथा स्थिति कल्प है । १ राजासे तात्पर्य - इक्ष्वाकुव श हरिवश इत्यादि कुलमे जो उत्पन्न हुआ है, जो प्रजा का पालन करना, तथा उनकी दुष्टोंसे रक्षा करना, इत्यादि उपायोसे अनुरंजन करता है उसको
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भिक्षा
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भीमसेन
राजा कहते है। राजाके समान जो महद्धिके धारक अन्य धनाढ्य कथित) राजपिडके दोषीका सम्भव जहाँ होगा ऐसे राजाके घरमें व्यक्ति है, उसको भी राजा कहते है। ऐसोके यहाँ पिण्ड ग्रहण करना आहारका त्याग करना चाहिए। परन्तु जहाँ ऐसे दोषोकी सम्भावना राजपिण्ड है। राजपिण्डका तात्पर्य-उपरोक्त लोगोके हा आहार नही है वहाँ मुनिको आहार लेनेको मनाई नहीं है। गत्यन्तर न हो राजपिण्ड है। इसके तीन भेद है-आहार, अनाहार और उपधि । अथवा श्रुतज्ञानका नाश होनेका प्रसग हो तो उसका रक्षण करनेके अन्न, पान और खाद्य, स्वायके पदार्थोको आहार कहते है। तृण. लिए राजगृहमें आहार लेनेका निषेध नहीं है। ग्लान मुनि अर्थात फलक आसन वगैरहके पदार्थों को अनाहार कहते है। पिछी, वस्त्र, पात्र बोमार मुनिके लिए राजपिंड यह दुर्लभ द्रव्य है। बीमारी, श्रुतज्ञान आदिकी उपधि कहते है। राजपिण्ड ग्रहणमें परक्तदोष-राजपिण्ड का रक्षण ऐसे प्रसंगमें राजाके यहाँ आहार लेना निषिद्ध नहीं है। ग्रहण करने में क्या दोष है । इस प्रश्नका उत्तर ऐसा है-आत्मसमुत्थ __ म पु /२०/६६-८१ का भावार्थ-श्रेयान्सकुमारने भगवान ऋषभदेवको और परसमुत्य--ऐसे दोषोके दो भेद है। ये दोष मनुष्य और तिर्यचो. आहारदान दिया था। के द्वारा होते है। तिर्य चोके ग्राम्य और अरण्यवासी ऐसे दो भेद है। ये दोनो प्रकारके तिर्यच दुष्ट और भद्र ऐसे दो प्रकारके है। घोडा,
८. मध्यम दर्जेके लोगोंके घर आहार लेना चाहिए हाथी, भैसा, मेढा, कुत्ता इनको ग्राम्य पशु कहते है। सिह आदि पशु अरण्यवासी हैं। ये पशु राजाके घर में प्राय. होते है। तिर्यचकृत उपद्रव- भ, आ./वि./१२०६/१२०४/१० दरिद्रकुलानि उत्क्रमाढयकुलानि न यदि ये उपरोक्त पशु दुष्ट स्वभावके होगे तो उनसे मुनियोंको बाधा प्रविशेत् । ज्येष्ठाल्पमध्यानि सममेवाटेत् । -अतिशय दरिद्री लोगोके पहुँचती है । यदि वे भद्र हो तो वे स्वयं मुनिको देखकर भयसे भागकर घर तथा आचार विरुद्ध चलनेवाले श्रमन्त लोगोके गृहका त्याग करके दुखित होते है । स्वय गिर पडते है अथवा धक्का देकर मुनियोको मारते बडे छोटे व मध्यम ऐसे घरोमें प्रवेश करना चाहिए। है। इधर उधर कूदते है। बाघ, सिंह आदि मास भक्षी प्राणी, बानर दे, भिक्षा/३/१ दरिद्र व धनवान रूप मध्यम दर्जेके घरोकी पंक्ति में वे वगैरह प्राणी राजाके घरमे बन्धनसे यदि मुक्त हो गये होगे तो उनसे मुनि भ्रमण करते है। मुनिका घात होगा और यदि वे भद्र होगे तो उनके इधर-उधर
भिक्षु-(दे० साधु )। भागने पर भी मुनिको बाधा होनेकी सम्भावना है। मनुष्यकृत उपद्रव-मनुष्योसे भी राजाके घर में मुनियोको दुख भोगने पडते है।
भित्तिकर्म-दे० निक्षेप/४ । उनका वर्णन इस प्रकार है-राजाके घरमें तलवर (कोतवाल) म्लेच्छ, भिन्न-Fraction (ध.५/प्र. २८)। दास, दासी वगैरह लोक रहते है। इन लोगोसे राजगृह व्याप्त होनेसे
भिन्न अंकगणित-दे० गणित/II/१ । वहाँ प्रवेश होने में कठिनता पड़ती है। यदि मुनिने राजाके घर में प्रवेश किया तो वहाँ उन्मत्त दास वगैरह उनका उपहास करते है, भिन्नदश पूर्वी-दे० श्रुतकेवली/१ । । उनको निंद्य शब्द बोलते हैं, कोई उनको अन्दर प्रवेश करनेमें मनाई
भिन्न परिकर्माष्टक-दे० गणित/II/१/१० । करते है, कोई उनको उल्लंघन करते है। वहाँ अत्त पुरकी स्त्रियाँ
भिन्न मुहूर्त-कालका प्रमाण विशेष-दे० गणित।।१।४। यदि काम विकारसे पीडित हो गयीं अथवा पुत्रकी इच्छा उनको हो तो मुनिका जबरदस्तीसे उपभोगके लिए अपने घरमे प्रवेश करवाती
भिल्लक सघ-दे० इतिहास/६/६ । है। कोई व्यक्ति राजाके घरके सुवर्ण रत्नादिक चुराकर 'यहाँ मुनि
भीम-१. वर्तमान कालीन नारद थे-दे० शलाका पुरुष/६ । २. आया था उसने चोरी की है' ऐसा दोषारोपण करते है। यह राजा
राक्षस जातिके व्यन्तर देवों का एक भेद-दे० राक्षस । ३. राक्षसोंका मुनियोका भक्त है, ऐसा समझकर दुष्ट लोक मुनि वेष धारणकर
इन्द्र (दे०व्यन्तर/२/१)जिसने सगर चक्रवर्तीके शत्र पूर्ण घनके पुत्र राजाके यहाँ प्रवेश करते है, और वहाँ अनर्थ करते है, जिससे
मेघवाहनको अजितनाथ भगवानकीशरणमें आनेपर लंका दी थी जिससे असली मुनियोंको बाधा पहुँचनेको बहुत सम्भावना रहती है । अर्थात्
राक्षस-वंशकी उत्पत्ति हुई( प. पु/१/१६०) १४. पा. पु /सर्ग/श्लोकरोजा रुष्ट होकर अविवेकी बनकर मुनियोको दुख देता है । अथवा
पूर्वके दूसरे भवमें सोमिल ब्राह्मणके पुत्र थे ( २३/८१) पूर्वभवमें अविवेकी दुष्ट लोक मुनियोको दोष देते है, उनको मारते है। ऐसे
अच्युत स्वर्ग में देव हुए ( ३३/१०५) । वर्तमान भवमें पाण्डका कुन्ती इतर व्यक्तियोसे उत्पन्न हुए अर्थात परसमुत्थ दोषोका वर्णन
रानीसे पुत्र थे (८/१६७-२४/७५) ताऊ भीष्म तथा गुरुद्रोणाचार्य किया। आत्म समुत्थ दोष-अब राजाके घर में प्रवेश करनेसे मुनि
से शिक्षा प्राप्त की। (८/२०४-२१४)। लाथा गृह दहनके पश्चात् स्वयं कौनसे दोष करते है, ऐसे आत्म-समुत्थ दोषोका वर्णन करते
तुण्डी नामक देवीसे नदीमें युद्ध किया विजय प्राप्तकर नदीसे बाहर है-राजगृहमें जाकर आहार शुद्ध है या नहीं इसका शोध नहीं
आये (१२/३४३) फिर पिशाच विद्याधरको हराकर उसकी पुत्री करेगा, देख-भालकर न लाया हुआ आहार ही ग्रहण कर लेता है।
हिडम्बासे विवाह किया, जिससे घुटुक नामक पुत्र उत्पन्न हुआ विकार उत्पन्न करनेवाले पदार्थ सेवन करनेसे इ गाल नामक दोष
(१४/५१-६५)। फिर असुर राक्षस (१४/७५) मनुष्यभक्षी राजा उत्पन्न होता है, अर्थात ऐसे पदार्थ भक्षण करने में लम्पट हो जाता है।
बकको हराया (१४/१३१-१३४ )। कर्ण के मदमस्त हाथीको वशमें दुर्देवसे वहाँके रत्नादिक अमूल्य वस्तु चुरानेके भाव उत्पन्न होकर
किया ( १४/१६८) यक्ष द्वारा गदा प्राप्त की (१४/१०३ ) द्रौपदीपर उसको उठा लेगा। अपने योग्य स्त्रीको देखकर उसमे अनुरक्त होगा।
कीचकके मोहित होनेपर द्रौपदीके वेशमें कीचकको मार डाला राजाका वैभव उसका अन्त पुर, वेश्या वगैरहको देखकर निदान
(१७/२०८ ) फिर कृष्ण व जरासघके युद्ध में दुर्योधनके ६६ भाई तथा करेगा। ऐसे दोषो का सम्भव होगा ऐसे राजाके घर में आहारका त्याग
और भी अनेकोको मारा (२०/२६६ ) । अन्तमें नेमिनाथ भगवान्के करना चाहिए।
समवशरणमें अपने पूर्वभव सुनकर विरक्त हो दीक्षा धारण की दे० भिक्षा/२/६ में भ, आ पहरेदारोंसे युक्त गृहका त्याग करना चाहिए।
( २५/१२-) घोर तपकर अन्तमें दुर्योधनके भाजेकृत उपसर्गको ७. कदाचित् राजपिंडका भी ग्रहण
जीत मोक्ष प्राप्त किया । (२३४५२-१३३ ) । और भी-दे० पाण्डव ।
भीमरथी-भरत आर्य खण्डकी एक नदी-दे० मनुष्य /४। भ आ /वि./४२१/६१४/८ इति दोषसंभवो यत्र तत्र राजपिण्डग्रहणप्रतिषेधा न सर्वत्र प्रकल्प्यते। ग्लानार्थे राजपिण्डोऽपि दुर्लभद्रव्य । आगाढ- भीमसेन-१ पन्नाट संघकी गर्वावलीके अनुसार आप अभयसेन नं, कारणे वा श्रुतस्य व्यवच्छेदो माभूदिति । -(उपरोक्त शीर्षकमें २ के शिष्य तथा जिनसेनके गुरु थे।-दे० इतिहास/७/८ |
बैनेन्द्र सिदान्त कोश
भा०३-३०
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मीभावलि
२. संघकी सीके अनुसार यह लक्ष्मणसेनके शिष्य तथा सोमकोर्तिके गुरु थे। समय- १२०६ ई० १४४६) ३० इति हास/७/६
(
भीमावलि वर्तमान कालीन प्रथम रुद्रदे० शताका-पुरुष /०। भीष्म- "अपरनाम गांगेय दे० गांगेय ।
भुजंग-महोरग नामा व्यन्तर जातिका एक भेददे० महो । भुजंगदेव- “लवण समुद्रके ऊपर आकाशमे स्थित भुजगनामक देवकी २८००० नगरियाँ हैं । दे० व्यन्तर /४ ।
भुजंगशाली - दे० भुजंग | भुजगार बंध० प्रकृतिबंध
/ १ ।
भुज्यमान आयु दे० आयु /१
भुवनकोति नन्दिसंघ बलात्कार गलकी ईरशाला के अनुसार कीर्तिके शिष्य तथा ज्ञानभूषण के गुरु समय वि. १४६११५२५ (ई. १४४२-१४६८ ) | दे० इतिहास / ७ / ४ ।
भुवनकीर्ति गीत - afa बूचिराज (वि. १५८६) कृत, ५ १द्य प्रमाणभट्टारक भुवनकीर्तिका गुणानुवाद (/४/२३२) ।
भूगोल दे० लोक
भूत - १. प्राणी सामान्य
स.सि./६/१२/३३०/११ तासु तासु गतिषु कर्मोदयवशाद भवन्तीति भूतानि प्राणिन इत्यर्थ जो कमदयके कारण विविध गतियो में होते हैं, वे भूत कहलाते है । भूत यह प्राणीका पर्यायवाची शब्द है । (रा.वा./६/१२/१/१२२/१२) (गो. क ज ८०१ / १००/१) । घ./१३/५,५,५०/२८६/२ अभूव इति भूतम् । श्रुत अतीतकाल में था इसलिए इसकी भूत सज्ञा है । २. व्यन्तर देव विशेष
1
ति.प./६/४६ दामे सरुवा पसिना उत्तमा होति परिमहादापदित्ति 1841- स्वरूप प्रतिरूप सोम प्रतिभूत महाभूत प्रतिच्छन्न और ब्राकाशत इस प्रकार ये सात मेद तो है (जि. सा. / २६६)
* सभ्य सम्बन्धित विषय
१. भूतों के वर्णं परिवार आदि
२. मूल देवोकेन्द्र वैमन व अवस्थानादि
३. भूत पारीरमें प्रवेश कर जाते है।
४. मृत शरीरका खडा होना भागना आदि
-दे० व्यन्तर । -दे० व्यन्तर ।
- दे० व्यन्तर 1 - दे० सल्लेखता /६/१
भूत नैगम नय - दे० नय / III / २ | भूतवर मध्यलोक अन्तरी पंचम सागर व ३०/२ भूतबली-सूत्र मूल संघ की पट्टावली के अनुसार ( दे० इतिहास / ४/४ ) आपके दीक्षा गुरु अर्हति और शिक्षा गुरु घरसेन थे ।
पुष्पदन्त इन्त गुरु 'आचार्यके भाई थे। उनके साथ ही गुरु अर्हडलिने इन्हे महिमा नगरके सबसे गिरनार पर्वतपर धरसेनाचार्यको सेवामे भेजा था। जहाँ जाकर आपने उनमे षट्खण्डागमका ज्ञान प्राप्त किया और उनके पश्चात उसे तिपि मद्ध करके उनकी भावनाको पूरा किया। आप अल्पवयमे ही दीक्षित हुए थे, इसलिए पुष्पदन्त आचार्यके पीछे तक भी बहुत वर्ष जीवित रहे और इसी कारण षट्खण्डका
२३४
भूमि
अधिकाश भाग आपने ही पूरा किया। समय ही नि. २३-२०१ ६. ६६-१६६) विशेष वे० कोष परिशिष्ट / २ / ६ भूतारण्यक वन अपर विदेहस्थवन - दे० लोक /३/६, १४ । भूतोत्तम-जाति व्यस्त एक भेद०
।
भूधरदास- आगरा निवासी खण्डेलवाल थे। कृति - पार्श्वनाथ पुराण: जैन शतक, पद संग्रह। समय - वि. १७८१ (ई. १७२४ ) । (ती /४/१७२)
भूपालम. पु. / ६५/ श्लोक न भरत क्षेत्र में भूपाल नामका राजा (५१) युद्धमे मान भग होनेके कारण चक्रवर्ती पदका निदान कर दीक्षा धारण कर ली (५२-५४ ) संन्यास मरणकर महाशुक्र स्वर्गमें देव हुआ (५५) यह भी चमका पूर्वका तीसरा भय है। ० शुभौम ।
।
भूपाल चतुविशतिका
रचित संस्कृत ग्रन्थ
आशाधर (ई. १९७३-१२४३) द्वारा
भूमि - अन्त: last term in numerical series – विदेश दे० गणित / II/२/३।
भूमि-लोकमें जीनो निवासस्थानको भूमि कहते है। नरककी सात भूमियों प्रसिद्ध है। उनके अतिरिक्त अहम भूमि भी मानी गयी है। नरको के नीचे निगोदोकी निवास भूत कलकल नामकी पृथिवी अश्म पृथिवी है और ऊपर लोकके अन्तमें मुक्त जीवोकी आवारात भार नामकी अहम पृथिमी है। मध्यलोकमें मनुष्य व तिचोकी निवासभूत दो प्रकारकी रचनाएँ है- भोगभूमि व कर्मभूमि जहाँ के निवासी स्वयं खेती आदि षट्कर्म करके अपनी आवश्यकताएं पूरी करते है उसे कर्मभूमि कहते हैं। यद्यपि भोग भूमि पुण्यका फल समझी जाती है, परन्तु मोक्षके द्वारा रूप कर्मभूमि हो भोगभूमि नहीं है।
१. भूमिका लक्षण
घ. ४ / १,३, १/८/२ आगासं गगणं देवपथ गोज्झगाचारिदं अवगाहणलक्खणं आधेयं वियागमाधारो भूमित्ति एमडी आकाश, गगन, देवपथ गुह्यकाचरित ( यक्षोके विचरणका स्थान ) अवगाहनलक्षण, आधेय. व्यापक, आधार और भूमि ये सब नो आगमद्रव्यक्षेत्र के एकार्थक नाम है ।
२. अष्टभूमि निर्देश
।
ति प / २ / २४ सयभूमीओ एवदिसमाएण घणोबहिविलग्गा अनुमभूमी दसदिभागेतुं वणोहि विवदि साठी पृथिवियाँ ऊर्ध्व दिशाको छोड़ शेष नौ दिशाओं में घनोदधि वातवलय से लगी हुई है । परन्तु आठवी पृथिवी दशोदिशाओ में ही घनोदधि वातवलयको छूती है।
ध. १४/५, ६,६४/४६५/२
घम्मादिसत्तणिरयपुढवीओईसप्पभारपुढवीए
सह अह पृढत्रीओ महास्त्र वस्स ड्रामाणि होति । ईप्राग्भार (दे० मोक्ष) पृथिवोके साथ धर्मा आदि सात नरक पृथिवियों मिलकर आठ पृथिवियाँ महास्कन्धके स्थान है ।
३. कर्मभूमि व मोगभूमिके लक्षण - कर्मभूमिसि./३/२०/२३२/५ अथ कथं कर्मभूमिल शुभाशुभलक्षणस्य कर्मणोऽधिष्ठानात् । ननु सर्व लोकप्रिय कर्मणोऽधिष्ठानमेव तत एवं प्रकर्षगतिर्विज्ञास्ते प्रक कर्मणोऽधिष्ठानमिति। तत्राशुभ कर्मणस्तावत्सप्तम नरकमापणस्य भरतादिष्वेवार्जनम्, शुभस्य च सर्वार्थमिद्यादिस्थानविशेषास्य कर्मण समाज राम कृष्णादिलक्षणस्य पविस्य कर्मण पात्रदानादिसहितस्य समारम्भारकर्म
"
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MAJJAN
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भूमि
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भूमिव्यपदेशो वेदितव्य प्रश्न कर्मभूमि यह संज्ञा कैसे प्राप्त होती है ? उत्तर - जो शुभ और अशुभ कर्मोंका आश्रय हो उसे कर्मभूमि कहते हैं यद्यपि तीनो लोक कर्मका आश्रय है फिर भी इससे उत्कृष्टताका ज्ञान होता है कि ये प्रकर्ष रूपसे कर्मका आश्रय है । सातवें नरकको प्राप्त करनेवाले अशुभ कर्मका भरतादि क्षेत्रों में ही अर्जन किया जाता है, इसी प्रकार सर्वार्थ सिद्धि आदि स्थान विशेषको प्राप्त करानेवाले पुण्य कर्मका उपार्जन भी महीपर होता है तथा पात्र दान आदिके साथ कृषि आदि छह प्रकार के कर्मका आरम्भ यहींपर होता है इसलिए भरतादिकको कर्मभूमि जानना चाहिए। ( रा. बा./३/१०/१-२ / २०४-२०० ) । भ.आ./म./७०९/१३६ पर उधृत कर्मभूमिसमुत्थाश्च भोगभूमिभवास्तथा। अंतरीपणाश्चैव तथा सम्मूमि इति अतिथि कृषिः शिवाणिज्यं व्यवहारिता इति यत्र नृणामाजीवयोनयः । पाप्य संयमं यत्र तपःकर्मपरा यात हतशत्रवः । एताः कर्मभुवो ज्ञेया पूर्वोक्ता दश पञ्च च । यत्र संभूय पर्यायान्ति से कर्मभूमिताः कर्मभूमिज, आदि चार प्रकार मनुष्य हैं ( दे० मनुष्य / १ ) । जहाँ असि शस्त्र धारण करना, मधि-वही खाता लिखना, कृषि खेती करना, पशु पालना, शिल्पक करना अर्थात् हस्त कौशक्यके काम करना, वाणिज्य-व्यापार करना और व्यवहारिता - न्याय दानका कार्य करना, ऐसे छह कार्योंसे जहाँ उपजीविका करनी पड़ती है, जहाँ सयमका पालन कर मनुष्य तप करनेमें तत्पर होते हैं और जहाँ मनुष्योको पुण्यसे स्वर्ग प्राप्ति होती है और कर्मका नाश करनेसे मोक्षकी प्राप्ति होती है ऐसे स्थानको कर्मभूमि कहते हैं । यह कर्मभूमि अढाई द्वीपमें पन्द्रह है अर्थात पाँच भरत, पाँच ऐरावत और पाँच विदेह ।
तं
।
सुरसगति वा सिद्धि
नरा
२३५
२. भोगभूमि ड.सि./३/१०/२३२/१०
दशविधकल्पवृकपिभोगानुभय
वाइ-भोगभूमय इति व्यपदिश्यन्ते इतर क्षेत्रोंमें इस प्रकार कसे प्राप्त हुए भोगोंके उपभोगकी मुख्यता है इसलिए उनकी श्रीभूमि जानना चाहिए ।
म. आ./वि./७८२/६३६ / ९६ ज्योतिषाख्यैस्तरुभिस्तत्र जीविका । पुरग्रामादयो यत्र न निवेशा न चाधिपः । न कुल कर्म शिल्पानि न वर्णाश्रमसंस्थिति। यत्र नार्यो नराश्चैव मेथुनीभूम नीरुज । रमन्ते पूर्वपुण्यानां प्राप्नुवन्ति पर फलं । यत्र प्रकृतिभद्रत्वात् दिवं यान्ति मृता अपि ता भोगभूमयश्चोतास्तत्र स्युर्भोगभूमिजा । ज्योति रंग आदि दश प्रकारके (दे० वृक्ष ) जहाँ कल्पवृक्ष रहते हैं । और इससे मनुष्यों की उपजीविका चलती है। ऐसे स्थानको भोगभूमि कहते हैं। भोग भूमिमें नगर कृत, असिमभ्यादि किया, शिल्प, वर्गाश्रमकी पद्धति में नहीं होती है। यहाँ मनुष्य और स्त्री पूर्व पुण्य से पतिपत्नी होकर रममाण होते हैं । वे सदा नीरोग ही रहते है और सुख भोगते हैं । यहाँके लोक स्वभावसे ही मृदुपरिणामी अर्थात् मन्द कषायी होते है, इसलिए मरणोत्तर उनका स्वर्गकी प्राप्ति होती है भोगभूमिमें रहने वाले मनुष्योंको भोगभूमि कहते है। (दे० वृक्ष / १/१ ) ।
४. कर्मभूमिको स्थापनाका इतिहास
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म.पू./१६/ श्लोक नं. केवल भावार्थ-कल्पसूक नष्ट होनेपर कर्मभूमि प्रगट हुई । १४६ | शुभ मुहूर्तादिमें ( १४६ ) इन्द्रने अयोध्यापुरी के बीच में जिनमन्दिरको स्थापना की। इसके पश्चात् चारों दिशाओंमें जिनमन्दिरोंकी स्थापना की गयी ( १४६ - १५०) तदनन्तर वेश. महावेश नगर, न और सीमा सहित गाँव तथा पेड़ों आदिटी रचना की थी ( १५१ ) भगवाद ऋषभदेवने प्रजाको असि, मसि, कृषि विद्या राय और शिल्प मे छह कार्योंका उपदेश दिया
,
भूमि
( १७१ - १७८ ) तब सब प्रजाने भगवान्को श्रेष्ठ जानकर राजा बनाया (२२४) तब राज्य पाकर भगवान्ने ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य और शूद्र इस प्रकार चतुर्वर्णको स्थापना की (२४५) । उक्त छह कर्मोकी व्यवस्था होनेसे यह कर्मभूमि कहलाने लगी भी (२४६) तदनन्तर भगवादने कुरुवदा, हरिवंश आदि राज्यमं शोकी स्थापना की (२६), (विशेष दे० सम्पूर्ण सर्ग ) ( और भी वे० काल /४/६)
५. मध्य लोकमै कर्मभूमि व मोगभूमिका विभाजन मध्य लोकमें मानुषोत्तर पर्बतसे आगे नागेन्द्र पर्वत तक सर्व झोपोंमें जयस्य भोगभूमि रहती है (सि. प./२/१६६,१०३) । नागेन्द्र पर्वतसे आगे स्वयम्भूरमण द्वीप व स्वयम्भूरमण समुद्र कर्मभूमि अर्थात् दुखमा का वर्ता है। (५/२/९७४)। मानुषान्तर पर्वतके इस भागमें अढाई द्वीप प्रमाण मनुष्य क्षेत्र है (२० ४) नाई द्वीपो पाँच सुमेरु पर्वत है एक सुमेरु प के साथ भरत हैमवत आदि सात-सात क्षेत्र हैं । तिनमेंसे भरत ऐरावत य विदेह मे तीन कर्मभूमि हैं. इस प्रकार पाँच समेत सम्बन्धी १५ कर्मभूमियाँ । यदि पाँचों विवेही २२-३२ क्षेत्रकी गणना भी की जाय तो पाँच भरत, पाँच ऐरावत और १६० मि. इस प्रकार कुल १७० कर्मभूमियाँ होती है। इन सभी में एक-एक बिज या पर्वत होता है, तथा पाँच-पाँच म्लेच्छ खण्ड तथा एक-एक आर्य खण्ड स्थित है। भरत व ऐरावत क्षेत्रके आर्य खण्डों में षट् काल परिनहाता है / १०६) सभी मिवेोंकि बार्य खण्डोंमे सदा दुखमा सुखमा काल वर्तता है । सभी म्लेक्ष खण्डों में सदा जघन्य भोगभूमि सुखमा दुखमा काल होती है। सभी विजयापर विद्याधरों की नगरियाँ है उनमें सदैव दुखमा सुखमा काल पता है। हैमवत हैरण्यवतन यो क्षेत्रोंमें सदा जमन्य भोगभूमि रहती है। हरि व रम्यक इन दो क्षेत्रोंमें सदा मध्यम भोगभूमि ( सुखमा काल ) रहती है। विदेह के महूमध्य भागमे सुमेरु पर्वतके दोनो तरफ स्थित उत्तरकुरु व देवकुरुमे (दे० लोक / ७) सदैव उत्तम भोगभूमि (सुखमासुखमा काल ) रहती है । लवण व कालोद समुद्र में कुमानुषोंके ६६ अन्तद्वीप है। इसी प्रकार १६० विदेहो मेंसे प्रत्येकके ५६-५६ अन्तप है । दे० लोक इन सर्व अन्त कुमानुष रहते है। ( ३० म्लेच्छ इन सभी पोमें सदा जघन्य भोग मि वराती है (ज. /१२/५४-५५)। इन सभी कर्म व भोग भूमियोको रचनाका विशेष परिचय (दे० काल /४/१८ ) ।
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६. कर्म व भोगभूमियोंमें सुख-दुःख सम्बम्धी नियम वि.प./४/२६५४ बीस देशासं यप्यमाणभोगक्खिदीन मुहमेवर्क कम्म खिदी पराणं वेदि सखि दुख च । २६६४४ मनुष्योंकी एक सो छम्पीस भांगमय मे ३० भोगभूमियों और एवं भोग भूमियों के सुख और कर्म भूमियोमे सुख एवं दुख दोनों ही होते है । ति ५/५/२६२ स
भगवा कपयसे हो हमे कम्मावणितिरियाण सोक्खं दुक्ख च संकप्पो | २ह - सब भोगभूमिज तिचोके मासे केवल एक सुख हो होता है, और कर्मभूमि तिर्यंचोके सुख व दुःख दोनो की कल्पना होती है ।
७. कर्म व मोगभूमियोंमें सम्यक्त्व व गुणस्थानोंके अस्तित्व सम्बन्धी
ति.प./४/२३१-२६३७ पंचविदे समिदिसद असलए अरे । छग्गुणठाणे तत्तो चोहरू पेरत दीसति । २६३६ | सव्वैसु भोगभुवे दो गुणठाणाणि सम्यकासम्म दीसंति चविय सम्बमिलिमि मिच्छत । २९३७ - पाँच विदेहोके भीतर एक सौ साठ आर्य खण्डों
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जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश
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भूमि
में जघन्य रूपसे छह गुणस्थान और उत्कृष्ट रूपसे चौदह गुणस्थान तक पाये जाते है | २६३६ | सब भोगभूमिजो में सदा दो गुणस्थान ( मिथ्यात्व व असंयत ) और उत्कृष्ट रूपमे चार गुणस्थान तक रहते हैं। सब म्लेच्छखण्डो में एक मिथ्यात्व गुणस्थान ही रहता है | २६३७| (शि, प, J४/३०३), (ज. प./२/१६५)। स.सि./१०/६/४०१ / १२ जम्मप्रति पद कर्मभूमि संहरणं प्रति मानुषक्षेत्रे सिद्धि' । जन्मकी अपेक्षा पन्द्रह कर्मभूमियो में और अपहरणकी अपेक्षा मानुष क्षेत्रमें सिद्धि होती है। ( रा. वा./६/१०/ २/६४६/१६) ।
=
घ. १/१.१८६५ / २२०/१ भोगभूमापन्नानां वह (अनुक्त) उपादानानुपपते। भोगभूमिमे उत्पन्न हुए जीवोके अवतोका प्रहरा नहीं बन सकता (घ, १/१.१.१६७/२०२/१
भ, आ./वि./१/६२७/६ एतेषु कर्म निजमानाना एव रत्नत्रयपरि नामयोग्यता नेतरेषां इति इन कर्मभूमि, भोगभूमिज, । - ( अन्तरद्वीपज, और सम्मूर्च्छन चार प्रकारके) मनुष्यो में कर्मभूमिज है उनकी हो नत्र परिणामकी योग्यता है । इतरोको नहीं हैं । गो. जी ./५००/०४/११ का भावार्थ - कर्म भूमिका अद्वायु मनुष्य क्षायिक सम्यग्दर्शनकी प्रस्थापना व निष्ठापना कर सकता है। परन्तु भोगभूमिमें क्षायिक सम्म निशाना हो सकती है. प्रस्थापना नही । ( ल. सा. / जी, प्र / १११ ) । गो. जी./जी. प्र. / ७०३/११३७/८ असयते भोगभूमितिर्यग् मनुष्या कर्मभूमिमनुष्या उभये । =असंयत गुणस्थानमे भोगभूमिज मनुष्य तिच कर्मभूमि मनुष्य पर्याप्त अपर्याप्त दोनो हाते है। ./१/० (भोगभूमिमें वर्णव्यवस्था व वेषधारी नहीं है। ) ८. कर्मभोगभूमियों जीवोंका अवस्थान
दे च भोमियो में जलचर व विकलेन्द्रिय जीव नहीं होते, केवल संज्ञी पर्चेन्द्रिय ही होते है। विकलेन्द्रियजर जोन नियमसे कर्मभूमि में होते है। स्वयप्रभ पर्नसके परभागने सर्व प्रकार के जीव पाये जाते है भोगभूमियोमे संयत व संयतासंयत मनुष्य या तिथंच भी नहीं होते हैं, परन्तु पूर्व वैरीके कारण देवो द्वारा ले जाकर डाले गये जो वहाँ सम्भव है
दे. मनुष्य / ४ मनुष्य अढाई द्वीपमें ही होते है, देवोके द्वारा भी मानुषीउत्तर पर्वत पर भागने उनका ले जाना सम्भव नही है ।
२३६
९. भोगभूमि चारित्र क्यों नही
वि. १ / ४ / ३८६ ते सन्वे वरजुगला अण्णोष्णुप्पण्णवेमसमूढा । जम्हा तम्हा तेनुं सावयवदसंजमो णत्थि ३८६ | क्योकि वे सब उत्तम युगल पारस्परिक प्रेममें अत्यन्त मुग्ध रहा करते है, इसलिए उनके श्रावक व्रत और संयम नही होता १३८६ |
रा. वा /३/२०/२०/२२ भोगभूमिषु हि यद्यपि मनुष्याणा ज्ञानदर्शने स्त चारित्र तु नास्ति अभिरतभोगपरिणानित्वात् भोगभूमियोंमें यद्यपि ज्ञान दर्शन तो होता है, परन्तु भोग परिणाम होनेसे चारित्र नहीं होता।
१०. अन्य सम्बन्धित विषय
२. अष्टमभूमि निर्देश
२. कर्मभूमियोंमें वशकी उत्पत्ति
३ कर्मभूमिमें वर्ग व्यवस्थाकी उत्पत्ति
४. कर्ममा प्रारम्भकाल
५.
भूमि
६. आर्य व सुण्ड
-३० मोक्ष/१/७ -३० इतिहास / ७। -दे० वर्ण व्यवस्था/२ शलाका पुरुष / ६ । -दे० म्लेच्छ / अन्तर्श्वोपज ।
- दे० वह वह नाम ।
७. कर्म व भोग भूमिकी आयुके बन्ध योग्य परिणाम
८. इसका नाम कर्मभूमि क्यों पा ९. कर्म व भोगभूमिमें षद् काल व्यवस्था
१०. भोगभूभिज क्षायिक सम्यक्त्व क्यों नहीं
११. भोग व कर्म भूमिज कहाँसे मर कर कहाँ उत्पन्न हो
० आयु १
- दे० भूमि / ३ ।
मेड
- दे० काल / ४ |
-३० तियंच/२/११।
- दे० वह वह नाम ।
१२. कर्मभूमि चि मनुष्य १२. सर्व द्वीप समुद्रोंमें संयतासंयत विचोंकी सम्भावना -दे० तियंच/२/१०।
१४. कर्मभूमिज व्यपदेशसे केवल मनुष्यों का ग्रहण १५. भोगभूमिमें जीवोंकी सख्या भूमिकल्पभूमिकुंडल - विजयार्धकी दक्षिण श्रेणीका एक नगर ।
भेंडकर्म - ३० निलेप/४
- दे० जन्म / ६ |
-३० चि/२/१२ | - दे० तियंच / ३ /४ |
-आ० इन्द्रनन्दि ( ० ० १०) तान्त्रिक ग्रन्थ
० मन्त्र /१/६ ॥
भूमितिलक विजयको उत्तर श्रेणीका नगर-३० विद्याधर भूमिशुद्धि-पूजा विधानादि भूमिशुद्धि मन्त्र भूषणांग वृक्ष - ० पक्ष १ भृंगनिभा
जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश
सुमेरुके नन्दनादि वनों में स्थित एक वापो ।
|
19
-३० विद्यार
भुंगा -- सुमेरुके नन्दनादि वनोमें स्थित एक वापी-दे० लोक / ७ । भृकुटि मुनिवनाथ भगवान्का शासक यक्ष- ३० यह भृत्य
वंश -बी नि.४८५-७२७ ( ई. पू. ४२ - २०० ) का एक गध दे० इतिहास/३/४
- दे० लोक/७ |
भेद - २. विदारणके अर्थ में
ससि / ५ / २६ / २६८/४ सघातानां द्वितयनिमित्तवशाद्विदारणं भेद' । - अन्तरंग और बहिर गइन दोनो प्रकारके निमित्तो से संघातोके विदारण करनेको भैर कहते हैं (रा. वा /५/२६/१/४६३/२३) । रा. वा. २१/४०/९४ भिनचि भिद्यते भेरमा वा भेद जो भेदन करता है, जिसके द्वारा भेदन किया जाता है या भेदनमात्रको भेद कहते है ।
.
ध. १४/५, ६.८ / १२१ / ३ खधाणं विहडणं भेो णाम । स्कन्धोका विभाग होना भेद है।
पर्याय १/१ अंश पर्याय, भाग, हार, विध प्रकार, भेद, छे, और मंग मे एकार्थवाची है।
२. वस्तुके विशेषके अर्थ में
आप / ६ गुणगुण्यादिसंज्ञाभेदाद् भेदस्वभाव | गुण और गुणीमें संज्ञा भेद होनेसे भेद स्वभाव है ।
द्रव्य
न च वृ./६२ भिण्णा हु वयणभेदेण हु वे भिण्णा अभेदादो। गुण पर्याय में वचन भेदसे तो भेद है परन्तु द्रव्य रूपसे अभेद रूप है । स्याम /५/२४/२० अयमेव हि भेदो भेदहेतुर्वा यद्विधर्माध्यास कारणभेदश्चेति विरुद्ध धर्मोका रहना और भिन्न-भिन्न कारणोका होना यही भेद है और भेदका कारण है ।
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भेदग्राही शब्द नय
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भोग
२. भेदके भेद प्रसा/त. प्र./२ को नाम भेद, प्रादेशिक अताद्भाविको वा ।-भेद दो
प्रकार है-अताइभाविक, व प्रादेशिक। स. सि./५/२४/२६६/४ भेदाः षोढा, उत्करचूर्ण खण्डचूर्णिकाप्रतराणू
चटनविकल्पात् । भेदके छह भेद है-उत्कर, चूर्ण, खण्ड, चूर्णिका, प्रतर और अणुचटन। द्र.सं./टी./१६/५३/९ गोधूमादिचूर्णरूपेण घृतस्त्रण्डादिरूपेण बहुधा भेदो ज्ञातव्य । --पुद्गल गेहूँ आदिके चून रूपसे तथा घी, खांड आदि रूपसे अनेक प्रकारका भेद जानना चाहिए।
१. उत्कर, चूर्ण आदिके लक्षण स. सि./५/२४/२६६/४ तत्रोत्कर' काष्ठादीनां करपत्रादिभिरुत्करणम् । चूर्णो यवगोधूमादीनां सक्तुकणिकादि । खण्डो घटादीना कपालशर्करादि । चूर्णिका माषमुद्गादीनाम् । प्रतरोऽभ्रपटलादीनाम् । अणुचटनं संतप्ताय पिण्डादिषु अयोधनादिभिरभिहन्यमानेषु स्फुलिङ्गनिर्गम। -करोंत आदिसे जो लकडी आदिको चीरा जाता है वह उत्कर नामका भेद है। जौ और गेहूँ आदिका जो सत्तु और कनक आदि बनती है वह चूर्ण नामका भेद है। घट आदिके जो कपाल और शर्करा आदि टुकड़े होते है वह खण्ड नामका भेद है। उडद और मूंग आदि का जो खण्ड किया जाता है वह चूर्णिका नामका भेद है। मेधके जो अलग-अलग पटल आदि होते हैं वह प्रतर नामका । भेद है। तपाये हुए लोहेके गोले आदिको घन आदिसे पीटनेपर जो फुलंगे निकलते है वह अणुचटन नामका भेद है । ( रा.वा./२/२४/१४/ ४८६/५)।
* अन्य सम्बन्धी विषय
२. मोक्तत्वका लक्षण रा./वा./२/७/१३/११२/१३ भोक्तृत्वमपि साधारणम् । कुत ! तल्लक्षणोपपत्ते । वीर्यप्रकर्षात परद्रव्यवीर्यादानसाम भोक्तृत्वलक्षणम्। यथा आरमा आहारादे परद्रव्यस्यापि वीर्यात्मसारकरणाभोत्ता, कर्मोदयापेक्षाभावात्तदपि. पारिणामिकम् । -भोक्तृत्व भी साधारण है क्योकि उसके लक्षणसे ज्ञात होता है। एक प्रकृष्ट शक्तिवाले द्रव्यके द्वारा दुसरे द्रव्यकी सामर्थ्यको ग्रहण करना भोक्तृत्व कहलाता है। जैसे कि आत्मा आहारादि द्रव्यकी शक्तिको खींचनेके कारण भोक्ता कहा जाता है। कर्मोके उदय आदिकी
अपेक्षा नही होनेके कारण यह भी पारिणामिक भाव है। पं.का./त. प्र./२८ स्वरूपभूतस्वातन्त्र्यलक्षणसुखोपलक्षणसुखोपलम्भरूपंभोक्तृत्व । स्वरूपभूत स्वातन्त्र्य जिसका लक्षण है ऐसे सुखकी उपलब्धि रूप 'भोक्तृत्व' होता है। * अन्य सम्बन्धित विषय १. सम्यग्दृष्टि भोगोंका भोक्ता नहीं है। -दे० राग/६ । २ षट् द्रव्योंमें भोक्ता अभोक्ता विभाग ।
-दे० द्रव्य/३ । ३. जीवको भोक्ता कहनेकी विवक्षा। -दे. जीव/१/३। ४ भोग सम्बन्धी विषय।
-दे० नीचे भोक्ता भोग्य भाव- दे० भोग । भोक्तत्व नय-दे० नय/
I8। भोगंधरी-गन्धमादन पर्वतके स्फटिक कूटकी स्वामिनी देवी।
-दे० लोक/७ भोग
१. सामान्य भोग व उपभोगकी अपेक्षा र. क. श्रा./८३ भुक्त्वा परिहातव्यो भोगी भुक्त्वा पुनश्च भोक्तव्य; ।
उपभोगोऽशनवसनप्रभनि पञ्चेन्द्रियो विषय' । भोजन-वस्त्रादि पंचेन्द्रिय सम्बन्धी विषय जो भोग करके पुन' भोगनेमें न आवें वे तो भोग है और भोग करके फिर भोगने योग्य हो तो उपभोग हैं। (ध. १३/५.५,१३७/३८६/१४)। स, सि./२/४४/११/इन्द्रियप्रणालिकया शब्दादीनामुपलब्धिरुपभोग' ।
- हन्द्रिय रूपी नालियोके द्वारा शब्दादिके ग्रहण करनेको उपभोग कहते है। स. सि./७/२१/३६९/७ उपभोगोऽशनपानगन्धमात्यादि.। परिभोग
आच्छादनप्रावरणाल कारशयनासनगृहयानवाहनादि | भोजन,पान, गन्ध, मालादि उपभोग कहलाते है । तथा ओढना-बिछाना, अलंकार, शयन, आसन, घर, यान और वाहन आदि परिभोग कहलाते हैं। रा. वा./७/२१/९-१०/१४८/११ उपेत्यात्मसात्कृत्य भुज्यते अनुभूयत इत्युपभोग । अशनपानगन्धमाल्यादिः।। सकृद् भुक्त्वा परित्यज्य पुनरपि भुज्यते इति परिभोग इत्युच्यते। आच्छादनप्रावरणालंकार... आदि।१०।उपभोग अर्थाद एक बार भोगे जानेवाले अशन, पान, गन्ध, माला आदि। परिभोग अर्थात जो एक बार भोगे जाकर भी दुबारा भोगे जा सके जैसे-वस्त्र अलंकार आदि । (चा. सा./२३/२)। २. क्षायिक भोग व उपभोगकी अपेक्षा स, सि./२/४/१५४/७ कृत्स्नस्य भोगान्तरायस्य तिरोभावादाविर्भूतोऽ. तिशयवाननन्तो भोग क्षायिक । यतः कुसुमवृष्टयादयो विशेषाः प्रादुर्भवन्ति। निरवशेषस्योपभोगान्तरायस्य प्रलयात्प्रादुर्भूतोऽनन्तउपभोग क्षायिक' । यतः सिंहासनचामरच्छत्रत्रयादयो विभूतयः ।
१. द्रव्यमें कथचित् भेदाभेद ।
-दे० द्रव्य/४। २. द्रव्यमें अनेक अपेक्षाओंसे भेदाभेद। -दे० सप्तभंगी/५॥ ३. उत्पाद व्यय श्रीव्यमें भेदाभेद ।
-दे० उत्पाद/२। ४. भेद सापेक्ष वा मेद निरपेक्ष द्रव्याथिक नय-दे० नय/II/21 ५. भिन्न द्रव्यमें परस्पर भिन्नता
-दे० कारक/२। ६. परके साथ एकत्व कहनेका तात्पर्य ।
-दे० कारक/२।
भेवज्ञान-१,०ज्ञान/II, २. इसके अपरनाम-दे० मोक्षमार्ग/२/५ । भेदग्राही शब्द नय-दे० नय/III/६ ! भेदवाद-भेद व अभेदवादका विधि निषेध व समन्वय-दे० द्रव्य/४। भेद संघात-दे० संघात । भेदाभेदवाद-दे. वेदान्त । भेदाभेद विपर्यय-दे० विपर्यया। भोक्तापं. का./त. प्र/२७ निश्चयेन शुभाशुभकर्म निमित्त सुरवदुखिपरिणामाना, व्यवहारेण शुभाशुभकर्मसंपादितेष्टानिष्टविषयाणा भोवतृत्वादभोक्ता । -निश्चयसे शुभाशुभकर्म जिनका निमित्त है ऐसे सुखदुखपरिणामोका भोक्तृत्व होनेसे भोक्ता है । व्यवहारसे ( असदभूत व्यवहार नयसे) शुभाशुभ कर्मोंसे सम्पादित इष्टानिष्ट विषयोंका भोक्तृत्व होनेसे भोक्ता है। स, सा./आ./३२०/पं. जयचन्द--जो स्वतन्त्रपने करे-भोगे उसको परमार्थ में कर्ता भोक्ता कहते है।
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भोग
२३८
भोगोपभोग
= समस्त भोगान्तराय कर्मके क्षयसे अतिशयवाले क्षायिक अनन्त भोगका प्रादुर्भाव होता है, जिससे कुसुमबृष्टि आदि आश्चर्य विशेष होते हैं। समस्त उपभोगान्तर यके नष्ट हो जानेसे अनन्त क्षायिक उपभोग होता है, जिससे सिंहासन, चामर और तीन छत्र आदि विभूतियाँ होती है । (रा. वा./२/४/४-५/१०६/३)। *क्षायिक भोग-उपभोग विषयक शंका-समाधान
-दे० दान/२/३। २. मोग व काममें अन्तर आ./११३८ कामो रसो य फासो सेसा भोगेत्ति आहीया/११३८/-रस
और स्पर्श तो काम है, और गन्ध, रूप, शब्द भोग है ऐसा कहा है। (स.सा/ता, वृ/४/११/१५)। दे. इन्द्रिय/३/७ दो इन्द्रियोके विषय काम है तीन इन्द्रियोके विषय भोग हैं।
३. मोग व उपभोगमें अन्तर रा.पा./८/१३/१/५८१/२ भोगोपभोगयोर बिशेष । कुत' । सुखानुभवननिमित्तत्वाभेदादिति, तन्न: कि कारणम् ।.. गन्धमाक्यशिरास्नानवस्त्रानपानादिषु भोगव्यवहार १११ शयनासनाङ्गनाहस्त्यश्वरथ्यादिधूपभोगव्यपदेश' । प्रश्न-भोग और उपभोग दोनो सुखानुभवमे निमित्त होने के कारण अभेद है। उत्तर-नही, क्योकि एक बार भोगे जानेवाले गन्ध, माला, स्नान, वस्त्र और पान आदिमे भोग व्यवहार तथा शय्या, आसन, स्त्री, हाथी, रथ, घोडा आदिमें उपभोग व्यवहार होता है।
४ निश्चय व्यवहार भोक्ता-भोग्य भाव निर्देश द्र.सं/मू / बवहारासुहदुक्रव पुग्गलकम्मप्फलं पजे दि । आदा णिच्छयणयदो चेदणभाव खु आदस्स 18!= व्यवहार नयसे आत्मा सुख-दुख रूप पुदगल कर्मोके फलका भोक्ता है और निश्चयनयसे अपने चेतन भावको भोगता है। दे, भोक्ता/१ निश्चयनयसे कर्मोसे सम्पादित मुख व दुख परिणामोका भोक्ता है, व्यवहारसे शुभाशुभ कर्मोंमे उपाजित इष्टानिष्ट विषयोका भोक्ता है।
५. अभेद मोक्ता योग्य भावका मतार्थ पं.का./ता / २७/६१/११ भोक्तवध्यारण्यान कर्ता कर्मफलं न भुक्तं
इति बौद्धमतानुमारि शिष्यप्रतिबोधनार्थ । कर्म के करनेवाला स्वयं उसका फल नही भोगता है ऐसा माननेवाले नौद्ध मतानुयायी शिष्यके प्रतिबोधनार्थ जीवके भोगतापनेका व्याख्यान किया है ।
१. भेदाभेद भोक्ता-मोग्य भावका समन्वय पं.का./त प्र./६८ यथात्रोभयनयाभ्यां कर्मकत', तथै केनापि नयेन न
भोक्तृ । कुतः। चैतन्यपूर्वकानुभूतिसद्भावाभावात् । ततश्चेतनत्वात केवल एब जोव कर्मफलभूताना कथचिदात्मन सुरवदु ख परिणामाना कथचिदिष्टानिष्ट विषयाणा भोक्ता प्रसिद्ध इति । जिस प्रकार यहाँ दोनों नयोसे कर्म कर्ता है, उसी प्रकार एक भी नयसे वह भोक्ता नहीं है। किसलिए-क्यो कि उसे चैतन्य पूर्वक अनुभूतिका सद्भाव नही है। इसलिए चेतनपने के कारण मात्र जीव ही कर्मफलका-कथ चित आत्माके सुख-दु ख परिणामोका और कथंचित् इष्टानिष्ट विषयों का भोक्ता प्रसिद्ध है।
७. लोकिक व अलौकिक दोनों भोग एका में होते हैं नि सा./मू /१५७ लधुण णिहि एक्को तस्स फल अणुहवेइ सुजणत्ते । तह णाणी णाणणिहि भंजेइ चइत्त परतत्ति ।१५७१ = जैसे कोई एक
(दरिद्र मनुष्य) निधिको पाकर अपने वतनमें ( गुप्तरूपसे) रहकर उसके फलको भोगता है, उसी प्रकार ज्ञानी परजनो के समूहको छोड
कर ज्ञाननिधिको भोगता है। नि सा./ता वृ./१५७/२६८ अस्मिन् लोके लौकिक कश्चिदेको लब्ध्या
पुण्यात्काञ्चनाना समूहम् । गूढो भूत्वा वत ते त्यक्तसङ्गो, ज्ञानी तद्वत् ज्ञानरक्षा करोति ।२६८- इस लोकमे कोई एक लौकिक जन पुण्यके कारण धन के समूहको पाकर, सगको छोड गुप्त होकर रहता है, उसीकी भाँति ज्ञानी (परके संगको छोडकर गुप्त रूपसे रहकर) ज्ञानकी रक्षा करता है ।२६८। * अन्य सम्बन्धित विषय * जीव पर पदार्थोंका भोक्ता कब कहलाता है -दे० चेतना/३। * सम्यग्दृष्टिके भोग सम्बन्धी
-दे० राग/६। * लौकिक भोगोका तिरस्कार
-दे० सुख। * ऊपर ऊपरके स्त्रों में भोगोंकी हीनता -दे० देव/IT/२। * चक्रवतीके दशाग भोग
-दे० शलाका पुरुष/२। भोग पत्नी-दे० स्त्री। भोगभूमि-दे० भूमि। भोगमालिनी-मान्यवान् गजदन्तस्थ रजत कूटकी स्वामिनी
देवी-दे० लोक/७। भोगान्तराय कर्म-दे० अन्तराय/१ । भोगावती-१ गन्धमादन पर्वतके लोहिताक्ष कूट की स्वामिनी दिक्कुमारी देवी-दे० लोक/91 २. माल्यवान् गजदन्तस्थ सागर कूटकी स्वामिनी देवी-दे० लोक/७ ! भोगोपभोग
मोगोपमोग परिमाण व्रत र. क. श्रा/८२, ८४ अक्षार्थाना परिसंख्यानं भोगोपभोगपरिमाणं ।
अर्थवतामप्यवधौ रागरतीना तनू कृतये ।।२।राग रति आदि भावों को घटानेके लिए परिग्रह परिमाण व्रतकी की हुई मर्यादामे भी प्रयोजनभूत इन्द्रियके विषयोका प्रतिदिन परिमाण कर लेना सो भोगोपभोपपरिमाण नामा गुणव्रत कहा जाता है ।८२। ( सा ध./
१३)। स सि./७/२१/३६९/६ तयो परिमाणमुपभोगपरिभोगपरिमाणम् ।
यानवाहनाभरणादिष्वेतावदेवेष्टमतोऽन्यदनिष्टमित्यनिष्टान्निवर्तन कर्तव्य काल नियमेन यावज्जीव वा यथाशक्ति' - इनका (भोग व उपभोगका) परिमाण करना उपभोग-परिभोगपरिमाण व्रत है। यान, वाहन और आभरण आदिमे हमारे लिए इतना ही इष्ट है, शेष सब अनिष्ट है इस प्रकारका विचार करके कुछ काल के लिए या जीवन भर के लिए शक्त्यनुसार जो अपने लिये अनिष्ट हो उसका त्याग कर देना चाहिए। (रा. बा./७/२१/१०/५४८/१४, २७/५५०/६), (चा. सा.) २४/१), (पु. सि. उ/१६५); (और भी दे० आगे रा. वा )। रा.वा./७/२१/२७/५५०/७ न हि असत्यभिसन्धिनियमे वतमिति । इष्टानामपि चित्रबस्त्रविकृतवेषाभरणादीनामनुपसेव्याना परित्यागः कार्य यावज्जीवम् । अथ न शक्तिरस्ति कालपरिच्छेदेन वस्तु परिमाणेन च शक्त्यनुरूपं निवर्तनं कार्यम् । जो विचित्र प्रकार के वस्त्र विकृतवेष आभरण आदि शिष्ट जनोके उपसव्य-धारण करने लायक नहीं है वे अपनेको अच्छे भी लगते हो तब भी उनका यावत् जीवन परित्याग कर देना चाहिए। यदि वैसी शक्ति नहीं है तो अमुक समयकी मर्यादासे अमुक वस्तुओका परिमाण करके निवृत्ति करनी चाहिए। (चा सा /२१/१)।
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भोगोपभोग
परि
का. अ/मू./३५० जापिसा संपत्ती भोग-नोल-धमादीनं मार्ग कोरवि भोमोयं वयं तस्स ॥३३०१ जो अपनी सामर्थ्य जान कर, ताम्बूल, वस्त्र आदिका परिमाण करता है, उसको भोगोपभोगपरिमाण नामका गुणवत होता है । ३५०
२. भोगोपभोग व्रतके भेद
र. क. आ./०० नियमो यमश्च विहिती द्वेषा भोगोपभोगसंहार नियम' परिमाज्जीवं यमो भिभोगोपभोग याग नियम और यम दो प्रकारका त्याग विधान किया गया है। जिसमें कालको मर्यादा है वह तो नियम कहलाता है, जो जीवन पर्यन्त धारण किया जाता है, वह यम है। (सा. घ./५/१४ ) 1
रा. वा / ०/२१/२०/६५०/१ भोगपरिसंख्यानं मातानिधानिष्टानुपसेव्यविषयभेदात् प्रसधात घातप्रमाद अनिष्ट और अनुपसेव्य रूप विषयोंके भेदसे भोगोपभोग परिमाण बत पाँच प्रकारका हो जाता है। (चा. सा./२३/३ ); (सा. ध. १५/१५) ।
२. नियम धारण करनेकी विधि २. क. ग्रा./ ee.ap
कुसुमेषु । ताम्बूल वसनभूषणमन्मयसंगतगीतेषु अद्य दिना रजनी वर पक्षो मासस्तमायया इति कालपरिप्रियाया भनेयमः भोजन, सनारी, शयन, स्नान, कुंकुमाविलेपन, पुष्प माला, ताम्बूल, वस्त्र, अलंकार, कामभोग, सगीत और गीत इन farain आज एक दिन अथवा एक रात, एक पक्ष, एक मास तथा दो मास अथवा छह मास ऋतु, अयन इस प्रकार कालके विभाग से त्याग करना नियम है ।
४. भोगोपभोग परिमाण प्रतके अविश्वार
त. सु./०/३५ सचितमन्धसमिश्राभिषवदुष्पाहार |२| सचि ताहार, सचित्तसम्बन्धाहार, सम्मिश्राहार, अभिषवाहार और दुक्वाहार उपभोगारिभोगपरिमाण व्रतके पाँच अतिचार है ।१५ (सा. ध./५/२०), (बा.सा./२३/१)
र. क. श्री. / ६० विषय विषतोऽनुपेक्षानुस्मृतिरतिलौग्यमतिवृषानुभवी । भोगोपभोगपरिमाणव्यतिक्रमाः पञ्च कथ्यन्ते । विषयरूपी विष || - 1की उपेक्षा नहीं करना, पूर्व कालमें भोगे हुए विषयोंका स्मरण रखना, वर्तमान विषयों में अति लालसा रखना, भविष्य में विषय प्राप्तिकी तृष्णा रखना, और विषय नहीं भोगते भी विषय भोगता हूँ ऐसा अनुभव करना ये पाँच भोगोपभोग परिमाण हटके अतिचार है।
भोजनवाहनशयनस्नामपवित्रा
५. दुःपक्क आहार में क्या दोष है
रा. मा./०/२४/६/२७८/१६ तस्याभ्यवहारे को दोष'
इन्द्रियमवृद्धि स्यात्, सचित्तप्रयोगो वा वातादिप्रकोपो वा, तत्प्रतीकारविधाने स्यात पापले अतिषयश्चैनं परिहरेयुरिति प्रश्न उस (दुष्पक व । - चित्त पदार्थका ) आहार करने में क्या दोष है। उत्तर- इनके भोजनसे इन्द्रियों मत हो जाती हैं सचित प्रयोगले वायु आदि दोषोंका प्रकोप हो सकता है, और उसका प्रतिकार करने में पाप लगता है, अतिथि उसे छोड़ भी देते हैं। (चा. सा./२३/४ ) ।
६. भोगोपभोग परिमाण व्रतको सचित्तादि ग्रहण कैसे हो सकता है
-M
२३९
-
रा.वा./०/३३/४/२६८/१९ न पुनरस्य सचित्तादिषु वृत्तिः प्रमादसंमो हाभ्यां सचितादिषु वृतिः पिपासारवाद स्वरमाणस्य सचि सादिषु अशनाय नायानुलेपनाय परिधानाय वा वृतिर्भवति । प्रश्न- इस भोगोपभोग परिमाण व्रतधारीकी सच्चित्तादि पदार्थोंमें
भोजक बुि
वृत्ति कैसे हो सकती है। उत्तर- प्रमाद तथा मोहके कारण क्षुधा, तृषा आदि पीडित व्यक्ति जल्दी-जल्दी में सचित्त आदि भोजन, पान, अनुलेपन तथा परिधान आदिने प्रवृत्ति हो जाती है।
७. सचित सम्बन्ध व सम्मिश्र अन्तर
1
रा. वा. / ०/२५/२-४/५५८/४ तेन चित्तता द्रव्येोपरि संबन्ध हत्यामाय || तेन सचितेन द्रव्येण व्यतिकीर्णः संमिश्र इति कथ्यते |४| वाग्मतम् संबन्धेनाविशिष्ट संमिश्र इति न किं कारणम् । तत्र संसर्गमा सचितसंगन्ये हि संसर्गमात्र मम ह तु सूक्ष्मजन्तुव्याकुलत्वे विभागीकरणस्याशक्यत्वात् नानाजातीयद्रव्यसमाहार. सूक्ष्मजन्तुप्राय आहारः संमिश्र इष्ट - सचित्तसे उपश्लिष्ट या सर्गको प्राप्त सचित सम्बन्ध कहलाता है | ३| और उससे व्यतिकीर्ण समिश्र कहलाता है |४| प्रश्न सम्बन्धसे अशिष्ट ही संमिश्र है। इन दोनों में अन्तर ही क्या है उत्तर ऐसा नहीं है, क्योंकि सम्बन्धमें केवल संसर्गविवक्षित है तथा समिश्र में सूक्ष्म जन्तुओ से आहार ऐसा मिला हुआ होता है जिसका विभाग न किया जा सके। नाना जातीय द्रव्योंसे मिलकर बना हुआ आहार सूक्ष्म जन्तुओंका स्थान होता है, उसे सम्मिश्र कहते है। (चा. सा./२५ (२) । ८. भोगोपभोग परिमाण व्रतका महत्व
-
/
पु. सि. उ. १५८, १६६ भोगोपभोगती स्वायरहिसा भनेरिकलामीषाम् । भोगोपभोगविरहाद्भवति न लेशोऽपि हिसाया |१| इति य परिमितिभोगे संतुष्यति महतरा मोगा महुतरहिसा विरहात्तस्याहिसामिशिष्ठा स्वाद १६६ निश्चय करके इन देशमतो आपको भोगोपभोग हेतु स्थावर जीवोंकी हिंसा होती है, किन्तु उपवासधारी पुरुषके भोग उपभोगके स्यागसे लेश मात्र भी हिंसा नहीं होती है । १५८। जो गृहस्थ इस प्रकार मर्यादा रूप भोगों से
होकर अधिकतर भोगोको छोड़ देता है, उसका बहुत हिंसाके त्याग उत्तम अहिंसामत होता है, अर्थात् अहिसा मका उरकर्ष होता है |१६|
:
* अन्य सम्बन्धित विषय
१. इस व्रतमें कन्द, मूल, पत्र, पुष्प आदिका त्याग ।
२. इस व्रतमें मद्य मांस मधुका त्याग।
२. प्रत व भोगोपभोगानर्थक्य नामा अतिचारमै
जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश
- दे० भक्ष्याभक्ष्य 1
-दे० १० वह वह नाम । अन्तर
-दे० अनर्थदण्ड |
४. भोगोपभोग परिमाण व्रत तथा सचित्त त्याग प्रतिमामें अन्तर । -दे० सचित्त । भोजराजा भोजको वशावलीके अनुसार (दे० इतिहास ) राजा मुके पुत्र व जयसिह पिता थे। मालवा देश (मगध ) के राजा थे । धारा व उज्जैनो इनकी राजधानी थी। संस्कृत विद्या के आश्रयदाता थे। मुजकी वंशावलीके तथा प्रेमी जीके अनुसार इनका समय - वि. १०७८-१९१२ ई.१०२१-२०५५, AN Up के अनुसार वि १००५-१११० ई. १०१०-९०६०६ पं. केसाराचन्द्र के अनुसार मि. १००५-१११० ई. १०१०-२०११ इतिहास के अनुसार ई. १००८ - १०५५ विशेष (दे० इतिहास / ३ / १:७/८ ) । २. योग दर्शन सूत्रोके भाष्यकार : समय ई श १० दे० योगदर्शन ।
भोजक वृष्णि
मथुराके स्वामी सुवीरके पुत्र थे तथा उग्रसेन के पिता थे । ( ह. पु. /१८/११-१६ ) ।
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भोजन
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मंगल
भाजन- १२/४,२,८,७/२८२/१३ भुज्यत इति भोजनमोदन', भुक्तिकारणपरिणामो वा भोजनं 1-'भुज्यते इति भोजनम' अर्थात जो खाया जाता है वह भोजन है, इस निरुक्तिके अनुसार ओदनको भोजन कहा गया है। अथवा (भुज्यते अनेनेति भोजनम् । इस निरुक्तिके अनुसार आहार ग्रहणके कारणभूत परिणामको भी भोजन
कहा जाता है। भोजन कथा-दे० कथा । भोजनांग कल्पवृक्ष-दे० वृक्ष । भोजवंश-१ पुराणकी अपेक्षा इस वशका निर्देश ।- दे० इतिहास/
७/८, इतिहासकी अपेक्षा इस वंशका निर्देश-दे० इतिहास/३/४ । भौमनिमित्तज्ञान-दे. निमित्त/२। भ्रम-पाँचवें नरकका दूसरा पटल ( रा. वा.)-दे० नरक/५ । भ्रमक-पाँचवे नरकका दूसरा पटल (ति.प.)-दे० नरक/५ । भ्रमका-पाँचवे नरकका दूसरा पटल-दे० नरक/५॥ भ्रमराहार वृत्ति- दे० भिक्षा/१/७।। भ्रान्त-प्रथम पृथिवीका चतुर्थ पटल-दे० नरक/५ तथा रत्नप्रभा । भ्रान्ति-सि.वि./मु./२/४/१३७ अतस्मिस्तद्ग्रहो भ्रान्ति ।-वस्तुका जैसा स्वरूप नही है चैसा ग्रहण हो जाना भ्रान्ति है । ( न्या. वि./ वि/१/३/७०/१७)। स्या. म /१६/२१६/३ भ्रान्तिहि मुख्येऽर्थे क्वचिद् दृष्टे सति करणापाटवादिनान्यत्र विपर्यस्तग्रहणे प्रसिद्धा । यथा शुक्तौ रजतभ्रान्ति । - यथार्थ पदार्थको देखनेपर इन्द्रियो में रोग आदि हो जानेके कारण ही चाँदीमें सीपके ज्ञानकी तरह, पदार्थों में भ्रमरूप ज्ञान होता है। भ्रामरी वृत्ति-साधुको भिक्षावृत्तिका एक भेद-दे० भिक्षा/
मंगल निर्देश व तद्गत शंकाएँ १ मंगलके छह अधिकार ।
मंगलका सामान्य फल व महिमा । तीन बार मंगल करनेका निर्देश व उसका प्रयोजन । लौकिक कार्योंमें मंगल करनेका नियम है, पर शास्त्रमें
वह भाज्य है। स्वयं मंगलस्वरूप शास्त्रमें भी मंगल करनेकी क्या
आवश्यकता। मंगल व निर्विघ्नतामें व्यभिचार सम्बन्धी शंका। ७ मंगल करनेसे निर्विघ्नता कैसे।
लोकिक मंगलोंको मंगल कहनेका कारण । मिथ्यादृष्टि आदि सभी जीवोंमे कथंचित् मंगलपना ।
१/७१
[म]
मंखलि गोशाल-(दे० पूरण कश्यप ) मंगरस-नेमि जिनेश्वर संगति औरासम्यक्त्व कौमुदी क रचयिता
एक कन्नड कवि । समय-ई. १५०८ । (ती/४/३१०) । मंगराज-खगेन्द्रमणिदर्पण (चिकित्साशास्त्र) के रचयिताएक कन्नड
कवि । समय-ई. १५५० । (तो /४/३११) । मंगल-एक ग्रह । दे. ग्रह । लोक में अवस्थान-दे. ज्योतिष लोक/२ । मंगल-पाप विनाशक व पुण्य प्रकाशक भाव तथा द्रव्य नमस्कार
आदि मंगल है। निर्विघ्न रूपसे शास्त्रकी या अन्य लौकिक कार्योकी समाप्ति व उनके फल की प्राप्तिके लिए सर्व कार्योके आदिमें तथा शास्त्रके मध्य व अन्त में मंगल करनेका आदेश है।
१. मंगलके भेद व लक्षण
१. मंगल सामान्यका लक्षण ति, प./१/८-१७ पुण्णं पूदपवित्ता पसत्थ सिवभ६खेमकत्ताणा। सुहसो
खादी सव्वे णिहिट्ठा मगलस्स पज्जाया ।८। गालयदि विणासयदे धावे दि दहेदि हंति सोधयदे। विधसे दि मलाई जम्हा तम्हा य मगलं भणिदं हा अहवा मग सोक्खं लादि हू गेण्हेदि मंगलं तम्हा । एवेण कज्जसिद्धिं मंगइ गच्छेदि गंथकत्तारो।१५ पुव्य आइरिएहि मंगलपुव च वाचिदै भणिद । त लादि हु आदत्ते जदो तदो मगलं पवर।१६ पावं मलं ति भण्णइ उवचारसरूवएण जीवाणं । तं गालेदि विणास णेदि त्ति भणं ति मंगल केई ।१७। - १. पुण्य, पूत, पवित्र, प्रशस्त, शिव, भद्र, क्षेम, कल्याण, शुभ और सौख्य इत्यादिक सब मंगलके ही पर्यायवाची शब्द है।८। (ध १/१,१,१/३१/१०)।२,क्योकि यह [ज्ञानावरणादि, द्रव्य मल और अज्ञान अदर्शन आदि भावमल(दे० मल) ] मलोंको गलाता है, विनष्ट करता है, धातता है, दहन करता है. हनता है, शुद्ध करता है और विश्वस करता है, इसलिए इसे 'मंगल' कहा गया है 11 (ध १/१,१,१/३२/५), (ध.६/४,१.१/ १०)। ३. अथवा चू कि यह मगको अर्थात् सुख या पुण्यको लाता है, इसलिए भी इसे मगल समझना चाहिए ।१५। (ध १/१,१.१/ श्लो. १६/३३); (ध. ११,१,२/३३/५); (पं. का./ता वृ./१/१/२) । ४. इसी के द्वारा ग्रन्थकर्ता अपने कार्यकी सिद्धिपर पहुँच जाता है। ।१५। पूर्व में आचार्यों द्वारा मगलपूर्वक ही शास्त्रका पठन-पाठन हुआ है। उसीको निश्चयसे लाता है अर्थात ग्रहण कराता है. इसलिए यह मंगल श्रेष्ठ है ।१६। (ध, १४९,१,१/३४/३)। ५. जीवोंके पापको उपचारसे मल कहा जाता है। उसे यह मगल गलाता है, विनाशको प्राप्त कराता है, इस कारण भी कोई आचार्य इसे मंगल कहते है।१७॥ (घ. १/१.१,१/श्लो. १७/३४), (पं. का./ता बृ./१/५/५)।
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मंगलके भेद व लक्षण मंगल सामान्यका लक्षण । मंगलके भेद। नाम स्थापनादि मंगलके लक्षण । निबद्धानिबद्धादि मंगलोंके लक्षण । अष्टमंगल द्रव्य।
-दे० चैत्य/१/१९ ।
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२. मंगलके भेद ति. प./१/१८ णामणिछावणा दबखेत्ताणि कालभावा य । इय
छब्भेयं भणियं मंगलमाणं दस जणणं ॥१८) = १. आनन्दको उत्पन्न करनेवाला यह मगल नाम, स्थापना, द्रव्य, क्षेत्र, काल और भाव, इस प्रकार छह भेदरूप कहा गया है । १८५ (ध. १/१,१,१/१०/४)।
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मंगल
१/१०१०१/०६/३ कतिविधं महल महलसामान्यातदेकविध मुख्यमुपमेतद्विविधस्, सम्यग्दर्शनज्ञानचारित्रमेशव त्रिविध मङ्गलम् धर्म सिद्धसाध्वर्हद्वभेदाच्चतुर्विधम् ज्ञानदर्शन त्रिगुप्तिभेदात् 'मो जिला इयादिनानेकविध मा १. मंगल कितने प्रकारका है । मंगल सामान्यकी अपेक्षा मगल एक प्रकारका है । ३. मुख्य और गौणके भेदसे दो प्रकारका है । ( प. का./ता वृ./ २/५/६४ सम्यग्दर्शनसम्मान और सम्यरूचारित्र के भेदसे तीन प्रकारका है । ५. धर्म, सिद्ध, साधु और अर्हन्तके भेदसे चार प्रकारका है । ६. ज्ञान, दर्शन और तीन गुप्तिके भेदसे पाँच प्रकारका है । ७. अथवा 'जिनेन्द्रदेवको नमस्कार हो' इत्यादि रूपसे अनेक प्रकारका है ।
. १/१.१.१/४९/५ तच्च मंगल दुविहं मिद्धमनिमि८ि, वह मंगल दो प्रकारका है, निबद्धमगल और अनिबद्ध मंगल । (पं का. / ता. वृ./१/५/२३) ।
२४१
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३. नाम स्थापनादि मंगलके लक्षण
ति, प./१/१६-२७ अरहाणं सिद्धाण आइरियउज्झियाइ साहूणं । नामाहं माममगमुट्ठि बीयराएहि ११६ वणमगलमे अि माकट्टिमाणि जिजा विषय साहूदेहाणि मग | २० | गुणपरिदासणं परिणितामणं केवलस्स णाणस्स । उपपत्ती इयपहुदी बहुभेयं खेतमगतय | २१| एस्स उदाहरणं पाषाणगरुज्यतनं पादी । आउट्ठहत्यपहूदी पणुवीसम्भहियपणसयधणि ॥ २२॥ देवअवइिकेवलणाणावर गदेसो थापि गमेस अष्पष्पदेसगदतोयपुरणापुण्णा | २३ | विस्साण लोयाणं होदि पदेसा वि मंगलं खेसं । जेस्सिकाले वाणादिमंगलं परिणमति । २४ परिि नाग्भवणि दिव्यखादी पावलगासनादो पण कालमगलं
भा० ३-३१
२५ एवं अय हवेदितं कालम जिगमहिमासंबंध दोरीयहूदी जी | २६ मगलपाहि उपलस्त्रियजीवदव्वमेत्त च । भावं मगलमेदं ॥२७॥ वीतराग भगवान्के अर्हन्त, सिद्ध, आचार्य, उपाध्याय और साधु इन नामोको नाममगल कहा है | १६ | जिन भगवा के जो अकृत्रिम और कृत्रिम प्रतिबिम्ब है, वे सब स्थापना मंगल है। तथा आचार्य उपाध्याय साधुके शरीर अन्य मंगल है | २०| गुणपरिणत आसन क्षेत्र अर्थात जहॉपर योगासन, वीरासन आदि विविध आसनोसे तदनुकूल ध्यानाभ्यास आदि अनेक गुण प्राप्त किये गये हों ऐसा क्षेत्र, दीक्षाका क्षेत्र, केवलज्ञानोत्पत्तिका क्षेत्र इत्यादि रूपसे क्षेत्र मंगल बहुत प्रकारका है ||२१| इस क्षेत्रमगलके उदाहरण पावानगर ऊर्जयन्त ( गिरनार पर्वत) और चम्पापुर आदि है अथवा साढ़े तीन हादसे लेकर १२२ धनुषप्रमाण शरीर में स्थित और केवलज्ञानसे व्याप्त आकाशप्रदेशीको क्षेत्रमगल समझना चाहिए। अथवा जगच्छ्र ेणीके धनमात्र अर्थात् लोकप्रमाण आत्मा प्रदेश लोकसमुद्रात द्वारा पूरित सभी (ऊर्ध्व, अधो व तिर्यक् ) लोकोके प्रदेश भी क्षेत्र मंगल है | २२-२४ | जिस कालमें जोव केवलज्ञानादि रूप मगलपर्यायको प्राप्त करता है उसको तथा दीक्षाकाल केवलज्ञानके उद्भवका काल. और निर्वाणकाल ये सब पापरूपी मलके गलानेका कारण होनेसे कालमंगल कहा गया है । २४-२५| इस प्रकार जिनमहिमासे सम्बन्ध रखनेवाला कालमगल अनेक भेदरूप है, जैसे नन्दोश्वर द्वीप सम्बन्धी पर्व आदि । २५-२६ । वर्तमान में मंगलरूप पर्यायोसे परिणत जो शुद्ध जीव द्रव्य है अर्थात् पचपरमेष्ठकी अत्माएँ वह भावमंगल है | २० (ध. १ / १,१.१ / २८-२१), (विशेष दे० निक्षेप) | दे० निक्षेप / ५ / ७ (सरसो, पूर्णकलश आदि अचित्त बालकन्या व उत्तम घोडा आदि सचित्त पदार्थ सहित कन्या आदि मित्र पदार्थ ये सब सौकिक नो
पदार्थ, अथवा अथवा अलंकार पतिरिक्त
२. मंगल निर्देश व तद्गत शंकाएँ
द्रव्य मंगल है। पच परमेष्ठीका अनादिअनन्त जीवद्रव्य, कृत्रिमाकृत्रिम चैत्यालय तथा साम सहित चैय्यालयादि ये क्रम सचित्त अचित्त व मिश्र लोकोत्तर नोकर्म तद्वयतिरिक्त द्रव्य मंगल है। जीवन तीर्थंकर प्रांत नामकर्म कर्मतिरिक्त नोआगम द्रव्यमगल है ) ।
४. निबद्धानिबद्धादि मंगलों के लक्षण
घ. १/१.१.१/४/६ वय निम' ग्राम, जो सुत्तस्सादोए सुचकसारेण णिबद्धदेवदाणमाक्कारो तं निबद्धमगल । जो सुत्तस्सादीए सत्तारेण कयदेवदाणमोक्कारो तमणिबद्धमगल । जो ग्रन्थके आदिमे ग्रन्थकारके द्वारा इष्टदेवता नमस्कार निबद्ध कर दिया जाता है अर्थात् श्लोकादि रूप में रचकर लिख दिया जाता है, उसे निबद्ध मंगल कहते है । और जो ग्रन्थ के आदिमे ग्रन्थकार द्वारा देवताको नमस्कार किया जाता है [अर्थात् लिपिबद्ध नही किया जाता (ध. २/ प्र.३४) बल्कि शास्त्र लिखना या बांधना प्रारम्भ करते समय मन, वचन, कायसे जो नमस्कार किया जाता है ] उसे अनिबद्ध मगल कहते है । (पं. का./ता.वृ/२/५/२४) पं.का./ता.वृ/९/२०/९० तत्र मुख्यमइले कभ्यते, आदी मध्येऽवसाने च मङ्गलं भाषित बुधै । तज्जनेन्द्रगुणस्तोत्र तदविघ्नप्रसिद्धये |१| अमुख्यमङ्गलं कथ्यते - सिद्धत्य पुण्णकुभो बंदणमाला य पुडुरं छत्त । सेदो वण्णो आदस्स णाय कण्णा य जत्तस्सो |१| = ज्ञानियों द्वारा शास्त्र के आदि मध्य व अन्तमें विघ्न निवारणके लिए जो जिनेन्द्र देवका गुणस्तवन किया जाता है, वह मुख्य मगल है और पीली सरसो, पूर्ण कलश, वन्दनमाला, छत्र, श्वेत वर्ण, दर्पण, उत्तम अमुख्य मंगल है | ( इन्हे मगल क्यों कहा जाता है, इसके लिए देखा मगन /२/८) ।
२. मंगल निर्देश व तद्गत शंकाऍ १. मंगलके छह अधिकार
घ. १ / १,१,१ / ३६ / ६ मंगल म्हि छ अहियाराऍ दडा बत्तव्या भवंति । तं जहा, मगलं मगलकत्ता मंगलकरणीय मगलोवायो मंगल विहाण मगलफलमिदि । एवेसि छह पि अत्थो उच्चदे | मगलत्थो पुत्ती । मगलकता चोदस्सविज्जाद्वामपारओ आहरियो मंगलकरणीय भज गोमायो तिरयकसाहवाणि मगतविहान एयविहादि पुव्युत । मगलके विषय में छह अधिकारी द्वारा दण्डकोका कथन करना चाहिए। वे इस प्रकार है- १. मंगल, २. मंगलकर्ता, ३. मंगल करने योग्य, ४. मंगलका उपाय ५. मगलके भेद, और ६ मंगलका फल है । अब इन छह अधिकारोका अर्थ कहते है । मगलका क्षण तो पहले कहा जा चुका है ( ० मंगल / १४१) चौदह विद्यास्थानोके पारगामी आचार्य परमेष्ठी (यहाँ भूतबली आचार्य) मंगलकर्ता है। भव्यजन मगल करने योग्य है । रत्नत्रयकी साधक सामग्री (आत्माधीनता व मन वचन कायकी एकाग्रता आदि) मंगलका उपाय है। एक प्रकारका, दो प्रकारका आदि रूपसे मगल के भेद पहले कह आये है । (दे० मगल / १ / २ ) । मगलका फल आगे कहेंगे (दे० मंगल /२/२)।
२. मंगळका सामान्य फल व महिमा
दि. १ / २ / ३०-३१ णादि विग्ध भेददि मंहो वृट्ठा सुराण संबंति । इही अत्यो सम्म जिगणामग्गणमेरोण 1201 सत्धादिमन्भजनसामसु जितोसमचारो पासइ पिरसाइ निरधाई रवि व्य तिमिराइ |१| जिन भगवान् के नामके ग्रहण करनेमात्र से विघ्न नष्ट हो जाते है, पाप खण्डित होता है, दुष्ट देव लाँघ नही सकते अर्थात् किसी प्रकारका उपद्रव नहीं कर सकते और इष्ट अर्थ की
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मंगल
२४२
२. मंगल निर्देश व तद्गत शंकाएं
प्राप्ति होती है ।३०। शास्त्रके आदि मध्य और अन्तमे किया गया जिनस्तोत्र रूप मगलका उच्चारण सम्पूर्ण विघ्नोको उसी प्रकार नष्ट कर देता है, जिस प्रकार सूर्य अन्धकार को ।३१। (ध. १११.१,१/ गा. २१-२२/४१), (प. का /ता वृ./१/५/१० पर उद्धृत २ गाथाएँ)। आस. प./मू/२ श्रेयोमार्गस्य ससिद्धि प्रसादात्परमेष्ठिन. । इत्याहुस्तद्गुणस्तोत्र शास्त्रादौ मुनिषंगा.। = अर्हत्परमेष्ठी के प्रसादसे मोक्षमार्गकी सिद्धि होती है, इसलिए प्रधान मुनियोने
शास्त्रके प्रारम्भमें अर्हत् परमेष्ठीके गुणोकी स्तुति की है। ध, १/१,१,१/३६/१० मगलफलं देहितो कयअब्भुदयणिस्सेयसमुहाइत्त ।
- मंगलादिकसे प्राप्त होनेवाले अभ्युदय और मोक्षसुखके आधीन मगलका फल है।
३. तीन बार मंगल करनेका निर्देश व उसका प्रयोजन ति.प./१/२८-२६ पुबितलाइरिएहिं उत्तो सत्याण मगलं जो सो।
आइम्मि मझअवसाणि य सणियमेण कायव्यो ।२८॥ पढमे मगलवयणे सित्था सत्थस्स पारगा होति । मज्झिम्मे पीविरवं विज्जा विज्जाफल चरिमे २8 - पूर्वकालीन आचाोंने जो शास्त्रोका मगल कहा है उस मंगलको नियमसे शास्त्रोके आदि, मध्य और अन्तमे करना ही चाहिए ।२८। शास्त्रके आदिमे मगलके पढने पर शिष्य लोग शास्त्रके पारगामी होते है, मध्यमे मगलके करनेपर निर्विघ्न विद्याको प्राप्ति होती है और अन्तमे मगल के करनेपर विद्याका फल प्राप्त होता है ।२६। (ध १/१,१,१/गा. १६-२०/४०); (ध. ६/४,१,१/गा.२/४)। दे० मंगल/२/२ (शास्त्रके आदिमें मंगल करनेसे समस्त विनोका नाश
तथा मोक्षमार्ग की प्राप्ति होती है)। द्र.सं./टी./१/६/५ पर उधृत-'नास्तिकत्वपरिहार' शिष्टाचारप्रपालनम् । पुण्यावाप्तिश्च निर्विघ्न' शास्त्रादौ तेन सस्तुति ।। -नास्तिकताका त्याग, सभ्य पुरुषोके आचरणका पालन, पुण्यकी प्राप्ति और विघ्न विनाश इन चार ल भोके लिए शास्त्रके आरम्भ मे इष्ट देवता. को स्तुति की जाती है। ध १/१,१.१/४०/४ तिसु ठाणेसु मंगल किम बुच्चदे । कयकाउयमगल-पायच्छित्ता विणयोवगया सिस्सा अज्झेदार। सोदारो वत्तारी आरोग्गमबिग्घेण विज्ज विज्जाफलं हि पातु ति। -प्रश्न-तीन स्थानों में मंगल करनेका उपदेश क्सि लिए दिया गया है। उत्तरमंगल सम्बन्धी आवश्यक कृतिकर्म करनेवाले तथा मंगल सम्बन्धी प्रायश्चित्त करनेवाले तथा विनयको प्राप्त ऐसे शिष्य, अध्येता ( शास्त्र पढनेवाला), श्रोता और वक्ता क्रम से आरोग्यको, निर्विघ्न रूपसे विद्याको तथा विद्याके फल को प्राप्त हो, इसलिए तीनो जगह मगल करनेका उपदेश दिया गया है।
सत्यपारंभादिकिरियास णियमेण अरहंतणमोक्कारी कायव्वो त्ति सिद्ध । बवहारणयमस्सिदूण गुणहारभडारयस्स पुण एसो अहिष्पाओ, जहा-कीरउ अण्णत्थ सव्वत्थ णियमेण अरहंतणमोकारो, मगलफलस्स पारदकिरियाए अणुवलं भादो। एत्थ पुण णियमो णत्थि. परमागमुवजोगम्मिणियमेण मगलफलोवल भादो। प्रश्न-गणधर भट्टारकने गाथासूत्रोके आदिमे तथा यतिवृषभ आचार्य ने भी चूर्णसूत्रोके आदिमें मगल क्यों नहीं किया। उत्तर-यह कोई दोष नहीं है, क्योंकि, प्रारम्भ किये हुए कार्य में विघ्नकारक कर्मोक विनाशार्थ मगल किया जाता है और वे परमागमके उपयोगसे ही नष्ट हो जाते है। यह बात असिद्ध भी नही है क्योकि यदि शुभ और शुद्ध परिणामोसे कर्मोका क्षय न माना जाये तो फिर कर्मोका क्षय हो ही नहीं सकता। प्रश्न-इस प्रकार यद्यपि कोका क्षय तो हो जाता है पर फिर भी प्रारम्भ किये हुए कार्य में विघ्नोकी और विद्याके फल की प्राप्ति न होनेकी सम्भावना तो बनी ही रहती है। उत्तर-नहीं, क्योकि, ऐसा मानने में विरोध आता है (कर्मोका अभाव हो जानेपर विघ्नोकी उत्पत्ति सम्भव नहीं; क्योकि, कारण के बिना कार्यकी उत्पत्ति नही होतो)। प्रश्न-शब्दानुसारी शिध्यमें देवताविषयक भक्ति उत्पन्न करानेके लिए शास्त्रके आदिमें मगल अवश्य करना चाहिए। उत्तर-नहीं, क्योकि, मगल के बिना भी केवल गुरुवचनसे ही उनमे वह भक्ति उत्पन्न हो जाती है। प्रश्न-पुण्यकर्म बॉधनेके इच्छुक देशवतियोंको मगल करना युक्त है, किन्तु कर्मों के क्षयके इच्छुक मुनियोको मगल करना युक्त नहीं, यदि ऐसा कहो तो। उत्तर-नहीं, क्योकि, पुण्यबन्धके कारणके प्रति उन दोनों में काई विशेषता नहीं है। २, इसलिए सोना, खाना, जाना, आना और शास्त्रका प्रारम्भ करना आदि क्रियाओंमें अरहन्त नमस्कार अवश्य करना चाहिए। किन्तु व्यवहारनयकी दृष्टिसे गुणधर भट्टारकका यह अभिप्राय है, कि परमागमके अतिरिक्त अन्य सब क्रियाओमें अरहन्त नमस्कार नियमसे करना चाहिए, क्योकि, अरहन्त नमस्कार किये बिना प्रारम्भ की हुई क्रियामैं मगलका फल नहीं पाया जाता। किन्तु शास्त्रके प्रार भमें मगल करनेका नियम नही है, क्योकि, परमागमके उपयोगमें ही मगलका फल नियमसे प्राप्त हो जाता है।
४. लौकिक कार्यों में मंगल करनेका नियम है. पर
शास्त्र में वह माज्य है क. पा. १/१-१/६२-४/५-६ २ संपहि (पदि ) गुणहरभडार एण गाहा
सुत्ताणमादीए जइवसहत्येरेण वि चुण्णिसुत्तस्स आदीए मगल किण्ण कर्य । ण एस दोसो; मगल हि कीरदे पारद्वज्जविग्धपरकम्मविणासणट्ट । त च परमागमुक्जोगादो चेव णस्सदि। ण चेदमसिद्धं, सुह-सुद्धपरिणामेहि कम्मरवयाभावे तक्खयाणुववत्तीदो।..ण च कम्मवर संते पारद्वकज्जविग्घस्स विज्जाफलाणुव(व)त्तीए वा संभवो, विरोहादो। ण च सदाणुसारिसिस्साणं देवदाविसयभक्तिसमुप्पायण तं वीरदे; तेण विणा वि गुरुवयणादो चेव तेसि तदुप्पदिद सणादो ।३ पुण्णकम्मबंधत्थीण देसव्ययाण मगलकरणं जुत्त ण मुणोण क्म्मक्खयकंवखुवाणमिदि ण वात्तु जुत्तं: पुण्णबंधहे उत्त पडिविसेसाभावादो । ४.तेण सोवण-भोयण-पयाण-पच्चावण
५. स्वयं मंगल स्वरूप शास्त्रमें भी मंगल करनेकी
क्या आवश्यकता ध.११.१,१/४१/१० सुत्तं कि मगलमुद अमंगलमिदि । जदि ण मंगलं, ण तं मुत्तं पावकारणस्स सुत्तत्तविरोहादो। अह मंगलं, किं तत्थ मंगलेण एगदो चेय कज्जणिप्पत्तीदो इदि । ण ताव मुन्तं ण मगलमिदि । तारिस्सपइज्जाभावादो परिसेसादो मंगलं स । मुत्तस्सादीए मगल पढिउजदि, ण पुवुत्तदोसो वि दोण्हं पि पुध पुध विणासिज्जमाणपावदसणादो। पढणविग्यविद्दावणं मंगलं । सुत्ते पुण समयं पडि असंखेज्जगुणसेढीए पावं गालिय पच्छा सव्वकम्मरखयकारणमिदि। देवतानमस्कारोऽपि चरमावस्थायां कृत्स्नकर्मक्षयकारीति द्वयोरप्येक कार्यकतत्वमिति चेन्न, सुत्रविषयपरिज्ञानमन्तरेण तस्य तथाविधसामथ्य भावात् । शुक्लध्यानान्मोक्षः, न च देवतानमस्कार' शुक्लध्यानमिति ।-प्रश्न-सूत्र ग्रन्थ स्वयं मंगल रूप है, या अमंगलरूप । यदि सूत्र स्वय मंगलरूप नहीं है तो वह सूत्र भी नहीं कहा जा सकता, क्योकि, मंगलके अभावमे पापका कारण होनेसे उसका मूत्रपनेसे विरोध पड़ जाता है। और यदि सूत्र स्वयं मंगल स्वरूप है, तो फिर उसमें अलगसे मगल करनेकी क्या आवश्यकता है। क्योकि, मगल रूप एक सूत्र ग्रन्थसे ही कार्यकी निष्पत्ति हो जाती है। और यदि कहा जाय कि यह सूत्र नहीं है, अतएव मंगल भी नहीं है, तो ऐसा तो कहीं कहा नहीं गया कि यह सूत्र नहीं है। अतएव
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मंगल
२४३
२. मंगल निर्देश व तद्गत शंकाएं
भी मंगल किया जाता है। इसके अतिरिक्त इष्टदेवताको नमस्कार करनेसे प्रत्युपकार किया जाता है अर्थात देवताकृत उपकारको स्वीकार किया जाता है । कहा भी है-परमेष्ठीकी कृपासे मोक्षमार्गकी प्राप्ति होती है। इसीलिए शास्त्रके आदिमे मुनिजन उनके गुणोका स्तवन करते हैं। इच्छित फलकी सिद्धिका उपाय सम्यग्ज्ञान है और वह सच्चे शास्त्रोसे होता है। शास्त्रोकी उत्पत्ति आप्तसे होती है। इस लिए उनके प्रसादसे ही ज्ञानको प्राप्ति हुई होनेसे वे पूज्य है, क्योकि, किये गये उपकारको साधुजन भूलते नही है।
यह सूत्र है और परिशेष न्यायसे मगल भी है। तब फिर इसमे अलगसे मंगल क्यो किया गया। उत्तर-सूत्रके आदिमें मंगल किया गया है तथापि पूर्वोक्त दोष नहीं आता है, क्योकि, सूत्र और मगल इन दोनोसे पृथक् पृथक् रूपमें पापोंका विनाश होता हुआ देखा जाता है। निबद्ध और अनिबद्ध मंगल पठनमें आनेवाले विघ्नोको दूर करता है, और सूत्र प्रतिसमय असख्यात गुणित श्रेणीरूपसे पापोका नाश करके उसके पश्चात सम्पूर्ण काँके क्षयका कारण होता है । प्रश्न-देवता नमस्कार भी अन्तिम अवस्थामें सम्पूर्ण कर्मोका क्षय करनेवाला होता है, इसलिए मगल और सूत्र दोनो ही एक कार्य को करनेवाले है, फिर दोनोका कार्य भिन्न-भिन्न क्यो बतलाया गया । उत्तर-ऐसा नहीं है, क्योंकि, सूत्रकथित विषयके परिज्ञानके बिना केवल देवता नमस्कार में कर्मक्षयको सामर्थ्य नहीं है। मोक्षकी प्राप्ति शुक्लध्यानसे होती है, परन्तु देवता नमस्कार तो शुक्लध्यान
नहीं है। ध/४,१,१/३/२ दबसुत्तादो तप्पढण-गुणण किरियावावदाणं सबजीवाणं पडिसमयमसखेज्जगुण सेढीए पुव्वसचिदकम्मणिज्जरा होदि त्ति णिप्फल मिदि सुत्तमिदि । अह सफलमिद, णिप्फलं सुत्तज्झयण, तत्तो समुवजायमाण कम्मरवयस्स एत्थेवोवल भो त्ति । ण एस दोसो, सुत्तयज्झयणेण सामणकम्मणिज्जरा करिदे; एदेण पुण सुत्तज्झयणविग्घफलकम्मविणासो कीरदि त्ति भिण्ण विसयत्ताद। मुत्तज्झयणविग्धफलकम्मविणासो सामण्ण कम्मविरोहिसुत्तब्भासादो चेव होदि 'त्ति मगलसुत्तार भो अणत्थओ किण्ण जायदे । ण, सत्तत्थावगमब्भासविग्धफलकम्मे अविण8 सते तदवगमम्भासाणमसभवादो।-प्रश्न'द्रव्यसूत्रोसे उनके पढने और मनन करने रूप क्रियामे प्रवृत्त हुए सब जीवोके प्रति समय असख्यात गुणित श्रेणीरूपसे पूर्व सचित कर्मो की निर्जरा होती है। इस प्रकार विधान होनेसे यह जिननमस्कारात्मक सूत्र व्यर्थ पडता है। अथवा, यदि यह सूत्र सफल है तो सूत्रोका अर्थात शारत्रका अध्ययन व्यर्थ होगा, क्योंकि उससे होनेवाला कर्मक्षय इस जिननमस्कारात्मक सूत्रमे ही पाया जाता है। उत्तर-यह कोई दोष नहीं है क्योकि सूत्राध्ययनसे तो सामान्य कर्मोकी निर्जरा को जाती है, और मगलसे सूत्राध्ययनमें विघ्न करनेवाले कर्मोका विनाश किया जाता है, इस प्रकार दोनोका विषय भिन्न है । प्रश्नचॅकि सुत्राध्ययनमें विघ्न करनेवाले कर्मों का विनाश सामान्य कर्मों के विरोधी सूत्राभ्याससे ही हो जाता है, अतएव मंगलसूत्रका आरम्भ करना व्यर्थ क्यो न होगा । उत्तर-ऐसा नहीं है, क्योंकि, सूत्रार्थके ज्ञान और अभ्यासमें विघ्न उत्पन्न करनेवाले कर्मोंका जब तक विनाश न होगा तब तक उस ( सूत्रार्थ) का ज्ञान और अभ्यास दोनो असम्भव है । और कारणसे पूर्वकालमें कार्य होता नहीं है, क्योकि वैसा पाया नहीं जाता। पं.का./ता, बृ./१/4/- शास्त्रं मङ्गलममङ्गल वा। मङ्गल चेत्सदा मङ्गलस्य मङ्गल कि प्रयोजनं, यद्यमङ्गल तहि तेन शास्त्रेण कि प्रयोजन । आचार्या परिहारमाहु -भवत्यर्थ मङ्गलस्यापि मङ्गल क्रियते । तथा चोक्तम्-प्रदोनार्चयेदकमुदकेन महोदधिम्। वागीश्वरा तथा वाग्भिमंगलेनैव मङ्गलम् । किच इष्टदेवतानमस्कारकरणे प्रत्युपकार कृत भवति । तथा चोक्त-श्रेयोमार्गस्य संसिद्धि प्रसादात्परमेष्ठिन.। इत्याहुस्तद्गुणस्तोत्रं शास्त्रादौ मुनिपुगवा' । अभिमतफल सिद्धरभ्युपायः सुबोधः, स च भवति सुशास्त्रात्तस्य चोत्पत्तिराप्तात् । इति भवति स पूज्यस्तत्प्रसादात्प्रबुद्धिर्न हि कृतमुपकार साधवो विस्मरन्ति ।
प्रश्न-शास्त्र मगल है या अमगल । यदि मगल है तो मगलका भी मंगल करनेसे क्या प्रयोजन । और यदि वह अमगल है तो ऐसे शास्त्रसे ही क्या प्रयोजन ? उत्तर-भक्ति के लिए मगलका भी मंगल किया जाता है। कहा भो है--दीपकसे सूर्यकी, जलसे सागरकी तथा वचनोसे वागीश्वरीकी पूजा की जाती है, इसी प्रकार मगलसे मगलका
६. मंगल व निर्विघ्नतामें व्यभिचार सम्बन्धी शका ध.६४,१,१/५/१ मंगलं काऊण पारद्धकज्जाणं कहि पि विग्घुवलंभादो तमकाऊण पारद्धकज्जाणं पि कत्थ वि विग्धाभावदसणादो जिणिदणमोक्कारो ण विग्धविणासओ त्ति । ण एस दोसो, कयाकयभिसयाणं वाहीणमविणास-विणासदसणेणावगयचियहिचारस्स वि मारिचादिगणस्स भेसयत्तु वलभादो। ओसहाणमोसहत्तं ण विणस्सदि, असझवाहिवदिरित्तसज्झवाहिविसरा चेव तेसि वावारभुवगमादो त्ति चे जदि एवं तो जिणिदणमोक्कारो वि विग्धविणासओ, असज्झविग्धफलकम्ममुज्झिदूण सज्झविरघफलकम्मविणासे वासरदसणादो। ण च ओसहेण समाणो जिणिदणमोक्कारो, णाणज्झाणसहायस्स संतस्स णिविग्धग्गिस्स अदज्झिधणाण व असज्झविग्धफलकम्माणमभावादो। णाणज्झाणपओ णमोक्कारो संपुष्णो, जहण्णो मंदसहहणाणुविद्धो बोद्धव्वो, सेसअसंखेज्जलोगभेयभिण्णा मज्झिमा। ण च ते सव्वे समाणफला, अइप्पसगादो - प्रश्न-मंगल करके प्रारम्भ किये गये कार्योके कहीपर विघ्न पाये जानेसे और उसे न करके भी प्रारम्भ किये गये कार्यों के कही पर विघ्नोंका अभाव देखे जानेसे जिनेन्द्र नमस्कार विघ्न विनाशक नहीं है । उत्तर-यह कोई दोष नहीं है, क्योकि, जिन व्याधियोकी औषध की गयी है उनका अविनाश, और जिनकी
औषध नहीं की गयी है उनका विनाश देखे जानेसे व्यभिचार ज्ञात होने पर भी काली मिरच आदि औषधि द्रव्योमें औषधिय गुण पाया जाता है। प्रश्न-औषधियोका औषधित्व तो इसलिए नष्ट नहीं होता, कि असाध्य व्याधियोको छोडकर केवल साध्य व्याधियोके विषयमे ही उनका व्यापार माना गया है। उत्तर--तो जिनेन्द्र नमस्कार भी ( उसी प्रकार ) विघ्न विनाशक माना जा सकता है; क्यो कि, उसका भी व्यापार असाध्य विघ्नोने कारणभूत कौंको छोड़कर साध्य विघ्नोंके कारणभूत कर्मोंके विनाशमे देखा जाता है । २ दूसरी बात यह है कि ( सर्वथा) औषधके समान जिनेन्द्र नमस्कार नहीं है, क्योकि, जिस प्रकार निर्विघ्न अग्निके होते हुए न जल सकने योग्य इन्धनो का अभाव - रहता है ( अर्थात सम्पूर्ण प्रकारके इन्धन भस्म हो जाते है), उसी प्रकार उक्त नमस्कारके ज्ञान व ध्यानकी सहायता युक्त होनेपर असाध्य विघ्नोत्पादक कर्मोंका भी अभाव होता है (अर्थात् सब प्रकारके कर्म विनष्ट हो जाते है ) तहाँ ज्ञानध्यानात्मक नमस्कारको उत्कृष्ट, एवं मन्द श्रद्धान युक्त नमस्कारको जघन्य जानना चाहिए। शेष असंख्यात लोकप्रमाण भेदोसे भिन्न नमस्कार मध्यम है। और वे सब समान फलवाले नहीं होते, क्योकि, ऐसा माननेपर अतिप्रसग दोष आता है। पं. का./ता.'वृ./१/६/४ यदुक्त त्वया व्यभिचारो दृश्यते तदप्ययुक्त । कस्मादिति चेत। यत्र देवतानमस्कारदानपूजादिधर्मे कृतेऽपि विघ्नं भवति तत्रेदं ज्ञातव्य पूर्व कृतपापस्यैव फलं तत् न च धर्मदूषणं, यत्र पुनर्देवतानमस्कारदानपूजादिधर्माभावेऽपि निर्विघ्न दृश्यते तत्रेदं ज्ञातव्यं पूर्व कृतधर्मस्यैव फलं तत् न च पापस्य । - आपने जो यह कहा है कि (मंगल करने या न करनेपर भी निर्विघ्नताका अभाव या सद्भाव दिखायी देनेसे) तहाँ व्यभिचार दिखायी देता है, सो यह
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मंगल
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मंडप भूमि
कहमा अयुक्त है, क्योकि, जहाँ देवतानमस्कार दान पूजादि रूप धर्मके करनेपर भी विघ्न होता है वहाँ वह पूर्वकृत पापका ही फल जानना चाहिए, धर्मका दोष नहीं। और जहाँ देवतानमस्कार दानपूजादिरूप धर्मके अभावमे भी निर्विघ्नता दिखायी देती है, वहाँ पूर्वकृत धर्मका ही फल जानना चाहिए, पापका अर्थात् मगल न करनेका नहीं।
७. मंगल करनेसे निर्विघ्नता कैसे ५. का./ता वृ./१/५/२६ किमर्थं शास्त्रादौ शास्त्रकारा' मङ्गलार्थ परमेष्ठिगुणस्तोत्रं कुर्वन्ति यदेव शास्त्र प्रारब्धं तदेव कथ्यता मङ्गलप्रस्तुतं । न च वक्तव्यं मङ्गलनमस्कारेण पुण्य भवति पुण्येन निर्विघ्न भवति इति । कस्मान्न बक्तव्यमिति चेत् । व्यभिचारात । तदप्ययुक्तं । कस्मात् । देवतानमस्कारकरणे पुण्यं भवति तेन निर्विघ्नं भवतीति तर्कादिशास्त्रे व्यवस्थापितवाद। -प्रश्न-शास्त्रके आदि मे शास्त्रकार मंगलार्थ परमेष्ठीके गुणोका स्तवन क्यों करते हैं, जो शास्त्र प्रारम्भ किया है वही मंगलरूप है। तथा 'मंगल करनेसे पुण्य होता है और पुण्यसे निर्विघ्नताकी प्राप्ति होती है ऐसा भी नही कहना चाहिए क्योकि उसमें व्यभिचार देखा जाता है। उत्तर-यह कहना अयुक्त है क्योकि, देवतानमस्कार करनेसे पुण्य और पुण्यसे निर्विघ्नताका होना तर्क आदि विषयक अनेक शास्त्रोमें व्यवस्थापित किया गया है।
८. लौकिक मंगलोंको मंगल कहनेका कारण पं. का./ता वृ./१/१/१५ पर उद्धृत-वयणियमसंजमगुणेहि साहिदो जिणवरेहि परमट्ठो। सिद्धा सण्णा जेसि सिद्धत्था मंगलं तेण ।२। पुण्णा मणोरहेहि य केवलणाणेण चावि संपुण्णा। अरहता इदि लोए सुमगलं पुण्णकुभो दु।३। णिग्गमणपसम्हि य इह चउवीसपि बदणीज्जा ते। वदणमालेत्ति कया भरहेण य मगलं तेण।४। सव्यजण णिव्वुदियरा छत्तायारा जगस्स अरहता। छत्तायारं सिद्धित्ति मगलं तेण छत्त तं। सेदो वण्णो माणं लेस्सा य अघाइसेसम्म च। अरुहाणं इदि लोए सुमंगलं सेदवण्णो दु ।६। दीसइ लोयालोओ केवलणाणेण तहा जिणिदस्स। तह दोसइ मुकुरे बिबुमंगल तेण त मुणह 19 जह वीयरायसव्वणहु जिणवरो मंगल हवइ लोए । यरायबालकण्णा तह मंगलमिह विजाणाहि ।८। कम्मारिजिणेविणु जिणबरे हि मोक्नु जिणहिवि जेण । जं चउरउअरिबल जिणइ मंगलु बुच्चइ तेण है। बत, नियम, सयम आदि गुणोके द्वारा साधित जिनवरोंको ही समस्त अर्थ की सिद्धि हो जानेके कारण, परमार्थ से सिद्ध संज्ञा प्राप्त है। इसीलिए सिद्धार्थ (पीली सरसो) को मगल कहते है १२। अरहंत भगवान् सम्पूर्ण मनोरथोंसे तथा केवलज्ञानसे पूर्ण है, इसीलिए लोकमे पूर्णकलशको मंगल माना जाता है ।३। क्योकि द्वारसे बाहर निकलते हुए तथा उसमें प्रवेश करते हुए २४ तीर्थंकर वन्दनीय होते है, इसीलिए भरत चक्रवर्तीने २४ कलियोवाली वन्दनमालाको रचना की थी। इसीसे वह मंगलरूप समझी जाती है।४। जगतके सर्व जीवोको मुक्ति दिलानेके लिए अरहंत भगवान छत्राकार है अर्थात् एक मात्र आश्रय है। अत. सिद्धि छत्राकार है
और इसीसे छत्रको मंगल कहा जाता है ।। अरहंत भगवाचका ध्यान, लेश्या व शेष अघाती कर्म ये सब क्योकि श्वेतवर्ण के अर्थात शुक्ल होते है, इसीलिए लोकमे श्वेतवर्णको मगल समझा जाता है।६। जिनेन्द्र भगवान्को केवलज्ञानमें जिस प्रकार समस्त लोकालोक दिखाई देता है, उसी प्रकार दर्पणमें भी उसके समक्ष रहनेवाले दूर व निकटके समस्त छोटे व बडे पदार्थ दिखाई देते है, इसीलिए दर्पणको मगल जानो।७। जिस प्रकार वीतराग सर्वज्ञ जिनेन्द्र भगवान् लोकमें मगलरूप है, उसी प्रकार 'हय राय' अर्थात उत्तम जातिका घोडा और हय राय बालकन्या अर्थात् रागद्वेषरहित सरल चित्त
बालकन्या भी मंगल है। क्योकि 'हय राय' इस शब्दका अर्थ हतराग भी है और उत्तम घोडा भी।। क्योकि कर्मरूपी शत्रुओकोजीतकर ही जिनेन्द्र भगवान् मोक्षको प्राप्त हुए है इसीलिए शत्रुसमूह पर जीतको दर्शानेवाला चमर मगल कहा जाता है।
९. मिथ्यादृष्टि आदि समी जीवों में कथंचित् मंगलपना घ, १/१,१,१/३६-३८ एकजीवापेक्षया अनाद्यपर्यवसित साद्यपर्यवसित सादिसपर्यवसितमिति त्रिविधम् । कथमनाद्यपर्यवसिता मङ्गलस्य। द्रव्यार्थिकनयार्पणया। तथा च मिथ्यादृष्ट्यवस्थायामपि मगलत्वं जीवस्य प्राप्नोतीति चेन्नैष दोष. इष्टत्वात् । न मिथ्याविरतिप्रमादाना मङ्गलव तेषां जीवत्वाभावात् । जीवो हि मङ्गलम् स च केवलज्ञानाद्यनन्तधर्मात्मक । न छद्मस्थज्ञानदर्शनयोरल्पत्वादमगलत्वमेकदेशस्य माङ्गल्याभावे तद्विश्वावयवानामप्यमङ्गलस्वप्राप्ते । -एक जीवकी अपेक्षा मंगलका अवस्थान अनादि अनन्त, सादि अनन्त और सादि सान्त इस प्रकार तीन भेद रूप है। प्रश्न-अनादिसे अनन्तकाल तक मगल होना कैसे सम्भव है। उत्तर-द्रव्यार्थिक नयकी प्रधानतासे । प्रश्न-इस तरह तो मिथ्यादृष्टि अवस्थामें भी जीवको मगलपनेकी प्राप्ति हो जायेगी। उत्तर-यह कोई दोष नहीं है, क्योकि, यह हमे इष्ट है । परन्तु ऐसा माननेपर भो मिथ्यात्व अविरति, प्रमाद आदिको मगलपना सिद्ध नहीं हो सकता है, क्योकि, उनमे जीवस्य नहीं पाया जाता है। मंगल तो जीव ही है, और वह जीव केवलज्ञानादि अनन्त धर्मात्मक है। छद्मस्थके ज्ञान और दर्शन अल्प होने मात्रसे अमगल नही हो सकते है, क्योंकि ज्ञान और दर्शनके एक्देश मात्रमें मगलपनेका अभाव स्वीकार कर लेनेपर ज्ञान और दर्शनके सम्पूर्ण अवयवों अर्थात् केवलज्ञान व केवलदर्शनको भी अमगल मानना पडेगा। दे०ज्ञान/1/४/२.५ और सामान्य ज्ञान सन्तानकी अपेक्षा छद्मस्थ जीवोमें भी केवलज्ञानका सद्भाव माननेमें कोई विरोध नहीं आता। उनके मति ज्ञान आदि तथा चक्षुदर्शनादि भी ज्ञान व दर्शन सामान्यकी हो अवस्था विशेष होनेके कारण मगलीभूत केवलज्ञान व केवलदर्शनसे भिन्न नही कहे जा सकते। और इस प्रकार भले ही मिथ्यादृष्टि जीवके ज्ञान व दर्शनको मगलपना प्राप्त हो जाय, पर उसके मिथ्यात्व अविरति आदिको मगलपना नहीं हो सकता। मिथ्यादृष्टिके ज्ञान व दर्शनमें मगलपना असिद्ध भी नही है, वयोकि, जिस प्रकार सम्यगदृष्टिके ज्ञान व दर्शनमें पापक्षयकारीपना पाया जाता है, उसी प्रकार मिथ्यावृष्टि के ज्ञान व दर्शनमें भी पापक्षयकारीपना पाया जाता है।
मंगला- एक विद्या (दे० विद्या)। मंगलाचरण-(दे० मगल)। मंगलावती-१ पूर्व विदेहका एक क्षेत्र-दे० लोक५/२।२ पूर्व विदेहस्थ आत्माजन वक्षारका एक कूट व उसका रक्षक देव-दे०
लोक/२/४ ! मंगलावतं-१.सौमनस पर्वतका एक कूट व उसका रक्षक देव
-दे० लोक ३/४४२. पूर्व विदेहका एक क्षेत्र-दे० लोका१/२ ।
जूषा-पूर्व विदेहके मंगलावर्त या लागलावर्त देशकी प्रधान ___ नगरी-दे० लोक/५/२। मंडन मिश्र-१, एक बौद्ध विद्वान् । समय-ई० ६१५-६६०। (सि. वि 14/३/प', महेन्द्र कुमार)। २. मीमासा दर्शन व वेदान्त दर्शनके भाष्यकार-दे० मीमासा दर्शन व वेदान्त । मडप भूमि-समवशरणकी आठवीं भूमि-दे० समवशरण ।
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मंडल
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मंत्र
मंडल-१. प्राणायाम सम्बन्धी चार मण्डलोका निर्देश-दे० प्राणायाम । २.प्राणायाम सम्बन्धी अग्निमण्डल, आकाश मण्डल
-दे० वह वह नाम । मंडलीक-राजाकी एक उपाधि-दे० राजा। मंडलीक वायु-दे० वायु। मंडित-विजयार्धकी दक्षिण श्रेणीका एक नगर। -दे० विद्याधर । मंत्र-मन्त्रशक्ति सर्वसम्मत है । णमोकार मन्त्र जैनका मूलमन्त्र है।
मन्त्र सामान्य निर्देश मन्त्र तन्त्रकी शक्ति पौद्गलिक है। मन्त्र शक्तिका माहात्म्य । मन्त्र सिद्धि तथा उसके द्वारा अनेक चमत्कारिक कार्य होनेका सिद्धान्त-दे० ध्यान/२/४,५ । मन्त्र तन्त्र आदिकी सिद्धिका मोक्षमार्गमें निषेध । साधुको आजीविका करनेका निषेध । परिस्थितिवश मन्त्रप्रयोगकी आज्ञा । | पूजाविधानादिके लिए सामान्य मन्त्रोंका निर्देश ।। गर्भाधानादि क्रियाओंके लिए विशेष मन्त्रोंका निर्देश । पूजापाठ आदिके लिए कुछ यन्त्र - दे० यन्त्र। ध्यान योग्य कुछ मन्त्रोंका निर्देश -दे० पदस्थ । मन्त्रमें स्वाहाकार नहीं होता -दे० स्वाहा।
२. मन्त्र शक्तिका माहात्म्य गो जी./जी. प्र./१८४/४१६/१८ अचिन्त्य हि तपोविद्यामणिमन्त्रौषधिशत्यतिशयमाहात्म्यं दृष्टत्वभावत्वात्। स्वभावोऽतर्कगोचर इति समस्तवादिस यतत्वात्। -विद्या, मणि, मन्त्र, औषध आदिकी अचिन्त्य शक्तिका माहात्म्य प्रत्यक्ष देखनेमे आता है। स्वभाव तर्कका विषय नही, ऐसा समस्त वादियोंको सम्मत है।
३. मन्त्र तन्त्र आदिकी सिद्धिका मोक्षमार्गमें निषेध र. सा./१०६ जोइस विज्जामत्तोपजीणं वा य वस्सवबहार। धणधण्णपडिग्गहणं समणाण दूसण होइ।१०४ -जो मुनि ज्योतिष शास्त्रसे वा किसी अन्य विद्यासे वा मन्त्र तन्त्रोसे अपनी उपजीविका करता है, जो वैश्योकेमे व्यवहार करता है और धनधान्य आदि सबका ग्रहण करता है वह मुनि समस्त मुनियोको दूषित करनेवाला है। ज्ञा, ४/५२-५५ वश्याकर्षण विद्वेषं मारणोच्चाटन तथा । जलानल विषस्तम्भो रसकर्म रसायनम् ।५२! पुरक्षोभेन्द्रजाल च बलस्तम्भो जयाजयो। विद्याच्छेदस्तथा वेध ज्योतिनि चिकित्सितम् ॥५३॥ यक्षिणीमन्त्रपाताल सिद्धय. कालवब्चना । पादुकाउजननिस्त्रिशभूतभोगीन्द्रसाधन ।।४। इत्यादिविक्रियामरजितैर्दुष्टचेष्टितै । आत्मानमपि न ज्ञात नष्ट लोकद्वयच्युते ।। -वशीकरण, आकर्षण, विद्वेषण, मारण, उच्चाटन, तथा जल अग्नि विष आदिका स्तम्भन, रसकर्म, रसायन ।।२। नगर में क्षोभ उत्पन्न करना, इन्द्रजालसाधन, सेनाका स्तम्भन करना, जीतहारका विधान बताना, विद्याके छेदनेका विधान साधना, वेधना, ज्योतिषका ज्ञान, वैद्यकविद्यासाधन ।५३। यक्षिणीमन्त्र, पाताल सिद्धिके विधानका अभ्यास करना, काल व चना (मृत्यु जीतनेका मन्त्र साधना), पादुकासाधन (खडाऊँ पहनकर आकाश या जलमे बिहार करनेकी विद्याका साधन) करना, अदृश्य होने तथा गड़े हुए धन देखनेके अजनका साधना, शस्त्रादिका साधना, भूतसाधन, सर्पसाधन ॥५४॥ इत्यादि विक्रियारूप कार्यों में अनुरक्त होकर दुष्ट चेष्टा करनेवाले जो है उन्होने आत्मज्ञानसे भी हाथ धाया और अपने दोनो लोकका कार्य भी नष्ट किया। ऐसे पुरुषोके ध्यानको सिद्धि हाना कठिन है ।५५॥ ज्ञा./४०/१० शुद्रध्यानपरप्रपञ्च चतुरा रागानलोद्दीपिता, मुद्रामण्डलयन्त्रमन्त्रकरण राराधयन्त्याद्वता । कामक्रोधवशीकृतानिह सुरात् ससार सौख्यार्थिनो, दुष्टाशाब्रिहता पतन्ति नरके भोगातिभिर्वचिता ।१०। - जो पुरुष खोटे ध्यानके उत्कृष्ट प्रपचोको विस्तार करनेमे चतुर है वे इस लोकमे रागरूप अग्निसे प्रज्वलित होकर मुद्रा, मण्डल, यन्त्र, मन्त्र, आदि साधनोके द्वारा कामक्रोधसे वशीभूत कुदेवो का आदरसे आराधन करते है। सो, सांसारिक सुखके चाहनेवाले और दुष्ट आशासे पीडित तथा भोगोकी पीडासे वचित होकर वे नरकमे पडते है ।१०। और भी दे०--मन्त्र, तन्त्र, ज्योतिष आदि विद्याओका प्रयोग करनेबाला साधु ससक्त है (दे० ससक्त), वह लौकिक है (दे० लौकिक)। आहारके दातारको मन्त्र तन्त्रादि बताना साधुके आहारका मन्त्रोपजोगी नामका एक दोष है। (दे० आहार/II/४)। इसी प्रकार वसतिकाके दातारको उपरोक्त प्रयोग बताना वसतिकाका मन्त्रोपजीवी नामक दोष है । (दे० वसतिका)।
४. साधुको आजीविका करनेका निषेध ज्ञा /१६-१७ यतित्वं जीवनोपाय कुर्वन्त कि न लज्जित' । मातु पण्य मिवालम्ब्य यथा केचिद्गतघृणा १६ निस्नपा कर्म कुर्वन्ति यतित्वेऽप्यतिनिन्दितम् । ततो विराध्य सन्मार्ग विशन्ति नरकोदरे १५७/- कई निदय निर्लज्ज साधुपनमे भी अतिशय निन्दा योग्य कार्य करते है। वे समीचीन मार्ग का विरोध करके नरक मे
णमोकार मन्त्र | णमोकारमन्त्र निर्देश। णमोकारमन्त्रके वाचक एकाक्षरी आदि मन्त्र
- दे० पदस्थ। णमोकारमन्त्रका माहात्म्य। -दे० पूजा/२/४ । | णमोकारमन्त्रका इतिहास। णमोकारमन्त्रकी उच्चारण व ध्यान विधि । मन्त्रमें प्रयुक्त 'सर्व' शब्दका अर्थ। चत्तारिदण्डकमें 'साधु' शब्दसे आचार्य आदि तीनोंका ग्रहण। | अर्हतको पहिले नमस्कार क्यों ? आचार्यादि तीनोंमें कथचित् मेद व अभेद
--दे० साधु/६।
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१. मन्त्र सामान्य निर्देश
१. मन्त्र तन्त्रकी शक्ति पौद्गलिक है ध, १३/५,५,८२/३४८/८ जोणिपाहुडे भणिदमत-ततसत्तीयो पोग्गलाणुभागो त्ति घेत्तव्यो। -योनिप्राभृतमे कहे गए मन्त्र तन्त्र रूप शक्तियोका नाम पुद्गलानुभाग है।
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मंत्र
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प्रवेश करते हैं। जेसे कोई अपनी माताको वेश्या बनाकर उससे धनोपार्जन करते है, तैसे ही जो मुनि होकर उस मुनिदीक्षाको जीवनका उपाय बनाते है और उसके द्वारा धनोपार्जन करते है वे अतिशय निर्दय तथा निर्लन हैं ६-५
५. परिस्थिति वश मंत्र प्रयोगकी आज्ञा
भ.आ./वि / ३०६/५२०/१७ स्तेनैरुपद्रूयमाणानां तथा श्वापदे, दुष्टैर्वा भूमिपाले नदीरोधकै मार्या च तदुपद्रवनिरासः विद्यादिभि वैयावृत्यमुक्तम्। जिन मुनियोंको चोरसे उपद्रव हुआ हो, दृष्ट पशुओंसे पीड़ा हुई हो, दुष्ट राजासे कष्ट पहुँचा हो, नदीके द्वारा रुक गये हों, भारी रोगसे पीडित हो गये हो, तो उनका उपद्रव विद्यादिकोंसे नष्ट करना उनकी वृति है।
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६. पूजाविधानादिके लिए सामान्य मन्त्रोंका निर्देश म.पू. /४०/ श्लो. नं. का भावार्थ- निम्नलिखित मन्त्र सामान्य है क्योंकि सभी क्रियाओं में काम आते हैं- १११११. भूमिशुद्धिके लिए 'नीरजसे नम || विघ्नशान्तिके लिए 'दर्पमथनाय नम" |६| और तदनन्तर गन्ध, पुष्प, अक्षत, धूप, दीप, और नैवेद्य द्वारा भूमिका संस्कार करनेके लिए क्रमसे-शीलगन्धाय नमः, विमलाय नमः अक्षताय नमः, श्रुतधूपाय नमः ज्ञानोद्योताय नमः परमसिद्धाय नम ये मन्त्र बोल बोल वह वह पदार्थ चढावे ॥७-१०। २. तदनन्तर पीठिकामन्त्र पढे-सत्यजाताय नमः, अर्हज्जाताय नमः |११| परमजाताय नमः, अनुपमजाताय नमः | १२| स्वप्रधानाय नमः, अचलाय नमः, अक्षयाय नम, ११३। अव्याबाधाय नमः, अनन्तज्ञानाय नम अनन्तवीर्याय नम, अनन्तसुखाय नमः, नीरजसे नमः, निर्मलाय नम अच्छेद्याय नम, अभेद्याय नमः, अजराय नमः, अप्रमेयाय नमः, अगर्भवासाय नमः, अक्षोभ्याय नमः, अविलोनाय नम परमघनाय नम 1१४-१७। परमकाठयोगाय नमो नमः | १८ | लोकाग्रवासिने नमो नमः, परम सिचेभ्यो नमो नमः अर्हसिधेभ्यो नमो नमः ॥ १६॥ केवलसि नमो नमः अन्त कृतिसम्यो नमो नमः, परम्पर सिम्यो नमः, अनादिपरम्परसिद्धेभ्यो नमः अनाद्यनुपम सिधेभ्यो नमो नम', सम्यग्दृष्टे सम्यग्दृष्टे आसन्नभव्य आसन्नभव्य निर्वाणपूजार्ह, निर्वाणपूजार्ह अग्नीन्द्र स्वाहा ।२०- २३ | ३. ( इसके पश्चात् काम्यमंत्र बोलना चाहिए ) सेवाफर्त पट्परमस्थानं भवतु अपमृत्यु विनाशन भवतु, समाधिमरणं भवतु । २४-२५।४. तत्पश्चात् क्रमसे जातिमन्त्र, निस्तारकमंत्र ऋषिमन्त्र, सुरेन्द्रमन्त्र, परमराजादि मन्त्र, परमेष्ठी मन्त्र, इन छ प्रकारके मन्त्रोका उच्चारण करना चाहिए । ४. जातिमन्त्र - सत्यजन्मन शरण प्रपद्यामि, अर्हज्जन्मन' शरणं प्रपद्यामि अर्हम्मातु शरणं प्रपद्यामि अमृतत्व शरणं प्रपद्यामि, अनादिगमनस्य शरणं प्रपद्यामि अनुपमजन्मन शरणं प्रपद्यामि, रत्नत्रयस्य शरण प्रपद्यानि सम्यष्टे सम्यम्ष्टे ज्ञानमूर्ते ज्ञानमूर्ते सरस्वति सरस्वति स्वाहा, सेवाफल परमस्थानं भवतु अपमृत्युदिनाशन भवतु, समाधिमरण भवतु । २७-३०।५ निस्तारकमन्त्रसत्यजाताय स्वाहा, अर्ह ज्जाताय स्वाहा, षट्कर्मणे स्वाहा, ग्रामयतये स्वाहा, अनादिश्रोत्रियाय स्वाहा, स्नातकाय स्वाहा, श्रावकाय स्वाहा, देवब्राह्मणाय स्वाहा, सुब्राह्मणाय स्वाहा, अनुपमाय स्वाहा, सम्यदृष्टे सम्यन्दष्टे निधिनिधि मण व स्वाहा, सेवाफले पट् परमस्थानं भवतु, अपमृत्यु विनाशन भवतु समाधिमरणं भवतु । ( ३१-३७ ) ६. ऋषि मन्त्र - सत्यजाताय नम अर्हज्जाताय नम निर्ग्रन्थाय नम, वीतरागाय नम महाव्रताय नम त्रिगुप्ताय नम महायोगाय नमः, विविध योगाय नम, विविधर्द्धये नम, अङ्गधराय नम', पूर्वधराय नमः, गणधराय नमः, परमर्षिभ्यो नमो नम: अनुपमजाताय नमो नमः, सम्यग्दृष्टे सम्यग्दृष्टे भूपते भूपते नगरपते नगरपते
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१. मंत्र सामान्य निर्देश
कालश्रमण कालभ्रमण स्वाहा, सेवा फलं षट्परमस्थानं भवतु, अपमृत्युविनाशन भवतु समाधिमरणं भवतु ॥१८-४६ । ७. सुरेन्द्रमन्त्रसत्यजाताय स्वाहा, अर्हज्जाताय स्वाहा, दिव्यजाताय स्वाहा, दिव्याचिताय स्वाहा नेमिनाथाय स्वाहा, सौधर्माय स्वाहा कल्पाधि पतये स्वाहा, अनुचराय स्वाहा, परम्परेन्द्राय स्वाहा. अहमिन्द्राय स्वाहा, परमार्हताय स्वाहा. अनुपमाय स्वाहा, सम्यग्दृष्टे सम्यग्दृष्टे कम्पपते कल्पपते दिव्यमूर्ते दिव्यमूर्ते मचनागत वज्रनाम स्वाहा. सेवाफत पर परमस्थानं भवतु, अपमृत्युविनाशन भवतु समाधिमरणं भवतु ॥४०-५५ परमराजादिमन्त्रयजाताय स्वाहा. ज्याताय स्वाहा, अनुपमेन्द्राय स्वाहा, विजयार्थाय स्वाहा नेमिनाथाय स्वाहा, परमजाताय स्वाहा, परमार्हताय स्वाहा, अनुपमाय स्वाहा, सम्यग्दृष्टे सम्यग्दृष्टे उग्रतेज उग्रतेजः दिशांजय दिशाजय नेमिविजय नैमिविजय स्वाहा, सेवाफल पट्परमस्थानं भवतु अपमृत्युविनाशनं भवतु, समाधिमरणं भव ॥६-६२६. परमेष्ठी मन्त्रसत्यजाताय नमः, अर्हज्जाताय नम, परमजाताय नमः, परमार्हताय नम, परमरूपाय नमः परमतेजसे नमः परमगुणाय नम परमयोगिने नमः, परमभाग्याय नमः, परमर्द्धये नम, परमप्रसादाय नमः, परमकांक्षिताय नम', परमविजयाय नम', परमविज्ञाय नम', परमदर्शनाय नमः परमवीर्याय नमः परमसुखाय नम', सर्वज्ञाय नमः, अर्हते नमः, परमेष्ठिने नमो नमः, परमनेत्रे नमो नम सम्यग्दृष्टे सष्टेनोविजय त्रिलोकविजय धर्ममूर्ते धर्मधर्मनेमे धर्मनेने स्वाहा, सेमाफलं षट्परमस्थान भवतु अपमृत्युविनाशनं भवतु समाधिमरणं भवतु ॥३-०६ १० पीठिका मन्त्रसे परमेष्ठीमन्त्र तकके ये उपरोक्त सात प्रकारके मन्त्र गर्भाधानादि क्रियाएँ करते समय क्रियामन्त्र, गणधर कथित सूत्र में साधनमन्त्र, और देव पूजनादि नित्य कर्म करते समय आहुति मन्त्र कहलाते है | ७८-७
१
०. गर्भाधानादि क्रियाओंके लिए विशेष मन्त्रोंका निर्देश
म.पू. /४०/ श्लोक नं. का भावार्थ- गर्भाधानादि क्रियायो (दे संस्कार)
में से प्रत्येक में काम आनेवाले अपने अपने जो विशेष मन्त्र है वे निम्न प्रकार है । ६१ । १. गर्भाधान क्रियाके मन्त्र - सज्जातिभागी भव, सद्गृहिभागी भव, मुनीन्द्रभागी भव, सुरेन्द्रभागी भव, परमराज्यभागी भय, आईस्यभागी भय, परम निर्वाणभागी भव २२२-६५२ पीति क्रियाके मन्त्र-लोक्यनाथ भग, काव्यज्ञानी भव, त्रिरत्नस्वामी भव । ६६ । ३, सुप्रीति क्रियाके मन्त्र - अवतारकव्यभागी शव मन्दरेन्द्राभिषेक कल्याणभागी भय, निष्क्रान्तिकल्याणभागी भव, आर्हन्त्यकल्याणभागी भव, परमनिर्वाणकल्याणभागी भव । १७-१००१ ४. धृति क्रियाके मन्त्र-सज्जातिदातृभागीभव. सद्गृहिदातृभागी भव, मुनीन्द्रदातृभागी भव, सुरेन्द्रदातृभागी भव, परमराज्यदातृभागी भव, आर्हन्त्यदातृभागी भय परमनिवदिमागी भव १९१०१२ मोदक्रिया के मन्त्रसज्जाति कल्याणभागी भव, सद्गृहिकल्याणभागी भव. वैवाहकल्याणभागी भव, मुनोन्द्र कल्याणभागी भव, सुरेन्द्रकन्याणभागी भव, मन्दराभिषेककल्याणभागी भय यौवराज्यभागी भ महाराज्यकल्याणभागी भव, परमराज्य कल्याणभागी भव, आर्हन्त्यकल्याणभागी भव । १०२-१०७१ ६. प्रियोद्भव क्रियाके मन्त्र- दिव्यनेमिविजयाय स्वाहा, परमनेमिविजयाय स्वाहा, आर्हन्त्यनेमिविजयाय स्वाहा ।१०८ १०६ । ७ जन्म सस्कार क्रियाके मन्त्र - योग्य आशीर्वाद आदि देनेके पश्चात् निम्न प्रकार मन्त्र प्रयोग करेनाभिनाल काटते समय - घातिजयो भव' उबटन लगाते समय'हे जात, श्रीदेव्य ते जातिक्रियां कुर्वन्तु' स्नान कराते समय - त्वं मन्दराभिषेकार्हो भव' सिरपर अक्षत क्षेपण करते समय 'चिर जीव्या
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२. णमोकार मंत्र
सिरपर घी क्षेपण करते समय-'नश्यात् कर्ममलं कृत्स्नं'; माताका स्तन मुंह में देते समय-"विश्वेश्वरीस्तन्यभागी भूया, गर्भमलको भूमिके गर्भ में रखते समय-'सम्यग्दृष्टे सम्यग्दृष्टे सर्वमात' सर्वमात' बसुन्धरे वसुन्धरे स्वाहा, त्वत्पुत्रा इव मवपुत्रा' चिरंजीविनीभूयास:' माताको स्नान कराते समय-'सम्यग्दृष्टे सम्यग्दृष्टे आसन्नभव्ये विश्वेश्वरि विश्वेश्वरि ऊजितपुण्ये ऊजितपुण्ये जिनमात जिनमात' स्वाहा,'बालकको ताराओसे व्याप्त आकाशका दर्शन कराते समय'अनन्तज्ञानदी भव ।११०-१३१॥ ८. नामकर्म क्रियाके मन्त्र'दिव्याष्टसहस्रनामभागी भव', विजयाष्टसहस्रनामभागी भव, परमाष्टसहस्रनामभागी भव ।१३२-१३३। ६. बहिर्यान क्रियाके मन्त्रउपनयनिष्क्रान्तिभागी भव, वैवाहनिष्क्रान्तिभागी भव, मुनीन्द्रनिष्क्रान्तिभागी भव, सुरेन्द्रनिष्क्रान्तिभागी भव, मन्दराभिषेकनिष्क्रान्तिभागी भव, यौवराज्यनिष्क्रान्तिभागी भव, महाराज्यनिक्रान्तिभागी भव, परमराज्यनिष्कान्तिभागी भव, आईत्यनिष्क्रान्तिभागी भव ।१३४-१३६। १० निषधा क्रियाके मन्त्र-- दिव्यसिंहासनभागी भव, विजयसिंहासनभागी भव, परमसिंहासनभागी भव ११४०। ११. अन्नप्राशन क्रियाके मन्त्र-दिव्यामृतभागी भव, विजयामृतभागी भव, अक्षीणामृतभागी भव ।१४११४२२१२, ध्युष्टिक्रियाके मन्त्र-उपनयमजन्मवर्षवर्धनभागी भव, वैवाहनिष्ठवर्ष बर्द्धनभागी भव, मुनीन्द्रजन्मवर्षवर्द्धनभागी भव, सुरेन्द्रजन्मवर्षवर्द्धनभागी भव, मन्दराभिषेकवर्षवर्धनभागी भव, यौवराज्यवर्षवर्द्धनभागी भव, महाराज्यवर्षवर्द्धनभागी भव, परमराज्यवर्षवर्द्धनभागी भव, आर्हन्त्यराज्यवर्षवर्धनभागी भव ।१४३१४६। १३ चौल या केशक्रियाके मन्त्र-उपनयनमुण्डभागी भव, निग्रन्थमुण्डभागी भव, निष्क्रान्तिमुण्डभागी भव, परमनिस्तारककेशभागी भव, परमेन्द्रकेशभागी भव, परमराज्यकेशभागी भव, आर्हन्त्यराज्यकेशभागी भव । १४०-१५१३ १४.लिपिसंरख्यान क्रियाके मन्त्र--शब्दपारगामी भव, अर्थपारगामी भव, शब्दार्थपारगामी भव ।१५२॥ १५. उपनीति क्रियाके मन्त्र--परमनिस्तारकलिङ्गभागी भव, परमर्षिलिङ्गभागी भव, परमेन्द्रलिङ्गभागी भव, परमराज्यलिङ्गभागी भव, परमार्हन्त्यलिङ्गभागी भव, परमनिर्वाणलिङ्गभागी भव । १६. व्रत चर्या आदि आगेको क्रियाओंके मन्त्र-शास्त्र परम्पराके अनुसार समझ लेने चाहिए ।२१७१
प्रथम खण्डके कर्ता आचार्य पुष्पदन्तकी रचना मानना इष्ट है। यहाँ यह भी नही कहा जा सकता कि सम्भवतः आचार्य पुष्पदन्तने इस सूत्रको कही अन्यत्रसे लेकर यहाँ रख दिया है और यह उनकी अपनी रचना नहीं है, क्योकि, इसका स्पष्टीकरण ध १/४,१,४४/१०३/४ पर की गयी चर्चासे हो जाता है। वहाँ धवलाकारने ही उस ग्रन्थके आदिमें निबद्ध णमो जिणाणं' आदि चवालीस मगलात्मक सूत्रोंको निबद्ध मंगल स्वीकार करनेमें विरोध बताया है, और उसका हेतु दिया है यह कि वे सूत्र महाकर्म प्रकृतिप्राभृतके आदिमें गौतम स्वामीने रचे थे, वहाँसे लेकर भूतबलि भट्टारकने उन्हे वहाँ लिख दिया है। यद्यपि पुन धवलाकारने उन सूत्रोको वहाँ निबद्ध मंगल भी सिद्ध करनेका प्रयत्न किया है, और उसमे हेतु दिया है यह कि दोनोंका एक ही अभिप्राय होनेके कारण गौतम स्वामी और भूतबलि क्योकि एक ही है, इसलिए वे सूत्र भूतबलि आचार्य के द्वारा रचित ही मान लेने चाहिए। परन्तु उनका यह समाधान कुछ युक्त प्रतीत नहीं होता। अत: निबद्ध मगल वत्तार धवलाकारने इस णमोकार मन्त्रको पुष्पदन्त आचार्यकी मौलिक रचना स्वीकार की है। (ध. २/प्र. ३४-३५/ H. L. Jain. २. श्वेताम्बराम्नायके 'महानिशोथ सूत्र/अध्याय ५' के अनुसार 'पचममंगलसूत्र' सूत्रत्यकी अपेक्षा गणधर द्वारा और अर्थकी अपेक्षा भगवान् वीर द्वारा रचा गया है। पीछेसे श्री बडूरसामी (वैरस्वामी या वज्रस्वामी) ने इसे वहाँ लिख दिया है। महानिशीथ सूत्रसे पहलेकी रची गयी, श्वेताम्बराम्नायके आवश्यक, दशवैकालिक, उत्तराध्ययन और पिण्डनियुक्ति नामक चार मूल सूत्रोकी, भद्रबाहुस्वामी कृत चूणिकाओमे णमोकार मन्त्र पाया जाता है। इससे संभावना है कि यही णमोकार मंत्र महानिशीथ सूत्रमे पंच मगलसूत्रके नामसे निर्दिष्ट है और वह वज्रसूरिसे बहुत पहलेको रचना है। (ध. २/प्र. ३६/H L Jain) ३. श्वेताम्बराम्नायके अत्यन्त प्राचीन भगवतीसूत्र नामक मूल ग्रन्थमैं यह पंच णमोकार मन्त्र पाया जाता है, परन्तु वहाँ णमो लोए सव्वसाहूणं' के स्थानपर 'णमो बंभीए लिवीए' ( ब्राह्मी लिपिको नमस्कार ) ऐसा पद पाया जाता है। इसके अतिरिक्त उडीसाको हाथीगुफामे जो कलिग नरेश खारवेल का शिलालेख पाया जाता है
और जिसका समय ईस्वी पूर्व अनुमान किया जाता है, उसमें आदि मंगल इस प्रकार पाया जाता है- णमो अरहताण । णमो सवसिधाण ।' यह पाठ भेद प्रासंगिक है या किसी परिपाटीको लिये हुए है, यह विषय विचारणीय है (ध. २/प्र.४१/१५/HL Jain)। ४. श्वेताम्बराम्नायमें किसी किसीके मतसे णमोकार सूत्र अनार्ष है-(अभिधान राजेन्द्र कोश पृ. १८३५) (ध.२/प्र.४१/२२/H. L. Jain)।
३. णमोकार मंत्रकी उच्चारण व ध्यान विधि अन. ध /8/२२-२३/८६६ जिनेन्द्रमुद्रया गाां ध्यायेत प्रीतिविकस्वरे । हृतपङ्कजे प्रवेश्यान्तनिरुध्य मनसानिलम् ।२२. पृथग् द्विद्वये कगाथाशचिन्तान्ते रेचयेच्छनै । नवकृत्व प्रथोक्त दहत्यह सुधीर्महत् । ।२३। -प्राण वायुको भीतर प्रविष्ट करके आनन्दसे विकसित हृदय कमल में रोक्कर जिनेन्द्र मुद्रा द्वारा णमोकार मन्त्रकी गाथाका ध्यान करना चाहिए । तथा गाथाके दो दो और एक अश का क्रमसे पृथक्पृथक् चिन्तवन करके अन्तमे उस प्राणवायुका धीरे-धीरे रेचन करना चाहिए। इस प्रकार नौ बार प्राणायामका प्रयोग करनेवाला संयमी महान् पापकर्मोको भी क्षय कर देता है। पहले भागमें (श्वासमें) णमो अरहताण णमो सिद्धाणं इन दो पदोका, दूसरे भागमें णमो आइरियाणं णमो उवज्झायाणं इन दो वदोका तथा तीसरे भागमें णमो लोए सव्वसाहूणं इस पदका ध्यान करना चाहिए । (विशेष/दे० पदस्थ/७१)
२. णमोकार मंत्र
१. णमोकारमंत्र निर्देश ष, ख. १/१.१/सूत्र १/८ णमो अरिहंताण, णमो सिद्धाण, णमो आइरियाणं. णमो उवज्झायाण, णमो लोए सव्वसाहणं ।। इदि - अरिहतोको नमस्कार हो, सिद्धोंको नमस्कार हो, आचार्योंको नमस्कार हो और लोकमें सर्व साधुओंको नमस्कार हो।
२. णमोकार मंत्रका इतिहास ध. १/१,१,१/११/७ इद पुण जीवट्ठाणं णिबद्ध-मंगलं । यतोन्इमेसि चोद्दसण्हं जीवसमासाण इदि एत्तस्स सुत्तस्सादीए णिबद्ध णमोअरिहताण' इच्चादि देवदाणमोकारदसणादो। यह जोवस्थान नामका प्रथम खण्डागम 'निबद्ध मंगल' है, क्योकि, 'इमेसि चोदसण्हं जीवसमासाण' इत्यादि जीवस्थानके इस सूत्रके पहले णमो अरिहंताण' इत्यादि रूपसे देवता नमस्कार निबद्धरूपसे देखने में आता है। नोट-१. इस प्रकार धवलाकार इस मंत्र या सूत्रको निबद्ध मगल स्वीकार करते है। निबद्ध मगलका अर्थ है स्वयं ग्रन्थकार द्वारा रचित (दे० मगल/१/४) अत' स्पष्ट है कि उनको इस मन्त्रको
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मंत्र
8.
मन्त्रमें प्रयुक्त 'सर्व'
शब्दका अर्थ
मू. आ./५१२ णिव्वाणसाधए जोगे सदा जुंजति साधवो । समासव्वेसु भूदेसु तम्हा ते सब्बसाधवा । ५१२ | = निर्वाण के साधनीभूत मूलगुण आदिकमे सर्वकाल अपने आत्माको जोड़ते है और सब जोवोमें समभावको प्राप्त होते है, इसलिए वे सर्वसाधु कहलाते है । घ. १३१.१.२/१२/१ सर्व नमस्कारेष्ववतनसर्वन्नोकशब्दावन्तदीपकत्वादध्याहर्तव्यौ सकलक्षेत्रगत त्रिकाल गोचरार्हदादिदेवताप्रणमनार्थम्
= पाँच परमेष्ठियोको नमस्कार करनेमे, इस नमोकार मन्त्रमें जो 'सर्व' और 'लोक' पद है वे अन्तदीपक है, अत सम्पूर्ण क्षेत्रमे रहनेवाले त्रिकालवर्ती अरिहत आदि देवताओका नमस्कार करनेके लिए उन्हे प्रत्येक नमस्कारात्मक पदके साथ जोड़ लेना चाहिए। (भ. आ./वि./७५४/११८/२१ ) ।
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२४८
५. चत्तारि दण्डकमे 'साधु' शब्दसे आचार्य आदि तीनोंका ग्रहण
भा. पा./ यु. व टी./ १२२ / २०१-२०४ कार्याहि पंच व गुरवे मंगलच सरलोयपरिरिए १२२ उसरलोयपरिरिए मंगललोकोत्तमशरणतामीरमर्थ अर्हम्मगल अर्होकोसमा अच्छ
रणं । सिद्धमंगल सिद्धलोकोत्तमा सिद्धशरण । साधुमंगल साधुलोकोत्तमा साधुशरणं । साधुशब्देनाचार्योपाध्याय साव सम्यन्ते तथा केगल धर्मोकोलमा धर्मशरणं चेति द्वादशमन्त्रा सूचिता' चतुःशब्देनेति ज्ञातव्य | = - 'मंगलचउसरणलोयपरियरिए' इस पदसे मंगल लोकोत्तम, व शरणभूत अर्थ होता है । अथवा 'चउ' शब्द से बारह मन्त्र सूचित होते है । यथाअर्हन्तमगल अन्ततोकोटमा बर्हन्तारण सिद्धमंगलं, सिद्धलोकोसमा सिद्धरण, साधुमगलं साधुलोकोतमा, साधुशरणं और केवलिप्रणीतधर्ममंगल, धर्मलोकोत्तमा, धर्मशरण । यहाँ साधु शब्द से आचार्य उपाध्याय व सर्व साधुका ग्रहण हो जाता है। इस प्रकार पचगुरुओको ध्याना चाहिए।
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६. अहन्तको पहले नमस्कार क्यों
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ध. १/१,१,२/५३/७ विगताशेषलेपेषु सिद्धषु सत्स्वर्हता सलेपनामादौ किमिति नमस्कार क्रियत इति चेन्नैष दोष गुणाधिकसिद्ध पु श्रद्धाधिम्यनिबन्धनत्वाव असत्य व्यासागमपदार्थावगमो न भवेदस्मदादीना, सजातरचैतत्प्रसादादियुपकारापेक्षया नादावहनमस्कारः क्रियते न पक्षपातो दोषाय शुभपते श्रेयहेतुलात अद्वैतप्रधाने गुणीभूतद्वैते द्वैतनिबन्धनस्य पक्षपातस्यानुपपत्तेश्च । आप्तश्रद्धाया आठागमपदार्थ विषयश्रद्धाधिक्यनिबन्धनत्वख्यापनार्थ वार्हतमादी नमस्कार । - प्रश्न - सर्व प्रकार के कर्मलेपसे रहित सिद्ध परमेष्ठी के विद्यमान रहते हुए अघातिया कर्मोक लेपसे युक्त अरिहको आदिमें नमस्कार क्यों किया जाता है। उत्तर-१. यह कोई दोष नहीं है, क्योंकि, सबसे अधिक गुणवाले सिद्धोंमें श्रद्धाकी अधिकताके कारण अरिहंत परमेष्ठी ही है (स्था में / १२ / २२१ / ११) २. अथवा यदि अरिहत परमेष्ठी न होते तो हम लोगोको आठ, आगम, और पदार्थका परिज्ञान नहीं हो सकता था । किन्तु अरिहन्त परमेष्ठीके प्रसादसे हमें इस बोधकी प्राप्ति हुई है। इसलिए उपकारकी अपेक्षा भी आदि में अरिहंतोंको नमस्कार किया जाता है (द्र स / टी १/६/२) । ३. और ऐसा करना पक्षपात दोषोत्पादक भी नहीं है, किन्तु शुभ पक्ष में रहने से वह कल्याणका ही कारण है । ४. तथा द्वैतको गौण करके अद्वैतकी प्रधानता किये गये नमस्कार में ईतमुलक पक्षपात मन भी तो नहीं सकता है (अर्थाद यहाँ परमेष्ठियोके उपक्तियोंको नमस्कार नहीं किया गया है बल्कि उनके गुणोंको नमस्कार किया गया है और उन गुणोकी अपेक्षा पाँचोमे कोई भेद नहीं है )
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मटंब
५.
आसकी श्रद्धासे ही आप्त, आगम और पदार्थोंके विषयमें दृढ श्रद्धा उत्पन्न होती है, इस बातके प्रसिद्ध करनेके लिए भी आदिमें अरिहंतोको नमस्कार किया गया है।
मंत्र न्यास - दे० प्रतिष्ठा विधान ।
मंत्री-त्रि सा / ६८३ /भाषा टीका-मन्त्री कहिए पंचाग मन्त्र विषै प्रवीण ।
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मंत्रोपजीवी- आहारका एक दोष दे० आहार [II/४
।
१.
२ वसतिकाका एक दोष- दे० वसतिका । मंद दे० तीन
मंदप्रबोधिनी- आ० नेमिचन्द सिद्धान्तको महसार पन्ध पर आ०अभय चन्द्र ( ई० श०१३ अन्त) कृत सस्कृत टीका । (जै /१/४६४) । मंदर - १. सुमेरु पर्वतका अपर नाम-३० मुगेरु २, पूर्व पुष्करार्थका मेरु-दे० लोक४/१ ३. पूर्व विदेहका एक वक्षार पर्वत - दे० लोक ५ / ३१ ४ नन्दन बनवा. कुण्डल पर्वतका तथा रुचक पर्वतका कूट - ६० लोक/२/५१२१२५. विजयाषीत्तर श्रेणीका एक नगर ३० विद्याधर . ( म.पू./१/२ नं.) पूर्वभवमेकमवारुणी, पूर्णचन्द्रवैदूर्यदेव यशोधरा कापिष्ठ स्वर्गरुप्रभवे नायुध देव, द्वितीय नरक, श्रीधर्मा, ब्रह्मस्वर्गका देव, जयन्त तथा धरणेन्द्र होते हुए वर्तमानभव में विमलनाथ भगवान् के गणधर हुए
रत्ना
(३१०-३१२) ।
मंदराकार क्षेत्र०/३२ दे० ( ज प / प्र / ३२) । मंदराभिषेक क्रिया - दे० संस्कार/२ ।
मंदरायं-पुन्नाट संघकी गुर्वावलीके अनुसार आप अर्ह दूब लिके शिष्य तथा मित्रवीरके गुरु थे। समय वी नि ५८० ( ई०५३ ) - दे० इतिहास / ०/८
मंदोदरी- - ( प. पु. / सर्ग / श्लो.) दक्षिणश्रेणीके राजा मयकी पुत्री तथा रावणको पटरानी (१)। रावणकी मृत्यु तथा पुत्र आदिके वियोगसे दुखी होकर दीक्षा ले ली। (०८/६४)
मख ---- याग, यज्ञ, ऋतु, पूजा, सपर्या, इज्या, अध्वर, मख, ये सब पूजा विधि पर्यायवाचक शब्द है--दे० पूजा / १/१
मगध - १. भरतक्षेत्र पूर्व
खण्डका एक देश-३० मनुष्य / ४ २. बिहार प्रान्त गगाके दक्षिणका भाग राजधानी पाटलीपुत्र (पटना) गया और उरुविच (बुद्धगया) इसी प्रान्त में है (म. पु. / प्र. ४६ / पं. पन्नालाल ) ।
★ मगधदेशके राज्यवंश (दे० इतिहास / ३/३) । मगधसारनलक विजयाकी श्रेणीका एक नगर-दे० दक्षिण विद्याधर ।
मघवा नरककी छठी पृथिवी अपर नाम तम. प्रभा - दे० नरक / ५ । मघवान् - (म. पु. / ६१ / श्लो. न ) पूर्व भवनं २ में नरपति नामक राजा । ( ६-१० ) । पूर्वभवमें मध्यम ग्रैवेयकमें अहमिन्द्र [१०] तथा वर्तमान भयमे तृतीय चक्रवर्ती ६१ विशेष दे०का पुरुष / २० मघा - एक नक्षत्र - दे० नक्षत्र ।
मघा संवत् ३०हास /२
मटंब ति प /४/१३११ पणयमाणामपामभूदं मनणामं खु जो ५०० ग्रामोंमें प्रधानभूत होता है उसका नाम मटन है। (च. ११/५-२-१२/१३/६) (म. पु. /९६/९०२) (त्र सा०४६०६)
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मणि
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मतिज्ञान
भिज्ञान और तर्क या व्याप्ति ज्ञान उत्पन्न होता है। इन सबोंकी भी मतिज्ञान सज्ञा है। धारणाके पहलेवाले ज्ञान पंचेन्द्रियों के निमित्तसे और उससे आगेके ज्ञान मनके निमित्तसे होते है। तर्कके पश्चात् अनुमानका नम्बर आता है जो श्रुतज्ञानमें गभित है। एक, अनेक, ध्र व, अध व आदि १२ प्रकारके अर्थ इस मतिज्ञानके विषय होनेसे यह अनेक प्रकारका हो जाता है।
भेद व लक्षण मतिज्ञान सामान्यका लक्षण १. मनिका निरुक्त्यर्थ। २. अभिनिबोध या मतिका अर्थ इन्द्रियज्ञान । मतिज्ञानके भेद-अभेद । १ अवग्रह आदिकी अपेक्षा। २. उपलब्धि स्मृति आदिकी अपेक्षा । ३ असख्यात भेद। उपलब्धि, भावना व उपयोग। -दे० वह वह नाम । कुमतिज्ञानका लक्षण।
मणि-१. चक्रवर्तीके १४ रत्नोमेंसे एक-दे० 'शलाका पुरुष/२ । २. शिखरी पर्वतका एक कूट व उसका रक्षक देव-दे० लोक ५/४ ३. रुचक पर्वत व कुण्डल पवतका एक कूट-दे० लोक/५/१२,१३ ४. सुमेरु पर्वतके नन्दन आदिबनोमे स्थित गुफा-दे० लोक:/६ इसका स्वामी सोमदेव है। मणिकांचन-१. विजयाधकी उत्तरश्रेणीका एक नगर-दे० विद्याधर । २ शिखरी व रुक्मि पर्वतका एक एक कूट व उसके रक्षक
देव-दे० लोक/१/४ । मणिकेतु-(म.पु/१८/श्लो, न)-एक देव था। सगर चक्रवर्तीके जीव (देव) का मित्र था।८०-८२३ मनुष्य भवमे सगर चक्रवर्तीको सम्बोधकर उसे विरक्त किया और तब उसने दीक्षा ले ली १२-१३१। तदनन्तर अपना परिचय देकर देवलोकको चला गया
।१३४-१३६० मणिचित-सुमेरु पर्वतका अपर नाम-दे० सुमेरु । मणिप्रभ-रुचक व कुण्डल पर्वतका एक-एक कूट-दे० लोक/१२,१३॥ मणिभद्र-१. सुमेरु पर्वतके नन्दनवनमे स्थित एक मुख्य कूट व उसका रक्षक देव ।अपर नाम बलभद्र कूट था-दे० लोक/३/६-४ । २. विजयाध की दक्षिण श्रेणीका एक नगर-दे० विद्याधर । ३ यक्ष जातिके व्यन्तरदेवोका एक भेद-दे० यक्ष । ४ (प पु/७१/श्लो)यक्ष जातिका एक देव ।६। जिसने बहुरूपिणी विद्या सिद्ध करते हुए रावणको रक्षा को थी।८। ५ (ह. पु./४३/श्लो)-अयोध्या नगरीमें समुद्रदत्त सेठका पुत्र था ।१४६। अणुवत लेकर सौधर्म स्वगमें देव हुआ ।१५८। यह कृष्णके पुत्र शम्बका पूर्वका चौथा भव है-दे० शब । मणिभवन-सुमेरु पर्वतके नन्दन आदि वनोके पूर्व मे स्थित
सोमदेवका बन-दे० लोक/७। मणिमालिनी-नन्दन वन में स्थित सागरकूटकी स्वामिनी देवी
-दे० लोक/१५ मणिवत्र-विजयाको उत्तर श्रेणीका एक नगर-दे० विद्याधर। मतंग-भगवान् वीरके तीर्थ के एक अन्तकृतकेवली-दे० अन्तकृत् । मत-१. मिथ्या मत-दे० एकान्ता५ । २. सर्व एकान्त मत मिलकर एक जैनमत बन जाता है-दे० अनेकान्त/२/६। ३ कोई भी मत सर्वथा मिथ्या नहीं-दे० नय/II ।४. सम्यग्दृष्टियोमे परस्पर मतभेद नही होता-दे० सम्यग्दृष्टि/४। ५. आगम गत अनेक विषयोमें आचार्योंका मतभेद-दे० दृष्टिभेद । मतानुज्ञा-न्या. सू./मू./५/२/२० स्वपक्षदोषाभ्युपगमात् परपक्षे दोषप्रसंगो मतानुज्ञा ।२० प्रतिवादी द्वारा उठाये गये दोषको अपने पक्षमें स्वीकार करके उसका उद्धार किये बिना ही 'तुम्हारे पक्षमें भी ऐसा ही दोष है' इस प्रकार कहकर दूसरेके पक्षमें समान दोष उठाना मतानुज्ञा नामका निग्रहस्थान है। (श्लो वा.४/१/३३/
न्या २५१/४१७/१४ पर इसका निराकरण किया गया है)। मतार्थ-आगमका अर्थ करनेकी विधि 'किस मतका निराकरण करनेके लिए यह बात कही गयी है। ऐसा निर्देश मतार्थ कहलाता है।-दे० आगम/३। मति-दे० मतिज्ञान/१। मतिज्ञान-इन्द्रियज्ञानकी ही 'मति या अभिनिबोध' यह संज्ञा है। यह दर्शनपूर्वक अवग्रह, ईहा, अवाय और धारणाके क्रमसे उत्पन्न होता है । चारो के ही उत्पन्न होनेका नियम नहीं। १,२ या ३ भी होकर छूट सकते है। धारणाके पश्चात् क्रमसे स्मृति, प्रत्य
मतिज्ञान सामान्य निर्देश मतिशानको कचित् दर्शन संशा। -दे० दर्शन/८ । मतिशान दर्शनपूर्वक इन्द्रियोंके निमित्तसे होता है। शानकी सत्ता इन्द्रियोंसे निरपेक्ष है।
-दे० ज्ञान/I/२। मतिज्ञानका विषय अनन्त पदार्थ व अल्प पर्याय है। अतीन्द्रिय द्रव्योंमें मतिशानके व्यापार सम्बन्धी समन्वय। मति व श्रुतज्ञान परोक्ष है। -दे० परोक्ष । मतिज्ञानको कथंचित् प्रत्यक्षता व परोक्षता।
-दे० श्रुतज्ञान/I/५॥ | मतिशानकी कथंचित् निर्विकल्पता। -दे० विकल्प। * मतिज्ञान निसर्गज है। -दे० अधिगमज ।
मति आदि शान व अशान क्षायोपशयिक कैसे। परमार्थसे इन्द्रियज्ञान कोई शान नहीं। मोक्षमार्ग में मतिज्ञानकी कथंचित् प्रधानता।
-दे० श्रुतज्ञान/I/R1 ६ मतिज्ञानके भेदोंको जाननेका प्रयोजन ।
मतिज्ञानके स्वामित्व सम्बन्धी गुणस्थान, जीवसमास आदि २० प्ररूपणाएँ।
-दे० सद। मतिशान सम्बन्धी सत् संख्या क्षेत्र स्पर्शन काल अन्तर भाव व अल्पबहुत्व रूप ८ प्ररूपणाएँ।
-दे०वह वह नाम । सभी मार्गणाओंमें आयके अनुसार व्यय होनेका नियम।
-दे० मार्गणा।
अवग्रह आदि व स्मृति आदि ज्ञान निर्देश अवग्रह ईहा आदि व स्मृति तर्क आदिके लक्षण ।
-दे०वह वह नाम ।
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भा०३-३२
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मतिज्ञान
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१. भेद व लक्षण
ईहा आदिको मतिज्ञान व्यपदेश कैसे। अवग्रह आदिकी अपेक्षा मतिज्ञानका उत्पत्तिकम। अवग्रह आदिमें परस्पर कार्यकारण भाव ।
-दे० मतिज्ञान/३/१ मे रा. वा.।। अवग्रह आदि सभी भेदोके सर्वत्र होनेका नियम नहीं है। मति-स्मृति आदिकी एकार्थता सम्बन्धी शकाएँ। स्मृति और प्रत्यभिज्ञानमें अन्तर । स्मृति आदिकी अपेक्षा मतिज्ञानका उत्पत्तिक्रम । मतिशान व श्रुतशानमें अन्तर ।
-दे० श्रुतज्ञान/|३। एक बहु आदि विषय निर्देश बहु व बहुविध ज्ञानोके लक्षण । बहु व बहुविध शानोंमें अन्तर । बहु विषयक ज्ञानकी सिद्धि। | एक व एकविध शानोंके लक्षण |
एक व एकविध शानोंमें अन्तर । एक विषयक शानकी सिद्धि । क्षिप्र अक्षिम ज्ञानोंके लक्षण । निःसृत-अनिःसृत ज्ञानोंके लक्षण । अनिःसृतज्ञान और अनुमानमें अन्तर । अनिःसृत-विषयक ज्ञानकी सिद्धि । अनिःसृत विषयक व्यंजन व ग्रहकी सिद्धि । उक्त अनुक्त शानोंके लक्षण । उक्त और निःसृत शानोंमे अन्तर । अनुक्त और अनिःसृत ज्ञानोंमें अन्तर । अनुक्त विषयक ज्ञानको सिद्धि । मन सम्बन्धी अनुक्त ज्ञानकी सिद्धि । अप्राप्यकारी इन्द्रिया सम्बन्धी अनि सृत व अनुक्त ज्ञानोकी सिद्धि।
ध्रुव व अध्रुव शानोंके लक्षण । १९ ध्रु वशान व धारणामें अन्तर । २० | ध्रुवज्ञान एकान्तरूप नहीं है।
२. अभिनिबोध या मतिका अर्थ इन्द्रियज्ञान पं.सं./२/२१४ अहिमुहणियमिय बोहणमाभिणिबोहियमणिदि-इंदियज। २१४॥ = मन और इन्द्रियकी सहायतासे उत्पन्न होनेवाले, अभिमुख और नियमित पदार्थ के बोधको आभिनिवोधिकज्ञान कहते है। (ध १/१,१,११/गा, १८२/३५६); (ध. १३४५,५,२६/२०६/१०); (गो जी /मू./३०६/६५८), (ज प./१३/१६)। ध.१/१,१,१११/३५४/१ पञ्चभिरिन्द्रियैर्मनसा च यदर्थ ग्रहण तन्मतिज्ञानम् । = पॉच इन्द्रियों और मनसे जो पदार्थका ग्रहण होता है,
उसे मतिज्ञान कहते है। क पा. १/१०१/६२८/४२/४ इंदियणोइंदिएहि सह-रस-परिसरूवगंधादिविसएम ओग्गह-ईहावाय-धारणाओ मदिणाणं। -इन्द्रिय और मनके निमित्तसे शब्द रस स्पर्श रूप और गन्धादि विषयों में अवग्रह, ईहा, अवाय और धारणारूप जो ज्ञान होता है, वह मतिज्ञान है । (द्र. सं./टी./४४/१८८/१)। ५. का./त.प्र/४१ यत्तदावरणक्षयोपशमादिन्द्रियानिन्द्रियावलम्बनाच
मूर्तामूर्तद्रव्य विकल विशेषणावबुध्यते, तदाभिनिबोधिकज्ञानम् । पं. का./ता. वृ/४१/०१/१४ आभिनिबोधिक मतिज्ञानं । -मति झाना
वरण के क्षयोपशमसे और इन्द्रिय मनके अवलम्बनसे मूर्त अमूर्त द्रव्यका विकल अर्थात एकदेश रूपसे विशेषतः [सांव्यवहारिक प्रत्यक्ष रूपसे (द्र. सं/टी./५/१५) जो अवबोध करता है, वह आभिनिबोधिकज्ञान है। आभिनिबोधिकज्ञानको ही मतिज्ञान कहते हैं। (द्र. स /टो./२/११/४)।
२. मतिज्ञानके भेद-प्रभेद १. अवग्रहाहिकी अपेक्षा
अवग्रह
ईहा
अवाय
धारणा
व्यजन
(प्रत्येकके ६.६ भेद)
- स्पर्शनेन्द्रिय- रसनेन्द्रिय
-- घाणेन्दिय
- श्रोत्रेन्द्रिय
- स्पर्शनेन्द्रिय---
-- रसनेन्द्रिय
- घाणेन्द्रिय
---चक्षुरिन्द्रिय
____-श्रोत्रेन्द्रिय
-नोइन्द्रिय
प्रत्येकके १२, १२ विषय है
२, बहुविध
४. अनि मृत
५ अनुक्त
Reyaha
१. अक्षित १०. नि सृत ११. उक्त १२. अध्रुव
१.भेद व लक्षण १. मतिज्ञान सामान्यका लक्षण १. मतिका निरुक्त्यर्थ
स, सि./९/8/३/११ इन्द्रियैर्मनसा च यथासमर्थो मन्यते अनया मनुते
मननमात्र बामति । -इन्द्रिय और मनके द्वारा यथायोग्य पदार्थ जिसके द्वारा मनन किये जाते है. जो मनन करता है, या मननमात्र मति कहलाता है। (स. सि /१/१३/१०६/४-मनन मति), (रा वा/ १/४/१/४४/७), (ध.१३/५५५,४१/२४४/३-मनन मतिः )।
उपरोक्त भेदोके भग-अवग्रहादिकी अपेक्षा-४, पूर्वोक्त ४४६इन्द्रियाँ
२४, पूर्वोक्त २४ + व्यजनावग्रहके ४-२८% पूर्वोक्त २८+अवग्रहादि ४-३२- में इस प्रकार २४, २८,३२ ये तीन मूल भंग है । इन तीनोंकी क्रमसे बहु बहुविध आदि ६ विकल्पोसे गुणा करनेपर १४४, १६८ व १६२ ये तीन भग होते हैं। उन तीनोको ही बहु बहुविध आदि १२ विकल्पोसे गुणा करनेपर २८८, ३३६ व ३८४ ये तीन भंग होते है। इस प्रकार मतिज्ञानके ४, २४, २८, ३२, १४४, १६८, १६२, २८, २३६ व ३८४ भेद होते है। (ष. खं. १३/५५ सूत्र २२-३५/२१६-२३४), (त.सू./१/१५-१६); (प.स/प्रा/१/१२१); (ध.१/१,१,११५/गा. १८२/३५६), (रा. वा./१/१६/६/७०/७); (ह.पु/१०/१४५-१०);
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मतिज्ञान
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२. मतिज्ञान सामान्य निर्देश
(ध. १/१,१,२/६३/३); (ध. ६/१.६,१,१४/१६,१६,२१), (ध.६/४, १,४५/१४४,१४६,१५६), (ध.१३/५०५,३५/२३६-२४१): (क.पा १/१, १/१०/१४/१), (ज.प/१३/५५-५६), (गो जी /मू/३०६-३१४/ ६५८-६७२); (त सा./१/२०-२३)।
२. उपलब्धि स्मृति आदिकी अपेक्षा प.खं. १३/५६ सूत्र ४१/२४४ सण्ण सदी मदी चिता चेदि ।४॥ त.स./१/१३ मतिस्मृतिसज्ञाचिन्ताऽभिनिओध इत्यनर्थान्तरम् ।१३।
=मति, स्मृति, सज्ञा (प्रत्यभिज्ञान), चिन्ता (तर्क) और अभिनिबोध ये सब पर्यायवाची नाम है।
का. ता. वृ./प्रक्षेपक गाथा/४३-१/८५ गदिणाणं पण तिमिह उबलद्धी भावणं च उवओगोमतिज्ञान तीन प्रकारका है-उपलब्धि, भावना, और उपयोग। त. सा./१/११-२० स्वसवेदनमक्षोत्थ विज्ञान स्मरण तथा। प्रत्यभिज्ञानमूहश्च स्वार्थानुमितिरेव वा ११ बुद्धिमेधादया याश्च मतिज्ञानभिदा हिता ।।२०।-स्वसवेदनज्ञान, इन्द्रियज्ञान, स्मरण, प्रत्यभिज्ञान, तक, स्वार्थानुमान, बुद्ध, मेधा आदि सब भतिज्ञानके
प्रकार हैं। पं. का./ता. वृ./४३.१/०६/३ तथे वावग्रहहावायधारणाभेदेन चतुर्बिध वरकोष्ठबीजपदानुसारिसी भन्नश्रातृताबुद्धिभेदेन वा, तच्च मतिज्ञान . । -वह मति ज्ञान अवग्रह आदिके भेदसे अथवा बर कोष्ठ बुद्धि, बीजबुद्धि, पदानुसारी बुद्धि ओर सम्भिन्नश्रोतृबुद्धि इन चार ऋद्धियोके भेदसे चार प्रकारका है।
२. मतिज्ञानका विषय अनन्त पदार्थ व अल्प पर्याय त सू /१/२६ मतिश्रुतयोनिबन्धो द्रव्येष्वसर्व पर्यायेषु ।२६। मतिज्ञान
और श्रुतज्ञानको प्रवृत्ति कुछ पर्यायोसे युक्त सम द्रव्योमें होती है। रा. वा /१/१६/१/७०/२ द्रव्यतो मतिज्ञानी सर्वद्रव्याण्यसर्व पर्यायाण्युपदेशेन जानाति । क्षेत्रत उपदेशेन सर्व क्षेत्राणि जानाति। अथवा क्षेत्रं विषय । कालत उपदेशेन सर्व कालं जानाति । भावत उपदेशेन जीवादोनामौदयिकादीन् भावात् जानाति । रा वा./१/२६/३-४/८७/ १६ जीवधर्माधर्माकाशकालपुद्गलाभिधानानि षडत्र द्रव्याणि, तेषा सर्वेषा संग्रहार्थ द्रव्येष्विति बहुत्वनिर्देश क्रियते ।३। . तानि द्रव्याणि मतिश्रुतयोविषयभावमापद्यमानानि कतिपयैरेव पर्यायबिषयभावमास्कन्दन्ति न सर्वपर्यायैरनन्तरपीति । तत्कथम् । इह मति: चक्षुरादिकरणानिमित्ता रूपाद्यालम्बना, सा यस्मिन् द्रव्ये रूपादयो वर्तन्ते न तत्र सर्वान् पर्यायानेब (सर्वानेव पर्यायान) गृह्णाति, चक्षुरादिविषयानेवालम्बते । १. द्रव्यको दृष्टिसे मतिज्ञानी सभी द्रव्योंकी कुछ पर्यायोको उपदेशसे जानता है। इसी प्रकार उपदेश द्वारा वह सभी क्षेत्रको अथवा प्रत्येक इन्द्रियके प्रतिनियत क्षेत्रको-दे० इन्द्रिय/३/६ । सर्वकालको व सर्व औदयिकादि भावोंको जान सकता है। २. सूत्रमे 'दव्येषु' यह बहुवचनान्त प्रयोग सर्वद्रव्योंके सग्रहके लिए है। तहाँ जीव, पुद्गल, धर्म, अधर्म, आकाश और काल ये छह द्रव्य है । वे सब द्रव्य मतिज्ञान और श्रुतज्ञानके विषय भावको प्राप्त होते हुए कुछ पर्यायोके द्वारा ही विषय भावको प्राप्त होते है, सब पर्यायोके द्वारा नहीं और अनन्त पर्यायों के द्वारा भी नहीं। क्योंकि मतिज्ञान चक्षु आदि इन्द्रियोसे उत्पन्न होता है और रूपादिको विषय करता है, अत स्वभावत वह रूपी आदि द्रव्योंको जानकर भी उनकी सभी पर्यायोको ग्रहण नहीं करता बक्कि चक्षु आदिकी विषयभूत कुछ स्थूल पर्यायोको ही जानता है। (स, सि./१/२६॥ १३४/१). दे० ऋद्धि/२/२/३(क्षायोपशमिक होनेपर भी मतिज्ञान द्वारा अनन्त अर्थोंकाजाना जाना सम्भव है।
३. असख्यात भेद ध.१२/४,२,१४,१/४८०/५ एवमसखेज्जलोगमेत्ताणि सुदणाणि । मदिणाणि वि एत्तियाणि चेव, सुदणाणस्स मदिणाणपुर गमत्तादो कज्जभेदेण कारणभेदुवल भादा वा-श्रुतज्ञान असख्यात लोकप्रमाण है--दे० श्रुतज्ञान॥१मतिज्ञान भा इतने ही है, क्योकि, श्रुतज्ञान मतिज्ञान पूर्वक ही होता है, अथवा कारणके भेदसे क्योकि कार्यका भेद पाया जाता है, अतएव वे भो असख्यात लोकप्रमाण है। (प.ध./उ./ २१०-२६२)।
३. कुमतिज्ञानका लक्षण 1. सं./प्रा./१/११९ विसजतकूडपजरवधादिसु अणुवेदसकरणेण । जाखलु
पवत्तइ मई मइअण्णाण त्तिण विति ।११८ - परोपदेशके बिना जा विष, यन्त्र, कूट, पंजर, तथा बन्ध आदिके विषय में बुद्धि प्रवृत्त होती है, उसे ज्ञानीजन मत्यज्ञान कहते है। ( उपदेशपूर्वक यही श्रुतज्ञान
है) (ध. १/१,११५/ गा. १७६/३५८); (गो. जो./मु /३०३/६५४)। पं. का/त. प्र/४१ मिथ्यादशनादयसहचरितमाभिनिबोधिकज्ञानमेव कुमतिज्ञानम्। मिथ्यादर्शनके उदयके साथ आभिनिबाधिक ज्ञान ही कुमतिज्ञान है। विशेष दे, ज्ञान/IIII
३. अतीन्द्रिय द्रव्योमें मतिज्ञानके व्यापार सम्बन्धी
समन्वय प्र. सा /मू./४० अत्थ अक्रवणिवदिदं ईहापुवेहि जे विजाणं ति। तेसि परोक्वभूद णादुमसक्क ति पण्णत्त ।४०-जो इन्द्रिय गोचर पदार्थको ईहा आदि द्वारा जानते है, उनके लिए परोक्षभूत पदार्थको जानना अशक्य है, ऐसा सर्वज्ञदेवने कहा है। स. सि./१/२६/१३४/३ धर्मास्तिकायादीन्यतीन्द्रियाणि तेषु मतिज्ञानं न प्रवर्तते। अत सर्व द्रव्येषु मतिज्ञानं वर्तत इत्ययुक्तम् । नैष दोषः। अनिन्द्रियाख्य करणनस्ति तदालम्बनो नोइन्द्रियावरणक्षयोपशमलब्धिपूर्वक उपयोगाऽवग्रहादिरूप प्रागेवोपजायते। ततस्तत्पूर्व श्रुतज्ञान तद्विषयेषु स्वयोग्येषु व्याप्रियते।-प्रश्न-धर्मास्तिकाय आदि अतीन्द्रिय है। उनमें मतिज्ञानकी प्रवृत्ति नहीं हो सकती, अत' 'सब द्रव्यों में मतिज्ञानकी प्रवृत्ति होती है', यह कहना अयुक्त है। उत्तरयह कोई दोष नही, क्योकि, अनिन्द्रिय (मन)मामका एक करण है। उसके आलम्बनसे नो इन्द्रियावरण कर्मके क्षयोपशमरूप लब्धिपूर्वक अवग्रह आदिरूप उपयोग पहले ही उत्पन्न हो जाता है, अतः तत्पूर्वक होनेवाला श्रुतज्ञान अपने योग्य इन विषयों में व्यापार करता है । ( रा वा /१२६/५/८७/२७)। ध १३/५,५,७१/३४१/१ णोइ दियदि दिय कधं मदिणाणेण घेष्पदे । ण ईहालिगावठ्ठ भबलेण अदि दिएसु वि अत्थेसु बुत्तिदसणादो। - प्रश्न--नोइन्द्रिय नो अतीन्द्रिय है, उसका मतिज्ञानके द्वारा कैसे ग्रहण होता है। उत्तर-नही ईहारूप लिगके अबलम्बनके बलसे अतीन्द्रिय
२. मतिज्ञान सामान्य निर्देश १. मतिज्ञान दर्शनपूर्वक इन्द्रियोंके निमित्तसे होता है
पं. का./ता. बृ./ प्रक्षेपक गा./१३-१/८५ तह एव चदुवियप्पं दसणपुच
हवदिणाणं । बह चारो प्रकारका मतिज्ञान दर्शनपूर्वक होता है।- विशेष दे० दर्शन/३/१। त. सू./१/१४ तदिन्द्रियानिन्द्रियनिमित्तम् ।१४। वह मतिज्ञान इन्द्रिय
व मनरूप निमित्तसे होता है।
विन गाणं । वहा ./e३-/२०
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मतिज्ञान
अर्थों में भी मतिज्ञानकी प्रवृत्ति देखी जाती है । ( इसलिए मतिज्ञान के द्वारा परकीयमनको जानकर पीछे मन पर्ययज्ञानके द्वारा तद्गत अर्थको जाननेमें विरोध नही है।
२५२
४. मति आदि ज्ञान व अज्ञान क्षायोपशमिक कैसे घ. १४/५६,११/२०/७ मदिमिति ए पि खजीवसमियं मदिअण्णाणित्ति एद मदिणाणावरणत्र जीवसमेण सुप्पत्तीए दो एवं मदिराणि त्ति एदं पि तदुभयपच्चय । मिच्छत्तस्स सव्यघादिफद्दयाणमुदण गाणावरणीयस्स देखना विदागमुदण तस्मे धारिफयाणमुदयवखरण च मदि अण्णाणित्तप्पत्ती दो । सुदअण्णाणि विहगणाणि त्ति तदुभयपच्चइयो । आभिणिबोहियणाणित्ति तदुभयपचयो जोवभावबंधी मदिणाणावरणीयस्स देसपादिफदयाणमुदपण तिविहसम्मत्तसहाएण तदुत्पत्ती दो । आभिणिवोहियणाणस्स उदयपच्चइयत्तं घडदे. मदिणाणावरणीयस्स देसघादिफयाणमुदरण समुपती रमणीयसमियरचयत उवसमावर्तभादो। ण णाणावरणीय सव्वघादिफद्दयाणमुदयाभावेण उवसमसणिदेन आभिणिबोयिणाणुप्पत्तिदंसणादो । एव सुदणाणि ओहिणापिजनाणि चणि ओहि सण आदी मत्तल, विसेसाभावादी गति बानी भी क्षायोपशमिक है. क्योकि यह मतिज्ञानावरण कर्मके क्षयोपशमसे होता है। प्रश्नमत्यङ्गानि तदुभयकि कैसे है उ-माल सर्वपाती स्पर्धकों का उदय होनेसे तथा ज्ञानावरणीय के देशघाति स्पर्धकोका उदय होनेसे, और उसीके सर्वघाती स्पर्धकोका उदयक्षय होने से मति अज्ञानित्वकी उत्पति होती है. इसलिए वह तदुभयप्राथमिक है ज्ञान और विज्ञानी भी इसी प्रकार तदुभय मध्ययिक है । २. आभिनिबोधिकज्ञानी तदुभयप्रत्ययिक जीवभाव बन्ध है, क्योंकि तीन प्रकारके सम्यक्त्वसे युक्त मतिज्ञानावरणीय कर्मके देशधाति स्पर्धको के उदयसे इसकी उत्पत्ति होती है। प्रश्न - इसके उदयप्रत्थायिकपना तो बन जाता है, क्योकि मतिज्ञानावरणकर्म के देशात स्पर्धकोंके उदयसे इसकी उत्पति होती है. पर औपशमिक निमित्तकपना नही बनता, क्योकि मतिज्ञानावरण कर्मका उपशम नही पाया जाता। उत्तर-नहीं, क्योंकि ज्ञानावरणीय कर्मके सर्वघाति स्पर्धको उपशम संज्ञावाले उदयाभाव से आभिनिबोधिक ज्ञानकी उत्पत्ति देखी जाती है, इसलिए इसका औपशमिक निमि
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कपना भी बन जाता है। इसी प्रकार श्रुतज्ञानी अवधिज्ञानी, मनपर्ययज्ञानी, चक्षुदर्शनी, अचक्षुदर्शनी और अवधिदर्शनी आदिका करना चाहिए क्योंकि उपर्युक्त कथनसे इनके कवनमे कोई विशेषता नहीं है ।
५. परमार्थसे इन्द्रियज्ञान कोई ज्ञान नहीं प्र.सा.प्र / ५१ परोक्ष हि ज्ञानमतिज्ञानरामोद्यन्धनुण्ठनास्वयं परिच्छेत्तुमर्थं मसमर्थस्योपात्तानुपात्त परप्रत्ययसामग्री मार्गणपायल महामोहमत्तस्य जीवदयस्वरमाद परपरिणािभिप्रायमपि पदे पदे प्राप्तम्भमतम्भ माननामेव परमार्थतोऽर्हति । अतस्तद्धेयम् । परोक्षज्ञान, अति दृढ अज्ञानरूप तमोग्रन्थि द्वारा आवृत हुआ, आत्म पदार्थको स्वय जानने के लिए असमर्थ होने के कारण. उपात्त और अनुपात्त सामग्रीको दूँढनेकी व्यग्रतासे अत्यन्त चचल वर्तता हुआ, महा मोहम जीवित होनेसे पर परिणतिका अभिप्राय करनेपर भी पद-पदपर ठगाता हुआ, परमार्थत. अज्ञानमे गिना जाने योग्य है । इसलिए वह हेय है ।
यश
पं', ध /उ./२८६-२८६,३०५,६५३ दिडमात्र षट्सु द्रव्येषु मूर्तस्यैवोपलम्भकात् । तत्र सूक्ष्मेषु नैव स्यादस्ति स्थूलेषु केषुचित् ॥ २८६ ॥ सत्सु
३. अवग्रह आदि व स्मृति आदि ज्ञान निर्देश
प्रायेषु तत्रापि नामाह्येषु कदाचन। तत्रापि विद्यमानाती नागतेषु च ॥२८७॥ तत्रापि संनिधानत्वे सनिकर्षेषु सत्सु च । तत्राप्यवग्रहेहादी ज्ञानस्यास्तिक्यदर्शनात |२८| समस्तेषु न व्यस्तेषु हेतुभूतेषु सरस्वपिज्ञानमुपरि शुद्धि. २ आस्तामित्यादि दोषाणा संनिपातात्पदं पदम् । ऐन्द्रिय ज्ञानमप्यस्ति प्रदेशचलनात्मकम् ॥ ३०५ | प्राकृतं वैकृतं वापि ज्ञानमात्र तदेव यत् । यावदत्रेन्द्रियायत तत्सर्वं वैकृतं विदुः । १५३॥
इन छह द्रव्योमें मूर्त द्रव्यको ही विषय करता है, उसमें भी स्थूलमें प्रवृत्ति करता है सूक्ष्ममे नही । स्थूलोने भी किन्ही में ही प्रवृत्त होता है सबमें नही । उनमें भी इन्द्रियग्राह्यमें ही प्रवृत्त होता है इन्द्रियग्राह्यमें नहीं। उनमे वर्तमानकाल सम्बन्धीको ही ग्रहण करता है, भूत भविष्यत्को नही । उनमे भी इन्द्रिय सन्निकर्ष को प्राप्त पदार्थको विषय करता है, अन्यको नहीं । उनमें भवग्रह ईहा आदिके क्रमसे प्रवृत्ति करता है। इतना ही नही बल्कि मतिज्ञानावरण व वीर्यान्तरायका क्षयोपशम, इन्द्रियो की पूर्णता, प्रकाश व उपयोग आदि समस्त कारण के हो - पर ही होता है, हीन कारणोमें नही । इन सर्व कारणोके होनेपर भी ऊपर-ऊपर अधिक अधिक शुद्धि होनेसे कदाचित होता है। सर्वदा नहीं। इसलिए वह कहने मात्रको हो ज्ञान है २८६-२८६ इन्द्रिय ज्ञान व्याकुलता आदि अनेक दोषोका तो स्थान है ही, परन्तु वह प्रदेशचलनात्मक भी होता है | ३०५। यद्यपि प्राकृत या वैकृत सभी प्रकारके ज्ञान 'ज्ञान' कहलाते है, परन्तु वास्तव में जब तक वह ज्ञान इन्द्रियाधीन रहता है, तब तक वह विकृत ही है । ६५३
६. मतिज्ञानके भेदों को जाननेका प्रयोजन पंका/ता.वृ / ४३/८६/५ अत्र निर्विकारशुद्धानुभूत्यभिमुखं यन्मतिशानं तदेवोत्रादेवतानन्तमुखसाधकत्वान्निश्चयेनोपादेयं सत्साधक महिवहारेणेति तात्पर्यम्। निर्विकारात्मक अनु भूति के अभिमुख जो मतिज्ञान है, वहीं उपादेयभूत अनन्त सुखका साधक होनेके कारण निश्चयसे उपादेय है । और व्यवहारसे उस ज्ञानका साधक जो बहिरंग ज्ञान है वह भी उपादेय है ।
३. अवग्रह आदि व स्मृति आदि ज्ञान निर्देश
१. ईहा आदिको मतिज्ञान व्यपदेश कैसे ?
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रा. वा / १/१५/१३/६२/१ ईहादीनाममतिज्ञानप्रसङ्गः । कुत । परस्परकार्यत्वात् । अवग्रहकारणम् ईहाकार्यम् ईहाकारणम् अवाय' कार्यम्, अवाय कारणम् धारणा कार्यम् । न चेहादीनाम् इन्द्रियानिन्द्रियनिमित्तत्वमस्तीति नैष दोष', ईहादीनामनिन्द्रियनिमित्तत्वात् मतिज्ञानव्यपदेश । यद्येवं श्रुतस्यापि प्राप्नोतीति इन्द्रियगृहीतविषयत्वादहादीनाम् अनिन्द्रियनिमित्तत्वमप्युपचर्यते नतु श्रुतस्याय विधिरस्ति तस्यानिन्द्रियविषयत्वादिति श्रुतस्याप्रसंगः। यद्य चतुरिन्द्रियेहादिव्यपदेशाभाव इति चेद न हन्द्रियशकि परिणतस्य जनस्य भावेन्द्रियवापारकार्यवाद। इन्द्रियभावपरिणतो हि जीवो भावेन्द्रियमिष्यते, तस्य विषयाकारपरिणामा ईहादय इति चक्षुरिन्द्रि येहा दिव्यपदेश इति । = प्रश्न - ईहा आदि ज्ञान मतिज्ञान नही हो सकते, क्योंकि ये एक दूसरे के कारण से उत्पन्न होते हैं। तहाँ अवग्रहके कारणसे ईहा ईहाके कारण से अवाय, और अवायके कारण से धारणा होती है। उनमे इन्द्रिय व अनिन्द्रियका निमित्तपना नही है । उत्तर-ग्रह कोई दोष नही है, ईहा आदिको भी अनिन्द्रियका निमित्त होनेसे मतिज्ञान व्यपदेश बन जाता है। प्रश्न -- तब तो श्रुतज्ञानको भी मतिज्ञानपना प्राप्त हो जायेगा ?
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३. अवग्रह आदि व स्मृति आदि ज्ञान निर्देश
उत्तर-ऐसा नहीं है, क्योंकि (अवग्रह द्वारा) इन्द्रियोसे ग्रहण कर लिये गये पदार्थोको विषय करनेके कारण ईहा आदिको अनिन्द्रियका निमित्तपना उपचारसे कहा जाता है। श्रुतज्ञानकी यह विधि नहीं है, क्योंकि, वह तो अनिन्द्रियके ही निमित्तसे उत्पन्न होता है। प्रश्न-यदि ऐसा है तो चक्षु इन्द्रियके ईहा आदिका व्यपदेश न किया जा सकेगा। उत्तर-नहीं; क्योकि इन्द्रियशक्तिसे परिणत जीवकी भाव इन्द्रियमें, उसके व्यापारका कार्य होता है। इन्द्रियभावसे परिणत जीवको ही भावेन्द्रिय कहा जाता है। उसके विषयाकार रूप परिणाम ही ईहा आदि हैं। इसलिए चक्ष इन्द्रियके
भी ईहा आदिका व्यपदेश बन जाता है । (ध.६/४,१,४५/१४७/२६) ध.६/४,१,४१/१४८/२ नावायज्ञान मति', ईहानिर्णीतलिङ्गावष्टम्भमलेनोत्पन्नत्वादनुमानवदिति चेन्न, अवग्रहगृहीतार्थविषयलिङ्गादीहाप्रत्ययविषयीकृतादुत्पन्ननिर्णयात्मकप्रत्ययस्य अवग्रहगृहीतार्थविषयस्य अवायस्थ अमतित्वविरोधाद। न चानुमानमवगृहीतार्थ विषयमवग्रहनिर्णीतबलेन तस्यान्यवस्तुनि समुत्पत्ते । तस्मादवग्रहादयो धारणापर्यन्ता मतिरिति सिद्धम् । -प्रश्न-अवायज्ञान मतिज्ञान महीं हो सकता, क्योंकि, वह ईहासे निर्णीत लिंगके आलम्बन बलसे उत्पन्न होता है, जैसे अनुमान । उत्तर-ऐसा नहीं है, क्योकि अवग्रहसे गृहीतको विषय करनेवाले तथा ईहा प्रत्ययसे विषयीकृत लिंगसे उत्पन्न हुए निर्णयरूप और अवग्रहसे गृहीत पदार्थको विषय करनेवाले अवाय प्रत्ययकै मतिज्ञान न होनेका विरोध है । और अनुमान अवग्रहसे गृहीत पदार्थको विषय करनेवाला नहीं है, क्योंकि वह अवग्रहसे निति लिगके बलसे अन्य बस्तुमें उत्पन्न होता है। ( तथा अवग्रहादि चारो ज्ञानोकी सर्वत्र क्रमसे उत्पत्तिका नियम भी नहीं है। (दे० शीर्षक नं. ३)। इसलिए अवग्रहसे धारणापर्यन्त चारों ज्ञान मतिज्ञान है। यह सिद्ध होता है। (और भी दे० श्रुतज्ञान/I/३)।
नहीं होती है, क्योकि, उस प्रकारकी व्यवस्था पायी मही जाती है। इसलिए कही तो केवल अवग्रह ज्ञान ही होता है, कही अवग्रह और ईहा, ये दो ज्ञान ही होते है, 'कही पर अवग्रह ईहा और अवाय, ये तीनो भी ज्ञान होते है; और कहीं पर अवग्रह, ईहा, अवाय
और धारणा ये चारो ही ज्ञान होते है। ध/४,१.४५/१४८/५ न चावग्रहादीना चतुर्णा सर्वत्र क्रमेणोत्पत्तिनियम. अवग्रहानन्तर नियमेन सशयोत्पत्त्यदर्शनात् । न च संशयमन्तरेण विशेषाकाङ्क्षास्ति येनावग्रहान्नियमेन ईहोत्पद्यते । न चेहातो नियमेन निर्णय उत्पद्यते, क्वचिनिर्णयानुत्पादिकाया ईहाया एवं दर्शनात् । न चावायाइधारणा नियमेनोत्पद्यते, तत्रापि व्यभिचारोपलम्भात् । = तथा अवग्रहादिक चारोंकी सर्वत्रसे उत्पत्तिका नियम भी नहीं है, क्योकि, अवग्रहके पश्चात नियमसे संशयकी उत्पत्ति नही देखी जाती। और संशयने बिना विशेषकी आकांक्षा होती नहीं है, जिससे कि अवग्रहके पश्चात् नियमसे ईहा उत्पन्न हो । न ही ईहासे नियमत निर्णय उत्पन्न होता है, क्योकि, कहीं पर निर्णयको उत्पन्न न करनेवाला ईहा प्रत्यय ही देखा जाता है। अवायसे धारणा भी नियमसे नहीं उत्पन्न होती, क्योकि, उसमें भी व्यभिचार पाया जाता है।
२. अवग्रहादिकी अपेक्षा मतिज्ञानका उत्पत्तिक्रम रा वा./२/११/१३/६९/२६ अस्ति प्राग अवग्रहाद्दर्शनम् । तत' शुक्लकृष्णादिरूपविज्ञानसामोपेतस्यात्मन' 'कि शुक्लमुत कृष्णम्' इत्यादि विशेषाप्रतिपत्तेः संशयः । ततः शुक्ल विशेषाकाङ्क्षण प्रतीहनमीहा । तत' 'शुक्लमेवेदं न कृष्णम्' इत्यवायनमवाय.। अवेतस्यार्थस्याविस्मरणं धारणा । एवं श्रोत्रादिषु मनस्यपि योज्यम् । अवग्रहसे पहले [विषय विषयीके सन्निपात होनेपर (दे० अवग्रहका लक्षण) ] वस्तुमात्रका सामान्यालोचनरूप दर्शन होता है. (फिर रूप है' यह अवग्रह होता है)। तदनन्तर 'यह शुक्ल है या कृष्ण' यह संशय उत्पन्न होता है। फिर 'शुक्ल होना चाहिए' ऐसी जाननेकी आकांक्षारूप ईहा होती है। तदनन्तर 'यह शुक्ल ही है, कृष्ण नहीं' ऐसा निश्चयरूप अवाय हो जाता है। अवायसे निर्णय किये गये पदार्थ का आगे जाकर अविस्मरण न हो, ऐसा सस्कार उत्पन्न होना धारणा है। इस प्रकार श्रोत्र आदि इन्द्रियो व मनके सम्बन्धमें लगा लेना चाहिए । (दे० क्रमपूर्वक अवग्रह आदिके लक्षण ), (श्लो. वा ३/९/१५/श्लो. २-४/४३७), (गो.जो.जी प्र./३०८-३०६/६६३,६६५)। ३. अवग्रहादि समो भेदोंके सर्वत्र होनेका नियम नहीं है घ.६/१,६-१,१४/१८/८ ण च ओग्गहादि चउण्हं पिणाणाण सव्वत्थ कमेण उत्पत्ती, तहाणुवलंभा। तदो कहि पि ओग्गहो चेय, कहि पि ओग्गहो ईहा य दो च्चेय, कहि पि ओग्गहो ईहा अवाओ तिण्णि वि होति, कहिं पि ओग्गहो ईहा अवाओ धारणा चेदि चत्तारि वि हो ति। -अवग्रह आदि चारों हो ज्ञानोंकी सर्वत्र क्रमसे उत्पत्ति
४. मति स्मृति आदिकी एकार्थता सम्बन्धी शंका
समाधान दे० मतिज्ञा /१/१/२/२ (मति, स्मृति, प्रत्यभिज्ञान, तर्क व आभिनि
बोध, ये सब पर्यायवाची नाम है)। स. सि./१/१३/१०७/१ सत्यपि प्रकृतिभेदे रूढिवलाभावात पर्यायशब्द. त्वम् । यथा इन्द्र' शक पुरन्दर इति इन्दनादिक्रियाभेदेऽपि शचीपतेरेकस्यैव संज्ञा। समभिरूढनयापेक्षया तेषामर्थान्तरकल्पनाया मत्यादिष्वपि स क्रमो विद्यत एव । कितु मतिज्ञानावरणक्षयोपशमनिमित्तोपयोग नातिवर्तन्त इति अयमत्रार्थो विवक्षित' । 'इति'शब्द ' प्रकारार्थः । एवंप्रकारा अस्य पर्यायशब्दा इति। अभिधेयार्थों वा। मति स्मृति: संज्ञा चिन्ता आभिनिबोध इत्येतैर्योऽर्थोऽभिधीयते स एक एव इति । १. यद्यपि इन शब्दोंको प्रकृति या व्युत्पत्ति अलग-अलग है, तो भी रूढिसे ये पर्यायवाची है। जैसे-इन्द्र, शक्र और पुरन्दर। इनमें यद्यपि इन्दन आदि क्रियाओंकी अपेक्षा भेद है तो भी ये सब एक शचीपतिको वाचक सज्ञाएँ है। अब यदि समभिरूढ नयकी अपेक्षा इन शब्दो का अलग-अलग अर्थ लिया जाता है तो वह क्रम मति स्मृति आदि शब्दोंमें भी पाया जाता है। २. किन्तु ये मति आदि मतिज्ञानावरण कर्मके क्षयोपशमरूप निमित्तसे उत्पन्न हुए उपयोगको उल्लंघन नहीं करते है, यह अर्थ यहाँपर विवक्षित है। ३ अथवा प्रकृतमें (सूत्रमें) इति शब्द प्रकारार्थवाची है, जिसका यह अर्थ होता है, कि इस प्रकार ये मति आदि मतिज्ञानके पर्यायवाची शब्द है। अथवा प्रकृत में 'मति' शब्द अभिधेयवाची है, जिसके अनुसार यह अर्थ होता है कि मति, स्मृति, संज्ञा. चिन्ता
और अभिनिबोध इनके द्वारा जो अर्थ कहा जाता है, वह एक ही है। (रा वा./९/१३/२-३/५८/१, ६/५६/५ में उपरोक्त तीनों विकल्प है)। रा.वा /१/१३/३-७/१८/१०-३२ यस्य शब्दभेदोऽर्थभेदे हेतुरिति मतमतस्य वागादि नवार्थेषु गोशब्दाभेददर्शनाद वागाद्यर्थानामेकत्वमस्तु। अथ नैतदिष्टम्, न तर्हि शब्दभेदोऽन्यत्वस्य हेतु.। किच. मत्यादीनामेकद्रव्यपर्यायादेशात स्यादेकत्व प्रतिनियतपर्यायादेशाच्च स्यान्नानास्वम्-मननं मति , स्मरण स्मृति इति । स्यान्मतम्-मत्यादय अभिनिबोधपर्यायशब्दा नाभिनिबोधस्य लक्षणम् कथम् । मनुष्यादिवत् । .. तन्न, कि कारणम् । ततोऽनन्यत्वात् । इह पर्यायिणोऽनन्या पर्यायशब्द., स लक्षणम् । कथम् । औष्ण्याग्निवत् । तथा पर्यायशब्दा मत्यादय आभिनिबोधिज्ञानपर्यायिणोऽनन्यत्वेन अभिनिबोधस्य लक्षणम् ।
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अथवा ततोऽनादमतिस्मृत्यादयोऽसाधारणत्वा अन्यज्ञानासभाविनोऽभिनिबोधादनन्यत्वात्तस्य लक्षणम् । इतश्च पर्यायशब्दो [[]][कस्मात् कामतिः या स्मृतिरिति उत स्मृतिरिति गला बुद्धि प्रत्यागच्छति का स्मृति या मतिर्शित। एवमुत्तरेष्वपि । ४. यदि शब्दमेव भव है तो शब्द अभेदसे अर्थ अमेव भी होना चाहिए। और इस प्रकार पृथिवी आदि ग्यारह शब्द एक 'गो' अर्थके वाचक होनेके कारण एक हो जायेंगे । ५ अथवा मतिज्ञानावरण से उत्पन्न मतिज्ञानसामान्यकी अपेक्षासे अथवा एक आत्मद्रव्यकी दृष्टिसे मध्यादि अभिन्न है और प्रतिनियतस तव पर्यायही दृष्टिसे भिन्न है। जैसे- मननं मति", "स्मरणं स्मृति इत्यादि । प्रश्न- ६, मति आदि आभिनिबोधके पर्यायवाची शब्द है । वे उसके लक्षण नहीं हो सकते, जैसे मनुष्य, मानव, मनुज आदि शब्द मनुष्यके लक्षण नहीं है। उत्तर-नहीं, क्योकि, वे सब अनन्य है । पर्याय पर्यायी से अभिन्न होती है। इसलिए उसका वाचक शब्द उस पर्यायीका लक्षण होता है, जैसे अग्निका लक्षण उष्णता है। उसी प्रकार मति आदि पर्यायवाची शब्द अभिनिबोधिक सामान्य ज्ञानात्मक मतिज्ञानरूप पर्यायीके लक्षण होते है, क्योंकि, वे उससे अभिन्न है । ७ मतिज्ञान कौन' यह प्रश्न होनेपर बुद्धि तुरन्त दौड़ती है कि जो स्मृति आदि' और 'स्मृति आदि कौन ऐसा कहनेपर 'जो मतिज्ञान' इस प्रकार गत्वा प्रत्यागत न्यायसे भी पर्याय शब्द लक्षण बन सकते है ।
५. स्मृति और प्रत्यभिज्ञान में अन्तर
न्या. दी./३/११०/२७/३ केचिदाहु - अनुभवस्मृतिव्यतिरिक्त प्रत्यभिज्ञानं नास्तीति तत्सतः अनुभवस्य वर्त्तमानकालवनिवर्तमात्र प्रकाशकत्वम् स्मृतेश्चाविव संयोकत्यमिति तावद्वस्तुगत | कथ' नाम तयोरतीत वर्त्तमान संकलिते क्यसादृश्यादिविषयावगाहित्वम् । तस्मादस्ति स्मृत्यनुभवातिरिक्तं तदनन्तरभा बिस कलनज्ञानम् । तदेव प्रत्यभिज्ञानम् । प्रश्न-अनुभव और स्मरणसे भिन्न प्रत्यभिज्ञान नहीं है। उत्तर-यह कहना ठीक नहीं है, क्योंकि अनुभव तो वर्तमानकालीन पर्यायको ही विषय करता है और स्मरण भूतकालीन पर्यायका ही चोतन करता है। इसलिए ये दोनो अतीत और वर्तमान पर्यायो में रहनेवाली एकता सदृशता आदिको कैसे विषय कर सकते हैं। अत स्मरण और अनुभव से भिन्न उनके भाव होनेवासा तथा उन एकता सहता आदिको विषय करनेवाला जो जोडरूप ज्ञान होता है, वही प्रत्यभिज्ञान है ।
६. स्मृति आदिको अपेक्षा मतिज्ञानका उत्पत्तिक्रम न्या. दी / ३ / ९३ / ५३ तत् पञ्चविधम्-स्मृति, प्रत्यभिज्ञानम्, तर्क, अनुमानम् आगमश्चेति । पञ्चविधस्याप्यस्य परोक्षस्य प्रत्ययान्तरसापेन वपत्ति तद्यथा-स्मरणस्य प्राक्तनानुभवापेक्षा, प्रत्यभिज्ञानस्य स्मरणानुभवापेक्षा तर्कस्यानुभवस्मरणप्रत्यभिज्ञानापेक्षा, अनुमानस्य च निदर्शनाद्यपेक्षा ।
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न्या दी./३/३ नं. / पृष्ठ न. अवग्रहाद्यनुभूतेऽपि धारणाया अभावे स्मृतिजननायोगात । तदेतद्धारणाविषये समुत्पन्नं तत्तोल्लेखिज्ञानं स्मृतिरिति । (5४/२१)। अनुस्मृतिहेतुक संकलनात्मक ज्ञान प्रत्यभिज्ञान (24) अत्र सर्वत्राप्यनुभवस्मृतिसाद - तुकम्प | ( SE / ५० ) | स्मरण प्रत्यभिज्ञानमयदर्शन प्रस् च मिलित्वा तादृशमेकं ज्ञानं जनयन्ति यद्वयाप्तिग्रहण समर्थमिति, एम (१९०/६४) ज्ञानं व्यातिस्मरणादिसहकृतमनुमानोत्पत्ती निवन्धन मिसमैच । (११०/६०)। परोक्ष प्रमाणके पाँच मेद स्मृति प्रत्यभिज्ञान तर्क अनुमान और आगम ये पाँचो हो परोक्ष प्रमाण ज्ञानान्तरकी अपेक्षासे उत्पन्न होते है। स्परणमें
४. एक बहु आदि विषय निर्देश
पूर्व अनुभवकी अपेक्षा होती है, प्रत्यभिज्ञानमें स्मरण और अनुभवकी तर्कमे अनुभव स्मरण और प्रत्यभिज्ञानकी और अनुमानमें लिग दर्शन, व्याप्तिस्मरण आदिकी अपेक्षा होती है । पदार्थ मे अवग्रह आदि ज्ञान हो जानेपर भी (दे० मतिज्ञान /३/२) धारणाके अभाव में स्मृति उत्पन्न नही होती। इसलिए धारणाके विषयमें उत्पन्न हुआ 'वह' शब्द से उल्लिखित होनेवाला यह ज्ञान स्मृति है, यह सिद्ध होता है। अनुभव और स्मरणपूर्वक होनेवाले जोडरूप ज्ञानको प्रत्यभिज्ञान कहते है। सभी प्रत्यभिज्ञानोमे अनुभव और स्मरणकी अपेक्षा होने से उन्हे अनुभव और स्मरण हेतुक माना जाता है। स्मरण प्रत्यभिज्ञान और अनेकों बारका हुआ प्रत्यक्ष ये तोनों मिलकर एक वैसे ज्ञानको उत्पन्न करते है, जो व्याप्तिके ग्रहण करनेने समर्थ है, और वहाँ तर्क है उसी प्रकार उपाप्तिस्मरण आदि सहित होकर गिज्ञान अनुमानकी उत्पत्ति में कारण होता है। भागार्थ (विषय विषयोंके जितके अनन्तर क्रम उस सम्बन्धी
दर्शन, अमग्रह, ईहा और अवाय पूर्वक उस विषय सम्बन्धी धारणा उत्पन्न हो जाती है, जो कालान्तर में उस विषय के स्मरणका कारण होता है। किसी समय उसी विषयका या वैसे ही विषयका प्रत्यक्ष होनेपर तत्सम्बन्धी स्मृतिको साथ लेकर 'यह वही है' या 'यह वैसा ही है' ऐसा प्रत्यभिज्ञान उत्पन्न होता है। पुन' पुन' इसी प्रकार अनेको बार उसी विषयका प्रत्यभिज्ञान हो जानेपर एक प्रकारका व्याप्तिज्ञान उत्पन्न हो जाता है, जिसे तर्क कहते है। जैसे जहाँ
धूम होगा वह अग्नि अवश्य ही होगी', ऐसा ज्ञान। पीछे किसी समय इसी प्रकारका कोई लिंग देखकर उस तर्क के आधारपर लिगी
जान लेना अनुमान है। जैसे पर्वतमे धूम देखकर यहाँ अग्नि अवश्य है' ऐसा निर्णयात्मक ज्ञान हो जाता है। उपरोक्त सर्व विकल्पों से तर्क पर्यन्तके सर्व विकल्प गतिज्ञान भेद है जो उपरोक्त क्रमसे ही उत्पन्न होते है, अक्रमसे नहीं। तर्क पूर्वक उत्पन्न होनेवाला अन्तिम विकल्प अनुमान तज्ञानके आधीन है। इसी प्रकार किसी शब्दको सुनकर वाच्यवाचकको पूर्व गृहीत व्यासिके आधारपर उस शब्द वाच्यका ज्ञान हो जाना भी श्रुतज्ञान है ।)
४. एक बहु आदि विषय निर्देश
१. बहु व बहुविध ज्ञानोंके लक्षण
स.सि./१/१६/११२/५ नहुशन्दस्य संख्याने पुश्यामि ग्रहणमदि वाद संख्यावाची यथा एको हो महनइति यवाची यथा महुरोदनो महसूप इति 'निधशष्य प्रकारयाची' 'बहु' शब्द सख्यानाची और पुण्यवाची दोनों प्रकारका है। इन दोगीका यहाँ ग्रहण किया है, क्योकि उनमे कोई विशेषता नहीं है । संख्यावाची 'बहु' शब्द यथा - एक, दो, बहुत 1 वैपुल्यवाची बहु शब्द यथाबहुत भात, बहुत दाल । 'विध' शब्द प्रकारवाची है । ( जैसे बहुत प्रकारके घोडे, गाय, हाथी आदि-४८ /६/१३. गो जी.) (रावा./१/१६/१/६२/१२.६/१२/१४). (प. १ / १.१-१-१४/११/३-२०/१): (घ. ६/४.१.४५ / १४६/१. १५१/४): (. १२/४,१.२२/२२२/१,२२७/१). (गो. जी / जी. प्र / ३११/६६७/११) ।
रा.वा./१/१६/१६/६३/२८ प्रकृष्ट क्षयोपशम उपलम्भात् युगपत्सतवि ततपनसुधिरादिशब्दश्रवणाइ बहुब्धमयगृहातितादिशि पस्य प्रत्येकमेकद्वित्रिचतु संख्यस्यैयामन्त गुणस्थानकवाद विधनगृहाति एवं धागाद्यवयपि योज्य / ६५६ ) 1
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द्रावरणादिका प्रकृष्ट क्षयोपशम होनेपर युगपत् तत, वित, घन, सुषिर आदि बहुत शब्दोको सुनता है, तथा तत आदि शब्दो के एक दो तीन चार संख्यात असंख्यात अनन्त प्रकारोको ग्रहण कर बहुविध शब्दोको जानता है । इसी प्रकार घ्राणादि अन्य इन्द्रियोमे भी लागू करना चाहिए (भ. १३/५.२.१/२१०/२) ।
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मतिज्ञान
२. बहु व बहुविध ज्ञानोंमें अन्तर
स. सि /१/१६/११३/७ बहुबहुविधयो के प्रतिविशेष: यावता बहुष्वपि बहुत्वमस्ति बहुविधेष्वपि बहुत्वमस्ति एकप्रकारानेकप्रकारकृतो विशेष ।
राना ११/१६/६४/९६ उच्चदर्शनात् । यथा कश्चित् महनि शास्त्राणि मौचेन सामान्यार्थेनाविशेषितेन व्याचष्टेन तु महमिि तायें कश्चिस तेषामेव महूना शास्त्राणा बहुभिरर्थे परस्परातिशययुक्त बहुविकल्पैर्व्याख्यानं करोति तथा ततादिशब्दग्रहणाविशेषेऽपि यत्प्रत्येकं ततादिशब्दानाम् एकद्वित्रिचतु सख्येया संख्येयानन्तगुणपरिणतानां ग्रहणं तद् बहुविधग्रहणम्, यत्ततादीनां सामान्यग्रहणं तद बहुग्रहणम् =) - प्रश्न - - बहु और बहुविधमें क्या अन्तर है, क्योंकि बहु और बहुविध इन दोनोंमें बहुतपना पाया जाता है। उत्तर-- इनमें एक प्रकार और नाना प्रकारकी अपेक्षा अन्तर है। अर्थात् बहु प्रकारभेद इष्ट नही है और बहुविध प्रकारभेद इष्ट है । - जैसे कोई बहुत शास्त्रोंका सामान्यरूपसे व्याख्यान करता है। परन्तु उसके बहुत प्रकार के विशेष असे नहीं और दूसरा उन्हीं शास्त्रों की बहुत प्रकारके अर्थों द्वारा परस्पर में अतिशययुक्त बनेक विकल्पोंसे व्याख्याएँ करता है उसी प्रकार तत आदि शब्दोंके ग्रहण विशेषता न होते हुए भी जो उनमें से प्रत्येक तत आदि एक दो, तीन, चार, सख्यात, असंख्यात और अनन्त गुणरूपसे परिणत शब्दोका ग्रहण है सो बहुविध ग्रहण है और उन्हीका जो सामान्य ग्रहण है, वह ग्रहण है। ३. बहु विषयक ज्ञानकी सिद्धि
बर्ते
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रा. बा./१/१२/२००/१२/१५ मनग्रहाद्यभावः प्रत्यर्थमावलिष्यादिति वेदः नः सर्वदेकप्रत्ययप्रसाद] [२] अतरचानेकार्य प्राहिविज्ञानस्था त्यन्तासभवात् नगरव नस्कन्धावारप्रत्ययनिवृत्ति' । नेता' संज्ञा कार्यनिवेश्य तस्माल्लोक्सभ्यवहारनिवृत्ति किंव, नानाप्रत्ययाभावात । यक मनोऽनेकप्रख्ययारम्भकं सबै कप्रत्ययोSनेकार्यों भविष्यति, अनेकस्य प्रत्ययस्यैकारसंभवात् ननु सर्व कार्यमेकमेव ज्ञानमिति जत 'इदमस्मादन्यत' इत्येष व्यवहारो न स्यात् । किंच, आपेक्षिकसंव्यवहारविनिवृत्तेः |४| मध्यमाप्रदेशिन्योर्युगपदनुपलम्भाद तद्विषयहस्वव्यवहारो विनि किंच, संशयाभावप्रसङ्गात् 121 एकार्यविवर्तिनि विज्ञाने स्थाणी पुरुष वा प्राप्रत्ययजन्य स्याद, नोभयो प्रतिज्ञातविरोधात् । किच, ईप्सित निष्पत्त्यनियमात् । ६ चैत्रस्य पूर्ण कलशमा लिखतः अनेक विज्ञानोत्पाद निरोधक्रमे सति अनियमेन निष्पत्ति स्वाद ... किच, द्वित्र्यादिप्रत्ययाभावाच 101-- यतो विज्ञानं द्वित्रान ग्राहकमिति । प्रश्न -- जब एक ज्ञान एक ही अर्थको ग्रहण करता है, तब बहु आदि विषयक अवग्रह नहीं हो सकता । उत्तर--नहीं, क्योंकि, इस प्रकार सदा एक ही प्रत्यय होनेका प्रसंग आता है । १. अनेकार्थग्राही ज्ञान का अत्यन्ताभाव होनेपर नगर, वन, सेना आदि यविषयक ज्ञान नहीं हो सकेगे ये संज्ञाएँ एकार्थविषयक नहीं है, अत समुदायविषयक समस्त लोकव्यवहारोका लोप ही हो जायेगा। २ जिस प्रकार ( आप बौद्धोके हॉ) एक मन अनेक ज्ञानोको उत्पन्नकर सकता है, उसी तरह एक ज्ञानको अनेक अर्थोको विषय करनेवाला माननेमें क्या आपत्ति है । ३. यदि ज्ञान एकार्थग्राही ही माना जायेगा तो 'यह इससे अन्य है' इस प्रकारका व्यवहार न हो सकेगा । ४. एकार्थग्राहिविज्ञानवादमें मध्यमा और प्रदेशिनी अंगुलियोंमें होनेवाले ह्रस्व, दीर्घ आदि समस्त व्यवहारोका लोप हो जायगा । ५ संशयज्ञान अभावका प्रसंग आयेगा, क्योकि या तो स्थाणुका ज्ञान होगा या पुरुषका ही । एक साथ दोनो का ज्ञान न हो सकेगा । ६. किसी भीष्ट अर्थ की सम्पूर्ण उत्पत्ति नहीं हो सकेगी। पूर्ण कलशका चित्र
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"
४. एक बहु आदि विषय निर्देश
बनानेवाला चित्रकार उस चित्रको न बना सकेगा, क्योकि युगपत् दो तीन ज्ञानोके बिना वह उत्पन्न नहीं होता । ७. इस पक्ष में दो तीन आदि बहुसख्या विषय हो सकेंगे, क्योकि वैसा माननेपर कोई भी ज्ञान दो तीन आदि समूहो को जान ही न सकेगा। उपरोक सर्व विकल्प (१/४.१.४५/९४३/३) (म. १३/१.२.१२/२१५/३) । घ. १३/५-५.३५/२३६/६ यौगपद्येन महाभावात् योग्यप्रदेशस्थि
महतपर्क न प्रतिभासेत न परिदियमानार्थमेदाद्विज्ञानभेद', नानास्वभावस्यैकस्यैव त्रिकोटिपरियन्तुविज्ञानस्योपसम्भावन शक्तिभेदो वस्तुभेदस्य कारणम् पृथक् पृथगर्थक्रियाक वाभावात्तेषां वस्तुत्वानुपपत्ते, ८. एक साथ बहुतका ज्ञान नहीं हो सकने के कारण योग्य प्रदेशोंमे स्थित अंगुलिप चक्का ज्ञान नही हो सक्ता (भ./९.६ १,१४/११/२) १. जाने गये अर्थ में भेद होनेसे विज्ञान में भी भेद है', यह कहना भी ठीक नहीं है; क्योंकि नाना स्वभाववाला एक हो त्रिकोटिपरिणत विज्ञान उपलब्ध होता है । १०. 'शक्ति भेद वस्तुभेदका कारण है' यह कहना भी ठीक नहीं है; क्योंकि, अलग-अलग अर्थ क्रिया न होनेसे उन्हे वस्तुभूत नहीं माना जा सकता । ( अतः बहुत पदार्थों का एक ज्ञानके द्वारा अवग्रह होना सिद्ध हैं)।
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ज
६/४.१.४२/१४१/६ प्रतिद्रव्यभिन्नानां प्रत्ययानां कथमेकरममिति चेकमेकीनां परियभेदेन बहुत्वमादधानानामेकत्वविरोधात् । प्रश्न - ११. प्रत्येक द्रव्यमें भेदको प्राप्त हुए प्रत्ययोंकि एकता कैसे सम्भव है ? उत्तर - नहीं, क्योकि, युगपत एक जोव द्रव्यमें रहनेवाले और ज्ञेय पदार्थोंके भेद से प्रचुरताको प्राप्त हुए प्रयोकी एकतामे कोई विरोध नहीं है।
४. एक व एकविध ज्ञानोंके लक्षण
रावा/१/११/१६/६३/३० अपधोत्रेन्द्रियावरणक्षयोपशमपरिणाम आत्मा ततशब्दादीनामन्यतममल्पं शब्दमवगृह्णाति । तदादि शब्दानामेकविधावग्रहणात् एकविधमवगृह्णाति । ( एवं प्राणाद्यवग्रहेष्यपि योज्यम् ) । - अल्प श्रोत्रेन्द्रियावरण के क्षयोपशमसे परिणत आत्मा तत आदि शब्दों से अन्यतम शब्दको ग्रहण करता है, तथा उनमें से एक प्रकारके शब्दको ही सुनता है। इसी प्रकार अन्य इन्द्रियों में भी लागू कर लेना ।
ध. ६/१,६-१,१४/पृ./पंक्ति एक्कस्सेव वत्युवलंभो एयावग्गहो । ( १९ / ४)। एवपयारग्गगमेयविहावमाहो (२०/१) 1- एक ही वस्तु उपलम्भको एक अवग्रह कहते है और एक प्रकारके पदार्थ का १/४.१.४५ / ९५१/३.१५२/३ );
ग्रहण करना एकविध अग्रह है। (
( गो, जो./जी. प्र./३१९/६६७/
(ध. १३/५.५.३५/२३६/१०, २३७/८ ), १२ ) ।
५. एक व एकविध ज्ञानों में अन्तर
घ. ६/१,६-१,१४/२०/२ एय- एयविहाण को विसेसो उच्चदे - एगस्स महणं यावग्गहो, एगजाईए हिरण्यस्स महू या महणमेयविहाबग्गहो । प्रश्न- एक और एकविधमें क्या भेद है। उत्तर-एक व्यक्तिरूप पार्थका ग्रहण करना एक अवग्रह है और एक जाति स्थित एक पदार्थका अथवा बहुत पदार्थोंका ग्रहण करना एकविध यह है . १/४.१.४३/१५२/३ ) ( १३/५.१.२२/२३०/-) ।
६. एक विषयक ज्ञानकी सिद्धि
घ. ६/९१-९२४/१२/४ अगेयंतमत्युवरंभा एयाम्हो परिथ बह अस्थि, एपिज्जदे एतग्गायमाणस्सुलभा इदि से ण एस दोस्रो, एयवस्थाओ अबोहो एमावग्गही उयदि प विहिपहिधम्मा' रामस्य सत्थ अमेयाम महो होम |
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४. एक बहु आदि विषय निर्देश
किन्तु विहिपडिसेहारद्वमेय बत्थू, तस्स उवलंभो एयावरगहो । अणेय- वत्थुविसओ अवबोहो अणेयावग्गहो। पडिहासो पुण सम्वो अणेयतविसओ चेय, विहिपडिसेहाण मण्णदरस्सेव अणुवलंभा। प्रश्न-वस्तु अनेक धर्मात्मक है, इस लिए एक अवग्रह नही होता। यदि होता है तो एक घरमक वस्तुकी सिद्धि प्राप्त होती है, क्योकि एक धर्मात्मक वस्तुको ग्रहण करनेवाला प्रमाण पाया जाता है । उत्तर१. यह कोई दोष नहीं है, क्योकि, एक वस्तुका ग्रहण करनेवाला ज्ञान एक अवग्रह कहलाता है। तथा विधि और प्रतिषेष धर्मोके वस्तुपना नही है, जिससे उनमे अनेक अवग्रह हो सके। किन्तु विधि और प्रतिषेध धर्मों के समुदायात्मक एक वस्तु होती है, उस प्रकारकी वस्तुके .उपलम्भको एक अवग्रह कहते है । २. अनेक वस्तुविषयक ज्ञानको अनेक अवग्रह कहते है, किन्तु प्रतिभास तो सर्व ही अनेक धोका विषय करनेवाला होता है, क्योकि, विधि और प्रतिषेध. इन दानोमेंसे किसी एक ही धर्मका अनुपलम्भ है, अर्थात इन दोनोमेंसे एकको छोड़कर दूसरा नहीं पाया जाता, दोनो ही प्रधान अप्रधानरूपसे साथ-साथ पाये जाते है। ध. १३/५,५,३५/२३६/१० ऊवधिो-मध्यभागाद्यवयवगतानेकत्वानुगकस्वोपलम्भान्नैक प्रत्ययोऽस्तीति चेत्न, एवं विधस्यैव जात्यन्तरीभूतस्यात्रैकत्वस्य ग्रहणात। -प्रश्न-३ चूकि ऊर्ध्व भाग, अधोभाग और मध्यभाग आदि रूप अवयवोमे रहनेवाली अनेकतासे अनुगत एकता पायी जाती है, अतएव वह एक प्रत्यय नही है । उत्तर-नहीं, क्योकि, यहाँ इस प्रकारकी ही जान्यन्तरभूत एकताका ग्रहण किया है।
.. क्षिप्र व अक्षिप्र ज्ञानोंके लक्षण स सि./१/१६/११२/७ क्षिप्रग्रहणमचिरप्रतिपत्त्यर्थ । -क्षिप्र शब्दका ग्रहण जल्दी होनेवाले ज्ञानको जतलानेके लिए है। (रा. वा./१/१६/
१०/१३/१६)। रा.वा/१/१६/१६/६४/२ प्रकृष्टश्रोत्रेन्द्रियावरणक्षयोपशमादिपारिणामिकत्वात् क्षिप्र शब्दमवगृह्णाति । अल्पश्रोत्रेन्द्रियावरणक्षयोपशमपारिणामिकत्वात् चिरेण शब्दमवगृह्णाति । -प्रकृष्ट श्रोत्रेन्द्रियावरणके क्षयोपशम आदि परिणामके कारण शीघ्रतासे शब्दोको सुनता है और क्षयोपशमादिकी न्यूनतामें देरीसे शब्दोको सुनता है । ( इसी प्रकार
अन्य इन्द्रियोपर भो लागू कर लेना ) घ.६/१६-१,१४/२०/३ आसुग्गहणं खिप्पावरगहो, सणिग्रहणमरित्रप्पावग्गहो। -शीघ्रतापूर्वक वस्तुको ग्रहण करना क्षिप्र अवग्रह है और शनैः शनै ' ग्रहण करना अक्षिप्र अवग्रह है । (ध. १/४,१,४५/१५२/४); (ध.१३/५०५,३५/२३७/६) । गो. जी./जी. प्र/३११/६६७/१४ क्षिप्र शीघ पतञ्जलधाराप्रवाहादि ।
अक्षिप्र मन्द गच्छन्नश्वादि । -शीघ्र तासे पडती जलधारा आदिका ग्रहण क्षिप्र है और मन्दगतिसे चलते हुए घोडे आदिका अक्षिप्र अवग्रह है।
८. निःसृत व अनिःसृत ज्ञानोके लक्षण स. सि./१/१६/११२/७ अनिःसृतग्रहण असकलपुद्गलोद्गमार्थम् ।
-(अनि सृत अर्थात् ईषत् नि सृत ) कुछ प्रगट और कुछ अप्रगट, इस प्रकार वस्तुके कुछ भागोंका ग्रहण होना और कुछका न होना, अनि सृत अवग्रह है । (रा. वा./१/१६/११/६३/१८) । रा. वा./२/१६/१६/६४/४ सुविशुद्धश्रोत्रादिपरिणामात साकल्येनानुचारितस्य ग्रहणात अनि सृतमवगृह्णाति । नि,सृत प्रतीतम् । --क्षयोपशमकी विशुद्धिमें पूरे वाक्यका उच्चारण न होनेपर भी उसका ज्ञान कर लेना अनि मृत अवग्रह है और क्षयोपशमकी न्यूनतामें पूरे रूपसे उच्चारित शब्दका ही ज्ञान करना नि मृत अव पह है।
ध.६/१,६-१,१४/२०/४ अहिमुहअत्थग्गहणं णिसियावग्गहो, अणहिमुह
अस्थग्रहणं अणिसियावग्गहो। अहवा उबमाणोवमेयभावेण गहण णिसियावग्गहो, जहा कमलदलणयणा त्ति। तेण विणा गहणं अणिसियावरगहो। -अभिमुख अर्थका ग्रहण करना नि सृत अवग्रह है
और अनभिमुख अर्थका ग्रहण करना अनि सृत अवग्रह है। अथवा, उपमान उपमेय भावके द्वारा ग्रहण करना नि मृत अवग्रह है। जैसेकमलदल-नयना अर्थात् इस स्त्रीके नयन कमल दल के समान है।
उपमान उपमेय भावके बिना ग्रहण करना अनि मृत अवग्रह है। ध.६/४,१,४१६/पृष्ठ/पंक्ति-वस्त्वेकदेशमवलम्ब्य साक्ष्ये न वस्तुग्रहण
वस्त्वेकदेशं समस्तं वा अबलम्ब्य तत्रासन्निहितवस्त्वन्तरविषयोऽप्यनि सृतप्रत्ययः। (१५२/५)। ..एतत्प्रतिपक्षो नि'मृतप्रत्ययः, तथा क्वचित्कदाचिदुपलभ्यते च वस्त्वेकदेशे आलम्बनीभूते प्रत्ययस्य वृत्ति । (१५३/८)। -वस्तुके एकदेशका अवलम्बन करके पूर्ण रूपसे वस्तुको ग्रहण करनेवाला, तथा वस्तुके एकदेश अथवा समस्त वस्तुका अवलम्बन करके वहाँ अविद्यमान अन्य वस्तुको विषय करनेवाला भी अनि.सृत प्रत्यय है। इसका प्रतिपक्षभूत निसृत प्रत्यय है, क्योंकि, कहीपर किसी कालमें आलम्बनीभूत वस्तुके एकदेशमें उतने ही ज्ञानका अस्तित्व पाया जाता है। (गो. जी./मू./३१२/६६६)। घ १३/५,५३५/पृष्ठ/पक्ति-वस्त्वेकदेशस्य आलम्बनीभूतस्य ग्रहणकाले एकवस्तुप्रतिपत्ति' वस्त्वेकदेशप्रतिपत्तिकाल एव वा दृष्टान्तमुखेन अन्यथा वा अनवलम्बितवस्तुप्रतिपत्ति' अनुसधानप्रत्यय. प्रत्यभिज्ञानप्रत्ययश्च अनि सृतप्रत्ययः । (२३७/११)। एतत्प्रतिपक्षी निःसृतप्रत्यय, क्वचिरकदाचिद्वस्त्वेकदेश एव प्रत्ययोत्पत्त्युपलम्भाव। (२३८/११) ।-आलम्बनीभूत वस्तुके एकदेश ग्रहण के समय में ही एक ( पूरी ) वस्तुका ज्ञान होना, या वस्तुके एकदेशके ज्ञानके समयमें ही, दृष्टान्तमुखेन या अन्य प्रकारसे अनवलम्बित बस्तुका ज्ञान होना, तथा अनुसंधान प्रत्यय और प्रत्यभिज्ञान प्रत्यय-ये सब अनि मृत प्रत्यय है। इससे प्रतिपक्षभूत नि मृतप्रत्यय है, क्योकि, कही पर किसी काल में वस्तुके एकदेशके ज्ञानकी ही उत्पत्ति देखी
जाती है। गो. जी /मू /३१३/६६६ पुक्रखरगहणे काले हरिथस्स य वदणगवयगणे
वा । वत्थ तरचंदस्स य घेणुस्स य वोहणं च हवे ।३१३। = तालाबमें जलमग्न हस्तीकी सूंड देखने पर पूरे हस्तीका ज्ञान होना, अथवा किसी स्त्रीका मुख देखनेपर चन्द्रमाका या 'इसका मुख चन्द्रमाके समान है' ऐसी उपमाका ज्ञान होना; अथवा गवयको देखकर गायका ज्ञान होना, ये सब अनि.मृत अवग्रह है।
९. अनिःसृत ज्ञान और अनुमानमें अन्तर
ध. १३/५,५,३५/२३८/३ अर्वाग्भागावष्टम्भबलेन अनालम्बितपरभागादिघूत्पपद्यमान प्रत्ययः अनुमान किन्न स्यादिति चेत्-न, तस्य लिङ्गादभिन्नार्थ विषयत्वाद। न तावदर्वाग्भागप्रत्ययसमकालभावी परभागप्रत्ययोऽनुमानम्, तस्यावग्रहरूपत्वात् । न भिन्नकालभाव्यप्यनुमानम्. तस्य ईहापृष्ठभाविन' अवायप्रत्ययेऽन्तर्भावात् । प्रश्नअग्भिागके आलम्बनसे अनालम्बित परभागादिकोका होनेवाला ज्ञान अनुमानज्ञान क्यों नहीं होगा। उत्तर-नही, क्योकि, अनुमानज्ञान लिगसे भिन्न अर्थ को विषय करता है। अग्भिागके ज्ञानके समान कालमे होनेवाला परभागका ज्ञान तो अनुमान ज्ञान हो नही सकता, क्योंकि, वह अवग्रह स्वरूप ज्ञान है। भिन्न कोलमे होनेवाला भी उक्त ज्ञान अनुमानज्ञान नहीं हो सकता, क्यो कि, ईहाके पश्चात् उत्पन्न होनेसे उसका अवायज्ञानमें अन्तर्भाव होता है।
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१०. अनिःसृत विषयक ज्ञानकी सिद्धि
४. १/४.१.४५/१५२/० न चायमसिद्ध' घटावग्भिागमवलम्ब्य सचि घटप्रत्ययस्य उत्पत्युपलम्भात् क्वचिदर्वाग्भागैकदेशमवलम्ब्य तदुत्युपलम्भात् चिद् गौरिव गवय इत्यन्यथा वा एकवस्त्ववलम्ब्य तत्रामं निहितवस्त्वन्तविषयप्रत्ययोत्पत्युपलम्भात् क्वचिददग्भागकाल एव परभागा मोक्तम्भात् न पायमसिद्ध वस्तुविषयप्रयोत्पश्यन्यानुपपते । न चारभागमात्र वस्तु तत एव अर्थ क्रियाकतृत्वानुपलम्भात् । कचिदेकवर्णश्रवणकाल एव अभिमानविषयप्रत्ययस्युक्तम्भाद स्वाम्यस्त प्रदेशे एकस्पर्शोपलम्भकाल एम रुपयान्तिरविशिष्टप्रदेशास रोपसम्भात कचिदेरसग्रहणकाल एव तदेशास निहितरसान्सर विशिष्टवस्तुपलम्भात् निःसृतमित्यपरे पठन्ति रुपमाप्रत्यय एक एक सगृहीत स्यात् ततोऽसौ नेष्यते । = १ यह प्रत्यय असिद्ध नही है, क्योकि घटके अर्वाग्भागका अवलम्बन करके कही घटप्रस्ययको उत्पत्ति पायी जाती है। कहीं पर अवभाग एकदेशका अवलम्बन करके उक्त प्रत्ययकी उत्पत्ति पायी जाती है। कहीं पर, 'गायके समान गवय होता है। इस प्रकार अथवा अन्य प्रकारसे एक वस्तुका अवलम्बन करके वहाँ समीपमें न रहनेवाली अन्य वस्तुको विषय करनेवाले प्रत्ययकी उत्पत्ति पायी जाती है । कहीं पर अवभागके ग्रहणकाल में ही परभागका ग्रहण पाया जाता है; और यह असिद्ध भी नही है, क्योंकि अन्यथा वस्तु विषयक प्रत्यकी उत्पत्ति बन नहीं सकतो; तथा अवग्भागमात्र वस्तु हो नहीं सकती, क्योंकि, उतने मात्रसे अर्थक्रियाकारित्व नहीं पाया जाता । कहीं पर एक वर्ण के श्रवणकाल में ही उच्चारण किये जानेवाले वर्णोंको विषय करनेवाले प्रत्ययकी उत्पत्ति पायी जाती है। कहींपर अपने अभ्यस्त प्रदेशमे एक स्पर्शके ग्रहणकाल में ही अन्य स्पर्श विशिष्ट उस वस्तुके प्रदेशान्तरोका ग्रहण होता है। तथा कही पर एक रसके प्रकाश ही उन प्रदेशो में नहीं रहनेवाले रसान्तर से विशिष्ट वस्तुका ग्रहण होता है। दूसरे आचार्य निःसृत' ऐसा पढते है। उनके द्वारा उपमा प्रत्यय एक ही सग्रहीत होगा, अत: वह इष्ट नही है । (ध. १३/ ५.५.३८ / २३७/१३ ) '
११. अनिःसृत विषयक व्यंजनावग्रहकी सिद्धि
रा. वा /१/१६/६/७०/१४ अथानि सृते कथम् । तत्रापि ये च यावन्तश्च गुगल" सूक्ष्मानि सृता' सन्ति, सुक्ष्मास्तु साधारणैर्न गृह्यन्ते तेषा मिन्द्रियस्थानावगाहनम् अनितव्यजनावग्रह प्रश्न अनिसृत ग्रहण में व्यंजनावग्रह कैसे सम्भव है ? उत्तर- जितने सूक्ष्म पुद्गल प्रगट है उनमे अतिरिक्तका ज्ञान भी अव्यक्तरूपसे हो जाता है । उन सूक्ष्म ढगलोका साधारण इन्द्रियो द्वारा तो हग नहीं होता है, परन्तु उनका इन्द्रियदेशमें आ जाना ही उनका अव्यक्त ग्रहण है ।
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१२. उक्त अनुक्त ज्ञानोंके लक्षण ससि./१/१६/९९३/९ अनुक्तमभिप्रायेण ग्रहण
जो कहो या बिना कही वस्तु अभिप्राय जानी जाती है उसके ग्रहण करनेके लिए 'अनुक्त' पद दिया है। (रा. मा/२/१२/१२/६३/२० ) । रावा./१/१६/१६/६४/५ प्रकृष्टविशुद्धिश्रोत्रेन्द्रियादिपरिणामकारण
स्वाद एक निर्गमेऽपि अभिप्रायेणे व अनुच्चारित शब्दमयगृहाति "हम भवाद श वक्ष्यति इति अथवा स्वरसंचार प्रा रात्रीन्यासोद्या या महर्शनेनेव अनादि अमृतमेव
गृह्य आवटे शब्द वादयिष्यति इति उक्त प्रतीत = श्रोत्रेन्द्रियके प्रकृष्ट क्षयोपशमके कारण एक भी शब्दका उच्चारण किये बिना अभिप्राय मात्र से अनुक्त शब्दको जान लेता है, कि आप यह कहनेवाले है । अथवा वीणा आदिके तारोको सम्हालते समय
भा० ३-३३
४. एक बहु आदि विषय निर्देश
ही यह जान लेना कि 'इसके द्वारा यह राग बजाया जायेगा' अनुक ज्ञान है। उक्त अर्थात् कहे गये शब्दको जानना । ( इसी प्रकार अन्य इन्द्रियोमे भी लागू करना ) ।
।
जहा
-
६/११-२०१२/२०१६ नियमित विसिद्ध अत्थर उरगाहो। अधा चलिदिएण धवनत्यगण पाणिदिएण मुदव्यग्णमिचादि अणिमयगुणविदियहणं मह चक्खिदिएण गुडादीण रसस्सग्गहणं, घाणिदिएण दहियादीणं रसग्गहानियादि नियमित गुण विशिष्ट अर्थका करना उक्त अवग्रह है । जैसे -- चक्षुरिन्द्रियके द्वारा धवल अर्थका ग्रहण करना और घाण इन्द्रियके द्वारा सुगन्ध द्रव्यका ग्रहण करना इत्यादि । अनियमित गुणविशिष्ट द्रव्यका ग्रहण करना अनुक्त अवग्रह है । जैसे चरिद्रयके द्वारा रूप देखकर गुड खादिके रक प्रहण करना अथवा घाणेन्द्रियके द्वारा दहीके गन्धके ग्रहणकालमे ही उसके रसका ग्रहण करना (१/१.१.११२/२५०/५) (६/१४/१५१६) ( घ. १३/५.५.३५ / २३८/१२ ) ।
DONG
गो. जी./जी. प्र. / ३११ / ६६७ / १४ अनुक्त अकथित अभिप्रायगत ।" उक्तः अयं घट इति कथितो दृश्यमान । बिना कहे अभिप्राय मात्र से जानना अनुक्त है । और कहे हुए पदार्थको जानना उक्त अनग्रह है जैसे यह पर है' ऐसा कहने पर पटको जानना। १३. उक्त और निःसृत ज्ञानोंमें अन्तर
स.सि./१/१६/११३/८ उक्तनि सृतयो का प्रतिविशेष : यावता सकलनिसरणान्नि सृतम् । उक्तमप्येवंविधमेव । अयमस्ति विशेष, अन्योपदेशपूर्वक ग्रहणमुक्त स्वत एव ग्रहणं निःसृतम्। अपरेषा त्रिनिःसृत इति पाठ से एम वर्णयन्ति शब्दमा मयूरस्य वा कुररस्य वेति कश्चित्प्रतिपद्यते । अपर स्वरूपमेवाश्रित्य इति । प्रश्न- उक्त और नि सृतमें क्या अन्तर है- क्योकि, वस्तुका पूरा प्रगट होना निसृत है और उक्त भी इसी प्रकार है। उत्तरइन दोनोमे यह अन्तर है अन्यके उपदेश पूर्वक वस्तुका ग्रहण करना उक्त है, और स्वत' ग्रहण करना नि सृत' है । कुछ आचार्यो के मत से सूत्रमे 'क्षिप्रानि सृत' के स्थान में 'क्षिप्रनि सृत' ऐसा पाठ है । वे ऐसा व्याख्यान करते है, कि श्रोत्रेन्द्रियके द्वारा शब्दको ग्रहण करते समय वह मयूरका है अथवा कुररका है ऐसा कोई जानता है । दूसरा स्वरूप से ही जानता है। (रा.वा./१/१६/१६/६४/२१) | घ. १ / ४.१.४२ / १५४/६ नि तोरूषो को भेदश्चेन्न उक्तस्य निःसृतानि सृतोभयरूपस्य तेनैकत्वविरोधात । प्रश्न- निःसृत और उक्तमें क्या भेद है। उत्तर- नहीं, क्योंकि, उक्त प्रत्यय नि सृत और अनि सृत दोनो रूप है । अत उसका निसृतके साथ एकत्व होनेका विराध है। ( १३/२२०५/२११/२)।
,
१४. अनुक्त और अनिःसृत ज्ञानों में अन्तर
घ. ६/१.२-१.१४/२०१६ नायमणिरिसदस्स अंतो पददि, एयवरग्यहमकाले दो भूदवस्स्स ओवरिमभागकाले पेय परभागस्य, अंगुलि गहणकाले चेय देवदत्तस्स य गहणस्स अणिस्सिश्वदेसादो] [] अनुत अवग्रह अनि सुरा अवग्रहके अन्तर्गत नहीं है. क्योकि, एक वस्तुकै ग्रहणकालमे ही उससे पृथग्भूत वस्तुका उपरि भाग ग्रहणकालमें ही परभागका और अंगुलि प्रहणकास हो देवदतका ग्रहण करना अनि मृत अवग्रह है ( और रूपका ग्रहण करके रसका ग्रहण करना अनुक्त है । )
१५. अनुक्त विषयक ज्ञानकी सिद्धि
ध.१/४,१,४५/१५४/१न चायमसिद्ध', चक्षुषा लवण-शर्कराखण्ड पलम्भकाल एव कदाचित्तद्रसोपलम्भात् दध्नो गन्धग्रहणकाल एव तद्रसावगते, रूपग्रहणकाल एवं कदाचित्स्पर्शोपसम्भादिहित स्वारस्य,
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४. एक बहु आदि विषय निर्देश
कस्यचिच्छब्दग्रणकाल एव तद्रसादिप्रत्ययोत्पत्त्युपलम्भाच्च । -यह (अनुक्त अवग्रह ) असिद्ध भी नहीं है, क्योकि, चक्षुसे लवण, शक्कर व खाण्डके ग्रहण काल में ही कभी उनके रसका ज्ञान हो जाता है, दहीके गन्धके ग्रहणकाल में ही उसके रसका ज्ञान हो जाता है; दीपकके रूपके ग्रहण कालमें ही कभी उसके स्पर्शका ग्रहण हो जाता है, तथा शब्दके ग्रहण काल में ही संस्कार युक्त किसी पुरुषके उसके रसादिविषयक प्रत्ययकी उत्पत्ति भी पायी जाती है। (ध १३/५, १,३५/२३८/१३)। ११. मन सम्बन्धी अनुक्त ज्ञानकी सिद्धि ध.१/४,१,४५/१५४/६ मनसोऽनुक्तस्य को विषयश्चेददृष्टमश्रुतं च । न
च तस्य तत्र वृत्तिरसिद्धा, उपदेशमन्तरेण द्वादशाङ्गश्रुतावगमान्यथानुपपत्तितस्तस्य तत्सिद्ध ।। = प्रश्न- मनसे अनुक्तका क्या विषय है । उत्तर-अदृष्ट और अश्रुत पदार्थ उसका विषय है। और उसका वहाँ पर रहना असिद्ध नहीं है, क्योकि, उपदेशके बिना अन्यथा द्वादशांग श्रुतका ज्ञान नही बन मक्ता; अतएव उसका अदृष्ट व अश्रुत पदार्थ में रहना सिद्ध है। (ध. १३/५.५,३५/२३६/६) । १७ अप्राप्यकारी इन्द्रियों सम्बन्धी अनिःसृत व अनुक्त
ज्ञानोंकी सिद्धि रा. वा./१/१६/१७-२०/६५/११ कश्चिदाह-श्रोत्रघाणस्पर्शनरसनचतुष्टयस्य प्राप्यकारित्वात अनि सृतानुक्तशब्दाद्यवग्रहहावायधारणा न युक्ता इति; उच्यते-अप्राप्ततत्त्वात् ।१७। कथम् । पिपीलिकादिवत् । 1१। यथा पिपीलिकादीना घ्राणरसनदेशाप्राप्तेऽपि गुडादिद्रव्ये गन्धरसज्ञानम्, तच्च यैश्च यावद्भिश्चास्मादाद्यप्रत्यक्षसूक्ष्मगुडाक्यकैः पिपीलिकादिघाणरसनेन्द्रिययो' परस्परानपेक्षा प्रवृत्तिस्ततो न दोष' । अस्मदादीना तदभाव इति चेद. न, श्रुतापेक्षत्वात् ।१६। परोपदेशापेक्षत्वात् । किच, लब्ध्यक्षरत्वात् ।२०. चक्षु श्रोत्रमाणरसनस्पर्शनमनोलध्यक्षरम्' इत्यार्ष उपदेश । अत' लमध्यधरसानिध्यात एतसिध्यति अनि सृतानुक्तानामपि शब्दादीना अवग्रहादिज्ञानम् । = प्रश्न--स्पर्शन रसना प्राण और श्रोत्र ये चार इन्द्रियाँ प्राप्यकारी है (दे० इन्द्रिय/२), अत. इनसे अनि सृत और अनुक्त ज्ञान नहीं हो सकते । उत्तर-इन इन्द्रियोसे किसी न किसी रूपमें पदार्थ का सम्बन्ध अवश्य हो जाता है, जैसे कि चींटी आदिको घाण व रसना इन्द्रिय के प्रदेशको प्राप्त न होकर भी गुड आदि द्रव्योके रस व गन्धका जो ज्ञान होता है, वह गुड आदिके अप्रत्यक्ष अवसबभूत सूक्ष्म परमाणुओके साथ उसकी घाण व रसना इन्द्रियोका सम्बन्ध होनेके कारण ही होता है। प्रश्न-हम लोगोको तो वैसा ज्ञान नही होता है। उत्तर-नहीं, श्रुतज्ञानकी अपेक्षा हमें भी वैसा ज्ञान पाया जाता है, क्योकि, उसमें परोपदेशकी अपेक्षा रहती है। दूसरी बात यह भी है, कि आगममें श्रुतज्ञानके भेद-प्रभेदके प्रकरण में लब्ध्यक्षरके चक्षु, श्रोत्र, घाण, रसना, स्पर्शन और मनके भेदसे छह भेद किये है (दे० श्रुतज्ञान/II/१), इसलिए इन लब्ध्यक्षररूप श्रुतज्ञानोसे उन-उन इन्द्रियो द्वारा अनि सृत और अनुक्त आदि विशिष्ट अवग्रह आदि ज्ञान होता रहता है। १८.ध्रुव व अध्व ज्ञानोंके लक्षण स.सि /१/१६/११३/१ ध्र वं निरन्तरं यथार्थ ग्रहणम् । - जो यथार्थ ग्रहण 'निरन्तर होता है, उसके जतानेके लिए ध्रव पद दिया है । (और भी दे० अगला शीर्षक २०१६)। (ग वा १/१६/१२/६३/२१) । रा. वा./१/१६/१६/६४/८ सक्लेशपरिणामनिरुत्सुकस्य यथानुरूपश्रोत्रन्द्रियावरणक्षयोपशमादिपरिणामकारणाव स्थितत्व त यथा प्राथमिक शब्दग्रहण तथावस्थितमेव शब्दमवगृह्णाति नोन नाभ्यधिकम् । पौन -
पुन्येन सक्लेशविशुद्धिपरिणामकारणापेक्षस्यात्मनो यथानुरूपपरिणामोपात्तश्रोत्रेन्द्रियसानिध्येऽपि तदावरणस्येषदीषदाविर्भावात पौन.पुनिक प्रकृष्टावकृष्टश्रोत्रेन्द्रियावरणादिक्षयोपशमपरिणामत्वाच्च अध वमवगृह्णाति शब्दम्-वचिद् बहु क्वचिदल्प क्वचिद् बहुविध क्वचिदेकविध क्वचित क्षिप्र क्वचिच्चिरेण क्वचिदनि सृत क्वचिन्निसृतं वचिदुक्त क्वचिदनुक्तम् । -संक्लेश परिणामोके अभावमे यथानुरूप ही श्रोत्रेन्द्रियावरण के क्षयोपशमादि परिणामरूप कारणोके अवस्थित रहनेसे, जैसा प्रथम समयमें शब्द का ज्ञान हुआ था आगे भी वैसा ही ज्ञान होता रहता है । न कम होता है और न अधिक। यह 'ध्रुव' ग्रहण है । पर तु पुन पुन. संक्लेश और विशुद्धिमें झूलनेवाले आत्माको यथानुरूप श्रोत्रेन्द्रियका सान्निध्य रहनेपर भी उसके आवरणका किचिव उदय रहनेके कारण, पुन' पुन' प्रकृष्ट व अप्रकृष्ट श्रोत्रेन्द्रियावरणके क्षयोपशमरूप परिणाम होनेसे शब्दको अध्र व ग्रहण होता है, अर्थात् कभी बहुत शब्दोंको जानता है, और कभी अल्पको, कभी बहुत प्रकारके शब्दोको जानता है और कभी एक प्रकारके शब्दोको, कभी शीघतासे शब्दको जान लेता है और कभी देरसे, कभी प्रगट शब्द को ही जानता है और कभी अप्रगटको भी, कभी उक्तको ही जानता है और कभी अनुक्तको भी। ध. ६/१.६-१,१४/२१/१ णिच्चत्तार गहण धुवावग्गहो, तबिवरीयगहणमद्ध वावगहो। -नित्यतासे अर्थात निरन्तर रूपसे ग्रहण करना ध व-अवग्रह है और उससे विपरीत ग्रहण करना अधव अवग्रह है। घ. १/१,११११/३१७/६ सोऽयमित्यादि ध्र वावग्रह । न सोऽयमित्याद्यध्र वावग्रह.= 'वह यही है' इत्यादि प्रकारसे ग्रहण करनेको ध वाव
ग्रह कहते है और वह यह नही है। इस प्रकारसे ग्रहण करनेको ___ अध्र वावग्रह कहते है । (ध १/४,१,४५/१५४/६)। ध १३/५,५.३५/२३६/३ नित्यत्वविशिष्टस्तम्भादिप्रत्यय स्थिर..." विद्य प्रदीपज्वालादौ उत्पादविनाश विशिष्टवस्तुप्रत्यय अध वः । उत्पाद-व्यय धौव्यविशिष्टवस्तुप्रत्ययोऽपि अधव , ध्र वात्पृथग्भूतस्वात् । नित्यत्वविशिष्ट स्तम्भ आदिका ज्ञान स्थिर अर्थात धवप्रत्यय है और बिजली, दीपककी लौ आदिमें उत्पाद विनाश युक्त वस्तुका ज्ञान अध व प्रत्यय है। उत्पाद व्यय और ध्रौव्य युक्त वस्तुका ज्ञान भी अध व प्रत्यय है, क्योंकि, यह ज्ञान ध व ज्ञानसे भिन्न है। १९. ध्रुवज्ञान व धारणामें अन्तर स सि./१/१६/११४/४ ध्र वावग्रहस्य धारणायाश्च कः प्रति विशेष । उच्यते, क्षयोपशमप्राप्तिकाले विशुद्धपरिणामसंतत्या प्राप्तात्क्षयोप. शमात्प्रथमसमये यथावग्रहस्तथैव द्वितीयादिष्वपि सममेषु नोनो नाभ्यधिक इति धुवावग्रह इत्युच्यते । यदा पुनर्विशुद्धपरिणामस्य सक्लेशपरिणामस्य च मिश्रणात्क्षयोपशमो भवति तत उत्पद्यमानोऽवग्रह. कदाचिद् बहूना कदाचिदल्पस्य कदाचिद् बहुविधस्य कदाचिदेकविधस्य वैति न्यूनाधिकभावादध वावग्रह इत्युच्यते। धारणा पुनर्ग्रहीतार्थाविस्मरणकारणमिति महदनयोरन्तरम् । प्रश्न-५ वाबग्रह और धारणामें क्या अन्तर है। उत्तर-क्षयोपशमकी प्राप्तिके समय विशुद्ध परिणामोकी परम्पराके कारण प्राप्त हुए क्षयोपशमसे प्रथम समय जैसा अवग्रह होता है, वैसा ही द्वितीय आदि समयोंमें भी होता है, न न्यून होता है और न अधिक, यह ध वावग्रह है। किन्तु जब विशुद्ध परिणाम और सक्लेश परिणामोंके मिश्रणसे क्षयोपशम होकर उससे अवग्रह होता है, तब वह कदाचित बहुतका होता है, कदाचित् अल्पका होता है, कदाचित् बहुविधका होता है
और कदाचित एकविधका होता है। तात्पर्य यह कि उसमें न्यूनाधिक भाव होता रहता है, इसलिए वह अधु वावग्रह कहलाता है। किन्तु धारणा तो गृहीत अर्थ के नहीं भूलनेके कारणभूत ज्ञानको कहते है. अत. ध वावग्रह और धारणामें बड़ा अन्तर है।
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मतिज्ञानावरण
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मद्य
२०. ध्रुवज्ञान एकान्तरूप नहीं है घ. १३/१५.३५/२३६/४ न च स्थिरप्रत्यय' एकान्त इति प्रत्यवस्थातं युक्तम. विधिनिषेधादिद्वारेण अत्रापि अनेकान्तविषयत्वदर्शनात् । -स्थिर (ध ब) ज्ञान एकान्तरूप है, ऐसा निश्चय करना युक्त नहीं है, क्योकि, विधि-निषेधके द्वारा यहाँपर भी अनेकान्तकी विषयता देखी जाती है। मतिज्ञानावरण-(दे० ज्ञानावरण)। मत्तजला-पूर्व विदेहको एक विभगा नदी-दे० लोक/५/८ । मत्स-महामत्स सम्बन्धी विषय-दे० समूर्छन। मत्स्य -भरतक्षेत्र में मध्य आर्यस्खण्डका एक देश-दे० मनुष्य/४ । मत्स्योद्वर्त-कायोत्सगका अतिचार-दे० व्युत्सर्ग/१ । मत्सर-न्या. द./भाष्यकी टिप्पणी/४/१/३/२३० प्रक्षीयमाणवस्त्वपरित्यागेच्छा मत्सर । -जिस वस्तु में अपना कोई प्रयोजन न हो, पर उसमें प्रतिसन्धान करना, पर व्यक्तिके अनुकूल पदार्थ के निवारणकी अथवा उसके घातकी अथवा उसके गुणोंके घातकी इच्छा करना मत्सर है। मथमितिकी-Mathematics (ज. प /प्र १०७) । मथुरा-१. भरत क्षेत्रका एक नगर-दे. मनुष्य/। भारतके उत्तरप्रदेशका प्रसिद्ध नगर मथुरा है। और दक्षिण प्रदेशका प्रसिद्ध नगर। 'मदुरा' है। मथुरा संघ-दिगम्बर साधुओं का माथुरसंघ - दे० इतिहास/३/२३। मदनि. सा./ता. वृ /११२ अत्र मदशदेन मदन. कामपरिणाम इत्यर्थः।।
-यहाँ मद शब्दका अर्थ मदन या काम परिणाम है। र.क.पा/२५ अष्टाबाश्रित्य मानित्वं स्मयमाहूर्गतस्मयाः ।२४ - ज्ञान
आदि आठ प्रकारसे अपना बडप्पन माननेको गणधरादिने मद कहा है । (अन, ध./२/८७/२१३); (भा. पा./टी./१५७/२६६/२०) ।
१. मदके आठ भेद मू. आ./५३ विज्ञानमैश्वयं आज्ञा कुलबलतपोरूपजातिः मदा.।
-विज्ञान, ऐश्वर्य, आज्ञा, कुल, बल, तप, रूप और जाति ये आठ मद है। (अन, ध/२/८७/२१३), (द्र. स./टी/४१/१६८/८) । र. क. श्रा./२५ ज्ञानं पूजा कुलं जाति बलमृद्धि तपो वपुः । अष्टावाश्रित्य मानित्वं स्मयमाहुर्गतस्मयाः ॥२५॥ -ज्ञान, पूजा (प्रतिष्ठा), कुल, जाति, बल, ऋद्धि, तप, शरीरकी सुन्दरता इन आठोंको आश्रय करके गर्व करनेको मद कहते है।
ज्ञानमद है। मै सर्वमान्य हूँ। राजा-महाराजा मेरी सेवा करते हैं यह पूजा आज्ञा या प्रतिष्ठाका मद है। मेरा पितृपक्ष अतीव उज्ज्वल है। उसमें ब्रह्महत्या या ऋषिहत्या आदिका भी दूषण आज तक नही लगा है। यह कुलमद है। मेरी माताका पक्ष बहुत ऊँचा है। वह संघपतिकी पुत्री है। शीलमें सुलोचना, सीता, अनन्तमति व चन्दना आदि सरीखी है। यह जातिमद है। मैं सहस्रभट, लक्षभट, कोटिभट हूँ यह बलमद है। मेरे पास अरबो रुपयेकी सम्पत्ति थी। उस सबको छोडकर मै मुनि हुआ हूँ। अन्य मुनियोने अधर्मी होकर दीक्षा ग्रहण की है। यह ऋद्धि या ऐश्वर्य मद है। सिंह निष्क्रीडित, विमानपंक्ति, सर्वतोभद्र आदि महातपौकी विधिका विधाता हूँ। मेरा सारा जन्म तप करते-करते गया है। ये सर्व मुनि तो नित्य भोजनमें रत रहते है। यह तप मद है। मेरे रूपके सामने कामदेव
भी दासता करता है यह रूपमद है। मदना-भरत क्षेत्र में आर्यखण्डकी एक नदी-दे० मनुष्य/४। मद्य* मद्यको अभक्ष्यताका निर्देश-दे० भक्ष्याभक्ष्य/२। १. मद्य निषेधका कारण दे० मांस/२ (नवनीत, मद्य, माम व मधु ये चार महाविकृति है।) पु. सि, उ/६२-६४ मद्य' मोहयति मनो मोहितचित्तस्तु विस्मरति
धर्मम् । विस्मृतवर्मा जीवो हिसामविशङ्कमाचरति ।। रसजाना च बहना जीवानां योनिरिष्यते मद्यम्। मद्य भजतां तेषां हिसा संजायतेऽवश्यम् ६३॥ अभिमानभयजुगुप्साहास्यरतिशोककामकोपाद्या.। हिंसायाः पर्याया. सर्वेऽपि सरकसंनिहिता' ६४-मद्य मनको मोहित करता है, मोहितचित्त होकर धर्मको भूल जाता है । और धर्मको भूला हुआ वह जीव नि शंकपने हिंसा रूप आचरण करने लगता है।६। रस द्वारा उत्पन्न हुए अनेक एकेन्द्रियादिक जीवोंकी यह मदिरा योनिभूत है। इसलिए मद्य सेवन करनेवालेको हिसा अवश्य होती है ।६३। अभिमान, भय, जुगुप्सा, रति, शोक, तथा काम-क्रोधादिक जितने हिसाके भेद है वे सब मदिराके निक्टवर्ती है।६।। सा.घ./२/४-५ यदेकबिन्दो. प्रचरन्ति जीवाश्चैतत त्रिलोकीमपि पूरयन्ति । यद्विक्लवाश्चेयममु च लोक यास्यन्ति तत्कश्यमवश्यमस्यैत ।४। पीते यत्र रसागजीवनिवहा. क्षिप्रं नियन्तेऽखिला , कामक्रोधभयभ्रमप्रभृतय" सावद्यमुद्यन्ति च। तन्मद्य व्रतयन्म धूर्तिलपरास्कन्दीव यात्यापदं, तत्पायी पुनरेकपादिव दुराचार चरन्मज्जति-जिसकी एक बदके जीव यदि फैल जाये तो तीनो लोकोको भी पूर्ण कर देते हैं, और जिस मद्यके द्वारा भूच्छित हुए मनुष्य इस लोक और परलोक दोनोको नष्ट कर देते है। उस मद्यको कल्याणार्थी मनुष्य अवश्य ही छोडे ।४। जिसके पीनेमे मद्यमें पैदा होनेवाले उस समस्त जोव समूहकी मृत्यु हो जाती है, और पाप अथवा निन्दाके साथ-साथ काम, क्रोध, भय, तथा भ्रम आदि प्रधान दोष उदयको प्राप्त होते है, उस मद्यको छोड़नेवाला पुरुष धूर्तिल नामक चोरकी तरह विपत्तिको प्राप्त नही होता है । और उसको पीनेवाला एक्पात नामक संन्यासीकी तरह निन्द्य आचरणको करता हुआ दुर्गतिके दु.खोंको प्राप्त होता है। ला, स./२/७० दोषत्वं प्राड्मतिभ्रशस्ततो मिथ्यावबोधनम् । रागादयस्तत. कर्म ततो जन्मेह क्लेशता ।७० - इसके पीनेसे-पहले तो बुद्धि भ्रष्ट होती है, फिर ज्ञान मिथ्या हो जाता है, अर्थात् माता, बहन आदिको भी स्त्री समझने लगता है। उससे रागादिक उत्पन्न होते है, उनसे अन्यायरूप क्रियाएँ तथा उनसे अत्यन्त क्लेशरूप जन्म मरण होता है।
२. आठ मदोंके लक्षण मो, पा./टी./२७/३२२/४ मदा अष्ट-अह ज्ञानवात् सकलशास्त्रज्ञो वर्ते। अहं माग्यो महामण्डलेश्वरा मत्पादसेवका'। कुलमपि मम पितृपक्षोऽतीवोज्ज्वल, कोऽपि ब्रह्महत्या ऋषिहत्यादिभिरदोषम् । जाति'-मम माता सघस्य पत्युदंहिता-शीलेन सुलोचना-सीताअनन्तमती माता-चन्दनादिका वर्तते। बलं -अहं सहस्रभटो लक्षभट. कोटिभट । ऋद्धि-ममानेकलक्षकोटिगणनं धनमासीत तदपि मया त्यक्तं अन्ये मुनयोऽधर्मणा सन्तो दीक्षा जगृह । तपअहं सिहनिष्क्रीडितविमानप क्तिसर्वतोभद्र आदि महातपोविधिविधाता मम जन्मैव तप' कुर्वतो गतं, एते तु यतयो. नित्यभोजनरता' । वपु-मम रूपाने कामदेवोऽपि दासत्वं करोतोत्यष्टमदा । -मद आठ हैं-मै ज्ञानवान हूँ, सकलशास्त्रोका ज्ञाता हूँ यह
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मद्र
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मधुपिंगल
३. मद्यत्यागके अतिचार सा.ध./३/११ सन्धानकं त्यजेत्राव दधितक द्वबहोषितम् । काञ्जिक पुष्पितमपि मद्यवतमलोऽन्यथा ।११। दार्शनिक श्रावक अचारमुरब्बा आदि सर्व ही प्रकारके सन्धानको और जिससे दो दिन ब दो रात बोत गये है ऐसे दही व छाछको, तथा जिसपर फूई आ गयी हो ऐसी काजीको भी छोडे, नहीं तो मद्यत्याग व्रतमे अनिचार होता है। ला स/२/६८-६९ भगाहिफेनधत्तूरखसखसादिफलं च यत् । माद्यताहेतुरन्यद्वा सर्व मद्यवदीरितम् ।६। एवमित्यादि यद्वस्तु मुरेव मदकारकम् । तन्निखिल त्यजेद्धीमान श्रेयसे ह्यात्मनो गृही।। -भाँग, नागफेन, धतूरा, खसखस (चरस, गॉजा) आदि जो-जो पदार्थ नशा उत्पन्न करनेवाले है, वे सब मद्यके समान ही कहे जाते है।६। ये सब तथा इनके समान अन्य भी ऐसे ही नशीले पदार्थ, कल्याणार्थी
बुद्धिमान व्यक्तिको छोड देने चाहिए ।६।। मद्र-भरतक्षेत्र मध्य आर्यखण्डका एक देश । अपर नाम मद्रकार
दे० मनुष्य/४। मद्रक-उत्तर आर्यखण्डका एक देश-दे० मनुष्य/४ । मद्रा-पा. पु./सर्ग/श्लोक-राजा अन्धकवृष्णिकी पुत्री तथा वसुदेव
की बहन । (७/१३२-१३८ ) । पाण्ड' से विवाही। (८/३४-८७, १०७)। नकुल व सहदेवको जन्म दिया। (८/१७४-१७५) । पतिके दीक्षित हो जानेपर स्वयं भी धर, आहार व जल का त्याग कर सौधर्म स्वर्ग में चली गयो।।६।१५६-१६१)। मधु* मधुकी अमक्ष्यताका निर्देश- (दे० भक्ष्याभक्ष्य/२ ) ।
१. मधु निषेधका कारण दे मास/२ नवनीत, मद्य, मास व मधु ये चार महाविकृतियाँ है। पु. सि. उ/६९-७० मधुशकलमपि प्रायो मधुरकरहिसात्मको भवति लोके । भजति मधुमुढधीको य स भवति हिसकोऽत्यन्तकम् ।६।। स्वयमेव विगलित यो गृहोयाद्वा छलेन मधुगोलात् । तत्रापि भवति हिसा तदाश्रयप्राणिना घातात ७०- मधुकी जूद भी मधुमक्खीकी हिसा रूप ही होती है, अत जो मन्दमति मधुका सेवन करता है, वह अत्यन्त हिसक है।६६। स्वयमेव चूए हुए अथवा छल द्वारा मधुके छतेसे लिये हुए मधुका ग्रहण करनेसे भी हिसा होती है, क्योंकि इस प्रकार उसके आश्रित रहनेवाले अनेको क्षुद्रजीवोका घात होता है। यो, सा /अ/८/६२ बहुजीवप्रधातोरथ बहुजोषोद्भवास्पदम् । असयमविभीतेन त्रेधा मध्वपि बळ ते ६१ =सयमकी रक्षा करनेवालोको, बहुत जोबोके घानसे उत्पन्न तथा बहुत जीवोकी उत्पत्तिके स्थानभूत मधुको मन वचन कायसे छोड देना चाहिए। अ ग श्रा/५/३२ योऽत्ति नाम भेषजेच्छया, सोऽपि याति लघु दुखमुत्वणम् । कि न नाशयति जीवितेच्छया, भक्षित झटिति जीवितं विषम् ।३२॥ -- जो औषधकी इच्छासे भी मधु खाता है, सो भी तीन दुखको शीघ्र प्राप्त होता है, क्योकि, जोनेकी इच्छासे खाया हुआ विष, क्या शीघ्र ही जीवनका नाश नही कर देता है। सा, ध/२/११ मधुकृवातघातोत्थ मध्वशुच्यपि बिन्दुश। खादन् बध्नात्यध सप्तग्रामदाहाहसोऽधिकम् ।३२। - मधुको उपार्जन करनेवाले प्राणियोके समूहके नाशसे उत्पन्न होनेवाली तथा अपवित्र, ऐसी मधुकी एक बंद भो खानेवाला पुरुष सात ग्रामोको जलानेसे भी
अधिक पापको बाँधता है। ला सं./२/७२-७४ माक्षिक मक्षिकाना हि मासासृक् पीडनोद्भवम् ।। प्रसिद्ध' सर्वलोके स्याटागमेष्वपि सूचितम् ।७२। न्यायात्तद्भक्षणे नून पिशिताशनदूषणम् । त्रसस्ता मक्षिका यस्मादामिषं तत्कलेवरम् ॥७३॥
किञ्च तत्र निकोतादि जीवा ससर्गजा क्षणात् । संमूच्छिमा न मुञ्चन्ति तत्सनं जातु क्रव्यवत ।७४। -मधुकी उत्पत्ति मक्खियोके मास रक्त आदिके निचोडसे होती है, यह बात समस्त संसार में प्रसिद्ध है, तथा शास्त्रों में भी यही बात बतलायी है ।७२। इस प्रकार न्यायसे भी यह बात सिद्ध हो जाती है कि मधुके खानेमें मास भक्षणका दोष आता है, क्योंकि मक्खियाँ त्रस जीव होनेसे उनका कलेवर मास कहलाता है ।७३। इसके सिवाय एक बात यह भी है कि जिस प्रकार मासमें सूक्ष्म निगोदराशि उत्पन्न होती रहती है, उसी प्रकार जिसकिसी भी अवस्थामें रहते हुए भी मधुमें सदा जीव उत्पन्न होते रहते है। उन जीवोसे रहित मधु कभी नहीं होता है ।७४। २. मधुत्यागके अतिचार सा. ध./३/१३ प्राय' पुष्पाणि नाश्नीयान्मधुवतविशुद्धये । वस्त्यादिष्वपि मध्वादिप्रयोग नाहति व्रती ।१३। =मधुत्याग व्रतीके लिए फूलोका खाना तथा वस्तिम आदि ( पिण्डदान या औषधि आदि ) के लिए भी मधुको खाना वर्जित है। 'प्राय.' शब्दसे, अच्छी तरह शोधे जाने योग्य महुआ व नागकेसर आदिके फूलोंका अत्यन्त निषेध नहीं किया गया है (यह अर्थ पं. आशाधरजीने स्वयं लिखा है)। ला. सं /२/७७ प्राग्वदत्राप्यतीचारा' सन्ति केचिज्जिनागमात् । यथा पुष्परस पीत पुष्पाणामासवो यथा ७७ = मद्य व मांसक्त मधुके अतिचारोंका भी शास्त्रोमें कथन किया गया है। जैसे-फूलोका रस या उनसे बना हुआ आसव आदिका पीना । गुलकन्दका खाना भी इसी दोषमें गर्भित है। .. मधु नामक पौराणिक पुरुष १. म पु./५६/८८ पूर्वभवमें वर्तमान नारायणका धन जुएमें जीता था। और वर्तमान भवमें तृतीय प्रतिनारायण हुआ। अपर नाम 'मेरक' था।-विशेष दे शलाका पुरुष/५ । २. प. पु./सर्ग/श्लो ।"मथुराके राजा हरिवाहनका पुत्र था। (१२/३)। रावणकी पुत्री कृतचित्राका पति था।(१२/१८) रामचन्द्रजीके छोटे भाई शत्रुघ्नके साथ युद्ध करते समय प्रतिबोधको प्राप्त हुआ। (८/६६ )। हाथीपर बैठे-बैठे दीक्षा धारण कर ली। (८६/१११)। तदनन्तर समाधिमरण पूर्वक सनत्कुमार स्वर्गमे देव हुआ। (८६/११५ ) । ३ ह. पू./ ४३/श्लोक-अयोध्या नगरीमे हेमनाभका पुत्र तथा कैटभका बडा भाई था 1१५। राज्य प्राप्त करके । (१६०)। राजा वीरसेनकी स्त्री चन्द्राभापर मोहित हो गया। (१६५)। बहाना कर दोनोको अपने घर बुलाया तथा चन्द्राभाको रोककर वीरसेनको लौटा दिया। (१७१-१७६)। एक बार एक व्यक्तिको परखीगमनके अपराधमें राजा मधुने हाथ-पाँव काटनेका दण्ड दिया। इस चन्द्राभाने उसे उसका अपराध याद दिलाया। जिसमे उसे वैराग्य आ गया। और विमलवाहन मुनिके संघमें भाई कैटभ आदिके साथ दीक्षित हो गया। चन्द्राभाने भी आर्यिकाकी दीक्षा ली। (१७८-२०२)। शरीर छोड आरण अच्युत स्वर्गमें इन्द्र हुआ। (२१६)। यह प्रद्य म्न कुमारका पूर्वका दूसरा भव है।-दे० प्रद्य म्न । मधुकैटभ-म. पु./६०/श्लोक-अपर नाम मधुसूदन था। दूरवती पूर्वभवमें मलय देशका राजा चण्यशासन था। (५२)। अनेको योनियों में घूमकर वर्तमान भवमे चतुर्थ प्रतिनारायण हुआ। (७०)।
-विशेष दे, शलाकापुरुष/५ । मधुक्रीड़-दे० निशुंभ। मधुपिगल-म.पु/६७/२२३-२५५, ३६६-४५८-सगर चक्रवर्ती विश्वभूके षड्यन्त्रके कारण स्वयम्बरमें 'सुलसा' से वंचित रह जानेके कारण दीक्षा धर, निदानपूर्वक देह त्याग यह महाकाल नामक व्यन्तर
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मधुर संभाषण
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मनःपर्यय
हो गया और सगरसे पूर्व वैरका बदला चुकानेके लिए 'पर्वत' को हिसात्मक यज्ञोके प्रचारमें सहयोग देने लगा। मधर संभाषण-दे० सत्य/२। मधुरा-१ म. पु/१६/२०७-२१० कोशल देशके वृद्वग्राममें मृगायण नामक ब्राह्मणको स्त्री थी। मरकर पोदनपुर नगरके राजाकी पुत्री रामदत्ता हुई । (यह मेरु गणधरका पूर्वका नवाँ भव है-दे० मेरु)। २. दक्षिण द्रविड देशमें वर्तमान मडुरा ( मदुरा) नगर । (द्र. स./ प्र. १ जवाहरलाल शास्त्रो)। मधुसूदन-दे०. मधुकेटभ । मधुसूदन सरस्वती-वेदान्त शास्त्रके अद्वैत सिद्धिके रचयिता ।
समय ई. १३५० ।-दे. वेदान्त/१ । मधुस्त्रावी-दे ऋद्धिा । मध्य-१. दक्षिण व उत्तर वारुणीवर समुद्रका रक्षक देव-दे
व्यतर/४ । २. भरतक्षेत्र आर्यखण्डका एक देश-दे० मनुष्य/४ । मध्य खंड द्रव्य-दे० कृष्टि । मध्यधन-दे० गणित/II/५/३। मध्यम पद-दे० पद। मध्य प्रदेश-जीवके आठ मध्य प्रदेश-दे. जीव/। मध्यम स्वर-दे० स्वर । मध्यमा वाणी-दे० भाषा। मध्य मीमांसा दे० दर्शन/षट्दर्शन । मध्यलोक-१ मध्यलोक परिचय-दे० लोक/३-६ २. मध्य
लोकके नकशे-दे० लोक/७ । मध्यस्थ-दे० माध्यस्थ्य । मध्याह्न-ठीक दोपहरका संधिकाल । मनःपयय-बिना पूछे किसीके मन की बातको प्रत्यक्ष जान जाना मन पर्य यज्ञान है। यद्यपि इसका विषय अवधिज्ञानसे अल्प है, पर सुक्ष्म होने के कारण उससे अधिक विशुद्ध है। और इसलिए यह सयमी साधुओको ही उत्पन्न होना सम्भव है। यद्यपि प्रत्यक्ष है परन्तु इसमे मनका निमित्त उपचारसे स्वीकार किया गया है। यह दो प्रकारका है-ऋजुमति और विपुलमति । प्रथम केवल चिन्तित पदार्थको ही जानता है, परन्तु विपुलमति चिन्तित, अचिन्तित, अर्धचिन्तित व चिन्तितपूर्व सबको जाननेमे समर्थ है।
| मन.पर्यय, मति व श्रुतज्ञानमें अन्तर
-दे०मन पर्यय/३। मन.पर्यय क्षायोपशमिक कैसे- दे० मतिज्ञान/२/४ । मन.पर्यय निसर्गज है-दे० अधिगम । | मन.पर्ययका दर्शन नहीं होता-दे० दर्शन/६। मन.पर्ययज्ञानका विषय १. मनोगत अर्थ व अन्य सामान्य विषयकी अपेक्षा । २. द्रव्य क्षेत्र काल व भावको अपेक्षा । ३ मन पर्यय ज्ञानकी त्रिकालग्राहकता। मूर्तद्रव्यग्राही मन.पर्यय द्वारा जीवके अमूर्त भावोंका
ग्रहण कैसे? ५ . मूर्तग्राही मन.पर्यय द्वारा जीवके अमूर्त कालद्रव्य
सापेक्ष भावोंका ग्रहण कसे? क्षेत्रगत विषय सम्बन्धी स्पष्टीकरण । मन.पर्ययज्ञानके भेद । मन.पर्ययशानमें जाननेका क्रम ।-दे० मन पर्यय/३ । मोक्षमार्गमे मनःपर्ययकी अप्रधानता
-दे० अवधिज्ञान/२। प्रत्येक तीर्थकरके कालमें मन.पर्ययज्ञानियोंका प्रमाण ।
-दे० तोथंकर/५॥ * मन.पर्यय सम्बन्धी गुणरथान, मार्गणास्थान, जीवसमास आदि २० प्ररूपणाएँ।
-दे० सत। मन पर्ययज्ञानियोंकी सत्, संख्या, क्षेत्र, स्पर्शन, काल, अन्तर, भाव व अल्पबद्दुत्वरूप प्ररूपणाएँ
-दे० वह-वह नाम । सभी मार्गणास्थान में आयके अनुसार व्यय होनेका नियम
-दे० मार्गणा।
| १ | मनःपयय ज्ञानसामान्य निर्देश १ मन.पर्ययज्ञान सामान्यका लक्षण
१ परकीय मनोगत पदार्थको जानना। २. पदार्थ के चिन्तवनयुक्त मन या ज्ञानको जानना। उपरोक्त दोनों लक्षणोंका समन्वय । मन पर्ययज्ञानकी देश प्रत्यक्षता -दे० मन पर्यय/३/६ । मन.पर्ययज्ञान व अवधिज्ञानमें अन्तर
-दे० अवधिज्ञान/२ । * अवधिकी अपेक्षा मन.पर्ययकी विशुद्धता
-दे अवधिज्ञान/२।
ऋजु व विपुलमति ज्ञान निर्देश ऋजुमति सामान्यका लक्षण । ऋजुत्वका अर्थ । ऋजुमतिके भेद व उनके लक्षण । ऋजुमतिका विषय १. मनोगत अर्थ व अन्य सामान्य विषयकी अपेक्षा । २-४. द्रव्य, क्षेत्र, काल व भावको अपेक्षा। ऋजुमति अचिन्तित व अनुक्त आदिका ग्रहण क्यों नहीं करता। वचनगत ऋजुमतिकी मन.पर्यय सशा कैसे ? विपुलमति सामान्यका लक्षण। विपुलत्वका अर्थ । विपुलमतिके भेद व उनके लक्षण। विपुलमतिका विषय १. मनोगत अय व अन्य सामान्य विषयकी अपेक्षा।
२-४, द्रव्य, क्षेत्र, काल व भाव की अपेक्षा। ११ / अचिन्तित अर्थगत विपुलमतिको मन पर्नपस कैसे ? ।
विशुद्धि व प्रतिपातको अपेक्षा दोन अन्तर
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जैनेन्द्र सिद्धान्तकोश
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मनःपर्यय
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१. मनःपर्ययज्ञान सामान्य निर्देश
मनःपर्ययज्ञानमें स्वव पर मनका स्थान १ | मनःपर्ययका उत्पत्तिस्थान मन है, करणचिह्न नहीं।
दोनों ही शानोंमें मनोमति पूर्वक परकीय मनको जानकर पीछे तद्गत अर्थको जाना जाता है। ऋजुमतिमें इन्द्रियों व मनकी अपेक्षा होती है, विपुलमतिमें नहीं। मनकी अपेक्षामात्रसे यह मतिशान नहीं कहा जा सकता। मतिशान पूर्वक होते हुए भी इसे श्रुतज्ञान नहीं कहा। जा सकता। मन.पर्ययज्ञान प्रत्यक्ष व इन्द्रियनिरपेक्ष है।
मनःपर्ययका स्वामित्व ऋद्धिधारी प्रवर्द्धमान संयतको ही सम्भव है। अप्रमत्तादि गुणस्थानों में उस्पन्न होता है। ऋजु व विपुलमतिका स्वामित्व । निचले गुणस्थानोंमें क्यों नहीं होता। सभी सयमियोंको क्यों नहीं होता। अप्रशस्त वेदमें नहीं होता। -दे० वेद/६ । उपशम सम्यक्त्व व परिहार विशुद्धि आदि गुण विशेषोंके साथ नहीं होता
-दे० परिहार विशुद्धि/७१ द्वि. व प्र. उपशमसम्यक्त्वके कालमें मनःपर्ययके सद्भाव व अभाव सम्बन्धी हेतु । पंचम कालमें सम्भव नहीं-दे० अवधिज्ञान/२/७ ॥
ध.६/१,६-११४/२८/६ परकीयमनोगतोऽर्थो मन , तस्य पर्याया विशेषा'
मन पर्याया, तात् जानातीति मन पर्ययज्ञानम् । परकीय मनमें स्थित पदार्थ मन कहलाता है। उसकी पर्यायो अर्थात 'विशेषोको मन पर्यय कहते है। उनको जो ज्ञान जानता है वह मन पर्य यज्ञान है । (ध. १३/५५५,२१/२१२/४ ) । दे. मन पर्यय । ३/२ (स्वमनसे परमनका आश्रय लेकर मनोगत अर्थ
को जाननेवाला मन पर्यय ज्ञान है।) २. पदार्थ के चिन्तवन युक्त मन या शानको जानना ध. १/१,१,२/६४/४ मणपज्जवणाणं णाम परमणोगयाई मुत्तिदबाई तेण मणेण सह पच्चक्रलं जाणदि । जो दूसरोके मनोगत मूर्तीक द्रव्योंको उस मनके साथ प्रत्यक्ष जानता है. उसे मन पर्ययज्ञान कहते है। ध. १३/५,५,२१/२१२/८ अधवा मणपज्जवसण्णा जेण रूढिभवा तेण चितिए विचितिए वि अत्थे बट्टमाणणाणविसया त्ति घेत्तव्वा । - अथवा 'मन'पर्यय' यह संज्ञा रूढिजन्य है। इसलिए चिन्तित व अचिन्तित दोनो प्रकारके अर्थ में विद्यमान ज्ञानको विषय करनेवाली यह सज्ञा है, ऐसा यहाँ ग्रहण करना चाहिए।
२. उपरोक्त दोनों लक्षणोंका समन्वय घ. १३/५,५,२१/२१२/४ परकीयमनोगतोऽथों मन', मनस' पर्यायाः विशेषा" मन पर्याया', तान् जानातीति मनःपर्ययज्ञानम् । सामान्यव्यतिरिक्तविशेषग्रहणं न संभवति, निविषयत्वात् । तस्मात् सामान्यविशेषात्मकवस्तुग्राहि मन पर्ययज्ञानमिति वक्तव्यं चेत्नैष दोष , दृष्टत्वात । तहि सामान्यग्रहणमपि कर्तव्यम् । (न), सामथ्र्यलभ्यत्वात् । एदं वयणं देसामासियं। कुदो। अचि तियाण अचितियाणं च अस्थाणमवगमादो।
___परकीय मनको प्राप्त हुए अर्थ का नाम मन है। उस मन (मनोगत पदार्थ ) की पर्यायो या विशेषोका नाम मन पर्याय है। उन्हें जो जानता है, वह मन पर्यायज्ञान है।-विशेष दे० लक्षण नं०१। प्रश्न--सामान्यको छोड़कर केवल विशेषका ग्रहण करना सम्भव नहीं है, क्योकि, ज्ञानका विषय केवल विशेष नही होता, इसलिए सामान्य विशेषात्मक वस्तुको ग्रहण करनेवाला मन.पर्ययज्ञान है, ऐसा कहना चाहिए। उत्तर-यह कोई दोष नहीं, क्योकि, यह बात हमें इष्ट है । प्रश्न-तो इसके विषय रूपसे सामान्यका भी ग्रहण करना चाहिए। उत्तर-नही, क्योकि सामर्थ्य से ही उसका ग्रहण हो जाता है। अथवा यह वचन ( उपरोक्त लक्षण नं०१) देशामर्शक है. क्योंकि, इससे अचिन्तित और अर्धचिन्तित अर्थोका भी ज्ञान होता है। अथवा (चिन्तित पदार्थोके साथ-साथ उस चिन्तबन युक्त ज्ञान या मनको भी जानता है-दे० लक्षण न०२)। भावार्थ-'परकीय मनोगत पदार्थ' इतना मात्र कहना सामान्य विषय निर्देश है और 'चिन्तित अचिन्तित आदि पदार्थ' यह कहना विशेषविषय निर्देश है। अथवा 'चिन्तित अचिन्तित पदार्थ' यह कहना विशेष विषय निर्देश है और 'इससे युक्त ज्ञान व मन' यह कहना सामान्य विशेष निर्देश है। पदार्थ सामान्य, पदार्थ विशेष और ज्ञान या मन इन तीनो बातोको युगपत् ग्रहण करनेसे मनपर्यय ज्ञानका विषय सामान्य विशेषात्मक हो जाता है। ३. मनःपर्ययज्ञानका विषय १. मनोगत अर्थ व अन्य सामान्य विषयकी अपेक्षा दे० मन पर्यय/२/४,१० ( दूसरोके मनमे स्थित संज्ञा, स्मृति, चिन्ता, मति आदिको तथा जीवो के जीवन-मरण, सुख-दुख तथा नगर आदिका विनाश, अतिवृष्टि, सुवृष्टि, दुभिक्ष-सुभिक्ष, क्षेम-अक्षेम, भय-रोग आदि पदार्थों को जानता है।)
१. मनःपर्ययज्ञान सामान्य निर्देश
१. मनःपययज्ञान सामान्यका लक्षण
१. परकीय मनोगत पदार्थको जानना ति.प./४/१७३ चिंताए अचिंताए अद्भचिंताए विविहभेयगयं । जं जाणइ
परलोए तं चिय मणपज्जवं णाणं ।६७३-चिन्ता, अचिन्ता और अर्धचिन्ताके विषयभूत अनेक भेदरूप पदार्थको जो ज्ञान नरलोकके भीतर जानता है, वह मन पर्ययज्ञान है। (प.स./प्रा./१/१२५); (ध. १/१.१,११५/गा. १८५/३६०), (क. पा. १/१,१/१२८/४३/३ ):
(गो.जी./मू./४३८८५७) । स. सि /१,६/६४/३ परकीयमनोगतोऽर्थो मन इत्युच्यते । साहचर्यात्तस्य पर्य यर्ण परिगमनं मन'पर्ययः । - दुसरेके मनोगत अर्थ को मन कहते है, उसके मनके सम्बन्धसे उस पदार्थका पर्ययण अर्थात परिगमन करनेको या जाननेको मन पर्ययज्ञान कहते है। (रा. वा./ १/१/४४/२१); (क. पा १/१,१/११४/१२/), (गो. जी /जी.प्र./
४३०/८५८/५)। रा.वा./९/९/४/४४/१६ तदावरण कर्मक्षयापशमादि-द्वितीयनिमित्तवशात् परकीयमनोगतार्थ ज्ञानं मन पर्ययः।-मन-पर्यय ज्ञानावरण कर्मके क्षयोपशमादिरूप सामग्रीके निमित्तसे परकीय मनोगत अर्थको जानना मन पर्यय ज्ञान है । (६. का, त. प्र./४१), (द्र. सं./टी./५/ १७/२) । (न्या दी./२/१३/३४) ।
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मनःपर्यय
२६३
१. मनःपर्ययज्ञान सामान्य निर्देश
नहीं उपलब्ध होता है। पहिला पक्ष माननेपर कालका भी प्रत्यक्ष होना चाहिए, क्योकि, अन्यथा 'इतने कालमें सुख होगा या इतने काल तक सुख रहेगा; यह नहीं जाना जा सकता। परन्तु कालका मन पर्यय ज्ञानके द्वारा प्रत्यक्ष ज्ञान होता नहीं है क्योकि, उसकी अमूर्त पदार्थ मे प्रवृत्ति माननेमें बिरोध आता है। उत्तर-यह कोई दोष नहीं है, क्योकि, यहाँपर व्यवहार कालका अधिकार है । दूसरे, काल संज्ञावाले मूर्त द्रव्योंका (सूर्य, नेत्र, घडी आदिका) परिणाम अमूर्त ही होता है, ऐसा कोई नियम भी नहीं है, क्योंकि वैसा माननेपर अव्यवस्थाकी आपत्ति आती है।
प.क्षेत्रगत विषय सम्बन्धी स्पष्टीकरण
२. द्रव्य, क्षेत्र, काल व भावकी अपेक्षा त.स/१/२८ तदनन्तभागे मन पर्ययस्य । -(द्रव्यकी अपेक्षा) मन:
पर्ययज्ञानकी प्रवृत्ति अवधिज्ञानके विषयके अनन्तवें भागमें होती है। (त सा./१/३३)। ध.१/१,१,२/१४/५ दव्वदो जहण्णेण एगसमयओरालियसरीरणिज्जर जाणदि । उक्कस्सेण एगसमयपडिबद्धस्स कम्मइयदब्वस्स अणं तिमभाग जाणदि । खेत्तदो जहण्णेण गाउवधत्तं, उक्कस्सेण माणुसखेत्तस्संतो जाणदि, णो बहिदा। कालदो जपणेण दो तिण्णि भवग्गहणाणि। उक्कस्सेण असंखेज्जाणि भवग्रहणाणि जाणादि। -मन'पर्ययज्ञान द्रव्यकी अपेक्षा जघन्य रूपसे एक समयमें होनेवाले औदारिक शरीरके निर्जरारूप द्रव्य तकको जानता है। उत्कृष्ट रूपसे कार्मण द्रव्यके अर्थात आठ कर्मोके एक समयमें बंधे हुए समयप्रबद्ध रूप द्रव्यके अनन्त भागों में से एक भाग तकको जानता है। क्षेत्रकी अपेक्षा जघन्यरूपसे गव्यूति पृथक्त्व अर्थात दो तीन कोस तक क्षेत्रको जानता है और उत्कृष्ट रूपसे मनुष्य क्षेत्रके भीतर तक जानता है, उसके बाहर नहीं। कालकी अपेक्षा जघन्य रूपसे दो तीन भवोको और उत्कृष्ट रूपसे असंख्यात भवोंको जानता है ।(भावकी अपेक्षा द्रव्य प्रमाणसे निरूपण किये गये द्रव्यकी शक्तिको जानता है) ३. मनःपर्ययज्ञानकी त्रिकाल ग्राहकता २० लक्षण नं०१ (दूसरेके मनको प्राप्त ऐसे चिन्तित अचिन्तित अर्धचिन्तित व चिन्तित पूर्व सब अर्थोंको जानता है-और भी दे०
मन पर्यय/२/१०)। दे० मन पर्यय/२/४,१० (अतीतविषयक स्मृति, वर्तमानविषयक चिन्ता
और अनागत विषयक मतिको जानता है। इस प्रकार वर्तमान जीवके मनोगत त्रिकाल विषयक अर्थ को जानता है।) १. मूर्त द्रव्यग्राही मनःपर्यय द्वारा जीवके अमूर्त मार्यो
का ग्रहण कैसे घ. १३/५,५,६३/३३३/५ अमूत्तो जीवो कधमणपज्जवणाणेण मुत्तट्ठपरिच्छेदियोहिणाणादो हेठियेण परिच्छिज्जदे। ण मुत्तट्टकम्मेहि अणादिबंधणबद्धस्स जीवस्स अमुत्तत्ताणुववत्तीदो। स्मृतिरमूर्ता चेत-न, जीवादो पुधभूदसदीए अणुवलंभा। -प्रश्न-यत' जीव अमूर्त है अतः वह मूते अर्थको जाननेवाले अवधिज्ञानसे नीचेके मन पर्यय ज्ञानके द्वारा कैसे जाना जाता है। उत्तर-नहीं, क्योंकि, संसारी जीव मूर्त आठ कर्मोंके द्वारा अनादि कालीन बन्धनसे बद्ध है, इसलिए वह अमूर्त नहीं हो सकता। प्रश्न-स्मृति तो अमूर्त है । उत्तर-नहीं, क्योंकि, स्मृति जीबसे पृथक् नहीं उपलब्ध होती है। ५. मूर्तग्राही मनःपर्यय द्वारा अमूर्त कालव्य सापेक्ष
मावोंका ग्रहण कैसे ध.१३/५,५,६३/३३४/५ एत्तिए णकालेण सुह होदि त्ति कि जाणादि आहो ण जाणादि त्ति। विदिएण पचक्खेण सुहावगमो, कालपमाणावगमाभावादो। पढमपक्रखे कालेण वि पचक्खेण होदव्वं, अण्णहा सुहमेत्तिएण कालेण एत्तियं वा काल होदि त्ति वोत्तमजोगादो। ण च कालो मणपज्जवणाणेण पच्चक्खमवगम्मदे, अमुत्तम्मि तस्स बुत्तिविरोहादो त्ति । ण एस दोसो, बवहारकालेण एत्थ अहियारादो। ण च मुत्ताणं दव्याण परिणामो कालसण्णिदो अमुत्तो चेव होदि ति णियमो अस्थि, अव्ववत्थावत्तीदो। -प्रश्न-इतने कालमें सुख होगा, इसे क्या वह जानता है अथवा नही जानता। दूसरा पक्ष स्वीकार करनेपर प्रत्यक्षसे सुखका ज्ञान नहीं हो सकता, क्योंकि, उसके कालका प्रमाण
घ.६/४,१,११/६७/१० एगागाससेडीए चेव जाणदि त्ति के वि भणति ।
तण्ण घडदे, देव-मणुस्सविज्जाहराइसु णाणस्स अप्पउत्तिपसंगादो। 'माणुसुत्तरसेलस्स अभंतरदो चेव जाणेदि णो बहिद्धा' त्ति वग्गणसुत्तेण णिविट्ठादो माणुसखेत्तअभंतरट्ठिदसव्वमुत्तिदव्वाणि जाणदि णो बाहिराणि त्ति के वि भणं ति । तण्ण घडदे, माणुस्सुत्तरसेलसमावे ठइदूण बाहिरदिसाए कओवयोगस्स णाणाणुप्पत्तिप्पसंगादो। होदु च ण, तदणुप्पत्तीए कारणाभावादो। ण ताव खोवसमाभावे... अणि दियस्स पच्चक्खस्स...माणुमुत्तरसेलेण पडिघादाणुववत्तीदो। तदो माणुसुत्तरसेलब्भतरवयणं ण खेतणियामयं, कितु माणुमुत्तरसेलम्भतरपणदालीसजोयणलवरवणियामयं, विउल मदि मदिमणपज्जयणाणुज्जोयसहिदखेत्ते धणागारेण ठइदे पणदालीसजोयणलक्खमेत्तं चेव होदि त्ति। -आकाशकी एक श्रेणीके क्रमसे ही जानता है ऐसा कितने ही आचार्य कहते है, किन्तु वह घटित नहीं होता, क्योंकि, ऐसा माननेपर देव, मनुष्य एवं विद्याधरादिकोमें विपुलमति मन'पर्ययज्ञानकी प्रवृत्ति न हो सकनेका प्रसंग आवेगा। 'मानुषोत्तरदौलके भीतर ही स्थित पदार्थको जानता है, उसके बाहर नही' (दे० मन पर्यय/२/१०/३) ऐसा वर्गणासूत्र द्वारा निर्दिष्ट होनेसे, मनुष्यक्षेत्रके भीतर स्थित सब मूर्त द्रव्योको जानता है, उससे बाह्यक्षेत्रमें नहीं; ऐसा कोई आचार्य कहते है। किन्तु यह घटित नहीं होता, क्योकि, ऐसा स्वीकार करनेपर मानुषोत्तर पर्वतके समीपमें स्थित होकर बाह्य दिशामें उपयोग करनेवालेके ज्ञानकी उत्पत्ति न हो सकनेका प्रसंग होगा। यह प्रसंग आवे तो आने दो, यह कहना भी ठीक नही, क्योकि, उसके उत्पन्न न हो सकनेका कोई कारण नहीं है। क्षयोपशमका तो अभाव है नही. और न ही मन पर्ययके अनिन्द्रिय प्रत्यक्षका मानुषोत्तर पर्वतसे प्रतिघात होना सम्भव है। अतएव 'मानुषोत्तर पर्वतके भीतर' यह वचन क्षेत्र नियामक नहीं है, किन्तु मानुषोत्तर पर्वतके भीतर ४५००,००० योजनोका नियामक है. क्योंकि, विपुल मतिज्ञानके उद्योत सहित क्षेत्रको घनाकारसे स्थापित करनेपर ४५०००,०० योजन मात्र ही होता है। (इतने क्षेत्रके भीतर स्थित होकर चिन्तवन करनेवाले जीधोके द्वारा विचार्यमाण दव्य मनःपर्ययज्ञानकी प्रभासे अवष्टब्ध क्षेत्रके भीतर होता है, तो जानता है, अन्यथा नही जानता है; यह उक्त कथनका तात्पर्य है-(ध. १३); (ध. १३/५,५,७७/३४३/8): (गो, जी /जी प्र/४५६/८६६/१५)।
७. मनःपर्ययज्ञानके भेद पं का./ता, वृ./ प्रक्षेपक गाथा/४३-४ विउलमदि पुण णाणं अज्जवणाणं च दुविह मणणार्ण । -मन.पर्ययज्ञान दो प्रकारका है-अजुमति
और विपुलमति । (म.बं. १/६२/३), (दे० ज्ञानावरण/३/२); (त. सू. १/२३); (स.सि./१/२३/१२६/७); (रा. वा/१/२३/६/०४/२७); (ह. पु/१०/१५३), (क. पा. १/१-१/१४/२०/१); (ध.६/१,६-१, १४/२८/७), (ज. १/१३/५२); ( गो, जी /मू /४३६/८५८)।
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मनःपर्यय
२६४
२. ऋजु व विपुलमति ज्ञान निर्देश २. ऋजु व विपुलमति ज्ञान निर्देश
३. ऋजुमतिके भेद व उनके लक्षण १. ऋजुमति सामान्यका लक्षण
म. ब. १/१२/२४/४ यं तं उजुमदिणाणं तं तिविधं-उज्जुगं मणोगदं स.सि./१/१२३/१२६/२ ऋज्वी निर्वतिता प्रगुणा च । करमान्निर्ब तिता।
जाणदि। उज्जुगं वचिंगद जाणदि। उज्जुगं कायगदं जाणदि । बाक्कायमन कृतार्थस्य परमनोगतस्य विज्ञानात् । ऋज्वी मतिर्यस्य
जो ऋजुमति ज्ञान है, वह तीन प्रकारका है। वह सरल मनोगत सोऽयं ऋजुमति । = ऋजुका अर्थ निर्वतित (निष्पन्न) और प्रगुण
पदार्थको जानता है, सरल बचनगत पदार्थको जानता है, सरल (सीधा) है। अर्थात् दूसरेके मनको प्राप्त वचन काय और मनकृत
कायगत पदार्थको जानता है। (ष खं. १३/५.६४ सूत्र ६२/३२६); अर्थ के विज्ञानसे निर्वर्तित या अजु जिसकी मति है वह ऋजुमति
(ध.६/४,१,१०/६३/९); (गो. जी /मू./४३६/८५८)। कहलाता है । (रा. वा./१/२३/-/८३/३३); (ध १३/५,५,६२/३३०/५),
रा. वा/१/२३/७/८४/२६ आद्य ऋजुमतिमन.पर्ययस्त्रेधा। कुत.। ऋजु(गो, जी,/जी.प्र./४३६/८५८/१६),
मनोवाक्कायविषयभेदात-अजुमनस्कृतार्थज्ञ' ऋजुवाक्कृतार्थज्ञः
ऋजुकायकृतार्थज्ञश्चेति । तद्यथा, मनसाऽथं व्यक्त संचिन्त्य वाचं ध.६/४,१,१०/६२/६ परकीयमतिगतोऽर्थ, उपचारेण मतिः। ऋज्वी
वा धर्मादियुक्तामस कीर्णामुच्चार्य कायप्रयोगं चोभयलोकफलअवका । ज्वी मतिर्यस्य स ऋजुमति ।-दूसरेके मनमें स्थित अर्थ
निष्पादनार्थमङ्गोपाङ्गप्रत्यङ्गनिपानाकुचनप्रसारणादिलक्षणं कृत्वा उपचार से मति कहा जाता है। ऋजुका अर्थ वक्रता रहित है (या
पुनरनन्तरे समये कालान्तरे वा तमेवार्थ चिन्तितमुक्तं कृतं वा वर्तमान काल है)-(दे० नय/III/१/२) । ऋजु है मति जिसको वह
विस्मृतत्वान्न शक्नोति चिन्तयितुम, तमेवं विधमर्थ ऋजुमतिमन.ऋजुमति कहा जाता है । (पं. का./ता. वृ/४३-४/८७/३) ।
पर्यय पृष्ठोऽपृष्ठो वा जानाति 'अयमसावर्थोऽनेन विधिना त्वया २. ऋजुत्वका अर्थ
चिन्तित उक्त कृतो वा' इति। कथमयमर्थों लभ्यते। आगमा
विरोधात् । आगमे युक्तम्... ऋजू, मन, वचन व कायके विषय ध.६/४,१,१०/६२/६ कथमृजुत्वम् । यथार्थ मत्यारोहणाद यथार्थमभि- भेदसे ऋजुमति तीन प्रकारका है-ऋजुमनस्कृतार्थज्ञ, ऋजुवाक्धानगतवान् यथार्थमभिनयगतत्वाच्च । -प्रश्न-ऋजुता कैसे है।
कृताथ ज्ञ और ऋजुकायकृतार्थज्ञ । जैसे किसीने किसी समय सरल उत्तर-यथार्थ मनका विषय होनेसे, यथार्थ वचनगत होनेसे और
मनसे (दे० मन.पर्यय/२/२) किसी पदार्थका स्पष्ट विचार किया, यथार्थ अभिनय अर्थात कायिक चेष्टागत होनेसे उक्त मतिमें
स्पष्ट वाणीसे कोई विचार व्यक्त किया और कायसे भी उभयफल ऋजुता है।
निष्पादनार्थ अगोपाग आदिका सुकोडना, फैलाना आदि रूप स्पष्ट ध १३/५,५,६२/३३०/१ मणस्स कधमुजुगत्तं । जो जधा अत्यो ट्ठिदो त
क्रिया की। कालान्तरमें उन्हे भूल जानेके कारण पुन, उन्हीका तधा चितयतो मणो उज्जुगत्तो णाम । तश्विवरीयो मणो अणुज्जुगो ।
चिन्तवन व उच्चारण आदि करनेको समर्थ न रहा। इस प्रकारके कधवयणस्स उज्जुवत्त । जो जेम अत्यो ट्ठिदो त तेम जाणावयत
अर्थको पूछनेपर या बिना पूछे भी अजुमति मन पर्यय ज्ञान बयणं उज्जुब णाम । तबिवरीयमणुज्जु । कध कायरस उज्जुबत्त ।
जान लेता है, कि इसने इस प्रकार सोचा था या बोला था या जो जहा अत्थो द्विदो तंतहा चेव अहिणइद्रण दरिसयतो काओं
किया था। और यह अर्थ आगमसे सिद्ध है। यथा-(दे० अगला उजुओ णाम । तबिवरीयो अणुज्जुओ णाम । == प्रश्न-मन, बचन
सन्दर्भ ) दे० मन. पर्यय/२/४ (दे० गो जी./जी प्र/४४०/८५६/१७) । व कायमें ऋजुपना कैसे आता है। उत्तर-जो अर्थ जिस प्रकारसे
(अपने मनसे दूसरेके मानसको जानकर ही तद्गत अर्थको स्थित है, उसका उसी प्रकारसे चिन्तवन करनेवाला मन, उसका
जानता है। चिन्तित या उक्त या अभिनयगतको ही जानता उसी प्रकारसे ज्ञापन करनेवाला वचन और उसको उसी प्रकारसे
है । अचिन्तित, अर्द्धचिन्तित या विपरीत चिन्तितको अनुक्त, अद्ध अभिनय द्वारा दिखलानेवाला काय तो ऋजु है, और इनसे विपरीत
उक्त व विपरीत उक्तको तथा इसी प्रकारके अभिनयगतको नही चिन्तवन, ज्ञापन व अभिनय युक्त मन वचन काय अन्जु है।
जानता।) ध. १३/१,५,६४/३३७/३ व्यक्त निष्पन्न सशय-विपर्ययानध्यबसाय
दे० मन,पर्यय/२/२ (जो अर्थ जैसे स्थित है उसका उसी प्रकारसे विरहितं मन' येषा ते व्यक्तमनस' तेषा व्यक्तमनसा जीवाना
चिन्तवन करना अथवा प्रज्ञापन करना अथवा अभिनय द्वारा प्रदर्शन परेषामात्मनश्च सबन्धि वस्त्वन्तर जानाति, नो अव्यक्तमनसा
करना मन वचन व काय सम्बन्धी ऋजुमति ज्ञान है)। जीवाना संबन्धि वस्त्वन्तरम्, तत्र तस्य सामर्थ्याभावात् । कधं मणस्स माणववएसो। वर्तमानाना जीवाना बर्तमानमनोगत- ४. ऋजुमतिका विषय त्रिकालसबन्धिनमर्थ जानाति, मातीतानागतमनोविषयमिति ।
१. मनोगत अर्थ व अन्य सामान्य विषयकी अपेक्षा सूत्रार्थो व्याख्येय । - व्यक्त (अर्थात अज) का अर्थ निष्पन्न होता है । अर्थात् जिनका मन सशय, विपर्यय और अनध्यवसायसे रहित ष, ख, १३/५/सूत्र ६३-६४/३३२-३३६ मणेण माणस पडि विदडता है वे व्यक्त मनवाले जीव है, उन व्यक्त मनवाले अन्य जीवोसे तथा परेसि सण्णा सदि मदि चिता जीविदमरणं लाहालाह सुहदुक्खं णयरस्वसे सम्बन्ध रखनेवाले अन्य अर्थ को जानता है। अन्यक्त मनवाले विणास देसविणासं. अइबुटिठ अणाबुटिठ सुवुटिठ दुबुठ्ठि सुभिवं जीवोसे सम्बन्ध रखनेवाले अन्य अर्थको नहीं जानता है, दुभिक्खं खेमाखेम भयरोग कालस (प) जुत्ते अत्ये वि जाणदि चिन्तित अर्थ पुक्त, मन व्यक्त है और अचिन्तित व अर्धचिन्तित १६३। किंच भूओ-अप्पणो परेसिं च वत्तमाणाण जीवाणं जाणदि अर्थ युक्त अव्यक्त है । (दे० मन पर्यय/२/१०/१ मे ध/९३) क्योकि. णो अवत्तमाणाण जीवाणं जाण दि १६४सूत्र न. ६३ की टोका इस प्रकारके अर्थको जाननेका इस ज्ञानका सामर्थ्य नही है । पृ० ३३३ सद्दकलाओ सण्णा। दिसुदाणुभूदछ सदी। अणागप्रश्न-(सूत्रमे) मनको 'मान' व्यपदेश वैसे किया है। उत्तर ---- यस्थविसय मदी। वट्टमाणस्थविसय चिंता।] = अपने मनके द्वारा वर्तमान जीबोके वर्तमान मनोगत त्रिकाल सम्बन्धी अर्थ को दूसरेके मानसको जानकर (यह ऋजुमति मन पर्ययज्ञान) कालसे जानता है, अतीत और अनागत मनोगत विषयको नहीं जानता है, विशेषित दूसरोकी सज्ञा (शब्दकलाप), स्मृति (अतीतकालगत दृष्ट इस प्रकार मूत्रके अर्थ का व्याख्यान करना चाहिए। (चिन्तित श्रुत व अनुभूत विषय), मति (अनागत कालगत विषय), चिन्ता असक्त मन व्यक्त है और अचिन्तित व अर्धचिन्तित अर्थ युक्त (वर्तमानकालगत विषय) इन सबको; तथा उनके जीवित-मरण, २ र भो० दे० मन पर्यय/२/४/१)।
लाभ-अलाभ व सुख-दुखको, तथा नगर, देश, जनपद, खेट, कर्वट
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मन:पर्यय
आदिके विनाशको तथा अतिवृष्टि - अनावृष्टि, सुवृष्टि-दुर्वृष्टि, सुभिक्ष-दुर्भिक्षेम-अलग भय और रोग रूपपदार्थोंको भी (टीका)] जानता है । और भी मनवाले अपने और दूसरे जीवोंसे सम्बन्ध रखनेवाले अर्थको वह जानता है, अव्यक्त मनवाले जीवोसे सम्बन्ध रखनेवाले अर्थको नही जानता ( व्यक्त-अव्यक्त मनका अर्थ ३० पीछे मन पर्यव/२/२) ६४ (म व १/१२/२४/२) दे० मन पर्यय / २ / २ ( यथार्थ अर्थात यथास्थित त्रिकाल अर्थको वर्तमानमे सशयादि रहित होकर, मनसे चित्वन अथवा वचनसे ज्ञापन अथवा कायसे अभिनय करनेवाले किसी व्यक्तिके या अपने हो व्यक्त मनसे सम्बन्ध रखनेवाले अर्थको जानता है । अतीत व अनागत काल में वर्तने वालेके मनकी बात नहीं जानता ।)
-
दे० मन पर्यय/२/३ (सरल मन वचन काय प्राप्तको ही जानता है वक्रको नही, अर्थात् वर्तमान कालमें चिन्तवन ज्ञापन व अभिनय करनेवाले को ही जानता है, अचिन्तित, अज्ञापित व अनभिनीत को नही जानता ।)
•
रा. बा./१/२३/०/०३/० व्यक्त स्फुटीकृतोऽचिन्तया निहित यैस्ते जीवा व्यतमनसस्तथे चिन्तित ऋतुमातिने । व्यक्त या स्पष्ट व सरल रूपसे अर्थको चिन्ता करनेवाले जीवीके व्यक्त (वर्तमान) मनमें जो अर्थ चिन्तित रूपसे स्थित है उसको ऋजुमति जानता है अव्यक्त व अचिन्तितको नहीं - विशेष दे० मन - पर्यय / २/२ ।
२६५
ध. १३/५,५,६२/३३०/६ उज्जुवं पउणं होण मणस्स गदमट्ठ जाणदि समुजुमदा अथितियमचिति
[[चितियं च अट्ठ ] जागरि त्ति भणिदं होदिजमुज्ज प हो चिठि वे उतम काममिदमणपज्जयणाण णाम । अम्बोल्लिदमबोलिदं विवरीयभावेण बोल्लिद
अजादि भिष होदि भावेण निमि उज्रूण मित्थ जागदित पिउनुमदिमणपाण णाम । उज्जुमदी विणा कायवावारस्स उज्जुवत्तविरोहादो । =जो राजु अर्थात् प्रगुण होकर मनोगत अर्थको जानता है वह जुमति मन पर्ययज्ञान है। वह अचिन्तित, अर्धचिन्तित या विपरीत रूप से चिन्तित अर्थको नहीं जानता है, यह उक्त कथनका तात्पर्य है । जो ऋजु अर्थात् प्रगुण होकर विचारे गये व सरल रूपसे ही कहे गये अर्थको जानता है, वह भी ऋजुमति मन पर्यय ज्ञान है। यह नही बोले गये, आधे बोले गये या विपरीत रूपसे बोले गये अर्थ को नही जानता है. यह उन्त कथनका तात्पर्य है जो अभावले विचारकर एवं ऋजुरूपसे अभिनय करके दिखाये गये अर्थको जानता है वह भी
मति मनः पर्यवज्ञान है, क्योकि जुमतिके बिना कायको क्रिपा कर होने मे विरोध आता है। गोजी// ४४१/०६० तियकाल विसयरूवि चितित माणजीमेश
जुमणि जागर्तिमान का विकास विषयक मूर्तीक द्रव्यको चिन्तवन करनेवाले जीवके मनमें स्थित अर्थको ऋजुमति जानता है (अचिन्तित आदि यह नही जानता उसे विपुलमति जानता है ।)
भा० ३-३४
२. द्रव्यकी अपेक्षा
ध. ६/४,१,१०/६३/५ तत्थ उज्जुमदी एगस महयमारा लियसीरीरस्स णिज्जर जहणेण जाणदि । सा तिविहा जहणुत्रकस्स तव्वदिरित्तओरालि यसरी रणिज्जरा त्ति । अत्थं कं जाणदि । तव्बदिरित । कुदो । सामाजिसा । एकस्से एगसमयनिरियरिजापदि । .. पुणो कि मिदिय घेप्रदि । चक्खिदिय । कुदो। सेसे दिए हितो अप्पपरिमाणतादो, सुगार भोग्गलसंधाणं सणहत्तादो का --- पवित्रदिनहक्कस् सम्यदिति मेएण सिमिहा तत्य
२. ऋजु व विपुलमति ज्ञान निर्देश का गहणं । तदिरित्ताए । कुदो। सामण्णणिदेसादो । जहण्णुकस्सदव्वाण मज्झिम दब वियप्पे तव्वदिरित्ता उज्जुमदी जाणदि । रुणुमतिमन पर्ययज्ञान जघन्यसे एक समय सम्बन्धी औदारिक शरीरकी तद्वयतिरिक्त निर्जराको जानता है, अर्थात् उसकी जघन्य उत्कृष्ट निर्जराको न जानवर ( अजघन्य व अनुत्कृष्टको जानता है ), क्योंकि, यहाँ सामान्य निर्देश है। उक्त ज्ञान उत्कर्ष से एक समय सम्बन्धी की निर्जराको जानता है, क्योंकि शेष इन्द्रियो की अपेक्षा यह इन्द्रिय (इसके मसूरके आवारवाडा भीतरी तारा ) अन्य परिमाणवाली है और वह अपने आरम्भक पुद्गलोकी श्लक्ष्णता अर्थात् सूक्ष्मता से भी युक्त है। इसमें भी उपरोक्त प्रकारसे रिनिर्जराको जानता है, जदय व उष्टको नहीं, क्योंकि, यहाँ भी सामान्य निर्देश है । जघन्य और उत्कृष्ट द्रव्यके मध्यम कलयतिरिक्त अर्थात सामान्य ऋमति मन:पर्यय ज्ञानी जानता है । (गो, जी./मू./ ४५१/८६६ ) ।
३. क्षेत्र, कालकी अपेक्षा
ष. ख. १३/५.५ / सूत्र ६५-६६ / ३३८-३३८ कालदो जहणेण दो तिणिभवग्गणाणि । ६६ । उक्कस्सेण सत्तट्ठभवग्गणाणि । ६६ । गदिमागदि पप्पादेदि खेत्तदो तार जगेग गाउपप्रधत्तं उक्करग जोयणपुत्तस्स अन्भतरदो णो वहिदा । ६८। कालकी अपेक्षा वह जघन्यसे दो-तीन भोको जानता है । ६३ और उत्कर्ष से सात आठ भगोको जानता है । ६६ अर्थात् वर्तमान भयको छोडकर दो या सात भवो तथा उस सहित तीन या आठ भवोको जानता है। भवका काल अनियत जानना चाहिए - टीका ), ( इस कालके भीतर ) जीवोकी गति और अगति (भुक्त, कृत, प्रतिसेवित आदि अर्थों ) को जानता है। क्षेत्रकी अपेक्षा वह जघन्यसे गव्यूतियपरत्र प्रमाण ( अवधि आठ-नी धनकोदा प्रमाण- टीका) क्षेत्रको और उत्कर्ष से योजन पृथक्त्व (आठ नौ घनयोजन प्रमाण ) के भीतरकी बात जानता है, बाहरकी नहीं ६८ मम १/१२/२३/३) (स.सि./९/ २३/१३०/१) (रा. वा./१/२२/०/०५/२), (४.१/४.१.१०/-),
गो. जी. ४५ ४५०/८६७०) ।
४. भाषकी अपेक्षा
घ. १/४.१.१०/६१/६ भावेग
सदग्
भावे जहण्णुवकस्सउजुमदिणो जाणति । भावकी अपेक्षा जघन्य और उत्कृष्ट द्रव्योमे उसके योग्य असख्यात पर्यायोको जघन्य व उत्कृष्ट ऋजुमति जानता है ।
!
गो. जी. / / ४५८/०७१ आज सभायं अपर च वरं च वरमसंखगुण १८७११- ऋजुता विषयभूत भाग जमन्यपने आमली के असख्यातवे भाग प्रमाण है और उत्कृष्टपने उससे असख्यात गुणा आमति प्रमाण है ( अर्थात् अपने विषयभूत व्यकी इतनी पर्यायोंको जानता है ) ।
५. ऋजुमति अचिन्तित व अनुक्त आदिका ग्रहण क्यों नहीं करता
ध ६/४,१,१०/६३ / २ अचितिदमणुत्तमणमिणइदमत्थं किमिदि ण जाणदे
विसि खओवसमाभावादो । प्रश्न - ऋजुमति मन:पर्ययज्ञानी मनसे अचिन्तित, वचनसे अनुक्त और शारीरिक चेष्टाके अविषयभूत अर्थ को क्या नही जानता है। उत्तर-नहीं जानता, क्योंकि, उसके विशिष्ट क्षयोपशमका अभाव है ।
६. वचनगत जुमतिकी मन:पर्यय संज्ञा कैसे
घ १३/५,५,६२/३३०/११ उज्जुववचिगदस्स मणपज्जवणाणस्स उजुमदिमणपज्जवब एमो ण पावदित्ति । ण एत्थ वि उज्जुमणेण विणा
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मनःपर्यय
२. ऋजु व विपुलमति ज्ञान निर्देश
उज्जुववयणपत्तीए अभावादो। प्रश्न-ऋजुवचनगत मन पर्ययज्ञानकी ऋजुमतिमन पर्ययज्ञान संज्ञा नही प्राप्त होती. उत्तर-नही, क्योंकि, यहॉपर भी ऋजुमनके बिना ऋजु वचनकी प्रवृत्ति नही होती।
७. विपुलमति सामान्यका लक्षण स. सि./१/२३/१२६/४ विपुला मतिर्यस्य सोऽयं विपुलमति ।-जिसकी
मति विपुल है वह विपुलमति कहलाता है। (रा. वा./९/२३/-1 ८४/१), (ध/४,१,११/१)। घ. ६/४,१,११/६६/२ परकीयमतिगतोऽर्थो मतिः। विपुला विरतीर्णा ।
-दूसरेकी मतिमें स्थित पदार्थ मति कहा जाता है। विपुलका अर्थ विस्तीर्ण है। गो.जी./जी. प्र./४३६/८५८/१७ विपुला कायवाड्मन कृतार्थस्य परकीयमनोगतस्य विज्ञान्निर्वतिता अनिर्वतिता कुटिला च मतिर्यस्य स विपुलमतिः । स चासौ मन पर्ययश्च विपुलमतिमन पर्यय । सरल या वक्र मनवचन कायके द्वारा किया गया कोई अर्थ; उसके चिन्तबन युक्त किसी अन्य जीवके मनको जाननेसे निष्पन्न या अनिष्पन्न मतिको विपुल कहते है। ऐसी विपुल या कुटिल मति है जिसको सो विपुल मति है।
८. विपुलवका अर्थ ध.६/४,१,११/६६/२ कुतो वैपुल्यम ! यथार्थमनोगमनात अयथार्थमनोगमनात् उभयथापि तदबंगमनात्, यथार्थवचोगमनात् अयथार्थबचोगमनात उभयथापि तत्र गमनात्, यथार्थ कायगमनान अयथार्थकायगमनाव ताभ्या तत्र गमनाच्च वैपुल्यम् । प्रश्न-विपुलता किस कारणसे है । उत्तरन्यथार्थ, अयथार्थ व उभय तीनो प्रकारके मन, तीनो प्रकारके वचन व तीनों प्रकारके कायको प्राप्त होनेसे विपुलता है। ( और भी दे० मनःपर्यय/२/१०/१) ।
९. विपुलमतिके भेद व उनके लक्षण म. म. १/३/२६/१ यं तं विउलमदिणाण तं ठियह-उज्जुग मणोगद जाणदि, उज्जुग वचिगद जाणदि, उज्जुगं कायगदं जाणदि, अणुज्जुर्ग मणोगदं जाणदि, एवं वचिगद कायगदं च । एवं यात्र वत्तमाणाणं पि जीवाणं जाणदि । जो विपुलमनि मन.पर्ययज्ञान है, वह छह प्रकारका है। वह सरल मनोगत पदार्थको जानता है, सरल वचनगत पदार्थको जानता है, सरलकायगत पदार्थको जानता है, कुटिल मनोगत पदार्थ को जानता है, कुटिल वचनगत पदार्थ को जानता है, कुटिल कायगत पदार्थको जानता है, यह वर्तमान जीव तथा अवर्तमान जीवोके अथवा व्यक्त मनवाले तथा अव्यक्त मनवाले जीवोके सुखादिको जानता है (दे० मन पर्यय/२/१०/१): (ष ख, १३/५,५/
सूत्र ७०/३४०) (गो. जो./भू./४४०/८५६)। रा, वा./९/२३/८/८५/११ द्वितीयो विपुलमति षोढा भिद्यते। कुत । अजुवक्रमनोवावकायविषयभेदात् । भृजविक्पा पूर्वोक्ता बक्र विकपाश्च तद्विपरीता योज्याः। द्वितीय विपुलमति ऋजु व वक्र मन वचन व कायके विषय भेदसे छह प्रकारका है। इनमेसे अजुके तीन विकल्प पहले कह दिये गये है। (दे० मन पर्यय /२/३)। उसी प्रकार वक्रके तीनो विकल्पोमे भी लागू कर लेना चाहिए । (गो. जी./जी. प्र./४४०/८६०/१)। दे. मन'पर्यय/२/१०/१ (अपने मनके द्वारा दूसरेके द्रव्यमनको जानकर पीछे तद्गत अर्थको जानता है। चिन्तित. अर्धचिन्तित, अचिन्तित व विपरीत चिन्तितको, उक्त, अर्धउक्त, अनुक्त, व विपरीत उक्तको,
और इसी प्रकार चारो विकल्परूप अभिनयगत अर्थको जानता है)। दे, मनापर्यय/२/- ( यथार्थ, अयथार्थ व उभय तीनो प्रकारके मन वचन कायको प्राप्त अर्थ को जानता है)।
१०. विपुलमतिका विषय १. मनोगत अर्थ व अन्य सामान्य विषयकी अपेक्षा ष ख १३/५,५/सूत्र ७१-७३/३४०-३४२ मणेण माणसं पडिविदइत्ता ७१ परेसि सण्णा सदि मदि चिन्ता जीविदमरण लाहालाहं मुहदु वरवं णयरविणासं देसविणास.. अदिबुट्ठि अणावुट्ठि सुबुठ्ठि दुवुट्ठि सुभिवं दुम्भिव खेमामं भयरोग कालसपजुत्ते अत्ये जाणदि ।७२। किच भूओ-अप्पणो परेसि च बत्तमाणाण जीवाणं जाणदि अवत्तमाणाण जीवाणं जाणदि ।७३-मनके द्वारा मानसको जानकर (अर्थात् अपने मतिज्ञानके द्वारा दूसरेके द्रव्यमनको जानकर, तत्पश्चात मन पर्ययज्ञानके द्वारा-टीका) दूसरे जीवोके कालसे विशेषित सज्ञा (शब्दकलाप ), स्मृति (अतीत कालगत दृष्टश्रुत व अनुभूत विषय, मति (अनागतकालगत विषय ), चिन्ता (वर्तमानकालगत विषय) इन सबको; तथा उनके जीवित्त-मरण, लाभ-अलाभ, व सुख-दुःखको, तथा नगर, देश, जनपद्, खेट कर्वट आदिके विनाशको; तथा अतिवृष्टि-अनावृष्टि, सुवृष्टि-दुर्वृष्टि, सुभिक्ष-दुभिक्ष, क्षेम-अक्षेम, भय और रोग रूप पदार्थोंको भी (प्रत्यक्ष) जानता है ७१-७२। और भी-व्यक्त मनवाले अपने और दूसरे जीवोसे सम्बन्ध रखनेवाले अर्थको जानता है, तथा अव्यक्त मनवाले जीवोसे सम्बन्ध रखसेवाले अर्थ को जानता है ।७३ (कोष्ठकगत शब्दोके अर्थोके लिए दे० मन:पर्यय/२/४/१)। दे० मन'पर्यय/२/८ ( यथार्थ, अयथार्थ व उभय तीनों प्रकारके मन,
वचन व कायको प्राप्त अर्थको जानता है । ) दे० मन पर्यय/२/8 सरल व कुटिल मन, वचन, काय गत अर्थको तथा वर्तमान ध अवर्तमान जीवोके व्यक्त व अव्यक्त मनोगत अर्थको जानता है। रा. वा/२/२३/८/८/१३ तथा आत्मन' परेषा च चिन्ताजीवितमरणसुखदु खलाभालाभादीच अव्यक्तमनोभिर्व्यक्तमनो भिश्च चिन्तिताद अचिन्तितान् जानाति विपुलमति । = यह अपने और परके व्यक्त मनसे या अव्यक्त मनसे चिन्तित या अचिन्तित (या अर्धचिन्नित) सभी प्रकारके चिन्ता, जीचित-मरण, सुख-दुख, लाभ-अलाभ
आदिको जानता है। घ. १३/५,५,७३/३ चिंताए अद्धपरिणयं बिस्सरिद चितियवस्थु चिताए
अवाबदं च मणमव्यत्त, अवरं वत्तं। बत्तमाणाणमवत्तमाणाण वा जीवाण चिताविसय मणपज्जवणाणी जाण दि। जं उज्जुवाणुज्जुवभावेण चितितमद्धचितिदं चिंतिजमाणमद्धचितिज्जमाणं चितिहिदि अद्ध चितिहिदि वा तं सव्वं जाणदि त्ति भणिद होदि। -चिन्तामें अर्ध परिणत, चिन्तित वस्तुके स्मरणसे रहित और चिन्तामे अव्यापृत मन अव्यक्त कहलाता है, इससे भिन्न मन व्यक्त कहलाता है। व्यक्त मनवाले और अव्यक्त मनवाले जीबोके चिन्ताके विषयको मन पर्ययज्ञानी जानता है। ऋजु और अनृजु रूपसे जो चिन्तित या अर्धचिन्तित है, वर्तमानमें जिसका विचार किया जा रहा है, या अर्ध विचार किया जा रहा है, तथा भविष्यमै जिसका विचार किया जायेगा उस सब अर्थको जानता है, यह उक्त कथनका तात्पर्य है। (और भी दे० मन पर्यय/१/१); (गो. जी./म् /४४६/८६४) । गो. जी मू/४४१/८६० तियकालबिसयरूवि चितितं बट्टमाण जीवेण ।
ऋजुमतिज्ञान जानाति भूतभविष्यच्च विपुलमति । -भूत, भविष्यत् व वर्तमान जीवके द्वारा चिन्तवन किये गये त्रिकालगत रूपी पदार्थको विपुलमति जानता है ।
२ द्रव्यकी अपेक्षा ध १/४,१.१२/६६/७ दबदो जहण्णेण एगसमयमिदियणिज्जरं जाणदि ।
उक्कस्सदव्यजाणावणठं तप्पाओग्गासखेज्जाणं कप्पाण समए सलागभूदे ठवियमणदव्यवग्गणाए अणं तिमभाग विरलिय अज्ज
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मनःपयंय
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३. मनःपर्यय ज्ञानमें स्व व पर मनका स्थान
हष्णुक्कस्समैगसमयपबद्ध विस्सासोवचयविरहिदमट्ठकम्मपडिबद्धं समरखंड करिय दिण्णे तत्थ एगखंड विदियवियप्पो होदि । सलाग
सीदो एगरूवमवणेदव्वं । एवमणेण विहाणेण णेदव्व जाव सलागरासी समत्तो त्ति। एत्थ अपच्छिमदव्ववियप्पमुक्कस्सविउमदी जाणदि । जहण्णुक्कस्सदव्याण मज्झिमवियप्पे तव्वदिरित्तविउलमदि जाणदि। -द्रव्यकी अपेक्षा वह जघन्यसे एक समयरूप इन्द्रिय निर्जराको (अर्थात् चक्षु इन्द्रियको निर्जराको-दे० मन'पर्यय/२/४/२) जानता है। उत्कृष्ट द्रव्यके ज्ञापनार्थ उसके योग्य असख्यात कल्पोंके समयोको शलाकारूपसे स्थापित करके, मनोद्रव्यवर्गणाके अनन्तवे भागका बिरलनकर विससोपचय रहित व आठ कमोसे सम्बद्ध अजधन्यानुत्कृष्ट एक समयप्रबद्धको समरखण्ड करके देनेपर उनमें एक खण्ड द्रव्यका द्वितीय विकल्प होता है। इस समय शलाका राशिमेसे एक रूप कम करना चाहिए। इस प्रकार इस विधानसे शलाकाराशि समाप्त होने तक ले जाना चाहिए ।(दे० गणित//२), इनमे अन्तिम द्रव्य विकल्पको उत्कृष्ट विपुलमति जानता है । जघन्य और उत्कृष्ट द्रव्यके मध्यम विकल्पोंको तस्यतिरिक्त अर्थात मध्यम विपुलमति जानता है। (गो. जो./मू./४५२-४५४१८६७) ।
१२.विशुद्धि व प्रतिपातकी अपेक्षा दोनों में अन्तर त सू./१/२४ विशुद्ध्यप्रतिपाताभ्यां तद्विशेषः ॥१२४। स. सि./१/२४/१३१/४ तत्र विशुद्ध्या तावत-अजमतेविपुलमतिर्द्रव्य
क्षेत्रकालभावै विशुद्धतर। कथम् । इह य' कार्मणद्रव्यानन्तभागोऽन्त्य सर्वावधिना ज्ञातस्तस्य पुनरनन्तभागीकृतस्यान्त्यो भाग ऋजुमतेविषयः। तस्य ऋजुमतिविषयस्यानन्तभागीकृतस्यान्त्यो भागो विपुलमतेविषय । अनन्तस्यानन्तभेदत्वात्। द्रव्यक्षेत्रकालतो विशुद्विरुक्ता । भावतो विशुद्धिः सूक्ष्मतरद्रव्यविषयत्वादेव वेदितव्या प्रकृष्टक्षयोपशमविशुद्धियोगात् । अप्रतिपातेनापि विपुलमतिविशिष्ट. स्वामिना प्रवर्द्धमानचारित्रोदयत्वात् । शृजमति. पुन. प्रतिपाती; स्वामिना कषायोद्रेकाद्धीयमानचारित्रोदयत्वात् । = विशुद्धि और अप्रतिणतकी अपेक्षा इन दोनों (अजमति व विपुलमति) में अन्तर है । २४ । तहाँ विशुद्धि की अपेक्षा तो ऐसे है कि-ऋजुमतिसे विपुलमति द्रव्य, क्षेत्र, काल और भावकी अपेक्षा विशुद्धतर है। वह ऐसे कि यहाँ जो कार्मण द्रव्यका अनन्तवाँ अन्तिम भाग सविधिका विषय है, उसके भी अनन्त भाग करनेपर जो अन्तिम भाग प्राप्त होता है, वह ऋजुमतिका विषय है। और इस ऋजुमतिके विषयके अनन्त भाग करनेपर जो अन्तिम भाग प्राप्त होता है वह विपुलमतिका विषय है। अनन्तके अनन्त भेद है, अत ये उत्तरोत्तर सूक्ष्म विषय बन जाते है इस प्रकार द्रव्य, क्षेत्र और कालकी अपेक्षा विशुद्धि कही। भावकी अपेक्षा विशुद्धि उत्तरोत्तर सूक्ष्म द्रव्यको विषय करनेवाला होनेसे ही जान लेनी चाहिए, क्योकि, इनका उत्तरोत्तर प्रकृष्ट क्षयोपशम पाया जाता है, इसलिए ऋजुमतिसे विपुलमतिमें विशुद्धि अधिक होती है। अप्रतिपातकी अपेक्षा भी विपुलमति विशिष्ट है; क्योकि, इसके स्वामियोके प्रवर्द्ध मान चारित्र पाया जाता है। परन्तु ऋजुमति प्रतिपाती है; क्योकि, इसके स्वामियों के कषायके उदयसे घटता हुआ चारित्र पाया जाता है। (रा.वा./१/२४/२/८६/५); (गो, जी/मू./४४७/६६३)।
अन्तिम भाग अत में उत्तरी अक्षा विशुद्धि
३. क्षेत्र व कालकी अपेक्षा ष, ख. १३/५सूत्र ७४-७७/३४२-३४३ कालदो ताव जहाणेण सत्तअठ्ठ
भवग्गणाणि, उक्कस्सेण असग्वेज्जाणि भवग्गहणाणि ।७४) जीवाणं गदिमागदि पदुप्पादेदि ।७५। खेत्तादो ताव जहण्णेण जोयणपुधत्तं ७६। उक्कस्सेण माणुस्सुत्तरसेलस्स अभतरादो णो बहिद्वा ७७ - कालकी अपेक्षा जघन्यसे सात-आठ भत्रोको और उत्कर्षसे असंख्यात भवोंको जानता है 1७४। ( इस काल के भीतर ) जीवो की गति अगति (भुक्त, कृत, और प्रतिसेवित अर्थ ) को जानता है 1५। क्षेत्रकी अपेक्षा जघन्यसे योजनपृथक्त्वप्रमाण (अर्थात् आठ-नौ धन योजन प्रमाण ) क्षेत्रको जानता है ।७६। उत्कर्ष से मानुषोत्तर शैलके भीतर जानता है, बाहर नहीं जानता 1७७१ ( अर्थात् ४५०००,०० यो० घन प्रतरको जानता है-ध./8 ) । (म ब. १/३/२६/३); (स.सि /१/२३/१३०/३); (रा. वा,/१/२३/८/८५/१४); (ध.१/४,१,११/६७/८, ६८/१२), (गो.जी./मू/४५५-४५७/८६६)।
४, भावकी अपेक्षा घ.ह/४,१,११/६६/१ भावेण जंज दि दव्यं तस्स-तस्स अस खेज्जपज्जाए जाणदि । -भावकी अपेक्षा, जो-जो द्रव्य इसे ज्ञात है, उसउसकी असख्यात पर्यायौंको जानता है। गो. जी./म./८५८/८७१ तत्तो अस खगुणिदं असंखलोगं तु विउलमदी।
-विपुलमतिका विषयभूत भाव जधन्य तो ऋजुमतिके उत्कृष्ट भावसे असंख्यात गुणा है और उत्कृष्ट असंख्यात लोकप्रमाण है।
३. मनःपर्यय ज्ञानमें स्व व पर मनका स्थान
१. मनःपर्ययका उत्पत्ति स्थान मन है, करणचिह्न नहीं ध. १३/१,५,६२/३३१/१० जहा ओहिणाणावरणीयक्खओवसमगदजीवपदेससंबंधिसंहाणापरूवणा कदा, मणपज्जवणाणावरणीयक्रवओबसमगदजीव पदेसाणं संठाणपरूवणा तहा किण्ण की रिदे । ण, वियसियअट्ठदारविंद संठाणे समुप्पज्जमाणस्स ततो पुधभूदसंठाणाभावादो।
प्रश्न-जिस प्रकार अवधिज्ञानावरणीयके क्षयोपशमगत जीवप्रदेशोके स स्थानका कथन किया है (दे. अवधिज्ञान/५), उसी प्रकार मन पर्ययज्ञानावरणीयके क्षयोपशमगत जीवप्रदेशोके संस्थानका भी कथन क्यो नहीं करते। उत्तर-नहीं, क्योंकि वह विकसित अष्ट पारबुडीयुक्त कमलके आकारवाले द्रव्यमनके प्रदेशो में उत्पन्न होता है। गो. जी./म् ४४२/८६१ सव्वंगअंगसंभवचिण्हादुप्पजदे जहा ओही। मणपज्जवं च दबमणादो उप्पज्जदे णियमा ।४४२। -भवप्रत्यय अवधिज्ञान सर्वागसे और गुणप्रत्यय करणचिह्नोसे उत्पन्न होता है ( दे अवधिज्ञान/५)। इसी प्रकार मन पर्ययज्ञान द्रव्यमनसे उत्पन्न होता है । (प.ध./पू./६६६)।
११. अचिन्तित अर्थगत विपुलमतिको मनःपर्यय संज्ञा कैसे घ. १३/१०५,६१/३२६/५ परेसि मणम्मि अदित्य विसयस्स विउलमदिणाणस्स कधं मण पज्जवणाणववएसो। ण, अचितिद चेबदछ जाणदि त्ति णियमाभावादो। कितु चितियमचितियमदचितिय च जाणदि । तेण तस्स मणपज्जवणाणववएसो ण विरुज्झदे । = प्रश्नदूसरोंके मन में नहीं स्थित हुए अर्थको विषय करनेवाले विपुलमतिज्ञानकी मन पर्यय सज्ञा कैसे है। उत्तर-नहीं, क्योकि, अचिन्तित अर्थको ही वह जानता है, ऐसा कोई नियम नहीं है। किन्तु विपुलमतिज्ञान चिन्तित, अचिन्तित और अर्धचिन्तित अर्थको जानता है, इसलिए उसकी मनःपर्यय सज्ञा होनेमे कोई विरोध नहीं है।
२. दोनों ही ज्ञानों में मनोमतिपूर्वक परकीय मनको जान
कर पीछे तद्गत अर्थको जाना जाता है प.ख. १३/५/सूत्र ६३ व इसकी टीका/३३२ मणेण माणस पडिविदइत्ता परेसि सण्णा सदि मदि...कालसपजुत्ते अत्थे वि जाण दि । ६३। मणेण
जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश
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मन: पर्पय
मदिणाणेण । कधं मदिणाणस्स मणव्ववएसो कज्जे कारणोवयारादो। मणम्नि भवं लिंगं माणस, अधवा मणो चेव माणसो । पडिविदन्ता चेत्तूण पच्छा मणपज्जवणाणेण जाणदि । मदिणाणेण परेसि मणं घेतून गवाणेण मणम्मि दिये जागदिति मि होदि । मम द्वारा feet wine मनपर्ययज्ञान कालसे विशेषित दूसरोकी सज्ञा, स्मृति, मति आदि पदार्थोंको भी जानता है विशेष दे. मन पम/२/४/९ तथा २/१०/१) (गम १/१२/२४/ १); (रा. वा /९/२३/१८३/३) (१/११/५२) कारण कार्यके उपचारसे यहाँ मतिज्ञानकी मन संज्ञा है । अथवा मनमे उत्पन्न हुए चिह्नको ही मानस कहते है । 'पडिविदत्ता' अर्थात् ग्रहण करके पश्चात् मन:पर्ययके द्वारा जानता है । मतिज्ञानके द्वारा दूसरो के मानसको या द्रव्यमनको - ( सूत्र ७१ की टीका ) ) ग्रहण करके ही (पीछे) मन पर्यय ज्ञानके द्वारा मनमे स्थित अर्थोंको जानता है, यह उक्त कथनका तात्पर्य है । (नोट- उक्त सूत्र ऋजुमतिके प्रकरणका है। सूत्र ७१-७२ में शब्दशः यही बात विपुलमतिके लिए भी कही गयी है ) ।
दर्शन (उपयोग)/६/३-४ (मनः पर्ययज्ञान अवधिज्ञानकी तरह स्यमुखसे विषयको नही जानता, किन्तु परकीय मनकी प्रणाली से जानता है । अत जिस प्रकार मन अतीत व अनागत अर्थोंका विचार तो करता है, पर देखता नहीं उसी प्रकार मन:पर्ययज्ञानी भी भूत व भविष्यत् को जानता तो है, पर देखता नहीं और इसीलिए इसकी उत्पत्ति दर्शनपूर्वक न मानकर मतिज्ञानपूर्वक मानी गयी है। ईहा मतिज्ञान ही इसका 'दर्शन' है ।)
२६८
ध. ६/४,१.१०/६३/३ मदिणाणेण वा सुदणाणेण वा मण वचिकायभेद जादूण पच्छातत्यदिमत्थं पच्चवखेण जाणं तस्स मणपज्जवणाणिस्स दव्या भावभेषण विसओ चउन्निही सत्य उमदी । = मतिज्ञान अथवा श्रुतज्ञानसे मन वचन व कायके भेदोको जानकर पीछे वहाँ स्थित अर्थको जाननेवाले मन पर्यानीका विषय द्रव्य, क्षेत्र, काल व भावके भेदसे चार प्रकारका है। इनमें ऋजुमतिका विषय यहाँ कहा जाता है और विपुलमतिका अगले सूत्र में कहा गया है ।
ध. १/१.१,११५ / ३५८/२ साक्षान्मनः समादाय मानसार्थानां साक्षात्करण मन. पर्ययज्ञानम् । = मनका आश्रय लेकर मनोगत पदार्थोंके साक्षात्कार करनेवाले ज्ञानको मन. पर्ययज्ञान कहते है । सं./टी./५/१०/२ स्वकीयमनोऽवलम्बनेन परकीयर्समर्थ
देशप्रत्यक्षेण सविकल्प जानाति तदीहा मतिज्ञानपूर्वकं मन. पर्ययज्ञानम् । जो अपने मनके अवलम्बन द्वारा परके मनमे प्राप्त हुए सूपदार्थको एक प्रत्यासविकल्प जानता है वह ईहामतिज्ञान पूर्वक मन:पर्ययज्ञान है।
३. ऋजुमतिमें इन्द्रियों व मनकी अपेक्षा होती है, विपुलमतिमैं नहीं
=
ध. १३/५.६३/३३३/१ एसो नियमो विजतमस्स अचितिदाणं पि अट्ठा निसईकरणादो। यह (मतिज्ञानसे दूसरे जीवके मानसको जानकर पीछे मन:पर्ययज्ञानसे तद्गत अर्थको जाननेका) नियम विपुलमति ज्ञानका नहीं है, क्योंकि वह अचिन्तित वर्थोंको भी विषय करता है ।
घ. १३/५,५६२/३३१/६ जदि मणपज्जबणाणमिदिय णोइ दियजोगादिणिरवेक्ख सतं उप्पज्जदि तो परेसि मणवयणकायवावारणिरवेक्ख संत किण्ण उप्पज्जदि । ण विउलमइमणपज्जवणाणस्स तहा उत्पत्ति दसणादो। उज्जुनदिमा तणिरवेणि उपज ण, मन पर्ययज्ञानावरणीयकर्मक्षयोपशमस्य बेचिय - प्रश्न- यदि मन पर्ययज्ञान स्पर्शनादिकप्रियो मोहन्द्रिय,
२. मन:पर्ययज्ञानमें स्वव पर मनका स्थान
और मन वचन काय योग आदिको अपेक्षा किये बिना उत्पन्न होता है, तो वह दूसरो के मन वचन कायके व्यापारको अपेक्षा किये बिना ही क्यो नही उत्पन्न होता (दे० मन पर्यय / २ / ३) उत्तर - नहीं, क्योकि मिल मन ज्ञानकी उस प्रकार उत्पत्ति ली जाती है। प्रश्न- जुमति उसकी अपेक्षा किये बिना क्यों नहीं उत्पन्न होता उत्तर-महीं, क्योकि मन पर्ययज्ञानावरणके यो पशमकी यह विचित्रता है कि जुमति तो इनकी अपेक्षासे जानता है और विद्युतमति अवधिज्ञान प्रत्यक्ष जानता है-गो. स.) (गो. जी. ४४६४४६/८६३) ।
४. मनकी अपेक्षामात्र से यह मतिज्ञान नहीं कहा जा
सकता
स.सि / १/६/१४/४ मतिज्ञानसंग इति चेत न, अपेक्षामाश्रय क्षयोपशमात्र हि तत्व परमनोभिर्व्यपदिश्यते । यथा अभ्रे चन्द्रमसं पश्येति ।
स. सि. / २ / २३/२२६/११ परकीयमनसि व्यविस्थतोऽर्थ अनेन ज्ञायते इत्येतावदत्रापेक्षते । == प्रश्न- इस प्रकार तो मन:पर्ययज्ञानको मतिज्ञानका प्रसग प्राप्त होता है। उत्तर-नहीं, क्योंकि, यहाँ मनकी अपेक्षामात्र है । यद्यपि वह केवल क्षयोपशम शक्तिसे अपना काम करता है, तो भी स्व व परके मनकी अपेक्षा केवल उसका व्यवहार किया जाता है । यथा- 'आकाश में चन्द्रमाको देखो' यहाँ आकाशकी अपेक्षामात्र होने से ऐसा व्यवहार किया गया है । ( परन्तु मतिज्ञानवत् यह मनका कार्य नही है - रा. वा. ) दूसरेके मन में अवस्थित अर्थको यह जानता है, इतनी मात्र यहाँ मनकी अपेक्षा है । (रा. वा./२/६/५/४४/२४, १/२३/२/०४/१) ।
५. मतिज्ञान पूर्वक होते हुए भी इसे श्रुतज्ञान नहीं
कहा जा सकता
. १२/२०१२/ ३३१/१ चिति कहिये ते दिजादि सो ग वणाणस्स दणाणत पसज्जदि ति बुत्ते-ण एवं रज्जं एसो राया वाकेन्तियाणि वस्सणि मंददि त्ति वितिय एवं चैव बोल्लिदे संते पञ्चखेण रज्जसंताणपरिमाण रायाउट्ठिदि च परिच्छंद तस्स सुदणाणत्तविरोहादो ।
१२/४५ ०१ / २४२/४ दिनमा मदि होदि तो तरस दापदिति णासंकणिज्य पदवस वर्गहिदाणवगहित्थे वट्टमाणस्स मणप्रज्जवणाणस्स सुदभावविरोहादो । १ प्रश्नचिन्तित अर्थ को कहनेपर यदि ऋजुमति मन:पर्ययज्ञान जानता है तो उसके श्रुतज्ञानपना प्राप्त होता है। उत्तर-नहीं, क्योकि, यह राज्य या यह राजा कितने दिन तक समृद्ध रहेगा, ऐसा चिन्तवन करके ऐसा ही कथन करनेपर यह ज्ञान कि यो राज्यपरम्पराकी मर्यादाको और राजाकी आयुस्थितिको जानता है, इसलिए इस ज्ञानको तहान माननेमें विरोध आता है प्रश्न यदि मन:पर्ययज्ञान मतिपूर्वक होता है, तो उसे श्रुतज्ञानपना] प्राप्त होता है। उत्तरऐसी आशंका करना ठीक नहीं है, क्योंकि अवग्रहण किये गये और नही अग्रहण किये गये पदार्थोंमे प्रवृत्त होनेवाले और प्रत्यक्षस्वरूप मन पर्यज्ञानको थुतज्ञान माननेमें विरोध आता है।
६. मन:पर्ययज्ञान इन्द्रिय निरपेक्ष है
ध. १३/५,५,२१/२१२/ ओहिणाण व एदं पि पञ्चक्ख अणिदियजन्त्तादो । = अवधिज्ञानके समान यह ज्ञान भी प्रत्यक्ष है, क्योंकि, यह इन्द्रियो से नहीं उत्पन्न होता है । - ( विशेष दे, प्रत्यक्ष ) ।
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मनःपर्यय
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४. मनःपर्यय ज्ञानका स्वामित्व
और भी दे, अवधि ज्ञान/४ ( अवधि ब मन पर्ययमे मनका निमित्त नहीं होता)। और भी दे. अवधिज्ञान/३ ( अवधि व मनापर्यय कथं चित् प्रत्यक्ष है
और कथ चित् परोक्ष)। ४. मनःपर्यय ज्ञानका स्वामित्व
१. ऋद्धिधारी प्रवर्द्धमान संयतको ही संभव है ष. ख. १/१,१/सूत्र १२१/३६६ मणपज्जवणाणी पमत्तसंजदप्पहुडि जाव।
खीणकसायवदिरागछदुमत्था त्ति।१२११=मन पययज्ञानी जीव प्रमत्तस यतसे लेकर क्षीणकषाय वीतराग छद्मस्थ गुणस्थान तक होते है। रा. वा /१/२५/२/८६/२६ में उद्धृत-तथा चोक्तम्-मनुष्येषु मन पर्यय
आविर्भवति,न देवनार कतैयग्योनिषु। मनुष्येषु चोत्पद्यमान' गर्भजेषुत्पद्यते न संमूर्च्छनजेषु । गर्भजेषु चोत्पद्यमान' कर्मभूमिजेषूत्पद्यते नाकर्मभूमिजेषु । कर्मभूमिजेषूत्पद्यमान पर्याप्तकेघृत्पद्यते नापर्याप्तकेषु । पर्याप्तकेषुपजायमान सम्यग्दृष्टिधूपजायते न मिथ्यादृष्टिसासादनसम्यग्दृष्टिसम्यमिथ्यादृष्टिषु । सम्यग्दृष्टियूपजायमान' संयतेषूपजायते नासयतसम्यग्दृष्टिसंयतासयतेषु । संयतेषूपजायमान' प्रमत्तादिषु क्षीणकषायान्तेषूपजायते नोत्तरेषु । तत्र चोपजायमान प्रवर्द्धमानचारित्रेषूपजायते न हीयमानचारित्रेषु प्रबर्द्धमानचारित्रेषूपजायमान' सप्तविधान्यतमऋद्धिप्राप्तेषूपजायते नेतरेषु । ऋद्धिप्राप्तेषु च केषुचिन्न सर्वेषु । = आगममें कहा है, कि मन'पर्ययज्ञान मनुष्योमें ही उत्पन्न होता है, देव नारक व तिथंच योनिमें नहीं। मनुष्योमे भी गर्भजोंमें ही होता है, सम्मूच्छितोमें नहीं। गर्भजोमै भी कर्मभूमिजो के ही होता है, अकर्मभूमिजोके नही। कर्मभूमिजो में भी पर्याप्तकोंके ही होता है अपर्याप्तकोके नहीं। उनमें भी सम्यग्दृष्टियोके ही होता है, मिथ्याइष्टि सासादन व सम्यग्मिथ्यादृष्टियोके नहीं। उनमें भी संयतोंके ही होता है, असंयतो या संयतासंयतोके नही। सयतोमे भी प्रमत्तसे लेकर क्षीणकषाय गुणस्थान तक ही होता है, इससे ऊपर नहीं। उनमें भी प्रवर्द्धमान चारित्रवालोके ही होता है, हीयमान चारित्रवालोके नहीं। उनमें भी सात ऋद्धियोमेसे अन्यतम ऋद्धिको प्राप्त होनेवालेके ही होता है, अन्यके नही। ऋद्धिप्राप्तो मे भी किन्हीके ही होता है, सबको नही। (स, सि./१/२५/१३२/६), (गो जी./मू./४४५/६६२)।
२. अप्रमत्तादि गुणस्थानों में उत्पन्न होता है पं. का./ता वृ./ प्रक्षेपक गा. ४३-४ मूल व टीका/८७/५ एवे संजमलद्धी उवओगे अप्पमत्तस्स ।४। उपेक्षासंयमे सति लब्धिपर्ययोस्तौ संयमलब्धी मन पर्ययौ भवत' । तौ च कस्मिन काले समुत्पद्यते । उपयोगे विशुद्वपरिणामे । कस्य वीतरागात्मतत्त्वसम्यकश्रद्धानज्ञानानुष्ठानसहितस्प पंचदशप्रमादरहितस्याप्रमत्तमुनेरिति। अत्रोत्पत्तिकाल एवाप्रमत्तनियम' पश्चात्प्रमत्तस्यापि सभवतीति भावार्थ ।। ऋजु व विपुलमति दोनो भन'पर्य यज्ञान, उपेक्षा सयमरूप संयमलब्धि होनेपर ही होते है और वह भी विशुद्ध परिणामोमें तथा वीतराग आत्मतत्त्वके सम्यक् श्रद्धान ज्ञान व चारित्रकी भावना सहित, पन्द्रह प्रकारके प्रमादसे रहित अप्रमत्त मुनिके ही उत्पन्न होते है। यहाँ अप्रमत्तपनेका नियम उत्पत्तिकालमे ही है, पीछे प्रमत्त अवस्थामें भी सम्भव है। ३. ऋजु व विपुलमतिका स्वामित्व दे. मन पर्यय/२/१२ ( अजुमति मन पर्ययज्ञान कषायके उदय सहित होनमान चारित्रवालोके होता है और विपुलमति विशिष्ट प्रकार के प्रवर्द्धमान चारित्रबालोंके । जुमति प्रतिपाती है अर्थात् अचरम
देहियोके भी सम्भव है, पर विपुलमति अप्रतिपाती है अर्थात् चरम
देहियोके ही सम्भव है)। पं का./ता वृ | प्रक्षेपक गा, ४३-४ की टीका/८७/३ निविकारात्मोपलब्धिभावनासहितानां चरमदेहमुनीना विपुलमतिर्भवति ।-निविकार आत्मोपलब्धि की भावनासे सहित चरम देहधारी मुनियोको ही विपुलमतिज्ञान होना सम्भव है।
४. निचले गुणस्थानों में क्यों नहीं होता ध ११,९,१२१/३६६/६ देश विरताद्यधस्तनभूमिस्थितानां किमिति मन'पर्ययज्ञान न भवेदिति चेन्न, सयमासंयमासंयमत उत्पत्तिविरोधात् ।
प्रश्न-देशविरति आदि नीचेके गुणस्थानवी जीवोके मन'पर्ययज्ञान क्यो नहीं होता है । उत्तर-नहीं, क्यो कि, संयमासंयम और असयमके साथ मन पर्य यज्ञानकी उत्पत्ति माननेमे विरोध आता है।
५. सभी संयमियोंके क्यों नहीं होता ध १/१,१,१२१/३६६/११ संयममात्रकारणत्वे सर्वसंयताना किन्न भवेदिति चेदभविष्यद्यदि संयम एक एव तत्पत्ते कारणतामागमिष्यत । अप्यन्येऽपि तु तदधेतवः सन्ति तद्वैकल्यान्न सर्वसंयताना तदुत्पत्ते । केऽन्ये तद्धेतब इति चेद्विशिष्टद्रव्यक्षेत्रकालादया। प्रश्न-यदि संयममात्र मन पर्ययकी उत्पत्तिका कारण है तो समस्त संयमियोके मन पर्ययज्ञान क्यो नही होता है । उत्तर-यदि केवल संयम ही कारण हुआ होता तो ऐसा भी होता, किन्तु इसके अतिरिक्त कुछ अन्य भी कारण है, जिनके न रहने से समस्त संयतोके मन पर्ययज्ञान उत्पन्न नहीं होता। प्रश्न-वे दूसरे कौनसे कारण है । उत्तर-विशेष जातिके द्रव्य, क्षेत्र, काल आदि । ६. द्वितीय व प्रथम उपशम सम्यक्त्व कालमें मन:पर्ययके सद्भाव व अभावमें हेतु ध २/१,१/७२७/७ वेदगसम्मत्त पच्छायद उबसमसम्मत्तसम्माइहिस्स पढमसमए विमणपज्जपणाणुवल भादो। मिच्छत्तपच्छायदउवसम. सम्माइठिम्मि मण पज्जवणाण ण उवलम्भदे, मिच्छत्तपच्छायदुक्कस्सुषसमसम्मत्तकालादो विगहियसंजमपढमसमयादो सव्वजहण्णमणपज्जवणाणुप्पायणसंजमकालस्स बहूत्तु वलं भादो।-जो वेदक सम्यबत्वके पीछे द्वितीयोपशम सम्यक्त्वको प्राप्त होता है उस उपशम सम्यग्दृष्टिके प्रथम समयमें भी मन पर्ययज्ञान पाया जाता है। किन्तु मिथ्यात्वसे पीछे आये हुए (प्रथम ) उपशमसम्यग्दृष्टि जीवमें मन'पर्य यज्ञान नहीं पाया जाता है, क्योकि, मिथ्यात्वसे पीछे आये हुए उपशमसम्यग्दृष्टि के उत्कृष्ट उपशमसम्यक्त्वके कालसे भी ग्रहण किये गये संयमके प्रथम समयसे लगा कर सर्व जघन्य मन.पर्ययज्ञानको उत्पन्न करनेवाला सयम काल बहुत बड़ा है। मनःपर्यय ज्ञानानावरण-दे, ज्ञानावरण । मनःपर्याप्ति-दे. पर्याप्ति । मनःशिल-मध्यलोकके अन्तसे १६त्रों द्वीप व सागर-दे. लोक/५/१ मन-मन एक अभ्यन्तर इन्द्रिय है। ये दो प्रकारकी है-द्रव्य व
भाव । हृदय स्थानमे अष्टपाखुडीके कमलके आकाररूप पुद्गलोंकी रचना विशेष द्रव्य मन है। चक्षु आदि इन्द्रियोवत् अपने विषयमें निमित्त होनेपर भी अप्रत्यक्ष व अत्यन्त सूक्ष्म होनेके कारण इसे इन्द्रिय न कहकर अनिन्द्रिय या ईषत इन्द्रिय कहा जाता है। संकल्पविकल्पात्मक परिणाम तथा विचार चिन्तवन आदिरूप ज्ञानकी अवरथा विशेष भाव मन है।
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मन
१. मन सामान्यका लक्षण
स. सि./१/१४/१०/३ अनिन्द्रियं मन अन्त करणमित्यनर्थान्तरम् । = अनिन्द्रिय, मन और अन्त करण ये एकार्थाची नाम है । ( रा. वा./१/१४/२/५६/१६ ); (म्या/भाष्य /१/१/२/१६); न्या. बी./२/१२/११/२) ।
प्र. सं./टी./१२/३० /१ नानाविकल्पजालरूपं मनो भण्यते । नानाप्रकारके विकल्पजालको मन कहते हैं। (प प्र./टी./२/१६३/२७५/१०), (तत्वबोध / शंकराचार्य ) ।
अर्थात ठीक प्रकार जानना मन है ।)
दे. मन. पर्यय/३/२ ( कारण में कार्य के उपचार से मतिज्ञानको मन कहते
है।
२. मनके भेद
स.सि./२/१२/१७० / ३ मना विविधद्रव्यमनो भावननश्चेति मन दो प्रकारका है - द्रव्यमन व भावमन । ( स सि /५/३/२६६/२:५/११/ २०० / ९ ) ( रा. वा./२/१९/२/१२०/२१३ ४/२/३/४४२/१५/९६/२० ४०१/९) ( १/१. ९.३०/२६१/६) चा सा./८/३) मो. जी./ जी. प्र./६०६/१०१/१०६२ / ६ )
२७०
३. द्रव्य मनका लक्षण
स.सि./२/११/१७० / ३ पुद्गलविपाकिकर्मोदयापेक्षं द्रव्यमन' । स.सि./५/२/२६१/४ अन्यमनस्य रूपादियोगाव पुगलद्रव्यविकार. = द्रव्यमन पुद्गलविपाकी नामकर्म के उदय से होता है । ( रा. वा. / २ / ११ / २ / ११२ / २०) (ध. १/१.१.२५/२५६ / ६) रूपादिक गुरु होनेसे द्रव्यमन की पर्याय है (रा.वा./२/२/३/४४२/१०)।
विशेष दे मूर्त / १)। ४४३/०६९ हिदि होदि
गो.जी.
निसियारविंद
D
वा | अंगोवं गुदयादो मणवग्गणखंघदो णियमा । जो हृदयस्थानमें आठ पीके कमलके आकारवाला है, तथा अंगोपान नामकर्मके उदयसे मनोमा स्कन्धसे उत्पन्न हुआ है हैं (यह अध्यन्त सूक्ष्म तथा इन्द्रियागोचर है स./टी./१२/१०/६); (पं. ५/५/०१३)।
-
उसे द्रव्यमन ह
० मन ) (.प्र.
४. भावमनका लक्षण
मर्यान्तरायनवारणयोपशमापेक्षा
स. सि./२/११/१७०/४ आत्मनो विशुद्धिर्भावमन' । स.सि./५/३/२६६/२ तत्र भवमनोज्ञान तस्य जीवगुणस्मादात्मव्यन्तर्भाव । स.सि./५/११/२८७/१ भावमनस्तावल ब्ध्युपयोगलक्षणम् । १. वोर्यान्तराय और नोइन्द्रियावरण कर्मके योपशमकी अपेक्षा रखनेवाले आत्माकी निशुद्धिको भावमन कहते है (रा. ना /२/११/१९/१२५/ २०); ( घ. १ / १,१.३५ / २५६ / ६)। २ भावमन ज्ञानस्वरूप है, और ज्ञान जीवका गुण होनेसे उसका आत्मा में अन्तर्भाव होता है। ( रा. वा./५/३/३/४४२/९ ) । ३. लब्धि और उपयोग लक्षणवाला भावमन है । (रा. बा./५/९६/२०/४७१/२); (गो. जी./जी. प्र. / ६०६/१०६२/६), (बंध / ७१४)।
★ दोनों मन कथंचित् मूर्त व पुद्गल हैं - ३० मूर्त /
५. मावमनका विषय
घ. ६/९.१-१.१४/१२/११ पोदिए दिदा -मनमेंट, बुरा अनुभूत पदार्थ नियमित है २८ / २२०/१५)।
पियमिदा . १२/२-२०
दे० मन / १ (संकल्प-विकल्प करना मनका काम है ) दे० मन / १०,११ (गुण-दोष विचार व स्मरणादि करना) । पं.भ./ /०१५ मूर्तस्य वेदक चमन मन मूर्त और अमूर्त दोनो प्रकारके पदार्थोंको विषय करनेवाला है । विशेष दे, श्रुतज्ञान / २ ) ।
* मति आदि ज्ञानोंमें मनका निमित्त नाम ★ अपर्याप्त अवस्थामें माव मन नहीं होता ।
* इन्द्रियोंका व्यापार मनके आधीन है ०
६. द्रव्यमन भावमनको निमित्त है
मन
-३० प्राण/२/०-८॥
दे० / २ ( भावमनरूपसे परिणत आत्माको गुण दोष विचार व स्मरणादि करनेमें द्रव्यमन अनुग्राहक है। )
दे० प्राण /१/७-८ [ अपर्याप्तावस्थामें द्रव्यमनका अभाव होनेके कारण वहाँ मनोबल नामक प्राण (अर्थात् भावमन) भी स्वीकार नहीं किया गया है।]
दे मन / ८ / २ ( इन्द्रियोका व्यापार मनके आधीन है ) । ७. मनको इन्द्रिय व्यपदेश न होनेमें हेतु
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ध. १/१.१,३५/२६०/५ मनस इन्द्रियव्यपदेश. किन्न कृत इति चेन्न, इन्द्रस्य लिगमिन्द्रियम्।न्द्रियाणामिन माझेन्द्रियग्राह्याभावस्तस्यै न्द्रलिङ्गत्वानुपपत्ते' । प्रश्न- मनको इन्द्रिय सज्ञा क्यो नही दी गयी उत्तर नहीं क्योंकि इन्द्र अर्थात् आत्माके निगको इन्द्रिय कहते है । जिस प्रकार शेष इन्द्रियोंका बाह्य इन्द्रियो से ग्रहण होता है, उस प्रकार मनका नही होता है, इसलिए उसे इन्द्रका लिंग नहीं कह सकते ।
८. मनको अनिन्द्रिय कहने में हेतु
स.सि./१/१४/१०६/३ कथं पुनरिन्द्रियप्रतिषेधेन इन्द्रलिङ्ग एव मनसि अनिन्द्रियशब्दस्य वृत्तिदर्थस्य 'नमः' प्रयोगात ईषदिन्द्रियमनिन्द्रियमिति । यथा 'अनुदरा कन्या' इति । कथमीषदर्थः । इमामीन्द्रियाणि प्रतिनियतदेशविषयाणि कालान्तरामस्थायीनि च। न तथा मनः इन्द्रस्य लिङ्गमपि सत्प्रतिनियतदेशविषयं कालान्तरावस्थायि च । प्रश्न- अनिन्द्रिय शब्द इन्द्रियका निषेध परक है। अत इन्द्रके लिंग मनमें अनिन्द्रिय शब्दका व्यापार कैसे हो सकता है। उत्तर - यहाँ 'न' का प्रयोग 'ईषद्' अर्थ में किया है, ईषत इन्द्रिय अनिन्द्रिय । ( जैसे अब्राह्मण कहनेसे ब्राह्मणस्व रहित किसी अन्य पुरुषका ज्ञान होता है. वैसे अनिन्द्रिय कहनेसे इन्द्रिय रहिव किसी अन्य पदार्थका बोध नहीं करना चाहिए, बल्कि - रा. वा ) । जैसे 'अनुदरा या यहाँ 'बिना पेट वाली लडकी अर्थ न होकर 'गर्भधारण आदिके अयोग्य छोटी लडकी' ऐसा अर्थ होता है, इसी प्रकार यहाँ 'न' का अर्थ ईषद् ग्रहण करना चाहिए। प्रश्न- अनिfear में 'न' का ऐसा अर्थ क्यों लिया गया। उत्तर--ये इन्द्रियाँ नियत देशमें स्थित पदार्थोंको विषय करती है और कालान्तर में अनस्थित रहती है किन्तु मन इन्द्रका सिंग होता हुआ भी प्रतिनियत देशमें स्थित पदार्थको विषय नहीं करता और कालान्तर में अवस्थित नहीं रहता (विशेष दे० अगला शीर्षक), (रा.वा./१/ १४/२/११/११ : २/१३/२/१२/१८) ।
रावा / १/१६/३-४/६६/७ मनसोऽनिन्द्रियव्यपदेशाभाव: स्वविषयग्रहणे करणान्तरानपेक्षत्वाच्चक्षुर्वत् ॥ ३॥ न वा अप्रत्यक्षवाद |४| सूक्ष्मद्रव्यपरिणामात् तस्मादनिन्द्रियमित्युच्यते ।
रा. बा./२/१३/४/१२/२१ चरादीनां रूपादिविषयोपयोगपरिनामाद प्रा मनसो व्यापार कथम् शुक्लारिणं दिसु प्रथम मनसो
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मन
पयोगं करोति एवंविधरूपं पश्यामि रसमास्वादयामि' इति, ततस्तइाधानीकृष्ण चक्षुरादीनि विषमेषु व्याप्रियन्ते ततश्चास्यानिन्द्रियत्वम् । प्रश्न-मन अपने विचारात्मक कार्यमें किसी अन्य इन्द्रकी सहायताको अपेक्षा नहीं करता, अतः उसे पशु इन्द्रियकी तरह इन्द्रिय ही कहना चाहिए अनिन्द्रिय नही । उत्तर- १. सूक्ष्मद्रव्यकी पर्याय होनेके कारण वह अन्य इन्द्रियोंकी भाँति प्रत्यक्ष व व्यक्त नहीं है, इसलिए अनिन्द्रिय है (गो. जी. ४४४/८६२) । (दे० मन / ७) २ चक्षु आदि इन्द्रियों के रूपादि विषयोग उपयोग करनेसे पहले मनका व्यापार होता है । वह ऐसे कि - 'मै शुक्लादि रूपको देख ऐसे पहले मनका उपयोग करता है। पीछे उसको निमित्त बनाकर 'मै इस प्रकारका रूप देखता हूँ या रसका आस्वादन करता हूँ' इस प्रकार से चक्षु आदि इन्द्रियाँ अपने विषयो में व्यापार करती है । इसलिए इसको अनिन्द्रियपना प्राप्त है ।
९. द्रव्य व भाव मनका कथंचित् अवस्थायी व अनवस्थायीपना
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रा. या /२/११/६/४६८/३० स्वान्मतम् - यथा चक्षुरादि व्यपदेशभाज आत्मप्रदेशा अवस्थिता नियतदेशत्यासन तथा मनोमस्थितमस्ति अतएव तदनिन्द्रियमित्युच्यते, ततोऽस्य न पृथग्रहणमिति तज्ञ कि कारणम् । अनवस्थानेऽपि तन्निमित्तत्वात् । यत्र यत्र प्रणिधानं तत्र तत्र आत्मप्रदेशाला संख्येयभागमिता मनोव्यपदेशभा । रा बा /५/१६/२२-२३/४७२/११ स्यादेतत्-अस्थायि मन न तस्य निवृत्तिरिति न कि कारणम्। अनन्तरसमयप्रच्युते । मनस्त्वेन हि परिणताः गला गुणदोषविचारस्मरणादिकार्य कृत्वा तदनन्तरसमय एव मनस्त्वात् प्रच्यवन्ते । नायमेकान्तः -- अवस्था यैव मन. इति कृत...द्रव्यायदिशान्मनः स्यादमस्थायि पर्यायार्यादेशाय स्वादनवस्थायि पक्ष आदि इन्द्रियोंके आत्मप्रदेश नियतदेशमै अवस्थित है, उस तरह मनके नहीं है, इसलिए उसे अनिन्द्रिय भी कहते है और इसीलिए उसका पृथ ग्रहण ही किया गया है। उत्तर- यह कहना ठीक नहीं है, क्योंकि अनवस्थित होनेपर भी वह क्षयोपशमनिमित्तक तो है ही जहाँ जहाँ उपयोग होता है, वहाँ-वहाँ अंगुल असंख्यात भाग प्रमाण आत्मप्रदेश मनके रूपसे परिणत हो जाते है। प्रश्न-मन अवस्थायी है, इसलिए उसकी (उपरोक्त प्रकार) निवृत्ति नहीं हो सकती। उत्तर--नहीं, क्योंकि, जगल मनरूपसे परिणत हुए थे उनकी मनपा गुणदोष मनरूपता, विचार और स्मरण आदि कार्य कर लेनेपर, अनन्तर समय में नष्ट हो जाती है, आगे वे मन नहीं रहते । यहाँ यह एकान्स भी नहीं समझना चाहिए कि मन अवस्थायी ही है। द्रव्यार्थिकनयसे वह कच अस्थायी है और पर्यायार्थिक नयसे अनवस्थायी (जन्मसे मरण पर्यन्त जीवका क्षयोपशमरूप सामान्य भावमन तथा कमलाकार द्रव्यमन वह वह ही रहते हैं, इसलिए वे अवस्थायी हैं, और प्रत्येक उपयोग के साथ विवक्षित आत्मप्रदेशो में ही भावमनकी निर्वृति होती है तथा उस द्रव्य मनको मनपना प्राप्त होता है, जो उपयोग अनन्तर समयमें ही नष्ट हो जाता है, इसलिए वे दोनो अनवस्थायी है)
१०. मनको अन्त:करण करनेमें हेतु
सि./१/१४/१०/- तदन्तकरणमिति चोच्यते । गुणदोषविचारस्मरणादिव्यापारे इन्द्रियानपेक्षत्वाच्चक्षुरादिवत् बहिरनुपलब्धेश्च अन्तर्गत करणमन्तकरणमित्युच्यते । इसे गुण और दोषोके विचार और स्मरण करने आदि कार्यों में इन्द्रियोंकी अपेक्षा नहीं सेनी पडती, तथा चक्षु आदि इन्द्रियोंके समान इसकी बाहर में उपलब्धि भी नहीं होती, इसलिए यह अन्तर्गत करण होनेसे अन्तःकरण कहलाता है । ( रा. वा./१/१४/३/५/२१:५४/११/३१/४०२/३१
११. भावमनके अस्तित्वकी सिद्धि
रा. मा./१/११/५-०/६१/१२ अत्राह कथमवगम्यते अप्रत्यक्षं तह 'अस्ति' इति अनुमानात्तस्याधिगम...डोसानुमान युगपज्ज्ञानक्रियापर्मिनस हेतुः | ६|... अनुस्मरणदर्शनाच 100 रा. वा./५/११/११/४०२/२८ पृथगुपकारानुपलम्भादभावइति यः न गुणदोषविचारादिदर्शनात् । ३११ प्रश्न- मन यदि अप्रत्यक्ष है तो उसका ग्रहण कैसे हो सकता है। उत्तर- अनुमानसे उसका अधिगम होता है। 1 प्रश्न - यह अनुमान क्या है। उत्तर- इन्द्रियाँ व उनके विषय पदार्थोंके होनेपर भी जिसके न होनेसे युगपद्य ज्ञान और क्रियाएं नहीं होतीं, वही मन है। मन जिस-जिस इन्द्रिय को सहायता करता है उसी उसीके द्वारा क्रमश ज्ञान और क्रिया होती है । ( न्या. सू /९/१/१६) तथा जिसके द्वारा देखे या सुने गये पदार्थोंका स्मरण होता है, वह मन है। प्रश्न- मनका कोई पृथक कार्य नहीं देखा जाता इसलिए उसका अभाव है। उत्तर- नहीं, क्योंकि, गुण दोषोंका विचार व स्मरण आदि देखे जाते है। वे मनके ही कार्य है।
"
१२. वैशेषिक मान्य स्वतन्त्र 'मन' का निरास ससि./५/१९/२८७/४ कश्चिदाह मनो व्यान्तर रूपादिपरिणामरहितमणुमात्रं तस्य पौद्गलिकत्वमयुक्तमिति । तदयुक्तम् । कथम् । उच्यते--- सदिन्द्रियेणारमना च समद्ध वा स्यादसंमद्ध था । मद्य तथात्मन उपकारकं भवितुमर्हति इन्द्रियस्य च साचिव्यं न करोति । अथ संभद्रम्, एकस्मिन्प्रदेशे संबद्ध सत्तवतु इतरेषु प्रदेशेषु उपकारं न कुर्याद अनवादस्य अलातचक्रवत्परिभ्रमणमिति चेत् नः तरसामध्यभागात अमूर्तस्यात्मनो निष्क्रियस्यादृष्ट गुण निष्क्रिय' सन्नम्यत्र क्रियारम्भे न समर्थ । प्रश्न( वैशेषिक मतका कहना है कि ) मन एक स्वतन्त्र द्रव्य है । वह रूपादिरूप परम रहित है. और अनुमात्र है, इसलिए उसे पौगलिक मानना अयुक्त है। उत्तर- यह कहना अयुक्त है । वह इस प्रकार कि - मन आत्मा और इन्द्रियोंसे सम्बद्ध है या असम्बद्ध । यदि असम्बद्ध है तो वह आत्माका उपकारक नही हो सकता और इन्द्रियोकी सहायता भी नहीं कर सकता। यदि सम्बद्ध है तो जिस प्रदेशमें वह अणु मन सम्बद्ध है, उस प्रदेशको छोडकर इतर प्रदेशोंका उपकार नहीं कर सकता। प्रश्न -- अदृष्ट नामक गुणके बरासे यह मन अलातचक्रवत् सर्व प्रदेशो में घूमता रहता है। उत्तर-नहीं, क्योंकि जर नामके गुणमें इस प्रकारको सामर्थ्य नहीं पायी जाती। यह अमूर्त और निष्क्रिय आत्माका अदृष्ट गुण है । अत: यह गुण भी निष्क्रिय है, इसलिए अन्यत्र क्रियाका आरम्भ करनेमें असमर्थ है ( रा मा./५/११/२४-२६/४०२/१) (मो. जी. जी. प्र. ६०६/ / १०६२/७) ।
जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश
मन
SWIS
रा. वा./५/११/२४/४७२ / १६ स्यादेतत - एकद्रव्यं मनः प्रत्यात्मं वर्तते इति न कि कारण परमाणुमाया।..उदं विचार्यतेतव आत्मेन्द्रियाभ्यां सर्वात्मना वा संबन्ध्येत्, तदेकदेशेन वा । यदि सर्वाना सोरात्मेन्द्रिययोरन्तरभावाद व्यतिरितयोरन्यतरेण सर्वात्मना संबन्धः स्यात अणोर्मनस' नोभयाभ्यां युगपत् विरोधाद अन्येन देन आमना संबध्यते अन्न देनेद्रियेण एवं सति प्रदेश त्वं मनस' प्रसक्तम् । किंच यद्यात्मा मनसा सर्वात्मना संगध्यते; मनसोऽणुत्वात आत्मनोऽप्यणुत्वम्, आत्मनो विभुत्वात मनसो या विभुर प्रसज्यते यदेकदेशेमात्मा मनसा संयुज्यते नमु प्रदेशमश्वमात्मन' प्रस..प्रदेशतिवाद वामन कश्चिद प्रवेशो ज्ञातावियुक्त कश्चित प्रदेशो ज्ञानादिविरहित इति [...] थेन्द्रियेण मनो यदि सर्वात्मना संयुज्यते इन्द्रियस्याशुमा मनसो वेन्द्रियमात्रमागरम अर्थकदेशेन मम इन्द्रियेण संयुज्यते
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मनक
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मनुष्य
मनरंग लाल-कन्नौज निवासी पल्लीवाल दिगम्बर जैन थे। पिताका नाम कन्नौजीलाल था । कृतियाँ--चौबीस तीर्थकर पूजा पाठ (ई १८५७), नमिचन्द्रका, सप्तव्यसनचरित्र, सप्तर्षिपूजा, शिरवर सम्मेदाचल माहात्म्य । (ई. १८८१) । समय-ई. १८५०
१८६० (हिन्दी जैन साहित्य इतिहास/पृ २११/वा. कामताप्रसाद ) । मनशुद्धि- दे० शुद्धि । मनु-१.विजया की उत्तर श्रेणीका एक नगर-दे० विद्याधर: २. कुलकरका अपर नाम-दे० शलाका पुरुष/६/३: ध. १/१,१,२/२०/१ मनुज्ञान = मनु ज्ञानको कहते है।
न तहि अणु तत् । अथ सयोगविभागाभ्या मन परिणमते, न तहि नित्यम् । . अचेतनत्वाच्च मनस' अनेनै व इन्द्रियेणानेनैव चात्मना संयोक्तव्य नेन्द्रियान्तरैर्न चात्मान्तरै रिति । कर्मवदिति चत, न, कर्मण स्याच्चैतन्यम् स्यादचेतनत्व मिति बिपमा दृष्टान्त' । -प्रश्न-मन अणुरूप एक स्वतन्त्र द्रव्य हे, जो प्रत्येक आरमामे एकएक सम्बद्ध है। उत्तर-१ नहीं, क्योकि, अणुरूप होता हुआ वह सर्वात्मना तो इन्द्रिय व आत्मा दोनोसे युगपत जड नहीं सकता। भिन्नभिन्न देशोसे उन दोनोके साथ सम्बन्ध माननेपर मनका प्रदेशवत्व प्राप्त होता है।-२ आत्मा मनके माथ सर्वात्मना सम्बद्ध हानेपर या तो आत्मा अणुरूप हो जायेगा और या मन विभु बन जायेगा। और एक देशेन सम्बद्ध होनेपर आत्माको प्रदेशवत्व प्राप्त होता है। और ऐसी अवस्थामें वह किन्हीं प्रदेशोमे तो ज्ञानसहित रहेगा और किन्ही प्रदेशो में ज्ञानरहित । ३ इसी प्रकार इन्द्रियाँ मनके साथ सर्वात्मना सम्बध होनेपर या तो इन्द्रिय अणुमात्र हो जायेगी और या मन इन्द्रियप्रमाण हो जायेगा। और एकदेशेन सम्बद्ध होनेपर वह मन अणुमात्र न रह सकेगा। ४ संयोग विभागके द्वारा मनका परिणमन होनेसे वह नित्य न हो सकेगा। अचेतन होनेके कारण मनको यह विवेक कैसे हो सकेगा कि अमुक इन्द्रिय या आत्माके साथ ही सयुक्त होता है, अन्यके साथ नही। यहाँ जैनियोके कर्मका दृष्टान्त देना विषमदृष्टान्त है, क्योकि उनके द्वारा मान्य बह कर्म सर्व था अचेतन नहीं है, बल्कि कथाचित् चेतन व कथ चित् अचेतन
ध १३/५,५.१४०/३६१/१० मानुषीसु मैथुनसेवका मनुजानाम | मनु
यिनियोके साथ मैथुन कर्म करनेवाले मनुष्य कहलाते है। मनुष्य-मनुको सन्तान होनेके कारण अथवा विवेक धारण करनेके
कारण यह मनुष्य कहा जाता है। मोक्षका द्वार होने के कारण यह गति सर्वोत्तम समझी जाती है। मध्य लोकके बीच में ४५०००,०० योजन प्रमाण ढाईद्वीप ही मनुष्यक्षेत्र है, क्योकि, मानुषोत्तर पर्वतके परभागमे जानेको यह समर्थ नही है। ऊपरकी ओर सुमेरु पर्वतके शिखर पर्यन्त इसके क्षेत्रको सीमा है।
१३. बौद्ध व सांख्यमान्य मनका निरास रा. वा./५/११/३२-३४/४७२/३३ विज्ञानमिति चेत्, न, तत्सामाभावात् ॥३२॥. वर्तमान ताव द्विज्ञानं क्षणिक पूर्वोत्तरविज्ञानसबन्धनिरुत्सुक कथं गुणदोषविचारस्मरणा दिव्यापारे साचिव्य कुर्यात् । एकसंतानमतित्वात तदुपपत्तिरिति चेत्, न, तदवस्तुत्वाता. प्रधानविकार इति चेत; न, अचेतनत्वात् ।३३। तदव्य तिरेकात्तदभाव ॥३४ा--प्रश्न-(बौद्र) विज्ञान ही मन है और इसके अतिरिक्त कोई पौद्गलिक मन नही है। उत्तर-नही, क्योकि, वर्तमानमात्र तथा पूर्व व उत्तर विज्ञानके सम्बन्धमे निरुत्सुक उस क्षणिक विज्ञानमे गुणदोष विचार व स्मरणादि व्यापारके साचिव्यकी सामर्थ्य नही है। एक सन्तानके द्वारा उसकी उपपत्ति मानना भी नहीं बनता क्योकि सन्तान अवस्तु है । प्रश्न-(सांख्य ) प्रधानका विकार ही मन है, उससे अतिरिक्त कोई पौद्गलिक मन नहीं है। उत्तर नही. क्योकि, एक तो प्रधान अचेतन है और दूसरे उससे अभिन्न होने के कारण उसका अभाव है।
| भेद व लक्षण १ । मनुष्यका लक्षण। २ । मनुष्यके भेद । आर्य, म्लेच्छ, विद्याधर व संमूर्च्छन मनुष्य
-दे० बह-वह नाम । पर्याप्त व अपर्याप्त मनुष्य-दे० अपर्याप्त । कुमानुष-दे० म्लेच्छ । अन्त:पज । कर्मभूमिज व भोगभूमिज मनुष्य -दे० भूमि । कर्मभूमिज शब्दसे केवल मनुष्योंका ग्रहण
-दे० तिर्यच!२/१२। | मनुष्यणी व योनिमति मनुष्यका अर्थ-दे० वेद/३ ।
नपुसकवेदी मनुष्यको मनुष्य व्यपदेश-दे० वेद/३/५ । स्त्रोवेदी व नपुंसकबेदी मनुष्य-दे. वेद ।
* अन्य सम्बन्धित विषय १. मनोयोग व उसमें भेद आदि। -(दे० आगे पृथवा शब्द ) २ एकेन्द्रियोंमें मनका अभाव । ३. मनोबल।
-दे० प्राण। ४ मनोयोग।
-दे० मनोयोग। ५ मन जीतनेका उपाय।
--दे० सयम/२। ६ केवलीमें मनके सद्भाव व अभाव सम्बन्धी। --दे० केवली/५।
मनुष्यगति निर्देश ऊर्ध्वमुख अधोशाखा रूपसे पुरुषका स्वरूप । मनुष्यगतिको उत्तम कहनेका कारण प्रयोजन । मनुष्योंमें गुणस्थान, जीवसमास, मार्गणा स्थान आदिके स्वामित्व सम्बन्धी २० प्ररूपणार-दे० सत् । मनुष्यों सम्बन्धी सत्, संख्या, क्षेत्र, स्पर्शन, काल, अन्तर, भाव व अल्पबहुत्व रूप ८ प्ररूपणाएँ।
--दे०वह यह नाम । * मार्गणा प्रकरणमें भाव मार्गणाकी इष्टता तथा उसमे
आयके अनुसार व्यय होनेका नियम --दे. मार्गणा। मनुष्यायुके बन्ध योग्य परिणाम-दे० आयु/३ । मनुष्यगति नामप्रकृतिका बन्ध उदय सत्व
-दे०वह वह नाम ।
मनक-द्वितीय नरकका तृतीय या चतुर्थ पटल---दे० नरक/५/११ ! मनचिती अष्टमी व्रत-भादो मुदि आ3 दिन जान । मन चिन्ते भोजन परवान ॥ यह व्रत श्वेताम्बर व स्थानकवासी समाजमे किया जाता है । (व्रतविधान सग्रह/पृ. १२६) ।
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मनुष्य
२७३
२. मनुष्यगति निर्देश
ध १३/५.५.१४१/१ मनसा उत्कटाः मानुषाः । जो मनसे उत्कट होते है
मानुष कहलाते हैं। नि. सा./ता. वृ/१६ मनोरपत्यानि मनुष्याः । मनुकी सन्तान मनुष्य
है। (और भी-दे० जीव/१/३/१५) दे० मनुज (मैथुन करनेवाले मनुष्य कहलाते है)।
। मनुष्यगतिमें कर्मोंका बन्ध उदय सत्त्व।
-दे० वह वह नाम | क्षेत्र व कालकी अपेक्षा मनुष्योंकी अवगाहना।
-दे० अवगाहना२। मनुष्य गतिके दुःख। -दे० भ आ//१५८६-१५६७ । * | कौन मनुष्य मरकर कहाँ उत्पन्न हो।
-दे० जन्म/६३ मनुष्यगतिमें सम्यक्त्व व गुणस्थान निर्देश सम्यक्त्वका स्वामित्व।
गुणस्थानका स्वामित्व । | जन्मके पश्चात् सम्यक्त्व व संयम ग्रहणको योग्यता।
दे०-सम्यग्दर्शन/I/४ व सयम/२। * मनुष्यणीमें १४ गुणस्थान निर्देश व शंका।
-दे. वेद/६,७।। कौन मनुष्य मरकर कौन गुण उत्पन्न करे।
-दे० जन्म/६। मनुष्योंमें सम्भव कषाय, वेद, लेश्या, पर्याप्ति आदि ।
-दे० वह वह नाम। | समुद्रोंमें मनुष्योंको दर्शनमोहकी क्षपणा कैसे।
मनुष्य लोक मनुष्यलोकका सामान्य स्वरूप व विस्तार । मानचित्र
-दे, लोक/४/२ मनुष्य अढाई द्वीपका उल्लंघन नहीं कर सकता। | अढाई द्वीपका अर्थ अढाई द्वीप और दो समुद्र। * समुद्रोंमें मनुष्य कैसे पाये जा सकते है।
-दे० मनुष्य/३/३। * अढाई द्वीपमें इतने मनुष्य कैसे समावें।।
-वे० आकाश/३ । * मनुष्य लोकमें सुषमा दुषमा आदि काल विभाग
--दे० काल/४। ४ । भरत क्षेत्रके कुछ देशोंका निर्देश।
,, , पर्वतोंका निर्देश । ६ | भारत क्षेत्रकी कुछ नदियोंका निर्देश ।
भारत क्षेत्रके कुछ नगरोंका निर्देश। विद्याधर लोक
-दे० विद्याधर ।
२. मनुष्यके भेद नि. सा/मु./१६ मानुषा द्विविकल्पा' कर्ममहीभोगभूमिसंजाता।
-मनुष्योके दो भेद हैं, कर्मभूमिज और भोगभूमिज । (पं. का./ मू/११८)। त. सू./२/३६ आर्या म्लेच्छाश्च १३६ - मनुष्य दो प्रकारके हैं---आर्य
और म्लेच्छ। भ. आ/वि./७८१/१३६/६ पर उधृत-मनुजा हि चतु प्रकाराः।कर्मभूमिसमुत्थाश्च भोगभूमिभवास्तथा। अन्तरद्वीपजाश्चैव तथा संमूच्छिता इति । मनुष्य चार प्रकारके है-कर्मभूमिज और भोगभूमिज, तथा अन्तर्वीपज व सम्मूच्छिम।। गो. जो./मू /१५०/३७३ समण्णा पंचिदी पज्जत्ता जोणिणी अपज्जत्ता। तिरिया णरा तहावि य पंचिंदियभगदो हीणा ।१०।-तिर्यंच पाँच प्रकारके है-सामान्य तिर्यंच, पर्याप्त, योनिमति, और अपर्याप्त । पंचेन्द्रियवाले भंगसे हीन होते हुए मनुष्य भी इसी प्रकार है । अर्थात मनुष्य चार प्रकार हैं-सामान्य, पर्याप्त, मनुष्यणी और अपर्याप्त। का.अ./मू./१३२-१३३ अज्जब म्लेच्छखंडे भोगमहीसु वि कुभोगभूमीम् । मणुसमा हवंति दुविहा णिन्वित्ता-अपुण्णगा पुण्णा ।१५२१ समुच्छिमा मणुस्सा अज्जवखंडेसु हाँति णियमेण । ते पुण लद्धि अपुग्णा-1१३३।
आर्यखण्डमें, म्लेच्छरखण्डमें, भोगभूमिमें और कुभोगभूमिमें मनुष्य होते है। ये चार ही प्रकारके मनुष्य पर्याप्त और निवृत्त्यपर्याप्तके भेदसे दो प्रकारके होते है ।१३२। सम्मूर्छन मनुष्य नियमसे आर्यखण्ड में ही होते है, और वे लब्ध्यपर्याप्तक ही होते है
२. मनुष्यगति निर्देश
१. ऊर्ध्वमुख अधो शाखा रूपसे पुरुषका स्वरूप अन, घ./४/१०२/४०४ ऊर्ध्वमूलमध शाखामृषयः पुरुष विदुः ।१०२१
ऋषियोंने पुरुषका स्वरूप ऊर्ध्वमूल और अधशाखा माना है। जिसमें कण्ठ व जिलामूल है, हस्तादिक अवयव शाखाएँ हैं । जिह्वा आदिसे किया गया आहार उन अवयवोंको पुष्ट करता है।
१. भेद व लक्षण
१. मनुष्यका लक्षण पं.सं./प्रा./१/६२ मण्णं ति जदो णिच्च पणेण णिउणा जदो दु ये जीवो।
मणउक्कडा य जम्हा ते माणुसा भणिया। यत जो मनके द्वारा नित्य ही हेय-उपादेय, तत्त्व-अतत्त्व और धर्म-अधर्मका विचार करते है, कार्य करने में निपुण है, मनसे उत्कृष्ट हैं अर्थात उत्कृष्ट मनके धारक हैं, अतएव वे मनुष्य कहलाते हैं। (ध. १/१,१,२४/गा. १३०/ २०३), (गो.जी./मू./१४६/३७२ )।
२. मनुष्य गतिको उत्तम कहनेका कारण व प्रयोजन आ, अनु./११५ तपोवल्या देह' समुपचितपुण्योऽजितफलः, शलाटयग्रे यस्य प्रसव इव कालेन गलित। व्यपशुष्यच्चायुष्य सलिल मिव सरक्षितपथ; स धन्यः संन्यासाहुतभुजि समाधानचरमम् ॥११५॥ --जिसका शरीर तपरूप बेलिके ऊपर पुण्यरूप महान् फलको उत्पन्न करके समयानुसार इस प्रकारसे नष्ट हो जाता है, जिस प्रकार कि कच्चे फलके अग्रभागसे फूल नष्ट हो जाता है, तथा जिसकी आयु संन्यासरूप अग्निमें दूधकी रक्षा करनेवाले जल के समान धर्म और
शुक्लध्यानरूप समाधिकी रक्षा करते हुए सूख जाती है, वह धन्य है। का, अ./मू./२६६ मणुवगईए वि तओ मणबुगईए महव्वदं सयलं । मणुवगदीए झाणं मणुव गदीए वि णिव्वाण - मनुष्यगतिमें ही तप होता है, मनुष्यगतिमें ही समस्त महावत होते हैं, मनुष्य गतिमे ही ध्यान होता है और मनुष्य गतिमें ही मोक्षकी प्राप्ति होती है।
जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश
भा०३-३५
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मनुष्य
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४. मनुष्य लोक
३. मनुष्य गतिमे सम्यक्त्व व गुणस्थानोका निर्देश
१. सम्यक्त्वका स्वामित्व ष. ख.१११,शसू. १६२-१६५/४०३-४०५ मणुस्सा अस्थि मिच्छाइट्ठी
सासणसम्माइट्ठी सम्मामिच्छाइट्ठी असंजदसम्माइट्ठी संजदासंजदा सजदा त्ति ।१२। एवमड्ढाइज्जदीयसमुद्देसु ।१६३। मणुसा असजदसम्माइट्ठि-सजदासजदसंजदट्ठाणे अस्थि खहयसम्माइट्ठी वेदयसम्माइट्ठी उबसमसम्माइट्ठी।१६४। एव मणुस-पज्जत्त-मणुसिणीसु ।१६१ - मनुष्य मिथ्यादृष्टि, सासादनसम्यग्दृष्टि, सम्यग्मिध्यादृष्टि, असयत सम्यग्दृष्टि, संयतासंयत और संयत होते है। ।१२। इसी प्रकार अढाई द्वीप और दो समुद्रों में जानना चाहिए। १६३। मनुष्य असंयत सम्यग्दृष्टि संयत्तासंयत और संयत गुणस्थानोंमें क्षायिक सम्यग्दृष्टि वेदकसम्यग्दृष्टि और उपशम सम्यग्दृष्टि होते है ।१६४। इसी प्रकार पर्याप्त मनुष्य और पर्याप्त मनुष्यनियों में भी जानना चाहिए ।१६॥
२. गुणस्थानका स्वामित्व ष, ख.१/१, १ सूत्र २७/२१० मणुस्सा चोहस्सु गुणट्ठाणेस अस्थि
मिच्छाइट्ठी- अजीगिकेवलि त्ति ।२७१ प.खं,१/१,१/सूत्र/६-६३/३२६-३३२ मणुस्सा मिच्छाइटिसासणसम्माइट्ठि-असंजदसम्माइट्ठि-ठाणे सिया पज्जता सिया अपजत्ता महा सम्मामिच्छाइटिठ-सजदासंजद सजद-ट्टाणेणियमापज्जत्ता 1801 एवं मणुस्स-पज्जता 182 मणुसिणीम मिच्छाइट्ठि-सासणसम्माइटि-ट्ठाणे सिमा पज्जत्तियाओ सिया अपज्जत्तियाओ ।।२। सम्मामिच्छाइद्वि-असंजदसम्माइदिठ-संजदासंजदसंजदाणेणियमा पज्जतियाओ।६३. - मिथ्याष्टिको आदि लेकर अयोगि केवली पर्यन्त १४ गुणस्थानोमें मनुष्य पाये जाते है ।२७। मनुष्य मिथ्यावृष्टि, सासादन सम्यग्दृष्टि और असयत सम्यग्दृष्टि गुणस्थानों में पर्याप्त भी होते है और अपर्याप्त भी होते है । मनुष्य सम्यग्मिथ्यावृष्टि, सयतासंयत, और संयत गुणस्थानोमे नियमसे पर्याप्तक होते हैं । (उपरोक्त कथन मनुष्य सामान्यकी अपेक्षा है) मनुष्य सामान्यके समान पर्याप्त मनुष्य होते है ।श मनुष्यनियाँ मिथ्यादृष्टि और सासादनसम्यष्टि गुणस्थानमे पर्याप्त भी होती है और अपर्याप्त भी होती है। मनुष्यनियॉ सम्यग्मिध्याष्टि, असंयतसम्यग्दृष्टि, संयतासंयत और सयत गुणस्थानों में नियमसे पर्याप्तक होती है।३। --(विशेष दे० सत)। दे, भूमि/७ (भोगभूमिज मनुष्य असयत सम्यग्दृष्टि हो सकने पर
भी संयतासंयत ब संयत नही)। दे. जन्म/१६ (सूक्ष्म निगादिया जीव मर कर मनुष्य हो सकता है, संयमासयम उत्पन्न कर सकता है, और रायम, अथवा मुक्ति भी
प्राप्त कर सकता है। दे. आर्यखण्ड [ आर्यखण्डोमे जघन्य १ मिथ्यात्व उत्कृष्ट १८, विदेहके
आर्यखण्डोमें जघन्य ६ उत्कृष्ट १४, विद्याधरों में जघन्य ३ और उत्कृष्ट ५ तथा विद्याएँ छोड देनेपर १४ भो गुणस्थान होते है।। दे. म्लेक्ष [ यहाँ केवल मिथ्यात्व ही होता है, परन्तु कदाचित आर्य
खण्डमे आनेपर इनको व इनकी कन्याओसे उत्पन्न संतानको संयत गुणस्थान भी सम्भव है] ।
क्योकि, विद्या आदिके बशसे समुद्रोंमें आये हुए जीवीके दर्शनमोह
का क्षपण होना सम्भव है। ४. मनुष्य लोक
१. मनुष्य लोकका सामान्य स्वरूप व विस्तार ति.प./४/गा. तसणालीबहुमज्झे चित्ताय खिदीय उपरिमे भागे।
अइबट्टो मणुवजगो जोयणपणदाल लक्खविखंभो।६। जगमज्झादो उपरि तब्बहल जोयणाणि इगिलक्वं । णवचदुद्गखत्तियदुगचउक्केकंकह्मि तप्परिही ७। मुण्णभगयणपणदुगएक्करवतियसुण्णणवणहामुण्ण । छक्के कजोयणा चिय अंककमे मणुवलोयखेत्तफलं ।। अट्ठस्थाणे मुष्णं पंचदुरिगिगयणतिणहणवमुण्णा। अबरछक्केवकेहि अककमे तस्स विदफल ।१०। माणुसजगबहूमज्झे विवादो होदि जबुदीओ त्ति । एक्कजोयणलखव्यिवखंभजुदो सरिसबट्टो १२ अस्थि लवण बुरासी जबुदीवस्स खाइयायारो। समवट्टो सो जोयणबेलक्खपमाण विस्थारो ।२३हा धावसंडो दीयो परिवेढदि लवणजलणिहि सयल । चउलक्खजीयणाई विस्थिण्णो चकवालेणं ।२५२७१ परिवेढे दि समुद्दो कालोदो णाम धादईसंड। अढलक्खजोयणाणि विस्थिण्णो चकवालेणं ।२७१८। पोखरवरोत्ति दीवो परिवेढदि कालजलणि हि सयल । जोयणलबरखा सोलस रु'दजुदो चकवालेणं ।२७४४। कालोदयजगदीदो समतदो अठ्ठलवरखजोयणया गतूणं तं परिदो परिवेढदि माणुमुत्तरो सेलो ।२७४८। चेति माणुस्मुत्तरपरियंत तस्स लंघणविहीणा। मणुआ माणुसखेत्ते वेअड्ढाइज्जउवहिदीवेसु । २६२३। -सनालीके बहुमध्यभागमें चित्रा पृथिवीके उपरिम भागमें ४५००,००० योजन प्रमाण विस्तारवाला अतिगोल मनुष्य लोक है।६। लोक्के मध्यभागसे ऊपर उस मनुष्यलोकका बाहुन्य (ऊँचाई) १००,००० योजन और परिधि १४२३०२४६ योजन प्रमाण है.७ (ध,४/१,३,३/४२/३)3; १६००६०३०१२५००० योजन प्रमाण उसका क्षेत्रफल 1 और १६००६०३०१२५०००००००० योजन प्रमाण उसका घनफल है।१०। उस मनुष्यक्षेत्रके बहूमध्यभागमे १००,००० योजन विस्तारसे युक्त सहश गोल और जम्बूद्वीप इस नामसे प्रसिद्ध पहला द्वीप है ।११। लवणसमुद्र रूप जम्बूद्वीपकीखाईका आकार गोल है। इसका विस्तार २००,००० योजन प्रमाण है ।२३६८ ४००,००० योजन विस्तारयुक्त मण्डलाकारसे स्थित धातकीखण्डद्वीप इस सम्पूर्ण लषणसमुद्रको वेष्टित करता है ।२५२७। इस धातकीखण्डको भी ८००,००० योजनप्रमाण विस्तारवाला कालोद नामक समुद्र मण्डलाकारसे वेष्टित किये हुए है ।२७१८। इस सम्पूर्ण कालसमुद्रको १६००,००० योजनप्रमाण विस्तारसे सयुक्त पुष्करवरदीप मण्डलाकारसे वेष्टित किये हुए है ।२७४४। कालोदसमुद्र की जगतीसे चारों और ८००,००० योजन जाकर मानुषोत्तर नामक पर्वत उस द्वीपको सब तरफसे वेष्टित किय हुए है ।२७४। इस प्रकार दो समुद्र और अढ़ाई द्वीपों के भीतर मानुषोत्तर पर्वत पर्यन्त मनुष्य क्षेत्र है। इसमें ही मनुष्य रहते हैं ।२६२३।-(विशेष दे० लोक/)। त्रि.सा./५६२ मंदरकुलवक्खारिमुमणुसुत्तररुप्पजंबुसामलिसु । सीदी तीसं तु सयं चउ चड सत्तरिसयं दुपणं ५६२- मेरु ५, कुलाचल ३०, गजदन्तसहित सर्व वक्षार गिरि १००, इष्याकार ४, मानुषोत्तर १, विजयाधे पर्वत १७०, जम्बूवृक्ष , शाल्मली वृक्ष, इन विषे क्रमसे ८०, ३०, १०४, ४, १७०, १, ५ जिनमन्दिर हैं।- (विशेष दे, लोक/७)।
२. मनुष्य अढाई द्वीपका उल्लंघन नहीं कर सकता ति. प/४/२६२३ चेति माणुस्मुत्तरपरियंतं तस्स लंधणविहीणा।
मानुषोत्तर पर्यन्त ही मनुष्य रहते हैं, इसका उल्लंघन नहीं कर सकते। (त्रि. सा./३२३) ।
३. समुद्रोंमें मनुष्योको दर्शनमोहकी क्षपणा कैसे ? ध.६/१,६-- ११/२४५/मणुम्भसुपण्णा कवं समुददेसु दंसणमोहमख
वर्ण पवेति । ण, विज्जादिक्मेण तत्थागदाण दमणमोहक्व वणसंभवादो। -प्ररन-मनुष्यों में उत्पन्न हुए जीव समुदो में दर्शनमोहनीयको क्षपणाका कैसे प्रस्थापन करते है। उत्तर- नहीं,
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मनुष्य
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४. मनुष्य लोक
स. सि./३/३/२२६/१ नास्मादुत्तर कदाचिदपि विद्याधरा ऋद्धिप्राप्ता ।
अपि मनुष्या गच्छन्ति अन्यत्रोपपादसमुद्धाताभ्याम् । ततोऽस्यान्वर्थसंज्ञा। समुद्धात और उपपादके सिवाय विद्याधर तथा ऋद्धि प्राप्त मुनि भी इस पर्वतके आगे नहीं जा सकते। अत. इसकी संज्ञा
अन्वर्थक है । { रा. वा./३/३५/ १६८/२), (ह. पु/१६१२)। ध.१/१,१,१६३/४०३/११ वैरसंबन्धेन क्षिप्तानां संयतानां संयता
संयतानां च सर्वद्वीपसमुद्रेषु संभवो भवत्विति चेन्न, मानुषोत्तरास्परतो देवस्य प्रयोगतोऽपि मनुष्याणां गमनाभावात् । प्रश्न-रके सम्बन्धसे डाले गये संयत और संयतासंयत आदि मनुष्योंका सम्पूर्ण द्वीप और समुद्रो में सदभाव रहा आवे, ऐसा मान लेनेमें क्या हानि है। उत्तर-नही, क्योकि, मानुषोत्तर पर्वतके उस तरफ देवोंकी प्रेरणासे भी मनुष्योका गमन नहीं हो सक्ता है।
३. भढ़ाई द्वीपका अर्थ अढाई द्वीप और दो समुद्र घ. १/१,१,१६३/४०४/१ अथ स्यादर्धतृतीयशब्देन किमु द्वीपो विशिष्यते उत समुद्र उत द्वावपीति । नान्त्योपान्त्यविकल्पौ मानुषोत्तरात्परतोऽपि मनुष्याणामरितत्वप्रसंगाव । ..नादिविकल्पोऽपि समुद्राणो संख्या नियमाभावत' सर्वसमुद्रेषु तत्सत्त्वप्रसंगादिति । अत्र प्रतिविधीयते । नानन्तापान्त्यविकल्पोक्तदोषा. समाढीकन्ते, तयोरनभ्युपगमात् । न प्रथमविकल्पोक्तदोषोऽपि द्वीपेष्वर्धतृतीयसंख्येषु मनुष्याणामस्तित्व नियमे सति शेषद्वीपेषु मनुष्याभावसिद्धिवन्मानुषोत्तरल प्रत्यविशेषत. शेषसमुद्रेषु तदभावसिद्धे। तत सामाद द्वयोः समुद्रयोः सन्तीत्यनुक्तमप्यवगम्यते। - प्रश्न-'अर्धतृतीय' यह शब्द द्वीपका विशेषण है या समुद्रका अथवा दोनोंका। इनमेंसे अन्तके दो विकल्पोंके मान लेनेपर मानुषोत्तर पर्वतके उस तरफ भी मनुष्योंके अस्तित्वका प्रसंग आ जायेगा। और पहला विकल्प मान लेनेसे द्वीपोंकी संख्याका नियम होनेपर भी समुद्रोंकी संख्याका कोई नियम नहीं बनता है, इसलिए समस्त समुद्रोमें मनुष्यों के सद्भावका प्रसंग प्राप्त होता है। उत्तर-दूसरे और तीसरे विकल्पमें दिये गये दोष तो प्राप्त ही नहीं होते है, क्योकि, परमागममें वैसा माना ही नहीं गया है। इसी प्रकार प्रथम विकल्पमें दिया गया दोष भी प्राप्त नहीं होता है, क्योंकि, अढाई द्वीपमें मनुष्यों के अस्तित्वका नियम हो जानेपर शेषके द्वीपोमें जिस प्रकार मनुष्योंके अभावकी सिद्धि हो जाती है, उसी प्रकार शेष समुद्रो में भी मनुष्योंका अभाव सिद्ध हो जाता है, क्योंकि, शेष द्वीपोंकी तरह दो समुद्रोंके अतिरिक्त शेष ममुद्र भी मानुषोत्तरसे परे है। इसलिए सामर्थ्य से ही दो समुद्रोमें मनुष्य पाये जाते है, यह बात बिना कहे ही जानी जाती है।
४. भरतक्षेत्रके कुछ देशोंका निर्देश ह.पु./१२/६४-७५ का केवल भाषानुवाद-कुरुजांगल, पांचाल, सूरसेन,
पटचर, तुलिंग, काशि, कौशल, मद्रकार, वृकार्थक, सोल्व, आवृष्ट, विगत, कुशाग्र, मत्स्य, कुणीयाद् कोशल और मोक ये मध्यदेश थे ।६४-६॥ वाहीक, आत्रेय, काम्बोज, यवन, आभीर, मद्रक, स्वाथतोय, शूर, वाटवान, कैकय, गान्धार, सिन्धु, सौवीर, भारद्वाज, दोरुक, प्रास्थाल और तीर्ण कर्म ये देश उत्तरकी ओर स्थित थे।६६-६७। खड्ग, अगारक, पौण्ड्र, मल्ल, मस्तक, प्राग्जोतिष, वङ्ग, मगध, मानवतिक, मलद और भार्गव, ये देश पूर्व दिशामें स्थित थे। बाणमुक्त, वैदर्भ, माणव, सककापिर, मूलक, अश्मक, दाण्डीक, कलिंग, ऑसिक, कुन्तल, नवराष्ट्र, माहिषक, पुरुष और भोगवर्धन ये दक्षिण दिशाके देश थे। माल्य कल्लीवनोपान्त, दुर्ग, सूर, कर्बुक, काक्षि, नासारिक, अगत, सारस्वत, तापस, महिम, भरुकच्छ, सुराष्ट्र और नरमद ये सब देश पश्चिम दिशामे स्थित थे । दशार्णक,
किकन्ध, त्रिपुर, आवर्त, नैषध, नैपाल, उत्तमवर्ण, वैदिश, अन्तप, कौशल, पत्तन और विनिहात्र ये देश विन्ध्याचलके ऊपर स्थित थे।६८-७४। भद्र, वत्स, विदेह, कुश, भंग, सैतव और वजखण्डिक, ये देश मध्यदेशके आश्रित थे।७॥ ह.पु./सर्ग/श्लोक-टकण द्वीप। (२१/१०२), कुम्भकटक द्वीप। (२१/१२३); शकटद्वीप (२७/१६), कौशलदेश ( २७/६१), दुर्ग देश (१७/१६); कुशद्यदेश (१८/8)। म, पु./२६/श्लोक न. भरत चक्रवर्तीके सेनापतिने निम्न देशोको
जोता-पूर्वी आर्यखण्डकी विजयमें-कुरु, अवन्ती, पांचाल, काशी, कोशल, वैदर्भ, मद्र, कच्छ, चेदि, वत्स, मुह्म, पुण्ड्र, औण्ड्र, गौड, दशार्ण, कामरूप, काशमीर, उशीनर, मध्यदेश, कलिग, अंगार, बंग, अग, पुंड्र, मगध, मालव, कालकूट, मनल, चेदि, कसेरु और वत्स ।४०-४८। मध्य आर्यखण्डकी विजयमे त्रिकलिग, औद्र, कच्छ, प्रातर, केरल, चेर, पुन्नाग, कूट, ओलिक, महिष, कमेकुर, पाण्ड्य, अन्तरपाण्ड्य ७६-८०। आन्ध्र, कलिग, ओण्ड्र, चोल, केरल, पाण्डय ।६१-६६ म.पु./३०/श्लोक नं. पश्चिमी आर्य खण्डकी विजयमें-सोरठ (१०१ ),
काम्बोज, बालोक, तैतिल, आरट्ट, सैन्धव, वानायुज, गान्धार, वाण ११०७-१०८०-उत्तर म्लेक्षखण्डमें चिलात व आवर्त । (३२/४६)।
५. मरतक्षेत्रके कुछ पर्वतोंका निर्देश ह. पू./सर्ग/श्लोक-गिरिकूट (२१/१०२); कर्कोटक (२१/१२३ ),
राजग्रहमें ह्रीमन्त (२६/४५) वरुण (२७/१२) विन्ध्याचल (१७/३६ )। म. पु./२६/श्लोक-ऋष्यमूक, कोलाहल, माल्य, नागप्रिय ।५५-५७। तैरश्चिक, वैडूर्य, कूटाचल, परियात्रा, पुष्पगिरि, स्मितगिरि, गदा, ऋक्षवान्, बातपृष्ठ, कम्बल, बासवन्त, असुरधूपन, भदेभ, अंगिरेयक, १६७-७०। विन्ध्याचलके समीपमें नाग, मलय, गोशीर्ष, दुर्दर, पाण्ड्य, कवाटक, शीतगृह, श्रीकटन, श्रीपर्वत, किष्किन्ध 1८८-१० म.पु./३०/ श्लोक-त्रिकूट, मलयगिरि, पाण्ड्यवाटक ।२६। सह्य ।।
तुंगवरक, कृष्णगिरि, सुमन्दर, मुकुन्द, ४६-६ विन्ध्याचल ६५॥ गिरनार ६४ म. पु./३३/श्लोक कैलाश पर्वत विजयाधके दक्षिण, लवण समुद्रसे उत्तर व गंगा नदीके पश्चिम भागमें अयोध्याके निकट बताया है।
६. मरतक्षेत्रकी कुछ नदियोका निर्देश ह. पु./सर्ग/श्लोक-हरिद्वती, चंडवेगा, गजवती, कुसुमवती, सुवर्णवती
ये पाँच नदियाँ वरुण पर्वतपर है। (२७/१३) ऐरावती। (२१/ १०२)। म.पु./सर्ग/श्लोक-सुमागधी, गगा. गोमती, कपीवती, रवेस्या-ये नदियाँ पूर्वी मध्य देशमें है, गम्भीरा, कालतोया, कौशिकी, कालमही, ताम्रा, अरुणा, निधुरा, उदुम्बरी, पनसा, तमसा, प्रमृशा, शुक्तिमती, यमुना-ये नदियाँ पूर्व में है। शोन पूर्वी उत्तरमे, बीजा दोनों के बीच में और नर्मदा पूर्वी दक्षिणमें है। (२६/४६-५४ ) । क्षत्रवती, चित्रवतो, मान्यवती, वेणुमती, दशार्णा, नालिका, सिन्धु, विशाला, पारा, निकुन्दरी, बहुवजा, रम्या, सिकतिनी, कुहा, समतोया, कजा, कपीवती, निर्विन्ध्या, जम्बूमती, वसुमती, शर्कराबती, शिप्रा, कृतमाला, परिंजा, पनसा, अवन्तिकामा, हस्तिपानी, कांगधुनी, व्याघी. चर्मण्वती, शतभागा, नन्दा, करभवेगिनी, चल्लितापी, रेवा, सप्तपारा, कौशिकी। (२४/२८-६६)। तैला, इक्षुमती, नरवा, बंगा, श्वसना, वैतरणी, मापवती, महेन्द्र का, शुष्क, सप्तगोदावर, गोदावरी, मानससरोवर, सुप्रयोगा, कृष्णवर्णा, सन्नीरा,
कांगधुनी, व्यायामाला. परिजा, पाया, जम्बमती, सकतिनी, कुहा,
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मनुष्य व्यवहार
२७६
मनोयोग
घ.१/१,१,६५/३०८/३ चतुर्णा मनसा मामान्य मन', तजनितवीर्येण
परिस्पन्दलक्षणेन योगो मनोयोग । मनकी उत्पत्तिके लिए जो प्रयत्न होता है उसे मनोयोग कहते है। (ध १/१,१,४७/२७६/२)। -सत्य आदि चार प्रकारके मनमें जो अन्वयरूपसे रहता है उसे सामान्य मन कहते हैं। उस मनसे उत्पन्न हुए परिस्पन्द लक्षण वीर्य के द्वारा जो योग होता है उसे मनोयोग कहते हैं। (विशेष देखो
आगे शीर्षक नं.)। ध.७/२,१,३३/७६/६ मणवग्गणादो णिप्पण्णदव्यमणमवलं बिय जो जीवस्स संकोचविकोचो सो मणजोगो। -मनोवर्गणासे निष्पन्न हुए द्रव्यमनके अवलम्बनसे जो जीवका सकोच-विकोच होता है वह मनोयोग है। ध. १०/४,२,४,१७४/१३७/१० बज्झत्थचिंतावावदमणादो समुप्पण्ण जीव
पदेसपरिफंदो मणोजोगो णाम। -बाह्यपदार्थ के चिन्तनमें प्रवृत्त हुए मनसे उत्पन्न जीव प्रदेशोंके परिस्पन्दको मनोयोग कहते है।
२. मनोयोगके भेद ष खं. १/१.१/सूत्र ४६/२८० मणजोगो चउव्यिहो सच्चमणजोगो मोसमणजोगो सच्चमोसमणजोगो असच मोसमणजोगो चेदि १४१ -मनोयोग चार प्रकारका है-सत्यमनोयोग, मृषामनोयोग, सत्यमृषामनोयोग और असत्यमृषा ( अनुभय ) मनोयोग ।४। (रा. वा./१/७/१४/३४/२१); (ध.८/३,६/२१/६); (गो. जी /मू./२१७/४७५); (द, सं./टी/१३/३७/७)।
प्रवेणी, कुब्जा, धैर्या, चूर्णी, वेणा, सू करिका, अम्बर्णा । (२६/८३- ८७)। भीमरथी, दारुवेणी, नीरा, मूला, बाणा, केतवा, करीरी, प्रहरा, मुररा, पारा, मदना, गोदावरी, तापी, लीगल खातिका । (३०/५५-६३) । कुसुमवती, हरणबती, गजवती, चण्डवेगा। (५६/ ११६)।
७. भरतक्षेत्रके कुछ नगरोंका निर्देश ह. पु./१७/श्लोक दुर्गदेशमे इलावर्धन १॥ नर्मदा नदीपर माहिष्मती ।२०। वरदा नदीपर कंडिनपुर ।२३। पौलोमपुर ।२५। रेवा नदीपर इन्द्रपुर ।२७। जयन्ती व बनवास्या ।२७। कल्पपुर ।२८। शुभ्रपुर 1३२ बजपुर 1३श विन्ध्याचलपर चेदि १३६) शुक्तीमती नदीपर
शुक्तिमती ।६। भद्रपुर, हस्तनापुर, विदेह ३४ मथुरा, नागपुर ।१६४। ह. पु/१८/श्लोक-कुशद्यदेशमें शौरपुर ।। भद्रलपुर ।१११॥ ह. पु/२१/श्लोक-कलिंगदेशमें कांचनपुर ११० अचलग्राम ॥२६॥ __ शालगुहा ।२६॥ जयपुर ।३०। इलावर्धन ।३४। महापुर ।३७१ ह. पु./२/श्लोक-गजपुर ।६। ह.पु/२७/श्लोक सिंहपुर । पोदन 1 वर्धकि ।६। साकेतपुर
(अयोध्या)।६३. धरणी तिलक १७७१ चक्रपुर ।। चित्रकारपुर ६६) मनुष्य व्यवहारप्र. सा./पं. जयचन्द्र/१४ मै मनुष्य हूँ, शरीरादिकी समस्त क्रियाओंको
मै करता हूँ, स्त्री, पुत्र धनादिके ग्रहण त्यागका मै स्वामी हूँ' इत्यादि मानना सो मनुष्य व्यवहार है। मनुष्यायु- दे आयु । मनो गुप्ति-दे० गुप्ति । मनोज्ञ साधु-स. सि/६/२४/१४२/१० मनोज्ञो लोकसंमत'।
लोकसम्मत साधुको मनोज्ञ कहते हैं। रा वा /8/२४/१२-१४/६२३/२५ मनोज्ञोऽभिरूप ।१२। संमतो वा लोकस्य विद्वत्तावक्तृत्वमहाकुलत्वादिभि ।१३ . गौरवोत्पादनहेतुत्वात् । असं यतसम्यग्दृष्टिक १४। संस्कारोपेतरूपत्वात् । अभिरूपको, अथवा गौरव की उत्पत्तिके हेतुभ्रत विद्वान, वाग्मी व महाकुलीन आदिरूपसे लोकप्रसिद्धको, अथवा मुसंस्कृत सम्यग्दृष्टिको
मनोज्ञ कहते है। (चा. सा /१५१/४ ), (भा. पा/टी/७८/२२५/२)। घ १३/५,४,२६/६३/१० आइरियेहि सम्मदाण गिहत्याणं दिक्वाभिमुहाणं वा जं करिदे तं मणुण्ण वेज्जावच्च णाम ।-आचार्योंके द्वारा सम्मत और दीक्षाभिमुख गृहस्थकी वैयावृत्त्य मनोज्ञ कहलाती है। (चा सा./१५१/2 )। मनोदंड-दे० योग/१। मनोदुष्ट-कायोत्सर्गका अतिचार-दे० व्युत्सर्ग/१६ मनोबल-१. ऋद्धि/६, २. दे० प्राण । मनोभद्र-यक्षीका एक भेद-दे० यक्ष । मनोयोग-स सि /६/२/३१८/११ अभ्यन्तरवीर्यान्तरायनोइन्द्रियाबरगक्षयोपशमात्मकमनोलब्धिसं निधाने बाह्यनिमित्तमनोवर्गणालम्बने च सति मन परिणामाभिमुखस्यात्मप्रदेशपरिस्पन्दो मनोयोग । वीर्यान्तराय और नोहन्द्रियावरणके क्षयोपशम रूप आन्तरिक मनोलब्धिके होनेपर तथा बाहरी निमित्तभूत मनोवर्गणाओंका आलम्बन मिलनेपर मनरूप पर्यायके सम्मुख हुए आरमाके होनेवाला प्रदेशपरिस्पन्द मनोयोग कहलाता है। (रा. वा./६/५/
१०/५०/१५)। ध. १/१,१.१०/२८२/६ मनस समुत्पत्तये प्रयत्नो मनोयोगः ।
३. इन चारके अतिरिक सामान्य मनोयोग क्या ध. १/१,१,५०/२८२/८ मनोयोग इति पञ्चमो मनोयोग क्व लब्धश्चेन्नैप दोष', चतसृणा मनोव्यक्तीनां सामान्यस्य पञ्चमत्वोपपत्तेः । कि तत्सामान्यमिति चेन्मनसः सादृश्यम। -प्रश्न-चार मनोयोगों के अतिरिक्त (मार्गणा प्रकरण में ) 'मनोयोग' इस नामका पाँचवाँ मनोयोग कहाँसे आया । उत्तर-यह कोई दोष नहीं है, क्योंकि, भेदरूप चार प्रकारके मनोयोगोमे रहनेवाले सामान्य योगके पाँचवीं संख्या बन जाती है। प्रश्न-वह सामान्य क्या है। उत्तर-यहाँ पर सामान्यसे मनकी सदृशताका ग्रहण करना चाहिए।
१. मनोयोगके भेदोंके लक्षण पं.सं./प्रा/१/८-१० सम्भावो सच्चमणा जो जोगो सो दु सञ्चमणजोगो। तबिवरीओ मोसो जाणुभयं सचमोस त्ति ।८। ण य सच्चमोसजुत्तो जो हु मणो सो असच्चमोसमणो। जो जोगो तेण हवे असच्चमोसो दुमणजोगो।। - सद्भाव अर्थात् समीचीन पदार्थके विषय करनेवाले मनको सत्यमन कहते है और उसके द्वारा जो योग होता है उसे सत्यमनोयोग कहते है। इससे विपरीत योगको मृषा मनोयोग कहते है। सरय ओर मृषा योगको सत्यमृषा मनोयोग कहते है।६। जो मन न तो सत्य हो और न मृषा हो उसे असत्यमृषामन कहते है और उसके द्वारा जो योग होता है उसे असत्यमृषामनोयोग कहते है ।(ध.१/१,१,४६/गा.१५६-१९७४२८१,
२८२); (गो जी /मू./२१८-२१९/४७७)। ध. १/१,१,४६/२८१/४ समनस्केषु मन पूर्विका वचस प्रवृत्ति' अन्यथानुपलम्भाव । तत्र सत्यवचननिबन्धनमनसा योग सत्यमनोयोग । तथा मोषवचननिबन्धनमनसा योगो मोषमनोयोगः । उभयात्मकवचननिबन्धनमनसा योग सत्यमोषमनोयोगः । त्रिविधवचनव्यतिरिक्तामन्त्रणादि वचननिबन्धनमनसा योगोऽसत्यमोषमनोयोगः । नायमों मुख्य, सकलम नसामव्यापकत्वात् । क. पुननिरबद्योऽर्थश्चेद्यथावस्तु प्रवृत्त मन मत्यमन । विपरीतमसत्यमन । द्वयात्मकमुभ गयमन । सशयानध्यवसायज्ञाननिबन्धनम
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मनोयोग
२७७
मनोयोग
सत्यमोषमन इति । अथवा तद्वचनजननयोग्यतामपेक्ष्य चिरन्तनोऽप्यर्थ समीचीन एव। -१. समनस्क जीवों में बचनप्रवृत्ति मनपूर्वक देखी जाती है, क्योंकि, मनके बिना उनमें वचन प्रवृत्ति नहीं पायी जाती । इसलिए उन चारोंमें-से सत्यवचनानिमित्तक मनके निमित्तसे होनेवाले योगको सत्यमनोयोग कहते है। असत्य वचन निमित्तक मनसे होनेवाले योगको असत्य मनोयोग कहते है। सत्य और मृषा इन दोनों रूप वचन निमित्तक मनसे होनेवाले योगको उभयमनोयोग कहते है। उक्त तीनों प्रकारके वचनोंसे भिन्न आमन्त्रण आदि अनुभयरूप वचननिमित्तक मनसे होनेवाले योगको अनुभय मनोयोग कहते हैं। फिर भी उक्त प्रकारका कथन मुख्यार्थ नहीं है, क्योंकि, इसकी सम्पूर्ण मनके साथ व्याप्ति नहीं पायी जाती। अर्थात् यह कथन उपचरित है, क्योकि, वचनकी सत्यादिकतासे मनमें सत्य आदिका उपचार किया गया है। प्रश्नतो फिर यहाँपर निर्दोष अर्थ कौन-सा लेना चाहिए। उत्तर२. जहाँ जिस प्रकारकी बस्तु विद्यमान हो वहाँ उसी प्रकारसे प्रवृत्ति करनेवाले मनको सत्यमन कहते है। उससे विपरीत मनको असत्यमन कहते है। सत्य और असत्य इन दोनों रूप मनको उभयमन कहते है। तथा जो संशय और अनध्यवसायरूप ज्ञानका कारण है, उसे अनुभयमन कहते है। ३. अथवा मनमें सत्य-असत्य आदि बचनोको उत्पन्न करनेरूप योग्यता है, उसकी अपेक्षासे सत्यवचनादि निमित्तसे होनेके कारण जिसे पहले उपचार कह आये है, वह कथन मुख्य भी है। गो जो./जी. प्र./२१७-२१६/४७५/४ सत्यासत्योभयानुभयार्थेषु या. प्रवृत्तयः मनोवचनयो तदा ज्ञानवाकप्रयोगजनने जीवप्रयत्नरूपप्रवृत्तीना सत्यादि तन्नाम भवति सत्यमन इत्यादि। • सम्यग्ज्ञानविषयोऽर्थः सत्य यथा जलज्ञानविषयो जल स्नानपानाद्यर्थक्रियासद्भावात। मिथ्याज्ञान विषयोऽर्थ असत्य' यथा जलज्ञानविषयो मरीचिका जले जल, स्नानपानाद्यर्थ क्रियाविरहात । सत्यासत्यज्ञानविषयोऽर्थः, उभय. सत्यासत्य इत्यर्थः यथा जलज्ञानविषय' कमण्डलुनि घट' । अत्र जलधारणार्थ क्रियाया सद्भावात् सत्यताया. घटाकारविकलवादसत्यतायाश्च प्रतीते । अयं गौणार्थ अग्निर्माणवक इत्यादिवत । अनुभयज्ञानविषयोऽर्थ अनुभय' सत्यासत्यार्थद्वयेनावक्तव्यः यथा किंचित्प्रतिभासते। सामान्येन प्रतिभासमानोऽर्थः स्वार्थ क्रियाकारिविशेषनिर्णयाभावात सत्य इति वक्तुं न शक्यते। सामान्य इति प्रतिभासात् असत्य इत्यपि वक्तुं न शक्यते, इति जात्यन्तरम् अनुभयार्थः स्फुट चतुर्थो भवति। एवं घटे घटविकल्प' सत्य , घटे पटविकल्पोऽसत्य , कुण्डिकाया जलधारणे घटविकल्प उभय , आमन्त्रणादिषु अहो देवदत्त इति विकल्प, अनुभयः । कालेनैव गृहीता सा कन्या कि मृत्युना अथवा धर्मणा इत्यनुभय' ।२१७ सत्यमन , सत्यार्थज्ञानजननशक्तिरूपं भावमन इत्यर्थः। तेन सत्यमनसा जनितो योग.-प्रयत्नविशेष' स सत्यमनोयोग', तद्विपरीत. असत्यार्थविषयज्ञानजनितशक्तिरूपभावमनसा जनितप्रयत्नविशेष' मृषा असत्यमनोयोग. । उभय-सत्यमृषार्थज्ञानजननशक्तिरूपभावमनोजनितप्रयत्न विशेषः उभयमनोयोग।२१। असत्यमृषामन', अनुभयार्थज्ञानजननशक्तिरूपं भावमन इत्यर्थः । तेन भावमनसा जनितो यो योग, प्रयत्नविशेष. स तु पुन' असत्यमृषामनोयोगो भवेत् अनुभयमनोयोग इत्यर्थ । इति चत्वारो मनोयोगा. कथिता.। -सत्य-असत्य उभय और अनुभय इन चार प्रकारके अर्थों को जानने या कहने में जीवके मन व वचनकी प्रयत्नरूप जो प्रवृत्ति विशेष होती है, उसीको सत्यादि मन व वचन योग कहते हैं । तहाँ-यथार्थ ज्ञानगोचर पदार्थ सत्य है, जैसे जलज्ञानका विषयभूत जल, क्योंकि, उसमें स्नान, पान आदि अर्थ क्रियाका सद्भाव है। अयथार्थ ज्ञानगोचर पदार्थ असत्य है, जैसे जलज्ञानका विषयभूत मरीचिकाका जल, क्योकि, उसमें स्नान,
पान आदि अर्थ क्रियाका अभाव है। यथार्थ और अयथार्थ दोनों ज्ञानगोचर अर्थ उभय अर्थात सत्यासत्य है, जैसे जलज्ञानके विषयभूत कमण्डलुमें घटका ग्रहण, क्योकि, जलधारण आदिरूप क्रियाके सदभावसे यह घटकी नाई' सत्य है, परन्तु घटाकारके अभावसे असत्य है। प्रतिभाशाली देखकर बालकको अग्नि कहनेकी भाँति यह कथन गौण है। यथार्थ अयथार्थ दोनो ही प्रकारके निर्णयसे रहित ज्ञानगोचर पदार्थ अनुभय है, जैसे 'यह कुछ प्रतिभासित होता है।' इस प्रकारके सामान्यरूपेण प्रतिभासित पदार्थ में स्वार्थक्रियाकारी विशेषके निर्णयका अभाव होनेसे उसे सत्य नहीं कह सकते और न ही उसे असत्य कह सकते है, इसलिए वह जात्यन्तरभूत अनुभय अर्थ है। इसी प्रकार घटमें घटका विकल्प सत्य है, घटमें पटका विकल्प असत्य है, कुण्डीमें जलधारण देखकर घटका विकल्प उभय है, और 'अहो देवदत्त ।' इस प्रकारकी आमन्त्रणी आदिभाषा (दे० भाषा) में उत्पन्न होनेवाला विकल्प अनुभय है। अथवा 'वह कन्या कालके द्वारा ग्रहण की गयी है' ऐसा विकल्प अनुभय है, क्योकि, कालका अर्थ मृत्यु व मासिकधर्म दोनो हो सकते है।२१७) सत्यमन अर्थात सत्यार्थज्ञानको उत्पन्न करनेकी शक्तिरूप भाव मन । ऐसे सत्यमनसे जनित योग या प्रयत्न विशेष सत्यमनोयोग है। उससे विपरीत असत्यार्थविषयक ज्ञानको उत्पन्न करनेकी शक्तिरूप भावमनसे जनित प्रयत्नविशेष असत्यमनोयोग है। उभयार्थ विषयक ज्ञानको उत्पन्न करनेकी शक्तिरूप भावमनसे जनित प्रयत्न विशेष उभयमनोयोग है। और अनुभयार्थ विषयक ज्ञानको उत्पन्न करनेकी शक्तिरूप भावमनसे जनित प्रयत्नविशेष अनुभयमनोयोग है। इस प्रकार चार मनोयोग कहे गये।
५. शुभ-अशुभ मनोयोग बा अ./गा, आहारादी सण्णा असुहमणं इदि विजाणे हि ।५० किण्हादितिण्णि लेस्सा करणजसोक्खेसु गिहिपरिणामो। ईसाविसादभावो असुहमण त्ति य जिणा वेति ॥५१॥ रागो दोसो मोहो हस्सादी-णोकसायपरिणामो। थूलो वा सुहुमो वा असुहमणोत्ति य जिणा वेति १५२। मोत्तूण असुहभावं पुन्बुत्तं णिरवसेसदो दव्यं । बदसमिदिसीलसंजमपरिणाम मुहमणं जाणे ॥५४॥ -- आहार, भय, मैथुन, परिग्रह, कृष्ण-नील व कापोत लेश्याएँ, इन्द्रिय सुखो में लोलुपता, ईर्षा, विषाद, राग, द्वेष, मोह, हास्य, रति, अरति, शोक, भय, जुगुप्सा, स्त्रीवेद, पुरुषवेद, और नपुंसकवेद रूप परिणाम अशुभ मन है।५०५२। इन अशुभ भावो व सम्पूर्ण परिग्रह को छोड कर बत, समिति, शोल और संयमरूप परिणाम होते है, उन्हे शुभ मन जानना
चाहिए। दे. उपयोग/II/४/१,२ (जीव दया आदि शुभोपयोग हैं और विषय
कषाय आदिमें प्रवृत्ति अशुभोपयोग है।) दे, प्रणिधान-(इन्द्रिय विषयो में परिणाम तथा क्रोधादि कषाय अशुभ प्रणिधान है और नत समिति गुप्तिरूप परिणाम शुभ प्रणिधान हैं।) रा.वा./६/३/१.२/पृष्ठ/पंक्ति वधचिन्तनेष्र्यास्यादिरशुभो मनोयोगः । (५०६/३३) । अहंदादिभक्तितपोरुचिश्रुतविनयादि शुभो मनोयोगः । (५०७/३)।-हिंसक विचार, ईर्षा, असूया आदि अशुभ मनयोग है
और अर्हन्त भक्ति, तपको रुचि, श्रुत बिनयादि विचार शुभ मनोयोग है। (स.सि/६/३/६१६/११) ६. मनोज्ञान व मनोयोगमें अन्तर ध./१/१,१,५०/२८३/१ पूर्वप्रयोगात् प्रयत्नमन्तरेणापि मनसः प्रवृत्ति - श्यते इति चेद्भवतु, न तेन मनसा योगोऽत्र मनोयोग इति विवक्षितः, तन्निमित्तप्रयत्नसंबन्धस्य परिस्पन्द रूपस्य विवक्षितत्वाइ ।-प्रश्न
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मनोरम
२७८
मरण
मनोहरण-यक्षीका एक भेद-दे० यक्ष ।
पूर्व प्रयोगसे प्रयत्नके बिना भी मनकी प्रवृत्ति देखी जाती है। उत्तर-यदि ऐसा है तो होने दो, क्योकि, ऐसे मनसे होनेवाले योगको मनोयोग कहते है. यह अर्थ यहाँ विवक्षित नहीं है, किन्तु मनके निमित्तसे जो परिस्पन्दरूप प्रयत्न विशेष होता है, वह यहाँ पर योग
रूपसे विवक्षित है। गो.जी./जी प्र./७०३/१९३०/२० लब्ध्युपयोगलक्षणं भावमन. तद्वयापारो मनोयोगः।-लब्धि व उपयोग लक्षणवाला तो भावमन है और उसका व्यापार विशेष मनोयोग है। ७. मरण या व्याघातके साथ ही मन व वचन योग
मी समाप्त हो जाते हैं ध, ४/१,५,१७५/४१६४ मुदे वाघादिदे वि कायजोग मोत्तूण अण्णजोगाभावो। मरण अथवा व्याघात होने पर भी काययोगको छोड़कर अन्य योगका अभाव है।
ममकार-त अनु/१४ शश्वदनात्मीयेषु स्वतनुप्रमुखेषु कमजनितेषु । आत्मीयाभिनिवेशो ममकारो मम यथा देह ।१४। सदा अनात्मीय, ऐसे कर्मजनित स्वशरीरादिकमें जो आत्मीय अभिनिवेश है, उसका नाम ममकार है, जैसे मेरा शरीर । (द्र. सं./टी./४१/ १६६/१)। प्र.सा/ता वृ./१४/१२२/१५ मनुष्यादिशरीरं तच्छरीराधारोत्पन्नपञ्चेन्द्रियविषयसुखस्वरूपं च ममेति ममकारो भण्यते । 'मनुष्यादि शरीर तथा उस शरीरके आधारसे उत्पन्न पञ्चेन्द्रियोके विषयभूत सुखका स्वरूप सो मेरा है इसे ममकार कहते है। ममत्व-स्व. स्तो./टी./१० ममेत्यस्य भावो ममत्वं । - मेरेपनेका भाव ममत्व कहलाता है।
८. अन्य सम्बन्धित विषय १. मनोयोग सम्बन्धी विषय ।
-दे० योग २. केवलीमें मनोयोग विषयक ।
-दे० केवली/५ ३. मनोयोगमें गुणस्थान जीवसमास मार्गणास्थान आदि २० प्ररूपणाएँ।
-दे० सत्। ४. मनोयोगकी सत् , संख्या, क्षेत्र, स्पर्शन, काल, अन्तर, भाव व अल्पबहुत्व प्ररूपणाएँ।
-दे० वह वह नाम। ५. मनोयोगियोंमें कर्मोंका बन्ध, उदय. सत्त्व ।-दे० वह वह नाम ।
मय-प.पु/८/श्लोक-रावणका श्वसुर व मदोदरी का पिता था
।। रावणकी मृत्युके पश्चात् दीक्षित हो गया /६० । मरण-लोक प्रसिद्ध मरण तद्भव मरण कहलाता है और प्रतिक्षण
आयुका क्षीण होना नित्य मरण कहलाता है। यद्यपि संसारमे सभी जीव मरणधर्मा है, परन्तु अज्ञानियोक्को मृत्यु बालमरण और ज्ञानियोंकी मृत्यु पण्डित मरण है, क्योंकि, शरीर द्वारा जीवका त्याग किया जानेसे अज्ञानियोंकी मृत्यु होती है और जीव द्वारा शरीरका त्याग किया जानेसे ज्ञानियों की मृत्यु होती है, और इसीलिए इसे समाधिमरण कहते है। अतिवृद्ध या रोगग्रस्त हो जानेपर जब शरीर उपयोगी नही रह जाता तो ज्ञानीजन धीरे-धीरे भोजनका त्याग करके इसे कृश करते हुए इसका भी त्याग कर देते हैं। अज्ञानीजन इसे अपमृत्यु समझते है, पर वास्तवमें कषायोके क्षीण हो जानेपर सम्यग्दृष्टि जागृत हो जानेके कारण यह अपमृत्यु नहीं बल्कि सल्लेखना मरण है जो उत्कृष्ट, मध्यम, जघन्यके भेदसे तीन विधियो द्वारा किया जाता है। यद्यपि साधारणत. देखनेपर अपमृत्यु या यह पण्डितमरण अकालमरण सरीखा प्रतीत होता है, पर ज्ञाता द्रष्टा रहकर देखनेपर वह अकाल होनेपर भी अकाल नहीं है।
मनोरम-१.किन्नर नामक व्यन्तर जातिका एक भेद-दे. किन्नरः
२. सुमेरु पर्वतका अपर नाम-दे. सुमेरु । मनोरमा-१ ह पु./१५/श्लोक नं विजया पर मेघपुरके राजा
पवनवेगकी पुत्री थी ।२७। इसका विवाह राजा सुमुखके जीवके साथ हुआ, जिसने पूर्व भवमे इसका हरण कर लिया था।।३३। पूर्व जन्मका असली पति जो उसके वियोगमें दीक्षित होकर देव हो गया था, पूर्व वैरके कारण उन दोनोको उठा कर चम्पापुर नगरमें छोड़ गया और इनको सारी विद्याएँ हरकर ले गया। वहाँ उनके हरि नामका पुत्र उत्पन्न हुआ जिसने हरिवंशकी स्थापना की।३८-५८१२ बरांगचरित्र/सर्ग/श्लोक-राजा देवसेनकी पुत्री थी। वरांगपर मोहित हो गयी। (१६/४०)। वरागके साथ विवाह हुआ। (२०/४२)। अन्तमें दीक्षा धारण की। (२६/१४)। तपके प्रभावसे स्त्रीलिग छेद देव हुआ। (३१/११४)। मनो वर्गणा-दे० वर्गणा/१। मनो विनय-दे० विनय/१। मनावग-१. वहन कथाकोश/कथा न ७/प्र. मथुरा नगरीमें मुनिगुप्त द्वारा रेवतीको आशीष और भव्यसेन मुनिको कुछ नहीं कहला भेजा ।२०। इस प्रकार इसने उन दोनोकी परीक्षा ली ।२७। २ म पु./७५/श्लोक--पूर्व भव नं.४ में शिवभूति ब्राह्मणका पुत्र था ।७२। पूर्वभव नं. ३ में महाबल नामका राजपुत्र हुआ।१। पूर्व भव नं. २ में नागदत्त नामका श्रेष्ठीपुत्र हुआ६६ पूर्वभव नं. १ में सौधर्म स्वर्गमे देव हुआ।१६२। वर्तमान भवमें मनोवेग होकर पूर्व स्नेहवश चन्दनाका हरण किया।१६५-१७३। मनोवेगा-भगवान चन्द्रप्रभुकी शासक यक्षिणी-दे० तीर्थकर/५/३ । मनोहर-महोरग जातिका एक व्यतर देव-दे० महोरग।
भेद व लक्षण मरण सामान्यका लक्षण। मरणके भेद। नित्य व तद्भव मरणके लक्षण । बाल व पण्डितमरण सामान्य व उनके भेदों के लक्षण । भक्त प्रत्याख्यान इंगनी व प्रायोपगमन मरणके लक्षण।
-दे० सल्लेखना/३। च्युत, च्यावित व त्यक्त शरीरके लक्षण।
-दे०निक्षेप/। ५ अन्य मेदोंके लक्षण।
मरण निर्देश आयुका क्षय हो वास्तव में मरण है।
चारों गतियों में मरणके लिए विभिन्न शब्द । ३ | पण्डित व बाल आदि मरणोंको इष्टता-अनिष्टता।
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भरण
1
१
२
४
५
500 9
७
१०
११
प्रथमोपशम सम्यक्त्वमें मरणके अभाव सम्बन्धी ।
६. अनन्तानुबन्धी विसंयोजकके मरणाभाव सम्बन्धी ।
उपशम श्रेणीमें मरण सम्बन्धी ।
६
सल्लेखनागत क्षपकके मृत शरीर सम्बन्धी ।
७
-दे० लेखना / ६
-६० मोक्ष |
मुक्त जीवके मृत शरीर सम्बन्धी सभी गुणस्थानों व मार्गणाख्यानोंमें आपके अनुसार व्यय होनेका नियम ।
८
कृतकृत्यवेदकमें मरण सम्बन्धी ।
९ नरकगति मरणसमयके लेश्या व गुणस्थान ।
देवगति मरण समयकी लेश्या ।
आहारकमिश्र काययोगी के मरण सम्बन्धी ।
५
१
३
४
-दे० मार्गणा ।
गुणस्थान आदिमें मरण सम्बन्धी नियम
आयुबन्ध व मरणमें परस्पर गुणस्थान सम्बन्धी ।
निम्न स्थानोंमें मरण सम्भव नहीं ।
सासादन गुणस्थानमें मरण सम्बन्धी ।
मिश्र गुणस्थान में मरणके अभाव सम्बन्धी ।
१
२
३
४ भोगभूमिजोंकी अकाल मृत्यु सम्भव नहीं।
५
अकाल मृत्यु निर्देश
कदलीघातका लक्षण ।
मायुककी अकाल मृत्यु सम्भव नहीं। देव नारकियों की अकाल मृत्यु सम्भव नहीं।
चरमशरीरियों व शलाका पुरुषोंमें अकालमृत्युकी
सम्भावना व असम्भावना ।
जवन्य आयुमें अकाल मृत्युकी सम्भावना व
०खनार
፡ कदलीपात द्वारा आयुका अपवर्तन हो जाता है।
९
अकाल मृत्युका अस्तित्व अवश्य है । अकाल मृत्युको सिद्धिमें हेतु ।
१०
११ । स्वकाल व अकाल मृत्युका समन्वय ।
असम्भावना |
पर्याप्त होनेके अन्तर्मुहूर्त काल तक अकाल मृत्यु सम्भव नहीं ।
आत्महत्याका कचित् विधि-निषेध ।
मारणान्तिक समुद्घात निर्देश
मारणा समुद्घातका लक्षण
सभी जीव मारणान्तिक समुद्घात नहीं करते। ऋजु व वक्र दोनों प्रकारकी विग्रहगतिमें होता है। मारणान्तिक समुद्घातका स्वामित्व ।
बद्धकको ही होता है अबद्धायुष्कको
नहीं।
-३० मरण /५/७ ।
२७९
५
प्रदेशका पूर्ण संकोच होना आवश्यक नहीं। इसकी स्थिति संख्यात समय है। - दे० समुद्धात । इसका विसर्पण एक दिशात्मक होता है३० समुद्रात ६ प्रदेशका विस्तार व आकार ।
मारणान्तिक समुद्घातमें मोड़े लेने सम्बन्धी दृष्टि मेद । - दे० क्षेत्र/२/४।
७ वेदना, कषाय और मारणान्तिक समुद्घातमें अन्तर । मारणान्तिक समुदयातमें कौन कर्म निमित्त है।
८
*
१. भेद व लक्षण
इसमें तीनों योगों की सम्भावना कैसे दे० योग / ४ | इसमें योग सम्भव नहीं ३० विशुद्धि /-/ इसमें उत्कृष्ट व विशुद्ध परिणाम
-दे० विशुद्धि /२/४
सम्भव नहीं । मारणान्तिक समुद्घातमें महामत्स्यके विस्तार सम्बन्धी दृष्टिभेद
--दे० मरण /५/६ ।
१. भेद व लक्षण
१. मरण व सामान्यका लक्षण
स.सि /०/२२ /३६२/१२ स्वपरिणामोपात्तस्यायुष इन्द्रियामलानांच कारणवशात्संक्षयो मरणम् अपने परिणामोंसे प्राप्त हुई आयुका इन्द्रियोका और मन, वचन, काय इन तीन बलोका कारण विशेषके मिलनेपर नाश होना मरण है (स. सि. / ५ / २० / २०१/२) (रा. वा/ ५/२०/४/४०४/२१. ७/२२/१/२५० /१०) ( चा सा /४०/३) गोजी / जी. प्र. / ६०६/१०६२/१६) ।
ध. १/१.१.३३/२३४/२ आयुष क्षयस्य मरणहेतुत्वात् । - आयु कर्मके क्षयको मरणका कारण माना है। (ध -१३ / ५५०६३/३३२/११) । भ.आ./वि./२५/२५,०६/पति मरणं मिगमो विनाश विपरिणाम इयेकोऽर्थ अथवा प्राणपरित्यागो मरणम् ॥१३॥ अण्णाउगोदये वा मरदि य पुव्वाउणासे वा । (उद्धृत गा० १ पृ० ८६ ) । अथवा अनुभूयमानायु जगतन मरण मरण निगम, विनाश, विपरिणाम ये एकार्थवाचक है। अथवा प्राणोके परित्यागका नाम मरण है । अथवा प्रस्तुत आयुसे भिन्न अन्य आयुका उदय आनेपर पूर्व आयुका विनाश होना मरण है । अथवा अनुभूयमान आयु नामक गलका आत्माके साथसे विनष्ट होना मरण है ।
संज्ञक पुद्गलगलन ।
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२. मरणके भेद
भ. आ /मू./गा. पंडिदपदिमरणं पडिदमरण पडिदयं बालपंडिद चेव । बालमरण चउत्थ पंचमय बालबालं च | २६६ पायोपगमणमरण भत्तपइण्णा य इंगिणी चेव । तित्रिह पडियमरण साहुस्स जहुतचारि |२| तु तच सविचारमय अविचार 1 -२६५॥ तत्थ पढम णिरुद्ध विरुद्धतरयं तहा हवे विदिये । तदिय परमविरुद्ध एवं तिविध अमीषा २०१२ दुध पि अगीहारिमं पगास च अप्पगासं च । | २०१६ | मरण पाँच प्रकारका हैपण्डितपण्डित, पण्डित, बालपण्डित, बाल, बालबाल | २६| तहाँ पण्डितमरण तीन प्रकारका है- प्रायोपगमन, भक्तप्रत्याख्यान व गिनी || इनमें से भक्तप्रत्याख्यान दो प्रकारका है - सविचार और विचार | उनसे अविचार सीन शकारका है- निरज निरऊतर
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मरण
२८०
१. भेद व लक्षण
व परम निरुद्ध (२०१२। इनमे भी निरुद्धाविचार दो प्रकार है- प्रकाश
रूप और अप्रकाशरूप ।२०१६ (मू. आ./५8); (दे० निक्षेप/५/२) । रा.वा./७/२२/२/५५०/१६ मरणं द्विविधम- नित्यमरणं तद्भवमरणं
चेदि । -मरण दो प्रकारका है-नित्यमरण और तद्भवमरण । (चा. सा./४७/३)। भ.आ/वि./२५/८६/१०,१३ मरणानि सप्तदश कथितानि (६/१०)
१. अवीचिमरणं, २, तद्भवमरण, ३. अवधिमरणं, ४. आदिअतार्य, १. बालमरणं, ६. पंडितमरणं, ७ आसण्णमरणं, ८ माल डिदै, ६. ससल्लमरणं, १०. बलायमरणं, ११. वोसट्टमरणं, १२. विप्पाणसमरणं, १३ गिद्ध पुट्ठमरण, १४. भत्तपच्चक्रवाणं, १५. पाउवगमणमरण, १६. इगिणामरण, १७, केवलिमरण चेदि ।(८६/१३)। - मरण १७ प्रकारके बताये गये है-१.अवीचिमरण, २. तद्भवमरण, ३. अवधिमरण, ४. आदिअन्तिममरण, १. बालमरण, ६. पण्डितमरण, ७. ओसण मरण, ८. बालपण्डितमरण,६. सशक्यमरण, १०. बालाकामरण, ११. बोसट्टमरण, १२. विष्पाणसमरण, १३. गिद्धपुठ्ठमरण, १४. भक्तप्रत्यारण्यानमरण, ११. प्रायोपगमनमरण, १६.इगिनीमरण, १७. केवलिमरण । (तहाँ इनके भी उत्तर भेद निम्न प्रकार है)। (भा. पा/टी./३२/१४७-१४६). (विशेष दे० उस-उस मरणके लक्षण)।
मरण
नित्य (अवीचि)
बालबाल बाल
अवसन्न
सशल्या
पलाय
बाल पडित पडित पंडित | पंडित
। । । - अव्यक्त व्यवहार ज्ञान दर्शन चारित्र
(आसन) ।
वदना -कषाय -मोकषाय
४.बाल च पण्डितमरण सामान्य व उनके भेदोंके लक्षण भ. आ./मू./गा. पंडिदपंडिदमरणे खीणक्साया मरति केवलिणो। विरदाविरदा जीवा मरंति तदियेण मरणेण ।२७। पायोपगमणमरणं भत्तपइण्णा य इंगिणी चेव । तिविहं पंडिसमरणं साहुस्स जहुत्तचारिस्स ।२६। अविरदसम्मादिट्ठी मरति मालमरणे चउत्थम्मि। मिच्छादिट्ठी य पुणो चमए बालबालभिम ।३०। इह जे विराधयित्ता मरणे असमाधिणा मरेज्जण्ह । तं तेसि मालमरणं होइ फलं तस्स पुन्बुत्तं ॥१९६१ - क्षीणकषाय केवली भगवान् पण्डितपण्डित मरणसे मरते है। (भ, आ /मु./२१५६) विरताविरत जीवके मरणको बालपण्डितमरण कहते है। (विशेष दे० अगला सन्दर्भ ) ॥२७॥ (भ. आ./मू-/२०७८), (भ. आ./वि./२४८८/२१)। चारित्रवान मुनियोको पण्डित मरण होता है । वह तीन प्रकारका है-भक्त प्रत्याख्यान, इंगिनी व प्रायोपगमन ( इन तीनोके लक्षण दे० सक्लेखना) २६॥ अविरत सम्यग्दृष्टि जीवके मरणको बालमरण कहते हैं। और मिथ्यादृष्टि जीवके मरणको बालबाल मरण कहते हैं ।३०। अथवा रत्नत्रयका नाश करके समाधिमरणके बिना मरना बालमरण
है।१९६२॥ भ. आ/मू-/२०६३-२०८४/१८०० आसुक्कारे मरणे अब्बोच्छिण्णाए जीविदासाए। णादीहि वा अमुक्को पच्छिमसल्लेहणपकासी।२०८३१ आलोचिदणिस्सन्लो सघरे चेवारुहितु संथार । जदि मरदि देस विरदो तं बुत्तं बालपंडिदयं ।२०८४ा-इन १२ व्रतोंको पालनेवाले गृहस्थको सहसा मरण आनेपर, जीवितकी आशा रहनेपर अथवा बन्धुओंने जिसको दीक्षा लेनेकी अनुमति नही दी है, ऐसे प्रसंगमें शरीर सल्लेखना और कषाय सल्लेखना न करके भी आलोचना कर, नि शल्य होकर घरमें ही सस्तरपर आरोहण करता है । ऐसे गृहस्थकी
मृत्युको बालपण्डितमरण कहते हैं ।२०८३-२०८४। मू. आ /गा. जे पुण पणहमदिया पचलियसण्णाय वक्कभावा य । असमाहिणा मरते णहु ते आराहिया भणिया ।६०। सत्यग्गण विसभरवणं च जलण जलप्पवेसोय । अणयारभंडसेवी जम्मणमरणाणुबंधीणी७४। णिमम्मो जिरह कारो णिकसाओ जिदिदिओ धीरो। अणिदाणो दिविसंपण्णो मरतो आराहओ होइ।१०३/-जो नष्टबुद्धिवाले अज्ञानी आहारादिकी वांछारूप संज्ञावाले मन वचन कायकी कुटिलतारूप परिणामवाले जीव आर्तरौद्र ध्यानरूप असमाधिमरण कर परलोकमें जाते है, वे आराधक नहीं है ।६० शस्त्रसे, विषभक्षणसे, अग्नि द्वारा जलनेसे, जलमें डूबनेसे, अनाचाररूप वस्तुके सेवनसे अपघात करना जन्ममरणरूप दीर्घ संसारको बढानेवाले है अर्थात बालमरण हैं ।७४। निर्मम, निरहंकार, निष्कषाय, जितेन्द्रिय, धीर, निदान रहित, सम्यग्दर्शन सम्पन्न जीव मरते समय आराधक होता है, अर्थात् पण्डित मरणसे मरता है ।१०३। भ. आ./वि./२५/०७/२१ बालमरणमुच्यते-बालस्य मरणं, स च पालः पञ्चप्रकार'-अव्यक्तबाल., व्यवहारबाला, ज्ञानबाल, दर्शनबाल', चारित्रबाल' इति । अव्यक्त शिशु , धर्मार्थकामकार्याणि यो न वेत्ति न च तदाचरणसमर्थशरीर सोऽव्यक्तबाल' | लोकवेदसमयव्यवहारान्यो न वेत्ति शिशु सौ व्यवहारबाल । मिथ्यादृष्टि' सर्वथा तत्त्वश्रद्धानरहिता दर्शनबाला'। वस्तुयाथात्म्यग्राहिज्ञानन्यूना ज्ञानबाला'। अचारित्रा' प्राणभृतश्चारित्रबाला' [.. दर्शनबालस्य पुनः सक्षेपतो द्विविध मरणमिष्यते। इच्छया प्रवृत्तमनिच्छ येति च । तयोराद्यमग्निना धमेन, शस्त्रेण, उदकेन, मरुत्प्रपातेन, ..विरुद्धाहारसेवनया बाला मृति ढौक्न्ते, कुतश्चिनिमित्ताज्जीवितपरित्यागैषिणः; काले अकाले वा अध्यवसानादिना यन्मरणं जिजीविषो तहद्वितीयम् । पण्डितमरणमुच्यते-व्यवहारपण्डित , सम्यक्त्वपण्डितः, ज्ञानपण्डितश्चारित्रपण्डित इति चत्वारो विकल्पा । लोकवेदसमय
अनिच्छा प्रवृत्त
इच्छा प्रवृत्त
काल
अकाल शस्त्र विष अग्नि जल
। (गृखपृष्ठ)
अवधि बशात आद्यन्त विप्राणस व्यवहार ज्ञान सम्यवस्व चारित्र
इन्द्रिय कषाय नोकषाय
भक्तप्रत्या- इगिनी प्रायोप-केवली
ख्यान गमन
सविचार
अविचार
निरुद्ध निरुद्धतर निरुद्धतम
प्रकाश अप्रकाश ३.नित्य व तद्भव मरणके लक्षण रा. वा./७/२२/२/५५०/२० तत्र नित्यमरणं समयसमये स्वायुरादीना निवृत्तिः । तद्भवमरणं भवान्तरप्राप्त्यनन्तरोपश्लिष्टं पूर्व भवविगमनम् । म प्रतिक्षण आयु आदि प्राणोका बराबर क्षय होते रहना नित्यमरण है (इसको ही भ. आ. व भा पा. मे 'अवीचिमरण' के नामसे कहा गया है)। और नूतन शरीर पर्यायको धारण करनेके लिए पूर्व पर्यायका नष्ट होना तद्भवमरण है। (भ. आ./वि /२५/८६/१७); (चा. सा./४७/४); (भा. पा./टी/३२/१४७/६) ।
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मरण
२८१
१. भेद व लक्षण
व्यवहार निपुणो व्यवहारपण्डित , अथवानेकशास्त्रज्ञ शुश्रषादिबुद्धिगुणमन्वित व्यवहारपण्डित क्षायिकेण क्षायोपशमिकेनौपमिकेन वा सम्यग्दर्शनेन परिणत दर्शनपण्डित । मत्यादिपञ्चप्रकारसम्यग्ज्ञानेषु परिणत ज्ञानपण्डित । सामायिकच्छेदोपस्थापनापरिहार विशुद्धिसूक्ष्मसाम्परायययाख्यातचारित्रेषु कस्मिश्चित्प्रवृत्तश्चारित्रपण्डित'।
अज्ञानी जीवके मरणका बालमरण कहते है। वह पाँच प्रकारका है-अव्यक्त, व्यवहार, ज्ञान, दर्शन व चारित्रमालमरण । धर्म, अर्थ, काम व मोक्ष इन चार पुरुषार्थीको जानता नहीं तथा उनका आचरण करने में जिसका शरीर असमर्थ है वह अव्यक्तबाल है । लोकव्यवहार, वेदका ज्ञान, शास्त्रज्ञान, जिसको नहीं है वह व्यवहारबाल है। तत्त्वार्थ श्रद्धान रहित मिथ्यादृष्टि जोव दर्शनबाल है। जीवादि पदार्थीका यथार्थ ज्ञान जिनको नहीं है वे ज्ञानबाल है। चारित्रहीन प्राणीको चारित्रबाल कहते है। दर्शनबालमरण दो प्रकारका है-- इच्छाप्रवृत्त और अनिच्छाप्रवृत्त । अग्नि, धूम, विष, पानी, गिरिप्रपात, विरुवाहारसेवन इत्यादि द्वारा इच्छापूर्वक जीवन का त्याग इच्छा प्रवृत्त दर्शनबाल मरण है। और योग्य कालमें या अकालमे ही मरनेके अभिप्रायसे रहित या जीने की इच्छासहित दर्शनबालोका जो मरण होता है वह अनिच्छाप्रवृत्त दर्शनबालमरण है। पण्डितमरण चार प्रकारका है-व्यवहार, सम्यक्त्व, ज्ञान व चारित्रपण्डित मरण । लोक, वेद, समय इनके व्यवहारमे जो निपुण है वे व्यवहारपण्डित है, अथवा जो अनेक शास्त्रोके जानकार तथा शुश्रूषा, श्रवण, धारणादि बुद्धिके गुणोसे युक्त है, उनको व्यवहारपण्डित कहते है। क्षायिक, क्षापोपशमिक और औपशमिक सम्यग्दर्शनसे जीव दर्शनपण्डित होता है । मति आदि पाँच प्रकारके सम्यग्ज्ञानसे जो परिणत हे उनको ज्ञानपण्डित कहते है। सामायिक छेदोपस्थापना आदि पाँच प्रकार चारित्रके धारक चारित्रपण्डित है। (भा पा./टी./३२/ १४७/२०)।
५. अन्य भेदोंके लक्षण भ. आ/वि./२५/८७/१३ यो यादृश मरणं साप्रतमुपैति ताडगेब मरण
यदि भविष्यति तदवधिभरणम् । तद्विविध देशावधिमरणं सर्वावधिमरगम् इति । यदायुर्यथाभूतमुदेति सप्रित प्रकृतिस्थित्यनुभवप्रदेशैस्तथानुभूतमेवायु प्रकृत्यादिविशिष्ट पुनर्बध्नाति उदेष्यति च यदि तत्सविधिमरणम् । यत्साप्रतमुदेत्यायुर्यथाभूत तथाभूतमेत्र बध्नाति देशतो यदि तइदेशावधिमरणम् । • साप्रतेन भरणेनासादृश्यभावि यदि मरणमाद्यन्तमरण उच्यते, आदिशब्देन साप्रतं प्राथमिक मरणमुच्यते तस्य अन्तो विनाशभावो यस्मिन्नुत्तरमरण तदेतदाद्यन्तमरणम् अभिधीयते । प्रकृतिस्थित्यनुभवप्रदेशैर्यथाभूत साप्रतमुपैति मृति यथाभूर्ता यदि सर्वतो देशतो वा नोपैति तदाद्यन्तमरणम् । भ आ/वि /२५/०८/१२ निर्वाणमार्गप्रस्थितात्सयतसार्थान्द्यो हीन प्रच्युत सोऽभिधीयते ओसण्ण इति । तस्य मरणमासण्णमरण मिति । ओसणप्रणेन पार्श्वस्था, स्वच्छन्दा, कुशीलाः, ससक्ताश्च गृह्यन्ते। सशल्यमरण द्विविधं यतो द्विविध शक्यं द्रव्यशल्यं भावशल्यमिति। द्रव्यशल्येन सह मरणं पञ्चानां स्थावराणां भवति असंज्ञिना प्रसानां च । • भावशल्यविनिर्मुत द्रव्यशल्यमपेक्षते। एतच्च संयते, सयतासयते, अविरतसम्यग्दृष्टावपि भवति । • बिन यवैयावृयादाबकृतादर ध्याननमस्कारादे पलायते अनुपयुक्ततया, एतस्य मरण बलायमरण । सम्यक्त्वपण्डिते, ज्ञानपपण्डिते, चरणपपण्डिते च बलायमरणमपि स भवति । ओमण्ण मरण ससल्लमरण 'च पद भिहित तत्र नियमेन बलायमरणम् । तद्वयतिरिक्तमपि बलायमरण भवति । बसट्टमरण नाम-आर्ते रौद्रे च प्रवर्तमानस्य मरण । तत्पुनर्चतुर्विधइदियवसट्टमरण, यदेणावसट्टमरण, कसायवसट्टमरण, नोकसायवसट्टमरणम् इति । इदियवसट्टमरण यत्पञ्चविध इन्द्रियविषयापेक्षया
मनोज्ञेषु रक्तोऽमनोज्ञषु द्विष्ठो मृनमेति ।. इति इन्द्रियानिन्द्रियवशातभरणविकल्पा । वेदणावसट्टमरण विभेदं समासत' । सातवेदनावशात मरणं असातवेतनावशार्तमरण । शारीरे मानसे वा दुखे उपयुक्तस्य मरण दुखवशार्तमरण मुच्यते तथा शारीरे मानसे व मुखे उपयुक्तस्य मरण सातवशार्तमरणम् । कषायभेदात्कषायवशात मरणं चतुर्विध भवति । अनुबन्धरोषो स आत्मनि परत्र उभयत्र वा मरणबशोऽपि मरणवठा भवति । तस्य क्रोधवशात मरण भवति ।... हास्यरत्यरति...मूढमतेमरणं नोकषायवशात मरणं। मिथ्यादृष्टेरेत
बालमरणं भवति । दर्शनपण्डितोऽपि अविरतसम्यग्दृष्टि' संयतासंयतोऽपि वशात मरणमुपेति तस्य तद्बालपण्डितं भवति दर्शनपण्डित का । अप्रतिषिः अननुज्ञाते च हें मरणे । विपाणस गिद्धपुट्ठमितिसंज्ञिते । दुर्भिक्षे, कान्तारे.. दुष्टनृपभये...तिर्य गुपसर्गे एकाकिनः सोमशक्ये ब्रह्मवतनाशादिचारित्रदूषणे च जाते संविग्न' पापभीरुः कर्मणामुदयमुपस्थितं ज्ञात्वा तं सोद्रुमशक्तः तन्निस्तरणस्यासत्युपाये.. न वेदनामसक्लिष्ट सोढ उत्सहेच ततो रत्नत्रयाराधनाच्युतिम मेति निश्चितमतिनिर्मायश्चरणदर्शन विशुद्ध · ज्ञानसहायोऽनिदान' अर्हदन्तिके, आलोचनामासाद्य कृतशुद्धि , सुलेश्यः प्राणापाननिरोध करोति यत्तद्विप्पाणसं मरणमुच्यते । शस्त्रग्रहणेन यद्भवति तदगिद्धपुट्ठमिति । जो प्राणी जिस तरहका मरण वर्तमानकालमे प्राप्त करता है, वैसा ही मरण यदि आगे भी उसको प्राप्त होगा तो ऐसे मरणको अवधिमरण कहते है। यह दो प्रकारका है- सर्वावधि व देशावधि । प्रकृति स्थिति अनुभव व प्रदेशोसहित जो आयु वर्तमान समयमें जेसी उदयमें आती है वैसी ही आयु फिर प्रकृत्यादि विशिष्ट बॅधकर उदयमें आवेगी तो उसको सर्वावधिमरण कहते है। यदि वही आयु आशिकरूपसे सदृश होकर बंधे व उदयमें आवेगी तो उसको देशावधि मरण कहते है । यदि वर्तमानकालके मरण या प्रकृत्यादिके सदृश उदय पुन' आगामी कालमे नही आवेगा, तो उसे आद्यन्तमरण कहते है। मोक्षमार्गमे स्थित मुनियोका सघ जिसने छोड दिया है ऐसे पार्श्वस्थ. स्वच्छन्द, कुशील बस सक्त साधु अवसन्न कहलाते है। उनका मरण अवसन्नमरण है। सशल्य मरणके दो भेद है-द्रव्यशल्य व भावशल्य । तहाँ माया मिथ्या आदि भावोको भाषशल्य और उनके कारणभूत कर्मोको द्रव्यशल्य कहते है। भावशल्यकी जिनमे सम्भावना नहीं है, ऐसे पाँचो स्थावरोव असज्ञी त्रसोके मरणको द्रव्यशल्यमरण कहते है। भावशल्यमरण संयत, संयतासयत व अविरत सम्यग्दृष्टिको होता है। विनय वैयावृत्त्य आदि कार्यों में आदर न रखनेवाले तथा इसी प्रकार सर्व कृतिकर्म, बत, समिति आदि, धर्मध्यान व नमरकारादिसे दूर भागनेवाले मुनिके मरणको पलायमरण या बलाकामरण कहते है। सम्यवत्वपण्डित, ज्ञानपण्डित व चारित्रपण्डित ऐसे लोक इस मरणसे मरते है। अन्यके सिवाय अन्य भी इस मरणसे मरते है। आर्त रौद्र भावोयुक्त मरना वशात मरण है। यह चार प्रकार है---इन्द्रियवशात, वेदनावशात, कषायवशात और नोकषायवशात । पाँच इन्द्रियोके पाँच विषयोकी अपेक्षा इन्द्रियवशात पाँच प्रकारका है। मनोहर विषयोमें आसक्त होकर और अमनोहर विषयो में द्विष्ट होकर जो मरण होता है वह श्रोत्र आदि इन्द्रियो व मन सम्बन्धी वशात मरण है। शारीरिक व मानसिक सुखोमे अथवा दु खोमे अनुरक्त होकर मरनेसे वेदनावशात सात व अमातके भेदसे दो प्रकारका है। कषायोके क्रोधादि भेदोंकी अपेक्षा कषायवशात चार प्रकारका है। स्वत मे दूसरे में अथवा दोनों में उत्पन्न हुए क्रोधके वश मरना क्रोधकषायवशात है। (इसी प्रकार आठ मदोके वश मरना मानवशार्त है, पाँच प्रकारकी मायासे मरना मायावशात और पर पदार्थोमे ममत्वके वश मरना लोभवशात है)। हास्य रति अरति आदिसे जिसकी बुद्धि मूढ हो गयी है ऐसे व्यक्ति का मरण नोकषायवशात मरण है। इस मरणको बालमरणमें अन्तर्भूत कर सकते है। दर्शनपण्डित, अविरतसम्यग्दृष्टि और
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मरन
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संयतासंयत जीव भी वशात मरणको प्राप्त हो सकते है। उनका यह मरण बालपण्डित मरण अथवा दर्शनपण्डित मरण समझना चाहिए। विप्राणस व गृद्धपृष्ठ नामके दोनों मरणोका न तो आगम में निषेध है और न अनुज्ञा । दुष्काल में अथवा दुल्लंघ्य जंगल में, दुष्ट राजा के भयसे, तिपादिके उपसर्ग में एकाकी स्वयं सहन करनेको समर्थन होनेसे मानतके नाशसे चारित्रमें दोष लगनेका प्रसंग आया हो तो ससारभीरु व्यक्ति कर्मोंका उदय उपस्थित हुआ जानकर जब उसको सहन करनेमें अपनेको समर्थ नहीं पाता है, और न ही उसको पार करनेका कोई उपाय सोच पाता है, तब 'वेदनाको सहने से परिणामों में क्लेश होगा और उसके कारण रत्नप्रयकी आराधनासे निश्चय ही मैं च्युत हो जाऊँगा ऐसी निश्चल मतिको धारते हुए, निष्कपट होकर चारित्र और दर्शन में निष्कपटता धारण कर धैर्य युक्त होता हुआ, ज्ञानका सहाय लेकर निदान रहित होता हुआ अन्त भगवादके समीप आलोचना करके विशुद्ध होता है । निर्मल लेश्याधारी वह व्यक्ति अपने श्वासोच्छवासका निरोध करता हुआ प्राण त्याग करता है। ऐसे मरणको विप्राणसमरण कहते हैं। उपर्युक्त कारण उपस्थित होनेपर शस्त्र ग्रहण करके जो प्राण त्याग किया जाता है वह गृद्धपृष्ठमरण है (भा.पा./टी./३२/१४०/११)।
२. मरण निर्देश
1. आयुका क्षय ही वास्तविक मरण है
घ. १/१.१.२६/२६२/१० न सावज्जीवशरीरयोवियोगमरणम् ।-आगम
जीव और शरीर वियोगको मरण नहीं कहा गया है। ( अथवापूर्णरूपेण वियोग ही मरण है एकदेश वियोग नहीं और इस प्रकार समुद्रात आदिको मरण नहीं कह सकते। - दे० आहारक १३/५१ अथवा नारकियोंके शरीरका भस्मीभूत हो जाना मात्र उनका मरण नहीं है, बल्कि उनके आयु कर्मका क्षय हो वास्तव में मरण है- दे० मरण /४/३)।
२. चारों गतियों में मरणके लिए विभिन्न शब्दों का प्रयोग घ. ६/१,१-१००६-२४३/४००/२२ विशेषार्थ सूत्रकार तमल आचार्यने भिन्न-भिन्न गतियोंसे छूटने के अर्थ में सम्भवत गतियोंकी होनता म उत्तमता के अनुसार भिन्न-भिन्न शब्दों का प्रयोग किया है । दे० सूल सूत्र - ७३-२४३) नरकगति व भवनप्रियदेवगति हीन है. अतएव उनसे निकलनेके लिए उन अर्थात् उद्धार होना कहा है। तियंच और मनुष्य गतियाँ सामान्य है, अतएव उनसे निकलनेके लिए काल करना शब्दका प्रयोग किया है। और सौधर्मादिक विमानवासियों की गति उत्तम है, अतएव बहाँसे निकलनेके लिए च्युत होना शब्दका प्रयोग किया गया है। जहाँ देवगति सामान्य से लिमेका उल्लेख किया गया है वहाँ भवनत्रिक व सौधर्मादिक दोनोंकी अपेक्षा करके 'उर्तित और च्युत' इन दोनों शब्दोंका प्रयोग किया गया है ।
३. पण्डित व बाळ आदि मरणोंकी इश्ता अनिष्टता भ.आ./मू./२८/११२ पंडिदपंडिदमरणं च पंडिदं बालपंडिदं चैव ।
दाणि तिणि मरणाणि जिणा णिच्चं पसंसंति 125 पण्डितपण्डित पण्डित व बालपण्डित इन तीन मरणोकी जिनेन्द्रदेव प्रशंसा करते हैं।
सू. आ. १६९ मरणे निराधिदं देवदुग्गई दुलहा व फिर वोही संसारो य अतो होइ पुणो आगमे काले । ६१ । मरण समय सम्यक्त्व बादि गुणोकी विराधना करनेवाले दुर्गतियोंको प्राप्त होते हुए अनन्त संसारमें भ्रमण करते हैं, क्योंकि रत्नत्रयकी प्राप्ति अत्यन्त दुर्लभ है । ३० मरण /१/४ (विप्राणस व गृद्धमरणका आगममें न निषेध है और न अनुज्ञा । )
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३. गुणस्थानों आदिमें मरण सम्बन्धी नियम
१. आयुषन्ध व भरणमें परस्पर गुण स्थान सम्बन्धी घ. ८/३.०४/१४५ / ४ जैन गुगेणाउबंधी संभनदितेणेव गुणेण मरविण अण्णगुणेणेति परमगुरूवदेसादो। ण उवसामगेहि अणेयंतो, सम्मत्तगुणेण आउघाविरोहिणा णिस्सरणे विरोहाभावांदो -१. जिस गुणस्थानके साथ आयुमन्ध संभव है उसी गुणस्थानके साथ जीन मरता है ( . ४/९.५.४६/३६३/३) २ अन्य गुणस्थानके साथ नहीं (अर्थात जिस गतिमें जिस गुणस्थान में आयुकर्मका बन्ध नहीं होता, उस गुणस्थान सहित उस गतिले निर्गमन भी नहीं होता(ध. ६/४६३/-) इस नियम में उपशामकोंके साथ अनैकान्तिक दोष भी सम्भव नहीं है, क्योंकि, आयु बन्धके अविरोधी सम्यक्त्व गुणडे साथ निकनेमें कोई विरोध नहीं है। (ध. ६/१.११.११०/४६२/८ ) । २. निम्न स्थानों में मरण सम्भव नहीं गो.क./मू./२६०-२६१/०६२ मिस्साहारस्समा लगना चयमापढमपुमा व परमया तमतमगुडपडणा य ण मरति । जोजिदमिच्छेत्ततं तु गरिथ मरणं तु क
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जादु सव्वपरट्ठाण अट्ठपदा | ५६१| - आहारक मिश्र काययोगी, चारित्रमोह क्षपक, उपशमश्रेणी आरोहण में अपूर्वकरणके प्रथम भागवाले प्रथमोपशम सम्यग्दृष्टि, सप्तमपृथिवीका नारकी सम्यग्दृष्टि, अनन्तानुबन्धी विसंयोजन के अन्त मुहूर्त कालपर्यन्त तथा कृतकृत्य वेदक सम्यग्दृष्टि इन जीवोंका मरण नहीं होता है।
२. सासादन गुणस्थानमें मरण सम्बन्धी
ध. १/११/०३/२२४/२ नापि मद्धनरकायुक्त, सासादनं प्रतिपद्य नार केषुत्पद्यते तस्य तस्मिन्गुणे मरणाभावाच । नरक आयुका जिसने पहले बन्ध कर लिया है, ऐसा जीव सासादन गुणस्थानको प्राप्त होकर नारकियों में उत्पन्न नहीं होता ( विशेष दे० जन्म / ४ / ९ ) क्योंकि ऐसे जीवकासासादन सहित मरण ही नहीं होता।
घ. ६/१४/३३१/२ बासानं पुक गदो जदि मरचि ण सक्को णिरयगदि तिरिखखगदि मणुसर्गादि वा गंतुं, णियमा देवगर्दि गच्छदि ।... हंदि तिसु आउएस एक्केण वि बधेण ण सक्को कसाए उवसामैर्दु, तेण कारणेण णिरयतिरिक्ख मणुसगदीओ पण गच्छदि । - द्वितीयोपशम सम्यग्दृष्टि जीव) सासादनको प्राप्त होकर यदि मरता है तो नरक तिथंच व मनुष्य इन तीन गतियोंको प्राप्त करने के लिए समर्थ नहीं होता है । नियमसे देवगतिको ही प्राप्त करता है । क्योंकि इन तीन आयुओंमेंसे एक भी आयुका बन्ध हो जानेके पश्चात जीव कायोंको उपमानेके लिए समर्थ नहीं होता है। इ कारण वह इन तीनों गतियोंको प्राप्त नहीं करता है । ( दूसरी मान्यता के अनुसार ऐसे जीव सासादन गुणस्थानको ही प्राप्त नहीं होते दे० सासादन) । (ल. सा /मू./३४१-३५०/४३९ ) । गो.४८०१८/१८ सासादना भूत्वा प्राग्बद्धदेवायुष्का मृत्या अनदानुष्का' केचिदेवायुर्मध्वा च देवनियमिसासावना' स्यु' (पूर्वोक्त द्वितीयोपशम सम्ययमसे सासादनको प्राप्त होनेमाता जीव) सासादनको प्राप्त होकर यदि पहले ही देवायुका बन्ध कर चुका है तो मरकर अन्यथा कोई-कोई जिन्होंने पहले कोई आयु नहीं बाँधी है, जब देवायुको साँधकर देवगतिमें उत्पन्न होते हैं। इस प्रकार निवृत देवोंमें सासादन गुणस्थान होता है। ४. मिश्र गुणस्थान में मरणके अभाव सम्बन्धी
३. गुणस्थानों आदिमें मरण सम्बन्धी नियम
ध. ४/१,५,१७/गा. ३३/३४९ णय मरह णेव संजमुवेह तह देससंजमं बाधि । सम्मामिच्यादिट्ठी मरणं समुग्धादो ॥१३॥ सम्य मिध्यादृष्टि जीवन तो मरता है और न मारणान्तिक समुदात ही करता है (गो. जी./मू./२४/४१)। 1
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मरण
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३. गुणस्थानों आदिमें मरण सम्बन्धी नियम
ध.१/१,६,३४/३१/२ जो जीवो सम्मादिठी होदूण आउअ बंधिय
सम्मामिच्छत्तं पडिवज्जदि, सो सम्मत्तेणेब णिप्फददि। अह मिच्छादिट्ठी होदूण आउअ बधिय सम्मामिच्छत्तं पडिवजदि, सो मिच्छतेणेव णिप्फददि। जो जीव सम्यग्दृष्टि होकर और आयुको बाँधकर सम्यग्मिथ्यात्वको प्राप्त होता है, वह सम्यवन्व के साथ ही उस गतिसे निकलता है। अथवा जो मिथ्यावृष्टि होकर और आयुको बाँधकर सम्यग्मिथ्यात्वको प्राप्त होता है, वह मिथ्यात्वके साथ ही निकलता है। (गो. जी/मू /२३-२४/४८), (गो क./जी प्र./४५६/६०५/३)। घ.८/३,८४/१४५/२ सम्मामिच्छत्तगुणेण जीवा किरण मरंति । तत्था. उस्स बंधाभावादो। - सम्यग्मिथ्यात्व गुणस्थानमें क्योकि आयुका बन्ध नहीं होता है, इसलिए वहाँ मरण भी नहीं होता है। (और
भी दे० मरण/३/१)। गो. जी /जी. प्र /२४/४६/१३ अन्येषामाचार्याणामभिप्रायेण नियमो नास्ति। - अन्य किन्ही आचार्यों के अभिप्रायसे यह नियम नहीं है, कि वह जीव आयुबन्धके समयवाले गुणस्थानमें ही आकर मरे। अर्थात् सम्यक्त्व व मिथ्यात्व किसी भी गूणस्थानको प्राप्त होकर मर सकता है।
दोनो प्रकृतियों का बन्ध व्युच्छिन्न नहीं हो जाता है (अर्थात अपूर्वकरणके प्रथम भागमें ) तबतक अपूर्वकरण गुणस्थानवर्ती संयतोका मरण नहीं होता है। (और भी दे०/मरण/३/२); (गो. जी./जी.प्र। ५११४८/१३)। ध. १३/५,४.३१/१३०/८ उवसमसेडीदो ओदिण्णस्स उवसमसम्माइट्ठस्स भरणे सते वि उवसमसमत्तेण अंतोमुहत्तमच्छिद्रण चेव वेदगसम्मत्सस्स गमणुवलं भादो। - उपशम श्रेणीसे उतरे हुए उपशम सम्यग्दृष्टिका यद्यपि मरण होता है, तो भी यह जीव उपशम सम्यक्रवके साथ अन्तर्मुहर्तकाल तक रहकर ही वेदक सम्यक्त्वको प्राप्त होता है । (दे० सभ्यग्दर्शन/IV/३/४)। गो. जी./मू.व जी प्र./७३१/१३२५ विदियुवसमसम्म सेढीदोदिण्णि
अविरदादिसु सगसगलेस्सामरिदे देवअपज्जत्तगेव हवे १७३९। बद्धदेवायुष्कादन्यस्य उपशमश्रेण्या मरणाभावात् । - उपशमश्रेणीसे नीचे उतरकर असं यतादिक गुणस्थानों में अपनी-अपनी लेश्या सहित मरें तो अपर्याप्त असयत देव ही होता है, क्योंकि, देवायुके बन्धसे अन्य किसी भी ऐसे जीवका उपशमश्रेणीमें मरण नही होता है।
५. प्रथमोपशम सम्यक्त्वमें मरणके अभाव सम्बन्धी क. पा. सुत्त/१०/गा, ६७/६३१ उवसामगो च सव्वो णिव्याघादो।
-दर्शनमोहके उपशामक सर्व ही जीव नियोधात होते है, अर्थात् उपसर्गादिके आनेपर भी विच्छेद या मरणसे रहित होते है। (ध.६/१६-८,६/गा. ४/२३९); (ल सा / /१६/१३६), (दे. मरण/३/२) घ.१/१,१.१७१/४०७/८ मिथ्यादृष्टय उपात्तीपशमिकसम्यग्दर्शना .. सन्त... तेषां तेन सह मरणाभावात् । --मिथ्यादृष्टि जीव उपशम सम्यग्दर्शनको ग्रहण करके (वहाँ देवगतिमें उत्पन्न नहीं होते) क्योंकि उनका उस सम्यग्दर्शन सहित मरण नहीं होता। (ध २/१,१/४३०/७), (गो. जी./जी.प्र/६९५/११३१/१५) ।
६. अनन्तानुबन्धी विसंयोजनके मरणाभाव सम्बन्धी पं सं/प्रा./४/१०३ आवलियमेत कालं अणं तबधीण होइ णो उदओ। अंतोमुत्तमरण मिच्छत्त दसणापत्ते ११०३। जो अनन्तानुबन्धीका विसंयोजक सम्यग्दृष्टि जीव सम्यक्त्वको छोडकर मिथ्यात्व गुणस्थानको प्राप्त होता है, उसको एक आवलीमात्र काल तक अनन्तानुबन्धी कषायोका उदय नहीं होता है । ऐसा मिथ्यादृष्टिका अर्थात् सम्यक्त्वको छोडकर मिथ्यात्वको प्राप्त होनेवाले जीवका
अन्तर्मुहूर्त काल तक मरण नही होता है। क. पा २-२२/६ ११६/१०१/६ अंतोमुहुत्तेण विणा संजुत्त विदियसमए
चेव मरणाभावादो। अनन्तानुबन्धीका पुनः सयोजन होनेपर अन्तर्मुहूर्त काल हुए बिना दूसरे समयमे हो मरण नहीं होता है। (क. पा. २/२-२२/११२५/१०८/३), (गो. क./म् /५६१/७६३) ।
७. उपशम श्रेणी में मरण सम्बन्धी रा. वा/१०/१/३/६४०/७ सर्वमोहप्रकृत्युपशमात् उपशान्तवायव्यपदेशभाग्भवति। आयुष' क्षयात म्रियते। -मोहकी सई प्रकृतियोका उपशम हो जानेपर उपशान्तकषाय सज्ञावाला होता है। आयुका
क्षय होनेपर वह मरणको भी प्राप्त हो जाता है। ध. २/१,१/४३०/८ चारित्तमोहउक्सामगा मदा देवेसु उववज्जति । am चारित्रमोहका उपशम करनेवाले जीव मरते है तो देवो में उत्पन्न
होते है। (ल. सा./मू./३०८/३६०)। ध ४/१.५,२२/३५२/७ अपुवकरणमढमसमयादो जाव णिहापयलाणं बंधो ण वोच्छिज्जदि ताव अपुबकरणार्ण मरणाभावा। -अपूर्वकरण गुणस्थान के प्रथम समयसे लेकर जबतक निद्रा और प्रचला, इन
6. कृतकृत्यवेदकमें मरण सम्बन्धी ध६/१,६-८,१२/२६३/१ कदकरणिज्जकालभंतरे तस्स मरणपि होज्ज । ___ कृतकृत्यवेदककालके भीतर उसका मरण भी होता है। क.पा, २/२-२२/६२४२/२१५/६ जइ वसहाइरियस्स वे उवएसा । तत्थ
कदकरणिज्जो ण मरदि त्ति उवदेसमस्सिद्रण एवं सुत्त कदं।.. 'पढ़मसमयकदकरणिज्जो जदि मरदि णियमा देवेसु उववज्जदि। जदि णेरइएमु तिरिक्खेसु मणुस्सेसु वा उववज्जदि तो णियमा अंतोमुत्तकदकरणिज्जो' त्ति जइवसहाइरियपरूविदपुण्णिसुत्तादो। णवरि, उच्चारणाइरियउवएसेण पुण कदकरणिज्जो ण मरइ चेवेति णियमो णत्थि । क.पा./पु. २/२-२२/३२४४/२१७/८ मिच्छतं ख विय सम्मामिच्छत्तं खवेता ण मरदि त्ति कुदो णव्वदे। एदम्हादो चेव मुत्तादो।
यतिवृषभाचार्यके दो उपदेश है। उनमें से कृतकृत्य बेदक जीव मरण नहीं करता है इस सूत्रका आश्रय लेकर यह सुत्र प्रवृत्त हुआ है। कृतकृत्य वेदक जीव यदि कृतकृत्य होनेके प्रथम समयमें मरण करता है तो नियमसे देवोमें उत्पन्न होता है। किन्तु जो कृतकृत्यवेदक जीव नारकी, तिथंच और मनुष्यो में उत्पन्न होता है, वह नियमसे अन्तर्मुहूर्त काल तक कृतकृत्यवेदक रहकर ही मरता है।' यतिवृषभके इस सूत्रसे जाना जाता है कि कृतकृत्यवेदक जीव मरता है। किन्तु इतनी विशेषता है कि उच्चारणाचार्य के उपदेशानुसार कृतकृत्यवेदक सम्यग्दृष्टि जीव नही ही मरता है, ऐसा कोई नियम नही है। प्रश्न--'मिथ्यात्वका क्षय करके सम्यग्मिथ्यात्वका क्षय करनेवाला जीव नही मरता यह कैसे जाना जाता है , उत्तर--इसी
सूत्रसे जाना जाता है। दे० मरण/३/२ (दर्शनमोहका क्षय करनेवाला यावत् कृतकृत्यवेदक रहता है तावत् मरण नही करता।)
१. नरकगतिमें मरण समयके लेश्या व गुणस्थान ति प./२/२६४ किण्हाय णीलकाऊणुदयादो बंधिऊण गिरयाऊ । मरिऊण ताहि जुत्तो पावइणिरयं महाघोरं २६४-कृष्ण नील अथवा कापोत इन तीन लेश्याओका उदय होनेसे नरकायुको बाँधकर और मरकर उन्हीं लेश्याओसे युक्त होकर महा भयानक नरकको प्राप्त करता है। गो. क /मू./५३६/६४८ तत्थतणविरदसम्मो मिस्सो मणुवदुगमुच्चयं 'णियमा । बंधदि गुणपडिवण्णा मरंति मिच्छेव तत्थ भवा । - तत्रतन अर्थात् सातवीं नरक पृथिवीमें सासादन, मिश्र व असंयतगुणरथान
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मरण
वर्ती जीव मरणके समय मिथ्यादृष्टि गुणस्थानको प्राप्त होकर ही मरते है। विशेष दे० जम्म
१०. देव गतिमें मरण समयको लेश्या
घ. ८/३,२५८/३२३/१ मध्ये देवा मुदयखणेण चैव अणियमेण असुहतिलेस्सासु णिवदति अण्णे पुण आइरिया मुददेवाणं सव्वेसि वि काउलेस्साए चैत्र परिणामन्भुपगमादो। सब देव मरण क्षण में ही नियम रहित अशुभ तीन लेश्याओं में गिरते हैं, और अन्य आधामोंके मतमे सब ही मृत देवोंका कापीत लेश्या में ही परिणमन स्वीकार किया गया है।
११. आहारकमिश्र काययोगीके मरण सम्बन्धी
ध. १५ / ६४ / ९ आहारसरीरमुट्ठावेंतस्स अपज्जत्तद्वाए मरणाभावादो । • आहारक शरीरको उत्पन्न करनेवाले जीवका अपर्याप्तकालमें मरण सम्भव नहीं है। (और भी दे० मरण/३/२) । गो जी. / / २३०/५०१ अग्वाघादी अंतीमुत्ताहिदी दि पज्जतीसंपुण्णी मरणं पि कदापि संभवई आहारक शरीर अव्याघाती अपाती है, अन्तर्मुहूर्त कालस्थायी है. और पर्याशिपूर्ण हो जाने पर उस आहारक शरीरधारी मुनिका कदाचित मरण भी सम्भव है ।
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४. अकाल मृत्यु निर्देश
१. कदलीघातका लक्षण
भापा // २५ जिस पर
अकिलिस्साणं ।
"
आहारुस्सासाणं गिरोहणा खिणए आऊ |१२| = विष खा लेने से, वेदनासे, रक्तका क्षय होनेसे तीच भयमे, शस्त्रपाठसे संपलेकी अधिकता, आहार और श्वास बास रुक जानेसे आयु क्षीण हो जाती है । ( इस प्रकारसे जो मरण होता है उसे कदलीघात कहते है ) ( ध १ / १.१,९ / गा. १२ / २३); (गो क./मू / ५७/५५)।
२. बद्धायुष्ककी अकाल मृत्यु सम्भव नहीं
घ. १०/४,२,४६२१/२२०/६ परममि आए कपच्या भुजमास् दीघाट जमि जहास चेन वेदेति जाणार' 'कमेण कागदो ति उत्त । परभवियाउअं बंधिय भुजमाणाउए वाज्मिा को दोसो ति उसे ण णणिभुजमागाउस्स अत्तपरभवियाउअउदयस्स चउगहबाहिरस्स जीवस्स अभावप्पसंगादो । = परभव सम्बन्धी आयुके बँधनेके पश्चात् भुज्यमान आयुका कदलीघात नहीं होता, किन्तु वह जितनी भी उतनीका हो वेदन करता है, इस बातका ज्ञान करानेके लिए 'क्रमसे कालको प्राप्त होकर यह कहा है। प्रश्न- परभविक आयुको बाँधकर भुज्यमान आयुषाघात मानने में कौन सा दोष है । उत्तर-नहीं, क्योंकि जिसको भुज्यमान आयुको निर्जरा हो गयी है. किन्तु अभी तक जिसके आयुका उदय नहीं प्राप्त हुआ है, उम जीवका चतुर्गति बाह्य हो जानेमे अभाव प्राप्त होता है ।
३. देव नारकियोंकी अकालमृत्यु संभव नहीं
स. ३/२/२०६/१० छेदनमेदनादिभि शनीनामपि तेषां न मरणमकाले भवति । कुतः अनपत्रययुष्कत्वात् । छेदन, भेदन आदिके द्वारा उनका ( नारकियोंका ) शरीर खण्ड-खण्ड हो जाता है, तो भी उनका अकालमें मरण नहीं होता, क्योकि उनकी आयु घटती नहीं है (रावा/३/२/०/१६८/११). (ह. पृ/४/१६४) (म. पु/१०/८२) (जि.सा / ११४) ( और भी दे० नरक/३/६/७) ।
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४. अकाल मृत्यु निर्देश
ध. १४/५.१.१०९/१६०/६ देवनेर आउअस्स करलीधावाभागादो। - देव और नारकियोंमें आयुका कदमीवात नहीं होता और भी. वे, आयु /५/४) घ. १/१,१,८०/३२१/६
तेषामपमृत्योरसस्वाद । भस्मसाद्भावमुपगतदेहानां तेषां कथं पुनर्मरणमिति चेन्न देहविकारस्या निमित्तत्वात् । अन्यथा बालावस्थात प्राप्तयौवनस्यापि मरणप्रस ङ्गात् । - नारकी जीवोंके अपमृत्युका सद्भाव नहीं पाया जाता है। प्रश्न- यदि उनकी अपमृत्यु नहीं होती है, तो जिनका शरीर भस्मीभावको प्राप्त हो गया है, ऐसे नारकियोंका पुनर्भरण कैसे बनेगा ? उत्तर - यह कोई दोष नहीं है, क्योंकि, देहका विकार आयु कर्म के विनाशका निमित्त नहीं है । अन्यथा जिसने बाल अवस्थाके पश्चात यौवन अवस्था को प्राप्त कर लिया है, ऐसे जीवको भी मरणका प्रसंग आ जायेगा ।
४. मोगभूमियोंकी अकालमृत्यु संभव नहीं
दे, आयु./५/४/ (असंख्यात वर्षकी आयुवाले जीव अर्थात् भोगभूमिज मनुष्य तिर्यच अनपम आयुवाने होते हैं।)
जप / २ / ११० पढमे विदिये सदिये काले जे होंति माणुसा पवरा । ते अभियुवा एवं तहिं मंडला १०-प्रथम, द्वितीय व तृतीय काल में जो श्रेष्ठ मनुष्य होते हैं वे अपमृत्युसे रहित और एकान्त सुखों से संयुक्त होते हैं । १६० ।
५. चरमशरीरियों व शलाका पुरुषों में अकालमृत्युकी संभावना व असम्भावना
घास /२/५/ ( अवतायुष्क मुनियोंका अकालमै मरण नहीं gher)
दे. आयु./५/४/ (परमोत्तम देहधारी अनपवर्त्य आयुबाले होते हैं ) । रा. वा /२/५३/६/१५७/२५ अन्त्यचक्रधरवासुदेवादीनामायुषो ऽपवर्त दर्शनादव्याप्ति' । ६न बा; चरमशब्दस्योत्तम विशेषणत्वात् [७] उत्तमग्रहणमेवेति चेदः नः सदनिवृते । चरग्रहणमेवेति चेत्, न तस्योमरणप्रतिपादनार्थस्वाती चरमा इति मा केपांचि पाठ एरोषा नियमेनायुपवस्यमितरेषामनियम प्रश्न-उत्तम देहवाले भी अन्तिम चक्रवर्ती दत्त और कृष्ण वासुदेव तथा और भी ऐसे लोगों की अकाल मृत्यु मुनी जाती है, अत यह लक्षण ही अव्यापी है। उत्तर- चरमशब्द उत्तमका विशेषण है, अर्थात् अन्तिम उत्तम देहवालोंकी अकाल मृत्यु नहीं होती। यदि केवल उत्तम पद देते तो पूर्वोक्तदोष बना रहता है। यद्यपि केवल 'परम' पद देनेसे कार्य चल जाता है, फिर भी उस चरम देहकी सर्वोत्कृष्टता बतानेके लिए उत्तम विशेषण दिया है। वहीं 'चरमदेहा" यह पाठ भी देखा जाता है। इनकी अकालमृत्यु कभी नहीं होती. परन्तु इनके अतिरिक्त अन्य व्यक्तियोंके लिए यह नियम नहीं है।
स. बृ./२/५३ / ११०/ परमोडल उतमदेह शरीर येषां ते परमोत्तमदेहा तमश्मनिर्वाणयोग्यास्तीर्थ करपरमदेवा ज्ञातव्या गुरुदत्तपाण्डवादीनामुपसर्गेण मुक्तत्वदर्शनान्नास्त्यनपर्यायुनियम इति न्यायकुमुदचन्द्रोदये प्रभाषन्गोतमस्ति । तथा चोत्तमदेवत्वेऽपि भीमब्रह्मदत्तायुर्दर्शनाव, कृष्णस्य च जरत्कुमारबाणेनापमृत्यदर्शनात सकलार्थ चक्रवतिनामध्यनयन्यनियमो नास्ति इति राजवातिकाद्वारे प्रोत्तमस्ति । चश्मा वर्थ है अन्तिम और उत्तमका अर्थ है उत्कृष्ट । ऐसा है शरीर जिनका वे, उसी भवसे मोक्ष प्राप्त करने योग्य तीर्थकर परमदेव जानने चाहिए, अन्य नहीं; क्योंकि, चरम देही होते हुए भी गरुडदन, पाण्डव आदिका मोक्ष उपसर्ग के समय हुआ है - ऐसा श्री प्रभाचन्द्र आचार्यने न्याय कुमुदचन्द्रोदय नामक ग्रन्थमें कहा है, और उत्तम देही होते हुए भी
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मरण
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४. अकाल मृत्यु निर्देश
सुभौम, ब्रह्मदत्त आदिकी आयुका अपवर्तन हुआ है। और कृष्णकी जरत्कुमारके बाणसे अपमृत्यु हुई है। इसलिए उनकी आयुके अनपवर्त्यपनेका नियम नहीं है, ऐसा राजवातिकालंकारमें कहा है।
कदो। पर्याप्तियो को पूर्ण पर चुकने के समय से लेकर जबतक अन्तमुहूर्त नहीं बीतता है, तत्रबक कदलीघात नही करता, इस बातका ज्ञान करानेके लिए (सूत्रमे) 'अन्त हर्त' पदका निर्देश किया है।
८. कदलीघात द्वारा आयुका अपवर्तन हो जाता है ध/१०/४.२,४,४१/२४०/६ कदलीघादेण विणा अतोमुहतकालेण परभवियमाआउबं किण्ण बज्झदे। ण, जीविणागदस्स आउअस्स अदादो
अहियावाहाए परभचियआउअस्स बधाभावादो। ध. १०/४,२,४,४६/२४४/३/ जीविदूणागद अंतोमुहत्तद्वपमाणेण उवरिममतोमुत्तूणपुवको डाउजं सम्यमेगसमरण सरिसरबड कदलीधादेण घादिदूण घादिदसमए चेव पुणो... प्रश्न-कदलीघातके बिना अन्तर्मुहूर्त काल द्वारा परविक आयु क्यो नही बाँधी जाती। उत्तर--नही, क्योकि, जीबित रहकर जो आयु व्यतीत हुई है उसकी आधीसे अधिक आबाधाके रहते हुए परभविक आयुका बन्ध नहीं होता। जीवित रहते हुए अन्तर्मुहुर्त काल गया है उससे अर्धमात्र आगेका अन्तर्मुहूर्त कम पूर्वकोटि प्रमाण उपरिम सब आयुको एक समयमे सदृश खण्डपूर्वक कदलीघातसे धात करनेके समय में ही पुन' (परभविक आयुका बन्ध कर लेता है)। (और भी देखो आगे शीर्षकह)
१. जघन्य आयुमें अकालमृत्युकी सम्भावना व असम्भावना ध.१४/५,६,२६०/पृष्ठ पंक्ति एत्थ कदलीघादम्मि वे उबदेसा, के वि
आइरिया जहण्णाउअम्मि आव लियाए असंखे० भागमेत्ताणि जीवणियद्वाणाणि लब्भ ति त्ति भणं ति। तं जहा-पुव भणिदमुहमे इंदियपज्जत्तसव्व जहण्णाउअणिबत्तिट्ठाणस्स कदलीधादो णत्यि। एवं समउत्तरदुसमउत्तरादिणिवत्तीणं पि घादो णस्थि । पुणो एदम्हादो जहण्णणिव्यत्तिट्ठाणादो सखेज्जगुणमाउ बधिद्रण सुहमपज्जत्तेमुवण्णस्स अस्थि कदलीघादो ( ३५४/७)। के वि आइरिया एवं भण तिजहण्णणिव्वन्तिठाणमुवरिमआउअवियप्पेहि वि पादं गच्छादि । केवल पिघादं गच्छदि । णवरि उरिमआउवियपेहि जहण्णणिब्वत्तिटाणं घादिज्जमाणं समऊणदुसमऊणादिक्मेण हीयमाणं ताव गच्छ दि जाब जहण्णणि व्वत्तिट्ठाणस्स मखेज्जे भागे ओदारिय सखेभागो सेसो त्ति । जदि पुण केवल जहण्णाणिव्वत्तिट्ठाण चेव घादे दि तो तत्थ दुविहो कदलीघादो होदि-जहण्णओउक्कस्सओ चेदि (३५५/१) । सुट्छ जदि थोवं धादेदि तो जहणियणिव्वत्तिट्ठाणस्स संखेज्जे भागे जीविदूण सससखे० भागस्स संखेज्जे भागे सखेज्जदिभागं वा घादेदि । जदि पुण बहुअं थादेदि तो जहण्ण णिवत्तिट्ठाण सखे० भागं जीविदूण संखेज्जे भागे कदलीघाण घादेदि (३५६/१)। एत्थ पढमवक्वाण ण भद्दयं, खुद्दाभवग्गणादो (३५७/१)। यहाँ कदली घातके विषय में दो उपदेश पाये जाते है। क्तिने ही आचार्य जघन्य आयुमें आवलिके असरूपातवे भाग-प्रमाण जीवनीय स्थान लब्ध होते है ऐसा कहते है। यथा पहले कहे गये सूक्ष्म एकेन्द्रिय पर्याप्तकी सबसे जघन्य आयुके निवृत्तिस्थानका कदनीधात नहीं होता । इसी प्रकार एक समय अधिक और दो समय अधिक आदि निवृत्तियोंका भी घात नहीं होता। पुन इम जघन्य निवृत्तिस्थानमे असंख्यातगुणी आयुका बन्ध करके सूक्ष्म पर्याप्तको मै उत्पन्न हुए जीवका कदलीधात होता है । (३५४/७)। कितने ही आचार्य इस प्रकार कथन करते है-जधन्य निवृत्तिस्थान उपरिम आयुविकल्पोंके साथ भी घातको प्राप्त होता है और केवल भी धातको प्राप्त होता है। इतनी विशेषता है, कि उपरिम आयुविकल्पोके साथ धातको प्राप्त होता हुआ जधन्य निर्वृत्तिस्थान एक समय और दो समय आदिके क्रमसे कम होता हुआ वह तब तक जाता है जब तक जघन्य निवृत्तिस्थानका सख्यात बहुभाग उतरकर सख्यातवे भागप्रमाण शेष रहता है । यदि पुन केवल जघन्य निवृत्तिस्थानको घातता है तो वहाँपर दो प्रकारका कदलीघात होता है- जघन्य और उत्कृष्ट यदि अति स्तोकका धात करता है, तो जघन्य निवृत्तिस्थानके सख्यात बहुभाग तक जीवित रहकर शेष सख्यातवे भागके संख्यात बहुभाग या सख्यातवे भागका घात करता है। यदि पुन बहूतका घात करता है तो जघन्य निवृत्तिस्थानके सख्यात भागप्रमाण कालतक जीवित रहकर सरख्यात बहभागका कदलीधात द्वारा घात करता है। (३५५५/९)। यहॉपर प्रथम व्याख्यान ठीक नही है, क्योकि उसमे क्षुल्लक भवका ग्रहण किया है । (३५७/१) ।
९. अकाल मृत्युका अस्तित्व अवश्य है रा वा /२/५३/१०/१५८/८ अप्राप्तकालस्य मरणानुपलब्धेरपवाभाव इति
चेत्, म; द्रष्टत्वादाम्रफलादिवत् ॥१०॥ यथा अवधारितपाककालात प्राक् सोपायोपक्रमे सत्याघ्रफलादीना दृष्ट पाकरतथा परिच्छिन्नमरणकालात् प्रागुदीरणाप्रत्यय आयुषो भवत्यपवर्त । प्रश्न-अप्राप्तकाल में मरणकी अनुपलब्धि होनेसे आयुके अपवर्तनका अभाव है। उत्तर-जेसे पयाल आदिके द्वारा आम आदिको समयसे पहले ही पका दिया जाता है उसी तरह निश्चित मरण कालसे पहले भी उदीरणाके कारणोस आयुका अपवर्तन हो जाता है। श्लो. वा/५/२/५३/२/२६१/१६ न हि अप्राप्तकालस्य मरणाभाव खड्गप्रहारादिभि. मरणस्य दर्शनात् । - अप्राप्तकाल मरणका अभाव नहीं है, क्योंकि, खड्ग प्रहारादि द्वारा मरण देखा जाता है। ध १३/५,५,६३/३३४/१ कदलीधादेण मर ताणमाउद्विदचरिमसमए मरणाभावेण मरणाउट्ठिदिच रिमममयाण समाणाहियरणाभावादो च ।
कदलीधातसे मरनेवाले जीवोका आयुस्थितिके अन्तिम समयमे मरण नहीं हो सक्नेसे मरण और आयुके अन्तिम समयका सामानाधिकरण नही है। भ आ./वि /८२४/१६४/१२ अकालमरणाभावोऽयुक्त केषुचित्कर्म भूमिजेषु तस्य सतो निषेधादित्यभिप्राय । - अकाल मरणका अभाव कहना युक्त नहीं है, क्योकि कितने ही कर्मभूमिज मनुष्योमे अकाल मृत्यु है। उसका अभाव कहना असत्य वचन है; क्यों कि, यहाँ सत्य पदार्थका निपेध किया गया है। (दे० असत्य/३) १०. अकाल मृत्युकी सिद्धि में हेतु रा. वा./२/५३/११/१५८/१२ अकालमृत्युव्युदासाथ रसायनं चोपदिशति, अन्यथा रसायनोपदेशस्थ वैयर्थ्यम् । न चादोऽस्ति । अत आयुर्वेदसामध्यदिस्त्यकालमृत्यु । दुखप्रतीकारार्थ इति चेत, न; उभयथा दर्शनात् ॥१२॥ कृतप्रणाशप्रसग इति चेत. न, दत्वैव फल निवृत्ते ।१३। बिततापटशोषक्त अयथाकालनिवृत्त पाक इत्ययं विशेष । -१ आयुर्वेदशास्त्रमे अकाल मृत्युके वारणके लिए
औषधिप्रयोग बताये गये है। क्योकि, दवाओके द्वारा श्लेष्मादि दोषोको बलात् निकाल दिया जाता है। अत: यदि अकाल मृत्यु नमानी जाय तो रमायनादिका उपदेश व्यर्थ हो जायेगा। उसे
७. पर्याप्त होनेके अन्तमुहूते काल तक अकाल मृत्यु सम्भव नहीं घ १०/१,२,४,४१/२४०/७ पज्जत्तिसमाणिदसमयप्पहरि जाव अंतोमुहत्त
ण गद ताव कदलीधादण करेदि तिजाणावणमंतोमहत्तणिसी
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मरण
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५. मारणान्तिक समुद्घात निर्देश
गो. जी/जी प्र/१६६/४४४/२ मरणान्ते भव मारणान्तिक समुद्रात.
उत्तरभवोत्पत्तिस्थानपर्यन्तजीवप्रदेशप्रसर्पणलक्षण । मरणके अन्तमें होनेवाला तथा उत्तर भवकी उत्पत्तिके स्थान पर्यन्त जीवके प्रदेशोका फैलना है लक्षण जिसका, वह मारणान्तिक समुद्घात है। (का.अ/टी /१७६/११६/२) ।
केवल दुःख निवृत्तिका हेतु कहना भी युक्त नहीं है। क्योंकि, उसके दोनो ही फल देखे जाते है । (श्लो वा १/२/५३/श्लो. २/२५६ व वृत्ति/२६२/२६)। २ यहाँ कृतप्रणाशकी आशका करना भी योग्य नही है, क्योकि, उदीरणाम भी कर्म अपना फल देकर ही झडते है। इतना विशेष है, कि जैसे गीला कपडा फैला देनेपर जल्दी सूख जाता है, वही यदि इकट्ठा रखा रहे तो सूखने में बहुत समय लगता है, उसी तरह उदीरणाके निमित्तोंके द्वारा समयके पहले ही आयु झड जाती है। (श्लो वा/५/२/५३/२/२६६/१४)। श्लो. वा./५/२/५३/२/२६१/१६ प्राप्तकालस्यैव तस्य तथा दर्शनमिति ।
चेत, क. पुनरसौ काल प्राप्तोऽपमृत्युकाल वा, द्वितीयपक्षे सिद्धसाध्यता, प्रथमपक्षे खड्गप्रहारादिनिरपेक्षत्वप्रसंग । -प्रश्न३. प्राप्तकाल ही खड़ग आदिके द्वारा मरण होता है । उत्तर-यहाँ कालप्राप्तिसे आपका क्या तात्पर्य है-मृत्युके कालकी प्राप्ति या अपमृत्युके काल की प्राप्ति 1 यहाँ दूसरा पक्ष तो माना नहीं जा सकता क्योकि वह तो हमारा साध्य ही है और पहला पक्ष माननेपर खड्ग आदिके प्रहारसे निरपेक्ष मृत्युका प्रसग आता है।
.. सभी जीव मारणान्तिक समुद्घात नहीं करते गो. जो /जी. प्र./१४४/६५०/१ सौधर्मद्वयजीवराशौधनाड्गुलतृतीयमूल
गुणितजगच्छणिप्रमिते. पल्यासख्यातेन भक्ते एकभाग प्रतिसमयं नियमाणराशिर्भवति । • तस्मिन् पल्यासख्यातेन भक्ते बहुभागौ विग्रहगतौ भवति । तस्मिन् पल्यासरख्यातेन भक्ते बहुभागो मारणान्तिक समुद्घाते भवति । अस्य पत्यास ख्यातकभागो दूरमारणान्तिके जीवा भवन्ति । =सौधर्म ईशान स्वर्गवासी देव (घनागुल १/३४ जगश्रेणी) इतने प्रमाण है। इसके पल्य/असं. भागप्रमाण प्रति समय मरनेवाले जीवोका प्रमाण है। इसका पल्य/असं. बहुभाग प्रमाण विग्रह गति करनेवालोका प्रमाण है। इसका पत्य/ असं बहुभाग प्रमाण मारणान्तिक समुद्घात करनेवालोका प्रमाण है। इसका पत्य/असं भागप्रमाण दूर मारणान्तिक समुद्धातवाले जीवोका प्रमाण है। (और भी दे० घ ७/२,६,२२७,१४/३०६,३१२) ।
३. ऋजु व वक्र दोनों प्रकारकी विग्रहगति में होता है
का अ/टी /१७६/११६/३ स च संसारी जीवाना विग्रहगतौ स्यात् ।
-मारणान्तिक समुद्घात ससारी जीवोंको विग्रहगतिमे होता है। दे० मारणान्तिक समुद्घातका लक्षण/ध.४ (ऋजुगति ब विग्रह गति दोनों प्रकारसे होता है) । (घ.७/२,६,२/३)।
११. स्वकाल ब अकाल मृत्युका समन्वय श्लो वा./२/५३/२/२६१/१८ सकलबहि कारण विशेषनिरपेक्षस्य मृत्युकारणस्य मृत्युकालव्यवस्थिते । शस्त्रसंपातादिबहिरङ्गकारणान्वयव्यतिरेकानुविधायिनस्तस्यापमृत्युकालत्वोपपत्ते । असि प्रहार आदि समस्त बाह्य कारणोसे निरपेक्ष मृत्यु होने में जो कारण है वह मृत्युका स्वकाल व्यवस्थापित किया गया है। और शस्त्र संपात आदि बाह्य कारणोके अन्वय और व्यतिरेकका अनुसरण करनेवाला अप
मृत्युकाल माना जाता है। पं.वि./३/१८ यैव स्वकर्मकृतकालकलात्र जन्तुस्तत्रैव याति मरणं न
पुरो न पश्चात् । मूढास्तथापि हि मृते स्वजने विधाय शोक परं प्रचुरदु खभुजो भवन्ति ।१८) = इस संसार में अपने कर्म के द्वारा जो मरणका समय नियमित किया गया है उसी समयमें ही प्राणी मरणको प्राप्त होता है, वह उससे न तो पहले ही मरता है और न पीछे ही। फिर भी मूर्खजन अपने किसी सम्बन्धीके मरणको प्राप्त होनेपर अतिशय शोक करके बहुत दु खके भोगनेवाले होते है नोट-(बाह्य कारणोसे निरपेक्ष और सापेक्ष होनेसे ही काल व अकाल मृत्युमें भेद है, वास्तवमें इनमें कोई जातिभेद नहीं है । कालको अपेक्षा भी मृत्युके नियत कालसे पहले मरण हो जानेको जो अकाल मृत्यु कहा जाता है वह केवल अल्पज्ञ ताके कारण ही समझना चाहिए, वास्तवमें कोई भी मृत्यु नियतकालसे पहले नहीं होती; क्योकि, प्रत्यक्षरूपसे भविष्यको जाननेवाले तो बाह्य निमित्तो तथा आयुकर्मके अपवर्तनको भी नियत रूपमें हो देखते है।) ५. मारणान्तिक समुद्घात निर्देश
१. मारणान्तिक समुद्धातका लक्षण रा वा./१/२०/१२/७७/१५ औपन मिकानुपक्रमायु क्षयाविर्भूतमरणान्तप्रयोजनो मारणान्तिकसमुद्धात । -औपक्रमिक व अनुपक्रमिक रूपसे आयुका क्षय होनेसे उत्पन्न हुए कालमरण या अकाल मरणके निमित्तसे मारणान्तिक समुद्धात होता है। ध.४/१,३,२/२६/१० मारणान्तियसमुग्धादो णाम अप्पणो वट्टमाणसरीरम
छड्डिय रिजुगईए विग्गहगईए वा जावुप्पज्जमाणखेत्तं ताव ग तूण .. अंतोमुहुत्तमच्छणं । -अपने वर्तमान शरीरको नहीं छोडकर
जुगति द्वारा अथवा विग्रह गति द्वारा आगे जिसमें उत्पन्न होना है ऐसे क्षेत्रतक जाकर अन्तर्मुहूर्त तक रहनेका नाम मारणान्तिक समुद्धात है । (द्र.सं./टी./१०/२५/उद्धृत श्लोक न. ४)।
४. मारणान्तिक समुद्धातका स्वामित्व दे० समुद्धात-(मिश्न गुणस्थान तथा क्षपक श्रेणीक अतिरिक्त सभी __गुणस्थानोमें सम्भव है। विकलेन्द्रियोके अतिरिक्त सभी जीवोमें
सम्भव है।) ध.४/१,४,२५/२०४/७ जदि सासणसम्मादिट्ठिणो हेट्ठाण मारणं तियं मेल ति, तो तेसिं भवणवासियदेवेसु मेरुतलादो हेट्ठा ठ्ठिदेसु उत्पत्ती ण पावदि त्ति बुत्ते, ण एस दोसो, मेरुतलादो हेट्ठा सासणसम्मादिट्ठीणं मारणं तियं णत्थि त्ति एवं सामण्णवयणं । विसेसादो पुण भण्णमाणे रइएमु हेछिम एइदिएमु वा ण मारणातियं मेलं ति त्ति एस परमत्थो। =प्रश्न-यदि सासादन सम्यगदृष्टि जीव मेरुतलसे नीचे मारणान्तिक समुद्धात नही करते है तो मेरुतलसे नीचे स्थित भवनवासी देवोमें उनकी उत्पत्ति भी नहीं प्राप्त होती है। उत्तर-यह कोई दोष नहीं है, क्योकि, 'मेरुतलसे नीचे सासादन सम्यग्दृष्टि जीवोका मारणान्तिक समुद्धात नहीं होता है' यह सामान्य बचन है। किन्तु विशेष विवक्षासे कथन करनेपर तो वे नारकियोमे अथवा मेरुतलसे अधोभागवर्ती एकेन्द्रिय जीवोमें मारणान्तिक समुद्घात नहीं करते है यह परमार्थ है। (क्योकि उन गतियोमें उनके उपपाद नहीं होता है। -दे० जन्म/४/११)। दे० सासादन/१/१०-[ लोकनालीके बाहर सासादन सम्यग्दृष्टि समुद्
घात नहीं करते। ध ४/१,४,१७३/३०५/१० मणुसगदीए चेव मारण तिय दसणादो।
=मनुष्य गतिमें ही (उपशम सम्यग्दृष्टि जीवोके) मारणान्तिक समुद्रात देखा जाता है। दे०क्षेत्र/३-(गुणस्थान व मार्गणास्थानोमें मारणान्तिक समुद्घातका यथासम्भव अस्तित्व )।
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मरण
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५. मारणान्तिक समुद्घात निर्देश
यातको प्राप्त होता है। परन्तु यह योग्य नहीं है, क्योकि, अत्यधिक असाताका अनुभव करनेवाले सातवी पृथिवीके नारक्यिोमे उत्पन्न होनेवाले महामत्स्यकी वेदना और कषायकी अपेक्षा सूक्ष्म निगोद जीवोमें उत्पन्न होनेवाले महामत्स्यकी वेदना और कषाय सदृश नही हो सकती। इस कारण यही अर्थ प्रधान है, ऐसा ही ग्रहण करना चाहिए। गो. जी जी. प्र/५४३/६४२/१३ अस्मिन् रज्जुस ख्यातै कभागायामसूच्यड गुलसंख्यातै कभागविष्कम्भोत्सेधक्षेत्रस्य घनफलेन प्रतराड् गुलसरण्यातै कभागगुणित नगच्छणिसख्यात कभागेन गुणिते दूरमारणान्तिकसमुद्घातस्य क्षेत्र भवति ।- एक जीवके दूरमारणान्तिक समुद्धात विष शरीरसे बाहर यदि प्रदेश फैले तो मुख्यपने राजूके संख्यातभागप्रमाण लम्बे और सूच्यं गुलके संख्यातबे भागप्रमाण चौडे व ऊँचे क्षेत्रको रोकते है। इसका घनफल जगश्रेणी प्रतरांगुल होता है। गो जी /जी प्र./५८४/१०२५/१० तदुपरि प्रदेशोत्तरेषु स्वयंभरमणसमुद्रमाह्यरथण्डिलक्षेत्रस्थितमहामत्स्येन सप्तमपृथिवीमहाशैरवनामश्रेणीबद्ध प्रति मुतमारणान्तिकसमुद्धातस्य पञ्चशत्तयोजनतदर्थ विष्कम्भारसधै कार्धषरज्ज्वायतप्रथमद्वितीयतृतीयवक्रोस्कृष्टपर्यन्तेषु । - वेदना समुद्धातगत जीवके उत्कृष्ट क्षेत्रसे ऊपर एक-एक प्रदेश बढता-बढ़ता मारणान्तिक समुद्धातवाले जीवका उत्कृष्ट क्षेत्र होता है। वह स्वयभूरमण समुद्र के बाह्य स्थण्डिल क्षेत्रमे स्थित जो महामत्स्य वह जब सप्तमनरकके महारौरव नामक श्रेणीबद्ध मिलके प्रति मारणान्तिक समुदघात करता है तब होता है । वह ५०० मो० चौडा, २५० यो० ऊँचा और प्रथम मोडेमे १ राजू लम्बा, दूसरे मोडेमे १/२ राजू और तृतीय मोडेमें ६ राजू लम्बा होता है। मारणान्तिक समुदृघातगत जीवका इतना उत्कृष्ट क्षेत्र होता है।
५, प्रदेशीका पूर्ण संकोच होना आवश्यक नहीं ध ४/१,३,२/३०/४ विग्गहगदीए मारणं तिय कादणुप्पण्णाणं पढमसमए
असखेजाजोयणमैत्ता ओगाहणा होदि, पुव्वं पसारिदएग-दोतिदंडाणं पढमसमए उवसंघौराभावादो। -मारणान्तिक समुद्धात करके विग्रहगतिसे उत्पन्न हुए जोवोके पहले समयमें असंख्यात योजनप्रमाण अवगाहना होती है, क्योकि, पहले फैलाये गये एक, दो और तीन दण्डोका प्रथम समय में सकोच नही होता है। ध.४/१,४.४/१६५/४ के वि आइरिया 'देवा णियमेण मूल सरीरं पविसिय मरंति' त्ति भण ति, बिरुद्ध' ति ण घेत्तव्य । = कितने ही आचार्य ऐसा कहते है कि देव नियमसे मूल शरीरमे प्रवेश करके ही मरते है। ..परन्तु यह विरोधको प्राप्त होता है, इसलिए उसे नहीं ग्रहण करना चाहिए। घ.७/२,७,१६४/४२६/११ हेट्ठा दोरज्जुमेत्तद्धाणं गतूण ठिदावस्थाए । छिण्णाउआण मणुस्सेसुप्पज्जमाणाण देवाण उववादखेत्तं किण्ण घेप्पदे । ण, तस्स पढमद डेणुणस्स छचोद्दसभागे चेत्र अंतभावादो, तेसिं मूलसरीरपवेसमंतरेण तदवत्थाए मरणाभावादो च। प्रश्ननीचे दो राजुमात्र जाकर स्थित अवस्थामे आयुके क्षीण होनेपर मनुष्योमें उत्पन्न होनेवाले देवोका उत्पादक्षेत्र क्यो नही ग्रहण किया। उत्तर-नही, क्योकि, प्रथम दण्डसे कम उसका ६/१४ भागमे ही अन्तर्भाव हो जाता है (दे०क्षेत्र/४) तथा मूल शरीरमे जीव प्रदेशोके प्रवेश बिना उस अवस्थामें उनके मरणका अभाव भी है। घ. ११/४.२.५.१२/२२/६ जेरइएमुप्पण्णपढमसमए उवसंहरिदपढमदंडस्स य उक्कस्सखेत्ताणुववत्तीदो। नारकियोमें उत्पन्न होनेके प्रथम समयमें ( महामत्स्यके प्रदेशोमें) प्रथम दण्डका उपसंहार हो जानेसे उसका उत्कृष्ट क्षेत्र नहीं बन सकता।
१. प्रदेशीका विस्तार व आकार ध.७/२.६.१/२६६/११ अप्पप्पणो अच्छिदपदेसादो जाव उपज्ज
माणखेत्त ति आयामेण एगपदेसमादि कादूग जाबुक्कस्सेण सरीरतिगुण नाहल्लेण कंडेक्करवं भट्ठियत्तोरण एल-गोमुत्तायारेण अंतोमुहतावठाण मारणं तियसमुग्धादो णाम । आयामकी अपेक्षा अपनेअपने अधिष्ठित प्रदेशसे लेकर उत्पन्न होनेने क्षेत्रतक (और भी दे० अगला शीर्षक नं.७), तथा बाहत्यसे एक प्रदेशको आदि करके उत्कर्षत शरीरसे तिगुने प्रमाण जीव प्रदेशोके काण्ड, एक खम्भ स्थित तोरण, हल व गोमूत्रके आकारसे अन्तर्मुहूर्त तक रहनेको
मारणान्तिक समुद्धात कहते है। ध. ११/४,२,५,१२/२१/७ सुहुमणिमोदेसु उपज्जमाणस्स महामच्छरस विक्रवभुस्सेहा तिगुणा ण होति, दुगुणा विसेसाह्यिा वा होति त्ति कधं णव्वदे। अधोसत्तमाए पुढवीए रइएस से काले उपज्जिहिदि त्ति सुत्तादो णव्वदे। संतकम्मपाहुडे पृण णिगोदेसु उपाइदो,णेरइएसु उपजजमाण महामच्छो ठव सुहमणिगोदेसु उप्पज्जमाणमहामच्छो वि तिगुणशरीरबाहलेण मारण तियसमुग्धाद गच्छद्दि त्ति । ण च एद जुज्जदे, सत्तमपुढवीणेरइएसु असादबहुलेसु उप्पज्जमाणमहामच्छवेयणा-कसाएहितो मुहमणिगोदेसु उप्पज्जमाणमहामच्छ बेयण-कसायाण सरिसत्ताणुववत्तोदो। तदो एसो चेव अत्यो बहाणो त्ति घेत्तव्वो। प्रश्न-सूक्ष्म निगोद जीवोमे उत्पन्न होनेवाले महामत्स्यका विष्कम्भ और उत्सेध तिगुना नही होता, किन्तु दुगुना अथवा विशेष अधिक होता है; यह कैसे जाना जाता है। उत्तर-"नीचे सातवी पृथिवीके नारकियोमे वह अनन्तर कालमे उत्पन्न होगा" इस सूत्रसे जाना जाता है। -सत्कर्मप्राभूतमे उसे निगोद जीवोमें उत्पन्न कराया है, क्योकि, नारकियोमे उत्पन्न होनेवाले महामत्स्यके समान सूक्ष्म निगोद जीवोमे उत्पन्न होनेवाला महामरस्य भी विवक्षित शरीरकी अपेक्षा तिगुने बाहत्यसे मारणान्तिक समु
७. वेदना कषाय और मारणान्तिक समुद्घातमे अन्तर भ ४/१,३,२/२०४२ वेदणकसायसमुग्धादा मारणं तियसमुग्धादे म्ण्णि पद तित्ति वुत्ते ण पद नि । मारणतिय समुग्धादो णाम बद्धपरभवियाउआण चेव होदि । वेदणकसायसमुग्धादा पुण ब द्वाउआणमबद्भाउआणच होति। मारण तियसमुपादा णिच्छएण उप्पज्जमाण दिसाहिमहो होदि, ण चे अराणमेगदिसाए गमण णियमो, दसम वि दिसासु गमणे पडिबद्धत्तादो। मारण तियसमुनादस्स आयामो उक्कस्से" अप्पणो उप्पज्जमाणखेत्तपज्जवसाणो, ण चेअराणमेस णियमो ति - प्रश्न-वेदना समुद्धात और कषायसमुद्धात ये दोनो मार। न्तिकसमुद्घातमे अन्तर्भूत क्यो नही होते है। उत्तर-१. नह। होते, क्योकि, जिन्होने पर भवकी आयु आँध ली है, ऐसे जीवोके ही मारणान्तिक समुद्घात होता है (अश्रद्धायुष्क और वर्तमानमे आयुको बाँधनेवालोके नही होता--(ध.७/४,२,१३,८६/४१०/७), किन्तु वेदना और कषाय समुद्धात बधायुष्क और अबतायुष्क दोनो जीयोके होते है। २. मारणान्तिक समुद्घात निश्चयसे आगे जहाँ उत्पन्न होना है ऐसे क्षेत्रकी दिशाके अभिमुख होता है। किन्तु अन्य समुद्धातोके इस प्रकार एक दिशामे गमनका नियम नही है, क्योकि, उनका दशो दिशाओमें भी गमन पाया जाता है (दे० समुघात)। ३ मारणान्तिक समुद्घातकी लम्बाई उत्कृष्टत अपने उत्पद्यमान क्षेत्रके अन्त तक है, किन्तु इतर समुद्धातोका यह नियम नही है। दे० पिछला शोर्षक न०६)।।
८.मारणान्तिक समुदघातमें कौन कर्म निमित्त है ध.4/१६-१, २८/४७/२ अचत्तसरीरस्स विग्गहराईए उजुगईए वा जं गमण त करस फल । ण, तस्स पुयखेत्तपरिचायाभावेण गमणाभावा। जीवपदेसाणं जो पसरी सो ण णिवकारणो, तस्स आउअसंतफल
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मरण भय
२८८
मल्ल
त्तायो। -प्रश्न--पूर्व शरीरको न छोडते हुए जीवके विग्रह गतिमे अपवा अजुगतिमें जो गमन होता है, वह किस र्मका फल है । उत्तर-नही, क्यो कि, पूर्व शरीरको नहीं छोडनेवाले उस जीवके पर्व क्षेत्रके परित्यागके अभावसे गमनका अभाव है ( अत. वहाँ आनुपूर्वी नामकर्म कारण नही हो सकता)। पूर्व शरीरको नही छोड़नेपर भी जीव प्रदेशो का जो प्रसार होता है, वह निष्कारण नहीं है, बयोकि, वह आगामी भत्रसम्बन्धी आयुकर्मके सत्त्वका फल है। मरण भय-दे० भय।
अनेक भेद है ।१४। अथवा जीवोके पापको उपचारसे मल कहा जाता है ।१७। (ध. १/९.१,१/३२/६) । घ.१/१,१,१/३३/२अथवा अर्थाभिधानप्रत्ययभेदात्त्रिविध मलमा उक्तमर्थमलमाअभिधानमल तद्वाचक शब्दः । तयोरुत्पन्नबुद्धि. प्रत्ययमलम् । अथवा चतुर्विध मलं नामस्थापनाद्रव्यभावमलभेदात । अनेकविध वा। -अथवा अर्थ, अभिधान व प्रत्ययके भेदसे मल तीन प्रकारका होता है। अर्थमल तो द्रव्य व भावमलके रूपमें ऊपर कहा जा चुका है। मलके वाचक शब्दोंको अभिधानमल कहते है। तथा अर्थमल और अभिधानमलमे उत्पन्न हुई बुद्धिको प्रत्ययमल कहते है। अथवा नाममल, स्थापनामल, द्रव्यमल और भावमलके भेदसे मल चार प्रकारका है। अथवा इसी प्रकार विवक्षा भेदसे मल अनेक प्रकारका भी है। २. सम्यग्दर्शनका मल दोष अन. घ./२/११/१८३ तदप्यलब्धमाहात्म्यं पाकात्सम्यक्त्वकर्मण । मलिन
मलसड्गेन शुद्ध स्वर्ण मिवोद्भवेत् ।५।। अन. ध./२/६१ मे उधृत-वेदक मलिनं जातु शड्काद्यै यत्कलं कयते ।
-जिस प्रकार शुद्ध भी स्वर्ण चॉदी आदि मलके ससर्गसे मलिन हो जाता है उसी प्रकार सम्यक् प्रकृतिमिथ्यात्व नामक कर्म के उदयसे शुद्ध भी सम्यग्दर्शन मलिन हो जाता है । ५६ (गो.जी./जी.प्र/२५॥ ५१/२२ मे उद्धृत) शंका आदि दुषणोंसे कल कित सम्यग्दर्शनको मलिन कहते है। ३. अन्य मलों का निर्देश १. शरीरमें मलका प्रमाण
-दे० औदारिक/१॥ २. मल-मूत्र निक्षेपण सम्बन्धी
-दे० समिति/१ मे प्रतिष्ठापना समिति ।
मराचि-१. यह भगवान् महावीर स्वामीका दूरवर्ती पूर्व भव है (दे० वर्धमान ) पूर्वभव न०२ मे पुरुरवा नामक भील था। पूर्वभव न०१ मे सौधर्म स्वर्गमें देव हुआ। वर्तमान भवमें भरतकी अनन्तसेना नामक स्त्रीसे मरीचि नामक पुत्र हुआ। इसने परिव्राजक बन ३६३ मिथ्या मतोकी प्रवृत्ति की। चिरकाल भ्रमण करके त्रिपृष्ठ नामक बलभद्र और फिर अन्तिम तीर्थकर हुआ।(प, पु./३/२६३), (म. पु/६२/८८-६२ तथा ७४/१४,२०,५१,५६,१६६,२०४ ) । २. एक क्रियावादी-(दे० क्रियावाद)। मरु-१. किम्पुरुष जातिका एक व्यन्तर-दे० किपुरुष । मरुत-१. सौधर्म स्वर्गका १२ वॉ पटल-दे० स्वर्ग/१३२ एक
लौकान्तिकदेव-दे० लौकान्तिक । ३ वायु-दे० वायु । मरुत चारण-दे० ऋद्धि। मरुदेवी-भगवान् ऋषभनाथकी माता-दे० तीर्थकर/५ । मरुद्देव-१२ वे कुलकर-दे० शलाका पुरुष/१ । मरुप्रभ-किपुरुष जातिका एक व्यन्तर-दे० किपुरुष । मरुभूति-म.पू./७३/श्लोक--भरत क्षेत्र पोदनपुर निवासी विश्वभूति ब्राह्मण का पुत्र था । (७-६)। क्मठ इसका बड़ा भाई था. जिसने इसकी स्त्रीपर बलात्कार करनेके हेतु इसे मार डाला। यह मरकर सल्लकी वनमे वज्रघोष नामक हाथी हुआ। (११-१२)।
यह पार्श्वनाथ भगवान का पूर्वका वॉ भव है।-दे० पार्श्वनाथ । मर्मस्थान-औदारिक शरीरमें मर्मस्थानोका प्रमाण-दे०
औदारिक /१/७। मर्यादा-भोजनमें कालगत मर्यादाएँ-दे०.भक्ष्याभक्ष्य/१। मल-ति प //गाथा-दोणि वियप्पा होति हु मलस्स इमं दव्वभाव
भेएहि । दवमलं दुविहप्प बाहिरमन्भतरं चेय ।१०। सेदमलरेणुक्दमपहुदी बाहिरमल समुद्दिछ । पुणु दिढजीवपदेसे बिधरूनाइ पयडिठिदिआई।११॥ अणुभागपदेसाई चउहि पत्ते कभेज्जमाणं तु । णाणावरणप्पहूदी अट्ठविह कम्ममखिलपावरयं ।१२। अब्भतरदब्बमल जीवपदेसे णिबद्धमिदि हेदो। भावमलं णादव्य अगाणदसणादिपरिणामो ।१३। अहबा बहुभेयगयं णाणावरणादि दव्यभावमलभेदा १४ पायमलं ति भण्णइ उवचारसरूबएण जीवाण ।१७। - द्रव्य और भावके भेदसे मलके दो भेद है। इनमेसे द्रव्यमल भी दो प्रकारका है-बाह्य व अभ्यन्तर ।१०। स्वेद, मल, रेणु, कर्दम इत्यादिक बाह्य द्रव्यमल कहा गया है, और दृढ रूपसे जीवके प्रदेशोमे एक क्षेत्रावगाहरूप बन्धको प्राप्त, तथा प्रकृति स्थिति अनुभाग व प्रदेश इन चार भेदोसे प्रत्येक भेद को प्राप्त होनेवाला, ऐसा ज्ञानावरणादि आठ प्रकारका सम्पूर्ण कर्मरूपी पापरज, चूकि जीवके प्रदेशो में सम्बद्ध है, इस हेतुसे वह अभ्यन्तर द्रव्यमल है। अज्ञान अदर्शन इत्यादिक जीवके परिणामोको भावमल समझना चाहिए ।११-१३। अथवा ज्ञानाबरणादिक द्रव्यमलके और ज्ञानावरणादिक भावमलके भेदसे मल के
४. मल परिषह निर्देश स. सि.///४२६/४ अप्कायजन्तुपीडापरिहाराया मरणादस्नानवतधारिण' पटुरविकिरणप्रतापजनितप्रस्वेदावतपवनानीतपांमुनिचयस्य सिध्मकच्छूदद्रूदीर्ण कण्डूयायामुत्पन्नायामपि कण्डूयनविमर्दनसघट्टनविवर्जितमूर्ते स्वगतमलोपचयपरगतमलोपचयोरसंक्लपितमनस' सज्ज्ञानचारित्रविमलसलिलप्रक्षालनेन कर्ममलपङ्कनिराकरणाय नित्यमुद्यतमतेर्मलपीडासहनमाख्यायते। - अप्कायिक जीवोकी पीडाका परिहार करनेके लिए जिसने मरणपर्यन्त अस्नानव्रत स्वीकार किया है। तीदण किरणोके तापसे उत्पन्न हुए पसीनेमें जिसके पवनके द्वारा लाया गया धूलि संचय चिपक गया है। सिम दाद और खाजके होनेपर भी जो खुजलाने, मर्दन करने और दूसरे पदार्थ से घिसनेरूप क्रियासे रहित है। स्वगत मलका उपचय और परगत मलका अपचय होनेपर जिसके मन में किसी प्रकार विकल्प नहीं होता, तथा सम्यग्ज्ञान और सम्यग्चारित्ररूपी विमल जल के प्रक्षालन द्वारा जो कर्ममलपंकको दूर करनेके लिए निरन्तर उद्यतमति है, उसके मलपीडासहन कहा गया है। (रा. वा./8//२०/६११/
३३), (चा. सा./१२५१६)। मलद-भरत क्षेत्रमे पूर्व आर्यखण्डका एक देश-दे० मनुष्य/४ । मलय-१ भरतक्षेत्रमे मध्य आर्यखण्डका एक पर्वत-दे. मनुष्य/४ ।
२. मदास प्रेजिडेन्सीका मलाया प्रदेश (कुरलकाव्य/प्र. २१), मलयगिरि-प्रसिद्ध श्वेताम्बर टीका कार । -दे० परिशिष्ट । मलौषध-दे० ऋद्धि/७।। मल्ल-भरतक्षेत्रमें पूर्व आर्यस्खण्डका एक देश-दे० मनुष्य/४।
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मल्लधारी देव
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महातनु
मल्लधारी देव--१. नन्दि संघके देशीयगण की नय कीतिशाखामें
श्रीधरदेव के शिष्य तथा चन्द्रकीतिके गुरु थे।समय-वि१०७५-११०५ (ई०१०१८-१०४८)-दे० इतिहास/७/५ । २ मल्लिषेणकी उपाधि थी। (विशेष दे० मल्लिषेण/२)। ३.नियमसारकी टीकाके रचयिता पद्मप्रभकी उपाधि थी।--दे० पद्मप्रभ । ४. आ० बालचन्द्रकी उपाधि
थी।-दे० बालचन्द्र । मल्लवादी-2.द्वादशार नयचक्र । प्रथम) के का एक आचार्य। समय-वि स.४१४ (ई० ३५७), (जै./२/३३०)। २. एक ताकिक श्वेताम्बराचार्य थे। आ. विद्यानन्दिके समक्ष जो नयचक्र विद्यमान था वह सम्भवत इन्हींकी रचना थी। इनके नयचक्रपर उप० यशोभद्रजीने टीका लिखी है। कृतियाँ-नयचक्र, सन्मति टीका।
समय--वि, श. ८-६ (ई० श.८ का अन्त); (न. च./प्र. २/प्रेमीजी)। मल्लिनाथ-(म. पु./६६/श्लोक) पूर्व भव नं २ में कच्छकावती देशके वीतशोक नगरके राजा वैश्रवण थे।(२)। पूर्व भव नं. १ मे अपराजित विमानमे अहमिन्द्र थे।(१४-१६) (युगपत सर्वभव---दे० ६६/६६)। वर्तमान भबमें १६ वे तीर्थंकर हुए-दे० तीर्थकर।। मल्लिनाथचारित्र-आ. सकलकीति (ई०१४०६-१४४२) कृत ८७४ श्लोकप्रमाण सस्कृत रचना । (ती /३/३३१) । मल्लिभूपाल-विजयकीति (ई. श. १६) को सम्मानित करने वाले
कनारा जिले के सालुब नरेश । (जै./१/४७३)। मल्लिभूषण-नन्दि संघके बलात्कार गणकी सूरत शास्वा मे विद्यानन्दि न २ के शिष्य तथा श्रुतसागरके सहधमो और लक्ष्मीचन्द्र व ब. नेमिदत्तके गुरु थे। समय--वि. १५३८-१५५६ (ई, १४८१ - १४)-दे० इतिहास/४ । (ती/३/३७३)।
भा. सं/१७६-१७१ मसयरि-पूरणरिसिणो उप्पण्णो पासणाहतित्थ म्मि । सिरिवीरसमवसरणे अगाहियझुणिणा नियत्तेण ।१७६। बहिणिग्गएण उत्तं मज्झ एयारसागधारिस्स। णिग्गइ झुणी ण, अरुहो णिग्गय बिस्साससीसस्स ।१७७। ण मुणइ जिणकहियसुर्य सपइ दिक्वाय गहिय गोयमओ। विप्पो वेयम्भासी तम्हा मोषवं ण णाणाओ ।१७९| अण्णाणाओ मोरवं एव लोयाण पयडमाणो हु । देवो अ णत्थि कोई सुण्णं झाएह इच्छाए ।१७१। = पार्श्वनाथके तीर्थ मे मस्करि-पूरण ऋषि उत्पन्न हुआ । वीर भगवान्के समवशरणमें योग्यपात्रके अभावमें जब दिव्य ध्वनि न खिरी, तब उसने बाहर निकलकर कहा कि मै ग्यारह अंगका ज्ञाता हूँ, तो भी दिव्यध्वनि नहीं हुई। पर जो जिनकथित श्रुतको ही नहीं मानता है और जिसने अभी हाल ही में दीक्षा ग्रहण की है ऐसा वेदाभ्यासी गोतम (इन्द्रभूति) इसके लिए योग्य समझा गया। अत जान पडता है कि ज्ञानसे मोक्ष नही होता है। वह लोगोंपर यह प्रगट करने लगा कि अज्ञानसे ही मोक्ष होता है। देव या ईश्वर कोई है ही नहीं । अत स्वेच्छापूर्वक शून्यका ध्यान करना चाहिए । मस्करी पूरन- दे० पूरन कश्यप। मस्तक-भरतक्षेत्रमें पूर्व आर्यखण्डका एक देश-दे० मनुष्य/४ । मस्तिष्क-औदारिक शरीरमें मस्तिष्कका प्रमाण-दे०
औदारिक/१/७१ मह-याग, यज्ञ, क्रतु, पूजा, सपर्या, इज्या, अध्वर, मख और मह ये
पर्यायवाची नाम है।-दे० पूजा/१/१ । महत्तर-त्रि सा./६८३/टीका-महत्तर कहिए कुल विषै बडा। महत्ता -Magnitude ( ज प/प्र १०७ ) । महाकच्छ-पूर्व विदेहका एक क्षेत्र-दे० लोक/७ । महाकच्छा -पूर्व विदेहस्थ पद्मकूट बक्षारका एक कूट व उसका रक्षक
देव-दे० लोक/५/२। महाकक्ष-विजयाध की दक्षिणश्रेणीका एक नगर-दे० विद्याधर । महाकल्प-द्वादशाग श्रुतज्ञानका ११वॉ अंगवाह्य-दे० श्रुतज्ञान/IIII महाकाल-१. पिशाच जातीय एक व्यन्तर-दे० पिशाच । २, एक ग्रह-दे० ग्रह । ३. दक्षिण कालोद समुद्रका रक्षक देव-दे० व्यन्तर ।४। ४ चक्रवर्तीकी नव निधियो में से एक-दे० शलाका पुरुष/२। १. षष्ट नारद-दे० शलाका पुरुष/६ । महाकाली-१. भगवान श्रेयासकी शासक यक्षिणी-देतीर्थंकर/५१
एक विद्या- दे० विद्या। महाकूट-विजया की दक्षिण श्रेणीका एक नगर-दे० विद्याधर । महाकौशल-मध्यप्रदेश। अपर नाम सुकौशल (म. पु./प्र./४८।
पं. पन्नालाल )। महाखर-असुरकुमार जातीय एक भवनवासी देव-दे० असुर । महागंध-उत्तर नन्दीश्वरद्वीपका रक्षक देव-दे० भवन/४। महागौरी--एक विद्या-दे० विद्या । महाग्रह-दे० ग्रह। महाचंद्र-शान्तिनाथचरित्रके रचयिता एक दि. साधु । समय
वि १५८७ । महाज्वाल-विजया की उत्तरप्रेणीका एक नगर-दे० विद्याधर । महातनु-महोरम जातीय एक व्यन्तर-दे० महोरग।
मल्लिषेण-१. महापुराण, नागकुमार महाकाव्य तथा सज्जन चित्तवल्लभके कर्ता, उभय भाषा विशारद एक कवि(भट्टारक)। समय -वि ११०४ (ई. १०४७) 1 (म. पु./प्र.२०/प पन्ना लाल : (स.म / प्र. १५/प्रेमीजी) । २. एक प्रसिद्ध मन्त्र तन्त्रवादी भट्टारक । गुरु परम्परा-अजितसेन, कनकसेन, जिनसेन, मल्लिषेण । नरेन्द्रसेन के लघु गुरु भ्राता। नेमिचन्द्र सिद्धान्त चक्रवर्ती ने इन्हे भवन गुरु कहा है। कृतियें-भैरव पद्मावती कल्प, सरस्वती मन्त्र कल्प, ज्वालिनी कल्प, कामचाण्डाली कल्प, बज्र पजर विधान, प्रवचनसार टीका, पचास्तिकाय टीका, ब्रह्म विद्या । समय-डा, नेमिचन्द्र नं १२२ को एक व्यक्ति मानते है। अत उनके अनुसार शक ६६६ ई.१०४७)। (ती./३/१७१) । परन्तु प. पन्ना लाल तथा प्रेमीजी के अनुसार शक १०५० (ई ११२८)। (दे. उपर्युक्त सन्दर्भ)। ३. स्याद्वाद मजरी तथा महापुराण के रचयिता एक निष्पक्ष श्वेताम्बर आचार्य जो स्त्री मुक्ति आदि विवादास्पद चर्चाओं में पड़ना पसन्द नहीं करते । समयशक १२१४ (ई. १२९२) । (स म /प्र. १६/जगदीश चन्द)।
मल्लिषेण प्रशस्ति-श्रवणबेलगोलाका शिलालेख न.५४ मल्लि- षेण प्रशस्ति के नामसे प्रसिद्ध है। समय-श. सं १०५० (ई. ११२८) (यु अनु./प्र. ४१/प. जुगल किशोर मुख्तार)। मशक परिषह-दे० दंश परिषह । मसिकर्म-दे० सावद्य/३॥ मस्करी गोशाल-बौद्धोके महा परिनिर्वाण सूत्र, महावग्ग और 'दिव्यावदान आदि ग्रन्थोके अनुसार ये महात्मा बुद्ध के समकालीन ६ तीर्थक्रोमेसे एक थे। (द. सा./प्र. ३२/प्रेमीजी)।
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महातपऋद्धि
महातप ऋद्धि दे०
महातमः प्रभा - १. स.सि./३/९/२०३/१ महातम प्रभासहचरिता भूमिमहातम प्रभा इति - जिसकी प्रभा गाढ अन्धकारके समान है। वह महातम प्रभाभूमि है । ( ति प / २ / २१) । (रा. वा / १/३/३/ १५६/११ ), ( विशेष दे० तम प्रभा ) । २. इसका अपर नाम माधवी है । इसका आकार अवस्थान आदि-दे० नरक / ५ /११६
महात्मा. सा. वा. बृ./१२/११६/१५ - मोक्षलक्षण महार्थ साथकत्वेन महात्मा मोक्षणा महाप्रयोजनको साधने के कारण श्रमणको महात्मा कहते हैं ।
महावेह - विशाच जातीय एक व्यर३० व्यन्तर
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महापद्म - १. महाहिमवान पर्वतका एक हृद जिसमेंसे रोहित व रोहितास्या ये दो नदियाँ निकलती है ही देवी इसकी अधिष्ठात्री है । दे० लोक / ३ / १ २, अगर विदेहका एक क्षेत्र । ३० लोकg/२। ३. विकृतवान् वक्षारका एक कूट- दे० लोक५/४ ४. कुण्डपर्वत के सुप्रभकूटका रक्षक एक नागेन्द्र देव - दे० लोक ५ / १२१५. कुरुव शकी वंशावलीके अनुसार यह एक चक्रवर्ती थे जिनका अपर नाम पद्म था- दे० पद्म । ६. भावी कालके प्रथम तीर्थंकर-दे० तीर्थंकर / ५ । ७. म. पु. ॥१५॥ श्लोक पूर्वी पृष्करार्धके पूर्व निदेहमें पुष्कतायत देशका राजा था ( २-३ ) | धनपद नामक पुत्रको राज्य दे दीक्षा धारण की। (१८-१९ ) । ग्यारह अंगधारी होकर तीर्थंकर प्रकृतिका बन्ध किया । समाधिमरणकर प्राणतस्वर्ग में देव हुआ। ( १६-२२)। यह सुविधिनाथ भगवादका पूर्वका भय नं २ हैं । दे० सुविधिनाथ। महापुंडरीक - १. द्वादशाग श्रुतका ज्ञान / III २ रुक्मि पर्वतपर स्थित रूपकूला में दो नदियों निकती है अधिष्ठात्री है० लोक /३/६ | महापुर-१, भरतक्षेत्रका एक नगर दे० मनुष्य / ४२ विजयार्थ की उत्तर श्रेणीका एक नगर-३० विद्याधर ।
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१३वाँ अग बाह्य- दे० श्रुतएक हद जिसमे मारी और बुद्धि नामक देवी उसकी
महापुराण का जिनसेन (ई. कृत कलापूर्ण संस्कृत काव्य जिसे इनकी मृत्यु के पश्चात् इनके शिष्य आ गुण भद्र ने ई. १८ में पूरा किया। जिनसेन वाले भाग का नाम आदि पुराण है। जिसमें भगवान् ऋषभ तथा भरत मामी का चरित्र चित्रित किया गया है। इसमें ४७ पर्व तथा १५००० श्लोक हैं। गुणभद्र वाले भाग का नाम उत्तर पुराण है जिसमें शेष २३ तीर्थंकरो का उल्लेख है । इसमें २६ पर्व और ८००० श्लोक है। दोनों मिलकर महापुराण कहलाता है। दे, आदि पुराण तथा उत्तर पुराण २, कवि पुष्पदन्त (ई. ६६५) कृत उपर्युक्त प्रकार दो खण्डों में विभक्त अपभ्रंश महाकाव्य । अपर नाम 'तीस ठि महापुरिगुणालंकार'। दोनों में ८०+४२ सन्धि और २०,००० श्लोक हैं। (ती./४/११०) २. मणि (ई. १०४०) कृत २००० श्लोक प्रमाण तेरसठ शलाका पुरुष चरित्र । (ती./३/१७४) । रचा था ।
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महापुरी - अपर विदेहके महापद्म क्षेत्रकी प्रधान नगरी ६० लोक/५/१२।
महापुरुष - किपुरुष जातीय एक व्यन्तर- दे० किपुरुष । महाप्रभ -१ उत्तर घृतवर द्वीपका रक्षक देव-दे० व्यन्तर 181 २. घृतवर समुद्रका रक्षक देव - दे० व्यन्तर |४| ३. कुण्डल पर्वतका महाबंध - पण्डागम का अन्तिम खण्ड (दे०परिशिष्ट ) | महाबल १. असुर जातीय एक भवनवासी देव ( म. पू. / सर्ग / श्लोक ) - जा अतितका पुत्र था।
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दे० असुर । २. (४/१३३) ।
महाराजा
राज्य प्राप्त किया। ( ४/१५१ ) । जन्मोत्सव के अवसरपर अपने मन्त्री स्वयं बुद्ध द्वारा जीवके अस्तित्वकी सिद्धि सुनकर आस्तिक हुआ (५/८७ ) । स्वयं बुद्ध मन्त्रीको आदित्यगति नामक मुनिराजने बताया था कि ये दसवे भव भरतक्षेत्रके प्रथम तीर्थंकर होंगे। ( ५/२०० ) । मन्त्रीके मुखसे अपने स्वप्नोके फलमें अपनी आयुका निकटमें क्षय जानकर समाधि धारण की। (५/२२६,२३० ) । २२ दिनकी सल्लेखना - पूर्वक शरीर छोट (५/२४८-२५०) ईशान स्वर्गने खिलोग नामदेव (/२५३-२५४) यह ऋषभदेवका पूर्व भव नं. १
I
है- दे. पदे १. पु/२० / श्लोक - मंगलावली देशका राजा था (२-३) विमलवाहन मुनि दीक्षा ले १९. अंगका पाठी हो तीर्थंकर प्रकृतिका बन्ध किया । ( १०-१२ ) । समाधिमरणपूर्वक विजय नामक अनुत्तर विमानमे अहमिन्द्र हुआ (११)। यह अभिनन्दनाथ भगवादका पूर्व भव न. २४ ( म. पू. / ६०/ (श्लोक) पूर्व विदेहके नन्दन नगरका राजा था । (५८) । दीक्षाधार | (६१) । संन्यास मरण पूर्वक सहसार स्वर्गमे देव हुआ । (६२) । यह सुप्रभ नामक बलभद्रका पूर्व भव नं. २ है । ५ नेमिनाथपुराण के रचयिता एक जैन कवि समय (ई. १२४२) (र/ प्र. २३/ पं, खुशालचन्द )
महाभारत - १. रामाकृष्णा द्वारा संशोधित 'इक्ष्वाकु वंशावली' में
महाभारत युद्धका काल ई. पू. १५५० बताया गया है। ( भारतीय इतिहास / ०१ / १ २०६) २. महाभारत युद्धान्त-देह पु. / सर्ग ४५-४६, सर्ग ४७ / १ - १६; तथा सर्ग ५४ ) । महाभिषेक
आशापरली (ई. १९०३-१९४३) कृत निय महोद्योत' पर आ. श्रुतसागर (ई. १४८१-१४६६) कृत महाभिषेक नामक एक टीका ग्रन्थ ।
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महाभीम -१ राक्षस जातीय एक व्यन्तर दे० राक्षस २ द्वि नारद - दे० १० शलाका पुरुष / ६ ।
महाभुजकुण्ड पर्वतके कनकप्रभ कूटका रक्षक एक नागेन्द्र देव - दे० लोक /७ |
ऋषभ
महाभूतत जातीय एक व्यन्तर ३० त महामंडलीक - राजाओ एक सी श्रेणी ३० राजा। महामति (म. पू. / सर्ग /श्लोक ) - महामत भगवाद देवका पूर्व भव नं. १ । (५/२००) । का मन्त्री था । मिध्यादृष्टि था। ( ४ / १११-११२ ) । इसने राजाके जन्मोत्सव के अवसरपर उसके मन्त्री स्वयं बुद्ध के साथ विवाद करते हुए चार्वाक मतका आलम्बन लेकर taaree सिद्धि दूषण दिया था। (५/२६-२८) । मरकर निगोदमें गया । ( १०/७ ) ।
महामत्स्य दे० संमूर्च्छन ।
महामह दे०पूजा
महामात्य त्रि. सा./टी./३८३ महामात्य कहिए सर्व राज्यकार्यका अधिकारी ।
महामानसी - १ भगवान् कुन्थनाथको शासक यक्षिणी-दे० तीर्थंकर /५/३ । २. एक विद्या - दे० विद्या ।
महायक्ष भगवान् अजितनाथका शासक यक्ष-३० तीर्थंकर २/३ | महायान एक भी सम्प्रदाय ३० दर्शन । महायोजन क्षेत्रका एक एक प्रमाण दे० गणित / I १ महाराजा
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राजाओगे एक श्रेणी-दे० राजा ।
जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश
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महाराष्ट्र
महाराष्ट्र कृष्णानदीसे नर्मदा नदी का क्षेत्र (म. पू. /प्र.४६/६. पन्नालाल ) ।
महारुद्र - १. एक ग्रह - दे० ग्रह । २ चतुर्थ नारद दे० शलाकापुरुष/६ ।
महालतांग कालका एक प्रमाण ३० गणित / I// महालताकाला एक प्रमाण ०/1/१/४
महावत्सा - १ पूर्व विदेहका एक क्षेत्र - दे० लोक ५/२१२. वैश्रवण वक्षारका एक कूट व देव - दे० लोक /५/४ 1
महावप्र - १. अपर विदेहका एक क्षेत्र - दे० लोक ५ / २ / २. सूर्यगिरि वक्षारका एक कूट व उसका रक्षक देव - दे० लोक /५/४ ।
२९१
महावीर - १. प्रथम दृष्टिले भगवान् की आयु आदि घ. ६/४, १,४४ / १२० पण्णारहदिवसेहि अट्ठहि मासेहि य अहियं पचहत्त] रिवासावसेसेच ७५-८-१३ पुत्तरनिमाणो आसाद जोणपखट्ठीए महावीरो बाहान्तरिवासाठओ विषापहरो गम्भ मोहम्णो तस्य तीसवसाणि कुमारकालो, बारसरसाणि तस्स दुमत्यकाल के निकालो वि तीस वासाथि एदेसि तिण्ड काला समासो बाहत्तरिवासाणि । १५ दिन और ८ मास अधिक ७५ वर्ष चतुर्थ कालमें दीप रहनेपर पुष्पोत्तर विमानसे आषाढ शुक्रा षष्ठी दिन ७२ वर्ष प्रमाण आयुसे युक्त और तीन ज्ञानके धारक महावीर भगवान् गर्भ में अती हुए। इसमें ३० वर्ष कुमारकाल १२ वर्ष उनका छद्मस्थकाल और ३० वर्ष केवलिकाल इस प्रकार इन तीनों कालोका योग ७२ वर्ष होता है (कपा ९/११/६२६/
1
७४/६)।
२. दिव्यध्वनि या शासनदिवसकी तिथि व स्थान
घ. १/१.१.१/गा. ५२-५०/६१-६३ पंचसेलापुरे सम्मे उपमे ...११२ महावीरेण कहियो भनियतोयस्स ... इम्मिस्से बसिप्पिणीए उत्थ- समयस्स पच्छिमे भाए । चोत्तोसवाससेसे किंचि विसेसून संते ॥२१॥ वासस्स पदमासे पढने पक्खहि साम बहुले । पाविदपुव्वदिवसे तित्थुप्पत्ती दु अभिजिहि ॥ ५६ ॥ सावण बहुलपडिव रुद्दमुहुते सुहोदर रविणो । अभिजिस्स पढमजोए जुगादी पथदशेतपुर में राजगृहमे) रमणीक, विपुल व उत्तम ऐसे विपुलाचल नामके पर्वतके ऊपर भगवान् महावीरने भव्य जीवोको उपदेश दिया । ५२| इस अवसर्पिणी कल्पकालके दुषमा सुषमा नामके चौथे कालके पिछले भाग में कुछ कम ३४ वर्ष बाकी रहनेपर, वर्ष के प्रथममास अर्थात् श्रवण मासमें प्रथम अर्थात् कृष्णपक्ष प्रतिपदा के दिन प्रात:कालके समय आकाशमै अभिजित नक्षत्रके उदित रहनेपर तीर्थकी उत्पत्ति हुई।२३-५८ भावणकृष्ण प्रतिपदा के दिन मुहूर्त में सूर्यका शुभ उदय होनेपर और अभिजित नक्षत्रके प्रथम योग में जब युगकी आदि हुई तभी तीर्थ की उत्पत्ति समझना चाहिए । (प. १/४.१.४४/ . २६/१२० ). (क. पा./१/१-१/६५६ / गा. २०/७४) ।
घ. ६/४.१.४४/१२०/१ वासदिदिवसावण केवलकालम्मि किम करिये। केवलगाणे समुत्पण्णे मि तत्थ तित्यापुष्पोदो-केहानकी उत्पत्ति हो जानेपर भी 4 दिन तक उनमे तीर्थ की उत्पत्ति नहीं हुई थी, इसलिए उनके केवलोकासमें ६६ दिन कम किये जाते हैं। क. पा. १/११/३५७/०३/२)।
३. द्वि० दृष्टिसे भगवान्की आयु आदि
१ / ४.१.४४/ टीका व गा, ३०-४१/१२१-१२६ अण्गे के विकाइरिया पंचहि दिवसेहि अहि मासेहि व ऊगाणि माहतरि वासाणि त्ति माणजिनिदाउन पति ०१-३-२५ सिमहिपाएग गब्भत्थ कुमार छदुमत्थ- केवल - कालाण परूवणा करिदे । तं जहा•• (पृष्ठ १२९/५)। आसाजोगपणे बट्ठीए जोणिमुपाद । या १९ असारमासे अ य दिवसे चहससियण। तेरसिए रतीए जादुतरफग्गुगीर दुगा २२
स
,
य मासे दिवसे य वारस गा ३४ आहिणिमोहिमयुद्ध होण यमग्गसीसमहुले दसमीप क्खितो सूरमहिदो शिवमणपुज्जो । गा. ३५ । गमइ छदुमत्यत्तं बारसवासाणि पंच मासे य । पणारसाणि दिण्णाणि य तिरयणसुद्धो महावीरो । गा. ३६ । वहसाजी इसमीए खनगरीबिगारूडी हंसू पाडकाम केल
समावण्णी । गा. ३८१ वासाणूणत्तीसं पचय मासे य बीसदिवसे य । । गा ३६ । पाच्छा पावाणयरे कत्तियमासे य किण्हचो. दसिए । सादीए रत्तीए सेसरयं छेत्तु णिव्वाओ। गा. ४० । परिणिधबुदे जिणिदे चउत्थकालस्स जं भवे सेसं । बासाणि तिणि मासा अट्ठ य दिवसा वि पण्णरसा । गा. ४१ । एद काल वड्ढमाणजिनिदाउअम्मि पतिते दसदिमसाहिय चहरिवासमेायसेसे चत्कालै सग्गादो माणमिनिवरस ओदिकालो होदि ।
-
=
अन्य कितने ही आचार्य भगवान्को आयु ७१ वर्ष ३ मास २५ दिन बताते है । उनके अभिप्रायानुसार गर्भस्थ, कुमार, छद्मस्थ और केवलज्ञानके कालोकी प्ररूपणा करते है । वह इस प्रकार कि - गर्भावतार तिथि - आषाढ शु. ६: गर्भस्थकाल = मास-5 दिन, जन्म तिथि व समय चैत्र शु १३ की रात्रिने उत्तराफाल्गुनी नक्षत्र, कुमारकाल = २८ वर्ष ७ मास १२ दिन; निष्क्रमण तिथिमगसिर कृ. १०, छद्मस्थकाल = १२ वर्ष ५ मास १५ दिन; केवलज्ञान तिथि वैशाख शु १०, केवलीकाल = २६ वर्ष ५ मास २० दिन, निर्वाण तिथि- कार्तिक कृ. १५ में स्वाति नक्षत्र । भगवान् के निर्वाण होनेक पश्चात् शेष बचा चौथा काल - ३ वर्ष ८ मास १५ दिन इस काफी वर्धमान जिनेन्द्रकी आयु मिला देनेपर चतुर्थकाल ७५ १० दिन शेष रहने पर भगवा स्ववतरण होनेका काल प्राप्त होता है . प ९/११/६०-६०/टीम गा. २१-११ / ७६-११) ।
महावीर
=
४. भगवान्की आयु आदि सम्बन्धी दृष्टिभेदका समन्वय ध ६/४, १.४४ / १२६/५ दोसु वि उवएसेस को एत्थ समजसो, एत्थ ण बाहर जिम्भमेलाइरियवच्छओ; अलद्धोवदेसत्तादो दोण्ण मेक्कस्स वाहाभादो किंतु दोस एस्केप होणं तापिय मतव्य ।
उक्त दो उपदेशो मे कौन-सा उपदेश यथार्थ है. इस विषय मे एसाचार्य शिष्य (बीरसेन स्वामी) अपनी जीभ नहीं चलाता, क्योकि न तो इस विषयका कोई उपदेश प्राप्त है और न दोनो मेसे एक में कोई बाधा ही उत्पन्न होती है। किन्तु दोनोमेंसे एक ही सत्य होना चाहिए। उसे जानकर कहना उचित है। (क. पा./१/१-१/8 ६३/८१/१२ )
★ वीर निर्वाण संवत् सम्बन्धी - दे० इतिहास / २ |
जेनेन्द्र सिद्धान्त कोश
५. भगवान् के पूर्व मयका परिचय
म.पु. / ७४ / श्लोक नं. "दूरवर्ती पूर्वभव नं. १ में पुरुरवा भील थे । १४- १६० नं २ में सौधर्म स्वर्ग में देव हुए । २०-२२ नं. ३ में भरत का पुत्र मरीचि कुमार ४१-६६४ मे स्वर्णमे न. १ में जटिल
का पुत्र ६८ नं ६ में सौधर्म स्वर्ग देव ||
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महावीर पुराण
२९२
नं. ७ में पुष्यमित्र ब्राह्मणका पुत्र ७१| नं ८ में सौधर्म स्वर्ग में देव | ७२-७३ | न ६ में अग्निसह ब्राह्मणका पुत्र |७४ | न. १० में ७ सागरकी आयुवाला देव १७५ नं ११ में अग्निमित्र ब्राह्मणका पुत्र । ७६ । नं १२ में माहेन्द्र स्वर्ग में देव ॥ ७६ ॥ न. १३ में भारद्वाज ब्राह्मणका पुत्र ॥७७॥ न. १४ में माहेन्द्र स्वर्ग में देव ॥७८॥ तत्पश्चात् अनेकों त्रस स्थावर योनियो में असख्यातो वर्ष भ्रमण करके वर्तमानसे पहले पूर्वभव नं. १८ में स्थावर नामक ब्राह्मणका पुत्र हुआ पूर्वभवन, १० में महेन्द्र स्वर्ग में
पृष्ठ
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नं. १६ में विश्वमन्दी नामक राजपुत्र हुआ। ६-११०। पूर्वभवन १४ में महाशुक स्वर्ण देव ११० १२०० पूर्व नं. १४ में नारायण । १२० - १६७। पूर्वभव न. १३ में सप्तम नरकका नारकी १६७ पूर्वभवन १२ में सिह ॥ १६६॥ पूर्वभवन, ११ में प्रथम नरकका नारकी १०० पूर्व भव नं. १० में सिंह । १०१ २१६ पूर्व भव नं में सिहकेतु नामक देव २९ पूर्वभवन में कनोज्ज्वल नामक विद्याधर | २२० - २२ पूर्वभवनं ७ में सप्तम स्वर्ग में देव | २३० | पूर्वभव नं ६ में हरिषेण नामक राजपुत्र । २३२ - २३३ । पूर्वभव नं. ५ में महाशुक स्वर्ग में देव ॥२३४॥ पूर्वभवनं ४ में प्रियमित्र नामक राजपुत्र । २३४-२४०) पूर्वभव नं ३ में सहस्रार स्वर्ग में सूर्यप्रभ नामक देव | २४१ । पूर्वभव नं. २ में नन्दन नामक सज्जनपुत्र २४२-२२१ पूर्व १ में अच्युत स्वर्गने अहमिन्द्र २४६ वर्तमान भवने १४ वे तीर्थंकर महावीर हुए। २४१० ( युगपद सर्व भव - दे०म. पु./०६/५३४ ) ।
* भगवान् के कुल संघ आदिका विशेष परिचय - दे० तीर्थंकर / ५ ।
महावीर पुराण- १. आ. शुभचन्द्र ( १३९१६-१९६६) द्वारा
रचित संस्कृत छन्द -बद्ध एक ग्रन्थ । इसमें २० अध्याय है । २. आ. सकलकीर्ति (ई. १४०६-१४४२) को एक रचना । महावीराचार्य - आप राजा अमोघवर्ष प्रथमके परम मित्र थे । दोनो साथ -साथ रहते थे। पीछेसे आपने दीक्षा ले ली थी। कृतिगणितसार संग्रह । ज्योतिष, पटल । समय-अमोघवर्ष के अनुसार शक ७३० ( ई. ५००-८३० ) | ( ती / २/३४) ।
महाव्रत - दे० व्रत |
महाशंख- -लवण समुद्र में स्थित एक पर्वत - दे० लोक /५/६ । महाशिरा - कुण्डल' पर्वतके कनक कूटका रक्षक देव - दे० लोक५/१२ | महाशुक-१ स्वर्गी १० दे० स्वर्ग/३। २ शुक्र स्वर्गका एक पटल व इन्द्रक - दे. स्वर्ग / २०
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महाश्वेता - एक विद्या दे० विद्या महासंधिक एक बौद्ध सम्प्रदाय दर्शन । महासत्ता - सर्व पदार्थोका अस्तित्व सामान्य- दे० अस्तित्व । महासर्वतोभद्र - एक व्रत - दे० सर्वतोभद्र ।
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समय
महासेन - १. भोजक वृष्णिका पुत्र उग्रसेनका भाई - ( ह. पु / १८ / १६ ) । २. यादववंशी कृष्णका दसवाँ पुत्र- दे इतिहास / ७ /१० । २. गुलोचनाचरित्रके रचयिता एक दिगम्बराचार्य । ( ई० श०८ का अन्त का पूर्व), (ह पु. / / ७ / पं, पन्नालाल ) । महास्कन्ध-सर्व व्यापक गल द्रव्य सामान्य दे० स्कन्ध / १०१ महास्वरगन्धर्व जातीय एक व्यन्तर-३० गन्ध । महाहिमवान
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१. हैमवत क्षेत्रके उत्तर दिशामें स्थित पूर्वापर
महेंद्रिका
लम्बायमान वर्षधर पर्वत । अपरनाम पचशिखरी है । इसका नशा आदि- ३० लोक / ३.४/२ |
रा. वा/३/१२/३/१०२/२१ हिमाभिसन्धादिभिधानम् महांश्वासी हिममरिच महाहिमवानिति असष्यपि हिने हिमवदाख्या इन्द्रगोपवत् । हिमके सम्बन्धसे हिमवान् संज्ञा होती है। महान् अर्थात महा है और हिमवाद है, इसलिए महाहिमवाद कहलाता है। अपना हिसके अभाव में भी 'इन्द्रगोप' इस नामकी भाँति रूढि से इसे महाहिमवाद कहते है २ महाहिमवाद का एक म उसका स्थायी देव दे०/४२ कुण्डलप्रभकूटका स्वामी नागेन्द्र देव दे० सोक ७/१२
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महिमा - १. आन्ध्रदेश के अन्तर्गत वेणा नदीके किनारे पर एक प्राचीन नगर। आज वेण्या नामकी नदी बम्बई प्रान्तके सितारा जिलेमें है और उसी जिलेमें महिमानगड नामका एक गाँव भी है। सम्भवत यह महिमानगढ़ ही मह प्राचीन महिमा नगरी है, जहाँ कि अति आचार्यने यति सम्मेलन किया था और जहाँसे कि घरसेन आचार्य के पत्र के अनुसार पुष्पदन्त व भूतवती नामके दो साधु उनकी सेवामें गिरनार भेजे गये थे। इसका अपर नाम पुण्ड्र - वर्धन भी है। (ध. १/११ / HL Jam) २. भरत क्षेत्र पश्चिम कार्यखण्ड एक देश-दे० मनुष्य ४ ३. एक विक्रिया ऋद्धि -६० ऋि
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महिष -मध्य आर्यखण्डका एक देश - दे० मनुष्य / ४ । महिषग- दक्षिण देशका वर्तमान मैसूर प्रान्त ( म. पू. प्र. ५०/पं. पन्नालाल ) महिषमति नर्मदा नदी पर स्थित एक नगर-३० मनुष्य / ४ । महादेव -- मूल संघकी गुबली के अनुसार आप अकलंक भट्टके शिष्य थे। समय- (ई. १६५-००५) । ( ३० इतिहास / ०/१ ) | (सि. वि. / प्र.७ /०. महेन्द्र कुमार ) ।
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महोपाल - १. मपू./ ०३ / १लोक-महीपाल नगरका राजा तथा भगवा पार्श्वनाथका नाना था |६६ महादेवी के वियोग में पंचाग्नि तप तपता था। कुमार पार्श्वनाथ से योग्य विनय न पानेपर क्रुद्ध हुआ। कुमार द्वारा बताये जाने पर उनकी सत्यताकी परीक्षा करनेके लिए जलती हुई लकडीको कुल्हाडी से चीरा तो वास्तव में ही वहाँ सर्पका जोड़ा देखकर चकित हुआ। यह कमठका जीव था तथा भगवान् के जीवसे बैर रखता था । शक्यसहित मरणकर शम्बर नामक ज्योतिष देव बना, जिसने तप करते हुए भगवान्पर घोर उपसर्ग किया । ७-११७। यह कमठका आगेका आठवाँ भव है । २. प्रतिहार वंशका राजा था । बढवाण प्रान्तमें राज्य करता था । धरणी वराह इसका अपर नाम था। समय - (श. सं ८३६, वि. सं. ७१ (ई. ११४), (ह. पु. / प्र. ६ / प. पन्नालाल ) ।
महीर -
[-दक्षिण देशका वर्तमान मैसूर नगर (म. पू. ५०/प. पन्नालाल ) ।
महेंद्र - प.
प. पू /१५/१३-१६- महेन्द्रगिरिका राजा तथा हनुमान्की माता अंजनाका पिता था।
-RW
महेंद्र देव तत्त्वानुशासनके रचयिता आ नागसेन (ई. १०४७) के शिक्षागुरु थे। नागसेनके ममयके अनुसार इनका समय - ( ई० श० १२ का पूर्व ) | ( त अन्/प्र २ / त्र श्री लाल ) - दे० नागसेन ।
महेंद्रिका - भरत क्षेत्रमें मध्य आर्यखण्डकी एक नदी । —दे०
मनुष्य / ४।
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महेश्वर
महेश्वर-महोरग जातीय एक व्यन्तर- दे० महोरग | महोदय दे०विद्यानन्द महोदय ।
महोरग - १३/२२१४० / ३१९/११ सर्पाकारेण धिकरणप्रिया. महोरगा नाम । = सर्पाकार रूपसे विक्रिया करना इन्हे प्रिय है, इसलिए महोरग कहलाते है ।
२. महोरग देवोंके भेद
ति/६/३८ भुजगा भुजगतासी महत अतिकायासीय मह असणिज महसर गंभीर पियदसणा महोरगया । ३८ - भुजग, भुजगशाली, महातनु, अतिकाय स्कन्धशाली, मनोहर, अशनिजय महेश्वर, गम्भीर और प्रियदर्शन ये दश महोरग जातिके देशोंके भेद है। (शि.सा./२६१)।
★ इसके वर्ण वैभव अवस्थान आदि ६० व्यन्तर ४
मांडलीक - एक किपाबादी- १० क्रियावाद ।
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मांस
मांसकी अभक्ष्यताका निर्देश दे० भक्ष्याभक्ष्य /२ ।
१. मांसयाग व्रतके अविचार
सा. घ. /३/१२ चर्मस्थमम्भ स्नेहश्च हिग्वसंहृतचर्म च सर्वं च भोज्यं व्यापन्नं दोष' स्यदामिषन्नते । १२ = चमडेमें रखे हुए जल, घी, तेल आदि चमड़ेसे आच्छादित अथवा सम्बन्ध रखनेवाली होंग और स्वादसित सम्पूर्ण भोजन आदि पदार्थोंका खाना मारा स्वाग हमें शेष है।
ला सं . / २ / श्लोक - - तद्भेदा बहर सन्ति मादृशां वागगोचरा । तथापि व्यवहारार्थं निर्दिष्टाः केचिदम्याद १०१ - उन अतिचारोंके बहुतसे भेद है जो मेरे समान पुरुषसे कहे जाने सम्भव नहीं हैं, तथापि व्यवहारके लिए आम्नायके अनुसार कुछ भेद यहाँ कहे जाते है | १० | चमडेके बर्तन मे रखे हुए घी, तेल, पानी आदि । ११ । अशोचित आहार्य | १८ | त्रस जीवोंका जिसमें सन्देह हो, ऐसा भोजन | २०| बिना छाना अथवा विधिपूर्वक दुहरे छलनेसे न छाना गया, पी, दूध, तेल, जल आदि २३-२४१ शोधन विधिसे अनभिसाम या शोधन विधिसे परिचित विधर्मके हाथ से तैयार किया गया भोजन २] शोधित भी भोजन यदि मर्यादासे बाहर हो गया है तो । ३२ | दूसरे दिनका सर्व प्रकारका बासी भोजन । ३३ । पत्तेका शाक | ३५॥ पान |३७| रात्रिभोजन | ३८) आसव, अरिष्ट, अचार, मुरब्बेबादि ॥५३॥ रूप, रस, गन्ध व स्पर्शसे चलित कोई भी पदार्थ ॥५६॥ मर्यादित दूध, दही आदि |२०१
२. मांस निषेधका कारण
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मु. आ / २५३ चत्तारि महावियदि य होति नमणीदमजमंसमधू करमा संगप्पा जनकारीओ एदाओ | १५३३ नवनीत मद्य, मांस और मधु मे चार महा विकृतियों हैं, क्योंकि वे काम मद व हिसा को उत्पन्न करते है । (पु. सि. उ. / ७१ ) ।
पु. सि. उ. / ६५-६६ न बिना प्राणविघातान्मांसस्योत्पत्तिरिष्यते यस्मात् । मासं भजतस्तस्मात् प्रसरत्यनिवारिता हिसा । ६५| यदपि किल भवति मासं स्वयमेव मृतस्य महिषवृषभादे । तत्रापि भवति हिंसा तदाचित नियोत निर्मधनात् ॥ ६६॥ श्रामास्वपि पश्यास्वपिदिपश्य मानासु मांसपेशी सातत्येनोत्पादस्तातीनां निगोतानां ॥ ६० आमा म प वा खादति यति वा पिशितपेशि समिति सतत निचितं पिण्डं महुजीवकोटीमा १. प्राणियोंके पातके बिना मांसकी उत्पत्ति नही हो सकती, इसलिए मासभक्षीको
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मागध
अनिवारित रूपसे हिंसा होती है । ६५। २ स्वयं मरे हुए भैंस व बेल आदिके मास भनमें भी हिंसा होती है, क्योंकि तदाश्रित अनन्तो निगो जीनोकी हिंसा वहाँ पायी जाती है। ईद की हो या अग्नि पर पकी हुई हो अग्निपर पक रही हो ऐसी सब ही मासकी पेशियो में, उस ही जातिके अनन्त निगोद जीव प्रति समय निरन्तर उत्पन्न होते रहते है । ६७) इसलिए कच्ची या पकी हुई किसी भी प्रकारको मांसपेशीको खाने या छूने वाला उन करोडों जीवोंका घात करता है । ६ ( यो. सा / अ / ८ /६०-६१ ) |
३. धान्य व मांसको समान कहना योग्य नहीं सा. घ. / २ / १० प्राण्यत्वे समेप्यणं भोज्यं मार्स न धामिके भोग्या विशेषेऽपि जने नाम्बिका ११० (त)पन्द्रयस्य कस्यापि येन्म यथा हि नरकप्राप्तिर्न तथा धान्यभोजनाद धान्यपाके प्राणिवधः परमेोवशिष्यते । गृहिणां देशयमिना स तु नात्यन्तबाधक ॥ यद्यपि मांस व अन्न दोनों ही प्राणी अंग होनेके नाते समान है, परन्तु फिर भी धार्मिक जनोंके लिए मांस खाना योग्य नहीं है जैसे कि स्त्रीपनेकी अपेक्षा समान होते हुए भी पत्नी ही भोग्य है माता नहीं |१०| दूसरी बात यह भी है कि पंचेन्द्रिय प्राणीको मारने या उसका मांस खानेसे जैसी नरक आदि दुर्गति मिलती है वैसी दुर्गति अन्तके भोजन करनेसे नहीं होती । धान्यके पकनेपर केवल एकेन्द्रियका ही घात होता है, इसलिए देशसंयमी गृहस्थोके लिए वह अत्यन्त बाधक नही है ।
* दूध व मांस समान नहीं है -- दे० भक्ष्याभक्ष्य |
* अनेक वनस्पति जीवोंकी अपेक्षा एक नस जीवकी हिंसा ठीक है यह हेतु उचित नहीं दे० हिंसा/२/१ |
४. चर्म निक्षिप्त वस्तु त्यागमें हेतु
ला. सं/२/११-१३ चर्मभाण्डे तु निक्षिप्ता घृततै लजलादय । त्याज्या मतस्त्रादीना शरीरपिशिताश्रिता | ११६ म चारा पुनस्तत्र सन्ति यहा न सन्ति ते वायो दुर्गा व्योमचित्र
[१२] सर्व सर्वज्ञानेन दृष्ट विश्वचषा बाइया प्रमाणेन माननीय मनोचिभि 1 चमडेके गर्तन में रखे हुए थी, तेल, जलादिका त्याग कर देना चाहिए क्योकि ऐसी वस्तुओ में उस-उस जीवके मासके आश्रित रहनेवाले त्रस जीव अवश्य रहते है । ११। तहाँ ये जीव है या नहीं ऐसी शंका भी नहीं करनी चाहिए, क्योंकि, व्योमचित्रकी भाँति योगेन दिखाई देनेके कारण ि जीव किसी भी प्रमाणसे सिद्ध नहीं है ।१२) तो भी सर्वदेवने उनका वहाँ प्रत्यक्ष किया है और उसीके अनुसार आचार्योंने शास्त्रोने निर्देश किया है. अ. बुद्धिमानोको सर्वशदेवकी आशा मानकर उनका अस्तित्व वहाँ स्वीकार कर लेना चाहिए |१३|
५. सूक्ष्म त्रस जीवोंके भक्षण में पाप
=
सा. सं/२/१४ नोखमेतावता पापस्माद्वा न स्यादतीन्द्रियात्। अहो मासाशिनोऽम प्रोक्त जैनागमे यत । इन्द्रियो के अगोचर ऐसे सूक्ष्म जीवोके भक्षणसे पाप होता है या नहीं, ऐसी आशंका करना भी योग्य नहीं है, क्योकि मास भक्षण करनेवालोको पाप अवश्य होता है, ऐसा जैनशास्त्र में स्पष्ट उल्लेख है | १४ |
★ विधर्मी से अन्न शोधन न करानेमें हेतु - दे० आहार / २ | मागध -- लवण समुद्रकी ईशान व आग्नेय दिशामें स्थित द्वीप व उसके रक्षक देव | -- दे० लोक / ७ ।
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माघ
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मान
माघ-गुजरात नरेश श्रीपालके मन्त्री सुप्रभदेवके दो पुत्र थे-दत्त व
अभ्यास किया है, वह देने योग्य भी है तो भी जिस कारणसे वह शुभ कर । दत्त के पुत्र महाकवि माध थे। इन्होंने 'शिशुपाल वध'
नहीं दिया जाता वह मात्सर्य है । (रा. वा 18/१०/8/५१७/१५)। नामक ग्रन्थकी रचना की है। ( उपमिति भव प्रपच कथा/प्र.२/
स, सि./७/३६/३७२/१ प्रयच्छतोऽष्यादराभावोऽन्यदातृगुणासहनं वा प्रेमीजी)।
मात्सर्यम् । दान करते हुए भी आदरका न होना या दूसरे दाताके
गुणोंको न सह सकना मात्सर्य है । (रा. वा/७/३६/४/५५८/२६ ) । माघनान्द-१. मुलसघ की पहाबली के अनुसार आप आ. अलि
माथुरसंघ-दे० इतिहास/६/१। के शिष्य होते हुए भी उनके तथा धरसेनस्वामी के समकालीन थे। पूर्वधर तथा अत्यन्त ज्ञानी होते हुए भी आप बडे तपस्वी थे । इसकी माधव-मीमांसा दर्शनका एक टीकाकार-दे० मीमांसा दर्शन । परीक्षा के लिये प्राप्त गुरु अहं दूली के आदेश के अनुसार एक बार माधवचन्द्र-नेमिचन्द्र सिद्धान्त चक्रवर्ती के शिष्य गणितज्ञ । आपने नन्दिवृक्ष (जो छायाहीन होता है) के नीचे वर्षायोग धारण
कृति--त्रिलोकसार की संस्कृत टीका, बन्धविभगी। समय-वि.श. किया था। इसीसे इनको तथा इनके संघ को नन्दि की संज्ञा प्राप्त
११ का पूर्वाध (लगभग ई.६८१)। (जै./१/३६३)। २. क्षपणसार के हो गई थी। नन्दिसंघ की पट्टावली में आपका नाम क्योंकि भद्र
कर्ता । समय-प्रन्थ रचनाकाल वि. १२६० (ई. १२१३) । (जै // बाहु तथा गुप्तिगुप्त (अदिलि) को नमस्कार करने के पश्चात् सबसे
४४१) (ती/३/२६१) । पहले आता है और वहां क्योंकि आपका पट्टकाल वी, नि. ५७५ से प्रारम्भ किया गया है, इसलिये अनुमान होता है कि उक्त घटना
माधव सिह-जयपुरके राजा। समय-वि. १८११.१८२४ (ई० . इसी काल में घटी थी और उसी समय आ अर्ह वलि के द्वारा
१७५४-१७६७), (मा. मा प्र./प्र. २६/६, परमानन्द)। स्थापित इस सघ का आध पट आपको प्राप्त हुआ था। यद्यपि माधवसेन-माथुर संघकी गुर्वावलोके अनुसार आप नेमिषेणके नन्दिसघ की पट्टावली में आपकी उत्तरावधि केवल ४ वर्ष पश्चात् शिष्य तथा श्रावकाचारके कर्ता अमितगतिके गुरु थे। समय-~-वि० बी. नि. ५७६ बताई गई है, तदपि क्योंकि मूलसघ की पट्टावली के १०२०-१०६४ (ई०६६३-२००७)-दे० इतिहास/७/११ । (अमितगति अनुसार वह ६१४ है इसलिये आपका काल वी नि ५७५ से ६१४ श्रावकाचारकी प्रशस्ति ); (यो, सा/अमितगति/प्र २/पं. गजाधर सिद्ध होता है। (विशेष दे. कोष परिशिष्ट २/६) । २. नन्दिसंघ लाल)। के देशीयगण की गुर्वावलो के अनुसार आप कुल चन्द्र के शिष्य तथा
माधवाचार्य-सायणाचार्यका अपर नाम-दे० सायणाचार्य। माधनन्दि विद्यदेव तथा देवकीति के गुरु थे। 'कोलापुरीय' आपकी उपाधि थी। समय-वि. श. १०३०-१०५८ (ई ११०८
माध्यदिन-एक अज्ञानवादी-दे० अज्ञानवाद । ११३६)-(दे. इतिहास ७/५)। ३ शास्त्रसार समुच्चय के कर्ता। माध्यमिक-एक बौद्ध सम्प्रदाय-दे० बौद्धदर्शन। माधनन्दि न. ४ (वि. १३१७) के दादा गुरु। समय-ई श १२ का
माध्यस्थ्यअन्त । (जै /२/२०१६)।४ माघनन्दि न ३ के प्रशिष्य और कुमुद
स.सि./७/११/३४६/८ रागद्वेषपूर्वकपक्षपाताभावो माध्यस्थ्यम् ।-रागचन्द्र के शिष्य । कृति-शास्त्रसार समुच्चय की कन्नड टीका। समय-वि.१३१७ (ई. १२६०) । (जै /२/३६६) । ५. माघनन्दि
द्वेषपूर्वक पक्षपातका न करना माध्यस्थ्य है। (रा. वा./७/११/४/ कोलहापुरीय के शिष्य (ई. ११३३) । (दे. इति./७/५)।
५३८/२१)।
दे० सामायिक/१ [माध्यस्थ, समता, उपेक्षा, वैराग्य, साम्य, अस्पृह, माघवा-महातम प्रभा (सातवानरक ) काअपरनाम-देनरक/ शुद्धभाव, वीतरागता, चारित्र, धर्म यह सब एकार्थवाचक शब्द
है।..(क्रोधी, पापी, मांसाहारी) व नास्तिक आदि जनोंमें माध्यमाठर-एक अक्रियावाद-दे० अक्रियावादो।
स्थभाव होना उपेक्षा कहलाती है।] माणव-दे० मालव।
माध्व वेदान्त
ई. ा १२-१३ में पूर्ण प्रज्ञ माध्व देव द्वारा इस मतका जन्म हुआ। न्यायमाणिकभद्र-विजया पर्वतका एक कूट और उसका रक्षक देव ।
सुधा व पदार्थ संग्रह इसके मुख्य ग्रन्थ हैं। अनेक तत्त्व माननेके -दे० लोक/७।
कारण भेदवादी हैं। -विशेष दे० वेदान्त/६ । माणिक्यनन्दि-१, नन्दिसघ बलात्कारगगकी गुर्वावलीके अनु
मानसार आप रत्ननन्दिके शिष्य तथा मेघचन्द्र के गुरु थे। समय-विक्रम शक, सं.५८५-६०१ (ई०६६३-६७६),-दे० इतिहास/७/२ । २. १. अभिमानके अर्थमें नन्दिसंघ देशीयगणकी गुर्वावलीके अनुसार आप बालनन्दि(राम
रा. वा.////७४/३० जात्याद्य रसेकावष्टम्भाव परा प्रणतिर्मान-शैलनन्दि के शिष्य तथा प्रभाधन्दके गुरु थे। कृति-परीक्षामुख ।
स्तम्भास्थिदारुलतासमानश्चतुर्विधः । = जाति आदि आठ मदोंसे समय-वि०६४६-१७१ (ई०१००३-१०२८)-दे० इतिहास/७/५ ।। (दे० मद ) दूसरेके प्रति नमनेकी वृत्ति न होना मान है। वह पाषाण,
(ती/३१४३) हड्डी, लकड़ी और लताके भेदसे चार प्रकारका है।-दे० कषाय ।३। मातंग-१ पद्मप्रभु व पार्श्वनाथ भगवान्का शासक यक्ष-दे० तीर्थ
ध, २४१,१,१११११/३४६/७ रोषेण विद्यातपोजात्यादिमदेन वान्यस्यानकर १/३ १२. राजा विनमिका पुत्र जिससे मातंगवंशकी उत्पत्ति
वनति रोषसे अथवा विद्या तप और जाति आदिके मदसे (दे० हुई-दे० इतिहास
मद ) दूसरेके तिरस्काररूप भावको मान कहते है।
ध ६/१,६-१,२३/४१/४ मानो गर्वः स्तब्धमित्येकोऽर्थ । मान, गर्व, मातंगवंश-दे० इतिहास१०।। ।
और स्तब्धत्व ये एकार्थवाची है। मातृकायंत्र-दे० यंत्र।
ध. १३/४,२,८,८/२८३/६ विज्ञानैश्वर्यजातिकुलतपोविद्याजनितो जीव
परिणाम' औद्धत्यात्मको मान-विज्ञान, ऐश्वर्य, जाति, कुल, तप मात्सयं-स सि./६/१०/३२७/१२ कुतश्चित्कारणाद् भावितमपि और विद्या इनके निमित्तसे उत्पन्न उद्धतता रूप जीवका परिणाम विज्ञानं दानामपि यतो न दीयते तन्मात्सर्यम् । -- विज्ञानका मान कहलाता है।
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मानतुंग
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सि./१९२ कविरवेन सकलजनपूज्यतया कुलजातिविशुछपा था निरुपममलेन च सपदिभिसासन अथवा भि सप्तभिर्वा... वपुर्लावण्यरसविसरेन वा आत्माहंकारो मान । कविश्व कौशल के कारण समस्वनो द्वारा पूजनीयपसे, कुतजातिको विशुद्विसे, निरुपम बलसे, सम्मत्तिको वृद्धिके विलाससे. सात ऋद्धियों से, अथवा शरीर लावण्यरस के विस्तारसे होनेवाला जो आत्म- अहंकार वह मान है ।
२. प्रमाण या मापके अर्थ में
घ. १२/४.२,८१०/२०५/६ मार्ग प्रस्थादिः होनाधिकभावमापन्नः । -हीनता अधिकताको प्राप्त प्रस्थादि मान कहलाते है। न्या. वि. //१/११६/४२६/१ मान सोलन-मान अर्थाद तोल या माप ।
* अम्य सम्बन्धित विषय
१. मान सम्बन्धी विषय विस्तार
२. जीवको मानी कहनेकी विवक्षा
३. आहारका एक दोष
४. वसलिकाका एक दोष
५. आठ मद ।
६. मान प्रमाण व उसके भेदाभेद ७. मानकी अनिता
२९५
-दे० कषाय । - दे० जीव / १/३१
- दे० आहार / II / ४ /४/ - दे० वसतिका । - दे० मद । - दे० प्रमाण / ५।
- ३० वर्ग व्यवस्था // 4
पुत्र
थे
मानतुरंग - काशीमासी धनदेव ब्राह्मण के पहले स्वेताम्बर साधु थे, पीछे दिगम्बरी दीक्षा धारण कर ली दोनों ही आम्नायों में सम्मानित है। राजा द्वारा ४८ तालों में बन्द किये जाने की कथा इनके विषय में प्रसिद्ध है। कृति-भक्तामर स्तोत्र । समय - राजा हर्ष (ई ६०८) के समकालीन होने से तथा बा, सिद्धसेन (वि ६२५) कुठ कम्याण मन्दिर स्तोत्र से प्रभावित होने से लगभग वि. ६७५ (ई. ६१८) । (eft./9/945, 2008)|
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मानव १. एक ग्रह दे० ग्रार्धकी उत्तरप्रेमीका एक नगर-३० विद्याधर । २. चक्रवर्तीकी नवनिधियों नेसे एक दे० शलाकापुरुष/४ जीवको मानव कहनेकी विवक्षा दे० जी// ३ / ५।
मानव योजना क्षेत्रका एक प्रमाण दे० गणित/1/९/३ मानवतिक - भरतक्षेत्र में पूर्व आर्यखण्डका एक देश - दे० मनुष्य / ४ ॥ मानवी - एक मिद्याचै० निया ।
-
मानस - विजयार्थकी दक्षिण श्रेणीका एक नगर दे० विद्यार मानस. १३/५२.३/१२/१० मम्मि भने लिगं माणसं, अधवा मणो चैव माणसो । मनमें उत्पन्न हुए चिह्नको मानस कहते है अथवा मनकी ही संज्ञा मानस है। I
मानसरोवर - भरतक्षेत्र में मध्य आर्यखण्डकी एक नदी - दे० मनुष्य / ४ ।
मानसाहार - ३० आहार //१
मानसिक दुःख दे० दु.ख । मानसी *१. भगवान् शान्तिनाथको शासिका यक्षिणी-दे० तीर्थ२/५/३२. एक विद्यादे० निया
मानुषोत्तर
मानस्तंभ - वि. १/४/गा का भावार्थ
१. समवशरण की मानस्तम्भ भूमियो के अभ्यन्तर भाग में कोट होते है । ७६२ । जिनके भीतर अनेकों वनखण्ड देवोके क्रीड़ा नगर, वन, वापियाँ आदि शोभित है । ७६३-७६५। उनके अभ्यन्तर भागमें पुन कोट होते है, जिनके मध्य एकके ऊपर एक तीन पीठ है।७६०-७० प्रथम पीठकी ऊँचाई भगवान् ऋषभदेव के समयवारण में ॐ धनुष इसके आगे नाम पर्यन्त प्रत्येक में १/२ धनुषकी हानि होती गयी है। पार्श्वनाथके समवशरणमें इसकी ऊँचाई ५/६ धनुष और वर्धमान भगवान् के समवशरण में से धनुष है। द्वितीय व तृतीय पीठोकी ऊँचाई समान होती हुई सर्वत्र प्रथम पीठसे आधी ६० तीनों पीठोंकी चारों दिशाओं में सीडियों है। प्रथम पीठपर आठ-आठ और शेष दोनो पर चार-चार है । ७७१। तृतीय पीठका विस्तार धनुषसे प्रारम्भ होकर आगे प्रत्येक तीर्थ में 34 कम होता गया, पार्श्वनाथ के समवशरण में ३५ और वर्धमान भगवाद के समवशरण में धनुषा ३७०४ २. तृतीय पीठपर मानस्तम्भ होते हैं। जिनकी ऊचाई अपने-अपने तीर्थंकरकी ऊंचाई १२ गुणी होती है। भगवान् उपभनाथ के समवशरण मे मानस्तम्भका बाहल्य २३६५२ धनुष प्रमाण था । पीछे प्रति तीर्थंकर ११८ धनुष कम होते-होते भगवा पार्श्वनाथ के मानस्तम्भका बाहल्य २३५ धनुष प्रमाण था और भगवान् वर्द्धमान के मानस्तम्भका ४६६ धनुष प्रमाण था । ७७६-७७७। सभी मानस्तम्भ मूल भागमें वज्रद्वारों से युक्त होते हैं और मध्यभागमें वृत्ताकार होते है । [७७८-७७६। ऊपरसे ये चारो ओर चमर, घण्टा आदिसे विभूषित तथा प्रत्येक दिशामें एक-एक जिन प्रतिमासे युक्त होते है १७८०-७८१। इनके तीन-तीन कोट होते है। कोटो के बाहर चारों दिशाओं में बीवियों व ग्रह होते है जो कमतो व कुण्डो से शोभित होते है ।७८२-७६११ ( इसका नकशा - दे० समवशरण ) । नोट - ३. [ मानस्तम्भके अतिरिक्त सर्व ही प्रकारके देवोके भवनो में तथा अकृत्रिम चैत्यालयों में भी उपरोक्त प्रकार ही मानस्तम्भ होते है हाँ भवनवासियोंके भवनोंके लिए (दे० त्रि. सा. / २१६) व्यन्तर देवोके भवनो के लिए - दे० त्रि सा / २५५३ अकृत्रिम लिए दे० त्रि. सा./ १००३ १०१२] ।
-
•
१. मानस्तम्भ नामकी सार्थकता
•
ति १/४/०८२ महासयमिच्छा वि दुरो समेत संभाज होति गतिमाणा माणत्वं ति भणिदं ७८२ कि दूरसे ही मानस्तम्भोके देखने से मानसे युक्त मिथ्यादृष्टि लोग अभिमानसे रहित हो जाते हैं, इस लिए इनको मानस्तम्भ कहा गया है।
मानुष - १. मानुषोत्तर पर्वतके रजतकूटका रक्षक एक भवनवासी देव - लोक ५/१० १ २. एक यक्ष- दे० यक्ष ।
मानुषोत्तर-मध्यलोक पुष्कर द्वीप के मध्य स्थित एक कुण्डाकार
पर्व-३० लोक/४/४ स.सि./३/३६/२२८/१० पुष्करद्वीपमध्यभागी महतो मानुषीचरो नाम शैल' । तस्यात्प्रागेव मनुष्या न बहिरिति । ततो न बहि. पूर्वोक्तविभागोऽस्ति यतोऽस्यान्वर्थसंज्ञा पुष्कर द्वीप के ठीक मध्य में चूडीके समान गोल मानुषोत्तर नामका पर्व है। उसके पहले-पहले ही मनुष्य हैं, उसके बाहर नही ( क्योंकि उसको उल्लंघन करनेकी शक्ति मनुष्यों में नहीं है--(दे० मनुष्य / ४ / २) इसलिए इस पर्वतका मानुषोत्तर यह नाम सार्थक है (रा./१/१५ /१६७/३० ) ।
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मान्यखेट
मार्गणा
मान्यखेट-निजाम हैदराबाद राज्यके अन्तर्गत शोलापुरसे १० मील दक्षिण पूर्व में स्थित वर्तमानका मलखेडा ग्राम (क पा.१/प्र.७३/प.महेन्द्र)। मापिकी-Mensuration (ज.प्र./प्र. १०८ ) । माय-स्व. स्तोत्र/टी./१४१/२६७ माय' प्रमाण केवलज्ञानलक्षणं
आगमस्वरूप वा। -माय अर्थात् प्रमाण जिसका लक्षण केवलज्ञान
या आगमस्वरूप है। मायास. सि./4/१६/३३४/२ आत्मन' कुटिलभावो माया निकृति । -आत्मा
का कुटिल भाव माया है। इसका दूसरा नाम निकृति ( या वचना) है। (स. सि/७/१०/३५६/८), (रा. वा/६/१६/१/५२६/६,७/१८/२/५४५/१४ ); (ध, १/१,१,१११/३४६/७); (ध १,६-१,२३/४१/४)। रा. वा./८/8/1/५७४/३१ परातिसंधानतयोपहितकौटिव्यप्राय' प्रणिधिर्माया प्रत्यासन्नवंशपर्वोपचितमूलमेषश ग-गोमूत्रिकाऽवलेखनीसदृशी चतुर्विधा। -दूसरेको ठगनेके लिए जो कुटिलता या छल आदि किये जाते है वह माया है। यह बाँसको गठीली जड़, मेढेका सींग, गायके मूत्रकी वक्र रेखा और लेखनीके समान चार प्रकार
की है। (और भी दे० कषाय/३)। घ, १२/४,२,८,८/२८३/७ स्वहृदयप्रच्छादार्थमनुष्ठानं माया । - अपने हृदयके विचारको छपानेकी जो चेष्टा की जाती है उसे माया
कहते है। नि सा/ता वृ/११२ गुप्तपापतो माया। -- गुप्त पापसे माया होती है। द्र. स./टो /४२/१८३/६ रागात् परकलत्रादिवाञ्छारूपं, द्वेषात परबध
बन्धच्छेदादिवाञ्छारूप च मदीयापध्यानं कोऽपि न जानातीति मत्वा स्वशुद्धात्मभावनासमुत्पन्नसदानन्दै कलक्षणमुखामृतरसनिर्मलजलेन चित्त शुद्धिमकुर्वाण' सन्नयं जीवो बहिरङ्गबकवेशेन यल्लोकरञ्जना करोति तन्मायाशक्य भण्यते । -रागके उदयसे परस्त्री आदिमें बान्छारूप और द्वेषसे अन्य जीवों के मारने, बॉधने अथवा छेदनेरूप जो मेरा दुान बुरा परिणाम है, उसको कोई भी नहीं जानता है, ऐसा मानकर निज शुद्धात्म भावनासे उत्पन्न, निरन्तर आनन्दरूप एक लक्षणका धारक जो सुख-अमृतरसरूपी निर्मल जलसे अपने चित्तकी शुद्धिको न करता हुआ, यह जीव बाहरमें बगुले जैसे वेषको धारण कर जो लोकोको प्रसन्न करता है वह मायाशल्य कहलाती है।
२. मायाके भेद व उनके लक्षण भ. आ./वि./२५/१०/३ माया पञ्च विकल्पा-निकृति , उपाधि, साति- प्रयोगः प्रणिधि.. प्रतिकचन मिति । अतिसधानकुशलता धने कार्ये वा कृताभिलाषस्य वञ्चना निकृति. उच्यते। सद्भाव प्रच्छाद्य धर्मव्याजेन स्तन्यादिदोषे प्रवृत्तिरुपधिस ज्ञिता माया । अर्थेषु विसवाद. स्वहस्तनिक्षिप्तद्रव्यापहरण, दूषणं, प्रशसा, बा सातिप्रयोग । प्रतिरूपद्रव्यमानकरणानि, ऊनातिरिक्तमान, सयोजनया द्रव्यविनाशनमिति प्रणिधिमाया। आलोचनं कुर्वतो दोषविनिगूहन प्रतिकुञ्चनमाया। -मायाके पाँच प्रकार है-निकृति, उपधि, सातिप्रयोग, प्रणिधि और प्रतिकुंचन । धनके विषयमें अथवा किसी कार्यके विषयमें जिसको अभिलाषा उत्पन्न हुई है, ऐसे मनुष्य का जो फंसानेका चातुर्य उसको, निकृति कहते है। अच्छे परिणामक ढक्कर धर्म के निमित्तसे चोरी आदि दोषोमें प्रवृत्ति वरना उपधि सज्ञक माया है। धनके विषयमें असत्य बोलना, किसीकी धरोहरका कुछ भाग हरण कर लेना, दूषण लगाना अथवा प्रशमा करना सातिप्रयोग माया है। हीनाधिक कीमतकी सदृश वस्तुएँ आपसमे मिलाना, तोल और मापके सेर, पसेरी वगैरह
साधन पदार्थ क' -ज्यादा रखकर लेन-देन करना, सच्चे और झूठे पदार्थ आपसमे मिलाना, यह सब प्रणिधि माया है। आलोचना करते समय अपने दोष छिपाना यह प्रतिकुचन माया है। * अन्य सम्बन्धित विषय १. माया कषाय सम्बन्धित विषय ।
--दे० कषाय। २. आहारका एक दोष ।
-दे० आहार/II/४/४| ३. वसतिकाका एक दोष ।
-दे० वसतिका। ४. जीवको मायी कहनेकी विवक्षा। दे० जीव/१/३। ५. मायाकी अनिष्टता।
-दे० आयु/३/५। माया क्रिया-दे० क्रिया/३/२। मायागता चूलिका-दे० श्रुतज्ञान/IIII मायावाद-दे. वेदान्त ।। मायूरी-एक विद्याधर विद्या-दे० विद्या। मार-चौथे नरकका द्वितीय पटले-दे० नरक/५/११ । मारणान्तिक समुद्घात-दे० मरण/ 1 मारसिंह-आप गंगवशीय राजा राजमलके पूर्वाधिकारी थे और
आचार्य अजितसेनके शिष्य थे। राजा राजमल के अनुसार आपका समय-वि. सं. १०२०-१०४० (ई. १६३-६८३) आता है। मारोच-प. पु./०८/८१/८२--रावणका मन्त्री था। रावणको युद्धसे
रोकनेके लिए इसने बहुत प्रयत्न किया और रावणकी मृत्युके पश्चात दीक्षा धारण कर ली। मारुती धारणा-दे० वायु । माग-ध, १३/५,६,१०/२८७/६ मृग्यतेऽनेनेति मार्ग' पन्था'। स
पञ्चविध'--नरगतिमार्ग , तिर्यग्गतिमार्ग' मनुष्यगतिमार्ग', देवगतिमार्गः, मोक्षगतिमार्गश्चेति । तत्र एकैको मार्गोऽनेकविध कृमिकीटादिभेदभिन्नत्वात् ।-जिसके द्वारा मार्गण किया जाता है वह मार्ग अर्थात पथ कहलाता है। वह पॉच प्रकारका है--नरकगतिमार्ग, तियंचगतिमार्ग, मनुष्यगतिमार्ग, देवगतिमार्ग और मोक्षगतिमार्ग। उनमें से एक एक मार्ग कृमि व कीट आदि के भेदसे अनेक प्रकारका है । * उत्सर्ग व अपवाद मागे-दे० अपवाद ।
* मोक्षमार्ग-दे० मोक्षमार्ग । मागंणादे. ऊहा-ईहा. ऊहा. अपोहा. मार्गणा. गवेषणा और मोमासा ये ___ एकार्थवाचक नाम है। प. सं/प्रा /१/५६ जाहि व जासु व जीवा मग्गिजंते जहा तहा दिट्ठा । ताओ चोद्दस जाणे सुदणाणेण मग्गणाओ त्ति । - जिन-प्रवचनदष्ट जीव जिन भावोके द्वारा अथवा जिन पर्यायोमें अनुमार्गण क्येि जाते है अर्थात् खोजे जाते है, उन्हे मार्गणा कहते है। जीवोका अन्वेषण करनेवाली ऐसी मार्गणाएँ श्रुतज्ञान में १४ कही गयी है । (ध. १/१,१, ४/गा ८३/१३२), (गो जी././१४१/३५४)। ध १/१,१,२/१३१/३ चतुर्दशाना जीवस्थानाना चतुर्दशगुणस्थानामित्यर्थः। तेषा मार्गणा गवेषणमन्वेषणमित्यर्थ । चतुर्दश जीवसमासा' सदादिविशिष्टा' मार्यन्तेऽस्मिन्ननेन वेति मार्गणा । चौदह जीव समासोसे यहाँ पर चौदह गुणस्थान विवक्षित है। मार्गणा गवेषणा और अन्वेषण ये तीनो शब्द एकार्थवाची है। सत् संख्या आदि अनुयागद्वारोसे युक्त चौदह जीवसमास जिसमें या जिसके द्वारा खोजे जाते है, उसे मार्गणा कहते है। (ध ७/२,१,३/७/८)।
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मार्गणा
उनका प्रत्यक्ष नही हो सकता है। और भी दे० गतिमार्गणामे भावगति इष्ट है-दे० गति/२/५. इन्द्रियमार्गणामें भावइन्द्रिय इष्ट हैदे० इन्द्रिय/३/१; वेद मार्गणामें भाव वेद इष्ट है-दे० वेद/२; संयम मार्गणामें भाव स यम इष्ट है-दे० चारित्र/३/८ । सयतासंयत/२; लेश्यामार्गणामें भावलेश्या इष्ट है-दे० लेश्या/४ ।
मार्गणा ध. १३/५,५.५०/२८२/८ गतिषु मार्गणास्थानेषु चतुर्दशगुणस्थानोपलक्षिता जीवा मृग्यन्ते अन्विष्यन्ते अनया इति गतिषु मार्गणता श्रुतिः = गतियोमे अर्थात मार्गणास्थानोमें (दे० आगे मार्गणाके भेद ) चौदह गुणस्थानोसे उपलक्षित जीव जिसके द्वारा खोजे जाते है, वह गतियों में मार्गणता नामक श्रुति है। दे, आदेश/१( आदेश या विस्तारसे प्ररूपणा करना मार्गणा है )।
२. चौदह मार्गणास्थानोंके नाम १. ख ११/१,१/सू. ४/१३२ गइ इंदिए कार जोगे वेदे कसाए णाणे संजमे दसणे लेस्साए भविय सम्मत्त सण्णि आहारए चेदि ।२। गति, इन्द्रिय, काय, योग, वेद, कषाय, ज्ञान, संयम, दर्शन, लेश्या, भव्य, सम्यक्त्व, संज्ञी और आहारक, ये चौदह मार्गणास्थान है। (ष. खं. ७/२,१/मू.२/६); (बो. पा./मू./३३); (मू. आ./११६७), (पं. सं./ग्रा./१/५७); (रा. वा./8/७/११/६०३/२६); (गो जी./मू./ १४२/३५५), ( स. सा./आ./५३); (नि. सा./ता. वृ./४२); (द्र.सं./ टी./१३/३७/१ पर उद्धृत गाथा)।
३. सान्तर मार्गणा निर्देश एक मार्गणाको छोडनेके पश्चात पुन' उसीमें लौटनेके लिए कुछ कालका
अन्तर पड़ता हो तब वह मार्गणा सान्तर कहलाती है। वे आठ है। पं.सं./प्रा./१/५८ मणुया य अपज्जत्ता वेउत्रियमिस्सहारया दोणि । महमो सासाणमिस्सी उवसमसम्मो य संतराअट्ठ - अपर्याप्त मनुष्य, वैक्रियकमिश्र योग, दोनों आहारक योग, सूक्ष्मसाम्परायसंयम,सासादन सम्यग्मिथ्यात्व, और उपशमसम्यवत्व ये आठ सान्तर मार्गणा होती हैं।
६. सब मार्गणा व गुणस्थानों में आयके अनुसार ही
व्यय होता है ध.४/१, ३,७८/१३३/४ सव्वगुणमग्गणट्ठाणेसु आयाणुसारि वओवसंभादो । जेण एईदिएसु आओ संखेज्जो तेण तेसिं वएण वितत्तिएण चेव होदन्न । तदो सिद्धं सादियबंधगा पलिदोवमस्स अस खेजदि भागमेत्ता ति। -क्योकि सभी गुणस्थान और मार्गणास्थानोमें आयके अनुसार ही व्यय पाया जाता है, और एकेन्द्रियोंमें आयका प्रमाण संख्यात ही है, इसलिए उनका व्यय भी संख्यात ही होना चाहिए। इसलिए सिद्ध हुआ कि सराशिमें सादिबन्धक जीव पज्योपमके असंख्यातवें भागमात्र ही होते है। ध. १५/२६२/४ केण कारणेण भुजगार-अप्पदरउदीरयाणं तुल्लत्तं उच्चदे।
जत्तिया मिच्छत्तादो सम्मामिच्छत्तं गच्छति तत्तिया चेव सम्मामिच्छतादो मिच्छत्तं गच्छति । जत्तिया सम्मत्तादो सम्मामिच्छत्तं गच्छति तत्तिया चेव सम्मामिच्छत्तादो सम्मत्त गच्छति । -प्रश्न-भुजगार व अल्पतर उदीरकोकी समानता किस कारणसे कही जाती है ? उत्तर-जितने जीव मिथ्यात्मसे सम्यग्मिथ्यात्वको प्राप्त होते है. उतने ही जीव सम्यग्मिथ्यात्वसे मिथ्यात्वको प्राप्त होते हैं। जितने जीव सम्यक्त्वसे सम्यग्मिथ्यात्वको प्राप्त होते है उतने ही सम्यग्मिथ्यात्वसे सम्यक्त्व को प्राप्त होते है (इस कारण उनकी समानता है)। दे. मोक्ष/२ जितने जीव मोक्ष जाते है, उतने ही निगोदसे निकलते
७.मार्गणा प्रकरणमें प्रतिपक्षी स्थानोंका भी ग्रहण क्यों
४. मागेणा प्रकरणके चार अधिकार ध.१/१,१,४/१३३/४ अथ स्याज्जगति चतुभिर्गिणा निष्पाद्यमानोपलभ्यते । तद्यथा मृगयिता मृग्यं मार्गणं मार्गणोपाय इति । नात्र ते सन्ति, ततो मार्गणमनुपपन्नमिति। नैष दोषः, तेषामप्यत्रोपलम्भाद: तद्यथा, मृगयिता भव्यपुण्डरीक' तत्त्वार्थश्रद्धालु वः, चतुर्दशगुणस्थानविशिष्टजोवा मृग्य, मृग्यस्याधारतामास्कन्दन्ति मृगयितु करणतामादधानानि वा गत्यादीनि मार्गणम, विनेयोपाध्यायादयो मार्गणोपाय इति । प्रश्न-लोकमें अर्थात् व्यावहारिक पदार्थों का विचार करते समय भी चार प्रकारसे अन्वेषण देखा जाता है-मृगयिता, मृग्य, मार्गण और मार्गणोपाय। परन्तु यहाँ लोकोत्तर पदार्थके विचारमे वे चारो प्रकार तो पाये नहीं जाते है, इसलिए मार्गणाका कथन करना नहीं बन सक्ता है। उत्तर--यह कोई दोष नही है, क्योंकि, इस प्रकरण में भी चारों प्रकार पाये जाते है। वे इस प्रकार है, जीवादि पदार्थों का श्रद्धान करनेवाला भव्य-पुण्डरीक मृगयिताहै, चौदह गुणस्थानोसे युक्त जीव मृग्य है, जो इस मृग्यके आधारभूत है अर्थात् मृगयिताको अन्वेषण करने में अत्यन्त सहायक है ऐसी गति आदि मार्गणा है तथा शिष्य और उपाध्याय आदिक मार्गणाके उपाय है । ( गो. जी./जी. प्र./२/२१/१०)।
ध. १/१,१,११५/३५३/७ ज्ञानानुवादेन कथमज्ञानस्य ज्ञानप्रतिपक्षस्य
संभव इति चेन्न, मिथ्यात्वसमवेतज्ञानस्यैव ज्ञानकार्यकारणादज्ञानव्यपदेशात पुत्रस्यैव पुत्रकार्याकरणादपुत्रव्यपदेशवत् । ध. १/१.१.१४४/३६५/५ आम्रवनान्तस्थनिम्बानामानवनव्यपदेशवन्मिथ्यात्वादीना सम्यक्त्वव्यपदेशो न्याय । प्रश्न-ज्ञान मार्गणाके अनुवादसे ज्ञानके प्रतिपक्षभूत अज्ञानका ज्ञानमार्गणामें अन्तर्भाव कैसे सभव है । उत्तर-नही, क्योंकि, मिथ्यात्वसहित ज्ञानको ही ज्ञानका कार्य नही करनेसे अज्ञान कहा है । जैसे- पुत्रोचित कार्य को नही करनेवाले पुत्रको ही अपुत्र कहा जाता है । अथवा जिस प्रकार आम्रबनके भीतर रहनेवाले नीमके वृक्षोको आम्रवन यह संज्ञाप्राप्त हो जाती है, उसी प्रकार मिथ्यात्व आदिको सम्यक्त्व यह संज्ञा देना उचित ही है। ध, ४/१,४,१३८/२८७/१० जदि एवं तो एदिस्से मग्गणाए संजमाणवादवबदेसो ण जुज्जदे । ण, अब णिबवण व पाधण्णपदमासेज्ज संजमाणुबाढवबदेसजुत्तीए । प्रश्न-यदि ऐसा है अर्थात् संयम मार्गणामें संयम सयमासंयम और असंयम इन तीनोका ग्रहण होता है तो इस मार्गणाको संयमानुवादका नाम देना युक्त नही है। उत्तरनही, क्योंकि, 'आम्रवन' वा 'निम्बवन' इन नामोके समान प्राधान्यपदका आश्रय लेकर 'सयमानुवादसे' यह व्यपदेश करना युक्तियुक्त हो जाता है।
५. मार्गणा प्रकरणमें सर्वन माव मार्गणा इष्ट हैं ध. १/१,१,२/१३१/६ 'इमानि' इत्यनेन भावमार्गणास्थानानि प्रत्यक्षीभूतानि निर्दिश्यन्ते । नार्थ मार्गणास्थानानि । तेषा देशकालस्वभावविप्रकृष्टानां प्रत्यक्षतानुपपत्ते । - 'इमानि' सूत्रमे आये हुए इस पदसे प्रत्यक्षीभूत भावमार्गणा स्थानोका ग्रहण करना चाहिए। द्रव्यमार्गणाओंका ग्रहण नही किया गया है, क्योकि, द्रव्यमार्गणाएँ देश काल और स्वभावकी अपेक्षा दूरवर्ती है, अतएव अल्पज्ञानियोको
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भा०३-३८
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मार्गप्रभावना
८.२० प्ररूपणाओंका १४ मार्गणाओंमें अन्तर्माव
(ध. २/१, १/४१४/२) ।
सं०
१
२
अन्तर्मान्य
प्ररूपणा
पर्या जीवसमास
प्राणउच्छ्वास
वचनबल
मनोमल
कायबल
आयु इन्द्रिय
संज्ञा
आहार
भय
मैथुन
परिग्रह
उपयोग
साकार
अनाकार
मार्गणा
काय व
इन्द्रिय
काय व
इन्द्रिय
योग
गति
ज्ञान
कषाय मैं
माया व लोभ
क्रोध व मान
वेद मार्गण
लोभ
ज्ञान दर्शन
हेतु
एकेन्द्रिय आदि सूक्ष्म बादर तथा उनके पर्याप्त अपर्याप्त भेदोंका कथन दोनो में समान है।
तीनो प्राण पर्याप्तियो के कार्य है ।
'योग' मन वचन कायके बलरूप है ।
दोनों अविनाभाषी है
इन्द्रिय ज्ञानावरणपशमरूप है।
संज्ञामें राग या द्वेष रूप है । आहार संज्ञा रागरूप है । भय संज्ञा द्वेषरूप है।
संज्ञा स्त्री आदि वेद के तीव्रोदय रूप है।
परिग्रह लोभका कार्य है ।
साकारोपयोग ज्ञानरूप है । अनाकारोपयोग दर्शनरूप है।
* अन्य सम्बन्धित विषय
२. मार्गणाएँ विशेष ।
२. २० प्ररूपणा निर्देश ।
१. १४ मार्गणाओं में २० प्ररूपणाएँ । ४. १४ मार्गणाओंसद संख्या क्षेत्र स्पर्शन काल
अन्तर भाव अल्पबहुत्व ये ८ प्ररूपणाएँ । ५. मार्गणाओंमें कर्मोंका बन्ध उदय सत्त्व ।
- दे० वह वह नाम ।
- दे० प्ररूपणा ।
--दे० सत् ।
दे० वह वह नाम । - दे० वह वह नाम ।
मार्गप्रभावना - दे० प्रभावना । मार्गवाद६- घ. १२/१२.३०/२००/११ एते मार्ग. एतेषामाभासाश्य अनेन कथ्यन्त इति मार्गवाद. सिद्धान्त । ये पाँच प्रकारके मार्ग (दे० मार्ग ) और मार्गाभास जिसके द्वारा कहे जाते है वह सिद्धान्त मार्गवाद कहलाता है ।
मार्ग सम्यक्त्व - दे० सम्यग्दर्शन / I / १ |
मार्गोपसंयत ३० समाचार मार्दव
ना. ब. ०२ कुलरूवजादिबुद्धि
नवसीले गारवं किचि जो अवि
कुदि समणो मद्दधम्म हवे तस्स | ७२ ॥ =जो मनस्वी पुरुष कुल, रूप, जाति, बुद्धि तप, शास्त्र और शीलादिके विषय मे थोडा सा भी घमण्ड नही करता है, उसके मार्दव धर्म होता है । ( स. सि. ६ / ६ / ४९२/२), (रा. १/६/६/२/५१२/२४), (भ. आ. ४१/९५४/ १३); (स. सा./६/१५); (चा. सा /६९/४)।
२९८
मार्दव
मा मृदुवा] भाग मान है।
ससि ६/९/१४/१५ ( रा वा ६/१८/१/५२६ / २३ ) ।
का
मि
२१४ उसमणाजमहाल उस मरकरी अप्पा जो हीलदि मद्दवरयण भवे तस्स | ३६५ == उत्कृष्ट ज्ञानी और उत्कृष्ट तपस्वी होते हुए भी जो मद नहीं करता वह मार्दव रूपी रत्नका घारी है।
२. मार्दव धर्म लोक लाज आदिले निरपेक्ष है।
भ. आ / वि. / ४६ / १५४ / १३ जात्याद्यभिमानाभावो मानदोषानपेक्षश्च कालपाश्रममा जाति आदि के अभिमानका अभाव मार्दव है । लोकभयसे अथवा अपने ऐहिक कार्योंमें वाधा होनेके भय से मान न करना सच्चा मार्दव नहीं है ।
३. मार्दवधर्म पालनार्थ कुछ भावनाएँ
भ.आ./मू./१४२०-१४३० को एक माणो सोप पत्तस्स । उञ्चत्ते य अणिच्चे उवट्ठिदे चाबि णीचत्ते । १४२७ । अधिगेसु बहुसु संतेसु ममादो एत्थको मह माणो । को विभओ वि बहुसो पसे उम्म्म उच्चसे । १४२१ जो अवमानकारणं दो परिहरइ णिच्चमा उत्तो । सो णाम होदि माणी ण गुणचण माणेण । | १४२६ । इह य परतय लोए दोसे बहुगे य आवहदि माणो । इदि अप्पणी गणित्ता माणस्य विणिग्गहं कुज्जा | १४३०| मै इस संसार मे अनन्तबार नीच अवस्थामे उत्पन्न हुआ हूँ। उञ्चत्व व नीचत्व दोनों अनित्य है, अत उच्चता प्राप्त होकर पुनः नष्ट हो जाती है और नीचता प्राप्त हो जाती है । १४२७| मुझसे अधिक कुल आदि विशिष्ट लोग जगत् में भरे पड़े है । अत मेरा अभिमान करना व्यर्थ है । दूसरे ये कुल आदि तो पूर्व कालमें अनेक बार प्राप्त हो चुके है, फिर इनमें आश्चर्य युक्त होना क्या योग्य है ? ११४२८ । जो पुरुष अपमान के कारणभूत दोषोका त्याग करके निर्दोष प्रवृत्ति करता है वही सच्चा मानी है, परन्तु गुण रहित होकर भी मान करनेसे कोई मानी नही कहा जा सकता | १४२६ | इस जन्ममे और पर जन्म में यह मानकषाय बहुत दोषोको उत्पन्न करता है, ऐसा जानकर सत्पुरुष मानका निग्रह करते है | १४३०
पं.वि./१/८७-८८ तद्धार्यते किमुत बोधदृशा समस्तम् । स्वप्नेन्द्रजालसदृशं जगदीक्षमाणे ७| कास्था सद्मनि सुन्दरेऽपि परितो दन्दामानाग्निभि., कायादौ तु जरादिभि प्रतिदिनं गच्छत्यवस्थान्तरम् । होतो दिशमिन स्वद्विवेकले गर्वस्यावर कुतो ऽत्र घटते भावेषु सर्वेष्वपि । ज्ञानमय चक्षु से समस्त जगत्को स्वप्न अथवा इन्द्रजाल के समान देखनेवाले साधुजन क्या उस मार्दव धर्मको नहीं धारण करते है । ८७॥ सब ओरसे अतिशय जलनेवाली अग्नियोसे खण्डहररूप अवस्थाको प्राप्त होनेवाले सुन्दर गृहके समान प्रतिदिन वृद्धत्व आदिके द्वारा दूसरी अवस्थाको प्राप्त होनेवाले शरीरादि बाह्य पदार्थोंमें नित्यताका विश्वास कैसे किया जा सकता है। इस प्रकार सहा विचार करनेवाले साधुके निर्मल विवेकयुक्त हृदयमें जाति, कुल एवं ज्ञान आदि सभी पदार्थोके विषय में अभिमान करने का अवसर कहाँसे हो सकता है ' ८
अन ध / ६ / ६-१६/५७२ हृत्सिन्धुर्विधिशिल्पिकल्पित कुलाद्युत्कर्ष हर्षोमिभि, किर्मीर क्रियता चिराय सुकृतां म्लानिस्तु पुंमानिनाम् । मानस्यात्मभुवाचि कृषचिदपि स्योत्कर्ष संभावनं तयेऽपि विषेशरेयमिति धिग्मानं पुमुत्प्लावनम् || गर्व प्रत्यग्नगकवलिते विश्वदीपे विस्फुरितदुरित दोषमह सोइ मसि इतर जन्तुराप्तेषु भूयो भूयोऽस्यावपि सज्जति हो स्पेरसुमार्ग एव ॥१०॥ जग पैस्मिन्सति विधी काममनिशं स्वतन्त्र न क्वास्मीत्यभिनिविशतेऽह कृतितम' । कुधीर्येनादत्ते किमपि तद
।
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मालव
२९९
यद्रशाचिचर भुङ्क्ते नीचे तिजमनमान ज्वरभरम् | ११ | भद्रं मार्दवज्राययेन नि नपति पुन करोति मानाविनोत्थानाय मनोरथ १२ क्रियेत गर्न संसारे न भूयते नृपोऽपि चेदे कुमियनेये वा भवत् १ ॥ प्राच्याने दयुगीमामय परमगुणग्रामसमृद्धयसिद्धा - नद्वाध्यायन्निरुन्ध्यन्निरुन्ध्यान्म्रदिमपरिणत शिर्मदं दुर्मदारिम् । छेत्तु दौर्गत्यदु ख प्रवरगुरुगिरा सगरे सवतास्तै, क्षेप्तु कर्मारिचक्र सुहृदमिव शितैर्दीपयेद्वाभिमानम् | १४ | माई बानिनि पो मायाक्षिति गत योगाम्बुर्नयमेोऽन्तर्व गर्व पर्वत हता मनोऽवर्णमिवापमानमभितस्तेऽर्क की स्तथा मायातिगरजाद पटि सहस्राणि तार तरसोनन्दनियादिराट् परमर मानवमोचयेव तम्यम्माई यमाप्नुयाद स्वयमिमं चोच्छिद्य तद्वच्छिवम् । १६ । = कर्मोदय जनित कुल आदिके अतिरेककी चित्रविचित्रता के निमित्तमे व्यक्ति अपनेको उत्कृष्ट समझता है, सो पर्थ है, क्योंकि कभी-कभी अपने पुत्रोंके द्वारा भी उसका मान मर्दन कर दिया जाता है || कर्तव्य अकर्तव्य आदिका विवेक नष्ट करके अहंकाररूप अन्धकारको प्राप्त व्यक्ति अभीष्ट मार्गको छोड़कर कुमार्गका आश्रय लेता है |१०| पुण्य कर्मका उदय होनेपर व्यक्ति अत्यन्त अहकार करने लगता है और यह भूल जाता है, कि नीच गतियो आदिमें अपमान पाना इस अहंकारका ही फल है | ११ | मानको समूल नष्ट करनेवाला यह मार्दव धर्म जयवन्त हो । १२ । अरे । साधारण जनकी बात तो दूर रही, राजा भी मरकर पापकर्म के उदयसे विष्टामें कीडा हो जाता है | १३| आत्माका अत्यन्त अपाय करनेवाला यह मान प्रबल शत्रु है, मार्दव धर्मके द्वारा साधुजनोंको सदा इसे नाश करना चाहिए। अथवा यदि मान ही करना है तो अपनी व्रतादिरूप प्रतिज्ञापर करे जिससे कि धर्मके शत्रुओंका सहार हो । १४ मार्चसे गर्व रूप पर्वतका चूर चूर हो जाता है | १५ | अहकार के कारण भरत चक्रवर्तीके पुत्र अर्ककीर्तिको कितना अपमान सहना पडा तथा सगर चक्रवर्ती ६०,००० पुत्रीकी माया मणिकेतु देवने क्षणभर में भस्म कर दी। अत जिस प्रकार भरतराजने बाहुबलि कुमारका मान दूर करने के लिए प्रयत्न किया उसी प्रकार साधुजन भी सदा भव्यजनोंका अहंकार रूप भूत दूर करनेका प्रयत्न करते रहे । १६ ।
1
४. मार्दव धर्मकी महिमा
रा. या /६/६/२०/५११/१२ मार्चबोपेतं गुरवोऽनुगृहन्ति, साधवोऽपि सानामन्यन्ते सतश्च सम्यग्ज्ञानादोन पात्रोभवति तत स्वर्गवर्गाला मसिने मनसि प्रतशीतानि नामन्ति साथवश्चैनं परित्यजन्ति । तन्मूला सर्वा विपद । = मार्दव गुणयुक्त व्यक्तिपर गुरुओका अनुग्रह होता है । साधुजन भी उसे साधु मानते है। गुरुके अनुग्रह सम्यग्ज्ञान आदिकी प्राप्ति होती है और उससे स्वर्गादिसुख मिलते है। मलिन मनमें व्रत शीलादि नहीं ठहरते, साधुजन उसे छोड देते है । तात्पर्य यह कि अहकार समस्त विपदाओकी है। (चा. सा / ६१/२) ।
* दश धर्म-दे० धर्म/
1
मालव भरतक्षेत्र आदेश दे० मनुष्य ४
मालवा - १. भरतक्षेत्र दक्षिण आर्यखण्डका एक देश - दे० मनुष्य / ४२, वर्तमान मालवा प्रान्त सौराष्ट्र के पूर्व में स्थित है। अनम्ती उज्जैन दशपुर (मन्दसौर), धारानगरी (धार), इन्द्रपुर (इन्दौर) आदि इसके प्रसिद्ध नगर है (मपू./प्र ४६ प पन्नालाल ३. मालवा देश के राज्यवश - दे० इतिहास / ३/३ । मालांग — एक प्रकारके कल्पवृक्ष है - दे० वृक्ष / १ मालारोहण -: आहारका एक दोष दे० आहार/11/४/२.
वसतिकाका एक दोष दे० वसतिका |
-
मिथ्याकार
मालिकोद्वहन — कायोत्सर्गका अतिचार - ३० व्युत्सर्ग | १ | माल्य, विजयार्ध की उत्तर श्रेणीका एक नगर दे० विद्याधर | १. २ भरतक्षेत्र पश्चिम खण्डका एक देश-३० मनुष्य माल्यवती - भरतक्षेत्र पूर्वी एक नदी दे० मनुष्य /
माल्यवान् - १. एक गजदन्त पर्वत-दे० लोक / ५ / ३ । २. माल्यवान् गजदन्तका एक कूट व उसका रक्षक देव दे० लोक ५/४३ उत्तरकुरुके १० होनेसे दो- दे० लोक ५/५०४ यदुवंशी अन्धकवृष्णि के पुत्र हिमवालुका पुत्र तथा नेमिनाथ भगवाका चचेरा भाई -३० इतिहास / १०।
माषफल - तोलका एक प्रमाण- दे० गणित / I / १ । माषवती - भरतक्षेत्र मध्य आर्य खण्डकी एक नदी । - दे० मनुष्य / ४ ।
मास - कालका एक प्रमाण -- दे० गणित / I/१/४ | मासैकवासता - भ.आ./ वि /४२१/६२६/७ ऋतुषु षट्सु एकैकमेव मासमेकत्र वसतिरम्यदा विहरति इत्ययं नयम स्थितिय एकत्र चिरकालावस्थाने नित्यमुद्गमदोषं च न परिहर्तुक्षम । क्षेत्रप्रतिबद्धता, सातगुरुता, असस्ता, सौकुमार्य भावना, शतभिक्षाग्राहिता च दोषा । = वसन्तादिक छहो ऋतुओमेंसे एकेक ऋतु में एक मास पर्यन्त एक स्थानमें मुनि निवास करते है और एक मास विहार करते हैं, यह वीं स्थिति कल्प है। एक ही स्थानमें चिरकाल रहनेसे उद्गमादि दोषोंका परिहार नही हो सकता। ग्सतिकापर प्रेम, सुखमें लम्पटता, आलस्य, सुकुमारताकी भावना आदि दोष उत्पन्न हो जाते है। जिनके हाँ पूर्व में आहार लिया था उनके हॉ ही पुनरपि आहार लेना पडता है। इसलिए मुनि एक स्थान में चिरकाल तक नही ठहरते ।
माहियक - भरतक्षेत्र दक्षिण खण्डका एक देश-३० मनुष्य / ४ महेंद्र - १, स्वर्गो में चौथा कल्प — दे० स्वर्ग / ३१ । २. कुण्डल पका एक कूट- दे० लोक /२/१२.
मितसंभाषण - रावा./१६/५/५६४/१८ मितमनर्थ कबहु प्रलपनरहितम् । अनर्थक बहुप्रलाप रहित वचन मित है। (चा. सा./६७/१) । मित्र - ६० संगति । २ सौधर्म स्वर्गका ३० वॉ पटल । -२० स्वर्ग/५ । मित्रक
१.
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शिवकोटि आचार्य के
-पुन्नाटसघ की गुर्वावलीके अनुसार आप बलदेवके शिष्य तथा सिंहबल के गुरु थे- दे० इतिहास ७/८ । मित्रनंदि- १. भगवती आराधना के कर्ता गुरु थे। समय-ई वा १ का पूर्व चतुर्थांश (भज./म. २-३/प्रेमीकी) २.म. / ५६ / श्लोक नं. भरत क्षेत्रके पश्चिम विदेह क्षेत्र में यह एक राजा था ।६३॥ दीक्षा धारण कर अनुत्तर विमान में देव हुआ ॥७०॥ मित्रवीर पुन्नाटसंघकी गुर्वावली के अनुसार आप मन्दरार्य के शिष्य तथा मलके गुरु थे। समय नि. २६० (ई.६२)
- दे० इतिहास / ७ / ८
मिथिला - विदेह देश में स्थित दरभंगा जिला ( म पु . / प्र ५०/
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पं. पन्नालाल ) ।
मिथ्या अनेकान्त - दे० अनेक. न्त / १ ।
।
मिथ्या एकांत-दे० एन्ट/१ मिथ्याकार-दे० समाचार |
जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश
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मिथ्या ज्ञान
मिथ्यादर्शन
३००
मिथ्या ज्ञान-दे०ज्ञान/III मिथ्यात्व-दे० मिथ्यादर्शन । मिथ्यात्व कर्म-दे० मोहनीय । मिथ्यात्वक्रिया-दे० क्रिया/३/२ । मिथ्यादर्शन-स्वात्म तत्वसे अपरिचित लौकिक जन शरीर,
धन, पुत्र, स्त्री आदिमें ही स्व व मेरापना तथा इष्टानिष्टपना मानता है, और तदनुसार ही प्रवृनि करता है। इसीलिए उसके अभिप्राय या रुचिको मिथ्यादर्शन कहते हैं। गृहीत, अगृहीत, एकान्त, सशय, अज्ञान आदिके भेदसे वह अनेक प्रकारका है। इनमें साम्प्रदायिकता गृहीत मिथ्यात्व है और पक्षपात एकान्त मिथ्यात्व । सब भेदोमे ये दोनो ही अत्यन्त घातक व प्रबल है।
1. मिथ्या दर्शन सामान्यका लक्षण
१. तत्त्व विषयक विपरीत अभिनिवेश भ. आ /मू /५६/१८० त मिच्छत्तं जमसदहणं तञ्चाण होइ अस्थाणं । --जीवादि पदार्थोंका श्रद्धान न करना मिथ्यादर्शन है। (पं. सं./
प्रा./२/७), (ध १/१,९,१०/गा. १०७/१६३ )। १. सि./२/६/११६/७ मिथ्यादर्शनकर्मण उदयात्तत्त्वार्थाश्रद्धानपरिणामो मिध्यादर्शनम् । = मिथ्यात्वकर्मके उदयसे जो तत्त्वोका अश्रद्धान रूप परिणाम होता है वह मिथ्यादर्शन है। (रा. वा/२/६/४/१०६/५); (गो जी./मू १५/३६); (और भो दे० मिथ्यादृष्टि/१) । स. वि /मूलवृत्ति/४/११/२७०/११ जीवादितत्त्वार्थाश्रद्धानं मिथ्यादर्शनम् । जीवे तावन्नास्तिक्यम् अन्यत्र जीवाभिमानश्च, मिथ्यादृष्टे. द्वैविध्यानतिक्रमात विप्रतिपत्तिरप्रतिपत्तिर्वेति । =जीवादि तत्त्वोंमें अश्रद्धान होना मिथ्यादर्शन है। वह दो प्रकारका है-जीवके नास्तिक्य भावरूप और अन्य पदार्थ में जीवके अभिमान रूप। क्योकि, मिथ्यादृष्टि दो प्रकारको ही हो सकती है। या तो विप
रीत ज्ञानरूप होगी और या अज्ञान रूप होगी। न. च. वृ/३०३-३०५ मिच्छत्त पुण दुविह मृढत्तं तह सहावणिरवेक्व । तस्सोदयेण जीवो विवरीद गेहणए तच्च ।३०३। अस्थित्तं णो मण्णदि णत्यिसहावस्स जो हु सावेरखं । जत्थी विय तह दवे मूढो मूढो दु सवत्थ ।३०४। मूढो विय मुदहे, सहावणिरवेवखरूवदो होदि । अलहंतो खवणादी मिच्छापयडी खलु उदये ॥३०॥ -मिथ्यात्व दो प्रकारका है-मूढत्व और स्वभाव निरपेक्ष । उसके उदयसे जीव तत्त्वोको विपरीत रूपसे ग्रहण करता है ।३०३। जो नास्तित्वसे सापेक्ष अस्तित्वको अथवा अस्तित्वसे सापेक्ष नास्तित्वको नही मानता है वह द्रव्य मूढ होनेके कारण सर्वत्र मूढ है ।३०४। तथा श्रुतके हेतुसे होनेवाला मिथ्यात्व स्वभाव निरपेक्ष होता है। मिथ्या प्रकृतियोके उदयके कारण वह क्षपण आदि भावोको प्राप्त नही होता है ।३०॥ ने. सा./ता. वृ./६१ भगवदह त्परमेश्वरमार्गप्रतिकूलमार्गाभासमार्गश्रद्धानं मिथ्यादर्शन । -भगवान् अर्हन्त परमेश्वरके मार्गसे प्रतिकूल मार्गाभासमें मार्गका श्रद्धान मिथ्यादर्शन है। स्या, मं /३२/३४१/२३ पर उद्धृत हेमचन्द्रकृत योगशास्त्रका श्लोक
नं.२-"अदेव देवबुद्धिर्या गुरुधीरगुरौ च या। अधर्मे धर्मबुद्धिश्च मिथ्यात्वं तद्विपर्ययात। -अदेवको देव, अगुरुको गुरु और अधर्मको धर्म मानना मिथ्यात्व है, क्योंकि वह विपरीत रूप है। (प. ध/उ./१०५१)। स. सा./ता, बृ /८८/१४४/१० विपरीताभिनिवेशोपयोगविकाररूप शुद्धजोवादिपदार्थ विषये विपरीतश्रद्धानं मिथ्यात्वमिति। -विप
रीत अभिनिवेशके उपयोग विकाररूप जो शुद्ध जीवादि पदार्थोके विषयमे विपरीत श्रद्धान होता है उसे मिथ्यात्व कहते है । (द्र स./ टो./४८/२०५/६)।
२ शुद्धात्म विमुखता नि, सा./ता. बृ./१ स्वात्मश्रद्धान विमुखत्वमेव मिथ्यादर्शन...।
-निज आत्माके श्रद्वानरूपसे विमुखता मिथ्यादर्शन है। द्र. स /टो /३०/८८/१ अभ्यन्तरे वीतरागनिजात्मतत्त्वानुभूतिरुचिविषये विपरीताभिनिवेशजनकं, बहिर्विषये तु परकीयशुद्धात्मतत्त्वप्रभृतिसमस्तद्रव्येषु विपरीताभिनिवेशोत्पादक च मिथ्यात्वं भण्यते। -- अन्तर गमे वीतराग निजात्मतत्त्व के अनुभवरूप रुचि में विपरीत अभिप्राय उत्पन्न करानेवाला तथा बाहरी विषयमें अन्यके शुद्ध आत्म तत्त्व आदि समस्त द्रव्योमें जो विपरीत अभिप्रायका उत्पन्न करानेवाला है उसे मिथ्यात्व कहते है। द्र स/टी./४२/१८३/१० निरञ्जन निदोषपरमात्मैवोपादेय इति रुचिरूपसम्यक्त्वाद्विलक्षणं मिथ्याशव्य भण्यते । -अपना निरंजन व निर्दोष परमात्मतत्त्व हो उपादेय है, इस प्रकारकी रुचिरूप सम्यक्त्वसे विपरीतको मिथ्या शत्य कहते है।
२. मिथ्यादर्शनके भेद भ. आ./मू./५६/१८० संसइयमभिग्गयिं अणभिग्गहियं च तं तिविह।
= वह मिथ्यात्व संशय, अभिगृहीत और अनभिगृहीतके भेदसे तीन प्रकारका है । (ध. १/१,१,६/गा. १०७/१६३)। बा.अ./४८ एयंतविणयविवरियससयमणाणमिदि हवे पच। मिथ्यात्व पाँच प्रकारका है-एकान्त, विनय, विपरीत, सशय और अज्ञान । (स. सि./८/१/३७५/३), (रा वा /८/१/२८/५६४/१७), (ध ८३, ६/२), (गो. जो./मू/१५/३६); (त. सा./५/३), (द, सा/५), (द्र, स./टी./३०/८१/१ पर उधृत गा.)। स सि./८/१/३७५/१ मिथ्यादर्शनं द्विविधम्, नैसर्गिक परोपदेशपूर्वक
च। परोपदेशनिमित्त चतुर्विधम्, क्रियाक्रियागद्यज्ञानिकवैनयिकविकल्पाव । -मिध्यादर्शन दो प्रकारका है-नैसर्गिक और परोपदेशपूर्वक । परोपदेश-निमित्तक मिथ्यादर्शन चार प्रकारका हैक्रियावादी, अक्रियावादी, अज्ञानी व वैनयिक । (रा वा/८/१/६, ८/५६९/२७)। रा बा./८/१/१२/१६२/१२ त एते मिथ्योपदेशभेदा' त्रीणि शतानि त्रिषष्ट्यत्तराणि । रा. वा/८/१/२०/५६४/१४ एव परोपदेशनिमित्त मिथ्यादर्शन विकल्पा अन्ये च संख्येया योज्या ऊह्या , परिणामविकल्पात असख्येयाश्च भवन्ति, अनन्ताश्च अनुभागभेदात् । यन्नैसर्गिक मिथ्यादर्शन तदप्येकद्वित्रिचतुरिन्द्रियास ज्ञिपञ्चेन्द्रियतिर्यम्लेच्छ शवर पुलिन्दादिपरिग्रहादनेकविधम् । = इस तरह कुल ३६३ मिथ्यामतवाद है। (दे० एकान्त/५)। इस प्रकार परोपदेशनिमित्तक मिथ्यादर्शनके अन्य भी संख्यात विकल्प होते है। इसके परिणामोकी दृष्टिसे असंख्यात और अणुभागकी दृष्टिसे अनन्त भी भेद होते है। नैसगिक मिध्यादर्शन भी एकेन्द्रिय, द्वीन्द्रिय, त्रीन्द्रिय, चतुरिन्द्रिय, असंज्ञी पंचेन्द्रिय, संज्ञी पंचेन्द्रिय, तिर्यच, म्लेच्छ, शवर, पुलिन्द
आदि स्वामियोके भेदसे अनेक प्रकारका है। ध. १/१,१,६/गा १०५ व टोका/१६२/५ जाव दिया बयणवहा ताबदिया
चेव होति णयवादा। जावदिया णयवादा तावदिया चेव परसमया ।१०५॥ इति वचनान्न मिथ्यात्वपञ्चकनियमोऽस्ति किन्तूपलक्षणमात्रमेतदभिहितं पञ्च विधं मिथ्यात्व मिति । - जितने भी बचनमार्ग है उतने ही नयवाद है और जितने नयवाद है उतने ही परसमय होते है। (और भी दे० नय/11५/५), इस वचनके अनुसार मिथ्यात्वके पाँच ही भेद है यह कोई नियम नही समझना चाहिए,
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मिथ्यादर्शन
मिथ्यादृष्टि
बो. पा /पं. जयचन्द/६०/१५२/७ गृहस्थकै महापाप मिथ्यात्वका सेवना
अन्याय ..आदि ये महापाप है। मो. मा.प्र./८/३६३/३ मिथ्यात्व समान अन्य पाप नाही है।
अन्य सम्बन्धित विषय १. मिथ्यादर्शनमें 'दर्शन' शब्दका महत्त्व-दे०सम्यग्दर्शन/I/५/५। २. एकान्तादि पाँचों मिथ्यात्व
-दे० वह वह नाम । ३. मिथ्यादर्शन औदयिक भाव है तथा तत्सम्बन्धी शंका समाधान
-दे० उदय/ह। ४. पुरुषार्थसे मिथ्यात्वका भी क्षणभरमें नाश सम्भव है।
-दे० पुरुषार्थ/२।
किन्तु मिथ्यात्व पाँच प्रकारका है यह कहना उपलक्षण मात्र
समझना चाहिए। न. च वृ./३०३ मिच्छत्त पुण दुविहं मूढत्तं तह सहावणिरवेव। मिथ्यात्व दो प्रकारका है। -मूढ व स्वभाव निरपेक्ष ।
३. गृहीत व अगृहीत मिथ्यात्वके लक्षण स. सि./८/१/३७५/१ तत्रोपदेशमन्तरेण मिथ्यात्वकर्मोदयवशाद् यदाविर्भवति तत्त्वार्थाश्रद्धानलक्षणं तन्नैसर्गिकम् । परोपदेशनिमित्तं चतुर्विधम् । -जो परोपदेशके बिना मिथ्यादर्शन कर्मके उदयसे जीवादि पदार्थोका अश्रद्धानरूप भाव होता है, वह नैसर्गिक मिथ्यादर्शन है। परोपदेश निमित्तक मिथ्यादर्शन चार प्रकारका है। (रा.वा/८/१/७-८/५६१/२६) । भ. आ./वि /५६/१८०/२२ यद्देशाभिमुख्येन गृहीतं स्वीकृतम् अश्रद्धानं अभिगृहीतमुच्यते यदा परस्य वचनं श्रुत्वा जीवादीनां सत्त्वे अनेकान्तात्मकत्वे चोपजातम् अश्रद्धानं अरुचिमिथ्यात्ममिति । परोपदेशं बिनापि मिथ्यात्वोदयादुपजायते यदश्रद्धानं तदनभिगृहीत मिथ्यात्वम् ।- ( जीवादितत्त्व नित्य ही है अथवा अनित्य ही है,
See इत्यादि रूप ) दूसरोका उपदेश सुनकर जीवादिकोंके अस्तित्व में अथवा उनके धर्मों में अश्रद्धा होती है, यह अभिगृहीत मिथ्यात्व है और दूसरेके उपदेशके बिना ही जो अश्रद्धान मिथ्यात्व कर्मके उदयसे हो जाता है वह अनभिगृहीत मिथ्यात्व है। (पं. ध /उ /१०४६१०५०)।
४. मिथ्यात्वकी सिद्धि में हेतु ६. ध उ /१०३३ १०३४ ततो न्यायगतो जन्तोमिथ्याभावो निसर्गतः। दृड्मोहस्योदयादेव वर्त्तते वा प्रवाहवत् ११०३३. कार्य तदुदयस्योच्चैः प्रत्यक्षात्सिद्धमेव यत् । स्वरूपानुपलब्धिः स्यादन्यथा कथमात्मन- ११०३४। इसलिए न्यायानुसार यह बात सिद्ध होती है कि जीवोके मिथ्यात्व स्वभावसे ही दर्शनमोहके उदयसे प्रवाहके समान सदा पाया जाता है ।१०३३। और मिथ्यात्वके उदयका कार्य भी भली भाँति स्वसंवेदन द्वारा प्रत्यक्ष सिद्ध है, क्योकि अन्यथा आत्मस्वरूपकी उपलब्धि जीवोको क्यों न होती ।१०३४॥
५. मिव्यात्व सबसे बड़ा पाप है र, क. श्रा./३४ अश्रेयश्च मिथ्यात्वसमं नान्यत्तनूभृताम् । - शरीरधारी जीवोको मिथ्यात्वके समान अन्य कुछ अकल्याणकारी
मिथ्यावर्शन क्रिया-दे० क्रिया/३/२ । मिथ्यादर्शन वचन-दे० वचन । मिथ्यादर्शन शल्य-दे० शल्य । मिथ्यादाष्ट्र-आत्म भानसे शन्य बाह्य जगव में ही अपना समस्त पुरुषार्थ उडेल कर जीवन विनष्ट करनेवाले सर्व लौकिक जन मिथ्यादृष्टि. बहिरात्मदृष्टि या पर समय कहलाते हैं। अभिप्रायकी विपरीतताके कारण उनका समस्त धर्म कर्म व वैराग्यादि अकिंचित्कर व ससारवर्धक है। सम्यग्दृष्टिकी क्रियाएँ बाहरमें उनके समान होत हुए भी अन्तरंगकी विचित्रताके कारण कुछ अन्य ही रूप होती है।
भेद व लक्षण मिथ्यादृष्टि सामान्यका लक्षण १. विपरीत श्रद्धान। २. पर द्रव्य रत। परद्रव्यको अपना कहनेसे अशानी कैसे हो जाता है ?
-दे० नय/VI८/३ । । कुदेव कुगुरु कुधर्मको विनयादि सम्बन्धी
-दे० विनय/४। मिथ्यादृष्टिके भेद। सातिशय व धातायुष्क मिथ्यादृष्टि । मिथ्यादृष्टि साधु ।
-दे० साधु/४,५। अधिककाल मिथ्यात्वयुक्त रहनेपर सादि भी मिथ्यादृष्टि अनादिवत् हो जाता है
-दे० सम्यग्दर्शन/IVIRVE
मिथ्यादृष्टि निर्देश
गो. जी./मू /६२३ मिच्छाइट्टी पावा ताण ता य सासणगुणा वि। ___-मिथ्यादृष्टि और सासादन सम्यग्दृष्टि ये दोनों पाप अर्थात पाप
जीव है। स. सा./२००/क १३७ आलम्बन्ता समितिपरता ते यतोऽद्यापि पापा ।
आत्मानात्मावगमविरहात्सन्ति सम्यक्त्वरिक्ता' ।-भले ही महाव्रतादिका आलम्बन करे या समितियोकी उत्कृष्टताका आश्रय करें तथापि वे पापी ही है, क्योकि वे आत्मा और अनात्माके ज्ञानसे रहित होनेसे सम्यक्त्वसे रहित है। स. सा /आ/२००/क. १३७ । पं. जयचन्द =प्रश्न-वत समिति शुभ कार्य है, तब फिर उनका पालन करते हुए भी उस जीवको पापी क्यो कहा गया। उत्तर-सिद्धान्तमें मिथ्यात्वको ही पाप कहा गया है; जबतक मिथ्यात्व रहता है तबतक शुभाशुभ सर्व क्रियाओको अध्यात्ममें परमार्थत पाप ही कहा जाता है, और व्यवहारनयको प्रधानतामें व्यवहारी जीवोको अशुभसे छुडाकर शुभमें लगानेकी शुभ क्रियाको कथंचित् पुण्य भी कहा जाता है ऐसा कहने से स्याद्वादमतमें कोई विरोध नही है ।
मिथ्यादृष्टि गुणस्थानमें जीवसमास, मार्गणा स्थान आदिके स्वामित्व सम्बन्धी २० प्ररूपणाएँ
-दे० सत। मिथ्यादृष्टियोंकी सत् संख्या क्षेत्र स्पर्शन काल अन्तर भाव अल्पबहुत्व रूष ८ प्ररूपणाएँ-दे० बह वह नाम । मिथ्यादृष्टि गुणस्थानमें कर्मोंकी बन्ध उदय सत्त्व सम्बन्धी प्ररूपणाएँ
-दे० वह-वह नाम ।
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मिथ्यादृष्टि
३०२
१. भेद व लक्षण
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मिथ्यादृष्टिगुणस्थानमें कदाचित् अनन्तानुबन्धीके उदयके अभावको सम्भावना। सभी गुणस्थानोंमें आयके अनुसार व्यय होनेका । नियम
-दे० मार्गणा। इसका सासादन गुणस्थानके साथ संबंध
-दे० सासादन/२। | मिथ्यादृष्टिको सर्व व्यवहारधर्म व वैराग्य आदि
सम्भव है। | इतना होनेपर भी वह मिथ्यादृष्टि व असंयत है। मिथ्यादृष्टिको दिये गये निन्दनीय नामदे० निन्दा । उन्हें परसमय व मिथ्यादृष्टि कहनेका कारण । मिथ्यादृष्टिकी बाह्य पहिचान । | मिथ्यादृष्टियोंमें औदयिक भावकी सिद्धि ।
१. भेद व लक्षण १.मिथ्यादृष्टि सामान्यका लक्षण
१ विपरीत श्रद्धालु पं. सं प्रा./१/८ मिच्छादिट्ठी उवइट्ठ पबयणं ण सहहदि । सद्दहदि
असब्भाव उबडहूँ अणुवइटहँ च ८% ( मोहके उदयसे-भ.आ.) मिथ्याहि जीव जिन उपदिष्ट प्रवचनका श्रद्धान नहीं करता। प्रत्युत अन्यसे उपदिष्ट या अनुपदिष्ट पदार्थोंके अयथार्थ स्वरूपका श्रद्धान करता है। (भ, आ /मू./४०/१३८); (६.सं.प्रा./१/१७०); (ध. ६/१,६-८/8/गा. १५/२४२), (ल सा/म् /१०६/१४७), (गो. जी./मू /१८/४२,६५६/११०३) । रा बा /8/१/१२/५८८/१५ मिथ्यादर्शनकर्मोदयेन वशीकृतो जीवो मिथ्यादृष्टिरित्यभिधीयते। यत्कृतं तत्त्वार्थानामश्रद्धानं ।= मिथ्यादर्शन कर्म के उदयके वशीकृत जीव मिथ्या दृष्टि कहलाता है। इसके कारण उसे तत्त्वार्थीका श्रद्धान नहीं होता है। (और भी दे० मिथ्यादर्शन/१)। ध. १/१,१,६/१६२/२ मिथ्या वितथा व्यलीका असत्या दृष्टिदर्शन विपरीतै कान्तविनयसंशयाज्ञानरूपमिथ्यात्वकर्मोदयजनिता येषां ते मिथ्यादृष्टयः। अथवा मिथ्या वितथं, तत्र दृष्टिः रुचि श्रद्धा प्रत्ययो येषा ते मिथ्यादृष्टयः मिथ्या, वितथ, व्यलीक और असत्य ये एकार्थवाची नाम है। दृष्टि शब्द का अर्थ दर्शन या श्रद्धान है। इससे यह तात्पर्य हुआ कि जिन जीवोंके विपरीत, एकान्त, विनय, संशय और अज्ञानरूप मिथ्यात्वकर्म के उदयसे उत्पन्न हुई मिथ्यारूप दृष्टि होती है, उन्हे मिथ्यादृष्टि जीव कहते है। द्र, सं./टी./१३/३२/१० निजपरमात्मप्रभृति षड्द्रव्यपञ्चास्तिकायसप्ततत्त्वनवपदार्थेषु मूढत्यादि पञ्चविंशतिमलरहितवीतरागसर्वज्ञप्रणीतनयविभागेन यस्य श्रद्धानं नास्ति स मिथ्यादृष्टिर्भवति ।-निजात्मा आदि षद्रव्य, पाँच अस्तिकाय, सात तत्त्व, और नवपदार्थोमें तीन मूढता आदि पच्चीस दोषरहित, वीतराग सर्वज्ञद्वारा कहे हुए नयविभागसे जिस जीवके श्रद्धान नहीं है, वह जीव मिथ्यादृष्टि होता है।
मिथ्याष्टिके भावोंकी विशेषता इसके परिणाम अध.प्रवृत्तिकरणरूप होते है
-दे० करण/४ । १-३ गुणस्थानों में अशुभोपयोग प्रधान है
-दे० उपयोग/II/४/५ । विभाव भी उसका स्वभाव है-दे० विभाव/२ । | उसके सर्व भाव अज्ञानमय है।
उसके सर्व भाव बन्धके कारण है। उसके तत्त्वविचार नय प्रमाण आदि सब मिथ्या है। उसकी देशनाका सम्यक्त्वप्राप्तिमें स्थान
-दे० लब्धि /३/४॥ उसके व्रतोंमें कथचित् व्रतपना -दे० चारित्र/६/८ । भोगोंको नहीं सेवता हुआ भी सेवता है
--दे० राग/६।
४ मिथ्यादृष्टि व सम्यग्दृष्टिमें अन्तर
दोनोंके श्रद्धान व अनुभव आदिमें अन्तर । दोनोंके तत्त्व कर्तृत्वमें अन्तर । दोनोंके पुण्यमें अन्तर । दोनोंके धर्म सेवनके अभिप्रायमें अन्तर । दोनोंकी कर्मक्षपणामें अन्तर । मिथ्यादृष्टि जीव सम्यग्दृष्टिके आशयको नहीं जान सकता। जहाँ ज्ञानी जागता है वहाँ अशानी सोता है
-दे० सम्यग्दृष्टि/४। मिथ्यादृष्टि व सम्यग्दृष्टिके राग व भोग आदिमें अन्तर सम्यग्दृष्टि की क्रियाओंमें प्रवृत्तिके साथ निवृत्ति अंश रहता है।
---दे० संवर/२।
२. परद्रव्य रत मो.पा./न./१५ जो पुण परदब्बरओ मिच्छादि ठि हवेह सो साहू । मिच्छत्तपरिणदो उण बज्झदि दुठ्ठठकम्मे हि ॥१॥ -परद्रव्यरत साधु मिथ्यादृष्टि है और मिथ्यात्वरूप परिणमता हुआ दुष्ट अष्टकर्मोंका बन्ध करता है। (और भी दे० 'समय' में परसमयका
लक्षण ।) प.प्र /म./१/७७ पज्जरत्तउ जीवडउ मिच्छादिछि हवेह । बंधा बहु
विधकम्माणि जेण ससारैभमति !७७। -शरीर आदि पर्यायोंमें रत जीव मिथ्यावृष्टि होता है। वह अनेक प्रकारके कर्मोको बाँधता हुआ ससारमें भ्रमण करता रहता है। ध, १/१,१.१/८२/७ परसमयो मिच्छत्त । -परसमय मिथ्यात्वको
कहते है। प्र सा/ता वृ/१४/१२२/१६ कर्मोदयजनितपर्यायनिरतत्वात्परसमया मिथ्यादृष्टयो भण्यन्ते । -कर्मोदयजनित मनुष्यादिरूप पर्यायोंमें निरत रहनेके कारण परसमय जीव मिथ्यादृष्टि होते है। दे० समय/पर समय-(पर द्रव्योंमें रत रहनेवाला पर समय कहलाता
है)। (और भी दे० मिथ्यादृष्टि/२/५)। पंध./उ./8EO तथा दर्शनमोहस्य कर्मणस्तूदयादिह । अपि यावदना
त्मीयमात्मीयं मनुते कुदृक् ।१०। -तथा इस जगत में उस दर्शनमोहनीय कर्मके उदयसे मिथ्यादृष्टि सम्पूर्ण परपदार्थों को भी निज मानता है।
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मिथ्यादृष्टि
२. मिथ्यादृष्टि निर्देश
१. मिथ्याष्टिके भेद रा.वा/8/१/१२/५८८/१८ ते सर्व समासेन द्विधा व्यवतिष्ठन्ते-हिताहितपरीक्षाविरहिताः परीक्षकाश्चेति । तत्रैकेन्द्रियादयः सर्वे संज्ञिपर्याप्तकवर्जिता. हिताहितपरीक्षाविरहिताः । -सामान्यतया मिथ्यादृष्टि हिता हितकी परीक्षासे रहित और परीक्षक इन दो श्रेणियोमें बाँटे जा सकते है। तहाँ संज्ञिपर्याप्तकको छोड़कर सभी एकेन्द्रिय आदि हिताहित परीक्षासे रहित है। सज्ञी पर्याप्तक हिताहित परीक्षासे रहित और परीक्षक दोनों प्रकारके होते है।
है. सातिशय व धातायुष्क मिथ्यादृष्टि ल. सा /जी.प्र./२२०/२७३/९ प्रथमोपशमसम्यक्त्वाभिमुखसातिशयमिभ्यादृष्टेर्भणितानि । प्रथमोपशम सम्यक्त्वके अभिमुख जीव सातिशय मिध्यादृष्टि कहलाते है। घ.४/१,५,६६/३८५ विशेषार्थ-किसी मनुष्यने अपनी संयम अवस्थामें देवायुका बन्ध किया। पीछे उसने संक्लेश परिणामोके निमित्तसे संयमकी विराधना कर दी और इसीलिए अपवर्तनाघातके द्वारा आयुका घात भी कर दिया । यदि वही पुरुष सयमकी विराधनाके साथ ही सम्यक्त्वकी भी विराधना कर मिथ्यादृष्टि हो जाता हैऐसे जीवको घातायुष्क मिथ्यादृष्टि कहते है।
वापत्ति नितरी निवारयन्तोऽर्थव्य मन दुभरद्धौ नितान्तसावधाना', चारित्राचरणाय हिंसानृतस्तेयाब्रह्मपरिग्रहसमस्तविरति - रूपेषु पञ्चमहावतेषु तन्निष्ठवृत्तय , सम्यग्योगनिग्रहलक्षणामु गुप्तिषु नितान्तं गृहीतोद्योगा, ईर्याभाषेषणादान निक्षेपोत्सर्गरूपासु समितिष्पत्यन्तनिवेशितप्रयत्नाः, तपश्चरणायानशनावमौदर्यवृत्तिपरिसंख्यानरसपरित्यागविविक्तशय्यासनकायक्लेशेष्वभीक्ष्णमुत्साहमानाः, प्रायश्चित्तविनयवैयावृत्त्यव्युत्सर्गस्वाध्यायध्यानपरिक्राड कुशितस्वान्ता, वीर्याचरणाय कर्मकाण्डे सर्वशक्त्या व्याप्रियमाणा., कर्मचेतनाप्रधानत्वाद्दूरनिवारिताशुभकर्मप्रवृत्तयोऽपि समुपात्तशुभकर्मप्रवृत्तयः, सकलक्रियाकाण्डाडम्बरोत्तीर्ण दर्शनज्ञानचारित्रैकापरिणतिरूपा ज्ञानचेतना मनागप्यसंभावयन्त., प्रभूतपुण्यभारमन्थरितचित्तवृत्तय., सुरलोकादिक्लेशप्राप्तिपरम्परया सुचिरं संसारसागरे भ्रमन्तीति। जो केवल व्यवहारावलम्बी है वे वास्तवमें भिन्न साध्यसाधन भावके अवलोकन द्वारा निरन्तर अत्यन्त खेद पाते हुए, पुन पुन धर्मादिके श्रद्धानमें चित्त लगाते हैं, श्रुतके संस्कारोंके कारण विचित्र विकल्प जालोंमें फंसे रहते हैं और यत्याचार व तपमें सदा प्रवृत्ति करते रहते है। कभी किसी विषयकी रुचि व विकल्प करते हैं और कभी कुछ आचरण करते हैं। -(१) दर्शनाचरणके लिए प्रशम संवेग अनुकम्पा व आस्तिक्यको धारण करते है, शंका कांक्षा आदि आठों अंगोंका पालन करने में उत्साहचित्त रहते हैं। (२) ज्ञानाचरणके लिए काल, विनय, उपधान, बहुमान, अनिव, अर्थ, व्यंजन व तदुभय इन आठों अंगोंकी शुद्धिमें सदा सावधान रहते हैं। (३) चारित्राचरणके लिए पंचमहावतोंमें, तीनों गुप्तियो में तथा पाँचों समितियों में अत्यन्त प्रयलयुक्त रहते है। (४) तपाचरणके लिए १२ तपोंके द्वारा निज अन्त करणको सदा अंकुशित रखते है। (१) वीर्याचरणके लिए कर्मकाण्डमें सर्व शक्ति द्वारा व्यापृत रहते हैं। इस प्रकार सांगोपांग पंचाचारका पालन करते हुए भी कर्मचेतनाप्रधानपनेके कारण यद्यपि अशुभकर्मप्रवृत्तिका उन्होंने अत्यन्त निवारण किया है तथापि शुभकर्मप्रवृत्तिको जिन्होंने बराबर ग्रहण किया है ऐसे, वे सकल क्रियाकाण्डके आडम्बरसे पार उतरी हुई दर्शनज्ञानचारित्रकी ऐक्यपरिणतिरूप ज्ञानचेतनाको किचित् भी न उत्पन्न करते हुए, बहुत पुण्यके भारसे म थर हुई चित्तवृत्तिवाले वर्तते हुए, देवलोकादिके क्लेशको प्राप्तिकी परम्परा द्वारा अत्यन्त दीर्घकाल तक संसारसागरमें भ्रमण करते हैं।
२. मिथ्यादृष्टि निर्देश १. मिथ्यादृष्टिमें कदाचित् अनन्तानुबन्धीके उदयका
अमाव भी सम्भव है पं.स./प्रा./१/१०३ आवलियमेत्तकालं अणं अधीण होइ णो उदओ . गो, क./मू/४७८/६३२ अणसंजोजिदसम्मे मिच्छ पत्ते ण आवलित्ति अणं। =अनन्तानुबन्धीका विसंयोजक मिथ्यावृष्टि जीव जम सम्यक्त्वको छोडकर मिथ्यात्वगुणस्थानको प्राप्त होता है, उसको एक आवली मात्र काल तक अनन्तानुबन्धी कषायोका उदय नहीं होता है। २. मिथ्यादृष्टिको सर्व व्यवहार धर्म व वैराग्य आदि होने सम्भव हैं प्र. सा./मू./८५ अठे अजधागहणं करुणाभावो य तिदियमणुएमु । विसएस च पसगो मोहस्सेदाणि लिंगाणि ८५ - पदार्थ का अयथाग्रहण और तिर्यच मनुष्योंके प्रति करुणाभाव तथा विषयोंकी संगति,
ये सम मोहके चिह्न है। दे० सम्यग्दर्शन/III/ • (नव वेयकवासी देवोंको सम्यक्त्वकी उत्पत्तिमें जिनमहिमा दर्शन निमित्त नहीं होता, क्योंकि, वीतरागी होनेके
कारण उनको उसके देखनेसे आश्चर्य नहीं होता।) पं. का./त. प्र./१७२ ये तु केवलव्यवहारावलम्बिनस्ते खलु भिन्नसाध्यसाधनभावावलोकनेनानवरतं नितरां खिद्यमाना मुहुर्मुहुर्धर्मादिश्रद्वानरूपाध्यवसायानुस्यूतचेतस प्रभूतश्रुतसंस्काराधिरोपितविचित्रविकल्पजाल कलमाजितचैतन्यवृत्तय , समस्तयतिवृत्तसमुदायरूपतप'प्रवृत्तिरूपकमकाण्डड्डमराचलिता, कदाचित्किचिद्रीचमाना कदाचित् किंचिद्विकल्पयन्तः, कदाचिरिकचिदाचरन्त., दर्शनापरणाय कदाचित्प्रशाम्यन्त', कदाचित्संविजयमानाः, कदाचिदनकम्पमाना, कदाचिदास्तिक्यमुद्वहन्ता, शंकाकाक्षाविचिकित्सामूत्रष्टितानां व्युत्थापन निरोधाय नित्यबद्धपरिकरा., उपबृहणस्थितिकरणवात्सल्यप्रभावानां भावयमाना बारम्बारमभिवर्धितोसाहा, ज्ञानाचरणाय स्वाध्यायकालमवलोकयन्तो, बहुधा विनयं प्रपवयन्तः, प्रविहितदुर्धरोपधाना., मुष्ट बहुमानमातन्वन्तो निझ
३. इतना होनेपर भी वह मिथ्याडष्टि व असंयती स. सा.मू./३१४ जा एस पयडीअट्ठ चेया णेव विमुचए। अयाणी भवे ताव मिच्छाइट्ठी असजओ ।३१४। -जबतक यह आश्मा प्रकृतिके निमित्तसे उपजना विनशना नहीं छोड़ता है, तब तक वह
अज्ञायक है, मिथ्यादृष्टि है, असंयत है । दे०चारित्र/३ (सम्यक्त्व शून्य होनेके कारण व्रत समिति आदि पालता हुआ भी वह संयत नहीं मिथ्यादृष्टि ही है।)
१. उन्हें परसमय व मिथ्यादृष्टि कहनेका कारण दे०मिथ्याष्टि/१/१(परद्रव्यरत रहनेके कारण जीव परसमय व मिथ्या
दृष्टि होता है।) प्र. सा./त प्र/६४ ये खलु जीवपुद्गलात्मकमसमानजातीयद्रव्यपर्याय सकलाविद्यानामेकमूलमुपगतायथोदितात्मस्वभावमभावनबलीबारत - स्मिन्नेवाशक्तिमुपब्रजन्ति,ते खलच्छलितनिरगल कान्तदृष्टयो मनुष्य एवाहमेष ममैवैतन्मनुष्यशरीरमित्यकारममकाराभ्यां विप्रलभ्यमाना अविचलितचेतनाविलासमात्रादात्मव्यवहारात प्रच्युत्य कोडीकृतसमस्तक्रियाकुटुम्बकं मनुष्यव्यवहारमाश्रित्य रज्यन्तो द्विषन्तश्च
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मिथ्यादृष्टि
परद्रव्येण कर्मणा सङ्गत्वात्परसमया जायन्ते । =जो व्यक्ति जीवपुद्गलात्मक असमानजातीय द्रव्यपर्यायका, जो कि सकल अविद्याओकी एक जड है, उसका आश्रय करते हुए यथोक्त आत्मस्वभावकी संभावना करने में नपुंसक होनेसे उसीमें बल धारण करते है, वे जिनकी निरर्गल एकान्त दृष्टि उछलती है, ऐसे 'यह मै मनुष्य ही हूँ, मेरा हो यह मनुष्य शरीर है' इस प्रकार अहकार ममकारसे ठगाये जाते हुए अविचलित चेतनाविलासमात्र आत्मव्यवहारसे च्युत होकर, जिसमें समस्त क्रियाकलापको छाती से लगाया जाता है ऐसे मनुष्यव्यवहारका आश्रय करके, रागी द्वेषी होते हुए परद्रव्यरूप कर्म के साथ संगतता के कारण वास्तव में परसमय होते है अर्थात् परसमयरूप परिणमित होते है ।
५. मिथ्यादृष्टिकी बाह्य पहचान र.सा./१०६ देहादिसु अणुरत्ता विसयासत्ता कसायसंजुत्ता । अप्पसहावे सुता साहू सम्मपरिचता ११०६ - जो मुनि देहादिमें अनुरत है, विषय कषायसे सयुक्त है, आत्म स्वभाव में सुप्त है, वह सम्यक्त्वरहित मिध्यादृष्टि है।
३.६/१ (जिसको परमाणुमात्र भी राग है यह मिथ्याष्टि है) ( विशेष दे. मिथ्यादृष्टि / ४ ) |
दे. श्रद्धान / ३ ( अपने पक्षकी हठ पकडकर सच्ची बातको स्वीकार न करने वाला मिथ्यादृष्टि है ) ।
पं सं./प्रा./१/६ मिच्छत्तं वेदं तो जीवो विवरीयदंसणो होइ । ण य धम्मं रोषेदिह महर पि रस जहा जरिदो मिध्यात्वको अनुभव करनेवाला जीव विपरीत श्रद्धानी होता है। उसे धर्म नहीं रुचता है, जैसे कि ज्वरयुक्त मनुष्यको मधुर रस भी नहीं रुचता है । (ध.१/ १.१.३/०६/१६२) (ता. / / १००/९४२) (गोजी../१०/४१) । का अ/मू./३१८ दोससहियं पि देव जीव हिसाइ संजुद धम्म । गंथासत्तं च गुरु जो मण्णदि सो हु कुद्दिट्ठी । -जो दोषसहित देवको, जीवहिसा आदिसे युक्त धर्मको और परिग्रह में फँसे हुए गुरुको मानता है, वह मिथ्यादृष्टि है ।
दे नियति / १ / २ ( 'जो जिस समय जैसे होना होता है वह उसी समय वैसे ही होता है, ऐसा जो नहीं मानता वह मिथ्यादृष्टि है ) ।
६. मिध्यादृष्टिमें औदयिकभावकी सिद्धि
- प्रश्न
घ.५/१०२/१६४/० विट्ठल्स अग्य विभाषा अस्थि, गाण दसण-गदि-लिंग- कसाय भव्वाभव्वादि-भावाभावे जीवस्स संसारिणो अभावत्पसंगा। तदो मिच्छा दिट्ठिस्स ओदइओ चैव भावो अस्थि, अण्णे भावा णत्थि त्ति णेदं घडदे ण एस दोसो, मिच्छादिस्सि अण्णे भाषा णत्थि ति हुत्ते पडिमेहाभागा किंतु मि मोसूणजे अण्णे गदि लिगादओ साधारणभावा ते मिच्छादिठित्तस्स कारण ण होति । मिच्छत्तोदओ एक्को चैव मिच्छत्तस्स कारण, ते मिच्छादिट्ठत्ति भावो ओदइओ त्ति परुविदो । -! मिथ्यादृष्टिके अन्य भी भाव होते है । ज्ञान, दर्शन, ( दो क्षायोपशमिक भाव ), गति लिग. कषाय (तीन औदयिक भाव), भव्यत्व, अभव्यत्व ( दो पारिणामिक भाव ) आदि भावोके अभाव मानने पर संसारी जीवके अभावका प्रसंग प्राप्त होता है। ( विशेष दे भाव / २ ) । इसलिए मिथ्यादृष्टि जीवके केवल एक औदयिक भाव ही होता है, और अन्य भाव नहीं होते है, यह कथन घटित नहीं होता है ? उत्तर - यह कोई दोष नहीं; क्योकि, मिथ्यादृष्टिके औदयिक भाव के अतिरिक्त अन्य भाव नहीं होते है,' इस प्रकारका सूत्र में प्रतिषेध नही किया गया है । किन्तु मिथ्यात्वको छोडकर जो अन्य गति लिंग आदिक साधारण ( सभी गुणस्थानोके लिए सामान्य ) भाव हैं. वे मिध्यादृष्टि के कारण नहीं होते है। एक मिथ्यात्वका उदय ही
३०४
२. मिध्यादृष्टिके भावोंकी विशेषता
मिथ्यादृष्टित्वका कारण है । इसलिए 'मिथ्यादृष्टि' यह भाव औदयिक कहा गया है। 4.4/1.0.10/206/
सम्मामिच्छत्तराव्यचादिफदयाणमुदमरण
-
सिमे सम्मत्तसादिकयाणमुदयख तेसि चैन संतोक्तमेण अणुदओवसमेण वा मिच्छत्तसव्व घादिफद्दयाणमुद एण मिच्छाइट्ठी उप्पज्जदित्ति खओवसमिओ सो किण्ण होदि । उच्चदे - ण ताव सम्मत्तसम्मामिच्छत्तदेसघादिफद्दयाणमुदयक्ख ओ संतावसमो अणुदओवसमो वा मिच्छादिट्ठीए कारणं, सव्वहिचारितादो । जं जदो नियमेण उप्पज्जदि त तस्स कारणं, अण्णहा अणवत्थापसंगादो । जदि मिच्छत्तप्पज्जणकाले बिज्जमाणा तक्कारणत्तं पडिवज्जति तो णाण-दंसण असंजमादओ वि तक्कारणं होति । या चेवं तहाविमवहाराभावा मिच्छादिट्ठीए पुण मित्र कारणं, तेण विणा तदणुप्पत्तीए । प्रश्न- सम्यगमिथ्यात्वप्रकृतिके सर्वघाती स्पर्धको उदयक्षयसे, उन्होंके सदवस्थारूप उपशमसे, सम्यकृति देशमाती स्पर्मको के उदयसे उन्ह सदयस्थारूप उपशमी और मिध्यात्वप्रकृतिके सर्वघाती स्पर्धा उदयसे मिथ्यादृष्टिभाव उत्पन्न होता है, इसलिए उसे क्षयोपशम क्यों न माना जाये । उत्तर-न तो सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्व, इन दोनो प्रकृतियोंके देशघाती स्पर्धकोंका उदय, क्षय, अथवा सदवस्थारूप उपशम, अथवा अनुदयरूप उपशम मिथ्यादृष्टि भावका कारण है, क्योकि, उस में व्यभिचार दोष आता है। जो जिससे नियमत. उत्पन्न होता है, वह उसका कारण होता है। यदि ऐसा न माना जावे, तो अनवस्था दोषका प्रसंग आता है। यदि यह कहा जाये कि मिथ्यात्वको उत्पत्ति के कालमें जो भाव विद्यमान है, वे उसके कारणपनेको प्राप्त होते है। तो फिर ज्ञान, दर्शन, असंयम आदि भी मिध्यात्वके कारण हो जायेंगे किन्तु ऐसा है नहीं, क्योंकि इस प्रकारका व्यवहार नहीं पाया जाता है। इसलिए यही सिद्ध होता है कि मिध्यादृष्टिका कारण मिथ्यात्वका उदय ही है, क्योंकि, उसके बिना मिध्यात्वकी उत्पत्ति नहीं होती है।
३. मिथ्यादृष्टिके भावोंकी विशेषता १. मिध्यादृष्टिके सर्वभाव अज्ञानमय हैं
स.सा./मू / १२ अण्णाणमया भावा अण्णाणो चैव जायए भावो । जम्हा तम्हा भावा अण्णाणमया अणाणिस्स । - - अज्ञानमय भावमेंसे अज्ञानमय ही भाव उत्पन्न होता है, इसलिए अज्ञानियोंके भाव अज्ञानमय ही होते है ।
स.सा./आ./ १२६/क ६७ ज्ञानिनो ज्ञाननिवृत्ता सर्वे भावा भवन्ति हि सर्वे ज्ञाननिता ज्ञानिनस्तु ते । हामी के सर्वभाव ज्ञानसे रचित होते हैं और अज्ञानी के समस्त भाव अज्ञानसे रचित होते है।
ये मिध्यादर्शनादि पासता हुआ भी वह पापी है) । मार/ २ / २ (मतादि पालता हुआ भी यह अज्ञानी हैं। २. अज्ञानी के सर्वभाव बन्धके कारण हैं।
स. सा/मू./२११ अण्णाणी पुणरतो सञ्चदव्वेसु कम्ममज्भगदो । लिप्पदि कम्मरएण दु कद्दममभे जहा लोहं । २१११ - अज्ञानी जो कि सर्व द्रव्योके प्रति रागी है, वह कर्मोके मध्य रहा हुआ कर्म रजसे लिप्त होता है, जैसे लोहा कीचडके बीच रहा हुआ जंगसे लिप्त हो जाता है।
दे. मिध्यादृष्टि /१/१/२ ( मिथ्यादृष्टि जीव सदा परद्रव्यों में रत रहनेके कारण कर्मोंको बाँधता हुआ संसारमें भटकता रहता है) । दे. मिथ्यादृष्टि / २/२ (सांगोपांग धर्म व चारित्रका पालन करता हुआ भी वह संसार में भटकता है ) ।
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मिथ्यादृष्टि
स सा /आ./१६४ स तु यदा वेद्यते तदा मिथ्यादृष्टे रागादिभावाना सद्भावेन बन्धनिमित्त भूत्वा निर्जीर्यमाणोऽप्यजीर्णः सन् अन्ध एव स्यात् । - जब उस सुख या दुखरूप भावका बेदन होता है तब मिथ्याष्टिको रागादिभावोके सदभावसे बन्धका निमित्त होकर वह भाष निर्जराको प्राप्त होता हुआ भी (वास्तवमे) निर्जरित न होकर बन्ध ही होता है। दे सम्यग्दृष्टि/२(ज्ञानीके जो भाव मोक्षके कारण है वही भाव अज्ञानीको बन्धके कारण है)। ३. मिथ्याष्टिका तश्वविचार नय प्रमाण आदि सब मिथ्या हैं न.च.व./४१५ लवणं व इणं भणियं णयचक्कं सयलसत्थसुद्धियरं । सम्माविय सुय मिच्छा जीवाण सुणयमग्गरहियाण-सकल शास्त्रोंकी शुद्धिको करनेवाला यह नयचक्र अति संक्षेपमें कहा गया है। क्योकि सम्यक् भी श्रुत या शास्त्र, सुनयरहित जीवोंके लिए मिथ्या होता है। पं का /ता.व / प्रक्षेपक ४३-६/०७/२८ मिथ्यात्वात यथैवाज्ञानमविरतिभावश्च भवति तथा मुनयो दुर्नयो भवति प्रमाण दुःप्रमाणं च भवति । कदा भवति । तत्त्वविचारकाले। किं कृत्वा। प्रतीत्याश्रित्य । किमाश्रित्य । शेयभूत जीवादिवस्त्विति ।-मिथ्यात्वसे जिस प्रकार अज्ञान और अविरति भाव होते है, उसी प्रकार ज्ञेयभूत वस्तुकी प्रतीतिका आश्रय करके जिस समय तत्त्व विचार करता है, तब उस समय उसके लिए मुनय भी दुर्मय हो जाते है और प्रमाण भी दु प्रमाण हो जाता है। (विशेष दे ज्ञान/111/२/८,६:चारित्र/३/१०: धर्म/२:नय/II/प्रमाण/२/२,४/२:भक्ति/१। ४. मिथ्यादृष्टि व सम्यग्दृष्टिमे अन्तर
१.दोनोंके श्रद्धान व अनुभव आदिमें अन्तर स, सा./मू./२७५ सदहदि य पत्तेदि य रोचेदि य तह पूणो य फासेदि।
धम्म भोगणिमित्तं ण दु सो कम्मक्खयणि मित्त । -वह (अभव्य जीव ) भोगके निमित्तरूप धर्म की ही श्रद्धा करता है, उसीकी प्रतीनि करता है, उसीकी रुचि करता है और उसीका स्पर्श करता है, किन्तु कर्मक्षयके निमित्तरूप धर्म की श्रद्धा आदि नहीं करता। र. सा/५७ सम्माइट्ठी काल बीलइ वेरग्गणाणभावेण । मिच्छाइट्ठी वांछा दुब्भावालस्सकल हेहिं ।।७। सम्यग्दृष्टि पुरुष समयको वैराग्य
और ज्ञानसे व्यतीत करते है। किन्तु मिथ्यादृष्टि पुरुष दुर्भाव, आलस्य और कलहसे अपना समय व्यतीत करते है। प्र. सा./ता.व./प्रक्षेपक ६८-१/३६०/१७ इमां चानुकम्पा ज्ञानी स्वस्थ
भावनामविनाशयन् सक्लेशपरिहारेण क्रोति । अज्ञानी पुनः संक्लेशेनापि करोतीत्यर्थ । -इस अनुकम्पाको ज्ञानी हो स्वस्थ भावका नाश न करते हुए संक्लेशके परिहार द्वारा करता है, परन्तु अज्ञानी
उसे संक्लेशसे भी करता है। स, श/म./५४ शरीरे वाचि चात्मानं संधत्ते वाकशरीरयोः। भ्रान्तो
ऽभ्रान्त पुनस्तत्त्व पृथगेष निबुध्यते ।४।- वचन और शरीरमें ही जिसकी भ्रान्ति हो रही है, जो उनके वास्तविक स्वरूपको नही समझता ऐसा बहिरात्मा वचन और शरीरमें ही आरमाका भारपण करता है। परन्तु ज्ञानी पुरुष इन शरीर और वचनके स्वरूपको
आत्मासे भिन्न जानता है। (विशेष दे० मिथ्याधि/१/१/२)। स.श./मूव टी /४७ त्यागादाने बहिर्मूढ करोत्यध्यात्ममात्मवितानान्त
बहिरुपादान न त्यागो निष्ठितात्मन' ।४७ मूढारमा बहिरात्मा त्यागोपादाने करोति क । बहिर्वाह्ये हि वस्तुनि द्वेषोदयादभिलाषाभावान्मूढात्मा त्याग करोति। रागोदयात्तत्राभिलाषोत्पत्तेरुपादानमिति । आत्मवित अन्तरात्मा पुनरध्यात्मनि स्वात्मरूप एष त्यागो
३. मिथ्यादृष्टि व सभ्यग्दृष्टिम अन्तर पादाने करोति । तत्र हि त्यागो रागद्वेषादेरन्तर्जल्पविकल्पादेर्वा । स्वीकारश्चिदानन्दादे । यस्तु निष्ठितारमा कृतकृत्यारमा तस्य अन्तबहिर्वा नोपादान तथा न त्यागोऽन्तबहिर्वा । -महिरारमा मिथ्यादृष्टि द्वेषके उदयवश अभिलाषाका अभाव हो जानेके कारण बाह्य वस्तुओंका स्याग करता है और रागके उदयवश अभिलाषा उत्पन्न हो जानेके कारण बाह्य वस्तुओंका ही ग्रहण करता है। परन्तु आरमवित् अन्तरात्मा आत्मस्वरूपमें हो त्याग या ग्रहण करता है। वह त्याग तो रागद्वेषादिका अथवा अन्तर्जल्परूप बचन विलास व विकल्पादिका करता है और ग्रहण चिदानन्द आदिका करता है।
और जो आत्मनिष्ट व कृतकृत्य है ऐसे महायोगीको तो अन्तरग व बाह्य दोनों ही का न कुछ त्याग है और न कुछ ग्रहण । (विशेष दे० मिथ्याष्टि/२/२)1 दे. मिथ्याष्टि/२/५ (मिथ्यादृष्टिको यथार्थ धर्म नही रुचता)। दे. श्रद्धान/३ (मिथ्यादृष्टि एकान्तग्राही होनेके कारण अपने पक्षकी हठ करता है, पर सभ्यग्दृष्टि अनेकान्तग्राही होनेके कारण अपने पक्षकी हठ नहीं करता)। स. सा./ता वृ./१६४/२६६/8 सुखं दुख वा समुदीण सत् सम्यग्दृष्टि
र्जीवो रागद्वेषौ न कुर्वन हेयबुद्धया वेदयति । न च तन्मयो भूत्वा, अहं मुखी दुखीत्याद्यमिति प्रत्ययेनानुभवति । मिथ्यादृष्टे पुन. उपादेयबुद्धया, मुख्यह दु.ख्यहमिति प्रत्ययेन । = कर्मके उदयवश प्राप्त सुखदुःखको सम्यग्दृष्टि जीव तो राग-द्वेष नहीं करते हुए हेयबुद्धिसे भोगता है। 'मै सुखी-मै दुःखी' इत्यादि प्रत्ययके द्वारा तन्मय होकर नहीं भोगता । परन्तु मिथ्यादृष्टि उसी सुख-दुःखको उपादेय बुद्धिसे मै मुखी, मै दुखी' इत्यादि प्रत्ययके द्वारा तन्मय होकर भोगता है। और इसीलिए सम्यग्दृष्टि तो विषयोंका सेवन करते हुए भी उनका असेवक है और मिथ्यादृष्टि उनका सेवन न करते हुए भी सेवक है ) दे० राग/६। पं. का/ता. वृ./१२५/२८८/२० अज्ञानिना हितं ग्वनिताचन्दनादि
तत्कारणं दानपूजादि, अहितमहि विषकण्टकादि। संज्ञानिना पुनरक्षयानन्तसुखं तत्कारणभूतं निश्चयरत्नत्रयपरिणतं परमात्मद्रव्य च हितमहितं पुनराकुलत्वोत्पादकं दुखें तत्कारणभूतं मिथ्यात्वरागादिपरिणतमात्मद्रव्यं चं। -अज्ञानियोंको हित तो माला, स्त्री, चन्दन आदि पदार्थ तथा इनके कारणभूत दान, पूजादि व्यवहारधर्म हैं और अहित -विष कण्टक आदि बाह्य पदार्थ है। परन्तु ज्ञानीको हित तो अक्षयानन्त सुख व उसका कारणभूत निश्चयरत्नत्रयपरिणत परमात्मदव्य है और अहित आकुलताकों उत्पन्न करनेवाला दुख तथा उनका कारणभूत मिथ्यात्व व रागादिसे परिणत आत्मद्रव्य है 1 (विशेष दे० पुण्य//४-८) मो. मा. प्र./८/३६७/२० (सम्यग्दृष्टि ) अपने योग्य धर्म को साधै है। तहाँ जेता अंश वीतरागता हो है ताको कार्यकारी जान है, जेता अंश राग रहै है, ताकौ हेय जाने है। सम्पूर्ण वीतराग ताकौ परमधर्म मानें है । (और भी दे० उपयोग/II/३) । २. दोनोंके तत्व कर्तृत्वमें अन्तर न. च. वृ./१६३-१६४ अज्जीवपुण्णपावे असुद्धजीवे तहासवे बंधे सामी मिच्छाइट्ठी समाइट्ठी हवदि सेसे ।१६३॥ सामी सम्मादिट्ठी जिय सवरणणिज्जरा मोक्खो। सुद्धो चेयणरूवो तह जाण सुणाणपञ्चक्रवं । १६४१ = अजीव, पुण्य, पाप, अशुद्ध जीव, आस्रव और बन्ध इन छह पदार्थों के स्वामी मिथ्यावृष्टि है, और शुद्ध चेतनारूप जीव तत्त्व, संबर, निर्जरा व मोक्ष इन शेष चार पदार्थोंका स्वामी सम्यग्दृष्टि है। द्र.स. टी./ अधिकार २/चूलिक/८३/२ इदानी कस्य पदार्थस्य कः कर्तेति कथ्यते-बहिरात्मा भण्यते । स चासवबन्धपापपदार्थ त्रयस्य कर्ता भवति। क्वापि काले पुनर्मन्द मिथ्यात्वभन्दकषायोदये सति भोगाकांक्षादिनिदानबन्धेन भाविकाले पापानुबन्धिपुण्यपदार्थस्यापि
भा० ३-३९
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मिथ्यादृष्टि
।
कर्त्ता भवति । यस्तु सम्यग्दृष्टि से संवरनिर्जरामोक्षपदार्थत्रयस्य कर्त्ता भवति । रागादिविभावरहित परमसामायिके यदा स्थातु समर्थो न भगति तदा विषयाशार्थं सारस्थि विच्छेद कुर्य पुण्यानुवन्धि तीर्थ करनाम प्रकृत्यादिविशिष्टपुष्यपार्थस्य स भवति । अब किस पदार्थका कर्ता कौन है, इस बातका कथन करते है । वह बहिरात्मा (प्रधानत ) आसव, बन्ध और पाप इन तीन पदार्थोंका कर्ता है। किसी समय जब मिथ्यात्व व कषायका मन्द उदय होता है तब आगामी भोगोंकी इच्छा आदि रूप निदान से पापानुबन्धी पुण्य पदार्थका भी होता है। (परन्तु इसको संवर नही होता- दे० अगला सन्दर्भ ) । जो समयदृष्टि जीव है वह (प्रधानत ) संवर, निर्जरा और मोक्ष इन तीन पदार्थों होता है और किसी समय जब रागादि विभावसे रहित परम सामायिक में स्थित रहनेको समर्थ नहीं होता उस समय पानिको रोकने के लिए, ससारको स्थितिका नाश करता हुआ पुण्यानुबन्धी तीर्थंकर प्रकृति आदि विशिष्ट पुण्य पदार्थका कर्ता होता है (पं.का./१२८-१३०/११३/१४ ). (स सा/ता.वृ/ १२३/१८०/२१) ।
३०६
द्र.सं./ टी / ३४/६६/१० मिथ्यादृष्टिगुणस्थाने सवरो नास्ति, सासादनगुणस्थानेषु क्रमेोर्युपरि प्रशसं हातव्य इति निष्या दृष्टि गुणस्थान में तो सबर है ही नही और सासादन आदि गुणस्थानों (प्रकृतिबन्ध म्युच्वित्तिक्रम के अनुसार दे० प्रकृतिबन्ध (०) ऊपर-ऊपरके गुणस्थानोंमें अधिकतासे सवर जानना चाहिए । ० उपयोग 1 (१-३ गुरुस्थान तक अशुभोपयोग प्रधान है और ४०० गुणस्थान तक शुद्धोपयोग साधक शुभोपयोग प्रधान है। इससे भी ऊपर शुद्धोपयोग प्रधान है। )
३. दोनोंके पुण्यमें अन्तर
ससा / ता वृ./२२४-२२०/३०२/१७ कोऽपि जीवोऽभिनव पुण्यकर्मनिमित्त भोगाकाङ्क्षा निदानरूपेण शुभकर्मानुष्ठान करोति पापानुबन्धि पुण्यराजा कालान्तरे भोगान् ददाति । तेऽपि निदानबन्धेन प्राप्ता भोगा रावणादिवन्नारकादिदुखपरम्परा प्रापयन्तीति भावार्थ ... कोऽपि यो निपिसमारभावाद, शाहानेन विषयपानार्थ यद्यपि प्रयशीलदानपूजादिशुभकान करोति तथापि भागाकाहारूपनिदानबन्धेन तत्पुण्यकर्मानुष्ठान न सेवते । तदपि पुण्यानुबन्धिकमं भावान्तरे अभ्युदयरूपेणोदयागतमपि पूर्वभवभाविभेद विज्ञानवासनावलेन. भोगाका निदान रूपा रागादिपरिणामान्न ददाति भरतेश्वरादीनामिम कोई एक
( मिथ्यादृष्टि ) जीव नवीन पुण्य कर्म के निमित्तभूत शुभकर्मानुष्ठानको भोगाकाक्षाके निदान रूपसे करता है। तब वह पापानुबन्धी पुण्यरूप राजा कालान्तर में उसको विषय भोगप्रदान करता है। वे निदानबन्धपूर्वक प्राप्त भोग भी राम आदि की भाँति उसको अगले भग नरक आदि दुखोकी परम्परा प्राप्त कराते है ( अर्थात् निदानबन्ध पूर्वक किये गये पुण्यरूप शुभानुष्ठान तीसरे भव नरकादि गतियों के कारण होनेसे पापानुबन्धीपुष्य कहलाते है। कोई एक सम्यग्दृष्टि जीव निर्विकल्प समाधिका अभाव होनेके कारण अशक्यानुष्ठान रूप विषयकषाय वञ्चनार्थ यद्यपि व्रत, शील, दान, पूजादि शुभ कर्मानुष्ठान करता है परन्तु (मिध्यादृष्टिको मीति भोगाकारूप निदानबन्धसे उसका सेवन नहीं करता है । उसका वह कर्म पुण्यानुबन्धी है, भवान्तर मे जिसके अभ्युदयरूपसे उदयमें आनेपर भी वह सम्यग्दृष्टि पूर्वभवमें भावित भेदविज्ञानकी वासना के बलसे भोगोको आकाक्षारूप निदान या रागादि परिणाम नही करता है, जैसे कि भरतेश्वर आदि अर्था निदान बम्धरहित बाँधा गया पुण्य सदा पुण्यरूपसे हो फलता है। पापका कारण कदाचित् भी
४. मिध्यादृष्टि व सम्यग्दृष्टिमे अन्तर
नही होता। इसलिए पुण्यानुबन्धी कहलाता है । और भी दे० मिध्यादृष्टि/१/२)।
ससा /ता.वृ./१२४-३२०/४९४/१६ कोऽपि जीव पूर्व मनुष्यभवे जिनरूप गृहीत्वा भोगाकादला निदानवन्धेन पापानुमन्धि पुण्यं कृष्णा... अर्ध चक्रवर्ती भवति तस्य विष्णुसंज्ञा न चापरः । =कोई जीव पहले मनुष्य भव में जिनरूपको ग्रहण करके भोगोकी आकांक्षारूप निदानबन्ध से पापानुबन्धी पुण्य को करके स्वर्ग प्राप्त कर अगले मनुष्य
अर्धचक्रवर्ती हुआ, उसीकी विष्णु संज्ञा है। उससे अतिरिक्त अन्य कोई विष्णु नही है । ( इसी प्रकार महेश्वरकी उत्पत्तिके सम्बन्धने भी कहा है
दे० पुण्य / ५ /१२ ( सम्यग्दृष्टिका पुण्य निदान रहित होनेसे निर्जरा व मोक्षका कारण है और मिध्यादृष्टिका पुण्य निदान सहित होने से साक्षात् रूपसे स्वर्गका और परम्परा रूपसे कुगतिका कारण है । ) ० पूजा/२/४ सम्यग्दृष्टिकी पूजा भक्ति आदि निर्जराके कारण है।
४. दोनों के धमसेवनके अभिप्राय में अन्तर .का./त.प्र./१३६ हि स्थूललक्ष्या केसमधानस्याज्ञानिनी भवति । उपरितनभूमिकायामलण्यास्पदस्याव स्थानराननिषेधार्थ तीबरागज्वरविनोदार्थं वा कदाचिज्ज्ञानिनोऽपि भवतीति । यह ( प्रशस्त राग ) वास्तव में जो स्थूल लक्षवाला होनेसे मात्र भक्तिप्रधान है ऐसे अज्ञानीको होता है। उच्च भूमिका में स्थिति प्राप्त न की हो तब आस्थान अर्थात् विषयोकी ओरका राग रोकनके हेतु अथवा तीव्र रागज्वर मिटानेके हेतु, कदाचित ज्ञानीको भी होता है। इ.स./टी./२४/२९१/१२ प्राथमिकापेक्षया सविश्वावस्थायां विषयकषायवञ्चनार्थं चित्त स्थिरीकरणार्थं पञ्चपरमेष्ठ्यादि परद्रव्यमपि ध्येयं भवति । ध्यान आरम्भ करनेकी अपेक्षासे जो सविकल्प अवस्था है उसमे विषय और कषायोंको दूर करनेके लिए तथा चित्तको स्थिर करनेके लिए पच परमेष्ठी आदि परद्रव्य भी ध्येय होते है। (पं.का./ता.वृ./१५२/२२०/१) (स.सा./ता.वृ./१६/१५४/१०) ( प. अ./टी./२/११/१५१/३) ।
दे० धर्म /६/- ( मिथ्यादृष्टि व्यवहार धर्मको ही मोक्षका कारण जानकर करता है, पर सम्यरिचय मार्ग स्थित होनेमे समर्थ न होनेके कारण करता है। )
दे० मिथ्यादृष्टि / ४ / २ व ३ ( मिथ्यादृष्टि तो आगामी भोगोकी इच्छासे शुभालुहान करता है और सम्यग्दृष्टि शुद्ध भाषमें स्थित होनेगे समर्थ न होनेके कारण तथा कषायोन दुयनिके वचनार्थ करता है ।)
३० पुग्य/३/४-८ मिध्यादृष्टि पुण्यको उपादेय समझकर करता है और सम्यग्दृष्टि उसे हेय जानता हुआ करता है ।)
द्र. स./टी./३८/१५६/७ सम्यग्दृष्टिर्जीवस्य पुण्यपापद्वयमपि हेयम् । कथं पुण्यं करोतीति । तत्र युक्तिमाह । यथा कोऽपि देशान्तरस्थमनोहरस्त्रीसमादापुरुषाणां तदर्थे दानसन्मानादिकं करोति तथा सम्रायरूपेण स्वशुद्धात्मानमेव भावयति चारित्रमोहोदया सत्रासमर्थ सद् निर्दोषपरमात्मस्वरूपाणाम सिद्धान तदाराधकाचार्योपाध्यावसाना परमात्मपदार्थविषयकषायवचनार्थं च नजादिना गुणस्तमनादिना वा परमभक्ति करोति ।
प्रश्न- सम्यग्दृष्टि जीवके तो पुण्य और पाप दोनो हेय है, फिर वह पुण्य कैसे करता है ? उत्तर--जैसे कोई मनुष्य अन्य देशमें विद्य मान किसी मनोहर स्त्री के पास आये हुए मनुष्योका उस स्त्रीकी प्राप्ति के लिए दान-सन्मान आदि करता है, ऐसे ही सम्यग्दृष्टि जीव भी वास्तवमे तो निज शुद्धात्माको ही भाता है । परन्तु जब चारित्रमोहके उदयसे उस निशुद्धात्म भावनामे असमर्थ होता
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मिथ्या नय
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मिष गुणस्थान निर्देश
है, तब दोष रहित ऐसे परमात्मस्वरूप अर्हन्त सिद्धोकी तथा उनके आराधक आचार्य उपाध्याय और साधुकी, परमात्मपदकी प्राप्तिके लिए, (मुक्तिश्रीको वश करनेके लिए-पं. का), और विषयकषायोंको दूर करनेके लिए, पूजा, दान आदिसे अथवा गुणोंको स्तुति आदिसे परमभक्ति करता है । (पं.का./ता.वृ./१७०/२४३/११), (प.प्र./टी./२/६१/१८३/२) ।
५. दोनोंकी कर्मक्षपणामें अन्तर भ.आ./मू/१०८/२५५ ज अण्णाणी कम्म खवेदि भवसयसहस्सकोडीहिं। तंणाणी तिहि गुत्तो खवेदि अतोमुहत्तेण ।१०८) -जो कर्म अज्ञानी लक्षकोटि भवोमें खपाता है, वह ज्ञानी त्रिगुप्तिके द्वारा अन्तर्मुहुर्तमात्रमें खपा देता है। (भ आ./म./२३४/४५४); (प्र. सा/मू./२३८ }; (मो. प्रा./मू./५३ ); (ध. १३/१३५१५०/गा.२३/२८१); (ए वि./१/३०)। भ. आ./मू./७१७/८१ ज बदमसखेजाहि रयं भवसदसहस्सकोडीहिं। सम्मत्तप्पत्तीए खवेइ तं एयसमरण १७१७। -करोडो भवोंके संचित कोको, सम्यग्दर्शनकी प्राप्ति हो जानेपर, साधुजन एक समयमें निर्जीर्ण कर देते है। 1. मिथ्याष्टि जीव सम्यग्दृष्टिके भाशयको नहीं समझ
सकता स. सा./आ./२२७/क. १५३ ज्ञानी कि कुरुतेऽथ किं न कुरुते कर्मेति
जानाति क. १९५३। - ज्ञानी कर्म करता है या नहीं यह कौन जानता है। (ज्ञानीको बात ज्ञानी ही जानता है। ज्ञानीके परिणामौंको
जाननेकी सामर्थ्य अज्ञानीमें नहीं है-पं. जयचन्द)। मिथ्या नय-दे० नय/II । मिथ्या शल्य-दे० मिथ्यादर्शन। मिनट-कालका एक प्रमाण-दे० गणित/1/१/४। मिश्र-१. आहारका एक दोष-दे० आहार/II/४/४२ वसतिका
का एक दोष-दे० वसतिका। ३ एक ही उपयोगमें शुद्ध व अशुद्ध दो अंश-दे० उपयोग/II/३॥ ४. मिश्र चारित्र अर्थात एक ही चारित्रमें दो अंश-दे० चारित्र/७/७ । ५. व्रत, समिति, गुप्ति आदिमें युगपत् दो अंश-प्रवृत्ति व निवृत्ति -दे० संवर/२। ६. सयम व असंयमकका मिश्रपना-दे० सयतासंयत/२। ७. एक ही संयममें दो अंश-प्रमत्तता व संयम-दे० स यत/२। ८. एक ही श्रद्धान व ज्ञानमें दो अंश-सम्यक व मिथ्या-दे० आगे 'मिश्र' गुणस्थान ।
६. मिश्र प्रकृति-दे० मोहनीय। मिथकेशारुचक पर्वत निवासिनी दिक्कुमारी-दे० लोक/५/१३ । मिध गुणस्थान-दही व गुडके मिश्रित स्वादयत् सम्यक्
बमिथ्यारूप मिश्रित श्रद्धान व ज्ञानको धारण करनेकी अवस्था विशेष सम्यग्मिध्यात्व या मिश्रगुणस्थान कहलाता है। सम्यक्त्वसे गिरते समय अथवा मिथ्यात्वसे चढ़ते समय क्षणभरके लिए इस
अवस्थाका वेदन होना सम्भव है। १. मिश्रगुणस्थान निर्देश
१. सम्यग्मिथ्याव गुणस्थानका लक्षण पं.सं./१/१०.१६ इहिगुडमिव वामिस्सं पिहभावं णैव कारिदं सक्कं । एवं मिस्सयभावो सम्मामिच्छो त्ति णायव्यो ।१०। सद्दहणासदहणं जस्स य जीवेसु होइ तच्चेसु । बिरयाविरएण समो समामिच्छो त्ति णायब्बो ।१६६।०१. जिस प्रकार अच्छी तरह मिला हुआ दही और गुड पृथक् पृथक नहीं किया जा सकता इसी प्रकार सम्यक्त्व व
मिथ्यात्वसे मिश्रित भावको सम्यग्मिथ्यात्व जानना चाहिए।१०। (ध. १/१,१२/गा.१०६/१७०); (गो. जी./मू./२२/४७)।२.जिसके उदयसे जीवोंके तत्त्वों में श्रद्धान और अश्रद्धान युगपत् प्रगट हो है, उसे विरताविरतके समान सम्यग्मिथ्यात्व जानना चाहिए १६६ (गो. जी मू./६५/११०२)। रा बा./६/११४/५८६/२३ सम्यड् मिथ्यात्वसंज्ञिकाया प्रकृतेरुदयाव
आत्मा क्षीणाक्षीणमदशक्तिकोद्रवोपयोगापादितेषत्कलुषपरिणामवत तत्त्वार्थश्रद्धानाश्रद्धानरूप' सम्यग्मिध्यादृष्टिरित्युच्यते-क्षीणाक्षीण मदशक्तिवाले कोदोके उपभोगसे जैसे कुछ मिला हुआ मदपरिणाम होता है, उसी तरह सम्यग्मिथ्यात्व प्रकृतिके उदयसे तत्त्वार्थका श्रद्धान व अश्रद्धानरूप मिला हुआ परिणाम होता है। यही तीसरा सम्यमिथ्यादृष्टि गुणस्थान है। ४.१/१,१,११/१६६/७ दृष्टि' श्रद्धा रुचि प्रत्यय इति यावत् । समीचीना च मिथ्या च दृष्टिर्यस्यासौ सम्यग्मिथ्यादृष्टिः । = दृष्टि, श्रद्धा, रुचि
और प्रत्यय ये पर्यायवाची नाम है। जिस जीवके समीचीन और मिथ्या दोनों प्रकारकी दृष्टि होती है उसको सभ्यग्मिथ्यावृष्टि कहते हैं। गो. जो /मू./२१/४६ सम्मामिच्छुदयेण य जत्तंतरसव्वधादिकज्जेण । णय सम्म मिच्छ पिय सम्मिस्सो होदि परिणामो २४ - जात्यन्तररूप सर्वघाती सम्यग्मिथ्यात्व प्रकृतिके उदयसे केवल सम्यक्त्वरूप या मिथ्यात्वरूप परिणाम न होकर जो मिश्ररूप परिणाम होता है, उसको तीसरा मिश्र गुणस्थान कहते है। ल, सा./मू /१०७/१४५ मिस्सुदये सम्मिस्सं दहिगुडमिस्स व तच्चमियरेण सदहदि एक्कसमये. १९०७ सम्यग्मिथ्यात्व नामा मिश्र प्रकृतिके उदयसे यह जीव मिश्र गुणस्थानवर्ती होता है। दही और गुड़के मिले हुए स्वादकी तरह वह जीव एक ही समयमें तत्त्व व अतत्त्व दोनोकी मिश्ररूप श्रद्धा करता है । (द्र. सं./टी./१३/३३/२) ।
२. प्रथम या चतुर्थ दो ही गुणस्थानों में जा सकता है घ. ४/५,५,६/३४३/८ तस्स मिच्छत्तसम्मत्तसहिदासंजदगुणे मोत्तण
गुण तरगमणाभावा । सम्यग्मिथ्यादृष्टि जीवका मिथ्यात्वसहित मिथ्यादृष्टि गुणस्थानको अथवा सम्यक्त्वसहित असंयत गुणस्थानको छोड़कर अन्य गुणस्थानोमें गमनका अभाव है।
३. संयम धारनेको योग्यता नहीं है ध. ४/१५.१७/गा. ३३/३४६ ण य मरइ णैव संजममुवेइतह देसस जर्म वावि। सम्मामिच्छादिट्ठी . १३३-सभ्यग्मिथ्यादृष्टि जीव न संयमको प्राप्त होता है और न देश संयमको। (गो, जी././२३/ ४८)। * मिश्र गुणस्थानमें मृत्यु सम्भव नहीं-दे. मरण/३ ।
४.मिश्र गुणस्थानका स्वामित्व ध.१/१,८,१२/२६०/७ सम्मामिच्छत्तगुणं पुण वेदगुवसमसम्मादिछिणो अठ्ठावीससतकम्मिमिच्छादिठिणो य पडिवज्जति ।- सम्यग्मिथ्यात्व गुणस्थानको वेदकसम्यग्दृष्टि, उपशमसम्यग्दृष्टि और मोहकर्मको २८ प्रकृतियोकी सत्तावाले मिथ्यावृष्टि जीव भी प्राप्त होते है। ( अर्थात अनादि मिथ्यादृष्टि या जिन्होने सम्यक्त्व व सम्य'मिथ्यात्व प्रकृतियोकी उद्वेलना कर दी है ऐसे मिथ्यादृष्टि 'सम्यग्मिथ्यादृष्टि' गुणस्थानको प्राप्त नहीं होते)। ध. १५/११/८ एइंदिएसु उव्वेल्लिदसम्माभिच्छत्तट्ठिदिसंतकम्मस्सेव पलिदोबमस्स असंखेज्जदिभागेण ऊणसागरोवममेत्तट्टिदिसंतकम्मै सेसे सम्मामिच्छत्तग्गहणपाओग्गस्सुबलं भादो। जो पुण तसेच एइंदियट्ठिदिसंतसमं सम्मामिच्छर कुणइ सो पुव्वमेव सागरोवम
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मिश्र
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२. मिश्र गुणस्थान सम्बन्धी शंका-समाधान
पृधत्ते सेसे चेव तदपाओग्गा होदि । जिसने एकेन्द्रियोमे सम्यग्मिपात्यके रिथतिसत्त्वकी उद्वेलना की है उसके हो पल्योपमके असंख्यातवे भागसे हीन एक सागरोपम मात्र स्थिति सत्त्व के रहनेपर सम्पग्मिध्यात्बके ग्रहण की योग्यता पायी जाती है। परन्तु जो त्रस जीवोमे र केन्द्रिपके स्थितिमात्बके बराबर सम्यग्मिध्यात्वके स्थितिसत्त्वको वरता है, यह पहले ही सागरोपमपृथक्त्वप्रमाण स्थितिके
शेष रहनेपर ही उसके ग्रहण के अयोग्य हो जाता है। दे. सत् - ( इस गुणस्थानमे एक संज्ञी पर्याप्तक ही जीव समास सम्भव है, एकेन्द्रियादि अस ज्ञो पर्यंत के जीव तथा सर्व ही प्रकारके अपर्याप्तक जीव इसको प्राप्त नहीं कर सकते)।
* अन्य सम्बन्धित विषय १. जीव समास, मार्गणास्थान आदिके स्वामित्व सम्बन्धी २० प्ररूपणाएँ
-दे० सत। २. सत्, संख्या, क्षेत्र, स्पर्शन, काल, अन्तर, भाव व अल्पबहुत्व प्ररूपणाएँ
-दे० वह-वह नाम । ३. इम गुणस्थानमें आय व व्ययका सन्तुलन -दे० मार्गणा ४ इसमें कर्मोंका बन्ध उदय सत्व
-दे० वह-वह नाम ५ राग व विरागताका मिश्रित भाव -दे० उपयोग/11/३ । ६ इस गुणस्थानमें क्षायोपशमिक भाव होता है -दे० भाव/२ ।
५. ज्ञान भी सम्यक् व मिथ्या उमयरूप होता है। रा. वा./8/१/१४/५८६/२५ अत एवास्य त्रीणि ज्ञानानि अज्ञानमिश्राणि इत्युच्यन्ते । - इसके तीनो ज्ञान अज्ञानसे मिश्रित होते है (गो.जी। मू /३०२/६५३ ) (दे० सत्) ।
परिणामोका ही उत्पादक है। अत उसके उदयसे उत्पन्न हुए परिणामोसे युक्त ज्ञान 'ज्ञान' इस सज्ञाको प्राप्त हो नहीं सकता है, क्योकि, उस ज्ञानमें यथार्थ श्रद्धाका अन्वय नहीं पाया जाता है।
और उसे अज्ञान भी नही कह सक्ते हैं, क्योकि, वह अयथार्थ श्रद्धाके साथ सम्पर्क नहीं रखता है। इसलिए वह ज्ञान सम्यग्मिध्यात्व परिणामकी तरह जात्यन्तर रूप अवस्थाको प्राप्त है। अत' एक होते हुए भी मिश्र कहा जाता है ।
२. जात्यन्तर ज्ञानका तात्पर्य ध.१/१,१,११६/३६४/५ यथायथं प्रतिभासितार्थप्रत्ययानुविद्धावगमो ज्ञानम् । यथायथमप्रतिभासितार्थप्रत्ययानुविद्धावगमोऽज्ञानम् । जात्यन्तरीभूतप्रत्ययानुविद्धावगमो जात्यन्तरं ज्ञानम, तदेव मिश्रज्ञानमिति राद्धान्तविदो व्याचक्षते । = यथावस्थित प्रतिभासित हुए पदार्थ के निमित्तसे उत्पन्न हुए तत्सम्बन्धी बोधको ज्ञान कहते हैं। न्यूनता आदि दोषोसे युक्त यथावस्थित अप्रतिभासित हुए पदार्थ के निमित्तसे उत्पन्न हुए तत्सम्बन्धी बोधको अज्ञान कहते हैं। और जात्यन्तररूप कारणसे उत्पन्न हुए तत्सम्बन्धी ज्ञानको जात्यन्तर ज्ञान कहते है। इसीका नाम मिश्रगुणस्थान है, ऐसा सिद्धान्तको जाननेवाले विद्वान् पुरुष व्याख्यान करते है।
..मिश्रगुणस्थानमें अज्ञान क्यों नहीं कहते ध.११७,४५/२२४/७ तिसु अण्णाणेसु णिरुव सु सम्मामिच्छादिहि
भावो किण्ण परूविदो। ण, तस्स सद्दहणासद्दहणेहि दोहिं मि अक्कमेण अणुविद्धस्स संजदासजदो ब पत्तजच्चतरस्स गाणेसु अण्णाणेस बा अस्थित्तविरोहा। प्रश्न- तीनों अज्ञानोको निरुद्ध अर्थात आश्रय करके उनकी भाव प्ररूपणा करते हुए सम्यग्मिथ्यादृष्टि गुणस्थानका भाव क्यों नहीं बतलाया। उत्तर-नहीं, क्योंकि, श्रद्धान और अश्रद्धान, इन दोनोंसे एक साथ अनुविद्ध होनेके कारण संयतासंयतके समान भिन्न जातीयताको प्राप्त सम्यग्मिथ्यात्वका पाँचों ज्ञानोंमें, अथवा तीनो अज्ञानोंमें अस्तित्व होनेका विरोध है। * युगपत् दो रुचि कैसे सम्भव है-दे० अनेकान्त/१/१.२ १. संशय व विनय मिथ्यात्व तथा सम्यग्मिथ्यात्वमें
क्या अन्तर है द्र सं./टी./१३/३३/४ अथ मतं-येन केनाप्येकेन मम देवेन प्रयोजन
तथा सर्वे देवा बन्दनीया न च निन्दनीया इत्यादि वैनयिकमिथ्यादृष्टि' संशयमिथ्यादृष्टिा तथा मन्यते, तेन मह सभ्यग्मिथ्यादृष्टे' को विशेष इति, अत्र परिहार'-स सर्वदेवेषु सर्वसमयेषु च भक्तिपरिणामेन येन केनाप्येकेन मम पुण्यं भविष्यतीति मत्वा सशयरूपेण भक्तिं कुरुते निश्चयो नास्ति । मिश्रस्य पुनरुभयत्र निश्चयोऽस्तीति विशेष -प्रश्न-चाहे जिससे हो, मुझे तो एक देवसे मतलब है, अथवा सभी देव वन्दनीय हैं, निन्दा किसी भी देवकी नहीं करनी चाहिए । इस प्रकार वैनयिक और सशय मिथ्यादृष्टि मानता है। तब उसमें तथा मिश्र गुणस्थानवर्ती सम्यग्मिथ्यादृष्टिमें क्या अन्तर है। उत्तर-वैनयिक तथा संशय मिध्यादृष्टि तो सभी देवोंमें तथा सब शास्त्रोमें से किसी एककी भी भक्तिके परिणामसे मुझे पुण्य होगा, ऐसा मानकर संशयरूपसे भक्ति करता है. उसको किसी एक देवमें निश्चय नहीं है। और मिश्रगुणस्थानवर्ती जीवके दोनोमें निश्चय है । बस यही अन्तर है।
५. पर्याप्तक ही होनेका नियम क्यों घ.१/१,१,६५/३३/३ कथं । तेन गुणेन सह तेषां मरणाभावात् ।
अपर्याप्तकालेऽपि सम्यग्मिथ्यात्वगुणस्योत्पत्तेरभावाच । नियमेऽभ्यु
२. मिश्र गुणस्थान सम्बन्धी शंका समाधान
१. ज्ञान व अज्ञानका मिश्रण कैसे सम्भव है ध १/१,१,११६/३६३/१० यथार्थश्रद्धानुविद्धावगमो ज्ञानम्, अयथार्थश्रद्धानुविद्वावगमोऽज्ञानम् । एव च सति ज्ञानाज्ञानयोभिन्नजीवाधिकरणयोर्न मिश्रण घटत इति चेत्सत्यमेतदिष्टत्वात्। किन्तवत्र सम्यग्मिध्यादृष्टावेवं मा ग्रही' यतः सम्यग्मिथ्यात्वं नाम कर्म न तन्मिथ्यात्वं तस्मादनन्तगुणहोनशक्तेस्तस्य विपरीताभिनिवेशोत्पादसामाभावात् । नापि सम्यक्त्वं तस्मादनन्तगुणशक्तेस्तस्य यथार्थ श्रद्धया साहचर्याविरोधात । ततो जात्यन्तरत्वात् सम्यग्मिथ्यात्वं जात्यन्तरीभूतपरिणामस्योत्पादकम् । ततस्तदुदयजनितपरिणामसमवेतबोधो न ज्ञानं यथार्थश्रद्वयाननुविद्धत्वात् । नाप्यज्ञानमयथार्थश्रद्वयासंगत्वात्। ततस्तज्ज्ञान सम्यग्मिथ्यात्वपरिणामवज्जात्यन्तरापन्न मित्येकमपि मिश्रमित्युच्यते । प्रश्न-यथार्थ श्रद्धासे अनु विद्ध अवगमको ज्ञान कहते है और अयथार्थ श्रद्धासे अनुविद्ध अवगमको अज्ञान कहते है। ऐसी हालतमें भिन्न-भिन्न जीवोंके आधारसे रहनेवाले ज्ञान और अज्ञानका मिश्रण नहीं बन सकता है। उत्तर-यह कहना सत्य है, क्योकि, हमें यही इष्ट है। किन्तु यहाँ सम्यग्मिथ्यादृष्टि गुणस्थान में यह अर्थ ग्रहण नहीं करना चाहिए, क्योकि, सम्यग्मिथ्यात्व कर्म मिथ्यात्व तो हो नहीं सकता, क्योंकि, उससे अनन्तगुणी हीन शक्तिवाले सम्यग्मिथ्यात्व में विपरीताभिनिवेशको उत्पन्न करनेकी सामर्थ्य नहीं पायी जाती है। और न वह सम्यक्प्रकृतिरूप ही है, क्योंकि, उससे अनन्तगुणी अधिक शक्तिवाले सम्यग्मिथ्यात्वका यथार्थ श्रद्धानके साथ साहचर्य सम्बन्धका विरोध है। इसलिए जात्यन्तर होनेसे सम्यग्मिथ्यात्व (कर्म) जात्यन्तररूप
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मिश्र
२. मिश्रगुणस्थान सम्बन्धी शंका-समाधान
पगम्यमाने एकान्तवादः प्रसजतीति चेन्न, अनेकान्तगर्भेकान्तस्य देशघाती स्पर्ध कोके उदयसे और उसीके सर्वघाती स्पर्धको के उपशम सत्त्वाविरोधात प्रश्न-यह कैसे (अर्थात सम्यग्मिथ्यादृष्टि गुण- संज्ञावाले उदयाभावसे सम्यग्मिथ्यात्यकी उत्पत्ति होती है, इसलिए स्थानमें देव पर्याप्त ही होते है, सो कैसे )। उत्तर-क्योकि, तीसरे वह तदुभयप्रत्ययिक अर्थात उदयोपशमिक कहा जा सकता है, पर गुणस्थानके साथ मरण नहीं होता है (दे.मरण/३), तथा अपर्याप्तकाल- क्षायोपशमिक नहीं। में भी सम्यग्मिथ्यात्व गुणस्थानकी उत्पत्ति नहीं होती। प्रश्न
७. मिश्रगुणस्थानकी शायोपशमिकतामें उपरोक्त लक्षण 'तृतीय गुणस्थानमें पर्याप्त ही होते हैं' इस प्रकार नियमके स्वीकार कर लेने पर तो एकान्तवाद प्राप्त होता है । उत्तर-नहीं, क्योकि
घटित नहीं होते अनेकान्त गर्भित एकान्तवादके मानने में कोई विरोध नहीं आता।
ध.४१,७,४,/१९६/४ मिच्छत्तस्स सम्बधा दिफद्दयाणमुदयक्रवएण तेसिं
चेव संतोसमेण. त्ति सम्मामिच्छत्तस्स खोबसमियत्त केई परूव६. इस गुणस्थानमें क्षायोपशमिकपना कैसे है
यति, तण्ण घडदे, मिच्छत्तभावस्स वि खओवसमियत्तप्पसगा। ध. १/१,१,११/१६८/१ कथं मिथ्यादृष्टे सम्यग्मिथ्यात्वगुणं प्रतिपद्य- कुदो। सम्मामिच्छत्तस्स सयघादिफयाणमुदयवरखएण तेसि चैव मानस्य तावदुच्यते। तद्यथा, मिथ्यात्वकर्मणः सर्वघातिस्पर्धकाना- संतोवसमेण सम्मत्तदेसघादिफयाणमुदयवखएण तेसिं चेव सतीवमुदयक्षयात्तस्यैव सत उदयाभावलक्षणोपशमात्सम्यग्मिथ्यात्वकर्मणः समेण अणुदओवसमेण वा मिच्छत्तस्स सव्यधादिफयाणमुदएण सर्वधातिस्पर्धकोदयाचोत्पद्यत इति सभ्यग्मिथ्यात्वगुणः क्षायोप- मिच्छत्तभावुप्पत्तीए उबलं भा। कितने ही आचार्य ऐसा कहते है शमिकः ।
कि मिथ्यात्व या सम्यक्प्रकृतिके उदयाभावी क्षय व सदवस्थारूप घ.१/१,१,१९/१६६/२ अथवा, सम्यक्त्वकर्मणो देशघातिस्पर्धकाना- उपशम तथा सम्यग्मिथ्यात्व प्रकृतिके उदयसे यह गुणस्थान क्षायोपमुदयक्षयेण तेषामेव सतामुदयाभावलक्षणोपशमेन च सम्यग्मि- शमिक है-(दे. मिश्र२/६/१,२),किन्तु उनका यह कहना घटित नही ध्यात्वकर्मणः सर्वघातिस्पर्धकोदयेन च सम्यग्मिध्यात्वगुण होता है, क्योंकि, ऐसा माननेपर तो मिथ्यात्व भावके भी क्षायोपउत्पद्यत इति क्षायोपशमिकः । सम्यग्मिथ्यात्वस्य क्षायोपश- शमिकताका प्रसंग प्राप्त होगा, क्योंकि सम्यग्मिथ्यात्वके सर्वधाती मिकत्वमेवमुच्यते बालजनव्युत्पादनार्थम् । वस्तुतस्तु सम्यग्मिध्या- स्पर्धकोके उदयक्षयसे, उन्हींके सदवस्थारूप उपशमसे और सम्यक्त्व स्वकर्मणो निरन्वयेनाप्तागमपदार्थविषयरुचिहननं प्रत्यसमर्थ- प्रकृतिके देशघाती स्पर्धकोके उदय क्षयसे, उन्हीं के सदवस्थारूप स्योदयात्सदसद्विषयश्रद्धोत्पद्यत इति क्षायोपशमिक. सम्यग्मिथ्या- उपशमसे अथवा अनुदयरूप उपशमसे तथा मिथ्यात्वके सर्वघाती त्वंगुण। अन्यथोपशमसम्यग्दृष्टौ सम्यग्मिथ्यात्वगुणं प्रतिपन्ने
स्पर्धकोंके उदयसे मिथ्यात्वभाव की उत्पत्ति पायी जाती है। [ अतः सति सम्यग्मिथ्यात्वस्य क्षायोपशमिकत्वमनुपपन्नं तत्र. सम्यक्त्व
पूर्वोक्त शीर्षक नं. ६ से कहा गया लक्षण नं.३ ही युक्त है ] (ध. मिथ्यात्वानन्तानुबन्धिनामुदयक्षयाभावात । -प्रश्न-मिथ्यादृष्टि
१/१,१,११/१७०/१); (और भी दे. शीर्षक नं. ११) गुणस्थानसे सम्यग्मिध्यात्व गुणस्थानको प्राप्त होनेवाले जीवके
6. सर्वघाती प्रकृति के उदयसे होनेके कारण इसे क्षायोपक्षायोपशमिक भाव कैसे सम्भव है। उत्तर-१. वह इस प्रकार है, कि वर्तमान समयमें मिथ्यात्वकर्मके सर्वघाती स्पर्धकोंका शमिक कैसे कह सकते हो उदयाभावीक्षय होनेसे, सत्ता में रहनेवाले उसी मिथ्यात्व कर्मके
घ, ७/२,१,७६/११०/७ सम्मामिच्छत्तस्स सव्वघ इफदया मुदएण सर्वघाती स्पर्ध कोंका उदयाभाव लक्षण उपशम होनेसे और
सम्मामिच्छादिट्ठी जदो होदि तेण तस्स खओअसमिओ त्ति ण सम्यग्मिथ्यात्वकर्मके सर्वघाती स्पर्धकोंके उदय होनेसे सम्यग्मि
जुज्जदे ।...ण सम्मामिच्छत्तफद्दयार्ण सव्वघादित्तमत्थि,...ण च थ्यात्व गुणस्थान पैदा होता है, इसलिए वह क्षायोपशमिक है।
एत्थ सम्मत्तस्स णिमूल विणासं पेच्छामो सम्भूदासब्भूदत्थेसु तुल्ल२. अथवा सम्यक्त्वप्रकृतिके देशघाती स्पर्धकोंका उदयक्षय
सद्दहणदंसणादो। तदो जुज्जदे सम्मामिच्छत्तस्स खोवसमिओ होनेसे, सत्तामें स्थित उन्हीं देशघाती स्पर्धकोंका उदयाभाव लक्षण
भावो।प्रश्न-चू कि सम्यग्मिथ्यात्व नामक दर्शनमोहनीय प्रकृतिउपशम होनेसे और सम्यग्मिथ्यात्व कर्म के सर्वधाती स्पर्धकोंके
के सर्वधाती स्पर्धकोके उदयसे सम्यग्मिथ्यावृष्टि होता है (दे मिश्र उदय होनेसे सम्यग्मिथ्यात्व गुणस्थान उत्पन्न होता है इसलिए
२/६/१), इसलिए उसके क्षायो पशमिकभाव उपयुक्त नहीं है। वव क्षायोपश मिक है। ३. यहाँ इस तरह जो सम्यग्मिध्यात्व
उत्तर--सम्यग्मिथ्यात्व प्रकृतिके स्पर्धको में सर्वघातीपना नहीं होता, गुणस्थानको क्षायोपशमिक कहा है वह केवल सिद्धान्तके पाठका
क्योंकि इस गुणस्थानकी उत्पत्तिमे हम सम्यक्त्व का निर्मूल विनाश प्रारम्भ करनेवालोंके परिज्ञान करानेके लिए ही कहा गया है।
नही देखते, क्योकि, यहाँ सद्भुत और असद्भूत पदार्थोंमे समान (परन्तु ऐसा कहना धटित नहीं होता, दे. आगे/शीर्षक नं.७) वास्तव श्रद्धान होना देखा जाता है। और भी दे० अनुभाग४/६)। इसलिए में तो सम्यग्मिथ्यात्व कर्म निरन्वयरूपसे आप्त आगम और पदार्थ सम्यग्मिथ्यात्वको क्षायोपशमिक भाव मानना उपयुक्त है। विषयक श्रद्धाके नाश करनेके प्रति असमर्थ है, किन्तु उसके उदयसे
ध४१,७,४/१९८/२ पडिबधिकम्मोदए संते वि जो उपलब्भइ जीवसमीचीन और असमीचीन पदार्थको युगपत् विषय करनेवाली गुणावयवो सो खओवसमिओ उच्चइ । कुदो । सव्वादणसत्तीए श्रद्धा उत्पन्न होती है, इसलिए सम्यग्मिथ्यात्व गुणस्थान क्षायोप- अभावो खओ उच्चदि । खको चेव उवसमो ख ओवसमो, तम्हि शमिक कहा जाता है। अन्यथा उपशमसम्यग्दृष्टिके सम्यग्मिथ्यात्व जादो भावो खोवसमिओ। ण च सम्मामिच्छत्तदए संते सम्मत्तगुणस्थानको प्राप्त होनेपर उसमें क्षयोपशमपना नहीं बन सकता है, स्स कणिया वि उव्वरदि, सम्मामिच्छत्तस्स सव्वधादित्तण्णहाणुवक्योकि उस जीवके ऐसी अवस्था में सम्यकप्रकृति, मिथ्यात्व और बत्तीदो। तदो सम्मामिच्छत्त खओवसमियमिदि ण घडदे । एत्थ अनन्तानुबन्धी इन तीनोंका ही उदयाभावी क्षय नहीं पाया जाता। परिहारो उच्चदे-सम्मामिच्छत्तुदए सते सद्दहणासहहणप्पओ वरघ.१४/५.६,१६/२१/८ सम्मामिच्छत्तदेसघादिफड़याणमुदएण तस्सेव चिओ जीवपरिणामो उप्पज्जइ। तत्थ जो सद्दहणं सो सो सम्मत्तावसव्यधादिफद्दयाणमुदयाभावेण उवसमक्षण्णिदेण सम्मामिच्छत्तमुप्प- यवो। तं सम्मामिच्छत्तु दओ ण विणासेदि त्ति सम्मामिच्छत्तं ज्जदि त्ति तदुभयपच्चइयत्तं ।४. [ सम्यग्मिथ्यात्व प्रकृति सर्व- खोवसमियं । असहहणभागेण विणा सहहणभागस्सेव सम्मामिच्छघाती नहीं है अन्यथा उसके उदय होनेपर सम्यक्त्वके अंशकी भी त्तववएसोण त्यित्ति ण सम्मामिच्छत्तं खओवसमियमिदिचे एवं विहउत्पत्ति नहीं बनसकती-दे.अनुभाग४/६/४]इसलिए सम्यग्मिथ्यात्वके विवक्रवाए सम्मामिच्छत्तं खओवसमियं मा होदु, कितु अवयव्यब
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मिष
यवनिराकरणानिराकरणं पडुच खओवसमियं सम्मामिच्छत्तदव्यकम्मं पि सववादी चेव होदु, जच्चतरस्स सम्मामिच्छत्तस्स सम्माभावादी कितु सहभागी असहभागी होचि सा सदणाणमेतविरोहादो ण च सहभागी कम्मोदयजपिओ, तत्थ विवरीयत्ताभावा । ण य तत्थ सम्मामिच्छत्तववएसाभाव े, समुदाए पयट्टागं तदेगदेसे वि पउत्तिदसणादो । तदो सिद्ध सम्मामिच्छत्त खओवसमियमिदि । प्रश्न- प्रतिबन्धी कर्मका उदय होनेपर जो जीवके गुणका अवयव पाया जाता है, वह गुणाश क्षायोपशमिक कहलाता है, क्योंकि, गुणोके सम्पूर्ण रूप से घातकी शक्तिका अभाव क्षय कहलाता है। क्षयरूप ही जो उपशम होता है. वह क्षयोपशम कहलाता है देोषम/१) उस क्षयोपशममें होनेवाला भान क्षायोपशमिक कहलाता है। किन्तु सम्यग्मिथ्यात्व कर्मके उदय रहते हुए सम्यक्त्वकी कणिका भी अवशिष्ट नहीं रहती है, अन्यथा सम्यग्मिभ्यामकर्मके सर्वपातीपना बन नहीं सकता है। इसलिए सम्यग्मिथ्यात्व क्षायोपशमिक है, यह कहना घटित नहीं होता । उत्तर-- सम्यग्मिथ्यात्वकर्मके उदय होनेपर श्रद्धानाश्रद्धानात्मक कथंचित् अर्थात् शचलित या मिश्रित जीव परिणाम उत्पन्न होता है । उसमें जो श्रद्धानांश है, वह सम्यक्त्वका अवयव है । उसे सम्यग्मिथ्यात्व कर्मका उदय नहीं नष्ट कर सकता है, इसलिए सम्यग्मिथ्यात्व भाव क्षायोपशमिक है। प्रश्न -- अश्रद्धान भागके बिना केवल श्रद्धान भागके ही 'सम्यमिथ्यात्व' यह सज्ञा नहीं है, इसलिए सम्यग्मिथ्यात्व भाव क्षायोपशमिक नहीं है। उत्तर-- उक्त प्रकारकी विवक्षा होनेपर सम्यमिथ्यात्वभाव क्षायोपशमिक भले ही न होवे, किन्तु अवयवीके निराकरण और अवयवके निराकरणको अपेक्षा वह क्षायोपशमिक है । अर्थात् सम्यग्मिथ्यात्वके उदय रहते हुए अवयवीरूप सम्यक्व गुणका तो निराकरण रहता है और सम्यक्त्वका अवयवरूप अंश प्रगट रहता है । इस प्रकार क्षायोपशमिक भी वह सम्यग्मिथ्यात्व द्रव्यकर्म सर्वघाती ही होने और भी दे० अनुमान), क्योंकि जात्यन्तरभूत सम्यग्मिथ्यात्व कर्म के सम्यक्त्वका अभाव है। किन्तु श्रद्धानभाग अश्रद्धानभाग नहीं हो जाता है, क्योंकि श्रद्धान और अश्रद्धानके एकताका विरोध है । और श्रद्धान भाग कर्मोदयजनित भी नहीं है, क्योंकि, इसमें विपरीतताका अभाव है। और न उनमें सम्पमध्यात्व संज्ञाका ही अभाव है क्योकि समुदायोंमें प्रवृत्त हुए शब्दोंकी उनके एकदेश में भी प्रवृत्ति देखी जाती है, इसलिए यह सिद्ध हुआ कि सम्यग्मिध्यात्व क्षायोपशमिक भाव है।
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९. सम्यग्मिथ्यात्व में सम्यक्त्वका अंश कैसे सम्भव है ध. ५/१,७,१२/२०८/२ सम्मामिच्छत्तभावे पत्तपजचचंतरे अंसासीभावो थितिर सम्मदंसणस एगदेस इदि ने होइ नाम अमेद दिखाए अन्तरतं भेदे पूरा विवखिदे सम्मसमभागो अस्थि चैव अण्णहा जच्चतरत्तविरोहा । ण च सम्मामिच्छत्तस्स समामेव ते पित्तजवंतरे सम्मइदं स सामावादी तस्स सव्वधाइत्ताविरोहा । प्रश्न -- जात्यन्तर भावको प्राप्त सम्यमिथ्यात्व भावमें अंशांशी भाव नहीं है, इसलिए उसमें सम्यग् - दर्शनका एकदेश नहीं है। उत्तर- अभेदकी विवक्षामें सम्यगमिथ्यात्व के भिन्नजातीयता भले ही रहो आबे, किन्तु भेदकी विवक्षा करनेपर उसमें सम्यग्दर्शनका अंश है ही। यदि ऐसा न माना जाये तो, उसके जात्यन्तरत्व के माननेमें विरोध आता है । और ऐसा माननेपर सम्यग्मिध्यात्यके सर्वघातीपना भी विरोधका प्राप्त नहीं होता है, क्योकि उसके भिन्नजातीयता प्राप्त होनेपर सम्यग्दर्शनके एकदेशका अभाव है, इसलिए उसके सर्वघातीपना मानने में कोई विशेष नहीं आता है।
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मिहिरकुल
१०. मिश्रप्रकृतिके उदयसे होनेके कारण इसे श्रीदविक क्यों नहीं कहते
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घ. १/१.१.१९/९६/३ सतामपि सभ्यमिध्यात्वोदयेन अधिकइति किमिति न व्यपदिश्यत इति चेन्न, मिथ्यात्वोदयादिवात' सम्यवस्य निरम्यविनाशानुपलम्भात प्रश्न- तीसरे गुणस्थानमें सम्यग्मिथ्यात्व प्रकृतिके उदय होनेसे वहाँ औदयिक भाव क्यों नहीं कहा है। उत्तर- नही, क्योकि, मिथ्यात्व प्रकृतिके उदयसे जिसप्रकार सम्यक्त्वका निरन्वय नाश होता है उसप्रकार सम्यग्मिथ्यात्व प्रकृतिके उदयसे सम्यका निरन्क्य नाश नहीं पाया जाता है, इसलिए तीसरे गुणस्थान में औदयिकभाव न कहकर क्षायोपशमिक भाव कहा है।
११. मिथ्यात्वादि प्रकृतियोंके क्षय व उपशमसे इसकी उत्पत्ति मानना ठीक नहीं
घ. २१/१.१,११/१६/०
मिध्यात्वक्षयोपशमादिवानानुमनाम सर्वपातिस्पर्धकक्षयोपशमाज्जातमिति सम्यग्मिथ्यात्वं किमिति नोच्यत इति चेन्न तस्य चारित्रप्रतिबन्धकत्वात् । ये त्खनन्तानुमक्षियोपशमादुत्पत्ति प्रतिजानते तेषां ग्रासावनगुण ओतविक स्यात्, न चैवमनभ्युपगमात् । - प्रश्न- जिस तरह मिथ्यात्वके क्षयोपशम से सम्यग्मिथ्यात्व गुणस्थानकी उत्पत्ति बतलायी है, उसी प्रकार वह अनन्तानुमन्धी कर्मके सर्वघाती स्पर्धकोंके क्षयोपशमसे होता है, ऐसा क्यों नहीं कहा। उत्तर-नहीं, क्योंकि, अनन्तानुबन्धी कषाय चारित्रका प्रतिबन्ध करती है ( और इस गुणस्थान में पानी प्रधानता है जो आचार्य अमन्दानुबन्धकर्म के क्षयोपशमसे तीसरे गुणस्थानकी उत्पत्ति मानते हैं, उनके मत से सासादन गुणस्थानको बौदधिक मानना पड़ेगा। पर ऐसा नहीं है, क्योंकि. दूसरे गुणस्थानको बौदधिक नहीं माना गया है।
दे० क्षयोपशम / २/४ [ मिध्यास अनन्तानुबन्धी और सम्यवत्वप्रकृति इन तीनों का उदयाभावरूप उपशम होते हुए भी मिश्रगुणस्थानको औपशमिक नहीं कह सकते]
★ १४ मार्गणाओंमें सम्भव मिश्र गुणस्थान विषयक शंका समाधान - दे० वह वह नाम । मिश्र प्रकृति - दे० मोहनीय । मिश्रमत दे०मीमांसा दर्शन मिश्रानुकंपा — दे० अनुकपा मिश्रोपयोग — दे० उपयोग / II / ३ |
मिष्ट संभाषण - दे० सत्य
मिहिरकुल -मगधदेशकी राज्य व शारसीके अनुसार यह
का अन्तिम राजा था। तोरमाणका पुत्र था। इसने ई० ५०७ में राजा भानुगुप्तको परास्त करके गुप्तवंशको नष्टप्राय कर दिया था । यह बहुत अत्याचारी था. जिसके कारण 'कल्की' नाम से प्रसिद्ध हुआ। इसके अत्याचारोसे तंग आकर गुप्त वंशकी बिखरी हुई शक्ति एक बार पुन संगठित हो गयी और राजा विष्णु यशोधर्मकी अध्यक्षता ई १३३ में (किन्हीं के मतानुसार ई० ३२५ में उसने मिहिर कुलको परास्त करके भगा दिया। उसने भागकर कशमीर में शरण ली और ई० ५४० में वहाँ ही उसकी मृत्यु हो गयी। समय- वी. नि. १०३३ - १०८५ ( ई० ५०६-५२८ ) - ( विशेष दे० इतिहास / ३ / ४ ) ।
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मीमांसा दर्शन
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मीमांसा दर्शन
मीमांसा-दे० ऊहा-ईहा, ऊहा, अपोहा, मागणा, गवेषणा और
मीमांसा ये ईहाके पर्यायनाम है । (और भी-दे० विचय) घ १३/५०६,३८/११ मीमास्यते विचार्यते अवगृहीतोऽर्थो विशेषरूपेण अनया इति मीमांसा। -अवग्रहके द्वारा ग्रहण किया अर्थ विशेषरूपसे जिसके द्वारा मीमासित किया जाता है अर्थात विचारा जाता
है वह मीमांसा है। मीमांसा दर्शन-* वैदिक दर्शनों का विकास क्रम व
समन्वय-दे० दर्शन। 1. मीमांसा दर्शनका सामान्य परिचय (षड्दर्शन समुच्चय/६८/६६); (स्या मं./परि० च/४३८ ) मीमासादर्शनके दो भेद हैं-१. पूर्वमीमांसा व उत्तरमीमासा । यद्यपि दोनों मौलिक रूपसे भिन्न है, परन्तु 'बौधायन' ने इन दोनों दर्शनोंको 'संहित' कहकर उन्लेख किया है तथा 'उपवर्ष' ने दोनों दर्शनोंपर टीकाएँ लिखी है, इसीसे विद्वानोका मत है कि किसी समय ये दोनों एक ही समझे जाते थे। २ इनमेसे उत्तरमीमांसाको ब्रह्ममीमासा या वेदान्त भी कहते है, इसके लिए-दे० वेदान्त) । ३. पूर्वमीमांसाके तीन सम्प्रदाय है-कुमारिलभट्टका 'भाट्टमत', प्रभाकर मिश्रका 'प्राभाकरमत' या 'गुरुमत'; तथा मंडन या मुरारी मिश्रका 'मित्रमत' । इनका विशेष परिचय निम्न प्रकार है। २. प्रवर्तक, साहित्य व समय-(स म./परि० ड/४३६) पूर्वमीमांसा दर्शनके मूल प्रवर्तक वेदव्यासके शिष्य जैमिनिऋषि' थे, जिन्होंने ई. पू. २०० में 'जैमिनीसूत्र' की रचना को। ई.श ४ में शबरस्वामी ने इसपर 'शबरभाष्य' लिखा, जो पीछे आनेवाले विचारकों व लेखकोंका मूल आधार बना। इसपर प्रभाकर मिश्रने ई० ६५० में और कुमारिलभट्ट ने ई० ७०० में स्वतन्त्र टीकाएँ लिखी । प्रभाकरकी टीकाका नाम 'वृहती' है । कुमारिलकी टीका तीन भागों में विभक्त है-श्लोकवार्तिक', 'तन्त्रवातिक' और 'तुपटीका'। तत्पश्चात मंडन या मुरारी मिश्र हुए, जिन्होने 'विधिविवेक', 'मीमांसानुक्रमणी' और कुमारिलके तन्त्रवातिकपर टीका लिखी। पार्थसारथिमिश्र ने कुमारिलके श्लोकवार्तिकपर 'न्याय रत्नाकर,' 'शास्त्रदीपिका', 'तन्त्ररत्न' और 'न्यायरत्नमाला' लिखी। सुचारित्र मिश्र ने श्लोकवार्तिक' की टीका और काशिका व सोमेश्वर भट्ट ने 'तन्त्रवार्तिक टीका' और 'न्यायसुधा' नामक ग्रन्थ लिखे। इनके अतिरिक्त भी श्रीमाधवका 'न्यायमालाविस्तर,' 'मीमांसा न्यायप्रकाश', लौगाक्षि भास्करका 'अर्थ सग्रह' और खण्डदेवकी 'भाट्टदीपिका' आदि ग्रन्थ उल्लेखनीय है। ३. तपच विचार १. प्रभाकरमिश्र या गुरुमतको अपेक्षा-१ पदार्थ आठ है-द्रव्य, गुण, कर्म, सामान्य, समवाय, संख्या, शक्ति व सादृश्य । लक्षणोके लिए--दे० वैशेषिक दर्शन । २ द्रव्य नौ है-पृथिवी, जल, वायु, अग्नि, आकाश, काल, आत्मा, मन व दिक। आत्मा ज्ञानाश्रय है। मन प्रत्यक्षका विषय नहीं। तम नामका कोई पृथक द्रव्य नही। ३. गुण २१ है-बैशेषिकमान्य २४ गुणों में से संख्या, विभाग, पृथक्त्व व द्वेष ये चार कम करके एक 'वेग' मिलानेसे २१ होते है। सबके लक्षण वैशेषिक दर्शनके समान है। ४. कर्म प्रत्यक्ष गोचर नही है। संयोग व वियोग प्रत्यक्ष है, उनपरसे इसका अनुमान होता है। ५. सामान्यका लक्षण वैशेषिक दर्शनवत् है। ६. दो अयुतसिद्धोमें समवाय सम्बन्ध है जो नित्य पदार्थों में नित्य और अनित्य पदार्थो में । अनित्य होता है। ७. संख्याका लक्षण वैशेषिकदर्शनवत् है।
सभी द्रव्यो में अपनी-अपनी शक्ति है, जो द्रव्यसे भिन्न है। ६. जातिका नाम सादृश्य है जो द्रव्यसे भिन्न है। (भारतीय दर्शन।) २. कुमारिल भट्ट या 'भाट्टमत'की अपेक्षा१. पदार्थ दो है-भाव व अभाव । २. भाव चार है-द्रव्य, गुण, कर्म व सामान्य। ३ अभाव चार है-प्राक, प्रध्वंस, अन्योन्य व प्रत्यक्ष । ४. द्रव्य ११ है-प्रभाकर मान्य ह में तम व शब्द और मिलानेसे ११ होते है। 'शब्द' नित्य ब सर्वगत है। 'तम' व 'आकाश' चक्षु इन्द्रियके विषय है। 'आत्मा' व 'मन' विभु, है। ५. 'गुण' द्रव्यसे भिन्न व अभिन्न है। वे १३ है-रूप, रस, गन्ध, स्पर्श, परिमाण, पृथक्त्व, संयोग, विभाग, परत्व, अपरत्व, गुरुत्व, द्रवत्व, तथा स्नेह । ६. कर्म प्रत्यक्षका विषय है। यह भी द्रव्यसे भिन्न तथा अभिन्न है। ७ सामान्य नामा जाति भी द्रव्यसे भिन्न व अभिन्न है। (भारतीय दर्शन)। ३. मुरारि मिश्र या 'मिश्रमत'की अपेक्षा १. परमार्थतः ब्रह्म ही एक पदार्थ है। व्यवहारसे पदार्थ चार हैधर्मी, धर्म, आधार व प्रदेश विशेष । २. आत्मा धर्मी है। ३. सुख उसका धर्म विशेष है। उसकी पराकाष्ठा स्वर्गका प्रदेश है। (भारतीय दर्शन)। ४. शरीर व इन्द्रिय विचार १. प्रभाकर मिश्र या 'गुरुमत'की अपेक्षा १ इन्द्रियों का अधिकर शरीर है, जो केवल पार्थिव है, रचभौतिक नहीं । यह तीन प्रकारका है - जरायुज, अण्डज व स्वेदज । बनस्पतिका पृथकसे कोई उद्भिज्ज शरीर नहीं है। २. प्रत्येक शरीरमे मन व त्वक ये दो इन्द्रियाँ अवश्य रहती है। मन अणुरूप है, तथा ज्ञानका कारण है। २. कुमारिल भट्ट या 'भाट्टमत' की अपेक्षा मन, इन्द्रियाँ व शरीर तीनों पांचभौतिक है। इनमेंसे मन व इन्द्रियों ज्ञानके करण है। बाह्य वस्तुओं का ज्ञान इन्द्रियों द्वारा मन ब आत्माके संयोगसे होता है। ५. ईश्वर व जीवात्मा विचार १. 'गुरु' व 'भट्ट' दोनों मतोंकी अपेक्षा ( स म /परि०ड/४३०-४३२,४३३); (भारतीय दर्शन)
१. प्रत्यक्ष गोचर न होनेसे सर्वज्ञका अस्तित्व किसी प्रमाणसे भी सिद्ध नहीं है। आगम प्रमाण विवादका विषय होनेसे स्वीकारणीय नही है। (षड् दर्शन समुच्चय/६८/६७-६६) । २ न तो सृष्टि और प्रलय ही होती है और न उनके कर्तारूप किसी ईश्वरको मानना आवश्यक है। फिर भी व्यवहार चलानेके लिए परमात्माको स्वीकार किया जा सक्ता है । ३. आत्मा अनेक है। अहं प्रत्यय द्वारा प्रत्येक व्यक्तिमे पृथक्-पृथक् जाना जाता है व शुद्ध, ज्ञानस्वरूप, विभु व भोक्ता है । शरीर इसका भोगायतन है। यही एक शरीरसे दूसरे शरीरमें तथा मोक्षमें जाता है। यहाँ इतना विशेष है कि प्रभा. कर आत्माको स्वसंवेदनगम्य मानता है. परन्तु कुमारिल ज्ञाता व शेयकों सर्वथा भिन्न माननेके कारण उसे स्वसंवेदनगम्य नहीं मानता। (विशेष-दे० आगे प्रामाण्य विचार ) (भारतीय दर्शन)। ६. मुक्ति विचार १. प्रभाकर मिश्र या 'गुरुमत'की अपेक्षा । १ वेदाध्ययनसे धर्म की प्राप्ति होती है। धर्म तर्क का विषय नहीं। वेद विहित यज्ञादि कार्य मोक्षके कारण है (षड् दर्शनसमुच्चय/६६.
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मीमासा दर्शन
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मीमासा दर्शन
७०/६६-७०) । २.धर्म व अधर्मका विशेष प्रकारसे नाश हो जानेपर देहकी आत्यन्तिको निवृत्ति हो जाना मोक्ष है। सासारिक दु खोसे उद्विग्नता, लौकिक सुखोसे पराड्मुखता, सासारिक कर्मोका त्याग, वेद विहित शम, दम आदिका पालन मोक्षका उपाय है। तब अदृष्टके सर्व फलका भोग हो जानेपर समस्त संस्कारोका नाश स्वतः हो जाता है । ( स्या. म./परि० ड./४३३), (भारतीय दर्शन )। २. कुमारिल भट्ट या 'भट्टमत' को अपेक्षा १ बेदाध्ययनसे धर्म की प्राप्ति होती है। धर्म तर्कका विषय नही। वेद विहित यज्ञादि कार्य मोक्षके कारण है-षड्दर्शन समुच्चय/६६७०/६९-७०) २ सुख दु.ख के कारण भूत शरीर, इन्द्रिय व विषय इन तीन प्रपचो की आत्यन्तिक निवृत्ति; तथा ज्ञान, सुख, दुख, इच्छा, द्वेष, प्रयत्न, धर्म, अधर्म व संस्कार इन सबसे शून्य, स्वरूपमै स्थित आरमा मुक्त है वहाँ शक्तिमात्रसे ज्ञान रहता है । आत्मज्ञान भी नहीं होता। ३ लौकिक कर्मोंका त्याग और वेद विहित कर्मोंका ग्रहण ही मोक्षमार्ग है ज्ञान नहीं। वह तो मोक्षमार्ग की प्रवृत्तिमे
कारणमात्र है। ( सा प./परि० उ./४३३); (भारतीय दर्शन )
७. प्रमाण विचार १. वेदप्रमाण सामान्य दानो मत वेदको प्रमाण मानते है। वह नित्य व अपौरुषेय होनेके कारण तर्कका विषय नहीं है। अनुमान आदि अन्य प्रमाण उसकी अपेक्षा निम्नकोटिके है। (षड्दर्शन समुच्चय/६९-७०/६९-७०), (स्या. म /परि-ड./४२८-४२६)। (२) वह पॉच प्रकारका हैमन्त्र वेदविधि, ब्राह्मण वेद विधि, मन्त्र नामधेय, निषेध और अर्थवाद। 'विधि' धर्म सम्बन्धी नियमोको बताती है । मन्त्र' से याज्ञिक देवी, देवताओंका ज्ञान होता है। निन्दा, प्रशसा, परकृति और पुराकल्पके भेदसे 'अर्थवाद' चार प्रकारका है। (म्या म/परि ड/४२-४३०)। २. प्रभाकर मिश्र या 'गुरुमत'की अपेक्षा ( षड्दर्शन समुच्चय/७१-७५/७१-७२ ); (स्या म./परि-ड./४३२ ), ( भारतीय दर्शन ) । (१) स्वप्न व संशयसे भिन्न अनुभूति प्रमाण है। वह पाँच प्रकारका है-प्रत्यक्ष, अनुमान, उपमान, शब्द व अर्यापत्ति । (२) प्रत्यक्षमें चार प्रकारका सन्निकर्ष होता हैआत्मासे मनका, मनसे इन्द्रियका, इन्द्रियसे द्रव्यका, तथा इन्द्रियसे उम द्रव्य के गुणका । ये द्रव्य व गुणका प्रत्यक्ष पृथक्-पृथक् मानते है। वह प्रत्यक्ष दो प्रकारका है-सविकल्प और निर्विकल्प । सविकल्प प्रत्यक्ष निर्विकल्प पूर्वक होता है। योगज व प्रातिभ प्रत्यक्ष इन्ही दोनोमें गर्भित होजाते है। (३) अनुमान व उपमान नेयाधिक दर्शनपत है। (४) केवल विध्यर्थक वेदवाक्य शब्दप्रमाण है, जिनके सन्निवर्ष से परोक्ष त विषयो का ज्ञान होता है। १५) दिनमें नही खाकर भी देवदत्त मोटा है तो पता चलता है कि यह अवश्य रातको खाता होगा' यह अर्थापत्तिका उदाहरण है। ३ कुमारिल भट्ट या 'भाट्टमत' की अपेक्षा ( षड्दर्शन समुच्चय ७१-७६/७१-७३), (स्या. मं/परि-ड/०६२); (भारतीय दर्शन ) । (१) प्रमाके करण को प्रमाण कहते है वह छह प्रकार है-प्रत्यक्ष, अनुमान, उपमान, शब्द, अर्थापत्ति व अनुपलब्धि । (२) प्रत्यक्ष ज्ञानमें केवल दो प्रकारका सन्निकर्ष होता है-संयोग व संयुक्ततादात्म्य । समवाय नामका कोई तीसरा सम्बन्ध नही है। अन्य सब कथन गुरुमतवत् है। (३) अनुमानमें तीन अवयव है-प्रतिज्ञा, हेतु व उदाहरण, अथवा उदाहरण,
उपनय व निगमन । (४) ज्ञात शब्दमे पदार्थका स्मरणात्मक ज्ञान होने पर जो वाक्यार्थका ज्ञान होता है, वह शब्द प्रमाण है। वह दो प्रकारका है-पौरुषेय व अपौरुषेय । प्रत्यक्ष-द्रष्टा ऋषियों के वाक्य पौरुषेय तथा वेदवाक्य अपौरुषेय है। वेदवाक्य दो प्रकारके है-सिद्धयर्थक व विधायक । स्वरूपप्रतिपादक वाक्य सिद्धयर्थक है। आदेशात्मक व प्रेरणात्मक वाक्य विधायक है। विधायक भी दो प्रकार है-उपदेश व आदेश या अतिदेश । (१) अर्थापत्तिका लक्षण प्रभाकर भट्टवत है, पर यहाँ उसके दो भेद है-दृष्टार्थापत्ति
और श्रुतार्थापत्ति । दृष्टार्थापत्ति का उदाहरण पहले दिया जा चुका है। श्रुतार्थापत्तिका उदाहरण ऐसा है कि 'देवदत्त घर पर नहीं है' ऐसा उत्तर पानेपर स्वतः यह ज्ञान हो जाता है कि 'वह याहर अवश्य है। (६) प्रत्यक्षादि प्रमाणोसे जो सिद्ध न हो वह पदार्थ है ही नहीं' ऐसा निश्चय होना अनुपलब्धि है। ८. प्रामाण्य विचार (स्या. मं /परि-ड./४३२): (भारतीय दर्शन)। १. प्रभाकर मिश्र या गुरुमतकी अपेक्षा ज्ञान कभी मिथ्या व भ्रान्ति रूप नहीं होता। यदि उसमे सशय न हो तो अन्तर ग झंयकी अपेक्षा वह सम्यक् ही है। सीपीमें रजतका ज्ञान भी ज्ञानाकारकी अपेक्षा सम्यक् ही है। इसे अख्याति कहते है। स्वप्रकाशक होनेके कारण वह ज्ञान स्वय प्रमाण है। इस प्रकार यह स्वत प्रामाण्यवादी है। २. कुमारिलभट्ट या 'भाट्टमत' की अपेक्षा मिध्याज्ञान अन्यथाख्याति है। रज्जूमें सर्पका ज्ञान भी सम्यक् है, क्योकि, भय आदिको अन्यथा उत्पत्ति सम्भव नहीं है। पीछे दूसरेके अतलानेसे उसका मिथ्यापना जाना जाये यह दूसरी बात है। इतना मानते हुए भी यह ज्ञानको प्रकाशक नही मानता। पहले 'यह घट है ऐसा ज्ञान होता है, पीछे 'मै ने घट जाना है। ऐसा ज्ञातता नामक धर्म उत्पन्न होता है। इस ज्ञाततासे ही अर्थापत्ति द्वारा ज्ञानका अस्तित्व सिद्ध होता है। इसलिए यह परत' प्रामाण्यवादी है। ३. मण्डन-मुरारी या 'मिश्रमत'की अपेक्षा पहले 'यह घट है। ऐसा ज्ञान होता है, फिर 'मैं घट को जाननेवाला हूँ' ऐसा ग्रहण होता है। अत. यह भी ज्ञानको स्वप्रकाशक न माननेके कारण परत. प्रामाण्यवादी है। ६. जैन व मीमांसा दर्शनकी तुलना ( स्था. म /परि-ड./पृ. ४३४) । (१) मीमासक लोग वेदको अपौरुषेय व स्वतः प्रमाण वेदविहित हिसा यज्ञादिकको धर्म, जन्मसे ही वर्ण व्यवस्था तथा ब्राह्मणको सर्वपूज्य मानते है। जैन लोग उपरोक्त सर्व बातोका कडा विरोध करते हैं। उनकी दृष्टिमें प्रथमानुयोग आदि चार अनुयोग ही चार वेद है, अहिंसात्मक हवन व अग्निहोत्रादिरूप पूजा विधान ही सच्चे यज्ञ हैं, वर्ण व्यवस्था जन्मसे नहीं गुण व कर्मसे होती है, उत्तम श्रावक ही यथार्थ ब्राह्मण है। इस प्रकार दोनोंमें भेद है। (२) कुमारिलभट्ट पदार्थों को उत्पादव्ययधौव्यात्मक, अवयव अवयवीमें भेदाभेद, वस्तुको स्वकी अपेक्षा सत् और परकी अपेक्षा असद तथा सामान्य विशेषको सापेक्ष मानता है । अत किसी अंशमें वह अनेकान्तवादी है । इसकी अपेक्षा जैन व मीमांसक तुल्य है। (३) [तत्त्वोकी अपेक्षा जैन व मीमांसकोकी तुलना वैशेषिकदर्शनवत् ही है।] (दे० वैशेषिक दर्शन)। अन्य विषयोमे भी दोनोंमै भेद व तुल्यता है। जैसे - दोनों ही जरायुज, अण्डज व स्वेदज (संमूर्च्छन) शरीरोको पॉप
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भीमासा परीक्षा
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मुनि प्रायश्चित्त
वा मुखमुच्यते। शरीरके आधे भागको मुख कहते हैं अथवा पूरा
शरीर ही मुख कहलाता है। ध. १३/५,६,११६/३७१/१३ किं मुहं णाम । जीवपदेसाणं विसिट्ठ
सठाणं ।जीव प्रदेशोंके विशिष्ट संस्थानको मुख कहते हैं। ध. १३/५,५,१२२/३८३/८ मुहं सरीरं, तस्स आगारो संठाणं त्ति
घेत्तव्यं ।-मुखका अर्थ शरीर है। उसका आकार अर्थात् संस्थान ऐसा ग्रहण करना चाहिए। २. आदि अर्थात First Term या Head of a quadrant or first digit in numerical Series (ज. प./प्र.१०८); (विशेष दे. गणित/II/५/३)।
मुखपट विधान-दे० प्रतिष्ठा विधान । मुख्य-मुख्यका लक्षण व मुख्य गौण व्यवस्था-दे० स्याद्वाद/३ । मुख्य मंगल-दे० मंगल । मुग्धबोध व्याकरण-दे० व्याकरण ।
भौतिक स्वीकार करते है। दोनो ही इन्द्रिय विषयोके त्याग आदिको मोक्षका साधन मानते है। दोनों ही शरीरादिकी आत्यन्तिक निवृत्तिको मोक्ष मानते है। इस प्रकार दोनोमें तुल्यता है। परन्तु जैनोकी भॉति मीमांसक सर्वज्ञत्वका अस्तित्व नहीं मानते, आत्मा
को स्वसवेदनगम्य नही मानते । इस प्रकार दोनोंमें भेद है। मीमांसा परीक्षा--(दे० अतिचार/१)। मुज-मालवा (मगध ) देशको उज्जयिनी नगरीके राजा "सिंहल'
को कोई सन्तान न थी। बनविहार करते समय उनको मुजकी झाडीके नीचे पड़ा हुआ एक बालक मिला। इसको ही उन्होने अपनी सन्तान रूपसे ग्रहण कर लिया और मुंजकी झाड़ीके नीचेसे मिलनेके कारण इसका नाम 'मुंज' रख दिया। पीछे राजा सिंहलको अपने भी दो पुत्र उत्पन्न हो गये- शुभचन्द्र व भतृ हरि । परन्तु तब मुजको राज्य दिया जा चुका था। शुभचन्द्र व भतृहरिको अत्यन्त पराक्रमी जान मुञ्जने षडयन्त्र द्वारा उन्हे घरसे भाग जानेको बाध्य कर दिया और वे दोनो बनमें जाकर संन्यासी हो गये। राजा मुब्जका राज्य मालवा देशमें था। उज्जैनी इनकी राजधानी थी। इनकी मृत्यु ई. १०२१ में तैलिपदेवके हाथसे हुई थी। भोजव शके अनुसार इनका समय वि. १०३६-१०७८ ( ई.६७६१०२१) आता है। (दे० इतिहास/३/१); (सि. वि./प्र.८३/पं. महेन्द्र ); ( यो, सा./अ./प्र./व. गजाधरलाल )। मुड%१. मू. आ./१२१ पंचवि इंदियमुंडा वचमुडा हत्थपायमणमुडा। तणुमुंडेण य सहिया दस मुंडा वण्णिदा समए ।१२११ - पाँचो इन्द्रियोका मुडन अर्थात उनके विषयोका त्याग, वचन मुंडन अर्थात् बिना प्रयोजनके कुछ न बोलना, हस्त मुंडन अर्थात हाथसे कुचेष्टा न करना, पादमुंडन अर्थात् अविवेक पूर्वक सुकोडने व फैलाने
आदि व्यापार का त्याग, मन मुडन अर्थात् कुचिन्तवनका त्याग और शरीरमुंडन अर्थात शरीरको कुचेष्टाका त्याग इस प्रकार दस मड जिनागममें कहे गये है। २. एक क्रियावादी-दे० क्रियावाद । मकुट सप्तमी व्रत-सात वर्ष तक प्रति वर्ष श्रावण शु.७ को उपवास करे। "ओं ही तीर्थकरेभ्यो नम' इस मन्त्रका त्रिकाल जाप्य
करे । (व्रत विधान संग्रह/पृ.११)। मुक्त-दे० मोक्ष। मुक्तावली व्रत-यह तीन प्रकारका है-बृहद्, मध्यम व लघु ।
१ मध्यम विधि-१,२,३,४,५४,३,२,१ इस क्रमसे २५ उपवास करे। बीचके ८ स्थानों में व अन्तमे पारण करे। नमस्कार- . मन्त्रका त्रिकाल जाप्य करे। (ह.पु/३४/६६-७०),
००० (व्रत विधान सग्रह/पृ.७५) १२.बृहत विधि- उपरोक्त ००००
००००० प्रकार ही १,२,३,४,५,६,७,६,१,४,३,२.१ इस क्रमसे
०००० ४६ उपवास व १३ पारणा करे। नमस्कारमन्त्रका त्रिकाल जाप्य करे। (व्रतविधान संग्रह । पृ. ७५) । ३ लघु विधि-६ वर्ष तक प्रतिवष भाद्रपद शु.७, आश्विन कृ. ६, १३ तथा शु. ११, कार्तिक कृ. १२ तथा शु. ३, ११, मगशिर कृ. ११ तथा शु.३-इस प्रकार, उपवास करे, अर्थात कुल ८१ उपवास करे। 'ओ ह्रीं वृषभजिनाय नमः' इस मन्त्रका त्रिकाल जाप्य करे । ( बतविधान सग्रह/पृ ७५) । मुक्ताशुक्ति-दे० मुद्रा। मुक्ताहर-विजयार्धकी उत्तर श्रेणीका एक नगर-दे० विद्याधर । मुक्ति-दे० मोक्ष मुख-१ घ. १३/११,१२२/गा ३५/३८३-मुखमद्धं शरीरस्य सर्व
अन. ध /म. व उद्धृत श्लोका-८६/८१३ मुद्राश्चतस्रो व्युत्सर्गस्थितिजैनोह यौगिकी। न्यस्तं पद्मासनाद्यडू पाण्योरुत्तानयोर्द्वयम् ।८। जिनमुद्रान्तर कृत्वा पादयोश्चतुरङ्गलम् । ऊध्र्वनानोरवस्थानं प्रलम्बितभुजद्वयम् ॥ जिना' पद्मासनादीनामङ्कमध्ये निवेशनम् । उत्तानकरयुग्मस्य योगमुद्रा बभाषिरे २१ स्थितस्याध्युदरं न्यस्य कूर्परौ मुकुलीकृतौ। करौ स्याद्वन्दनामुद्रा मुक्ताशुक्तिर्युताङ्गुली।६। मुकुलीकृतमाधाय जठरोपरि कूर्परम् । स्थितस्य वन्दनामुद्रा करद्वन्द्व निवेदिता ३. मुक्ताशुक्तिर्मता मुद्रा जठरोपरि कूर्परम् । ऊर्ध्वजानो' करद्वन्द्वं सलग्नाङ्गुलि सूरिभिः ।४।- १. ( देव वन्दना या ध्यान सामायिक आदि करते समय मुख व शरीरकी जो निश्चल आकृति की जाती है, उसे मुद्रा कहते है । वह चार प्रकारकी है-जिनमुद्रा, योगमुद्रा, वन्दनामुद्रा, और मुक्ताशुक्ति मुद्रा)। २. दोनो भुजाओको लटकाकर और दोनों पैरोंमें चार अगुलका अन्तर रखकर कायोत्सर्ग के द्वारा शरीरको छोड़कर खडे रहनेका नाम जिनमुद्रा है । (और भी दे व्युत्सर्ग/१ में कायोत्सर्गका लक्षण )। ३. पन्यंकासन, पर्यकासन और वीरासन इन तीनोंमें से कोईसे भी आसनको मॉडकर, नाभिके नीचे, ऊपरकी तरफ हथेली करके, दोनों हाथोंको ऊपर नीचे रखनेसे योगमुद्रा होती है । ४. खडे होकर दोनों कुहनियोंको पेट के ऊपर रखने और दोनों हाथोंको मुकुलित कमलके
कारमें बनानेपर वन्दनामुद्रा होती है। ५. वन्दनामुद्रावत ही खड़े होकर, दोनों कुहनियोंको पेटके ऊपर रखकर, दोनों हाथोंकी अंगुलियोंको आकार विशेषके द्वारा आपसमें संलग्न करके मुकुलित बनानेसे मुक्ताशुक्तिमुद्रा होती है।
* मुद्राओंकी प्रयोगविधि-दे० कतिकर्म मनिदे. साधु/१-(श्रमण, संयत, ऋषि, मुनि, साधु, वीतराग, अनगार.
भदन्त, दान्त, यति ये एकार्थबाची हैं)। स सा./आ./१५१ मननमात्रभावतया मुनि. -मननमात्र भावस्वरूप
होनेसे मुनि है। चा, सा./४६/५ मुनयोऽवधिमन'पर्ययकेवलज्ञानिनश्च कथ्यन्ते।
- अवधिज्ञानी, मनापर्ययज्ञानी और केवलज्ञानियोंको मुनि कहते है। * मुनिके भेद व विषय-दे० साधु । मनिप्रायश्चित्त-आचार्य इन्द्रनन्दि (ई. श १०-११) की एक रचना, जिसमें साधुओंके दोषों व शक्ति के अनुसार प्रायश्चित्त देनेकी विधिका कथन है।
०००
भा०३-४०
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मुनिभद्र
मुनिभद्र इनका उल्लेख ई. १३०० के एक शिलालेख में आता है। इनके एक शिष्यने जिनका कि नाम ज्ञात नहीं है 'परमात्मप्रकाश' ग्रन्थपर एक कन्नड टीका लिखी है। समय (ई. १३५०-१३६० ); ( १. १. १. १२४ कैलाशचन्द्र शास्त्री)। मुनिसुव्रतनाथ - १.न. पु/ ६०/ श्लोक नं. पूर्व भवनं २ में चम्पापुर नगरके राजा हरिवर्मा थे |२॥ पूर्वभव में प्राणतेन्द्र थे । १५॥ (युगपत् सर्वभके लिए ये श्लोक ६०) वर्तमान भनमें २०३ सीकर हुए विशेष वे तीर्थंकर/५) २. भविष्यकालीन ११ तीर्थंकर । अपर नाम सुत्रत या जयकीर्ति-दे. तीर्थंकर / ५) । मुनिसुव्रत पुराण कृष्णदास (ई. १६२४) २३ सन्धि (ती /४/६५) ।
तथा ३०२५ श्लोकप्रमाण संस्कृत काव्य । मुन्नालाल - आप जयपुर निवासी थे। पं. जयचन्द्र छाबडाके शिष्य तथा पं. सदासुखदासजी के गुरु थे। तीनों पण्डित समकालीन हैं। समय - वि. १८३०-१८१० ( ई०१७७३ १८३३) ।
मोक्षकी इच्छा
•
मुमुक्षु स्व. स्तो./टी./३/० मोम: करनेवाला मुमुक्षु है।
अन. घ./१/११/३४ स्वार्थे कमतयो भान्तु मा भान्तु घटदीपवत् । परार्थे स्वार्थमय महर्दनम् ॥११- तीन प्रकारके होते हैं-- एक तो परोपकारको प्रधान 'रखकर स्वोपकार करनेवाले, दूसरे स्वोपकारको प्रधान रखकर स्वोपकार करनेवाले और तीसरे केवल स्वोपकार करनेवाले - विशेष दे० उपकार । मुरजमध्यव्रत इसकी दो प्रकार विधि है - बृहत् व लघु । १. बृहत विधि - यन्त्र में दिखाये अनुसार क्रमशः ५,४,३,२,२,३,४,५ इस प्रकार २८ उपवास करे । बोचके सर्व खाली स्थानों में एक एक करके पारणाएँ करे । नमस्कार मन्त्रका त्रिकाल 00000 जाय करे । (ह. पु. / ३४ / ६६ ) । २ लघुविधि यन्त्र में दिखाये अनुसार क्रमश २,३.४,५.५.४.३ इस प्रकार २६ उपवास करे । बीच के सर्व खाली स्थानों में एक एक करके ७ पारणा करे । नमस्कार मन्त्रका त्रिकाल जाप्य करे । ( व्रतविधान संग्रह / पृ० ८०) ।
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मुररा-भरत आर्य एक नदी मनुष्य ४ ।
मरुड वंश - मरुदय वंशका ही प्रसिद्ध नाम मौर्यवंश है, क्योकि मालवा देशके राजवंशके अनुसार दिगम्बर आम्नायने जहाँ मरुड वंशका नाम दिया है वहाँ श्वेताम्बर आम्नायने मौर्यवंशका नाम दिया। इसी वंशका दूसरा नाम परुढवंश भी है । - दे० इतिहास / ३/४ ।
मुष्टिविधान व्रत प्रभावमा चैत्र मास में अर्था तीनों दशलक्षण पर्वोंमें कृ. १ से शु. १५ तक पूरे पूरे महीने प्रतिदिन १ मुष्टि प्रमाण शुभ द्रव्य भगवान्के चरणोंमें चढ़ाकर अभिषेक व चतुर्विंशति जिन पूजन करें"। "ओं ह्रीं वृषभादिवीरान्तेभ्यो नम इस मन्त्रका त्रिकाल जाप्य करे ।
मुहांवापुर वर्तमान सम्मई म.पू. ४६/५ पन्नालाल )।
३१४
मुहूर्त
ध. ४ / १.५.१ / गा. १०-११ / ३१८ उच्छवासानां सहस्राणि त्रीणि सप्तशतानि चसिति पुनस्तेषां ते १० निमेषा सहसाण पञ्चभूय' शतं तथा । दश चैव निमेषा स्युर्मुहूर्त्ते गणिता बुधै ॥ ११ ॥ -१, ३७७३ उच्छ्वासोंका एक मुहूर्त कहा जाता है | ११ | (ध. ३/ १.२.६/गा. ३६ / ६६ ) । २. अथवा ५११० निमेषका एक मुहूर्त कहा जाता है । - दे० गणित // /१/४ ।
मूढ
२. मुहूर्तके प्रमाण सम्बन्धी दृष्टिभेद
४. २/१.२.६/७ का भाषार्थ कितने ही जाचार्य ७२० प्राणोंका मुहूर्त होता है, ऐसा कहते हैं; परन्तु स्वस्थ मनुष्यके उच्छ्वासों को देखते हुए उनका इस प्रकार कथन घटित नहीं होता है...क्योकि ७२० प्राणीको ४ से गुणा करके जो गुणनफल आवे उसमें ८६३ और मिलाने [अर्थात् (७२०x४) + ८६३ -२८८०८६३३७७३ उच्छ्वास] सूत्र में कहे गये सांका प्रमाण होता है। यदि ७२० प्रापका एक मूहूर्त होता है, इस कथनको मान लिया जाये तो केवल २१६०० प्राणोंके द्वारा ही ज्योतिषियोके द्वारा माने गये अहोरात्रका प्रमाण होता है । किन्तु यहाँ आगमानुकूल कथनके अनुसार तो १६३१६० उच्छ्वासोंके द्वारा एक अहोरात्र होता है ।
३. असे कम और एक आगलीसे अधिक काम प्रमाण - (वे. ब)।
४. मित्र एक समय कम काम प्रमाण भिन्नउ
मूक-कायोत्सर्गका एक अतिचार-- (दे. व्युत्सर्ग/१) । मूकसंज्ञा कायोत्सर्गका एक अतिचार. सर्ग /१। मूडबिद्री - दक्षिणके कर्नाटक देशमें स्थित एक नगर है । होयसल नरेश बल्लाल देव के समय (ई. ११०० ) में यहाँ जैनधर्मका प्रभाव खूब बढ़ा चढा था। ई. श. १३ में यहाँ तुलुबके आलूप नरेशोका तथा ई. श. १५ में विजयनगरके हिन्दू नरेशोका राज्य रहा। यहाँ १८ मन्दिर प्रसिद्ध हैं। जिनमें 'गुरु बसदि' नामका मन्दिर सिद्धान्त अर्थात् शास्त्रो की रक्षा के कारण सिद्धान्त मन्दिर भी कहलाता है । 'मिदिर' का अर्थ कनाडी भाषामै मॉस है बाँसोके समूहको कर यहाँके सिद्धान्तमन्दिरका पता लगाया गया था, जिससे इस ग्रामका नाम "भिदुरे' प्रसिद्ध हुआ। कनाडीमे 'का' अर्थ पूर्व दिशा है और पश्चिम दिशाका वाचक शब्द 'पुडु' है। यहाँ मूल्की नामक प्राचीन ग्राम 'पुडुबिदुरे' कहलाता है। इसके पूर्व मे होने के कारण यह ग्राम 'मूड विदुरे' या 'मूडविदिरे' कहलाया । 'वंश' और 'वेणु' शब्द बाँसके पर्यायवाची है। इसीसे इसका अपर नाम 'वेणुपुर या 'बशपुर' भी है। और अनेक साधुओका निवास होनेके कारण 'व्रतपुर' भी कहलाता है । ( ध / ३ / प्र.४ / H L Jain ) ।
मूढ
प.प्र./मू /१/१३. देहु जि अप्पा जो मुणइ सो जणु मूढ हवेइ । जो देहको हो आत्मा मानता है वह प्राणी मूढ अर्थात् बहिरात्मा है ( और भी दे, बहिरात्मा ) ।
दे 'मोह' का लक्षण - ( द्रव्य गुण पर्यायोंमें तत्त्वकी अप्रतिपत्ति होना मूढ भावका लक्षण है । उसीके कारण ही जीव परद्रव्यों व पर्यायों में आमबुद्धि करता है।"
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मूढता
मूढ़ता
मू.आ./२५६ णच्चा दसणघादी ण या कायव्य ससत्तीए । - देवमूढता आदिको दर्शनघाती जानकर अपनी शक्तिके अनुसार नही करना चाहिए ।
ये मिथ्यादर्शन /९/१ में नच../३०४ (नास्रिव सापेक्ष अस्तित्वको और अस्तित्व सापेक्ष नास्तित्वको नहीं माननेवाला द्रव्यस्वभाव मे मूढ होता है। यही उसका मूढता नामका मिथ्यात्व है ) । २. मुड़ता मे
सू.आ./२५६सोइयवेदियसामाइए यह अग्गवेवमूढता पार प्रकारकी है-लौकिक मूडता. वैदिक मूढता, सामायिक मुसा और मूढ़ता, अन्यदेवमूढता । इ.टी./ ४१/१६६/१०
देवताडलोसमयमुद्रभेदेन गूढमर्थ भवति देवता, लोकता और समताके भेदसे मूढता तीन प्रकारकी है।
३. छोकमुताका स्वरूप
यू.आ./२५० कोठिमातुरच्या भारहरामायणादि वे धम्मा हो
विसोती लोहडी हवदि एसो २३०१ कुटिला प्रयोजन माले पार्या व चाणक्यनीति आदिके उपदेश हिंसक यज्ञादिके प्ररूपक वैदिक धर्मके शास्त्र, और महान पुरुषोको दोष लगानेवाले महाभारत रामायण आदि शास्त्र, इनमें धर्म समझना लौकिक मूढता है ।
र.क.आ./२२ आपगासागरस्नानमुच्चय सितारमना मिरिपातोडग्निपातश्च लोकमूढं निगद्यते |२२| धर्म समझकर गंगा जमुना आदि नदियो में अथवा सागर में स्नान करना, बालू और पत्थरों आदिका ढेर करना, पर्वत से गिरकर मर जाना, और अग्निमे जल जाना होता कही जाती है। प्र. सं./टी./४९/१६०/
गंगादिनदीतीर्थमान समुद्रस्नानपारा स्नानजलप्रवेशमरणाग्निप्रवेशमरणगोग्रहणादिमरणभूम्यग्निवटवृक्षपूजादीनि पुण्यकारणानि भवन्तीति यद्वदन्ति तल्लोत्रमूढत्व विज्ञेयम् । गंगादि जो नदीरूप तीर्थ है, इनमें स्नान करना, समुद्र में स्नान करना, प्रात काल में स्नान करना, जलमें प्रवेश करके मर जाना, अग्निमें जल मरना, गायकी पूंछ आदिको ग्रहण करके मरना, पृथिवी, अग्नि और वटवृक्ष आदिकी पूजा करना, ये सब पुण्यके कारण हैं, इस प्रकार जो कहते है, उसको लोकमूढता जानना चाहिए।
पं.उ./५१६-५६० कुवेणाराधनं कुर्या हिश्रेयसे कुधी । मृषालोको
चारत्वादश्रेया लोकमूढता । ५६६ । अस्ति श्रद्धानमेकेषां लोकमूढवशादिह । धनधान्यप्रदा नूनं सम्यगाराधिताऽम्बिका । ५६७ - इस लोक सम्बन्धी व्यापके लिए जो मिध्यादृष्टि जीव मिथ्यादेवीकी आराधनाको करता है वह केवल मिथ्यालोकोपचारवश की जानेके कारण अकल्याणकारी लोकमूढता है । ५६६ । इस लोकमें उक्त लोक्मूढताके कारण किन्हीका ऐसा मान है कि अच्छी तरहसे आराधित की गयी अम्बिका देवी निश्चयसे धनधान्य आदिको देनेवाली है। (इसको नीचे देवता कहा है।
३१५
४. देवमूढ़वाका स्वरूप
मु. आ / २६० ईसर भाविण्हू आज्जाखं दादिया य जे देवा । ते देवभावहीणा देवतयभावेण गुहो ।२६०/- ईश्वर (महादेव), महा विष्णु. पासी, स्कन्द (कार्तिकेय) इत्यादिक देव देवपनेसे रहित है। इनमें देवपनेकी भावना करना देवमूढ़ता है।
र.क. श्रा./२३ वरोपलिप्सयाशावान् रामद्वेषमलीमसा | देवता यदुपासीत
मूढता
देवतामूढमुच्यते | २३ | = आशावान होता हुआ बरकी इच्छा करके राग-द्वेषरूपी मेल मलिन देवताओकी जो उपासना की जाती है. सोदेवता कही जाती है।
सं/टी ४१/१६०१ वीतरागसर्व देवतास्वरूपमजान स्वाति नामरूपता यसौभाग्यपुत्रकलत्रराज्यादिविभृतिनिमित्तं रागद्वेषी पह तानं रौद्रपरिक्षेत्रपालचण्डिकादि मिध्यावेनाना यदाराधनं करोति जीवस्यते न च ते देवा किमपि प्रति किमिति चेत् ।... मह योऽपि विद्या समाराधितास्ताभि न किमपि रामस्वामिपाण्डवनारायणानाम् हैस्तु यद्यपि मिथ्यादेवता नानुकूलितास्तथापि निर्मससम्यक्स्वोपार्जितेन पूर्वपुण्येन सर्व निर्विघ्न जातमिति । वीतराग सर्वज्ञदेव के स्वरूपको न जानता हुआ, जो व्यक्ति ख्याति, सन्मान, लाभ, रूप, लावण्य, सौभाग्य, पुत्र, स्त्री, राज्य आदि सम्पदा प्राप्त होनेके लिए राग-द्वेष युक्त, आर्त्तरौद्र ध्यानरूप परिणामो वाले क्षेत्रपाल, चण्डिका [ पद्मावती देवी(पं. सदासुखदास )) आदि मिथ्यादृष्टि देवोका आराधन करता है. उसको कहते है ये वे कुछ भी फल नही देते है (र क. श्री / पं. सदासुखदास / २३) । प्रश्न- फल कैसे नहीं देते। उत्तर( रावण, कौरवो तथा कसने रामचन्द्र, लक्ष्मण, पाण्डव व कृष्णको मारने के लिए ) बहुत-सी विद्याओंकी आराधना की थी, परन्तु उन विद्याओने रामचन्द्र आदिका कुछ भी अनिष्ट न किया। और रामचन्द्र आदिने मिथ्यादृष्टि देवोंको प्रसन्न नहीं किया तो भी सम्यग्दर्शनसे उपार्जित पूर्वभवके पुण्यके द्वारा उनके समान दूर हो गये ।
|
पंध. / / ४६५ अदेवे देवबुद्धि' स्यादधर्मे धर्मधीरिह । अगुरौ गुरुबुद्धिर्या ख्याता देवादिमढता १५६५ - इस लोक में जो कुदेव में देव बुद्धि, अधर्म मे धर्मबुद्धि और कुगुरुमें गुरुबुद्धि होती है, वह देवमूढ़ता, धर्ममूढता गुरुता कही जाती है।
५. समय या गुरुमूढ़ता का स्वरूप
1
आ./२५१ रसवडचरगतावसपरिहस्तादीय अण्णयासंडा संसारतारयदि समय सो २५६-बौद्ध नैयायिक पि, जटाधारी, सांख्य आदि पाशुपत कापालिक आदि अन्य लिगी है वे ससारसे तारनेवाले हैं-- इनका आचरण अच्छा है, ऐसा ग्रहण करना सामयिक मूढता है।
र कथा / २४ सम्भारम्भहिसाना संसारावर्त्तवर्तिना पाखण्ड पुरस्कारो ज्ञेयं पाण्डिमोहन २४- परिग्रह आरम्भ और हिसा सहित, संसार चक्र में भ्रमण करनेवाले पाखण्डी साधु तपस्वियोका आदर, सत्कार, भक्ति-पूजादि करना सब पाखंडी या गुरुमूढता है। ३. सं/टी./४१/१६०/१० अज्ञानिजनचित्तचमत्कारोत्पादक ज्योतिष्कमादादिकदृष्ट्या वीतरागसप्रणीतसमयं विहाय देवागम लिदिना भयाशास्नेोर्धर्मार्थ प्रणामविनय पुरस्कारादिक समयावमिति अज्ञानी लोगोके पिसमें चमत्कार अर्थाव आश्चर्य उत्पन्न करनेवाले ज्योतिष, मन्त्रवाद आदिको देखकर,
राग सर्व द्वारा कहा हुआ जो धर्म है उसको छोडकर मिथ्यादृष्टि" मिध्या आगम और खोटा तप करनेवाले कूलिंगीका भवसे मासे, स्नेहसे और लोभसे जो धर्म के लिए प्रणाम, विनय, पूजा, सरकार आदि करना सो समयमूढता है ।
दे०
/ ४ . ( अगुरुमे गुरुगुद्धि गुरुता है।
↑
६. वैदिकमूढताका स्वरूप
. बा. २५०
वेदसामवेदा मागवादादिवेदसत्यात पेन्टर वेदियो हद एसी २६८-वेद सामवेद, प्रायश्चित्तादि बाकू मनुस्मृति आदि अनुवाकू आदि शब्द से यजुर्वेद, अथर्ववेद-ये
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मूत्र
३१६ सब हिंसाके उपदेशक हैं। इसलिए धर्म रहित निरर्थक है। ऐसा रसाद्यग्रहणमिति चेन्नः तदविनाभावात्तदन्तर्भाव.। -१. इन न समझकर जो ग्रहण करता है सो वैदिकमूढ है।
धर्मादि द्रव्यों में रूप नहीं पाया जाता, इसलिए अरूपी है। यहाँ मूत्र-१, औदारिक शरीरमें मूत्रका प्रमाण-दे० औदयिक/१।
केवल रूपका निषेध किया है, किन्तु रसादिक उसके सहचारी हैं
अत उनका भी निषेध हो जाता है। इससे अरूपीका अर्थ अमूर्त २. मूत्र क्षेपण विधि-दे० समिति।१। प्रतिष्ठापन समिति ।
है। (रा. वा /५/४/८/४४४/१) । २ मूति किसे कहते है। रूपादिकमूर्छा -
के आकारसे परिणमन होनेको मूर्ति कहते है। जिनके रूप अर्थात स. सि./७/१७/१० मूत्युच्यते । का मूर्छा । बाह्याना गोमहिषमणि- आकार पाया जाता है वे रूपी कहलाते है। इसका अर्थ मूतिमान मुक्ताफलादीनां चेतनाचेतनानामाभ्यन्तराणा च रागादीनामुपधीना
है। (रूप, रस, गन्ध व स्पर्श के द्वारा तथा गोल, तिकोन, चौकोर संरक्षणार्जनसस्कारादिलक्षणाव्यावृत्तिर्मू । ननु च लोके बातादि
आदि संस्थानोंके द्वारा होनेवाला परिणाम मूर्ति कहलाता हैप्रकोपविशेषस्य मूर्छ ति प्रसिद्धिरस्ति तद्ग्रहणं कस्मान्न भवति। सत्य
रा वा), (रा, वा /५/५/२/४४४/२१)। ३ अथवा रूप यह गुण मेवमेतत् । मूछिरय मोहसामान्ये वर्तते। 'सामान्यचोदनाश्च विशेषे
विशेषका वाची शब्द है। वह जिनके पाया जाता है वे रूपी है । वतिष्ठन्ते' इत्युक्ते विशेष व्यवस्थित परिगृह्यते, परिग्रहप्रकरणात । रूपके साथ अविनाभावी होनेके कारण यहाँ रसादिका भी उसीमें -प्रश्न-मू का स्वरूप क्या है। उत्तर-गाय, भैस, मणि और अन्तर्भाव हो जाता है। (रा. वा/५/५/३-४/४४४/२४), (रा.वा./ मोती आदि चेतन-अचेतन, बाह्य उपधिका तथा रागादिरूप आभ्य
१/२७/१,३/०८/४,१३)। न्तर उपधिका सरक्षण अर्जन और संस्कार आदि रूप ही व्यापार गो, जी./म./६१३-६१४/१०६४ णिद्धिदरोलीमझे विसरिसजादिस्स मूच्र्छा है। प्रश्न-लोकमें वातादि प्रकोप विशेषका नाम मूच्र्छा है, समगुण एक्क । रूवित्ति होदि सण्णा सेसाणं ता अरूवित्ति ।६१३। दो ऐसी प्रसिद्धि है, इसलिए यहाँ इस मूछ का ग्रहण क्यो नही किया गुणणिद्धाणुस्स य दोगुणलुक्रवाणुगं हवे रूबी। इगिति गुणादि अरूवी जाता। उत्तर-यह कहना सत्य है, तथापि 'मूर्छ' धातुका रुक्खस्स वि तंब इदि जाणे।६१४। -४. स्निग्ध और रूक्षकी श्रेणीमें सामान्य अर्थ मोह है और सामान्य शब्द तद्गत विशेषोमें ही रहते जो विसदृश जातिका एक समगुण है, उसकी रूपी संज्ञा है और हैं, ऐसा मान लेनेपर यहाँ मूर्धाका विशेष अर्थ ही लिया गया है, समगुणको छोडकर अवशिष्ट सबकी अरूपी सज्ञा है।६१३। ५. स्निग्धक्योंकि यहाँ परिग्रहका प्रकरण है। ( रा वा /७/१७/१-२/५४४/३४); के दो गुणोसे युक्त परमाणुकी अपेक्षा रूक्षका दो गुणयुक्त परमाणु (चा.सा./१६/५) । (विशेष दे. अभिलाषा तथा राग ।
रूपी है। शेष एक तीन चार आदि गुणों के धारक परमाणु अरूपी मूतं--केवल आकारवालको नहीं बल्कि इन्द्रिय ग्राह्य पदार्थको मूर्त या रूपी कहते है। सो छहों द्रव्यों में पुद्गल ही मूर्त है। यद्यपि सूक्ष्म होनेके कारण परमाणु व सूक्ष्म स्कन्धरूप वर्गणाएँ इन्द्रिय
३. आत्माकी अमूतत्व शक्तिका लक्षण ग्राह्य नहीं हैं, परन्तु उनका कार्य जो स्थूल स्कन्ध, वह इन्द्रिय
स सा/आ./परि शक्ति नं०२० कर्मबन्धव्यपगमव्यञ्जितसहजस्पर्शादिग्राह्य है। इस कारण उनका भी मूकपना सिद्ध होता है। और
शून्यात्मप्रदेशात्मिका अमूर्तत्वशक्ति । --कर्मबन्धके अभाबसे व्यक्त इसी प्रकार उनका कार्य होनेसे ससारी जीवो के रागादि भाव व
किये गये, सहज स्पर्शादिशुन्य ऐसे आत्मप्रदेशस्वरूप अमूर्तत्व प्रदेश भी कथंचित मूर्तीक है।
शक्ति है। १. मूत व अमूतका लक्षण प. का./मू./BE जे खलु इंदिय गज्झा विसया जीवेहि हो ति ते मुत्ता।
४. सूक्ष्म व स्थूल समी पुद्गलोंमें मूर्तत्व सेस हव दि अमुत्तं .EET - जो पदार्थ जीवोकेन्द्रियग्राह्य विषय प का./मू./७८ आदेसमेत्तमुत्तो धादुचउक्कस्स कारणं जो दु। सो णेओ है वे मूर्त है और शेष पदार्थ समूह अमूर्त है । (प्र सा/त. प्र /१३१); परमाणू परिणामगुणो सयमसद्दो ।७८-जो नय विशेषकी अपेक्षा (पं.ध./उ./७), (और भी दे० नीचे रूपीकालक्षण न०१,३)।
कथंचित मूर्त व कथंचित् अमूर्त है, चार धातुरूप स्कन्धका कारण न, च वृ./६४ रूवाइपिंडो मुत्तं विबरीये ताण विवरीयं 1६२ = रूप है, और परिणमनस्वभावी है, उसे परमाणु जानना चाहिए। वह
आदि गुणोका पिण्ड मूर्त है और उससे विपरीत अमूर्त । (द्र सं| स्वय अशब्द होता है ७८। (ति. प./१/१०१), (दे० परमाणु/२/१में मू १५), (नि, सा./ता. बृ./8)।
न च वृ/१०१)। आ.प./६ मूर्तस्य भावो मूर्तत्वं रूपादिमत्त्वम् । अमूर्तस्य भावोऽमृर्तत्वं स सि /१/२७/१३४/६ 'रूपिषु' इत्येन पुद्गला' परिगृह्यन्ते। - रूपिषु' रूपादिरहितत्वम् इति गुणानां व्युत्पत्तिः। =मूर्त द्रव्यका भाव इस पदके द्वारा पुद्गलोका ग्रहण होता है । (रा वा /१/२७/४/८८/१८); मुर्तत्व है अर्थात रूपादिमात् होना ही मृतत्व है। इसी प्रकार (गो.जी./जी प्र/५६४/१०३३/८ पर उद्धृत श्लोक)। अमूर्त द्रव्योंका भाव अमूर्तत्व है अर्थात रूपादि रहित होना ही पं.का/त, प्र ते कदाचित्स्थूलस्कन्धत्वमापन्ना कदाचिरसूक्ष्मत्वमाअमुर्तत्व है।
पन्ना कदाचित्परमाणुत्वमापन्ना इन्द्रियग्रहणयोग्यतासदभावात दे० नीचे रूपीका लक्षण नं०२ ( गोल आदि आकारवान् मूर्त है)। गृह्यमाणा अगृह्यमाणा वा मुर्ता इत्युच्यन्ते । वे पदार्थ कदाचित पं का./ता वृ /२७/५६/१८ स्पर्शरसगन्धवर्णवती मूतिरुच्यते तत्सद्भावात, स्थूलस्वन्धपनेको प्राप्त होते हुए, क्दाचित् सूक्ष्म स्कन्ध पनेको
मूर्त पुद्गल । स्पर्श, रस, गन्ध, वर्ण सहित मूर्ति होती है, उसके प्राप्त होते हुए, और कदाचित् परमाणुपनेको प्राप्त होते हुए, सद्भावके कारण पुद्गल द्रव्य मूर्त है । (प ध /उ./) ।
इन्द्रियो द्वारा ग्रहण होते हो या न होते हो, परन्तु मूर्त है;
क्योकि, उन सभीमें इन्द्रियो द्वारा ग्रहण होनेकी योग्यताका २. रूपी व अरूपीके लक्षण
सदभाव है । ( विशेष दे० वर्गणा )। स. सि V४/२७१/२ न विद्यते रूपमेषामित्यरूपाणि, रूपप्रतिषेवे तत्सह- प.ध./उ/१० नासभव भवेदेतत् प्रत्यक्षानुभवाद्यथा। सनिकर्षोऽस्ति
चारिणा रसादीनामपि प्रतिषेध । तेन अरूपाण्यमानीत्यर्थ । वर्णाचे रिन्द्रियाणा न चेतरै ।१०। -साक्षात् अनुभव होनेके कारण स. सि./५/५/२७१/७ रूपं मूर्तिरित्यर्थः । का मूर्ति । रूपादिसंस्थान- स्पर्श, रस, गन्ध व वर्णको मूर्तीक कहना असम्भव नहीं है, क्योकि
परिणामो मूर्ति । रूपमेषामस्तीति रूपिण । मूर्तिमन्त इत्यर्थ । जैसे इन्द्रियोका उनके साथ सन्निकर्ष होता है वैसे उनका किन्ही अथवा रूपमिति गुणविशेषवचनशब्द । तदेषामस्तीति रूपिणः । अन्य गुणोके साथ नही होता।
प्राह्य है। इस परन्तु उनका सूक्ष्म स्कन्ध
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मूर्त
५. कर्ममें पौद्गलिकत्व व मूर्तस्व
.का./१११ हा कम्मरस फल विसयं फार्महिं भंजदे जियर जीवेण ह दुक्ख तम्हा कम्माणि मुत्ताणि । - क्योंकि कर्मका फल जो मूर्त) विषय के नियमसे (पूर्त ऐसी) स्पर्शनादि इन्द्रियो द्वारा जीवसे सुख-दुख रूपमें भोगे जाते है, इसलिए कर्म मूर्त है ।
४५ अहिं पिय कम्मं सव्वं पुग्गलमयं जिया मिति । - आठो प्रकारका कर्म पुद्गलमय है, ऐसा जिनदेव कहते है। (आप्त / 9/884/284/=) 1
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स. सि / ५ /११/२८५/११ एतेषां कारणभूतानि कर्माण्यपि शरीरग्रहणेन गृह्यन्ते एतानि पोहुगतिकानि स्याम्म कार्मणमपौगलि कम्ः अनाकारत्वाद् | आकारवतां हि औदारिकादीनां पौलिकत्वं युक्तमिति राज्ञः तदपि पौगलिकमेन टद्विपाकस्य मूर्तिमसम निमित्तत्वात्स्यते हि श्रोह्यारीनामुदकादिव्यमन्धप्राचितपरिणाम पौगलिकम तथा कार्मणमपि गुडकण्टकादि मूर्तिमयोपनिपाते सति विपतपमानत्वात्पौलिकमित्यवसेयर इन औदारिकादि पाँचों शरीरोंके कारणभूत जो कर्म है उनका भी शरीर पदके ग्रहण करनेसे ग्रहण हो जाता है, अर्थात् ये भी कार्मण नामका शरीर कहे जाते है (दे० कार्मण /१/२)। ये सम शरीर पौगलिक हैं। मकारा होनेके कारण औदारिकादि शरीरोंको सो पौगलिक मानना मुक्त है, परन्तु कार्मण शरीरको पौगलिक मानना युक्त नहीं है, क्योंकि यह आकाशव निराकार है। उत्तर-नहीं, कार्मण शरीर भी पौगलिक ही है. क्योंकि, उसका फल मूर्तिमान पदार्थोंके सम्बन्धसे होता है। यह तो स्पष्ट दिखाई देता है कि दिने सम्बन्धसे पढनेवाले धान आदि पौगलिक हैं । उसी प्रकार कार्मण शरीर भी गुड़ और काँटे आदि हशनिष्ठ मूर्तिमात् परायोंके मिलनेयर फस देते है. इससे ज्ञात होता है, कि कार्मण शरीर भी पौगलिक है। रा. वा /५/२६/११/१४०/९०) ।
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क. पा /१/११/६३६/५७/४ तं पि मुत्तं चेत्र । तं कथं णव्वदे। मुत्तोसहसंबंधेण परिणामंतरणमणावसीटोणच परिणामगमगमसिद्ध' तुम्स ते जर कुटुयादी विमासाती परिणामंतरगमगसिद्धोदो। कृत्रिम होते हुए भी कर्म मूर्त ही है। प्रश्न- यह कैसे जाना जाता है कि कर्म मूर्त है। उत्तर क्यों
औषधि सम्बन्ध, अन्यथा परिणामान्तरकी उत्पत्ति सम्भव नहीं है, अर्थात रुग्णावस्थाकी उपशान्ति हो नहीं सकती और यह परिणामान्तरकी प्रति असिद्ध भी नहीं है, खोकि, उसके बिना ज्वर, कुष्ठ और क्षय आदि रोगोंका विनाश बन नहीं सकता है । ०२ (मौने, स्निग्धता, रूक्षता व खट्टा-मीठा रस आदि भी पाये जाते हैं।) (और भी दे० वर्गणा/२/२/ व वर्ण /४) ।
६. द्रव्य व माव वचनमें पौद्गलिकत्व व मूर्तस्व स.सि./५/११/२८६/७ बाग द्विविधा द्रष्णवान् भवागिति । तत्र भाववाकू तावद्वीर्यान्तरायमतिश्रुतज्ञानावरणक्षयोपशमाङ्गोपाङ्गनामसामनिमित्तनाद पौगतिको तदभावे तत्वभावात् तत्सामयोपेतेन कियावतारमा प्रेर्यमाणाः नापत्येन विपरिण मन्त इति द्रव्यापि पौगलिको धोत्रेन्द्रियविषयत्वात्... अमृ वागिति चेन्न मूर्तिमग्रहणावरोधव्याघाताभिभवादिदर्शनान्मूर्तिमत्त्व सिद्ध । - वचन दो प्रकारका है-द्रव्यवचन और भाववचन । इनमेंसे भाववचन वीर्यान्तराय और मतिज्ञानावरण तथा श्रुतज्ञानावरण कर्मोके क्षयोपशम और अंगोपांग नामकर्मके निमित्तसे होता है, इसलिए वह पौगलिक है क्योंकि गलोके अभाव भाववचनका सद्भाव नहीं पाया जाता। चूँकि इस प्रकारकी
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मूर्त
सामर्थ्य युक्त क्रियामात् आत्मा के द्वारा प्रेरित होकर वचनरूपसे परिणमन करते है, इसलिए इव्ययचन भी पौगलिक है। दूसरे द्रव्यवचन श्रोत्रेन्द्रियके विषय है, इससे भी पता चलता है कि वे पौगलिक है। प्रश्न-वचन अमूर्त है उत्तर नहीं, क्यो वचनों का सूर्त इन्द्रियोंके द्वारा ग्रहण होता है, वे मूर्त भीत आि के द्वारा रुक जाते है, प्रतिकूल वायु आदिके द्वारा उनका व्याघात देखा जाता है, तथा अन्य कारणोसे उनका अभिभव आदि देखा जाता है। (गो. जी / जी. प्र / ६०६/१०६२/२), ( रा बा.५/११/१५/४६६/२१:२८/४००/२); (चा. खा./९/२)।
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रा. वा./२/११/१८/४००/९४ मेरी हेलन यस्तावदुच्यते इद्रियब्राह्मत्यादिति श्रोत्रमाकाशमयम सममूर्तस्य ग्राहकमिति को निशेषः । यश्चोच्यते प्रेरणादिति नासौ प्रेर्य गुणस्य गमनाभावात् । देशान्तरस्थेन कथं गृह्यते इति चेत् । बेगवद्रव्याभि घाताय तदनारम्भेऽग्रहणं न प्रेरणमिति योऽप्युच्यते-अवरोधा दिति स्पर्शव्याभिघातादेव दिगन्तरे शब्दान्तरानारम्भाव. एकविचारम्भे सति अबरोध एव लक्ष्यते न तु मुख्योऽस्तीति । खत्रो स्वतेनेसे दोषा । श्रोत्रं 'तावदानाशमयम् इति नोपपद्यते आकाशस्यार्तस्य कार्यान्तरारम्भशक्तिविरहात अस्वशादिति चेदः पिन्व्यमेतद- किमसावदष्ट आकायां संस्करोति उतारनामस् आहोस्वित् शरीरैकदेशमिति । न तावदाकाशे संस्कारो युज्यते; अमूर्तिलाद अन्यगुणादन्याच आत्मन्यपि शरीरावयन्तमन्यत्वेन कल्पिते निरये निरवयवे संस्काराधानं न युज्यते, उडुपार्जन फलानाम्वाद । नापि शरीरं कदेवी युज्यते अन्यगुणाव अनभिसन्धाञ्च । किंच, मूर्तिमत्सबन्धजनित विपरसंपत्तिदर्शनाव सूर्तमेवमय । यदप्युच्यते स्पर्श हव्या धाताद शम्दान्तरानारम्भ इति खपतिता नो रत्नवृष्टि, स्पर्शमद्रव्याभिवादादेव मूर्खत्यमस्य सिद्धम्। न हि अमूर्त कविय मूर्तिमता विहन्यते । तत एव च मुख्यावरोधसिद्धि' स्पर्शबदभिघाताम्युपगमात् प्रश्न-उपरोक्त सर्व ही हेतु ठीक नहीं है, क्योंकि, श्रोद्रय आकाशमय होनेके कारण स्वयं अमूर्त है, और इसलिए अमूर्त शब्दको भी ग्रहण कर सकता है। वायुके द्वारा प्रेरित होना भी नहीं बनता, क्योंकि, शब्द गुण है और गुण में क्रिया नहीं होती। संयोग, विभाग व शब्द इन तीनोंसे शब्दान्तर उत्पन्न हो जानेसे नये सम्य सुनाई देते हैं। वास्तव में प्रेरित शब्द सुनाई नहीं देता। जहां वेगवाद प्रव्यका अभिघात होता है वहाँ नये शब्दों की उत्पत्ति नहीं होती। जो शब्दका अबरोध जैसा मालूम देता है, वस्तुत' यह अवरोध नहीं है किन्तु अन्य स्पर्शवाद द्रव्यका अभिघात होनेसे एक ही दिशामें शब्द उत्पन्न हो जाता है । वह अवरोध जैसा लगता है । अतः शब्द अमूर्त है 1 उत्तर- ये कोई दोष नही है; क्योकि - भोत्रको आकाशमय कहना उचित नहीं है, क्योंकि, अमूर्त आकाश कार्यान्तरको उत्पन्न करनेकी शक्तिसे रहित है। अटकी सहायतासे भी आकाश में या आत्मामें या वारीरके एकदेश में संस्कार उत्पन्न करनेकी बात ठीक नहीं है, क्योंकि अन्य द्रव्यका गुण होनेके कारण आकाश व शरीरसे उस अदृष्टका कोई सम्बन्ध नही है । और आत्मा आपके ही स्वयं निरंश व नित्य होनेके कारण उसके फासे रहित है। दूसरे यह बात भी है कि मूर्तिमा तेल आदि द्रव्योसे श्रोत्रमें अतिशय देखा जाता है तथा मूर्तिमान कील आदि उसका विनाश देखा जाता है, अतोत्र को मूर्त मानना ही समुचित है। आपका यह कहना कि स्पर्शमाच द्रव्यके अभिघात से शब्दान्तर उत्पन्न हो जाता है, स्वयं इस बातकी सिद्धि करता है कि शब्द मूर्त है, क्योंकि कोई भी अमूर्त पदार्थ मूर्तके द्वारा अभियानको प्राप्त नहीं हो सकता। इसीलिए मुख्यरूप से शब्द के अभिघात वाला हेतु भी खण्डित नहीं होता ।
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रा. वा./५/११/११/४७०/२८ यथा नारकादयो भास्करप्रभाभिवान्मति. मन्त', तथा सिंहगजभेर्यादिशब्दै बृहदभि शकुनिरुतादयोऽभिभूयन्ते। तथा कंसादिषु पतिता ध्वन्यन्तरारम्भे हेतबो भवन्ति । गिरिगहरादिषु च प्रतिहता प्रतिश्रुभावमास्कन्दन्ति । अत्राहअमूर्तेरप्यभिभवा दृश्यन्ते-यथा विज्ञानस्य सुरादिभि, मूर्तिमदभिस्ततो नायं निश्चयहेतुरिति उच्यते-नाय व्यभिचार', विज्ञानस्य क्षायोपशमिकस्य पौगलिकत्त्वाभ्युपगमात् । -जिस प्रकार सूर्य के प्रकाशसे अभिभूत होनेवाले तारा आदि मूर्तिक है, उसी तरह सिंहकी दहाड, हाथीकी चिघाड और भेरी आदिके घोषसे पक्षी आदिके मन्द शब्दोका भी अभिभव होनेसे वे मूर्त है। कासेके वर्तन आदिमें पड़े हुए शब्द शब्दान्तरको उत्पन्न करते है। पर्वतोकी गुफाओं आदिसे टकराकर प्रतिध्वनि होती है। प्रश्न-मूर्तिमादसे अभिभव होनेका हेतु ठीक नहीं है, क्योंकि, मूतिमाच मुरा आदिसे अमूर्त विज्ञानका अभिभव देखा जाता है। उत्तर-यह कहना भी ठीक नहीं है, क्योकि, संसारी जीवोंका क्षायोपशमिक ज्ञानको कथंचित मूर्तिक स्वीकार किया गया है। (दे० आगे शीर्षक नं.५), (स, सि./२/९/२८८/५)।
८.जीवके क्षायोपशमिकादि मावों में पौदगलिकत्व व मूर्तस्व रा, वा /९/२०/७/८०/२४ भावत स्वविषयपुद्गलस्कन्धाना रूपादिविकल्पेषु जीवपरिणामेषु चौदयिकौपशमिकक्षायोपशमिवेषु वर्तते। कुत' 1 पोद्गलिकत्वादेषाम् । रा. वा./१/२७/४/८८/१६ जीवपर्यायेषु औदयिकौपशमिकक्षायोपशमिकेषूत्पद्यतेऽवधिज्ञानम् रूपिद्रव्यसंबन्धात, न क्षायिकपारिणामिकेषु • तत्संबन्धाभावात् । -रूपी पदार्थ विषयक अवधिज्ञान भावकी अपेक्षा स्वविषयभूत पुद्गलस्कन्धों के रूपादि विकल्पों में तथा जीवके औदयिक, औपशमिक व क्षायोपशमिक भावों में बर्तता है, क्योंकि, रूपीद्रव्यका ( कौका) सम्बन्ध होनेके कारण ये भाव पौद्गलिक है। परन्तु क्षायिक व पारिणामिक भावो में नहीं बर्तता है, क्योंकि, उन दोनों में उस रूपीद्रव्यके सम्बन्धका अभाव है।
७. द्रव्य व भावमनमें पौद्गलिकत्व व मूर्तत्व स. सि./२/३/२६६/२ मनोऽपि विविधं दंव्यमनो भावमनश्चेति । .."द्रव्यमनश्चरूपादियोगात्पुद्गलद्रव्य विकार.। रूपादिवन्मन' । ज्ञानोपयोगकरणत्वाच्चक्षुरिन्द्रियवत् । ननु अमूर्तेऽपि शब्दे ज्ञानोपयोगकरणस्वदर्शनाइ व्यभिचारी हेतुरिति चैत । न, तस्य पौद्गलिकत्वान्मूर्तिमत्त्वोपपत्तेः। ननु यथा परमाणूना रूपादिमत्कार्यदर्शनाद्रूपादिमत्त्वं न तथा वायुमनसो रूपादिमत्कार्य दृश्यते इति तेषामपि तदुपपत्ते । सर्वेषां परमाणूना सर्वरूपादिमत्कार्यत्वप्राप्तियोग्याभ्युपगमाव ।-मन भी दो प्रकारका है-द्रव्यमन व भावमन । उनमें से द्रव्यमनमें रूपादिक पाये जाते हैं अतः वह पुदगल द्रव्यकी पर्याय है। दूसरे मन रूपादिवाला है, ज्ञानोपयोगका करण होनेसे, चक्षुरिन्द्रियवत ।-प्रश्न-यह हेतु व्यभिचारी है, क्योंकि, अमूर्त होते हुए भी शब्दमें ज्ञानोपयोगकी करणता देखी जाती है। उत्तरनहीं, क्योंकि, शब्दको पौद्गलिक स्वीकार किया गया है। (दे० पिछला शीर्षक) अतः वह मूर्त हैं। प्रश्न-जिस प्रकार परमाणुओंके रूपावि गुणवाले कार्य देखे जाते हैं, अत वे रूपादिवाले सिद्ध होते हैं, उसी प्रकार वायु और मनके रूपादि गुणवाले कार्य नहीं देखे जाते। उत्तर-नहीं क्योंकि, वायु और मनके भी रूपादि गुणवाले कार्योंके होनेकी योग्यता मानी गयी है। [ परमाणुओं में जाति भेद न होनेसे वायु व मनके कोई स्वतन्त्र परमाणु नहीं है, जिनका कि पृथक से कोई स्वतन्त्र कार्य देखा जा सके-दे० परमाणु/२/२] (रा.
वा./२/३/३/४४२/६) । स. सि./२/१६/२८७/१ भावमनस्तावत- पुदगलावलम्बनत्वात् पौदगलिकम् । द्रव्यमनश्च . गुणदोषविचारस्मरणादिप्रणिधानाभिमुखस्यास्मनोऽनुग्राहका' पुदगला मनस्त्वेन परिणता इति पौगलिकम् । -भावमन पुद्गलों के अवलम्बनसे होता है, इसलिए पौद्गलिक है। - तथा जो पुद्गल गुण दोष विचार और स्मरणादि उपयोगके सन्मुख हुए आत्माके उपकारक है वे ही मनरूपसे परिणत होते है, अत द्रव्यमन पौद्गलिक है। [अणु प्रमाण कोई पृथक् मन नामक पदार्थ नहीं है-दे० मन/१२] (रा.वा/५/१६/२०/४७१/२); (चा. सा./८८/३); (गो, जी./जी. प्र./६०६/१०६२/६) । दे. मन पर्यय/१४ (संसारी जीव और उसका क्षायोपशमिक ज्ञान क्योंकि कथंचित मूर्त है (दे० अगला शीर्षक), अत: उससे अपृथक् भूत मति, स्मृति, चिन्ता आदिरूप भावमन भी मूर्त है।
१. जीवके रागादिक मा?में पौद्गलिकत्व व भूतत्व स. सा././४६.५१,१५ वबहारस्स दरीसणमुबएसो वण्णिदो जिणबरेहिं । जीवा एदे सव्वे अज्झवसाणादओ भावा. ४६) जीवस्स जरिथ रागो णवि दोसो णैव विज्जदे मोहो। ११ जेण दु एदे सक्वे पुग्गलदव्वस्स परिणामा ।५-'ये सब अध्यबसानादि भाव जीव है' इस प्रकार जिनेन्द्रदेवने जो उपदेश दिया है सो व्यवहारनय दर्शाया है।४६ निश्चयसे तो जीवके न राग है, न द्वेष और न मोह ।।१। क्योंकि ये सब पुद्गल द्रव्यके परिणाम है ॥५५॥ ( स. सा.///
४४,५६,६८)। स, सि./७/१७/३५९/१० रागादयः पुन' कर्मोदयतन्त्रा इति मात्मस्व
भावत्वाया।-रागादिक कर्मोके उदयसे होते है, अत: वे आरमाके स्वभाव न होनेसे हेय हैं । (रा बा./७/१७/५/५४५/१८)। स.सा./आ./गा, नं. अनाकुलवलक्षणसौख्याख्यात्मस्वभावविलक्षणत्वारिकल दुवं; तदन्त'पातिन एव किलाकुल त्वलक्षणा अध्यवसानादिभावाः । ततो न ते चिदन्वयविभमेऽम्यात्मस्वभावा' किंतु पुदगलस्वभावाः ।४य' प्रीतिरूपो राग अप्रीतिरूपो वेष....अप्रतिपत्तिरूपो मोह' स सर्वोऽपि पुदगलद्रव्यपरिणाममयस्वे सत्यभूतेभिन्नत्वात ।।१। -अनाकुलता लक्षण मुख नामक यात्म स्वभाव है। उससे विलक्षण दुःख है। उस दुःख में ही आकुलता लक्षणवाले अध्यवसान आदि भाव समाविष्ट हो जाते हैं। इसलिए, यद्यपि वे चैतन्यके साथ सम्बन्ध होने का भ्रम उत्पन्न करते हैं, तथापि के आत्मस्वभाव नहीं है, किन्तु पुदगल स्वभाव है।४१ जो यह प्रीतिरूप राग या अप्रीतिरूप द्वेष है या यथार्थ तत्त्वकी अप्रतिपत्तिरूप मोह है वह सर्व ही जीवका नहीं है, क्योंकि, वह पुद्गलद्रव्यके परिणाममय होनेसे अपनी अनुभूतिसे भिन्न हैं ।१ (स.सा./आ./७४,७५०१०२,
११५,१३८)। द.सं./टी./१६/५३/३ अशुद्धनिश्चयेन योऽसौ रागादिरूपो भावमन्धः कथ्यते सोऽपि शुद्धनिश्चयनयेन पुदगलबन्ध एव । - अशुद्ध निश्चयनयसे जो वह रागादिरूप भाव मन्ध (जीवका) कहा जाता है, यह
भी शुद्ध निश्चयनयसे पुद्गलका ही है। पं. का/ता. वृ.१३४/१६७/१८ एवं नैयायिकमताश्रितशिष्यसंबोधनार्थ
नयविभागेन पुण्यपापद्वयस्य मूर्तत्वसमर्थनरूपेण कसूत्रण तृतीयस्थल गतं । इस प्रकार नैयायिक मताश्रित शिष्यके सम्बोधनार्थ नयविभागसे पुण्य व पाप इन दोनोंके मूर्त पनेका समर्थन करने रूप सूत्र कहा गया।
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मूर्ति
मृषावचन
मला-भरतक्षेत्र आर्यखण्डकी एक नदी-दे० मनुष्य/४ ।
१०.संसारी जीव में मूतत्व स सि /१/२७/१३४/8 'रूपिषु' इत्यनेन पुद्गला' पुद्गलद्रव्यसबन्धाश्च जीवा. परिगृह्यन्ते । - सूत्र में कहे गये 'रूपिषु' इस पदसे पुद्गलोका
और पुद्गलोंसे बद्ध जीवोंका ग्रहण होता है। गो. जी/जी.प्र/५६४/१०३३/८ पर उदधृत--संसारिण्यपि पुद्गल ।
संसारी जीवमें 'पुद्गल' शब्द प्रवर्तता है। दे.बंध/२/५/१ (संसारी जीव कथाचित् मूर्त है इसी कारण मूर्त कर्मोसे बंधता है)।
मलनचार-यत्याचार विषयक प्राकृत गाथाबद्ध ग्रन्थ है ।डा.ए.एन.
उपाध्याय के अनुसार यह एक संग्रह ग्रन्थ है और डा. नेमिचन्द्र के अनुसार स्वतन्त्र ग्रन्थ । इसमें कुल १२ अधिकार और १२५२ गाथायें है। रचयिता-आ. बट्टकेर । समय-कुन्दकुन्द के समकालीन बी. नि. ६५४-७०६ (ई. १२७-१७६) । (तो./२/११७-१२०) । इस पर दो वृत्ति उपलब्ध है-१. आ. वसुनन्दि (ई. १०६८-१९१८) कृत (ती./३/२२३) । २. आ. सकलकीति (ई.१४२४) कृत मूलाचार प्रदीप । (ती./३/३३३)।
मूलाराधना-भगवती आराधना ग्रन्थका ही अपरनाम मूला
राधना है। (ती०/२/१२७) ।
१७. अन्य सम्बन्धित विषय १. द्रव्योंमें मूर्त अमूर्तका विभाग।
-दे० द्रव्य/३। २. मूर्त द्रव्यके गुण मूर्त और अमूर्त द्रव्यके गुण ___ अमूर्त होते हैं।
-दे० गुण/३/१२१ ३. मूर्त द्रव्योंके साथ अमूर्त द्रव्योंका स्पर्श कैसे ।-दे० स्पर्श/२ । ४. परमाणुओंमें रूपी व अरूपी विभाग। -दे० मूर्त/२,४,५ । ५. अमूर्त जीवके साथ मूर्त कर्म कैसे बँधे । -दे० बन्ध/२। ६. भाव कर्मोके पौद्गलिकत्वका समन्यय। -दे० विभाव/५ । ७. जीवका अमूर्तत्व।
-दे० द्रव्य/३।
०००
मलाराधना दपंण-भगवती आराधनाकी पं. आशाधर (ई.
११७३-१२४३) कृत सस्कृत टीका। मूसल-क्षेत्रका एक प्रमाण । अपरनाम युग, धनुष, नाली, दंड।
-दे० गणित/I/१/३ । मृग-ध. १३/५,५,१४०/३६१/११ रोमन्थवर्जितास्तिर्यञ्चो मृगा नाम ।
=जो तिथंच रोथते नहीं है वे मृग कहलाते हैं। मृगचारित-स्वच्छन्दाचारी साधु-दे० स्वच्छंद। मृगशीर्षा-एक नक्षत्र-दे० नक्षत्र । मृगांक-रावणका मन्त्री-(प. पु.-६६/१-२)। मृतसंजीवनी–एक मन्त्रविद्या-दे० विद्या। मृत्तिकानयन यंत्र-दे० यंत्र । मृत्यु-दे० मरण। मृत्युंजय यंत्र-दे० यंत्र । मृदंगमध्य व्रत
००००००
००००००० इस व्रतकी विधि दो प्रकार है-बृहत व .. लघु । १ बृहत विधि-यंत्रमें दिखाये ०००००००००
०००००००० अनुसार एक वृद्धि क्रम से १ सेह
००००००० पर्यत और तत्पश्चात एक हानि ०००००० क्रमसे हसे १ परत, इस प्रकार कुल ८१ उपवास करे । मध्यके स्थानों में एक-एक पारणा करे । नमस्कार मंत्रका त्रिकाल जाप्य करे। (व्रतविधान सग्रह/पृ०६०)। २. लघु विधि-यन्त्रमें दिखाये अनुसार एक वृद्धि क्रमसे २ से १ पर्यंत और तत्पश्चात् एक हानि क्रमसे ५ से २ पर्यत, इस प्रकार कुल २३ उपवास
००० करे। मध्यके स्थानों में एक-एक पारणा करे। (ह पु/३४/६४-६५)। मृदंगाकार-Conical ( ज प./प्र. १०८)।-दे० गणित/II/9/७ मषानंदी रौद्रध्यान-दे० रौद्र ध्यान)। मृषामन-दै० मन। मृषावचन-दे० बचन।
त-१, भगवान्की मूर्ति-दे० प्रतिमा । २ मूर्तिपूजा-दे० पूजा/३ । ३. रूपीके अर्थ में मूर्ति-दे० मूर्त/१। मूर्तिक-दे० मूर्त । मूल-१. एक नक्षत्र-दे० नक्षत्र । २. Root (ज. प./प्र. १०८)। ३. वर्गमूल व घनमूल-दे० गणित/II/१/७.८ । ४ कन्दमूल -दे०
मनस्पति/१। मलक-भरत क्षेत्र दक्षिण आर्यखण्डका एक देश-दे० मनुष्य/४ । मलकमं-१. आहारका एक दोष-दे० आहार/II/४/४.२.वसतिका
का एक दोष-दे० वसतिका । मूलक्रिया- Fundamental Operation. (ध ५/प्र २८). मूलगुण-१.ध आ./वि./११६-२७७/३–उत्तरगुणानी कारणत्वान्मूलगुणव्यपदेशो व्रतेषु वर्तते। - अनशनादि तप उत्तर गुण हैं ( दे० उत्तर गुण ) । उनके कारण होनेसे व्रतों में मूलगुणका व्यपदेश होता है। २. श्रावकके अष्ट मूलगुण-दे० श्रावक ४)। ३. साधुके २८ मूल गुण-दे० साधु/२॥ मूलप्रायश्चित्त-दे० प्रायश्चित्त/१ । मूलराज-अण हिल पुरके राजा। समय -वि. १६८-१०४३ ( ई०
६४१-६६६)। (हिन्दी जैन साहित्य इतिहास/२८ । कामता प्रसाद ) मलराशि-गणितकी संकलन व व्यकलन व प्रक्रिया में जिस राशिमें अन्यराशिको जोडा जाय या जिस राशिमेंसे अन्य राशिको
घटाया जाय उसे मूलराशि कहते है। दे० गणित/II/१/३,४ । मूलसंघ-दिगम्बर साधुओं का एक सघ ।-दे० इतिहास/५/२,३ । मूलस्थान-१. भ. आ./मू./२६८/५०३ पिंड उवहिं सेज्ज अविसोहिय जो हु भुजमाणो हु । मूलढाणं पत्तो मूलोत्ति य समणपेल्लो सो १२८८१ - आहार, पिछी, कमंडलु और वसतिका आदिको शोधन किये बिना ही जो साधु उनका प्रयोग करता है, वह मूलस्थान नामक दोषको प्राप्त होता है । २. पंजाबका प्रसिद्ध वर्तमानका मुलतान नगर (म.पु./प्र. ४६/पं. पन्नालाल)।
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मेखलापुर
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मैगस्थिनीज
मेखलापुर-विजयाको दक्षिण श्रेणीका एक नगर-दे० विद्या
घर । मेघंकरो-नन्दनवनके नन्दनकूटको स्वामिनी एक दिक्कुमारी
देवी।-दे० लोका। मेघ-सौधर्म स्वर्गका २०वाँ पटल-दे. स्वर्ग/५/३।। मेघकूट-विजयाध की दक्षिण श्रेणीका एक नगर-दे० विद्याधर । मेघचंद्र-१. नन्दि संघ बलात्कार गण में माणिक्य नन्दि के शिष्य तथा शान्ति कीति के गुरु । समय--शक ६०१-६२७ । दे. इतिहास/ ७/२। २. नन्दि संघ देशीयगण त्रैकाख्ययोगी के शिष्य, अभयनन्दि तथा नेमिचन्द्र सिद्वान्त चक्रवर्ती के सहधर्मा और वीरनन्दि तथा इन्द्रनन्दि के शिक्षा गुरु। इन्द्रनन्दि जी पहले आपके शिष्यत्व में थे, परन्तु पीछे विशेष अध्ययन के लिए अभयनन्दि की शरण में चले गये थे। कृति-ज्वालामालिनी रूप ई.६३१ में पूरा किया। समय ई. ६५०-६११। इतिहास/७/५। ३ मन्दिसंब वेशीयगण में सक्लचन्द्र के शिष्य और वीरनन्दि तथा शुभचन्द्र के गुरु । शक १०३७ में समाधि हुई । समय-ई १०२०-१११० । दे इतिहास/७/५ । मेघचारण-दे० ऋद्धि/४। मेवनाद-म./६३/श्लोक नं0-भरतक्षेत्र विजया पर्वतकी उत्तर
श्रेणीमें गगनवल्लभ नगरके राजा मेघवाहनका पुत्र था। दोनों श्रेणियोका राजा था। (२८-३०)। किसी समय प्रज्ञप्ति विद्या सिद्ध करता था। तब पूर्व जन्मके भाई अपराजित बलभद्रके जीवके समझाने पर दीक्षा ले ली। (३१-३२) । असुरकृत उपसर्गमें निश्चल रहे। (३३-३५)। सन्यासमरणकर अच्युतेन्द्र हुए। (३६)। यह शान्तिनाथ भगवान्के प्रथम गणधर चक्रायुधके पूर्वका छठा भव है।
-दे० चक्रायुध। मेघमाल-१ विजयार्धकी उत्तरप्रेणीका एक नगर-दे० विद्याधर। २. अपरविदेहस्थ एक वक्षार । अपरनाम 'देवमाल'।
-दे० लोक/५/३। मेघमाला व्रत-५ वर्ष तक प्रतिवर्ष भाद्रपद कृ. १,८,१४, शु. १, ८.१४ तथा आसौज कृ.१ इन सात तिथियों में सात-सात करके कुल ३५ उपवास करे। नमस्कार मन्त्रका त्रिकाल जाप्य करे। (बतविधान संग्रह/पृ.८४)। मेघमालिनी-नन्दनबनके हिमकुटकी स्वामिनी दिक्कुमारी
देवी। -दे० लोकाश मेघरथ-म, पु/६३/श्लोक नं.-पुष्कलावती देशमें पुण्डरीकिणी नगरीके राजा घनरथका पुत्र था। (१४२-१४३)। इनके पुण्यके प्रतापसे एक विद्याधरका विमान इनके ऊपर आकर अटक गया। क्रुद्ध होकर विद्याधरने शिला सहित इन दोनों पिता-पुत्र को उठाना चाहा तो उन्होने पॉवके अँगूठेसे शिलाको दबा दिया। विद्याधरने क्षमा मांगी और चला गया। (२३६-२३६,२४८)। इन्द्र सभामें इनके सम्यक्त्वकी प्रशसा सुनकर दो देवियाँ परीक्षाके लिए आयीं, परन्तु ये विचलित न हुए। (२८४-२८७ )। पिताने धनरथ तीर्थकरका उपदेश सुन दीक्षा ले ली। और तीर्थंकर प्रकृतिका बन्ध किया। (३०५-३११,३३२) । अन्तमें सन्यासमरण कर अहमिन्द्र पद प्राप्त किया। ( ३३६-३३७)। यह शान्तिनाथ भगवान्का पूर्वका दुसरा भव है 1-दे० शान्तिनाथ । मेघवती-नन्दनवनके मन्दिर कूटकी स्वामिनी दिक्कुमारी देवी।
-दे० लोक/५/५ ।
मेघवाहन-१५ पु.//श्लोक नं -"सगर चक्रवर्तीके ससुर सुलो
चन के प्रतिद्वन्दी पूर्ण घनका पुत्र था। (८७)। सुलोचनके पुत्र द्वारा परास्त होकर भगवान् अजितनाथके समवशरणमें गया। (८७-८८)। वहाँ राक्षसोके इन्द्र भीम व सुभीमने प्रसन्न होकर उसको लका व पाताललंकाका राज्य तथा राक्षसी विद्या प्रदान की। (१६१-१६७)। अन्तमे अजितनाथ भगवान्से दीक्षा ले ली। (२३६-२४०)। २ प. पू./सर्ग/श्लोक-"रावणका पुत्र था ( १५८) । लक्ष्मण द्वारापरावणके
मारे जानेपर विरक्त हो दीक्षा धारण कर ली।(७८/८१-८२)"मेघा-नरक की तृतीय पृथिवी-दे० नरक / तथा लोक/स। मेचक-[आत्मा कथंचित् मेचक है अर्थात अनेक अवस्था रूप है।
(दे० स सा./आ./१६/क १६) ] । मेद-औदारिक शरीरकी एक धातु विशेष । -३० औदारिक १/७ । मधा-ध. १३/५,५,३७/२४२/५ मध्यति परिच्छिनत्ति अर्थमनया इति मेधा। - जिसके द्वारा पदार्थ 'मेष्यति' अर्थात् जाना जाता है
उस अवग्रहका नाम मेधा है। मय-ध १२/४,२,८,१०/२८५/१० मेयो यव-गो-धूमादि। -मापनेके
योग्य जो गेहूँ आदि मेय कहे जाते है। मेरक- अपर नाम मधु-दे० मधु । मेरु-१. समेरु पर्वत-दे० मुमेरु । २. वर्तमान भूगोलकी अपेक्षा
मेरु-दे० सुमेरु । ३. म. पु./५६/श्लोक नं.-"पूर्व भव नं.हमें कोशल देशमें वृद्धग्राम निवासी मृगायण ब्राह्मणकी स्त्री मथुरा थी।२०७। पूर्व भव नं.८ में पोदन नगरके राजा पूर्णचन्द्र की पुत्री रामदत्ता हुई।। २१०)। पूर्व भव नं.७ में महाशुक्र स्वर्गमें भास्कर देव हुआ। (२२६)। पूर्व भव नं.६ में धरणीतिलक नगरके राजा अतिवेगकी पुत्री श्रीधरा हुई। (२२८) । पूर्व भव नं.५ में कापिष्ठस्वर्ग के रुचक विमानमें देव हुआ। (२३८)। पूर्व भव न.४ में धरणी तिलक नगरके राजा अतिवेगकी पुत्री रत्नमाला हुई। ( २४१-२४२) । पूर्व भवनं.३ में स्वर्ग में देव हुआ और पूर्व भव न. २ में पूर्व धातकीखण्डके गन्धिल देशके अयोध्या नगरके राजा अर्हदासका पुत्र 'वीतभय' नामक बलभद्र हुआ। (२७६-२७६)। पूर्वभवमे लान्तव स्वर्गमें आदित्यप्रभ नामक देव हुआ। (२८०)। वर्तमान भवमें उत्तर मथुरा नगरीके राजा अनन्तवीर्य का पुत्र हुआ। (३०२) । पूर्व भवके सम्बन्ध सुनकर भगवान् विमलवाहन (विमलनाथ ) के गणधर हो गये। (३०४ )। सप्त ऋद्धि युक्त हो उसी भवसे मोक्ष गये। (३०१)।" -[ युगपत सर्व भवके लिए। -दे०
म. पु/५६/३०८-३०६] । मरुकाति-नन्दिसघनलात्कार गण के अनुसार आप शान्तिकी तिके शिष्य थे। समय-विक्रम शक स ६४२-६८० (ई.७२०-७५८) ।
-दे० इतिहास/७/२। मेरुपंक्ति व्रत-अढाई द्वीपमें सुदर्शन आदि पाँच मेरु है (दे० सुमेरु)। प्रत्येक मेरुके चार-चार वन है। प्रत्येक बनमें चार-चार चैत्यालय है। प्रत्येक बनके चार चैत्यालयोके चार उपवास व चार पारणा, तत्पश्चात एक बेला एक पारणा करे। इस प्रकार कूल ८० उपवास, २० बेले और १०० पारणा करे। "ओं ह्रीं पचमेरुसम्बन्धी अस्सीजिनालयेभ्यो नम" अथवा "ओ ह्रीं ( उस-उस मेरुका नाम) सम्बन्धी षोडश जिनालयेभ्यो नम" इस मन्त्रका त्रिकाल जाप्य करे । (व्रत-विधान संग्रह )। मैगस्थिनीज-यूनानी राजदूत था। सैल्युकसने चन्द्रगुप्त मौर्यको
राजसभामें भेजा था। भारतमें आकर पाटलिपुत्रमे रहा था। समय ई.पू ३०२-२६८ । ( वर्तमान भारत इतिहास )।
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मैत्री
मैत्री
प्रा./ सू९६२६/२०१६/९२ की
मिचिता
मेन्ती' - जीवेसु मित्तचिता अनंतकाल चतसृषु गतिषु परिभ्रमता घटीयन्स प्राणभृतोऽपि कृतमहोपकारा कृति तेषु मा चिता मैत्री = अनन्तकालसे मेरा आत्मा घटोयत्र के समान इस दुर्गमय ससारमै भ्रमण कर रहा है। इस ससारमे सम्पूर्ण प्राणियोने मेरे ऊपर अनेकबार महान् उपकार किये है' ऐसा मनमे जो विचार करना, वह मैत्री भावना है । स.सि./७/१९/३४६/० परेषा खानुपश्यभिलाषा मैत्री दूसरोको दुख न हो ऐसी अभिलाषा रखना मैत्री है (रा. ना. /०/११/१/ ५३९/१४) । झा. २०१६-०
रविकल्पेषु चरस्थिरशरीरिषुलास्था मृतेषु नानापीनिमग्नेषु समन राधिका सामी महत्वमापत्रा मतिमंत्रीति पते । जीवन्तु अन्तर सर्वे क्लेशव्यसनमर्जिता । प्रान्तारं पाप पराभवम् 1७1 == सूक्ष्म और बादर भेदरूप त्रस स्थावर प्राणी सुख-दुखादि अवस्थाओ मे जैसे-तैसे तिष्ठे हो तथा नाना भेदरूप योनियो में प्राप्त होनेवाले जीवोमें समानतासे विराधनेवाली न हो ऐसी महत्ताको प्राप्त हुई समीचीन बुद्धि मैत्री भावना कही जाती है|६| इसमें ऐसी भावना रहती है कि ये सब जीव कष्ट व आपदाओ से हो जाओ तथा पाप अपमानको छोडकर मुखको प्राप्त होओ |७|
-
स्त्रीपसयोश्चारित्रमहोदये
मैथुन - १. स. सि /७/१६/३५३/१० सति रागपरिणामावियो परस्परस्पर्शन प्रति इच्छा मिथुनम् । मिथुनस्य भाव मैथुनमित्युच्यते चारित्रमोहका उदय होनेपर राग परिणामसे युक्त स्त्री और पुरुष जो एक दूसरेको स्पर्श करनेकी इच्छा होती है वह मैथुन कहलाता है। (रा. वा. / ७ /१६/५४३ / २६ ) (विशेष दे०ह्मचर्य /४/९ ) । १२/४.२८.४/२८२/- रविवारी मणययण-कायरूवो मेहुण । एत्थवि अनर गमेहुणस्सेन बहिर गमेहुणस्स आस्वभावो वत्तव्वो । स्त्री और पुरुष के मन, वचन व कायस्वरूप विषयव्यापारको मैथुन कहा जाता है । यहॉपर अन्तरंग मैथुनके समान बहिरगमैथुनको भी (कर्मबन्धका कारण बतलाना चाहिए। ★ मैथुन व अब्रह्म सम्बन्धी शकाएँ
-- दे० ब्रह्मचर्य / ४ 1
=
* वेद व मैथुनमें अन्तर
मैथुन संज्ञा - ३० खा मैनासुन्दरी - मालवदेशमें उज्जैनी नगरी राजा पडुपातकी पुत्री थी । पिताके सन्मुख कर्मको बलवत्ता का बखान करनेके कारण क्रोध
मा० ३-४१
-दे०
१० सज्ञा ।
पिताने कुष्ट के साथ विवाह दी। पतिकी खूब सेवा की, तथा मुनियों के बहनेपर कि विधान करके उसके गन्धोदक द्वारा उसका कुष्ट दूर किया । अन्तमे दीक्षा धारण करके स्त्रीलिंगका छेदकर सोलहवे स्वर्ग में देव हुआ श्रीरामचरित्र
मोक"भरतक्षेत्र मध्य आर्टखण्डका एक देश ।--मनुष्य / ४ | मोक्ष- -शुद्ध रत्नत्रयकी साधना से अष्ट कर्मोंकी आत्यन्तिकी निवृत्ति इयमोक्ष है और रागादि भावोकी निवृति भाषमोक्ष है। मनुष्य गति से ही जीवको मोक्ष होना सम्भव है। आयुके अन्त में उसका शरीर काफूरवत् उड जाता है और वह स्वाभाविक ऊर्ध्व गतिके कारण लोकशिखरपर जा विराजते है, जहाँ वह अनन्तकाल तक अनन्त अतीन्द्रिय सुखका उपभोग करते हुए अपने चरम शरीर के आकार रूपसे स्थित रहते है और पुन शरीर धारण वरके जन्ममरण के चक्कर में कभी नही पडते । ज्ञान ही उनका शरीर होता है।
३२१
मोक्ष
जैन दर्शनकर उसके प्रदेशोंकी सर्व व्यापकता स्वीकार नही करते है. न ही उसे निर्गुण व शून्य मानते है। उसके स्वभावभूत अनन्त ज्ञान आदि आठ प्रसिद्ध गुण है। जितने जीव मुक्त होते है उतने ही निगोद राशि व हारराशिमे आ जाते है. इससे लोक जीवोसे रिक्त नहीं होता ।
भेद व लक्षण
मोक्ष सामान्यका लक्षण । मोक्षके भेद ।
३ द्रव्य व भाव मोक्षके लक्षण ।
मक्त जीवका लक्षण ।
५ जीवन्मुक्तका लक्षण ।
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अजीव, जीव व उभय बन्ध के लक्षण ।
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सिजीव व सिद्धगतिका लक्षण । सिद्धलोकका स्वरूप |
मोक्ष व मुक्त जीव निर्देश
सिद्ध भगवान्के अनेकों नाम
-३०/१/५।
--दे० परमात्मा !
अव सिद्ध कथंचिद् भेदाभेद ।
वास्तवमें भावमोक्ष ही मोक्ष है।
मुक्तनीय निश्चयसे स्वमे रहते है, सिद्धालय में रहना व्यवहार है।
अपुनरागमन सम्बन्धी शका-समाधान | जितने जीव मोक्ष जाते है उतने ही निगोद से निकलते है ।
जीव मुक्त हो गया है, इसके चिह्न । सिद्धों में कथंचित् विग्रहगति । सिद्धों को जाननेका प्रयोजन । सिद्धोंकी प्रतिमा सम्बन्धी विचार
- दे० विग्रह गति ।
-३० श्ययालय /१
सिद्धों के गुण व भाव आदि सिद्धोंके आठ प्रसिद्ध गुणका नाम-निर्देश | आठ गुणोंके लक्षण आदि । सिद्धों में अन्य गुणका निर्देश |
सिद्धों में गुणस्थान, मार्गणास्थान आदि २० प्ररूपणाएँ । - दे० सत् ।
- दे० वह वह नाम ।
सर्वशत्वकी सिद्धि ।
उपरोक्त गुणोंके अवरोधक कर्मोका निर्देश।
-०ज्ञान/
सूक्ष्मत्व व अगुरुलघुत्व गुणोंके अवरोधक कर्मोंकी स्वीकृति हेतु ।
सिद्धोंमें कुछ गुणों व भावोंका अभाव।
इन्द्रिय व सयमके अभाव सम्बन्धी शका |
मोक्षप्राप्ति योग्य द्रव्य क्षेत्र आदि सिद्धो अपेक्षाकृत कथंचित् भेद- निर्देश
मुक्तियोग्य क्षेत्र-निदेश ।
मुक्तियोग्य काल-निर्देश।
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मोक्ष
३२२
१. भेद व लक्षण
*
अनेक भवोंकी साधनासे मोक्ष होता है एक मवमें नहीं।
-दे सयम /१/१०। मुक्तियोग्य गति निटेंश। निगोदसे निकलकर सीधी मुक्तिप्राप्ति सम्बन्धी।
-दे० जन्म/५ मुक्तियोग्य लिग निर्देश। सचेल मुक्ति निषेध ।
-दे० अचेलकत्व । स्त्री व नपुसक मुक्ति निषेध । -दे० वेद/७ । मुक्तियोग्य तीर्थ निर्देश । मुक्तियोग्य चारित्र निर्देश । मुक्तियोग्य प्रत्येक व बोधित बुद्ध निर्देश । मुक्तियोग्य शान निर्देश। मोक्षमार्गमें अवधि व मन पर्यय ज्ञानका कोई स्थान नहीं।
-दे० अवधिज्ञान/६। मोक्षमार्गमें मति व श्रुतज्ञान प्रधान है।
-दे० श्रुतज्ञान/I/२। मुक्तियोग्य अवगाहना निदेश। मुक्तियोग्य संहनन निर्देश।
-दे० सहनन। मुक्तियोग्य अन्तर निदेश। मुक्त जीवोंकी संख्या। गति, क्षेत्र, लिग आदिकी अपेक्षा सिद्धों ने अल्पबहुत्व।
-दे० अल्पबहुत्व/३/१। मुक्तजीवोंका मृतशरीर आकार ऊर्ध्वगमन व भवस्थान उनके मृत शरीर सम्बन्धी दो धाराएँ। । संसारके चरम समयमे मुक्त होकर ऊपरको जाते है। ऊर्ध्व ही गमन क्यों इधर-उधर क्यों नहीं। मुक्त जीव सर्वलोकमें नहीं व्याप जाता। सिद्धलोकसे ऊपर क्यों नहीं जाते।-दे० धर्माधर्म/२ । मुक्तजीव पुरुषाकार छायावत् होते है। | मुक्तजीवोंका आकार चरमदेहसे किचिदूम है। सिद्धलोकमें मुक्तात्माओंका अवस्थान । मोक्षके अस्तित्व सम्बन्धी शंकाएँ मोक्षाभावके निराकरणमें हेतु। मोक्ष अभावात्मक नहीं बल्कि आत्मलाभरूप है। सिद्धोंमें जीवत्व सम्बन्धी । --दे०जीव/२.४ । मोक्ष सुख सद्भावात्मक है।
-दे० सुख/२॥ शुद्ध निश्चय नयसे न बन्ध है न मोक्ष।
-दे० नय/V/१/२ सिद्धोमें उत्पाद व्यय ध्रौव्य। -दे० उत्साद/३ । मोक्षमें पुरुषार्थका सद्भाव। -दे० पुरुषार्थ । बन्ध व उदयकी अटूट शृंखलाकाभंग कैसे सम्भव हो। अनादि कर्मोंका नाश कैसे सम्भव हो। मुक्त जीवोंके परस्पर उपरोध सम्बन्धी। मोक्ष जाते जाते जीवराशिका अन्त हो जायगा ?
१. भेद व लक्षण
१.मोक्ष सामान्यका लक्षण त. सु./१०/२ बन्धहेत्वभावनिर्जराभ्यां कृत्स्नकर्म विप्रमोक्षो मोक्षः १२।
बन्ध हेतुओ (मिथ्यात्व व कषाय आदि ) के अभाव और निर्जरासे सब कर्मोंका आत्यन्तिक क्षय होना ही मोक्ष है। (स सि./१/१/७/५, १/४/१४/५), (रा. वा./९/४/२०/२७/११), (सम/२७/३०२/
२८)। स. सि./१/१ को उत्थानिका/१८ निरवशेषनिराकृतकर्ममलक्लङ्कस्या
शरीरस्यात्मनोऽचिन्त्यस्वाभाविकज्ञानादिगुण मव्याबाध मुखमात्य - न्तिक्मवस्थान्तर मोक्ष इति। - जब आत्मा कर्ममल ( अष्टकर्म), कल क ( राग, द्वेष, मोह) और शरीरको अपनेसे सर्वथा जुदा कर देता है तब उसके जो अचिन्तम स्वाभाविक ज्ञानादि गुणरूप और अव्याबाध सुखरूप सर्वथा विलक्षण अवस्था उत्पन्न होती है उसे मोक्ष कहते है। (प. प्र./मू./२/१०); (ज्ञा /३/६-१०), (नि सा/ता वृ/४), (द्र. सं./टी./३७/१५४/५), (स्या. म/८/०६/३ पर उधृत श्लोक)। रा वा/१/१/३७/१०/१५ 'मोक्ष असने' इत्येतस्य घबभाबसाधनो मोक्षण मोक्ष असन क्षेपणमित्यर्थ., स आत्यन्तिक' सर्व कर्म निक्षेपो मोक्ष इत्युच्यते। रा. वा/९/४/१३/२६/६ मोक्ष्यते अस्यते मैन असनमात्र बा मोक्ष। रा बा /१/४/२७/१२ मोक्ष इव मोक्ष.। क उपमार्थ.। यथा निगडादिद्रव्यमोक्षात सति स्वातन्त्र्ये अभिप्रेतप्रदेशगमनादे पुमान् सुखी भवति, तथा कृत्स्नमवियोगे सति स्वाधीनात्यन्तिकज्ञानदर्शनानुपमसुख आत्मा भवति। समस्त कोंके आत्यन्तिक उच्छेदको मोक्ष कहसे है। मोक्ष शब्द 'मोक्षण मोक्ष'' इस प्रकार क्रियाप्रधान भावसाधन है, 'मोक्ष असने' धातुसे बना है। अथवा जिनसे कोंका समूल उच्छेद हो बह और कर्मों का पूर्ण रूपसे छूटना मोक्ष है । अथवा मोक्षकी भाँति है। अर्थात् जिस प्रकार बन्धनयुक्त प्राणी बेडो आदिके छूट जानेपर स्वतन्त्र होकर यथेच्छ गमन करता हुआ सुखी होता है, उसी प्रकार कर्म बन्धन का वियोग हो जानेपर आत्मा स्वाधीन होकर आत्यन्तिक ज्ञान दर्शनरूप अनुपम सुखका अनुभव करता है। (भ आ /वि./वि /३८/१३४/१८), (ध १३/५.५, ८२/३४८/8)। न च वृ./१५६ ज अप्पसहावादो मूलोत्तरपयडिसंचियं मुच्च। तं मुक्खं अविरुद्ध १५६। आत्म स्वभावसे मूल व उत्तर कर्म
प्रकृतियोके संचयका छुट जाना मोक्ष है। और यह अविरुद्ध है। स. सा/आ./२८८ आत्मबन्धयोद्विधाकरणं मोक्ष । -आत्मा और बन्ध को अलग-अलग कर देना मोक्ष है। २. मोक्षके भेद रा.वा /१/७/१४/१०/२४ सामान्यादेको मोक्ष, द्रव्यभावभोक्तव्यभेदादनेकोऽपि। -सामान्यकी अपेक्षा मोक्ष एक ही प्रकारका है। द्रव्य भाव और भोक्तव्यकी दृष्टि से अनेक प्रकारका है। घ १३/५०५,८२३/४८/१ सा मोक्खो तिविहो-जीवमोक्खो पोग्गलमोक्खो जीवपोग्गलमोक्रवो चेदि । वह मोक्ष तीन प्रकारका है-जीव मोक्ष, पुद्गल मोक्ष और जीव पुद्गल मोक्ष। न. च वृ./१५६ तं मुक्वं अविरुद्धवं दूविहं खलु दवभावगदं ।
-द्रव्य व भावके भेदसे वह मोक्ष दो प्रकारका है। (द्र सं/टी./३७/१५४/७)।
३. द्रव्य व भाव मोक्षके लक्षण भ आ/३/१३४/१८ निरव शेषाणि कर्माणि येन परिणामेन क्षायिकज्ञानदर्शन यथारण्यातचारित्रसज्ञितेन अस्यन्ते स मोक्ष । विश्लेषो वा
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मोक्ष
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१. भेद व लक्षण
समस्तानां कर्मणा। -- क्षायिक ज्ञान, दर्शन ब यथारख्यात चारित्र नामवाले ( शुद्धरत्नत्रयात्मक ) जिन परिणामोसे निरवशेष कर्म आत्मासे दूर किये जाते है उन परिणामोको मोक्ष अर्थात भावमोक्ष कहते है और सम्पूर्ण कर्मोका आत्मासे अलग हो जाना मोक्ष अर्थात द्रव्यमोक्ष है। (और भी दे० पीछे मोक्ष सामान्यका लक्षण
नं.३). (द्र सं./म् /३७/१५४ )। पं. का./ता. वृ./१०९/१७३/१० कर्म निर्मूलनसमर्थ शुद्धात्मोपल ब्धि रूप
जीवपरिणामो भावमोक्ष , भावमोक्षनिमित्तेन जीवकर्मप्रदेशाना निरवशेष पृथग्भावो द्रव्यमोक्ष इति। - कर्मोके निर्मूल करने में समर्थ ऐसा शुद्धात्माकी उपलब्धि रूप (निश्चयरत्नत्रयात्मक ) जीव परिणाम भावमोक्ष है और उस भावमोक्षके निमित्तसे जीव व कर्मोके प्रदेशोका निरवशेषरूपसे पृथक् हो जाना द्रव्यमोक्ष है। (प्र. सा./ता वृ८४/१०६/१५) (इ. स./टी/२८/८५/१४)। दे० आगे शीर्षक न.५ (भावमोक्ष व जीवन्मुक्ति एकार्थवाचक है। स्था. मं./८/८६/१ स्वरूपात्रस्थान हि मोक्ष । -स्वरूपमें अवस्थान करना ही मोक्ष है।
४. मुक्त जीवका लक्षण पं. का./भू /२८ कम्ममल विष्पमुक्को उड्डु लोगस्स अतमधिगंता । सो सव्वणाणद रिसो लहदि सुहमणि दियमण त ।२८। -कर्ममलसे मुक्त आरमा ऊर्ध्व लोकके अन्तको प्राप्त करके सर्वज्ञ सर्वदर्शी अनन्त अनिन्द्रिय सुखका अनुभव करता है। स.सि./२/१०/१६६/७ उक्तात्पञ्चविधात्ससारान्निवृत्ता |ये ते मुक्ता.।
-जो उक्त पाँच प्रकारके ससारसे निवृत्त है वे मुक्त है। रा.वा./२/१०/२/१२४/२३ निरस्तद्रव्यभावबन्धा मुक्ता ।- जिनके द्रव्य
व भाव दोनो कर्म नष्ट हो गये है वे मुक्त है। न, च, वृ./१०७ णटुकम्मसुद्धा असरी राणं तसोवरवणाणछा । परमपहुत्त पत्ता जे ते सिद्वा हु खलु मुक्का १०७। -जिनके अष्ट कर्म नष्ट हो गये है, शरीर रहित है, अनन्तसुख व अनन्तज्ञानमें आसीन है, और परम प्रभुत्वको प्राप्त हैं ऐसे सिद्ध भगवान मुक्त है। (विशेष
देखो आगे सिद्धका लक्षण)। पं.का./ता. वृ/१०६/१७४/१३ शुद्धचेतनात्मका मुक्ता केवलज्ञानदर्शनोपयोगलक्षणा मुक्ता.-शुद्धचेतनात्म या केवलज्ञान व केवलदर्शनोपयोग लक्षणवाला जीव मुक्त है।
.. जीवन्मुक्तका लक्षण पं.का./ता. वृ१५०/२१६/१८ भावमोक्ष केवलज्ञानोत्पत्ति. जीवन्मुक्तोऽहरपदमित्येकार्थ.। -भावमोक्ष, केवलज्ञानकी उत्पत्ति, जीवन्मुक्त, अर्हन्तपद ये सब एकार्थवाचक है। ६. सिद्ध जीव व सिद्धगतिका लक्षण नि.सा/म्/७२ णट्ठढकम्मबधा अहमहागुणसमष्णिया परमा। लोयगठिदा णिच्चा सिद्धा ते एरिमा होति ।७२। आठ कर्मों के बन्धनको जिन्होंने नष्ट किया है ऐसे, आठ महागुणो सहित, परम, लोकाग्र में स्थित और नित्य, ऐसे वे सिद्ध होते है । ( और भी दे० पीछे मुक्तका
लक्षण ) (क्रि.क/३/१/२/१४२)। पं. सं./प्रा./२/गाथा न -अट्ठविहकम्मवियडा सीदीभूदा णिर जणा णिच्चा । अगुणा कयकिच्चा लोयग्गणिवासिको सिद्धा ।३१। जाइजरामरणभया सजोय विओयदुक्खसण्णाओ। रोगादिया य जिस्से ण होति सा होइ सिद्धिगई।६४ ण य इदियकरणजुआ अवग्गहाई हि गाहया अत्थे । णेव य इदियमुक्त्रा अणिदियाण तणाणसुहा 1७४। -१. जो अष्टविध कर्मोसे रहित है, अत्यन्त शान्तिमय है, निर जन है, नित्य है, आठ गुणोसे युक्त है, कृतकृत्य है, लोकके अप्रभाग
पर निवास करते है, वे सिद्ध कहलाते है। (ध १/१,१,२३/गा.१२७/ २००), (गो जी./मू /८/१७७)। २. जहॉपर जन्म, जरा, मरण, भय, मयोग, वियोग, दुख, सज्ञा और रोगादि नहीं होते है वह सिद्धगति कहलाती है।६४। (ध. १/१,१,२४/गा. १३२/२०४ ), (गो जी/मू /१५२/३७५)। ३ जो इंद्रियोके व्यापारसे युक्त नहीं है, अवग्रह अादिके द्वारा भी पदार्थ के ग्राहक नही है, और जिनके इन्द्रिय सुख भी नहीं है, ऐसे अतीन्द्रिय अनन्तज्ञान और सुखवाले जीवोको इन्द्रियातीत सिद्ध जानना चाहिए ।७४!--[ उपरोक्त तीनो गाथाओका भाव-(प.प्र./मू /१/१६-२५); (चा सा /३३-३४)] घ १/१,१.१/गा २६-२८/४८ णिहयविबिहट्टकम्मा तिवणसिरसेहरा विहुवदुक्खा । सुहसायरमझगया णिर जणा णिच्च अगुणा । ।२६। अणबज्जा कयकज्जासव्यावयवेहि दिसम्बटूठा। बज्जसिलत्थ भग्गय पडिम बाभेज्ज सठाणा (२७/ माणुससठाणा वि हु सब्यावयवेहि णो गुणेहि समा। सबिदियाण विसय जमेगदेसे विजाण ति ।२८-जिन्होने नानाभेदरूप आठ कर्मोका नाश कर दिया है, जो तीन लोकके मस्तकके शेरवरस्वरूप है. दु'खोसे रहित है, सुखरूपी सागरमे निमग्न है, निर जन है, नित्य है, आठ गुणोसे युक्त है ।२६। अनवद्य अर्थात् निर्दोष है, कृतकृत्य है, जिन्होने सर्वांगसे अथवा समस्तपर्यायो सहित सम्पूर्ण पदार्थोको जान लिया है, जो बज्रशिला निर्मित अभग्न प्रतिमाके समान अभेद्य आकारसे युक्त है ।२७। जो सब अवयवोसे पुरुषाकार होनेपर भी गुणोसे पुरुषके समान नहीं है, क्योकि पुरुष सम्पूर्ण इन्द्रियोके विषयोको भिन्न देशमें जानता है, परन्तु जो प्रति प्रदेशमे सब विषयोको जानते है, वे सिद्ध है ।२८। और भी दे० लगभग उपरोक्त भावोको लेकर ही निम्नस्थलोपर भी सिद्धोंका स्वरूप बताया गया है । (म. पु/२९/११४-११८ ), (द्र स /
मू/१४/२१), (त. अनु /१२०-१२२)। प्रसा/ता वृ /१०/१२/६ शुद्धामोपलम्भलक्षण सिद्ध पर्याय - शुद्धारमो पलब्धि ही सिद्ध पर्यायका ( निश्चय ) लक्षण है।
७. सिद्धलोकका स्वरूप भ. आ. मू /२१३३ ईसिप्पन्भाराए उरि अत्यदि सो जोयणम्मिसदिए । धुबमचलमजरठाण लोगसिहरमस्सिदो सिद्धो। = सिद्धभूमि 'ईषप्रारभार' पृथिवीके ऊपर स्थित है। एक योजन में कुछ कम है। ऐसे निष्कम्प व स्थिर स्थानमें सिद्ध प्राप्त होकर तिष्ठते है।। ति.प.//६५२-६५८ सम्बद्वसिद्धिइदयकेदणदंडादु उवरि गंतुण । बारस
जोयणमेत्त अट्ठमिया चेट्ठदे पुढवो ।६५२। पुव्वावरेण तीए उवरिमहेछिमतलेसु पत्तेक्क । वासो हवेदि एक्का रज्जू रूवेण परिहीणा । ।६५३। उत्तरदक्षिणभाए दीहा किचूणसत्तरज्जूओ। वेत्तासण संठाणा सा पुढवी अट्ठजोयणबहला ६५४ जुत्ता घणोवहिघणाणितणुवादेहि तिहि समीरेहि । जोयण बीससहस्स पमाण बहलेहि पत्तेक्क ६५५। एदाए बहुमज्झे खेतं पणामेण ईसिपम्भार । अज्जुणसवण्णसरिस जाणारयणेहि परिपूर्ण ६५६। उत्ताणधवलछत्तोवमाणसठाणसंदर एद । पंचत्ताल जोयणयाअंगुलं पि यताम्मि। अट्ठमभूमझगदो तप्परिही मणुबखेत्तपरिहिसमो।६५८! - सर्वार्थ सिद्धि इन्द्रक्के ध्वजदपडसे १२ योजनमात्र ऊपर जाकर आठवी पृथिवी स्थित है।६५२। उसके उपरिम और अधस्तन तल में से प्रत्येक तलका विस्तार पूर्वपश्चिममें रूपसे रहित ( अर्थात् वातक्लयोकी मोटाईसे रहित) एक राजू प्रमाण है।६५३। वेत्रासनके सदृश वह पृथिवी उत्तरदक्षिण भागमें कुछ कम ( वातवलयोकी मोटाईसे रहित) सात राजू लम्बी है। इसकी मोटाई आठ योजन है ६५४। यह पृथिवो घनोदधिवात, धनवात, और तनुवात इन तीन वायुओसे युक्त है। इनमें से प्रत्येक वायुका बाल्य २०,००० योजन प्रमाण है ।६५४। उसके बहुमध्य भागमे चॉदी एव सुवण के सदृश और नाना रत्नोसे परिपूर्ण
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मोक्ष
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ईषत्प्राग्भार नामक क्षेत्र है । ६५६। यह क्षेत्र उत्तान धवल छत्रके सदृश (या ऊँचे कटोरे सशत्र सा./२२८) आकारसे सुन्दर और ४५००,००० योजन ( मनुष्य क्षेत्र ) प्रमाण विस्तारसे संयुक्त है । ६५७॥ उसका मध्य बाहय ( मोटाई) आठ योजन है और उसके आगे घटते घटते अन्तमें एक अंगुलमात्र । अष्टम भूमिमें स्थित सिद्धक्षेत्रकी परिधि मनुष्य क्षेत्रकी परिधि समान है. पू./६/१९६१३२) (/११/२६-३६१) त्रि. सा./५२६-३३), (स. सा./ u/०६६)।
ति./१/३-४ अमखिदीर उदार फणसम्म हियत यहस्सा दंडाि गणं सिद्धाणं होदि आवासो || पदोपहगिअरुणहचउग परमो बहुहिरा गया सिद्धाण जिवास खिदि याणं |४| = उस ( उपरोक्त ) आठवीं पृथिवी के ऊपर ७०५० धनुष जाकर सिद्धों का आवास है | ३| उस सिद्धों के आवास क्षेत्रका प्रमाण ( क्षेत्रफल ) ८४०४७४०८१५६२५
योजन है ।
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२. मोक्ष व मुक्तजीव निर्देश
१. अर्हन्त व सिद्धमें कथंचित् भेदाभेद
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ध. १ / १,१.१/४६/२ सिद्धानामहतां च को भेद इति चेन्न, नष्टानष्टकर्माण सिद्धा' नष्टघातिकर्माणोऽर्हन्त इति तयोर्भेदः । नष्टेषु घातिकर्मस्वाविर्भूताशेषात्मगुणत्वान्न गुणकृतासयोर्भेद इति चेन्न अपाखि कर्मोदय तानि शुध्यानाग्निना दग्धाय पि न स्वकार्यकर्तृणीति चेन्न, पिण्डनिपाताभावान्यथानुपपतित्तः आयुष्याविशेषकर्मोदयास्तित्वसिद्धे तत्कार्यस्य चतुरशीक्षियो न्यात्मकस्य जातिजरामरणोपलक्षितस्य ससारस्यासत्त्वात्ते पामात्मगुणघातनसामर्थ्याभावाच्च न तयोर्गुणकृतो भेद इति चेन्न, आयुष्यवेदनीययोगमनप्रतिबन्धयो सत्त्वात् । नोर्ध्वगमनमात्मगुणस्तदभावे चात्मनो विनाश गाव मुखमपि न गुणस्तत एव । न वेदनीयोदयो दु खजनक केवलिनि केवलित्वान्यथानुपपत्तेरिति चेदस्त्वेवमेव न्यायप्राप्तत्वात् । किंतु सले पनि पत्वाम्यां देशभेदाच तयोर्भेद इति सिद्धम्। प्रश्न सिद्ध और बर्हन्तों में क्या भेद है। उत्तर-आठ कर्मोंको नष्ट करनेवाले सिद्ध होते है, और चार घातिया कर्मोंको नष्ट करनेवाले अरिहन्त होते है । यही दोनोंमें भेद है । प्रश्न- चार घातिया कर्मोके नष्ट हो जानेपर अरिहन्तोंकी आत्मा के समस्त गुण प्रगट हो जाते है, इसलिए सिद्ध और अरिहन्त परमेष्ठी में गुणकृत भेद नही हो सकता है। उत्तर-ऐसा नहीं है, क्योंकि, अरिहन्तीके अघातिया कर्मोंका उदय और सत्त्व दोनों पाये जाते है, अतएव इन दोनो परमेष्ठियोंमे गुणकृत भेद भी है। प्रश्न
अवातिया कर्म शुक्लध्यानरूप अग्निके द्वारा अधजले से हो जाने के कारण उदय और सत्वरूपसे विद्यमान रहते हुए भी अपना कार्य करने में समर्थ नहीं है। उत्तर-ऐसा भी नहीं है, क्योकि, शरीर के पतनका अभाव अन्यथा सिद्ध नही होता है, इसलिए अरिहन्तो के आयु आदि शेष कर्मोंके उदय और सत्त्वकी ( अर्थात् उनके कार्यकी ) सिद्धि हो जाती है । प्रश्न- कमका कार्य तो चौरासी लाख योनिरूप जन्म, जरा और मरणसे युक्त संसार है । वह, अघातिया कर्मो के रहनेपर अरिहन्त परमेष्ठी के नहीं पाया जाता है। तथा अघातिया कर्म, आत्मा के अनुजीवी गुणोके पाठ करनेमे समर्थ भी नहीं है। इसलिए अरिहन्त और सिद्ध परमेष्ठीमे गुणकृत भेद मानना ठोक नहीं है ? उत्तर- ऐसा नहीं है, क्योकि जीवके ऊर्ध्वगमन स्वभावका प्रतिमन्धक आयुकर्मका उदय और सुखगुणका प्रतिबन्धक नीय कर्म का उदय अरिहन्तोके पाया जाता है, इसलिए अरिहन्त और सिद्धो में गुणकृत भेद मानना ही चाहिए। प्रश्न -- ऊर्ध्वगमन आत्मा
२. मोक्ष व मुक्तजीव निर्देश
का गुण नहीं है, क्योंकि, ऐसा माननेपर उसके अभाव में आत्माका भी अभाव मानना पड़ेगा। इसी कारणसे सुख भी आत्माका गुण नहीं है। दूसरे वेदनीय कर्मका उदय दुःखको भी उत्पन्न नहीं करता है, अन्यथा केवली भगवान्के केवलीपना मन नहीं सकता उत्तर-यदि ऐसा है तो रहो. अर्थात् यदि उन दोनों में गुणकृत भेद सिद्ध नहीं होता है तो मत होओ, क्योंकि वह न्यायसंगत है। फिर भी सलेपत्व और निर्लेपत्व की अपेक्षा और देश भेदकी अपेक्षा उन दोनों परमेष्ठियों में भेद सिद्ध है ।
२. वास्तव में भावमोक्ष ही मोक्ष है
पप्र. / टी / २/४/११७/१३ जिना कर्तार ब्रजन्ति गच्छन्ति । कुत्र गच्छन्ति । परलोकशब्दवाच्ये परमात्मध्याने न तु कायमोक्षे चेति । = जिनेन्द्र भगवान् परलोक्में जाते है अर्थात् 'परलोक' इस शब्द के वाच्यभूत परमात्मध्यानमें जाते है, कायके मोक्षरूप परलोकमें नही ।
३. मुक्त जीव निश्चय से स्वमें ही रहते हैं; सिद्धालय में रहना व्यवहारसे है
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नि. सा / ता वृ./१७६ / क २६४ लोकस्याग्रे व्यवहरणत: संस्थितो देवदेव स्वात्मन्युविता निश्चयेने मारते २६४ - देवाधि देव उमहारसे लोकके अपने स्थित है. और निश्चयसे निज आत्मामें ज्योके त्यो अत्यन्त अविचल रूपसे रहते हैं।
४. अपुनरागमन सम्बन्धी शंका-समाधान प्रसा/१७ भगविहीणो य भयो सभवपरिवजिदो विशासो हि। | १७| = उस सिद्ध भगवान्के विनाश रहित तो उत्पाद है और उत्पाद रहित बनाया है विशेष उत्पाद/
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रा. वा /१०/४/४-८/६४२-२७ बन्धस्याव्यवस्था अश्वादिवदिति चेत ; न; मिथ्यादर्शनाद्यच्छेदे कार्यकारणनिवृत्ते |४| पुनर्वन्धप्रसंगी जानत पश्यतश्च कारुण्यादिति चेत्, न, सर्वास्रवपरिक्षयात् ॥५॥
भक्तिस्नेह कृपास्पृहादीनां रागविकल्पत्वाद्वीतरागे न ते सन्तीति । अकस्मादिति चेत् अनिर्मोन ॥६॥ मुक्तिप्राप्त्यनन्तरमेव बन्धोपपत्ते' | स्थानवत्वात्पात इति चेत्; न; अनासवत्वात् ॥७॥
आस्रवतो हि पानपात्रस्याध पतनं दृश्यते, न चाखवो मुक्तस्यास्ति | गौरवाभावाच्च • यस्य हि स्थानवत्वं पातकारणं तस्य सर्वेषां पदार्थानां पात स्यात् स्थानवत्त्वाविशेषात् । रा. बा/१०/२/३/६४५/६ पर उदये बोजे यथाऽपतं प्रादुर्भवति नाङ्कुर । कर्मबीजे तथा दग्धे न रोहति भवाङ्कुर । प्रश्न१ जैसे घोडा एक बन्धन से छूटकर भी फिर दूसरे बन्धन से बँध जाता है, उस तरह जीव भी एक बार मुक्त होनेके पश्चात् पून बँध जायेगा ! उत्तर - नहीं, क्योंकि, उसके मिथ्यादर्शनादि कारणोंका उच्छेद होनेसे वचनरूप कार्यका सर्वथा अभाव हो जाता है |४| प्रश्नसमस्त जगत्को जानते व देखते रहनेसे उनको करुणा भक्ति आदि उत्पन्न हो जायेंगे, जिसके कारण उनको बन्धका प्रसंग प्राप्त होता है ? उत्तर - नहीं, क्योंकि, समस्त आखत्रोंका परिक्षय हो जाने से उनको भक्ति स्नेह कृपा और स्पृहा आदि जागृत नही होते है । वे वीतराग है, इसलिए जगतके सम्पूर्ण प्राणियोको देखते हुए भी उनको करुणा आदि नही होती है ।। प्रश्न- अकस्मात ही यदि बन्ध हो जाये तो ? उत्तर- तब तो किसी जीवको कभी मोक्ष ही नहीं हो सकती, क्योंकि तब तो मुक्ति हो जानेके पश्चात् भी उसे निष्कारण ही बध हो जायेगा । ६। प्रश्न- स्थानवाले होनेसे उनका पतन हो जायेगा ? उत्तर- नहीं, क्योंकि, उनके आस्रवोका अभाव है। आसवाले ही पानपात्रका अथवा गुरुत्व (भार) युक्त ही ताड़
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मोक्ष
फल आदिका पतन देखा जाता है। परन्तु मुक्त जीवके न तो आस्रव है और न ही गुरुत्व है ।। यदि मात्र स्थानवाले होनेसे पतन होवे तो आकाश आदि सभी पदार्थोंका पतन हो जाना चाहिए, क्योकि, स्थानवत्त्वकी अपेक्षा सब समान है । २, दूसरी बात यह भी है कि जैसे बीजके पूर्णतया जल जानेपर उससे अंकुर उत्पन्न नहीं होता है, उसी प्रकार कर्मबीजके दग्ध हो जानेपर संसाररूपी अंकुर उत्पन्न नहीं होता है। (त. सा. / ८ /७); ( स्या. म. / २६/३२८/२८ पर उद्धृत ) ।
ध. ४/१५,३१०/४७७/५ ण च ते संसारे णिवदति णट्ठासवत्तादो । ३. कोंके नट हो जानेसे ने ससारमें पुन. सौटकर नहीं जाते। मो.सा./ अधिकार / श्लोक-न निवृत सुखीभवत पुनरायाति संसृति । सुई हि पदं हिला दुखद प्रपद्यते। (०/१८) युज्यते रजसा नारमा भूयोऽपि विरजीकृत पृथकृत कुछ स्पर्श पुन फीटेन युज्यते । (१-५३) । ४, जो आत्मा मोक्ष अवस्थाको प्राप्त होकर निराकुलतामय सुखका अनुभव कर चुका वह पुनः ससारमें लौटकर नहीं आता, क्योंकि, ऐसा कौन बुद्धिमान् पुरुष होगा जो सुखदायी स्थानको छोड़कर दुखदायी स्थानमें आकर रहेगा। ( १८ ) ५. जिस प्रकार एक बार कोटसे नियुक्त किया गया स्वर्ण पुनः कीट युक्त नहीं होता है उसी प्रकार जो आत्मा एक बार कर्मोंसे रहित ही चुका है, वह पुन कर्मोंसे संयुक्त नहीं होता १५३३
दे० मोक्ष /६/५.६ ६. पुनरागमनका अभाव माननेसे मोक्षस्थानमें जीवोकी भीड हो जावेगी अथवा यह ससार जीवोसे रिक्त हो जायेगा ऐसी आशकाओको भी यहाँ स्थान नही है ।
५. जितने जीव मोक्ष जाते हैं उतने ही निगोदसे निकलते हैं
मो. जी./जी.अ./११७ / ४४१ / १५ कदाचिदसमयाधिकमासाभ्यन्तरे राशि निर्गतेषु अष्टोत्तरपट्ातणीवेषु मुतिगतेषु सानोजीमा पिनिगोदभवं व्यवस्था चतुर्गतिमवाप्नुवन्तीयमर्थ - कदाचित आठ समय अधिक वह मासमे चतुर्गति जीवराशि से निकलकर १०० जीव मोक्ष जाते है और उसने ही जीव (उतने ही समय मे ) निश्य निगोह भयको छोडकर चतुर्गतिरूप भगको प्राप्त होते हैं। बोर भी दे० मोक्ष/४/१९ ) ।
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दे० मार्गणा (राम मार्गणा व गुणस्थानोगे आयके अनुसार ही व्यथ होनेका नियम है)।
स्या. मं / २६ / ३३१ / १३ पर उद्धृत - सिज्झन्ति जत्तिया खलु इह सववहारजीवरासीको ऐति अणाइयस्सर रासीओ ततिक्षा सम्म |२॥ इति वचनाद्व । यावन्तश्च यतो मुक्ति गच्छन्ति जीवास्तावन्तोऽनादि निगोदवनस्पतिराशेस्तत्रागच्छन्ति । जितने जीव व्यवहार राहिसे निकलकर मोक्ष जाते है, उतने ही अनादि वनस्पतिराशिसे निकलकर व्यवहार राशिमें आ जाते है ।
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३. सिद्धोंके गुण व भाव आदि
प. प्र./टी./१/२५/३० / ९ तदेव मुक्त भीमस्ट स्वात्मस्वरूपमुपादेय मिति भावार्थ । = वह मुक्त जीव सदृश स्वशुद्वात्मस्वरूप कारणसमयसार ही उपादेय है, ऐसा भावार्थ है ।
६. जीव मुक्त हो गया है इसके चिह्न
दे० सल्लेखना /६/३/४ ( क्षपकके मृत शरीरका मस्तक व दन्तपंक्ति यदि पक्षिगण ले जाकर पर्वत के शिखरपर डाल दे तो इस परसे यह बात રૂ. जानी जाती है कि वह जीव मुक्त हो गया है । )
७. सिद्धोंको जाननेका प्रयोजन
प.प्र./९/२६ जड भिम्मलु णाणमत सिद्धिर्हिसि देउ तेहउ विसइ बंभु पर देहहं म करि भेउ । २६ । - जैसा कार्यसमयसार स्वरूप निर्मल ज्ञानमयी देव सिद्धलोकमे रहते है, वैसा ही कारणसमयसार स्वरूप परब्रह्म शरीर में निवास करता है । अत हे प्रभाकर
भट्ट तू सिद्ध भगवान् और अपनेमे भेद मत कर ।
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३. सिद्धोंके गुण व भाव आदि
१. सिद्धोंके आठ प्रसिद्ध गुणका नाम निर्देश
लघु सिद्धभक्ति सम्मान सीरियस हे अवग अगुरुलघुव्यावा बहुगुणा हाँति सिद्धाणं -सायिक सम्य अनन्तज्ञान, अनन्तदर्शन, अनन्तवीर्य, सूक्ष्मत्व, अवगाहनत्व, अगुरुलघुत्व और अव्याबाधत्व, ये सिद्धोके आठ गुण वर्णन किये गये है । (वसु. श्रा /५३७ ); (द्र. स. / टी / १४ / ४२ / २ पर उद्धृत ); ( प. प्र. / टी / १/६१/६२/८ पर उधृत ) (५ / ६१०-६१०), (विशेष देखो आगे शीर्षक नं. १३) ।
२. सिद्धों में अन्य गुणका निर्देश
भ.आ./मू / २१५७/१८४७ अकसायमवेदत्तमकारकदा विदेहदा चेव । अचलत्तमलेपतं चहुंति अच्चतियाई से | २१५७ = - अकषायत्व, अदरख, अकारकस्म, देहराहित्य, अचलल अपत्य ये सिद्धो के आत्यंतिक गुण होते है . १३/५.४.२६/ २९/७०)।
घ. ७/२.१,७/गा. ४-११/१४-१५ का भावार्थ - ( अनन्तज्ञान, अनन्तदर्शन, अनन्त सुख, क्षायिक सम्यक्त्व, अकषायत्व रूप चारित्र, जन्ममरण रहितता (अवगाहनत्व ), अशरीरत्व ( सूक्ष्मत्व ), नीच ऊँच रहितता ( अगुरुलघुत्व ), पंचक्षायिक लब्धि ( अर्थात् - क्षायिकदान, क्षायिकतामायिकभोग क्षाविपभोग और क्षायिकवीर्य ) ये गुण सिद्धोंमें आठ कर्मोंके क्षयसे उत्पन्न हो जाते हैं ।४-११ । (विशेष दे० आगे शीर्षक नं. ३)
घ १३५.४.२६ / श्लो १०/६१ पत क्षेत्राचैव कामतो भारतस्तथा । सिद्धामगुणसंयुक्ता गुणा द्वादशमा स्मृता |३०| - सिद्धोके उपरोक्त गुणों में (दे० शीर्षक नं. १) द्रव्य, क्षेत्र, काल, और भावकी अपेक्षा चार गुण मिलानेपर बारह गुण माने गये है ।
टी/१४/४२ / ६ इति मध्यमरुचिशिष्यापेक्षया सम्यक्त्वादिगुणाष्टकं भणितम् । मध्यमरुचिशिष्यं प्रति पुनर्विशेषभेदनयेन निर्गतित्वं निरिन्द्रियत्वं निष्कायत्व, निर्योगत्व, निर्वेदत्वं, निष्कषायत्वं, निर्नामत्वं निर्गोत्वं, निरायुषत्वमित्यादिविशेषगुणास्तथैवास्तित्ववस्तुप्रमेयत्वादिसामान्यगुणः स्वागमाविरोधेनानन्ता ज्ञातव्या । = इस प्रकार सम्यक्त्वादि आठ गुण मध्यम रुचिवाले शिष्योंके लिए है मध्यम रुचिवा शिष्य के प्रति विशेष भेदन मनसे गतिरहितता, इद्रिपर हितता, शरीररहितता योगरहितता, वेदरहिराता रहता. नामरहितता, गोत्ररहिता था बापुरहिता आदि विशेष गुण और इसी प्रकार अस्तित्व अस्तुत्व प्रमेयत्वादि सामान्यगुण, इस तरह जैनागमके अनुसार अनन्त गुण जानने चाहिए।
३. उपरोक्त गुणोंके अवरोधक कर्मोंका निर्देश
प्रमाण - १ (प्र. सामू ६०) २ ( ७/२.१०/गा. ४-११/१४) । गोजी/जी/ ०/९०८ पर उधृत दो गाथाएँ) ४. (रा. सा /-/ ३०-४० ) ( सा / ११-८१३) (प्र./टी./१२/११/६२/ १६) ५ (प्र.सा./त.प्र./१६ (वि /८/६ ): ७ (पं. भव. / १९१४) संकेत विशेष देखो नीचे इन संदर्भोंकी व्याख्या ।
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मोक्ष
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४. मोक्षप्राप्ति योग्य द्रव्य क्षेत्र काल आदि
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कर्मका नाम
सन्दर्भ नं.
गुणका नाम
२.३,४
केवलदर्शन केवलज्ञान अनन्तसुख या अध्यात्राधत्व
दर्शनावरणीय ज्ञानावरणीय वेदनीय
स्वभावघाती ४ | चारो घातियाकर्म ५] समुदितरूपसे
आठों कर्म मोहनीय आयु
२,३.६
सूक्ष्मत्व या अशरीरता
अवगाहनत्व या जन्म( मरणरहितता
नाम
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गोत्रकर्म अन्तराय
२,३,६ शीर्षक न.४ २,३,४,६ २३,४,६
मूक्ष्मत्व या अशरीरता अगुरुलघुत्व या ऊँचनीचरहितता अनन्तवीर्य ५ क्षायिकल ब्धि
प्र. सा /मू./६० 5 केवल ति णाण तं सोक्रवं परिणाम च सो चेव । खेदो तस्स ण भणिदो जम्हा घादी खय जादा। -जो केवलज्ञान है, वह ही सुख है और परिणाम भी वही है। उसे खेद नहीं है, क्योंकि घातीकर्म क्षयको प्राप्त हुए हैं। प्र सा./त प्र./६१ स्वभावप्रतिघाताभावहेतुक ही सौख्यं । -मुखका
हेतु स्वभाव-प्रतिघातका अभाव है। 4. ध /उ./१११४ कर्माष्टक विपक्षि स्यात सुखस्यैकगुणस्य च । अस्ति किचिन्न कर्मक तद्विपक्षं तत पृथक् ।१११४।-आठो ही कर्म समुदायरूपसे एक सुख गुणके विपक्षी है। कोई एक पृथक् कर्म उसका विपक्षी नहीं है। ४. सूक्ष्मत्व व अगुरुलधुत्व गुणों के अवरोधक कमौंको
स्वीकृतिमें हेतु प, प्र./टी./१/६२/६२/१ सूक्ष्मस्वायुष्ककर्मणा प्रच्छादितम् । कस्मादिति
चेत् । विवक्षितायु' कर्मोदयेन भवान्तरे प्राप्ते सत्यतीन्द्रियज्ञानविषयं सूक्ष्मत्वं त्यक्त्वा पश्चादिन्द्रियज्ञानविषयो भवतीत्यर्थः। सिद्धावस्थायोग्यं विशिष्टागुरुल घुत्वं नामकर्मोदयेन प्रच्छादितम् । गुरुत्वशब्देनोच्चगोत्रजनितं महत्त्व भण्यते, लघुत्वशब्देन नीचगोत्रजनित तुच्छत्वमिति, तदुभयकारणभूतेन गोत्रकर्मोदयेन विशिष्टागुरुलघुत्व प्रच्छाद्यत इति ।-आयुकर्म के द्वारा सूक्ष्मत्वगुण ढका गया क्योकि विवक्षित आयुकर्म के उदयसे भवान्तरको प्राप्त होनेपर अतीन्द्रिय ज्ञानके विषयरूप सूक्ष्मत्वको छोडकर इन्द्रियज्ञानका विषय हो जाता है। सिद्ध अवस्थाके योग्य विशिष्ट अगुरुलघुत्व गुण ( अगुरुलघु संज्ञक) नामकमके उदयसे ढका गया। अथवा गुरुत्व शब्दसे उच्चगोत्रजनित बड़प्पन और लघुरव शब्दसे नीचगोत्रजनित छोटापन कहा जाता है। इसलिए उन दोनोके कारणभूत गोत्रकर्मके उदयसे विशिष्ट अगुरुलघुत्वका प्रच्छादन होता है।
५. सिद्धों में कुछ गुणों व भावोंका अभाव त.सू./१०/३-४ औपशमिकादिभव्यत्वानां च ३। अन्यत्र केवलसम्य- क्त्वज्ञानदर्शन सिद्धत्वेभ्यः ।४। औपशमिक, क्षायोपशमिक व
औदयिक ये तीन भाव तथा पारिणामिक भावो में भव्यत्व भावके अभाव होनेसे मोक्ष होता है।३। क्षायिक भावोमे केवल सम्यक्त्व. केवलज्ञान, केवलदर्शन, और सिद्धत्वभावका अभाव नही होता है। (त सा./८/५)। दे 'सत्' की ओघप्ररूपणा-(न वे सयत है, न असंयत और न संयतासंयत । न वे भव्य है और न अभव्य । न वे सही है और न
असज्ञी।) दे जीव/२/२/ (दश प्राणों का अभाव होनेके कारण वे जीव ही नहीं
है। अधिकसे अधिक उनको जीवितपूर्व कह सकते है।) स. सि./१०/४/४६८/११ यदि चत्वार एवावशिष्यन्ते, अनन्तवीर्यादीनां निवृत्ति. प्राप्नोति। नैष दोषः, ज्ञानदर्शनाविनाभावित्वादनन्तवीर्यादीनामविशेष, अनन्तसामर्थ्यहीनस्यानन्तावबोधवृत्त्य भावाज्ज्ञान, मयत्वाच्च सखस्येति । -प्रश्न-सिद्धोके यदि चार ही भाव शेष रहते है, तो अनन्तवीर्य आदिकी निवृत्ति प्राप्त होती है। उत्तर-- यह कोई दोष नही है, क्योकि, ज्ञानदर्शनके अविनाभावी अनन्तवीर्य आदिक भी सिद्धोमें अवशिष्ट रहते है। क्योकि, अनन्त : सामथ्यसे हीन व्यक्तिके अनन्तज्ञानकी वृत्ति नहीं हो सक्ती और
सुख ज्ञानमय होता है। रा.वा/१०/४/३/६४२/२३ । ध.१/१.१,३३/गा. १४०/२४८ ण वि इदियकरणजुदा अवगहादीहिगाहिया अत्थे। णेव य इंदियसोरखा अणिदियाणतणाणसुहा ।१४०१ - वे सिद्ध जीव इन्द्रियोके व्यापारसे युक्त नहीं है, और अवग्रहादिक क्षायोपशमिक ज्ञानके द्वारा पदार्थों को ग्रहण नहीं करते है उनके इन्द्रिय सुख भी नहीं है: क्योकि, उनका अनन्तज्ञान और अनन्तसुरव अतीन्द्रिय है। (गो, जी /मू./१७४/४०४)।
६. इन्द्रिय व संयमके अमाव सम्बन्धी शंका ध: १/१,१,३३/२४८/११ तेषु सिद्धषु भावेन्द्रियोपयोगस्य सत्त्वात्सेन्द्रियास्त इति चेन्न, क्षयोपशमजनितस्योपयोगस्येन्द्रियत्वात् । न च क्षीणाशेषकर्मसु सिद्धषु क्षयोपशमोऽस्ति तस्य क्षायिकभावेनापसारितत्वात् । ध/१/१,१,१३०/३७८/८ सिद्धानां क. संयमो भवतीति चेन्नै कोऽपि । यथाबुद्धिपूर्व कनिवृत्तेरभावान्न संयतास्तत एव न संयतासंयताः नाप्यसंयता प्रणष्टाशेषपापक्रियत्वात् । -प्रश्न-उन सिद्धों में भावेन्द्रिय और तज्जन्य उपयोग पाया जाता है, इसलिए वे इन्द्रिय सहित है। उत्तर-नहीं, क्योकि, क्षयोपशमसे उत्पन्न हुए उपयोगको इन्द्रिय कहते है । परन्तु जिनके सम्पूर्ण कर्म क्षीण हो गये है, ऐसे सिद्धोंमें क्षयोपशम नहीं पाया जाता है, क्योंकि, वे क्षायिक भावके द्वारा दूर कर दिया जाता है। (और भी दे० केवली/५)1 प्रश्नसिद्ध जीवोके कौन-सा संयम होता है। उत्तर-एक भी संयम नहीं होता है; क्योकि, उनके बुद्धिपूर्वक निवृत्तिका अभाव है। इसी प्रकार वे संयतासंयत भी नही है और असंयत भी नहीं है, क्योकि, उनके सम्पूर्ण पापरूप क्रियाएँ नष्ट हो चुकी है। ४. मोक्षप्राप्ति योग्य द्रव्य क्षेत्र काल आदि
..सिद्धोंमें अपेक्षाकृत कथंचित् भेद त. सू /१०/8 क्षेत्रकालगतिलिङ्गतीर्थचारित्रप्रत्येकबोधितज्ञानावगाहनानन्तरसंख्याल्पबहुत्वत' साध्या' 18- क्षेत्र, काल, गति, लिग, तीर्थ, चारित्र, प्रत्येकबोधित, बुद्धबोधित, ज्ञान, अवगाहन, अन्तर, सख्या, और अल्पबहुत्व इन द्वारा सिद्ध जीव विभाग करने योग्य है। २. मुक्तियोग्य क्षेत्र निर्देश स. सि./१०/१/४७१/११ क्षेत्रेण तावत्कस्मिन क्षेत्र सिध्यन्ति । प्रत्युत्पन्नग्राहिनयापेक्षया सिद्धिक्षेत्रे स्वप्रदेशे आकाशप्रदेशे वा सिद्धिर्भवति ।
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४. मोक्षप्राप्ति योग्य द्रव्य क्षेत्र काल आदि
भतग्राहिनयापेक्षया जन्म प्रतिपञ्च दशसु कर्मभूमिषु, संहरणं प्रति मानुषक्षेत्रे सिद्धिः। = क्षेत्रकी अपेक्षा-वर्तमानग्राही नयसे, सिद्धि- क्षेत्रमें, अपने प्रदेश में या आकाश प्रदेशमें सिद्धि होती है। अतीत- ग्राही नयसे जन्मकी अपेक्षा पन्द्रह कर्मभूमियो में और अपहरणकी अपेक्षा मानुषक्षेत्रमें सिद्धि होती है । ( रा. वा./१०/६/२/६४६/१८) ।। ., मुक्तियोग्य काल निर्देश स. सि./१०/६/४७१/१३ कालेन कस्मिन्काले सिद्धि'। प्रत्युत्पन्ननयापेक्षया एकसमये सिद्धयच सिद्धो भवति । भूतप्रज्ञापननयापेक्षया जन्मतोऽविशेषेणोत्सपिण्यसपिण्योति सिध्यति । विशेषणावसर्पिण्या। सुषमदु.षमाया अन्त्ये भागे दुषमसुषमाया च जात. सिध्यति । न तु दुषमाया जातो दुषमायाँ सिध्यति। अन्यदा नैव सिध्यति। संहरणत सर्वस्मिन्काले उत्सपिण्यामवसर्पिण्या च सिध्यति ।कालकी अपेक्षा-वर्तमानग्राही नयसे, एक समयमै सिद्ध होता हुआ सिद्ध होता है। अतीतग्राही नयसे, जन्मकी अपेक्षा सामान्यरूपमें उत्सर्पिणी और अवसर्पिणीमें उत्पन्न हुआ सिद्ध होता है। विशेष रूपसे अवसर्पिणी कालमें सुषमा दुषमाके अन्त भागमे और दुषमासुषमामें उत्पन्न हुआ सिद्ध होता है। दुषमामे उत्पन्न हुआ दुषमा में सिद्ध नहीं होता। इस कालको छोडकर अन्य कालमें सिद्ध नहीं होता है। सहरणकी अपेक्षा उत्सर्पिणी और अवसर्पिणीके सब समयों में सिद्ध होता है । ( रा. वा./१०/६/३/६४६/२२)। ति. प./४/५५३.१२३६ सुसुमदुसुमम्मि णामे सेसे चउसीदिलक्खपुवाणि । वासतए अडमासे इगिपक्खे उसहउप्पत्ती ।५५३। तियवासा अडमासं पक्वं तह तदियकालअवसेसे । सिद्धो रिसहजिणिदो वीरो तुरिमस्स तेत्तिए सेसे ।१२३६। सुषमादुषमा नामक तीसरे कालके ८४००,००० पूर्व, ३ वर्ष और ८ मास शेष रहनेपर भगवान ऋषभदेवका अवतार हुआ।४५३। तृतीयकालमें ३ वर्ष और 4 मास शेष रहनेपर ऋषभ जिनेन्द्र तथा इतना ही चतुर्थ काल में अवशेष रहनेपर वीरप्रभु सिद्धि
को प्राप्त हुए ।१२३६॥ ( और भी दे० महावीर/१,३)। म.पु/४१/७८ केवलार्कोदय प्रायो न भवेत् पञ्चमे युगे। -पंचमकालमें
प्रायः केवलज्ञानरूपी सूर्यका उदय नहीं होगा। घ, ६/१,६-८,११/प्र./पक्ति दुस्सम, (दुस्समदुस्सम ), सुस्समासुस्समा
मुसमदुम्समाकालुप्पण्णमणुसाणं खवणणिवारणहूं 'जम्हि जिणा' त्ति बयणं । जम्हि काले जिणा संभवति तम्हि चेव खवणाए पठवाओ होदि, ण अण्णकालेसु । (२४६/१) एदेण वक्वाणभि. पाएण दुस्सम-अइदुस्सम-सुसमसुसम-सुसमकाले-सुप्पणाणं चेव दसणमोहणीयवववणा णत्थि, अवसेसदोसु वि कालेसुप्पणाणमथि। कुदा। एई दियादो आगंतुणतदियकालुप्पण्णबद्धणकुमारादीणं दंसण- मोहवरखवणदसणादो। एदं चेवेत्थ बक्खाणं पधाणं कादव्वं ।-दुषमा, (दु.षमादु षमा), सुषमासुषमा, सुषमा, और सुषमादु षमा कालमें उत्पन्न हुए मनुष्योके दर्शनमोहका क्षपण निषेध, करनेके लिए 'जहाँ जिन होते है' यह वचन कहा है। निस कालमे जिन सम्भव हैं उस ही कालमें दर्शनमोहको क्षपणाका प्रस्थापक कहलाता है, (किन्हीं अन्य आचार्योंके ) व्याख्यानके अभिप्रायसे दुषमा, अतिदुषमा, सुषमासुषमा और सुषमा इन चार कालोमें उत्पन्न हुए जीवों के ही दर्शनमोहकी क्षपणा नही होती है। अवशिष्ट दोनो कालोंमें अर्थात सुषमादुषमा और दुषमासुषमा कालोमे उत्पन्न हुए जीवो के दर्शनमोहनीयकी क्षपणा होती है। इसका कारण यह है कि एकेन्द्रिय पर्यायसे आकर ( इस अवसर्पिणी के ) तीसरे कालमे उत्पन्न हुए वनकुमार आदिकोके दर्शनमोहकी क्षपणा देखी जाती है। यहाँपर यह व्याख्यान ही प्रधानतया ग्रहण करना चाहिए। दे० विदेह-(उपरोक्त तीसरे व चौथे काल सम्बन्धी नियम भरत व ऐरावत क्षेत्र के लिए ही है, विदेह क्षेत्रके लिए नही)।
दे०जबूस्वामी-(जम्बूस्वामी चौथेकालमें उत्पन्न होकर पंचमकाल
मे मुक्त हुए। यह अपवाद हुंडावसर्पिणीके कारणसे है। ) दे. जन्म/५/१ ( चरमशरीरियोकी उत्पत्ति चौथे काल में ही होती है)।
१. मुक्तियोग्य गति निर्देश शी. पा/मू /२६ सुणहाण गद्दहाण य गोपसुमहिलाण दीसदे मोक्खो। जो सोधति चउत्थं पिच्छिज्जता जणेहि सव्वेहि। = श्वान, गधे, गौ, पशु व महिला आदि किसीको मोक्ष होता दिखाई नहीं देता, क्योंकि, मोक्ष तो चौथे अर्थात् मोक्ष पुरुषार्थ से होता है जो केवल मनुष्यगति व पुरुषलिगमें ही संभव है। (दे० मनुष्य/२/२)। स.सि /१०/६/४७२/५ गत्या कस्यां गतौ सिद्धि.। सिद्धिगतौ मनुष्यगतौ वा। -गतिकी अपेक्षा-सिद्धगतिमे या मनुष्यगतिमें सिम्मि होती है । (और भी दे० मनुष्य/२/२)। रा, वा./१०/६/४/६४६/२८ प्रत्युत्पन्ननयाश्रयेण सिद्धिगतौ सिद्धयति । भूतविषयनयापेक्षया अनन्तरगतौ मनुष्यगतौ सिद्धयति । एकान्तरगतौ चतसृषु गतिषु जातः सिद्धयति । -वर्तमानग्राही नयके आश्रयसे सिद्भिगतिमे सिद्धि होती है। भूतग्राही नयसे, अनन्तर गतिकी अपेक्षा मनुष्यगतिसे और एकान्तरगतिकी अपेक्षा चारो हो गतियोमे उत्पन्न हुओको सिद्धि होती है।
५. मुक्तियोग्य लिंग निर्देश सू पा./मू./२३ णवि सिज्मइ वत्थधरो जिणसासण जइ वि होइ तित्थयरो। एग्गो विमोक्खमग्गो सेसा उम्मग्गया सव्वे ।२३। जिनशासनमें-तीर्थकर भी जब तक वस्त्र धारण करते है तब तक मोक्ष नहीं पाते। इसलिए एक निर्ग्रन्थ ही मोक्षमार्ग है, शेष सर्व मार्ग
उन्मार्ग है। स. सि /१०/६/४७२/५ लिड्गेन केन सिद्धि अवेदत्वेन त्रिभ्यो वा वेदेभ्य'
सिद्धिर्भावतो न द्रव्यत. । द्रव्यत पुंलिङगेनैव । अथवा निम्रन्थलिड्गेन । सग्रन्थलिड्गेन वा सिद्धिर्भूतपूर्वनयापेक्षया। लिगकी अपेक्षा वर्तमानग्राही नयसे अवेदभावसे तथा भूतगोचर नयसे तीनो वेदोसे सिद्धि होती है। यह कथन भाववेदकी अपेक्षा है द्रव्यवेदको अपेक्षा नही, क्योकि, द्रव्यकी अपेक्षा तो पुंलिगसे ही सिद्धि होती है। (विशेष दे० वेद/६/७ )। अथवा वर्तमानग्राही नयसे निर्ग्रन्थलिगमे सिद्धि होती है और भूतग्राही नयसे सग्रन्थलिगसे भी सिद्धि होती है। (विशेष दे० लिग)। (रा. वा./१०/६/५१६४६/३२) ।
१. मुक्तियोग्य तीर्थ निर्देश स. सि./१०/8/४७२/७ तीर्थेन तीर्थ सिद्धिधा, तीर्थवरेतरविल्पाद । इतरे द्विविधा' सति तीर्थकरे सिद्धा असति चेति। तीर्थ सिद्धि दो प्रकारकी होती है - तीर्थकरसिद्ध और इतरसिद्ध । इतर दो प्रकारके होते है। कितने ही जीव तीर्थ करके रहते हुए सिद्ध होते है और कितने ही जीव तीर्थकरके अभाव में सिद्ध होते है । (रा. वा/ १०/६/६/६४७/३)।
७. मुक्तियोग्य चारित्र निर्देश स सि./१०/६/४७२/८ चारित्रेण केन सिद्धयति । अव्यपदेशेनै कचतु.पञ्चविकल्पचारित्रेण वा सिद्धि । -चारित्रकी अपेक्षा-प्रत्युत्पन्ननयसे व्यपदेशरहित सिद्धि होती है अर्थात न चारित्रसे होती है और न अचारित्रसे (दे० मोक्ष/३/६)। भूतपूर्वनयसे अनन्तरकी अपेक्षा एक यथारख्यात चारित्रसे सिद्धि होती है और व्यवधानकी अपेक्षा मामायिक छेदोपस्थापना व सूक्ष्मसाम्पराय इन तीन सहित चारसे अथवा परिहारविशुद्धि सहित पाँच चारित्रोसे सिद्धि होती है । (रा वा/१०/६/७/६४७/६)।
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५. मुक्त जीवोका मृत शरीर " ८. मुक्तियोग्य प्रत्येक व बोधित बुद्ध निर्देश ५. मुक्त जीवोंका मृतशरीर आकार ऊवं गमन व रा, वा /१०/६/८/६२७/१० केचित्प्रत्येकबुद्धसिद्धा , परोपदेशमनपेक्ष्य अवस्थान स्वशक्त्यैवाविर्भूतज्ञानातिशया । अपरे बोधितबुद्ध सिद्धा, परोप
१. उनके मृत शरीर सम्बन्धी दो धारणाएँ देशक ज्ञानाकर्षास्कन्दिन ।कुछ प्रत्येक बुद्ध सिद्ध होते है, जो परोपदेश के बिना स्वशक्तिमे ही ज्ञानातिशय प्राप्त करते है। कुछ ह. पु/६५/१२-१३ गन्धपुष्पादिभिर्दिव्यै. पूजितास्तनव. क्षणाद । बोधित बुद्ध होते है जो परोपदेशपूर्वक ज्ञान प्राप्त करते है। (स, जैनाद्या द्योतयन्त्यो द्या विलीना विद्य तो यथा ।१२। स्वभावोऽयं सि. १०/६/४७२/६ )।
जिनादीनी शरीरपरमाणव । मुच्यति स्कन्धतामन्ते क्षणाक्षण
रुचामिव ।१३। दिव्य गन्ध तथा पुष्प आदिसे पूजित, तीर्थकर ९. मुक्तियोग्य ज्ञान निर्देश
आदि मोक्षगामी जीवोके शरीर, क्षण-भरमें बिजलीकी नाई स सि./१०/६/४७२/१० ज्ञानेन केन । एकेन द्वित्रिचतुर्भिश्च ज्ञान
आकाशको देदीप्यमान करते हुए विलीन हो गये ।१२। क्योंकि, विशेषै. सिद्धि । - ज्ञानकी अपेक्षा-प्रत्युत्पन्न नयसे एक ज्ञानसे
यह स्वभाव है कि तीर्थकर आदिके शरीरके परमाणु अन्तिम सिद्धि होता है, और भूतपूर्वगतिसे मति व श्रुत दोसे अथवा मति,
समय बिजलीके समान क्षणभरमें स्कन्धपर्यायको छोड देते है ।१३। श्रुत व अवधि इन तीनसे अथवा मन पर्ययसहित चार ज्ञानोसे
म. पू/४७/३४३-३५० तदागत्य सुरा' सर्वे प्रान्तपूजाचिकीर्षया।... सिद्धि होती है। (विशेष दे०ज्ञान/I/४/११), (रा. वा./१०/१/8/
शुचिनिमल ।३४३. शरीर""शिविकार्पितम् । अग्नीन्द्ररत्नभाभासि६४७/१४)।
प्रोत्तुड्गमुकुटोद्भुवा ।३४४। चन्दनागुरुकर्पूर आदिभि' | "अप्तवृद्धिना हुतभोजिना ।३४५। । तदाकारोपमर्दन पर्यायान्तरमानयन
1३४६। तस्य दक्षिणभागेऽभूद गणभृत्संस्क्रियानल ३४७। तस्या१०. मुक्तियोग्य अवगाहना निर्देश
परस्मिन् दिग्भागे शेषकेवलिकायग. । । ।३४८॥ ततो भस्म समादाय स. सि./१०/६/४७३/११ आत्मप्रदेशव्यापित्वमवगाहनम् । तद् द्विविधम, पञ्चकल्याणभागिन' । .. स्वललाटे भुजद्वये ३४६। कण्ठे हृदयदेशो
उत्कृष्टजवन्यभेदात । तत्रोत्कृष्ट पञ्चधनु'शतानि पञ्च विशत्युत्तराणि । च तेन सस्पृश्य भक्तित: 1३५० =भगवान् ऋषभदेवके मोक्ष कषयाजघन्यमर्ध चतुरित्नयो देशाना । मध्ये विकल्पा । एकस्मिन्नव- णकके अवसरपर अग्निकुमार देवोने भगवान के पवित्र शरीरको गाहे सिद्धयति । = आत्मप्रदेशमे व्याप्त करके रहना इसका नाम पालकीमे विराजमान किया। तदनन्तर अपने मुकुटोसे उत्पन्न की अवगाहना है। वह दो प्रकारकी है-जघन्य व उत्कृष्ट । उत्कृष्ट हुई अग्निको अगुरु, कपूर आदि सुगन्धित द्रव्योंसे बढाकर उसमें अवगाहना १२५ धनुष है और जघन्य अवगाहना कुछ कम ३३ उस शरीरका वर्तमान आकार नष्ट कर दिया और इस प्रकार उसे अरनि है। बीच के भेद अनेक है। किसी एक अवगाहनामे सिद्धि
दूसरी पर्याय प्राप्त करा दी।३४३-३४६। उस अग्निकुण्डके दाहिनी होतो है। (रा वा/१०/६/१०/६४७/१५)।।
ओर गणधरोके शरीरका सस्कार करनेवाली तथा उसके बायी ओर रा. वा /१०/६/१०/६४७/१६ एकस्मिन्नवगाहे सिद्धयन्ति पूर्वभावप्रज्ञापन
सामान्य केवलियोके शरीरका संस्कार करनेवाली अग्नि स्थापित नयापेक्षया। प्रत्युत्पन्नभावप्रज्ञापने तु एतस्मिन्नेव देशोने। - भूत
की। तदनन्तर इन्द्रने भगवान ऋषभदेवके शरीरकी भस्म उठाकर पूर्व नयसे इन ( उपरोक्त ) अवगाहनाओ में से किसी भी एकमे सिद्धि
अपने मस्तकपर चढायी ।३४७-३५०१ (म. पु/६७/२०४)। होती है और प्रत्युत्पन्न नयकी अपेक्षा कुछ कम इन्ही अवगाहनाओमे
२. संसारके चरमसमयमें मुक्त होकर ऊपरको जाता है सिद्धि होती है क्योकि मुक्तात्माओं का आकार चरम शरीरसे किचिदून रहता है। (दे० मोक्ष/)।
त. सू /१०/५ तदनन्तरमूवं गच्छत्यालोकान्ताव ।। तदनन्तर मुक्त
जीव लोकके अन्त तक ऊपर जाता है। ११. मुक्तियोग्य अन्तर निर्देश
त. सा./८/३५ द्रव्यस्य कर्मणो यद्वदुत्पत्त्यारम्भवीचय.। सम तथैव स. सि./१०/६/४७३/२ किमन्तरम् । सिद्धयता सिद्धानामनन्तर जघन्येन
सिद्धस्य गतिर्मोक्षे भवक्षयात् ॥३५॥- जिस प्रकार द्रव्य कर्मों की द्वौ समयौ उत्कर्षणाष्टौ । अन्तर जघन्येनेक समय, उत्कर्षण
उत्पत्ति होनेसे जीवमे अशुद्धता आती है, उसी प्रकार कर्मबन्धन नष्ट षण्मासा' । अन्तरको अपेक्षा--सिद्धिको प्राप्त होनेवाले सिद्धोका
हो जानेपर जीवका ससारवास नष्ट हो जाता है और मोक्षस्थानकी
तरफ गमन शुरू हो जाता है। जघन्य अनन्तर दा समय है और उत्कृष्ट अनन्तर आठ समय है।
ज्ञा./४२/५६ लघुपञ्चाक्षरोच्चारकालं स्थित्वा ततः परम् । स स्वभावाद्गजधन्य अन्तर एक समय और उत्कृष्ट अन्तर छह महीना है। (रा.
बजत्यूर्व शुद्धास्मा वीतबन्धन. ॥५६॥ = लघु पाँच अक्षरोका उच्चावा/१०/६/११-१२/६४७/२१)।
रण जितनी देरमें होता है उतने कालतक चौदहवें गुणस्थानमें दे० नोचे शीर्षक न ११ (छह महीनेके अन्तरसे मोक्ष जानेका ठहरकर, फिर कर्मबन्धनसे रहित होनेपर वे शुद्धात्मा स्वभाव हीसे नियम है)।
ऊर्ध्वगमन करते हैं।
पं. का/ता, वृ /७३/१२५/१७ सर्वतो मुक्तोऽपि । स्वाभाविकानन्त१२. सुक्त जीवों की संख्या
ज्ञानादिगुणयुक्त सन्ने कसमयलक्षणाविग्रहगत्योवं गच्छति। -द्रव्य स, सि /१०/६/४७३/३ संख्या जघन्येन एकसमये एक' सिध्यति ।
व भाव दोनो प्रकारके कर्मोंसे सर्वप्रकार मुक्त होकर स्वाभाविक उत्कर्षेणाष्टोत्तरशतस ख्या। -संख्याकी अपेक्षा-जघन्य रूपसे
ज्ञानादि गुणोसे युक्त होकर एक सामयिक विग्रहगतिके द्वारा ऊपरको एक समयमे एक जीव सिद्ध होता है और उत्कृष्ट रूपसे एक समयमे
चले जाते है। १०८ जीव सिद्ध होते है। (रा. बा./१०/8/१३/६४७/२६)।
द्र. स./टी/३७/१५४/११ अयोगिचरमसमये द्रव्यविमोक्षो भवति । ध.१४/४,६,११६/१४३/१० सम्यकालमदोदकालस्स सिद्धा असंखेजदि
- अयोगी गुणस्थानवी जीवके चरम समयमें द्रव्य मोक्ष होता है। भागे चेत्र, छम्मासमतरिय णिव्वुइगमणणियमादो। =सिद्ध जीव
३. ऊर्व ही गमन क्यों इधर-उधर क्यों नहीं सदा अतीत काल के असरूपातवे भागप्रमाण ही होते है, क्योकि, छह दे० गति/१/३-६ ( ऊर्ध्व गति जीवका स्वभाव है, इसलिए कर्म सम्पर्कमहोने के अन्तरसे मोस जाने का नियम है।
के हट जानेपर वह ऊपरकी ओर ही जाता है, अन्य दिशाओं में
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नहीं, क्योंकि, संसारावस्थामे जो उसकी षटोपक्रम गति देखी जाती है, वह कर्म निमित्तक होनेसे विभाव है स्वभाव नहीं । परन्तु यह स्वभाव ज्ञानस्वभावकी भाँति कोई त्रिकाली स्वभाव नहीं है, जो कि सिद्धशिला से आगे उसका गमन रुक जानेपर जीवके अभाव की आशका की जाये । त.सू./१०/६-७ पूर्व प्रयोगादसङ्गत्वाद् बन्धच्छेदात्तथागतिपरिणामाच्च ॥ ६ ॥ भकुलालचक्रमयतले पालादेर भीजयदशम
-
पूर्व प्रयोग सगवा अभाव होनेसे धन के टूटनेसे और वैसा गमन करना स्वभाव होनेसे मुक्तजीव ऊर्ध्व गमन करता है | ६ | जैसे कि घुमाया हुआ कुम्हारका चक्र, लेपसे मुक्त हुई तुमडी, एरण्डका बीज और अग्निकी शिखा (७)
ध. २/१.१.१/४०/२ आयुष्य वेदनीयोदययोर्ध्वगमनप्रतिबन्ध कयो' सत्वात् । - ऊर्ध्वगमन स्वभावका प्रतिबन्धक आयुकर्मका उदय अरिहन्तोके पाया जाता है।
४. मुक्तजीव सर्वलोकमै नहीं व्याप जाता
स.सि /१०/४/४६१/२ स्यान्मतं यदि शरीरानुविधायी जीव भावात्स्वाभाविक लोकाकाशप्रदेशपरिमाणत्वात्तावद्विसर्पण प्राप्नोतीति । नैष दोषः । कुत'। कारणाभावात् । नामकर्मसंबन्धो हि संहरण विसर्पणकारणम् । सदभावान संहरण विसर्पणाभाव
= प्रश्न -- यह जीत्र शरीर के आकारका अनुकरण करता है ( दे० जीव / ३ / १ ) तो शरीरका अभाव होनेसे उसके स्वाभाविक लोकाकाशक प्रदेशो के बराबर होनेके कारण जीव तत्प्रमाण प्राप्त होता है । उत्तर - यह कोई दोष नहीं है, क्योंकि, जीवके तत्प्रमाण होनेका कोई प्रमाण नहीं उपलब्ध होता । नामकर्मका सम्बन्ध जीवके संकोच और विस्तारका कारण है, किन्तु उसका अभाव हो जानेसे जीव के प्रदेशोंका संकोच और विस्तार नहीं होता [रा वा./१०/२/१२१३/६४३/२७ ) ।
•
प्र. स.टी./१४/१४/४ फरिदाह-यथा प्रदीपस्य भाजनाथावरणे गते प्रकाशस्य विस्तारो भवति तथा देहाभावे लोकप्रमाणेन भाव्यमिति । तत्र परिहारमाह-प्रदीपसंबन्धी योऽसौ प्रकाशविस्तार पूर्व स्वभावेनैव तिष्ठति पश्चादावरणं जातं । जीवस्य तु लोकमात्रासंख्येयप्रदेश स्वभावो भवति यस्तु प्रदेशानां सबन्धी विस्तार स स्वभावो न भवति । कस्मादिति चेत् पूर्वलोकमात्रप्रदेशा विस्तीर्णा निरावरणास्तिष्ठन्ति पश्चात् प्रदोपवदावरण जातमेव । तन्न, किन्तु पूर्वमेवानादितानरूपेण शरीरेणावृत्तस्तिष्ठन्ति तस कारणात् देशानां संहारो न भवति विस्तारस्य शरीरनामक मघोन एव न च स्वभावस्तेन कारणेन शरीराभावे विस्तारो न भवति । अपरमप्युदाहरण दीयते यथा हस्तपतुश्यप्रमाणवस्त्र] परुषेण मुष्टौ बद्ध तिष्ठति पुरुषाभावे संकोचविस्तारौ वा न करोति, निष्पत्तिकाले सार्द्धं मृन्मयभाजनं वा शुष्कं सज्जलाभावे सति तथा जीवोऽपि पुरुषस्थानी जलस्थानीयशरीराभावे विस्तारसकोची न करोति । - प्रश्न - जैसे दीपकको ढँकनेवाले पात्र आदिके हटा लेनेपर उस दीपक प्रकाशका विस्तार हो जाता है, उसी प्रकार देहका अभाव हो जानेपर सिद्धोका आत्मा भी फेलकर लोक प्रमाण होना चाहिए । उत्तर - दीपक के प्रकाशका विस्तार तो पहले ही स्वभावसे दीपकमें रहता है, पीछे उस दीपक के आवरण संकुचित होता है। किन्तु जीवका लोकप्रमाण असख्यात प्रदेशत्व स्वभाव है, प्रदेशोंका लोकप्रमाण विस्तार स्वभाव नही है । प्रश्न - जीवके प्रदेश पहले लोकके बराबर फैले हुए, आमरण रहित रहते है, फिर जैसे प्रदीप के आवरण होता है उसी तरह जीवप्रदेशो के भी आवरण हुआ है ' उत्तर- ऐसा नहीं है, क्योकि जीवके प्रदेश तो पहले अनादिकालसे सन्तानरूप चले आये हुए शरीरके आवरणसहित ही रहते । इस कारण जीवके प्रदेशोंका सहार तथा विस्तार शरीर नामक
भा० ३-४२
३२९
६. मोक्षके अस्तित्व सम्बन्धी शंकाएँ
नामकर्मके अधीन है, जीवका स्वभाव नही है। इस कारण जीव के यारीरका अभाव होनेपर प्रदेशका विस्तार नहीं होता। इस विषय मे और भी उदाहरण देते है कि, जैसे कि मनुष्यको मुट्ठीके भीतर चार हाथ लम्बा वस्त्र भिचा हुआ है। अब वह वस्त्र मुट्ठी खोल देनेपर पुरुष के अभाव में संकोच तथा विस्तार नहीं करता। जैसा उस पुरुषने छोडा वैसा ही रहता है । अथवा गोली मिट्टोका बर्तन बनते समय तो संकोच तथा विस्तारको प्राप्त होता जाता है, किन्तु जब वह सूख जाता है, तत्र जलका अभाव होने से संकोच व विस्तारको प्राप्त नही होता। इसी तरह मुक्त जीव भी पुरुषके स्थान अपना जलके स्थानभूत शरीर के अभाव में संकोच विस्तार नहीं करता । ( प. प्र /टी./५४ /५२/६ ) ।
५. मुक्तजीव पुरुषाकार छायावत् होते हैं।
ति . प / १ / १६ जावद्धम्मं दव्वं तावं गंतूण लोयसिहरम्मि । चेट्ठति
सिद्धा पुह ह गय सित्थमृसगम्भणिहा । जहाँतक धर्मद्रव्य है वहाँतक जाकर लोकशिखर पर सब सिद्ध पृथक्-पृथक् मोमसे रहित मुचकके अभ्यन्तर आकाशके या स्थित हो जाते है |१| (शा./ ४०/२५)।
द्र. स./मू./ टी / ५१/२१७ / २ पुरिसायारो अप्पा सिद्धोझाएह लोयसिह
•
त्यो । ५१ । गत सिक्थमूषागर्भा कारवच्छायाप्रतिमावद्वा पुरुषाकारः - पुरुषके आकारमाने और सोक शिखर पर स्थित ऐसा आत्मा सिद्ध परमेष्ठो है। अर्थात् मोम रहित मूसके आकारको तरह अथवा छाया के प्रतिबिम्बके समान पुरुषके आकारको धारण करनेवाला है । ६. मुक्तजीवोंका आकार चरमदेहसे किंचितून है स.सि./१०/४/४६८/१३ अनाकारत्वान्मुक्तानामभाव इति चेन्न, अतीतानन्तरशरीराकारत्वात् । प्रश्न- अनाकार होनेसे मुक्त जीवोका अभाव प्राप्त होता है । उत्तर- नहीं। क्योकि उनके अतीत अनन्तर शरीरका आकार उपलब्ध होता है। ( रा.वा./१०/४/१२/६४३/२४ ); ( प. प्र. / / १/५४ )
ति प./१/१० दस माह चरिमभये जस्स जारि ठाणं सो तिभागहीण ओगाहण सव्वसिद्धाण । अन्तिम भवमें जिसका पोसा आकार दीर्घता और बाहय हो उससे तृतीय भागसे कम सम सिद्धोको अवगाहना होती है ।
द्र. स. मू व. टी./१४/४४/२ किंचूणा चरम देहदो सिद्धा । | १४| तत् किडिचयूनश्व दारापाशजनितनासिकादिविद्वाणामपूर्ण
सति । वे सिद्ध परम शरीरसे विचिडून होते है, और वह किचित् ऊनता शरीर व अंगोपांग नामकर्मसे उत्पन्न नासिका आदि छिद्रोकी पोल हटके कारण से है ।
७. सिद्धलोक में मुक्तात्मानोका अवस्थान
ति. प./६/१५ माणुसलोयपमाणे संठिय तणुवाद उवरिमे भागे । सरिसा सिरा सव्त्राण हैट्ठिमभागम्मि बिसरिसा केई = मनुष्यलोक प्रमाण स्थित तनुबाट उपरिमभागमें सब सिद्धों के सिर सहश होते है। अथस्तन भागने कोई निसरश होते है।
६. मोक्षके अस्तित्व सम्बन्धी शंकाएँ
१. मोक्षाभावके निराकरणमें हेतु
सिद्धि भक्ति / २ नाभावः सिद्धिरिटा न निजगुणहतिस्तत्तपोभिर्न युक्तेस्यारमानादिवन्धः स्वकृत फल रायान्महाता
द्रष्टा स्वदेप्रनिटिरूपसमाहारविस्तारधर्मा प्रोव्योपसव्ययात्मा स्वगुणयुत इतो नान्यथा साध्यसिद्धि 121 प्रश्न- १. मोक्षका अभाव है, क्योंकि कर्मोके क्षयसे आत्माका दीपकवत् नाश हो जाता
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मोक्ष
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६. मोक्षके अस्तित्व सम्बन्धी शंकाएं
है ( बौद्ध ) अथवा सुख दुख इच्छा प्रयत्न आदि आत्माके गुणोका अभाव ही मोक्ष है (वैशेषिक ) + उत्तर-नही, क्योकि, कौन बुद्धिमान् ऐसा होगा जो कि स्वय अपने नाशके लिए तप आदि कठिन अनुष्ठान करेगा। प्रश्न--२. आत्मा नामकी कोई वस्तु ही नही है ( चार्वाक ) १ उत्तर-नहीं, आत्माका अस्तित्व अवश्य है। (विशेष दे० जीव/२/४ ) । प्रश्न-३ आत्मा या पुरुष सदा शुद्ध है। वह न कुछ करता है न भोगता है। (साख्य)1 उत्तर- नहीं, वह स्वयं कर्म करता है और उसके फलोको भी भोगता है। उन कर्मों के क्षयसे ही वह मो का भागी होता है। वह स्वय ज्ञाता द्रष्टा है, संकोच विस्तार शक्तिके कारण संसारावस्था में स्वदेह प्रमाण रहता है (दे०जीव/३/७ ) वह कूटस्थ नहीं है, बल्कि उत्पाद व्यय ध्रौव्य युक्त है (दे० उत्पाद/३) । वह निर्गुण नहीं है बल्कि अपने गुणोसे युक्त है। क्योकि, अन्यथा साध्यकी सिद्धि ही नही हो सकती। (स सि /१/१ की उत्थानिका प/२/२/3 ( रा वा/१/१ की उत्थानिका/८/२/३
स्व, स्तो/टी./२/१३) रा. वा/१०/४/१७/६४४/१३ सर्वथाभावो मोक्ष प्रदीपवदिति चेत्, न, साध्यत्वात् ।१७। साध्यमेतत-प्रदीपो निरन्वयनाशमुपयातीति । प्रदीपा एव हि पुद्गला, पुद्गलजातिमजहत' परिणामवशान्मषीभावमापन्ना इति नात्यन्त विनाश ।-दृष्टत्वाच्च निगलादिवियोगे देवदत्ताद्यवस्थानवत् ।१८। यत्रैव कर्मविप्रमोक्षस्तत्रैवावस्थानमिति चेत् न, साध्यत्वात् ।१९। साध्यमेतत्तत्रवावस्थातव्य मिति, बन्धनाभावादनाश्रितत्वाच्च स्याद्गमन मिति प्रश्न-जिस प्रकार बुझ जानेपर दीपक अत्यन्त बिनाशको प्राप्त हो जाता है, उसी प्रकार कर्मो के क्षय हो जानेपर जीवका भी नाश हो जाता है, अतः मोक्ष का अभाव है। उत्तर-४. नही, क्योकि, 'प्रदीपका नाश हो जाता है' यह बात ही असिद्ध है । दीपकरूपसे परिणत पुद्गलद्रव्यका विनाश नही होता है। उनकी पुद्गल जाति बनी रहती है। इसी प्रकार कर्मोके विनाशसे जीवका नाश नहीं होता। उसकी जाति अर्थात चैतन्य स्वभाव बना रहता है। (ध ६/१,६-१/२३६/गा.२-३/४१७), ५ दूसरी बात यह भी है कि जिस प्रकार बेडियोसे मुक्त होनेपर भी देवदत्तका अवस्थान देखा जाता है, उसी प्रकार क्मोंसे मुक्त होनेपर भी आत्माका स्वरूपावस्थान होता है। प्रश्न-६. जहाँ र्म बन्धनका अभाव हुआ है वहाँ ही मुक्त जीवको ठहर जाना चाहिए। उत्तर-नहीं, क्योकि, यह बात भी अभी विचारणीय है कि उसे वहीं ठहर जाना चाहिए या बन्धाभाव और अनाश्रित होनेसे उसे गमन करना चाहिए। दे. गति/१/४ प्रश्न-७. उष्णताके अभावसे अग्निके अभावकी भॉति, सिद्धलोकमे जाने से मुक्तजीवोके ऊर्ध्वगमनका अभाव हो जानेसे वहाँ उस जीवका भी अभाव हो जाना चाहिए। उत्तर-नहीं, क्योकि ऊध्र्व ही गमन करना उसका स्वभात्र माना गया है, न कि ऊर्व गमन करते ही रहना।) दे. मोक्ष/५/६८. मोक्षके अभावमें अनाकारताका हेतु भी युक्त नहीं है, क्योकि, हम उसको पुरुषाकार रूप मानते हैं।)
२. मोक्ष अमावात्मक नही है बल्कि आरमलामरूप है पं.का./मू /३५ जेसि जीवसहावो णरिय अभावो य सम्बहा तस्स । ते होति भिष्णदेहा सिद्धा बचिगोयरमदीदा ।३।-जिनके जीव स्वभाव नहीं है । दे० मोक्ष/३/५) और सर्वथा उसका अभाव भी नही है।
वे देहरहित व वचनगोचरातीत सिद्ध है। सि वि./म् /७/११/४८५ आत्मलाभ विदुर्मोक्ष जीवस्यान्तर्मलक्षयात् । नाभाव नाप्यचैतन्य न चेतन्यमनर्थकम् ।१६।-आत्मस्वरूपके लाभका नाम मोक्ष है जो कि जीवको अन्तर्मलका क्षय हो जाने पर प्राप्त होता है। मोक्षमे न तो बौद्धोकी भॉति आस्माका अभाव होता है और न ही वह ज्ञानशून्य अचेतन हो जाता है। मोक्षमे भी उसका
चैतन्य अर्थात् ज्ञान दर्शन निरर्थक नही होता है, क्योकि वहाँ भी वह त्रिजगत्को साक्षीभावसे जानता तथा देखता रहता है। [ जैसे बादलोके हट जानेपर सूर्य अपने स्वपरप्रकाशकपनेको नहीं छोड देता, उसी प्रकार कर्ममलका क्षय हो जानेपर आत्मा अपने स्वपर प्रकाशकपनेको नहीं छोड देता-दे० ( इस श्लोककी वृत्ति )। प६/१,६-६,२१६/४६०/४ केवलज्ञाने समुत्पन्नेऽपि सर्व न जानातीति
कपिलो ब्रूते । तन्न, तन्निराकरणा) बुद्धयन्त इत्युच्यते । मोक्षो हि नाम बन्धपूर्वक', बन्धश्च न जीवस्यास्ति, अमूर्तत्वान्नित्यत्वाच्चेति । तस्माज्जीवस्य न मोक्ष इति नैयायिक-वैशेषिक-साख्य-मीमांसकमतम् । एतन्निराकरणार्थ मुच्चन्तीति प्रतिपादितम् । परिनिर्वाणयन्ति -अशेषबन्धमोक्षे सत्यपि न परिनिर्वान्ति, सुखदु खहेतुशुभाशुभकर्मणा तत्रासत्त्वादिति तार्किकयोर्मतं । तन्निराकरणार्थ परिनिििन्त अनन्तसुखा भवन्तीत्युच्यते। यत्र सुखं तत्र निश्चयेन दुखमध्यस्ति दु खाविनाभावित्वात्सुखस्येति तार्किकयोरेव मत, तन्निराकरणार्थ सर्वदुःखानमन्त परिविजाणन्तीति उच्यते । सर्वदु,खाननन्त पर्यवसान परिविजानन्ति गच्छन्तीत्यर्थ । कुतः। दुखहेतुकर्मणा विनष्टत्वात् स्वास्थ्यलक्षणस्य सुखस्य जीवस्य स्वाभाविकत्वादिति ।-प्रश्न-केवलज्ञान उत्पन्न होनेपर भी सबको नही जानते है ( कपिल या साख्य ) 1 उत्तर-नहीं, वे सबको जानते है। प्रश्न -अमूर्त व नित्य होनेसे जीवको न अन्ध सम्भव है, और न बन्धपूर्वक मोक्ष (नैयायिक, वैशेषिक, साख्य व मीमासक ). उत्तर-नहीं, वे मुक्त होते है । प्रश्न -अशेष बन्धका मोक्ष हो जानेपर भी जीव परिनिर्वाण अर्थात अनन्त सुख नहीं प्राप्त करता है; क्योकि, वहाँ सुख-दु.खके हेतुभूत शुभाशुभ कर्मोका अस्तित्व नहीं है। ( तार्किक मत )1 उत्तर-नहीं, वे अनन्तसुख भोगी होते है । प्रश्न-जहाँ सुख है वहाँ निश्चयसे दुख भी है, क्योकि सुख दुखका अविनाभावी है ( तार्किक ): उत्तर-नही, वे सर्व दुखों के अन्त का अनुभव करते है। इसका अर्थ यह है कि वे जीव समस्त दुखोके अन्त अर्थात् अवसानको पहुँच जाते है, क्योकि, उनके दुखके हेतुभूत कर्मोका विनाश हो जाता है और स्वास्थ्य लक्षण सुख जो कि जीवका स्वाभाविक गुण है, वह प्रगट हो जाता है।
३ बन्ध व उदयकी अटूट शृंखलाका भंग कैसे सम्भव है द्र सं./टो ३०/१५४/१० अत्राह शिष्य - ससारिणां निरन्तर कर्म
बन्धोऽस्ति, तथैवोदयोऽप्यस्ति, शुद्धात्मभावनाप्रस्तावो नास्ति, कथं मोक्षो भवतीति । तत्र प्रत्युत्तरं। यथा शत्रो. क्षीणावस्था दृष्ट्वा काऽपि धीमान् पर्यालोचयत्यय मम हनने प्रस्तावस्तत पौरुषं कृत्वा शत्रु हन्ति तथा कर्मणामप्येकरूपावस्था नास्ति हीयमानस्थित्यनुभागत्वेन कृत्वा यदा लघुत्वं क्षीणत्वं भवति तदा धीमान् भव्य आगमभाषया लब्धिपञ्चकसंज्ञेनाध्यात्मभाषया निजशुद्धात्माभिमुखपरिणामसंज्ञेन च निर्मलभावनाविशेषखड्गेन पौरुषं कृत्वा कर्मशत्रु हन्तोति। यत्पुनरन्त'कोटाकोटीप्रमितकर्म स्थितिरूपेण तथैव लतादारुस्थानीयानुभागरूपेण च कर्मलघुत्वे जातेऽपि सत्यय जीव...कर्महननबुद्धि कापि काले न करिष्यतीति तदभव्यरवगुणस्यैव लक्षणं ज्ञातव्यमिति । प्रश्न-ससारी जीवोके निरन्तर कर्मोका बन्ध होता है और इसी प्रकार क्ौंका उदय भी सदा होता रहता है, इस कारण उनके शुद्धात्माके ध्यानका प्रसग ही नही है, तब मोक्ष कैसे होती है 1 उत्तर- जैसे कोई बुद्धिमान अपने शत्रुकी निर्मल अवस्था देखकर, अपने ननमे विचार करता है, 'कि यह मेरे मारनेका अवसर है ऐसा विचारकर उद्यम करके, वह बुद्धिमान् अपने शत्रुको मारता है। इसी प्रकार कर्मो की भी सदा एकरूप अवस्था नही रहती, इस कारण स्थितिबन्ध और अनुभाग बन्धकी न्यूनता होनेपर जब कर्म हलके होते है तब बुद्धिमान् भव्य जीव आगमभाषामै पाँच लब्धियोसे और अध्यात्मभाषामें निज शुद्ध आत्माके सम्मुख
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मोक्ष
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परिणाम नामक निर्मल भावना विशेषरूप खड्ग से पौरुष करके कर्म शत्रुको नष्ट करता है। और जो अन्तःकोटाकोटिप्रमाण कर्मस्थितिरूप तथा लता का स्थानापन्न अनुभागरूपसे कर्मभार हलका हो जानेपर भी कमको नष्ट करनेकी बुद्धि किसी भी समय में नहीं करेगा तो यह अभव्यत्व गुणका लक्षण समझना चाहिए। ( मो. मा. प्र. /३. ४५१/२) ।
४. अनादि कमका नाश कैसे सम्भव है
रा. बा./१०/२/३/६४१/१ स्यान्मतम् कर्म भन्सतामस्याद्यभावादन्तेनाम्यस्य न भवितव्यम् दृष्टिविपरीतकल्पनाय प्रमाणाभावादिति तन्नः कि कारणम् इत्यादयभीजनत् यथा बीजाङ्कुरसतानेमावी प्रवर्तमाने अन्योलमोलाइ कुरा मिध्यतोऽस्य दृष्टस्तथा मिथ्यादर्शनादिप्रत्यय पिरामिकस रासायनादी ध्यानानल निर्दग्धकर्मीले भवात्पाभावान्मोक्ष इति म दमपोतुमशक्यम् - प्रश्न कर्म बन्धकी सन्दान जब अनादि है तो उसका अन्त नहीं होना चाहिए ? उत्तर- जैसे ब ज और अकुरकी सन्तान अनादि होनेपर भी अग्निसे अन्तिम बीजको जला देनेपर उससे अकुर उत्पन्न नहीं होता, उसी तरह मिथ्यादर्शनादि प्रत्यय तथा कर्मबन्ध सन्ततिके अनादि होनेपर भो ध्यानाग्निसे कर्मबीजों को जला देनेपर भवाकुरका उत्पाद नही होता, यही मोक्ष है । क. पा. १/१-९/३३८/६/१ कम सहेजतत्रासम्यानमतीदो raaदे । ण च कम्मविणासो असिद्ध; बाल जोठवणरायादिपज्जा या विषासम्णावतं वाससिद्ध दो जायदे । ण, अकट्टिमस्स विणामाणुववत्ती दो । तम्हा कम्मेण कट्टिमेण वेव होदव्वं । - कर्म भी सहेतुक है, अग्यथा उनका विनाश बन नहीं सकता। और कर्मोका विनाश afe भी नहीं है, क्योंकि, कमक कार्य माल पौवन और राजा आदि पर्यायका विनाश कमका विनाश हुए बिना नहीं हो सकता है प्रश्न कर्म अकृत्रिम को नहीं उत्तर नहीं कि अकृत्रिम पदार्थ विनाश नही बन सकता है, इसलिए कर्मको कृत्रिम ही होना चाहिए।
मा
क. पा. १ / १-१ / ६४२ / ६० / १ तं च कम्म सहेजअं, अण्णा णिव्वावाराण पिगंधप्पसंगादो। = कर्मोको सहेतुक ही मानना चाहिए, अन्यथा अयोगियोंमें कर्मबन्धका प्रसंग प्राप्त होता है। आम प/टी./१११/ ४२१९/१४३ / १०) |
क. पा. १/१-१/६४४/६१६ अकट्टिमत्तादो कम्मसताणे ण बोच्छिज्जदि सिबो जुतं मत्स वि बीजकुरसागरत मोच्छेदुव भादो। ण च कट्टिमसंताणिवदिरित्तो सताणो णाम अत्थि जस्स अट्टम चापखे सयलसवरे समुष्य विकम्मागमसता तुहृदि सिबो जुस खुवाहियत्तादौ । सम्मसंजम विरायजोगणिहाममेण पाच दिट्ठे अनवाणाम असणाणमकमची सद
चे; ण; अक्कमेण वट्टमाणानं सयलत्तकारणसाणिज्भे स ते तदविरोहादी संग सम्मका सो होदि मेचि वो गुन, यमाणे कस्स विक विजय सगसगुजरात्या दंसणादो । सवरो वि, वड्ढमाणो उबलब्भए तद' कत्थ वि संपुरण हो माहुजियालस्वीय आसयो वि कहि विम्लदो विजय हाणे तरतमभावावरती आयरनओलावलीणमलक्ल को व्व । प्रश्न - अकृत्रिम होनेसे कर्मकी सन्तान व्युच्छिन्न नहीं होती है उसर नही क्योंकि अकृत्रिम होते हुए भी बीज व अकुरकी सन्तानका विनाश पाया जाता है । २. कृत्रिम सतानीसे भिन्न, अकृत्रिम सन्तान नामकी कोई चीज नहीं है। प्रश्न- ३ आस्रवविरोधी सकलसवर के उत्पन्न हो जानेपर भी कर्मोंकी आस्रवपर परा विच्छिन्न नही होती । उत्तर-ऐसा कहना
६. मोक्षके अस्तित्व सम्बन्धी शंकाऍ
युक्त बाधित है, अर्थात सत प्रतिपक्षी कारण होनेपर कर्मका विनाश अवश्य होता है । ( घ. ६/४, १/४४ /११७ /६ ) । प्रश्न- ४, सकल संवररूप सम्यक्त्व, सयम, वैराग्य और योगनिरोध इनका एक साथ स्वरूपलाभ नहीं होता है ? उत्तर- नहीं, क्योंकि, इन सबकी एक साथ अविरुद्धवृत्ति देखी जाती है। प्रश्न- ५. असम्पूर्ण कारणोकी वृत्ति भले एक साथ देखी जाये, पर सम्पूर्ण की सम्पादिकी नहीं उतर नहीं, क्योंकि, जो वर्द्धमान है ऐमे उन सम्यक्त्वादिमेसे कोई भी कही भी नियमसे अपनी-अपनी उत्कृष्ट अवस्थाको प्राप्त होता हुआ देखा जाता है । यतः सवर भी एक हाथ प्रमाण तालवृक्षके समान वृद्धिको प्राप्त होता हुआ पाया जाता है, इसलिए किसी भी आत्मामे उसे परिपूर्ण होना ही चाहिए। ( ध १ / ४,१.४४ /११ / १) और भी दे. अगला सन्दर्भ ) | ६. तथा जिस प्रकार खानसे निकले हुए स्वर्ण पाषाणका अन्तरग और बहिर ग मल निर्मूल नष्ट हो जाता है, उसी प्रकार आसव भी कहीं पर निर्मूल विनाशको प्राप्त होता है, अन्यथा आसवको हानिमे तर तम भाव नहीं बन सकता है। (ध. ६/४.१, ४४/११८/२ ), ( स्या. मं / १७ / २३६ / २६ ) । ७ [ दूसरी बात यह भी है कि कर्म अकृत्रिम ई ही नहीं (दे० विभाव / २ ) ] | स्था. म / १० / २३६ / १ पर भूत-देशो नाशिनो भाषा निखिल नश्वरा' । मेघपक्त्यादयो यद्वत एव रागादयो मताः । जो पदार्थ एक देश से नाश होते है, उनका सर्वथा नाश भी होता है। जिस प्रकार मेघोके पटलोका आशिक नाश होनेसे उनका सर्वथा नाश भी होता है।
५. मुक्त जीवोंका परस्पर में उपरोध नहीं
1 -
रा. वा./१०/४/६/६४३/ १३ स्यान्मतम् - अल्प सिद्धावगाह्य आकाश प्रदेश आधार, आधेया सिद्धा अनन्ता तत' परस्परोपरोध इति तन्न' कि कारण अवगाहनशतियागात मित्स्वपि नामा नेकमणिप्रदीपप्रकाशेषु अम्पेऽप्यवकाशे न विरोधः किमङ्गपुनरमूर्तिष्ट अवगाहनशक्तियुक्तेषु मुक्तेषु प्रश्न- सिद्धोका अवगाह्य आकाश प्रदेश रूप आधार ता अन्प है और आधेयभूत सिद्ध अनन्त है, अत उनका परस्परमे उपराध होता होगा। उत्तर- नहीं, क्योकि आकाश मे. अवगाहन शक्ति है। मूर्तिमान् भी अनेक प्रदाप प्रकाशोक अल्प आकाश में अविरोधी अवगाह देखा गया है, तब अमूर्त सिद्धो की तो बात ही क्या है 1
६. मोक्ष जाते-जाते जीवराशिका अन्त हो जायेगा ? ६. १४/१६.१२८/२३३/७ जीवरासी आयवज्जिदो सम्मओ गच्छावाभादो उदो ससारिणीमाणमभाव हादिसि भणिदेण हादि असा भागोजी बागमत सभवा हादिति ।
१४/५.६,१२८/२१६/२ जासि खाणं आयविरहियाण वये बोच्वेो हादि ताओ संखाओ सखेज्यासलेस शिदाओ जार २ खाण आयविरहियाणं सखेज्जास खेज्जेहि वइज्जमाणाण वच्छेदो ण होदितासिमण तमिदि सण्गा । सव्व जीवरासी वात तण सोग वज्जिदि, जहा आणं तियविरोहादो। अङ्गीदक अदीक शेप में सिद्धा रोहितो एगमिगोदसरी रजीबागमण रा गुणत सिद्धा पुण अयोदकाते समय पछि दिवि असले लागता सिति तावकाला असाव
स
एम. अदिकालादा सिद्धाणमसंखे भागतु मत भादो ।... अदकाले पसजीवाद हुआ हो तो कालादो असरखेज्जगुण चैव । - प्रश्न- जोब राशि आयसे रहित और व्यय सहित है, क्योकि उसमेंसे मोक्षको जानेवाले जीव उपलब्ध होते है । इसलिए ससारी जावोका अभाव प्राप्त होता है ?
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मोक्षपाहुड
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मोक्षमा
से कोई एक या दो आदि पृथक्-पृथक् रहकर मोक्षके कारण नहीं है, अषिक समुदित रूपसे एकरस होकर ही ये तीनो युगपत् मोक्षमार्ग है। क्योकि, किसी वस्तुको जानकर उसकी श्रद्धा या रुचि हो जाने पर उसे प्राप्त करनेके प्रति आचरण होना भी स्वाभाविक है। आचरणके बिना व ज्ञान, रुचि ब श्रद्धा यथार्थ नहीं कहे जा सकते। भले ही व्यवहारसे इन्हे तीन कह लो पर वास्तव में यह एक अखण्ड चेतनके ही सामान्य व विशेष अंश है। यहाँ भेद रत्नत्रयरूप व्यवहार मार्गको अभेद रत्नत्रयरूप निश्चयमार्गका साधन कहना भी ठीक हो है, क्योकि, कोई भी साधक अभ्यास दशामें पहले सविकल्प रहकर ही आगे जाकर निर्विकल्पताको प्राप्त कस्ता है।
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मोक्षमार्ग सामान्य निर्देश
मोक्षमार्गका लक्षण । २ | तीनोंकी युगपतता ही मोक्षमार्ग है।
सामायिक सयम व ज्ञानमात्रसे मुक्ति कहनेपर भी । तीनोंका ग्रहण हो जाता है। | वास्तवमें मार्ग तीन नहीं एक है। युगपत् होते हुए भी तीनोंका स्वरूप भिन्न है। तीनोंकी पूर्णता युगपत् नहीं होती। सयोगि गुणस्थानमें रत्नत्रयको पूर्णता हो जानेपर
भी मोक्ष क्यों नहीं होती। -दे० केवली/२/२॥ इन तीनोंमें सम्यग्दर्शन प्रधान है।
- दे० सम्यग्दर्शन/I/41 * मोक्षमार्गमें योग्य गति, लिंग, चारित्र आदिका निर्देश।
-दे० मोक्ष/४॥ * | मोक्षमार्गमें अधिक ज्ञानकी आवश्यकता नहीं।
- दे० ध्याता/१। मोक्षके अन्य कारणों ( प्रत्ययों ) का निर्देश ।
*
उत्तर-नहीं होता है; क्योंकि, १. त्रस भावको नहीं प्राप्त हुए अनन्त निगोद जीव सम्भव है। (और भी दे० वनस्पति/२/३)।२ आयरहित जिन संख्याओं का व्यय होनेपर सत्त्वका विच्छेद होता है वे संख्याएँ संख्यात और असख्यात संज्ञागली होती है । आयसे रहित जिन संख्याओका सख्यात और असख्यात रूपसे व्यय होनेपर भी विच्छेद नहीं होता है, उनकी अनन्त संज्ञा है (और भी दे० अनन्त/ १/१)। और सब जीव राशि अनन्त है, इसलिए वह विच्छेदको प्राप्त नहीं होती। अन्यथा उसके अनन्त होनेमें विरोध आता है । (दे० अनन्त/२/१-३)। ३. सब अतीतकाल के द्वारा जो सिद्ध हुए है उनसे एक निगोदशरीरके जीव अनन्तगुणे है। (दे० वनस्पति/३/७) । ४. सिद्ध जीव अतीतकाल के प्रत्येक समयमें यदि असंख्यात लोक प्रमाण सिद्ध होवे तो भी अतीत कालसे असंख्यातगुणे ही होगे। परन्तु ऐसा है नहीं क्योकि, सिद्ध जीव अतीतकालके असंख्यातवें भाग प्रमाण ही उपलब्ध होते है। १. अतीत कालमे सपनेको प्राप्त हुए जीव यदि बहुत अधिक होते है तो अतीतकालसे असंख्यात गुणे ही होते है। स्या. मं/२९/३३१/१६ न च तावता तस्य काचित परिहाणिनिगोद
जीवानन्त्यस्याक्षयत्वात्। अनाद्यनन्तेऽपि काले ये के चिन्निवृता. निर्वान्ति निर्वास्यन्ति च ते निगोदानामनन्तभागेऽपि न वर्तन्ते नावतिषत न बय॑न्ति । ततश्च कथं मुक्तानां भवागमनप्रसङ्ग', क्थ च संसारस्य रिक्तताप्रसक्तिरिति । अभिप्रेतं चैतद अन्यथ्यानामपि। यथा चोक्तं वार्तिककारेण-अतएव च विद्वत्सु मुच्यमानेषु संततम् । ब्रह्माण्डलोकजीवानामनन्तत्वादशून्यता ।१। अत्यन्यूनातिरिक्तत्वै युज्यते परिमाणवत । वस्तुन्यपरिमेये तु नूनं तेषामसंभव' । ।२। -६, [जितने जीव मोक्ष जाते है उतने ही निगोद राशिसे निक्लकर व्यवहारराशिमें आ जाते है (दे० मोक्ष/२/२)1 अतएव निगोदराशिमें-से जीबोके निकलते रहनेके कारण संसारी जीवोका कभी क्षय नही हो सकता। जितने जीव अबतक मोक्ष गये है और आगे जानेवाले है वे निगोद जीवोके अनन्तचे भाग भी नहीं है, न हुए है और न हाँगे। अतएव हमारे मतमें न तो मुक्त जीव संसारमें लौटकर आते है और न यह स सार जीवोसे शून्य होता है। इसको दूसरे वादियोने भी माना है। वार्तिककारने भी कहा है, 'इस ब्रह्माण्डमे अनन्त संसारी जीव है, इस ससारसे ज्ञानी जीवोकी मुक्ति होते हुए यह संसार जीवोसे खाली नही होता। जिस वस्तुका परिमाण होता है, उसीका अन्त होता है, वहीं घटती और समाप्त होती है। अपरिमित वस्तुका न कभी अन्त होता है, न बह घटती है, और न समाप्त होती है। गो, जी/जी. प्र./१६६/४३७/१८ सर्वो भव्यसंसारिराशिरनन्तेनापि कालेन नक्षीयते अक्षयानन्तत्वात् । यो योऽक्षयानन्त' सो सोऽनन्तेनापि कालेन न क्षीयते यथा इयत्तया परिच्छिन्न कालसमयोध', सर्वद्रव्याणां पर्यायोऽविभागप्रतिच्छेदसमूहो वा इत्यनुमानाङ्गस्य तर्कस्य प्रामाण्यसुनिश्चयात् । ६. सर्व भव्य संसारी राशि अनन्त कालके द्वारा भी क्षयको प्राप्त नहीं होती है, क्योकि यह राशि अक्षयानन्त है। जो जो अक्षयानन्त होता है, वह-वह अनन्तकालके द्वारा भी क्षयको प्राप्त नहीं होता है, जैसे कि तीनो कालोके समयोका परिमाण या अविभाग प्रतिच्छेदोका समूह। इस प्रकार के अनुमानसे प्राप्त
तर्क प्रमाण है। मोक्ष पाहुड-आ० कुन्दकुन्द (ई०१२७-१७१) कृत मोक्ष प्राप्तिके क्रमका प्ररूपक, १०६ गाथा बद्ध एक ग्रन्थ । इसपर आ० श्रुतसागर ( ई०१४८१-१४६६) कृत संस्कृत टोका और पं. जयचन्द छाबडा ( ई० १८६७ ) कृत भाषा बचनिका उपलब्ध है । (ती०/२/११४) । मोक्षमागे-सम्यग्दर्शन, सभ्यरज्ञान व सम्यक्चारित्र, इन तीनों
को रत्नत्रय कहते हैं। यह ही मोक्षमार्ग है। परन्तु इन तीनोमे
*
| निश्चय व्यवहार मोक्षमार्ग निर्देश मोक्षमार्गके दो मेद-निश्चय व व्यवहार । व्यवहार मोक्षमार्गका लक्षण भेदरत्नत्रय । निश्चय मोक्षमार्गका लक्षण अभेदरत्नत्रय । निश्चय मोक्षमार्गका लक्षण शुद्धात्मानुभूति । | निश्चय मोक्षमार्गके अपर नाम । | निश्चय व व्यवहार मोक्षमार्गके लक्षणोंका समन्वय । अभेद मार्गमें भेद करनेका कारण ! सविकल्प व निविकल्प निश्चय मोक्षमार्ग निर्देश।
-दे० मोक्षमार्ग/४/६।
दर्शन ज्ञान चारित्रमें कथंचित् एकत्व तीनों वास्तवमें एक आत्मा ही है। तीनोंको एक आत्मा कहनेका कारण । ज्ञानमात्र ही मोक्षमार्ग है। शानमात्र ही मोक्षमार्ग नहीं है।
-दे. मोक्षमार्ग/१/२।
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मोक्षमार्ग
१. मोक्षमार्ग सामान्य निर्देश
* सम्यग्दर्शन, शान व चारित्रमें अन्तर ।
-दे० सम्यग्दर्शन/I/81 ४ तीनोंके भेद व अभेदका समन्वय ।
शान कहनेसे यहाँ पारिणामिक भाव इष्ट है। ६ दर्शनादि तीनों चैतन्यकी ही सामान्य विशेष परि
णति है।
निश्चय व्यवहार मार्ग की कथंचित् मुख्यता
गौणता व समन्वय निश्चयमार्गकी कथंचित् प्रधानता। निश्चय ही एक मार्ग है, अन्य नहीं।
केवल उसका प्ररूपण ही अनेक प्रकारसे किया | जाता है। व्यवहार मार्गकी कथंचित् गौणता। व्यवहारमार्ग निश्चयका साधन है। दोनोंके साध्यसाधन भावकी सिद्धि । मोक्षमार्गमें अभ्यासका महत्त्व। -दे० अभ्यास । मोक्षमार्ग में प्रयोजनीय पुरुषार्थ। -दे० पुरुषार्थ /६ । साधु व श्रावकके मोक्षमार्ग में अन्तर।
-दे० अनुभव/५ । | परस्पर सापेक्ष ही मोक्षमार्ग कार्यकारी है।
__--दे० धर्म/६। निश्चय व व्यवहार मोक्षमार्गमें मोक्ष व ससारका कारणपना।
-दे० धर्म/७। शुभ व शुद्धोपयोग की अपेक्षा निश्चय व व्यवहार मोक्षमार्ग ।
-दे० धर्म । अन्ध पड्गु के दृष्टान्तसे तीनोंका समन्वय ।
-दे० मोक्षमार्ग/१/२/रा. वा.।
द. पा /म् /३० णाणेण दसणेण य तवेण चरियेण संजमगुणेण । चउहि
पि समाजोगे मोक्वो जिणसासणे दिट्ठो।३०। सम्यग्ज्ञान, सम्यग्दर्शन, सम्यक्चारित्र व सम्यक्तप इन चारोके मैलसे ही संयम होता है। उससे जीव मोक्ष प्राप्त करता है। (द. पा./मू /३२) मू. आ./८६८-८६६ णिज्जावगो य णाणं वादो झाण चरित्त णावा हि ।
भवसागर तु भविया तर ति तिहिसण्णिपायेण ।। णाणं पयासओ तवो सोधओ सजमो य गुत्तियरो। तिण्ह पि य संजोगे होदि हु जिणसासणे मोक्रवो ।। =जहाज चलानेवाला निर्यापक तो ज्ञान है, पवनकी जगह ध्यान है और चारित्र जहाज है। इन ज्ञान ध्यान चारित्र तीनोंके मेलसे भव्य जीव संसारसमुद्रसे पार हो जाते है 1८६८) ज्ञान तो प्रकाशक है तपकर्म विनाशक है और चारित्र रक्षक । इन तीनोके संयोगसे मोक्ष होता है 1८६। स. सि./१/१/७/५ मार्गः इति च एकवचन-निर्देश' समस्तस्य मार्गभावज्ञापनार्थ । तेन व्यस्तस्य मार्गत्व निवृत्ति. कृता भवति। अत. सम्यग्दर्शनं सम्यग्ज्ञानं सम्यकचारित्रमित्येतत् त्रितयं समुदित मोक्षस्य साक्षान्मार्गो वेदितव्य । -सूत्रमें 'मार्ग' ऐसा जो एकवचन निर्देश किया है, वह तीनो मिलकर मोक्षमार्ग है', यह बताने के लिए किया है। इससे सम्यग्ज्ञान या सम्यग्दर्शन या सम्यक्चारित्रमें पृथक-पृथक रहते हुए मार्गपनेका निषेध हो जाता है। अत सम्यग्दर्शन सम्यग्ज्ञान और सम्यकचारित्र तीनो मिलकर ही मोक्षका साक्षात् मार्ग है, ऐसा जानना चाहिए। (म. पु./२४/१२०-१२२), (प्र सा /त प्र/२३६-२३७ ); (न्या. दी./३/६७३/११३) । रा. वा./१/१/४६/१४/१ अतो रसायनज्ञानश्रद्धानक्रियासेवनोपेतस्य तत्फलेनाभिसबन्ध इति नि प्रतिद्वन्द्वमेतत्। तथा न मोक्षमार्गज्ञानादेव मोक्षणाभिसंबन्धो; दर्शनचारित्राभावात् । न च श्रद्धानादेव; मोक्षमार्गज्ञानपूर्वक्रियानुष्ठानाभावात् । न च क्रियामात्रादेव, ज्ञानश्रद्धानाभावात् । यतः क्रियाज्ञानश्रद्धानरहिता नि फलेति ।
यतो मोक्षमार्गत्रितयकल्पना ज्यायसीति । उक्तञ्च-हत ज्ञान क्रियाहीन हता चाज्ञानिना किया । धावन् किलान्धको दग्ध' पश्यन्नपि च पडगुल ३ सयोगमेवेह वदन्ति तज्ज्ञा न ह्य'कचक्रेण रथ प्रयाति । अन्धश्च पडगुश्च बने प्रविष्टो तौ सप्रयुक्तौ नगर प्रविष्टौ ।२। - औषधिके पूर्ण फलकी प्राप्तिके लिए जैसे उसका श्रद्धान ज्ञान व सेवनरूप क्रिया आवश्यक है, उसी प्रकार सम्यग्दर्शनादि तीनोंके मेलसे उनके फलको प्राप्ति होती है। दर्शन
और चारित्रका अभाव होनेके कारण ज्ञानमात्रसे, ज्ञानपूर्वकक्रिया रूप अनुष्ठानके अभावके कारण श्रद्धानमात्रसे और ज्ञान तथा श्रद्धानके अभावके कारण क्रियामात्रसे मोक्ष नहीं होती, क्योकि ज्ञान व श्रद्धान रहित क्रिया निष्फल है। इसलिए मोक्षमार्गके तीनपनेकी कल्पना जागृत होती है। कहा भी है-'क्रियाहीन ज्ञान नष्ट है और अज्ञानियोके क्रिया निष्फल है। एक चक्रसे रथ नही चलता, अतः ज्ञानक्रियाका संयोग ही कार्यकारी है। जैसे कि दावानलमे व्याप्त वनमें अन्धा व्यक्ति तो भागता-भागता जल जाता है और लंगडा देखता-देखता जल जाता है। यदि अन्धा और लंगडा दोनो मिल जाये और अन्धेके कन्धोपर लँगडा बैठ जाये तो दोनोका उद्धार हो जायेगा तब लगडा तो रास्ता बताता हुआ ज्ञानका कार्य करेगा तथा अन्धा चलता हुआ चारित्रका कार्य करेगा। इस प्रकार दोनो ही वनसे बचकर नगर में आ सकते हैं। (पं. वि./१/७५), (विज्ञानवाद/२)। ३. सामायिक संयम या ज्ञानमात्र कहनेसे मी तीनोंका ग्रहण हो जाता है
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१. मोक्षमार्ग सामान्य निर्देश
१. मोक्षमार्गका लक्षण त. सू /१/१ सम्यग्दर्शनज्ञानचारित्राणि मोक्षमार्ग. १। सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान व सम्यक्चारित्र इन तीनोंकी एकता मोक्षमार्ग है। २. तीनोंकी युगपतता ही मोक्षमार्ग है प्र सामू /२३७ ण हि आगमेण सिज्झदि सद्दहण जदि वि णत्थि अत्थेसु । सहहमाणो अत्थे असंजदो वाण णिव्वदि ।२३७। = आगमसे यदि पदार्थोंका श्रद्धान न हो तो सिद्धि नहीं होती। पदार्थोंका श्रद्धान करनेवाला भी यदि असंयत हो तो निर्वाणको प्राप्त नहीं होता। मो. पा./मू./५६ तवरहियं जं णाण णाणविजुत्तो तवो वि अकयत्थो। तम्हा णाणतवेणं सजुत्तो लहइ णिव्वाण । -जो ज्ञान तप रहित है और जो तप ज्ञान रहित है, वे दोनो ही अकार्यकारी है। अतः ज्ञान व तप दोनो संयुक्त होनेसे ही निर्वाण प्राप्त होता है।
रा.वा./२/१/४४/१४/१४ 'अनन्ता' सामायिकसिद्धा' इत्येतदपि त्रितयमेव साधयति । कथम् । ज्ञस्वभावस्यात्मनस्तत्त्वं श्रद्धानस्य
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मोक्षमार्ग
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१. मोक्षमार्ग सामान्य निर्देश
सामायिकचारित्रोपपत्ते' । समय एकत्वमभेद इत्यनर्थान्तरम, समय अनेक मार्ग नहीं है। सूत्रमे एकवचनके प्रयोगसे यह बात सिद्ध एवं सामायिकं चारित्र सर्वसाबद्यनिवृत्तिरिति अभेदेन सग्रहादिति । होतो है।
='अनन्त जीव सामायिक चारित्रसे सिद्ध हो गये' यह वचन भी ५. युगपत् होते हुए भी तीनोंका स्वरूप भिन्न है तीनों के मोक्षमार्गका समर्थन करता है। ज्ञानरूप आत्माके तत्त्वश्रद्धानपूर्वक ही समताभावरूप चारित्र हो सकता है। समय, एकत्व और
रा वा /१/१/ वार्तिक/पृष्ठ/ पंक्ति ज्ञानदर्शनयोर्यगपत्पवृत्तेरेकत्वमिति अभेद ये एकार्थवाची शब्द है। समय ही सामायिक चारित्र है।
चेतः न, तत्त्वावायश्रद्धानभेदात् तापप्रकाशकत । (६०/१६/३)। अर्थात् समस्त पापयोगोसे निवृत्त होकर अभेद समता और वीत
ज्ञानचारित्रयोरेक भेदादेकत्वम् अगम्याववोधवदिति चेतः न; रागमें प्रतिष्ठित होना सामायिक चारित्र है।
आशुत्पत्ती सूक्ष्म कालाप्रतिपत्ते उत्पलपत्रशतव्यधनवत/(६३/१६/२३)। प.प्र/टी.२/७२/१९४/१० अत्राह प्रभाकरभट्ट । हे भगवत्, यदि विज्ञान
अर्थभेदाच्च । (६४/१७/१)। कालभेदाभावो नार्थभेदहेतु गतिजात्यामात्रेण मोक्षो भवति तहि सख्यादयो बदन्ति ज्ञानमात्रादेव मोक्ष'
दिवत् । (६५/१७/३) । यद्यपि अग्निके ताप व प्रकाशवत सम्यग्दर्शन
व सम्यग्ज्ञान युगपत् उत्पन्न होते है परन्तु तत्वोका ज्ञान व उनका तेषां किमिति दूषणं दीयते भवद्भिरिति । भगवानाह। अत्र वीत
श्रद्धान रूपसे इनके स्वरूप में भेद है। जैसे अन्धकारमें ग्रहण की गयी रागनिर्विकल्पस्वसंवेदनसम्यग्ज्ञानमिति भणितं तिष्ठति तेन बीतरागविशेषणेन चारित्र लभ्यते सम्यग्विशेषणेन सम्यक्त्वमपि लभ्यते,
माताको बिजलीकी चमकका प्रकाश होनेपर अगम्य जानकर छोड पानकवदेकस्यापि मध्ये त्रयमस्ति । तेषां मते तु वीतरागविशेषणं
देता है, उसी प्रकार ज्ञान व चारित्र यद्यपि युगपत होते प्रतीत होते है
परन्तु वास्तबमे उनमें कालभेद है, जो कि अत्यन्त सूक्ष्म होनेके कारण नास्ति सम्यग्विशेषणं च नास्ति ज्ञानमात्रमेव । तेन दूषणं भवतीति भावार्थ-प्रश्न-हे भगवन् । यदि विज्ञानमात्रमे ही मोक्ष होता है
जाननेमे नही आता जैसे कि सौ कमलपत्रोको एक सुई से बीन्धने (दे० आगे मोक्षमार्ग/३) तो साख्य, बौद्ध आदि लोग ज्ञानमात्रसे
पर प्रत्येक पत्रके बिन्धनेका काल पृथक्-पृथक् प्रतीतिमे नही आता ही मोक्ष कहते है, उन्हे दूषण क्यो देते हो । उत्तर-हमारे हाँ
है। अत' कात की एकताका हेतु देकर ज्ञान व चारित्रमे एक्ता नहीं 'बीतराग निविकल्प स्वसंवेदन सम्यग्ज्ञान' ऐसा कहा गया है। तहाँ
की जा सकती। दूसरे कालका अभेद हो जानेसे अर्थका भी अभेद हो 'वीतराग' विशेषणसे तो चारित्रका ग्रहण हो जाता है और 'सम्यक्'
जाता हो ऐसा कोई नियम नहीं है, जैसे कि मनुष्य गति और उसकी विशेषणसे सम्यग्दर्शनका ग्रहण हो जाता है। पानकवत एकको ही
पचेन्द्रिय जातिका काल अभिन्न होने पर भी वे दोनी भिन्न है। यहाँ तीनपना प्राप्त है। परन्तु उनके मतमें न वीतराग विशेषण है और न सम्यक् विशेषण । ज्ञानमात्र कहते है। इसलिए उनको दूषण
६. तीनों की पूर्णता युगपत् नहीं होती दिया जाता है, ऐसा भावार्थ है।
रा.वा./१/१ वार्तिक/पृष्ठ/ पंक्ति-एषां पूर्वस्य लाभे भजनीयमुत्तरम् ।
(4६/१७/२४)। उत्तरलाभे तु नियत पूर्व लाभ (७०/१७/२६)। द्र, सं/टी/३/१५२/८ (क्रमश:) कश्चिदाह-सदृष्टीना वीतरागविशेषणं तदनुपपत्ति', अज्ञानपूर्वकद्वानप्रसगात् । (७१/१७/२०)। न बा; किमर्थ । रागादयो हेया मदीया न भवन्तीति भेद विज्ञाने जाते सति यावति ज्ञानमित्येतत परिसमाप्यते तावतोऽसंभवात्तयापेक्ष रागानुभवेऽपि ज्ञानमात्रेण मोक्षो भवतीति। तत्र परिहार । अन्धकारे बचनम् । तदपेक्ष्य सपूर्ण द्वादशाङ्गचतुर्दशपूर्व लक्ष्णं श्रुतं केवलं पुरुषद्वयम् एक' प्रदीपहस्तस्तिष्ठति, अन्यः पुनरेक प्रदीपरहित. च भजनीयमुक्तम् । तथा पूर्व सम्यग्दर्शनलाभे देशचारित्रं सयतासंयस्तिष्ठति । स च कूपे पतन सादिकं वा न जानाति तस्य विनाशे तस्य सर्वचारित्रं च प्रमत्तादारभ्य सूक्ष्मसाम्परायान्तानां यश्च यावञ्च दोषो नास्ति । यस्तु प्रदीपहस्तस्तस्य कूपपतनादिविनाशे प्रदीपफल नियमादस्ति, संपूर्ण यथाख्यातचारित्र तु भजनीयम् । (७४/९८७)। नास्ति । यस्तु कूपपतनादिक त्यजति तस्य प्रदीपफलमस्ति । तथा अथवा क्षायिकसम्यग्दर्शनस्य लाभे क्षायिक सम्यग्ज्ञानं भजनीयम् । कोऽपि रागादयो हेया मदीया न भवन्तीति भेदविज्ञानं न जानाति .. सम्यग्दर्शनस्य सम्यग्ज्ञानस्य वा अन्यतरस्यात्मलाभे चारित्रमुत्तरं स कर्मणा बध्यते तावत् । अन्य' कोऽपि रागादिभेद विज्ञाने जातेऽपि भजनीयम् । (७५/१८/२०।- सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान और सम्यक यावदंशेन रागादिकमनुभवति तावदंशेन सोऽपि बध्यत एव, तस्यापि चारित्र में पूर्व पूर्व की प्राप्ति होनेपर उत्तर उत्तरकी प्राप्ति भजनीय रागादिभेद विज्ञानफल नास्ति। यस्तु रागादिभेदविज्ञाने जाते सति है, अर्थात् हो भी और न भी हो। परन्तु उत्तरकी प्राप्तिमें पूर्वका रागादिक त्यजति तस्य भेद विज्ञानफलमस्तीति ज्ञातव्यम् । प्रश्न- लाभ निश्चित है। जैसे जिसे सम्यकचारित्र होगा उसे सम्यग्दर्शन व सम्यग्दृष्टियोको वीतराग विशेषण किस लिए दिया जाता है। सम्यग्ज्ञान होगे ही, पर जिसे सम्यग्दर्शन है उसे पूर्ण सम्यग्ज्ञान और 'रागादिक हेय है, ये मेरे नही है' इतना मात्र भेद विज्ञान हो जानेपर चारित्र हो भी और न भी हो । प्रश्न-ऐसा मानने से अज्ञानपूर्वक रागका अनुभव होते हुए भी ज्ञान मात्रसे ही मोक्ष हो जाता है। श्रद्धानका प्रसग आता है। उत्तर-पूर्ण ज्ञानको भजनीय कहा है न उत्तर-अन्धकारमें दीपक रहित कोई पुरुष कुएं में गिरता है तो कोई कि ज्ञानसामान्यको। ज्ञानको पूर्णता श्रुतकेवली और केवलीके दोष नहीं, परन्तु दीपक हाथ में लेकर भी यदि कोई कुएँ में गिरे तो होती है। सम्यग्दर्शनके होनेपर पूर्ण द्वादशाग और चतुर्दशपूर्वरूप उसे दीपकका कोई फल नहीं है, कुऍमें गिरने आदिका त्याग करना श्रुतज्ञान और केवलज्ञान हो ही जायेगा यह नियम नहीं है। इसी ही दोपकका फल है। इसी प्रकार भेद विज्ञान रहित व्यक्तिको तो तरह चारित्र भी समझ लेना चाहिए। सम्यग्दर्शनके होनेपर देश कर्म बंधते हो है, परन्तु भेद विज्ञान हो जानेपर भी जितने अंशमें सकल या यथारख्यात चारित्र, सथतासंयतको सकल व यथारख्यात रागादिका अनुभव होता है, उतने अंशमें बधता ही है और उसको चारित्र, ६-१० गुणस्थानवर्ती साधुको यथारख्यात चारित्र भजनीय भी उतने अंशमें भेद विज्ञानका फल नही है। जो भेदविज्ञान हो है। अथवा क्षायिक सम्यग्दर्शन हो जानेपर क्षायिक सम्यग्ज्ञान भजजानेपर रागादिकका त्याग करता है उसको ही भेद विज्ञानका फल नीय है । अथवा सभ्यग्दर्शन व सम्यग्ज्ञानमे से किसी एक या दोनोंके हुआ जानना चाहिए।
प्राप्त हो जानेपर पूर्ण चारित्र ( अयोगी गुणस्थानका यथारख्यात १. वास्तवमें मार्ग तीन नहीं एक है
चारित्र ) भजनीय है। या, दी./३/९७३/११३ सम्यग्दर्शनादीनि मोक्षस्य सकलकर्मक्षयस्य
७. मोक्षके अन्य कारणोंका निर्देश मार्गः उपाय न तु मार्गा । इत्येकवचनप्रयोगतात्पर्यसिद्ध। स, सि/१/४/१५/६ मोक्षस्य प्रधानहेतु मबरो निर्जरा च । = मोक्षके -सम्यग्दर्शनादि मोक्षका अर्थात् सकलकर्मके क्षयका एक मार्ग है, प्रधान हेतु संवर निर्जरा है। (रा.ग/१/४/३/२५/६)।
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मोक्षमार्ग
२. निश्चय व्यवहार मोक्षमार्ग निर्देश
- जो आत्मा इन तीनो ( सम्यग्दर्शन सम्यग्ज्ञान व सम्यक् चारित्र) द्वारा, समाहित होता हुआ ( अर्थाद निजात्मामें एकाग्र होता हुआ) अन्य कुछ भी न करता है और न छोडता है ( अर्थात् करने व छोडनेके विकल्पोसे अतीत हो जाता है, वह आत्मा ही निश्चय नयसे मोक्षमार्ग कहा गया है । (त. सा/8/३); ( त अनु./३१)। प, प्र/म् /२/१३ पेच्छइ जाणइ अणुचरइ अपि अप्पउ जो जि । दसणु णाणु चरित्तु जिउ मोक्खहॅ कारणु सो जि । =जो आत्मा अपनेसे आपको देखता है, जानता है, व आचरण करता है वही विवेकी दर्शन, ज्ञान चारित्ररूप परिणत जीव मोक्षका कारण है। (न. च. वृ/३२३), (नि सा /ता वृ./२), (प.प्र./टी /२/१४/१२८/१३), (प का,/ता. वृ/१६१/२३३/८); (द्र, सं./टी/३६/१६२/१०)। प.प्र/टी/२/३१/१५१/१ निश्चयेन वीतरागसदानन्दै क रूपसुख सुधारसास्वाद परिणतनिजशुद्धात्मतत्त्वसम्यग्श्रद्धानज्ञानानुचरणरूपस्याभेदरत्नत्रयस्य ।। -निश्चयसे वीतराग सुखरूप परिणत जो निज शुद्वात्मतत्त्व उसी के सम्यक् श्रद्धान ज्ञान व अनुचरण रूप अभेदरत्नत्रयका स्वरूप है। (नि. सा./ता../२); ( स सा./ता वृ./२/८/१०); (प.प्र./टी/७/२०६/१५): (द सं.टी/अधि २ की चूलिका/
ध.७/२,१,७/गा. शह ओदइया बंधयरा उवसमरखयभिस्सया य मोक्रवयरा । भावो दु पारिणामिओ....३-औदायिक भाव बन्ध करनेवाले है तथा औपशमिक, क्षायिक व क्षायोपशमिक भाव मोक्षके
कारण है। ध ७/२,१,७/पृष्ठ/पंक्ति सम्मद सग-सजमाकसायाजोगा मोक्खकर
जाणि (8/६)। एदेसि पडिववा सम्मत्त् पत्ती देसस जम-संजमअर्णताणुबंधिविसयोजण-दसणमोहक्खरणचरितमोहवसामणुवसत - कसाय - चरित्तमोहक्खवण - रवीणकसाय - सजोगिकेवलीपरिणामा मोक्रवपच्चया, एदेहितो समयं पडि असखेज्जगुणसेडीए कम्मणिज्जरुवलंभादो। (१३/१०)।-बन्धके मिथ्यात्वादि प्रत्ययोसे विपरीत सम्यग्दर्शन, संयम, अकषाय, अयोग-अथवा (गुणस्थानक्रमसे ) सम्यक्त्योत्पत्ति, देशसयम, सयम, अनन्तानुबन्धीविसंयोजन, दर्शनमोहक्षपण, चारित्रमोहोपशमन, उपशान्तकषाय, चारित्रमोह क्षपण, क्षीणकषाय व सयोगकेवलीके परिणाम भी मोक्षके प्रत्यय है, क्योंकि इनके द्वारा प्रति समय असख्यात गुणी कर्मोंकी निर्जरा पायी
जातो है। २. निश्चय व्यवहार मोक्षमार्ग निर्देश
१. मोक्षमार्गके दो भेद-निश्चय व व्यवहार त. सा./६/२ निश्चयव्यवहाराभ्यां मोक्षमार्गों द्विधा स्थित । -निश्चय
और व्यवहारके भेदसे मोक्षमार्ग दो प्रकारका है। (न च. वृ/२८४), (त अनु./२८)।
२. व्यवहार मोक्षमागका लक्षण भेदरत्नन्नय प. का./५/१६० धम्मादीसद्दहणं सम्मत्तं णाणमंगपुठवगदं । चेट्ठा तवं हि चरिया ववहारो मोक्रवमग्गो त्ति ।१६०। धर्मास्तिकाय आदिका अर्थात् षद्रव्य, पंचास्तिकाय, सप्त तत्त्व व नव पदार्थोंका श्रदान करना सम्यग्दर्शन है, अंगपूर्व सम्बन्धी आगम ज्ञान सम्यग्ज्ञान है और तपमे चेष्टा करना सम्यकूचारित्र है। इस प्रकार व्यवहार मोक्षमार्ग है । (म. सा./म् /२७६), (त. अनु/३०)। स. सा./म् /१५६ जीवादीसहहण सम्म' तेसिमधिगमो णाणं । रायादीपरिहरणं चरणं एसो दु मोक्खपहो ।१५। जीवादि (नव पदार्थोंका) श्रद्धान करना सम्यग्दर्शन है, उन ही पदार्थों का अधिगम सम्यग्ज्ञान है और रागादिका परिहार सम्यक्चारित्र है। यही मोक्षका मार्ग है । (म. च. वृ./३२१), (द्र सं./टो./३६/१६२/८); (प. प्र/टी. १२/१४/१२८/१२)। त, सा/8/४ श्रद्धानाधिगमोपेक्षा या पुन' स्युः परात्मना। सम्यक्त्वज्ञानवृत्तात्मा स मार्गो व्यवहारतः। (निश्चयमोक्षमार्ग रूपसे कथित अभेद) आत्मामैं सम्यग्दर्शन सम्यग्ज्ञान तथा सम्यकचारित्र यदि भेद अर्थात् विकल्पकी मुख्यतासे प्रगट हो रहा हो तो सम्यग्दर्शनज्ञानचारित्र रूप रत्नत्रयको व्यवहार मोक्षमार्ग समझना चाहिए। प.प्र./टी./२/३१/१५०/१४ व्यवहारेण वीतरागसर्वज्ञप्रणीतशुद्धात्मतत्त्वप्रभृतिषट् द्रव्यपञ्चास्तिकायसप्ततवनवपदार्थ विषये सम्यक श्रद्धान. ज्ञानाहिसादिवतशील परिपालनरूपस्य भेदरत्नत्रयस्य । -व्यवहारसे सर्वज्ञप्रणीत शुद्धात्मतत्त्वको आदि देकर जो षट् द्रव्य, पंचास्तिकाय, सप्ततत्त्व, नवपदार्थ इनके विषयमे सम्यक श्रद्धान व ज्ञान करना तथा अहिसादि व्रत शील आदिका पालन करना (चारित्र) ऐसा भेदरत्नत्रयका स्वरूप है।
३. निश्चयमोक्षमागका लक्षण अभेद रत्नन्नय पं का /मू./१६१ णिच्छयणयेण भणिदो तिहि समाहिदो हु जो अप्पा। ण कुणदि कि चि वि अण्णण मुयदि सो मोक्रवमग्गो त्ति ।१६१॥
४, निश्चय मोक्षमागका लक्षण शुद्धात्मानुभूति यो, सा /यो /१६ अध्पादसण एक्कु परु अण्णु ण कि पि वियाणि । मोक्ख] कारण जोइया णिच्छ ई एहउ जाणि ।१६। -हे योगिन् । एक परम आत्मदर्शन ही मोक्षका कारण है, अन्य कुछ भी मोक्षका
कारण नहीं। यह तू निश्चय समझ । न. च वृ/३४२ की उत्थानिकामें उद्धृत-णिच्छयदो खलु मोक्खी तस्स य हेऊ हवेइ सम्भावो।" ( सम्भावणयचक्क/३७६ }। निश्चयसे मोक्षका हेतु स्वभाव है। प्र. सा./त, प्र/२४२ एकाग्यलक्षण श्रामण्यापरनामा मोक्षमार्ग एवावगन्तव्य.। एकाग्रता लक्षण श्रामण्य जिसका दूसरा नाम है, ऐसा मोक्षमार्ग ही है, ऐसा समझना चाहिए । ज्ञा./१८/३२ अपारय कल्पनाजालं चिदानन्दमये स्वयम् । य स्वरूपे लय प्राप्त स स्याद्रत्नत्रयास्पदम् ।३२। -जो मुनि कल्पनाके जालको दूर करके अपने चैतन्य और आनन्दमय स्वरूपमे लयको प्राप्त होता है, वही निश्चयरत्नत्रयका स्थान होता है। पं. का./ता, वृ/१५८/२२६/१२ तत स्थित विशुद्धज्ञानदर्शनलक्षणे
जीवस्वभावे निश्चलावस्थानं मोक्षमार्ग इति। अतः यह बात सिद्ध होती है कि विशुद्ध ज्ञान दर्शन लक्षणवाले जीवस्वभावमे निश्चल अवस्थान करना ही मोक्षमार्ग है।
५. निश्चयमोक्षमार्गके अपरनाम द्र. सं/टी/१६/२२/१३ तदेव निश्चयमोक्षमार्गस्वरूपम् । तच्च पर्यायनामान्तरेण कि कि भण्यते तदभिधीयते। ( इन नामोका केवल भाषानुवाद ही लिख दिया है सस्कृत नहीं). इत्यादि समस्तरागादिविकल्पोपाधिरहितपरमाहादै कसुखलक्षणध्यानरूपस्य निश्चयमोक्षमार्गस्य वाचकान्यन्यान्यपि पर्यायनामानि विज्ञ यानि भवन्ति परमात्मतत्त्वविद्भिरिति । -वह (वीतराग परमानन्द सुखका प्रतिभास ही निश्चय मोक्षमार्गका स्वरूप है। उसको पर्यायान्तर शब्दो द्वारा क्या-क्या कहते है, सो बताते है। ---१. शुद्धात्मस्वरूप, २. परमात्मस्वरूप, ३. परमहंसस्वरूप, ४ परमब्रह्मस्वरूप, ५. परमविष्णुस्वरूप, ६. परमनिजस्वरूप, ७. सिद्ध,८. निर जनरूप, ह निर्मलस्वरूप १०. स्वसवेदनज्ञान; ११. परमतत्त्वज्ञान, १२ शुद्धात्मदर्शन, १३, परमावस्थास्वरूप, १४. परमात्मदर्शन, १५. परम तत्त्वज्ञान, १६. शुद्धात्मज्ञान, १७. ध्येय स्वरूप शुद्धपारिणामिक भाव, १८. ध्यानभावनारूप, १६. शुद्ध चारित्र, २०.
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मोक्षमार्ग
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३. दर्शन ज्ञान चारित्रमें कथंचित् एकत्व
अतरंग तत्त्व, २१. परमतत्व, २२. शुद्धात्मद्रव्य, २३, परमज्योति, २४. शुद्धात्मानुभूति. २५. आत्मद्रव्य, २५. आरमप्रतीति, २७. आत्मसंवित्ति, २८ आत्मस्वरूपकी प्राप्ति, २६. नित्यपदार्थकी प्राप्ति. ३०. परमसमाधि, ३१. परमानन्द, ३२. नित्यानन्द, ३३ स्वाभाविक आनन्द, ३४. सदानन्द, ३५. शुद्भधारमपन, ३६. परमस्वाध्याय, ३७. निश्चय मोक्षका उपाय, ३८. एकाग्रचिन्ता निरोध, ३६. परमज्ञान, ४०. शुद्धोपयोग, ४१. भूतार्थ, ४२. परमार्थ, ४३ पंचाचारस्वरूप, ४४. समयसार, ४५. निश्चय षडावश्यक स्वरूप, ४६. केवल ज्ञानकी उत्पत्तिका कारण, ४७. समस्त कर्मों के क्षयका कारण, ४८. निश्चय चार आराधना स्वरूप, ४६. परमारमभावना रूप, ५०. सुखानुभूतिरूप परमकला, ११. दिव्यकला, ५२. परम अद्वैत. ५३. परमधर्मध्यान, ५४, शुक्लध्यान, ५५. निविकल्पध्यान, १६. निष्कलध्यान, ७ परमस्वास्थ्य, ५८. परमवीतरागता, ५६. परम समता, ६०. परम एकत्व, ६१. परम भेदज्ञान, ६२. परम समरसी भाव-इत्यादि समस्त रागादि विकल्पोपाधि रहित परमासादक सुखलक्षणवाले ध्यानस्वरूप ऐसे निश्चय मोक्षमार्गको कहनेवाले अन्य भी महतसे पर्यायनाम जान लेने चाहिए।
६. निश्चय व व्यवहार मोक्षमार्गके लक्षणोंका समन्वय प. प्र./ /२/४० दंसणु णाणु चरित्तु तमु जो सपभाउ करेइ । एयरहँ
एक्कु वि अस्थि णवि जिणवरु एउ भणेइ।४०। दर्शन ज्ञान चारित्र वास्तवमै उसीके होते है, जो समभाव करता है। अन्य किसीके इन तीनोमें-से एक भी नहीं होता, इस प्रकार जिनेन्द्र देव कहते हैं। प्र.सा./त. प्र./२४० य खलु सकल पदार्थज्ञेयाकारकरम्बितविशदैक
ज्ञानाकारमात्मानं श्रद्धानोऽभवंश्चात्मन्येव नित्यनिश्चला वृत्तिमिच्छन् । 'यमसाधनीकृतशरीरपात्र. ... समुपरतकायवाड्मनो - व्यापारो भूत्वा चित्तवृत्ते. निष्पीड्य निष्पीड्य कषायचक्रमक्रमेण जोवं साजयति खलु सकलपरद्रव्यशून्योऽपि विशुद्धशिज्ञप्तिमात्रस्वभावभूतावस्थापितात्मतत्वोपजातनित्यनिश्चल वृत्तितया साक्षात् संयत एव स्यात् । तस्यैव चागमज्ञानतत्त्वार्थश्रदधानसंयतत्वयोगपद्यात्मज्ञानयोगपद्य सिध्यति । -जो पुरुष सकल ज्ञयाकारोंसे प्रतिबिम्बित विशद एक ज्ञानाकार रूप आत्माका श्रद्धान और अनुभव (ज्ञान) करता हुआ, आत्मामें ही नित्य निश्चल वृत्तिको (निश्चय चारित्रको) इच्छता हुआ, संयमके साधनीभूत शरीरमात्रको पंच समिति आदि (व्यवहार चारित्र) के द्वारा तथा पंचेन्द्रियोके निरोध द्वारा मनवचनकायके व्यापारको रोकता है। तथा ऐसा होकर चित्तवृत्तिमें-से कषायसमूहको अत्यन्त मर्दन कर-करके अक्रमसे मार डालता है, वह व्यक्ति वास्तवमें सकल परद्रव्यसे शून्य होनेपर भी विशुद्ध दर्शनज्ञानमात्र स्वभावरूपसे रहनेवाले आत्म तत्त्वमें नित्य निश्चय परिणति ( अभेद रत्नत्रय) उत्पन्न होनेसे साक्षात् सयत ही है। और उसे ही आगमज्ञान, तत्त्वार्थ श्रद्धान, संयतत्व (भेदरत्नत्रय) की युगपतताके साथ
आत्मज्ञान ( निश्चय मोक्षमार्ग) की युगपतता सिद्ध होती है। 1. सा/त, प्र/२४२ जे यज्ञातृतत्त्वतथाप्रतीतिलक्षणेन सम्यग्दर्शनपर्यायण
झे यज्ञातृतत्त्वलथानुभूतिलक्षणेन ज्ञानपर्यायेण ज्ञेयज्ञातृक्रियान्तरनिवृत्तिसूध्यमाण द्रष्ट ज्ञातृतत्त्ववृत्तिलक्षणेन चारित्रपर्यायेण च त्रिभिरपि यौगपद्य न.. परिणतस्यात्मनो यदात्मनिष्ठरवे सति संयतत्वं तत्पानकवदनेकारमकस्यैकस्यानुभूयमानतायामपि समस्तपरद्रव्यपरावृत्तस्वादभिव्यक्तैकाग्यलक्षणश्रामण्यापरनामा मोक्षमार्ग एवावगन्तव्य' । तस्य तु सम्यग्दर्शनज्ञानचारित्राणि मोक्षमार्ग इति भेदात्मकत्वात्प
र्यायप्रधानेन व्यवहारनयनै काग्र यं मोक्षमार्ग इत्य भेदात्मकत्वाद्रव्यप्रधानेन निश्चयनयेन विश्वस्यापि भेदाभेदात्मक्त्वात्तदुभयमिति प्रमाणेन प्रज्ञप्ति। - ज्ञेयतत्त्व और ज्ञातृतत्त्वकी (अर्थात स्व व परकी) यथावस्थित प्रतीतिरूप तो सम्यग्दर्शन पर्याय, तथा उसी स्वपर तत्त्वकी यथाव स्थित अनुभूति रूप ज्ञानपर्याय, तथा उसीकी क्रियान्तरसे निवृत्तिके द्वारा ( अर्थात् ज्ञेयोंका आश्रय लेकर क्रमपूर्वक जाननेकी निवृत्ति करके ) एक दृष्टिज्ञातृतरव (निजात्मा) में परिणति रूप धारित्र पर्याय है। इन तीनों पर्यायोरूप युगपत परिणत आत्माके आत्मनिष्ठता होनेपर संयतत्व होता है। वह संयतत्व ही एकाग्र्यलक्षणवाला श्रामण्य या मोक्षमार्ग है। क्योंकि वहाँ पानकवत् अनेकात्मक एक (विशद ज्ञानाकार ) का अनुभव होनेपर भी समस्त परद्रव्योसे निवृत्ति होनेके कारण एकाग्यता अभिव्यक्त है। वह संयतत्व भेदात्मक है, इसलिए उसे ही पर्यायप्रधान व्यवहारनयसे 'सम्यग्दर्शन-ज्ञान-चारित्र मोक्षमार्ग है' ऐसा कहते है। वह अभेदात्मक भी है. इसलिए द्रव्यप्रधान निश्चयनयसे 'एकाग्रता मोक्षमार्ग है ऐसा कहते हैं। समस्त ही पदार्थ भेदाभेदात्मक हैं, इसलिए उभयग्राही प्रमाणसे 'वे दोनों अर्थात रत्नत्रय व एकाग्रता) मोक्षमार्ग है, ऐसा कहते है। (त. सा./६/२९) प. प्रा./टी./६६/६४ यथा द्राक्षाकर्पूरश्रीखण्डादिबहुद्रव्य निष्पन्नमपि पानकमभेदविवक्षया कृत्वैक भण्यते, तथा शुद्धात्मानुभूतिलक्षण कनिश्चयसम्यग्दर्शनज्ञानचारित्रैर्षहुभिः परिणतो अनेकोऽप्यात्मारवभेदविवक्षया एकोऽपि भण्यत इति भावार्थः।-जिस प्रकार द्राक्षा कपूर व खाण्ड आदि बहुतसे द्रव्योसे बना हुआ भी पानक अभेद विवक्षासे एक कहा जाता है, उसी प्रकार शुद्धात्मानुभूति लक्षणवाले निश्चय सभ्यग्दर्शन ज्ञान व चारित्र इन तीनोके द्वारा परिणत अनेकरूप वाला भी आत्मा अभेद विवक्षासे एक भी कहा जाता है, ऐसा भावार्थ है। प.ध./उ./०६६ सत्यं सद्दर्शन ज्ञानं चारित्रान्तर्गत मिथः । प्रयाणाम
विनाभावादि त्रयमखण्डित ७६६६ -सम्यग्दर्शन और सम्यरज्ञान चारित्रमें अन्तर्भूत हो जाते है. क्योकि तीनों अविनाभावी है। इसलिए ये तीनो अखण्डित रूपसे एक ही है।
७. अभेद मार्गमें भेद करनेका कारण स. सा./मू./१७-१८ जह णामको वि पुरिसोरायाणं जाणिऊण सद्दहदि । तोत अणुचरदि पुणो अत्थत्थीओ पणत्तण ।१७। एवं हि जीवराया गादवो तह य सद्दहेदव्यो। अणुचरिदबो य पुणो सो चेव दु मोक्खकामेण (१८६ -जैसे कोई धनका अर्थी पुरुष राजाको जानकर श्रद्धा करता है. और फिर उसका प्रयत्नपूर्वक अनुचरण करता है, इसी प्रकार मोक्षके इच्छुक पुरुषको जोवरूपी राजाको जानना चाहिए, और फिर इसी प्रकार उसका श्रद्धान करना चाहिए, और तत्पश्चात उसीका अनुचरण करना चाहिए और अनुभव द्वारा उसमें लय हो जाना चाहिए।
३. दर्शन ज्ञान चारित्रमे कथंचित् एकत्व
१. तीनों वास्तवमें एक आत्मा ही है स सा./मू./७,१६,२७७ ववहारेणुवदिस्सइ णाणिस्स चरित्तद सणं णाणं । णविणाणं ण चरितं ण दंसणं जाणगो सुद्धा ७ दसणणाणचरित्ताणि से विदवाणि साहुणा णिच्चं । ताणि पुण जाण तिण्णिवि अप्पाणं चेव णिच्छयदो ।१६आदा खु मज्झ णाणं आदा मे देसणं चरितं च । आदा पच्चक्रवाण आदा मे संबरो जागो १२७७१ = ज्ञानीके चारित्र, दर्शन, व ज्ञान ये तीन भाव व्यवहारसे कहे जाते हैं, निश्चयसे ज्ञान भी नही है, चारित्र भी नहीं है और दर्शन भी नहीं
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मोक्षमार्ग
३. दर्शन ज्ञान चारित्रमे कथचित एकत्व
है, अर्थात् ये कोई तीन पृथक्-पृथक् स्वतन्त्र पदार्थ नही है। ज्ञानी तो एक शुद्ध ज्ञायक ही है ।७ । न. च. वृ./२६३) । साधु पुरुषको दर्शन ज्ञान और चारित्र सदा सेवन करने योग्य है और उन तीनोको निश्चय नयसे एक आत्मा ही जानो।१६। (मो पा./१०५), (ति. प/8/२३); (द्र. स./मू./३६ ।। निश्चयसे मेरा आत्मा ही ज्ञान है, मेरा आत्मा ही दर्शन है, और चारित्र है, मेरा आत्मा ही प्रत्या
ख्यान है, मेरा आत्मा ही सवर और योग है ।२७७१ 4. का./मू./१६२ जो चरदि णादि पेच्छ दि अप्पाणं अप्पणा अणण्णमय ।
सो चारित्त णाणं दसण मिदि णिछिदो होदि । - जो आत्मा अनन्यमय आत्माको आत्मासे आचरता है, जानता है, देखता है, वह ( आत्मा ही) चारित्र है, ज्ञान है, और दर्शन है, ऐसा निश्चित है।
(त अनु./३२)। द. पा/मू /२० जीवादी सहहणं सम्मत्तं जिणवरेहि । पण्णत्तं ववहारा णिच्छयदो अप्पाणं हवइ सम्मत्तं ।२० = जीव आदि पदार्थोका श्रद्धान करना जिनेन्द्र भगवान्ने व्यवहारसे सम्यक्त्व कहा है, निश्चयसे आत्मा ही सम्यग्दर्शन है। (प प्र./मू./१/६६)। यो. सा/अ/१/४१-४२ आचारवेदन ज्ञानं सम्यक्त्वं तत्त्वरोचनं ।
चारित्रं च तपश्चर्या व्यवहारेण गद्यले ४१॥ मम्यक्त्वज्ञानचारित्रस्वभान परमार्थतः । आत्मा रागविनिर्मुक्ता मुक्तिमार्गों विनिर्मल' । 1४२॥ स व्यवहारनयसे आचारोका जानना ज्ञान, तत्त्वोमें रुचि, रखना सम्यक्त्व और तपोंका आचरण करना सम्यकचारित्र है।४१॥ परन्तु निश्चयसे तो, जो आत्मा रागद्वेष रहित होनेके कारण स्वय सम्यग्दर्शन, ज्ञान व चारित्र स्वभावस्वरूप है वही निर्दोष मोक्षमार्ग है ।४२१
स. सा /आ./१५५ मोक्षहेतु' किल सम्यग्दर्शनज्ञानचारित्राणि । तत्र सम्यग्दर्शनं तु जीवादिश्रद्धानस्वभावेन ज्ञानस्य भवनम् । जीवादिज्ञानस्वभावेन ज्ञानस्य भवन ज्ञानम्। रागादिपरिहरणस्वभावेन ज्ञानस्य भवनम् चारित्रम् । तदेवं सम्यग्दर्शनज्ञानचारित्राण्येकमेव ज्ञानस्य भवनमायातम् । ततो ज्ञानमेव परमार्थ मोक्षहेतु ।मोक्षका कारण वास्तव मे सम्यग्दर्शनज्ञान चारित्र है, उसमे जीवादि-पदार्थोके श्रद्वान स्वभावस्वरूप ज्ञानका परिणमन करना सम्यग्दर्शन है, उन पदार्थोंके ज्ञानस्वभावस्वरूप ज्ञानका परिणमन करना सम्यग्ज्ञान है,
और उस ज्ञानका ही रागादिके परिहारस्वभावस्वरूप परिणमन करना सम्यक्चारित्र है। इस प्रकार सम्यग्दर्शन, ज्ञान व चारित्र ये तीनों एक ज्ञानका ही परिणमन है। इसलिए ज्ञान ही परमार्थ मोक्षका कारण कारण है। स. सा/आ./परि/क २६५ के पश्चाद--आत्मवस्तुनो हि ज्ञानमात्रत्वेडप्युपायोपेयभावो विद्यते एव; तस्यैकस्यापि स्वय साधक सिद्धरूपणेभयपरिणामित्वात् । तत्र यत्साधक रूपं स उपाय , यत्सिद्धं रूपं स उपेय । अतोऽस्यात्मनोऽनादिमिथ्यादर्शनज्ञानचारित्रैः स्वरूपप्रच्यवनात्सं सरत' सम्यग्दर्शन ज्ञानचारित्रपाकप्रकर्ष परंपरया क्रमेण स्वरूपमारोप्यमाणस्यान्तर्मग्न निश्चयसम्यग्दर्शज्ञानचारित्रविशेषतया साधकरूपेण तथा · रत्नत्रयातिशयप्रवृत्तसकलकर्मक्षयप्रज्वलितास्वन लितविमलस्वभावभावतया सिद्धरूपेण च स्वय परिणममानज्ञानमात्रमेकमेवोपायोपेयभावं साधयति । आत्मवस्तुको ज्ञानमात्र होनेपर भी उसे उपाय-उपेयभाव है ही। क्योकि वह एक होनेपर भी स्वय साधक रूपसे और सिद्धरूपसे दोनो प्रकार से परिमित होता है। (आत्मा परिणामी है और साधकत्व व सिद्धत्व उसके परिणाम है। तहाँ भी पूर्व पर्याययुक्त आत्मा साधक और उत्तरपर्याययुक्त आत्मा साध्य है । ) उसमे जो साधकरूप है वह उपाय है और जो सिद्धरूप है वह उपेय है । इसलिए अनादिकालसे मिथ्यादर्शनज्ञानचा रित्र द्वारा स्वरूपसे च्युत होनेके कारण ससारमे भ्रमण करते हुए, व्यवहार सम्यग्दर्शन ज्ञानचारित्रके पाकके प्रकर्ष की परम्परासे क्रमशः स्वरूपमें आरोहण करता है। तदनन्तर अन्तर्मग्न जो निश्चय सम्यग्दर्शन ज्ञान चारित्र उनकी तद्रूपताके द्वारा स्वयं साधक रूपसे परिणमित होता है। और अन्तमे रत्नत्रयकी अतिशयतासे प्रवर्तित जो सकल कर्मके क्षयसे प्रज्वलित अस्खलित विमल स्वभाव, उस भावके द्वारा स्वयं सिद्ध रूपसे परिणमित होता है। ऐसा एक ही ज्ञानमात्र उपायउपेयभावको सिद्ध करता है।
१. तीनोंको एक आत्मा कहनेका कारण स. सा./आ/१२/क ६ एकवे नियतस्य शुद्धनयतो व्याप्तुर्यदस्यात्मनः, पूर्ण ज्ञानधनस्य दर्शनमिह द्रव्यान्तरेभ्य पृथक् । सम्यग्दर्शनमेतदेव नियमादात्मा च तावानयं तन्मुक्त्वा नवतन्त्वसंततिमिमामात्मायमेकोऽस्तु न ।६। = इस आत्माको अन्य द्रव्योसे पृथक् देखना ही नियमसे सम्यग्दर्शन है, यह आत्मा अपने गुण पर्यायोमें व्याप्त रहनेवाला है और शुद्धनयसे एक्त्व में निश्चित किया गया है तथा पूर्ण ज्ञानघन है। एवं जितना सम्यग्दर्शन है उतना ही आत्मा है, इसलिए आचार्य प्रार्थना करते है, कि इस नव तत्त्वकी परिपाटीको
छोडकर, यह आत्मा ही हमें प्राप्त हो। दू./सं./मू /४० रयणत्तयं ण बट्टइ अप्पाण मइत्त अण्णइवियम्हि । तम्हा तत्तियमइउ होदि हु मुक्खस्स कारणं आदा। - आत्माको छोडकर अन्य द्रव्योमें रत्नत्रय नहीं रहता, इस कारण उस रत्नत्रयमय आत्मा ही निश्चयसे मोक्षका कारण है। पं. वि./४/१४,१५ दर्शनं निश्चय' पुसि बोधस्तद्वोध इष्यते । स्थितिरत्रैव चारित्रमिति योग, शिवाश्रय १४ा एकमेव हि चेतन्यं शुद्धनिश्चयतोऽथवा। कोऽवकाशो विकल्पाना तत्रारवण्डैकवस्तुनि ॥१५॥ मम आत्मस्वरूपके निश्चयको सम्यग्दर्शन, उसके ज्ञानको सम्यग्ज्ञान, तथा उसी आत्मामे स्थिर होनेको सम्यकचारित्र कहा जाता है। इन तीनोका सयोग मोक्षका कारण होता है ।१४। परन्तु शुद्ध निश्चयकी अपेक्षासे ये तीनों एक चैतन्य स्वरूप ही है, कारण उस एक अखण्ड वस्तुमें भेदोके लिए स्थान ही कहाँ है ॥१५॥
३. ज्ञानमात्र ही मोक्षमाग है बो.पा/मू /२० सजम संजुत्तस्स य सुझाण जोयस्स मोक्खमग्गस्स । णाणेण लहदि लक्व तम्हा णाण च णायव्य । - संयमसे संयुक्त तथा ध्यानके योग्य मोक्षमार्गका लक्ष्य क्योकि ज्ञानसे प्राप्त होता है, इसलिए इसको जानना चाहिए है।
४. तीनोंके भेद व अभेदका समन्वय त. सा.//२१ स्यात् सम्यक्त्वज्ञानचारित्ररूप, पर्यायादेिशतो मुक्तिमार्ग । एको ज्ञाता सर्वदेवाद्वितीयः, स्याद् द्रव्यार्थादेशतो मुक्तिमार्गः ॥२१॥- सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान व सम्यग्चारित्र इन तीनो में भेद करना सो पर्यायार्थिक नयकी अपेक्षासे मोक्षमार्ग है । इन सर्व पर्यायो में ज्ञाता जीव एक ही रहता है। पर्याय तथा जीवमें कोई भेद न देखते हुए रत्नत्रयसे आत्माको अभिन्न देखना, सो द्रव्याथिकनयकी अपेक्षासे मोक्षमार्ग है।
५. ज्ञान कहनेसे यहाँ पारिणामिक भाव दृष्ट है न च वृ /३७३ सद्धाणणाण चरणं जाव ण जीवस्स परमसम्भावो। ता
अण्णाणी मूढो ससारमहोवहि भमइ। -जबतक जीवको निज परम स्वभाव ( पारिणामिकभाव ) में श्रद्धान ज्ञान व आचरण नहीं होता तबतक वह अज्ञानी व मूढ रहता हुआ संसार महासागर में भ्रमण करता है। स, सा./आ २०४ यदेत्तत्तु ज्ञान नामक पदं स एष परमार्थ साक्षान्मोक्षोपायः। न चाभिनियोधिकादयो भेदा इदमेक पर्दामह भिन्दन्ति,
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भा०३-४३
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मोक्षमार्ग
३३८ ४. निश्चय व व्यवहारमार्गको मुख्यता गौणता किंतु तेऽपीदमेबैकं पदमभिनन्दन्ति ।= यह ज्ञान नामका एक पद ४. निश्चय व व्यवहारका कथंचित ख्यता गौणता परमार्थस्वरूप साक्षात् मोक्षका उपाय है। यहाँ मतिज्ञानादि (ज्ञानके ) भेद इस एक पदको नहीं भेदते, किन्तु वे भी इस एक
तथा समन्वय पदका अभिनन्दन करते है।
1. निश्चयमार्गकी कथंचित् प्रधानता नि. सा./ता.व./४१ पञ्चाना भावानां मध्ये क्षायिकभाव....सिद्धस्य भवति । औदयिकौपशमिककक्षायोपशमिकभावा. संसारिणामेव
स. सा./आ /१५३ शानमेव मोक्षहेतुः, तदभावः स्वयमज्ञानभूतानामभवन्ति न मुक्तानाम् । पूर्वोक्तभावचतुष्टयं सावरणसंयुक्तत्वात न
ज्ञानिना ..शुभकर्मसद्भावेऽपि मोक्षाभावात् । अज्ञानमेव बन्धहेतुः, मुक्तिकारणम् । त्रिकाल निरूपाधिस्वरूप पञ्चमभावभावनया पञ्चम
तदभावं स्वयं ज्ञानभूतानां ज्ञानिना.. शुभकमसिद्भावेऽपि मोक्षगति मुमुक्षवो यान्ति यास्यन्ति गताश्चेति। पाँच भावोंमेंसे क्षायिक
सद्भावात् । - ज्ञान ही मोक्षका हेतु है, क्योंकि, ज्ञानके अभावमें भाव सिद्धोको होता है और औदयिक औपशमिक व क्षायोपशमिक
स्वयं ही अज्ञानरूप होनेवाले अज्ञानियोके अन्तरंगमें व्रत नियम भाव संसारियों को होते है, मुक्तोंको नहीं। ये पूर्वोक्त चार भाव
आदि शुभ कर्मोंका सद्भाव होनेपर भी मोक्षका अभाव है। अज्ञान आवरण सहित होनेसे मुक्तिके कारण नहीं हैं। त्रिकाल-निरूपाधि
ही अन्धका कारण है, क्योकि, उसके अभावमें स्वयं ही ज्ञानरूप स्वरूप पंचमभाव ( पारिणामिकभाव ) की भावनासे ही मुमुच जन
होनेवाले ज्ञानियोंके बाह्य व्रतादि शुभकर्मोंका असद्भाव होनेपर भी पंचम गतिको प्राप्त करते है, करेगे, और किया है।
मोक्षका सद्भाव है । ( स. सा./आ./१५१,१५२ ) । प्र.सा./त.प्र/२३८ आगमज्ञानतत्त्वार्थ श्रद्धानसंयतत्वयोगपद्य'ऽप्यात्मज्ञानमेव मोक्षमार्गसाधकतममनुमन्तव्यम् ।-आगमज्ञान, तत्त्वार्थश्रद्धान
और संयतत्वकी युगपतता होनेपर भी आत्मज्ञानको ही मोक्षमार्गका इ. दर्शनादि तीनों-चैतन्यकी ही दर्शन ज्ञानरूप सामान्य साधकतम सम्मत करना। विशेष परिणति हैं
नि. सा./ता. वृ/२ 'सम्यग्दर्शनज्ञानचारित्राणि मोक्षमार्गः' इति वच
नात, मार्गस्तावच्छूद्धरत्नत्रयं...। = 'सम्यग्दर्शन ज्ञान और चारित्र पं. का././१५४,१५६ जीबसहावं णाणं अप्पडिहददसणं अण्णाणमयं । मोक्षमार्ग है ऐसा वचन होनेसे मार्ग तो शुद्ध रत्नत्रय है। चरियं च तेसु णियदं अस्थित्तमणिदियं भणिय १५४। चरियं चरदि सगं सो जो परदव्वप्पभावरहिदप्पा। दसणणाणवियप्पं अवियप्प
२. निश्चय ही एक मार्ग है अन्य नहीं चरदि अप्पादो ।१५।-जीवका स्वभाव ज्ञान और अप्रतिहत दर्शन प्र.सा/मू ब.त.प्र/१६६ एवं जिणा जिणिंदा सिद्धा मग्गं स मुट्ठि समणा। है, जो कि अनन्यमय है। उन ज्ञान व दर्शनमें नियत अस्तित्व जो
जादा णमोत्थु तेसिं तस्स य णिव्वाणमग्गस्स :१६६। यतः सर्व एव कि अनिन्दित है, उसे चारित्र कहा है।१५४। जो परद्रव्यात्मक भावों- सामान्यचरमशरीरास्तीर्थकरा अचरमशरीरमुमुश्चश्चामुनै व यथोदितेन से रहित स्वरूपवाला बर्तता हुआ दर्शन ज्ञानरूप भेदकी आरमासे शुद्धारमप्रवृत्तिलक्षणेन विधिना प्रवृत्तमोक्षस्य मार्गमधिगम्य सिद्धा अभेदरूप आचरता है वह स्वचारित्रको आचरता है ।१५६॥
बभूवु. न पुनरन्यथा। ततोऽवधार्यते केवलमयमेक एव मोक्षस्य मार्गों रा. वा./१/१/६२/१६/१६ ज्ञानदर्शनयोरनेन विधिना अनादिपारिणा
न द्वितीय इति ।-जिनेन्द्र और श्रमण अर्थात् तीर्थकर और अन्य मिकचैतन्यजीवद्रव्या देशात स्यादेक्त्वम्, यतो द्रव्यार्थादेशाद्
सामान्य मुनि इस पूर्वोक्त प्रकारसे मार्ग में आरूढ होते हुए सिद्ध हुए यथा ज्ञानपर्याय आत्मद्रव्यं तथा दर्शनमपि । तयोरेव प्रतिनियत
हैं। नमस्कार हो उन्हे और उस निर्वाण मार्गको। सभी सामान्य ज्ञानदर्शनपल्यार्पणाव स्यादन्यत्वम्, यस्मादन्यो ज्ञानपर्यायो
चरमशरीर, तीर्थकर, और अचरमशरीरी मुमुक्षु इसी यथोक्त शुद्धारम ऽन्यश्च दर्शनपर्याय' (ज्ञान, दर्शन चारित्रके प्रकरणमें) ज्ञान और
तत्त्ववृत्तिलक्षण विधिसे प्रवर्तमान मोक्षमार्ग को प्राप्त करके सिद्ध हुए दर्शनमें, अनादि पारिणामिक चैतन्यमय जीवद्रव्यकी विवक्षा होनेपर
हैं, किन्तु ऐसा नहीं है कि किसी दूसरी विधिसे भी सिद्ध हुए हों। अभेद है, क्योंकि वही आत्मद्रव्य ज्ञानरूप होता है और वही
इससे निश्चित होता है कि केवल यह एक ही मोक्षका मार्ग है, दर्शनरूप। जब हम उन उन पर्यायोकी विवक्षा करते हैं तम ज्ञान- दूसरा नहीं। (प्र. सा./म. व त. प्र./८२)। पर्याय भिन्न है और दर्शन पर्याय भिन्न है।।
स. सा./आ./४१२/क. २४० एको मोक्षपन्थो य एष नियतो दृग्ज्ञप्ति
वृत्त्यात्मकस्तत्रैव स्थितिमेति अन्तमनिशं ध्यायेच्च तं चेतति। पं.का./त.प्र./१५४ जीवस्वभावनियतं चरितं मोक्षमार्ग । जीवस्वभावो
तस्मिन्नेव निरन्तरं विहरति द्रव्यान्तराण्यस्पृशन्, सोऽवश्यं समयहि ज्ञानदर्शने अनन्यमयत्वात् । अनन्यमयत्वं च तयोविशेषसामान्य
स्य सारमचिरान्नित्योदयं विन्दति ।२४०। = दर्शन-ज्ञान-चारित्रस्वरूप चैतन्यस्वभावजीवनिर्वृ त्तत्वात । अथ तज्जीवस्वरूपभूतयोनिदर्श
जो यह एक नियत मोक्षमार्ग है, उसी में जो पुरुष स्थिति प्राप्त नयोर्यनियतमवस्थितमुत्पादव्ययधौव्यरूपवृत्तिमयमस्तित्वं रागादि
करता है, उसीका निरन्तर ध्यान करता है, उसीका अनुभव करता परिणत्यभावादनिन्दितं तच्चरितं । तदेव मोक्षमार्ग इति । -जीव
है, और अन्य द्रव्योको स्पर्श न करता हुआ उसीमें निरन्तर स्वभाव नियत चारित्र मोक्षमार्ग है, जीवस्वभाव वास्तव में ज्ञान
विहार करता है, वह पुरुष नित्य-उदित-समयसारको अल्पकाल दर्शन है, क्योकि वे अनन्यमय हैं। और उसका भी कारण यह है कि
में ही अवश्य प्राप्त करता है, अर्थात उसका अनुभव करता है। विशेष चैतन्य (ज्ञान) और सामान्य चैतन्य (दर्शन) जिसका स्वभाव है ऐसे जीवसे वे निष्पन्न है। अब जीवके स्वरूपभूत ऐसे उन
यो. सा./ब/८/८८ एक एव सदा तेषां पन्था' सम्यक्त्वपरायिणाम् । ज्ञान दर्शन में नियत अर्थात् अवस्थित ऐसा जो उत्पादव्ययध्रौव्यरूप
व्यक्तीनामिव सामान्य दशाभेदोऽपि जायते ।८८ -जिस प्रकार वृत्तिमय अस्तित्व, जो कि रागादि परिणामके अभावके कारण
व्यक्ति सामान्य रूपसे एक होता हुआ भी अवस्था भेदसे ब्राह्मण अनिन्दित है, वह चारित्र है। वही मोक्षमार्ग है।
क्षत्रिय आदि कहलाता है, उसी प्रकार मोक्षमार्ग एक होते हुए भी
अवस्थाभेदसे औपशमिक क्षायिक आदि कहलाता है। (दे. सम्यग्दर्शन/I/१); (सम्यग्दर्शनमें दर्शन शब्दका अर्थ कथचित नि. सा./ता. वृ./१८/क ३४ असति सति विभावे तस्य चिन्तास्ति नो
सत्तावलोकन रूप दर्शन भी ग्रहण किया गया है, जो कि चैतन्यकी नः, सततमनुभवाम' शुधमात्मानमेक्म् । हृदयकमलसंस्थं सर्वकर्मप्रसामान्य शक्ति है)।
मुक्त, न खलु न खलु मुक्ति न्यथास्त्यस्ति तस्मात ॥३४॥ -विभाव
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मोक्षमार्ग
हो अथवा न हो उसकी हमें चिन्ता नहीं है। स्थित सर्व कमसे विमुक्त, एक बुद्धात्माका ही क्योंकि अन्य किसी प्रकारसे मुक्ति नहीं है, नहीं है। ३. केवल उसका प्ररूपण ही अनेक प्रकारसे किया
-
प्र. सा./त. प्र. / २४२ / क १६ इत्येवं प्रतिपत्तुराशयवशादेकोऽप्यनेकीस्थानिय वृत्तिमचलं लोकस्तमास्कन्दतामास्कन्दत्व चिराद्विकाशमतुलं येनोलसन्त्याश्चितेः | १६ | इस प्रकार प्रतिपादक के वश, एक होनेपर भी अनेक होता हुआ, एकलक्षणताको तथा त्रिलक्षणताको प्राप्त जो मोक्षका मार्ग है, उसे लोक द्रष्टा ज्ञातामें परिणति बाँधकर अचलरूप से अवलम्बन करे, जिससे कि वह उल्लसित चेतनाके अतुल विश्वासको अल्पकालमें प्राप्त हो ।
हम तो हृदयकमल में अनुभवन करते हैं।
मो. मा. प्र. / १० / ३६५ / २० सो मोक्षमार्ग दोय नाहीं । मोक्षमार्गका निरूपण दोय प्रकारका हैं। एक निश्चय मोक्षमार्ग और एक व्यवहार मोक्षमार्ग है, ऐसें दोय मोक्षमार्ग मानना मिथ्या है। (द. पा./पं. जयचन्द / २ ) ।
४. व्यवहारमार्गकी कथंचित् गौणता
न च वृ./३७६ भेदुवयारे जझ्या बट्ठदि सो वि य सुहासुहाघीणो । तइया कत्ता भणिदो संसारो तेण सो आदा १३७६। अभेद रत्नत्रयरूप मोक्षमार्ग के भेद व उपचार में जोव जब तक वर्तता है तब तक वह शुभ व अशुभके आधीन रहता हुआ 'कर्ता' कहलाता है। इसलिए वह आत्मा संसारी है।
स. सा./आ./२७६-२७७ आधारादि शब्दश्रुतं ज्ञानस्याश्रयत्वाज्ज्ञानं, जोवादयो नवपदार्थ दर्शनस्याश्रयत्वादर्शनं षड्जीवनिकायश्चारित्रस्याश्रयत्वाचारित्रमिति व्यवहारः । शुद्धधात्मा ज्ञानाश्रयस्था उज्ञानं, शुद्धात्मा दर्शनाश्रयत्वादर्शनं शुद्धात्मा चारित्राश्रयत्वाचारित्रमिति निश्चयः । तत्राचारादीनां ज्ञानाद्यस्याश्रयत्वस्यानेकान्तिकत्वाद्वयवहारनयः प्रतिषेध्यः । निश्चयनयस्तु शुद्धधस्यामनोज्ञानाद्याश्रयश्वस्यैकान्तिकत्वात्तत्प्रतिषेधकः । तथा हि नाचारादिशब्दश्रुतमेकान्तेन ज्ञानस्याश्रयः शुद्धात्मैव ज्ञानस्याश्रयः । - आचाररोगादि शब्द श्रुतज्ञानका आश्रय होनेसे ज्ञान है, जीवादि नवपदार्थ दर्शनका आश्रय होनेसे दर्शन हैं, और छह atafoकाय चारित्रका आश्रय होनेसे चारित्र हैं, इस प्रकार तो व्यवहार मार्ग है। शुद्धात्मा ही ज्ञानका, दर्शनका व चारित्रका आश्रय होनेसे ज्ञान दर्शन व चारित्र है, इस प्रकार निश्चयमार्ग है। तहाँ आचारांगादिको ज्ञानादिका आश्रयपना व्यभिचारी होनेसे व्यवहारमार्ग निषेध्य है, और शुद्धात्माको ज्ञानादिका आश्रयपना निश्चित होनेसे निश्चयमार्ग उसका निषेधक है। वह इस प्रकार कि आचारांगादि एकान्तसे ज्ञानादिके आश्रय नहीं हैं और शुद्धधारमा एकतिसे ज्ञानका आश्रय है। (क्योंकि आचा रोगादिके सद्भाव में भी अभव्यको ज्ञानादिका अभाव है और उनके सद्भाव अथवा असद्भाव में भी सम्यग्दृष्टिको ज्ञानादिका सद्भाव है ) ।
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नि. सा./ता.वृ./ ११ / १२२ श्यक्या विभावमखिलं व्यवहारमार्गरत्नत्रयं च मतिमान्निजतत्ववेदी शुद्धात्मतत्त्वनियतं निजबोधमेकं श्रधानमन्यदपरं चरणं प्रपेदे ॥१२२॥ =समस्त विभावको तथा व्यवहारमार्गके रत्नत्रयको छोड़कर निजतत्त्ववेदी मतिमान पुरुष शुद्धधात्मतत्त्व में नियत, ऐसा जो एक निजज्ञान श्रद्धान व चारित्र, उसका आश्रय करता है।
३३९
४. निश्चय व व्यवहारमार्ग को मुख्यता गौणता
५. व्यवहारमार्ग निश्रयका साधन है
प. प्र./मू./ २ / १४ जं बोल्लइ वबहारु-णउ दंसणु णाणु चरितु । तं परियहि जीव तुहुँ जें परु होइ पवित्तु ॥१४॥ हे जीव ! व्यवहारनय जो दर्शन ज्ञान चारित्र इन तीन रूप रत्नत्रयको कहता है, उसको तू जान। जिससे कि तू पवित्र हो जावे । अराधना सार / ७ / ३० जीवोऽप्रविश्य व्यवहारमार्ग न निश्चयं ज्ञातुमपे - ति शक्तिम्। प्रभाविकाशे क्षणमन्तरेण भानूदयं को वदते विवेकी । - व्यवहारमार्ग में प्रवेश किये बिना जोब निश्चयमार्गको जानने में समर्थ नहीं हो सकता। जैसे कि प्रभात हुए बिना सूर्यका उदय नहीं हो सकता।
त. सा./१/२ निश्चव्यवहाराभ्यां मोक्षमार्गो द्विधा स्थितः । तत्राद्यः साध्यरूपः स्याद द्वितीयस्तस्य साधनम्। निश्चय व्यवहार के भेदसे मोक्षमार्ग दो प्रकार है। तहाँ निश्चयमार्ग तो साध्यरूप है। और व्यवहारमार्ग उसका साधन है। (न.च.वृ./ ३४१ में उद्धृत गाथा नं. २ ); (त. अनु. / २८ ) ( प. प्र./टी./ २ / १२ / १२६/५:२/ १४ / १२६ / १ ) । पं.का./त.प्र./ १५६ न चैतद्विप्रतिषिधं निश्चयव्यवहारयोः साध्यसाधनभावत्वात्सुवर्ण सुवर्ण पाषाणवत् । = ( निश्चय द्वारा अभिन्न साध्यसाधनभावसे तथा व्यवहार द्वारा भिन्न साध्यसाधन भाव से जो मोक्षमार्गका दो प्रकार प्ररूपण किया गया है। इनमें परस्पर विरोध आता हो ऐसा नहीं है, क्योंकि सुवर्ण और सुवर्णपाषाणवत् निश्चय व व्यवहारको साध्यसाधनपना है (अर्थात् जैसे सुवर्ण पाषाण अग्नि के संयोगसे शुद्ध सुवर्ण बन जाता है, वैसे ही जीव व्यवहारमार्ग के संयोग से निश्चयमार्गको प्राप्त हो जाता है। (दे० पं. का./ता.वृ./१६०/२३२/१४); (द्र.सं./टी./३६/१६२/११))+
अन. ध./१/१२/१०१ उद्योतोद्यवनिर्वाह सिद्धि निस्तरण भजनम् । भव्यो मुक्तिपथ भाक्तं साधयत्येव वास्तवम् |२| उद्योत, उद्यव, निर्वाह, सिद्धि और निस्तरण इन उपायोंके द्वारा भेदरत्नत्रयरूप व्यवहार मोक्षमार्गका आराधक भव्य पुरुष वास्तविक मोक्षमार्गको नियमसे प्राप्त करता है।
पं.का./ता.वृ./१०५/१६७ निश्चयमोक्षमार्गस्य परंपऱ्या कारणभूतव्यवहारमोक्षमार्गम् । व्यवहार मोक्षमार्ग निश्चयमोक्षमार्गका परम्परा कारण है।
प. प्र./टी./२/१४/१२८/१० हे जीव ! निश्चयमोक्ष मार्गसाधकं व्यवहारमोक्षमार्ग जानीहि त्वं येन ज्ञातेन कथं भूतो भविष्यसि ।
।
परम्परया पवित्रः परमात्मा भविष्यसि मार्गके साधक व्यवहार मोक्षमार्गको जान। परामें जाकर परमात्मा हो जायेगा ।
हे जीव ! तू निश्चय मोक्षउसको जाननेसे तू पर
६. दोनोंके साध्य साधन मावकी सिद्धि
न च / श्रुत/पृ. ५५ व्यवहारप्रसिद्धयैव निश्चयप्रसिद्धिर्नान्यथेति । सम्यग्द्रव्यागमप्रसाधिततश्वसेवया व्यवहार रत्नत्रयस्य सम्यग्रूपेण सिद्धत्वात् व्यबहारकी प्रसिद्धिके साथ निश्चयकी सिद्धि बतलायी गयी है, अन्य प्रकारसे नहीं, क्योंकि समीचीन द्रव्यागमके द्वारा समीचीन प्रकारसे सिद्ध कर लिये गये तत्त्व के सेवन से व्यवहाररत्नत्रयकी समीचीन सिद्धि होती है।
प. प्र. / टो. / २ /१४/१२/१ अत्राह शिष्यः । निश्चयमोक्षमार्गो निर्वि कल्पः तस्काने सविकल्पमोक्षमार्गे नास्ति कथं साधको भविष्यतीति । अत्र परिहारमाह । भूतने गमनयेन परम्परया भवतीति । अथवा विकल्पनिर्विकल्पभेदेन निश्चयमोक्षमार्गो द्विधा, तत्रानन्तज्ञानरूपोऽहमित्यादि सविकल्पसाधको भवति, निर्विकल्पसमाधिरूपो साध्यो भवतीति भावार्थ: । सविकल्पनिविकल्प निश्चयमोक्षमार्ग
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मोक्षमार्ग प्रकाशक
मोहनीय
विषये संवादगाथामाह-जं पुण सगयं तच्च' सवियप्पं होइ तह य अवियप्पं । सवियप्पं सासवयं निरासवं विगयसंकप्प । प्रश्न -- 'निश्चय मोक्षमार्ग निर्विकल्प है, उसके होते हुए सविकल्प ( व्यवहार) मोक्षमार्ग नहीं होता। तब वह निश्चयका साधक कैसे हो सकता है। उत्तर-भूतनैगमनयकी अपेक्षा परम्परासे वह साधक हो जाता है। अथवा दूसरे प्रकारसे यों समझ लीजिए कि सविकल्प व निर्विकल्पके भेदसे दो प्रकारका मोक्षमार्ग है। तहाँ 'मै अनन्त ज्ञानस्वरूप हूँ' इत्यादि रूप सविकल्प मार्ग तो साधक होता है और निर्विकल्प समाधिरूप साध्य होता है, ऐसा भावार्थ है । (पं का./
ता वृ/१५६/२३०/१०)। प.का /पं. हेमराज/१६१/२३३/१७ - प्रश्न-जो आप हीसे निश्चय,मोक्षमार्ग होय तो व्यवहार साधन किस लिये कहाँ उत्तर-यह आत्मा अनादि अविद्यासे युक्त है, जन काललब्धि पानेसे उसका नाश होय, उस समय व्यवहार मोक्षमार्गको प्रवृत्ति होती है। (तव) अज्ञान रत्नत्रय (मिथ्यादर्शनादि) के नाशका उपाय- सम्यक रत्नत्रयके ग्रहण करनेका विचार होता है। इस विचारके होनेपर जो (अविद्या ) अनादिका ग्रहण था, उसका तो त्याग होता है और जिस (सम्यग्दर्शन ) का त्याग था, उसका ग्रहण होता है। तरपश्चात कभी आचरणमें दोष होय तो दंडशोधनादिक करि उसे दूर करते है, और जिस कालमें शुद्भधात्म-तत्त्वका उदय होता है, तत्र ग्रहण त्यजनकी बुद्धि मिट जाती है . स्वरूप गुप्त होता है। • तब यह जीव निश्चय मोक्षमार्गी कहाता है। इस कारण ही निश्चय व्यवहार मोक्षमार्गको साध्य-साधन भावकी सिद्धि होती है।
ध, १२/४,२,८,८/२८३/8 क्रोध-मान-माया-लोभ-हास्य-रत्यरति-शोकभय-जुगुप्सा-स्त्रीपुंभपुसक्वेद-मिथ्यात्वाना समूहो मोह. -क्रोध. मान, माया, लोभ हास्य, रति, अरति, शोक, भय, जुगुप्सा, स्त्रीवेद. पुरुषवेद, नपुंसक-वेद और मिथ्यात्व इनके समूहका नाम मोह है। ध. १४/५,६ १५/११/१० पंचविहमिच्छत्तं सम्मामिच्छत्तं सासणसम्मत्त
च मोहो। - पंच प्रकारका मिथ्यात्व. सम्यग्मिथ्यात्व, और सासादनसम्यक्त्व मोह कहलाता है। पं. का/त. प्र./१३१ दर्शनमोहनीयविपाककलुषपरिणामता मोह.. दर्शनमोहनीयके विपाकसे जो क्लुषित परिणाम होता है, वह मोह है। चा सा/६/७ मोहो मिथ्यात्वत्रिवेदसहिता प्रेमहास्यादयः। ५
मिथ्यात्व, त्रिवेद, प्रेम, हास्य आदि मोह है। प्र. सा./ता. वृ //९/१२ शुद्वात्मश्रद्धानरूपसम्यक्त्वस्य विनाशको दर्शन
मोहाभिधानो मोह इत्युच्यते। = शुद्धात्मश्रद्धानरूप सम्यक्त्वके विनाशक दर्शनमोहको मोह कहते है। दे. व्यामोह-(पुत्र कलत्रादि के स्नेहको व्यामोह कहते है)।
..मोहके भेद न. च वृ/२६६,३१० असुह मुह चिय कम्मं दुविहं तं दखभाव भेयगये।
त पिय पद्धच्च मोहं स सारो तेण जीवस्स ।२६६। कज्ज पडि जह पुरिसो इक्को वि अणेकरूवमापण्णो । तह मोहो बहुभेओ णिहिट्ठो पच्चयादी हिं ।३१० = शुभ व अशुभके भेदसे अथवा द्रव्य व भावके भेदसे कम दो प्रकारका है। उसकी प्रतीतिसे मोह और मोहसे संसार होता है ।२६। जिस प्रकार एक ही पुरुष कार्यके प्रति अनेक रूपको धारण कर लेता है, उसी प्रकार मिथ्यात्व अबिरति कषाय आदिरूप प्रत्ययोके भेदसे मह भी अनेक भेदरूप है ।३१०॥ प्र सा./त. प्र/८३ मोहरागद्वेषभेदारित्रभूमिको मोह. | - मोह, राग य
द्वेष, इन भेदों के कारण मोह तीन प्रकारका है।
मोक्षमार्ग प्रकाशक-टोडरमल (ई०१७६६) द्वारा रचित हिन्दी भाषाका अनुपम आध्यात्मिक ग्रन्थ है। यह ग्रन्थ अधूरा ही रह गया, क्योकि, विद्वेषियों की चुगलीके कारण पडितजीको अस
मयमे ही अपना शरीर छोड़ना पड़ा। (ती/४/२८६) । मोक्षशास्त्र-दे० तत्त्वार्थसूत्र। मोक्ष सप्तमीव्रत-७ वर्ष पर्यन्त प्रतिवर्ष श्रावण शु ७ को उपवास
करे। 'ओं ह्रीं श्रीपार्श्वनाथाय नम' इस मन्त्रका त्रिकाल जाप्य करे। (व्रत विधान संग्रह)। मोद क्रिया- दे० संस्कार/२। मोष मन-दे० मनोयोग। मोष वचन--देवचन /१,२। ( असत्य)। मोहप्र. सा./मू./८५ अ? अजधागणं करुणाभावो य तिरियमणुएस। बिसएसु च पसंगो मोहस्सेदाणि लिंगाणि । -पदार्थ का अयथा ग्रहण (दर्शनमोह); और तिर्यच मनुष्योके प्रति करुणाभाव तथा विषयोंकी सगति ( शुभ व अशुभ प्रवृत्तिरूप चारित्र मोह ) ये सब मोहके
३. प्रशस्त व अप्रशस्त मोह निर्देश नि. सा/ता. वृ/६ चातुर्वर्ण्यश्रमणसंघवात्सल्यगतो मोहः प्रशस्त इतरोऽप्रशस्त इति। -चार प्रकारके श्रमण संघ के प्रति वात्सल्य सम्बन्धी मोह प्रशस्त है और उससे अतिरिक्त मोह अप्रशस्त है। (विशेष दे० उपयोग/1/४; योग/१)। दे, राग./२ ( मोह भाव ( दर्शनमोह ) अशुभ ही होता है । ) * अन्य सम्बन्धित विषय १. मोह व विषय कषायादिमें अन्तर।। -दे० प्रत्यय/१। २. कषायों आदिका राग व द्वेषमें अन्तर्भाव। -दे० कषाय/४ । ३. मोह व रागादि टालनेका उपाय। -दे० राग/५॥
प्र. सा /मू. व. त. प्र/३ दव्वादिएसु मूढो भावो जीवस्स हव दि मोहोत्ति।-द्रव्यगुणपर्यायेषु पूर्वमुपवाणितेषु पीतोन्मत्तकस्यैव जीवस्य तत्त्वाप्रतिपत्तिलक्षणो मूढोभाव स खलु मोह । - जीवके द्रव्यादि सम्बन्धी मूढभाव मोह है, अर्थात् धतूरा खाये हुए मनुष्यकी भॉति जोवके जो पूर्व वर्णित द्रव्य, गुण, पर्याय हैं, उनमें होनेवाला तत्त्व-अप्रतिपत्तिलक्षण वाला मूढभाव वास्तवमें मोह है। (स.सा/ आ./५१); (द्र स./टी./४८/२०५४६) ।
मोहनीय-आठों कम में मोहनीय ही सर्व प्रधान है, क्योंकि, जीव
के संसारका यही मूलकारण है। यह दो प्रकारका है-दर्शन मोह व चारित्र मोह। दर्शनमोह सम्यक्त्वको और चारित्रमोह साम्यता रूप स्वाभाविक चारित्रको घातता है। इन दोनोके उदयसे जीव भिथ्यादृष्टि व रागी द्वेषी हो जाता है। दर्शनमोहके ३ भेद हैंमिथ्यात्व, सम्यग्मिथ्यात्व और सम्यक्त्वप्रकृति। चारित्रमोहके दो भेद है-कषायवेदनीय और अक्षाय वेदनीय । क्रोधादि चार कषाय है और हास्यादि ६ अकषाय है।
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मोहनीय
३४१
१. मोहनीय सामान्य निर्देश
हास्यादिकी भॉति करुणा अकरुणा आदि प्रकृतियोंका निदेश क्यों नही है। -दे० करुणा/२। कषाय व अकषाय वेदनीयके लक्षण । कषाय व अकषाय वेदनीयमें कथचित समानता।
-दे० संक्रमण/३ । अनन्तानुबन्धी आदि भेदों सम्बन्धी।
-दे० वह वह नाम । | क्रोध आदि प्रकृतियो सम्बन्धी।-दे० कषाय । | हास्य आदि प्रकृतियो सम्बन्धी। बह वह नाम । चारित्रमोहकी सामर्थ्य कषायोत्पादनमे है स्वरूपाचरणके विच्छेदमें नहीं। कषायवेदनीयके बन्धयोग्य परिणाम । अकषायवेदनीयके बन्ध योग्य परिणाम ।
मोहनीय सामान्य निर्देश मोहनीय कर्म सामान्यका लक्षण । मोहनीय कर्मके भेद। मोहनीयके लक्षण सम्बन्धी शंका। मोहनीय व शानावरणीय कर्मों में अन्तर । दर्शन व चारित्र मोहनीयमें कथंचित् जातिभेद ।
-दे० सक्रमण/३ । सबै कर्मों में मोहनीयकी प्रधानता। मोह प्रकृतिमें दशों करणोंकी सम्भावना।
-दे० करण/२। मोह प्रकृतियोंकी बन्ध उदय सत्वरूप प्ररूपणाएँ।
-दे० वह वह नाम । मोहोदयकी उपेक्षा की जानी सम्भव है।
-दे० विभाव/४/२। मोहनीयका उपशमन विधान। -दे० उपशम । * मोहनीयका क्षपण विधान।
-दे०क्षय। मोह प्रकृतियोके सत्कर्मिकों सम्बन्धी क्षेत्र, स्पर्शन, काल, अन्तर, व अल्पबहुत प्ररूपणाएँ।
----दे० वह वह नाम। २ | दर्शनमोहनीय निर्देश
दर्शनमोह सामान्यका लक्षण । दर्शनमोहनीयके भेद । दर्शनमोहकी तीनों प्रकृतियोंके लक्षण ।
तीनों प्रकृतियोंमें अन्तर। ५ | एक दर्शनमोहका तीन प्रकार निर्देश क्यों ।
मिथ्यात्व प्रकृतिका बिधाकरण। -दे० उपशम/२। मिथ्यात्व प्रकृतिमेंसे मिथ्यात्वकरण कैसा ? सम्यक् प्रकृतिको 'सम्यक्' व्यपदेश क्यों ? सम्यक्त्व व मिथ्यात्व दोनोंको युगपत् वृत्ति कैसे ? सम्यक्त्व व मिश्र प्रकृतिको उलना सम्बन्धी।
-दे० संक्रमण/४। सम्यक्त्व प्रकृति देश पाती कैसे।-दे० अनुभाग/४/६/३|| मिथ्यात्व व सम्यग्मिथ्यात्वमेंसे पहले मिथ्यात्वका क्षय होता है।
-दे०क्षय/२। मिथ्यात्वका क्षय करके सम्यग्मिथ्यात्वका क्षय करनेवाला जीव मृत्युको प्राप्त नहीं होता।
-दे० मरण/३। दर्शनमोहनीयके बन्ध योग्य परिणाम । *दर्शनमोहके उपशमादिके निमित्त।
-दे० सम्यग्दर्शन/II/ चारित्रमोहनीय निर्देश
चारित्रमोहनीय सामान्यका लक्षण । २ चारित्रमोहनीयके भेद-प्रमेद ।
१. मोहनीय सामान्य निर्देश
१. मोहनीय कर्म सामान्यका लक्षण स. सि /८/४/३८०/५ मोहयति मोह्यतेऽनेति वा मोहनीयम्। -जो
मोहित करता है या जिसके द्वारा मोहा जाता है वह मोहनीय कम है। (रा. वा/८/४/२/५६८/१), (ध ६/१,६-१,८/११/५,७), (ध. १३/५.५.१६/२०८/१०), (गो, क /जी.प्र./२०/१३/१५)। द्र. सं./टी./३३/१२/११ मोहनीयस्य का प्रकृतिः। मद्यपानवधेयोपादेयविचार विकलता। = मद्यपानके समान हेय-उपादेय ज्ञानकी रहितता, यह मोहनीयकर्म की प्रकृति है। (और भी-दे० प्रकृतिबन्ध/३/१)।
२. मोहनीयकमके भेद-१. दो. या २८ मेद : ष. ख.६/१,६-६/सू. १९-२०/३७ मोहणीयस्स कम्मस्स अट्ठावीस पयडीओ ।१६जं तं मोहणीय कम्मं तं दुविह, देसणमोहणीयं चारित्तमोहणीयं चेव १२० -१. मोहनीय कर्मकी २८ प्रकृतियाँ है।१६। (ष. ख. १२/४,२,१४/सूत्र १०/४८२); (प. ख, १३/५,५/सूत्र ६०/३५७ ); (म. व १/५/२८/२); (विशेष दे० आगे दर्शन व चारित्रमोहकी उत्तर प्रकृतियाँ)। २. मोहनीयकर्म दो प्रकारका है-दर्शन मोहनीय और चारित्र मोहनीय । (ष. ख. १३/५.६/सूत्र ११/३५७ ); (मू. आ/१२२६); (त. सू/८/8); (पं.स/प्रा/२/४ व उसको मूल व्याख्या ); (गो. क/जो./प्र/२५/१७/६); ( पं. ध./उ./ ६८५)। गो. क./जी. प्र/३३/२७/१८ दर्शनमोहनीयं चारित्रमोहनीयं कषायवेदनीय नोकषायवेदनीय इति मोहनीयं चतुर्विधम् । - दर्शनमोहनीय, चारित्रमोहनीय, कषायवेदनीय और अकषाय वेदनीय, इस प्रकार मोहनीय कर्म चार प्रकारका है।
२. असंख्यात भेद घ. १२/४,२,१४,१०/४८२/६ पज्जवठ्ठियणए पुण अवल बिज्जमाणे मोह
णीयस्स असंखेज्जलोगमेत्तीयो होति, असखेज्जलोगमेत्तउदयट्ठाणग्णहीणुववत्तीदो। -पर्यायाथिक नयका अवलम्बन करनेपर तो मोहनीय कर्मकी असंख्यात लोकमात्र शक्तियाँ है, क्यों कि, अन्यथा उसके असंरण्यातलोक मात्र उदयस्थान बन नही सकते।
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मोहनीय
३४२
२. दर्शन मोहनीय निर्देश
३. मोहनीयके लक्षण सम्बन्धी शंका ध. ६/१,६-१,८/११/५ मुह्यत इति मोहनोयम् । एवं संते जीवस्स मोहणीयत्तं पसज्जदि ति णासंकणिज्जं, जीवादो अभिणम्हि पोग्गलदव्वे कम्मसण्णिदे उवयारेण कत्तारत्तमारोविय तधाउत्तोदो। अथवा मोह्यतीति मोहनीयम् । एवं संते धत्तूर-सुराकलत्तादोण पि मोहणीयत्तं पसज्जदीदि चे ण, कम्मदव्वमोहणीये एत्थ अहियारादो। ण कम्माहियारे धत्तूर-मुरा-कलत्तादीणं संभवो अस्थि । =प्रश्न-'जिसके द्वारा मोहित होता है, वह मोहनीय कर्म है। इस प्रकारकी व्युत्पत्ति करने पर जीवके मोहनीयत्व प्राप्त होता है। उत्तर-ऐसी आशका नहीं करनी चाहिए, क्योकि, जीवसे अभिन्न और 'कर्म' ऐसी सज्ञावाले पुद्गल द्रव्यमें उपचारसे कर्तृत्वका आरोपण करके उस प्रकारकी व्युत्पत्ति की गयी है। प्रश्न-अथवा 'जो मोहित करता है वह मोहनीय कर्म है', ऐसी व्युत्पत्ति करने पर धतूरा, मदिरा और भार्या आदिके भी मोहनीयता प्रसक्त होती है। उत्तर-नहीं, क्योंकि, यहाँ पर मोहनीय नामक द्रव्यकर्मका अधिकार है। अतएव कर्मके अधिकारमें धतूरा, मदिरा और स्त्री आदिको सम्भावना नहीं है। १. मोहनीय व ज्ञानावरणी कर्मों में अन्तर रा, वा./८/४-५/५६८/१३ स्यादेतत्-सति मोहे हिताहितपरीक्षणाभावात ज्ञानावरणाद विशेषो मोहस्येति; तन्न, कि कारणम् । अर्थान्तरभावात् । याथात्म्यमर्थस्यावगम्यापि इदमेवेति सद्भतार्थाश्रद्धानं यतः स मोह.। ज्ञानाबरणेन ज्ञान तथान्यथा वा न गृह्णाति ।४। यथा भिन्नलक्षणाङ्करदर्शनात् बीजकारणान्यत्वं तथैवाज्ञानचारित्रमोहकार्यान्तरदर्शनाव ज्ञानावरणमोहनीयकारणभेदोऽवसीयते। - प्रश्न-मोहके होनेपर भी हिताहितका विवेक नही होता, अत' मोहको ज्ञानावरणसे भिन्न नहीं कहना चाहिए। उत्तर-पदार्थका यथार्थ बोध करके भी 'यह ऐसा ही है। इस प्रकार सद्भूत अर्थका अश्रद्धान (दर्शन) मोह है, पर ज्ञानावरणसे ज्ञान तथा या अन्यथा ग्रहण ही नहीं करता, अत. दोनों में अन्तर है ।४। (पं.ध/उ./EEE-१०) जैसे अकुररूप कार्यके भेदसे कारणभूत बीजों में भिन्नता है उसी तरह अज्ञान और चरित्रभू० इन दोनोंमें भिन्नता होनी ही चाहिए। ५. सर्व कर्मोंमें मोहनीयकी प्रधानता घ. १/१,१,१/४३/१ अशेषदुःखप्राप्तिनिमित्तत्वादरिर्मोह। तथा च
शेषकर्मव्यापारो वैफल्यमुपादेयादिति चेन्न, शेषकर्मणां मोहतन्त्रत्वात् । न हि मोहमन्तरेण शेषकर्माणि स्वकार्यनिष्पत्ती व्यापृतान्युपलभ्यन्ते येन तेषां स्वातन्त्र्यं जायेत । मोहे विनष्टेऽपि कियन्तमपि कालं शेषकर्मणा सत्त्वोपलम्भान्न तेषा तत्तन्त्रत्व मिति चेन्न, विनष्टेऽरौ जन्ममरणप्रबन्धलक्षणसंसारोत्पादसामर्थ्यमन्तरेण तत्सत्त्वस्यासत्त्वसमानत्वात् केवलज्ञानाद्यशेषात्मगुणाविर्भावप्रतिबन्धनप्रत्ययासमर्थत्वाच्च। -समस्त दुखोकी प्राप्तिका निमित्तकारण होनेसे मोहको 'अरि' अर्थात् शत्रु कहा है । प्रश्न-केवल मोहको ही अरि मान लेनेपर शेष कर्मोंका व्यापार निष्फल हो जाता है। उत्तर-ऐसा नहीं है, क्योंकि बाकीके समस्त कर्म मोहके ही अधीन है। मोहबिना शेष कर्म अपने-अपने कार्यकी उत्पत्तिमे व्यापार करते हुए नहीं पाये जाते है, जिससे कि वे स्वतन्त्र समझे जायें। इसलिए सच्चा अरि मोह ही है और शेष कर्म उसके अधीन है। प्रश्नमोहके नष्ट हो जानेपर भी कितने ही काल तक शेष कोंकी सत्ता रहती है, इसलिए उनको मोहके अधीन मानना उचित नहीं है। उत्तर-ऐसा नही समझना चाहिए, क्योंकि, मोहरूप अरिके नष्ट हो जानेपर, जन्म मरणकी परम्परा रूप संसारके उत्पादनकी सामर्थ्य
शेष कर्मों में नहीं रहनेसे उन कर्मोंका सत्त्व-असत्त्वके समान हो जाता है । (पं. ध /उ./१०६४-१०७०)। २. दर्शनमोहनीय निर्देश
1. दर्शनमोह सामान्यका लक्षण स सि /८/३/३७६/१ दर्शनमोहस्य तत्त्वार्थाश्रद्धानम् ।......तदेवं लक्षणं कार्य-'प्रक्रियते प्रभवत्यस्या इति प्रकृति'-तत्त्वार्थ श्रद्धान न होने देना दर्शनमोहकी प्रकृति है। इस प्रकारका कार्य किया जाता है अर्थात् जिससे होता है बह प्रकृति है। (रा. वा./८/३/४/५६७/४); (और भो दे० मोह/१)। ध. ६/१,६-१.२१/३८/३ दंसणं अत्तागम-पत्थेसु रुई पञ्चओ सधा
फोसणमिदि एयट्ठो तं मोहेदि विवरीयं कुणदि ति दसणमोहणीयं । जस्स कम्मस्स उदएण अणत्ते अत्तबुद्धी. अणागमे आगमबुद्धी, अपयत्थे पयत्थबुद्धी, अत्तागमपयत्थेस सदाए अस्थिरतं, दोसु वि सद्धा वा होदि तं दंसणमोहणीयमिदि उत्तं होदि । - १. दर्शन, रुचि, प्रत्यय, श्रद्धा और स्पर्शन, ये सब एकार्थवाचक नाम है। आप्त या आत्मामें, आगम और पदार्थों में रुचि या श्रद्धाको दर्शन कहते है। उस दर्शनको जो मोहित करता है, अर्थात् विपरीत कर देता है, उसे दर्शनमोहनीय कर्म कहते है। (ध.१३/१, १,६१/३५७/१३) । २. जिस कमके उदयसे अनाप्तमें बाप्तबुद्धि, और अपदार्थ में पदार्थ बुद्धि होती है; अथवा आप्त आगम और पदार्थों में श्रद्धानकी अस्थिरता होती है; अथवा दोनो में भी अर्थात आप्तअनाप्तमें, आगम-अनागममें और पदार्थ-अपदार्थ में श्रद्धा होती है, वह दर्शनमोहनीयकर्म है, यह अर्थ कहा गया है।। पंध/उ /१००५ एवं च सति सम्यक्त्वे गुणे जीवस्य सर्वत । तं मोह
यति यत्कर्म दृड्मोहाख्यं तदुच्यते ।१००५ - इसी तरह जीवके सम्यक्त्वानामक गुणके होते हुए जो कर्म उस सम्यक्त्व गुणको सर्वतः मूछित कर देता है, उसे दर्शनमोहनीय कर्म कहते है।
२. दर्शन मोहनीयके भेद ष. ख ६/१,६-१/सूत्र २१/३८ जंतं दसणमोहणीय कम्मं तं बंधादो एयविहं, तस्स सत्तकम्म पुणतिविहं सम्मत्तं मिच्छत्त सम्मामिच्छत्त चेदि ॥२१ जो दर्शनमोहनीय कर्म है, वह बन्धकी अपेक्षा एक प्रकारका है, किन्तु उसका सत्कर्म तीन प्रकारका है-सम्यक्त्व, मिथ्यात्व और सम्यग्मिथ्यात्व ।२१। (ष ख. १३/५,५/सूत्र ६२-६३/ ३५८); (मू. आ./१२२७); (त सू./८/१), (पं.सं/प्रा./२/४ गाथा व उसकी मूल व्याख्या ), (स सि./२/३/१५२/८); (रा वा./२/३/ १/१०४/१६), (गो. क./जी. प्र./२/१७/8% ३३/२७/१८); (प.ध./ उ./१८६) ।
३. दर्शनमोहकी तीनों प्रकृतियोंके लक्षण स सि./८/४/३८५५ यस्योदयात्सर्वज्ञप्रणीतमार्गपराड्मुखस्तत्त्वार्थश्रद्धाननिरुत्सुको हिताहितविचारासमर्थो मिथ्याष्टिभवति तन्मिथ्यात्वम् । तदेव सम्यक्त्वं शुभपरिणाम निरुद्धस्वरसं यदौदासीन्येनावस्थितमात्मन श्रद्धानं न निरुणद्धि, तद्वद्यमान' पुरुषः सम्यरदृष्टिरित्यभिधीयते। तदेव मिथ्यात्वं प्रक्षालनविशेषारक्षीणाक्षीणमदशक्तिकोद्रववत्सामिशुद्धस्वरसं तदुभयमिथ्याख्यायते सम्यड्मिथ्यात्वमिति यावत्। यस्योदयादात्मनोऽर्ध शुद्धमदकोद्रवौदनोपयोगापादितमिश्रपरिणामवदुभयात्मको भवति परिणाम । -१. जिसके उदयसे जीव सर्वज्ञप्रणीत मार्ग से विमुख, तत्त्वार्थोके श्रद्धान करने में निरुत्सुक, हिताहितका विचार करने में असमर्थ ऐसा मिथ्यादृष्टि होता है वह मिथ्यात्व दर्शनमोहनीय है। २. वही मिथ्याव जब शुभ परिणामोके कारण अपने स्वरस (विपाक ) को रोक देता
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मोहनीय
है, और उदासीन रूपसे अवस्थित रहकर आत्माके श्रद्धधानको नहीं रोकता है तब सम्यक्त्व ( सम्यप्रकृति है। इसका वेदन करनेवाला पुरुष सम्यग्दृष्टि कहा जाता है । ३, वही मिथ्यात्व प्रक्षालन विशेषके कारण क्षीणाक्षीण मदशक्तिवाले कोदों के समान अर्थशुध स्वरसवाला होनेपर भय या सम्यग्मिथ्यात्व कहा जाता है। इसके उदयसे अर्ध शुद्रध मदशक्तिवाले कोदों और ओदनके उपयोगसे प्राप्त हुए मिश्रपरिणामके समान उभयात्मक परिणाम होता है। (रा.वा./८/१/२/४०४/३) ( गो . जी. प्र./२३/२७/११ ) ( और श्री दे० आगे शीर्षक नं. ४) ।
४. तीनों प्रकृतियोंमें अन्तर
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ध. ६/१,१-१,२१/३१/१ अत्तागम- पदत्यसद्वधाए जस्सोदरण सिथिल सं होदि सम्म ..जस्सोदरण अन्तागम पर असधा होदि तपश्मिमय अ
तं मिच्छतं । जस्सोदरण अत्तागमपयरथे
मेन सहधा उपव्यदि तं सम्मामिच्छतं । घ. ६/१,६-८,७/२३५/१ मिच्छत्ताणुभागादो सम्मामिच्छत्ताणुभागो गुणीषो रातो सम्माभागो अनंतगुणहीणो चि पाहुड मिहिड़ादो, जिस कर्म के उदयसे आाप्त, बागम व पदार्थोंकी भामे शिविकता ( व अस्थिरता) होती है वह सम्यक्त्व प्रकृति है । जिस कर्मके उदयसे आप्त, आगम और पदार्थोंमें अश्रद्धा होती है, वह मिध्यात्व प्रकृति है । जिस कर्मके उदय से आप्त, आगम और पदार्थोंमें, तथा उनके प्रतिपक्षियों अर्थात् कृपेन, कुशास्त्र और कुतत्त्वोने, युगपद भया उत्पन्न होती है वह सम्यग्मिथ्यात्व प्रकृति है। (भ. १२/२-२२३/२४० / १०:२५३/३) २ मिध्याकर्मके अनुभाग सम्यग्मिल कर्मका अनुभाग अनन्तगुणा होन होता है, और सम्यग्मिथ्यात्व कर्मके अनुभाग सम्पन्न प्रकृतिका अनुभाग अनन्तगुणा हीन होता है' ऐसा प्राभूतसूत्र अर्थात कषायप्राभृतके पूर्णसूत्रोंमें निर्देश किया गया है (दे० अनुभाग /४/५ ( और भी दे० र २१
५. एक दर्शनमोहका तीन प्रकार निर्देश क्यों
घ. १३/२२-२३/३५८/० कथं बंधकाले एगविहं मोहनीयं संसावस्थाए विनिहं पडियज्जदे ण एस दोसी, एक्सस्सेव कोइक्स्स दसिज्जमागस्य एगकाले एगक्रिया बिसेसे व्रत को भाव
भादो । होदु तत्थ तथाभावो सकिरियजंत संबंधेण । ण एत्थ
अपिठकरणसहिजीवघेण एगविहस्त मोहणीयस्स तथा विभावविरोधादो प्रश्न- १. जो मोहनीयकर्म बन्ध कालमें एक प्रकारका है, वह सत्त्वावस्थामें तीन प्रकारका कैसे हो जाता है । उत्तर - यह कोई दोष नहीं है, क्योंकि, दला जाने वाला एक ही प्रकारका कोदों द्रव्य एक कालमें एक क्रियाविशेषके द्वारा चावल, आधे चावल और कोदों, इन तीन अवस्थाओंको प्राप्त होता है । उसी प्रकार प्रकृतमें भी जानना चाहिए। (ध. ६/१,६-१,२१/३८/ ७ ) । प्रश्न- वहाँ तो क्रिया युक्त जाँते (चक्की) के सम्बन्धसे उस प्रकारका परिणमन भले ही हो जाओ, किन्तु यहाँ बेसा नहीं हो सकता। उत्तर- नहीं, क्योंकि यहाँपर भी अनिवृत्तिकरण सहित जीवके सम्बन्धसे एक प्रकारके मोहनीयका तीन प्रकार परिणमन होने में कोई विरोध नहीं है।
६. मिथ्यात्व प्रकृतिमेंसे भी मिथ्यात्वकरण कैसा ? गो.क./जी. प्र. / २६ / ११ / १ मिथ्यात्वस्य मिध्यात्वकरणं तु अतिस्थामालिया पूर्व स्थितानितमित्यर्थः प्रश्न मिथ्या तो था हो, उसको मिथ्यात्वरूप क्या किया । उत्तर-पहले जो स्थिति थी उसमें से अतिस्थापनावली प्रमाण घटा दिया । अर्थात् असंख्यातगुणा हीन अनुक्रमसे सर्व प्रम्प के तीन खण्ड कर दिये। उनमें से जो
३. चारित्रमोहनीय निर्देष
पहले सबसे अधिक द्रव्यखण्ड है वह 'मिध्याल' है ऐसा अभिप्राय है (गो, जी./जी. प्र. ७०४ / १९४१ / १३) ।
७. सम्यक्प्रकृति को 'सम्यक्' व्यपदेश क्यों
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प. ६/९.१ १.२९/३१/२ कथं तस्य सम्मत्तववरेसो सम्मतसहचरिदोदयत्तादो उबयारेण सम्मत्तमिदि उच्चदे । प्रश्न - इस प्रकृतिका 'सम्यक्त्व' ऐसा नाम कैसे हुआ। उत्तर- सम्यग्दर्शनके सहवरित उदय होनेके कारण उपचारसे 'सम्यक्त्व' ऐसा नाम कहा जाता है । (ध. १ / १,१.१४६ / ३६८/२); (ध. १३/५,५,९३/३५८/११) । ८. सम्यक्त्व व मिथ्यात्व दोनोंकी युगपत् वृत्ति कैसे
भ. १३/२२-२३/३१/२ कप दोनां निरुद्धा भाषागमक्यमेण एयजीवदव्वहि वृत्ती । ण, दोष्णं संजोगस्स कथंचि जच्चतरस्स कम्मट् उवणस्सेव (1) दुतिविरोहाभावादो प्रश्न सम्यमरव और मिथ्यात्व रूप इन दो विरुद्ध भावोंकी एक जीव द्रव्यमें एक साथ वृत्ति कैसे हो सकती है। उत्तर-नहीं, क्योंकि (1) क्षीमाक्षीण मदशक्ति युक्त कोदों, के समान उक्त दोनो भावोंके कथंचित् जात्यन्तरत संयोग के होनेमें कोई विरोध नहीं है (विशेष दे० मिश्र / २ / ६ ) ।
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९. दर्शनमोहनी के बन्ध योग्य परिणाम .सू./८/१३
संवधर्मदेवाना दर्शनमोहस्य केवली श्रुत, संघ, धर्म और देव इनका अवर्णवाद दर्शनमोहनीय कर्मका आस्रव है। (त. सा./४/२७ ) ।
त. सा./४/२० मार्गदूषणं चैन राथैयोन्मादेिशनम् उपरोक्त अतिरिक्त सस्य मोक्षमार्गको दूषित ठहराना और असत्य मोक्षमार्गको सच्चा बताना ये भी दर्शनमोहके कारण है ।
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३. चारित्रमोहनीय निर्देश
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१. चारित्र मोहनीय सामान्यका लक्षण स.सि./८/३/२०१२ चारित्रमोहस्यासंयम असंयमभाव चारित्रमोहकी प्रकृति है (रा. वा./८/२/४:५६०/४ ) 1 घ. २/१.१ १.२२/२२/४०/२ पापक्रियानि सिरपारिश्रस्वादिकम्माणि पावं । तेसि किरिया मिच्छत्तासं जमकसाया । तेसिमभावो चारितं । तं मोहेर आवारेदिति पारितमोहणीयं पापरूप क्रियाओंकी निवृत्तिको चारित्र कहते है। पातिया कर्मोंको पाप कहते हैं। मिथ्यात्व असंयम और कषाय, ये पापकी क्रियाएं हैं। इन पापक्रियाओके अभावको चारित्र कहते हैं। उस चारित्रको जो मोहित करता है, अर्थात् आच्छादित करता है, उसे चारित्रमोहनीय कहते है । ( पं. ध /उ. / २००६ ) ।
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ध. १३/५०५.१२/३५८/१ रागभावो चरितं तस्स मोहयं तप्पडिक्क्खभानुप्यावयं चारिणमोहणीयं रागका न होना चारित्र है उसे मोहित करनेवाला अर्थात् उससे विपरीत भावको उत्पन्न करनेवाला कर्म चारित्रमोहनीय कहलाता है। गो.क./जी. प्र./१२/२७/२० चरति चर्यतेऽनेनेति चरणमात्रं या चारित्रं, तन्मोहयति मुह्यतेऽनेनेति चारित्रमोहनीयं । -जो आचरण करता अथवा जिसके द्वारा आचरण किया जाता है अथवा आचरणमात्र चारित्र है । उसको जो मोहित करता है अथवा जिसके द्वारा मोहित किया जाता है सो चारित्रमोहनीय है।
२. चारित्रमोहनीयके भेद-प्रभेद
ख. ६/११-१/२२-२४/४०-४५ तं चारितमोहणीयं कम् तं दुविहं कवायदणीयं चैव पोकसायवेदणी
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मोहनीय
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कसायदणीय कम्मं तं सोलसहि अनंताबाधको हमाणमायासोई, अपचवाणावरणीयको मा माया लोहं पञ्चवाणावरणीयको माग-माया कोण माणसंजणं, मायासंजजल दि २३॥ [ से शोकसागवेदनीय कम्म गवि इरिथवे पुरिसवेदं ण समवेदं हस्त-रदि-अरदि-सोगभवदुषादि २४] - जो चारित्रमोहनीय कर्म है वह दो प्रकारका है- कषाय वेदनीय और नोकषाय वेदनीय २२ - जो कषायवेदनीय कर्म है यह १६ प्रकारका है अनन्तानुवन्धी क्रोध, मान, माया, लोभ; अप्रत्याख्यानावरणीय क्रोध, मान, माया, लोभ; प्रत्याख्यानावरणीय क्रोध, मान, माया, लोभ, क्रोधसंज्वलन, मानसंज्वलन, मायासंज्वलन, और २३-जो मोकषायवेदनीय कर्म है वह भी प्रकारका है - स्त्रीवेद, पुरुषवेद, नपुंसक वेद हास्य, रति, अरति शोक, भय और जुगुप्सा २४ प. स. १२/२.२ / सूत्र ६४-१६ २५-२६१); (सू. आ / १२२६-१२२१ ) ( सू /-/ १) (पं. स प्रा./२/४ व उसकी व्याख्या ); (गो. क/जी प्र./२६/१६/३: ३३/२७/ २३), (१००६-१००७)।
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३. कषाय व अकपायवेदनीयके लक्षण
घ. १३/५५,६४/३५६/७ जस्स कम्मस्स उदएण जीवो कसायं वेदर्याद तं कम्मे कसायवेदणीयं णाम । जस्स कम्मस्स उदरण जीवो णोकसायं वेदयदि तं णोकसायवेदणीयं णाम । जिस कर्मके उदयसे जीव कषायका वेदन करता है वह कषायवेदनीय कर्म है। जिस कर्मके उदयसे जीव मायावेदन करता है, वह नोकवाय वेदनीय कर्म है ।
४. चारित्रमोहक सामर्थ्य कषायोपादनमें है स्वरूपाचरणके विच्छेद में नहीं
पं. ध. /उ. श्लोक नं कार्य चारित्रमोहस्य चारित्रयतिरात्मनः । नात्मदृष्टेस्तु दृष्टित्वान्न्यायादितरदृष्टिवत | ६० कषायाणामनुब्रेकश्चारित्र तावदेव हि । नानुद्रेक कषायाणां चारित्राच्युतिरात्मन । ६१२ अस्ति चारित्रमोऽपि शक्ति निसर्गत एक चासंयतव्यं स्यात् कषायत्वमथापरम् | ११३१ | यौगपद्य द्वयोरेव कषायासयत - वयोः । सम शक्तिद्वयस्योच्चै कर्मणोऽस्य तथोदयात् | ११३७॥ न्यायानुसार आत्माको चारित्रसे च्युत करना ही चारित्रमोहका कार्य है, किन्तु इतरकी दृष्टि के समान दृष्टि होनेसे शुद्धात्मानुभवसे च्युत करना चारित्रमोहका कार्य नहीं है | १०| निश्चयसे जितना कमायो का अभाव है, उतना ही चारित्र है और जो कषायोका उदय है वही आत्माका चारित्रले युत होना है । ६६२॥ चारित्र मोहमें स्वभाव । दो प्रकारकी शक्तियाँ हैं- एक असंयतत्वरूप और [दूसरी कषायत्वरूप | ११३१ | इन दोनो कषाय व असंयत पनेमें युगपतता है, क्योंकि, वास्तव में युगपत् उक्त दोनो ही शक्तिवाले इस कर्मका ही उस रूपसे उदय होता है | ११३१ ॥
५. कषायवेदनीयके बन्धयोग्य परिणाम
स. सि./६/१४/३३२/८ स्वपरकषायोत्पादनं तपस्विजन वृत्तदूषणं संक्लिष्टलिङ्गतधारणादि कषायवेदनीयस्यास्रव' । स्वयं कषाय करना, दूसरोमे कषाय उत्पन्न करना, तपस्वीजन के चारित्रमें दूषण लगाना, क्लेशको पैदा करनेवाले लिग (वेष ) और व्रतको धारण करना आदि कषाय वेदनीयके आसव है । रामा/६/१४/३/२२६/६ जगदनुपहतचशीसमभावितात्मतपि
गज-धर्मावणं तदन्तराकरणशीलन समितियावनमधुमद्यमांसविरतपित्तविभ्रमापादन] वृशसंदूषण --
धारणस्यपरकषायोदकपायवेदनीयस्यासमः -
३४४
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मौद्गलायन
दुपकारी शीलवती तपस्वियोंकी निन्दा, धर्मध्वंस, धर्म में अन्तराय करना, किसीको शीलगुण देशयम और सकलसंयमसे च्युत करना, मद्य मास आदिसे विरत जीवोंको इससे विचकाना, चरित्रदूषण क्लेशोत्पादक मठ और वैषोंका धारण, स्व और परमें कथायोंका उत्पादन आदि कषायवेदनीय के आसव के कारण हैं ।
६. अकषायवेदनीयके बन्धयोग्य परिणाम
रा. वा. / ६ /१४/३/५२५/८ उत्प्रहासादीनाभिहासित्व- कन्दर्पो पहसनबहुलपोपहासशीलता हास्यवेदनीयस्य निचित्रपरक्रीडन परसौचित्यावर्जन-मपी भाव- देशापौरपयप्रीतिजननादिरतिवेदनीयस्य । परतिप्रादुर्भावनतिविनाशन- पापशीतसताकुल क्रियात्साहनादि अरतिवेदनीयस्य स्वशोकामोदशोचनपरखाविष्करण शोकाभिनन्दनादि शोकवेदनीयस्य स्वयं भयपरिणामपरभयोत्पादन निर्दयत्यत्रासनादिर्भय वेदनीयस्य । सद्धर्मापचतुर्वर्णविशिष्टवर्ग कुल क्रिया चारप्रवणजुगुप्सा परिवादश्रीदर्जुगुप्सादनीयस्य प्रकृष्टको परिणामातिमानितेष्यव्यापारालीकाभिधायिता - तिसन्धानपरत्व - प्रवृद्धराग - पराङ्गनागमनादर-वामलोचनाभावाभिष्वङ्गतादि स्त्रीवेदस्य स्तोकोष-पेनिवृत्त्यनुत्सिक्तरवा लोभभावा अनासमवायात्परागत्व - स्वदारसंतोषेर्ष्याविशेषोपरमस्नानगन्धमाव्याभरणानादरादि चंवेदनी
यस्य ।
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प्रचुरकोधमानमायालोभपरिणाम गुह्येन्द्रियव्यपरोपणस्त्रीव्यसनीलम गुणधारिया) पुनर नामस्कन्दनगतीमानाचारादिर्मक वेदनीयस्य । - उत्प्रहास, दीनतापूर्वक हँसी कामविकार पूर्वक हँसी बहुप्रलाप तथा एककी हंसी मजाक करना हास्यवेदनीयके आसवके कारण है। विभिन क्रीडा, दूसरेके free आकर्षण करना, बहूपीडा देशादिके प्रति अनुत्सुकता, प्रीति उत्पन्न करना रतिवेदनीयके आसवके कारण हैं । रतिविनाश, पापशील व्यक्तियोंकी संगति, अकुशल क्रियाका प्रोत्साहन देना आदि अरतिवेदनीयके आसन के कारण है। स्वशोक, प्रीतिके लिए परका शोक करना, दूसरोंको दुःख उत्पन्न करना, शोक का अभिनन्दन आदि शोकवेदनीयके आपके कारण है। स्वयं भयभीत रहना, दूसरोंको भय उत्पन्न करना, निर्दयता त्रास आदि भयवेदनीयके आसवके कारण है। धर्मात्मा चतुर्वर्ण विशिष्ट वर्ग कुल आदिकी क्रिया और आचारर्म तत्पर पुरुषोंसे ग्लानि करना, दूसरेकी बदनामी करनेका स्वभाव आदि जुगुप्सावेदनीयके आसवके कारण है अत्यन्त कोमके परिणाम, अतिमान, अत्यन्त ईर्ष्या, मिथ्याभाषण, छल कपट तीबराग, परंगनागमन, स्त्रीभावो में रुचि आदि स्त्री आपके कारण है। मन्दक्रोध, कुटिलता न होना, अभिमान न होना, निर्लोभ भाव, अल्पराग, स्वदारसन्तोष, ईर्ष्या-रहित भाव, स्नान, गन्ध, माला, आभरण आदिके प्रति आदर न होना आदि पुंवेदके आसवके कारण है। प्रचुर कोच मान माया लोभ, गुप्त इन्द्रियोका विनाश, स्त्री पुरुषोंमें अनंगकीदादा व्यसन, शीलवत गुणधारी और दीक्षाधारी पुरुषोंको बिचकाना, परस्त्रीपर आक्रमण, तीव्र राग, अनाचार आदि नपुंसक वेद के आसके कारण है ( स. सि /६/९/२३२/६)।
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मौखयं स सि./०/१२/२०० / ९ पाप्रायं यरिकचनानर्धक महूप्रलापित्वं मौखर्यम् । धोठताको लिये हुए नि सार कुछ भी बहुत बकवास करना मौखर्य है ( रा. ना./०/१२/२/५५६/२०)। मौद्गलायन - १. भगवाद पार्श्वनाथको शिष्य परम्परा में एक बड़े जैन आचार्य थे। पीछे महात्मा बुद्धके शिष्य हो गये और बोधमतका प्रवर्तन किया । 'महावग्ग' नामक बौद्ध ग्रन्थ के अनुसार आप बुद्धदेन के प्रधान शिष्य थे। इन्हे संजय नामके राजकने महात्मा
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मौन
मलेच्छ
बुद्धका शिष्य होनेसे रोका था। (द.सा /पृ. २६/प्रेमी जी), (धर्म परीक्षा/६)१२. एक क्रियावादी-दे० क्रियावाद ।
अधिक प्रशसनीय है। रसायन (औषध) सदा हित करनेवाला होता है और फिर रोग हानेपर तो पूछना ही क्या है। व्रतविधान सग्रह/पृ. ११२। मौनव्रतकथासे उद्धृत-यहाँ मौनव्रतका
कथन है। भोजन, वमन, स्नान, मैथुन, मलक्षेपण और जिन पूजन इन सात कर्मोमे जीवन पर्यन्त मौन रखना नित्य मौनव्रत कहलाता है।
५. मौनावलम्बी साधुके बोलने योग्य विशेष अवसर दे. अपवाद/३ (दूसरेके हितार्थ साधुजन कदाचित् रात्रिको भी बोल
लेते है।) दे. वाद-(धर्मकी क्षति होती देखे तो बिना बुलाये भी बोले । ) दे. अथालंद-(मौनका नियम होते हुए भी अथालंद चारित्रधारी साधु रास्ता पूछना, शंकाके निराकरणार्थ प्रश्न करना तथा वसतिका
के स्वामीसे घरका पता पूछना-इन तीन विषयो में बोलते है।) दे. परिहार विशुद्धि-(धर्मकार्यमें आचार्य से अनुज्ञा लेना, योग्य ब
अयोग्य उपकरणो के लिए निर्णय करना, तथा किसीका सन्देह दूर करनेके लिए उत्तर देना इन तीन कार्योंके अतिरिक्त वे मौनसे रहते
* मौनव्रतके अतिचार-दे० गुप्ति/२/१ ।
स. श./१७ एवं त्यक्त्वा बहिर्वावं त्यजेदन्तरशेषत'। एष योगा समासेन प्रदीप परमात्मन' १७४ - इस प्रकार (दे० अगला शीर्षक) बााकी बचन प्रवृत्तिको छोडकर, अन्तरंग वचन प्रवृत्तिको भी पूर्णतया छोड देना चाहिए। इस प्रकारका योग ही सक्षेपसे परमात्मा
का प्रकाशक है। नि. सा./ता वृ/१५५ प्रशस्ताप्रशस्तसमस्तवचनरचनां परित्यज्य... मौनव्रतेन साधं.-।-प्रशस्त व अप्रशस्त समस्त वचन रचनाको छोड़कर मौनव्रत सहित (निजकार्य की साधना चाहिए।)
२. मौन व्रतका कारण व प्रयोजन मो. पा./न./२६ जं मया दिस्सदे रूबण जाणादि सम्वहा । जाणगं दिस्सदे णतं तम्हा जंपेमि केण हे २६ । जो कुछ मेरे द्वारा यह माह्य जगत में देखा जा रहा है, वह तो जड़ है, कुछ जानता नहीं। और मै यह ज्ञायक हूँ वह किसीके भी द्वारा देखा नही जाता। तम मै किसके साथ बोलू । (स, श./१८)। सा.ध./४/३४-३६ गृहध्यै हुंकारादिसज्ञा संक्लेशं च पुरोनुग। मुश्चन्मौनमदन कुर्यात्तप-संयमबृ हणम् ॥३४. अभिमानागृद्धिरोधाद्वर्धयते तप । मौन तनोति श्रेयश्च श्रुतप्रश्रयतायनात् ।३॥ शुद्धमौनात्मनः सिद्ध्या शुक्लध्यानाय कल्पते। वासिद्धया युगपत्साधुस्त्रैलोक्यानुग्रहाय च ।३६ श्रावकको भोजनमे गृहधिके कारण हूंकार करना, खकारना, इशारे करना, तथा भोजनके पहले व पीछे क्रोध आदि संक्लेशरूप परिणाम करना, इन सब बातोको छोडकर तप व सयमको बढ़ानेवाला मौनव्रत धारण करना चाहिए।३४। मौन धारण करना भोजनकी गृधि तथा याचनावृत्तिको रोकनेवाला है तथा तप पुण्यको बढ़ानेवाला है ।३५॥ इससे मन वश होता है, शुक्ल-ध्यान व बचनकी सिद्धि होती है, और वह श्रावक या साधु त्रिलोकका अनुग्रह करने योग्य हो जाता है ।३६ ३. मौनव्रतके उद्यापनका निर्देश सा. घ./४/३७ उद्योतनमहेनैकघण्टादानं जिलाल ये । असर्वकालिके मौने निर्वाहः सार्वकालिके ।३७ सीमित समयके लिए धारण किये गये मौनवतका उद्यापन करने के लिए उसका माहात्म्य प्रगट करना व जिन मन्दिरमें एक घंटा समर्पण करना चाहिए। जन्मपर्यन्त धारण किये गये मौनवतका उद्यापना उसका निराकुल रीतिसे निर्वाह करना ही है ।३७५ (टीकामे उधृत २ श्लोक)।
१. मौन धारणे योग्य अवसर भ. आ./वि./१६/६२/६ भाषासमितिक्रमानभिज्ञो मौनं गृह्णीयात इत्यर्थः। -भाषा समितिका क्रम जो नही जानता वह मौन धारण करे, ऐसा अभिप्राय है। सा. ध/४/३८ आवश्यके मलक्षेपे पापकार्ये च बान्तिवद । मौनं कुर्वीत शश्वद्वा भूयोवाग्दोषविच्छिदे ।३८। -बोतिमें कुरला करनेवत, सामायिक आदि छह कमों में, मल-मूत्र निक्षेपण करनेमें, दूसरेके द्वारा पापकार्य की सभावना होने में, स्नान, मैथुन, आचमन आदि करने में श्रावकको मौन धारण करना चाहिए और साधुको कृतिकर्म करते अथवा भोजनचर्या करते समय मौन धारण करना चाहिए । अथवा भाषाके दोषोका विच्छेद करनेके लिए सदा मौनसे रहना चाहिए।३। सा. थ./टीका/४/३५ में उद्धृत-सर्वदा शस्तं जोष भोजने तु विशेपतः। रसायनं सदा श्रेष्ठ सरोगत्वे पुनर्न कि । मौन व्रत सदा प्रशसा करने योग्य है और फिर भोजन करनेके समय तो और भी
मानवत-एक वर्ष तक पौष शु. ११ से प्रारम्भ करके प्रत्येक मासके प्रत्येक ११वें दिन १६ पहरका उपवास करे । इस प्रकार कुल २४ उपवास करे। नमस्कार मन्त्रका त्रिकाल जाप्य करे। (व्रत विधान संग्रह/पृ ११२)। मौनाध्ययनवृत्ति क्रिया-दे० संस्कार/२। मौर्य वंश-दे० इतिहास/३/३ । मौलिक प्रक्रिया-Fundamental operation (ध.प्र.२८) म्रक्षित-वसतिकाका एक दोष-दे० वसतिका म्लेच्छ-१. म्लेच्छखण्ड निर्देश ति. प./४/गाथा नं. सेसा विपंचखंडा णामेणं होंति मेच्छरखंड त्ति।
उत्तरतियखंडेसुं मज्झिमरखंडस्स बहुमज्झे ॥२६॥ गंगामहाणदीए अढाइज्जेसु । कुंडजसरिपरिवारा हुवंति ण हु अज्जरखंडम्मि ।२४५॥ - [विजया पर्वत व गगा सिन्धु, नदियों के कारण भरतक्षेत्रके छह रखण्ड हो गये है। इनमेंसे दक्षिणवाला मध्यरखण्ड आर्यरखण्ड है (दे० आर्यरखण्ड)] शेष पाँचों ही स्खण्ड म्लेच्छरखण्ड नामसे प्रसिद्ध हैं ।२६८। गंगा महानदीकी ये कुण्डोंसे उत्पन्न हुई (१४०००) परिवार नदियाँ म्लेच्छरखण्डों में ही हैं, आर्य खण्डमें नहीं है ।२४५। (विशेष दे० लोक/७)।
२. म्लेच्छमनुष्योंके भेद व स्वरूप स. सि./३/३६/पृ./पक्ति म्लेच्छा द्विविधा -अन्तर्वीपजा कर्मभूमिजाश्चेति । ( २३०/३) • ते एतेऽन्तपिजा म्लेच्छा । कर्मभूमिजाश्च शकयवनशवरपुलिन्दादयः। -(२३१/६)। म्लेच्छ दो प्रकारके है-अन्तर्वीपज और कर्मभ्रमिज । अन्तीपोमे उत्पन्न हुए अन्तर्वीपजम्लेक्ष है। और शक, यवन, शवर व पुलिन्दादिक कर्मभूमिजम्लेच्छ
है। (रा. वा./२/३६/४/२०४/१४,२६)। भ. आ./कि./७८१/६३६/२६ इत्येवमादयो ज्ञेया अन्तपिजा नरा।
समुद्रद्वीपमध्यस्था. कन्दमूलफलाशिनः । वेदयन्ते मनुष्यायुस्ते मृगोपमचेष्टिता-समुद्रों में ( लवणोद व कालोदमें ) स्थित अन्तर्वीपोंमें रहनेवाले तथा कन्द-मूल फल खानेवाले ये लम्बकर्ण आदि (दे० आगे शीर्षक नं.३) अन्तर्वीपज मनुष्य है। जो मनुष्यायुका अनुभव करते हुए भी पशुओकी भाँति आचरण करते है।
जैनेन्द्र सिदान्त कोश
भा०३-४४
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मोम
ext
तेभ्य
म./३१/१४१-१४२ रुपया कन्यादिरत्नानि प्रभोर्भोग्यान्युपाहरत । १४१ । धर्म कर्म महिभूता मी म्लेच्द्रका मता । अन्यथाऽन्यैः समाचार आर्यावर्तेने ते समा' । १४२ । इस प्रकार अनेक उपायोको जाननेवाले सेनापतिने अनेक उपाय के द्वारा म्लेच्छ राजाओंको वश किया, और उनसे चक्रवर्ती उपभोगके योग्य कन्या आदि अनेक रत्न भेंट में लिये । । १४१। ये लोग धर्म क्रियाओंसे रहित है, इसलिए म्लेच्छ माने गये है । धर्म क्रियाओं के सिवाय अन्य आचरणोसे आर्यखण्डमें उत्पन्न होनेवाले मनुष्यों के समान हैं । १४२॥ [ यद्यपि ये सभी लोग मिथ्यादृष्टि होते है परन्तु किसी भी कारण से आर्यजण्ड में आ जानेपर दीक्षा आदिको प्राप्त हो सकते हैं । दे० प्रब्रज्या | १ / ३] त्रि. सा. / ६२९ दीवा तावदियंतरवासा कुणरा वि सण्णामा । तीन अन्तद्वीपोंमें बसनेवाले कुमानुष तिस तिस द्वीपके नामके समान होते है।
५. अन्न हेच्छका आकार
१ लवणोद स्प्रिंत अन्तोपो (दृष्टि नं० १)
ति.प./४/२४४-२४८ एस्कल गुलिका बेसणकाधारका यनामेहि। पुय्यादिसुं दिसाउदीमा कुमासा होंति । २४८४
कण्णप्पावरणा लंबकण्णससकण्णा । अग्गिदिसादिसु कमसो चउद्दीवकुमासा एवे | १४८५ | सिंहस्ससाणमहिसरासह दूतकपिनदा सक्कुलिकण्णे कोरुगपहुदी अंतरेषु ते कमसो | २४८६ | मच्छमहा कालमुहा हिमगिरिपणिधीए पुब्वपच्छिमदो । मेसमुहगोमुहक्खा दक्खिणवेयडूढपणिधीए । २४६७॥ पुत्रवावरेण सिहरिप्पणिधीए मेघबिल्लूमुहणामा आई समहत्यिमुद्दा उत्तरवेणिधी २४८ पूर्वादिक दिशाओ में स्थित चार द्वीपोके कुमानुष क्रमसे एक जाँघ - वाले, पूछवाले, सींगवाले और गूँगे होते हुए इन्हीं नामोसे युक्त है । २४८४ | अग्नि आदिक विदिशाओमें स्थित ये चार द्वीपोके कुमानुष क्रम कुलकर्म कर्म प्रावरण, लभकर्ण और दादाकर्म होते हैं |२४|| सीकर्ण और एकोरुफ आदिको बीचमें अर्थात् अन्तरदिशाओं में स्थित आठ द्वीपोंके कुमानुष क्रम से सिंह, अश्व, श्वान, महिष, वराह, शाल, घूक और बन्दरके समान मुख - बाले होते है ।२४८६ | हिमवान् पर्वतके प्रणिधि भाग में पूर्व पश्चिमदिशाओ में क्रमसे मत्स्यमुख व कालमुख तथा दक्षिणविजयार्ध के प्रणिधि भाग में मेषमुख व गोमुख कुमानुष होते है । २४८७ ॥ शिखरी
9
के पूर्व पश्चिम प्रविधि भाग कम मुख भिमुख तथा उत्तर विजयार्ध के प्रणिधि भाग में आदर्शमुख व हस्तिमुख कुमानृष होते है २४ (भ.आ./वि./०८९/६२२/२३ परतली. न. १ १०) (जि. सा./११६-११९) (ज. १ / ५२-५० ) । २. लवणोद स्थित अन्तद्वीपोंमें ( दृष्टि न० २ )
वि. /४/२४६४-२४६६ एकोरुकवेरणिका संगुत्तिका रह य भागा तुरिमा पृथ्यादिवि दिस चउदीया कुमाणुसा कमसो ॥२४हादसा सणाताण उभयपासेसुं । अतराय दोवा पुव्वगिदिसादिगणणिज्जा | २४६५ | पुत्र दिसट्ठिएकोरुकाण अगदिस टिपणानं विचासादि कमेण अतरदीव दिव्यकुमाराणामाणि गदिज्याकेसरिमुहा मस्सा चरकृतिका अ चक्कुलिकण्णा । साणमुहा कपिवदणा चक्कुलिकण्णा अ चक्कुलीकण्णा | २४६६ । हयकणा कमसो कुमाणुसा तेसु होंति दीवेसु । घूकमुहा कालमुहा हिमगिरिस्स पुम्यपमिदो | २४६०१ गोमुहमेस हलवा वेणदिवेस मेषमुहा बिज्जुहा सिरिगिरिदस्स
२४६८ | दप्पणगयसरिसमूहा उत्तरणिधि भागगदा। अभंवर मागे माहिर होति तम्मेत्ता । २४६६| पूर्वादिक दिशाओ में स्थिर चार द्वीपोके कुमानुष क्रमसे एक जॉधवाले, सींग
लेड
वाले छवाले और गूँगे होते है | २४६४ | आग्नेय आदिक दिशाओंके चार होपोंमें एक कुमानुष होते हैं। उनके दोनो पा
आठ अन्तरद्वीप हैं जो पूर्व आग्नेय दिशादि क्रमसे जानना चाहिए । २४१६ पूर्व दिशा स्थित एकोरुक और अग्निदिशामें स्थित श कर्ण कुमानुषो के अन्तराल आदिक अन्तरालोंमें क्रमसे आठ अन्तरद्वीपोंमें स्थित कुमानुषों के नामोंको गिनना चाहिए। इन अन्तरद्वीपो में क्रम केशरीमुख, शकुलिक अशष्कुलिक खानमुख बानरमुख, सम्कृति शष्कुलकर्ण, और हम कुमानुष होते है हिमबापत पूर्व-पश्चिमभागों में क्रमसे से कुमानुष शुकमुख और कासमुख होते हैं। दक्षिण विषयार्थके प्रतिधिभावस्थ द्वीपोंमें रहनेवाले कुमानुष गोमुख और मेषमुख तथा शिखरी पर्वत के पूर्व पश्चिम द्वीपों में रहनेवाले वे कुमानुष मेघमुख और विन्मुख होते हैं । २४६८ | उत्तरविजयार्ध के प्रणिधिभागों में स्थित वे क्रमानुष क्रमसे दर्पण और हाथी के मुखवा होते हैं। जितने द्वीप व उनमें रहनेवाले कुमानुष अभ्यन्तर भाग में है, उतने ही वे बाह्य भागमें भी विद्यमान है 1२४६६ | ( स. सि./३/३६/२३० / १); (रा.वा./१/१६/४/२०४/२०) (पु./५/४७१-४७६) । ३. कालोदस्थित अन्तरद्वीपोंमें
·
ति प / ४ / २७२७-२७३४ मुच्छमुहा अभिकण्णा पक्खिमुहा तेसु हरिथकण्णा । पुव्वादि दीवेसु विचिट्ठति कुमाणुसा कमसो । २७२७| लादिया सूरकण्णा दीवेस ताण विदिसासं । अट्ठतरदीवेसुं पुत्रग्गिदिसादि गणणिज्जा | २७२८ ॥ चेट्ठति अट्टकण्णा मज्जारमुहा पुणो वि तच्चेय कण्णप्पावरणा गजवण्णा य मज्जाखयणाय । २७२ | मज्जारमुहा य तहा गोकण्णा एवमट्ठ पत्तेक्कं । पुव्वपव
"
दावहि कुमसाणि जाति २०३० नावरणधीए सिसुमारमुहा तह य मयरमुहा । चेट्ठति रूप्पगिरिणो कुमाणुसा कालजल हिम्मि १२७३१। वयमुहवग्गमुहक्खा हिमवंतणगस्स पुब्बपच्छिमदो। पणिधी पेटते कुमासा पामचाहि २०१२ सि रिस्स तरच्छमुहा सिगालग्यणा कुमाणसा होति । पुव्नावरपणिधीए जम्मंतरदरियकम्मेहिं |२०१३ | दीपिका मुद्दा कुमाणुमा होति रुप्प सेलस्स । पुव्वावरपणिधीए कालोदयजल हिदीवम्मि | २७३४ - उनमें से पूर्वादिक दिशाओंमें स्थित द्वीपोमे क्रमसे मत्स्यमुख, अभि (अश्व पक्षिमुख और हस्तिक कुमानुष होते हैं। १२०० उनकी वायव्यप्रभृति विदिशाओंगे स्थित द्वीपो में रहनेवाले कुमानुष करकर्ण होते है। इसके अतिरिक्त पूर्णाग्निदिशादिक क्रमसे गणनीय आठ अन्तरद्वीपोंमें कुमानुष निम्न प्रकार स्थित है । २०२० ट्रक, गाजरमुख, पुन माजरमुख कर्णप्रावरण, ग सुख, मार्जारमुख, पुनः मार्जारमुख, और गोकर्ण, हम आठमेसे प्रत्येक पूर्व में बतलाये हुए बहुत प्रकारके पापोंके फलसे कुमानुष जीव उत्पन्न होते है । २०२१-२०१०३ कातसमुहके भीतर वियार्थके पूर्वापर पार्श्वभागो में जो कुमानुष रहते है, वे क्रमसे शिशुमारमुख और मकर होते हैं | २०३१। हिमवान् पर्वतके पूर्व-पश्चिम पार्श्वभागो में रहनेवाले कुमानुष क्रम से पापकर्मो के उदयसे वृकमुख और व्याघमुख होते है २०१२ शिखरी पर्वतके पूर्व-पश्चिम पार्श्वभागों में रहनेवाले कुमानुष पूर्व जन्ममे किये हुए पापकमोंसे सरक्षमुख (अक्षमुख) और गायमुख होते है। २०३३ | विजयापर्यत पुर प्रभाग - समुद्रस्य दीपो क्रम द्वीप और
गारमुख कुमानुष होते../२/५६०-३०२ )।
४. म्लेच्छ मनुष्यों का जन्म, आहार गुणस्थान आदि ति प / ४ / गाथा नं. एकोरुगा गुहासुं वसंति भुंजति मट्टिये मिट्ठ । सेसा तरुतलवासा पुष्फेहि फलेहिं जीवति । २४८६ | गग्भादो ते माजुगजुगला सुण निस्सरिया तिरिया समुपदेहिदिमेहि
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यंत्र
धारति तारुणं । २५१२। बेधणुसहस्सतुंगा मंदकसाया पिरंगुसामलया। सब्वे ते पलाऊ कुभोगभूमोए चेति । २५१३॥ तम्भूमिजो
भोगं भोत्तूण आउसस्स अवसाणे । कालबसं संपत्ता जायंते भवणतिमि १२१४ सम्म सणरयणं गहियं हि नरेहिं तिरिएहि । दीने विहे सोहम्मदुगम्मि जायते ।२११३ सम्बेसि भोगभुवे दो गुणठाणाणि सब्दकालम्मि दीसंति चवियप्पं सव्व मिलितम्मि मिच्छत् । २१३७११. इन उपरोक्त सब अन्तद्वीपज म्लेच्छों में से, एकोरुक (एक टॉंगवाले) कुमानुष गुफाओंमें रहते हैं और मीठी मिट्टीको स्वाते हैं। शेष सम वृक्षोके नीचे रहते है और कल्पवृक्षों के) फलफूलोंसे जीवन व्यतीत करते हैं । २४८६ (स.सि./३/३६/२११/२): (रा. वा./२/२६/४/२०४/२४) (ज. प. / १० / २८.८२) त्रि. सा. /१२०)। २. वे मनुष्य न तिच युगल युगलरूपमें गर्भ से सुखपूर्वक जन्म लेकर समुचित ( उनचास ) दिनोमें यौवन अवस्थाको धारण करते हैं | २५१२ (ज. प./१०/२०)। ३ वे सम कुमानुष २००० धनुष ऊँचे, मन्दकवायो, प्रियंगुके समान श्यामल और एक पत्यप्रमाण बायुसे युक्त होकर कुभोगभूमिमें स्थित रहते है । २११३० ( ज. प./१०/१०/८१-८२४ पश्चाद वे उस भूमिके योग्य भोगोंको भोगकर आयुके अन्तमें मरणको प्राप्त हो भवनत्रिक देवोंमें उत्पन्न होते हैं । २५१४ जिन मनुष्यों व तिर्यधोने इन चार प्रकारके द्वीपोंमें (दिशा, विदिशा, अन्तर्दिशा तथा पर्वतोंके पार्श्व भागों में स्थित, इन चार प्रकारके अन्तद्वीपोंमें सम्यग्दर्शनरूप रत्नको ग्रहण कर लिया है. वे सोधर्मयुगल में उत्पन्न होते है । २१११ (ज. प./१०/८३८६) । ५. सब भोगभूमिजों में (भोग व कुभोगभूमिजोंमें) दो गुणस्थान (प्र.व चतु ) और उत्कृष्टरूपसे चार (१-४) गुणस्थान रहते है। सब म्लेच्छखण्डों में एक मिध्यात्व गुणस्थान ही रहता है। ।२१३७] ६. म्लेच्छ खण्डसे आर्यखण्डने आये हुए कर्मभूमिज म्लेच्छ तथा उनको कन्याओंसे उत्पन्न हुई चक्रवर्तीकी सन्तान कदाचित् प्रवज्या योग्य भी होते हैं। (दे. प्रवज्या / १/३) ।
दे. काल / ४ - (कुमानुषो या अन्तद्वीपों में सर्वदा जघन्य भोगभूमिकी 'व्यवस्था रहती है। (त्रि. सा. / भाषा / १२० ) ।
५. कुमानुष म्लेच्छोंमें उत्पन्न होने योग्य परिणाम
दे. आयु /३/१० ( मिथ्यात्वरत, प्रतियोंकी निन्दा करनेवाले तथा भ्रष्टाचारी आदि मरकर कुमानुष होते हैं ) ।
दे. पाप / ४ ( पापके फलसे कुमानुषो में उत्पन्न होते है । ) ।
[य]
यंत्र - १२/२.१.२१/२४/४ सोहमम्पधरणमीदिदमन्तरक्यच्छा
लियं जंतं णाम । -जो सिंह और व्याघ्र आदिके धरनेके लिए बनाया जाता है और जिसके भीतर बकरा रखा जाता है, उसे यंत्र कहते हैं। यंत्र
कुछ विशिष्ट प्रकारके अक्षर शब्द व मन्त्र रचना जो कोष्ठक आदि बनाकर उनमें चित्रित किये जाते है, यन्त्र कहलाते है। मन्त्र शास्त्र के अनुसार इसमें कुछ अलौकिक शक्ति मानी गयी है, और इसीलिए जैन सम्प्रदायमें इसे पूजा व विनयका विशेष स्थान प्राप्त है । मन्त्र सिद्धि, पूजा, प्रतिष्ठा व यज्ञ विधान आदिकोमे इनका बहुलतासे प्रयोग किया जाता है। प्रयोजनके अनुसार अनेक यन्त्र रूढ है और बनाये जा सकते है, जिनमेंसे प्राय प्रयोगमें आनेवाले कुछ प्रसिध यन्त्र यहाँ दिये जाते है।
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१. अंकुरार्पण यन्त्र
२. अग्नि मण्डल यन्त्र ३. अर्हन् मण्डल यन्त्र
३४७
४. ऋषि मण्डल यन्त्र ५. कर्म दहन यन्त्र
६. कलिकुण्ड दण्ड यन्त्र ७. कल्याण त्रैलोक्यसार यन्त्र
८. कुल यन्त्र
९. कूर्म चक्र यन्त्र
१०. गन्ध यन्त्र
११. गणधरवलय यन्त्र १२. घटस्थानोपयोगी यन्त्र ११. चिन्तामणि यन्त्र १४. चौबीसी मण्डल यन्त्र
१५. जल मण्डल यन्त्र १६. जलाधिवासन यन्त्र १७. णमोकार यन्त्र
१८. दशलाक्षणिक धर्मचकोद्धार यन्त्र १९. नयनोन्मीलन यन्त्र २०. निर्वाण सम्पत्ति यन्त्र २१. पीठ यन्त्र
२२. पूजा यन्त्र २३.
२४.
२५
बोधिसमाधि यन्त्र
मातृका यन्त्र (क) व (ख)
मृत्तिकानयन यन्त्र
२६. मृत्युञ्जय मन्त्र
२७. मोक्षमार्ग यन्त्र २८. यन्त्रेश यन्त्र
२९. रत्नत्रय चक्र यन्त्र
३०. रत्नत्रय विधान यन्त्र
२१. रुक्मपात्राङ्कित तीर्थमण्डल यन्त्र
३२. रुक्मपात्राङ्कित वरुणमण्डल यन्त्र २२. रुक्मपात्राङ्कित व्रजमण्डल यन्त्र ३४. वर्द्धमान यन्त्र
जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश
३५ वश्य यन्त्र
२६. विनायक यन्त्र ३७. शान्ति यन्त्र
२८. शान्ति चक्र यन्त्रोद्धार
३९. शान्ति विधान यन्त्र
४०. पोशकारण धर्मचक्रोद्वार यन्त्र
४१. सरस्वती यन्त्र
४२.
सर्वतोभद्र यन्त्र ( लघु )
४३. सर्वतोभद्र यन्त्र ( बृहत् ) ४४. सारस्वत यन्त्र
४५. सिद्धचक्र यन्त्र (लघु)
४६. सिद्धचक्र यन्त्र (बृहत् ) ४७. सुरेन्द्रचक्र यन्त्र
४८. स्तम्भन यन्त्र
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यंत्र
१- अंकुरार्पण यंत्र
सर्वाव्ह यक्ष
स्वाहा
ॐ आदर्श श्रिय
बायवाय
ओ
ॐ चक्रप्रियै स्वाहा
ओ वरुणाय स्वाहा
स्वाहा
12122
स्वाहा
ॐॐ बुद्धिदेव्यै
स्वाहा
कीर्तिदेव्य स्वाहा
१ हस्त प्रमाण
ॐ चक्रप्रियै स्वाहा
ओ कुवेराय स्वाहा
घतिदेव्यै स्वाहा /
३४८
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हा
ॐ लक्ष्मीदेव्यै
स्वाहा
घेघे स्वाहा हल्यू
पीठम्
63
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स्वाहा
(शान्तिदेव्यै
स दह दह कर्मफल हा ही हूँ हौं ह
抗折抗抗
स्वाहा
पष्टिदेव्यं
जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश
घटी
नोट- ऊपरसे चतुर्थ कोष्ठकमे दिये गए चक्रश्रिये आदि नाम संशित है।
२ - अग्निमण्डल यंत्र
दह दह
ओ ईशानाय
ॐ २ लिये
F
स्वाहा
ओ इस्त्राय स्वाहा ॐ भेरी श्रियै स्वाहा
ओ अग्नये
स्वाहा
१ लिये।
२. अग्नि मण्डल यन्त्र
शराव
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यंत्र
३- अर्हन्- मण्डल यंत्र
ॐ हरे जयावाल देवो विजय
ॐ ह्रीं सरस्वति देवी विद्यां
प्रयच्छतु
४- ऋषि मंडल यंज
ॐ ह्रीं विलन्ना
उद्यम प्रयच्छतु
देवी प्रताप प्रयच्छतु ही कल्पेशाव गौरीदेवी ॐ चण्डिका
नम
Ezek
T Seans
ॐ ह्रीं लक्ष्मीदेवी
ॐ हों अधिका देवी आरोग्य
प्रयच्छतु
ॐ हों विजया देवो जय प्रयच्छतु
Scans
kise
bajun 2015
अप्राणिबधत्व गगन गामित्व अष्टाधिक सहस्त्रनामत्व
अप्रमितदीर्यत्व सौरम्य
सौरूप्य समचतुरस्र सस्थानत्व
नम
ॐ सिद्धेभ्यो नम
नमः
ਤਾਂ ਵੀ
अनुपसर्गत्व काररहितत्व
सौभक्ष्य
आचार्यो नम
मध
ॐ ह्रीं अजिता प्रयच्छतु
ॐ ह्रीं देशावधिम्यो ॐ हों परमावधिम्यो ॐ ह्रीं सर्वाधिभ्यो
नम
Beant
ܟ n adde 2 2
पेयं
ॐ ह्रीं धृतिदेवी
सिहासन
प्रदर्शन
Jale
नम..
सर्व विद्येश्वरत्व चतुरास्यत्व निश्कायित्व
ॐ ह्रीं व्यन्तरेन्द्राय ॐ हौं ज्योति केन्द्राय
छत्रत्रय
ॐ हों पाठकेभ्यो नम
(भामण्डल)
दो
Banks
pin
ॐ हो होदेवी
नम
वज्रर्षभ नाराच सहननत्व
गोणित्व
अशोकवृक्ष
अनन्तस
३४९
(ॐ नमोऽर्ह)
निमि पुनि
नम.
सुवतेभ्यो
as
वीर्य
दुन्दुभि
ह्रीं
पद्मप्रभुवासुपूज्याय नम
दिव्यध्वनि। अनन्त
नम
पुष्पयन्तेभ्यो
हुए ऐमो अम
अ आ इ ई हाल्थ्यू /
स्वेदत्व सुराह्नाननत्व निर्मलाकाशत्व धर्मचक्राग्रगामित्व द्रव्यष्टकत्व
भिनन्दनसुमति-शीतल
सुख
लानन्त धर्मशान्तिकुम्यव
प्रयच्छतु चिय
ॐ ह्रीं श्रीदेवी
अपक्ष्म परिस्पदत्व समनखकेश अर्धमागधी भाषित्व
क्ष
पवृष्टि
सह
सर्वमैत्रीत्व ऋत्वेकत्व आदर्श वडमित्व
ॐ ह्रीं नित्या
सुख प्रयच्छतु ॐ ह्रीं बुद्धिऋद्धिप्राप्तेभ्यो नम
bajach
चमर
सुपाएवं पावाभ्यां नम
जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश
प्रयच्छतु प्रियशुभ ॐ ह्रीं कलि
राधे कृष् पदगत पद्मत्व सर्व धान्य फलत्व
ॐ ह्रीं सर्वसाधुग्यो ।
म्यूवचन
सर्व जनाहादकत्व पवनानुकूलत्व निष्कटक भूमित्व
ॐ ह्रीं मदुट्टया अमरत्व
प्रयच्छतु
ॐ ह्रीं सम्यक् चारित्रेभ्यो नम
ॐ को सर्वोचयद्धि ॐ ही बनन्सर रूद्धि
प्राप्तेभ्यो नमः
ॐ ह्रीं क्षेत्र - ॐ ह्रीं अक्षोण महानस-ॐ ह्रीं भावनेन्द्राय
-द्वि प्राप्तेभ्यो नम
प्राप्तेभ्यो नमः
-
नम
फस्ट
प्रयच्छत् शत्रुनाशं ॐ ह्रीं काफी
ॐ ह्रीं कामागा हो कामवाणा
प्रीति
प्रयच्छतु
ॐ ह्रीं प्राप्तेभ्यो नम
Brank
Bratis
सुख
४
फाड-ॐ डॉ तपछि
सम्मानं
ॐ होला
ॐ
प्राप्तभ्यो नम
ॐ ह्रीं रसि
ॐ ह्रीं सुनन्या
ऋषि मण्डल यन्त्र
लिनी हर्ष
हो मम्मा-ॐ हीं माया अधिकारं
प्रय
निभ्यो नमः
प्राप्तेभ्यो नम ॐ ह्रीं विडिय
प्रयच्छतु
विहं
ॐ रोटी
2
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यंत्र
३५०
६. कलिकुण्डदण्ड यंत्र
५. कर्मदहन यंत्र
त सुख
अवर
अवगाहनत्व
बाधत्व अ
सूक्ष्मत्व
दर्शन जव्या
अनन्तदर्श
liness
६- कलिकुण्डदण्ड यंत्र
-
-
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की
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फो ३ अभीष्टसिदि
पराक्रमाय
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जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश
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३५१
९. कूर्म चक्र यन्त्र
७-कल्याण लोक्यसार यंत्र
६-कूर्म चक्र यंत्र लक्ष क ख ग घ ङ
KA
शस! ऊँ
हालाहाट
काही
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चछजझम अ अ अ आ इई शष स ह ओऔ जप स्थान उमटठडढण
एसेल | य र ल व । प फ ब भ म तथदधन
काहाकी
नाद्रीसी//
श्री हीऊ//
है।
८-कुल यंत्र
ॐ
ॐॐॐॐॐ
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จังงัย 30 ปี
XXXX
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30-30-30
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स्वाहा
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॥स्वाहा।। स्तभार्य)
MA
जंभायें स्वाहा
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(अपराजिताया
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16.
ॐॐॐॐ
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सामान्य
बाबा HERE
-
|
जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश
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यंत्र
१२. घटस्थानोपयोगी यंत्र
१०-गंध यंत्र
प प प पप
०॥
९२-घट स्थानोपयोगी यंत्र
० ० ० ० ० ०००००००००००००००
० ० ०
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०॥ ०
० ०००००००००००००००
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००००००००००००००
10
११-गणधर वलय यंज ला
अहो अह गामा
हो अहं णमो
ॐही अहणमा ॐहो अगर
.
विप्पोसहिपताण सम्बोसहिपत्ताणा
पताण मणोवलोण | पंचोली
सोही अहं णमोहोरी जान जल्लोहिपताण वि.
मी
हो अप
| वचोबलोण
ॐ ही अहं णमो | चउदसवीण / अहम
मी ॐहो अहं णमो निमित विउवण इढिपत्ताण
Team | कुसलाण /उaste
ॐ हो अहं णमो अण
अनमो ॐ हो अहं णमो
ॐही अहं णमो
दसपुवोण
पो सब्वोहि जिणाणॐ
मोसहिपत्ताण खेल्लोसहिपता
ओ
हो
।
हिजिणा ॐ हो और
श्री
मोही अहं णमोटी
बभचारीणं आयो । घोरगुण
नमो
कायबलोण / ॐ ह्री अर्ह णमो/
ॐ ही अहं णमो विउलमदोण
पाणही अहंमो.
भो
बोजाहराण ॐही अहं णमो /
खीरसबीग
अहं णमो परमोहिजिणा
alsहो अहं णमा/ॐ ही
:
ही अहं जमा ॐ ह्रीं अहं णमो /
घोरपराक्रमा/ घोरण पोरगुणाणं
ॐ ह्रीं अहं णमो
ही अहं णमो कोटवासी
उज्जुमदोणं
फट
ॐ अहं वो हो श्री
वो
ओ
चारणाण ॐहों अहं णमो ।
का
कोट्रबुद्धोण | ॐही
हि जिणाण | ॐ ही
सप्पिसवीण | महुरसवीण
में
असि आ उ सा / । स्वाहा / ति
की अर्ह णामी 3 ही अहं णमो,
हो अहं णमो
पण्णसमणाण ॐ हो अहं णमो
योग
।
.
बोर
र
ही अह गयो
अहं णमो बोजहोण
घोरतवाणं
वीण | अमियसवीण
हा वृति
णमो ॐ ह्री अहं णमो
मोॐ ही अर्ह नमो
आगासगामीण
पत्तैयबुद्धाण
ॐहो अहं पमो
है. कोति
नमो ॐ ह्रीं अहं णमा ॐही
ही अहं णमो जिणाण
अपने ॐ ह्रीं अहं णमोहो
महातवाणं ।
. बहीणही
सम्बुद्धाण ॐ हीं अहं गमो
प्रसवीण अखोणमहाणसाण वडा
eh त लामो शानणारी
अहणमो पादानुसारोण
| तत्ततवाणं
सभिन्नसोदराणं ।
Jahajan | June
रार्ण नमो
हो अहं णमो /
दिदिविसाण ॐ ही अहं णमो
लोए सव्वसाहुण/
,
दित्ततवाण
वड्ढमाणाण सिद्धाय
हजमो ॐ ह्री अहं णमो
उम्मतवाण
सिद्धायदणाण वृद्धारसोण
अहं णमो/ॐ जगमोही
दि महा ॐ हो अहं णमो*
बोर वड्ढमाणाणा
RALA
प्रणमामयवदा महदि महां
-
-
दक्षिण
Page #360
--------------------------------------------------------------------------
________________
१७. णमोकार यन्त्र
१३-चिन्तामणि यंत्र
(मलमत्र- ॐ नमो ईएमी ही कीं स्वाहा।)
६
१५-६
१६-जलादिवासन यंत्र
15वाहा
पर
755ह स्वाहा
क्षि
नमोऽह स्वाहा
क्षिं
ही लोका. भिमवतीर्थ
१४.चौबीसीमण्डल यंत्र
- ॐही
"मीपरमब्रहAE अनन्तानना
शान्ति
जर
महादापगधाm/EA
सीता
NAनम स्वाहा//
ॐही सीता
Dolele
अनन्दन
सुमति
जा
गल्लि
विणोदी
स्यस्पyo
b
समव
मुनिसुव्रत
achine
नाम
अजित
सुपार्व
% 3EED
thkue
शीतल
पुष्पदन्त
महावीर
पाव
१७-णमोकार यंत्र
पपपप १५ जलमण्डल यत्र म
नट
ओ झवह
शहा २३४५ ३४२ ४५रा३] शरा३४
अ
आ
V. आॐ
आ
अं
4
.
ययं यय
जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश
भा०३-४५
Page #361
--------------------------------------------------------------------------
________________
गंत्र
१९. नयनोन्मीलन यंत्र
१८- दशलाक्षणिक धर्म चक्रोदार यंत्र
- -
Dhan/ -100
HARE
Emaa
-1
//60
धर्मागाय नम
उत्तम
धर्मामाय नम
च.
उत्तमक्षमादि दशलाक्षणिक धर्माया
नमः MKM
उसम
| धमायाय नमः | आर्जब// उत्तम
आकिचन्यधर्मागाय नमः
ॐ ही
उत्तम/ मार्दवधर्मागाय नम
उत्तम
उत्तम
क्षमाधर्मागाय नमः
ब्रह्मचर्यबागाय नमः
१०
१६-नयनोन्मीलन
वववव
हं१५
366
1868
कुठठला
606
30
पपपं
जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश
Page #362
--------------------------------------------------------------------------
________________
३५५
२१. पीठ यंत्र
२०-निर्वाण सम्पत्ति यंत्र
डिट कुरु कुरु
रु स्वाहा। इम
SD
साइवी असि आ.
आन्ति पुष्टि
आउसाक्ष्वी/
मम शा
भापं असिओ
श्री श्री श्री श्री श्री
सा
जपत
ध्वी असिआउ
सामाजसि.
7श्री श्री श्री श्री
भाभीनी श्रीश्री
माउसावजासा
सर्व
सर्व- सम्पत्ति
श्री ही
4असि आज
सिआउसा पा/अ.
श्री श्री श्री श्री श्रीश्री श्री श्री
VERSISE
स्यात् ।
SBE
RSHSEN
ॐ भृ पमची
२१. पीठ यंत्र
इशानाय
बायवात स्वाहा
स्वाहा
ओ कुवेराय
स्वाहा ओ महामानस्यै स्वाहा। मोजाय स्वाहा!
ओ अपराजितायै स्वाहा। ओ बहुरूपिण्यै ओ विजयायै स्वाहा।
स्वाहा ओ चामुण्डायै स्वाहा। ओ गाय स्वाहा: ओ गधर्वाय
ओ कुवेराय स्वाहा। ओ वरुणाय स्वाहा। ओखेन्द्राय स्वाहा
80] स्वाहा। ओ विद्युत्प्रभाय स्वाहा। ओं शनैश्चराय
ओ राहवे स्वाहा।
स्वाहा। ओ रोचनाय स्वाहा।
ओं भौमाय स्वाहा ओं महाविद्याय स्वाहा -ओ विश्वेश्वराय स्वाहा
-गरुड दीवारक
१गरुड दौवारिक
उत्तरद्वार
बो मेरोटप स्वाहा। मो अनन्तमत्वं स्वाहा।
ओं मानसो देव्यै स्वाहा। ओं षण्मुखाय स्वाहा। बो पातालाय स्वाहा। ओं किश्वराय स्वाहा। ओं शुक्राय स्वाहा
--
"ओं विश्वमालिन्यै स्वाहा ओ पमराय स्वाहा
बो केतवे स्वाहा स्वाहा। ओ मातगाय स्वाहा। ओ सबीहाय स्वाहा।यो घरणेन्द्राय ओ कुष्माडिन्यै स्वाहा। ओं पद्मावत्यै स्वाहामओ सिद्धाययै स्वाहा।
।
हा उपाध्यायेम्पो
स्वाहा पोयज्ञाशिने
ओ इन्द्राय
जिनाममेभ्यो/
स्वाहा
नाग दौवारिक
हो आचार्यम्यो/
२-यक्ष दीवारक
जनचल्य-यो।।
या
अहंदभ्यो स्वाहा
पूर्वद्वार
स्वाहा //
सर्वसाधुभ्यो
विरिक
१ यक्षदोवारिक
watay
//
बों वरुणाय
सुकुमाराय स्वहा
ओ पित्रे स्वाहा ___ा
Anthelalteel
ला
स्वाहा
ओं पातव्य स्वाहा। बों योर्ये स्वाहा।
ओं गाचा स्वहा॥ वो बहोश्वराय स्वाहा।बों ईश्वराय स्वाहा। जो कुमाराव स्वहा।
ओ बृहस्पतये स्वाहा
ओ असुराय स्वाहा ओपन्नगाय स्वाहा
ओं वधताय स्वाहा ओं राक्षसाय स्वाहा।
- ओ वैश्वानराय स्वाहा। ओ यक्षाय स्वाहा।
ओ सोमाय स्वाहा। ओ आदित्याय स्वाहा। यक्षाय स्वाहा। ओंत्रिमुखाय स्वाहा। ओ गोमुखाय स्वाहा।ओं महा
यो प्राप्त्यै स्वाहा। ओ चक्रेश्वर्य स्वाहा। ओ रोहिण्य स्वाहा।
दक्षिण द्वार
ओ सौम्याय स्वाहा स्वाहा । ओं अजिताय स्वाहा।। ओ वरनदिने स्वाहाामों विजयाय
pa pula Le due Pariyanmelan Thapute
| १- असुर दीवारक
ओं अमराय स्वहा स्वाहा । ओ कुसुमाय स्वाहा। ओ मेश्वराय स्वाहा।ओं तुवराय स्वाहा। ओ मनोवेगाय स्वाहा। ओं बज भृखलाये स्वाहा। ओ पुरुषवसाय
२- असुर दौवारिक
स्थाहा
स्वाहा
Bitte le
अग्नये
जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश
Page #363
--------------------------------------------------------------------------
________________
२४. मातृका यन्त्र (क) व (ख)
२२- पूजा यंत्र
२३- बोधिसमाधि यंत्र
ॐ सर्वसाधवे । नमः
ॐउपाध्याय
नम.
ॐहींत थवा
पवेॐ जिन
अदधन | अही
ॐआचार्याय
नम.
अटल डटण ॐ
अर्हम्यो नम,
नमः
लनचैत्याय
स्वाहा
स्वाहा
जऊँहीट
हीचछजझा
ॐ अर्हते
अहाहीहू होहः असि आ उसा श्री र्ह मम इष्ट शुभ (कुरु कुरु स्वाहा
कबभम
चैत्यालयाय ॐ
ही
jan
कखगपडा
स्वाहा
'/REMES
ॐॐहीं कर
ELLER HEMA** ANDE
ीयरलव ।
२४-मातृका यंत्र (क)
AAR
( CS 8 i8 XXX
-भिं
XXXX ग घ ड.
पफ कन ष
ॐकीॐकीॐकीॐ xxxx
भाकाआ
PP
tho
XXXX
ॐकीऊलीऊहीॐ
२४ (ख)
इाल्यू
ॐ नमो
क ख ग घ ड
चजभर
अध श
-यटई
कल्व्ये
अ ज ज आ उसो उजौह
331
शव सह
|
ਛੇ ਦੇ di
ए से
लू लृ
ऋ
ॐलीॐफ़ी ॐली
XXXX
रठ 3 द डऊ
| औ शत
1024
यरलव
ॐवी ॐक्लीऊली
प फ ब भ
XXX.
म
|
की ही क्रौ स्वाहा .
Xxxx ॐक्ती ॐली ॐक़ी ॐ
xxxx ॐकीॐकीॐकीॐMA
(C
जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश
Page #364
--------------------------------------------------------------------------
________________
२८. यंत्रेश यंत्र
२५-मृत्तिकानयन यंत्र
२७-मोक्षमार्ग यंत्र
ॐही सम्यक
हो
ल
क्ष
ल
नमः
उसा | ॐ
अही श्री
*सि आउसा
नम.
उसा
क्ष
ल
म्यग्ज्ञानायर
सिआउसा
चारजाय नमः
असि
सा | ॐ असि
ॐहीं णमो अरहंताणं ॐ हीं णमो सिदाणं ॐ हीं णमो आइरियाणं ॐही णमो उवज्झायाणं ॐही णमोलोए सव्व
साहूण स्वाहा
आउसा में
२६-मृत्युञ्जय यंत्र
1ॐअसि आउ
सिआ 3 सा
ॐही सम्र
(HRISPLEE
A
सम्यग्दशनाय नम
CLE 12
SS*
Ahcent
#
AM)
16
Tठ..
२७ यंत्रेश यंत्र
वी
वं
/
1284
॥
५१
JI
स्वाहा इवी/
X
पव
ऊँह क्रौं श्री ही क्ली मम शान्तेिं पुष्टि कुरु कुरु स्वाहा
।
आ
त्रिदशपद न्याने सूत्रद्वादशक घट। नय कोणेषु चैकातलघुसमार्जनाविधिः।।
/ L4
जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश
Page #365
--------------------------------------------------------------------------
________________
यंत्र
२६ - रत्नत्रय चक्र यंत्र
ॐ ह्री अचौर्यमहाव्रतान
V
ॐ ही परि० त्याग
( महाव्रताय नम
'ब्रह्मचर्यमहाव्रताय नम ।
-Ibilt
| समितये नमः
अथसमग्राय
पीसमिवये ॐ ही मा
ॐ ह्री सत्यमहाव्रताय नम
ॐ ह्री
ॐ ही तदुभयसमग्र
३० - रत्नत्रय - विधान यंत्र
• समितये नमः
ॐ ही सृषणा. समितये नम
ॐ ही मन पययज्ञानाय नमः
ॐ हा कालाध्ययन'पवित्राय नम
ॐ मिती
महाव्रताय नम
ॐ ही अहिंसा
ॐ ही ईर्ष्यासमितये नम
ॐ ही निर्वि
गाय नम
ॐ ह्री
(अमृददृष्ट्या गाय नम
ॐ ह्रीं अवात्सल्य मलर
रहिताय
नमः
'समिसनमा ॐ ही ॐ ही अप्रभावनामरहिता नम.
ॐ ही
व्यक्तिताय नमः ॐ ही व्यञ्जन
We talk alla black 132
गाय नम
निशकिता ॐ ही
सिही
ॐ ही
३५८
ॐ ही उपधानो पिहिताय नम
ॐ ही भाषासमितये नम
ॐ ही उपगूहनागाय नम
नम
गुप्तये ॐ ही काय
ماما:
عامل:
ज्ञानचारित्र
ॐ ह्री करणा. | गाय नम
नमः ॥
गाय नम प्रभावनाॐ ह्री
क्षिक्री
व्रताय नम
व्रताय नमः
केवलज्ञानाय नमः
ॐ हीं आदान निक्षेपण- ॐ ह्रीं व्युत्सर्ग- ॐ. ही अहिसा महा-ॐ ही सत्य महा- ॐ. ही अचौर्य.
सम्यग्दर्शनाय न
निमुद्रिताय नम ॐ ही आदान
● ही स्थिति
फ्र
ਰ
नाय नमः ॐ ही
ॐ ही सम्यगवधिज्ञानाय नम ॐ ही काय गुप्तये ॐ ही ईर्या समितये ।
नम.
नमः
प्रभावाय ॐ ही बिन
गायनम
वात्सल्या
ॐ ही
गुप्तय नम
ॐ ही वचन
ॐ. ही शकामल ऊहीं
रहिताय नमः
नमः नमः
- मल रहिताय
ॐ द्विताय नमः ॥
सम्यग्ज्ञानाय
भल राहवाय
कित्सा ही अनुपस्थितिक
ॐ० ही सषणा
समितये नम
ही अ
ॐ ह्री समृहदाय नम हव ● ही गुर्वाद्यनिम
ही सम्यड् मतिज्ञानाय नमः
नम
डों कांक्षामल
रिलाय
जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश
महाव्रताय नमः
ॐ ही
मनो.
ماما
गुप्तये - ॐ ही
●
ॐ ही आदाननिक्षे
पण प्रतिष्ठा
गुप्तये नमः
मनोगुप्तये ॐ. ही वचन
ॐ ही प्र
ॐ ह्रीं
ॐ ही ब्रह महाव्रताय नमः ब्रह्मचर्य.
ॐ ही सम्य ६ श्रुतज्ञानाय
ॐ ह्रीं महाव्रताय नमः
ह्रीं अपरिग्रह
३०. रत्नत्रय विधान यंत्र
斑
Page #366
--------------------------------------------------------------------------
________________
यंत्र
३१ - रुक्मपात्रांकित-तीर्थ-मण्डल यंत्र
周
ॐ ह्री
सीतोदाविदमहाहृददेवस्थाने चैत्यचैत्यालयेभ्य. स्वाहा
ही
महापाताविव
त्यस्थाने चैत्यालयेम्मा
स्वाहा /
ॐ ह्री
स्वाहा / दवीस्थाने चैत्यालयेभ्थ चैत्यगङ्गादिः
忘
३३- रुक्मपात्रांकित
व्रजमंडल यंत्र
फ
ॐ
ए
很
时尚
ऊँ ही अर्ह
श्री परब्रह्मणेऽनन्तानन्तज्ञानशक्तये
ॐ ही
लवणोदकालोद मागधादितीर्थस्थाने चैत्यचैत्यालयेभ्थ. स्वाहा
नमः
स्वाहा
स्वाहा
श्री त्यालयेभ्य
चैत्य
सादितीर्थस्थाने सीतासीतोदा
ऊँ ह्री
mkwirk
tliterall
接器
(चैत्यालयेभ्यः)
चैत्यसमुद्रदेवस्थान सख्यातीतॐ ही
ॐ हा वदमानदेवाय में रक्ख रक्ख
ही
३५९
ॐ ह्रीं हैं ॐ
नदि वृद्धि सम्पत्ति-विधायकाय परमोदारिकशरीरस्थिाय शान्ति पुष्टि
३४. वर्द्धमान यंत्र
३२- रुक्मपात्रांकित वरुण मंडल यंत्र
स्वाहा
वर्द्धमानाय व ॐ ह्रीं
चिह्न जटठडढ
स्वाहा
ॐ ही हैं वर्द्धमानाय
| तथ दधन पफबभम |
स्वाहा
वर्द्धमानाय
like
17
कखगघड ओ स्वाहा
ら
स्वाहा ।
4
नट नह
अआइईउऊ
सित
जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश
For Private Personal Use Only
३४- वर्द्धमान यंत्र
लू ए ए आओ अं अ
ॐ ही ह | वर्द्धमानाय
य र ल व स्वाहा
ॐ ह्रीं ह
thkirpk
ह
वड्ढमाणस्स रिसहस्स जस्स चक्क जलत
वर्द्धमानाय शष सह स्वाहा
नम स्वाहा
te lagt te fatets de folzink? I told he his walker lathe with Ric
खाहा
नमः
स्वाहा नमः
ॐ ह्री हैं
ष्टि कुरु कुरु स्वाहा ॥ २ ॥
| आचायाय उपाय ही ह
ॐ ह्रीं हूँ
Page #367
--------------------------------------------------------------------------
________________
यंत्र
३५ - वश्य यंत्र XX
ल
D><
क्ष
ॐ ब्ले धान्ने वषट्
冷
XX
ॐ प्ले धात्रे
प्लू
ॐ ह्र
(छ)
मोहायै
19167
タ
Rd
स्वाहा
सिद्ध
३६ - विनायक यंत्र
क्रौं ॐ MED
ह्रीं
केवलिपण्णत्त धम्मो शरणाय
स्वाहा
साहू
Sne
मंगलाय स्वाहा
/30/17
मोहाचे
क्लीं क्रीं क्रीं
क्रीं क्री
३६०
ॐ क्षी
की क्री की
alma
स्वाहा
अ
स्वाहा
这给
嫔
Muniy
साहू
मगलाय
स्वाहा
सि
क्रौं
(ही)
वर्षद
近
ॐ
016215
모방
Ce
Jiez
bills
केवलिपण तो धम्मो
मंगलाय
स्वाहा
का
खाड़ा
(ह्रीं
जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश
स्वा
3d.
ये
प्र
gr
लोगुत्तमाय
ॐ धात्रे वषट्
अरहन्त
लोगुत्तमाय
स्वाहा
आ
近期
लागुत्तमाय
दूर
24X
장
FA
+
सिद्ध
पोष
क्रौं हीं
३६. विनायक यंत्र
Page #368
--------------------------------------------------------------------------
________________
३-४६
इति सप्त प्रकारत पोतिशयद्विधरसवाषम्यो नमः ॥७॥
गमहानसाकमुत पधीरगुणतपस्यो नमः । २४
चारणसन्तुचारणपुष्पचारणबोजचारणाङ्कुरचारणाकाश चारण नवप्रकार क्रियादिरसर्वषिभ्यो ।
ॐ ह्रीं मनोवपुर्वाग्वल इतित्रिप्रकारबलद्वघरसर्वषिभ्यो न
ॐ मुनिसुव्रताय नमः ॐ पुष्पदन्ताय नम
ॐ नामनाथाय नम. ॐ शीतलाय न
३७ - शान्ति यंत्र
मि
ॐ नम
ॐ श्रेयसेनम ॐ वासुपूज्याय नम
ॐ मल्लिनाथाय न
साहूसरण पव्वज्जामि साहू लोगुत्तमा सिद्धमगलं
णमो आइरोयाण
ॐ पावनाथाय नम
ॐ चन्द्र प्रभाय नम
केवलिपण्णत्तो धम्मो सरण पव्वज्जामि स्वाहा ।
गुत्तमा
साहू मंग
णमो
Afte
Hjukseb
नमः । ३ ।
केवलिपण्ण
अरहंत मंग
(अह
याण ॐ
ॐ हो अक्षीणमहालपाक्षीणमहानसेतिद्विप्र ॐ ह्रीं दतितपत तमातपउग्रतपघोर तपघोरपराक्रमुत
ॐ पद्मप्रभवे नम ॐ अनाथाय नम
जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश
ॐ ही केवलमन पर्ययावधिकोष्ठे कवीजस भिन्नसंश्र
ॐ विमलाय नम ॐ ऋषभाय नमः
णमो सिद्धाण
चत्तारि मग अरहत लागतमा
३६१
गमो नमो अरहताक्षण
एस साहूण |
ज
१० वर्द्धमानाय नमः ।
धम्मो मंगल /
वा बतारि सरण पव्वज्जामि
er poh
क. ही
"चत्तारि लोगुत्तमा
लोकन प्रज्ञाश्रवण प्रत्येकबुद्धिदेश पूवित्व सर्वपूवित्यप्रवादित्वा निमित्तेत्याशबुद्धि ऋद्विधर सर्वाषिभ्यो नमः | १८ |
For Private Personal Use Only
ॐ अजिताय नमः
अरहंत सरण
ॐ अनन्ताय नम ॐ धर्मनाथाय नमः
सर्वोषधिआशोर्विषदृष्टिविषस खिल्ल विड्जलमलेत्यष्टौषधिऋद्विधरसषभ्यो नमः | ८ |
म.
अभिनन्दनाय नमः ॐ सुमतये नम
ॐ कुन्युनाथाय नमः
ॐ ह्रा अणिमाम यस भिन्नसंश्रोत्र पदानुसारित मालघिमागरिम
"ॐ संभवाय नमः
क्रौं
ॐ शान्तिन
निनिप्राप्त्यप्रतीघातत्येकादश विक्रयाद्विधरसर्वाषिभ्यो नमः | ११ | ॐ ह्रीं आशदृष्टिक्षीरघृतमधुअमृतेति षट्प्रकाररस ऋद्धिधर सर्वाषिभ्यो नमः ॥९॥
स्वादन हपित्ववशित्वैश्वर्य प्राकाम्यान्तर्धान नि घ्राणदूर विलोकनप्र
३७. शान्ि
Page #369
--------------------------------------------------------------------------
________________
पश्चिम
यंत्र
३८ - शान्ति चक्र यंत्रोद्धार
就在
स्वाहा
bieleib
किपुरुषाय बोहो स्वाहा निरोप
पातालाय
यो हो
ओ हीं बृहस्पतये स्वाहा दावी हो श्रीमा
स्वाहा
ओ ह
स्वाहा
हो
स्वाहा
12 the
ओ हो
ਉਹ ਵੀਰ ਚ
43455
स्वाहा
ee
स्वाहा ब्रह्मवाय
बो हीं
स्वाहा
ओं ही शुक्राय स्वाहा
Tunt
स्वाहा पवनोष हो
स्वाहा
"ओहो
भूतेद्राय स्वाहा
ओ ह्रीं
स्वाहा
ओ हो बुधाय स्वाहा
नैऋताय ओ हो स्वाहा
स्वाहा
s
हेन्द्राय सानत्कुमाराय ईशान
R
ओ हो स्वाहा महामानसी देखें
ओ ही
जोहा
भगाये
ओ हों
गोव स्वाहा
ओहो
स्वाहा
महाकाल्यै
ओ हों
राक्षसेन्द्राय यक्षेन्द्राय ओहीं
स्वा
स्वाहा लान्तवेन्द्राय
ओ हो
स्वाहा
मोडीं मातथ्ये स्वाहा
स्वाहा
विजयाये
ह्रीं
12132
स्वाहा
ज्वालामालिन्ये ।
जो हों
ओहीं गन्धर्वेन्द्राय स्वाहा
बेरोट म हों
उत्तर
-क्षओं हो शनैश्चराय स्वाहा
स्वाहा
कुबेराय
स्वाहा शुक्रेन्द्राय
ओ हों
स्वाहा
अच्युता ओँ हों
स्वाहा
अपराजितायें ओ हों
स्वाहा अपराजिताये
म हीं
ओ हों ज्वालामालिन्ये स्वाहा
珍珠
ओह सर्व साधु सम्यकेचा स्पोनम रिवाय नम
ओ हो मोहापे
ओ ह्रीं स्वाहा
काव्ये
स्वाहा
ओ हों पुरुववक्षायै
स्वाहा
ओं ह्रीं ( अहंदभ्यो
नम
ओ हीं (उपाध्यायेयो नम यों हीं सभ्यता मोही नाय नमः आचार्यभ्यो
३६२
ओहीं स्वाहा
बहुरूपिण्यै ओ हों
अपराजिताये ओं ह
स्वाहा
स्वाहा
स्वाहा
प्राणतेन्द्राय आनतेन्द्राय शतारेन्द्राय भो ह
ओ हीं
เมล
दक्षिण
ओ सम्यकेत पसे नमः
स्वाहा
ओ हो स्तभिन्यै
ओ हीं सिद्धेभ्यो
नम
जो हो, सम्यग्दर्शन नाय नमः
ओ हौं विजयायें
स्वाहा
ओ ह
अहीत चलाये
F4167
म हों
यमाय
स्वाहा
ओं हों भौमाय स्वाहा
जैनेन्द्र सिद्धान्त कोषा
स्वाहा
चामुण्डाये ओ ह्रीं
it is
ओ ह्रीं
1 हों जाये
महामानतो देख मानतो दे
ओ ह्रीं
बोही
ओहीं
मन्त्राकुशाये
स्वाहा
ओं ह्रीं महाकाल्यै
ओ हों काल्य स्वाहा
स्वाहा
ओ हों
ओ हों महोरगेन्द्राय किश्वेन्द्राय किनरेन्द्राय को ह ओ हो
दिगोन्द्राय स्वाहा
स्वाहा
स्वाहा
स्वाहा
प प ीँ
मनोवेगायें
स्वाहा
स्वाहा
यो ह
ओ हों
THAN
कुष्मांडिये
ओ-न्हों
स्वाहा
plab me
ओ ह दीपेन्द्राय
स्वाहा
ओ हो
स्वाहा
स्वाहा
nikkian)
कहीं
पद्मावत्ये
स्वाहा
ओहीं
B हों पद -
वारणेन्द्राय
ओ हो
स्वाहा
ओहीं
स्वाहा
ओ ही
पुरुषतायें व भूखलाये
1211
" हो
स्वाहा
hepale
३८. शान्ति चक्र यंत्रोद्धार यंत्र
ओं हों राहने स्वाहा
ईशानाय
स्वाहा
m
ओ ही
वालेन्द्राय
ओ हो
उदयोन्द्राय स्तनितेन्द्राय
120
स्वाहा
1205
ओ हो
अग्नये
स्वाहा
ओ हों सोमाय स्वाहा
ओ हों
सहाय स्वाहा ओ हों धरणेन्द्राय स्वाहा ओं ह्रीं मालगाय स्वाहा
ओहीं
गोमुखाय स्वाहा ओ ही B महापक्षीय स्वाहा ओ ह्रीं त्रिमुखाय
स्वाँहा
ॐ
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४०. षोडशकारण धर्म चक्रोद्धार यंत्र
३६३ ३६-शान्ति विधान यंत्र
सिद्ध
मंगल
al आचार्य
लोकोत्तम
शरण
शरण
लोकोत्तम मगल साधु
रहत
शरण
मगल
लोकोत्तम
उपाध्याय
शरण लोकोत्तम मंगल
केवलि
४०-षोडशकारण धर्म चक्रध्दार यंत्र
-
नमः
नमः
करणाय समाध
नम
साधु
यावत्य
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शक्तित
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शतितास
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नम.
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(सवेगाय अभोक्षण
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दर्शनविशुद्धयावि षोडशकारणेभ्यो
नमः
गानोप
नमः
योगाय |
भक्तये
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-शोल
आवश्य
बाजा
विनयन
होगाह्रीं
नतिचारायसंपन्नता
नायपरिहानये
पेशन/प्रवचन
'पन-भाग
नमः
विशुद्धये यत्सलत्वाय नेय. || नमः
१६
१५
जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश
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४१. सरस्वती, यंत्र
४१-सरस्वती यंत्र
ॐ श्री अर्धमागधिभ्यो
जिन वाणिभ्यो
नम /
अतकृद्दशागेभ्यो)
मागेभ्यो । अनुत्तरोत्पादक
दशागेम्यो नम
मम
ॐ प्रश्नव्याकरणागेभ्यो नम
उपासका ध्ययनागेभ्यो
ॐप्रयमानुयोगको
तर्देश पूर्वेभ्यो
ॐभी नबलेवललन्मियो
जात कथागेभ्यो
नम.
ॐ चतुर्दश
जिन भवनेभ्यो ॐ श्री
विपाय सूत्रागम्यो
चतुर्दशपर्वेभ्यो
नम
सो
-
ॐद्वादशागेका
.
द
वव
बाग्वादिनि
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प्रज्ञफ्यगेभ्यो
करणानुयोग
नम
योगेभ्यो
।
समवायागेभ्यो।
वादागेयो प्रथमानुयोगेभ्यो।
नम
ॐ चरण
नमः
ॐअर्धमागविभ्यो
सरस्वति
श्री वाग्वादिन्य
धरणातुमागम्यो
धारकेभ्यो/
केन्पो नम
ॐ श्री
ध्वनिम्यो
स्थानागेभ्यो
नम
abhe
करणानुयोगेभ्यो
गणधरवाणिन्यो,
ॐ
ॐ दिव्या
ॐ द्रव्यानुयोगेभ्यो
सूत्रकृतागेभ्यो
नम.
नमः
आचारगिभ्यो
काव्यानुयोगेन्यो
चरणानुपोगेभ्योY
ॐ
(नमः
साधुभ्यो आचार्योपाध्याय
ॐधी
जिन प्रतिमाभ्यो ॐथी
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यंत्र
४२ - सर्वतोभद्र यंत्र (लघु )
0
४४- सारस्वत यंत्र
हि
ॐ वरुणाय स्वाहा
कशायै अपातच पुरुषदत्ताये ।। नाम | काय नमः ॥ नम
ॐ वाय वाय स्वाहा
काल्यै
ॐ
राप्तयै वज्रम नम
लायै:
भद्राय ॐ
नमः
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जायें
नम
ˋ
ॐ कुबेराय स्वाहा • ऊर्ध्व ब्रह्मणे स्वाहा
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महाकाल्यै गौर्यै
नम
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विजयायै
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४४. सारस्वत यंत्र
४३. सर्वतोभद्र यंत्र (वृहत )
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जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश
ज्वालामालि
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ॐ ईशानाय स्वाहा
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नमः
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वैरोट्यै
अच्युतायै।
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ॐ इन्द्राय स्वाहा
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४५. सिद्ध चक्र यंत्र (लघु)
४५सिध्द चक़ यंत्र (लघु)
असि
। णमो अरहताणं
पफचभम
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४६. सिद्ध चक्र यंत्र ( बृहत् )
४६-सिद्ध चक्र यंत्र (वृहत्)
सिद्वाण पामो ६ मा
जाइरीयाण
णमो
ताण णमोई
आ
ॐदीई अनाहतविद्याय
अर
पामोलोए सव साहूण स्वाहा
जमो
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ॐही अहं अनाहतविद्याय
उबझायाणऊन
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जमो उवमायाण स्वाहा
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अहे अनाहत वि
सम्यग्दर्शनाय //
णमो लोए सब
सम्यकदर्शनाय स्वारा
पफयभम ॐ हो अहं अनाहतविद्यग्य
णमो लोएसब्यसाहूण
जमो अरहताण
ॐ हो अहं अनाहतविद्याय
च छ ज झज णमो आइरयाण स्वाहा
बमा अरहताण
ॐ ही
हामो उवक्षा
याण स्वाहा
सम्व सारण
सम्याज्ञानाय
ॐ
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परस्ताण
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जाप्य अ॥
ऋण सम्यग्वान
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पाण स्वाहा
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सम्यक ज्ञानाय स्वाहा
यरल व ॐ ही अई अनाहतविद्याय
को अग्रताप
सज
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णमोअरहताण
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णमो अरहताण
ओ
सम्यकापसे
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ॐ हो अहं अनाहतविद्याय
क ख ग घड णमो सिद्धाण स्वाहा
सम्परजान सस
क्ष ओह सि
णमो अरहताण स्वाहा तूलए ऐ ओ औ अ अ
ऋ अ आ इ ई उ ऊ ॐ ही अहं अनारतविद्याये।
सम्यक चारित्राय स्वाहा
सह ॐही अहं अनाहतविद्याय
तल चारिन्य
सम्यक
पल
स्वाहा
नम
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यंत्र
४८. स्तम्भन यंत्र
४७-सुरेन्द्र चक्र यंत्र
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नरः
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तथदधन पर
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र २४८-स्तम्मन यंत्र
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यंत्रपीड़न कर्म
यज्ञोपवीत
यंत्रपीड़न कर्म-दे० सावद्या। यंत्रंशयंत्र-दे० यंत्र। यक्षध. १३/५०५,१४०/३६१/8 लोभभूयिष्ठा' भाण्डागारे नियुक्ता' यक्षा'
नाम । -जिनके लोभकी मात्रा अधिक होती है और जो भाण्डागारमें नियुक्त किये जाते हैं, वे यक्ष कहलाते हैं।
२. यक्षनामा व्यन्तर देवके भेद ति प./६/४२ अहमणिपुण्ण सेलमणो भद्दा भद्दका सुभद्दा य । तह सव्वभद्दमाणुसधणपालसरूवजक्वक्वा ।२। जक्खुत्तममणहरणा ताणं ये माणिपुण्णभदिदा ..।४३ = माणिभद्र, पूर्णभद्र, शैलभद्र, मनोभद्र, भद्रक, सुभद्र, सर्वभद्र, मानुष, धनपाल, स्वरूपयक्ष, यक्षोत्तम और मनोहरण ये बारह यक्षोंके भेद है ।४। इनके माणिभद्र और पूर्णभद्र ये दो इन्द्र है (त्रि. सा./२६५-२६६)। * अन्य सम्बन्धित विषय १. व्यन्तर देवोंका एक मेद है।
-दे० व्यन्तर/१। २. पिशाच जातिके देवोंका एक मेद है। -दे०पिशाच। ३. छह दिशाओंके ६ रक्षक देव-विजय, वैजयन्त, जयन्त
अपराजित, अनावर्त, आवर्त । (प्रतिष्ठा सारोद्धार/३/१९६-२०१)। ४. यक्षोका वर्ण, परिवार व अवस्थान आदि। -दे० व्यन्तर। ५. तीर्थंकरोंके २४ यक्षोंके नाम ।
-दे० तीर्थकर/५॥ ६. तीर्थकरोकी २४ यक्षिणियोंके नाम। -दे. तीर्थकर/५। ७. तीर्थकरोंके २४ शासक देवता। --दे० तोथंकर/५। यक्षलिक-ह. पु /३३/श्लोक मलयदेशमें यक्षदत्तका पुत्र था। एक बार एक सर्पिणीको गाडीके पहियेके नीचे दबाकर मार दिया
(१५६-१६०) यह श्रीकृष्णका पूर्वका तीसरा भव है-दे० कृष्ण । यक्षवर-चतुर्थ सागर व द्वीप-दे० लोका/१। यक्षश्वर-अभिनन्दन भगवान् का शासक देवता।-दे०तीर्थंकर/३ । यक्षोत्तम-यक्ष जातिके व्यन्तर देवोका एक भेद-दे० यक्ष ।
कामाग्नि और उदराग्नि, (दे० अग्नि/१) इन तीन अग्नियोमे क्षमा, वैराग्य और अनशनकी आहुतियाँ देनेवाले जो ऋषि, यति, मुनि, और अनगार रूपी श्रेष्ठ द्विज वनमें निवास करते है, वे आत्म-यज्ञकर इष्ट अर्थको देनेवाली अष्टम पृथिवी मोक्षस्थानको प्राप्त होते है। (२०२+२०३) । इसके सिवाय तीथ कर, गणधर तथा अन्य केवलियोंके उत्तम शरीरके संस्कारसे उत्पन्न हुई तीन अग्नियोंमें (दे० मोक्ष/५/१) अत्यन्त भक्त उत्तम क्रियाओं के करनेवाले तपस्वी गृहस्थ परमात्मपदको प्राप्त हुए अपने पिता तथा प्रपितामहको उद्देशकर वेदमन्त्रके उच्चारण पूर्वक अष्ट द्रव्यकी आहुति देना आर्ष यज्ञ है १२०४-२०७। यह यज्ञ मुनि और गृहस्थके आश्रयके भेदसे दो प्रकारका निरूपण किया गया, इनमें से पहला मोक्षका कारण और दूसरा परम्परा मोक्षका कारण है ।२१०। इस प्रकार यह देवयज्ञकी विधि परम्परासे चलो आयी है ।२११। किन्तु श्री मुनिसुव्रत नाथ तीर्थंकरके तीर्थ में सगर राजासे द्वेष रखनेवाला एक महाकाल नामका असुर हुआ था उसी अज्ञानीने इस हिसायज्ञका उपदेश दिया है ।२१२। यज्ञोपवीत--१. यज्ञोपवीतका स्वरूप व महत्व म पु/२८/११२ उरोलिङ्गमथास्य स्याद ग्रथित सप्तभिर्गुणै । यज्ञोपवीतक सप्तपरमस्थानसूचकम् ॥११२॥ =उस (आठवें वर्ष ब्रह्मचर्याश्रममें अध्ययनार्थ प्रवेश करनेवाले उस बालक) के वक्षस्थल का चिह्न सात तारका गूंथा हुआ यज्ञोपवीत है । यह यज्ञोपवीत सात परम स्थानों
का सूचक है। म. पु /३६/६५ यज्ञोपवीतमस्य स्याद् द्रव्य स्त्रिगुणात्मकम्। सूत्रमौपा
क्षिकं तु स्याद् भावारूढ स्त्रिभिर्गुण १५॥ म, पु/४१/३१ एकाद्य कादशान्तानि दत्तान्येम्यो मया विभो। व्रतचिह्नानि सूत्राणि गुणभूमि विभागत १३१ तीन तारका जो यज्ञोपवीत है वह उसका ( जैन श्रावकका) द्रव्य सूत्र है, और हृदयमें उत्पन्न हुए सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान और चारित्र रूपी गुणोसे बना हुआ श्रावकका सूत्र उसका भाव सूत्र है ।६५ (भरत महाराज ऋषभदेवसे कह रहे है कि) हे विभो । मैने (श्रावकोको) ग्यारह प्रतिमाओंके विभागसे तोके चिह्न स्वरूप एकसे लेकर ग्यारह तक सूत्र (ग्यारह लडा यज्ञोपवीत तक) दिये है 1 ३१) (म पु/३८/२१-२२)।
२. यज्ञोपवीत कौन धारण कर सकता है म पु./४०/१६७-१७२ तत्तु स्यादसिवृत्त्या वा मष्या कृष्या वणिज्यया ।
यथास्व वर्तमानाना सदृष्टीना द्विजन्मनाम् ।१६७४ कुतश्चिद कारणाद् यस्य कुल संप्राप्तदूषणम् । सोऽपि राजादिसंमत्या शोधयेत् स्वं सदा कुलम् ।१६८। तदास्योपनयाहत्व पुत्रपौत्रादिसंततौ। न निषिद्ध हि दीक्षा कुले चेदस्य पूर्वजा. १६६। अदीक्षार्हे कुले जाता विद्याशिल्पोपजीविन । एतेषामुपनीत्यादिसंस्कारी नाभिसंमत ११७० तेषा स्यादुचितं लिड्गं स्वयोग्यव्रतधारिणाम् । एकशाटकधारित्वं संन्यासमरणावधि ।१७१। स्यान्निरामिषभोजित्वं कुलस्त्रीसेवनव्रतम् । अनारम्भवधोत्सगों ह्यभक्ष्यापेयवर्जनम् ।१७२।
१. जो अपनी योग्यतानुसार असि, मषि, कृषि व वाणिज्यके द्वारा अपनी आजीविका करते है, ऐसे सदृष्टि द्विजोंको वह यज्ञोपवीत धारण करना चाहिए।२ जिस कुलमे दोष लग गया हो ऐसा पुरुष भी जब राजा आदि (समाज) की सम्मतिसे अपने कुलको शुद्ध कर लेता है, तब यदि उसके पूर्वज दीक्षा धारण करनेके योग्य कुलमें उत्पन्न हुए हों तो उसके पुत्र-पौत्रादि सन्ततिके लिए यज्ञोपवीत धारण करनेकी योग्यताका कही निषेध नहीं है ।१६८-१६६॥ ३ जो दोक्षाके अयोग्य कुलमे उत्पन्न हुए है, तथा नाचना, गाना आदि विद्या और शिल्पसे अपनी आजीविका पालते है ऐसे पुरुषको यज्ञोपवीतादि संस्कारकी आज्ञा नही है । १७०। किन्तु ऐसे लोग यदि अपनी योग्यतानुसार व्रत धारण करे तो उनके योग्य यह चिह्न हो
दे० पूजा/१/१ ( याग, यज्ञ, ऋतु, पूजा, सपर्या, इज्या, अध्वर, मख और
मह ये सब पूजाविधिके पर्यायवाचक शब्द हैं।) म. पु./६७/११४ यज्ञशब्दाभिधेयोरुदानपूजास्वरूपकाव। धर्मात्पुण्यं समावयं तत्पाकादिविजेश्वरा ।१६४।-यज्ञ शब्दका वाच्यार्थ जो बहुत भारी दान देना और पूजा करना है, तत्स्वरूप धर्म से ही लोग पुण्य संचयके फलसे देवेन्द्रादि होते हैं ।१६४॥
२. यज्ञके भेद व भेदोंके लक्षण म. पु./६७/२००-२१२/२५८ आर्षानार्षविकल्पेन यागो द्विविध इष्यते १२०० त्रयोऽग्नय' समुद्दिष्टा' । । तेषु क्षमाविरागत्वानशनाहुतिभिर्वने ।२०२१ स्थित्वर्षियति मुन्यस्तशरणा. परमद्विजा' । इत्यात्मयज्ञमिष्टार्थामष्टमीमवनीं ययुः ।२०३३ तथा तीर्थगणाधीशशेषकेवलिसद्वपुः । संस्कारमहिताग्नीन्द्रमुकुटोत्थाग्निषु त्रिषु ।२०४॥ परमात्मपदं प्राप्तान्निजान् पितृपितामहान। उद्दिश्य भाक्तिका. पुष्पगन्धाक्षतफलादिभिः ।२०५। आर्षोपासकवेदोक्तमन्त्रोच्चारणपूर्वकम्। दानादिसरिक्रयोपेता गेहाश्रमतपस्विन' ।२०६। यागोऽयमृषिमि, प्रोक्तो यत्यगारिद्वयाश्रय. आयो मोक्षाय साक्षात्स्यात्परम्परया पर' ।२१०॥ एवं परम्परामतदेव यज्ञविधिष्विह । १२११। मुनिसुबततीर्थे शसताने सगरद्विष । महाकालासुरो हिंसायज्ञमज्ञोऽन्वशादमुम् १२१२॥ आर्ष और अनार्ष के भेदसे यज्ञ दो प्रकारका माना जाता है ।२००। क्रोधाग्नि,
जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश
भा० ३-४७
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________________
यति
३७०
यथाजात
सकता है कि वे संन्यासमरण पर्यन्त एक धोती पहने ।१७१। ४. यज्ञोपवीत धारण करनेवाले पुरुषोको मास रहित भोजन करना चाहिए, अपनी विवाहिता कुल-स्त्रीका सेवन करना चाहिए, अनारम्भी हिंसाका त्याग करना चाहिए और अभक्ष्य तथा अपेय पदार्थ का
परित्याग करना चाहिए। म पु/३८/२२ गुणभूमिकृताइ भेदात् क्लुप्तयज्ञोपवीतिनाम् । सत्कार' क्रियते स्मैषा अवताश्च बहि कृताः ।२२। -प्रतिमाओके द्वारा किये हुए भेदके अनुसार जिन्होंने यज्ञोपवीत धारण किये है, ऐसे इन सबका भरतने सत्कार किया। शेष अवतियोको वैसे ही जाने दिया ।२२। (म.पू./४१/३४)। दे० संस्कार/२/२ में उपनीति क्रिया (गर्भसे आठवें वर्ष में बालककी उपनौति (यज्ञोपवीत धारण) क्रिया होती है।)
३. चारित्र भ्रष्ट ब्राह्मणोंका यज्ञोपवीत पाप सूत्र कहा है म.पु/२६/११८ पापसूत्रानुगा यूयं न द्विजा सूत्रकण्ठका. । सन्मार्गकण्टकास्तीक्ष्णाः केवलं मलदूषिता. ११८। - आप लोग तो गले में सूत्र धारणकर समीचीन मार्गमें तीक्ष्ण कण्टक बनते हुए, पाप रूप सूत्रके
अनुसार चलनेवाले, केवल मलसे दूषित है, द्विज नहीं है ।१९८१ म. पु./४१/५३ पापसूत्रधरा धूर्ता. प्राणिमारणतत्परा. । वत्स्यद्य गे प्रवस्य॑न्ति सन्मार्ग परिपन्थिन.॥५३॥ = (भरत महाराजके स्वप्नका फल बताते हुए भगवान की भविष्य वाणी) पापका समर्थन करनेवाले अथवा पापके चिह्न स्वरूप यज्ञोपवीतको धारण करनेवाले, प्राणियोंको मारने में सदा तत्पर रहनेवाले ये धूर्त ब्राह्मण आगामी युगमें समीचीन मार्गके विरोधी हो जायेंगे।५३॥ * अन्य सम्बन्धित विषय १. उत्तम कुलीन गृहस्थोंको यज्ञोपवीत अवश्य धारण करना चाहिए।
-दे० संस्कार/२। २. द्विजों या सब्राह्मणोंकी उत्पत्तिका इतिहास
-दे० वर्ण व्यवस्था।
है. वा जिसमे यतियोके आचारादिका वर्णन किया गया है, ऐसे मूलाचार, भगवती आराधना, अनगार धर्मामृत आदि ग्रन्थों को भी यत्याचार कहा जाता है। यथाख्यात चारित्रस.सि./8/१८/४३६/ह मोहनीयस्य निरवशेषस्योपशमारक्षयाच्च आरमस्वभावावस्थापेक्षालक्षणं यथाख्यातचारित्रमित्याख्यायते। यथ त्मस्वभावोऽवस्थितस्तथैवाख्यातत्त्वात् । -समस्त मोहनीय कमके उपशम या क्षयसे जैसा आत्माका स्वभाव है उस अवस्था रूप जो चारित्र होता है वह अथारख्यातचारित्र कहा जाता है।...जिस प्रकार आत्माका स्वभाव अवस्थित है उसी प्रकार यह कहा गया है, इसलिए इसे यथाख्यात कहते है। (रा. वा/8/१८/११/६१७/२६); (त. सा/६/४९); (चा. सा./८४/४); (गो. क./जी.प्र./५४७/७१४/८)। प.सं./प्रा./१/१३३ उवसंते खीणे वा असुहे कम्मम्हि मोहणीयम्हि ।
छदुमत्थो व जिणो वा जहखाओ संजओ साहू १३३॥ - अशुभ रूप मोहनीय कर्म के उपशान्त अथवा क्षीण हो जानेपर जो वीतराग संयम होता है, उसे यथारख्यातसंयम कहते है।...१३३। (ध.१/१,१, १२३/गा. १६१/१२३); (गो.जी./मू./४७५/८८३); (पं.स./प्रा./१/२४३)। घ १/१,१,१२३/३७१/७ यथारख्यातो यथाप्रतिपादित विहार' कषाया
भावरूपमनुष्ठानम् । यथाख्यातो विहारो येषां ते यथाख्यातविहारा। यथाख्यातविहाराश्च ते शुद्धिसयताश्च यथारख्यातविहारशुद्धिसंयता'। -- परमागममें विहार अर्थात् कषायोके अभाव रूप अनुष्ठानका जैसा प्रतिपादन किया गया है तदनुकूल विहार जिनके पाया जाता है, उन्हे यथाख्यात विहार कहते है । जो यथाख्यातविहारबाले होते हुए
शुद्धि प्राप्त सयत है, वे यथारख्यातविहार शुद्धि-सयत कहलाते है। द्र.सं/टी./३/१४८/७ यथा सहजशुद्धस्वभावत्वेन निष्कम्पत्वेन निष्कषायमात्मस्वरूपं तथैवाख्यातं कथितं यथाख्यातचारित्रमिति । == जैसा निष्कम्प सहज शुद्ध स्वभावसे कषाय रहित आत्माका स्वरूप है, वैसा ही आरख्यात अर्थात कहा गया है, सो यथारख्यात
चारित्र है। जैन सिद्धान्त प्र/२२६ कषायोंके सर्वथा अभावसे प्रादुर्भुत आत्माकी शुद्धि विशेषको यथाख्यात चारित्र कहते है।
२. याख्यात चारित्रका गुणस्थानोंकी अपेक्षा स्वामित्व ष. खं. १/१, १/सू. १२८/३७७ जहाक्खाद-विहार-सुद्धि-संजदा चदुसुट्ठाणेसु उवसंत-कसाय-वीयराय-छदुमत्था स्वीण-कसाय-वीयरायछदुमत्था सजोगिकेवली अजोगिकेवलि त्ति ।१२८॥ यथा-रख्यात-विहारशुद्धि-संयत जीव उपशान्त कषाय-वीतराग-छद्मस्थ, क्षीणकषायवीतरागछमस्थः सयोगिकेवली और अयोगिकेवली इन चार गुणस्थानों में होते है ।१२८(पं.सं /प्रा./२/१३३); (ध.१/१,१,१२३/गा, १६१/१२३) (गो. जी /मू/४७/८८३); (प.सं./सं./९/२४३); (द्र. सं./टी./३५/१४६/१)।
३. उसमें जघन्य उत्कृष्ट भेद नहीं होता ष. खं.७/२,१९/सू.१७४/५६७ जहाक्खादविहारसुद्धिसंजदस्स अजहण्ण
अणुक्कस्सिया चरित्त लगी अणतगुणा १७४ कसायाभावेण वड्डिहाणिकारणभावादो। तेणेव कारणेण अजहण्णा अणुक्कस्सा च । = यथारख्यात विहार शुद्धि संयतकी अजघन्यानुत्कृष्ट चारित्र लब्धि अनन्तगुणी है ।१७४।"कषायका अभाव हो जानेसे उसकी वृद्धि हानिके कारणका अभाव हो गया है इसी कारण वह अजघन्यानुत्कृष्ट
भी है। यथाजात-प्र. सा./ता. वृ./२०४/२७८/१५ व्यवहारेण नग्नत्वं यथा
जातरूपं निश्चयेन तु स्वास्मरूपं तदित्थंभूतं यथाजातरूपं धरतीति यथाजातरूपधरः निर्ग्रन्थो जात इत्यर्थः। = व्यवहारसे नग्नपनेको यथाजातरूपधर कहते हैं, निश्चयसे तो जो आत्माका स्वरूप है
यात-चा. सा/४६/४ यतयः उपशमक्षपकण्यारूढा भण्यन्ते । जो
उपशम श्रेणी वा क्षपक श्रेणी में विराजमान हैं उन्हे यति कहते है। (प्र.सा/ता. वृ/२४६/३४३/१६); (का. अ./पं. जयचन्द/४८६)। प्र. सा./ता. वृ./48/१०/१४ इन्द्रियजयेन शुद्धात्मस्वरूपप्रयत्नपरो यति ।
-जो इन्द्रिय जयके द्वारा अपने शुद्धात्म स्वरूपमें प्रयत्नशील होता है उसको यति कहते है। दे० साधु/१ (श्रमण, संयत, ऋषि, मुनि, साधु, वीतराग, अनगार, भदंत,
दान्त, यति ये एकार्थवाची है।) मू. आ./भाषा/८८६ चारित्रमें जो यत्न करे वह यति कहा जाता है। यतिवरवृषभ-प्र. सा./ता. वृ.//१००/१५ निजशुखात्मनि यत्नपरास्ते यतयस्तेषां बरा गणधरदेवादयस्तेभ्योऽपि वृषभ' प्रधानो यतिवरवृषभस्तं यतिवरवृषभं । -निज शुद्धारममें जो यत्नशील है वे यति है। उनमें जो वर-श्रेष्ठ हैं वे गणधर देव आदि हैं, उनमें भी जो प्रधान है यतिवरवृषभ कहलाते हैं। यतिवृषभ-दिगम्बर आचार्यों में इनका स्थान ऊँचा है क्योकि इनके ज्ञान व रचनाओंका सम्बन्ध भगवान वीरकी मूल परम्परासे आगत सूत्रोंके साथ माना जाता है। आर्य मंश्च व नागहस्तिके शिष्य थे। कृति-कषाय प्राभृतके चूर्णसुत्र, तिलोय पण्णत्ति। समयवा. नि. ६७०-७०.व. २००२२३०१३०१४६-१७३ (विशाष . काश भाग १/परिशिष्ट यत्याचार-१. आ, पद्मनन्दि ७ (ई०१३०५) की एक रचना। २. यतियों अर्थात् साधुओंके आचार-विचारको अत्याचार कहा जाता
जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश
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यश:कीति
१राज
यथातथानुपूर्वी
उसी प्रकारके यथाजात रूपको जो धरता है, वही यथाजातरूपधर अर्थात समस्त परिग्रहोंसे रहित हुआ कहा जाता है। यथातथानुपूर्वी-दे० आनुपूर्वी। 'यथार्थ-न्या.वि././१/२८/२८२/११ यो येन स्वभावेन स्थितोऽर्थ.
स यथार्थस्तमिति । -जो पदार्थ जिस स्वभावसे स्थित है, उसको यथार्थ कहते हैं। यदु-हरिवंशका एक राजा था, जिर. यादव वंशकी उत्पत्ति हुई
थी। (ह. पू./१८/५-६) (वे. इतिहास/१०/१०)। यवृष्ट-आलोचनाका एक दोष-दे० आलोचना/२। यम-१.० लोकपाला। २. भोग व उपभोग्य वस्तुओंका जो
जीवन पर्यन्त के लिए त्याग किया जाता है उसको यम कहते है। (दे० भोगोपभोग परिमाणवत: ३. कालाग्नि विद्याधरका पुत्र था। (प.पु./८/११४) इन्द्र द्वारा इसको किष्कपुरका लोकपाल बनाया है। (प. पु./८/९९५) फिर अन्तमें रावण द्वारा हराया गया था। (प.पू./८/४८१-४८५)। ४. देवैवस्वत यम। यमक-विदेह क्षेत्रके उत्तरकुरु व देवकुरुमें सीता व सोतोदा नदीके दोनों तटॉपर स्थित चित्रकूट, विचित्रकूट, यमकूट व मेधकूट नामवाले
चार कूटाकार पर्वत ।-दे० लोक/३/८। यमदंड-रावणका मन्त्री था (प. पृ/६६/११.) । यमदग्नि-एक बाल ब्रह्मचारी तापसी था। पक्षी वेशधारी दो देवोंके कहनेसे एक छोटीसी लड़कीको पालकर पीछे उससे विवाह किया, जिससे परशुरामकी उत्पति हुई। (बृ. क. को./कथा/५६/ पृ.१६-१०३)।
यवमुरजक्षेत्र-(ज. प./३१ यह आकृति क्षेत्रके उदग्र समतल द्वारा प्राप्त छेद (Verticalsection) है। इसका विस्तार राजु यहाँ चित्रित नहीं है। यहाँ मुरजका क्षेत्रफल (रा. + १रा)
२}x१४ रा. = {x ३}x१४=३४६३ वर्गराजु इसलिए, मुरजका धनफल %D३४७ = ४३ धनराजु२२०३ धनराजु । एक यवका क्षेत्रफल-(रा.२)x राजु-३ x** वर्गराजु, इसलिए, २५ यवका क्षेत्रफल - २४१-३५ घनराजु-१२२३ । घनराजु।
ALE
RAN
हटा०
११राज
नराजु-१२२६ MOM
यशःकोति-१. नन्दीसघ बलात्कारगणकी गुर्वावलीके अनुसार (दे० इतिहास ) आप लोहाचार्य ततीयके शिष्य तथा यशोनन्दिके गुरु थे। समय-श-सं१५३-२११(ई.२३१-२६६)।-दे० इतिहास५/१३ । २.काष्ठासंघकी गुर्वावलीके अनुसार आप क्षेमकीतिके गुरु थे। समय-वि. १०३० ई० ६७३ (प्रद्युम्नचरित्र/प्र. प्रेमी); (ला. सं./ १४६४-७०)-दे० इतिहास/५/६। ३. ई..श. १३ में जगत्सुन्दरी प्रयोगमालाके कर्ता हुए थे। (हि जै. सा. इ./३०/कामताप्रसाद )। ४. आप ललितकोर्तिके शिष्य तथा भद्रबाहूचरितके क्र्ता रत्ननन्दि न०२ के सहचर थे। आपने धर्मशर्माभ्युदयको रचना की थी। समय-वि०१२६६ ई०१२३६.1 (भद्रबाह चरित/प्र/७/कामता) धर्म, शर्माभ्युदय/प्र.प पन्नालाल । चन्दयह चरिउकेरी अप'श
वि।समय-वि.श.११ का अन्त १२ का प्रारम्भ । (ती./४/१७८)' ६. काष्ठासंघ माथुर गच्छ के यशस्वी अपभ्रंश कवि। पहले गुण कीति भट्टारक (वि. १४६८-१४८६) के सहधर्मा थे, पीछे इनके शिष्य हो गये। कृतिय-पाण्डव पुराण, हरिव श पुराण, जिणत्ति कहा। समय-वि.१४८६-१४६७) ई. १४२६-१४४०) । (ती./३/३०८)। ७. पद्यनन्दि के शिष्य क्षेमकीर्ति के गुरु । लाटीसंहिता की रचना के लिए पं राजमाल जी के प्रेरक । समय-बि ६१६(ई १५५६).
-
-
यमदेव-भद्रशाल वनस्थ नील दिग्गजेन्द्र, स्वस्तिक व अंजन
शैलोका रक्षक देव-दे. लोक/७ । यमलोक-भगवान वीरके तीर्थमें अन्तकृत केवली हुए हैं-दे०
अन्तकृत। यव-क्षेत्रका एक प्रमाण विशेष-दे० गणित/II/31 यवमध्य-दे० योग/१४ । यवमध्य क्षेत्र-(ज. प./प्र. ३१. ३२) यह आकृति, क्षेत्रके उदग्र समतल द्वारा प्राप्तछेद्र ( Verticalsection ) है। इसका आगे पीछे (उत्तर-दक्षिण) विस्तार ७ राजु यहाँ चित्रित नहीं है। यहाँ यवमध्यका क्षेत्रफल - (१.२)x १४ वर्ग राजु, इसलिए ३५
VPR/१३/१
चारशरा यजमध्यका क्षेत्रफल -६४३५ । -४६ वर्ग राजुः इस प्रकार ३५ V२८/२०/२२४ यवमध्यका धनफल-४६४७ धनराजु-३४३ षनराजु और एक यवमध्यका घनफल-३४३-१९३२५/20/२६VARVA मापन-उपप
व राजू श्रनसगराए क्नराजु। यवन-१.भरतक्षेत्र उत्तर आर्य खण्डका एक देश-दे० मनुष्य/ २. यूनानका पुराना नाम है। (म.पू./प्र.५०/पज्ञालाल)।
A
यशःकोतिस.सि./9/११/३६२/६ पुण्यगुणल्यापनकारणं यश कीर्तिनाम। तत्प्रत्यनीकफलमयश कीर्तिनाम । -पुण्य गुणोंकी प्रसिद्धिका कारण यश-कीर्ति नामकर्म है। इससे विपरीत फलवाला अयश कीति नामकर्म है ( रा. वा./६/११-१२/१७४/३२); (गो. क जी.प्र./३१
३०/१६)। ध,4/१६-१.२८/६६/१ जस्स कम्मस्स उदएण संताणमसंताणं वा गुणाणमुम्भावणं लोगेहि कोरदि, तस्स कम्मस्स जसकित्तिसण्णा । जस्स कम्मस्सोदएण सताणमसताणं वा अवगुणाणं उन्भावणं जमेण कीरदे, तस्स कम्मस्स अजस कित्तिसग्णा। -जिस कमके उदयसे विद्यमान या अविद्यमान गुणोंका उद्भावन लोगों के द्वारा किया जाता है, उस कर्मकी 'यश-कीर्ति' यह संज्ञा है। जिस कर्मके उदयसे विद्यमान अवगुणोंका उद्भावन लोक द्वारा किया जाता है, उस कर्मकी 'अयशकीर्ति यह मंज्ञा है। (ध. १३/५,४,१०१/१५६/५)।
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यश
* अन्य सम्बन्धित विषय
१. यशःकीर्तिको बन्ध उदय व सत्त्व प्ररूपणाएं व तत्सम्बन्धी शका-समाधानादि ।
- दे० वह वह नाम । २. अयशःकीर्तिका तीर्थकर प्रकृति के साथ कन् न तत्सम्बन्धी शंका | -३० प्रकृति ५ ।
यश-रूपक पर्वतस्य एक०/२/१३
यशस्तिलकचम्पू
यशपाल - अपरनाम जयपाल था । अत दे० जयपाल । यशस्तिलकचंद्रिका सोमदेव कृत यशस्तिलक चम्पू की श्रुतसागर (ई. १४८०-१४६६) कृत संस्कृत टीका । (ती./३/३१४) । आ. सोमदेव द्वारा ई ५५६ में रचित संस्कृत भाषा चम्पू काव्य जिसमें यशोधर महाराज का जीवन चित्रित किया गया है। (ती./२/८३) १ (जै /४२७) । यशस्वान् १. वर्तमान कालीन नवमें कुलर हुए है (विशेष दे० शलाका पुरुष / १ ), २. किपुरुष नामा जाति व्यन्तर देवका एक भेद० किपुरुष । यशस्वान् देव
-
-मानुषोत्तर पर्वतस्थ वैडूर्य कूटका भवनवासी सुपर्णकुमार देव - दे० लोक / ५ /१० ।
यशस्विनी- - रुचक पर्वत निवासिनी दिक्कुमारी देवी- दे०लोक ५/१३ कुलकरका अपरनाम है - दे०
यशस्वी - वर्तमानकालीन हवे
--
-
यशस्वात् ।
-
यशोदेवमवास्तिक लम्पूके नेमिदेव के गुरु थे । सोमदेव के (६० ६१०-१४३) (मी सा./
यशोधर- १. भूतकालीन उन्नीसवें तीर्थंकर-दे० तीर्थंकर /५ । २. नाचतु० /३२. मानुषोउत्तर पर्वतस्थ सौगन्धिक कूटका स्वामी भवनवासी सुपणकुमार देव । -दे० लोक/२/२०१
कर्ता सोमदेव के दादा गुरु और अनुसार इनका समय - ई. श. १० श्रीसा) ।
यशोधर चरित्र - इस विषय के कई संस्कृत भाषा में रचित ग्रन्थ हैं। १. वादिराज द्वि (ई. १०१० -१०६५) कृत (ती./२/१००)। २. कबि पद्मनाभ (ई. १४०५-१४२५) कृत (सी. /४/५६) । ३. सक्ल कीर्ति (ई. १४०६ - १४४२) कृत (ती./३/३३१) । ४ सोमकीर्ति (ई. १४६१) कृत (तो./३/३४०)। घुतसागर (ई. १४८०-१४६१) कृत (ती / ३ /४००)। ज्ञानकीर्ति (१६०२) कृत (ती/४/२६) ।
यशोधरचरित्र । ६. आ० श्रुतसागर (ई. १४७३-१५३३ ) कृत यशोधरचरित्र । यशोधरा पर्वत निवासिनी दिवकुमारी देवी ३० लोक ५११२ यशोधर्मदेष्णुशोधर्म यशोनंदि - नन्दिसघबलात्कारगणकी गुर्वावली के अनुसार आप यश कीर्तिके शिष्य तथा देवनन्दिके गुरु थे। समय- श. स. २११२५० (३०२८-३३६) ३० इतिहास / ०/२ । यशोबाहु—दे० भद्रबाहु ।
यशोभद्र- १. श्रुतवली भद्रबाहु द्वि गुरु 8 अ गधारी अथवा
आचारांगधारी । समय-विनि ४७४-४६२ (ई पू. ५६-३५) । (दे, इतिहास/४/४२ जिनसे (१८१८-१८) के आदि पुराण में प्रस्नर तार्किक के रूप में स्मृत और आ. पूज्यपाद (वि. श. ५-६ ) के जैनेन्द्र व्याकरण में नामोल्लेख अत समय-वि. श ६ (ई. श. ५ उत्तरार्ध) (ती./२/४३१)।
1
२७२
यावानुद्दश
यशोभद्रालोक / ५ /११ ।
"नन्दीश्वरद्वीपकी उत्तर दिशामें स्थित एक वापी-दे०
यशोरथ -- उज्जयिनी नगरीका राजा था। पुत्रकी मृत्युपर विरक्त हो दीक्षा धारण की क को/कथा २/५. १५-१६) । यशोवर्मा -
1
भोजवंश में यह नरवर्माके पुत्र और अजयवर्माके पिता थे । मालवा (मगध ) देशके राजा थे । समय- ई० ११४३-११५३ -३० इतिहास /२/४ यशोविजय श्वेताम्बर सभा के प्रसिद्ध उपाध्याय हुए हैं। गुरु परम्परा-बादशाह अकबर के प्रतिबोधक हरिविजय, कल्याणविजय, लाभविजय यशोविजय। आपने दिगम्बर मान्य निश्चय नय की घोर भर्त्सना की है, परन्तु अपनी रचनाओं में समयसार का खूप अनुसरण किया है। कृतिले अध्यात्मसार, अध्यायोपनिषद आध्यात्मिक मत खण्डन, नय रहस्य, नय प्रदीप, नयोपदेश, जैन सर्फ परिभाषा ज्ञान बिन्दु शास्त्रवार्ता समुच्चय टीका, देवधर्म परीक्षा, यतिलक्षण समुच्चय, गुरुतत्व विनिश्चय, अष्टसहस्रौ विवरण, स्याद्वाद मञ्जरी की वृत्ति स्याद्वाद् मञ्ज ूषा, जय विलास (भाषापद संग्रह), दिग्पट चौरासी (दिगम्बराम्नायकी मान्यताओं पर आक्षेप) इत्यादि अनेकों ग्रन्थ आपने रचे हैं। समय- ई. १६३८१६८८ । (जै./२/२०४-२०५) ।
"
याग - दे० यज्ञ ।
याज्ञिकमत गो. जी / जी प्र / ६८/१७८/६ संसारिजीवस्य मुक्तिमस्ति संसारी जीवकी कभी मुक्ति नहीं होती है, ऐसा याज्ञिकमवा मानते है।
याचना याचनाका कथंचित् विधिनिषेध - दे० भिक्षा / १ | याचना परिषहस सि /६/१/४२५/१ बाह्याभ्यन्तरतपोऽनुष्ठान
परस्य भावनाले निस्तारीत पतनतापनिपीतसारतरोरिव विरहितच्छायस्य त्वगस्थिशिराजाल मात्रतनुयन्त्रस्य प्राणारमये सध्यप्याहारवसतिभेषजानि दीनाभिधानमुने वयशादिभिरयाचमानस्य भिक्षाकालेऽपि विद्योत दुरुपय चनापरिषहसहनमवसीयते । - जो बाह्य और आभ्यन्तर तपके अनुष्ठान करनेमें तत्पर है, जिसने तपकी भावनाके कारण अपने शरीरको सुखा डाला है, जिसका तीक्ष्ण सूर्य के ताप के कारण सार व छाया रहित वृक्षके समान त्वचा, अस्थि और शिराजाल मात्र से युक्त शरीरयन्त्र रह गया है, जो प्राणो का वियोग होनेपर भी आहार, वसति और दवाई आदिको दीन शब्द कहकर, मुखकी विवर्णता दिखाकर व संज्ञा आदिके द्वारा याचना नहीं करता, तथा भिक्षाके समय भी जिसकी मूर्ति की चमके समान रुपलक्ष्य रहती है, ऐसे साधुके याचना परिजय जानना चाहिए (रा. वा // ६ / ११ / ६१९ / १०) (चा. सा./१२२/२) । याचनीभाषा - दे० भाषा । यादव वंश इतिहास /१०/१०
यान, १४/५.६.३१/३/विभिदेहि बारिया संता जे गमणक्खमा वोहित्ता ते जाणा णाम । नाना प्रकार के माण्डो से आपूरित होकर भी समुद्र में गमन करनेमें समर्थ जो जहाज होते है वे यान कहते है। यापनीय संघ - दे०
याम - Coordinates (ज. प./प्र / १०८ ) ।
यावानुद्देश
जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश
"उद्दिष्ट आहारका एक दोष । दे० उद्दिष्ट ।
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युक्त
S
युक्त-५.सि./५/३०/३०१/९ समाधिमनो वा युक्तन्दः । युक्त समाहितस्तदात्मक इत्यर्थ । यह युक्त शब्द समाधिवाची है। भाव यह है कि युक्त, समाहित और तदात्मक ये तीनों एकार्थवाची शब्द है ।
युक्तानन्त दे० अनन्त । यक्तासंख्यात० संस्थात
युक्ति-दे० तर्क
युक्ति चितामणि सस्य आ. सोमवेन (६.६४-६६)
न्याय विषयक ग्रन्थ ।
युक्त्यनुशासन- आ. समन्तभद्र (ई. श. २) कृत संस्कृत छन्दो में रचा गया ग्रन्थ है। इसमें न्याय व युक्तिपूर्वक जिनशासनकी स्थापना की है। इसमें ६४ श्लोक है । (ती./ २ / ११० ) । इसपर पीछे या विद्यानन्द (ई. ७०५-०४०) द्वारा अनुशासनास कार नामको वृत्ति लिखी गयी है (ती २/२६५)
युग-१, दो कोका एक युग होता है। २ युगका प्रारम्भ-० काल/४३ कृतयुग या कर्मभूमिका प्रारम्भ २०/४४. क्षेत्रका प्रमाण विशेष । अपरनाम दण्ड, मुसल, नाली-दे० गणित /I / १/३ ५. कालका प्रमाण विशेष । ६. दे० गणित / I /९/४ ।
३७३
युग - १४/५.६.४९/१८/१ गरुपेण महात्मे य जंतुरय बेसरादीहि दुन्मदि से जुग नाम हो बहुत भारी होनेसे और बहुत बड़े होनेसे घोडा और खच्चर आदिके द्वारा ढोया जाता है, वह युग कहलाता है। युगकंधराएक अतिचार-३० सर्ग / १
।
युगपत् स्वा./११/२००/- या तु तेषामेव धर्माणां कालादिभिर भेदेन वृत्तमात्मरूपमुच्यते तदेकेनापि शब्देनैकधर्म प्रत्यायनमुखेन तदात्मकता मापन्नस्यानेका शेषधर्मरूपस्य वस्तुनः प्रतिपादनसम्भवाद् यौगपथस् जिस समय वस्तु अनेक धर्मोका कास आदिसे अभेद सिद्ध करना होता है, उस समय एक शब्दसे यद्यपि वस्तु के एक धर्मका ज्ञान होता है, परन्तु एक शब्दसे ज्ञात इस एक धर्म के द्वारा ही पदार्थोंके अनेक चौका ज्ञान होता है। इसे वस्तुका एक साथ ( युगपत् ) ज्ञान होना कहते है । ( स. भं, त० / ३३/३) ।
युगादिपुरुष युगके आदि होनेसे लकरको ही युगादिपुरुष कहते है । ये मुख्यतः १४ होते है । इन १४ कुलकरोका परिचय - दे० ० शलाका पुरुष / ६ ।
---
युग्म - च, १० / ४,२,४,३/२२/३ जुम्मं सममिदि एमोस दुहिं
दमादम्भेण तत्थ जो रासी चहि अहिदि सो द जुम्मो जो रासी चहि अवहिनिमाणो दोषो होदि सो बादरजुम्म । युग्म और सम ये एकार्थवाचक शब्द है । वह कृतयुग्म और बादरयुग्मके भेदसे दो प्रकारका है। उनमें से जो राशि पारसे अपहृत होती है वह कृतयुग्म कहलाती है। जिस राशिको चार अवत करने पर दो रूप ( २ ) शेष रहते हैं वह बादरयुग्म कहलाती है ।
युग्मचतुष्टयदे अनेकान्त / ४ | युत सिद्ध
काता../२०/११/
दण्ड
प्रणयुद्धाय और इण्डीकी भाँति प्रदेश भिन्न है जिसका वह सिद्ध कहलाता है ।
* द्रव्य गुण व पर्याय त सिद्ध है - २००४
योग
युति
ध. १३/५,५,८२/३४८/१ सामीप्यं संयोगो वा युति । समीपता या संयोगका नाम युति है । २. युतिके भेद
१२/२/४/तिविहा जीवजुडी पोगबुडी जीव-योग्गली दिसते गामय मिले गृहाए अडईए जीवाणं मेलणं जीवजुडी णाम । वारण हिडिजमाणपण्णाणं व एक्कम्हि देसे पोग्गलाणं मेलणं पोग्गलजुडी णाम । जीवाणं पोग्गसा च मेलन जीवनगड नाम अथवा दयी जीवयोग्गल धम्माधम्मकालागासा मेगादि उप्पादेदव्वा । जीवादि दव्त्राणं णिरयादिखेत्ते हि सह मेलण खेत्तजुडी णाम । तेसि चेन दव्वाण दिवस-मासवारादिकाहि सह मेलणं कालजुडी णाम । कोह- माण- माया लोहादीहि सह मेलणं भावजुडी नाम यहाँ द्रव्य युति तीन प्रकार की है जीवति गलति और जीव- इनमे से एक कुल ग्राम, नगर, fee गुफा या अजीबोका मिलना जीवति है वायुके कारण हिलनेवाले पत्तोंके समान एक स्थानपर पुद्गलोका मिलना पुद्गलयुति है। जीव और पुद्गलोका मिलना जीव- पुद्गल युति है। अथवा जीव, पुद्गल, धर्म, अधर्म, काल और आकाश इनके एक आदि सयोगके द्वारा द्रव्य-युति उत्पन्न करानी चाहिए। २. जीवादि इक्योंका नारकादि क्षेत्रोंके साथ मिलना क्षेत्र- पुति है। ३. उन्ही द्रव्योका दिन, महीना और वर्ष आदि कालोंके साथ मिलाप होना काति है ४ क्रोध, मान, माया और सोभादिके साथ उनका मिलाप होना भावयुति है ।
"
३. युति व बन्धमें अन्तर
ध. १३/५५,८२ / ३४८/६ युति बन्धयोः को विशेषः । एकीभावो बन्ध.. सामीप्यं संयोगो वा युति. । - प्रश्न- युति और बन्ध में क्या भेद है उधर एकीभाग का नाम बम्ध है और समीपता या संयोगका नाम युति है।
युधिष्ठिर - प. पू. /सर्ग नं. / श्लोक नं. पूर्व के दूसरे भव में सोमदत्त नामका ब्राह्मण पुत्र था (२१/८१) पूर्व भव में आरण स्वर्ग में देव था (२२/११२) वर्तमान में पाण्डु राजाका कुन्ती रानी से पुत्र या ( ८ / १४३ : २४ /७४ ) अपने ताऊ भीष्न व गुरु द्रोणाचार्य से क्रमसे शिक्षा न धनुर्विद्या प्राप्त की (०/२००-२१४) प्रयास कामे अनेकों कन्याओसे विवाह किया ( १३/३३, १३/१६० ) । दुर्योधनके साथ जुए में हारने पर १२ वर्ष का वनवास मिला ( १६ / १०४ - १२५ ) । न मुनियोंके दर्शन होने पर स्व निन्दा की ( १७/४ ) । अन्तमें अपने पूर्व भव सुनकर दीक्षा ग्रहण की ( २५/१२ ) । तथा घोर तप किया (२६/१०-३१) दुर्योधनके भान कुर्यधर उपसर्गको जीत मोक्ष प्राप्त किया (२५/५२-१३३ ) ( विशेष दे० पाण्डब ) युवती १४०२
युवेनच्वांग - एक चीनी यात्री था. २१-६४ मे भारतकी यात्रा की (सि.वि./१०/०. महेन्द्र)
यूक
अपरनाम जु। क्षेत्रका प्रमाण - दे० गणित / I / १ । यूनान - वर्तमान ग्रीक ( ग्रीस ), ( म पु / प्र ५० / पं. पन्नालाल ) योग-संयोग कारण जनके प्रदेशोका परिस्पन्दन
योग कहलाता है अथवा मन, वचन, कायकी प्रवृत्तिके प्रति जीवका उपयोग या प्रयत्न विशेष योग कहलाता है, जो एक होता हुआ भी मन, वचन आदिके निमित्त की अपेक्षा तीन या पन्द्रह प्रकार का है ।
जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश
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योग
३७४
सूचीपत्र
ये सभी योग नियमसे क्रम-पूर्वक ही प्रवृत्त हो सकते है, युगपत नहीं। जीव भावको अपेक्षा पारिणामिक है और शरीरको अपेक्षा क्षायोपशामिक या औदयिक है।
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योगके भेद व लक्षण योग सामान्यका लक्षण १. निरुक्ति अर्थ, २. जीवका वीर्य या शक्ति विशेष। ३. आत्म प्रदेशोका परिस्पन्द या संकोच विस्तार । ४. समाधिके अर्थमे योग। ५. वर्षादि काल स्थिति । योगके भेद त्रिदण्डके भेद-प्रभेद। द्रव्य भाव आदि योगोंके लक्षण । मनोयोग व वचनयोगके लक्षण -दे० वह वह नाम । काययोग व उसके विशेष -दे० वह वह नाम । आतापन योगादि तप। -दे० कायक्लेश । निक्षेप रूप भेदोंके लक्षण। शुभ व अशुभ योगोंके लक्षण -दे. वह वह नाम । योगके भेद व लक्षण सम्बन्धी तर्क-वितर्क | वस्त्रादिके सयोगसे व्यभिचार निवृत्ति ।
मेघादिके परिस्पन्दमें व्यभिचार निवृत्ति । योगद्वारोंको आस्रव कहनेका कारण ।
-दे० आसव/२ । परिस्पन्द व गतिमें अन्तर । परिस्पन्द लक्षण करनेसे योगोंके तीन भेद नहीं
हो सकेगे। | परिस्पन्दरहित होनेसे आठ मध्य प्रदेशोंमें बन्ध न
हो सकेगा। | अखण्ड जीव प्रदेशोंमें परिस्पन्दकी सिद्धि ।
-दे० जीव/४/७। जीवके चलिताचलित प्रदेश। -दे. जीव/४ । योगमे शुभ अशुभपना क्या। शुभ अशुभ योगमें अनन्तपना कैसे है। योग व लेश्यामें भेदाभेद तया अन्य विषय ।
-दे० लेश्या । योग सामान्य निर्देश योग मार्गणामें भाव योग इष्ट है। योग वीर्यगुणकी पर्याय है। योग कथचित् पारिणामिक भाव है। योग कचित् क्षायोपमिक भाव है। योग कथंचित् औदयिक भाब है। | उत्कृष्ट योग दो समयसे अधिक नहीं रहता। तीनों योगोंकी प्रवृत्ति कमसे ही होती है युगपत् नहीं। तीनों योगोंके निरोधका क्रम ।
योगका स्वामित्व व तत्सम्बन्धी शंकाएँ योगोंमे सम्भव गुणस्थान निर्देश । केवलीको योग होता है। -दे० केवली/। सयोग-अयोग केवली।
-दे० केवली। अन्य योगको प्राप्त हुए बिना गुणस्थान परिवर्तन नहीं होता।
-दे० अन्तर/२। गुणस्थानों में सम्भव योग। योगोंमें सम्भव जीव समास । योगमें सम्भव गुणस्थान, जीवसमास, मार्गणास्थान
आदिके स्वामित्व सम्बन्धी प्ररूपणाएँ। -दे० सत् । योगमार्गणा सम्बन्धी सत्, सख्या, क्षेत्र, स्पर्शन, काल, अन्तर, भाव, अल्प बहुत्वरूप आठ प्रकपणाएँ।
-दे० वह वह नाम । योग मार्गणामे कर्मोंका बन्ध उदय व सच।
-दे० वह वह नाम । कौन योगसे मरकर कहाँ उत्पन्न हो। -दे. जन्म/६। सभी मार्गणाओमें आयके अनुसार व्यय होनेका नियम ।
-दे० मार्गणा। पर्याप्त व अपर्याप्तमें मन, वचन, योग सम्बन्धी शका। मनोयोगोमें भाषा व शरीर पर्याप्तिकी सिद्धि । अप्रमत्त व ध्यानस्थ जीवोंमें असत्य मनोयोग कैसे। समुद्घातगत जीवोमें मन, वचन, योग कैसे। असंशी जीवोमें असत्य व अनुभय वचनयोग कैसे। मारणान्तिक समुद्वातमें उत्कृष्ट योग सम्भव नहीं।
-दे० विशुद्ध/८/४। योगस्थान निर्देश योगस्थान सामान्यका लक्षण । योगस्थानोके भेद । उपपाद योगस्थानका लक्षण । एकान्तानुवृद्धि योगस्थानका लक्षण । परिणाम या घोटमान योगस्थानका लक्षण । | परिणाम योगस्थानोंकी यदमध्य रचना। योगस्थानोंका स्वामित्व सभी जीव समासों में सम्भव है। योगस्थानोके स्वामित्व की सारणी। योगस्थानोंके अवस्थान सम्बन्धी प्ररूपणा ।
-दे० काल/६। लब्ध्यपर्याप्तकके परिणाम योग होने सम्बन्धी दो मत । योगस्थानोंकी क्रमिक वृद्धिका प्रदेशबन्धके साथ
सम्बन्ध । योगवर्गणा निर्देश योग वर्गणाका लक्षण। योग वर्गणाके अविभाग प्रतिच्छेदोकी रचना । योगस्पर्धकका लक्षण
GMSu mm *GM * *
जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश
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योग
३७५
१.योगके भेद व लक्षण
योग कहते हैं। योग, समाधि और सम्यक्प्रणिधान ये एकार्थवाची है। (द. पा./टी/8/4/१४) । दे० सामायिक/१ साम्यका लक्षण (साम्य, समाधि, चित्तनिरोध व
योग एकार्थवाची है।) दे. मौन/१ (बहिरन्तर जल्पको रोककर चित्त निरोध करना योग
१. योगके भेद व लक्ष
१. योग सामान्यका लक्षण १. निरुक्ति अर्थ रा.वा./७/१३/४/५४०/३ योजनं योग संबन्ध इति यावत् ।
सम्बन्ध करनेका नाम योग है। घ.१/१,१,४/१३६/युज्यत इति योग । जो सम्बन्ध अर्थात् संयोग
को प्राप्त हो उसको योग कहते है।
२. जीवका वीर्य या शक्ति विशेष पं.स./प्रा./१/८८ मणसा गया कारण वा वि जुत्तस्स विरियपरिणामो।
जीवस्य (जिह) पणिजोगो जोगो त्ति जिणेहि णि दिट्ठो। मन, वचन और कायसे युक्त जीवका जो वीर्य-परिणाम अथवा प्रदेश परिस्पन्द रूप प्रणियोग होता है, उसे योग कहते है।८। (ध.१/१,१,४/
गा. ८८/१४० ); गो. जी./म् /२१६/४७२ )।। रा, वा /8/७/११/६०३/३३ वीर्यान्तरायक्षयोपशमलब्धवृत्तिवीर्यल ब्धि
र्योग' तद्वत आत्मनो मनोवाक्कायवर्गणालम्बन प्रदेशपरिस्पन्द. उपयोगो योग ।-वीर्यान्तरायके क्षयोपशमसे प्राप्त वीर्यलब्धि योगका प्रयोजक होती है। उस सामर्थ्यवाले आत्माका मन, वचन और
काय वर्गणा निमित्तिक आत्म प्रदेशका परिस्पन्द योग है। दे० योग/२/५ (क्रियाकी उत्पत्तिमें जो जीवका उपयोग होता है वह
योग है।) ३. आत्मप्रदेशोंका परिस्पन्द या संकोच विस्तार स. सि./२/२६/१८३/१ योगो वाड्मनसकायवर्गणानिमित्त आत्मप्रदेशपरिस्पन्द । वचनवर्गणा, मनोवर्गणा और कायवर्गणाके निमित्तसे होनेवाले आत्म प्रदेशों के हलन-चलनको योग कहते है। (स.सि /६/९/३१८/५); (रा. वा./२/२६/४/१३७/८); (रा. वा./६/ १/१०/५०५/१५); (घ/१/१,१,६०/२६६/७),(ध ७/२,१,२/६/813 (ध. ७/२.१.१५/१७/१०), (प.का./त,प्र/१४८), (द्र.सं.टी./ ३०/८८/६); (गो.जी/जी प्र/२१६/४७३/१८)। रा. वा./९/७/११/६०३/३४ आत्मनो मनोवाकायवर्गणालम्बन प्रदेशपरिस्पन्द उपयोगो योगः। =मन, वचन और काय वर्गणा निमित्तक आत्मप्रदेशका परिस्पन्द योग है। (गो, जी./म.प्र./२१६/
४७४/१)। घ. १/१.१,४/१४०/२ आत्मप्रदेशानी संकोचक्किोचो योग ।
आत्मप्रदेशोके संकोच और विस्तार रूप होनेको योग कहते है। (ध.७/२,१,२/६/१०)। घ.१०/४,२,४,१७५/४३७/७ जीव पदेसाणं परिप्फंदो स कोचविकोचम्भमणसरूबओ। =जीव प्रदेशोका जो संकोच-विकोच व परिभ्रमण रूप परिस्पन्दन होता है वह योग कहलाता है।
४. समाधिके अर्थमें नि. सामू १३६ विवरीयाभिणिवेसं परिचत्ता जोहक हियतच्चेसु ।
जो जुजदि अप्पाग णियभावो सोहवे जोगो ।१३। -विपरीत अभिनिवेशका परित्याग करके जो जैन कथित तत्त्वोमें आत्माको लगाता है, उसका निजभाव वह योग है। स. सि./६/१२/३३१/३ योग' समाधि सम्यक्प्रणिधानमित्यर्थः । योग, समाधि और सम्यक् प्रणिधान ये एकार्थवाची नाम है। (गो. क./
जी.प्र/८०१/१८०/१३); (वै.शे. दै/५/२/१६/१७२)। रा. वा./६/१/१२/५०५/२७ युजे समाधिवचनस्य योग- समाधि. ध्यानमित्यनर्थान्तरम् । =योगका अर्थ समाधि और ध्यान भी होता है। रा. बा./६/१२/८/५२२/३१ निरवद्यस्य क्रियाविशेषस्यानुष्ठानं योग समाधिः, सम्यक प्रणिधानमित्यर्थः।-निरवद्य क्रियाके अनुष्ठानको
५ वर्षादि काल स्थिति द. पा/टी./६/८/१४ योगश्च वर्षादिकाल स्थिति । = वर्षादि ऋतुओकी काल स्थितिको योग कहते है। २. योगके भेद १. मन वचन कायकी अपेक्षा ष. खं. १/१,१/सू. ४७,४८/२७८,२८० जोगाणुवादेण अस्थि मणजोगी वचजोगी कायजोगी चेदि 1४७। अजोगि चेदि ।४८-योग मार्गणाके अनुवाद की अपेक्षा मनोयोगी वचन योगी और काययोगी जीव होते है ।४८ (बा अ/४६); (त.सू./६/१) (ध,८/३,६/२१५); (ध.१०/४,२,४,१७५/४६७/६); (द्र.सं/टी./१३/३७/७), (द्र.सं./
टी./३०/८६/६)। स.सि 14/१/३७६/१ चत्वारो मनोयोगाश्चत्वारो वाग्योगा पञ्च काय
योगा इति त्रयोदश विकल्पो योग। -चार मन योग, चार वचन योग और पाँच काय योग ये योगके तेरह भेद है। (रा. वा/८/९/ २६/५६४/२६); (रा. वा./8/७/११/६०३/३४), (द्र. सं/टी./३०/८६/ ७-१३/३७/७); (गो. जी./मू /२१७/४७५), (विशेष दे. मन, वचन, काय)।
२. शुभ व अशुभ योगकी अपेक्षा ब, आ /४६.५० ..मणवचिकायेण पुणो जोगो.. ४६असुहेदरभेदेण दु
एक्केक्कू वण्णिदं हवे दुविहं /.. 101 =मन, वचन, और काय ये तीनो योग शुभ और अशुभ के भेदसे दो-दो प्रकारके होते है। (न.
च. वृ./३०८)। रा. वा./६/३/२/५०७/१ तस्मादनन्तविकल्पादशुभयोगादन्य शुभयोग इत्युच्यते। -अशुभ योगके अनन्त विकल्प है, उससे विपरीत शुभ योग होता है।
३. त्रिदण्डके भेद-प्रभेद चा. सा./EE/६ दण्डस्त्रिविध', मनोवाकायभेदेन । तत्र रागद्वेषमोहबिकल्पारमा मानसो दण्डस्त्रिविध | मन, वचन, कायके भेदसे दण्ड तीन प्रकार का है, और उसमें भी राग द्वेष, मोहके भेदसे मानसिक दण्ड भी तीन प्रकार है।
४. द्रव्य माव आदि योगोंके लक्षण गो. जी./जी. प्र./२१६/४७३/१५ कायवाड्मनोवर्गणावलम्बिन ससारिजीवस्य लोकमात्रप्रदेशगता कर्मादानकारणं या शक्ति सा भावयोगः । तद्विशिष्टात्मप्रदेशेषु य किचिच्चलनरूपपरिस्पन्द स द्रव्ययोगा। जो मनोवाक्कायवर्गणाका अवलम्बन रखता है ऐसे ससारी जीवकी जो समस्त प्रदेशो में रहनेवाली कोंके ग्रहण करने में कारणभूत शक्ति है उसको भावयोग कहते है। और इसी प्रकारके जीवके प्रदेशोका जो परिस्पन्द है उसको द्रव्ययोग कहते है।
५. निक्षेप रूप मेदोंके लक्षण नोट-नाम, स्थापनादि योगोंके लक्षण - दे० निक्षेप । ध. १०/४,२,४,१७५/४३३-४३४/४ तव्वदिरित्तदव्वजोगो अणेयविहो ।
जहा-सूर-णवखत्तजोगो चद-गवरखत्त जोगोगह णवखत्तजोगो कोण
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योग
गारजंगो जोगो मेजोगो इच्चेवमादओ जो आगनमावजोगो तिविहो गुणजोगो भवजोग जोगो चैदिगुण दुबो चिजोग चेदित्य गुणजोगो जहा रसधासादीहि पोगो आगासादीणमप्पप्पगो गुणेहि सह जोगो वा । तत्थ सच्चित्तगुणजोगो पंचबिही-खोदरी जोवसमिजोल खोमिओ पारिणामियो चेदि । ... इदो मेरु' चालइदु समत्यो ति एसो सभवजोगो णाम । जोसो जोगो सो सिविहो उनमादोगो एसा जोग परिणामजोगो चेदि । तद्व्यतिरिक्त नोआगम द्रव्य योग अनेक प्रकारका है यथा-सूर्य नक्षत्रयोग, चन्द्र-नक्षत्रयोग, कोण अंगारयोग, योग मन्त्रयोग इत्यादि नोआगम भावयोग तीन प्रकारका है गुपयोग, सम्भवयोग, और योजनायोग उनसे गुपयोग दो प्रकारका है- सचिगुणयोग और अभियोग उनमें से अचित्तगुणयोग | अचित्तगुणयोग-जैसे रूप, रस, गन्ध और स्पर्श आदि गुणोसे पुद्गल द्रव्यका योग, अथवा आकाशादि द्रव्योंका अपने-अपने गुणोंके साथ योग। उनमें सचित्तगुण योग पाँच प्रकारका है-जदविक, ओपशमिक क्षायिकायामिक और परिणामिक ( इनके लक्षण दे० वह वह नाम ) इन्द्र मेरु पर्वतको चलानेके लिए समर्थ है, इस प्रकारका जो शक्तिका योग है वह सम्भवयोग कहा जाता है। जो योजना - ( मन, वचन कायका व्यापार ) योग है वह तीन प्रकारका है-उपपादयोग एकान्तानुवृद्धियोग, और परिणामयोग दे० योग /५
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२. योगके भेद व लक्षण सम्बन्धी तर्क-वितर्क
-
१. वस्त्रादिके संयोग से व्यभिचार निवृत्ति
1
४. १/१.१.४/११/८ युज्यत इति योग न युज्यमानपटादिना व्यभि चारस्तस्यानात्मधर्मवाद न कषायेण व्यभिचारस्तस्य वर्मादानहेतुत्वाभावात् । प्रश्न- यहाँपर जो संयोगको प्राप्त हो उसे योग कहते हैं, ऐसी व्याप्ति करनेपर संयोगको प्राप्त होनेवाले वस्त्रादिकसे व्यभिचार हो जायेगा। उत्तर--नहीं, क्योकि संयोगको प्राप्त होने वाले वस्त्रादिक आत्मा धर्म नहीं है। प्रश्न- मायके साथ व्यभिचार दोष आ जाता है । ( क्योंकि कषाय तो आत्माका धर्म है, और संयोगको भी प्राप्त होता है ।) उत्तर- इस तरह कषायके साथ भी व्यभिचार दोष नहीं आता, क्योंकि कषाय क्मोंके ग्रहण करनेमें कारण नहीं पड़ती है ।
३७६
२. मेघादिके परिस्पन्द में व्यभिचार निवृत्ति
ध. १/१,१,७६/३१६/७ अथ स्यात्परिस्पन्दस्य बन्धहेतुत्वे संचरदभ्राणामपि कर्मबन्धः प्रसजतीति न, कर्मजनितस्य चैतन्यपरिस्पन्दस्यास - वहेतुत्वेन विवक्षितत्वात् । न चाभ्रपरिस्पन्दः कर्मजनितो येन तद्ध ेतुतामास्कन्देत् । = प्रश्न - परिस्पन्दको बन्धका कारण माननेपर संचार करते हुए मै बोके भी कर्मबन्ध प्राप्त हो जायेगा, क्योकि, उनमें भी परिस्पन्द पाया जाता है। उत्तर- नहीं, क्योंकि कर्मजनित चैतन्य परिस्पन्द ही आस्रवका कारण है, यह अर्थ यहाँ विवक्षित है मैका परिस्पन्द कर्मजनित तो है नहीं, जिससे वह कर्म बन्धके आसवका हेतु हो सके, अर्थात् नहीं हो सकता ।
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३. पस्परिन्द व गतिमें अन्तर
ध. ७/२.१,३३/७७/२ इंदियविसयमइक्केतजीवपदेसपरिष्कं दस्स इंदिएहि उवल भविरोहादो। ण जीवे चलते जोवपदेसाणं सकोच-बिकोविनियमो, सिज्यं तपढमममए एतो लोअग्गं गच्छंतम्मि जीवपदेसायं संकोचविकोषावसंभा इन्द्रियोंके विषयसे परे जो जोव प्रदेशका परिस्पन्द होता है, उसका इन्द्रियों द्वारा ज्ञान मान लेने में
=
२. योगके भेद व लक्षण सम्बन्धी.....
विरोध आता है। जीवोंके चलते समय जीवप्रदेशों के संकोच-विकोचका नियम नहीं है, क्योंकि, सिद्ध होनेके प्रथम समयमें जब यह जीव यहाँसे अर्थात् मध्यलोकसे, लोकके अग्रभागको जाता है तब इसके जीव प्रदेशों में सकोच विकोच नहीं पाया जाता। (और भी दे० जी/४/६)!
दे० योग /२/५ ( क्रियाकी उत्पतिमें जो जीवका उपयोग होता है. यही वास्तव में योग है । ) ध. ७/२,१.१५/१७/१०
मण वयण कायपोग्गलालंबणेण जीवपदेसाणं परिष्कंदो । जदि एव तो णत्थि अजोगिणो सरीरियस्स जीवदव्वस्स अकिरिमिरोहादो एस दोसो, बहुकम्मे खी जा उड्ड गमणुबल बिया किरिया सा जीवस्स साहाविया, कम्मोदरण विणा पउत्ततादो । पतता सहिददेसमडिया या जीवदव्यस्स सावयवेहि परिष्कंदो अजोगो णाम, तस्स कम्मवखयत्तादो । तेण सकिरिया विसिद्धा अजोगिणो, जीवपदेसाणमद्दहिदजलपदेसाणं व उव्वत्तण-परिपत्तण किरिया भावादो । तदो ते अबंधा त्ति भणिदा । - मन, वचन और काय सम्बन्धी पुद्गलोके आलम्बनसे जो जीवप्रदेशोंका परिस्पन्दन होता है वही योग है प्रश्न यदि ऐसा है तो शरीरी जीव अयोगी हो हो नहीं सकते, क्योंकि शरीरगत जीवद्रव्यको अक्रिय माननेमें विरोध आता है। उत्तर-यह कोई दोष नही है, क्योंकि आठो कर्मोंके क्षीण हो जानेपर जो ऊर्ध्वगमनोपलम्बी क्रिया होती है वह जीवा स्वाभाविक गुण है, क्योंकि वह कर्मोदयके बिना प्रवृत्त होती है स्वस्थित प्रदेशको न छोड़ते हुए अथवा छोड़कर जो जीवद्रव्यका अपने अवयवो द्वारा परिस्पन्द होता है वह अयोग है, क्योंकि वह कर्मक्षयसे उत्पन्न होता है । अतः सक्रिय होते हुए भो शरीरी जीव अयोगी सिद्ध होते है। कोकि उनके जीवप्रदेशों के तष्ठायमान जल प्रदेशो के सदृश उद्वर्तन और परिवर्तन रूप क्रियाका अभाव है।
४. परिस्पन्द लक्षण करनेसे योगोंके तीन भेद नहीं हो सकेंगे
घ. १०/४.२,४.१००/ ४३९ एवं तो सिप पि जोगाम-ममेण वृत्ती बुशी पावदिति भणिरे एस दोस्रो, जदट्ठ जीवपापड परिष्दो जादो अम्मि जीवपदेसपरिष्क दसहकारिकारणे जादे नि तस्सेव पहाणत्तदसणेण तस्स तव्ववएसविरोहाभावादो। प्रश्न-यदि ऐसा है ( तीनों योगोंका ही सक्षम आत्म-प्रदेश परिस्पन्द है) तो तीनों ही योगोका एक साथ अस्तित्व प्राप्त होता है। उत्तरनहीं, यह कोई दोष नही है । (सामान्यत. तो योग एक ही प्रकारका है) परन्तु जीव-प्रदेश परिस्पन्द के अन्य सहकारी कारणके होते हुए भी जिस ( मन, वचन व काय ) के लिए जीव- प्रदेशोंका प्रथम परिस्पन्द हुआ है उसकी हो प्रधानता देखी जानेसे उसकी उक्त ( मन, वचन वा काययोग) सज्ञा होनेमें कोई विरोध नहीं है।
५. परिस्पन्द रहित होनेसे आठ मध्यप्रदेशों में बम्ब न हो सकेगा
घ. १२/४,२,११,३/३६६ / १० जीवपदेसाणं परिप्फदाभावादो। ण च परिष्द निरीपदे लोगो अस्थि, सिद्धापि सजगतामचोदो ति रथ परिहारो बुदे मग काय करियापत्तीए जीवस्स उवजोगी जोगा णाम । सो च कम्मबंधस्स कारणं । चसो धोये जीवपदेसे होदि एगजीवपयतस्स योगान चैव वृत्तिविरोहादो एकम्हि जीवे खडखंडेणपयत्तविरोहादो वा । तम्हा द्विदेसु जीवपदेसेसु कम्मबंधो अस्थि त्तिणव्वदे। ण जोगादो जियमेज जीमपदेसपरि होदि, तस्स तत्तो अभियमेरुपत्तदो । णच एकांतण नियमो णत्थि चैत्र, जदि उप्पज्जदि तो ततचैव यमुवसंभादो तदो दवा पिलोगो
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योग
तिम्मधभूमि
= प्रश्न - जीव- प्रदेशोका परिस्पन्द न होनेसे ही जाना जाता है कि वे योगसे रहित है । और परिस्पन्दसे रहित जीवप्रदेशो में योगकी सम्भावना नहीं है, क्योकि वैसा होनेपर सिद्ध जोवोके भी सयोग होनेकी आपत्ति आती है। उत्तर- उपर्युक्त शंकाका परिहार करते हैं-१, मन वचन एवं काय सम्बन्धी क्रियाकी उत्पत्ति में जो जीवका उपयोग होता है, वह योग है, और यह कर्मबन्धका कारण है। परन्तु वह थोडेसे जीवप्रदेशो में नहीं हो सकता, क्योकि एक जीवमें प्रवृत्त हुए उक्त योगी थोडेसे ही अनयो प्रवृत्ति माननेमें विरोध आता है। अथवा एक जीव में उसके खण्ड-खण्ड रूपसे प्रवृत्त होने में विरोध आता है। इसलिए स्थित जीमप्रदेशो कर्ममन्भ होता है, यह जाना जाता है । २. दूसरे योगसे जीवप्रदेशो मे नियमसे परिस्पन्द होता है. ऐसा नहीं है क्योंकि योग से उसकी उत्पत्ति होती है । तथा एकान्ततः नियम नहीं है, ऐसी बात भी नहीं है; क्योकि यदि जीवप्रदेशो में परिस्पन्द उत्पन्न होता है, तो योगसे ही उत्पन्न होता है, ऐसा नियम पाया जाता है । इस कारण स्थित जीवप्रदेशो में भी योगके होनेसे कर्मबन्धको स्वीकार करना चाहिए ।
६. योग में शुभ-अशुभपना क्या
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·
या /६/३/२-३/५००/६ कथं योगस्य शुभाशुभम् । शुभपरि णामनिवृत्तो योग शुभ, अशुभपरिणामनिवृ तश्चाशुभ इति अध्यते न शुभाशुभकर्मकारणलेन यद्य व शुभयोग एव न स्यात् शुभयोगस्यापि ज्ञानावरणादिवन्धहेतुत्वाभ्युपगमात् । - प्रश्न - योगमे शुभ व अशुभपना क्या ? उत्तर- शुभ परिणामपूर्वक होनेवाला योग शुभयोग है तथा अशुभ परिणामसे होनेवाला अशुभयोग है। शुभ-अशुभ कर्मका कारण होनेसे योग में शुभत्व या अशुभत्व नहीं है क्योकि शुभयोग भी ज्ञानावरण आदि अशुभ कर्मों के मन में भी कारण होता है।
७. शुभ-अशुभ योगको अनन्तपना कैसे है
बा./६/३/२/५००/४ असं स्पेयलोक्रमादभ्यवसायापस्थानानां कथम
स्विमिति उच्यते-अनन्तानन्तप्रदेशप्रतिज्ञानारणमर्यान्तरादेशसर्व पातिद्विविधस्पर्धकक्षयोपशमादेशात योगत्रयस्यानन्त्यम् । अनन्तानन्तप्रदेश मदानकारणत्वाद्वा अनन्त, अनन्तानन्तनागाजीवदान
- प्रश्न - अध्यवसाय स्थान असंख्यात -प्रमाण है फिर योग अनन्त प्रकारके कैसे हो सकते है ? उत्तर - अनन्तानन्त पुद्गल प्रदेश रूपसे बँधे हुए ज्ञानावरण बोर्यान्तरायके देशघाती और सर्वघाती स्पर्धको क्षयोपशम भेदसे, अनन्तानन्त प्रदेशवाले कर्मोंके ग्रहणका कारण होनेसे तथा अनन्तानन्त नाना जीबोकी दृष्टिसे तीनो योग अनन्त प्रकारके हो जाते है।
३. योग सामान्य निर्देश
१. योगमागंणामें भावयोग इष्ट
दे० योग/२/५ (किपाकी उत्पत्ति जो जीवको उपयोग होता है वास्तव वही योग है । )
दे योग/२/१ आत्मा धर्म न होनेसे अन्य पदायका संयोग योग नही कहला सकता | )
दे मार्गणा (सभी मार्गणास्थानों में भावमार्गणा इष्ट है । )
२. योग वीर्य गुणकी पर्याय है
भ, आ./ / ११०७/१९७०/४ योगस्य बीर्यपरिणामस्य वीर्यपरि णामरूप जो योग ( और भी दे० अगला शीर्षक ) ।
३७७
भा० ३-४८
३. योग कथचित् पारिणामिक भाव है [घ] ४ / १७,४८ / २२४ / १०
ण
जोगी न्ति को भाषो अणादिपारिणामियो भावो | णोवसमिओ, मोहणीए अणुवसंते वि जोगुवलभा । खइओ, अणप्पसरूवस्स कम्माण खएणुप्पत्तिविरोहा । ण घादिकम्मोजणिओ विपादिकम्मोदर तिम्हि जोभा जो अधादिकम्मोदयजणि विपादिकम्मोदर अनगिम्हि जोगाणुवलभा । ण सरीरणामकम्मोदयजणिदो वि, पोग्गल विवाइयाणं जी परिफण हे उत्तविरोहा । कम्मइयशरीरं ण पोग्गल विवाई, तदो पोग्गलाणं वण्ण-रस-गंध-फास संठाणागमणादीणमणुवलंभा । तदु
दो जोगो ही ग कम्मइयसरी नि पोयाई चैव सन्नकम्माणमाययतादो कम्मोदयविगमए चैव जोगविणासद सणादो कम्मइयसरीरजणिदो जोगो चे ण, अवाइकम्मोदर्याविणासानंतर विणस्य भवियत्तस्स पारिणामियस्स बोदयम्पसंगा। तदो सिद्ध जोगरस पारिणामियत्त । प्रश्न- 'सयोग' यह कौनसा भाव है ? उत्तर- 'सयोग' यह अनादि पारिणामिक भाव है । इसका कारण यह है, कि योग न तो औपशमिक भाव है, क्योंकि मोहनीय कर्म के उपशम नहीं होनेपर भी योग पाया जाता है। न वह क्षायिक भाव है, क्योंकि, आत्मस्वरूपसे रहित योगकी मौके यसे उत्पत्ति माननेमें विरोध आता है। योग धातिकर्मोदयजनित भी नही है, क्योकि, घातिकर्मोदयके नष्ट होनेपर भी सयोगिकेवली में योगका सद्भाव पाया जाता है न योग अपातिकर्मोदय जनित भी है क्योंकि, अमिय रहनेपर भी अयोगकेवलीमें योग नही पाया जाता । योग शरीरनामकर्मोदयजनित भी नहीं है, क्योंकि गलनिपाको प्रकृतियोंके जीन परिस्पन्दनका कारण होनेने विरोध है। प्रश्न- कार्मण शरीर प्रगटविपाकी नहीं है, क्योकि उससे पुद्गलोके वर्ण, रस, गन्ध, स्पर्श और सस्थान आदिका आगमन आदि नहीं पाया जाता है। इसलिए योगको कार्मण शरीरसे ( औदयिक) उत्पन्न होनेवाला मान लेना चाहिए 1 उत्तरनहीं, क्योकि, सर्व कर्मोंका आश्रय होनेसे कार्मण शरीर भी पुद्गल विपाकी ही है। इसका कारण यह है कि वह सर्व कर्मोका आश्रय या आधार है। प्रश्न- कार्मण शरीरके उदय विनष्ट होने के समय में ही योगका विनाश देखा जाता है। इसलिए योग कार्मण शरीर जनित है, ऐसा मानना चाहिए उत्तर-नहीं, क्योंकि, यदि ऐसा माना जाय तो अघातिकर्मोदय के विनाश होनेके अनन्तर ही विनष्ट होनेवाले पारिणामिक भव्य भावके भी बौदयिकपनेका प्रसंग प्राप्त होगा। इस प्रकार उपर्युक्त विवेचनसे योगके पारिणामिकपना सिद्ध हुआ।
४. योग कथंचित् क्षायोपशमिक भाव है।
ध. ०/२१,३२/७३ /२ जोगो गाम जीमपदेसान परिष्कंदो संकोचविकोचलवखणो । सो च कम्माणं उदयजणिदो, कम्मोदयविरहिदसिद्ध तदा । अजोगिकेवलिम्हि जोगाभावाजोगी ओदइयो
होदितुं त्, तत्थ सरीरणामकम्मोदया भावा । ण च सरीरणामकम्मोदएण जायमाणो जोगो तेण विणा होदि, अइयसगादो। एवमोदइयस्स जोगस्स कधं खओवसमियन्त उच्चते । ण सरीरणामकम्मोदन सरीरपाओग्गोग्गलेच्छा मासु विरियंतराइयस्स सव्वघादिफद्दयाणमुदयाभावेण तेसि सतो - समेग देसयादिषट्यानमुदर समुन्भवादी ओसमयएसं
विरियं वदि, तं विरिय पप्प जेण जीवपदेसाण सकोच विकोच वइढदि तेण जोगो खओवसमिओ त्ति वृत्तो। विरियंतराइयखओसमदिवस हामीहितो दीपदेस परिदरस गि हाणी ओ होति तो खीण तराइयम्मि सिखे लोग बहुत पसज्ये ण खओवसमियबलादो खइयस्स बलस्स पुधन्त्तदंसणादो। ण च -हामीहिती हामी
जीव
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२. योग सामान्य निर्देश
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योग
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३. योग सामान्य निर्देश
पदेसपरिप्फंदो खइयबलादो बढिहाणीणं गच्छदि, अइप्पसंगादो । -प्रश्न-जीव प्रदेशोंके सकोच और विकोच रूप परिस्पंदको योग कहते हैं । यह परिस्पन्द कर्मोके उदयसे उत्पन्न होता है, क्योकि कर्मोदयसे रहित सिद्धों के वह नही पाया जाता। अयोगिकेवलीमें योगके अभावसे यह कहना उचित नहीं है कि योग औदयिक नहीं होता है, क्योंकि. अयोगि केवलीके यदि योग नहीं होता तो शरीरनामकर्मका उदय भी तो नहीं होता। शरीरनामकर्म के उदयसे उत्पन्न होनेवाला योग उस कर्मोदयके बिना नहीं हो सकता, क्योकि वैसा माननेसे अतिप्रसग दोष उत्पन्न होगा। इस प्रकार जब योग औदयिक होता है, तो उसे क्षायोपशमिक क्यो कहते है। उत्तर-ऐसा नहीं, क्योकि जब शरीर नामकर्म के उदयसे शरीर बननेके योग्य बहुतसे प्रदुगलोका सचय होता है और वीर्यान्तरायकर्मके सर्वघाती स्पर्धकोंके उदयाभावसे व उन्हीं स्पर्धकोंके सत्त्वोपशमसे तथा देशघाती स्पर्धकों के उदयसे उत्पन्न होनेके कारण क्षायोपशमिक कहलाने वाला वीर्य ( बल ) बढता है, तब उस वीर्यको पाकर चूकि जीकप्रदेशोका संकोच-विकोच बढ़ता है, इसलिए योग क्षायोपशमिक कहा गया है। प्रश्न-यदि वीर्यान्तरायके क्षयोपशमसे उत्पन्न हुए बल की वृद्धि और हानिसे जीव प्रदेशों के परिस्पन्दकी वृद्धि और हानि होती है, तब तो जिसके अन्तरायकर्म क्षीण हो गया है ऐसे सिद्ध जीवोमें योगकी बहुलताका प्रसंग आता है। उत्तर-नहीं आता, क्योकि क्षायोपशमिक बलसे क्षायिक बल भिन्न देखा जाता है। क्षायोपशमिक बलको वृद्धि-हानिसे वृद्धि-हानिको प्राप्त होनेवाला जीव प्रदेशों का परिस्पन्द क्षायिक बलसे वृद्धिहानिको प्राप्त नही होता, क्योंकि ऐसा मानने से तो अतिप्रसंग दोष आता है।
५. योग कथंचित् औदयिक माव है घ.१/१,७,४८/२२६/७ ओदइओ जोगो, सरीरणामकम्मोदयविणासाण तर
जोगविणासुवल भा। ण च भवियत्तेण विउवचारो, कम्मसंबंधविरोहिणो तस्स कम्मणिदत्तविरोहा। = 'योग' यह औदयिक भाव है, क्योंकि शरीर नामकर्मके उदयका विनाश होने के पश्चात ही योगका विनाश पाया जाता है। और ऐसा मानकर भव्यत्व भावके साथ व्यभिचार भी नही आता है, क्योकि कर्म सम्बन्धके विरोधी भव्यत्व भावकी कर्मसे उत्पत्ति मानने में विरोध आता है। ध.७/२,१,१३/७६/३ जदि जोगो वौरियंतराइयखओवसमजणिदो तो सजोगिम्हि जोगाभावो पसज्जदे। ण उवयारेण खओवसमिय भावं पत्तस्स ओदइयस्स जोगस्स तथा भावविरोहादो । प्रश्न-यदि योग वीर्यान्तराय कर्म के क्षयोपशमसे उत्पन्न होता है, तो सयोगि केवलिमे योगके अभावका प्रसंग आता है। उत्तर- नहीं आता, योगमें क्षायोपश मिक भाव तो उपचारसे है। असल में तो योग औदयिक भाव ही है और औदयिक योगका सयोगि केवलिमे अभाव मानने में विरोध आता है। ध ७/२,१,६१/१०/२ कितु सरीरणामकम्मोदयजणिदजोगो वि लेस्सा त्ति इच्छिज्जदि, कम्मबधणि मित्तत्तादो। तेण कसाए फिट्ट वि जोगो अस्थि ।-शरीर नामकर्मोदयके उदयसे उत्पन्न योग भी तो लेश्या माना गया है, क्योकि वह भी कर्मबन्ध में निमित्त होता है। इस कारण कषायके नष्ट हो जानेपर भी योग रहता है। ध.१/४,१,६६/३१६/२ जोगमग्गणा रिओदइया, णामकम्मस्स उदीरणोदयजणिदत्तादो। - योग मार्गणा भी औदयिक है, क्योकि वह नामकर्मकी उदीरणा व उदयसे उत्पन्न होती है।
६. उत्कृष्ट योग दो समयसे अधिक नहीं रहता ध. १०/४,२,४,३१/१०८/४ जदि एवं तो दोहि समएहि विणा उक्कस्स
जोगेण णिरंतर बहुकाल किण्ण परिणमाविदो। ण एस दोसो, णिरतर तत्थ तियादिसमयपरिणामाभावादो। - प्रश्न-दो समय के
सिवा निरन्तर बहुतकाल तक उत्कृष्ट योगसे क्यो नहीं परिणमाया। उत्तर-यह कोई दोष नहीं है, क्योंकि निरन्तर उत्कृष्ट योगमें तीन आदि समय तक परिणमन करते रहना सम्भव नहीं है।
७. तीनों योगोंकी प्रवृत्ति क्रमसे ही होती है युगपत् नहीं ध. १/१,१,४७/२७६/३ त्रयाणां योगानां प्रवृत्तिरक्रमेण उत नेति । नाकमेण, त्रिपक्रमेणै कस्यात्मनो योगनिरोधात् । मनोबाकायप्रवृत्त्योsक्रमेण क्वचिद्ध दृश्यन्त इति चेद्भतु तासा तथा प्रवृत्तिहत्वात, न तत्प्रयत्नानामक्रमेण वृत्तिम्तथोपदेशाभावादिति । अथ स्यात प्रयत्नो हि नाम बुद्धिपूर्वक , बुद्धिश्च मनोयोगपूर्विका तथा च सिद्धी मनोयोग शेष योगाविनाभावीति न, कार्यकारणयोरेककाले समुत्पत्तिविरोधात ।- प्रश्न-तीनो योगोकी प्रवृत्ति युगपत होती है या नहीं। उत्तर-युगपत नहीं होती है, क्योंकि, एक आत्माके तीनो योगोकी प्रवृत्ति युगपद माननेपर योग निरोधका प्रसंग आ जायेगा। अर्थात किसी भी आरमामें योग नहीं बन सकेगा। प्रश्न-कही पर मन, बचन और कायकी प्रवृत्तियाँ युगपत देखी जाती है। उत्तर-यदि देखी जाती हैं, तो उनकी युगपत वृत्ति होओ। परन्तु इससे, मन वचन और कायकी प्रवृत्ति के लिए जो प्रयत्न होते है, उनकी युगपत वृत्ति सिद्ध नही हो सकती है, क्योंकि, आगममें इस प्रकार उपदेश नही मिलता है। (तीनों योगोको प्रवृत्ति एक साथ हो सकती है, प्रयत्न नही।) प्रश्न-प्रयत्न बुद्धि पूर्वक होता है, और बुद्धि मनोयोग पूर्वक होती है। ऐसी परिस्थितिमें मनोयोग शेष योगोका अविनाभावी है, यह बात सिद्ध हो जानी चाहिए। उत्तर-नहीं. क्योकि, कार्य और कारण इन दोनोंकी एक कालमें उत्पत्ति नहीं
हो सकती है। घ ७/२, १,३३/७७/१ दो वा तिणि वा जोगा जुगब किण्ण होति । ण, तेसि णिसिद्धाक्मवृत्तीदो। तेसिमक्क्मेण बुत्ती बुबलभदे चे। ण, · । प्रश्न-दो या तीन योग एक साथ क्यो नहीं होते। उत्तरनहीं होते, क्योकि, उनकी एक साथ वृत्तिका निषेध किया गया है। प्रश्न-अनेक योगो की एक साथ वृत्ति पायी तो जाती है। उत्तरनहीं पायी जाती. (क्योकि इन्द्रियातीत जीव प्रदेशोका परिस्पन्द प्रत्यक्ष नहीं है। -दे० योग/२/३)। गो जी./मू /२४२।५०५ जोगोवि एक्ककाले एक्केव य हो दि णियमेण । - एक कालमें एक जीवके युगपत् एक ही योग होता है, दो वा तीन नही हो सकते, ऐसा नियम है ।
८. तीनों योगोंके निरोधका क्रम भ. आ/मू /२११७-२१२०/१८२४ बादरवचि जोग बादरेण कायेण मादर
मण च । बादरकायपि तथा रु भदि सुहूमेण काएण ।२१११ तध चेत्र सुहुममणवचिजोगं सुहमेण कायजोगेण । रु भित्त जिणो चिट्ठदि सो सुहुमे काइए जोगे।२११८। सुहुमाए लेस्साए सुहुमकिरियबंधगो तगो ताधे। काइयजोगे सुहमम्मि सुहुमकिरियं जिणो झादि ।२११६। सुहमकिरिएण काणेण णिरुद्ध सुहमकाययोगे वि। सेलेसी होदि तदो अबंधगो णिच्चलपदेसो ।२१२० बादर बचनयोग और बादर मनोयोगके बादर काययोगमे स्थिर होकर निरोध करते है तथा बादर काययोगसे रोक्ते है ।२११७१ उसही प्रकारसे सूक्ष्म वचनयोग और सुक्ष्म यनोयोगको सुक्ष्म काययागमें स्थिर होकर निरोध करते है और उसी काययोगसे वे जिन भगवान् स्थिर रहते है ।२६१८० उत्कृष्ट शुक्ल लेश्याके द्वारा सूक्ष्म काययोगसे साता वेदनीय कमका बंध करने वाले वे भगवान सूक्ष्मक्रिय नामक तीसरे शुक्लध्यानका आश्रय करते है। सूक्ष्मकाययोग होनेसे उनको सूक्ष्म क्रिय शुक्लध्यानकी प्राप्ति होती है ।२११६। सूक्ष्म क्रिय ध्यानसे सूक्ष्मकाय योगका निरोध करते है। तत्र आत्माके प्रदेश निश्चल होते है. और तब उनको कर्मका बन्ध नहीं होता। ( ज्ञा./४२/४८-५१); ( वसु. श्रा./५१३.५३६ ) ।
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योग
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घ. ६/१,६-८, १६ एतो अंतोमुहुत्तं गंतूण बादरका यजोगेण वादरमणजोगं णिरु भदि । तो अंतोषेण नादरकायजोगेण बादरवचिजोगं णिरुभदि । तदो अंतोमुहुत्तेण बादरकायजोगेण मादरउस्सासणिस्सा निभदि तदो अंतोन मादरकायजोगेण तमेव नादरकायजोगं णिरु भदि । तदो अंतोमुहुत्तं गं तूण सुहुमकायजोगेण सुहुममणजोगं णिरु भदि । तदो अंतो मुहुत्तं तूण चिजो भिदि दो तो मकान हुमा भिदिदीका दुमकायजोग मिरु'भमाणो (४९४/५)। इमाणि करणानि करेदि पढमसमए अपुव्वफद्दयाणि करेदि पुब्बफद्दयाण हे ठादो (४१५/२) | एचो तो किट्टीओ करेदि बिट्टीकरणे निउ दो से काले पुयफदयाणि अल्फयामि चणादि अंतोकिहोगी होदि] ( ४१६/१) तदो तो जोगापासतो.. सम्म विमुको एगसमएण सिद्धि गच्छदि (४१७/१) । - १. यहाँसे अन्तर्मुहूर्त जाकर बादरकाय योगसे बादरमनोयोगका निरोध करता है । तत्पश्चात् अन्तर्मुहूर्त जाकर बादरकाय योगसे बादर वचन योगा निरोध करता है। तुम अन्तर्मुहर्त से बाहर कामयोग चादर उच्छवास - निश्वास का निरोध करता है । पुनः अन्तर्मुहूर्त से बादर काय योगसे उसी बादर काययोगका निरोध करता है । तत्पश्चात अन्तर्मुहूर्त जाकर सूक्ष्मकाययोग से सूक्ष्म मनोनिरोध करता है। पुन अन्त मुहूर्त जाकर सूक्ष्म वचनयोगका निरोध करता है। पुन बन्र्मुहुर्त जाकर सूक्ष्मकाय योगसे उच्छवास मिश्यासका निरोध करता है। पुनः अन्तर्मुहूर्त जाकर सूक्ष्म काययोग सूक्ष्म काययोगका निरोध करता हुआ । २. इन करणो को करता है- प्रथम समय में पूर्व स्वर्ध को के नीचे पूर्ण स्पर्धकोको करता है. फिर अन्तर्मुहूर्त का पर्यन्त दृष्टिको करता है...उसके अनन्तर समय में पूर्व स्पर्य कोको और कोको नष्ट करता है। अन्तर्मुहूर्तकाल तक कृष्टिगत योग वाला होता है । तत्पश्चात् अन्तर्मुहूर्त काल तक अयोगि केवली - के योगका अभाव हो जानेसे आसवका निरोध हो जाता है। तब सर्व कर्मो वियुक्त होकर आत्मा एक समयमे सिद्धिको प्राप्त करता है ( घ. १३/५,४,२६/८४ / १२ ) ( ध १० / ४,२,४१०७/३२१/८ ); (क्ष. सा./ /६२७-६५६/०३१-०५८ ) ।
·
४. योगका स्वामित्व व सत्सम्बन्धी शंकाएँ
१. योगों में सम्भव गुणस्थान निर्देश
१/११/०-१५/२०२-३०० मणजोगो मोगो असम नमयोगी सणमिच्छाम्पिटि जाय जोगतिति ॥५०॥ मोसमणजोगो सञ्चमो समणजोगो सणिमिच्छाइटिठ पहुडि जाव खीण-कसायवीयराय-छदुमत्था ति । ५१ । वचिजोगो असमोसवचिजोगो मोईदियहूडि जान सजोगपति सि ॥५२॥
जोग समजा जोगकेवल ति ॥४॥ मोजोगी समोसवचिजोगो मठपहुड जाव खीणकसाय - वीयराय-छदुमत्था चि १५५ कायजोगो ओरालियकायजोगी बोरातियभिस्सका लोगो दिय-हडि जाव सजोगिकेवलित्ति । ६१ । वेउवयकायजोगो वेउब्वियमिस्स
योगो सभ्यमिच्छाट्पिटि जाव अदसम्माि ति । आहारकायजोगो आहार मिस्साजोगो एकहि चै पच जागे |3| कम्मइयाजोगी एईदिय-पड जाव सजोगिकेवलिति । ६४ | मणजोगो वचिजोगो कायजोगो सणमिच्याइ डि जान जोगिन ति ६१ १. सामान्य से मनोयोग और विशेष रूपसे सत्य मनोयोग तथा असत्यमृषा मनोयोग संज्ञी मिभ्यासे लेकर सपोनिनली पर्यन्त होते है |५० असत्य मनोयोग और उभय मनोयोग संज्ञी मिथ्यादृष्टि
पान
४. योगका स्वामित्व व तत्सम्बन्धी शंकाएं
गुणस्थान से लेकर क्षीणकाय वीतराग पदमस्थ गुणस्थान तक पाये जाते है । ५१ । २. सामान्यसे वचनयोग और विशेषरूपसे अनुभय वचनयोग द्वीन्द्रिय जीवोसे लेकर सयोगिकेवली गुणस्थान तक होता है ५ सय वचनयोग ही मिध्यादृष्टिसे लेकर योगकेवली गुणस्थान तक होता है । मृषावचनयोग और सत्यमुपावचनयोग संज्ञी मिथ्यादृष्टिसे लेकर क्षीणकषाय- वीतराग छद्मस्थ-गुणस्थान तक पाये जाते है एस २ सामान्य से काययोग और विशेषकी अपेक्षा ओपारिक काययोग और औदारिक मिश्र काययोग एकेन्द्रियसे लेकर सयोगिकेवली गुणस्थान तक होते है ६१० मेकिय कामयोग और वैयिक मिश्र काययोग संज्ञी मिथ्यादृष्टि से लेकर लेकर असंयत सम्यग्दृष्टि तक होते है ६२ बाहारककाययोग और आहारकमि काययोग एक प्रमन्त गुणस्थान में ही होते है। कार्मणयोग एकेन्द्रिय जीवोसे लेकर योगकेवली तक होता है । ४. तीनों योग- मनोयोग, वचनयोग और काययोग ही मध्यसे लेकर रायोगिकेवली तक होते है|६| श्री गुणस्थान में भी निष्काम किया सम्भव है। - दे अभिलाषा ।
२. गुणस्थानोंमें सम्म योग
(पं. सं/प्र/५/१२८) (गो. जी. / /००४/१९४०), (पं.सं./
5/2/845) 1
गुणस्थाम
मिथ्यादृष्टि
सासादन मिश्र
अस्यत देशविरत
प्रमत्त
अप्रमत्त अपूर्वकरण
अनिवृत्ति
सूक्ष्म सा
उपशान्त श्रीमकमाय सयोगि
सम्भव योग
जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश
१३
כ
१०
१३
ह
११
ह
כל
93
"
92
ॐ
७
असम्भव योगके नाम
आहारक, आहारक मिश्र = २
आहारक आहारक मिश्र, बौवारिक, वैक्रियक मिश्र कार्मण ५
आहारक व आहारक मिश्र - २ औदारिक मिश्र क
आहारक व आहारक मिश्र, कार्मण ६ दारिक मिश्र किक क्रिक मिश्र, कार्मण = ४
देशविरतवत्
३. योगों में सम्भव जीवसमास
१/११/६६-०८/३०१-३१० चिजोगो कायजोगो मीदिय डि जान असणर्वचिदिया । ६६॥ कायजोगा मणजोगो वचिजोगो पज्जत्ताण अस्थि, अपज्जत्ताण णत्थि ॥६८॥ कायजोगो पज्जत्ताणं वि अस्थि, अपज्जन्ताणं वि अस्थि । ६६ । ओसियाजोगी ओरालियमका योगी अप ताणं ॥७६॥ वेत्रियकायजोगो पज्जत्ताण वेउब्वियमिस्सकायजोगो अपना आहारकायजोगो पमाण आहारमिस्सकाय जोगो अपज्जत्ताणं ७८) वचनयोग और काययोग द्वीन्द्रिय जीवोसे लेकर असंज्ञी पचेन्द्रिय जीवो तक होते है । ६६ । काययोग
वैक्रियक, वैक्रियक मिश्र, आहारक, आहारक मिश्र, असत्य व उभय मनोवचनयोगट
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योग
एकेन्द्रिय जीवोके होता है । ६७ मनोयोग और वचनयोग पर्याप्तकोके ही होते है अपकी नहीं होते।ईटा काययोग पर्यातको भी होता है । ६ । अपर्याप्तकोके भी होता है, औदारिक काययोग पर्याप्त और औदारिक मिश्र काययोग अपर्याप्तको के होता है । ७६ । वैक्रियक काययोग पर्याप्तकोके और वे क्रियकमिश्र काययोग अपकोंके होता है आहार काययोग को और आहारकमिश्र काययोग को होता है (. १९२०) (पं. सं/२/११-१५), (गो. जी // ६७९-६०४/११२२-११२५) । ४. पर्याप्त व अपर्याप्त में मन, वचनयोग सम्बन्धी शंका
३८०
घ. १/१,१,६८/३१० / ४ क्षयोपशमापेक्षया अपर्याप्तकालेऽपि तयो सत्त्व न विरोधमास्कन्देदिति चेन्न वाङ्मनसा भ्याम निष्पन्नस्य तद्योयानुपपते पर्याष्टानामपि विरुद्धयोगमध्यासितावस्थाया नास्त्येवेति चेन्न, सभवापेक्षया तत्र तत्सत्त्वप्रतिपादनाव, तच्छक्तिसत्त्वापेक्षया वा । = प्रश्न - क्षयोपशमकी अपेक्षा अपर्याप्त काल में भी वचनयोग और मनोयोगका पाया जाना विरोधको प्राप्त नही होता है ? उत्तर- नहीं. क्योकि जो क्षयोपशम वचनयोग और मनोयोग रूप से उत्पन्न नहीं हुआ है, उसे योग संज्ञा प्राप्त नहीं हो सकती हैं। प्रश्न- पर्याप्तक जीवोके भी विरुद्ध योगको प्राप्त होने रूप अवस्थाके होने पर विवक्षित योग नहीं पाया जाता है ? उत्तरनही, क्योकि, पर्याप्त अवस्थामें किसी एक योगके रहनेपर शेष योग सम्भव है, इसलिए इस अपेक्षासे वहाँ पर उनके अस्तित्वका कथन किया जाता है। अथवा, उस समय वे योग शक्तिरूपसे विद्यमान रहते है, इसलिए इस अपेश्वासे उनका अस्तित्व कहा जाता है।
५. मनोयोगी में भाषा व शरीर पर्याप्तिकी सिद्धि
-
ध. २/११/६२८/६ केई बचिकायपाणे अवणे ति. तण्ण घडदे; तेसि सत्ति संभवादो । वचि कायवलनिमित्त पुग्गल - खधस्स अस्थित्त पेक्खि पज्जत्तीओ होति त्ति सरीर वचि पज्जत्तीओ अस्थि । = कितने ही आश्चार्य मनोयोगियो के दश प्राणो मेसे वचन और काय प्राण कम करते है, किन्तु उनका वैसा करना घटित नही होता है, क्योंकि, मनोयोगी जीवोके वचनबल और कायबल इन दो प्राणोकी शक्ति पायी जाती है, इसलिए ये दो प्राण उनके बन जाते है । उसी प्रकार वचनबल और कायबल प्राणके निमित्तभूत पुद्गल - स्कन्धका अस्तित्व देखा जानेसे उनके उक्त दोनो पर्याप्तियाँ भी पायी जाती है इसलिए उक्त दोनो पर्याप्तियाँ भी उनके बन जाती है
1
६. अप्रमत्त व ध्यानस्थ जीवोंमें असत्य मनोयोग कैसे
ध. १/१.१.५१/२८५/७ भवतु नाम क्षपकोपशमकाना सत्यस्यासत्यमोषस्य च सत्त्वं नेतरयोरप्रमादस्य प्रमादविरोधित्वादिति न, रजोजुषा विपर्ययानध्यवसायाज्ञानकारणमनस' सच्चाविरोधात् । न च तद्योगात्प्रमादिनस्ते प्रमादस्य मोहपर्यायत्वात् । प्रश्न- क्षपक ओर उपशमक जीवोके सत्यमनोयोग और अनुभय मनोयोगका सद्भाव रहा आवे, परन्तु बाकीके दो अर्थात् असत्य मनोयोग और उभयमनोयोगका सद्भात्र नही हो सकता है, क्योंकि, इन दोनो में रहने वाला अप्रमाद अपत्य और उभय मनके कारणभूत प्रमादका विरोधी है ? उत्तर - नहीं, क्योकि आवरण कर्मसे युक्त जीवोके विपर्यय और अनध्यवसायरूप अज्ञानके कारणभूत मनके सद्भाव मान लेने में कोई विरोध नहीं आता है। परन्तु इसके सम्बन्ध से क्षपक
४. योगका स्वामित्व व तत्सम्बन्धी शकाए
या उपशम जीव प्रमत्त नहीं माने जा सकते हैं, क्योंकि, प्रमाद मोहकी पर्याय है।
ध. १/१,१.५५/२८६/५ क्षीणकषायस्य वचनं कथमसत्यमिति चेन्न, असत्य निबन्धनाज्ञानसत्त्वापेक्षया तत्र तत्सत्त्वप्रतिपादनात् । तत एव नोभयसंयोगोऽपि विरुद्ध इति । वाचंयमस्य क्षीणकषायस्य कथं बाग्योगश्चेन्न तत्रान्तर्जल्पस्य सत्त्वाविरोधात् । = प्रश्न — जिसकी कषाय क्षीण हो गयी है उसके वचन असत्य कैसे हो सकते है 1 उत्तर- ऐसी शका व्यर्थ है, क्योकि असत्य वचनका कारण अज्ञान बारहवे गुणस्थान तक पाया जाता है, इस अपेक्षासे वहाँ पर असत्य वचनके सद्भावका प्रतिपादन किया है । और इसीलिए उभय संयोगज सत्यमृषा वचन भी बारहवें गुणस्थान तक होता है, इस कथन में कोई विरोध नही आता है। प्रश्न-वचन गुप्तिका पूरी तरहसे पालन करने वाले कषायरहित जोवोके वचनयोग कैसे सम्भव है। उत्तर नहीं, क्योंकि कषायरहित जीवोमें अन्तर्जरूपके पाये जाने में कोई विरोध नहीं आता है ।
घ. २/१, १/४३४/६ प्राणीणपुरा भय पाम वितर अत्थितं भासापज्जन्ति सण्णिद-पोग्गल खंज-जणिद-सन्ति-सम्भावादो। ण पुण वचिजोगो कायजोगो वा इदि । न, अन्तर्जल्पप्रयत्नस्य कायगतसूक्ष्मप्रयत्नस्य च तत्र सरत्वात् । प्रश्न- ध्यानमै लोन अपूर्वकरण गुणस्थानवर्ती जीवों के वचनमा सहभाव भले हो रहा आवे, क्योकि भाषा पर्याप्त नामक पौगलिक स्कन्धोसे उत्पन्न हुई शक्तिका उनके सद्भाव पाया जाता है किन्तु उनके वचनयोग या काययोगका सद्भाव नहीं मानना चाहिए। उत्तरनही, क्योकि, ध्यान अवस्था में भी अन्तर्जरूपके लिए प्रयत्न रूप वचनयोग और कायगत सूक्ष्म प्रयत्नरूप काययोगका सत्त्व अपूर्व - करण गुणस्थानवर्ती जीवोके पाया ही जाता है इसलिए वहाँ वचन योग और काययोग भी सम्भव है।
● समुदायगत जीवोंमें वचनयोग कैसे
४. ४/१,१.२६/१०२/०१० समुपाददार्थ का मणीगयषिजोगाणं सभवो ण, तेसि पि णिप्पण्णुत्तरसरीराणं मणजोगवचिजोगाण परावत्ति संभवादो || मारण तियसमुग्धादगदाण असंखेज्जजोयणायामेण ठिदाणं मुच्छिदाण कथं मण - वचिजोगसभरो। ण, कारणाभावादी अवत्ताण णिन्भरसुत्तजीवाण व तेसि तत्थ सभवं पडिविरोहाभावादो |१०| प्रश्न - वैक्रियिक समुद्घातको प्राप्त जीवोके मनोयोग और वचनयोग कैसे सभव है। उत्तर- नही. क्योंकि, निष्पन्न हुआ है विक्रियात्मक उत्तर शरीर जिनके ऐसे जीवोके मनोयोग और वचनयोगोका परिवर्तन सम्भव है। प्रश्न-मारणान्तिक समुद्घातको प्राप्त, असख्यात योजन आयामसे स्थित और मूच्छित हुए संज्ञी जीवोके मनोयोग और वचनयोग कैसे सम्भव है ? उत्तर - नहीं, क्योकि, बाधक कारणके अभाव होनेसे निर्भर ( भरपूर ) सोते हुए जीवोके समान अव्यक्त मनोयोग और वचनयोग मारणान्तिक समुद्घातगत मूच्छित अवस्थामें भी सम्भव है. इसमे कोई विरोध नहीं है।
८. असंज्ञी जीवोंमें असत्य व अनुमय वचनयोग कैसे घ.१/१.१.५३/२००/मनोनयनवचनमय्यमोचनमिति प्रागुक्तम्, तद् द्वीन्द्रियादीनां मनोरहितानां कथं भवेदिति नायमेकान्तोऽस्ति सकलवचनानि मनस एव समुत्पद्यन्त इति मनोरहित केवलिना वचनाभावसजननात् । विकलेन्द्रियाणा मनसा विना न ज्ञानसमुत्पत्तिः । ज्ञानेन विना न वचनप्रवृत्तिरिति चेन्न, मनस एव ज्ञानमुत्पद्यत इत्येकान्ताभावात् । भावे वा नाशेषेन्द्रियेभ्यो ज्ञानसमुत्पत्ति मनसा तदषि विषय स्य मानसप्रत्ययस्यान्यत्र वृत्तिविरोधात् । न चक्षुरादीनां सहकार्यपि
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५. योगस्थान निर्देश
२. योगस्थानोंके भेद ष.ख/१०/४,२,४/१७५-१७६/४३२,४३६ जोगट्ठागपरूवण दाए तत्थ इमाणि दस अणियोगद्दाराणि णादव्याणि भवति ( १७५/४३२) अविभागपडिच्छेदपरूवणा वग्गणएरूवणा फद्दयपरूवणा अतरपरूवणा ठाणपरूवणा अण तरोवणिधा पर परोवणिधा समयपरूवणा वढिपरूवणा अप्पाबहुए त्ति ।१७६। =योगस्थानोको प्ररूपणामें दस अनुयोगद्वार जानने योग्य है ।१७५३ अविभागप्रतिच्छेद प्ररूपणा, वर्गणाप्ररूपणा, स्पर्द्धक प्ररूपणा, अन्तरप्ररूपणा, स्थानप्ररूपणा, अनन्तरोपनिधा, समयप्ररूपणा, वृद्धिप्ररूपणा और अल्पब हुत्व, ये उक्त दस अनुयोगद्वार है ।१७६। दे० योग/१/५ ( योजनायोग तीन प्रकारका है-उपपादयोग, एकान्तानु__ वृद्धियोग, और परिणामयोग ।) गो क / /२१८ जोगाणा तिविहा उववादेयतबढिपरिणामा । भेदा एक्केवक पि चोद्दसभेदा पुणो तिविहा ।२१८) - उपपाद, एकातानुवृद्धि और परिणाम इस प्रकार योग-स्थान तीन प्रकारका है। और एक-एक भेदके १४ जीवसमासकी अपेक्षा चौदह-चौदह भेद है। तथा ये १४ भी सामान्य, जघन्य और उत्कृष्टकी अपेक्षा तोन-तीन प्रकारके है।
प्रयत्नात्मसहकारिभ्य' इन्द्रियेभ्यस्तदुत्पत्त्युपलम्भात् । समनस्केषु ज्ञानस्य प्रादुर्भावो मनोयोगादेवेति चेन्न केवलज्ञानेन व्यभिचारात् । समनस्काना यक्षायोपशमिक ज्ञानं तन्मनोयोगात्स्यादिति चेन्न, इष्टत्वात् । मनोयोगाद्वचनमुत्पद्यत इति प्रागुक्त तत्कय घटत इति चेन्न, उपचारेण तत्र मानसस्य ज्ञानस्य मन इति संज्ञा विधायोक्तत्वात्। कथ विक्लेन्द्रियवचसोऽसत्यमोषत्वमिति चेदमध्यवसायहेतत्वात्। ध्वनिविषयोऽध्यवसाय' समुपलभ्यत इति चेन्न, वक्तुरभिप्रायविषयाध्यवसायाभावस्य विवक्षितत्वात। प्रश्न-अनुभय रूप मनके निमित्तसे जो वचन उत्पन्न होते है, उन्हे अनुभय वचन कहते है। यह बात पहले कही जा चुकी है। ऐसी हालतमें मन रहित द्वीन्द्रियादिक जीवों के अनभय वचन कैसे हो सकते हैं । उत्तर-यह कोई एकान्त नहीं है कि सम्पूर्ण वचन मनसे ही उत्पन्न होते है, यदि सम्पूर्ण वचनोकी उत्पत्ति मनसे हो मान ली जावे तो मन रहित केवलियोके वचनोका अभाव प्राप्त हो जायेगा। प्रश्न-- विक्लेन्द्रिय जीवो के मनके बिना ज्ञानकी उत्पत्ति नही हो सकती है और ज्ञानके बिना वचनोकी प्रवृत्ति नही हो सक्ती है । उत्तरऐसा नहीं है, क्योकि, मनसे ही ज्ञानको उत्पत्ति होती है यह कोई एकान्त नहीं है। यदि मनसे ही ज्ञानकी उत्पत्ति होती है यह एकान्त मान लिया जाता है तो सम्पूर्ण इन्द्रियों से ज्ञानकी उत्पत्ति नही हो सकेगी, क्योकि सम्पूर्ण ज्ञानकी उत्पत्ति मनसे मानते हो। अथवा. मनसे समुत्पन्नत्वरूप धर्म इन्द्रियोमे रह भी तो नहीं सकता है, क्योकि, दृष्ट, श्रुत और अनुभूतको विषय करने वाले मानस ज्ञान का दूसरी जगह सद्भाव माननेमे विरोध आता है। यदि मनका चक्षु आदि इन्द्रियोका सहकारी कारण माना जावे सो भी नही बनता है, क्योकि प्रयत्न और आत्माके सहकारको अपेक्षा रखनेवाली इन्द्रियोसे इन्द्रियज्ञानकी उत्पत्ति पायी जाती है। प्रश्न-समनस्क जीवोमें तो ज्ञान की उत्पत्ति मनोयोगसे ही होती है। उत्तर- नहीं, क्योकि, ऐसा माननेपर केवलज्ञानसे व्यभिचार आता है। प्रश्न -जो फिर ऐसा माना जाये कि समनस्क जीवीके जोक्षायोपशमिक ज्ञान होता है वह मनोयोगसे होता है। उत्तर-यह कोई शंका नहीं, क्योकि, यह तो इष्ट ही है। प्रश्नमनोयोगसे वचन उत्पन्न होते है, यह जो पहले कहा जा चुका है वह कैसे घटित होता है। उत्तर-यह शंका कोई दोषजनक नहीं है. क्यो कि, 'मनोयोगसे वचन उत्पन्न होते है' यहाँपर मानस ज्ञानकी 'मन' यह मज्ञा उपचारसे रखकर कथन किया है। प्रश्नविकलेन्द्रियों के वचनोमें अनुभयपना कसे आ सकता है। उत्तरविकलेन्द्रियोके वचन अनधयबसायरूप ज्ञानके कारण है, इसलिए उन्हे अनुभय रूप कहा गया है। प्रश्न-उनके वचनोमें ध्वनि विषयक अध्यवसाय अर्थात निश्चय, तो पाया जाता है, फिर उन्हे अनध्यवसायका कारण क्यो कहा जाय। उत्तर-नही, क्योकि, यहाँपर अनध्यवसायसे वक्ताका अभिप्राय विषयक अध्यवसायका अभाव विवक्षित है।
३. उपपाद योगका लक्षण ध.१०/४,२,४,१७३/४२०/६ उववादजोगो णाम उप्पण्णपढमसमए चेव ।
जहण्णुकास्सेण एगसमओ। उपपाद योग उत्पन्न होनेके प्रथम समयमें ही होता है। उसका जघन्य व उत्कृष्ट काल एक समय मात्र है। गो. क /मू /२१६ उववादजोगठाणा भवादिसमयट्ठियस्स अवखरा। विग्गहइजुगइगमणे जीवसमासे मुणेयव्वा ।२१। पर्याय धारण करनेके पहले समयमें तिष्ठते हुए जीवके उपपाद योगस्थान होते है। जो वक्रगतिसे नवीन पर्यायको प्राप्त हो उसके जघन्य, जो जुगत्तिसे नवीन पर्यायको धारण करे उसके उत्कृष्ट योगस्थान होते है ।२१६॥
५. योगस्थान निर्देश
४. एकान्तानुवृद्धि योगस्थानका लक्षण ध. १०/४,२,४,१७३/४२०/७ उप्पण्ण विदियसमयप्पहुडि जाब सरीरपज्जत्तीए अपज्जत्तयदचरिमसमओ ताव एगंताणुवडि ढजोगो होदि। णवरि लद्धिअपज्जत्ताणमाउबंधपाओग्गकाले सगजी विदतिभागे परिणामजोगो होदि। हेट्ठा एगंताणुवढिजोगो चेव । - उत्पन्न होनेके द्वितीय समयसे लेकर शरीरपर्याप्तिसे अपर्याप्त रहनेके अन्तिम समय तक एकान्तानुवृद्धियोग होता है। विशेष इतना कि लब्ध्यपर्याप्तकोके आयुबन्धके योग्य काल में अपने जीवितके त्रिभागमें परिणाम योग होता है । उससे नीचे एकान्तानुवृद्धियोग ही होता है। गो, क/म. व टी./२२२/२७० एयतड्ढिठाणा उभयहाणाणमंतरे होति। अवखरठाणाओ सगकालादिम्हि अंतमिह ।२२२॥ तदैवैकान्तेन नियमेन स्वकाल-स्वकाल-प्रथमसमयात चरमसमयपर्यन्तं प्रतिसमयमसंख्यात गुणितक्रमेण तद्योग्याविर्भागप्रतिच्छेदवृद्धिर्यस्मिन् स एकान्तानुवृद्धिरित्युच्यते । =एकाग्तानुवृद्धि योगस्थान उपपाद आदि दोनो स्थानोके बीचमें, ( अर्थात् पर्याय धारण करनेके दूसरे समयसे लेकर एक समय क्म शरीर पर्याप्तिके अन्तर्मुहूर्त के अन्त समय तक) होते है। उसमें जघन्यस्थान तो अपने कालके पहले समयमें और उत्कृष्टस्थान अन्तके समयमें होता है। इसीलिए एकान्त (नियम कर ) अपने समयोमे समय समय प्रति असंख्यातगुणी अविभागप्रतिच्छेदोंकी वृद्धि जिसमे हो वह एकान्तानुवृद्धि स्थान, ऐसा नाम कहा गया है।
१. योगस्थान सामान्यका लक्षण प. खं/१०४.२४/१८६/६३ ठाणपरूवणदाए अमखेज्जाणि फद्दयाणि सेडीए असखेज्जदिभागमेत्ताणि, तमेग जहण्णय जोगाणं भवदि ।१८६। स्थान प्ररूपणाके अनुसार श्रेणिके अस ख्यातवे भाग मात्र जो असरख्यात स्पर्धक है उनका एक जघन्य योग स्थान होता है।१८६। स. सा /आ./५३ यानि कायवाड्मनोवर्गणापरिस्पन्दलक्षणानि योगस्थानानि ।। = कार, वचन और मनोवर्गणाका कम्पन जिनका लक्षण है ऐसे जो योगस्थान ।
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योग
३८२
५. योगस्थान निर्देश
उ
ज
४२८
५. परिणाम या घोटमान योगस्थानका लक्षण
८. योगस्थानोंके स्वामित्वककी सारणी घ. १०/४,२,४,१७३/४२१/२ पज्जत्तपढमसमयप्पहुडि उवरि सव्वत्थ
सकेत-उ०- उत्कृष्ट; एक-एकेन्द्रिय; चतु०= चतुरिन्द्रिय, ज० = परिणामजोगो चेव । णिबत्ति अपज्जत्ताण णस्थि परिणामजोगो।
जघन्य, त्रि-त्रिइन्द्रिय; द्वि०-द्वीन्द्रिय; नि० अप०= निर्वृ त्य-- पर्याप्त होनेके प्रथम समयसे लेकर आगे सब जगह परिणाम योग ही
पर्याप्त, पंचे, पंचेन्द्रिय, बा०- बादर; ल०अप०= लब्धपर्याप्त; स०होता है निवृत्यपर्याप्तकोके परिणाम योग नहीं होता । ( लब्ध्य
समय; सू० सूक्ष्म ध १०/१,२,४.१७३/४२१-४३० (गो.क./म् /२३३पर्याप्त कोके पूर्वावस्थामें होता है- दे० ऊपरवाला शीर्षक )। गो. क./मू /२२०-२२१/२६८ परिणामजोगठाणा सरीरपज्जत्तगादु चरि
प्रमाण
योग || काल सम्भव जीव | उस पर्यायका विशेष मोत्ति । लद्धि अपज्जत्ताणं चरिमतिभागम्हि बोधव्वा ।२२०। सग
प्र.न स्थान जि .उ. समास
समय पच्चतीपुण्णे उवरि सम्वत्थं जोगमुक्क्स्स । सव्वत्थ होदि अवर लद्धि
। अपुण्णस्स जेठ पि ।२२१॥ = शरीर पर्याप्ति पूर्ण होनेके प्रथम समयसे लेकर आयुके अन्ततक परिणाम योगस्थान कहे जाते है । लब्ध्यपर्याप्त
६४२१ उपपाद ज. स. स.मू.बा. एक द्वि. विग्रहगतिमे वर्तमान जीवके अपनी आयुके अन्तके त्रिभागके प्रथम समयसे लेकर अन्त
| त्रि. चतु. व तद्भवस्थ होनेके समय तक स्थितिके सब भेदोमे उत्कृष्ट व जघन्य दोनो प्रकारके योग
प्रथम समय स्थान जानना ।२१०। शरीर पर्याप्तिके पूर्ण होनेके समयसे लेकर
४२८ , उ , पचे. असंज्ञी, तद्भवस्थ होनेके प्रथम अपनी-अपनी आयुके अन्त समय तक सम्पूर्ण समयो में परिणाम
। संज्ञी,ल.अप.व | समयमे योगस्थान उत्कृष्ट भी होते है, जघन्य भी सभरते है ।२२१।
नि.अप. गो. क./जी,प्र./२१६/२६०/१ येषा योगस्थानाना वृद्धिः हानि अबस्थानं च संभवति तानि घोटमानयोगस्थानानि परिणामयोगस्थाना
I४२१ एकांता-ज..... उपरोक्त सर्व जीव तद्भवस्थका द्वितीय सयय नीति भणि भवति । =जिन योगस्थानोमे वृद्धि, हानि, तथा
र ४२५ नुवृद्धि
ल. अप.व अवस्थान (जैसेके तैसे बने रहना) होता है, उनको धोटमान योग
नि. अप, स्थान-परिणाम योगस्थान कहा गया है।
एकान्ता० योगकालका
अन्तिम समय ६. परिणाम योगस्थानोंकी यवमध्य रचना
उत्पन्न होनेके अन्तध. १०/४,२,४,२८/६०/६ का विशेषार्थ-ये परिणाम योगस्थानद्वीन्द्रिय
र्मुहूर्त पश्चाव अनन्तरपर्याप्तके जघन्य योगस्थानोसे लेकर सज्ञी पंचेन्द्रिय पर्याप्त जीवोके
समय । उत्कृष्ट योगस्थानो तक क्रमसे वृद्धिको सिये हुए है। इनमे आठ
४२३ ज. ४सद्वि-सज्ञी नि.अप, पर्याप्तिका प्रथम समय समय वाले योगस्थान सबसे थोडे होते है। इनसे दोनों पार्श्व भागो
पर्याप्तिके निकट में स्थित सात समयवाले योगस्थान असंख्यातगुणे होते है। इनसे (४३१परिणाम ज.. . सू. बा, एक-संज्ञी छठी पर्याप्तिके प्रथमदोनों पार्श्व भागों में स्थित छह समयवाले योगस्थान असंख्यातगुणे ९४२२
नि.पर्याप्त समयसे आगे होते है । इनसे दोनो पार्श्व भागोमे स्थित पाँच समयवाले योग
४२७ ४२६
परभविक आयु बन्ध स्थान असंख्यातगुणे होते है। इनसे दोनो पार्श्व भागोमे स्थित चार समयबाले योगस्थान असख्यात गुणे होते है। इनसे तीन
अप.
योग्य कालसे उपरिम
भवस्थिति समयवाले योगस्थान असख्यातगुणे होते है और इनसे दो समयवाले योगस्थान असंख्यातगुणे होते हैं। ये सब योगस्थान
४२७
आयु बन्धयोग्य कालके प्रथम समयसे तृतीय
भाग तकमें वर्तमान जीव ४,५,६,७,८,७,६,५४, ३,२ - समयवाले
" "२स.सू, वा. एक-नि, परम्परा शेष पाँच ४२३
अप,
पर्याप्तियोसे पर्याप्त हो होनेसे ग्यारह भागोमे विभक्त है,अत' समयकी दृष्टिसे इनकी यवाकार
चुकनेपर
४२8 रचना हो जाती है। आठ समयवाले योगस्थान मध्यमें रहते है।
,,,, द्वि. संज्ञील,अप. स्व स्व भवस्थितिके फिर दोनो पाश्वं भागोंमे सात (आदि) योगस्थान प्राप्त होते है।
तृतीय भागमें वर्तमान इनमें से आठ समयवाले योगस्थानोकी यवमध्य संज्ञा है।
४२२
सू.बा. एक-सज्ञी आयुबन्ध योग्य प्रथम यवमध्यसे पहले के योगस्थान थोडे होते है और आगेके योगस्थान अ
| ल. अप. समयसे भवके अन्त तक संख्यातगुणे होते है। इन आगेके योगस्थानो मे सख्यातभाग आदि
अर्थात् जीवनके चार हानियाँ व वृद्धियाँ सम्भव है इसोसे योगस्थानोमें उक्त जीव
1. ,बी.-संज्ञी ल.अप. अन्तिम तृतीय भागके को अन्तर्मुहूर्त काल तक स्थित कराया है, क्योकि योगस्थानोका
प्रथम समयसे विश्रमण अन्तर्मुहूर्त काल यही सम्भव है।
कालके अनन्तर अध
स्तन समयतक ७. योगस्थानोंका स्वामित्व सभी जीव समासों में
उ.
द्वी.-संज्ञी नि परम्परा पाँचों पर्या
" सम्भव है
अप
प्तियोसे पर्याप्त गो क./जी. प्र/२२२/२७०/६० एवमुक्तयोगविशेषा सर्वेऽपि पूर्वस्था
पर्याप्तक छह में से एक भी पितचतुर्दशजीवसमासरचनाविशेषेऽतिव्यक्त सभवतीति सभाव
पर्याप्ति के अपूर्ण रहने यितव्या । -ऐसे कहे गये जो ये योगविशेप ये सर्व चौदह जीव
तक भी नहीं होता। समासोमे जानने चाहिए ।
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योग
९.
यर्याके परिणामयोग होने सम्बन्धी दो मत ध. १०/४,२,४, १७३ / ४२०/६ लद्धि अज्जत्ताणमा अब धकाले चेव परिणामजोगो होदित्ति के वि भणति । तण्ण घडदे, परिणामजोगे दिस्स अपत्ववादजोगस्स एयंताणुवढिजोगेण परिणामबिरोहादोपको आयुषन्धकारमें ही परिणाम योग होता है, ऐसा किसने ही आचार्य कहते है (दे० योग/२/५) यह घटित नही होता. किस प्रकार जो जीव परिणाम योगमें स्थित है वह उपपाद योगको नही प्राप्त हुआ है, उसके एकान्तानुवृद्धियोगके साथ परिणामके होने में विरोध आता है।
१०. योग स्थानों की क्रमिक वृद्धिका प्रदेशबन्ध के साथ
सम्बन्ध
घ. २/१.१-७,४३/२०१ / २ पदेसमचादी जोगा
डीए अस भागमेताजिहणहाणादी अदिगडी अस ज्जविभागपडिभागिषण विसायामि जाउकस्सजोरहाणेति दुगुण- दुगुणगुणहाणिअाणेहि सहियाणि सिद्वाणि हवति । कुदो जोगेण विना पदेसमंधावसीदों अथवा अभागादपसो तस्कारणजोगामागच सिद्वाणि हवति कुदो पहिया अणुभागाणुववत्तदो । प्रदेशबन्ध से योगस्थान सिद्ध होते है । वे योगस्थान जगश्रेणी के असंख्यातवे भागमात्र है, और जघन्य योगस्थानसे लेकर जगबीके असंख्यात भाग प्रतिभागरूप स्थित प्रक्षेपके द्वारा विशेष अधिक होते हुए उत्कृष्ट योगस्थान तक दुगुने - दुगुने गुणहानि आयाम सहित सिद्ध होते है, क्योंकि योग के बिना प्रदेशबन्ध नही हो सकता है। अथवा, अनुभागबन्धसे प्रदेशबन्ध और उसके कारण योगस्थान सिद्ध होते है, क्योकि प्रदेशों के बिना अनुभागबन्ध नहीं हो सकता
६. योगवगंणानिर्देश
१. योगवगंणाका लक्षण
ध. १०/४,२,४,१८१ / ४४२-४४३/८ अस खेज्जलोगमे त्तजोगा विभागपडिच्छेदाणमेया दग्गणा होदिति भणिदे जोगाविभागपडिदेहि सरिसधणियजीव देसान जोगाविभागपच्छेिदासंभवादी असं खेज्जलोगमेत्ता विभागपडिच्छेदपमाणा एया वग्गणा होदि त्ति घेत्तव्वं ।..... जोगाविभागपडिच्छेदेहि सरिससब्बजीवपदेसे सब्वे तूण एगा वग्गणा होदि । असंख्यात लोकमात्र योगाविभाग प्रति -
की एक वर्गणा होती है, ऐसा कहने पर योगाविभाग प्रति की अपेक्षा समान धनवाले सब जीव प्रदेशोंके योगाविभाग प्रतिच्छेद असंभव होनेसे असंख्यात लोकमात्र अविभाग प्रतिच्छेदोके बराबर एक वर्गणा होती है, ऐसा ग्रहण करना चाहिए।. योगाविभागप्रतिच्छेदों की अपेक्षा समान सब जीव प्रदेशोको ग्रहणकर एक वर्गणा होती है।
२. योगवर्गणा अविभाग प्रतिच्छेदोंकी रचना
.सं. २०/४.२४/१९४४० असा लोगा जोगाविभाग पडिच्छेदा । १७८ ॥ एवदिया जोगाविभागपडिच्छेदा | १७६१ वग्गणपरूवणदार असंखेज्जलो गजोगः विभागपडिच्छेदाणमेया वग्गणा होदि । एवम जाओ वग्गणाओ सेडीए बताओ।१८१८ ध.१०/४,२,४,१८१/४४३-४४४ / ३ जोगा विभागपडिच्छेदे हि सरिससव्वजीवपदे से सब्वे घेत्तूण एग्गा वग्गणा होदि । पुणो अण्णे वि जीवपदेसे जोगाविभागपडिच्छेदेहि अण्णोण समाणे पुठित्रल्लवगणाजीवपदेस जोगाविभागपडिन्छेदेहितो अहिरउवरिमाणागमेयजोनपदेसमोगाविभागदेहि विदिया
योगचंद्र
.
होदि ।... असज्जपदर मे जोमदेसा एक्के विकस्से वग्गणाए होति । ण च सव्वग्गणाणं दीहत्तं समाण, आदिवग्गणप्पहूडि विसेसहीणसरूवेण अवद्वाणादो । ६/१०/४.२,४,९८१/४४९/६ पढमवग्गणाए अविभागपडिच्छेदे हितो विदियवगग अविभागपडिच्छेदा विसेसहीणा । पढमवग्गणा एगजीवपदेसा विभागपडिच्छेदे णिसेगविसेसेण गुणिय पुणो तत्थ विदियगोवच्छाए अवणिदाए जं सेस तेत्तियमेत्तेण । एवं जाणिदूण दव्वं जाव पदमयचमिति जो हमफचरिमवग्गण विभागपच्छेिहितो विदिदिवग्गमाए जोगाविभागपदि किन्नूणदुगुणमेत्ता । - - एक एक जीव प्रदेशमें असख्यात लोकप्रमाण योगाविभाग प्रतिच्छेद होते है ॥१७८॥ एक योगस्थानमें इतने मात्र योगाविभाग प्रतिच्छेद होते है । १७६१ वर्गणा प्ररूपणा के अनुसार असंख्यात लोकमात्र योगाविभाग प्रतिच्छेदोकी एक वर्गणा होती है । १८० इस प्रकार श्रेणी के असंख्यातवें भाग प्रमाण असंख्यात वर्गणाऍ होती ११८१ । । योगाविभाग प्रतिच्छेदोकी अपेक्षा समान सब जीव प्रदेशोको ग्रहण कर एक वर्गणा होती है। पुन योगाविभागप्रतिच्छेदोकी अपेक्षा परस्पर समान पूर्व वर्गासम्बन्धी जीवप्रवेशोके योगावि भाग प्रतिच्छेसे अधिक, परन्तु आगे कहीं जानेवाली वर्मणाओंके एक जीवप्रदेश सम्बन्धी योगाविभागप्रतिच्छेद से हीन ऐसे दूसरे भी जीन प्रदेशीको प्रहण करके दूसरी वर्गणा होती है (इसी प्रकार सब वर्गणाएँ श्रेणिके असख्यातवे भाग प्रमाण है ) असख्यात प्रतर प्रमाण जीव प्रदेश एक वर्गणामें होते है । सब वर्गणाओं की दीर्घता समान नहीं है, कि प्रथम वर्मणाको आदि लेकर आगेकी वर्गणाएँ विशेष हीन रूपसे अवस्थित है ।४४३-४४४। प्रथम वर्गणा के अविभाग प्रतिच्छेद से द्वितीय वर्गणा अविभाग प्रतिच्छेद विशेष होन है । प्रथम वर्गमा सम्बन्धी एक जीवप्रदेश के अविभाग प्रतिच्छेदको निषेकविशेषसे गुणितकर फिर उसमेंसे द्वितीय गोपुच्छ को कम करनेपर जो शेष रहे उतने मात्र से वे विशेष अधिक हैं। इस प्रकार जानकर प्रथम स्पर्धककी चरम वर्गणा सम्बन्धी अविभागप्रतिच्छेदों से द्वितीय स्पर्धककी प्रथम वर्गमा योगाविभागाच्छेद कुछ कम दुगुने मात्र है । ( इसी प्रकार आगे भी प्रत्येक स्पर्धक में वर्गणाओके अविभाग प्रतिच्छेद क्रमशः हीन-हीन और उत्तरोत्तर स्पर्ध को से अधिक अधिक है ) |
•
३८३
३. योग स्पर्धकका लक्षण
)
१०/४.२४ / सूत्र १०२४५२ फद्दय परूवणाए अस खेज्जाओ बजाओ ढोए अज्जदिभागमेतीयो रामेग कदर्य होदि ॥१८२॥ घ. १०/४.४.२.१८२/४/१२/२ फयमिदि कि होदि म क्रमहानिश्च यत्र विद्यते तत्स्पर्धकम् । को एत्थ कमो णाम । सग सगळङ्कणकणाविभागपडिन्छेदेहितो एगेणाविभागपडिछेदबुद्धी, बुकस्वगाविभागपडदे हितो एगेगाविभागी कमो णाम । दुप्पहुडीणं वड्ढी हाणी च अक्कमो । ( योपस्थानके प्रकरण | स्पर्धकप्ररूपणा के अनुसार श्रेणीके असंख्यातवे भागमात्र जो असख्यात वर्गणाऍ है, उनका एक स्पर्धक होता है । । १८२ | प्रश्न- स्पर्धक क्या अभिशय है उत्तर जिसमे कमवृद्धि और क्रमहानि होती है वह स्पर्धक कहलाता है। प्रश्न यहाँ 'कम' का अर्थ का है उत्तर अपने-अपने जन्य वर्ग के अविभागाच्छेदकी वृद्धि और उत्कृष्ट वर्ग के अविभागप्रतिच्छेदोसे एक एक अविभाग प्रतिच्छेद की जो हानि होती है उसे क्रम कहते है। दो व तीन आदि अविभागप्रतिच्छेदोकी हानि व वृद्धिका नाम अक्रम है । ( विशेष दे० स्पर्ध) |
योगचंद्र- ई. श. १२ मे योगसार ( दोहासार) के कर्ता दिगम्बर आचार्य हुए है दि जे. सा. इ./२६ कामता )
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योग त्याग क्रिया
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योगदर्शन
तपस्या, स्वाध्याय, व ईश्वर प्रणिधान ये नियम है। ४ पद्मासन, वीरासन आदि आसन है। ५. श्वासोच्छवासका गति निरोध प्राणायाम है। ६. इन्द्रियोको अन्तर्मुखी करना प्रत्याहार है । ७. विकल्प पूर्वक किसी एक काल्पनिक ध्येयमें चित्तको निष्ठ करना धारणा है । ८ ध्यान, ध्याता व ध्येय सहित चित्तका एकाग्र प्रवाह ध्यान है। १. ध्यान, ध्याता व ध्येय रहित निष्ठ चित्तसमाधि है । (योग दर्शनसूत्र )।
योग त्याग क्रिया-दे० संस्कार/२। योग दर्शन
१. सामान्य परिचय मन व इन्द्रिय निग्रह ही इसका मुख्य प्रयोजन है। योगका अर्थ समाधि है । योगके अनेको भेद है। राजयोग व हठयोगके भेदसे यह दो प्रकारका है । पातंजलियोग राजयोग है और प्राणायाम आदिसे परमात्माका साक्षात्कार करना हठयोग है। ज्ञानयोग कर्म योग व भक्तियोगके भेदसे तीन प्रकार तथा मन्त्रयोग, लययोग, हठयोग व राजयोगके भेदसे चार प्रकार है। (स्या म /परि-ध/पृ.४२६) ।
२. प्रवर्तक साहित्य व समय १. श्वेताश्वतर, तैत्तिरीय आदि प्राचीन उपनिषदोमें योग समाधिके अर्थ मे पाया जाता है और शाण्डित्य आदि उपनिषदोमे उसकी प्रक्रियाओका सांगोपांग वर्णन है। २. योगदर्शनके आद्यप्रवर्तक हिरण्यगर्भ है, इनका अपरनाम स्वयंभू है । इनका कथन महाभारत जैसे प्राचीन ग्रन्थोमें मिलता है। प्रसिद्ध व्याकरणकार पतंजलि आधुनिक योगसूत्रोंके व्यवस्थापक है । इनका समय ई पू. शताब्दी २ है। पतंजलिके योगसूत्रोपर व्यासने भाष्य लिखा है। यह महाभारतके रचयिता व्याससे भिन्न है। इनका समय ई, श.४ है। व्यास भाष्यपर वाचस्पति-मिश्र (ई ८४०) व तत्त्ववैशारदी भोज (ई.श. १०) ने भोजवृत्ति, विज्ञानभिक्षुने योगवार्तिक, और नागोजी भट्ट (ई. श १७) ने छाया व्याख्या नामक टीकाएँ लिखी। (स्या. म./ परि० घ/पृ. ४२६)
३. तत्व विचार १. चित्त ही एक तत्त्व है। इसकी पॉच अवस्थाएँ है-क्षिप्त, मूढ, विक्षिप्त, एकाग्र और निरुद्ध । २ चित्तका संसारी विषयोमे भटकना क्षिप्त है, निद्रा आदिमें रत रहना मूढ है, सफलता असफलताके झूले में झूलते रहना विक्षिप्त है, एक ही विषयमें लगना एकाग्र है, तथा सभी वृत्तियो के रुक जानेपर वह निरुद्ध है। अन्तिम दो अवस्थाए योगके लिए उपयोगी है। ३. सत्त्वादि तीन गुणोके उद्रेकसे उस चित्त के तीन रूप हो जाते है-प्रख्या, प्रवृत्ति व स्थिति । अणिमा आदि ऋद्धियोंका प्रेमी प्ररव्या है । अन्यथाख्याति' या विवेक बुद्धि जागृत होनेपर चित्त 'धर्म मेघ समाधि' में स्थित हो जाता है। तब पुरुषका प्रतिबिम्ब चित्तपर पड़ता है, और वह चेतनबत कार्य करने लगता है। यही चित्तकी वृत्ति है। वृत्ति व संस्कारके झूलेमें झूलते-झूलते अन्त में कैवल्यदशाकी प्राप्ति होना स्थिति है । ( योगदर्शनसूत्र )।
४. ज्ञान व प्रमाण विचार १. चित्तको उपरोक्त वृत्तियाँ पाँच प्रकार है-प्रमाण, विपर्यय, विकल्प, निद्रा और स्मृति । २ प्रत्यक्ष, अनुमान व आगम तीन प्रमाण है। ३. संशय व विपरीत ज्ञान विपर्यय है। ४ असत वस्तुका संकल्प विकल्प है। १. 'आज मैं खूब सोया' ऐसा निद्रा आदि तमस् प्रधान वृत्तिका ज्ञान निद्रा है । ६. अनुभूत विषयका स्मरण स्मृति है (योगदर्शनसूत्र )।
५. योगके आठ अंगोंका विचार १. योगके आठ अग हैं-यम, नियम, आसन, प्राणायाम, प्रत्याहार, धारणा, ध्यान और समाधि । २. अहिंसादि, सत्य, अस्तेय, ब्रह्मचर्य घ अपरिग्रह रूप मन वचन कायका सयम यम है। ३. शौच, सन्तोष,
६. समाधि विचार १. समाधि दो प्रकार की है-संप्रज्ञात व असंप्रज्ञात। २ संप्रज्ञातको बीज समाधि भी कहते हैं, क्योकि यह किसी ध्येयको आश्रय मनाकर की जाती है। उत्तरोत्तर सब सूक्ष्म रूपसे यह चार प्रकारकी है-वितर्कानुगत, विचारानुगत, आनन्दानुगत और अस्मितानुगत । ३ स्थूल विषयसे सम्बद्ध चित्तवृत्ति वितर्क है। वितर्कानगत दो प्रकारकी है-सवितर्क और निर्वितर्क । शब्द, अर्थ और ज्ञान तीनोकी एकतारूप भावना सवितर्क है, और केवल अर्थ की भावना निवितक है। ४. बाह्य सूक्ष्म वस्तुसे सम्बद्ध सूक्ष्माकार चित्त वृत्ति विचारानुगत है। १. इन्द्रिय आदि सात्त्विक सूक्ष्म वस्तुसे सम्बद्ध चित्तवृत्ति आनन्दानुगत है । ६. चित्त प्रतिबिम्बित बुद्धि ही अस्मिता है, यह अत्यन्त सूक्ष्म है। इससे सम्बद्ध चित्तवृत्ति अस्मितानुगत है । ( योगदर्शन सूत्र )। ७. ज्ञान, ज्ञाता और ज्ञेय के विकल्पसे शून्य, निरालम्ब, संस्कार मात्र रूप, वैराग्य निबद्ध चित्तवृत्ति असंप्रज्ञात है। इसे निर्बीज समाधि भी कहते है। यह दो प्रकार है-भवप्रत्यय व उपायप्रत्यय । तहाँ अविद्या युक्त भव प्रत्यय है जो दो प्रकार है--विदेह और प्रकृति लय। इन्द्रियों व भूतोकी बासनाके संस्कारसे युक्त, विवेक ख्याति शून्य अवस्था विदेह है। हमें कैवल्य प्राप्त हो गया है', ऐसी भावना वाला व्यक्ति पुन संसारमें आता है, अत' भवप्रत्यय कहलाता है। अव्यक्त महत आदिकी वासनाके संस्कारसे युक्त प्रकृतिलय है। यह भी ससारमें लौट आता है। श्रद्धा, बीर्य, स्मृति, संप्रज्ञात, प्रज्ञा व असप्रज्ञातके क्रमसे योगियोको अविक्षिप्त शान्तचित्तता प्रगट हो जाती है। यही उपायप्रत्यय असप्रज्ञात है । इससे अविद्याका नाश हो जाता है। और वह पुन संसारमें नहीं आता है। ( योगदर्शन सूत्र)।
७. विघ्न व क्लेश विचार १. चित्त विक्षेपका नाम विघ्न है। वह नौ प्रकार है-रोग, अकर्मण्यता, संशय, प्रमाद ( समाधिके प्रति निरुत्साह ), आलस्य (शरीर व मनका भारीपना), विषयासक्ति, भान्तिदर्शन (विपर्ययज्ञान), समाधिभूमिका अपाय, भूमिको पाकर भी चित्तका स्थिर न होना। ऐसे विक्षिप्त चित्त बालेको दुख दौर्मनस्य (इच्छाकी अपूर्ति) होनेसे चित्त में क्षोभ, शरीरमें कम्पन तथा श्वास-प्रश्वास होने लगता है। २ इन विघ्नोको रोकनेके लिए-तत्त्वावलम्बनका अभ्यास, सर्व सत्त्व मैत्री, प्रमोद, कारुण्य तथा माध्यस्थता करनी योग्य है। असमाहित चित्त व्यक्ति निष्काम कर्म व फल समर्पण वुद्धि द्वारा विनोका नाश कर सकता है। पीछे प्रज्ञाका उदय होने पर समाधि धारण करता है। ३ क्लेश पॉच प्रकारका है-अविद्या, अस्मिता, राग, द्वेष व अभिनिवेश । ४. अनित्य, अशुचि व अनात्मभूत पदार्थोमें नित्य, शुचि व आत्मभूतपनेकी प्रतीति अविद्या है। ५. पुरुष और बुद्धिको एक मानना अस्मिता है। ६ सुखके प्रति रति राग है। ७ दुखके प्रति अरति द्वेष है। ८. मृत्युका भय अभिनिवेश है। (योगदर्शन सूत्र ) ।
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योग दर्शन
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योगवक्रता
४. भूमि व प्रज्ञा विचार १. योगीकी साधनाके मार्ग मे क्रमश: चार भूमियों प्रगट होती हैप्रथमकल्पिक, मधुभूमिक, प्रज्ञाज्योति तथा अतिक्रान्त भावनीय । २. समाधि के प्रति प्रवृत्तिमात्र चित्त प्रथमकल्पिक है। ३. इन्द्रियो व भूतोको अपने वशमें करनेकी इच्छा वाली ऐसी ऋतम्भरा प्रज्ञा मथुभूमि है। यह देवगतिके सुखोका कारण होनेसे अनिष्ट है। ४. इन्द्रियवशी तथा असम्प्रज्ञात समाधिके प्रति उद्यमशील प्रज्ञाज्योति है। ५. असम्प्रज्ञात समाधिमें पहुंचकर केवल एकमात्र चित्तको लय करना शेष रह जाता है। तब अतिक्रान्तभावनीय भूमि होती है। ६ अनात्मा व आत्माके विवेकको विवेकरख्याति कहते है। वह जागृत होनेपर योगीको प्रान्तभूमि प्रज्ञा प्राप्त होती है। वह छह प्रकारकी है-हेम, क्षेतव्य, हान, अन्य कुछ नहीं चाहिए, भोग सम्पादन रूप मुक्ति, लय और जीवनमुक्ति। ७. हेम तत्त्वोका ज्ञान हेम है। ८. इस ज्ञानके हो जानेपर अन्य कुछ क्षीण करने योग्य नही यह क्षेतव्य है। ह अन्य कुछ निश्चय करना शेष नही यह हान है। १० हानके उपायोकी प्राप्ति हो जाने पर अन्य कुछ प्राप्तव्य नही। ११. मुक्ति तीन प्रकार है-बुद्धि भोगका सम्पादन कर चुकी और विवेक ज्योति प्रगट हो गयी, सत्त्व आदि त्रिगुण अपने-अपने कारणोमे लय होनेके अभिमुख हुए अब इनकी कभी अभिव्यक्ति न होगी, तथा ज्योति स्वरूप केवली पुरुष जीवित भी मुक्त है। १२. इन सात भूमियोका अनुभव करनेवाला पुरुष कुशल कहलाता है। ( योगदशन सूत्र ) । ९. परिणाम विचार १. सारख्यवत यह भी परिणामवादी है। भूतोंमे सारख्यो वत धर्म, लक्षण व अवस्था परिणाम होते है और चित्त में निरोध, समाधि व एकाग्रता । चित्तको संसारावस्था व्युत्थान और समाधिस्थ अवस्था निरोध है। दो अवस्थाओमें परिणाम अवश्य होता है। धर्म आदि तीनो परिणाम चित्तमे भी लागू होते है। व्युत्थान धर्मका तिरोभाव होकर निरोधका प्रादुर्भाव होना धर्म परिणाम है। दोनो धर्मोकी अतीत, वर्तमान व अनागत काल में अवस्थान लक्षण परिणाम है। और दोनो परिणामोका दुर्बल या बलवान् होना अवस्थापरिणाम है । ( योग दर्शन सूत्र) १०. कर्म विचार १. रजोगुणके कारण क्रियाशील. चित्तमें कर्म होता है, उससे संस्कार या कर्माशय, उससे वासना और वासनासे पुन' कर्म, यह चक्र बराबर चलता रहता है। कर्म चार प्रकारके होते है-कृष्ण, शुक्ल कृष्ण, शुक्ल, अशुक्ल अकृष्ण । पापकर्म कृष्ण, पुण्यकर्म शुक्ल, दोनोसे मिश्रित कृष्ण-शुक्ल, और निष्काम कर्म अशुक्ल-अकृष्ण है। प्रथम तोन बन्धके कारण है। और चौथा न बन्धका कारण है और न मुक्ति का। २. कर्म वासनाके आधीन है। अनेक जन्म पहलेको वासनाएँ अनेक जन्म पश्चात उद्बुद्ध होती है। अविद्या ही वासना का मूल हेतु है। धर्म, अधर्म आदि कार्य है और वासना उनका कारण। मन वासनाका आश्रय है, निमित्तभूत वस्तु आलम्बन है, पुण्य-पाप उसके फल है। (योगदर्शन सूत्र)
1. मुक्तारमा व ईश्वर विचार १. यम नियमके द्वारा पाँच प्रकार क्लेशोंका नाश होकर बैराग्य प्रगट होता है, और उससे आठ अगोके क्रम पूर्वक असंप्रज्ञात समाधि हो जाती है। मार्गमे आने वाली अनेक ऋडियो व सिद्धियो रूप विघ्नोका दूससे ही त्याग करता हुआ चित्त स्थिर होता है, जिससे समस्त कर्म निर्दग्ध बोजवत नष्ट हो जाते है । त्रिगुण साभ्या
वस्थाको प्राप्त होते है। चैतन्य मात्र ज्योतिर्मय रह जाता है । यही कैवल्य या मुक्ति है। २ चित्तको आत्मा समझने वाला योगी शरीर छूटने पर प्रकृतिमे लीन हो जाता है। वह पुन संसारमें आ सक्ता है। अत' मुक्त पुरुषसे बह भिन्न है। ३ त्रिकाल शुद्ध चैतन्यपुरुष है। सादि-शुद्ध व अनादि शुद्ध की अपेक्षा मुक्तारमा पुरुषमें भेद है। ४. उपरोक्त तीनासे भिन्न हो ईश्वर है। वह ज्ञान इच्छा, व क्रिया-शक्तिसे युक्त होता हुआ सदा जगत्के जीवो पर उपदेशादि द्वारा तथा सृष्टि, प्रलय व महाप्रलय आदि द्वारा अनुग्रह करता है। ५. प्रणव ईश्वरका वाचक नाम है। इसके ध्यानसे बुद्धि सात्त्विक होती है, अत मोक्षमार्गमे ईश्वर की स्वीकृति परमावश्यक है । ( योगदर्शन सूत्र) १२. योग व सांख्य दर्शनकी तुलना क्योकि पतंजलिने सारख्यतत्त्वके ऊपर ही योगके सिद्धान्तोंका निर्माण किया है, इसलिए दोनोमें विशेष अन्तर नही है। फिर मोक्ष-प्राप्तिके लिए सारख्यदर्शन केवल तत्त्वज्ञान पर जोर देता है जन कि योगदर्शन यम, नियम, ध्यान, समाधि आदि सक्रियात्मक प्रक्रियाओ पर जोर देता है। इसलिए दोनोमें भेद है। (स्या, म / परि०-घ/पृ. ४२१)। १३. जैन दर्शनमें योगका स्थान जैन आम्नायमें भी दिगम्बर व श्वेताम्बर दोनो ही आचार्योंने विभिन्न शब्दो द्वारा ध्यान, समाधि आदिका विशद वर्णन किया है. और इसे मोक्षमार्ग का सर्व प्रधान अग माना है। जैसे-दिगम्बर आम्नायमै-तत्त्वार्थसूत्र अध्याय १ व इसकी टीकाएं सर्वार्थसिद्धि व राजवार्तिक आदि । ज्ञानार्णव, तत्त्वानुशासन, नामक ग्रन्थ । और श्वेताम्बर आनायमे-हरिभद्रसरिकृत योगनिन्दु, योगदृष्टि समुच्चय, योगविंशिका, षोडशक आदि तथा यशोविजय कृत अध्यात्मसार, अध्यात्मोपनिषद्, योगलक्षण, पातंजलियोगलक्षण विचार, योगभेद, योगविवेक, योगावतार, मित्रा, तारादित्रय, योग माहात्म्य, आदि अनेक ग्रन्थ । ( योगदर्शन सूत्र) योग निरोध-ध, १३/१,४,२६/८४/१२ को जोगणिरोहो। जोग
विणासो। -योगोंके विनाशकी योगनिरोध संज्ञा है । योग निर्वाण क्रिया-दे० क्रिया/३ । योगमागे-आचार्य सोमदेव (ई १४३-६६८)द्वारा विरचित ध्यान
विषयक संस्कृत छन्द-बद्ध ग्रन्थ है। इसमें ४० श्लोक है। योगमुद्रा-दे० मुद्रा। योगवक्रतास.सि./६/२२/३३७/१ योगस्त्रिप्रकारो व्याख्यात' । तस्य वक्रता
कौटिल्यम् । - तीनो योगोका व्याख्यान कर आये है। इसकी कुटिलता योगवक्रता है । (रा. वा./६/२२/१/५२८/8)।
२. योगवक्रता व विसंवादमें अन्तर स.सि./६/२२/३३७/२ ननु च नार्थभेद । योगवक्रतवान्यथाप्रवर्तनम् ।
सत्यमेवमेतत्-स्वगता योगवक्रतेत्युच्यते । परगतं विसवादनम् । सम्यगभ्युदयनि श्रेयसार्थासु क्रियासु प्रवर्तमानमन्य तद्विपरीतकायधामनोभिर्विसवादयति मैव कार्पोरेवं कुर्विति । प्रश्न-इस तरह इनमें अर्थभेद नहीं प्राप्त होता, क्योकि योगवक्रता और अन्यथा प्रवृत्ति करना एक ही बात है । उत्तर-यह ना सही है तब भी योग वक्रता स्वगत है और विसंवादन परगत है। जोस्वर्ग और मोक्षके योग्य समीचीन क्रियाओका आचरण कर रहा है उसे उसके विपरीत
भा० ३-४९
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योगवर्गणा
मन, वचन और कायकी प्रवृत्ति द्वारा रोकना कि ऐसा मत करो विवादन है। इस प्रकार ये दोनो एक नहीं है किन्तु अलगअलग है ।
योगवर्गणा - दे० योग /६ ।
योगशास्त्र राम्राचार्य हेमचन्द्र सुर (ई १०००-१९०३) कृत आध्यात्मिक ग्रन्थ ।
योगसंक्रांति - दे० शुक्लध्यान /४ | योग संमह क्रिया दे०का योगसार- १. आ योगेन्दुदेव ( ई श ६ ) द्वारा रचित १०८ दोहा
/ २ ।
प्रमाण अपभ्रंश आध्यात्मिक ग्रन्थ (ती / २ / २५१) । २. अमितगति ( ई १२३-६६३) कृत संस्कृत छन्दबद्ध तत्वप्ररूपक ग्रन्थ अधिकार ५४० श्लोक प्रमाण । ३. योग चन्द्र (ई. श. १२) कृत दोहासार । (दे योग चन्द्र ) । ४ श्रुतकीर्ति (वि श. १६ मध्य) कृत अपभ्रंश रचना। (ती / ३ / ४३२) ।
योगस्पर्धक - ० स्पर्धक
योगाचार मत ० योगी
न च वृ / ३८ णिज्जियसासों णिपफंदलोयणो मुक्कसयलवावारो । जो एहावत्यगओ सो जोई णरिथ संदेहो ३८ - जिसने श्वासको जीत लिया है, जिसके नेत्र टिमकार रहित है, जो काय के समस्त व्यापारसे रहित है, ऐसी अवस्थाको जो प्राप्त हो गया है, वह निस्संदेह योगी है।
ज्ञा सा / ४ कदर्पदर्पदलनो दम्भविहीनो विमुक्तव्यापार । उग्रतपो दीप्तगात्र योगी विज्ञेय परमार्थ |४| कन्दर्प और दर्पका जिसने दलन किया है, दम्भसे जो रहित है, जो कायके व्यापारसे रहित है, जिसका शरीर उग्रतपसे दस हो रहा है, उसको परमार्थ योगी जानना चाहिए / ४ |
२. योगी के भेद व उनके लक्षण
-
पं.का./ता.वृ/१७३/२५४ / ३ द्विधा ध्यातारो भवन्ति शुद्धात्मभावनाप्रारम्भका पुरुषा सूक्ष्मस विकल्पावस्थायां प्रारब्धयोगिनो भण्यन्ते निर्विकल्पात्मवस्थाया पुनर्निष्पन्नयोगिन इति । - दो प्रकारके ध्याता होते हैं। शुद्धात्म भावनाके प्रारम्भक और सूक्ष्म सविकल्प अवस्थामे जो स्थित है, ऐसे पुरुषोको प्रारब्धयोगो कहते है । और निर्विकल्प अवस्था में स्थित पुरुषको निष्पन्नयोगी कहते है । ★ जीवको योगी कहने की विवक्षा ३०/१/३० योगदुदेव
आप अत्यन्त विरक्त चित्त दिगम्बराचार्य थे। आप अवश्य हो पहले वेदिक मतानुसारी रहे होगे क्योकि आपकी कथनशैली मे बेदिक मान्यता के शब्द बहुलतासे पाये जाते है। आपका शिष्य प्रभाकर भट्ट था। इनके सम्बोधनार्थ ही आपने परमात्मप्रकाश नामका ग्रन्थ रचा था। आपको जान्दु, योगीन्दु, योगेन्दु, जोगिचन्द इन नामोसे भी पुकारा जाता था। आपने अपभ्रंश ब संस्कृतमें अनेको ग्रन्थ लिखे है । कृति -१ स्वानुभवदर्पण, २. परमात्मप्रकाश (अप), ३. योगसार (अप०), ४ दोहा पाहुड; ५. सुभाषिततन्त्र, ६ अध्यात्म रत्नसदोह; ७ तत्त्वार्थ टीका ( अप० ); अमृताशीति ( अप० ); १ निजात्माष्टक ( प्रा० ); १०० नौकार श्रावकाचार ( अप० ) | नोट - ( प्रथम दोके अतिरिक्त अन्यके सम्बन्ध मे निश्चित रूप से नहीं कहा जा सकता कि इन्ही योगेन्दु देवकी थी या अन्य किन्ही योगेन्द्र की समय-ई श ६. (ती./२/२४५, २४६) ।
で
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•
योग्यता
१. पर्यायों को प्राप्त करनेकी शक्ति दे० निक्षेप / ५ / १ । २. क्षयोपशमसे प्रगटी शक्ति
प्रमाण परीक्षा/पृ. ६७ योग्यताविशेष पुन प्रत्यक्षस्येव स्वविषयज्ञानावरणवीर्यान्तरायक्षयोपशमविशेष एव । = योग्यतारूप जो विशेष वह प्रत्यक्षकी भाँति अपने अपने विषयभूत ज्ञानावरणीय तथा वीर्यान्तरायका क्षयोपशम विशेष ही है ।
श्लो. वा, ३/२/१३ / १०६/२६३ क्षयोपशमसज्ञेय योग्यतात्र समानता | = क्षयोपशम नाम यह योग्यता यहाँ ।
=
प. मु / २ / १० स्त्रावरणक्षयोपशमलक्षणयोग्यतया हि प्रतिनियतमर्थं व्यवस्थापयति । जानने रूप अपनी शक्तिको ढकनेवाले कर्मकी क्षयोपअपनी योग्यता ही ज्ञान-पटप पदार्थोंकी जुदी मुदी रीति से व्यवस्था कर देता है । (स्या म / १६/२०६/१० ) । प्रमेकम ३/१-१०प्रतिनियतार्थस्याको हिसारणक्षयोपरामोऽर्थं ग्रहणातिरूप तदुक्तम्- राणयोग्य सेब ज्ञानस्य प्रतिभिर्थव्यवस्थादिप्रतिनियत अर्थ की व्यवस्था करनेवाली उस उस आवरणकर्म के क्षयोपशम रूप अर्थ ग्रहणकी शक्ति योग्यता कहलाती है। कहा भी है किक्षयोपशम लक्षणवाली योग्यता ही वह शक्ति है जो कि ज्ञानके प्रतिनियत अर्थ की व्यवस्था करनेमें प्रधान कारण है ।
शक्तिव
न्या दी /२/५/२७/६ का नाम योग्यता । उच्यते, स्वावरणक्षयोपशम' | प्रश्न- योग्यता किसे कहते है। उत्तर- अपने आवरण ( ज्ञानको डॅकनेवाले कर्म के क्षयोपशमको योग्यता कहते है ।
२. स्वाभाविक शक्ति
१/२/९/१२६ / ०२०-४११/२३ योग्यता हि कारणस्य कार्योत्पादनशक्ति, कार्यस्य च कारणजन्यत्वशक्तिस्तस्या' प्रतिनियमः, शालिजारो ऽपि शालिनीस्यैव शाम्यजनने हसियमजस्य तस्य याजनने न शालिनीजस्येति कथ्यते । तत्र कुतस्तच्छक्तेस्तादृश' प्रतिनियम । स्वभावत इति चेन्न, अप्रत्यक्षत्वात् । कार्यकारण भावके प्रकरणमे योग्यताका अर्थ कारणकी कार्यको पैदा करनेकी शक्ति और कार्यकी कारणसे जन्यपनेकी शक्ति ही है । उस योग्यताका प्रत्येक विवक्षित कार्य कारणोंमें नियम करना यही कहा जाता है कि धानके बीज और धानके अकुरो में भिन्न-भिन्न समय वृत्तिपनेकी समानताके होनेपर भी साठी चावल के बीजकी ही धानके अंकुरोको पैदा करनेमे शक्ति है । किन्तु जौके बीजकी धानके अंकुर पैदा करनेमे शक्ति नहीं है । तथा उस जौके बीजकी जौके अकुर पैदा करनेमे शक्ति है। हाँ, धानका बीज जौका अंकुर नहीं उत्पन्न कर सकता है। यही योग्यता कही जाती है। प्रश्न- ऊपर के प्रकरण में कही गयी उस योग्यता रूप शक्तिका वैसा प्रत्येक में नियम आप कैसे कर सकेगे। उत्तर- यह शक्तियोंका प्रतिनियम उन उन पदार्थोंके स्वभावसे हो जाता है। क्योंकि असोको शतियोका नहीं होता है।
* द्रव्यके परिणमनमें उसकी योग्यता ही कारण है -दे० कारण/11/1/1 योजन - क्षेत्रका प्रमाण विशेष - दे० गणित / 1 /१/३० योजना योग-३० योग
योनि - जीवो के उत्पन्न होनेके स्थानको यौनि कहते है । उसको प्रकार से विचार किया जाता है- शीत, उष्ण, संवृत, विवृत आदिकी अपेक्षा और माताकी योनिके आकारकी अपेक्षा ।
तो
योनि
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योनि
१. योनि सामान्यका लक्षण
सि/२/३२/१८/१० योनिरुपपाददेश पुगचय उपपाद देशके पुद्गल प्रचय रूप योनि है ।
रा. वा /२/३२/१०/१४२/१३ यूयत इति योनि' । = जिसमे जीव जाकर उत्पन्न हो उसका नाम योनि है ।
गो. जी. जी. १/११/२०३/१ योति मिश्रीभवति औदारिकादिनोकवर्गणगते सह संभवते जीवो यस्य सा योनि
पति
स्थानम् । योनि अर्थात मिश्ररूप होता है। जिसमें जीव औदारिकादि नोकर्म वर्गणारूप पुद्गलोके साथ सम्बन्धको प्राप्त होता है, ऐसे जीवके उपजने स्थानका नाम योनि है ।
२. योनि के भेद
१. आकारोंकी अपेक्षा
मू, आ. / ११०२ सखावत्तयजोणी कुम्मुण्णद व सपत्तजोणी य । =शखावर्तयति कुर्मोपोनि वंशपत्रयोनि-इस तरह तीन प्रकारकी आकार योनि होती है। (गो जी./मू./८१/२०३ ) ।
२ शीतोष्णादिकी अपेक्षा
तसू /२/३२ सतिशीतसंवृता सेतरा मिश्राश्चैकदारतयोनय । - संचित, शीत और समृत तथा इनकी प्रतिपक्षभूत अति उष्ण और वि तथा मित्र अद सचितावित शीतोष्ण और संकृतविवृत ये उसकी अर्थात् जन्मकी योनियाँ है । ३२|
३. चौरासी लाख योनियोंकी अपेक्षा
"
मू. आ./२२६ णिच्चिदरधादु सत्त य तरु दस विगलिदिएसु छच्चेव । सुरणरयतिरिय चउरी चउदस मणुए सदसहस्सा । २२६ । नित्यनिगोद, इतर निगोद पृथिवीकायसे लेकर वायु कम सात सात लाख योनि है । प्रत्येक वनस्पतिके दश लाखयोनि है, दो इन्द्रिय से चौहन्दी तक सब वह लाख ही है. देव व नारकी और पंचेन्द्री तिर्यंचोके चार-चार लाख योनि है, तथा मनुष्योके चौदह लाख योनि है । सब मिलकर चौरासी लाख योनि हैं । २२६॥ ( मू. आ / ११०४ ), ( बा, अ / ३५ ); ( ति प / ५ / २६७); ( ति प / ८ /७०१ ); (त. सा / २ / ११०-११९) (गो. जी./ /६/२९९) (नि. साता ६.४२)।
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३. सचिताचित योनि के लक्षण स.सि./२/१२/१७-१८८/१० आत्मनश्चेतन्य विशेषपरिणामश्चित्तम् । सह चित्तेन वर्तत इति सचित्त । शीत इति स्पर्शविशेष. "सम्यग् वृत संवृत' । सवृत इति दुरुपलक्ष्यप्रदेश उच्यते । योनिरुपपाददेशपुद्गलप्रच योऽचित्त । मातुरुदरे शुक्रशोणितम चित्तम्, तदात्मना चित्तवता चिता मिश्रण मिश्रयोनि-आरविशेषरूप परिणामको चित्त कहते है। जो उसके साथ रहता है वह सचित्त कहलाता है। शीत यह स्पर्शका एक भेद है । जो भले प्रकार ढका हो मह संवृत कहलाता है. यहाँ समृत ऐसे स्थानको कहते है जो देखने में न आवे । उपपाद देशके पुद्गलप्रचयरूप योनि अचित्त है । माता के उदरमें शुक्र और शोणित चित होते है जिनका सचित माताकी आमाके साथ मिश्रण है इसलिए वह मियोनि है (रा. वा./२/३२१/१-३/१४२/२९) ।
४. सचित्त अचित्तादि योनियों का स्वामित्व
मु. जा. / २०६६-१९०१ पदिय शेरइया संजोगी मत देना। वियलिदिया य वियडा सबुढवियडा य गन्भेसु । १०६६। अश्चित्ता खलु जोणी णेरइयाणं च होड़ देवाणं । मिस्सा य गन्भजम्मा तिविही जोणी दु ऐसा ११००१ सीहा जोणी हा उ
योनि
"
देवाण । तेऊण उसिणजोणी तिविहा जोणी दृ सेसाण | ११०१ | एकेन्द्रिय शारकी, देव इनके सह (दुरुपलक्ष) योनि है, दोइन्द्रियसे चौहद्रोसक विकृत योनि है और गर्भ जो संवृत योनि है | २०६६। अचित्त योनि देव और नारकियोके होती है, गर्भजो के मिश्र अर्थात् सचित्ताचित्त योनि होती है। और शेष मूर्धनो के तीनो ही योनि होती है । ११००१ (दे० आगे स. सि.)। नारकी और देवोके शीत, उष्ण योनि है, तेजस्कायिक जीवो के उष्ण योनि है और शेष एकेन्द्रियादिके दोनो प्रकारको योनि है। | ११०१) (स.सि /२/१२/१००/१० ) ( राधा /२/१२/१८-२६/१४३/१) (taft 19.124-20/20=) | /मू./
1
४/२४०-२६५० मिस्स सचितजोगीए । २६४८। सीदं उन्ह मिस्स जोबेस होति गम्भपभत्रेसुं । ताणं भवनि संवदजोणीए मिस्सजोणी य । २१४६| सीदुण्ह मिस्सजोणी सच्चित्ताचित्त मिस्स विउडाय । सम्सुच्छिममणुवाण सम्ममा सचितए होति जोणीओ १२६५०/- १ मनुष्य गर्भज-- गर्भ जन्मसे उत्पन्न जीवोके सचितादि तीन योनियोमेंसे मिश्र (सचित्तासचिश) योनि होती है | २६४८ | गर्भ से उत्पन्न जीवोके शीत, उष्ण और मिश्र योनि होती है। तथा इन्हो गर्भज जीरोके संवृतादिक तीन योनियोमेसे मिश्र योनि होती है | २६४ | २ सम्मूर्च्छन मनुष्य- सम्मूर्छन मनुष्यो के उपर्युक्त सवितादिकमौनी पृष्ण मिश्र (शोषण), सचित, अति मिश्र (सचितावित) और विवृत ये योनियों होती है ।२६६०
ति प / ५ / २३-२६५ उत्पत्ती तिरियाण गन्भजसमुच्छिमोति पत्तेक्क । सचित्तसीद संबद सेदर मिस्सा य जहजोरगं |२| गन्भुन्भवजीवाणं मिस्स सचिणामधेयस्त सीद उन्हें मिस्स सबदजोणिम्मि मिस्सा २६४॥ मृचिचितमितसोरुणा । मिस्स विद वोगीसमा २६५
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शिप //७००००१ भायणये सरजो सियासी वादे सोह अचित्तं संउदया होति सामण्णे । ७००| एदाण चउविहाण सुराण होति जोनीबाट विदिओ १७०१३. गर्भज तिर्यच - तिचोकी उत्पति गर्भ और सम्मूर्छन जन्मसे होती है । इनमेसे प्रत्येक जन्मकी सचित्त, शीत सवृत तथा इनसे विपरीत अति उष्ण विवृत और मिश्र (सचिता चित्त, शीतोष्ण, सतनिवृत्त) ये यथायोग्य योनियों होती है | २१| = गर्भ से उत्पन्न होनेवाले जीवोमे सचित्त नामक योनिमें से मिश्र (सचितावित), शीत, उष्ण, मिश्र (शीतोष्ण) और सबूत योनि मिश्र (निवृत्त) योनि होती है | २१४४ सम्मूर्च्छन तिर्यच सम्मुन के सचिव अचित मिश्र (पिता) शीत. उष्ण मिश्र (शीतोष्ण) और संकृत योनिमे से मिल - विवृत) योनि होती है।२६ २ उपपादनदेव-भवनवासी, व्यन्तर ज्योतिषी और स्पवासियों के उपपाद जन्ममे शीतोष्ण, अचित्त और संवृत योनि होती है। इन चारो प्रकारके सब देवो के सामान्य रूपसे सब योनियों होती है। विशेषरूप से चार लाख योनियाँ होती है । ७००-७०१
"
- - साधारण
स. सि / २ / ३२ / ९८६/१ सचित्तयोनय साधारणशरीरा । कुत । परस्पराश्रयत्वात् । इतरे अचित्तयोनयो मिश्रयोनयश्च । शरीरवालोकी सचित्त योनि होती है, क्योकि ये एक दूसरे के आश्रयसे रहते हैं । इनसे अतिरिक्त शेष सम्मूर्च्छन जोवोके अचित्त और मिश्र दोनो प्रकारकी योनियाँ होती है । ( रा. बा / २ / ३२/२०/ १४३/६)।
1
५. शंखावर्त आदि योनियोंका स्वामित्व
आ / ११०२-११०३ तत्थ य संखावते नियमादु विवज्जए गम्भो । १११०२॥ कुमुद कोणी तियराश्यीय रामावि य
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योनिमति
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रतिकार
रघुनाथ- नव्यम्यायका प्रसिद्ध प्रणेता। समय--ई० १५२०॥
-दे० न्याय/१/७॥ रघुवंश-दे० इतिहास१०११ । रज-ध १/१,१,१/४३/७ ज्ञानदृगावरणानि रजांसीव बहिरङ्गान्तरगाशेषत्रिकालगो चरानन्तार्थव्यङजनपरिणामात्मवस्तुविषयबोधानुभवप्रतिबन्धकत्वाद्रजासि । मोहोऽपि रज. भस्मरजसा पूरिताननानामिव भूयो मोहावरुद्धात्मना जिह्मभावोपलम्भाव। -ज्ञानावरण, दर्शनावरण कर्म धूलिकी तरह बाह्य और अन्तरग समस्त त्रिकालके विषयभूत अनन्त अर्थ पर्याय और व्यञ्जन पर्याय स्वरूप वस्तुओको विषय करने वाले बोध और अनुभवके प्रतिबन्धक होनेसे रज कहलाते है। मोहको भी रज कहते है, क्योंकि, जिस प्रकार जिनका मुख भस्मसे व्याप्त होता है उनमें जिह्म भाव अर्थात कार्यकी मन्दता देखी जाती है, उसी प्रकार मोहसे जिनका आत्मा व्याप्त हो रहा है उनके भी जिह्मभाव देखा जाता है । रजत-१ माल्यवान पर्वतस्थ एक कूट-दे० लोक ५/४,२. मानुषोत्तर पर्वतस्थ एक कूट-दे० लोक/१०३.रुचक पवेतस्थ एक कूट
-दे० लोक५/१३ । रजस्वला-दे० सुतक । रज्जू-१ औदारिक शरीरमे मास रज्जुओ का प्रमाण-दे० औदारिक/९/७२. क्षेत्रका एक प्रमाण विशेष-दे० राजू।
जायते सेसा सेसेसु जोगीसु ।११०३। -शखावर्त योनिमें नियमसे गर्भ नष्ट हो जाता है ।११०२। कूर्मोन्नत योनिमें तीर्थकर, चक्री, अर्धचक्री, दोनो बलदेव ये उत्पन्न होते है और बाकी की योनियों में शेष मनुष्यादि पैदा होते है ।११०३। (ति.प./४/२६५२), (गो. जी / /८१-८२/२०३-२०४)। ६. जन्म व योनिमें अन्तर स सि /२/३२/१८८/७ योनिजन्मनेरविशेष इति चेत् । न, आधाराधेयभेदात्तभेद । त एते सचित्तादयो योनय आधारा । आधेया जन्मप्रकारा । यत सचित्तादियोन्यधिष्ठाने आत्मा समूच्छेनादिना जन्मना शरीराहारेन्द्रियादियोग्यान्पुद्गलानुपादत्ते । प्रश्नयोनि और जन्म में कोई भेद नही। उत्तर-नहीं, क्योकि आधार और आधेयके भेदसे उनमे भेद है। ये सचित्त आदिक योनियाँ आधार है, और जन्म के भेद आधेय है, क्योकि सचित्त आदि योनि रूप आधारमें सम्मूच्र्छन आदि जन्मके द्वारा आत्मा, शरीर, आहार और इन्द्रियों के योग्य पुद्गलो को ग्रहण करता है । (रा वा/२/३२/ १३/१४२/१६) । योनिमति-योनिमति मनुष्य व तियंच निर्देश-दे० वेद/३। योग-नेयायिक दर्शनका अपर नाम-दे० न्याय/१७ ।
[ ] रइधू-अपभ्रंश जैन कवि थे । कृतियें-मेहेसर चरिउ, सिरिवाल
चरिउ, बलहद्द चरिउ, सुक्कोसल चरिउ, धण्णकुमार चरिउ, जसहर चरिउ, सम्मइजिण चरिउ, पउम चरिउ, सम्मत्त गुण णिहाण कव्व, विससार, सिद्ध तत्थसारो इत्यादि । समय-वि. १४५७-१९३६ । (ती/४/१९८)। रक्कस-बेदारेगरेके राजा थे। समय-ई०१७७ (सि वि /म /७५/१.
महेन्द्र)। रक्तकंबला-समेह पर्वतस्थ एक शिला है। इस पर ऐरावत क्षेत्रके तीर्थंकरोका जन्म परमाणकके सम्बन्धी अभिषेक किया जाता है।
-दे० लोक/२/६ । रक्ताशला-समेरु पर्वतस्थ एक शिला है। जिस पर पूर्व विदेहके तीर्थंकरोका जन्म कल्याणके अवसर पर अभिषेक किया जाता है।
-दे० लोक/६। रक्ताकुंड-ऐरावत क्षेत्रस्थ एक कुण्ड, जिसमेसे रक्ता नदी निक
लती है। -दे० लोक/३/१०। रक्ताकूट-शिस्त्र पर्वतस्थ एक कूट-दे० लोक/१/४ । रक्तादेवी-रक्ताण्ड व रक्ताकूटकी स्वामिनी देवी-दे० लोक/४॥ रक्तानदी-ऐरावत क्षेत्रकी प्रधान नदी-दे० लोक/३/११,५/४ । रक्तोदाकुण्ड-ऐरावत क्षेत्रस्थ एक कुण्ड-दे० लोक/३/१० ।। रक्तोदादेवी-रक्तोदाकुण्डकी स्वामिनी देवी-दे० लोक१/४ | रक्तोदानदी-ऐरावत क्षेत्रको प्रधान नदी-दे० लोक/३/११,५/४ । रक्षा बन्धन व्रत-श्रावण शु १५ के दिन विष्णुकुमार मुनिने
अकम्पनादि ७०० मुनियो पर राजा बलि द्वारा किया गया उपसर्ग दूर किया था। इस दिनको रक्षाबन्धन कहते है। इस दिन उपवास करे और पोला सूत हाथमे बाँधे । और 'ओ ह्री विष्णुकुमारमुनये
नम' इस मन्त्रका त्रिकाल जाप्य करे। (व्रत-विधान स./पृ १०८) । रघुइक्ष्वाकु वश मे अयोध्या नगरीका राजा था। (प पू./२२/
१६०) । अनुमानत इसीसे रघुव शकी उत्पत्ति हुई हो।
स. सि./८/8/३८५/१३ यदुदयाइदेशादिष्वौत्सुक्यं, सा रति । अरतिस्तद्विपरीता। -जिसके उदयसे देशादिमें उत्सुकता होती है वह रति है। अरति इससे विपरीत है। (रा वा./८/६/४/५७४/१७); (गो कमी प्र./६३/२८/७)। ध. ६/१,६-१,२०/५७/५ रमण रति., रम्यते अनया इति वा रति ।
जेसि कम्मरवधाणमुदएण दव्व-खेत्त-काल-भावेसु रदी समुप्पज्जइ, तेसि रदि त्ति सण्णा। दब-खेत्त-काल-भावेसु जेसिमुदएण जीवस्स अरई समुप्पज्जइ तेसिमरदि त्ति सणा। रमनेको रति कहते है अथवा जिसके द्वारा जीव विषयो में आसक्त होकर रमता है उसे रति कहते है। जिन कम स्कन्धोके उदयसे द्रव्य, क्षेत्र, काल और भावो मे राग उत्पन्न होता है, उनकी 'रति' यह सज्ञा है। जिन कर्म स्कन्धोके उदयसे द्रव्य, क्षेत्र, काल और भावोमें जीवके अरुचि उत्पन्न होती है, उनकी अरति सज्ञा है। (ध १३/५.६,६६/ ३६१/६)। ध. १२/४,२.८.१०/२८५/६ नप्तृ-पुत्र-कलत्रादिषु रमणं रति । तत्प्रतिपक्षा अरति । - नाती, पुत्र एव स्त्री आदिको में रमण करनेका नाम
रति है। इसकी प्रतिपक्षभूत अर ति कही जाती है। नि, सा/ता. वृ/६ मनोज्ञेषु वस्तुषु परमा प्रीतिरेव रति । = मनोहर वस्तुओ में परम प्रीति सो रति है। * अन्य सम्बन्धित विषय १. रति राग है।
-दे० कपाय/४। २ रति प्रकृतिका बन्ध उदय व सत्व । -दे० वह वह नाम । ३. रति प्रकृतिके बन्ध योग्य परिणाम। -दे० मोहनीय/२/६ । रति उत्पादक वचन-दे० वचन। रतिकर-नन्दीश्वर द्वीपकी पूर्वादि चारो दिशाओमे चार-चार बावडि। है। प्रत्येक बावडीके दोनो बाहर वाले कोनों पर एकएक ढोलाकार (Cylindiical) पर्वत है। लाल वर्गका होनेके कारण इनका नाम रतिकर है। इस प्रकार कुल ३२ रतिकर है। प्रत्येकके शीशपर एक एक जिनमन्दिर है-विशेष दे० लोक/४/५।
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रतिकूट
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रत्नप्रभा
१३, १४ व १५ को उपवास करे। कृष्ण १ को दोपहरको पारणा करे। इन दिनोमे पूर्ण ब्रह्मचर्यसे रहे। 'ओ ही सम्यग्दर्शनज्ञानचारित्रेभ्यो नमः' इस मन्त्रका त्रिकाल जाप्य रे। (वत-विधान स./पृ. ४०)। रत्ननदि-नन्दिसंघ बलात्कारगणकी गुर्वावली के अनुसार आप वोरनन्दि न. १ के 'शिष्य तथा माणिक्य नं.१ के गुरु थे। समयशक सं०५६१-५८५ (ई.६३६-६६३) -दे० इतिहास/७/२।
रतिकूट-विजयाध की दक्षिण श्रेणीका एक नगर । -देव
विद्याधर। रतिप्रिय-किनरनामा व्यन्तर जातिका एक भेद । -दे० किन्नर। रतिषेण-म पु./११/श्लोक नं. "पुष्कलावती देशको पुण्डरीकिणी नगरीका राजा था (२-३)। पुत्रको राज्य देकर जिनदीक्षा ग्रहण की (१२-१३)। सोलहकारण भावनाओका चिन्तवन कर तीर्थकर प्रकृतिका बन्ध किया। अन्तमें सन्यास मरण कर बैजयन्त विमानमें अहमिन्द्र हुआ ( १३-१५)। रत्न-१. चक्रवर्ती, बलदेव व नारायणके वैभव--दे० शलाकापुरुष/
२,३,४, २. चक्रवर्तीकी नवनिधियो में से एक निधि-दे० शलाकापुरुष/२,३,४.३. रुचक पर्वतस्थ एक कूट -दे० लोक/७। रत्नकीति-१क्षेमकीर्ति (ई. १८) के शिष्य । कृतिआराधनासार की संस्कृत टीका। समय-क्षेमकीर्ति जी के अनुसार ई. १०००-१०३५ । (आ सा/प्र.२/पं.गजाधर लाल)। २. मेधचन्द्र के शिष्य, ललितकीर्ति के विद्या शिष्य । कृति-भद्रबाहू चारित्र। समय-वि, १२६६, ई. १२३६ । (भद्रबाहु चारित्र । प्र.७। डा. कामता प्रशाद)। ३. काष्ठा संघी रामसेन के शिष्य. लक्ष्मणसेन के गुरु । समय-वि. १४५६, ई. १३६६ । (दे. इतिहास/७/६), (प्रद्युम्नचारित्र को अन्तिम प्रशस्ति); (प्रद्य म्न चारित्र। प्र/प्रेमी जी)। ४. भट्टारक अनन्तकीर्ति के शिष्य, ललितकीर्ति के गुरु । कृतिभद्रबाहु चारित्र जिसमें टूढिया मत की उत्पत्ति का कालं वि. १५२७ (ई. १४७०) बताया गया है । श्लोक १५७-१५६ । अत इनका समयलगभग वि. १५७२ (ई १५१५) (ती./३/४३६)। ५. उपदेश सिद्धांत रएनमाला के रचयिता एक मराठी कवि। समय-ग्रन्थ का रचना काल शक १७३४, ई. १८१२ । (ती /४/३२२) । रत्नकरंड श्रावकाचार-आ. समन्तभद्र (ई.श, २) द्वारा रचित
संस्कृत छन्दबद्ध इस ग्रन्थमें ७ परिच्छेद तथा १५० श्लोक है। श्रावकाचार विषयक यह प्रथम ग्रन्थ है । (ती०/२/१११) । इस पर निम्न टीकाएं उपलब्ध है-१. आ. प्रभाचन्द्र ७.(ई ११८५-१२४३) कृत संस्कृत टोका, २ प. सदासुख (ई १७६५-१८६६) कृत भाषा
टीका, जो अत्यन्त विस्तृत व प्रामाणिक है। रत्नत्रय-सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान व सम्यग्चारित्र इन तीन गुणो
को रत्नधय कहते है। इनके विकल्परूपसे धारण करना भेद रत्नत्रय है, और निर्विकल्प रूपसे धारण करना अभेद रत्नत्रय है। अर्थात सात तत्त्वो व देव, शास्त्र व गुरु आदिकी श्रद्धा, आगमका ज्ञान, व व्रतादि चारित्र तो भेद रत्नत्रय है, और आत्म-स्वरूपकी श्रद्धा, इसीका स्त्रसवेदन ज्ञान और इसी में निश्चल स्थिति या निर्विकल्प समाधि अभेद रत्नत्रय है। रत्नत्रय ही मोक्षमार्ग है। भेद रत्नत्रय व्यवहार मोक्षमार्ग और अभेद रत्नत्रय निश्चय मोक्षमार्ग है। -दे०
मोक्षमार्ग । रत्नत्रय कथा-आ पद्मनन्दि (ई. १२८०-१३३०) कृत सस्कृत
ग्रन्थ । रत्नत्रयचक्र यंत्र-दे० यत्र । रत्नत्रय यंत्र-दे० यत्र। रत्नत्रय विधान-इस ग्रन्थ पर प. आशाधर (ई. ११७३-१२४३)
ने सस्कृत भाषामे टोका लिखी है। रत्नत्रय विधान यंत्र-दे० यत्र । रत्नत्रय व्रत-प्रत्येक वर्ष तीन बार-भादो. माघ व चैत मासमे
आता है। शुक्ला द्वादशीको दोपहर के भोजनके पश्चात् धारणा ।
-विजयार्धकी उत्तर श्रेणीका एक नगर -दे० विद्याधर । रत्नप्रभरुचक पर्वतस्थ एक कूट-दे० लोक/५/१३ । रत्नप्रभा
१. रत्नप्रभा नामकी सार्थकता स. सि /३/१/२०३/७ चित्रादिरत्नप्रभासहचरिता भूमि' रत्नप्रभा ।
-जिसकी प्रभाचित्र आदि रत्नोको प्रभाके समान है वह रत्नप्रभा भूमि है। (रा. वा/३/१/३/१५६/१७), ( ति. प./२/२०); (ज. प.! १२/१२०)। २. रत्नप्रमा पृथिवीके तीन माग तथा उनका स्वरूप विस्तार आदि ति.प./२/8-१८ खरपंक्पब्बहुला भागा रयणप्पहाए पुढवीए। बहलत्तण सहस्सा सोलस चउसीदि सीदिय ।।। खरभागो णादवो सोलस भेटेहि सजुदो णियमा ।चित्तादीओ खिदिओ तेसि चित्ता बहुवियप्पा ।१० णाणाबिवण्णाओ महिओ वह सिलातला उबबादा। बालुषसकरसीसयरुप्पसुवण्णाण वइरं च ।११। अयतंबतउयसस्सय सिलाहिगुलाणि हरिदाल । अजणपबालगोमज्जगाणि रुजगक अब्भपडलाणि ।१२। तह अभबालुकाओ फलिहं जलकतसूरकताणि । चंदप्पहवेरुलियं गेरुवचदण लोहिदं काणि ।१३। वव्वयवगमोअमसारगतलपदीणि विविहवण्णाणि । जा होति त्ति एदेण चित्तेत्ति य वण्णिदा एसा ।१४। एदाए बहलतं एकसहस्स हवंति जोयणया । तीएहेट्ठा कमसो चोद्दस अण्णा य दिमही ।१४ तण्णामा बेरुलियं लोहिययंक मसारगल्लं च । गोमज्जयं पवालं जोदिरसं अजणं णाम ।१६। अजणमूल अंक फलिहचंदणं च बच्चगय । बहुला सेला एदा पत्तेक्क इगिसहस्सबहलाइ ।१७ ताण खिदीण हेहापासाण णाम रयणसेलसमा । जोयण सहस्सबहलं वेत्तासणसण्णिहाउ सठाओ १८-१. अधोलोकमे सबसे पहली रत्नप्रभा पृथिवी है उसके तीन भाग है-खर भाग, पंक भाग और अब्बहुल भाग। इन तीनो भागोका बाहल्य क्रमश सोलह हजार, चौरासी हजार और अस्सी हजार योजन प्रमाण है ।। २. इनमेसे खर भाग नियमसे सलह भेदोसे सहित है। ये सोलह भेद चित्रादिक सोलह पृथिवी रूप है। इनमेंसे चित्रा पृथिवी अनेक प्रकारकी है।१०॥ यहाँ पर अनेक प्रकारके वर्णो से युक्त महीतल, शिलातल, उपपाद, बालु, शकर, शीशा, चाँदी, सुवर्ण इनके उत्पत्तिस्थान, वज्र तथा अयस् (लोहा) ताँबा, त्रपु (रांगा), सस्यक (मणि विशेष ), मन शिला, हिगुल (सिगरफ), हरिताल, अजन, प्रवाल (मूंगा) गोमध्यक (मणि विशेष) रुचक अक (धातु विशेष), अभ्रपटल (धातुविशेष ), अभ्रवालुका (लालरेत), स्फटिक मणि, जलकान्तमणि, सूर्यकान्तमणि, चन्द्रप्रभमणि (चन्द्रकान्तमणि), वैडूर्यमणि, गेरु, चन्दन, लोहिताक (लोहिताक्ष), वप्रक ( मरकत ) बकमणि ( पुष्परोड़ा), मोचमणि ( कदली वर्णाकार नीलमणि) और मसारगल्ल ( मसृणपाषाणमणि विद्र मवर्ण) इत्यादिक विविध वर्णवाली धातुएँ है। इसलिए इस पृथिवीका चित्रा इस नामसे वर्णन किया गया है ।११-१४। इस चित्रा पृथिवीकी मोटाई १ हजार योजन है । ३. इसके नीचे क्रमसे चौदह अन्य पृथिवियों स्थित है ।१५॥ वैडूर्य, लोहिताक
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रत्नप्रभा
३९०
रत्नप्रभा
ऊपर
अब्बहूल भाग में नरकों के पटल
शण नीचे
खर पक
भाग
१००० यो० १५००० यो० - १६००० यो।
८४००० यो
--
-
नोट - इन्द्रक व श्रेणीबध्द - दे. लोक/२ मे चित्र सं० ११.
२-प्रत्येक पटल के मध्य मे इन्द्रक बिल है। उनकी चारो दिशाओवचारो विदिशाओ मे श्रेणीबद बिल है। जाठो अन्तर दिशा में प्रकीर्णक बिल है। सीमान्तक नामक प्रथम पटल के प्रत्येक पटल कीप्रत्येक दिशामे ४६ और प्रत्येक विदिशा में ४८है। आगे के पटलोमे उत्तरोत्तर एक एकहीन है
चित्रा पृ०नामक प्रथम पटल खरभाग
शेष १५ पटल पक भाग + विशेष दे. भवन/४ . सीमान्तक श्रेणी बन्द-(४४४६)+(४४४८):३८८ 1००० यो अन्तराल २निरय
श्रेणीबद्ध ४४४८)+(४४४७)-३८० 1००० यो अन्तराल ३ रोरुक
श्रेणीबद्ध (४४४6)+(४४४६)-३७२ 100०.यो अन्तराल
भान्त|श्रेणी बद्ध (४४४६)+(४४४५)-३६४ १००० यो उन्तराल ५उद्भ्रान्त -
श्रेणी बन्छ (४४४५)+(४४४४)%3३५६ १००० यो अन्तराल ६.सम्भ्रान्त
श्रेणी बंद - (४४४४)+(४४४३)%3D३४८ १००० यो अन्तराल ७ असमान्त
श्रेणी बन्द = (४४४३)+(४४४२)%3३४० १००० यो अन्तराल चि.विभान्त - | श्रेणी बन्द (४४४२)+(४४४१%3D३३२ १००० यो अन्तराल ६. तप्त - श्रेणी बन्द (४४४"+(४४४०)%D३२४ ३००० सन्तराल ३० त्रसित -
श्रेणी बन्द - (४४४०)+९४x३६-३१६ |१००० यो अन्तराल 3. वकान्त
श्रेणी बन्द =(Ex३६)+(४४३८)-३०८ १००० यो अन्तराल १२ अवकान्त
श्रेणीबद (४४३८)(xx३७)-३०० ९००० यो० अन्तराल [१३ विक्रान्त
श्रेणी बन्द - २६२ कुछ कम राजू का अन्तराल
→ ८००००यो
→ अब्बहुल भाग
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रलमाला
रम्यका
१ बृहद् विधि-(ह पु/३४/७६) । प्रथम १० बेला, १,२,३,४,५,६, ७,८,९,१०,११,१२,१३,१४,१५,१६, इस प्रकार एक एक वृद्धि क्रमसे १३६ उपयास करे। फिर ३४ बेला, १६.१५,१४,१३,१२,११,१०,६,८,७, ६.५,४,३,२,१, इस प्रकार एक एक हानि क्रमसे १३६ उपवास करे, १२ बेला । विधि-उपरोक्त रचनावत् पहले एक बेला व १ पारणा क्रमसे १२ बेला करे, फिर एक उपवास १पारणा, २ उपवास १ पारणा क्रमसे १ वृद्धि क्रमसे १६ उपवास तक करे, पीछे ३४ बेला, फिर १६ से लेकर एक हानि क्रमसे १ उपवास तक करे, पीछे १२ बेला करे। बीचमे सर्वत्र एक एक पारणा करे । जाप्य नमस्कार मन्त्रका त्रिकाल जाप्य करे। २. मध्यम विधि-एक वर्ष पर्यन्त प्रतिमासकी शु. ३,५,८ तथा कृ. २, ५.८, इन छह ति थियो में उपवास करे, तथा नमस्कार मन्त्रका त्रिकाल जाप करे। (व्रत विधान स./पृ ७३)।
(लोहिताक्ष), असारगल्ल (मसारकल्पा), गोमेदक, प्रवाल, ज्योतिरस, अजन, अजनमूल, अक, स्फटिक, चन्दन, वर्चगत (सर्वार्थका), बहुल (बकुल ) और शैल, ये उन उपर्युक्त चौदह पृथिवियोके नाम है। इनमेसे प्रत्येककी मोटाई एक हजार योजन है ।१६-१७। इन पृथि वियोके नीचे एक पाषाण नामकी (सोलहवी) पृथिवी है । जा रत्नशैलके समान है। इसकी मुटाई भी एक हजारयोजन प्रमाण है। ये सब पृथिवियों वेत्रासनके सदृश स्थित है ।१८ (रा वा/३/१/८/१६०/११), (त्रि. सा/१४६-१४८), (ज. प/११/११४-१२०)।
* खर पंक मागमें भवनवासियोंके निवास..दे०भवन/४। रत्नमाला-१.धरणीतिलक नगरके राजा अतिवेगकी पुत्री थी। बज्रायुधसे विवाही गयी। (म. पृ/५६/२४१-२४२) यह मेरु गणधरका पूर्व का चौथा भव है-दे० मेरु । २, आ. शिवकोटि (ई श. ११) द्वारा तत्त्वार्थसूत्रपर रची गयी टीका। रत्तमुक्तावली व्रत-ह. पु/३४/७२-७३ एक उपवास, एक पारणा,
दो उपवास, एक पारणा, एक उपवास, एक पारणा इत्यादि नीचे लिखी संख्याके अनुसार २८४ उपवास करे, और बीचके (,) वाले स्थानोमे एक एक पारणा करे। यत्र-१,२,१,३,१,४,१,५,१,६,१,७,१, ८,१,६,१,१०,१,११,१,१२,१,१३,१,१४,१,१५,१,१६,१,१५,१,१४,१,१३,६, १२,१,११,१,१०,१,६,१,८,१,७,१.६,११५.१,४,१,३,१,२,१,। रत्नश्रवा-सुमालीका पुत्र तथा रावणका पिता था। (प. पु./७/
१३३, २०६)। रस्नसंचय-बिजया की दक्षिण श्रेणीका एक नगर-दे० विद्याधर। रत्नाकर-१. विजया की उत्तर श्रेणीका एक नगर ।-दे० विद्याधर । २. काश्मीर नरेश अवन्तिवर्माके कालमे एक कवि थे।
समय-ई.८८४ (ज्ञा./प्र./4/पं. पन्नालाल )। रत्नावली व्रत-इस व्रतकी विधि तीन प्रकारसे वर्णन की गयी है-उत्तम, मध्यम, व जघन्य ।
जघन्य विधि-यन्त्र १,२,३,४,५,७,४,३,२, १ विधि-वृद्धि - हानि क्रमसे उपरोक्त प्रकार ३० उपवास करे, बीचके ६ स्थान तथा अन्तमे १ इस प्रकार १०पारणा करे। (ह पु./३४/७२-७३)।
००० ००००० ०० ००००
....
रत्ति-क्षेत्रका प्रमाण विशेष-दे० गणित/1/१ । रत्नच्चिय-१. सुमेरु पर्वतका अपरनाम-दे० सुमेरु । २. रुचक ___ पर्वतस्थ एक कूट- दे० लोक/५/१३ । रथ-ध १४/५,६,४१/३८/१२ जुधे अहिरह-महारहाण चउणजोग्गा रहा णाम । - जो युद्धमे अधिरथी और महारथियोके चढ़ने योग्य होते है, वे रथ कहलाते है। रथनपुर-विजयाध की दक्षिणश्रेणीका एक नगर-दे० विद्याधर । रथपुर-विजयाकी दक्षिणश्रेणीका एक नगर-दे० विद्याधर । रथरेणु-क्षेत्रका प्रमाण विशेष-दे० गणित/I/९/३ ! रमणीया-१ पूर्व विदेहका एक क्षेत्र-दे० लोक ५/२,२.पूर्व विदेहस्थ
आत्माजन वक्षारका एक कूट व उसका रक्षक देव-दे० लोक ५/४; ३ नन्दीश्वर द्वीपकीउत्तरदिशामे स्थित एक वापी-दे० लोक/५/११ । रम्यककूट-नील व रुक्मि पर्वतस्थ एक-एक कूट ।-दे० लोक५/४ । रम्यकक्षेत्ररा. वा/३/१०/१४/१८१/११ यस्माद्रमणीयैर्देशै. सरित्पर्वतकाननादिभिर्युक्त', तस्मादसौ रम्यक इत्यभिधीयते। अन्यत्रापि रम्यकदेशयोग समान इति चेत्, न, रूढिविशेषत्रललाभाद। रमणीय देश नदी-पर्वतादिसे युक्त होनेके कारण इसे रम्य कहते है। यद्यपि अन्यत्र भी रमणीक क्षेत्र आदि हैं, परन्तु 'रम्यक' नाम इसमें रूढ
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* अन्य सम्बन्धित विषय १. रम्यक क्षेत्रका अवस्थान व विस्तार आदि-दे० लोक/३/३ । २. इस क्षेत्रमें काल वर्तन आदि सम्बन्धी विशेषता--दे० काल/४ । रम्यकदेव-नील व रुक्मि पर्वतस्थ रम्यक कूटके स्वामी-दे०
लोक/५/४ । रम्यका-१. पूर्व विदेहका एक क्षेत्र-दे० लोक १२:२.पूर्व विदेहस्थ अजन वक्षारका एक कूट तथा उसका स्वामीरक्षक देव-दे० लोकाया।
४ बेलाके बिन्दु
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रम्यपुर ३९२
रसकूट रम्यपुर-विजयार्धकी दक्षिण श्रेणीका एक नगर-दे० विद्याधर ।
क्षित होती है, उस समय वस्तुको छोडकर पर्याय नही पायी जाती
है, इसलिए वस्तु ही रस है। इस विवक्षामे रसके कर्म साधनपना रम्या -१ भरत आर्यखण्डकी एक नदी-दे० मनुष्य/४ । २ पूर्व
है। जैसे जो चरखा जाये वह रस है। तथा जिस समय प्रधानविदेहस्थ एक क्षेत्र-दे० लोकाशः३.पूर्व विदेहस्थ अजन वक्षारका
रूपसे पर्याय विवक्षित होती है, उस समय द्रव्यसे पर्यायका भेद एक कूट-दे० लोक/13४.पूर्व विदेहमें अजन वक्षारपर स्थित रम्या
बन जाता है, इसलिए जो उदासीन रूपसे भाव अवस्थित है उसका कूटका रक्षक देव-दे० लोक/५/४५.नन्दीश्वर द्वीपकी उत्तर दिशामे
कथन किया जाता है। इस प्रकार रसके भाव-साधन भी बन जाता स्थित वापी-दे० लोक/५/११।।
है जेसे-आस्वादन रूपक्रियाधर्मको रस कहते हैं । रयणसार--आचार्य कुन्दकुन्द (ई. १२७-१७६) कृत आचरणविषयक १६७ प्राकृत गाथाओमें निबद्ध ग्रन्थ है। इसपर कोई टीका
२. रस नामकर्मका लक्षण उपलब्ध नहीं है। (ती०/२/११५) ।
स. सि./८/११/३६०/६ यन्निमित्तो रसविकल्पस्तद्रस नाम । = जिसके रयसकांत देव-मानषोत्तर पर्वतस्थ ऊष्मगर्भ कूट का भवनवासी
उदयसे रसमें भेद होता है वह रस नामकर्म है। (रा, वा./८/११/१०/ सुपर्णकुमार देव-दे० लोक/७ ।
५७७/१५), (गो. क /जी.प्र/३३/२६/१४)। रावनाद-आप षट खण्डके ज्ञाता, शुभनन्दिके सहचर, तथा बप्प
ध ६/१,६-१,२८/५५/७ जस्स कम्मरवधस्स उदएण जीवसरीरे जादि
पडिणिबदो तित्तादिरसो होज्ज तस्स कम्मरबंधस्स रससण्णा । एदस्स देव (ई. श १) के शिक्षा गुरु थे। बप्पदेव के अनुसार आपका समय
कम्मस्साभावे जीवसरीरे जाइपडिणियदरसो ण होज्ज। ण च एव ई. श. एक आता है। (ष ख १/प्र. ५१/H L Jain)।
णिबंवजबीरादिसु णियदरसस्सुवल भादो। जिस कर्मके उदयसे रावभद्र-आप सिद्विविनिश्चयके टीकाकार अनन्तवीर्य के शिक्षा- जीवके शरीरमें जाति प्रतिनियत तिक्त आदि रस उत्पन्न हो, उस गुरु थे । कृति-आराधनासार । समय-ई ६५-६६० (का अ/प्र.८२/ कर्म स्कन्धकी 'रस' यह सज्ञा है। (ध. १३/५,५,१०१/३६४/८) इस AN. Up.), (सि. वि/प्र.७८/प. महेन्द्र)।
कर्मके अभावमे जीवके शरीरमे जाति प्रतिनियत रस नही होगा। विवार व्रत-आषाढ शक्लपक्षके अन्तिम रविवारसे प्रारम्भ
किन्तु ऐसा है नही, क्योकि नीम, आम और नीबू आदिमें प्रतिहोता है। आगे श्रावण व भाद्रपद के आठ रविवार । इस प्रकार :
नियत रस पाया जाता है। वर्ष तक प्रतिवर्ष इन हरविवारोका उपवास करे । यदि थोडे समयमे करना है तो आषाढके अन्तिम रविवारसे लेकर अगले अ.षाढके
३. रसके भेद अन्तिम रविवार तक एक वर्ष के ४८ रविवारोक उपवास करे । नम
ष ख 18/१,६-१/सू ३६/७५ जंत रसणामकम्मत पचविह, तित्तणाम स्कार मन्त्रका त्रिकाल जाप करे। (वत-विधान स /४४)।
कडवणाम कसायणाम अबणाम महुणाम चेदि ।७५॥ = जो रस नामविषण-सेन स धकी गुर्वावलोके अनुसार आप लक्ष्मण सेनके शिष्य
कर्म है वह पॉच प्रकारका है-तिक्त नामकर्म, कटुकनामकर्म, कषायथे। वि. ७३४ में आपने पद्मपुराणको रचना की थी। तदनुसार
नामकर्म, आम्लनामकर्म और मधुर नामकर्म । (ष ख,/१३/५.५/ आपका समय-वि ७००-७४० ई ६४३-६८३ (प.पु /१२३/१८२ ),
सू. ११२/३७०), (स, सि /८/११/३१०/१०), (स सि./५/२३/(दे० इतिहास/१६) । (ती./२/२७६) ।
२६३/१२). (पस /प्रा /२/४/४८/१),(रा वा/८/११/१०/५७७/१५), (प प्र/टी /१/११/२६/२), (द्र. स./टी /9/१६/१२); (गो.
जी/जी. प्र/४७६/८८५/१)। राश्मदव-म.पु/५६/श्लोक "पुष्करपुर नगरका राजा सूर्यावर्तका स.सि./५/२३/२६४/२ त एते मूलभेदा प्रत्येकं संख्येयासख्येयानन्तपुत्र था ( २३०-२३१) किसी समय सिद्धकूटपर दीक्षा ग्रहण कर भेदाश्च भवन्ति । =ये रसके मूल भेद है, वैसे प्रत्येक ( रसादिके) आकाशचारण ऋद्धि प्राप्त की। (२३३-२३४)। एक समय पूर्व के सख्यात असख्यात और अनन्त भेद होते है। वैरी अजगरके खानेसे शरीर त्यागकर स्वर्गमें देव हुआ (२३१-२३८) यह संजयन्त मुनिका पूर्व का चौथा भव है। -दे० सजयन्त।
३. गोरस भादिके लक्षण राश्मवेग-म पु/७३/श्लोक पुश्कलावतो देशके विजयार्ध पर सा.ध./१/३५ पर उधृत-गोरस' क्षीरघृतादि, इक्षुरस खण्डगुड आदि, त्रिलोकोसम नगरके राजा विद्य द्गतिका पुत्र था। दीक्षा ग्रहण फनरसो द्राक्षाम्रादि निष्यन्द , धान्यरसस्तै लमण्डादि। घी, दूध कर सर्वतोभद्रके उपवास ग्रहण किये। एक समय समाधियोगमें आदि गोरस है। शक्कर, गुड आदि इश्चरस है। द्राक्षा आम आदिके बैठे हुए इनको पूर्व भवके भाई कमठके जीवने अजगर बनकर रसको फल रस कहते है और तेल, मॉड आदिको धान्यरस कहते है। निगल लिया। (३१-२५) । यह पार्श्वनाथ भगवान्का पूर्वका छठा भव है। दे०-पार्श्वनाथ।
* अन्य सम्बन्धित विषय रस-१. रस सामान्यका लक्षण
१ रम परित्यागको अपेक्षा रसके भेद। --दे० रस परित्याग । स. सि./२/२०/१७८-१७६/ह रस्यत इति रस.। • रसन रस । - जो • रस नामकर्ममें रस सकारण है या निष्कारण । -दे० वर्ण/४ । स्वादको प्राप्त होता है वह रस है। अथवा रसन अर्थात ३. गोरस शुद्धि।
-दे० भक्ष्याभक्ष्य/३1 स्वादमात्र रस है। (स सि/५/२३/२६३/१२), (रा.वा./२/२०/
४ रस नाम प्रकृतिको बन्ध उदय सत्ख प्ररूपणा । १३२/३१)।
--दे० वह वह नाम। ध.१/१,१,३३/२४२/२ यदा वस्तु पाधान्येन विवक्षितं तदा वस्तु व्यति
५. अग्नि आदिमें भी रसकी सिद्धि। रिक्तपर्यायाभावाद्वस्त्वेव रस। एतस्या विरक्षाा कर्मसाधनत्व
-दे० पृद्गल/१०॥ रसस्य, यथा रस्यत इति रस । यदा तु पर्याय प्राधान्येन विध
रस ऋद्धि-दे० ऋद्धि/01 सितस्तदा भेदोपपत्ते औदासोन्यावस्थितभावकथनाद्भावसाचनत्व रसस्य, रसनं रस इति । = जिस सयय प्रधान रूपसे वस्तु विव- रसकूट-शिखरों पर्वतस्थ एक कूट । -दे० लोक/७।
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रस देवी
३९३
राग
रस देवी-शिखरी पर्वतस्थ रसकुटकी स्वामिनी देवी । ---दे०
लोक/५/४। रसना-१ रसना इन्द्रियका लक्षण । -दे० इन्द्रिय/१। २ रसना इन्द्रियकी प्रधानता। -दे० संयम/२ ।
जो परिग्रहका त्याग कर रागद्वेषका निरोध कर चुके है, उनको प्राणोके असयमका निरोध देखा जाता है ।
३. रस परित्याग तपके अतिचार भ आ./वि /४८७/७०७/१० कृतरसपरित्यागस्य रसासक्ति', परस्य वा रसवदाहारभोजनं, रसबदाहारभोजनानुमननं, बातिचार । -रसका त्याग करके भी रसमें अत्यासक्ति उत्पन्न होना, दूसरोको रसयुक्त आहारका भोजन कराना और रसयुक्त भोजन करनेकी सम्मति देना, ये सब रसपरित्याग तपके अतिचार है।
रसमान प्रमाण-दे० प्रमाण/५।
रसपरित्यागभ, आ./मू /२१५/४३१ खीरदधिसप्पितेल्ल गुडाण पत्तेगदो व सव्वे सि । णिज्जूहणमोगाहिमपणकुसणलोणमादीण ।२१५। -दूध, दही, घी, तेल, गुड इन सब रसोका त्याग करना अथवा एक-एक रसका त्याग करना यह रस-परित्याग नामका तप है। अथवा पूप, पत्रशाक, दाल, नमक, वगैरह पदार्थोंका त्याग करना यह भी रस परित्याग
नामका तप है ।२१॥ मू. आ /३५२ ग्वीरदहिसप्पितेलगुडलवणाणं च ज परिच्चयण । तित्तकडुकसायंबिलमधुर रसाणं च ज चयणं ।३५२। दूध, दही, घी, तेल, गुड, लवण इन छह रसोका त्याग रसपरित्याग तप है। (अन. ध/७/२७) अथवा कडुआ, कसैला, खट्टा, मीठा इनमें से किसीका त्याग वह रसपरित्याग तप है ।३५२। ( का अ./टी /४४६ ) । स. सि./६/९६/४३८/६ घृतादिवृष्यरसपरित्यागश्चतुर्थ तप । -घृतादिगरिष्ठ रसका त्याग करना चौथा तप है। (रा.बा/8/१६/५/६१८/२६); (चा. सा./१३५/३)। भ. आ/वि/६/३२/१८ रसगोचरगार्थत्यजन त्रिधा रसपरित्याग ।
-रस विषयकी लम्पटताको मन, वचन, शरीरके संकल्पसे त्यागना रसपरित्याग नामका तप है। त सा /६/११ रसत्यागो भवेत्तै लक्षीरेक्षुदधिसर्पिणाम् । एकद्वित्रीणि
चत्वारि त्यजतस्तानि पञ्चधा ।११। तेल. दूध, खाँड, दही, घीइनका यथासाध्य त्याग करना रसत्याग तप है। एक, दो, तीन, चार अथवा पाँचौं रसौका त्याग करनेसे यह व्रत पाँच प्रकारका हो जाता है। का अ/मू./४४६ संसार-दुक्रव-तट्ठो विस-सम-विसयं विचितमाणो जो। णोरस-भोज्ज भुजइ रस-चाओ तस्स सुविसुद्धौ । ससारके दु खोसे सतप्त जो मुनि इन्द्रियोके विषयोको विषके समान मानकर नीरस भोजन करता है उसके निर्मल रस परित्याग तप होता है।
रहस्य-ध १/१.१,१/४४/४ रहस्यमन्तरायः, तस्य शेषघातित्रितयविनाशाविनाभाविनो भ्रष्टवीजवन्नि शक्तीकृता घातिकर्मणो । = रहस्य अन्तराय कर्मको कहते हैं । अन्तरायर्मका शेष नाश तीन धातियाक्मोके नाश का अविनाभावी है। और अन्तरायकर्मके नाश होनेपर अघातिया र्म भ्रष्ट बीजके समान निशक्त हो जाते है। रहस्यपूर्ण चिट्ठी-प. टोडर मल्ल (ई. १०५३) द्वारा अपने किन्हीं मित्रोको लिखी हुई आध्यात्मिक रहस्यपूर्ण चिट्ठी है।
(ती/४/२८७)। रहोभ्याख्यान-स सि/७/२६/३६६/- यत्स्त्रीपुंसाभ्यामेकान्तेऽनुष्ठितस्य क्रियाविशेषस्य प्रकाशन तद्रहोभ्याख्यान वेदितव्यम् । -स्त्री और पुरुष द्वारा एकान्तमें किये गये आचरण विशेषका प्रगट कर देना रहोभ्ययाख्यान है। (रा. वा/७/२६/२/५५३/२६)।
राक्षस-१ व्यन्तर देवोका एक भेद-दे० व्यन्तर। २. पिशाच जातीय व्यन्तर देवोका एक भेद-दे० पिशाच । ३. मनोवेग विद्याधरका पुत्र था (प पु/५/३७८) इसीके नामपर राक्षस द्वीपमें रहनेवाले विद्याधरोका वंश राक्षस वंश कहलाने लगा । दे०-इतिहास१०/१२ ।
१. राक्षसका लक्षण ध १२/१५,५.१४०/३६१/१० भीषण रूपविकरण प्रिया' राक्षसा नाम ।जिन्हे भीषण रूपर्क विक्रिया करना प्रिय है, वे राक्षस कहलाते है।
२. राक्षस देवके भेद
.. रस परित्याग तपका प्रयोजन
ति.प/६/१४ भीममहभीमविग्यविणायका उदकरवखसा तह य । रक्रवसरक्खसणामा सत्तमया बम्हरवखसया ।४४ -भीम, महाभीम, विनायक, उदक, राक्षस, राक्षसराक्षस और सातवा ब्रह्मराक्षस इस प्रकार ये सात भेद राक्षस देवोके है।४४ (त्रि. सा./२६७)।
राक्षस देवोंके वण वैभव अवस्थान आदि-दे० व्यंतर।
स सि/8/१६/४५८/8 इन्द्रियदर्ष निग्रहनिद्रा विजयस्वाध्यायसुखसिध्याद्यर्थो.. रस परित्यागश्चतुर्थ तप । -इन्द्रियोके दर्शका निग्रह करनेके लिए, निद्रापर विजय पानेके लिए और सुखपूर्वक
स्वाध्यायकी सिद्धिके लिए रसपरित्याग नामका चौथा तप है। रा, वा/8/१६/५/११८/२६ दान्तेन्द्रियत्व तेजोऽहानिसंयमोपरोधव्यावृत्त्याद्यर्थ रसपरित्याग १ -जितेन्द्रियत्व, तेजोवृद्धि और सयमवाधानिवृत्ति आदिके लिए रसपरित्याग है। (चा. सा /१३५/३)। घ. १३/५,४,२६/५७/१० किमट्ठमेसो करिदे । पाणिदिय संजम। कुदो । जिभिदिए णिरुद्धे सयलिदियाणं णिरोहुवल भादो। सयलि दिएसु णिरुदधेसु चत्तपरिगाहस्स णिरुद्धराग-दोसस्स. पाणासंजमणिरोहुवलं भादो। -प्रश्न-यह क्सि लिए क्यिा जाता है। उत्तर-प्राणिसयम और इन्द्रिग्रसयमकी प्राप्तिके लिए क्यिा जाता है, क्यो कि, जिला इन्द्रियका निरोध हो जानेपर सम इन्द्रियोका निरोध देखा जाता है, और सब इन्द्रियोका निरोध हो जानेपर
राक्षसराक्षस--राक्षस जातीय व्यन्तर देवोका भेद -दे० राक्षस । राक्षस वंश-दे. इतिहास१०११२ । राग-इष्ट पदार्थोके प्रति रति भावको राग कहते है, अतः यह द्वेषका अविनाभावी है। शुभ व अशुभके भेदसे राग दो प्रकारका है, परद्वेष अशुभ ही होता है । यह राग ही पदार्थोमे इष्टानिष्ट बुद्धिका कारण होनेसे अत्यन्त हेय है। सम्यग्दृष्टिकी निचली भूमिकाओमें यह व्यक्त होता है और ऊपर की भूमिकाओमे अव्यक्त। इतनी विशेषता है कि व्यक्त र गमें भी रागके रागका अभाव होने के कारण सम्यग्दृष्टि वास्तवमे वैरागी रहता है।
भा० ३-५०
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राग
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मोह, राग व द्वेषमें शुभाशुभ विभाग ।
माया लोभादि कषायका लोमने अन्तर्भाव ।
- दे० कषाय /४ । ४ पदार्थमें अच्छा-सुरापना व्यक्तिके रागके कारण होता है।
वास्तवमै पदार्थ इष्टानिष्ट नहीं।
परिग्रहमें राग व इच्छाको प्रधानता ।
भेद व लक्षण
राग सामान्यका लक्षण ।
रामके भेद |
प्रशस्त अप्रशस्त राग । अनुरागका लक्षण | अनुराग के मेद व उनके लक्षण
तृष्णाका लक्षण ।
- दे० उपयोग / II / ४ ।
राग द्वेष सामान्य निर्देश
अर्थ प्रति परिणमन धानका नहीं रागका कार्य है।
राग द्वेष दोनों परस्पर सापेक्ष है ।
- दे० परिग्रह / ३ |
आशा व तृष्णामें अन्तर ।
तृष्णाकी अनन्तता |
रागका जीव स्वभाव व निभाना या सहेतुक न
अहेतुकपना । परोपकार व स्वोपकारार्थं रागप्रवृति ।
- दे० विभाव / ३.५ ।
-दे० उपकार ।
परोपकार व खोपकारार्थ उपदेश प्रवृत्ति ।
- दे० उपदेश ।
रागादि भाव कथचित् पौगलिक है। दे० मूर्त १९
व्यक्ताव्यक्त राग निर्देश
व्यक्ताव्यक्त रागका स्वरूप ।
अप्रमत्त गुणस्थान तक राग व्यक्त रहता है ।
ऊपर के गुणस्थानोंमें राग अव्यक्त है।
शुक्ल ध्यानमें रागका कथंचित् सद्भाव ।
केवली में इच्छाका अभाव ।
- दे० विकल्प / ७ । --दे० केवली / ६ ।
रागमें इष्टानिष्टता
राग ही बन्धका प्रधान कारण है । दे० वन्ध / ३ | राग हेव है।
मोक्षके प्रतिका राग भी कचित् देव है।
पुण्यके प्रतिका राग भी हेय है । मोक्षके प्रतिका राग कनिष्ट है।
तृष्णाके निषेधका कारण ।
-३० पृग्य / ३ ।
३९४
५
ख्याति लाभ आदिकी भावनासे सुकृत नष्ट हो जाते है ।
६ लोकैषणारहित ही तप आदिक सार्थक है ।
५
१
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३
४
५
राग टाळनेका उपाय
इच्छा निरोध ।
रागका अभाव सम्भव है ।
राग टालनेका निश्चय उपाय ।
राग टालनेका व्यवहार उपाय ।
तृष्णा सोबनेका उपाय।
तृष्णाको वश करनेकी महत्ता
१. भेद व लक्षण
जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश
- दे० तप / १ ।
सम्यग्दष्टिकी विरागता तथा तत्सम्बन्धी शंका समाधान
१ सम्यग्दृष्टिको रागका अभाव तथा उसका कारण । निचली भूमिका रागका अभाव कैसे सम्भव है । सम्यग्दृष्टि न राग टालनेकी उतावली करता है और न ही उद्यम छोड़ता है। -३० नियति/२/४
३ सम्यग्दृष्टिको ही यथार्थ वैराग्य सम्भव है ।
४
सरागी सम्यग्दृष्टि विरामी है।
घरमें वैराग्य व वनमें राग सम्भव है।
५
६ सम्यग्दृष्टिको राग नही तो भोग क्यों भोगता है
विषय सेवता भी असेवक है।
भोगोंकी आकाक्षाके अभाव मे भी वह व्रतादि क्यों करता है
f
१. भेद व लक्षण
१. राग सामान्यका लक्षण
१२/४,२,८८/२०३८ माया-सोय- हास्यरसयो रागमाया. लोभ, तीन वेद, हास्य और रति इनका नाम राग है। ससा / आ. ५१ य प्रतिरूपो राग स सर्वोऽपि नास्ति जीवस्य... 1यह प्रीति रूप राग भी जीवका नहीं है।
प्र. सा /त प्र / ८५ अभीष्टविषयप्रसङ्गेन रागम् । आसक्तिसे रागको ।
पका / त प्र / १३१
चारित्रमोहनीयविपाकमध्ये प्रीपती रागद्वेषौ । - चारित्र मोहनीय कर्म के उदयसे जो इसके रस विपाकका कारण पाय इष्ट-अनिष्ट पदार्थोंमे जो प्रीति- अप्रीति रूप परिणाम होय उसका नाम राग द्वेष है।
सात / २०१/१२/२६ राममनद कोधादिकमायोत्पादकश्चारित्रमोही ज्ञातव्यः । राग द्वेष शब्द से क्रोधादि कषायके उत्पादक चारित्र मोहको जानना चाहिए । (प.का./ता. / २३/७२ /= ) 1
=
- इष्ट विषयोकी
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राग
३९५
२. राग-द्वेष सामान्य निर्देश
क्योकि क्यो नही माना है। इसलिएतने ही जीवोके
प्र सा./ता वृ/८३/१०६/१० निर्विकार शुद्वात्मनो विपरीतमिष्टानिष्टे- ३. मोह. राग व द्वेषमें शुभाशुभ विभाग न्द्रिपत्रिषयेषु हर्ष विषादरूप चारित्रमोहसंज्ञं रागद्वेष। -निर्विकार शुद्वात्मासे विपरीत इष्ट-अनिष्ट विषयोमें हर्ष-विषाद रूप चारित्रमोह
प्र सा /मू /१८० परिणामादो बधो परिणामो रागदोसमोहदो। असुहो नामका रागद्वेष ।
मोहपदोसो सुहो व असुहो हवदि रागो ।१८०। परिणामसे बध है,
परिणाम राग, द्वेष, मोह युक्त है। उनमें से मोह और द्वेष अशुभ है, २. रागके भेद
राग शुभ अथवा अशुभ होता है ।१८०। नि सा/ता. वृ६६ राग प्रशस्ताप्रशस्तभेदेन द्विविध । -प्रशस्त राग और अप्रशस्त राग ऐसे दो भेदोके कारण राग दो प्रकारका है। ४. पदार्थमें अच्छा बुरापना व्यक्तिके रागके कारण ३. अनुरागका लक्षण
होता है ६.ध/उ [४३५ अथानुरागशब्दस्य विधिर्वाच्यो यदार्थत । प्राप्तिध.६/१,६-२,६८/१०६/४ भिण्णरुचीदो केसि पि जीवाणममहुरो वि स्यादुपलब्धिर्वा शब्दाश्चैकार्थवाचका ।४३५॥ -- जिस समय अनुराग
सरो महुरोबरुच्चइ त्ति तस्स सरस्स महूरत्त किण्ण इच्छिज्जदि । शब्द का अर्थको अपेक्षासे विधि रूप अर्थ बक्तव्य होता है उस ण एस दोसो, पुरिसिच्छादो वत्युपरिणामाणुवल भा। ण च णिवो समय अनुराग शब्दका अर्थ प्राप्ति व उपलब्धि होता है क्योकि अन- के सि पि रुचदि त्ति महरत्त पडिज्जदे, अव्यवस्थावत्तीदो। राग, प्राप्ति और उपलब्धि ये तीनो शब्द एकार्थवाचक है ।४३५॥ - प्रश्न-भिन्न रुचि होनेसे कितने ही जीवोके अमधुर स्वर भो ४. अनुरागके भेद व उनके लक्षण
मधुरके समान रुचता है। इसलिए उसके अर्थात् भ्रमरके स्वरके
मधुरता क्यो नही मान ली जाती है। उत्तर-यह कोई दोष नहीं, भ आ./मू/७३७/१०८ भावाणुरागपेमाणुरागमज्जाणुरागरत्तो वा। क्योकि पुरुषोकी इच्छासे वस्तुका परिणमन नहीं पाया जाता है। धम्माणुरागरत्तो य होहि जिणसासणे णिच्च । =भावानुराग, प्रेमानु- नीम कितने ही जीवोको रुचता है, इसलिए वह मधुरताको नही राग, मज्जानुराग, वा धर्मानुराग, इस प्रकार चार प्रकारसे जिन- प्राप्त हो जाता है, क्योकि, वैसा माननेपर अव्यवस्था प्राप्त होती है।
शासनमे जो अनुरक्त है। भ. आ /भाषा /७३७/१०८ तत्त्वका स्वरूप मालूम नही भी हो तो भी जिनेश्वरका कहा हुआ तत्त्व स्वरूप कभी झूठा होता ही नहीं ऐसी
५. वास्तवमें पदार्थ इष्टानिष्ट नहीं श्रद्धा करता है उसको भावानुराग कहते है। जिसके ऊपर प्रेम है यो, सा, अ/२/३६ इष्टोऽपि मोहतोऽनिष्टो भावोऽनिष्टस्तथा पर। न उसको बारम्बार समझाकर सन्मार्ग पर लगाना यह प्रेमानुराग कह- द्रव्यं तत्त्वत किचिदिष्टानिष्ट हि विद्यते ॥३६॥ = मोहसे जिसे इष्ट लाता है। मजानुराग पाण्डवोमे था अर्थात् वे जन्मसे लेकर आपसमें समझ लिया जाता है वही अनिष्ट हो जाता है और जिसे अनिष्ट अतिशय स्नेहयुक्त थे। वैसे धर्मानुरागसे जैनधर्ममे स्थिर रहकर समझ लिया जाता है वही इष्ट हो जाता है, क्योकि निश्चय नयसे उसको कदापि मत छोड।
संसारमे न कोई पदार्थ इष्ट है और न अनिष्ट है ।३६ (विशेष दे० ५. तृष्णाका लक्षण
सुख/१)1 न्या द/टी/४/१/३/२३०/१३ पुनर्भवप्रतिसधानहेतुभूता तृष्णा । = 'यह
६. आशा व तृष्णामें अन्तर पदार्थ मुझको पुन प्राप्त हो' ऐसी भावना से किया गया जो प्रतिसन्धान या इलाज अथवा प्रयत्न विशेष, उसकी हेतुभूत तृष्णा भ,आ /मू. आ /११८९/११६७/१६ चिरमेते ईदृशा विषया ममोदितोदिता होती है।
भूयासुरित्याशसा । तृष्णा इमे मनागपि मत्तो मा विच्छिद्यान्ता इति
तीन प्रबधप्रवृत्त्यभिलाषम् । = चिरकाल तक मेरेको सुख देने वाले २. राग-द्वेष सामान्य निर्देश
विषय उत्तरोत्तर अधिक प्रमाणसे मिले ऐसी इच्छा करना उसको
आशा कहते है । ये सुखदायक पदार्थ कभी भी मेरेसे अलग न होवे १. अर्थ प्रति परिणमन ज्ञानका नहीं रागका कार्य है
ऐसी तीन अभिलाषाको तृष्णा कहते है। प. घ./पु/१०६ क्षायोपश मिकं ज्ञानं प्रत्यर्थं परिणामि यत् । तत्स्वरूपं न ज्ञानस्य किन्तु रागक्रियास्ति वै ।।०६। =जोक्षायोपशमिक ज्ञान
७. तृष्णाकी अनन्तता प्रति समय अर्थसे अर्थान्तरको विषय करने के कारण सविकल्प माना
आ. अनु /३६ आशागर्त प्रतिप्राणि यस्मिन् विश्वमणूपमम् । कस्य कि जाता है, वह वास्तव में ज्ञानका स्वरूप नहीं है किन्तु निश्चय करके
कियदायाति वृथा वो विषयै षिता ।३६ - आशा रूप बह गड्ढा उस ज्ञानके साथमे रहनेवाली रागकी क्रिया है। (और भी दे०
प्रत्येक प्राणीके भीतर स्थित है, जिसमें कि विश्व परमाणुके बराबर विकल्प/१)।
प्रतीत होता है। फिर उसमे किसके लिए क्या और कितना आ २ राग द्वेष दोनों परस्पर सापेक्ष है
सकता है। अर्थात् नहीके समान ही कुछ नहीं आ सकता। अत हे ज्ञा./२३/२५ यत्र राग' पद धत्ते द्वेषस्तौति निश्चय । उभावेतौ
भव्यो,, तुम्हारी उन विषयोकी अभिलाषा व्यर्थ है।३६। समालम्ब्य विक्राम्यत्यधिक मन ॥२५॥ = जहॉपर राग पद धारै तहाँ । ज्ञा /२०/२८ उदधिरदकपूरै रिन्धनै श्चित्रभानुर्यदि कथमपि दैवात्तप्तिद्वेष भी ग्रवर्तता है, यह निश्चय है। और इन दोनोको अवलम्बन मासादयेताम् । न पुनरिह शरोरी काममोगै विस ख्यश्चिरदमपि करके मन भी अधिकतर विकार रूप होता है ।२५।
भुक्तैस्तृप्तिमायाति कैश्चित् ।२८। - इस जगत्मे समुद्र तो जलके प ध /3/५४६ तद्यथा न रति पक्षे विपक्षेऽप्यरति विना। नार तिर्वा प्रवाहोसे तृप्त नहीं होता और अग्नि इंधनोसे तृप्त नही होती, सो स्वपक्षेऽपि तद्विपक्षे रति विना ।५४६स्व पक्षमें अनुराग भी विपक्ष- कदाचित दैवयोगसे किसी प्रकार ये दोनो तृप्त हो भी जाये परन्तु मे अरतिके बिना नही होता है वैसे ही स्वपक्षमे अरति भी उसके यह जीव चिरकाल पर्यन्त नाना प्रकार के काम-भोगादिके भोगनेपर विपक्षमे रतिके बिना नही होती है।५४६।
भी कभी तृप्त नहीं होता।
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राग
४. रागमे इष्टानिष्टता
३. व्यक्ताव्यक्त राग निर्देश
१. व्यक्ताव्यक्त रागका स्वरूप रा बा./हिं/8/४४/७५७-७५८ जहाँ ताई अनुभवमें मोहका उदय रहै तहाँ ताई तो व्यक्त रूप इच्छा है और जब मोहका उदय अति मन्द हो जाय है, तब तहाँ इच्छा नाहीं दीखे है। और मोहका जहाँ उपशम तथा क्षय होय जाय तहाँ इच्छाका अभाव है।
२. अप्रमत्त गुणस्थान तक राग व्यक्त रहता है पं ध/उ /११० अस्त्युक्तलक्षणोरागश्चारित्रावरणोदयात। अप्रमत्तगुणस्थानादर्वाक स्यान्नो+मस्त्यसौ ।११०) रागभाव चारित्रावरण कर्मके उदयसे होता है तथा यह राग अप्रमत्त गुणस्थानके पहले पाया जाता है, अप्रमत्त गुणस्थानसे ऊपरके गुणस्थानोमे इसका सद्भाव नहीं पाया जाता है ।।१०। रा. वा. हिं/8/४४/७५८ सातवाँ अप्रमत गुणस्थान विषै ध्यान होय है ।
ता धर्मध्यान कहा है । तामें इच्छा अनुभव रूप है । अपने स्वरूपमे अनुभव होनेकी इच्छा है। तहाँ तई सराग चारित्र व्यक्त रूप कहिये।
३. ऊपरके गुणस्थानों में गग अव्यक्त है घ १/१,१,११२/३५१/७ यतीनामपूर्वकरणादोनो कथं कषायास्तित्वमिति
चेन्न, अव्यक्तकषायापेक्षया तथोपदेशात् । प्रश्न-अपूर्वकरण आदि गुणस्थानवाले साधुओके कषायका अस्तित्व कैसे पाया जाता है। उत्तर-नहीं, क्योकि अव्यक्त कषायको अपेथा वहॉपर कषायोके अस्तित्वका उपदेश दिया है। ध./उ./११ अस्ति चोर्ध्वमसौ सूक्ष्मो रागश्चाबुद्धिपूर्वज । अकि क्षीणकषायेभ्य स्याद्विवक्षावशान्नवा। - ऊपरके गुणस्थानोमे जो अबुद्धि पूर्वक सूक्ष्म राग होता है, यह अबुद्धि पूर्वक सूक्ष्म राग भी क्षीण कषाय नामके बारहवे गुणस्थानसे पहले होता है। अथवा ७ वें से १० वें गुणस्थान तक होनेबाला यह राग भाव सूक्ष्म होनेसे बुद्धिगम्य नही है ।।११ रा. वा. हिं/६/४४/७५८ अष्टम अपूर्वकरण गुणस्थान हो है तहाँ मोहके
अतिमन्द होने” इच्छा भी अव्यक्त होय जाय है । तहाँ शुक्लध्यानका पहला भेद प्रवर्ते है । इच्छाके अव्यक्त होनेतै कषायका मल अनुभवमें रहे नाही, उज्जवल होय।
जलाना चाहता है, उसे ज्ञानरूप अग्निके द्वारा उस मोहरूपी बीजको जला देना चाहिए।१२।
२. मोक्षके प्रतिका राग भी कथंचित् हैय है मो. पा/म् ५५ आसवहेदू य तहा भाव मोक्खस्स कारणं वदि । सो तेण हु अण्णाणी आदसहावाहु विवरीओ।५५॥ रागभाव जो मोक्षका निमित्त भी हो तो आरबका ही कारण है। जो मोक्षको पर द्रव्यकी भॉति इष्ट मानकर राग करता है सो जोव मुनि भी अज्ञानी है, आत्म स्वभाव से विपरीत है ।।५।। प.प्र /मू./२/१८८ मोवतु म चितहि जोइया मोवखु ण चितिउ होइ ।
जेण णिबद्धउ जीवडउ मोवखु क्रेसइ सोइ।१८८ हे योगी। अन्य चिन्ताकी तो बात क्या मोक्षकी भी चिन्ता मत कर, क्योकि मोक्ष चिन्ता करनेसे नही होता। जिन कर्मोंसे यह जीव बँधा हुआ है वे कर्म ही मोक्ष करेंगे।१८८॥ १.का /त प्र./१६७ तत स्त्रसमयप्रसिद्धयर्थ अर्ह दादि विषयोऽपि क्रमेण
रागरेणुरपसारणीय इति-जीवको स्वसमयकी प्रसिद्धिके हेतु अर्हतादि विषयक भी रागरेणु क्रमश' दूर करने योग्य है। पं. वि/१/५५ मोलेऽपि मोहादभिलाषदोषा विशेषतो मोक्षनिषेधकारी।
- अज्ञानतासे मोक्षके विषयमे भी की जानेवाली अभिलाषा दोष रूप होकर विशेष रूपसे मोक्षकी निषेधक होती है । (प. वि./२३/१८) ।
३. मक्षिके प्रतिका राग कथंचित् इष्ट है प.प्र./ /२/१२८. सिव-पहि णिम्मलिकरहि रइ धरु परियणु लहू छाडि । १२८१-तू परम पवित्र मोक्षमार्गमे प्रीतिकर, और घर आदिको शीघ ही छोड।१२८।। क.पा १/१,२९/६३४२/३६६/११ तिरयणसाण विसयलोहादो सग्गापजग्गाणमुप्पत्तिद सणादो । रत्नत्रयके साधन विषयक लोभसे स्वर्ग
और मोक्षको प्राप्ति देखी जाती है। प्रसा/त प्र/२५४ रागसयोगेन शुद्धात्मनोऽनुभवात्क्रमत परमनिर्वाण
सौख्यकारणत्वाच्च मुख्य ।-गृहस्थको रागके सयोगसे शुद्धात्माका अनुभव होता है, और इसलिए क्रमश. परम निर्वाण सौख्यका कारण होता है। आ. अनु /१२३ विधूततमसो रागस्तप श्रुतनिबन्धन । सन्ध्याराग इवार्कस्य जन्तोरभ्युदयाय स ।१२३१ - अज्ञानरूप अन्धकारको नष्टकर देनेवाले प्राणीके जो तप और शास्त्र विषयक अनुराग होता है वह सूर्यकी प्रभात कालोन लालिमाके समान उसके अभ्युदयके लिए होता है।
४ तृष्णाके निषेधका कारण ज्ञा /१७/२,३,१२ यावद्यावच्छरीराशा धनाशा वा विसर्पति। तावत्तावन्मनुष्याणा मोहग्रन्थि ढीभवेत् ॥२॥ अनिरुद्धा सती शश्वदाशा विश्व प्रसर्पति । ततो निबद्धमूलासौ पुनश्छेत्तुं न शक्यते ।३। यावदाशानलश्चित्ते जाज्वलीति विशृङ्खल । तावत्तव महादुखदाहशान्ति' कुतस्तनी ।१२।१. मनुष्यो के जैसे-जैसे शरीर और धनमें आशा फैलती है. तैसे-तैसे मोहकर्मकी गाँठ दृढ़ होती है ।२।२ इस आशाको रोका नही जाये तो यह निरन्तर समस्त लोक पर्यन्त बिस्तरती रहती है, और उससे इसका मूल दृढ होता है, फिर इसका काटना अशक्य हो जाता है ।३। (ज्ञा/२०/३०) ३ हे आत्मन् । जब तक तेरे चित्तमें आशारूपी अग्नि रवतन्त्रतासे नितान्त प्रज्वलित हो रही है तब तक तेरे महादु खरूपी दाहकी शान्ति कहाँसे हो ।१२॥
५. ख्याति लामादिकी भावनासे सुकृत नष्ट हो जाते हैं आ. अनु /१८६ अधीत्यसकल श्रुत चिरमुपास्यघोर तपो यदीच्छसि ___ फलं तयोरिह हि लाभपूजादिकम् । छिनत्सि सुतपस्तरो' प्रसबमेव
४. रागमे इष्टानिष्टता
१. राग हेय है स. सि./७/१७/३५४४१० रागादय, पुन' कर्मोदयतन्त्रा इति अनारमस्वभावत्वाद्धयाः। -रागादि तो कर्मोके उदयसे होते है, अत वे
आत्माका स्वभाव न होनेसे हेय है। स. सा./आ /१४७ कुशीलशुभाशुभकर्मभ्यां सह रागसंसर्गों प्रतिषिद्धौ बन्धहेतुत्वात् कुशीलमनोरमामनोरमकरेणुकुट्टनीरागसंसर्गवत् । -जैसे-कुशील-मनोरम और अमनोरम हथिनी रूपी कुट्टनी के साथ (हाथीका) राग और ससर्ग बन्ध (बन्धन) का कारण होता है, उसी प्रकार कुशील अर्थात शुभाशुभ कर्मोके साथ राग और ससर्ग बन्धके कारण होनेसे, शुभाशुभ कर्मों के साथ राग और संसर्गका निषेध किया गया है। आ. अनु./१८२ मोहबीजादतिद्वेषौ वीजान्मूलाड कुराविव। तस्माज्ज्ञानाग्निना दाह्य तदेतौ निदिधिक्षुणा ।१८२ - जिस प्रकार वीजसे जड़ और अंकुर उत्पन्न होते है, उसी प्रकार मोह रूपी बीजसे राग और द्वेष उत्पन्न होते है। इसलिए जो इन दोनो (राग-द्वेष) को
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राग
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५. राग टालने का उपाय व महत्ता
शून्याशय-कथं समुपलप्स्यसे सुरसमस्य पक्व फलम् (१८६।- समस्त आगमका अभ्यास और चिरकाल तक घोर तपश्चरण कर के भी यदि उन दोनोका फल तू यहाँ सम्पत्ति आदिका लाभ और प्रतिष्ठा आदि चाहता है, तो समझना चाहिए कि तू विवेकहीन होकर उस उत्कृष्ट तपरूप वृक्षके फूलको ही नष्ट करता है। फिर ऐसी अवस्थामें तू उसके सुन्दर व सुस्वादु पके हुए रसोले फलको कैसे प्राप्त कर सकेगा। नही कर सकेगा। और भी दे० ज्योतिष मन्त्र-तन्त्र आदि कार्य लौकिक है (दे० लौकिक) मोक्षमार्गमे इनका अत्यन्त निषेध दे० मन्त्र/१/३-४ ।
१. लोकेषणा रहित ही तप आदिक साथक है चा, सा./१३४/१ यत्किचिदृष्टफल मन्त्रसाधनाद्यनुद्दिश्य क्रियमाणमुपवसनमनशनमित्युच्यते ।-किसी प्रत्यक्ष फलकी अपेक्षा न रखकर और मन्त्र साधनादि उपदेशोके बिना जो उपवास किया जाता है, उसे अनशन कहते है। चा सा./१५०/१ मन्त्रौषधोपकरणयश सत्कारलाभाद्यनपेक्षितचित्तेन परमार्थ निस्पृहमतिनैहलौकिकफल निरुत्सुकेन कर्मक्षयकाक्षिणा ज्ञानलाभाचार • सिद्धयर्थं विनयभावन कर्तव्यम् । -जिनके हृदयमे मन्त्र, औषधि, उपकरण, यश, सत्कार और लाभादिकी अपेक्षा नहीं है, जिनकी बुद्धि वास्तवमै निस्पृह है, जो केवल कर्मोंका नाश करनेको इच्छा करते है, जिनके इस लोकके फल की इच्छा बिलकुल नही है उन्हे ज्ञानका लाभ होनेके लिए · विनय करनेकी भावना
करनी चाहिए। स सा./ता. वृ /२७४/३५३/१२ अभव्यजोबो यद्यपि ख्यातिपूजालाभार्थमेकादशाङ्गश्रुताध्ययन कुर्यात् तथापि तस्य शास्त्रपाठ' शुद्धात्मपरिज्ञानरूपं गुणं न करोति ।-अभव्य जीव यद्यपि ख्याति लाभ व पूजाके अर्थ ग्यारह अग श्रुतका अध्ययन करे, तथापि उसका ज्ञान शुद्धात्म परिज्ञान रूप गुणको नही करता है। दे. तप/२/६ (तप दृष्टफलसे निरपेक्ष होता है)। ५. राग टालने का उपाय व महत्ता
1. रागका अमाव सम्भव है ध/१/४,१,४४/११७-११८/१ ण कसाया जीवगुणा, • •पमादासजमा
वि ण जीवगुणा, ..ण अण्णाणपि, ण मिच्छत्त पि,... तदो णाणदसण-संजम-सम्मत्त खति-मद्दवज्जव-संतोस-विरागादिसहावो जोबो त्ति सिद्ध कषाय जीवके गुण नही है (विशेष दे० कषाय २/३) प्रमाद व असंयम भी जीवके गुण नही है, 'अज्ञान भी जीवके गुण नहीं है, "मिथ्यात्व भी जीवके गुण नहीं है, इस कारण ज्ञान, दर्शन, सयम, सम्यक्त्व, क्षमा, मृदुता आजव, सन्तोष और विरागादि स्वभाव जीव है, यह सिद्ध हुआ। (और इसीलिए इनका अभाव भी किया जा सकता है । और भो दे० मोक्ष/६/४ )
२. राग टालने का निश्चय उपाय प्र सा / मू/20 जो जाणदि अरहंत दन्चत्तगुणत्तपज्जयत्तेहि । सो
जाणदि अप्पाण मोहो खलु जादि तस्स लय ।। (उभयोरपि निश्चयेनाविशेषात् )= जो अरहतको द्रव्यपने गणपने और पर्यायपने जानता है, वह ( अपने ) आत्माको जानता है, और उसका मोह अवश्य लयको प्राप्त होता है ।०। क्योकि दोनोमे निश्चयसे अन्तर नहीं है ।। पं का. मू /१०४ मुणिऊण एतदटूठ तदणुगमणुज्जदो णिहदमोहो । पसमियरागद्दोसो हव दि हदपरापरो जीवो।१०४।- जीव इस अर्थ को (इस शास्त्रके अर्थभूत शुद्ध आत्माको) जानकर, उसके अनुसरणका उद्यम करता हुआ हत मोह होकर (जिसे दर्शनमोहका क्षय हुआ
हो ऐसा होकर ) राग-द्नेषको प्रशमित-निवृत करके, उत्सर और पूर्व बन्धका जिसे नाश हुआ है ऐसा होता है। इ, उ /मू /१७ यथा यथा समायाति स वित्तौ तत्त्वमुत्तमम् । तथा तथा न रोचन्ते विषया सुलभा अपि ।३७। स्वपर पदार्थोके भेद ज्ञानसे जैसा जैसा आरमाका स्वरूप विकसित होता जाता है वैसेवैसे ही सहज प्राप्त रमणीय पचेन्द्रिय विषय भी अरुचिकर प्रतीत होते जाते है।३७१ स. श./मू./४० यत्र काये मुने. प्रेम तत प्रच्याव्य देहिनम् । बुद्ध्या तदुत्तमे काये योजयेत्त्रेम नश्यति ।४०।- जिस शरीरमें मुनिको अन्तरात्माका प्रेम है, उससे भेद विज्ञानके आधार पर आत्माको पृथक करके उस उत्तम चिदानन्दमय कायमे लगावे। ऐसा करनेसे प्रेम नष्ट
हो जाता है।४। प्र. सा./त. प्र/८६,१० तत खलूपायान्तरमिदमपेक्षते। अतो हि मोहक्षपणे परमं शब्द ब्रह्मोपासनं भावज्ञानावष्टम्भदृढीकृतपरिणामेन सम्यगधीयमानमुपायान्तरम् ।८६। निश्चितस्वपरविवेक्स्यात्मनो न खलु विकारकारिणो मोहाड्कुरस्य प्रादुर्भुति. स्यात् ।१०।१. उपरोक्त उपाय ( दे० ऊपर प्र. सा./म् ) वास्तव में इस उपायान्तरकी अपेक्षा रखता है। मोहका क्षय करनेमे, परम शब्दब्रह्मकी उपासनाका भाव ज्ञानके अवलम्बन द्वारा दृढ किये गये परिणामसे सम्यक् प्रकार अभ्यास करना सो उपायान्तर है ।६। २ जिसने स्वपरका विवेक निश्चित किया है ऐसे आत्माके विकारकारी मोहांकुरका प्रादुर्भाव नही होता। ज्ञा./२३/१२ महाप्रशमसंग्रामे शिवश्रीसगमोत्सुकै । योगिभिनिशस्त्रेण
रागमल्लो निपातितः।१२। ज्ञा /३२/५२ मुनेदि मनो मोहादागाद्यैरभिभूयते। तन्नियोज्यात्मनस्तत्वे तान्येव क्षिप्यते क्षणात् ॥५२॥ - मुक्तिरूपी लक्ष्मीके सगकी वाछा करनेवाले योगीश्वरोने महाप्रशमरूपी संग्राम में ज्ञानरूपी शस्त्रसे रागरूपी माल को निपातन किया। क्योकि इसके हते बिना मोक्ष लक्ष्मीकी प्राप्ति नही है ।१२। मुनिका मन यदि मोहके उदय रागादिकसे पीडित हो तो मुनि उस मनको आत्मस्वरूपमें लगाकर,
उन रागादिकोको क्षणमात्रमे क्षेपण करता है ।१२। प्र. सा/ता वृ./२/२१५/१३ की उत्थानिका परमात्मद्रव्यं योऽसौ
जानाति स परद्रव्ये मोहं न करोति । -जो उस परमात्म द्रव्यको
जानता है वह परद्रव्यमें मोह नही करता है। प्र. सा/ता. वृ /२४४/३३८/१२ योऽसौ निजस्वरूपं भावयति तस्य चित्त बहि पदार्थेषु न गच्छति ततश्च चिच्चमत्कारमात्राच्च्युतो न भवति। तदच्यवनेन च रागाद्यभावाद्विविधकर्माणि विनाशयतीति । = जो निजस्वरूपको भाता है, उसका चित्त बाह्य पदार्थोंमें नही जाता है, फिर वह चित् चमत्कार मात्र आत्मासे च्युत नहीं होता। अपने स्वरूपमे अच्युत रहनेसे रागादिके अभावके
कारण विविध प्रकार के कौंका विनाश करता है। प ध/उ./३०१ इत्येवं ज्ञाततत्त्वोऽसौ सम्यग्दृष्टिनिजात्मदृक् । वैषयिके
मुखे ज्ञाने रागद्वेषौ परित्यजेत् ।३७१-इस प्रकार तत्त्वोको जाननेबाला स्वात्मदर्शी यह सम्यग्दृष्टि जीव इन्द्रियजन्य सुख और ज्ञानमें राग तथा द्वेषका परित्याग करे।
३. राग टालनेका व्यवहार उपाय भ आ /मू /२६४ जावंति केइ संगा उदीरया होति रागदोसाण । ते बज्जतो जिणदि हु राग दोस च णिस्संगो ।२६४। राग और द्वेषको उत्पन्न करनेवाला जो कोई परिग्रह है, उनका त्याग करनेवाला मुनि नि स ग होकर राग द्वेषोको जीतता ही है ।२६४। आ अनु/२३७ रागद्वेषौ प्रवृत्ति स्यानिवृत्तिस्तनिषेधनम् । तौ च बाह्यार्थसबद्धौ तस्मात्तात् सुपरित्यजेत् । = राग और द्वेषका नाम
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राग
प्रवृत्ति तथा दोनाके अभावका नाम ही निवृत्ति है। चूँ कि वे दोनो बाह्य वस्तुओसे सम्बन्ध रखते है, अतएव उन बाह्य वस्तुओका हो परित्याग करना चाहिए ।
४. तृष्णा छोड़ने का उपाय
आ. अनु / २५२ अपि सुतपसामाशावली शिखा तरुणायते भवति हि मनोमुले याममरजलाई इति कृतधिय कुणारम्भैश्चरति निरन्तर चिरपरिचिते देहेऽस्मिनतीन गतस्पृहा । २५ २० जय तक मनरूपी जड़के भीतर ममस्वरूपी जलसे निर्मित गीलापन रहता है, तब तक महातपस्वियोंकी भी आशारूप बेलकी शिखा जवान सी रहती है। इसलिए विवेकी जीव चिरकालसे परिचित इस शरीर में भी अत्यन्त निःस्पृह होकर सुख दुख एवं जीवन-मरण आदिमें समान होकर निरन्तर कष्टकारक आरम्भों में- ग्रीष्मादि ऋतुओके अनुसार पर्वतकी शिला आदिपर स्थित होकर ध्यानादि काय प्रवृत रहते हैं । २३२ ।
५. तृष्णाको वश करनेकी महत्ता
शा./१०/१०.११.१६ स यो निराकृत्य नैराश्यमवलम्बते तस्य चिदपि स्वान्तं गर्न सिध्यते ॥१०॥ तस्य सयं श्रुतं वृत्तं विवेकस्तत्त्वनिश्चयः । निर्ममत्वं च यस्याशापिशाची निधनं गता ११) चरस्थिरार्थ जातेषु यस्याशा प्रलयं गता । कि किं न तस्य लोकेऽस्मिन्मन्ये सिद्ध समीहितम् १६। जो पुरुष समस्त आशाओंका निराकरण करके निराशा अवलम्बन करता है, उसका मन किसी काल में भी परिग्रहरूपी कर्दमसे नही लिपता । | १० | जिस पुरुष के आशा रूपी पिशाची नष्टताको प्राप्त हुई उसका शास्त्राध्ययन करना, चारित्र पालना, विवेक, तत्त्वोका निश्चय और निर्ममता आदि सत्यार्थ है । ११० चिरपुरुषकी चराचर पदार्थोंने आशा नष्ट हो गयी है, उसके इस लोकमें क्या-क्या मनोवांछित सिद्ध नहीं हुए, सर्वमनोवाचित सिद्ध हुए ।१६।
बो पा / टी / ४६/१९४ पर उद्धृत आशादासीकृता येन तेन दासीकृतं जगत् । आशाया यो भवेद्दास सदास सर्वदेहिनाम् । -जिसने आशाको दासी बना लिया है उसने सम्पूर्ण जनयको दास बना लिया है । परन्तु जो स्वयं आशाका दास है, वह सर्व जीवोका दास है । ६. सम्यग्दृष्टिकी विरागता तथा तत्सम्बन्धी शंका
समाधान
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१. सम्यग्दष्टिको रागका अभाव तथा उसका कारण स.सा.// २०१-२०२ परमाणु मित्तर्यपि रामादीनं तु नये जस्स । ण वि सो जाणदि अप्पाणय तु सब्बागमधरो वि । २०६० अप्पाणमयाण तो अणप्ययं चावि सो अयाणंतो कह होदि सम्म - दिट्ठी जीवाजीचे अयातो ॥ २०२ ॥ - वास्तव में जिस जीवके परमामात्र लेशमात्र भी रागादिक बर्तता है, यह जीव भसे ही सर्व आगमका धारी हो तथापि आत्माको नहीं जानता । २०११ (प्र. सा./
/२११) (पं. का/यू./१६०) (खि ५/२/१७) और आरमाको न जानता हुआ, वह अनात्मा (पर) को भी नहीं जानता। इस प्रकार जो जीव और अजीवको नही जानता वह सम्यग्दृष्टि कैसे हो सकता है।
मोपा परमाणुपमा वा परदि इदि मोहा। सो मूढो अगाणी आदसहावस्स विवरीओ | ६६| = जो पुरुष पर द्रव्य में लेशमात्र भी मोहसे राग करता है, वह मूढ है, अज्ञानी है और आरमस्वभावसे विपरीत है | ६|
प. प्र/मू /२/८१ जो अणु-मेत्तु वि राउ मणि जामण मिल्लह एत्थु । सो विमुच्च ताम जिय जाणतु वि परमत्यु | ८१| जो जीव
सम्यग्दृष्टिकी विरागता तथा सरसम्बन्धी शंका......
थोडा भी राग मनमें से जब तक इस संसार में नही छोड़ देता है, तब तक हे जीव । निज शुद्धात्म तत्वको शब्द से केवल जानता हुआ भी नहीं मुक्त होता (मो.सा अ/२/४०)।
पघ / / २५६ वैषयिक सुखेन स्याद्रागभाव सुदृष्टिनाम् । रागस्याज्ञानभावस्वादस्ति मिथ्यादृश' स्फुटम् | २५६ = सम्यग्दृष्टियोके वैषयिक सुख में ममता नही होती है क्योकि वास्तवमे वह आसक्तिरूप राग भाव अज्ञानरूप है, इसलिए विषयोकी अभिलाषा मिथ्यादृष्टिको होती है | २६६०
२. निचली भूमिकाओं में रागका अभाव कैसे सम्भव है स. सा./ता.वृ/ २०१,२०२/२७६/५ रागी सम्यग्दृष्टिर्न भवतीति भणितं भवद्भिर्हतुर्थस्थान सम्यष्टोन भवन्ति । इति तन्न मिथ्यादृष्टयपेक्षया त्रिचत्वारिशत्प्रकृतीना बंधाभावात् सो भवति वर्ष इति चतुर्थगुणस्थानमा अनन्तानुबन्धिको पापा रेखादिसमानाना रागादीनामभावाद।" पञ्चगुणस्थानर्तिनां अप्रत्याख्यानक्रोध भूमिरेखादि समानाना रागादीनामभावात् । अत्र तु ग्रन्थे पञ्चमगुणस्थानादुपरितनगुणस्थान
1=
मां वीतरागसम्यग्टन मुख्यवृत्याग्रह सराग सम्यन्दीना गोगवृत्येति व्याख्यानं सम्यग्पटि व्याख्यानवाले सर्वत्र तात्पर्येश ज्ञातव्यम् । प्रश्न- रागी जीव सम्यग्दृष्टि नही होता, ऐसा आपने कहा है, तो चौथे व पाँचवे गुणस्थानवर्ती जीव सम्यग्दृष्टि कैसे हो सकेंगे। उत्तर- ऐसा नहीं है, क्योकि मिथ्यादृष्टिकी अपेक्षा ४३ प्रकृतियोके बन्धका अभाव होनेसे सराग सम्यग्दृष्टि होते है । यह ऐसे कि चतुर्य गुणस्थान जीव के हो पापान रेखा सहा अनन्तानुबन्धी चतुष्करूप रागादिको अभाव होता है, और पचम गुणस्थानवर्ती जीवोके भूमिरेखा दश अत्याख्यान चतुष्क रूप रागादिकों का अभाव होता है। यहाँ इस ग्रन्थ में पंचम गुणस्थान से ऊपर वाले गुणस्थानवर्ती वीतराग सम्यग्दृष्टियोका मुख्य रूपसे प्रहण किया गया है और सरागसम्यग्गृहियोका गौण रूपसे सम्यदृष्टि के व्याख्यान काल मे सर्वत्र यही जानना चाहिए ।
दे. सम्यग्दृष्टि / ३ // (ता. ९१३) [सम्यन्दष्टिका अर्थ गीतराग सम्यदृष्टि समझना चाहिए ]
ससा /पं जयचन्द / २०० जब अपनेको तो ज्ञायक भावरूप सुखमय जाने और कर्मोदयसे उत्पन्न हुए भावोको आकुलतारूप दुखमय जाने तब ज्ञानरूप रहना तथा परभावोसे विरागता यह दोनों अवश्य ही होते है । यह बात प्रगट अनुभवगोचर है। यही सम्यग्दृष्टिका है।
ससा / जयचन्द / २००/१३७/१०७ प्रश्न---परद्रव्यमें जब तक राग रहे तब तक जीवको मिथ्यादृष्टि कहा है, सो यह बात हमारी समझ में नहीं आयी । अविरत सम्यग्दृष्टि इत्यादिके चारित्रमोहके उदयसे गादि भाव तो होते है, तब फिर उनके सम्यक्त्व कैसे । उत्तरयहाँ मिथ्यात्वसहित अनन्तानुबन्धी राग प्रधानता से कहा है । जिसे ऐसा राग होता है अर्थात जिसे परमें तथा परद्रव्यसे होनेवाले भाव में आत्मबुद्धिपूर्वक प्रीति- अप्रीति होती है, उसे स्व-परका ज्ञान श्रद्वान नहीं है भेदज्ञान नहीं है ऐसा समझना चाहिए (विशेष दे. सम्यग्दृष्टि / ३ / ३ में ता.वृ.) ।
३. सम्यग्दष्टिको ही यथार्थ बैराग्य सम्भव है स.मू./६७ यस्य सस्पन्दमाभाति निःस्पन्देन समं जगत् । अप्रज्ञ - मक्रियाभोगं स शम याति नेतर' । ६७। जिसको चलता-फिरता भी यह जगत् स्थिरके समान दीखता है। प्रज्ञारहित तथा परिस्पन्दरूप किया तथा सुखादिके अनुभव से रहित दीखता है उसे वैराग्य आ जाता है अन्यको नहीं । ६७ ।
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राग
ससा २०० त्वं विजानश्य स्वभाबोपादानानिष्पाद्य स्वस्य वस्तु प्रथयन् कर्मोदयविपाकप्रभयान भाषा सर्वानपि मुञ्चति । ततोऽय नियमात् ज्ञानवैराग्यसंपन्नो भवति तत्त्वको जानता हुआ, स्वभाव के ग्रहण और परभाव के त्यागसे उत्पन्न होने योग्य अपने बस्तुको विस्तारित करता हुआ कर्मोदयके विपाकसे उत्पन्न हुए समस्त भावोंको छोड़ता है। इसलिए वह ( सम्यग्दृष्टि ) नियमसे ज्ञान-वैराग्य सम्पन्न होता है । यू.आ./टी./१०६ कदाचिद्रा स्यात्तथापि पुनर्वन्ति, पश्चात्तापेन तत्क्षणादेव बिनाशमुपयाति हरिद्वारक्तवस्त्रस्य पीतप्रभारविकिरणस्पृष्टेवेति । जीवके प्राथमिक अवस्थामे यद्यपि कदाचित राग होता है तथापि उसमें उसका अनुबन्ध न होनेसे वह उसका कर्ता नहीं है । इसलिए वह पश्चात्तापवश ऐसे नष्ट हो जाता है जैसे सूर्य की किरणोका निमित्त पाकर हरिद्राका रंग नष्ट हो जाता है।
४. सरागी भी सम्बगृष्टिविरागी है
र.सा./मू./५० सम्माइट्ठीका मोटर एगणाम भावेण मिच्याही बाघा दुम्मावालस्कल हेहि १०१ सम्यदृष्टि पुरुष समयको वैराग्य और ज्ञानसे व्यतीत करते है । परन्तु मिध्यादृष्टि पुरुष दुर्भाव आलस और कलह से अपना समय व्यतीत करते है । स.सा./आ./१६७/क. १३६ सम्यग्दृष्टेर्भवति नियतं ज्ञानवैराग्यशक्ति. स्य वस्तु मितुमय स्वान्यरूपामिमुपया यस्माज्ज्ञाला व्यतिकरमिदं तवस एवं परय स्वस्मिन्नास्ते विरमति पात्सर्वतो राजयोगात् ॥ १३६॥ यष्टि नियमसे ज्ञान और वैराग्यकी शक्ति होती है, क्योंकि वह स्वरूपका ग्रहण और परका त्याग करनेकी विधिके द्वारा अपने वस्तुत्वका अभ्यास करनेके लिए, 'यह स्व है। ( अर्थात् आत्मस्वरूप है और यह पर है इस भेदको परमार्थ से जानकर स्वमें स्थिर होता है और परसे—- रागके योग विरमता है।
=
स.सा./आ./१६६/१३५ नास्ते विषयसेवनेऽपि यत् स्वं कई विषयसेवनस्य ना । ज्ञानवैभवविरागताबलात् सेवकोऽपि तदसावसेवक | १३५ | यह ( ज्ञानी ) पुरुष विषयसेवन करता हुआ भी ज्ञान वैभव और विरागला मलसे विषयसेवनके निजको नही भोगता प्राप्त नहीं होता, इसलिए यह (पुरुष) सेवक होने पर भी सेवक है | १२३॥ ब्र.सं./टी./१/३/११ जिमिध्यात्वरागादिश्वेन एकदेशणिना. असंयतसम्यग्दृष्टय. 1 = मिध्यात्व तथा राग आदिको जीतनेके कारण असंयत सम्यग्दृष्टि आदि एकदेशी जिन है ।
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मो मा १० / ६ / ४६७ / १७ क्षायिकसम्यग्दृष्टि मिथ्यात्व रूप्र रंजना के अभाव वीतराग है।
•
५. घर में वैराग्य व वनमें राग सम्भव है
भापा / टी, / ६६ / २१३ पर उद्धृत वनेऽपि दोषाः प्रभवन्ति रागिणी गृहेऽपि द्रयनिग्रहस्तप। अकुत्सिते निय प्रवर्तते, विरागस्य गृह तपोवनं रागी जीवोको मनमें रहते हुए भी दोष विद्यमान रहते है, परन्तु जो रागसे विमुक्त है उनके लिए घर भी तपोवन है, क्योकि वे घरमे भी पाँचो इन्द्रियोके निग्रहरूप तप करते है और अकुत्सित भावनाओं में वर्तते है ।
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१. सम्यग्दृष्टि को राग नही तो मोग क्यों भोगता है स.सा./ता.वृ/१६४/२६८ / १४ उद्यागते व्यकर्मणि जीवेनोपभुज्यमाने सति नियमात सुख दुखं जायते तावत् .. सम्यग्दृष्टिर्जीवो कुमुदयति न च तन्मयो भूत्वा अहं सुखी
६. सम्यग्दृष्टिको विरागता तथा तत्सम्बन्धी शंका
1
दुखीत्याग्रहमिति प्रत्ययेन नानुभवति मिथ्याहटे पुनरुपाय बुद्धया, सुख्य दुख्यहमिति प्रत्ययेन बधकारण भवति । कि च, यथा कोऽपि तस्करो यद्यपि मरण छति तथापि वरं गृहीत सन् मरणमनुभवति । तथा सम्यग्दृष्टि यद्यप्यात्मोत्थ सुखमुपादेयं च जानाति विषयच हे जानाति तथापि चारित्रमोहोदयवरेण गृहीत सन् तदनुभवति तेन कारणेन निर्जरानिमित्तं स्यात् । द्रव्यमों उदय ने जीवके द्वारा उपयुक्त होते है. और तब नियमसे उसे उदयकालपर्यन्त सुख-दुख होते है। तहाँ सम्यग्दृष्टि जीव उनमे राग-द्वेष न करता हुआ उन्हे हेय बुद्धिसे अनुभव करता है। 'मै सुखी हूँ, मै दुखी हूँ' इस प्रकारके प्रत्यय सहित तन्मय होकर अनुभव नहीं करता। परन्तु मिथ्यादृष्टि तो उन्हे उपादेय बुद्धिसे मैसुली, मै दुखी' इस प्रकार के प्रत्ययसहित अनुभव करता है, इसलिए उसे बन्धके कारण होते है और भी-सि प्रकार कोई चोर यदि मरना नही चाहता तो भी कोतवालके द्वारा पकड़ा जानेपर मरणका अनुभव करता है उसी प्रकार सम्यग्दृष्टि यद्यपि आत्मासे उत्पन्न सुखको ही उपादेय जानता है, और विषय मुखको हेय जानता है, तथा चारित्रमोहके उदयरूप कोतवाल द्वारा पकडा हुआ उन वैषयिक सुख-दुखको भोगता है । इस कारण उसके लिए वे निर्जराके निमित्त ही है।
I
प ध /उ /२६१ उपेक्षा सर्वभोगेषु सद्दृष्टेष्टरोगवत् । अवश्यं तदवस्थायास्तथाभावो निसर्गज | २६११- सम्यग्दृष्टिको सर्वप्रकारभोगमें रोगकी तरह अरुचि होती है क्योंकि उस सम्यक्त्वरूप अवस्थाका प्रत्यक्ष विषयोमे अवश्य अरुचिका होना स्वतः सिद्ध स्वभाव है । २६१४
७. विषय सेवता भी असेवक हैं।
स. सा / मू./१६७ सेतो विण सेवइ असेवमाणो वि सेवगो कोई । पगरणा परस पिय पायरणो ति सो होई-कोई तो विषयको सेवन करता हुआ भी सेवन नहीं करता, और कोई मनन करता हुआ भी सेवन करनेवाला है-जैसे किसी पुरुष प्रकरण की पेष्ट पायी जाती है तथापि यह प्राकरणिक नहीं होता। ससा / २९४ / १४६ पूर्वजिविका शानि भवत्युपभोग भवस्य च रागवियोगात् नूनमेसिन परिप्रभाव | १४६ । पूर्वबद्ध अपने कर्म के विपाकके कारण ज्ञानीके यदि उपभोग हो तो हो, परन्तु रागके वियोग (अभाव) के कारण वास्तव में वह उपभोग परिषभावको प्राप्त नहीं होता । ९४६०
-
अन ध./८/२-३ मन्त्रेणेव विषं मृत्य्वैमध्वरत्या मदायवा । न बंधाय हत ज्ञप्त्या न विरक्त्यार्थ सेवनम् |२| ज्ञो भुजानोऽपि नो भुङ्क्ते विषयास्तत्फलात्ययात् । यथा परप्रकरणे नृत्यन्नपि न नृत्यति । ३। मन्त्र द्वारा जिसकी सामर्थ्य नष्ट कर दी गयी ऐसे विषका भक्षण करनेपर भी जिस प्रकार मरण नही होता, तथा जिस प्रकार बिना प्रीतिके पिया हुआ भी मद्य नशा करनेवाला नही होता, उसी प्रकार
ज्ञान द्वारा उत्पन्न हुए वैराग्यके अन्तर में रहनेवर विषयोपभोग कर्मबन्ध नहीं करता |२| जिस प्रकार नृत्यकार अन्य पुरुष के विमाहा दिनें नृत्य करते हुए भी उपयोगकी अपेक्षा पृथ्य नहीं करता है, इसी प्रकार ज्ञानी आत्मस्वरूप में उपयुक्त है वह चेष्टामात्र यद्यपि
को भोगता है, फिर भी उसे अभोक्ता समझना चाहिए |३| २००-२०४ ) ।
प/उ/२०४ सम्यग्दृष्टिरसी भोगान् सेवमानोप्य सेवकः। नीरागस्य न रागाय कर्माकामकृत यत 1२७४ - यह सम्यग्दृष्टि भोगोंका सेवन करता हुआ भी वास्तव में भोगोका सेवन करनेवाला नही कहलाता है, क्योकि रागरहित जीवके बिना इच्छाके किये गये कर्मरागको उत्पन्न करने में असमर्थ हैं । २७४ |
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राजऋषि
४००
राजा
समय प्रेमी जीके अनुसार वि.सं. १०३१-१०४० अर्थात ई १७४६८३ निश्चित है। (बाहुबलि चरित्र / श्लोक. ६, ११),
(जै०/१/३६५)।
८. भोगोंकी आकांक्षाके अमावमें भी वह व्रतादि क्यों करता है प.ध/उ./५५४,-५७१ ननु कार्य मनुद्दिश्य न मन्दोऽपि प्रवर्तते । भोगाकाङ्क्षा बिना ज्ञानी तत्क्थ व्रतमाचरेत् । ५५४। नैव यत' सुसिद्ध प्रागस्ति चानिच्छत क्रिया।' शुभायाश्चाऽशुभायाश्च कोऽवशेषो विशेषभाक् ।।६१। पौरुषो न यथाकाम पुंस' कर्मोदित प्रति । न पर पौरुषापेक्षो देवापेक्षो हि पौरुष ।५७१ = प्रश्न-जन अज्ञानी पुरुष भी किसी कार्यके उद्देश्यके बिना प्रवृत्ति नही करता है, तो फिर ज्ञानी सम्यग्दृष्टि भोगोकी आकाक्षाके बिना व्रतो का आचरण क्यो करेगा। उत्तर-यह कहना ठीक नहीं है, क्योकि यह पहले सिद्ध किया जा चुका है कि बिना इच्छाके ही सम्यग्दृष्टिके सत्र क्रियाएँ होती है। इसलिए उसके शुभ और अशुभ क्रियामे विशेषताको बतानेवाला क्या शेष रहा जाता है।५६१: उदयमे आनेवाले कर्म के प्रति जीवका इच्छानुकूल पुरुषार्थ कारण नहीं है क्यो। क पुरुषार्थ केवल पौरुषकी अपेक्षा नही रखता है किन्तु दैवकी अपेक्षा रखता है ।५७१। पं. /उ /७०६-७०७ ननु नेहा बिना कर्म कर्म नेहा बिना कचित् । तस्मानानो हित कर्म रयादक्षार्थस्तु वा न का ७०६। नैव हेतोरतिव्याप्तेरारादाक्षीण मोहिषु । बन्यस्य नित्यतापत्तेभवेन्मुक्तेर. सभव १७०७) प्रश्न-कही भी क्रिया के बिना इच्छा और इच्छाके बिना क्रिया नही होती। इसलिए इन्द्रियजन्य स्वार्थ रहो या न रहो किन्तु कोई भी क्रिया इच्छ के बिना नहीं हो सकती है। उत्तर-यह ठीक नहीं है, क्योकि उपरोक्त हेतुसे क्षीणकषाय और उसके समीपके गुणस्थानोमे उक्त लक्षणमे अतिव्याप्त दोष आता है। यदि उक्त गुणस्थानोमे भी क्रियाके सद्भावसे इच्छाका सद्भार माना जायेगा तो बन्धके नित्यत्वका प्रसग आनेसे मुक्ति होना भी असम्भव हो जायेगा । (और भी दे सवर/२/६) । राजऋषि-दे० ऋषि। राजकथा-दे० कथा। राजधानी-१ एक राजधानीमे आठ सौ गॉव होते है। (म पु। १६/१७५ ), २ चक्रवर्ती की राजधानीका स्वरूप-दे० शलाका पुरुष/२। राजपिड-दे० भिक्षा/३ । राजमति विप्रलंभ- आशाधर (ई ११७३-१२४३) द्वारा
सस्कृत छन्दोमें रचित ग्रन्थ । राजमल्ल-१. मगध देशके विराट् नगरमें बादशाह अकबरके समयमें कविवर राजमल्लका निवास था। काष्ठासघी भट्टारक आम्नायके पण्डित थे। इसीसे इन्हे 'प बनारसीदास जी ने पाण्डे' कहा है। क्षेमकीर्तिके आम्नायमे भारु नामका वैश्य था। उसके चार पुत्र थे यथा-दूदा, ठाकुर, जागसी तिलोक। दूदाके तीन पुत्र थे-पोता, भोल्हा, और फामन। फामन एक समय विराट नगर में आया वहाँ एक तालहू नाम जैन विद्वान् से जो हेमचन्द्र चार्यकी आम्नायका था, कुछ धर्मको शिक्षा प्राप्त की। फिर वह कविराजके पास आया और इन्होंने उसकी प्रेरणासे लाटो सहिता लिखी। इसके अतिरिक्त समयसारकी अमृतचन्द्राचार्यकृत टीकाके ऊपर सुगम हिन्दी वचनिका, पचास्तिकाय टीका, पचाध्यायी, जम्बूस्वामी चरित्र, पिंगल, अध्यात्म कमलमार्तण्डकी रचना की। समय-वि १६३२१६५०. (ई. १५७५-१५६३), (ती/४/७७)।
२ आप गंगवशीय राजा थे। राजा मारसिह के उत्तराधिकारी थे। चामुण्डराय जी आप होके मन्त्री थे। आपआचार्य सिहनन्दि व आचार्य अजितसेन दोनोंके शिष्य रहे है । आपका
राजमल्ल सत्यवाक्य-इसके राज्य काल में ही आ० विद्यानन्दि नं.१ के द्वारा आप्तपरीक्षा, प्रमाणपरीक्षा, युक्त्यानुशासन ये तीन ग्रन्थ लिखे गये थे। समय-ई. ८१६-८३० (सि. वि/३ षं. महेन्द्र)। राजवंश-दे० इतिहास/३ । राजवलि कथे-ई. १८३६ द्वारा रचित कथानुयोग विषयक
कन्नड कृति। राजवातिक-आ० अकलंक भट्ट (ई ६२०-६८०) द्वारा सर्वाथसिद्धिपर को गयी विस्तृत सस्कृत वृति है। इसमें सर्वार्थ सिद्धिके वाक्यो को वार्तिक रूपसे ग्रहण करके उनकी टीका की गयी है। यह ग्रन्थ ज्ञे सार्थ से भरपूर्ण है। यदि इसे दिगम्बर जैन आम्नायका कोष कहे तो अतिशयोक्ति न होगी। इसपर प पन्नालाल (ई १७६३
१८६३ ) कृत भाषा वनिका उपलब्ध है। राजशेखर-आप एक कवि थे। आपने वि.६६० कर्पूर मजरीकी
रचना की थी। (धर्म शर्माभ्युदय/प्र १६/५ पन्नालाल )। राजसदान-दे० दान । राजीसह-एक बहुत बडा मल्ल था। इसने मल्लयुद्धमें सुमित्र नामक मल्लको जीत लिया। (म पु/६१/५६-६०) यह मधुकीड प्रतिनारायणका दूरवर्ती पूर्व भव है।-दे० मधुक्रीड। राजाध १/१,१,१/गा. ३६/५७ अष्टादशसख्याना श्रेणीनामधिपतिविनम्राणाम् ।
राजा स्पान्मुकुटधर कल्पतरु सेवमानानाम् ३६।जो नम्रोभूत अठारह श्रेणियोका अधिपति हो, मुकुटको धारण करनेवाला हो और सेवा करनेवालोके लिए कल्पवृक्षके समान हो उसको राजा कहते हैं।
(त्रि. सा/६८४)। भ आ /वि./४२१/६१३/१६ राज शब्देन इक्ष्वाकुप्रभृतिकुले जाता।
राजते प्रकृति र जयति इति वा राजा राजसदृशो महद्धिको भण्यते । - इक्ष्वाकुवंश, हरिवंश इत्यादि कुल में जो उत्पन्न हुआ है, जो प्रजाका पालन करना, उनको दुष्टोंसे रक्षण करना इत्यादि उपायोसे अनुर जन करता है उसको राजा कहते है। राजाके समान जो महद्विका धारक है उसको भी राजा कहते है।
२. राजाके भेद (अर्धमण्डलीक, मण्डलीक, महामण्डलीक, राजाधिारज, महाराजाधिराज तथा परमेश्वरादि ): (ध, १११,१,१/५६/७ का भावार्थ), (राजा, अधीश्वर, महाराज, अर्थमण्डलोक, मण्डलीक, महामण्डलीक, त्रिखण्डाधिपति तथा चक्री आदि), (ध १/११२/गा ३७-४३ ५७-५८)।
३. अधिराज व महाराजका लक्षण ति ५/१/४५ पंचसयरायसामी अहिराजो होदि कित्तिभरिददिसो।
रायाण जो सहस्सं पालइ सो होदि महाराजो ॥४५॥जो पाँच सौ राजाओंका स्वामी हो वह अधिराज है। उसकी कीर्ति सारी दिशाओं में फैली रहती है। जो एक हजार राजाओंका पालन करता है वह महाराज है ।४।।(ध. ११.१/गा.४०/५७), (त्रि. सा./६८४)।
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राजीमति
४०१
रात्रि भोजन
४. अर्धमण्डलीक व मण्डलीकका लक्षण ति. ५/१/४६ दुसहस्समउडवद्ध भुवबसहो तत्थ अद्धमंडलिओ। चउराज-
सहस्साणं अहिणाओ होइ मडलिओ।४६-जो दो हजार मुकुटबद्ध भूपों में प्रधान हो वह अर्धमण्डलीक है। और जो चार हजार राजाओंका अधिनाथ हो वह मण्डलीक कहलाता है।४६ (ध.१/१.१.१/गा. ४१/५७ ); (त्रि. सा./६८५) ।
५. महामण्डलीकका लक्षण ति प./१/४२ अष्टसहस्रमहीपतिनायकमाहुबुंधा महामण्डलिकम् ।।
-बुधजन आठ हजार राजाओके स्वामीको महामण्डलीक कहते है। (ध.१/१,१,१/गा. ४७/५७); (त्रि. सा./६८५)। * अर्धचक्रोव चक्रवर्तीका लक्षण-दे० शलाकापुरुष/४,२ । * कल्कि राजा-दे० करिक । राजीमति-भोजवंशियोंको राजपुत्री थी। नेमिनाथ भगवान के लिए निश्चित की गयी थी (ह. १/११/७२) विवाहके दिवस ही नेमिनाथ भगवान्की दीक्षापर अत्यन्त दुखी हई तथा स्वयं भी दीक्षा ग्रहण कर लो। (ह. पु./५/१३०-१३४) अन्तमें सोलहवे स्वर्ग में
देव हुई। राजू-(ज.प./प्र/२३) Raju ts according to Colebrork
the distance which a Deva flies in six months at the rate of 2,057,152 Yojans in on: क्षण i.c instant of time |-Quited by Von Glassnappın 'Der Jainismus'--Foot Note (Cosmology Old & New P. 105/. इस परिभाषाके अनुसार राजुका प्रमाण इस तरह निकाला जा सकता है- माह-(५४००००)xx३०४२४४६०. (दे० गणित/1/१/३)प्रतिविपलाश या क्षण। और-१ योजन-४५४५४५ मील (या क्रोशक) लेनेपर, ६. मासमें तय की हुई दूरी-४५४५४५४२०५७१७२४ ६५३०४२४४६०४५४०००० मील .:. एक राजु-(१३०८६६६६२ . )x (१०)२१ मील According G. R Jain.१ राजू-१४५x (१०)२१ मोल (डॉ० आइंस्टीनके सख्यात लोक त्रिज्या लेकर उसके अनुसार लोकके घनफलके आधारपर ) According to प. माधवाचार्य-१००० भारका गोला, इंद्रलोकसे नीचे गिरकर 6 मासमें जितनी दूर पहुँचे उस सम्पूर्ण लम्बाईको एक राजू कहते है। राजेन्द्र-चोल वंशी राजा था। समय-ई. १०६२-१०६३ ( जीव
न्धर चम्पू (प्र./१३/A N. Up.)। राज्य-रुचक पर्वतस्थ एक कूट-दे० लोक/५/१३ । राज्यवंश-१. ऐतिहासिक राज्यवंश-दे० इतिहास/३ । २. पौराणिक राज्यवंश-दे० इतिहास/७। राज्योत्तम-रुचक पर्वतस्थ एक कूट -दे० लोक/५/१३ । रात्रि-१. दिन व रात्रि प्रगट होनेका क्रम-३० ज्योतिष/२/८ । २ साधु रात्रिको अत्यन्त अल्म निद्रा लेते है -दे० निद्रा/२। ३. साधुके लिए रात्रिको कथंचित् बोलने की आज्ञा। -दे० अपवाद/३। रात्रिपूजा निषेध-दे० पूजा/५ । रात्रि भोजन-जैन आम्नायमें रात्रि भोजनमें प्रस हिसाका भारी दोष माना गया है। भले ही दोपक व चन्द्रमा आदि के प्रकाशमें आप भोजनको देख सके पर उसमें पड़ने वाले जीवों को नहीं बचा सकते। पाक्षिक श्रावक रात्रि भोजन त्याग वतको सापवाद पालते है, और छठी प्रतिमावाला निरपवाद पालता है।
१. रात्रिभोजन त्याग व्रत निर्देश
.. रात्रि मोजनका लक्षण ध. १२/४,२,८,७/२८२/१३ रत्तीए भोयण रादि भोयणं । -रात्रिमें भोजन सो रात्रि भोजन। .. साधुके योग्य आहार काल मू. आ./३५ उदयत्थमणे कालेणालीतियवज्जिय मज्झम्हि... ३५॥
-सूर्यके उदय व अस्त कालकी तीन घडी छोडकर इसके मध्य कालमे कोई भी समय आहार ग्रहण करनेका काल है। (अन.ध। १/१२): (आचारसार/१/२१)। रा, वा/७/१/१८/५३५/२ ज्ञानादित्यस्वेन्द्रियप्रकाशपरीक्षितमार्गेण युगमात्रपूपिक्षी देशकाले पर्यट्य यति भिक्षा शुद्धामुपाददीत इत्याचारोपदेश । न चायं विधि रात्रौ भवतीति चड्क्रमणाद्यसंभव । - ज्ञानसूर्य तथा इन्द्रियोंसे मार्गकी परीक्षा करके चार हाथ आगे देखकर यतिको योग्य देश कालमे शुद्ध भिक्षा ग्रहण करनी चाहिए' यह आचारशास्त्रका उपदेश है। यह विधि रात्रिमें नहीं बनती, क्योकि रात्रिको गमन आदि नही हो सकता। अत रात्रि भोजनका निषेध किया जाता है।
३. श्रावकके योग्य आहार काल ला. स /५/२३४-२३५ काले पूर्वाहिके यावत्परतोऽपराहऽपि च । यामस्थाद्ध'न भोक्तव्यं निशाया चापि दुदिने २३४. याम मध्ये न भोक्तव्यं यामयुग्म न लघयेत् । आहारस्यास्त्यर्थ कालो नौषधादेजलस्य वा १२३३ -भोजनका समय दोपहरसे पहले-पहल है अथवा दोपहरके पश्चात् दिन ढलेका समय भी भोजनका है। अणुवती श्रावकोको सूर्य निक्लनेके पश्चात आधे पहर तक तथा सूर्य अस्तसे आधे पहर पहले भोजन कर लेना चाहिए। इसी प्रकार उन्हें रात्रिको, या जिस समय पानी बरस रहा हो अथवा काली घटा छानेमे अंधेरा हो गया हो उस समय भोजन नहीं करना चाहिए १२३४। अणुबती श्रावकोको पहले पहरमे भोजन नहीं करना चाहिए क्योकि वह मुनियोकी भिक्षाचर्याका समय नहीं है। तथा उन्हे दोपहरका समय भी नहीं टालना चाहिए उनके लिए सूर्योदयके पश्चात छह घण्टे बीत जानेपर भोजन करने का निषेध है, परन्तु औषध व जलके ग्रहण का नहीं।२३५॥
४. रात्रि भोजन त्यागके अतिचार सा. ध /३/१५ मुहूर्तेऽन्त्ये तथाद्यऽहो, बल्भानस्तमिताशिन । गदच्छिदेऽप्याम्रघता- प्योगच दुष्यति ।१४ -रात्रि भोजन त्यागव्रतका पालन करने वाले श्रावकके दिनके अन्तिम और प्रथम मुहर्तमें भोजन करना तथा रोगको दूर करनेके लिए भी आम और धी वगैरहका सेवन करना अतिचारजनक होता है ।१५।।
५. रात्रि भोजन त्यागमें अन्य भी व्रतोंका अन्तर्भाव घ. १२/४.२.८८/२८३/१ जेणेद सुत्त देसमासिय तेणेत्थ महु मांस पचु
बर विसण हुल्ल भक्खण सुरापान अवेलासणादीण पि जाणावरण पश्चयत्त, परुवेदव्य । -क्योकि यह सूत्र । रात्रि भोजन प्रत्ययसे ज्ञानावरणीय वेदना या बन्ध होता है ) देशामर्षक है अत उससे यहाँ गधु, मास, पंचदम्बर फल, निन्द्य भोजन और फूलाके भक्षण, मद्यपान तथा आसमयिक भोजन आदिको ज्ञानावरणीयका प्रत्यय बतलाना चाहिए। * रात्रि भोजनका हिंसामें अन्तर्माव-दे० हिंसा। * रात्रि भोजन त्याग छठा अणुव्रत है-देवत/३/४।
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भा० ३-५१
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रात्रि भोजन
६. रात्रि भोजन त्यागका मदश्व
पु. सि. उ. / १३४ किवा बहु प्रलपितैरिति सिद्ध यो मनो बचन कार्य परिहरति रात्रिति महिसास पालयति । १२४ = बहुत कहने से क्या । जो पुरुष मन, वचन और कायसे रात्रि भोजनको त्याग देता है वह निरन्तर अहिंसाको पालन करता है ऐसा सार सिद्धान्त हुआ । १३४|
४०२
का. ज./मू./१०३ जो मिसि भुति बज्नदि यो उबलाएं करेदि छम्मासं । संवच्छरस्स मज्भे आरभ मुयदि रयणीए । ३८३ जो पुरुष रात्रि भोजनको छोड़ता है वह एक वर्ष मे छह महीनेका उपवास करता है। रात्रि भोजनका त्याग करनेके कारण वह भोजन व व्यापार आदि सम्बन्धी सम्पूर्ण आरम्भ भी रात्रिको नही
करता।
७. रात्रि भोजनका निषेध क्यों
।
पु. सि. उ / १२६ - १३३ रात्रौ भुजानाना यस्माद् निवारिता भवति हिंसा हिंसानिरत रतस्माकृत्या रात्रिभुक्तिरपि । १२६६ रागायदयपरस्यादनिवृतिर्नातिवर्तते हिंसा रात्रि दिमामाहरत कर्म हि हिसा न संभवति । १३०| यद्येवं तर्हि दिवा कर्तव्यो भोजनस्य परिहार । भोक्तव्य तु निशाया नेत्थं नित्यं भवति हिंसा | १३१० नैवं वासरभुक्त भवति हि रागाधिको रजनि भुक्तौ । अन्नकवलस्य भुक्त' भुक्ताविव माँसकवलस्य । १३२ । अर्का लोकेन विना भुञ्जान. परिहरेत् कथं हिंसा । अपि बोधित' प्रदीपो भोज्यजुषा सूक्ष्मजीवानाम् ॥१३३॥ रात्रिमें भोजन करने वालोके हिसा अनिवारित होती है, अतएव हिसाके त्यागीको रात्रि भोजनका त्याग करना चाहिए | १२ | अत्यागभाव रागादिभावोके उदयकी उत्कृष्टतासे हिंसाको उल्लंघन करके नहीं वर्तते है तो रात दिन आहार करने वालों के निश्चय कर हिसा कैसे सम्भव नहीं होती अर्थात् तीव्र रांगी ही रात्रि-दिन खायेगा और जहाँ राग है वहाँ हिसा है । १३०| प्रश्न- यदि ऐसा है तो दिनके भोजनका त्याग करना चाहिए, और रात्रिको भोजन करना चाहिए, क्योकि ऐसा करनेसे हिसा सदा काल न होगी । १३११ उत्तर - अन्नके ग्रासके भोजनकी अपेक्षा मांस के ग्रास के भोजन में जैसे राग अधिक होता है वैसे ही दिनके भोजन की अपेक्षा रात्रि भोजनमें निश्चय कर अधिक राग होता है अतएव रात्रि भोजन ही त्याज्य है । १३२ । दूसरे सूर्यके प्रकाश के बिना रात्रिमे भोजन करने वाले पुरुषोके जलाये हुए दीपक में भी भोजन में मिले हुए सूक्ष्म जीवोको कैसे दूर किया जा सकेगा । अतएव रात्रि भोजन प्रत्यक्ष हिंसा है ।
सा. प./४/२४] अहिंसावतरार्थं मूलत विशुद्धये
न भुक्ति चतु र्धापि, सदा धीरस्त्रिधा त्यजेत् | २४| = व्रतोका पालक श्रावक अहिंसा की रक्षा के लिए धैर्य होता हुआ रात्रिमे मन, वचन व कायसे चारों ही प्रकारके आहारको भी जीवन पर्यन्तके लिए छोडे |२४|
ला सं / २ / ४५ अस्ति तत्र कुलाचार सैष नाम्ना कुलक्रिया । ता विना दार्शनिको न स्यान्नास्यान्नमतस्तथा । ४५॥ रात्रि भोजनका त्याग करना पाक्षिक श्रावकका कुलाचार वा कुलक्रिया है । इस किया मिना यह मनुष्य दर्शन प्रतिमापारी अर्थात पाक्षिक श्रावक भी नही हो सकता और की तो बात ही क्या
८. दीप व चन्द्रादिके प्रकाश में भोजन करनेमें दोष सम्बन्धी
रावा./०/२/१७-२०/२२४ स्यान्मतम् - यचासोकनार्थ दिवाभोजनस् प्रदीपचन्द्रादिकाभित्र भोज कार्यमिति न कि
३. रात्रि भोजन त्याग प्रतिमा निर्देश
कारणम् अनेकारम्भदोषात् । अग्न्यादिसमारम्भकरणकारणलक्षणो हि दोष स्यात् । स्यादेतत् परकृत प्रदीपादिसंभवे नारम्भदोष. इति तत्र किं कारणम् चक्रमणायसंभवात् 'ज्ञानादित्यस्वेन्द्रियप्रकाश परीक्षितमार्गेण युगमात्रपूर्वापेक्षी देशकाले पर्यट्य यति भिक्षां शुद्धामुपाददीत हत्यापरोपदेश चार्य विधि रात्रौ भवतीति चाभवस्यान्मतम्-दिना प्रार्थ पर्यट्य कनचिद्भाजने भोजनाद्यानीय रात्रावुपयोग प्रसक्त इति, तन्न; कि कारणम् । उक्तोत्तरखात् । उक्तोतरमेतत्-प्रदीपादिसमारम्भप्रसङ्ग इति । नेद सयमसाधनम् - आनीय भोक्तव्यमिति । नापि निस्सङ्गस्य पाणिपात्रपुटाहारिण. आनयनं संभवति । भोजनान्तरसहे अनेकामदर्शनात अतिदीनचरितप्रसद्गारचिरादेव निवृतिपरिणामासंभवाच्च । भाजनेनानीतस्य परीक्ष्य भोजन संभवतीति चेत्; न; योनिप्राभृतज्ञस्य संयोगविभागगुणदोषविचारस्य तदानीमेवोपपनीतस्य पुनर्दोषदर्शनात विसर्जनेऽनेकदोषोपपश्च || रविप्रकाशस्य स्फुटार्थाभिव्यञ्जका भूमिदेवादातूनचक्रमणाद्यन्नपानादिपतितमितरच स्पष्टमुपलभ्यते न तथा चन्द्रादिप्रकाशानाम् अस्फुटार्थाभिव्यञ्जकत्वात् स्फुटा भ्रम्याद्य परि स्तोति दिवाभोजनमेव युक्तम् ॥२०॥ = प्रश्न - यदि आलोकित पान भोजन ( देखकर ही भोजन आदि करनेकी) विवक्षा है तो यह प्रदीप और चन्द्रादिके प्रकाशमें रात्रि भोजन करने पर भी सिद्ध हो सकती है। उत्तर- नहीं, क्योकि इसमें अनेक आरम्भ दोष है । दीपके जलानेमें और अग्नि आदिके करने करानेमे अनेक दोष होते है । प्रश्न – दूसरेके द्वारा जलाये हुए प्रदीपके प्रकाश में तो कोई आरम्भ दोष भी सम्भव नहीं है। उत्तर-ऐसा नहीं है, क्योंकि भले वहाँ स्वयंका आरम्भ दोष न हो तो भी गमन आदि नहीं हो सकते । 'ज्ञान सूर्य तथा इन्द्रियो से मार्गकी परीक्षा करके चार हाथ आगे देखकर यतिको योग्य देशकालमें शुद्ध भिक्षा ग्रहण करनी चाहिए' यह आचारशास्त्रका उपदेश है । यह विधि रात्रिमे नही बनती। प्रश्न- दिनके समय ग्राममें घूमकर किसी भाजनमें भोजनादि लाकर रात्रिमे उसे ग्रहण करनेसे उपरोक्त दाषकी निवृत्ति हो जाती है । उत्तर- नही, क्योकि इसने अन्य अनेको दोष लगते है- १. दीपक आदिका आरम्भ करना पडेगा, २. लाकर भोजन करना' यह संयमका साधन भी नहीं है; ३. निष्परिग्रही पाणिपुट भोजी साधुको भिक्षा माँगकर लाना भी सम्भव नहीं है, ४. पात्र रखनेपर अनेक दोष देखे जाते है-निवृत्ति आ जाती है. और शीघ्र पूर्ण निवृत्तिके परिणाम नही हो सकते क्योकि सर्व-साबच निवृत्ति काल में ही पात्र ग्रहण करनेसे पात्र निवृत्तिके परिणाम हो सकेगे, ५ पात्रसे लाकर परीक्षा करके भोजन करनेमें भी योनि प्राभृतज्ञ साधुको सयोग विभाग आदिसे होने वाले गुणदोषोका विचार करना पडता है, लानेमें दोष है, छोडने में भी अनेक दोष होते है, ६. जिस प्रकार सूर्यप्रकाश में स्फुटरूप से पदार्थ दिख जाते है, तथा भूमि, दाता, अन्न, पान आदि गिरे या रखे हुए सब साफ दिखाई देते है, उस प्रकार चन्द्रमा आदिके प्रकाशमें नही दिखते । अत. दिनमें भोजन करना ही निर्दोष है। दे० रात्रि भोजन / २ / १ ( रात्रि में जलाये गये दीपकमे भी भोजनमें मिले हुए सूक्ष्म जन्तुओकी हिसाको किस प्रकार दूर किया जा
सकेगा ) ।
३. रात्रि भोजन त्याग प्रतिमा निर्देश
१ रात्रि भोजन त्याग प्रतिमा व अणुतका कक्षण र. क श्री. / १४२ अन्नं पानं खाद्य लेह्यं नाश्नाति यो विभावर्याम् । सच रात्रिभुक्तिविरत सरवेयनुरूपमागमा १४२ जी जीमों
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रात्रि भोजन
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रामपुत्र
पर दयायुक्त चित्त वाला होता हुआ रात्रिमें, अन्न, जल, लाडू आदि खाद्य, और रबडी आदि लेह्य पदार्थों को नही खाता बह रात्रि भक्तित्याग नामक प्रतिमाका धारी है ।१४२। (का. अनृ /३८२), (सा ध/9/१५)। आचारसार/५/७०७१ बतत्राणाय कर्तव्यं रात्रिभोजनवर्जनम् । सर्वथान्नानिवृत्ति तत्पोक्त षष्ठमणुव्रतम् ।७०७१ - अहिंसा आदि व्रतोकी रक्षाके लिए रात्रिको भोजनका त्याग अथवा उस समय अन्न खानेका त्याग करना छठी रात्रिभुक्ति त्याग प्रतिमा या छठा
अणुवत है। वसु. श्रा./२६६ मण-वयण-काय-कय-कारियाणुमोएहि मेहूणं णबधा । दिवसम्मि जो विवज्जइ गुणम्मि सोसावओ छट्ठो। =जो मन, वचन, काय और कृत, कारित, अनुमोदना इन नौ प्रकारोसे दिनमे मैथुनका त्याग करता है, वह प्रतिमारूप गुणस्थानमे छठा श्रावक अर्थात छठा प्रतिमाधारी है।२६६। (गुण श्रा/१७१), (सा.ध/७/१२), (द्र सं/टी /४५/१६५/८)। चा सा./१३/२ रात्रावन्नपानखाद्यलेह्येभ्यश्चतुर्थ्य सत्त्वानुकम्पया
विरमणं रात्रिभोजनविरमण षष्ठमणुवतम्। चा सा /३८/३ रात्रिभुक्तवत रात्रौ स्त्रीणा भजनं रात्रिभक्त तद्वतयति सेवत इति रात्रिवतातिचारा रात्रिभुक्तवत' दिवाब्रह्मचारीत्यर्थः । -जीवो पर दयाकर रात्रिमें अन्न, पान, खाद्य और लेह्य इन चारों प्रकारके आहारका त्याग करना रात्रिभोजन विरमण नामका छठा अणुवत है। छठी प्रतिमाका रात्रिभक्त वत नाम है। रात्रिमें ही स्त्रियोके सेवन करनेका व्रत लेना अर्थात् दिनमे ब्रह्मचारी रहने की प्रतिज्ञा लेना रात्रिभक्त व्रत प्रतिमा है। रात्रि भोजन त्याग के अतिचार त्याग करना ही रात्रि भक्त व्रत है।
२. पाक्षिक श्रावकके रात्रि भोजन त्यागमें कुछ अपवाद सा. ध /२/७६ भृत्वाश्रितानवृत्त्यार्तात् कृपयानाश्रितानपि । भुखजीतान्यम्बुभैषज्य-ताम्बूलै लादि निश्यपि । -गृहस्थ अपने आश्रित मनुष्य और तिर्यंचोको और आजीविकाके न होनेसे दुखी अनाश्रित मनुष्य वा तिर्यंचोंको भी दिनमें भोजन करावे। जल, दवा, पान और इलायची आदिक रात्रिमें भी खा और खिला सकता है ।७६ सा. ध /२/७६ में उद्धृत ताम्बूलमौषधं तोयं, मुक्त्वाहारादिका क्रियाम् । प्रत्याख्यानं प्रदीयेत यावद् प्रातदिनं भवेत। =दिन उगे तक ताम्बूल, औषध और पानीको छोडकर सब प्रकारके आहा
रादिके त्यागका बत देना चाहिए । ला, स /२/४२ निषिद्धमन्नमात्रादिस्थूलभोज्यं व्रते दृशः। न निषिद्ध' जलाद्यन्न ताम्बूलाद्यापि वा निशि ॥४२। इस व्रतमें (रात्रिभोजनत्याग व्रतमें) रात्रिमे केवल अन्नादिक स्थूल भोजनोंका त्याग है, इसमें जल तथा आदि शब्दसे औषधिका त्याग नहीं है।४२॥ ३. छठी प्रतिमाका रात्रि भोजन त्याग निरपवाद है ला. सं./२/४३ तत्र ताम्बलतोयादि निषिद्ध' यावदजसा। प्राणान्तेऽपि न भोक्तव्यमौषधादि मनीषिणा ।४३ =उस छठी प्रतिमामे पानी, पान, सुपारी, इलायची, औषध आदि समस्त पदार्थों का सर्वथा त्याग बतलाया है, इसलिए छठी प्रतिमाधारी बुद्धिमान् मनुष्यको औषधि व जल आदि पदार्थ प्राणान्तके समय भी रात्रिमें नही रवाने चाहिए।४३३ ( सा. ध./२/७६)। दे० रात्रिभोजन/३/१ (छठी प्रतिमाधारी रात्रिमें चारों प्रकारके आहारका त्याग करता है।)
४. छठी प्रतिमासे पूर्व रात्रि भोजनका निषेध क्यों ला. स./२/३६-४१ ननु रात्रि भुक्तित्यागो नात्रोद्देश्यस्त्वया क्वचित् । षष्ठसव्यक-विख्यातप्रतिमामामास्ते यत ।३९। सत्यं सर्वात्मना तत्र निशाभोजनवर्जनम् । हेतो किस्वत्र दिग्मात्र सिद्ध स्वानुभवागमात् ।४०। अस्ति कश्चि द्विशेषोऽत्र स्वल्पाभासोर्थतो महान् । सातिचारोऽत्र दिग्मात्रे तत्रातिचारवर्जिता ।४१॥ -प्रश्न आपको यहाँ पर श्रावकोके मूलगुणोके वर्णनमे रात्रिभोजनके त्यागका उपदेश नहीं देना चाहिए, क्योकि रात्रिभोजन त्याग नामकी छठी प्रतिमा पृथक् रूपसे स्वीकार की गयी है।३१। उत्तर-यह बात ठीक है किन्तु उसके साथ इतना और समझ लेना चाहिए कि छठी प्रतिमामें तो रात्रि भोजनका त्याग पूर्णरूपसे है और यहाँ पर मूल गुणोके वर्णनमे अपूर्ण रूपसे है। मूल गुणोंमे रात्रि भोजनका त्याग करना अनुभव तथा आगम दोनोसे सिद्ध है।४०। यहाँ पर इस रात्रिभोजन त्यागमें कुछ विशेषता है, यद्यपि वह थोडी प्रतीत होती है, परन्तु वह है महान् । वह यह है कि यहाँ तो वह व्रत अतिचार सहित है, और छठो प्रतिमामें अतिचार रहित है ।४१। रात्रियोग विधि-दे० कृतिकर्म/४ । खध-स. सा | मू व आ /३०४ ससिद्धिराधसिद्ध साधियमारा. धियं च एय?'। ।३०४॥ पाद्रव्यपरिहारेण शुद्धस्यात्मन' सिद्धि' साधनं वा राध । संसिद्धि, राध (आराधना, प्रसन्नता, पूर्णता), सिद्ध, साधित और आराधित ये एकार्थवाची शब्द है।३०४। पर द्रव्यके परिहारसे शुद्ध आत्माकी सिद्धि अथवा साधन सो राध है। राम-म.प्र /सर्ग/श्लोक न.राजा दशरथ के पुत्र थे (२५/२२) स्वयंबरमें सीतासे विवाह किया (२८/२४५) माता केकयी द्वारा बनवास दिया गया (३१/१६१) बनवास कालमे सीताहरण होनेपर रावणसे युद्ध कर रावणको मारकर सीताको प्राप्त किया (७६/७३) परन्तु लौटनेपर लोकापवादसे सीताका परित्याग किया (१७.१०८) अन्तमे भाई लक्ष्मणकी मृत्युसे पीडित हो दीक्षा ग्रहण कर (११९/२४-२७) मोक्ष प्राप्त की (१२२/६७) इनका अपरनाम 'पद्म' था। ये प्ये बलदेव थे। (विशेष दे० शलाका पुरुष/३) । रामकथा-आचार्य कीर्तिधर (ई० ६०० ) द्वारा विरचित जेन रामायण है। इसके आधारपर रविषेणाचार्य ने प्रसिद्ध पद्मपुराण तथा स्वयंभू कविने पउमचरिउ लिखे है। रामागार-मेघदत की अपेक्षा अमरकंटक पर्वत और नेमिचरितकी
अपेक्षा गिरिनार पर्वत (नेमिचरित/प्र.)। रामचंद-१ नन्दिसंघके देशीयगण में गण्ड विमुक्त देवाम्नाय के देवकीति के शिष्य रामचन्द्र विद्य' समय-ई ११५८११८२। (दे इतिहास/७/१) । २. नन्दि सघ देशीय गण में केशवनन्दि के दीक्षा शिष्य और पदमनन्दि के शिक्षा शिष्य रामचन्द्र मुमुक्षु । कृतियें-पुण्यासव कथाकोष, शान्तिनाथ चरित्र । समय
ई. श १३ का मध्य । (ती./४/६६)। रामदत्ता-म.पु/१६ श्लोक पोदनपुरके राजा पूर्ण चन्दकी पुत्री थी (२१०) पति सिहसेनकी मृत्युसे व्याकुलित हो दीक्षा ग्रहण कर ली (२०२) अन्तसे मरकर महाशुक्र स्वर्ग में देव हुई (२२५-२२६) यह मेगणधरका पूर्व का नवॉ भव है-दे० मेरु । रामनंदि-माघनन्दिसघकी गूर्वावलि के अनुसार श्री नन्दिसघ
का अपरनाम था-दे० श्रीनन्दि । रामपुत्र-भगवान् वीरके तीर्थ में अन्तकृत केवली हुए है-दे० अन्तकृत।
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रामल्य
४०४
रुचिर
रामल्य-दे० स्थूलभद्र।
१३ को पारणा, १४ को उपवास, १५ को पारणा करे। इसे ८ वर्ष
पर्यन्त करे तथा नमस्कार मन्त्रकी त्रिकाल जाप्य करे। (वतविधान रामानुज वेदांत-अपरनाम विशिष्टाद्वैत-दे. वेदांत/४ ।
स./पु. १४)। रामसेन-१. इन्होंने मथुरा नगरमें माथुरसघ चलाया।वीरसेन के
रुक्मपात्रांकित तीर्थमंडलयंत्र-दे० यन्त्र । शिष्य । समय-वि, ८८०-६२८ (ई. ८२३-८६३) । (दे. इतिहास/ रुक्मपात्रांकित वरुणमंडल यंत्र-दे० यन्त्र । ७/११) । २. सेन सघी आचार्य । गुरु-नागसेन (ई. १०४७)। शिक्षा
रुक्मपात्रांकित व्रजमंडलयंत्र-यन्त्र। गुरु-बीरचन्द, शुभदेव, महेन्द्रदेव, विजयदेव, रामसैन । कृतितत्वानुशासन । समय-ई. श. ११ का उत्तरार्ध । (ती/३/२३२-२३८) रुक्मि -१. रा. वा./३/११/४/१८३/२८ रुक्मसद्भावाद्गुरुमीत्यभिधा३. काष्ठासंघ के अनुसार क्षेमकीर्ति के शिष्य, रत्नकीर्ति के गुरु । नम् । = (रम्यक क्षेत्रके उत्तर में स्थित पूर्वापर लम्बायमान वर्षधर समय-वि १४३१ (ई. १३७४) । (दे. इतिहास/७/)।
पर्वत है) क्योकि इसमें चॉदी पायी जाती है इसलिए इसका रुक्मि रायचद-गुजरात देशमें राज्यान्तरगत ववणिया गॉवमें खजी भाई
नाम रूढ है। २ रुक्मिपर्वत के विस्तारादिके लिए-दे० लोक/६/४। पंचाणभाई मेहताके पुत्र थे। माताका नाम देवाबाई था। कार्तिक
३. रुक्मि पर्वतस्थ एक कूट-दे० लोक ५/४,४. रुक्मि पर्वतस्थ रुक्मि शु. १५ वि. सं. १९२४ (ई. १८६७) में आपका जन्म हुआ। आपको
कूटका स्वामी-दे० लोक/५/४५. कुण्डिनपुरके राजा भीष्मका पुत्र जाति स्मरण था, तथा आप शतावधानी थे। केवल ३४ वर्षकी आयु
था। बहन रुक्मिणोके कृष्ण द्वारा हर लिये जानेपर कृष्ण से युद्ध में चैत्र कृ. वि. स. १९५७ को आपका स्वर्गवास हो गया । समय
किया, जिसमें बन्दी बना लिया गया (ह पु./४२/६५) १६०० (का अ./प्र.१/गुणभद्र जैन)।
रुक्मिणों-ह पु/सर्ग/श्लोक नं. भीष्म राजाकी पुत्री थी। रायधू-दे० रइधू।
(४२/३५) कृष्ण द्वारा हरकर विवाह ली गयी (४२/३४) जन्मते ही
इसका प्रद्य म्न नामका पुत्र हर लिया गया थ (४३/४२)। अन्त में रायमल-१. मुनि अनन्तकीर्तिके शिष्य थे। हनुमन्तचरित व
दीक्षा धारण कर ली (६१/४०) । भविष्यदत्तचरित्रकी रचना की थी। समय-वि. १६१६-१६६३ (हिं. जै. सा.ई/८४ कामता)। २. सकलचन्द्र भट्टारकके शिष्य थे। रुचक-सौधर्म स्वर्गका १५ वॉ पटल व इन्द्रक -दे० स्वर्ग/५/३ । हुमड जातिके थे। वि. १६६७ में भक्तामर कथा लिखी। (हि जै.
रुचक कांता-रुचक पर्वत निवासिनी दिक्कुमारी देवी-दे० सा. इ/१० कामता)। ३ एक अत्यन्त विरक्त श्रावक थे। २२ वर्षकी
लोक/१३ । अवस्थामें अनेक उत्कट त्याग कर दिये थे। आप पं टोडरमलजीके अन्तेवासी थे। आपकी प्रेरणासे ही प, टोडरमलजीने गोम्मट्टसारकी रुचककोतिरुचक पर्वत निवासिनी दिक्कुमारी देवी-दे० टीका लिखी थी। फिर आपने प. टोडरमलजीका जीवनचरित लोक/५/१३ । लिखा । समय–वि. १८११-१८३८ (मो. मा. प्र./प्र./१२/परमानन्दशा)
रुचक गिरि-पुष्कर द्वीपवत् इसके मध्य भागमें भी एक कुण्डलारावण-प.प्र./सर्ग/श्लोक नं. रत्नश्रवाका पुत्र था (७/२०१) अपर
कार पर्वत है। इस पर्वतपर चार या आठ चैत्यालय है । १३ द्वीप नाम दशानन था। लकाका राजा था (६/४६) सीताका हरण करने
चैत्यालयोमे इनकी गणना है। इसपर अनेको कूट है, जिनपर कुमारी पर रामसे युद्ध किया। लक्ष्मण द्वारा मारा गया (७६/३४ ) यह प्वाँ
देवियाँ निवास करती है जो कि भगवान के गर्भावतरण के लिए प्रतिनारायण था-(विशेष दे० शलाका पुरुष/५)।
उनकी माताकी सेवा करती है-दे० लोक/४/७ । राशि-Aggregate (ध/प्र.२८) any number or num
रुचक प्रभा-रुचक पर्वत निवासिनी दिक्कुमारी देवी-दे० bers arranged in a difinite order as ११,१५.१६,५६,६५,७०.
लोक/२/१३ । राष्ट्रकूट वंश-दे० इतिहास/३/४ ।
रुचक वर-मध्य लोकका तेरहवाँ द्वीप व सागर-दे० लोक/५/१। रासभ-मालवा (मगध) देशके राज्यवंशमें (ह पु/६०/४६०) मे गन्धर्व या गर्दभिन्लके स्थानपर रासभ नाम दिया गया है। अत. रुचकारुचक पर्वत निवासिनीदिवकुमारी महत्तरिका-दे० लोक ५/१३। गर्दभिल्लका ही दूसरा नाम रासभ था-दे० गर्द भिषल; इतिहास/३/३।
रुचकाभा-रुचक पर्वत निवासिनी दिक्कुमारी महत्तरि का रिक्कु-क्षेत्रका प्रमाण विशेष । अपर नाम किष्कु या गज -दे०
___-दे० लोक/५/१३ । गणित/I/१।
रुचको-रुचक पर्वत निवासिनी दिक्कुमारी देवी-दे० लोक/५/१३ । रिट्रनेमिचरिउ-कवि स्वयंभू ( ई०७३४-८४०) कृत, नेमिनाथ । रुचि-दे० निशंकित/१ (वस्तुका स्वरूप ऐसा ही है इस प्रकार
का जीवन वृत्त । ११२ सन्धियों में विभक्त १८००० श्लोक प्रमाण ___ अकप रुचि होना निशकित अग है।) अपभ्रंश काव्य । (ती/४/१०१)।
ध १/१,११/१६६/७ दृष्टि श्रद्धा रुचि प्रत्यय इति यावत् । - दृष्टि, रिण-Minus (ज. प /प्र./१०८)।-दे० गणित/11/१/४।
श्रद्धा, रुचि और प्रत्यय ये पर्यायवाची है। रिणराशि-मुल राशिमेसे जिस राशिको घटाया जाता है।
द्र, स /टी/०१/१६५/१ श्रद्वानं रुचिनिश्चय इदमेवेत्थमेवेति । =श्रद्धान,
रुचि, निश्चय अथवा जो जिनेन्द्र ने कहा वही है । -दे० गणित/II/९/४ ।
पं.ध./उ/४१२ सात्म्यं रुचि । - तत्त्वार्थोके विषयमें तन्मयपना रिष्टक संभवा-आकासोपपन्नदेव-दे० देव/II/३।
रुचि कहलाती है। रुक्मणिव्रत-प्रतिवर्ष भाद्रपद शु ७ को एकाशन ८ को उपवास,
रुचिर-१ रुचक पर्वतस्थ एक कूट-दे० लोक/१३:२. सौधर्म को पारणा, १० को उपवास, ११ को पारणा, १२ को उपवास, स्वर्ग का १६ वाँ पटल व इन्द्रक-दे० स्वर्ग/५/३ ।
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रुपस्थ
परमार्थी, मगलगीत प्रबन्ध । समय-वि. १६६३ में आगरा आये । (ती./४/२५५) १२ प बनारसी दासजो कृत समयसार नाटकके विशद टोकाकार थे। समय-वि १७४८ (हि. जै. सा, ई/१८० कामता)। रूपनिभ-एक ग्रह-दे० ग्रह । रूपपाली-किन्नर नामा व्यन्तर देवका एक भेद-दे० किन्नर । रूपयमाष फल-तोलका प्रमाण विशेष-दे० गणित/I/१। रूपरेखा-General outline. (ध //प्र/२८)। रूपसत्य-दे० सत्य/१० रूपस्थ
१. रूपस्थ ध्यानका लक्षण व विधि
रुजा-नि.सा/ता वृ/६ वातपित्तश्लेष्मणां वैषम्यसंजातकलेवरविपीड व रुजा। बात, पित्त और कफ की विषमतासे उत्पन्न होनेवाली कलेवर (शरीर) सम्बन्धी पीडा वही रोग (रुजा) है। रुद्र-१, एक ग्रह-दे० ग्रह । २. असुरकुमार (भवनवासी देव)-दे०
असुर । ३ ग्यारह रुद्र परिचय-देशलाका पुरुष/७ । ति.4/४/५२१ रुद्दा रउद्दकम्मा अहम्मवाधारसंलग्गा। -(जो)
अधर्मपूर्ण व्यापारमे संलग्न होकर रौद्रकर्म किया करते है (वे रुद्र कहलाते है)। रा वा /६/२८/२/६२७/२८ रोदयतीति रुद्र क्रूर इत्यर्थ । रुलाने
वालेको रुद्र-क्रूर कहते है। प.प्र./टो./१/४२ पश्चात पूर्वकृत चारित्रमोहोदयेन विषयासक्तो भूत्वा
रुद्रो भवति। = उसके बाद (जिनदीक्षा लेकर पुण्यबध करनेके बाद ) पूर्वकृत चारित्र मोहके उदयसे विषयो में लीन हुआ रुद्र कह
लाता है। त्रि सा./८४१ विज्जाणुवादपढणे दिठ्ठफला णसंजमा भया । कदिचि भवे सिझति हु गहिदुझियसम्ममहिमादो ८४११= ये रुद्र विद्यानुवाद पूर्व के पढनेसे इस लोक सम्बन्धी फल के भोक्ता हुए। तथा जिनका सयम नष्ट हो गया है, जो भव्य है, और जो ग्रहण कर छोडे हुए सम्यक्त्व के माहात्म्यसे कुछ ही भवो में मुक्ति पायेगे ऐसे वे रुद्र होते है। रुद्रदत्त-भगवान् ऋषभदेवके तीर्थ मे एक ब्राह्मण था। पूजाके लिए प्राप्त किये द्रव्यसे जुआ खेलनेके फलस्वरूप सातवें नरकमें गया (ह. पु./१८/६७-१०१)। रुद्रवसंत व्रत-क्रमश २,३,४,५,६,६,
०००
०००० ४,३,२ इस प्रकार ३५ उपवास करे ।
००००० बीचके (.) वाले स्थानोमें सर्वत्र एक ००००००
०००००० पारणा। नमस्कार मन्त्रकी त्रिकाल जाप
०००० करे। (बत विधान स/पृ.६७)।
०००
रुद्राश्व-विजयाध की उत्तर श्रेणीका एक नगर-दे० विद्याधर। रुधिर-१. औदारिक शरीरमे रुधिरका प्रमाण-दे० औदारिक १/७।
२. सौधर्म स्वर्गका दसवॉ पटल व इन्द्रक-दे० स्वर्ग/५/३ । रूढसंख्या -Prime (ध ५/प्र./२८)। रूप
रा. वा./१/२०/१/८/४ अय रूपशब्दोऽनेकार्थ. क्वचिच्चाक्षुषे वर्तते यथा-रूपरसगन्धस्पर्शा इति। क्वचित्स्वभावे वर्तते यथा अनन्तरूपमनन्तस्वभावम् इति । -रूप शब्दके अनेक अर्थ है कहीपर चक्षुके द्वारा ग्राह्य शुक्लादि गुण भी है, जैसे-रूप, रस, गन्ध, स्पर्श । कहीपर रूपका अर्थ स्वभाव भी है जेसे-अनन्तरूप अर्थात अनन्त स्वभाव । (और भो-दे० मूर्त/१) [ एककी संख्याको रूप कहते
वसु. श्रा /४७२-४७५ आयास-फलिहसं णिह-तणुप्पहासलिल णिहिणि
व्वुडत । णर-सुरतिरोडमणिकिरणसमूहर जियपयंबुरुहो ।४७२। वर अठ्ठपाडिहेरेहि परिउठो समवसरणमझगओ। परमपर्णतचउछयण्णिओ पवणमग्गट्ठो ।४७३। एरिसओच्चिय परिवारवज्जिओ खीरजल हिमज्झे वा। वरखीरवण्णकंदुत्थकण्णियामज्झदेसट्ठो।४७४। स्वीरुवाहसलिलधाराहिसेयधवलोकयंग सव्वगो। ज झाइज्जइ एवं रूवत्थं जाण तं झाण ।४७५१. आकाश और स्फटिक मणिके समान स्वच्छ एवं निर्मल अपने शरीर की प्रभारूपी सलिल-निधिमें निमग्न, मनुष्यो और देवोके मुकुटो में लगी हुई मणियों की किरणों के समूहसे अनुर जित है, चरणकमल जिनके, ऐसे तथा श्रेष्ठ आठ महा प्रातिहार्योसे परिवृत्त, समवशरणके मध्य में स्थित, परम अनन्त चतुष्टयसे समन्वित, पवन मार्गस्थ अर्थात् आकाशमें स्थित अरहन्त भगवान्का जो ध्यान किया जाता है, वह रूपस्थ ध्यान है ।४७१४७२६ ( ज्ञा/३/१-८), (गुण. श्रा./२४०-२४१) । २. अथवा ऐसे ही अर्थात् उपर्युक्त सर्व शोभासे समन्वित किन्तु समवशरण आदि परिवारसे रहित, और क्षीर सागरके मध्य में स्थित, अथवा उत्तम क्षीरसागरके समान धवल वर्ण के कमलकी कणिकाके मध्य देशमें स्थित, क्षीर सागरके जलकी धाराओके अभिषेकसे धवल हो रहा है सर्वाग जिनका, ऐसे अरहन्त परमेष्ठी का जो ध्यान किया जाता है, उसे रूपस्थ ध्यान जानना चाहिए ।४७२-४७४। ( गुण. श्रा/२४२)। ज्ञा./३६/१४ ३६, अनेकवस्तुसम्पूर्ण जगद्यस्य चराचरम् । स्फुरत्यविकलं बोधविशुद्धादर्शमण्डले ।१४। दिव्यपुष्पानकाशोकराजित रागवर्जितम् । प्रातिहार्य महालक्ष्मीलक्षित परमेश्वरम् ।२३। नवकेवललब्धिश्रीसभवं स्वात्मसभवम् । तूर्यध्यानमहावह्नौ हुतकर्मेन्धनोत्करम् ।२४। सर्वज्ञ सर्वई सार्व वर्धमान निरामयम् । नित्यमव्ययमव्यक्तं परिपूर्ण पुरातनम् ।३०। इत्यादि सान्वयानेकपुण्यनामोपलक्षितम् । स्मर सर्वगत देव वीरममरनायकम् ।३१। अनन्यशरण साक्षात्सत्सलीने कमानस' । तत्स्वरूपमवाप्नोति ध्यानी तन्मयता गत ।३२॥ तस्मिनिरन्तराभ्यास वशात्संजातनिश्चला । सर्वावस्थासु पश्यन्ति तमेव परमेष्ठिनम् ।३६। -१ हे मुने । तू आगे लिखे हुए प्रकारसे सर्वज्ञ देवका स्मरण कर - कि जिस सर्वज्ञ देवके ज्ञान रूप निर्मल दर्पणके मण्डल में अनेक वस्तुओसे भरा हुआ चराचर यह जगत् प्रकाशमान है ।१४। 'दिव्य पुष्पवृष्टि दुन्दुभि बाजो तथा अशोक वृक्षो सहित विराजमान है, राग रहित है, प्रातिहार्य महालक्ष्मीसे चिह्नित है, परम ऐश्वर्य करके सहित है ।२३। अनन्तज्ञान, दर्शन, दान, लाभ, भोग, उपभोग, वीर्य, क्षायिक सम्वत्व और चारित्र इन नवल ब्धिरूपी लक्ष्मीकी जिससे उत्पत्ति है, तथा अपने आत्मासे हो उत्पन्न है, और शुक्लध्यानरूपी महान् अग्निमें होम दिया है र्मरूप इन्धनका समूह ऐसा है ।२।। सर्वज्ञ है, सबका दाता है, सर्व हितैषी है, वर्द्धमान है, निरामय है,
प्र. सा./ता वृ/२०३/२७६/८ अन्तरङ्गशुद्धारमानुभूतिरूपक निर्ग्रन्थनिर्षिकार रूपमुच्यते। अन्तरंग शुद्धात्मानुभूतिकी द्योतक निग्रन्थ एवं निर्विकार साधुओकी वीतराग मुद्राको रूप कहते है।
रूपगला चूलिका-द्वादशाग श्रुतज्ञानमे बारहवे अंगके उत्तर
भेदोमेसे एक ।-दे० श्रुतज्ञान/IIII रूपचंद पांडेय-2, कवि बनारसी दासके गुरु थे। अध्ययन के लिए सलेमपुर से बनारस आये थे। कृति-परमार्थ दोहा शतक, गीत
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रूपातीत
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रोग परीषह
मुनि साक्षाद्यथान्यत्व न बुध्यते ।३०१ - जब परमात्माका प्रत्यक्ष होने लगता है तब ऐसा ध्यान कर कि ऐसा परमात्मा मै हूँ. मै ही सर्वज्ञ हूँ, सर्व व्यापक हूँ, सिद्ध हूँ, तथा मै ही साध्य था। संसारसे रहित, परमात्मा, परमज्योति स्वरूप, समस्त विश्वको देखनेवाला मै ही हूँ। मै ही निरंजन हूँ ऐमा परमात्माका ध्यान करै । उस समय अपना स्वरूप निश्चल, अमूर्त, निष्कल क, जगत्का गुरु, चैतन्यमात्र और ध्यान तथा ध्याताके भेद रहित ऐसा अतिशय स्फुरायमान होता है ।२८-२६। उस समय परमात्मामे पृथक् भाव अर्थात् अलगपनेका उल्लघन करके साक्षात् एकताको इस तरह प्राप्त हो जाता है कि, जिससे पृथक पनेका बिलकुल भान नहीं होता।३०।
नित्य है, अव्यय है, अव्यक्त है, परिपूर्ण है, पुरातन है।३०। इत्यादिक अनेक सार्थक नामसहित, सर्वगत, देवोका नायक, सर्वज्ञ जो श्री वीर तीर्थंकर है उसको हे मुने। तू स्मरण कर ३१॥ २ उपयुक्त सर्वज्ञ देवका ध्यान करनेवाला ध्यानी अनन्य शरण हो. साक्षात उसमे ही संख्लीन है मन जिसका ऐसा हो, तन्मयताको पाकर, उसी स्वरूपको प्राप्त होता है ।३२। उस सर्वज्ञ देवके ध्यानमे अभ्यास करनेके प्रभावसे निश्चल हुए योगीगण सर्व अवस्थाओमे उस परमेष्ठीको
देखते है। द्र.स /टी/४८/२०५ पर 'उद्धृत रूपस्थ चिद्रूपं = सर्व चिद्रूपका चिन्तवन रूपस्थध्यान है। (प प्र/टो /१/६/६ पर उद्धृत), ( भा. पा/टी /०६/२६६ पर उद्धृत)। * अहंत चितवन पदस्थादि तीनों ध्यानोमें समान है
-दे० ध्येय। २. रूपस्थध्यानका फल ज्ञा /३६/३३-३८ यमाराध्यशिव प्राप्ता योगिनो जन्मनिस्पृहा । यं स्मरन्त्य निश भव्याः शिवश्रीसगमोसुका' ।३३। तदालम्ब्य पर ज्योतिस्तद्गुणग्रामरब्जित । अविक्षिप्तमनायोगी तत्स्वरूपमुपाश्नुते ।३७१ = जिस सर्वज्ञ देवको आराधन करके ससारसे निस्पृह मुनिगण मोक्षको प्राप्त हुए है तथा मोक्ष लक्ष्मी के संगममें उत्सुक भव्यजीव जिसका निरन्तर ध्यान करते है ।३३। योगी उस सर्वज्ञदेव परमज्योतिको आलम्बन करके गुण ग्रामोमें रजायमान होता हुआ मनमें विक्षेप रहित होकर, उसो स्वरूपको प्राप्त होता है ।३७। रूपातीत
१.रूपातीत ध्यानका लक्षण व विधि वसु. श्रा/४७६ वण्ण-रस-गध-फासे हि वज्जिओ णाण-दसणसरूवो। ज
झाइज्जइ एवं तं झाणं रूवरहियं ति।४७६। = वर्ण, रस, गन्ध और स्पर्शसे रहित, केवल ज्ञान-दर्शन स्वरूप जो सिद्ध परमेष्ठीका या शुद्ध आत्माका ध्यान किया जाता है, वह रूपातीत ध्यान है ।४७६। ( गुण. श्रा/२४३), (द्र.सं/टी/५१ की पातनिका/२१६/१)। ज्ञा./४०/१५-२६ अथरूपे स्थिरीभूतचित्त प्रक्षीणविभ्रमः । अमूर्तमज-
मव्यक्तं ध्यातुं प्रक्रमते तत ११५॥ चिदानन्दमयं शुद्धममूत्तं परमाक्ष रम् । स्मरेद्यत्रात्मनात्मानं तद्रूपातीतमिष्यते ।१६। सर्वाक्यवसम्पूर्ण सर्वलक्षणलक्षितम् । विशुद्धादर्शसंक्रान्तप्रतिबिम्बसमप्रभम् ।२६१
- रूपस्थध्यानमें स्थिरीभूत है चित्त जिसका तथा नष्ट हो गये है विभ्रम जिसके ऐसा ध्यानी अमूर्त, अजन्मा, इन्द्रियोसे अगोचर, ऐसे परमात्मके ध्यानका प्रारम्भ करता है ।१५। जिस ध्यानमें ध्यानी मुनि चिदानन्दमय, शुद्ध, अमूर्त, परमाक्षररूप, आत्माको आत्मा करि हो स्मरणरै सो रूपातीत ध्यान माना गया है ।१६। समस्त अवयवोसे परिपूर्ण और समस्त लक्षणोसे लक्षित ऐसे निर्मल दर्पणमें पडते हुए प्रतिबिम्बके समान प्रभावाले परमात्माका चिन्तवन
करै ।२६। द्र, सं/टी/४८/२०५ पर उद्धृत 'रूपातोत निरञ्जनम्'। -निर जनका
ध्यान रूपातीत ध्यान है। (प,प्र/१/६/६ पर उद्धृत), (भा.पा./टी। ८६/२३६ पर उद्धृत)।
* शुक्लध्यान व रूपातीतध्यानमें एकता
-दे० पद्धति। * शून्यध्यानका स्वरूप-दे० शुक्लध्यान/१ । रूपानुपात-स. सि./७/३१/३६६/११ स्वविग्रहदर्शनं रूपानुपातः । -- (देशवतके अतिचारों के अन्तर्गत) उन्हीं पुरुषोंको (जो उद्योगमै
जुटे है) अपने शरीरको दिखलाना रूपानुपात है। रावा,/७/३१/४/५५६/८ मम रूपं निरीक्ष्य व्यापारमचिरान्निष्पादयन्ति इति स्व विग्रहप्ररूपणं रूपानुपात इति निीयते ।- 'मुझे देखकर काम जल्दी होगा' इस अभिप्रायसे अपने शरीरको दिखाना रूपानुपात है। (चा, सा./१६/२) । रूपी-दे० मूर्त। रूप्य कूला-१. हैरण्यवर्त क्षेत्रको नदी व कुण्ड–दे लोक/२/६,१०।
२.रुक्मि पर्वस्थ एक कूट व उसका स्वामीदेव-दे० लोक/५/४/ रूप्यवर-मध्यलोकके अन्तका दशम सागर व द्वीप-दे० लोक/५/९ । रेखा-सरल रेखा Straight line (ज. प./प्र. १०८) । रेचक प्राणायाम-दे० प्राणायाम/२। रेवती-१. एक नक्षत्र-दे० नक्षत्र । २. श्रावस्ती नगरीकी सम्यक्त्व
से विभूषित एक श्राविका थी। मथुरास्थ मुनिगुप्तने एक विद्याधरके द्वारा इसके लिए आशीष भेजी। तब उस विद्याधरने ब्रह्मा व तीर्थंकर आदिका ढोग रचकर इसकी परीक्षा ली। जिसमें यह अडिग रही थी। (वृ. क. को./कथा ७)। रेवस्या-पूर्वी मध्य आर्यखण्डस्थ एक नदी-दे० मनुष्य/४ । रेवा-भरत क्षेत्रस्थ आर्यखण्डकी एक नदी-दे० मनुष्य/४ । रेशम-दे० वस्त्र। रैनमंजूसा-हंसद्वीपके राजा कनककेतुकी पुत्री थी । सहस्रकूट
चैत्यालयके कपाट उघाडनेसे श्रीपालसे विवाही गयी थी। फिर धवलसेठके इसपर मोहित होनेपर धर्म में स्थित रही। अन्तमे दीक्षा
ले, तपकर स्वर्ग सिधारी । ( श्रीपालचरित्र )। रवतक-सौराष्ट्र देशमें जूनागढ़ राज्यका गिरनार पर्वत ।
(म. पु/प्र. ४६/पं. पन्नालाल)। रोग-कुष्ठादि विशेष प्रकारके रोग हो जानेपर जिन दीक्षाकी
योग्यता नहीं रहती है।-दे० प्रवज्या/१॥ रोग परीषह-स.सि 8/1/४२५/8 सर्वाशुचिनिधानमिदमनित्यमपरित्राणमिति शरीरे नि शङ्कल्पत्वाद्विगतसस्कारस्य गुणरत्नभाण्डसंचयप्रवर्धनसरक्षणसधारणकारणत्वादभ्युपगतस्थिति-विधानस्याक्ष - म्रक्षणवद व्रणानुलेपनवद्वा बहूपकारमाहारमभ्युपगच्छतो विरुद्धाहारपानसेवनवैषम्यजनितवातादिविकाररोगस्य युगपदनेक शतसंख्य
२ ध्येयके साथ लन्मयता ज्ञा /४०/२८-३० सोऽहं सकल वित्सावं. सिद्धः साध्यो भवच्युत । परमात्मा पर ज्योतिर्विश्वदर्शी निरज्जन ।२८१ तदासौ निश्चलोऽमूर्तो निष्कल ड्को जगद्गुरु । चिन्मात्रो विस्फुरत्युच्चैानध्यातविवजित २६॥ पृथग्भावमतिक्रम्य तथै क्यं परमात्मनि । प्राप्नोति स
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रोचक शैल
पात्रको सत्यपि तद्वशवर्तितां वजहतो जल्लोषधिप्राप्याद्य तपोविशेषयोगे सत्यपि शरीरनिस्पृहत्यात तिकारानपेक्षिण रोगपरिहसनमवगन्तव्य यह सब प्रकारके अशुचि पायका आभ्य है, यह अनित्य है, और परित्राण से रहित है. इस प्रकार इस शरीर में सकल्प रहित होनेसे जो विगत संस्कार है, गुणरूपी रत्नोंके संचय, वर्धन, संरक्षण और सधारणका कारण होनेसे जिसने शरीरकी स्थिति विधानको भले प्रकार स्वीकार किया है, धुरको ओगन लगाने के समान या वणपर लेप करनेके समान जो उपकारवाले बहुत आहारको स्वीकार करता है, विरुद्ध आहार- पानके सेवनरूप विषमता से जिसके वातादि विकार रोग उत्पन्न हुए है, एक साथ सैकडो व्याधियोंका प्रकोप होनेपर भी जो उनके आधीन नहीं हुआ है तथा तपोविशेषसे जल्लोषधि और प्राप्ति आदि अनेक ऋद्धियोका सम्बन्ध होनेपर भी शरीरसे निस्पृह होनेके कारण जो उनके प्रतिकारकी अपेक्षा नहीं करता उसके रोगपरीषह सहन जानना चाहिए। (रा. वा./६/६/२१/६११/२४), (चा, सा / १२४ / ३)
-६० लोक/२/२८
रोचक शैल - भद्रशाल बनस्थ एक दिग्गजेन्द्र पर्वत । रोट तीज व्रत - त्रिलोक तीजवत् । रोम - औदारिक शरीर में रोमोंका प्रमाण- दे० औदारिक / १ । रोमश - एक क्रियावादी- दे० क्रियावाद । रोमहर्षणी - एक विनयवादी - दे० वैनयिक |
४०७
रोषन साता ६ क्रोधिनस्य (सस्टीमपरिणामोशेष | क्रोधी पुरुषका तीन परिणाम वह रोष है। रोहिणी - १. भगवाद अजितनाथकी शासक पक्षिणी-दे० यह २. एक विद्या- दे० विद्या । ३. एक नक्षत्र - दे० नक्षत्र । रोहिणी व्रत - प्रतिवर्ष रोहिणी नक्षत्रके दिन उपवास करे । तथा उस दिन वासुपूज्य भगवान् की पूजन तथा नमस्कार मन्त्रका त्रिकाल जाप्य करे । इसका अपरनाम अशोक रोहिणी है । (बसु, श्रा / ३६३२६५), (धर्मपरीक्षा / २० / ११-२०) (म विधान से / १२) ।
रोहित-१ हैमवत क्षेत्रकी प्रधान मी० लोक /२/११ २. हेमन्त क्षेत्र में स्थित एक कुण्ड जिससे कि रोहित नदी ३-३० लोक /३/१०, ३. महाहिमबाद पतस्थ एक फूट-दे० लोक ७ । ४. रोहित कुण्डकी स्वामिनी देवी-दे० लोक१/४११. रोहि फुटकी स्वामिनी देवी-दे० लोक/२/४।
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रोहितास्या - १. हैमवत क्षेत्रकी प्रधाननदी -- दे०लोक/३/११ हैमवत क्षेत्र में स्थित एक कुण्ड जिसमे रोहितास्या नही निकलती हैदे० लोक / २ / १०२. हिमवान् पर्वतस्य एक कूट-३० लोक /५/४१ ३. रोहितास्या कूटकी स्वामिनी देवी-दे० लोक /५/४ ।
रौद्रध्यान - हिंसा आदि पर कार्य करके गर्वपूर्वक ढोगे मारते रहने का भाव रौद्रध्यान कहलाता है। यह अत्यन्त अनिष्टकारी है । दीनाधिक रूप से पंचम गुणस्थान तक ही होना सम्भव है, आगे नहीं।
१. रौद्र सामान्य का लक्षण
भ.आ./ / १००३/१५२८ मिससारवणे तह चेन अबिहार मे । रु कंसासहिय काणं भणियं समासे । १७०३० - दूसरेके द्रव्य लेनेका अभिप्राय, झूठ बोलने में आनन्द मानना, दूसरेके मारनेका अभिप्राय, सहकायके जीवोकी विराधना अथवा असिमस आदि परिग्रहके आरम्भ व संग्रह करनेमें आनन्द मानना इनमें जो कषाय
रौद्रध्यान
सहित मनको करना वह सक्षेप से रौद्रध्यान कहा गया है | १७०३ | (मू आ. / ३६६ ) |
100
स.सि./६/२८/४४५/१० रुद्र क्रूराशयस्तस्य कर्म तत्र भवं वा रौद्रम् । - रुद्रका अर्थ क्रूर आशय है, इसका कर्म या इसमें होनेवाला (भाव) रौद्र है ( रा मा ६/२८/५/६२०/२८) (/२६/२) (भा पाटी/ ७८/२२६/१७) ।
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म. / २९ / ४२ प्रानि रोनासनेषु निमास्त भगं रोड विद्धि ध्यान चतुर्विधम् ॥४२॥ जो पुरुष प्राणियोको जाता है वह रुद्र क्रूर अथवा सब जीवोमे निर्दय कहलाता है ऐसे पुरुषमें जो ध्यान होता है उसे रौद्रध्यान कहते है ।४२। (भ.आ./ वि. / १७०२ / १५३० पर उद्धृत) ।
चा. सा./१००/२ स्वसवेद्यमाध्यामिर्क (ध्यान) जिसे अपना हो आत्मा जान सके उसे आध्यात्मिक ध्यान कहते है।
नि. सा./ता.वृ / वह चौरजारशात्रवजनवधवघनसन्निबद्धमहद द्वेषजनित रौद्रध्यानम् । = चोर-जार शत्रुजनो के बध-बन्धन सम्बन्धी महाद्वेष से उत्पन्न होनेवाला जो रौद्रध्यान ।
२. रौद्रध्यानके भेद
त. सू./१/३५ हिंसानृतस्तेय विषयसरक्षणेभ्यो रोद्रम्... १३५ = हिसा असत्य, चोरी और विषय संरक्षण के लिए सतत चिन्तन करना रौद्रध्यान है । ३५|
म. २२/४० हिम्मानन्दषामन्द स्तेय सरक्षण [त्मक ४३- हिंसानन्द मृषानन्द, स्तेयानन्द और संरक्षणानन्द अर्थात् परिग्रहकी रक्षामें रात-दिन लगा रहकर आनन्द मानना ये रौद्रध्यानके चार भेद है १३५॥ ( चा. सा./१७०/२); ( ज्ञा./२६/३ ); ( का अ. / ४७३-४७४) । चा. सा./१००/१ रोप माध्यामिकभेदेन द्विविधम्-रोध्यान भी बाह्य और आध्यात्मिकके भेदसे दो प्रकारका है
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३. रौद्र ध्यानके भेदोंके लक्षण
पा. सा./१००/२] तीनकषायानुरंजन हिसानन्दं प्रथम स्वबुद्धिविकपितयुक्तिभि परेषा अधेवरूपाभि परयञ्चनं प्रति मृषाकथने संकल्पाध्यवसान गुमानयं द्वितीय हठात्कारेण प्रमादमी
या वा परस्यापहरणं प्रति संकल्पध्यवसानं तृतीय चेतनाचेतन स्वपरिग्रह ममेवेद स्वमहमेवास्य स्वामीत्यभिनिवेशातउपहार व्यापादनेन संरक्षण प्रति सकम्याध्यवसान संरक्षणानन्दं चतुर्थं रौद्रम् । =तीव्रकषायके उदयसे हिंसामे आनन्द मानना पहला रौद्रध्यान है। जिन पर दूसरोको श्रद्धा न हो सके ऐसी अपनी बुद्धिके द्वारा पना की हुई मुक्तियोंके द्वारा दूसरोको ठगनेके लिए झूठ बोलनेके संकल्पका बार-बार चिन्तवन करना गृपानन्द ध्यान है जबरदस्ती अथमा प्रमादकी प्रतीक्षापूर्वक दूसरेके धनको हरण करनेके सकल्पका बार-बार चिन्तवन करना तीसरा रौद्रध्यान है । चेतन-अचेतनरूप अपने परिग्रहमें यह मेरा परिग्रह है, मै इसका स्वामी हूँ, इस प्रकार ममत्व रखकर उसके अपहरण करने वाले का नाश कर उसकी रक्षा करनेके संकल्पका बार-बार चिन्तवन करना विषय सरक्षणानन्द नामका चौथा रौद्रध्यान है ।
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का ४०५४०६ देश जुदो असम-वयमेण परिगयो जो हु तत्येव अरि-चित्तोस काण हवे तस्स ॥ ४०५० पर- दिसय-हरणसीतोसगीय विसए सुरक्खणे दुक्खो । तग्गय- चिताविट्ठो णिर तर तंपि रुद्दपि ।४७६। जो हिसामे आनन्द मानता है, और असत्य बोलने में आनन्द मानता है तथा उसीमे जिसका चित्त विक्षिप्त रहता है. उसके रौद्रयान होता है ४० जो पुरुष विषयसामग्रीको हरनेका स्वभाव वाला है, और अपनी विषय
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रौद्रध्यान
रौद्रध्यान
सामग्रीकी रक्षा करने में चतुर है, तथा निरन्तर जिसका चित्त इन कामो में लगा रहता है वह भी रौद्रध्यानी है। ज्ञा /२६/४-३४ का भावार्थ-हते निष्पीडिते ध्वस्ते जन्तुजाते कदर्थिते । स्वेन चान्येन यो हर्षस्तद्धिसारौद्रमुच्यते।४। असत्यकल्पनाजालकश्मलीकृतमानस' । चेष्टते यजनस्तद्धि मृषारोद्रं प्रकीर्तितम् ।१६। यशौर्याय शरीरिणामहरह श्चिन्ता समुत्पद्यते-कृत्वा चौर्यमपि प्रमोदमतुल कुर्वन्ति यत्संततम् । चौर्येणापि हृते पर. परधने यज्जायते सभ्रम-स्तच्चौर्यप्रभव बदन्ति निपुणा रौद्र सुनिन्दास्पदम् ।२॥ बहारम्भपरिग्रहेषु नियतं रक्षार्थमभ्युद्यते-यत्संकल्प परम्परा वितनुते प्राणीह रौद्राशय । यच्चालम्ब्य महत्त्वमुन्नतमना राजेत्यई मन्यते-तत्तुर्य प्रवदन्ति निमलधियो रौद्र' भवाश सिनाम १२६-१. जीबोके समूहको अपनेसे तथा अन्य के द्वारा मारे जाने पर तथा पीडित किये जाने पर तथा ध्वंस करने पर और घात करने के सम्बन्ध मिलाये जाने पर जो हर्ष माना जाये उसे हिसानन्दनामा रौद्रध्यान कहते है।४। बलि आदि देकर यशलाभका चिन्तवन करना ७ जीवोको खण्ड करने व दग्ध करने आदिको देखकर खुश होना ।। युद्ध में हार-जीत सम्बन्धी भावना करना ।१०। वैरीसे बदला लेनेकी भावना ।११। परलोकमे बदला लेनेकी भावना करना ।१२। हिसानन्दी रौद्रध्यान है। (म.पू./२१/१५)। २. जो मनुष्य असत्य झूठी कल्पनाओके समूहसे पापरूपी भैलसे मलिनचित्त होकर जो कुछ चेष्टा करै उसे निश्चय करके मृषानन्द नामा रौद्रध्यान कहा है।१६। जो ठगाईके शास्त्र रचने आदिके द्वारा दूसरोको आपदामे डालकर धन आदि सचय करे ।१७-१६। असत्य बोलकर अपने शत्रुको दण्ड दिलाये ।२०। वचन चातुर्यसे मनवांछित प्रयोजनोकी सिद्धि तथा अन्य व्यक्तियोको ठगनेकी १२१-२२। भावनाएं बनाय रखना मृषानन्दी रौद्रध्यान है। ३ जीवोके चौर्यकर्म के लिए निरन्तर चिन्ता उत्पन्न हो तथा चोरी कर्म करके भी निरन्तर अतुल हर्ष मानें आनन्दित हो अन्य कोई चोरीके द्वारा परधनको हरै उसमें हर्ष मानै उसे निपुण पुरुष चौर्यकर्मसे उत्पन्न हुआ रौद्रध्यान कहते है, यह ध्यान अतिशय निन्दाका कारण है ।२५॥ अमुक स्थानमे बहुत धन है जिसे मै तुरत हरण करके लाने में समर्थ हूँ।२६। दूसरोके द्वीपादि सबको मेरे ही आधीन समझो, क्योकि मैं जब चाहूँ उनको शरण करके जा सकता हूँ ।२७-२८ इत्यादि रूपचिन्तन चौर्यानन्द रौद्रध्यान है। ४. यह प्राणी रौद्र (क्रूर ) चित्त होकर बहुत आरम्भ परिग्रहोमे रक्षार्थ नियमसे उद्यम रै और उसमें ही सकल्पकी परम्पराको विस्तार तथा रौद्रचित्त होकर ही महत्ताका अवलम्बन करके उन्नतचित्त हो, ऐसा मानै कि मै राजा हूँ, ऐसे परिणामको निर्मल बुद्धिवाले महापुरुष ससारको वाधा करने वाले जीवोके चौथा रौद्रध्यान है ।२६। मै बाहुबलसे सैन्यबलसे सम्पूर्ण पुर ग्रामोको दग्ध करके असाध्य ऐश्वर्यको प्राप्त कर सकता हूँ।३०॥ मेरे धन पर दृष्टि रखने वालोको मै क्षण भरमे दग्ध कर दूंगा'।३१॥ मैने यह राज्य शत्रु के मस्तक पर पॉव रखकर उसके दुर्ग में प्रवेश करके पाया है ।३३। इसके अतिरिक्त जल, अग्नि, सर्प, विषादिके प्रयोगो द्वारा भी मै समस्त शत्रु-समूहको नाश करके अपना प्रताप स्फुरायमान कर सकता हूँ।३४। इस प्रकार चिन्तवन करना विषय संरक्षणानन्द है।
भुवि ॥५२॥ बाह्यन्तु लिङ्गमस्याहु. 5भड्ग मुख विक्रियाम् । प्रस्वेद मङ्गकम्प च नेत्रयोश्चातिताम्रताय ।१३ - क्रूर होना, हिसाके उपकरण तलवार आदिको धारण करना, हिसाकी ही कथा करना,
और स्वभावसे ही हिंसक होना ये हिसानन्द रौद्रध्यानके चिह्न माने गये है।४। कठोर बचन आदि बोलना द्वितीय रौद्रध्यानके चिह्न है ।५०। स्तेयानन्द और संरक्षणानन्द रौद्रध्यान के बाह्यचिह ससारमें प्रसिद्ध है ।२। भौह टेढी हो जाना, मुखका विकृत हो जाना, पसीना आने लगना, शरीर कँपने लगना और नेत्रोंका अतिशय लाल हो जाना आदि रौद्रध्यानके बाह्यचिह्न है ।५३। (ज्ञा./२६/३७-३८)। चा, सा /१७०/१ परानुमेय परुषनिष्ठुराकोशननिर्भर्त्सनबन्धनतर्जनताडनपीडनपरदारातिक्रमणादिलक्षणम् । -कठोर बचन, मर्मभेदी वचन, आक्रोश वचन, तिरस्कार करना, बाँधना, तर्जन करना, ताडन करना तथा परस्त्रीपर अतिक्रमण करना आदि बाह्य रौद्रध्यान कहलाता है। ज्ञा./२६/-१५ अनारतं निष्करुणस्वभाव' स्वभावत क्रोधक्षायदीप्त । मदोद्धत' पापमति. कुशील स्यान्नास्तिको य. स हि रौद्रधामा । अभिलषति नितान्तं यत्परस्यापकार, व्यसनविशिखभिन्नं वीक्ष्य यत्तोषमेति। यदिह गुणगरिष्ठ द्वेष्टि दृष्ट्वान्यभूति, भवति हृदि सशस्यस्तद्धि रौद्रस्य लिङ्गम् ।१३। हिसोपकरणादान क्रूरसत्त्वेष्वनुग्रहम् । निस्त्रिशतादिलिङ्गानि रौद्र बाह्यानि देहिन ।१५। - जो पुरुष निरन्तर निर्दय स्वभाववाला हो, तथा स्वभावसे ही क्रोध कषायसे प्रज्वलित हो तथा मदसे उद्धत हो, जिसकी बुद्धि पाप रूप हो, तथा कुशीला हो, व्यभिचारी हो, नास्तिक हो बह रौद्रध्यानका घर है ।। (ज्ञा /२६/६)। जो अन्यका बुरा 'चाहे तथा परको कष्ट आपदारूप बाणोसे भेदा हुआ दुखी देखकर सन्तुष्ट हो तथा गुणोसे गरुवा देखकर अथवा अन्यके सम्पदा देखकर ष रूप हो, अपने हृदयमें शल्य सहित हो सो निश्चय करके रौद्रध्यानका चिह्न है ।१३। हिसाके उपकरण शस्त्रादिकका संग्रह करना, क्रूर जीवोका अनुग्रह करना और निर्दयतादिकभाव रौद्रध्यानके देहधारियोके बाह्यचिह्न है ।१३
५. रौद्रध्यानमें सम्मव माव व लेश्या म.पु /२१/४४ प्रकृष्टतरदुर्लेश्यायोपोबलवृहितम् । अन्तर्मुहर्त कालोत्थं
पूर्वबद्भाव इष्यते।४४। (परोक्षज्ञानत्वादौदयिकभाव वा भावलेश्याकषायप्राधान्यात् । चा. सा.)। - यह रौद्रध्यान अत्यन्त अशुभ है, कृष्ण आदि तीन खोटी लेश्याओके बलसे उत्पन्न होता है। अन्तर्मुहूर्त काल तक रहता है और पहले आर्तध्यानके समान इसका क्षायोपशमिक भाव होता है ।४४ा (ज्ञा./२६/३६,३६)। अथवा भाव लेश्या और कषायोकी प्रधानता होनेसे औदयिक भाव है। (चा मा./१७०/५)।
* रौद्रध्यानका फल-दे० आत/२ ।
४. रौद्रध्यानके बाह्यचिह्न
६. रौद्ध्यानमें सम्भव गुणस्थान त. सू./६/२५ रौद्रमविरतदेश विरतयो ।३। वह रौद्रध्यान अविरत
और देशविस्तके होता है। म. पु./२१/४३ षष्ठात्तु तदगुणस्थानात प्राक् पञ्च गुण भूमिकम् । यह ध्यान छठवे गुणस्थानके पहले-पहले पाँच गुणस्थानोमे होता है । (चा सा./१७१/१), (ज्ञा./२६/३६)। द्र स/टो./४८/२०१/१ रौद्रध्यान. तारतम्येन मिध्यादृष्टयादिपञ्चमगुणस्थानतिजीवसंभवम् । =यह रौद्रध्यान मिथ्याष्टिसे पचम गुणस्थान तकके जीवोके तारतमतासे होता है।
म.पू./२१/४१-५३ अनानृशस्य हिसीपकरणादानतरकथा । निसर्ग- हिंस्रता चेति लिहान्यस्य स्मृतानि वै।४। बाक्पारुष्यादिलिड्ग तद द्वितीय रौद्रमिष्यते ।। • प्रतीतलिङ्गमैवैतद रौद्रध्यानद्वयं
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रौरव
४०९
लक्षण
उष्णता आत्मभूत लक्षण है और दण्डी पुरुषका मेदक दण्ड अनात्म
७. देशव्रतीको कैसे सम्मव है स, सि./६/३५/४४८/८ अविरतस्य भवतु रौद्रध्यान, देश विरतस्य कथम् । तस्यापि हिसाधावेशाद्वित्तादिसंरक्षणतन्त्रत्वाच्च कदाचित भवितुमह ति। तत्पुनरिकादीनामकारण; सम्यग्दर्शनसामात् ।-प्रश्नरौद्रध्यान अविरतके होओ, देशविरतके कैसे हो सकता है। उत्तर-- हिंसादिके आवेशसे या वित्तादिके सरक्षणके परतन्त्र होनेसे कदाचित उसके भी हो सकता है। किन्तु देश विरतके होनेवाला रौद्रध्यान नरकादि दुर्गतियोंका कारण नही है, क्योंकि सम्यग्दर्शनकी ऐसी ही सामर्थ्य है । (रा. वा./६/३५/३/६२६/१६). (ज्ञा./२६/३६ भाषा)।
4. साधुको कदापि सम्भव नहीं स सि /६/३५/४४८/१० संयतस्य तु न भवत्येव, तदारम्भे संयमप्रच्युते ।
- परन्तु यह सयतके तो होता ही नही है, क्योकि उसका आरम्भ होनेपर सयमसे पतन हो जाता है। (रा. वा./६/३५/४/६२६/२२ ) । रौरव-पहले नरकका तीसरा पटल-दे० नरक/५/११ । रोरुक-प्रथम पृथिवीका तीसरा पटल-दे० नरका/११ ॥
न्या. दी/१/४/६/४ द्विविधं लक्षणम्, आत्मभूतमनात्ममूत चेति । तत्र यद्वस्तुस्वरूपानुप्रविष्ट तदात्मभूतम, यथाग्नेरौष्ण्यम्। औष्ण्यं ह्यग्ने स्वरूप सदग्निमवादिभ्यो व्यावर्त्तयति । तद्विपरीतमनात्मभूतम्, यथादण्ड पुरुषस्य। दण्डिनमानयेत्युक्ते हि दण्ड पुरुषाननुप्रविष्ट एव पुरुष व्यावर्त्तयति।लक्षणके दो भेद है-आत्मभूत और अनात्मभूत । जो वस्तुके स्वरूपमें मिला हुआ हो उसे आत्मभूत लक्षण कहते है जैसे अग्निकी उष्णता। यह उष्णता अग्निका स्वरूप होती हुई अग्निको जलादि पदार्थोसे जुदा करती है। इसलिए उष्णता अग्निका आत्मभूत लक्षण है। जो वस्तुके स्वरूपमें मिला हुआ न हो उससे पृथक् हो उसे अनारमभूत लक्षण कहते है। जैसे-दण्डीपुरुषका दण्ड । दण्डीको लाओ ऐसा कहनेपर दण्ड पुरुषमें न मिलता हुआ ही पुरुषको पुरुषभिन्न पदार्थोसे पृथक करता है। इसलिए दण्ड पुरुषका अनात्मभूत लक्षण है।
३. लक्षणाभास सामान्यका लक्षण न्या. दी/१/५/७/२२ की टिप्पणी सदोषलक्षणं लक्षणाभासम् । -मिथ्या-अर्थात सदोष लक्षणको लक्षणाभास कहते है।
लंका-रावणके पूर्वज मेघवाहनको राक्षसोके इन्द्र ने उसकी
रक्षार्थ यह लंका नामका द्वीप प्रदान किया था। यह त्रिकूटाचल
पर्वतको तलहटीमे है । ( प पू./५/१५७) 1 लंब संक्षेत्र-Right Prism. ( ज प./प्र.१०८) । लंबित-कायोत्सर्गका एक अतिचार-दे० व्युत्सर्ग/१। लक्खण-वि श १३ मै अणुक्य रयण पईवके रचयिताएक अपभ्रंश
कवि थे। ( हि जै. सा इ./३० कामता)। लक्षणरा वा /२/८/२/११६/६ परस्परयतिकरे सति येनान्यत्व लक्ष्यते तल्लक्षणम् ।२। परस्पर सम्मिलित बस्तुओंसे जिसके द्वारा किसी वस्तुका पृथक्करण हो वह उसका लक्षण होता है। न्या वि/टी/१/३/५/५ लक्ष्यतेऽनेनेति लक्षणम् । = जिसके द्वारा पदार्थ
लक्ष्य किया जाये उसको लक्षण कहते है। ध/७/२,१.११/84/३ कि लक्षणं । जस्साभावे दव्यस्साभावी होदि त तस्स लक्षण, जहा पोग्गलदव्वस्स रूव-रस-गंध-फासा, जीवस्स उबजोगो। जिसके अभावमें द्रव्यका भी अभाव हो जाता है, वहीं उस द्रव्यका लक्षण है। जैसे-पृद्गल द्रव्यका लक्षण रूप, रस, गन्ध
और, जोबका उपयोग। न्या. दी /१/३/५/६ व्यतिकीर्ण-वस्तुव्यावृत्तिहेतुलक्षणम् । मिली हुई बस्तुओमेसे किसी एक वस्तुको अलग करनेवाले हेतुको (चिह्नको)
लक्षण कहते है। दे गुण /१/१ ( शक्ति लक्षण, विशेष, धर्म, रूप, गुण, स्वभाव, प्रकृति,
शोल, आकृति और अग एकार्थवाची है।। न्या सू/टो /१/१/२/८/७ उद्दिष्टस्य तत्त्वव्यवच्छेदको धर्मो लक्षणम् । -- उद्दिष्ट ( नाम मात्रसे कहे हुए ) पदार्थके अयथार्थ (विपरीत या असत्य ) बोधके निवारण करने वाले धर्मको लक्षण कहते है।
२. लक्षणके भेद व उनके लक्षण रा वा /२//३/११/११ तल्लक्षणं द्विविध-आरमभ्रतमनात्मभूत चेति । तत्र आत्मभूतमग्नेरौष्प यम्, अनात्मभूतं देवदत्तस्य दण्ड । लक्षण आत्मभूत और अनात्मभृतके भेदसे दो प्रकार होता है। अग्निकी
४. लक्षणाभासके भेद व उनके लक्षण न्या./दी /९/8/9/५ त्रयोलक्षणाभासभेदा' -अव्याप्तमतिव्याप्तमसंभव
चेति । तत्र लक्ष्यैकदेशवृत्त्यव्याप्तम. यथा गो शावलेयत्वम् । लक्ष्यालक्ष्यवृत्त्यतिव्याप्तम्, यथा तस्यैव पशुत्वम् । बाधितलक्ष्यवृत्त्यसभवति, यथा नरस्य विषाणित्वम् । लक्षणाभासके तीन भेद हैअव्याप्त. अतिव्याप्त, और असम्भवि । ( मोक्ष पंचाशत । १४ ) लक्ष्य के एक देशमे लक्षणके रहने को अव्याप्त लक्षणाभास कहते है। जैसेगायका शावलेयत्व। शावलेयत्व सब गायोमे नहीं पाया जाता वह कुछ ही गायोका धर्म है, इसलिए अव्याप्त है। लक्ष्य और अलक्ष्य में लक्षणके रहनेको अतिव्याप्त लक्षणाभास कहते है। जैसे गायका ही पशुत्व लक्षण करना । यह पशुत्व गायके सिवाय अश्वादि पशुओं में भी पाया जाता है इस लिए पशुत्व अतिव्याप्त है। जिसकी लक्ष्यमे वृत्ति बाधित हो अर्थाद जो लक्ष्यमे बिलकुल ही न रहे वह असम्भवि लक्षणाभास है। जैसे—मनुष्यका लक्षण सीग। सीग किसी भी मनुष्यमे नही पाया जाता। अत वह असम्भवि लक्षणाभास है। ( मोक्षपचाशत/१५-१७ )। मोक्षपचाशत/१७ लक्ष्ये त्वनुपपन्नत्वमसंभव इतीरित । यथा वर्णादि
युक्तरवमसिद्धं सर्वथात्मनि । लक्ष्य में उत्पन्न न होना सो असम्भव दोषका लक्षण है, जैसे आत्मामें वर्णादिकी युक्ति प्रसिद्ध है।
५. आत्मभूत लक्षणकी सिद्धि रा. वा./२/८/८-६/११६/२४ इह लोके यद्यदात्मकं न तत्तेनोपयुज्यते यथा क्षीर क्षीरात्मक न तत्तेनैवात्मनोपयुज्यते। जीव एव ज्ञानादनन्यत्वे सति ज्ञानात्मनोपयुज्यते । आकाशस्य रुपाद्य पयोगाभाववत। आत्मापि ज्ञानादिस्वभावशक्तिप्रत्ययवशात घटपटाद्याकारावग्रहरूपेण परिणमतीत्युपयोग सिद्ध । - प्रश्न-जैसे दूधका दूध रूपसे परिणमन नहीं होता किन्तु दही रूपसे होता है । उसीतरह ज्ञानात्मक आत्माका ज्ञानरूपसे परिणमन नहीं हो सकेगा। अत' जीवके ज्ञानादि उपयोग नहीं होना चाहिए । उत्तर-चू कि आत्मा और ज्ञान में अभेद है इसलिए उसका ज्ञान रूपसे उपयोग होता है। आकाशका सर्वथा भिन्न रूपादिक रूपसे उपयोग नही देखा जाता। ज्ञान पर्यायके अभिमुख जीत्र भी ज्ञान व्यपदेशको प्राप्त करके स्वयं
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भा०३-.५२
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लक्षण पंक्ति व्रत
लब्धि
घट-पटादि विषयक अवग्रहादि ज्ञान पर्यायको धारण करता है अत' द्रव्य दृष्टिसे उसका ही उसी रूपसे परिणमन सिद्ध होता है।
६.लक्ष्य-लक्षणमें समानाधिकरण अवश्य है न्या. दी./१/8७/२ असाधारणधर्मवचनं लक्षणम् इति केचित्, तदनुपपन्नम्, लक्ष्यधर्मिवचनस्य लक्षणधर्मवचनेन समानाधिकरण्याभावप्रसङ्गात । असाधरणधर्मके कथनको लक्षण कहते है ऐसी किन्हींका कहना ठीक नहीं है। क्योंकि लक्ष्यरूप धर्मिवचनका लक्षणरूप धर्म वचनके साथ सामानाधिकरण्यके अभावका प्रसंग आता है। न्या. दी/भाषा/१/१५/१४१/२० यह नियम है कि लक्ष्य-लक्षण भावस्थल में लक्ष्य वचन और लक्षण वचनमे एकार्थप्रतिपादकत्व रूप सामानाधिकरण्य अवश्य होता है। * अन्य सम्बन्धित विषय १. लक्ष्य लक्षण सम्बन्ध-दे० संबध । २. लक्षण निमित्त ज्ञान-दे० निमित्त/२। ३. भगवान्के १००८ लक्षण-दे० अर्हत/१।
लक्ष्य लक्षण सम्बन्ध-दे० सम्बन्ध । लधिमा विक्रिया ऋद्धि-दे० ऋद्धि/३। लघीयस्त्रय-आ. अकलंक भट्ट (ई ६२०-६८०)। कृत न्यायविषयक ७८ कारिका प्रमाण सस्कृत ग्रन्थ। इसमें छोटे-छोटे तीन प्रकरणोका संग्रह है-प्रमाण प्रवेश, नय प्रवेश व प्रवचन प्रवेश । वास्तवमें ये तीनों प्रकरण ग्रन्थ थे, पीछे आचार्य अनन्तवीर्य ने (ई. १७४१०२५) ने इन तीनोंका संग्रह करके उसका नाम लघीयस्त्रय रख दिया होगा ऐसा अनुमान है। इन तीनों प्रकरणोंपर स्वयं आ, अकल क भट्ट कृत एक विवृत्ति भी है। यह विवृत्ति भी श्लोक निबद्ध है। इसपर निम्न टीकाएँ लिखी गयी है.-१, आ. प्रभाचन्द्र (ई.६५०-१०२०) कृत न्यायकुमुदचन्द्र ,२ आ. अभयचन्द्र (ई. श. १३) कृत त्याद्वादभूषण । (ती०/२/३०६)। लघु-प. प्र./टी./१/२८ लघु शीघ्रमन्तर्मुहूर्तेन । = लघु अर्थात् शीघ्र
अर्थात् अन्तर्मुहूर्त मे। लघुचूणि-दे० कोश परिशिष्ट १ । लघु तत्त्वस्फोट-आचार्य अमृतचन्द्र (ई. १०५-६५५) कृतअध्यात्म
विषयक संस्कृत पद्य बद ग्रन्थ । लघुरिक्थ-Logarithum (ध / २८)। -दे० गणित/11/21 लघु सर्वज्ञ सिद्धि-आ. अनन्तकीर्ति (ई. श. ६ उत्तरार्ध) कृत
सस्कृत भाषाका एक न्याय विषयक ग्रन्थ है। (ती/३/१६७)। लतालतांग-कालका प्रमाण विशेष-दे० गणित/I[१/४। लता वक्र-कायोत्सर्गका अतिचार-दे० व्युत्सर्ग/१ । लब्ध -Quotient (ध./प्र. २८)। लब्धराशि राशिक गणितमें फल इच्छा
प्रमाण - दे० गणित/II/ लब्धि-शान आदि शक्ति विशेषको लब्धि कहते है। सम्यक्त्व प्राप्तिमें पाँच लब्धियोका होना आवश्यक बताया गया है, जिनमे करण लब्धि उपयोगारमक होनेके कारण प्रधान है। इनके अतिरिक्त जीवमें संयम या संयमासंयम आदिको धारण करनेकी योग्यताएँ भी उस-उस नामकी लब्धि कही जाती है।
लक्षण पंक्ति व्रत-किसी भी दिनसे प्रारम्भ करके एक उपवास
एक पारणा क्रमसे २०४ उपवास पूरे करे। नमस्कार मन्त्रका त्रिकाल जाप करे । अपरनाम दिव्य लक्षणपक्ति व्रत है। (ह. पु./३४/११३), (व्रतविधान सं./१०२)। लक्षपर्वा-एक औषध विद्या-दे० विद्या।। लक्ष्मण- प्र./सर्ग/श्लोक राजा दशरथके पुत्र तथा रामके भाई
थे ( २५/१२६ ) भ्रातृ प्रेमसे भाई के साथ बनमें गये (३१/१६१) । सीताहरण पर रावणके साथ युद्ध कर उसको मारा (७६/३३)। अन्तमें देव कथित रामकी मृत्युके झूठे समाचार सुनकर नरकको प्राप्त हुए (११५/८-१२), यह आठवॉ नारायण था-(विशेष दे०
शलाका पुरुष/४)। लक्ष्मण पुरी-वर्तमान लखनऊ ( म पु./प्र ५०/पं. पन्नालाल )। लक्ष्मण देव-णमिणाहचरिउ के रचयिता मालवा देशवासी एक
अपभ्रश कवि । समय-वि श १४ (ती./४/२०७)। लक्ष्मण सेन-१ सेन संघी अहसेनके शिष्य रविषेण (पद्म पुराण के कर्ता) के गुरु थे। समय-वि६८०-७२०( ई ६२३-६६३)-दे०इतिहास/७/६ । २. काष्ठासघी रत्नकी तिके शिष्य तथा भीमसेनके गुरु
थे। समय-वि १४८१ (ई. १४१४)-दे० इतिहास/७/। लक्ष्मी-१.शिखरी पर्वतस्थ पुण्डरीक हृदकी स्वामिनी देवी।-दे०
लोक/३/8 | २ शिखरी पर्वतस्थ कुट और निवासिनीदेवी-दे० लोक/ १/४ । ३ विजयार्धकी दक्षिण श्रेणीका एक नगर। -दे० विद्याधर । लक्ष्मीचंद-१. नन्दिसघ बलात्कारगणकी सूरत शाखा में मनिलभूषण के शिष्य तथा ब्र० नेमिदत्त के गुरु थे । समय-वि. १५७५ ( ई. १५१८) -दे० इतिहास/७/४ । २. मेघमाला के रचयिता एक मराठी कवि । समय-ग्रन्थ का रचनाकाल शक १६५० (ई १७२८)। (ती,/४/३२१)। ३. अणुवेवरवा दोहा के रचयिता एक अपभ्रंश कवि ।
समय-(ती/४/२४३) । लक्ष्मीमती रुचक पर्वत निवासिनी दिक्कुमारी देवी -दे०
लोक/५/१३ । लक्ष्य-प.प्र./टी/१/१६ लक्ष्यं संकल्परूपं चित्तम् । = संकल्परूप मनको लक्ष्य कहते है।
लब्धि सामान्य निर्देश १ । लब्धि सामान्यका लक्षण
१क्षयोपशम शाक्तके अर्थ में, २ गुण प्राप्तिके अर्थ मे; ३ आगमके अर्थ मे। ज्ञान व सम्यक्त्वकी अपेक्षा लब्धिके लक्षण
--दे० उपलब्धि । लब्धिरूप मति श्रुतज्ञान -दे० बह वह नाम । लब्धि व उपयोगमें सम्बन्ध -दे० उपयोग/I । क्षायिक व क्षयोपशमकी दानादि लब्धियाँ । क्षायिक दानादि लब्धियों तथा तत्सम्बन्धी शंकाएँ
-दे० वह वह नाम । नव केवललब्धि नाम निर्देश।
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लब्धि
२
१
२
१ विशुद्धि लब्धिका लक्षण
४
प्रायोग्य लब्धिका स्वरूप ।
काल (भायोग्य) लब्धिर्मे करणके बिना शेष चार लब्धियोंका अन्तर्भाव
-दे० नियति / २ ।
सम्यक्त्वकी प्राप्तिमें पच लब्धिका स्थान ।
#
५
६ पाँचोंमें करण लब्धिकी प्रधानता ।
३ देशना लब्धि निर्देश
१
देशना लब्धिका लक्षण ।
२
सम्यग्दृष्टिके उपदेश से ही देशना सम्भव है । ३ मिध्यादृष्टि के उपदेशसे देशना सम्भव नहीं।
४
कदाचित् मिथ्यादृष्टि से भी देशना की सम्भावना निश्चय तत्वोंका मनन करनेपर देशना लब्धि सम्भव है ।
देशनाका सस्कार अन्य भवोंमें भी साथ जाता
है
५
*
१
**
२
३
५
१
२
३
४
उपशम सम्यक्त्व सम्बन्धी पंच लब्धि निर्देश
पंच लब्धि निर्देश ।
अयोपशम लब्धिका लक्षण ।
५
७
८
करण लब्धि निर्देश
करणका लक्षण |
अपप्रवृत्त आदि त्रिकरण
- दे० संस्कार / १ |
-दे० १० करण ! - दे० ० करण
करण लम्भि व अन्तरंग पुरुषार्थमें केवल भाषा
मेद है।
पाँचोंमें करण लब्धिकी प्रधानता । करण लब्धि भव्य ही होती है ।
करण लब्धि सम्यक्त्वादिका साक्षात् कारण है।
संयम व संयमासंयम लब्धि स्थान
स्थानका लक्षण |
६ एकान्तानुवृद्धि सयम व सयमासयम लब्धि-स्थानका
- दे० लन्दि२ ।
संयम व संयमासयम लब्धि स्थानका लक्षण । सयम व सयमासंयम लब्धि स्थानोंके भेद | प्रतिपद्यमान व उत्पाद संयम व संयमासयम लब्धिस्थानका लक्षण ।
प्रतिपातगत सयम व संयमासंयम लब्धि स्थानका लक्षण ।
अनुभगत व तद्व्यतिरिक्त संयम व समासयन लब्धि
लक्षण ।
जघन्य व उत्कृष्ट सयम व संयमासयम लब्धिस्थानका सामित्य ।
भेदातील स्थानोंका स्वामित्व |
४११
१. लब्धि सामान्य निर्देश
१. लब्धि सामान्यका लक्षण १. क्षयोपशम शक्तिके अर्थ में
१. लब्धि सामान्य निर्देश
सस/२/१८/०६/२ लम्भन लब्धि का पुनरसी ज्ञानावरणकर्मक्षयोपशम विशेष | यत्सनिधानादात्मा इध्येन्द्रियनित प्रतिव्याधिशब्दका अर्थ-सम्भन लब्धिप्राप्त होना । ज्ञानावरण कर्मके क्षयोपशम विशेषको लब्धि कहते है । जिसके संसर्ग से आत्मा द्रव्येन्द्रियकी रचना करनेके लिए उद्यत होता है। (रा बा /२/१८/१२/१३०/१०)।
घ १/१.१.३३ / २३६/२ इन्द्रियनिय हेतु क्षयोपशमविशेषे ल यसंनिधानादात्मा मेन्द्रियनिसि प्रतिज्ञानावरणक्षयोपशमविशेषो । क्षयोपशम विशेषो लब्धिरिति विज्ञायते इन्द्रियको सिका - निवृत्तिका कारणभूत जो क्षयोपशम विशेष है, उसे लब्धि कहते है । अर्थात् जिसके सन्निधानसे आत्मा द्रव्येन्द्रियकी रचनायें व्यापार करता है, ऐसे ज्ञानावरण के क्षयोपदम विशेषको सन्धि करते हैं। गो. जी //१६५/११/४ मतिज्ञानावरणमा विशुद्धिजब स्यार्थग्रहणशक्तिलक्षणलब्धि । =जीवके जो मतिज्ञानावरण कर्मक्षयोपशम उत्पन्न हुई विशुद्ध और उससे उत्पन्न पदार्थोंका ग्रहण करनेकी जो शक्ति उसको लब्धि कहते है ।
२. गुणप्राप्तिके अर्थ में
ससि./२/४०/२६०/- तपोविदपारद्विप्रासि विधतप विशेषसे प्राप्त होनेवाली ऋद्धिको लब्धि कहते हैं । ( रा वा / २/४७/२/ १५१/३९) ।
घ. / ३.४९/०६/३ सम्मान पर जीवस्त समागमो राखी णाम । - सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान और सम्यग्चारित्रमे जो जीवका समागम होता है उसे लब्धि कहते है । १२/१५-२०/२३/१ विकरणा अणिमादयो मुक्तिपर्यन्ताष्टवस्तूपलम्भा लब्ध्य । मुक्ति पर्यंत इष्ट वस्तुको प्राप्त कराने वाली अणिमा आदि विक्रियाएँ सकही जाती है।
निसा वा वृ./१६६ जीवाना सुखादिप्राप्ते व्धिजीवीको मुखादि की।
२. आगमके अर्थ में
ध. १३/५,५.५०/२८३ /२ लब्धीना परम्परा यस्मादागमात् प्राप्यते यस्मिन् प्रायुपायो निरूप्यते वा स परम्परानधिगम |
= लब्धियोकी परम्परा जिस आगमसे प्राप्त होती है या जिसमे उनकी प्राप्तिका उपाय कहा जाता है वह परम्परा लब्धि अर्थात् आगम है।
२. क्षायिक व क्षयोपशमकी दानादि लब्धि
त सू / २ / ५ लब्ध्य पञ्च ( क्षायोपशमिक्य दानलब्धिल भिलब्धिभगत रुपभोगलतिरावा) पाँच उन्धि होती है- ( दानलब्धि लाभलब्धि भोगलब्धि, उपभोगलब्धि, और वीर्यलब्धि । ये पॉच लब्धियाँ दानान्तराय आदिके क्षयोपशम होती है। (रा. वा १२/४/८/१००/२८ ) ।
•
ध. ५/१,७,१/१६१/३ लद्धी पंच वियप्पा दाण-लाह-भोगुपभोग-वीरियमिदि । = ( क्षायिक) लब्धि पाँच प्रकारकी है- क्षायिक दान, क्षायिक लाभ, सायिक भोग, क्षायिक उपभोग और क्षायिक मीर्य । लसा / / १६६/२१८ सत्तण्डं पयडोणं खयादु अवर तु खइयलद्धी दु । उकलइयोषा हये | १६६। सात प्रकृतियों के क्षयसे असयत सम्यग्दृष्टिके क्षायिक सम्यक्त्व रूप जघन्य क्षायिक
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लब्धि
४१२
२. उपशम सम्यक्त्व सम्बन्धी पंचलब्धि निर्देश
य ३२
की वृद्धि करता
गकर पूर्व या वृद्धि करता प्रथमोपशम
भागमात्र
लब्धि होती है। और घातिया कर्मके क्षयसे परमात्माके केवल- ४. प्रायोग्यलब्धिका स्वरूप ज्ञानादिरूप उत्कृष्ट क्षायिक लब्धि होती है :१६६। (क्षयोपशम
ध. ६/१,६-८,३/२०४/६ सम्बकम्माणमुक्कसहिदिमुक्कस्साणुभाग च लब्धिका लक्षण-दे० लब्धि/२)।
घादिय अंतोकोडाकोडीट्ठिदिम्हि वेढाणाणुभागे च अवठ्ठाण ३. नव केवललब्धिका नाम निर्देश
पाओग्गलद्धी णाम । -सर्व काकी उत्कृष्ट स्थिति और उत्कृष्ट ध, १/१,१,१/गा. ५८/६४ दाणे लाभे भोगे परिभोगे वीरिए य सम्मत्ते।। अनुभागको घात करके अन्त'कोडाकोडी स्थितिमें, और द्विस्थानीय णव केवल-लद्धीओ दसण-णाणं चरित्ते य ५८ दान, लाभ, भोग,
अनुभागमें अवस्थान करनेको प्रायोग्यलब्धि कहते है। (ल. सा./ परिभोग, वीर्य, सम्यक्त्व, दर्शन, ज्ञान और चारित्र ये नव केवल- म् /७/४५)। लब्धियाँ समझना चाहिए।१८। (वसु. श्रा/५२७), (ज. प /१३/ ल. सा/मू./९-३२/४७-६८ सम्मत्तहिमहमिच्छो विसोहिवढीहि १३१-१३५), (गो. जो./जी. प्र/६३/१६४/६)।
बहमाणो हु। अंतोकोडाको डि सत्तण्हं बंधणं कुणई ।। अंतो
कोडाकोडीठिदं अमत्थाण सस्थणाणं च । बिचउठाणरसं च य २. उपशम सम्यक्त्व सम्बन्धी पंचलब्धि निर्देश
बधाणं बधणं कुणइ २४ा मिच्छणथीणति सुरचउ समवज्जपसत्थ
गमणसुभगतिय । णीचुक्कस्सपदेसमणुकस्स वा पबंधदि हु ।२५॥ 1. पंधलब्धि निर्देश
एकठि पमाणाणमणुक्कस्सपदेसं बधणं कुणई ।२६। उदइल्लाणं उदये नि. सा./ता. वृ./०५६ लब्धि कालकरणोपदेशोपशमप्रायोग्यताभेदात्
पत्ते कठिदिस्सवेदगो होदि। विचउठाणमसत्थे सत्थे उदयल्लरस पञ्चधा । == लब्धि काल, करण, उपदेश, उपशम और प्रायोग्यतारूप
भुत्ती २६। अजहण्णमणुकस्सप्पदेसमणुभवदि सोदयाण तु । उदयिभेदोके कारण पाँच प्रकारकी है।
ल्लाणं पयडिचउक्कण्णमुदीरगो होदि ।३०। अजहण्णमणुकस्सं ठिदीध ६/१,६-८,३/गा. १/२०४ खयउवसमियविसोही देसाणपाउग्गकरण
तियं होदि सत्तपयडीणं । एवं पयडिचउक्क बंधादिसु होदि लद्धी य । चत्तारि वि सामण्णा करणं पुण होइ सम्मत्ते ।। -क्षयोप
पत्तेय ।३२। -१ स्थितिबन्ध-प्रथमोपशम सम्यक्त्व के सम्मुख शम, विशुद्धि, देशना, प्रायोग्यता और करण ये पाँच लब्धि है।
जीव विशुद्धताकी वृद्धि करता हुआ प्रायोग्य लब्धिका प्रथमसे
लगाकर पूर्व स्थिति बन्धके संख्यातवे भागमात्र अन्त कोटाकोटी (ल. सा /मू /३/४४), (गो. जी /मू./६६१/११००)।
सागर प्रमाण आयु बिना सात कर्मोंका स्थितिबन्ध करता है ।। २. क्षयोपशमलब्धिका लक्षण
२ अनुभागबन्ध-अप्रशस्त प्रकृतियोका द्विस्थानीय अनुभाग
प्रतिसमय-समय अनन्तगुणा घटता बाँधता है और प्रशस्त प्रकृध,७/२,१,४५/७/३ णाणस्स विणासो खओ णाम, तस्स उवसमो एग
तियोका चतुस्थानीय अनुभाग प्रतिसमय-समय अनन्तगुणा देसक्रवओ, तस्स खओवसमसण्णा। तत्थ णाणमण्णाणं वा उप्प- बढता बॉधता है ।२४। ३. प्रदेशबन्ध-मिथ्यात्व, अमन्तानुबन्धी ज्जदि त्ति खओवस मिया लद्धी वुच्चदे।
चतुष्क, स्त्यानगृद्वि त्रिक, देवचतुष्क, वज्रऋषभ नाराच, ध.७/२,१,७१/१०८/७ उदयमागदाणमइदहरदेसघादित्तणेण उवसंताणं प्रशस्तविहायोगति सुभगादि तीन, ब नीचगोत्र। इन २६ प्रकृ
जेण खओवसमसण्णा अस्थि तेण तत्थुप्पण्णजीवपरिणामो व ओव- तियोंका उत्कृष्ट व अनुत्कृष्ट प्रदेशबन्ध करता है । महादण्डकमें कहीं समलद्धीसण्णिदो । -१, ज्ञानके विनाशका नाम क्षय है। उस ६१ प्रकृतियोका अनुत्कृष्ट प्रदेशबन्ध करता है ।२५-२६। ४. उदय क्षयका उपशम हुआ एकदेश क्षय। इस प्रकार ज्ञानके एकदेशीय उदीरणा-उदयवान् प्रकृतियोका उदयकी अपेक्षा एक स्थिति जो क्षयकी क्षयोपशम सज्ञा मानी जा सकती है। ऐसा क्षयोपशम होने उदयको प्राप्त हुआ एक निषेध. उसहीका भोक्ता होता है। पर जो ज्ञान या अज्ञान उत्पन्न होता है उसीको क्षायोपशमिक अप्रशस्त प्रकृतियोका द्विस्थानरूप और प्रशस्त प्रकृतियोके लब्धि कहते है। २ उदयमे आये हुए तथा अत्यन्त अल्प देश- चतुस्थानरूप अनुभागका भोक्ता होता है ।२६। उदय प्रकृतियोका घातिरवके रूपसे उपशान्त हुए सम्यक्त्व मोहनीय प्रकृतिके देश- अजघन्य वा अनुत्कृष्ट प्रदेशको भोगता है। जो प्रकृति, प्रदेश, धाती स्पर्धकोका कि क्षयोपशम नाम दिया गया है, इसलिए स्थिति और अनुभाग उदयरूप हो उन्हींकी उदीरणा करने वाला उस क्षयोपशमसे उत्पन्न जीव परिणामको क्षयोपशमलब्धि होता है।३०। ५. सत्त्व-सत्तारूप प्रकृतियोका स्थिति, अनुभाग, कहते है।
प्रदेश अजघन्य अनुत्कृष्ट है । ६. ऐसे प्रकृति, स्थिति, अनुभाग, ध ६/१,६-८,३/२०४/३ पुव्वसचिदकम्ममलपडलस्स अणुभागफदयाणि प्रदेशरूप चतुष्क है सो बन्ध, उदय उदीरणा सत्त्व इन सबमें जदा विसोहीए पडिसमयमणं तगुणहोणाणि होणुदीरिजति तदा कहा । यह क्रम प्रायोग्यल ब्धिके अन्त पर्यन्त जानना ।१२। खओवसमलद्धी होदि । -पूर्वसचित कर्मोंके मलरूप पटल के अनुभाग स्पर्धक जिस समय विशुद्धिके द्वारा प्रतिसमय अनन्तगुण
.. सम्यक्त्वकी प्राप्तिमें पंच लब्धिका स्थान हीन होते हुए उदीरणाको प्राप्त किये जाते है उस समय क्षयोपशम - पं वि/४/१२ लब्धिपञ्चकसामग्रीविशेषात्पात्रता गत । भव्य' सम्यलब्धि होती है । (ल. सा./मू /४/४३) ।
ग्दगादीना य स मुक्तिपथे स्थितः ।१२। जो भव्यजीव पाँच ३. विशुद्धिलब्धिका लक्षण
लब्धिरूप विशेष सामग्रीसे सम्यदर्शन-ज्ञान-चारित्ररूप रत्नत्रय
को धारण करनेके योग्य बन चुका है वह मोक्षमार्गमे स्थित हो ध.६/१,६-८,३/२०४/५ पडिसमयमणं तगुणहीणकमेण उदीरिद-अणु
गया है ।१२। भागफद्दयजणिदजीवपरिणामो सादादिसुहकम्मबंधणि मित्तो असा
गो जी./जी.प्र./६५१/११००/८ पञ्च लब्ध्यः उपशमसम्यक्त्वे भवन्ति । दादि असुहकम्मबधविरुद्धो विसोही णाम । तिस्से उबलभो विसोहि
-पॉचो लब्धि उपशम सम्यक्त्व के ग्रहण में होती है। (और भी लद्धी णाम। -प्रतिसमय अनन्तगुणितहीन क्रमसे उदीरित अनु- दे० सम्यग्दर्शन/IV/२/E)। भाग स्पर्धकोसे उत्पन्न हुआ, साता आदि शुभ कर्मों के बन्धका निमित्त भ्रत और असाता आदि अशुभ कर्मोके बन्धका विरोधी
६. पाँचों में करणलब्धिकी प्रधानता जो जीव परिणाम है, उसे विशुद्धि कहते है। उसकी प्राप्तिका नामध. ६/१,६-८.३/गा. १/२०५ चत्तारि वि (तद्धि) सामण्णं करणं पुण विशुद्धिलब्धि है। (ल सा /मू./५/४४)।
होइ सम्मत्ते ।। - इन (पाँचो) मे से पहली चार तो सामान्य
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लब्धि
४१३
४. करणलब्धि निर्देश
४. कदाचित् मिथ्याष्टिसे भी देशनाकी सम्भावना ला. सं./१६ न वाच्यं पाठमात्रत्वमस्ति तस्येह नार्थतः । यतस्तस्योपदेशाद्वै ज्ञानं विन्दन्ति केचन ।१९। = मिथ्यादृष्टिके जो ग्यारह अंगका ज्ञान होता है वह केवल पाठमात्र है, उसके अर्थोंका ज्ञान उसको नही होता, यह कहना ठीक नही। क्योकि शास्त्रों में कहा गया है कि मिथ्यादृष्टि मुनियोके उपदेशसे अन्य कितने ही भव्य जीवोंको सम्यग्दर्शन पूर्वक सम्यग्ज्ञान प्रगट हो जाता है ।१६।
५. निश्चय तत्वोंका मनन करनेपर देशनालब्धि सम्भव है प्र. सा./मू./८६ .जिणसत्थादो अछे पच्चक्रवादी हि बुज्झदो णियमा। रखीयदि मोहोवचयो तम्हा सत्यं समधिदव्व 1८६ -जिन-शास्त्र द्वारा प्रत्यक्षादि प्रमाणोसे पदार्थों को जानने वालेके नियमसे मोहसमूह क्षय हो जाता है, इसलिए शास्त्रका सम्यक प्रकारसे मनन करना चाहिए।८६ भ आ /वि /१०५/२५०/१२ अयमभिप्राय'-श्रद्धानसहचारिबोधाभावा
च्छ तमप्यश्रुतमिति। -शब्दात्म श्रुत सुनकर उसके अर्थको भी समझ लिया परन्तु उसके ऊपर यदि श्रद्धा नही है तो वह सब सुन और जान लेनेपर भी अभूतपूर्व ही समझना चाहिए। इस
शब्दके अध्ययनसे अपूर्व अर्थोंका ज्ञान होता है। पु. सि. उ./६ व्यवहारमेव केवलमवै ति यस्तस्य देशना नास्ति। =जो
जीव केवल व्यवहार नयको ही साध्य जानता है, उस मिथ्यादृष्टिके लिए उपदेश नही है।६।
है अर्थात् भव्य-अभय दोनोके होती है । किन्तु करणलब्धि सम्यक्त्व होनेके समय होती है। (ध.६/१,६-८,३/२०५/३), (गो, जी./मू./६५१/११००), (ल. सा./मू./३/४२), (द्र. स./टी./३६/ १५६/३ ) । ३. देशनालब्धि निर्देश
१. देशनालब्धिका लक्षण ध.६/१,१-८,/२०४/७ छहब्ब-णवपदत्थोवदेशो देसणा णाम । तीए
देसणाए परिणदआइरियादीणमुवल भो, देसिदत्थस्स गहण-धारणविचारणसत्तीए सभागमो अ देसणलद्धीणाम । = छह द्रव्यो और नौ पदार्थोंके उपदेशका नाम देशना है। उस देशनासे परिणत आचार्य आदिकी उपलब्धिको और उपदिष्ट अर्थ के ग्रहण, धारण तथा विचारणकी शक्ति के समागमको देशनालब्धि कहते है। (ल, सा /मू./६/४४)।
२. सम्यग्दृष्टिके उपदेशसे ही देशना सम्मव है नि. सा./मू./५३ सम्मत्तस्स णिमित्तं जिणसुत्तं तस्स जाणया पुरिसा।
अतरहेऊ भणिदा दंसणमोहस्स खयपहूदी ।५३ सम्यक्त्वका निमित्त जिनसूत्र है, जिनसूत्रको जानने वाले पुरुषोको अन्तरंग हेतु कहे है, क्योकि उनको दर्शनमोहके क्षयादिक है ।।३। (विशेष
दे० इसकी टीका)। इ. उ / /२३ अज्ञानोपास्तिरज्ञानं ज्ञानं ज्ञानिसमाश्रयः ।...|२३
अज्ञानीकी उपासनासे अज्ञानकी और ज्ञानीको उपासनासे ज्ञानकी प्राप्ति होती है ।२३। दे० आगम/५ ( दोष रहित व सत्य स्वभाव वाले पुरुषके द्वारा व्याख्यात
होनेसे आगम प्रमाण है।) ध १/१,१,२२/१६६/२ व्याख्यातारमन्तरेण स्वार्थाप्रतिपादकस्य (वेदस्य) तस्य व्यारण्यावधीनवाच्यवाचकभाव। प्राप्ताशेषवस्तुविषयबोधस्तस्य व्याख्यातेति प्रतिपत्तव्यम् । = व्याख्याताके बिना वेद स्वयं अपने विषयका प्रतिपादक नही है, इसलिए उसका वाच्य-बाचक भाव व्याख्याताके आधीन है। जिसने सम्पूर्ण वस्तु-विषयक ज्ञान
को जान लिया है वही आगमका व्याख्याता हो सकता है। सत्तास्वरूप/३/१५ राग, धर्म, सच्ची प्रवृत्ति, सम्यग्ज्ञान व वीतराग दशा
रूप निरोगता, उसका आदिसे अन्त तक सच्चा स्वरूप स्वाश्रितपने उस (सम्यग्दृष्टि) को ही भासे है और वह ही अन्यको दर्शाने वाला है।
३. मिथ्यादृष्टिके उपदेशसे देशना संभव नहीं प्र. सा./मू /२५६ छदुमत्थविहिदवत्थुसु बदणियमज्झयणझाणदाणरदो।
ण लहदि अपुणब्भाव भाव सादप्पगं लहदि ।२५६। -जो जीव छद्मस्थ विहित वस्तुओं में (अज्ञानीके द्वारा कथित देव, गुरुधर्मादिमें) व्रत-नियम अध्ययन-ध्यान-दानमें रत होता है वह मोक्षको प्राप्त नहीं होता, किन्तु साक्षात्मक भावको प्राप्त होता है। ध १/१,१,२२/१६५/८ ज्ञानविज्ञानविरहादप्राप्तप्रामाण्यस्य व्याख्यातु
चनस्य प्रामाण्याभावात्। --ज्ञान-विज्ञानसे रहित होनेके कारण जिसने स्वय प्रमाणता प्राप्त नहीं किया ऐसे व्याख्याताके वचन प्रमाणरूप नहीं हो सकते। ज्ञा./२/१०/३ न सम्यग्गदितुं शक्यं यत्स्वरूपं कुदृष्टिभि । । ।३।
-धर्मका स्वरूप मिथ्यादृष्टियोके द्वारा नहीं कहा जा सकता है। मो मा. प्र./१/२२/४ वक्ता कैसा चाहिए जो जैन श्रद्धान विषै दृढ होय __ जातें जो आप अश्रद्धानी होय तौ और को श्रद्धानी कैसे करै। द. पा./प. जयचन्द/२/४/१६ जाके धर्म नाही तिसतै धर्मकी प्राप्ति नाही ताकू धर्मनिमित्त काहेकू' वन्दिए ..।
४. करणलब्धि निर्देश १. करणलब्धि व अन्तरंग पुरुषाथमें केवल भाषा
द्र सं./टी /३७/१५६/५ इति गाथाकथितलब्धिपञ्चकसंज्ञेनाध्यात्मभाषया निजशुद्धात्माभिमुखपरिणामसंज्ञेन च निर्मलभावनाविशेषखड्गेन पौरुष कृत्वाकर्मशत्रु हन्तीति। द्र. स /टी./४१/१६५/११ आगमभाषया दर्शनचारित्रमोहनीयोपशम
क्षयसज्ञेनाध्यात्मभाषया स्वशुद्धाश्माभिमुखपरिणामसभेन च कालादिलब्धिविशेषेण मिथ्यात्वं विलयं गतम् । =१. पाँच लब्धियोसे और अध्यात्म भाषामे निज शुद्धात्माके संमुख परिणाम नामक निर्मल भावना विशेषरूप खड्गसे पौरुष करके, कर्मशत्रुको नष्ट करता है। (पं. का /ता, वृ./१५०/२१७/१४)। २. आगम भाषामें दर्शन मोहनीय तया चारित्र मोहनीयके क्षयोपशमसे और अध्यात्म भाषामें निज शुद्धात्माके संमुख परिणाम तथा काल आदि लब्धिके विशेषसे उनका मिथ्यात्व नष्ट हो जायेगा।
२ करणलब्धि मव्यको ही होती है ल, सा /भू /३३/६६ तत्तो अभन्यलोग्गं परिणाम बोलिऊण । भब्यो हु । करणं करेदि कमसो अधापवत्तं अपुव्वमणियठि ॥३३॥
अभव्यके भी योग्य ऐसी चार लब्धियोरूप परिणामको समाप्त करके जो भव्य है, वह जीव अध.प्रवृत्त, अपूर्वकरण अनिवृत्तिकरण
को करता है ।३३। गो, जो जो. प्र./६७१/११००/६ करणलब्धिस्तु भव्य एव स्यात् । करण लब्धि तो भव्य ही के होती है।
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लब्धि
३. करणलब्धि सम्यक्त्वादिका साक्षात् कारण है
गो. जी. जी. / ६५९/११००/१ करणस्तुि भव्य एव स्यात् तथापि सम्यक्त्वग्रहणे चारित्रग्रहणे च । करणलब्धि भव्य जीवके ही सम्यक्त्व ग्रहण वा चारित्र ग्रहणके काल में ही होती है। अर्थात् करणलब्धिको प्राप्तिके पीछे सम्यक्त्व चारित्र अवश्य हो है । ( ल. सा. /जी. प्र.३/४९/१५)।
५. संयम व संयमासंयम लब्धिस्थान
१. संयम व संयमासंयम कब्धिस्थानका लक्षण
रा. वा / १/१/१६-१७/२८६-२६० / ३१ तत्रामन्तानुपायाः क्षीणा स्युरक्षीणा वा, ते च अप्रत्याख्यानावरणकषायाश्च सर्वघातिन एव, तेषामुदयक्षयात्रापशमाच. प्रत्याख्यानावरणरूपाया. सर्वघातिन एव तेषामुदये सति संयमतन्यायसत्या संज्वायाः नव नोकपामाश्च देशातिन एवं तेषामुदये सति संगमा संयमधिभवति । तद्योग्या प्राणीन्द्रियविषया विरताविरतवृत्त्या परिणत संयतासंयत इत्याख्यायते ॥१६॥ अनन्तानुबन्धिकपायेषु क्षीणेष्यक्षीणेषु वा प्राप्तोदयक्षयेषु अष्टानां च कषायाणां उदयक्षयात् तेषामेव सदुपशमात् सज्यतमनोकामापा उदये संयमतचिर्भवति ।
१. अनन्तानुबन्धिकषाय क्षीण हो या अक्षीण हो तथा स्था ख्यान कषाय सर्वघाती है इनका उदयक्षय या सदवस्थारूप उपशम होनेपर तथा सर्वघाठी प्रत्यारूपानावरण के उदयसे संगमसन्धिका अभाव होनेपर एवं देशवाती संज्वलन और नोकषायोके उदयमे संयमासंयम लब्धि होती है। इसके होनेपर प्राणी और कविताविरत परिणामा संयतासंयत कहलाता है। १६। २ लोग या अक्षीण अनन्तानुबन्धि पायोका उदय क्षय होनेपर तथा प्रत्याख्यानावरण कषायोका उदयक्षय या सदवस्था उपशम हानेपर और सज्वलन तथा नोकषायोका उदय होनेपर संयम लब्धि होती है।
दे० सयत /१/१६२ [ इस सयमलब्धिको प्राप्त संयत कदाचित प्रमादवश चारित्रसे स्खलित होनेके कारण प्रमत्त कहलाता है, और प्रमादरहित अविचल संयम वृत्ति होनेपर अप्रमत्त कहलाता है । ] २. संयम व संयमासंयम लब्धिस्थानके भेद
६/११-१२/२०६ जनासंगमलखीए द्वाणाणि पडिवादट्ठाण पडिवज्जठाण 'अपडिवाद पडिवज्जमाणट्ठाण ।
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ध. ६/१,६-८,१४/२८३/४ एत्थ जाणि सजमलद्धिट्ठाणाणि ताणि तिविहामि होति त जहा पडिवाराणगि उम्पदानि परि तद्वाणाणि च। १. स्थानप्रतिपातस्थान, प्रतिपद्यमान स्थान और अमतिपात विद्यमान स्थान के भेइसे तीन प्रकार है ( स सामू / १०६/२२०)। २. संयम लब्धिस्थान तीन प्रकारके होते है। वे इस प्रकार है - प्रतिपातस्थान, उत्पादस्थान और व्यतिरिक्तस्थान ( स. सा / /१९२) । ल सा / मू/ १६८, १८४ दुबिहा चरित्तलखी देसे सयले य १६८ ॥ अवरवरदेशलद्वी • ११८४ | = चारित्र लब्धि दो प्रकार है- देश व सकल १६ देशधिजन्य उत्कृष्टके भेदते दो प्रकार है |१४|
३. प्रदिपद्यमान व उपपाद संयम व संयमासंयम लस्थान के लक्षण
ध. ६/१,६-८,१४/२८३/६ उत्पादट्ठाणं णाम जम्हि ठाणे सजम पडिवज्जदितं उप्पादट्ठाण णाम । जिस स्थान पर जीव सयमको प्राप्त होता है वह उत्पाद ( प्रतिपद्यमान ) स्थान है ।
૪૨૪
५. संयम व संयमासंयम लब्धिस्थान
सा/जी/१०/२४११० मिध्यादृश्चिरमस्य सम्यवश्ववेदसंयमी युगपत्प्रतिपद्यमानस्य सत्यमसमये वर्तमानं जयप्रतिपद्यमानस्थानम् प्रागसंयत्सम्यग्दृष्टिर्भूत्या पश्चाददेशसंयमं प्रतिपद्य मानस्य तत्प्रथमसमये समवत्कृष्टप्रतिपद्यमानस्थानस् । मिध्यालके चरम समय में देशसंयतके प्रथम समयमें प्रतिपद्यमान स्थान होता है। • असयतके पश्चात् देशसयत के प्रथम समयमे उत्कृष्ट प्रतिपद्यमान स्थान है ।
ल. सा. / भाषा/१०६/२२०/२२ देशसंयत के प्राप्त होते प्रथम समयवि सभवते जे स्थान ते प्रतिपद्यमानगत है ।
[घ] ६ / ११-८, १४/२००/ विशेषार्थ संयमासयमको धारण करनेके प्रथम समयमे होनेवाले स्थानोंको प्रतिपद्यमान स्थान रहते है।
४. प्रतिपातगत संयम व संयमासंयम लब्धिस्थानके लक्षण
घ. ६/११-८, १४/२८२/२ सत्य पडिवादद्वारा गाम जहि द्राणे मिच्छतं वा असजमसम्मत्तं वा संजमासंजम वा गच्छदि त पडिवादट्ठाण । = जिस स्थानपर जीव मिथ्यात्वको अथवा असयम सम्यक्त्वको अथवा संयमासंयमको प्राप्त होता है वह प्रतिपातस्थान है। ल. सा./जी. प्र. / १८८/२४०/१२ प्रतिपातो बहिरन्तरङ्गकारणवशेन सयमात्प्रच्यवः । स च संक्लिष्टस्य तत्काल चरमसमये विशुद्धिहान्या सर्वजधन्यदेशयमशक्तिकस्य मनुष्यस्य तदनन्तरसमये मिध्यात्वं प्रतिपत्स्यमानस्य भवति । प्रतिपात नाम संयमसे भ्रष्ट होने का है सो संक्लेश परिणामसे संयमसे भ्रष्ट होते देशसंयम के अन्त समय में प्रतिपातस्थान होता है। सा/भाषा/१०८/२३०/११ देशसंयम से ( वा सयम ते भ्रष्ट होते अन्त समय भय से स्थान ते प्रतिपालगत है (भ. ६/१.६८ १४/२०० पर विशेषार्थ) ।
ल. सा. / भाषा/१८८/२४२ / ८ मिथ्यात्वको समुख मनुष्य वा तियंचके जघन्य और असंयतको संमुख मनुष्य मा चिकेष्ट प्रतिपात स्थान हो है ।
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५. अनुमयागत व सद्यतिरिक्त संयम व संयमासंयम लब्धिस्थानोंके लक्षण
घ. १/९.१-८/४/२०३०पराणानि सम्यदरि ट्ठाणाणि णाम । इन ( प्रतिपात व उत्पाद या प्रतिपद्यमान स्थानोके) अतिरिक्त सर्व ही चारित्र (के मध्यवर्ती) स्थानोंको तद्वतिरिक्त समन्धि स्थान कहते है (स.सा./ भाषा / १८६) । ल. सा /मू / ११८,२०१ अणुभयंतु । तम्मज्भे उवरिमगुणगहणाहिमुहे य देवा ११३८|र] सामाइ सम्म होति परिहारा |२०१ - ( प्रतिपात व प्रतिपद्यमान स्थानोके) भीमे वा ऊपर के गुणस्थानोंके समुख होते अनुभव स्थान होता है सो देशसंयमकी भाँति जानना | १६ | तिनके ऊपर ( संयतके ऊपर) अनुभय स्थान है वे सामायिक धेोपस्थापना सम्बन्धी है। तिनिय जवन्य उत्कृष्टके मीच परिहार- विशुद्ध स्थान है। सा/जी/१८८२४१/१४ का भावार्थ- मिथ्या देशसंयत होनेके दूसरे समय में मनुष्य व तियंचके जघन्य अनुभय स्थान है । और असंयतमे देशसंयत होनेपर एकान्तवृद्धि स्थानके अन्त समय में तिर्यंचके उत्कृष्ट अनुभय स्थान होता है। तथा असंयत से देशसंयत होने पर एकान्त स्थानके अन्त समयमे सयमको संमुख मनुष्यके उत्कृष्ट अभय स्थान होता है।
घ. ६/१,१६,१४/२०० / विशेषार्थ इन दोनों (प्रतिपादन] उत्पाद या प्रतिपद्यमान स्थानोंको छोड़कर मध्यवर्ती समयमे सम्भव समस्त स्थानोको अप्रतिपात अप्रतिपद्यमान या अनुभयस्थान कहते है ।
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लब्धि अक्षर
६. एकान्तानुवृद्धि संयम व संयमासंयम लब्धिस्थानोंके लक्षण
६/१६ - ८, १४/२७३ / १८ / विशेषार्थ-सयतासंयत होनेके प्रथम समय से लेकर जो प्रतिसमय अनन्तगुणी विशुद्धि होती है, उसे एकान्तानुवृद्धि कहते हैं । (अन्यत्र भी यथायोग्य जानना ) ।
७. जघन्य व उत्कृष्ट संयम व संयमासंयम कब्धिका स्वामित्व
४१५
१/१६-०१४/२०१/१ उास्सिया नदी कस्स संजदासंजदस्स सव्वविशुद्धस्स से काले सजमगाहयस्स । जहणणया लद्धी कस्स । सम्पा ओग्गस किलिट् स से काले मिच्छत गाहयस्स सर्वविशुद्ध और अनन्तर समयमे संयमको ग्रहण करनेवाले संयतासयत के उत्कृष्ट सयमासयम लब्धि होती है । जघन्य लब्धि के योग्य सक्लेशको प्राप्त और अनन्तर समयमे मिथ्यात्वको प्राप्त होनेवाले संयतासंयत के जन्य सयमासंयम सधि होती है व सा / / १८४ / २३५) ।
ध. ६/१,६ - ८,१४/२८५ - २०६/६ एत्थ जहण तप्पा ओग्गस किलेसेण सामाइट्ठाणाभिमुहचरिमसमए होदि । उक्तस्सं सव्व विशुद्धपरिहारमुद्धिसदस्य 1 सामाइयच्छेदोवद ठावनियाम उस्सयसमा सम्पविद्धस्स से काले सुमसाइसज डिज्जमागस्स । एदेसि जहां मिच्यन्त गच्छतचरिमसमर होदि । सुहुमसापराइयस्स एदाणि सजमठाणाणि । तत्थ जहणं अणिय ठोठा से काले पतिस मस्स होदि उस्कर स्त्रीसागुणं परिवज्जमागरस चरिमसमर भवदि । = जघन्य संयमलब्धि स्थान तत्प्रायोग्य संक्लेश से सामायिकछेदोपस्थापना सयम के अभिमुख होनेवालेके अन्तिम समय में होता है। और उत्कृष्ट सर्व विशुद्ध परिहार विशुद्ध संयतके होता है । सामायिक छेदोपस्थापना सयमियोका उत्कृष्ट सयम स्थान अनन्तर कालमे सर्व विशुद्ध सूक्ष्म-साम्परायिक संयमको ग्रहण करने वालेके होता है। इनका जघन्य मिथ्यात्वको प्राप्त होने वाले के अन्तिम समय में होता है। इसी कारण उसे यहाँ नहीं कहा है। सूक्ष्म-साम्परायिक संयमीके ये संयम स्थान है उनमें जघन्य सयम स्थान अनन्तर कालमे अनिवृत्तिकरण गुणस्थानको प्राप्त करनेवाले सूक्ष्मसाम्परायिक समीके होता है, और उत्कृष्ट स्थान क्षीणकषाय गुणस्थानको प्राप्त होनेवाले सूक्ष्मसाम्परायिक समीके अन्तिम समय में होता है ( सा./ ए / २०२-२०४)
...
दे० लब्धि /२/२ (सात प्रकृतियोके क्षयसे अविरतके जघन्य तथा घाति कर्म के क्षमसे परमात्मा कृष्टाधिक लब्धि होती है।
८. भेदातीत कधि स्थानोंका स्वामित्व
घ. ६/१.१-८/१४/२८६/६ एवं जहारवादसंजमट्ठाण उनसंतखीणजोगि जोगीणमैक्क चैन स्मदिरित होदि. कसायाभावादो । = यह यथाख्यात संयम स्थान उपशान्तमोह क्षीणमोह, सयोगिकेवली और अयोगिकेवली, इनके एक ही जघन्य व उत्कृष्टके भेदोसे रहित होता है, क्योंकि इन सत्रको पायोका अभाव है लब्धि अक्षर० अर
लब्धि अपर्याप्त दे० लब्धि विधान व्रत विधि तीन प्रकारसे वर्णन की गयी है - प्रथम विधि-भादो, माघ व चैत्रकी शु. १, ३ को उपवास तथा २, ४ को पारणा करे। इस प्रकार छह वर्ष पर्यन्त करे । तथा 'ओ ही महावीराय नमः' इस मन्त्रका त्रिकाल जाप करे । ( व्रत
-
लांतव
विधान ४) द्वितीय विधि-तीन वर्ष पर्यन्त भादो माघ व चैत्र मासमें कृ. १५ को एकाशन, १-३ को तेला तथा ४ को एकाशन करे तथा उपरोक्त मन्त्रका त्रिकाल जाप करे । ( व्रतविधान से पू. २४) तृतीय विधिप्रतिवर्ष भादो माघ व चैत्रमें शु. १, ३ को एकाशन और २ को उपवास । तथा उपरोक्त मन्त्रका त्रिकाल जाप करे (विधान से पृ ५४ ) ।
लब्धि संवेग - दे० संवेग |
लब्धिसार आ. नेमिचन्द्र सिद्धान्तचक्रवर्ती ( ई. श. ११ का पूर्वार्ध) द्वारा रचित मोहनीय कर्म के उपशम विषयक ३६१ गाया प्रमाण प्राकृत गाथाबद्ध ग्रन्थ है । इस ग्रन्थकी नेमिचन्द्रकृत संस्कृत सजीवनी टोका तथा प टोडरमल (ई. १७३६ ) कृत भाषा टीका प्राप्त है । (जै./१/३८१, ४१२) (ती / २ / ४२३, ४३२) | लयनकर्म-दे०/४।
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ललितकीर्ति
१. यश कीर्ति न ३ के गुरु और रत्ननन्दि द्वि. के शिक्षा गुरु । समय- तदनुसार वि. १२७१ (ई. १२१४) । २ काष्ठा सभी गति के शिष्य एक मन्त्रवादी कृतिमहापुराण टीका. नन्दीश्वर व्रत आदि २३ कथाये। टोका का रचनाकाल वि. १२८५६ (ती / ३ / ४५२) ।
1
ललितांगदेव - म. प्र./ सर्ग / श्लोक "सन्देखनाने प्रभाव उत्पन्न ऐशान स्वर्गका देव (५ / २३१-२५४) नमस्कार मन्त्र के उच्चारण पूर्वक इसने शरीर छोटा (६/२४-१५) वह ऋषभनाथ भगवान्का पूर्वका आठवाँ भव है - दे० ऋषभदेव । लल्लक - षष्ठ नरकका तृतीयपटल- दे० नरक / ५ /११ | लव- १. कालका प्रमाण विशेष ६० गणित / I / १/४२ प.पु / सर्ग / श्लोक "परित्यक्त सीताके गर्भ से पुण्डरीकके राजा वज्रजंधके घर उत्पन्न रामचन्द्र पुत्र थे ( १००/१७-१८ ) । सिद्धार्थ नामक क्षुल्लकसे विद्या प्राप्त की ( १००/४७) । नारदके द्वारा रामकी प्रशंसा तथा किसी सीता नामक स्त्रीके साथ उनका अन्याय सुनकर रामसे युद्ध किया (१०२/४५) राम सक्ष्मणको युद्धमें हार जाना। अन्तमें पिता पुत्रका मिलाप हो गया । ( १०३ / ४१,४७ ) । अन्तमे मोक्ष प्राप्त किया (१२३ / २ ) | लवणतापि
- आकाशोपपन्न देव - दे० देव / II / ३ । लवणसागर-१ मध्य लोकका प्रथम सागर दे० लोक /४/१ । २. रा.वा./२/०/२/१६६/२६ लवणरसेनाम्बुना योगास समुद्रो यणोद इति संज्ञायते । = खारे जलवाला होनेसे इस समुद्रका नाम लवणोद पड़ा है। (रा. बा./१/१३/८/१६४/१०) ।
लवपुर वर्तमान लाहौर (म. प्र. ४६/५. पन्नालाल ) |
लांगल - सनत्कुमार स्वर्गका पाँचवाँ पटल व इन्द्रक - दे० स्वर्ग /५/३ | लांगलस्वस्तिका - भरतक्षेत्रस्थ आर्यखण्डकी एक नदी - दे०
मनुष्य / ४०
-
लांगलावर्त - १. पूर्व विदेहका एक क्षेत्र - ३० लोक ५ / २ । २ पूर्व विदेहस्थ नलिन वक्षारका एक कूट- दे० लोक ५/४१३ पूर्व विदेहके नलिन वक्षारपर स्थित लांगलावर्त कूटका रक्षकदेव - दे० लोक /५/४ लांगलिकागति ०२
लांतव -१ कल्पवासी देवोका एक भेद-दे० स्वर्ग / ३ । २ लातव देवस्थान दे० स्वर्ग / २ / ३१ कम स्वर्गीका सातयों क - ३० स्वर्ग /५/२ । ४ लातत्र स्वर्गका प्रथम पटल व इन्द्रक - दे० स्वर्ग २२२ ॥
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लाक्षा वाणिज्यकर्म
लाक्षा वाणिज्यकर्म - दे० सावध ३५०
लाघव-भ. बा./वि./२४४/४६६/५ शरीरस्य लाघवगुणो माहोन तपसा भवति । सधुशरीरस्य आवश्यकक्रिया शुकरा भवन्ति । स्वाध्यायध्याने चाक्लेश संपाद्य भवतः । तपश्चरणसे देहमें लाघव गुण प्राप्त होता है अर्थात् शरीरका भारीपन नष्ट होता है जिससे आवश्यकादि क्रिया सुकर होती है, स्वाध्याय और ध्यान क्लेशके बिना किये जाते है ।
लाट — गुजरात के प्राचीन काल में तीन भाग थे। उनमें से गुजरातका मध्य व दक्षिण भाग लाट कहलाता था । ( म. पु. प्र. / ४६ । पन्नालाल ) ( क. पा. १२/प्र. ७३)
लाटी संहिता - राजमहीने ई. १५०४ में रचा था। यह -षं श्रावकाचार विषयक ग्रन्थ है। इसमें ७ सर्ग और कुल १४०० श्लोक हैं । (तो /४/८०) ।
लड़बागड़ संघ - ० इतिहास ६/७ दे० /
लाभ
१. काम सामान्यका लक्षण
घ. ११/५.२.६२/३३४/२ इच्चिदट्ठोबली साहो णाम बताहो। इच्छित अर्थको प्रातिका नाम लाभ है १२०/३८६/१३) और इससे विपरीत अर्थात् न होना अलाभ है। 1
विवरीयो घ. १३/२-२० अर्थको प्राज्ञिका
२. क्षायिक लाभका लक्षण
स.सि./२/४/१६४/५ नामान्तरायस्याशेषस्य निरासात् परित्या हार क्रिपाणी केवलिना यत शरीरबलाधानहेतवोऽन्यमनुजासाधारणाः परमशुभाः सूक्ष्मा अनन्ता प्रतिसमयं पुद्गला संबन्धमुपयान्ति स क्षायिको लाभ' | = समस्त लाभान्तराय कर्मके क्षयसे करलाहार क्रियासे रहित केवलियोंके क्षायिक लाभ होता है जिससे उनके शरीरको बल प्रदान करनेमें कारणभूत दूसरे मनुष्योंको असाधारण अर्थाव कभी प्राप्त न होनेवाले परम शुभ और सूक्ष्म ऐसे अनन्त परमाणु प्रति समय सत्रन्धको प्राप्त होते है । (रा. वा. / २ / ४/२/ १०४ / ३० )
३. क्षायिक लाम सम्बन्धी शंका समाधान
घ. १४/५०६, १८/१७/३ अरहंता नदि खीणताहंतराच्या तो तैसि सम्ब त्योवलभो किण्ण जायदे। सच्च, अत्थि तेसि सव्त्रत्थोवल भी, गायत्ताणत्तादो । प्रश्न- अरहन्तोके यदि लाभान्तराय कर्मका क्षय हो गया है तो उनको सब पदार्थों की प्राप्ति क्यो नही होती ? उत्तर - सत्य है, उन्हे सब पदार्थों की प्राप्ति होती है, क्योंकि उन्होंने अशेष भुवनको अपने आधीन कर लिया है। लाभांतराय कर्म दे० अन्तराय ।
लिंगसाधु आदिके बाह्य वेषको लिंग कहते है। जैनाम्नाय में वह तीन प्रकारका माना गया है- साधु, आर्यिका व उत्कृष्ट श्रावक । ये तीनों ही द्रव्य व भावके भेदसे दो-दो प्रकार के हो जाते हैं । शरीरका वैष द्रव्यलिग है और अन्तरंगी वीतरागता भावलिग है। भावसिंग सापेक्ष ही द्रव्यलिग सार्थक है अन्यथा तो स्वांग मात्र है ।
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१. लिंग सामान्य निर्देश
१. लिंग शब्दके अनेक अर्थ
न्या. वि. /टी /२/१/१/८ साध्याविनाभावनियमनिर्णयै कलक्षणं वक्ष्यमाणं लिङ्गम् । = साध्य के अविनाभावी पनेरूप नियमका निर्णय करना ही जिसका लक्षण है वह लिंग है ।
लिंग
ध. १/१.१.३५/२५०/4] उपभोक्तुरात्मनोऽनिवृत्तकर्मसंमन्यस्य परमेश्वरशक्तियोगादिन्द्रमहंस स्वयमर्थाच गृहीतुमसमर्थस्योपयो गोपकरणं लिहमिति कथ्यते। जिसके कर्मो का सम्बन्ध दूर नही हुआ है, जो परमेश्वररूप शक्तिके सम्बन्धसे इन्द्र सज्ञाको धारण करता है. परन्तु जो स्वत पदार्थोंको ग्रहण करनेमें असमर्थ है. ऐसे उपभोक्ता आत्माके उपयोगके उपकरणको लिंग कहते है ० इंद्रिय/१/१) । ध. १२/२.२.४३/२४५/६ शिक्वर्ण लिंग अग्नहाय लिख लिगका लक्षण अन्यथानुपपत्ति है।
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भ. आ/वि./१०/११४/२ शिक्षादिक्रियाया भक्ताश्याख्यानक्रियाभूताया योग्यपरिकरमादर्शयितु लोपादानं कृतम् कृतपरिक हि कर्ता क्रियासाधनायोद्योगं करोति लोके । तथा हि घटादिप्रकरणे प्रवर्तमाना दृढबद्धकक्षा कुलाला दृश्यन्ते । - शिक्षा, विनय समाधि वगैरह क्रिया भक्त प्रत्याख्यानकी साधन सामग्री है। उस सामग्रोका यह लिंग योग्य परिकर है यह सूचित करनेके लिए बहके अनन्तर लिगका विवेचन किया है। सर्व परिकर सामग्री जुटनेपर जैसे कुंभकार घट निर्माण करता है वैसे अर्ह-योग्य व्यक्ति भी साधन सामग्री से युक्त होकर सल्लेखनादि कार्य करनेके लिए सन्नद्ध होता है । लिग शब्द चिह्नका वाचक है।
प्र. सा./त.प्र./ १७२ लिङ्गैरिन्द्रियै लिङ्गादिन्द्रियगम्याद धूमादग्नेरिवलिनोपयोगायले. लिस्य मेहनाकारस्य नि स्त्रीपुन्नपुंसक वेदानां .. लिङ्गानां धर्मध्वजानां .. लिड्गं गुणो ग्रहणमोघोलि पर्यायो ग्रहण नवोघो... सिद्ध प्रत्यभिज्ञान१.मोके द्वारा अर्थात् इन्द्रियो के द्वारा २ जैसे ऐसे अग्नि ग्रहण (ज्ञान) होता है, उसी प्रकार लिंग द्वारा अर्थात इन्द्रियगम्य (इन्द्रियो जानने योग्यचिह्न) द्वारा ३. लिग द्वारा अर्थात उपयोग नामक लक्षण द्वारा; ४ लिगका अर्थात ( पुरुषादिकी इन्द्रियका आकार ) का ग्रहण; ५. लिगका अर्थात स्त्री, पुरुष, नपुंसक वेदोंका ग्रहण; ६. लिंग अर्थात् गुणरूप ग्रहण अर्थात् अर्थावमोचन अर्थात पर्यायरूप ग्रहण अर्थाय अर्थावबोध विशेषः ८ सिंग अर्थात प्रत्यभिज्ञानका कारण रूप ग्रहण अर्थात अर्थाविषोध सामान्य
स्त्री पुरुष व नपुंसक लिंग दे० द
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१. इव्य भाव लिंग निर्देश
म्. आ./ १०८ अच्चेलक्क लोचो बोसट्टसरीरदा य पडिलिहणं । एसो हु लिगप्पो चदुविधो होदि णादव्वो । १०८१ = अचेलकत्व, केशलोच, शरीरसंस्कारका रयाग और पौधी ये चार सिगके भेद जानने चाहिए ।
प्र. सा./ /२००-२०६ नधजादरूवाद उपादि ससुगं सुधं । रहि हिसादी प२ि०५ । मुखारं भवितं जुत्त उवजोगजोगसुद्धीहि । लिगं ण परावेक्खं अपुणभवकारणं जेहं | २०६ | जन्म समयके रूप जैसा रूपवाला, सिर और दाढीमूँछ के बालोका लोच किया हुआ, शुद्ध ( अकिचन ) हिसा दिसे रहित और प्रतिकर्म ( शारीरिक शृंगार से रहित सिंग ( श्रामण्यका बहिर चिह्न) है | २०३॥ सू (ममरण) और आरम्भ रहित, उपयोग और योगकी शुद्धिसे युक्त तथा परकी अपेक्षासे रहित ऐसा
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२. भावलिंगकी प्रधानता
जिनेन्द्रदेव कथित ( श्रामण्यका अन्तरंग) लिंग है जो कि मोक्षका कारण है ।२०६। भा, पा./मू/१६ देहादिसंगरहिओ माणकसाएहि सयल परिचत्तो।
अप्पा अप्पम्मिरओ स भावलिगी हवे साहू। जो देहादि के परिप्रहसे रहित, मान कषायसे रहित है, अपनी आत्मामें लीन है, वह साधु भाव लिगी है ।५६
मरण करे। तथा जिस श्राविकाने अपना परिग्रह कम किया है वह एकान्त वसतिकामें उत्सर्ग लिग-नग्नता धारण कर सकती है। * उत्सग व अपवाद लिंगका समन्वय-दे० अपवाद ।
२. भावलिंगकी प्रधानता
३. मुनि आर्यिका आदि लिंग निर्देश द पा/मू /१८ एवं जिणस्स रूवं बीय उक्किट्ठसावयाणं तु। अवरदिव्याण तइयं चउत्थ पुण लिंगदसणं णत्थि।१८।दर्शन अर्थात शास्त्र में एक जिन भगवानका जैसा रूप है वह लिग है। दूसरा उत्कृष्ट श्रावकका लिंग है और तीसरा जघन्य पदमें स्थित आर्यिका
का लिंग है। चौथा लिंग दर्शनमें नहीं है। दे. बेद/७ ( आर्यिका का लिग सावरण ही होता है)।
४. उत्सर्ग व अपवाद लिंग निर्देश भ. आ/म् /७७-८१/२०७-२१० उस्सग्गिय लिगकदस्स लिंगमुस्सग्गियं तयं चेव । अववादियलिगस्स वि पसत्थमुवसग्गियं लिंग ७७। जस्स वि अव्यभिचारी दोसो तिहाणिगो विहारम्मि । सो विहु सथारगदो गेग्हेज्जोस्मुग्गिय लिगं ७८/ आवसधे वा अप्पाउग्गे जो वा महडिओ हिरिम। मिच्छजणे सजणे वा तस्स होज्ज अववादिय लिग ७१। अच्चेलक्कं लोचो वोसट्टसरीरदा समडिलिहणं । ऐसोही लिंगकप्पो चदुविही होदि उस्सग्गे ।८०। इत्थीवि य ज लिंग दि उस्सग्गियं व इदरं वा। त तह होदि हु लिंग परित्तमुवधि रेतीए ।८१ भ. आ./वि/८०/२१०/१३ लिङ्ग तपस्विनीना प्राक्तनम् । इतरासा पुसामित्र योज्यम् । यदि महद्धिका लज्जावती मिथ्यादृष्टि स्वजनाच तस्या प्राक्तनं लिङ्ग' विविक्ते आवसथे, उत्सर्गालिगवा सकलपरिग्रहत्यागरूपम् । उत्सर्गलिंग कथं निरूप्यते स्त्रीणामित्यत आह-तत् उत्सर्गलिड्ग तत्थ स्त्रीणा होदि भवति । परित्तं अल्पम् । उवधि परिग्रहम् । करेतीए कुर्वत्या'।१, संपूर्ण परिग्रहोका त्याग करना उत्सर्ग है। सम्पूर्ण परिग्रहोंका त्याग जब होता है उस समय जो चिह्न मुनि धारण करते है उसको औत्सर्गिक कहते है अर्थात नग्नताको औत्सर्गिक लिग कहते हैं। यतीको परिग्रह अपवादका कारण है अतः परिग्रह सहित लिगको अपवाद लिंग कहते है। अर्थात अपवाद लिंग धारक गृहस्थ जब भक्त प्रत्यारख्यानके लिए उद्यत होता है तब उसके पुरुष लिगमें कोई दोष न हो तो वह नग्नता धारण कर सकता है ।७७॥ २ जिसके लिगमें तीन दोष (दे० प्रव्रज्या/१/४ ) औषधादिकोसे नष्ट होने लायक नहीं है वह वसतिकामे नब सस्तरारूढ होता है तब पूर्ण नग्न रह सकता है। सस्तरारोहणके समयमें ही वह नग्न रह सकता है अन्य समयमे उसको मना है 1७८॥ ३ जो श्रीमान्, लज्जावान है तथा जिसके बन्धुगण मिथ्यात्व युक्त हैं ऐसे व्यक्तिो एकान्त रहित वसतिकामें सवस्त्र ही रहना चाहिए ।७४॥ ४, वस्त्रों का त्याग अर्थात् नग्नता, लोच -हाथसे केश उखाड़ना, शरीरपरसे ममत्व दूर करना, प्रतिलेखन प्राणि दयाका चिह्न-मनरपिच्छका हाथमें ग्रहण, इस तरह चार प्रकारका औत्सर्गिक लिंग है 1001 ५. परमागम में स्त्रियो अर्थात् आर्यिकाओका और श्राविकाओंका जो उत्सर्गलिंग अपवाद लिंग कहा है वही लिंग भक्तप्रत्यारण्यानके समय समझना चाहिए। अर्थात् आयिकाओंका भक्तप्रत्याख्यानके समय उत्सर्ग लिंग विविक्त स्थानमें होना चाहिए अर्थात वह भी मुनिवत् नग्न लिंग धारण कर सकती है ऐसी गमाज्ञा है।६.परन्तु श्राविकाका उत्सर्ग लिग भी है और अपवाद लिग भी है। यदि वह श्राविका संपत्ति वाली, लज्जावती होगी, उसको बाधवगण मिथ्यात्वी हो तो वह अपवाद लिग धारण करे अर्थात् पूर्ववेषमें ही
१. साधु लिंगमें सम्यक्त्वका स्थान भ, आ./म् /७७०/8RE. लिगरगहण च देसण विहणं जो कुणदि णिरत्थयं कुणदि ७७०/- सम्यग्दर्शन रहित लिग अर्थात मुनि दीक्षा धारण करना व्यर्थ है। इससे मुक्तिकी प्राप्ति नहीं हो सकती। (शी. पा./म् 1 )। 1. सा./मू./८७ कम्मु ण खवेइ जो हू परब्रह्म ण जाणेइ सम्मउमुक्को ।
अत्यु ण तत्थु ण जीवो लिंग घेत्तूण किं करई १८७१ = जो जीव परब्रह्मको नही जानता है, और जो सम्यग्दर्शनसे रहित है। वह न तो गृहस्थ अवस्थामें है और न साधु अवस्थामें है। केवल लिगको धारण कर क्या कर सकते है। कर्मों का नाश तो सम्यक्त्वपूर्वक जिन लिंग धारण करनेसे होता है। दे० विनय/४/४ (द्रव्य लिंगी मुनि अर्सयत तुल्य है।) रा वा./६/४६/११/६३७/१५ दृष्ट्या सह यत्र रूपं तत्र निर्ग्रन्थव्यपदेश' न रूपमात्र इति । -जहाँ सम्यग्दर्शन सहित निग्रंथरूप है वही निर्ग्रन्थ है। ध.१/१,१.१४/१७७/५ आप्तागमपदार्थेष्वनुत्पन्नश्रद्धस्य त्रिमूढालीढचेतस'
संयमानुपपत्ते । सिम्यक् ज्ञात्वा श्रद्धाय यत संयत इति व्युत्पत्तितस्तदवगते । आप्त, आगम, पदार्थों में जिस जीवके श्रद्धा उत्पन्न नहीं हुई है, तथा जिसका चित्त मूढताओसे व्याप्त है, उसके संयमकी उत्पत्ति नहीं हो सकती। • भले प्रकार जानकर और श्रद्धान कर जो यम सहित है उसे संयत कहते है। सयत शब्दकी इस प्रकार व्युत्पत्ति करनेसे यह जाना जाता है कि यहाँपर द्रव्य संयमका प्रकरण नहीं है ( और भी दे० चारित्र/३/८)। प्र. सा./त प्र./२०७ कायमुत्सृज्य यथाजातरूप आनम्ब्य व्यवतिष्ठमान उपस्थितो भवति, उपस्थितस्तु सर्वत्र समग्दृष्टित्वात्साक्षाच्छ्रमणो भवति । कायका उत्सर्ग करके यथाजात रूपबाले स्वरूपको... अवलम्बित करके उपस्थित होता है। और उपस्थित होता हुआ, सर्वत्र समादृष्टित्वके कारण साक्षात श्रमण होता है।
२. माव लिंग ही यथार्थ लिंग है स. सा /मू /४१० ण वि एस मोख मग्गो पासडी गिहिमयाणि लिंगाणि । दसणणाणचरित्ताणि मोक्खमग्ग जिणा विति ।४१०१ (न खलु द्रव्यलिड्ग मोक्षमार्गः )।-मुनियो और गृहस्थोंके लिग यह मोक्षमार्ग नहीं है। ज्ञान दर्शन चारित्रको जिनदेव मोक्षमार्ग कहते है।४१०। ( द्रव्यलिंग वास्तवमें मोक्षमार्ग नही है )। मू. आ/१००२ भावसमणा हु समणा ण सेससमणाण सुग्गई जम्हा। . १००२ भाव श्रमण है वे ही श्रमण है क्योकि शेष नामादि श्रमणोंको सुगति नहीं होती। लि पा.मू/२ धम्मेण होइ लिंग ण लिगमत्तेण धम्मसंपत्ती । जाणेहि भावधम्मं कि ते लिगेण कायवो श-धर्म सहित लिग होता है, लिंग मात्रसे धर्मकी प्राप्ति नहीं होती। इसलिए हे भव्य । तु भावरूप
धर्मको जान, केवल लिंगसे क्या होगा तेरे कुछ नहीं। भा. पा./मू./२,७४,१०० भावो हि पढमलिग ण दलिग च जाणपरमत्थ । भावो कारणभूदो गुणदोसाणं जिणा विति ।। भावो वि दिवसिबसुक्खभायणे भावरज्जिओ सवणो। कम्ममलमलिणचित्तो तिरियालयभायणो पावो ।७४ पावति भावसवणा कल्लाणपर पराई सोक्खाइ। दुक्खाई दबसवणा णरतिरियकुदेवजी
भा० ३-५३
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लिंग
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णीए । १००१ = १ भाव ही प्रथम लिंग है इसलिए हे भव्य जीव । तू द्रव्यलिंगको परमार्थरूप मत जान और गुण दोषका कारणभूत भाव ही है, ऐसा जिन भगवान् कहते है |२| (भा. पा /मू./६,७, ४८, ५४, ४५ ), ( यो, सा अ./५/५७) । २. भाव ही स्वर्ग मोक्षका कारण है। भावसे रहित श्रमण पाप स्वरूप है, तियंच गतिका स्थानक है और कर्ममलसे मलिन है चित्त जिसका ऐसा है 1७४। जो भाव श्रमण है वे परम्परा कल्याण है जिसमें ऐसे सुखों को पाते है। जो द्रव्य श्रमण है वे मनुष्य कुदेव आदि योनियोमें दुख पाते है । १०० । ३. भावके साथ द्रव्य लिंगकी व्याप्ति है द्रव्यके साथ भावकी नहीं
स. सा / ता वृ./ ४९४/५०८/१६ बहिरङ्गदव्यलिङ्गे सति भावलिगं भवति न भवति नियमो नास्ति, अभ्यन्तरे तु भावसिङ्गे सति सगपरिध्यागरूप यति भवस्येवेति बहिरंग द्रव्यलिग के होनेपर भावलिंग होता भी है, नहीं भी होता, कोई नियम नहीं है । परन्तु अभ्यन्तर भावलिग के होनेपर सर्व संग ( परिग्रह ) के त्याग रूप बहिरंग द्रव्यलिंग अवश्य होता ही है । मो. मा प्र /६/४६२ / १२ मुनि लिग धारे बिना तो मोक्ष न होय, परन्तु मुनि लिग धारे मोक्ष होय भी अर नाही भी होय ।
* पंचमकाल भरतक्षेत्रमें भी भाव लिंगकी सम्भावना -३० संयम / २
३. द्रव्यलिंग को कथंचित् गोणता व प्रधानता
१. केवळ बाह्य लिंग मोक्षका कारण नहीं
दे. वर्ण व्यवस्था / २ / ३ ( लिंग व जाति आदिसे ही मुक्ति भावना मानना मिथ्या है | )
फ -
स. सा./मू / ४०८ - ४१० पासंडी लिगाणि व गिहिलिगाणि व बहुप्पयाराणि । चित्तु वदति मूढा लिगमिणं मोक्रवमग्गो त्ति ४०८ | दु हो मोरो लिगं ण देहनिम्ममा अरिहा टिगं ि दसणणाणचरिताणि संयंति । ४०६ ॥ णवि एस मोक्खमग्गो पासंडीमहाणि निगा ४९०१ बहुत प्रकारके मुनिसिनोको अथवा लिंगाणि गृहीनोको ग्रहण करके मूड (अज्ञानी) जन यह कहते है कि 'यह लिग मोक्षमार्ग है परन्तु लिंग मोक्षमार्ग नहीं है क्योंकि देव देहके प्रति निर्मम हुए लिंगको छोडकर दर्शन ज्ञान चारित्रका सेवन करते है । ४०६। मुनियो और गृहस्थोके लिग यह मोक्षमार्ग नही है । ४१०१
. आ / १०० सिग्गणं च सजवि जो कुणइ णिरत्थयं कुणदि । =जो पुरुष संयम रहित जिन लिग धारण करता है, वह सब निष्फल है ।
भा/७२ रामसंगजुत्ता जिराभाववरहियदव्य विग्गंथा न लहंति ते समाहि बोहि जिणसासणे विमले ॥७२॥ जो मुनि राग अर्थात् अन्तरग परिग्रहसे युक्त है, जिन स्वरूपकी भावनासे रहित है निर्गन्ध है। उसे जिनशासनमें कहीं समाधि और बोधकी प्राप्ति नही होती ॥७२॥ सश./मू / ८७ लिङ्ग' देहाश्रित दृष्ट देह एवात्मनो भव । न मुच्यन्ते भवात्तस्माते ये लिङ्गकृताग्रहा 1८७ = लिग (वेष ) शरीर के आश्रित है, शरीर ही आत्माका संसार है, इसलिए जिनको लिंगका ही आग्रह है वे पुरुष ससारसे नहीं छूटते
योसा अ/५/५६ शरीरमात्मनो भिन्न लिड्गं येन तदात्मकम् । न मुक्तिकारणं लिङ्गं जायते तेन तत्त्वत ॥५६॥ - शरीर आत्मासे भिन्न है और लिंग शरीर स्वरूप है इसलिए आत्मासे भिन्न होनेके कारण निश्चय नयसे लिंग मोक्षका कारण नहीं ॥५६॥
३.
२. केवल इव्यलिंग अकिंचिरकर व व्यर्थ है
मो. पा. / / ५७ णाणं चरितहीणं दसणहीण तबेहि सजुत्तं । अण्णेसु भावरहिय लिगरगहणेण कि सोक्ख ॥५७॥ - जहाँ ज्ञान चारित्रहीन है, जहाँ तपसे तो सयुक्त है पर सम्यक्त्व से रहित है और अन्य भी आवश्यकादि क्रियाओंमें शुद्ध भाव नही है ऐसे लिगके ग्रहण में कॉल है।७
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भा. पा / मू / ६,६८,१११ जाणहि भानं पढमं कि ते लिगेण भावरहिएण । पथिय । सिव पुरिपंथ जिणउवइट्ठ पयत्तेण । ६ । जग्गो पाव दुक्खं णग्गो संसारसागरे भमति । जग्गोण लहइ बोहि जिणभाव सेवहि उहिलिग अन्तरलिंगसुद्ध माग्यो माहिर लिगमक होइ फुड भावरहिया १११ है मुने मोक्षका मार्ग भाव हो से है इसलिए तू भाव ही को परमार्थभूत जान अंगीकार करना, केवल द्रव्यमात्र से क्या साध्य है। कुछ भी नहीं । ६। जो नग्न है सदा दुख पावे है, संसार में भ्रमता है। तथा जो नग्न है वह सम्यग्दर्शन, ज्ञान व चारित्रको नहीं पाता है सो कैसा है वह नग्न, जो कि जिन भावनासे रहित है । है सुनियर तुम्यन्तरकी शुद्धि पूर्वक चार प्रकारके लिंगको धारण कर। क्योकि भाव रहित केवल बाह्यलिंग अकार्यकारी है । १११ । ( और भी भापा / २८.३४.८१.२६)।
लिंगकी कथंचित् गोणता व प्रधानता
३. माव रहित द्रव्य लिंगका अत्यन्त तिरस्कार
मो. मा. / / ६१ बाहिरलिगेन जुदो अन्तरनिरहियपरियम्मी । सो चरिट्टी मोहविणासो साहू ६
लिग युक्त है और अभ्यन्तर लिंगसे रहित है और जिसमें परिवर्तन है । वह मुनि स्वरूपाचरण चारित्रसे भ्रष्ट है, इसलिए मोक्षमार्ग का विनाशक है।६१०
दे० लिंग / २ / २ (द्रव्यलिंगी साधु पापमोहित यति व पाप जीव है। नरक ब तिथंच गतिका भाजन है । )
भा पा / ४६,६६,७९,६० दंडयणयर सयलं डहिओ अब्भंतरेण दोसेण । जिलिगेण वि बाहू पडिओ सो रउरवे णरये |४| अयसाण भायणेण कि ते पानमतिने पैसुहासमच्छर मायाबहुज सवणेण । ६६ । धम्मम्मि णिप्पवासो दोसावासो य उच्छ्रफुल्लसमो । णिप्फलणिग्गुणयारो उसवणो णग्गरूवेण ॥ ७१ • मा जणरंजणकरणं बाहिरवयवेस तं कुण १० = बाहू नामक मुनि बाह्य जिन लिग युक्त था। तो भी अभ्यन्तर दोषसे दण्डक नामक नगरको भस्म करके सप्तम पृथिवीके रौरव नामक बिल में उत्पन्न हुआ |४|| हे मुनि । तेरे नग्नपनेसे क्या साध्य है जिसमे पैशुन्य, हास्य, मत्सर, माया आदि परिणाम पाये जाते है। इसलिए ऐसा ये नग्नपना पापसे मलिन और अपकीर्तिका स्थान है । ६६ । जो धर्म से रहित है, दोषोका निवास स्थान है। और इच्छु पुष्पके सदृश जिसमें कुछ भी गुण नहीं है, ऐसा मुनिना तो नग्नरूपम अर्था नाचने वाला भॉड सरीखा स्वाग है । ७१ । हे मुने । तू बाह्यव्रतका वेष लोकका रजन करने वाला मत धारण कर ||
न
मोक्षमार्ग मोक्षमार्ग
स.सा./ / ४११ नहीं है।
★ इयलिंगी की सूक्ष्म पहचान दे० सा * अन्य लिंगोको दिये गये घृणास्पद नाम
-दे० निन्दा | * पुलाक आदि साधु द्रव्यलिंगी नहीं - दे० साधु/५ ।
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लिंग
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४.द्रव्य व भावलिंगका समन्वय
होता धारण करने सवा स्पर्शनात क्रिया,
वीर्याचार, धारण किय
महागुण मुनिरत्याग करनेसे
४. द्रव्य लिंगकी कथंचित् प्रधानता भा.पा/टी./२/१२६ पर उद्धृत-उक्त चेन्द्रनन्दिना भट्टारकेण समयभूषणप्रवचने-द्रव्य लिङ्ग समास्याय भावलिङगी भवेद्यति । विना तेन न बन्दा स्थान्नानावतधरोऽपि सन् १॥ द्रव्यलिङ्गमिद ज्ञेयं भावलिङ्गस्य कारणम् । तदध्यात्मकृतं स्पष्ट न नेत्रविषयं यत ।। -इन्द्रनन्दि भट्टारकने समय भूषण प्रवचन में कहा है कि द्रव्यलिंगको भले प्रकार प्राप्त करके यति भावलिगी होता है। उस द्रव्यलिगके बिना वह वन्द्य नहीं है, भले ही नाना वतोंको धारण क्यों न करता हो। द्रव्यको भावलिंगका कारण जानो । भावलिंग तो केवल अध्यात्म द्वारा ही देखा जा सकता है, क्योकि वह नेत्रका विषय नहीं है। दे० मोक्ष//५ (निर्ग्रन्थ लिगसे ही मुक्ति होती है।) दे० वेद/७ ( सवन होनेके कारण स्त्रीको संयतत्व व मोक्ष नहीं होता।)
५. मरत चक्रीने भी द्रव्यलिंग धारण किया स. सा./ता. वृ/४१४/३०८/२० येऽपि घटिकाद्वयेन मोक्षं गता भरतचक्रवादयस्तेऽपि निग्रंथरूपेणैव । परं किन्तु तेषा परिग्रहत्यागं लोका न जानन्ति स्तोककालत्वादिति भावार्थ । जो ये दीक्षाके बाद घडीकाल में ही भरत-चक्रवर्ती आदिने मोक्ष प्राप्त क्यिा है, उन्होने भी निर्ग्रन्थ रूपसे ही ( मोक्ष प्राप्त किया है)। परन्तु समय स्तोक होनेके कारण उनका परिग्रह त्याग लोग जानते नहीं है। प.प्र./टी./२/५२ भरतेश्वरोऽपि पूर्व जिनदीक्षा प्रस्तावे लोचानन्तर हिंसादिनिवृत्तिरूप महावतरूपं कृत्वान्तर्मुहूर्ते गते . निजशुद्धारमध्याने स्थित्वा पश्चान्निविक्ल्पो जात' । पर किन्तु तस्य स्तोककालस्वान्महाव्रतप्रसिद्धिर्नास्ति। =भरतेश्वरने पहले जिनदीक्षा धारण की, सिरके केश लुंचन किये, हिंसादि पापोंकी निवृत्ति रूप 'पच महाबत आदरे। फिर अन्तर्मुहूर्त में निज शुद्धारमाके ध्यानमें ठहरकर निर्विकल्प हुए। तब भरतेश्वरने अन्तर्मुहूर्तमें केवलज्ञान प्राप्त किया परन्तु उसका समय स्तोक है,इसलिए महाव्रतकी प्रसिद्धि नहीं हुई। (द्र. स /टी./५७/२३१/२ ) ।
मोक्षके साधन रत्नत्रय उसका नग्नता चिह्न है । इसमें जगत प्रत्ययता-सर्व जगतकी इसके ऊपर श्रद्धा होना, आत्मस्थितिकरण गुण है ।श ग्रथ त्याग-परिग्रह त्याग, लाघव-हल्कापन, अप्रतिलेखन, परिकम्वर्जना अर्थान् वस्त्र विषय धोनादि क्रियासे रहितपन, गतभयत्व, परिषहाधिवासना आदि गुण मुनि लिंगमें समाविष्ट हुए है।३। निर्वस्त्रता विश्वास उत्पन्न कराने वाली है, अनादर, विषयजनित सुखोंमें अनादर, सर्वत्र आत्मवशता तथा शीतादि परीषहों को सहन करना चाहिए ऐसा अभिप्राय सिद्ध होता है।४। जिनरूप-तीर्थक्रोने जो लिग धारण किया वही मुमुक्षुको धारण करना चाहिए, बीर्याचार, रागादि दोष परिहरण वस्त्रका त्याग करनेसे सर्व रागादि दोष नहीं रहते सब महागुण मुनिराजको मिलते हैं।८। स्पर्शनादि इन्द्रियाँ अपने विषयों में समिति युक्त प्रवृत्ति करती है। स्थान क्रिया, आसन क्रिया, शयनक्रिया, गमनक्रिया. इत्यादि कार्यों में समिति युक्त वर्तते है । गुप्तिको पालनेवाले मुनि शरीरसे प्रेम दूर करते है। इस प्रकार अनेकों गुण नग्नतामें है ।६। अपवादलिंगधारी ऐलक आदि भी अपनी चारित्र धारणकी शक्तिको न छिपाता हुआ कर्म मल निकल जानेसे शुद्ध होता है क्योकि वह अपनी निन्दा गर्दा करता है 'सम्पूर्ण परिग्रहका त्याग करना ही मुक्तिका मार्ग है परन्तु मेरे परिषहों के डरके कारण परिग्रह है' ऐसा मनमें पश्चात्ताप पूर्वक परिग्रह स्वरूप करता है अत उसके कर्म निर्जरा होकर आत्मशुद्धि होती है ।८७१ ( और भी दे० अचेलकत्व )।
२. द्रव्य लिंगके निषेधका कारण व प्रयोजन स. सा./आ/४१०-४११ न खलु द्रव्य लिङ्ग मोक्षमार्ग , शरीरावि तत्वे
सति परद्रव्यत्वात् । दर्शनशानचारित्राण्येव मोक्षमार्ग आत्मालितत्वे सति स्वद्रव्यत्वात् ।४१०। तत. समस्तमपि द्रव्यलिङ्ग त्यक्त्वा दर्शनज्ञानचारित्रे चैव मोक्षमार्गत्वात् आत्मा योक्तव्य इति। - द्रव्य लिग वास्तव में मोक्षमार्ग नही है, क्योकि वह शरीराश्रित होनेसे परद्रव्य है। दर्शन-ज्ञान-चारित्र ही मोक्षमार्ग है, क्योकि वे आत्माश्रित होनेसे स्वद्रव्य है। इसलिए समस्त द्रव्यलिगका त्याग करके दर्शन
ज्ञान चारित्रमें ही वह मोक्षमार्ग होनेसे आत्माको लगाना योग्य है । स. सा./ता, वृ./४१४/५०८/५ अहो शिष्य । द्रव्य लिङ्ग निषिद्धमेवेति त्वं
मा जानीहि कि तु भावलिनरहिताना यतीना संबोधनं कृतं । कथ। इति चेत्, अहो तपोधना. । द्रव्यलिङ्गमात्रेण सतोष मा कुरुत किन्तुद्रव्यलिङ्गाधारेण निर्विकल्पसमाधिरूपभावना कुरुत। .. भावलिङ्गरहित द्रव्यलिङ्ग' निषिद्ध न च भावलिङ्गसहित । क्थ । इति चेत् द्रव्यलिङ्गाधारभुत्तो योऽसौ देहस्तस्य ममत्त्व निषिद्ध हे शिष्य । द्रव्यलिंग निषिद्ध ही है ऐसा तू मत जान । कितु • भाव लिगसे रहित यतियोंको यहाँ सबोधन किया गया है। वह ऐसे कि-हे तपोधन । द्रव्य लिग मात्रसे सन्तोष मत करो किन्तु द्रव्यलिगके आधारसे.. निर्विकल्प समाधि रूप भावना करो। भाव लिग रहित द्रव्यलिंग निषिद्ध है न कि भावलिग सहित । क्योकि द्रव्य लिगका आधारभूत
जो यह देह है, उसका ममत्व निषिद्ध है। स, सा/प जयचन्द/४११ यहाँ मुनि श्रावकके व्रत छुडानेका उपदेश नही है जो केवल द्रव्यलिगको हो मोक्षमार्ग मानकर भेष धारण करते है उनको द्रव्यलिंगका पक्ष छडाया है कि वेष मात्रसे मोक्ष नहीं है। (भा, पा./प जयचन्द ।११३१)
३. ग्यलिंग धारनेका कारण पं वि /१/४१ म्लाने क्षालनत: कुतः कृतजलाद्यारम्भत सयमो नष्टे व्याकुलचित्तताथ महतामप्यन्यतः प्रार्थनम् ।। कौपीनेऽपि हते परैश्च झटिति क्रोध' समुत्पद्यते तन्नित्यं शुचिरागहृत् शमवता वस्त्रं ककुम्मण्डलम् ॥४१॥ न वस्त्रके मलिन हो जानेपर उसके धोने के लिए
४. द्रव्य व भाव लिंगका समन्वय
१. रत्नत्रयसे प्रयोजन हैनग्नताकी क्या आवश्यकता भ. आ./मू./८२-८७/२११-२२२ नन्वईस्य रत्नत्रयभावनाप्रकर्षेण मृतिरुपयुज्यते किममुना लिङ्ग विकल्पोपादानेनेत्यस्योत्तरमाह-जत्तासाधणचिन्हकरण खु जगपच्चयादाठिदिकरणं । गिहभावविवेगो वि य लिगग्गहणे गुणा होति ।८। गंथच्चाओ लाघवमप्पडिलिहणं च गदभयत्तं च । ससज्जणपरिहारो परिकम्म विवज्जणा चेव ।३। विस्सासकर रूवं अणादरो विसयदेहसुक्खेसु । सव्वस्थ अपवसदा परिसहअधिवासणा चेव १८४१ जिणपडिरूवं विरियायारो रागादिदोसपरिहरणं । इच्चेवमादिबहुगा अच्चेलक्के गुणा होति । इय सबसमिदिरणो ठाणासणसयणगमणकिरियासु । णिगिणं गुत्तिमुवगदो पग्गहिददर परक्कमदि ।६। अवधादिय लिगकदो विसयासत्ति अगृहमाणो य। णिदणगरहणजुत्तो सुज्झदि उवधि परिहर तो।८७) -प्रश्न-जो भक्त प्रतिज्ञा योग्य है उसको रत्नत्रयका प्रकर्ष करके मरना योग्य है । उत्सर्ग लिंग अथवा अपवाद लिग धारण करके मरना चाहिए ऐसा हठ क्यों। उत्तर-नग्नता यात्राका साधन है। गृहस्थ वेषसे उनके विशिष्ट गुण ज्ञात न होनेसे गृहस्थ उनको दान न देगे, तब क्रमसे शरीरस्थिति तथा रत्नत्रय व मोक्ष की प्राप्ति कैसे होगी । अत. नग्नता गुणीपनेका सूचक है इससे दानादिकी प्रवृत्ति होती है।
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लिंग
जल एवं साबुन आदिका आरम्भ करना पडता है, और इस अवस्थामें सयमका घात होना अवश्यम्भावी है । वस्त्रके नष्ट होनेपर महान् पुरुषों का भी मन व्याकुल हो जाता है, दूसरोंसे उसको प्राप्त करनेके लिए प्रार्थना करनी पड़ती है। केवल संगोटीका हो अपहरण हो जाये तो फटसे क्रोध होने लगता है इसलिए मुनिजन सदा पवित्र एव रागभावको दूर करनेके लिए दिग्मण्डल रूप अविनश्वर वस्त्रका आश्रय लेते है | ४१|
रा. नाहि. /६/४६1०६६ जो वस्त्रादि ग्रन्थ करि संयुक्त है ते निर्मन्थ नाहीं जाते बाह्य परिग्रहका भाव हो तो बम्यन्तरके ग्रन्थका अभाव होय नाही ।
* द्रव्यलिंगी साधु के ज्ञानकी कथंचित् यथार्थता
- दे० ज्ञान / १ ।
४. जबरदस्ती वस्त्र उदानेसे साधुका लिंग मंग नहीं होता
=
स. सा./ता.वृ./४१४/५०८/१८ हे भगवन् । भावलिङ्ग े सति बहिरङ्ग द्रव्यलिङ्ग भवतीति नियमो नास्ति परिहारमाह- कोऽपि तपोधनो ध्यानरूद्धष्ठित नस्य केनापि दुष्टभावेन वस्त्र आभरणादिक वा कृत तथाप्यसौ निर्ग्रन्थ एव । कस्मात् । इति चेत, बुद्धिपूर्वकममत्वाभावात् । प्रश्न - हे भगवान् । भावलिगके होनेपर ब्रहिरंगद्रव्यलिग होता है, ऐसा कोई नियम नहीं है। उत्तर- इसका उत्तर देते है - जैसे कोई तपोधन ध्यानारूढ बैठा है। उसको किसी ने दुष्ट भावसे (अथवा करुणा भावसे) वस्त्र लपेट दिया अथवा आभूपण आदि पहना दिये तक भी वह निर्धन्य है, क्योंकि बुद्धि पूर्वक ममत्वका उनके अभाव है ।
"
* कदाचित् परिस्थितिवश वस्त्र ग्रहणकी आज्ञा
५. दोनों लिंग परस्पर सापेक्ष हैं
प्रसा / मृ. / २०७ आदाय त पि लिंग गुरुणा परमेण तं णमंसिता । सोच्या सवई किरिये दो होदितो समणो |२००१ -परम गुरुके द्वारा प्रदत्त उन दोनों लिंगोंको ग्रहण करके, उन्हें नमस्कार करके, व्रत सहित क्रियाको सुनकर उपस्थित ( आत्माके समीप - स्थित ) होता हुआ वह श्रमण होता है ॥२०७॥
- दे० अचेलकत्व |
४२०
भा.पा./टी./०३/२१६/२२ भावलिङ्ग ेन द्रव्यलिङ्ग' द्रव्यलिङ्ग ेन भावलिङ्ग' भवतीत्युभयमेव प्रमाणी एकान्तमतेन तेन सबै नष्ट भय तीति दिया और मलिनसे भाव लिंग होता है इसलिए दोनोको ही प्रमाण करना चाहिए। एकान्त मत से तो सर्व नष्ट हो जाता है ऐसा जानना चाहिए ।
६. भाव सहित ही द्रव्यलिंग सार्थक है
-
भाषा / १३ भाषण होइ ग्ो मिसाई दोस उपा दव्वेण मुणी पयडदि लिगं जिणाणाए |७३ | = पहले मिथ्यात्वादि दोषोको छोड़कर भावसे अन्तरंग नग्न होकर एक शुद्धात्माका श्रद्धान-ज्ञान व आचरण करे पीछे द्रव्यसे बाह्य लिंग जिन आज्ञासे प्रकट करे यह मार्ग है । ७३॥
दे लिग / ३ / २ (अन्तर शुद्धिको प्राप्त होकर चार प्रकार बाह्यलिंगका सेवन कर, क्योंकि भावरहित व्यतिग कार्यकारी है)
गोसा अ/५/२०५८ मानिवृतस्य नास्ति निर्वृ तिरेनसा | भागतोऽस्ति वृत्तस्य तात्विक संवृति पुन ५०० विज्ञायति निराकृत्य निवृत्ति द्रव्यतस्त्रिधा । भाव्य भावनिवृतेन समस्तै नोनिषिद्धये |5| जो केवल द्रव्यरूपसे विषयोंसे
दया
निवृत्त है उनके पापोंकी निवृत्ति नहीं, किन्तु भाव रूपसे निवृत्त है उन्ही के कर्मोंका संबर है। ग्रभ्य और भावरूप निवृत्तिका भ प्रकार स्वरूप जानकर मन, वच, कायसे विषयोंसे निवृत्त होकर पापों के नाशार्थ भाव रूपसे विषयोंसे निवृत्त होना
चाहिए
स. सा./ता.वृ./११/५००/१० भावलिङ्गसहितं निर्मण्ययति सिंह.... गृहिलिङ्ग सेति प्रयमपि मोक्षमार्गे व्यवहारनयो मन्यते । - भावलिग सहित निर्ग्रन्थ यतिका लिंग तथा गृहस्थका लिंग है । इसलिए दोनोंको (द्रव्य-भाव ) ही मोक्षमार्ग में व्यवहार नयसे माना गया है। भा पा/प. जयचन्द / २ मुनि श्रावकके द्रव्य तै पहले भावलिंग होय तो सच्चा मुनि श्रावक होय ।
लिंगजभुतज्ञान ३०] [भुतज्ञान/
लिंगपाहुड़-आ० कुन्दकुन्द १० १२०-१०६)
साधु
भाव लिगका प्ररूपक २२ ( प्रा० ) गाथा निबद्ध ग्रन्थ है। इसमे केवल प जयचन्द छावडा ( ई० १८६७) कृत भाषा वचनिका उपलब्ध है 1 (ती० २/११४) । लिंग व्यभिचार-दे० नय/III/t/s
६
लिंग शुद्धि - ३० शुद्धि |
लिपि संख्यात क्रिया - दे० सस्कार / २ |
लिप्त
आहारका एक दोष- दे० आहार / II / ४ / ४ ।
लोख -- क्षेत्रका प्रमाण विशेष - दे० गणित / I/१/३ | लीला विस्तार टीका - श्वेताम्बराचार्य श्री हरिभद्र सूरि ( ई० ४८०-५२८) द्वारा रचित एक ग्रन्थ है ।
लंका- गुजरात देश में 'अणहिल' नगर मे कुलुम्बी वंशीय एक महामानी हुआ जिसने लंकामत ( ढुंढिया मत ) चलाया। समय - वि० १५२७ ( भद्रबाहु चरित / १५७ - १५८ ) ।
लुंकामत -
- इंढिया या स्थानकवासी मतका अपर नाम - दे० श्वेताम्बर ।
लेप आहारका एक भेद ३० आहार //१२ ला ४/२/१० पस्तु ते लाभ्यङ्गादिव यत् । = तेल मर्दन करना, उबटन लगाना आदि लेप कहे जाते है ।
लेपकर्म-दे०/४
लेवड़ - १. आहारका एक भेद - दे० आहार / I / १ । २ भ आ / वि. ७००/८८२/७ दध्यादि । अव अपसहित यन हस्ततलं विलिम्पति | = लेवड जो हाथमे चिपकता है ऐसा पतला पदार्थ दही वगैरह। अलेवड हाथमे न चिपकने वाला मोड ताक वगैरह ।
लेश्या – कषायसे अनुरंजित जीवकी मन, वचन, कायकी प्रवृत्ति भाव लेश्या कहलाती है । आगम में इनका कृष्णादि छह रगो द्वारा निर्देश किया गया है। इनमें से तीन शुभ व तीन अशुभ होती है। राग व कषायका अभाव हो जानेसे मुक्त जीवोको लेश्या नहीं होतो । शरीरके रंगको द्रव्यलेश्या कहते है । देव व नारकियोमे द्रव्य व भाव लेश्या समान होती है, पर अन्य जीवोमे इनकी समानताका नियम नही है । द्रव्यलेश्या आयु पर्यन्त एक ही रहती है पर भाव लेश्या जीवो के परिणामो के अनुसार बराबर बदलती रहती है।
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लेश्या
४२१
सूचीपत्र
| भेद लक्षण व तत्सम्बन्धी शंका समाधान लेश्या सामान्यके लक्षण। लेश्याके भेद-प्रभेद । द्रन्य, भाव लेश्याके लक्षण। कृष्णादि भाव लेश्याओके लक्षण । अलेपाका लक्षण । लेश्याके लक्षण सम्बन्धी शका समाधान । लेश्याके दोनो लक्षणोंका समन्वय ।
२
| कषायानुरञ्जित योग प्रवृत्ति सम्बन्धी १ तरतमताकी अपेक्षा लेश्याओमें छह विभाग।
लेश्या नाम कषायका है, योगका है वा दोनोंका है। ३ । योग व कषायोसे पृथक् लेश्या माननेकी क्या
आवश्यकता। लेश्याका कषायोंमें अन्तर्भाव क्यों नहीं कर देते। | कपाय शक्ति स्थानोंमें सम्भव लेश्या
-दे० आयु/३/१६ । * लेश्यामे कथचित् कषायको प्रधानता
-दे० लेश्या /१/६। * | कायकी तीव्रता-मन्दतामें लेश्या कारण है
-दे० कषाय/३। दव्य लेझ्या निर्देश १ | अपर्याप्त कालमें केवल शुक्ल व कापोत लेश्या
ही होती है। नरक गतिमें द्रव्यसे कृष्णलेश्या ही होती है। जलकी द्रव्यलेश्या शुक्ल ही है। भवनत्रिकमे छहों द्रव्यलेश्या सम्भव है। आहारक शरीरकी शुक्ललेल्या होती है। कपाट समुद्घातमें कापोतलेश्या होती है। भावलेल्या निर्देश लेश्या औदयिक भाव है
-दे० उदया। लेश्यामार्गणामें भावलेश्या अभिप्रेत है। छहों भाव लेश्याओंके दृष्टान्त । लेश्या अधिकारमे १६ प्ररूपणाऐ। वैमानिक देवामि द्रव्य व भावलेश्या समान होती है, परन्तु अन्य जीवोंमें नियम नहीं। द्रव्य व भावलेश्यामें परस्पर कोई सम्बन्ध नहीं।
-दे० सत्। | शुभ लेश्याके अभाबमें भी नारकियोंके
सम्यकवादि कैसे। | भावलेश्याके कालसे गुणस्थानका काल अधिक है। लेश्या नित्य परिवर्तन स्वभावी है-दे० लेश्या/४/५६। लेश्या परिवर्तन क्रम सम्बन्धी नियम ।
मावलेश्याका स्वामित्व व शका समाधान सम्यक्त्व व गुणस्थानोंमें लेश्या । शुभ लेश्यामे सम्यक्त्व विराधित नहीं होता।
-दे० लेश्या/५/१ । चारों ध्यानोंमे सम्भव लेश्याएँ -दे. वह वह ध्यान । कदाचित् साधुमें भी कृष्णलेश्याको सम्भावना।
-दे० साधु/५ । उपरले गुणस्थानोंमें लेश्या कैसे सम्भव है।
केवलोके लेश्या उपचारसे है। -दे० केवली/६। | नरकके एक ही पटलमें भिन्न-भिन्न लेश्याएँ कैसे
सम्भव है। मरण समयमें सम्भव लेश्याएँ। अपर्याप्त कालमें सम्भव लेश्याएँ । अपर्याप्त या मिश्रयोगमें लेश्या सम्बन्धी शंका समाधान१. मिश्रयोग सामान्यमे छहो लेश्या सम्बन्धी। २. मिथ्याष्टि व सासादन सम्यग्दृष्टि के शुभ ग्नेश्या
सम्बन्धी। ३ अविरत सम्यग्दृष्टिके छहो लेश्या सम्बन्धी। कपाट समुद्घातमें लेश्या । चारों गतियों में लेश्याकी तरतमता । लेश्याके स्वामियों सम्बन्धी गुणस्थान, जोवसमास मार्गणास्थानादि २० प्ररूपणा -दे० सत् । लेश्यामें सत् ( अस्तित्व ) मख्या, क्षेत्र, स्पर्शन, काल, अन्तर, भाव ब अल्पबहुत्वरूप आठ प्ररूपणाएँ।
-दे० उह बह नाम । लेश्या पॉच भावों सम्बन्धी प्ररूपणाएँ।
-दे० भाव/21 लेश्या मार्गणामें कर्मोंका बंध, उदय, सत्व ।
दे० वह वह नाम । अशुभ लेश्या तीर्थकरत्वके बन्धकी प्रतिष्ठापना सम्भव नहीं।
-दे० तीर्थंकर/२॥ आयुबंध योग्य लेश्याएँ । -दे० आयु/३। कौन लेश्यासे मरकर कहा जन्मता है -दे. जन्म/६ । शुभ लेश्याओंमें मरण नहीं होता -दे० मरण/४ । लेश्याके साथ आयुबन्ध व जन्म-मरणका परस्पर सम्बन्ध ।
-दे० जन्म/५/७ । सभी मार्गणास्थानों में आयुके अनुसार व्यय होनेका नियम।
---दे० मार्गणा
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लेश्या
४२२
१
. भेद लक्षण व तत्सम्बन्धी शंका समाधान
१.भेद लक्षण व तत्सम्बन्धी शंका समाधान
५. लेश्या सामान्य लक्षण पं.सं./प्रा./१/१४२-१४३ लिप्पइ अप्पी कीरइ एयाए णियय पुण्ण पावं
च । जीवो ति होइ लेसा लेसागुणजागयवखाया ।१४। जह गेरुवेण कुडो लिपइ लेवेण आमपिट्टण। तह परिणामो लिष्पह सुहासुह यत्ति लेवेण ॥१४३ - जिसके द्वारा जीव पुण्य-पापसे अपनेको लिप्त करता है, उनके आधीन करता है उसको लेश्या कहते हैं ।१४२। (ध.१/१,१,४/गा, ६४/१५०); (गो. जी./y /४८) जिस प्रकार आम पिष्टसे मिश्रित गेरु मिट्टोके लेप द्वारा दोवाल लीपी या रंगी जाती है, उसी प्रकार शुभ और अशुम भावरूप लेपके द्वारा जो
आत्माका परिणाम लिप्त किया जाता है उसको लेश्या कहते हैं।१४३॥ ध, १/१,१,४/१४६/६ लिम्पतीति लेश्या ।...कर्मभिरारमानमित्यध्याहारापेक्षित्वाद । अथवात्मप्रवृत्तिसंश्लेषणकारी लेश्या । प्रवृत्तिशब्दस्य कर्म पर्यायवाद। जो लिम्पन करती है उसको लेश्या कहते हैं अर्थात जो काँसे आत्माको लिप्त करती है उसको लेश्या कहते हैं। (ध. १/१,१,१३६/२८३/१ ) अथवा जो आत्मा और कर्मका संबन्ध करनेवाली है उसको लेश्या कहते हैं। यहाँपर प्रवृत्ति शब्द कर्म का पर्यायवाची है। (ध.७/२,१,३/७/७)। ध,८/३.२७३/३५६/४ का लेस्सा णाम । जीव-कम्माणं संसिलेसयणयरी, मिच्छत्तासंजम-कसा यजोगा त्ति भणिदं होदि । - जीव व कर्मका सम्बन्ध कराती है वह लेश्या कहलाती है। अभिप्राय यह है कि मिथ्याध, असंयम, कषाय और योग ये लेश्या हैं । २. लेझ्याके भेद-प्रभेद १. इन्य व भाव दो भेदस. सि./२/4/१५६/१० लेश्या द्विविधा, द्रव्य लेश्या भावलेश्या चेति ।
= लेश्या दो प्रकारकी है-द्रव्यलेश्या और भावलेश्या (रा. वा./२/ ६/८/१०६/२२ ); (ध. २/१,१/४१६४८); (गो. जो./जी. प्र./४८६/ ८६४/१२)1 २. द्रव्य-भाव लेश्याके उत्तर भेदघ. खं./१/१.१/सू. १३६/३८६ लेस्साणुवादेण अयि किण्हलेस्सिया णील लेस्सिया काउलेस्सिया तेउलेस्सिया पम्मलेस्सिया सुकलेस्सिया अलेस्सिया चेदि ।१३६। - लेश्या मार्गणाके अनुवादसे कृष्णलेश्या, नीललेश्या, कापोतलेश्या, तेजोलेश्या, पालेश्या, शुक्ल लेश्या और
अलेश्यावाले जीव होते हैं ।१३६॥ ५./१६/४८/७। स.सि./२/६/१५६/१२ सा प विधा-कृष्णलेश्या, नीललेश्या. कापोत- लेण्या. तेजोलेश्पा, पालेश्या, शुक्ल लेश्या चेति ।-लेश्या छह प्रकारको है -कृष्णलेश्या, नीललेश्या, कापोतलेश्या, पीतलेश्या, पद्यलेश्या, शुक्ललेश्या । (रा. वा./२/६/८/१०६/२७ ); (रा.वा/8/७/११/६०४/ १३): (ध.१/१,१.१३६/३८८/५); (गो. जी././४६३/८६६); (द्र. सं./टी./११/३८) गो. जो./मू./४६४-४६३८१७ दवलेस्सा । सा सोढा किण्हादी अणेय.
भेयो सभेयेण ।४६४। छप्पय णीलकरोदसुहेममंबुजसंखसणि हा बण्णे । संखेज्जासंस्खेजाणतवियपा स पत्तेव ।४६५- द्रव्यलेश्या कृष्णादिक छह प्रकार की है उनमें एक-एकके भेद अपने-अपने उत्तर भेदोंके द्वारा अनेक रूप है ।४६४६ कृष्ण-भ्रमरके सदृश काला वर्ण: नोल-नील मणि के सदृश, कापोत कापोत के सदृश वर्ण, तेजो-सुवर्ण सदृश वर्ण, पद्म कमल समान वर्ण, शुचल-शंख के समानवर्ण वाली है। जिस प्रकार कृष्णवर्ण हीन-उत्कृष्ट-पर्यन्त अनन्त भेदोंको लिये है उसी प्रकार छहों द्रव्य-लेश्याके जघन्यसे उत्कृष्ट पर्यन्त शरीरके वर्ण की अपेक्षा संख्यात, असं रव्यात व अनन्त तक भेद हो जाते हैं ।४६५
गो.जी./जी. प्र./७०४/११४१/५ लेश्या सा च शुभाशुभभेदाद द्वधा। तत्र अशुभा कृष्णनीलकपोतभेदाद त्रेधा, शुभापि तेजःपद्मशुक्लभेदास्त्रेधा। वह लेश्या शुभ व अशुभके भेदसे दो प्रकारकी है। अशुभ लेश्या कृष्ण, नील ब कपोतके भेदसे तीन प्रकार की है। और शुभ लेश्या भी पौत, पद्म व शुक्ल के भेदसे तीन प्रकार की है। ३. द्रव्य-माव लेश्याओंके लक्षण
१. द्रव्य लेश्या पं.सं./प्रा./९/१८३-१८४ किण्हा भमर-सवण्णा णीला पुण णील-गुलिय
संकासा। काऊ कओदवण्णा तेऊ तवाणिज्जवण्णा दु ।१८३) पम्हा पउमसवण्णा सुक्का पुणु कासकुसुमसंकासा । वण्णं तरं च एदे हवं ति परिमिता अणता वा ।१८४ - कृष्ण लेश्या, भौरके समान वर्णवाली, नील लेश्या-नीलकी गोली, नीलमणि या मयूरकण्ठके समान वर्णवाली। कापोत-कबूतरके समान वर्णवाली, तेजो-तप्त सुवर्णके समान वर्णवाली पद्म लेश्या पद्मके सदृश वर्णवाली। और शुक्ललेश्या कांसके फूल के समान श्वेत वर्णवाली है। (ध. १६/गा. १-२/४८५)। रा.वा./६/७/११/६०४/१३ शरीरनामोदयापादिता द्रव्यलेश्या। शरीर
नाम कर्मोदयसे उत्पन्न द्रव्यलेश्या होती है। गो. जी./मू./४६४ वण्णोदयेण जणिदो सरोरवण्णो दु दव्वदो लेस्सा ।
-वर्ण नामकर्म के उदयसे उत्पन्न हुआ जो शरीरका वर्ण उसको द्रव्यलेश्या कहते हैं ।४६४। ( गो. जी./म्./५३६ ) ।
२. भावलेश्या स. सि./२/६/१५६/११ भावलेश्या कषायोदयरञ्जिता योग प्रवृत्तिरिति
कृत्वा औदयिकोत्युच्यते । -भावलेश्या कषायके उदयसे अनुरंजित योगकी प्रवृत्ति रूप है, इसलिए वह औदयिकी कही जाती है । (रा. वा./२/६/८/१०६/१४): (द्र. सं./टी./१३/३/३)। ध. १/१,१,४/१४६/८ कषायानुरञ्जिता कायवाङ्मनोयोगप्रवृत्तिलेश्या
-कषायसे अनुरं जित मन-वचन-कायकी प्रवृत्तिको लेश्या कहते हैं । (गो.जी./मू./४१०/१५); (पं.का./त.प्र./११६) । गो.जी./मु./५३६/६३१ लेस्सा। मोहोदयखओबसमोवसमावयजजीवफंदणं भावो। - मोहनीय कम के उदय, क्षयोपशम, उपशम अथवा क्षयसे उत्पन्न हुआ जो जीवका स्पन्द सो भावलेश्या है। १. कृष्णादि भावळेश्याओंके लक्षण १. कृष्णलेश्या पं. सं./प्रा./१/१४४-१४५ चंडो ण मुयदि वेर भंडण-सोलो य धम्म दयरहिओ। दुट्ठो ण य एदि वसं लवणमेदं तु किण्हस्स ।२००। मंदो बुद्धि-विहीणो णिव्विणाणी य विसय-लोलो य। माणी मायी य तहा आलस्सो चेय भेज्जो य २०१० -तीन क्रोध करने वाला हो, वैरको न छोड़े, लड़ना जिसका स्वभाव हो, धर्म और दयासे रहित हो, दुष्ट हो, जो किसीके वशको प्राप्त न हो, ये सब कृष्णलेश्यावालोंके लक्षण हैं।२००। मन्द अर्थात् स्वच्छन्द हो, वर्तमान कार्य करने में विवेकरहित हो, कलाचातुर्यसे रहित हो, पंचेन्द्रियके विषयों में लम्पट हो, मानी, मायावी. आलसी और भीरु हो, ये सब कृष्णलेश्यावालों के लक्षण हैं।२०। (ध.१/१,९,१३६/गा.२००-२०१/
३८८), (गो.जी /मू./५०६-५१०) । ति. प./२/२६१-२६६ किण्हादितिलेस्सजुदा जे पुरिसा ताण लवरवणं एवं ।
गोत्तं सकलसं एक्कं बंछेदि मारिदुदुह्रो ।२६ धम्म दया परिचत्तो अमुझवेरी पयंडकलयरो। बहकोहो किण्हाए जम्मदि धूमादि चरिमंते ।२६६ = कृष्णलेश्यासे युक्त दुष्ट पुरुष अपने ही गोत्रीय तथा एकमात्र स्वकलत्रको भी मारनेकी इच्छा करता है ।२६॥ दया-धर्मसे रहित, बैरको न छोड़ने वाला, प्रचण्ड कलह करनेवाला
•णारया
जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश
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लेश्या
४२३
१
. भेद लक्षण व तत्सम्बन्धी शका समाधान
और क्रोधी जीव कृष्णलेश्याके साथ धूमप्रभा पृथिवीमे अन्तिम पृथिवी तक जन्म लेता है। रा वा/४/२२/१०/२३३/२५ अनुनयानभ्युपगमोपदेशाग्रहण वै रामोचनातिचपडत्व - दुर्मुखत्व - निरनुकम्पता-बलेशन - मारणा - परितोषणादि कृष्णलेश्या लक्षणम् । = दुराग्रह, उपदेशावमानन, तीच वैर, अतिक्रोध, दुर्मुख, निर्दयता, ग्लेश, ताप, हिसा, असन्तोष आदि परम ताममभान कृष्णलेश्याके लक्षण है।
२. नीललेश्या प. म./प्रा./१/१४६ णिहावंचश-बहुलो धण-धण्णे होड तिव्व-मण्णो
या लक्खणभेद भणियं समासदो णील-लेम्सस्स १२०२। - बहुत निद्रालु हो, पर वचनमे अतिदक्ष हो, और धन-धान्यके सग्रहादिमें तोब लालसावाला हो, ये सब सक्षेपसे नीललेश्यावालेके लक्षण कहे गये है।१४६। (घ १/१,१,१३६/गा २०२/३८६), (गो जी/
मू/५११/५६०), (एस/म./१/२७४)। ति. प /२/२१७-२६८ सियासत्तो विमदी माणी विण्णाणवज्जिदो मदो। अलसो भीरु मायापय च बहूलो य णिहाल २६७। परवचणपसत्तो लोहंधो धग सुहाकरखी। बहुमण्णा णीलाए जन्मदि त चेव धूमतं ।२६८ - विषयोमे आसक्त, मतिहीन, मानी, विवेक बुद्धिसे रहित, मन्द, आलसी, कायर प्रचुर माया प्रपचमे सलग्न, निद्राशील, दूसरोके ठगनेमें तत्पर, लोभमे अन्ध, धन-धान्यजनित सुखका इच्छुक और बहुसंज्ञायुक्त अर्थात् आहारादि सज्ञाओमे आसक्त ऐसा जीव नीललेश्याके साथ धूम्रप्रभा तक जाता है १२६७-२६८। रा वा./४/२२/११/२३६/२६ आलस्य - विज्ञानहानि - कार्यानिष्ठापनभीरुता-विषयातिगृद्धि-माया-तृष्णापतिमानवञ्चनानृतभाषण चापलातिलुब्धवादि मीन लेश्यालक्ष्णम् । आलस्य, मूवता, कार्यानिष्ठा, भीरुता, अतिविषयाभिलाष, अलिगृहि, माया, तृष्णा, अतिमान, वचना अनृत भाषग, चालता अतिलोभ आदि भाव नीललेश्याके लक्षण है।
३ कापोतलेश्या प. स /प्रा /२/१४७-१४८ रूसड णिदइ अण्णे दूसणबहनो य सोय-भयबहुलो । अमुबड परिभवड पर पस सह य अप्पय बहुसो ११४७। ण य पत्तियइ र सो अप्पाण पिब पर पि मण्ण तो। तसइ अइथुव्व तो ज य जागड हागि-बड् ढोओ।१४८। मरण पत्थेड रणे देइ सु बहुय पि शुन्चमाणो हु। ण गणइ कज्जाज्ज लक्रवणमेय तु काउस्स ।१४६। जो दूमरोके जार रोप करता हो, दूसरोकी निन्दा करता हो, दूषण बहुल हो, शोक बहुल हो, भय बहुल हो, दूसरोसे ईर्या करता हो, परका पराभव करता हो, नाना प्रकारमे अपनी प्रशमा करता हो, परका विश्वास न कता हो, अपने समान दूमरेको भी न मानता हो, स्तुति किये जाने पर अति सन्तुष्ट हो, अपनी हानि और वृद्धिको न जानता हो, रणमे मरणका इच्छुक हो, स्तुति या प्रशसा किये जानेपर बहुत धनादिक देवे और कर्तव्य-अतधको कुर भी न गिनता हो, ये सब कापोत लेश्यावातेके चिद है। (ति. प /२/२६६-३८१), (ध १/१,१,१३६/गा २०३-२०/३८१), गो जी //५१२-५१४/११०-६११): ( ८ स./ स/१/२६-२७७)। रा बा/४/२२/१०/२३६/२८ मात्सय - पशुन्य - परपरिभवात्माशसापरपरिणादवृद्विहान्यगणनात्मीयजो वितनिराशता प्रशस्यमानधनदानमुद्रमर मादि कारोतलेश्याल मणम् । = मात्सर्य, पै शुन्य, परपरिभा, रमाना, परपरिवाद, जोवन नराश्य प्रशसकको धन देना, युद्ध मरणाद्यम आदि कापात लेश्याके लक्षण है।
४. पोत लेश्या प. स /प्रा/९/१५० जाणइ कज्जाज्ज सेयासेय च सव्वसमपासी।
दम-दाणरदो य विदू लवणमेय तु तेउस्स । १५०। =जो अपने कर्तव्य और अकर्तव्य, और सेव्य-असेव्यको जानता हो, सबमे समदर्शी हो, दया और दान में रत हो, मृदु स्वभावी और ज्ञानी हो, ये सब तेजोलेश्यावाले के लक्षण है ।१५० (ध १/१,१,१३६/गा. २०६/३८६), ( गो. जी /मू /५१६/६११), (प स./स /२/२७६), (दे आयु/३)। रा. वा /१/२२/१०/२२६/२६ दृढ मित्रता सानुक्रोशत्व-सत्यवाद दानशीलामोयकार्यसपादनपटुविज्ञानयोग - सर्वधर्मसमदर्शनादि तेजोलेश्या लक्षणम् । =-दृढता, मित्रता, दयालुता, सत्यवादिता, दानशीलत्व, स्वकार्य-पटुता ,सर्वधर्म समदर्शित्व आदि तेजालेश्याके लक्षण है। ५. पालश्या प.सं /प्रा /१/१५१ चाई भद्दो चोखो उज्जु प्रकम्मो य खमइ बहुय पि । साहुगुणपूणिरओ लवणमेयं तु पउमस्स :१५१। - जो त्यागी हो, भद्र हो, चोखा (सच्चा) हो, उत्तम काम करने वाला हो, बहुत भी अपराध या हानि होनेपर क्षमा कर दे, साधुजनोके गुणोके पूजनमें निरत हो, ये सब पद्मलेश्याके लक्षण है ।१५। (ध.१/१,१.१३६/२०६/३६०), (गो.जी /मू./११६/३१२). (पं सं/सं./१/१५१) । रा, वा /४/२२/१०/२३६/३१ सत्यवाक्यक्षमोपेत-पण्डित-सरिवकदानविशारद चतुरर्जुगुरुदेवतापूजावरणनिरतत्वादि पद्मालेश्यालक्षणम् । » सत्यवाक्, क्षमा. सात्विकदान, पाण्डित्य, गुरु देवता पूजनमे रुचि आदि पालेश्याके लक्षण है। ६. शुक्ललेश्या पं स /प्रा./१/१५२ ण कुणेइ पश्ववाय ण वि य णिदाणं समोय
सव्वेसु । णत्थि य राओ दोसो हो वि हु सुक्कलेसस्स 1१५२। जो पक्षपात न करता हो, और न निदान करता हो, सममे समान व्यवहार करता हो, जिसे परमे राग-द्वेष वा स्नेह न हो, ये सब शुक्ललेश्याके लक्षण है ।१५२। (ध १/१,१,१३६/२०८/३६०), (गो.जी /मू । ५१७/६१२), (प.स /स /१/२८१)। रा. वा ४/२२/१०/२३६/३३ वैररागमोहविरह-रिपुदोषग्रहणनिदानवर्जनसार्व-सावद्यकार्यारम्भौदासीन्य-श्रेयोमार्गानुष्ठानादि शुक्ल लेश्याल - णम् । निर्वैर, वीतरागता, शत्रु के भी दोषो पर दृष्टि न देना, निन्दा न करना, पाप कार्योसे उदासीनता, श्रेयोमार्ग रुचि आदि शुक्ल लेश्याके लक्षण है।
५. अलेश्याका लक्षण १ स /प्रा./१/१५३ किण्हाइलेसरहिया ससार बिणिग्गया अण तसुहा। सिद्विपुरीस पत्ता अलेसिया ते मुयना ।१५३) - जो कृष्णादि छहो लेश्वासे रहित है. पंच परिवर्तन रूप संसारसे विनिर्गत है, अनन्त सुग्बी है, और आत्मोपलब्धि रूप सिद्धिपुरीको सम्प्राप्त है, ऐसे अयोगिकेवली और सिद्ध जीवो को अलेश्य जानना चाहिए ।१५३। (ध १/१,१,१३६/२०६/३६० ), (गो. जी /म् ५५६), (प. सं स | १/२८३)। ६. लेश्याके लक्षण सम्बन्धी शंका १. 'लिम्पतीति लेश्या' लक्षण सम्बन्धी ध १/१,१,४/१४६/६ न भूमिलेपिकयातिव्याप्तिदोष कर्मभिरात्मानमित्याध्याहारापेक्षित्वात् । अथवात्मप्रवृत्तिसश्लेषणकरी लेश्या । नात्रातिप्रसइदोष प्रवृत्ति शब्दस्य कर्म पर्यायत्वात् । प्रश्न-- (लिम्पन करती है वह लेश्या है यह लक्षण भूमिलेपिका आदिमे
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लेश्या
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२. कषायानुरंजित योग प्रवृत्ति सम्बन्धी
चला जाता है । ) उत्तर--इस प्रकार लक्षण करनेपर भी भूमि लेपिका आदिमे अतिव्याप्त दोष नहीं होता, क्योकि इस लक्षणमें 'कर्मोसे आत्माको इस अध्याहार की अपेक्षा है' इसका तात्पर्य है जो कर्मोमे आत्माको लिन करती है वह लेश्या है अथवा जो प्रवृति कर्मका सम्बन्ध करनेवाली है उसको लेश्या कहते है ऐसा लक्षण करनेपर अतिव्याप्त दोष भी नहीं आता क्योकि यहाँ प्रवृत्ति शब्द कर्मका पर्यायवाची ग्रहण क्यिा है। ध, १/१,१,१३६/३८६/१० क्षायानुर ब्जितैव योगप्रवृत्तिलेश्येति नात्र परिगृह्यते सयोगकेवलिनोडलेश्यत्वापत्ते' अस्तु चेन्न, 'शुक्ल लेश्य. सयोगकेवली' इति वचनव्याघातात् । - 'वणायसे अनुरज्जितयोग प्रवृत्तिको लेश्या कहते है, 'यह अर्थ यहाँ नहीं ग्रहण करना चाहिए', क्योकि इस अर्थ के ग्रहण करने पर सयोगिकेवलीको लेश्या रहितपनेकी आपत्ति होती है। प्रश्न-ऐसा ही मान ले तो। उत्तरनही, क्योकि केवलीको शुक्ल लेश्या होती है' इस बचनका व्याघात होता है। २. 'कर्म बन्ध संश्लेषकारी के अर्थमें ध,७/२,१,६१/१०/४ जदि बंधकारणाणं लेस्सत्तं उच्चदि तो पमादस्स वि लेस्सत्तं किषण इचिउज्जदि। ण, तस्स कसाएमु अंतभावादो। असंजमस्स किण्ण इच्छिज्जदि । ण, तस्स वि लेस्सायम्मे अंतभावादो। मिच्छत्तस्स क्ण्णि इच्छिज्जदि । हो तरस लेस्साववएसो, बिरहाभावादो । कितु कसायाण व एत्थ पहाणत्तं हिसादिलेस्सायम्मरणादो, सेस्सु तदभावादो। -प्रश्न-बन्ध के कारणोको ही लेश्याभाव कहा जाता है तो प्रमादको भी लेश्याभाव क्यो न मान लिया जाये। उत्तर-नहीं, क्योंकि प्रमादका तो कषायोमे ही अन्तर्भाव हो जाता है। (और भी दे० प्रत्यय/१/३)। प्रश्न-असयमको भी लेश्या क्यो नही मानते। उत्तर-नही, क्यो कि अस यमका भी तो लेश्या कर्ममें अन्तर्भाव हो जाता है। प्रश्न-मिथ्यात्वको लेश्या भाव क्यो नहीं मानते। उत्तरमिथ्यात्वको लेश्याभाव कह सकते है, क्योकि उसमें कोई विरोध नहीं आता। किन्तु यहाँ वषायोका ही प्राधान्य है, क्योकि कषाय ही लेश्या कर्म के कारण है और अन्य बन्ध कारणोमें उसका अभाव है।
२. लेश्या नाम कषायका है, योगका है वा दोनोंका: ध १/१,१,१३६/१८६/११ लेश्या नाम योगः कषायस्तावुभौ वा। कि चातो नाद्यौ बिकल्पौ योगकषायमार्गणयोरेव तस्या अन्तर्भावात् । न तृतीयविकल्पस्तस्यापि तथाविधत्वाद। कर्मलेदेककार्यक्र्तृत्वेनैकत्वमापन्नयोर्योगक्षाययोलेश्यात्वाभ्युपगमात । नैकत्वात्तयोरन्तर्भवति द्वयात्मकैकस्य जात्यान्तरमापन्नस्य वेवलेन केन सहकत्वसमानत्वयोर्विरोधात् । घ. १/१.१,४/१४६/८ ततो न केवल कषायो लेश्या, नापि योग , अपि तु कषायानुविद्धा योगप्रवृत्तिले श्येति सिद्धम् । ततो न वीतरागाणा योगो लेश्येति न प्रत्यवस्येयं तन्त्रत्वाद्योगस्य, न कषायम्तन्त्र विशेपणत्वतस्तस्य प्राधान्याभावात् । - प्रश्न-लेश्या योगको कहते है, अथवा, कषायको कहते है, या योग और कषाय दोनोको कहते है। इनमें से आदिके दो विकल्प ( योग और क्षाय ) तो मान नहीं सकते, क्योकि वैसा माननेपर योग और कषाय मार्गणामें ही उसका अन्तर्भाव हो जायेगा। तीसरा विकल्प भी नहीं मान सकते है क्योकि वह भी आदि के दो विकल्पोके समान है। उत्तर-१. कर्म लेप रूप एक कार्य को करनेवाले होनेको अपेक्षा एकपनेको प्राप्त हुए योग और कषायको लेश्या माना है । यदि कहा जाये कि एक्ताका प्राप्त हुए योग और कषायरूप लेश्या होनेसे उन दोनोमें लेश्याका अन्तर्भाव हो जायेगा, सो भी ठीक नहीं है क्योकि दो धर्मों के संयोगसे उत्पन्न हुए द्वयात्मक अतएव क्सिी एक तीसरी अवस्थाको प्राप्त हुए किसी एक धर्मका केवल एकके साथ एकरव अथवा समानता माननेमे विरोध आता है। २. केवल कषाय और केवल योगको लेश्या नहीं कह सकते है किन्तु कषायातविद्ध योगप्रवृत्तिको ही लेश्या कहते है, यह बात सिद्ध हो जाती है। इससे बारहवे आदि गुणस्थानवर्ती वोतरागियोके केबल योगको लेश्या नही कह सकते ऐसा निश्चय नही कर लेना चाहिए, क्योकि लेश्यामे योगकी प्रधानता है, कषाय प्रधान नहीं है, क्योंकि, वह योग प्रवृत्तिका विशेषण है, अतएव उसकी प्रधानता नही हो सक्ती है। ध ७/२,१,६३/१०४/१२ जदि कसाओदए लेस्साओ उच्चति तो वीणकसायाण लेस्साभावो पसज्जदे । सच्चभेदं जदि क्साअ'दयादो चेव लेस्सुप्पत्ती इच्छिज्ज दि । कितु सरीरणामकम्मोदयजणिदजोगोवि लेस्साति इच्छिज्जदि, कम्मबंध णिमित्तत्तादो। ३. क्षीण. कषाय जीवो में लेश्याके अभावका प्रसग आता यदि केवल क्षायोदयसे हो लेश्याकी उत्पत्ति मानी जाती। किन्तु शरीर नाममके उदयसे उत्पन्न योग भी तो लेश्या माना गया है, क्योकि यह भी कमके बन्धमें निमित्त होता है।
७. लेश्याके दोनों लक्षणों का समन्वय ध.१/१,१,१३६/३८८/१ संसारवृद्धिहेतुलेश्येति प्रतिज्ञायमाने लिम्पतीति
लेश्यैत्यनेन विरोधश्चेन्न, लेपाविनाभाविरवेन तवृद्धरपि तदव्यपदेशाविरोधात। - प्रश्न-संसारकी वृद्धिका हेतु लेश्या है ऐसी प्रतिज्ञा करनेपर 'जो लिप्त करती है उसे लेश्या कहते है'; इस वचनके साथ विरोध आता है। उत्तर-नही. क्योकि, कर्म लेपकी अबिनाभावी होने रूपसे ससारकी वृद्धिको भी लेश्या ऐसी सज्ञा देनेसे कोई बिरोध नहीं आता है। अत उन दोनोसे पृथग्भूत लेश्या है यह बात निश्चित हो जाती है। २. कषायानुरंजित योग प्रवृत्ति सम्बन्धी
१. तरतमताकी अपेक्षा लेश्याओं में छह विमाग ध.१/१,१,१३६/३८/३ षड्विध कषायोदयः। तद्यथा, तीबतम' तीव्रतर तीव मन्द, मन्दतर मन्दतमम् इति। एतेभ्यः षड्भ्य कषायोदयेय परिपाट्या पडू लेश्या भवन्ति। कषायका उदय छह प्रकारका होता है। वह इस प्रकार है, तीव्रतम, तीव्रतर, तीव, मन्द, मन्दतर और मन्यतम। इन छह प्रकार के कषायके उदयसे उत्पन्न हुई परिपाटी क्रमसे लेश्या भी छह हो जाती है ।-( और भी दे० आयु/३/१६)।
३. योग व कषायसे पृथक् लेश्या माननेका क्या
आवश्यकता ध १/१,१,१३६/३८७/५ योमकषायकार्याद्वयतिरिक्त लेश्यावार्यानुपलम्भान्न ताभ्या पृथग्लेश्यास्तीति चेन्न, योगक्षायाभ्यां प्रत्यनीकत्वाद्यालम्बनाचार्यादिब ह्यार्थ संनिधानेनापन्नलेश्याभावाभ्यां ससारवृद्धिकार्यस्य तत्केबलकार्याद्वयतिरिक्तस्योपलम्भात ।प्रश्न-योग और कषायो से भिन्न लेश्याका कार्य नहीं पाया जाता है, इसलिए उन दोनोसे भिन्न लेश्या नहीं मानी जा सकती। उत्तर नही, क्यो कि, विपरीतताको प्राप्त हुए मिथ्यात्व, अबिरति आदिके आलम्बन रूप आचार्यादि बाह्य पदार्थोके सम्पर्क से लेश्या भावको प्राप्त हुए योग और कषायोसे केवल योग और केवल क्षायके कार्यसे भिन्न ससारकी वृद्धि रूप कार्य की उपलब्धि है जा केबल योग और केवल कषायका कार्य नहीं कहा जा सकता है, इसलिए लेश्या उन दोनोसे भिन्न है, यह बात सिद्ध हो जाती है।
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लेड्या
४. लेश्याका कपायोंमें अन्तर्भाव क्यों नहीं कर देते श.वा./२/६/०/१०/२२ कपायरचीदायको व्याख्याता तो स्या नर्थान्तरभृतेति नैष दोष: कणयोदयतीमा भेदादर्थान्तरत्वम् । प्रश्न- कषाय औदयिक होती हैं, इसलिए लेश्याका कषायोमे अन्तर्भाव हो जाता है। उत्तर- यह कोई दोष नही है । क्योंकि, कषायोदयके तीव्र-मन्द आदि तारतम्यसे अनुरजित लेश्या पृथक ही है।
३० श्या/२/२ (केवल कपायको लेश्या नहीं कहते अपितु कषायानुविद्ध योग प्रवृत्तिको लेश्या कहते है ) ।
३. द्रव्य लेश्या निर्देश
१. अपर्याप्त काल में शुक्ल व कापोत लेश्या ही होती है घ. २/१.१/४२२ / ६ जहा सम्म निस्सोवचओ सुमितो भवदि सम्हा दिग्गगदी बहनाग-नजीबाग सरीरस्स सुटलेस्सा भवदि । पुणो सरीरं घेत्तूण जाब पज्जत्तीओ समाणेदि ताव
परमाणु - मान सरोरतादो तरस सरीरस्स स्सा काउलेसेति भण्य एवं दो सरीरलेस्साओ भवंति जिस कारण से सम्पूर्ण कमका विसोपचय शुक्ल ही होता है, इसलिए विप्रगति विद्यमान सम्पूर्ण जीवोके शरीरको शुक्लेश्या होती है । तदनन्तर शरीरको ग्रहण करके जब तक पर्याप्तियों को पूर्ण करता है तब तक छह वर्णवाले परमाणुओं के जसे शरीरकी उत्पति होती है. इसलिए उस शरीरको कापोत लेश्या कही जाती है। इस प्रकार अपर्याप्त अवस्थामे शरीर सम्बन्धी दो ही लेश्याएं होती है। (x 2/1.1/4x8/2, 402/21
२. नरक गति में द्रव्यसे कृष्ण लेश्या ही होती है गो.जी. जी. २६/८१८ किया किन्हा | ४६६। नारा सर्वे नारकी सर्व कृष्ण वर्णवाले ही है।
कृष्णा एवं
३. जळकी द्रव्यलेश्या शुक्ल ही है
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ध २ / ११ / ६०१ / १ सहम आऊ काउलेस्सा या वादरान कलिह बण्णलेस्सा | कुदो । घणोदधि घणवलयागासपदिद-पाणीयाणं धवलवण्ण दंसणादो | धवल - किसण-णील-पीयल-रत्ताअंब पाणीय दसणादण धवलवणमेव पाणीयमिदि वि पि भणति, तण्ण घडदे । कुदो। आयाभावे भट्टियाए संजोगेण जलस्स बहुवण्ण-वबहारदसणादो । आऊण सहावण्णी पुण धवलो चैव । सूक्ष्म अपकायिक जीवीके अपर्याप्त कालमे द्रव्य से कापालेश्या और बादरकायिक जीयोके स्फटिकवर्णवाती शुक्ल कहना चाहिए, क्योंकि, धनोदधिवात और धनवलयवात द्वारा आकाशसे गिरे हुए पानीका धवल वर्ण देखा जाता है। प्रश्न- कितने ही आचार्य ऐसा कहते है कि धवल, कृष्ण, नील, पीत. रक्त और आताम्र वर्णका पानी देखा जानेसे धवल वर्ण ही होता है । ऐसा कहना नही बनता ? उत्तर- उनका कहना मुक्तिसगत नहीं है, क्योकि आधारके होनेपर मिट्टी के योगसे जल अनेक वर्णवाला हो जाता है ऐसा व्यवहार देखा जाता है । किन्तु जलका स्वाभाविक वर्ण धवल ही होता है ।
४. मवन त्रिकर्मे छड़ों व्यलेश्या सम्भव है
घ. २/११/१२-१६ देवास काले पोछ लेस्साओ ह त्ति एदं ण घडदे, तेसि पज्जत्तकाले भावदो छ - लेस्साभावादो । जा भावलेस्सा तब्लेस्सा चेव णोकम्मपरमाणवी आगच्छेति । ५३२ । ण ताव अपजत्तकालभावलेस्सा. पज्जत्तकाले भावलेस्स पि णियमेण अणुहरह पज्जत्त दव्वलेस्सा.. । धवलवण्णव लयाए भावदो सुक्कलेस्स
भा० ३-५४
•
४. भाव लेश्या निर्देश पसगादो। दव्वलेस्सा णाम वण्णणामकम्मोदयादो भवदि, ण भावलेस्सादो। वण्णणामकम्मोदयादो भवणवासिय-बाणवेतर-जोइसियाणं दव्त्रदो छ लेस्साओ भवति, उवरिमदेवाण तेउ पम्म सुबक लेस्साओ भवति । प्रश्न- देवोंके पर्याप्तकाल में द्रव्यसे छहो लेश्याऍ होती है यह वचन पटित नहीं होता है, कोकि उनके पर्याप्त कासमें भावसे छहो याओका अभाव है। कोकि जो भावलेश्या होती है उसी लेश्यावाले ही नोकर्म परमाणु आते है। उत्तर- द्रव्यलेश्या अपर्याप्तकाल में इसी प्रकार पर्याप्त काल में भी पर्याप्त जीव सम्बन्धी द्रव्यलेश्या भालेश्याका नियमसे अनुकरण नहीं करती है क्योंकि ईसा मानने पर ता घरल वर्गवारी बगुले के भी भावसे शुभाश्याका प्रसग प्राप्त होगा। दूसरी बात यह भी है कि द्रव्यलेश्या वर्ण नामा नामकर्मके उदयसे होती है भावलेश्यासे नही । वर्ण नामा नामकर्मके उदयसे भवनवासी, मातव्यम्तर और योतिषी देवो द्रव्यको अपेक्षा छहीं लेश्याएँ होती है तथा भवनत्रिकसे ऊपर देवोके तेज, पद्म और शुक्ल लेश्याएँ होती है। ( गो. जी./मू / ४६६/८६८ ) । ५. आहारक शरीरको शुक्ललेश्या होती है
घ. १४/५.४.२३१/२२७/६ पचवण्यागमाहारसरीपरमाणूर्ण कथं शुकलत्त जुज्जदे । ण, विस्सासुवचयवण्ण पडुच्च धवलत्तुवल भादो । = प्रश्न- आहारक शरीरके परमाणु पाँच वर्ण वाले है। उनमें केवल शुक्लपना कैसे बन सकता है। उत्तर- नहीं, क्योकि विसोपचय के वर्णकी अपेक्षा धवलपना उपलब्ध होता है ।
कापोतलेश्या होती है।
६. कपाट समुद्घात प. २/११/२५४/३ बाहर जोगिनेमस्सि वि सरीरस्स काउसेस्सा चैव हवदि । एत्थ वि कारणं पुव्व व वत्तत्वं सजोगिकेवलिस्स पुव्विल - सरीरं छटवणं जदि वि हवदि तो वितण्ण घेप्पदि; कवाडगदहलस पतनोगे वागस्स मिसरीरेण सह संबंधा भावादो। अह्वा पुल्लिवण सरीरमस्सिऊण उबयारेण दव्वदो सजोगिकेवलिस्स छ लेस्साओ हवंति । = कपाट समुद्धातगत सयोगिकेवली के शरीरकी भी कापोतलेश्या ही होती है । यहॉपर भी पूर्व ( अपर्याप्तवत् दे० लेश्या /३/१ ) के समान ही कारण कहना चाहिए । यद्यपि सयोगिके पहलेका शरीर यहाँ वर्ण वाला होता है; क्योकि अपर्याप्त योग में वर्तमान कपाट-समुद्धातगत सयोगि केवलीका पहले के शरीर के साथ सम्बन्ध नहीं रहता है। अथवा पहले के षड्वर्ण - वाले शरीरका आश्रय लेकर उपचार द्रव्यकी अपेक्षा सयोगिकेवलीके छोलेश्याएँ होती है। (ध. २/११/११०/२) ।
४. भाव लेश्या निर्देश
१. लेश्यामार्गणा में भाव लेश्या अभिप्रेत है।
स सि./२/६/१५६/१० जीवभावाधिकारात द्रव्यश्यानाधिकृता । = यहाँ जीवके भावोका अधिकार होनेसे द्रव्यलेश्या नही ली गयी है । (ए. वा /२/६/८/१०६/२३ ) |
२/ ११ / ४३१/२ केई सरीर पिवेतून सजदासजदादीण भावलेस्स परूवयंति । तण्ण घडदे, वचनव्याघाताच्च । कम्म - लेवहेदूदो जोग-कसाया चेत्र भाव -लेस्सा त्ति
दिव्वं । = कितने ही आचार्य, शरीर रचना के लिए आये हुए परमाणुओं के वर्णको लेकर संयतासंयत्तादि गुणस्थानवर्ती जीवों के भावश्याका वर्णन करते है किन्तु उनका यह कथन घटित नहीं होता है | आगमका वचन भी व्याघात होता है । इसलिए कर्म लेपका कारण होनेसे कषायसे अनुरजित (जीव ) प्रकृति ही भावलेश्या है। ऐसा अर्थ ग्रहण करना चाहिए ।
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लेश्या
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४. भाव लेश्या निर्देश
शुक्ललेश्याकी आपत्ति प्राप्त होगी। दूसरी बात यह भी है कि द्रव्य लेश्या वर्णनामा नाम कर्मके उदयसे होती है, भाव लेश्यासे नही। ५. शुम लेश्याके अभाव में मीनारकियों के सम्यक्रवादि
कैसे
२. छहों भाव लेश्याओंके दृष्टान्त प. सं./प्रा/१/११२ णिम्मूल खंध साहा गुछा चुणिऊण कोइ पडिदाई। जह एदेसि भावा तह बिय लेसा मुणेयवा। = कोई पुरुष वृक्ष को जड-मूलसे उखाडकर, कोई स्कन्धसे काटकर, कोई गुच्छोंको तोड कर, कोई शाखाको काटकर, कोई फलोको चुनकर, कोई गिरे हुए फलोको बीनकर खाना चाहे तो उनके भाव उत्तरोत्तर विशुद्ध है,
उसी प्रकार कृष्णादि लेश्याओंके भाव भी परस्पर विशुद्ध है ।११२॥ ध. २/१,१/गा. २२५/५३३ णिम्मूलखधसाहुवसाहं वुच्चितु बाउ
पडिदाइ । अन्भतरलेस्साणभिदइ एदाई वयणाह ।२२५॥ पो. जी./मू./५०६ पहिया जे छप्पुरिसा परिभट्टारणमझदेसम्हि । फलभरियरुषखमेग पेक्खित्ता ते विचितति ।०६।-१. छह लेश्यावाले छह पथिक वनमें मार्गसे भ्रष्ट होकर फलोसे पूर्ण किसी वृक्षको देखकर अपने मनमें विचार करते है, और उसके अनुसार वचन कहते है-( गो सा.) २. जड-मूलसे वृक्षको काटो, स्कन्धको काटो, शाखाओसे काटो, उपशाखाओसे काटो, फलोको तोडकर खाओ और वायुसे पतित फलोको खाओ, इस प्रकार ये अभ्यन्तर अर्थात् भावलेश्याओके भेदको प्रकट करते है ।२२। (ध. गो. सा/ म् ५०७)।
३. लेश्या अधिकारमें १६ प्ररूपणाएँ गो जी./मू /१६१-४१२८६६ णिद्देसवण्णपरिणामसकमो कम्मलक्रवणगदी य। सामी साहणसखा खेत्त फासं तदो कालो। ४६१। अतर- भावप्पबहु अह्यिारा सोलसा हव ति त्ति । लेस्साण साहणठ्ठ जहाकम तेहिं वोच्छामि ४६२= निर्देश, वर्ण, परिणाम, सक्रम, कर्म, लक्षण, गति, स्वामी, साधन, सख्या, क्षेत्र, स्पर्शन, काल, अन्तर, भाव, अल्प-बहुत्व ये लेश्याओंकी सिद्धि के लिए सोलह अधिकार परमागममें कहे है ।४६१-४६२। १. वैमानिक देवों में द्रव्य व भावलेश्या समान होती है परन्तु अन्य जीवों में नियम नहीं ति. प //६७२ सोहम्मप्पहुदीणं एदाओ दवभावलेस्साओ । - सौधमादिक देवोके ये द्रव्य व भाव लेश्याएँ समान होती है । (गो.जी/ मू./४६६)। ध. २/१,११५३४/६ ण ताव अपज्जत्तकाल भावलेस्समणुहरइ दब्बलेस्सा,
उत्तम-भोगभूमि-मणुस्साणमपज्जत्तकाले अनुह-त्ति-लेस्साणं गउरवण्णा भावापत्तीदो । ण पज्जत्तकाले भावलेस्सं पिणियमेण अशुहरइ पज्जत्तदव्वलेस्सा, छविह-भाव-लेस्सासु परियट्टत-तिरिक्व मणुमपज्जत्ताण दव्वलेस्साए अणियमप्पसगादो। धवलवण्णबलायाएभावदो सुक्कलेस्सप्पस गादो। आहारसरीराण धवलवण्णाण विग्गहगदि-ठ्यि-सब्ब जीवाणं धवलवण्णाणं भावदो सुक्क्लेस्सावत्तीदो चेत्र । कि च, दब्वलेस्सा णाम वण्णणामकम्मोदयादो भवदि ण भावलेस्सादो । = द्रव्यलेश्या अपर्याप्त कालमें होनेवाली भावलेश्याका तो अनुकरण करती नहीं है, अन्यथा अपर्याप्त कालमे अशुभ तीनो लेश्यावाले उत्तम भोगभूमियॉ मनुष्योके गौर वर्ण का अभाव प्राप्त हो जायेगा। इसी प्रकार पर्याप्तकाल में भी पर्याप्त जीवसम्बन्धी द्रव्यलेश्या भावलेश्याका नियमसे अनुकरण नहीं करती है क्योकि वैसा माननेपर छह प्रकार की भाव लेश्याओमें निरन्तर परिवर्तन करनेवाले पर्याप्त तिथंच और मनुष्योके द्रव्य लेश्याके अनियमपनेका प्रसंग प्राप्त हो जायेगा। और यदि द्रव्यलेश्याके अनुरूप ही भावलेश्या मानी जाये, तो धवल वर्णवाले बगुलेके भी भावसे शुक्ल लेश्याका प्रसंग प्राप्त होगा। तथा धवल वर्णवाले आहारक शरीरोके और धवल वर्ण वाले विग्रहगतिमे विद्यमान सभी जीवोके भावकी अपेक्षासे
रा, वा./३/३/४/१६३/३० नित्यग्रहणाल्लेश्याद्यनिवृत्तिप्रसङ्ग इति चेत; न, आभीक्ष्ण्यवचनत्वात नित्यप्रहसितवव ।।। .. लेश्यादीनामपि व्ययोदयाभाबान्नित्यत्वे सति नरकादप्रच्यब स्यादिति । तन्न, कि कारणम् । आभीक्ष्ण्यवचनान्नित्यप्रहसितवत । ..अशुभकर्मोदयनिमित्तवशात लेश्यादयोऽनारतं प्रादुर्भवन्तीति आभीक्ष्ण्यवचनो नित्यशब्द प्रयुक्त' । एतेषां नारकाणा स्वायु प्रमाणावधृता द्रव्यलेश्या उक्ता, भाषलेश्यास्तु षडपि प्रत्येकमन्तर्मुहूर्त परिवर्तिन्य । -प्रश्न-लेश्या आदिको उदयका अभाव न होनेसे, अर्थात नित्य होनेसे नरकसे अच्युतिका तथा लेश्याकी अनिवृत्तिका प्रसंग आ जावेगा। उत्तर-ऐसा नही है, क्योंकि यहाँ नित्य शब्द बहुधाके अर्थ में प्रयुक्त हुआ है। जैसे- देवदत्त नित्य हॅसता है, अर्थात् निमित्त मिलने पर देवदत्त जरूर हँसता है, उसी तरह नारकी भी कर्मोदयसे निमित्त मिलने पर अवश्य ही अशुभतर लेश्या बाले होते है, यहाँ नित्य शब्दका अर्थ शाश्वत व कूटस्थ नहीं है। • नारकियो में अपनी आयुके प्रमाण काल पर्यन्त ( कृष्णादि तीन ) द्रव्यलेश्या कही गयी है। भाव लेश्या तो छहो होती है और
वे अन्तर्मुहूर्त में बदलती रहती है। ल सा./जी प्र/१०१/१३८/८ नरकगती नियताशुभलेश्यात्वेऽपि कषायाणा मन्दानुभागोदयवशेन तत्त्वार्थ श्रद्धानानुगुणकारणपरिणामरूपविशुद्धिविशेषसभवस्याविरोधात् । यद्यपि नारकियोमे नियमसे अशुभलेश्या है तथापि वहाँ जो लेश्या पायी जाती है उस लेश्यामें कषायोके मन्द अनुभाग उदयके वशसे तत्त्वार्थ श्रद्धानुरूप गुणके कारण परिणाम रूप विशुद्धि विशेषकी असम्भावना नहीं है।
६. भाव लेश्याके कालसे गुणस्थानका काल अधिक है घ/१,६.३०८/१४६/१ लेस्साद्धादो गुणद्धाए बहुत्तु वदेसा। लेश्याके कालसे गुणस्थापनका काल बहुत होता है, ऐसा उपदेश पाया जाता है। ७. लेश्या परिवर्तन क्रम सम्बन्धी नियम गो. क /म् /१६६-५०३ लोगाणमस खेज्जा उदयट्ठाणा क्सायग्ग होति । तत्थ किलिट्ठा असुहा सुहाविसुद्धा तदालाबा ४६६) तिव्वतमा तिब्बतरा तिब्व सुहा सुहा तहा मदा। मदतरा मदतमा छट्ठाणगया हु पत्तेयं ।५०० असुहाण वरमज्झिम अवर से किण्हणीलकाउतिए। परिणमदि कमेणप्पा परिहाणीदो किलेसस्स ।५०१। काऊ णील किण्ह परिणमदि किलेसबढिदो अप्पा । एवं क्लेिसहाणीबढीदो होदि असुहतिय ।५०२ तेऊ पडमे मुक्के सुहाणमवरादि असगे अप्पा । सुद्धिस्स य वड्ढीदो हाणीदो अण्णदा होदि 1५०३1 संकमण सहाणपरट्ठाण होदि किण्हसुक्काणं । वड्ढीसु हि सट्ठाण उभयं हाणिम्मि सेस उभये वि ।५०४। लेस्साणुक्कस्सादो वरहाणी अवरगादवरवड्ढी। सठाणे अवरादो हाणी णियमापरठाणे ।५०५॥ - कषायोंके उदयस्थान असख्यात लोकप्रमाण है। इसमें से अशुभ लेश्याओके संक्लेश रूप स्थान यद्यपि सामान्यसे असख्यात लोकप्रमाण है तथापि विशेषताकी अपेक्षा असरख्यात लोक प्रमाणमे असरख्यात लोक प्रमाण राशिका भाग देनेसे जो लब्ध आवे उसके बहु भाग संक्लेश रूप स्थान है और एक भाग प्रमाण शुभ लेश्याओके स्थान है ।४।। अशुभ लेश्या सम्बन्धी तीवतम, तीव्रतर और तोब ये तीन स्थान, और शुभ लेश्या सम्बन्धी मन्द
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लैश्या
मन्दतर मन्दतम ये तीन स्थान होते है । ५००| कृष्ण, नील, कापोत इन तीन अशुभ लेश्याओके उत्कृष्ट मध्यम जघन्य अश रूपमें यह आत्मक्रमसे सक्लेशकी हानि होनेसे परिणमन करता है | ५०१ | उत्तरोत्तर संक्लेश परिणामोंकी वृद्धि होनेसे यह आत्मा कापोतसे नील और नीलसे कृष्ण लेश्यारूप परिणमन करता है। इस तरह यह जीव क्लेशकी हानि और बुद्धिको अपेक्षा तीन अशुभ लेश्या रूप परिणमन करता है । ५०२। उत्तरोत्तर विशुद्धि होनेसे यह आत्मा पीत, पद्म, शुक्ल इन शुभ लेश्याओंके जघन्य, मध्यम, उत्कृष्ट अंश रूप परिणमन करता है। विशुद्धिकी हानि होनेसे उत्कृष्टसे अन्य पर्यन्त शुक्ल पद्म पीत लेश्या रूप परिणमन करता है । ५०३। परिणामोंकी पलटनको संक्रमण कहते है उसके दो भेद है-स्वस्थान, परस्थान संक्रमण | कृष्ण और शुक्ल में वृद्धिको अपेक्षा स्वस्थान संक्रमण हो होता है। और हानिकी अपेक्षा दोनो सक्रमण होते है। तथा शेष चार लेश्याओं में स्वस्थान परस्थान दोनो संक्रमण सम्भव है | ५०४ । स्वस्थानकी अपेक्षा लेश्याओके उत्कृष्ट स्थानके समीपवर्ती परिणाम उत्कृष्ट स्थान के परिणामसे अनन्त भाग हानिरूप है। तथा स्वस्थानकी अपेक्षासे ही जघन्य स्थानके समीपवर्ती स्थानका परिणाम जघन्य स्थानसे अनन्त भाग वृद्धिरूप है। सम्पूर्ण लेश्याओंके जघन्य स्थान यदि हानि हो तो नियमसे अनन्त गुण हानिरूप परस्थान संक्रमण होता है |५०३ (नो क/जी/ ५४६/०२६/१६) ।
दे. काल /५/१८ (शुक्ल लेश्यासे क्रमश कापोत नील लेश्याओमें परिणमन करके पीछे कृष्ण लेश्या रूप परिणमन स्वीकार किया गया है पद्म पो जानेका नियम नहीं) कृष्ण लेश्माले परिणतिके अनन्तर ही कापोत रूप परिणमन शक्ति का अभाव है ) । काल/२/१६-१० (दक्षितको प्राप्त करके अन्तर्मुहूर्त से पहले गुणस्थान या लेश्या परिवर्तन नही होता)। ५. भाव लेश्याओंका स्वामित्व व शंका समाधान
१. सम्यक्त्व व गुणस्थानोंमें लेश्या
पं. स. १२/१/१२०-१४० किव्हतेस्सिया पीतलेसिया काउलेसिया एदियहूडि जान असजद सम्माट्ठति ॥१३७॥ सेलेस्सिया मलेसिया समिच्छाह टिप्पहूडि जाय अप्पमत संजदा ति १३ सियाणि मन्दाद्विप्पड जाय सजोगिकेमसि त्ति | १३ | तेण परमलेस्सिया | १४० | कृष्ण लेश्या, नील लेश्या और कापोत लेश्यावाले जोव एकेन्द्रियसे लेकर असयत सम्यग्दृष्टि गुणस्थान तक होते है । १३७॥ पीत लेश्या और पद्म लेश्यावाले जीव सज्ञी मिथ्यादृष्टिसे लेकर अप्रमत्त सयत गुणस्थान तक होते है ।१३८ । शुक् लेश्यावाले जीव सही मिध्यादृरिसे लेकर संयोगि केवली गुणस्थान तक होते है | १३ | तेरहवें गुणस्थानके आगे के सभी जीव लेश्या रहित है ॥१४०॥
घ. ६/११-८१२/२३/१ ककरवितरे तस्स मरण पि होन काउ-उ-पम-सुफलेस्थानममराए ऐसा वि परिणाममेज्य |
- कृतकृत्य वेदक काल के भीतर उसका मरण भी हो, कापोत, तेज पद्म और शुक्ल, इन लेश्याओमेंसे किसी एक लेश्याके द्वारा परिगमित भी हो । गो. ३५४/२०३/२४ दोनो शुभलेश्याओं
शुमलेश्यात्र द्विराधनासंभवाद की विराधना नहीं होती। २. उपरले गुणस्थानों में लेश्या कैसे सम्भव है। स.सि /२/६/१६०/९ ननु च उपशान्तकयासयोगकेन लिनिय शुक्लेश्यास्तस्यागम' तत्र कषायानुरञ्जनाभावादधिकरण नोपपद्यते । नैष दोष: पूर्वभावज्ञापननयापेक्षया यासी योगाति कषायानुरब्जिता सैवेत्युपचारादौदयिकीत्युच्यते । तदभावादयोगकेवलेश्य इति निश्चीयते । प्रश्न-उपशान्त कषाय, क्षीणकषाय और योगकेवली गुणस्थानमें शुक्तलेस्या है ऐसा आगम है, परन्तु
।
५. भाव लेश्याओंका स्वामित्व व शंका समाधान
वहाँपर कषायका उदय नहीं है इसलिए औदथिकपना नहीं बन सकता। उत्तर- यह कोई दोष नहीं है, क्योंकि जो योगप्रवृत्ति कषायके उदयसे अनुरजित है वही यह है इस प्रकार पूर्वभाव प्रज्ञापन नयकी अपेक्षा उपशान्त कषाय आदि गुणस्थानो में भी लेश्याको औक कहा गया है । किन्तु अयोगकेवली के योग प्रवृत्ति नही है इसलिए वे लेश्या रहित है, ऐसा निश्चय है । ( रा वा /२/६/८/१०६ / २६ ); (गो. जी. मू / ५३३ / १२१ ) ।
दे० सेश्या / २/२ (बारहवे गुणस्थानवर्ती मीतरागियोंके केवल योगको लेश्या नहीं कहते, ऐसा निश्चय नहीं करना चाहिए। )
=
४] १ / १.१.१२६ / २६१२/८ कथं सोनोपशान्तकयायाम शुक्लश्येति चेन्न कर्मनिमित्तयोगस्य तत्र सत्यापेक्षा ते नसलेश्यास्तित्वाविरोधात् । - प्रश्न-जिन जीवोकी कषाय क्षीण अथवा उपशान्त हो गयी है उनके शुक्ललेश्याका होना कैसे सम्भव है 1 उत्तर- नहीं, क्योंकि जिन जीवोंकी कषाय क्षीण अथवा उपशान्त हो गयी है उनमें कर्मले पका कारण योग पाया जाता है, इसलिए इस अपेक्षासे उनके शुक्ल लेश्याके सद्भाव माननेमें विरोध नहीं आता । (घ. २/९.९ / ४३६/६), (घ. ७/२,१.६१/१०२/१) ।
३. नरकके एक ही पटलमें भिन्न-भिन्न लेश्याएँ कैसे सम्भव हैं
४/१५.२६०/ ४६२/२ सम्बेरिया तस्य (पथम पुमी) ता तीए ( कीन्ह ) चैव लेस्साए अभावा । एक्कम्हि पत्थडे भिण्णलेस्साणं कथं संभवो विरोहाभावा । एसो अत्थो सव्वत्थ जाणिदव्वो । - पाँचवीं पृथ्वीके अधस्तन प्रस्तार के समस्त नारकियोंके उसी ही (कृष्ण) लेश्याका अभाव है। ( इसी प्रकार अन्य पृथिवियो में भी ) । प्रश्न- एक ही प्रस्तार में दो भिन्न-भिन्न लेश्याओंका होना कैसे सम्भव है। उत्तर- एक ही प्रस्तार में भिन्न-भिन्न जीवोंके भिन्न-भिन्न देश्याने होनेने कोई विरोध नहीं है यही अर्थ सर्वत्र जानना चाहिए ।
४. मरण समय में सम्भव लेश्याएँ
प. ८/३.२५० / ३२३ / १ सये देना मुदवणे
नेत्र अणियमेण अग्रह
।
- सब में
=
तिलेस्सा णिवदेति ति गहिये ये मुददेवाससिपि काउलेस्साए चेन परिणामधुवनमादो १. देव मरण क्षण ही नियम रहित अशुभ तीन लेश्याओं में गिरते हैं । २, सब ही मृत देवोंका कापोत लेश्यामें ही परिणमन स्वीकार किया गया है।
४२७
ध २/११/२९२/३ रहया असंजदसम्माद्विनो पदमपुवि आदि जान ही निपज्जवखाणास पुढमी द्विदा कार्स का मधुस्से पेन अप्पम्पो विषायोग्गलेस्साहि सह उपति चिकि-गीत-काउलेस्सा सति देवामि अससम्माठियो कालं काऊण मणुस्सेसु उप्पज्जमाना तेउ पम्म सुक्कलेस्साहि सह मस्से उववज्जति ।
२/११/६२६/१२ देवमिच्छा साससम्मादितेि-पम्म सुक्कलेसा बट्टमाषा अलेस्सा होऊन तिरियमरमेयमाणा उप्पण्ण-पढमसमए पेन किन्ही कारसाहि सह परिणमति । -१ प्रथम पृथिवीसे लेकर छठी पृथिवी पर्यंत पृथिवियोंमें रहनेवाले असंयत सम्यग्दृष्टि नारकी मरण करके मनुष्यो में अपनी-अपनी पृथिवीके योग्य लेश्याओके साथ ही उत्पन्न होते है । इसलिए उनके कृष्ण, नील, कापोत लेश्याएँ पायी जाती है । २. उसी प्रकार असयत सम्यग्दृष्टि देव भी मरण करके मनुष्योंमें उत्पन्न होते हुए अपनी-अपनी पीत, पद्म और शुक्ल लेश्याओंके साथ ही मनुष्यों में उत्पन्न होते है । ३. तेज, पद्म और शुक्ल लेश्याओं में वर्तमान निध्यादृष्टि और सासादन सम्यग्गृहि देन तिर्यंच और मनुष्यो में उत्पन्न होते समय नष्टलेश्या होकर अर्थात् अपनी-अपनी पूर्वको तेश्याको छोर मनुष्यों और ि
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लेश्या
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लोक
उत्पन्न होने के प्रथम समय कृष्ण, नील और कापोत लेश्यासे परिणत हो जाते है । (ध २/१,१/०६४/५)। ५. अपर्याप्त कालमें सम्भव लेश्याएँ ध, २/१,११/पक्ति नं गैरइय-तिरिक्व-भवणवासिय - वाण वितरजोड सियदेवाणमपज्जत्तकाले किण्ह-णील काउलेस्साओ भवति । सोधम्मादि उवरिमदेवाणमपज्जत्तकाले तेउ-पम्मसुक्कलेस्साओ भवति (४२२/१०) असंजदसम्माइट्ठीणमपज्जत्तकाले छ लेस्साओ हब ति (५११/७) । ओरालिय मिस्स कायजोगे भावेण छ लेस्साओ।
मिच्छाइट ठि-सासणसम्माइट्ठोण ओरालिय मिस्सकायजोगे वट्टमाणाण किण्ह-णीलकाउलेस्सा चेव हवति (५४/१,७)। देवमिच्छाइट ठिसासणसम्माइट्ठीणं तिरिक्व-मणुस्से सुप्पज्जमाणाण संक्लेिसेण तेउ-पम्म-सुक्कलेस्साओ फिट्टिऊण किण्ह-णीलकाउलेरसाणं एगदमा भवदि। सम्माइट्ठीण पुण तेउ-पम्म-मुक्कलेस्साओ चिर तणाओ जाव अतोमुहत्तं ताव ण णस्स ति। (७६४/५)। - १. नारकी, तिर्यच, भवनवासी. वान व्यन्तर और ज्योतिषी देवो के अपर्याप्त कालमे कृष्ण, नील और कापोत लेश्याएँ होती है। तथा सौधर्मादि ऊपरके देवोंके अपर्याप्त काल में पीत, पद्म
और शुक्ल लेश्या होती है। ऐसा जानना चाहिए। २ असंयत सम्यग्दृष्टियोके अपर्याप्त काल में छहों लेश्याएँ होती है। ३ औदारिक मिश्रकाययोगी के भाव से छहो लेश्याएँ होती है। औदारिकमिश्रकाययोगमें वर्तमान मिथ्यादृष्टि और सासादन सम्यग्दृष्टि जीवोके भावसे कृष्ण, नील और कापोत लेश्याएँ ही होती है। ४. मिथ्यावृष्टि और सासादनसम्यग्दृष्टि देवों के मरते समय सक्लेश । उत्पन्न हो जाने से तेज, पद्म और शुक्ल लेश्याएँ नष्ट होकर कृष्ण, नील और कापोत लेश्यामेसे यथा सम्भव कोई एक लेश्या हो जाती है। किन्तु सम्यग्दृष्टि देवोके चिर तन ( पुरानी तेज, पद्म और शुक्ललेश्याएँ मरण करनेके अनन्तर अन्तमहतं तक नष्ट नही होती है, इसलिए शुक्ल लेश्यावाले मिथ्यादृष्टि और सासादन सम्यग्दृष्टि देवोके औदारिककाय नहीं होता)(ध २/१,१/६५६/१२) गो, क जी.प्र /६२५/४६८/१२ तद्भवप्रथमकालान्तर्मुहूर्त पूर्वभवलेश्यासद्भावात् । - वर्तमान भयके प्रथम अन्तर्मुहर्त काल में पूर्वभवको लेश्याका सद्भाव होनेसे । ६. अपर्याप्त या मिश्र योगमें लेश्या सम्बन्धी शंका समाधान १. मिश्रयोग सामान्यमें छहों लेश्या सम्बन्धी ७.२/१,१/६५४/६ देवणेरइयसम्माइठिण मणुसगदीए उप्पण्णाणं
ओरालियमिस्सकायजोगे बट्टमाणाणं अविणट्ट'-पुबिल्ल-भावलेस्साणं भावेण छ लेस्साओ लभंति ति। - देव और नारकी मनुष्यगतिमें उत्पन्न हुए है, औदारिक मिश्रकाय योगमे वर्तमाम है, और जिनको पूर्व भव सम्बन्धी भाव लेश्याएँ अभीतक नष्ट नहीं हुई है, ऐसे जीवोंके भाव से छहो लेश्याएँ पायी जाती है। इसलिए
औदारिकमिश्र काययोगी जीवोके छहो लेश्याएँ कही गयी है। २. मिथ्यादृष्टि व सासादन सम्यग्दृष्टिके शुभ लेश्या सम्बन्धी दे० लेश्या/५/४ में ध. २/१.१/७६४/५ (मिथ्या दृष्टि व सासादन सम्यग्दृष्टि देवोके मरते समय संक्लेश हो जानेसे पीत, पद्म व शुक्ल लेश्याएँ नष्ट होकर कृष्ण, नील व कापोतमें से यथा सम्भव कोई एक लेश्या हो जाती है।) ३. अविरत सम्यग्दृष्टिमें छहों लेश्या सम्बन्धी ध/२/१,१/७५२/७ छट्ठीदो पुढवीदो किण्हलेस्सासम्माइट् ठिणी मणुसेसु जे आगच्छति तेसि वेदगसम्मत्तेण सह किण्हॅलेस्सा लब्भदि ति । छठी पृथिवीसे जो कृष्ण लेश्यावाले अविरत सम्यग्दृष्टि जीव मनुष्योमें आते है, उनके अपर्याप्त कालमें वेदक सम्यक्त्वके साथ कृष्ण लेश्या पायी जाती है।
दे० लेश्या/५/४ मे ध २/१.१५११/३ (१-६ पृथिवी तक्के असयत सम्यग्दृष्ठि नारकी जीव अपने-अपने योग्य कृष्ण, नील ब कापोत लेश्याके साथ मनुष्योमै उत्पन्न होते है। उसी प्रकार असंयत सम्यग्दृष्टि देव भी अपने-अपने योग्य पीत, पद्म व शुयल लेश्याओके साथ मनुष्यों में उत्पन्न होते है। इस प्रकार अविरत सम्यग्दृष्टि मनुष्यो के अपर्याप्त काल में छहो लेश्याएँ बन जाती है। ध.२/१,१/६५७/३ सम्माइठिणो तहा ण परिणमति, अतोमुहत्तं पुयिल्ल लेस्साहि सह अच्छिय अण्णलेरस गच्छति। कि कारणं । सम्माइछोण बुद्धिठिय परमेट्ठीण मिच्छाइट्ठीण मरणकाले स किलासाभावादो। णेरइय-सम्माइट ठिणो पुण चिराण-लेस्साहि सह मणुस्से सुप्पज्जति। =सम्यग्दृष्टि देव अशुभ लेश्याओं रूपसे परिणत नहीं होते है, किन्तु तिथंच और मनुष्यो में उत्पन्न होनेके प्रथम समयसे लगाकर अन्तर्मुहूर्त तक पूर्व रहकर पीछे अन्य लेश्याओको प्राप्त होते है। किन्तु नारकी सम्यग्दृष्टि ता पुरानी चिर" तन लेश्याओके साथ ही मनुष्यों मे उत्पन्न होते है। इस प्रकार सम्यग्दृष्टिके अपर्याप्त अवस्थामे छहो लेश्याएँ बन जाती है। ७.कपाट समुद्धात में लेश्या ध, २/१.१/५४/६ कवागद-सजोगिकेवलिस्स मुक्क्ले स्सा चेव भवदि ।
-- कपाट समुद्रातगत औदारिक मिश्र काययोगी सयोगिकेयली के एक शुक्ललेश्या होती है।
८.चारों गतियोंमें लेश्या की तरतमता मू आ./११३४-११३७ काऊ काऊ तह काउणील णीला य णीलक्व्हिाय । किण्हा य परमविण्हा लेस्सा रदणादिपुढवीसु ।११३४४ तेऊ देऊ तह तेउ पम्म पम्मा स पम्मसुक्का य । सक्का य परमसका लेस्साभेदो मुणेयत्रो ।११३५॥ तिहं दोण्ह दोण्हं छण्हं दोण्ह च तेरसहं च । एतो य चोद्दसण्ह लेस्सा भवणादिदेवाण।११३६। एइदियवियलिदिय असणिणो तिण्णि होति असुहाओ । स कादीदाऊणं तिणि सुहा छपि सेसाण ११३७ नरकगति-रत्नप्रभा आदि नरककी पृथिवियो मे जघन्य कापोती, मध्यम कापोती, उत्कृष्ट कापोती. तथा जघन्य नील. मध्यम नील उत्कृष्ट नौल तथा जघन्य कृष्ण लेश्या
और उत्कृष्ट कृष्ण लेश्या है ।११३४॥ देवगति-भवनवासी आदि देवो के क्रमसे जघन्य तेज।लेश्या भवन त्रिकमें है, दो स्वर्गोंमे मध्यम तेजोलेश्या है, दोमे उत्कृष्ट तेजोलेश्या है जघन्य पालेश्या है, छहमें मध्यम पद्मलेश्या है, दोमे उत्कृष्ट पद्मलेश्या है और जघन्य शुक्ल लेश्या है, तेरहमें मध्यम शुक्ल लेश्या है और चौदह विमानों में चरम शुक्ललेश्या है ।११३५-११३६॥ तिथंच व मनुष्य-एकेन्द्री, विकले द्री असंज्ञीपचेद्रोके तीन अशुभ लेश्या होती है, असंरख्याल वर्ष की आयु वाले भोगभूमिया कुभोगभूमिया जीवोके तीन शुभलेश्या है और बाकीके कर्मभूमिया मनुष्य तियंचोके छहों लेश्या होती है ।११३७१ ( स सि /३/३/२०७/१,४/२२/२५३/४ ) (व.स./प्रा./१/१८५-१८६); (रा.वा./३/३/४/१६४/६,४/२२/२४०/२४);
(गो.जी/मू./१२६-५३४)। लोच-दे० केश लोच । लोक-काल का एक प्रमाण विशेष-दे० गणित/I/१| लोक
مع
لي سم
लोक स्वरूपका तुलनात्मक अध्ययन लोक निर्दशका सामान्य परिचय । जैन मताभिमत भूगोल परिचय । वैदिक धर्माभिमत भूगोल परिचय । बौद्धाभिमत भूगोल परिचय । आधुनिक विश्व परिचय । उपरोक्त मान्यताओंको तुलना। चातुर्दिपिक भूगोल परिचय ।
४४५ ४४६ ४४६ ४४६
ه م
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४५० ४५३
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लोक
सूचीपत्र
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लोक सामान्य निर्देश लोकाकाश व लोकाकाशमें द्रव्योंका अवगाह ।
-दे० आकाश/३ । लोकका लक्षण। लोकका आकार। लोकका विस्तार वातवलयोंका परिचय । १ बातबन्नय सामान्य परिचय। २ तीन बातबलयोका अवम्थान क्रम । ३ पृथिवियोके साथ बातचलयोका स्पर्श । ४ वातबलयोका विस्तार । लोकके आठ रुचक प्रदेश। लोक विभाग निर्देश। त्रस व स्थावर लोक निर्देश। अधोलोक सामान्य परिचय। भावन लोक निर्देश। व्यन्तर लोक निर्देश। मध्य लोक निर्देश। १. द्वीप सागर निर्देश।
२ तिर्यक्लोक मनुष्यलोकादि विभाग। | ज्योतिष लोक सामान्य निर्देश ।
ज्योतिष विमानोंकी संचारविधि। -दे० ज्योतिष/२। ऊर्ध्वलोक सामान्य परिचय। जम्बूद्वीप निर्देश जम्बूद्वीप सामान्य निदेश। जम्बूद्वीपमें क्षेत्र पर्वत, नदी, आदिका प्रमाण। १.क्षेत्र नगर आदिका प्रमाण । २. पर्वतोका प्रमाण । ३ नदियोका प्रमाण । ४. द्रह-कुण्ड आदि। क्षेत्र निर्देश। कुलाचल पर्वत निदेश। विजयाध पर्वत निर्देश। सुमेरु पर्वत निर्देश । १ सामान्य निर्देश। २. मेरुका आकार। ३ मेरुकी परिधियाँ। ४. वनखण्ड निर्देश । पाण्डुक शिला निर्देश अन्य पर्वतोंका निर्देश। द्रह निदेश। कुण्ड निर्देश। नदी निर्देश। देवकुरु व उत्तरकुरु निर्देश। जम्बू ब शाल्मली वृक्षस्थल । विदेहके क्षेत्र निदेश। लोक स्थित कल्पवृक्ष व कमलादि। -दे० वृक्ष । लोक स्थित चैत्यालय। -दे०चैत्य चैत्यालय/३॥ अन्य द्वीप सागर निर्देश लवणसागर निदेश। | धातकीखण्ड निदश।
३ | कालोदसमुद्र निदेश। ४ पुष्कर द्वीप निदेश। । नन्दीश्वरद्वीप निदेश। कुण्डलवरद्वीप निर्देश। रुचकारद्वीप निदेश। स्वयम्भूरमण समुद्र निदेश। द्वीप-पर्वतों आदिके नाम रस आदि द्वीप समुद्रोंके नाम। द्वीप समुद्रोंके अधिपति देव ।-दे. व्यन्तर/४/ 1 जम्बूद्वीपके क्षेत्रों के नाम १ जम्बूद्वीप के महाक्षेत्रों के माम। २. विदेहके ३२ क्षेत्र व उनके प्रधान नगर । द्वीप, समुद्रों आदिके नामोंकी अन्वर्थता।
-दे०वह वह नाम । जम्बू द्वीपके पर्वतोंके नाम १. कुलाचल आदिके नाम। २ नाभिगिरि तथा उनके रक्षक देव। ३ विदेह वक्षारोके नाम । ४ गजदन्तोके नाम। ५. यमक पर्वतोके नाम। ६. दिग्गजेन्द्रोके नाम। जम्बूद्वीपके पर्वतीय कूट व तन्निवासी देव। १. भरत विजयाई । २ ऐरावत विजयार्ध । ३. विदेहके ३२ विजया । ४ हिमवान् । १. महाहिमवान् । ६. निषध पर्वत। ७. नील पर्वत। ८ रुक्मि पर्वत । ६ शिखरी पर्वत। १०. विदेह के १६ वक्षार। ११. सौमनस गजदन्त। १२. विद्य त्प्रभ गजदन्त । १३ गन्धमादन गजदन्त ।
१४ माल्यवान् गजदन्त। ५ सुमेरु पर्वतके वनोंमें कूदोंके नाम व देव ।
जम्बूदीपके द्रहों व वापियोंके नाम । १ हिमवान् आदि कुलाचलों पर । २ सुमेरु पर्वतके बनोमें।
३. देव व उत्तर कुरु में। ७ | महा द्रहके कूटोंके नाम ।
जम्बूद्वीपकी नदियोके नाम । १. भरनादि महाक्षेत्रोंमें २. विदेहके ३२ क्षेत्रोंमें ३. विदेह क्षेत्रकी १० विभगा नदियोंके नाम। लवण सागर के पर्बत पाताल व तन्निवासी देव । मानुषोत्तर पर्वतके कूटों व देवोंके नाम । नन्दीश्वर द्वीपको वापियों व उनके देव । कुण्डलवर पर्वतके कूटों व देवोंके नाम ।
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चित्र सूची
६
रुचक पर्वतके कूटों व देवोंके नाम । पर्वतों आदिके वर्ण।
द्वीप क्षेत्र पर्वत आदिका विस्तार र द्वीप सागरोंका सामान्य विस्तार । २ लवण सागर व उसके पातालादि । ३ अढाई द्वीपके क्षेत्रोंका विस्तार । । १ जम्बूद्वीपके क्षेत्र ।
२. धातकी खण्डके क्षेत्र ।
३.पुष्कराध के क्षेत्र। ४ जम्बूदीपके पर्वतों व कूटोंका विस्तार
१. लम्बे पर्वत। २. गोल पर्वत। ३. पर्वतीय व अन्यकूट । ४. नदी, कुण्ड, द्वीप व पाण्डुक शिला आदि। ५ अढाई द्वीपकी सर्व वेदियाँ। शेष दीपोंके पर्वतों व कूटोंका विस्तार । | १ धातकी खण्डके पर्वत।
२. पुष्कर द्वीपके पर्वत व कूट । ३. नन्दीश्वर द्वीपके पर्वत । ४. कुण्डलवर पर्वत व उसके कूट । ५ रुचकवर पर्वत व उसके कूट । ६. स्वयंभूरमण पर्वत। अढाई द्वीपके वनखण्डोंका विस्तार । १ जम्बूद्वीपके बनखण्ड । २. धातकी खण्डके वनखण्ड । ३ पुष्करार्ध द्वीपके बनखण्ड । ४ नन्दीश्वर द्वीपके वन । अढाई द्वीपकी नदियों का विस्तार । १. जम्बूद्वीपकी नदियाँ। २. धातकोखण्डकी नदियाँ। ३ पुष्करद्वीपको नदियाँ। मध्यलोककी वापियों व कुण्डोंका विस्तार । १. जम्बूद्वीप सम्बन्धी। २. अन्यद्वीपों सम्बन्धी अढाई द्वीपके कमलोंका विस्तार । लोकके चित्र वैदिक धर्माभिमत भूगोल१. भूलोक २. जम्बू द्वीप ३ पाताल लोक ४. सामान्य लोक बौद्ध धर्मामिमत भूगोल ५. भूमण्डल ६. जम्बू द्वीप ७. भूलोक सामान्य चातुीपिक भूगोल
तीन लोक १०-११ अधोलोक
१०. अधोलोक सामान्य ११. प्रत्येक पटल में इन्द्रक व श्रेणीबद्ध * रत्नप्रभा पृथिवी * अन्बहुल भागमे नरकों के पटल
भावन लोक
ज्योतिष लोक १. मध्यलोकमें चरज्योतिष विमानोंका अवस्थान । २ ज्योतिष विमानोका आकार । ३. अचर ज्योतिष विमानोका अवस्थान । ४. ज्योतिष विमानोकी सचारविधि । ऊर्ध्व लोक १. स्वर्गलोक सामान्य । -दे० स्वर्ग २, प्रत्येक पटलमें इन्द्रक व श्रेणीबद्ध ।-दे० स्वर्ग ३ सौधर्म युगलके ३१ पटल ।-दे० स्वर्ग ४, लौकान्तिकलोक । -दे० लौकान्तिक
मध्यलोक सामान्य । १३
जम्बू द्वाप। १४. भरतक्षेत्र ।
रगंगानदी।
| पद्मद्रह । -दे० चित्र सं० २४ १५. विजयापर्वत। १६-२० सुमेरु पर्वत।
१६. सुमेरुपर्वत सामान्य व चूलिका । १७. नन्दन व सौमनस वन । १८ इन वनोको पुष्करिणी १६. पाण्डुक वन।
२० पाण्डुक शिला। २१ नामिगिरि पर्वत
| गजदन्त पर्वत यमकवकाञ्चन गिरि पद्मद्रह | पद्म द्रहके मध्यवर्ती कमल
देव कुरु व उत्तर कुरु २७ विदेहका कच्छा क्षेत्र २८ पूर्वापर विदेह-दे० चित्र सं०१३ २९-३२ जम्बू व शाल्मली वृक्ष स्थल
२६. सामान्य स्थल । ३० पीठ पर स्थित मूल वृक्ष । ३१.१२ भूमियोंका सामान्य परिचय ।
३२. वृक्षकी मूलभूत प्रथम भूमि। ३३-३५ लवण सागर।
३३. सागर तल ३४. उत्कृष्ट पाताल ३५, लवण सागर
मानुषोत्तर पर्वत। ३७ अढाई दीप।
नन्दीश्वर द्वीप। कुण्डलवर पर्वत व द्वीप। रुचकवर पर्वत व द्वीप। (प्रथम दृष्टि) रुचकवर पर्वत व द्वीप (द्वि० दृष्टि)
७
।
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लोक
१. लोक स्वरूपका तुलनात्मक अध्ययन
१. लोकनिर्देशका सामान्य परिचय
४३१
पृथिवी, इसके चारो ओरका वायुमण्डल, इसके नीचेकी रचना तथा इसके ऊपर आकाश में स्थित सौरमण्डलका स्वरूप आदि, इनके ऊपर रहनेवाली जीव राशि, इनमें उत्पन्न होनेवाले पदार्थ, एक दूसरेके साथ इनका सम्बन्ध ये सब कुछ वर्णन भूगोलका विषय है । प्रत्यक्ष होनेसे केवल इस पृथिवी मण्डलकी रचना तो सर्व सम्मत है, है, परन्तु अन्य बातोंका विस्तार जाननेके लिए अनुमान ही एकमात्र आधार है । यद्यपि आधुनिक यन्त्रो से इसके अतिरिक्त कुछ अन्य भूखण्डोंका भी प्रत्यक्ष करना सम्भव है पर असीम लोककी अपेक्षा वह किसी गणना नहीं है। यत्रो से भी अधिक विश्वस्त योगियोंकी सूक्ष्म दृष्टि है। आध्यात्मिक दृष्टिकोण से देखनेपर लोकोकी रचना के रूप में यह सब कथन व्यक्तिको आध्यात्मिक उन्नति व अवनतिका प्रदर्शन मात्र है। एक स्वतन्त्र विषय होनेके कारण उसका दिग्दर्शन यहाँ कराया जाना सम्भव नहीं है । आज तक भारत में भूगोलका आधार वह दृष्टि ही रही है। जैन, वैदिक व बौद्ध आदि सभी दर्शनकारों ने अपने-अपने ढंग से इस विषयका स्पर्श किया है और आज के आधुनिक वैज्ञानिकोने भी सभी की मान्यताएं भिन्नभिन्न होती हुई भी कुछ अंशो मिलती है। जैन व वैदिक भूगोल काफी अशोमे मिलता है। वर्तमान भूगोल के साथ किसी प्रकार भी मेल बैठता दिखाई नहीं देता, परन्तु यदि विशेषज्ञ चाहे तो इस विषयकी गहराइयों में प्रवेश करके आचार्योंके प्रतिपादनकी सत्यता सिद्ध कर सकते है । इसी सब दृष्टियोको संक्षिप्त तुलना इस अधिकार की गयी है।
F
२. जैनाभिमत भूगोल परिचय
I
जैसा कि अगले अधिकारोपरसे जाना जाता है, इस अनन्त आकाशके मध्यका वह अनादि व अकृत्रिम भाग जिसमे कि जोव पुद्गल आदि षद् द्रव्य समुदाय दिखाई देता है, वह लोक कहलाता है. जो इस समस्त आकाशकी तुलना नाके बराबर है । --लोक नाम से प्रसिद्ध आकाशका यह खण्ड मनुष्याकार है तथा चारो ओर तीन प्रकारको वायुओंसे वेष्टित है। लोकके ऊपरसे लेकर नीचे तक बीचोंबीच एक राजू प्रमाण विस्तार युक्त त्रसनाली है। त्रस जीव इससे बाहर नहीं रहते पर स्थावर जीव सर्वत्र रहते है । यह तीन भागों में विभक्त है-अधोलोक मध्यतोक व ऊर्ध्वलोक अधोलोकमें नारकी जीवोंके रहने के अति दुखमय रौरव आदि सात नरक है, जहाँ पापी जीव मरकर जन्म लेते है और ऊर्ध्वलोक में करोड़ो योजना के अन्तरालसे एकके ऊपर एक करके १६ स्वर्गों में कल्पवासी विमान है । जहाँ पुण्यात्मा जीव मरकर जन्मते है। उनसे भी ऊपर एक भवावतारी लौकान्तिकोके रहनेका स्थान है, तथा लोकके शीर्ष पर सिद्धलोक है जहाँ कि मुक्त जीव ज्ञानमात्र शरीर के साथ अवस्थित है। मध्यलोकमें वलयाकार रूप से अवस्थित असंख्यातो द्वीप व समुद्र एकके पीछे एकको वेष्टित करते है । जम्बू, धातकी, पुष्कर आदि तो द्वीप है और लवणोद कालोद, वारुणीवर, क्षीरवर, इक्षुवर, आदि समुद्र है। प्रत्येक द्वीप व समुद्र पूर्व पूर्वकी अपेक्षा दूने विस्तार युक्त है सबसे मीच जम्बूद्वीप है, जिसके बीचोबोच मेरु पर्वत है। पुष्कर द्वीपके बीचोबीच वलयाकार मानुषोत्तर पर्वत है, जिससे उसके दो भाग हो जाते है ।
1
जम्बूद्वीप धातकी व पुष्करका अम्यन्तर अर्धभाग, ये अढाई द्वीप हैं इनसे आगे मनुष्योका निवास नहीं है। शेष द्वीपोमे तियंच प्रेत आदि व्यतर देव निवास करते है। जम्बूद्वीपमें सुमेरुके दक्षिण में हिमवान, महाहिमवान व निषध, तथा उत्तर में नील,
१. लोक स्वरूप का तुलनात्मक अध्ययन
रुक्मि व शिखरी है जो इस द्वीपको भरत, हैमवत, हरि, विदेह, रम्यक, हैरण्यवत व ऐरावत नामवाले सात क्षेत्रो में विभक्त करते है। ये पर्वतपर एक एक महाहृद है जिनमे से दो दो नदियाँ निकलकर प्रत्येक क्षेत्र पूर्व व पश्चिम दिशा मुखसे महती हुई लवण सागर में मिल जाती है। उस उस क्षेत्र में वे नदियाँ अन्य सहस्रो परिवार नदियोको अपनेमे समा लेती है। भरत व ऐरावत क्षेत्रो मे बीचोबीच एक-एक विजयार्धपर्वत है । इन क्षेत्रोकी दो-दो नदियो व इस पर्वत के कारण ये क्षेत्र छ छ खण्डोमे विभाजित हो जाते है, जिनमे मध्यवर्ती एक खण्डमे आर्य जन रहते है और शेष पाँच में म्लेच्छ । इन दोनो क्षेत्रोमे ही धर्म-कर्म व सुख-दुख आदिकी हानि वृद्धि होती है, शेष क्षेत्र सदा अवस्थित है। - विदेह क्षेत्र मे सुमेरुके दक्षिण व उत्तर में निषक्ष व नील पर्वतस्पर्शी सोमनस विद्य ुत्प्रभ तथा गन्धमादन व माल्यवान नामके दो दो गजदन्ताकार पर्वत है, जिनके मध्य देवकुरु व उत्तरकुरु नामकी दो उत्कृष्ट भोगभूमियों है, जहाँ मनुष्य व तिथेच बिना कुछ कार्य परे जति सुखपूर्वक जीवन व्यतीत करते है । उनकी आयु भी असख्यातों वर्षको होती है। इन दोनो क्षेत्रमे जवानी नामके दो वृक्ष है । जम्बू वृक्षके कारण ही इसका नाम जम्बूद्वीप है। इसके पूर्व पश्चिम भागमे से प्रत्येकमे १६.१६ क्षेत्र है । जो ३२ विदेह कहलाते है । इनका विभाग वहाँ स्थित पर्वत व नदियोके कारण से हुआ है। प्रत्येक क्षेत्रमे भरतक्षेत्रवत् छह खण्डो की रचना है। इन क्षेत्रो में कभी धर्म विच्छेद नहीं होता। दूसरे व तीसरे आये द्वीपमें पूर्व व पश्चिम विस्तार के मध्य एक एक सुमेरु है। प्रत्येक सुमेरु सम्बन्धी छ' पर्वत व सात क्षेत्र है जिनकी रचना उपरोक्तवत् है ।-- लवणोदके तलभाग में अनेकों पाताल है, जिनमे वायुको हानि-वृद्धिके कारण सागरके जलमे भी हानि - वृद्धि होती रहती है । पृथिवीतलसे ७६० योजन ऊपर आकाश में क्रमसे सितारे, सूर्य, चन्द्र, नक्षत्र, बुध, शुक्र, वृहस्पति, मंगल व शनीचर इन ज्योतिष ग्रहोके सचार क्षेत्र अवस्थित है, जिनका उल्लंघन न करते हुए वे सदा सुमेरुकी प्रदक्षिणा देते हुए घूमा करते है । इसीके कारण दिन, रात. वर्षा ऋतु आदिकी उत्पत्ति होती है । जेनाम्नायमे चन्द्रमाको अपेक्षा सूर्य छोटा माना जाता है ।
-
३. वैदिक धर्माभिमत भूगोल परिचय
- दे० आगे चित्र सं ० १ से ४ । ( विष्णु पुराण / २ /२-७ के आधारपर कथित भावार्थ ) इस पृथिवीपर जम्बू, प्लक्ष, शाल्मल, कुश, क्रौंच, शाक और पुष्कर ये सात द्वीप तथा सबजी, रस, सुरोद सर्विस्सलिल, दधितोय, क्षीरोद और स्वादुसलिल ये सात समुद्र है ( २/२-४ ) जो चूडीके आकार रूपसे एक दूसरेको वेष्टित करके स्थित है। ये द्वीप पूर्व पूर्व पकी अपेक्षा दूने विस्तारनाते है। ( २/४.८०)।
इन सबके बीच में जम्बूद्वीप और उसके बीच मे ४००० खोजन ऊँचा सुमेरु पर्वत है जो १६००० योजन पृथिवीमे घुसा हुआ है। सुमेरु दक्षिण में हिमवान हेमकूट और निषेध तथा उत्तर में नील, श्वेत और शगी ये छ वर्ष पर्वत है। जो इसको भारतवर्ष, किंपुरुष, हरिवर्ष, इलावृत, रम्यक, हिरण्यमय और उत्तर कुरु इन सात क्षेत्र में विभक्त कर देते है ।-नोट' – जम्बूद्वीपकी चातुर्द्वीपिक भूगोलके साथ तुलना (दे० आगे शीर्षक न० ७) । मरु पर्वतकी पूर्व पश्चिम इलावृतकी मर्यादाभूत मान्यवान व गन्धमादन नामके दो पर्वत है जो निबंध व नील तक फैले हुए है। मेरुके चारो ओर पूर्वा दिशाओं मन्दर गन्धमादन, विपुल और सुपार्श्व मे चार पर्वत है। इनके ऊपर क्रमश कदम्ब, जम्बू, पीपल व बट ये चार वृक्ष है। वृक्षके नामसे ही यह द्वीप जम्बूद्वीप नामसे प्रसिद्ध है। वर्षों भारतवर्ष कर्मभूमि है और शेष वर्ष भोगभूमियों है। क्योकि भारत में ही कृतयुग, त्रेता, द्वापर और कलियुग, ये चार काल
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लोक
वर्तते है और स्वर्ग मोक्षके पुरुषार्थ की सिद्धि है । अन्य क्षेत्रो में सदा त्रेतायुग रहता है और महाँके निवासी पुण्यवान अधिव रहित होते है । (अध्याय २ ) । भरतलेत्रमें महेन्द्र आदि
है, जिनसे चमा बदि अनेक नदियाँ निकलती है। नदियोके किनारोपर कुरु पाचाल आदि) और पौष्ट्र आदिले सोग रहते है। ( अध्याय ३ ) इसी प्रकार प्लक्षद्वीपमें भी पर्बत व उनसे विभाजित क्षेत्र है। वहाँ प्लक्ष नामका वृक्ष है और सदा त्रेता काल रहता है । शामल आदि शेष सर्व द्वोपोकी रचना प्लक्षद्वीप है । पुष्करद्वीपके बीचोबीच वलयाकार मानुषोत्तर पर्वत है। जिससे उसके दो खण्ड हो गये है । अभ्यन्तर खण्डका नाम धातकी है। यहाँ भोगभूमि है इस द्वीप व नदियाँ नहीं है इस द्वीपको स्वादक समुद्र बेष्टित करता है। इससे आगे प्राणियो का निवास नहीं है । ( अध्याय ४ ) ।
इस भूखण्ड के नीचे दस दस हजार योजनके सात पाताल हैअतल, वितल, नितल, गभस्तिमत्, महातल, सुतल और पाताल । पातालोके नीचे बिष्णु भगवान् हजारो फनोसे युक्त शेषनागके रूप में स्थित होते हुए मुण्डको जाने सिरपर धारण करते है।
चित्र १
१
जम्बू द्वीप
लवणोद २ लक्षद्वीप
इक्षु रस, ३ शाल्मल द्वीप
४१२
सुरोद
४ कुश द्वीप सर्पिस्सलिल
५ क्रौच द्वीप दधितोय
.६ शाक द्वीप
क्षीरोद
५
७ अभ्यन्तर पुष्करार्ध द्वीप
1W/
मानुषोत्तर पर्वत
७] बाह्यार्थ पुष्करार्ध द्वीप स्वाद सलिल
जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश
१. लोकस्वरूपका तुलनात्मक अध्ययन
५)
(अध्याय 2) पृथिवीस और जसके नीचे रौरव कर रोष ताल, विशसन, महाज्वाल, सूकर, रुषिराम्भ, वैतरणी, इमोश कृमिभोजन, अतिपत्र मन कृष्ण, तप्तकुम्भ, लवण. लोहित, लालाभक्ष, दारुण, व्यवह णप, वह्निज्वाल, सस कामसूत्र. सन्देश, अाशिरा कालसूत्र, तमस् अवीचि, श्वभोजन, अप्रतिष्ठ, और अरुचि आदि महाभयंकर नरक है, जहाँ पापी जीव मरकर जन्म लेते है । ( अध्याय ६ ) भूमि से एक लाख योजन ऊपर जाकर एक एक लाख योजनके अन्तरालसे सूर्य,
चन्द्र व नक्षत्र मण्डल स्थित है, तथाउनके ऊपर दो-दो लाख योजनके अन्तरासे, शुक्र, मगत हस्पति शानि तथा इसके ऊपर एक एक लाख योजनके अन्तरालसे सप्तऋषि ध्रुव तारे स्थित है। इससे १ करोड योजन ऊपर महर्लोक है जहाँ कम्पों तक जीवित रहने सो मृगु आदि सिद्धगण रहते है। इससे २ करोड योजन ऊपर जहाँ महाजीके पुत्र सनकादि रहते है। आठ करोड योजन जनलोक है ऊपर तप लोक है जहाँ वैराज देव निवास करते है ।
भू लोक
सप्त द्वीप व सप्तसागर पूर्व पूर्व की अपेक्षा उत्तरोत्तर दूना विस्तार है
ADA
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लोक
४३३
१. लोकस्वरूपका तुलनात्मक अध्ययन
चित्र- ४
सामान्य लोक
सत्यलोक लौकान्तिकदे । अमर गण
१२००,००,००० यो.
१२ करोड योजन ऊपर सत्यलोक है, जहाँ फिरसे न मरनेवाले जीव रहते हैं, इसे ब्रह्मलोक भी कहते है। भूलोक व सूर्यलोकके मध्यमें मुनिजनोंसे सेवित भुवलौक है और सूर्य तथा धुवके बीच में १४ लाख योजन स्वर्लोक कहलाता है। ये तीनों लोक कृतक है । जनलोक, तपलोक व सत्यलोक ये तीन अकृतक हैं। इन दोनो कृतक व अकृतकके मध्य में महर्लोक है। इसलिए यह कृताकृतक है। ( अध्याय ७)।
तपलोक (वैराज देव)
सनक अदि)
८००,००,००० यो
वजनलोक
(ब्रह्मा पुत्र)
२००,00,००० यो
महलोक (भृगु आदि सिद्ध गा
१००,00,000 यो
ध्रुव
1
चित्र-२
जम्बू द्वीप
3
१००,000 यो.
.
अंगी पर्वत
उतरकुरु
wereo० यो.
श्वेत पर्वत
हिरण्यमय
२००,००० मो.
।
२००,००० यो.
नील पर्वत
रम्यक्
BESTHA
२००,००० यो.
पीपल दृश
र
कदन इलावृत
200,000 यो
MONOKA
निषध पर्वत
२७07000 यो
HOSTOP यो
हैमकूट पर्वत
१००,००० सौ.
हिमवान पर्वत
१००,000 यो
कपुरूष
भुव लोक मलोक
भारत
भूलोक) दे-पीछे चित्र -१वर (पाताल) दे-पीछे चिन्न-३
भूलोक के नीचे पाताल लोक भूलोकके नीचे सप्त पाताल है।तथा उनके नीचे शेषशायी भगवान विष्णु विश्राम करते है
महाज्वाल
चित्र ३
TITIT३लवा
/ सुतल
पाताल
पाताल
नरक लोक
अतल
असिपत्रवन वैतरणी
HUWEZOTETAARNSTLER EN YORUMLAREERITA TENTARA ARARAAN PARA CRETALIATURANTIU ARNAUTAKUT
भलाक
भिस्तल
वितल
नितल
शेषशायी
शायी विष्ण भगवान
अदीचि
भा० ३-५५
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लोक
४३४
१. लोकस्वरूपका तुलनात्मक अध्ययन
४. बौद्धाभिमत भूगोल परिचय
(५वीं शताब्दीके वसुबन्धुकृत अभिधर्मकोशके आधार पर ति प.. प्र८७/H. L Jain द्वारा कथितका भावार्थ)। लोक्के अधोभागमें १६००,००० योजन ऊँचा अपरिमित वायुमण्डल है। इसके ऊपर ११२०,००० योजन ऊँचा जलमण्डल है। इस जलमण्डलमे ३२०,००० यो० भूमण्डल है। इस भूमण्डलके बीच में मेरु पर्वत है। आगे ८०००० योजन विस्तृत सीता (समुद्र) है जो मेरुको चारो ओरसे वेष्टित करके स्थित है। इसके आगे ४०,००० योजन विस्तृत युगन्धर पर्वत वलयाकारसे स्थित है। इसके आगे भी इसी प्रकार एक एक सीता (समुद्र) के अन्तरालसे उत्तरोतर आधे आधे विस्तारसे युक्त क्रमश ईषाधर, खदिरक, सुदर्शन, अश्वकर्ण, विनतक,
और निमिधर पर्वत है। अन्तमें लोहमय चक्रवाल पर्वत है। निमिन्धर और चक्रवाल पर्वतोके मध्यमै जो समुद्र स्थित है उसमे मेरुको पूर्वादि दिशाओमे क्रममे अर्धचन्द्राकार पूर्व विदेह, शकटा
कार जम्बूद्वीप, मण्डलाकार अबरगोदानीय और समचतुष्कोण उत्तरकुरु ये चार द्वीप स्थित है। इन चारोके पार्श्व भागोमे दो-दो अन्तद्वीप है। उनमेसे जम्बूद्वोपके पासवाले चमरद्वीपमे राक्षसोका और शेष द्वीपोंमे मनुष्योंका निवास है। जम्बूद्वीपमे उत्तर की ओर कीटाद्रि (छोटे पर्वत) तथा उनके आगे हिमवान पर्वत अवस्थित है। उसके आगे अनबतप्त नामक अगाध सरोवर है, जिसमेसे गगा सिन्धु वश्च और सोता ये नदियों निकलती है। उक्त सरोवरके समीपमें जम्बु वृक्ष है। जिसके कारण इस द्वीपका 'जम्बू' ऐसा नाम पडा है। जम्बूद्वीपके नोचे २०,००० योजन प्रमाण अवीचि नामक नरक है। उसके ऊपर क्रमश प्रतापन आदि सात नरक और है। इन नरकोके चारो पार्श्व भागोमें कुक्ल, कुणप क्षुरमार्गादिक और खारोदक (अभिपत्रवन, श्यामशबल-श्व-स्थान, अय शाल्मली बन और बैतरणीनदी) ये चार उत्सद है। इन नरकोके धरातलमें आठ शीत नरक और है। भूमिसे ४०,००० योजन ऊपर जाकर चन्द्र सूर्य
भूमण्डल
चित्र-५
KARANAMA
S/REL
ATERAरक पर्तत १०,००० को
रिक पता ५०,०००
MERE
अश्वक) पर्वत २५०० .
---३२० ०७० सोनन
प्रमाण भूमण्डल जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश
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लोक
परिभ्रमण करते हैं। जिस समय जम्बूद्वीपमें मध्याह्न होता है उस समय उत्तरकुरुमें अर्धरात्रि पूर्वविदेहमे अस्तगमन और अबर गोदानीय सूर्योदय होता है। मेरु पर्वतको पूर्वादि दिशाओंमें उसके चार परिषण्ड ( विभाग) है, जिनपर क्रमसे यक्ष, मालाधार, सदामद और चातुर्महाराजिक देव रहते है । इसी प्रकार शेष सात पर्वतोंपर भी देवोंके निवास है। मेरुशिखरपर अपस्त्रिश (स्वर्ग) है । इससे ऊपर विमानोमे याम, तुषित आदि देव रहते है । उपरोक्त देवीमें चातुर्महाराजिक, और त्रयस्त्रिंश देव मनुष्यवत् काम
मेरु शिखर के ऊपर की रचना
"
""
भूगोल सामान्य
रुपधातु प्रवीचार (शरीरोत्सेध १२५ यो०)
१६
"
चित्र ६ /अनवतर सरोवर हिमवान् पर्वत
६ कीटादि कट
"
"
12
"
33
"
33
"
"
""
در
"
रूपधातु प्रवीचार
अवलोकन प्रवीचार
जम्बू द्वीप शरीरात्संघ ३ हाथ
हसित प्रवीचार
पाणि सयोग प्रवीचार आलिगन प्रवीचार काय प्रधीचार
४०,००० यो०
जम्बू वृक्ष
गा, सिन्धु आदि नदियोंका उद्गम स्थान
O
चित्र ७६)
१५
१४
१३
१२
११
१०
ट
६
५
४
१७
३
२
१ ब्रह्मकायिक
५
४
३ तुषित देव
२ याम देव १ त्रायस्त्रिश
रुपधातु प्रवीचार देवों के ब्रह्मकायिक आदि १७ स्वर्ग
स्वर्ग लोक
कामधातु देव
तारे
ਜਸਕ
ग्रह
चन्द्र सूर्य
३२०,००० खो०
भूमण्डल
नोट- भूमण्डलसे नीचेकी रचना - दे० चित्र ७ (ख)
४३५
१. लोकस्वरूपका तुलनात्मक अध्ययन
भोग भोगते है । याम तुषित आदि क्रमश आलिंगन, पाणिसयोग, हसित और अवलोकनसे वृद्धिको प्राप्त होते है। उपरोक्त कामधातु देवोके ऊपर रूपधातु देवोके ब्रह्मकायिक आदि १७ स्थान है। ये सब क्रमश ऊपर ऊपर अवस्थित है। जम्बूद्वीप वासी मनुष्योंकी ऊँचाई केवल ३३ हाथ है। आगे से बहती हुई अन देवोके शरीरको उचाई १२१ योजन प्रमाण है।
५. आधुनिक विश्व परिचय
लोक के स्वरूप का निर्देश करने के अन्तर्गत दो बातें जाननीय है - खगोल तथा भूगोल । खगोल की दृष्टि से देखने पर इस असीम आकाश में असल्यायो गोलाकार खण्ड है। सभी भ्रमणशील है। भौतिक पदार्थों के आधिक विधान को भौति इनके भ्रमण में अनेक प्रकार की गतिये देखी जा सकती है। पहली
चित्र- ७ (ख)
मेरु पर्वत (भूमण्डल) के नीचे की रचना
ज्योतिष लोक
भूमडलसे ऊपर की रचना के लिए देवो बराबर वाला चित्र ७ (क)
३२०,००० यो
मनुष्य दीप
अवर
गोदनीय द्वीप
मनुष्य द्वीप,
विशेष दे०
२०,००० यो.
जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश
मनुष्य दीप
'मनुष्य' द्वीप
११२०,०००. यो.
दे०चित्र ६ जम्बू द्वीप [C] चक्रवाल
८ २६०,००० यो.
उत्तर बुरु
समुद्र पर्वत
अष्टम समुद्र
१
こいう
पर्वत
मनुष्य द्वीप
राक्षस (द्वीप)
८
भूमण्डल
भाष्य दीप
पूर्व विदेह
मनुष्य द्वीप
चित्र स०५
२२ प्रतोपन नरक
अवीचि नरक
जलमण्डल
वायुमण्डल
| आठ शांत नगर ।
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लोक
गति है प्रत्येक भूखण्ड का अपने स्थान पर अवस्थित रहते हुए अपने ही धुरी पर लट्टू की भाँति घूमते रहना । दूसरी गति है सूर्य जैसे किसी बड़े भूखण्ड को मध्यम में स्थापित करके गाड़ी के चबके में लगे अरों की भाँति अनेको अन्य भूखण्डों का उसकी परिक्रमा करते रहना, परन्तु परिक्रमा करते हुए भी अपनी परिधि का उल्लंघन न करना । परिक्रमाशील इन भूखण्डो के समुदाय को एक सौर मण्डल या एक ज्योतिष मण्डल कहा जाता है। प्रत्येक सौर मण्डल में केन्द्रवर्ती एक सूर्य होता है और अरो के स्थानवर्ती अनेक अन्य भूखंड होते है, जिनमें एक चन्द्रमा, अनेको ग्रह, अनेकों उप ग्रह तथा अनेकों पृथ्विये सम्मिलित है। ऐसे-ऐसे सौर मण्डल इस आकाश में न जाने कितने है । प्रत्येक भूखण्ड गोले की भाँति गोल है परन्तु प्रत्येक सौर मण्डल गाडी के पहिये की भाँति चक्राकार है । तीसरी गति है किसी सौर मंडल को मध्य में स्थापित करके अन्य अनेकों सौर मण्डलो द्वारा उसकी परिक्रमा करते रहना, और परिक्रमा करते हुए भी अपनी परिधि का उल्लघन न करना ।
४३६
इन भूख डों में से अनेको पर अनेक आकार प्रकार वाली जीव राशि का वास है, और अनेकों पर प्रलय जैसी स्थिति है। जल तथा बा का अभाव हो जाने के कारण उन पर आज बसती होना सम्भव नहीं है । जिन पर आज बसती बनी है उन पर पहले कभी प्रलय थी और जिन पर आज प्रलय है उन पर आगे कभी बसती हो जाने बाली है । कुछ भूखंडों पर बसने वाले अत्यन्त सुखी है और कुछ पर रहने वाले अत्यन्त दुःखी, जैसे कि अन्तरिक्ष की आधुनिक खोज के अनुसार मंगल पर जो बसती पाई गई है वह नारकीय यातनायें ओग रही है।
जिस भूखण्ड पर हम रहते है यह भी पहले कभी अग्नि का गोला था जो सूर्य में से छिटक कर बाहर निकल गया था। पीछे इसका ऊपरी तल ठण्डा हो गया। इसके भीतर अब भी ज्वाला धधक रही है। वायुमंडल धरातल से लेकर इसके ऊपर उत्तरोत्तर विरल होते हुए ५०० मील तक फैला हुआ है। पहले इस पर जीवों का निवास नहीं था, पीछे क्रम से सजीव पाषाण आदि, वनस्पति, नमो में रहने वाले छोटे-छोटे कोकले, जल में रहने वाले मत्स्यादि, पृथिवी तथा जल दोनों में रहने वाले मेढक, क्लआ आदि मिलों में रहने वाले सरीसृप आदि आकाश में उड़ने वाले भ्रमर कीट पतंग व पक्षी, पृथिवी पर रहने वाले स्तनधारी पशु बन्दर आदि और अन्त में मनुष्य उत्पन्न हुए। तात्कालिक परिस्थितियों के अनुसार और भी असख्य जीव जातिये उत्पन्न हो गयीं ।
इस भूखण्ड के चारों ओर अनन्त आकाश है, जिसमें सूर्य चन्द्र तारे आदि दिखाई देते हैं । चन्द्रमा सबसे अधिक समीप में है । तत्पश्चात् क्रमश शुक्र, बुद्ध, मंगल, बृहस्पति, शनि आदि ग्रह, इनसे साढे नौ मील दूर सूर्य, तथा उससे भी आगे असंख्यातो मील दूर असख्य तारागण है। चन्द्रमा तथा ग्रह स्वय प्रकाश न होकर सूर्य के प्रकाश से प्रकाशवत् दीखते है। तारे यद्यपि दूर होने के कारण बहुत छोटे दीखते है परन्तु इनमें से अधिकर सूर्य की अपेक्षा लाखो गुणा बड़े है तथा अनेको सूर्य की भाँति स्वयं जाज्वल्यमान
है ।
भूगोल की दृष्टि से देखने पर इस पृथिवी पर ऐशिया योरुप, अफ्रीका, अम्रीका, आस्ट्रेलिया आदि अनेकों उपद्वीप है । मुदूर पूर्व में ये सब सम्भवत परस्पर में मिले हुए थे। भारतवर्ष ऐशिया का दक्षिणी पूर्वी भाग है। इसके उत्तर में हिमालय और मध्य में गरि सतपुडा आदि पहाड़ियों की अटूट श्रृंखला है। पूर्व तथा पश्चिम के सागर में गिरने वाली गंगा तथा सिन्धु नामक दो प्रधान नदियाँ है जो हिमालय से निकलेकर सागर की ओर
१. लोकस्वरूपका तुलनात्मक अध्ययन
जाती है। इसके उत्तर में आर्य जाति और पश्चिम दक्षिण आदि दिशाओं में द्राविड, भील, कॉल, नाग आदि अन्यान्य प्राचीन अथवा म्लेच्छ जातिया निवास करती है।
६. उपरोक्त मान्यताओंकी तुलना
१.
+
• जैन व वैदिक मान्यता बहुत अशोंमें मिलती है। जैसे- १ चूडी के आकाररूपसे अनेको द्वीपो व समुद्रोका एक दूसरेको वेष्टित किये हुए अवस्थान । २ जम्बूद्वीप, सुमेरु, हिमवान, निषध, नील, श्वेत ( रूक्मि) गी (शिखरी) ये पर्वत भारतवर्ष ( भरत क्षेत्र ) हरिवर्ष रम्यक, हिरण्मय ( है रण्यवत) उतरकुरु मे क्षेत्र मान्य वान व गन्धमादन पर्वत, जम्बूवृक्ष इन नामोंका दोनों मान्यताओं में समान होना ३ भारतवर्ष में कर्मभूमि तथा अन्य क्षेत्रों में प्रेतायुग (भोगभूमि) का अवस्थान। मेरुकी चारो दिशाओं में मन्दर आदि चार पर्वत जैनमान्य चार गजदन्त है । ४ कुल पर्वतोसे नदियोका निकलना तथा आर्य व म्लेच्छ जातियोका अवस्थान । ५ प्लक्ष द्वशेषमे प्लक्षवृक्ष जम्बूद्वीप उसमें पर्वतो व नदियो आदिका अम स्थान वैसा ही है जैसा पातको सहमे घाटकोप के समान दूगनी रचना । ६ पुष्करद्वीपके मध्य वलयाकार मानुषोउत्तर पर्वत तथा उसके अभ्यन्तर भागमे घातकी नामक खण्ड | ७ पुष्कर द्वीप से परे प्राणियोका अभाव लगभग वैसा ही है, जेसा कि पुष्करार्ध से आगे मनुष्योका अभाव ८ भूखण्डके नीचे पातालका निर्देश लवण सागर के पातालोसे मिलता है । ६. पृथिवी के नीचे नरकोका अवस्थान । १० आकाशमे सूर्य, चन्द्र आदिका अवस्थान क्रम । १० कल्पवासी तथा फिरसे न मरनेवाले ( लौकान्तिक ) देवोके लोक । २ इसी प्रकार जैन व बौद्ध मान्यताएँ भी बहुत अंशों मिलती हैं। जैसे- १ पृथिवीके चारो तरफ ना जलमण्डलका अवस्थान जेन मान्य वातवलयोके समान है । २. मेरु आदि पर्वतोका एक-एक समुद्र अन्तरातसे उत्तरोत्तर वेति वलायाकाररूपेण अवस्थान । ३ जम्बूद्वीप, पूर्वविदेह, उत्तरकुरु, जम्बूवृक्ष, हिमवान, गंगा, सिन्धु आदि नामोकी समानता । ४. जम्बूद्वीप के उत्तर में नौ क्षुद्रपर्वत, हिमवान, महासरोवर व उनसे गंगा, सिन्धु आदि नदियोका निकास ऐसा ही है जैसा कि भरतक्षेत्रके उत्तरमै ११ कूटी युक्त हिमवान पर स्थित पद्म से गंगा सिन्धु व रोहितास्या नदियोका निकास : ५ जम्बूद्वीप के नीचे एकके पश्चात् एक करके अनेको नरकोका अवस्थान । ६ पृथिवी से ऊपर चन्द्र सूर्य का परिभ्रमण । ७ मेरु शिखरपर स्वर्गीका अवस्थान लगभग ऐसा ही है जैसा कि मेरु शिखरसे ऊपर केवल एक बाल प्रमाण अन्तरसे जैन मान्य स्वर्गकके प्रथम 'ऋतु' नामक पटलका अवस्थान | देवो में कुछका मेथुनसे और कुछका स्पर्श या अव लोकन आदि काम भोगका सेवन तथा ऊपर के स्वर्गो मे कामभागका अभाव जनमान्यताबद ही है ( दे देव ] [] / २ / १०) पोका ऊपर ऊपर अवस्थान। १०. मनुष्योकी ऊँचाई से लेकर देवोके शरीरोकी ऊँचाई तक क्रमिक वृद्धि लगभग जेन मान्यता के अनुसार है (दे० अवगाहना / ३,४) १३ - आधुनिक भूगोलके साथ यद्यपि जैन [भूगोल] स्थूल दृष्टि देखनेपर मेल नहीं खाता पर आचार्योकी शुर वर्ती सूक्ष्मदृष्टि व उनकी सूत्रात्मक कथन पद्धतिको ध्यान मे रखकर विचारा जाये तो वह भी बहुत अंशोमे मिलता प्रतीत होता है । यहाँ यह बात अवश्य ध्यान में रखने योग्य है कि वैज्ञानिक जनो के अनुमानका आधार पृथिवी वर्ष मात्र पूर्वका इतिहास
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है, जबकि आचार्यको दृष्टि कल्पो पूर्वके इतिहासको स्पर्श करती है जैसे कि १ पृथिवीके लिए पहले अनिका गोला होनेकी कल्पना, उसका धीरे-धीरे ठण्डा होना और नये मिरेसे उसपर जीवो व मनुष्याकी उत्पत्तिका विकास लगभग जैनमान्य प्रलय के स्वरूपसे मेल खाता है ( दे० प्रलय ) । २ पृथिवीके चारो ओरके वायु
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लोक
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१. लोकस्वरूपका तुलनात्मक अध्ययन
व उत्तरकुरु) उसके वर्ष बनकर रह जाते है। और भारतवर्ष नामवाला एक अन्य वर्ष (क्षेत्र) भी उसीके भीतर कल्पित कर लिया जाता है । ४. चातुर्डीपी भूगोलका भारत ( जम्बूद्वीप ) जो मेरु तक पहुँचता है, सप्तद्वीपिक भूगोल में जम्बूद्वीपके तीन वर्षों या क्षेत्रों में विभक्त हो गया है-भारतवर्ष, किपुरुष व हरिवर्ष । भारतका वर्ष पर्वत हिमालय है। किपुरुष हिमालयके परभागमें मगोलोकी बस्ती है, जहाँसे सरस्वती नदीका उद्गम होता है, तथा जिसका नाम आज भी कन्नौर में अवशिष्ट है। यह वर्ष पहले तिब्बत तक पहुँचता था, क्योकि वहाँ तक मगालोकी बस्ती पायी जाती है। तथा इसका वर्ष पर्वत हेमकूट है, जो कतिपय स्थानों में हिमालयान्तर्गत ही वणित हुषा है। (जैन मान्यतामे किपुरुषके स्थानपर हैमवत और हिमकूटके स्थानपर महाहिमवानका उल्लेख है)। हरिवर्षसे हिरातका तात्पर्य है जिसका पर्वत निषध है, जो मेरु तक पहुंचता है। इसी हरिवर्षका नाम अवेस्तामे हरिवरजी मिलता है। इस प्रकार रम्यक, हिरण्यमय और उत्तरकुरु नामक वषोंमे विभक्त होकर चातुर्कीपिक भूगोलबाले उत्तरकुरु महाद्वीपके तीन वर्ष बन गये है। ६. किन्तु पूर्व और पश्चिमके भद्राश्व व केतुमाल द्वीप यथापूर्व दोके दो ही
चालूपिक भूगोल परिचय
(वायुपुराण) चित्र-८
(सप्त दीपक गोल की अपेक्षा यह अधिक प्राचीन है
उत्तर कुरु (वर्तमान सीदिया)
TEAमगी पर्वत Lankar श्वेत पर्वत
मण्डलमें ५०० मील तक उत्तरोत्तर तरलता जैन मान्य तीन बातवलयौबत ही है। ३, एशिया आदि महाद्वीप जैनमान्य भरतादि क्षेत्रोके साथ काफी अशमें मिलते है (दे० अगला शीर्षक)। ४. बार्य व म्लेच्छ जातियोंका यथायोग्य अवस्थान भी जैममान्यताको सर्वथा उल्लघन करनेको समर्थ नहीं।। सूर्य-चन्द्र आदिके अवस्थानमैं तथा उनपर जीव राशि सम्बन्धी विचारमें अवश्य दोनो मान्यताओमे भेद है। अनुमधान किया जाय तो इसमें भी कुछ न कुछ समन्बय प्राप्त किया जा सक्ता है।
सातवीं आठवीं शताब्दी के वैविक विचारको ने लोक के इस चित्रण को बासना के विश्लेषण के रूप में उपस्थित क्यिा है (जै २१)। यथा-अधोलोक बासना ग्रस्त व्यक्ति की तम पूर्ण वह स्थिति जिसमें कि उसे हिताहित का कुछ भी विवेक नहीं होता और स्वार्थ सिद्धि के क्षेत्र में बड़े से बड़े अन्याय तथा अत्याचार करते हुए भी जहां उसे यह प्रतीति नहीं होती कि उसने कुछ बुरा किया है। मध्य लोक उसकी यह स्थिति है जिसमें कि उसे हिताहित का विवेक जागृत हो जाता है परन्तु वासना की प्रबलता के कारण अहित से हटकर हित की ओर झुकने का सत्य पुरुषार्थ जागृत करने की सामथ्र्य उसमें नही होती है। इसके ऊपर ज्योतिष लोक या अन्तरिक्ष लोक उसकी साधना वाली वह स्थिति है जिसमे उसके भीतर उत्तरोत्तर उन्नत पारमार्थिक अनुभूतिये झलक दिखाने लगती है। इसके अन्तर्गत पहले बिद्य तलोक आता है जिसमें क्षण भर को तत्व दर्शन होकर लुप्त हो जाता है। तदनन्तर तारा लोक आता है जिसमें तात्त्विक अनुभूतियों की झलक टिमटिमाती या आख मिचौनी खेलती प्रतीत होती है। अर्थात् कभी स्वरूप में प्रवेश होता है और कभी पुन विषयासक्ति जागृत हो जाती है। इसके पश्चात् सूर्य लोक आता है जिसमें ज्ञान सूर्य का उदय होता है, और इसके पश्चात् अन्त में चन्द्र लोक आता है जहाँ पहुँचने पर साधक समता भूमि में प्रवेश पाकर अत्यन्त शान्त हो जाता है। उर्ध्व लोक के अन्तर्गत तीन भूमिये है-महर्लोक, जनलोक और तप लोक । पहली भूमि में वह अर्थात् उसकी ज्ञान चेतना लोकालोक में व्याप्त होकर महान हो जाती है, दूसरो भूमियें कृतकृत्यता की
और तीसरी भूमिमें अनन्त आनन्द की अनुभूति में वह सदा के लिए लय हो जाती है। यह मान्यता जैन के अध्यात्म के साथ शत प्रतिशत नहीं तो ८० प्रतिशत मेल अवश्य खाती है । ७. चातुोंपिक भूगोल परिचय ( ज. प./प्र. १३८१H. L. Jain का भावार्थ )१ काशी नागरी प्रचारिणी सभा द्वारा प्रकाशित सम्पूर्णानन्द अभिनन्दन ग्रन्थमें दिये गये, श्री रायकृष्णदासजीके एक लेखके अनुसार, वेदिक धर्म मान्य सप्तद्वीपिक भूगोल (दे० शीर्षक न०३) को अपेक्षा चातुदीपिक भूगोल अधिक प्राचीन है। इसका अस्तित्व अब भी वायुपुराणमें कुछ-कुछ मिलता है। चीनी यात्री मेगस्थनीजके समयमें भी यही भूगोल प्रचलित था, क्योकि वह लिखता है-भारतके सीमान्तपर तोन और देश माने जाते है-सौदिया, बेक्ट्रिया तथा एरियाना। सीदियासे उसके भद्राश्व व उत्तर कुरु तथा बैक्ट्रिया व एरियानासे केतुमाल द्वीप अभिप्रेत है। अशोकके समय में भी यही भूगोल प्रचलित था, क्योकि उसके शिलालेखों में जम्बूद्वीप भारतवर्ष की सज्ञा है। महाभाष्यमें आकर सर्वप्रथम सप्तद्वीपिक भूगोलकी चर्चा है। अतएव वह अशोक तथा महाभाष्यकाल के बीच की सपना जान पड़ती है। २ सप्तदीपिक भूगोलकी भॉति यह चातुर्दीपिक भूगोल कल्पनामात्र नहीं है, बल्कि इसका आधार वास्तविक है। उसका सामजस्य आधुनिक भूगोलसे हो जाता है। ३ चातुर्दी पिक भूगोलमें जम्बूद्वीप पृथिवी के चार महाद्वीपी में से एक है और भारतवर्ष जम्बूद्वीपका ही दूसरा नाम है। वही सप्तद्वीपिक भूगोल में आकर इतना बड़ा हो जाता है कि उसकी बराबरीवाले अन्य तीन द्वीप (भद्राश्व, केतुमाल
WARNनील पर्वत
पश्चिम विदेह
/"पूर्व विदेह" (केतुमालद्वीप)
(भद्राश्व द्वीप) (वर्तमान बेक्ट्रिया)
(बर्तमान सीदिया और एरियाना)/ (वर्तमान पामार)
WD निषध पर्वत हरितष (अमेना पर हम हमक्ट पर्वत लिपुरम (वर्तमानजोर हिमवान पर्वत
भारत / जम्बू द्वीप (वर्तमान भारतवर्ष)
मटा दीपिक भूगोलके उत्तर
"हाजम्बदीपनाम से प्रसिद्ध
अंतर काल में दह सारा का सारा नोट अशोकके अनुसार 'जम्दीप भारतवर्षका ही नाम है २- मैगस्थनीजके अनुसार भारतवर्षकी सीमापर सीदिया
बैक्ट्रिया और ररिचाना द्वीप अवस्थित है। रह गये। अन्तर केवल इतना है कि यहाँ वे दो महाद्वीप न होकर एक द्वीपके अन्तर्गत दो वर्ष या क्षेत्र है। साथ ही मेरुको मेखलित करनेवाला, सप्तद्वीपिक भूगोलका, इलावृत भी एक स्वतन्त्र वर्ष बन गया है । ७. यो उक्त चार दीपासे पल्लवित भारतवर्ष आदि तीन दक्षिणी, हरिवर्ष आदि तीन उत्तरो, भद्राश्व व केतुमाल ये दो पूर्व व पश्चिमी तथा इलावृत नामका केन्द्रीय वर्ष, जम्बूद्वीपके नौ वर्षों की रचना कर रहा है। ८ [जैनाभिमत भूगोलमें ६ को बजाय १० वर्षोंका उल्लेख है। भारतवर्ष, किपुरुष व हरिवर्ष के स्थानपर भरत. हैमवत व हरि ये तीन मेरुके दक्षिणमें है। रम्यक, हिरण्यमय तथा उत्तरकुरुके स्थानपर रम्यक हैरण्यवत व ऐरावत ये तीन मेरुके उत्तरमें है। भद्राश्व व केतुमाल के स्थानपर पूर्व विदेह व पश्चिमविदेह ये दो मेरुके पूर्व व पश्चिममें है। तथा इलावृत्तके स्थानपर देवकुरु व
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लोक
४३८८
२. लोकसामान्य निर्देश
उत्तरकुरु ये दो मेरुके निकटवर्ती है। यहाँ बैदिक मान्यतामे तो मेरुके चौगिर्द एक ही वर्ष मान लिया गया और जैन मान्यतामें उसे दक्षिण व उत्तर दिशावाले दो भागोमे विभक्त कर दिया है। पूर्व व पश्चिमी भद्राश्व व केतुमाल द्वीपोमें वैदिकजनौने क्षेत्रीका विभाग न दर्शाकर अखण्ड रखा पर जैन मान्यतामें उनके स्थानीय पूर्व व पश्चिम विदेहोको भी १६,१६ क्षेत्रो में विभक्त कर दिया गया ] | ६. मेरु पर्वत वर्तमान भूगोलका पामीर प्रदेश है। उत्तरकुरु पश्चिमी तुर्किस्तान है । सौता नदी यारकन्द नदी है। निषध पर्वत हिन्दुकुश पर्वतोको शृखला है। हैमवत भारतवर्षका ही दूसरा नाम रहा है। (दे० वह-वह नाम)। २. लोकसामान्य निर्देश
१. लोकका लक्षण दे. आकाश/२/३ [१ अकाशके जितने भागमे जोब पुद्गल आदि षट् द्रव्य देखे जाये सो लोक है और उसके चारो तरफ शेष अनन्त आकाश अलोक है, ऐसा लोकका निरुक्ति अर्थ है । २ अथवा षट द्रव्योका समवाय लोक है ] । दे. लोकान्तिक/१। [३. जन्म-जरामरणरूप यह ससार भी लोक
कहलाता है। रा, वा11/१२/१०-१३/४५५/२० यत्र पुण्यपापफललोकन स लोक ॥१०॥ क पुनरसौ। आरमा। लोकति पश्यत्युपलभते अर्थानिति लोक ।११। सर्व शेनानन्ताप्रतिहतकवलदर्शनेन लोक्यते य स लोक । तेन धर्मादीनामपि लोकत्व सिद्धम ।१३।-जहाँ पुण्य व पापका फल जो सुख-दू ख बह देखा जाता है सो लोक है इस व्युत्पत्तिके अनुसार लोकका अर्थ आत्मा होता है। जो पदार्थों को देखे ब जाने सो लोक इस व्युत्पत्तिसे भी लोकका अर्थ आत्मा है। आत्मा स्वय अपने स्वरूपका लोकन करता है अत लोक है। सर्व ज्ञके द्वारा अनन्त व अप्रतिहत केबलदर्शनसे जो देखा जाये सो लोक है, इसप्रकार धर्म आदि द्रव्यों का भी लोकपना सिद्ध है।
२. लोकका आकार ति प/१/१३७-१३८ हेमिलोयासारो वेत्तासणसण्णिहो सहावेण । मज्झिमलोयायारी उभियमुर अद्धसारिच्छो । १३७॥ उपरिमलोयाआरो उम्भियमुरवेण होइ सरिसत्तो। सठाणो एदाण लोयाण एण्हि साहेमि ।१३८।-इन (उपरोक्त) तीनोमेंसे अधोलोक्का आकार स्वभावसे वेत्रासनके सदृश है, और मध्यलोकका आकार खडे किये हुए आधे मृदगके ऊध्र्वभागके समान है ।१३७। ऊर्ध्व लोकका आकार रखडे किये हुए मृद गके सदृश है ।११८। (ध, ४/१,३.२/गा०६/११)
(त्रि सा./६). ( ज ५/४/४-६), (द्र स./टी/३५/११२/१२)। ध ४/१.३.२/गा, ७/११ तलरुक्रवसठाणो७। यह लोक ताल वृक्षके
आकारवाला है। ज.प/प्र /२४ प्रो. लक्ष्मीचन्द-मिस्रदेशके गिरजे में बने हुए महास्तूपसे यह लोकाकाशका आकार किचित समानता रखता प्रतीत होता है।
३. लोकका विस्तार ति. ५ /१/१४४-१५३ सेढिपमाणायाम भागेसु दक्विणुत्तरेसु पुढ । पुबाबरेसु बास भूमिमुहे सत्त येकपचेका १४६। चोहसरज्जुपमाणो उच्छेहो होदि सयललोगस्स। अद्वमुरज्जस्सुदवो समग्गमुखोदयसरि
छो ।१५० व हेमिमज्झिमउवरिमलोउच्छेहो क्मेण रज्जूबो। सत्त य जोयणलबख जायण लक्खूणसगरज्जू ।११। इह रयणसकारावालुपकधूमतममहातमादिपहा । सुरवद्धम्मि महीओ सत्त चिचय रज्जुअन्तरिआ।१५२। घमावसामेघाअजणरिठाण उन्भमघवीओ। माधविया इय ताण पुढवीण बोत्तणामाणि ।१५। मझिमजगस्स हेट्ठिमभागादो णिग्गद। पढमरज्जू। सकर पहपुढवीए हेट्ठिम गम्मि णि ठादि ।१५४। तत्तो दोहरज्जू बालुवपहट्टि समप्पेदि। तह य तइज्जारज्जू पकपहहेहास्स भागम्मि ॥१५॥ धूमपहाए हाम- भागम्मि समप्पदे तुरियरज्जू । तह पंचामया रज्जू तमप्पहाहामा
पएसे ।११६। महतमदिठमयते छट्ठी हि समप्पदे रज्जू। तत्तो सत्तमरज्जू लोयस्स तल म्मि णिछादि ११५७। मझिमजगस्स उबरिमभागादु दिवड्ढरज्जुपरिमाणं । इगिजोयणलबाखूण सोहम्मविमाणधयदडे ।१५। वचदि दिवढरज्जू माहिदसणकुमार उबरिम्मि। णिठ्ठादि अद्धरज्जू बभुत्तर उड्ढभागम्मि ।१५६। अपसादि अद्धरज्जू काविठस्सोवरिठभागम्मि । स चियमहसुकोवरि सहसारोवरि अ स च्चेय ॥१६०। तत्तो य अद्धरज्जू आणदकप्पस्स उवरिमपएसे । स य आरणस्स कप्पस्स उवरिमभागम्मि गेबिज्ज ।१६१ तत्तो उपरिमभागे णवाणुत्तरओ होति एकरज्जूषो। एवं उबरिमलोए रज्जुविभागो समुद्दिछ ।१६२। णियणिय चरिमिदयद'डम कपभूमिअवसाणं कप्पादीदमहीए विच्छेदो लोयविच्छेदो ।१६३-१. दक्षिण और उत्तर भागमें लोकका आयाम जगश्रेणी प्रमाण अर्थात सात राजू है । पूर्व और पश्चिम भागमें भूमि और मुखका व्यास क्रमसे सात. एक, पाँच और एक राजू है। तात्पर्य यह है कि लोककी मोटाई सर्वत्र सात राजू है, और विस्तार क्रमसे लोकके नीचे सात राजू, मध्यलोकमें एक राजू, ब्रह्म स्वर्गपर पाँच राजू और लोकके अन्तमें एक राजू है ।१४६। २ सम्पूर्ण लोककी ऊँचाई १४ राजू प्रमाण है। अर्धमृद गकी ऊँचाई सम्पूर्ण मृदंगकी ऊँचाईके सदृश है । अर्थात अर्धमृदग सदृश अधोलोक जैसे सात राजू ऊँचा है उसी प्रकार हो पूर्ण मृदगके सदृश ऊर्ध्व लोक भी सात ही राजू ऊँचा है ।१५०। क्रमसे अधोलोककी ऊँचाई सात राजू, मध्यलोककी ऊँचाई १००,००० योजन, और ऊर्ध्व लोककी ऊँचाई एक लाख योजन कम सात राजू है ।१५१ (ध १/१, ३,२/गा ८/११), (त्रि सा/११३), (ज प./ ४/११.१६-१७)। ३. तहाँ भी -तीनो लोकोमेसे अर्धमृदंगाकार अधोलोकमे रत्नप्रभा, शर्कराप्रभा, बालुप्रभा, पंकप्रभा, धूमप्रभा, तम - प्रभा और महातमप्रभा, ये सात पृथिवियाँ एक राजूके अन्तरालसे है ।१५२धर्मा, व शा, मेघा, अजना, अरिष्टा, मघवी और माधवी ये इन उपर्युक्त पृथिवियोके अपरनाम है ।१५३। मध्यलोकके अधोभागसे प्रारम्भ होकर पहला राजू शर्कराप्रभा पृथिवीके अधोभागमें समाप्त होता है ।१५४। इसके आगे दूसरा राजू प्रारम्भ होकर बालुकाप्रभाके अधोभागमे समाप्त होता है। तथा तीसरा राजू पकप्रभाके अग्रोभागमें ।१५। चौथा धूमप्रभाके अधोभागमे, पाँचयों तम प्रभाके अधोभागमे ।१५६। और छठा राज महातम प्रभाके अन्तमे समाप्त होता है। इससे आगे सातवाँ राजू लोकके तलभागमें समाप्त होता है।१७। [ इस प्रकार अधोलोककी ७ राजू ऊँचाईका विभाग है। ४ रत्नप्रभा पृथिवीके तीन भागोमे से खरभाग १६.०० यो० पक भाग ८४००० यो० और अब्बहुल भाग ८०,००० योजन मोटे है। दे० रत्नप्रभा/२ । ५ लोकमें मेरुके तलभागसे उसकी चोटी पर्यन्त १००,००० योजन ऊँचा ब १राजू प्रमाण विस्तार युक्त मध्यलोक है। इतना ही तिर्यकलोक है!-दे० तिर्यच/३/१)। मनुष्यलोक चित्रा पृथिवीके ऊपरसे मेरुकी चोटी तक ६६००० योजन विस्तार तथा अढाई द्वीप प्रमाण ४५००,००० योजन विस्तार युक्त है।-दे० मनुष्य/४/१६. चित्रा पृथिवीके नीचे खर व एक भागमें १००,००० यो० तथा चित्रा पृथिवी के ऊपर मेरुकी चोटी तक ६६००० योजन ऊँचा और एक राजू प्रमाण विस्तार युक्त भावनलोक है।-देव्यन्तर/ ४१-५। इसी प्रकार व्यन्तरलोक भी जानना।-दे०व्यतर/४/१-१॥ चित्रा पृथिवीसे ७६० योजन ऊपर जाकर ११० योजन पाहण्य व १ राजू विस्तार युक्त ज्योतिष लोक है।-दे० ज्योतिषलोक/१। ७ मध्यलोकके ऊपरी भागसे सौधर्म बिमानका ध्वजदण्ड १००,००० योजन कम १३ राजू प्रमाण ऊँचा है ।१५८। इसके आगे १३ राजू माहेन्द्र व सनरकुमार स्वर्ग के ऊपरी भागमे, १/२ राजू ब्रह्मोत्तरके ऊपरी भागगें ।१५।। १/२ राजू कापिष्ठके ऊपरी भागमे, १/२ राजू महाशुक्र के ऊपरी भागमें, १/२ राजु सहस्रारके ऊपरी भाग १६०० १/२ राजू आनतके ऊपरी भागमें और १/२ राजू आरण-अच्युतके
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लोक
२. लोकसामान्य निर्देश
तीन लोक
२०००० यो. २०००० यो २०००० यो.
चित्र-६
संकेत-यो- योजन
को० = कोश
teerup
लोक के शिखरनी चालवलय
राज
-
सिद्ध लोक =३२१६२२४१३ धनुष
राज
खिला
पच अनुतर
नन अनुदिश नवौदेषक
आरण
.
.अच्युत
आनत
पाणत
शालार
सहस्रार ।
क
त्रसनानी
सान्तव
कान्छि
।
((५५राजू
बह्म
समत्कुमार
माहेन्द्र
सौधर्म
ऐशान
लोकके बहुमध्य भागमे लम्बायमान
-१४ राजूते
ज्योतिष लाक
१० गो.
चिनावली
40H
भाग
→३३ राजू -
लोक सामान्य:राजू------ ----- अस नाली - १३ राजू ३२१६२२४१३ धनुष
कैराप्रभा
वातवलय
वातवनम
TT
हातमाप्रमा xवालवलय
+++ो .
Y dhe TET०००० यो
६०००० यो
-दराजू ----
२०००० यो
+-२००००० लोक के लवतीं वातवलय
-२०००० यो x लोक के नीचे वाले एक राजू प्रमाण कलकल नामक स्थावरलोक को धारो जोर से प्रेरकर अवस्थित ६०००० यो मोटा वातवलय।
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लोक
२. लोकसामान्य निर्देश
ऊपरी भागमें समाप्त हो जाता है ।१६। उसके ऊपर एक राजूकी ऊँचाईमै नबzबेयक, नब अनुदिश, और अनुत्तर विमान है। इस प्रकार ऊध्र्वलोकमें ७ राजूका विभाग कहा गया ।१६२। अपने-अपने
अन्तिम इन्द्रक-विमान सम्बन्धी ध्वजदण्डके अग्रभाग तब उन-उन स्वाँका अन्त समझना चाहिए । और कल्पातीत भूमिका जो अन्त है वही लोकका भी अन्त है ।१६३३ ५. [ लोक शिखरके नीचे ४२५ धनुष और २१ योजन मात्र जाकर अन्तिम सर्वार्थ सिद्धि इन्द्रक स्थित है (दे० स्वर्ग/११) सर्वार्थ सिद्धि इन्द्रकके ध्वजदण्डसे १२ योजन मात्र ऊपर जाकर अष्टम पृथिवी है। वह ८ योजन मोटी व एक राजू प्रमाण विस्तृत है। उसके मध्य ईषत् प्रारभार क्षेत्र है। वह ४५००,००० योजन विस्तार युक्त है। मध्यमें ८ योजन और सिरोपर केवल अंगुल प्रमाण मोटा है । इस अष्टम पृथिवीके ऊपर ७०५० धनुष जाकर सिद्धिलोक है (दे० मोक्ष/१/७)] ४. वातवलयोंका परिचय
१. वातवलय सामान्य परिचय ति प./२/२६८ गोमुत्तमुग्गवण्णा बणोदधी तह घणाणिलओ बाऊ । तणुबादो बहुवण्णो रुक्खस्स तय व वलयातियं ।२६८१ -गोमूत्रके समान वर्णवाला घनोदधि, मूगके समान वर्णवाला घनवात तथा अनेक वर्णबाला तनुवात । इस प्रकार ये तीनो वातवलय वृक्षकी त्वचाके समान (लोकको घेरे हुए) है।२६८। (रा वा./३/२/८/१६०/१६); (त्रि, सा/१२३), (दे०चित्र सं०६ ४३६)। २. तीन वातवलयोंका अवस्थान क्रम ति. प/९/२६६ पढमो लोयाधारो घणोवही इह घणाणिलो ततो। तप्परदो तणुवादो अतम्मि मह णि आधार २६६ इनमें से प्रथम धनोदधि वातबलय लोकका आधारभूत है, इसके पश्चात धनवातवलय, उसके पश्चात तनुवातवलय और फिर अतमें निजाधार आकाश है। ।२६।। . ( स. सि /३/१/२०४/३), (रा वा./३/१/८/१६०/१४);
(तत्त्वार्थ वृत्ति/३/१/श्लो.१-२/११२)। तत्त्वार्थ वृत्ति/३/१/१११/१६ सर्वा सप्तापि भ्रमयो धनवातप्रतिष्ठा बर्तन्ते । स च धनवात अम्बुवातप्रतिष्ठोऽस्ति । स चाम्बुवातस्तनुवातस्तनृप्रतिष्ठो वर्तते। स च तनुवात श्राकाशप्रतिष्ठो भवति । आकाठास्यालम्बनं किमपि नास्ति । दृष्टि न.२ --ये सभी सातों भूमियों धनवातके आश्रय स्थित है। बह धनबात भी अम्बु ( घनोदधि ) बातके आश्रय स्थित है और वह अम्बुवात तनुवातके आश्रय स्थित है। वह तनुवात आकाशके आश्रय स्थित है, तथा आकाशका कोई भी आलम्बन नही है।
३. पृथिवियोंके साथ बातवलयोंका स्पर्श ति, १/२/२४ सत्तच्चिय भूभीओ णवदिसभाएण घणोवहिविलग्गा।
अट्ठमभूमीदसदिस भागेसु घणोवहि छिबदि १२४॥ ति,प८/२०६-२०७ सोहम्मदुगविमाणा घणस्सरुवस्स उवरि सलिलस्स। चेठ ते पवणोपरि माहिदसणक्कुमाराणि २०६१ बम्हाई चत्तारो कप्पा चेट्ठति सलिलवादूढ। आणदपाणदपहूदी सेसा सुद्धम्मि गयणयले ।२०७० सातो (नरक) पृथिवियाँ ऊध्व दिशाको छोडकर शेष नौ दिशाओमें घनोदधि वातवलयसे लगी हुई है. परन्तु आठवीं पृथिवी दशो दिशाओमे ही बातबलयको छूती है ।२४। सौधर्म युगलके विमान घनस्वरूप जलके ऊपर तथा माहेन्द्र व सनत्कुमार कल्पके विमान पबनके ऊपर स्थित है ।२०६॥ ब्रह्मादि चार कल्प जल व वायु दोनोके ऊपर, तथा आनत प्राणत आदि शेष विमान शुद्ध आकाशतल में स्थित है ।२०७१
४. वातवलयों का विस्तार ति.प/१/२७०-२८१ जोयणवीससहस्सा बहलं तम्मारुदाण पत्तेक्कं ।
अट्ठाखिदीण हेठेलोअतले उवरि जाव इगिरज्जू ।२७०। सगपण चउ
जोयणयं सत्तमणारयम्मि पुहविपणधीए । पंचचउतियपमाण तिरीयखेत्तस्स पणिधोए ।२७१। सगपचचउसमाणा पणिधोए होति बम्हकप्पस्स । पणचउतिय जोयणया उवरिमलोयरस यंतम्मि ।२७२। कोसदुगमेक्ककोसं किचूणेक्कं च लोयसिहरम्मि। ऊण पमाण दडा चउस्सया पचवीस जुदा ।२७३। तीस इगिदालदल कोसा तियभाजिदा य उणवणया। सत्तमखि दिपणिधीए बम्हजुदे बाउबहुलत्त । ।२८०। दो छब्बारस भागभहिओ कोसो कमेण वाउघर्ण। लोयउवरिम्मि एव लोय विभायम्मि रण्णत्त ।२८१ -दृष्टि न० १आठ पृथिवियोके नीचे लोक के तलभागसे एक राजूकी ऊँचाई तक इन वायुमण्डलोमेंसे प्रत्येककी मोटाई २०००० योजन प्रमाण है ।२७०। सातवे नरकमें पृथिवियोके पार्श्व भागमें क्रमसे इन तीनो बातबलयोंकी मोटाई ७५ और ४ तथा इसके ऊपर तिर्यग्लोक (मर्यलोक ) के पार्श्वभागमें १,४ और ३ योजन प्रमाण है।२७१। इसके आगे तीनो वायुओको मोटाई ब्रह्म स्वर्गके पाच भागमे क्रमसे ७.५ और ४ योजन प्रमाण, तथा ऊर्ध्व लोकके अन्तम (पार्श्व भागमे ) १. ४ और ३योजन प्रमाण है ।२७२। लोकके शिखर पर (पार्श्व भागमे ) उक्त तीनो वातवलयोका बाल्य क्रमश २ कोस, १ कोस और कुछ कम १ कोस है। यहाँ कुछ कमका प्रमाण २४२५ धनुष समझना चाहिए ।२७३। [शिखर पर प्रत्येक को मोटाई २०,००० योजन है -दे० मोक्ष/१/७] (त्रि सा./१२४-१२६) । दृष्टि न०२-सातबी पृथिवी और ब्रह्म युगलके पार्श्वभागमें तीनो बायुओकी मोटाई क्रमसे ३०, ४१/२ और ४६/३ कोस है ।२८० लोक शिरवरपर तीनो वातवलयोकी मोटाई क्रमसे ११,१३ और ११ कोस प्रमाण है। ऐसा लोक विभागमें कहा गया है ।२८१४--विशेष दे चित्र स. ६ पृ. ४३६.
५. लोकके आठ रुचक प्रदेश रा वा/१/२०/१२/७६/१३ मेरुप्रतिष्ठावज्रव डूर्यपटलान्तररुचकसंस्थिता
अष्टावाकाशप्रदेशलोकमध्यम् । - मेरु पर्वतके नीचे बन व वैडूर्य पटलोके बीच में चौकोर सस्थान रूपसे अवस्थित आकाशके आठ प्रदेश लोकका मध्य है। ६. लोक विभाग निर्देश ति. प /१/१३६ सयलो एस य लोओ णिप्पण्णो से विबिदमाणेण । तिवि
यप्पो णादब्बो हेटिममज्झिक्लबद्ध भेएण १३६। -श्रेणी वृन्द्रके मानसे अर्थात जगश्रेणीके घन प्रमाणसे निष्पन्न हुआ यह सम्पूर्ण लोक, अधोलोक मध्यलोक और ऊर्ध्वलोकके भेदसे तीन प्रकारका है ।१३६। (बा. अ./३६), (ध. १३/५०५०५०/२८८/४ )। ७. ब्रस व स्थावर लोक निर्देश
[पूर्वोक्त वेत्रासन व मृद गाकार लोकके बहु मध्य भागमें, लोक शिखरसे लेकर उसके अन्त पर्यन्त १३ राजू लम्बी व मध्यलोक समान एक राजू प्रमाण विस्तार युक्त नाडी है। त्रस जीव इस नाडीसे बाहर नही रहते इसलिए यह वसनाली नामसे प्रसिद्ध है। (दे० वस/२/३,४)। परन्तु स्थावर जीव इस लोकमें सर्वत्र पाये जाते है। (दे० स्थावर/8) तहाँ भी सूक्ष्म जीव तो लोकमे सर्वत्र ठसाठस भरे है, पर बादर जीव केवल त्रसनाली मे होते है (दे० सूक्ष्म/३/७ ) उनमें भी तेजस्कायिक जीव केवल कर्मभूमियोमें ही पाये जाते है अथवा अधोलोक ब भवनवासियोके विमानोमें पॉचो कायोके जीव पाये जाते है, पर स्वर्ग लोकमे नहीं-दे० काय/२/५ । विशेष दे.चित्र स ६ पृ. ४३६ ।। 4. अधोलोक सामान्य परिचय
(सर्वलोक तीन भागोमे विभक्त है-अधो, मध्य व ऊर्व-दे० लोक/२/२,३मेरु तल के नीचेका क्षेत्र अधोलोक है, जो बेत्रासनके आकार वाला है। राजू ऊँचा व राजू मोटा है। नीचे ७ राजू व ऊपर १ राजू प्रमाण चौडा है। इसमे ऊपरसे लेकर नीचे तक क्रम
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लोक
२. लोक सामान्य निर्देश
चिन्न सं०-१०
रात मा अधोलोक
Ans
सुमेश
उदभान्त
I
-पल प्रभा - अबहुल भाग -
mmitmMUNIIIA
मोट -प्रत्येक पृथिवीरसों ओर वासयोंसे रेष्टित है। अधोलोकका विशेष परिया
सकेत यो०- योजन -०नरक) दृष्टिभव -पटमोके नामोंमे बातर -2. नरक/१११)
१००० यो मोटी - चित्रा 1५००० . .
१००,००० योगाखर व पक भाग विशेष दे० भवन/४ सर भाग
ENKEY000.. - पकभाग AIDSMSSSMDMINS पत्येक पटलका अन्तराल-1000 यो.
-uuuuuuuuuuuuun १ प्रथम नरक (धम्मा)
३रौरुक
२ निरय +mummmmmmmmmmmA
HTTAMITA कुल बिल ३० लाख
४भान्त (विशेष दे०.रत्नप्रभा)
MILITTuITTITAMAIIA भारत
41mmuT IMILLIA 6 असमान्त M LtitutimumumtituNITIA
दावभान्तUिLILIAMILLuuuuuuunia तप्त -muWIT
T IA - १० जसित-u uyuuuuuuuuuuuNIA
Marutiniumuli - रअवकात- UlllNTUTIT
TITUTITM १३ विक्रान्त EurunninIMITTTTTA वातवलय
। अन्तराल पृश्वी की अपेक्षा असरण्यात गुणा है
गाITHIRTAL २शर्करा प्रभावशा) कुल बिल्ल २५ लाख
५.पात Hit ६ सपात
-८०००० यो
२ तनक स्तनकस ४ वनकर मनको
जिहिक जिला म १०लोनकलाल +
III
-
तिनक+
वातवलय
अन्तराल
३ बालुका प्रभा मेघा)
कुल बिल - १५लारव
तप्त
३शीत न तपन -
३२.००ये.
राज़ .
- २०७०॥ योर- → कुल अधोलोक : ० राज
राज 12४०० यो
राज-
५ निदाघ ४ तापन
उज्वलित प्रज्वलित ६सम्पज्वनित सज्वलित
वातवलय
अन्तराल
४पकप्रभा(अजना)२ मार बिल-१० लाख ४ तत्व
तार
६वाद
५तमक
राज-
बिल ३लाख५मिन
DREALLIA
.6खडखड वातवलय
उन्लराल E m mmmmmmmmmmmuwwWILLINITIALINITIMIRRANTIMILEEDINAMILARILLERHILITICHYA ५धमाप्रभा
२भ्रमकILLARITMANORWARWITaimummmmmmmmmmmm00770700112HIMIRMImmm (अरिष्ट) ३झषक
HI M IMILARAMIN
A THURATURTHIAWINIITTwwwmumRTHIHITIMIUIIA २०००० योवाविलHIMIRMIRMIRRITIRUIRHATHIMILIARITRINIUMIRMIRIHITINARIMINAIIMIRMIRRORNHINIITHUTHIMITA
%
3 AMLEELAMMARMERABHAL U RUITWITTITUTORIANRITI1000RRIEDITIm वातवलय
अन्तराल V व ल 4 TममाucassewSERTREASEARTICuwaSMSIMILSINANCIALAMAUSwarawai
. TimesTENSATTISEMEROIZANANUNGISESHINGHASARARIES ३ ललका
NिISATTA
१६००० यो वातवलय
अन्तराल अवभियान [6महातम प्रभा
पYA कलकल पृश्वी
RAATM (माधवी।
-2 बिल.५
७ राजू x६ तम प्रभा ( मघवी।
कुल बिल €€€६५
रोज
15..
वायव्य
चित्र स०११
-
प्रत्येक पटल में इन्द्रक व श्रेणी बन्द
(अतिमनरकका (अतिम पटल
प्रथमनरकका प्रथम पटल
अग्नेय
सीमन्तक ०
काल
०
पट
अवधि स्थान
पटल
०००४६००० झ्द्रक) श्रेणीबन्द
०००४६००००
गहा० रौरव
रोरव
०००४८००००
यहाँ प्रत्येक दिशा मे कैवलस्क एक श्रेणीबन्द है। विदिशाओ मे नहीं है।नही प्रकीर्णक है।
पकीर्णक
०००
०००४८०००।
(+)०००४८००००
अवधि-इन्द्रक
स्थान
महाकाल
०००
[प्रसनाली मे ऊपरकी
ओर से देखने पर
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भा०३-५६
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लोक
४४२
२. लोक सामान्य निर्देश
से रत्नप्रभा, शर्कराप्रभा, बालुकाप्रभा, पंकप्रभा, धूमप्रभा, तमप्रभा व महातमप्रभा नामकी ७ पृथिवियाँ लगभग एक राजू अन्तरालसे स्थित है। प्रत्येक पृथिवीमे यथायोग्य १३,११ आदि पटल १००० योजन अन्तरालसे अवस्थित है। कुल पटल ४६ है। प्रत्येक पटलमे अनेकों बिल या गुफाएँ है। पटलका मध्यवर्ती बिल इन्द्रक कहलाता है। इसकी चारो दिशाओं व विदिशाओं में एक श्रेणी में अवस्थित निल श्रेणीबद्र कहलाते है और इनके बीच मे रत्नराशिवत बिखरे हुए बिल प्रकीर्णक कहलाते है । इन बिलोंमे नारकी जीव रहते हैं । (दे० नरक/१-3) सातों पृथिवियों के नीचे अन्त में एक राजू प्रमाण क्षेत्र खाली है। ( उसमे केवल निगोद जीव रहते है) --दे०चित्र सं. १० पृ.४४१। * रत्नप्रभा पृथिवीके खर व पंक मागका चित्र-दे० भवन/४। * रत्नप्रभा पृथिवीके अब्बहुल भाग का चित्र -दे० रत्नप्रभा। ९. भावनलोक निर्देश
[उपरोक्त सात पृथिवियोमे जो रत्नप्रभा नामकी प्रथम पृथिवी है, वह तीन भागोमें विभक्त है-खरभाग, पक्भाग व अब्बहुल भाग। खरभाग भी चित्रा, वैडूर्य, लोहिताक आदि १६ प्रस्तरोंमें विभक्त है। प्रत्यक प्रस्तर १००० योजन मोटा है। उनमे चित्रा नामका प्रथम प्रस्तर अनेको रत्नों व धातुओकी खान है। ( दे० रत्नप्रभा)। तहाँ खर व पंकभागमें भावनवासी देवोके भवन है और अब्बहुल भागमें नरक पटल है (दे० भवन/१/१)। इसके अतिरिक्त तिर्यक् लोकमें भी यत्र-तत्र-सर्वत्र उनके पुर, भवन व आवास है। (दे० व्यतर/४/१-५) । (विशेष दे० भवन/४ ) ] १०. व्यन्तर लोक निर्देश
[चित्रा पृथिवीके तल भागमे लेकर सुमेरुकी चोटी तक तिर्यग. लोक प्रमाण विस्तृत सर्व क्षेत्र व्यन्तरोके रहनेका स्थान है। इसके अतिरिक्त खर व पकभागमें भी उनके भवन है। मध्यलोकके सर्वद्वीप समुद्रोकी वेदिकाओपर, पर्वतोके कूटॉपर, न दियोके तटॉपर इत्यादि अनेक स्थलोपर यथायोग्य रूपमें उनके पुर, भवन व आवास है। (विशेष दे० व्यन्तर/४/१-५) । ११. मध्यलोक निर्देश १. द्वीप-सागर आदि निदेश ति, प/५/८-१०,२७ सब्वे दीवसमुद्दा सखादीदा भवंति समबट्टा । पढमो दोओ उबही चरिमो मज्झम्मि दीउवही।८। चित्तोवरि बहुमज्झे रज्जूपरिमाणदीह विखंभे। चेट्ठति दीवउवही एक्केक्क वेटिऊण हु प्परिदो।।। सव्वे वि वाहिणीसा चित्तरिख दि खंडिण चेठति। बज्जखिदीए उवरि दीवा बि हु उवरि चित्ताए ।१०। जम्बूद्दीवे लवणो उवही कालो ति बादई सडे। अत्रसेसा वारिणिही वत्तवा दीवसमणामा १२८ -१ सन द्वीप-समुद्र असरब्धात एवं समवृत्त है।
सन द्वाप समुद्र असल्यान एवं समवृत्त है। इनमें से पहला द्वीप, अन्तिम समुद्र और मध्यमें द्वीप समुद्र है।८। चित्रा पृथिवी के ऊपर बहुमध्य भागमें एकराजू लम्बे-चौडे क्षेत्रके भीतर एक-एकको चारो ओरसे घेरे हुए द्वीप व समुद्र स्थित है ।। सभी समुद्र चित्रा पृथिवीको खण्डित कर वज्रा पृथिवीके ऊपर,
और सब द्वीप चित्रा पृथिवीके ऊपर स्थित है।१०। (मू. आ./१०७६). ( त सू /३/७-८), (ह. पु./५/२,६२६-६२७ ), (ज प /१/78)। २. जम्बूद्वीपमें लवणोदधि और धातकीखण्डमे कालोद नामक समुद है। शेष समुदोके नाम द्वीपोके नाम के समान ही कहना चाहिए। ।२८। (मू आ /१०७७), (रा. वा /३/३८/७/२०८/१७), (जप। ११/१८३)। त्रि सा /८८६ बज्जमयमूलभागा वेलुरियकयाइरम्मा सिहरदा । दीवो वहीणमते पायारा होति सव्यस्थ ।८८६ - सभी द्वीप व समुद्रो
के अन्तमें परिधि रूपसे डूर्यमयी जगती होती है, जिनका मूल वज्रमयी होता है तथा जो रमणीक शिरवरोसे सयुक्त है। (-विशेष
दे० लोक/३/१ तथा ४/१। नोट-[द्वीप-समुद्रों के नाम व समुद्रोके जल का स्वाद-दे० लोक/12] ।
तिर्यक्लोक, मनुष्यलोक आदि विभाग ध. ४/१.३,१/६/३ देसभेएण तिलिहो, मंदरचिलियादो, उवरिमुढलोगो, भदरमूलादो हेट्ठा अधोलोगो, मंदरपरिच्छिण्णो मज्झलोगो त्ति । = देशके भेदसे क्षेत्र तोन प्रकारका है। मन्दराचल (सुमेरुपर्वत) की चूलिकासे ऊपरका क्षेत्र ऊर्ध्व लोक है । मन्दराचलके मूलसे नीचेका क्षेत्र अधोलोक है। मन्दराचल से परिच्छिन्न अर्थात तत्प्रमाण मध्यलोक है। ह.पु/५/१ तनुवातान्तपर्यन्त स्तिर्यग्लोको व्यवस्थित । लक्षितावधि
रूध्वधिो मेरुयोजनलक्षया ।। -१ तनुवातवलयके अन्तभाग तक तिर्यग्लोक अर्थात मध्यलोक स्थित है। मेरु पर्वत एक लाख योजन विस्तारवाला है। उसी मेरु पर्वत द्वारा ऊपर तथा नीचे इस तिर्यग्लोकको अवधि निश्चित है ।। [इसमे असंख्यात द्वीप, समुद्र एक दूसरेको वेष्टित करके स्थित है दे० लोक/२/११। यह साराका सारा तिर्य कलोक कहलाता है, क्योकि तिर्यच जीव इस क्षेत्रमें सर्वत्र पाये जाते है। २. उपरोक्त तिर्यग्लोक्के मध्यवर्ती, जम्बूद्वीपसे लेकर मानुषोत्तर पर्वत तक अढाई द्वीप व दो सागरसे रुद्ध ४५०० ००० योजन प्रमाण क्षेत्र मनुष्यलोक है। देवो आदिके द्वारा भी उनका मानुषोत्तर पर्वतके पर भागमें जाना सम्भव नही है । (-दे० मनुष्य/ ४/१)।३ मनुष्य लोकके इन अढाई द्वीपोमेसे जम्बूद्वीपमें १ और घातकी व पुष्कराध में दो-दो मेरु है। प्रत्येक मेरु सम्बन्धी ६ कुलधर पर्वत होते है, जिनसे बह द्वीप ७ क्षेत्रोमे विभक्त हो जाता है । मेरुके प्रणिधि भागमे दो कुरु तथा मध्यवर्ती विदेह क्षेत्रके पूर्व व पश्चिमवर्ती दो विभाग होते है। प्रत्येको ८ वक्षार पर्वत, ६ विभगा नदियाँ तथा १६ क्षेत्र है। उपरोक्त ७ व इन ३२ क्षेत्रोमेसे प्रत्येकमें दो-दो प्रधान नदिया है। ७ क्षेत्रो में से दक्षिणी व उत्तरीय दो क्षेत्र तथा ३२ विदेह इन सबके मध्य में एक-एक विजयार्ध पर्वत है, जिनपर विद्याधरोंकी बस्तियाँ है । (दे० लोक३/)। ४. इस अढाई द्वीप तथा अन्तिम द्वीप सागरमें ही कर्म भूमि है, अन्य सर्व द्वीप ब सागर में सर्वदा भोगभूमिको व्यवस्था रहती है। कृष्यादि षट्कर्म तथा धर्म-कर्म सम्बन्धी अनुष्ठान जहाँ पाये जाये वह कर्मभूमि है, और जहाँ जीव बिना कुछ किये प्राकृतिक पदार्थोके आश्रयपर उत्तम भोग भोगते हुए मुखपूर्वक जीवन-यापन करे वह भोगभूमि है। अढाई द्वीपके सर्व क्षेत्रोमे भी सर्व विदेह क्षेत्रों में त्रिकाल उत्तम प्रकारकी कर्मभूमि रहती है। दक्षिणी व उत्तरी दो-दो क्षेत्रो में घटकाल परिवर्तन होता है। तीन कालोमे उत्तम. मध्यम व जघन्य भोगभूमि और तीन कालोमे उत्तम, मध्यम व जघन्य कर्मभ्रमि रहती है। दोनों कुरुओमे सदा उत्तम भोगभूमि रहती है, इनके आगे दक्षिण व उत्तरवर्ती दो क्षेत्रों में सदा मध्यम भोगभूमि और उनमे भी आगेके शेष दो क्षेत्रो में सदा जघन्य भोगभूमि रहती है (दे० भूमि ) भोगभूमिमे जीवकी आयु शरीरोत्सेध बल व सुख क्रमसे वृद्धिगत होता है और कर्मभूमिमें क्रमश हानिगत होता है। -दे० काल/४। ५ मनुष्य लोक व अन्तिम स्वयप्रभ द्वीप ब सागरको छोडकर शेष सभी द्वीप सागरों में विकलेन्द्रिय व जलचर नही होते है। इसी प्रकार सर्व हो भोगभूमियो में भी वे नही होते है। वैर वश देवो के द्वारा ले जाये गये वे सर्वत्र सम्भव है।-दे० तिर्यच/३ । १२. ज्योतिष लोक सामान्य निर्देश
[ पूर्वोक्त चित्रा पृथिवीसे ७६० योजन ऊपर जावर ११० योजन पर्यन्त आकाशमें एक राजू प्रमाण विस्तृत ज्योतिष लोक है। नीचेसे
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लोक
२. लोक सामान्य निर्देश
उत्तर
चित्र सं० - १२
मध्यलोक सामान्य
द्वीप सागरों के नाम संकेत यो-योजन
दे लोक /५/१
दक्षिण
-
JCHHI
Mathema
स्वयभ्रमण सागर स्वयंभू रमण ट्रीप अहीन्द्रवर सागर महीन्द्रवरदीप
सनालोके तिमोरों तक Bातवलय स्पशी स्वयंभूरमण
सागर।
5
JattMEER
AILER2427
दूसरा जम्बूद्वीप व सागरLUTIODS
SarbarTRE MARE
TITANIUNITILIHEADLIRITT
TIMI
चकबन्दीप
एकुण्डलबर द्विीप
A
Rialecha
E
S
नन्दीरवर समार
N
PANCHE
KanitkareMPARAN
SSSSSSS
RECENT
दारुणावर सागर
वारुणीवर दीप
कर सागर
CISHEL
ditAAD
POSSES
S
जितकीसह व साग
M
S
..
CHOPAL
लाख लाख यो
लाख यो
IHARIHARAJ
TrimsTRETARINE
3
ONSTRATION
SSSSSSSSSWITTONARY
UNDER
७७८ लाख यो
N
क
W.
GE२३३६ लाख थोर
HalA4AHADE
ION
Talne
ALANTIP T
असरख्यात लाख यो
L
असंख्यात-लास यो असंख्यात लाख योअसंख्यात लास यो
असरज्यात लाख
नोट -
जस नाली मे ऊपर की ओर से देखने पर सेसा दिखाई देता है।
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लोक
३. जम्बूद्वीप निर्देश
ऊपरकी ओर कमसे तारागण, सूर्य, चन्द्र, नक्षत्र, शुक्र, बृहस्पति, मंगल, शनि व शेष अनेक ग्रह अवस्थित रहते हुए अपने-अपने योग्य संचार क्षेत्रमें मेरुको प्रदक्षिणा देते रहते हैं। इनमें से चन्द्र इन्द्र है
और सूर्य प्रतीन्द्र । १ सूर्य, ८६ ग्रह, २८ नक्षत्र व ६६६७५ तारे, ये एक चन्द्रमाका परिवार है। जम्बूद्वीपमें दो, लवणसागरमें ४, धातकी खण्ड में १२. कालोदमें ४२ और पुष्कराध में ७२ चन्द्र है। ये सब तो चर अर्थात् चलनेवाले ज्योतिष विमान हैं। इससे आगे पुष्करके परार्ध में ८, पुष्करोदमें ३२, बारुणीवर द्वीपमें ६४ और इससे आगे सर्व द्वोप समुद्रों में उत्तरोत्तर दुगुने चन्द्र अपने परिवार सहित स्थित हैं। ये अचर ज्योतिष विमान हैं-दे० ज्योतिष लोक । 11. ऊर्ध्वकोक सामान्य परिचय
सुमेरु पर्वतकी चोटोसे एक बाल मात्र अन्तरसे ऊर्बलोक प्रारम्भ होकर लोक-शिखर पर्यन्त १००४०० योजनकम ७ राजू प्रमाणऊर्वलोक है। उसमें भी लोक शिखरसे २१ योजन ४२५ धनुष नीचे तक तो स्वर्ग है और उससे ऊपर लोक शिखर पर सिद्ध लोक है। स्वर्गलोकमें ऊपर-ऊपर स्वर्ग. पटल स्थित हैं। इन पटलोंमें दो विभाग हैं- करप व कल्पातीत। इन्द्र सामानिक आदि १० कल्पनाओं युक्त देव कल्पवासी हैं और इन कल्पनाओंसे रहित अहमिन्द्र कल्पातीत विमानवासी है। आठ युगलों रूपसे अवस्थित काप पटल १६ हैं-सौधर्म, ईशान, सनत्कुमार, माहेन्द्र, ब्रह्म, ब्रह्मोत्तर, लान्तव, कापिष्ठ, शुक्र, महाशुक्र, शतार, सहस्रार, आनत. प्राणत, आरण, और अच्युत । इनसे ऊपर अवेयेक, अनूदिश व अनुत्तर ये तीन पटल कपातीत है। प्रत्येक पटल लाखों योजनोंके अन्तरालसे ऊपर-ऊपर अवस्थित है। प्रत्येक पटलमें असंख्यात योजनोंके अन्तरालसे अन्य क्षुद्र पटल हैं। सर्वपटल मिलकर ६३ हैं। प्रत्येक पटलमें विमान है। नरकके बिलोंवत ये विमान भी इन्द्रक श्रेणिबद्धम प्रकीर्ण कके भेदसे तीन प्रकारों में विभक्त हैं। प्रत्येक क्षुद्र पटल में एक-एक इन्द्रक है और अनेकों श्रेणीबद्धब प्रकीर्णक। प्रथम महापटलमें और अन्तिममें केवल एक सर्वार्थसिद्धि नामका इन्द्रक है, इसकी चारों दिशाओं में केवल एक-एक श्रेणीबद्ध है। इतना यह सब स्वर्गलोक कहलाता है (नोटः- चित्र सहित विस्तारके लिए दे.स्वर्ग) सर्वार्थ सिद्धि विमानके ध्वजदण्डसे २६ योजन ४२५ धनुष ऊपर जाकर सिखलोक है। जहाँ मुक्तजीव अवस्थित हैं। तथा इसके आगे लोकका अन्त हो जाता है ( दे० मोक्ष/१/७)।]
है। जिसके मध्य में मेरु पर्वत है।। (ति, प./४/११ब/८); (ह. पू./५/३); (ज. प./१/२०) । २. उसमें भरतवर्ष, हैमवतवर्ष, हरिबर्ष, विदेहवर्ष, रम्यकवर्ष, हरण्यवतवर्ष और ऐरावतवर्ष ये सात वर्ष अर्थात क्षेत्र हैं ।१०। उन क्षेत्रों को विभाजित करनेवाले और पूर्व-पश्चिम लम्बे ऐसे हिमवान्, महाहिमवान्, निषध, नोल, रुक्मी, और शिखरी ये छह वर्षधर या कुलाचल पर्वत हैं ।११। (ति, प./४/६०-६४); (ह.पू./५/१३-१५): (ज.प./२/२ व ३/२): (त्रि. सा./५६४)। ३. ये छहों पर्वत क्रमसे सोना, चाँदी, तपाया हुआ सोना, बैडूर्यमणि, चाँदी, और सोना इनके समान रंगवाले हैं ।१२। इनके पार्श्वभाग मणियोंसे चित्र विचित्र हैं। तथा ये ऊपर, मध्य और मूल में समान विस्तारवाले हैं।१३। (ति.प./ ४/६४-६५); (त्रि. सा./५६६)।४. इन कुलाचल पर्वतोंके ऊपर क्रनसे पद्म, महापद्म, तिगिछ, केसरी, महापुण्डरीक, और पुण्डरीक, ये तालाब हैं।१४। (ह. पु./५/१२०-१२९); (ज. प./३/६६)। १. पहिला जो पद्म नामका तालाब है उसके मध्य एक योजनका कमल है [इसके चारों तरफ अन्य भी अनेकों कमल हैं-दे० आगे लोक/श। इससे आगेके हृदोंमें भी कमला तालाब व कमल उत्तरोत्तर दूने विस्तार वाले हैं ।१७-१८ (ह, पृ.11/१२६); (ज. प./ ३/६६). पद्य हृदको आदि लेकर इन कमलोंपर क्रमसे श्री, हो, धृति, कीर्ति, बुद्धि और लक्ष्मी ये देवियाँ, अपने-अपने सामानिक, परिषद आदि परिवार देवोंके साथ रहती हैं--(दे० व्यंतर/३२) १(ह. पू./५/१३०)। ७. [ उपरोक्त पद्य आदि द्रहों में से निकल कर भरत आदि क्षेत्रों में से प्रत्येकमें दो-दो करके क्रमसे ] गंगा-सिन्धु, रोहित-रोहितास्या, हरित-हरिकान्ता, सीता-सीतोदा, नारी-नरकान्ता, सुवर्ण कूला-रूप्यकूला, रक्ता-रक्तोदा नदियाँ बहती हैं ।२०। (ह. पू./५/१२२-१२४)। [तिनमें भी गंगा, सिन्धु व रोहितास्या ये तीन पद्म द्रहसे, रोहित व हरिकान्ता महापद्म द्रहसे, हरित व सीतोदा तिगिंध दहसे, सीता व नरकान्ता केशरी हसे, नारी व रूप्यकूला महापुण्डरीकसे तथा सुवर्ण कूला, रक्ताब रक्तोदा पुण्डरीक सरोवरसे निकली है-हि.पू./५/१२२-१३५) 11८. उपरोक्त युगलरूप दो-दो नदियोंमेंसे पहली पहली नदी पूर्व समुद्रमें गिरती हैं और पिछलो-पिछली नदी पश्चिम समुद्र में गिरती है १२१-२२। (ह.पू./५/१६०); (ज. प./३/११२-१६३)| ६गंगा सिन्धु आदि नदियोंको चौदह-चौदह हजार परिवार नदियाँ है। [यहाँ यह विशेषता है कि प्रथम गंगा सिन्धु युगलमें से प्रत्येकको १४०००, द्वि. युगलमें प्रत्येककी २८००० इस प्रकार सीतोदा नदी तक उत्तरोत्तर दूनी नदियाँ हैं। तदनन्तर शेष तीन युगलों में पुनः उत्तरोत्तर आधी-आधी हैं। (स.सि./३/२३/२२०/१० ) ( रा. वा./ अ२३/३/१६०/१३), (ह. पु./५/२७५-२७६)]।
३. जम्बूद्वीप निर्देश
1. जम्बूद्वीप सामान्य निर्देश त.मू./३/१-२३ तन्मध्ये मेरुनाभिवृत्तो योजनशतसहस्त्रविष्कम्भो । जम्बूद्रोपः ।। भरतहमवतहरिविदेहरम्यकहरण्यवतै रावतवर्षाः क्षेत्राणि १० तद्विभाजिनः पूर्वापरायता हिमबन्महाहिमवन्निषधनीलरुक्मिशिखरिणो वर्षधर राबताः ॥११॥ हेमार्जुनतपनीयवैडूर्यरजतहेममयाः ।१२। मणिविचित्रपार्वा उपरि मूले च तुल्यविस्ताराः ॥१३॥ पद्ममहापद्यतिनिछकेसरिमहापुण्डरीक पुण्डरोका हृदास्तेषामुपरि ।१४। तन्मध्ये योजनं पुष्करम् ॥१७॥ तदद्विगुणद्विगुणा हृदाः पुष्कराणि च१८) तन्निवासिन्यो देव्यः श्रोहोतिकीर्तिबुद्धिलक्ष्म्यः पस्योपमस्थितयः ससामानिकपरिषत्काः ।१६। गङ्गासिन्धुरोहिद्रोहितास्याहरिवरिकावासोतासीतोदानारोनरकान्तासुवर्ण रूध्यकूलारक्तारक्तोदाः सरितस्तन्मध्यगाः ।२०। योद्वयोः पूर्वाः पूर्वगाः १२९॥ शेषास्वपरगाः ॥२॥ चतुरंशनशेसहस्रपरिवृता गङ्गासिनवादयो नद्यः ॥२३॥ -१. उन सब (पूर्वोक्त असंख्यात द्वीप समुद्रों-दे० लोक/२/११) के बीच में गोल और १००,००० योजन विष्कम्भवाला जम्बूद्वीप
ति.प./४/गा. का भावार्थ-१०. यह द्वीप एक उगती करके वेष्टित
है ११॥ (ह. पु./५/३), (ज. प./१/२६) । ११. इस जगतीको पूर्वादि चारों दिशाओं में विजय, वैजयन्त, जयन्त और अपराजित नामके चार द्वार हैं।४१-४२। (रा. वा./२/६/१/१००/२६): ह. पू./ ५/३६०); (त्रि. सा./१२): ( ज. प./१/३८,५२) । १३. इनके अतिरिक्त यह द्वीप अनेकों बन उपवनों, कण्डों, गोपुर द्वारों, देव नगरियों व पर्वत, नदी, सरोवर, कुण्ड आदि सबकी वेदियों करके शोभित हैं।१२-१३ १४. [ प्रत्येक पर्वतपर अनेकों कूट होते हैं ( दे० आगे उन उन पर्वतों का निर्देश )प्रत्येक पर्वत व कूट,नदी, कुण्ड, द्रह, आदि वेदियों करके संयुक्त होते हैं-(दे० अगला शीर्षक ) । प्रत्येक पर्वत, कुण्ड, दह, कूटोंपर भवनवासी व व्यन्तर देवोंके पुर, भवन व आवास हैं-(दे० व्यन्तर/४/१५) प्रत्येक पर्वतबादिके ऊपर तथा उन देवों के भवनों में जिन चैत्यालय होते हैं। (दे० चैत्यालय/३/२)11
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कोक
३. जम्बूद्वीप निर्देश
.. जम्बूद्वीपमें क्षेत्र पर्वत नदी भादिका प्रमाण
१. क्षेत्र, नगर आदिका प्रमाण (ति. प./४/२३६६-२३६७); (ह.पू./२/८-१९): (ज. प./५/१५)।
३. नदियोंका प्रमाण (ति../४/२३८०-२३८५); (ह. पू./५/२७२-२७७); (त्रि. सा./७४७
७५०) (ज. प./२/११७-१८)
प्रत्येक
नाम
| कुल प्रमाण
विवरण
नाम
গনা
विवरण
परिवार
महाक्षेत्र
भरत हैमवत आदि (दे० लोक/३/21
कुरुक्षेत्र
देवकुरु व उत्तर कुरु। कर्मभूमि
भरत, ऐरावत व २ विदेह । भोगवमि
हैमवत, हरि, रम्यक ब हैरण्यवत
तथा दोनों कुरुक्षेत्र । आर्यखण्ड
प्रति कर्मभूमि एक। म्लेच्छ खण्ड १७० प्रति कर्मभूमि पाँच। राजधानी ३४ ।। प्रति कर्मभूमि एक। विचाधरोंके ३७५० भरत व ऐरावतके विजयाधों में से नगर।
प्रत्येकपर ११५ तथा १२ विदेहोंके विजयाओं में से प्रत्येक पर ११० (दे० विद्याधर)।
२१४००० २८००२ भरतक्षेत्रमें रोहित-रोहितास्या | २२८०००
हमवत क्षेत्र में हरित-हरिकाम्ता |२००० १५२००२
हरि क्षेत्रमें नारी नरकान्ता २९६००० ११२००२
रम्यक क्षेत्र में ISमुवर्णकूला व २२८००० १६००२ हरण्यवत क्षेत्रमें
रूप्यकुला रक्ता-रक्तोदा २१४००० २८००२ ऐरावतक्षेत्र में छह क्षेत्रोंकी
३६२०१२ कुल नदियाँ | सीता-सीतोदा २८४000१६८००२ दोनों कुरुओंमें क्षेत्र नदियाँ६४१४००० | ८४६०६४ | ३२ विदेहोंमें विभंगा
१२x ...१२ - विदेहको कुल नदियाँ । जम्बू द्वीपको
। की अपेक्षा
१४५६०१० कुल नदी विभंगा १२ २८००० जम्बूद्वीपको
१७६२०१० ति, प. की अपेक्षा 17कुल नदो
|१०६४०७८
ह.पू.बज.प.
३३८०००
२. पर्वतोंका प्रमाण (ति, प.४/२३६४-२३६७); ( ह. पु.१/८-१०); (त्रि. सा/७३१); (ज. प./१/१५-१८,६८)।
४. द्रह-कुण्ड आदि
५
नाम
गणना
विवरण
नं. नाम
गणना
विवरण व प्रमाण
-
-
१६
२
-
।।३।
कुण्ड वृक्ष गुफाएँ बन
१७६२०१०
२ ६८ अनेक
-
मेरु
जम्बूद्धीपके बीचोबीच। कुलाचल
हिमवान् आदि (दे० लोक/३/३ )। विजया
प्रत्येक कर्मभूमिमें एक। वृषभगिरि
प्रत्येक कर्मभूमिके उत्तर-मध्य म्लेच्छ
खण्डमें एक। नाभिगिरि
हैमवत, हरि, रम्यक बहरण्यवत
क्षेत्रोंके बीचोबीच। वक्षार
पूर्व व अपर विदेहके उत्तर व दक्षिण
में चार-चार। गजदन्त
मेरुकी चारों विदिशाओं में । दिग्गजेन्द्र
विदेह क्षेत्रके भद्रशालवनमें दोनों 'कुरुओंमें सीता व सीतोदा नदीके
दोनों तटोपर। | यमक
दो कुरुओंमें सीता व सीतोदाके
दोनों तटोपर। |१० कांचन गिरि | २०० दोनों कुरुओंमें पाँच-पाँच द्रहोंके
दोनों पार्श्वभागों में दस-दस ।
कुलाचलोंपर ६ तथा दोनों कुरुमें १०(ज. प./१/६७)। नदियों के बराबर (ति.प./४/२३८६)। जम्बू व शाल्मली (ह. पु./1/८) ३४ विजयाधोंकी (ह. पु./१/१०) मेरुके ४ वन भद्रशाल, नन्दन, सौमनस व पाण्डुक । पूर्वापर विदेहके छोरोपर देवारण्यक व भूतारण्यक । सर्व पर्वतोंके शिखरोंपर, उनके मूल में, नदियोंके दोनों पार्श्वभागों में इत्यादि । (ति.प./४/२३६६) कुण्ड, बनसमूह, नदियाँ, देव नगरियाँ, पर्वत, तोरण द्वार, द्रह, दोनों वृक्ष, आर्य खण्डके तथा विद्याधरोंके नगर आदि सबपर चैत्यालय हैं -(दे० चैत्यालय)।
९६८
चश्यालय
अनेक
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गणना
लोक
४४६
३. जम्बूद्वीप निर्देश
केवल नदियो व नाभिगिरि पर्वतके नाम भिन्न है-दे० लोक/३/ नं. नाम । गणना विवरण व प्रमाण
१/७ व लोक/४८ ४. निषध पर्वतके उत्तर तथा नीलपर्वतके दक्षिण में
विदेह क्षेत्र स्थित है। (ति. प./४/२४७४); (रा.वा./३/१०/१२/ वेदियाँ । अनेक उपरोक्त प्रकार जितने भी कुण्ड आदि १७३/४) । इस क्षेत्रकी दिशाओका यह विभाग भरत क्षेत्रकी अपेक्षा
तथा चैत्यालय आदि है उतनी ही है सूर्योदयकी अपेक्षा नहीं, क्योंकि वहाँ इन दोनो दिशाओमें भी उनको वेदियाँ है। (ति प./४/२३- सूर्यका उदय व अस्त दिखाई देता है। (रा. वा/३/१०/१३/१७३/ ८८-२३६०)।
१०)। इसके बहुमध्यभागमें सुमेरु पर्वत है (दे० लोक/३/६)। [ये जम्बूद्वीपके क्षेत्रोको )
क्षेत्र दो भागोंमें विभक्त है-कुरुक्षेत्र व विदेह ] मेरु पर्वतकी सर्व पर्वतोंकी
दक्षिण व निषधके उत्तरमें देवकुरु है (ति.प./४/२९३८-२१३६) । द्रहोको
मेरुके उत्तर व नीलके दक्षिणमे उत्तरकुरु है (ति. प./४/२१६१-२१पद्मादि द्रहों की (ज.प// १२)। मेरुके पूर्व व पश्चिम भागमें पूर्व व अपर विदेह है, जिनमें कुण्डोंकी
पृथक् पृथक् १६,१६ क्षेत्र है, जिन्हे ३२ विदेह कहते हैं। (ति, प./४/ १४ गगादि महानदियों की
२१६६)। (दोनो भागोंका इकट्ठा निर्देश-रा. वा./३/१०/१३/ ५२०० कुण्डज महानदियोकी ।
१७३/६)। [नोट-इन दोनो भागोंके विशेष कथनके लिए दे० आगे 16 | कमल | २२४१८५६ कुल द्रह -१६ और प्रत्येक द्रहमें
पृथक शीर्षक (दे० लोक/३/१२-१४)]। ५. सबसे अन्तमें शिखरी कमल-१४०११६-(दे० आगे ब्रहनिर्देश) पर्वतके उत्तर में तीन तरफसे लवणसागरके साथ स्पर्शित सातवाँ
ऐरावतक्षेत्र है। (रा. वा./३/१०/२१/१८१/२८)। इसका सम्पूर्ण ३. क्षेत्र निर्देश
कथन भरतक्षेत्रवत् है (ति.प/४/२३६५), (रा. वा./३/१०/२२/ १-जम्बूद्वीपके दक्षिणमें प्रथम भरतक्षेत्र जिसके उत्तरमें हिमवान् पर्वत १८१/३०) केवल इसकी दोनो नदियोके नाम भिन्न है (दे० लोक
और तीन दिशाओमें लवणसागर है। (रा. वा./३/१०/३/१७१/- ३११/७) तथा १/८)। १२) । इसके बीचोबीच पूर्वापर लम्बायमान एक विजयाध पर्वत
४. कुलाचल पर्वत निर्देश है। (ति. ८/४/१०७ ); ( रा. वा /३/१०/४/१७१/१७); (ह. पु/५/ २०), (ज. प /२/३२)। इसके पूर्व में गंगा और पश्चिममे सिन्धु १. भरत व हैमवत इन दोनों क्षेत्रोको सीमापर पूर्व-पश्चिम लम्बायनदी बहती है। (दे० लोक/३/१/७)। ये दोनों नदियाँ हिमवानके
मान (दे० लोक/३/१/२) प्रथम हिमवान् पर्वत है -(रा. वा./३/ मूल भागमें स्थित गंगा व सिन्धु नामके दो कुण्डोंसे निकलकर पृथक्
११/२/१८२/६) । इसपर ११ कूट है-(ति प/४/१६३२), (रा.वा./ पृथक पूर्व व पश्चिम दिशामें, उत्तरसे दक्षिणकी ओर बहती हुई
३/११/२/१८२/१६); (ह. पु/१/५२), (त्रि. सा./७२१); (ज.प./ विजया दो गुफामेसे निकलकर दक्षिण क्षेत्रके अर्धभाग तक पहुँचकर
३/३६) । पूर्व दिशाके कूटपर जिनायतन और शेष कूटोपर यथा और पश्चिमकी ओर मुड जाती है, और अपने-अपने समुद्र में गिर
योग्य नामधारी व्यन्तर देव व देवियो के भवन है ( दे० लोक/१/४) । जाती है-( दे० लोक/३/११ )। इस प्रकार इन दो नदियो व
इस पर्वतके शीर्ष पर बीचोबीच पद्म नामका ह्रद है (ति. प./४/१६विजयासे विभक्त इस क्षेत्रके छह खण्ड हो जाते हैं। (ति.प/४/
५८), (दे० लोक/३/१/४)। २. तदनन्तर हैमवत् क्षेत्रके उत्तर व २६६); (स, सि /३/१०/२१३/६); (रा. वा./३/१०/३/१७६/१३) ।
हरिक्षेत्र के दक्षिणमे दूसरा महाहिमवान पर्वत है। (रा. वा./३/११/ विजयाकी दक्षिणके तीन खण्डोमेसे मध्यका खण्ड आर्य
४/१८२/३१) । इसपर पूर्ववत आठ कूट है (ति प./४/१७२४); (रा खण्ड है और शेष पाँच खण्ड म्लेच्छ खण्ड है -(दे० आर्यखण्ड )।
बा/३/११/४/१८३/४), (ह पु/५/७०); (त्रि. सा./७२४); (ज.प./ आर्य खण्डके मध्य १२४६ यो० विस्तृत विनीता या अयोध्या नाम
३/३६) । इसके शीर्ष पर पूर्ववत् महापद्म नामका द्रह है। (ति.प./४/ की प्रधान नगरी है जो चक्रवर्तीकी राजधानी होती है। (रा. वा।
१७२७), (दे० लोक/२/१/४)। ३. तदनन्तर हरिवर्ष के उत्तर व ३/१०/१/१७१/६) । विजयाधं के उत्तरवाले तीन खण्डो में मध्यपाले
विदेहके दक्षिणमे तीसरा निषधपर्वत है। (रा. वा./३/११/६/१८३/ म्लेच्छ खण्डके बीचोबीच वृषभगिरि नामका एक गोल पर्वत है
११)। इस पर्वतपर पूर्ववत ह कूट है (ति प./४/१७५८ ): (रा. वा./ 'जिसपर दिग्विजय कर चुकनेपर चक्रवर्ती अपना नाम अक्ति करता
३/११/६/१८३/१७), (ह पु/१/८७), (त्रि. सा./७२५); (ज. प. है। (ति. प./४/२६८-२६६); (त्रि सा/७१०), (ज. प/२/१०७ ) ।
३/३६) । इसके शीर्ष पर पूर्ववत् तिगिछ नामका द्रह है (ति प./४/ २ इसके पश्चात हिमवान पर्वतके उत्तरमे तथा महाहिमवानके
१७६१), (दे० लोक/३/१/४)। ४. तदनन्तर विदेहके उत्तर तथा दक्षिणमे दूसरा हैमवत क्षेत्र है (रा वा/३/१०/५/१७२/१७), (ह
रम्यकक्षेत्रके दक्षिण दिशामें दोनो क्षेत्रोको विभक्त करनेवाला निषधपु./१४५७)। इसके बहुमध्य भागमें एक गोल शब्दवान नामका पर्वतके सदृश चौथा नीलपर्वत है। (ति. ५/४/२३२७); ( रा. वा./ नाभिगिरि पर्वत है (ति प /१७०४), (रा वा/३/१०/७/१७२/२१) ।
३/११/८/२३) । इसपर पूर्ववत् ह कूट है। (ति. ५/४/२३२८) (रा. इस क्षेत्रके पूर्व में रोहित और पश्चिममें रोहितास्या नदियाँ बहती
वा/३/११/८/१८३/२४), (ह. पु/५/६ (त्रि सा /१२६), (ज. है। (दे० लोक/३/१/9)। ये दोनो हो नदियाँ नाभिगिरिके उत्तर
प/३/३६) । इतनी विशेषता है कि इस पर स्थित दह का नाम केसरी है। व दक्षिण में उससे २ कोस परे रहकर ही उसकी प्रदक्षिणा देतो
(ति.प/४/२३३२), (दे लोक/३/१/४)। ५ तदनन्तर रम्यक व हैरण्यवत हुई अपनी-अपनी दिशाओमें मुड जाती है, और बहती हुई अन्त
क्षेत्रो का विभाग करने वाला तथा महा हिमवान पर्वत के सदृश.at मे अपनी-अपनो दिशावाले सागरमें गिर जातो है। -(दे० आगे
रुक्मि पर्वत है, जिस पर पूर्ववत आठ कूट है। (ति प./४/२३४०); लोक/३/११ ) । ३. इसके पश्चात् महाहिमवान के उत्तर तथा निषध (रा. वा/३/११/१०/१८३/३०); (ह. पु/१/१०२); (त्रि. सा/७२७)। इस पर्वतके दक्षिणभे तीसरा हरिक्षेत्र है ( रा. वा./३/१०/६/१७२/१६)। पर्वत पर महापुण्डरीक द्रह है। (दे. लोक/३/१/४)। ति प की नीलके उत्तरमे और रुक्मि पर्वतके दक्षिणमे पाँचवॉ रम्यकक्षेत्र है। अपेक्षा इसके द्रह का नाम पुण्ड्रीक है। (वि. प./४/२३४४)। ६ अन्त (रा. वा./३/१०/११/१८१/१५) पुन. रुक्मिके उत्तर व शिखरी पर्वत
में जाकर हैरण्यवत व ऐरावत क्षेत्रों की सन्धि पर हिमवान पर्वत के के दक्षिणमें छठा हैरण्यवत क्षेत्र है। (रा. वा./३/१०/१८/१८१/२१) सदृश छठा शिखरी पर्वत है, जिस पर ११ कूट है। (ति प/४/२३५६); तहाँ विदेह क्षेत्रको छोडकर इन चारोंका कथन हैमवतके समान है। (रा. वा./३/११/१२/१८४/३); (ह. पु./५/१०५); (त्रि, सा/७२८),
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जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश
कुमानुष द्वीप
कुमानुष
द्वीप
चित्र से० १४
'कूट
कूट
कूट
सिन्धु रोहितास्या श्री
कूट 'कूट' कूट वैश्रवण हैम्वत सुरा हिमवान् पर्वत यो, ऊंचाई 100 यो. चौड़ाई = १०५२
म्लेच्छ खण्ड
वन खण्ड १/२ यो०
तिमिस्र गुफा www. कूट वैश्रवण विजयार्ध पर्वत उत्तरार्धभरत तिमिस्र
वखण्ड
म्लेच्छ खण्ड
झरोखा
गुफा
२५ यो द्वीप
सिन्धु नदी
३२००० यो.
प्रभास
द्वीप
भरत क्षेत्र
eas
पूर्ण भद
पद्मद्रह
५०० यो०४
भभाकार प्रणा
१४४७१६०
वृषभ
गिरि
म्लेच्छ खण्ड
१०७२००
लवण
१२] यो०
अयोध्या
अम्बू द्वीप की अंगठी
कूट विजयार्थ
६७४८ यो.
आर्य खण्ड
कूट मणिभव
- २३८
धनुष पृष्ठ
पूरे मन का धनुष पृष्ट १४५२८
वजयन्त द्वार १२००० यो.
वरतनु द्वीप
कुण्ड
uppres
कूट कूट इला
गंगा
विस्तार
"
फूट
भरत
ॐ
विस्तार १० यो महरा १० यो
A
"
५यो० गहराई १/२ को ०
रखण्ड प्रपात गुफा
गंगा नदी:
सागर
खण्ड प्रपात
TE - 1. को
यो०, जल मे = १० यो० जल के ऊपर- २ योग /
"६२३ यो." गहराई को
३२००० यो
पश्चिम
कूट हिमवान्
गुफा
मागध
प्रीप
उत्तर
ii
सिध्दायत्न
लेच्छ खण्ड,
दक्षिण
कूट
दक्षिणार्थ भरत सिद्धा यतन
म्लेच्छ खण्ड
भारोवा
पूर्व
HTT
कुमानुष
द्वीप
कुमानुष द्वीप
लोक
४४७
३. जम्बूद्वीप निर्देश
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लोक
४४८
३. जम्बूद्वीप निर्देश
(ज.प./३/३६)इस पर स्थित द्रह का नाम पुन्ड्रीक है (दे लोक/३/१/४)। ति.प. की अपेक्षा इसके द्रह का नाम महापुन्डरीक है। (ति प /
४/२३६०) । ५. विजयाध पर्वत निर्देश १. भरतक्षेत्रके मध्यमें पूर्व-पश्चिम लम्बायमान विजया पर्वत है।
( दे'लोक/३/३/१)। भूमितलसे १० योजन ऊपर जाकर इसकी उत्तर व दक्षिण दिशामें विद्याधर नगरोंको दो श्रेणियाँ है। तहाँ दक्षिण श्रेणीमे १५ और उत्तर श्रेणी में ६० नगर है। इन श्रेणियोसे भी १० योजन ऊपर जाकर उसी प्रकार दक्षिण व उत्तर दिशामें अभियोग देवोंकी श्रेणियाँ है। (दे० विद्याधर/४ )। इसके ऊपर ६ कूट है। (ति १/४/१४६), (रा वा/३/१०/४/१७२/१०), (ह.पु/५/२६), (ज, प/२/४८) । पूर्व दिशाके कूटपर सिद्धायतन है और शेषपर यथायोग्य नामधारी व्यन्तर व भवनवासी देव रहते है । (दे० लोक/५/४)। इसके मूलभागमें पूर्व व पश्चिम दिशाओमें तमिस्र व खण्डप्रपात नामकी दो गुफाएँ है, जिनमें क्रमसे गगा व सिन्धु नदी प्रवेश करती है। (ति प/४/१७५), (रा. वा/३/१०/४/१७/१७१/२७); (ज.प/२/८१)। रा वा व, त्रि सा के मतसे पूर्व दिशामें गगाप्रवेशके लिए खण्डप्रपात और
पश्चिम दिशामें सिन्धु नदीके प्रवेशके लिए तमिस्र गुफा है (दे० लोक/३/१०)। इन गुफाओं के भीतर बहू मध्यभागमें दोनो तटोंसे उन्मग्ना व निमग्ना नामकी दो नदियाँ निकलती है जो गंगा और सिन्धुमें मिल जाती है। (ति. प./४/२३७), (रा. वा/३/१०/४/१७१/३१); (त्रि. सा./५६३); (ज.प/२/६५-६६), २. इसी प्रकार ऐरावत क्षेत्रके मध्यमें भी एक विजया है, जिमका सम्पूर्ण कथन भरत विजयावत् है ( दे० लोक/३/३) । कूटों व तन्निवासी देवोंके नाम भिन्न है। (दे० लोक/१)। ३. विदेहके ३२ क्षेत्रोंमेसे प्रत्येकके मध्य पूर्वापर लम्बायमान विजया पर्वत है। जिनका सम्पूर्ण वर्णन भरत विजयावत है। विशेषता यह कि यहाँ उत्तर व दक्षिण दोनों श्रेणियों में १५.१५ नगर है। (ति. प./४/२२५७, २२६०); (रा. वा/३/१०/१३/१७६/२०), (ह. पु //२५५-२५६); (त्रि, सा./६११-६६५)| इनके ऊपर भी हकूट है (त्रि. सा। ६१२)। परन्तु उनके व उन पर रहने वाले देवोके नाम भिन्न है। (दे० लोक/१)।
विजया पर्वतार
पश्चिम में
पूर्व
चिन्न सं०-१५
MAST A AREEREY
कृष्ट MHASY.कृट उत्तेएमटकटकटकटखण्ड दक्षिणा 2018/वैप्रवण भरत तिमित्र पूर्णमंद्र विजयाधी मणिभद्र प्रपात भरत 'सिन्दागतन)
TOTTA
दासिन्पना
तिमिस्त्र
गुफा ITIHARHATHORITHIवयोगासाग
1000MAUTO90001
६. सुमेरु पर्वत निर्देश १. सामान्य निर्देश विदेहक्षेत्रके बहु मध्यभागमें सुमेरु पर्वत है। (ति.प./४/१७८०); (रा. वा./३/१०/१३/९७३/१६): (ज.प./४/२१) । यह पर्वत तीर्थकरोंके जन्माभिषेकका आसनरूप माना जाता है (ति. प./४/ १७०), (ज. प./४/२१), क्योंकि इसके शिखर पर पाण्डकवनमें स्थित पाण्डक आदि चार शिलाओंपर भरत, ऐरावत तथा पूर्व व पश्चिम विदेहोंके सर्व तीर्थंकरोंका देव लोग जन्माभिषेक करते है (दे० लोक/३/३)। यह तीनो लोकोका मानदण्ड है. तथा इसके मेरु, सुदर्शन, मन्दर आदि अनेकों नाम है (दे० सुमेरु/२)। २. मेरुका आकार यह पर्वत गोल आकार वाला है। (ति.प./४/१७८२)। पृथिवीतलपर १००,०० योजन विस्तार तथा 33000 योजन उत्सेध वाला है। कमसे हानि रूप होता हुआ इसका विस्तार शिवरपर जाकर १००० योजन रह जाता है। (दे० लोक/६/१) । इसकी हानिका क्रम इस प्रकार है-क्रमसे हानि रूप होता हुआ पृथिवीतलसे
५०० योजन ऊपर जानेपर नन्द नवनके स्थानपर यह चारों
ओरसे युगपत ५०० योजन संकुचित होता है । तत्पश्चात ११००० योजन समान विस्तारसे जाता है। पुन ५१५०० योजन क्रमिक हानिरूपसे जानेपर, सौमनस बनके स्थानपर चारों ओरसे ५०० यो, संकुचित होता है। यहाँसे ११००० योजन तक पुन समान विस्तारसे जाता है और उसके ऊपर २५००० योजन क्रमिक हानिरूपसे जानेपर पाण्डुकवनके स्थानपर चारों
ओरसे युगपत ४६४ योजन संकुचित होता है। (ति./४/१७८८१७६१); (ह. पु/१२८७-३०१)। इसका बाह्य विस्तार भद्रशाल आदि वनोंके स्थानपर क्रमसे १००,००,६६१४६५. ४२७२६२ तथा १००० योजन प्रमाण है (ति.प./४/१७८३ १६१०+१६३६+१८१०); (ह. पु./१२८७-३०१) ( और भी दे० लोक/६/६ में इन वनोंका विस्तार)। इस पर्वतके शीश पर पाण्डक वनके बीचोबीच ४० यो, ऊँची तथा १२ यो मूल विस्तार युक्त चूलिका है। (ति.प./ ४/१८९४): (रा. वा./३/१०/१३/१८०/१४), (ह. पु./५/३०२); (त्रि सा./६३७ ): (ज.प/४/१३२), (विशेष दे० लोक/६/४.२ में चूलिका विस्तार )।
जैनेन्द्र सिदान्त कोश
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लोक
३. मेरुकी परिधियाँ
मीचेसे ऊपर की ओर इस पर्वतकी परिधि सात मुख्य भागो में विभा जित है- हरितासमयी वैदूर्यमयी सर्वरत्नमयी वज्रमयी, मद्य मयी और पद्मरागमयी अर्थात लोहिताक्षमयी । इन छहोने से प्रत्येक १६५०० मो० ऊँची है। भूमितल अवगाही सप्त परिधि (पृथिय उपल बालुका आदि रूप होनेके कारण ) नाना प्रकार है। (ति १/४/१८०२-१८०४) (१/५/३०४) दूसरी मान्यता के अनु
चित्र - १६
६००० यो०
- ३६००० यो०
→ ६२५००० यो० ←
सुमेरुका शिखर १००० यो०
पाईव भुजा चच २०२ यो
४४९
सुमेरु पर्वत
मूलिका ४००
<४०४ यो० पाण्डुक वन
- ३२७२०
११००० यो० ४२७२६ यो० + ५०० यो० सौमनस वन
-८८५४ यो० ૧૧
Suity
- चर्च५४ ११ यो ०.
३. जम्बूद्वीप निर्देश
सार ये सातो परिधियों क्रमसे लोहिताक्ष, पद्म, तपनीय, बैडूर्य, बच हरिसाल और जाम्बूनद सुवर्णमयी है। प्रत्येक परिधिक ऊँचाई १६५०० योजन है पृथिवीतलके नीचे १००० यो. पृथिवी उपल, बालुका और शर्करा ऐसे चार भाग रूप है। तथा ऊपर चूलिका के पास जाकर तीन काण्डको रूप है। प्रथम काण्डक सर्वरत्नममी, द्वितीय जाम्बूनदमयी और तीसरा निकाहै
है।
२५० यो० "
Ju
. १०००० यो०
१९००००
५०० यो० नन्दन वन
५०० यो०
→ १५०० ग्रा०
.
Au
1.
जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश
*
017+
चूलिका
चूलिका
-४ यो०
-92 + zito
२२००० योon
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लोक
४५०
४. वनखण्ड निर्देश
१ सुमेरु पर्वत के तलभाग में भद्रशाल नामका प्रथम वन है जो पाँच मागोमे विम है-भद्रास मानुषोत्तर, देवरमण नागरमण और भूतरमण (ति //१००५). (इ ५०/५/२००) इस बनकी चारो दिशाओ में चार जिनभवन है । ( ति प /४/२००३). (त्रि सा./६११), ( १/४/४६) इनमें से एक मेरु पूर्व वा सीता नदी के दक्षिण है। दूसरा नेरुडी दक्षिण व सीतोदाने पूर्व है तीसरा मेरु पश्चिम तथा सीटोदाने उत्तरमे है और चोया मेरुके उत्तर व सीताके पश्चिममे है । ( रा. वा./३/१०/१७८ / १८ ) इन पैश्यालय का विस्तार पाण्डुरू बनके चैत्यालयोसे चौगुना है ( ति प / ४ / २००४ ) । इस बनमे मेरुकी चारो तरफ सीता व सीतोदा नदीके दोनों तटोपर एक-एक करके आठ दिग्गजेन्द्र पर्वत है । (दे० लोक / ३ / १२) २ भद्रशाल वन से ५०० योजन ऊपर जाकर मेरु पर्वतको कटनीपर द्वितीय वन स्थित है । (दे० पिछला उपशीर्षक १) । इसके दो विभाग है नन्दन व उपनन्दन । ( ति प /४/१०६), (६/२/३००) इसको पूर्वादि चारो दिशाओमे पर्वतके पासक्रमसे मान, धारणा, गन्धर्व व चित्र नामके चार भवन है। जिनमे क्रमसे सौधर्म इन्द्रके चार लोकपाल सोम, यम, वरुण व कुबेर क्रीडा करते है | ) ( ति प / ४ / १६६४-१९६६ ); ( पु / ३१५३९७), (त्रि. सा. ६१६. ६२९). ( प./२/०३-०४) कहीं-कहीं इन भवनो को गुफाओके रूपमें बताया जाता है। (रा बा./३/१०/१२/१०१/१४)। यहाँ भी मेरुके पास चारों दिशाओमे चार जिनभवन है (ति प२/१९६८). (शमा /३/१०/११/९०१ / १२). (२५) (त्रि सा. / ६११) प्रत्येक जिनमनके आगे दो-दो कूट है - जिनपर दिक्कुमारी देवियाँ रहती है। ति प की अपेक्षा आठ कूट इस नमे न होकर सौमनस यनमे ही है । ( ३० लोक /२/५) चारो दिशाओमे सौमनस बनकी भाँति चार-चार करके फूल १८ पुष्करिणयों है (ति.प./४/१९६८), (रा. ना /३/१०/११/२०६/२४) ( //३२४-२१०२४१-१४६). (त्रि. सा / ६२८), (१/४/११०-१११) इस मनको ईशान दिशामे एक बलभद्र नामका कूट है जिसका कथन सौमनस बनके बलभद्र कूटके समान है । इसपर बलभद्र देव रहता है । ( ति प /४/१६६७), (श वा./३/१०/२३/९७६/९६), (६/२/३२०), (त्रि सा/६२४ ), ( ज प / ४ / ६६ ) । ३. नन्दन वनमे ६२५०० योजन ऊपर जाकर सुमेरु पर्वत पर तीसरा सौमनस वन स्थित है (दे० लोक३.६२) इसके दो भाग है-सौमनस व उपसौमनस ति प /४/१८०६ ); (ह पु/५/३०८ ) । इसकी पूर्वादि चारो दिशाओ में मेरुके निकट वज्र, वज्रमय, सुवर्ण व सुवर्णप्रभ नामके चार पुर है,
1
( ति प / ४ / १९४३ ), ( ह पृ./५/३१६ ), ( त्रि. सा. / ६२०), (ज. ५/४/६१) इनमें भी नन्दन सके भवनोपय सोम आदि लोकपाल क्रीडा करते है । (त्रि सा / ६२१) | चारो विदिशाओं मे चार-चार पुष्करिणी है । (पि./४/१६४६ २६६२-१६६६).
२. जम्बूद्वीप निर्देश
( रा. वा /३/१०/१३/१८०/७) । पूर्वादि चारो दिशाओमे चार जिनभवन है (दि.१/४/१९६०). (४.५/२/२२७); (त्रि. सा. /६११ ); (ज. प. / ४ / ६४ ) । प्रत्येक जिन मन्दिर सम्बन्धी बाह्य कोटों के बाहर उसके दोनों कोनोंपर एक-एक करके कुल आठ कूट है। जिनपर दिक्कुमारी देवियाँ रहती है (दे० लोक /२/२) इसकी ईशान दिशामे बलभद्र नामका कूट है जो ५०० योजन तो बनके भीतर है और ५०० योजन उसके बाहर जाकाशमें निकला हुआ है । ति प / ४ / १६८१), (ज. प / ४ / १०१), इसपर बलभद्र देव रहता है। (ति प /४/१६४) मतान्तरकी अपेक्षा इस मनमें आठ कूट कूट नहीं है (रा. मा/३/१०/१३/१८०/८) । व बलभद्र । (दे सामनेवाला चित्र ) । ४. सौमनस वनसे १६००० योजन ऊपर जाकर मेरुके शीर्ष पर चौथा पाण्डुक वन है । (दे० लोक /०/६१) जो भूमिकाको पेटित करके शीर्मपर स्थित है (टि. १४) इसके दो विभाग है-पाण्डुक उप पाण्डुक । ( ति प /४/१८०६ ), ( ह पु/५/३०६ ) | इसके चारों दिशाओमे लोहित अंजन हरिद्र और पाण्डुक नामके चार भवन हैं जिनमें सोम आदि लोकपाल क्रीडा करते है। (ति १४/१८६६ १०५०); (ह पु. / ५ / ३२२ ), (त्रि. सा. / ६२० ), ( ज. प /४/१३ ), चारों विदिशाओमे चार-चार करके १६ पुष्करिणियाँ है । ( रा वा /३/१०/१६/१८०/२६ ) | वनके मध्य चूलिकाकी चारों दिशाओमे चार जिनभवन है । ( ति प /४/१८५५. १६३५ ); (रा. वा/३/१०/१२/१८०/२०) (१.१/२/१५४) (त्रि सा / ६९९ ) (४४) बनी ईशान आदि दिशाओ में अर्थ चन्द्राकार चार खिलाएँ है-पाक शिला पाण्डुर्वक्ता शिक्षा, रफता शिला, और रक्तशिला । रा वा के अनुसार ये चारो पूर्वादि दिशाओमे स्थित है। ( ति प /४/१८१८ १८३० - १८३४ ), ( रा वा /३/१०/१३/१०/१५ ), (इ पु/५/३४०), प्रसा०३). (१/४/१३०-१४९) इन सिताऑपर कमसे भरत. अपर निदेह, ऐरावत और विदेहके तीर्थंकरोका जन्माभिषेक होता है ( ति.
४/१०२०१०३१-१८३५) ( रा वा /३/१०/११/१८०/२२ ) (ह. पु. / ५ / ३५३), (त्रि. सा./६३४ ); (ज. प./४/१४८-१५० ) ।
चित्र सं०- १६
पाण्डुक वन
पाण्डुक वन
पूर्व विदेह के तीर्थकर
हरिद्र भवन, वरुण देव
4
रक्त शिला
रक्त
जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश
age
कुबेर देव पाण्डुक भवन
G
चूलिका
१२ यो०
कम्बला शिला*.
ऐरावत क्षेत्र के तीर्थकर
EE
भरत क्षेत्र के तीर्थकर पाण्डुक शिला
SUNIL P
1901
ACADE
पुष्करिणये
Ep
कम्बला शिल्
लोहित भवन सोमदेव
-90002710 अजन भवन ( उस उस शिला पर उस उस यम देव
क्षेत्र के तीर्थकरों का जन्माभिषेक होता है
★ अपर विदेह के तीर्थकर
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छोक
दिक्कुमारी देवियां
1.
४५१
नन्दन व सोमनस वन (दृष्टि सं० १)
-
चित्र सं० - १०
.
श्री भद्रा
Wind
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4 bata pral
पुष्करिणिये
Top
Ww अनीक ३. महत्तर top to 10,
11. सागर चित्र will
श्री महिला || श्री निलया
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Www Www दिवकुमारी देवियां ।
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वज्र
श्रीकान्त
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Sheng Beleefe is lefe W WA
सुमेरु पर्वत
• नन्दन वन के बीच ३२७२ या सौमनस वन के बीच ८३५४
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प्रत्येक पुष्करिणी मे इन्द्र के क्रीडा भवन है
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The pop a y ५.७ pp आत्मरक्ष वरुण pop to pooto to tops
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Vault हिमवान् // // दिक्कुमारी देविया' V
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अनीक महत्त
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/ निषेध - पुष्करिणये WWW.H
जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश
१००० यो
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चित्र सं०-९० इस वन की पुष्करिणी में इन्द्र सभा की रचना
(ह-पु | ४ | ३८३४०)
VILL
५०० सो०
कुमुद प्रभा
नन्दन
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मन्दर
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प्रायस्त्रिश 2000
दिक्कुमारी देविया
३. जम्बूद्वीप निर्देश
ककक ककक
इन्द्र 20 सोम ) आत्मरक्षक p
o w.www toop poww
१- द्वि० दृष्टिने बलभद्र कूट नन्दन वनमे ही है, तथा उसका विस्तार व ऊंचाई १००, १०० योजन है। २- द्वि० दृष्टिसे कुबेर आदि लोकपालोके ४ भवनोंको ४ गुफाए कहा गया है। ३- प्रथम द्वाष्टसे चैत्यालयों के कोनोंवाले
सौमस वनमे हैं और द्वि दृष्टिसे नन्दन वनमें।
४. पूर्व दिशाको आदि लेकर सोम आदि लोके ४ कूटोक नाम प्रथम दृष्टिसे क्रमश मान, धारण,
गन्धर्व व चित्र हैं, तथा द्वि० दृष्टिसे वज़, वज्रमय, स्वर्ण व स्वर्णप्रभ है ।
66
02
एक अमीक 100 210
महत्तर
क
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लोक
४५२
३. जम्बूद्वीप निर्देश ७. पाण्डुकशिला निर्देश
८. अन्य पर्वतोंका निर्देश पाण्डुक शिला १०० योजन लम्बी ५० योजन चौडी है, मध्यमे ८ १ भरत, ऐरावत व विदेह इन तीनको छोडकर शेष हैमवत आदि योजन ऊँची है और दोनों ओर क्रमश हीन होती गयी है। इस
चार क्षेत्रोके बहुमध्य भागमें एक-एक नाभिगिरि है। (हे. पु//
१६१), (त्रि सा./७१८-०१६), (ज.प/३/२०६); (वि. दे० प्रकार यह अर्धचन्द्राकार है। इसके बहुमध्य देशमें तीन पीठ युक्त
लोक/k)। ये चारो पर्वत ऊपर-नीचे समान गोल आकार वाले है। एक सिंहासन है और सिंहासनके दोनो पार्श्व भागोमे तीन पीठ (ति प./४।१७०४), (त्रि. सा./७१८), (ज. प /३/२१०)। युक्त ही एक भद्रासन है । भगवान के जन्माभिषेकके अवसरपर
चित्र सं०-२१ सौधर्म व ऐशानेन्द्र दोनों इन्द्र भद्रासनोंपर स्थित होते हैं और
स्वाति देवका विहार स्थान, भगवानको मध्य सिहासनपर विराजमान करते हैं। (ति.प./४/
नाभि गिरि १८१६-१८२६). (रा. वा./३/१०/१३/१८०/२०); (ह. पू./२/३४६-३९२); (त्रि. सा./६३५-६३६), (ज.प./४/१४२-१४७)।
दृष्टि नं.१
6460 यो न दृष्टि नं.२
चित्र-२०
STAGE0या
पाण्डुक शिला
20०० यो
-2000यो
दीव
भद्रासन
सिंहासन
भद्रासन
V-AVHAVITA
च्यो०
तोरणद्वार २. मेरु पर्वतकी विदिशाओं में हाथी के दॉतके आकारवाले चार गजदन्त पर्वत हैं। जो एक ओर तो निषध व नील कुलाचलोको और दूसरी तरफ मेरुको स्पर्श करते है। तहाँ भी मेरु पर्वतके मध्यप्रदेशमें केवल एक-एक प्रदेश उससे संलग्न है। (ति, प./४/२०१२-२०१४) । ति. प. के अनुसार इन पर्वतोके परभाग भद्रशाल वनकी वेदीको स्पर्श करते है, क्योकि वहाँ उनके मध्यका अन्तराल ५३००० यो० बताया गया है। तथा सग्गायणीके अनुसार उन वेदियोसै ५०० यो० हटकर स्थित है, क्योकि वहाँ उनके मध्यका अन्तराल ५२००० यो० बताया है। (दे० लोक/६/३ में देवकुरुव उत्तरकुरुका विस्तार)। अपनी-अपनी मान्यताके अनुसार उन वायव्य आदि दिशाओमें जो-जो भी नामवाले पर्वत है, उनपर क्रमसे ७,६,७६ कूट है (ति.प./४/२०३१, २०४६, २०५८, २०६०); (ह.पु/१/२१६),(विशेष दे० लोक/५/३)। मतान्तरसे इन पर क्रमसे ७,१०,७,६ कूट है। (रा. वा/३/१०/१३/१७३/२३,३०,१४,१८)। चित्र सं०-२२ गजदन्त
नील पर्वत नोट दृष्टिनर की अपेक्षा ऊँचाई
Peo यो द्रष्टिनं.२ दोनो तरफ ५०० यो० है।
(भद्रासन मी २५०१० (इसीके तुल्य है।
सिहास
---५००/
UHMA
५००००
HERE यो
INDIA
-५०० योले
जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश
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लोक
४५३
३. जम्बूद्वीप निर्देश
ईशान व नैऋत्य दिशावाले विद्युत्प्रभ व माल्यवान गजदन्तोके मूलमे सीता व सीतोदा नदियोके निकलनेके लिए एक-एक गुफा होती है। (ति, प /४/२०५५,२०६३)।
३ देवकुरु व उत्तरकुरुमें सीतोदा व सीता नदीके दोनो तटोपर एक यमक पर्वत है (दे० आगे लोक/३/१२)। ये गोल आकार वाले है। (दे० लोक/६/४ में इनका विस्तार)। इनपर इन-इनके नामवाले व्यन्तरदेव सपरिवार रहते है । (ति. प/४/२०८४), (रा. वा./३/१०/१३/१७४/२८)। उनके प्रासादों का सर्वकथन पद्मद्रहके कमलोंवत् है । (ज.प/६/१२-१०२) । ४ उन्ही देवकुरु व उत्तरकुरुमें स्थित द्रहोके दोनो पार्श्वभागो में काचन शैल स्थित है। (दे० आगे लोक/३/१२)। ये पर्वत गोल आकार वाले है। (दे० लोक/६/४ मे इनका विस्तार)। इनके ऊपर काचन नामक व्यन्तरदेव रहते है। (ति. प./४/
चित्र सं०-२३
यमक व कांचन गिरि यमक देव जी काचनदेव जान
५०० यो
के ७५० यो.
AMANMata.OOR
-१००० यो
१०० यो
९. दह निर्देश १. हिमवान पर्वतके शीषपर बीचोबीच पद्म नामका द्रह है। ( दे० लोक/३/४ )। इसके तट पर चारो कोनों पर तथा उत्तर दिशा में ५ कूट है और जल में आठो दिशाओं मे आठ कूट है। (दे० लोक/४/३) ह्रदके मध्यमे एक बडा कमल है, जिसके ११००० पत्ते है । (ति, प./१६६७, १६७०), (त्रि सा./५६६); (ज, प./३/७५); इस कमल पर 'श्री' देवी रहती है (ति.प./४/१६७२); (दे० लोक ३/१.६)। इस प्रधान कमलकी दिशा-विदिशाओमें उसके परिवारके अन्य भी अनेको कमल है। कल कमल १४०११६ है। तहाँ वायव्य, उत्तर व ईशान दिशाओमे कुल ४००० कमल उसके सामानिक देवोके है। पूर्वादि चार दिशाओमें से प्रत्येकमे ४००० ( कुल १६०००) कमल आत्मरक्षकोके है। आग्नेय दिशामें ३२००० कमल आभ्यन्तर पारिषदोके, दक्षिण दिशामें ४०,००० कमल मध्यम पारिषदोके, नैऋत्य दिशामें ४८००० कमल बाह्य पारिषदोके है। पश्चिममें ७ कमल सप्त अनीक महत्तरोके है। तथा दिशा व विदिशाके मध्य आठ अन्तर दिशाओमे १०८ कमल त्रायस्त्रिशों के है। (ति. प,/४/१६७५-१६८१), (रा वा /३/१७-१८५/११); (त्रि. सा./१७२-५७६ ). (ज, प./३/११-१२३)। इसके पूर्व पश्चिम व उत्तर द्वारोसे क्रमसे गंगा, सिन्धु व रोहितास्या नदी निकलती है। (दे० आगे शीर्षक ११) । (दे० चित्र सं. २४, पृ. ४७०)। २. महाहिमवान् आदि शेष पाँच कुलाचलों पर स्थित महापद्म, तिगिंछ, केसरी, महापुण्डरीक और पुण्डरीक नामके ये पाँच द्रह है । (दे० लोक/३/४ ), इन ह्रदोका सर्व कथन कूट कमल आदिका उपरोक्त पद्मदवत हीजानना । विशेषता यह कि तन्निवासिनी देवियो के नाम क्रमसे ही,धृति, कीर्ति, बुद्धि और लक्ष्मी है। (दे० लोक/३/९८६) । व कमलोकी संख्या तिगिछ तक उत्तरोत्तर दूनी है। केसरीकी तिगिछवत्, महापुण्डरीकको महापद्मवत और पुण्डरीककी पद्मवत् है ।(ति.१/४/१७२८-१७२६,१७६१- १७६२:२३३२-२३३३, २३४५-२३६१)। अन्तिम पुण्डरीक दहसे पद्मद्रहवद रक्ता, रक्तोदा व सुवर्णकूला ये तीन नदियाँ निकलती है और शेष द्रहोसे दो-दो नदियाँ केवल उत्तर व दक्षिण द्वारोसे निकलती है। (दे० लोक/३/१७ व ११)। । ति. प. मे महापुण्डरीकके स्थानपर रुक्मि पर्वतपर पुण्डरीक और पुण्डरीकके स्थानपर शिखरी पर्वत पर महापुण्डरीक दह कहा है-(दे० लोक/३/४ )। ३. देवकुरु व उत्तरकुरुमें दस दह हैं। अथवा दूसरी मान्यतासे २० द्रह है। (दे० आगे लोक/३/१२) इनमें देवियोके निवासभूत कमलो आदिका सम्पूर्ण कथन पद्मद्रहवत् जानना (ति. प./४/२०६३, २१२६), (ह. पु./२/१६८-१६६); (त्रि. सा./६५८), (ज. प /६/१२४-१२६)। ये दह नदोके प्रवेश व निकासके द्वारोसे संयुक्त है। (त्रि. सा./६५८)। ४ सुमेरु पर्वतके नन्दन, सौमनस व पाण्डुक वनमें १६, १६ पुष्करिणी हैं, जिनमें सपरिवार सौधर्म व ऐशानेन्द्र क्रीडा करते है। तहाँ मध्यमे इन्द्रका आसन है। उसकी चारो दिशाओमें चार आसन लोकपालोके है, दक्षिणमें एक आसन प्रतीन्द्रका, अग्रभागमें आठ आसन अग्रमहिषियोके, वायव्य और ईशान दिशामे ८४००,००० आसन सामानिक देवोके, आग्नेय दिशामे १२००,००० आसन अभ्यन्तर पारिषदोसे, दक्षिणमें १४००,००० आसन मध्यम पारिषदोके, नैऋत्य दिशामें १६००,००० आसन बाह्य पारिषदोके, तथा उसी दिशामै ३३ आसन त्रायस्त्रिशों के, पश्चिममें छह आसन महत्तरोके और एक आसन महत्तरिकाका है। मूल मध्य सिहासनके चारों दिशाओमें ८४००० आसन अंगरक्षकोके है। (इस प्रकार कुल आसन १२६८४०५४ होते है )। (ति. प./४/१६४६-१६६०), (ह. पु./५/३३६-३४२) ।
१००० यो
२०६६), (हपु/३/२०४), (त्रि. सा./६५६) । ५. देवकुरु व उत्तरकुरुके भीतर व बाहर भद्रशाल वनमें सीतोदा व सीता नदीके दोनो तटोपर आठ दिग्गजेन्द्र पर्वत है (दे० लोक/३/१२)। ये गोल आकार वाले है (दे० लोक/६/४ में इनका विस्तार)। इनपर यम व वैश्रवण नामक वाहन देवोंके भवन है। (ति प/४/२१०६, २१०८, २०३१)। उनके नाम पर्वतोंवाले ही है (ह पु/१/२०६), (ज, प/२/८१)। ६ पूर्व व पश्चिम विदेहमें सीता व सीतोदा नदोके दोनो तरफ उत्तर-दक्षिण लम्बायमान, ४,४ करके कुल १६ बक्षार पर्वत है। एक ओर ये निषध व नील पर्वतोको स्पर्श करते है
और दूसरी ओर सीता व सीतोदा नदियोको। (ति प./४/२२००, २२२४, २२३०), (ह.पु /५/२२८-२२२) (और भी दे० आगे लोक/३/१४) । प्रत्येक वक्षार पर चार चार कूट है; नदीकी तरफ सिद्धायतन है और शेष कूटोंपर व्यन्तर देव रहते है। (ति.प./४/ २३०६-२३११); (रा. वा./२/१०/१३/१७६/४), (ह. पू./५/२३४२३५)। इन कूटोका सर्व कथन हिमवान पर्वतके कूटोंवत् है। (रा. वा /३/१०११३/१७६/७)। ७. भरत क्षेत्रके पाँच म्लेच्छ खण्डौमें से उत्तर वाले तीनके मध्यवर्ती खण्डमें बीचों-बीच एक वृषभ गिरि है, जिसपर दिग्विजयके पश्चात चक्रवर्ती अपना नाम अंकित करता है (दे० लोक/३/३)। यह गोल आकार वाला है। (दे०लोक/६/४ में इसका विस्तार) इसी प्रकार विदेहके ३२ क्षेत्रोमें-से प्रत्येक क्षेत्र में भी जानना (दे० लोक/३/१४।।
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३. जम्बूद्वीप निर्देश
उत्तर
वायव्य
चित्र सं० - २४
पश्चिम
-*
-पूर्व
पद्म द्रह
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कमला सतमान महतर
का नया गाना है।
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चित्र सं०-२५ पद्मद्रहका मध्यवर्ती कमल
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यो
को-कोश यो योजन
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१०.कुण्ड निर्देश १. हिमवान् पर्वतके मूलभागसे २५ योजन हटकर गंगा कंड स्थित है। उसके बहुमध्य भागमें एक द्वीप है, जिसके मध्यमें एक शैल है। शैल पर गगा देवीका प्रासाद है। इसीका नगम गगाकूट है । उस कूट के ऊपर एक जिनप्रतिमा है, जिसके शीशपर गंगाकी धारा गिरती है। (ति. प./४/२१६-२३०), (रा वा/३/२२/१/१८७/२६ व १८८/१); (ह. पु./५/१४२); (त्रि. सा./५८६-५८७); (ज.प./३/३४-३७ व १९४-१६२)। २. उसी प्रकार सिन्ध आदि शेष नदियों के पतन स्थानोपर भी अपने-अपने क्षेत्रों में अपने-अपने पर्वतोके नीचे सिन्धु आदि कुण्ड जानने । इनका सम्पूर्ण कथन उपरोक्त गगा कुण्डवत है विशेषता यह कि उन कुण्डोके तथा तन्निवासिनी देवियोके नाम अपनी-अपनी नदियोके समान है। (ति ५/४/२६१-२६२, १६६६), (रा. वा./३/२२/१/१८८/१,१८,२६,२६ +१८८/६,६,१२,१६,२०,२३,२६,२६) । भरत आदि क्षेत्रोमें अपने-अपने पर्वतोसे उन कुण्डोका अन्तराल भी क्रमसे २५,५०,१००,२००,१००.५० २५ योजन है। (ह पु./२/१५१-१५७)1 २.३२ विदेहों में गंगा, सिन्धु व रक्ता रक्तोदा नामवाली ६४ नदियोंके भी अपने-अपने नाम वाले कुण्ड नील व निषध पर्वतके मुलभागमें स्थित है। जिनका सम्पूर्ण वर्णन उपरोक्त गगा कुण्डवत ही है। (रा वा./३/१०/१३/१७६/२४,२६ + १७७/११)।
११. नदी निर्देश १. हिमवान् पर्वतपर पद्मद्रहके पूर्वद्वारसे गंगानदी निकलती है (ति प/४/१६६), (रा. वा./३/२२/१/१८७/२२ ): (ह. पु/५/१३२), (त्रि सा /१८२), (ज प/३/१४७)। द्रहकी पूर्व दिशामें इस नदीके मध्य एक कमलाकार कूट है. जिसमें बला नामकी देवी रहती है। (ति प /४/२०५-२०६); (स. वा/३/२२/२/१८८/३)। द्रहसे ५०० योजन आगे पूर्व दिशामें जाकर पर्वतपर स्थित गगाकूटसे १/२ योजन इधर ही इधर रहकर दक्षिणकी ओर मुड जाती है,
और पर्वत के ऊपर ही उसके अर्ध विस्तार प्रमाण अर्थात ५२३३२ योजन आगे जाकर वृषभाकार प्रणालीको प्राप्त होती है। फिर उसके मुख मे-से निकलती हुई पर्वतके ऊपरसे अधोमुखी होकर उसकी धारा नीचे गिरती है। (ति. प./४/२१०-२१४), (रा. वा/ ३/२२/१/१८७/२२); (ह, पु./१/१३८-१४०), (त्रि सा./५८२५८४), (ज प/३/१४७-१४६)। वहाँ पर्वतके मूलसे २५ योजन हटकर वह धार गंगाकुण्डमे स्थित गगाकूट के ऊपर गिरती है (दे० लोक/३/९) । इस गंगाकुण्डके दक्षिण द्वारसे निकलकर वह उत्तर भारतमें दक्षिणमुखी बहती हुई विजयार्धकी तमिस्र गुफामें प्रवेश करती है (ति. प/४/२३२-२३३); (रा. वा/३/२२/१/१८७/ २७), (ह पु/५/१४८), (त्रि सा/५६१); (ज प./३/१७४)। ['रा, वा' व 'त्रि. सा'में तमित्र गुफाकी बजाय खण्डप्रपात नामकी गुफामें प्रवेश कराया है ] उस गुफाके भीतर वह उन्मग्ना व निमग्ना नदीको अपनेमें समाती हुई (ति, १/४/२४° ). (दे० लोक/३/५) गुफाके दक्षिण द्वारसे निकलकर वह दक्षिण भारतमे उसके आधे विस्तार तक अर्थात् ११९३ योजन तक दक्षिणकी ओर जाती है। तत्पश्चात पूर्व की ओर मुड जाती है
और मागध तीर्थ के स्थानपर लवण सागर में मिल जाती है । (ति. प./४/२४३-२४४); (रा. वा/३/२२/१/१८७/२८), (ह. पु./५/१४८-१४६), (त्रि. सा/५६६)। इसकी परिवार नदियाँ कुल १४००० है । (ति. प /१/२४४), (ह. पु./५/१४६),(दे० लोक/३/१६) ये सब परिवार नदियों म्लेच्छ खण्डमें ही होती हैं आर्यखण्डमे नही ( दे० म्लेच्छ/१)। २. सिन्धुनदीका सम्पूर्ण कथन गंगा नदीवद
३. जम्बूद्वीप निर्देश है । विशेष यह कि पद्माद्रहके पश्चिम द्वारसे निकलती है। इसके भीतरी कमलाकारकूटमें लवणा देवी रहती है। सिन्धुकुण्डमें स्थित सिन्धुकूटपर गिरती है। विजयाध की खण्डप्रपात गुफाको प्राप्त होती है अथवा 'रा-वा' व 'त्रि. सा' की अपेक्षा तमिस्र गुफाको प्राप्त होती है। पश्चिमकी ओर मुडकर प्रभास तीर्थ के स्थानपर पश्चिम लवणसागर में मिलती है। (ति, प./४/२५२-२६४), (रा वा /३/२२/२/ १८७/३१); (ह.पु/५/१५१); (त्रि सा /५६७)-(दे० लोक/३/१८) इसकी परिवार नदियाँ १४००० है (ति प/४/२६४); (दे० लोक/ ३/१६)। ३. हिमवान् पर्वतके ऊपर पद्मद्रहके उत्तर द्वारसे रोहितास्या नदी निकलती है जो उत्तरमुखी ही रहती हुई पर्वतके ऊपर २७६ योजन चलकर पर्वतके उत्तरी किनारेको प्राप्त होती है, फिर गगा नदीवत ही धार बनकर नीचे रोहितास्या लण्डमें स्थित रोहितास्याकूट पर गिरती है। (ति प/४/१६६५), (रा वा ३/२२/३/१८८७); (ह पु/५/१५३ + १६३); (त्रि. सा./५६८) कुण्डके उत्तरी द्वारसे निकलकर उत्तरमुखी बहती हुई वह हैमवत् क्षेत्रके मध्यस्थित नाभिगिरि तक जाती है। परन्तु उससे दो कोस इधर ही रहकर पश्चिमकी और उसकी प्रदक्षिणा देती हुई पश्चिम दिशामे उसके अर्धभागके सम्मुख होती है। वहाँ पश्चिम दिशाकी
ओर मुड जाती है और क्षेत्रके अर्ध आयाम प्रमाण क्षेत्रके बीचोबीच बहती हुई अन्तमें पश्चिम लवणसागरमे मिल जाती है । (ति, प/४/ १७१३-१७१६), (रा. वा./३/२२/२/१८८/११); (ह. पु/५/१६३); (त्रि सा/५६८); (दे० लोक/३/६८) इसकी परिवार नदियौंका प्रमाण २८००० है। (ति ५/४/१७१६), (दे० लोक/३/१९) । ४. महाहिमवान् पर्वतके ऊपर महापद्म हृदके दक्षिण द्वारसे रोहित नदी निकलतो है। दक्षिणमुखी होकर १६०५८५ यो० पर्वतके ऊपर जाती है। बहाँसे पर्वतके नीचे रोहितकुण्डमे गिरती है और दक्षिणमुखी बहती हुई रोहितास्यावत हो हैमवतक्षेत्रमे, नाभिगिरिसे २ कोस इधर रहकर पूर्व दिशाकी और उसकी प्रदक्षिणा देती है। फिर वह पूर्व की ओर मुडकर क्षेत्रके बीच में बहती हुई अन्तमें पूर्व लवणसागरमे 'गिर जाती है। (ति प/४/२७३५-१७३७), (रा. वा./३/२२/४/१८८/१५), (ह पु/५/१५४+१६३), (ज प/३/२१२), (दे० लोक/३/१८)। इसकी परिवार नदियाँ २८००० है। (ति प/४/१७३७), (दे० लोक/३/१३)।५ महाहिमवान् पर्वतके ऊपर महापद्म हदके उत्तर द्वारसे हरिकान्ता नदी निकलती है। वह उत्तरमुखी होकर पर्वतपर १६०५५ यो० चलकर नीचे हरिकान्ता कुण्डमें गिरती है। वहाँसे उत्तरमुखी बहती हुई हरिक्षेत्रके नाभिगिरिको प्राप्त हो उससे दो कोस इधर ही रहकर उसकी प्रदक्षिणा देती हुई पश्चिमकी ओर मुड जाती है और क्षेत्रके बीचोबीच बहती हुई पश्चिम लवण सागरमे मिल जाती है। (ति. प./४/१७४७-१७४६ ), (रा. वा/३/२२/१/१८८/ १९), (ह पु./५/१५१ + १६३ ) । (दे० लोक/३/१८) इसकी परिवार नदियाँ ५६००० है (ति.प/४/१७४६); (दे० लोक/३/१-६)।६. निषध पर्वतके तिगिंछद्रहके दक्षिण द्वारसे निकलकर हरित नदी दक्षिणमुखी हो ७४२११ यो० पर्वतके ऊपर जा, नीचे हरित कुण्डमें गिरती है। वहाँसे दक्षिणमुखी बहती हुई हरिक्षेत्रके नाभिगिरिको प्राप्त हो उससे दो कोस इधर ही रहकर उसकी प्रदक्षिणा देती हुई पूर्व की ओर मुड जाती है। और क्षेत्रके बीचोबीच बहती हुई पूर्व लबणसागरमें गिरती है। (ति. प./४/१७७०-१७७२), (रा. वा/ ३/२२/६/१८८/२७).(ह. पु/११५६+१६३), (दे० लोक/३/१०८) इसकी परिवार नदियाँ ५६००० है। (ति प./४/१७७२), (दे० लोक/३/१६) ७. निषध पर्वतके तिगिछहदके उत्तर द्वारसे सीतादा नदी निकलती है, जो उत्तरमुखी हो पर्वतके ऊपर ७४२१३ यो० जाकर नीचे विदेहक्षेत्र में स्थित सीतोदा कुण्डमें गिरती है। वहाँसे उत्तरमुखी बहती
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३. जम्बूद्वीप निर्देश
स्थित है। (रा. वा./३/१०/१३/१७६/१२)। प्रत्येक नदीका परिवार २८००० नदी प्रमाण है। (ति. प/४/२२३२); (रा.वा/३/१०/१३२/ १७६/१४)।
हुई वह सुमेरु पर्वत तक पहुंचकर उससे दो कोस इधर ही पश्चिमकी
ओर उसको प्रदक्षिणा देती हुई, विद्य त्प्रभ गजदन्तकी गुफामे से निकलती है। सुमेरुके अर्धभागके सम्मुख हो वह पश्चिमकी ओर मुड जाती है। और पश्चिम विदेहके बीचोबीच बहती हुई अन्तमें पश्चिम लवणसागर में मिल जाती है । (ति.प.४/२०६५-२०७३); (रा. वा./३/२२/७/१८८/३२),(ह. पु./५/१५७+ १६३ ). (दे० लोक/३/८)। इसकी सर्व परिवार नदियाँ देवकुरुमें ८४००० और पश्चिम विदेहमें ४४८०३८ ( कुल ५३२०३८ ) है (विभगाकी परिवार नदियाँ न गिनकर लोक/३/२/३ वद); (ति, प/४/२०७१-२०७२) लोक/३/११की अपेक्षा ११२००० है। ८.सीता नदीका सर्व कथन सीतोदावत् जानना । विशेषता यह कि नील पर्वतके केसरी द्रहके दक्षिण द्वारसे निकलती है। सीता कुण्ड में गिरती है। माल्यवान गजदन्तकी गुफासे निकलतो है। पूर्व विदेहमें से बहती हुई पूर्व सागरमें मिलती है। (ति. प.//४/२११६-२१२१), (रा. वा/ ३/२२/८/१८६/-); (ह. पु./१/१५६); (ज प/६/५५-५६); (दे० लोक/३/१.८) इसकोपरिवार नदियाँ भी सीतोदावत् जानना । (ति. प./४/२१२१-२१२२) ।६. नरकान्ता नदीका सम्पूर्ण कथन हरितवत है। विशेषता यह कि नीलपर्वतके केसरी द्रहके उत्तर द्वारसे निकलती है, पश्चिमी रम्यकक्षेत्रके बीच में से बहती है और पश्चिम सागरमे मिलती है। (ति प./४/२३३७-२३३६), (रा. वा./३/२२/६/ १८६/११); (ह. पु/१/१५६),(दे० लोक/३/१८)। १०. नारो नदी का सम्पूर्ण कथन हरिकान्तावत है। विशेषता यह कि रुक्मिपर्वतके महापुण्डरीक (ति. प. की अपेक्षा पुण्डरीक) द्रहके दक्षिण द्वारसे निकलती है और पूर्व रम्यकक्षेत्रमे बहती हुई पूर्वसागर में मिलती है। (ति. ५/४/२३४७-२३४६ ); ( रा. वा /३/२२/१०/१८६/१४ ): ( ह. पु./ ५/१५६), (दे० लोक/३/५८) ११. रूप्यकूला नदीका सम्पूर्ण कथन रोहितनदोबत है। विशेषता यह कि यह रुक्मि पर्वतके महापुण्डरीक हृदके (ति. प. की अपेक्षा पुण्डरीकके ) उत्तर द्वारसे निकलती है
और पश्चिम हैरण्यवत क्षेत्रमें बहती हुई पश्चिमसागरमें मिलती है। (ति. प/४/२३५२ ); ( रा. वा /३/२२/११/१८६/१८), (ह पू|
११५६);(दे० लोक/३/१८)। १२. सुवर्णकूला नदीका सम्पूर्ण कथन रोहितास्या नदीवत है। विशेषता यह कि यह शिखरीके पुण्डरीक (ति. प. की अपेक्षा महापुण्डरीक ) ह्रदके दक्षिणद्वारसे निकलती है और पूर्वी हैरण्यवत् क्षेत्रमे बहती हुई पूर्वसागरमें मिलजाती है। (ति. प/४/२३६२), (रा. वा /३/२२/१२/१८४/२१); (ह. पु./३/१५६);(दे० लोक/३/१.८)। १३-१४. रक्ता व रक्तोदाका सम्पूर्ण कथन गंगा व सिन्धुवत है। विशेषता यह कि ये शिखरी पर्वतके महापुण्डरीक (ति प. की अपेक्षा पुण्डरीक ) ह्रदके पूर्व
और पश्चिम द्वारसे निकलती है। इनके भीतरी कमलाकार कूटोके पर्वतके नीचेवाले कुण्डो व कूटोके नाम रक्ता व रक्तोदा है। ऐरावत क्षेत्रके पूर्व व पश्चिममें बहती है । (ति. प./४/२३६७); (रा. वा/३/ २२/१३-१४/१८६/२५,२८); (ह.पु/२/१५६), (त्रि. सा/५६६); (दे० लोक/३/१८)।१५. विदेहके ३२ क्षेत्रो में भी गंगा नदीकी भाँति गंगा, सिन्धु व रक्ता-रक्तोदा नामकी क्षेत्र नदियाँ (दे० लोक/३/१४)। इनका सम्पूर्ण कथन गंगानदीवत जानना। (ति.प./४/२२६३): (रा. वा./३/१०/१३/१७६/२७), (ह. पू./१/१६८); (त्रि. सा./ ६६१); (ज. प./७/२२)। इन नदियोकी भी परिवार नदियाँ १४०००,१४००० है । (ति. प./४/२२६५), (रा. वा./३/१०/१३/१७६/ २८)। १६. पूर्व व पश्चिम विदेहमे-से प्रत्येकमें सीता व सीतोदा नदीके दोनों तरफ तीन तीन करके क्लल १२ विभंगा नदियाँ है। ( दे०लोक/३/१४ )ये सब नदियाँ निषध या नील पर्वतोसे निकलकर सीतोदा या सीता नदियों में प्रवेश करती है (ह पु/१/२३६-२४३) ये नदियाँ जिन कुण्डोंसे निकलती हैं वे नील व निषध पर्वतके ऊपर
१२. देवकुरु व उत्तरकुरु निर्देश १. जम्बूद्वीपके मध्यवर्ती चौथे नम्बरवाले विदेहक्षेत्रके बहुमध्य प्रदेश में सुमेरु पर्वत स्थित है। उसके दक्षिण व निषध पर्वतको उत्तर दिशा. में देवकुरु तथा उसकी उत्तर व नीलपर्वतको दक्षिण दिशामें उत्तरकुरु स्थित हैं (दे० लोक/३/३) । सुमेरु पर्वतकी चारो दिशाओमें चार गजदन्त पर्वत है जो एक ओर तो निषध व नील कुलाचलोंको स्पर्श करते है और दूसरी और सुमेरुको-दे० लोक /३/८। अपनी पूर्व व पश्चिम दिशामें ये दो कुरु इनमें से ही दो-दो गजदन्त पर्वतोंसे घिरे हुए है। (ति, प./४/२१३१,२१६१), (ह. पु./२०१६७); (ज. प/६/२,८१) । २. तहाँ देवकुरुमें निषधपर्वतसे १००० योजन उत्तरमें जाकर सीतोदा नदीके दोनों तटोपर यमक नामके दो शैल है, जिनका मध्य अन्तराल ५०० योजन है। अर्थात् नदीके तटोसे नदीके अर्ध विस्तारसे होन २२५ यो० हटकर स्थित है। (ति. प./४/२०७५-२०७७ ); (रा. वा./३/१०/१३/१७५/२६); (ह. पु./२/१९२); (त्रि. सा.६५४-६५५); (ज, प/६/८७)। इसी प्रकार उत्तर कुरुमें नील पर्वतके दक्षिण में १००० योजन जाकर सीतानदोके दोनो तटोपर दो यमक है। (ति.प./ ४/२१२३-२१२४). (रा. वा/३/१०/१३/१७४/२५); ( ह. पु./५/१६१); (त्रि सा./६५४); (ज.प./६/१५-१८)। ३. इन यमकोसे ५०० योजन उत्तरमें जाकर देवकुरुकी सोतोदा नदीके मध्य उत्तर दक्षिण लम्बायमान द्रह है। (ति. प/४/२०१६); (रा. वा./३/१०११३/१७५/२८); (ह. पु९ि६६), (ज. प./६/८३) । मतान्तरसे कुलाचलसे १५० योजन दूरीपर पहला द्रह है। (ह. पु./५/१६४)। ये द्रह नदियों के प्रवेश व निकास द्वारों से संयुक्त है। (त्रि. सा./६५)। [ तात्पर्य यह है कि यहाँ नदीकी चौड़ाई तो कम है और ह्रदोंकी चौडाई अधिक । सीतोदा नदी ह्रदोके दक्षिण द्वारोंसे प्रवेश करके उनके उत्तरी द्वारोसे बाहर निकल जाती है। ह्रद नदी के दोनों पार्श्व भागों में निकले रहते हैं। अन्तिम द्रहसे २०९२१ योजन उत्तरमें जाकर पूर्व व पश्चिम गजदन्तोंकी वनकी वेदी आ जाती है । (ति. प/४/२१००-२१०१); (त्रि. सा./६६०)। इसी प्रकार उत्तरकुरुमें भी सीता नदीके मध्य ५ द्रह जानना । उनका सम्पूर्ण वर्णन उपरोक्तवत् है। (ति ५/४/२१२५ ), (रा. वा./३/१०/१३/१४/२६); (ह. पु./१/१९४); (ज प /६/२६) । [इस प्रकार दोनों कुरुओंमें कुल १० द्रह हैं। परन्तु मतान्तरसे द्रह २० हैं]-मेरु पर्वतको चारो दिशाओंमें से प्रत्येक दिशामें पाँच है। उपरोक्तवत ५०० योजन अन्तरालसे सीता व सोतोदा नदीमें ही स्थित है। (ति प./१/२१३६); (त्रि.सा./६५६)। इनके नाम ऊपर वालोंके समान है। -(दे०/लोक/५)। ४ दस द्रह वाली प्रथम मान्यताके अनुसार प्रत्येक दहके पूर्व व पश्चिम तटोपर दसदस करके कुल २०० कांचन शैल हैं। (ति. प./४/२०१४-२१२६); (रा. वा /३/१०/१३/१७४/२+७१५/१); (ह. पु./१/२००); (ज. प. 1६/४४,१४४ )। पर २० द्रहो वाली दूसरी मान्यताके अनुसार प्रत्येक द्रहके दोनों पार्श्व भागों में पाँच-पाँच करके कुल २०० कांचन शैल है। (ति.प./२/२१३७ ); (त्रि सा/६५६)। ५. देवकुरु व उत्तरकुरुके भीतर भद्रशाल बनमें सीतोदा व सीता नदीके पूर्व व पश्चिम तटोंपर, तथा इन कुरुक्षेत्रोसे बाहर भद्रशाल धनमें उक्त दोनों नदियों के उत्तर व दक्षिण तटोंपर एक-एक करके कुल ८ दिग्गजेन्द्र पर्वत है। (ति प./४/२१०३, २११२, २१३०, २१३४ ), (रा. वा./३/१०/१३/१७८/५); (ह. पु/५/२०५-२०६); (त्रि. सा./६६१); (ज. प./४/७४)। ६. देवकुरुमें मुमेरुके दक्षिण भाग;
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३. जम्बूद्वीप निर्देश
वायव्य
लोक __ चित्र सं०-२६ देवकुरुव उत्तर कुरु
लोक चूडामणि नामका चैत्यालय नोट- पर्वतो आदि के वर्ण-माल्पवान वैयवत् नील, सौमनस- रजतवत् श्वेत,
विद्युतप्रभ तपनीयवत् रक्त, गन्धमादन ब बनवेदी-हेमबतीत । दृष्टिभेद-१.गजवन्तोके अवस्थान क्रममे अन्तर-(दे० लोक/५३)।
२ इमपर स्थित कुटोके प्रमाण वनामोमे अन्तर-(दे० लोक/५४)। ३. मेहको चारो विशाओमे नदियोके बीच ५-५ करके कुल २०द्रह है-दे०लोक/३.८) ४ इस शतके अनुसार प्रत्येक दहके दोनो पाश्र्व भागो मे ५.५ कानन गिरि है-(दे. लोक/३ ७)
ईशान
उत्तर
दक्षिण
पश्चिम
कच्छा देश
indi देश मगलावती
+-३३६८४६. यो
रजत पूर्णभद्र सीता हरिसह
वेड्यंवत् नील
5-40 यो माल्यवान
रजतवत् खेत कांचन विशिष्ट
(सौमनस
AMAYALAVAN
कच्छरसागर/रजत
MAH
= = = सीता नदी -२२००० यो०+
मगलविमलको
जम्बूवृक्ष स्थल
. देवकुरु
मनस देवकुरुमग
+-३८२०ीयो०
ॐ
-३०२०४यो .
<
पद्मोत्तर Oदिग्गजेन्द्र
एनील दिग्गजेन्द्र
.
१) प्रत्येक द्रहकी प्रत्येक बाज़ में
२० काचन शैल
दायतम/माल्यवान
-१०० यो.
→ ११५७२३.यो.
Hसीतानदी
याक(यमकट) ATMकैसरी हुदा
-५३००यो -- 2000 यो. - १२००योo
० यमक (चित्रक्ट)
ReOORI
१०,009 योनि
2017
गाजावास्तिक
HOMoदिग्गजेन्द्र
ETTE
..
-५०वयो०सीतोदा नदी
.
.
.
.
.
.
२००यो.
१०० यो०
दिग्गजेन्द्र
प्रत्येक अन्तराल-५०० यो । वापी-1000x५०० यो मन
सिदायतन301009
TAS
==
उत्तरकुरगंधमादन सिदायतन RY
(विचित्रकूट) यमक O
यो०
पद्म देवकुरुविधामा
---३०२०ीयो०
-
*-३०२०/
उत्तर कुरु
-
Yलोहित मंधव्यास उत्तरकुर
WENDINNWARL
-
==
-
-२२००० यो०- दिजेन्द्र Eसीतोदा नदी ====
-
स्वस्तिक तपनपद्मा
हरि सीतादा) रात उच्चस्ता
I/-orded) शाल्मली वृक्षस्थल विद्युत्प्रम/
--
*
भद्रशालवन
/
आनन्द
गधमादन -५०० यो.
देवारण्यक वन
नील पर्वत ।
हमवन पीते
-
.-- +-३३६८४यो
| वनवेदी
.L --
देश गन्धमालिनी
निषध पर्वत
पद्या देश
जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश
भा० ३-५८
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लोक
३. जम्बूद्वीप निर्देश
चित्र सं०-३० पीठ पर स्थित मूलवृक्ष
AYAT
सीतोदा नदीके पश्चिम तटपर तथा उत्तरकुरुमें सुमेरुके उत्तर भागमें सीता नदीके पूर्व तटपर, तथा इसी प्रकार दोनो कुरुओसे बाहर मेरुके पश्चिममें सीतोदाके उत्तर तटपर और मेरुकी पूर्वदिशामें सीता नदोके दक्षिण तटपर एक-एक करके चार त्रिभुवन चूड़ामणि नाम वाले जिन भवन है। (ति. प./४/२००६-२१११+ २१३२-२१३३)। ७ निषध व नील पर्वतोंसे संलग्न सम्पूर्ण विदेह क्षेत्रके विस्तार समान लम्बी, दक्षिण उत्तर लम्बायमान भद्रशाल वनको वेदी है। (ति प./४/२११४) । ५. देवकुरुमें निषध पर्वतके उत्तरमें, विद्युत्प्रभ गजदन्तके पूर्व में, सीतोदाके पश्चिममें और सुमेरुके नैऋत्य दिशामें शाल्मली वृक्षस्थल है। (ति. प./४/२१४६-२१४७); (रा वा./३/१०/१२/१७५/२३), (ह. पु./१/१८७); (विशेष दे० आगे/लोक/३/१) सुमेरुकी ईशान दिशामें, नील पर्वतके दक्षिणमें, माण्यवंत गजदन्तके पश्चिममे, सीता नदीके पूर्वमे जम्बू वृक्षस्थल है। (ति. प./४/२१६४-२१६५); (रा. वा / ३/१०/१३/१७/७ ); (ह. पु/१/१७२ ): (त्रि. सा./६३६), (ज.प/६१५७)। १३. जम्बू व शाल्मली वृक्षस्थल
MANAINMAY
न
AE
यो
-
१. देवकुरु व उत्तरकुरुमें प्रसिद्ध शाल्मली व जम्बृवृक्ष है। (दे० लोक/३/१२ये वृक्ष पृथिवीमयो है (दे० वृक्ष ) तहाँ शाल्मली या जम्बू वृक्षका सामान्यस्थल ५०० योजन विस्तार युक्त होता है। तथा मध्यमें ८ योजन और किनारोंपर २ कोस मोटा है। (ति प| ४/२१४८-२१४६), (ह. पु./२/१७४); (त्रि सा/६४०)। मतान्तरको अपेक्षा वह मध्यमें १२ योजन और किनारोंपर २ कोस मोटा
+-२यो०→
पीठ रजत ममी है (तिस1४/२१५२)
नोट -शाल्मली वृक्षा में जिनभवन दक्षिण शारवा पर है और जम्बू वृक्ष
उत्तर शारवा पर
___ चित्र सं.-२६
सामान्य स्थल
---५०० यो..
है। (रा वा./३/७/१/१६६/१८); (ज. प./६/५८, १४६)। २. यह स्थल चारो ओरसे स्वर्णमयी वेदिकासे वेष्टित है। इसके बहुमध्य भागमें एक पीठ है, जो आठ योजन ऊँचा है तथा मूलमें १२ और ऊपर ४ योजन विस्तृत है। पीठके मध्य में मूलवृक्ष है, जो कुल आठ योजन ऊँचा है। उसका स्कन्ध दो योजन ऊंचा तथा एक कोस मोटा है। (ति प./४/२१५१-२१५५), (रा. वा/३/७/१/ १६६/१६), (ह पु/५/१७३-१७७ ); (त्रि. सा./६३६-६४१/६४८); (ज प/६/६०-६४, १५४-१५५)। ३ इस वृक्षकी चारो दिशाओ में छह-छह योजन लम्बी तथा इतने ही अन्तरालसे स्थित चार महाशाखाएँ है। शाल्मली वृक्षको दक्षिण शाखापर और जम्बूवृक्षकी उत्तर शाखापर जिनभवन है। शेष तीन शाखाओंपर व्यन्तर देवोंके भवन हैं। तहाँ शाल्मली वृक्षपर वेणु व वेणुधारी तथा जम्बू वृक्षपर इस द्वीपके रक्षक आदृत व अनादृत नामके देव रहते है। (ति, प/४/२१५६-२१६५-२१६६ ): (रा वा/३/१०/१३/१७४/७+१७५/२५),(ह. पु./५/१७७-१८२+१८६), (त्रि. सा./६४७-६४६+६५२); (ज. प./६/६५-६७-८६; १५६-१६०)।
४, इस स्थल पर एकके पीछे एक करके १२ वेदियाँ है, जिनके बीच १२ भूमियाँ हैं। यहाँ पर ह. पु में वापियों आदि वाली ५ भूमियोको छोडकर केवल परिवार वृक्षों वाली ७ भूमियों बतायी है। (ति. प./४/१२६७ ), (ह पु/५/१८३); (त्रि. सा./६४१); (ज प./६/१५१-१५२)। इन सात भूमियोंमें आदृत युगल या वेणुयुगलके परिवार देवोंके वृक्ष है। ५. तहाँ प्रथम भूमिके मध्य में उपरोक्त मूल वृक्ष स्थित है। द्वितीयमें वन-बापिकाएँ है। तृतीयकी प्रत्येक दिशामें २७ करके कुल १०८ वृक्ष महामान्यों अर्थात त्रायस्त्रिशोके है। चतुर्थ की चारों दिशाओं में चार द्वार है, जिनपर स्थित वृक्षोपर उसकी देवियाँ रहती हैं। पाँचवी में केवल वापियाँ है। छठी में वनखण्ड है। सातवींकी चारो दिशाओ में कुल १६००० वृक्ष अगरक्षकोके है । अष्टमकी वायव्य, ईशान व उत्तर दिशामें कुल ४००० वृक्ष सामानिकोके है। नवमकी आग्नेय दिशामें कुल ३२००० वृक्ष आभ्यन्तर पारिषदोंके है। दसवींकी दक्षिण दिशामें ४०,००० वृक्ष मध्यम पारिषदोके है। ग्यारहवीं की नैऋत्य दिशामें ४८००० वृक्ष बाह्य पारिषदोके है। बारहबौंकी पश्चिम दिशामें सात वृक्ष अनोक महत्तरोके है। सब वृक्ष मिलकर १४०१२० होते है। (ति प./ ४/२१६९-२१८१), (रा वा./३/१०/१३/१७४/१०), (ह. पु./५/१८३-१८६), (त्रि. सा./६४२-६४६), (ज.प/६/६८-७४,१६२१६७)। ६. स्थलके चारों ओर तीन वन स्वण्ड हैं। प्रथमकी चारो दिशाओमें देवोंके निवासभूत चार प्रासाद है। विदिशाओमें से प्रत्येकमें चार-चार पुष्करिणी है प्रत्येक पुष्करिणीकी चारों दिशाओं में आठ-आठ कूट है। प्रत्येक कूटपर चार-चार प्रासाद है। जिनपर उन आहत आदि देवोंके परिवार देव रहते है। [ रा. वा। मे इसी प्रकार प्रासादों के चारो तरफ भी आठ कूट बताये है ] इन
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लोक
चित्र स० - ३९
४) सप्त अमीक महत्तरोंफे ७ वृक्ष
मानिको के १५०० वृक्ष
600.10 245-19
चित्र सं०-३२
वृक्षकी मूलभूत प्रथम भूमि
PHOOL BED
भूमि स०६
د دهند
of
"Devvvvvv M
ppprod
भूमिसन
भूमिस-ए भूमि स. २०
@ काय पारिषद के ४८००० वृक्ष
भूमिस-१२
भूमिस
ऋद स्पशो के राख ह
6
भूमिश०५
18000000
३० यो० LAOSLOUD.
सामानिको के १००० वृक्ष
आत्मरक्षको के
वन खण्ड
२५०
4444444
४५९
(C) द्वारावर नावस्त्रिशो के २० स
दन
५००.
۵۵۵۵
केवल वापिये देवियो के वृक्ष
२५०
४००० वृक्ष
भूमि २०२
(६) मध्यम परिषदों के ४०००० वृक्ष
Veerere
करणा
Bus to B
मूल वृक्ष भूमिस. १
मायस्त्रिशो के २७ वृक्ष
हारपर दवियों के वृक्ष
@ आत्मरक्षको के ४000 वृक्ष
प्रतीय वन खण्ड द्वितीय वन खण्ड
इन सब पर आहत सु ल या वणु युगल के परिवार देव रहते हैं
7936444anp
vegenpea
उयस्त्रिंशों के २० वृक्ष
द्वार पर देवियों के इस
ان ۵۵۵۰۵
प्रथम वन खण्ड
पीठ के ऊपर स्थित:
मूल वृक्ष
vv
U
6) सामानिको के १५०० वृक्ष
GOOD
Evvvvvvv
जम्बू व शाल्मली वृक्षस्थल
8000080p
जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश
4444040
180083044
५० यो०
קייטנים «
३) आत्मरक्ष को के ४००० वृक्ष
२०
नोट दृष्टि स०२ से ये आठ आठ
कूट वमियोकी चारो दिशाओ में ही है, प्रसादों की दिशाओ मे
नही।
२५० wwwwwww
तर पारिषदों के ३२०
Koth
३. जम्बूद्वीप निर्देश
76777534
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लोक
४६०
४. अन्य द्वीप सागर निर्देश
कूटोंपर उन आदृत युगल या वेणु युगलका परिवार रहता है। (ति. प//२१८४-२१६०), (रा. वा/३/१०/१३/१७४/१८)।
है कि दक्षिणवाले क्षेत्रोमें गंगा-सिन्धु नदियाँ बहती है (ति. प/४/२२६५-२२६६) मतान्तरसे उत्तरीय क्षेत्रोमें गंगा-सिन्धु व दक्षिणी क्षेत्रो में रक्ता-रक्तोदा नदियाँ है। (ति. प./४/२३०४ ); (रा. वा./३/१०/१३/१७६/२८, ३१+१७७/१०), (ह. पु./५/२६७-२६६); (त्रि. सा/4६२)। ३. पूर्व व अपर दोनो विदेहो में प्रत्येक क्षेत्रके सीता सीतोदा नदीके दोनो किनारों पर आर्यखण्डोमें मागध, बरतनु और प्रभास नामवाले तीन-तीन तीर्थस्थान है। (ति. प./४/२३०५-२३०६ ), (रा. वा./३/१०/१३/१७७/१२), (त्रि.सा./६७८) (ज, प./७/१०४)। ४. पश्चिम विदेहके अन्तमें जम्बूद्वीपकी जगतीके पास सीतोदा नदीके दोनो ओर भूतारण्यक वन है । (ति. प./४/२२०३,२३२५), (रा. वा /३/१०/१३/१७७/१); (ह. पु./५/२८१); (त्रि. सा./६७२)। इसी प्रकार पूर्व विदेहके अन्तमें जम्बूद्वीपकी जगतीके पास सीता नदीके दोनो ओर देवारण्यक वन है। (ति. प/४/२३१५-२३१६ ) । (दे.चित्र नं.१३)
१४. विदेहके ३३ क्षेत्र १. पूर्व व पश्चिमको भद्रशाल वनकी वेदियों (दे० लोक/३/१२.७ ) से आगे जाकर सीता सीतोदा नदीके दोनों तरफ चार-चार वक्षारगिरि और तीन-तीन विभंगा नदियाँ एक वक्षार व एक विभगाके क्रमसे स्थित है। इन वक्षार व विभंगाके कारण उन नदियोंके पूर्व व पश्चिम भाग आठ-आठ भागोंमे विभक्त हो जाते है। विदेहके ये ३२ खण्ड उसके ३२ क्षेत्र कहलाते हैं। (ति. प./४/२२००२२०६), (रा,वा /३/१०/१३/१७५/३०+१७७/५,१५,२४); (ह. पु/५/२२८, २४३, २४४); (त्रि, सा./६६५), (ज. प./का पूरा ८ वॉ अधिकार)। २. उत्तरीय पूर्व विदेहका सर्वप्रथम क्षेत्र कच्छा मामका है। (ति.प./४/२२३३), (रा. वा./३/१०/१३/१७६/१४); (ज. प./9/३३)। इनके मध्यमे पूर्वापर लम्बायमान भरत क्षेत्रके बिजयाविव एक विजया पर्वत है। (ति. प./४/२२५७); (रा. वा/१०/१३/१७६/१६) । उसके उत्तर में स्थित नील पर्वतकी वनवेदीके दक्षिण पार्श्वभागमें पूर्व व पश्चिम दिशाओं में दो कुण्ड है, जिनसे रक्ता व रक्तोदा नामकी दो नदियाँ निकलती हैं। दक्षिणमुखी होकर बहती हुई वे विजयार्धकी दोनों गुफाओमें-से निकलकर नीचे सीता नदी में जा मिलती है। जिसके कारण भरत क्षेत्रकी भॉति यह देश भी छह खण्डोमें विभक्त हो गया है। (ति.प/४/२२६२-२२६४), (रा, वा./३/१०/१३/१७६/२३); (ज.प/७/७२) यहाँ भी उत्तर म्लेच्छ खण्डके मध्य एक वृषभगिरि है, जिसपर दिग्विजयके पश्चात चक्रवर्ती अपना नाम अकित करता है। (ति. ५/४/२२६०-२२६१); (त्रि. सा./७१०) इस क्षेत्रके आर्यखण्डकी प्रधान नगरीका नाम क्षेमा है। (ति. प./४/२२६८); (रा, वा/३/१०/१३/१७६/३२) । इस प्रकार प्रत्येक क्षेत्र में दो नदियाँ व एक विजया के कारण छह-छह खण्ड उत्पन्न हो गये है। (ति. प./४/२२६२ ), ( ह पु/३/२६७), (ति. सा./६९१) । विशेष यह चित्र सं०-२७
पश्चिम --पूर्व विदेहका कच्छा क्षेत्र दक्टिो-फाई आचार्य गगा सिन्धुके स्थानपर रक्ता रक्तोदा दिया कहते है।
४. अन्य द्वीप सागर निर्देश
१. लवण सागर निर्देश १ जम्बूद्वीपको घेरकर २००,००० योजन विस्तृत वलयाकार यह प्रथम सागर स्थित है, जो एक नावपर दूसरी नाव मुधी रखनेसे उत्पन्न हुए आकारवाला है। (ति./४/२३६८-२३६६); (रा. वा/३/३२/३/ १६३/८), (ह पु/५/४३०-४४१), (त्रि सा./१०१); (ज. प./१०/ चित्र सं०-३३
सागर तलव पाताल
दृष्टिनर २०००
पूर्णिमा का जल तल द्रष्टिनं. --------- कोस 10.00 यो
- अवस्थित जल तल
Todam.
-200.000-गौ
--
--
चित्रा प्राथवा
-50
--
-
खिर भागका दूसरा पटल
दक्षिणा
नीलपर्व
०-२१
() गंगा कण्ड
गिरि
धूप गिरि देच्छ रसाड मेच्छ रखण्ड
तिमिरर गुफा
बासुकच्क्षा कूट
मेच्छ खण्ड ग्यण्ड प्रपात गुफा
ला
२-४) तथा गोल है। (त्रि. सा/८६७) । २. इसके मध्यतलभागामें चारो ओर १००८ पाताल या विवर है। इनमें ४ उत्कृष्ट, ४ मध्यम
और १००० जघन्य विस्तारवाले हैं। (ति प/४/२४०८,२४०६), (त्रि, सा./८६६ ); ( ज प १०/१२ ) । तटोंसे १५००० योजन भीतर प्रवेश करनेपर चारो दिशाओमें चार ज्येष्ठ पाताल है। १६५०० योजन प्रवेश करनेपर उनके मध्य विदिशामें चार मध्यय पाताल और उनके मध्य प्रत्येक अन्तर दिशामे १२५.१२५ करके १००० जघन्य पाताल मुक्तावली रूपसे स्थित है। (ति, प/४/२४११+२४१४ + २४२८); (रा वा/३/३२/४-६/१९६/१३,२५,३२); ( ह. पु/५/४४२,४५१,४५६) १००,००० योजन गहरे महापाताल नरक सीमन्तक बिलके ऊपर सलग्न है। (ति.प./४/२४१३)। ३. तीनों प्रकारके पातालोकी ऊँचाई तीन बराबर भागोंमें विभक्त है। तहाँ निचले भागमें वायु, उपरले भागमे जल और मध्यके भागमें यथायोग रूपसे जल व वायु दोनो रहते है। (ति. प./४/२४३०), (रा. वा./३/३२/४-६/१६६/१७, २८,३२); (ह. पु./५/४४६-४४७), (त्रि. सा./८ ), (ज.प./१०/ ६-८) ४ मध्य भागमें जल व वायुको हानि वृद्धि होती रहती है। शुक्ल पक्षमें प्रतिदिन २२२२३ योजन वायु बदती है और कृष्ण पक्ष में इतनी ही घटती है । यहाँ तक कि इस पूरे भागमें पूर्णिमाके दिन केवल बायु ही तथा अमावस्याको केवल जल ही रहता है । ( ति. ५./
मेळ खण्ड
आर्य खण्डलेच्छ खण्ड
चित्रकूटवार
क्षेमा नगरी
--
-
---
६६५३यो -
यो
५० यो.
जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश
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४. अन्य द्वीप सागर निर्देश
लोक
४६१
चित्र सं०-३५
लवण सागर दृष्टि भेद-सूर्य व चन्द्र द्वीपोको कोई आचार्य
मानते है और कोई नहीं नोट-सागर के ऊपर आकाशमे वेलन्धर
देवो की नगरिया हे
पश्चिम
दक्षिण
-आग्नेय
४
नि मुख
गूग दर्शन
मुख धूक गुल
शादल मुख विद्यत अप इरिन
मागध वरतनु प्रभासदीप
दकवास
भी-००००००n.
००००००००.५पकसी
२५ जघन्य पाताल ०००००००००
000 L
००००000
१२५ जघन्य पाताल
००००००००
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०००००००००
...
००००००००
पाताल.००००
मागधः वरतनु प्रभासद 166001
०००००००० Etahathe bio
००००००००
०००.६.000-3 dav ११५ जघन्य पाताल
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कुमानुष ट्रीप
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नवरतनु मागधनाम
०००००००००
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२५ जघन्य पाताल
06.
SoSETTE
कदम्ब
मानुष द्वीपों का विस्तार व तटसे उनका अन्तराल
ति १०४/०४८ लोक दिमाग বিনা। সবম্বিসন
यो यो यो यो
उदफवास
कुमानुष द्वीप
प्रमास वरतन मागधदाम
उत्कृष्ट पाताल
च्छरान
मेव ख मत्स
मध्यमपाताल
१००/५००/१००/५००
५५०
कुमानुष द्वीपोका अवस्थान क्रम - दोनो तटोपर तटसे उक्त अन्तराल छोडकर चार चार द्वीप चारो दिशाओमे, चार चार विदिशाओमे, आठ आठ अन्तर-दिशाओमे, और आठ आठ . विजयार्थी तथा हिमवान व शिखरी पर्वतोके प्रणिधि भागोमे स्थित है।
विशेष दे चित्र स. १३ तथा लोक/४.१
PO जघन्य पाताल
चन्द्रदीप
सूर्य द्वीप A पर्वत
जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश
Page #469
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लोक
४६२
४. अन्य द्वीप सागर निर्देश
४/२४३५-२४३६), (ह. पु./२/४४) पातालोंमें जल व वायुकी इस वृद्धिका कारण नीचे रहनेवाले भवनवासी देवोका उच्छवास नि'श्वास है। (रा वा/३/३२/४/१९३/२०)। ५. पातालो में होनेवाली उपरोक्त वृद्धि हानिसे प्रेरित होकर सागरका जल शुक्ल पक्षमें प्रतिदिन ८००/३ धनुष ऊपर उठता है, और कृष्ण पक्षमे इतना ही घटता है। यहाँ तक कि पूर्णिमा को ४००० धनुष आकाशमें ऊपर उठ जाता है और अमावस्याको पृथिवी तलके समान हो जाता है। (अर्थात ७०० योजन ऊँचा अवस्थित रहता है । ) ति.प./४/२४४०, २४४३) लोगायणीके अनुसार सागर ११००० योजन तो सदा ही पृथिवी तलसे ऊपर अवस्थित रहता है। शुक्ल पक्षमें इसके ऊपर प्रतिदिन ७०० योजन बढ़ता है और कृष्णपक्षमें इतना ही घटता है। यहाँ तक कि पूर्णिमाके दिन ५००० योजन बढकर १६००० योजन हो जाता है और अमावस्याको इतना ही घटकर वह पुनः ११००० योजन रह जाता है। (ति. प./४/२४४६): (रा. वा./३/३२/३/१९३/१०); (ह. पु./५४४३७); (त्रि. सा./800); (ज.प. १०/१८)। ६. समुद्रके दोनों किनारोपर
चित्र - ३४ उत्कृष्ट पाताल
मागध द्वीप, जगतीके अपराजित नामक उत्तर द्वारके सम्मुख बरतनु
और रक्ता नदीके सम्मुख प्रभास द्वीप है। (ति. प./४/२४७३-२४७५); (त्रि सा./६११-६१२), (ज.प/१०/४०)। इसी प्रकार ये तीनों द्वीप जम्बूहीपके दक्षिण भागमें भी गंगा सिन्धु नदी व वैजयन्त नामक दक्षिण द्वारके प्रणिधि भागमें स्थित है। (ति.प./४/१३११, १३९६+१३१८) आभ्यन्तर वेदीसे १२००० योजन सागरके भीतर जानेपर सागरकी वायव्य दिशामें मागध नामका द्वीप है। (रा वा. ३/३३/८/१६४/८); (ह पु./५/४६६) इसी प्रकार लवण समुद्र के बाह्य भागमें भी ये द्वीप जानना। (ति, प./४/२४७७) मतान्तरकी अपेक्षा दोनो तटोसे ४२००० योजन भीतर जानेपर ४२००० योजन विस्तार वाले २४,२४ द्वीप है। तिनमें ८ तो चारो दिशाओ व विदिशाओके दोनों पार्श्वभागोंमें है और १६ आठो अन्तर दिशाओके दोनो पार्श्व भागोंमें । विदिशावालोंका नाम सूर्यद्वीप और अन्तर दिशावालोंका नाम चन्द्रद्वीप है (त्रि. सा./१०६) 18 इनके अतिरिक्त ४८ कुमानुष द्वीप है । २४ अभ्यन्तर भागमे और २४ बाह्य भागमें । तहाँ चारों दिशाओं में चार, चारो विदिशाओंमें ४, अन्तर दिशाओमे ८ तथा हिमवान्, शिखरी व दोनों विजयाध पर्वतोके प्रणिधि भागमें है। । ति, प./४/२४७८-२४७६+ २४८७-२४८८); (ह पृ.। १/४७१-४७६+७८१); (त्रि.सा./६१३) दिशा, विदिशा व अन्तर दिशा तथा पर्वतके पासवाले, ये चारों प्रकारके द्वीप क्रमसे जगतीसे ५००, ५००, ५५० व ६०० योजन अन्तरालपर अवस्थित है और १००, ५५.५० व २५ योजन विस्तार युक्त है। (ति.प./४/२४८०-२४८२); (ह.पु./५/४७७-४७८); (त्रि. सा./8१४); (ह. पु. की अपेक्षा इनका विस्तार क्रमसे १००, ५०, ५० व २५ योजन है) लोक विभागके अनुसार वे जगतीसे १००, ५५०, ५००,६०० योजन अन्तराल पर स्थित है तथा १००, ५०, १००,२५ योजन विस्तार युक्त है। (ति. प/४/२४६१-२४६४), (ज, प./१०/४६-५१ ) इन कुमानुष द्वीपोमें एक जाँधवाला, शशकर्ण, बन्दरमुख आदि रूप आकृतियों के धारक मनुष्य बसते हैं । (दे० म्लेच्छ/३ ) । धातकीखण्ड द्वीपकी दिशाओमे भी इस सागरमे इतने ही अर्थात् २४ अन्तर्वीप हैं। जिनमे रहनेवाले कुमानुष भी वैसे ही है। (ति. प/४/२४६०)।
५० यो
जल माग
१४३३३३३३३या
FREE-2066065 (ASS:
नयो
पवन व जल
---------१००००० यो. -
पवन भाग
33३३31यो।
व शिवरपर आकाशमें ७०० योजन जाकर सागरके चारो तरफ कुल १४२००० वेलन्धर देवोंकी नगरियॉ है। तहाँ बाह्य व आभ्यन्तर वेदीके ऊपर क्रमसे ७२००० और ४२००० और मध्यमें शिखरपर २८००० है । (ति. प./४/२४४६-२४५४ ); (त्रि. सा /९०४ ), (ज, प./१०/३६-३७) मतान्तरसे इतनी ही नगरियॉ सागरके दोनों किनारों पर पृथिवी तल पर भी स्थित है। (ति, प./४/२४५६) सग्गायणीके अनुसार सागरकी बाह्य व आभ्यन्तर वेदीवाले उपरोक्त नगर दोनो वेदियोंसे ४२००० योजन भीतर प्रवेश करके आकाशमें अवस्थित है और मध्यवाले जलके शिखरपर भी। (रा. वा /३/३२/७/१९४/१), (ह पु./५/ ४६६-४६८)। ७.दोनो किनारोंसे ४२००० योजन भीतर जानेपर चारों दिशाओमें प्रत्येक ज्येष्ठ पातालके बाह्य व भीतरी पार्श्व भागोंमें एक-एक करके कुल आठ पर्वत है। जिनपर वेलन्धर देव रहते है। (ति. प./४/२४५७).(ह.पु./१/४५६); (त्रि, सा /१०५), (ज प./ १०/२७); (विशेष दे० लोक/५/8 में इनके व देवोके नाम)। ८ इस प्रकार अभ्यन्तर वेदीसे ४२००० भीतर जानेपर उपरोक्त भीतरी ४ पर्वतोंके दोनो पार्श्व भागोमें ( विदिशाओमें ) प्रत्येकमें दो-दो करके कुल आठ सूर्य द्वीप है। (ति. प./४/२४७१-२४७२ ), (त्रि. सा./808), (ज प./१०/३८ ) सागरके भीतर, रक्तोदा नदीके सम्मुख
२. धातकीखण्ड निर्देश १. लवणोदको वेष्टित करके ४००,००० योजन विस्तत ये द्वितीय द्वीप हैं । इसके चारों तरफ भी एक जगती है। (ति, प,/४/२५२७-२५३१), (रा. वा/३/१३/५/५६५/१४), (ह.पु/४८६); (ज. प./११२)। २. इसकी उत्तर व दक्षिण दिशामें उत्तर-दक्षिण लम्बायमान दो इष्वाकार पर्वत है. जिनसे यह द्वीप पूर्व व पश्चिम रूप दो भागोमे विभक्त हो जाता है । (ति प./४/२५३२); (स. सि /३/३३/२२७/१); (रा.वा./३/३३/६/१६५/२५); (ह. पु./५/४६४); (त्रि सा./१२५), (ज.प/११/३) प्रत्येक पर्वतपर ४ कूट है। प्रथम कूटपर जिनमन्दिर है और शेषपर व्यन्तर देव रहते है। (ति. प/४/२५३६ ) । ३. इस द्वीपमें दो रचनाएँ है-पूर्व धातकी और पश्चिम धातकी। दोनों में पर्वत, क्षेत्र, नदी, कूट आदि सब जम्बूद्वीपके समान है। (ति. प | ४/२५४१-२५४५); (स. सि./३/३३/२२७/१), (रा. वा./३/३३/१/ १६४/३१), (ह. पु/५/१६५.४६६-४६७); (ज. प./११/३८ ) जम्बू व शाल्मली वृक्षको छोडकर शेष सबके नाम भी वही है। (ति. प / ४/२५५०), (रा, वा /३/३३/१/११/१९), सभीका कथन जम्बूद्वीपबत है। (ति.प./४/२७१५) । ४. दक्षिण इष्वाकारके दोनो तरफ दो भरत हैं तथा उत्तर इवाकारके दोनो तरफ दो ऐरावत है। (ति.प./४/२५५२), (स. सि /३/३३/२२७/४ ). ५ तहाँ सर्व कुल पर्वत तो दोनो सिरोंपर समान विस्तारको धरे पहियेके अरोंवत स्थित है और क्षेत्र उनके मध्यवर्ती छिद्रोंवत् है। जिनके अभ्यन्तर
जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश
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४. अन्य द्वीप सागर निर्देश
लोक
४६३
भागका विस्तार कम व बाह्य भागका विस्तार अधिक है। (ति. प./ ४/२९५३); (स, सि./२/३३/२२७/4); (रा.वा./२/३३/८/१९६/४); (ह. पु./५/४६८): (त्रि. सा./१२७)। ६. तहाँ भी सर्व कथन पूर्व व पश्चिम दोनों धातकी खण्डोंमें जम्बूद्वीपबत है। विदेह क्षेत्रके बहु मध्य भागमें पृथक-पृथक् सुमेरु पर्वत हैं। उनका स्वरूप तथा उनपर स्थित जिन भवन आदिका सर्व कथन जम्बूद्वीपक्व है। (ति, प./४/२५७५-२५७६); (रा. वा./३/३३/६/१६५/२८); (ह पु./ १/४१४ (ज, प./४/६५)। इन दोनोंपर भी जम्बूद्वीपके सुमेरुवत पाण्डक आदि चार बन हैं। विशेषता यह है कि यहाँ भद्रशालसे ५०० योजन ऊपर नन्दन, उससे ११४०० योजन सौमनस बन और उससे २८००० योजन ऊपर पाण्डुक वन है। (ति, प./४/२५८४-२५८८); (रा.वा./३/३३/६/१६/३०):(ह../१/१८-५१३) (ज. प.११॥ २२-२८)पृथिवी तलपर विस्तार २४०० योजन है, ५०० योजन ऊपर जाकर नन्दन वनपर ६३५० योजन रहता है। तहाँ चारों तरफसे युगपत ५०० योजन मुकड़कर ८३५० योजन ऊपर तक समान विस्तारसे जाता है। तदनन्तर ४५००० योजन क्रमिक हानि सहित जाता हुआ सौमनस वनपर ३८०० योजन रहता है तहाँ चारों तरफसे युगपत् ५०० योजन सुकड़कर २८०० योजन रहता है, ऊपर फिर १०,००० योजन समान विस्तारसे जाता है तदनन्तर १८००० योजन क्रमिक हानि सहित जाता हुआ शीषपर १००० योजन विस्तृत रहता है।(ह.पु/५/५२०-५३०)। ७. जम्बूद्वीपके शामली वृक्षवद यहाँ दोनों कुरुओमें दो-दो करके कुल चार धातकी (आँवलेके ) वृक्ष स्थित है। प्रत्येक वृक्षका परिवार जम्बूद्वीपबत् १४०१२० है। चारो वृक्षोंका कुल परिवार ५६०४८०है। (विशेष दे० लोक/३/१३) इन वृक्षोपर इस द्वीपके रक्षक प्रभास व प्रियदर्शन नामक देव रहते है। (ति, प./४/२६०१-२६०३); (स.सि./३/३३/२२७/७), (रा. वा./ २/३३/१६६/३); (त्रि, सा/१३४)। ८ इस द्वीपमें पर्वतों आदिका प्रमाण निम्न प्रकार है।-मेरु २, इष्वाकार २, कुल गिरि १२; विजया ६८, नाभिगिरि ५, गजदन्त यमक ८, काँचन शैल ४००%; दिग्गजेन्द्र पर्वत १६ वक्षार पर्वत ३२: वृषभगिरि ६८ क्षेत्र या विजय ६८ (ज प्र./११/८१) कर्मभूमि भोगभूमि १२; (ज. प./११/७६ ) महानदियाँ २८; विदेह क्षेत्रको नदियाँ १२८: विभंगा नदियाँ २४ । द्रह ३२, महानदियों व क्षेत्र नदियोंके कुण्ड १५८% विभंगाके कुण्ड २४: धातकी वृक्ष २: शाल्मली वृक्ष २ हैं। (ज. प./११/ २६-३८)। (ज. प./११/७५-८१ ) में पुष्करार्धकी अपेक्षा इसी प्रकार कथन किया है।)
पर फिर
है। क्षेत्री, व क्षेत्र औरणा
मेरुओंका ति
दोनों
५/५/१२०-५३०, डा शोषपर इ तदनन्तर
४. पुष्कर द्वीप १. कालोद समुद्रको घेरकर १६००,००० के विस्तार युक्त पुष्कर द्वीप स्थित है। (ति.प/४/२७४४); (रा. वा./३/३३/६/१६६/८), (ह.पु./५७६), (ज.प/११/४७)। २. इसके बीचो-बीच स्थित कुण्डलाकार मानुषोत्तर पर्वतके कारण इस द्वीपके दो अर्ध भाग हो गये हैं, एक अभ्यन्तर और दूसरा बाह्य । (ति. प./४/२७४८); (रा. वा./३/३४/६/१६७/७), (ह. पु./५/५७७); (त्रि.सा./९३७); (ज.प./११/५८)। अभ्यन्तर भागमे मनुष्योंकी स्थिति है पर मानुषोत्तर पर्वतको उल्लंघकर बाह्य भागमें जानेकी उनकी सामर्थ्य नही है,(दे० मनुष्य/४/१) 1(दे० चित्र सं, ३६,पृ. ४६४) ।३.अभ्यन्तर पुष्करार्ध मे धातकी खण्डवत ही दो इष्वाकार पर्वत हैं जिनके कारण यह पूर्व व पश्चिमके दो भागोंमे विभक्त हो जाता है। दोनो भागोमें धातकी खण्डवत् रचना है। (त. सू./३/३४), (ति.प./४/२७८४-२७८५); (ह.पु./५/५७८) । धातकी खण्डके समान यहाँ ये सब कुलगिरि तो पहियेके अरोंवत समान विस्तारवाले और क्षेत्र उनके मध्य छिद्रोमें हीनाधिक विस्तारवाले है । दक्षिण इष्वाकारके दोनों तरफ दो भरत क्षेत्र और इष्वाकारके दोनों तरफ दो ऐरावत क्षेत्र है। क्षेत्रों, पर्वतो आदिके नाम जम्बूद्वीपवन है। (ति प/४/२७६४-२७४६ ), (ह. पु./५/५७६ )! ४. दोनों मेरुओंका वर्णन धातकी मेरुओंवत है। (ति. प./४/२८१२); (त्रि. सा/६०६), (ज १/४/६४) । '५. मानुषोत्तर पर्वतका अभ्यन्तर भाग दीवारकी भाँति सीधा है, और बाह्य भागमें नीचेसे ऊपर तक क्रमसे घटता गया है। भरतादि क्षेत्रोंकी १४ नदियोंके गुजरनेके लिए इसके मूलमे १४ गुफाएँ है। (ति. प./४/ २७५१-२७५२); (ह पु/५/५६५-५६६); (त्रि. सा./६३७)। ६ इस पर्वतके ऊपर २२ कुट हैं।-तहाँ पूर्वादि प्रत्येक दिशामे तीन-तीन कूट है। पूर्वी विदिशाओमे दो-दो और पश्चिमी विदिशाओमे एक-एक कूट है। इन कूटोकी अग्रभूमिमे अर्थात मनुष्यलोककी तरफ चारों दिशाओंमे ४ सिद्धायतन कूट है। (ति. प./४/२७६५-२७७०); (रा वा./३/३४/६/१९७/१२); (ह. पु./२/१६६६०१)। सिद्धायतन कूटपर जिनभवन है और शेषपर सपरिवार व्यन्तर देव रहते है। (ति प./४/२७७५) मतान्तरकी अपेक्षा नैऋत्य व वायव्य दिशावाले एक-एक कूट नही है। इस प्रकार कुल २० कूट हैं । ( ति. प./४/२७८३ ) (त्रि. सा /१४० )(दे०चित्र ३६पृष्ठ स. ४६४)।७.इसके ४ कुरुओंके मध्य जम्बू वृक्षवत सपरिवार ४ पुष्कर वृक्ष हैं। जिनपर सम्पूर्ण कथन जम्बूद्वीपकै जम्मू व शाल्मलो वृक्षवत हैं। ( स. सि./३/३४/२२८/४); (रा, वा./३/३४/५/१६७/४); (त्रि, सा./ ६३४)। ८. पुष्करार्ध द्वीपमे पर्वत क्षेत्रादिका प्रमाण बिलकुल धातकी खण्डवत् जानना (दे० लोक/४/२)। ५. नन्दीश्वर द्वीप १. अष्टम द्वीप नन्दीश्वर द्वीप है। (दे० चित्र सं. ३८, पृ. ४६५)। उसका कुल विस्तार १६३८४००,००० योजन प्रमाण है। (ति प./५/५२-५३); (रा. वा./३/ ३५/१६८/४), (ह. पु! ५१६४७); (त्रि, सा /६६६)। २. इसके बहुमध्य भागमे पूर्व दिशाकी और काले रंगका एक-एक अंजनगिरि पर्वत है। (ति प./५/५७), (रा वा./३/-/१६८/७), (ह. पु./-/६५२); (त्रि. सा./१६७) । ३. उस अंजन गिरिके चारो तरफ १००,००० योजन छोडकर १ वापियाँ हैं । (ति, प/५/६०), (रा.बा./३/३५/-/१६८/8), (ह पु/५/६५५), (त्रि. सा./१७०)। चारो वापियोका भीतरी अन्तराल ६५०४५ योजन है और बाह्य अन्तर २२२६६१ योजन है (ह. पु/१६६६-६६८) । ४. प्रत्येक
३. कालोद समुद्र निर्देश १. धातकी खण्डको घेरकर ८००,००० योजन विस्तृत वलयाकार कालोद
समुद्र स्थित है। जो सर्वत्र १००० योजन गहरा है। (ति.प./४/ २७१८-२७१६); (रा बा./३/३३/६/१६६/५); (ह. पु/१५६२); ( ज प./११/४३)। २ इस समुद्र में पाताल नहीं है। (ति. प.// १७१६), (रा, वा/३/३२/८/१६४/१३); (ज.प./११/४४) । ३.इसके अभ्यन्तर व बाह्य भागमें लवणोदवत् दिशा, विदिशा, अन्तरदिशा व पर्वतोके प्रणिधि भागमें २४,२४ अन्तद्वीप स्थित है। (ति. प/४/ १७२०), (ह. पु/५/५६७-५७२+५७५); (त्रि सा./६१३), (ज. प. ११/४१) वे दिशा विदिशा आदि वाले द्वीप क्रमसे तटसे ५००,4k०, १५० व ६५० योजनके अन्तरसे स्थित है तथा २००, १००,५०, १० योजन है। (ति.प/४/२७२२-२७२५) मतान्तरसे इनका अन्तरात क्रमसे ५००, ५५०, ६०० व ६० है तथा विस्तार लवणोद वालोकी अपेक्षा दूना अर्थात २००, १००० व ५० योजन है। (ह. पु./५/५७४)।
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लोक
चित्र सं० - ३६
| वेलम्ब देव
रजत कूट मानसदेव
कनक कूट वैावण देव अजनमूल सिद्धार्थ देव
'अम्यन्तर पुष्करार्ध
की ओर
कुर
indiap
सर्वरल
४२४ यो०
- ७२३ यो
૪૬૪
मानुषोत्तर पर्वत
दृष्टिभेद:- २२ की बजाय २० कूट हैं। नैऋत्य व वायव्य दिशा वाले कूट नहीं हैं।
स्फटिक्कूट अंक कूट प्रवालकूट सुदर्शन देव मेघदेव सुप्रबुद्ध देव
१०२२ यो० → (४३० यो० १ को ग
A
कालोद
धातकी
अदाई
खण्ड
अभ्यन्तर पुष्करार्ध
अंजन अशनि लोहित रूचक कूट देव नन्दो मन्ददेव ह्या पुष्कर द्वीप
बाह्य पुष्करार्ध की ओर
जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश
४. अन्य द्वीप सागर निर्देश
वायव्य
पश्चिम
प्रभंजन कूट
वेणुधारी देव
उत्तर
वेणु देव रत्न कूट
दक्षिण
वज्रकूट हनुमान देव
ईशान
• पूर्व
आग्नेय
कूट यशस्वान देव
अगस्ट
सौगन्धी कट देव
|पनीय कूट देव
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लोक
चित्र सं०-३८
नन्दीश्वर द्वीप
दृष्टिमेव :- प्रत्येक वापीके प्रत्येक कोण पर एक एक करके चार रतिकर है। परन्तु चैत्यालय बाह्य कोणों वाले दो रतिकरों पर ही है।
बापियों के नामों में अन्तर
- (दे० लोक / ५.११)
जयंती वरुण
अंजन गिरि
८४००० यो
१००० यो
अपराजिता
भूतानन्द
वैजयन्ती वरुण (धरण)
१६३८
भा० ३-५९
नोट - इसी प्रकार दधिमुख व रतिकर भी जानने विशेषता यह कि उनके रंग क्रमश: श्वेत व लाल हैं; तथा उनका विस्तार क्रमशः १०००० यो० व १००० पी० है ।
सुप्रभा सोम
विजया | वेणु
अशोका सोम
चम्पकवन
४६५
सर्वतोभद्र वैश्रवण
BO
रमणीया
यम
सात द्वीप
सागर
वीतशोका वैश्रवण
विरजा यम
आम्र बन
दधि
मुख
१००,००० यो०
अशोकवन
१००,००० सप्तपर्ण वन
जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश
रम्या वरुण
नन्दोत्तरा चमरेन्द्र
अरजा वरुण
रतिकर
पश्चिम
४. अन्य द्वीप सागर निर्देश
उत्तर
STONE
दक्षिण
नन्दिघोषा वैरोचन
५०,००० यो०
Bergst
पूर्व
५०,००० यो०
४ अंजन गिरि ६ समुद्र ७ द्वीप
वन में देवों के आवास
नन्दावापी • सौधर्मइन्द्र
CHAN वापियों के अंतराल नन्दवती ९=६५५४५ यो. एशान २=२२३६६१ यो०
१६ वापी
६४ वन 4 १६ दधिमुख। ३२ रतिकर
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लोक
वापीकी चारो दिशाओ में अशोक, सप्तच्छद, चम्पक और आम्र नामके चार वन हैं । ( ति प / ५ / ६३० ), ( रा वा / ३/३५ /-/ ११ / २०) (६.५/५/१०९,६०२), (त्रि सा / १०९) इस प्रकार द्वीपकी एक दिशामे १६ और चारों दिशाओमे ६४ वन है । इन सब पर अवतस आदि ६४ देव रहते है । ( रा वा / ३/३५/-/१६६/ ३ ), ( पु / ५ /६८१) । ५ प्रत्येक वापीमे सफेद रंगका एक-एक दधिमुख पर्वत है (ति ५/२/१५), ( रा बा./३/३५/- ११६८१ २५) (६.१०/५/६६६), (त्रि सा / १६७ )। ६. प्रत्येक वापीके बाह्य दोनों कोनोंपर के दो रतिकर पर्वत हैं। ति प / २/६७), (त्रि.सा./१६७) लोक विनिश्चयको अपेक्षा प्रत्येक द्रहके चारो कोनोपर चार रतिकर है। ( ति प / ५ / ६६ ), ( रा वा / ३/२५/- १९३८/३९), (६.५०/५/६०३) जिनमन्दिर केवल बाहरवाले दो रतिकरोंपर ही होते है, अभ्यन्तर रतिकरोंपर देव क्रीडा करते है (रा. मा./३/२५/-/११०/३३७, इस प्रकार एक दिशामे एक अजनगिरि, चार दधिमुख, आठ रतिकर ये सब मिलकर १२ पर्वत है। इनके ऊपर १३ जिनमन्दिर स्थित हैं। इसी प्रकार शेष तीन दिशाओ में भी पर्वत द्रह, वन व जिन मन्दिर जानना । [ कुल मिलकर ५२ पर्वत, ५२ मन्दिर, १६ वापियों और ६४ वन है ( ति प /५/००७५), (रा.वा./१२/१५/- (११६/१), (हपु./५/६७६ नि. सा / १७३) । ८ अष्टाह्निक पर्व मे सौधर्म आदि इन्द्र व देवगण वडी भक्ति इन मन्दिरोंकी पूजा करते हैं। (सि.
५/०३. १०२). (४.५/२/६८०), (त्रि सा. १०५-१०६)। वहाँ पूर्व दिशामे कल्पवासी, दक्षिणमे भयनवासी पश्चिममे व्यन्तर और उत्तरमे देव पूजा करते है । ( ति प / ५ / १००-१०९ ) ।
४६६
६. कुण्डलवर द्वीप
1
१ ग्यारह द्वीप कुण्टलवर नामका है, जिसके बहुमध्य भागमे मानुषोत्तरवत् एक कुम्हार है। ( ति प /२/११०), (ह. ६०६२ तहाँ पुर्यादि प्रत्येक दिशामे पार-चार कूट है। उनके अभ्यन्तर भागमें अर्थाद मनुष्यलोककी तरफ एक-एक सिद्धवरकूट है। इस प्रकार इस पर्वतपर कुल २० कूट है (ति प/५/१२०-१२१) ( रा था. /३/३५/-/१६६/९२+१६) (प्र.सा./६४४) जिनटोके अतिरिक्त प्रत्येकपर अपने-अपने फुटोके नामया देव रहते है। (ति /२/९२६) मतान्तरको अपेक्षा आठो दिशाओ में एक-एक जिनकूट है। (सिप /५/१२८)। ३. लोक की अपेक्षा इस पर्वतको पूर्वादिदिशाओ से प्रत्येक में चार-चार कूट है। पूर्व व पश्चिम दिशावाले कूटोकी अग्रभूमि द्वीपके अधिपति देवो दो कूट है इन दोनो अभ्यन्तर भागो में चारों दिशाओमे
एक-एक जिनकूट है । (ति
४. अन्य द्वीप सागर निर्देश
प/ ५ / १३० - १३१), (रा मा २/३६/-१९६६/०), (रु. ५/३/६-६६६८ ) । मतान्तरकी अपेक्षा उनके उत्तर व दक्षिण भागोमे एकएक जिनकूट है ( ति प /५/१४०) (दे० सामनेवाला चित्र)।
० रुचकबर द्वीप
१ तेरहवाँ द्वीप रुचकवर नामका है। उसमे बीचोबीच रुचकवर नामका कुण्डलाकार पर्वत है। ( ति प / ५ / १४१); ( रा वा /३/३५/-/१६६/२२ ); ( ह. पु. / ५ / ६६६ ) २ इस पर्व नपर कुल ४४ कूट है (ति १/२/९४४) पूर्वादि प्रत्येक दिशामे आठ-आठ कूट है जिनपर दिक्कुमारियाँ देवियों रहती है, जो भगवान्के जन्म कल्याणक के अवसर पर माताकी सेवामें उपस्थित रहती है । पूर्वादि दिशाओंवाली आठ-आठ देवियाँ क्रमसे झारी, दर्पण, छत्र चँवर धारण करती है (ति प./५/१४५. १४०-१५६ ( सा./६४०+१) इनके अभ्यन्तर भाग चारो दिशाओमे चार महाकूट है तथा इनकी भी अभ्यन्तर दिशाओमे चार अन्य कूट है । जिनपर दिशाएँ स्वच्छ करने वाली तथा rearer जातकर्म करनेवाली देवियाँ रहती है। इसके अभ्यन्तर भागमे चार सिद्धकुट है ( दे० चित्र स ४०. पू. ४६८ ) । किन्ही आचार्योंके अनुसार विदिशाओंने भी चार सिद्धकूट है । ( ति प /५/१६२-१६६ ), (त्रि सा / १४७, १५८- ६५१ ) । ३. लोक विनिश्चयके दिशाओंमे अनुसार पूर्वादि चार एक-एक करके चार कूट है जिनपर दिग्गजेन्द्र रहते है । इन चारोके अभ्यन्तर भाग में चार दिशाओ में आठ-आठ कूट है जिनपर उपरोक्त माताकी सेवा करनेवाली ३२ दिक्कुमारियाँ रहती है । उनके भौचकी विदिशाओंमें दो-दो करके आठ कूट है, जिनपर भगवाका जातकर्म करनेवाली आठ महतरियाँ रहती है। इनके अभ्यन्तर भागने पुन पूर्वादि विज्ञाओंमें चार फूट है जिनपर दिशाएँ निर्मल करनेवाली देवियों रहती है। इनके बम्यन्तर भाग में चार सिद्धकुट है ( ति प /५/१६०-१०८), 1 (रा.वा./३/३५/१६६ / २४ ), ( ह पु/५/७०४-९२१) । ( दे० चित्र सं. ४९, पृ ४६६ ) ।
८. स्वयम्भूरमण समुद्र
अन्तिम द्वीप स्वयम्भूरमण है। इसके मध्य में कुण्डलाकार स्वयंप्रभ पर्वत है। (ति. १/२/२३०) (६.१/५/०१० ) । इस पर्वत के अभ्यन्तर भाग तक तिर्यंच नहीं होते, पर उसके परभागसे लेकर अन्तिम स्वयम्भूरमण सागर के अन्तिम किनारे तक सब प्रकार तिच पाये जाते है। (२० सियंच/४६) । (दे० चित्र सं. १२० पृ. ४४३ ) ।
जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश
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४. अन्य द्वीप सागर निर्देश
४६७
लोक
चित्र सं०-३६
कुण्डलवर पर्वत व द्वीप
दृष्टिभेव -विदिशाओ वाले सिद्धायतन कुटोको कोई
आचार्य मानते है और कोई नही। दे० लोका१२
पश्चिम *
पश्चिम
पूर्व
12
THA सुन्दर देव
विशालनेत्रदेव
हिमवान् कूट पाण्डक देव
WARIA रुचक कूट
मन्दर कूर पाण्डरदेव
2hilola
वज्र कुट सविशिष्ट देव
23E
वज्रप्रभ कूट पंचशिर देव
१० द्वीप
कनक कट महाशिरदेव
28KEE
१०सागर
कनकप्रभ कूट महाबाहूदेव
ॐ
LC कुण्डलवर पर्वत
स्यन्तर कुण्डलवर द्वीप
HellulLA कण्डलवर
बाह्यार्ध कुण्डलवर द्वीप
४२५०
वासुकी देव महाप्रभकूट
महापय देव सुप्रम कट
-00000ha
पदोत्तर देव
/ पिल देव रजत कट
रत्नप्रभ कुट
२३०यो.
- १०२२० यो विस्तार विषयक दृष्टिभेट
यानमा (दे०लोक /६.५.१)
जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश
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लोक
चित्र सं.-४०
रुचकवर पर्वत व द्वीप
दृष्टिभेव - विदिशाओं वाले सिद्धायतन कूटोको कोई आचार्य मानते है। और कोई नहीं ।
कूटो व देवियो के नामो मे अन्तर । (दे० लोक / ५१३)
2
好屈我
24 ha
1126
सुरा
बाह्यार्थ रुचकवर द्वीप
• ४२००० पो
रुचकचर पर्वत
छत्र धारण
१००० पी.
कल
·How
राज्योत्तम कूट रुचकप्रभा देवी
Willem रुचकवर पर्वत
विस्तारसम्बन्धी दृष्टिभेद (दे०लोक /६५५
४६८
चवर धारण करती है
नित्योद्योत कूट सौदामिनी देवी ड कूट
रुचका देवी
[१२] दीप
१२ सागर
अभ्यन्तरार्ध स्वकवर द्वीप
ए
दृष्टि स-१
WWWV
समाहार
जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश
सर्वरत्न कूट
करनेवाली
- तीर्थकरोके जन्म कल्याणकपर
जातकर्म
त कूट
देवी
嘲
इच्छा देवी स्फटिक कूट
←
तीथकरोके जन्म कल्याणकपर
तीर्थकरोके जन्म कल्याणकपर दिशाये निर्मल करनेवाली
भगवान्का
देविमा
४. अन्य द्वीप सागर निर्देश
चायव्य
• माताकी सेवा करनेवाली देविया
रुचक रुचक कीर्तिं दे
पश्चिम
उत्तर
*
दक्षिण
नैऋत्य
काचन कूट
वैजयन्ती देवी तपन कूट जयन्ती देवी
री धारण
ईशान
अजन कुट
स्वस्तिक कुट अपराजिता देवी सुभद्र कूट नन्दा देवी
अजनमूल कुट नन्दवती देवी
देव
वज्र कूट नन्दिषणा देवी
पूर्व
- आग्नेय
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४६९
४. अन्य द्वीप सागर निर्देश
लोक चित्र सं०-४१ रुचकवर पर्वत व द्वीप
दृष्टि नं.२
दृष्टिमेव -कूटो व देवियोके नामोमे अन्तर। -(दे० लोक/५.१३)
वायव्य
पश्चिप-M- पूर्व
काचन कट
वारुणी देवी
रजत कुट आशा देवी
दाक्षिण
अजन कुट Aammपुण्डरीकिणी देवी
रुचिर कूट श्री देवी
स्फटिक कट
तीर्थकरोकजन्म कल्याण
धारण
साटात
सौदामिनी देवी
- देविया ताकी सवा करनाली
HTA
मद्रा देवी भद्रकूट
यशस्वी देवी यश कट
वैडूर्य कुट रुचेका देवी
वैड कट विजया देवी
क
१450
नवमिका देवी सौमनस कुट
मणिभद्र कट
रुचकात्तमकुट स्वकोत्तमा देवी रलाञ्जय कट अपराजिता देवी
विजया देवी
कावन कुट वैजयन्ती देवी
कनकाचा देती
नाकानना देवी
कुमुद कट
स्वयप्रम कट
भारीधारण
कनक कूट जयन्ती देवी
अरिष्ट कूट अपराजिलो देवी
(१२ द्वीप
पद्मावती देवी नलिन कूद
धारणा
मादिस्वस्तिक कुर Faनन्दा देवी
१२सागर
कनका देवी
विमल कुट
m
पृथिवी देवी पदा कूद
नन्दन कुद नन्दोत्तरी देवी
अभ्यन्तरार्ध रुचकवर द्वीप
HDAI
खजन कट आनन्दा देवी
सुरा देवी जगत्कुसुम कूद
शवरत्न कूट
स्वकान्तो देव
रत्न कट ।
वैजयन्ती देवी खप्रभा कुट रुचकामादेवी रुचककट
अजनमूल कट नन्दिवना देवी
लोहितान कूट
शतपद दे
रुचकवर पवत
EATIत्यालो
वाह्यार्थ रुचकवर द्वीप '
MARA
वसुन्धरा देवी
AVवन्द्र कूट
कीर्तिमति देवी स्चकोत्तर कट
कालक्ष्मीवती देवी भरुचककर
४२०००धोका
यशोधरा देवी बिमल कर
कामन्दर कूट
सुप्रबुदा देवी
IAसुप्रवृध्द कुट
सुप्रणिधि देवी
(सुस्थिता देवी अमोघकट
'000 या
रुचकबर पर्वत
विस्तार सम्बन्धी दधिभेद-(दे-लोक/६५५)
दिग्गजेन्द्र कट
२००० यो
नन्द्यावर्त कर पदोत्तर दिग्गजेन्द्र भस्वस्तिक कूट 8 सभद्र दिग्गजेन्द्र
श्रीवृक्ष कट नील दिग्गेजेन्द्र ४ बर्द्धमान र
अजनगिरि दिग्गजेन्द्र दिशा उद्योतकारी देवियों के ४ कूट तीर्थकरके जातका कारी देवियोके कट 1
जैनेन्द्र सिद्धान्त कोथ
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लोक
४७०
५. द्वीप पर्वतोके नाम रस आदि
५. द्वीप पर्वतों आदिके नाम रस आदि
१. द्वीप समुद्रोंके नाम
२. जम्बू द्वोपके क्षेत्रोंके नाम १. जम्बूद्वीप के महाक्षेत्रोंके नाम जम्बूद्वीपमे ७ क्षेत्र है-भरत, हैमवत, हरि, विदेह, रम्यक, हैरण्यवत्, व ऐरावत । (दे० लोक/३/१/२) ।
२. विदेह क्षेत्रके ३२ क्षेत्र व उनके प्रधान नगर १ क्षेत्रों सम्बन्धी प्रमाण-(ति. प./४/२२०६), (रा. वा./३/१०/१३/
१७६/१७६/१५+ १७७/८,१६,२७).(ह. पु/५/२४४-२५२) (त्रि सा./ ६८-६९०), (ज. प./का पूरा ८ वाँ वह वॉ अधिकार) । २. नगरी सम्बन्धी प्रमाण-(ति.प./४/२२६३-२३०१); (रा. वा./३/१०/१३/ १७६/१६ + १७७/१,२०,२८), (ह. पु/५/२५७-२६४), (त्रि, सा./ ७१२-७१५), (ज. प./का पूरा ८-६ वॉ अधिकार)।
अवस्थान
क्षेत्र
नगरी
१. मध्य भागसे प्रारम्भ करनेपर मध्यलोकमें क्रमसे १ जम्बू द्वीप; २. लवण सागर; धातकी खण्ड-कालोद सागर, ३, पुष्करवर द्वीपपुष्करवर समुद्र, ४. वारुणीवर द्वीप-वारुणीवर समुद्र, ५. क्षीरवर द्वीप-क्षीरवर समुद्र, ६. घृतवर द्वीप-घृतवर समुद्र, ७.क्षोद्रवर (इक्षुवर ) द्वीप-क्षौद्रवर ( इक्षुबर ) समुद्र ८ नन्दीश्वर द्वीपनन्दीश्वर समुद्रः ६ अरुणीवर द्वीप-अरुणीवर समुद्र, १०. अरुणाभास द्वीप-अरुणाभास समुद्र, ११. कुण्डलवर द्वीप-कुण्डलवर समुद्र; १२. शंखवर द्वीप-शंखवर समुद्र; १३. रुचकवर द्वीप - रुचकवर समुद्र; १४ भुजगवर द्वीप-भुजगवर समुद्र; १५. कुशवर द्वीपकुशवर समुद्र; १६ क्रौंचवर द्वीप-क्रौचवर समुद्र ये १६ नाम मिलते है । (मू आ /१०७४-१०७८); (स सि /३/७/२११/३ मे केवल नं. ६ तक दिये है ), (रा. वा./३/७/२/१६९/३० मे नं.८ तक दिये है ); (ह पु /५/६१३-६२० ); (त्रि. सा./२०४-३०७), (ज. प/११/८४-८१); २ संख्यात द्वीप समुद्र आगे जाकर पुन एक जम्बूद्वीप है। (इसके आगे पुन' उपरोक्त नामोका क्रम चल जाता है। ) ति प./६/१७६ ), (ह पु.५११६६, ३६७), ३. मध्य लोकके अन्तसे प्रारम्भ करनेपर-१ स्वयंभू रमण समुद्र-स्वयभू रमण द्वीप, २. अहीन्द्रवर सागर-अहीन्द्रवर द्वीप; ३. देववर समुद्र-देव वर द्वीप; ४. यक्षवर समुद्र-यक्षवर द्वीप, ५ भूतवर समुद्र-भूतबर द्वीपः ६. नागवर समुद्र-नागवर द्वीप, ७. वैडूर्य समुद्र--बैडूर्य द्वीप; ८ वचवर समुद्र-वज्रवर द्वीप; ६. कांचन समुद्र-काचन द्वीप, १०. रुप्यवर समुद्र-रुप्यवर द्वीप; ११. हिगुल समुद्रहिगुल द्वीप; १२ अंजनवर समुद्र-अंजनवर द्वीप, १३. श्यामसमुद्रश्याम द्वीप, १४ सिन्दूर समुद्र- सिन्दूर द्वीप, १५ हरितास समुद्र-हरितास द्वीप; १६ मन.शिलसमुद्र-मन.शिलद्वीप । (ह. पु./१/६२२-६२५ ); (त्रि. सा./३०५-३०७) ।
उत्तरी पूर्व विदेहमे पश्चिमसे पूर्व की ओर
दक्षिण पूर्व विदेहमें पूर्वसे पश्चिमकी ओर
16m com mamrodam Gmxam-16mx com
कच्छा क्षेमा ति.प./४/२२६८ सुकच्छा
क्षेमपुरी महाकच्छा
रिष्ठा (अरिष्टा) कच्छावती अरिष्टपुरी आवर्ता
खड्गा लागलावर्ता मंजूषा
औषध नगरी पुष्कलावती पुण्डरी किणी (पुण्डरीकनी) वत्सा
सुसीमा सुबत्सा
कुण्डला महावत्सा अपराजिता वत्सकावती प्रभ करा (वत्सव) (प्रभाकरी) रम्या
अंका (अंकावती) सुरम्या ( रम्यक) पद्मावती रमणीया
शुभा मगलावती रत्नसंचया पद्मा
अश्वपुरी सुपा
सिहपुरी महापद्मा महापुरी पद्मकावती (पद्मवत्) । विजयपुरी शखा
अरजा नलिनी
विरजा कुमुदा
शोका वीतशोका
दक्षिण पश्चिम विदेह मे पूर्व से
पश्चिमकी ओर
सरित
विजया वैजयन्ता जयन्ता अपराजित
२. सागरोंके जलका स्वाद-चार समुद्र अपने नामोके अनुसार रसवाले, तीन उदक रस अर्थात स्वाभाविक जलके स्वादसे सयुक्त, शेष समुद्र ईख समान रससे सहित है। तीसरे समुद्रमे मधुरूप जल है। वारुणीवर, लवणाब्धि, घृतवर और क्षीरवर, ये चार समुद्र प्रत्येक रस; तथा कालोद, पुष्करवर और स्वयम्भूरमण, ये तीन समुद्र उदकरस है। (ति प/५/२६-३०), (म.आ/१०७६१०८०); (रा वा./३/३२/८/१६४/१७), (ह. पु./५/६२८.६२६ ). (त्रि. सा./३१६), (ज प./११/६४-६५)।
उत्तरी पश्चिम विदेहमे पश्चिमसे पूर्व की ओर
वप्रा सुवप्रा महावप्रा वप्रकावती
(वप्रावत) गधा (वल्गु) सुगन्धा-सुवल्गु गन्धिला गन्धमालिनी
चक्रपुरी खड्गपुरी अयोध्या अवध्या
जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश
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लोक
३. जम्बू द्वीपके पर्वतों नाम १. कुलाचल आदि के नाम
१. जम्बुद्वीपमें यह कुलाचल है-हिमवान महाहिमवान, निषेध, नील रुक्मि और शिखरी (दे० लोक/२/१०२) २. सुमेरु पर्वत के अनेको नाम है। (दे० सुमेरु ) ३. कांचन पर्वतोंका नाम कांचन पर्वत ही है । विजयार्ध पर्वतोंके नाम प्राप्त नहीं है । शेषके नाम निम्न प्रकार हैं२. नाभिगिरि तथा उनके रक्षक देव
I
पर्वतोंके नाम देवोंके नाम नं० क्षेत्रका शि. १. ४] रा.बा.३/१० ६.५/२/१.ति.प./पूर्वोक्त नाम १७०४, १७४५/७/१७२/२१ + १६१; त्रि.३/२०६ रा वा. / " २३३५, १२३५० १० / १०२ / ३१ सा / ७१६
ह पु. /५/१६४ त्रि.सा./१०१९६
+ १६ / १८१५७ +38/1=1/31/
१ हैमवत २ हरि
शब्दवान् विजया
३ रम्यक पद्म ४ हैरण्यवत् गन्धमादन
३. विदेह वशारोंके नाम
( ति १/४/२२१०-२२१४); ( रा. बा./३/१०/१३/१७६/३२+१७०/६. १०.२३) (./५/२२८-२३९) (त्रि या ६८६-६६) ज. प / वहाँ अधिकार)।
अवस्थान क
उत्तरीय पूर्व विदेह में पश्चिम से पूर्व की ओर
श्रद्धावान् श्रद्धावान् श्रद्धावती शाती (स्वाति ) विकृतनात् विजय निकटा चारण (अरुण) वान् वती
गन्धवान् पद्मवान् गन्धवती पद्म माल्यवान् गंधवान् मान्यवान्
प्रभास
५
T दक्षिण पूर्व विदेह में पूर्व से 4 पश्चिमकी
७
ओर
ओर
उत्तर अपर
विदेह में
१
२
३ पद्मकूट
४
८
ति. प.
चित्रकूट
नलिनकूट
पश्चिम से पूर्व - १५ की ओर
दक्षिण अपर
६
श्रद्धावान्
विदेहमें पूर्व से १० विजयात्
पश्चिमकी
११
आशीविष
१२
|१३
एक शैल
त्रिकूट वैधनकुट
अजन शैल
आत्माजन
सुखावह
चन्द्रगिरि
( चन्द्र माल )
१४ सूर्य गिरि
( सूर्य माल ) नागगिरि
शेष प्रमाण
चित्रकूट पद्मकूट
एक पोल
त्रिकूट
४७१
चणकूट
अजन शैल
आत्मजन
आशीष
सुखावह चन्द्रगिरि
सूर्यगिरि
नागगिरि
१६
( नाग माल ) देवमाल नोट- न ह पर ज प में श्रद्धावती । न १० पर रा. वा. विकृतवान् त्रि सा मे विजयवान् और ज. प में विजटावती है । नं १६ पर ह . पु में मेघमाल है ।
में
•
क्रम
४. गजदन्तोंके नाम
9
मायव्य आदि दिशाओं में कमसे सौमनस, विद्यत्प्रभ गन्छ गायन व मायया ये चार है। (दि. १८/४/२०१५) मतान्तर से गन्धमादन, माण्यवान्, सौमनस व विद्युत्प्रभ ये चार है । (रा.वा./ ३१०/१३/१७३/२७,२८ + १७५ / ११,१७); (ह. पु. / ५ / २१०-२१२); (त्रि सा./६६३) ।
५. यमक पर्वतोंके नाम
अवस्थान
देवकुरु
उत्तरकुरु
५. दीप पर्वतो नाम रस आदि
दिशा प४/२००७-२१२४ रा वा./२/१०/१२/ ./२/१६१-११२ त्रि.सा./१४-६२२
१ पूर्व २ पश्चिम
३. पूर्व ४ पश्चिम
यमकूट
मेघकूट
चित्रकूट विचित्र फूट
६. दिसाजेन्द्रो नाम
देवने सीशोदा नदीके पूर्व व पश्चिम में क्रम से स्वस्तिक, अजन, भद्रशाल वनमे सीतोदाके दक्षिण व उत्तर तटपर अजन व कुमुदः उत्तरकुरुमे सीता नदीके पश्चिम व पूर्वमेव व रोचन तथा पूर्वी भद्रशाल वनमे सीता नदीके उत्तर व दक्षिण तटपर पद्मोतर व नोस नामक दिग्गजेन्द्र पर्वत है। (वि.प./४/२१०३+ २१२२+२१३०+२१३४ ), ( रा वा /३/१०/१३/१७८/६), (ह पु. /५/ २०५-२०१), (त्रि. सा./६६१-६६२), (ज. प./४/७४-७५) ।
४. जम्बूद्वीप के पर्वतीय कूट व तन्निवासी देव
कूट
देव
क्रम कूट
१. भरत विजयार्थ (पूर्व से पश्चिमको ओर)
(ति. १४/१४० + १६७). ( रा वा./३/१०/४/१७२/१०),
( ह.पु / ५ / २६ ), (त्रि सा / ७३२-७३३), ( ज प / २ / ४९ ) ।
सायन जिनमन्दिर ६ २(दक्षिण) भरत (दक्षिणार्ध) भरत ७ नृत्यमाल - मणिभद्र
ह
३ खण्ड प्रपात
४ मणिभद्र
2 विजयार्थ कुमार विजयकुमार
जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश
-
१०४/२१:१७५/२६ जप/६/१५,१८८७
चित्रकूट
यमकूट मेमकूट
* नोट - त्रि. सा. में मणिभद्रके स्थानपर पूर्णभद्र और पूर्णभद्र के स्थान
पर मणिभद्र है।
७
८
२. ऐरावत विजया (पूर्व से पश्चिम की ओर )
(ति १/४/२३६०) (/ ५ / ११०-११२) (त्रि. सा. / ७३३-०३५) १ वियतन
पूर्णभव
पूर्णभद्र
जिनमन्दिर २ (उत्तरार्ध) ऐरावत (उत्तरार्ध) ऐरावत
तिमिस्र गुह्य : नृत्यमाल
३ खण्ड प्रपात
(दक्षिणार्ध ) ऐरावत (दक्षिणार्ध)
कृतमाल मणिभद्र
४ मणिभद्र
ऐरावत वैश्रवण
२ विजया कुमार निजण कुमार
देव
पूर्णभद्र' तिमिस्र उत्तरार्ध) भारत (उचरार्ध) भरत वैश्रवण वैश्रवण
मेवण हा वैश्रवण
पूर्ण भद्र
कृतमाल
* नोट-त्रि सा में नं. १ व ७ पर क्रमसे खण्डप्रपात व तिमिस्र गुह्य नाम कूट और कृतमालव' नृत्यमाला देव बताये है।
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लोक
४७२
५. द्वीप पर्वतोंके नाम रस आदि
है
कूट
देवक्रम
कूट
देव ।
६
वैश्रवण
हिमवान्
भरत
or m30 ४४
गंगा
.
१
रक्तादेवी
३. विदेहके ३२ विजयाधु-(ति. प/४/२२६०, २३०२-२३०३) ८. रुक्मि पर्वत-( पूर्व से पश्चिमकी ओर ) १ सिद्धायतन | देवोके नाम ६ मणिभद्रदेवोके नाम ॥ (ति प/४/२३४१+ १२४३); ( रा वा /३/११/१०/१८३/३१); २ (दक्षिणार्ध)स्वदेश भरत विजयाई ७ तिमिस्त्रगुह्य | भरत | ( ह.पू./५/१०२-१०४ ), (त्रि. सा /७२७ ); (ज. प./३/४४ ) ।
विजयाध | खण्ड प्रपात
|१| सिद्धायतन । जिनमन्दिर || बुद्धि
८ (उत्तरार्ध)स्वदेश | वत् जानने ४.
रूप्यकूला
रुक्मि (रूप्य) | रुक्मि (रूप्य)६ रूप्यकुला पूर्णभद्र ५ विजयाकुमार
रम्यक
७ हैरण्यवत रम्यक
हरण्यवत
नरकान्ता नरकान्ता ८ मणिकाचन मणिकाचन ४. हिमवाद-(पूर्व से पश्चिमकी ओर )
(कांचन) | (काचन) (ति प./१/१६३२+१६५१), (रा वा/३/११/२/१८२/२४ ),
नोट-रा. वा. व त्रि. सा में नं.४ पर नारी नामक कूट व देव (ह. पु.//५३-५५), (त्रि. सा./७२१), (ज. प./३/४०]
रहता है। सिद्धायतन | जिनमन्दिर । | रोहितास्या रोहितास्या हिमवान्
देवी
६ शिखरी पर्वत-(पूर्व से पश्चिमकी ओर ) भरत
सिन्धु देवी ८ सिन्धु
(ति. प./४/२३५३-२३५१ + १२४३); (रा.वा./३/११/१२/१८४/४), इला इलादेवी
सुरा देवी
सुरा गंगादेवी १० हैमवत हैमवत
(ह. पु/५/१०६-१०८), (त्रि, सा./७२८), (ज, प/३/४५)। श्रीदेवी ११ वैश्रवण वैश्रवण सिद्धायतन। जिनमन्दिर ७ | काचन (सुवर्ण) काचन
२ शिखरी शिखरी ८. रक्तवती रक्तवती देवी
हैरण्यवत हैरण्यवत E गन्धवतीगन्धवती ५ महाहिमवान ( पूर्व से पश्चिमकी ओर )
(गान्धार) | देवी (ति. प/४/१७२४-१७२६); (रा, वा/३/११/४/१८३/४); (ह, पु/ ॥
रैवत (ऐरावत) रेवत: ७१-७२), (त्रि सा/७२४), (ज, प/३/४१)।
११ मणिकाचन मणिकांचन १ सिद्धायतन जिन मन्दिर । ५ | हरि (ह्री)
लक्ष्मी देवी
। हरि (ही)| २ महाहिमवान् महाहिमवान् ६ हरिकान्त हरिकान्त |
* नोट-रा. वा. में नं. ६,७, ८,६,१०,११ पर क्रमसे प्लक्षणकूला, ३ | हैमवत हैमक्त
हरिवर्ष हरिवर्ष
लक्ष्मी, गन्धदेवी, ऐरावत, मणि व कांचन नामक कूट व देव देवी ४ | रोहित रोहित ८ | वैडूर्य
६ निषध पर्वत-(पूर्व मे पश्चिमकी ओर) (ति. प./४/१७५८-१७६० ): (रा वा./३/११/६/१८३/१७), ( ह. पू./
१० विदेहके १६ वक्षार१/८८-८६); (त्रि, सा./७२५); (ज. प./३/४२)।
(ति. प./४/२३१०), ( रा बा./३/१०/१३/१७७/११), (ह. पू./१ सिद्धायतन | जिनमन्दिर ।६। विजय
५/२३४-२३५), (त्रि सा./७४३)।
विजय | निषध निषध
सीतोदा सीतोदा
११ सिद्धायतन । जिनमन्दिर ।३। पहले क्षेत्रका | कूट सदृश ३ हरिवर्ष हरिवर्ष८ अपर विदेह अपर विदेह
| नाम | नाम ४ पूर्व विदेह पूर्व विदेह
रुचक रुचक
|| २ स्व वक्षारका | कूट सदृश |४| पिछले क्षेत्रका | कूट सदृश ५ ' हरि (ही): हरि (ह्री): ।।
नाम
नाम । नाम *नोट-रा. वा. व त्रि सा मे नं ६ पर धृत या धृति नामक कूट व
* नोट-ह पु मे न. ४ कूट पर दिक्कुमारी देवीका निवास बताया है। देव कहे है। तथा ज. प. मे नं ४,५.६ पर क्रमसे धृति, पूर्व विदेह और हरिविजय नामक कूटदेव कहे है।
११ सौमनस गजदन्त-( मेरुसे कुल गिरिको ओर )
(ति. ५/४/२०३१+२०४३-२०४४), (रा.वा./३/१०/१३/१७५/१३); ७ नील पर्वत-(पूर्व से पश्चिमकी ओर )
(ह पु./५/२२१,२२७), (त्रि. सा./७३६) । (ति प/४/२३२८ + २३३१); (रा.वा /३/११/८/१८३/२४), (ह.पु। ॥ (ति प., ह पु.: त्रि, सा.)
(रा.वा.) १/88-१०१), (त्रि. सा /७२६), (ज. प./३/४३) ।
||१| सिद्धायतन | जिनमन्दिर || सिद्धायतन |जिनमन्दिर १ सिद्धायतन | जिनमन्दिर । नारी नारी सौमनस
सौमनस २ सौमनस नील ७ अपर विदेह अपर विदेह
देवकुरु देवकुरु
देवकुरु देवकुरु ३ पूर्व विदेह पूर्व तिदेह रम्यक रम्यक
मगल
मगल ४ मगलावत |४ सीता सीता अपदर्शन अपदर्शन
विमल वत्समित्रा देवी ५ पूर्व विदेह पूर्वविदेह | कीति कीर्ति ६ काचन सुवत्सा ६. कनक
सुवत्सा नोट-रावा, व त्रि, सा, मे नं.६ पर नरकान्ता नामक कूट व
(ममित्रा देवी)|७ काचन वत्समित्रा देवी कहा है।
| विशिष्ट | विशिष्ट
८. विशिष्ट | विशिष्ट
नाम
सौमनस
मंगल
जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश
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लोक
५. द्वीप पर्वतोके नाम रस आदि
सं कूट । देव कूट देव ||सं. कूट देव स. ट १२. विद्युत्प्रभ गजदन्त-( मेरुसे कुल गिरिकी ओर)
५. सुमेरु पर्वतके वनों में कूटोंके नाम व देव (ति. प./४/२०४५-२०४६+२०५३+२०५४); (रा. वा./३/१०/१२/
(ति. प./४/१९६९-१९७७); (रा. वा./३/१०/१३/१७४/१६); १७५/१८), (ह. पु./५/२२२, २२७ ); (त्रि. सा./७३६-७४०)।
(ह. पु./५/३२६); (त्रि. सा./६२७ ); (ज. प./४/१०५)। (ति. प. ह. पु., व त्रि. सा.) (रा. वा.)
(ति प.) सोमनस वनमें (शेष ग्रन्थ) नन्दन वनमे १ | सिद्धायतन | जिनमन्दिर ।। सिद्धायतन जिनमन्दिर
विद्या प्रभविद्या प्रभ 1२ | विद्यत्प्रभ विद्याप्रभ ।।१। नन्दन मेघ करा |१| नन्दन मेघकरी देवकुरु देवकुरु देवकुरु | देवकुरु
मन्दर
मेघवती २ मन्दर मेघवती पद्म पद्म
निषध
सुमेघा ३ | निषध सुमेघा तपन वारिषगादेवी विजय वारिषेणादेवी|४| हिमवान् मेघमालिनी । ४ हैमवत* मेघमालिनी स्वस्तिक बला देवी अपर विदेह
५ रजत
तोयंधरा
| ५ | रजत* तोयन्धरा शतउज्ज्व ल शतउज्ज्वल ७ स्वस्तिक स्वस्तिक रुचक
विचित्रा (शतज्वाल) (शतज्वाल) शतज्वाल शतज्वाल ७/ सागरचित्र पुष्पमाला सागरचित्र पुष्पमाला* सीतोदा सीतोदा सीतोदा सीतोदा
अनिन्दिता ८ वज्र आनन्दिता हरि
Gmmoc00.00
४] पद्म
| पद्म
बलादेवी
विचित्रा
वज्र
६] हरि
*नोट-ह. पु. में बलादेशीके स्थानपर अचलादेवी कहा है ।
*नोट-ह. पु. मे सं. ४ पर हिमवत; सं.६ पर रजत; सं.८ पर चित्रक नाम दिये हैं। ज. प. में सं. ४ पर हिमवान. सं. ५ पर
विजय नामक कूट कहे है। तया सं.७ पर देवीका नाम मणि१३. गन्धमादन गजदन्त-( मेरुसे कुलगिरिकी ओर )
मालिनी कहा है। (ति.प./४/२०५७-२०५६); (रा. वा./३/१०/१३/१७३/२४ );
(ह. पु./२/२१७-२१८ +२२७), (त्रि. सा./७४०-७४१)। १। सिद्धायतन | जिनमन्दिर | लोहित* भोगवती २ | गन्धमादन गन्धमादन ६ | स्फटिक भोगहति | देवकुरु* | देवकुरु*
| (भोग करा) गन्धव्यास गन्धव्यास ७ | आनन्द
| आनन्द (गन्धमालिनी)
६. जम्बूद्वीपके द्रहों व वापियोंके नाम नोट-त्रि. सा. मे सं ३ पर उत्तरकुरु कहा है। और रा. वा. मे ||
१. हिमवान आदि कुलाचलोंपरलोहितके स्थान पर स्फटिक व स्फटिकके स्थानपर लोहित कहा है।
कमसे पद्म, महापद्म, तिगिछ, केसरी, महापुण्डरीक व पुण्ड
रीक द्रह है। ति. प. में रुक्मि पर्वतपर महापुण्डरीकके स्थानपर १४. माल्यवान गजदन्त-(मेरुसे कुलगिरिकी ओर )
पुण्डरीक तथा शिखरी पर्वतपर पुण्डरीकके स्थानपर महापुण्डरोक (ति. प./४/२०६०-२०६२ ); ( रा. वा./३/१०/१३/१७३/३०), कहा है। (दे० लोक/३/१४ व लोक/३/६)। (ह. पु./५/२१६-२२०+२२४); (त्रि. सा./७३८)। (ति. प., ह. पु.: त्रि. सा.)
(रा.वा.)
२. सुमेरु पर्वतके बनोंमें-आग्नेय दिशाको आदि करके (ति.प./ १ सिद्धायतन जिनमन्दिर || सिद्धायतन जिनमन्दिर॥ ४/१६४६,१६६२-१९६३), (रा. वा./३/१०/१२/१७६/२६); ( है. पृ./ २ माक्यवाद | माव्यवाच |२| माल्यवान मान्यवाद ५/३३४-३४६), (त्रि. सा./६२८-६२६), (ज. प./४/११०-११३) । ३. उत्तरकुरु उत्तरकुरु ३उत्तरकुरु उत्तरकुरु कच्छ कच्छ कच्छ कच्छ सौमनसवन | नन्दन वन
सौमनसकन नन्दनवन सागर भोगवतीदेवी || विजय |विजय
(ति, प.) । (रा.वा.) (ति. प.) | (रा. वा. (सुभोगा) रजत भोगमालिनी |६ सागर भोगवती |१| उत्पलगुरुमा उत्पलगुसमा |७| कज्जला कज्जला देवी
| नलिना नलिना
| कज्जलप्रभा
कज्जलप्रभा ७ पूर्णभद्र पूर्णभद्र
रजत भोगमालिनी उत्पन्ना उत्पला
श्रीभद्रा श्रीकान्ता ८ सीता सीतादेवी ८ | पूर्णभद्र
उत्पलोज्ज्वला उत्पलोज्ज्वला १० श्रीकान्ता श्रीचन्द्रा
पूर्णभद्र हरिसह हरिसह 8 सीता
५ भृगा भृगा
श्रीमहिता श्रोनिलया ९० हरि
| भृगनिभा भृ'गनिभा | १२ श्रीनिलया श्रीमहिता
cm
४
| १११
सीता
हरि
-
-
जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश
भा० ३-६०
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लोक
४७४
५. द्वीप पर्वतोके नाम रस आदि
... सौमनसवनमे । नन्दनवनमे । सौमनसबनमें नन्दनवनमे | ३. विदेह क्षेत्रकी १२ विभंगा नदियोंके नाम ति प. रा. वा. ति. प. | रा.वा.
(ति. प/४/२२१५-२२१६), (रा वा /३/१०/१३/१७५/३३+ १७७/७, १३ नलिना (पद्मा) नलिना (पद्मा) १५ कुमुदा
१७,२५). (ह पु./५/२३६-२४३), (त्रि सा/६६६-६६६), (ज.५/
कुमुदा १४ नलिनगुल्मा | नलिनगुल्मा १६ | कुमुद्रप्रभा कुमुद्रप्रभा ८-हवाँ अधिकार)। (पद्मगुन्मा) । (पद्मगुल्मा) |
नदियोके नाम
अवस्थान नोट-ह.पु., त्रि. सा.व ज प. में नन्दनबनकी अपेक्षा ति.प. वाले
ति प, रा वा त्रि साज. प. ही नाम दिये है।
द्रवती ग्राहवती गाध- ग्रहवती उत्तरीपूर्व विदेह
| वती
में पश्चिमसे २ ग्राहवती हृदया- दहवती द्रहवती ३. देव व उत्तरकुरुमे
पूर्व की ओर
| वती
३) पक्वती पंकावती पकवती पकवती (ति. प./४/२०६१,२१२६ ): (रा. वा /३/१०/१३/१७४/२६ + १७५/५,६,
(दक्षिणी पूर्व १
तप्तजला
तप्तजला तप्तजला तप्तजला है, २८), (ह. पु/५/१६४-१६६); (त्रि. सा./६५७), (ज. प./4/
विदेहमे पूर्वसे मत्तजला मत्त जला मत्तजला मत्तजला २८,८३)।
(पश्चिमकी ओर उन्मत्त जला उन्मत्तज-उन्मत्तज.उन्मत्तज. देव कुरुमें
क्षीरोदा क्षीरोदा क्षीरोदा । उत्तरकुरुमे । देवकुरुमे
(दक्षिणी अपर उत्तरकुरुम
क्षीरोदा
विदेहम पूर्वसे २ सीतोदा 'सं. दक्षिणसे उत्तर- | उत्तरसे दक्षिण- सं. | दक्षिणसे उत्तर-| उत्तरसे
सीतोदा सीतोदा सीतोदा की ओर | की ओर
की ओर | दक्षिणकी पश्चिमकी ओर ३ औषध वाहिनी से तान्तर सोतो- सोतो
वाहिनी वाहिनी वाहिनी ओर
उत्तरी अपर १ गंभीरमालिनी गंभीरमा.गंभीरमा.गंभीरमा निषध
सुलस
र विदेहमे पश्चिम-२ फेनमालिनी फेनमा. फेनमा | फेनमा. दैवकुर उत्तर कुरु
विद्युत् | माल्यवान् || से पूर्व की ओर ३ ऊर्मिमालिनी ऊमिमा, उर्मिमा उर्मिमा चन्द्र
(तडित्प्रभ)
नील
ऐरावत
.. महाद्रहों के कूटोंके नाम १ पद्मद्रहके तट पर ईशान आदि चार विदिशाओमे वैश्रवण, श्रीनिचय,
क्षुद्राहिमवान् व ऐरावत ये तथा उत्तर दिशामे श्रीसंचय ये पॉच कूट है। उसके जलमे उत्तर आदि आठ दिशाओमे जिनकूट, श्रीनिचय, वैडूर्य, अकमय, आश्चर्य, रुचक, शिखरी व उत्पल ये आठ कूट है। (शि. ५/४/१६६०-१६६५) । २ महापद्म आदि द्रहो के कूटोके नाम भी इसी प्रकार हैं। विशेषता यह है कि हिमवान्के स्थानपर अपने-अपने पर्वतोके नामवाले कूट है । (ति. प/४/१७३०-१७३४,१७६५-१७६६)।
९. लवणसागरके पर्वत पाताल व तनिवासी देवोंके
नाम
(ति.प./४/२४१०+२४६०-२४६६); (ह. पु/५/४४३,४६०); (त्रि. सा./१+१०५-१०७); (ज. प./१०/६+६०-३३)।
ओर
८. जम्बूद्वीपकी नदियोंके नाम १. भरनादि महाक्षेत्रोंमें
क्रमसे गंगा-सिन्धु, रोहित-रोहितास्या, हरित हरिकान्ता; सीता-सीतोदा, नारी-नरकान्ता, सूवर्ण कूला-रूप्यकूला, रक्ता-रक्तोदा ये १४ नदियाँ है । (दे० लोक/३/१.७ व लोक/३/११) ।
| सागरके अभ्यन्तर | मध्यवर्ती | सागरके बाह्यभागकी दिशा
_भागकी ओर पातालका | पर्वत देव नाम पर्वत । देव पूर्व कौस्तुभ कौस्तुभ पाताल कौस्तुभावास कौस्तुभावास | दक्षिण | उदक | शिव कदम्ब उदकावास शिवदेव पश्चिम शंख उदकावास -बडवामुख ] महाशंख उदक उत्तर दक । लोहित | युपकेशरी | दकवास लोहितांक
(रोहित) नोट-त्रि. सा. में पूर्वादि दिशाओमें क्रमसे बडवामुख, कदमक,
पाताल व यूपकेशरी नामक पाताल बताये है।
२. विदेहके ३२ क्षेत्रोंमें
गंगा-सिन्धु नामकी १६ और रक्ता-रक्तोदा नामकी १६ नदियाँ है। (दे० लोक/२/११)।
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४७५
५. द्वीप पर्वतोंके नाम रस आदि
लोक
१०. मानुषोतर पर्वतके कूटों व देवोंके नाम (ति. प./४/२७६६+२७७६-२७८२); (रा. वा./३/३४/६/१६७/१४); (ह. पु./५/६०२-६१०): (त्रि. सा./६४२)।
दिशा
दिशा ति. प.व
रा. वा. ह.पु. त्रि.सा. पश्चिम १. विजया | अशोका
वैजयन्ती | सुप्रबुद्धा वेणुताल जयन्ती कुमुदा वरुण (धरण) अपराजिता पुण्डरीकिणी । भूतानन्द
प्रभं करा रमणीय
यम सुप्रभा
आनन्दा
सोम सर्वतोभद्रा । सुदर्शना
ৰমণ
देव
बरुण
उतर
उत्तर ।१ रम्या
सुमना
दक्षिण
४
नोट- दक्षिणके कूटोंपर सौधर्म इन्द्रके लोकपाल, व्या उत्तरके
कूटोंपर ऐशान इन्द्र के लोकपाल रहते हैं।
पश्चिम
वैडूर्य अश्मगर्भ सौगन्धी रुचक लोहित अंजन अंजनमूल कनक रजत स्फटिक अंक प्रवाल तपनीय रत्न प्रभजन वज्र वेलम्ब* सर्वरत्न*
यशस्वान् यशस्कान्त यशोधर नन्द (नन्दन) नन्दोत्तर अशनिघोष सिद्धार्थ वैश्रवण (क्रमण) मानस (मानुष्य) सुदर्शन मेष ( अमोघ) सुप्रबुद्ध स्वाति
उत्तर
आग्नेय
घेणु
ईशान
१२. कुण्डलवर पर्वतके कूटों व देवोंके नाम
वेणुधारी हनुमान वेलम्म वेणुधारी (वेणुनीत)
वायव्य
नेऋत्य
दृष्टि सं०१-(ति. ५/५/१२२-१२५); (त्रि. सा./६४४-६४५); दृष्टि सं०२-(ति. प./२/१३३); (रा. वा./३/३५/-/१९६/१०)
(ह. पू./114६०-६६४)।
नोट-रा.वा. व ह. पु. में सं. १९०१७ व १८ के स्थानपर
क्रमसे सर्वरत्न, प्रभंजन व वेलम्ब नामक कूट हैं। तथा वेणुतालि, प्रभंजन व वेलम्ब ये क्रमसे उनके देव हैं।
दिशा
दृष्टि सं.)
इष्टि सं. २
दक्षिण
१. नन्दीश्वर द्वीपकी वापियाँ व उनके देव
पूर्वादि क्रमसे (ति. प./२/६३-७८); (रा. वा./३/३५/-/१९८/९); (ह. पु./५/६५६६६५); (त्रि. सा./E48-६७०)।
बन वज्रप्रभ कनक कनकप्रभ
रजत रजतप्रभ (रजताभ)
सुप्रभ महाप्रभ
क अंकप्रभ मणि मणिप्रभ रुचक* रुचकाम* हिमवान्*
स्व स्व कूट सदृश नाम
विशिष्ट (त्रिशिरा) पंचशिर महाशिर महाबाहू पद्म पद्मोत्तर महापद्म वासुकी स्थिरहृदय महाहृदय श्री बृक्ष स्वस्तिक सुन्दर विशाल नेत्र पाण्डुक पाण्डर*
पश्चिम
दिशा
ति, प.व. त्रि, सा.
रा.वा.
।
उत्तर
cdn0
मन्दर*
नन्दा नन्दवती नन्दोत्तरा नन्दिघोष अरजा विरजा अशोका वीतशोका
नन्दा सौधर्म नन्दवती ऐशान नन्दोत्तरा चमरेन्द्र नन्दिवोष वैरोचन विजया वरुण वैजयन्ती
। यम जयन्ती सोम अपराजिता | वैश्रवण
दक्षिण
ام
नोट-रा.वा. व. ह. पु. में उत्तर दिशाके कूटोका नाम क्रमसे
स्फटिक, स्फटिकप्रभ, हिमवान् ब महेन्द्र बताया है। अन्तिम दो देवोंके नामों में पाण्डुकके स्थानपर पाण्डुर और पाण्डुरके स्थानपर पाण्डक बताया है।
سه
»
जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश
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लोक
५. द्वीप पर्वतोके नाम रस आदि
ति. प , त्रि, सा
ति. प., त्रि. सा.
दिशा स
१३. रुचकवर पर्वतके कूटों व देवों के नाम १. दृष्टि सं० १ की अपेक्षा (ति. प./२/१४५-१६३), (रा. वा /३/३५/-/१६६/२८), (ह पु/५/७०५-७१७), (त्रि. सा./६४-६५८)।
देवियोका काम
देवी
देवी
| उपरोक्त १ विमल | कनका की अभ्य २ नित्यालोक शतपदा न्तर दि
| (शतहदा शाओमे ३ स्वयप्रभ । कनकचित्रा
४नित्योद्योत सौदामिनी
दिशाएँ निर्मल करना देवियोका काम
ति प.; त्रि सा. दिशा स.
रा. वा. , ह पु
देवियोका काम
देवी
कूट
देवी
उपरोक्त- १ रुचकरुचककीति की अभ्य २ मणि
रुचककान्ता न्तर दि.३ राज्योत्तम रुचकप्रभा शाओमे ४ वैडूर्य | रुचका
१ कनक विजया | वैडूर्य विजया | २ काचन | वैजयन्ती
2 काचन | वैजयन्ती ३ तपन | जयन्ती | कनक वैजयन्ती ४ स्वतिक- अपराजिता
अरिष्टा अपराजिता दिशा सुभद्र नन्दा दिकस्वतिक नन्दा ६अजनमूल । नन्दवती | नन्दन नन्दोत्तरा
अजन नन्दोत्तर अंजन आनन्दा वज्र नन्दिषेणा अजनमूल नन्दिवर्धना
जन्म कल्याणपर भारी धारण करना देवियों का काम
जातम करना
झारी धारण करना जन्म कल्याकण पर
दक्षिण | स्फटिक
रजत २ कुमुद ४ नलिन
| इच्छा | समाहार
| अमोघ सुप्रबुद्ध मन्दिर विमल
| सुप्त को
| सुस्थिता | सुप्रणिधि
सुप्रबुद्धा यशोधरा
यशोधरा
२ दृष्टि सं २ की अपेक्षा
दर्पण धारण करना
५ पद्म ६| चन्द्र ७ वैश्रवण ८ वडूय
जन्म कल्याणकपर दर्पण धारण करना
लक्ष्मी शेषवती चित्रगुप्ता वसुन्धरा
रुचक लक्ष्मीवती रुचकोत्तर | कीर्तिमती
वसुन्धरा सप्रतिष्ठ
(ति प/१६६-१७७); (राबा /३/३५/-1१६६/२४); (ह.पू/५/७०२-७२७)।
ब
पश्चिम १ अमोध इला
२ स्वस्तिक सुरादेवी ३ मन्दर - पृथिवी
पद्मा
देवीका काम
करना
सुरा
गजेन्द्र | देवीका काम
४ हैमवव
याणकपर छत्र धारण करना
एकनासा
जन्म कल्याणकपर छत्र धारण
लोहिताक्ष जगत्कुसुम पद्म पृथिवी नलिन पद्मावती
(पद्म)। कुमुद
कानना
(कांचना) सौमनस नबमिका
यशस्वी
(शीता) भद्र
भद्रा
राज्योत्तम नवमी
सीता
सुदर्शन
(ति प.)
रा. वा. ह पु. दिशा सं । कूट | देवी
देवी चारो १ नन्द्यावर्त | पद्मोतर दिशाओ २ स्वस्तिक सुभद्र
सहस्ती | में ३ श्रीवृक्ष नील ।
४ वर्धमान | अंजन गिरि अभ्यंतर दिशामें ३२ दे० पूर्वोक्त दृष्टि सं.१ में प्रत्येक दिशाके आठ कूट || विदि-1 ११ वैडूर्य रुचका शामें प्र- २ मणिभद्र विजया
विजया दक्षिणा ३ रुचक रुचकाभा रूपसे ४ रत्नप्रभ ।
वैजयन्ती रत्न | रुचकान्ता मणिप्रभ रुचककान्ता ६ शरवरत्न | जयन्ती सर्वरत्न जयन्ती ७ रुचकोत्तम रुचकोत्तमा
रुचकप्रभा ८ रत्नोञ्चय | अपराजिता उपरोक्त-१ विमल | कनका
चित्रा के अभ्य-२ नित्यालोक | शतपदा
कनकचित्रा न्तर भा
(शतहदा) गमें चारो ३/ स्वयंप्रभ कनकचित्रा |
त्रिशिरा |दिशा ४ नित्योद्योत | सौदामिनी
सूत्रमणि
भद्रा
उत्तर
१, विजय | अल भूषा २ वैजयन्त मिश्रके शो जयन्त | पुण्डरो किणी
| ४ अपराजित | वारुणी ५ कुण्डलक
आशा ६ रुचक सत्या रत्नकूट
जन्म क्याणकपर चॅवर धारण करना
स्फटिक | अलभूषा अक
मिश्रकेशी अजन | पुण्डरी किणी कांचन
। वारुणी रजत
आशा कुण्डल
| हो रुचिर (रुचक)
जन्म क्ल्याणकपर चॅवर धारण करना|
दिशाओमें उद्योत करना जातकर्म करनेवाली महत्त
दिशाओं मे उद्योत करना जातकर्मकरनेवाली महत्तरिका
个个个
साल
सुदर्शन
ओमें ।।
जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश
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________________
छोक
सं.
१
२
३
५
ह
११ १२
१३
१७
१४. पर्वतों आदि वर्ण
१६
हिमवान् महाहिमवाद
निषध
नील
रुचिम
शिखरी
विजयार्थ
विजयार्ध के कूट सुमेरु :पाण्डुक शिला
पाण्डुकम्बला
रक्तकम्बला
अतिरक्त
नाभिगिरि
मतान्तर
वृषभ गिरि
गजदन्त :
सौमनस
विद्याभ
गन्धमादन
माल्यवान् कांचन
मतान्तर
वक्षार
वृषभ गिरि
११४
१५
२६ गंगाकुंड
झेल
नाम
गंगाकूट
पद्मद्रहका कमलः
मृणाल
कन्द
नाले
पत्ते
कर्णिका
केसर
जम्बूवृक्षस्थलसामान्य स्थल इसकी वाषियोंके
कूट
स्कन्ध
पीठ
बेदियाँ:
जम्बूद्दीपक जगती भद्रशालवन (वेदी) नन्दनवन वेदी
ति. १/४/ या सं
६५
33
१०७
19
נג
१८२०
१८३०
१८३४
१८३२
13
22
२२६०
"
२०१६
כל
39
२२०
२२१
२२३
२१६२
२१५५
२१५२
१६
२११४
१६८६
रा. वा/३/सू./ मा./पु/पिं
(१३/-/१०४/१९ (व. सू /३/१२
53
१०|४|१७१|१५
१०/१३/२८०/१८
ע
"
כן
←
१०/१३/१७५/११ १०/१२/१०६/१७
१०/१२/१०२/१६
१०/२३/१०५/१
१७/१९८५/६
"2
"9
२२/२/१००/३
カラ
१०/१३/१७४ /२२
१०/१३/१००/५ १०/१३/१७६/६
४७७
प्रमाण
६.पू./५/ श्लो. सं.
२१
३४७
33
२१२
२१०
२११
२०२
१७५
त्रि. सा./ गा. सं.
५६६
जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश
32
2
६७० दे०सी०/२/६४ ला ३/७
>
७१६
७१०
६६३
15
33
६३३ ४/१३
39
ज.प. अधि./गा.
३/३
६५६
६००
७१०
"
כן
39
19
२/३२
. . .
३/२१०
५७० २/७३
५. द्वीप पर्वतोंके नाम रस आदि
उपमा
सुवर्ण
चाँदी
तपनीय
वैडूर्य
रजत
सुवर्ण
रजत
सुवर्ण
अर्जुन सुवर्ण
रजत
रुधिर
समर्थ तपनीय
दधि
सुवर्ण
כן
चॉदी तपनीय
कनक
सूर्य
काचन
तोता
सुवर्ण
כן
वज्र
सुवर्ण
रजत
अरिष्ठमणि वैडूर्य
लोहिताक्ष
अर्कमणि
तपनीय
·· 1 114 1
पुखराज
वर्ण
पीत (रा.वा.)
शुक्ल (रा. वा. ) तरुणादित्य (रक्त) मयूरग्रीव ( रा वा० )
शुक्ल
पीत (रा.बा.)
शुक्ल
पीत
वर्ण
श्वेत
विदुम (श्वेत)
लाल
रक्त
श्वेत
13
स्फटिक रा. ना.
रक्त
पीत
(नीला)
मैं वै वै वे मैं मैं मैं मैं मैं मैं वै वै वै वैसे वै
केशर
पीत
पद्मवर (रा. वा)
33
Page #485
--------------------------------------------------------------------------
________________
लोक
४७८
६. द्वीप क्षेत्र पर्वत आदिका विस्तार
प्रमाण
वर्ण
ह.पु./५/- | त्रि. सा./- ज. प./श्लो. सं. गा. सं. | अधि /गा
उपमा
वर्ण
नाम
ति. प/४/-
गा. स. सौमनसवन ( वेदी) १९३८ पाण्डकवन वेदी जम्बूवृक्ष वेदी जम्बूवृक्षकी १२ वेदियाँ । २१५१
सुवर्ण
पद्मवर (रा. वा.)
रावा/३/सूत्र/-
वा.//पंक्ति १०/१३/१८०/२ १०/१३/१८०/१२ ७/१/१६६/१८ ७/१/१६६/२० तथा १०/१३/१७४/१७
(जाम्बूनद सुवर्ण), रक्ततायुक्त पीत सुवर्ण
पद्मवर
सुवर्ण
पीत
३/१६९
श्वेत
हिम कंदपुष्प मृणाल शख रजत
हरित
श्वेत धवल पीत
।
२४६१
सुवर्ण
सर्व वेदियों नदियोंका जलगगा-सिन्धु रोहित-रोहितास्या हरित-रिकान्ता सीता-सीतोदा लवणसागरके पर्वत- पूर्व दिशा वाले दक्षिण दिशा वाले पश्चिम दिशा वाले उत्तर दिशा वाले इष्वाकार मानुषोत्तर अंजन गिरि दधिमुख रतिकर कुण्डलगिरि रुचकवर पर्वत
अकरत्न
१०/३० १०/३१ १०/३२ १०/३३
रजत
श्वेत
भील
सुवर्ण
पीत
५६५
इन्द्रनीलमणि
६६६
दही
काला
सफेद रक्ततायुक्त पीत
सुवर्ण
३/३५/-/१६६/२२
६. द्वीप क्षेत्र पर्वत आदिका विस्तार
१. द्वीप सागरोंका सामान्य विस्तार १. जम्बूद्वीपका विस्तार १००,००० योजन है। तत्पश्चात सभी समुद्र व द्वीप उत्तरोत्तर दुगुने दुगुने विस्तारयुक्त है। (त.सू./३/८); (ति.प./५/३२) २. कवणसागर व उसके पातालादि १. सागर
स्थल विशेष
विस्तारादि में क्या प्रमाण यो,
(ह. पु.//४३४),
दृष्टि सं.१-(ति. प/४/२४००-२४०७); (रा. वा/३/३२/३/१६३/८),
(त्रि. सा./६१५); (ज. प./१०/२२)। पृथिवीतल पर किनारोसे १५००० योजन भीतर जानेपर तल मे " "
" आकाशमें
विस्तार
२००,००० १०,००० १०,००० १००० ७००
गहराई
११०००
आकाशमे दृष्टि स. २
लोग्गायणीके अनुसार उपरोक्त प्रकार आकाशमें अवस्थित
(ति. प./४/२४४५), (ह. पु./१/४३४)। दृष्टि सं.३
सग्गायणीके अनुसार उपरोक्त प्रकार आकाशमें अब स्थित (ति, प./४/२४४८)। तीनो दृष्टियोसे उपरोक्त प्रकार आकाशमे मूर्णिमाके दिन
१००००
दे० लोक/४/१
जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश
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________________
लोक
६. द्वीप क्षेत्र पर्वत आदिका विस्तार
२. पाताल
पाताल विशेष
विस्तार यो. | मध्यमें
रा वा/३/ ३२/४/१३३/१ ह. पु/गा०) त्रि सा./
गा.
ज.प/१०/
गा.
मूलमें
गहराई
ऊपर
मोटाई
।
गा.
ज्येष्ठ
१०,०००
१००,०००
१०,००० १०००
१०००
୫୫୪ ४५१
१०,०००
१००,००० १०,००० १०००
मध्यम जघन्य
२४१२ २४१४ २४३३
१००
१०००
३. पर्वत व द्वीप
ति.प./४/
ৰিহীৰ
नाम
विस्तार
ऊँचाई
त्रि. सा./ गा. नं
ज.प/१० गानं
२४५८
१०९
१००० १२०००
६१०
पर्वत सागरके विस्तारको दिशामें ११६००० गौतम द्वीप | गोलाईका व्यास
१२०००
विस्तार
दृष्टि सं.१ । दृष्टि स.२ दिशाओ वाले
१०० कुमानुष द्वीप विदिशा वाले
५५ अन्तरदिशा वाले
पर्वतके पास वाले ३. अढाई द्वीपके क्षेत्रोंका विस्तार-१. जम्बू द्वीपके क्षेत्र
(दे० लोक/४/१)
१००
नाम
भरत सामान्य
दक्षिण भरत उत्तर भरत हैमवत् हरिवर्ष विदेह
जीवा
प्रमाण विस्तार (योजन) दक्षिण । उत्तर (योजन)
पार्श्व भुजा (योजन) ति, प./४/
जप ह पु./गा. त्रि.सा./गा
। अ/गा धनुषपृष्ठ ५२६वर १४४७११ १४५२८१५१०५+ १६२ | १८+ ४० ६०४+७७१/ २/१०
धनुषपृष्ठ २३८६३ ९७४८१३ ९७६६६१ १८४
१४४७११३ १८१२३४ | १६१ २१०५१३ ३७६७४१६ ६७५५३२ १६६६७ । ७७३ ८४२११२ ७३९०११३ १३३६११४
१७३६
७७५
३/२२८ ३३६८४ (मध्यमें १००,००० ३३७६७२
६०५+७७७, ७३ उत्तर व दक्षिणमें (पर्वतोंकी जीवा हरिवर्षवत्
२३३५ हैमवतवद
२३५० भरतवत
अपने अपने पर्वतोको उत्तर जीवा
१७७५
।
रम्यक हैरण्यवत्
ऐरावत | देवकुरु व उत्तर कुरु
दृष्टि सं.१
२३६५
११५९२६६
दृष्टि सं.२ दृष्टि सं.३
११८४२६२
५३०००
६०४१८१२ । २१४०
(धनुष पृष्ठ) ५२०००
२१२६ ५३००० ६०४१८१३
(धनुष पृष्ठ)
- (रा वा./३/१०/१२/१७४/३) दक्षिण-उत्तर १६५९२२३ ।
२२१७+ (रा. वा /३/१०/23/RGERY
३२ विदेह
पूर्वापर
२२१२१
६०५७/११+२०
-
जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश
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--------------------------------------------------------------------------
________________
लोक
२ भातकीखण्ड क्षेत्र
नाम
भरत
हैमवत
हरिवर्ष
विदेह
रम्यक
हैरण्यमद
ऐरावत
नाम
दोनो रु
नाम
लांग लावती-
लम्बाई
महाकच्छा सुगन्धा कच्छकावती - गन्धा
खा
द्वीप के विस्तार वत्
पुष्कशा सुवा
प्रा-पुष्पलामती
- महावप्रा
महापद्मा-सुरम्या
पद्मावती-रम्या
गलिना-महामत्सा
कुमुदा-सुवत्सा
सरिता वत्सा
अभ्यन्तर (योजन )
६६१४३१ई
२६४५८२१रे
१०५८३३३५
४२३३३४३१२
बाण
३६६६८०
पूर्व पश्चिम विस्तार
दोनो बाह्य विदेहोके क्षेत्र-ति. १/४/गा. स ) (४४) ( सा १११-१३) कागन्धमालिनी
५१४१५४३१२
५०९५७०३९३ ५१९६९३३६
सुया-गन्धिता
५२६१०० ५३९२२२३
५२४२७७११६ १६ ५४३८०६३३२ ५५३२१३२१रे ५६३३३५२१
५७२७४२
५८२८६४३४४
दोनो अभ्यन्तर विदेहोके क्षेत्र - ( ति प /४/गा. स ), ( ह पु / ५ / ५५५ ), ( त्रि. सा / ६३१-१३३ ) पद्मा-मगलावती
२९००३९३६३
२९४६२३३६६ २८४५०१२१२
सुपद्मा-रमणीया
२७९९१७३१२
प /४/२६०७ )
प्रत्येक क्षेत्र = ९७३८ यो०
( ति.
प्रत्येक क्षेत्र -६६३३ ( ति प /४/२६०७)
आदि
विस्तार
मध्यम (योजन )
२०१२२९८३१३
८०५१९४१६ हरिवर्ष
डैममलवस
भरतत्रत्
3
१२५८१२१२
५०३२४३४४
२०
२४
१२
५४८६२९ शव रे ५५८७५१११३ ५६८१५८३१२ ५७८२८०३३४
***
५२
२७५०९४१६४ २६४९७२२१२
२५५५६५३१२
२४५४४२२१२ २३६०३६६६१ २२५९१४२१२
जोवा
२२३१५८
मध्यम
दक्षिण-उत्तर लम्बाई ( योजन )
जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश
१८५४७३५५ ७४१९०३२३ २९६७६३३१
११८७०५४३६३
२७०५१०२६२
२६०३८८२२२
२५०९८१३१२
२४०८५९२१२ २३१४५२३६२
२२१३३०२१२
१३२
६. द्वीप क्षेत्र पर्वत आदिका विस्तार
बाह्य (योजन )
१७२
←
←
धनुषपृष्ठ
२५४८६
अन्तिम
( ति प /४/२५६४-२५७२ ), ( रा वा /
२५६३
२८५४५५३६ २७५३३३२१२
पि./गा./५/रो
の
प्रमाण
/4/')
५०२-५०४ ) ( त्रि सा./ १२६ ), ( ज. ३/३३/२-७/१२/२); प./११/६-१७)
५३५
५१८७३८३१२
५२८८६१३६६
५३८२६८
२६४६
५४८३९०३३१ ५५७७९७२ ५६७९१९२३३ २६५० ५७७३२६५६ ५८७४४८३३६
२६५६ २६५८
ति प /४/ गां.
२६२२
२६३४
२६३८
२६४२
२६७०
२६७४
२६५९२६३६४ २६७८ २५५८०४२१२ २६८२ २४६३९७३१२ २६-६ २३६२७५३१२ २२६८६८१११ २६६४ २१६७४६२१२ २६६८
२६६०
Page #488
--------------------------------------------------------------------------
________________
लोक
४८१
६. द्वीप क्षेत्र पर्वत आदिका विस्तार
३. पुष्करार्धके क्षेत्र
विस्तार
नाम
लम्बाई
प्रमाण
अभ्यन्तर (यो०)
मध्यम (यो०)
बाह्य ( यो०)
भरत हैमवत
لم ولد
६५४४६२६३ २६१७८४२११३ १०४७१३६३१६
)
हरि
विदेह
४१५७९३१३ १६६३१९५३३ ६६५२७७३३३३ २६६११०८३४३ ६६५२७७२१३ १६६३१९३१६ ४१५७९:५३
द्वीपके विस्तार वत
५३५१२३६६ २१४०५१३६३
८५६२०७२३२ ३४२४८२८२९६
५३५१२३६३ २१४०५१३६३ ८५६२०७२३३
(ति, प/४/२८०५-२८१७); (रा. वा /३/३४/२-५/१६६/१६),
रम्यक हैरण्यवव ऐरावत
सा /६२६), (ज प /११/६७-७२)
م له ولم
६५४४६२६३ २६१७८४२५२३ १०४७१३६३९३
(-027/212)
أل
नाम
वाण
जीवा
धनुषपृष्ठ
प्रमाण
दानों कुरु
१४८६६३१
४३६११६
३६६८३३५
उपरोक्त
दक्षिण उत्तर लम्बाई
नाम
पूर्व पश्चिम विस्तार
ति प./४/गा
आदिम
मध्यम
अन्तिम
२८४८ २८५२
दोनों बाह्य विदेहों के क्षेत्र-(ति. प//गा.नं ), (त्रि सा /६३१-६३३) कच्छा-गन्धमालिनी
१९२१८७४११६ १९३१३२२३१३ सुकच्छा-गन्धिला
१९४२६७९३६६ १९५२१२८२१२ महाकच्छा-सुवल्गु
१९६२०५३३५३ १९७१५०२ कच्छकावती-गन्धा
१९८२८५९२१५ १९९२३०७३१३ आवर्ता-वप्रकावती
२००२२३३३१३ २०११६८१३१३ लागलावती-महावप्रा
२०२३०३८३६३ २०३२४८७३३३ पुष्कला व सुवप्रा
२०४२४१२३४३ २०५१८६०३६३ वप्रा व पुष्कलाबती
२०६३२१८६३३ २०७२६६६३१६ दोनों अभ्यन्तर विदेहोके क्षेत्र-(ति प/४/गा ), (त्रि सा./६३१-६३३) पद्मावमगलावती
१५००९५३३९३ १४९१५०५३४६ सुपमा व रमणीया
१४८०१४८३३३ १४७०७००२६२ महापद्मा-सुरम्या
१४६०७७४३१४ १४५१३२६४१३ रम्या-पद्मकावती
१४३९९६८२९६ १४३०५२०३२१ शंखा-वप्रकावती
१४२०५९५२र १४१११४६३६५ महावडा-नलिन
१३९९७८९११ १३९०३४१३२१२ कुमुदा-सुवप्रा
१३८०४१५३१६ १३७०९६७२६२ सरिता-वप्रा
१९४०७७०३६६ १९६१५७६२६३ १९८०९५०१३ २००१७५५३१६ २०२११२९३५३ २०४१९३५२१३ २०६१३०९३१२ २०८२१४२६३
२८६० २०६४
२८६८ २८७२
ر له
لای
२८८० २८८४
२८८८
१८४२०५७३१३ १४६१२५१३१४ १४४१८७७२६४ १४२१०७२,१३ १४०१६९८२९६ १३८०८९२३१६ १३६१५१९२१२ १३४०७१३२९६
२८६२ २८६६
२६००
१३५०१६१३१२
२६०४ | २६०८
जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश
भा०३-६१
Page #489
--------------------------------------------------------------------------
________________
लोक
४८२
६. द्वीप क्षेत्र पर्वत आदिका विस्तार
४. जम्बू द्वीपके पर्वतो व कूटोंका विस्तार
१. लम्बे पर्वत नोट-पर्वतोकी नीव सर्वत्र ऊँचाईसे चौथाई होती है ।
(ह. पू/५/५०६); (त्रि. सा./६३६), (ज. प./३/३७)।
| दक्षिण विस्तार यो जीवा
नाम
ऊँचाई यो
नीव यो०
उत्तर जीवा
यो०
पार्श्व भुजा यो०
प्रमाण रा.वा./ ह. पु | त्रि.सा./ज. प/ ३/-1-1-1 /गा. गा. अ./गा.
ति.प./ ४/गा.
यो
कुलाचलहिमवान् महाहिमवान् निषध
१०० २००
१०५२१३ ४२१०१ १६८४२३
नील
रुक्मि शिखरी भरत क्षेत्रविजया गुफा विदेह विजया
-→ ऊँचाईसे चौथाई
२४९३२६६५३५०१९ | १६३४ | ११/२/१८२/११/ ५३९३१६६ ९२७६१९ / १७१७ | | ११/४/१८२/३२
२०१६५३३ १७५० | ११/६/१४३/१२॥ निषधवत् - २३२७ | ११/८/१८३/२४ महाहिमवानवत - २३४० ११/१०/१८३/३१ हिमवानवत
२३५५
→ अपने अपने क्षेत्रको उत्तर जीवा -
२०११
यो०
१२ यो०
४८८३
। १८३ | ११ १०५ | १०/४/१७१/१६ २१ + ३२॥ ७७०
१७५ १०/४/१७१/२८ ५० | २२५७ /१०/१३/२०६/२० २२५ /
।
२५
२२१२४
नाम
स्थल विशेष
ऊँचाई यो०
चौडाई यो.
लम्बाई ति. प./ रा वा /३/१०/ ह. पु.। त्रि.सा./ ज प./
| १३/.../.. शंगा. गा. अ/गा.
४/गा
यो०
यो०
१६५९२२२
२२३१
१७६/३ १७६/१
२३०७
वक्षार सामान्य
नदीके पास
पर्वतके पास गजदन्त सामान्य दृष्टि सं.१ कुलाचलोके पास |
मेरुके पास दृष्टि स.२कुलाचलोके पास |
मेरुके पास
→ऊँचाईसे चौथाई -
३०२०९१२
| २०२४ २०१७
४०० ५०० ४०० ५००
२०२७
१७३/१६
-
-
-
-
जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश
Page #490
--------------------------------------------------------------------------
________________
लोक
४८३
६. द्वीप क्षेत्र पर्वत आदिका विस्तार
२. गोल पति
विस्तार
नाम
- ऊँचाई
गहराई
ति प./ ४/गा.
रा वा/३/१० | ह. पू./ वा//पं. ५/गा,
त्रि सा|| ज प|
अगा.
मूलमे । मध्यमें | ऊपर यो यो.
१००
१००
७१०
१०००
वृषभगिरि नाभिगिरिदृष्टि सं १ दृष्टि स.२ ! सुमेरु - पर्वत
३/२१०
१००० १०००
७/१८२/१२
१००० १०००
७५०
१७०६
११०००
१०००
१०,०००
दे. लोका
१७८१
७/१७७/३२
८३६०६
४/२२
७/१८०/१४
३०२
६२७
४/१३२
२०७७
चूलिका यमक - दृष्टि सं.१ दृष्टि स २ कांचनगिरि दिग्गजेन्द्र
ऊँचाईसे चौथाई x
७/१७४/२६ | ७/१७५/१
१००
२०६४ | २१०४, 1 २११३
rom
६/४५ ४/७६
३. पर्वतीय व अन्य कूटकूटोंके विस्तार सम्बन्धी सामान्य नियम-सभी कूटोंका मूल विस्तार अपनी ऊँचाईका अर्धप्रमाण है । ऊपरी विस्तार उससे आधा है। उनकी ऊँचाई अपने-अपने पर्वतो की गहराई के समान है।
ह. पु।। /गा.
त्रि.सा/
गा
ज.प./ अ/गा.
१६३३
२३५५
विस्तार
त्रि,
प रा , वा./३/सू. अवस्थान ऊँचाई
४/गा.
वा/पृ./प, ऊपर मूलमें । मध्यमें |
यो. | यो. । । यो. यो. भरत विजया | ऐरावत विजया
भरत विजयावत् हिमवान्
२५ । १८३ । १२३ महाहिमगन हिमवान्से दुगुना
१७२५ निषध हिमवान्से चौगुना
१७५६ नील निषधवत
२३२७ रुक्मि महाहिमवान्वत
२३४० शिवरी
हिमवान्वत हिमवान्का सिद्धायतन ५०० | ५०० । ३७५२
११/२/१८२/१६ शेष पर्वत
→ | हिमवान्के समान
i (रा. वा /३/११/३/१८३/५, ६/१८३/१८:८/१८३/२५. १०/१८३/३२: १२/१८४/५) चारो गजवन्त पर्वतसे उपरोक्त नियमानुसार जानना! २०३२, | १०/१३/१७३/- चौथाई
२०४८, | २३ २०५८,
२०६० पद्मदह
हिमवान् पर्वतबत अन्यद्रह
अपने अपने पर्वतोवत भद्रालवन
(दे.लोक/३/१२.५) नन्दगवन
५०० । ३७५ ।
२५०
१९१७ सौमनसवन २५० १८७३।
१९७१ नन्दनवनका बलभद्रकर
(दे० लोक/३/६.२) सौमनस वनका अलभद्र कूट-→ । (दे० लोक/३/१.३) दृष्टि स.१ १०० १०० । ७५ |
१९७८ | दृष्टि सं २ १००० १०००
१६८० (१०/१३/१७६/
१६) जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश
२१४
। २७६
३३१ । ६२६
२५०
१६६७
Page #491
--------------------------------------------------------------------------
________________
लोक
४८४
६. द्वीप क्षेत्र पर्वत आदिका विस्तार
४ नदी कुण्ड द्वीप व पाण्डुक शिला आदि
अवस्थान
ऊंचाई
गहराई
विस्तार
त्रि.प/ ४/गा.
रा वा/३/२२ वा/प/पं
ह. पु/
गा
त्रि. सा./
गा.
ज.प/ अ./गा.
|
|
८ यो.
१० यो. गंगावत
२२१
नदी कुण्डों के द्वीपगगाकुण्ड
२ कोस सिन्धुकुण्ड शेष कुण्डयुगल
| २ कोस उपरोक्त द्वीपोके शैल
१/१८७/२६ २/१८७/३२ ३-१४/१८८-१८६
१०यो.
उत्तरोत्तर दूना
विस्तार
मूल
मध्य
ऊपर
गंगा कुण्ड
१०यो,
४ यो.
२०
१४४
२ यो |
। १ यो. चौडाई
लम्बाई
पाण्डुकशिलादृष्टि स १ दृष्टि सं.२
यो
।
१०० यो. ५०० यो.
१० यो. । २५० यो
३४६६३५
यो.
२८१६ १८२१
। १८०/२०
४/१४२
विस्तार
| मध्य
ऊपर
पाण्डुक शिलाके सिहासन व आसन
१००ध,
५०० ध.
२७५ ध. |
२५० ध.
पद्मद्रह
५ अढाई द्वीपोंकी सर्व बेदियाँवेदियों के विस्तार सम्बन्धी सामान्य नियम-देवारण्यक व भूतारण्यक बनोके अतिरिक्त सभी कुण्डो, नदियों, बनो, नगरौ, चैत्यालयों आदिकी वेदियाँ समान होती हुई निम्न विस्तार-सामान्यवाली है। (ति प/४/२३८८-२३६१), (ज, प./१/६०-६६) अपरथान ऊँचाई
ति प./ रा. वा./३ /सू । ह.पु/ त्रि. सा./] ज. प./ गहराई विस्तार
४/गा. | वा./पृ/पं. /गा | गा. अ./गा, सामान्य १/२ यो. ऊँचाईसे चौथाई ५०० धनुष २३६०
११६
१/६६ भूतारण्यक १ यो.
१०००।
२३६१ देवारण्यक हिमवान् सामान्य वेदीवत्
१६२६
१५/-/१८५/१ शाल्मली वृक्षस्थल
२१६८ गजदन्त
भूतारण्यक व
२१००,२१२८/ भद्रशालवन
२००६ धात कीराण्डकी सर्व
उपरोक्त वन पुष्करार्धकी सर्व इष्पाकार सामान्य वत्
२५३५ मानुषोत्तर कीतटवेदी सामान्य बत् ११ को -
२७:४ शिखरवेदी
४००० जम्बूद्वीपकी जगती
गहराई।
विस्तार
। मूल मध्य ऊपर यो, १/२ यो १२ यो यो. ४ यो
१५-२७ / ८/९/३७०/२६ । ३७८ । ८८५ १/२६
प्रवेश | आयाम जगतीके द्वारदृष्टि स १
८ यो. ४ यो ४ यो दृष्टि सं २ ७५० यो ।
५०० यो लवणसागर
→ जम्बूद्वीपकी जगती बत् ।
11111111
२५१६
Page #492
--------------------------------------------------------------------------
________________
६. द्वीप क्षेत्र पर्वत आदिका विस्तार
लोक ५. शेष द्वीपोंके पर्वतों व कूटोंका विस्तार१. धातकीखण्डके पर्वत
नाम
ऊँचाई
लम्बाई
विस्तार
ति. प/ ४/गा,
रा. वा./३/३३/ वा/पृ/प.
ह पु/ | त्रि सा./ /गा. | गा.
ज प / अ./गा.
२५४४-२५४६
/११/२०
४६७ ५०६
पर्वतोके विस्तार व ऊँचाई सम्बन्धी सामान्य नियमकुलाचल ( जम्बूद्वीपवत स्वदीपवत् जम्बूद्वीपसे दूना विजया
निम्नोक्त वक्षार गजदन्त दृष्टि स०१ दृष्टि सं.२
जम्बुद्वोपवत् उपरोक्त सर्व पर्वत
जम्बूद्वीपसे दूना वृषभगिरि
| जम्बूद्वीपवत यमक कोचन दिग्गजेन्द्र
२५४७
विस्तार
दक्षिण उत्तर । पूर्व पश्चिम ४०० यो. स्वद्वीपबत
१००० यो. जम्बूद्वीपवत जम्बूद्वीपसे दूना | स्वक्षेत्रवव
२५३३ । ६।१६५/२६ । ४६५ २६८७+ उपरोक्त सामान्य नियमवत
१२५
इष्वाकार विजया
। ११/४
जम्बूद्वीपवत निम्नोक्त
जम्बूद्वीपमे दूना
४०८+ उपरोक्त सामान्य नियमवत
वक्षार गजदन्तअभ्यन्तर बाह्य
२५६१ २५६२
XX
सुमेरु पर्वत
२५६२२७ ५६१२५७
विस्तार गहराई
। मूल | मध्य ऊपर ८४००० । १००० ४००० दे लोक | १०००
पृथिवीपर
२५७७ पाश
६/१६/२८
।
११/१८
पातालमें
दृष्टि स १ की अपेक्षा विस्तार-१०,००० " ,२,,
, -६५०० → जम्बूद्वीपके मेरुवत्
चूलिका
२५८३
-na
दक्षिण उत्तर विस्तार
ति,पा
नाम
ऊँचाई व चौडाई
___
आदिम
मध्यम
अन्तिम
४/गा.
५१९२१६३४३ ५३८७४५३१२ ५५८२७४३७३ ५७७८०३३१३
दोनो बाह्य विदेहोके वक्षार - चित्र व देवमाल कूट नलिन व नागकूट पद्म व सूर्यकूट एकशैल व चन्द्रनाग दोनो अभ्यन्तर विदेहोके वक्षार श्रद्धावान व आत्माजन अंजन व विजयवान् आशीविष व वैश्रवण सुखावह व त्रिकूट
५१८७३८३९१३ ५३८२६८ ५५७७९७२१२३ ५७७३२६३३२
५१९६९३३९३ | ५३९२२२३२३ ५५८७५१३३३ ५७८२८०३४६
२६३२ २६४० २६४८
दे० पूर्वोक्त सामान्य नियम
२६५६
त्रि सा/१३१-६३३
२६७२
२८५४५५३१६ २८४९७८३३३ २८४५०१०३ २६५९२६३६३ २६५४४९३२
२६४९७२६६३ २६८० २४६३९७१७३ २४५९ः०११३
२६८८ २२६८६८१६३ । २२६३९१११३ २२५९१४१३ - २६९६
जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश
Page #493
--------------------------------------------------------------------------
________________
लोक
४८६
६. द्वीप क्षेत्र पर्वत आदिका विस्तार
२. पुष्कर द्वीपके पर्वत व कूट
यो
यो
जम्बद्धी पसे ।
रा बा./३/३४/ नाम ऊंचाई लम्बाई विस्तार ति.प./४/गा.
ह पुस/गा त्रि सा./गा.
बा/पृ./पं.
| यो. पर्वतोंके विस्तार व ऊँचाई सम्बन्धी सामान्य नियम । . कुलाचल (जम्बूद्वीपवत | स्वद्वीप प्रमाण "चौगना २०८-२७१०/१६०/२ 11८८.५८६ विजया
निम्नोक्त वक्षार गजदन्त नाभिगिरि उपरोक्त सर्व पर्वत दृष्टि सं.२
| जम्बूद्वीपवत् वृषभगिरि यमक कांचन
१७६१
个个个个
ऊँचाई या..
रा.वा /३/३४ ह.पु/11 त्रि, सा./ बा/प्र./पं । गा. । गा
।
-या
नाम दिग्गजेन्द्र मेरु व इष्वाकार
लम्बाई
विस्तार reerwया,
जम्बूद्वीपवत् - धातकीवत
विस्तार दक्षिण उत्तर पूर्व पश्चिम
२८१२
१५/१६७/४
| ५८६
यो
यो.
। उपरोक्त जबूद्वीपक्त
उपरोक्त नियम निम्नोक्त
स्वक्षेत्रवत् ।
२८२६ जबुद्वीपसे चौगुना | २८२७
+ उपरोक्त सामान्य नियम + उपरोक्त सामान्य नियम
विजयार्थ वक्षार गजरन्तअभ्यन्तर बाह्य
२५७
२८१३ २८१४
१६२६११६ २०४२२१६
विस्तार गहराई मूल मध्य । ऊपर
१७२१
चौथाई
१०२२
२७४६
मानुषोत्तरपर्वत मानुषोत्तरके कूट
६/१६७/
८
५६१६३४०+६४२ ११/५६
दृष्टि स. १ दृष्टि स २
लोक/६/१/३ में कथित नियमानुसार ४३०१ ४३०१
२१५४ ५००
५०० । ३७५ २५०
६/११७/१६
mna.
-
-
विस्तार
ति प./
४/गा।
आदिम
अन्तिम
मध्यम
नाम
चौडाई दोनो बाह्य विदेहोके वक्षारचित्रकूट व देवमाल पद्म व वैडूर्य कूट नाल्न व नागट एक दोन व चन्द्रनाग दोनो अभ्यन्तर विदेहो के वक्षारप्रहपान व बारमाजन
जन व विजयान आगो विप व व श्रवण गर यह विट
दे० पूर्वोक्त सामान्य
नियम
१९४०७७०३६ १९/०९५०१ २०२११२९१५३ २०६१३०९१
१९४१७२५४१ १९८१९०४३१३ २०२२०८४५१ २०६२२६३३६३
१९४२६७९३१६ १९८२८५९-३ २०२३०३८३६३ २०६३२१८२१३
त्रि. सा./६३१-६३३
१४८११०२३६३
१४४०९२३.८४
दे०पूनाक्त सामान्य
नियम
१४८२०५७३३३ १४४१८७७३६६ १४०१६९८३१४ १३६१५१९२१३
१४८०१४८६६ १४३९९६८३१६ १३९९७८९२
१४००७४३१९३ १३६०५६४३१
जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश
Page #494
--------------------------------------------------------------------------
________________
लोक
३. नन्दीश्वर डीके एन
नाम
अंजनगिरि
दधिमुख
रतिवर
नाम
१०,०००
१०००
४. पर्वत व उसके कूट
ऊँचाई
पर्वत
दृष्टि सं. १
नाम
पति
दृटिस १
दृष्टि स. २
इसके फूट द्वीपके स्वामी देशों फूट
५. रुचकर व उसके कूट
नाम
ऊँचाई
दृष्टि २
इसके कूट
स. १ दृटिस. २ ३२ कूट ६. स्वपसूरमणपन
यो.
८४०००
नाम
देव रगक भृतारण्यक
यो.
७५०००
४२०००
ऊँचाई
८४०००
८४०००
५००
५००
नाम
जीप जगती के अभ्यन्तर भाग में विजया के दानो पारव निदान पार्श्वोनें
ऊँचाई
!
पूर्वापर
२६२२ यो
गहराई
यो
१०००
१०००
२५०
गहराई
यो
पत
१०००
६. अढाई द्वापके बनखण्डों का विस्तार
2. उम्वृदीपके वनखण्ड
गहराई
१०००
१०२२०
१०००
मानुषो तर केहि २५ समय उपरोसे दुने
गहराई
सूच
यो.
१००० ८४०००
१०००
४२०००
विस्तार
मूल
देवारण्यकवत्
मूल
यो,
८४०००
१०,०००
१०००
मानुषोरको दृष्टि स २ बद
मूल
विस्तार
२ को
२ को,
२ का
१६५९२६
उत्तर दक्षिण
विस्तार
←
मध्य
१००० 1 ७५० १०००
१०००
विस्तार
| मध्य
यो,
८४०००
१०,०००
१०००
यो.
७२३०
मानुषोत्तरवत
विस्तार
मध्य
८४०००
४२०००
४८७
विस्तार
मध्य
ऊपर
२२२०
४२४०
111
ऊपर
८४०००
४२०००
⇐
५०० १०००
ऊपर
ऊपर
११८
१३०
१२४,१३१
१३७
१४२
सि./५/गा.
९४६ १६६.१०१
६. द्वीप क्षेत्र पर्वत आदिका विस्तार
५८
42
६८
१७७/२
जैनेन्द्र सिद्धान्त कोदा
रावा/१/१५/
पृ./पं
१६८/८
११८/२५
१३८/३९
ति.प./५/गा. रा.वा /३/३५/-/ पृ/प ह पु./५/गा त्रि. सा./गा.
१६६/
EE/13
१६६/२३
२००/२० १६६/२५
११५
२८२
इ.प्र./७/ना
કર
६७०
६७४
सि.प./५/गा.पा ३/३५/-///गा.त्रिमा/गा.
ति प / ४ / गा | रा.वा / ३ /१८/२३/१ | ह पृ/५/गा | त्रिसा / गा
८७
१७१
१६३०
६८७
७३०
දීප
goo
त्रि सा /
गा.
७०१
६६
12
ति १/५/गारामा ३/३०/-/पृ./१/५/सा./गा.
२३६ i
33
६४३
६६०
१६०
६४३
७/१२
जप/अ/गा.
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________________
लोक
४८८
६. द्वीप क्षेत्र पर्वतो आदिका विस्तार
नाम
रा.वा./३/१०/ १३/पृ./पं.
ह पु./५/गा.
त्रि सा /गा.ज.प/अ/गा
यो.
मो.
भद्रशाल
१७८/३
६१०+६१२
४/४३
विस्तार मेरुके पूर्व या । मेरुके उत्तर । उत्तर दक्षिण ति. प./४/गा. पश्चिममें | या दक्षिण में कुल विस्तार
यो. २२०००
२५० विदेहक्षेत्रवत् __२००२ वलय व्यास
| अभ्यन्तर व्यास
यो. ५०० ९९५४ ८९५४६६ । १९८६ ।।
४२७२६२ । ३२७२६६ / १६३८+ १६८६ १०००
| १८१०+ १८१४
यो.
यो.
४/८२
नन्दनवन सौमनसवन पाण्टकवन
१००
१७६/७ १८०/१ १८०/१२
४/१२७ ४/१३१
२. धातकीखण्डके वनखण्ड सामान्य नियम–सर्वचन जम्बूद्वीप वालोंसे दूने विस्तार वाले है । (ह पु/५/५०६)
उत्तर दक्षिण विस्तार
नाम
पूर्वापर विस्तार
रा.वा./३/३३/६/
"ह पु./२/गा.
ति.प.//गा.
आदिम
मध्यम
अन्तिम
यो.
यो.
बाह्य
अभ्यन्तर
यो.
यो ५८७४४८३४३ ५९०२३८२१३ ५९३०२७३१६ | २६०६ + २६६०
२१६७४६२१३ २१३९५६३६२ २१११६७६१३ | २६०६+२७०० मेरुसे पूर्व या मेरुके उत्तर या उत्तर दक्षिण पश्चिममें । दक्षिणमें कुल विस्तार
यो. १०७८७६
१२२५
यो.
यो.
भद्रशाल
नष्ट
२५२८
बाह्यव्यास
अभ्यन्तरव्यास
वलयव्यास
यो. ५००
यो.
यो. ८३५०
१२०
नन्दन सौमनस पाण्डक
६३५० ३८००
१६५/३१ १६६/१
५००
२८००
५२४
४६४
१०००
१२ चूलिका
१२७
३. पुष्करा द्वीपके वनखण्ड
___उत्तर दक्षिण विस्तार
नाम
पूर्वापर विस्तार
ति-प./४/गा
आदिम
मध्यम
अन्तिम
देवारण्यकबाह्य
११६८८
अभ्यन्तर
मेरुके पूर्व या पश्चिममें २१५७५८
| २०८२११४३३३ | २०८७६९३३१३ / २०९३२७२३२३ | २८२८+२८७४ १३४०७१३३१ । १३३५१३४३१३ १३२९५५५२३३ २८२८+ २१० मेरुके उत्तर या उत्तर दक्षिण दक्षिण में कुल विस्तार
ति.प./४/गा २४५१२४
२८२१ धातकीखण्डवत
( दे० लोक/४/४.४)
भद्रशाल
नष्ट
नन्दन आदि वन
जनेन्द्र सिद्धान्त कोश
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________________
लोक
४. नन्दीश्वरद्वीपके वन
वापियोके चारो ओर वनखण्ड है, जिनका विस्तार ( १००,०००४५०,०००) योजन है । ७. अढाई द्वीपक्की नदियोंका विस्तार १. जम्बूदीपकी नदियाँ
नाम
गंगा
सिद्ध रोहिताया
रोहित हरिकान्ता
हरित
सीतोदा
चौडाई
ऊँचाई गहराई
नदियोके विस्तार व गहराई आदि सम्बन्धी सामान्य नियम-भरत व ऐरावतक्षेत्रको नदियोका विस्तार प्रारम्भ में यो, और अन्त में उससे होता है। आगे-आगे क्षेत्र में विदेह पर्यन्त वह प्रमाण दुगुना दुगुना होता गया है (जि. सा. / ६००), (ज. प / २ / ९६४ ) । नदियोका विस्तार उनकी गहराई ५० गुणा होता है। ह. पू./५/५००)। वृषभाकार प्रणाली
गंगा-सिन्धु
हिमपात्
२ को प्रवेश
आगे नदी युगल
नाम
सीता
उत्तरकी छ नदियाँ → विदेहका ६४ नदियों→ विभगा
भा० ३-६२
स्थल विशेष
उद्गम
पर्वतसे गिरनेवाली
↑ ↑ ↑ ↑ ↑ ↑
२. धातकीखण्डकी नदियां
६३ यो. २ को प्रवेश विदेह तक उत्तरोत्तर दुगुने ऐरावत तक उत्तरोत्तर आधे ६४ यो.
१/२ को
सं. १
दृष्टि सं. २ गुफा द्वार पर समुद्र प्रवेश पर
धार
पूर्व पश्चिम
१०
२५ ८ यो.
| ६२३ यो.
कुण्डके पास
महानदी के पास ५०० को
दृष्टि सं. २
गंगानदीवत् गगासे दूना रोहितास्यावय रोहितने दुगुना (गंगासे चौगुना ) हरिकान्ताय हरिया
सर्वत्र २५० यो० (ति प./४/२६०८)
हुना
मग आठ गुना ) सीतोदात् क्रमसे हरिता दिवस गंगानदीबद
५० को.
| १६५९२ रहे (उत्तर दक्षिण)
४८९
५२८८६१२१३
५४८३९०२१२ ५६७९१९३३३
२७५३३३२१२ २५५८०४२१२ २३६२७५४
(ति प./५/६४) (रा. वा./३/३६/-/ ११०/२०) (त्रि. सा./ १०२)
६४
पती
ऊँचाई
12
→ सर्वत्र गगासे दूना ←
$3
५ को.
आदिम
सामान्य नियम- सर्व नदियाँ जम्बूद्वीपसे दुगुने विस्तार वाली है (सि. प./४/२२४६ )
दोनो बाह्य विदेहोकी विभंगा-| मी ऊर्मिमासिनी
ग्रहवती व फेनमालिनी
गम्भीरमालिनी व पकावती
| दोनो अभ्यन्तर विदेहोकी विभंगा क्षीरोदा व उन्मत्तजला मत्तजला व सीतोदा
तप्तजला व औषधवाहिनी
↓ ↓ ↓ ↓
↑↑
111
उत्तर दक्षिण लम्बाई
मध्यम
ति प /४/ गा.
२१४
१६७
२१३
२१७
२४६
२५२
९८१६
१७३७
१७४८
१७७३ २०७४
२१२२
२२१८
२२१६
५२८९८०३ ५४८५०९३५३ ५६८०३८२१३
६. द्वीप क्षेत्र पर्वतो आदिका विस्तार
२७५२१४२
२५५६८५५३२
२३६१५६
रा०वा /३/२२/
मा.
६/९/२१
०/१८८/३३
८/१८६/६ १०२५/१०१ (दे. सोफ/३/१०)
1/8/63
३/१०/११/१०६/१२
१/१००/२६
२/९८७/३२ १५१
3/12/2 १५१ ५६६
8/9==/80
५/१००/२१
१४८ १४६
अन्तिम
१४०
५८४
१५१ ५६६
13
१५६ १३६ ६००
"
::
12
32
त्रि.सा./गा
१५६
२७५०९४२६३
२५५५६५३१३
२३६०३६५१२
१६०
६००
६०५
ज.प./
३/१५०
३ / १५२
३/१५३
३ / ९६४
३/१६८
७/६३
२/१०७
२/९९४ 3/150
"
३/१८१
३/१८२
22
-
७/२७
५२९१००
२६३६
५४८६२९६१रे
૧૬૪૪
५१८१५८६६ २६५२
वि.प./ 18/41,
२६०६
२६-४
२६६२
Page #497
--------------------------------------------------------------------------
________________
लोक
३. पुष्करदीपकी नदियाँ
नाम
आदिम
सामान्य नियम सर्व नदियों से चौगुनी विस्तार युक्त है (ति १२/२०८८)
दोनो बाह्य विदेहोकी विभगाद्रवती व ऊर्मिमालिनी
ग्रहवती व फेनमालिनी
गम्भीरमालिनी व पंकावती
दोनो अभ्यन्तर विदेहोकी विभंगाक्षीरोदा व उन्मत्तजना
मत्तजला व सीतोदा
तप्तजला व अन्तर्वाहिनी
८. मध्यलोककी वादियों व कुण्डोंका विस्तार १. जम्बूदीप सम्बन्धी
नाम
पुण्डरीक
महापुण्डरीक
देवकुरुके द्रह
उत्तरकुरु द्रह नन्दनवन की वापियाँ सौमनमनकीबा
दृष्टि स. १ दृष्टि सं. २
-
-
गंगा कुण्ड - दृष्टि सं. १
दृष्टि स. २
सं. ३
सिन्धुकुण्ड
आगे सीतासीतोदा तक आगे रक्तारक्तोदा तक ३२ विवेक नदियों के कु विभंगाकुण्ड
२०० ध. १५०
१००
१०००
17
१९६१५७६२१५
२००१७५५३१
२०४१९३५२१
१४६१२५१३१४ १४२१०७२०४४
१३८०८९२३३
५० यो.
२५ "
→ महापद्मवत्
→ पद्मवत्
७५ "
१०० ध. २० ध १५ " 19 १० .. १०
५०
५००
पद्मसे दुगुना → से चौगुना →तिनि
गहराई
पद्मद्रहवत् देवकुरुवत् ← २५ यो
२५ " ५. यो. → नन्दनवनवत् ←
गोलाईका व्यास १० यो.
६० ६२३,”
उत्तर दक्षिण लम्बाई
→ गंगाकुण्डवत
→ उत्तरोत्तर दुगुना
→ उत्तरोत्तर आधा ६३ यो.
१२० यो.
४९०
लम्बाई चौड़ाई
सामान्य नियम सरोवरोका विस्तार अपनी गहराई ३० गुना है./५/२००) होकी लम्बाई अपने-अपने पर्यटोकी ऊँचाई १० गुनी है. चौडाई ५ गुनी और गहराई दसवें भाग है । (त्रि. सा. / ५६८ ); (ज. प. / ३ / ७१ ) जम्बूद्वीप जगती मूलवासी |
उत्कृष्ट
मध्यम
जघन्य
पद्मद्रह
महापद्म तिगिद्ध
केसरी
१० यो.
१९६१८१५२१
२००१९९४३१२
२०४२१७४२२
१४६१०१३
१४२०८३३३३१ १३८०६५४३१२
ति. प / ४/ गा
२३
मध्यम
"
17
१६५८
१७२७
१०६१
२३२३
२३४४
२३५५
२०६०
२१२६
१६४७
गहराई
१० यो, २१६ + २२१
१० "
२१८
१०
२१६
१० यो. १० यो.
जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश
रा.वा./// वा. / पृ./प.
६. द्वीप क्षेत्र पर्वतो आदिका विस्तार
(त.सू./३/१५-१६)
१०/१३/१०४/३०
१०/१३/१००/०
२२/२/१८०/२५
२२/५/१८०/३२ २२/३-१८६
२२/६-१४/१८६ १०/१३/१७६/२४
१०/१२/१०६/१०
अन्तिम
१९६२०५३३१२
२००२२३३,४४
२०४२४१२३
૪૩૦૭૭૪૬
१४२०५९५२
१३८०४१५२१२
ह. पु. / ५/गा.
१२६
१२६
19
11
१६५
त्रि. सा./
TIT.
१४२
दे० उपरोक्त
सामान्य नियम
६५६
ति प /४/
गा
५७
२८५०
२८५८
२८६६
२००६
२०६४
२६०२
ज. प./ अ. / गा
सामान्य नियम 5 दे० उपरोक्त
६/५७
Page #498
--------------------------------------------------------------------------
________________
लोकचंद्र
४९१
लोकपाल
२. अन्य द्वीप सम्बन्धी
लम्बाई
नाम
चौडाई । गहराई
।
ति प. | रा वा/३/सू । /गा. व./ /प.
है. पु /गा
त्रि सा/
गा
ज, प/ अ/ गा.
|
to यो० । यो० → जम्बूद्वीपसे दूने -
धातकीखण्डके पद्म आदि द्रह
३३/५/१६/२३
नन्दीश्वरद्वीपको वापियाँ
१००,०००
१००,०००, १०००।
६० ।
३५/-१६८/११
९. अढाई द्वीपके कमलोंका विस्तार
ऊँचाई या विस्तार
नाम
ति प./ ४/गा
रा. वाशिह | १७/-/१८५/
त्रि. सा/
कमल । सामान्य नाल मृणाल पत्ता कणिका को० को० को० को० को.
पु./ ५/गा
ज. प./ अ/ गा.
पंक्ति
१
पद्मद्रहका
ऊचाईमूल कमल दृष्टि स १
१६६७
।१२८ ।
५७०-५७१ ६/७४ दृष्टि स २
२ । २ । १६७० ८ ६ विस्तारदृष्टि स.१ ४ या.२ १ ३
१७०-५७१ दृष्टि स.२
२ १६६७+ |
१२८
। १६७० । नोट- जल के भीतर १० योजन या ४० कोस तथा ऊपर दो कोस (रा वा /-1१८५/8), (ह. पु.५/१२८), (त्रि. सा/५७१), (ज. प./३/७४)
→
१६
३/१२७
परिवार कमल आगे तिगिंछ द्रह सक केसरी आदि द्रहके
हिमवान् पर
ऊँचाई
सर्वत्र उपरोक्तसे आधा - उत्तरोत्तर दूना --
त सू/३/१८ तिगिछ आदि वत् -
त. सू./३/२६
२०६ २२/२/१८८/३ जलके ऊपर
| १२ | १ | २५४ → जम्बूद्वीपवालोसे दूने - (रा वा/३/३३/५/१६५/२३)
विस्तार
कमलाकार कूट धातकीखडके
लोकचंद्र-नन्दोसघ बलात्कारगणको गुर्वावलीके अनुसार आप त्रि. सा./भाषा/२२४ जैसे राजाका सेनापति तैसे इन्द्रके लोकपाल कुमारनन्दीके शिष्य तथा प्रभावन्द्र नं.१ के गुरु थे। समय-विक्रम दिगीन्द्र है। शक सं. ४२७-४५३ (ई ५०५-५३१ ) दे० इतिहास/७२।
२. चारों दिशाओंके रक्षक चार लोकपाल लोकपंक्ति-यो.सा./अ./८/२० आराधनाय लोकानां मलिनेनान्त
१. इन्द्रकी अपेक्षारात्मना । क्रियते या क्रिया बालेर्लोकपडक्तिरसौ मता ।२०।-अन्त- ति.प./३/७१ पत्तेक्कादयाणं सोमो यमवरुणधणदणामा य। पुयादि रात्माके मलिन होनेसे मूर्ख लोग जो लोकको रजायमान करनेके लिए लोयपाला हब ति चत्तारि चत्तारि ७१।- प्रत्येक इन्द्रके पूर्वादि क्रिया करते हैं उसे लोकप क्ति कहते है।
दिशाओके रक्षक क्रमसे सोम, यम, वरुण और धनद ( कुबेर ) नामक
चार-चार लोकपाल होते है ७१। लोकपाल
२. पूजा मण्डपको अपेक्षा स. सि/४/४/२३६/अर्थ चरा रक्षकसमाना लोकपाला। लोक पाल
प्रतिष्ठासारोद्धार/३/१८७-१८८ पूर्वदिशाका इन्द्र , आग्नेयका अग्नि, यन्तीति लोकपाला 1 जो रक्षकके समान अर्थचर है वे लोकपाल
दक्षिणका यम, नैऋत्यका नैऋत्य, पश्चिमका वरुण, वायव्यका कहलाते है। तात्पर्य यह है कि जो लोकका पालन करते है वे लोक
वायु, उत्तरका कुबेर, ईशानका सोम व धरणेन्द्र । पाल कहलाते है ( रा. वा./४/४/६/२१३/४); (म. पु/२२/२८)। ति.प./३/६६ चत्तारि लोयपाला साबण्णा होति तंतवलाणं । तणुरक्वाण
३. प्रतिष्ठा मण्डपके द्वारपालों का नाम निर्देश समाणा सरीररयरवा सुरा सव्वे ६६।-(इन्द्रोके परिवारमेंसे) चारों प्रतिष्ठासारोद्धार/२/१३६ कुमुद, अजन, वामन, पुष्पदन्त, नाग, कुबे, लोकपाल तन्त्रपालोके सदृश होते है।
हरितप्रभ, रत्नप्रभ, कृष्णप्रभ, व देव। जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश
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लोक प्रतर
४. वैमानिक इन्द्रो लोकपालका परिवार
ति.प./८/२८७-२६ सौधर्म, ईशान, सनत्कुमार, माहेन्द्र, ब्रह्म, लातव, महाशुक्र, सहसार और आनतादि चार इन सब इन्द्रोके चार चार लोकपाल है - सोम, यम, वरुण व कुबेर । इन चारो का परिवार क्रमसे निम्न प्रकार है -१ देवियाँ - प्रत्येकको ३३ करोड २. आभ्यन्तर परिषद् ४०,००,६१,००३ मध्यम परिषद् - ४००, ४००, ५००,६००, ४ बाह्य परिषह ५००,५००,६००,७००३ चारीके ही अनीको मैं सामन्त अपने-अपने इन्द्रो की अपेक्षा क्रमसे ४०००, ४०००, १०००, १००० ५००, ४००,३००, २००, १०० है । ६ सभी इन्द्रोके चारो ही लोकपालोकी प्रथम कक्षा सामान्य = २८०००, और शेष कक्षाओ में उत्तरोत्तर नेचुने है। वृषभादि २५२६००० कुल अनोक-२४०१२००० । ६. विमान 4६६६६६६ ।
५. सौधर्म इन्द्रके लोकपाल द्विचरम शरीरी हैं
सि.प./८/२००५-२०१६ को सहग्गमहिसी सतीयवासी नियमा दुचरिमदेहा "झामहिषी और लोकपासोसहित सौधर्म इन्द्र नियमसे द्विचरम शरीर है।
★ अन्य सम्बन्धित विषय
१. लोकपाल देव सामान्यके १० विकल्पों में से एक है- दे० देव / १ | २. भवनवासी व वैमानिक इन्द्रोके परिवारोंमें लोकपालका निर्देशादि - दे० भवनवासी आदि भेद । ३. जन्म, शरीर, आहार, सुख, दुःख, सम्यक्त्व, आदि विषयक - दे० देव / II / २ ।
लोक प्रतर - (७) १ - ४६ 1 - दे. गणित 1/२/७ लोक विभाग प्रन्थ सो स्वरूपका वर्णन करता है। मूल ग्रन्थ प्राकृत गाथाबद्ध आ० सर्वनन्दि द्वारा ई० ४५८ मे रचा गया था। पीछे आ० सिहसूरि ( ई. श. ११ के पश्चात् ) द्वारा इसका संस्कृत रूपान्तर कर दिया गया। रूपान्तर ग्रन्थ ही उपलब्ध है मूल नहीं। इसमें ११ प्रकरण है और २००० श्लोक प्रमाण है । लोक श्रेणी----७ राजू । लोकसेनस्तूपसंघकी गुर्वावलीके अनुसार ( दे० इतिहास ) आप आचार्य गुणभद्र के प्रमुख शिष्य थे । राजा अकालवर्ष के समकालीन राजा सोकादिव्यकी राजधानी बापुरमे रहकर, आचार्य गुणभद्र रचित अधूरे उत्तर पुराणको श्रावण कृ. ५ श. ८२० मे पूरा किया था । तदनुसार इनका समय-ई ८६७-१३० ( जीबन्धर चम्पू प्र. / ८/A, N, Up.); (म पू. / प्र २५/१ पन्नालाल ) - २० इतिहास / ७ /01 लोकादित्य-उत्तर पुराणको अन्तिम प्रशस्तिके अनुसार राजा अकालीन थे। इनकी राजधानी बेकार थी तथा राजा बंकेय के पुत्र थे । आचार्य लोकसेनने इनके समयमे ही उत्तरपुराणको पूर्ण किया था । तदनुसार इनका समय-श ८२० (ई. आता है। (म. पु / प्र.४२ / पन्नालाल ) |
लोकायत -- दे० चार्वाक ।
लोकेषणा - दे० राग / ४ ।
-
लोकोत्तर प्रमाण - वर्ष श्रेणी आदि ) - दे० प्रमाण/२ | लोकोत्तरवाद
घ. १२/५.६.२०/२००३ लीक एवं लौकिक लोक्यन्त उपय यस्मिदीयाः स लोक स विविध मध्यलोक भेदेन । स लोकः कथ्यते अनेनेति लौकिकवाद सिद्धान्त । लोइय
४९२
लोलवत्म
वादो त्ति गढ़ लोकोत्तर अलोक स उच्यते अनेनेति लोकोत्तरवाद | लोकोत्तरीयवादोत्ति गद । लौकिक शब्दका अर्थ लोक ही है। जिसमे जीवादि पदार्थ देखे जाते है अर्थात् उपलब्ध होते है उसे खोक कहते है वह तीन प्रारका मध्यलोक और अवलोक । जिसके द्वारा इस लाक्का कथन किया जाता है वह सिद्वान्त लौकिकवाद कहलाता है। इस प्रकार लौकिक्वादका कथन किया। लोकोत्तर पदका अर्थ अलोक है, जिसके द्वारा उसका कथन किया जाता है वह श्रुत लोकोत्तरवाद कहा जाता है, इस प्रकार लोकोत्तर गक्थन किया ।
गो क /म्/ ८६३ सइउट्टिया पसिद्धी दुव्वारा मेलिदेहिवि सुरेहि । मज्झिमवखित्ता माला पचसु विखित्तेव । = एक ही बार उठी हुई लोक प्रसिद्धि देवो भी मिलकर दूर नही हो सकती ओर की तो बात क्या जेसे कि द्रौपदीकर केवल अर्जुन-पाडवके गले मे डाली हुई मानाकी पोच पाठवोको पहनायी है ऐसी प्रसिद्धि हो गयी। इस प्रकार लोकवादी लोक प्रवृत्तिको सर्वस्व मानते है । और भी दे० सत्य / सवृत्ति व व्यवहार सत्य ) ।
लोभ१. आहारका एक दोष- दे० आहार / II / ४/४/२ वसतिकाका एक दोष- दे० वसतिका ।
रा. वा २५/०२/१२ अनुग्रहाय भिको कृमिराग-कल कई महरिद्वारागधि धन आदिकी तीव आकाक्षा या गृद्धि लोभ है । यह किरकिची रंग, काजल, कीचड और हलदी र गके समान चार प्रकारका हे ।
गर्हा या कांक्षाको लोभ
घ १ / १.१,१११ / ३४२ / ८ गर्हा काइक्षा लोभ कहते है ।
ध. ६/१,६-१,२३/४१/५ लोभो गृद्धिरित्येकोऽर्थ । लोभ और गृद्धि एकार्थक है ।
घ. १२/४,२८,८/२८३/८ बाह्यार्थेषु ममेदं बुद्धिर्लोभ । बाह्य पदार्थों में जो 'यह मेरा है' इस प्रकार अनुरागरूप बुद्धि होती है वह लोभ है। निस९९२ स्थान तो निश्चयेन
I
निखिल परिवरिया निर जननिजपरमात्मस्वपरिग्रहास अन्यत् परमाणुमात्रद्रव्यस्वीकारो लोभ । योग्यस्थान पर धन व्ययका अभाव वह लोभ हैं; निश्चयसे समस्त परिग्रहका परित्याग जिसका लक्षण है, ऐसे निरंजन निज परमात्म तत्व के परिग्रहसे अन्य परमाणुमात्र द्रव्यका स्वीकार वह लोभ है ।
२. लोभके भेद
1
रा. बा./१/८/*/५६८/४ सोमश्च प्रकार जीवनलोभ बारोग्यलोभ इन्द्रियलोभ उपभोगलोभश्चेति, स प्रत्येकं द्विधा भिद्यते स्वपर विषयस्वात् । लोभ चार प्रकारका है - जीवनलोभ, आरोग्यलोभ, इन्द्रिय लोभ, उपभोगलोभ ये चारों भी प्रत्येक रव पर विषयके भेद दोदो प्रकार है (चा. सा./६२/५) (इनके लक्षण दे० शौच
★ अन्य सम्बन्धित विषय
१. कोम कमायके अन्य मे
२. लोक कषाय सम्बन्धी विषय ३ लोभ व परिग्रह सज्ञामें अन्तर
४. लोभ कषाय राग है
५. लोभकी इष्टता अनिष्टता
जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश
दे० मोहनीय /३
- दे० कषाय ।
- दे० सज्ञा ।
- दे० कषाय / ४ ।
- दे० राग /४ |
लोल—दूसरे नरकका नयाँ पटल-दे० नरक/ ५ /११ | लोलक दूसरे मरका दस पटल-३० नरक/ २ / ११ । लोलवत्सदूसरे नरकका दसवाँ पटल- दे० नरक / ५ / ११ ।
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लोहागल
लोहावल - -विजयार्धकी दक्षिण श्रेणीका एक नगर-दे० विद्याधर । लोहाचार्य - १ सुधर्माचार्यका अपरनाम था- दे० सुधर्माचार्य ॥ २ मूलसघ की पट्टावली में इनकी गणना अष्टांगधारियों अथवा आचारांगधारियो में की गई है। इसके अनुसार इनका समय बी. नि ५१५-५६५ (ई. पू १२-३८) प्राप्त होता है। (दे. इतिहास / ४ /४ ) ( पु / ३ / पं पन्नालाल ), ( स सि / ८ / १ फूलचन्द), (कोश परिशिष्ट २३ मारकर की पहली के अनुसार ये उमास्वामी के शिष्य तथा यश कीर्ति के गुरु थे समय - शक सं. १४२-१५३ (ई, २२०-२३१) । (दे इतिहास / ७ /१.२) । लोहित-समुदस्य दिपर्वतका स्वामी देव दे०/ ६, २ सौधर्म स्वर्गका २४ वॉ पटल व इन्द्रक - दे० स्वर्ग /५/३ । लोहिताक्ष
1
१ गन्धमादन विजयार्ध पूर्वस्थ एक कूट- दे० /२/२२ दिवस पर स्वामी देव-दे० डोन /२/१२ मानुषोत्तरस्थ एक फूट०१००४ रुक एक० लोक/२/१३२ स्वर्ग पट० वर्ग ३/३)। लौंच - दे० केश लौच ।
-
लौकांतिक देव
स सि / ४ / २४/२५५ / १ एत्य तस्मिन् लीयन्त इति आलय आवास' । लोक आयो से लोकाया लोकालिका देना वेदितव्या । ब्रह्मलोको लोक' तस्यान्तो लोकान्त तस्मिन्भवा लौकान्तिका इति न सर्वेषा ग्रहणम् । 'अथवा जन्मजरामरणाकीर्णो लोक संसार, तस्यान्तो लोकान्त । लोकान्ते भवा लौकान्तिका !"
,
सि./४/२२/२६/७ एते सर्वे स्वतन्त्रा हीनाधिकरणाभावाविषय रतिविरहाङ्गदेवय इतरेषा देवानामर्धनीया चतुर्दशपूर्वरा [सततं ज्ञानभावनावहितमनस ससारा नित्यमुद्विग्ना अभिया शरणाद्यनुप्रेक्षासमाहितमानसा, अतिविशुद्धसम्यग्दर्शनाः, रा. वा. ] तीर्थंकर निष्क्रमण प्रतिबोधनपरा वेदितव्या । १. आकर जिसमें लयको प्राप्त होते है, वह आलय या आवास कहलाता है । ब्रह्मलोक जिनका घर है वे ब्रह्मलोक में रहने वाले लोकान् देव जानने चाहिए। लौकान्तिक शब्द में जो लोक शब्द है उससे ब्रह्म लोक लिया है और उसका अन्त अर्थात् प्रान्त भाग लोकान्त कहलाता है। यहाँ जो होते हैं वे लोकान्तिक कहते है। (४/२५/१/२४२ / २५ ) । २. अथवा जन्म जरा और मरणसे व्याप्त संसार लोक कहलाता है और उसका अन्त लोकान्त कहलाता है । इस प्रकार संसारके अन्तमें जो है वे लोकान्तिक है। ( ति प /८/६१५ ), ( रा. वा /४/२४/१-२ / २४२ / २५); ३. ये सर्व देव स्वतन्त्र है. क्योकि होनाधिक्ताका अभाव है विषय रतिसे रहित होनेके कारण देव ऋषि है। दूसरे देव इनकी अर्चा करते है। चौदह पूर्वीके ज्ञाता है । [ सतत ज्ञान भावनामे निरत मन, ससारसे उद्विग्न, अनित्यादि भावनाओके भाने वाले, अति विशुद्ध सम्यग्दृष्टि होते है । रावा, ] वैराग्य कल्याणकके समय तीर्थंकरोको सम्बोधन नेमे तत्पर हैं ( ति प /-/ ६४९-६४६), राया /४/२५/३/२४४/४) (त्र सा/२३-५४० ) ।
..
२. लौकान्तिक देवके भेद
..
-
1
सारस्वताविमरुण तीय चितायामाचारिताय
सू४/२५ ॥२५॥ स.सि./४/२५/२५६/३ सारस्वतादित्यान्तरे अग्न्याभसूर्याभाः । आदित्यस्य च वनेश्चान्तरे चन्द्राभसत्याभा' । बह्नचरुणान्तराले श्रेयस्करक्षेमंकराः । अरुणगर्द तोयान्तन्तराले पट- कामचारागर्द तुषितमध्ये निर्माणरजोदिगन्तरक्षिता । तुषितामध्ये आत्म
४९३
अन्यावाधारितरासे मरुसव
रक्षितसर्वरक्षा सारस्वतान्तरा अरुण गोय
। = सारस्वत, आदित्य, वह्नि, अन्याचाच और अरिष्ट येसौकान्तिक देव है | २५ च शब्दसे इनके मध्य में दो-दो देवगण और है इनका संग्रह होता है यथा-सारस्वत और आदित्य के मध्यमे अग्न्याभ और सूर्याभ है। आदिश्य और वहिके मध्यम और सत्याभ है । वह्नि और अरुणके मध्यमे श्रेयस्कर और क्षेमंकर, अरुण और गर्दतोयके मध्य में वृषभेष्ट और वामचर, गर्दतोय और दुषितके मध्य निर्माणरजस् और दिगन्तरक्षित है और तुतियानाधने मध्यमे आत्मरक्षित और सर्प रक्षित, अन्या बाध और अरिष्टके मध्य में मरुत् और वसु है । तथा अरिष्ट और सारस्वतके मध्य में अश्व और विश्व है । ( रा वा /४/२५/३/२४३/१५) ( ति प / ८ /६१६-६२४) ।
३. लौकान्तिक देवकी संख्या
ति प / ८ /६२४ - ६३४ सारस्वत ७००, आदित्य ७०० वह्नि ७००७. अरुण ७००७, गर्हतोय १००६, तुषित ६००६, अव्याबाध ११०११, अरिष्ट ११०११, अग्न्याभ ७००७, सूर्याभ ६००६ चन्द्राभ ११०११, सत्याभ १३०१३, श्रेयस्कर १५०१०, क्षेमकर १७०१७, वृषभेष्ट १६०१६. कामचर २१०२९. निर्माणरज २३०२३, दिगन्तरक्षित २५०२५. आत्मरक्षित २७०२७, सर्व रक्षित २६०२६, मरुत, ३१०३१. व ३३०३३ अश्व ३५०३५, विश्व ३७०३७ है। इस प्रकार इन चालीस लोकान्तिकोकी समग्र सख्या ४०७८६ है । (रा.वा./४/२५/३/२४३/२०) |
ति १८/६३६ लोक विभाग के अनुसार सारस्वतदेव ७०० है।
लौकान्तिक लोक
प्रस नाली में ऊपर की ओर से देखने पर
Hot upal
मारुत विमान ३३०३३
२० सर्वरक्षित विमान २२०२६.
१६ आत्मरक्षित विमान २००३०
६ तुमित विंगान
१८ दिगन्त रक्षित विमान२४०२५
१७ निर्माण ए स विमान २३०२३
जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश
०००००००००००
२१०२३
श्ादतीय विमान ६००६
लोकालिक देव
१६ कानवर विमान
१५ तृषष्ट विमान
१३ श्रेयस्कर विमान १५०१५
२४ विश्व विमान ३७०३८
वायव्य
उत्तर
मृत्य
दक्षिण
रिस्टल विमान ७००
६ अभ्यास विमान ७००७
१० सूर्याभ विमान ६००६
२ आदित्य विमान ७००
ईशान
आग्नेय
के
|| चन्द्राभ विमान ११०१
१२ सत्याभ विमान १३०१३
३चह्नि विमान ८००५
४. लौकान्तिक देवका अवस्थान स.सि./४/२४,२५/२५५/५ तेषा हि ( लौकान्तिकानां ) विमानानि मास्यान्तंस्थितानि । २४ अशस्वपि पूर्वोत्तरादिषु दि यथाक्रममेते सारस्वतादयो देवगणा वेदितव्या । तद्यथा-पूर्वोत्तर कोणे सारस्वत विमान पूर्वस्यां दिशि आदित्यविमान पूर्वदक्षिण दिशा दक्षिणस्या दिशि अरुणविमानस
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लौकिक
दक्षिणापरकोणे गर्दतोय विमानम्, अपरस्या दिशि तुषितविमानम्, उत्तरापरस्यां दिशि अस्थाना विमानम् उत्तरस्यां दिशि अरिष्टनमानम् । तेषामन्तरेषु द्वौ देवगणौ । - इन लौकान्तिक देवोके विमान ब्रह्मलोक के प्रान्त भागमें ( किनारे पर ) स्थित आठ राजियों ( Sectors ) के अन्तराल में ( ति प. ) है। पूर्व उत्तर आदि आठों ही दिशाओमें क्रमसे ये सारस्वत आदि देवगण रहते है ऐसा जानना चाहिए। यथा- पूर्वोत्तर कोणमें सारस्वतों के विमान पूर्व दिशामें आदित्योंके विमान पूर्व बहिदेोके विमान दक्षिण दिशामें अरुण के विमान, दक्षिण-पश्चिम कोने में गर्दतीय के विमान पश्चिम दिशा में तुषितके विमान उत्तर-पश्चिम दिशा में अभ्यासाधके विमान और उत्तर दिशामें अरिष्ट विमान है। इनके मध्य में दो दो देवगण है । (उनकी स्थिति व नाम दे० लौकांतिक / २ ), ०/६१६- ६१८ (रामा/४/२३/३/२४२ / १५ ). ६२४-१८)
( ति प /(जि. सा/
५. लौकान्तिक देव एक भवावधारी हैं।
Eco
ससि /४/२५/२५६/७ सौकान्तिका सर्वे परीतसंसाराः उतरता एक गर्भावासं प्राप्य परिनिर्वास्यन्तीति । लौकान्तिक देव क्योंकि संसारके पारको प्राप्त हो गये है इसलिए वहाँसे व्युत होकर और एक बार गर्भ में रहकर निर्माणको प्राप्त होगे (ति. प./-/६०६), (रा. मा. ४/२४/२४२/१० ) ।
* अन्य सम्बन्धित विषय
१. द्विचरम शरीरका स्पष्टीकरण ।
२. कैसो योग्यता वाला जीव लीकान्तिक दे जाता है।
२. लोक
लौकिक १ लौकिक जन सगतिका विधि निषेध - दे० 'संगति' । २.सा./२५१ २१ मासा ( शुद्धात्मवृत्तिशुण्यजनसभाषण ( त प्र ) ] | २५३॥ णिग्गंथ पब्बइदो वट्टदि जदि एहिगेहि कम्मे हि । सो लोगिगो त्ति भणिदो संजमत संपजुत्तो वि ॥२६॥ | - लौकिक जन संभाषण अर्थात् शुद्धात्म परिणति शून्य लोकों के साथ बातचीत....२(३३ जो (जीव) निर्मन्थ रूपसे दीक्षित होने के कारण संयम तप सयुक्त हो उसे भी यदि वह ऐहिक कार्यों (ख्याति लाभ पूजाके निमित्त ज्योतिष मन्त्र वादिव आदि 'तान) सहित हो तो कहा गया है |२६| लौकिक-दूसरे का मापदे०/२/११ लौकिक प्रमाण दे०प्रमाण ६
- दे० चरम ।
- दे० जन्म / ५१ -दे० स्वर्ग |
लोकोसर
लौकिक बाद लौकिक शुचि -- दे० शुचि ।
लौगक्षि भास्कर — मीमासा दर्शनका टीकाकार। - दे० मीमांसा
दर्शन।
[व]
वंग - दे० बग |
दंगा - मध्य आर्य खण्डकी एक नदी- दे० मनुष्य /४ ।
वंचना --- दे० माया ।
वंदना
- श्रुत
वंदनाद्वादशाके १४ पूर्वमें से तीसरा पूर्व ३०
ज्ञान / III/R
वंदना १. कृतिकर्मके अर्थ में
४९४
रा. वा / ६ / २४/१२/५३०/१३ वन्दना त्रिशुद्धि द्वासना चतु शिरोऽवनति द्वादशावर्तना । मन, वचन, कायकी शुद्धि पूर्वक खड्गासन या पद्मासन से चार सर शिरोनति और बारह आवर्त पूर्वक वन्दना होती है। - (विशेष दे० कृतिकर्म ) 1 भ.आ./वि./५०१/७२८/१३ वन्दनीयगुणानुस्मरणं मनोवन्दना । वाचा तद्गुणमाहात्म्य प्रकाशन परवचनोच्चारणम् । कायेन वन्दना प्रदक्षिणीकरण कृतानतिरच वन्दना करने योग्य गुरुओ बादिके गुणोंका स्मरण करना मनोवन्दना है, वचनोंके द्वारा उनके गुणोंका महत्व प्रगट करना यह वचन वन्दना है और प्रदक्षिणा करना, नमस्कार करना यह कायवन्दना है।- ( और भी दे० नमस्कार / १) । क. पा. १ / १-१ / ६ / १११/५ एयरस्स तित्थयरस्स णमसण वंदना णाम । - एक तीर्थंकरको नमस्कार करना वन्दना है। (भा. पा./ टी / ७७/ २२१/१४ ) ।
घ. ८/२.४१/०४/३ उहाजिय लहडमाणादितित्थयरागं भरहादिकेपली आहरिय-पतालमादी मे काउण णमोकारो गुणगणमल्लीणो सयकलावाउलो गुणाणुसरणसरूवो वा वंदना णाम । घ. ८/२, ४२/१२/४ तुहुं निविट्ठकम्मो केवल दि धम्मुम्मुहसिगोट्ठीए पुट्ठाभयदाणो सिटूट्ठपरिवालओ दुट्ठणिग्गहकरो देव त्ति पसंसाबंदणा णाम । - ऋषभ, अजित वर्धमानादि तीर्थंकर, भरतादि केवली, आचार्य एवं चैत्यालयादिकों के भेदको करके अथवा गुणगण भेदके आश्रित शब्द बाप या गुणानु स्मरण रूप नमस्कार करनेको वन्दना कहते हैं । ८८| 'आप अष्ट कमको नष्ट करनेवाले, केवलज्ञान से समस्त पदार्थोंको देखनेवाले, धर्मोन्मुख शिटोकी गोष्ठी में अभयदान देनेवाले शिष्ट परिपालक और दुष्ट निग्रहकारी देय है ऐसी प्रशंसा करनेका नाम बन्दना है। भ. आ /वि./ ११६/२७५/१ वन्दना नाम रत्नत्रयसमन्वितानां यतीनां आचार्योपाध्यायश्वर्तकस्य विराणां गुणातिशयं विज्ञाय श्रद्धापुरसरेण विनये प्रवृत्ति । रत्नत्रयधारक यति, आचार्य, उपाध्याय. प्रवृद्धसाधु इनके उत्कृष्ट गुणोंको जानकर श्रद्धा सहित होता हुआ विनयो में प्रवृत्ति करना, यह वन्दना है । - ( दे० नमस्कार / १) । २. निश्चय वन्दनाका लक्षण
=
यो सा. २४६ पवित्रदर्शन ज्ञानपारिश्रममुच अमानं मन्य मानस्य बन्दनाकfथ कोविदैः ॥४६॥ =जो पुरुष पवित्र दर्शन ज्ञान और चारित्र स्वरूप उत्तम आत्माकी वन्दना करता है, विद्वानोने उसी वन्दनाको उत्तम बन्दना कहा है।
•
१. वन्दना भेद व स्वरूप निर्देश
भा./वि./९९/२०५/२ वंदना अभ्युत्थानप्रयोगभेदेन द्विविधे विनये प्रवृत्ति प्रत्येक तयोरनेकमेवता अस्थान और प्रयोग के भेद से दो प्रकार विनय में प्रवृत्ति करना वन्दना है। इन दोनोंमें से प्रत्येक के अनेक भेद है। (तिनमें स्थान जिनम तो आचार्य माधु आदिके समझ पड़े होना. हाथ जोडना, पीछे-पीछे चलना आदि रूप है। इसका विशेष कथन 'विनय' प्रकरण में दिया गया है और प्रयोग विनय कृतिकर्म रूप है। इसका विशेष कथन निम्न प्रकार है । ।
* मन वचन काय वन्दना दे० नमस्कार ।
अनेन्द्र सिद्धान्त कोश
=
३. वन्दना आवश्यक अधिकार
भ, आ /वि/११६/२७५/२ कर्त्तव्यं केन, कस्य, कदा, कस्मिन्कति वारानिति । अभ्युत्थानं केनोपदिष्टं किंवा फलमुद्दिश्य
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वंदना
४९५
वंदनामुद्रा
कर्तव्यं ।...उपदिष्टः सर्वे जिन. कर्मभूमिषु। = यह वन्दना कार्य किसको करना चाहिए, किसके द्वारा करना चाहिए, कब करना चाहिए, किसके प्रति कितने बार करना चाहिए। अभ्युत्थान कर्तव्य है, वह किसने बताया है, तथा किस फलकी अपेक्षा करके यह करना चाहिए । सो इस कर्तव्यका कर्मभूमि वालोंके लिए सर्व जिनेश्वरीने उपदेश दिया है। ( इसका क्या फल व महत्त्व है यह बात 'विनय' प्रकरण में बतायी गयी है। शेष बाते आगे क्रम पूर्वक निर्दिष्ट हैं।)
४. वन्दना किनको करनी चाहिए चा. सा./१५६/२ अतश्चैत्यस्य तदाश्रयचैत्यालयस्यापि बन्दना कार्या । ...गुरूणां पुण्यपुरुषोषितनिरवद्यनिषद्यास्थानादीनामुच्यते क्रियाविधानम् । जिन बिम्बकी तथा उसके आश्रयभूत चैत्यालयकी वन्दना करनी चाहिए। आचार्य आदि गुरुओको तथा पुण्य पुरुषोके द्वारा सेवनीय उनके निषद्या स्थानोकी बन्दना विधि कहते है। दे वंदना/१ ( चौबीस तीर्थकरोकी, भरत आदि केवलियोकी,
आचार्य, उपाध्याय, प्रवर्तक, वृद्ध साधु, तथा चैत्य चैत्यालयकी वन्दना करनी चाहिए।)-(और भी दे०/कृतिकर्म/२/४ )।
५. वन्दनाकी तीन वेलाएँ व काल परिमाण ध.१३/५,४,२८/८६/१ पदाहिणाणमंसणादिकिरियाणं तिण्णिवारकरणं तिवखुत्तं णाम । अधवा एक्कम्हि चेव दिवसे जिणगुरु रिसिवंदजाओ तिण्णिवारं किज्जति त्ति तिवखुत्तं णाम। तिसझासु चेव बंदणा कीरदे अण्णत्थ किष्ण करिदे। ण अण्णत्थ वि तप्पडिसेहणियमाभावादो। तिसज्झासु बंदणणियमपरूवण तिववृत्तमिदि भणिद। प्रदक्षिणा और नमस्कार आदि क्रियाओका तीन बार करना त्रि कृत्वा है। अथवा एक ही दिनमें जिन, गुरु, ऋषियोंकी वन्दना तीन बार की जाती है, इसलिए इसका नाम त्रि कृत्वा है। प्रश्न-तीनो हो सन्ध्याकालो में वन्दना की जाती है, अन्य समयमें क्यों नहीं की जाती। उत्तर-नहीं, क्योकि, अन्य समयमै भी वन्दनाके प्रतिषेचका कोई नियम नही है। तीनो सन्ध्याकालोमें वन्दनाके नियमका कथन करनेके लिए 'त्रि कृत्वा' ऐसा कहा है। अन.ध/८/७/८०७ तिस्रोऽहोन्या निशश्चाद्या नाड्यो व्यत्यासिताश्च
ता. । मध्याह्नस्य च षटकालास्त्रयोऽमी नित्यवन्दने ७४/-उक्त चमुहूर्तत्रितय काल संध्यानो त्रितये बुधैः। कृतिकर्मविधेनित्य' परो नैमित्तिको मत' ॥ -तीन सन्ध्याकालोमें अर्थात पूर्वाह, अपराह्न, व मध्याह्नमें वन्दनाका काल छह-छह घडी होता है। वह इस प्रकार है कि, सूर्योदयसे तीन घडी पूर्वसे लेकर सूर्योदयके तीन घड़ी पश्चाव तक पूर्वाह्न बन्दना, मध्याह्नमें तीन घडी पूर्व से लेकर मध्याह्नके तीन घड़ी पश्चात तक मध्याह्न वन्दना, और इसी प्रकार सूर्यास्तमें तीन घडी पूर्वसे सूर्यास्तके तीन घडी पश्चात तक अपराहिक बन्दना । यह तीनो सन्ध्याओंका उत्कुष्ट काल है जैसे कि कहा भी है-कृतिकर्मकी नित्यकी विधिके कालका परिमाण तीनो सन्ध्याओमें तीनतीन मुहूर्त है। (अन. ध./६/१३ ) ।
५ साधुसंघमें परस्पर वन्दना व्यवहार। -दे. विनय/३, ४ । ६. चैत्यवन्दना या देववन्दना विधि । चा. सा /१५६/५ आत्माधीन' सच्चैत्यादीच प्रतिबन्दनाथ गत्वा धौतपादस्त्रिप्रदक्षिणीकृत्यैर्यापथकायोत्सर्ग कृत्वा प्रथममुपविश्यालोच्य चैत्यभक्तिकायोत्सर्ग करोमीति विज्ञाप्योत्थाय जिनेन्द्रचन्द्रदर्शनमात्रन्निजनयनचन्द्रकान्तोपल विगलदानन्दा जलधारापूरपरिप्लावितपक्ष्मपुटोऽनादिभवदुर्लभभगवदह परमेश्वरपरमभट्टारकप्रतिबिम्बद - निजनितहर्षोत्कर्ष पुल किततनुरतिभक्तिभरावनतमस्तकन्यस्तहस्तकु - शेशयकुड्मलो दण्डकद्वयस्यादावन्ते च प्राक्तनक्रमेण प्रवृत्त्य चैत्यस्तवेन त्रि'परीत्य द्वितीयवारेऽप्युपविश्यालोच्य पञ्चगुरुभक्तिकायोत्सर्ग करोमीति विज्ञाप्योत्थाय पञ्चपरमेष्ठिन स्तुत्वा तृतीयवारेऽप्युपविश्यालोचनीया । ......प्रदक्षिणीकरणे च दिक्चतुष्टयावनतौ चतु शिरो भवति । एव देवतास्तवनक्रियायो चैत्यभक्ति पञ्चगुरुभक्ति च क्लर्यात । -आत्माधीन होकर जिनबिम्ब आदिकोंकी वन्दनाके लिए जाना चाहिए। सर्व प्रथम पैर धोकर तीन प्रदक्षिणा दे ईर्यापथ कायोत्सर्ग करे। फिर बैठकर आलोचना करे। तदनन्तर मै 'चेत्यभक्ति कायोत्सर्ग करता हूँ' इस प्रकार प्रतिज्ञा कर तथा खड़े होकर श्री जिनेन्द्रके दर्शन करे। जिससे कि आँखोमे हर्षाश्रु भर जाये, शरीर हर्ष से पुलकित हो उठे और भक्तिसे नम्रीभूत मस्तकपर दोनों हाथोको जोड़कर रख ले। अब सामायिक दण्डक व थोस्सामिदण्डक इन दोनों पाठोको आदि व अन्तमें तीनतोन आवर्त व एक-एक शिरोनति सहित पढे। दोनोके मध्यमें एक नमस्कार करे (दे० कृतिकर्म/४) तदनन्तर चैत्यभक्तिका पाठ पढे तथा बैठकर तत्सम्बन्धी आलोचना करे। इसी प्रकार पुन दोनो दण्डको व कृतिकर्म सहित पचगुरुभक्ति व तत्सम्बन्धी आलोचना करे। प्रदक्षिणा करते समय भी प्रत्येक दिशामें तीन-तीन आवर्त और एक शिरोमति की जाती है। इस प्रकार चैत्य वन्दना या देव वन्दनामें चैत्यभक्ति व पचगुरु भक्ति की जाती है। (भ, आ./वि./११६/२७५/ ११पर उद्धृत), (अन. ध/९/१३-२१)।
७. गुरु वन्दना विधि
अन.ध./8/३१ लध्व्या सिद्धगणिस्तुत्या गणी वन्द्यो गवासनात् । सैद्धान्तोऽन्त श्रुतस्तुत्या तथान्यस्तन्नति विना ।३१ -उक्त चसिद्धभक्या बृहत्साधुर्वन्द्यते लघुसाधुना । लघ्या. सिद्धश्रुतस्तुत्या सैद्धान्त प्रणम्यते । सिद्धाचार्यलघुस्तुत्या वन्द्यते साधुभिर्गणी। सिद्ध श्रुतगणिस्तुत्या नव्या सिद्धान्तविद्गणी। साधुओको आचार्यकी बन्दना गवासनसे बैठकर लघुसिद्धभक्ति व लघु आचार्यभक्ति द्वारा करनी चाहिए। यदि आचार्य सिद्धान्तवेत्ता है, तो लघु सिद्धभक्ति, लघु श्रुतभक्ति व लघु आचार्यभक्ति करनी चाहिए। जैसा कि कहा भी है-छोटे साधुओको बड़े साधुओंको वन्दना लघु सिद्धभक्ति पूर्वक तथा सिद्धान्तवेत्ता साधुओं की वन्दना लघुसिद्वभक्ति और लघुश्रुतभक्तिके द्वारा करनी चाहिए । आचार्यकी वन्दना लघुसिद्धभक्ति व लघु आचार्यभक्ति द्वारा, तथा सिद्धान्तवेत्ता आचार्यकी बन्दना लघु सिद्धभक्ति, लघु श्रुतभक्ति और लघु आचार्यभक्ति द्वारा करनी चाहिए।
4. वन्दना प्रकरणमें कायोत्सर्गका काल
* अन्य सम्बन्धित विषय १. वन्दनाका फल गुणश्रेणी निर्जरा। २. वन्दनाके अतिचार। ३. वन्दनाके योग्य आसन मुद्रा आदि। ४. एक जिन या जिनालयकी वन्दनासे सबकी वन्दना हो जाती है।
-दे० पूजा/२। -दे० व्युत्सर्ग/१। -दे० कृतिकर्म/३ ।
दे० कायोत्सर्ग/१ ( बन्दना क्रियामें सर्वत्र २७ उच्छ्वासप्रमाण कायो
त्सर्गका काल होता है।) वंदनामुद्रा-दे० मुद्रा।
---दे० पूजा/३।
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वंश ४९६
वक्ता वश-१. ऐतिहासिक राज्यवंश-दे० इतिहास/३ । २. पौराणिक केवली आरातीयश्चेति । वक्ता तीन प्रकारके है-सर्वज्ञ तीर्थ कर
राज्यवश -दे० इतिहास/७१३. जैन साधुओके वश या सघ -दे० या सामान्य केवली, श्रुतकेवली और आरातीय । इतिहास/४,५॥
३. जिनागमके वास्तविक उपदेष्टा सर्वज्ञ देव ही हैं वंशपत्र- दे० योनि।
दे० आगम/५/५ ( समस्त वस्तु-विषयक ज्ञानको प्राप्त सर्वज्ञ देवके निरूवंशा-नरककी दूसरो पृथिवी। अपर नाम शर्कराप्रभा। -दे०
पित होनेसे ही आगमकी प्रमाणता है।) शराप्रभा तथा नरक !
दे० दिव्यध्वनि/२/१५ ( आगमके अर्थकर्ता तो जिनेन्द्रदेव है और ग्रन्थवंशाल--विजया की उत्तर श्रेणीका एक नगर । -दे० विद्याधर। कर्ता गणधर देव है।)
द पा/टो/२२/२०/८ केवलज्ञानिभिर्जिनभणितं प्रतिपादितम् । केवलवक्तव्य-१ वस्तु कथचित् वक्तव्य है और कथं चित् अवक्तव्य
ज्ञानं विना तीर्थ करपरमदेवा धर्मोपदेशनं न कुर्वन्ति । अन्यमुनी-दे० सप्तभ गी/६ । २. शब्द अल्प है और अर्थ अनन्त -दे०
नामुपदेशस्त्वनुवादरूपो ज्ञातव्य । - केवलज्ञानियोके द्वारा कहा आगम/४।
गया है। केवल ज्ञान के बिना तीर्थकर परमदेव उपदेश नही करते । वक्तव्यता
अन्य मुनियोका उपदेश उसका अनुवादरूप जानना चाहिए। ध१/१,१,१/८२/५ वत्तव्वदा तिविहा, ससमयवत्तव्वदा परसमयवत्तब्बदा तदुभयवत्तव्वदा चेदि । जम्हि सत्यम्हि स-समयो चेव
४. धर्मोपदेष्टाकी विशेषताएँ वणिज्जदि परूविज दि पण्णाविज्जदि तं सत्थं ससमयवत्तव्वं, तस्स भावो ससमयवत्तव्वदा। पर समयो मिच्छत्तं जम्हि पाहूडे अणि
कुरल/अधि /श्लो, भो भो' शब्दार्थवेत्तार' शास्तार' पुण्यमानसा. । योगे वा बणिज्जदि परूविज्जदि पण्णाविस्जदि त पाहुडमणि- श्रोतृणां हृदय बोक्ष्य तदहाँ ब त भारतीम् ॥ (७२/२) । विद्वद्योगो बा परसमयवत्त व्वं, तस्स भावो परसमयवत्तव्वदा णाम ।
गोष्टया निजज्ञानं यो हि व्याख्यातुमक्षम । तस्य निस्सारता जस्थ दो वि परूवेऊण पर-समयो दूसिज्जदि स-समयो थाविज्जदि
याति पाण्डित्य सर्वतोमुखम् । (७३/८) । =ऐ शब्दोका मूल
जानने वाले पवित्र पुरुषो। पहले अपने श्रोताओकी मानसिक सत्थ सा तदुभयवत्तव्यदा णाम भवदि ! वक्तव्यताके तीन प्रकारस्वसमय वक्तव्यता, परसमय वक्तव्यता और तभय वक्तव्यता।
स्थितिको समझ लो और फिर उपस्थित जनसमूहकी अवस्थाके
अनुसार अपनी बक्तता देना आरम्भ क्रो। (७२/२)। जो लोग जिस शास्त्र में स्वसमयका ही वर्णन किया जाता है, प्ररूपण किया जाता है, अथवा विशेष रूपसे ज्ञान कराया जाता है, उसे
विद्वानोंको सभामे अपने सिद्धान्त श्रोताओके हृदय में नहीं बिठा स्वसमय वक्तव्य कहते है और उसके भात्रको अर्थात् उसमें रहने
सकते उनका अध्ययन चाहे कितना भी विस्तृत हो, फिर भी वह वाली विशेषताको स्वसमय वक्तव्यता कहते है। पर समय
निरुपयोगी ही है। (७३/८) । मिथ्यात्वको कहते है, उसका जिस प्राभूत या अनुयोगमें
आ. अनु/५-६ प्राज्ञ प्राप्तसमस्तशास्त्रहृदय' प्रव्यक्तलोकस्थितिः, वर्णन किया जाता है, प्ररूपण किया जाता है या विशेष ज्ञान
प्रास्ताश' प्रतिभापर' प्रशमवान् प्रागेव दृष्टोत्तर'। प्राय' प्रश्नसह कराया जाता है उस प्राभूत या अनुयोगको परसमय वक्तव्य कहते प्रभु' परमनोहारो परानिन्दया, ब्रयाद्धर्म का गणी गुणनिधि' है और उसके भावको अर्थात् उसमें होने वाली विशेषताको पर
प्रस्पष्टमिष्टाक्षर ।। श्रुतम विकलं शुद्धा वृत्ति परप्रतिबोधने, परि समय वक्तव्यता कहते है। जहाँपर स्वसमय और परसमय इन
तिरुरुद्योगो मार्ग प्रवर्तनसद्विधौ । बुधनुतिरनुत्सेको लोक्ज्ञता दोनोका निरूपण करके परसमयको दोषयुक्त दिखलाया जाता है मृदुतास्पृहा, यतिपतिगुणा यस्मिन्नन्ये च सोऽस्तु गुरु' सताम् ।। और स्वसमय की स्थापना की जाती है, उसे तदुभय वक्तव्य कहते
-जो प्राज्ञ है, समस्त शास्त्रोके रहस्यको प्राप्त है, लोकव्यवहारसे है, और उसके भावको अर्थात् उसमें रहनेवाली विशेषताको तदुभय- परिचित है, समस्त आशाओसे रहित है, प्रतिभाशाली है, शान्त वक्तव्यता कहते है । (ध./४,१,४५/१४०/३ )।
है, प्रश्न होनेसे पूर्व हो उसका उत्तर दे चुका है, श्रोताके प्रश्नों को
सहन करनेमे समर्थ है, ( अर्थात उन्हे सुनकर न तो घबराता है २. जैनागममें कथंचित् स्वसमय व तदुभय वक्तव्यता और न उत्तेजित होता है ), दूसरोके मनोगत भावोंको ताडने बाला
है, अनेक गुणोका स्थान है, ऐसा आचार्य दूसरोकी निन्दा न ध. १/१.१,१/०२/१० एत्थ पुण- जीवट्ठाणे ससमयबत्तबदा ससमयस्सेव
करके स्पष्ट एव मधुर शब्दो में धर्मोपदेश देनेका अधिकारी होता परूवणादो। -इस जीवस्थान नामक (धवला ) शास्त्रमें स्वसमय
है।५। जो समस्त श्रुतको जानता है, जिसके मन वचन कायकी वक्तव्यता ही समझनी चाहिए, क्योकि इसमें स्वसमयका ही निरू
प्रवृत्ति शुद्ध है, जो दूसरोको प्रतिबोधित करने में प्रबोण है, मोक्षपण किया गया है।
मार्गके प्रचाररूप समोचीन कार्य में प्रयत्नशील है, दूसरोके द्वारा क पा./२/१,१/ ८१/१७/२ तत्थ सुदणाणे तदुभयवत्तव्बदा, सुणयदुण्ण
प्रशसनीय है तथा स्वय भी दूसरोकी यथायोग्य प्रशसा व विनय याण दोपहं पि परूवणाए तत्थ संभवादो। = श्र तज्ञानमें तदुभय
आदि करता है, लोकज्ञ है, मृदु व सरल परिणामी है, इच्छाओसे वक्तव्यता समझना चाहिए, क्योकि, श्रुतज्ञानमें सुनय और दुर्न य रहित है, तथा जिसमे अन्य भी आचार्य पदके योग्य गुण विद्यमान इन दोनोंकी ही प्ररूपणा सभव है।
है, वही सज्जन शिष्योका गुरु हो सकता है।६। वक्ता
दे० आगम/1/8 (वक्ताको आगमार्थ के विषय में अपनी अरसे कुछ नहीं रा, वा./१/२०/१२/७५/१८ वक्तारश्चाविष्कृतवक्तृपर्याया द्वीन्द्रियादयः । कहना चाहिए)। --जिनमें वक्तृत्व पर्याय प्रगट हो गयी है ऐसे द्वीन्द्रियसे आदि। दे० अनुभव/३/१ ( आत्म-स्वभात्र विषयक उपदेश देने में स्वानुभवका लेकर सभी जीव वक्ता है । (ध १/१,१,२/११७/६). (गो जो/जी.प्र) ___ आधार प्रधान है।) ३६५/७७८/२४) ।
दे० आगम/६/१ (वक्ता ज्ञान व विज्ञानसे युक्त होता हुआ ही प्रमाणता
को प्राप्त होता है।) २. वक्ताके भेद
दे० लब्धि/३ (मोक्षमार्गक उपदेष्टा यास्त में सम्यग्दृष्टि होना चाहिए स सि /२/२०/१२३/१० त्रयो वक्तार -सर्वज्ञस्तीर्थ कर इतरो वा श्रुत- मिथ्यादृष्टि नही।)
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वक्रग्रीव
* अम्ब सम्बन्धित विषय
२. जीवको वक्ता कहनेको विवक्षा
२.
प्रामाणिकता से वचनकी प्रामाणिकता
३. दिगम्बराय व गृहस्थावायों को उपदेशव आदेश देनेका अधिकार है
४ हित मित व कटु सभाषण सम्बन्धी
५ व्यर्थ सभाषणका निषेध
६ वाद-विवाद करना योग्य नहीं पर भ-हानिके अवसरपर बिना बुलाये बोले
*
१
वचनसामान्य निर्देश
१-२ अभ्याख्यान आदि १२ भेद व उनके लक्षण ।
३
गहित सावध व अप्रिय वचन |
कर्कश आदि तथा आमन्त्रणी आदि भेद
२
वक्रग्रीव - १. कुन्दकुन्द ( ई १२७-१७९ ) का अपर नाम (दे, कुन्द कुद विभाजन के अन्तर्गत पात्र (ई.बा.७) के शिष्य और बज्रनन्दि नं. २ (बि. श. ६) के शिष्य । समयलगभग ई. श. ६-७ / ई. ११२५ के एक शिलालेख में अकलंक देव के पश्चात् सिनन्दि का और उनके पश्चात वक्रग्रीव का नाम आता है०१६ (२/१०१
१
२
३
-
वक्रांत - पहले नरकका ११ वॉ पटल-वे० नरक / ११ तथा रत्नप्रभा । वक्षार - पूर्व और विदेहके कक्षा आदि ३२ क्षेत्रोने विभाजित करनेवाले २६ पर्वत है।- ३० लोक ३/१४०
वचन
- दे०जी०/२/३
दे० आगम/१६।
हित मित तथा मधुर कटु सभाषण सत्य व असत्य वचन
मोपाचन चोरीमै अन्तर्भूत नहीं है। द्रव्य व भाव वचन तथा उनका मूर्त
वचनकी प्रामाणिकता सम्बन्धी
वचनयोग निर्देश
भा० ३-६३
-दे० आचार्य/२
-- दे० सत्य / ३ ।
-- दे० सत्य / ३१
- दे०
४९७
१० वाद
- दे० भाषा । -- दे० सत्य / २ । - दे० वह वह नाम ।
-३०] [मूर्त/२/३ । - १० आगम ५-६
वचयोग सामान्यका लक्षण ।
वचनयोगके भेद |
वचनयोगके भेदोंके लक्षण । शुभ अशुभ वचन योग 1
वचन योग व वचन दण्डका विषय - दे० योग । मरण या व्यापातके साथ ही वचन योग
भी समाप्त हो जाता है - दे० मनोयोग / ७ | केवली के वचनयोगकी सम्भावना - दे० केवली / ५ । वचनयोग सम्बन्धी गुणपरपान मार्गेणा स्थानादि २० प्ररूपणाएँ - दे० सव | सत् संख्या आदि ८ प्ररूपणाएँ - दे० वह वह नाम ! वचनयोगी के कर्मोका बन्ध उदय सत्व
- दे० वह वह नाम ।
१. वचन सामान्य निर्देश
१. चचनके अभ्याख्यान आदि १२ भेद
१२/४,२८/१०/२८५ अन्भवा-र-रहि-नियदि-भाग-माय-मोसम मिच्या सण-पोपच्चए - अभ्याख्यान, कलह, पैशुन्य, रति, अरति, उपधि, निकृति, मान, मेय, मोष, मिथ्याज्ञान, मिथ्यादर्शन और प्रयोग इन ज्ञानातरणीय वेदना होती है।
रा. बा /१/२०/१२/०३/१० मा प्रयोग शुभेत लक्षणोपयते अभ्या पापात परस्परप धनिकृष्यगमिषसम्म मियाना भाषा साधाभ और अशुभके भेदसे वाक्प्रयोग दो प्रकारका है । अभ्याख्यान, कलह, पैशुन्य, असबद्ध
परति वरति उपचि निति, प्रगति, मोच, सम्यग्दर्शन और मिथ्यादर्शनके भेदसे भाषा १२ प्रकारकी है । (ध. १,१.२/११६/१० ), ( घ / ६/४, १.४५/२१७/१ ); ( गो, जी/जी १/३६५/७७८/२०)1
वचन
२. अभ्याख्यान आदि भेदोंके लक्षण
रा, वा /१/२०/१२/७५/१२ हिंसादे कर्मण: कर्तृविरतस्य विरताविरतस्य वायमस्य कर्तेत्यभिधानम् अभ्याख्यानम् । कलह प्रतीत । पृष्ठतो दोषाधिकरण पेय धर्मार्थकाममोक्षासनमा बाग् असंबद्धप्रलाप | शब्दादिविषयदेशादिषु रत्युत्पादिका, रतिवाक् । तेष्वेवारत्युत्पादिका अरतिवाक् या वाच श्रुत्वा परिग्रहाजंनरक्षगाविवासते सोपधिवाहारे यामधा निति
=
आमा भवति या निकृतिवाक् या श्रुष्य तपोविज्ञानाधि च्वपि न प्रणमति सा अप्रगतिवान् । या श्रुत्वा स्तेये वर्तते सा सम्मोपदेष्ट्री सम्यदर्शनाद्विपरीता मियादर्शनवान्। हिसादिमिर पुनि या को हिसादिका दोष लगाना अभ्याख्यान है ( विशेष दे० अभ्याख्यान ) । कलहका अर्थ स्पष्ट ही है ( विशेष दे० कलह ) । पीठ पीछे दोष दिखाना शुन्य है (विशेष दे० धर्म मन मोह हम चार पुरुषार्थी के सम्बन्ध से रहित वचन असम्बद्ध प्रलाप है । इन्द्रियोंके शब्दादि विषयों में या देश नगर आदिमें रति उत्पन्न करनेवाला रतिवाक् है । इन्होंमें अरति उत्पन्न करनेवाला अरतिवाक है। जिसे सुनकर परिग्रहके अर्जन, रक्षण आदिमें आसक्ति उत्पन्न हो वह है व्यापार मे उगनेको प्रोत्साहन मिले ह निकृतिया है। जिसे सुनकर तपोनिधि या गुणी जोवोके प्रति अविनयकी प्रेरणा मिले है। जिसमें प्रवृत्ति हो वह देश सम्पदर्शनया है और मिथ्यामार्ग प्रवर्तक उपदेश मिथ्यादर्शनवाक् है । ( ध. १/१.१. २ / ११६/१२); ( घ ६/४, १,४५ / २१७/३ ) ; ( गो. जो / जी. प्र. / ३६५/ ७७८/१६) (विशेष दे० वह वह नाम ) ।
।
है
३. गर्हित सावद्य व अप्रिय वचन आ./३०-३२
विधा
ज किचि विप्लव कहिद्रवयणं समासेण । ८३०) जत्तो पाणवाघादी दोसा जायति सावज्जवयणं च । अविचारिता येणं येणत्ति जमादी |१| परुस कडुय वयणं वेर कलह च ज भयं कुणइ । उत्तासण च होलणमपियवयर्ण समासे ३२ कर्कश वचन, निष्ठुर भाषण, पैशुन्यके वचन, उपहासका वचन, जो कुछ भी बडबड करना, ये सब सक्षेपसे गर्हित वचन है । ८३०| [ छेदन-भेदन आदिके ( पु सिउ )] जिन वचनोसे प्राणिवध आदि दोष उत्पन्न हो अथवा बिना विचारे बोले गये, प्राणियोको हिसा के कारणभूत
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२. वचनयोग निर्देश
वचन सावध वचन है । जैसे- ( इस सडै सरोवर मे ) इस भैसको पानी पिलाओ ||३१| परुष वचन जेसे- तु दुष्ट है, कटु वचन, वैर उत्पन्न करनेवाले वचन, कलहकारी वचन, भयकारी या त्रासकारी वचन, दूसरीको अवज्ञा - कारी होलन वचन, तथा अप्रिय वचन सक्षेप से असत्य वचन हैं । ( पुसि उ. / ६६-६८ ) ।
४. मोषवचन चोरीमें अन्तर्भूत नहीं है
ध १२ / ४२, ८, १०२८६ / ३ मोष' स्तेय' । ण मोसो अदत्तादाणे पविस्सदि. हृदपदिदमुहादामिम्मि अस्सादामम्मि एइरस पसमोषका अर्थ चोरी है यह नोष अदत्तादानमे प्रविष्ट नहीं होता, क्योंकि इस पतित, प्रमुक्त और निहित पदार्थ के ठाणविषयक अदत्तादान में इसके प्रवेश विशेष है।
विरोहादो
२. वचनयोग निर्देश
१. वचनयोग सामान्यका लक्षण
४९८
स.सि./६/९/३१८/६ शरीरनामकर्मोदयापादितवाग्बर्गणालम्बने सति नीयन्तरायमपराधावरणक्षयोपशमापादिताभ्यन्तरमा पिका निध्येयापरिणानाभिमुखस्यात्मन प्रदेशपरिस्पन्दो वाग्योग - शरीर नामकर्मके उदयसे प्राप्त हुई वचनवर्गणाओका बालम्बन होनेपर तथा भीर्यान्तराय और मत्यक्षरादि द्वावरण के क्षयोपशम से प्राप्त हुई भीतरी वचन लब्धि के मिलने पर वचनरूप पर्याय के अभिमुख हुए आत्माके होनेवाला प्रदेश परिस्पन्द वचनयोग कहलाता है (रा. मा/६/१/१०/५०४/१३) ।
घ १/९.१.४०/२७१/२ वपस समुत्पश्यर्धप्रयो
तज्जनितमीयेंवचनकी उत्पत्तिके
घ १/१.१.६५/३०८/२ चतुर्णा वचसा सामान्यं यच णात्मप्रदेश परिस्पन्दलक्षणेन योगो वाग्योग । लिए जो प्रयत्न होता है, उसे वचनयोग कहते है । अथवा सत्यादि चार प्रकारके वचनों में जो अन्वयरूपसे रहता है, उसे सामान्य वचन कहते है । उस वचन से उत्पन्न हुए आत्मप्रदेश परिस्पन्द लक्षण वीर्यके द्वारा जो योग होता है उसे वचनयोग कहते है ।
ध ७/२.१,३३/७६/७ भासावग्गणापोग्गलखधे अवलंबिय जीवपदे साण सोचविकोचो सो अभियोगों णाम भाषावर्गेणासम्बन्धी पुद्गलस्कन्धोके अवलम्बनसे जो जीव प्रदेशोका संकोच विकोच होता है वह वचनयोग है । ( ध. १०/४, २, ४, १०५ / ४३७ /१० ) ।
२. वचनयोगके भेद
पत्र १/११/ सूत्र (२/२८६ लोगो व्यहोराचनचजोगी मोरावचिजोगो समोसवचिजोगो असच्चमोसवचिजोगो चेदि ॥५२॥ वचनयोग चार प्रकारका है-सत्य वचन योग, असत्य वचनयोग, उभयवचन योग और अनुभय वचन योग | ५२ | (भ आसू / १११२ / ११८८ ), ( मू. आ./३१४ ); ( रा. वा./१/७/११/६०४/२ ); ( गो. जी. सू / २९७/४०४). स. / टी / १३/३०/७ ) ।
३. वचनयोगके भेदोंके लक्षण
प से प्रा/१/११-१२ इस हिसच्चे वय जो जोगी सो दुचिज गो । तब्बिवरीओ मोमो जाणुभयं सचमोस चि । ६१| जो व सच्चमोसो त जाण असुञ्चमोसवचिजोगो । अमणाणं जा भासा सण्णीणामतणीयादी || दस प्रकार के सत्य वचनमें (दे० सत्य ) बचनवर्गणा के निमित्तसे जो योग होता है, उसे सत्य वचनयोग कहते है । बस से विपरीत योगको मृषा वचनयोग कहते है । सत्य और मृषा वचनरूप योगको उभयवचनयोग कहते है । जो वचनयोग न तो सत्यरूप हो और न मृषारूप ही हो, उसे असत्यमृषावचनयोग कहते है। अमज्ञी जीवोकी जो अनक्षररूप भाषा है और सज्ञो जीवोंकी जो
वज्रघोष
आमन्त्रणी आदि भाषाएँ है ( दे. भाषा ) उन्हे अनुभय भाषा जानना चाहिए ( वा / २९४), ( २/१.१.२२/ १५८-१५१ / २०६). (गो. जी / मु./२२०-२२९ / ४४० ) ।
१/१,१.५२ / २६ चतुर्विधमनोभ्यः समुत्पन्नवचनानि चतुर्विधान्यपि तद्व्यपदेश प्रतिनभन्ते तथा प्रतीयते च । चार प्रकारके मनसे उत्पन्न हुए चार प्रकारके वचन भी उन्ही सज्ञाओको प्राप्त होते है, और ऐसी प्रतीति भी होती है ।
गो, जी / जी. प्र / २१७/४७५/५ सत्याद्यर्थे सहयोगात् - सबन्धात् खलु स्फुटं ता मनोवचनप्रवृचय, उद्योगा -राध्यादिविशेषणविशिष्टा, चमारो मनोयोगाचारी माग्योगाश्च भवन्ति सत्यादि पदार्थ सम्बन्ध जो मन वचनकी प्रवृत्ति होती है. वह सत्यादि विशेषण से विशिष्ट चार प्रकारके मनोयोग व वचनयोग है । - विशेष दे० मनोयोग / ४ ।
४. शुभ-अशुभ वचनयोग
=
आ. अ / ५२५५ मतिरायचोरकहाओ मण वियाण असहनिदि || सारछेदकरणययण वयमिदि जिहि ॥२३॥-भोजनकथा, स्त्रीकथा, राजकथा और चोरकथा करनेको अशुभवचनयोग और मसारका नाश करनेवाले वचनोको शुभ वचनयोग जानना चाहिए ।
दे० विधान ( निरर्थक अशुद्ध वचनका प्रयोग दुष्ट प्रविधान है।) रावा /६/३/१२/१०/पंक्ति अनृतभाषणपरु नासत्यवचनादिर शुभो वाग्योग 1 (२०६ / ३२) सत्यभाषणादिशुभयोग (५०७/२ । == असत्य बोलना, कठोर बोलना आदि अशुभ वचनयोग है और सत्यहित मित बोलना शुभ वचनयोग है। (स. सि /६/३/६१६/११ ) ।
वचनगुप्ति - दे० गुप्ति |
वचनबल - १ १० प्राणोमे से एक ३० प्राय २. एक ऋद्धि । -३० जूद्धि । वचनवाधित० बाधित।
वचनयोग - दे० वचन | २ |
वचन विनय-दे० विनम वचन शुद्धि - दे० समिति । वचनातिचार -- दे० अतिचार |
वचनोपगत- दे० निक्षेप / ५ ।
वज्र - १ नन्दनवन, मानुषोत्तर पर्वत व रुचक पर्वत पर स्थित कुटोका नाम ०/२२ सौधर्म रख पटत
२० सर्ग/शर बौद्ध मतानुयायी एक राजा जिसने नालन्दा मठका निर्माण कराया। समय ई श ५ |
मध्य
वज्र ऋषभ नाराच दे० सहनन । बज्र खंडिक भरतले मनुष्य / ४ । वज्रघोष - - म पु / ७३ / श्लोक नं. - पार्श्वनाथ भगवान्का जोव बडे भाई कमठ द्वारा मारा जानेपर सल्लकी बनमे बज्रवोष नामका हाथी हुआ ।११-१२। पूर्वजन्मका स्वामी राजा साम लेकर ध्यान करता था। उसपर उपसर्ग करनेको उद्यत हुआ, पर पूर्वभवका सम्बन्ध
जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश
खण्ड एक देश – ६०
- दे०
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वज्रजंघ
वड्ढमानचरिउ
वज्रबाहु-१. प. पु./२१/श्लो.-सुरेन्द्रमन्युका पुत्र ७७१ ससुराल जाते समय मार्गमें मुनियोके दर्शनकर विरक्त हो गये ।१२१-१२३। यह सुकौशल मुनिका पूर्वज था। २. म पु /सर्ग/श्लो.-बनजंघ (भगवान् ऋषभदेवका पूर्वका सातवाँ भव ) का पिता था। (६/२९) । पुष्कलावती देशके उत्पलखेट नगरका राजा था। (६२८) अन्त में दीक्षित हो गये थे। (८/५१-५७) ।
०००० ००० ००
वज्रमध्य वतह पु/३४/६२-६३-रचनाके अनुसार ५,४,३,२,१,२,३,
४.५ के क्रमसे २६ उपवास करे। बीचकह स्थानोमें पारणा करे।
००
०००० ०००००
०
व्रत विधान संग्रह/पृ. ८१-रचनाके अनुसार १,२,३,४,
१.५,४,३,२ के क्रमसे २६ उपवास करे। बोचके है स्थानोमे पारणा करे । नमस्कार मन्त्रका त्रिकाल जाप्य करे।
०००
०
००००
जान शान्त हो गया। मुनिराजके उपदेशसे श्रावकवत अगीकार किये। पानी पीनेके लिए एक तालाबमें घुसा तो कीचडमें फंस गया। वहाँ पुन, कमठके जीवने सर्प बनकर डॅस लिया। तब वह मरकर सहवार स्वर्ग में देव हुआ।१६-२४। यह पार्श्वनाथ भगवानका पूर्वका
आठवॉ भव है।-विशेष दे० पार्श्वनाथ । वनजंघ-१. म. पु/सर्ग/श्लो.-"पुष्कलावती देशके उत्पलखेट
नगरके राजा वज्रवाहका पुत्र था। (६/२६)। पूर्वके देव भवकी देवी स्वय प्रभामे अत्यन्त अनुरक्त था । (६४८) । श्रीमतीका चित्र देखकर पूर्व भव स्मरण हो आया। (७/१३७-१४०)। और उसका पाणिग्रहण किया। (७/२४६)। ससुरके दीक्षा लेनेपर ससुराल जाते समय मार्गमें मुनियोको आहार दान दिया। (८) १७३)। एक दिन शयनागारमें धूपघटोके सुगन्धित धूऍसे दम घुट जानेके कारण अकस्मात् मृत्यु आ गयी। (६/२७)। पात्रदानके प्रभावसे भोगभूमिमें उत्पन्न हुआ। (८/३३)। यह भगवान् ऋषभदेवका पूर्वका सातवाँ भव है। (दे० ऋषभदेव) । २. प.पू./सर्ग/श्लोक-पुण्डरीक पुरका राजा था। (१७/१८३)। राम द्वारा परित्यक्त सीताको वनमे देख उसे अपने घर ले गया ! (६/१-४)।
उसी के घर पर लव और कुश उत्पन्न हुए। (१००/१७-१८) । वज्रदंत-म पु./सर्ग/श्लोक-पुण्डरी किणी नगरका राजा था। (६/५८)। पिता यशोधर केवलज्ञानी हुए। (६/१०८)। वहाँ ही इन्हे भी अवधिज्ञानको उत्पत्ति हुई । (६/११०) । दिग्विजय करके लौटा। (६/११२-१६४)। तो अपनो पुत्री श्रीमतीको बताया कि तीसरे दिन उसका भानजा वज्रजंघ आयेगा और चह ही उसका पति होगा। (७/१०५) । अन्तमें अनेको रानियों व राजाओके साथ दीक्षा धारण की। (८/६४-८५)। यह वज्रजंघका ससुर था।
-दे० बज्रजघ। वज्जनंदि-१. नन्दिस के बलात्कारगणकी गुर्वावलीके अनुसार
आप गुणनन्दिके शिष्य तथा कुमारनन्दिके गुरु थे। समय-विक्रम शक सं. ३६४-३८६ ( ई. ४४२-४६४)। -(दे० इतिहास/७/२) । २. आ. पूज्यपादके शिष्य थे। गुरुसे बिगडकर द्रविडसघकी स्थापना की। हरिव शपुराण (ई ७८३) में आपके वचन गणधरतुल्य कहे गए है । कृतिय -- नवस्तोत्र, प्रमाण ग्रन्थ । समय-वि. श.
६। (दे. इतिहास/७/१); (ती./२/४५०; ३/२-६) । वज्रनाभि-१ म. पु./सर्ग/श्लो, न,-पुण्डरीकिणीके राजा बज्र
सेनका पुत्र था। (११/०१)1 चक्ररत्न प्राप्त किया। (११/३८-५५)। अपने पिता बज्रसेन तीर्थकरके समीप दीक्षा धारण कर (१९/६५६२)। तीर्थकर प्रकृतिका बन्ध किया (११/७९-८०)। प्रायोपगमन सन्यासपूर्वक। (११/१४)। श्रीप्रभ नामक पर्वतपर उपशान्तमोह गुणस्थानमें शरीरको त्याग सर्वार्थसिद्धिमें अहमिन्द्र हुए। (१९४११०-१११ )। यह भगवान् ऋषभदेवका पूर्व का तीसरा भव है। -दे० ऋषभदेव। २. म. पु./७३/श्लो. नं.-पद्म नामक देशके अश्वपुर नगरके राजा वज्रवीर्यका पुत्र था। २६-३२ । संयम धारण किया ।३४-३५॥ पूर्व भवके वैरी कमठके जीव कुर ग भीलके उपसर्ग ।३८-३६ को जीतकर सुभद्र नामक मध्यम ग्रेवेयकमें अहमिन्द्र हुए।४०। यह भगवान पार्श्वनाथका पूर्वका चौथा भव है।-दे० पार्श्वनाथ।
वज्रमूक-सुमेरु पर्वतका अपर नाम-दे० सुमेरु । वज्रवर-मध्यलोकमें अन्तका अष्टम सागर व द्वीप।-दे० लोका॥१ वज्रवान--गन्धर्व जातिके व्यन्तर देवोका एक भेद-दे० गन्धर्व । वजश्रृंखला-एक विद्या-दे० विद्या। २. भगवान् अभिनन्दन
नाथ की शासक यक्षिणी। -दे० तीथंकररा५/३ । वज्राकुशा-१ एक विद्या-दे० विद्या। २. भगवान सुमतिनाथको
शासक यक्षिणी-दे० तीर्थकर//३ । वज्राढय-विजयाध की दक्षिण श्रेणीका एक नगर-दे० विद्याधर । वज्रायुध-१.म. पु./६३/श्लो-पूर्व विदेहके रत्नसचय नामक नगर
के राजा क्षेमकरका पुत्र था।३७-३६। इन्द्रकी सभामें इनके सम्यग्दर्शनकी प्रशसा हुई। एक देव बौद्धका रूप धर परीक्षाके लिए आया ४८,५०1 जिसको इन्होने बादमें परास्त कर दिया ६९-७०। एक समय विद्याधनने नागपाशमें बाँधकर इन्हे सरोवरमें रोक दिया और ऊपरसे पत्थर ढक दिया। तब इन्होंने मुष्टिप्रहारसे उसके टुकडे कर दिये ।२-८५४ दीक्षा ले एक वर्षका प्रतिमायोग धारण किया। ।१३१-१३२। अधोग वेयकमें अहमिन्द्र हुए।१४०-१४१। यह शान्तिनाथ भगवान के पूर्वका चौथा भव है। दे० शान्तिनाथ । २. म. पु, ॥५६॥ श्लो-जम्बूद्वीपके चक्रपुर नगरके स्वामी राजा अपराजितका पुत्र था ।२३। राज्य प्राप्ति ।२४५॥ दीक्षा धारण ।२४६। प्रिगुवनमें एक भील कृत उपसर्गको सहनकर सर्वार्थसिद्धिमें देव हुए ।२७४। भील सातवे भरकमें गया ।२७६। सजयन्त मुनिके पूर्वका दूसरा भव है
-दे० संजयन्त। वज़ार्गल विजयाधको दक्षिण श्रेणीका एक नगर-दे० विद्याधर । वज्रार्धतर-विजया की उत्तर श्रेणीका एक नगर-दे० विद्याधर। वट्टकर-'मूलाचार' के कर्ता जिन्हे कुछ विद्वान् कुन्दकुन्द
का अपर नाम समझते है। आप दक्षिण देशस्थ वेट्टगिरि' ग्राम के निवासी थे । समय-कुन्दकुन्द के समकालीन होने से वी. नि.६५४
७०६ (ई. १२७-१७६) । (ती/२/११७-१२०) । वढमाणचरिउ-कवि श्रीधर (वि. श १२ का उत्तरार्ध)
कृत १० सन्धियो वाला अपभ्रश काव्य । (ती./४/१४२) ।
वज्र नाराच-दे० संहनन । वज्र पंजर विधान-दे० पूजापाठ । वज्रपुर-भरतक्षेत्रका एक नगर ।-दे० मनुष्य/४ । वज्रप्रभ-कुण्डल पर्वतका एक कूट-दे० लोक/१/१२ /
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वणथली
५००
बनस्पति वणथली-वामनस्थलीका अपभ्रश है । सौराष्ट्रको जूनागढ़ स्टेट का
शरीर जलके बुलबुलेके समान विशरण स्वभाव है, दुखके कारणको एक कस्बा है। जूनागढसे लगभग ५ कोस दूर है। यहाँ वह स्थान ही ये अतिशय बाधा पहुंचाते है, मेरे सम्यग्ज्ञान, सम्यग्दर्शन और अब भी पाया जाता है, जहाँ कि विष्णुने तीन पैरसे-समस्त पृथिवी सम्यक चारित्रको कोई नष्ट नहीं कर सकता इस प्रकार जो विचार मापी थी। वही बामन राजाकी नगरी कही जाती है। (नेमि- करता है वह बसूलीसे छीलने और चन्दनसे लेप करने में समदर्शी चरित/प्र/प्रेमी जी)।
होता है, इसलिए उसके बध परीषह जय माना जाता है। (रा. वा./ वणिकर्म-३० सावद्य/२।
४/६/१८/६११/४ ): (चा सा./१२६/३)। वणिबग-वसतिकाका एक दोष-दे० वसतिका।
वध्यघातक विरोध-दे०विरोध । वत्स-१. भरतक्षेत्र मध्य आर्यखण्डका एक देश-दे० मनुष्य/४/1
वनक-दुसरे नरकका चौथा अथवा तीसरा पटल-दे० नरक/५ । २ प्रयागके उत्तर भागका मैदान । राजधानी कौशाम्बी/(म. पु./प्र. वनमाल-सनत्कुमार स्वर्ग का द्वि. पटल-दे० स्वर्ग/५। ४६/पं. पन्नालाल)।
वनमाला-१. प पु /३६/श्लोक-वैजयन्तपुरके राजा पृथिवीधरकी वत्समित्रा-सौमनस गजदन्तके कांचनकूटकी स्वामिनी देवी। पुत्री थी। बाल्यावस्थासे ही लक्ष्मणके गुणों में अनुरक्त थी ।१५। रामवत्सराज-परिहारवंशी वत्सराज अवन्तीका राजा था। इसीका
लक्ष्मणके वनवासका समाचार मुन आत्महत्या करने बनमें
गयी।१८,१६। अकस्मात् लक्ष्मणसे भेट हुई।४१.४४। २.ह.पु./१४/ एक पुत्र नागभट्ट नामका हुआ है। इसे कृष्णराज प्रथमके पुत्र धव
श्लो-वीरक सेठकी स्त्री थी कामासक्तिवश । (१७/८४) अपने राजने शक स ७०५ में परास्त करके इसका देश छीन लिया था।
पतिको छोड़ राजा सुमुख के पास रहने लगी। (१४/१४) । वज्रके इसका शासन अवन्ती व मालवा प्रान्तोंमें था। समय-शक सं.
गिरनेसे मरी । आहारदानके प्रभावसे विद्याधरी हुई। (१५/१२-१८) । ७००-७०५ ( ई० ७७८-७८३)। ( ह. पु/६६/५५-५३): (ह.पु./प्र.॥
इसी के पुत्र हरिसे हरिवंशकी उत्पत्ति हुई। (१५/५८)।-दे० पं० पन्नालाल ); (दे० इतिहास/३/४ ) राष्ट्रकूट वंश)।
मनोरमा। वत्सा -पूर्व विदेहका एक क्षेत्र-दे० लोक/५/२।
वनवास-कर्नाटक प्रान्तका एक भाग जो आजकल वनौसी कहलाता वत्सावती-१. पूर्व विदेहका एक क्षेत्र--दे० लोक:/२ | २. पूर्व है। गुणभद्राचार्य के अनुसार इसकी राजधानी बकापुर थी जो धारविदेहके वैश्रवण वक्षारका एक कूट व उसकी स्गमिनी देवी-दे० वाड जिले में है । (म पु./प्र.४६/प. पन्नालाल)। यह उत्तर कर्नाटकका लोक/४।
प्राचीन नाम है जो तुगभद्रा और वरदा नदियोके बीच बसा हुआ
है। प्राचीन काल में यहाँ कदंब वंशका राज्य था। जहाँ उसकी राजवदताव्याघात-स्ववचनबाधित हेत्वाभास |-दे० बाधित ।
धानी वनवासी स्थित थी, वहाँ आज भी इस नामका एक ग्राम वदन-मुख-first term in Arithematical series ( जं प./ विद्यमान है। (ध/पु.१/प्र, ३२/HL.Jain)| प्र. १०८).
वनवास्था -भरतक्षेत्रका एक नगर-दे० मनुष्य/४ । वद्दिग-दक्षिणके गंगाधर नामक देशका राजा था। पिताका नाम वनस्पति--१ जैन दर्शनमें वनस्पतिको भी एकेन्द्रिय जीवका शरीर (चालुक्यवशी ) अरिकेसरी था जो कृष्णराज तृ० के अधीन था । माना गया है। वह दो प्रकारका है-प्रत्येक व साधारण । एक जीवके 'यशस्तिल कचम्पू' नाम ग्रन्थ इसीकी राजधानीमें पूर्ण हुआ था। शरीरको प्रत्येक और अनन्तो जीवोके साझले शरीरको साधारण समय-ई०६७२ के लगभग। ( यशस्तिलकचम्पू/प्र. २०/प. सुन्दर- कहते है, क्योकि उस शरीरमें उन अनन्तो जीवोका जन्म, मरणलाल)।
श्वासोच्छ्वास आदि साधारणरूपसे अर्थात एक साथ समानरूपसे वध-स.सि./६/१२/३२६/२= आयुरिन्द्रियबलमाण वियोगकारणं वध'। होता है। एक हो शरीरमें अनन्तो बसते है, इसलिए इस शरीरको स. सि./७/२५/३६६/२ दण्डकशावेत्रादिभिरभिघात प्राणिनां बध, निगोद कहते है, उपचारसे उसमें बसनेवाले जीवोको भी निगोद न प्राणव्यपरोपणम्, ततः प्रागेवास्य विनिवृत्तत्वात । ४१. आयु,
कहते है । वह निगोद भी दो प्रकारका है नित्य व इतरनिगोद । जो इन्द्रिय और श्वासोच्छवासका जुदा कर देना बध है। ( रा बा./६/
अनादि कालसे आजतक निगोद पर्यायसे निकला ही नहीं, वह नित्य ११/३/५१६/२८), (प.प्र./टी /२/१२७)। २. डंडा, चाबुक और
निगोद है। और उसस्थावर आदि अन्य पर्यायों में घूमकर पापोदयबत आदिसे प्राणियों को मारना वध है। यह वधका अर्थ प्राणोका
वश पुन -पुन' निगोदको प्राप्त होनेवाले इतरनिगोद है। प्रत्येक शरीर वियोग करना नही लिया गया है, क्योकि अतिचारके पहले ही
बादर या स्थूल ही होता है पर साधारण बादर व सूक्ष्म दोनों प्रकारहिंसाका त्याग कर दिया जाता है। (रा. वा./७/२५/२५५३/१८)।
का । २ नित्य खाने-पीनेके काममें आनेवाली वनस्पति प्रत्येक शरीर
है । बह दो प्रकार है-अप्रतिष्ठित और सप्रेतिष्ठित । एक ही जीवके प. प्र./टी /२/१२७/२४३/४ निश्चयेन मिथ्यात्वविषयकषायपरिणाम
शरीरवाली वनस्पति अप्रतिष्ठित है, और असंख्यात साधारण रूपबध स्त्रकीयः ।। -निश्चयकर मिथ्यात्व विषय क्षाय परिणाम
शरीरोके समवायसे निष्पन्न बनस्पति सप्रतिष्ठित है। तहाँ एक-एक रूप निजघात ।
वनस्पतिके स्कन्धमे एक रस होकर अस ख्यात साधारण शरीर होते वध परिषह-स सि /8/8/४२४/६ निशितविशसनमुशलमुद्गरा- है, और एक-एक उस साधारण शरीरमें अनन्तानन्त निगोद जीव दिप्रहरणताडनपीडनादिभिर्व्यापाद्यमानशरीरस्य व्यापदकेषु मनागपि वास करते है। सूक्ष्म साधारण शरीर या निगोद जीव लोकमे सर्वत्र मनोविकारमकुर्वतो मम पुराकृतदुष्कर्मफलमिदमिमे वराका कि ठसाठस भरे हुए हैं, पर सूक्ष्म होनेसे हमारे ज्ञानके विषय नहीं है। कुर्वन्ति, शरीरमिदं जलबुद्बुद्वद्विशरणस्वभावं व्यसनकारणमेतै- सन्तरा, आम, आदि अप्रतिष्ठित प्रत्येक वनस्पति है और आलू. बर्बाध्यते, संज्ञानदर्शनचारित्राणि मम न केनचिदुपहन्यते इति चिन्त- गाजर, मूली आदि सप्रतिष्ठित प्रत्येक । अप्रतिष्ठित प्रत्येक वनस्पति यतो वासिलक्षणचन्दनानुलेपनसमदर्शिनो वधपरिषहक्षमा मन्यते। पत्ते, फल, फूल आदि भी अत्यन्त कचिया अवस्थामें सप्रतिष्ठित - तीक्ष्ण तलवार, मूसर और मुद्गर आदि अस्त्रोके द्वारा ताडन प्रत्येक होते है-जैसे कोपल। पीछे पक जानेपर अप्रतिष्ठित हो जाते और पीडन आदिसे जिसका शरीर तोडा मरोडा जा रहा है तथापि है। अनन्त जीवोकी साझली काय होनेसे सप्रतिष्ठित प्रत्येकको मारने वालो पर जो लेशमात्र भी मन में बिकार नही लाता, यह मेरे अनन्तकायिक भी कहते है। इस जातिकी सर्व वनस्पतिको यहाँ पहले किये गये दुष्कर्म का फल है, ये बेचारे क्या कर सकते है, यह अभक्ष्य स्वीकार किया गया है।
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वनस्पति
गत 6 A S KASA No 10
१
३
४
५
६ प्रत्येक शरीर नामकर्मका लक्षण ।
७
५
६
वनस्पति व प्रत्येक वनस्पति सामान्य निर्देश
वनस्पति सामान्यके भेद |
प्रत्येक वनस्पति सामान्यका लक्षण । प्रत्येक वनस्पतिके भेद ।
वनस्पतिके लिए ही प्रत्येक शब्दका प्रयोग है। मूलबीज, अग्रबीजादिके लक्षण ।
७
८
९
प्रत्येक शरीर वर्गणाका प्रमाण
प्रत्येक शरीर नामकर्मके असख्यात भेद है
वनस्पतिकाधिक जीवीके गुणस्थान, जीवसमास, मार्गणास्थानके स्वामित्व सम्बन्धी २० प्ररूपणाएँ
- दे० सत् । वनस्पतिकायिक जीवोंकी सत्, संख्या, क्षेत्र, स्पर्शन, काल, अन्तर, अल्परूप आठ रूपणाएँ ।
- दे० वह वह नाम |
२
१
२ निगोद भी
३
४
वनस्पतिकाधिक जीवोंमे कमोंका बन्ध, उदय, सल प्ररूपणाएँ । - दे० वह वह नाम । प्रत्येक नामी उदय, सत्त प्ररूपणार्थे
- दे० वह वह नाम । प्रत्येक वनस्पतिजीव समासका स्वामित्व
- दे० वनस्पति /१/१ निर्वृपदशामें प्रत्येक वनस्पति में सासादन गुण
- दे० नाम ।
स्थानकी सम्भावना | - दे० सासादन /१ 1 मार्गणा प्रकरण में भार मार्गणाकी रहता तथा वहाँ आयके अनुसार व्यय होनेका नियम
३० मार्गणा ।
उदम्बर फल | वनस्पति माध्यामक्ष्य विचार दे० वनस्पतिकायिकोका लोकमें अवस्थान ।
निगोद निर्देश
निगोद सामान्यका लक्षण ।
भेद ।
-दे० उदम्बर | श्याभक्ष्य / ४ ।
- दे० स्थावर ।
नित्य व अनित्य निगोद के लक्षण ।
सूक्ष्म वनस्पति ता निगोद ही है पर सूक्ष्म निगोद
वनस्पतिकायिक ही नहीं है ।
प्रतिष्ठित प्रत्येक वनस्पतिको उपचारने सूक्ष्म निगोद भी कह देते ह ।
प्रतिष्ठित प्रत्येक वनस्पतिको उपचारसे वावर निगोद भी कह देते है ।
साधारण जीवोंको ही निगोद जीव कहते है।
विग्रहगतिमे निगोदिया जीव साधारण ही होते हैं प्रत्येक नहीं।
निगोदिया जीवका आकार ।
५०१
१०
३
१
२
३
५
६
60
४
१
सूचीपत्र
सूक्ष्म व बादर निगोद वर्गणाऍ व उनका लोकमें
अवस्थान ।
निगोदसे निकलकर सीधी मुक्ति प्राप्त करने सम्बन्धी । - दे० जन्म / ५। जितने जीव मुक्त होते है, उतने ही नित्य निगोद से निकलते है । - दे० मोल/२। नित्यमुक्त रहते भी निगोद राशिका अन्त नहीं। -६० मोक्ष / 41
प्रतिष्ठित व अप्रतिष्ठित प्रत्येक शरीर परिचय
प्रतिष्ठित अप्रतिष्ठित प्रत्येकके लक्षण ।
प्रत्येक वनस्पति बादर ही होती है।
वनस्पति हो साधारण जीव होते है पृथिवी आदिने नहीं ।
पृथिवी आदि देव नारकी, तीर्थंकर आदि प्रत्येक शरीरी ही होते है ।
क्षीणकषाय जीवके शरीरमे जीवोंका हानिक्रम । -दे० क्षीणकषाय । कन्दमूल आदि सभी वनस्पतियां प्रतिष्ठित व अमतिठित दोनों प्रकार की होती है।
अप्रतिष्ठित प्रत्येक वनस्पतिस्कन्धमें भी सख्यात या असख्यात जीव होते है ।
प्रतिष्ठित प्रत्येक वनस्पतिस्कन्थ अनन्त जीनोके शरीर की रचना विशेष |
साधारण वनस्पति परिचय
साधारण शरीर नामकर्मका लक्षण ।
साधारण जीवोका लक्षण ।
साधारण व प्रत्येक शरीर नामकर्मके असस्यात
भेद है ।
३० नामकर्म । -दे०/२/२
साधारण वनस्पतिके भेद |
योनेके अन्तर्मुहूर्त पर्यन्त सभी वनस्पति अमतिचित प्रत्येक होती है ।
कचिया अवस्थामें सभी वनस्पतिया प्रतिष्ठित प्रत्येक होती है ।
प्रत्येक व साधारण वनस्पतिका सामान्य परिचय | प्रतिष्ठित प्रत्येक शरीर बादर जीवोंका योनि स्थान है सूक्ष्मका नहीं -३० वनस्पति /२/१०
६ एक साधारण शरीरमे अनन्त जीवोंक। अवस्थान साधारण शरीरकी उत्कृष्ट अवगाहना । साधारण नामकर्मकी बन्ध उदय सत्त्व प्ररूपणाएँ
- दे० वह वह नाम |
साधारण वनस्पति जीवसमासोका स्वामित्व
जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश
- दे० वनस्पति /१/१
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वनस्पति
५०२
१. बनस्पति व प्रत्येक बनस्पति सामान्य निर्देश
साधारण शरीरमें जीवोंका उत्पत्ति क्रम निगोद शरीरमें जीवोंकी उत्पत्ति क्रमसे होती है। निगोद शरीरमें जीवोंकी उत्पत्ति क्रम व अक्रम दोनों प्रकारसे होती है। जन्म मरणके क्रम व अक्रम सम्बन्धी समन्वय
-दे० वनस्पति/५/२। आगे पीछे उत्पन्न होकर भी उनकी पर्याप्ति युगपत् होती है। | एक ही निगोद शरीरमें जीदोंके आवागमनका प्रवाह
चलता रहता है। बीजवाला ही जीव या अन्य कोई भी जीव उस योनि स्थानमें जन्म धारण कर सकता है -दे० जन्म/२। बादर व सूक्ष्म निगोद शरीरोमें पर्याप्त व अपर्याप्त जोवोंके अवस्थान सम्बन्धी नियम ।
अनेक जोवोका एक शरीर होनेमें हेतु। ७ अनेक जीवोंका एक आहार होनेमें हेतु ।
१. वनस्पति व प्रत्येक वनस्पति सामान्य निर्देश
१, वनस्पति सामान्यके भेद प. व १/१,१/सू. ४१/२६८ वणप्फइकाइया दुविहा, पत्तेयसरीरा साधारणसरीरा । पत्तेयसरीरा दुविहा, पज्जत्ता अपज्जत्ता । साधारणसरीरा दुविहा, बादरा सुहुमा। बादरा दुविहा, पज्जत्ता अपज्जत्ता। मुहमा दुविहा, पज्जत्ता अपज्जत्ता चेदि ।४। वनस्पतिकायिक जीव दो प्रकारके हैं.प्रत्येकशरीर और साधारणशरीर । प्रत्येक शरीर वनस्पतिकायिक जीव दो प्रकारके हैं, पर्याप्त और अपर्याप्त । साधारणशरीर वनस्पतिकायिक जीव दो प्रकारके है-बादर और सूक्ष्म । बादर दो प्रकारके है, पर्याप्त और अपर्याप्त। ष. वं १४/५.६/सू. ११६/२२५ सरोरिसरोरपरूवणाए अस्थि जीवा
पत्तेय-साधारण-सरोरा ।११।-शरी रिशरीर प्ररूपणाको अपेक्षा जीव प्रत्येक शरीरवाले और साधारण शरीरवाले है। (गो. जी./जी प्र] १८५/४२२/३)।
२. प्रत्येक वनस्पति सामान्यका लक्षण ध. १/१,२,४१/२६८/६ प्रत्येकंपृथक्शरीर येषा ते प्रत्येकशरीराः खदि
रादयो वनस्पतय ।-जिनका प्रत्येक अर्थात् पृथक्-पृथक् शरीर होता है, उन्हे प्रत्येक शरीर जीव कहते है जैसे-खैर आदि वनस्पति । (गो. जी./जी प्र/८५/४२२/४)। ध ३/१.२,८७/३३३/१ जेण जीवेण एक्केण चेव एकसरीरट ठिएण मुहदुरखमणुभवेदवमिदि कम्ममुवज्जिदं सो जीवो पत्तयसरीरो। जिस जीवने एक शरीरमें स्थित होकर अकेले ही सुख दुखके अनुभव करने योग्य कर्म उपार्जित किया है, वह जीव प्रत्येकशरीर है। ध, १४/५,६,११६/२२५/४ एक्कस्सेव जोवस्स जं सरीर त पत्तेयसरीरं । तं सरीरं ज जीवाणं अत्थि ते पत्तेयसरीराणाम) अथवा पत्तेयं पुधभूद उरीर जेसि ते पत्तेयसरीरा। एक ही जीवका जो शरीर है उसकी
प्रत्येक शरीर सज्ञा है। वह शरीर जिन जीवोके है वे प्रत्येक शरीरजीव कहलाते है । अथवा प्रत्येक अर्थात पृथक् भूत शरीर जिन जीवोंका है वे प्रत्येकशरीर जीव है। गो जो./जी. प्र/१८६/४२३/१४ यावन्ति प्रत्येकशरीराणि तावन्त एव प्रत्येकवनस्पतिजीवा तत्र प्रतिशरीरं एकै कस्य जीवस्य प्रतिज्ञानाद ।जितने प्रत्येक शरीर है, उतने वहाँ प्रत्येक वनस्पति जीव जानने चाहिए, क्योकि एक-एक शरीरके प्रति एक-एक जीवके होनेका नियम है।
३. प्रत्येक वनस्पतिके भेद का. अ/मू./१२८ पत्तेया वि य दुविहा णिगोद-सहिदा तहेव रहिया य । दुविहा होति तसा वि य वि-ति चउरक्खा तहेव पचवरवा ।१२। -प्रत्येक वनस्पतिकायिक जीव दो प्रकारके होते है-एक निगोद सहित, दूसरे निगोद रहित । ११२८। (गो.जो /जी.प्र /१८५/४२२/५) । गो, जी /जो.1/८१-८३/२०१/१३ तृणं बल्ली गुरुम' वृक्ष' मूलं चेति पञ्चापि प्रत्येकवनस्पतयो निगोदशरीरै प्रतिष्ठिता-प्रतिष्ठितभेदादश। -तृण, बेलि, छोटे वृक्ष, बडे वृक्ष, कन्दमूल ऐसे पाँच भेद प्रत्येक बनस्पतिके है। ये पाँचों वनस्पतियाँ जब निगोद शरीरके आश्रित हों तो प्रतिष्ठित प्रत्येक कही जाती है, तथा निगोदसे रहित हों तो अप्रतिष्ठित प्रत्येक कही जाती है। (और भी दे० बनस्पति /३/५)।
४, वनस्पतिके लिए ही प्रत्येक शब्दका प्रयोग है ध,११,१,४१/२६८/६ पृथिवोकायादिपञ्चानामपि प्रत्येकशरीरव्यपदेशस्तथा सति स्यादिति चेन्न इष्टत्वात । तहि तेषामपि प्रत्येकशरीरविशेषण विधातव्यमिति चेन्न, तत्र वनस्पतिष्विव व्यवच्छेद्याभावात । -(जिनका पृथक् पृथक शरीर होता है, उन्हे प्रत्येक शरीर जीव कहते है-दे० बनस्पति ११३) --प्रश्न-प्रत्येक शरीरका इस प्रकार लक्षण करनेपर पृथ्वीकाय आदि पाँचो शरोरों को भी प्रत्येक शरीर संज्ञा प्राप्त हो जायेगी। उत्तर-यह आशंका कोई आपत्तिजनक नहीं है, क्योंकि पृथ्वीकाय आदि के प्रत्येकशरीर मानना इष्ट ही है। प्रश्नतो फिर पृथ्वीकाय आदि के साथ भी प्रत्येक शरीर विशेषण लगा देना चाहिए। उत्तर-नही, क्योकि, जिस प्रकार वनस्पतियोंमें प्ररयेक वनस्पतिसे निराकरण करने योग्य साधारण वनस्पति पायी जाती है, उस प्रकार पृथिवी आदिमें प्रत्येक शरीरसे भिन्न निराकरण करने योग्य कोई भेद नही पाया जाता है, इसलिए पृथिवी आदिमें अलग विशेषण देनेको आवश्यकता नहीं है। (ध ३/१-२,८,७/३३१/४ )।
५. मूल बीज अग्रबीज आदिके उदाहरण गो. जी./जो, प्र १८६/४२३/४ मूल बीज येषां ते मूलबीजा' । ( येषा मूल प्रादुर्भवति ते) आर्द्रकहरिद्रादय । अग्र बीज येषा ते अग्रबीजा' ( येषा अग्र प्ररोहयति ते ) आर्यकोदोच्यादय । पर्व बीजं येषां ते पर्व बीजा' इक्षुवेत्रादय । कन्दो बीज येषां ते कन्दबीजा पिण्डालसूरणादय । स्कन्धो बोज येषां ते स्कन्धबीजा सक्लकीकण्टकीपलादयः। बीजात् रोहन्तीति बीजरुहा' शालिगोधूमादय । संमूर्छ समन्तात् प्रसृतपुद्गलस्कन्धे भवा सम्मूछिमा मूलादिनियतबीजनिरपेक्षा । एते मूलबोजादिसमूछिमपर्यन्ता' सप्रतिष्ठिताप्रतिष्ठितप्रत्येकशरीरजोवास्तेऽपि संमूछिमा एव भवन्ति ।-१ जिनका मूल अर्थात् जड ही बीज हो (जो जड़के बोनेसे उत्पन्न होती है । वे मुलबीज कही जाती है जैसे-अदरख, हल्दी आदि। २. अग्रभाग ही जिनका बीज हो (अर्थात टहनी की क्लम लगानेसे वे उत्पन्न हो ) वे अग्रबीज है जैसे-आर्यक व उदीची आदि । ३, पर्व ही है बीज जिनका वे पर्वबौज जानने। जैसे-ईख, बेत आदि। ४. जो कन्दसे उत्पन्न होती है, वे कन्दबीजी कहो जाती है जैसे-आलू सूरणादि । ५ जो स्कन्धसे उत्पन्न होती है वे स्कन्धबीज है जैसे सल रि, पलाश
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वनस्पति
आदि, जाबोजने हो उ जैसे चावल, गेहूँ आदि
होती है. वे ब्रोज कहलाती है। और को नियत बीज आदिकी अपेक्षासे रहित, केवल मट्टी और जल के सम्बन्धसे उत्पन्न होती है, उनको सम्मछिम कहते है । जैसे- फूई, काई आदि । ये मूलादि सम्मूर्छिम वनस्पति प्रतिक्षित प्ररयेक और अप्रतिष्ठित प्रत्येक दोनो प्रकारकी होती है और समको सब सन्मूमि ही होती हैं, गर्भज नहीं।
६. प्रत्येक शरीर नामकर्मका लक्षण
ससि / ८ / ११ / ३६९/- शरीर नामकर्मोदयानिर्वर्त्यमानं शरीरमेकारमपभोगकारण यतो भवति तत्प्रत्येक शरीर नाम । (एक्मेकमात्मानं प्रति प्रत्येक प्रत्येक शरीरं प्रत्येकशरीरम् (रा. वा) शरीर नामकर्म के उदयसे रचा गया जो शरीर जिसके निमित्तसे एक आत्माके उपभोगका कारण होता है, वह प्रत्येक शरीर नामकर्म है। ( प्रत्येक शरीर के प्रति अर्थात एक एक शरीरके प्रति एक एक आत्मा हो, उसको प्रत्येकशरीर कहते है रा. वा) (रा. वा. / ०/११/११/ ८७८/१८) (गो. क / जी. प्र / ३३/३० / २ ) ।
घ. ६/९.१ १.२८/८२/८ जस्स कम्मस्स उदरण जोबो पत्तेयसरी होदि. तस्स कम्मस्स पत्तेयस्रीरमिदि सण्णा । जदि पत्तेयसरीरणामकम्म ण होज्ज, तो एक्कम्हि सरीरे एगजीवस्सेव उवलंभो ण होज्ज । ण च एवं णिज्वाहमुक्त भा। जिस कर्म के उदयसे जीन प्रत्येक शरीरी होता है, उस कर्म की प्रत्येकहशरीर वह संज्ञा है। यदि प्रत्येक शरीर नामकर्म न हो, तो एक शरीरमें एक जीवका ही उपलम्भ न होगा । किन्तु ऐसा नहीं है, क्योकि प्रत्येक शरीर जीवोंका सद्भाव वाघारहित पाया जाता है ।
घ. १३/५.५.१०१/३६६/८ जस्स कम्मस्तुवरण एडसरीरे एक्को पेव जीवो जीवदितं कम्मं पत्ते यसरीरणामं । - जिस कर्म के उदयसे एक शरीरमे एक ही जीव जीवित रहता है, वह प्रत्येक शरीर नामकर्म है। ७. प्रत्येक शरीर वर्गणाका प्रमाण
घ. १४/५.६.९१६/९४४/२ बट्टमानकाले पतेयसरीरवग्गणाओ उस्मेण अज्जोगसी पेन होति ति नियमायो । वर्तमानकासमें प्रत्येक शरीर वर्गणाऍ उत्कृष्ट रूपसे असंख्यात लोक प्रमाण ही होती है, यह नियम है।
२. निगोद निर्देश
१. निगोद सामान्यका लक्षण
घ. १४/५.६.६३/२/१३ के णिगोदा गाम पुलवियाओ चिगोदा भिपंति प्रश्न- निगोद किन्हे कहते है। उत्तर- सवियोंको निगोद कहते है । विशेष दे० वनस्पति /३/७ । (ध. १४/५.६.५८२/४७०/१) । गो. जो/जी/९१९/४२६/१५ साधारण नामकर्मोदयेन जीवा निगोदशरीरा भवन्ति । नि-नियतां गा-भूमि क्षेत्रं निवास, अनन्तानन्तजोजाना दशति इति निगोद निगोहरीर येषां से निगोदशरीरा इति लक्षणसिद्धत्वात । साधारण नामक नामकर्मके उदयसे जोव निगोद शरीरी होता है। नि अर्थात् अनन्तपना है निश्चित जिनका ऐसे जोमोको 'गो' अर्थात् एक ही क्षेत्र, '' अर्थात देता है, उसको निगोद कहते है। अर्थात जो अनन्तो जोवोंको एक निवास दे उसको निगोद कहते है । निगोद हो शरीर है जिनका उनको निगोद शरीरी कहते है।
२. निगोद जीवोंके भेद
घ. १४/५,६,१२८/२३६/५ र
दिउदा जोवा से दुनिहा चउग्गइणिगोदा णिच्चणिगोदा चेदि । निगोदोमें स्थित जोव दो
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२. निगोद निर्देश
प्रकारके है - चतुर्गतिभिगोद और निव्यनिगोद ( ये दोनो मादर भी होते है सूक्ष्म भी का अ.) (का. अ./मू./१२५)।
३. नित्य व अनित्य निगोदके लक्षण
१. नित्यनिगोद
१४/५/१०/२३३ अस्थि अनंता जोवा जेहि न पक्षी तसाग परिणामो भावकल कअपउरा णिगोदवासं ण सुचति ॥ १२७॥ - जिन्होंने अतीत कालमे अभावको नहीं पाया है ऐसे अनन्त जीन है, क्योंकि वे भाव कलंक प्रचुर होते हैं, इसलिए निगोदवासको नहीं त्यागते | १२०१ (नू. जा / १२०२), ( स ) प्रा./१/८५), (घ. १ / १.२.४१ / मा. १४८/२७१), (ध ४/१,५,३१०/गा. ४२ / ४७७), (गो. जी./मू / १६४ / ४४१) ( प सं . / स./१/१९१०), (का. अ /टी./ १२५ ) ।
रा. वा./२/१२/२०/१४३/२० त्रिष्वपि कालेषु प्रसभावयोग्या न भवन्ति ते निव्यनिगोता । जो कभी पर्यायको प्राप्त करनेके योग्य नहीं होते, वे नित्य निगोद है।
घ. १४/५.६.१२०/२३६. त्य निच्चनिगोदा गाम मे सम्मकाल णिगोदेसु चैव अच्छति ते णिच्चणिगोदा णाम । =जो सदा निगोदोमें ही रहते है ये नित्य निगोद है।
२. अनित्य निगोद
रा. वा. / २ / ३२/२७/१४३ / २१ त्रसभावमवाप्ता अवाप्स्यन्ति च ये ते अनिष्यनिगोता। जिन्होने जस पर्याय पहले पायी थी अथवा पायेगे वे अनित्य निगोद है ।
घ. १४/५.६.१२०/२३६/६ जे देव-र-तिरिक्ल-मर से सूपनियण पुणे गोपविसिय अच्छति ते चद्रगहण गिगोदा नाम
जो देव नारकी, तियंच और मनुष्यों में उत्पन्न होकर पुन
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निगादो मे प्रवेश करके रहते है वे चतुर्गतिनिगोद जीव कहे जाते है । (गो. जी. जी. प्र./१६७/२४१/१४)।
४. सूक्ष्म वनस्पति तो निगोद ही है, पर सूक्ष्म निगोद वनस्पतिकायिक ही नहीं है
. . ७/२.१०/ सु. २१-२२/२०४ मणदिका मनिोद जीवपज्जत्ता सम्बजीवाणं केवडिओ भागो । ३१ । संखेज्जा भागा ॥ ३२ ॥ घ. ७/२.१.३२/५/०४/११ विकाइए भणि पुणो मणिगोदजी विध भदि देण णव्त्रदि जधा सबवे सुहुमवणप्फदिकाइया चैनमणिगोदजीवा न होंति ति जदि एवं तो सध्ये सुहुमव फदिकाइया णिगोदा चेवेत्ति एदेण वयणेण विरुज्झदि त्ति भणिदे विरु मणिगोदामणदिकाश्या महारणा भावादो। कामेदं वदे। बादरणिगोदजीवा शिगोदपदिठिदा अप्पज्जन्त्ता असं ज्यगुणा (१.७/२.११/०६/५४५) शिगोद पदिदिणं बादरणिगोदजीवा ति पिसावा, बादरवणदि काइयाणमुत्ररि णिगोदजीवा विसेसाहिया' (ष. ख. ७/२,११/ सू.७५/ २३) मिणा च ।
घ. ७/२.११.७५/२११/११ ए चोदगो फिलमे सु
फविकारहितो धदणिगोदामामभादो न च वफदिति विकाइयादि गिगोदा स्थिति आएर याणामुवदेसो जेणेदस्स वयणस्स सुत्तत्तं पसज्जदे इदि । एत्थ परिहारो वृच्चदेहो णाम तुम्भेहि युचस्स सच्चतं बहुपत् अणकदी उतरि गिगोदपदस्त अनसभादो निगोदाणामुवर
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दिकायाणं पढणस्तुवल भावो महुएहि आहरिएहि संमदचादी कि तु एतमेव होदिति पावहार कार्ड जु। सो एवं भणदि जो चोदसपुव्वधरो केवलणाणी वा । तदो थप्पं काऊण वे
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वनस्पति
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२. निगोद निर्देश
वि सुत्ता णि सुत्तासायणभोरुहि आइरिएहि वक्खाणेयव्वाणि त्ति। - सूक्ष्म बनस्पतिकायिक व सूक्ष्म निगोद जोन पर्याप्त सर्व जोवोके कितनेवे भाग प्रमाण है ।।३१। उपर्युक्त जोव सर्व जोवोके सख्यात बहुभाग-प्रमाण है।३२ ... सूक्ष्म वनस्पतिकायिकको कहकर पुन सूक्ष्म निगोद जोवोको भी पृथक् कहते है, इससे जाना जाता है कि सब सूक्ष्म वनस्पतिकायिक ही सूक्ष्म निगोद जोब नहीं होते। प्रश्न यदि ऐसा है तो सर्व सूक्ष्म बनस्पतिकायिक निगोद ही है' इस वचनके साथ विरोध होगा, उत्तर-उक्त बचनके साथ विरोध नहीं होगा, क्योकि, सूक्ष्म निगोद जोव सूक्ष्म वनस्पतिकायिक ही है, ऐसा यहाँ अवधारण नही है। प्रश्न-यह कैसे जाना जाता है ? उत्तर-(बादर वनस्पतिकायिक प्रत्येक शरीर अपर्याप्तोसे निगोद प्रतिष्ठित बादर निगोदजीव अपर्याप्त असंख्यातगुणे है। यहॉपर) निगोद प्रतिष्ठित जोबोके बाद 'निगोद जोव' इस प्रकारके निर्देशसे, तथा ('वनस्पतिकायिकोसे निगोद जोब विशेष अधिक है' इस सूत्रमें) बादर वनस्पतिकायिकोके आगे 'निगोद जोब विशेष अधिक है' इस प्रकार कहे गये सूत्रबचनसे भी जाना जाता है। प्रश्न-यहाँ शकाकार कहता है कि यह सूत्र निष्फल है क्योकि, वनस्पतिकायिक जोवोसे पृथग्भूत निगोद जोब पाये नही जाते। तथा वनस्पतिकायिक जोवोसे पृथग्भूत पृथिवीकायिकादिको में निगोद जीव पाये नहीं जाते। तथा वनस्पतिकायिक जोबोसे पृथग्भूत पृथिव कायिकादिकोमें निगोद जोब है' ऐसा आचार्योका उपदेश भी नही है, जिससे इस वचनको सूत्रत्वका प्रसंग हो सके । उत्तर-यहाँ उपर्युक्त शंकाका परिहार कहते है-तुम्हारे द्वारा कहे हुए वचनमें भले ही सत्यता हो, क्योकि बहुतसे सूत्रोमे बनस्पतिकायिक जीवोके आगे 'निगोद' पद नही पाया जाता, निगोद जीवोके आगे वनस्पतिकायिकों का पाठ पाया जाता है, ऐसा बहुतसे आचार्योसे सम्मत भी है। किन्तु 'यह सूत्र ही नहीं है ऐसा निश्चय करना उचित नहीं है। इस प्रकार तो वह कह सकता है जो कि चौदह पूर्वोका धारक हो अथवा केवलज्ञानी हो। अतएव सूत्रकी आशातना (छेद या तिरस्कार) से भयभीत रहनेवाले आचार्योको स्थाप्य समझकर दोनो ही सूत्रोका व्याख्यान करना चाहिए।
६ प्रतिष्ठित प्रत्येक वनस्पतिको उपचारसे बादर निगोद
भी कहते हैं ध. १/१,१,४१/२७१/५ बादरनिगोदप्रतिष्ठिताश्चार्षान्तरेषु श्रूयन्ते, क तेषामन्तभविश्चेद प्रत्येकशरीरवनस्पतिविति न म । के ते। स्नुगाईकमूलकादयः । - प्रश्न-बादर निगोदोसे प्रतिष्ठित बनस्पति दूसरे आगमोमें सुनी जाती है, उसका अन्तर्भाव वनस्पतिके किस भेदमें होगा। उत्तर-प्रत्येक शरीर बनस्पति में उसका अन्तर्भाव होगा, ऐसा हम कहते है। प्रश्न-जो बादर निगोदसे प्रतिष्ठित है, वे कौन है। उत्तर-थूहर, अदरख और मूली आदिक वनस्पति बादर निगोदसे प्रतिष्ठित है। ध. २/१,२,८७/३४७/७ पत्तेगसाधारणसरोवदिरित्तो बादरणिगोदपदिठिदरासी ण जाणिज्जदि त्ति वुत्ते सच्च, तेहि वदिरित्तो वणप्फइकाइएसु जीवरासी णत्थि चेव, कि तु पत्तेयसरीरा दुविहा भवति बादरणिगोदजीवाणं जोणीभूदसरीरा तबिवरीदसरीरा चेदि। तत्थ जे बादरणिगोदाणं जोणीभूदसरीरपत्तेगसरीरजीवा ते बादरणिगोदपदिठिदा भणं ति। के ते। मूलयद्ध -भन्लय सूरणगलोइ-लोगेसरपभादओ। = प्रश्न-प्रत्येक शरीर और साधारण शरीर, इन दोनो जीव राशियोको छोडकर बादरनिगोद प्रतिष्ठित जीवराशि क्या है, यह नहीं मालूम पडता है ? उत्तर-यह सत्य है कि उक्त दोनो राशियोके अतिरिक्त बनस्पतिकायिकोमें और कोई जीव राशि नही है, किन्तु प्रत्येकशरोरवनस्पतिकायिक जीव दो प्रकारके होते है, एक तो बादरनिगोद जोवों के योनिभूत प्रत्येक शरीर और दूसरे उनसे विपरीत शरीरवाले अर्थात् मादरनिगोद जीवोके अयोनिभूत प्रत्येकशरीर जोब। उनमेंसे जो बादरनिगोद जीवोके योनिभूत शरीर प्रत्येकशरीर जीव है उन्हें बादरनिगोद प्रतिष्ठित कहते है। प्रश्न-वे बादरनिगोद जोवोके योनिभूत प्रत्येक शरीर जीव कौन है ? उत्तर-मूली, अदरक (१), भल्लक (भद्रक), सूरण, गलोइ (गुडची
या गुरवेल), लोकेश्वरप्रभा । आदि बादरनिगोद प्रतिष्ठित है। ध,७/२,११,७५/५४०/- णिगोदाणामुवरि वणप्फदिकाइया विसेसाहिया होति बादरवणप्फदिकाइयपत्तेयसरीरमेतण, वणप्फदिकाइयाणं उवरि णिगोदा पुण केण विसेसाहिया होति त्ति भणिदे वुञ्चदे। तं जहा-वणप्फदिकाइया त्ति वुत्ते बादरणिगोदपदिठिदापदिदिजीवा ण घेत्तव्वा। कुदो। आधेयादो आधारस्स भेदद सणादो। वणप्फदिणामकम्मोदइल्लत्तणेण सव्वेसिमेगत्तमस्थि त्ति भणिदे होदु तेण एगत्तं, कितु तमेत्थ अविवक्वियं आहारअणाहारत्त चेव विवक्खियं । तेण वणप्फदिकाइएसु बादरणिगोदपदि ठिादापदिठिदाण गहिदा । वणप्फदिकाइयाणामुवरि ‘णिगोदा विसेसाहिया' त्ति भणिदे बादरवणप्फदिकाश्यपत्तेयसरीरे हि बादरणिगोदपदिठिदेहि य विसेसाहिया। बादरणिगोदपदिदिापदिठ्ठिदाण कधं णिगोदववएसो। ण, आहारे आहेओवयारादो तेसि णिगोदत्तसिद्धीदो। वणफदिणामकम्मोदइल्लाणं सव्वेसि वणप्फदिसण्णा सुत्ते दिस्सदि । बादरणिगोदपदि ठिदअपदिठिदाणमेस्थ सुतं वणप्फदिसण्णा किण्ण णिविट्ठा । गोदमो एत्थपुच्छेयव्यो। अम्हेहिगोदमो बादरणिगोदपदिठ्ठिदाण वणम्फदिसण्णं णेच्छदि त्ति तस्स अहिप्पओ कहिओ। -प्रश्न-निगोदजीवोंके ऊपर वनस्पतिकायिक जीव बादर वनस्पतिकायिक प्रत्येक शरीर मात्रसे विशेषाधिक होते है, परन्तु बनस्पतिकायिक जीवोके आगे निगोदजीव किसमें विशेष अधिक होते है। उत्तर-उपर्युक्त शकाका उत्तर इस प्रकार देते है-'वनस्पतिकायिकजोब' ऐसा कहनेपर बादर निगोदोंसे प्रतिष्ठित अप्रतिष्ठित जीवों का ग्रहण नहीं करना चाहिए, क्यो कि, आधेयसे आधारका भेद देखा जाता है। प्रश्न-वनस्पति नामकर्म के उदयसे संयुक्त होने की अपेक्षा सबोके एकता है। उत्तर-बनस्पति नामकर्मोदयकी अपेक्षा एक्ता रहे, किन्तु उसको यहाँ विवक्षा नही है। यहाँ आधारत्व और अना
५. प्रतिष्ठित प्रत्येक वनस्पतिको उपचारसे सूक्ष्म निगोद मी कह देते हैं ध.७/२.१०,३२/५०५/३ के पुण ते अण्णे सुहमणिगोदा सुहमवणप्फदिकाइये मोत्तूण । ण, सुहमणिगोदेसु व तदाधारेसु वणप्फदिकाइएम वि सुहुमणिगोदजीवत्तसंभवादो। तदो मुहुमवणष्फदिकाइया चेव मुहुमणिगोदजीवा ण होति त्ति सिद्ध। सुहमकम्मोदएण जहा जीवाणं वणप्फदिकाइयादीणं सुहुमत्त होदि तहा णिगोदणामकम्मोदएण णिगोदत्तं होदि । ण च णिगोदणामकम्मोदो बादरवणफदिपत्तेयसरीराणमत्थि जैण तेसि णिगोदसण्णा होदि 'त्ति भणिदे-ण, तेसि पि आहारे आहेओवयारेण णिगोदत्ताविरोहादो। -प्रश्न-तो फिर सूक्ष्म वनस्पतिकायिकोको छोडकर अन्य सूक्ष्म निगोद जीव कौनसे है। उत्तर-नहीं, क्योंकि सूक्ष्म निगोद जीवोके समान उनके आधारभूत (बादर) वनस्पतिकायिकोमें भी सूक्ष्म निगोद जीवत्वको सम्भावना है। इस कारण 'सूक्ष्म वनस्पतिकायिक ही सूक्ष्म निगोद जीव नहीं होते, यह बात सिद्ध होती है। प्रश्न-सूक्ष्म नामकर्मके उदयसे जिस प्रकार बनस्पतिकायिकादिक जीवो के सूक्ष्मपना होता है, उसी प्रकार निगोद नामकर्म के उदयसे निगोदत्व होता है। किन्तु बादर वनस्पतिकायिक प्रत्येक शरीर जीवोके निगोद नाममका उदय नहीं है जिससे कि उनकी निगोद' सज्ञा हो सके उत्तर-नहीं, क्योंकि बादर वनस्पतिकायिक प्रत्येक शरीर जीवोंके भी आधारमें आधेयका उपचार करनेसे निगोदपनेका कोई विरोध नहीं है।
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वनस्पति
घारको हो विवक्षा है। इस कारण वनस्पतिकायिक जीवोमे बादर निगोदोंसे प्रतिष्ठित अप्रतिष्ठित जीवोंका ग्रहण नहीं किया गया। वनस्पतिकायिक जीवोके ऊपर 'निगोदजीव विशेष अधिक है' ऐसा कहनेपर बादर निगोद जीवोंसे प्रतिष्ठित बादर वनस्पतिकायिक प्रत्येक शरीर जीवोसे विशेष अधिक है। प्रश्न- बादर निगोद जीवोसे प्रतिष्ठित अतिष्ठित जीनोंके 'निगोद' संज्ञा कैसे घटित होती है। उत्तर- नहीं, क्योंकि आधारमें आधेयका उपचार करनेसे उनके निगोद सिद्ध होता है प्रश्न समस्पति नामकर्मके उद सब जीवोंके 'वनस्पति' सज्ञासूत्रमें देखी जाती है । बादर निगोद जीवोसे प्रतिष्ठित अप्रतिष्ठित जोवोके यहाँ सूत्रमें वनस्पति संज्ञा क्यों नहीं निर्दिष्ट की। उत्तर- इस शकाका उत्तर गोतमसे पूछना चाहिए। हमने तो 'गौतम बादर निगोद जीवोसे प्रतिष्ठित जीवोंके वनस्पति संज्ञा नही स्वीकार करते' इस प्रकार उनका अभिप्राय रहा है।
७. साधारण जीवको ही निगोद जीव कहते है
मो. जी / सूव जी / ११९ / ४२६ साहारगोदमेश गोदसरी हस सामण्णा ||१११४- निगोदशरीरं येषां ते निगोदरीश इति लक्षणसिद्धत्वात् । = साधारण नामकर्मके उदयसे निगोद शरीरको - धारण करनेवाला साधारण जीव होता है। निगोद (दे० वनस्पति / २१) ही है शरीर जिनका उनको निगोदरीश कहते है।
का, अ /टी./१२५/६३ साधारणनामकर्मोदयात् साधारणा. साधारणनिगोदा | = साधारण नामकर्मके उदयसे साधारण वनस्पतिकायिक जीव होते हैं, जिन्हे निगोदिया जीव भी कहते है ।
८. विग्रहगतिमें निगोदिया जीव साधारण ही होते हैं। प्रत्येक नहीं
घ. १४/५,६,११/०९/१० विग्गहगदोए वट्टमाणा बादर- सुहुम णिगोद जोवा पत्तेयसरीरा न होंति, निगोदाम कम्मोदयगते निगाहगदीए वि एगधगमद्वाण राजीवसमूहतादो विहगदी सरीरणाम कम्मोदयाभावादी ण पत्तेयसरीरत्तं ण साहारणसरीरत्तं । तदो ते पत्तेयसरीर-बादर-सुहुमणिगोदवग्गणासु ण कत्थ विबुत्ते वच्चदेण एस दोस्रो, विग्गहगदीए बादर-सुहुमणिगोदणामकम्माणमुदयद स तत्यविबादर-मणिगोदवनगाणमुक्त भादो एदेहितो मदिरित्ता जोवा महिदसरीरा अगहिदसरीश मापते सरीरम होंति । = विग्रहगतिमें विद्यमान बादर निगोद जीव और सूक्ष्म निगोद जोष प्रत्येक शरीरखाने नहीं होते है, क्योकि निगोद नामकर्म के उदयके साथ गमन होनेके कारण विग्रहगति मे भी एक बद्धनबद्ध अनन्त जीवोंका समूह पाया जाता है। प्रश्न- विग्रहगतिमे शरीर नामकर्म का उदय नहीं होता, इसलिए वहाँ न तो प्रत्येकशरीरपना प्राप्त होता है और न साधारण शरीरपना ही प्राप्त होता है। इसलिए वे प्रत्येक शरीर, बादर और सुक्ष्म निगोद वर्गणाओमेसे किन्ही में भी अन्तर्भूत नहीं होती है। उत्तर-यह कोई दोष नही है, क्योंकि विग्रहगतिमें बादर और सूक्ष्म निगोद नामकमका उदय दिखाई देता है, इसलिए वहॉपर भी बादर और सूक्ष्म निगोद वर्णगाएँ उपलब्ध होती है। और इनसे अतिरिक्त जिन्होने शरोरोको ग्रहण कर लिया है या नहीं ग्रहण किया है वे सब जीव प्रत्येकशरीर वर्ग होते है।
९. निगोदिया जीवका आकार
दे० अवगाहना / १/४ ( प्रथम व द्वितीय समयवर्ती तद्भवस्थ सूक्ष्म निगोदियाका आकार आयत चतुरस्र होता है, और तृतीय समयवर्ती तद्भवस्थ सूक्ष्मनिगोदका आकार गोल होता है।
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भा० ३-६४
३. प्रतिष्ठित व अप्रतिष्ठित प्रत्येक शरीर परिचय १०. सूक्ष्म व बाद निगोद वर्गणाएँ व उनका लोकमें
भवस्थान
१४/५/नं व टोका / ४६२-४१४ मादरविगोदवागगाए जह णियाए आवलियाए असखेजदिभागमेत्तो णिगोदाणां । ६३६ | 'सुहुमणिगोदवग्गणाए जहणियाए आवलियाए बस सेजदिभागमेती गोदा ॥१३१' – एसा जहणिया मणिगोदवाते पत्ते आगारी वा होदि व्यासभाषणमाभावादो। 'सहमगिगोवग्गणाए उकास्सिमाए बबलियाए अस लेष्ण विभागमेो णिगोदाणं ६२ - एसा पुण मणिगोदुग्गया महामच्यसरीरे चेन होति ण अण्णस्थ उवदेसाभावादो। 'बादरणिगोदवग्गणाए उक्कस्सियाए सेडीए असखेज्जदि भागमेत्तो णिगोदाण | ६३६ | - मूलयथूहलयादिसु सेडीए अस खेज्जदिभागमेत्त पुलवीओ अनंतजीवावुरिद अजोगसराओ घेतु बादरणिगी दुखणा होदि 'एदेखि चैत गोदाणं महारट्ठामाणि ६४० ि गोवामिदि से सम्वादर विगोशन मंदि पेमगिगोदा किण्ण गहिदा । ण, एत्थेव ते उप्पज्जति अण्णस्थ ण उप्पज्जति त्ति नियमाभावादो। - 'जघन्य बादर निगोद वर्गणामें निगोदका प्रमाण आवलिके असंख्यातवें भागमात्र होता है । ६३६ ।' 'जघन्य सूक्ष्म निगोद वर्गणामें निगोदोका प्रमाण आवलिके असंख्यातवे भागमात्र है | ६३७|'---यह जघन्य सूक्ष्म निगोद वर्गणा जलमें, स्थल में और आकाश में होती है, इसके लिए द्रव्य क्षेत्र, काल और भावका कोई नियम नही है । 'उत्कृष्ट सूक्ष्म निगोद वर्गणामें निगोदोंका प्रमाण आवलिके असंख्यात भागमात्र है । ६३८१ - यह उत्कृष्ट सूक्ष्म निगोद वर्गणा महामत्स्यके शरीर में ही होती है, अन्यत्र नहीं होती, क्योकि. अन्यत्र होती है ऐसा उपदेश नही पाया जाता। 'उत्कृष्ट बादरनिगोद वर्गणामे निगोदोंका प्रमाण जगश्रेणिके असंख्यातवे भागमात्र है
६३ |' मूली, धूवर और आर्द्रक आदिमें अनन्त जीवोसे व्याप्त असख्यात लोकप्रमाण शरोरवाली जगश्रेणी के असख्यातवे भाग प्रमाण पुलवियों (पुसवियोको लेकर उत्कृष्ट मादर निगोद वर्गवार ) होती है । 'इन्ही सब निगोदोका मूल महास्कन्धस्थान है | ६४०॥ सब निगादोका ऐसा कहनेपर सब बादर निगोदोका ऐसा ग्रहण करना चाहिए। प्रश्न- सूक्ष्म निगोदोका ग्रहण क्यों नहीं किया है । उत्तर- नहीं, क्योंकि यहाँ ही वे उत्पन्न होते है, अन्यत्र उत्पन्न नही होते ऐसा कोई नियम ही है ।
३. प्रतिष्ठित व अप्रतिष्ठित प्रत्येक शरीर परिचय
१. प्रतिष्ठित अप्रतिष्ठित प्रत्येकके लक्षण
गो जी जो / ९८६/४९१ / २ प्रतिष्ठित साधारणशरीरमाभितं प्रत्येक शरीर मेवासे प्रतिष्ठित प्रत्येकशरोरा तेनातिशरीश अप्रतिष्ठितप्रत्येकशरीरा स्यु । एवं प्रत्येकजोवाना निगोदशरीरे प्रतिष्ठिताप्रति ष्ठयभेदेन द्विविध उदाहरणदर्शनपूर्वक व्याख्यार्त प्रतिष्ठित अर्थात् साधारण शरीरके द्वारा आश्रित किया गया है। प्रत्येक शरीर जिनका, उनकी प्रतिष्ठित प्रत्येक सज्ञा होती है । और साधारण शरीरोके द्वारा आश्रित नहीं किया गया है शरोर जिनका उनको अप्रतिष्ठित प्रत्येक सज्ञा होती है। इस प्रकार सर्व प्रत्येक वनस्पतिकार्मिक जीव निगोद शरीरोंके द्वारा प्रतिष्ठित और अप्रतिष्ठित के भेद से दो-दो प्रकार के उदाहरण पूर्वक बता दिये गये ।
२. प्रत्येक वनस्पति बादर ही होती है
प. ९/११.४९/२/१ प्रत्येकशरीरवनस्पतयो बादरा एवं न सूक्ष्म साधारणशरीरेष्यिम उत्सर्गविधिमा कालादविधेरभावाद
प्रत्येक
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वनस्पति
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४. साधारण वनस्पति परिचय
शरीर वनस्पति जीव बादर ही होते है सूक्ष्म नहीं, क्यो कि जिस शरीराणि तावन्त एव प्रत्येक वनस्पतिजीवा तत्र प्रतिशरीर एकेकस्य प्रकार साधारण शरीरोमे उत्सर्ग विधिकी बाधक अपवाद विधि पायी जीवस्य प्रतिज्ञानात। =एक स्कन्धमें अप्रतिष्ठित प्रत्येकवनस्पति जाती है, उस प्रकार प्रत्येक वनस्पतिमें अपवाद विधि नही पायी जीवोंके शरीर यथासभव असरख्यात वा संख्यात भी होते है। जाती है अर्थात उनमे सूक्ष्म भेदका सर्वथा अभाव है।
जितने वहाँ प्रत्येक शरीर है, उतने ही वहाँ प्रत्येक वनस्पति जीव ३. वनस्पति में ही साधारण जीव होते हैं पृथिवी आदिमें
जानने चाहिए। क्योकि एक एक शरीरके प्रति एक-एक ही जीव
होनेका नियम है। नहीं
७. प्रतिष्ठित प्रत्येक वनस्पति स्कन्धमें अनन्त जीवों के ष. वं. १४/५.६/सू १२०/२२५ तत्थ जे ते साहारणसरीरा ते णियमा वणप्फदिकाइया । अवसेसा पत्ते यसरीरा ।१२०१ -उनमें (प्रत्येक व
शरीरकी रचना विशेष साधारण शरीर बालोमें) जो साधारण शरीर जीव है वे नियमसे ध १४/५,६,६३/६/१ संपहि पुलवियाणं एत्थ सरूउपरूवर्ण कस्सामो। बनस्पतिकायिक होते है। अवशेष (पृथ्वीकायादि) जीव प्रत्येक त' जहा-बंधो अडर आवासो पुल विया णिगोदशरीरमिदि पंच शरीर हैं।
होति । तत्थ बादरणिगोदाणमासयभूदो बह एहि वकावारएहि सहियो ४. पृथिवी आदि व देव नारकी, तीर्थकर आदि प्रत्येक
बल जंतवाणियकच्छउडसमाणो मूलय-थूहक्लया दिववएसहरो खधो
णाम । ते च खंधा असखेज्जलोगमेत्ता, बादरणिगोदपदिठिदाणमशरीरी ही होते हैं
मखेज्जलोगमेत्तस खुवल भादो। तेसिं खधाणं ववएसहरो तेसि ध. १/१,१,४१/२६/७ पृथिवीकायादिपञ्चानामपि प्रत्येकशरीरव्यपदेश
भवाणमवयवा वल जुअकच्छउडपुधावरभागसमाणा अंडर णाम । स्तथा सति स्यादिति चैन्न, इष्टत्वात। -प्रश्न-(जिनका पृथक्
अंडरस्स अतोठियो कच्छउड डर तोट ठियवक्क्खारसमाणो आवासो पृथक् शरीर होता है, उन्हे प्रत्येकशरीर जीव कहते है) प्रत्येक
णाम । अडराणि असंखेज्जलोगमेत्ताणि । एक्के कम्हि अडरे असखेज्जशरीरका इस प्रकार लक्षण करनेपर पृथिवीकायादि पाँचो शरीरोंको लोगमेत्ता आवासा होति । आषासम्भंतरे संठिदाओ कच्छउडडरभी प्रत्येक शरीर सज्ञा प्राप्त हो जायेगी। उत्तर-यह आशका कोई
वक्रवार तोठियविसिवियाहि समाणाओ पुलवियाओ णाम। एक्केआपत्ति-जनक नहीं है, क्योकि पृथिवीकाय आदिको प्रत्येकशरीर
कम्हि आवासे ताओ असंखेजलोगमैत्ताओ होति । एक्के क्कम्हि एक्केमानना इष्ट ही है।
'किस्से पुलवियाए-असखेजलोगमेत्ताणि णिगोदसरीराणि ओरालियध १४/५,६,६१/८१/८ पुढवि-आउ-तेउ-बाउक्काइया देव णेरइया आहार
तेजाकम्मइयपोग्गलोवायाण कारणाणि कच्छउडंडरवक्खारपुलवियाए सरीरा पमत्तसंजदा सजोगि-अजोगिकेवलिणो च पत्तेयसरीरा- अंतोठ्ठिददवसमाणाणि पुध पुध अण ताण ते हि णिगोदजीवेहि बुच्चं ति, एदेसि णिगोदजीवेहि सह सबंधाभावादो। -पृथिवि
आउण्णाणि होति। तिलोग-भरह जणमय-णामपुरसमाणाणि खधडकायिक, जलकायिक, तेजस्कायिक, वायुकायिक, देव, नारकी,
रावास पुल विसरीराणि त्ति वा घेत्तव्यं । -अब यहाँ पर पुलवियोआहारक शरीरी प्रमत्त संयत, सयोगि केवली और अयोगि ये जीव
के स्वरूपका कथन करते हैं-यथा-स्कन्ध, अण्डर, आवास, पुलवि प्रत्येक शरीरवाले होते हैं, कोंकि इनका निगोद जीवोसे सम्बन्ध
और निगोद शरीर ये पाँच होते है-१. उनसे जो बादर निगोदोनही होता । ( गो जी /म्./२००/४४६)।
का आश्रय भूत है, बहुत वक्रवारोंसे युक्त है तथा वल जत्तवाणिय
कच्छउड समान है ऐसे मूली, थूअर और आद्रक आदि सज्ञाको ५. कन्द मूल आदि सभी वनस्पतियाँ प्रतिष्ठित अप्रति
धारण करनेवाला स्कन्ध कहलाता है, वे स्कन्ध अस ख्यात लोक ष्ठित होती हैं
प्रमाण होते है. क्योंकि बादर प्रतिष्ठित जीव असंख्यात लोक प्रमाण
पाये जाते है। २ जो उन स्कन्धोके अवयव हैं और जो बल अमू. आ./२१३-२१५ मूलग्गपोरबीजा कदा तह रबंधबीजबीजरुहा । समुच्छिमा य भणिया पत्तेयाण तकाया य १२१३। कंदा मूला छल्ली
कच्छउडके पूर्वापर भागके समान है उन्हे अण्डर कहते है। ३. जो
अण्डरके भीतर स्थित है तथा कच्छ उडअण्डरके भीतर स्थित खध पत्तं पवालपुष्फफल । गुच्छा गुम्मा वल्ली तणाणि तह पव्व
बरखारके समान है उन्हे आवास कहते है। अण्डर असख्यात लोक काया य।२१४। सेवाल पणय केणग कवगो कुहणो य बादरा काया ।
प्रमाण होते है। तथा एक अण्डरमें असख्यात लोक प्रमाण आवास सब्वेवि सुहमकाया सव्वस्थ जलस्थलागासे १२१५ -१. मूलबीज, अग्रबीज, पर्वबीज कन्दवीज, स्कन्ध बीज, बीजरुह, और सम्मूछिम,
होते है। ४, जो आवासके भीतर स्थित है और जो कच्छउडये सब वनस्पतियाँ प्रत्येक (अप्रतिष्ठित प्रत्येक) और अनन्तकाय
अण्डरववरख रके भीतर स्थित पिठावियोके समान है उन्हे पुलवि (सप्रतिष्ठित प्रत्येक ) के भेदसे दोनो प्रकार की होती है ।२१३। (प
कहते है। एक एक आवासमें वे अस ख्यात लोक प्रमाण होती है। सं/प्रा./२/८१) (ध १/१,१,४३/गा. १९३/२७३) (त. सा./२/६६),
तथा एक एक आवासकी अलग अलग एक एक पुन विमे अस ख्यात
लोकप्रमाण निगोद शरीर होते है जो कि औदारिक, तैजस और (गो जी/मू./१८६/४२३). (पं.स/स/१/१५६) । २ सूरण आदि कंद, अदररव आदि मूल, छालि, स्कन्ध, पत्ता, कोपल, पुष्प, फल,
कार्मण पुद्गलोके उपादान कारण होते है, और जो कच्छउडअण्डर
बक्खारपुल विके भीतर स्थित द्रव्योके समान अलग-अलग अनन्ता - गुच्छा, वर जा आदि गुल्म, वेल तिनका और बेत आदि ये सम्मूर्छन प्रत्येक अथवा अन तकायिक है ।२१४० ३. जलकी काई ईट आदिकी
नन्त निगोद जीवोसे आपूर्ण होते है। १. अथवा तीन लोक, भरत, काई, कूडेसे उत्पन्न हरा नीला रूप, जटाकार, आहार काजी आदिसे
जनपद, ग्राम और पुरके समान स्कन्ध, अण्डर, आवास, पुलवि,
और शरीर होते है ऐसा यहाँ ग्रहण करना चाहिए। (गो जी./उत्पन्न काई ये सब बादरकाय जानने। जल, स्थल, आकाश सब जगह सूक्ष्मकाय भरे हुए जानना ।२१५॥
म् /९६१-१६४/४३४,४३६ ) । ६. अप्रतिष्ठित प्रत्येक वनस्पति स्कन्धमें भी संख्यात या ४.साधारण वनस्पति परिचय असंख्यात जीव होते हैं
१. साधारण शरीर नामकर्मका लक्षण गो जी./जी प्र[१८६/४२३/१३ अप्रतिष्ठित प्रत्येकवनस्पतिजीवशरीराणि स सि /८/११/३६१/६ बहूनामात्मनामुपभोगहेतुत्वेन साधारण शरीर यथासभव असल्मातानि सख्यातानि वा भवन्ति । याबन्ति प्रत्येक- यतो भवति तत्साधारण शरीरनाम। -बात आत्मा ओके उपभोग
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वनस्पति
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४. साधारण वनस्पति परिचय
का हेतु रूपसे साधारण शरीर जिसके निमित्तसे होता है, वह साधारण शरीर नामकर्म है ( रा वा1८/११/२०/५७८/२०); (गो.
जी/जी प्र./३३/३०/१३)। ध.६/१,६-१,२८/६३/१ जस्स कम्मस्स उदएण जोबो साधारणसरीरो होउज, तस्स कम्मस्स साधारणसरीरमिदि सण्णा । जिस कर्म के उदयसे जीव साधारण शरीरी होता है उस कर्मकी 'साधारण शरीर'
यह सज्ञा है। ध १३/५० ५.१०१/३६५/ह जस्स कम्मस्मुदएण एगसरीरा होदूण अण ता जीबा अच्छति तं कम्म साहारणसरीर । == जिस कर्मके उदयसे एक ही शरीरवाले होकर अनन्त जीव रहते है वह साधारण शरीर नामकर्म है।
२. साधारण जीवोंका लक्षण
१. साधारण जन्म मरणादिकी अपेक्षा प. खं. १४/५,६/सू. १२२-१२५/२२६-२३० साहारणमाहारो साहारणमाण
पाणगहणं च । साहारणजीवाण साहारणलवरवणं भणिद।१२२ एयस्स अणुग्गहणं बहूण साहारणाणमेयस्स । एयस्स जं बहूण समासदोत पि होदि एयस्स ।१२३। समगं बक्कताण समग तेसि सरीरणिप्पत्ती। समग च अणूरगहण समग उस्सासणिस्सासो ।१२४। जत्थेउ मरइ जीवो तत्थ दु मरण भवे अणताण । वक्कमह' जत्थ एक्को बक्कमण तत्थथ ताणं ।१२। साधारण आहार और साधारण उच्छ्वास नि श्वासका ग्रहण ग्रह साधारण जीवोका साधारण लक्षण कहा गया है ११२२१ (पं.सं /प्रा/९/८२) (ध. १/१,१,४९/मा १४५/२७०), (गो.जी./म./१६२)-एक जीवका जो अनुग्रहण अर्थाद उपकार है वह बहुत साधारण जीवोका है और इसका भी है। तथा बहुत जीवोका जो अनुग्रहण है वह मिलकर इस विवक्षित जीवका भी है। ।१२३। एक साथ उत्पन्न होने वालोंके उनके शरीरकी निष्पत्ति एक साथ होती है, एक साथ अनुग्रहण होता है। और एक साथ उच्छवास-नि श्वास होता है ।१२४।-जिस शरीरमें एक जीव मरता है वहाँ अनन्त जीवोका मरण होता है। और जिस शरीरमे एक जीव उत्पन्न होता है। वहाँ अनन्त जीवोंकी उत्पत्ति होती है ।१२। (६. स /प्रा./१/८३); (ध. १/१,१,४१/गा, १४६/२७०); (गो. जी./मू./१६३)। रा. वा./८/११/२०/५७८/२२ साधारणाहारादिपर्याप्तिचतुष्टयजन्म
मरणप्राणापानानुग्रहोपघाता साधारणजीवा' । यदै कस्याहारशरीरेन्द्रियप्राणापानपर्याप्तिनिवृत्ति. तदेवानन्तानाम शरीरे न्द्रियप्राणापान पर्याप्तिनिवृत्ति । यदैको जायते तदैवानन्ता प्राणापानग्रहण बिसगौं कुर्वन्ति । यदैक आहारादिनानुगृह्यते तदैवानन्ता.तेनाहारेणानुगृह्यन्ते। यदै कोऽग्निविषादिनोपहन्यते तदेवानन्तानामुपधात'। --साधारण जीवोके साधारण आहारादि चार पर्याप्तियाँ और साधारण ही जन्म मरण श्वासोच्छवास अनुग्रह और उपधातआदि होते है । जब एकके आहार, शरीर, इन्द्रिय और आनपानपर्याप्ति होती है, उसी समय अनन्त जीवोके जन्म-मरण होजाते हैं । जिस समय एक श्वासोच्छवास लेता, या आहार करता, याअग्नि विष आदिसे उपहत होता है उसी समय शेष अनन्त जीवोके भी श्वासो. च्छ्वास आहार और उपघात आदि होते है।
२. साधारण निवासकी अपेक्षा ध ३/१,२,८७/३३३/२ जेण जोवेण एगसरीरट ठिय बहूहि जीवेहि सह कम्मफलमणुभवेयच मिदि कम्ममुवज्जिद सो साहारणसरीरो। जिस जोवने एक शरीरमें स्थित बहुत जीवोके साथ सुख-दुख रूप कर्म फल के अनुभव करने योग्य कर्म उपाजित किया है, वह जोब साधारण शरीर है।
ध.१४/५,६,१११/२२६/५ बहूण जीवाण जमेग सरीर त साहारणसरीर णाम । तत्थ जे बस ति जोवा ते साहारणसरीरा । अथवा साहारणं सामण्ण सरीर जेसि जीवाण ते साहारणसरीरा । = बहुत जीवोंका जो एक सरीर है वह साधारण शरीर कहलाता है। उनमें जो जीव निवास करते है वे साधारण शरीर जीव कहलाते है। अथवा.. साधारण अर्थात सामान्य शरीर जिन जीबोका है वे साधारण शरीर जीव कहलाते है। ३. बोनेके अन्तर्मुहूत पर्यन्त सभी वनस्पति अप्रतिष्ठित प्रत्येक होती हैं ध. १४/५,६,१२६/गा, १७/२३२ बीजे जोणीभूदे जीवो वक्कमइ सो व
अण्णो वा । जे विय मूलादीया ते पत्तेया पढमदाए ।१७। - योनिभूत बीजमें वही जीव उत्पन्न होता है या अन्य जीव उत्पन्न होता है।
और जो मूली आदि है वे प्रथम अवस्थामें प्रत्येक है। (ध. ३/१, २,८३/गा.७६/३४८) (गो. जी/मू. १८७)। गो. जी/जी.प्र./१८७/४२५/१४ येऽपि च मूलकादय प्रतिष्ठितप्रत्येकशरीरत्वेन प्रतिबद्धा तेऽपि खलु प्रथमतायां स्वोत्पन्नप्रथमसमये अन्तर्मुहुर्त कालं साधारणजीवैरप्रतिष्ठितप्रत्येका एव भवन्ति । जो ये मूलक आदि प्रतिष्ठित प्रत्येक वनस्पति प्रसिद्ध है, वे भी प्रथम अवस्थामें जन्मके प्रथम समयसे लगाकर अन्तर्मुहूर्त काल पर्यन्त नियमसे अप्रतिष्ठित प्रत्येक ही होती है। पीछे निगौद जीवोके द्वारा आश्रित किये जानेपर प्रतिष्ठित प्रत्येक होती है। ४. कचिया अवस्थामें समी वनस्पतियाँ प्रतिष्ठित प्रत्येक होती हैं मू. आ./२१६-२१७ गूढसिरसंधिपब समभंगमहीरुह च छिण्णरुह । साहारणसरीरं तबिवरीयं च पत्तेय ।२१६। होदि वणप्फदि धल्ली रुक्रवतण्णादि तहेव एइंदी। ते जाण हरितजीवा जाणित्ता परिहरेदव्या ।२१७१ - जिनकी नसे नही दीखती, बन्धन व गॉठि नहीं दीखती, जिनके टुकडे समान हो जाते है, और दोनो भङ्गोमें परस्पर तन्तु न लगा रहे, तथा छेदन करनेपर भी जिनकी पुनः वृद्धि हो जाय उसको सप्रतिष्ठित प्रत्येक और इससे विपरीतको अप्रतिष्ठित प्रत्येक कहते है ।२१६। (गो. जी./मू./१८८/४२७) वनस्पति बेल वृक्ष तृण इत्यादि स्वरूप है । एकेन्द्रिय है । ये सब प्रत्येक साधारण हरित काय है ऐसा जानना और जानकर इनकी हिसाका त्याग करना चाहिए ।२१७ गो, जी /मू./१८६-१९० मूले कंदे छल्लीपवालसालदलकुसुमफलबीजे। समभगे सदि ण ता असमे सदि होति पत्तेया ।१८हा कंदस्स व मूलस्स व सालाख दस्स बावि बहुलतरी। छल्ली साण तजिया पत्तेयजिया तु तणुकदरी ।१८८-जिन बनस्पतियोके मूल, कन्द, त्वचा, प्रवाल, क्षुद्रशाखा (टहनी) पत्र फूल फल तथा बीजोको तोडनेसे समान भंग हो उसको सप्रतिष्ठित बनस्पति कहते है, और जिनका भंग समान न हो उसको अप्रतिष्ठित प्रत्येक कहते है ।१८६। जिस वनस्पतिके कन्द, मूल, क्षुद्रशाखा या स्कन्धकी छाल मोटी हो उसको अनन्तजीव (सप्रतिष्ठित प्रत्येक ) कहते है। और जिसकी छाल पतली हो उसको अप्रतिष्ठित प्रत्येक कहते है ।१०।
५. प्रत्येक व साधारण वनस्पतियोंका सामान्य परिचय ला. सं./२/६१-६८, १०६ साधारणं च केोचिन्मूलं स्कन्धस्तथागमात् । शाखा पत्राणि पुष्पाणि पर्वदुग्धफलानि च ।। तत्र व्यस्तानि केषांचित्समस्तान्यथ देहिनाम् । पापमूलानि सर्वाणि ज्ञात्वा सम्यक् परित्यजेत् ।१२। मूल साधाणास्तत्र मूलकाचाद्रकादया। महापापप्रदा.
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वनस्पति
५०८
५. साधारण शरीरमे जीवोका उत्पत्ति क्रम
७. साधारण शरीरकी उत्कृष्ट अवगाहना गो, जी./जी, प्र/१८६/४२३/११ प्रतिष्ठितप्रत्येकवनस्पतिजीवशरीरस्य सर्वोत्कृष्टमवगाहनमपि घनाङगुलासख्येषभागमात्रमेवेति पूर्वोक्ताईकादिस्कन्धेषु एकैकस्मिस्तानि असख्यातानि असंख्यातानि सन्ति । - प्रतिष्ठित प्रत्येक शरीरकी सर्वोत्कृष्ट अवगाहना धनांगुलके असंख्यात भाग मात्र ही है। क्योकि पूर्वोक्त आद्रकको आदि लेकर एक-एक स्कन्धमें असंरण्यात प्रतिष्ठित प्रत्येक शरीर (त्रैराशिक गणित विधानके द्वारा) पाये जाते है।
सर्वे मूलोन्मूख्वा गृहिवते ६३। स्कन्धपत्रपय' पर्वतुर्यसाधारणा यथा। गंडीरकस्तथा चार्कदुग्धं साधारण मतम् ।।४। पुष्पसाधारणा केचितकरीरसर्ष पादयः। पर्वसाधारणाश्चक्षुदण्डा साधारणाका १५॥ फलसाधारण रख्यातं प्रोक्तोदुम्बरपञ्चकम् । शाखा साधारणा ख्याता कुमारीपिण्डकादयः ।।६। कुम्पलानि स सर्वेषां मृदूनि च यथागमम् । सन्ति साधारणान्येव प्रोक्तकालावधेरध' 18७. शाका' साधारणा' केचित्केचित्प्रत्येकमूर्तयः । वन्य साधारणा' काश्चित्काश्चित्प्रत्येकका' स्फुटम् ।६८। तल्लक्षणं यथा भड्गे समभाग प्रजायते। तावत्साधारणं ज्ञेय शेषं प्रत्येकमेव तत् ११०६-१. किसी वृक्षको जड साधारण होती है, किसी का स्कन्ध साधारण होता है, किसीकी शाखाएँ साधारण होती हैं, किसीके पत्ते साधारण होते हैं, किसीके फूल साधारण होते है, किसीके पर्व (गाँठ ) का दूध, अथवा किसीके फल साधारण होते है ।११। इनमें से किसी किसी के तो मूल, पत्ते, स्कन्ध, फल, फूल आदि अलग-अलग साधारण होते है और किसीके मिले हुए पूर्ण रूपसे साधारण होते हैं ।१२। २. मूली, अदरक, आलू, अरबी, रताल, जमीकन्द, आदि सब मूल (जड़ें) साधारण है ।१३। गण्डीरक ( एक कडुआ जमीकन्द ) के स्कन्ध, पत्ते, दूध और पर्व में चारों ही अवयव साधारण होते है । दूधोंमें आकका दूध साधारण होता है ।१४। फूलोंमें करीरके व सरसोके फूल और भी ऐसे ही फूल साधारण होते है। तथा पर्यों में ईखकी गाँठ और उसका आगेका भाग साधारण होता है ।१५। पाँचो उदम्बर फल तथा शाखाओं में कुमारी पिण्ड (गॅवारपाठा जो कि शाखा रूप ही होता है) की सत्र शाखाएँ साधारण होती है ।१६। वृक्षोंपर लगी कोंपले सम साधारण है पीछे पकनेपर प्रत्येक हो जाती है ।१७। शाकों में 'चना, मेथी, बथुआ, पालक, कुलफी आदि ) कोई साधारण तथा कोई प्रत्येक, इसी प्रकार बेलोंमें कोई लताएँ साधारण तथा कोई प्रत्येक होती है ।१८।३. साधारण व प्रत्येकका लक्षण इस प्रकार लिखा है कि जिसके तोड़ने में दोनों भाग एकसे हो जाये जिस प्रकार चाकूसे दो टुकडे करनेपर दोनो भाग चिकने और एकसे हो जाते है उसी प्रकार हाथसे तोडनेपर भी जिसके दोनो भाग चिकने एकसे हो जाये वह साधारण वनस्पति है। जब तक उसके टुकडे इसी प्रकार होते रहते है तब तक साधारण समझना चाहिए। जिसके टुकडे चिकने
और एकसे न हो ऐसी बाकीको समस्त वनस्पतियोको प्रत्येक समझना चाहिए ।१०।
५. साधारण शरीरमें जीवोंका उत्पत्ति क्रम
१. निगोद शरीरमें जीवोंकी उत्पत्ति क्रमसे होती है ष खं. १४/५,६५८२-५८६/४६६ जो णिगोदो पढमदाए बक्कममाणो
अणंता बकमति जीवा । एयसमएण अणं ताण तसाहारणजीवेण घेतण एगसरीरं भवदि असखेजलोगमेत्तसरीराणि घेत्तूण एगो णिगोदो होदि ।५८२। विदियसमए अस खेज्ज गुणहीणा वक्कमति ।५८३। तदियसमए असखेज्जगुणहीणा बक्कमति ।५८४। एवं जाव अस खेज्जगुणहीणाए सेडीए णिरंतरं बक्कम ति जाब उक्कस्सेण अवलियाए असखेज्जदि भागो। ८५ तदो एको वा दो वा तिण्णि वा समए अंतर काऊण णिरंतर बकमंति जाव उकस्सेण आव लियाए असखेज्जदि
भागो ।५८६॥ घ.१४/५६.१२७/२३३/५ एवं सातरणिरं तरकमेण ताव उपपज्जति जाव उपपत्तीए संभवो अस्थि । -प्रथम समयमें जो निगोद उत्पन्न होता है उसके साथ अनन्त जोव उत्पन्न होते है। यहाँ एक समयमै अनन्तानन्त जीवीको ग्रहण कर एक शरीर होता है, तथा असरण्यात लोकप्रमाण शरीरोको ग्रहण कर एक निगोद होता है ।५८२। दूसरे समयमें असंख्यात गुणे हीन निगोद जीव उत्पन्न होते है ।५८३। तीसरे समय में असरण्यात गुणे हीन निगोद जीव उत्पन्न होते है ।५८४। इस प्रकार आवलिके असख्यातवे भाग प्रमाण कालतक निरन्तर असख्यातगुणे हीन श्रेणी रूपसे निगोद जीव उत्पन्न होते है।।८। उसके बाद एक, दो और तीन समयसे लेकर आवलिके असरख्यातने भाग प्रमाण कालका अन्तर करके आवलिके असंख्यातवे भागप्रमाणकालतक निरन्तर निगोद जीव उत्पन्न होते है ।५८६। इस प्रकार सान्तर निरन्तर क्रमसे तबतक जीव उत्पन्न होते है जबतक उत्पत्ति सम्भव है। (गो. जी/जी, प्र./१६३/४३२/५) । गो जी /जी.प्र./१६३/१३२/8 एब सान्तरनिरन्तरक्रमेण तायदुत्पद्यन्ते यावत्प्रथमसमयोत्पन्नसाधारणजीवस्य सर्वजघन्यो नित्यपर्याप्तकालोऽवशिष्यते । २० पुनरपि तत्प्रथमादिसमयोत्पन्नसर्वसाधारणजीवानां आहारशरीरेन्द्रियोच्छवासनि श्वासपर्याप्तीनां स्वस्वयोग्यकाले निष्पत्तिर्भवति । इस प्रकार सान्तर निरन्तर क्रमसे तबतक जीव उत्पन्न होते है जबतक प्रथम समयमें उत्पन्न हुआ साधारण जीवका जघन्य निर्वृत्ति अपर्याप्त अवस्थाका काल अवशेष रहे। फिर पीछे उन प्रथमादि समयमें उपजे सर्वसाधारण जीवके आहार, शरीर, इन्द्रिय श्वासोच्छवासको सम्पूर्णता अपने-अपने योग्य काल में होती है। २. निगोद शरीरमें जीवोंकी मृत्यु क्रम व अक्रम दोनों प्रकारसे होती है ष खं, १४/५.६/स.६३१।४८५ जो णिगोदो जहण्णएण वक्कमणकालेण
वक्कम तो जहण्णएण पबधणकालेण पबद्धो तेसि बादरणिगोदाण तथा पबद्धाण मरणक्कमेण णिग्गमो होदि ।६३१॥
गो.जी./जी, प्र/१८८/४२७/५ तच्छरीरं साधारणं-साधारणजोधाश्रितत्वेन साधारण मित्युपचर्यते। प्रतिष्ठितशरीरमित्यर्थ ।-(प्रतिष्ठित प्रत्येक वनस्पतिमें पाये जानेवाले असंरख्यात शरीर ही साधारण है।) यहाँ प्रतिष्ठित प्रत्येक साधारण जीवोके द्वारा आश्रितकी अपेक्षा उपचार करके साधारण कहा है । (का.अ./टी /१२८)
६. एक साधारण शरीरमें अनन्त जीवोंका अवस्थान
प.ख. १४/५.६/सू. १२६,१२८/२३१-२३४ बादरसुहुमणिगोदा बदा पुट्ठा
य एयमेएण । ते हु अणंता जीवा मूलयथूहल्लयादीहि ।१२६। एगणिगोदसरीरे जीवा दवघ्पमाणदो दिट्ठा। सिद्धेहि अणतगुणा सम्वेण वि तीदकालेण ।१२८१-१ बादर निगोद जीव और सूक्ष्म निगोद जीव ये परस्परमे ( सब अवयवोसे ) बद्ध और स्पष्ट होकर रहते है। तथा चे अनन्त जीव हैं जो मूली, थूबर, और आर्द्रक आदिके निमित्तसे होते हैं ।१२६। २. एक निगोद शरीरमें द्रव्य प्रमाणकी अपेक्षा देखे गये जीव सब अतीत कालके द्वारा सिद्ध हुए जीवोसे भी अनन्तगुणे है ।१२८॥ (प. स./प्रा./१/८४ ) (ध,१/१,१,४१/गा. १४७/२७०) (ध,४/१,५,३१/गा.४३/४७८) (ध. १४/५.६,६३/६/१२) (ध, १४/ ५,६,६३/६८/९) (गो.जी./मू /१६६/४३७)।
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वनस्पति
प. १४/५.६ ६३१/४८६/६ एक्कमिह सरीरे उप्पज्जमाणवादर णिगोदा किमकमेण उप्पज्जति आहो कमेण । जदि अक्कमेण उप्पज्जति तो मेव मरमेण वि होदव्वं एक म्हि मरते सते असि मरणाभावे साहारणतमिरोहा। वह कमेण अससेज्जगुणहीणाए सेडीए उत्पज्जति तो मरण पि जवमज्झागारेण ण होदि, साहारणत्तस्स विकाससंगादो सिए परिहारो पदे असज्जनही जाए कमेण वि उप्पज्जंति अक्कमेन वि अणता जीवा एगसयए उपज्जति । ण च फिट्टदि । एदीय गाहाए भणिदलक्खणाणमभावे साहारणत्तविणासदो । तदो एगसरोरुप्पण्णाण मरणकमेण णिग्गमो होदित्ति एवं पिण विरुज्भदे । ण च एगसरीरुप्पण्णा सव्वे समाणाउवा चेत्र होति त्ति नियमों णत्थि जेग अक्कमे तेसि मरण होज्ज । तम्हा एगसरीर ठिदाणं पि मरणजवमज्झ समिलाजवमज्झ च होदि त्ति घेत्तव्वं । - - जो निगोद जघन्य उत्पत्ति कालके द्वारा बन्धको प्राप्त हुआ है उन बादर निगोदोका उस प्रकारसे बन्ध होनेपर मरणके क्रमानुसार निर्गम होता है । ६ ३१ प्रश्न- एक शरीर में उत्पन्न होनेवाले बादर निगोद जीव क्या अक्रमसे उत्पन्न होते है या क्रमसे ? यदि अक्रमसे उत्पन्न होते है तो अक्रमसे हो मरण होना चाहिए, क्योकि एकके मारनेपर दूसरोका मरण न होनेपर उनके साधारण होने में विरोध आता है | यदि क्रमसे असख्यातगुणी होन श्रेणी रूपसे उत्पन्न होते है, तो मरण भी यत्रमध्यके आकार रूपसे नहीं हो सकता है, क्योकि साधारणपनेके विनाशका प्रसंग आता है। उत्तर-असंख्यातगुणी होन श्रेणिके क्रमसे भो उत्पन्न होते है, और अक्रमसे भी अनन्तजोव एक समयमे उत्पन्न होते हे। और साधारणपना भी नष्ट नही है । ( साधारण आहार व उच्छवासका ग्रहण साधारण जोवोका लक्षण है- दे० वनस्पति /४/२ ) । इस प्रकार गाथा द्वारा कहे गये लक्षणो के अभाव में ही साधारणपनेका विनाश होता है। इसलिए एक शरीरमे उत्पन्न हुए निगोदोका मरणके क्रमसे निर्गम होता है इस प्रकार यह कथन भो विरोधको प्राप्त नही होता है । और एक शरीर में उत्पन्न हुए सन समान युवाले ही होते है, ऐसा कोई नियम नहीं है, जिससे अक्रमसे उनका मरण होवे, इसलिए एक शरीरमें स्थित हुए निगोदोका मरण मध्य और शामिला यवमध्य है, ऐसा ग्रहण करना चाहिए।
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३. आगे-पीछे उत्पन्न होकर मी उनकी पर्याप्ति युगपत् होती है
ध १४/५,६,१२२/२२१/२ एक्कम्हि सरीरे जे पढमं चेत्र उप्पण्णा अणता जीवा जे च पच्छा उप्पण्णा ते सवे समग वक्क्ता णाम । कथ भिका जवान समगतं सुजदे ग एनसरीरसमण तेसि सव्वैमि पि समगत पडिविरोहाभावादो। एक्कम्हि सरीरे पच्छा उप्पज्जमाणा जीवा अत्थि, कथ तेसि पठम चैत्र उप्पत्ती होदि । ण, पढमसमए उप्पण्णाण जीवाणमणुग्गणफनस्स पच्छा पणजीव उवल भादो । तम्हा एगणिगोदमरीरे उत्पज्जमाणसजीवाण' पढमममए चैव उप्पत्ती एदेण णाएण जुज्जदे । ध १४/५,६,१२२/२२७/२ एदम्स भावण्यो सजणेण पज्जत्तिकाले जदि पुम्बु पण्गणिगोदजोत्रा सरीरपज्जत्ति इंदियपज्जत्तिआहार - आण गणपज्जतोहि पज्जतपदा होति तम्हि सरीरे तेहि समुपण्णमदजोगि शिगोदजीवा वि तेणेत्र कालैग एदाओ पज्जत्तीओ समाणे ति, अण्णा आहारगहणादोण साहारणत्ताणुवत्तदा । जदि दहकालेन पणजीमा बनारसी मनायेति तो तह सरोरे पच्छा उपणजोबा तेणेव कालेण ताओ पज्जत्तीओ समाणे ति त्ति भणिदं होदि । सरोरिदियाज्जत्तीर्ण साहारणत्त किरण परूविद। ण अहारणावणिद्द े सो देसामासिओ न्ति तेसि पि एस्थेव अतभावा = १ एक शरीरमे जो पहले उत्पन्न हुए अनन्त जीव
५. साधारण शरीरमे जीवोका उत्पत्ति क्रम
है, और जो बाद मे उत्पन्न हुए अनन्त जीव है वे सब एक साथ उत्पन्न हुए कहे जाते है। प्रश्न-भिन्न काल में उत्पन्न हुए जीवोंका एक साथपना कैसे बन सकता है। उत्तर-नहीं, क्योंकि, एक शरीर के सम्ब न्धसे उन जीवोंके भी एक साथपना होनेमें कोई विरोध नहीं आता है । प्रश्न- एक शरीर में बादमें उत्पन्न हुए जीव है, ऐसी अवस्था में उनको प्रथम समय में ही उत्पत्ति कैसे हो सकती है। उत्तर- नही, क्योकि प्रथम समयमें उत्पन्न हुए जीवोंके अनुग्रहणका फल बादमें उत्पन्न हुए जीवोमें भी उपलब्ध होता है, इसलिए एक निगोट शरीरमें उत्पन्न होनेवाले सब जीबोकी प्रथम समय में ही उत्पत्ति इस न्याय के अनुसार बन जाती है। २ इसका तात्पर्य यह है कि- सबसे जघन्य पर्याप्ति कालके द्वारा यदि पहले उत्पन्न हुए निगोद जीव शरीर इन्द्रियपर्याप्ति आहारपर्याप्त और उच्छ्वास निश्वास पर्याप्त से पर्याप्त होते है, तो उसी शरीर में उनके साथ उत्पन्न हुए मन्दयोगवाले जोव भी उसी कालके द्वारा इन पर्याप्तियोंको पूरा करते है, अन्यथा आहार ग्रहण आदिका साधारणपना नहीं बन सकता है । यदि दीर्घ कालके द्वारा पहले उत्पन्न हुए जीव चारो पर्याप्त प्राप्त करते है तो उसी शरीर मे पीछेसे उत्पन्न हुए जीव उसी काल के द्वारा उन पर्याप्तयोको पूरा करते है, यह उक्त कथनका तात्पर्य है। प्रश्न - शरीर पर्याप्त और इन्द्रिय पर्याप्ति ये सबके साधारण है ऐसा ( सूत्र ) क्यो नही कहा। उत्तर- नहीं, क्योंकि गाथा सूत्र में 'आहार' और आनपानका ग्रहण देशामर्शक है, इसलिए उनका भी इन्ही अन्तर्भाव हो जाता है।
४. एक ही निगोद शरीरमें जीवोंके आवागमनका प्रवाह चलता रहता
ध. १४/५,६,५८३/४७०/५ एगसमएण जहि समए अनंतजीवा उप्पज्जति सहि चैन समए सरीरस्स सविया च उत्पत्ती होदि तेहि मिया सिमुप्यन्तिविरोहादी कर विविया पिउत्पत्ती होदि, अणेगसरीराधारतादो। जिस समयमें अनन्त जीव उत्पन्न होते है उसी समय शरीरकी और पुतनिकी उत्पति होती है, क्योकि इनके बिना अनन्त जीवोकी उत्पत्ति होनेमें विरोध है । कहीपर सविकी पहले भी उत्पति होती है क्योंकि वह अनेक शरीरोका आधार है।
गो. जी. / जी प्र / १६३ / ४३१/१६ यन्निगोदशरीरे यदा एको जीव स्वस्थितिक्षयवशेन म्रियते तदा तन्निगोदशरीरे समस्थितिका. अनन्तानन्ता जीवा सहैव म्रियन्ते । यन्निगोदशरीरे यदा एको जीव प्रक्रमति उत्पद्यते तथा तन्निगोदशरीरे समस्थितिका अनन्तानन्ता जीवाः सहैव प्रक्रामन्ति एमरण समकायमपि साधारणलक्ष शिर द्वितीयादिसमयोत्पन्नानामनन्दानवानामपि स्वस्थितिक्षये सहन मरणं ज्ञातव्य एवमेकनिगोदशरीरे प्रतिसमयमनन्तानन्तजीवास्तावत्सहैव म्रियन्ते सदैवात्पद्यन्ते यावदसंख्यातसागरोपमकोटिमात्री असंख्यातला कमात्र समयप्रमिता उत्कृष्ट निगोदकायस्थिति' परिसमाप्यते । एक निगोद शरोरमे जब एक-एक जीव अपनी आयुकी के पूर्ण होनेपर मरता है हम जिनकी आयु उस गिगोव शरीर में समान हो वे सब युगपत् मरते है । और जिस कालमें एक जब उस निगद शरीरमे जन्म लेता है, तब उस होके साथ समान स्थितिके धारक अनन्तानन्त जीव उत्पन्न होते है। ऐसे उपजने मरनेके समकालने को भी साधारण जीववा लक्षण कहा है (दे० वनस्पति/ ४ / २ ) और द्वितीयादि समयोमे उत्पन्न हुए अनन्तानन्त जीवोका भी अपनी आयुका नाश होनेपर साथ ही मरण होता है। ऐसे एक निगोद शरीर में अनन्तानन्त जीव एक साथ उत्पन्न होते हैं, एक साथ मरते है, और निगोद शरीर ज्योका त्यो बना रहता है। इस निगाद शरीरकी उत्कृट स्थिति असख्यात कोड़ाकोडी सागर
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वनस्पति
प्रमाण है । सो असख्यात लोक्मात्र समय प्रमाण जानना । जब तक वह स्थिति भारत पूर्ण नही होती, तत्रतक जोवोका मरना उत्पन्न होना रहा करता है।
५ वादर व सूक्ष्म निगोद शरीरोंमें पर्याप्त व अपर्याप्त जीवोंके अवस्थान सम्बन्धी नियम
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ष व १४/५.६/ सु. ६२-६३०/४८३ सव्त्रो बादरणिगोदो पज्जत्तो वा वामिस्सो वा ६२६| सु मणिगोदवग्गणाए पुण नियमा वा मिस्सो | ६३०१
।
ध. १४/५,६, ६२६/४८३-४८५/१० खंडरावासपुल वियाओ अस्सिदूण एवं सिरी एम सरीरे पज्जन्तापज्जाजीवानाविरहादो। सब्वो बादरणिगोदो पज्जन्तो वा होदि । कुदो । वादरहितेहि सह लगवामविया उपमादरगिगोटापज्जत अतोहसे काले मिस्स मुवे सुद्धा बादरणिजता पेपरमाराणादो एसो हेट्ठा पुण चादरणिगोदो वामिस्सो होदि, खधडरावासपुलविग्रासु बादरणिगोद पज्जत्तापज्जत्ताणं अणताण सहावठाण दंसणादो ।
१४/५.६०/
गृहमणिमोदवनाए
या समति तेण सा पियमा पज्जचा समा होदि । किमवा समवदि सुमणि गोदापा पदेसकालसमाभाकादो एथ पसे रति चेन कालमुपती परी ण उप्पज्जति त्ति जेणे नियमो णत्थि तेण सा सम्बकाले वामिस्सा त्ति भणिद होदि । • सब बादर निगोद पर्याप्त है या मिश्र रूप है | ६| परन्तु सूक्ष्म निगोद वर्गणा में नियमसे मिश्र रूप है । ६१० । स्कन्ध] अण्डर आवास और पुलवियोंका आश्रय लेकर यह सूत्र कहा गया है. शरीरोका आश्रय लेकर नहीं कहा गया है. क्योकि एक शरीर मे पर्याप्त और अपर्याप्त जीबोका अवस्थान होनेमें विरोध है । सब बादर निगोद जोब पर्याप्त होते है, क्योकि बादर निगाद के साथ स्कन्ध, अण्डर, आवास, और पुलवियोमे उत्पन्न हुए अनन्त बादर निगाद अपर्याप्त जोवोके अन्तर्मुहूर्त कालके भीतर सबके मर जानेपर वहाँ केवल बादर निगोद पर्याप्तकों का ही अवस्थान देखा जाता है। परन्तु इससे पूर्व बादर निगोद व्यामिश्र होता है, क्योकि स्कन्ध, अण्डर, आवास और पुलवियोमें अनन्त बादर निगोद पर्याप्त और अपर्याप्त वोंका एक साथ अवस्थान देखा जाता है । यत सूक्ष्म निगोद जाने पर्याप्त और अपको सर्वदा सम्भय है, इसलिए वह से पर्याप्त और अपर्याप्त जोवोसे मिश्र रूप होती है प्रश्न उसमें सर्वकाल किसलिए सम्भव है। उसकि सूक्ष्म निनोद पर्याप्त और अपर्याप्त जीवोकी उत्पतिके प्रवेश और कालका कोई नियम नही है। इस प्रदेशमें इतने हो काल तक उत्पत्ति होती है, आगे उत्पत्ति नहीं होती इस प्रकारका चूँकि नियम नहीं है इसलिए वह सूक्ष्म नगद वा रूप होती है।
·
गीजी / जो प्र / १६३ / ४३२ / ३ अत्र विशेषोऽस्ति स च के एक्बादरनिगोदशरीरे सूक्ष्मनिगोदशरीरे वा अनन्तानन्ता साधारणजीवा, केला एवोपयन्ते पुनरपि एकदशरीरे पर्या
न च मिश्रा उत्पद्यन्ते तेषां समानकर्मोदयनियमात् । = इतना विशेष है कि एक बादर निगोद शरोरमें अथवा सूक्ष्म निगोद शरीर में अनन्तानन्त साधारण जीव केवल पर्याप्त ही उत्पन्न होते है, वहाँ अपयश नहीं उपजते और कोई शरीर में अपर्याप्त होते है वहाँ पर्याप्त नही उपजते । एक ही शरीर में पर्याप्त अपर्याप्त दोनो युगपत् नहीं उत्पन्न होते। क्योकि उन जीवोके समान कर्म के उदयका नियम है।
नय
६ सनेक जी एक शरीर होनेमे हेतु
गलविपाकवादा
१ / ०.१,४५ / २१६/- प्रतिनियतीप्रति हारवर्गणाधाना का याकारपरिणमनहेतुभिरौदारिककर्मस्वन्धै. क्थ भिन्नजीव फलदातृभिरेक शरीर निष्पाद्यते विरोधादिति चेन्न, पुद्गलानामेक देशावस्थितानामेक देशावस्थित मिथ समवेतजीवसमवे ताना तस्याशेपाणिमयेकरीदन न frea' साधारणकारणतसमुत्पन्न कार्यस्य साधारणत्वादि कारणानु रूप कार्यमिति न निषेध पाते याचिका - प्रश्न- जीवोंमे अलग-अलग बँधे हुए, पुद्गल विपाकी होनेसे आहार-वर्गणाके स्कन्धोंको शरीरके आकार रूपसे परिणमन कराने में कारण रूप और भिन्न-भिन्न जीवको भिन्न-भिन्न फल देनेवाले औदारिक कर्म धोके द्वारा अनेक जीवोके एक-एक शरीर कैसे उत्पन्न किया जा सकता है, क्योकि ऐसा माननेमें विरोध आता है । उत्तर- नहीं, क्योंकि, जो एक देश में अवस्थित है और जो एक देश में अवस्थित तथा परस्पर सम्बद्ध जीवोके साथ समवेत हैं, ऐसे पुद्गल वहॉपर स्थित सम्पूर्ण जीव सम्बन्धी एक शरीरको उत्पन्न करते है, इसमें कोई विरोध नही आता है क्योकि, साधारण कारणसे उत्पन्न हुआ कार्य भी साधारण होता है। कारणके अनुरूप ही कार्य होता है. इसका निषेध भी तो नहीं किया जा सकता है, क्योकि यह बात सम्पूर्ण नैयायिक लोगो प्रसिद्ध है।
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• अनेक जीवका एक आहार होने हेतु ४. १४/४६. १२२ / २२० कथमेण जीवे गहिदो बाहारो त तत्थ अनंताणं जीवाण जायदे ण, तेणाहारेण जणिसत्तीए पच्छा उप्पण्णजीवाणं उप्पणपढमसमए चेव उवल मादो। जदि एव तो आहारो साहारणो होदि बाहर दिसती साहारणे मितव्य न एस दोस्रो कारोवारेण आहारजविसली विहारयएस सिद्धीओ। प्रश्न- एक जीवके द्वारा ग्रहण किया गया आहार उस कालमें वहाँ अनन्त जीवोका कैसे हो सकता है। उत्तर-नहीं, क्योकि उस आहारसे उत्पन्न हुई शक्तिका बादमें उत्पन्न हुए जीवोके उत्पन्न होनेके प्रथम समय में ही ग्रहण हो जाता है। प्रश्न- यदि ऐसा है तो 'आहार साधारण है इसके स्थान में 'आहार जनित शक्ति साधारण है' ऐसा कहना चाहिए। उत्तर- यह कोई दोष नहीं है, क्योकि कार्य में कारणका उपचार करें लेनेसे आहार जनित शक्तिके भी आहार संज्ञा सिद्ध होती है ।
वनीपक- आहार सम्बन्धी एक दोष- दे० आहार /11/४/४ |
वह्नि - १. अग्नि सम्बन्धी विषय- दे० अग्नि । लौकान्तिक देवीका एक भेद - दे० लौकान्तिक ।
ब] दे० शरीर
चत्र
अपर निदेहका एक क्षेत्र-दे० लोक / २२ बरि वक्षारका एक कूट व उसका स्वामो देव-दे० लोक /५/४ |
वप्रवान १. अपर विदेएक क्षेत्र०/०२ सुर वक्षारका एक कूट व उसका स्वामी - दे० लोक /७ ।
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E
वय प्र.सा./ता / २०३ / २०६/१ शुद्धात्मसमितिविनाशकार वातयौवन' ब्रेकअप वरचेति शुद्ध आत्मा के संवेदनको विनाश करनेवाली, वृद्ध, बालक व यौवन अवस्थाके उसे उत्पन्न होनेवाली बुद्धिको विकलतासे रहित वय होती है ।
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वरतनु
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वरतनु - लवण समुद्रकी दक्षिण व उत्तर दिशामें स्थित द्वो व उनके स्वामी देव दे० लोक /४/१ 1
वरवर
- म पु / सर्ग / श्लोक - 'पूर्व भय से ७ में लोलुप नामक हलवाई था । ( ८ / २३४) । पूर्व भव स ६ में नकुल हुआ । (८/२४१) | पूर्व में उत्तरकुरूमै ननुष्य हुआ। (२/२०) । पूर्व भव स * ४ मे ऐशान मनोरथ मामक देवा (१/९८०) पूर्व भन सं ३ में प्रभजन राजाका पुत्र प्रशान्त मदन हुआ । ( १०/१५२ ) । पूर्व भव सं. २ मे अच्युत स्वर्ग मे देव हुआ । ( १०/१७२ ) । पूर्ववाले भय मे अपराजित स्वर्ग मे अहमिन्द्र हुवा (११/१०)। अथस सर्वार्थसिद्धिमें अहमिन्द्र हुआ। ( ११/१६० ) और वर्तमान वरवीर हुआ। ( १६ / ३)। जिसका अपरनाम जयसेन भी था । ( ४७ / ३७६ ) |- [ युगपत् समरत भत्रा के लिए दे० (४७/३७६-३७७)] । यह ऋषभदेव के पुत्र भरतका छोटा भाई था । १६ / ३ ) । भरत द्वारा राज्य माँगनेपर दीक्षा ले ली। ( ३४ / १२६ ) पश्चात् मोक्ष सिधारे। ( ४७ / २६६ ) ।
(
।
भरत के मुक्ति जाने के
वररुचि - १ शुभचन्द्राचार्य व कवि कालिदासके समकालीन एक
विद्वान् । समय-ई १०२१-१०५५ । (ज्ञा प्र १० प बाकलीवाल ) । २ एक प्रसिद्ध व्याकरणकार समय ई. ( प / ११ / A. N. Up )
पन्नालाल ५००
वरांगकुमार पराग परित्र / सर्ग / श्लोक समपुर के भोज गो राजा धर्मसेनका पुत्र था । (२/२) । अनुपमा आदि १० कन्या लोका पाकिया (२०) मुनिदर्शन ( २३/२२.११/०२ ) । अणुव्रत धारण । ( ११ / ४३ | राज्यप्राप्ति (११ / ६५) । सौतेले भाइयोका द्वेष (१११८२) । यो यन्त्र करके कुशिक्षित पर सार कराया । ( १२ / ३७ ) | घोडेने अन्ध कूपमें गिरा दिया। यहाँसे लता पकडकर बाहर निकला । ( १२/४६ ) | सिंहके भयमे सारी रात वृक्षवर बसेरा ( १२ / २६ ) । हाथी द्वारा सिहका हनन । ( १२/६६ ) सरोवर में स्नान करते हुए नक्रने पॉव पकड लिया (१३/३ ) | देवने रक्षा को । देवीके द्वारा विमाही प्रार्थना की जानेपर अपने उपर रह रहा। (१३/३८ )। भीलो द्वारा बाँधा गया । ( १३/४६ ) । देवीपर बलि चढानेको ले गये। भीलराजके पुत्रके सर्प काटेका विष दूर करनेसे हाँसे छुटकारा मिला। (१३/६५) पुन एकसने पकड लिया । ( १३ / ७८ ) | दोनो मे परस्पर प्रेम हो गया। भीलोके साथ युद्ध कौशल दिखाया। पूज्यता प्राप्त हुई। (१४/०९)। श्रेष्ठी पद प्राप्ति ( १४ / ८६) । राजा देवत्सेन के साथ युद्ध तथा विजय प्राप्ति ( १८ / १०३) । राजकन्या सुनन्दासे विवाह । ( १६ / २० ) । मनोरमा कन्या के मोहित होनेपर दूत भेजना पर शोलपर दृढ रहना । (१६ / ६१) मनोरमाके साथ विवाह । ( २०/४२ ) । पिता धर्मपर शत्रुकी चढाई सुनकर अपने देशमे गये । उनके जाते ही शत्रु भाग गया । (२०६०) | राज्य प्राप्ति । ( २०/६५ ) धर्म व न्यायपूर्वक राज्यकार्य की सुव्यवस्था । ( सर्ग २१-२७ ) । पुत्रोत्पत्ति ( ( २८/५) | दीक्षा धारण । (२१/००) सर्वार्थ सिद्धि देव हुए (२९/१०१) ।
बराटक कोडी - ३० नि
वराह - विजयार्ध की उत्तर श्रेणीका एक नगर-दे० विद्याधर । बहिर राजा विक्रमादित्य नयनो में से एक प्रसिद्ध कवि थे। समय - ई ५०५-५८७ ( न्यायावतार 1प्र1 सतीशचन्द्र विद्याभूषण) (भाचरित १४ पं उदयलाल ) |
वगंणा
वरुण - १ लोकराज देनोका एक भेद-दे० लोकपाल । २ मल्लिनाथ का शासक गक्ष -- दे०तीर्थकर ५/३ । ३. दक्षिण वारुणीवर द्वीपका रक्षक देव दे० पस्तर ४४ विजया दक्षिणमे स्थित एक पर्वत–२० मनुष्य ॥४॥ ५ प पु / १६/५६ - ६१ रसातलका राजा था। रावणके साथ हनुमाने इसके सौ पुत्रोको बाँध लिया और अन्त में इसको भी पकड़ लिया। ६ भद्रशाल वनमे कुमुद व पलाशगिरि नामक दिग्गजेन्द्र पर्वतोके स्वामी देव - दे० लोक /३/१२/
वरुण डायिक
वरुण प्रभउत्तर वारुणीवरही पका कन्तर / ४ ।
वर्ग
1
रावा./२/५/४/२०७/६ उदयप्राप्तस्य कर्मण प्रदेशा अभव्यानामनन्तगुणा सिद्धानामनन्त प्रमाणा । तत्र सर्वजघन्यगुण प्रदेश परिगृहीत, तरयानुभाग प्रज्ञाछेदेन तावद्धा परिच्छिन्न' विभागो न भवति ते अविभागपरिवेशः सर्वजीवानामनन्तगुणा एको राशि कृत । अपर एकाविभागपरिच्छेदाधिक; प्रदेश परिगृहीत' तमेव तस्याविभाग-परिच्छेद कृता । स एको राशिर्वर्न । उदय प्राप्त कर्मके प्रदेश अभव्योके अनन्त गुणे तथा सिद्धो के अनन्त भाग प्रमाण होते है। उनमें से सर्व जघन्य गुणवाले प्रदेश के अनुभागका बुद्धिके द्वारा उतना सूक्ष्म विभाग किया जाये जिससे आगे विभाजन न हो सकता हो। ये अविभाग प्रतिच्छेद सर्व जीवराशि अनन्त गुण प्रमाण होते है। एकके पीछे एक स्थापित करके इनकी एक राशि बनानी चाहिए। सर्व जघन्य गुणवाले प्रदेश के अविभाग प्रतिच्छेदोकी इस राशिको वर्ग कहते है। इसी प्रकार दूसरे-तीसरे आदि सर्व जवन्य गुणवाले प्रदेश के पृथक-पृथक वर्ग बनाने चाहिए। पुन एक अविभाग प्रतिच्छेद अधिक गुण वालोके सर्व जीवराशिके अनन्तगुण प्रमाण राशिरूप वर्ग बनाने चाहिए | ( रामान गुणवाले सर्व प्रदेशको वर्गराशिको वर्गणा कहते हैं (दे० वर्गणा ) ] (क. पा ५ / ४-२२ / ९५७३/३४४/१), (ध. १२/४,२,७,१६६/१२/८/ घ. १०/४,२, ४, १७८४४९/६ एगजावपदेसाविभागपरिच्छेदाण वग्गववएमादो। एक जीवप्रदेश के विभाग प्रति वर्ग यह संज्ञा है ।
आकाशोपपन्न देव दे० देव / I ! / ३ 1
ससा / ५२ शक्तिसमूहलक्षणो वर्ग । शक्तियोका अर्थात् अविभागमा समूह वर्ग है। गो जी //५६/११३/१४)
रक्षक व्यन्तर देव-दे०
२. जधन्य वगका लक्षण
ल सा / भाषा / २२३/२७७/८ सबते थोरे जिस परमाणु विषै अनुभाग के अविभाग प्रतिच्छेद पाइए ताका नाम जघन्य वर्ग है।
२. गणित प्रकरण में वर्गका लक्षण
किसी राशिको दो बार मॉडकर परस्पर गुणा करनेसे ताका वर्ग होता है। अर्थात् Square विशेष दे० गणित 111/the)
* द्विरूप वगधारा ६०/५/२
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वर्गेण संवर्गण - दे० गणित / LI/२/६ वर्गणा- - समान गुणवाले परमाणुपिण्डको वर्गणा कहते है, जो ५ प्रधान जातिवाले सूक्ष्म स्कन्धोंके रूपमें लोकके सर्व प्रदेशोपर अवस्थित रहते हुए, जीवके सर्व प्रकार के शरीरो व लोकके सर्व स्थूल भौतिक पदार्थों के उपादान कारण होती है। यद्यपि वर्गणाकी
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वर्गणा
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१. भेद व लक्षण
*GSusm.
व्यवहार्य जाति ५ ही है परन्तु सर्वमूर्तीक व अमूर्तीक भौतिक __ क. पा.५/४-२२/४७३/३४४/८ एवमेगेगसरिसधणियपरमाणू घेत्तूण पदार्थों में प्रदेशो की क्रमिक वृद्धि दर्शाने के लिए उसके २३ भेद करके वण्णच्छेदणए करिय दाहिणपासे कंडुज्जुवपंतिरयणा कायव्वा जाव बताये गये है। उस-उस जातिको वर्गणासे उस-उस जातिके ही अभवसिद्धिएहि अणं तगुणं सिद्धाणमणतभागमेत्तख रिसधणियपरमाणू पदार्थ का निर्माण होता है, अन्य जातिका नहीं। परन्तु परमाणुओंकी समत्ता त्ति । एदेसि सम्वेसि पि वग्गणा ति सण्णा । इस प्रकार हानि या वृद्धि हो जानेसे वह वर्गणा स्वय अपनी जाति बदल दूसरी (दे० वर्ग) समान धनवाले एक-एक परमाणुको लेकर बुद्धि के द्वारा जातिको वर्गणामें परिणत हो सकती है।
छेद करके (छेद करनेपर जो उतने-उतने ही अविभाग प्रतिच्छेद प्राप्त होते है, उन सबको) दक्षिण पार्श्वमें माणके समान ऋज पंक्तिमें
रचना करते जाओ और ऐसा तब तक करो जब तक अभव्य राशिसे भेद व लक्षण
अनन्त गुणे सिद्धराशिके अनन्तवे भागप्रमाण ( वे सबके सब) समान
धनवाले परमाणु समाप्त हों। उन सब वर्गोंकी वर्गणा सज्ञा है। | वर्गणा सामान्यका लक्षण ।
(ध. १२/४,२.७.१६६/६३/८)। प्रथम द्वितीय आदि वर्गणाके लक्षण ।
स सा./आ./५२ वर्गसमूहलक्षणा वर्गणा ।-वर्गाके समूहको वर्गणा कहते द्रव्य क्षेत्र काल वर्गणाका निर्देश व लक्षण।
है ( गो. जी./म.प्र./५६/१५३/१४ ) । । वर्गणाके २३ भेद। आहार आदि पॉच वर्गणाओंके लक्षण ।
२. प्रथम द्वि भादि वर्गणाके लक्षण ग्राह्य अग्राह्य वर्गणाओंके लक्षण ।
ध १२/१,२,७.२०४१४५/६ बग्गणंतरादो अविभागपडिच्छेदुत्तरभावी व, अवश्य व सान्तरनिरन्तर वर्गणाओंके लक्षण । पढमफदायजादिवग्गणा होदि । तत्तो पडि णिर तर अविपडिच्छेदुप्रत्येक शरीर व अन्य वर्गणाओके लक्षण ।
त्तरकमेण बग्गणाओ गंतूण पदमफदयस्स चरिमवग्गणा होदि । महास्कन्ध-दे० स्कन्ध ।
मक वर्गणान्तरसे एक-एक अविभाग प्रतिच्छेदसे अधिक अनुभागका नाम प्रथम स्पर्धकको आदि वर्गणा है। उससे लेकर निरन्तर एक-एक
अविभाग प्रतिच्छेद की अधिकताके क्रमसे वर्गणाएँ जाकर प्रथम वर्गणा निर्देश
स्पर्धककी अन्तिम वर्गणा होती है-(विशेष दे० स्पर्धक ) । १ , वर्गणाओमें प्रदेश व रसादिका निर्देश ।
ल. सा./भाषा/२२३/२७७/६ ऐसी (जघन्य वर्ग रूप) जेती परमाणू २ प्रदेशाको क्रमिक वृद्धि द्वारा वर्गणाओकी उत्पत्ति ।
होइ तिनिके समूहका नाम प्रथम वर्वणा है। बहुरि यात द्वितीयादि ३। ऊपर व नीचेकी वर्गणाओंके भेद व सघातसे
वर्गणानिधिपे एक-एक चय घटता क्रमकरि परमाणूनिका प्रमाण है । वर्गणाओंकी उत्पत्ति ।
-(विशेष दे० स्पध क ) । ४ ; पाच वर्गणा हो व्यवहार योग्य है अन्य नहीं । ५ अव्यवहार्य भी अन्य वर्गणाओका कथन क्यो ।
३. द्रव्य क्षेत्र काल वगणा निर्देश व लक्षण ६ । शरीरों व उनकी वर्गणाओम अन्तर ।
घ. व १४/५.६/मूत्र ७१/११ वग्गण णिखेति छवि है ७ वर्गणाओंने जातिभेद सम्बन्धी विचार ।
णिक्खवे-शामवग्गणावण वग्गणा दबवग्गणा खेत्तवग्गणा काल१ वर्गणाओ ने जातिभेद निर्देश।
वग्गणा भाव वग्गणा चेदि ।७१। २ तीनो शरीरो की वर्गणाओमे कश चित् भेदाभेद ।
ध.१२/५.६,७१/५२/४ नयादरित दव्वग्गणा दुनिहा-कम्मवग्गणा णो३ आठो कर्मोको वर्गणाओमे कथचित् भेदाभेद ।
कम्मरगणा चेदि । तत्थ कम्मरगणा णाम अठकम्मक्खंधवियप्पा। कार्मण बगंणा एक हो बार आठ कम क्यो नही हो
मेसएक्कोणवीस वग्गणाओणाकम्मबग्गणाओ।एगागासोगाहणप्पहुडिजाती।
-दे० बन्ध/५/२। पदे मुत्तरादिकमेण जाय देमूणघणन गेत्ति ताब एदाओ खेत्तवग्ग४ प्रत्येक शरीरर्गणा अपनेसे पहले व पीछेवाली
णाओ। कम्मदच पडच्च समयाहियावलि यप डि जाव कम्मवर्गणाओसे उत्पन्न नी हाती।
दिदि त्ति ण। कम्म"व्य पद्रच एगसमयादि जाप अस खेज्जा लोगा ८ ऊपर व नोचेकी वर्गणाभि परस्पर सक्रमणकी
त्ति ताव एदाआ कालवागणाओ। ओदइयादि पचण्ण भावाणं जे सम्भावना व समन्वय ।
भेदा ते णोआगम भाव वग्गणा । वर्गणा निक्षेपका प्रकरण है। ९ भेदसघात व्यपदेशका स्पष्टीकरण ।
वर्गणानि वेप चार प्रकारका है-नामवर्गणा, स्थापनावर्गणा, द्रव्ययोग वर्गणा
-दे० योग/६।
वर्गणा, क्षेत्रपणा, कालबर्गणा और भारवर्गणा [ इनमेंसे अन्य सब वर्गणाओके लक्षण निक्षेपोबत जानने-(दे० निक्षेप)] तद्व्यतिरिक्त नोआगम द्रव्यवर्गणा दा प्रकारकी है-कर्मवर्गणा और नोकर्मवर्गणा। उनमेसे आठ प्रकार के कर्म स्कन्धोके भेद कर्मवर्गणा है, तथा शेष उन्नीस प्रकार को बर्गणाएँ (दे० अगला शीर्षक)
नोकवर्गणाएँ है। एक आकाश प्रदेशप्रमाण अवगाहनासे लेकर १. भेद व लक्षण
प्रदेशात्तर आदि क्रमसे कुछ कम धनलोक तक ये सब क्षेत्र वर्गणाएँ
है। कर्म द्रव्यकी अपेक्षा एक समय अधिक एक आवलीसे लेकर १. वर्गणा सामान्यका लक्षण
उत्कृष्ट कर्म स्थिति तक और नोकर्म द्रव्यकी अपेक्षा एक समयसे रा वा./0/11/१०/- तथेव समगुणा पक्तीकृत' वर्गावर्गणा। इन
लेकर असरख्यात लाक्प्रमाण काल तक ये सब काल वर्गणाएँ समगुणवाले .ममख्या तक वर्गोके ममूहको (दे० वर्ग) वगणा है। • औदपिकादि पाँच भावोंके जो भेद है वे सब नोआगम
भाव वर्गणा है।
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१. भेद व लक्षण
४. वर्गणाके २३ भेद ध. १४/५,६,६७/गा. ७-८/११७ अणुसंखासखेज्जा तवणता वग्गणा
अगेज्माओ । आहार-तेज-भासा-मण-कम्मइयधुमक्खधा 19। सातरणिर तरेदरमुग्णा पत्तेयदेह धुवसुण्णा। बादरणिगोदसुण्णा मुहुमा सुण्णा महारखधो ।८। अगुवर्गणा, सख्याताणुवर्गणा, असख्याताणुवर्गणा, अनन्ताणुवर्गणा, आहारवर्गणा, अग्रहणवर्गणा, तेजस्वर्गणा, अग्रह्णवर्गणा, भाषावर्गणा, अग्रहणवर्गणा, मनोवर्गणा, अग्रहणवर्गणा, कार्मणशरीरवर्गणा, वस्कन्धवर्गणा, सान्तरनिरन्तरवर्गणा, भ्र वशून्यवर्गणा, प्रत्येकशरीरवर्गणा, धवलन्यवर्गणा, बादरनिगोदवर्णणा, ध्र वशून्यवर्गणा, सूक्ष्मनिगोदवर्गणा, ध वशून्यवर्गणा और महास्कन्धवर्गणा। ये तेईस वर्गणाएं है (ष. ख/१४/५,६। सूत्र ७६-६७/५४/११७ तथा सूत्र ७०८-७१८/५४२-५४३)1 (ध. १३/०१ ८२/३५९/११); (गो. जो./मू /५६४-५६५/१०३२) ।
सत्तमी धग्गणा। एदिस्मे पोग्ग नववधा तेजइयसरीरपाओग्ग।। (६०/१०)। भासादयवग्गणाए परमाणुपोग्गलवधा चदुण्णं भासाणं पाओग्गा। पटह-भेरी-काहलब्भगज्जणादिसहाण पि एसा चेव वग्गणा पाओग्गा । (६१/१०) एसा एकारसमी बग्गणा । एदीए बग्गणाए दव्बमणणिव्यत्तणं करिये। (६२/१४)। एसा तेरसमी वग्गणा । एदिस्स वग्गणाए पोग्गलस्वंधा अट्ठकम्मपाओग्गा। (६३/१४)।-औदारिक, वैक्रियक और आहारक शरीरके योग्य पुडगलस्कन्धोकी आहारद्रव्यवर्गणा सज्ञा है। (५६/१०)। यह सातवी वर्गणा है। इसके पुद्गलस्कन्ध तैजस्शरीरके योग्य होते है । ( ६०/१० ) । भाषावर्गणाके परमाणुपुर लस्कन्ध चार भाषाओके योग्य होते है। तथा ढोल, भेरी, नगारा और मेघका गर्जन आदि शब्दोके भी योग्य ये ही वर्गणाएँ होती है। (६१/१०)। यह ग्यारहवी वर्गणा है, इस वर्गणासे द्रव्यमनकी रचना होती है। (६२/१४) । यह तेरहवी वर्गणा है, इस वर्गणाके पुद्गलस्कन्ध आठ कमोंके योग्य होते है । ( ६३/१४)।
६. ग्राह्य अग्राह्य वर्गणाओंके लक्षण ष, ख १४/५,६/सूत्र/पृष्ठ अग्गहणदव्ववरगणा आहारदबमधिच्छिदा तेया दब्बवग्गण ण पावदि ताणं दवाणमंतरे अगहण दव्वग्गणा णाम । (७३३/५४८)। अगहणदव्यवग्गणा तेजादब्बमविच्छिदा भासादच ण पावे दि ताण दव्याणमंतरे अगहणदव्ववग्गणा णाम । (७४०/५४६) । अग्गहणद व्ववग्गणा भासा दव्यमधिच्छिदा मणदव्वं ण पावेदि ताणं दवाणमंतरे अगहणदव्बवग्गणा णाम । (७४७/५५१) । अगहण दव्यवग्गणा [ मण'] दबमविच्छिदा कम्मइयदब्वं ण पाव दि ताण दवाणमतरे अगहणदव्यवग्गणा णाम। (७५४/५५२)। -अग्रहणवर्गणा आहार द्रव्यसे प्रारम्भ होकर तैजसद्रव्यवर्गणाको नही प्राप्त होती है, अथवा तैजसूद्रव्यवर्गणासे प्रारम्भ होकर भाषा द्रव्यको नहीं प्राप्त होती है, अथवा भाषा द्रव्यवर्गणासे प्रारम्भ होकर मनोद्रव्यको नहीं प्राप्त होती है, अथवा मनोद्रव्यवर्गणासे प्रारम्भ होकर कार्मण द्रव्यको नही प्राप्त होती है। अत: उन दोनो द्रव्योके मध्यमें जो होती है उसकी अग्रहण द्रव्यवर्गणा संज्ञा है।
५. आहारक आदि पाँच वर्गणाओंके लक्षण ष. ख. १४/१,६/सूत्र/पृष्ठ ओरालिय-उब्बिय-आहारसरीराणं जाणि दवाणि घेत्तूण ओरालियवेउब्बिय-आहारसरीरत्ताए परिणामेदूर्ण परिणम ति जीवा ताणि दब्वाणि आहारदव्ववग्गणा णाम (७३०/ ५४६ ) जाणि दव्याणि घेतूण तेयासरीरत्ताए पारणामेदूण परिणम ति जोवा ताणि दव्याणि तेजादव्वबग्गणा णाम। (७६७/२४६)। सच्चभासाए मोसभासाए सच्चमोसमासाए असच्चमोसभासाए जाणि दव्याणि घेत्तूण सच्चभासत्ताए मोसभासत्ताए सच्चमोसभासत्ताए असञ्चमोसभासत्ताए परिणामेदूण णिस्सार ति जीवा ताणि भासादव्यवग्गणा णाम। (७४४/५५०)। सच्चमणस्स मोसमणस्स सच्चमोसमणस्स असच्चमोसमणस्स जाणि दव्वाणि घेतूण सच्चमणत्ताए मोसमणत्ताए सच्चमोसमणत्ताए असच्चमोसमणत्ताए परिणामेदूण परिणमति जोवा ताणि दव्वाणि मणदब्ववग्गणा णाम । (७५१/५५२)। णाणावरणीयस्स दसणावरणीयस्स वेयणीयस्स मोहणीयस्स आउअस्स णामस्स गोदस्स अन्तराइयस्स जाणि दब्बाणि घेत्तूण णाणावरणीयत्ताए दसणावरणीयत्ताए वेयणीयत्ताए मोहणीयत्ताए आउ अत्ताए णामत्ताए गोदत्ताए अंतराइयत्ताए परिणामेदूण परिणमंति जोबा ताणि दख्वाणि कम्मइयदठबवग्गणा णाम । (७५८/५५३)। -औदारिक, वैक्रियक और आहारक शरीरोके जिन द्रव्योको ग्रहणकर औदारिक, बै क्रियक और आहारक शरीररूपसे परिणमाकर जीव परिणमन करते है, उन द्रव्योकी आहारद्रव्यवर्गणा संज्ञा है। (७३०/५४६)। जिन द्रव्योको ग्रहणकर तैजस् शरीररूपसे परिणमाकर जीव परिणमन करते है, उन द्रव्योको तैजस्द्रन्यवर्गणा सज्ञा है। (७३७/५४६)। सत्यभाषा, मोषभाषा, सत्यमोषभाषा, और असत्यमोषभाषाके जिन द्रव्योको ग्रहणकर सत्यभाषा, मोषभाषा, सत्यमोषभाषा और असत्यमोषभाषारूपसे परिण पार जीव उन्हे निकालते है उन द्रव्योकी भाषाद्रव्यवर्गणा सज्ञा है। (७४४/५५०) । सत्यमन, मोषमन, सत्यमोषमन और असत्यमोषमनके जिन द्रव्योंको ग्रहणकर सत्यमन, मोषमन, सत्यमोषमन और असत्यमोषमन रूपसे परिणमाकर जीव परिणमन करते है उन द्रव्योकी मनोद्रव्यवर्गणा संज्ञा है। (७५१/५५२)। ज्ञानावरणीय, दर्शनावरणीय, वेदनीय, मोहनीय, आयु, नाम, गोत्र और अन्तरायके जो द्रव्य है उन्हे ग्रहणकर ज्ञानावरणरूपसे, दर्शनावरणरूपसे, वेदनीयरूपसे, मोहनीयरूपसे, आयुरूपसे, नामरूपसे, गोत्ररूपसे और अन्तरायरूपसे परिणमावर जीव परिणमन करते है, अत: उन द्रव्योकी कार्मणद्रव्यवर्गणा संज्ञा है (७५८/५५३)। घ १४/५,६,७६-८७/पृष्ठ/पक्ति ओरालियवेउविषयआहारसरीर-पाओग्गपोग्गलक्खधाण आहारदव्य वग्गणा त्ति सण्णा। (५६/१०)। एसा
७. ध्रुव, ध्रुवशून्य व सान्तर निरन्तर वर्गणाओंके लक्षण
ध.१४/५.६,७१६/५४३/१० पचण्ण सरीराण जा गेज्मा सा गहणपा
ओग्गा णाम । जा पुण तासिमगेज्मा [सा 1 अगहण पाओग्गा णाम । = पाँच शरीरोके जो ग्रहणयोग्य है वह ग्रहणप्रायोग्य कहलाती है । परन्तु जो उनके ग्रहण योग्य नहीं है वह अग्रहणप्रायोग्य कहलाती है । (ध १४/५,६,८२/६१/३)।
ष ख १४/५,६/सूत्र/पृष्ठ कम्मइयव्यवग्गणाणमुवरि धुवखंधदव्यवग्गणा
णाम । (८८/६३) । धुवबंधदम्बवग्गणाणमुवरि सातरणिरं तरदव्ववग्गणा णाम । (८६/६४) सांतरणिरतरदब्बवग्गणाणमुवरि धुवसुण्णवग्गणा णाम । (१०/६५ ) -- कार्मण द्रव्यवर्गणाओके ऊपर धवस्कन्ध द्रव्यवर्गणा है। (८८/६३) । ध्र बस्कन्ध द्रव्यवर्गणाओके ऊपर सान्तनिरन्तर द्रव्यवर्गणा है। (८६/६४)। सान्तर निरन्तर द्रव्यबर्गणाओके ऊपर ध वशून्यवर्गणा है । (१०/६५) ।
ध, १४/५,६,८९-१०/पृष्ठ/पंक्ति धुवक्वधणिद्देसो अंतदीवओ। तेण हेछिम सम्बवग्गणाओ धुवाओ चेव अंतरविरहिदाओ त्ति घेत्तव्वं । एत्तोप्पहुडि उवरि भण्णमाणसव्ववग्गणासु अगहणभावो णिरंतर मणुवट्टावेदव्वो। (६४/१)। अतरेण सह णिरंतर गच्छदि त्ति सातरणिरतरदव्यवग्गणासण्णा एदिस्से अस्थाणुगया। (६४/१२)।
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भा० ३-६५
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वर्गणा
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२. वर्गणा निर्देश
एसा वि अगहणवग्गणा चेब, आहारतेजा-भासा-मण-कम्माणजोगत्तादो । (६५/२) । अदीदाणागद पट्टमाणकालेसु एदेण सरूवेण परमाणुपोग्गलसचयाभावादो धुवसुण्णदव्ववग्गणा त्ति अत्थाणुगया सण्णा । सपहि उकस्ससांतरणिरतरदव्यवग्गणाए उबरि परमाणुत्तरो परमाणुपोग्गलक्खधो तिसु वि कालेसु णस्थि । दुपदेसुत्तरो वि णत्थि । एव । तिपदेसुत्तरादिकमेण सव्वजोवेहि अणतगुणमेत्तमद्धाण गतूण पढमधुवसुण्णवरगणाए उक्कस्सवग्गणा होदि। एसा सोलसमी वग्गणा । सम्यकाल सुण्णभावेग अवठ्ठिदा । यह ध्र वस्कन्ध पदका निर्देश अन्तर्दीपक है। इससे पिछली सब वर्गणाएँ ध्र व ही है अर्थात् अन्तरसे रहित है, यह उक्त कथनका तात्पर्य है। यहाँसे लेकर आगे कही जानेवाली सब वर्गणाओमें अग्रहणपनेकी निरन्तर अनुवृत्ति करनी चाहिए । ( ६४/१)। जो वर्गणा अन्तरके साथ निरन्तर जाती है, उसकी सान्तर-निरन्तर द्रव्यवर्गणा सज्ञा है। यह सार्थक सज्ञा है। (६४/१२)। ग्रह भी अग्रहण वर्गणा ही है, क्योकि यह आहार, तेजस्, भाषा, मन और कर्म के अयोग्य है। (६/२)। अतीत अनागत और वर्तमान काल मे इस रूपसे परमाणु पुद्गलोंका संचय नहीं होता, इसलिए इसको ध्र वशून्य द्रव्यवर्गणा यह सार्थक सज्ञा है। उत्कृष्ट सान्तरनिरन्तर द्रव्यवर्गणाके ऊपर एक परमाणु अधिक परमाणुपुद्गलस्कन्ध तीनो ही कालोमें नही होता, दो प्रदेश अधिक भी नहीं होता, इस प्रकार तीन प्रदेश आदिके क्रमसे सब जोवोसे अनन्तगुणे स्थान जाकर प्रथम शून्य द्रव्यवर्गणा सम्बन्धी उत्कृष्ट वर्गणा होती है । यह सोल वी वर्गणा है जो सर्वदा शून्यरूपसे
अबस्थित है। ध, १३/५.५,८२/३५१/१६ एरथ तेवीस वग्गणासु चदुसु धुवसुण्णवग्गणासु अवणिदासु एगूणवीस दिविधा पोग्गला होति । पादेक्कमणतभेदा।
तेईस बर्गणाओमेसे चार ध व शून्यवर्गणाओके निकाल देनेपर उन्नीस प्रकारके पुद्गल होते है। और वे प्रत्येक अनन्त भेदोको लिये हुए है। विशेषार्थ- (शीष क स १ के अनुसार जबतक वर्गणाओमे एक प्रदेश या परमाणुकी वृद्धिका अटूट क्रम पाया जाता है, तबतक उनकी एक प्रदेशी व आहारक वर्गणा आदि विशेष सज्ञाएँ कही जाती है । ध्र प्रस्कन्धवर्गणा तक यह अटूट क्रम चलता रहता है। तत्पश्चात् एक वृद्धिक्रम भ ग हो जाता है। एक प्रदेश वृद्धिके कुछ म्यान जाने के पश्चात् एकदम सरूपात या अपरूयात प्रदेश अधिकवाली ही वर्गणा प्राप्त होती है, उससे कमकी नही। पुन एक प्रदेश अधिक्वालो और पुन स ख्यात आदि प्रदेश अधिकवाली वर्गणाएँ यातक प्राप्त होती रहती है, तबतक उनको सान्तरनिरन्तर वर्गणा सज्ञा है, क्योकि वे कुछ-कुछ अन्तराल छोडकर प्राप्त होती है। तत्पश्चात एकसाथ अनन्त प्रदेश अधिक वाली वर्गणा ही उपलब्ध होती है। उसमे कम प्रदेशोंवाली वगणा तीन कालमे भी उपलब्ध नही हातो। इसलिए यह स्थान नर्गणाओसे सर्वथा शून्य रहता है। जहाँ-जहाँ भी प्रदेश वृद्धिक्रममे ऐसा शून्य स्थान प्राप्त होता है, वहाँ-वहाँ हो ध व शुन्य वर्गणाका निर्देश किया गया है। यही कारण है कि इन ४ ५ बशन्य वर्गणाओको पुद्गलरूप नहीं गिना है। ये सत् रूप नहीं है। शेष १६ वर्गणाएँ सत रूप होनेसे पुद्गल सज्ञाको प्राप्त है)।
८. प्रत्येक शरीर व अन्य वर्गणाओंके लक्षण ध १४/५.६/सूत्र/पृष्ठ/यक्ति एककस्स जीवस्स एकम्हि देहे उबचिदकम्म ण कम्मायचा पत्ते यसरीरदयवरगणा णाम । (११/६५/१२) । बादरमुहूनणिगादेहि अस बजावा पत्ते यसरीरवाणा त्ति घेत्तव्या। । (११६/१४18)। चण्ह सरीरराण बाहिरवग्गणा त्ति सिद्धा सण्णा । ( ११७/२२३/४ )- एक-एक जीवके एक-एक शरीरमें उपचित हुए कमें और नो कमस्कन्धोको प्रत्येक शरीर द्रब्यवर्गणा सज्ञा है। बादर निमोद और सूर मनिगोदसे असम्बद्ध जीव प्रत्येकशरीर वर्गणा
होते है। पॉच शरीरोको बाह्यवर्गणा यह संज्ञा सिद्ध होती है (दे० वर्गणा/२/६ )। दे. बनस्पति/१/७ ( प्रत्येकशरीरवर्गणा असरख्यात लोक प्रमाण है)। दे. बनस्पति/२/१०( बादर व सूक्ष्म निगोद वर्गणा आवलिके असंख्यात
भागप्रमाण है)। ध. १४/५,६,७८/१८/९ परित्त-अपरित्तवग्गणाओ सुत्तु दिठाओ अण त
पदेसियवग्गणासु चेव णिवदंति। अणंत अणंताणं तेहितो वदिरित्तपरित्तअपरित्ताणमभावादो-परीत और अपरीत वर्गणाएँ अनन्तप्रदेशी वर्गणाओमें ही सम्मिलित है, क्योकि, अनन्त व अनन्तानन्तसे अतिरिक्त वे उपलब्ध नहीं होती। २. वर्गणा निर्देश
1. वर्गणाओं में प्रदेश व रसादिका निर्देश ष ख. १४/५,६/ सूत्र ७५६-७८३/५५४-५५६ पदेसछाओरालियसरीरदव्ववग्गणाओ पदेसट्ठा अणं ताणत पदेसियाओ ।७५६। पंचवण्णाबो ७६०। पंचरसाओ ।७६१। दुगधाओ ७६२। अट्ठफासाओ 1७६३। वेउब्बियसरीरदव्यवग्गणाओ पदेसदाए अणंताणं तपदेसिया
ओ।७६४। पचवण्णाओ (७६५। पंचरसाओ ॥७६६। दुगंधाओ ।७६७। अठ्ठफासाओ ।७६८४ आहारसरीरदव्ववग्गणाओ पदेसट्ठदाए अर्णताण तपदेसियाओ ७६। पचवण्णाओ७७०। पंचरसाओ ७७१। दुगंधाओ।७७२१ अट्ठफासाओ।७७३। तेजासरीरदव्यवग्गणाओ पदेस ठदाए अण ताणतपदेसियाओ ।७७४। पंचषण्णाओ १७७५ पंचरसाओ १७७६ दोगधाओ।७७७) चदुपासाओ १७७८। भासा. मण-कम्मइयसरीरदवग्गणाओ पदेसदाए अणं ताणंत पदेसियाओ।७७६। पचवण्णाओ७८०। पंचरसाओ (७८१॥ दुगंधाओ १७८२। चदुपासाओ ।७८३१ - (आहारकवर्गणाके अन्तर्गत) औदारिक, वै क्रियक व आहारक शरीरोकी वर्गणा अनन्तानन्त प्रदेशवाली है। पाँच वर्ण, पाँच रस, दो गन्ध व आठ स्पर्शवाली है 1७५६-७७३। तैजस्, भाषा, मनो व कार्मण ये चारो वर्गणाएँ अनन्तानन्त प्रदेशवाली है । पाँच वर्ण, पाँच रस, दो गन्ध और चार स्पशवाली है १७७४ ७८३) ध/पु. १४/५,६,७२६/५४५/१० आहारवग्गगाए जहण्णवग्गणप्पर डि जाव महाक्रबंधदव्बवग्गणे त्ति ताव एदाओ अणंताणतपदेसियवग्गणाओ त्ति एत्य मुत्ते घेत्तव्बाओ । आहार वर्गणाकी जघन्य वर्गणासे लेकर महास्कन्ध द्रव्यवर्गणा तक ये सब अनन्तानन्तप्रदेशी वर्गणाएँ है, इस प्रकार यहाँ सूत्र में ग्रहण करना चाहिए। दे अन्पब हुत्व/३/४ -(औदारिक आदि तीन शरीरोकी वर्गणाएँ प्रदेशाथताकी अपेक्षा उत्तरोत्तर असंख्यात गुणी है । तथा इससे आगे तैजस्. भाषा, मन व कार्मण शरीर वर्गणाएँ उत्तरोत्तर अनन्तगुणी है। अवगाहनाकी अपेक्षा कार्मण, मनो, भाषा, तेजस्, आहारक, वै क्रियक व औदारिककी वर्गणाएँ क्रमसे उत्तरोत्तर असरख्यात गुणी है। औदारिक आदि शरीरोमें विससोपचौंका प्रमाण क्रमसे उनके जघन्यसे उत्कृष्ट पर्यन्त उत्तरोत्तर अनन्तगुणा है।
२. प्रदेशोंकी क्रमिक वृद्धि द्वारा वर्गणाओंकी उत्पत्ति ष ख १४/५,६/सूत्र/पृष्ठ-वग्गणपरूवणदाए इमा एयपदेसियपरमाणुपोग्गलदम्बवग्गणा णाम । (७६/५४ ) । इमा दुपदेसियपरमाणुपोग्गलदावग्गणा णाम । (७०/५५) । एवं तिपदे सय-चदुपदेसिय-पंचपदेसिय छप्पदेसिन सत्तपदेसिय-अठ्ठपदेसिय, वपदेसिय-सपदेसिय-सखे जपदेसिय-असखेज्जपदे सिय-परिसपदेसिय-अपरित्तपदे - सिप-अण तपदेसिय-अणं ताणं तपदेसियपरमाणुपोग्गल दव्य वग्गणा णाम (७८/५७)। अग ताणतपदेसियपरमाणुपोग्गलदब्बवग्गणाणमुवरि आहारद नवग्गणा णाम। (७६/५६)। आहारदव्यवग्गणाणमुवरि अगहणदयवग्गणा जाम। (८०/५६)। अग्गण दववग्गणाण
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मुमरियाग्या गाम । ८१/६०) मारि अगहणदव्वग्गणा णाम । ( ८२ / ६० ) । अगहणदव्वग्गणाणमुवरि भासादव्वग्गणा णाम । ( ८३ / ६१ ) । भासणाणमुवरि अगहण दव्ववग्गणा णाम । ( ८४ / ६२ ) । अगहणदव्ववग्गणाणमुवरि मणदव्ववग्गणा णाम । ( ८५/६२) । मणदव्वग्गणाणमुवरि अगहणव्यवग्गणा णाम । ( ८६/६३)। अगहण दबवग्गणाणमुवरि कम्मध्यदत्रवग्गणा णाम । ( ८७/६३) । कम्मइयदव्ववग्गणाणमुवरि ध्रुवक्खधदव्त्रवग्गणा णाम । ( ८८ /६३)। ध्रुवक्त्रदग्गाणमुपरि सातरणिर तरव्वग्गणा णाम । ( ८६ / ६४ ) । सतिरणिरंतरदव्यवग्गपाणमुवरि पुरणदव्वभग्गमा ग्राम (१०/१५)पाणमुवरि पत्तेयसरीरमण जान (१९/६३) पसे यसरीरदव्वग्गणाणमुवरि धुत्रसुण्णदव्ववरगणा णाम । (१२/५३) । ध्रुवसुण्णबग्गणाणमुवरि मादरणिगोददा काम (१२/१४) भाइर मग दाणमरि मण्णदग्गमा काम ( ६४ / ९९२) । वामुमरि मयिगोदा गाम (१५/ ११३) । सुमणिगोददत्रवग्गणाणमुवरि धुत्रसुण्णदव्वग्गणा णाम । (२६/११६) । वसुदावरि महास्थ वग्गणा नाम (१६/११७) ।
=
घ. १४ / ५, ६, ६६/४/४ तत्थ वग्गणपरूवणा किमट्ठ कीरदे। एगपरमाणुगणपहूडि एगपश्मागुत्तरक्रमेण जाब महासति ठान सव्व वग्गणाणमेगसेडिवलवण क्रोदे । - प्रश्न - यहाँ वर्गणा अनुयोग द्वारकी प्ररूपणा किस लिए की गयी है । (ध.) उत्तर- एक परमाणुरूप वर्गणासे लेकर एक-एक परमाणुकी वृद्धि क्रमसे महास्वन्ध तक सब वर्गणाओंको एक श्रेणी है, इस बातका कथन करने के लिए को है । ( ध ) अर्थात् ( ष. ख ) - वर्गणाकी प्ररूपणा करने पर सर्वप्रथम यह एकप्रदेशी परमाणुपुद्गल द्रव्यवर्गणा है । ७६ । उसके ऊपर क्रमसे एक-एक प्रदेशकी वृद्धि करते हुए निदेशी, विदेशी सख्यातमदेशी असंख्यासप्रदेशी, परीत व अपतनदेशी तथा अनन्त अनन्तानन्तप्रदेशी वर्गणा होती है ।७७-७८ । इस अनन्तानन्तप्रदेशी वर्गणाके ऊपर [ उसी एक प्रदेश वृद्धि के क्रमसे अपने-अपने जघन्यसे उत्कृष्ट पर्यन्त और पूर्व की उत्कृष्ट वर्गणासे उत्तरवर्ती जघन्यवर्गणा पर्यन्त क्रमसे ] आहार अग्रहण, तैजसू, अग्रहण, भाषा, अग्रहण, मनो, अग्रहण, कार्मण, वस्कन्ध, सान्तर निरन्तर प्रत्येकशरीरमादरनिगोद धवशून्य, सूक्ष्मनिगोद, ध ुवशुन्य और महास्कन्ध नामवाली वर्गणाएँ होती है । ( ७६-६७ ) | ( इन वर्गणाओंका स्वस्थान व परस्थान प्रदेश वृद्धिका क्रम निम्न प्रकार जानना -] घ. १४/२६.७६८०/५१/६ - उरस अगतपदेसियदपरगणा उमरि एक ने लिया आहारदव्हवरगणा होदि तो बुत्तरकमेण अभयसिद्धिए हि अग सगुण सिद्धाणमभागमेस गग सम्पन्पदि जग्गादानस्सिया बिरोसाहिया विसेसो पुग अभवसिद्धिरहि अर्ण तगुणो सिद्धाणमण तभागमेत्तो होतो वि आहारउत्सदनवग्गणाए अनंतिमभागो । उक्क्स्स आहारदव्ववग्गणाए उपरि एगरूवे पक्षित्ते पढमअगण दव्ववग्गणाएसव्वजहण्णवग्गणा होदित रमेश अगसिद्विहि अनंतगुण-सिद्वाणमणत भागमेतद्वाण गतूण उक्कस्सिया अग्रहणदव्त्रत्रगणा होदि । जहण्णादो उतिया अणतगुणा को गुणगारो अभवसिद्धिएहि अवगुणों सिद्धाणमणं तभागो ।
भ. १४/५.६.१७/ १-१४/११० अ सखा सगुणा परिवरगणम|गुणगारो पचण अग्गणाण अभव्त्रणतगुणो || आहारतेजभासा मणेण कम्मेण वग्गगाण भवे । उक्कस्स विसेसो हि थियो |१०| वसतिराणं पुत्रमुग्णस्स य येन गुना जीहि अगुगो जहणियादी द्रु उकस्से |११| पचास खेज्जदिमाग पत्ते पहजारो गुणेोग
स
२. वर्गणा निर्देश
दु
१२ सेडिमो भागो मुण्यस्स अंगुलस्य पत्तिदोयमस्स हुमे पदस्स गुणो दु सुग्णस्स |१३| देसि गुणगारो जहणियादो दु जाण उकस्से । साहिअम्हि महत्व धेदियो ११४- उत्कृष्ट अनन्तरदेशी इम्पवर्गणा एक अंकके मिलानेपर जघन्य आहार द्रव्यवर्गणा होती है। फिर एक अधिकने क्रमसे अभय्यो अनन्तगुणे और सिद्धोके अनन्त भागप्रमाण भेदोके जाननेपर अन्तिम ( उत्कृष्ट ) आहार द्रव्यवर्गणा होती है। यह जघन्यसे उत्कृष्ट विशेष अधिक है विशेषका प्रमाण अव्यों से अनन्तगुणा और सिद्धों के अनन्तवे भागप्रमाण होता हुआ भी उत्कृष्ट आहार द्रव्यवर्गणा के अनन्तवे भाग प्रमाण है । उत्कृष्ट आहार द्रव्यवर्गणा में एक अक मिलानेपर प्रथम अग्रहण द्रव्यवर्गणासम्बन्धी सर्वजणा होती है। फिर एक-एक बढाते हुए अभव्यों से अनन्तगुणे और सिद्धों के अनन्तवे भागप्रमाण स्थान जाकर उत्कृष्ट अग्रहण द्रव्यवर्गणा होती है। यह जघन्यसे उत्कृष्ट अनन्तगुणी होती है। मकार अभय अनन्तगुणा और सिद्धो अनन्तवे भाग प्रमाण है । [ इसी प्रकार पूर्वकी उत्कृष्ट वर्गणा में एक प्रदेश अधिक करनेपर उत्तरवर्ती जन्य वर्गणा तथा अपनी ही जमश्य में क्रममे एक-एक प्रदेश अधिक करते जानेपर, अनन्तस्थान आगे जाकर उसकी उत्कृष्ट वर्गणा प्राप्त होती है । यहाँ अनन्तका प्रमाण सर्वत्र अभव्योका अनन्तगुणा तथा सिद्धोका अनन्तवाँ भाग जानना । प्रत्येक वर्गणाके उत्कृष्ट प्रदेश अपने ही जघन्य प्रदेशो से कितने अधिक होते है, इसका संकेत निम्न प्रकार है ] -
वर्गाका नाम
एक
१ अणुवा २ सख्यातावणा संख्यातगुणा १३ असख्याताणुवर्गणा असंख्यगुणा ४ अनन्ताणुवर्गणा अनन्तगुणा
५ आहारपणा
६ प्र० अग्राह्य ७ तेजस् वर्गणा
८ द्वि० अग्राह्य
६ भाषा वर्गणा
११०
११
१२
१३
तृ० अग्राह्य
मनो व०
चतु० अग्राह्य
कार्मण वर्गणा
१४
९४
२६
१७
११८
द्वि० शून्य० E बा० निगोद०
२० १२१ २२ २३
ध्रुवस्कन्ध १० साम्बर निरन्तर०
प्र० श्रवशून्य
प्रत्येक शरीर०
तृ० ध्रुव शून्य० सूक्ष्म निगोद०
चतु ध ुवशून्य महा स्कन्ध
जवन्य व उत्कृष्ट वर्गणाओका अल्प बहुव
कितना अधिक
गुणकार व विशेषका
प्रमाण
जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश
विकि
अनन्तगुणा
विशेषाधिक
अनन्तगुणा
विशेषाधिक
अनन्तगुणा
विशेषाधिक
अनन्तगुणा विशेषाधिक
अनन्तगुणा
19
असंख्य गुणा अनन्तगुणा असख्य गुगा
विशेषाधिक
X
संख्यात
असख्यात
( अभव्य x अनन्त) तथा (सिद्ध/अनन्त)
53
11
-
19
अभव्य X अनन्त, सिद्ध / अनन्त सर्व जो अनन्त
पल्य- अस ख्यात अनन्तलोकप्रदेश जगश्रेणी
- अमख्यात अगुन - अमख्यात पत्य असख्यात जगलत अ संख्यात पल्य असख्यात
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वर्गणा
२ वर्गणा निर्देश
३. ऊपर व नीचेकी वर्गणाओं के भेद ब संघाउसे वर्गणाओंकी उत्पत्ति प्रमाण-प. स्व. १४/५.६॥सू. १८-११६/१२०-१२३ । संकेत-भेद-ऊपरके द्रव्यके भेद द्वारा उत्पत्ति।
संघात-नीचे के द्रव्यके सघात द्वारा उत्पत्ति । भेदसंघात स्वस्थानमें भेद व सघात द्वारा।
सं०
सूत्र सं०
वर्गणाका नाम
उत्पत्ति विधि | भेद | संघात | भेदसघात
ध.१४/५,६,७२६/५४५/११ तत्थ आहार-तेज-भासा-मणकम्मइयवग्गणाओ गणपाओग्गाओ अवसेसाओ अगहण पोओग्गाओ त्ति घेत्तव्य । - एक प्रदेशी, द्विप्रदेशी, त्रिप्रदेशी, सख्यातप्रदेशी, असंख्यातप्रवेशी और अनन्तप्रदेशी वर्गणाएँ तो नियमसे ग्रहणके अयोग्य है। परन्तु अनन्तानन्तप्रदेशी वर्गणाओंमें कुछ ग्रहणयोग्य है और कुछ ग्रहण के अयोग्य । सूत्र ७२०-७२६ । उनमेंसे आहारवर्गणा, तेजस्वर्गणा, भाषावर्गणा, मनोवर्गणा और कार्मणवर्गणा ये (तो) ग्रहणप्रायोग्य है, अवशेष (सर्व) अग्रहणप्रायोग्य है ऐसा ग्रहण करना चाहिए। (और भी दे० अगला शीर्षक)।
५. अव्यवहार्य भी अन्य वर्गणाओंका कथन क्यों किया ध. १४/५,६,८८/६४/७ 'आहार-तेजा-भासा-मणकम्मइयवग्गणाओ चैव एस्थ परूवेदधाओ, बंधणिज्जत्तादो, ण सेसाओ, तासि बंधणिज्जत्ताभावादो। ण, सेसवग्गणपरूवणाए विणा बंधणिज्जवग्गणाणं परूवणोवायाभावादो वदिरेगावगमणेण विणा णिच्छिदण्णयपच्चयउत्तीए अभावादो वा ।प्रश्न-यहाँपर आहार, तंजस्, भाषा, मनो, और कार्मण ये पाँच वर्गणा ही कहनी चाहिए, क्योकि वे बन्धनीय है। शेष वर्गणाएं नहीं कहनी चाहिए, क्योकि, वे बन्धनीय नही है। उत्तर-नहीं, क्योकि, शेष वर्गणाओका कथन किये बिना बम्धनीय वर्गणाओंके कथन करनेका कोई मार्ग नही है। अथवा व्यतिरेकका ज्ञान हुए बिना निश्चित अन्वयके ज्ञान में वृत्ति नही हो सकती, इसलिए यहाँ अन्धनीय व अबन्धनीय सत्र वर्गणाओका निर्देश किया है।
६८-६१
| एक प्रदेशी २१००-१०३ संख्यात प्रदे०
असंख्यात प्रदे०
अनन्त प्रदेशी १०४-१०५ आहार वर्गणा
[प्रथम अग्राह्य तेजस् वर्गणा द्वि० अग्राह्य ३० | भाषा वर्गणा तृ० अग्राह्य वर्ग मनो वर्गणा चतु अग्राह्य वर्गणा
| कार्मण वर्गणा | १०६-१०८ | वस्कन्ध वर्गणा
| सान्तरनिरन्तर व०
प्र० भ्र वशून्य वर्ग -११० | प्रत्येक शरीर वर्गणा ____x द्विध्र वशून्य व० ११९-११२ बादरनिगोद वर्गणा
तृ०५ क्शून्य वर्ग २१ | ११३-११४ सूक्ष्म निगोद वर्गणा | २२ x | चतुर्थ ध वशून्य व० २३ | ११५-११६ महास्कन्ध व०
X hd:::::::::::::xxxxxxxx
दे० स्कन्ध-(सूक्ष्मस्कन्ध तो भेद, संघात व भेदसघात तीनों प्रकारसे
होते हैं, पर स्थूलस्कन्ध भेदसंघातसे होते है) दे० वर्गणा/२/८ (ध बशून्य तथा बादर व सक्ष्म निगोद वर्गणाएँ भी
ऊपरी द्रव्यके भेद व नीचेके द्रव्यके सघात द्वारा उत्पन्न होने सम्भव है।)
१. शरीरों व उनकी वर्गणाओमें अन्तर ध. १४/५,६,११७/२२४/१ पुव्वुत्ततेवीसवग्गणाहितो पंचसरीराणि पुधभूदाणि त्ति तेसि बाहिरववएसो। त जहाण ताव पचसरीराणि अचित्तबग्गणासु णिवदंति, सचित्ताण मचित्तभाव विरोहादो। ण च सचित्तबग्गणासु णिवदति, विस्सासुवचएहि विणा पचण्ह सरीराण परमाणूण चेत्र गहणादो। तम्हा पंचण्हं सरीराण बाहिरवग्गणा त्ति सिद्धा सण्णा । तेईस वर्गणाओमें से पाँच शरीर पृथग्भुत है, इसलिए इनकी बाह्य संज्ञा है। यथा-पॉच शरीर अचित्त वर्गणाओगें तो सम्मिलित किये महीं जा सकते, क्योकि, सचित्तोको अचित्त मानने मे विरोध आता है। उनका सचित्त वर्गणाओं में भी अन्तर्भा नहीं होता, क्योंकि, विस्वसोपचयो के बिना पॉच शरीरोके परमाणुओका ही सचित्त वर्मणाओमें ग्रहण किया है। इसलिए पाँच शरीरोकी बाह्य वर्गणा यह संज्ञा सिद्ध होती है। ७. वर्गणाओं में जाति भेद सम्बन्धी विचार १ वर्गणाओमें जाति भेदका निर्देश गो. जी /जी प्र./५६४-५६५/१०३३। पर उत श्लोक-मूतिमत्सु पदार्थेषु ससारिण्यपि पुद्गल । अर्मकर्मनाकर्म जातिभेदेषु वर्गणा ॥१॥ मूर्तिमान पदार्थो व स सारी जीमो मे पुदगन शब्द वर्तता है और कर्म, अकर्म व नोकर्मकी जाति भेदवाले पुदगलों में वर्गणा शब्दकी प्रवृत्ति होती है। २ तीनों शरीरोंकी वर्गणाओमें कथचित् भेदाभेद ध.१४/५,६,७३१/५४७/८ जदि एदेसि तिष्ण सरीराण बग्गणाओ ओग्गाहणभेदेण सखाभेदेण च भिण्णाओ ता आहारदानग्गणा एको चेवे त्ति किमठ्ठ उच्चदे । ण, अगहणवग्गणाहि अतराभाव पड्डच्च तासिमेगत्तु वएसादो। ण च संग्बाभेदो असिद्धो, अपरिभण्णमाणअप्पाबहुएणेव तस्स सिद्धोदो।प्रश्न-यदि (औदारिक, बै क्रियक व आहारक) इन तीन शरीरो की वर्गणाएं अवगाहनाके भेदसे और
४. पाँच वर्गणाएँ ही व्यवहार योग्य हैं अन्य नहीं प.व.१४/५.६/सू.७२०-७२६/५४४ अगहणपाओग्गाओ इमाओ एयपदेसिय
सञ्चपरमाणुपोग्गलदबवग्गणाओ।७२०। इमा दुपदेसियपरमाणुपोगल इनवग्गणा णाम किं गहणपाओग्गाओ किमगहणपाओग्गाओ।७२१॥ अगहणपाश्रोग्गाओ ।७२२॥ एवं तिपदेसिय-चदुपदेसिय-पचपदेसियछप्पदेसिय-सत्तपदेसिप-अठ्ठपदे सिय-गवपदेसिय-दसपदेसिय-सखे - ज्जपदेसिय-असंखेज्जादेसिय-अण तपदेसियपरमाणुपोग्गलदव्बवग्गणा णाम किं गहगपाओग्गाओ किमगहणपाओग्गाओ।७२३। अगहणपाओसाओ ७२४। अग ताणंतपदेसियपरमाणुपोग्गलदव्यवग्गणा णाम कि गहणपाओग्गाओ किमगहण पोओग्गाओ।७२५॥ काओ चि गहणपाओ. ग्गाओ काओ चि अगहणपाओग्गाओ७२६।
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वर्गणा
५१७
संख्याके भेद से अलग-अलग है, तो आहार द्रव्यवर्गणा एक ही है, ऐसा किस लिए कहते है उत्तर नहीं, क्योंकि, अग्रहण वर्गणाओंके द्वारा ? अन्तर के अभावकी अपेक्षा इन वर्गणाओके एक्का उपदेश दिया गया है । सख्याभेद असिद्ध नहीं है, क्योकि, आगे कहे जानेवाले अवसे ही उसकी सिद्धि होती है। भावार्थ- [ वास्तव में जातिको अपेक्षा यद्यपि तीनो शरीरीकी वर्गणाएँ भिन्न है. परन्तु एक प्रदेश वृद्धिक्रम अन्तर बिना इनकी उपलब्धि होनेके कारण इन तीनोको एक आहार वर्गणामें गर्भित कर दिया गया । अथवा यो कहिए कि जिस प्रकार अन्य सर्व वर्गणाओके बीच में अग्रहण वर्गणा या ध ुवशून्य वर्गणाका अन्तराल पडता है उस प्रकार इन तीनो में नही पडता, इस कारण इनमें एकत्व है । ]
३ आठों कर्मोंकी वर्गणाओं में कथंचित् भेदाभेद ।
घ. १४/५.६.७५/३/६ भागावरणीयस्स वाणि पाखोमाणि दव्याणि वाणि चैव मिच्छत्तादिष्यहि पंपणाणायरणोयस रु परिणमति ण अण्मेसि सरुवेग कुझे अप्पाजग्गत्तादो एवं ससि कम्मा व दि एवं तो कम्मरगाओ अर त्ति किरण परूविदाओ । ण अंतराभावेण तथोवदेसाभावादी । दाओ अडविणाओ कि पृध-पुत्र अच्छति आहो कर पाओ ति । पुध पुध ण अच्छति कितु कर बियाओ । कुदो एद णश्वदे | 'आउभागी थोवो णाण- गोदे समो तदो अहिओ' एदीए गाहाए णव्वदे। सेस जाणिदूग वत्तव्वं । = ज्ञानावरणीयके योग्य जो द्रव्य है वे ही मियाल आदि प्रत्ययोंके कारण पाँच ज्ञानावरणीय रूपसे परिणमन करते हैं, अन्य रूपसे वे परिणमन नहीं करते, क्योकि, वे अन्यके अयोग्य होते है । इसी प्रकार सब कर्मोंके विषय मे कहना चाहिए । प्रश्न- यदि ऐसा है तो कार्मणवर्गणाऍ आठ है, ऐसा कथन क्यो नहीं किया [ उसे एक कार्मण वर्गगाके नामसे क्यो कहा गया ] उत्तर - नहीं, क्योकि अन्तरका अभाव होनेसे उस प्रकारका उपदेश नही पाया जाता (विशेष देखो ऊपरवाला उपशीर्षक)। प्रश्न- ये आठ ही वर्गणाएँ क्या पृथक्-पृथक् रहती है या मिश्रित होकर रहती है ? उत्तर - पृथक् पृथक् नही रहती है, किन्तु मिश्रित होकर ही रहती है। प्रश्न -- यह किस प्रमाणसे जाता है। उत्तर- ( एक समय प्रबद्ध कार्मण द्रव्यमे ) आयु कर्मका भाग स्तोक है। नामकर्म ओर गोत्रकर्मका भाग उसमे अधिक है। इस गाथासे जाना जाता है । शेषका क्थन जानकर करना चाहिए।
-
1=
घ. १५/८/३१/१ ण च एयादो अर्णेयाण कम्माण बुत्पत्ती विरुद्वा कम्मइमवग्गणाए अण ताण तसग्याए अटुक्रम्मणओग्गभावेण अट्ठविहत्तमावण्णाए एयत्तविरोहादो। पत्थि एत्थ एकतो, एयादो षडादो अणेग्राण खप्पराणमुपपत्तिद सणादो। बुन च 'कम्म प होदि एय अणेयव्हि मेय बधसमकाले । मूलतरपयडोण परिणामत्रमेण जीवाण | १७| जोब परिणामाण भेदेण परिणामिज्जमानम्म्मइागगाण भेदेण च कम्माण बधसमकाले चे अणेयविहत होदित्ति घेतदेव एकसे अनेक कर्मोकी उत्पत्ति विरुद्ध है. ऐसा कहना भी अयुक्त है, क्योकि आठ कर्मोकी योग्यतानुसार आठ भेदको प्राप्त हुई अनन्तानन्त संख्यारूप कार्मण वर्गणाको एक माननेका विरोध है । दूसरे, एक्से अनेक कार्याकी उत्पत्ति नहीं होती ऐसा एवान्त भी नहीं है, क्योंकि, एक घटसे अनेक सम्परोकी उत्पत्ति देखी जाती है। कहा भी है- 'कर्म एक नहीं है, वह जोवोके परिणामानुसार मूल व उत्तर प्रकृतियों के बन्धके समान कालगे ही अनेक प्रकारका है | १७|' जीवपरिणामाके भेद से और परिणायी जानेवाली कार्मण वर्गपाली के भेदमे बन्ध के समकालने ही कर्म अनेक प्रकारका होता है, ऐसा ग्रहण करना चाहिए।
२. वर्मणा निर्देश
४. प्रत्येक शरीर णा अपने से पहले या पीछेत्राला उत्पन्न नहीं होती
घ. २४/२.६.११० / १२८/३ परमाणादि का जार उत्सवति साथ स्वासिनान गुमागमे पलेसरीरदग्गा समुपदि दो उत्सारति
रूष मोत्तम वाहियादिरूपेण परिणमसीए अभावादी । पत्तेयसरीर समागमेण विणा हेडिमत्रगणाण चेव समुदयसमागमेण समुप्पज्जमाणपत्तेयसरी रगणाशुकल भादो । किच जोगवसे एगपण ओशियामा अनंता विस्सा हि उपचिदा ते सांररितरादि
गाकर विसरिनमा होति, पतंनगणार अस खेभगाउदा भेषेण दिशा यसरी मरगणा उपादि बादर-मामौरासिया कम्मsaroud धेसु अधद्विदिगलणाए गलिदेसु पत्तेयसरी रवग्गणं' बोलेदूज हेड्डा सातरि तरा दिवस सरि
वल भादो । उवरिमवग्गणादो आगदपरमाणु-पोग्गले हि वेब पत्तेयसरीरवग्गणाणिप्पत्तीए अभावादो । उवरिल्लीण वग्गणाण भेदो नाम विणासो ण च मादरमणिगोदवनगाणं मम्मे याबा महा संतो पतेयसरीरमग्गगासरूपेण परिणमदि पतेयमगणार आणं त्रियम्पसंगादो । - १. परमाणु वर्गणासे लेकर सान्तर निरन्तर उत्कृष्ट वर्गणा तक इन (१५) वर्गणाओके समुदय समागम से प्रत्येक शरीर वर्मणा (१०वी वर्गणा) नही उत्पन्न होती है, क्योंकि उत्कृष्ट सान्तरनिरन्तर वर्ग माओका अपने स्वरूपको छोडकर एक अधिक आदि उपरि वर्गणारूपसे परिणमन करनेकी शक्तिका अभाव है।
प्रत्येकशरीर वर्ग के समागम बिना केवल नीकी (१ से १५ तकड़ी) वर्गगाओ के समुदय समागम से उत्पन्न होनेवाली प्रत्येक शरीरेवर्गणाऍ नहीं उपलब्ध होती। दूसरे योगके बशसे एक बन्धनबद्ध औदारिक तेजस और कार्मण परमाणुपुद्गलस्कन्ध अनन्तानन्त विसोपचयो उपचित होते है परन्तु वे सब सान्तर निरन्तर आदि नीकी वर्गणाओ में कही भी सहाधनवाले नहीं होते, क्योकि वे प्रत्येक वर्गणाके असख्यातवे भागप्रमाण होते है । २ ऊपर के द्रव्यो के भेदके बिना प्रत्येक शरीरवर्गणा उत्पन्न होती है, क्योंकि बादरनिगोदवर्गणा और सूक्ष्मनिगोदवर्गणा (१६वी व २१वी वर्गणाएँ ) के औदारिक, तेजस और कार्मणवर्गणास्कन्धौके अथ - स्थिति गहनाके द्वारा गठित होनेपर प्रत्येक शरीर वर्माको उ घन कर उनका नीचे सहाधनरूप सान्तर निरन्तर आदि वर्गणारूपसे अवस्थान उपलब्ध होता है । उपरिम वर्गणासे आये हुए परमाणुहुगली से ही प्रत्येक शरीर वर्गणी निष्पत्तिका अभाव है।
प्रश्न- ऊपर के अव्यों के भेवसे प्रत्येक शरीरद्रव्यात्पत्ति क्यो नही कहते 1 उत्तर- नहीं, क्योंकि, ऊपरकी वर्गणाओके भेदका नाम हो विमास है, और बादरविणा तथा मनिगोदवर्णपाने से एक वर्गणा नष्ट होती हुई प्रत्येक शरीर वर्णारूपसे नही परिणमतो क्योकि ऐसा हनेगर प्रत्येक दशरीर वर्मणाएँ अनन्त हो जायेगी।
८ ऊपर व नीचेको वर्गणाओं में परस्पर संक्रमणको
सम्भावना व समन्वय
हे वर्गना / २/३ | एक प्रदेशी वर्ग अपने वर्गभेद द्वारा उत्पन्न होती है और सम्प्रतप्रदेशीको आदि लेकर सान्तरनिरन्तर पर्यन्त सर्व वर्गणाऍ ऊपरवाली के मे. से नीचेवालीके सघातसे तथा स्वस्थानमे भेद व मधात दोनोते उत्पन्न होती है। इससे ऊपर धन्यसे महास्वन्ध पर्यन्त केवल स्वस्थानमें भेदसघात द्वारा हा उत्पन्न होती है । ]
-
"
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वर्गणा
५१८
वर्गमूल
होनेमे विरोध आता है। महास्कन्धके भेदसे इस वर्गणाकी उत्पत्ति होती है, यह कहना भी ठीक नहीं है, क्योकि. महास्कन्धसे अलग हुए स्कन्ध यत. महास्कन्धके भेदसे अलग हुए है, अत उनकी महास्कन्ध सज्ञा नही हो सकती और इसलिए उनका उससे भेद नहीं बन सकता। इस (पर्यायाथिक ) नयका अवलम्बन करनेपर ऊपरकी वर्गणाओके भेदसे यह.वर्गणा नहीं होती है, यह कहा गया है। परन्तु द्रव्याथिक नयका अवलम्बन करने पर ऊपरकी वर्गणाओंके भेदसे भी यह वर्गणा होती है। पर्यायाथिक नयका अवलम्बन कर लेनेपर नीचेकी वर्गणाओके सघातसे भी यह वर्गणा होती है, क्योकि उत्कृष्ट ध वस्कन्धवर्गणामें एक आदि परमाणुका समागम होनेपर सान्तरनिरन्तर वर्गणाकी उत्पत्ति होनेमें कोई विरोध नहीं है। केवल स्वस्थानमे ही परिणमन होता है, यह कहना भी ठीक नहीं है, क्योंकि, जघन्य वर्गणासे एक परमाणु अधिक वर्गणाकी उत्पत्ति होने में विरोध आता है, दूसरे सान्तरनिरन्तर वर्गणाका अभाव भी प्राप्त होता है। ध्र वस्कन्धादि नीचेको वर्गणाएँ स्वस्थानमें ही समागमको प्राप्त होती है अथवा ऊपरको वर्गणाओंके साथ समागमको प्राप्त होती हैं, क्योंकि ऐसा स्वभाव है। परन्तु सान्तरनिरन्तरवर्गणा स्वस्थानमें ही भेदसे, सघातसे या तदुभयसे परिणमन करती है, इस बातका ज्ञान करानेके लिए (सूत्रमें ) 'भेदसंघातसे होना' कहा है।
ध. १४/५,६,११६/१३६/४ सुण्णाओ सुग्णत्तेष्ण अधुवाओ वि, उवरिमहे ठिमबग्गणाण भेदसघादेण सुण्णाण पि काल तरे असुण्णुत्तुवलभादो । असुण्णाओ असुण्णतणेण अधुवाओ । कुदो । बग्गणरणमेगसरूवेण सबद्धमवठाणाभावादो। वग्गणादेसेण पुण सव्वाओ धुवाओ; अण ताण तवग्गणाण सव्वद्धमुवल भादो। मुहमणिगोदवग्गणाओ सुण्णत्तेण अधुवाओ, सुण्णवग्गाहि सव्यकाल सुण्णत्तणेणेत्र अच्छिदवमिदि णियमाभावादो। एदं सभवं पडुच्चपरूविद । वत्ति पडच्च पुणभण्णमाणे सुण्णाओ सुण्णत्तेण धुवाओ वि अत्थि; वट्टमाणकाले असखेजलोगमेत्तसुहमणिगोदवग्गणाहि अदीदकालेण वि सबजीवेहि अण तगुणमेत ठाणावूरणं पडिसमवाभावादो । कारण बादरणिगोदाणं व वत्तव्यं । अदधुवाओ वि, उबरिम-हेटिठमवग्गणाणं भेदसघादेश मुण्णाणं पि काल तरे अमुण्णतु बलभादो। -शून्य वर्गणाएँ शून्यरूपसे अध्र व भी है, क्योकि उपरिम और अधस्तन वर्गणाओके भेदसघातसे शून्य वर्गणाएं भी कालान्तरमें अन्यरूप होकर उपलब्ध होती हैं। अशून्य वर्गणाएँ अशून्यरूपसे अघ ब है, क्योकि वर्गणाओंका एक रूपसे सदा अवस्थान नहीं पाया जाता। वर्गणादेशको अपेक्षा तो सब वर्गणाएँ ध्रुव है, क्यो कि, अनन्तानन्त वर्गणाएँ सर्वदा उपलब्ध होती है। सूक्ष्मनिगोदवर्गणाएँ शून्यरूपसे अध व है, क्योंकि, शून्यवर्गणाओको सर्वदा अन्यरूपसे हो रहना चाहिए ऐसा कोई नियम नहीं है। यह सम्भवको अपेक्षा कहा है परन्तु व्यक्तिकी अपेक्षा कथन करनेपर शून्य वर्गणा शुन्यरूपसे ध्रव भी है, क्योकि, वर्तमान कालमे असख्यात लोकप्रमाण सूक्ष्मनिगोद वर्गणाओंके द्वारा पूरे अतीतकाल में भी सब जीवोसे अनन्तगुणे स्थानों का पूरा करना सम्भव नही है। कारण बादरनिगोद जीवो के समान वाहना चाहिए । वे अध व भी है, क्योकि उपरिम और अधस्तन वर्गणाओके भेद सघातसे शून्यवर्गणाए भी कालान्तरमें अशून्यरूप होकर उपलब्ध होती है। अशून्य सूक्ष्मनिगोद वर्गणाएं अन्यरूपसे अधु व है, क्योंकि, सूक्ष्मनिगादवर्गणाओंका अवस्थितरूपसे अवस्थान नहीं पाया जाता। ध १४/५.६.१०७/१२५/१३ ण पत्ते यत्रादरसुहमणिगोदवग्गणाभेदेण होदि, सचित्तवग्गणाणमचित्तवग्गणसरूवेण परिणामाभावादो। ण च सचित्तबग्गणाए कम्मणोकम्मक्खधेसु तत्तो विष्फट्टिय सातरगिर तरवग्गणाणमायारेण परिणदेसु तम्भेदेणेवे दिस्से समुप्पत्ती; तत्तो विष्फट्टसमए चेव ताहितो पुदभूदखधाण सचित्तवग्गणभावविरो१.दो। ण महारत्रधभेदेणेदिस्से समुप्पत्तो, महाख धादो विष्फट्टख धाणं महाखधभेदेहितो पुधभूदाण महाख धववएसाभावेण तेसि तम्भेदत्तागुववत्तीदो। एदम्मि णए अवल बिजमाणे उबरिल्लोण वग्गणाण भेदेण ण होदि त्ति परूबिद । दबटिठयणए पुण अवलं बिज्जमाणे उपरिल्लीणं भेदेण वि होदि। पज्जवठ्ठियणए पुण अवल बिज्जमाणे हे ट्ठिल्लीणं सघादेण वि होदि; उक्कस्स धुववधवग्गणाए एगा दिपरमाणुसमागमे सातरणिर तरबग्गणाए समुप्पत्ति पडि विरोहाभावादो। ण सत्याण र परिणामो वि, जहण्ण वग्गणादो परमाणुत्तरबग्गणाए उम्पत्तिविरोहादो सातगिर तरवग्गणाए अभावष्पसगादो च। धुखधादिहे ठिमवग्गणाओ सस्थाणे चेव समागमति उरिमनग्गणाहि वा, साहाविगादो। सादरणिर तरवग्गणा पुण सरथाणे चेब भेदेण सघादेण तदुभयेण बा परिणमदि त्ति जाणावणट्ठ भेद सघादेणे त्ति परू विद । प्रत्येकशरीर, बादरनिगांद और मूक्ष्म निगोदवर्गणाओके भेदमे यह (ध बस्वन्ध व सान्तर निरन्तर ) वर्गणा नही होती यो वि मचित्त बर्गणाओं का अचित्त वर्गणा रूप से परिणमन होने मे बिरोध है। यदि कहा जाये कि सचित्तागणाके कर्म और नोर्मस्कन्धा मे उसमे अलग होकर साम्लरनिरन्तर वर्गणारूपसे परिणत होनेपर उनके भेदसे इस वर्गणाकी उत्पत्ति होता है, मैं कहना भो ठीक नहीं है, क्योकि, उनसे अलग होने के समय ही उनये अलग हुए स्कन्धोको सचित वर्गणा
९. भेदसंघात व्यपदेशका स्पष्टीकरण ध. १४/५,६,१०३/१२४/६ हेट्ठिल्लुरिल्लवग्गणाणं भेदसघादेण अप्पिदवग्गणाणमुप्पत्ती क्ण्णि बुच्चदे, भेदकाले विणास मोत्तण उप्पत्तीए अभाव पडिविसेसाभावादो । ण, तत्थ एवं विधणयाभावादो। अथवा भेटसंघादस्स एवमत्थो बत्तव्यो । त जहाभेदसघादाणं दोपणं सजोगो सत्थाण णाम: तम्हि णिरुद्धे उबरिल्लीण हेढिल्लोण अप्पिदाण च दवाण भेदपुर गमसघादेण अप्पिदवग्गणुप्पत्तिदंसणादो । सस्थाणेण भेदसंघादेण उप्पत्ती बुच्चदे। सब्यो वि परमाणुसधादो भेदपुर गमो चेवेत्ति सब्बासि बग्गणाण भेदसधादेणेव उप्पत्ती किण्ण बुच्चदे । ण एस दोसो, भेदाण तरं जो सधादो सो भेदसघादो णाम ण अतरिदो, अञ्चबत्थाप्पसगादो । तम्हा ण सव्यवग्गणाण भेदसधादेणुप्पत्ती। = प्रश्न-नीचेकी और ऊपरकी वर्गाओके भेदसघातसे विवक्षित वर्गणाओंकी उत्पत्ति क्यो नही कहते, क्योंकि भेदके समय विनाशको छोडकर उत्पत्तिके अभावके प्रति कोई विशेषता नहीं। उत्तरनहीं, क्योकि, वहाँ पर इस प्रकारके नयका अभाव है। अथवा भेदसघातका इस प्रकारका अर्थ करना चाहिए। यथा-भेद और सघात दोनोवा संयोग स्वस्थान कहलाता है। उसके विवक्षित होनेपर ऊपरके, नोचेके और विवक्षित द्रव्योके भेदपूर्वक सघातसे विवक्षित वर्गणाकी उत्पत्ति देखी जाती है। इसे स्वस्थानकी अपेक्षा भेद स वातसे उत्पत्ति के हरो है। प्रश्न-सभी परमाणुसघात भेदपूर्वक ही होता है, उमलिए सभी वर्गणाओकी उत्पत्ति भेदसघातसे ही क्यो नही बहते हो उत्तर-यह कोई दोष नहीं है, क्योकि, भेदके अनन्तर जो सबात होता है, उसे भेदसघात कहते हैं। जो अन्तरसे होता है उसको यह सज्ञा नहीं है, क्योकि, ऐसा मानने पर अव्यवस्थाका प्रमग आता है। इसलिए सर्व वर्गणाओकी उत्पत्ति भेदसघातमे नहीं होती।
वगणा शलाका-क्ष. सा/भाषा/४६४/५७८/१३- एक स्पर्धक विष
जो वर्गणानिका प्रमाण ताकी वर्ग शलाका कोि ।-(विशेष दे. स्पर्धक )।
---Square root-(ज, प/प्र.१०८), (ध.५/प्र.२८), (विशेष दे. गणित/II/१/७) ।
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वर्गशलाका
वर्णव्यवस्था
वगंशलाका-Logarithum of logarithum (ध.५/प्र २८),
(ज. घ./प्र १०८ ) । (विशेष दे० गणित/II/२/१)। वर्गसमीकरण-quadratic equatio1-(ध./प्र. २८) वगित संगित-Raising a namber to its own power (संख्यात तुल्य घात), (ध ५//२८), (विशेष दे० गणित/
II/१/8)। वर्चस्क-चतुर्थ नरकका चतुर्थ पटल- दे० नरक/५/११ । वर्ण
१. वर्णका अनेकों अर्थों में प्रयोग स सि /२/२०/१७८/१ वर्ण्यत इति वर्ण । • वर्णनं वर्ण: ।जो देखा जाता है वह वर्ण है, अथवा वर्णन वर्ण है। (रा. वा/२/२०/११ १३२/३२)। स. सि /५/२३/२६४/१ वर्ण्यते वर्णनमात्र वा वर्ण: ।-जिसका कोई वर्ण
है या वर्णन मात्रको वर्ण कहते है। ध.१/१,१,३३/५४६/१.अयं वर्णशब्दः कर्मसाधन । यथा यदा द्रव्यं प्राधान्येन विवक्षित तदेन्द्रियैण द्रव्यमेव सनिकर्ण्यते, न ततो व्यतिरिक्ता स्पर्शादय सन्तीत्येतस्या विवक्षाया कर्मसाधनवं स्पर्शादीनामवसीयते, वर्ण्यत इति वर्ण । यदा तु पर्यायः प्राधान्येन विवक्षितस्तदा भेदोपपत्तेरौदासीन्याव स्थितभावकथनाद्भाबसाधनत्वं स्पर्शादीना युज्यते वर्णन वर्ण: ।=यह वर्ण शब्द कर्मसाधन है। जैसे जिस समय प्रधानरूपसे द्रव्य विवक्षित होता है, उस समय इन्द्रियसे द्रव्यका ही ग्रहण होता है, क्योकि, उससे भिन्न स्पर्श (वर्णादि ) पर्याये नहीं पायी जाती है। इसलिए इस विवक्षामें स्पर्शादिके कर्म साधन जाना जाता है। उस समय जो देखा जाये उसे वर्ण कहते है, ऐसी निरुक्ति करना चाहिए। तथा जिस समय पर्याय प्रधान रूपसे विवक्षित होती है, उस समय द्रव्यसे पर्यायका भेद बन जाता है, इसलिए उदासीन रूपसे अवस्थित जो भाव है, उसीका कथन किया जाता है। अतएव स्पर्मादिके भाव साधन भी बन जाता है। उस समय देखनेरूप धर्मको वर्ण कहते है, ऐसी निरुक्ति होती है। भ. आ./वि./४७/१६०/१ वर्णशब्द क्वचिद्रूपवाची शुक्लवर्णमानय
शुक्लरूपमिति । अक्षरधाची क्वचिद्यथा सिद्धो वर्ण समाम्नाय इति । कचित ब्राह्मणादौ यथात्रेव वर्णानामधिकार इति। कचिद्यशसिवार्थी ददाति ।- वर्ण शब्दके अनेक अर्थ है । वर्ण-शुक्लादिक वर्ण, जेसे सफेद र गको लाओ । वर्ण शब्दका अर्थ अक्षर ऐसा भी होता है, जेसे वर्णों का समुदाय अनादि कालसे है। वर्ण शब्द का अर्थ ब्राह्मण आदिक ऐसा भी है । यथा-इस कार्यमे ही ब्राह्मणादिक वर्णों का अधिकार है। यहाँपर वर्ण शब्दका अर्थ यश ऐसा माना जाता है । जैसे-यशकी कामनासे देता है। दे निक्षेप/18 (चित्रित मनुष्य तुरग आदि आकार वर्ण कहे जाते है।)
२. वर्ण नामकर्मका लक्षण स सि /८/११/३१०/११ यद्वेतुको वर्ण विभागस्तद्वर्ण नाम । = जिसके निमित्तसे वर्ण में विभाग होता है, वह वर्ण नामकर्म है। ( रा वा./८/ ११/१०/२७७/१७), (गो क/जी. प्र./३३/२६/१३) । ब ६/१.६-१,२८/५१/१ जस्स कम्मस्स उदएण जीवसरीरे वण्णणिप्फत्ती होदि, तस्स कम्मक्ख धस्स वण्णसण्णा । एदस्स कम्मस्साभावे अणियदवण्ण सरीर होज्ज । ण च एत्र, भमर-कलयठी-हस-बलायादिसु मुणियदवण्णुवल भा । - जिम कर्मके उदयसे जीवके शरीरमे वर्ण की उत्पत्ति होती है, उस कर्मस्कन्धकी 'वर्ण यह राज्ञा है। इस क्र्म के अभाव में अनियत वर्ण बाला शरीर हो जायगा। किन्तु, ऐसा देखा
नही जाता। क्योकि, भौरा, कोयल, हंस और बगुला आदिमें सुनिश्चित वर्ण पाये जाते है । (ध. १३/५,५,१०१/३६४/६)। ३ वर्ण व वर्ण नामकर्मके भेद ष ख ६/१,६-१/सूत्र ३७/७४ ज त बण्णणामकम्म तं पंचविह, किण्ह
वण्णणाम णीलवण्णणाम रुहिरवण्णणाम हालिद्दवण्णणामं मुशिलवण्णणाम चेदि ।३७। जो वर्ण नामकर्म है, वह पाँच प्रकारका है-कृष्णवर्ण नामकर्म, नीलवर्ण नामकर्म, रुधिरवर्ण नामकर्म, हारिद्रवर्ण नामकर्म और शुक्लवर्ण नामकर्म । (प.ख./१३/५/सूत्र ११०/३७०); (पं.स./प्रा./४/४७/३०), ( स. सि./८/११/३१०/१२), (रा वा.// ११/१०/५७७/१८), (गो. क./जी. प्र./३२/२६/१३३/२६/१३)। स सि /२/२३/२६४/२ स पञ्चविध , कृष्णनीलपीतशुक्ललोहितभेदात् ।
- काला, नीला, पीला, सफेद और लालके भेदसे वर्ण पाँच प्रकारका है। (रा, वा./२/२३/१०/४८५/३), (प. प्रा. टी./१/२१/२६/१), .द्र स./टी./७/१९/६), (गो. जी./जी. प्र/४७६/८८५/१५) ।
४.नामकर्मों के वर्णादि सकारण हैं या निष्कारण ध.६/१,६-१,२८/५७/४ वण्ण-गंध-रस फासकम्माणं वण्ण गंध-रस-पासा सकारणा णिक्कारणा वा। पढमपवखे अणवत्था। विदियपक्खे सेसणोकम्म-गंध-रस-फासा विणिक्कारणा होतु, विसेसाभावा। एत्थ परिहारो उच्चदे–ण पढमे पक्खे उत्तदोसो, अणब्भुवगमादो। ण विदियपक्खदोसो वि, कालदम्ब ब दुस्सहावत्तादो एदेसिमुभयरथ बावारविरोहाभावा ।प्रश्न-वर्ण, गन्ध, रस, और स्पर्श नामकर्मों के वर्ण, गन्ध, रस और स्पर्श सकारण होते है, या निष्कारण । प्रथम पक्षमे अनवस्था दोष आता है। ( क्योकि जिस अन्य कर्म के कारण ये कर्म वर्णादिमान होगे, वह स्वयं किसी अन्य ही कर्मके निमित्तसे वर्णादिमान होगा)। द्वितीय पक्षके माननेपर शेष नोकर्मोंके वर्ण, गन्ध, रस और स्पर्श भी निष्कारण होने चाहिए (अर्थात उन्हे वर्णादिमान करनेके लिए वर्णादि नामकर्मोंका निमित्त मानना व्यर्थ है), क्योकि, दोनो में कोई भेद नहीं है । उत्तर-यहॉपर उक्त शकाका परिहार कहते है-प्रथम पक्षमे कहा गया अनवस्थादोष तो प्राप्त नहीं होता है, क्योकि, वैसा माना नहीं गया है। (अर्थात वर्णादि नाम कर्मोको वर्णादिमान करनेके लिए अन्य वर्णादि कर्म माने नहीं गये है। ) न द्वितीय पक्षमे दिया गया दोष भी प्राप्त होता है, क्योकि, कालद्रव्यके समान द्विस्वभावी होनेसे इन वर्णादिकके उभयत्र व्यापार करनेमे कोई विरोध नहीं है। ( अर्थात् जिस प्रकार काल द्रव्य स्वय परिणमन रवभावी होता हुआ अन्य द्रव्धोके भो परिणम नमे कारण होता है उसी प्रकार वििद नाम कर्म स्वय वर्णादिमान होते हुए ही नोकर्मभूत शरोरोके वर्णादिमे कारण होते है।)।
५. अन्य सम्बन्धित विषय १. शरीरोंके वर्ण २. वायु आदिकमें वर्ण गुणकी सिद्धि ३ वर्णनामकर्मके बन्ध उदय सत्व
-दे० लेश्या। -दे पुद्गल्न/१०१ -दे० वह वह नाम।
वर्णलाभ क्रिया-दे० सस्कार/२ । वर्ण व्यवस्था-गोत्रकर्म के उदयमे जीवोका ऊँच तथा नीच कुलो मे जन्म होता है, अथवा उनमें ऊँच व नोच सस्कारोको प्रतीति होती है। उस हो के कारण ब्राह्मण क्षत्रिय आदि चार प्रकार वर्णों की व्यवस्था होती है। इस वर्णव्यवरथामे जन्म की अपेक्षा गुणकर्म अधिक प्रधान माने गये है। ब्राहाण, क्षत्रिय और वैश्य ये तीन ही वर्ण उच्च होने कारण जिन दीयाके योग्य है। शूद्रवर्ण नीच
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वर्णव्यवस्था
५२०
१. गोत्रकर्म निर्देश
होनेके कारण प्रवज्याके योग्य नहीं है। वह केवल उत्कृष्ट श्रावक तक हो सकता है।
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गोत्रकर्म निर्देश गोत्रक्रर्म सामान्यका लक्षण । गोत्रकर्मके दो अथवा अनेक भेद । | उच्च व नीचगोत्र के लक्षण। गोत्रकर्मके अस्तित्व सम्बन्धी शंका । उच्चगोत्र व तीर्थकर प्रकृतिमें अन्तर । उच्च नीचगोत्रके बन्धयोग्य परिणाम । उच्च नीचगोत्र या वर्णभेदका स्वामित्व व क्षेत्र
आदि। | तिर्यचों व क्षायिक सम्यग्दृष्टि संयतासंयतोंमें गोत्र
सम्बन्धी विशेषता। गोत्रकर्मके अनुभाग सम्बन्धी नियम । दोनों गोत्रोंका जघन्य व उत्कृष्ट काल। गोत्रकर्म प्रकृतिका बन्ध उदय सत्त्वरूप प्ररूपणाएँ।
-दे०वह वह नाम। गोत्र परिवर्तन सम्बन्धी -दे० वर्ण व्यवस्था/३/३ । वर्णव्यवस्था निर्देश | वर्णव्यवस्थाकी स्थापनाका इतिहास । २ / जैनाम्नायमें चारों वर्णोंका स्वीकार ।
केवल उच्चजाति मुक्तिका कारण नहीं है। ४ वर्णसाकर्यके प्रति रोकथाम ।
उच्चता व नीचतामें गुणकर्म व जन्मकी ___ कथंचित् प्रधानता व गौणता कथंचित् गुणकर्मकी प्रधानता। गुणवान नीच भी ऊँच है। | सम्यग्दृष्टि मरकर उच्चकुलमें ही उत्पन्न होता है।
-दे० जन्म/३१॥ उच्च व नीच जातिमें परिवर्तन । कथंचित् जन्मकी प्रधानता। गुण व जन्मकी अपेक्षाओंका समन्वय । | निश्चयसे जीवमें ऊँच नीचके भेदको स्यान नही।
शूद निर्देश शुद्रके भेद व लक्षण। नीचकुलं नके घर साधु आहार नहीं लेते उनका । स्पर्श होनेपर स्नान करते है। -दे० भिक्षा/३ । * नीच कुलीन व अस्पृश्यके हाथके भोजनपानका निषेध
-दे० भक्ष्याभक्ष्य/१ । रपृश्य शूद्र ही क्षुल्लक दीक्षाके योग्य है। कृषि सवोत्कृष्ट उद्यम है
-दे० सावद्य/६।
१.गोत्रकर्म निर्देश
१. गोत्रकम सामान्यका लक्षण स सि //३.४ पृष्ठ/पंक्ति गोत्रस्योच्चैर्नीचै स्थानसशब्दनम्। (३७६/ २)। उच्चैर्नीचैश्च गूयते शब्द्यत इति वा गोत्रम् । (३८१/१)।
१. उच्च और नीच स्थानका सशब्दन गोत्रकर्मकी प्रकृति है। (रा. वा/८/३/४/५६७/५)। २. जिसके द्वारा जीव उच्च नीच गूयते अर्थात कहा जाता है वह गोत्रम है। रा वा./६/२५/५/५३१/६ गूयते शब्द्यते तदिति गोत्रम्, औणादिकेन
वटा निष्पत्ति । - जो गूयते अर्थात् शब्द व्यवहारमें आवे वह गोत्र है। ध६/१,६१,११/१३/७ गमग्रत्युच्चनीचकुलमिति गोत्रम् । उच्चनीचकुलेसु
उप्पादओ पोग्गलक्वधो मिच्छत्तादिपच्चएहि जीवसबद्धो गोद मिदि उच्चदे। - जो उच्च और नीच कुलको ले जाता है, वह गोत्रकर्म है। मिथ्यात्व आदि बन्धकारणोके द्वारा जीवके साथ सम्बन्धको प्राप्त, एवं उच्च और नोच कुनोमे उत्पन्न करानेवाला पुद्गलस्कन्ध गोत्र'
इस नामसे कहा जाता है।। ध ६/१,६-१,४५/७७/१० गोत्र कुल वंश सतानमित्येकोऽर्थ -गोत्र ___ कुल, वंश, और सन्तान ये सत्र एकार्थवाचक नाम है। ध १३/५,५,२०/२०६/१ गमयत्युच्चनीच मिति गोत्रम् । जो उच्च
नोचका ज्ञान कराता है वह गोत्र कर्म है। गो. क./मू /१३/६ सताणकमेगागयजीवायरणस्स गोद मिदि सण्णा। ...१३-सन्तानकमसे चला आया जो आचरण उसकी गोत्र
संज्ञा है। द्र. स /टी/३३/१३/१ गोत्रकर्मण का प्रकृति । गुरु-लघुभाजनकारककुम्भकारवदुच्चनीचगोत्रकरणता।-छोटे बडे घट आदिको बनानेवाले कुम्भकारको भॉति उच्च तथा नीच कुलका करना गोत्रकर्मकी प्रकृति है।
२. गोत्रकर्म के दो अथवा अनेक भेद । ष. रख /६/१,६-१/सू. ४५/७७ गोदस्स कम्मस्स दुवे पयडीओ, उच्चागोदं
चेव णिचागोद चेव ॥४॥ = गोत्रकर्मकी दो प्रकृतियाँ है---उच्चगोत्र और नीचगोत्र । (ष ख १३/५.सु १३५/३८८), (मू. आ./१२३४), ( त सू./८/१२), (प.स/प्रा/२/४/४८/१६), (घ १२/४,२,१४,१६/४८४/१३), (गो क /जी प्र./३३/२७/२)। ध. १२/४,२,१४,१६/४८४/१४ अवातरभेदेण जदि वि बहुआवो अस्थि तो वि ताओ ण उत्ताओ गथबहुत्त भएण अस्थावत्तीए तदवगमादो। = अवान्तर भेदसे यद्यपि वे ( गोत्रकर्मको प्रकृतियाँ ) बहुत है, तो भी ग्रन्थ बढ जानेके भयले अथवा अपित्ति से उनका ज्ञान हो जानेके कारण उनको यहाँ नही कहा है।
३. उच्च व नीचगोत्रके लक्षण स सि./८/१२/३६४/१ यस्योदय लोक्पूजितेषु कुलेषु जन्म तदुच्चैगर्गोत्रम् । यदुस्याइगर्हितेषु कुलेषु जन्म तनोचर्गोत्रम् । = जिसके उदयसे लोक पूजित कुलो में जन्म होता है यह उच्चगेत्र है और जिसके उदयसे गर्हित कुलो मे जन्म होता है वह नीचगोत्र है। (गो.
क /जी प्र./१३/३०/१७) । रा.वा./८/१२/२ ३१५८०/२३ लोपूजितेषु कुलेषु प्रथितमाहात्म्येषु इक्ष्वाकुनकुरहरिज्ञातिप्रभृतिषु जन्म सर योदयाद्भवति तदुच्चे गोत्रमवसेयम् ।२। गर्हितेषु दरिद्राप्रतिज्ञातदु वाकुलेषु यत्त प्राणिना जन्म तन्नोगौत्र प्रत्येतव्य ।। रा वा /६/२५/६/५३१/७ चे स्णाने येनारमा क्रिगते तन्नीचैर्गोत्रम् ।
- जिसके उदपले महत्नशानो अर्थात् इक्ष्वाकु उग्र, बुरु, हरि और ज्ञाति आदि व शो में जन्म हो ह उच्चगोत्र है। जिसके उदय
| तीन उच्चवर्ण ही प्रव्रज्या के योग्य है।
-दे० प्रव्रज्या /१/२।।
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वर्णव्यवस्था
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१. गोत्रकर्म निर्देश
से निन्द्य अर्थात दरिद्र अप्रसिद्ध और दुखाकुल कुलोमे जन्म हो वह नीचगोत्र है। जिससे आत्मा नोच व्यवहारमें आवे वह नोच
गोत्र है। ध.६/१,६-१,४५/७७/१० जस्स कम्मस्स उदएण उच्चागोदं होदि तमु
चागोद । गोत्र' कुलं वश सतानमित्येकोऽर्थ । जस्स कम्मस्स उदएण जोवाणं णोचगोदं होदितणीचगोद णाम । = गोत्र, कुल, वश, सन्तान ये सब एकार्थवाचक नाम है। जिस कर्मके उदयसे जोवोके उच्चगोत्र कुल या बंश होता है वह उच्चगोत्र कर्म है और जिस कमके उदयसे जीवों के नीचगोत्र, कुल या वश होता है वह नोचगोत्रकर्म है। दे० अगला शीर्षक-(साधु आचारको योग्यता उच्चगोत्रका चिह्न है तथा उसको अयोग्यता नोचगोत्रका चिह्न है।)
१. गोनकर्मके अस्तित्व सम्बन्धी शंका ध. १३/१४५,१३५/३८८/३ उच्चैर्गोत्रस्य क्य व्यापार । न तावद
राज्यादिलक्षणाया सपदि, तस्या. सद्वेद्यत' समुत्पत्ते । नापि पञ्चमहाबतग्रहणयोग्यता उच्चैर्गोत्रेण क्रियते, देवेष्वभव्येषु च तहग्रहणं प्रत्यययोग्येषु उच्च र्गोत्रस्य उदयाभावप्रसगात् । न सम्यग्ज्ञानोत्पत्ती व्यापार, ज्ञानावरणक्षगोपशमसहायसम्यग्दर्शनतस्तदुत्पत्त। तिर्यग-नारकेष्वपि उच्चैर्गोत्रस्योदय: स्यात, तत्र सम्यग्ज्ञानस्य सत्वात। नादेयरवे यशसि सौभाग्ये वा व्यापारः, तेषां नामत समुत्पत्ते । नेक्ष्वाकुकुलाद्य त्पत्तौ, काल्पनिकानां तेषां परमार्थतोऽसत्वात विड्ब्राह्मणसाधुष्वपि उच्चैर्गोत्रस्योदयदर्शनात् । न संपन्नेभ्यो जोवोत्पत्तौ तद्व्यापार' म्लेच्छराजसमुत्पन्नपृथुकस्यापि उच्चैगर्गोत्रोदयप्रसगात। नाणुवतिभ्यः समुत्पत्तौ तव्यापार., देवेष्वौपपादिकेषु उच्चैर्गोत्रोदयस्यासत्त्व प्रसंगाव नाभेयस्य नीचैर्गोत्रतापत्तश्च । ततो निष्फलमुच्चे र्गोत्रम् । तत एव न तस्य कर्मत्वमपि । तदभावे न नोचैर्गोत्रमपि, द्वमोरन्योन्याविनाभावित्वात् । ततो गोत्रकर्माभाव इति।न जिनवचनस्यासत्त्वविरोधात् । तदविरोधोऽपि तत्र तत्कारणाभावतोऽवगम्यते । न च केवलज्ञानविषयो कृतेष्वर्थेषु सकलेपपि रजोजुषा ज्ञानानि प्रवर्तन्ते येनानुपलम्भाज्जिनवचनस्याप्रमाणत्वमुच्यते। न च निष्फलं गोत्रम्, दीक्षायोग्यसाध्वाचाराणां साध्वाचारै कृतसबन्धान आर्यप्रत्ययाभिधान-व्यवहार-निबन्धनाना पुरुषाणां सतान उच्चैर्गोत्रं तत्रोत्पत्तिहेतुकर्माप्युच्चैर्गोत्रम् । न चात्र पूर्वोक्तदोषा. संभवन्ति, विरोधात । तद्विपरीत नीचैर्गोत्रम् । एवं गोत्रस्य द्वे एव प्रकृती भवत । -प्रश्न-उच्चगोत्रका व्यापार कहाँ होता है। राज्यादि रूप सम्पदाको प्राप्तिमें तो उसका व्यापार होता नहीं है, क्योकि उसकी उत्पत्ति सातावेदनीयकर्मके निमित्तसे होती है। पाँच महाव्रतोंके ग्रहण करनेकी योग्यता भी उच्चगोत्रके द्वारा नहीं की जाती है. क्योकि, ऐसा माननेपर जो सब देव और अभव्य जीव पॉच महाबतोको धारण नहीं कर सकते है, उनमें उच्चगोत्रके उदयका अभाव प्राप्त होता है । सम्यग्ज्ञानकी उत्पत्तिमें उसका व्यापार होता है, यह कहना भी ठीक नहीं है; क्योकि, उसकी उत्पत्ति ज्ञानावरणके क्षयोपशमसे सहकृत सम्यग्दर्शनसे होती है। तथा ऐसा माननेपर तियंचों और नारकियोके भी उच्चगोत्रका उदय मानना पडेगा, क्योंकि, उनके सम्यग्ज्ञान होता है। आदेयता, यश ओर सौभाग्य की प्राप्तिमें इसका व्यापार होता है, यह कहना भी ठीक नही है, क्योकि, इनकी उत्पत्ति नामकर्मके निमित्तसे होती है। इक्ष्वाकु कुल आदिको उत्पत्तिमें भी इसका व्यापार नहीं होता, क्योकि वे काल्पनिक है. अत' परमार्थसे उनका अस्तित्व ही नही है। इसके अतिरिक्त वैश्य और ब्राह्मण साधुओंमें उच्चगोत्रका उदय देखा जाता है। सम्पन्न जनोंसे जीवोंकी उत्पत्तिमें उच्चगत्रिका व्यापार होता है, यह कहना भी ठीक नहीं है; क्योकि, इस तरह तो म्लेच्छराजसे उत्पन्न हुए बालकके
भी उच्चगोत्रका उदय प्राप्त होता है । अणुव्रतियोंसे जीवोंकी उत्पत्तिमे उच्चगोत्रका व्यापार होता है, यह कहना भी ठीक नहीं है, क्योकि ऐसा माननेपर औपपादिक देवोमें उच्चगोत्रके उदयका अभाव प्राप्त होता है, तथा नाभिपुत्र नीचगोत्री ठहरते है। इसलिए उच्चगोत्र निष्फल है, और इसलिए उसमें कर्म पना भी घटित नहीं होता। उसका अभाव होने पर नीचगोत्र भी नहीं रहता, क्यो कि, वे दोनो एक-दूसरेके अविनाभावी है। इसलिए गोत्रकर्म है ही नही। उत्तर-नहीं, क्यो कि, जिनवचनके असत्य होनेमे विरोध आता है । वह विरोध भी बहाँ उसके कारणोके नहीं होनेसे जाना जाता है। दूसरे केवलज्ञानके द्वारा विषय किये गये सभी अर्थोमे छद्मस्थोंके ज्ञान प्रवृत्त भी नही होते हैं। इसोलिए छद्मस्थोको कोई अर्थ यदि नही उपलब्ध होते है, तो इससे जिनवचनको अप्रमाण नहीं कहा जा सकता। तथा गोत्रकर्म निष्फल है. यह बात भी नही है, क्योकि, जिनका दीक्षायोग्य साधु आचार है. साधु आचारवालों के साथ जिन्होने सम्बन्ध स्थापित किया है ( ऐसे म्लेच्छ ), तथा जो 'आर्य' (भोगभूमिज ) इस प्रकारके ज्ञान और बचन व्यबहारके निमित्त हैं, उन पुरुषोको परम्पराको उच्चगोत्र कहा जाता है। तथा उनमें उत्पत्तिका कारणभूत कर्म भी उच्चगोत्र है। यहाँ पूर्वोक्त दोष सम्भव ही नहीं है, क्योंकि, उनके होने में विरोध है। उससे विपरोत कर्म नीचगोत्र है। इस प्रकार गोत्रकर्मकी दो हो प्रकृतियाँ होती है। दे० वर्ण व्यवस्था/३/१/म.पु/७४/४६१-४६५-(ब्राह्मणादि उच्चकुल ब शूद्रों में शरीरके वर्ण व आकृतिका कोई भेद नहीं है, न ही कोई जातिभेद है। जो शुक्लध्यानके कारण है वे त्रिवर्ण कहलाते है और
शेष शूद्र कहे जाते है।) घ.१५/१५२/७ उच्चागोदे देस-सयलसजमणिबंधणे संते मिच्छाइ
ट्ठीसु तदभावो त्ति णासंकणिज्जं, तत्थ, वि उच्चागोदजणिदसजमजोगत्तावेक्वाए उच्चागोदत्त पडि विरोहाभावादो । -प्रश्न-यदि उच्चगोत्रके कारण देशस यम और सकलसयम है तो फिर मिथ्यादृष्टियो में उसका अभाव होना चाहिए . उत्तर-ऐसी आशंका करना योग्य नहीं है, क्योकि, उनमें भी उच्चगोत्रके निमित्तसे उत्पन्न हुई सयम ग्रहण की योग्यताकी अपेक्षा उच्चगोत्रके होने में कोई विरोध नहीं है।
५. उच्चगोत्र तीर्थंकर प्रकृतिमें अन्तर रा. वा /८/११/४२/५८०/७ स्यान्मतं-तदेव उच्चैर्गोत्र तीर्थकरत्वस्यापि निमित्तं भवतु कि तीर्थकरत्वनाम्नेति । तन्नः किं कारणम्। तीर्थप्रवर्तनफलत्वात् । तीर्थ प्रवर्तनफलं हि तीर्थ करनामेज्यते नोच्चैर्गोत्रोदयात् तदवाप्यते चक्रधरादीना तदभावात् । -प्रश्न-उच्चगोत्र हो तीर्थकरत्वका भी निमित्त हो जाओ। पृथकसे तीर्थकरव नामकर्म माननेकी क्या आवश्यकता। उत्तर-तीर्थ की प्रवृत्ति करना तीर्थंकर प्रकृतिका फल है। यह उच्चगोत्रसे नही हो सकता, क्योंकि उच्चगोत्री चक्रवर्ती आदिके वह नही पाया जाता। अत इसका पृथक् निर्देश किया है । (और भी दे० नामकर्म (४) ।
६. उच्च नीच गोत्रके बन्धयोग्य परिणाम भ. आ./मू./१३७५/१३२२ तथा १३८६ कुलरूवाणाबलसुदलाभिस्सरयत्थ
मदितवादी हि । अपाणमुण्णमेतो नीचागोदं कुणदि कम्म ।१३७५॥ माया करेदि णीचगोद' .. १३८६ - कुल, रूप, आज्ञा, शरीरबल, शास्त्रज्ञान, लाभ, ऐश्वर्य, तप और अन्यपदार्थोसे अपनेको ऊँचा समझनेवाला मनुष्य नीचगोत्रका बन्ध कर लेता है ।१३७५० मायासे नीचगोत्रकी प्राप्ति होती है ।१३८६। त, सू/६/२५-२६ परात्मनिन्दाप्रश से सदसद्गुणोच्छादनोद्भावने च नोचैर्गोत्रस्य ।२५। तद्विपर्य यो नीचैवृत्त्यनुरसेको चोत्तरस्य ॥२६॥
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मा० ३-६६
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वर्णव्यवस्था
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स सि./६/२६/३४०/७क. पुनरसौ विपर्यय । आत्मनिन्दा, परप्रशंसा, सद्गुणभावनमसद्गुणानं च गुणोत्कृष्टषु विनयेनावनतिर्भीचैर्वृत्ति | विज्ञानादिभिरुत्कृष्टस्यापि सतस्तत्कृतमद बिरहोऽनहंकारतानुत्सेक । तान्येतान्युरस्योस्याकारणान भवन्ति । परनिन्दा, आत्मा या दूसरोंके होते हुए गुगोको भी ढक देना और अपने अनहोत गुणोको भी प्रगट करना ये नीचगोत्र के आस्रवके कारण है | २५ | उनका विपर्यय अर्थात् आत्मनिन्दा परप्रशसा, अपने होते हुए भी गुणोको ढकना और दूसरेके अनहोत भी गुणोको प्रगट करना, उत्कृष्ट गुणवालोके प्रति नम्रवृत्ति और ज्ञानादिमे श्रेष्ठ होते हुए भी उसका अभिमान न करना, ये उच्चगोत्रके आसयके कारण है (व सा./२/५३-६४ )। रा.वा./६/२२/६/३१/१ जातिकुल मलरूपता स्वर्यतपोमपरावज्ञानीप्रहसन पर परिवादशीलता - धार्मिकजननिन्दात्मोत्कर्षान्ययशोवि - लोपासको पादन गुरुपरिभय सबुद्धट्टन-दोषख्यापन विडन स्थानीयमान पर्सन-गुणायसायन- अनलिस्टुत्यभिवादनाकरण तीर्थकवाद |
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रा. ना / ६ / २८/४/२३१/२० जातिकुल रूपवीर्यपरिज्ञानेश्वर्यविशेषअत आरमोरनिधानं परावरानीत्यनिन्दायासपरपरि वादन निवृत्ति विनिहतमानता धर्म्यजनपूजाभ्युत्थानाञ्जलिप्रणतिवन्दना ऐदयुगीनान्यपुरुषदुर्लभ गुणस्याप्यनुत्सिक्तता, अहकारात्यये
चिता भस्मात्तस्मे हुतभुज स्वमाहारम्याप्रकाशन धर्मसाधनेषु परमसंभ्रम इत्यादि । -जाति, बल, कुल, रूप, श्रुत, आज्ञा, ऐश्वर्य और तपका मद करना, परको अवज्ञा, दूसरेकी हॅसी करना, परनिन्दका स्वभाव धार्मिकजन परिहास, खरमोर परयका विलोप, मिथ्याकीर्ति अर्जन करना, गुरुजनोका परिभव, तिरस्कार, दोषख्यापन, विहेडन, स्थानावमान भर्त्सन, और गुणावसादन करना, तथा अजलिस्तुति अभिवादन - अभ्युत्थान आदि न करना, तीर्थकरोपर आक्षेप करना आदि नोचगोत्र के आस्रव के कारण है। जाति, मत रूप, मीर्य, ज्ञान, ऐश्वर्य और तप आदिको विशेषता होनेपर भी अपने में बडप्पनका भाव नहीं आने देना, परका तिरस्कार न करना, अनौद्धत्य, असूया, उपहास, बदनामी आदि न करना, मान नहीं करना, साधर्मी व्यक्तियोका सम्मान, इन्हे अभ्युत्थान अंजलि, नमस्कार आदि करना, इस युगमे अन्य जनोमें न पाये जानेवाले ज्ञान आदि गुणोके होनेपर भी, उनका र चमात्र अहकार नही करना, निरहंकार मत भस्मसे हॅकी हुई की तरह अपने माहा रम्यका हिंडोरा नहीं पीटना और धर्मसाधनों में अत्यन्त आवश्बुद्धि आदि भी उच्चगोत्रके आस्रवके कारण है। (भ.आ./ वि. / ४४६/ ६५३/३ तथा वहाँ उधृत ४ श्लोक )
गो क/यू./२०१६ ०४ तादिभतो सुत्तरुचीपमानही यदि चागादविवरीको मध्ये दर ८०१ - न्तादिमे भक्ति, सूत्ररुचि, अध्ययन अर्थविचार तथा विनय आदि इन गुणोको धारण करनेवाला उच्च कर्मको बाँधता है और इसमें विपरीत नीच गोत्रको बाँधता है ।
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७. उच्च-नीच गोत्र या वर्णभेदका स्वामित्व क्षेत्र आदि
०/१०२-१०३ अत्यमाह नरो नारीमा नारी नर निजम् । भोग मिरवीणा नाम साधारण हि तद् १०२ उत्तमा जातिरेकप चातुर्व पक्रिया न स्वस्वामि पुमा संबन्धोन लिङ्गिन । १ ३१ - वह पुरुष स्त्रीको आर्या और स्त्री पुरुषको आर्य कहती है । यथार्थ मे भोगभूमिज स्त्री-पुरुषोका वह साधारण नाम है । १०२ । उस समय सबकी एक ही उत्तम जाति होती है। वहाँ न ब्राह्मणादि चार वर्ण होते है और न हो बनि मंसि आदि वह कर्म होते हैं. न सेवक और स्वामीका सम्बन्ध होता है ओर न वेषधारी ही होते
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१. गोत्रकर्म निर्देश
देवस्था/१/४ (सभी देव भोगभूमि उद्यगोत्री तथा सभी नारकी, तिर्यंच व म्लेच्छ नीचगोत्री होते है | )
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घ. १२/१९/६ चगोदर मिच्छात जाम जोगकेवलि परिमसमओ तिउदीरणा अमरि मस्सो वा मसिगी वासिया उदीरेदि देवो देवी वा सजदों या नियमा उदीरेति संजदासंदो सिया उदीरेदि बोचगोदस्स मिच्याइटिप्पहूडि जाम संजदासंजदस्स उदीरणा । णवरि देवेसु णत्थि उदीरणा, तिरिखखणेरइएस नियमा उदीरणा, मणुदे खिया उदीरणा एवं सामित्तं समते -उसगोत्रकी उदीरणा मिध्यादृष्टिसे लेकर सयोगकेवली के अन्तिम समयतक होती है। विशेष इतना है कि मनुष्य और मनुष्यणी तथा संयतासंयत जीव कदाचित् उदीरणा करते है। देव देवी तथा संयत जीव उसकी उदीरणा नियमसे करते है । नीचगोत्रको उदीरणा मिथ्यादृष्टि से लेकर संयतासयत गुणस्थानतक होती है, विशेष इतना है कि देवो में उसकी उदीरणा सम्भव नहीं है, तियंचो व नारकियों में उसकी उदीरणा नियमसे तथा मनुष्यों में कदाचित होती है। म.पु / ७४ /४६४-४६५ अच्छेदो मुक्तियोग्याया विदेहे जातिसंतते । तो तुनामगोत्रीमाविनिनाद 1४४ देवयोस्तु चतुर्वे संतति एवं वर्णविभागः स्यान्मनुष्येषु जिना
गमे १४६५| विदेहक्षेत्र में मोक्ष जानेके योग्य जातिका कभी विच्छेद नही होता, क्योकि वह उस जाति कारणत नाम और गोत्रसे सहित] जीवो की निरन्तर उत्पत्ति होती रहती है | ४६४ | विन्तु भरत और रायत क्षेत्रमे चतुर्थकालने ही जातिकी परम्परा चलती है, अन्य कालो में नहीं। जिनागम में मनुष्योंका वर्ण विभाग इस प्रकार बताया गया है । ४६५|
त्रि. सा / ०१० सद पदोणमादिसं हृदिसठाण मज्जगामजुदा भोग भूमिज दंपति आर्य नामसे युक्त होते है । ( म. पु. /३/१५)
८. तियंचों व क्षायिक सम्यग्दष्टि संयतासंयतों में गोत्र सम्बन्धी विशेषता
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सयसम्माइसजदाराजवेस उचगोदस्स सोदओ णिरतरो बधो तिरिक्खेसु खइयसम्माइट्ठी सजदासजदाणमवल भादो । क्षायिक सम्यग्दृष्टि सयतासयतों में उच्चगोत्रका स्वोदय एवं निरन्तर बन्ध होता है, क्योंकि च क्षायिक सम्यदृष्टियों सयतासंयत जो पाये नहीं जाते।
घ. १४/१५२/४ तिरिक्खे जीयागोदस्स चेव उदीरणा होदिति भणिदे ण तिरिक्खेसु सजमासजम परिवालयतेस उच्चगोदत्तु बलं भादो |
प्रश्न- तियंचोमे नीचगोत्रकी ही उदीरणा होती है, ऐसी प्ररूपणा सर्वत्र की गयी है । परन्तु यहाँ 'उच्चगोत्रकी भी उनमें प्ररूपणा की गयी है, अतएव इससे पूर्वापर कथनमें विरोध आता है उत्तर-ऐसा कहनेपर उत्तर देते है कि इसमे पुत्रपर विरोध नहीं है, खोक समासयमको पालनेवाले तिर्यतोंमें उम्रगोत्र पाया जाता है।
९. गोत्रकर्मके अनुभाग सम्बन्धी नियम
१२/४२११८/४४०/२ सम्बुसविसोही हदसमुप्पत्तिये कावृण उपादानुभाग पेखिय मुहमसापराइएण सम्बद्धं म ममुचागो दुस्साधुभागस्स अगुण भादो गोदामागे विनोबाभागो अथिति णासकणिज्जं, बादरतेक्कारएम्पलिदोषमस्स अस खेज्जदिभागमेत्तका लेण उब्वेलिद उच्चागोदेसु अविसोहीए चादिदमीचागोदे गोदस्स भागमादो। ध. १२/४,२,१३.२०४/४४९/६ बादरतेउवा उक्काइएस उसविसोहीए पादिनीभागाकरियते जहणाभागेण सह उगदी मोजयतिसमयाहार- तिसमय तन्भवत्थस्स खेशेण सह भावो जहणओ किरण जायदे । ण,
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वर्णव्यवस्था
बादरतेन उकाइपज्जतर जादजहणाणुभागेण सह अण्णा उपती अभावादो । जदि अण्णत्य उपज्जदि तो नियमा अणतगुणवहोए उपजदि हा सर्वाकृष्ट विशुद्धिके द्वारा हत्समुत्पत्ति को करके उत्पन्न कराये गये जघन्य अनुभागकी अपेक्षा सर्व विशुद्ध सूक्ष्मसाम्परायिक सयतके द्वारा बाँधा गया उच्चगोत्रका उत्कृष्ट अनुभाग अनन्तगुणा पाया जाता है। प्रश्न- गोत्रके जघन्य अनुभाग भी उम्रगोत्रका जग्य अनुभाग होता है। उत्तर-ऐसी आशंका नहीं करनी चाहिए क्योकि जिन्होने पक्योपमके असंख्यातवे भागमात्र कालके द्वारा उच्चगोत्रका उद्वेलन किया है व जिन्होने अतिशय विशुद्धिके द्वारा नोवगीका घात कर लिया है उन बादर तेजस्कायिक जीवोमें गौत्रका जघन्य अनुभाग स्वीकार किया गया है। अतएव गोत्रके जघन्य अनुभागमे उच्चगोत्रका अनुभाग सम्भव नही है। प्रश्न- जिन्होने उत्कृष्ट विशुद्धिके द्वारा नगोत्र अनुभागका घात कर लिया है, उन बादर तेजस्कायिक व वायुकायिक जीवोमें गोत्रके अनुभागको जम्प करके उस जय अनुभागके साथ ऋजुगतिके द्वारा हम निनोर जोबोमें उत्पन्न होकर त्रिसमयवर्ती आहारक और तद्भवस्थ होनेके तृतीय समय में वर्तमान उसके क्षेत्र के साथ भाव जघन्य क्यो नही होता ? उत्तर- नहीं, क्योकि, बादर तेजकायिक व वायुकायिक पर्याप्त जीवोमें उत्पन्न जघन्य अनुभागके साथ अन्य जीवोंमें उत्पन्न होना सम्भव नही है । यदि वह अन्य जीवोमें उत्पन्न होता है तो नियमसे वह अनन्तगुणवृद्धि से वृद्धिको प्राप्त होकर ही उत्पन्न होता है. अन्य प्रकारसे नही ।
१०. दोनों गोत्रोंका जघन्य व उत्कृष्ट काळ
घ. १५/२०/- पीचगोदर जहणेज एगसमओ, उद्यागोदादो णीचागोदं गतूण तत्थ एगसमयमच्छिय विदियसमए उच्चागोदो उदयमागदे एसओ लम्भदे | उकस्सेण अंसंखेच्चापरियट्ठा। उच्चागोदस्स जहणेण एयसमओ, उत्तरसरीर विउव्जिय एगसमएण मुदस्स तदुवलभादो । एव णोषागोस्स वि उक्कण सागरोवमसदपृधत नीचगोत्रका उदीरणाकाल जयन्यसे एक समयमात्र है, क्योकि, उच्चगोत्रसे नीच गोत्रको प्राप्त होकर और वहाँ एक समय रहकर द्वितीय समय में उच्चगोत्रका उदय होनेपर एक समय उदीरणाकाल पाया जाता है । उत्कर्ष से वह असंख्यात पुद्गलपरिवर्तन प्रमाण है । ( तिर्यच गति में उत्कृष्टरूप इतने काल तक रह सकता है)। उच्चगोत्रका उदीरणाकाल जघन्य से एक समयमात्र है, क्योंकि, उत्तर शरीरकी विक्रिया करके एक समय में मृत्युको प्राप्त हुए जीवके उक्त काल पाया जाता है । (उच्चगोत्री शरोरवाला तो नीचगोत्री के शरीरकी विक्रिया करके तथा नीचगोत्री उच्चगोत्री शरीरको विक्रिया करके एक समय पश्चात् मृत्युको प्राप्त होवे ) नीचगोत्रका भी जघन्यकाल इसी प्रकारसे घटित किया जा सकता है। उच्चगोत्रका उत्कृष्टकाल सागरोपम शतपृथक्त्व प्रमाण है। (देवो व मनुष्यो में भ्रमण करता रहे तो ) - ( और भी ०/१/३)
२. वर्णव्यवस्था निर्देश
8. वर्गव्यवस्थाकी स्थापनाका इतिहास
ति प / ४ / १६१८ चक्कवराउ दिजाण हवेदि वसस्स उप्पत्ती । १६६८। -डायसपोकाल चक्रवर्ती की गयी द्विलोके वर्णकी उत्पति भी होती है। प/४/११-१२२ का भावार्थ - भगवान् ऋषभदेवका समवशरण आया जान भरत चक्रवर्तीने सघ के मुनियो के उद्देश्य से उत्तम उत्तम भोजन बनवाये और नौकरी के सिरपर रखवाकर भगवान् के पास पहुँचा । परन्तु भगवान् ने उद्दिष्ट होनेके कारण उस भोजनको स्वीकार न किया । ६१-६७। तत्र भरतने अन्य भी आवश्यक सामग्री के साथ उस
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२. वर्णव्यवस्था निर्देश
भोजनको दान देनेके द्वारा व्रती श्रावकोंका सम्मान करनेके अर्थ उन्हें अपने यहाँ निमन्त्रित किया । १०३ क्योकि आनेवालोंमें सम्यग्दृष्टि व मिथ्यादृष्टि सभी थे इसलिए भरत चक्रवर्तीने अपने भवन के आँगन में जौ, धान, मूँग, उडद आदिके अंकुर वोकर उन सबकी परीक्षा की और सम्यष्टि पुरुषोकी छट कर सी १०४ ११० भरतका सम्मान पाकर उन्हे अभिमान जागृत हो गया और अपनेको महान् समझकर समस्त पृथिवी तलपर याचना करते हुए विचरण करने लगे ।१११-११४० अपने मन्त्रीके मुखसे उनके आगामी भ्रष्टाचारकी सम्भावना सुन चक्रवर्ती उन्हे मारनेके लिए उद्यत हुआ, परन्तु वे सब भगवान् ऋषभदेवकी शरण में जाकर प्रार्थना करने लगे । और भगवान्ने भरतको उनका वध करनेसे रोक दिया ।१११-१२२/ ६. पू./१/३३-३ का भावार्थ- कल्पवृक्षोके तोपके कारण भगवा ऋषभदेव प्रजाको असि मसि आदि षट्कमका उपदेश दिया ३३- ३६ । उसे सोखकर शिल्पीजनोने नगर ग्राम आदिकी रचना की । ३७-३८। उसी समय क्षत्रिय, वैश्य और शूद्र ये तीन वर्ण भी उत्पन्न हुए। विनाशसे जीवोकी रक्षा करनेके कारण क्षत्रिय, वाणिज्य व्यापार के योगसे वैश्य और शिल्प आदिके सम्बन्धसे शुद कहलाये । 1३६० (म. पु / १६/१०१-१०३) । म./१६/९०-१०० का भावार्थ उनमें भी शुद्र दो प्रकार के हो गयेकारू और अकारू ( विशेष दे० वर्णव्यवस्था / ४ ) | ये सभी वर्णोंके लोग अपनी-अपनी निश्चित आजीविकाको छोड़कर अन्य वर्षकी आजीविका नहीं करते थे ।१४-१
म ३८/५०-५० का भावार्थ-दिग्विजय करनेके पश्चात् भरत चक्रवर्तीको परोपकार में अपना धन लगानेकी बुद्धि उपजी | ५ | तब महामह यज्ञका अनुष्ठान किया । ६ । सहवती गृहस्थोंकी परीक्षा करनेके लिए समस्त राजाओको अपने-अपने परिवार व परिवर सहित उस उसमें निमन्त्रित किया | १०| उनके विवेकी परीक्षाके अर्थ अपने घर के आँगन मे अकुर फल व पुष्प भरवा दिये | ११ | जो लोग बिना सोचे समझे उन अकुरोको कुचलते हुए राजमन्दिर में घुस आये उनको पृथक् कर दिया गया | १२ | परन्तु जो लोग अकुरो आदिपर पाँव रखने के भय से अपने धरोको वापस लौटने लगे, उनको दूसरे मार्ग आँगन में प्रवेश कराके बहुत सम्मानित किया। १३-२०१ उनको उन-उनके व्रतो व प्रतिमाओ के अनुसार यज्ञ पवीतसे चिह्नित किया | २१-२२ (विशेष दे० यज्ञोपवीत ) । भरतने उन्हे उपासकायमन आदिका उपदेश देर पूजा आदि उनके नित्य कर्म न कर्तव्य बताये | २४-२५॥ पूजा, वार्ता, दन्ति ( दान ), स्वाध्याय, सयम और तप इन छह प्रकार की विशुद्ध वृत्तिके कारण ही उनको द्विज सज्ञा दी। और उन्हे उत्तम समझा गया ।४२-४४। ( विशेष दे० ब्राह्मण ) । उनको गर्भान्वय, दोसान्वय और कर्त्रान्त्रय इन तीन प्रकारकी क्रियाओका भी उपदेश दिया । - ( विशेष दे० सस्कार ) ।५०१
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म. /४०/२२१ स धर्मविजयी भरताराम धर्मका कुरा पीपलक्षितान्तान् द्विजत् विनियम्य सम्यक् धर्मप्रिय समसृजत् द्विजन्लोकसर्गम् । २२१। - इस प्रकार जिसने धर्म के द्वारा विजय प्राप्त की है, जो जो निपुण है और जिसे धर्म प्रिय है, ऐसे भरत क्षेत्र के अधिपति महाराज भरतने राजा लोगोकी साक्षीपूर्वक अच्छे-अच्छे व्रत धारण करनेवाले उन उत्तम द्विजोको अच्छी शिक्षा देकर ब्राह्मण वर्णकी सृष्टि व स्थापना की / २२९ ।
२. जैनाम्नायमें चारों वर्णोंका स्वीकार
ति ४/२२५० सहया वसाहवति कच्छे तिण्णि च्चिय तस्य णहु अण्णे । २२५०१ - विदेह क्षेत्र कच्छा देशमें बहुत प्रकारके भेदों मे युक्त क्षत्रिय, वैश्य तथा
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वर्णव्यवस्था
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३. उच्चता व नीचतामे गुणकर्म..."
शूद्रके तीन ही वश है. अन्य (ब्राह्मण) वंश नहीं है ।२२५०१ (ज. ५/७/५६), ( दे० वर्णव्यवस्था/३/१)। दे० वर्णव्यवस्था/२/१ (भरत क्षेत्रमे इस हुडावसर्पिणी काल में भगवान्
मृषभदेवने क्षत्रिय, वैश्य व शूद्र इन तीन वर्णोकी स्थापना की थी। पीछे भरत चक्रवर्तीने एक ब्राह्मण वर्ण की स्थापना और
कर दी।) दे० श्रेणी/१ ( चक्रवर्तीकी सेनामे १८ श्रेणियों होती है, जिनमें ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य व शूद इन चार श्रेणियोका भी निर्देश किया गया है)। ध. १/१.१.१/गा. ६१/६५ गोत्तेण गोदमो विप्पो चाउवेश्यसडंगवि । णामेण इददि त्ति सीलवं बम्हणुत्तमो ।६।" गौतम गोत्री, विप्रवर्णी, चारो वेद और षडंगविद्याका पारगामी, शीलवान और ब्राह्मणो में श्रेष्ठ ऐसा बर्द्धमानस्वामीका प्रथम गणधर 'इन्द्रभूति' इस नामसे प्रसिद्ध हुआ।६१ म, पु./३८/४५-४६ मनुष्यजातिरेकेव जातिनामोदयोद्भवा । वृत्तिभेदाहितादभेदाचातुर्विध्यमिहाश्नुते ।४५। ब्राह्मणा व्रतसंस्कारात, क्षत्रिया' शस्त्रधारणात । वणिजोऽर्थार्जनान्न्याय्यात शूद्रा न्यग्वृत्तिसंश्रयाद 1४६-यद्यपि जाति नामकमके उदयसे उत्पन्न हुई मनुष्य जाति एक ही है, तथापि आजीविकाके भेदसे होनेवाले भेदके कारण वह चार प्रकारकी हो गयी है ।४५॥ व्रतोके संस्कारसे ब्राह्मण, शस्त्र धारण करनेसे क्षत्रिय, न्यायपूर्वक धन कमानेमे वैश्य और नीच वृत्तिका आश्रय लेनेसे मनुष्य शूद्र कहलाते है।४६। (ह. पृ./४/३६); (म. पु/ १६/१८४)।
३. केवल उच्च जाति मुक्तिका कारण नहीं है स. श./मू व. टी | जातिलिङ्गविकल्पेन येषां च समयाग्रहः। तेऽपि न प्राप्नुवन्त्येव परम पदमात्मन 1८६। जातिलिङ्गरूपविकल्पोभेदस्तेन येषा शैवादीनो समयाग्रह आगमानुबन्ध' उत्तमजाति-विशिष्ट हि लिङ्ग मुक्तिहेतुरित्यागमे प्रतिपादितमतस्तावन्मात्रेणेव मुक्तिरित्येवंरूपो येषामागमाभिनिवेश तेऽपि न प्राप्नुवन्त्येव परम पदमात्मनः । --जिन शैवादिकोका ऐसा आग्रह है कि 'अमुक जातिवाला अमुक वेष धारण करे तभी मुक्तिको प्राप्ति होती है। ऐसा आगममें कहा है, वे भी मुक्तिको प्राप्त नही हो सकते, क्यो कि जाति और लिग दोनो हो जब देहाश्रित है और देह ही आत्माका ससार है, तब ससारका आग्रह रखनेवाले उससे कैसे छूट सकते है।
३.उच्चतावनीचत
व जन्मकी कथंचित प्रधानता व गौणता १, कथंचित् गुणकर्मकी प्रधानता कुरल/१८/३ कुलीनोऽपि कदाचारात कुलीनो नैव जायते । निम्नजोऽपि सदाचारान् न निम्न प्रतिभासते।३। उत्तम कुलमें उत्पन्न होनेपर भी यदि कोई सच्चरित्र नहीं है तो वह उच्च नही हो सकता और हीन वंशमे जन्म लेने मात्रसे कोई पवित्र आचारवाला नीच नहीं
हो सकता ॥३॥ म.पू./७४/४६१-४६५ वर्णाकृत्यादिभेदाना देहेऽस्मिन्नप्यदर्शनात् । ब्राह्मण्यादिषु शूद्राद्यै गर्भाधानप्रदर्शनात् ।४६१। नास्ति जातिकृतो भेदो मनुष्याणा गवाश्ववत् । आकृतिग्रहणात्तस्मादन्यथा परिकल्प्यते । ४६२। जातिगोत्रादिकर्माणि शुक्लध्यानस्य हेतवः । येषु ते स्युस्त्रयो वर्णा शेषाः शूद्राः प्रकीर्तिताः MERI अच्छेदो मुक्तियोग्याया विदेहे जातिसंततेः । तद्ध तुनामगोत्राढ्यजीवाविच्छिन्नसंभवात ।४६४। शेषयोस्तु चतुर्थे स्यात्काले तज्जातिसंततिः। एवं वर्ण विभाग' स्यान्मनुष्येषु जिनागमे ।४६५॥ =१. मनुष्योके शरीरों में न तो कोई आकृतिका भेद है और न ही गाय और घोडेके समान उनमें कोई जाति भेद है, क्योंकि, ब्राह्मणी आदिमें शूद्र आदिके द्वारा गर्मधारण किया जाना देखा जाता है। आकृतिका भेद न होनेसे भी उनमें जातिभेदकी कल्पना करना अन्यथा है। ४६१-४६२। जिनकी जाति तथा कर्म शुक्लध्यानके कारण हैं वे त्रिवर्ण (ब्राह्मण, क्षत्रिय व वैश्य ) कहलाते है और बाकी शूद्र कहे जाते है। ( परन्तु यहाँ केवल जातिको ही शुक्लध्यानको कारण मानना योग्य नहीं हैदे० वर्ण व्यवस्था/२/३ ) ४६३। (और भी दे० वर्णव्यवस्था/१/४ )। २-विदेहक्षेत्रमें मोक्ष जानेके योग्य जातिका कभी विच्छेद नहीं होता, क्योकि वहाँ उस जातिमें कारणभूत नाम और गोत्रसे सहित जीबोकी निरन्तर उत्पत्ति होती रहती है।४६४। किन्तु भरत और ऐरावत क्षेत्रमें चतुर्थ काल में ही जातिकी परम्परा चलती है. अन्य कालोमें नही। जिनागममें मनुष्योका वर्ण विभाग इस प्रकार बतलाया गया है ।४६५ -दे० वर्ण व्यवस्था/२१२ । गो. क /मू./१३/ उच्च णीच चरण उच्च णीच हवे गोद ।१३जहाँ ऊँचा आचरण होता है वहाँ उच्चगोत्र और जहाँ नीचा आचरण होता है वहाँ नीचगोत्र होता है। दे० ब्राह्मण/३-(ज्ञान, संयम, तप आदि गुणोको धारण करनेसे ही
ब्राह्मण है, केवल जन्मसे नहीं।) दे० वर्ण व्यवस्था/२/२ (ज्ञान, रक्षा, व्यवसाय व सेवा इन चार काँके
कारण ही इन चार वर्णोका विभाग किया गया है)। सा ध/७/२० ब्रह्मचारी गृही वानप्रस्थो भिक्षुश्च सप्तमे। चत्वारोऽगे क्रियाभेदादुक्ता वर्णवदाश्रमा ।२०। जिस प्रकार स्वाध्याय व रक्षा आदिके भेदसे ब्राह्मण आदि चार वर्ण होते है, उसी प्रकार धर्म क्रियाओं के भेदसे ब्रह्मचर्य, गृहस्थ, वानप्रस्थ व सन्यास ये चार आश्रम होते है। ऐसा सातवे अंगमें कहा गया है। (और भी
-दे० आश्रम । मो. मा.प्र./३/८/8 कुलकी अपेक्षा आपको ऊँचा नीचा मामना भ्रम है। ऊँचा कुल का कोई निन्द्य कार्य करै तो वह नीचा होइ जाय ।
अर नीच कुलविषै कोई श्लाध्य कार्य करै तो वह ऊँचा होइ जाय । मो.मा, प्र./६/२५८/२ कुलकी उच्चता तो धर्मसाधनते है। जो उच्चकुल विषै उपजि हीन आचरन करै, तौ वाको उच्च कैसे मानिये । • धर्म पद्धतिविष कुल अपेक्षा मह तपना नाहीं संभव है।
४. वर्णसांकर्यके प्रति रोकथाम म पु /१६/२४७-२४८ शूदा शूद्रेण वोढव्या नान्या ता स्वा च नैगम । वहेत स्वाते च राजन्य स्त्रा द्विजन्मा कचिच्च ता ।२४७। स्वामिमा वृत्तिमुत्क्रम्य यस्त्वन्या वृत्तमाचरेत् । स पार्थिवै नियन्तव्यो वर्णसकोणिरन्यथा ।२४८१-१ वर्णों की व्यवस्थाको सुरक्षित रखनेके लिए भगवान ऋषभदेवने ये नियम बनाये कि शूद्र केवल शूद्र कन्याके साथ विवाह करे, वैश्य वैश्य व शूद्र कन्याओके साथ, क्षत्रिय क्षत्रिय, वैश्य व शुद्र कन्याओके साथ तथा ब्राह्मण चारो वर्णो की कन्याओंके साथ विवाह करे ( अर्थात स्ववर्ण अथवा अपने नोचेवाले वर्गोंको कन्याको हो ग्रहण करे, ऊपरवाले वर्णोकी नही ।२४७।२ चारो हो वर्ण अपनी-अपनी निश्चित आजीविका करे । अपनी आजीविका छोडकर अन्य वर्णकी आजीविका करनेबाला राजाके द्वारा दण्डित किया जायेगा ।२४८। (म.पु/१६/९८७)।
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वर्णव्यवस्था
२. गुणवान् नीच भी ऊँच है
० सम्यग्दर्शन / I / ५ ( सम्यग्दर्शनसे सम्पन्न मातंग देहज भी देव तुल्य है। मिध्यात्व युक्त मनुष्य भी पशुके तुल्य है, और सम्पनत्य सहित पशु भी मनुष्यके तुल्य है ।)
| -
नीतिवाक्यामृत / १२ आचारमनवद्यत्वं शुचिरुपकर शरीरी च विशुद्धि' । करोति शुद्रमपि देवद्विजतपस्विपरिकर्मयोग्य अनयथ चारित्र राधा शरीर वस्त्रादि उपकरणोकी शुद्धिसे शुद्ध भी देवो द्विजो तपस्वियोकी सेवा तथा धर्मश्रवणका) पात्र बन जाता है। (सा.
ध./२/२२) । दे० प्रवज्या / १/२ - ( म्लेच्छ व सत् शूद्र भी कदाचित मुनि व क्षुल्लक दीक्षा ग्रहण कर लेते है।) (विशेष दे० वर्णव्यवस्था/४/२)। दे० वर्णव्यवस्था/१/८ (संयमासंयमका धारक विच भी उच्चगोत्री समझा जाता है )
२. उच्च व नीच जाति परिवर्तन
घ. १५/२८८ / २ अजस कित्ति दुभग-अणादेज्ज को वेदओ । अगुणपडिपण्णी अण्णदरो तप्पा ओगो तिरथयरणामा को बेदओ सजोगो अजोगो वा । उच्चागोदस्स तित्थयरभंगो। णीचागोदस्स अणाभगो अयश कीर्ति, दुभंग और अनादेवका वेदक कौन होता है ! उनका वेदक गुणप्रतिपन्नसे भिन्न तत्प्रायोग्य अन्यतर जीव होता है। तीर्थंकर नामकर्मका हक फोन होता है उसका वेदक सयोग (केमली) और बयोग (केवली) जीव भी होता है। उच्चगोत्र उदयका कथन तीर्थंकर प्रकृतिके समान है और नीचगोत्र उदयका कथन अनादेयके समान है । ( अर्थात गुणप्रतिपन्नसे भिन्न जीव गोत्रका बेदक होता है गुणप्रतिपक्ष नहीं जैसे कि तियंच दे० वर्णव्यवस्था/३/२|
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दे० वर्ण व्यवस्था/१/१० ( उच्चगोत्री जीव मीचगोजीके शरीरकी और नीचगोत्री जीव उच्चगोत्री के शरीरको विक्रिया करे तो उनके गोत्र भी उतने समय के लिए बदल जाते है । अथवा उच्चगोत्र उसी भवमे बदलकर नीचगोत्र हो जाये और पुन बदलकर उच्चगोत्र हो जाये, यह भी सम्भव है।
३०
/ २ (किसीके कुलमें किसी कारणवश दोष लग जानेपर वह राजाज्ञासे शुद्ध हो सकता है किन्तु दीक्षा के अयोग्य अर्थात नाचनागाना आदि कार्य करनेवालोंको यज्ञोपवीत नहीं दिया जा सक्ता । यदि ये अपनी योग्यतानुसार मठ धारण कर ले तो झोप धारण के योग्य हो जाते हैं ।)
धर्म परीक्षा / १० / २८-३१ ( बहुत काल बीत जानेपर शुद्ध शीतादि सदाचार छूट जाते है और जातिच्युत होते देखिये है । जिन्होंने शील संयमादि छोड दिये ऐसे कुलीन भी नरकमे गये है । ३१ । )
४. कथंचित् जन्मको प्रधानता
पुज्य
ने
३० वर्ग व्यवस्था/१/३ (उमगोत्र के उदयसे उच्च जन्म होता है और नीच गोत्रके उदयसे गर्हित कुलों में । ) ३०/१/२ (माह्मण क्षत्रिय वैश्य इन तीन कुलोमेलन हुए पक्ति हो प्राय हाके योग्य समझे जाते है । )
दे०
० व्यवस्था २/४ (वर्णाकर्धकी रक्षाके लिए प्रत्येक वर्णका व्यक्ति अपने वर्णकी अथवा अपने नीचेके वर्ण की ही कन्याके साथ विवाह करे, ऊपर के वर्ण की कन्याके साथ नही और न ही अपने वर्णकी आजीविकाको छोडकर अन्यके वर्ग की आजी विश करे।) ० व्यवस्था/४/१ (शुद्र भी दो प्रकारके है सव शुर और बसव शूद्र । तिनमें सब शूद्र स्पृश्य है और असत् शूद अस्पृश्य है । सत् कदाचिद के योग्य होते है, पर उस शुद्र कभी भी ज्या योग्य नहीं होते । )
५२५
वर्ण्यसमा
मो.मा.प्र. १६/६७/१२ क्षत्रियादिकनिक (वाह्मण, क्षत्रिय व वैश्य इन तीन वर्ण वालोके) उच्चगोत्रका भी उदय होता है ।
दे० यज्ञोपवीत / २ ( गाना नाचना आदि नीच कार्य करनेवाले सत् शुद्ध भी यज्ञोपवीत धारण करने योग्य नहीं है।
५. गुण व जन्मकी अपेक्षाओंका समन्वय
० व्यवस्था/२/३ ( यथा योग्य च व नीच कुलोंमें उत्पन्न करना भी गोत्रकर्मका कार्य है और आचार ध्यान आदिकी योग्यता प्रदान करना भी । )
६. निश्चयसे ऊँच नीच भेदको स्थान नहीं
प. प्र. / /२/२०० एकु करे मण विष्ण करि में करि अण्ा विसे । एक्कएँ देवों से बसद सिहूय एहु असे १001 हे आमद जातिकी अपेक्षा सब जोवोको एक जान, इसलिए राग और द्वेष भत कर। मनुष्य जातिकी अपेक्षा ब्राह्मणादि वर्णभेदको भी मत कर, क्योकि, अभेद नयसे शुद्धात्मा के समान ये सब तीन लोक में रहनेवाली जीव राशि ठहरायी हुई है । अर्थात् जीवपनेसे सब एक है ।
४. शूद्र निर्देश
१. शूद्रके भेद व लक्षण
म पु. / २८/४५ शुद्धा
[म. पृ/१६/९०५-२०१६ [et शुणाच्छूदास्ते द्विघा कार्यकारण। कारवो रजकाद्या. स्यु' ततोऽन्ये स्युरकारव. । १८५० कारवोऽपि मता द्वेषास्पृश्यास्पृश्यविकल्पश्या प्रजाबाह्या स्पृश्याः स्युः कर्ता १०६ -नीच वृखिडा आश्रय करने से होता है। |४५ | जो उनकी (ब्राह्मणादि तीन वर्णोंकी) सेवा शुश्रूषा करते थे वे शूद्र कहलाते थे । वे शुद्ध दो प्रकारके थे-कारु और अकारु । धोबी आदि शूद्र कारु कहलाते थे और उनसे भिन्न अकारु कहलाते थे। कारू शूद भी स्पृश्य तथा अस्पृश्यके भेदसे दो प्रकारके माने गये है। उनमें जो प्रजासे बाहर रहते है उन्हें अस्पृश्य और नाई वगैरहको स्पृश्य कहते हैं। १८६० (मो, मा. १ / ८ / ४१९ / २१)। प्रायश्चित चूलिका/गा. १४४ व उसकी टोका" कारिणो द्विविधाः feat भोज्याभोक्यप्रभेदत' यदन्नपान ब्राह्मणक्षत्रियविद्रा भौज्या बोज्या तद्विपरीतलक्षणा ।" कारू शुद दो प्रकारके होते है- भोज्य व अभोज्य । जिनके हाथका अन्नपान ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य और शूद्र खाते हैं, उन्हे भोज्य कारु कहते हैं और इनसे विपरीत अभोज्य कारु जानने चाहिए ।
२. स्पृश्य व ही क्षुद्धक दीक्षाके योग्य हैं
प्र. सा./ता.वृ / २२५/प्रक्षेपक १० की टीका / ३०६/२ यथायोग्यं सच्छूद्रा
यपि सदशुम भी यथायोग्य दीक्षाके योग्य होते है (अर्थात
।
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शुल्लक दीक्षाने योग्य होते है।।
प्रायश्चित भूलिका / स म टीका / १२४ भोज्येष्वेव प्रदातव्यं सर्वदा १५४ भोज्येष्येव प्रदातव्या सुलकदीक्षा नापरेषु टीका में भी केवल भोज्य या स्पृष्य शूद्रोंको ही क्षुल्लक दीक्षा दी जाने योग्य है, अन्यको नहीं । वर्ण्यसमा -
|
न्या सू./मू. व भाष्य/५११/४/२८८ साध्यष्टष्टान्तयोधर्म विकल्पादुभयसाध्यत्वाच्च वयवसाध्यम 12 लोह क्रियाया वह काममात्मापि क्रियाया विरस्तु विपर्यस या विशेष इति स्थापनीयो क्यों विपर्ययादव तो साध्यन्त विपर्यस्तो समो भवतः ।
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वर्तना
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वसतिका
श्लो. वा/४/१/३३/न्या/श्लो ३४२/४७६ ख्यापनोया मतो वयं स्याद- वर्षायोग- वर्षायामकाज
वषायाग-१. वर्षा यागका लक्षण-दे० काय-क्लेश/याग । २ वर्षावयों विपर्ययाव । तत्समा साध्यदृष्टान्तधर्मयोरत्र साधने ।३४२१
योग सम्बन्धी नियम-दे० पाद्यस्थिति कल्प। ३. वर्षायोग प्रतिष्ठाप्रसिद्ध कथनके योग्य वर्ण्य है और उससे विपरोत अवर्ण्य है। ये
पन व निष्ठापन विधि-० कृतिकर्म/४। दोनों साध्यदृष्टान्त के धर्म है। इसके विपर्यय वावर्ण्यसम कहाते है। जैसे लोष्ट क्रियावान व विभु देखा जाता है, उसी प्रकार आरमा
वलय-Ring (ज प./प्र १०८); (ध /प्र २८)। भी क्रियावाद व विभु हो जाओ। अथवा यो कहिए कि वण्य तो वलाहक-विजयाकी उत्तर श्रेणीका एक नगर । -दे० विद्याधर । साधनेयोग्य होता है और अवर्ण्य असाध्य है। अर्थात्-दृष्टान्तमें
वलोक-भगवान् वीरके तीर्य के एक अन्तकृत् केवली । -दे० सन्दिग्धसाध्यसहितपनेका आपादन करना वर्ण्यसमा है और पक्षमे
अन्तकृद। असन्दिग्धसाध्यसहितपनेका प्रसग देना वर्ण्यसमा है।
वल्कल- एक अज्ञानवादी-दे० अज्ञानवाद। वतना-स.सि./५/२२/२६१/४ वृत्तेणिजन्तात्कर्मणि भावे वा युटि स्त्रीलिङ्गे वर्तनेति भवति । वय॑ते वर्तनमात्र वा वर्तना इति।
वल्गु-१. सौधर्म स्वर्गका चतुर्थ पटल । -दे० स्वर्ग/५/३१२ अपर -णिजन्तमें 'वृत्ति' धातुसे कम या भावमें 'युट' प्रत्ययके करनेपर। विदेहका एक क्षेत्र । अपर नाम गन्धा । --दे० लोक५/२१३. नागगिरि स्त्रीलिंगमें वर्तना शब्द बनता है। जिसकी व्युत्पत्ति 'वयते' या वक्षारका एक कूट ।-दे० लोक/१/४ । 'वर्तनमात्रम्' होती है। (रा. वा /१२२/२/४७६/२८) ।
वल्लभ-वेदान्तकी एक शाखाके प्रवर्तक । समय-ई. श. १५ । रा. वा/५/२२/४/४७७/३ प्रतिद्रव्यपर्यायमन्तर्मतैकसमया स्वसत्तानु
-दे. वेदान्त । भूतिर्वर्तना ।४। - प्रत्येक द्रव्य प्रत्येक पर्यायमे प्रतिसमय जो
वल्लाभका-१. इन्द्रोको प्रोति उत्पन्न करनेवाली तथा उन्हे स्वसत्ताकी अनुभूति करता है उसे वर्तना कहते है। । त सा./ ३/४१)।
अपनी विक्रिया, प्रभाव, रूप, स्पर्श तथा गन्धसे रमानेवाली, उनके द्र. स./टी./२१/६१/४ पदार्थ परिणतेय त्सहकारित्वं सा वर्तना भण्यते।
अभिप्रायके अनुसार १६००० विक्रियाएं उत्पन्न करनेवाली बल्ल-- पदार्थकी परिणतिमें जो सहकारोपना या सहायता है, उसको
भिका देवियों होती है। (ज.प./११/२६२-२६७) । २ प्रत्येक 'वर्तना' कहते है।
इन्द्रकी बल्लभिका देवियाँ। -दे० देवगतिका वह-वह नाम । वर्तमान काल
वल्लि भूमि-समवशरणकी तीसरी भूमि । -दे० समवशरण ।
बशात मरण-दे० मरण/१। दे० काल/३/७ (वर्तमान कालका प्रमाण एक समय मात्र है।) दे० नय/III (विवक्षित पर्यायके प्रारम्भ होनेसे लेकर उसका अन्त वशित्व विक्रिया ऋद्धि-दे० ऋद्धि/३ । होने तकका काल वर्तमान काल है। सूक्ष्म व स्थूलकी अपेक्षा वह
वशिष्ट-ह. पु/३३/श्लोक -एक तापस था ।४६। राज्य दरबारमें दो प्रकार है। सूक्ष्म एक समयमात्र है और स्थूल अन्तर्मुहूर्त से लेकर
सरमेंसे मछलियॉ निकलने के कारण लज्जित हुआ।४-५७ वीरक सख्यात-वर्ष तक है।)
मुनिसे दोक्षा ले एक्ल बिहारी हो गया ।५८-७४। एक महीने का उपवर्तमान नैगमनय-दे० नय/III/२ ।
वास धारा। पीछे पारणावश नगरमे गया तो आहार लाभ न हुआ, वर्दल--षष्ठ नरकका द्वितीय पटल-दे० नरक/५।
क्योकि राजा उग्रसेनने स्वयं आहार देनेके लिए प्रजाको आहार
दान करनेको मना कर दिया था और काममें व्यस्त होनेके कारण वर्द्धमान-१.प्र.सा/ता वृ/१/३/१६ अब समन्तादृद्ध वृद्ध मानं
स्वय भी आहार न दे सका था। तब वह साधु निदानपूर्वक मरकर प्रमाण ज्ञानं यस्य स भवति वर्द्धमान । - 'अब' अर्थात समन्तात,
उसी राजाके घर कस नामका पुत्र हुआ, जिसने उसको बन्दी ऋद्धम् अर्थात् वृद्ध, मान अर्थात् प्रमाण या ज्ञान । अर्थात् हर प्रकारसे
बनाकर बहुत दुख दिया ७५-८४। यह कसका पूर्वका भव है। वृद्ध ज्ञान जिसके होता है ऐसे भगवान् वर्द्धमान है। २. भगवान्
-दे० कंस। महावीरका अपरनाम भी वर्द्धमान है-दे० महावीर । ३. रुचक पर्वतका एक कूट है-दे० लोक/१३२४. अवधिज्ञानका एक भेद ।
वश्यकर्म-वसतिकाका एक दोष। -दे० वसतिका । -दे० अवधिज्ञान/१६
वश्ययंत्र-दे० यंत्रा वर्तमानारत्र-कवि असग (ई.६८८) द्वारा रचित १८ सर्ग वसंत-सुमेरुपर्वतका अपर नाम । -दे० सुमेरु ।
प्रमाण हिन्दी महाकाव्य । (ती./४/१२) । वर्द्धमानयंत्र-दे. यंत्र।
वसतभवत-क्रमश ५.६.७,८.४ इस प्रकार ३५ उपवास, करे।
बीचके स्थानोमे एक-एक पारणा करे । (ह. पु./३४/५६)। वकि -कौशल देशका एक नगर-दे० मनुष्य/४ ।
वसतिका-माधुके ठहरनेका स्थान बसतिका कहलाता है। वह वष-१. कालका एक प्रमाण । अपरनाम सवत्सर-दे० गणित//१/४।
मनुष्यों, तिर्यचो व शीत-उष्णादिकी बाधाओसे रहित होना २. आज भी कन्नौजमें 'वर्ष' नाम वसतीका है-( ज. प./प्र ११६/
चाहिए। ध्यानाध्ययनकी सिद्धि के अर्थ एकान्त गुफा व शून्य स्थान A.N Up.व H, L.Jain)।
ही उसके लिए अधिक उपयुक्त है। वषंधर-स. सि./३/११/२१४/११ वर्ष बिभागहेतुत्वाद्वर्षधरपर्वता
१. वसतिकाका सामान्य स्वरूप इत्युच्यन्ते। -हिमवान् आदि पर्वतोके कारण क्षेत्रोका विभाग होता है, इसलिए इन्हे वर्षधर पर्वत कहते है । -(विशेष दे० भ आ /मू /६३६-६३८/८३६ उग्गमउप्पादणएसणाविसुद्धाए अकिरियाए लोक/३/४)।
हु। बसइ असं सत्ताए णिप्पाहुडियाएसेज्जाए।६३६। सुहणिवरववणद्र. सं./टो./३५/१२१/१ वर्षधरपर्वता सीमापर्वता इत्यर्थ । == पर्वतका पवेसुणवणाओ अवियडअणधयाराओ १६३७१ घणकुड्ड सकवाडे गामअर्थ यहाँ वर्षधरपर्वत अथवा सीमापर्वत है।
बहि बालबुट्टगण जोग्गे ।६३८॥
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वसतिका
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वसतिका
भ, आ./मू./२२६/४४२ वियडाए अवियडाए समविसमाए बहि च अतो वा। ।२२६।- १. जो उद्गम उत्पादन और एषणा दोषोसे रहित है, जिसमें जन्तुओंका वास न हो. अथवा बाहरसे आकर जहाँ प्राणी वास न करते हो, सस्काररहित हो, ऐसी वसतिकामें मुनि रहते है। (भ, आ /मू /२३०/४४३)-(विशेष दे. वसतिका/७) २ जिसमे प्रवेश करना या जिसमेसे निकल ना सुखपूर्वक हो सके, जिसका द्वार ढका हो, जहाँ विपुल प्रकाश हो ।६३७ जिसके किवाड व दीवारे मजबूत हों, जो ग्रामके बाहर हो, जहाँ बाल, वृद्ध और चार प्रकारके गण (मुनि आर्यिका श्रावक श्राविका) आ जा सकते हो ।६३८| जिसके द्वार खुले हो या भिडे हो, जो समभूमि युक्त हो या विषम भूमि युक्त हो, जो ग्रामके बाह्यभागमें हो अथवा अन्तमे हो ऐसी वसतिका मुनि रहते है ।२२६॥
२. ध्यानाध्ययन में बाधा कारक व मोहोत्पादक न हो भ. आ /मू /२२८, ६३५ जत्थ ण सोत्तिग अत्थि दु सहरसरूवगंधफासे हि ।
सज्झायझाणवाधादो वा बसधी विवित्ता सा १२२८४ पचिदियप्पयारो मणसंखोभकरणो जहि पत्थि । चिठुदि तहि तिगुत्तो ज्झाणेण सहप्पबत्तेण । ६३५॥ - जहाँ अमनोहर या मनोहर स्पर्श रस गन्ध रूप
और शब्दो द्वारा अशुभ परिणाम नहीं होते, जहाँ स्वाध्याय व ध्यानमें विध्न नहीं होता ।२२८। जहाँ रहनेसे मुनियोकी इन्द्रियाँ विषयोकी तरफ नहीं दौडती, मनकी एकाग्रता नष्ट नहीं होती और ध्यान निर्विघ्न होवे, ऐसी वसतिकामे मुनि निवास करते है।६३५॥ मू आ/१४६ जत्थ कसायुप्पत्तिरभत्तिदियदारइस्थिजणबहुलं । दुक्रवमुवसग्गबहुलं भिक्खू खेत्तं विवज्जेऊ।१४। जिस क्षेत्रमें कषायकी उत्पत्ति हो, आदरका अभाव हो, मूखता हो, इन्द्रियविषयोकी अधिकता हो, स्त्री आदि बहुत जनोका संसर्ग हो, तथा क्लेश व उपसर्ग हो, ऐसे क्षेत्रको मुनि अवश्य छोड दे। ज्ञा./२७/३१ किं च क्षोभाय मोहाय यद्विकाराय जायते। स्थान तदपि मोक्तव्यं ध्यानाविध्वसशङ्कितैः।३१ = ध्यानविध्वंसके भयसे क्षोभकारक. मोहक तथा विकार करनेवाला स्थान भी छोड देना चाहिए ।३१। ( अन. ध/७/३०/६८१)
३. कुशीलसंसक्त स्थानोंसे दूर होनी चाहिए भ. आ./मू /६३३-६३४/८३४ गंधवणट्टजट्टस्सचक्काजतग्गिकम्मफरुसे य ।
णत्तिजया पाडहि पाडहिडोबणडरायमग्गे।६३३। चारण कोट्टगकल्लालकरकचे पुप्फदयसमीपे च । एवविध वसधीए होज्ज समाधीए बाधादो।६३४॥ गन्धर्व, गायन, नृत्य, गज, अश्व आदि शालाओंके, तेली, कुम्हार, धोबी, नट, भांड, शिल्पी, कुलाल आदिके घरोके तथा राज्यमार्गके तथा बगीचे व जलाशयके समीपमे वसनिका हानेसे ध्यान में विघ्न पडता है।६३३-६३४॥ मू आ /३५७ तेरिक्खी माणुस्सिय सविकारिणि-देविगेहिससत्ते। बज्जति अप्पमत्ता णिलए सयणासणठाणे ।३५७) - गाय आदि तिर्य चिनी, कुशील स्त्री, भवनवासो व्यन्तरी देवी, असंयमी गृहस्थ, इनके रहनेके निवासोको यत्नचारी मुनि शयन करने, बैठने व खडे होनेके लिए छोडे। रा. वा./६/६/१६/५६७/३४ संयतेन शयनासनशुद्धिपरेण खोक्षुद्रचौरपानासशौण्डशाकुनिकादिपापजनवासा वा , शृङ्गारविकारभूषणोज्ज्वलवेषवेश्याक्रीडाभिरामगीतनृत्यवादिनाकुलशालादयश्च परिहर्त्तव्या' ।- शय्या और आसनकी शुद्धि में तत्पर सयतको स्त्रो, क्षुद्रजन्तु, चोर, मद्यपान, जूआ, शराबो, और चिडोमार आदिके स्थानोमें नही बसना चाहिये। और शृगार, विकार, आभूषण, उज्ज्वलवेष, वेश्याक्रीडा, मनोहर गीत, नृत्य, वादित्र आदिसे परिपूर्ण शालाओ आदिमे रहने आदिका त्याग करना चाहिए। (यो पा./ टी./५७/१२०/२०)
दे. कृतिकर्म/३/४/३ (रुद्र आदिके मन्दिर तथा दुष्ट स्त्री पुरुषोसे ससक्त स्थान ध्यान के लिए अत्यन्त निषिद्ध है) ४. स्त्रियों व अन्य जन्तुओं आदिकी बाधासे रहित व अनुकूल होनी चाहिए भ. आ./म् /२२६/४४२ इत्थिणउसयसुवज्जिदार सीदाए उसिणाए ।२२६।
-जो खी पुरुष व नपसक जनोसे वजित हो, तथा जो शीत व उष्ण हो अर्थात् गर्मियोमे शीत और सर्दियोमें उष्ण हो, ऐसी वसतिका योग्य है। स. सि /१/१६/४३८/१० विविक्तेषु जन्तुपीडाविरहितेषु सयतस्य शय्या
सनम् • कर्त्तव्यमिति । = एकान्त व जन्तुओको पीडासे रहित स्थानो में मुनिको शय्या व आसन लगाना चाहिए । (रा.वा/६/१६/ १२/६१६/१३) घ. १३/५.४,२६/५८/८ स्थी-पसु-संढयादीहि ज्झाणज्झेय विग्धकारणेहि वज्जिय पदेसा विवित्त णाम ! -ध्यान और ध्येयमें विघ्नके कारणभूत स्त्री, पशु और नपुसक आदिसे रहित प्रदेश विविक्त कहलाते है। (बो. पा/टी./५७/१२०/१६ तथा ७८/२२२/५ ) दे. वसतिका/नं [जिसमे जन्तुओंका वास न हो और जहाँ प्राणी बाहर से आकर न ठहरते हो, ऐसा स्थान योग्य है। (वसतिका/१ में भ. आ /मू./६३६ )। स्त्रियो व बहुजन संसर्ग तथा क्लेश व उपसर्गसे रहित स्थान मुनियोके रहने योग्य है। (वसितका/२/में मू आ./ ६४६) । कुशोलो स्त्रियो, तिर्यचिनियो, देवियो, दुष्ट पुरषोसे संसक्त स्थान तथा देवी-देवताओके मन्दिर वर्जनीय है ( वसतिका/३)।] दे कृतिकर्म/३/४/२ [ पवित्र, सम, निजन्तुक, खियो, नपुंसकों व पशुपक्षियोकी कटक आदिकी बाधाओसे रहित स्थान ही ध्यानके योग्य है।
५. नगर व ग्राममें बसनेका निषेध दे. वसतिका/१ मे भ. आ/मू/२२६, ६३८ (मुनिकी या क्षपककी वसतिका ग्रामसे बाहर या ग्रामके अन्त में होनी चाहिए।) आ. अनु /१२७-१६० इतस्ततश्च त्रस्यन्तो विभावाँ यथा मृगा। वनाद्विशत्युपग्रामं कलौ कष्ट तपस्विन १७ वरं गार्हस्थ्यमेवाद्य तपसो भाविजन्मन । श्व खोक्टाक्ष्लुण्टाक्लोप्यवैराग्यसपद. १६८। - जिस प्रकार सिहादिके भयसे मृगादि रात्रिके समय गॉवके निकट आ जाते है, उसी प्रकार इस कलिकाल में मुनिजन भी वनको छोड गॉवके समीप रहने लगे है, यह खेदकी बात है ।१९७ यदि आजका ग्रहण किया तप कल स्त्रियोके कटाक्षरूप लुटेरोके द्वारा बैराग्य सम्पत्तिसे रहित कर दिया जाय तो इस तपकी अपेक्षा तो गृहस्थ जीवन ही कही श्रेष्ठ था।१६८! ६. शून्य गृह, गिरिगुहा, वृक्षको कोटर, श्मशान आदि स्थान साधुके योग्य हैं भ, आ.मू /गा. सुण्णघरगिरिगुहारुखमूल विचित्ताई ।२३१। उज्जाण
घरे गिरिक दरे गुहाए व सुण्णहरे ।६३८ - शून्यधर, पर्वतकी गुफा, वृक्षका मूल, अकृत्रिम गृह ये सब विविक्त वसतिकहै ।२३१। उद्यानगृह, गुफा और शून्यघर ये भी वसतिका वक्षपकका सस्तर करनेके योग्य माने गये है।६३८। मू आ /९५० गिरिकदरं मसाणं सुण्णागार' च रुक्खमूलं वा। ठाणं विरागबहुलं धीरा भिक्खू णिसेवेऊ 18101-पर्वतकी गुफा (व कन्दरा ) शमशानभूमि, शून्यघर, और वृक्षकी कोटर ऐसे वैराग्यके कारण-स्थानोमे धीर मुनि रहे।६५० (मू. आ./७८७-७८६); अन ध/७/३०/६८१)।
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वसतिका
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वसतिका
(शय
९ मकानो में तक गिरि
बो, पा./मू /४२ सुण्णहरे तरुहिछे उज्जाणे तह मसाणवासे वा! गिरिगुह गिरिसिहरे वा भोमवणे अहब बसिते वा ।४२॥ -सूना घर, वृक्षका मूल अर्थात् कोटर, उद्यानवन, श्मशानभूमि, गिरिगुफा, गिरिशिखर, भयानकवन, अथवा वसतिका इनविर्षे दीक्षासहित मुनि तिष्ठ।४२॥ त.सू /७/६ शुन्यागारविमोचितावास. १६= शून्यागार विमोचितावास
ये अचौर्यमहावतकी भावनाएं है। स, सि /8/१६/४३८/१० शून्यागारादिषु विविक्तेषु.. सयतस्य शय्या
सनम्-- कर्तव्यमिति पञ्चमं तप । शून्यधर आदि विविक्त स्थानोमें स यतको शय्यासन लगाना चाहिए। ये पाँचत्रों (विविक्त शय्यासन नामका) तप है। (रा वा./६/१९/१२/६१६/१२), (बो.
पा./टी./७८/२२२/६)। रा वा /४/६/१६/५६७/३६ अकृत्रिमगिरिगुहातरुकोटरादय कृत्रिमाश्च
शून्यागारादयो मुक्तमोचितावासा..।-( शयनासनकी शुद्धिमें तत्पर सयतको प्राकृतिक गिरिगुफा, वृक्षको खोह, तथा शून्य या छोडे हुए मकानोमें बसना चाहिए। व. १३/५,४,२६/१८/८ गिरिगुहा-कंदर-पब्भार-मुसाण-मुण्णहरारामुज्जाणाओ पदेसा विवित्तं णाम । गिरिकी गुफा, कन्दरा, पन्भार (शिक्षागृह-दे० अगला शीर्षक ), श्मशान, शून्यघर, आराम और
उद्यान आदि प्रदेश विविक्त कहलाते है। दे. कृतिकर्म/३/४/१ (पर्वतकी गुफा, वृक्षको कोटर, नदीका किनारा या पुल, शून्य घर आदि ध्यानके लिए उपयुक्त स्थान है।)
.. अनुद्दिष्ट धर्मशाला आदि भी युक्त है भ. आ /मू./२३१,६३६...आगंतुगारदेवकुले । अकदप्पम्भारारामघरादीणि
य विचित्ताई ॥२३११ आगंतुधरादिसु वि कडएहि य चिलि मिलीहि काययो । खवयस्सोगारा धम्मसवणमंडवादी य ।६३६॥ देवमन्दिर, व्यापारार्थ भ्रमण करनेवाले व्यक्तियोके निवासार्थ बनाये गये घर, पन्भार ( शिक्षागृह ), अकृत्रिम गृह. क्रीडार्थ आने-जानेवालोंके लिए बनाये गये घर ये सब विविक्त वसतिकाएँ है ।२३११ व्यापारियोके ठहरनेके लिए निर्माण किये गये घर या ऐसी वसतिकाएँ उपलब्ध न हो तो क्षपकके लिए बाँस व पत्तों आदिका आच्छादन या सभामडप
आदि भी काममें लाये जा सकते है ।६३६।। रा, वा /8/६/१६/५६७/३६ कृत्रिमाश्च शून्यागारादयो मुक्तमोचितावासा अनात्मोद्देशनिर्वतिता निरारम्भा सेव्या'|-(शय्या और आसनकी शुद्धि में तत्पर संयतको ) शुन्य मकान या छोडे हुए ऐसे मकानोमें बसना चाहिए जो उनके उद्देशसे नहीं बनाये गये हों
और न जिनमे उनके लिए कोई आरम्भ ही किया गया हो।( और भी दे वसतिका/१,६)। ८. वसतिकाके १६ दोषोंका निर्देश १. उद्गम दोष निरूपण भ आ./वि./२३०/४४३/१० तत्रोद्गमा दोषो निरूप्यते वृक्षच्छेदस्तदा
नयनं. इष्ट कापाक भूमिखनन । इत्येवमादिव्यापारेण षण्णा जीवनिकायानां बाधा कृत्वा स्वेन वा उत्पादिता, अन्येन व कारिता वसतिराधाकर्मशब्देनाच्यते । यावन्तो दीनानाथकृपणा आगच्छन्ति लिङ्गिनो वा तेषामियमित्युद्दिश्य कृता, पाषं डिनामेवेति वा श्रमणा. नामेवेति, निग्रन्थानामेवेति सा उदेसिगा वसदिति भण्यते । आत्माएं गृहं कुर्वता अपवरक स यतानां भवश्विति कृतं अब्भोवब्भमित्युच्यते। आत्मनो गृहार्थमानीत. काष्ठादिभि सह बहुभिः श्रमणार्थमानीयाल्पेन मिश्रिता यत्र गृहे तत्पूतिकमित्युच्यते । पाप डिना गृहस्थानां वा क्रियमाणे गृहे पश्चात्सयतानुद्दिश्य काष्ठादिमिश्रेण निष्पादितं वेश्ममिश्रम् । स्वार्थमेव कृतं संयतार्थमिति
स्थापितं ठविद इत्युच्यते। संयत: स च यावद्भिदिनैरागमिष्यति तत्प्रवेश दिने गृहसस्कार सकल करिष्याम इति चेतसि कृत्वा यत्सस्कारित वेश्म तत्पाहुडिगमित्युच्यते । ( यक्षनागमातृकाकुलदेवताद्यर्थ कृतं गृहं तेभ्यश्च यथास्व दत्त तदत्तावशिष्ट यतिभ्यो दीयमानं बलिरित्युच्यते )। तदागमानुरोधेन गृहसस्कारकालापह्रासं कृत्वा वा सस्कारिता वसति प्रदीपकं वा तत्पादुष्कृतमित्युच्यते। यद्गृह अन्धकारबहुलं तत्र बहुप्रकाशसपादनाय यतीना छिद्रीकृतकुड्यं, अपाकृतफलक, सुविन्यस्तप्रदीपक वा तत्पादुकारशब्देन भण्यते । द्रव्यक्रीतं भावक्रीत इति द्विविध क्रीत वेश्म, सचित्तं गोबस्तीवीदिक दत्वा सयतार्थ क्रीत, अचित्तं वा घृतगुडखण्डादिक दत्वा क्रोत द्रव्यकोतम् । विद्यामन्त्रादिदानेन वा क्रीतं भावक्रीतम् । अल्पमृणं कृत्वा वृद्धिसहितं अवृद्धिक पा गृहीतं सयतेभ्य पमिच्छ उच्यते। मदोये वेश्मनि तिष्ठतु भवान् युष्मदीयं तावद्गृह यतिभ्यः प्रयच्छति गृहीत परियट्टमित्युच्यते। कुड्याद्यर्थ कुटीरककटादिकं स्वार्थ निष्पन्नमेव यत्सयतार्थमानीत तदभ्यहिडमुच्यते। तद्विविधमाचरितमनाचरितमिति। दूरदेशाद्नामान्तराद्वानीतमनाचरित । इष्टकादिभि , मृत्पिण्डेन, वृत्या, कवाटेनोपलेन वा स्थगितं अपनीय दीयते यत्तदुद्भिन्नं । निश्रेण्यादिभिरारुह्य इत आगच्छत युष्माकमिय वसतिरिति या दीयते द्वितीया तृतीया वा भूमि सा मालारीहमित्युच्यते। राजामात्यादिभिर्भयमुपदर्य परकीयं यद्दीयते तदुच्यते अच्छेज्ज इति । अनिसृष्टं पुनविविध । गृहस्वामिना अनियुक्तेन या दीयते वसति यरस्वामिनापि बालेन परवशवर्तिना दीयते सोभय्यप्यनिसृष्टेति उच्यते। उद्गमदोषा निरूपिता । १. झाड तोडकर लाना, इंटें पकवाना, जमीन खोदना, इत्यादि क्रियाओंसे षट् काय जीवोको बाधा देकर स्वय वसतिका बनायी हो या दूसरोंसे बनवायी हो वह वसतिका अध कर्मके दोषसे दूषित है। २. “दीन, अनाथ अथवा कृपण आवेगे अथवा सर्वधर्म के साधु आवेगे, किवा जैनधर्म से भिन्न ऐसे साधु अथवा निम्रन्थमुनि आवेगे, उन सब जनों को यह वसतिका होगी", इस उद्देश्यसे जो वसतिका बाँधी जाती है वह उद्देशिक दोषसे दुष्ट है। ३. जब गृहस्थ अपने लिए घर बंधवाता है, तब 'यह कोठरी सयतोके लिए होगी' ऐसा मनमें विचारकर बंधवायी गयी वह वसतिका अब्भोब्भव दोषसे दुष्ट है । ४. अपने घरके लिए लाये गये बहुत काष्ठादिकोंसे श्रमणों के लिए लाये हुए काष्ठादिक मिश्रण कर बनायी गयी जो वसतिका वह पूतिकदोषसे दुष्ट है । ५. पाखंडी साधु अथवा गृहस्थोके लिए घर बाँधनेका कार्य शुरू हुआ था, तदनन्तर सयतोके उद्देश्यसे काष्ठादिकोंका मिश्रण कर बनवायी जो वसतिका वह मिश्रदोषसे दूषित समझना चाहिए। ६. गृहस्थने अपने लिए ही प्रथम बनवाया था परन्तु अनन्तर यह गृह सयतोंके लिए हो' ऐसा स कल्प जिसमें हुआ है वह गृह स्थापितदोषसे दुष्ट है। ७. "सयत अर्थात् मुनि इतने दिनोके अनन्तर आवेगे अत जिस दिनमें उनका आगमन होगा उस दिनमें सब घर झाडकर, लीपकर स्वच्छ करेंगे," ऐसा मनमें सकल्पकर प्रवेश दिन में वसतिकाका संस्कृत करना पाहुडिग नामका दोष है। ८. (मूलाराधना दर्पणके अनुसार पाहुडिगसे पहिले बलि नामक दोष है। उसका लक्षण वहाँ इस प्रकार किया है)-यक्ष, नाग, माता, कुलदेवता, इनके लिए घर निर्माण करके उनको देकर अवशिष्ट रहा हुआ स्थान मुनिको देना यह बलि नामक दोष है। ह. मुनिप्रवेशके अनुसार संस्कारके कालमें ह्रासकर अर्थात् उनके पूर्व ही संस्कारित जो वसतिका वह प्रादुष्कृत दोषसे दूषित समझनी चाहिए । १०. जिस घरमें विपुल अन्धकार हो तो वहाँ प्रकाशके लिए भित्तिमें छेद करना, वहाँ काष्ठका फलक है तो उसे निकालना, उसमें दोपककी योजना करना यह प्रदुकारदोष है । ११. द्रव्यकोत और भावक्रीत ऐसे खरीदे हुए घरके दो भेद हैं। गाय, बैल, वगैरह सचित्त पदार्थ देकर संयतोके लिए खरीदा हुआ जो घर उसको सचित्त द्रव्यक्रीत कहते हैं। घृत, गुड, खाँड ऐसे
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वसतिका
अचित्त पदार्थ देकर खरीदा हुआ जो बर उसको अति कहते है । विद्या मन्त्रादि देकर खरीद हुए घरको भावक्रोत बहते है । १२ अल्प ॠण करके और उसका सूद देवर अथवा न देकर सयतों के लिए जो मकान लिया जाता है वह पामिच्छदोष से दूषित है । १३ "मेरे घर में आप ठहरो ओर आपका घर मुनियाको रहनेके लिए दो- " ऐसा कहकर उनसे लिया जो घर वह परिषदोपसे दूषित समझना चाहिए । १४ अपने घरकी भीतके लिए जो स्तम्भादिक सामग्री तैयार की थी वह संयतोके लिए लाना, सो अभिघट नामका दोष है। इसके आचरित व अनाचरित ऐसे दो भेद है। जा सामग्री दूर देशसे अथवा अन्य ग्रामसे लायी गयी होय तो उसको अनाचरित कहते हैं और जो ऐसी नहीं होप तो यह आपरित समझनी चाहिए। १५ ईंट, मिट्टी के पिण्ड, कॉटोको बाडी अथवा किवाड, पाषाणों से देका हुआ जो घर ना करके मुनियों को रहने के लिए देना वह उद्भि दोष है। १६. नर्मनी सोडो) रहने यहाँ आइए. आपके लिए यह वसतिका दी जाती है," ऐसा कहकर समतोको दूसरा अथवा तीसरा मजिला रहने के लिए देना, यह मालारोह नामका दोष है । १७ राजा अथवा प्रधान इत्यादिकोसे भय दिखाकर दूसरोका गृहादिक यतियोको रहनेके लिए देना वह अच्छेज्ज नामका शेष है १ अनिसृष्ट दोपके दो भेद है जो दानकार्यमें नियुक्त नहीं हुआ है ऐसे स्वामी से जो वसतिका दी जाती है यह अनिसृष्ट दोष से दूषित है । और जो वसतिका बालक और परवश ऐसे स्वामी मे दो जाती है यह अनि दोष से दूषित समझनी चाहिए। इस तरह उद्गम दोष निरूपण किये।
२. उत्पादनदोष निरूपण
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भ. आ / वि. २३० / ४४४ / ६ उत्पादनदोषा उत्पादनदोषा निरूप्यते पञ्चविधाना - धात्रीकर्मणा अन्यतमेनात्पादिता वसति । काचिद्दारकं स्नपयति, भूषयति क्रोडपति आशयति स्वापयति मा सत्यर्थमेोपादा वसतिर्थावदोषदृष्टा प्रामान्तरागरान्तराच देशादन्य देशो वा सम्बन्धिना वार्तामभिधायोत्पादिता दुतकर्मोत्पादिता । अङ्ग स्वरो, नं लक्षण छिन्नं भीम स्वप्नोऽन्तरिक्षमिति एवभूतनिमित्तो पदेशेन लब्धा बस तिर्निमित्तदोषदुष्टात्मनो जाति, कुल, ऐश्वर्य भवाय स्वाहाकनेनोदिता मसतिशजीवशन्धेनोच्यते। भगआहारदानाइसतिदानाच पुण्यं किमु महदुषजायते इति पृष्टो न भवतीत्युक्ते गृहिजन' प्रतिकूलवचनरुष्टो वसति न प्रयच्छेदिति एवमिति तदनुकूलमुक्त्वा योत्पादिता सा वणिगवा शब्देनोच्यते । अन्य चिकित्सोत्पादिता । घोरादिता कोष मानं माया, लोभ वा प्रमुत्पादिता क्रोधादिचतुष्टयदुष्टा ) । गच्छतामागच्छता च यतीना भवदीयमेव गृहमाश्रय इतीयं वार्ता दूरादेवास्माभि श्रतेति पूर्वं स्तुत्वा या लब्धा । वसनोत्तरकाल च गच्छन्प्रशंसा करोति पुनरपि वसति सप्स्ये इति एवं उत्पादितास्तदोषदृश विद्यया मन्त्रेण चूर्ण प्रयोगेण वा गृहिणं वशे स्थापयित्वा लब्धा । मूलकर्मणा वा भिन्नकन्यायोनिस स्थापना मूलकर्म। विरक्ताना अनुरागजनन वा । उत्पादनाख्योऽभिहितो दोष षोडशप्रकार - १. धात्री पाँच प्रकारकी है - बालकको स्नान करानेवाली उमे वस्त्राभूषण पहनानेवाली. उसका मन प्रसन्न करनेवाली. उसे अन्नपान करानेवाली और उसे सुलानेवाली । इन पाँच कार्योंमे से किसी भी कार्यका गृहस्थको उपदेश देकर, उससे यति अपने रहनेके लिए वसतिका प्राप्त करते है । अतः वह वसतिका धात्रीदोषसे दुष्ट है। २. अन्यग्राम, अन्य नगर और अन्यदेशके सम्बन्धीजनोकी वार्ता श्रावकको निवेदित कर वसतिका प्राप्त करना दूतकर्म नामका दोष है । ३. अंग, स्वर आदि आठ प्रकारके निमित्तशास्त्रका उपदेश कर श्रावकसे वसतिकाकी प्राप्ति करना निमित्त नामका दोष है । ४ अपनी जाति, कुल, ऐश्वर्य बगै
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भा० ३-६७
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वसतिका
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रहका वर्णनकर अपना माहात्म्य श्रात्रक्को निवेदनकर वसतिकाकी प्राप्ति करना आजीब नामक दोप है । ५ हे भगवन् । सर्व लोगोको आहार व वसतिकाका दान देनेसे क्या महान् पुण्यकी प्राप्ति न होगी ' ऐसा श्रावकका प्रश्न सुनकर यदि मे पुण्य प्राप्ति नहीं होती. ऐसा कहूँ तो श्रावक वसतिका न देगा ऐसा मनमें विचार कर उसके अनुकूल वचन बोलकर वसतिकाको प्राप्ति करना वगिंग दोष है। ६. आठ प्रकारको चिकित्सा करके वसतिकाकी प्राप्ति करना चिकित्सा नामक दोष है । ७-१०. क्रोध, मान, माया व लोभ दिखाकर बसतिका प्राप्त करना क्रोधादि चतु दोष है। ११. जानेवाले और आनेवाले मुनियोंको आपका घर ही आश्रय स्थान है। यह वृत्तान्त हमने दूर देशमें भी सुना है ऐसी प्रथम स्तुति करके यसका प्राप्त करना पूर्वस्तुति नामका दोष है। १२. निवासकर जानेके समय पुन भो कभी रहनेके लिए स्थान मिले इस हेतुसे ( उपरोक्त प्रकार हो ) स्तुति करना पश्चातस्तुति नामका दोष है । १३-१५. विद्या, मन्त्र अथवा चूर्ण प्रयोगसे गृहस्थको अपने वशकर यतिकाकी प्राप्ति कर लेना विवाद दोष है। १६. भिन्न जातिकी कन्या के साथ सम्बन्ध मिलाकर बसतिका प्राप्त करना अथवा विरक्तों
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भा/२०/४४२/१६ अथ एपमा प्राह किम योग्या बसतिर्मेति शह किसा तदानीमेव शिता सत्याला सती वा तजलप्रवाहेण वा, जलभाजनलोठनेन वा तदानीमेव लिप्ता वा रिच्यते। सचित्तवृथिव्या अर्पा, हरितानां मोजाना प्रसान उपरि स्थापितं पीठफलकादिकं अत्र शय्या कर्तव्येति या दीयते सा चिह्निता । चेकण्टकप्रावरणाद्याकर्षणं कुर्वता पुरोयायिनोप दर्शिता वसति साहारणशब्देनोच्यते मृतजातयुक्त गृहिजन, मसेन, व्याधितेन नपुंसकेन, पिशाचगृहीतेन, नग्नया वा दीयमाना वसतिदविदृष्टा । स्थावरं पृथिव्यादिभि से पिपी किमणादिभि सहितोन्मिश्रा अधिक वितस्तिमात्रामा भूमेरधिकाया अपि भुवो ग्रहणं प्रमाणातिरेकदोषः । शीतवातातपाद्य प द्रवसहिता यततिरियमिति निन्दा कुर्तो मसनं धूमदोषः निर्माता. विशाला, नात्युष्णा शोभनेयमिति तत्रानुराग इंगाल इत्युच्यते । -- १ "यह वसतिका योग्य है अथवा नहीं है,' ऐसी जिस वसतिकाके विषाका उत्पन्न होगी यह शंकितदोषसे दूषित समझनी चाहिए। २. वसतिका तत्काल ही लीपीं गयी है, अथवा छिद्रसे निकलनेवाले जलप्रवाहसे किंवा पानीका पात्र लुढ़काकर जिसकी लीपापोतो की गयी है वह म्रक्षित वसतिका समझनी चाहिए। 3. सचित्त जमीन के ऊपर अथवा पानी, हरित वनस्पति, बीज वा त्रसजीव इनके ऊपर पीठ फलक वगैरह रखकर 'यहाँ आप शय्या करें' ऐसा कहकर जो वसतिका दी जाती है वह निक्षिप्तदोषसे युक्त है । ४. हरितका बनस्पति को सचित मृत्तिका, वीरहका आच्छादन हटाकर जो वसतिका दी जाती है वह पिहितदोषसे शुरू है। लकड़ी, बस्त्र, कौटे इनका आकर्षण करता हुआ अर्थाद इनको पसी टता हुआ आगे जानेवाला जो पुरुष उससे दिखायी गयी जो वसतिका यह साधारणदोषयुक्त होता है ६. जिसको मरणाशीच अथवा जननाशौच है, जो मत, रोगी, नपुंसक, पिशाचग्रस्त और नग्न है ऐसे दोषसे युक्त गृहस्थके द्वारा यदि वसतिका दी गयी हो तो वह दायकदोषसे दूषित है। ७ पृथिवी जल स्थावर जीवोंसे और चोटी खटमल वगैरह वगैरह त्रस जीवोंसे जो युक्त है, वह वसतिका उन्मदोष सहित समझना चाहिए। ८ मुनियोंको जितने बालिश्त प्रमाण भूमि ग्रहण करनी चाहिए, उससे अधिक प्रमाण भी भूमिका ग्रहण करना यह प्रमाणातिरेक दोष है । ६. "ठण्ड, जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश
अनुरक्त करने का उपाय कर उनसे वसतिका प्राप्त कर लेना मूलकर्म नामका दोष है । इस प्रकार उत्पादन नामक दोषके १६ भेद हैं ।
३. पादप निरूपण
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वसतिकातिचार
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वस्तुत्व
हवा और कड़ी धूप बगेरह उपद्रव इस बसतिकामे है" ऐसी निन्दा करते हुए वसतिकामें रहना धूमदोष है। १० "यह वसतिका वात रहित है", विशाल है, अधिक उष्ण है और अच्छी है, ऐसा समझकर उसके ऊपर राग भाव करना यह इंगाल नामका दोष है। 6. अन्य सम्बन्धित विषय १. वीतरागियोंके लिए स्थानका कोई नियम नहीं।
-दे. कृतिकर्म/३/१/४। २. विविक्त वसतिकाका महत्व । -दे. विविक्त शय्यासन । ३ वसतिकामें प्रवेश आदिके समय नि.सही और असही शब्दका प्रयोग।
-दे. असही। ४. अनियत स्थानोंमें निवास तथा इसका कारण प्रयोजन ।
-दे विहार। ५. एक स्थानपर टिकनेकी सीमा।
-दे. विहार। ६. पंचमकालमें संघसे बाहर रहनेका निषेध। -दे. विहार। ७. वसतिकाके अतिचार ।
-दे, अतिचार/३।
वसतिकातिचार-दे० अतिचार/३। वसा-औदारिक शरीरमें बसा धातुका प्रमाण-दे० औदारिक/१ । वसुंधर-म. पु/६६/श्लोक स.-ऐरावतक्षेत्रके श्रीपुर नगरका राजा
था ७४४ स्त्रीको मृत्युसे विरक्त हो दीक्षा धार महाशक स्वर्ग में उत्पन्न हुआ।७५-७७। यह जयसेन चक्रवर्तीके पूर्वका तीसरा भव है।-दे० जयसेन ।
-रुचक पर्वत निवासिनी एक दिक्कुमारी देवी। -दे० लोक/५/१३ । वसु-१. लौकान्तिक देवीका एक भेद-दे० लौकान्तिक । २ एक
अज्ञानवादी-दे० अज्ञानवाद। ३ प. पु./११/ श्लोक स.-इक्ष्वाकु कुलके राजा ययाति का पुत्र ११३। क्षीरकदम्ब गुरुका शिष्य था ।१४। सत्यवादी होते हुए भी गुरुमाताके कहनेसे उसके पुत्र पर्वतके पक्षको पुष्ट करनेके लिए, 'अजेजष्टव्यम्' शब्द का अर्थ तिसाला जो न करके 'बकरेसे यज्ञ करना चाहिए' ऐसा कर दिया।२। फलस्वरूप सातवे नरकमे गया ।७३ (म, पु/६७/२५६-२८१, ४१३४३१)।४ चन्देरीका राजा था। महाभारतसे पूर्ववर्ती है। "इन्होने इन्द्र व पर्वत दोनोका इकट्ठे ही हव्य ग्रहण किया था" ऐसा कथन
आता है। समय-ई० पू० २००० ( ऋग्वेद मण्डल सूक्त ५३ ) । वसुदेव-ह. पु |सर्ग/श्लोक-अन्धक वृष्णि का पुत्र समुद्र विजयका भाई। ( १८/१२ ) । बहुत अधिक सुन्दर था। स्त्रियाँ सहसा ही उसपर मोहित हो जाती थी। इसलिए देशसे बाहर भेज दिये गये जहाँ अनेक कन्याओसे विवाह हुआ । ( सर्ग १६-३१) अनेक वर्षों पश्चात् भाईसे मिलन हुआ । ( सर्ग ३२ ) कृष्णकी उत्पत्ति हुई। ( ३५।१६) तथा अन्य भी अनेक पुत्र हुए। (४८/५४-६९)। द्वारका जलनेपर
संन्यासधारण कर स्वर्ग सिधारे। (६१/८७-११)। वसुधा- स, स्तो/टी./३/७ वसु द्रव्यं दधातीति वसुधा पृथिवी।
- वसु अर्थात् द्रव्योको धारण करती है। इसलिए पृथिवी वसुधा कहलाती है। वसुनंदि-१ नन्दिसंध बलात्कार गणको गुबविलीके अनुसार आप सिंहनन्दिके के शिष्य तथा वीरनन्दिके गुरु थे। समय-विक्रम शक सं. ५२५-५३१ ( ई० ६०३-६०६) ( दे० इतिहास/७/२ ) १२. नन्दिसंघके देशीयगणकी गुबिलीके अनुसार देवेन्द्राचार्य के शिष्य और
स वचन्द्र के गुरु थे। समय-वि० ६५०-६८० (ई०८६३-६२३)। -दे० इतिहास/७/५ ३. नन्दिसघ देशीयगण के आचार्य । अपर नाम जयसेन । गुरु परम्परा-श्रीनन्दि, नयनन्दि (वि. ११००) नेमिचन्द्र सैद्धान्तिक, वसुनन्दि। कृतिये- श्रावकाचार, प्रतिष्ठासार सग्रह, मूलाचार वृत्ति, वस्तु विद्या, जिनशतक, आप्त मीमांस वृत्ति । समय-लगभग वि. ११५० (ई. १०६८-१९१८) । (ती /३/२२३,२२६), (दे. इतिहास/0/)। वसुनंदि श्रावकाचार-आ वसुनन्दि सं.३ (ई श.११-१२) । रचित प्राकृत गाथाबद्ध ग्रन्थ है । इसमें ५४६ गाथाए है........
(ती./३/२२७)। वसुपाल-मगधका एक प्रसिद्ध जैन राजा जिसने आबू पर्वतपर ऐतिहासिक व आश्चर्यकारी जिनमन्दिरोका निर्माण कराया। समय ई० ११६७ । वसुबधु-ई० २८०-३६० के 'अभिधर्मकोश' के रचयिता एक बौद्ध
विद्वान् । ( सि. वि./प्र. २१/५. महेन्द्र )। वसुमात-१ भरतक्षेत्र आर्यखण्डकी एक नदी। -दे० मनुष्य/४ ।
२. विजयार्धकी उत्तर श्रेणीका एक नगर ।-दे० विद्याधर । वसुमत्का -विजया की उत्तरमेणी का एक नगर-दे० विद्याधर ।
मत्र-मगधदेशकी राज्य वंशावली के अनुसार यह शक जातिका एक सरदार था, जिसने मौर्यकाल में ही मगधदेशके किसी एक भागपर अपना अधिकार जमा रखा था। अपरनाम बलमित्र था और अग्निमित्रका समकालीन था। समय-वी. नि २८५-३४५ ( ई पू. २४६-१८१)-दे० इतिहास/३/४। वसुषणम प्र./६०/श्लोक स -"पोदनपुर नगरका राजा था ।५०।
मलयदेशके राजा चण्डशासन द्वारा स्त्रीका अपहरण होनेपर ।५१-५२। दीक्षा धार ली और निदान बन्धसहित मंन्यासमरण कर सहस्रार
स्वर्गमें देव हुआ।६४-५७) वस्तुलि. वि./मूलवृत्ति/४/११/२६३/११ परिणामो वस्तुलक्षणम् । = परि___णमन करते रहना यहाँ वस्तुका लक्षण है । का अ/पू./२२५ ज वत्थु अणेयंत ते चिय कज्जं करेदि णियमेण । महु धम्मजुदं अत्यं कजकर दीसदे लोए। जो वस्तु अनेकान्तस्वरूप है, वही नियमसे कार्यकारी है। क्योकि लोकमें बहुत धर्म युक्त पदार्थ ही कार्यकारी देखा जाता है।-(विशेष दे० द्रव्य) स्या. म /५/३०/६ वस्तुनस्तावदर्थ क्रियाकारित्व लक्षणम् । स्या में २३/२७२/६ वमन्ति गुण पर्याया अस्मिन्निति बस्तु । - अर्थक्रियाकारित्व ही वस्तुका लक्षण है । अथवा जिसमें गुणपर्याये वास
करे वस्तु है। दे द्रव्य/१/७-( सत्ता, सत्त्व, सत्, सामान्य, द्रव्य, अन्वय, वस्तु, अर्थ,
विधि ये सब एकार्थवाची शब्द है)। दे द्रव्य/१/४ ( वस्तु गुणपर्यायात्मक है)। दे. सामान्य (वस्तु सामान्य विशेषात्मक है)। दे. श्रुतज्ञान/II. ( वस्तु श्रुतज्ञानके एक भेदका नाम है)। वस्तुत्व-आ. प/६ वस्तुनो भावो वस्तुत्वम्, सामान्यविशेषात्मक
वस्तु । -वस्तुके भावको वस्तुत्व कहते हैं। वह बस्तु सामान्य विशेषात्मक है। [अथवा अर्थ क्रियाकारी है अथवा गुण पर्यायोको वास देनेवाली है (दे वस्तु )]। स. भ. त/३८/५ स्वपररूपोपादानापोहनव्यवस्थाप्यं हि वस्तुनो वस्तुत्वम् ।-अपने स्वरूपके ग्रहण और अन्यके स्वरूपके त्यागसे ही वस्तुके वस्तुत्वका व्यवस्थापन क्यिा जाता है।
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वस्तु विद्या
५३१
वातकुमार
वस्तु विद्या-आ बसुनन्दि (ई. १०४३-१०५३) रचित एक वाग्भट्ट-१ नेमि निर्वाण काव्य के रचयिता । समयग्रन्थ ।
१०७५ ११२५ (ती /४/२३) । २ छन्दोनुशासन तथा काव्यनुशासन वस्तुसमास-श्रुतज्ञानका एक भेद-दे श्रुतज्ञान/II ।
के रचयिता कवि। समय-वि श.१४ मध्य । (ती/४/३७)।.
वाचक-ध.१४/५,६,२०/२२/८ । द्वादशाङ्गविद्वाचक = बारह अगका वस्त्र-भा, पा/टी./७/२३०/६ पञ्च विधानि पञ्चप्रकाराणि चेलानि वस्त्राणि अडज वा-कोशज तसरिचीरम् (१) वोडज वा कपासवस्त्रं
ज्ञाता वाचक कहलाता है। (२) रोमज वा ऊर्गामय वस्त्र एडकोष्ट्रादिरोमवस्त्र (वकज वा वाचनावलकं वृथादित्वग्भङ्गादिछन्लिवस्त्र तट्टादिकं चापि (४) चर्मजं वा ___स सि /8/२६/४४३/४ निरबद्यग्रन्थार्थोभयप्रदान बाचना । -निर्दोष मृगचर्मव्याघ्रचर्म चित्रकचर्मगजचर्मादिकम वस्त्र पाँच प्रकारके
ग्रन्थ, उसके अर्थ का उपदेश अथवा दोनो ही उसके पात्रको प्रदान होते है-अडज, वोडज, रोमज, वकज और चर्मज। रेशमसे उत्पन्न
करना वाचना है। (रा. वा /8/२५/१/६२४/९), (त सा/७/१७); वस्त्र अंडज है। कपाससे उपजा वोडज है। बकरे, ऊँट आदिकी
(चा सा/१५३/१), (अन. ध/७/८३/७१४)। उनसे उपजा रोपज है। वृक्ष या बेल आदि छालसे उपजा वक्कज या
ध.६/४,१,५५/२६२/७ जा तत्थ णवसु आगमेसु वायणा अण्णेसि भवियाणं वल्कलज है मृग, व्याघ, चीता, गज आदिके चर्मसे उपजा
जहासत्तीए गथत्यपरूवणा। चर्मज है।
ध.१/४,१.५४/२५०/६ शिष्याध्यापन वाचना।-१. वाचना आदि नौ २. रेशमी वस्त्रकी उत्पत्तिका ज्ञान आचार्यों को
आगमोंमे वाचना अर्थात् अन्य भव्य जीवोंके लिए शक्त्यनुसार
ग्रन्थके अर्थकी प्ररूपणा । (१४/५.६,१२/६/३)। २. शिष्योंको अवश्य था
पढानेका नाम वाचना है । (ध. १४/५ ६,१२/८/६) । भ. आ./मू /8१६ वेढेइ विसयहे, कलत्तपासेहिं दुठियमोएहि । कोसेण २. वा बनाके भेद व लक्षण कोसियारुव्व दुम्मदी णिच्च अप्पाणं ।११।-विषयी जीव स्त्रीके स्नेहपाशमें अपने को इस तरह वेष्टित करता है। जैसे रेशमको उत्पन्न
ध ६/४१.५४/२५२/५ सा चतुर्विधा नन्दा भदा जया सौम्या चेति ।
पूर्वपक्षीकृत परदर्शनानि निराकृत्य स्वपक्षस्थापिका व्याख्या नन्दा। करनेवाला कीड़ा अपने मुखमेसे निकले हुए तन्तुओसे अपनेको वेष्टित करता है।
तत्र युक्तिभिः प्रत्यवस्थाय पूर्वापरविर धपरिहारेण बिना तन्त्रार्थ कथनं
जया। क्वचिव क्वचित स्खलितवृत्तेारख्या सौम्या। वह * साधुको वस्त्रका निषेध-दे० अचेलकत्व ।
( वाचना) चार प्रकार है-नन्दा, भद्रा, जया और सौम्या। अन्य सवस्त्र मुक्तिका निषेध-दे. वेद/७॥
दर्शनोको पूर्व पक्ष करके उनका निराकरण करते हुए अपने पक्षको
स्थापित करनेवाली व्याख्या नन्दा कहलाती है। युक्तियो द्वारा वस्त्रांग-वस्त्र प्रदान करनेवाला कल्पवृक्ष ।-वृक्ष/१ ।
समाधान करके पूर्वापर विरोधका परिहार करते हुए सिद्धान्तमें वस्वाक-विजयाकी उत्तर श्रेणीका एक नगर ।-दे० विद्याधर ।
स्थित समस्त पदार्थों की व्याख्याका नाम भद्रा है । पूर्वापर विरोधके
परिहारके बिना सिद्धान्त के अर्थोका कथन करना जया वाचना वाइम-द्रव्य निक्षेपका एक भेद-दे० निक्षेप/९ ।
कहलाती है। कही-कही स्खलनपूर्ण वृत्तिसे जो व्याख्या की जाती है, वाक्--दे० वचन।
वह सौम्या वाचना है। वाकछल-दे० छल ।
वाचनोपगत-दे० निक्षेप/५/८ । वाकुस-भ, आ./वि./६०१/८०७/8 गिहिमत्तणिसे ज्जवाकुसे लिगो।
वाचस्पति मिश्र-वैदिक दर्शनके एक प्रसिद्ध भाष्यकार गृहस्थाना भाजनेषु कुम्भकरक्शरावादिषु कस्यचिनिक्षेपण, तैर्वा कस्यचिदादानं चारित्राचार । गिमित्तणिसेजबाकुसे अर्थात
जिन्होने न्यायदर्शन, सारु प्रदर्शन व बेदान्तदर्शनके ग्रन्थोपर गृहस्थोके भाजन अर्थात कुम्भ, घडा, करक-कमण्डलु, शराब वगैरह
अनेको टीकाओके अतिरिक्त योगदर्शनके व्यासभाष्यपर भी पात्रो में से किसी पात्र में कोई पदार्थ रखे होगे अथवा किसीका दिये
तत्त्वकौमुदी नामकी एक टीका लिखी है। (दे० वह वह दर्शन )। होगे ये सत्र चारित्राचार है ।
समय-ई० ८४०-दे० न्याय/१/७ । वाक्य-न्या, वि /व./९/६/१३७/१४ वाक्यं नाम पदसदोहकतिपत
वाटग्राम-डॉ. आल्टेके अनुसार वर्तमान बडौदा नगर ही वाट ग्राम नाखण्डे करूपम् । सव क्य नाम पदोके समूहका है, अखण्ड एक
है, क्यो कि, बडौदाका प्राचीन नाम बटरद है और वह गुजरात रूपका नही।
प्रान्त में है । ( क. पा/पु. १/प्र ७४/५ महेन्द्र)। न्या. सू./मू /२/१/६२-६ विध्यर्थवादानुबादवचन विनियोगात ६२।
वाटवान-भरतक्षेत्र उत्तर आर्य खण्डका एक देश ।-दे० मनुष्य/४ । विधिविधायक १६३। स्तुतिनिन्दा परकृति पुराकल्प इत्यर्थवादः ६४। विधिविहितस्यानुवचन मनुवाद ६॥ ब्राह्मण ग्रन्थोंका तीन वाण-भरतक्षेत्र का एक देश --दे० मनुष्य/४। प्रकारसे विनियोग होता है-विधिवाक्य, अर्थवाक्य, अनुवादवाक्य
वाणिज्य-वाणिज्यम, विषवाणिज्य, लाक्षावाणिज्य, दन्त1६२। आशा या आदेश करनेवाले वाक्य विधिवाक्य है । अर्थवाद चार
बाणिज्य, केशवाणिज्य, रसवाणिज्य--दे० सावध/३। प्रकारका है-स्तुति, निन्दा, परकृति, और पुराकल्प ( इनके लक्षणोके लिए दे० वह बह नान)। विधिका अनुवचन और विधिसे जो वाणा-१ पश्यन्ती आदि वाणी-दे० भाषा । २ असम्बद्धप्रलाप, विधान किया गया उसके अनुवचनको अनुवाद कहते है ।
कलह आदि वचन-दे० वचन/१। * वचनके अनेकों भेद व लक्षण-दे० धचन ।
वातकुमार-भवनवासी देवोका एक भेद- दे० भवन/४ । उनका वाक्यशुद्धि-दे० समिति/१।
लोक में अवस्थान-दे० भवन/४ ।
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वातवलय
५३२
वात्सल्य
पध/3/८०६ वान्सल्य नाम दासत्व सिद्धाहहिम्बवेश्मम् । सधे चतुf- शास्त्रे स्वामिकार्ये गुभृत्यबत् । -स्वामी के कार्य मे उत्तम सेवककी तरह सिद्ध प्रतिमा, जिन बिम्ब, जिनमन्दिर, चार प्रकार सघमे और शास्त्रमे जो दासत्व भाव रखना है वही सम्यग्दृष्टिका वात्सल्य नामक अप या गुण है। द अगले शीर्षक स.सा. की व्याख्या-[ त्रयाणा साधूना' इस पदके दो अर्थ होते है। व्यवहार की अपेक्षा अर्थ करनेपर आचार्य, उपाध्याय व साधु इन तीन साधुओसे वात्सल्य करना सम्याष्टिका
धातवलय-स सि./३/१/२०४/३। टिप्पणी में अन्य प्रतिमे गृहीत । पाठ-घन च धनो मन्दो महान् आयत इत्यर्थः । अम्वु च जले उदकमित्यर्थ । वातशब्दोऽन्त्यदीपक तत एव सबन्धनीय । घनो घनवात । अम्बु अम्बुवात । वातस्तनुवात । इति महदापेक्षया तनुरिति सामर्थ्यगम्य । अन्य पाठ । सिद्धान्तपाठस्तु धनाम्बु च वात चेति वातशब्द सोपक्रियते। वातस्तनुवात इति वा ।- (मूल सूत्र में 'घनाम्बुवाताकाशप्रतिष्ठा ' ऐसा पाठ है। उसकी व्याख्या करते हुए कहते है )-धन, मन्द, महान, आयत ये एकार्थवाची नाम है
और अम्बु, जल व उदक ये एकार्थवाचो है। वात शब्द अन्त्य दोपक होने के कारण घन व अम्बु दोनों के साथ जोडना चाहिर । यथा-घनो अर्थात् घनवात, अम्बु अर्थात् अम्बुवात और वात अर्थात तनुवात । महत या घनको अपेक्षा हलको है, यह बात अर्थापत्तिसे हो जान ली जाती है । यह अन्य पाठकी अपेक्षा कथन है । सिद्वान्तपाठके अनुसार तो घन व अम्बुरूप भी है और वातरूप भी है ऐसा बात शब्दका अभिप्राय है। बातका अर्थ तनुवात अर्थात हलकी
वायु है। दे. लोक/२/४ [ घनोदधि वातका वर्ण गोमूत्र के समान है, धनवातका मूंगके समान, और तनुबात का वर्ण अव्यक्त है अर्थात अनेक वर्णवाला है।
* वातवलयोंका लोकमें अवस्थान-दे. लोक/२। वात्सल्यपं.ध./उ./४७० तत्र भक्तिरनौद्धत्यं वाग्वपुश्चेतसा शमात् । वात्सत्यं
तद्वगुगोत्कर्ष हेतवे सोद्यतं मन ।४७०। -दर्शनमोहनीयका उपशम हानेसे मन वचन कायके उद्धतपनेके अभावको भक्ति कहते है, तथा उनके गुणोके उत्कर्ष के लिए तत्पर मनको वात्सल्य कहते हैं।
२. वात्सल्य अंगका व्यवहार लक्षण मू. आ./२६३ चावण्णे सघे चदुगदिस सारणित्थरणभूदे। वच्छल्ल
कादव्व वच्छे भावी जहा गिद्धो। -चतुर्गतिरूप ससारसे तिरनेके कारणभूत मुनि आर्यिका आदि चार प्रकार सधमें, बछडे में गायकी प्रोतिकी तरह प्रीति करना चाहिए । यही वात्सल्य गुण है।-(विशेष दे. आगे प्रवचन वात्सल्यका लक्षण ) (पुसि. उ./२६) भ. आ./वि./४५/१५०/५ धर्मस्थेषु मातरि पितरि भ्रातरि वानुरागो वारसत्यम् । धार्मिक लोगोंपर, और माता-पिता भ्राताके ऊपर प्रेम रखना वात्सल्य गुण है। चा. सा//३ सद्य प्रसूता यथा गौर्वत्से स्निह्यति । तथा चातुर्वर्ये सधे कृत्रिमस्नेहकरणं वात्सल्यम् । -जिस प्रकार तुरतकी प्रसूता गाय अपने बच्चेर प्रेम करती है, उसी प्रकार चार प्रकार के सघपर अकृत्रिम या स्वाभाविक प्रेम करना वात्सल्य अग कहा जाता है।(दे. आगे शीर्षक सं.४) का. आ./मू./४२१ जो धम्मिएसु भत्तो अणुचरणं कुणदि परमसद्धाए । पिय वयणं जपतो बच्छल्ल तस्स भवस्स ।२२१४ - जो सम्यग्दृष्टि जोव प्रिय वचन बोलता हुआ अत्यन्त श्रद्धासे धार्मिक जनो में भक्ति रखता है तथा उनके अनुसार आचरण करता है. उस भव्य जोबके
वात्सल्य गुण कहा है। द्र.स./टो/४१/१७५/११ बाह्याभ्यन्तररत्नत्रप्राधारे चतुर्विधस घे वत्से धेनुवत्पञ्चेन्द्रियविषयनिमित्तं पुत्रकलत्रसुवर्णादिस्नेहवद्वा यदकृत्रिम स्नेहकरणं तदन्यवहारेण वात्सल्य भण्यते। - बाह्य और अभ्यन्तर रत्नत्रयको धारण करनेवाले मुनि आर्यिका श्रावक तथा श्राविकारूप चारो प्रकारके सघमें, जैसे गायकी बछडे में प्रति रहती है उसके समान, अथवा पाँचों इन्द्रियों के विषयोके निमित्त पुत्र, स्त्री, सुवर्ण आदिमें जो स्नेह रहता है, उसके समान स्वाभाविक स्नेह करना, यह व्यवहारनयकी अपेक्षासे वात्सल्य कहा जाता है।
३. वात्सल्यका निश्चय लक्षण स. सा /मू /२३५ जो कुणदि बच्छलत्त तियेह साहूण मोवस्वमग्गम्मि ।
सो वच्छलभावजुदो सम्मादिट्ठो मुणेयव्यो। -जो ( चेतयिता) मोक्षमार्ग में स्थित सम्यग्दर्शन ज्ञान चारित्ररूप तीन साधको या साधनो के प्रति ( अथवा व्यवहारसे आचार्य उपाध्याय और मुनि इन तीन साधुओके प्रति ) वात्सल्य करता है, वह वात्सल्यभावसे युक्त सम्यग्दृष्टि जानना चाहिए। रा. वा /६/२४/१/५२६/१५ जिनप्रणीतधर्मामृते नित्यानुरागता वारसल्यम् । = जिन प्रणीत ( रत्नत्रय) धर्मरूप अमृतके प्रति नित्य अनु
राग करना वात्सल्य है । (म पु./६३/३२०); (चा सा/१/३) भ. आ /वि/४५/१५०/५ वात्सल्य, रत्मत्रयादरो व आत्मने । अथवा
अपने रत्नत्रय धर्म में आदर करना वात्सल्य है। पुसि, उ./२६ अनवरतम हिंसायां शिवसुख लक्ष्मी निबन्धने धर्मे। सर्वेध्वपि च सर्मिषु परम वात्सल्यमालम्ब्यम् । मोक्षसुखकी सम्पदाके कारणभूत जैनधर्म मे, अहिसामें और समस्त ही उक्त धर्मयुक्त साधर्मी जनो में निरन्तर उत्कृष्ट वात्सल्य ब प्रीतिको अवलम्बन करना चाहिए। द्र.स /टो/३१/१७६/१० निश्चयवात्सल्य पुनस्तस्यैव व्यवहारवात्सल्यगुणस्य सहकारित्वेन धमें दृढत्वे जाते सति मिथ्यात्वरागादिसमस्तशुभाशुभाबहिविषु प्रीति त्यक्त्वा रागादिविकल्पोपाधिरहितपरमस्वास्थ्यसवित्तिसजातसदानन्दै कलक्षणसुखामृतरसास्वाद प्रति प्रीतिकरणमेवेति सप्तमान व्याख्यातम् ।-पूर्वोक्त व्यवहार वात्सल्यगुणके सहकारीपनेसे जब धर्म में दृढता हो जाती है, तब मिथ्यात्व, राग आदि समस्त शुभ अशुभ बाह्य पदार्थों में प्रीति छोडकर रागादि विक्सपोंकी उपाधिसे रहित परमस्वास्थ्यके अनुभवसे उत्पन्न सदा आनन्दरूप सुखमय अमृतके आस्वादके प्रति प्रीतिका करना ही निश्चय वात्सल्य है। इस प्रकार सप्तम वात्सल्य अगका व्याख्यान
४. प्रवचन वात्सल्यका लक्षण स सि /६/२४/३३६/६ वत्से धेनुवत्सधम णि स्नेह प्रवचनवत्सलवम् ।
जेसे गाय बछडेपर स्नेह रखती है उसी प्रकार साधर्मियोंपर स्नेह रखना प्रवचनवत्सलत्व है। (भा पा /टी./०७/२२१/१७) रा वा./६/२४/१३/५३०/२० यथा धेनुत्से अकृत्रिमस्नेहमुत्पादयति तथा सधर्माणमवलोक्य तद्गतस्नेहाद्रीकृतचित्तता पवचनवत्सलत्वमित्युच्युते। य सधर्मणि स्नेह स एव प्रवचनस्नेह' इति। =जसे गाय अपने बछडेसे अकृत्रिम स्नेह करती है उसी तरह धार्मिक जनको देखकर स्नेहसे ओतप्रोत हो जाना प्रवचनवत्सलत्व है। जो धार्मिकोंमे स्नेह है वही तो प्रवचन स्नेह है। ध.८/३,४१/१०/७ तेसु अणुरागो आकरखा ममेदभावो पवयणवच्छलदा
णाम -( उक्त प्रवचनो अर्थात् सिद्धान्त या बारह अगोमें अथवा उनमें होनेवाले देशवती महाव्रती व असंगतसम्यग्दृष्टियों में-(दे. प्रवचन ) ] जो अनुराग, आकांक्षा अथवा ममेदं बुद्धि होती है. उसका नाम प्रवचनवत्सलता है । (चा, सा./५६/५)
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वात्स्यायन
५३३
वाद
५. एक प्रवचनवात्सल्यसे ही तीर्थकर प्रकृति बन्ध सम्मावनामें हेतु घ.८/३४१/१०८ तीए तित्थयरकम्म बज्मइ। कुदो। पंचमहव्यदादि
आगमत्थविसयमुक्कट्ठाणुरागस्स दंसणविसुज्झदादोहि अविणाभावादो। चा, सा 11७/१ तेनैकेनापि तीर्थक्रनामकर्मबन्धो भवति । -उस एक प्रवचन वात्सत्यसे हो तीर्थकर नामकर्मका बन्ध हो जाता है, क्योकि, पाँच महावतादिरूप आगमार्थ विषयक उत्कृष्ट अनुरागका दर्शनविशुद्धतादिकोके साथ अविनाभाव है। (चा सा /५७/१), (और भी दे. भावना/२)
१. वात्सल्य रहित धर्म निरर्थक है कुरल काव्य/८/७ अस्थिहीनं यथा कीट सूर्यो दहति तेजसा । तथा दहति धर्मश्च प्रेमयन्य नृकीटकम् ।७। - देखो, अस्थिहीन की डेको सूर्य किस तरह जला देता है। ठीक उसी तरह धमशीलता उस
मनुष्यको जला डालती है जो प्रेम नहीं करता। वात्सायन-असपाद गौतमके न्यायसत्रके सर्वप्रधान भाष्यकार ।
समय-ई श./४/-दे. न्याय/१/७ । वाद-चौथे नरकका छठा पटल।-दे. नरक/५/११॥ वाद-हार-जीतके अभिप्रायसे की गयी किसी विषय सम्बन्धी चर्चा वाद कहलाता है। वीतरागीजनोंके लिए यह अत्यन्त अनिष्ट है। फिर भी व्यवहारमें धर्म प्रभावना आदिके अर्थ कदाचित इसका प्रयोग विद्वानोको सम्मत है।
१. वाद व विवादका लक्षण दे० कथा ( न्याय/३) ( प्रतिवादीके पक्षका निराकरण करने के लिए अथवा हार-जोतके अभिप्रायसे हेतु या दूषण देते हुए जो चर्चा की
जाती है वह विजिगीषु कथा या वाद है।) न्या मूम् /१/२/१/४१ प्रमाणतर्कसाधनोपलम्भ सिद्धान्ताविरुद्ध पञ्चावयबोपपन्न' पक्षप्रतिपक्षपरिग्रहो वाद ५११- पक्ष और प्रतिपक्ष के परिग्रहको बाद कहते है। उसके प्रमाण, तर्क, साधन, उपालम्भ, सिद्वान्तसे अविरुद्व और पच अवयवसे सिद्ध ये तीन विशेषण है। अर्थात जिसमें अपने पक्षका स्थापन प्रमाणसे, प्रतिपक्षका निराकरण तर्कमे परन्तु सिद्धान्तसे अविरुद्ध हो; और जो अनुमानके पॉच अव
यवोसे युक्त हो, वह वाद कहलाता है। स्या म /१०/१०७/८ परस्पर लक्ष्मीकृतपक्षाधिक्षपदक्ष वादो-वचनो
पन्यासो विवाद । तथा च भगवान् हरिभद्रसूरि -'लव्यख्यात्यथिना तु स्पद दु स्थितेनामहात्मना । छलजातिप्रधानो य स विवाद इति स्मृत । दूसरेके मतको खण्डन करनेवाले वचनका कहना बिबाद है। हरिभद्रसूरिने भो कहा है, "लाभ और ख्यातिके चाहने वाले कलुषित और नीच लोगहल और जाति से युक्त जो कुछ क्थन करते है. वह विवाद है।"
न्या. वि./वृ./१/४/११०/१३ स वादो निर्णय एव 'नात परो विमवाद' इति वचनात् । तदभावो विसवाद । - सवाद निर्णय रूप हता है, क्योकि, 'इससे दूसरा विसंवाद है। ऐसा वचन पाया जाता है। उसका अभाव अर्थात निर्णय रूप न होना और वैसे ही व्यर्थ मे चर्चा करते रहना, सो विसवाद है ।
३. वीतराग कथा बाद रूप नहीं होती न्या. दी./2/8४/८०/२ केचिद्वीतरागक्या बाद इति कथयन्ति तत्पारिभाषिकमेव । न हि लोके गुरु शिष्यादिवाग्यापारे वादध्यवहारे। विजिगीषुवाग्व्यवहार एव बादत्वप्रसिधे । = कोई (नै यायिक लोग) धीतराग कथाको भी वाद कहते है। (दे० आगे शीष क नं.१) पर बह स्वग्रहमान्य अर्थात् अपने घरकी मान्यता ही है, क्योकि लोक्मे गुरु-शिष्य आदिको सौम्य चर्चाको बाद या शास्त्रार्थ नही कहा जाता। हॉ, हार-जीतकी चर्चाको अवश्य वाद कहा जाता है। ४. वितण्डा आदि करना भी वाद नहीं है वादामास है न्या. विम् /२/२१५/२४४ तदाभासो वितण्डादि अभ्युपेताव्यवस्थिते ।
- वितण्डा आदि करना वादाभास है, क्योकि, उससे अभ्युपेत (अगीकृत) पक्षको व्यवस्था नहीं होती है। ५. नैयायिकोंके अनुसार वाद व वितण्डा आदि में
अन्तर न्या सू /टिप्पण:/१/२/१/४१/२६ तत्र गुर्वादिभि सह वाद - विजिगीषुणा सह जल्पवितण्डे । =गुरु, शिष्य आदिकोमें वाद होता है और जोतने की इच्छा करनेवाले वादो व प्रतिवादी में जल्प व वितण्डा होता है।
६. वादीका कर्तव्य मि विवृ/१०/३३५/२१ वादिना उभयं कर्तव्यम् स्वपक्षसाधन
परपक्षदूषणम् । सि वि.//1/११/३३०/१६ विजिगीषुणोभय कर्तव्य स्वपक्षसाधन परपक्षदूषणम् । -बादी या जीतकी इच्छा करनेवाले विजिगीषुके दो कर्तव्य है-स्वपक्षमे हेतु देना और परपक्षमे दूषण देना। .. मोक्षमार्गमें वाद-विवादका निषेध त. मू./७/६ मधर्माविसबादा । =सर्मियो के साथ विसंवाद अर्थाद
मेरा तेरा न करना यह अचौर्य महावतकी भावना है। यो सा/अ/७/३३ बादाना प्रतिवादाना भाषितारो विनिश्चितं । नेव गच्छन्ति तत्यान्त गतेरिम विलम्बित १३३- जो मनुष्य वादप्रतिवादमे उलझे रहते है, वे नियमसे धारतविक स्वरूपको प्राप्त
नही हो सकते। निराम /१६ तम्हा सगपरसमए क्यणविवादंण कादम्वा । इति । - इगलिए परमार्थ के जाननेवालीको स्वसमयो तथा परसमयो
के साथ वार करने योग्य नहीं है। प्र.सा/ता. वृ /२२३/प्रक्षेपक गा८ की टीका/३०/१० इदमत्र तात्पर्यम्स्वयं वरतुग्वरूपमेव ज्ञातव्यं पर प्रति विवादो न कर्त्तव्य' । कस्मात् । विवादे रागद्वेषोत्पत्तिर्भवति, ततश्च शुद्धात्मभावना नश्यतीति । यहाँ यह तात्पर्य समझना चाहिए कि स्वय वस्तुस्वरूपको जानना ही योग्य है। परके प्रति विवाद करना योग्य नही, क्योकि, विबादमें रागद्वेषकी उत्पत्ति होती है, जिससे शुद्धात्म भावना नष्ट हो जाती है । ( और उससे संसारकी वृद्धि होती हैद्र स.)। --(द्र स./टो./२२/६७/६) ।
२. संवाद व विसंवादका लक्षण स. सि १६/२२/३३७/१ विसंवादनमन्यथाप्रवर्तनम् । स सि./७/६/३४५/१२ ममेद तवेद मिति समिभिरसंवाद ।
-१ अन्यथा प्रवृत्ति (या प्रतिपादन-रा.बा ) करना विसवाद है। (रा वा/६/२२/२/१२८/११)। २. 'यह मेरा है, यह तेरा है' इस प्रकार साधर्मियोसे विसंवाद नही करना चाहिए। (रा.बा./७/६/-1५३६/१६); (चा. सा/१४/५))
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वादन्याय
८. परधर्म हानि के अवसरपर बिना बुलाये बोले अन्यथा चुन रहे
भ आ. / / २६/०१ कणरस अप्पणी या विधम्मिए विस कन् ज अ पुगिसो अपोहि य पुज - दूसरीका अपना अपना धार्मिक कार्य नष्ट होनेका प्रसंग आनेवर बिना पूछे ही बोलना चाहिए। यदि कार्य विनाशका प्रसंग न हो ताज कोई पूछेगा गोल नहीं गानो /६/९५ धर्मनाशे विवाध्यसे मुसिद्वान्दार्थविप्लबष्टेरपि वक्तव्य तत्स्वरूपप्रकाशने । १५१ - जहाँ धर्मका नाश हो क्रिया बिगतो हो तथा समीचीन सिद्धान्तका लोप होता हो उस समय धर्मकिया और सिद्धान्तके प्रकाशनार्थ बिना से भी विद्वानोको बोलना चाहिए।
अन्य सम्बन्धित विषय
२. योगवकता व विवाद अन्तर
२, वस्तु विवेचनका उपाय ।
३, वाद व जय पराजय सम्बन्धी ।
४ अनेकों एकान्तवाद न मतोके लक्षण निदेश आदि ।
५३४
- दे० योगवक्रता ।
-दे० न्याय / १ ।
-- ३० न्याय / २ |
- दे० वह वह नाम । दे० अनुमान / ३ । है - दे० वाद / १ वादन्याय - आ कुमारनन्दि ( ई ७७६ ) कृत संस्कृत भाषा में न्याय विषयक ग्रन्थ (ती / २ / ३५०, ४४८) ।
५. वादने पक्ष व हेतु दो ही अत्रयत्र होते है । ६. गायिक लोग नाद पाँच अवयव मानते
वाद महार्णव
-श्वेताम्त्रराचार्य श्री अभयदेव ( ई श. १०) कृत संस्कृत का न्याय विषयक ग्रन्थ ।
वादिचंद्र - नन्दिस बलात्कारगण की सूरत शाखा में प्रभा चन्द्र के शिष्य और महीन्द्र के गुरु कृतिये पार्श्वपुराण, श्रीपाल आख्यान ज्ञान सूर्योदय नाटक, शुभलोचना चरित्र समय - वि १६३७- १६६४ (ई १५८०-१६०७) । (दे. इतिहास / ७/४), (तो/४/७१), जे १/४०६
बादित्व ऋद्धि दे०/२
वादिदेव सूरि तार्किक व नैयायिक एक श्वेताम्बराचार्य जिन्हाने 'परीक्षामुख' ग्रन्थपर 'प्रमाण नय तत्वालकार स्याद्वाद रत्नाकर' नामकी टीका लिखी है। आपके शिष्यका नाम रत्नप्रभ समय-ई १९१० - १९६६ (सि. वि./ २०.४१/१ महेन्द्र कुमार ) ।
वादिराज१ आ समन्तभद्र (ई १२०-१८५) का अपर नाम (दे. इतिहास / ७ / १ ) २ दक्षिण देशवासी श्री विजय (ई. १५०) के गुरु । समय – ई श १० का पूर्वार्ध । (ती / ३ /१२ ) । ३ द्रविडसघ नन्दिगच्छ उरु गल शाखा मति सागर के शिष्य श्रीपाल के प्रशिष्य, अनन्तवीर्य तथा दयापाल के सहधर्मा । एकीभाव स्तोत्र की रचना द्वारा अपने कुष्ट रोग का शमन किया। कृति- पार्श्वनाथ चरित्र, यशोधर चरित्र, एकीभाव स्तात्र, न्याय विनिश्चय विवरण, प्रमाण निर्णय । समय- चालुक्य नरेश जयसिंह (ई १०१६ १०४२) द्वारा सम्मानित । पार्श्वनाथ चरित्र का रचना काल शक १४७ ( ई १०२५) अत ई १०१०- १०६५ । (दे इतिहास /६/३) । (ती /३/८८-६२) ।
धायु
वादीसह
अकलक देव के गुरु भाई पुष्यसेन (ई. (२०-६८०) के शिष्य । असली नाम ओडयदेव, तमिलनाडु के वासी कृतियेछत्र चूड़ामणि, गद्य चिन्तामणि । समय ई. ७७०-८६० । (वे इतिहास/०/२) (सी/३/२५-२७) २ वादिराज के शिष्य, यादवराज ऐरेयंग शान्तराज तेलगु (ई ११०३) को गुरु । असली नाम अजित सेन । कृति स्याद्वाद् सिद्धि । समय-ई. ११०३ (ई श. १२ पूर्व)। (ती./३/६२) ।
वानप्रस्थ वा सा / ४६ / २ मानप्रस्थ अपरिगृहीतनिरूपा वस्त्रखण्डधारिणो निरविमुता भवन्ति जिन्होंने भगवा देवकादिगम्बर रूप धारण नहीं किया है, जो सण्डवस्त्रोको धारणकर निरतिशय तपश्चरण करने में तत्पर रहते है, उन्हे वानप्रस्थ कहते है ।
वानर वंश इतिहास१०/१३
वानायुज भरत क्षेत्रका एक देश-दे० मनुष्य / ४ । वामदेव-
=
१ मूलसंघी भट्टारक । गुरु परम्परा - विनयचन्द, लक्ष्मीचन्द्र वामदेव प्रतिष्ठा आदि विधानों के ज्ञाता एक जिनभक्त कायस्थ । कृतिये - भावस ग्रह, त्रैलोक्यप्रदीप, प्रतिष्ठा सिग्रह, त्रिलोकसार पूजा समार्थसार ज्ञानोपन सूक्तिसंग्रह, श्रुतज्ञानोद्यापन, मन्दिर संस्कार पूजा । समय-वि श १४-१५ के लगभग (जे./१/४८४४२) (तो ६५
वामन राजाकी नगरी - दे० वनस्पती | वामनसंस्थान दे०सस्थान
वामा भगवान् पार्श्व की माता। अपर नाम ब्राह्मी, वर्मिला, वर्मा । -३० सीकर।
वायव्य-पश्चिमोत्तर कोणवाली विदिशा ।
वायु वायु भी अनेक प्रकारको है। उनमें से कुछ अचित्त होती है, और कुछ सचित्त । प्राणायाम ध्यान आदिमे भी वायुमण्डल व वायवी धारणाओका प्रयोग किया जाता है ।
-R
१. वायुके अनेकों भेद व लक्षण
दे, पृथिवी - (वायु, वायुकायिक, वायुकाय और वायु इस प्रकार वायु के चार भेद है। तहाँ वायुकायिक निम्नरूपसे अनेक प्रकार है ) । मू आ. / २१२ वादुभामो उक्कलि मडलि गुजा महा घणु तणू य । ते जाण बाउजीवा जाणित्ता परिहरेदब्बा । २१२ । सामान्य पवन, भ्रमता हुआ ऊँचा जानेवासा पवन महुत रज सहित जनेवाला पहन पृथिवीमे लगता हुआ चक्करवाला पवन, गूँजता हुआ चलनेवाला पवन, महापान, घनोदधि बात, घनवात, तनुवात ( विशेष दे० वातवलय) - ये वायुकायिक जीव है । ( प स / प्र /९/८०), (ध. १/ १.१.४२ / १२ / २७३ ) ( त सा /२/६५ ) ।
भ आ /त्र /०८/०५/२० कामडलि दी वायो । बायुके झझावात
और माण्डलिक ऐसे दो भेद है। जलवृष्टि सहित जो वायु महती है उसको मादा करते है ओर जो बनाकार भ्रमण करती है उसको माण्डलिक वायु कहते है ।
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२. प्राणायाम सम्बन्धी वायु मण्डल
ज्ञा / २६१२१.२६
विन्दुको मीशानम् चञ्चल प नोपेल दुर्लक्ष्य वायुमण्डल २१ तिर्यग्वत्यविश्रान्त पहनाय
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वायु
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वारुणी
षडङ्गुल । पवन' कृष्णवर्णोऽसौ उष्ण शीतश्च लक्ष्यते ।२६।- सुवृत्त कहिए गोलाकार तथा बिन्दुओ सहित नीलाजन धनके समान है वर्ण जिसका, तथा चचला ( बहता हुआ) पवन बीजाक्षर सहित, दुर्लक्ष्य ( देखने में न आवे ) ऐसा वायुमण्डल है। यह पवनमण्डलका स्वरूप कहा ।२१। जो पवन सब तरफ तिर्यक् बहता हो, विश्राम न लेकर निरन्तर बहता हो रहै तथा ६ अगुल बाहर आवै, कृष्णवर्ण हो, उष्ण हो तथा शीत भी हो ऐसा पवनमण्डल सम्बन्धी पवन पहचाना जाता है।
५. अन्य सम्बन्धित विषय १. बादर तैजसकायिक आदिकोंका भवनवासियोंके विमानो व आठों पृथिवियोंमें अवस्थान
(दे० काय२/५)। २ सूक्ष्म तैजसकायिक आदिकोंका लोकमें सर्वत्र अवस्थान
(दे० क्षेत्र/४)। ३. वायुमें पुद्गलके सर्व गुणोंका अस्तित्व (दे० पुद्गल/R)। ४. वायु कायिकोंमें कथचित् त्रसपना (दे० स्थावर )। ५ वायुकायिकोंमें वैक्रियिक योगकी सम्भावना ( दे० वैक्रियिक ) । ६. मार्गणा प्रकरणमें भाव मार्गणाकी इष्टता तथा तहा आयके। अनुसार ही व्यय होनेका नियम
(दे० मार्गणा)। ७ वायुकायिकोंमें गुणस्थान, जीवसमास, मार्गणास्थान आदि २० प्ररूपणाएँ
(दे० सद)। ८. वायुकायिकों सम्बन्धी सत् , सख्या. क्षेत्र, स्पर्शन, काल, अन्तर, भाव व अल्पबहुत्व रूप ८ प्ररूपणाएँ
(दे० वह वह नाम)। ९. वायुकायिकोंमें कर्मोका बन्ध उदय सत्त्व (दे० वह वह नाम) ।
३. मारुती धारणाका स्वरूप ज्ञा /३७/२०-२३ विमानपथमापूर्य संचरन्तं समीरणम् । स्मरत्यविरत योगी महावेगं महाबलम् ।२०। चालयन्तं सुरानीकं ध्वनन्त त्रिदशालयम्। दारयन्त धनवात क्षोभयन्तं महार्णवम् ।२१। वजन्तं भुवनाभोगे सचरन्तं हरिन्मुखे। विसपन्तं जगन्नीडे निविशन्तं धरातले १२२। उदधूय तद्रज' शीघ्र तेन प्रबलवायुना। तत' स्थिरीकृताभ्यास' समीर शान्तिमानयेत ।२३। योगी आकाशमें पूर्ण होकर विचरते हुए महावेगवाले और महाबलवान् ऐसे वायुमण्डलका चिन्तवन करें ।२०। तत्पश्चात् उस पवनको ऐसा चिन्तवन करै कि-देवो की सेनाको चलायमान करता है, मेरु पर्वतको कॅपाता है, मेघोके समूहको बखेरता हुआ, समुद्रको क्षोभरूप करता है ।२१। तथा लोक्के मध्य गमन करता हुआ दशो दिशाओमें सचरता हुआ जगतरूप घरमें फैला हुआ, पृथिवीतलमे प्रवेश करता हुआ चिन्तधन करै ।२२। तत्पश्चात ध्यानी (मुनि) ऐसा चिन्तवन करै कि वह जो शरीरादिक का भरम है ( दे० आग्नेगी धारणा ) उसको इस प्रबल वायुमण्डलने तरकाल उडा दिया, तत्पश्चात् इस वायुको स्थिररूप चिन्तवन करके
स्थिर करे ।२३। त. अनु /१८४ अकार मरुता पूर्य कुम्भित्वा रेफवाहिना । दग्ध्वा स्ववपुषा कर्म, स्वतो भस्म विरेच्य च ।१८४।- अह मन्त्रके 'अ' अक्षरको पूरक पवनके द्वारा पूरित और कुम्भित करके रेफको अग्निसे कम चक्रको अपने शरीर सहित भस्म करके फिर भस्मको स्वय विरेचित करे ।१८४।
४. बादर वायुकायिकोंका लोको अवस्थान
ष. रख /४१,3/सूत्र २४/३६ बादरकाउक्काइयपज्जत्ता केवडि खेत्ते, लोगस्स
संखेज्जदिभागे ।२४। घ १,३,१७/८३/६ मदरमूलादो उपरि जाव सदरसहस्सारकप्पो त्ति
पचरज्जु उस्सेधेण लोगणाली समचउरंसा वादेण आउण्णा। ध ४/३,२४/१३/८ बादरवाउपज्जत्तरासी लोगस्स सखेज्जदिभागमेत्तो मारणं तिय उववादगदा सबलोगे किण्ण होदि त्ति वुत्ते ण होदि, रज्जुपदरमुहेण पंचरज्जुआय मेग ट्ठिदखेत्ते चेत्र पाएण तेसिमुप्पत्तीदो। बादर वायुकायिक पर्याप्त जीव वितने क्षेत्रमें रहते है। लोकके सख्यातवे भागमे रहते है ।२४। (बह इस प्रकार कि)मन्दराचल के मूलभागसे लेकर ऊपर शतार और सहस्रार कल्प तक पाँच राजु उत्सेध रूपसे समचतुरस्र लोकनाली वायुसे परिपूर्ण है।प्रश्न -बादर बायु कायिक पर्याप्त राशि लोकके सख्यातवे भागप्रमाण है जब वह मारणान्तिक समुद्रात और उपपाद पदोका प्राप्त हो तत्र वह सर्व लोकमें क्यो नही रहती है ? उत्तर-नही रहती है, क्योकि, राजुप्रतरप्रमाण मुखसे और पॉच राजु आयामसे स्थित क्षेत्रमें ही प्राय करके उन आदर व युकायिक पपि जीवो की उत्पत्ति होती है।
वायुभूति-ह पु/३/श्लोक- मगधदेश शालिग्राम सोमदेव ब्राह्मण
का पुत्र था ।१००। मुनियो द्वारा अपने पूर्व भवका वृतान्त सुन रुष्ट हुआ। रात्रिको मुनिहत्याको निक्ला पर यक्ष द्वारा कील दिया गया। मुनिराजने दयापूर्वक छुडवा दिया, तब अणुव्रत धारण किया और मरकर सौधर्म स्वर्ग मे उपजा । ( १३६-१४६)। ग्रह कृष्ण के पुत्र शम्बके पूर्व का छठा भव है-दे० शब । वायुरथम प/५८/८०-८२ भरतक्षेत्रके महापुर नगरका राजा था। धनरथ नामक पुत्र को राज्य देकर दीक्षा ले ली। प्राणत स्वर्ग के अनुत्तर विमानमे उत्पन्न हुआ। यह 'अचलस्तोक' बलभद्रका पूर्वभव न २ है।-दे० अचल स्तोक ! वारिणी-विजपा की उत्तर श्रेणीका एक नगर-दे० विद्याधर । वारिषण---१. बृहत्कथा कोश/कथा नं १०/पृ०-राजा श्रेणिक का पुत्र था ।३५॥ विद्य च्चर चोरने रानी चेलनाका सूरदत्त नमक हार चुराकर ३६। कोतवालके भय से श्मशान भूमिमे यानरथ इनके आगे डाल दिया, जिसके कारण यह पकडे गये। राजाने प्राणदण्डकी आज्ञा की पर शस्त्र फूलोके हार बन गये। तब विरक्त हा दीक्षा ले ली ।३। सोमशर्मा मित्र को जबरदस्ती दीक्षा दिलायी ।३१। परन्तु उसकी स्त्री सम्बन्धी शल्यको न मिटा सका। तम उसके स्थितिकरणार्थ उसे अपने महल में ले जाकर समस्त रानियोको गारित होनेको आज्ञा दी। उनका सुन्दर रूप देख कर उसके मनकी शल्य धुल गयी और पुन दोसित हो धर्ममे स्थित हुआ।४। २. भगवान् वीरके तीर्थ के एक अनुत्तरोपपादक-दे० अनुत्तरोपपादक । वारुणो-ज्ञा ३७/२४-२७ बारुण्या स हि पुण्यात्मा घनजालचित नभ । इन्द्रायुघतडिद्गर्जच्चमत्काराकुल स्मरेत् ।२४। सुधाम्बुप्रभवै सान्द्रबिन्दुभिर्मोक्तिकोज्ज्वलै । वर्षन्त ते स्मरेद्धीर स्थूलस्थूलै निरन्तरम् ॥२५॥ ततोऽद्वन्दुसम कान्त पुर वरुणलाञ्छितम् । ध्यायेत्सुधापय पूरै प्लावयन्तं नभस्तलम् ।२६१ तेनाचिन्त्यप्रभावेण दिव्यध्यानोत्थिताम्बुना । प्रालयति नि शेष तद्रज कायसभाम्। वही पुण्यात्मा ( ध्यानी मुनि ) इन्द्रधनुष, बिजली, गर्जनादि चमत्कार सहित मेघो के समूहसे भरे हुए आकाशका ध्यान वरै ।२४ तथा उन मेधोको अमृतमे उत्पन्न हुए मोतियोके समान उज्ज्वल बडे-बडे बिन्दुओसे निरन्तर धारप वर्पते हुए आकाशको धीर, चीर मुनि
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वारुणी
स्मरण करे अर्थात् ध्यान करे | २५ | तत्पश्चात् अर्द्धचन्द्राकार, मनोहर, अमृतमय, जल के प्रवाहसे आकाशको बहाते हुए वरुणपुर ( वरुण मण्डलका ) चितवन करे । २६ । अचिन्त्य है प्रभाव जिसका ऐसे दिव्य ध्यान से उत्पन्न हुए जलसे, शरीर के जलने से ( दे० आग्नेयी धारणा ) उत्पन्न हुए समस्त भस्मको प्रक्षालन करता है, अर्थात् धोता है, ऐसा मन परे
त अनू / १०५ ह मन्त्रो नभसि ध्येय क्षरन्नमृतमारमनि। तेनान्यत्तद्विनिर्माण पीयूषममुज्ज्वल १८५८ को आध ऐसे ध्याना चाहिए कि उससे आत्मामे अमृत कर रहा है, और उस अमृत से अन्य शरीरका निर्माण होकर वह अमृतमय और उज्ज्वल बन रहा है ।
वारुणो-१ रुचक पर्वत निवासिनी एक दिक्कुमारी-दे० लोक / ५ / १३ । २ विजयार्ध की उत्तर श्रेणीका नगर । - दे० विद्याधर । वारणीवर मध्यलोकका चतुर्थी व सागर दे० लोक/२/१ वान
म पु / ३८/३५ वार्ता विशुद्धवृत्त्या स्यात् कृष्यादीनामनुष्ठित । - विशुद्ध आचरणपूर्वक खेती अधिक करना वास कहलाती है। (चा. सा / ४३ / ५ ) ।
वार्तिक - श्लो. वा / १/१ पं२/२०/१० वार्तिक हि सूत्राणामनुपपति चोदना तत्परिहारो विशेषाभिधान प्रसिद्ध सूत्रके नही अन तार होने देनेकी तथा सूशोके अर्थको न सिद्ध होने देनेकी उहापोह या तर्कणा करना और उसका परिहार करना, तथा ग्रन्थ के विशेष अर्थको प्रतिपादित करना, ऐसे वाक्यको वार्तिक कहते है । वार्षगण्य
-
साख्यमतके प्रसिद्ध प्रणेता समय ई० २३० २०० १ - दे० सांख्य | वाल्मीकि
एक विनयवादी- दे० वैनयिक |
वाल्होक - भरतक्षेत्र उत्तर आर्य खण्डका एक देश । दे० मनुष्य / ४ बाबिल नरक० नरक/२/११० वासना [टी] [३०] अरीरादी शुचिस्थिरमीयादिज्ञानान्यनिद्यास्तासामभ्यास पुन पुन प्रवृत्तिस्तेन जनिता सस्कारा वासना । - शरीरादिको शुचि, स्थिर और आत्मीय माननेरूप जो अविद्या अज्ञान है उसके पुन पुन प्रवृत्तिरूप अभ्यास से उत्पन्न रस्कार वासना कहलाते है ।
* अनन्तानुबन्धी आदि कषायका वासनाकाज
- दे० वह वह नाम । वासवगन्धर्व नामक व्यन्तर देवोंका एक भेद । - दे० गन्धर्व । वासुकिमा स्वामी नागेन्द्रदेव दे०
|| १२ |
वासुदेव -१ कृष्णका अपरनाम है । - दे० कृष्ण । २ नव वासुदेव परिचय व वासुदेवका लक्षण दे० शलाका पुरुष / ४ ।
वासुदेव सार्वभौम- नव्य न्यायके प्रसिद्ध प्रणेता । समय - ई०
१०००-३० वाम/१/७
-
-
=
वासुपूज्यश्लोक पूर्व ०२ पुष्प
पूर्व मेरु सम्बन्धी बरसकावती देशमे रत्नपुर नगर के राजा 'पद्मोत्तर' महादेव हुए। १३ वर्तमान में १२ मे लीवर हुए। दे०] [टीवर /
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समि/७/२६ 'वास्तु अगार
a
वास्तु- वास्तु का अर्थ घर होता है । वाहिनी -सेनाका एक अन । —दे० सेना ।
विदफल - Volume (ज. प. प्र.१०८ ) |
विकलावेश
-
विंध्य पर्वत है एक गिरि और दूसरा विन्ध्यगिरि । ( द. सा / पृ १६ की टिप्पणी । प्रेमी जी ) । विध्य वर्मा
-
- भोजवशकी वंशावली के अनुसार यह अजयवर्माका पुत्र और सुभटवर्माका पिता था। मालवादेश ( मगध ) का राजा था। धारा नगरी व उज्जैनी इसकी राजधानी थी। अनाम विजयवर्मा था । समय-- वि० स० १२४६-१२५७ ( ई० १११२-१२०० ) । - ३० इतिहास /२/१
विध्यन्यासी मागण्या शिम्य तथा सात्य दर्शनका प्रसिद्ध प्रणेता। समय - ई० २५०-३२० । - दे० साख्य ।
विध्यशक्तिम -म. पु/५८ / श्लोक - भरतक्षेत्रके
मन्नयदेशका राजा था । ६३॥ भाई सुषेणकी नतिकीको युद्ध करके छीन लिया । ७६ । चिरकाल तक अनेको योनियो मे भ्रमण करनेके पश्चात् | १०| भरतक्षेत्रके भोगवर्द्धन नामक नगरके राजा श्रीधरका 'तारक' नामका पुत्र हुआ यह तारक प्रतिनायक दूर पूर्वभव है। ३० तारक विध्याचल भरतक्षेत्र खण्डका एक पर्वत यो देश जिसमे निम्न
19.
प्रान्त सम्मिलित हैं। दशा, किष्क्रम्य त्रिपुरा नेपाल, उत्तमवर्ण, वैदिश, अन्तप, कौशल, पत्तन, विनिहान्त । -दे० मनुष्य
विकट दे० ग्रह ।
विकथा - दे० कथा |
विकल- - १ विक्ल दोष । - दे० शून्य । २ साध्य साधन विक्ल
दृष्टान्त - दे० दृष्टान्त ।
विकलन - Distribution /प्र.२०)।
विकलादेश
रावा./४/४२/१२/२३२ / २२ धर्माणा भेदेन विवक्षा देकस्यास्थानेकार्थप्रत्यायनशक्त्यभावात क्रम । यदा तु कम तदा विकलादेश', स एव नय इति व्यपदिश्यते । = जब वस्तुके अस्तित्व आदि अनेक धर्मकामाविकी अपेक्षा भिन्न-भिन्न मिति होते है, उस समय एक शब्द मे अनेक अर्थोके प्रतिपादनकी शक्ति न होनेसे क्रमसे प्रतिपादन होता है। इसे निकलादेश बहते है। सौर यह नयके आधीन ३ विशेष० मय / 1 /२ ( श्लो. बा./२/१/६/२५९९६)। ( स. म / २२ / २०१ / १६ ।
रा. वा./४/४२/१६/२६०/१२ निरंशस्यापि गुणभेदाना विकला देश | १६ | स्वेन तत्वेनाप्रविभागस्यापि वस्तुनो विविध गुणरूपं स्वरूपो परजकमपेक्ष्य प्रकल्पितमंशभेद कृत्वा अनेकात्मवै करव व्यवस्थाया नरसिह सिहत्ववत् समुदायात्मकमात्मरूपमभ्युपगम्य कालादिभिरन्योन्यविषयानुप्रवेशरसायन विदेश न तु केवल सिहे सित्व एकात्मकत्वपरिग्रहात् । यथा वा पानकमनेकखण्डवामशविरा विमास्थाय अनेकरसारमय स्वमस्यामसाय पुन स्वशक्तिविशेषादिदमप्यस्तीति विशेषनिरूपणं क्रियते, तथा अनेकापूर्वदिसामर्थ्यासाध्यविशेषाय
"
धारण' विसावेश स्थ पुनरर्थस्याभिम्नस्य गुणो भवन टो हि अभिस्यार्थस्य गुणस्तश्वभेदं कम्पयत् यथा परुद भवा पटुरासीद पर एवम् इति गुणविविक्तरूपस्य व्यासंभवात् गुलमेदेन गुणिनोऽपि भेद निरंश वस्तुमे गुणमेव अशवपना करना विकलादेश है । स्वरूपसे अविभागी अखड सत्ताक वस्तुएँ विविध गुणोकी अपेक्षा अंश कल्पना करना अर्थात् अनेक और एफकी अवस्थाके लिए मूलत नरसिंहमें बिकी तरह समुदा
=
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विकलेन्द्रिय
यात्मक वस्तुस्वरूपको स्वीकार करके ही काल आदिको दृष्टिसे परस्पर विभिन्न अंशोकी कल्पना करना विकलादेश है। केवल सिंहमे सिंहत्व की तरह एक में एकांशकी कल्पना करना विकलादेश नहीं है । जैसे दाडिम कर्पूर आदि मने हुए दशर्चसमें विलक्षण रसकी अनुभूति और स्वीकृतिके बाद अपनी पहिचान शक्तिके अनुसार 'इस शर्बत मे इलाइची भी है कर्पूर भी है' इत्यादि विवेचन किया जाता है, उसी अनेकान्तात्मक एक वस्तुकी स्वीकृतिके बाद हेतुविशेषसे किसी विवक्षित अंशका निश्चय करना विकलादेश है। प्रश्न- गुण अभिन्न अर्थका भेदक कैसे हो सकता है । उत्तर- अखण्ड भी वस्तुमें गुणो से भेद देखा जा सकता है, जैसे गलवर्ष आप पटु थे, इस वर्ष पर है' इस प्रयोग अवस्था मेदसे उदभिन्न प्रयमें भेद व्यवहार होता है। गुण भेदसे गुणिभेदका होना स्वाभाविक ही है । - ( विशेष दे० द्रव्य /४/४ ) ( और भी वे० सफलादेश ) ।
खो
।
२/२/६/०६/४६०/२१ सासवादका प्रत्येकं सदादिवाक्यं विकलादेश इति न समीचीना युक्तिस्तत्समुदायस्यापि विकतावेशत्वप्रसङ्गात् सम्पूर्ण वस्तुका प्रतिपादक न होनेके कारण प्रत्येक बोला गया सत् असत् यदि वाक्य विकलादेश है, यह मुक्ति ठीक नहीं, क्योकिं यों तो उन साठी वायपोंके समुदायको भी विकलादेशपनेका प्रसंग होगा। सातो वाक्य समुदित होकर भी वस्तुभूत अर्थ के प्रतिपादक न हो सकेगे। ( स भ त . / ११ / २ ) । क. पा १/११७२ / २०३/६ को विकलादेश | अस्त्येव नास्त्येव अवक्तव्य एवं घटइति विकलादेश कक्षमेतेषा साना दुर्नयाना विकलादेशस्य न. एकविशिष्टस्येव वस्तुन प्रतिपादनाय । प्रश्नविकलादेश क्या है ? उत्तर-घट है ही, घट नहीं ही है, अवक्तव्यरूप ही है. इस प्रकार यह ( सप्तभंगी) विकलादेश है । प्रश्न- इन सातो दुर्जयरूप अर्थात् सर्वथा एकान्तरूप वाक्योंको विकलादेशपना कैसे प्राप्त हो सकता है । उत्तर - ऐसी आशका ठीक नहीं कि ये सातो वाक्य एकधर्मविशिष्ट वस्तुका ही प्रतिपादन करते है, इसलिए ये विकलादेश रूप है । स.भ./९६/६ अत्र केचित् एक धर्मात्मकमस्तु विषयकोषजनक वाक्यत्व विकलादेशत्वम् इत्याहु तेषा नयवाक्यानां च सप्तविधवव्याघात' |
घट
•
-
•
स म त /१७/१ यसु धर्म्यषयकधर्मविषयोजनाय विकलादेशत्वमिति - तन्न । धर्मिवृत्तित्वाविशेषितस्य धर्मस्यापि सारणस्यासंभवात्यहाँपर कोई ऐसा कहते है कि वस्तुके सत्त्व असत्त्वादि धर्मोमेंसे किसी एक धर्मका ज्ञान उत्पन्न करानेवाला वाक्य विकलादेश है। उनके मत में नयवाक्योके सप्तभेदका व्याघात होगा (दे० सप्तभंगी ) । और जो कोई ऐसा कहते है कि धर्मीको छोड़कर केवल विशेषणीभूत धर्ममात्राविषयक गोषणम वाक्य विकला देश है, सो यह भी युक्त नही है क्योकि धर्मीमें वृत्तितारूपसे अविशेषित धर्मका भी शाब्दबोध में भान नही होता है । विकलेन्द्रियविकलेन्द्रिय जीवका लक्षण - दे० त्रस / १ । २ विक लेन्द्रियो के सस्थान व दुस्वरपने सम्बन्धी शका समाधान - दे० उदय / ५ । ३ विकलेन्द्रियो सम्बन्धी प्ररूपणाएँ -- दे० इन्द्रिय । विकल्प - विकल्प दो प्रकारका होता है- रागात्मक व ज्ञानात्मक । रागके सद्भाव में ही ज्ञानमें इष्ठिपरिवर्तन होता है और उसके अभाव के कारण ही केवलज्ञान, स्वसंवेदन ज्ञान व शुक्लध्यान निर्विकल्प होते है ।
१. विकल्प सामान्यका लक्षण
१. रागकी अपेक्षा
./टी./३१/१०२/१ अभ्यन्तरे मुख्य दु महमिति हर्षविषादकारण विकल्प इति । अथवा वस्तुवृत्त्या संकल्प इति कोऽर्थो विकल्प इति
भा० ३-६८
-
५३७
विकल्प
तस्यैव पर्याय' । = अन्तरंग मे मै सुखी हूँ मै दुखी हूँ इस प्रकार जो हर्ष तथा वेदका करना है, वह विकल्प है । अथवा वास्तवमे जो पत्र आदि मेरे है. ऐसा भाव है. नही है, अव विकल्प कल्पक पर्याय है, काता, बृ / ७ / ११ /-), (प प्र / टी ९/९६/२४/९)
२ शान आकारानमासनकी अपेक्षा
प्र. सा./त.प्र / १२४ विकल्पस्तदाकारावभासनम् । यस्तु मुकुरुन्दहृदयाभोग इव युगपदभावपराकारोऽर्थ विकल्पस्तज्ज्ञानस्
- ( स्वपरके विभागपूर्वक अवस्थित विश्व अर्थ है। उसके बाकारो का अनुभाविप है। दर्पण के निजविस्तारकी भाँति जिसमें एक ही साथ स्व- पराकार अवभासित होते हैं, ऐसा अर्थ विकल्प ज्ञान है। (अर्थात ज्ञानभूमि प्रतिभासित बाह्य पदार्थोंके आकार या प्रतिबिम्ब ज्ञानके विकल्प कहे जाते है।)
द्र स / टी / ४२ / १८२/३ घटोsय पटोऽयमित्यादिग्रहणव्यापाररूपेण साकार सविकल्पं व्यवसायात्मकं निश्चयात्मकमित्यर्थ । - यह घट है. यह पट है' इत्यादि ग्रहण व्यापाररूपसे ज्ञान साकार, सविकल्प, व्यवसायात्मक व निश्चयात्मक होता है । - ( और भी. दे. आकार / १)
पं. घ. / ५ / ६०८ अर्थालोकविकल्पः ।
पं.
1
१६१ आकारोऽपि स्यादर्थं स्वपरगोचर सोपयोगा हा अर्थका प्रतिभास विकल्प कहलाता है । ६०८ | साकार शब्दमे आकार शब्दका अर्थ, अर्थ विकल्प होता है और वह अर्थ स्व तथा पर विषयरूप है । विकल्प शब्दका अर्थ उपयोगसहित अवस्था होता है, क्योकि, ज्ञानका यह आकार लक्षण है | ३६१६ ( प ध / उ / ८३७)
३. प्तिपरिवर्तनको अपेक्षा
पं. ध. / उ / ८३४ विकल्पो योगसंक्रान्तिरर्थाज्ज्ञानस्य पर्यय । ज्ञेयाकार. समयान्तरगत [३] योगोकी प्रवृत्तिके परि
नको कहते हैं, अर्थात् एक ज्ञानके विषय अर्थ से दूसरे विषयान्तरत्य को प्राप्त होनेवाली जो हाकाररूप ज्ञानको पर्याय है, वह विकल्प कहलाता है ।
मो. मा. / ७ / ३१० / रागद्वेषके वशर्तें किसी ज्ञेयके जाननेविषै उपयोग लगाना। किसी ज्ञेय के जाननेते डावना, ऐसे बराबर उपयोगका भ्रमावना, ताका नाम विकल्प है। बहुरि जहाँ वीतरागरूप होय जाक जानें है, ताकौ यथार्थ जाने है । अन्य अन्य ज्ञेयके जानने के अर्थ उपयोग नाही भ्रमावै है । तहां निर्विकल्प दशा जाननी ।
२. ज्ञान सविकल्प है और दर्शन सं./टी./४/१२/१ निर्विकल्पक दर्शन तो निर्विकल्पक है और ज्ञान
निर्विकल्प समिकल्पक ज्ञानं दर्शन है (पं. काता / 01
८०/१२)
* ज्ञानके अतिरिक्त सर्व गुण निर्विकल्प हैं- गुण/र हैं—दे ३. सम्यग्दर्शन में कथंचित् विकल्प व निर्विकल्पना पंघ / / ८३८ विकल्प सोऽधिकारेऽस्मिन्नाधिकारी मनागपि । योगसक्रान्तिरूपो यो विकल्पोऽधिकृतोऽधुना । ८३ =ज्ञानका स्वलक्षणभूत व विकल्प सम्यग्दर्शन के निर्विकल्प व सविकल्पके कथनमें कुछ भी अधिकार नहीं है, किन्तु योगातिरूप जो विकल्प वही इस समय सम्यक्त्व के सविकल्प और निविकल्पके विचार करते समय अधिकार रखता है ।
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विकल्प
४. लब्धिरूप ज्ञान निर्विकल्प होता है
प ध. / /
सिद्धमेतावतोकेन सधिर्या प्रा निरुपयोग रूपत्वान्निर्विकल्प स्वतोऽस्ति सा । ८५८ - इतना कहने से यह सिद्ध होता है, कि जिसका लक्षण कहा जा चुका है ऐसी जो लब्धि है, वह स्वत उपयोगरूप न होनेसे निर्विकल्प है।
* मति श्रुत ज्ञानकी कथचित् निर्विकल्पता
- दे ऊपर |
५. स्वसंवेदन ज्ञान निर्विकल्प होता है।
द्र सं / टी /५/१६ / ३ यच्च निश्चयभावश्रुतज्ञान तच्च शुद्धात्माभिमुखसुखसदतिस्वरूपं स्वविश्वातरेण सविकल्पमयीन्द्रियमनोजगादिविकारहितत्वेन निश्चय भावभूत ज्ञान है, वह शुद्ध आत्मा के अभिमुख होनेमे सुखसंवित्ति या सुखानुभव स्वरूप है । वह यद्यपि निज आत्माके आकार से सविकल्प है तो भी इन्द्रिय तथा मनसे उत्पन्न जो विकल्पसमूह है उनसे रहित होनेके कारण है। ४२/९८४/२) दे. जोग / २ /३/३ [ समाधिकालमै मसवेदनकी निर्मिकता के कारण हो जीवको कथचित् जड़ कहा जाता है । ]
०९६ तस्मादिदमन' स्वात्मप्रये किलोपयोगि मन । किंतु विशिष्टदशायां भवतीह मन स्वयं ज्ञानम् । ७१६ | पंध / उ / ५६ शुद्ध स्वात्मोपयोगी य स्वयं स्यात ज्ञानचेतना निर्विकल्प स एकान्तमते १८७६| यहाँपर यह कथन निर्दोष है कि स्वात्मा के ग्रहण में निश्चय से मन ही उपयोगी है, किन्तु इतना विशेष है कि विशि दशा मे मन स्त्रत ज्ञानरूप हो जाता है । ७१६। वास्तव मे स्वयं ज्ञानचेतनारूप जो शुद्ध स्वकीय आत्माका उपयोग होता है यह कात्मक न होनेसे निर्विकल्परूप ही है । ६५६१
६. स्वसवेदन में ज्ञानका सविकल्प लक्षण कैसे घटित होगा
५३८
टी/४/२०४६ अत्राह शिष्य इत्युक्तप्रकारेण यन्निर्विकल्प स्वसंवेदनज्ञान भण्यते तन्न घटते । कस्मादिति चेत् उच्यते । सत्तावलोकरूप चरादिदर्शन जैनमनिविकल्प कथ्यते तथा मोडमते निर्विकल्पक भग्यते । पर विनियमपि विकल्पजनक भवति । जैनमते तु विकल्पस्योत्पादक भवत्येव न किंतु स्वरूपेणैव सविकल्पमिति । तथैव स्वपरप्रकाशक चेति । तत्र परिहार च सनिर्विकल्पक च तथाहि यथा यस समिति सक्पिमिति पानीहिताना सद्भावेऽपि सति तेषा मुख्य नास्ति तेन कारणेन निर्विकल्पयते तथा स्वद्धात्मसमितिरूपं वीतरागस वेदज्ञानमपिस्वकारे कविकल्पेन किमपि बहिर्विधपानीहितसूक्ष्ममा सद्भावेऽपि सति तेषा मुख्यत्व नास्ति तेन कारणेन निर्विषयमपि भव्यते यत एवेह पूर्वस्वसवि राकारान्तर्मुखमतिभासहियानीक्ष्मा अि सन्ति तत एव कारणात् स्वपरप्रकाशक च सिद्धम् । प्रश्न- यहाँ शिष्य कहता है कि इस कहे हुए प्रकारसे प्राभृत शास्त्रमे जो चिकल्परहित स्वरूयेन ज्ञान रहा है. वह पटित नहीं होता क्योकि जैनमतने जैसे सत्तालोकनरूप दर्शन आदि है, उसको निर्विकल्प कसे है, उसी प्रकार श्रीमतमे ज्ञान निर्विकल्प है, तथापि वि को उत्पन्न करनेवाला होता है। और जैनमतमे तो ज्ञान विकल्पको उत्पन्न करनेवाला है ही नहीं, किन्तु स्वरूपसे ही विकल्प सहित है । और इसी प्रकार स्वपर प्रकाशक भी है। उत्तर- परिहार करते है । - जेनसिद्धान्तमे ज्ञानको कथंचिव सविकल्प और कवचित निर्मिम
विकल्प
माना गया है। सो ही दिखाते है । - जैसे विषयो में आनन्दरूप जो स्वसंवेदन है वह रागके जामनेरूप विकल्पस्वरूप होनेसेस है, तो भी शेष अनिच्छित जो सूक्ष्म विकल्प है उनका सद्भाव होनेपर भी उन विकल्पोको मुख्यता नहीं, इस कारण से उस ज्ञानको निर्वि कल्प भी कहते है । इसी प्रकार निज शुद्धात्मा के अनुभवरूप जो वीतराग स्वसवेदन ज्ञान है वह आत्मसवेदनके आकाररूप एक विकल्पके होनेसे समय है तथा बाह्य विषयो अनिच्छित विकल्पोका उस ज्ञानमे सद्भाव होनेपर भी उनकी उस ज्ञानमें मुख्यता नहीं है, इस कारण से उस ज्ञानको निर्विकल्प भी कहते हैं । तथा- क्योकि यहाँ अपूर्व सवित्ति के आकाररूप अन्तरगमे मुख्य प्रतिभासके होनेपर भी बाह्य विषय वाले अनिच्छित सूक्ष्म विकल्प भी है। इस कारण ज्ञान निज तथा परको प्रकाश कभी सिद्ध हुआ।
७. शुक्लध्यान में कथंचित् विकल्प व निर्विकल्पपना
-
ज्ञा १४१ / ८ न पश्यति तदा किचिन्न शृणोति न जिघति । स्पृष्टं चिचिन जानाति साक्षानिवृ] सितेपद उस ( शुक्त) ध्यानके साक्षान्निर्वृत्तिलेपवत् । समय चित्रामकी मूर्ति की तरह हो जाता है। इस कारण यह योगी न तो कुछ देखता है, न कुछ सुनता है, न कुछ संघता है और न कुछ स्पर्श किये हुएको जानता है |८|
४२-४३ यत्पुनह निमेकत्र नैरन्सग कुत्रचित् अस्ति सध्यानमज्ञापि कमो नमोऽयंत ४२ एकरूपमिवाभाति ज्ञानं भ्यानक्तात । तत् स्यात् पुन पुनर्वृत्तिरूपं स्यात्क्रमवति च । ||४३| किन्तु जो किसी विषय मे निरन्तर रूपसे ज्ञान रहता है, उसे ध्यान कहते है, और इस ध्यान में भी वास्तव में क्रम ही है, किन्तु अक्रम नहीं है ।४२। ध्यानको एकाग्रता के कारण ध्यानरूप ज्ञान अक्रमवति की तरह प्रतीत होता है, परन्तु वह ध्यानरूप ज्ञान पुनपुन उसी उसी विषयमे होता रहता है, इसलिए क्रमवर्ती ही है।८४३
८. केवलज्ञानमें कथंचित् निधि
व सविकल्पपना
प्र. सा // ४२ परिणमदिनमादा दिखाइ तरस णाणत्ति त जिणिदा खवयतं कम्ममेत्ता |२| = ज्ञाता यदि ज्ञेयपदार्थरूप परिमित होता है यह कहा है यह पीता है ऐसा fere करता है तो उसके ज्ञान होता ही नहीं। जिनेन्द्रदेवो ऐसे ज्ञानको कर्मको ही अनुभव करनेवाला वहा है |४२ |
पंध / उ / ८३६, ८४५ अस्ति क्षायिक्ज्ञानस्य विकल्पत्वं स्वलक्षणात् । नार्थादार्थान्तराकारयोग क्रान्तिलक्षणात १८३६ नोहा तत्राप्यतिव्याशि क्षायिकाव्यक्षसविदि स्यापरिणामश्वेऽपि म तेर सभवात । ८४५१ - स्वलक्षणकी अपेक्षासे साविज्ञान मे जो विकल्पपना है वह अर्थ अन्तराकाररूप योग कान्तिके विकी अपेक्षा नहीं है कि अंतोदय ज्ञानने अशिष्यशिया प्रसंग भी नहीं आता, क्योकि उसमे स्वाभाविक रूपसे परिणमन होते हुए भी पुनर्वृति सम्भव नही है । ८४५ ॥
९. निर्विकल्प केवलज्ञान शेषको कैसे जाने
निसा ता./१०० थमिति चेत पूर्वोत्तस्वरूपमात्मानं खलु न जानात्यात्मा स्वरूपावस्थित सतिष्ठति । यथोष्णरव रूपस्याग्ने स्वरूपमग्नि कि जानाति तथैव ज्ञानज्ञेयमाभावाय सोऽसमारमात्मनि तिष्ठति हो प्राथमिक शिष्य अग्नियदस्मारमा विमचेतन । किबहुना । तमात्मान ज्ञान न जानाति चेद्र देवदत्तरहितपरशु इदं हि नार्थक्रियाकारि, असएन मन सकाशाद
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विकल्पसमा
विज्ञानवाद
विकृतवान-जम्बूद्वीप के हरिक्षेत्रकानाभिगिरि-दे० लोक ५/३३
व्यतिरिक्त भवति । तत्र खलु सयतं सभाववादिना मिति।
प्रश्न-वह (विपरीत वितर्क ) किस प्रकार है। पूर्वोक्तस्वरूप आत्माको आत्मा वास्तव में जानता नहीं है, स्वरूपमें अवस्थित रहता है। जिस प्रकार उष्णतास्वरूप अग्निके स्वरूपको क्या अग्नि जानती है। उसी प्रकार ज्ञानज्ञेय सम्बन्धी विकल्पके अभावसे यह आरमा आरमामे स्थित रहता है। उत्तर-हे प्राथमिक शिष्य, अग्निकी भॉति क्या आरमा अचेतन है। अधिक क्या कहा जाय, यदि उस आत्माको ज्ञान न जाने तो वह ज्ञान, देवदत्त रहित कुम्हाडीकी भाँति अर्थ क्रियाकारी सिद्ध नही होगा, और इस लिए वह आत्माले भिन्न सिद्ध होगा। और यह वास्तवमे स्वभाव
बादियोको सम्मत नही है। -(विशेष दे० केवलज्ञान/६)। विकल्पसना-न्या सू/म. व 11/१/४/२८८ साध्यदृष्टान्तयो
ईम विकल्वादुमयमाध्यत्वाच्चोत्कर्षापकर्ष वावर्ण्यविकल्पसाध्यसमा ।४। साधनधर्मयुक्त दृष्टान्ते धर्मान्तर विकल्पात्साध्यधर्मविकल्प प्रसन्नतो विकल्पसम । क्रियाहेतुगुणयुक्त किचिद गुरु यथा लोष्ट किंचिल्लघु यथा वायुरेवं क्रियाहेतुगुणयक्त किंचित्क्रियाबत्स्याद् यथा लोष्ट किचिदक्रिय यथात्मा विशेषो वा वाच्य इति । -साधनधर्म से युक्त दृष्टान्तमें अन्य धर्मके विकल्पसे साध्यधर्मके विकल्पका प्रसग करानेवालेका नाम 'विकल्पसम' है। 'आत्मा क्रियावाद है, क्रियाहेतु गुणसे युक्त होनेके कारण, जैसे कि लोष्ट,' वादीके ऐसा कहे जानेपर प्रतिवादी कहता है-क्रिया हेतुगुणसे युक्त है तो आत्माको कुछ भारी होना चाहिए जेसे लोष्ट या कुछ हलका होना चाहिए जैसे वायु । अथवा लोष्टको भी कुछ कियारहित होना चाहिए जैसे आत्मा । या विशेष कहना
चाहिए। श्लो, वा /४/भाषाकार/१/३३/न्या, ३३७/४७३/१६ पक्ष और दृष्टान्तमे
जो धर्म उसका विकल्प यानी विरुद्ध करप व्यभिचारीपन आदिसे प्रस ग देना है, वह विकल्पसमाके उत्थानका बीज है। चाहे जिस किसी भी धर्मका कही भी व्यभिचार दिखला करके धर्मपनकी अविशेषतासे प्रकरण प्राप्त हेतुच भी प्रकरणप्राप्त साध्य के साथ व्यभिचार दिखला देना विक्लपसमा है। जैसे कि 'शब्द अनित्य है, कुतक होनेसे' इस प्रकार वादीके कह चुकनेपर यहाँ प्रतिवादी कहता है कि कृतकत्वका गुरुत्वके साथ व्यभिचार देखा जाता है। घट, पट, पुस्तक आदिमें कृतक्त्व है, साथमें भारीपना भी है। किन्तु बुद्धि, दुख, द्वित्व, भ्रमण, मोक्ष आदिमें कृतकपना होते हुए भी भारीपना नही है। (और इसी प्रकार भारीपनका भी कृतकत्वके साथ व्यभिचार देखा जाता है। जल और पृथिवीमे गुरुत्व है और वह अनित्य भी है। परन्तु उनके परमाणु नित्य है। अनित्यत्व व कृतकत्व तथा नित्यत्व व अकृतकत्व एकार्थवाची है।) विकप्त-दे० ग्रह। विकारस, सि/५/२४/१६६/११ त एते शब्दादय, पुद्गलद्रव्यविकारा। ये सब शब्द आदि (शब्द, अन्ध, सौम्य, स्थौल्य, सस्थान, भेद, तम, छाया आदि ) पुद्गलद्रव्यके विकार है। रा बा//२०/१३/४७/२८ परिणामान्तर सक्रान्तिन्नक्षणस्य विकारस्य । परिणामान्तर रूपसे सक्रान्ति करना विकारका लक्षण है।
* विकार सम्बन्धी विषय-दे० विभाव। विकार्य-दे० बर्ता/१। विकाल-दे० ग्रह ।
विकृति-निविकति-(जिस भोजनसे जिह्वा व मनमें विकार
उत्पन्न हो वह विकृति कहलाता है । जैसे-घी, दूध, चटनी
आदि)। विक्रम-सागण का एक जैन कवि था जिसने नेमिदूत (नेमि
चरित ) नामका ग्रन्थ लिखा है । (नेमि चरित/प्र. ६/प्रेमोजी)। विक्रम प्रबन्ध टीका-आ. श्रुतसागर (ई. १४७३-१५३३) द्वारा
रचित ग्रन्थ। विक्रम संवत-दे० इतिहास/२ । विक्रमादित्य-१. मालवा (मगध ) के राजा थे। इनके नामपर ही इनकी मृत्युके पश्चात प्रसिद्ध विक्रमादित्य सवत् प्रचलित हुआ था। इनकी आयु ८० वर्षकी थी। १८ वर्षकी आयुमें राज्याभिषेक हुआ और ६० वर्ष पर्यन्त इनका राज्य रहा। (विशेष दे० इतिहास/ २/विक्रम सबत् ) तथा ( इतिहास/३/मगध देशके राज्यवश ) 1 २. मगधदेशको राज्य व शावलीके अनुसार गृप्तवशके तीसरे राजा चन्द्रगुप्तका अपर नाम था। यह विद्वानों का बडा सत्कार करता था। भारतका प्रसिद्ध कवि शकुन्तला नाटककार कालिदास इसी के दरबारका रत्न था।-दे० इतिहास/३/३ १३ चीनी यात्री ह्यूनत्साग (ई०६२६) कहता है कि उसके भारत आनेसे ६० वर्ष पूर्व यहाँ इस नामका कोई राजा राज्य करता था। तदनुसार उसका समय
ई. ५०५-५८७ आता है। विक्रांत-प्रथम नरकका १३ वॉ पटल-दे० नरक/५/११॥ विक्रिया-१ विक्रिया ऋद्धि--दे० भूद्धि/३।२ वैक्रियक शरीर
व योग-दे० वै क्रियक। विक्षेप-- न्या सू /म् /१२/१६ कार्यव्यास गात्कथाविच्छेदो विक्षेपः । - जहाँ प्रतिवादी यो कहकर समाधानके समयको टाल देवे कि 'मुझे इस समय कुछ आवश्यक काम है, उसे करके पीछे शास्त्रार्थ करूंगा' तो इस प्रकारके कथाविक्षेप रूप निग्रहस्थानका नाम विक्षेप है। (श्लो. वा/४/९/३३/न्या/३६३/४२१/७) (नोट -श्लो वा. में इसका निषेध किया गया है) विक्षेपिणी कथा--दे० कथा । विज्ञप्ति-अवायज्ञानका पर्यायवाची-दे० अवाय । विज्ञानन्या. वि/वृ. मे उद्धृत/१/११/२० विज्ञान मेयबोधनम् । - जानने
योग्य पदार्थका ज्ञान विज्ञान है। -(विशेष दे० ज्ञान )। (ध /प्र, २८)-Science विज्ञानभिक्षु-साख्यदर्शनके प्रसिद्ध प्रणेता। इन्होने ही सारख्य
मतमे ईश्वरवादका समावेश किया था। (दे० साख्य)। इन्होने ही योगदर्शन के व्यासभाष्यपर योगबार्तिक लिखा है ( दे० योग दर्शन)। तथा अविभागाद्वैतबादरूप वेदान्तके सस्थापक भी यही थे।
विज्ञानवाद-१ भिश्या विज्ञानवाद' ज्ञा./४/२३ ज्ञानादेवेष्टसिद्धि स्यात्ततोऽन्य शास्त्रविस्तर । मुक्तेरुक्तमतो बीज विज्ञान ज्ञानवादिभि ।२३। - ज्ञानवादियोंका मत तो ऐसा है, कि एकमात्र ज्ञानसे ही इष्ट सिद्धि होती है, इससे अन्य जो
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विज्ञानाद्वैत
विग्रहगति
कुछ है सो सव शास्त्रका विस्तारमात्र है। इस कारण मुक्तिका बीजभूत विज्ञान ही है।-(विशेष दे० सारख्य ब वेदान्त)। * विधानवादी बौद्ध-दे० बोद्ध दर्शन । २ सम्यक् विधानवाद ज्ञा /४/२७ में उद्धृत-ज्ञानहीने क्रिया पुसि पर नारभते फलम् । तरोश्यायेव कि लभ्या फलश्रीन दृष्टिभि ।। ज्ञानं पङ्गौ क्रिया चान्धे नि श्रद्धे नार्थ कृद्गद्वयम् । ततो ज्ञानं क्रिया श्रद्धा त्रय तत्पदकारणम् १२। हत ज्ञानं क्रियान्य हता चाज्ञानिन· क्रिया। धावन्नप्यन्धको नष्ट' पश्यन्नपि च पडक ३ज्ञानहीन पुरुषको क्रिया फलदायक नही होतो। जिसको दृष्टि नष्ट हो गया है. वह अन्धा पुरुष चलतेचलते जिस प्रकार वृक्षकी छायाको प्राप्त होता है, उसी प्रकार क्या उसके फलको भी पा सक्ता है ।१. (विशेष दे० चेतना//८, धम/२) । पगुमें तो वृक्षके फलका देव लेना प्रयोजनको नही साधता और अन्धेमें फल जानकर तोडनेरूप किया प्रयोजनका नहीं साधती। श्रद्धान रहितके ज्ञान और क्रिया दोनो हो, पयोजनसाधक नहीं है। इस कारण ज्ञान क्रिया, श्रद्धा तीनों एकत्र होकर ही वाछित अर्थको साधक होती है ।२। क्रिया रहित तो ज्ञान नष्ट है और अज्ञानीकी क्रिया नष्ट होती है। दौड़ते-दौडते अन्धा नष्ट हो गया और देखतादेखता पंगु नष्ट हो गया ।३। (विशेष दे० मोक्षमार्ग/१/२)। दे. नय/उ./१/४ नयनं ४३-(आत्मा द्रव्य ज्ञाननयकी अपेक्षा विवेककी
प्रधानतासे सिद्ध होता है)। दे. ज्ञान/IV/१/१ ( ज्ञान हो सर्व प्रधान है। वह अनुष्ठान या क्रियाका
स्थान है)। विज्ञानाद्वैत-दे अद्वेत। विग्रह-विग्रहो देह ।.. अथवा। स.सि./२/४/१८२/७ विरुद्धो ग्रहो विग्रहो व्याघात । कर्माद नेऽपि
नोकर्म पुद्गलादाननिरोध इत्यर्थ । स सि /२/२७/१८४/७ विग्रहो व्याघात कौटिल्यमित्यर्थ -१ विग्रह
का अर्थ देह है । ( रा बा /२/२५/१/ (त मा /२/१६), १०६/२६ ), (ध १/१,१,६०/२६६/१)। २ अथवा विरुद्ध ग्रहका विग्रह कहते है, जिसका अर्थ व्याघात है। तारार्य यह है कि जिम अवस्थामें कर्म के ग्रहण होने पर भी नोर्मरूप पुद्गलोंका ग्रहण नहीं होता वह विग्रह है। ( रा बा /२/२५/२/१३७/४), (ध १/१.१,६०/२६६/३)। ३. अथवा विग्रहका अर्थ व्याघात या कुटिलता है। (रा. वा/२/ २१ ।१३८/%), (ध १/१.१,६०/२६६/-)। रा, वा /२/२६/१/१३६/२६ औदारिकादिशगेग्नामोदयात् तन्निवृत्तिसमर्थान् विविधान् पुद्गलान् गृह्णाति विगृह्य ते बासौ ससारिणेति विग्रहा देह 1-औदारिकादि नामकमके उदयसे उन शरीरोंके योग्य पुद्गलोका ग्रहण वियह कहलाता है। अतएव संसारो जोबके द्वारा शरोरका ग्रहण किया जाता है। इसलिए देहको विग्रह कहते है। (ध १/१,१,६०/२६६/8)। ध ४/१.३,२/२६/८ विगहो परको कुटिलो त्ति एगहो।-विग्रह, वक्र
ओर कुटिल ये सब एकार्थवावी नाम है। विग्रहगति-एक शमेरो छोडकर दूसरे शरीरको प्राप्त करनेके
गमन होता है, उसे विग्रहगति कहते है। वह दो प्रकारकी है मोडेवाली और बिना मोडेबाली, क्योंकि गति के अनुश्रेणो हो ह'ने का नियम है।
१. विग्रहगति सामान्यका लक्षण स सि./२/२५/१८२/७ विग्रहार्था गतिविग्रहगतिः। विग्रहेण गतिविग्रहगति । -विग्रह अर्थात् शरीरके लिए जो गति होती है, वह
विग्रहगति है। अथवा विग्रह अर्थात नोर्म पुद्गलोके ग्रहणके निरोधके माथ जो गति होती है उसे विग्रह गति कहते है। (रा. वा /२/२५/१/१३६/३०, २/१३७/५), (ध. १/१,१,६०/१,४ ); (त.
सा/२/१६)। गो क./जी.प्र/३१८/१४ विग्रहगतो तेन पूर्वभवशरीरं त्यक्त्वोत्तरभवग्रहणार्थ गच्छता-विग्रहगत्तिका अर्थ है पूर्वभवके शरीरको छाडकर उत्तरभव ग्रहण करनेके अर्थ गमन करना ।
२.विग्रहगतिके भेद, लक्षण व काल रा, वा./२/२०/४/१३५ आसां चतसृणां गतीनामा!क्ता संज्ञा'इषुगति , पाणिमुक्ता, लाङ्गलिका, गोमूत्रिका चेति । तत्राविग्रहा प्राथमिकी, शेषा विग्रहवत्य । इषुगतिरिवेषुगति । क उपमार्थ । यथे. षोर्गतिरालक्ष्य देशाद ऋज्वी तथा ससारिणां सिद्धयतां च जीवानां ऋज्वी गतिरै कसमयिकी । पाणिमुक्तब पाणिमुक्ता। क उपमार्थ । यथा पाणिना तिर्यप्रक्षिप्तस्य द्रव्यस्य गतिरेकविग्रहा तथा संमारिणामकविग्रहा गति पाणिमुक्ता द्वैसमयिकी । लाङ्गल मिब लाङ्गलिका । क उपमार्थ । यथा लागल द्विवक्रितं तथा द्विविग्रहा गतिर्लाङ्गलिका त्रैसमयिकी । गोमूत्रिकेव गोमूत्रिका । क उपमार्थ । यथा गोमूत्रिका बहुचक्रा तथा त्रिविग्रहा गतिर्गोमूत्रिका चातु समयिकी। ये (विग्रह ) गतियाँ चार है-इषुगति, पाणिमुक्ला, लांगलिका, और गोमूत्रिका। घुगति विग्रहरहित है और शेष विग्रहमाहित होतो है । मरल अर्याद धनुषसे छटे हुए बाणके ममान मोडारहित गतिको इषुगति कहते है। इस गतिमें एक समय लगता है। जैसे हाथसे तिरछे फेंके गये द्रव्यकी एक मोडेवाली गति होती है, उसी प्रकार ससारी जीवोंके एक मोडेवाली गतिको पाणिमुक्ता गति कहते हैं। यह गति दो समयबाली होती है। जैसे हल में दो मोडे होते है, उसी प्रकार दो मोडेवाली गतिको लागलिका गति कहते है। यह गति तीन समयबाली होती है। जैसे गायका चलते समय मुत्रका करना अनेक मोडवाना होता है, उसी प्रकार तीन मोडेवाली गतिको गोम त्रिका गति कहते है। यह गति चार समयवाली होतो है। (ध. १/१,१,६०/२६६/R); (ध.४/१,३,२/२६/७); (त,मा/२/ १००-१०१). (चा सा/१७६/२)। त ना /२/88 सविग्रहाऽविग्रहा च सा विग्रहगतिद्विधा । -विग्रह
या मोडेसहित और विग्रहरहितके भेदमे वह विग्रहगति दो प्रकारकी है।
३. विग्रहगति सम्बन्धी कुछ नियम त. च /२/२५-२६ विग्रहगती कर्मयोग' १२३अनुश्रेणि गति ॥२६॥ विग्रहवती. प्राक् -चतुर्म्य १२८। एक समयाविग्रहा।२६। एक द्वौ त्रोन्यानाहारक ।३०। -विग्रहगतिमें कर्म (कार्मण) योग होता है (विशेष दे० कार्मण/२) ॥२५॥ गति श्रेणीके अनुसार होती है (विशेष दे०, शीर्षक न ५) ।२६। विग्रह या मोडेवाली गति चार समयोसे पहले होती है; अर्थात अधिकसे अधिक तीन समय तक होती है (विशेष दे० शीर्षक न.५) २८। एक समयवाली गति विग्रह या मोडेरहित होती है। (विशेष दे० शीर्षक न २ में दपुगतिका लक्षण)।२६। एक, दो या तीन समय तक (विग्रह गतिमें ) जोव अनाहारक रहता है ( विशेष दे० आहारक )। ध ११५५ १२०/३७८/४ आणुपुविउदयाभावेण उजुगदीए गमणाभाव
पसंगादो। -अजुगतिमे आनुपूर्वी का उदय नहीं होता। देशामण/२ (विग्रहगतिमें नियमसे कार्मणयोग होता है, पर ऋजु
गतिमे कार्मणयोग न होकर औदारिकमिश्र और वैक्रियकमिश्र काय योग होता है।) दे० अबगाहना/१/३ ( मारणान्तिक समुद्धातके बिना विग्रह व अविग्रह गतिसे उत्पन्न होनेवाले जोबोके प्रथम समयमें होनेवाली अवगाहनाके
समयोसे शोक -२) २६
) २८एक तीन सम
राहत होती है।
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विग्रहगति
विचार या वीचार
समान ही अवगाहना होती है। परन्तु दोनो अवगाहनाके आकारों में जाता है तब उस अवस्थामें गति अनुश्रेणी ही होती है। इस प्रकार समानताका नियम नही है।)
पुद्गलोकी जो लोकके अन्तको प्राप्त करानेवाली गति होती है वह दे० आनुपूर्वी-(विग्रहगतिमें जीवोंका आकार व संस्थान आनुपूर्वी अनुश्रेणि ही होती है। हॉ, इसके अतिरिक्त जो गति होती है वह नामकम के उदयसे होता है, परन्तु ऋजुगति में उसके आकारका कारण अनुश्रेणि भी होती है और विश्रेणि भी। किसी एक प्रकारकी होनेउत्तरभवकी आयुका सत्व माना जाता है।)
का नियम नही है। दे० जन्म/१/२ (विग्रहगतिमें जीवोके प्रदेशोंका सकोच हो जाता है।)
६. तीन मोड़ों तकके नियममें हेतु ध.६/१,६-१,२८/६४/७ सजोगिकेवलिपरघादस्सेव तत्थ अव्वत्तोदएण अवठाणादो। =सयोगिकेवलीको परघात प्रकृतिके समान विग्रह- स सि /२/२८/१८३१५ चतुर्थात्समयात्प्राग्विग्रहवती गतिर्भवति न गतिमें उन (अन्य ) प्रकृतियोका अव्यक्त उदयरूपसे अवस्थान देखा चतुर्थे इति । कुत इति चेत् । सर्वोत्कृष्टविग्रहनिमित्तनिष्कुटक्षेत्रे जाता है।
उत्पित्सु प्राणी निष्कुटक्षेत्रानुपूर्व्यनुश्रेण्यभावादिषुगत्यभावे निष्कुट
क्षेत्रप्रापणनिमित्ता त्रिविग्रहा गतिमारभते नोमि, तथाविधोपपाद* विग्रहगतिमें जीवका जन्म मान ले तो-दे. जन्म/१॥ क्षेत्राभावात् । प्रश्न-मोडेवाली गति चार समयसे 'पूर्व अर्थात् * विग्रहगतिमें सज्ञीको भुजगार स्थिति कैसे सम्भव तीन समय तक ही क्यों होती है चौथे समयमे क्यों नही होती। है-दे० स्थिति/५।
उत्तर-निष्कुट क्षेत्रमें उत्पन्न होनेवाले जीवको सबसे अधिक मोडे
लेने पड़ते है, क्योकि वहाँ आनुपूर्वीसे अनुश्रेणीका अभाव होनेसे १. विग्रह-अविग्रहगतिका स्वामित्व
इषुगति नही हो पाती। अतः यह जोब निष्कुट क्षेत्रको प्राप्त करने
के लिए तीन मोडेवाती गतिका त सू./२/२७-२८ अविग्रहा जीवस्स 1२७ विग्रहवती च ससारिण
आरम्भ करता है । यहाँ इससे ।२८। -मुक्त जीवकी गति विग्रहरहित होती है। और ससारी
अधिक मोडोंकी आवश्यकता जोवा की गति विग्रहरहित व विग्रहसहित दोनो प्रकारको होती है ।
नही पड़ती, क्योकि, इस प्रकार(त. सा./२/8F)।
का कोई उपपाद क्षेत्र नहीं पाया ध, ११/४,२,५,११/२०/१० तसेसु दो विग्गहे मोत्तण तिणि विगगहाणम
जाता है, अत मोडेवाली गति भावादो। सो में दो विग्रहोको छोडकर तीन विग्रह नहीं होते।
तीन समय तक ही होती है, चौथे
समयमें नहीं होती। (रा वा./५. जीव व पुद्गलोंकी गति अनुश्रेणी ही होती है
२/२८/४/१३६/५)। त. सू./२/२६ अनुश्रेणि गलि ।२६। = गति श्रेणीके अनुसार होती है। (त सा/२/८)।
ध १११,१,६०/३००/४ स्वस्थितप्रदेशादारभ्योवधिस्तिर्यगाकाशप्रदेशाना
कमसनिविष्ठाना पक्ति श्रेणिरित्युच्यते। तयैव जीवाना गमन दे० गति/१/७ (गति ऊपर-नीचे व तिरछे अर्थात सीधी दिशाओको छोडकर विदिशाओं में गमन नहीं करतो)।
नोणिरूपेण । ततमिनिग्रहा गतिर्न विरुद्वा जीवस्येति । - जो स. सि /२/२६/१८३/७ लोकमध्यादारभ्य ऊर्ध्वमस्तिर्यक च आकाश
प्रदेश जहाँ स्थित है वहाँसे लेकर ऊपर, नीचे और तिरहरे कमसे प्रशाना क्रम निविष्टाना पडक्ति श्रेणि इत्युच्यते। अनु' शब्द
विद्यमान आकाप्रदेशों की पतिको श्रेणी कहते है । इस श्रेणीके स्यानुपर्येण वृत्ति । श्रेणेरानुपूव्येण्यनुश्रेणीति जीवानां पुद्गलानां
द्वारा ही जीवों का गमन होता है, श्रेणीको उल्ल धन करके नहीं च गतिर्भवतीत्यर्थ । ननु चन्द्रादीनां ज्योतिष्काणा मेरुप्रदक्षिणा
होता है। इसलिए विग्रहगतिवाले जीवके तीन मोडेवाली गति काले विद्यापरादीना च विश्रेणिगतिरपि दृश्यते, तत्र क्मुिच्यते
विरोधको प्राप्त नहीं होती है। अर्थात ऐसा कोई स्थान ही नहीं है, अनुश्रेणि गति इति । कालदेशनियमोऽत्र वेदितव्य । तत्र कान
जहॉपर पहुँचनेके लिए चार मोडे लग सके। नियमस्ताव ज्जीवाना मरणकाले भवान्तरसक्रममुक्तानां चोर्ध्वगमन- * उपपाद स्थानको अतिक्रमण करके गमन होने वन काले अनुश्रेण्येव गति । देशनियमोऽपि ऊर्ध्व लोकादयोगति ,
होने सम्बन्धी दृष्टिभेद-दे०क्षेत्र/३/४ । अधोलोकादू बंगति , तिर्यग्लोकादधोगतिरूर्वा वा तत्रानुश्रेण्येव । पुद्गलाना च या लोकान्तप्रापिणी सा नियमादनश्रेण्येच । इत्तरा गतिर्भजनीया। = लोकके मध्यसे लेकर ऊपर-नीचे और तिरछे
विघ्न-स.सि./६/२७/३४१/१ तेषा बिहनन विघ्न' । उनका क्रमसे स्थित आकाशप्रदेशीकी पंक्तिको श्रेणी कहते है। 'अनु'
अर्थात् दान, लाभ, भोग, उपभोग व वीर्यका नाश करना विघ्न है। ठात आनुपूर्वी अर्थ मे समसित है। इसलिए अनुश्रेणीका अर्थ
(रा बा./६/२७/१/५३१/२६) । श्रेणीकी आनुपूर्वीसे होता है । इस प्रकारकी गति जीव और विचयपद्धगजोकी होती है, यह इसका भाव है। प्रश्न-चन्द्रमा आदि स सि /६/३६/४४६/४ विचयन विचयो विवेको विचारणेत्यर्थः। ज्योतिषियोकी और मेरुकी प्रदक्षिणा करते समय विद्याधरोकी
विचयन करना विचय है। विचय, विवेक और विचारणा ये विश्रेणी गति देखी जाती है, इसलिए जोध और पुद्गलोकी अनु- पर्याय नाम है । ( रा था /४/३६/१/६३०/२)। श्रेणी गति होती है, यह किस लिए कहा। उत्तर-यहाँ कालनियम और देश नियम जानना चाहिए। कालनियम यथा-मरणके
घ८/३,१/२/३ विचओ विचारणा मीमासा परिवरखा इदि एबहो। समय जब जीव एक भवको छोड़कर दूसरे भव के लिए गमन करते
=विचय, विचारणा, मीमासा और परीक्षा ये समानार्थक शब्द है। है और मुक्तजीव जन ऊध्वंगमन करते है, तब उनकी गति अनु
-(और भी दे० परीक्षा)। श्रेणि ही होती है। देशनियम यथा-जब कोई जीव ऊर्ध्वलोकसे विचार या वीचारअपोलोकके प्रति या अधोलोकसे ऊर्ध्व लोकके प्रति आता-जाता ___त. सू /8/४४ बोचारोऽर्थ व्यजनयोगस क्रान्ति ।४४1- अर्थ, व्यजन है। इसी प्रकार तिर्यग्लोकसे अधोलोकके प्रति या ऊर्ध्व लोकके प्रति और योगकी सक्रान्ति वीचार है।
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विचिकित्सा
वितंडा
स सि/8/४/४५५/१३ एव परिवर्तन वीचार इत्युच्यते । - इस प्रकार- विजयनगर-विजया की उत्तर व दक्षिण दोनो श्रेणियोके नगर । के ( अर्थ व्यञ्जन व योगके ) परिवर्तनको वीचार कहते है। (रा
- दे० विद्याधर। वा/६/४४/-/६३४/१३)। रा. वा /१/१२/११/५५/१८ आलम्बने अर्पणा बितर्क , तत्रैवानुमर्शन
विजयपुरी-अपरविदेह पद्मवान् क्षेत्रकी प्रधान नगरी-दे०लोक५/२ विचार । -विषम्र के प्रथम ज्ञानको वितर्क कहते है। उसीका बार- विजयवश-नन्दवंशका अपर नाम है। मगध देशकी राज्य वंशाबार चिन्तवन विचार कहलाता है।
वली के अनुसार दिगम्बर आम्नायमे जहाँ विजयवशका नाम दिया दे० विचय-( विचय, विचारणा, परीक्षा और मीमासा ये समानार्थक
है, वहाँ ही श्वेताम्बर आम्नायमें नन्दवशका नाम दिया है । -दे० शब्द है।)
नन्दवश। * सविचार अविचार भक्त प्रत्य ख्यान -दे० सल्लेखना/३।। विजय वमो-विन्ध्यवर्माका अपर नाम।-दे०विन्ध्य वर्मा। * सविचार व अविचार शुक्लध्यान -दे० शुक्लध्यान ।।
विजयसन-१ श्रुतावतारके अनुसार भद्रबाहू श्रुतकेवली के पश्चात्
आठवे ११ अग व १० पूर्वधारी हुए। समय- बी० नि० विचार स्थान-दे. स्थिति/१६
२८२-२६५ (ई० पू० २४५-२३२ )।-दे० इतिहास/४/४ । २ तत्त्वाविचिकित्सा-दे० निविचिकित्सा।
नुशासनके रचयिता श्री नागसेन ( ई०१०४७ ) के दादागुरु । समयविचित्र
नागसेन के अनुसार ई० श० १० । न्या. वि./वृ./१/८/१४८/१७ तद्विपरीत विचित्र -क्षणक्षय विषयत्वं
विजया-१ अपर विदेहस्थ वप्रक्षेत्रकी प्रधान नगरी।-दे० लोका/२ प्रत्यक्षस्य।
२ रुचक पर्वत निवासिनी दिवकुमारी-दे० लोक १३ ३ भगवान् न्या वि/वृ./१/८/१५७/१६ तद्विशिनष्टि विचित्र शबलं सामान्यस्य
मल्लिनाथकी शासक यक्षिणी।-दे० तोर्थ कर/५/३ ४.नन्दीपबरद्वीप विशेषात्मक विषस्य सामान्यात्मकमिति। उस (चित्र) से
की वापी-दे० लोक/५/११। विपरीत विचित्र है। प्रत्यक्षज्ञान क्षणक्षयी विषय इसका अर्थ है । विजयाचाये--अपर नाम अपराजित था।-दे० अपराजित।। विचित्र शत्रल अर्थात सामान्यका विशेषात्मक रूप और विशेषका
विजयाध-१,रा बा /३/१०/४/१७१/१६ चक्रभृद्विजयाध करत्वाद्विसामान्यात्मक रूप।
जयाध इति गुणत कृताभिधानो। - चक्रवर्ती के विजयक्षेत्रकी आधी विचित्रकूट-विजयार्धको दक्षिण श्रेणीका एक नगर ।
सीमा इस पर्वतसे निर्धारित होती है, अतः इमे विजयाई कहते है। -दे० विद्याधर।
(विशेष दे० लोक/३-७)। २. विजया पर्वतका एक कूट व उसका विचित्रानन्दनवनमे स्थित रुचक कूट की स्वामिनी दिवकुमारी।
स्वामी देव।-दे० लोक/५/४। -दे० लोक/५/५ ।
विजयोदया--आ० अपराजित ( ई० श०.) द्वारा विरचित विचित्राश्रयाकोण-ममेरुपर्वतका अपर नाम ।- दे० सुमेरु ।
भगवती आराधना ग्रन्थकी विस्तृत सस्कृत टीका । (ती/२/१२७)।
विजस्का-विजयार्धको दक्षिण श्रेणीका एक नगर। विजय-१, भगवान सुपार्श्व नाथ का शासक यक्ष-~-दे.तीर्थ
-दे० विद्याधर। कर/१/३ । २. कल्पातीत देवो का एक भेद-दे स्वर्ग/३ । ३. इनका विजाति-१ विजाति उपचार । -दे० उपचार/१। २. विजाति लोक में अवस्थान-दे. स्वर्ग/५/४।४ विद्यत्प्रभ तथा माल्यवान द्रव्य पर्याय = दे० पर्याय । गजदन्त का कुट-दे. लोक/१/४।५ निषध पर्वत का कुट तथा
-शास्त्रार्थ या वाद। --दे० कथा । उसका संपक देव-दे लोक/५/४।६ जम्बूद्वीप की जगती का पूर्व द्वार ,दे लोक/३/१। ७ पूर्व विदेह के मन्दर वक्षार के कच्छ- विजिष्णु-एक ग्रह-दे० ग्रह । बदकट का रक्षक देव-दे लोक/५/४।८.हरिक्षेत्र का नाभिगिरि
विडौषध ऋद्धि-दे० ऋद्धि । दे लोक/५/३६नन्द नवन का एक कूट-दे लोक/५/५ ॥१०. म पु / ५७/श्लो० पूर्व भन न०२ में राजगृह नगर के राजा विश्वभूतिका ।
वितंडाहछोटा भाई 'विशारवभूति' था ।७३। पूर्वभव न १ मे महाशक न्या. सू/मू./१/२/३ प्रतिपक्षस्थापनाहीनो वितण्डा ।-प्रतिपक्ष के साधनवर्गमे देव हुआ 1८२। वर्तमान भवमे प्रथम बलदेव हुए-दे० से रहित जल्पका नाम वितडा है। अर्थात् अपने किसी भी पक्षकी शलाकापुरुष/३। ११. बृ कथाकोश/कथा न०६/पृ.-सिहलद्वीप स्थापना किये बिना वेवल परपक्षका खण्डन करना वितडा है। के शासक गगनादित्यका पुत्र था ।१७। पिताकी मृत्यु के पश्चात (स्या म/१०/१०७/१३)। अपने पिलाके मित्रके घर 'विषान्न शब्दका अर्थ 'पौष्टिक अन्न
स्था,म/१०/१०७/१५ वस्तुतस्त्वपरामृएतत्त्वातश्व विचारं मौवर्य वितंडा। समझकर उसे खा गया, पर मरा नही ।१८। फिर दीक्षा ले मोक्ष -- वारतवमे तत्त्व अतत्तका विचार न करके खाली बवास करनेको सिधारे ।१६॥
वित डा कहते है। विजयकौत-नन्दिसब बलात्कारगणकी को ईडर गद्दी में ज्ञान
* बाद जल्प व वितंडामें अन्तर-दे० वाद/५ । भूषण के शिष्य तथा शुभचन्द्र के गुरु ! आपने अनेको मूर्तिये
२. नैयायिकों द्वारा जल्प वितंडा आदिके प्रयोगका प्रतिष्ठित कराई। महाराज मल्लिभूपाल द्वारा सम्मानित हुए। समय- वि १५५२-१५७० (ई १४६५-१५१३)। (दे इतिहास/७/४)।
समर्थन व प्रयोजन (जै/१/४७३), (ती /३/३६२) ।
न्या सू/मू /५/९/५०-५१/२८४ तत्त्वाध्यवसायसरभणार्थ जल्पवितण्डे
बीजप्ररोहण सरक्षणार्थ कण्टकशारखाव रणवत् ।। ताभ्या विगृह्य विजयचरी--विजया की दक्षिण श्रेणीका एक नगर-दे०विद्याधर । कथनम् ।
पोका विपर्वत
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वितत
=
न्या. सू./१/२/२/४३/१० यमाणैरर्यस्य साधन तच परजातिनिग्रहस्थानामङ्गभावी रक्षणार्थत्वात् तानि हि प्रयुज्यमानानि परपक्षविघातेन स्वपक्षं रक्षन्ति । जैसे बीजकी रक्षाके लिए सब ओर से काँटेदार शाखा लगा देते है, उसी प्रकार तत्त्वनिर्णयकी इच्छारहित केवल जीतने अभिप्रायसे जो पहले आक्षेर करते है, उनके दूषण के समाधान के लिए जल्प वितडाका उपदेश किया गया है ॥५०॥ जीतनेको इच्छासे न कि तत्त्वज्ञानकी इच्छासे जम्प और वितडाके द्वारा वाद करे |१| यद्यपि छल जाति और निग्रहस्थान साक्षात् अपने पक्ष के साधक नहीं होते है, तथा दूसरेके पक्षका खण्डन तथा अपने पक्षकी रक्षा करते है ।
* जय पराजय व्यवस्था दे० न्याय/२ |
विततवितथ
एक प्रकारका प्रायोगिक शब्द । - दे० शब्द । - १३५.२.५०/२०६६ वितथमसत्यम्, न विवि माध्यमित्यर्था सत्य ये समानार्थक शब्द है । ( विशेष दे० असत्य ) जिस श्रुतज्ञानमे वितथपना नहीं पाया जाता वह अवितथ अर्थात् तथ्य है ।
वितर्क-
रा. सू./१/४३ सिर्फ तम् ४३ तर्कका अर्थ भूत है। श्रुत दे० ऊहा - ( विशेष रूपसे ऊहा या तर्कणा करना वितर्क अर्थात् श्रुतज्ञान कहलाता है ।
दे० विचार - (वषय प्रथम ज्ञानको सिर्क कहते है ।)
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सी ४८/२०३६ स्वशुद्धात्मानुभूतिलक्षणं भाव तहाचमन्त Gerard वा वितर्कों भण्यते । निज शुद्ध आत्माका अनुभवरूप भावश्रुत अथवा निज शुद्धात्माको कहनेवाला जो अन्तरंग जल्प (सूक्ष्म शब्द) है वह विर्क है। वितस्ता- पंजाबकी वर्तमान झेलम नदी । ( म पु / प्र ५६/पं.
पन्नालाल ) । वितस्ति विदर्भ वर्तमानका बार प्रान्त
इसको प्राचीन राजधानी निर्भ
पुर (बोदर ) अथवा कुण्डिनपुर थी । ( म पु / प्र ४६ / पं पन्नालाल ) |
विदर्भपुर वर्तमानका बीदर (म. प्र. ४१/ पाताल)। विदल- दे, भक्ष्याभक्ष्य / ३ /२० विदारणक्रिया दे किया विदिशा १ दे दिशा । २
मालवा प्रान्तमे वर्तमान भेलसा
नगर ( म पु / ४६ /
प
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एक बालिश्त दे० गणित / I / ३१
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विदुर पा
-पा पु. / सर्ग / श्लोक - भीष्मके सौतेले भाई व्यासका पुत्र । ( ७ /११७ ) । कौरव पाण्डवोके युद्ध में इन्होने काफी भाग लिया । कौरवको बहुत समझाया पर वे न माने । ( १६ / १८७ ) । अन्तमे दीक्षित हो गये। ( १६/५-७) ।
विदेह - १. रा. वा. /३/१०/११/१७२ / ३३ विगतदेहा' विदेहा 1 के पुनस्ते येषां देहो नास्ति धर्मादाय मे या सत्य देहेनिगतशरीरसंस्कारास्ते विदेहा उद्योगाप विदेहम्यपदेश । रात्र हि मनुष्य हो यतमाना विदेहत्वमास्कन्दति। ननु भरत रावतयोरपि विदेहा सन्ति । सत्य, सन्ति कदाचिन्न तु सर्वकालम्, तत्र तु सतत धर्मोच्छेदाभावाद्विदेहा सन्तीति प्रकर्षापेक्षो विदेहश्यपदेश पुनरसी नीलबहोरन्तराने तस्मनिवेश विगतदेह अर्थात देहरहित भगवान् विदेह कहलाते है, क्योंकि उनके कर्मबन्धनका उच्छेद हो गया है।
विद्या
अथवा देहके होते हुए भी जो शरीर के संस्कारोंसे रहित है ऐसे भगवान् विदेह है। उनके योग से उस देशको भी विदेह कहते है। यहाँ रहनेवाले मनुष्य देहका उच्छेद करने के लिए य करते हुए विदेहत्वको प्राप्त किया करते है। प्रश्न - इस प्रकार तो भरत और ऐरावत क्षेत्रो मे भी विदेह होते है । उत्तर-होते अवश्य है परन्तु सदा नहीं, कभी-कभी होते है और विदेहक्षेत्रमे तो सतत धर्मोच्छेदका अभाव ही रहता है, अर्थात् वहाँ धर्मकी धारा अभिन्न रूपसे महती है. इसलिए वहाँ सदा विदेशी जनत भगवान् ) रहते है । अत' प्रकर्ष की अपेक्षा उसको विदेह कहा जाता है। यह क्षेत्र निषेध और नील परंतोके अन्तरालमे है [ उसके बहु मध्य भागमें एक सुमेरु व चार गजदन्त पर्वत है, जिनसे रोका गया भू-खण्ड उत्तर देवकुरु कहलाते है। इनके पूर्व पश्चिम में स्थित क्षेत्रोको पूर्व विदेह और पश्चिम विदेह कहते है । यह दोनो ही विदेह चार-चार महार गरियो, सीन-तीन विभागा नदियों और सीता व छोटोदा नामको महानदियों द्वारा १६-१६ देश में विभाजित कर दिये गये है । इन्हें ही ३२ विदेह कहते हैं । इस एक-एक सुमेरु सम्बन्धी १२-१२ निदेह है। पाँच सुमेरुओके मिलकर कुल १६० विदेह होते है।] (विदो लोक३/३.१२, १४) । प्रा./६०-६०१ पेसा दुमक्खीदीमा रिसिगमद होणा भरिदा सदावि के लिसलाग पुरिसिड्डिसाहू हि ६८० तित्थद्वयलचक्की सद्विसय पृह वरेण अवरेण । वीस वीस सयले रियं वरदो ॥६८१ विदेहक्षेत्र के उपरोक्त सर्व देश अतिवृष्टि, अनावृष्टि, मूसा, टीडी, सूवा, अपनी सेना और परकी सेना इन सात प्रकारकी ईतियोसे रहित है। रोग मरी आदिसे रहित है । कुदेव, कुलिंगी और कुमतसे रहित है । केवलज्ञानी, तीर्थकरादि शलाका पुरुष और ऋद्धिधारी साधुओसे सदा पूर्ण रहते है | ६० सीर्थंकर चक्रवर्ती अर्धचको नारायण व प्रतिनारायण, ये यदि अधिक से अधिक होवे तो प्रत्येक देशमे एक-एक होते है और इस प्रकार कुल १६० होते है । यदि कमसे कम होवे यो सीता और सोतोदाके दक्षिण और उत्तर तटोपर एक-एक होते है, इस प्रकार एक विदेहमे चार और पाँचो विदेहोमे २० होते है । पाँचो भरत व पॉचो ऐरावतके मिलाने पर उत्कृष्ट रूपसे १७० होते है। (मपु/७६/४६६-४६७२ द्वाररंग (दरभंगा) के मा प्रदेश है। मिथिता या जनकपुरी इसी देशमे है (म. पु / प्र. ५०/१. पन्ना लाल ) ।
विद्दावण - ४११/२४.२२/२६/११ अंगदनादिव्यापार वि वण णाम प्राणियोके अगच्छेदन आदिवा व्यापार विद्यात्रण कहलाता है ।
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विद्वणू - ज्ञानपचमी अर्थात् समचमीत माहात्म्य नाम भाषा छन्दरचना की एक कनि समय वि सं १४२२ ( ११०६) (हिन्दी जैन साहित्य इतिहास / ६ वा कामया
प्रसाद ) ।
विद्या
या वि/१/१०/२८२ / १ विचधा यथावस्थितवस्तुरूपावलोकनशक्त्या । विद्याका अर्थ है यथावस्थित वस्तुके स्वरूपका अबलोकन करनेकी शक्ति ।
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नोट- ( इसके अतिरिक्त मन्त्र तन्त्रो आदिके अनुष्ठान विशेषसे सिद्ध की गयी भी कुछ विद्यए होती है, जिनका निर्देश निम्न प्रकार है । )
२. विद्याके सामान्य भेदों का निर्देश
राया |१/२०/१२/०६/०
विद्यानुवाद
सत्रासेनादीनामल्पविद्याना सप्तानि महारोहिण्यादीना महाविद्याना पञ्च
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विद्या
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विद्याधर्म
* अन्य सम्बन्धी विषय १. मन्त्र तन्त्र विद्या।
-दे० मन्त्र। २. साधुओंकी कचित् विद्याओंके प्रयोगका निषेध । --दे० मन्त्र ।
विद्याकर्म-दे० मावद्या३। विद्याधरध.१/४,११६०००० एवमेदाओ तिविहाओ विजाओ होति विज्जाहराण । तेग देबदणिवासिमणुआ विविज्जाहरा, सयल विजाओ छडिऊण गहिदसजमविज्जाहरा वि होति विज्जाहरा. विज्जाविसयविण्णाणस्स तत्थुवल भादो। पढिदविज्जाणुपवादा विज्जाहरा, तेमि पि विज्जाविसयविण्णाणुवल भादो। -- इस प्रकारसे तीन प्रकारकी विद्याएँ (जाति कुल व तप विद्या) विद्याधरोके होती है। इससे वैतादय पर्वतपर निवास करनेवाले मनुष्य भी विद्याधर होते है । सब विद्याओं को छोडकर सयमको ग्रहण करनेवाले भी विद्याधर होते है, क्योकि, विद्याविषयक विज्ञान वहाँ पाया जाता है जिन्होंने विद्यानुप्रबादको पढ़ लिया है वे भी विद्याधर है, क्योकि उनके भी विद्याविषयक विज्ञान पाया जाता है। त्रि. सा /७०६ विज्जाहरा तिविज्जा वसति छक्कम्मसंजुत्ता। -विद्याधर लोग तीन विद्याओसे तथा पूजा उपासना आदि षट कोसे सयुक्त
शतानि । अन्तरिक्षभौमागस्वरस्वप्नलक्षणव्यजनछिन्नानि अष्टौ महानिमित्तानि । =विद्यानुवाद पूर्व में अंगुष्ठ, प्रसेन आदि ७०० अल्प विद्याएँ और महारोगिणी आदि ०० महाविद्याएं सम्मिलित है। इसके अतिरिक्त अन्तरिक्ष, भौम, अग, स्वर, स्वप्न, लक्षण, व्यजन व छिन्न (चिह्न) ये आठ महानिमित्त ज्ञान रूप विद्याएँ
भी है। [अष्टांगनिमित्तज्ञानके लिए दे० निमित्त/२]।। ध.६/४,१.१६/७७/६ तिविहाओं विज्जाओ जातिकुलनपविजाभेएण
उत्तं च-जादीसु होइ विज्ला कुल विज्जा तह य होइ तवविज्जा। विज्जाहरेसु एदा तवविज्जा होइ साहणं ।२० तत्थ सगमादुपएखादो लद्धविज्जाओ जादिविजाओ णाम । पिदुपवखुवल द्धादो कुलविज्जाओ । छटुट्ठमा दिउववासविहाणेहि साहिदाओ तबविज्जाओ। जातिविद्या, कुलविद्या और तपविद्याके भेदसे विद्याएँ तीन प्रकारकी है। कहा भी है-"जातियोमें विद्या अर्थात जातिविद्या है, कुन विद्या तथा तपविद्या भी विद्या है । ये विद्याएँ विद्याधरोमें होती है और तपविद्या साधओके होती है ।२०।" इन विद्याओमें स्वकीय मातृपक्षसे प्राप्त हुई विद्याएं जातिविधाएँ और पितृपक्षसे प्राप्त हुई कुलविद्याएँ कहलाती है। षष्ठ और अष्टम आदि उपवासो ( वेज्ञा तेला आदि ) के करनेसे सिद्ध की गयीं विद्याएँ तपविद्याएँ है।
३. कुछ विद्यादेवियों के नाम निर्देश प्रतिष्ठासारोद्धार/३/३४-३५ भगवति रोहिणि महति प्रज्ञप्ते वज्रशृङ्खले
स्वलिते । वज्राङ्कशे कुशलिके जाम्बनदिकेस्तदुर्मदिके ।३४. पुरुधाम्नि पुरुषदत्ते कालिकलादये कले महाकालि । गौरि वरदे गुणढे गान्धारिवालिनि ज्वलज्ज्वाले ३१ - भगवती,रोहिणी,महती प्रज्ञप्ति. बज्रशृखला, वज्रांकुशा, कुशलिका. जाम्वनदा, दुम दिका, पुरुधाग्नि, काली. कला महाकाली, गौरी, गुणद्धे,गान्धारी.ज्वालामालिनी. (मानसी, वैरोटी, अच्युता, मानसी, महामानसी)।
१. कुछ विशेष विद्याओंके नामनिर्देश ह. पु/२२/५१-७३ का भावार्थ-भगवान ऋषभदेवसे नभि और बिनमि द्वारा राज्यकी याचना करने पर धरणेन्द्रने अनेक देवोंके सग आकर उन दोनोको अपनी देवियोसे कुछ विद्याएँ दिलाकर सन्तुष्ट किया। तहाँ अदिति देवीने विद्याओके आठ निकाय तथा गन्धर्वमेनक नामक विद्याकोष दिया। आठ विद्या निकायोंके नाम-मनु, मानव, कौशिक, गौरिक, गान्धार, भूमितुण्ड, मूलवीर्यक, शकुक । पे निकाप आर्य, साहित्य, गन्धर्व तथा व्योमचर भी कहलाते है। दिति देवी ने-मालंक, पाण्ड्ड, काल, स्वपाक, पर्वत, वंशालय, पांशुमूल, वृक्षमूल ये आठ विद्यानिकाय दिये। दैत्य, पन्नग, मातंग इनके अपर नाम है। इन सोलह निकायों में निम्न विद्याएँ हैप्रज्ञप्ति. रोहिणो, अंगारिणी, महागौरी, गौरी, सर्व विद्या, प्रकर्षिणी. महाश्वेता, मायूरो. हारी. निवज्ञशावला, तिरस्कारिणी, छायासक्रामिणी, कुष्माण्ड-गणमाता, सर्व विद्याविराजिता, आयकूष्माण्ड देवी, अच्युता, आयवती, गान्धारी, निवृत्ति, दण्डाध्यक्षगण, दण्डभूतसहस्त्र, भद्रकाली, महाकाली, काली, कालमुखी, इनके अति'रिक्त-एकपर्वा, द्विपर्वा, त्रिपळ, दशपर्वा, शतपर्वा, सहस्रपर्वा, लक्षपर्वा, उत्पातिनी. त्रिपातिनी, धारिणी, अन्तविचारिणी, जलगति और अग्निगति समस्त निकायोमें नानाप्रकारकी शक्तियोसे सहित नाना पर्वतोपर निवास करनेवाली एवं नाना औषधियोकी जानकार हैं। सर्वार्थ सिद्धा, सिद्धार्था, जयन्ती. मगला, जया, प्रहारसक्रामिणी, अशच्याराधिनी, पिशव्याकारिणी, वणमरोहिणी. सवर्णकारिणी, मृतसंजीवनी, ये सब विद्याएँ कल्याणरूप तथा मंत्रोंसे परिष्कृत, विद्याबलसे मुक्त तथा लोगोंका हित करनेवाली है। 'म पु./७/३४-३३४)।
१. विद्याधर खचर नहीं है ध. ११/४,२,६,१२/१९५/६ ण विज्जाहराणं रवगचरत्तमरिथ विजाए विणा सहावदो चेत्र गगणगमणसमस्येच खगयत्तप्पसिद्धीदो। - विद्याधर आकाशचारो नहीं हो सकते, क्योंकि, विद्याकी सहायताके बिना जो स्वभावसे हो आकाश गमनमें समर्थ हैं उनमें ही खचरत्वकी प्रसिद्धि है।
३. विद्याधर सुमेरु पर्वतपर जा सकते हैं म. पु ११३/२१६ साशक गगनेचरै किमिदमित्यालोक्तिो य स्फुरन्मेरोर्मूनि स नोऽवताजिनविभोर्जन्मोत्सवाम्भ प्लव ।२१६॥ - मेरु पर्वतके मस्तक पर स्फुरायमान होता हुआ, जिनेन्द्र भगवान के जन्माभिषेकको उस जलप्रवाहको, विद्याधरोने 'यह क्या है ऐसी शंका करते हुए देखा था ।२१६।
४. विद्याधर लोक निर्देश
ति ५/४/गा का भावार्थ - जम्बद्वीपके भरतक्षेत्रमे स्थित विजयार्ध पर्वतके ऊपर दश योजन जाकर उम पर्वतके दोनो पार्श्व भागोमें विद्याधरोकी एक-एक श्रेणी है।१०। दक्षिण श्रेणीमे ५० और उत्तर श्रेणी में ६० नगर है ।१११। इससे भी १० यो० ऊपर जाकर आभियोग्य देवीकी दो श्रेणियाँ है ।१४० विदेह क्षेत्रके कच्छा देशमें स्थित विजयाईके ऊपर भी उसी प्रकार दो श्रेणियाँ है ।२२५८। दोनो ही श्रेणियोमें ५५-५५ नगर है ।२२५६। शेष ३१ विदेहो के विजयादौंपर भी इसी प्रकार ५५-५५ नगरवाली दो दो श्रेणियाँ है ।२२६२। ऐरावत क्षेत्रके विजयाधका क्थन भी भरतक्षेत्र बत् जानना ।२०६५। जम्बूद्वीपके तीनो क्षेत्रोके विजया?के सदृश ही धातकी खण्ड व पुष्कराध द्वीप में जानना चाहिए ।२७१६,२६२। (रा वा/३/१०/४/१७२/ १).(ह पु./२२/८४)(म.पु/१६/२७-३०), (ज प /२/३८-३६), (त्रि. सा/६६५-६६६)। दे० काल/४/१४-[ इसमे सदा चौथा काल वर्तता है।
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विद्याधर
५४५
विद्याधर
ति.प
सुमुखी
अरुणी
个TTTTTTTTT
वैजयन्त
श्रीधर
१०
-
पुर जय
चमर
५. विद्याधरोंकी नगरियों के नाम
नं. ति. प. म. पु. | त्रि. सा. ह पु. (ति.प./४/११२-१२५), (ह पु/२२/८५-१०१); (म. पु./११/३१८७); (त्रि सा./६६६-७०८ ) सकेत -- जो नाम इस ओर लिखा है , वैश्रवणकूट सूर्यपुर । सूर्यपुर । दिव्यौषध
सूर्यपुर चन्द्रपुर चन्द्रपुर । अर्कमूल त्रि. सा. ह पु.
नित्योद्योतिनो नित्प्रोद्योतिनी उदयपर्वत
नित्योद्योत विमुखी विमुखी अमृतधारा दक्षिण श्रेणी
विमुखी नित्यबाहिनी | नित्यवाहिनी । कूटमातंगपुर | किनामित
रथनूपुर
नित्यवाहिनी सुमुखी सुमुखी भूमिमडल किन्नरगीत
आनन्द
पश्चिमा पश्चिमा जम्बूशंकुपुर नरगीत
चक्रवाल | उत्तर श्रेणी.बहुकेतु
अरिंजय अर्जुणी
आदित्यनगर पुण्डरीक
मण्डित
अरुणी वारुणी
गगनवल्लभ सिंहध्वज
बहुवेतु कैलास
चमरचम्पा श्वेतकेतु श्वेतध्वज शक्टामुख वारुणी
गगनमडल गरुडध्वज गन्धस्मृद्ध विधु प्रभ
विजय श्रीप्रभ
शिवमन्दिर किलकिल वैजयन्त चूडामणि
शत्रुजय लोहार्गल
रथपुर
शशिप्रभ হিমা। शशिप्रभ अरिजय अरिजय
श्रीपुर ६ वशाल
पद्माल वज्रार्गल
रत्नसंचय पुष्पचूल पुष्पचूड
पुष्पचूल
के तुमाल वज्राढ्य वज्राठ्यपुर आषाढ हसगर्भ
रुद्राश्व विमोचिता विमोच विमोचिपुर मानस । १२ बलाहक
धनञ्जय जयपुरी जय सूयपुर 1133 शिवकर
वस्वौक शकटमुखी
स्वर्ग नाभ १४ प्रोसौध
श्रीहर्म्य
श्रीसौध सारनिवह चतुर्मुख शतहद
जयन्त बहुमुख
अङ्गावत
शिव मदर शिवमन्दिर शिवमन्दिर अपराजित अरजस्का
जलावर्त वसुमत्का
वसुमरक
वसुमत्का वराह विरजस्का
आवर्त पुर बसुमती
हास्तिन रथनूपुर
बृहदगृह
सर्वार्थपुर मेखलापुर
शखवज्र (सिद्धार्थपुर) सिद्धार्थक
| सिद्धार्थ क्षेमपुर क्षेमचरी नाभान्त TRO शजय
सौकर अपराजित
मेघकूट
केतुमाल केतुमाला ध्वजमाल हस्तिनायक कामपुष्प
मणिप्रभ
सुरपतिकात सुरेन्द्रकान्त सुरेन्द्रकान्त पाण्डुक २७ गगनचरी
कुअरावर्त २३ गगननन्दन
कौशिक विजयचरी विनयचरी
विनयचरी असितपर्वत अशोक अशोका अशोका वीर । (विनयपुरी)
विशोक विशोका विशोका गौरिक शक्रपुरी चक्रपुर शुक्र
सिन्धुकक्ष बीतशोक वीतशोका वीतशोका मानव सजयन्त संजयन्ती संजयन्ती
महाकक्ष अलका
मनु जयन्त जयन्ती जयन्ती
२८ तिलक तिलका तिनका चम्पा विजय विजया विजया चन्द्रपर्वत अबरतिलक
काञ्चन वैजयन्त वैजयन्ती वैजयन्ती
श्रीकूट मन्दर मन्दिर मन्दर
ऐशान क्षेमकर
गौरीकूट कुमुद
मणिवज चन्द्राभ लक्ष्मीकूट
जयावह सूर्याभ
धराधर गगनवल्लभ
नैमिष पुरोत्तम रतिकूट रतिकूट काल केशपुर
३४ दिव्यतिलक च तिलक दिव्यतिलक हास्तिविजय ३८ चित्रकूट
रम्यपुर
३५ भूमितिलक
खण्डिका
मा | महाकूट
हिमपुर ३६ गन्धर्व पुर गन्धर्व पुर गन्धर्व नगर मणिकाचन सुवर्ण कूट हेमकूट
किन्नरोद्गीत ३७ मुक्ताहर मुक्ताहार मुक्ताहार अशोक
नगर ३८ । नैमिप निमिष नैमिष मेघकूट नभस्तिलक |३६ अग्निज्वाल
आनन्द मगधसारनलक'४०' महाज्वाल
नन्दन वैश्रवणकूट
पाशुमूल ४१ श्रीनिकेत
श्री निकेतन
सिह
IT
Pr
।२७
सकलं
ar
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हेमकूट
वेणु
त्रिकूट
| विचित्रकूट ३ | मेधकूट
वैश्रवणकूट
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भा० ३-६९
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विद्याधर जिन
विधान
ति,प
म
पु
त्रि सा
जय
जयावह
अग्निज्वाल महाज्वाल माल्य
पुरु
जयावह श्रीनिवास मणिवज्र भद्राश्व धनजय माहेन्द्र विजयनगर सुगन्धिनी | बज्रार्द्ध तर | गोक्षीरफेन अक्षोभ गिरिशिखर धरणी वारिणी (धारिणी)
भवनंजय धनंजय गोक्षीरफेन गोक्षीरफेन अक्षोभ्य अक्षोभ गिरिशिखर गिरिशिखर धरणी धारण
et
नन्दिनी विद्य प्रभ महेन्द्र विमल गन्धमादन महापुर पुष्पमाल मेघमाल शशिप्रभ चूडामणि
'दुर्धर
सुदर्शन
सुदर्शन महेन्द्र
महेन्द्रपुर
दुर्ग
विजयपुर सुगन्धिनी वज्रपुर
विजयपुर सुगन्धिनी वज्रार्द्ध तर
सुदर्शन रत्नाकर रत्नपुर
पुष्पचूड हसगर्भ वलाहक वशालय सौमनस
चन्द्रपुर
रत्नपुर
६. अन्य सम्बन्धित विषय १. विद्याधरों में सम्यक्त्व व गुणस्थान । -दे आर्यखण्ड। २ विद्याधर नगरोंमें सर्वदा चौथा काल वर्तता है।
-दे. काल/४/१४॥
(ई १४४२-१४८१) । (ती 1३/३६६, ३७२) ।
३ भट्टारक विशाल कीति के शिष्य । ई १५४९में इनका स्वर्गवास हुआ था। (जे./१/४७४)।
४ आपका उल्लेख हुमुच्चके शिलालेख व वर्द्धमान मनीन्द्रके दशभक्त्यादि महाशास्त्रमें आता है। आप सागानेरवाले देवकीर्ति भट्टारकके शिष्य थे। समय-वि. १६४७-१६६७ (ई १५६०-१६४०)। (स्याद्वाद सिद्धि/प्र १८/पं. दरबारी लाल); (भद्रबाहु चरित्र/ प्र. १४/पं. उदयलाल)
वाद- अग श्रुतज्ञानका नवमाँ पूर्व-दे श्रुतज्ञान/III विधुच्चर-वृ कथाकोष/कथा नं. ४/पृ अस्थिरचित्त सोमदत्तसे
आकाशगामी विद्याका साधन पूछकर स्वयं विद्या सिद्ध कर ली। फिर चैत्यालयोकी धन्दना की।१३। दीक्षा ले ।१४। स्वर्ग में ऋद्धि
धारी देव हुआ।१५॥ विधुच्चोर-दे. विद्यु प्रभ/६। विद्युज्जिह्व-एक ग्रह-दे. ग्रह। विद्युत्करण-Protons and Electrons. (ध.५/प्र. २८)।
मार-भवनवासी देवोका एक भेद-दे. भवन/१/४। विद्युत्केश-प. मु/६/श्लोक-भगवान मुनिसुवतके समय लंकाका
राक्षस वशीय राजा था। वानर बंशीय महोदधि राजाके साथ परम स्नेह था । अन्तमे दीक्षा धारण कर ली ( २२२-२२५) । विद्यत्प्रभ-१ एक गजदन्त पर्वत-दे, लोकशा३।२ विजयाधकी
उत्तर श्रेणीका एक नगर-दे विद्याधर। ३. विद्य त्प्रभ गजदन्तका एक कूट-दे. लोक५/४।४.देवकुरुके १० द्रहोमे-से एक-दे. लोक ५/६ । १. यदुवशी अन्धकवृष्णिके पुत्र हिमवादका पुत्र तथा नेमिनाथ भगवान्का चचेरा भाई-दे. इतिहास११०।६ म. पु./७६/श्लोकपोदनपुरके राजा विद्य द्वाजका पुत्र था। विद्य चर नामका कुशल चोर बना । जम्बूकुमारके घर चोरी करने गया ।४६-५७। वहाँ दीक्षाको कटिबद्ध जम्बूकुमारको अनेको कथाएँ बताकर रोकनेका प्रयत्न किया।५८-१०७। पर स्वयं उनके उपदेशोसे प्रभावित होकर उनके
साथ ही दीक्षा धारण कर ली ।१०८-११०॥ विधुद्रष्ट्र-म पु./२६/श्लोक-पूर्व भव श्रीभूति. सर्प, चमर, कुर्कुट,
सप', तृतीय नरक, सर्प, नरक, अनेक योनियों में भ्रमण, मृगश ग। ( ३१३-३१५) । वर्तमान भव में विद्यु द्रष्ट्र नामका विद्याधर हुआ, ध्यानस्थ मुनि सजयतपर घोर उपसर्ग किया। मुनिको केवलज्ञान हो गया। धरणेन्द्रने क्रुद्ध होकर उसे सपरिवार समुद्र में डुबोना चाहा
पर आदित्यप्रभ देव द्वारा बचा लिया गया। (११६-१३२) । विद्युन्माला-पश्चिमी पुष्कराधका मेरु-दे. लोक/७। विद्योपजीवन-१ आहारका एक दोप-दे, आहार/11/४ |
२. वसतिकाका एक दोष-दे. वसतिका । विद्रावण-दे विद्दावण। विद्वज्जनबोधक-प पन्नालाल (ई. १७६३-१८६३) द्वारा रचित
भाषा छन्दबद्ध एक आध्यात्मिक कृति । विध-दे. पर्याय/१/१--(अश, पर्याय, भाग, हार, विध, प्रकार,
भेद, छेद, भग ये सब शब्द एकार्थवाची है।) विधाता-कर्मका पर्यायवाची नाम-दे कर्म/२। विधान-स. सि /10/२२/४ विधान प्रकार । -विधानका अर्थ
प्रकार या भेद है। (रा वा./१/७/-1३८/३)।
विद्याधर जिन-दे. जिन । विद्याधर वंश-दे. इतिहास१६१४ । विद्यानन्द महोदय-आ. विद्यानन्दि (ई ७७५-८४०) की सर्व प्रथम न्यायविषयक रचना है। अनुमान है कि यह ग्रन्थ श्लोक वार्तिकसे भी महान होगा। परन्तु आज यह उपलब्ध नहीं है। इसे केवल 'महोदय' नामसे भी कहते है। (तो/२/३५६) । विद्यानन्दि-१ आप,मगधराज अवनिपालकी सभाके एक प्रसिद्ध
विद्वान् थे । पूर्व नाम पात्रकेसरी था। वैदिक धर्मानुयायी थे, परन्तु पार्श्वनाथ भगवान् के मन्दिरमें चारित्रभूषण नामक मुनिके मुखसे समन्तभद्र रचित देवागम रतोत्रका पाठ सुनकर जैन धर्मानुयायी हो गये थे। आप अक्ल व भट्टकी ही आम्नायमे उनके कुछ ही काल पश्चाव हुए थे। आपकी अनेको रचनाएँ उपलब्ध है जो सभी न्याय व तर्कसे पूर्ण है । कृतियाँ-१ प्रमाण परीक्षा, २ प्रमाणमीमासा, ३ प्रमाण निर्णय ४. पारीक्षा, ५ आप्तपरीक्षा, ६ सत्यशासन परीक्षा, ७ जल्पनिर्णय, नयविवरण ६ युक्त्युनुशासन, १०, अष्टसहस्रो, ११ तत्त्वा श्लोक वातिक, १२. विद्यानन्द महोदय, १३ बुद्धशभत्रन व्याख्यान । समय-वि सं ८३२-८६७ (ई ७७५८४० }। (जे १२/३३६) । (तो /२/३५२ -३५३) ।
२ नन्दि सघ बलात्कारगण की सूरत शाखा में ) आप देवेन्द्रकी तिके शिष्य और तत्त्वार्थ वृत्तिकार श्रुतसागर व मल्लिभूषण के गुरु थे। कृति-सुदर्शन चरित्र । समय- (वि १४६६-१५३८)
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विनय
विधि
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* विधान व संख्यामें अन्तर-दे, स ख्या।
* पूजा सम्बन्धी विधान-दे पूजा। विधिघ १३/५५५५५०/२८५/१२ कथ श्रुतस्य विधिव्यपदेश । सर्वनयविषयाणामस्तित्व विधायकत्वात । -च कि वह सब नयोके विषयके
अस्तित्वका विधायक है, इसलिए श्रुतकी विधि सज्ञा उचित ही है। दे० द्रव्य/१/७ (सना, सत्त्व, सामान्य, द्रव्य, अन्वय, वस्तु विधि,
अविशेष ये एकार्थवाची शब्द है)। दे० सामान्य (सामान्य विधि रूप होता है और विशेष उसके निषेध
दे० कर्म/३/१ ( विधि कर्म का पर्यायवाची नाम है)।
२. अन्य सम्बन्धित विषय १. दानकी विधि।
-दे० दाना। ३. विधि निषेधकी परस्पर सापेक्षता। -दे० सप्तभगी/३। विधि चंद-दे० बुधजन। विधि दान क्रिया-दे० सस्कार/२। विधि विधायक वाक्य-दे. वाक्य । विधि साधक हेतु-दे० हेतु : विध्यात संक्रमण-दे० सक्रमण/५ । विनमि--दे० नमि/१। विनयधर-१. पन्नाट सघकी गुर्वावली के अनुसार लोहाचाय
नं.२ के शिष्य तथा गुप्ति श्रुतिके गुरु थे। समय--वी. नि. ५३० ( ई. सं.३), (दे० इतिहास/७/८ ) । २ बृ कथा कोष/कथा न १३/पृ.--कुम्भिपुरका राजा था ७१श सिद्वार्थ नामक श्रेष्ठि पुत्र द्वारा दिये गये भगवानके गन्धोधक जलसे उसकी शारीरिक व्याधियाँ शान्त हो गयी। तब उसने श्रावकवत धारण कर लिये। (७२-७३)। विनय-मोक्षमार्ग में विनयका प्रधान स्थान है। वह दो प्रकारका
है-निश्चय व व्यवहार। अपने रत्नत्रयरूप गुणकी विनय निश्चय है और रत्नत्रयधारी साधुओं आदिकी विनय व्यवहार या उपचार विनय है। यह दोनो ही अत्यन्त प्रयोजनीय है। ज्ञान प्राप्तिमें गुरु विनय अत्यन्त प्रधान है। साधु आर्यका आदि चतुर्विध सघमें परस्परमैं विनय करने सम्बन्धी जो नियम है उन्हें पालन करना एक तप है । मिथ्यादृष्टि घों व कुलिगियोंकी विनय योग्य नहीं।
सामान्य विनय निर्देश आवार व विनयभे अन्तर। ज्ञानके आठ अगोंको ज्ञान विनय कहनेका कारण । एक विनयसम्पन्नतामें शेष १५ भावनाओंका
समाबेश । विनय उपका माहात्म्य । देव-शास्त्र गुरुको विनय निर्जराका कारण है।
-दे० पूजा/२। मोक्षमार्गमे विनयका स्थान व प्रयोजन । उपचार विनय विधि विनय व्यवहार में शब्द प्रयोग आदि सम्बन्धी कुछ
नियम। साधु व आयिकाकी संगति व वचनालाप सम्बन्धी कुछ नियम।
-दे० संगति । विनय व्यवहारके योग्य व अयोग्य अवस्थाएँ ।
उपचार विनयकी आवश्यकता ही क्या ? | उपचार विनयके योग्यायोग्य पान यथार्थ साधु आयिका आदि वन्दनाके पात्र हैं। सत् साधु प्रतिमावत् पूज्य है। -दे० पूजा/३। जो इन्हें वन्दना नहीं करता सो भिथ्यादृष्टि है। चारित्रवृद्धसे भी ज्ञानवृद्ध अधिक पूज्य है । मिथ्यादृष्टि जन व पार्श्वस्थादि साधु बन्ध नहीं है। भिध्यादृष्टि साधु श्रावक तुल्य भी नहीं है।
-दे० साधु/४। अधिक गुणी द्वारा हीन गुणी वन्ध नहीं है। | कुगुरु कुदेवादिकी वन्दना आदिका कडा निषेध व
उसका कारण। द्रव्यलिगी भी कयचित् वन्ध है। ८ साधुको नमस्कार क्यों?
असयत सम्यग्दृष्टि वन्द्य क्यों नहीं ? | सिद्धसे पहले अर्हन्तको नमस्कार क्यो ? -दे० मन्त्र । | १४ पूर्वीसे पहले १० पूर्वाको नमस्कार क्यों ?
-दे० श्रुतकेवली/१॥ साधु परीक्षाका विधि निषेध १ आगन्तुक साधुकी विनयपूर्वक परीक्षा विधि। सहवाससे व्यक्ति के गुप्त परिणाम भी जाने जा सकते
-दे० प्रायश्चिन/३/१। साधुकी परीक्षा करनेका निषेध। साधु परीक्षा सम्बन्धी शका-समाधान१. शील संग्रमा द तो पालते ही है। २. पंचम कालमे ऐसे ही माधु सम्भव है। ३ जैसे श्रावक वे से साधु ?
४ इनमें हो सच्चे साधुको स्थापना कर ले। । सत् साधु ही प्रतिमावत् पूज्य है। --दे० पूजा/३ ।
भेद व लक्षण विनय सामान्यका लक्षण । | विनयके सामान्य भेद । ( लोकानुवृत्त्यादि ) मोक्षविनयके सामान्य भेद । शानदर्शनादि ) उपचारविनयके भेद । ( कायिक वाचिकादि ) लोकानुवृत्त्यादि सामान्य विनयोंके लक्षण । ज्ञान दर्शन आदि विनयोंके लक्षण। उपचार विनय सामान्यका लक्षण । | कामिकादि उपचार विनयों के लक्षण । विनय सम्पन्नताका लक्षण। -दे० विनय/१/१॥
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विनय
१. भेद व लक्षण
१. विनय सामान्यका लक्षण
मसि /६/२०/४६/७ ज्येष्याविनयपूज्य पुरुषका आवर करना विनय तप है ।"
रा. वा /६/२४/२/५२६/१७ सम्यग्ज्ञानादिषु मोक्षसाधनेषु तत्साधकेषु गुर्वादिषु च स्वयाग्यवृत्त्या सत्कार आदर कषायनिवृत्तिर्वा विनयसपन्नता । मोक्ष के साधनभृत सम्यग्ज्ञानादिकमे तथा उनके साधक गुरु आदिकोमें अपनी योग्य रीतिसे सरकार आदर आदि करना तथा कषायकी निवृत्ति करना विनयसम्पन्नता है । (स. सि /६/२४/६/७). (चा. सा/२३/१) (भा.पा./टी./००/२११/११।
घ १३ / ५,४,२६/६३/४ रत्नत्रयवत्सु नीचैवृत्तिविनय । -रत्नत्रयको धारण करनेवाले पुरुषोके प्रति नम्र वृत्ति धारण करना विनय है । (चा. सा / १४७/५ ), ( अन ध / ७ /६०/७०२ ) ! क. पा / १/१ - १/६६०/११७/२ गुणाधिकेषु नीचैर्वृत्तिर्विनय' । = वृद्ध पुरुषो के प्रति नम्र वृत्तिका रखना विनय है ।
= गुण
भ. वा वि./२००/११/२१ विनयति कर्ममिति विनय वर्म मसको नाश करता है, इसलिए विनय है (अन प./०/६९/७०२): ( दे० विनय / २ / २ ) ।
भ.आ./वि./६/३२/२३ ज्ञानदर्शनचारित्रतपसामतीचारा अशुभक्रिया । तासामपोहनं विनय । = = अशुभ क्रियाऍ ज्ञानदर्शन चारित्र व तपके अतिचार है । इनका हटाना विनय तप है ।
का असू. ४५७ समाचरिते मुनिसुद्धो भो हमे परिणामो बारसभेदेवि तवे सो श्चिय विणओ हवे तैसि । दर्शन, ज्ञान और चारित्रके विषय में तथा बारह प्रकारके तपके विषय में जो विशुद्ध परिणाम होता है वही उनको विनय है।
चा सा./ १४७ / ५ कषायेन्द्रियविनयन विनय । कषायो और इन्द्रियोको न करना विनय है। (अन. ध. /७/६०/७०२ ) । प्रसा/वा/२२५/३०६/२२ स्वनिश्वनशुद्धिनिश्वयविनय तदाधारपुरुषेषु भक्तिपरिणामो व्यवहारविनय' । स्वकीय निश्चय
यको शुद्धि नियविनय है और उसके आधारभूत पुरुषों आचार्य आदिकों का भक्तिके परिणाम व्यवहारविनय है। साध /७/३५ सुदृग्धीवृत्ततपसा मुमुक्षोनिर्मलीकृतौ । यत्नो विनय आबा मी १३ जनसम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान सम्यक् चारित्र व सम्यक् तपके दोष दूर करनेके लिए जो कुछ प्रयत्न करते है, उसको विनय कहते है और इस प्रयत्न में शक्तिको न छिपा कर शक्ति अनुसार उन्हे करते रहना विनयाचार है।
२. विनय सामान्य भेद
म आ / ५८० लोगाणुवित्तिविणओ अत्यनिमित्ते य कामत ते य । भयविणअ य चउत्यो पंचमओ मावखविणओ य १५८०१ -लोकानुवृत्तिविनय, अर्थ निमित्तक विनय कामतन्त्र विनय, भयविनय, और मोक्षविनय इस प्रकार विनय पाँच प्रकार की है।
१. भेद व लक्षण
५४८
त. सू /१/२३ ज्ञानदर्शनचारित्रोपचार | = विनय तप चार प्रकारका है - ज्ञानविनय, दर्शनविनय, चारित्रविनय और उपचार विनय । घासा./१४०/२) (त. सा / ०/३०)।
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२. मोविनय के सामान्य भेद भ. आ // ११२ युग पनि मिहिदो गारद सचरिते । तकविअ य चउत्थो चरियो उवयारिओ विणओ ॥ ११२ ॥ - विनय आचार पाँच प्रकारका है- ज्ञानविनय, दर्शनविनय, चारित्रविनय, तपनिनय और उपचार विनय ( मू. आ / ३६४, ५८४ ), ( ध / पु. १३/५.४,२६/६२/४ ), ( क. पा. १ / १-१ / ६६०/११७/१), ( बसु श्रा/ ३२०, ( अन ध / ७/६४/७०३।
ध. ८/३, ४१/८०८ विणओ तिविहो णाण-द सण-चरितविणओ त्ति । = विनय सम्पन्नता तीन प्रकार की है- ज्ञानविनय, दर्शनविनय और चारित्रविनय ।
४. उपचार विनयके प्रभेद
भ. आ /मू / ११८/२६५ काइयवाइयमाणसिओ त्तितिविहो दु पचमो विणओ । सो पुण सब्बो दुव्धिहो पच्चक्खो चेव परोक्खो | ११ | उपचार विनय तीन प्रकारकी है- कायिक, वाचिक और मानसिक उनमें से प्रत्येक के दो दो भेद है-प्रत्यक्ष व परोक्ष। (मु.आ./३७२); (चा. सा. / १४८/३), वसु श्रा/३२५),
५. छोकानुवृत्यादि सामान्य विनयोंके लक्षण
.
२०१५मुहान जलियासमदान व अतिहिपूणा म सोमाणि देवास भाषावृति बत्तणं देसकालदाणं च । लोकाणुवित्तिविणओ अजलिकरणं च अत्थकदे |२| एमेव कामतं ते भयविणओ चैव आणुपृव्वीए पंचमओ खलु विणओ परूवणा तस्सिया होदि १५८३ - आसनसे उठना, हाथ जोडना, आसन देना, पाहुणगति करना, देवता की पूजा अपनी अपनी सामर्थ्य के अनुसार करना ये सब लोकानुवृत्ति विनय है । ५८१| किसी पुरुषके अनुकूल बोलना तथा देश व कालयोग्य अपना द्रव्य देना - ये सब लोकानुवृत्ति विनय है । अपने प्रयोजन या स्वार्थ वश हाथ जोडना आदि अर्थनिमित्त विनय है |२| इसी तरह कामपुरुषार्थ के निमित्त विनय करना कामतन्त्र विनय है । भयके कारण विनय करना भय विनय है । पाँचवी मोक्ष विनयका कथन आगे करते है|३|
६. ज्ञान दर्शन आदि विनयोंके लक्षण भ.आ./मू./११३-११०/२६०-२१४ का विये उधाणे बहुमाने हे ब गिण्हवणे व अन्य सभये व पाणम्मि निहो । ११३ ॥
ग्रहणादिया पृथ्वृत्ता तह भक्तियादिया व गुणासादिपि य ओ सम्मत्तविणओ सो | ११४ | इंदियकसायपणिधाणं पिय गुत्तीओ चेत्र समिदीओ। एसो चरितविणओ समासदो होइ णायव्वो |११|| उत्तरगुणउज्जमण सम्म अधिआसण च सड्ढाए। आवासयाणमुनिदान अपरिहाणी असेखो ।११६ भी सोधियसमम्मि
अहलणाय सेसाणं । एसो तवम्मि विणओ जहुत्तचारिस्स साधुस्स | ११७० काल, विनय, उपधान, बहुमान, अनिह्नब, व्यजन, अर्थ, तदुभय ऐसे ज्ञान विनयके आठ भेद है । ( और भी दे. ज्ञान / III/ २१ ) ।१९३। पहिले कहे गये ( दे. सम्यग्दर्शन / 1 / 2) उपगूहन आदि सम्यग्दर्शनके अगोका पालन, भक्ति पूजा आदि गुणोका धारण, तथा
कादि दोषोंके त्यागको सम्यक्त्व विनय या दर्शन विनय कहते है । ११४ । इन्द्रिय और वषायोके प्रणिधान या परिणामका त्याग करना तथा गुप्ति समिति आदि चारित्रके अगोका पालन करना संक्षेप मे चारित्र विनय जाननी चाहिए । ११५ । सयम रूप उत्तरगुणों में उद्यम करना, सम्यक् प्रकार श्रम व परीषहों को सहन करना, यथा योग्य आवश्यक क्रियाओमे हानि वृद्धि न होने देना -- यह सब तप विनय है | ११६ । तपमे तथा तप करनेमें अपनेसे जो ऊँचा है उसमें, भक्ति करना तप विनय है । उनके अतिरिक्त जो छोटे तपस्वी है उनको तथा चारित्रधारी मुनियोकी भी अहंसाना नहीं करनी चाहिए। यह तप विनय है | ११७७ मू. आ / ३६५, ३६७, ३६६, ३७०. २०९), (जन, भ./०/६५-६६/७०४-००६ राधा ०५/०१०)।
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विनय
१. भेद व लक्षण
भ आ./मू /४६-४७/१५३ अरहतसिद्धचेइय सुदे य धम्म य साधुवग्गे य ।
आयरिय उवज्झाए सुपवयणे दसणे चावि।४६। भत्ती पूया वण्णजणण च णासणमवण्णवादस्स। आसादणपरिहारो दसविणओ समासेण 1४७ - अरहत, सिद्ध, इनकी प्रतिमाएँ, श्रुतज्ञान, जिन धर्म आचार्य उपाध्याय, साधु, रत्नत्रय, आगम और सम्यग्दर्शनमें भक्ति व पूजा
आदि करना, इनका महत्व बताना, अन्य मतियो द्वारा आरोपित किये गये अवर्णवादको हटाना, इनके आसादनका परिहार करना यह
सब दर्शन विनय है।४६-४७। मू. आ./गा अस्थपज्जया खलु उबदिट्ठा जिणवरेहि सुदणाणे। तह
रोचेदि णरो द सणविणओ हवदि एसो।३६६। णाण सिक्रवदि णाण गुणेदि णाणं परस्स उबदिसदि । णाणेण कुणदि णायं णाणविणोदो हवदि एसो ।३६८ - श्रुत ज्ञानमें जिनेन्द्रदेव द्वारा उपदिष्ट द्रव्य व उनकी स्थूल सूक्ष्म पर्याय उनकी प्रतीति करना दर्शन विनय है ।३६६ ज्ञानको सीखना, उसीका चिन्तवन करना दूसरेको भी उसीका उपदेश देना तथा उसीके अनुसार न्यायपूर्वक प्रवृत्ति करना-यह सब ज्ञानविनय है।३६८। (मू आ./५८५-५८६)। स. सि.//२३/४४१/४ सबहुमान मोक्षार्थ ज्ञानग्रहणाभ्यासस्मरणादि
निविनय । शंकादिदापविरहित तत्त्वार्थश्रद्धान दर्शनविनय । तद्वतश्चारित्रे समाहितचित्तता चारित्रविनय । -बहुत आदरके साथ मोक्षके लिए ज्ञानका ग्रहण करना, अभ्यास करना और स्मरण करना आदि ज्ञानविनय है। श कादि दोषोसे रहित तत्त्वार्थका श्रद्वान करना दर्शनविनय है। सम्यग्दृष्टिका चारित्रमै चित्तका लगना चारित्रविनय है। (त. सा./७/३१-३३ ) । रा, वा /8/२३/२-४/६२२/१६ अनलसेन शुद्धमनसा देशकालादिविशुद्धिविधानविचक्षणेन सबहुमानो यथाशक्ति निषेव्यमाणो मोक्षार्थ ज्ञानग्रहणाभ्यासस्मरणादिनिविनयो वेदितब्य । यथा भगवद्भिरुपदिष्टा पदार्थाः तेषा तथाश्रद्धाने नि शड कितत्वादिलक्षणोपेतता दर्शनबिनयो वेदितव्य । ज्ञानदर्शनवत पञ्चविधदुश्चरचरण श्रवणानन्तरमुद्भिन्नरोमाञ्चाभिव्यज्यमानान्तर्भक्तेः परप्रसादो मस्तकाजलिकरणादिभिर्भावतश्चानुष्ठातृत्व चारित्रविनय' प्रत्येतव्य । -आलरयरहित हो देशकालादिकी विशुद्धिके अनुसार शुद्धचित्तसे बहुमान पूर्वक यथाशक्ति मोक्षके लिए ज्ञानग्रहण अभ्यास और स्मरण आदि करना ज्ञानविनय है । जिनेन्द्र भगवान्ने श्रुत ममुद्रमे पदार्पोका जैसा उपदेश दिया है, उसका उसी रूपसे श्रदान करने आदिमें निशक आदि होना दर्शनविनय है। ज्ञान और दर्शनशाली पुरुषके पाँच प्रकारके दुश्चर चारित्रका वर्णन सुनकर रोमाच आदिके द्वारा अन्तभक्ति प्रगट करना, प्रणाम करना मस्तकपर अंजलि रखकर आदर प्रगट करना और उसका भाव पूर्वक अनुष्ठान करना चारित्रविनय है ।
(चा, सा /१४७/६), (भा पा/टी/७८/२२४/११)। वसु. श्रा/३२१-३२४ णिस्सकिय संवेगाइ जे गुणा बणिया मए पृव्यं । तेसिमणुपालण जं वियाण सो द सणो विणो ।३२१। णाणे णाणुवयरणे य जाणवतम्मि तह य भत्तोए। ज पडियरण कीरह णिच्च त णाण विण ओ हु ।३२२॥ पचविह चारित्त अहियारा जे य वणिया तस्स । जं तेसि बहुमाण वियाण चारित्तविणओ सो ।३२३. बालो य बुड्ढो य स कप्प वज्जिऊण तवसीण । ज पणिवाय कीरइ तबविणय तं बियाणीहि ।३२४। -नि शक्ति, सवेग आदि जो गुण मै ने पहिले वर्णन किये है उनके परिपालनको दर्शनविनय जानना चाहिए ।३२१॥ ज्ञानमें, ज्ञानके उपकरण शास्त्र आदिकमे तथा ज्ञानवत पुरुषमे भक्ति के साथ नित्य जो अनुकूल आचरण किया जाता है, वह ज्ञान विनय है ।३२२॥ परमागममे पाँच प्रकारका चारित्र और उसके जो अधिकारी या धारक वर्णन किये गये है, उनके आदर सत्कारको चारित्र विनय जानना चाहिए ।३२३। यह बालक है, यह वृद्ध है, इस प्रकारका सकल्प छोड़कर तपस्यो जनोका जो प्रणिपात अर्थात
आदरपूर्वक वन्दन आदि किया जाता है, उसे तप विनय जानना ।३२४॥ दे० विनय/२/३-(सोलह कारण भावनाओकी अपेक्षा लक्षण ) ।
७. उपचार विनय सामान्यका लक्षण स, सि./६/२३/४४२/२ प्रत्यक्षेष्वाचार्यादिष्वभ्युत्थानाभिगमनाजलि
करणादिरूपचारविनय । परोक्षेष्वपि कायवाड्मनोऽभिरवजलिक्रियागुणसंकीर्तनानुस्मरणादि । आचार्य आदिके समक्ष आनेपर खडे हो जाना, उनके पीछे-पीछे चलना और नमस्कार वरना आदि उपचार विनय है. तथा उनके परोक्षमे भी काय बचन और मनसे नमस्कार करना, उनके गुणोका कीर्तन करना और स्मरण करना आदि उपचार विनय है । (रा वा./६/२३४५-६/६२२/२५), (त सा-//२४); (भा. पा./टी/७८/२२४/१४)। का. अ//४५८ रयणत्तयजुत्ताण अणुकूल जो चरेदि भत्तीए । भिच्चो जह रायाणं उधयारो सो हवे विणओ ।४५८ -जैसे सेवक राजाके अनुकूल प्रवृत्ति करता है वैसे ही रत्नत्रयके धारक मुनियोके अनुकूल भक्तिपूर्वक प्रवृत्ति करना उपचार विनय है।
८. कायिकादि उपचार विनयोंके लक्षण भ, आ /मू /११६-१२६/२६१-३०३ अब्भुट्ठाण किदियम्म णवंसण अजली य मुडाण । पच्चुग्गच्छणेमत्तो पच्छिद अणुसाधण चेव ।११६। णीच ठाण णीचं गमण णीच च आसणं सयणं । आसणदाण उवगरणदाणमोगासदाणं च ।१२०। पडिरूबकायसं फासणदा पडिरूवकाल किरिया य। पेसणकरण सथारकरण मुववरणपडिलिहणं ।१२१। इच्चेवमादित्रिणओ उवयारो कीरदे सरीरेण । एसो काइयविणओ जहारिहो साहुवग्गम्मि ।१२२। पूयावयणं हिदभासणं च 'मिदभासण च महुर च । सुत्ताणुवीचित्रयण अणिट छुरमककस बयण (१२३. उपस तवयणमगिहत्यवयणमकिरियमहीलण वयण । एसो वाइयविणओ जहारिहो होदि कादब्यो ।१२४। पापविसोत्तिय परिणामबज्जण पियहिदे य परिणामो । णायवो सखेवेण एसो माणस्सिओ विणओ।१२५। इय एसो पच्चक्खो विणओ पारोक्खिओ बि ज गुरुणो। विरहम्मि 'विवाहिज्जइ आणाणिसरियाए ।१२६ - साधुको आते देख आसनसे उठ खडे होना, कायोत्सर्गादि कृतिकर्म करना, अजुली मस्तकपर चढ़ाकर नमस्कार करना, उनके सामने जाना, अथवा जानेवालेको विदा करनेके लिए साथ जाना ।११। उनके पीछे खडे रहना, उनके पीछे-पीछे चलना, उनसे नोचे बैठना, नीचे सोना, उन्हे आसन देना, पुस्तकादि उपकरण देना, ठहरनेको बसतिका देना ।१२०। उनके बलके अनुसार उनके शरीरका स्पर्शन मर्दन करना, कालके अनुसार क्रिया करना अर्थात् शीतकालमे उष्णाक्रया और उष्णकालमें शीतक्रिया करना, आज्ञाका अनुकरण करना, सथारा करना, पुस्तक आदिका शोधन करना ।१२१॥ इत्यादि प्रकार से जो गुरुओका तथा अन्य साधुओका शरीरसे यथायोग्य उपकार करना सो सब कायिक विनय जानना ।१२२। पूज्य वचनोसे बोलना, हितरूप बोलना, थोडा बोलना, मिष्ट बोलना, आगमके अनुसार बोलना, कठोरता रहित बोलना ।१२। उपशान्त वचन, निबन्ध वचन, सावध क्रियारहित वचन, तथा अभिमान रहित बचन बोलना वाचिक विनय है ।१२४. पापवार्यो मे दु श्रुति (विक्था सुनना आदि ) में अथवा सम्यक्त्वकी विराधनामे जो परिणाम, उनका त्याग करना, और धोपकारमे व सम्यक्रव ज्ञानादिमे परिणाम होना वह मानसिक विनय है ।१२। इस प्रकार ऊपर यह तीन प्रकारका प्रत्यक्ष विनय कहा । गुरुओके परोक्ष होनेपर अर्थात उनकी अनुपस्थितिमे उनको हाथ जोडना जिनाज्ञानुसार श्रद्धा व प्रवृत्ति करना परोक्ष विनय है।१२६। (मू आ/३७३-३८०), (बसु श्रा। ३२६-३३१)।
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विनय
मू. आ / ३८१-३८३ अह अपचारिओ खलु विणओ तिविहो समासदो भणि सहावी २०११ अन् डाणं सण्णादि आसणदाण अणुप्पदाण च । किदियम्मं पडिरूवं आसणचाओ यज । ३८२॥ हिमिदपरिमिदमासा अणुवीचीभासणं च बोधव्व । अकुसलमणस्स रोधो कुसलमणपत्रत्तओ चेव ॥ | ३८३ | = संक्षेपसे कहे तो तीनो प्रकारको उपचार विनय क्रमले ७, ४ २ प्रकारकी है । अर्थात् कायविनय ७ प्रकारकी, वचन विनय ४ प्रकारकी और मानसिक विनय दो प्रकारकी है। ३८१ आदर से उठना, मस्तक नमाकर नमस्कार करना आसन देना, पुस्तकादि देना, यथा योग्य कृति कर्म करना अथवा शीत आदि बाधाका मेटना, गुरुओके आगे ऊँचा आसन छोडके बैठना, जाते हुएके कुछ दूर तक साथ जाना, ये सात कायिक विनयके भेद है । १८२ ॥ हित, मितव परिमित बोलना तथा शास्त्र के अनुसार बोलना ये चार भेद वचन विनय के है। पाप ग्राहक चित्तको रोकना और धर्ममें उद्यमी मनको ना दो भेद मानसिक विनयके है। (अन प/०/०१-७२/ ७०७-७०६)।
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चामा / १४८/४
तत्राचार्योपाध्यायस्थ विरप्रवर्तकगणधरादिषु पूजमीयेवस्थानमभिगमनमज्जलिकरणं वन्दनानुगमनं रामब मान सर्वकाल योग्यानुरूपक्रिययानुलोमता निगृहीतत्रिदण्डता सुशीलयोगताधर्मानुरूपकथा दधनश्रमणमचितागुरुतत दोषवर्धन गुणवृद्धसेनाभिलाषानुवर्तनपूजन यदुक्त - गुरुरथविरा दिभिर्नान्यथा तदिरयनिश भारत समेष्यको होनेव परिभव जातिकुलधनेश्वर्यरूप विज्ञानबललाभर्द्विषु निरभिमानता सर्वत्र क्षमापरता मितहिरादेशका सानुवचनता कार्याकार्ययासंख्य
1
यता इत्येवमादिभिररमानुरूप पारवनय परोक्षापचार विनय उच्यते परोक्षेप्याचार्यादिष्वति क्रियागुणसंकीर्तनानुस्मरणावाद कायवाहननोभिरवगन्तव्य रागहरून विस्मरणेरपि न कस्यापि पृष्ठमासभक्षणवरणीयमेवमादि परोक्षोपचार विनय प्रत्येय आचार्य, उपाध्याय, साधु, वृद्ध उपदेशादि देकर जिनकी प्रवृत्ति करनेवाले तथा और
। =
भी पूज्य पुरुषो के आनेपर खडे होना, उनके सामने जाना, हाथ जोडना, बन्दन करना, चलते समय उनके पीछे-पीछे चलना, रत्न -
का सबसे अधिक आदर सत्कार करना, समस्त बालके योग्य अनुरूप क्रियाके अनुकूल चलना, मन वचन काय तीनों योगोका निग्रह करना, सुशीलता धारना, धर्मानु कहना सुनना तथा भक्ति रखना, अरहन्त जिनमन्दिर और गुरुमे भक्ति रखना, दोपोका वा दाषियोका त्याग करना, गुणवृद्ध मुनियो की सेवा करनेको अभिलाषा रखना, उनके अनुकूल बनना और उनकी पूजा करना प्रत्यक्ष उपचार विनय है। कहा भी है- "वृद्ध मुनियोके साथ अथवा गुरुके साथ, कभी भी प्रतिकूल न होनेकी सदा भावना रखना, बराबर सालोके साथ कभी अभिमान न करना, हीन लोगोका कभी तिरस्कार न करना, जाति कुल धन ऐश्वर्यरूप विज्ञान बल लाभ और ऋद्धियोमे कभी अभिमान न करना, सब जगह क्षना धारण करनेमे तत्पर रहना, हित परिमित व देश कालानुसार वचन कहना, कार्य-अकार्य से अव्य कहनेयाग्य-न कहने याग्यका ज्ञान होना इत्यादि क्रियाओके द्वारा अपने आत्माकी प्रवृत्ति करना प्रत्यक्ष उपचार विनय है। अब आगे परोक्ष उपचार विनयको कहते है। आचार्य आदिके पराभ रहते हुए भी मन, वचन, कायने उनके लिए हाथ जोड़ना, उनके गुणों का वर्णन करना, स्मरण करना और उनकी आज्ञा पालन करना आदि परोक्षांपचार विनय है (पूर्वक व हॅमो पूर्वत्र अथवा सेजकर भी कभी किसीके पीठ पीछे दुराई व निन्दा न करना ये सब परोक्षोपचार विनय कहलाता है।
२. सामान्य विनय निदेश
२. सामान्य विनय निर्देश
१. आचार व विनय में अन्तर
अन ध / ७ / श्लो / पृ. दोषोच्छेदे गुणाधाने यत्नो हि विनयो दृशि । दृगापारस्तु तत्त्वार्थस्वी परमो मसात्यये ॥६६॥ यत्नो हि कासवादी स्याज्ज्ञानविनयोऽत्र तु । सति यत्नस्तदाचार पाठे तत्साधनेषुच
समित्यादिषु यत्नो हि पारिश्रविनयो यत । तदाचारस्तु यस्तेषु सत्यनाथ 1901 सम्यग्दर्शनमें से दोषोको दूर करने तथा उसमें गुणोको उत्पन्न करनेके लिए जो प्रयत्न किया जाता है, उसको दर्शन विनय तथा दानादि मसों दूर हो जानेपर सार्थ श्रद्धान प्रयत्न करनेको दर्शनाचार कहते है। कालशुद्धि आदि ज्ञानके आठ अंगो के विषय प्रवरन करनेको छानविनय और उन शुद्धि आदिको के हो जानेपर श्रुतका अध्ययन करनेके लिए प्रयत्न करनेको अथवा अध्ययनकी साधनभूत पुस्तकादि सामग्री के लिए प्रयत्न करनेको ज्ञानाचार कहते है।तोको निर्ममानेके लिए समिति आदि प्रयत्न करनेको चारिव विनय और समिति आदिको सिद्ध हो जानेपर व्रतोकी वृद्धि आदिके लिए प्रयत्न करनेको चारित्राचार कहते है 1901
२. ज्ञानके आठ अंगोंको ज्ञानविनय कहनेका कारण भ, आ./ वि / ११३/२६९/२२ अयमष्टप्रकारो ज्ञानाभ्यासपरिकरोऽष्टविधं कर्म विनयति व्यपनयति विनयशब्द वाच्यो भवतीति सूरेरभिप्राय' । = ज्ञानाभ्यासके आठ प्रकार कमको आत्मासे दूर करते है, इसलिए विनय शब्दसे सम्बोधन करना सार्थक है, ऐसा आचार्योंका अभिप्राय है ।
३. एक विनयसम्पन्ना में शेष १५ भावनाओंका समावेश घ. ११.४९/८०/- पदातिरथरामकम् बंधति । सं जहा - विणओ तिविहो प्राणद सणचरित्तविणओ त्ति । तत्थ णाणविपाम अभिभवखण जागेव जोगयुक्त्तवा महु णभत्ती च । दसणविणओ णाम पवयणेसुइट् ठसव्वभाव सद्दह तिम्रदादो ओसरणमममरहत सिद्धमन्ती समपज्झणदा लद्धिस वेगसपण्णदा च चरितविणओ णाम सीलव्वदेसु निरदिचारदा आवास अपरिहीणदा जहायामे सहा तवो च साहूण पागपरिस्थाओ तैसि समाहिधारण से जगदा पवयणवछल्लदा च णाणदसणचरित्ताण पिविणओ, तिरयणसमूहस्स साहू बिनादो दो विजयपथदा एका वि होग सोलसावयवा । तेणेदीए विणयसपण्णदाए एक्काए वि तित्थयरणामकम्म मणुआ बर्धति । देव णेरइयाण कधमेसा संभवदि । ण, तत्थ विणाणदसणविणयाण संभवद सणादो। जदि दोहि चेव तिरथयरनामकम्म बज्झदि तो चरितविणओ किमिद तकारणमदि वुच्चदे । ण एस दोसो. णाणद सण विषयकज्ज विर। हिचरणविणओ ण होदित्ति सामनयसम्पन्नता ही तीर्थंकर नामकर्मको बोता है वह इस प्रकार किज्ञानविनय दर्शनविनय और चारित्र विनयके भेदमे विनय तीन प्रकार है । उसमें बारम्बार ज्ञानोपयोगयुक्त रहने के साथ बहुतभक्ति और वचनमतिया नाम ज्ञाननिय है। आगमोपदिष्ट सर्वपदार्थानके साथ तीन मूढताओगे रहित होना, आट मलोको छोडना, अरहतभक्ति, सिद्धभक्ति, क्षणलव प्रतिबुद्धता और लब्धिसवेगसम्पन्नताको दर्शनविनय कहते है। शीनो में निरतिचारता आवश्यको मे अपरिहीनता अर्थात परिपूर्णता और शक्त्यनुसार तपका नाम चारित्र विनय है । माओके लिए आहारादिकका दान उनकी समाधिका धारण करना, उनकी वैयावृत्तिमे उपयोग लगाना और प्रवचनवत्सलता,
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विनय
५५१
ये ज्ञान, दर्शन और चारित्र तीनोकी ही विनय है, क्योंकि य समूहको साधु व प्रवचन सज्ञा प्राप्त है। इसी कारण क्योकि विनयसम्पन्नता एक भी होकर सोलह अवयवोंसे सहित है, अत उस एक ही पिता मनुष्य तीर्थकर नामकर्मको गाते है। प्रश्नयह, विनय सम्पन्नता देव नारकियो के कैसे सम्भव है। उत्तर- उक्त शका ठीक नहीं है. क्योकि उनमे ज्ञान व दर्शन - विनयकी सभावना देखी जाती है। प्रश्न- यदि ( देव और नारकियोको ) दो ही विनयोंसे तीर्थंकर नामकर्म बाँधा जा सकता है तो फिर चारित्रविनयको उसका कारण क्यों कहा जाता है। उत्तर- यह कोई दोष नहीं, क्योंकि, विरोधी चारित्रविनय नहीं होता, इस बातको सूचित करने के लिए चारित्र विनयको भी कारण मान लिया गया है।
४. विनय सपका माहात्म्य
भा पा.// १०२ विषय पचपयारं
पालहि मणयणकाज अगियरायि तत्तो मुति पावति । १०२ हे हुने पाँच प्रकारकी विनयको मन वचन काय तीनो योगोसे पाल, क्योकि, विनय रहित मनुष्य मुविहित मुतिको प्राप्त नही करते है (सु. BTT-/33K) 1
भ.आ./१२-१३९ निओ मोलार विषयाशे संजमो तो पाणं गिरणाराहिजइ आयरिओ सव्वसघो । १२६ । आयारजीदकप्पगुणदीवणा अत्तसोधिणिज्भा । अज्जव मद्दव लाघव भक्ती परहादकरण च । १३० कित्ती मेत्ती माणस्स भजण गुरुजणे य बहुमाणो । तिरथयराण आणा गुणामोदय विनयगुणा । १३१० विनय मोक्षका द्वार है, विनयसे संयम तप और ज्ञान होता है और विनयसे आचार्य व सर्वसकी सेवा हो सकती है |१२| आचारके, जीवप्रायदिपतके ओर कल्पप्रायश्चितके गुणीका प्रगट होना. आत्मशुद्धि. कलह रहिता आर्जन, गार्डन, निलभता, गुरुसेवा सबको करना ये सब विनय है ।१३० सर्वत्र प्रसिद्धि सर्व मैत्री ग का त्याग, आचार्यादिको से बहुमानका पाना, तीर्थक्रोकी आज्ञाका पालन, गुणो से प्रेम- इतने गुण विनय करने वालेके प्रगट होते है | १३१ | ( मू आ. / ३८६-३८८) (भ आ./वि / ११६/२७५ / ३ ) । अ० / ३६४ द सगणाणे विणओ चरिततत्र ओवचारिओ विणओ । पञ्चवो विष पचमगणागो भणिओ | ३६४| दर्शन, ज्ञान, चारित्र, तप व उपचार ये पाँच प्रकार के विनय मोक्ष गतिके नायक कहे गये है | ३६४ |
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ब. / ३३२-३६ विणएण सकुज्जसजसोहयतियदितओ पुरिसी । सव्वत्थ हवs सुहओ तहेब आदिज्जवयणो य | ३३२१ जे ts वि उवएसा इह परलोए सुहावहा सति । विणण गुरुजणाणं सव्वे पाउण ते पुरिसा । ३३३ | देविद चक्कहरमंडलीयरायाइजं सुह सोए त सयं विषयफल विवाणसह तहा चैव ॥२३४॥ सव मित्तभाव जम्हा उवयाइ विणयसीलस्स । विणओ तिविहेण तओ कायaat देसfवरण | ३३६ | विनयसे पुरुष चन्द्रमा के समान उज्ज्वल वशसमूह से दिगन्तको धवलित करता है, सर्वत्र सबका प्रिय हो जाता है, तथा उसके वचन सर्वत्र आदर योग्य होते है | ३३२| जो कोई भी उपदेश इस लोक और पर लोकमें जीनोको मुख वाले होते है, उन सबको मनुष्य गुरुजनोंकी विनयसे प्राप्त करते है | ३३३ | ससारने देवेन्द्र, चक्रवर्ती और मण्डलीक राजा आदिके जो सुख प्राप्त होते है वह सब विनयका ही फल है और इसी प्रकार मोक्ष सुख भी हो फल है | २३४ | चूँकि शीत मनुष्यक्ा शत्रु भी मित्रभावको प्राप्त हो जाता है इसलिए श्रावको मन, वचन, कायसे विनय करना चाहिए । ३३६ | अन ध / ७ /६२ / ७०२ सार सुमानुषत्वेऽर्हद्रूपस पदिहार्हति । शिक्षास्या विनय सम्यगस्मिन् काम्या सता गुणा । ६२॥ = मनुष्य भाका सार
३. उपचार विनय विधि
आता कुलीनता आदि है उनका भी सार जिन लिग धारण है। उसका भी सार जिनागमकी शिक्षा है और शिक्षाका भी सार यह विनय है, क्योकि, इसके होनेपर ही सज्जन पुरुषोके गुण सम्यक् प्रकार स्फुरायमान होते है ।
५. मोक्षमार्ग में विनयका स्थान व प्रयोजन
भ. आ // १२८/२०३ विषण विषयस्य हरदि सिखा गिरस्थिया सव्वा । विणओ सिखाए फल विजयफलं सव्वक्ल्लाणं । १२८ = विनयहीन पुरुषका शास्त्र पढना निष्फल है, क्योंकि विद्या पढनेका फल विनय है और उसका फल स्वर्ग मोर का मिलना है। ( मू.आ / ३५) (अन /०/२३/००३) ।
रसा / गुरुभत्तिविहोणाण सिस्साण सबसगविरदाणं । ऊसरछेत्ते afar सुवीयसम जाण सम्बणुट्टाणं |२| = सर्वसंग रहित गुरुओ की भक्तिविज्ञान शिष्पोको सर्व क्रियाएं ऊपर भूमिमे पड़े बीज समान व्यर्थ है।
रा. मा /१/२३/७/६२२ /३१ ज्ञानवामाचारविशुद्धिसम्यगाराधना विनयभावनम् ॥७॥ ततश्च निवृत्तिसुखमिति विनयभावन क्रियते । = ज्ञानलाभ, आचारविशुद्धि और सम्यग आराधना आदिको सिद्धि विनय से होती है, और अन्त मे मोक्षसुख भी इसी से मिलता है, अत विनयभाव अवश्य ही रखना चाहिए। (चा, सा / १५०/२) । भ आ / मि / १००/५११ शास्त्रोपानापाध्यायकालमोरध्ययन सरस
प्रछतश्च भक्तिपूर्वकृत्याग्रहं परिगृ हुने खा निय निराकरण, अर्थाद्य एव भाव्यमान श्रुतज्ञानं सवर निर्जरा च वरोति । अन्यथा ज्ञानावरणस्य कारणं भवेत् । - शास्त्रमे वाचना और स्वाध्यायका जो काल कहा हुआ है। उसी काल मे श्रुतका अध्ययन करो, ज्ञानको बतानेवाले गुरुकी भक्ति करो, कुछ नियम ग्रहण करके आदरसे पढो, गुरु व शास्त्रका नाम न छिपाओ, अर्थ-व्यजन व तदुभयशुद्धि पूर्वक पढो, इस प्रकार विनयपूर्वक अभ्यस्त हुआ ज्ञान क्योंकी सवर निर्जरा करता है, अन्यथा वही ज्ञानावरण कर्मके बन्धका कारण है । ( और भी दे. विनय / १/६ में ज्ञानविनयका लक्षण, ज्ञान / III / २ / १ में सम्यग्ज्ञानके आठ अंग )
पंवि /६/१९ ये गुरु नैव मन्यन्ते भवतेषामुदितेऽपि दिवाकरे । १६ उनको उपासना ही करते हैं, उनके अन्धकार जैसा ही है ।
दे विनय / ४ / ३ ( चारित्रवृद्धके द्वारा भी ज्ञानवृद्ध वन्दनीय है । ) दे. सल्लेखना / १० ( क्षपकको निर्यापकका अन्वेषण अवश्य करना चाहिए।
तदुपास्ति न कुर्वते । अन्धकारो जन गुरुको मानते है, न लिए सूर्यका उदय होनेपर भी
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३. उपचार विनय विधि
१. विनय व्यवहारमें शब्दप्रयोग आदि सम्बन्धी कुछ नियम
जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश
.पा. १२-१३ वे बानीसपरीसह सहति सतीहि संजुता ते होति वदणीया कम्म स्यणिज्जरासाहू |१२| अबरेसा जे तिमी दसपणाणेण सम्मस जुत्ता । चेलेण य परिगहिया ते भणिया इच्छणिउजाय |१३| = सेकडो शक्तियोंसे सयुक्त जो २२ परीषहोको सहन करते हुए नित्य कर्मोकी निर्जरा करते है. ऐसे दिगम्बर साधु वन्दना करने योग्य है | १२ | और शेष लिंगधारी, वस्त्र धारण करनेवाले परन्तु जो ज्ञान दर्शन से सयुक्त है वे इच्छाकार करने योग्य है |१३| भू आ / १३१, १६५ सजमणाणुव करणे अण्णुवकरणे च जायणे अण्जे । जोग्ग गहण दो अच्छाकार। दु काव्य |१| पच छ सत्त हत्थे
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विनय
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४ उपचार विनयके योग्यायोग्य पात्र
चतुर गो सेनाका जेसे मेनापति प्रवर्तक माना जाता है वैसे यह भाव नमस्कार भी मरण समयमे तप, ज्ञान, चारित्रका प्रवर्तक है।
सुरी अज्झावगो य साधु य। परिहरिऊणज्झाओ गवासणेणेव वंदति ११६५१ = सयमोपकरण, ज्ञानोपकरण तथा अन्य भी जो उपकरण उनमे, औषधादिमे, आतापन आदि योगोमे इच्छाकार करना चाहिए ११३१। आर्यिकाएं आचार्योको पाँच हाथ दूरसे, उपाध्यायको छह हाथ दूरसे और साधुओ को सात हाथ दूर से गवासनसे बेठकर बन्दना करती हैं ।१६५ मो पा/टी /१२/३१४ पर उद्धृत गा -"वरिससयदिक्वि याए अज्जाए अज्ज दिक्विओ साहू । अभिगमण-वदण-णमसणेण विणएण सो पुज्जो ।। -सौ वर्षकी दीक्षित आर्यिकाके द्वारा भी आजका नबदीक्षित साधु अभिगमन, वन्दन, नमस्कार व विनयसे पूज्य है। (प्र. सा /ता वृ/२२५ प्रक्षेपक ८/३०४/२७) । मो पा./टी /१२/३१३/१६ मुनिजनस्य स्त्रियाश्च परस्पर वन्दनापि न युक्ता। यदि ता बन्दन्ते तदा मुनिभिन मोऽस्त्विति न वक्तव्य, कि तहि वक्तव्य । समाधिकर्मयोऽस्त्विति। -मुनिजन व आर्यिकाओके बीच परस्पर वन्दना भी युक्त नहीं है। यदि वे वन्दन करे तो मुनिको उनके लिए नमोऽस्तु' शब्द नही कहना चाहिए, किन्तु 'समाधिरस्तु' या 'कर्मक्षयोऽस्तु' कहना चाहिए ।
२. विनय व्यवहारके योग्य व अयोग्य अवस्थाएँ मू आ/५४७-५६६ यखित्तपराहुत तु पमत्त मा दाइ वं दिज्जो । आहार
च कर तो णीहार वा जदि करेदि ५१७ आसणे आसणत्थं च उबसतं च उपदि । अणुविष्णय मेधावी किदियम्म पउजदे ।।१८। आनो यणाय करणे पडिपुच्छा पूजणे य सज्झाए। अबराधे य गुरु वदणमेदेसु ठाणेसु । ५६३ व्याकुल चित्तबालेको, निद्रा विकथा आदि से प्रमत्त दशाको प्राप्तको तथा आहार व णीहार करतेको वन्दना नही करनी चाहिए ।५६७। एकान्त भूमिमें पद्मासनादिसे स्वस्थ चित्तरूपसे बैठे हुए मुनिको वन्दना करनी चाहिए और वह भी उनकी विज्ञप्ति लेकर ।१६। आलोचनाके समय, प्रश्न के समय, पूजा व स्वाध्यायके समय तथा क्रघादि अपराधके समय आचार्य उपाध्याय आदिकी वन्दना करनी चाहिए ५६६। ( अन. ध 19/५३-५४/७७२) भ आ /घि /११६/२७५/६ बसतेः, कायभूमित . भिक्षात , चैत्यात, गुरुसकाशात, ग्रामान्तराद्वा आगमनकालेऽभ्युत्थातव्यम्। गुरुजनश्च यदा निष्क्रामति निष्क्राम्य प्रविशति वा तदा तदा अभ्युत्थानं कार्यम् । अनया दिशा यथागममितरदप्यनुगन्तव्यम् । = वसतिका रथानसे, कायभूमिमे (.), भिक्षा ले कर लौटो समय, चैत्यालयसे आते समय, गुरुके पाससे आते समय अथवा ग्रामान्तरगे आते समय अथवा गुरुजन जब बाहर जाते है या बाहरसे आते है, तब तत्र अभ्युत्थान करना चाहिए। इसो प्रकार अन्य भी जानना चाहिए ।
३. उपचार विनयकी आवश्यकता ही क्या भ. आ/म. व वि./७५६-७५७/१२० ननु सम्यक्त्वज्ञानचारित्रतपांसि ससारमुच्छिन्दन्ति यद्यपि न स्यान्नमस्कार इत्यशङ्कायामाह-जो भावणमोकारेण विणा सम्मत्तणाणचरणतया। ण हु ते होति समत्था ससारुच्छेदण कादु १७५६। यद्य व सम्यग्दशनज्ञानचारित्राणि मोक्षमार्ग इति सूत्रेण बिरुध्यते । नमस्कारमात्रमेव कर्मणा बिनाशने उपाय इत्येवमुक्तिमार्गकयनादित्याशङ्कायामाह-चदुर गाए सेणाए णायगो जह पबत्तवो हादि । तह भावणमोकारो मरणे तवणाणचरणा ७५७) -प्रश्न-सम्यक्त्व ज्ञान चारित्र और तप ससारका नाश करते है,
सलिए नमस्कारकी क्या आवश्यक्ता है। उत्तर-भाव नमरकारके बिना सम्यक्त्व ज्ञान चारित्र और तप ससारका नाश करनेमे समर्थ नही होते है। प्रश्न-पदि ऐसा है तो 'सम्यग्दर्शनज्ञान चारित्राणि मधमार्ग ' इस सूत्र के साथ विरोध उत्पन्न होगा, क्या कि, आपके मतके अनुसार नमस्कार अकेला हो कर्मविनाशवा उपाय है ? उत्तर
४. उपचार विनयके योग्यायोग्य पात्र
१. यथार्थ साधु आर्यिका आदि वन्दनाके पात्र है भ आ /म /१२७/३०४ राइणिय अराइणीएम अज्जासु चेव गिहिबग्गे। विणो जहारिहो सो कायज्यो अप्पमत्तेण ११२७१ - राइणिय' उत्कृष्ट परिणामवाले मुनि, 'अराइणीय' न्यून भूमिकाबाले अर्थात आयिका व श्रावक तथा गृहस्थ आदि इन सबका उन उनकी योग्यतानुसार आदर व विनय करना चाहिए। (मू आ./३८४) द पा/मू २३ दसणणाणचरिते तबविणये णिचकाल सुपसत्था । एदे दु व दणीय। जे गुणवादी गुणधराणं। -दर्शन ज्ञान चारित्र तथा तपविनय इनमे जो स्थित है वे सराहनीय व स्वस्थ है, और गणधर आदि भी जिनका गुणानुवाद करते है, ऐसे साधु बन्दने योग्य
है ।२३। (म् आ /५६६ ), (सू पा / /१२), ( बो. पा/म् /११) पं ध/3/६७४ ७३५ इत्याद्यनेकधानेकै साधु साधुगुणे. श्रित ।
नमस्य श्रेयसेऽवश्य ६७४। नारीभ्योऽपिताढ्याभ्यो न निषिद्ध' जिनागमे । देय समानदानादि लोकानाम विरुद्धत १७३॥ = अनेक प्रकारके साधु सम्बन्धी गुणोसे युक्त पूज्य साधु ही मोक्षकी प्राप्तिके लिए तत्त्वज्ञानियो द्वारा बन्दने योग्य है । ६७४ा जिनागममें व्रतोसे परिपूर्ण खियोका भी सम्मान आदि करना निषिद्ध नही है, इसलिए उनका भो लोक व्यवहारके अनुसार सम्मान आदि करना चाहिए ।७३५॥ दे. विनय/३/१-(सौ वर्ष की दीक्षित आर्यिकासे भी आजका नवदीक्षित साधु वन्द्य है।)
२. जो इन्हें वन्दन नही करता सो मिथ्यादृष्टि है द पा /मू /२४ सहजुप्पण्ण रूव द जो मण्णएण मच्छरिओ। सो सजमपडि बण्णो मिच्छाइट्ठी हवइ एसो।२४। - जो सहजात्पन्न यथाजात रूपको देखकर मान्य नहीं करता तथा उसका विनय सत्कार नही करता और मत्सरभाव करता है, वे यदि सयमप्रतिपन्न भी है, तो भी मिथ्यादृष्टि है। ३. चारित्रवृद्धसे भी ज्ञानवृद्ध अधिक पूज्य है भ आ/वि /११६/२७५/८ वाचनामनुयोग वा शिक्षयत अवमरत्नत्रयस्याभ्युत्थातव्य तन्मूलेऽध्ययन कुर्वद्भि सर्व रेव । = जो ग्रन्थ और अर्थक । पढाता है अथवा सदादि अनुयोगोका शिक्षण देता है वह व्यक्ति यदि अपनेसे रत्नत्रयमे होन भी है, तो भी उसके आनेपर जो
जो उसके पास अध्ययन करते है वे सर्वजन खडे हो जावे । प्र सा /ता वृ/२६३/३५४/१५ यद्यपि चारित्रगुणेनाधिका न भरन्ति तपसा वा तथापि सम्रज्ञानगुणेन ज्येष्ठत्वाच्छु तविन सार्थ मभ्युत्थेया । प्र सा /ता. वृ ०६५/३५८/१७ यदि बहुताना पार्वे ज्ञानादिगुणवृद्धयर्थं
स्वय चारित्रगुणाधिका अपि वन्दनादिक्रियासु वर्तन्ते तदा दोषो नास्ति । यदि पुन केवलं ख्यातिपूजालाभार्थ बर्तन्ते तदातिप्रस गादोधो भवति। - चारित्र व तपमे अधिक न होते हुए भी सम्यग्ज्ञान गुणसे ज्येष्ठ होनेके कारण श्रुतकी विनयके अर्थ वह अभ्युत्थानादि विनयके योग्य है। यदि कई चारित्र गुणमे अधिक होते हुए भी ज्ञानादि गुणको वृद्धिके अर्थ बहुश्रुत जनो के पास बन्दनादि क्रियामे वर्तता है तो कोई दोष नहीं है। परन्तु यदि केवल ख्याति पूजा व लाभके अर्थ ऐसा करता है तब अतिदोषका प्रसग प्राप्त होता है।
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विनय
५५३
४. उपचार विनयके योग्यायोग्य पात्र
अन ध/७/५२/७७१ श्रावकेणापि पितरौ गुरू राजाप्यसयता । कुलिगिन कुदेवाश्च न वन्द्यास्तेऽपि संयत ।। = माता, पिता, दीक्षागुरु व शिक्षागुरु, एव राजा और मन्त्री आदि असयत जनोकी तथा श्रावककी भी सयमियोको वन्दना नहीं करनी चाहिए, और बती श्रावकोको भी उपरोक्त असयमियोकी वन्दना नहीं करनी चाहिए। द. पा/मू /२६ असजदं ण वदे।२६। -असंयत जन वद्य नही है।
-(विशेष दे० आगे शीर्षक नं ८)।
४. मिथ्यादृष्टि जन व पावस्थादि साधु वन्य नहीं हैं द पामू /२,२६ दंसणहीणो ण व दिब्बो २। असंजदं ण वंदे वच्छबिहीणो वि तो ण वंदिज्ज। दोणि वि होति समाणा एगो वि ण संजदो होदि ॥२६॥ =दर्शनहीन वन्द्य नहीं है ।२। असंयमी तथा वस्त्रविहीन द्रव्यलिगी साधु भो वन्द्य नहीं है क्योकि दोनो ही सयम रहित समान है ॥२६॥ मू आ./५६४ दसणणाणचरिते तवविणएँ णिच्चकाल पासत्या । एदे अवदणिजा छिप्पेही गुणधराण ॥५६४। दर्शन ज्ञान चारित्र और तपविनयोमे सदाकाल दूर रहनेवाले गुणी सयमियोके सदा दोषो
को देखने वाले पार्श्वस्थ आदि है, इसलिए वे वन्द्य नही है ।५६४। भ, आ/वि /११६/२७५/६ नाभ्युत्थान कुर्यात, पार्श्वस्थपञ्चकस्य वा ।
रत्नत्रये तपसि च नित्यमभ्युद्यताना अभ्युत्थान कर्त्तव्य कुर्यात् । मुखशीलजनेऽभ्युत्थानं कर्मबन्धनिमित्तं प्रमादस्थापनोपबृ हणकारणात् । - मुनियोको पाश्वस्थादि भ्रष्ट मुनियोका आगमन होनेपर उठकर खडे होना योग्य नहीं है। जो मुनि रत्नत्रय व तपश्चरणमे तरपर है उनके आनेपर अभ्युत्थान करना योग्य है। जो सुखके वश होकर अपने आचारमे शिथिल हो गये है उनके आनेपर अभ्युत्थान करनेसे कर्मबन्ध होता है, क्योकि, वह प्रमादकी स्थापनाका व उसकी
वृद्धिका कारण है। भा पा /टो./२/१२६/६ पर उद्धृत-उक्त चेन्द्रनन्दिना भट्टारकेण समयभूषणप्रवचने-'द्रव्यलिड्ग समास्थाय भावलिङ्गी भवेद्यति । विना तेन न बन्ध स्यान्नानावतधरोऽपि सन्। =समयभूषण प्रवचनमे इन्द्रनन्दि भट्टारकने कहा है-द्रव्य लिगमे सम्यक प्रकार स्थिति पाकर ही यति भाव-लिगी होता है। उस द्रव्य-लिगके बिना वह बन्ध नही है, भले ही नाना व्रतोको धारण क्यो न किया हो। प्र. सा/त प्र/२६३ इतरेषा तु श्रमणाभासाना ता प्रतिषिद्धा एवं।
म उनके अतिरिक्त अन्य श्रमणाभासोके प्रति वे ( अभ्युत्थनादिक) प्रवृत्तियाँ निषिद्ध ही है। अन. ध./७/१२/७७१ कुलिगिन कुदेवाश्च न वन्द्यास्तेऽपि सयते। ।१२। -पार्श्वस्थादि कुलिगियो तथा शासनदेव आदि कुदेवो की वन्दना सयमियोको (या असयमियोको भो) नही करनी
चाहिए। भा, पा/टो./१४/१३७/२३ एते पञ्च श्रमणा जिनधर्मबाह्या न वन्दनीया । पथ्ये पार्श्वस्थ आदि पाँच प्रकारके श्रमण जिनधर्म बाह्य है, इसलिए
वन्दनीय नहीं है। पध./उ./६७४ नेतरो विदुषा महान् ।७३४१ =इन गुणोसे रहित जो
इतर साधु है तत्त्वज्ञानियो द्वारा वन्दनीय नहीं है।
६. कुगुरु कुदेवादिकी वन्दना आदिका कड़ा निषेध व उसका कारण द, पा/मू./१३ जे वि पडति च तेसि जाणंता लज्जागारवभएण । तेसि
पि णत्थि बोही पावं अणुमोयमाणाण।१३। = जो दर्शनयुक्त पुरुष दर्शनभ्रष्टको मिथ्यादृष्टि जानते हुए भी लज्जा गारव या भयके कारण उनके पॉवमें पडते है अर्थात् उनकी विनय आदि करते है, तिनको भी बोधिकी प्राप्ति नहीं होती है, क्यो कि, वे पापके अनुमोदक है ।१३। मो. पा /मू /१२ कुच्छियदेवं धम्म कुच्छियलिग च वंदए जो दु । लज्जाभयगारवदो मिच्छादिट्ठी हवे सो हु। =कुत्सित् देवको, कुत्सित धर्म को और कुत्सित लिगधारी गुरुको जो लज्जा भय या गारवके वश बन्दना आदि करता है, वह प्रगट मिथ्यादृष्टि है। शी. पा /मू /१४ कुमयकुसुदपस सा जाण ता बहु विहाई सत्थाइ । सीलवदणाणरहिदा ण हु ते आराधया होति ।१४। बहू प्रकारसे शास्त्रको जाननेवाला होकर भी यदि कुमत व कुशास्त्रकी प्रशसा करता है, तो वह शील, व्रत व ज्ञान इन तीनोसे रहित है, इनका आराधक
नही है। र. क. पा./३० भयाशास्नेहलोभाच्च कुदेवागमलिङ्गिनाम् । प्रणाम विनयं
चव न कुर्य शुद्धदृष्टय ।३०। - शुद्ध सम्यग्दृष्टि जीव भय आशा प्रीति और लोभसे कुदेव, कुशास्त्र और कुलिंगियोको प्रणाम और विनय भी न करे। प वि/१/१६७ न्यायादन्धकवर्तकीयकजनाख्यानस्य ससारिणा, प्राप्त
वा बहुकल्पको टिभिरिद कृच्छ्रान्नरत्व यदि । मिथ्यादेवगुरूपदेशविषयव्यामोहनीचान्वय-प्रायै प्राणभृतां तदेव सहसा वैफल्यमागच्छति ।१६७। - ससारी प्राणियोको यह मनुष्यपर्याय इतनी ही कष्ट प्राप्य है जितनी कि अन्धेको बटेरकी प्राप्ति । फिर यदि करोडो कल्पकालोमे क्सिी प्रकार प्राप्त भी हो गयी, तो वह मिथ्या देव एव मिथ्यागुरुके उपदेश, विषयानुराग और नीच कुल में उत्पत्ति आदिके द्वारा सहसा विफलताको प्राप्त हो जाती है ।१६७४ और भी दे० मूढता-( कुदेव, कुगुरु, कुशास्त्र व कुधर्मको देवगुरु शास्त्र
व धर्म मानना मूढता है।) दे० अमूढ दृष्टि/३ (प्राथमिक दशामें अपने श्रद्धानकी रक्षा करने के लिए इनते बचकर ही रहना योग्य है।)
५. अधिकगुणी द्वारा हीनगुणी वन्द्य नहीं है प्र. सा./मू /२६६ गुणदोधिगस्स विणयं पडिच्छगो जो वि होमि समणो ।
त्ति । होजं गुणधरो जदि सो होदि अण तससारी । जो श्रमण्यमे अधिक गुणवाले है तथापि हीन गुणवालोके प्रति (वन्दनादि) क्रियाओमें वर्तते है वे मिथ्या उपयुक्त होते हुए चारित्रसे
भ्रष्ट होते है। द. पा /म् /१२ जे दसणेसु भट्ठा पाए पाईं ति दसणधराण । ते होति लल्लमुआ बोही पुण दुल्लहा तेसिं ।१२। - जो पुरुष दर्शनभ्रष्ट होकर भी दर्शन के धारकोको अपने पॉवमे पडाते है, वे गूगे-लूले होते है अर्थात् एकेन्द्रिय निगोद योनिमे जन्म पाते है। उनको बोधि की प्राप्ति दुर्लभ होती है। भ आ/वि./११६/२७५/५ अस यतस्य संयतासयतस्य वा नाभ्युत्थान कुर्यात् । - मनुष्योको अस यत व संयतासंयत जनोके आनेपर खडा होना योग्य नही है।
७. द्रव्य लिंगी मी कथंचित् वन्द्य है यो. सा /अ/१४५६ द्रव्यतो यो निवृत्तोऽस्ति स पूज्यो व्यवहारिभि । भावतो यो निवृत्तोऽसौ पूज्यो मोक्षं यियासुभि ।६। -व्यवहारी जनोके लिए द्रव्यलिगी भी पूज्य है, परन्तु जो मोक्षके इच्छ क है उन्हे तो भाव-लिगी ही पूज्य है। सा, ध/२/६४ विन्यस्यैद युगोनेषु प्रतिमासु जिनानिव । भक्त्या पूर्व
मुनोनर्चेत्कृत श्रेयोऽतिचचिनाम् ।६।। उपरोक्त श्लोक्की टीकामे उद्धृत-"यथा पूजय जिनेन्द्राणा रूप लेपादिनिर्मितम् । तथा पूर्व मुनिच्छाया पूज्या सप्रति सयता ।
जैनेन्द्र सिदान्त कोश
भा०३-७०
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विनय
विनयचन्द्र
-जिस प्रकार प्रतिमाओमे जिनेन्द्र देवकी स्थापना कर उनकी पूजा करते है, उसी प्रकार सद्गृहस्थको इस पंचमकाल मे होनेवाले मुनियोमें पूर्वकालके मुनियोकी स्थापना कर भक्तिपूर्वक उनकी । पूजा करनी चाहिए। कहा भी है "जिस प्रकार लेपादिसे निर्मित जिनेन्द्र देवका रूप पूज्य है, उसी प्रकार वर्तमान काल के मुनि पूर्वकालके मुनियोके प्रतिरूप होनेसे पूज्य है। [ परन्तु अन्य विद्वानो को इस प्रकार स्थापना द्वारा इन मुनियोको पूज्य मानना स्वीकार नही है-(दे० विनय/५/३) ] ।
८. साधुओंको नमस्कार क्यों ध.६/४,१,१/११/१ होदु णाम सयल जिणणमोकारो पावप्पणासओ, तत्य सम्यगुणाणमुबल भादो । ण देसजिणाणमेदेमु तदणुवलंभादो त्ति । ण, सयलजिणेसु व देसजिणेसु तिण्ह रयणाणमुबलभादो। -प्रश्न-सकल जिन नमस्कार पापका नाशक भले ही हो, क्योकि, उनमे सब गुण पाये जाते है। किन्तु देशजिनोको किया गया नमस्कार पाप प्रणाशक नही हो सक्ता, क्योकि इनमें वे सब गुण नही पाये जाते ? उत्तर-नही, क्योकि, सकल जिनो के समान देश जिनामे (आचार्य उपाध्याय साधुमे ) भो तीन रत्न पाये जाते है।
जो यद्यपि अपम्पूर्ग है, परन्तु सफल जिनोके सम्पूर्ण रत्नोसे भिन्न नही है। ]-(विशेष दे० देव/I/१/५)।
९. असंयत सम्यग्दृष्टि वन्द्य क्यों नहीं ध, १/४,१,२/११/१ महन्धयविरहिददोरयणहराणं 1 ओहिणाणीणमणोहिणाणीण च विमट्ठ णमोकारो ण कोरदे। गारवगुरुवेसु जीवेसु चरणाचारपयट्टावणटट उत्ति मग्ग विसयभत्तिपयासण च ण कौरदे। = प्रश्न-महावतोसे रहित दा रत्नो अर्थात् सम्यग्दर्शन व सम्यग्ज्ञान के धारक अवधिज्ञानी तथा अप्रधिज्ञानसे रहित जीवोको भी क्यो नही नमस्कार किया जाता। उत्तर-अह कार से महान् जीवोमे चरणाचार अर्थात् सम्या चारित्र रूप प्रवृत्ति कराने के लिए तथा प्रवृत्तिमार्ग विषयक भक्तिके प्रकाशनार्थ उन्हे नमस्कार
नहीं किया जाता है। ५. साधुको परीक्षाका विधि-निषेध
१. आगन्तुक साधुकी विनय पूर्वक परीक्षा विधि भ आ/म् ४१०-४१४ आएस एज्जतं अन्भुट्ठिति सहसा हु दठठुर्ण ।
आणासमवच्छल्लदाए चरणे य जादजे ।४१०। आग तुगवच्छव्या पडिलेहा हि तु अण्णमण्णे हि । अण्णोण्णचरणकरण जाणणहेद परिक्वति ।४११ आवासयठाणादिसु पडिलेहणवयणगहणणिक्वेवे। सज्झाए य विहारे भिगवरगहणे परिच्छति (४१२। आएसस्स तिरत्त णियमा सघाडमा दु दादयो। सेज्जा सथारो वि य जइ वि असभोइओ होइ।४९३॥ तेण पर अवियागिय ण होदि सघाइओ दु दादयो। सेज्जा सथारा वि य गणिणा अविजुन जोगिस्स ।४१४। = १. अन्य गणसे आये हुए साधुको देखकर परगणके सब साधु, वात्सल्य, सर्वज्ञ आज्ञा, आगन्तुकको अपना बनाना, और नमस्कार करना इन प्रयोजनोके निमित उठकर खडे हो जाते है ।४१०। वह नवागन्तुक मुनि और इस सबके मुनि परस्परमे एक दूसरेको प्रतिलेखन क्रिया व तेरह प्रकार चारित्र की परीक्षाके लिए एक दूसरे को गौरसे देखते है ३११षट् आवश्यक व कायोत्सर्ग क्रियाओमें, पीछी आदिसे शोधन क्रिया, भाषा बोलने की क्रिया, पुस्तक आदिके उठाने रखनेकी क्रिया, स्वाध्याय, एकाकी जाने आनेकी क्रिया, भिक्षा ग्रहणार्थ चां, इन सब क्रिया स्थानोमे परस्पर परीक्षा करे ।।१२। आये हुए अन्य संघ मुनिको स्वाध्याय सस्तर भिक्षा आदिका स्थान बतलाने के लिए तथा उनकी शुद्धताकी परीक्षा करनेके लिए, तीन दिन रात तक सहायक मुनि साथ रहै ।४१३. (मू. आ./१६०, १६३, १६४,
१६२)। २. तीन दिनके पश्चात् यदि वह मुनि परीक्षामें ठीक नही उतरता तो उसे सहाय प्रदान नहीं करते, तथा वसतिका व संस्तर भी उसे नहीं देते और यदि उसका आचरण योग्य है परन्तु परीक्षा पूरी नहीं हुई है, तो भी आचार्य उसको सहाय वसतिका व संस्तर नहीं देते है ।४१४॥
२. साधुकी परीक्षा करनेका निषेध सा ध/२/६४ मे उद्धृत-भुक्तिमानप्रदाने तु दा परीक्षा तपस्विनाम् । ते सन्त सन्त्वस-तो या गृही दानेन शुध्यति ।' काले कलौ चले चित्ते देहे चान्नादिकीटके । एतचित्र यदद्यापि जिनरूपधरा नरा - केबल आहारदान देनेके लिए मुनियोको क्या परीक्षा करनी चाहिए । वे मुनि चाहे अच्छे हो या बुरे, गृहस्थ तो उन्हे दान देनेसे शुद्ध ही हो जाता है अर्थात उसे तो पुण्य हो ही जाता है। इस कलिकाल में चित्त सदा चलायमान रहता है, शरीर एक तरहसे केवल अन्नका कीडा बना हुआ है, ऐसी अवस्थामे भी वर्तमान मे जिन रूप धारण करनेवाले मुनि विद्यमान है, यही आश्चर्य है । ३. साधु परीक्षा सम्बन्धी शंका समाधान मो. मा प्र | अधिकार/पृष्ठ/क्तिप्रश्न--१. शील संयमादि पाले हैं, तपश्चरणादि करें है, सो जेता करें तितना ही भला है । उत्तर-यह सत्य है, धर्म थोरा भी पाल्या हुआ भला है । परन्तु प्रतिज्ञा तो बडे धर्म की करिए अर पालिए थोरा तौ वहाँ प्रतिज्ञा भगत महापाप हा है। • शील सयमादि होते भी पापी ही कहिए । ...यथायोग्य नाम धराय धर्मक्रिया करते तो पापीपना होता नाही । जेता धर्म साधै तितना ही भला है। ( ५/२३४/६) । प्रश्न-२ पंचम कालके अन्ततक चतुर्विध संघका सद्भाव क्या है। इनको साधु न मानिय तो किसको मानिए । उत्तर-जैसे इस कालविणे हसका सद्भाव कहा है अर गम्यक्षेत्र विषै इस नाही दीसे है, तो औरनिको तो हस माने जाते नाही. हे सकासा लक्षण मिले ही हस माने जायें। तैसे इस काल विषे साधुका सद्भाव है, अर गम्य क्षेत्र विषै साधु न दीसे है, तौ औरनिकौ तौ साधु माने जाते नाहीं । साधु लक्षण मिलै ही साधु माने जायें। (१/२३४/२२) प्रश्न-३, अब श्रावक भी तो जैसे सम्भव तैसे नाही। तातै जैसे श्रावक तसे मुनि ? उत्तर-श्रावक सज्ञा तौ शास्त्रविधै सर्व गृहस्थ जनौ की है। श्रेणिक भी असयमी था ताको उत्तर पुराण विषे श्रावकोत्तम कहा। बारह सभाविपै श्रापक कहे, तहाँ सर्व व्रतधारी न थे। __तातै गृहस्थ जेनी श्रावक नाम पावै है। अर 'मुनि सज्ञा तौ निग्रन्थ बिना कही कही नाही । बहुरि श्रावककै तौ आठ मूलगुण कहे है। सो मद्यमाग मधु पत्तउर बरादि फलनिका भक्षण श्रावकनिकै है नाही, तात काहू प्रकार श्रावकपना तौ सम्भवै भी है। अर मुनिकै २८ मूलगुण है, सो भेषी निकै दीसते ही नाही । तात मुनिपनो काहू प्रकार करि सम्भवे नाही। (६/२७४/१) प्रश्न-४ ऐसे गुरु तौ अबार यहॉ नाही, तात जैसे अहंन्तकी स्थापना प्रतिमा है, तैसे गुरुनिको स्थापना ये भेषधारी है। उत्तर-अन्तिादिकी पाषाणादिमे स्थापना बनावै. तो तिनिका प्रतिपक्षी नाही. अर कोई सामान्य मनुष्य आपको मुनि मनाये, तो वह मुनि निका प्रतिपक्षी भया । ऐसे भी स्थापना होती होय. तौ अरहन्त भी आपकी मनावो। (६/२७३/१५) [पंचपरमेष्ठी भगवान्के असाधारण गुणोकी गृहस्थ या सामान्य मनुष्यमे स्थापना करना निषिद्ध है। (श्लो, वा
२/भाषाकार /१/५/५४/२६४/६। विनयचन्द्र-'उवएसमाला तथा कहाणय छप्पय' नामक दो अपभ्रश ग्रन्थोंके रचगिता । समय ई श १३ (हिन्दी जेन साहित्य इतिहास ५१बा० कामता प्रसाद)।
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विनयचारा
विपर्यय
विनयचारी-विजयाकी दक्षिण गोका एक नगर। -दे०
विद्याधर। विनयदत्त-मुलसघ की पट्टावली के अनुसार आप लाहाचार्य के
पश्चात् एक पूर्वधारी थे। ममय-को नि० ५६५-५८५ ( ई०३८. ५८)। -विशेष दे० इतिहास/४/४ । विनयपुरो-विजयाकी दक्षिण का एक नगर । -दे०
विद्याधर । विनय लालसा-सप्त ऋषियोमेसे एक ।-दे० सप्तऋषि । विनयविजय-न्यायकणिकाके कर्ता एक श्वेताम्बर उपाध्याय ।
समय--श स १७ ( ई० १६७०)। (न्याय कणिका/प्र.१। ५०
मोहनलाल डिसाई। विनय शुद्धि-दे० शुद्धि। दिनयसेन-~पंचस्तूप सघकी गुर्वावलोके अनुसार आप धवलाकार बीरसेन स्वामीके शिष्य तथा काष्ठासघ सस्थापक कुमारसेनके गुरु थे। समय- ई०८२०-८७० । (सि वि/प्र ३८/५० महेन्द्र);
-दे० इतिहास/७/७ । विनायक राक्षस जातिके व्यन्तर देवोका एक भेद।-दे० राक्षस
विनायक यन्त्र। -दे० यन्त्र । विनाशरा वा./४/४२/१/२५०/१६ तत्पर्यायसामान्य विनिवृत्ति
विनाश। - पर्यायको सामान्य निवृत्तिका नाम विनाश है। विनिमय-Barter and Purchase(ध/प्र २८)। विनोदोलालसहजादिपुर निवासी एक जैन कवि थे ( जिन्होने वि० १७५७ में भक्तामर कथा और वि० १७४६ मे सम्यक्त्व कौमुदी
नामक ग्रन्थ लिखे । विपतत्त्व-दे० गरुड तत्त्व । विपक्ष-१. पक्ष व विपक्षोके नाम निर्देश। -दे० अनेकान्त, ४ ।
२.निश्चित व शकित विपक्ष वृत्ति । -दे० व्यभिचार। विपरिणामरा. वा /४/४२/४/२५०/१८ सत एवावस्थान्त रावाप्तिविपरिणाम । सतका अवस्थान्तरकी प्राप्ति करना विपरिणाम है।
२. विपरिणामनाके भेद व उनके लक्षण ध, १५/२८२/१४ पिपरिगामउबक्कमो चउनिहो पयदिविपरिणामणा दिदिविपरिणामणा अणुभागविपरिणामणा पदेसविपरिणामणा चेदि। पपडिविपरिणामणा दुविहा-मुलपय डिविपरिणामणा उत्तरपयडिविपरिणामणा ति। तत्थ मूल रय डिविपरिणामणा दुबिहादेसविपरिणामणा सतविपरिणामणा चेदि । एत्थ अछपद-जासि पयडोण देसो णिज्जरिज्जदि अधििदगलणार सा देसपयडिविपरिणामणा णाम । जा पयडी सवाणिज्जराए णिज्जरिज्जदि सा सयविपरिणाममा णाम। उत्तरपयडिविपरिणामणाए अछपद । त जहा-गिज्जिएगा पयडी देसेण सम्वणिज्जराए,वा, अण्ण पनडीए देससकमेग वा मास कमेण वा जा सकामिनदि एसा उतरपय डिविपरिणामगाणाम। दिदो ओवट्टिज्जमाणा वा उचट्टिज्जमाणा वा अण्ण पपडिगकामिज्जमाचा वा विपरिणामिदा होदि। ओक ड्रिदो वि उक्कडदो चि अण्णपय डि णीदो वि अणुभागो विपरिणामिदो होदि। ज पदेसग्ग णिज्जिण्ण अण्णपयडि वा सकामिद सा पदेसविपरिणामगा गाम । =१ विपरिणाम उपक्रम चार प्रकारका हैप्रकृतिविपरिणामना, स्थितिविपरिणामना, अनुभागविपरिणामना
और प्रदेश विपरिणामना। इनमें प्रकृति विपरिणामना दो प्रकारका है-मूल प्रकृतिविपरिणामना और उत्तरप्रकृतिविपरिणामना । २ उनमें भो मूलप्रकृति विपरिणामना दो प्रकार है-देशविपरिणामना और सर्व विपरिणामना। जिन प्रकृतियो का अध स्थिति गलनके द्वारा एक देश निर्जराको प्राप्त होता है वह देशपकृति विपरिणामना कही जाती है। जो प्रकृति सर्व निर्जराके द्वारा निर्जराको प्राप्त होती हे वह सर्व विपरिणामना कही जाती है । देश निर्जरा अपघा सर्व निर्जराके द्वारा निर्जीर्ण प्रकृति अथवा जो प्रकृति देशमक्रमण या सर्व सक्रमणके द्वारा अन्य प्रकृतिमे सक्रमणको प्राप्त करायी जाती है यह उत्तरप्रकृति विपरिणामना कहलाती है। ३ अपवर्तमान, उद्वर्तमान अथवा अन्य प्रकृतियो में सक्रमण करायी जानेवाली स्थिति विपरिणामना कहलाती है। ४. अपकर्षणप्राप्त, उत्कर्षणप्राप्त अथवा अन्य प्रकृतिक प्राप्त कराया गया भीअनुभाग विपरिणामित होता है।५.जो प्रदेशान निर्जराको प्राप्त हुआ है अथवा अन्य प्रकृतिमें सक्रमणको प्राप्त हुआ है वह प्रदेश विपरिणामना कही जाती है। विपरीत दृष्टांत-(दे दृष्टांत ) । विपरीत मिथ्यात्व-(दे. विपर्यय )। विपर्यय-१. विषययज्ञान का लक्षण स सि /१/३१/१३७/३ विपर्ययो मिथ्येत्यर्थ = विपर्ययका अर्थ मिथ्या
है। (रा वा/१/३१/-६१/२८)। न्या दो //SETE/E विपरोते ककोटिनिश्चयो विपर्यय यथा शुक्तिकायामिदं रजतमिति ज्ञानम् । = विपरीत एक पक्षका निश्चय करनेवाले ज्ञानको विपर्यय कहते है। जैसे-सोपमे 'यह चाँदी है। इस प्रकारका
ज्ञान होना। न्या. विवृ १/२/१३०/२५ विवक्षिते विषये विविध परि समन्तादयन गमन विपर्यय सर्व ससारव्यवहार इत्यर्थ-विवक्षित विषयने विविध रूपमे सब ओरसे गमन करने को विपर्यय कहते है। अर्थात विपर्ययका अर्थ सर्व लोक व्यवहार है।
२. विपर्यय मिथ्यात्व सामान्यका लक्षण स.सि /८/१/३७५/६ सप्रन्यो निर्ग्रन्थ केवली क्बलाहारी, रत्री सिध्यतोत्येवमादि विपर्यय ।- मग्रन्थको निम्रन्थ मानना, केवलीको केबलाहारी मानना और स्त्री सिद्ध होती है इत्यादि मानना विपर्यय
मिथ्यादर्शन है । ( रा बा /८//२८/५६४/२०), (त सा/५/६)। ध८/३.६/२०६ हिमालित्रयण-चोज्जमेहणपरिगहरागदोममोहण्णाणेहि चेव पिणबुई होइ त्ति अहिणिवेसो विवरीय मिच्छत्त । = हिसा अलोक वचन, चौर्य, मैथुन, परिग्रह, राग, द्वेष, मोह और अज्ञान, इनसे हो मुक्ति होती है, ऐसा अभिनिवेश विपरीत मिथ्यात्व कहलाता है। अन. ध /२/७/१२४ ये प्रमाणत शिप्ता श्रद्दधाना श्रुति रसात् । चरन्ति श्रेयसे हिसा स हिस्या मोहराक्षस । = मोहरूपी राक्षसका ही वध करना उचित है कि जिसके वश में पहकर प्राणी प्रमाणसे खण्डित किया जाने पर भी उस श्रुति ( वेदो) का ही श्रद्वान करते है और पुण्यार्थ हिसा ( यज्ञादि ) का आचरण करते है। गों जो /जो प्र/१६/४२/३ याज्ञि कब्राह्मणादय विपरीतमिथ्यादृष्टय ।
यज्ञ करनेवाले ब्राह्मण आदि विपरीत मिथ्यादृष्टि है। ३. विपरीत मतको उत्पत्तिका इतिहास द, सा /१६-१७ सुञ्चतित्ये उज्झो रख रिकद बुत्ति सुद्धसम्मत्तो। सीमो
तस्स य दुट्ठो पुत्तो वि य पाओ वको।१६३ विवरीयमय किच्चा विणापिय सच्चसजम लाए। ततो पत्ता सवे सत्तमणरय महाघोर ११७ - मुनिसुव्रत नायके समय में एक क्षीरवदम्ब नामका उपाध्याय
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विपर्यास
विभक्ति
था । वह शुद्ध सम्यग्दृष्टि था। उसका ( राजा वसु नामका एक ) दुष्ट शिष्प था और पर्वत नामका वक्र पुत्र था ।१६। उन्होने विपरीत मत बनाकर ससारसे सच्चे सयमको नष्ट कर दिया और इसके फलसे वे घोर सप्तम नरकमें जा पडे।
विपाक कहते है। कर्मो के उदय और उदीरणाके अभावको अविपाक कहते है। कर्मो के उपशम और क्षयको अविपाक कहते है, यह उक्त
क्थनका तात्पर्य है। विपाक अविपाक निर्जरा-दे० निर्जरा । विपाक प्रत्ययिक बंध-दे बन्ध/१। विपाक विचय-दे धर्मध्यान/१। विपाकसूत्र-द्वादशाग श्रुतका ११ वा अग -दे०श्रुतज्ञान/III ।
१. विपर्यय मिथ्यात्रके भेद व उनके लक्षण स सि /१/३२/१३६/२ कश्चिन्मिथ्यादर्शनपरिणाम आत्मन्यबस्थितो रूपाद्य पलब्धौ सत्यामपि कारणविपर्यास भेदाभेदविपर्यास स्वरूपविपर्यास च जनयति । कारणविपर्यासस्तावत्-रूपादीनामेकं कारणममूर्त नित्यमिति केचित्कल्पयन्ति । अपरे पृथिव्यादिजातिभिन्ना' परमाणवश्चतुस्विद्वये कगुणास्तुल्यजातीयाना कार्याणामारम्भका इति । अन्ये वर्ण यन्ति-पृथिव्यादीनि चत्वारि भूतानि, भौतिकधर्मा वर्णगन्धरसस्पर्शा, एतेषा समुदायो रूपपरमाणुरष्टक इत्यादि। इतरे वर्णयन्ति-पृथिव्यप्तेजोवायब' काठिन्यादिद्रवत्वाद्य ष्णत्वादीरणस्वादिगुणा जातिभिन्ना' परमाणव' कार्यस्यारम्भका । भेदाभेदविपर्यास' कारणात्कार्यमर्थान्तरभूतमेवेति अनर्थान्तरभूतमेवेति च परिकल्पना। स्वरूप विपर्यासो रूपादयो निर्विकल्पाः सन्ति न सन्त्येव वा । तदाकारपरिणत विज्ञानमेव । न च तदालम्बनं वस्तु बाह्य मिति = आत्मामें स्थित कोई मिथ्यादर्शनरूप परिणाम रूपादिककी उपलब्धि होनेपर भी कारणविपर्यास, भेदाभेद विपर्यास और स्वरूप विपर्यासको उत्पन्न करता रहता है। कारण विपर्यास यथा-कोई (सांख्य ) मानते है कि रूपादिका एक कारण ( प्रकृति ) है, जो अमूर्त और नित्य है । कोई (बैशेषिक ) मानते है कि पृथिबी आदिके परमाणु भिन्न-भिन्न जातिके है। तिनमें पृथिवीपरमाणु चार गुणवाले, जलपरमाणु तीन गुणवाले, अग्निपरमाणु दो गुणवाला, और वायुपरमाणु केवल एक स्पर्श गुणवाला होता है। ये परमाणु अपने-अपने समान जातीय कार्यको हो उत्पन्न करते है। कोई (बौद्ध ) कहते है कि पृथिवी आदि चार भूत है और इन भूतोके वर्ण गन्ध रस और स्पर्श ये भौनिक धर्म है। इन सबके समुदायको एक रूप परमाणु या अष्टक कहते है। कोई कहते है कि पृथिवी, जल, अग्नि और वायु ये क्रमसे काठिन्यादि, द्रवत्वादि, उष्णत्वादि
और ईरणत्वादि गुणवाले अलग-अलग जातिके परमाणु होकर कार्यको उत्पन्न करते है। भेदाभेद विपर्यास यथा-कारणके कार्यको सर्वथा भिन्न या सर्वथा अभिन्न मानना । स्वरूपविपर्यास यथारूपादिक निर्विकल्प है, या रूपादिक है ही नही, या रूपादिकके आकाररूपसे परिणत हुआ विज्ञान ही है, उसका आलम्बनभूत और कोई बाह्य पदार्थ नहीं है ( बौद्ध)।(गो. जी जी.प्र./१८/४३/२)। विपर्यास-दे विपर्यय । विपल-कालका एक प्रमाण-दे. गणित/I/१/४। विपाकस मि /-/२१/३६८/३ विशिष्टो नानाविधो वा पाको विपाक । पूर्वोक्तकषायतीवमन्दादिभावासव विशेषाद्विशिष्ट पाको विपार । अथवा द्रव्यक्षेत्रकालभवभावल यणनिमित्तभेदजनितवैश्वरूप्यो नानाविध पाको विपाक । असावनुभव इत्याख्यायते । विशिष्ट या नाना प्रकार के पाक का नाम विपाक है। पूर्वोक्त कषायोंके तीच मन्द आदि रूप भावासबके भेदसे विशिष्ट पाक का होना विपाक है । अथवा द्रव्य, क्षेत्र, काल, भव और भावलक्षण निमित्त-भेदसे उत्पन्न हुआ वैश्वरूप नाना प्रकारका पाक विपाक है । इसीको अनुभव कहते है। (रा या/८/२१/१/५८३/१३)। ध. १४/५,६,१४/१०/२ कम्माणमुदओ उदीरणा वा विवागो णाम,
कम्माणमुदय-उदोरणाणमभावो अविवागो णाम । दम्माणमुवसमो खओ वा अविवागो त्ति भणिद होदि । = कर्मो के उदय व उदीरणाको
विपुल-१. भाविकालीन १५वे तीर्थकर । अपर नाम बहुलप्रभ ।
- दे. तीर्थ कर/५ । २. एक ग्रह -दे ग्रह । विपुलमति-दे, मन पर्यय। विप्रतिपत्ति-न्या. सू /भा /२/१/७/५८/२० न वृत्ति समानेऽधिकरणे व्याहतार्थों प्रबादौ विप्रतिपत्तिशब्दस्यार्थ । एक बस्तुमें परस्पर विरोधी दो वादोका नाम 'विप्रतिपत्ति' है। [अथवा विपरीत निश्चयका नाम विप्रतिपत्ति है ] । विधानस मरण-दे मरण/१ । विप्लुत-न्या वि./वृ./१/४६/३११/२१ विविध प्लुत प्लवन तरङ्गादिषु यस्य स विप्लुतो जलचन्द्रादि । = विविध प्रकारसे प्लुत सो विप्लुत अर्थात जिसका तर गादिमें अनेक प्रकारसे डूबना या तैरना हो
रहा है, ऐसे जल में पडे हुए चन्द्र प्रतिबिम्ब आदि विप्लुत है। विभंगज्ञान-१ मिथ्या अवधिज्ञान । दे.अवधिज्ञान/१। २.विभग
ज्ञानमें दर्शनका कथ चित् सद्भाव व अभाव -दे. दर्शन/६ । विभंगा-पूर्व व अपर विदेहो में स्थित १२ नदियाँ। पूर्व मे ग्राहवती, द्रवती, पंकावती, तप्तजला, मत्तजला और उन्मत्तजला ये ६ है और पश्चिममें -क्षीरोदा, सीतोदा, औषधवाहिनी, गम्भीरमालिनी. फेनमालिनी और ऊर्मिमालिनी ये छ है । दे. लोक/३/१४ । विभक्तिक.पा २/२-२२/S८/६/८ विभजनं विभक्ति न विभक्तिरविभक्ति । ___-विभाग करनेको विभक्ति कहते है और विभक्तिके अभावको
अविभक्ति कहते है। क पा. ३/३-२२/४/ पृष्ठ । पक्ति-विहत्ती भेदो पुधभावोत्ति एयट्ठो (३४)। एकिस्से वि ट्ठिीए पदेसभेदेण पयडिभेदेण च णाणत्तुवलंभादो। (५/८)। मूलपयडिट ठिदीए सेसणाणावरणादिमूलपयडि. दिदी हितो भेदोववत्तीदो। (६/२) । क पा/३/३-२२/8/ पृष्ठ/पंक्ति-अधवा ण एस्थ मूल पयडिठ्ठिदीए एयत्तम स्थि, जहण्ण ठिदिप्पहुडिजाव उक्कस्सठिदि त्ति मब्बासि ठ्ठिदीण मूलपयडिठिदि त्ति गहणादो। (६/२)। तेण पयडिसरूवेण एगा ठिदी एगट ठिदीभेद पडच्चछिदिविहत्ती होदि त्ति सिद्धं । =विभक्ति, भेद, और पृथग्भाव ये तीनो एकार्थवाची शब्द है। एक स्थितिमें भी प्रदेशभेदकी अपेक्षा नानात्व पाया जाता है । अथवा विवक्षित मोहनीयको मूलप्रकृति स्थितिका शेष ज्ञानावरणादि मूल प्रकृतिस्थितियोसे भेद पाया जाता है। अथवा प्रकृतमे मूल प्रकृतिस्थितिका एक्त्व नहीं लिया है, क्योकि जघन्य स्थितिसे लेकर उत्कृष्ट स्थिति तक सभी स्थितियोका 'मूल प्रकृतिस्थिति' पदके द्वारा ग्रहण किया है। इसलिए प्रकृतिरूपसे एक स्थिति अपने स्थितिभेदोकी अपेक्षा स्थितिविभक्ति होती है, यह सिद्ध होता है। क.पा ३/३-२२/११/३ उक्कस्स वित्तीए उक्कल्स अद्धाछेदस्स च को भेदो। बुच्चदे-चरिमणिसेयस्स कालो उक्कस्स अद्भाछेदो णाम । उक्कस्सटिठदिविहत्ती पुण सव्वणिसेयाण सव्वणिसेयपदेसाण वा कालो। • एव
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विभाव
५५७
१. विभाव व वैभाविकी शक्ति दिर्देश
सते सबुकस्स विहत्तीण णत्थि भेदो त्ति णासकणिज्ज। ताण पि णयविसेसवसाणं कथंचि भेदुवल भादो। त जहा-समुदायपहाणा उकास विहत्ती। अवयवपहाणा सव्व विहत्ति । प्रश्न-उत्कृष्ट विभक्ति और उत्कृष्ट अद्भाच्छेदमें क्या भेद है । उत्तर- अन्तिम निषेक के काल को उत्कृष्ट अद्धाच्छेद कहते है और समस्त निषेकोके या समस्त निषकों के प्रदेशोके कालको उत्कृष्ट स्थिति विभक्ति कहते है। इसलिए इन दोनोमें भेद है। ऐसी होते हुए सव विभक्ति [ सम्पूर्ण निषेकोका समूह ( दे. स्थिति/२)] और उत्कृष्ट विभक्ति इन दोनो में भेद नहीं है, ऐसी आशका नहीं करनी चाहिए, क्योंकि नय विशेषकी अपेक्षा उन दोनोमे भी कथ चित् भेद पाया जाता है। वह इस प्रकार हैउत्कुष्ट विभक्ति समुदाय प्रधान होतो है और सर्व विभक्ति अवयव प्रधान होती है।
विमावका कथंचित् अहेतुकपना | जीव भावोंका निमित्त पाकर पुद्गल स्वयं कर्मरूप परिणमता है।
-दे. कारण/III/३| जीव रागादिरूपसे स्वय परिणमता है। शानियों के कर्मोंका उदय भी अकिंचित्कर है।
विभाव-कर्मोके उदयसे होने वाले जीवके रागादि विकारी भावोको विभाव कहते है। निमित्तकी अपेक्षा कथन करनेपर ये कर्मोके है और जीवकी अपेक्षा कथन करने पर ये जीवके है। संयोगी होनेके कारण वास्तवमे ये किसी एकके नहीं कहे जा सकते। शुद्वनयसे देखनेपर इनकी सत्ता ही नही है।
विभावके सहेतुक-अहेतुकपनेका समन्वय कर्म जीवका पराभव कैसे करता है ? रागादि भाव संयोगी होनेके कारण किसी एकके नहीं । कहे जा सकते । | शानी व अज्ञानीकी अपेक्षासे दोनों बातें ठोक है। दोनोंका नयार्थ व मतार्थ । दोनों बातोंका कारण व प्रयोजन । विभावका अभाव सम्भव है। -दे, रागा३।। | वस्तुत रागादि भावकी सत्ता नहीं है।
विभाव व वैमाविक शक्ति निर्देश विभावका लक्षण। स्वभाव व विभाव क्रिया तथा उनकी हेतुभूता वैभाविकी शक्ति। वैभाविकी शक्ति केवल जीव व पुद्गल में ही है।
-दे० गुण३/८ वह शक्ति नित्य है, पर स्वय स्वभाव या विभावरूप परिणत हो जाती है। स्वाभाविक व वैभाविक दो शक्तिया मानना योग्य नहीं। स्वभाव व विभाव शक्तियोका समन्वय । रागादिकमें कथंचित् स्वभाव-विभावपना
कषाय जीवका स्वभाव नहीं। -दे कषाय/२/३। कषाय चारित्र गुणकी विभाव पर्याय है। सयोगो होनेके कारण विभावको सत्ता ही नहीं है।
-दे, विभाव/५/६ । रागादि जीवके नही पुद्गलके है। -दे. मूर्त।।। रागादि जीवके अपने अपराध है। | विभाव भी कथचित् स्वभाव है। शुद्ध जीपमें विभाव कैसे हो जाता है ?
१. विभाव व वैभाविकी शक्ति निर्देश
१. विमावका लक्षण न. च. वृ./६५ सहजादो रूबंतरगहणं जो सो हु विभावो ।६५॥ -- सहज
अर्थात स्वभावसे रूपान्तरका ग्रहण करना विभाव है। आ प./६ स्वभावादन्यथाभवनं विभाव । -स्वभावसे अन्यथा परिण
मन करना विभाव है। पं घ./उ /१०५ तद्गुणाकारस क्रान्ति वा वैभाविकश्चित. 1 आत्माके गुणोका कर्मरूप पुद्गलोके गुणोके आकाररूप कथंचित संक्रमण होना वै भाविक भाव कहलाता है। २. स्वमाव व विमाव क्रिया तथा उनकी हेतुभूता वैमाविकी शक्ति प.ध./उ./श्लो अप्यस्त्यनादिसिदस्य सत स्वाभाविकी क्रिया वैभाविकी क्रिया चास्ति पारिणामिकशक्तित ।६१। न परं स्यात्परायत्ता सतो वैभाविकी क्रिया । यस्मात्सतोऽसती शक्ति कर्तुमन्यैर्न शक्यते ।६। ननु वैभाविकभावाख्या क्रिया चेत्पारिणामिकी। स्वाभाविक्या. क्रियायाश्च क शेषो हि विशेषभाक् ।६३। नैवं यतो विशेषोऽस्ति बद्धाबद्धावबोधयो. । मोहकमावृतो बद्ध' स्यादबद्धस्तदत्ययात् ।६६। ननु बद्धत्व कि नाम किमशुद्धत्वमर्थत. । वावदूकोऽथ सदिग्धो बोध्यः कश्चिदिति क्रमात् ।७१। अर्थाद्वैभाविकी शक्तिर्या सा चेदुपयोगिनी। तद्गुणाकारसक्रान्तिबन्ध स्यादन्यहेतुक: १७२। तत्र बन्धे न हेतु' स्याच्छक्तिर्वैभाविकी परम् । नोपयोगापि तरिक्तु परायत्त प्रयोजकम् ।७३। अस्ति वैभाविकी शक्तिस्तत्तद्रव्योपजोविनो। सा चेदबन्धस्य हेतु स्यादर्थामुक्तेरसंभव ७४। उपयोग स्यादभिव्यक्ति शक्ते स्वार्थाधिकारिणी। सैव बन्धस्य हेतुश्चेत्सर्वो बन्ध समस्यताम् ॥७॥ तस्माद्धेतुसामग्रीसांनिध्ये तद्गुणाकृति । स्वाकारस्य परायत्ता तया बद्धोपराधवान् ७६। -स्वत अनादिसिद्ध भी सतमें परिणमनशीलताके कारण स्वाभाविक व वैभाविक दो प्रकारकी क्रिया होती है ।६श वैभाविकी क्रिया केवल पराधीन नही होती, क्योकि, दुव्यकी अविद्यमान शक्ति दूसरों के द्वारा उत्पन्न नहीं करायी जा सकती।६२। प्रश्न-यदि वैभाषिकी क्रिया भी सत् की
४
विमावका कथंचित् सहेतुकपना * जीत्र व कर्मका निमित्त-नैमित्तिकपना ।
-दे कारण III/३/३। १ । जीवके कपाय आदि भाव सहेतुक है। २ जावकी अन्य पर्याय भी कर्मकृत है। ३ । पौद्गलिक विभाव सहेतुक है।
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विभाव
परिणमनशीलता से ही होती है तो उसमें फिर स्वाभाविकी क्रिपासे क्या भेद है। उत्तर- ऐसा नही कहना चाहिए, क्योंकि द्र और अबद्ध ज्ञानमे भेद (स्पष्ट ) है | मोहनीय आवृत ज्ञान बद्ध है। औ उससे रहित अह । ६६। प्रश्न वस्तुतत्व व अशुद्वत्व क्या है । ७११ उत्तर- वैभाविकी शक्ति के उपयोगरूप हो जानेपर जो परrous निमित्तसे जीव व पुइगलके गुणोका सक्रमण हा जाता है वह बन्ध कहलाता है [२] [ परगुणादाररूप पारिणामिकी क्रियाबन्ध है और उस क्रिया होनेपर जो इगल दोनाको अपने गुणों से च्युत हो जाना अशुद्धता है- दे. अशुद्धता । उस बन्धमे केवल वैभाविकी शक्ति कारण नही हे और न केवल उसका उपयोग कारण है, किन्तु उन दोनोका परस्परमे एक दूसरे के आधीन होकर रहना ही प्रयोजक है | ३ | यदि वैभाविकी शक्ति ही बन्धका कारण माना जायेगा, तो जीव की मुक्ति ही अनम्भन हो जायेगी, क्योंकि, वह शक्ति द्रव्योपजीवी है | शक्तिकी अपने विषय में अधिकार रखनेबाली व्यक्तता उपयोग कहलाता है। वह भी अकेला बन्धका कारण नहीं है, क्यं कि, ऐसा माननेपर भी सभी प्रकारका बन्ध उसीमे समा जायेगा । ७५ । अत उसकी हेतुभूत समस्त सामग्री के मिलनेपर अपनेअपने आकारका परद्रव्यके निमित्तसे, जिसके साथ बन्ध होना है उसके गुणाकाररूपसे सक्रमण हो जाता है। इसीसे यह अपराधी हुआ है
३. वह शक्ति निश्य है पर स्वयं स्वभाव या विभाव रूप परिणत हो जाती है
प.प.
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पर
भाविक शक्तिययोग योगाद्विना कि न स्याद्वास्ति तथान्यथा । सत्य नित्या तथा शक्ति शक्तिस्वात्त नाश शक्तोमा नागत क्रमात् ॥ ०॥ क्तुि तस्यास्तथाभाव शुद्धादन्योन्यहेतुव' । तन्निमित्ताविना शुद्ध भाव स्यानिलस्थत १८१| अस्ति वैभाविकी शक्ति स्वतस्तेषु गुणेषु च । जन्तो सरस्थाया बेकृतास्ति स्वहेत्त | प्रश्न - पदि वैभव शक्ति जीव पुद्गलके परस्पर से बन्ध करानेने समर्थ होती है तो क्या पर योगके वह बन्ध कराने में समर्थ नहीं है। अर्थात कर्मोका सम्बन्ध एट जानेपर उसमें बन्द कराने साम रहती है या नहीं। उत्तर- तुम्हारा कहना ठीक है, परन्तु शक्ति होनेके कारण अन्य स्वामी शक्तिकी भाँति पर भी नित्य रहती है, अन्यथा तो क्रमसे एक-एक शक्तिका नाश होते-होते द्रव्यका ही नाश हो जायेगा ७६८०१ किन्तु उस शक्तिका अशुद्ध परिणमन अवश्य पर निमित्तसे होता है। निमित्तके हट जानेपर स्वयं उसका केवल शुद्ध ही परिणमन होता है १८११ निद्व जीनो के गुणो में भी स्वत सिद्ध वैभाविकी शक्ति होती है जा जीवको समार अवस्थामे वय अनादिकालसे विकृत हा रही है
४. स्वाभाविक व वैमाविक दो शक्तियों मानना योग्य नही
पध / उ / श्लो. ननु वा शक्तिता
भवेत् । एक स्वाभाविको भावो भावो वैभाविक पर ॥८२॥ चेनश्व हि देशक सत स्तन क्षति सताम्वाभाविको स्वभावे स्त्रे स्वैर्विभावेविभावजा ८४ ने पति परितालि कथ वैभवी स्वाईपरिणामको परिणाम मिश काचिच्छक्तिश्चापरिणामिकी | वाहक मागाभावात्सदृष्ट्य भावत भाविक शक्ति स्वयं स्वाभाविको भवेत् । परिकामात्मिकाभावेरभावे कर्मणाम् 1501 रन इससे समा सिद्ध होता है कि शक्ति तो एक है, पर उसका हो परिणमन दो
२. रागादिकमं कथंचित् स्वभाव-विभावना
प्रकारका होता है - एक स्वाभाविक और दूसरा वैभाविक ८३ | तो फिर द्रव्योमें स्वाभाविकी और वैभाविकी ऐसी दो स्वतन्त्र शक्तियों मान लेने में क्या क्षति है, क्योंकि, द्रव्यके स्वभावोंमें स्वाभाविकी शक्ति और उसके विभावोमें वैभाविकी शक्ति यथा अवसर काम करती रहेगी |४| उत्तर-ऐसा नही है, क्योकि सत्को सब शक्तियाँ जब परिणमन स्वभावी है, तो फिर यह वैभाविकी शक्ति भी नित्य पारिणामिकी क्यो न होगी । ८८| कोई शक्ति तो परिणामों हो और कोई अपरिणामी, इस प्रकार के उदाहरणका तथा उसके ग्राहक प्रमाणका अभाव है। इसलिए ऐसा ही मानना योग्य है कि वैभाविको शक्ति सम्पूर्ण कर्मोंका अभाव होनेपर अपने भावोसे ही स्वयं स्वाभा विक परिणमनशील हो जाती है | ह
५. स्वभाव व विभाव शक्तियों का समन्वय
पं. ध. /उ. / ११-६३ तत सिद्ध सतोऽवश्यं न्यायात् शक्तिद्वयं यत । सस्थान गयो ११ महात् दशेपट यस्यनयादपि कार्यकारणयन नाशस्यान्मोक्षयो |२| द्विधाभावो यौगपद्यानुपगत सति तत्र विभावस्य निर स्वादमाधि इसलिए यह सिद्ध होता है यानुसार पदार्थ में दो शक्तियाँ तो अवश्य है, परन्तु उन दोनो शक्तियों में सकी अवस्था भेदसे ही भेद है । द्रव्यमें युगपत् दोनो शक्तियोंका द्वैत नहीं है । ६१| क्योंकि दानोका युगपत् सद्भाव माननेसे महान् दोष उत्पन्न होता है। क्योंकि, इस प्रकार कार्यकारण भावके नाशका तथा बन्ध व मोक्षके नाशका प्रसंग प्राप्त होता है | १२ | न ही एक शक्तिके युगपत् दो परिणाम माने जा सकते है, क्योंकि इस प्रकार मानने से स्वभाव व विभाव की युगपतता तथा विभाव परिणामकी नित्यता प्राप्त होती है । ६३ ।
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२. रागादिकमें कथंचित् स्वभाव-विभावपना
१. कपाय चारित्रगुणकी विभाव पर्याय है
११००४, १० पार चत्वारोऽप्योदयक स्मृता । पारिवस्य गुणस्यास्य पर्याया कतारमन १००४ स चारित्रमोहस्य कर्मणो ह्युदयात्रम् । चारित्रस्य गुणस्यापि भावा वैभाविका अमी | १०७८। ये चारों ही कपाये औदमिक भारमे आती है. क्योकि ये आत्माके चारित्र गुणकी विकृत पर्याय है | १०७१२ सामान्यरूपसे उक्त तीनो वेद ( स्त्री पुरुष नपत्र वेद ) चारित्र माह के उदयसे होते है इसलिए ये तोनो ही भागि निश्चय पारिश्र गुणके ही वैभाविक भाव है।
२. रागादि जीवके अपने अपराध हैं।
सासा / / १०२ ३०१ जंभ
करेदि आदा स तरस खलु कत्ता । त तस्स होदि सम्म रु तरस दु वेदगो अप्पा ॥१०२॥ रागो दोसो मोहा जीनस्व य अणण्णपरिणामा । एरण कारण उ महादिमु णत्थि रागादि ॥७ = आत्मा जिग शुभ या अशुभ भावको करता है, उस भावका वह वास्तव में यर्ता होता है. यह भाव उसका कर्म होता है और वह आत्मा उसका भोक्ता होता है । १०२ । ( ससा / / १० ) | राग द्वेष और मोह जीवके हो अनन्य परिणाम है. इस कारण रागादिक ( इन्द्रियो के ) शब्दादिक विषय में नहीं है1१०१1
स. मा
६० बनादिस्वरुप
वर्तमान
EEP
अनादि काल से अपने पुरुषार्थ के अपराध कर्मम द्वारा लिप्त होनेसे ( म सा / आ / ४१२ ) ।
.
ससा / / क.नं भुङ्क्षे हन्त न जातु मे यदि पर दुर्भुत एवासि भो । बन्च स्यादुपभोगतो यदि न तरिक कामचारोऽस्ति ते ॥ १४१ ॥
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विभाव
नियतममशुद्ध स्वं भजन्सापराधो भवति निरपराध साधु ९८० यदि अति रागद्वेषदोषप्रसूति कतरदचि पप नास्ति तत्र स्वयमणमपराधी व सर्पश्यध भवतु विदितमस्तं यात्वबोधोऽस्मि बोध | २२०१ हे ज्ञानी । जो तू कहता है कि "सिद्धान्त में कहा है कि पर-द्रव्य के उपभोगसे बन्ध नहीं होता इसलिए भोगता हूँ " तो क्या तुझे भोगनेकी इच्छा है १ ।१५१ | जो सापराध आत्मा है वह तो नियमसे अपनेको अशुद्ध सेवन करता हुआ सापराध है । निरपराध आत्मा तो भली-भाँति शुद्ध आत्मा का सेवन करने वाला होता है ।१८७। इस आत्मागे जो राग-द्वेष रूप दोषोकी उत्पत्ति होती है, उसमें परव्यका कार्ड भी दष नही है, वहाँ तो स्वयं अपराधी यह अज्ञान ही फैलाता है, इस प्रकार विदित हो, और अज्ञान अस्त हो
जाय । २२० |
दे० अपराध - ( राव अर्थात आराधनासे हीन व्यक्ति सापराध है । )
३. विभाव भी बथंचित् स्वभाव है
प्रसा/प्र/ १९६ हि संसारियो जीवस्थानादिकमंगलोपाधिसनिविप्रत्ययप्रवर्तमानप्रतिक्षणविवर्तनस्य क्रिया किल स्वभाव निवृ तेवास्ति यहाँ इस जगद) अनादि कर्मगलकी उपाधिके सद्भाब के आपसे जिसके प्रतिक्षण विपरिणमन होता रहता है ऐसे ससारी जोवको क्रिया वास्तव में स्वभाव निष्पन्न ही है।
१८२/२००/२१ कर्मबन्धस्तावे] रागादिपरिम शुद्रनिश्चयेन स्वभावो भव्यते । कर्मबन्धके प्रकरण में रागादि परिणाम भो अशुद्ध निश्चयनयसे जीवके स्वभाव कहे जाते हैं । (प काता वृ./६१/११३ / ११.६४/११७/१० ।।
दे० भान/२ (ओनिकादि सर्व भाव निश्चयसे जीवके स्वतस तथा पारिणामिक भाव है | )
४. शुद्ध जीव में विभाव कैसे हो जाता है ?
ससा /मू व आ./८६ मिथ्यादर्शनादिश्चैतन्यपरिणामस्य विकार. इति गाई परिणाम तिच मोहत्तरस
मिच्त अण्णाण अविरदिभावो य णायो । प्रश्न- जीवमिथ्यात्वादि चेतन्य परिणामका विकार कैसे है ? उत्तर - अनादिसे मोहयुक्त होनेमे उपयोगके अनादिमे तीन परिणाम है--मिथ्यात्व, अज्ञान व अरतिभान ।
=
३.विभावका कथंचित् सहेतुकपना
१. जीवके कषाय आदि विभाव सहेतुक हैं।
५५९
ससा
सम्म तपधिं मिच्छत जिनवरेहि परि यि सोये जीवा मित्रादिद्वितिय १६१ जह फलिमणी मुद्दा सर्वपरिणमे रगिज यहि दुसा रवीहिहि २७ एवं नाणी मुद्रा ण सय परिणमइ रायमोहि रामदि अहि मा रागादीहिदीमेहि |२७| सम्यक नेता मिया (कर्म) है, ऐसा जिनपरीने कहा है, उसके उदयसे जो मिध्यादृष्टि होता है। इसी प्रकार ज्ञान व चारित्रके प्रतिबन्धक अज्ञान व कषाय नामक कर्म है | १६२ - १६३ | ( स सा / म् । १५७ - १५६ ) । २ जेसे स्फटिकमणि शुद्ध होने ललाई आदि रूपम्य नहीं परिणमता, परन्तु अन्य रक्तादि द्रव्योमे रक्त आदि किया जाता है, इसी प्रकार तानी अनि अत्मा शुद्ध होने रागादि रूप स्वयं नहीं परिणमता परन्तु अन्नादि शेषाने रागादि के निमिन
टीका )
३ विभावका कथंचित् सहेतुकपना
रागी आदि किया जाता है । २७६ - २७६ ( स सा / आ /८६ ), ( स. १२२/०६/२९) (३० परिसर/२/३
पं. का //५८ क्म्मेण विना उदयं जीवस्स ण विज्जदे उवसमं वा । खइय खओवसमिय तम्हा भावं तु कम्मकदं ॥ ५८॥ कर्म बिना जीवको उदय, उपशम, क्षायिक, अथवा क्षायोपशमिक (भाव) नहीं होते है, इसलिए ये चारों भारत है। १०/२ थान मोमोक्ष। यहेतुओके अभाव और निर्जरासे राम कमौका आत्यन्तिक क्षय होना ही मोक्ष है ।
क, पा /१/१ १३.१४/६२८५/३२० / २वस्थाल कारासु बज्झावल बणेण = वस्त्र और अल कार आदि बाह्य आलम्बनके विणा तदप्पत्तदो ।
बिना कषायकी उत्पत्ति नहीं होती है। दे०/२/ कर्म के बिना करायी जाति नहीं होती है।) दे० कारण/111/५/६ ( कर्म के उदयसे ही जोव उपशान्त-काय गुणस्थानसे नीचे गिरता है 1 )
=
घ १२/४,२, ८, १/२७५/४ सवं कम्म कज्ज वेव, अकज्जस्स कम्मस्स सिंगर अभावाची च एव कोहादिकामस्थि सणहाणुत्रतोदो कम्माणमत्थितमिद्धीए । कज्ज पि सव्वं सहउअ चेन, णिक्का रणस्स कज्जरस अणुक्ल भादो । सब कर्म कार्य स्वरूप ही है, क्योंकि, जो कर्म अवार्यस्वरूप होते है, उनका खरगोश के सींग के समान अभावका प्रसंग आता है । परन्तु ऐसा है नहीं, क्योकि, क्रोधादि रूप कार्योंका अस्तित्र बिना कर्म के बन नहीं सकता, अतएव कर्मा अस्तित्व सिद्ध ही है। कार्य भी जितना है। वह सब सकारण ही होता है, क्योंकि, कारण रहित कार्य पाया नहीं जाता। आप / टी / ९७/३२६६/२४०/०),
न च / १६ जीवे जीवसहारा ते बि बिहारा हु कम्मकदा |१| जीवतथा कर्मकृत उसके स्वभाव विभाव में जो स्वभाव होते है ।
ते है।
1
१०२४ कुत्रापि मान्यरागाशी बुद्धिपूर्वक सस्था विध्यस्य पाकात दया १०५४ - जहाँ हीं अन्यत्र भो अर्थात् किसी भी दशामे बुद्विपूर्वक रागाश पाया जाता है वह के दर्शन व परिजमोहनीयके उदयसे अथवा उनी एकके उसे ही होता है । १०६४ ।
दे० विभाव/१/२,३ ( जीवका विभाव वैभाविकी शक्ति के कारण से होता बे है और यह कि शक्ति भी अन्य सम्पूर्ण सामग्री के सद्भाव ही विभावरूप परिमन करती है।)
२ जीबी अन्य पर्यायें भी कर्मकृत है
स. सा /मू /२५७-२५८ जो मर जो ग दुहिदा जायदि कम्मोदयेण सो सव्यो । तम्हा दुमारिदो दे दुहाविदा चेदिण हुमिच्छा ॥ २५७॥ जाण मरदि ण य दुहिदा नो वि य कम्मादयेण चैव खलु । तम्हा मारिदो णो दुहानिदो चेदि ण हु मिच्छा | २५८ जो मरता है और जो होता है हमसे होता है, इसलिए मैंने मारा, मेने तु खोकिया' ऐसा तेरा अभिप्राय क्या वास्तव में मिथ्या नही है | २४ ११ और जो न मरता है और न दुखी होता है वह भीमस्से हो होता है. इसलिए मैने नहीं मारा, मेने दुबो नही किया ऐसा तेरा अभिप्राय क्या वास्तव में मिथ्या नही २५ सात १० भाज्योति स्वभावेन स्वभावमभिभूय किनमा प्रयोज्याति कयं तथा कर्मस्यभावेन स्वस्वभावमभिभ्रय क्रियमाणा मनुष्यादिपर्याया वर्मकार्यम् । जिस प्रकार ज्योतिके स्वभाव के द्वारा तेलके स्वभावका पराभव करके किया जानेवाला दीपज्योति कार्य है, उसी प्रकार कर्म स्वभावके द्वारा जीवके
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विभाव
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४. विभावका कथंचित् अहेतुकपना
स्वभावका पराभव करके की जानेवाली मनुष्यादि पर्याये कर्म के काय है। दे० कर्म/२/२ (जीवोके ज्ञानमें वृद्धि हानि कर्मके बिना नही हो
सकती।) दे० मोक्ष/५४ (जीव प्रदेशो का संकोच विस्तार भी कर्म सम्बन्धसे ही
होता है।) दे० कारण/III/५/३ - ( शेर, भेडिया आदिमें शूरता-क्रूरता आदि
कर्मकृत है।) दे० आनुपूर्वी-(विग्रहगतिमें जीवका आकार आनुपूर्वी कर्मके उदयसे
होता है । ) दे० मरण/१/८-(मारणान्तिक समुद्धातमें जीवके प्रदेशोका विस्तार
आयु कर्मका कार्य है।) दे० सुख ( अलौकिक )-(सुख तो जीवका स्वभाव है पर दुख जीवका स्वभाव नहीं है, क्योकि, वह असाता वेदनीय कर्मके उदयसे होता
३. पौद्गलिक विभाव सहेतुक है न. च. वृ/२० पुग्गलदब्वे जो पुण विभाओ कालपेरिओ होदि। सो णिद्धरुक्रवसहिदो बंधो खलु होई तस्सेव ।२०= कालसे प्रेरित होकर पुद्गलका जो विभाव होता है उसका हो स्निग्ध व रूक्ष सहित
बन्ध होता है। पं. वि /२३/७ यत्तस्मात्पृथगेव स द्वयकृतो लोके विकारो भवेत् ।
लोकमे जो भी विकार होता है वह दो पदार्थोंके निमित्तसे होता है। दे मोक्ष/६/४ (द्रव्धकर्म भी सहेतुक है, क्योकि, अन्यथा उनका विनाश बन नहीं सकता)। ४. विभावका कथंचित् अहेतुकपना
१. जीव रागादिरूपले स्वयं परिणमता है स. सा./मू./१२१-१२५, १३६ ण सय बद्धो कम्मे ण सयं परिणमदि
को हमादी हि । जइ एस तुझ जीवो अप्पपरिणामी तदो होदी ।१२१॥ अपरिणमतम्हि सय जीवे कोहादिएहि भावेहि। ससारस्स अभावो षसज्जदे सबसमओ वा । ।१२२५ पुग्गलकम्म कोहो जीवं परिणामएदि कोहत्त । तं सयमपरिणमत कह णु परिणामयदि कोहो ।१२३। अह सयमप्या परिणदि कोहभावेण एस दे बुद्धी। कोहो परिणामयदे जीब कोहतमिदि मिच्छा ।१२४। कोहुव जुत्तो कोहो माणुवजुत्तो य माणमेवादा। माउवजुत्तो माया लोहबजुत्तो हवदि लाहो ।१२३॥ तं' खलु जीवणिबद्धधं कम्मइयवग्गणागय जइया। तझ्या दु हो दि हेदू जोबो परिणामभावाणं ।१३६। -साख्यमतानुयायी शिष्यके प्रति कहते है कि हे भाई । यदि यह जीव कर्ममें स्वयं नही बँधा है और क्रोधादि भावसे स्वय नही परिणमता है, ऐसा तेरा मत है तो वह अपरिणामी सिद्ध होता है ।१२१। और इस प्रकार संसारके अभावका तथा साख्यमतका प्रसग प्राप्त होता है ।१२२। यदि क्रोध नामका पुद्गल कर्म जीवको क्रोधरूप परिणमाता है, ऐसा तू माने तो हम पूछते है, कि स्वयं न परिणमते हुएको वह क्रोधकर्म कैसे परिणमन करा सकता है । ।१२३। अथवा यदि आत्मा स्वयं क्रोधभावरूपसे परिणमता है, ऐसा माने तो 'क्रोध जीवको क्रोधरूष परिणमन कराता है' यह कथन मिथ्या सिद्ध होता है ।१२४। इसलिए यह सिद्वान्त है कि, क्रोध, मान, माया व लोभमे उपयुक्त आरमा स्वय क्रोध, मान, माया व लोभ है ।१२५. कार्माण वर्गणागत पुदगलद्रव्य जब वास्तबमे जीवमें बँधता है तत्र जीव (अपने अज्ञानमय) परिणामभावोग हेतु होता है ।१३६। स. सा /आ./कलश न करि स्वफलेन यत्किल बलात्कमव तो योजयेद, कुर्वाण फन लिप्सुरेव हि फल प्राप्नोति यत्वमण । ।१५२।
रागद्वेषोत्पादक तत्त्वदृष्टया, नान्यद्रव्यं वीक्ष्यते विचनापि। सर्वद्रव्योत्पत्तिरन्तश्चकास्ति, व्यक्तात्यन्त स्वस्वभावेन यस्मात ।२१।। रागजन्मनि निमित्तता पर-द्रव्यमेव कलयन्ति ये तु ते । उत्तरन्ति न हि मोहवाहिनी, शुद्धबोधविधुरान्धबुद्धय ।२२१४ - कर्म ही उसके कर्ताको अपने फलके साथ बलात नही जोडता। फलकी इच्छावाला ही कर्मको करता हुआ कर्मके फल को पाता है।१५२। तच दृष्टिसे देखा जाय तो, रागद्वेषको उत्पन्न करनेवाला अन्य द्रव्य किचित् मात्र भी दिखाई नही देता, क्यो कि, सर्व द्रव्योकी उत्पत्ति अपने स्वभावसे ही होती हुई अन्तरंगमें अत्यन्त प्रगट प्रकाशित होती है ।२१। जो रागकी उत्पत्ति में पर द्रव्यका ही निमित्तत्व मानते है, बे जिनकी बुद्धि शुद्ध. ज्ञानसे रहित अन्ध है, ऐसे मोहनदीको पार नही कर सकते ।२२१॥ स. सा //३७२ न च जीवस्य परद्रव्य रागादीनरंपादयतीति शडक्यं,
अन्यद्रव्येणान्यद्रव्यगुणोत्पादकस्यायोगाइ, सर्व द्रव्याणा स्वभावेन - वोत्पादात् ।३७२। - ऐसी आशका करने योग्य नहीं, कि परद्रव्य जीवको रागादि उत्पन्न करते है, क्यो कि, अन्य द्रव्य के द्वारा अन्य द्रव्यके गुणोको उत्पन्न करनेकी अयोग्यता है, ज्योकि सर्व द्रव्योका स्वभावसे हो उत्पाद होता है । (दे कर्ता/३/६,७)। पु. सि उ..१३ परिणाममानस्य चितश्चिदात्मक रवयमपि स्वकै भव । भवति हि निमित्तमात्र पौलिक कर्म तस्यापि ।१३।-निश्चय करके अपने चेतना स्वरूप रागादि परिणामोसे आप ही परिणामते हुए पूर्वोक्त आत्माके भी पुद्गल सम्बन्धी ज्ञानावरणादिक द्रश्य कर्म
कारणमात्र होते है। दे विभाव// (ऋजुसूत्रादि पर्यायार्थिक नयोकी अपेक्षा कणाम आदि
अहेतुक है, क्योकि, इन नयोकी अपेक्षा कारण के बिना ही कार्य की उत्पत्ति होती है)। दे, विभाव/२/२/३ ( रागादि जीवके अपने अपराध है. तथा क्वचित
जीवके स्वभाव है)। दे, नियति/२/३ ( कालादि लब्धिके मिलनेपर स्वय सम्यग्दर्शन आदि
की प्राप्ति होती है)। २. ज्ञानियों को कर्मों का उदय मी अकिंचित्कर है स. सा/आ /३२ यो हि नाम फलदानसमर्थतया प्रादुर्भय भावकत्वेन
भवन्तमपि दूरत एवं तदनुवत्तरात्मनो भाव्यस्य व्यात नेन हठान्मोह न्यक्कृत्य आत्मानं संचेतयते स खलु जितमोहो जिन ।-मोहकर्म फल देनेकी सामथ्र्यसे प्रगट उदयरूप होकर भावक्पनेसे प्रगट होता है, तथापि तदनुसार जिसकी प्रवृत्ति है, ऐसा जो अपना आत्माभाव्य, उसको भेदज्ञानके बल द्वारा दूरसे ही अलग करनेसे, इस प्रकार बलपूर्वक मोहका तिरस्कार करके, अपने खात्माको जो अनुभव करते
है, वे निश्चयसे जितमोह जिन है। प्रसा/ता 1/10/18 अत्राह शिष्य - औदयिका भावा बन्ध
कारण' इत्यागमवचनं तर्हि वृथा भवति । परिहारमाह-औदयिका भावा बन्धकारण भवन्ति, पर कितु मोहोदय सहिता । द्रव्यमोहोदयेऽपि सति यदि शुद्धात्मभावन बलेन भावमोहेन न परिणमाते तदा बन्धो न भवति। यदि पुन कर्मोदयमात्रेण बन्धो भवति तर्हि ससारिणा सर्वदैव कर्मादयस्य विद्यमानत्वात्सर्व देव वन्ध एव न मोक्ष इत्यभिप्राय । - [ पुण्यके फलरूप अहंतको बिहार आदि क्रियाएँ यद्यपि ओदयिकी है परन्तु फिर भी मोहादि भावोसे रहित होनेके कारण उन्हे क्षायिक माना गया है-प्र. सा/मू ४५ प्रश्न-इस प्रकार माननेसे औदयिक भाव बन्धके कारण है' यह आमवचन मिथ्या हो जाता है । उत्तर-इसका परिहार करते है। औदयिक भाव बन्धके कारण होते है किन्तु यदि मोहके उदयसे सात हो तो। द्रव्य मोहके उदय होनेपर भी यदि शुदात्म भावनाके बलसे भानमोहरूपसे नही परिणमता है, तब वन्ध नही होता है । यदि
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विभाव
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कर्मोदय मासे बन्द हुआ होता तो संसारियोको सदैव मन्ध ही हुआ होता मोक्ष नहीं, क्योकि, उनके कर्मका उदय सदैव विद्यमान रहता है। [यहाँ द्रव्य मोहसे तात्पर्य दर्शनमोहमें सम्यक्त्व प्रकृति तथा चारित्रमोहमें क्रोधादिका अन्तिम जघन्य अश है, ऐसा प्रतीत होता है ]
स. साता पृ./१३६/२१२/१३ उपमागतेषु व्यत्ययेषु यदि जीव स्वस्वभाव रागादिरूपेण भवत्येन परिणीति तथा बन्यो भरतोति मोदमात्रेण पोरोपसर्गेऽपि पाण्डवादिवद यदि पुरुदयमात्रेण बन्धो भवति तदा सर्वदेव संसार एव । कस्मादिति चेद ससारिणां सर्वदेव कर्मोदयस्य विद्यमानत्वात् । = उदयागत द्रव्य प्रत्ययों में (द्रव्य कर्मों में ) यदि जीव स्व स्वभावको छोड़कर रागादि रूप भावप्रत्यय ( भावकर्म ) रूपसे परिणमता है तो उसे बन्ध होता है, केवल उदयमात्रसे नहीं। जैसे कि घोर उपसर्ग आनेपर भी पाण्डव आदि । ( शेष अर्थ ऊपर के समान ), ( स सा / ता. वृ / १६४ १६५/ २३० /१८ ) ।
दे कारण/III/ ३ / ५-ज्ञानियोंके लिए कर्म मिट्टी के ढेले के
समान
दे बध/३/५,६ १ (मोहनीयके जघन्य अनुभागका उदय उपशम श्रेणी में यद्यपि ज्ञानावरणीय आदि कर्मोके बन्धका तो कारण है, परन्तु स्वप्रकृति बन्धका कारण नहीं ) ।
"
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५. विभाबके सहेतुक - अहेतुकपनेका समन्वय १. कर्म जीवका पराभव कैसे कर सकता है रावा/८/४/१४/५६२/० यथा भिन्नातीयेन सीरे तेजोजातीयस्य पोऽनुग्रह तथेामकर्मणोश्चेतनाचेतनख्या अनुयजातीय कर्म आत्मनोऽहमिति सिद्धम् जेसे पृथिवी जातीय बुधसे पृथिवीजातीय तेजोजातीय चक्षुका उपकार होता है, उसी तरह अचेतन कर्म से भी चेतन आत्माका अनुग्रह आदि हो सकता है। अत भिन्न जातीय द्रव्योमे परस्पर उपकार मानने में कोई विरोध नहीं है । ६/१.१ १.२ // कम पोग्गलेण जीवादी भूदेव जीवसवखणं पाण विणासिज्जदि । ण एस दोसो, जोवादी पृधभूदाणं घड पड-त्थ भधपारादीणं जीवलक्खगणाणविणायामसुरलंभा प्रश्न जो द्रव्य से पृथग्भूत पुद्गलद्रव्यके द्वारा जीवका लक्षणभूत ज्ञान कैसे विनष्ट किया जाता है " उत्तर- यह कोई दोष नहीं, क्योंकि, जीवद्रव्यसे पृथग्भूत घट, पट, स्तम्भ, और अन्धकार आदिक पदार्थ जीवके लक्षण स्वरूप ज्ञानके विनाशक पाये जाते है ।
२. रागादि भाव संयोगी होनेके कारण किसी एकके नही कहे जा सकते
ससा / ता, वृ / १११/१७९ / ९८ यथा स्त्रीपुरुषाभ्यां समुत्पन्न पुत्रो विनाशेन देवदाया' पुत्रोऽयं केचन मदन्ति देवदत्तस्य पुत्रोऽयमिति केचन बदन्ति दोषो नास्ति । तथा जीवपुद्गलसंयोगेनोत्पन्ना मिथ्यात्वगादिभावप्रत्यया अशुद्धनिश्चयेनाशुद्धोपादानरूपेण चेतना जीवसमा शुद्ध निश्चयेन शुद्धोपादानरूपेणाचेतना पौगलिका' । परमार्थ पुनरेकान्तेन न जोवरूपा न च रूप सुधारि इयो संयोगपरिणामरद । ये केचन वदन्त्येकान्तेन रागादयो जीव सबन्धिन. पुद्गलसबन्धिनो वा तदुभयमपि वचन मिथ्या ।
* सूक्ष्मशुद्ध निश्चयेन तेषामस्तित्वमेव नास्ति पूर्वमेव भणिततिष्ठति कथमुत्तर प्रयच्छाम इति । जिस प्रकार स्त्री व पुरुष दोनोसे उत्पन्न हुआ पुत्र विवक्षा वश देवदत्ता ( माता ) का भी कहा जाता है और देवदत्त (पिता) का भी कहा जाता है। दोनों हो प्रकारसे कहने कोई दोष नहीं है। उसी प्रकार जोव पुद्गलके सयोगसे
भा० ३-७१
५. विभावके सहेतुक अहेतुकापनेका समन्वय
उत्पन्न मिथ्यात्व रागादि प्रत्यय अशुद्धनिश्चयनय से अशुद्ध उपादानरूपसे चेतना है, जीवसे सम्बद्ध है, और शुद्ध निश्चयनयसे शुद्ध उपादानरूपसे अचेतन है. पौगलिक है। परमार्थ तो न वे एकान्तसे जीवन है और न पृगरूप जैसे कि चूने व हदीके संयोगले परिणामरूप लाल रंग जो कोई एकान्तसे रागादिकोको जीवसम्बन्धी मुद्गल सम्बन्धी कहते है उन दोनो के हो बचन मिथ्या है सूक्ष्म शुद्ध निश्चयन दो तो उनका अस्तिल ही नहीं है. ऐसा पहले कहा जा चुका है. तुम हमसे उत्तर केसे हो (द्र. स / टी / ४८ / २०६/१ ) 1
1
३. ज्ञानी व अज्ञानीकी अपेक्षाले दोनों बातें ठीक हैं। स.सा./ता/१८२/४६२/२९ हे भगवत् पूर्वमन्धाधिकारे मणि रामादीनाम ज्ञानी, परजनितरागादय अत्र तु स्वकीयबुद्धिदोषजनिता रागादय परेषा शब्दादिपञ्चेन्द्रियविषयाणा दूषणं नास्तीति पूर्वापरविरोध अरमा बन्धाधिकारव्याख्याने ज्ञांनी मुख्यता ज्ञानी तु रागादिभिनं परिणमति तेन कारणेन परद्रव्यजनिता भणिता । अत्र चाज्ञानिजी स्य मुख्यता स चाज्ञानी जीव रुपकीयवृद्धिदोषेण परद्रव्यनिमितमामात्य रागा दिभि परिणमति, तेन कारणेन परेषा शब्दादिपञ्चेन्द्रियविषयाणां दूषणं नास्तीति भणित । प्रश्न- हे भगवन् । पहले बन्धाधिकार में तो कहा था कि ज्ञानी रागादिका कर्ता नहीं है वे परजनित है। परन्तु यहाँ कह रहे हैं कि रागादि अपनी बुद्धिके दोषसे उत्पन्न होते है, इसमें शब्दादि पंचेन्द्रिय विषयोंका दोष नहीं है। इन दोनों बातो में पूर्वापर विरोध होत होता है उत्तराँ बन्धाधिकार के व्याख्यान में तो ज्ञानी जीवकी मुख्यता है । ज्ञानी जीव रागादिरूप परिणमित नहीं होता है इसलिए उन्हें परद्रव्यजनित कहा गया है । यहाँ अज्ञानी जीवको मुख्यता है। अज्ञानी जीव अपनी बुद्धिके दोष से परद्रव्यरूप निमित्तमात्रको आश्रय करके रागादिरूपसे परिणति होता है, इसलिए पर जो शब्दादि पचेन्द्रिय विषय उनका कोई दोष नही है, ऐसा कहा गया है।
४. दोनोंका नयार्थ व महार्थ
दे. नयJIV/३/६/९ (मेगनादि नयाँकी अपेक्षा कमाये तु साधन है, क्योंकि, इस नयने कारणकार्यभाव सम्भव है, परन्तु शब्दादि नयोंकी अपेक्षा कषाय किसी भी साधनसे उत्पन्न नहीं होती क्योंकि, इन दृष्टियोंगे कारण के बिना ही कार्यकी उत्पति होती है। और यहाँ पर्यायों से भिन्न द्रव्यका अभाव है । ( और भी दे० नय IV/2/9/1)
दे० विभाव / ५ / २ ( अशुद्ध निश्चयनयसे ये जीवके है. शुद्ध निश्चय नयसे पुद्गल के हैं और सूक्ष्म शुद्ध निश्चय नयसे इनका अस्तित्व ही नहीं है। )
पं.का.प. २६/९९९/६ पूर्वोक्तप्रकारेणात्मा कर्मणा वर्ता न भयतीति दूषणे दत्ते सति सांख्यमतानुसारिशिष्यो वदति अम्मा मते आत्मन कर्माकर्तृत्वं भूषणमेव न दूषण । अत्र परिहार । यथा शुद्ध निश्चयेन रागाचतुध्वमात्मन तथा शुद्ध निश्चयेनाप्य कर्तृत्वं भवति तदा द्रव्यकर्मबन्धाभावस्तदभावे ससाराभाव', संसाराभावे सर्वदेवमुक्तप्रसङ्ग' स च प्रत्यक्षविरोध इत्यभिप्राय | - पूर्वोक्त प्रकार से 'कर्मोंका कर्ता आत्मा नहीं है' इस प्रकार दूषण देनेपर साख्यमतानुसारी शिष्य कहता है कि हमारे मतमें आत्माको जो बताया गया है, वह भूषण ही है, दूषण नहीं। इसका परिहार करते है - जिस प्रकार शुद्ध निश्चयनयसे आत्माको रागादिका अकर्तापना है, यदि उसी प्रकार अशुद्ध निश्चयनयसे भी अकर्तापना होवे तो द्रव्यकर्मबन्धका अभाव हो जायेगा। उसका
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विभाव
अभाव होनेपर संसारका प्रभाव और संसार के अभाव में सर्वदा मुक्त होने का प्रसंग प्राप्त होगा। यह बात प्रत्यक्ष विरुद्ध है, ऐसा अभिप्राय है । ५. दोनों बातका कारण व प्रयोजन
स. सा/आ./गा. सर्वे तेऽवसानाइयो भाषा जीना इति यद्भगवद्भि सततं तदतार्थस्यापि व्यवहारस्यापि दर्शन व्यवहारो हि व्यवहारिणां म्लेच्छभाषेव म्लेच्छानां परमार्थप्रतिपादकत्वादपरमार्थेऽपि तीर्थ प्रवृत्तिनिमित्तं दर्शयितुं न्याय्य एव । तमन्तरेण तु शरीराज्जीवस्य परमार्थतो भेददर्शनासस्थानराणां भस्मन इन निःशङ्कमुपमर्दनेन हिसाभावादभवत्येव बन्धस्याभाव तथा मोक्षोपायपरिग्रहणाभावात् भवत्येव मोक्षस्याभाव ॥४६॥ कारणानु विधायिनि कार्याणीति कृत्वा यवपूर्वका यथा यथा एवेति न्यायेन पुइगल एव न तु जीव । गुणस्थानानां नित्यमचेतनश्व चागमाच्चैतन्यस्वभावव्याप्तस्यात्मनोऽतिरित्तत्वेन विवेचकै स्वयमुपलभ्यमा नरवाच्च प्रसाध्यम् ।६८। स्वलक्षणोपयोगगुणव्याप्यता सर्वद्रव् पोऽधिकवेन प्रतीयमानत्वादगुणेनेव सह तादात्म्यलक्षणसंबन्धाभावान्न निश्चयेन वर्णादिपुद्गल परिणामा सन्ति ॥५ सारावस्थायां कथं चिद्वर्णाद्यात्मकत्वस्याप्तस्य भवतो मोक्षास्थाय सर्वथा वर्णाद्यात्मकत्वव्याप्तस्याभावतश्च जीवस्य वर्णादिभि सह तादात्म्यलक्षण संबन्धो न कथचनापि स्यात् । ६१ । १. ये सब अध्यवसान आदि भाव जोब हैं, ऐसा जो भगवान् सर्वज्ञदेवने कहा है, वह यद्यपि व्यवहारनय बतार्थ है तथापि व्यवहारनयको भी बताया है, क्योंकि, जैसे म्लेच्छोको म्लेच्छभाषा वस्तुस्वरूप बतलाती है, उसी प्रकार व्यवहारनय व्यवहारी जीवोंको परमार्थ का कहनेवाला है, इसलिए अपरमार्थभूत होनेपर भी धर्म तीर्थको प्रवृत्ति करनेके लिए वह बतलाना न्याय संगत हो है । परन्तु यदि व्यवहार नय न बताया जाय तो परमार्थ से जीवको शरीरसे भिन्न बताया जानेपर भी, जैसे भस्मको मसल देनेसे हिंसाका अभाव है उसी प्रकार, त्रस स्थावर जीवोको निःशंकतया मसल देनेसे भी हिंसाका अभाव ठहरेगा और इस कारण बन्धका ही अभाव सिद्ध होगा। इस प्रकार मोक्षके उपायके ग्रहणका अभाव हो जायेगा, और इससे मोक्षका ही अभाव होगा | २६| ( दे० नय / V/८/४) । २. कारण जैसा ही कार्य होता है ऐसा समझकर जौ पूर्वक होनेवाले जो जौ, वे जी ही होते हैं इसी न्यायसे वे पुढगल ही है, जीब नहीं और गुणस्थानोंका अचेतनत्व सो आगमसे सिद्ध होता है तथा चैतन्य स्वभावसे व्याप्त जो आमा उससे भिन्नपनेसे वे गुणस्थान भेदज्ञानियोंके द्वारा स्वयं उपलभ्यमान है, इसलिए उनका सदा ही अचेतनत्व सिद्ध होता है । ६० १. स्वलक्षभूत उपयोग गुणके द्वारा व्याप्त होनेसे आत्मा सर्व द्रव्यों से अधिकपने प्रतीत होता है, इसलिए, जैसा अग्निक उष्णताके साथ तादात्म्य सम्बन्ध है वैसा वर्णादि ( गुणस्थान मार्गणास्थान आदि ) के साथ आरमाका सम्बन्ध नही है, इसलिए निश्चयसे वर्णादिक ( या गुणस्थानादिक) परिणाम आत्मा नहीं है 1101 क्योंकि संसार अवस्थानें विद रूपतासे व्याप्त होता है ( फिर भी ) मोक्ष अवस्थामें जो सर्वथा वर्णादिरूपताकी व्याप्तिसे रहित होता है। इस प्रकार जीवका इनके साथ किसी भी तरह तादाम्यलक्षण सम्बन्ध नही है ।
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६. वस्तुतः रागादि मावकी सत्ता नहीं है
स. सा. आ./१०१/ २१ रागद्वेषाविह हि भवति ज्ञानमहानभावात ती वस्तुप्रणिहितदृशा दृश्यमानी न किचित्। सम्यग्दृष्टि क्षपयतु स्रष्टा स्कूटी ज्ञानज्योति सति सहज येनपूर्णा
| २१ | इस जगत् में ज्ञान ही अज्ञानभावसे रागद्वेषरूप परिणमित होता है, वस्तुस्थापित दृष्टिसे देखनेपर के रागद्वेष कुछ भी नहीं है । सम्यग्दृष्टि पुरुष तत्वदृष्टिसे प्रगटतया उनका क्षय करो कि जिससे
विमलनाथ
पूर्ण और अचल जिसका प्रकाश है ऐसी सहज ज्ञानज्योति प्रकाशित हो । ( दे नय / // २ / ५ ); (दे विभाव / ५ / २ ) ।
नय - दे. नय / IV/
विभावानित्य पर्यायार्थिक विभाषा - ६/११-१.३/२/३ विवहा भाषा विहासा, गवा, विणा वामदि एट्ठो विविध प्रकारके भाषण अर्थात् कथन करनेको विभाषा कहते है । विभाषा, प्ररूपणा, निरूपण और व्याख्यान ये सब एकार्थ वाचक नाम है।
५६२
विभीषण प पु / सर्ग / श्लोक - "रावणका छोटा भाई, व रत्नश्रवाका पुत्र था । ७ / २२५ | अन्तमें दीक्षा धारण कर ली (११६ / ३६ ) । विभुत्व शक्ति स. सा / आ / परि/शक्ति नं ८ सर्वभावव्यापकेकभावरूपा विभुत्वशक्ति सर्व भावोमे व्यापक ऐसी एक भाररूप विभुत्वशक्ति । ( जैसे ज्ञानरूपी एक भाव सर्व भावोमें व्याप्त होता है)।
विभ्य - कायोत्सर्गका एक अतिचार-दे, व्युत्सर्ग/ १ । विभ्रम- १. निष्वाधानके अर्थ में
या वि/२/११/२०२/२१ विभ्रमेश्व मिथ्याकारग्रहणशक्तिविशेषैश्च । विभ्रम अर्थात् मिथ्याकाररूपसे ग्रहण करने की शक्तिविशेष । नि. सा./ता / वृ / ५१ विभ्रमो ह्यज्ञानत्वमेव । = ( वस्तुस्वरूपका ) अज्ञानपना या अजानपना ही विभ्रम है।
सं/ टी ४२/२००६ अनेकान्तात्मक वस्तुनो निरक्षण के कान्तादिरूपेश ग्रहण विभ्रम । तत्र दृष्टान्त शुक्तिकार्या रजतविज्ञानम् । अनेकान्तात्मक वस्तुको 'यह नित्य ही है, या अनित्य ही है' ऐसे एकान्तरूप जानना सो विभ्रम है। जैसे कि सीपमें चाँदीका और चाँदी में सीपका ज्ञान हो जाना ।
२ स्त्रीके हाव-भावके अर्थ में
B
प प्र./टी./१/१२९/१९१/८ पर उद्घृत- हावो मुखविकार स्याद्भावश्चिउपासो नेत्रजो ज्ञेयो विभ्रमो भ्रूयुगान्तयो।-स्त्रीरूपके अवलोकनकी अभिलाषासे उत्पन्न हुआ मुखविकार 'हाव' कहलाता है, चित्तका विकार 'भाव' कहलाता है, मुँहका अथवा दोनों भगोका टेढा करना 'विभ्रम' है और नेत्रोके कटाक्षको 'मिहास' कहते है।
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विभ्रांत - प्रथम नरकडा अश्म पटवे नरक /४/११ विमर्श -. न्याय दर्शन/भा/१/१/४०/३१/१२ किमुत्पत्तिधर्मकोऽनुत्पत्तिधर्मक इति विमर्श । वह उत्पत्ति धर्मवाला है या अनुत्पति धर्मवाला है' ऐसा विचार करना विमर्श है । विमल विजयार्धकोउखर श्रेणीका एक नगर देवर २. एक ग्रह दे ग्रह । ३ उत्तर श्रीरवर समुद्रका रक्षक देव - दे. व्यंतर ४ । ४. सौमनस नामक गजदन्त पर्वतका एक कूट - दे. लोक ५/४१५. रुचक पर्वतका एक कूट - दे. लोक५ / १३१ ६. सौधर्म स्वर्गका पहल दे, स्वर्ग /५/३००, भावी कासीम २२ तीर्थकर - सीर्य / ५८ वर्तमान ११वे तीर्थंकर थे। विमलदास - 'सप्तभगी तरंगिनी' के रचयिता एक दिगम्बर जैन गृहस्थ । निवास स्थान- तंज नगर । गुरुनाम अनन्तदेव स्वामी । समय- प्लवंग संवत्सर । अनुमानत ई श. १५ ( स भं. त / प्र / १ ) । विमलदेव- नय चक्र के रचयिता श्रीदेवसेन (वि. ६६०) के गुरु थे। समय- तदनुसार वि. १६५ (ई. १०६)। विमलनाथ - म पु /५१ / श्लोक नं - पूर्वभव नं २ में पश्चिम घातकी खण्ड पश्चिम मेरु देशके रम्यवती नगरी के
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विमलपुराण
राजा पद्ममेन थे । २३। पूर्वभव न १ मे | १० | वर्तमान भव में १३वे तीर्थकर हुए ।
सहबार स्वर्ग ने इन्द्र हुए - दे तीर्थकर / ५ ।
विमलपुराण - कृष्णदास (ई० १६१७) द्वारा रचित संस्कृत छन्द बद्ध एक ग्रन्थ है। इस में १० सर्ग है।
विमलप्रभ१ भूतकालीन चौथे तीर्थंकर । - दे तीर्थंकर / ५ । २. दक्षिण क्षीरवर समुद्रका रक्षक व्यन्तर । —दे व्यन्तर / ४ |
विमलवाहन - १ म पु / ११७ - ११६ सप्तम कुलकर थे, जिन्होंने
तबकी जनताको हाथी घोडे आदिकी सवारीका उपदेश दिया। दे शलाका पुरुष २१/४०/- पूर्वविदेकी सुमोमा नगरीके राजा थे । २-४ दीक्षा धारण कर |११| तीर्थंकर प्रकृतिका बन्ध किया | १२ | समाधिमरणपूर्वक देह स्थान अनुसार विमानमें उत्पन्न हुए | १३ | यह अजितनाथ भगवान्का पूर्वका दूसरा भव है । – दे अजितनाथ म पु / ४६ / श्लोक पूर्वविदेह में क्षेमपुरी नगर के राजा थे |२| दीक्षा धारणकर |3| तीर्थंकर प्रकृतिका बन्ध किया । सन्यास विधिमे शरीर छोड सुदर्शन नामक नवम ग्रैवेयक में उत्पन्न हुए | यह सम्भवनाथ भगवान्का पूर्वका दूसरा भव है । दे.
सम्भवनाथ ।
विमल सूरि- विजय सूरि के शिष्य और आ. राहु के प्रशिष्य यापनीय सघी । प्राकृत काव्य रचना में अग्रगण्य । कृतिये पउमचरियं, हरिवंश चरियं । समय-पउमचरियं का रचनाकाल ग्रन्थ की प्रशस्ति के अनुसार ई श. १ ( ई. ३४), परन्तु जैकोबी के अनुसार ई. श. ४ । (ती / २ / २५७) ।
विमलेश्वर- भूतकालीन १८वें तीर्थकर - दे. तीर्थंकर / ५ ।
विमा - Dimension ( ज. प / द्र १०८ )
विमान
स.सि./४/९६/२४८/३ विशेषेामस्था कतिनो मानयन्तीति विमानानि जो विशेषत अपने में रहनेवाले जीवोको पुण्यात्मा मानते है वे विमान है ( रा. बा./४/१८/१/२२२/२१)।
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४२.६.६४१२६ नलहिरामणिदा पासादा विमाणागि नाम यतभि और कूटसे युक्त प्रसाद विमान कहलाते है।
२. विमान भेद
स. ४/१६/२४८/४ तानि विमानानि विविधानि इन्द्रश्रेणीपुष्पप्रकीर्मभेदेन । इन्दक, श्रेणिबद्ध और पुष्पप्रकीर्ण कके भेद से विमान तीन प्रकारके है ( रा. वा./४/१२/२/२२२/३०) ।
२. स्वाभाविक व वैक्रियिक दोनों प्रकारके होते हैं।
१/९/४४२-२३३ यागविमाणा दुनिहा विचिरिया सहावे ४४२
राजा मानिमामा विवासियो होति अभिमासिणो य णिच्च सहाबजादा परमरमा 1४४3| ये विमान दो प्रकार हैंएक विक्रिया से उत्पन्न हुए और दूसरे स्वभावसे | ४४२ । विक्रिया से उत्पन्न हुए वे यान विमान विनश्वर और स्वभाव से उत्पन्न हुए वे परम रम्य यान विमान निश्य व अविनश्वर होते है । ४४३ |
* इन्द्रक आदि विमान वह वह नाम
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* देव वाहनों की बनावट - दे. स्वर्ग /३/४
५६३
विमान पंक्तिव्रतस्वर्गो में कुल ६३ पटल है। प्रत्येक पटल में एक-एक इन्द्रक और उसके चारों दिशाओं में अनेक श्रेणीबद्ध विमान है। प्रत्येक विमानमें जिन चैत्यालय हैं। उनके दर्शनको भावनाके लिए यह व्रत किया जाता है । प्रारम्भ में एक सेला करे । फिर पारणा करके ६३ पटलोंमेंसे प्रत्येक के लिए निम्न प्रकार उपवास करे । प्रत्येक इन्द्रक्का एक बेला, चारो दिशाओंके श्रेणीबद्धो के लिए पृथक् पृथक् एक-एक करके चार उपवास करे। बीच में एक-एक पारणा करे । इस प्रकार प्रत्येक पटल के १ वेला, चार उपवास और ५ पारणा होते है । ६३ पटलोंके ६३ बेले, २५२ उपवास और ३१५ पारणा होते है । अन्तमें पुन एक तेला करें। "ओ ही ऊर्ध्वलोकसंधि-असंख्यात जिनचैत्यालयेभ्यो नमः इस मत्रका त्रिकाल जाप्य करे । (ह. पु / ३४/०६-०७ ), ( वसु श्रा / २०६-२८१), (यत विधान संग्रह /
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पृ ११५ ) विमानवासी देव स्वर्ग विमिचिता- विजयार्धकी दक्षिण श्रेणीका एक
विद्याधर ।
श्रेणाबद्धका
१ उपवास
श्रेणीबद्धका
१ उपवास
विरत
इन्द्रकका
१ बेला श्रेणाद्धका १ उपवास
जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश
श्रेणीबद्धका
एक उपवास
एक नगर - दे.
विमुख
यावि/१/२०/२१७ / २४ विषयाद विभिन्न मुख रूप यस्य तव ज्ञानं त्रिमुखज्ञानम् । ज्ञेय विषयोंसे विभिन्न रूपवाले ज्ञानको विज्ञान कहते हैं।
विमुखी - विजयार्धकी दक्षिण श्रेणीका एक
विद्याधर । विमोह
निसा / ता पू./११ विमोह शाक्यादिप्रो वस्तुनि निश्रय शाक्य आदि (बुद्ध आदि ) कथित वस्तुमें निश्चय करना विमोह है। इ. स. टी ४२/१००/८ परस्परसापेक्ष नयद्वयेन द्रव्यगुणपर्यायादिपरिज्ञानाभावो विमोह. तत्र दृष्टान्त - गच्छत्तणर्प शवद्दिग्मोहरा । -गमन करते हुए मनुष्यको जैसे पैरोंमें तृण (दास) आदिका स्पर्धा होता है और उसको स्पष्ट मालूम नहीं होता कि क्या लगा अथवा जैसे जंगल मे दिशाका भूल जाना होता है, उसी प्रकार परस्पर सापेक्ष इम्पार्थिक पर्यायाधिक नयोके अनुसार जो द्रव्य, गुण और पर्यायो आदिका नही जानना है, उसको त्रिमोह कहते है ।
नगर । - दे.
विरजा - १ अपर विदेहके नलिन क्षेत्रकी प्रधान नगरी - दे. लोक / ५/२०२ नन्दीश्वर द्वीपकी दक्षिण दिशामें स्थित वापीदे, लोक/२/१९| विरत
-स सि /६/४५/४५८/१० स एव पुन. प्रत्याख्यानावरणक्षयोपरामकारणपरिणाम विशुद्धियोगाद विश्राम्यपदेशभाक् सन् । मह ( सम्यग्दृष्टि भावक ) ही प्रत्याख्यानावरण के क्षयोपशम निमित्तक "रिणामोकी विशुद्धिमश निरत संयत ) संज्ञाको प्राप्त होता है। रा. या १/४५/- ) ६३६/- निर्दिष्ट ततो विशुद्धिप्रकर्षात पुनरपि सर्वगृहस्थसगविप्रमुक्तो निर्द्धन्यानुभव मिरत इयभिप्यते । फिर ( वह श्रावक ) विशुद्धि प्रकर्षसे समस्त गृहस्थ सम्बन्धी परिग्रहो से मुक्त हो निर्ग्रन्थताका अनुभव कर महाव्रती बन जाता है । उसीको 'विरत' ऐसा कहा जाता है । ---विशेष दे. सयत ।
विरत - एक ग्रह - दे. ग्रह ।
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विरताविरत
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विरोध
विरतपरत-स सि 10/२१/३५६/४ एतै ते सपनो गृही विरताविरत इत्युच्यते। - इन (१२) बतोसे जो सम्पन्न है वह
गृही विरताविरत कहा जाता है।-(विशेष दे सयतासयत)बिरात-स शि/७/१/३४२/५ तेभ्यो विरमणं विरति । - उनसे
(हिंसादिकसे ) विरक्ति होना विरति है। (रा बा./७/१/२/
५३३/१३) विरलन-Distribution-, Spreading (ध ५/प्र. २८)
(विशेष दे, गणित/I1/१/8) विरलन देय-Spread and give. (ध,५/प्र. २८)-( विशेष
दे गणित/II/P/E) विरागरा वा/७/१२/४/५३६/१२ रागकारणाभावात विषयेभ्यो विरज्जन विराग । रागके कारणों का अर्थात चारित्रमोहके उदयका अभाव
हो ज नेसे पचेन्द्रियके विषयोसे विरक्त होनेका नाम विराग है। प्र. सा./ता वृ/२३६/प्रक्षेपक गा. १ की टीका/३३२/१२ पञ्चेन्द्रियसुखाभिलाषयागो विषयविराग । पाँचों इन्द्रियोके सुखकी अभिलाषा
का त्याग विषयविराग है। विराग विचय-दे.धर्मध्यान/१। विराट-पां. पु./सर्ग/श्लो-विराट नगरका राजा था। (१७/४१)।
वनवासी पॉवों पाण्डवोंने छद्मवेशमैं सीका आश्रय लिया था। (१७१४२ )। गोकुल हरण करनेको उद्यत कौरवोके साथ युद्ध करता हुआ उनके बन्धनमें पड़ गया। (१८/२३) । तब गुप्तवेशमें अर्जुनने इसे मुक्त कराया । (१८/४०)। प्रसन्न होकर अपनी कन्या उत्तरा
अर्जुनके पुत्र अभिमन्युसे परणा दो। (१८/१६३) । विराधननि. सा /ता, वृ/८४ विगतो राधो यस्य परिणामस्य स विरावन ।।
जो परिणाम राध { आराधना) रहित है, वह विराधन है। विराधित-प पु./सर्ग/श्लो-चन्दौरका पुत्र था। युद्धमे रामका
सर्वप्रथम सहायक था। (8)। अन्तम दीक्षित हो गया।
(१९६/38)। विरुद्ध धर्मत्वशक्ति-- स. सा /आ./परि./शक्ति नं. २८ तदतद्रूपमयत्वलक्षणा विरुद्धधर्मत्व
शक्तिः । तद्रूपमयता और अतद्रूपममता जिसका लक्षण है ऐसी विरुद्ध धर्मस्व शक्ति है। विरुद्ध राज्यातिक्रमस सि /७/२७/३६७/४ उचितन्यायादन्येन प्रकारेण दानग्रहणमतिक्रम। बिरु राज्य विरुद्वराज्य, विरुद्वराज्येऽतिक्रम विरुद्वराज्यातिक्रम । तत्र हल्पमुल्यल यानि महायाणि द्रव्याणीति प्रयत्न ।
- विरुद्ध जो राज्य वह विरुद्धराज्य है। राज्यमें किसी प्रकारका पिराध होने पर मर्यादाका न पालना विरुद्धराज्यातिकम है। यदि वहाँ अल्पमूल्यमे वस्तुएं मिल गयीं तो उन्हें महंगा बेचनेका प्रयत्न करना ( अर्थात् ब्लेकमार्केट करना) विरुद्धराज्यातिकम है। न्याय मार्गको छोडकर अन्य प्रकारसे वस्तु ली गयी है, इसलिए यह अतिक्रम या अतिचार है। (रा वा/७/२७/३/१५४/११) विरुद्ध हेत्वाभासप मु/६/२६ विपरीतनिश्चिताविनाभायो विरु द्रोऽपरिणामी शब्द कृतकत्वात् । मजिस हेतुको व्याप्ति या अविनाभाव सम्बन्ध साध्यसे विपरीतके साथ निश्चित हो उसे विरुद्धहेत्वाभास कहते है। जैसेशब्द परिणामी नही है. क्योकि, कृतक है । यहॉपर कृतकत्व हेतुकी
व्याप्ति अपरिणामित्व से विपरीत परिणामित्वके साथ है, इसलिए कृतकत्व हेतु विरुद्धहेत्वाभास है । (न्या दी /2/10/८६,६६२/१०१) न्या वि/ /२/१६०/२२६/१ विरुद्धो नाम साध्यास भव एवं भावी।
जो हेतु अपने साध्यके प्रति असम्भव भावी है वह विरुद्ध कहलाता है। न्या दी /३/६२१/७० विरुद्ध प्रत्यक्षादिबाधितम् । प्रत्यक्षादिसे
बाधितको विरुद्ध कहते हैं। न्या सू (म् (२/२/६ सिद्धान्तमभ्युपेत्य तद्विरोधी बिरुद्ध । -जिस सिद्धान्तको स्वीकार करके प्रवृत्त हो, उसी सिद्धान्तका जो विरोधी (दूषक ) हो वह, विरुद्ध हेत्वाभास है। (श्लो वा ४/भाषा/१/३३/ न्या./२७३/४२६/१६)।
२. भेद व उनके लक्षण न्या. वि./ /२/१९७/२२६/१ स च द्वेधा विपक्षव्यापी तदेक्देशवृत्तिश्चेति । तत्र तथापि निरन्वय विनाशसाधन , सत्त्वकृतक्त्वादि तेन परिणामस्यैव तद्विपक्षस्यैव साधनात, सर्वत्र च परिणामिनि भावात । तदेकदेशवृत्ति प्रयत्नानन्तरीयक्त्वश्रावणत्वादि तस्य तत्साधनस्यापि विद्य दादौ परिणामिन्यप्यभावात् । -विरुद्ध हेत्वाभास दो प्रकारका है-विपक्ष व्यापी और तदेकदेशवृत्ति । निरन्वय विनाशके साधन सत्त्व, कृतकत्व आदि विपक्षव्यापी है। क्योंकि उनसे निरन्वय विनाशके विपक्षी परिणामकी ही सिद्धि होती है, सभी परिणामी वस्तुओं में सत्त्व पाया जाता है। तदेकदेशवृत्ति इस प्रकार है जैसे कि उसी शब्दको नित्य सिद्ध करनेके लिए दिया गया प्रयत्नानन्तरीयकत्व व श्रावणत्व हेतु, क्योकि, विद्य तु आदि अनित्य पदार्थोंमे भी उसका अभाव है। विरुद्धोपलब्धि हेतु-दे० हेतु । विरोध-- रा वा/४/४२/१८/२६१/२० [ अनुपलम्भसाध्यो हि विरोध.-(स.भ. त./८३/२]-इह विरोध करप्यमान विधा व्यवतिष्ठते-बध्यधातकभावेन वा सहानवस्थात्मना वा प्रतिबन्ध्यप्रतिबन्धकरूपेण वा। तत्र बध्यघातकभाव अहिनकुलाग्न्युदका दिविषयः । स त्वेकस्मिन् काले विद्यमानयो सति संयोगे भवति, संयोगस्यानेकाश्रयत्वात् द्वित्ववत् । नासंयुक्तमुदकमग्निं विध्यापयति सर्वत्राग्न्यभावप्रसङ्गात् । तत. सति संयोगे बलीयसोत्तरकाल मितरद बाध्यते । .. सहानवस्थामलक्षणो विरोध' । स ह्ययुगपत्कालयोर्भवति यथा आम्रफले श्यामतापीततयो' पीततोरपद्यमाना पूर्वकालभाविनी श्यामता निरुणद्धि। प्रतिबन्ध्यप्रतिबन्धक...विरोध'. । यथा सति फलवृन्तसयोगे प्रतिबन्धके गौरवं पतनकम नारभते प्रतिबन्धात, तदभावे तु पतनकर्म दृश्यते "संयोगाभावे गुरुत्वात पतनम् [वैशे. सू 1/१/७] इति वचनात् । [ सति मणिरूपप्रतिबन्धके वह्निना दाहो न जायत इति मणिदायो. प्रतिबध्यप्रतिबन्धकभावो युक्त (स भ त /८/E)] । =अनुपलम्भ अर्थात अभावके साध्यको विरोध कहते है। विरोध तीन प्रकारका हैबध्यघातक भाव, सहानवस्थान, प्रतिबन्धक भाव । बध्यघातक भाव विरोध सर्प और नेवले या अग्नि और जलमें होता है। यह दो विद्यमान पदार्थोंमे संयोग होनेपर होता है। सयोगके बाद जो बलवात् होता है वह निर्बलको बाधित करता है। अग्निसे असयुक्त जल अग्निको नही बुझा सकता है। दूसरा सहानवस्थान विरोध एक वस्तुकी क्रमसे होने वाली दो पर्यायों में होता है। नयी पर्याय उत्पन्न होती है तो पूर्व पर्याय नष्ट हो जाती है, जैसे आमका हरा रूप नष्ट होता है
और पीत रूप उत्पन्न होता है। प्रतिबन्ध्य प्रतिबन्धक भाव विरोध ऐसे है जैसे आमका फल जबतक डालमे लगा हुआ है तबतक
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विलसित
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विविक्त शय्यासन
फल और डठन का संयोग रूप प्रतिबन्धक्के रहनेसे गुरुत्व मौजूद रा. वा./७/२८/१/५५५/२२ सद्यस्य चारित्रमोहस्य चोदयात्र विवहन रहनेपर भी आमको नीचे नही गिराता। जब सयोग टूट जाता है कन्यावरण विवाह इत्याख्यायते। - साता वेदनीय और चारित्रतम गुरुत्व फलको नीचे गिरा देता है। सयोगके अभाव में गुरुत्व मोहके उदयसे कन्याके वरण करनेको विवाह कहते है। पतनका कारण है, यह सिद्धान्त है। अथवा जैसे दाहके प्रतिबन्धक * विवाह सम्बन्धी विधि विधान-२० संस्कार/२। चन्द्रकान्त मणिके विद्यमान रहते अग्निसे दाह क्रिया नहीं उत्पन्न होतो इसलिए मणि तथा दाह के प्रतिबध्य प्रतिबन्धक भाव युक्त है। २. विवाह सन्तानोत्पत्तिके लिए किया जाता है, ( स भ त./८७/४)।
विलासके लिए नही ध १/१,१.१३/१७४/१ अस्तु गुगाना परस्परपरिहारलक्षणो विरोध इष्टत्वात, अन्यथा तेषा स्वरूपहानिप्रसङ्गात् । -गुणोमें परस्पर म. पु./३८/१३४ संतानार्थमृतावेव कामसेवा मिथो भजेत् । = केवल परिहारलक्षण विरोध इष्ट ही है, क्योकि, यदि गुणोका एक दूसरेका सन्तान उत्पन्न करनेकी इच्छासे ऋतुकाल में ही परस्पर कामपरिहार करके अस्तित्व नहीं माना जावे तो उनके स्वरूपकी हानिका सेवन करे। प्रसंग आता है। श्लो. वा./२/भाषाकार/१/८/३/५६१/१७ ज्ञानको मान लेनेपर सब
३. मामा फूफी आदिकी सन्तानमें परस्पर विवाहकी पदाथोंका शून्यपना नही बन पाता है और सवका शून्यपना मान प्रसिद्धि लेनेपर स्वसवेदनकी सत्ता नहीं ठहरती है। यह तुल्यबल वाला
ह पु./३३/२६ स्वसार प्रददौ तस्मै देवकी गुरुदक्षिणाम् । =कसने गुरुविरोध है।
दक्षिणास्वरूप बसुदेवको अपनी 'देवकी' नामकी बहन प्रदान कर
दी। [ यह देवकी वसुदेवके चचा देवसेनकी पुत्री थी-]। * अन्य सम्बन्धित विषय
म. पु/७/१०६ पितृष्वस्त्रीय एवाय तव भर्ता भविष्यति । = हे पुत्री। १. स्व वचन बाधित विरोध ।
-दे० बाधित।
वह ललिताग तेरो बुआके ही पुत्र उत्पन्न हुआ है और वही तेरा
भर्ता होगा। २. वस्तुके विरोधी धर्मों में अविरोध । -दे० अनेकान्ता ।
म.पु/१०/१४३ चक्रिणोऽभयघोषस्य स्वसयोऽय यतो युवा। ततश्चक्रि३. आगममें पूर्वापर विरोधमें अविरोध। -दे० आगम//६।
सुतानेन परिणिन्ये मनोरमा ११४३। -तरुण अवस्थाको धारण
करनेवाला वह सुविधि अभयघोष चक्रवर्तीका भानजा था, इसविलासत-अमरकुमार जातिका एक भवनवासी देव । -दे०
लिए उसने उन्हे चक्रवर्तीको पुत्री मनोरमाके साथ विवाह किया असुर ।
था ।१४३। विलास-नेत्र कटाक्ष ।-दे० विभ्रम/२ ।
म. पु./७२/२२७-२३० का भावार्थ-(सोमदेवके-सोमदत्त सोमिल विलेपन-चन्दन व कंकुम आदि द्रव्य । -दे०निक्षेप/५/8।
और सोमभूति ये तीन पुत्र थे। उन तीनों के मामा अग्निभूतिके
धनश्री, मित्रश्री, और नागश्री नामकी तीन कन्याएँ थी, जो उसने विल्लाल-मलवार कार्टी रिज्युमें सर थामस सी राइसके अनु- उपरोक्त तीनों पुत्रोके साथ-साथ परणा दी।) सार मैसुरके जैन राजाओं में एक विल्लाल वशके राजा भी थे, जो पहले द्वारसमुद्रतक राज्य करते थे, और पीछे श्रगापटामके
* चक्रवर्ती द्वारा म्लेच्छ कन्याओंका ग्रहण १२ मील उत्तर तोनूरके शासक हुए। इनका आधिपत्य पूर्ण
-दे० प्रवज्या /१/३ । कर्णाटकमै था। इस वशके संस्थापक चामुण्डराय (ई. ६६३
४. गन्धर्व आदि विवाहोंका निषेध ७१३) थे।
दे ब्रह्मचर्य/२/३/२ परस्त्री त्याग वतकी शुद्धिकी इच्छासे गन्धर्व विवाह विवक्षा
आदि नहीं करने चाहिए और न ही किन्ही कन्याओकी निन्दा स भ. त /२/३ प्राश्निकप्रश्नज्ञानेन प्रतिपादकस्य विवक्षा जायते.
करनी चाहिए। विवक्षया च वाक्यप्रयोग । प्रश्नकतकि प्रश्न ज्ञानसे ही प्रतिपादन करनेवालेको विवक्षा होती है, और विवक्षासे वाक्य प्रयोग
* धर्मपत्नीके अतिरिक्त अन्य स्त्रियोंका निषेध होता है।
-दे, स्त्री/१२॥ स्त्र स्तो/२५/६४ बक्त रित्त का विवक्षा । -बक्ताको इच्छाको विवक्षा
विवाह क्रिया-दे सस्कार/२। कहते है। [अर्थात नयको विवक्षा कहते है। -दे० नय/7/१/१/२] ।
विवाह पटल-आ. ब्रह्मदेव (ई. १२१२-१३२३ ) द्वारा रचित एक
ग्रन्थ। * विवक्षाका विषय-दे० स्याद्वाद/२,३॥
विविक्त शय्यासनविवर-लवण समुद्रकी तलीमे स्थित बडे-बडे रवड, जिन्हे पाताल
स सि /६/१६/४३८/१० शून्यागारादिषु विविक्तेषु जन्तुपीडाविरहितेषु भी कहते हैं। उत्तम, मध्य व जघन्यके भेदसे ये तीन प्रकारके होते
संयतस्थ शय्यासनमवाधान्ययब्रह्मचर्य स्वाध्यायध्यानादिप्रसिद्धयर्थ हैं-(विशेष दे० लोक/४/१)।
कर्त्तव्यमिति पञ्चम तप । एकान्त जन्तुओकी पीडासे रहित विवतं-न्या. वि.//१/१०/१७८/११ परिणामो विवत्त । - परि
शून्य घर आदिमे निर्वाध ब्रह्मचर्य, स्वाध्याय और ध्यान णाम या परिणमनको विवर्त कहते है। -(विशेष दे० परिणाम )।
आदिकी प्रसिद्धि के लिए संयतको शय्यासन लगाना चाहिए।विवाद-दे० वाद।
(विशेष दे बसतिका/६) (रा. वा/8/१६/१२/६१६/१२)।
का. अ./मू/४४७-४४६ जो रायदोसहेद्र आसण सिज्जादिय परिच्चयइ। विवाह
अप्पा णिबिसय सया तस्स तबो पचमो परमो ।४४७। पूजादिसु जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश
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विविर
विवेक
हिरवेगवो ससारशरीर-भोग-णिघिण्णो। अश्भ तरतबकुमलो उबसमसीलो महासंतो ।४४८। जो णिव से दि मसाणे वणगहणे णिज्जणे महाभीमे । अण्णत्थ वि एयंते नस्स वि एद तब होदि ।४४६। =जो मुनि राग और द्वेषको उत्पन्न करनेवाले आसन शय्या वगैरहवा परित्याग करता है, अपने आत्मस्वरूपमें रमता है, और इन्द्रियोके विषयोंसे विरक्त रहता है, उसके विविक्त शय्यासन नामका पाँचवाँ उत्कृष्ट तप होता है ।४४७। अपनी पूजा महिमाको नही चाहनेवाला, पसार शरीर और भोगोसे उदासीन, प्रायश्चिन आदि अभ्यन्तर तपमें कुशल, शान्त परिणामी, क्षमाशील, महापराक्रमी, जो मुनि श्मशानभूमिमें, गहन वनमें, निर्जन महाभयानक स्थानमें, अथवा किसी अन्य एकान्त स्थानमें निवास करता है, उसके विविक्त शय्यासन तप होता है। -दे वसतिका /६ ।
२. विविक्त शय्यासनका प्रयोजन भ. आ/मू./२३२-२३३ कलहो बोलो झझा वामोहोममत्ति च । ज्झाणज्झयण विधादो पत्थि विवित्ताए वसधीए ।२३२। इय सल्लोणमुवगदो सुहप्पवत्तेहिं तित्थजोएहिं । पचसमिदो तिगुत्तो आदठ्ठपरायणो होदि ।२३३। कलह, व्यग्र करनेवाले शब्द, सक्लेश, मनकी व्यग्रता असयत जनों की सगति, मेरे तेरेका भाव, ध्यान अध्ययनका विधात ये सब बाते विविक्त वसतिकामें नहीं होती ।२३२। सुख पूर्वक आत्मस्वरूपमें लीन होना, मन वचन कायकी अशुभ प्रवृत्तियोको रोकना, पाँच समिति, तीन गुप्ति. इन सब बातोको प्राप्त करता हुआ एकान्तवासी साधु आत्म प्रयोजनमें तत्पर रहता है ।२३३॥ घ १३/५,४,२६/५८/१० किमहमेसो कोरदे । असभजणदसणेण तस्सहवासेण जणिद-तिकाल विसयरागदोसपरिहरणछ । प्रश्न-यह विविक्त शय्यासन तप किस लिए किया जाता है। उत्तर-असभ्य जनोंके देखनेसे, और उनके सहवाससे उत्पन्न हुए त्रिकाल विषयक दोषोंको दूर करनेके लिए किया जाता है। भ आ /वि /६/३२/१६ चित्तव्याकुलतापराजयो विविक्तशयनासनं । ____-चित्तकी व्यग्रताको दूर करना विविक्त शयनासन है । दे. विविक्त शय्यासन/१-निधि ब्रह्मचर्य, स्वाध्याय और ध्यान आदिकी प्रसिद्धिके लिए किया जाता है। * साधु योग्य विविक्त वसतिका का स्वरूप
-दे, वसतिका। * विविक्त शब्द का लक्षण-दे. वसतिका । विविर-दे. विवर। विवृत योनि-दे, योनि । विवेकस. सि.//२२/४४०/७ ससक्तानपानोपकरणादिविभजन विवेक' । संसक्त हुए अर्थात् परस्परमें मिले-जुले अन्न पान आदिका अथवा उपकरणादिका विभाग करना विवेक प्रायश्चित्त है । (राबा/8/२२/ ५१६२१/२६ ) (त. सा./७/२५ ) ( अन. ध /७/४६)। ध. १३/५,४.२६/१०/११ गण-गच्छ-दब-खेत्तादोहितो ओसारण विवेगो
णाम पायच्छित्त । = गण, गच्छ, द्रव्य और क्षेत्र आदिसे अलग करना विवेक नामका प्रायश्चित्त है । भ आ./वि./६/३२/२१ येन यत्र वा अशुभोपयोगोऽभूत्तन्निराक्रिया, ततो
परासनं विवेक । भ. आ./वि /१०/४६/११ एवमतिचारनिमित्तद्रव्यक्षेत्रादिकान्मनसा अपगतिस्तत्र अनाहतिविवेक । -जिस जिस पदार्थ के अबलम्बनसे अशुभ परिणाम होते है, उनको त्यागना अथवा उनसे स्वय दूर होना यह विवेक तप है। अतिचारको कारणीभूत ऐसे द्रव्य क्षेत्र और कालादिकसे मनसे पृथक् रहना अर्थात् दोषोत्पादक द्रव्यादिकोका मनसे अनादर करना, यह विवेक है।
चा सा /१४२/१ समन्तेषु द्रव्यक्षेत्रानपानोपकरणादिषु दोषान्निवर्तयितुमलभमानस्य तद्रव्यादि विभजन विवेक । अथवा शक्तयनगृहनेन प्रयत्नेन परिहरत कुतश्चित्कारणत् प्रासुक्ग्रहणग्राहणयो प्रासुकस्यापि प्रत्याख्यातस्य विस्मरणात्प्रतिग्रहे च स्मृत्वा पुनस्तदुत्सर्जन विवेक ।
- किसी मुनिका हृदय क्सिी द्रव्य, क्षेत्र, अन्न, पान अथवा उपकरणमें आसक्त हो और किसी दोषको दूर करनेके लिए गुरु उन मुनिको वह पदार्थ प्राप्त न होने दे, उस पदार्थको उन मुनिसे अलग कर ले तो, वह विवेक नामका प्रायश्चित्त कहलाता है । २ अथवा अपनी शक्तिको न छिपाकर प्रयत्नपूर्वक जीवों की बाधा दूर करते हुए भी क्सिी कारणसे अप्रासुक पदार्थको ग्रहण करीले अथवा जिसका त्याग कर चुके है, ऐसे प्रासुक पदार्थों को भी भूलकर ग्रहण कर ले और फिर स्मरण हो आनेपर उन सबका त्याग कर दे तो वह भी विवेक प्रायश्चित्त कहलाता है । (अन. ध/७/५०)
२. विवेकके भेद व लक्षण भ आ /मू /१६८-१६९/३८१ इंदियकसायउवधीण भत्तपाणस्स चावि देहस्स । एस विवेगो भणिदो पंचविधो दबभावगदो।१६८। अह्वा सरीरसेज्जा सथारुवहीण भत्तपाणस्स। वेज्जावच्चकराण य होइ विवेगो तहा चेव ।१६६। - इन्द्रियविवेक, कषायविवेक भक्तपान विवेक, उपधिविवेक, देहविवेक ऐसे विवेकके पॉच प्रकार पूर्वागममें कहे गये है ।१६८। अथवा शरीरविवेक, वसतिसंस्तरविवेक, उपकरण विवेक, भक्तपान विवेक और वैयावृत्त्यक्रम विवेक ऐसे पॉच भेद वहे गये है। इन पाँच भेदोमे प्रत्येकके द्रव्य और भाव ऐसे दो दो भेद है ।१६। (सा. घ./८/४४) भ आ./वि. १६८-१६६/३८२/२ रूपादिविषये चक्षुरादीनामादरेण कोपेन वा अप्रवर्तनम् । इदं पश्यामि शृणोमीति वा ।.. इति वचनानुच्चारणं द्रव्यत इन्द्रियविवेक । भावत इन्द्रियविवेको नाम जातेऽपि.. विज्ञानस्य रागकोपाभ्या विवेचनं, रागकोपसहचारिरूपादि विषयमानसज्ञानापरिणतिर्वा । द्रव्यत कषाय विवेको नाम कायेन वाचा चेति द्विविध । भूलतासंकोचन.. इत्यादि कायव्यापारावरणं । हन्मि • इत्यादि वचनाप्रयोगश्च । परपरिभवादिनिमित्तचित्तक्लङ्काभावो भावत क्रोधविवेक । तथा गात्राणां स्तन्धाकरणं मत्त. कोवा श्रुतपारग - इति वचनाप्रयोगश्च मनसाहंकारवर्जनं भावतो मानकषायविवेक' । अन्य ब्रवत इवान्यस्य यद्वचनं तस्य त्यागो मायोपदेशस्य वा वाचा मायाविवेक । अन्यत्कुर्वत इवान्यस्य कायेनाकरणं कायतो मायाविवेक । यत्रास्य लोभस्तदुद्दिश्य करप्रसारणं एतस्य कायापारस्याकरणं कायेन लोभविवेक । •एतन्मदीयं वस्तुग्रामादिकं वा वचनानुच्चारण वाचा लोभविवेक । ममेदभावरूपमोहजपरिणामापरिणतिर्भावतो लोभविवेकः ।१६८। स्वशरीरेण स्वशरीरोपद्वापरिहरणं कायविवेक शरीरपीडा मा कृया इत्याद्यवचनं । मा पालयेति वा इति वचनं वाचाविवेक । वसतिसस्तरयोविवेको नाम कायेन बसतावनासन प्रागध्युषिताया। सस्तरे वा प्राक्तने अशयनं अनासन । बाचा त्यजामि वसतिसंस्तरमिति वचन। कायेनोपकरणानामनादान । परित्यक्तानीमानि ज्ञानोपकरणादीनि इति वचन वाचा उपधिविवेक । भक्तपानाशनं वा कायेन भक्तपान विवेक । एक भूत भक्तंपान वा न गृह्णामि इति बचनं वाचा भक्तान विवेकः । बैयावृत्त्य करा स्व शिष्यादयो ये तेषा कायेन विवेक ते सहासवास । मा कृथा वैयावृत्त्य इति वचनं ।। सर्वत्र शरीरादौ अनुरागस्य ममेद भावस्य वा मनसा अकरणं भावविवेकः ।१६६ = रूपादि विषयोमे नेत्रादिक इन्द्रियोकी आदरसे अथवा कोपमे प्रवृत्ति न होना। अर्थात यह रूप मै देवता हूँ, शब्द मै सुन रहा हूँ ऐसे वचनोका उच्चारण न करना द्रव्यत. इन्द्रिय विवेक है। रूपादिक विषयोका ज्ञान होकर भी र गद्वेषसे भिन्न रहना अर्थात रागद्वेषयुक्त ऐसी रूपादिक विषयोमे मानसिक ज्ञानकी परिणति न
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विवेचन
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विशुद्ध
होना भावत' इन्द्रियविवेक है । द्रव्यत कषाय विवेकके शरीरसे और वचनसे दो भेद है। भौहे सकुचित करना इत्यादि शरीरकी प्रवृत्ति न होमा कायक्रोध विवेक है। मै मारूंगा इत्यादि वचनका प्रयोग न करना वचन क्रोध विवेक है। दूसरोका पराभव करना, वगैरहके द्वेषपूर्वक विचार मनमें न लाना यह भावक्रोधविवेक है। इसी प्रकार द्रव्य, मान, माया व लोभ कषाय विवेक भी शरीर और वचनके व भावके भेदसे तीन तीन प्रकारके है। तहाँ शरीरके अवयवोको न अकडाना, मेरेसे अधिक शास्त्र प्रवीण कौन है ऐसे वचनोका प्रयोग न करना ये काय व वचनगत मानविवेक है। मनके द्वारा अभिमानको छोडना भाव मानकषाय विवेक है। मानो अन्यके विषयमें बोल रहा है ऐसा दिखाना, ऐसे बचनका त्याग करना अथवा कपटका उपदेश न करना वाचा मायाविवेक है। शरीरसे एक कार्य करता हुआ भी मै अन्य ही कर रहा हूँ ऐसा दिखानेका त्याग करना काय माया विवेक है। जिस पदार्थ में लोभ है उसकी तरफ अपना हाथ पसारना इत्यादिक शरीर क्रिया न करना काय लोभ विवेक है। इस वस्तु ग्राम आदिका मै स्वामी हूँ ऐसे वचन उच्चारण न करना वाचा लोभ विवेक है । ममेदं भावरूप मोहज परिणतिको न होने देना भाव लोभ विवेक है ।१६८। अपने शरीरसे अपने शरीरके उपद्रवको दूर न करना काय शरीर विवेक है। शरीरको तुम पीडा मत करो अथवा मेरा रक्षण करो इस प्रकारके वचनोका न कहना वाचा शरीर विवेक है। जिस वसतिकामें पूर्व कालमें निवास किया था उसमें निवास न करना और इसो प्रकार पहिले वाले सस्तरमें न सोना बैठना काय वसतिसस्तर विवेक है। मै इस बसति व सस्तरका त्याग करता हूँ। ऐसे वचनका बोलना बाचा वसतिसंस्तर विवेक है। शरीरके द्वारा उपकरणोको ग्रहण न करना काय उपकरण विवेक है । मैं ने इन ज्ञानोपकरणादिका त्याग किया है ऐसा वचन बोलना वाचा उपकरण विवेक है। आहार पानके पदार्थ भक्षण न करना काय भक्तपान विवेक है। इस तरहका भोजन पान मै ग्रहण नहीं करू गा ऐसा वचन बोलना वचाभक्तपान विवेक है। वैयावृत्त्य करनेवाले अपने शिष्यादिकोका सहवास न करना काय वयावृत्त्य विवेक है। तुम मेरी वैयावृत्त्य मत करो ऐसे वचन बोलना वाचा वैयावृत्य विवेक है। सर्वत्र शरीरादिक पदार्थोंपरसे प्रेमका त्याग करना अथवा ये मेरे है ऐसा भाव छोड़ देना भावविवेक है।
१. विवेक तपके अतिचार भ आ./वि./४८७/७०७/२२ भावतोऽविवेको विवेकातिचार' । परिणामोके द्वारा विवेकका न होना विवेकका अतिचार है। * विवेक प्रायश्चित्त किस अपराधमें दिया जाता है
-दे, प्रायश्चित्त/४। विवेचन-१. वस्तु विवेचन विधि-दे, न्याय। २. आगम व
अध्यात्म पद्धति-दे. पद्धति । विशदसि. वि./म्./९/६/३८ पश्यन् स्वलक्षणान्येकं स्थूलमक्षणिक स्फुटम् यव्यवस्यति वैशद्य' तद्विद्धि सदृशस्मृते ।।।- परस्परमें विलक्षण निर श क्षणरूप स्वलक्षणोको देखनेवाला स्थूल और अक्षणिक एक वस्तुको स्पष्ट रूपसे निश्चित करता है। अत वेशद्य व्यवसायात्मक
स विकल्पकप्रत्यक्षसे सम्बद्ध है। प. मु/२/१ प्रतीत्यन्तराव्यवधानेन विशेषवत्तया वा प्रतिभासन वैशद्य ।
-जो प्रतिभास बिना किसी दूसरे ज्ञानकी सहायताके स्वतन्त्र हो, तथा हरा पीला आदि विशेष वर्ण और सीधा टेढा आदि विशेष
आकार लिये हो, उसे वैशद्य कहते है। न्या, दी./२/२/२४ किमिदं विशदप्रतिभासत्वं नाम । उच्यते; ज्ञाना-
वरणस्य क्षयाद्विशिष्टक्षयोपशमाद्वा शब्दानुमानाद्यसभवि यन्नैर्मल्यमनुभवसिद्धम् दृश्यते खव्यग्निरस्तीत्याप्तवचनामादि लिङ्काच्चोत्पन्नाज्ज्ञानादयमग्निरित्युत्पन्नस्यन्द्रियस्य ज्ञानस्य विशेषः । स एव नैर्मल्य, वैशद्यम्, स्पष्टत्वमित्यादिभि शब्दैरभिधीयते । - प्रश्नविशद प्रतिभास क्सिको कहते है 1 उत्तर-ज्ञानावरण कर्मके सर्वथा क्षयसे अथवा विशेष क्षयोपशमसे उत्पन्न होनेवाली और शब्द तथा अनुमानादि ( परोक्ष ) प्रमाणोसे नही हो सकनेवाली जो अनुभवसिद्ध निर्मलता है वही विशद-प्रतिभास है। किसी प्रामाणिक पुरुषके अग्नि है' इस प्रकारके बचनसे और 'यह प्रदेश अग्निवाला है, क्योकि, धुआँ है। इस प्रकारके धूमादि लिगसे उत्पन्न हुए ज्ञानकी अपेक्षा 'यह अग्नि है। इस प्रकारके इन्द्रियज्ञानमें विशेषता देखी जाती है। वही विशेषता निर्मलता, विशदता, और स्पष्टता इत्यादि शब्दों द्वारा कही
जाती है। विशल्या-प.प्र/६४/श्लो नं.राजा द्रोणमेधकी पुत्री थी।६। पूर्व
भवके कठिन तपके प्रभावसे उसके स्नान जलमें सर्वरोग शान्त करनेकी शक्ति थी। रावणको शक्तिके प्रहारसे मूच्छित लक्ष्मणको इसौने जीवन दिया था।३७-३८। इसका विवाह भी लक्ष्मणसे हुआ था। विशल्याकारिणी-एक विद्या-दे विद्या। विशाखनंदि-म पू./१७/श्लो नं -राजगृहीके राजा विश्वभूतिके छोटे भाई विशाखभूतिका पुत्र था ७ि३। विश्वभूतिके पुत्र विश्वनन्दि का वन छीन लेनेपर युद्ध हुआ, जिसमें यह भाग गया ।७५-७७॥ देशाटन करता हुआ मथुरामें रहने लगा। वेश्याके घर बैठे विश्वनन्दीकी गाय द्वारा गिरा दिया जानेपर हँसी उडायो ।०-८१ चिर
काल पर्यंत अनेक योनियो मे भ्रमण किया।८७। विशाखभूति-म Y /१७/श्लो.-राजगृह नगरके राजा विश्वभूति
का छोटा भाई था ।७३। पिताके दीक्षा लेनेके अनन्तर इसने भी अपने ताऊके पुत्र विश्वनन्दीके साथ दीक्षा ले ली।७८। महा शुक्र स्वर्गमे देव उत्पन्न हुआ।८२॥ विशाखा-एक नक्षत्र-दे नक्षत्र । विशाखाचार्य-भूतावतारके अनुसार आप भद्रबाहु प्रथमके पश्चात् प्रथम ११ अग व १० पूर्वधारी थे। [ द्वादश वर्षीय दुर्भिक्षके अवसरपर आप भद्रबाहु स्वामीके साथ दक्षिणकी ओर चले गये थे। भद्रबाहु स्वामीकी तो वहाँ ही समाधि हो गयी पर आप दुर्भिक्ष समाप्त होनेपर पुन उज्जैन लौट आये (भद्रबाहु चरित ३)] समय-वी,
नि, १६२-१७२ ( ई. पू. ३६५-३५५ )।-दे० इतिहास/४/४। विशाला-भरत क्षेत्र आर्य खण्डकी एक नदो-दे० मनुष्य/४। विशालाक्ष-कुण्डल पर्वतके स्फटिकप्रभ कूटका स्वामी नागेन्द्रदेव
-दे० लोक/७१ विशिष्ट-१ ध. १०/४,२,४,३/२३/६ सि विसिट्ठा, कयाई
वयादो अहियाय दसणादो।-(ज्ञानावरणीय द्रव्य ) स्यात् विशिष्ट है, क्योकि कदाचित् व्ययकी अपेक्षा अधिक आय देखी जाती है। * नोओम नोविशिष्ट-दे ओम । २. सौमनस पर्वतका एक कूट व उसका रक्षक देव-दे० लोक/५/४ । विशिष्टाद्वैत-दे. वेदान्त/४ विशुद्धस सि /२/४8/१६८/४ विशुद्धकार्यवाद्विशुद्धव्यपदेश । विशुद्धस्य पुण्यकर्मण अशबलस्य निरवद्यस्य कार्यवाद्विशुमित्युच्यते तन्तूना कासव्यपदेशवत् ।-विशुद्धर्मका कार्य होनेसे आहारक शरीरको
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विशुद्धि
विशुद्ध कहा है। तात्पर्य यह है कि चित्र विचित्र न होकर निर्दोष हो, ऐसे विशुद्ध पुण्यकर्मका कार्य होनेसे आहारक शरीरको भी विशुद्ध कहते है | यहाँ कार्य में कारणका उपचार है । जैसे तन्तुओं में कपासका उपचार करके तन्तुओं को भी कपास कहते है । (रा.वा / २/४६/२/१५२/२६ ।
विशुद्धि-साता बेदनीय के बन्धमें कारणभूत परिणाम विशुद्धि तथा असातावेदनीयके बन्धमें कारणभूत संक्लेश कहे जाते है । जीवको प्राय मरते समय उत्कृष्ट सक्लेश होता है। जागृत तथा साकारोपयोगको दशामें ही उत्कृष्ट सक्लेश या विशुद्धि सम्भव है।
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१. विशुद्धि व संक्लेशके लक्षण
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स.सि / २ / २४/१३० / तदावरणक्षयोपशमे सति आत्मन प्रसादो विशुद्धि मन पर्ययज्ञानावरणकर्मका क्षयोपशम होनेपर जो आत्मा निर्मलता आती है उसे विशुद्धि कहते है । ( रा. वा./१/२४/ - १८५/१६) ।
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प. ६/१३-०२/१००/६ असारमंथनोग्गपरिणाम संकितसो काम का विसोही सादबंधजोगपरिणामो उक्रसट ठिदीदो उपरिमविदयादिठिदीओ बधमानस्य परिणाम दिसोहि त उदि जहणट्ठिदी उवरिम-विदियादिद्विदीओ बंधमाणस्स परिणामो सक्लेसोत्ति केवि आइरिया भणंति, तण्ण घडदे । कुदो । जहण्णुक्कपरिणामे मोसून सेसमज्झिमद्विदीय परिणामा प सकिले विसोहिप्पसंगादो । ण च एवं एक्कस्स परिणामस्स लक्खणभेदेण विणा दुभावविरोहादो । - असाताके बन्धयोग्य परिगामको है और सावाके बन्ध योग्य परिणामको विशुद्धि कहते है । कितने ही आचार्य ऐसा कहते है कि उत्कृष्ट स्थिति से अधस्तन स्थितियोको बाँधनेवाले जीवका परिणाम 'विशुद्धि' इस नामसे कहा जाता है, और जघन्य स्थितिसे उपरिम-द्वितीय तृतीय आदि स्थितियोंको बाँधनेवाले जीवाका परिणाम सक्लेश कहलाता है। किन्तु उनका यह कथन घटित नहीं होता है; क्योंकि, जघन्य और उत्कृष्ट स्थितिके बँधनेके योग्य परिणामोंको छोडकर शेष मध्यम स्थितियों के बाँधने योग्य सर्व परिणामो के भी देश और विशुद्धताका प्रसंग आता है। किन्तु ऐसा है नहीं, क्योंकि, एक परि नामके लक्षण भेदके बिना द्विभाव अर्थात् दो प्रकार के होनेका विरोध है।
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ध. ११/४, २, ६, १६६-१७० / ३१४/६ अइतिञ्चकसायाभावो मदकसाओ विसुद्धा त्ति घेत्तव्त्रा । तत्थ सादस्स चउट्ठाणबधा जीवा सव्वविसुद्ध भिणिदेदसंकिसा चिरा जगद्विदिबंधकारण जीवपरिणामो वा विसुद्धा णाम । साद चट्टणमंधरहितो सादस्मेतिद्वाणामागमंचया जोबा सकिसिसदरा, कसा उका त्ति भणिद होदि । = अत्यन्त तीव्र कषायके अभाव में जो मन्द कषाय होती है, उसे विशुद्धता पदसे ग्रहण करना चाहिए । ( सूत्र में ) साता वेदनीयके चतु स्थानबन्धक जीव सर्व विशुद्ध है, ऐसा पर 'वे अतिशय मन्द संशसे सहित] है ऐसा ब्रह करना चाहिए। अथवा जघन्य स्थितिबन्धका कारणस्वरूप जो जीवका परिणाम है उसे विशुद्धता समझना चाहिए। साताके चतुस्थान की अपेक्षा साताके ही त्रिस्थानानुभागक जीव सक्लिष्टतर है, अर्थात् वे उनकी अपेक्षा उत्कट कषायवाले हैं, यह अभिप्राय है ।
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कपा४/३-२२/६३०/१५/१३ को संकिलेसो णाम । कोह- माण- मायालोहपरिणामविसेसो । क्रोध, मान, माया लोभरूप परिणामविशेषको सबलेश कहते है ।
२. संक्लेश व विशुद्धि स्थानके लक्षण .पा./५/४-२२/११/१८०/० काणि विसोहिद्वाणाणि । बद्धाणुभागसतस्स बादहेदजीव परिणामो जीव जो परिणाम बाँधे गये अनुभाग सत्कर्मके घात के कारण है, उन्हे विशुद्धिस्थान कहते है । . १९/४.२६.५९/२०८/२ सहि सकिलेसाणा विसोहिद्वाणा च च को भेदो। परियत्तवाणियाणं साद-थिर- सुभ-सुभग-सुस्सरआजादी शुभपडणं मधकारणवसायानामि विसोहा पाणि, असाद अथिर-अह दुभन [ दुस्सर ] अणादेजादीण परि यत्तमाणियाणमसुहपयडीण बंधकारणकसाउदयट्ठाणाणि सकलेसट्टाशापित एसो तेसि भेदो प्रश्न यहाँ सशस्थानों और विशुद्धिस्थानो में क्या भेद है ? उत्तर -साता, स्थिर, शुभ, सुभग सुस्वर और आदेव आदिक परिवर्तमान शुभ प्रकृतियों के मध कारणभूत कषायस्थानों को विशुद्धिस्थान कहते हैं, और बसाता अस्थिर, अशुभ, दुभंग, [दुस्वर) और अनादेय आदिक परिवर्तमान अशुभ प्रकृतियोंके मन्धके कारणभूत कषायोंके उदयस्थानोंको क्लेशस्थान कहते है, यह उन दोनोमें भेद है।
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विनुद्धि
ससा / आ./५३-५४ कमायाको कणानि संक्लेशस्थानानि ।.. पायविपाकानुलक्षणानि विदिस्थानानि कषायोंके विपक की अतिशयता जिनका लक्षण है ऐसे जो सक्लेशस्थान तथा कपायोंके विपाककी मन्दता जिनका लक्षण है ऐसे जो विशुद्धि स्थान |
३. वर्द्धमान व हीयमान स्थितिको संक्लेश व विशुद्धि कहना ठीक नहीं है
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१/१.१०.२/१०१/१ किलेस विसोही माहीमल भेदो विरुदिति ण, वह डि-हाणि धम्माणं परिणामत्तादो जीवदव्यमाणार्थ परिणामतरेस असंभवानं परिणामलक्खणविरोहादो परनबर्द्धमान स्थितिकी क्लेशा और हीयमान स्थितिको विशुद्धिका लक्षण मान लेनेसे भेद विरोधको नहीं प्राप्त होता है उतर नहीं, क्योंकि, परिणामस्वरूप होनेसे जीन द्रव्यनें अवस्थानको प्राप्त और परिणामान्तरोंमें असम्भव ऐसे वृद्धि और हानि इन दोनों धर्मोके परिणामका विरोध है। विशेषार्थ( स्थितियोंकी वृद्धि और हानि स्वयं जीवके परिणाम है जो क्रमश सनलेश और वृद्धिरूप परिणामकी वृद्धि और हानिसे उत्पन्न होते है स्थितियोंकी और सबसे विशुद्धि वृद्धि और हानिमें कार्य कारण सम्बन्ध अवश्य है, पर उनमें लक्षण लक्ष्य सम्बन्ध नहीं माना जा सकता । ]
वर्द्धमान व हीयमान कपायको भी संक्लेश विशुद्धि कहना ठीक नहीं |
घ ६ / १,६-७,२/१८१/३ ण च कसायबड्ढी संकिलेस लक्खणं द्विदिबंधउड्ढीए अण्णहाणुत्रवत्तीदो, विसोहिअद्वार बड्ढमाणकसायरस स किलेस सत्तप्पसंगादो ण च विसोहिअद्धार कसायउड्ढी णत्थि त्ति मोतु त खारादीनं भुजगारबंधाभाषपसंगा। न च असादसादबंधा सकिस विसोहीओ मोग अग्मकारण मरिच अवलमा ।
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साउदी असादनंधकारणं तनकाले सादस्स हुबभाग हाणि तिस्से वि साहारणत्तादो |=षायकी वृद्धि भी सक्लेश नहीं है, क्योकि १ अन्यथा स्थितिबन्धकी वृद्धि मन नहीं सकती है और २ विद्धि कालमें वर्द्धमान कमायाले जीवके भी क्लेश
प्रसंग आता है और विशुद्धिके कालमे कषायोकी वृद्धि नहीं होती है. ऐसा कहना भी शुरू नहीं है, क्योंकि जैसा मानने पर साता आदिके भुजगारबन्धके अभावका प्रसग प्राप्त होगा । तथा असाता और
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विशुद्धि
साता इन दानोके बन्धका सक्लेश और विशुद्धि, इन दोनोको छोड कर अन्य कोई कारण नही है, क्योंकि, बैसा कोई कारण पाया नही जाता है । ३. कषायोकी वृद्धि केवल असाताके बन्धका कारण नहीं है, क्योंकि, उसके अर्थात् कषायोकी वृद्धिके काल मे साताका बन्ध भी पाया जाता है। इसी प्रकार कषायोकी हानि केवल सानाके बन्धका कारण नहीं है, क्योंकि, वह भी साधारण है. अर्थात कषायोकी हानिके काल में भी असाताका बन्ध पाया जाता है ।
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ध. ११/४ २,६,५१/२०८ /६ वड्ढमाणकसाओ सकिलेसो, हायमाणो विसोहि त्ति किरण घेण्पदे । ण, सकिलेस - विसोहि ठाणाण संखाए सामगमप्यगादो दो वकसपरिणामान जहार मेण विसोहि सकिलेस नियमदसणादो। मज्झिमपरिणामाण च स किलेसविसोपित समास किसे विसोहि ठाणाण सखाए समागमत्यि सम्मत्तम्पती मादद्वाणपर्ण काम पुणो सकि लेसविसोहीण परूत्रणं कुणमाणा वक्खाणाइरिया जाणावेति जहा हायमासादयामाणि न विसोहिसविदास भगवे नाम तय तथाभावो दस-चरितमोहनलोवसामणास पुथ्विलसमय उदयमागदो अनुभागदरहिता गुणहोषफयागमुदरण जादकसाय उदयट्ठाणस्स विसोहित्तमुवगमादो। ण च एस नियमो ससारावत्थाए अस्थि, तत्थ छब्बिवढिहाणीहि साउद ठाणा उत्पत्तिसादो। ससारामा हिमगंग अणुभागफद्दयाण उदओ अस्थि त्ति वुत्ते होदु तत्थ वि तधाभाव पहुँच बिसोहिशम्भुपगमादो एव अवगुणहीणयागदर उपसाद बिसोहि तिघे एच एन विविधFarभावाद | कितु सादबधपाओग्गक साउदट्ठाणाणि विसोहो असावधपाओग्यवसायमा सक्तिसो सिमा विसोदिट्ठाणानमुस्सदिए धोमन्तमिरोहादो सिन बडती हुई कषायकी सक्ते और होन होती हुई पायको विशुद्धि क्यो नही स्वीकार करते उत्तर-नही, क्योकि, ४ वैसा स्वीकार करनेपर सक्लेश स्थानी और विशुद्धिस्थानोकी संख्या के समान होनेका प्रसंग आता है। कारण यह है कि जघन्य और उत्कृष्ट परिणामोके क्रमश विशुद्धि और समतेशका नियम देखा जाता है. तथा मध्यम परिणामोका सक्लेश अथवा विशुद्धि के पक्षमे अस्तित्व देखा जाता है । परन्तु संक्लेश और विशुद्धिस्थानोमे संख्याको अपेक्षा समानता है नहीं। प्रश्न- सम्यक्त्वोत्पत्तिमे सातावेदनीयके अध्वानकी प्ररूपणा करके पश्चात् सक्लेश व विशुद्धिको प्ररूपणा करते हुए व्यापानाचार्य यह ज्ञापित करते है कि हानिको प्राप्त होनेवाले मायके उदयस्थानोंकी ही विशुद्धि सहा है। उत्तर-मह पर जैसा कथन ठीक है, क्योकि १. दर्शन और चारित्र मोहकी क्षपणा व उपशामना में पूर्व समयमे उदयको प्राप्त हुए अनुभागस्पर्धकोकी अपेक्षा न होननुभागम्पको उदयसे उपन्न हुए कषायोदयस्थानके विशुद्धता स्वीकार किया गया है। परन्तु यह नियम ससारावस्थामे सम्भव नही है, क्योंकि, वहाँ छह प्रकार की वृद्धि हानियोसे कषायोदयस्थानकी उत्पत्ति देखी जाती है । प्रश्नावस्था भी अन्तर्मुहूर्त काल अनन्तगुणे हीन क्रमसे अनुभाग स्पर्धको का उदय है ही? उत्तर - ६. ससारावस्था मे भी उनका उदय बना रहे.. वहाँ भी उक्त स्वरूपका आश्रय करके विशुद्धता स्वीकार की गयी है परन्तु यहाँ अनन्तगुणे ही स्पर्ध उदयसे उत्पन्न कषायोदयस्थानको विशुद्धि नही ग्रहण किया जा सकता है, क्योंकि, यहाँ इस प्रकारको विवक्षा नहीं है। किन्तु सातावेदनीयके पायोदय स्थानोको विशुद्ध और अावेद नीयके बन्धयोग्य कषायोदयस्थानोको सबलेश ग्रहण करना चाहिए. क्योकि इसके बिना उत्कृष्ट स्थिति विद्युद्भिस्थानोकी स्वोक्ताका विरोध है ।
भा० ३-७२
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* दर्शन विशुद्धि
दर्शन शुद्धि
५. जीवों में विशुद्धि व संक्लेशकी तरतमताका निर्देश
विशुद्धि
ष. ख. ११/४, २, ६ / सूत्र १६७ - १७४ / ३१२ तत्थ जे ते सादबधा जीवा ते तिविहा- चउट्ठाणबधा तिट्ठाणबधा विट्ठाणबधा १६७। असादया जीवा तिना विद्वाणमधा विद्याणमथा चाधा ति १६ विद्धासादस्स उद्वानला जीवा तिट्ठाणच जीवा किलिदरा | १७० | बिट्ठाणबंधा जीवा सकिलिट्ठदरा | १७११ सम्बविमुखा असावस्स मिट्ठाणनघा जीवा १७२ तिट्ठाण मा जीवा किलिट्ठदरा | १७३ | चउट्ठाणबघा जीवा सकिलिट्ठदरा | १७४ | == सातबन्धक जीव तीन प्रकार है - चतु स्थान बन्धक, त्रिस्थानबन्धक और द्विस्थानबन्धक । १६७॥ असातबन्धक जीव तीन प्रकार के है -- द्विस्थानबन्धक, त्रिस्थानबन्धक और चतु स्थानबन्धक । १६८ । सातावेदनीय चतु स्थानबन्धक जीव सबसे विशुद्ध है | १६ | त्रिस्था बन्धक जीव सक्लिष्टतर है | १७०२ द्विस्थानबन्धक जीव संविलष्टतर है | १७१| असातावेदनीयके द्विस्थानबन्धक जीव सर्वविशुद्ध है । १७२ | नमकीन लिटर है । चतुस्थानक जीव संक्लिष्टतर है | १७४|
६. विशुद्धि व संक्लेशमें हानिवृद्धिका क्रम
ध ६/१,६-७-३/१८२/२ विसोहीओ उक्कस्सटिट्ठदिम्हि थोवा होण गणणा वड्ढमाणाओ आगच्छति जाव जहणठिदिति । सकिलेसा पुण दिदिह धोना होदूष उपरि पक्खेउ सरमेण ममाणा गतिजा सिदिदि । तदो सकिहितो विसोहीबी दाओ पाओ तदोदिमेद सादम जोगपरिणामो विसोहि त्ति । विशुद्धियाँ उत्कृष्ट स्थितिमे अन्य होकर गणना की अपेक्षा बढती हुई जघन्य स्थितितक चली आती है । किन्तु सक्लेश जघन्य स्थितिमे अल्प होकर ऊपर प्रक्षेप उत्तर क्रमसे, अर्थात् सदृश प्रचयरूपसे बढते हुए उत्कृष्ट स्थितितक चले जाते है । इसलिए सक्सेशोसे विशुद्धियों पृथग्भूत होती है, ऐसा अभिप्राय जानना चाहिए। अतएव यह स्थित हुआ कि साताके बन्ध योग्य परिणामका नाम विशुद्धि है ।
पाणि दिप्पड
. १९/४,२६.२१/२२०/९ विसायी वसोव साहित्य गच्छति [] विसोहिडा हितो सक्सेस हा पाणि विसेसाहियाणि ति सिद्ध । अतएव सक्लेशस्थान जघन्य स्थिति से लेकर उत्तरोत्तर विशेष अधिकके क्रमसे तथा विशुद्धिस्थान उत्कृष्ट स्थिति से लेकर विशेष अधिक क्रमसे जाते है। इसलिए विशुद्विस्थानो की अपेक्षा सक्लेशस्थान विशेष अधिक है।
७. द्विचरम समय में ही उत्कृष्ट संक्लेश सम्भव है
१०/४,२,४/१०/१०० दुरिमलिन रिमसमए उकस्सस किलेस गदो |३०|
घ. १०/४२.४,३०//क्ति दो समय मोतृा बसमपतु पिरसर सक्लेस किया दो एदे समए मोसू तिरकस्स सकिलेसे महामहाभावाद (१००/२) हेट्ठा सव्वत्य समयविरोहेण उक्क्स्सस क्लेिसो चेन । (१०८/२) १ = द्विचरम व त्रिचरम समय मे उत्कृष्ट सक्लेशको प्राप्त हुआ। प्रश्न- उक्त दा समयको छोड़कर बहुत समयतक निरन्तर उत्कृष्ट सक्लेशको क्यो नही प्राप्त कराया गया। उत्तर-नहीं, क्योंकि, इन दो समयोको छोडकर निरन्तर उत्कृष्ट मचलेशके साथ बहुत कालतक रहना सम्भव नही है । चरम समयके पहिले तो सर्वत्र यथा समय उत्कृष्ट सही होता है।
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विशुद्धि लब्धि
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विषय संरक्षण ध्यान
* गणित विषयमें विशेषका लक्षण-Commondifference, चय-दे. गणित/II/५/३ । विशेष गुण-दे गुण/१। विशेष नय-दे, नय/J॥५॥ विशेषावश्यक भाष्य-श्वेताम्बर आम्नाय का प्राकृत गाथा
मद्ध यह विशालकाय ग्रन्थ क्षमाश्रमण जिनभद्र गणी ने वि. स.६५० (ई. ५६३) में पूरा क्यिा था। (दे परिशिष्ट)। विशोक-विजयाको उत्तर श्रेणीका एक नगर-दे विद्याधर । विश्लेषण-Analysis (ध./प्र २८) विश्व-एक लौकान्तिक देव-दे, लौकातिक ।
विश्वनन्दि-मपू/५७/श्लो -राजगृहके राजा विश्वभू तिका पुत्र
था ।७२। चचा विशावभूतिके पुत्र विशाखनन्दि द्वारा इसका धन छिन जानेपर उसके साथ युद्ध करके उसे परास्त किया। पीछे दीक्षा धारण कर ली। (७५-७८)। मथुरा नगरीमे एक बछडेने धक्का देकर गिरा दिया, तब वेश्याके यहाँ बैठे हुए विशाखनन्दिने इसकी सी उडायी। निदानपूर्वक मरकर चचाके यहाँ उत्पन्न हुआ। (७९-८२) (म. पु/७४/८६-११८ ) यह बर्द्धमान भगवान्का पूर्वका १५वा भव है। --दे बद्ध मान ।
८. मारणान्तिक समुद्धातमें उत्कृष्ट संक्लेश सम्भव नहीं घ. १२/४,२,१३,७/३७८/३ मारण तियस्स उक्स्स स किलेसाभावेण उक्कस्स
ज गाभावेण य उक्कस्सदवसामित्तविरोहादो। =मारणान्तिक समुधातमे जीवके न तो उत्कृष्ट संक्लेश होता है और न उत्कृष्ट योग ही होता है. अतएव बह उत्कृष्ट द्रव्यका स्वामी नहीं हो सकता।
९. अपर्याप्त कालमें उत्कृष्ट विशुद्धि सम्मव नहीं ध १२/४,२,७,३८/३०/७ अप्पज्जत्तकाले सन्बुक्कस्सविसोही णत्थि ।
अपर्याप्तकालमे सर्वोत्कृष्ट विशुद्धि नहीं होती है। १०.जागृत साकारोपयोगीको ही उत्कृष्ट संक्लेश विशुद्धि सम्मव है ध, ११४४,२,६,२०४/३३३/१ दसणोवजोगकाले अइसकिलेस विसोहीणम
भावादो। ध १२/४.२,७,३८/३०/८ सागार जागारद्वासु चेव सवुक्कस्सपिसोहीयो सम्वु मस्सस किलेसा च होति त्ति । =दर्शनोपयोगके समय में अतिशय ( सर्वोत्कृष्ट ) संक्लेश और विशुद्धिका अभाव होता है। साकार उपयोग व जागृत समयमें हो सर्वोत्कृष्ट विशुद्धियाँ व सर्वोत्कृष्ट संक्लेश होते है। विशुद्धि लब्धि-दे. लब्धि/२ । विशेषस, सि /६/८/३२५/६ विशिष्यतेऽर्थोऽन्तिरादिति विशेष । -जिससे
एक अर्थ दूसरे अर्थसे विशेषताको प्राप्त हो वह विशेष है। (रा. वा. ६/८/११/५१४/१६ , (रा. वा १/१/१/३/२३ ) न्या वि /मू/१/१२१/४५० समानभाव सामान्य विशेषो अभ्यो व्यपेक्षया ।१२१॥ =समान भावका सामान्य कहते है और उससे अन्य अर्थात् विसमान भावको विशेष कहते है। न्या. विवृ /१/४/१२१/११ व्यावृत्तबुद्धिहेतुत्वाद्विशेष । =व्यावृत्ति अर्थात भेदकी बुद्धि उत्पन्न करनेवाला विशेष है। (स्या. म 141 ६८/२६) द्र.सं टो./२८/०६/३ विशेषा इत्यस्य कोऽर्थ । पर्याय । = विशेषका
अर्थ पर्याय है।-दे अपवाद/१/१ । स्या, म/४/१७/१५ स एव च इतरेभ्य सजातोयविजातीयेभ्यो द्रव्यक्षेत्रकालभावैरात्मान व्यावर्तयन् विशेषव्यपदेशमश्नुते। -यही ( घट पदार्थ ) दूसरे सजातीय और विजातीय पदार्थोसे द्रव्य क्षेत्र काल और भावसे अपनो व्यावृत्ति करता हुआ विशेष कहा जाता है। ध./उ /२ अस्त्यल्पव्यापको यस्तु विशेष सदृशेतर ।। -जो विसहशताका द्योतक तथा अल्प देशव्यापी विशेष होता है।
२. विशेषके भेद प मु./४/६-७ बिशेषश्च/६/ पर्यायव्यतिरेकभेदात् ।७ - पर्याय और व्यतिरेकके भेदसे विशेष भी दो प्रकारका है।-(इन दोनोके लक्षण दे, वह वह नाम)
३. ज्ञान विशेषोपयोगी है पं का./त प्र/४० विशेषग्राहिज्ञानम् । == विशेषको ग्रहण करनेवाला
ज्ञान है। स्या म /१/१०/२३ प्रधानविशेषमुपसर्जनीकृतसामान्य च ज्ञानमिति ।सामान्यको गौण करके विशेषको मुख्यतापूर्वक क्सिी वस्तु के ग्रहणको ज्ञान कहते है।
वस्त सामान्य विशेषात्मक है-दे. सामान्य ।
विश्वभू-म पृ/६७/२१४-४५५ सगर चक्रवर्ती का मन्त्री था। इसने
षड्यन्त्र रचकर अपने स्वामीका विवाह सुलसासे करा दिया। मधुपिगलसे नहीं होने दिया। विश्वभूषण-भक्तामर चरितके रचयिता एक दिगम्बर साधु ।
(ज्ञा /प्र १/प. पन्नालाल बाकलीवाल ) विश्वसेन-भगवान पार्श्वनाथके पिता-तीर्थकर/५ । विश्वास-दे. श्रद्धान । विषग-स्व स्तो/टी/६६/१७२ ममेदं सर्व व्यादिक इति संबन्धो विषडग । -स्त्री आदि सब मेरे है, इस प्रकारका सम्बन्ध विषंग
कहलाता है। विष-१. विष वाणिज्य कर्म-दे सावद्या५ । २. निविष ऋद्धि-दे.
अद्धि/१ । विषम दृष्टान्त-न्या वि./ /२/१२/२१२/२४ दृष्टान्तो विषमो
दाष्टान्ति कसदृशो न भवति । =जो दान्तिक के सदृश न हो उसे विषम दृष्टान्त कहते है। विषमधारा-दे गणित/II/५/२। विषयस. सि /१/२५/१३२/४ विषयो ज्ञेय । = विषय ज्ञेयको कहते है। (रा.
वा/१/२५/-1८६/१५ ) गो जी./म् /१७६/८८५ पचरसपचवण्णा दो गधा अट्ठफाससत्तसरा । मणसहिदठावीसा इदियविसया मुणेदव्या ।४७४ - पाँच रस, पाँच वर्ण, दो गन्ध आठ स्पर्श और सात स्वर ऐसे यह २७ भेद तो पाँचो इन्द्रियोके विषयो के है और एक भेद मनका अनेक विकल्परूप विषय है। ऐसे कुल विषय २८ है। विषय व्यवस्था हानि-दे. हानि । विषय संरक्षण ध्यान दे रौद्रध्यान ।
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विषरथ
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विसंयोजना
विषरथ-- कथा कोष/कथा नं./-उज्जैनीके राजाका पुत्र था ।१५। अति भोजन करनेसे विसुचिका रोग हो गया और अन्तमें
मर गया।१६॥ विष्कभ-Width-(ज, ५./प्र. १०८ ) | दे गणित/II/७२। विष्कंभ क्रम-दे, क्रम/२। विष्कंभ सूचो-दे, सुची। विष्टा-१. औदारिक शरीरमें विष्ठाका प्रमाण-दे. औदारिक १/७।
२. मल मूत्र क्षेपण विधि।-दे समिति/१/प्रतिष्ठापना । विष्णु-ति १/३/११८ तह य तिविठ्ठदुविठ्ठा सयंभु पुरिसुत्तमो
पुरिससोहो। पुडरीयदत्तणारायणा य किण्हो हुवंति णव विण्हू १९१८) = त्रिपृष्ठ, दिपृष्ठ, स्वयम्भू, पुरुषोत्तम पुरुषसिंह, पुण्डरीक, दत्त, नारायण और कृष्ण ये नौ विष्णु (नारायण ) है ।११।-(विशेष दे. शलाका पुरुष/४)। दे०जीव/१/३/५-(प्राप्त हुए शरीरको व्याप्त करनेके कारण जीवको
विष्णु कहते है।) द्र. स./टी./१४/४७/३ सकल विमल केवलज्ञानेन येन कारणेन समस्त
लोकालोक जानाति व्याप्नोति तेन कारणेन विष्णुर्भण्यते। - क्योकि पूर्ण निर्मल केवलज्ञान द्वारा लोक-अलोकमें व्याप्त होता है, इस कारण वह परमात्मा विष्णु कहा जाता है।
* परम विष्णुके अपर नाम -दे० मोक्षमार्ग/२/५ ॥ विष्णुकुमार-ह. पु/२० श्लो. "महापद्म चक्रवर्तीके पुत्र थे। पिता
के साथ दीक्षा ले घोर तप किया ।१४। अकम्पनाचार्यके ७०० मुनियोके संघपर बलि कृत उपसर्गको अपनी विक्रिया द्वारा दूर किया ।२६-६२। अन्तमें तप कर मोक्ष गये ।६३।" विष्णुदत्त-बृ. कथा कोष/कथा ३/पृ. एक दरिद्र अन्धा था ।।। वृक्षसे सर टकराने के कारण ऑखे खुल गयी।। दूसरे अन्धोने भी
उसकी नकल की पर सब मर गये ।। विष्णुनाद-श्रुतावतारके अनुसार आप भगवान् वीरके पश्चात् पंचम श्रूतकेवली हुए : समय-वी.नि. ६२-७६ (ई. पू. ४६५-४५१) ।
अपर नाम नन्दि था-दे० इतिहास/४/४। विष्णु यशोधर्म-चतुर्मुख नामक हनवंशी काकी राजा।
समय-वी. नि. १०५५-१०७३ (ई ५२८-५४६) । (दे. इति,/३/३)।
चतुष्कके स्कन्धोके परप्रकृति रूपसे परिणमा देनेको विसंयोजना कहते है। गो. क /जो प्र/३३६/४८७/१ युगपदेव विसयोज्य द्वादशकषायनोक्षायरूपेण परिणम्य । अनन्तानुबन्धी चतुष्ककी युगपत् विसयोजना करके अर्थात बारह कषायो व नव नोकषायों रूपसे परिणमा कर। २. विसंयोजना, क्षय व उपशममें अन्तर क पा /२/२-२२/१२४६/२१६/७ ण परोदयकम्मबखवणाए वियहिचारो, तेसि परसरूवेण परिणदाण पुणरुप्पत्तीए अभावादो। = वि 'योजनाका इस प्रकार लक्षण करनेपर, जिन कमौकी पर-प्रकृतिरूपसे क्षपणा होतो है, उनके साथ व्यभिचार ( अतिव्याप्ति) आ जायेगी सो भी बात नहीं है, क्योकि अनन्तानुबन्धीको छोडकर पररूपसे परिणत हुए अन्य कर्मोको पुन उत्पत्ति नही पायी जाती है। अतः विसयोजनाका लक्षण अन्य कौकी क्षपणामे घटित न होनेसे अतिव्याप्ति दोष नही आता है।। दे० उपशम/१/६ ( अपने स्वरूपको छोडकर अन्य प्रकृति रूपसे रहना अनन्तानुबन्धीका उपशम है और उदयमें नही आना दर्शनमोहकी तान प्रकृतियोका उपशम है।)
३. विसंयोजनाका स्वामित्व क. पा./२/२-२२/३ २४५/२१८/५ अट्ठावीससंतकम्मिएण अण ताणुबंधी विसजोइदे चउबीस बिहत्तीओ होदि। को विसजोअओ। सम्मादिट्ठी। मिच्छाइट्ठीण विसजोएदि त्ति कुदो णव्वदे। सम्मादिट्ठी वा सम्मामिच्छादिट्ठी वा चउबीस वित्तिओ होदि त्ति एदम्हादो सुत्तादो णव्वदे। अणताणुवधि विसजोइदसम्मादिम्हि मिच्छत्तं पडिवण्णे चउवीस विहत्तो किण्ण होदि । ण, मिच्छत्तं पडिवण्णपढमसमए चेव चरित्तमोहकम्मवरख धेसु अण ताणुबधिसरूवेण परिणदेसु अठ्ठावीसपयडिसंतुप्पत्तीदो। .. अविसंजोएंतो सम्मामिच्छाइट्ठी कध चउवासविहत्तीओ। ण, चउबीस सतकम्मियसम्मादिट्ठीसु सम्मामिच्छत्तं पडिवण्णेसु तस्थ चउवीसपयडिसतुवल भादो । चारित्तमोहनीय तत्थ अण'ताणुन धिसरूवेण किण्ण परिणमइ । ण, तत्थ तप्परिणमनहेदुमिच्छत्तु दयाभावादो, सासणे इब तिवसं किलेसाभावादो वा। - अट्ठाईस प्रकृतियों की सत्तावाला जीव अनन्तानुबन्धीकी विसयोजना कर देनेपर चौबीस प्रकृतियोकी सत्तावाला होता है। प्रश्न-विसयोजना कौन करता है । उत्तर -सम्यग्दृष्टि जीव विसयोजना करता है। प्रश्न-मिथ्यादृष्टि जीव विसयोजना नही करता है, यह कैसे जाना जाता है । उत्तर- 'सम्यग्दृष्टि या सम्यग्मिथ्याष्टि जीव चौबीस प्रकतिक स्थानका स्वामी है' इस सूत्रसे जाना जाता है। प्रश्न- अनन्तानुबन्धीकी विसयोजना करनेवाले सम्यग्दृष्टि जीवके मिथ्यात्वको प्राप्त हो जाने पर मिथ्यादृष्टि जीव चौबीस प्रकृतिव स्थानका स्वामी क्यो नही होता है। उत्तर-नहीं, क्यों कि, ऐमे जीवके मिथ्यावको प्राप्त होनेके प्रथम समयमे ही चारित्र मोहनोप के कर्मस्कन्ध अनन्तानुबन्धी रूपसे परिणत हो जाते है। अत उसके चौबीस प्रकृतियो की सत्ता न रहकर अठाईस प्रकृतियो की ही सत्ता पायी जाती है। प्रश्न-जब कि सम्यग्मिथ्यादृष्टि जीव अनन्ता नुबन्धीकी विसंयोजना नही करता है तो वह चौबीस प्रकृतिक स्थानका स्वामी कैसे हो सकता है । उत्तर- नहीं, क्योकि, चौबीस कर्मोकी सत्ता वाले सम्यग्दृष्टि जीवोके सम्बग्मिथ्यात्व को प्राप्त होनेपर उनके भी चौबीस प्रकृत्तियो की सत्ता बन जाती है। प्रश्न-सम्यग्मिथ्यात्व गुणस्थानमे जीव चारित्रमोहनीयको अनन्तानुबन्धी रूपसे क्यो नहीं परिणमा लेता है। उत्तर-नही क्योकि, वहाँ पर चारित्रमोहनीयको अनन्तानुबन्धोरूपसे परिण मानेका कारण
विष्णुवर्धन-कर्णाटक देशके पोप्सल नरेश थे। गंगराज इनके मन्त्री थे, जिसने अपने गुरु शुभचन्द्रकी निषद्यका श. स. १०४५ में बनवायी थी। यह पहले जैन थे जिन्होने श सं.१०३६ (ई. १११७) में वैष्णव धर्म स्वीकार करके हलेवेड अर्थात दोरसमुद्रमे अनेक जिनमन्दिर का ध्वस किया था। उसके उत्तराधिकारी नारसिह और तत्पश्चात् वीर बरलालदेव हुए जिन्होने जैनियोके क्षोभको नीति पूर्व शान्त किया। समय-अनुमानत' श. स १०२५-१०५० (ई. ११०३-११२८), (ध, प्र. ११/H, L.
Jain)! विसयाजना-उपशम व क्षायिक सम्यक्त्व प्राप्ति विधिमें अनन्ता
नुबन्धी क्रोध, मान, माया, लोभका अप्रत्याख्यानादि क्रोध, मान, माया, लोभ रूपसे परिणमित हो जाना विसयोजना कहलाता है।
१. विसंयोजनाका लक्षण के पा./२/२-२२/६२४६/२१६/६ का विसंयोजना। अण ताणुबंधिचउक्कक्वं वाण परसरूवेण परिणमनं विसयोजना । -अनन्तानुबन्धी
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विसयोजना
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विस्तारासंख्यात
भूत मिथ्यात्वका उदय नही पाया जाता है। अथवा सासा दन गुणस्थानमें जिस प्रकार के तीव्र सक्लेशरूप परिणमा पाये जाते है, सम्यग्मिथ्यादृष्टि गुणस्थानमे उस प्रकार के तीन सक्लेशरूप परिणाम नहीं पाये जाते है। ध. १२/४,२.७,१७८/२/8 जदि सम्मत्तपरिणामेहि अणताणुषधीणं विसजोजणा कीरदे तो सबसम्माइट्ठीसु तब्भावो पसज्जाद त्ति बुत्ते ण, बिसिठेहि चेव सम्मत्तपरिणामेहि तविसजोयणभुवगमादोत्ति । - प्रश्न-यदि सम्यक्त्वरूप परिणामोकी अपेक्षा अनन्तानुबन्धी कषायोकी विसयोजना की जाती है, तो सभी सम्यग्दृष्टि जीवोमें उसकी विसयोजनाका प्रसग आता है। उत्तर-नहीं, क्योकि, बिशिष्ट सम्यक्त्व रूप परिणामोके द्वारा ही अनन्तानुबन्धी कषायोको विसयोजना स्वीकार की गयी है।
* पुनः पुनः विसंयोजना करनेकी सीमा पल्य। असं.
बार-दे० सयम/२। ५. अनन्तानुबन्धीकी विसंयोजना विधिमें त्रिकरण ध. ६/१,६-८,१४/२८८१६ जो वेदगसम्माइट्ठी जीवो सो ताव पुत्वमेव
अण ताणुबधी विस जोएदि । तस्स जाणि करणाणि ताणि परूवेदव्वाणि । त जधाअधापवत्तकरण अपव्धकरण अणियट्टीकरणं च । -- (उपशम चारित्रकी प्राप्ति विधिमें) जो वेदक सम्यग्दृष्टि जीव है वह पूर्व मे ही अनन्तानुबन्धी चतुष्टयका विसयोजन करता है। उसके जो कारण होते है उनका प्ररूपण करते है। वह इस प्रकार हैअध प्रवृत्तकरण, अपूर्वकरण, अनिवृत्तिकरण । - (विशेष दे० उपशम/२/१) (ल सा./५ /११२/१५०), (गो.क./जी.प्र./ ५५०/७४३/१६)।
४. विसंयोजनाका जघन्य उत्कृष्ट काल क. पा. २/२-२२/ २८३-२८४/२४६/२ चउवीस विहत्ती केवचिर कालादो। जहण्णेण अतोमुहुत्त (चूर्ण सूत्र) कुदो । अट्ठावीससतकम्मियस्स सम्माइट्ठस्स अण ताणुव धिचउक्क विसंजोइय चउवीस विहत्तीए आदि कादूण सब्वजहण्ण तोमुहूत्तमच्छिय खविदमिच्छत्तस्स चवीस बिहत्तीए जहण्ण कालुबल भादो । उक्कस्सेण वेछावट्ठि-सागरोवमाणि सादिरेयाणि । (चूर्ण सूत्र ) । कुदो। छब्बीससंतकम्मियस्स लातबकाविट्ठमिच्छाइविदेवस्स चोहससागरोवमाउढिदियस्स तत्ये पढमे सागरे अतोमुहुत्तावसेसे उवसमसम्मत पडिवज्जिय सव्वलहुएण कालेण अण ताणुन धिचउक्क विसजोइन चउवासविहत्तीए आदि कादूण विदियसागरोवमपढमसमए वेदगसम्मत्त पडिज्जिय तेरससागरोवमाणि सादिरेयाणि सम्मत्तमणुपालेदूण काल कादूण पुवकोडिवाउमणुस्सेसुववज्जिय पुणो एदेण" (आगे केवल भावार्थ दिया है) -१ (चौबीस प्रकृति स्थानका कितना काल है । जघन्य काल अन्तर्मुहूर्त है। (चूर्ण सूत्र )। वह ऐसे कि २८ प्रकृतिक स्थानवाले किसी जीवने अनन्तानुबन्धी चतुष्ककी विस योजना करके चौबीस प्रकृतिक स्थानका प्रारम्भ किया। और अन्तर्मुहूर्त कालतक वहाँ रहकर मि यात्व का क्षय किया। २. चौबीस प्रकृतिक स्थानका उत्कृष्ट काल साधिक १३२ सागर है। (चूर्ण सूत्र) वह ऐसे कि-२६ प्रकृतिक स्थानवाले किसी लातव कापिष्ठ स्वर्ग के मिथ्यादृष्टि देवने अपनी आयुके प्रथम सागरमे अन्तमहतं शेष रहनेपर उपशम सम्यक्त्वको प्राप्त किया। तहाँ सर्व लघुकाल द्वारा अनन्तानुबन्धीकी क्सियोजना करके २४ प्रकृतिक स्थानको प्रारम्भ कर लेता है। फिर दूसरे सागरके पहले समय में वेदक सम्यक्त्वको प्राप्त करके साधिक १३ सागर काल तक वहाँ सम्यक्त्वका पालन करके और मरकर पूर्वकोटि प्रमाण आयुवाले मनुध्योमे उत्पन्न हुआ। तत्पश्चात २२ सागर आयुवाले देव, मनुष्य तथा ३१ सागर आयुवाले देवोमें उत्पन्न होता है। वहाँ सम्यग्मिथ्यात्वको प्राप्तकर पुन सम्यक्त्वको प्राप्त होता है। वहाँसे मरकर क्रमसे मनुष्य, २० सागर आयुवाले देव, मनुष्य, २२ सागर आयुवाले देव, मनुष्य, २४ सागर आयुवाले देव तथा मनुष्योमें उत्पन्न होकर अन्तमे मिथ्यात्वका क्षय करता है। (नोट-मनुष्योकी आयु सर्व कोटि पूर्व तथा देवोकी आयु सर्वत्र कोटि पूर्व कम वहबह-वह आयु जाननी चाहिए। इस प्रकार १३+२२+३१+२०+ २२+२४=१३२ सागर प्राप्त होता है। इस कालमे अन्तर्मुहूर्त पहिला तथा अन्तर्मुहूर्त अधिक आठ वर्ष अन्तिम भवके जोडनेपर साधिकका प्रमाण आता है, क्योकि अन्तिम मनुष्य भवमे इतना काल बोतनेपर मिथ्यात्वका क्षय करता है। * पुनः सयोजना हो जानेपर अन्तर्मुहूर्त कालके बिना
मरण नहीं होता-दे० मरण/३/६ ।
६. अनन्तानुबन्धी विसंयोजन विधि मो, क जी. प्र./५५०/७४३/१६ अध प्रवृत्तकरणप्रथमसमयात्प्रागुक्तचतुरावश्यकानि कुर्वन् तच्चरमसमये सर्व बिसयोजितं द्वादशक्षायनवनोकषायरूप नीत । - [ कोई एक वेदक सम्यग्दृष्टि जीव अध'प्रवृत्त करणके योग्य चार आवश्यकोको करके तदनन्तर अपूर्वकरणको प्राप्त होता है। वहाँ भी उसके योग्य चार आवश्यकोको करते हुए प्रथमोपशम सम्यक्त्वकी उत्पत्ति में अथवा सयम या सयमासयमकी उत्पत्तिमें गुणश्रेणी द्वारा प्रति समय असंख्यात गुणे अनन्तानुबन्धीके द्रव्यका अपक्षण करता है। इससे भी अस ख्यात गुणे द्रव्य अन्य कषायो रूपसे परिणमाता है। अनन्तर समयमे अनिवृत्तिकरण में प्रवेश पाकर स्थिति सत्त्वापसरण द्वारा (दे० अपकर्षण/३) अनन्तानुबन्धीकी स्थितिको घटाता हुआ अन्तमे उच्छिष्टावली मात्र स्थिति शेष रखता है। अभिवृत्तिकरणकालका अन्तिम अवली में उस आवली प्रमाण द्रव्य के निषेकोको एक-एक करके प्रति समय अन्य प्रकृति रूप परिणमा का गलाता है और इस प्रकार उस उच्छिष्टाबलीके अन्तिम समय अनन्तानुबन्धी चतुष्कका पूरा द्रव्य बारह कषाय और नव नोकषाय रूप हो जाता है।] [नोट-त्रिकरणोका स्वरूप दे० 'करण' ] * सम्यक्त्व व मिश्र प्रकृतिकी उद्वेशना
-दे० संक्रमण/४। विसंवाद-दे० बाद । विसदृश-प.ध./पू./३२८ यदि वा तदिह ज्ञान परिणाम परिणमन्न तदिति यत । स्वावसरे यत्सत्त्व तदसत्व परत्र नययोगात् ।३२८। - ज्ञानरूप परिणाम परिणमन करता हुआ 'यह पूर्व ज्ञानरूप नहीं है। यह विसदृशका उदाहरण है। क्योकि विवक्षित परिणामका अपने समयमें जो सत्त्व है दूसरे समयमे पर्यायार्थिक नयसे उसका वह सत्त्व
नही है। विसदृश प्रत्यभिज्ञान-दे० प्रत्यभिज्ञान । विस्तार-१. जीवकी सकोच विस्तार शक्ति। -दे० जीब/३ ।
Width or diameter. (ज.प/प्र. १०८)। ३. Details (ध. ५/प्र २८)। विस्तार सम्यक्त्व-दे० सम्यग्दर्शन/I/१। विस्तार सामान्य-दे० क्रम/६/तिर्यक प्रचय । विस्तारासंख्यात-दे० असंख्यात ।
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विवसोपचय
विस्वसोपचय
,
ध. १४/५, ६. ५०२/४३०/११ को विस्सासुत्र चओणाम । प चण्णं सरीराणं परमाणुयोग्गलान के विद्धादिगुणेहि ते पंचसरीरपोग्गले लगा पोग्ला तेसि विस्सासुवचओ त्ति सण्णा । तेसि विस्सासुवचयाणं सबधस्स जो कारण पंचसरीरपरमाणुपोग्गलगओ णिद्धादिगुणो रास्स नि विरसामु चि सख्या कारने कज्जुनधारादो । - प्रश्न - विस्रसोपचय किसकी संज्ञा है । उत्तर-पाँच शरीरोके परमाणूशके मध्य जो पुगल स्निग्ध आदि गुणोके कारण उन पाँच शरीराकेपुद्गलो में लगे हुए है, उनको सिसोपा है। उन विवसोपचयोके सम्बन्धका पाँच शरीरोके परमाणु पृद्गलगत स्निग्ध आदि गुणरूप जो कारण है उसकी भी विससोपचय संज्ञा है, क्योंकि, यहाँ कार्य मे कारणका उपचार किया है ।
गो. जी./मू व जी प्र. / २४६/५१५/१५ जीवादोण तगुणा पडिपरमाणुम्हि विस्वचया जीवेण व समवेदा एवकेवक परिसमाना हू | २४ विससा स्वभावेनैव आत्मपरिणामनिरपेक्षतयैव उपचीयन्ते तत्तत्कर्मनोकर्म परमाणुस्निग्वरूक्षणेन कम्ता प्रतिपन्ते इति विससो पचया कर्मनो कर्मपरिग तिर हिलरमान इति भावः कर्म या नोकर्म के जितने परमाणु जीवके प्रदेशों के साथ है. उनमें से एकएक परमाणु के प्रति जीवराशिसे अनन्तानन्त गुणे विससोपचयरूप परमाणु जीवप्रदेशो के साथ एक क्षेत्रावगाही रूपसे स्थित है | २४| विसा अर्थात् आत्मपरिणामसे निरपेक्ष अपने स्वभावसे ही उपचीयते अर्थात् मिलते है वे परमाणु विससोपचय है। नर्म व नोकर्म रूपसे परिणमे बिना जो उनके साथ स्निग्ध व रूक्ष गुणके द्वारा एक स्कन्धरूप होकर रहते है वे विससोपचय है ऐसा भाव है ।
★ विवसोपचय यन्ध दे० प्रदेशमन् ★ विवसोपचयों में
-
हु०३
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विहायोगति -
स, सि /८/११/- ११/७ विहाय आकाशम् । तत्र गतिनिर्वर्तक तद्विहायोगऩिनाम । विहायस्का अर्थ आकाश है उसमें गतिका निवर्तक कर्म निहायोगति नामकर्म है ( रा.मा./८/१२/१०/२७८/११). (. ८/९.६-१.२८/८/१). (गो. क / जी /३३/२१/२२) ।
।
४. १३/५.१.१०१/३६२/२ जस्समद भूमिनोग
वा जीवाणमागासे गमण होदित विहायगदिणामं । = जिस कर्मके उदयसे भूमिका आश्रय लेकर या बिना उसका आश्रय लिये भी जोवोका आकाशमै गमन होता है वह विहायोगति नामकर्म है। घ. ६/९.६-१.२८/६९१/२ तिविखमसान भूमीपगमन कस्स कम्मस्स उदरण । विहायगदिणामस्स । कुदो । विहत्थि मे तप्पायजीव पदे से हि भ्रमिमोट्ठहिय सयलजीवपएसाणामायासे गमणुवलभा । प्रश्नसियंत्र और मनुष्यका भूमि गमन सिकर्मके उदयसे होता है उत्तर- विहायोगति नामकर्मके उदय क्योकि विहस्तिमात्र ( बारह अगुल प्रमाण ) पाँववाले जीवप्रदेशो के द्वारा भूमिको व्याप्त करके जीवके समस्त प्रदेशोका आकाशमे गमन पाया जाता है ।
२. विहायोगति नामकर्मके भेद
1
६.४६-१/ सूत्र ४३/०६ त विहाया दुवि पसत्यविहायोगदी अप्पसत्य विहायोगी चेदि ।४३। जो विहायोगति नामकर्म है वह दो प्रकारका है- प्रशस्त विहायोगति और अप्रशस्त विहायोगति । ( प सं / प्रा / २ / ४ / व्याख्या/४६ / ११ ), ( स सि / ८/११/३११/७ ), ( रा. बा //११/१८/५७८/१२ ), ( गो, क./ जी प्र / ३३/२६/२२) ।
विहार
३. प्रशस्ता प्रशस्त विहायोगति नामकर्म
रा.वा./८/११/१८/०८/१२ वरवृषभ द्विरदादिप्रशस्तगतिकारण पास्त विहायोगतिनाम । उष्ट्रखास्तगतिमिमिशस्त विहायोगतिनाम चेति । - हाथी बैल आदिकी प्रशस्त गतिमें कारण प्रशस्त विहायोगति नामकर्म होता है और ऊँट, गधा आदिको आशस्त गतिमें कारण अप्रशस्त विहायोगति नामकर्म होता है।
४. मनुष्यों आदिमें विहायोगतिका लक्षण कैसे घटित हो रावा. / ८ /११/१८/५७८/१४ सिद्ध्यज्जीवपुद्गलानां विहायोगति कुत इति चेत् । सा स्वाभाविकी । ननु च विहायोगतिनामकर्मोदय पक्ष्यादिष्वेव प्राप्नोति न मनुष्यादिषु कृतविहायसि गाभा माय नैष दोष सर्वेषा विहायस्यैव गतिरवगाहनशक्तियोगात् । प्रश्न- नाम कर्म के अभाव में गुक्तमीमो और गली में गति कैसे होती है उत्तर उनकी गति स्वाभाविक है दे, गति / १ ) । ? ( प्रश्न- विहायोगति नामकर्मका ऐसा लक्षण करने से वह पक्षियोंमें ही घटित होगा मनुष्यादिकोमे नहीं, खोकि, उनके आकाशमै गमनका अभाव है ' उत्तर - यह कोई दोष नहीं है, क्योंकि, अवगाहना शक्तिके योग सभी प्राणियों के आकाशमें ही गति होती है।और भी दे, विहायोगति में /4)।
★ विहायोगति नाम कमके बंध उदय सत्य सम्बन्धी विषय यह वह नाम
विहार एक स्थान पर रहने से राग बढता है इसलिए साधु जन
नित्य विहार करते हैं । वर्षायोग के अतिरिक्त अधिक काल एक स्थानपर नही ठहरते । सघमे ही विहार करते है, क्योकि, इस काल में अकेले बिहार करनेका निषेध है । भगवान्का विहार इच्छा रहित होता है।
१ साधुकी बिहार चर्या
★ एक्ल विहारी साधुका स्वरूप दे० एकल विहारी । १. एकाकी विहार व स्थानका निषेध
मू. आ /गा. स्वच्छंद गदागदसयणणिसियणादाण भिक्खवोसरणे । स्वच्छदपरोचिय मा मे सत्तुरिव एगागी । १५० गुरुपरिवादो सुदवोछेदो तित्थस्स महलणा जउदा । भेभलकुसीलपासत्थदा य १५१ ॥ कंटखण्यामागेणादिसम्पमे च्छेहि । पावइ आदविवत्ती विसेण व विसूइया चेत्र । १५२| गारविओ निजीओ माइली बनसम्म गच्छेवि संवतो ह सघाड्य मदो | १५३| आणा अणवत्था विथ मिच्छत्ताराहणादणासो य। सजमविराणा वि य एदे दु निकाइया ठाणा | १५४ | तत्थ ण कपड़ वासो जत्थ इमे णत्थि पच आधारा । आश्यिउवज्झायापवत्तथेरा गणधरा य । १५५ आइरियकुलं मुच्चा विहर दि समणो य जो दु एगागी । ण य गेहदि उवदेस पावसमणोति बुच्चदि दु । ६५६ | आयरियतण तुरिओ पुव्व सिस्रत्तण अकाऊण । हिडड़ ढढायरिओ रिकुसो मणहरि ६६० सोना, बैठना ग्रहण करना, शिक्षा, मलत्याग करना, इत्यादि कार्योंके समय जिसका स्वच्छन्द गमनागमन है, स्वेच्छासे ही बिना अवसर बोलनेमें अनुरक्त है, ऐसा एकाकी मेरा बेरी भी न हो । १५०१ गनको छोड अकेले विहार करनेमें इसने दोष होते है- दीक्षागुरुको निन्दा विनाश जिनान में क्लक (जैसे सब साथ ही ऐसे होने विहलता, कुशीलपना, पार्श्वस्थता ११५१। जो स्वच्छन्द विहार करता
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बिहार
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१. साधुको विहार चर्या
है वह कॉटे, स्थाणु, क्रोधसे आये हुए कुत्ते बैल आदि, सर्प, म्लेच्छ, विष, अजीर्ण, इनके द्वारा मरण व दुःख पाता है ।१५२। शिथिलाचारी मुनि ऋद्धि आदि गौरववाला, भोगौकी इच्छावाला, कुटिल स्वभावी, उद्यम रहित, लोभी, पापबुद्धि, होता हुआ मुनिसमूहमे रहते हुए भी दूसरेको नहीं चाहता ।१५३। एकाकी स्वच्छन्द विहारी साधुको आज्ञाकोप, अतिप्रसंग, मिथ्यात्वकी आराधना, अपने सम्यग्दर्शनादि गुणोका धात, सयमका धात, ये पापस्थान अवश्य होते है ।१५४। ऐसे गुरुकुल में रहना ठीक नही, जहाँ आचार्य, उपाध्याय, प्रवर्तक, स्थविर और गणधर ये पाँच मुनिराज सघके आधारभूत न हो ।१५३१ जो श्रमण सपको छोडकर सघ रहित अकेला विहार करता है और दिये उपदेशको ग्रहण नहीं करता है वह पापश्रमण कहा जाता है ।१५। जो पहिले शिष्यपना न करके आचार्यपना करनेको वेगवान है वह पूर्वापर विवेकरहित ढोढाचार्य है,
जैसे अकुशरहित मतवाला हाथी।६६०। सू पा./म./ उक्किट्ठसोहचरियं बहुपरियम्भो य गरुय भारो य।
जो विरहि सच्छदं पाव गच्छदि होदि मिच्छत्त ।।। == जो मुनि होकर उत्कृष्ट सिहवृत्ति रूप प्रवर्तता है, बहुत तपश्चरण आदिसे । संयुक्त है, बडा पदधारो है, परन्तु स्वच्छन्द प्रवर्तता है, वह पाप व मिथ्यात्वको ही प्राप्त होता है ।१॥
स्थितिकरण, रत्नत्रयको भावना व अभ्यास, शास्त्र-कौशल, तथा समाधिमरणके योग्य क्षेत्रकी मार्गणा, इतनी बाते प्राप्त होती है।१४२॥ अनियत बिहारीको तीर्थकरोंके जन्म, निष्क्रमण, ज्ञान आदिके स्थानोका दर्शन होनेसे उसके सम्यग्दर्शन में निर्मलता होती है।१४३। अन्य मुनि भी उसके सवेग वैराग्य, शुद्ध लेश्या, तप आदिको देखकर वैसे ही बन जाते है, इसलिए उसे स्थितिकरण होता है ।१४४। [तथा अन्य साधुओके गुणोको देखकर वह स्वय भी अपना स्थितिकरण करता है ।१४६परीषह सहन करनेकी शक्ति प्राप्त करता है ।१४७। देश-देशान्तरोकी भाषाओ आदिका ज्ञान प्राप्त होता है ।१४८१ अनेक आचार्योके उपदेश सुननेके कारण सूचका विशेष अर्थ व अर्थ करनेकी अनेक पद्धतियोका परिज्ञान होता है ।१४६। अनेक मुनियोका सयोग प्राप्त होनेसे साधुके आचार-बिहार आदिकी विशेष जानकारी हो जाती है 1१५०]
५. वीतराग सर्वदा अनियत विहारी है भ आ /मू./१५३/३५० वसधीसु य उवधीसु य गामे णयरे गणे य सण्णिजणे। सब्वत्थ अपडिबद्धो समासदो अणि यदविहारो १५३। - वसतिका, उपकरण, गाँव, नगर, स्वसघ, श्रावकलोक, इन सबो में जो ममत्व रहित है, वह साधु भी अनियत विहारी है। ऐसा संक्षेपमे जानना चाहिए ।१५३) * चातुर्मासमें व अन्य कालों में विहार करने सम्बन्धी कुछ नियम-दे० विहार/१/२ ॥
* एकाकी स्थानमें रहनेको विधि-दे०पिविक्त शय्यासन ।
त जगहमें रहता धैर्यवान प्रामक
पञ्चराती (४२/९०७
२. एक स्थानमें ठहरने की अवधि मू. आ./७८५ गामेयरादिवासी जयरे पचावासिगो धीरा। सवणा फासुविहारी विवित्तएगतवासी य ।५८५-जो ग्राममें एक रात और नगरमें पाँच दिनतक रहते है वे साधु धेर्यवाह प्रासुक विहारी है, स्त्री आदि रहित एकान्त जगहमें रहते है-दे. वसतिका। बो, पा./टी/४२/१०७/१ वसिते वा ग्रामनगरादौ वा स्थातव्यं, नगरे पञ्चरात्रे स्थातव्य, ग्रामे विशेषेण न स्थातव्यं । अथवा, वसतिका या ग्राम नगर आदिमें ठहरना चाहिए। नगरमें पाँच रात ठहरना चाहिए और ग्राममें विशेष नही ठहरना चाहिए। दे. मासैकवासता-(वसंतादि छहो ऋतुओ में से एक एक ऋतुमें एक
मास पर्यंत ही एक स्थानमे मुनि निवास करे, अधिक नही)। दे. पाद्य स्थिति कल्प-[वर्षाकाल में आषाढ शु १० से कार्तिक शु.
पूर्णिमातक एक स्थान में रहते है। प्रयोजनवश अधिक भी रहते है। परिस्थितिवश इस काल मे हानि वृद्धि भी होती है।
३. साधुको अनियत विहारी होना चाहिए भ.आ/वि./उत्थानिका/१४२/३२४/८ योग्यस्य गृहीतमुस्त्युपायलिङ्गस्य श्रतशिक्षापारस्य पञ्चविधविनय वृत्त' स्ववशीकृतमनस अनियतवासो युक्त। जो समाधिमरणके लिए योग्य है, जिसने मुक्तिके उपायभूत लिगको धारण किया है, जो शास्त्राध्ययन करनेमें तत्पर है, पॉच प्रकारका विनय करनेवाले, अपने मनको वश करने वाले. ऐसे मुनियो के लिए ग्राम नगर आदिक अनियत क्षेत्रमे निवास करना है।
४. अनियत विहारका महत्त्व भ. आ/मू /१४२-१५०/३२४-३४४ दसणसोधी ठिदिकरणभावणा,
अदियत्तकुसलत्त । खेपरिमग्गणावि य अणियदवासे गुणा होति ११४२। जम्मण अभिणिवखवण णाणुप्पत्ती य तित्थणिसहीओ। पासंतस्स विजाण सुविसुद्ध द सणं होदि ।१४३। स विग्ग स विग्माण जणयदि सुविहिदो। सुविहिदाण जुत्तो आउत्ताण विसुद्धलेस्सो सुलेस्साणं ।१४४। अनियत बिहारी साधु को सम्यग्दर्शनकी शुद्धि,
६. विहार विधि योग्य कृतिकर्म भ. आ./वि./१५०/३४४/६ स्वावासदेशदेशान्निर्गन्तुमिच्छता शीतलादुष्णाद्वा देशाच्छरीरप्रमार्जन कार्य, तथा विशतापि। किमर्थ । शीतोष्णजन्तूनामाबाधापरिहारार्थ अथवा श्वेतरक्तगुणासु भूमिषु अन्यस्या नि क्रमेण अन्यस्याश्च प्रवेशने प्रमार्जन कटिप्रदेशादध' कार्य । अन्यथा विरुदयोनिसक्रमेण पृथिवीकायिकाना तभूमिभागोत्पन्नाना साना चाबाधा स्यात् । तथा जलं प्रविशता सचित्ताचित्तरजसो पदादिषु लग्नयोनिरास । यावच्च पादौ शुष्यतस्तावन्न गच्छेज्जलान्तिक एव तिष्ठेत । महतोना नदीना उत्तरणे आराद्भागे कृतसिद्धवन्दन' यावत्परकूलप्राप्तिस्तावन्मया सर्व शरीरभोजनमुपकरण च परित्यक्तमिति गृहीतप्रत्याख्यान समाहितचित्तो द्रोण्यादिकमारोहेत् । परकूले च कायोत्सर्गेण तिष्ठेत् । तदतिचारव्यपोहाथ । == स्व आवासदेशसे देशान्तरको जानेका इच्छुक साधु जब शीतल रथानसे उष्ण रथान में अथवा उष्ण स्थानसे शीतल स्थान में, श्वेत भूमिसे रक्त भूमिमे अथवा रक्त-भूमिसे श्वेत भूमिमे प्रवेश करता है तब उसे कोमल पीछीसे अपने शरीरका प्रमार्जन करना चाहिए अन्यथा विरुद्ध योनि संक्रम द्वारा क्षुद्र पृथिवीकायिक व त्रस जीवोको बाधा होगी। जलमे प्रवेश करने के पूर्व साधुको पॉव आदि अवयवोसे सचित्त ब अचित्त धूलिको दूर करना चाहिए और जलसे बाहर आनेपर जबतक पॉव न सूख जाय तबतक जल के समीप हो खड़ा रहे । बडी नदियोंकी उल्लघन करते समय प्रथम तट पर सिद्ध वन्दना कर दूसरे तटकी प्राप्ति होनेतकके लिए शरीर आहार आदिका प्रत्याख्यान करना चाहिए । प्रत्याख्यान करके नौका वगैरहपर आरूढ होवे। और दूसरे तटपर पहुँचकर अति चार दूर करनेके लिए कायोत्सर्ग करना चाहिए । (भ.आ/वि /६६/२३४/८,१२०६/१२०४/६) । * अवसर पड़नेपर नौकाका ग्रहण-दे० ऊपर वाला शीर्षक।
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विहार
७. साधुके विहार योग्य क्षेत्र व मार्ग
भआ // १२ / १४१ संजजणस्स य जहिं फामुविहारो य मुलभबुतीय खेतं विहरतो पाहिदि सोलो ११३२ फामुविहारो य प्रातुकं विहरण जीवबाधारहितं गमनं अत्रसहरितमहुलाकमयाच क्षेत्रस्य सुलभत्तीय सुखेनामलेयोन लभ्यते वृत्तिराहारो यस्मिम्ले त सेचं क्षेत्रं यमी मुनिको शसुक और सुलभ वृत्ति योग्य क्षेत्रका अलोकन करना योग्य है । जहाँ गमन करनेसे जीवोको बाधा न हो, जो त्रस जीवो व मनस्पतियोंसे रहित हो, जहाँ बहुत पानी व कीचडन हो वह क्षेत्र प्राशुक है। मुनियोंके निहारके योग्य है जिस क्षेत्रने नियोको सुलभता से आहार मिलेगा यह क्षेत्र अपनेको व अन्य मुनियोको सल्लेखनाके योग्य है ।
मू. आ./३०४-३०६ सयडं जाण जुग्गं वा रहो वा एवमादिया । बहुसो जेई सो मग्यो फामुखी हवे ॥२०४॥ हमी अरसों खरीदी बा गोमहिसगलया। महुसो पेण भवति सो मग्गी का हवे । २०५ इच्छी पुसादिति आदावेग थ ज हर
सत्यपरिदो चैत्र सो मग्गो फाइओ हवे |३०६ गाडी, हाथीकी अवारी, डोली आदि, रथ इत्यादिक बहुत बार जिस मार्ग से चलते हो वह मार्ग प्रामुक है | २०४४ हाथी, घोडा, ऊँट, गाय, भैंस, बकरी आदि जो बहुत बार जिस मार्ग से गये हो, वह मार्ग प्रासुक है | ३०५ | स्त्री, पुरुष, जिस मार्ग में तेजीसे गमन करे और जो सूर्य आदिके आता व्याप्त हो तथा हतादिसे जीता गया हो, वह मार्ग प्रामुक है। ऐसे मार्ग से चलना योग्य है । ३०६ ।
२. अहंत भगवान्की विहार चर्या
* भगवान्का विहार इच्छा रहित है - दे० दिव्यध्वनि /१/२
१. भाकाशमें पदविक्षेप द्वारा गमन होता है।
स्वस्तो / १०८ । भूरपि रम्या प्रतिपदमासीज्जात विकोशाम्बुजमृदुहासा | १०८ हे मक्तिनाथ जिन आपके बिहार के समय पृथिवी भी पद-पदपर विकसित कमलोसे मृदु हास्यको लिये हुए रमणीक हुई थी।
ह. पु/३, २४ पादपद्म' जिनेन्द्रस्य सप्तपद्मे पदे पदे । भुवेव नभसागच्छदुद्गच्छद्भि प्रपूजितम् | २४| = भगवान् पृथिवीके समान आकाश मार्गसे चल रहे थे, तथा उनके चरण कमल पद-पदपर खिले हुए सात-सात कमलोसे पूजित हो रहे थे ।२४ चैत्यभक्ति १ की टोका) ।
एकीभावस्तोत्र / ७ पादन्यासादपि च पुनतो यात्रया तेजिलोकी, हेमाभासो भवति सुरभि श्रीनिवासश्च पद्म 1 " = हे भगवन् आपके पावन्यास से यह त्रिलोकी पृथिवी स्वर्ण सरीखी हो गयी ।
भक्तामर स्तोत्र / १६ पादौ पदानि तव यत्र जिनेन्द्र धत्त पद्मानि तत्र विबुधा परिकल्पयन्ति । ३६ हे जिनेन्द्र आप जहाँ अपने दोनो चरण रखते है वहाँ ही देव जन कमलोकी रचना कर देते है ।
दे० अर्हत / ६ - ( 'आकाश गमन' यह भगवान्के केवलज्ञानके अतिशयो मे से एक है ) |
चेर भक्ति / टोका/१ तेपामा प्रचारी रचना 'पादन्यासे पद्म पुर पृशतरच सत इत्येवंरूप तत्र मम्मी प्रवृता। - | वृत्त 'हेमाम्भोजप्रचारविभता' ऐसा पद है उसका अर्थ करते है।] भगवा चुके दोनों चरणका प्रचार अर्थात् रचना भगवान्
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वीतराग स्तोत्र
पादन्यास के समय उनके चरणोके नीचे सात सात कमलोंकी रचना होती है। उससे उनके चरण शोभित होते है ।
२. आकाश में चरणक्रम रहित गमन होता है।
चैत्य भक्ति / टीका / ९ प्रचार प्रशेऽन्यजनासंभवी चरणक्रमसंचाररहिताचारो गमनं तेन विजा 'सौ विलसिती शोभितो - [मूल श्लोकमे 'हेमाम्भोजप्रचारविजृम्भितौ' यह पद दिया है । इसका अर्थ करते है ] प्रचार अर्थात् प्रकृष्ट चार या गमन । अन्य जनोको जो सम्भव नही ऐसा चरणक्रम संचारसे रहित गमन के द्वारा भगवाके दोनो चरण शोभित होते है।
३. कमलासनपर बैठे-बैठे ही विहार होता है।
जिन सहस्रनाम (ज्ञानपीठ प्रकाशन ) । पृ २०७, १०८, ६०, १६७, १८३ का भावार्थ - [भगवाद सुषभदेवका केवलज्ञान का कुछ कम पूर्वकोटि और भगवान महावीरका २० वर्ष प्रमाण (दे० सीकर)] उपरोक्त प्रभागो मे भगवान्को स्कृत कुछ न पूर्वकोटि और कदन्यत २० वर्षप्रमाण कामक पद्मासन से स्थित रहना बताया है । इस प्रकार अपने सम्पूर्ण केवलज्ञान कालमे एक आसनपर स्थित रहते हुए ही बिहार व उपदेश आदि ' देते हैं । अथवा जिस १००० पॉखुडी वाले स्वर्ण कमलपर ४ अंगुल ऊँचे स्थित है वही कमलासन या पद्मासन है । ऐसे पद्मासन से ही ये उपदेश बिहार बादि करते है। विहारवत् स्वस्थान वीचार-विचार
वीचारस्थान दे. स्थिति / १ ।
वीतभय - म. प्र./५१ / श्लोक - पूर्व घातकी खण्डमें राजा अदासकी पुत्री से उत्पन्न एक बलभद्र था । दीर्घकाल राज्य किया ।२७६-२७६ ॥ अन्तमे दीक्षा ले लान्तव स्वर्ग में उत्पन्न हुआ 1250। यह 'मेरु' नामक घरका पूर्वका दूसरा भव है - दे मेरु ।
वीतराग- १. लक्षण
घ. १/१.१.११ / १०८/१ बीतो नहो रागो येषा ते वीतरागाजिनका राग नष्ट हो गया है उन्हे वीतराग कहते है ।
प्र. सा / ता. प्र / १४ सकल मोहनीयविपाक विवेकभावनासौष्ठव स्फुटीकृतनिकारात्मस्वरूपाद्विगतराम सकल मोहनीयले विपक मेकी भारतकी उतासे (समस्त मोहनीय कर्मके उदयसे शिनत्वको उत्कृष्ट भावनासे निर्विकार आत्मस्वरूपको प्रगट किया होने से जो वीतराग है. यह भ्रमण खोपयोगी है)।
ल सा./जी. प्र. / ३०४/३८४/१७ वीतोऽपगतो राग संक्लेशपरिणामो यस्मादसी वीतराग राग अर्थात सरतेश परिणाम न हो जानेसे
वीतराग है ।
वैराग्य 1
दे. सामायिक / १ / समता ( समता, माध्यस्थ्य, शुद्धभाव, वीतरागता, चारित्र, धर्म, स्वभावकी आराधना मे सम एकार्थवाची है।)( और भी वे मोक्षमार्ग (२/२) ★ वैराग्य व वैरागी वीतराग कथा -- दे. कथा वीतराग चारित्र - दे. चारित्र / १ । वीतराग छद्मस्थ - दे. छद्मस्थ / २ । वीतराग सम्यग्दर्शन-देन 11४॥ वीतराग स्तोत्र श्वेताम्वराचार्य हेमचन्द्रसूरि (ई. १०८०११७३ ) कृत एक सस्कृत छन्दबद्ध स्तोत्र |
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वीतशोक
वीतशोक- - १. एक ग्रह - दे. ग्रह । २ विजयार्धको उत्तर श्रेणीका
एक नगर -- दे. विद्याधर ।
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वीतशोका- १. अपर बिदेहके सरित क्षेत्रकी प्रधान नगरी-दे, लोक / २२. नन्दीश्वर द्वीपको दक्षिण दिशामे स्थित एक नापी०४/२/१९ वीर१. नि. /सा./ता.वृ./१ बोरो विक्रान्त वीरयते शूरयते विक्रा मति कर्मारातीन् विजयत इति वीर श्री वर्द्धमान-सन्मतिनाथ - महतिमहावीराभिधाने सनाथ परमेश्वरो महादेवाधिदेव पश्चिमसोनाथ वीर अर्थादि विक्रान्त (पराक्रमी), मीरता प्रगट करे, शौर्य प्रगट करे, विक्रम (पराक्रम) दर्शाये, कर्म शत्रुओपर विजय प्राप्त करे, वह 'वोर' है । ऐसे वीरको जो कि श्री वर्द्धमान, श्री सन्मतिनाथ, श्री अतिवीर तथा श्री महावीर इन नामोसे युक्त है. जो परमेश्वर है, महादेवाधिदेव है तथा अन्तिम तोर्थनाथ है ।-(विशेष महामौर २ म. पू. /सर्ग/रो अपर नाम गुज
*
था । ( ४७/३७५ ) । पूर्व भव नं. ६ मे नागदत्त नामका एक वणिकपुत्र था । (८/२३१) । पूर्व भव न. ५ में वानर ( ८ / २३३ ) । पूर्व भव न. ४ मे उत्तरकुरुमे मनुष्य (६/१०) पूर्वभय न. ३ मे ऐशान स्वर्ग मे देव १०७) पूर्वभवनं २ में रविमेव राजाका पुत्र चित्रा (१०/१९५१) | पूर्वभव न. १ में अच्युत स्वर्गका इन्द्र ( १० / १७२ ) अथवा जयन्त स्वर्ग मे अहमिन्द्र ( ११ / १०, १६० ) । वर्तमान भवमे वीर हुआ (१६/३) [ युगपत् सर्वभव दे . ५/४०/२०४३७५] भरत चक्रवर्तीका छोटा भाई था ( १६ / ३ ) । भरत द्वारा राज्य माँगनेवर दीक्षा धारण कर सी (३४२/९२६) भरतको के पाव भगवान् ऋषभदेव के गुणसेन नामक गणधर हुए (४०/३७५)। अन्तमे मोक्ष सिधारे ( ४७ / ३६६ ) । ३ विजयार्धको उत्तर श्रेणीका एक नगर - दे, विद्याधर । ४ सौधर्म स्वर्गका वाँ पटल - दे स्वर्ग /५/३ ।
•
वीरचंद्र १ नागसेन (ई. १०४७) के शिक्षा गुरु । समय तदनुसार ईश ११ पूर्व । (दे, नागसेन । २ नन्दिसघ बलात्कार गण की सूरत शाखा में लक्ष्मीचन्द्र के शिष्य । कृतिये-वीर विलास फाग, जम्बू स्वामी लि. जिनान्तर सीमन्धर स्वामी गीत इत्यादि काव्य । समय-वि १६६६ १४८५ (वे इतिहास /०/४). (ती./३/२७४)।
वीर जयंतीव्रत भगवान् वीरकी जन्म तिथिको अर्थात् चैत्र शु. १३ को उपवास करे। 'ओ हो श्री महावीराय नमः ' इस मन्त्रका त्रिकाल जाप्य करे ।
वीरनंदि -१ नन्दिसघ बलात्कारगणकी गुर्वावलीके अनुसार आप वसुनन्दिके शिष्य तथा रत्ननन्दिके गुरु थे । समय - विक्रम शक ४३१-६६१ ०१-६२१) - ( दे इतिहास / ०/ २) २ नन्दि संघ देशीयगण के अनुसार आप पहले मेघ के शिष्य थे और पीछे विशेष अध्ययन के लिए अभयनन्दि की शाखा में आ गए थे इन्द्रनन्दि तथा नेमिचन्द्र सिद्धान्त चक्रवर्ती के सहधर्मा थे, परन्तु ज्येष्ठ होने के कारण आपको नेमिचन्द्र गुरु तुल्य मानते है । कृतिये - चन्द्रप्रभ चरित्र (महाकाव्य), शिल्पसंहिता, आचारसार । समय - नेमिचन्द के अनुसार ई १५०-६६६ । (दे इतिहास / ७/५), (तो / ३ / ५३-५५) । ३. नन्दिसंघ देशीयगण की गुणनन्द शाखा के अनुसार आप दाम नन्दि के शिष्य तथा श्रीधर के गुरु थे। समयवि. १०२५-१०५५ (ई. १६८-६६८) । (दे इतिहास / ७ / ५) । ४. नन्दिसघ देशीयगण के अनुसार आप मेघचन्द्र त्रैविद्य देव के शिष्य है । कृति - आचारसार तथा उसकी कन्नड़ टीका । समय- मेघचन्द्र के
वीर्य
समाधिकाल (शक १०३७ ) के अनुसार ई. श. १२ का मध्य । (ती / ३ / २७१) ।
वीरनिर्वाण संवत् इतिहास / २२.१०
(विशेष दे कोश १/ परिशिष्ट / १ ९) । वीर मातंडी - वामुण्डराय ( ई. श १०-११ ) द्वारा रचित गोमट्टसारको कन्नड वृत्ति | वीरवित
पुन्नाटसबकी गुर्वावली के अनुसार आप सिह्ननके शिष्य तथा पद्मसेनके गुरु थे-दे इतिहास / ७/८ ।
वीर शासन दिवस दे. महावीर
।
वीर शासन जयंतीव्रत भगवान् बीरकी दिव्यध्वनिकी प्रथम तिथि श्रावण कृ. १ को उपवास करे । 'ओ ही श्री महावीराय नम इस मन्त्रका त्रिकाल जाप्य करे। (व्रत विधान सग्रह / पृ १०४ ) वीरसागर - बम्बई प्रान्तके वीर ग्राम निवासी एक खण्डेलवाल जैन थे। पिताका नाम रामदास था। श्री शान्तिसागर के शिष्य तथा १६८१ आ. शिवसागर के गुरु थे। आश्विन शु. ११ मि. को दक्षिस हुए। अपने अन्तिम दो वर्षों में आचार्य पदपर आसीन रहे । समयवि. १९८१-२०१४ ( ई १६२४-१६५७ )
के अन्वय
१. पचस्तूप सघ
वीरसेनमें आप आर्यनन्दि के शिष्य और जिनसेन के गुरु थे। चित्रकूट निवासी ऐलाचार्य के निकट सिद्धान्त शास्त्रों का अध्ययन करके आप बाटग्राम (बडौदा ) आ गए। वहा के जिनालय में षटखण्डागम तथा कषायपाहुड की आ arपदेव कृत व्याख्या देखी जिससे प्रेरित होकर आपने इन दोनों सिद्धान्त ग्रन्थों पर धक्ला तथा जयघवला नाम की विस्तृत टीकाये लिखी। इनमें से जयधवला की टीका इनकी मृत्यु के पश्चात् इनके शिष्य जिनसेनाचार्य ने ई. ८३७ में पूरी की थी। धवला की पूर्ति के विषय में मतभेद है। कोई ई. ८९६ में और कोई ई. ७८१ में मानते है । हरिवश पुराण में पुन्नाटसघीय जिनषेण द्वारा जयधवलाकार जिनसेन का नामोल्लेख प्राप्त होने से यह बात निश्चित है कि शक ७०३ (ई. ७८१) में उनकी विद्यमानता अवश्य थी। (दे, कोष २ में परिशिष्ट १) पुन्नाट संथ को गुर्वावली के साथ इसकी तुलना करने पर हम वीरसेन स्वामी को शक ६६०-७०४१ (ई ७७० - ८२७) में स्थापित कर सकते है /१/२४५ (ती./२/२२४) २. माधुर
की गुर्वावली के अनुसार आप रामसेन के शिष्य और देवसेन के गुरु थे । समय - वि. ६५० - ६८० (ई ८८३-१२३) । (दे इतिहास / ७ /११) । ३ लाडवागड गच्छ का गुर्वावली के अनुसार आप ब्रह्ममेन के शिष्य और गुणसेन के गुरु थे। समय- वि. १९०५ (ई. १०४८) । (दे. इतिहास / ७ /१० ) । वीरसेन - *ह पु / ४३ / श्लो. न - वटपुर नगर का राजा था | १६३। राजा मनु द्वारा स्त्रीवा अपहरण हो जाने पर पागल हो गया | १७७ | तापस होकर तप किया, जिसके प्रभावसे धूमकेतु नामका विद्याधर हुआ |२२१| यह प्रद्युम्न कुमारको हरण करनेवाले धूमकेतुका पूर्व भव है। दे० धूमकेतु
वीरासन — दे आसन ।
वीर्य -
ससि /६/६/३२३ / १२ द्रव्यस्य स्वशक्तिविशेषो वीर्यम् । द्रव्यकी अपनी वीर्य है। रा.वा./६/६/६/१२/७) ।
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वीर्य प्रवाद
ध. १३/५,५,१३८/३६०/३ वीर्य शक्तिरित्यर्थ: ।-वीर्यका अर्थ शक्ति है। मोक्ष पंचाशत/४७ आत्मनो निर्विकारस्य कृतकृत्यत्वधीश्च या। उत्साहो वीर्य मिति तत्कीर्तितं मुनिपुंगवै।।४७-निर्विकार आत्माका जो उत्साह या कृतकृत्यत्वरूप बुद्धि, उसे ही मुनिजन वीर्य कहते है। स, सा/आ./परि/शक्ति नं.६ स्वरूपनिर्वर्तनसामर्थ्यरूपा वीर्यशक्ति' ।
-स्वरूप ( आत्मस्वरूपकी) रचनाकी सामर्थ्यरूप वीर्य शक्ति है।
हरिवंशलाल खुशालचन्द सहारू साह सीता राम हीरानन्द साह लाल जी ।।।।। धर्मचन्द्र
राजारामअभयराज उदय राजभोज राजजोग राज
२. वीर्यके भेद
न. च. वृ१४ को टिप्पणी-क्षायोपशमिकी शक्ति क्षायिकी चेति
शक्तेदाँ भेदी ।क्षायोपश मिकी व क्षायिकीके भेदसे शक्ति दो प्रकार है।
महावीर- वृन्दावन प्रसाद
। अजितदास शिखर चन्द
सुन्दरदास पुरषोत्तमदास हरिदास
शिरोमणी
३. क्षायिक वीर्यका लक्षण स, सि /२/४/१५४/१० वीर्यान्तरायस्थ कर्मणोऽत्यन्तक्षयादाविर्भूतमनन्तवीर्य क्षायिकम् । वीर्यान्तराय कर्मके अत्यन्त क्षयसे क्षायिक
अनन्त वीर्य प्रगट होता है। (रा. वा /२/४/६/१०६/१)। रा. बा /२/४/७/११४/१५ केवलज्ञानरूपेण अनन्तवीर्यवृति ।- सिद्ध
भगवान् में केवलज्ञानरूपसे अनन्त वीर्यकी वृत्ति है । प प्र./टी/१/६१/६९/१२ केवलज्ञानविषये अनन्तपरिच्छित्तिशक्तिरूपमनन्तबोयं भण्यते। केवलज्ञानके विषय में अनन्त पदार्थों को जाननेकी जो शक्ति है वही अनन्तवीर्य है (द्र, स /टी/१४/४२/११) ।
हनुमानदास, गुलाबदास, महताब, बुलाकंचन्द कृतियॉ-१ तीस चौबीसी पाठ, २ चौबीसी पाठ, ३. समवशरण पूजा पाठ, ४. अर्हत्पासाकेवली, ५. छन्दशतक, ६ वृन्दावन विलास, (पिंगल ग्रन्थ), ७. प्रवचनसार टीका। समय, ई.१८०३-१८४८ । वि. १८६०-१६०५ ।वि.१९०५ में अन्तिम कृति प्रवचनसार टीका पूरी
की। (वृन्दावन विलास/प्र प्रेमी जी) । (ती०/४/२६६) वृंदावन विलास-कवि वृन्दावन (ई १८०३-१८४८ ) रचित एक
भाषा पदसंग्रह। वृंदावली-आवलीके समय/३। वृकार्थक-भरतक्षेत्र मध्य आर्यखण्डका एक देश-दे. मनुष्य/४ । वृक्ष-जैनाम्नायमें कल्पवृक्ष व चैत्य वृक्षोंका प्रायः कथन आता है।
भोगभूमिमे मनुष्योकी सम्पूर्ण आवश्यकताओंको चिन्ता मात्रसे पूरी करने वाले कल्पवृक्ष है और प्रतिमाओके आश्रयभूत चैत्यवृक्ष है। यद्यपि वृक्ष कहलाते है, परन्तु ये सभी पृथिवीकायिक होते है, वनस्पति कायिक नही।
४. वीर्यगुण जीव व अजीव दोनों में होता है गो. क./जी. प्र/१६/११/१० वीर्य तु जीवाजीवगतमिति । वीर्य जीव तथा अजीब दोनों में पाया जाना है।
५. वीर्य सर्व गुणोंका सहकारी है द्र, सं./टी/१/१५/७ छद्मस्थानां वीर्यान्तरायक्षयोपशम केबलिना तु निरवशेषक्षयो ज्ञानचारित्राद्य त्पत्ती सहकारी सर्वत्र ज्ञातव्यः । =-छद्मस्थानों के तो वीर्यान्तरायका क्षयोपशम और केवलियोके उसका सर्वथा क्षय ज्ञान चारित्र आदिकी उत्पत्तिमे सर्वत्र सहकारी कारण है।
* सिद्धोंमें अनन्त वीर्य क्या-दे दान/२। वीर्य प्रवाद-श्रुतज्ञानका तीसरा पूर्व-दे. श्रुतज्ञान/III । वीर्य लब्धि -दे, लब्धि /१। वीर्यांतराय-दे. अन्तराय। वीर्याचार-दे. आचार।
१. कल्पवृक्ष निर्देश
१. कल्पवृक्षका सामान्य लक्षण ति.प/४/३४१ गामणयरादि सव्य ण होदि ते होंति सम्यकप्पतरू। णियणियमणसंकप्पियवत्थूणि देति जुगलाणं ।३४१॥ - इस ( भोगभूमिके) समय वहाँपर गाँव व नगरादिक सब नहीं होते, केवल वे सत्र कल्पवृक्ष होते है, जो जुगलोंको अपने-अपने मनकी कल्पित वस्तुओको दिया करते है।
२. १० कल्पवृक्षोंके नाम निर्देश ति /४/३४२ पाणंगनूरियंगा भसणवत्थंगभोयणं गा य । आलयदीवियभायणमालातेजग आदि कप्पतरू ३४२। -भोगभूमिमें पानाग, तूर्यांग, भूषणाग, वस्त्राग. भोजनांग, आलयाग, दीपाग, भाजनाग, मालाग और तेजाग आदि कल्पवृक्ष होते है ।३४२। (म. पु/8/३६), (त्रि सा./७८७) ।
३.१० कल्पवृक्षोंके लक्षण ति. प/४/३४३-३५३ पाणं मधुरसुसादं छरसे हि जुद पसत्थमइसीद । बनोसभेदजुत्त पाणगा देंति तुठ्ठिपुट्टियर ।३४३॥ तूर गा
वृदावन-शाहाबाद जिलेके बनारस व आराके मध्य बारा नामके ग्राममे वि १८४२ में जन्म हुआ। अप्रवालवशके गोयल गोत्री थे। पीछे बि. स. १८६० मे बारा छोडकर काशी रहने लगे। भाषाके प्रसिद्ध कवि थे। प्रवचनसारकी प्रशस्तिके अनुसार आपकी वंशावली निम्न प्रकार है
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भा० ३-७३
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वृक्ष
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१. कल्पवृक्ष निर्देश
बरवीणापटुपटहमुइंगझलरीसंखा । दंदुभिभभाभेरीकाहलपहूदाइ देति तूरग्गा |३४४। तरओ वि भूसण गा ककणकडिसुत्तहारकेयूरा। मंजीरकडयकुंडलतिरीडमउडादिय देति ।३४॥ वत्थंगा णित्त पड़चीणसुवरखउमपहुदिवस्थाणि । मणणयणाण दर णाणावस्थादि ते देंति १३४६। सोलसविहमाहार सोलसमेयाणि वेंजणाणि पि। चोदसबिहसोबाई' रवज्जाणि विगुणच उवण ३४७१ सायाणं च पयारे तेसट्ठीसंजुदाणि तिसयाणि रसभेदा । तेसट्ठी देति फुडं भोयण गदुमा ।३१८। सथिअणदावत्तप्यमुहा जे के वि दिब्वपासादा। सोलसभेदा रम्मा देति हुते आलमगदुमा ।३४६) दीवदुमा साहापबालफलकुसुमम कुरादीहिं । दोवा इव पज्ज लिदा पासादे देति उज्जोब ।३५० भायणअगा कचणबहरयणविणिम्मियाइ धवलाइ । भिंगारकलसगग्गरिचामरपीढादिय देति ॥३५१६ वल्लीतरुगुच्छलदुम्भवाण सोलससहस्सभेदाण । मालागदुमा देति हु कुसुमाण विविहमालाओ ।३५२॥ तेजगा मज्झदिण दिणयरको डीणकिरणसंकासा । णवत्तच दसरप्पहुदोणं कतिसहरणा (२५३॥ म. पृ/३/३७-३६ मद्याडा मधुमैरेयसीध्वरिष्टासवादिकान् । रसभेदास्ततामोदान वितरन्त्यमृतोपमान ।३७१ कामोद्दीपनसाधात मद्यमित्युपचर्यते। तारको रसभेदोऽय य सेव्यो भोगभूमिजै ।३८मदस्य करण मद्य पान शौण्डै र्यदारतम् । तद्वर्जनीयमाणाम् अन्त करणमोहदम् ३६ - इनमें से पानांग जातिके कल्पवृक्ष भोगभूमिजोको मधुर, सुस्वादु, छह रसोसे युक्त, प्रशस्त. अतिशीत और तुष्टि एव पुष्टिको करनेवाले, ऐसे बत्तीस प्रकारके पे द्रव्य दिया करते हैं। (इसीका अपर नाम मद्याग भी है, जिसका लक्षण अतमे क्यिा है ) ३४३। तूर्याग जातिके कल्पवृक्ष उत्तम बीणा, पटु, पटह, मृदंग, झालर, शरख, दुदुभि, भंभा, भेरी और काहल इत्यादि भिन्न-भिन्न प्रकारके वादित्रोंको देते है।३१४। भुषणाग जातिके कल्पवृक्ष ककण, कटिसूत्र, हार, केयूर, म जोर, कटक, कुण्डल, किरीट और मुकुट इत्यादि आभूषणोको प्रदान करते है।३१। वे वस्त्राग जातिके कल्पवृक्ष नित्य चीनपट एव उत्तम क्षौमादि वस्त्र तथा अन्य मन और नयनोको आनन्दित करनेवाले नाना प्रकारके वस्त्रादि देते है।३४६। भोजाग जातिके कल्पवृक्ष सोलह प्रकारका आहार व सोलह प्रकारके व्य जन, चौदह प्रकारके सूप (दाल आदि ), एक सौ आठ प्रकारके खाद्य पदार्थ, स्वाद्य पदार्थोके तीन सौ तिरेसठ प्रकार, और तिरेसठ प्रकारके रसभेदोको पृथक्-पृथक् दिया करते है। ३४७ ३४८ । आलयांग जातिके सपवृक्ष, स्वस्तिक और नन्द्यावत इत्यादिक जो सोलह प्रकार के रमणीय दिव्य भवन होते है उनको दिया करते है। 1३४६। दीपांग जातिके कल्पवृक्ष प्रासादोमे शाखा, प्रवाल (नवजात पत्र), फल फूल और अकुरादिके द्वारा जलते हुए दीपकोके समान प्रकाश देते है ।३५० भाजनांग जातिके कल्पवृक्ष सुवर्ण एव बहुतसे रत्नोंसे निर्मित धवल झारी, कलश, गागर, चामर, और आसनादिक प्रदान करते है ।३.१। मालाग जातिके कल्पवृक्ष वल्ली. तरु, गुच्छ,
और लताओसे उत्पन्न हुए सोलह हजार भेदरूप पुष्पोकी विविध मालाओको देते है ।३४२॥ जाग जातिके क्रुपवृक्ष मध्य दिनके करोडो सुर्योंकी किरणों के समान होते हुए नक्षत्र, चन्द्र, और सूर्यादिक्की कान्तिका सहरण करते हे। ३५३। (म पु/8/३६-४८) (पानांग जाति के कल्पवृक्षको मद्याग भी कहते है) इनमे मद्याग जाति के वृक्ष फैलती हुई मुगन्धीसे युक्त तथा अमृत के समान मीठे मधु-मैरेय, सीधु, अरिए और आसव आदि अनेक प्रकारके रस देते है ।३७। कामोद्दीपनकी समानता होने से शीघ्र ही इन मधु आदिको उपचारसे म्द्य कहते है। बास्तवमे ये वृक्षोके एक प्रकार के रस है जिन्हे भोगभूमि में उत्पन्न होनेवाले आर्य पुरुष सेवन करते है ।३८। मद्यपायी लोग जिस मद्यका पान करते है. वह नशा करने वाला है और अन्त करणको म'हित करने वाला है, इसलिए आर्य पुरुषों के लिए सर्वथा त्याज्य है ।।
* वृक्षों व कमलों आदिका अवस्थान, विस्तार व चित्र
-दे० लोक। 1. कोकमें वर्णित सब वृक्ष व कमल आदि पृथिवी
कायिक होते हैं ति प/४/गाथा नं, गंगाणईण मज्झे उभास दि एउ मणिमओ कूडो । ।२०५। वियलियकमलायारो रम्मो देरुलियणालसत्तो । २०६ चामीयरकेसरेहि संजुत्तो ।२०७। ते सव्वे कप्पदुमा ण बणप्फदी णो वेतरा सव्वे । णवरि पुढविसरूवा पुण्णफल देति जीवाणं ।३५४॥ सहिदो वियसिअकुसुमेहि सुहस चयरयणरचि देहि ।१६५६। दहमज्झे अरविंदयगाल बादालकोसमुव्विद्ध । इगिकोस बाहवलं तस्स मुणालं ति रजदमयं ।१६६७ कदो यरिट्ठरयण णालो वेरुलियरयण णिम्मविदो। तस्सुवरि दरवियसियपउम चउकोसमुव्यिद्ध १६६८ सोहेदि तस्स खंधो फुर तवरक्रिणपुस्सरागमओ ।२१५३। साहासु पत्ताणि मरगयवेरुलियणीलईदाणि। विविहाइ कक्केयणचामीयरबिन्दुममयाणि (२१५७ सम्म लितरुणो अकुर कुसुमफलाणि विचित्तरयगाणि । पणपवण्णसोहिदाणि णिरुवमरूवाणि रेति ।२१५८। सामलिरुक्खसरिच्छ ज बुरुक्खाण बण्णण सयलं ।२१६६। ति प/८/४०५ सयलिदम दिराणं पुरदो णग्गोहपायवा होति। एक्केक्क पुढमिमया पुचोदिद जबुदुमस रिसा ।४०५। -१ गगा नदी के बीच में एक मणिमय कूट प्रकाशमान है ।२०। यह मणिमय कूट विकसित कमल के आकार, रमणीय और बैडूर्यमणि मालमे संयुक्त है ।२०६॥ यह सुवर्ण मय परागसे संयुक्त है ।२०७४ (ति. ५/४/३५३-३५६) । २ ये सब कल्पवृक्ष न तो वनस्पति ही है और न कोई व्यन्तर देव है, किन्तु विशेषता यह है कि ये सब पृथिवीरूप होते हुए जीवोंको उनके पुण्य कर्मका फल देते है ।३५४। (म पु/8/४६), (अन ध । १/३८/५८ पर उद्धृत। ३. पद्म द्रह शुभ स चय युक्त रत्नोसे रचे गये विकसित फूलों से सहित है १६५६। तालाबके मध्य में व्यालीस कोस ऊँचा और एक कोस मोटा कमलका नाल है। इसका मृणाल रजतमय और तीन कोस बाल्य से युक्त है । १६६७ । उस कमलका कन्द अरिष्ट रत्नमय और नाल बैडूर्य मणिसे निर्मित है। इसके ऊपर चार कोस ऊँचा विकसित पद्म है ।१६६८। ( सो कमल पृथिवी साररूप है बनस्पति रूप नाही है-(त्रि, सा/भाषाकार) (त्रि. सा./ ५६६)। ४ उस शाल्मली वृक्षका प्रकाशमान और उत्तम किरणोसे सयुक्त पुरख राजमय स्कन्ध शोभायमान है। २१५५ । उसकी शाखाओंमें मरकत, वैडूर्य. इन्द्रनील, कर्केतन, सुवर्ण और मुंगेसे निर्मित विविध प्रकारके पत्ते है ।२१५७। शाल्मली वृक्षक विचित्र रत्नस्वरूप
और पाँच वर्णोसे शोभित अनुपम रूपवाले अंकुर, फूल एव फल शोभायमान है ।२१५८। जम्बूवृक्षोंका सम्पूर्ण वर्णन शाल्मली वृक्षोके ही समान है ।२१६६।। ५ समस्त इन्द्र मन्दिरोके आगे न्यग्रोध वृक्ष होते है। इनमे एक एक वृक्ष पृथिबीस्वरूप और पूर्वोक्त जम्बूवृक्ष के सदृश है । (८/१०४)। स, सि //सूत्र/पृष्ट/पक्ति उत्तरकुरूणा मध्ये जम्बूवृक्षोऽनादिनिधन' पृथिवीपरिणामोऽकृत्रिम सपरिवार । (६/२१२/६) जम्बूद्वीपे यत्र जम्बूवृक्ष स्थित , तत्र धातकीखण्डे धातकीबृक्ष सपरिवार.। (३३/ २२७/६ ) । यत्र जम्बृवृक्षस्तत्र पुष्कर सपरिवारम् । (३४/२२८/४)। - उत्तरकुरुमें अनादि निघन, पृथिवी से बना हुआ, अकृत्रिम और परिवार वृक्षोसे युक्त जम्बुवृक्ष है। जम्बूद्वीपमे जहाँ जम्बूवृक्ष स्थित है, धातकी खण्ड द्वीपमे परिवार वृक्षों के साथ वहाँ धातकी वृक्ष स्थित है। और पुष्कर द्वीपमें वहाँ अपने परिवार वृक्षोंके साथ
पुष्कर वृक्ष है। त्रि सा/६४८ णाणारयणुक्साहा पवालसुमणा मिदिगसरिसफला । पृढबिमया दसत गा मझग्गे छच्चदुव्यासा। वह जम्बूवृक्ष नाना
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वृक्ष
प्रकार रत्नमयी उपशाखाओ से मूँगा समान फूलोसे तथा मृदग समान फक्त पृथिवीमय है, चनरपतिरूप नहीं है।
२. चैत्य वृक्ष निर्देश
१. जिन प्रतिमाओ प्राश्रय स्थान होते हैं तिचे
मूस परोकर उदिसामुत्र चेति जिपडिमा पलियकठिया सुरेहि महनिला 135 वृक्ष के मूल चारों दिशाओदिशा पास स्थित और देवामे पूजनीय पाँच-पाँच जिन प्रतिमाएँ विराजमान होती है -३ (दि. प / ३ / १३७), (त्रिसा / २१५ ) |
दि
२/० ममिमहाडहेर जुत्ता एसम्म पतार तार एक-एक के आश्रित आट महाप्रातिहार्यो से सयुक्त चार चार मणिमत्र जिन प्रतिमाएँ होती है ।०७। (त्रि सा / २५४, १००२) (
२.
चैत्य
वृक्ष का स्वरूप व विस्तार
ति, प /३/३१-३६ तब्बाहिरे असोयं मत्तच्यदच पचवणपुण्णा । णियजाणता चेति चेतमा ३१ दोणि समा जोयणाणि पण्णासा । चत्तारो मज्मम्मिय अते कोसदूध१२ उच्विाणि पीडागि। पोटोवर मरम्मा चेति चेतमा ३ पक अवगाहं कासमेकमुद्दि ं । जोयणख दुच्छे हो साहादीहत्तण च चत्तारि |४| विविह्वररयण साहा विचित्तकुसुमो वसोभिदा सव्वे । वरमरगयचरत्ता दिव्वतरू ते विरायति |३५| विविध कुरुचेचझ्या विधिहरू विहिरयणपरिणामा छादित जुत्ता बटालादिरमपिज्जा ३६ ] भवनवासी देवोंके भवनो के बाहर बेडियों है ] वेदियो के बाह्य भाग चैत्यसे सहित और अपने नाना वृझोसे युक्त पवित्र अशोक वन, सप्तच्छदवन, चपकत्रन और आम्रवन स्थित है | ३१ चैr स्थलका विस्तार २५० योजन तथा ऊँचाई मध्यमे चार योजन ओर अन्त कोसप्रमाण होती है ३२ पीढोकी भूमिका विस्तार यह योजन और ऊँचाई चार योजन होती है। इन पीठीक उपर बहुमध्य भागमे रमणीय चैत्य वृक्ष स्थित ह े है । ३३ । प्रत्येक वृक्षका अवगाढ एक कोस, स्कन्धका उत्सेध एक रोजन और शाखाओकी लम्बाई योजनप्रमाण कहो गया है । ३४ । वे तब दिव्य वृत विविध प्रकार के उत्तम रत्नोकी शाखाआसे युक्त, विचित्र पुष्पोसे अलकृत और उत्कृष्ट मरकत मणिमय उत्तम पत्र से व्याप्त होते हुए अतिशय शोभाको प्राप्त होते है |३३| विविध प्रकार के अकुरोसे मण्डित. अनेक प्रकारके फलोसे युक्त, नानाप्रकार के रत्नोसे निर्मित छत्रके ऊपर छत्रसे सयुक्त घण्टाजाल रमणीय है |३६|
४ थो
५७९
220
यो
ति प /४/८०६-८१३ का भावार्थ २ समवशरणोमें स्थित चैत्यवृक्षो के आश्रित तीन-तीन कोटोसे वेष्टित तीन पीठो के प्पर चार-चार मानस्तम्भ होते है | जो बानियो क्रीडनशालाओ व नृत्यशालाओ व उपमियो शोभित है। २१०-०१२ ( इसका चित्र दे 'समवशरण) की ऊँचाई अपने-अपने रोकी ऊँचाई से १२ गुण है।
चैत्यवृक्ष भूमि
१०
२. वृक्ष
*
प्रमष्ट
२. चैत्यवृक्ष पृथिवीकायिक होते है
ति १/४/२० आदिक्षिणेण होगा पृढनिम्मा जोलिया होसिमामा देवोके भवनो में स्थित ) ये सब चेत्यक्ष प्रदिअन्त से रहित तथा पृथिवीका परिणामरूप होते हुए नियमसे जीवोकी उत्पत्ति और बिनाशके निमित्त होते हैं। इसी प्रकार पाण्डुस्मनके चैयावय तथा व्यन्तरदेवो भवनमे स्थित जो वैश्य है उनके सम्बन्धमे भी जानना] ( १/२/२००), (ति १/६/२) ( और भी दे ऊपरका शीर्षक }
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निर्दश
४. चैत्यवृक्षोके भेद निर्देश
ति प / ३ / १३६ सस्सत्यसत्तत्रण- सपलजनू य वेतसव डबा । तह पीगुसरिसा पलासरायमा कम । १३६ ।
ति प /६/२८ कमसो असोप्रचपणागदुमत्वूर य गोहे | कटयरुक्खो तुलसी कदम विदओ तिते २८ अशुरकुमारादि दस प्रकार के भवनवासी देवोके भवनो क्रमसे - अश्वत्थ ( पीपल ), सप्तपर्ण, शाल्मली, जामुन, वेतस, कदम्ब तथा प्रियगु, शिरीष, पलाश और राजद्रम ये दश प्रकारके चैत्यवृक्ष होते है | १३६ | किन्नर आदि आठ प्रकार के व्यन्तर देवोके भवनो मे क्रमसे - अशोक, चम्पक, नागद्रुम, तम्बूरु, न्यग्रोव ( वट), कण्टकवृक्ष, तुलसी और कदम्ब वृक्ष ये आठ प्रकार के होते है |२८|
=
ति प /४/८०५ एक्केकाए उवत्रणखिदिए तरवो यसोयसत्तदला । चपय
.
चूदा सुदरभूदा चत्तारि चत्तारि |50| = समवशरणो में ये अशोक, सप्तच्छद, चम्पक व आम्र ऐसे चार प्रकारके होते है । ८०५
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वृक्षमूल
वृत्ति परिसंख्यान
५. चैत्यवृक्ष देवोंके चिह्न स्वरूप हैं
१२१८। एक-दो आदि फाटको तक प्राप्त हो अथवा विवक्षित फाटक्में
प्राप्त ही, अथवा विवक्षित घरके ऑगनमें ग्राप्त ही, अथवा विवक्षित ति.प./४/१३५ ओलगसालापुरदो चेत्तदुमा होति विविहरयणमया।
फाटककी भूमि में प्राप्त ही, (घरमें प्रवेश न करके फाटककी भूमि में ही असुरप्पहुदि कुलाणं ते चिण्हाई इमा होति ।१३।। - (भवनवासी
यदि प्राप्त होगा तो), अथवा एक या दो बार परोसा ही, अथवा एक देवो के भवनोमें ) ओलगशालाओके आगे विविध प्रकारके रत्नोसे
या दो आदि दाताओं द्वारा दिया गया ही, अथवा एक या दो आदि निर्मित चैत्यवृक्ष होते है। वे ये चैत्य वृक्ष असुरादि देवोके कुलोसे
ग्रास ही, अथवा पिण्डरूप ही द्रवरूप नहीं, अथवा द्रवरूप ही पिण्डरूप चिह्नरूप होते है।
नही, अथवा विवक्षित धान्यादिरूप आहार मिलेगा तो ग्रहण करूगा
अन्यथा नहीं ।२१६। कुलत्यादि धान्योंसे मिश्रित ही, अथवा थाली६. अशोकवृक्ष निर्देश
के मध्य भात रखकर उसके चारो ओर शाक पुरसा होगा तो, अथवा ति, प./४/६१५-६१६ जेसिं तरूणमूले उप्पण्ण जाण केवल णाणं । उप- मध्यमें अन्न रखकर चारो तरफ व्यंजन रखे होगे तो, अथवा व्यंजनोंसहप्पहुदिजिणाणं ते चिय असोयरुक्ख त्ति।६१॥ णग्गोहसत्तपणं के बीचमे पुष्पोके समान अन्न रखा होगा तो, अथवा मोठ आदि साल सरलं पियंगु तं चेव । सिरिसं णागतरू वि य अक्खा धूली धान्यसे अमिश्रित तथा चटनी वगैरह व्यजनोसे मिश्रित ही, अथवा पलास तेंदूवं ।।१६। पाडलजबूपिप्पलदहिवण्णो णंदितिलयचूदा लेबड (हाथको चिकना करनेवाला आहार) हो, अथवा अलेवड ही, य। कंकल्लि चंपबउल मेसयसिंग धव साल ।।१७। सोहंति असोयतरू अथवा भातके सिक्थो सहित या रहित ही भोजन मिलेगा तो लूगा पल्लवकुसुमाणदाहि साहाहि । लंबंतमालदामा घटाजालादिरमणिज्जा अन्यथा नहीं ।२२०॥ सुवर्ण या मिट्टो आदिके पात्रमें पुरसा ही, अथवा 18१८। णियणियजिणउदएणं बारसगुणिदेहि सरिसउच्छेहा । उसह- बालिका या तरुणी आदि विवक्षित दातारके हाथसे ही, अथवा जिणप्पहुदीणं असोयरुक्रवा वियर ति।१६-ऋषभ आदि तीर्थकरों
भूषण-रहित या ब्राह्मणी आदि विवक्षित स्त्रीके हाथ से ही आहार को जिनवृक्षोके नीचे केवलज्ञान उत्पन्न हुआ है (दे. तीर्थ कर/५)
मिलेगा तो ग्रहण करूंगा अन्यथा नही1 इत्यादि नानाप्रकारके नियम वे ही अशोकवृक्ष है ।११। न्यग्रोध, सप्तपर्ण, साल, सरल, प्रियगु,
करना वृत्तिपरिसख्यान नामका तप है ।२२१॥ शिरीष, नागवृक्ष, अक्ष (बहेड़ा). धूलिपलाश, तेदू, पाटल, जम्बू.
मू आ./३५५ गोयरपमाणदायगभायणणाणविधाण ज गण्णं । तह पीपल, दधिपर्ण, नन्दी, तिलक, आम्र, ककेलि ( अशोक ), चम्पक,
एसणस्स गहणं विविधस्स वृत्तिपरिसंखा ।३५३१ - गृहोका प्रमाण, बकुल. मेषशृग, धव और शाल ये २४ तीर्थंकरोके २४ अशोकवृक्ष है,
भोजनदाताका विशेष, कॉसे आदि पात्रका विशेष, मीठ, सत्तू आदि जो लटकतो हुई मालाओसे युक्त और घण्टासमूहादिकसे रमणीक
भोजनका विशेष, इनमें अनेक तरहके विकल्पकर भोजन ग्रहण करना होते हुए पल्लव एवं पुष्पोसे झुकी हुई शाखाओसे शोभायमान होते
वृत्तिपरिसख्यान है ।३५३॥ (अन, ध./७/२६/६७५ ) हैं।६१६-६१८। ऋषभादि तीर्थंकरोंके उपर्युक्त चौबीस अशोकवृक्ष बारहमे गुणित अपने-अपने जिनको (तीर्थकरकी) ऊँचाईसे युक्त स.सि /8/११/४३८/७ भिक्षार्थिनो मुनेरेकागारादिविषय. सकल्प होते हुए शोभायमान है।६१६ [प्रत्येक तीर्थ करकी ऊँचाई-दे, चिन्ताबरोधो वृत्तिपरिसरव्यानम् । --भिक्षाके इच्छुक मुनिका एक तीर्थकर/५]
घर आदि विषयक सकल्प अर्थात् चिन्ताका अवरोध करना वृत्ति
परिसख्यान तप है। वृक्षमूल-१. वर्षाकालमे वृक्षके नीचे ध्यान लगाना वृक्षमूल योग
रा, बा./8/१६/४/६१८/२४ एकागारसप्तवेश्मरथ्याई प्रामादि विषय, कहलाता है-दे, कायक्लेश। २. वृक्षमूल आदि वनस्पति-दे.
संकल्पो वृत्तिपरिसंख्यानम्। -एक अथवा सात घर, एक-दो आदि बनस्पति । वृत्त-Circle-(जं.प./प्र. १०८); (ध.५/प्र.२८)
गली, आधे ग्राम आदिके विषयमें संकल्प करना कि एक या दो घरसे
ही भोजन लूगा अधिकसे नहीं, सो वृत्तिपरिसंख्यान तप है। (चा. -दे. मणित/II/७ !
सा./१३५४१) वत्तविष्कंभ-Drameter, width of a ring वृत्त विष्कंभ निकालनेकी प्रकृति-दे. मणित/II/७।
घ. १३/५,४,२६/५७/४ भोयण-भायण-घर-वाड-दादारा बुत्ती णाम ।
तिस्से वुत्तीए परिसंवाणं गहणं वृत्तिपरिसंखाण णाम । एदम्मि वृत्ति-१, न्या, वि./q./२/३०/६२/१४ वृत्तिः वर्तनं समवायो।। बुत्तिपरिसखाणे पडिबद्धो जो अवग्गहो सो बुत्तिपरिसरखाण णाम -वृत्ति अर्थात वर्तन या समवाय। गुण गुणीकी अभिन्नता।
तवो त्ति भणिदं होदि। -भोजन, भाजन, घर बार (मुहल्ला) २ गोचरी आदि पॉच भिक्षा वृत्ति-दे, भिक्षा/१ ।
और दाता, इनकी वृत्ति संज्ञा है। उस वृत्तिका परिसख्यान अर्थात
ग्रहण करना वृत्तिपरिसख्यान है । इस वृत्तिपरिसख्यानमें प्रतिबद्ध वृत्ति परिसंख्यान
जो अवग्रह अर्थाद परिमाण नियन्त्रण होता है वह वृत्तिपरिसख्यान भ. आ./न./२१८-२२१/४३३ गत्तापञ्चागद उज्जु वीहि गोमुत्तियं च पेल- नामका तप है, यह उक्त कथनका तात्पर्य है।
क्यि । सबूकावट्ट'पि य पदंगवीधीय गोपरिया ।२१। पडियणियसण भिक्खा परिमाण दत्तिघासपरिमाण। पिडेहणा य पाणेसणा य
त. सा /७/१२ एकवस्तुदशागारपानमुद्गादिगोचरः। संप. क्रियते यत्र जागूय पुग्गलया ।२१६। ससि फलिह परिवरवा पृष्फोवहिद व
बृत्तिसख्या हि तत्तप.११२॥ = मैं आज एक वस्तुका ही भोजन सुद्धगोवहिदं ।२२० पत्तस्स टायग्गस्स य अवागहो बहुविहो
करूंगा, अथवा दश घरसे अधिक न फिरूंगा, अथवा अमुक पानससत्तीए। इच्चेत्रमादिविधिणा णादबा बुत्तिपरिसंखा ।२२१॥
मात्र ही करूंगा या मूंग ही खाऊँगा इत्यादि अनेक प्रकारके संकल्प -जिस मार्ग से आहारार्थ गमन किया है, उसी मार्ग से लौटते समय,
को वृत्तिपरिसंख्या तप कहते है। अथवा सरल रास्तेसे जाते समय, अथवा गोमूत्रवव मोड़ोसहित ___ का अ/मू/४४५ एगादि-गिहपमाण किच्चा संकप्प-कम्पियं विरस । भ्रमण करते हुए; अथवा सन्दूक या पेटीके समान चतुष्कोण रूपसे भोज पसुव्व भुंजदि वित्तिपमाणं तवो तस्स । जो मुनि आहारभ्रमण करते हुए, अथवा शंख के समान आवौंसहित भमण करते के लिए जानेसे पहिले अपने मनमें ऐसा संकल्प कर लेता है कि आज हुए, अथवा पक्षियोकी पंक्तिकी भॉति भ्रमण करते हुए, अथवा जिस एक घर या दो घर तक जाऊँगा अथवा नीरस आहार मिलेगा तो श्रावकके घरमें आहार ग्रहण करनेका सकल्प किया है उसी में, आहार ग्रहण करूंगा, और वैसा आहार मिलनेपर पशुकी तरह उसे इत्यादि प्रकारसे आहार मिलेगा तो ग्रहण करू गा अन्यथा नही चर लेता है, उस मुनिके वृत्तिपरिस ख्यान तप होता है।
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वृत्तिमत्त्व
५८१
वृषभ
२. वृत्ति परिसंख्यान तपका प्रयोजन
ज्ञानरूप आलोकसे बढाया हुआ ज्ञानरूपी नेत्र है उनको विद्वानोने
वृद्ध कहा है ।४। जो मुनि तप, शास्त्राध्ययन, धैर्य, विवेक (भेदस सि./१/१६/४३८/८ वृत्तिपरिसख्यानमाशानिवृत्त्यर्थमवगन्तव्यम् ।
ज्ञान), यम तथा सयमादिकसे वृद्ध अर्थात बढे हुए है वे ही वृद्ध -वृत्तिपरिएख्यान तप आशाकी निवृत्तिके अर्थ किया जाता है।
होते है। केवल अवस्था मात्र अधिक होनेसे या केश सफेद होनेसे हो (रा, वा/8/१६/४/६१८/२५); (चा सा /१३५/२)
कोई वृद्ध नही होता ।। जो वृद्ध होकर भी होनाचरणोसे व्याकुल ध १३/५.४,२६/५७/६ एसा केसिं कायया । सगतवोविसेसेण भव्वजण
हो भ्रमता फिरे वह तरुण है और सत्सगतिसे रहता है वह तरुण मुखसमेदूण सगरस-रुहिर-माससोसणवारेण इंदियसंजममिच्छतेहि
होनेपर भी सत्पुरुषोकी-सी प्रतिष्ठा पाता है ।१०। साहहि कायव्वा भायण-भोयणादिविसयरागादिपरिहरण चिहि
भ आ./वि./११६/२७५/- वाचनामनुयोग वा शिक्षयत' अवमरत्नवा। प्रश्न-यह किसको करना चाहिए। उत्तर-जो अपने तप
त्रयस्याभ्युत्थातव्यं तन्मूलेऽध्ययनं कुर्वद्भि सर्वेरेव । - जो ग्रन्थ विशेषके द्वारा भव्यजनोको शान्त करके अपने रस, रुधिर और मास
और अर्थ को पढ़ाता है अथवा सदादि अनुयोगों का शिक्षण के शोषण द्वारा इन्द्रिय संयमकी इच्छा करते है, उन साधुओको
देता है, वह व्यक्ति यदि अपने से रत्नत्रय में होन भी हो तो भी करना चाहिए, अथवा जो भाजन और भोजनादि विषय रागादिको
उसके आने पर जो जी उसके पास अध्ययन करते है वे सर्वजन खडे दूर करना चाहते हैं, उन्हे करना चाहिए (चा. सा /१३५४१)
हो जाये। भ आ./वि./६/३२/१८ आहारसंज्ञाया जयो वृत्तिपरिसल्यानं । आहार
प्र. सा/ता./ /२६३/३५४/१५ यद्यपि चरित्र गुणेनाधिका न भवन्ति संज्ञाका जय करना वृत्तिपरिसंख्यान नामका तप है।
तपसा वा तथापि सम्यग्ज्ञानगुणेन ज्येष्ठत्वाच्छतविनयार्थ३. वृत्तिपरिसंख्यान नित्य करने का नियम नहीं
मभ्युत्थेया। भ. आ. म./वि./१४७/४६९ अणुपुत्वेणाहारं संवठ्ठतो य सल्लिहइ देह। प्र. सा./ता./4 /२६७/३५८/१७ यदि बहुश्रुताना पार्श्वे ज्ञानादिगुणदिवसुग्गहिएण तवेण चावि सल्लेहण कुणइ ।२४७१ दिवसुगहिगेण वृद्धयर्थ स्वय चारित्रगुणाधिकाऽपि बन्दनादिक्रियासु वर्तन्ते तदा तवेण चावि एकैकदिनं प्रतिगृहीतेन तपसा च, एकस्मिन्दिनेऽनशनं, दोषो नास्ति । यदि पुन. केवल ख्यातिपूजालाभार्थ' वर्तन्ते तदातिएकस्मिन्दिने वृत्तिपरिसख्यान इति । -क्रमसे आहार कमी करते- प्रसगाहोषो भवति ।-चारित्र व तप में अधिक न होते हुए भी करते क्षपक अपना देह कृश करता है। प्रतिदिन जिसका नियम सम्यग्ज्ञान गुण से ज्येष्ठ होने के कारण श्रुतकी विनय के अर्थ वह किया है ऐसे तपश्चरणसे अर्थात् एक दिन अनशन, दूसरे दिन वृत्ति- अभ्युत्थानादि विनय के योग्य है। यदि कोई चारित्र गुण में अधिक परिसंख्यान इस क्रमसे क्षपक सल्लेखना करता है, अपना देह कृश होते हुए भी ज्ञानादि गुण की वृद्धि के अर्थ बहुश्रुत जनो के पास करता है।
वन्दनादि क्रिया में वर्तता है तो कोई दोष नहीं है। परन्तु यदि १. वृत्तिपरिसंख्यान तपके अतिचार
केवल ख्याति पूजा व लोभ के अर्थ ऐसा करता है तब अति दोष का
प्रसग प्राप्त होता है। भ. आ./वि./४८७/७०७/८ वृत्तिपरिसख्यानस्यातिचारा' | गृहसकमेव
प्र सा. मू./२६६ गुणदोधिगस्स विणयं पडिच्छगो जो वि होमि समणो प्रविशामि, एकमेव पाटकं दरिद्रगृहमेक । एवंभूतेन दायकेन दायि
त्ति.। होज्जं गुणधरो जदि सो होदि अण तसंसारी। जो श्रमण्य कया वा दत्त गृहीष्यामीति वा कृतसंकल्प । गृहसप्तकादिकादधिक
में अधिक गुण वाले है तथापि होन गुणवालों के प्रति (वन्दनादि) प्रवेश', पाटान्तरप्रवेशश्च । परं भोजयामीत्यादिकः । = "मैं सात
क्रियाओं में वर्तते है वे मिथ्या उपयुक्त होते हुए चारित्र से भ्रष्ट घरों में ही प्रवेश करूंगा, अथवा एक दरवाजे में प्रवेश करू गा, किवा
होते हैं। दरिद्री के घरमे ही आज प्रवेश करूंगा, इस प्रकार के दातासे अथवा इस प्रकारको खीसे यदि दान मिलेगा तो लेगे"-ऐसा सकल्प कर सात घरोसे अधिक घरोमे प्रवेश करना, दूसरोंको मै भोजन कराऊँगा रा. वा./४/४२/४/२५०/१८ अनुवृत्तपूर्वस्वभावस्य भावान्तरेण आधिक्यं इस हेतुसे भिन्न फाटकमे प्रवेश करना, ये वृत्तिपरिसख्यानके अति- वृद्धि। -पूर्व स्वभावको कायम रखते हुए भावान्तररूपसे अधिचार है।
कता हो जाना वृद्धि है। २. चय अर्थाद Common difference, वृत्तिमत्त्व--वृत्तिता सम्बन्धसे पदार्थ में अन्वयवाला । जैसे-'भूतले २. अन्य सम्बन्धित विषय घटोऽस्ति' यहाँ विवक्षित भूमिपर घटका बृत्तिमत्त्व है।
१. षट् वृद्धियोंके लिए नियत सहनानियाँ । -दे० गणित//३/४ ॥ वृत्तिमान-वृत्तिवाला या वृत्तिसहित । जैसे द्रव्य अपने गुणोंकी २. गुणहानि-वृद्धि।
-दे० गणित/II//३ वृत्तिसहित होने के कारण वृत्तिमान है।
. वृष-स्व. स्तो./५/१३ वृषो धर्मः । = वृष अर्थात् धर्म । वृत्तिविलास-कन्नड भाषाके 'धर्म परोक्षा' ग्रन्थ के कर्ता एक जैन कवि । समय --बि. श. १२ । (समाधितंत्र/प्र.६/पं जुगल किशोर )
वृषभ-द्र. स./टी १/६/१ वृषभो प्रधान । -१. वृषभ अर्थात्
प्रधान । भ आ/पू./१०७०/१०६६ थेरा वा तरुणा बा बूढ़ा सीले हि होति बूढीहि। स्व, स्तो.टी.१/३ वृषो धर्मस्तेन भाति शोभते स वा भाति प्रगटी
थेरा वा तरुणा वा तरुणा सीले हि तरुणेहि ।१०७० = मनुष्य वृद्ध हो भवति यस्मादसौ वृषभः। -वृष नाम धर्मका है। उसके द्वारा अथवा तरुण यदि उसके क्षमा आदि शील गुण वृद्धिगत है तो वह
शोभाको प्राप्त होता है या प्रगट होता है इसलिए वह वृषभ कहवृद्ध है और यदि ये गुण वृद्धिगत नही है तो वह तरुण है। । केवल लाता है-अर्थात् आदिनाथ भगवान् । वय अधिक होनेसे वृद्ध नहीं होता।)
ति. प./४/२१५ सिंगमुहकण्ण जिहालोयणभूआदिएहि गोसरिसो। बसहो ज्ञा /१५/४.५,१० स्वतत्व निकषोभूत विवेकालोकबद्धितम् । येषां
त्ति तेण भण्णइ रयणामरजी हिया तत्थ ।२१। -(गंगा नदीका) बोधमय चक्षुस्ते वृद्धा विदुषा मता ४) तप श्रुतधृतिध्यानविवेक- वह कूटमुख सौंग, मुख, कान, जिह्वा, लोचन और भ्रकुटी आदिकयमसयमै । ये वृद्धास्तेऽत्र शस्यन्ते न पुन' पलिताङ्करै ।। हीना- से गौके सदृश है. इसलिए उस रत्नमयी जिहिका (जम्भिका) चरणसंभ्रान्तो वृद्धोऽपि तरुणायते। तरुणोऽपि सतां धत्ते श्रिय को वृषभ कहते है। (ह. पु./१/१४०-१४१), (त्रि. सा./५८३); सरसगवासित. १० = जिनके आत्मतत्त्वरूप कसौटीसे उत्पन्न भेद- (ज प./३/१५१) ।
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बृहत्
क्षेत्र समास
वृषभ
गिरि- ति प /४/२६८-२६६ सेसा विपच रुडा णामेण होति म्लेच्छखड ति । उत्तरतियखडेसु मज्झिमवडस्स बहुमज्भे ॥२६५॥ चक्कीण माणमलणो णाणाचकाहरणाम संछण्णो । मूलोवरिममज्भेस् रयणमओ होदि वसहगिरि । २६६ | = ( भरत क्षेत्र के आर्यखण्डको छोड़कर) शेष पाँचो हो खण्ड म्लेच्छखण्ड नामसे प्रसिद्ध है लेतर भारत के लोन खण्डोने से मध्यखण्ड के बहु मध्य भागमे चक्रवर्तियोके मानका मर्दन करनेवाला, नाना चक्रवतियो के नामोसे व्याप्त और मूलमे ऊपर एवं मध्यमे रत्नोंसे निर्मित ऐसा वृषभ गिरि है | २६८ २६६ । (त्रि सा / ७१०) । इसी प्रकार ऐरावत क्षेत्र में जानना । दे० लोक / ३/३ | वृषभसेन - म. पु/सर्ग / श्लो पूर्वभव न ७ में पूर्व विदेहमे प्रीतिवर्धन राजाका सेनापति (०/२११) पूर्वभवन मे उत्तरपुरु मनुष्य (८/२१२)। नमेान स्वर्ग प्रभार
नामका देव । ( ८/२१४), पूर्वभव नं ४ मे अकम्पनमेनिक) (८/२१ अम२ ),
पूर्वभव न २ में राजा वज्रसेनका पुत्र 'पीठ' । (११/१३) । पूर्वभव नं १ मे सर्वार्थसिद्धिमे अहमिन्द्र । (११/१६० ) । वर्तमान भव में भदेवका पुत्र भरतका छोटा भाई । ( १६ / २ ) । [ युगपत् सर्व भत्र - ४७ / ३६७-३६६ ] पुरिमताल नगरका राजा था। भगवान् ऋषभदेव के प्रथम गणधर हुए। ( २४ / १७२ ) । अन्तमें मोक्ष सिधारे (४०/३६६) ।
वेणा - १. भरतक्षेत्रमे आर्यखण्डकी एक नदी (दे० मनुष्य / ४ ) | २ बम्बई प्रान्त में सितारा जिलाकी एक नदी । वर्तमान नाम ', / 19/H L.Jam)
वेणु - विजयार्थको उत्तरका नगर विद्याधर) २. मानुषोसर पर्वतके रमटका रशमी कुमारदेव००/२०१
१.
३. शाल्मली वृक्ष का रक्षक देव । - दे. लोक / ३ / १३ ।
वेणुधारी
मानुषान्तर पर्वत के सर्वरत्न कूटका स्वामी सुपर्णकुमार देव - दे०सोक /५/१०/२० शाक्मली वृक्ष का रक्षक नेब - (दे० लोक ३ / १३ ) ।
वेणुन - "हालार और बरडो प्रान्तके बीचकी पर्वत श्रेणीको 'बरडो' कहते है । इसी श्रेणीके किसी पर्वतका नाम वेणुन है। (नेमि चरित/प्र./ प्रेमी जी ) ।
वेणुपुर दक्षिण कर्नाटक देशका विद्री नामक ग्राम (विशेष
०वी)।
वेणुमतिमानुषोत्तर पर्वत के सर्वरत्नकूट का स्वामी एक भवनवासी कुमार देव दे० लोक/७ 1
-
वेणुवती-पूर्वी खण्डकी एक नदी०मनुष्य ४ वेत्ता - जीवको वेत्ता कहनेकी विवक्षा दे० जीव / १/३ । वेत्रवती- १ 'मेघदूत' की अपेक्षा यह मालवादेशकी नदी है। और
-
'नेमिचरित' की अपेक्षा द्वारिकाके प्राकारके पास है । गोमती नदीका हो दूसरा नाम 'बैजनी' प्रतीत होता है (मचरित प्र / प्रेमो जो ) । २ वर्तमानको मालवा देशकी बेतवा प. ४६ / पं. पन्नालाल )
नदी ( म. पु. /
वेत्रासन
के समान
आकार
(ज. प / प्र.२५) ।
वेद -- व्यक्तिमे पाये जानेवाले खोत्व, पुरुषत्व व नपुसकत्वके भाव वेद कहलाते है । यह दो प्रकारका है-भाव व द्रव्यवेद । जीवके उपरोक्त भाव तो भाववेद है और शरीरमे स्त्री, गोपा विशेष द्रव्यवेद है । द्रव्यवेद जन्म पर्यन्त नहीं बदलता
पुरुष व नपुंसक के
५८२
पर भाववेद कपाय विशेष हनेिक कारण क्षणमात्र मे बदल सकता है । द्रव्य वेदसे पुरुषको हो मुक्ति सम्भव है पर भाववेदसे तीनको मोक्ष हो सकती है।
१
*
५
२
१ वेद मार्गणामे भानवे रह है। वेद जीवका औदयिक भाव है । वेद कषाय रागरूप है ।
जीवको व्यपदेश ।
*
३
भेद, लक्षण व तद्गत शंका समाधान
वेद सामान्यका लक्षण
१ लिग के अर्थ मे ।
२ शास्त्र के अर्थ में । वेद के भेद | स्त्री आदि वेदोके लक्षण | द्रव्य व भाववेदके लक्षण |
साधुके द्रव्यभाव लिंग ।
अपगत वेदका लक्षण |
arh लक्षण सम्बन्धी शकाएँ ।
वेद निर्देश
४
५
- दे० वह यह नाम
- दे० लिंग ।
वेद व मैथुन सज्ञामें अन्तर । अपगत वेद कैसे सम्भव है । तीनो वेदोंकी प्रवृत्ति क्रमसे होती है। तीनों वेदोंक बन्ध योग्य परिणाम ।
वेद मार्गणामे कर्मों का बन्य उदय स
- दे० कषाय / ४ । - दे० जीव२/३। - दे० सज्ञा ।
-दे० मोहनीय/३/41
- दे० वह वह नाम । पुरुषादि वेद कमका बन्ध उदय सत्त्र - दे० वह वह नाम ! मार्गणा स्थानों में आपके अनुसार व्यव होनेका
नियम ।
- दे० मार्गणा ।
३ तीनों वेदों के अर्थ में प्रयुक्त शब्दों का परिचय
१
स्त्री पुरुष नपुंसकका प्रयोग
२ तिच व तिर्यचनोका प्रयोग ।
३
४
५
४
१ दोनोंके कारणभूत कर्म भिन्न छ ।
२
३
तिर्यच व योनिमती विचका प्रयोग
मनुष्य मनुष्यणी व योनिमती मनुष्यका प्रयोग ।
उपरोक्त शब्दों सैद्धान्तिक अर्थ
द्रव व भाववेदमें परस्पर सम्बन्ध
जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश
दोनों कहीं समान होते है और कहीं असमान ।
चारों गतियों की अपेक्षा दोनोंमें समानता और
असमानता ।
भाववेद में परिवर्तन सम्भव है ।
द्रव्यवेद में परिवर्तन सम्भव नही।
साधुके द्रव्य व भावलिंग सम्बन्धी चर्चा व समन्वय ।
-दे० लिग ।
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वेद
५८३
१. भेद, लक्षण व तद्गत शंका-समाधान
..... | ५ | गति आदिकी अपेक्षा वेद मार्गणाका |
स्वामित्व | वेद मार्गणा में गुणस्थान मार्गणास्थान आदि रूप २० प्ररूपणाएँ।
-दे० सत् । वेद मार्गणाके स्वामी सम्बन्धी सत् संख्या क्षेत्रकाल भाव व अल्पबहुत्व रूप ८ प्ररूपणाएँ।
-दे० वह-वह नाम। १ नरकमें केवल नपुंसकवेद होता है। २ | भोगभूमिज तिर्यंच मनुष्योंमें तथा सभी देवोंमें दो
ही वेद होते है। ३ कर्मभूमिज विकलेंद्रिय व सम्मूच्छिम तिर्यचोंमें
___ केवल नपुंसकवेद होता है । ४ | कर्मभूमिज सशी असशी तिर्यंच व मनुष्य तीनों वेदवाले
होते है। ५ एकेन्द्रियोंमें वेदभावको सिद्धि ।
चींटी आदि नपुंसकवेदी ही कैसे। विग्रहगतिमें अव्यक्त वेद होता है। वेदमार्गणामें सम्यक्त्व व गुणस्थान सम्यक्त्व व गुणस्थान स्वामित्व निर्देश। अपशस्त वेदोमें क्षायिक सम्यग्दृष्टि अत्यन्त अल्प
होते है। सम्यग्दृष्टि मरकर स्त्रियोंमें भी उत्पन्न नहीं होते
-दे. जन्म/३। मनुष्यणीमें १४ गुणस्थान कैसे। -देबेद/७/६। | ऊपरके गुणस्थानोंमें वेदका उदय कैसे।-दे० सज्ञा । अप्रशस्तं वेदके साथ आहारक आदि ऋद्धियोंका
निषेध ।
१. भेद, लक्षण व तद्गत शंका-समाधान
१.वेद सामान्यका लक्षण-लिगके अर्थ में। स. सि /२/१२/२००/४ वेद्यत इति वेद लिङ्गमित्यर्थः । = जो वेदा जाता है उसे वेद कहते है । उसका दूसरा नाम लिंग है। (रा. वा./
२/१२/१/१५७/२): (ध.१/१,१,४/१४०/५)। पं. सं./प्रा./१/१०१ वेदस्सुदरिणाए बालत्त पुण णियच्छदे बहुसो । इत्थी
पुरिस णउंसय वेयति तदो हवदि वेदो ।१०११= वेदकर्म की उदीरणा होनेपर यह जीव नाना प्रकारके बालभाव अर्थात् चाचल्यको प्राप्त होता है और स्त्रीभाव, पुरुषभाव एव नसभावका वेदन करता है। अतएव वेद कर्म के उदयसे होनेवाले भावको वेद कहते है। (ध,
१/१,१,४/गा. ८६/१४१), (गो. जी /मू./२७२/५६३)। ध१/१,१,४/पृष्ठ/पक्ति-वेद्यत इति वेदः । (१४०/५)। अथवात्मप्रवृत्तेः समोहोत्पादो वेदः । (१४०/७) । अथवात्मप्रवृत्ते मैथुनसंमोहोत्पादो
वेद' । (१४१/१) । ध. १/१,१.१०१/३४१/१ वेदन वेद' -१, जो वेदा जाय अनुभव किया जाय उसे वेद कहते है। २. अथवा आत्माकी चैतन्यरूप पर्यायमें सम्मोह अर्थात् रागद्वेष रूप चित्तविक्षेपके उत्पन्न होनेको मोह कहते है। यहॉपर मोह शब्द वेदका पर्यायवाची है। (ध.७/२,१,३/७); ( गो जी/जी. प्र./२७२/५६४/३)। ३. अथवा आत्माकी चैतन्यरूप पर्यायमें मैथुनरूप चित्तविक्षेपके उत्पन्न होनेको वेद कहते है। ४.
अथवा वेदन करनेको वेद कहते है। ध.१४१,७,४२/२२२/८ मोहणीसदयकम्मरबंधी तज्जणिदजीवपरिणामो
वा वेदो। -मोहनीयके द्रव्यकर्म स्कन्धको अथवा मोहनीय कर्मसे उत्पन्न होनेवाले जीवके परिणामको वेद कहते है।
स्त्री प्रव्रज्या व मुक्ति निषेध स्त्रीको तद्भवसे मोक्ष नहीं। फिर भी भवान्तरमें मुक्तिकी अभिलाषासे जिन
दीक्षा लेती है। तद्भव मुक्तिनिषेधमे हेतु उसका चंचल व प्रमाद
बहुल स्वभाव। तद्भव मुक्तिनिषेधमें हेतु सचेलता। स्त्रीको भी कदाचित् नग्न रहनेकी आशा।
-दे० लिग/१/४। आर्यिकाको महाव्रती कैसे कहते हो। फिर मनुष्यणीको १४ गुणस्थान कैसे कहे गये। स्त्रीके सवस्त्रलिगमें हेतु। मुक्तिनिषेध हेतु उत्तम संहननादिका अभाव । मुक्ति निषेधमें हेतु शुक्लध्यानका अभाव ।
-दे० शुक्लध्यान/३। स्त्रीको तीर्थकर कहना युक्त नहीं।
२ शास्त्रके अर्थमें ध १३/५,५.५०/२८६/८ अशेषपदार्थान् वेत्ति वेदिष्यति अवेदीदिति वेदः सिद्धान्त। एतेन सूत्रकण्ठग्रन्थकथाया वितथरूपाया' वेदत्वमपास्तम् । = अशेष पदार्थों को जो वेदता है, वेदेगा और वेद चुका है, वह वेद अर्थात् सिद्धान्त है। इससे सूत्रकण्ठों अर्थात ब्राह्मणोकी ग्रन्थकथा वेद है, इसका निराकरण किया गया है। ( श्रुतज्ञान ही वास्तव में वेद है।)
२. वेदके भेद ष. वं 1१/१,१/सूत्र १०१/३४० वेदाणुवादेण अत्यि इथिवेदा पुरिसवेदा ___णव॑सयवेदा अवगदवेदा चेदि ।१०। -वेदमार्गणाके अनुवादसे स्त्री
वेद, पुरुषवेद, नपुंसकवेद और अपगतवेदवाले जीव होते हैं ।१०१० पं. सं./प्रा./१/१०४ इथि पुरिस णउसय वेया खलु दव्वभावदो होति ।
-स्त्रीवेद, पुरुषवेद और नर्पसक ये तीनों ही वेद निश्चयसे द्रव्य
और भावकी अपेक्षा दो प्रकारके होते है। स.सि /२/६/१५६/५ लिग त्रिभेदं, स्त्रीवेद' वेदो नपुंसकवेद इति ।
=लिंग तीन प्रकारका है-स्त्री वेद, पुरुषवेद और नपुंसक्वेद । (रा. वा./६/७/११/६०४/५ ), (द्र.सं./टी /१३/३७/१०)। स.सि./२/१२/२००/४ तद् द्विविध-द्रव्यलिड्ग भावलिङ्ग चेदि।इसके दो भेद है-द्रव्यलिंग और भावलिंग। (स सि./६/४७/ ४६२/३ ), ( रा. वा./२/६/३/१०६/१), (रा. वा/६/४७/४/६३८/१०); (प.ध./उ./१०७६)।
३. द्रव्य व भाव वेदके लक्षण स. सि /२/१२/२००५ द्रव्यलिङ्ग योनिमेहनादिनामकर्मोदयनिर्वतितम् । नोकषायोदयापादितवृत्ति भावलिङ्गम्। जो योनि मेहन आदि नाम कर्म के उदयसे रचा जाता है वह द्रव्यलिग है और जिसकी
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बंद
स्थिति नोकवायके उदय प्राप्त होती है वह भाग है। (गो. जी. यू. / २०१ / २६१), (घट / १०८०-१०८२ ) । रावा /२/६/३/१०६/२ द्रव्यलिङ्ग नामकर्मोदयापादितं. भावलिड्गमात्मपरिणाम. स्त्रीपुंनपुंसकान्योन्याभिलाषलक्षण स पुनश्चारित्रमोहविकल्पस्य यस्य स्त्रीवेदपुवेदनपुंसक वेदस्योदयाद्भवति । - गामकर्मके उसे होनेवाला उपसिग है ओर भाग लिग आत्मपरिणामरूप है। वह स्त्री पुरुष व मसक इन सीनोमे परस्पर एक दूसरेकी अभिलाषा लक्षण वाला होता है और वह चारित्रमोहके विकरूप] स्त्री पुरुष नपुंसकवेद नामके नोकषायके उदयसे होता है।
४. अपगतवेदका लक्षण
पं.सं.प्रा.३/१/१०८
अवयवेदा जीवा सयसंभवणं तवरसोक्खा | १०८ |
करिता मग्गीसरिसपरिणामवेदका
जो कारीष
अर्थात् कण्डेकी अग्नि तृणकी अग्नि और इष्टपाककी अग्नि के समान क्रमश स्त्रीवेद, पुरुषवेद और नपुंसकमेवरूप परिणामोके वेदनले उन्मुक्त है और अपनी आत्मामें उत्पन्न हुए श्रेष्ठ अनन्त सुख के धारक या भोक्ता हैं, वे जीव अपगत बेदी कहलाते है। ( ध १ / १,१० १०१/गा. १७३ / ३४३) (गो.जी./मू./२७६/५६७ ) ।
ध. १/१,१,१०१/३४२/३ अपगतास्त्रयोऽपि वेदसतापा येषा तेऽपगतवेदा' । प्रक्षीणान्तर्दाह इति यावत् । = जिनके तीनो प्रकारके वेदोसे उत्पन्न होनेवाला सन्ताप या अन्तर्दाह दूर हो गया है वे वेदरहित जीव है ।
=
५. वेदके लक्षण सम्बन्धी शंकाएँ घ. १/१.१.४/१४०/५ मे इति वेद अडकनोंदयस्य वेदव्यपदेशः प्राप्नोति वेद्यत् प्रत्यविशेषादिति चेन्त्र, 'सामान्ययोदनाश्च विशेषेप्यनठिन्ते इति विशेषावगा उत्पत्ति इति वा । अथवात्मप्रवृत्ते. संमोहोत्पादो वेद । अत्रापि मोहोदयस्य सकलस्य वेदव्यपदेश' स्यादिति चेन्न, अत्रापि रूढिवशाद्वेदनाम्नां कर्मणामुदयस्यैव वेदव्यपदेशाद। अथवात्मवृत्ते में धुनसंमोहोत्पादो वेद । = जो बेदा जाय उसे वेद कहते है। प्रश्न- वेदका इस प्रकारका लक्षण करनेपर आठ कर्मों के उदयको भी वेद सज्ञा प्राप्त हो जायेगो, क्योंकि, वेदनको अपेक्षा वेद और आठ कर्म दोनो ही समान है ' उत्तर-ऐसा नही है. १. क्योकि सामान्यरूपसे की गयी कोई भी प्ररूपणा अपने विशेषो में पायी जाती है, इसलिए विशेषका ज्ञान हो जाता है। (ध. ७/२.१.२७/०१/१) अथवा २, रोडिक शन्दोकी उत्पत्ति रूढि अधीन होती है, इसलिए वेदान् पुरुषवेदादि रूढ होनेके कारण 'वैद्य' अर्थात जो वेदा जाय इस व्युत्पत्तिसे वेदका ही ग्रहण होता है, ज्ञानावरणादि आठ कर्मोके उदयका नही । अथवा आत्म प्रवृत्तिमें सम्मोहके उत्पन्न होनेको वेद कहते है । प्रश्न -- इस प्रकारके लक्षणके करनेपर भी सम्पूर्ण मोहके उदयको मेद संज्ञा प्राप्त हो जायेगी, क्योकि, वेदकी तरह शेष मोह भी व्यामोहको उत्पन्न करता है ? उत्तर- ऐसी शका नहीं करनी चाहिए, क्योंकि, रूढिके बलसे वेद नाम के कर्मके उदयको ही वेद सज्ञा प्राप्त है । अथवा आत्मप्रवृत्ति में मैथुन की उत्पत्ति वेद है ।
<
०/२/१
सोकने मेहनादि लिंगको स्त्री पुरुष आदि पना प्रसिद्ध है, पर यहाँ भाव वेद इष्ट है द्रव्य वेद नही ) । २. वेद निर्देश
१. वेदमार्गणा माववेद इष्ट
रावा/८/१/४/०४/२२ ननु लोके प्रतीत योनिमुदुस्तनादिस्त्रीद लिङ्गम्, न तस्य नामकर्मोदयनिमित्तत्वात, अत पंसोऽपि स्त्री
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२. वेद निर्देश
1
वेदोदय । कदाचिद्योषितोऽपि वेदोदयोऽप्याभ्य । शरीराकारस्तु नामकर्ममिति एतेनेतरी व्याख्याती । रा.वा./२/६/३/१०१/२ प्रसिद्ध नामकर्मोदयापादित तदिह नाथिकृतम् आत्मपरिणामप्रकरणात् भावलिङ्गमात्मपरिणाम प्रश्नतो योनि व मृदुस्तन आदिको स्त्री वेद या सिग कहते है, आप दुसरी प्रकार लक्षण के से करते है उत्तर नहीं, क्योंकि १. वह नामकर्मोदयसे उत्पन्न होता है, अतः कदाचित् अन्तरंग परिणामोकी विशेषतासे द्रव्य पुरुषको स्त्रीवेदका और द्रव्य स्त्रीको पुरुषवेदका उद देखा जाता है (०४) शरीरोके आकार नामकर्मसे निर्मित है, इसलिए अन्य प्रकारसे व्याख्या की गयी है । २ यहाँ जीवके औयिकादि भावोका प्रकरण है, इसलिए नामकर्मोदयापादितव्य लिगका यहाँ अधिकार नहीं है। भावसिंग आत्म परिणाम है, इसलिए उसका ही यहाँ अधिकार है।
।
घ. १/१.१.१०४/३४३५/१न द्रव्यवेदस्याभावस्तेन विकाराभावात् । अधिकृतोऽत्र भाववेदस्ततस्तरभावादपगतवेदो नान्यथेति यद्यपि गुणस्थान से आगे द्रव्यवेदका सद्भाव पाया जाता है; परन्तु केवल अपवेदसे ही विकार उत्पन्न नहीं होता है। यहॉपर तो भाववेदका अधिकार है। इसलिए भाववेद के अभाव से हो उन जोषोको अपगतवेद जानना चाहिए, मेदके अभाव से नहीं विशेष दे. शीर्षक
न ३ ) ।
.२/१६/१२/- वेदो अददो नि अस्थि, एथ भाववेदेन पपई वेदेश कि कारणं भागदवेदो विवादो
- मनुष्य स्त्रियों के ( मनुषणियोके) स्त्रीवेद और अपगत वेद स्थान भी होता है । यहाँ भाववेदसे प्रयोजन है, द्रव्य वेदसे नहीं । इसका कारण यह है कि यदि यहाँ द्रव्यवेदसे प्रयोजन होता तो अपगत वेदरूप स्थान नही बन सकता था, क्योंकि, द्रव्यवेद चौदहवे गुणस्थानके अन्तत होता है परन्तु अपगत वेद भी होता है इस प्रकार वचन निर्देश नीचे गुणस्थानके अवेद भागसे किया गया है ( . . . १/१.१ / सूत्र १०४ / ३४४)। जिससे प्रतीत होता है कि यहाँ भानवेदसे प्रयोजन है द्रव्यसे नहीं।
जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश
ण च
घ. ११/४,२,६,१२/११४/६ देवणेरइयाणं उक्कस्साउअबंधस्स तीहि वेदेहि विरोहो णत्थि चि जाणावणट्ठ इस्थिवेदस्म वा पुरिवेदस्स वा सदस्य वा त्ति भणिद । एत्थ भाववेदस्स गहणमण्णहा दव्त्रित्थवेदेण वि णेरइयाणमुक्कस्साउअस्स बधप्पसंगादो । रोणस तस्स बचो, आ पचमीति सोहा इत्थओ जति छट्टियपुढवि त्ति देण सुत्तेण सह विरोहादो। ण च देवाण उकस्साउब दब्बिरिथ वेदेण सह वज्ड, णियमा णिग्गंथलिगेणे त्ति सुतेण सह विरोहादो । ण च दव्वित्थीण णिग्गथत्तमत्थि । =देवो और नारकियोकी उत्कृष्ट आयुके बन्धका तीनो वेदोके साथ विरोध नही है, यह जतलानेके लिए 'इत्थि वेदस्स वा पुरिसवेदस्स वा णवस सयवेदस्स वा' ऐसा उपरोक्त सूत्र नं. १२ मे कहा है । यहाँ भाववेदका ग्रहण करना चाहिए, क्योकि १. द्रव्यवेदका ग्रहण करनेपर द्रव्य स्त्रीवेदके साथ भी नारकियोकी उत्कृष्ट आयुके बन्धका प्रसंग आता है। परन्तु उसके साथ नारकियोको उत्कृष्ट आयुका बन्ध होता नही है, क्योंकि, पॉचवी विनीत सिंह और बठी पृथिवी तक स्त्रियों जाती है। इस सूत्र के साथ विरोध आता है । ( दे. जन्म / ६ / ४ ) । देवोकी भी उत्कृष्ट आयु द्रव्य स्त्रीवेदके साथ नहीं बँधती, क्योकि, अन्यथा 'अच्युत कल्पसे ऊपर नियमत निर्ग्रन्थ लिगसे ही उत्पन्न होते है इस सूत्र के साथ विरोध आता है । (दे० जन्म /६/३.६ ) और द्रव्य स्त्रियों ( व द्रव्य नपुंसको) के निर्ग्रन्थता सम्भव नही है (दे. वेद/७/४) । दे. मार्गणा - सभी मार्ग माओकी प्ररूपणाओने भाग मार्गणाएँ इस है द्रव्य मार्गणाऍ नहीं ) ।
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वेद
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३. तीनो वेदोंके अर्थमे प्रयुक्त शब्दोका परिचय
२. वेद जीवका औदायिक भाव है रा. बा /२/६/३/१०६/२ भावलिङ्गमात्मपरिणाम । • स पुनश्चारित्रमोहविकल्पस्य नोकषायस्य स्त्रीवेदवेदनपुसकवेदस्योदयाद्भवतीत्यौदयिका । -भावलिग आत्मपरिणाम रूप है। वह चारित्रमोहके विकल्प रूप जो स्त्री पुरुष व नपुंसकवेद नामके नोकषाय उनके उदयसे उत्पन्न होनेके कारण औदयिक है (पं.ध./उ./१०७५); (और भी. दे. उदय/६/२)।
३. अपगत वेद कैसे सम्भव है ध.५/१,७,४२/२२२/३ एत्थ चोदगो भणदि-जोणिमेहणादीहि समण्णिदं
सरीर वेदो, ण तस्स विणासो अस्थि, संजदाणं मरणप्पसंगा।ण भाववेदविणासो वि अस्थि, सरीरे अविणठे तब्भावस्स विणास बिरोहा। तदोणावगदवेदत्तं जुज्जदे इदि । एत्थ परिहारो उच्चदे–ण सरीरमित्थिपुरिसवेदो, णाम कम्मजणिदस्स सरीरस्स मोहणीयत्तबिरोहा । ण मोहणीयजणिदमवि सरीर, जीवविवाइणो मोहणीयस्स पोग्गलविवाइत्तविरोहा। ण सरीरभावो वि वेदो, तस्स तदो पुधभूदस्स अणुवलंभा। परिसेसादा मोहणीयदव्य कम्मवरवंधो तज्जणिदजोवपरिणामो वा वेदो। तत्य तज्जणिदजीवपरिणामस्स बा परिणामेण सह कम्मक्खंधस्स वा अभावेण अवगदवेदो होदि त्ति तेण णेस दोसो त्ति सिद्भप्रश्न-योनि और लिग आदिसे सयुक्त शरीर वेद कहलाता है। सो अपगतवेदियोके इस प्रकारके वेदका विनाश नही होता, क्योकि ऐसा माननेसे अपगतवेदी सयतों के मरणका प्रसंग प्राप्त होता है। इसी प्रकार उनके भाववेदका विनाश भी नहीं है, क्योंकि, शरीरके विनाशके बिना उसके धर्मका विनाश मानने में विरोध आता है। इसलिए अपगतवेदता युक्ति संगत नहीं है। उत्तर-न तो शरीर स्त्री या पुरुषवेद है. क्योकि नामकर्मजनित शरीरके मोहनीयपनेका विरोध है। न शरीर मोहनीयकर्म से ही उत्पन्न होता है, क्योकि, जीवविपाकी मोहनीय कर्म के पुद्गलविपाको होनेका विरोध है । न शरीरका धर्म ही वेद है, क्योकि शरीरसे पृथग्भूत वेद पाया नहीं जाता। पारिशेष न्यायसे मोहनीयके द्रव्य कर्मस्कन्धको अथवा मोहनीय कर्मसे उत्पन्न होनेवाले जीवके परिणामको वेद कहते है । उनमें वेद जनित जीवके परिणामका अथवा परिणामके सहित मोहकर्म स्कन्धका अभाव होनेसे जीव अपगत वेदी होता है। इसलिए अपगतवेदता माननेमें उपर्युक्त कोई दोष नहीं आता, यह सिद्ध हुआ।
१.तीनों वेदोंकी प्रवृत्ति क्रमसे होती है ध. १/१,१,१०२/३४२/१० उभयोर्वेदयोरक्रमेणैकस्मिस् प्राणिनि सत्त्वं प्राप्नोतीति चेन्न, विरुद्धयोरक्रमेणैकस्मिन् सत्त्वविरोधाद ।
-प्रश्न-इस प्रकार तो दोनो वेदोका एक जीवमें अस्तित्व प्राप्त हो जायेगा। उत्तर-नही, क्योकि, विरुद्ध दो धर्मों का एक साथ एक
जीवमें सद्भाव मानने में विरोध आता है।-(विशेष दे. वेद/४/३)। ध. १/१.१,१०७/३४६/७ त्रयाणां वेदानां क्रमेणव प्रवृत्ति क्रमेण पर्यायत्वात् । तीनो वेदोकी प्रवृत्ति क्रमसे ही होती है, युगपत
नही, क्योकि वेद पर्याय है। ३. तीनों वेदोंके अर्थमें प्रयुक्त शब्दोंका परिचय
१. स्त्री पुरुष व नपुंसकका प्रयोग दे. वेद/५ ( नरक गतिमें, सर्व प्रकारके एकेन्द्रिय व विकलेन्द्रियोमें तथा सम्मूर्च्छन मनुष्य व पचेन्द्रिय तिर्यचो में एक नपुंसक बेद ही होता है। भोगभूमिज मनुष्य व तिर्यचोमें तथा सर्व प्रकारके देवोंमें स्त्री व पुरुष ये दो वेद होते है। कर्मभूमिज मनुष्य व पंचेन्द्रिय तिर्यचोंमें स्त्री पुरुष व नपुंसक तीनो वेद होते है।)
दे० जन्म/३/३ ( सम्यग्दृष्टि जीव सब प्रकारको स्त्रियोमें उत्पन्न नही होते।)
२.तियच व तियचनीका प्रयोग ध १/१,१,२६/२०४/४ तिरश्चीष्वपर्याप्ताद्धाया मिथ्यादृष्टिसासादना एवं
सन्ति, न शेषास्तत्र तन्निरूपकार्षाभावात्। तत्रासंयतसम्यग्दृष्टीमामुत्पत्तेरभावात् । तिर्यचनियोके अपर्याप्तकालमें मिथ्यावृष्टि
और सासादन ये दो गुणस्थान ही होते है, शेष तीन गुणस्थान नहीं होते, क्योकि तियंचनियोमें अस यत सम्यग्दृष्टिकी उत्पत्ति
नही होती। दे० वेद/६ (तिय चिनियो में क्षायिक सम्यग्दर्शन नहीं होता।) दे. वेदां५ ( कर्मभूमिज व तियंचनियोमे तीनो वेद सम्भव है। पर भोगभूमिज तिर्यचौमे स्त्री व पुरुष दो ही वेद सम्भव है।)
३ तिथंच व योनिमति तिर्यचका प्रयोग दे० तिर्यच/२/१,२ (तियंच चौथे गुणस्थान में क्षायिक सम्यग्दृष्टि होते
है, परन्तु पाँचवें गुणस्थानमे नहीं होते। योनिमति पंचेन्द्रिय तिर्यच चौथे व पाँचवे दोनो ही गुणस्थानोमें क्षायिक सम्यग्दृष्टि
नहीं होते।) दे. वेद/६ ( क्यो कि, यो निर्मात पचेन्द्रिय तियंचो में क्षायिक सम्यग्दृष्टि
मरकर उत्पन्न नहीं होते।) ध.८/३, ६४/१९४/३ जोणिणीसु पुरिसवेदबंधो परोदओ। -योनिमती तियंचोमें पुरुष वेदका बन्ध परोदयसे होता है ।
४. मनुष्य व मनुष्यणीका प्रयोग गो जी./जी प्र/७०४/११४१/२२ क्षायिकसम्यक्त्वं तु असंयतादिचतु
गुणस्थानमनुष्याणा असयतदेशसंयतोपचारमहाव्रतमानुषीणां च कर्मभूमिवेदकसम्यग्दृष्टीनामेव । =क्षायिक सम्यग्दर्शन, कर्मभूमिज वेदक सम्यग्दृष्टि असंयतादि चार गुणस्थानवी मनुष्योंको तथा असंयत और देशसंयत और उपचारसे महाव्रतधारी मनुष्यणीको
ही होता है। दे० बेद/५-(कर्मभूमिज मनुष्य और मनुष्यनीमें तोनों वेद सम्भव
है। परं भोगभूमिज मनुष्योमें केवल स्त्री व पुरुष ये दो ही वेद सम्भव है।) दे. मनुष्य/३/१, २ (पहले व दूसरे गुणस्थानमें मनुष्य व मनुष्यणी दोनो ही पर्याप्त व अपर्याप्त दोनो प्रकारके होते है, पर चौथे गुणस्थानमें मनुष्य तो पर्याप्त व अपर्याप्त दोनो होते है और मनुष्यणी केवल पर्याप्त ही होती है।५-६ गुणस्थान तक दोनो पर्याप्त ही होते है। दे० वेद/६/९/गो जी. ( योनिमति मनुष्य पाँचवे गुणस्थानसे ऊपर
नही जाता।) दे० आहारक/४/३ ( मनुष्यणी अर्थात् द्रव्य पुरुष भाव स्त्रीके आहारक व आहारक मिश्र काय योग नहीं होते है, क्योकि अप्रशस्त वेदीमें उनकी उत्पत्ति नहीं होती।) ५. उपरोक्त शब्दोंके सैद्धान्तिक अर्थ । वेद मार्गणा में सर्वत्र स्त्री आदि वेदी कहकर निरूपण किया गया है (शीर्षक नं.१)। तहाँ सर्वत्र भाव वेद ग्रहण करना चाहिए (दे० बेद/२/१)। गति मागणामें तिर्यंच, तिर्यंचनी और योनिमतो तिर्यंच इन शब्दोका तथा मनुष्य व मनुष्यणी व योनिमती मनुष्य इन शब्दोका प्रयोग उपलब्ध होता है। तहाँ तिर्यच' व 'मनुष्य' तो जैसा कि अगले सन्दर्भ में स्पष्ट बताया गया है भाव पुरुष व नपुंसक लिंगीके लिए प्रयुक्त होते है। तिचिनी व मनष्यणी शब्द जैसा कि प्रयोगोंपरसे इष्ट है द्रव्य पुरुष भाव स्त्रीके
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वेद
५. गति आदिकी अपेक्षा वेद मार्गणाका स्वामित्व
दापि मनुष्यणात गौण है. सी. मनुष्य में तो
लिए प्रयुक्त है। यद्यपि मनुष्यणी शब्दका प्रयोग द्रव्य स्त्री अर्थ मे भी किया गया है, पर वह अत्यन्त गौण है, क्योकि, ऐसे प्रयोग अत्यन्त अल्प है। योनिमती तिपंच व योनिमती. मनुष्य ये शब्द विशेष विचारणीय है। तहाँ मनुष्यणी के लिए प्रयुक्त किया गया तो स्पष्ट ही द्रव्यस्त्रीको सुचित करता है, परन्तु तियंचोमे प्रयुक्त यह शब्द द्रव्य व भाव दोनो प्रकारकी स्त्रियोके लिए समझा जा सकता, क्यो कि, तहाँ इन दोनोके हो आलापोमे कोई भेद सम्भव नहीं है। कारण कि तियंच पुरुषों की भॉति तिर्यंच स्त्रियाँ भी पाँचवे गुणस्थानसे ऊपर नहीं जाती। इसी प्रकार द्रव्य स्त्री के लिए भी पाँचवे गुणस्थान तक जानेका विधान है।) क. पा. ३/३-२२/४२६/२४१/१२ मणुस्सो त्ति वुत्ते पुरिसणवंसयवेदोदइल्लाण गण । मणुस्सिणो त्ति वुत्ते इस्थिवेदोदयजीवाण गहणं । - सूत्रमे मनुष्य ऐसा कहनेपर उससे पुरुषवेद और नपुंसकवेदके उदयवाले मनुष्योका ग्रहण होता है। मनुष्यनी' ऐसा कहनेपर उससे स्त्रीवेद के उदयवाले मनुष्य जीवोका ग्रहण होता है। ( क. पा. २/२-२२/६३३८/२१२/१)।
४. द्रव्य व भाव वेदोंमें परस्पर सम्बन्ध १. दोनों के कारणभूत कर्म मिन्न हैं ५.सं./प्रा./१/१०३ उदयादु णोकसायाण भाववेदो य होइ जंतूर्ण । जोणी य लिगमाई णामोदय दव्ववेदो दु ।१०३ -नोकषायोके उदयसे जीवोके भाववेद होता है। तथा योनि और लिग आदि । द्रव्य वेद नामकर्मके उदयसे होता है ।१०। (त सा./२/98), (गो. जी/मू./२७१/५६१), (और भी दे० वेद/९/३ तथा वेद/२) ।
२. दोनों कहीं समान होते हैं और कहीं असमान पं स प्रा /१/१०२, १०४ तिव्वेद एव सव्वे वि जीवा दिट्ठा हुँ दबभावादो। ते चेव हु विवरीया सभवति जहाकम सन्वे ।१०२॥ इत्यी पुरिस णउंसय वेया खलु द्रव्वभावदो होति। ते चेव य विवरीया हव ति सव्वे जहाक्मसो।१०४। -द्रव्य और भावकी अपेक्षा सर्व ही जीव तीनो वेदवाले दिखाई देते है और इसी कारण वे सर्व ही यथाक्रमसे विपरीत वेदवाले भी सम्भव है ।१०२। स्त्री वेद पुरुषवेद
और नप सक वेद निश्चयसे द्रव्य और भावकी अपेक्षा दो प्रकारके होते है और वे सर्व ही विभिन्न नोकषायोके उदय होनेपर यथाक्रमसे विपरीत वेदवाले भी परिणत होते है।१०४। [अर्थात कभी द्रव्यसे पुरुष होता हुआ भावते स्त्री और कभी द्रव्य से स्त्री होता हुआ भावसे पुरुष भी होता है-दे० वेद/२/१] गो जी/ मू/२७१/१६१ पुरिच्छिस ढवेदोदयेण पुरिसिच्छिस डओ भावे । णामोद येण दवे पाएण समा कहि विसमा ।२७१। = पुरुष स्त्री और नपुंसक वेदकमके उदयसे जीव पुरुष स्त्री और नपुसक रूप भाववेदोको प्राप्त होता है और निर्माण नामक नामकम के उदयसे द्रव्य वेदोंको प्राप्त करता है। तहाँ प्राय करके तो द्रव्य और भाव दोनों वेद समान होते है, परन्तु कही-कही परिणामोकी बिचित्रताके कारण ये असमान भी हो जाते है ।२७१। -(विशेष दे० वेद/२/१)। १. चारों गतियोंको अपेक्षा दोनोमें समानता व
असमानता गो. जी. जी. प्र /२७१/५६२/२ एते द्रव्यभाववेदा प्रायेण प्रचुरवृत्त्या
देवनारकेषु भोगभूमिसर्वतिर्यग्मनुष्येषु च समा द्रव्यभावाभ्या समवेदोदयाङ्किता भवन्ति । क्वचित्कर्मभूमि-मनुष्यतिर्यग्गतिद्वये विषमा:-विसदृशा अपि भवन्ति । तद्यथा- द्रव्यत पुरुष भावपुरुष भावस्त्री भावनपुसक । द्रव्य स्त्रियां भावपुरुष' भावस्त्री
भावनपसक । द्रव्यनपुंसके भाषपुरुष भावस्त्री भावनपुसक इति विषमत्व द्रव्यभावयोरनियम कथित । कुत द्रव्य पुरुषस्य क्षपकण्यारूढानिवृत्तिकरणसवेदभागपर्यन्तं वेदत्रयस्य परमागमे "सेसोदयेण बि तहा माणुबजुत्ता य ते दु सिझति ।" इति प्रतिपादकत्वेन सभवात् । -ये द्रव्य और भाववेद दोनो प्रायः अर्थात प्रचुर रूपसे देव नारकियोमै तथा सर्व ही भोगभूमिज मनुष्य व तिर्यचो में समान ही होते है, अर्थाद उनके द्रव्य व भाव दोनों ही वेदोका समान उदय पाया जाता है। परन्तु क्वचित् कर्मभूमिज मनुष्य व तिथंच इन दोनो गतियोमे 'विषम या विसदृश भी होते है। वह ऐसे कि द्रव्यबेदसे पुरुष होकर भाष वेदसे पुरुष, स्त्री व नपुसक तीनो प्रकारका हो सकता है। इसी प्रकार द्रव्यसे स्त्री और भावसे स्त्री, पुरुष व नपुसक तथा द्रव्यसे नपुंसक और भावसे पुरुष स्त्री ६ नपुसक । इस प्रकार की विषमता होनेसे तहाँ द्रव्य और भाववेद का कोई नियम नही है । क्योकि, आगममे नवे गुणस्थानके सवेदभाग पर्यन्त द्रव्यसे एक पुरुषवेद और भावसे तीनों वेद है ऐसा कथन किया है।-दे० वेद/७ । (पं. ध /उ./१०६२-१०६५)।
४. भाववेदमें परिवर्तन सम्भव है। ध. १/१,१,१०७/३४६/७ कषायवन्नान्तर्मुहूर्तस्थायिनो वेदो आजन्मः
आमरणात्तदुदयस्य सत्वात्। = [पर्यायरूप होनेके कारण तीनो बेदोकी प्रवृत्ति क्रमसे होती है-(दे० वेद/२/४ ) , परन्तु यहाँ इतनी विशेषता है कि जैसे विवक्षित कषाय केवल अन्तर्मुहूर्त पर्यन्त रहती है, वैसे सभी बेद केवल एक-एक अन्तर्मुहूर्त पर्यन्त ही नही रहते है, क्योकि, जन्मसे लेकर मरणतक भी किसी एक वेदका उदय पाया जाता है। ज, ४/१,५,६१/३६६/४ वेदतरसकंतीए अभावादो। -- भोगभूमिमे वेद परिवर्तनका अभाव है।
५. द्रव्य वेदमें परिवर्तन सम्भव नहीं गो जी /जी प्र./२७१/५६१/१८ पुवेदोदयेन निर्माणनामोदययुक्ताङ्गोपागनोकर्मोदयवशेन श्मश्रुक– शिश्नादिलिङ्गाङ्कितशरीरविशिष्टो जीवो भवप्रथमसमयमादि कृत्वा तद्भवचरमसमयपर्यंत द्रव्यपुरुषो भवति। भवप्रथमसमयमादि कृत्वा तद्भवचरमसमयपर्यन्तं द्रव्यत्रो भवति। • भवप्रथमसमयमादि कृत्वा तद्भवचरमसमयपर्यन्त द्रव्यनपसक जीवो भवति। - पुरुषवेदके उदयसे तथा निर्माण नामकर्म के उदयसे युक्त अंगोपारा नाममके उदयके वशसे मछ दाढी व लिग आदि चिह्नो से अंकित शरीर विशिष्ट जीव, भवके प्रथम समयको आदि करके उस भवके अन्तिम समयतक द्रव्य पुरुष होता है । इसी प्रकार भवके प्रथम समयसे लेकर उस भवके अन्तिम समयतक द्रव्य-स्त्री व द्रव्य नपुंसक होता है।
५. गति आदिकी अपेक्षा वेद मार्गणाका स्वामित्व
१. नरकमें केवल नपुंसक वेद होता है ष ख /९/१.१/ सू. १०५/३४५ णेरइया चदुसु हाणेसु सुद्धा णवु सयवेदा।
१०५ - नारकी जीव चारो ही गुणस्थानो में शुद्ध (केवल ) नसकवेदी होते है-(और भी दे वेद/१/३)। प.ध/3/१०८६ नारकाणा च सर्वेषा वेदकश्चैको नपुंसक । द्रव्यतो भावतश्चापि न स्त्र वेदो न वा पुमान् ।१०८६। सम्पूर्ण नारकियोके द्रव्य व भाव दोनो प्रकारसे एक नपंसक ही वेद होता है उनके न सी वेद होता है और न पुरुष वेद ।१०८६॥
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बेद
२. भोगभूमिज विच मनुष्यों में तथा सभी देवीने दो ही वेद होते है
ख. १/११ / सूत्र ११०/३४७ देवा चदुस ठाणेसु दुवेदा इत्थवेदा पुरिसदा । ११० - देव चार गुणस्थान मे स्त्री और पुरुष इस प्रकार दोगले होते है । म आ./१९२६ देवाय भोगभूमा अलखबासाउगा मणुनतिरिगण । ते हाति दोसु वेदे प्रत्थि तैसि तदियवेदो । ११२६ । चारो प्रकार के देव तथा असंख्यात की आयुवाले मनुष्य और तिर्यंच, इनके दो (स्त्री व पुरुष ) है तीसरा सवे) नहीं
१/१.१.११०/३००/१२) ।
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त सू. बस सि./२/५१/२६६ न देवा । ५९० न तेषु नपुमानि सन्ति । - देशो में नदी नहीं होते ( रा वा /२/२९/१२६/२० ( तसा / २ / ८० ) ।
गो. जी / नू / १२ / २१४. देवभोग होते है।
सुरभोगभूमा पुरिसिच्छीवेदगा चैव ॥१३॥ मनुष्य व तिर्मय केवल पुरुष व स्त्री बेदी ही
२०००-१०८० यथा दिविजनारीणा मारीवेदोऽस्ति नेतर । देवाना चापि सर्वेक्षा पाक पवेद एव हि । १०५७। भोगमौ नारीणां नारीवेदो न चेतर । एवेद केवल पुसा नान्यो वान्योन्यसंभव । २०६८ - जेसे सम्पूर्ण देबागनाओंके केवलस्त्री वेदका उदय रहता है अन्य दवा नहीं, सेहो सभी देव एक पुरुषवेदका ही उदय है अन्यका नहीं | १०८० भोगभूमि में स्त्रियोके स्त्री वेद तथा पुरुषवेद ही होता है अन्य नहीं स्त्री वेदी के पुरुषवेद और पुरुष बेदी के स्त्रीबेद नहीं होता है । १००० और भी वे०/वेद/४/३)।
२. कर्मभूमिज विकलेन्द्रिय व सम्मूच्छिम वियंच व मनुष्य केवल नपुंसक वेदी होते हैं।
१/११ / सूत्र २०६/२४५ तिरिक्सा सुद्धा एवं सगवेदा एह दिय-वि जान उरिदिया । १०६ । यिंग एकेन्द्रिय जोमोसे लेकर चतु रिन्द्रिय तक शुद्ध (केवल ) नपुसकवेदी होते है । १०६ । आ. / ९९२८ एइदिय निगलिदिय पारय सम्मुखमा खस वेदो गवसगा ते णादव्त्रा होति नियमादु । ११२८ एकेन्द्रिय, विकलेन्द्रिय, नारकी सम्मूच्छिम असज्ञी व सज्ञी तियंच तथा सम्मूमि मनुष्य नियमसे नपुंसक लिंगी होते है। (जि.सा/२३१)। त. सू. / २ / ५० नारक संमूच्छिनो नपुंसकानि ॥५०॥ =नारक और मम्मूच्छिम नपुंसक होते है ( . सा/२/८०) (मोजो //१०/२१४) १ / १.१.११०/३००/११ तिर्यमनृतपर्या
द्विप्राश्च नपुसका एव । लब्ध्यपर्याप्त तिर्यंच और मनुष्य तथा सम्मूर्च्छन पचेन्द्रिय जीव नपुंसक हो होते है ।
पध
९०१०-२०११ तिर्यग्जात सर्वेषा एकाक्षाणा नपुसक वेदो विकलत्रयाणा वनीब. स्यात् केवल. किल । १०६०। पञ्चाक्षासंज्ञिना चापि तिरश्वा स्यान्नपुंसक । द्रव्यतो भावतश्चापि वेदो नान्य कदाचन १८६११ = तियंचजातियों में भी निश्चय करके द्रव्य और भाव दानोको अपेक्षासे सम्पूर्ण एकेन्द्रियों के विकले जियो के और सम्म सन्द्रियों केवल एक नपुसक वेद होता है, अन्य वेद कभी नही होता । १०६०-१०६१।
-
४. कर्मभूमिज संज्ञी असंज्ञी तिथंच व मनुष्य तीनों वेदवाले होते हैं
ष ख १/११ / सूत्र १०७-१०६ / ३४६ तिरक्खा तिवेदा असण्णिपचिदियपहूडि जाव सजदासजदा ति ॥१०७॥ मणुस्सा तिवेदा मिच्याइठिप्पहूडि जान अणि १०० परवेश दि १०६॥
५. गति आदि की अपेक्षा वेद मार्गणाका स्वामित्व
= तिर्यच असशी पचेन्द्रिय से लेकर सयतासयत गुणस्थान तक तीनो बेदो मे पुक्त होते है । १०० मनुष्य मिध्यादृष्टि गुणस्थान र अनिवृत्तिकरण गुणस्थान तक तीनों वेदवाले हाते है | १०८ ॥ नवमें धान के सभागके आगे सभी गुणस्थानवाले जी वेद रहिस हते है | ०६
मू आ / ११३० पचिदिया दु सेसा सण्णि असण्ण य तिरिय मणुमाय । ते होति इरिथपुरिसा णपुंसगा चावि देवेहि । ९१३०१ = उपरोक्त सर्व विकल्पोसे शेष जो सज्ञी असज्ञी पचेन्द्रिय तियंच और मनुष्य स्त्री पुरुष व नपुंसक तीनो वेदावाले होते है | ११३०१
त सू / २ / ५२ शेषास्त्रिवेदा १५२ = शेषके सब जीव तीन वेद वाले होते है (त.सा./२/२०)।
गोजो //१२/२९४ र सिरिये सिष्णि हौसिनर और ति में तीनों वेद होते है ।
त्रि सा / १३१ तिवेदा गभणर तिरिया । गर्भज मनुष्य व तिर्यंच तीनो बेदना होते है।
पं. ध / उ / १०६२ कर्मभूमौ मनुष्याणा मानुषीणा तथैव च । तिरश्चा वा तिरश्चीना] प्रयो वेदास्तयोदयात २०१२ कर्मभूमि मनुष्यों के और मनुष्यनियोंके तथा तियंषोंके और तियंचिनियों के अपने-अपने के अनुसार तोमो मेद होते है । २०६२ [अर्थात् य बेदी अपेक्षा [पुरुष] [] [स्त्री वेदी हाते हुए भी उनके भावकी अपेक्षा तीनो मेसे अन्यतम वेद पापा जाता है ।१०६३१०६५ । ]
५. एकेन्द्रियों में वेदभावकी सिद्धि
घ. १/ २.१.१०२ / ३४२/० एकेन्द्र नयवेद
कथ तरय तत्र सत्त्वमिति चेन्माभूत्तत्र द्रव्यवेद, तस्यात्र प्राधान्याभावात् । अथवा नानुपलब्ध्या तदभाव सिद्धयेत् सकलप्रमेयव्याप्युपलम्भबलेन तत्सिद्धि । न स छद्मस्थेष्वस्ति । एकेन्द्रियाणामप्रतिपस्त्रीपुरुषाणा वयं स्त्रीपुरुषाला घट सत्र अप्रस्त्रीयेन भूमिगृहान्त द्विमुपगतेन पूना पुरुषेण व्यभिचाराय | प्रश्न- एकेन्द्रिय जीवोके द्रव्यवेद नहीं पाया जाता है, इसलिए परको उपलब्धि नहीं होनेपर एकेन्द्रिय जीयोमे नया वेदना अस्तित्व के से बतलाया । उत्तर- एकेन्द्रियोमे द्रव्यवेद मत होओ, क्योकि, उसकी यहाँ पर प्रधानता नहीं है । अथवा द्रव्यवेदको एकेन्द्रियों में उपलब्धि नही होती है, इसलिए उसका अभाव सिद्ध नहीं होता है किन्तु सम्पूर्ण प्रमेयोमे व्याप्त होकर रहनेमा उपलम्भ प्रमाण (केवलज्ञानसे) उसकी सिद्धि हो जाती है । परन्तु वह उपलम्भ (केवलज्ञान ) छद्मस्थोंमें नहीं पाया जाता है। प्रश्न-जी स्त्रीभाव और पुरुषभाव से सर्वथा अनभिज्ञ है ऐसे एकेन्द्रियो की स्त्री और पुरुष विषयक अभिलाषा कैसे बन सकती है ? उत्तर - नहीं, क्योकि, जो पुरुष स्त्रीवेद से सर्वथा अज्ञात हैं और भूगृहके भीतर वृद्धिको प्राप्त हुआ है, ऐसे पुरुषके साथ उक्त कथनका व्यभिचार देखा जाता है।
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६. चीटी आदि नपुंसक वेदी ही कैसे
घ. १/१,१.१०६ / ३४६/२ पिपीलिकानामण्डदर्शनान्न ते नपुंसक इति चेन्न, अण्डाना गर्भे एवोत्पत्तिरिति नियमाभावाद । - प्रश्न- चीटियों के देखे जाते है, इसलिए वेद नहीं हो सकते है। उत्तर- अग्डोकी उत्पति गर्भ में हाँ होती है। ऐसा कोई नियम नही ।
७. विग्रह गतिमें भी अव्यक्त वेद होता है
घ. ११.१.१०६/२४६/३ विग्रहगतौ न वेदाभावस्तत्राप्यव्यक्त वेदस्य वाद-विग्रहगतिमें भी बेदका अभाव नहीं है, क्योंकि वहाँ भी अव्यक्त वेद पाया जाता है।
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७. स्त्रीप्रव्रज्या व मुक्तिनिषेध
ध/१,८,७५/२७८/१० कुदो । अप्पसत्यवेदोदएण दंसणमोहणीय रखवेत
जीवाणं बहूणमणुवल भा। - केवल विशेषता यह है कि मनुष्यणियोमे असयत सम्यग्दृष्टि, स यतासयत, प्रमत्त सयत और अप्रमत्तसयत गुणस्थानमे क्षायिकसम्यग्दृष्टि जीव सबसे कम है।७५। क्योकि, अप्रशस्त वेदके उदयके साथ दर्शनमोहनीयको क्षपण करनेवाले जीव बहुत नही पाये जाते है। ३. अप्रशस्तवेदके साथ आहारक आदि ऋद्धियोंका निषेध दे |वेद/६/१-मै क. पा-(अप्रशस्तवेदके उदयके साथ मन पर्यय
ज्ञान आदिका होना सम्भव नहीं।) दे. आहार /४/३-(भाव पुरुष द्रव्य स्त्रीको यद्यपि संयम होता है, परन्तु उनको आहारक ऋद्धि नही होती। द्रव्य स्त्रीको तो संयम ही नहीं होता, तहाँ आहार ऋद्धिका प्रश्न ही क्या।) . गो. जी./मू. व जी प्र./७१५/११५४/५,६ मणुसिणि पमत्त विरदे आहार
दुगं तु णत्थि णियमेण। ७१५॥ नुशब्दात् अशुभवेदोदये मन पर्ययपरिहारविशुद्धी अपि न । - मनुष्यणीको प्रमत्तविरत गुणस्थानमें नियमसे आहार व आहारक मिश्र योग नहीं होते। 'तु' शब्दसे अशुभ वेदके उदयमे मन पर्ययज्ञान व परिहारविशुद्धि संयम भी नहीं होता, ऐसा समझना चाहिए। गो. जो/मू. जी. प्र./७२४/११६०/२.५ णवरि य संढिच्छीणं णस्थि
हु आहारगाण दुर्ग १७२४-भावषण्डदव्यपुरुष भावस्त्रीद्रव्यपुरुष च प्रमत्तसंयते आहारकतन्मिनालापौ न । = इतनी विशेषता है कि नपुसक व स्त्री वेदीको आहारकद्विक नहीं होते हैं। तात्पर्य यह कि भावनपुसक द्रव्यपुरुषों अथवा भावस्त्री द्रव्यपुषरुमे प्रमत्तसंयत गुणस्थानमें आहार व आहारकमिश्र ये आलाप नहीं होते है।
६. वेदमार्गणामें सम्यक्त्व व गुणस्थान
१. सम्यक्त्व व गुणस्थान स्वामित्व निर्देश दे. वेद//नं. [ नरक गतिमें नपु सक वेदी १-४ गुणस्थान बाले होते है ।।तियंच त नो वेदोवाले १-५ गुणस्थान वाले होते है।४। मनुष्य तीनो वेदोमे १-१ गुण स्थानवाले होते है। और इससे आगे वेद रहित होते है ।४। देव स्त्री व पुरुष वेद में १-४ गुणस्थान वाले होते है ।२१] दे० नरक/४/ न [नरककी प्रथम पृथिवीमे क्षायिक औपमिक व क्षायोपशमिक तीनो सम्यक्त्व सम्भव है, परन्तु शेष छ पृथिवियोमे क्षायिक रहित दो ही सम्भव है ।२। प्रथम पृथिवी सभ्यग्दृष्टि पर्याप्तक व अपर्याप्तक दोनो अवस्थाओमें होते है पर शेष छ' पृथिवियोमें पर्याप्तक ही होते है 131] दे तियंच/२/नं.तियंच व योनिमति तिथंच १-५ गुण स्थानवाले होते है। तियंचको चोथे गुणस्थानमे क्षायिक सम्यक्त्व सम्भव है, परन्तु पोचवे गुणस्थानमे नही। योनिमतो तिर्यचको चौथे व पाँचवें दोनो ही गुणस्थानोमें क्षायिक्सम्यग्दर्शन सम्भव नही।११ तिर्यच तो चौथे गुणस्थानमें पर्याप्त व अपर्याप्त दोनों सम्भव है, परन्तु योनिमति तियंच केवल पर्याप्त हो सम्भव है। पाँचवें गुणस्थानमे दोनो
ही पर्याप्त होते है अपर्याप्त नहीं /२१] दे मनुष्य/३/न. [ मनुष्य व मनुष्यणी दोनो ही सयत व क्षायिक सम्यग्दृष्टि होने सम्भव है ।। मनुष्य तो सम्यग्दृष्टि पर्याप्त व अपर्याप्त दोनो प्रकार के होते है, परन्तु मनुष्यणी सम्यग्दृष्टि केवल पर्याप्त ही होते है। शेष५-१४ गुणस्थानोमे दोनो पर्याप्त ही होते हैं ।२।] दे देव./३/नं.[कल्पवासी देवोमे क्षायिक औपशामिक व क्षायोपशमिक तीनों सम्यक्त्व सम्भव है, परन्तु भवनत्रिक देवो व सर्व देवियोंमें क्षायिक रहित दो ही सभ्यक्त्व सम्भव है ।१। कल्पवासी देव तो असंयत मम्यग्दृष्टि गुणस्थानमै पर्याप्त व अपर्याप्त दोनो होते है, पर भवनत्रिकदेव व सर्व देवियाँ नियमसे पर्याप्त ही होते है ।२१] क. पा. ३/३-२२/६४२६/२४१/१३ जहा अप्पसत्थ वेदोदएण मणपज्जवणा- णादीणं ण संभवो तहा दंसणमोहणीयबबवणाए तत्थ कि संभवो अत्यि णत्थि त्ति संदेहेण घुलं तहियस्स सिस्ससदेहविणासणट्ठ मणुसस्स मणुसिणीए वा त्ति भणिदं । जिस प्रकार अप्रशस्त वेदके उदयके साथ मन पर्यय ज्ञानादिकका होना सम्भव नही है-(दे शीर्षक नं. ३) इसी प्रकार अप्रशस्त वेदके उदयमें दर्शनमोहनीयको क्षपणा क्या सम्भव है या नहीं है, इस प्रकार सन्देहसे जिसका हृदय घुल रहा है उस शिष्यके सन्देहको दूर करनेके लिए सूत्रमे 'मणुसस्स मणुस्सणीए वा' यह पद कहा है। ( मनुष्यका अर्थ पुरुष व नपुंसक वेदी मनुष्य है और मनुष्यणीका अर्थ स्त्रीवेदी मनुष्य है।-दे. वेद/३/५ । अत तीनो वेदोमे दर्शनमोहकी क्षपणा सम्भव है।] गो. जी /जी./प्र/७१४/११५३/११ असयततैरश्च्या प्रथमोपशमकवेदकसम्यक्त्वद्वयं, असं यतमानुष्या प्रथमोपशमवेदकक्षायिक्सम्यक्त्वत्रय च सभवति तथापि एको भुज्यमानपर्याप्तालाप एव। योनिमतीना पञ्चमगुणस्थानादुपरि गमनासभवाव द्वितीयोपशमसम्यक्त्व नास्ति । --असयत तिर्यचौमे प्रथमोपशम व वेदक ये दो ही सम्यक्त्व होते है और मनुष्यणोके प्रशमोपशम, वेदक व क्षायिक ये तीनो सम्यक्त्व सम्भव है। तथापि तहाँ एक भुज्यमान पर्याप्त आलाप ही होता है। योनिमती मनुष्य या तिर्यचका तो पंचमगुणस्थानसे ऊपर जाना असम्भव होनेसे यहाँ द्वितीयोपशम सम्यक्त्व नहीं होता। २. अप्रशस्त वेदोंमें क्षायिक सम्यग्दृष्टि अत्यन्त अल्प होते हैं ष. स्त्र १/१,८/सू ७५/२०८ णवरि विसेसो, मणुसिणीसु असंजद संजदासजद-पमत्तापमत्तसजदाणे सवयोवो खइयसन्माइट्ठी १७५॥
७. स्त्रीप्रव्रज्या व मक्तिनिषेध
१. स्त्रीको तद्भवसे मोक्ष नहीं होता शी. पा/म् /२६ सुणहाण य गोपसुमहिलाण दोसदे मोक्खो। जे शोधंति चउत्थं पिच्छिज्जता जणेहि सव्वेहिं ।२६। = श्वान, गर्दभ, गौ आदि पशु और खी इनको मोक्ष होते हुए किसने देखा है। जो चौथे मोक्ष पुरुषार्थ का शोधन करता है उसको ही भुक्ति होती है ।२६॥ प्र.सा./प्रक्षेपक/२२५-८/३०४ जदि दसणेण सुद्धा सुत्तज्झयणेण चावि संजुत्ता। घोर चरदि य चरिय इत्थिस्स ण णिज्जरा भणिदा ।। -सम्यग्दर्शनसे शुद्धि, सूत्रका अध्ययन तथा तपश्चरणरूप चारित्र इन कर सयुक्त भी खीको कर्मोंकी सम्पूर्ण निर्जरा नही कही गयी है। मो. पा /टो./१२/३१३/११ खीणामपि मुक्तिर्न भवति महावताभावात् ।
महाबतोका अभाव होनेसे स्त्रियोको मुक्ति नहीं होती।-(और भी दे. शीर्षक न.४) दे. शीर्षक न.४-(सावरण होनेके कारण उन्हे मुक्ति नही है।) दे. मोक्ष/४/५-(तीनो ही भाव 'लिगोसे मोक्ष सम्भव है, पर द्रव्यसे केवल पुरुषवेदसे ही होता है)। २. फिर भी भवान्तरमें मुक्तिकी अभिलाषासे जिन दीक्षा लेती हैं प्र. सा/ता, वृ /प्रक्षेपक २२५-८/३०५/७ यदि पूर्वोक्तदोषा' सन्त. स्त्रीणां
तहि सीतारुक्मिणीकुन्तीद्रौपदीसुभद्राप्रभृतयो जिनदीक्षा गृहीत्वा विशिष्टतपश्चरणेन कथं षोडशस्वर्ग गता इति चेत् । परिहारमाह-तत्र दोषो नास्ति तस्मात्स्वर्गादागत्य पुरुषवेदेन मोक्ष यास्यन्त्यग्रे ।
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वेद
तद्भवमोक्षो नास्ति भवान्तरे भवतु को दोष इति । प्रश्न- यदि खियोके पूर्वोक्त सब दोष होते है ( दे. आगेके शीर्षक ) तो सीता, रुक्मिणी, कुन्ती, द्रौपदी, सुभद्रा आदि सतियाँ जिनदीक्षा ग्रहण करके विशिष्ट तपश्चरण के द्वारा १६वे स्वर्ग में कैसे चली गयीं। उतर- इसमें कोई दोष नहीं है, इसलिए कि स्वर्ग से आकर बागे पुरुषवेदसे मोक्षको प्राप्त करेगी। खीको भबसे मोक्ष नहीं है, परन्तु भवान्तरसे मोक्ष हो जाने क्या दोष है।
३. तद्भव मुक्ति निषेधमें हेतु चंचलस्वभाव
प्र. सा. प्रक्षेप गाथा/ २२२-२ से ६/२०२ पहडपनादमश्या एतासि वित्त भासया पमदा । तम्हा ताओ पमदा पमादबहुलोत्ति णिचिटठा || संत धुवं मदान मोहपदासा भयं नापि पिता माया तम्हा तासि ण णिव्वाणं ॥४॥ ण विणा वट्टदि णारो एक्कं वा तेसु जीवलोयम्हि । ण हि संउडं च गत्तं तम्हा तासि च संवरण |५| चित्तस्सावो तासि सित्थिन्लं अत्तवं च पक्खलणं । विज्जदि सहसा सामु ॥६॥ खिय प्रणादकी मुर्ति हैं। प्रमादकी बहुलतासे ही उन्हे प्रमदा कहा जाता है | ३| उन प्रमदाओको नित्य मोह, प्रद्वेष, भय, दुगंध आदिरूप परिणाम तथा चित्त चित्र-विचित्र माया बनी रहती है, इसलिए उन्हें मोक्षको प्राप्ति नहीं होती ॥४॥ खियाँ कभी भी दोष रहित नहीं होतीं इसलिए उनका शरीर सदा वस्त्रसे ढका रहता है |५| स्त्रियोंको चित्तकी चचलता व शिथिलता सदा बनी रहती है ६ ( यो सा
-
४. तद्भव मुहि निषेधमें हेतु सचेलता
सू. पा./मू./२२ लिंग इत्थी हनदि मुंज पि सुरयकाम्म अज्जिय वि एकवस्था वत्थावरणेण भंजेइ | २२| = स्त्रीका लिग ऐसा है- एक काल भोजन करे, एक वस्त्र घरे और भोजन करते समय भी बको न उतारे ।
हि जम्हा क्योकि
प्र. सा. / / प्रक्षेपक / २२१-२/३०२ पिच्छदो इत्वीप सिद्धी दिशा तम्हा तप्पट व सिंगमरवी 12 खियोको निश्चयसे उसी जन्मसे सिद्धि नहीं कही गयी है, इसलिए स्त्रियोका लिग सावरण कहा गया है |२| ( यो सा /अ / ८ / ४४ ) दे, मो./४/५ सय लिगसे मुक्ति सम्भव नही)
घ. १/१.१३/३३३ / ९ अस्मादेवा द्रव्यखीणां निवृत्ति सिद्धयेदिति चैत्र, समासादयाख्यानगुणस्थितानां संयमानुपपते। भाषसंयमस्तासां सबाससामप्यविरुद्ध इति चेत, न तासा भावसंयमोऽस्ति भावायमा विनाभाविवखाद्युपादानान्यथानुपपत्ते - प्रश्न- इसी आगमसे ( मनुष्य जियो में संयत गुणस्थानके प्रतिपादक सूत्र नं. १३ से) द्रव्य स्त्रियोका मुक्ति जाना भी सिद्ध हो जायेगा ? उत्तर- नही, क्योंकि, वस्त्रसहित होनेसे उनके संयतासंयत गुणस्थान होता है अतएव उनके संयमकी उत्पत्ति नहीं हो सकती। प्रश्न-वस्त्र सहित होते हुए भी उन द्रव्य स्त्रियोके भावसंयमके होनेमें कोई विरोध नहीं आना चाहिए ? उत्तर-- उनके भावसयम नहीं है, क्योकि, अन्यथा अर्थात् भावसंयमके माननेपर, उनके भाव असंयमका अविनाभावी वस्त्र आदिका ग्रहण करना नही बन सकता है।
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घ. १२/४.२,६,१२/१९४/११ चीणं णिश्वत्तमरिच, चेहादिपरिचाएण विणा तासिं भावणिग्गंथत्ताभावादो। ण च दव्वत्थिणवंसयवेदेण चेलादिचागो अस्थि, छेदसुत्तेण सह विरोहादो। द्रव्य खियोके निन्यता सम्भव नहीं है, क्योंकि, बखादि परित्यागके बिना उनके भावनिर्ग्रन्थताका अभाव है । द्रव्य स्त्रीवेदी व नपुसकवेदी वस्त्रादिका त्याग करके निर्ग्रन्थ लिंग धारण कर सकते है, ऐसी आशका भी ठीक नहीं है, क्योंकि पैसा स्वीकार करनेपर छेद के साथ विरोध होता है ।
७. स्त्रीप्रव्रज्या व मुक्तिनिषेध
५. आर्यिकाको महाव्रती कैसे कहते हो
प्रसा/ता वृ./ एक गाथा / २२१-८/३०४/२४ अयम-यदि मोक्षो नास्ति तहि भवदीयमते किमर्थमजिकाना महावतारोपणम् । परिहारमाह- दुपारण कुलय्यवस्थानिमित न पोपचार साक्षाद्भवितुमर्हति । क्तुि यदि तद्भवे मोक्षो भवति स्त्रीणा तर्हि शतवर्ष दीक्षिताया अर्जिकाया अदादिने दीक्षित साधुः कथं वन्द्यो भवति । सैव प्रथमत कि न वन्द्या भवति साधो ।
प्रश्न- यदि खौको मोक्ष नहीं होता तो आर्थिकाओको महामतीका आरोप किस लिए किया जाता है। उत्तर- साधुसंघकी व्यवस्थामात्र के लिए उपचारसे वे महाव्रत कहे जाते है और उपचार में साक्षात होनेकी सामर्थ्य नहीं है । किन्तु यदि तद्भवसे स्त्री मोक्ष गयी होती तो १०० वर्षकी दीक्षिता आर्थिक के द्वारा आजका नवदीक्षित साधु वन्द्य कैसे होता । वह आर्यिका हो पहिले उस साधुकी या क्यों न होती (मो पाटो / १२ / ३१३/१८); ( और भी दे. आहारक /४/३, वेद / ३/४ गो जी )
६. फिर मनुष्यणीको १४ गुणस्थान कैसे कहे गये
"
११.१.१२/०३३/४] कथं पुनस्तासु चतुर्दश गुणस्थानानीति चेन्न भावस्त्रीविशिष्टमनुष्यगतौ तत्सत्त्वाविरोधात | भाववेदो बादरक्षायान्नोपर्यस्तीति न तत्र चतुर्दशगुणस्थाना संभव इति चेन्न, अत्र वेदस्य प्राधान्याभावात् । गतिस्तु प्रधाना न साराद्विनश्यति । वेदविशेषणायां गतौ न तानि संभवन्तीति चेन्न, विनष्टेऽपि विशेषणे उपचारेण तयपदेशमादधानमनुष्यत तत्सत्त्वाविरोधात् प्रश्न- तो फिर 'स्त्रियों में चौदह गुणस्थान होते है यह कथन कैसे बन सकता है " उत्तर— नहीं, क्योंकि, भावसी में अत् सी बेदयुक्त मनुष्यगति में चौदह गुणस्थानो के सद्भाव मान लेनेमें कोई विरोध नहीं आता है। प्रश्न - बादर कषाय गुणस्थानके ऊपर भाववेद नहीं पाया जाता है, इसलिए भाववेद मे १४ गुणस्थानों का सद्भाव नही हो सकता है ? उत्तर - नहीं, क्योकि, यहाँपर वेदकी प्रधानता नहीं है, किन्तु गति प्रधान है, और वह पहिले नष्ट नही होती है प्रश्न यद्यपि मनुष्यगति १४ गुणस्थान सम्भव हैं, फिर भी उसे बेद विशेषण से युक्त कर देनेपर उसमें चौदह गुणस्थान सम्भव नहीं हो सकते उत्तर नहीं, क्योंकि, विशेषण के नष्ट हो जानेपर भी उपचार से उस विशेषण युक्त सज्ञाको धारण करनेवाली मनुष्य गतिमें चौदह गुणस्थानोका सहभाव गान लेने कोई विरोध नहीं आता है।
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७. स्त्रीके वस्त्र लिंगमें हेतु
प्र. सा./मू / प्रक्षेपक गाथा / २२५/५ - ६ ण विणा वट्टदि णारी एक्कं वा तेसु जीवलोयहि । ण हि सउडं च गतं तम्हा तासि च सवरणं ॥ ५॥
अत्तवच पक्खलणं । विज्जदि सहसा तासु अ उप्पादो सुहममणुआई हि हि यइणं वरे वाहिकखपदेसेस भणिदो हुनुपतासि कह जो होदि 101 सम्हा तं परूिवं निर्ग वासि जिणेहि णिदिट्ठ 181 =१ स्त्रियाँ कभी दोषके बिना नहीं रहतीं इसीलिए उनका शरीर नखसे ढका रहता है और विरक अवस्थामै वस्त्रसहित लिग धारण करनेका ही उपदेश है ।५३ (यो, सा / अ./८/ ४७) । २ प्रतिमास चित्तशुद्धि विनाशक रक्त स्रवण होता है । ६ । ( यो सा/अ/४) ( शुक्लध्यान /३/५) ३. शरीर में बहुत से सूक्ष्म जीवों की उत्पत्ति होती है। उनके कॉल, योनि और स्तन बहुत-से सूक्ष्म जीव उत्पन्न होते रहते हैं. इसलिए) उनके पूर्ण सयम नही फल सकता | ७| ( सू. पा /मू./२४); (यो. सा/अ./८/४८०४१) (मो.पा./टी./१२/२१२/१२) ४ इसीलिए " जिनेन्द्र भगवान् स्रियो के लिए सारण जिगका निर्देश किया है।
आदि
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वंदक
वेदना
८. मुक्ति निषेध हेतु उत्तम संहननादिका अभाव प्र सा/ता. वृ /प्रक्षेपक २२.-८/३०४/१८ किच यथा प्रथममहननाभावात्सो सप्तमनरक न गच्छति तथा निर्वाणमपि। पुवेद वेदंता पुरिसा जे व नगमे डिमारूढा । सेसोदयेण वि तहा माणुवजुत्ता य ते दु सिझ ति । इति गाथाकथितार्थाभिप्रायेण भावतीणा कथ निर्वाण मिति चेत् । तासा भावस्रोणा प्रथमसहननमस्ति द्रव्यस्त्रीवेदाभावात्तद्भवमायपरिणाम प्रतिबन्धकतीवकामोद्रेकोऽपि नास्ति। द्रव्यमीणा प्रथमसहनन नास्तीति, स्मान्नागमे कथितमास्त इति चेत् । प्रश्न-जिस प्रकार प्रथम सहनन के अभावसे स्त्री सप्तम नरक नही जाती है, उसी प्रकार निर्वाणको भी प्राप्त नहीं करती है। सिद्धभक्तिमे कहा है कि द्रव्यसे पुरुषवेदको अथवा भावमे तीनो वेदोको अनुभव करता हुआ जीव क्षपकश्रेणीपर आरूढ ध्यानसे सयुक्त होकर सिद्धि प्राप्त करता है। इस गाथामे कहे गये अभिप्रायसे भावस्त्रियोको निर्वाण कैसे हो सकता है। उत्तर-भावस्त्रोको प्रथम सहनन भी होता है और द्रव्य स्खीवेदके अभावसे उसको मोक्षपरिणामका प्रतिबन्धक तीव्र कामोद्रेक भी नही होता है। परन्तु द्रव्य खोको प्रथम सहनन नही होती, क्योकि, आगममें उसका निषेध किया है। ९. स्त्रीको तीर्थकर कहना युक्त नहीं
-दे. सहनन। प्र सा./ता वृ /प्रक्षेपक २२५-८/३०५/३ किंतु भवन्मते मल्लितीर्थकर'
नीति कथ्यते तदप्ययुक्तम् । तीर्थकरा हि सम्यग्दर्शनविशुद्भयादिपांडशभावना पूर्वभवे भावयित्वा पश्चाद्भवन्ति । सम्यग्दृष्टे स्रीवेदकर्मणो बन्ध एवं नास्ति कथं स्त्री भविष्यतीति। कि च यदि मलितीर्थ करो वान्यः कोऽपि वा वीभूत्वा निर्वाण गत तहि स्त्रीरुपप्रतिमाराधना कि न क्रियते भवदभि । = किन्तु आपके मतमें मल्लितीथंकरको स्त्री कहा है, सो भी अयुक्त है, क्योंकि, तीर्थंकर पूर्वभवमे षोडशकारण भावनाओको भाकर होते है। ऐसे सम्यग्दृष्टि जीव खोवेद कर्मका अन्ध ही नहीं करते, तब वे स्त्री कैसे बन सकते है। [ सम्यग्दृष्टि जीव स्त्रियोमे उत्पन्न नही होते-दे० जन्म/3] । और भी यदि मल्लितीर्थकर या कोई अन्य स्त्री होकर निर्वाणको प्राप्त हुआ है तो आप लोग स्त्रीरूप प्रतिमाकी भी आराधना क्यो
नही करते। दे० तीर्थकर/२/२ (तीर्थकर प्रकृतिका बन्ध यद्यपि तीनो वेदोमें होता
है पर उसका उदय एक पुरुषवेदमे ही सम्भव है।) वेदक-ल सा/भाषा/२७२/३२६/७ वेदक कहिए उदयका भोक्ता।
२ वेदकका सत्त्वकाल-दे० काल/६। वेदक सम्यग्दर्शन-१ वेदक व कृतकृत्य वेदक सम्यग्दर्शन निर्देश। -दे० सम्यग्दर्शन । IV/४ । २--वेदक व क्षायोपशमिक सम्यक्त्वमें अन्तर ।-दे०क्षायोपशम/२। वेदन-त्या, वि. /१/२/१७/२१ वेदनम् ज्ञानम् । =वेदन अर्थात
ध १२/१,२.१०.१/३०२/७ अनुभवनं वेदना। - अनुभव करनेका नाम
वेदना है। दे. उपलब्धि-(चेतना, अनुभूति, उपलब्धि व वेदना ये ठाब्द एकार्थवाची है।) २. कर्म व नोकर्मके अर्थ में ध ११/१,२,१०,१/३०२/४ वेद्यते वेदिष्यत इति वेदनाशब्दसिद्ध । अठ्ठबिहकम्मपोग्गलक्रबंधो वेयणा । णोकामपोग्गला वि वेदिज्जति त्ति तेसि वेयणासण्णा क्ण्णि इच्छज्जदे। ण, अविहकम्मपरूवणाए परूविजमाणाए णोकम्मपरूवणाए संभवाभावादो। =जिसका वर्तमानमें अनुभव किया जाता है, या भविष्य में किया जायेगा वह वेदना है. इस निरुक्तिके अनुसार आठ प्रकारके कर्म पुद्गलस्बन्धको वेदना कहा गया है। प्रश्न-नोकर्म भी तो अनुभव के विषय होते है, फिर उनकी वेदना संज्ञा क्यों अभीष्ट नहीं है। उत्तर-नही, क्योकि, आठ प्रकारके कर्मकी प्ररूपणाका निरूपण करते समय
नोकर्म प्ररूपणाकी सम्भावना ही नही है। घ १४/५.६,६८/४/३ वैद्यन्त इति वेदना । जीवादो पृधभूदा कम्मणोकम्मबंधपाओग्गरखंधा अवधणिज्जा णाम। तेसि कधं वेदणाभावो जुज्जदे । ण, दम्ब खेत्तकालभावेहि वेदणापाओग्गेसु दव्य ठ्ठियणयमस्सिदूण वेदणासद्दपवुत्तीए अब्भुवगमादो। वेदनात्वमात्मा स्वरूपं येषा ते वेदनात्मान पुद्गला' इह गृहीतव्या' । कुदो। अण्णेसिं बधणिज्जत्ताभावादो। ते च बधणिज्जा पोग्गला खंधसमुद्दिट्ठा, खधसरूवाण ताणं तपरमाणुपोग्गल समुदयसमागमेण बंधपाओग्गपोग्गलस - मुप्पत्तीदो। जो वेदे जाते है उन्हे वेदन कहते है, जीवसे पृथग्भूत बन्धयोग्य कर्म और नोकर्म स्कन्ध बन्धनीय कहलाते है। प्रश्न-वे वेदनरूप कैसे हो सकते है। उत्तर-नही, क्योकि, जो द्रव्य क्षेत्र काल और भावकी अपेक्षा वेदनायोग्य है, उनमें द्रव्याथिक नयकी अपेक्षा वेदना शब्दकी प्रवृत्ति स्वीकार की गयी है। वेदनपना जिनका आत्मा अर्थात् स्वरूप है वे वेदनात्मा कहनाते है। यहाँ इस पदसे पुद्गलोका ग्रहण करना चाहिए, क्यो कि अन्य कोई पदार्थ अन्धनीय नहीं हो सकते। वे बन्धनीय पुदगल स्कन्धसमुद्दिष्ट अर्थात स्कन्ध स्वरूप कहे गये हैं, क्योकि स्कन्धरूप अनन्तानन्त परमाणुपुद्गलोंके समुदायरूप समागमसे बन्धयोग्य पुद्गल होते हैं।
२. निक्षेपोंकी अपेक्षा वेदनाके भेद व लक्षण ध. १०/१,२,१.३./७/८ तवदि रित्तणोआगमदव्ववेयणा कम्मणोक्म्मभेएण दुविहा । तत्थ कम्मवेयणा णाणावरणादिभेएण अट्ठविहा । णोकम्मणोआगमदबवेयणा सचित्त-अचित्त-मिस्सभेएण तिविहा । तत्थ सचित्तदव्ववेयणा कम्मणोक्म्मभेएण विहा । तत्थ सचित्तदव्ववेयणा सिद्वजोबदव्य । अचित्तदव्ववेयणा पोग्गल कालागास-धम्माधम्मदव्वाणि । मिस्सदबवेयणास सारिजीवदव्य, कम्मणोक्म्मजीवसमवायस्स जीवजीवे हितो पृधभावदसणादो। -[नाम, स्थापना, आदि निक्षेपो रूप भेद तो यथायोग्य निक्षेपोयत जानने ] तद्वचतिरिक्त नोआगम द्रव्य वेदना कम और नोकर्म के भेद से दो प्रकारकी है। उनमेसे कर्मवेदना ज्ञानावरण आदि के भेदसे आठ प्रकार की है' तथा नोकर्म नोआगम द्रव्य वेदना सचित्त, अचित्त और मिश्रके भेदसे तीन प्रकारकी है। उनमें से सचित्त द्रव्यवेदना सिद्धजीव द्रव्य है । अचित्त द्रव्य वेदना पुदगल, काल, आकाश, धर्म और अधर्म द्रव्य है। मिश्र द्रव्यवेदना संसारी जीवद्रव्य है, क्योकि, म और नोवर्मका जीवके साथ हुआ सम्बन्ध जीव और अजीबसे भिन्न रूपसे देखा जाता है।
..बध्यमान द्रव्यको वेदना सज्ञा कैसे ध १२/४,२,१०,३/१०४/8 सिया मज्झमाणिया वेयणा होदि, तत्तो अण्णाणादि फलुप्पत्तिदं सणादो। बज्झमाणस्स कम्मरस फलम
वेदना
१ सुख दुःख अर्थमें स सि 18/१२/४४७/५ वेदनाशब्द सुखे दू खे च बर्तमानोऽपि आर्तस्य
प्रकृतत्वाद् दुखवेदनाया प्रवर्तते। ='वेदना' शब्द यद्यपि सुख और दुख दोनो अर्थोमे विद्यमान है पर यहाँ आर्त ध्यानका प्रकरण होनेसे
उससे दुखवेदना ली गयी है। (रा वा /8/३२/१/६२८/२०)। रा.वा./६/११/१२/५२१/६ विदेश्चेतनार्थस्य ग्रहणात । विदे चुरादिण्यन्तस्य चेतनार्थस्येदं वेद्यमिति । == बिद्, विदल, विन्ति और विद्यति ये चार विद् धातुएंक्रमा ज्ञान, लाभ, विचार और सद्भाव अर्थको कहती है। यहाँ चेतनार्थक विद्ध धातुसे चुरादिण्यन्त प्रत्यय करके वेद्य शब्द बना है।
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वेदनाभय
कुण तस्स कधं वेयणाववएसो ण उत्तरकाले फलदाइत्तण्णहाणुववतो बंधसमए वि वेदणभावसिद्धीए । कथंचित् बध्यमान वेदना होती है कि उससे अज्ञानादिरूप फलकी उत्पत्ति देखी जाती है। प्रश्न- चूँकि बाँधा जानेवाला कर्म उस समय फलको करता नहीं है, अत उसकी वेदना सक्षा कैसे हो सकती है। उत्तर-नहीं, क्योंकि, इसके बिना वह उत्तरकालमें फलदाता बन नहीं सकता, अतएव बन्धसमय में भी उसे वेदना सिद्ध है । * वेदना नामका आध्यान दे० ध्यान आर्तध्यान । वेदनाभय - दे० भय । वेदना सन्निकर्ष.
-दे, सन्निकर्ष ।
-
वेदना समुद्घातरा. वा./१/२०/१२/०७/१३
यातिकादिरोगविद्यादिव्यसंम्भसंतापापादितवेदमाकृत वेदनासमुद्रात वात पित्तादि विकार जनित रोग या विषपान आदिकी तीव्रवेदनासे आत्म प्रदेशका बाहर लिना वेदना समुद्रात है।
घ. ४/१.३.२/२६/० तस्य वेदसमुग्धादो णाम अत्रि-सिरोवेदणादीहि जीवाणमुखरसेम सरीरतिगुण विष्णंने वेदना, शिरोवेदना, आदिके द्वारा जोवोके प्रदेशोंका उत्कृष्टत शरीरसे तिगुणे प्रमाण विसर्पणका नाम वेदनासमुद्घात है । (६.७/२.६.१/२११/८ );
(ध. १९/४.२.५.६/१८/७ ) 1 इ.सं./टी./१०/२५/३ तीमवेदनानुभवासवारीरमव्यवस्था आत्मप्रदेशानां बहिर्निगमनमिति वेदनासमुदात तीन पीडाके अनुभवसे मूल शरीर न छोडते हुए जो आत्माके प्रदेशोंका शरीरसे बाहर निकलना सो वेदना समुद्घात है ।
२. वेदना समुद्घातमें प्रदेशोंका विस्तार
-
=
ध. १९/४,२,५,६ /१८/७ वेयणावसेण जीवपदेसाणं विक्वं भुस्सेहे हि तिगुणविपंजणं वेयणासमुग्धादो णाम । णच एस नियमो सवेसि जीवपदेसा बेयणाए तिगुणं चैव विपुंजंति सि, किंतु सगविभादो तर तमसरूप दिवेणावसेज एगदोपदेसादीहि वि बड़ी होदि
१-वेदनाके बसे जीन प्रदेशोंके विष्कम्भ और उत्सेधकी अपेक्षा तिगुने प्रमाण में फैलनेका नाम वेदना समुद्घात है। (ध. ७) २.६.१.२११/-); (ऊपरवाला लक्षण (गो.जी./जी. २/०४/२०२३ / ८ ) । २. परन्तु सबके जीवप्रदेश वेदनाके वशसे तिगुणे ही फैलते हो, ऐसा नियम नहीं है किन्तु तरतम रूपसे स्थित वेदना के बासे अपने विष्कम्भकी अपेक्षा एक दो प्रदेशादिको से भी वृद्धि होती है। ३. निगोद जीवको वह सम्भव नहीं ध.१९/४,२.१.१२/२१/२ निगोवे सुष्पजमाणस्स अतिव्यवेणाभावेण निगोद जीवोमें सरतिपादस्स अभावाद । उत्पन्न होनेवाले जीनके अतिशय तीन वेदनाका अभाव होने व क्षित शरीरसे तिगुणा वेदना समुद्रचात सम्भव नहीं है। ४. जीव प्रदेशों के खण्डित होने की संभावना
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।
स्था. मं./१/१०२/१६ शरीर भयात्ममदेशेभ्यो हि कतिध्यात्मप्रदेशान खण्डित शरीरप्रदेशेऽवस्थानादात्मनः खण्डनम् । तञ्चात्र विद्यत एव । अन्यथा दारीरात् पृथग्भूतावयवस्य कम्पोपलब्धिर्न स्यात् न च पण्डितस्यात्मप्रदेशस्य पृथगात्मत्प्रसङ्ग प्रेश प्रवेशाद खण्डिताय संचन पश्चाद इति वेद. एकान्तेन वेदान पुपगमात पद्मासन्तु माथि स्वीकाराय । - शरीर से सम्बद्ध आत्म-प्रदेशोंमें कुछ आत्मप्रदेशोंके खण्डित शरीर में रहने की अपेक्षासे आत्माका खण्डन होता है, अन्यथा तलवार बादिसे कटे हुए शरीरके पृथग्भूत अस्वकम्पन न देखा जाता । खण्डित अवयवो में प्रविष्ट आत्मप्रदेशों में पृथक् आत्मा
वेदनीय
का प्रसग भी नहीं आता है, क्योंकि, वे फिरसे पहले ही शरीर में लौट आते है । प्रश्न- आत्मा के अवयव खण्डित हो जानेपर पीछे फिर एक कैसे हो जाते है ? उत्तर-हम उनका सर्वथा विभाग नही मानते कमसनासके राम्तुओ की तरह आत्मा प्रदेशका छेद स्वीकार करते है।
* अन्य सम्बन्धित विषय
* बद्धायुष्क व अवद्वायुष्क सबको होता है। दे० मरण /२/० * वेदना व मारणान्तिक समुद्घातमें अन्तर ।
* वेदना समुद्वातका स्वामित्व
- दे० क्षेत्र/३ ।
* वेदना समुद्घातकी दिशाएँ व काल स्थिति । - दे० समुद्घात । वेदनीय: "बाह्य सामग्री के संयोग व वियोग द्वारा जीवके बाह्य सुख-दुःखको कारण वेदनीय दो प्रकारका होता है-सुखको कारणभूत सातावेदनीय और दुखको कारणभूत असाला वेदनीय क्योंकि माद्य पदार्थोंगे इटानिकी कल्पना मोहके आधीन है, इसलिए इस कर्मका व्यापर भी मोहनीयके सहमत है।
१. वेदनीय कर्मका सामान्य लक्षण
स.सि /८/४/३८०/४ वेदयति वेद्यत इति वा वेदनीयम् । स.सि /८/३/२०६/१ वैद्यस्य सदसलक्षणस्य सुखस्वेदन जो वेदन कराता है या जिसके द्वारा वेदन किया जाता है वह वेदनीय कर्म है। सद- अलक्षणनाले वेदनीयकर्म की प्रकृति सुख व दुखका संवेदन कराना है। ( रा था / २/३/२/५६८/१+४/४६७/३). (घ. ६/१.२-१.७/१०/०६६ (गो९४/१०); (गो.क./
श्री. प्र./२०/१३/१४) ।
६/१.१ १.०/१०/३ जीवस्स हायपोग्लो मिच्तादिपश्चययसेन कम्मपाय परिषदो जीवसमवेदो वेदणीयमिदि भण्णदे । =जीवके सुख और दुखके अनुभवनका कारण, मिथ्यात्व आदिके प्रत्ययोके वशसे कर्मरूप पर्यायसे परिणत और जीवके साथ समवाय सम्बन्धको प्राप्त पुद्गलस्कन्ध 'वेदनीय' इस नामसे कहा जाता है।
घ. १३/२२.१६/२०८/० जीवस्य सह-दुखपाप की माम
जीवके सुख और दुखका उत्पादक कर्म वेदनीय है। (ध. १५/३/६ / ६ ), (द्र.सं./ टी / ३३/१२/१०) ।
२. वेदनीय कर्मके भेद-प्रभेद
ष. वं./६/१,६ - १ / सूत्र १७ - १८/३४ वेदणीयस्स कम्मस्स दुवै पयडीओ | १७ | सादावेदणीयं चेव असादावेदणीयं चेत्र | १८ | = वेदनीय कर्म की दो प्रकृतियाँ है | १७ | सातावेदनीय और असातावेदनीय, ये दो ही बेदनीय कर्मको प्रकृतियों है | १८१ ( प . / ११ / ४.२.१४/सूत्र ६०/४०९) (१/११/२०२ / ००० / ३५4 ) ( म. नं. १/१५/२०) (सू. आ. / १२२६), (त.सु /८/-), (पं.सं./प्रा./२/४ ); ( त, सा./५/२७ ); (गो. क / जी. प्र. / २५/१७/७) ।
ध. १२ / ४,२, १४, ७/४८१ / ४ सादावेदणीयमसादा वेदणीयमिदि दो चैव सहावा, सुहदुस्ववेयणाहितो धनुदार अणिस्से यणार अणुसंभादो सुइभेदेण दुइभेदेन च वर्णतवियपेण वेयणीयमस् अताओ सत्तीओ किरण पढिदाओ । सच्चमेदं जदि पज्जवर ठियणओ अवलंविदो किंतु एत्थ दव्वट्ठियणओ अवलंबिदो त्ति वेयणीयस्स ण तत्तियमेत्तसत्तीओ, दुवे चैव । सातावेदनीय और असातावेदनीय इस प्रकार वेदनीयके दो ही स्वभाव है, क्योंकि, गुलम दुखरूप वेदनाओसे भिन्न अन्य कोई वेदना पायी नहीं जाती । प्रश्न - अनन्त विकल्प रूप सुखके भेदसे और दुखके
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वेदनीय
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वंदनीय
मंदसे वेदनीय कर्मको अनन्त शक्तियों क्यों नहीं कही गयी हैं! उत्तर-यदि पर्यायाथिक नयका अवलम्बन किया गया होता तो. यह कहना सत्य था, परन्तु चूंकि यहाँ द्रव्याथिक नयका अवतम्बन किया गया है, अतएव वेदनीयकी उतनी मात्र शक्तियाँ सम्भव नहीं है, किन्तु दा हो शक्तियाँ सम्भव हैं।
६. साता-असाता वेदनीयके लक्षण स. सि.///३८४/४ यदुदयावादिगतिषु शरीरमानससुखप्राप्तिस्तत्स
द्व दाम् । प्रशस्तं वेद्य सहृद्यमिति । यत्फलं दुःखमनेकविधं तदरवद्यम् । अप्रशस्तं वेद्यमसद्वैद्यमिति। -जिसके उदयसे देवादि गतियों में शरीर और मन सम्बन्धी सुख की प्राप्ति होती है वह सदद्य है। प्रशस्त वद्यका नाम सद्वद्य है। जिसके फलस्वरूप अनेक प्रकार के दुःख मिलते हैं वह असद्वेद्य है। अप्रशस्त वैद्यका नाम असद्ध है। (गो. क./मू./१४/१०); गो, क./जा.प्र./३५/
रा. वा./८/८/१-२/२७३/२० देवादिषु मतिषु बहुप्रकारजातिविशिष्टासु यस्यादयात अन गृहोतात द्रव्यसंबन्धापेक्षात प्राणिनां शरीरमानसानेकविध मुत्रपरिणामस्तत्सद्वद्यम् । प्रशस्तं वेद्य सद्वेद्य ॥१॥ नारका दिपु गतिपु नानाप्रकारजातिविशेषावकीर्णामु कायिक बहुविध मानसं वाति दुःसहं जन्मजरामरणप्रिय विप्रयोगाप्रियसंयोगव्याधिबधबन्धादिजनित दुःखं यस्य फलं प्राणिनी तवसद्वद्यम् । अप्रशस्त बंद्यम् असदद्यम् । बहुत प्रकारकी जाति-विशिष्ट देव आदि गतियों में इष्ट सामग्रीके सन्निधानको अपेक्षा प्राणियों के अनेक प्रकारके शारीरिक और मानसिक सुखोंका, जिसके उदयसे अनुभव होता है वह सातावेदनीय है और जिसके उदयसे नाना प्रकार जातिरूप विशेषोंसे अवकीर्ण नरक आदि गतियों में बहुत प्रकारके कायिक मानस अतिदुःसह जन्म जरा-मरण प्रिय बियाग अप्रियसंयोग व्याधि बध और बन्ध आदिसे जन्म दुःखका अनुभव होता है वह असातावदनीय है। घ. ६/१,६-१,१८/३५/३ सादं सुह, तं वेदादि भुंजावेदि त्ति सादावेदणीयं । असादं दुक्रवं, तं वेदावेदि भंजावे दि त्ति असादा. वेदणीयं। -साता यह नाम सुखका है, उस मुखको जो वेदन कराता है अर्थात भोग कराता है, वह सातावेदनीय कर्म है। असाता नाम दुखका है, उसे जो बंदन या अनुभवन कराता है उसे असाता वेदनीय कर्म कहते हैं। (ध. १३/५,५,८८/३५७/२)। गो, क. जो. प्र./२६/१७/८ रतिमोहनोयोदयबलेन जीवस्य सुखकार
णीन्द्रयविषयानुभवनं कारयति तत्सातवदनीयं । दुःख कारणेन्द्रियविषयानुभवन कारयति अरतिमोहनीयोदयबलेन तदसातबंदनाय। -रतिमोहनीय कर्म के उदयसे सुखके कारण मूत इन्द्रियोंके विषयों का जो अनुभव कराता है वह सातवेदनोय कर्म है। दुःखके कारणभूत इन्द्रियोंके विषयों का अनुभव, अरति मोहनीयकर्मके उदयसे जो कराता है वह असातवेदनीय कर्म है।
४. सातावेदनीयके बन्ध योग्य परिणाम त. सू./६/१२ भूतवत्यनुकम्पादानसरागसंयमादियोगः क्षान्तिः शौच
मिति सद्वेद्यस्य।१२। स. सि./३/१२/३३१/पंक्ति 'आदि शब्देन संयमासंयमाकामनिर्जराबाल
तपोऽनुरोधः ।२। ...इति शब्दः प्रकारार्थः । के पुनस्ते प्रकाराः। अर्ह पूजाकरणतत्परताभाल वृद्धतपस्विबयावृत्त्यादयः । भूत-अनुकम्पा, व्रती अनुकम्पा, दान और सराग संयम आदिका योग तथा क्षान्ति और शौच ये साता वेदनीयकर्म के आस्रव हैं। सूत्रों सरागसंयमके आगे दिये गये आदि पदसे संयमासंयम अकामनिर्जरा और बालतपका ग्रहण होता है। सूत्रमें आया हुआ 'इति' शब्द प्रकारवाची है। वे प्रकार ये हैं, -अर्हन्तकी पूजा
करनेमें. तत्परता तथा बाल और वृद्ध तपस्वियोंकी वैयावृत्त्य आदिका करना। (रा. वा.//१२/७/५२२/२६:१३/५२३/१३); (त, सा./४/२५-२६); (गो, क./मू./८०१/६८०)।
५. असातावेदनीयके बन्धयोग्य परिणाम त. सू./६/११ दुःखशोकतापाक्रन्दनवधपरिदेवनान्यात्मपरोभयस्थान्यसद्यस्य ।१३ - अपनेमें अथवा परमें अथवा दोनों में विद्यमान दुःख, शोक, ताप, आक्रन्दन, वध और परिदेवन ये असातावेदनीय कर्म के आस्रव हैं। (त. सा./४/२०)। रा.वा./4/११/११/३२१/१२ इमे शोकादयः दुःखविकस्पा दुःखबिकल्पानामुपलक्षणार्थ मुपादीयन्ते, ततोऽन्येषामपि संग्रहो भवति । के पुनस्ते। अशुभप्रयोगपरपरिवाद - पैशुन्य - अनुकम्पाभाव - परपरितापनाङ्गो - पाङ्गच्छेदन-भेदन-ताडन-त्रासन-तजन-भर्त्सन-तक्षण-विशंसन-बन्धनरोधन-मर्दन-दमन-वाहन-बिहेडन-ह पण-कायरोक्ष्य-परमिन्दारमप्रशंसासक्लेशप्रादुर्भावनायुर्वहमानता-निर्दयत्व-सत्त्वव्यपरोपण-महारभ्भ परिग्रह - विश्रम्भोपघात- बक्रशोलतापापकर्मजीविश्वानथं दण्डविमिश्रण - शरजालपाशवागुरापञ्जरयन्त्रापायसर्जन-मलाभियोग - शखप्रदान-पापमिश्रभावाः । एते दु:खादयः परिणामा आरमपरोभयस्था असदुद्यस्यासवा वेदितव्याः। -उपरोक्त सत्र में शाकादिका ग्रहण दुःखके विकल्पोंके उपलक्षण रूप है। अतः अन्य विकल्पोंका भी संग्रह हो जाता है। वे विकल्प निम्न प्रकार हैं-अशुभप्रयोग, परपरिवाद, पैशुन्य पूर्वक अनुकम्पाभाव, परपरिताप, अगोपांगच्छेदन, भेदन, ताडन, त्रासन, तर्जन, भरसन, तक्षण, विशंसन, बन्धन, रोधन, मर्दन, दमन, वाहन, विहेडन, हपन, शरीरको रूखा कर देना, परनिन्दा, आत्मप्रशंसा, संक्लेशप्रादुर्भाव, जोवनको यों ही बरबाद करना, निर्दयता, हिंसा, महाआरम्भ, महापरिग्रह, विश्वासघात, कुटिलता, पापकर्मजीवित्व, अनर्थ दण्ड, विषमिश्रण बाण-जल पाश रस्सी पिंजरा, यन्त्र, आदि हिंसाके साधनोंका उत्पादन, जबरदस्तो शस्त्र देना, और दुःखादि पापमिश्रित भाव । ये सब दुःख आदिक परिणाम अपने में, परमें और दोनोंमें रहने वाले होकर असातावेदनीयके आस्रवके कारण होते हैं। (त. सा/४/२१-२४)। भ. आ./वि./४४६/६५३/१८ पर उद्धृत-अन्येषां यो दुःखमज्ञोऽनुकम्पा त्यक्त्वा तीव्र तावसंक्लेशयुक्तः । बन्धच्छेदैस्ताडनरिणश्च दाहै राधेश्चापि नित्यं करोति । सौख्यं कक्षन्नात्मनो दुष्टचित्तो नीचो नाचं कर्म कुर्बन्सदैव। पश्चात्ताप तापिना यः प्रयाति बध्नात्येषोऽसा तवेद्य' सदैवम् । -रोगाभिभवान्नष्टवुद्धिचेष्टः कथमेव हितोद्योग कुर्यात् । -जो मूर्ख मनुष्य दयाका त्याग कर तीन संक्लेश परिणामी होकर अन्य प्राणीको बाँधना, तोड़ना, पीटना, प्राण लेना, खानेके और पानेके पदार्थोंसे बंचित रखना ऐसे हो कार्य हमेशा करता है। ऐसे कार्य में हो अपनेको सुखो मानकर जो नीच पुरुष ऐसे ही कार्य हमेशा करता है, ऐसे कार्य करते समय जिनके मन में पश्चात्ताप होता नहीं, उसीको निरन्तर असातावेदनीय कर्मका बन्ध होता है, जिससे उसका देह हमेशा रोग पीड़ित रहता है, तब उसकी बुद्धि व क्रियाएं नष्ट होती हैं। वह पुरुष अपने हितका उद्योग कुछ भी नहीं कर सकता।
६. साता-असाताके उदयका ज. उ. काल व अन्तर ध. १३/५,४,२४/५३/११ सादावेदणीयस्स उदयकालो अंतोमुत्तमेत्तो फिट्टिदूण देसूण पुत्रको डिमेत्तो होदि चे-ण, सजोगिकेवलि मोत्तण अण्णस्थ उदयकालस्स अंतोमुहूत्तणियमभुवगमादो । -प्रश्न-इस तरह तो सातावेदनीयका उदयकाल अन्तर्मुहूर्त विनष्ट होकर कुछ कम पूर्वकोटि प्रमाण प्राप्त होता है। उत्तरनहीं, क्योंकि, सयोगिकेवली गुणस्थानको छोड़कर अन्यत्र उदयकालका अन्तर्मुहुर्त प्रमाण नियम ही स्वीकार किया गया है। .
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वेदनीय
वेदनीय
ध. १५/पृष्ठ/पंक्ति-सादस्स जहष्णएण एयसमओ, उक्कस्सेण नहीं है, क्योंकि, भिन्न-भिन्न विषयोंवाले, नयों का एक विषय मानने में
छम्मासा। असादस्स जहण्णएण एगसमओ, उक्कस्सेण तेत्तीससागरो- विरोध आता है।-दे. नय/IV/३/३ | बमागि अंतोमुहूत्तभहियाणि । कुदो। सत्तमपुढविपवेसादो पुत्र घ. १३/१४.८८/३१७/४ अण्णाणं पि दुवप्पाययं दिस्स दि त्ति तस्स वि पच्छा च असादस्स अंतोमुत्तमेतकालमुदीरणुबलं भादो। (६२४२) । असादावेदणीयत्तं किण्ण पसज्जदे। ण, अणियमेण दुक्रतुप्पायस्स सादस्स जहण्णण एगसमओ, उक्कस्सेण तेत्तीसं सागरोवमाणि सादि- असादसे संते खरगमोग्गरादीणं पि असादावेदणीयत्तप्पसंगादो। रेयाणि। साइरस गदियाणुवादेण जहण्णमंतरमंतोमुहत्तं, उकस्से
-प्रश्न--अज्ञान भी तो दुखका उत्पादक देखा जाता है, इसलिए, पि अंतोमुहूत्तं चेत्र । असादस्स जहण्णमंतरमेगसमओ उक्कस्सं ।
उसे भी असाता वेदनीय क्यों न माना जाये ! उत्तर-नहीं, क्योंकि, छम्मासा। मणुसगदोए असादस्स उदीरणंतरं जहण्णेण एयसमओ.
अनियमसे दुःखके उत्पादकको असाता वेदनीय मान लेनेपर तलवार उक्कस्सेण तोमुहुत्तं । (६८/६) । = सातावेदनीयकी उदीरणाका
और मुद्गर आदिको भी असाता वेदनीय मानना पड़ेगा। काल जघन्यसे एक समय और उत्कर्षसे छह मास है। असाता
४. वेदनीयका कार्य बाह्य सामग्री सम्पादन है वेदनीयकी उदोरणाका काल जघन्यसे एक समय और उत्कर्षतः अन्तर्मुहूर्त से अधिक तेत्तीस सागरोपम प्रमाण है, क्योंकि, सातवीं ध.६/१,६-१,१८/३६/पंक्ति-दुक्खुवसमहेउसुदब्बसंपादणे तस्स बाबारादी पृथिवा में प्रवेश करनेसे पूर्व और पश्चाव अन्तर्मुहूर्त मात्र काल 'ण च सुहदुक्वहेउदब्यसंपादयमण्णं कम्ममरिथ सि अणुवतक असातावेदनोयकी उदोरणा पायी जाती है। सातावेदनीयकी लंभादो।७१ = दुःख उपशमनेके कारणभूत सुव्योंके सम्पादनमें उदीरणामें अन्तरकाल जघन्यसे एक समय और उत्कर्ष से साधिक सातावेदनीय कर्म का व्यापार होता है। सुख और दुःखके कारणभूत तेत्तीस सागरोपम प्रमाण है। गतिके अनुवादसे साताबेदनीयकी द्रव्यों का सम्पादन करनेवाला दूसरा कोई कर्म नहीं है। उदोरणाका अन्तरकाल जघन्य व उत्कृष्ट भी अन्तमुहर्त ही है। ध. १३/५.६.८८/३५७/२ दुक्खपडिकारहेदुदयसंपादयं.. कम्मं सादावेदअसातावेदनीयका जवन्य अन्तर एक समय और उत्कृष्ट छह मास णीयं णाम ।..दुक्रवसमण हेदव्याणमवसारयं च कम्ममसादावेदणीयं प्रमाण है। मनुष्य गतिमें असाताकी उदीरणाका अन्तर जघन्यसे
णाम । -दुःख के प्रतीकार करने में कारणभूत सामग्रीका मिलनेवाला एक समय और उत्कर्ष से अन्तर्मुहूर्त प्रमाण है।
कर्म सातावेदनीय है और दुःख प्रशमन करने में कारणभूत द्रव्योंका ध. १२/४,२,१३,५५/४००/२ घेयणीयउक्तस्साणुभागबंधस्स टिटदी अपसारक कर्म असातावेदनीय कहा जाता है। बारसमुहुत्तमत्ता। -वेदनीयके उत्कृष्ट अनुभागकी स्थिति बारह ध. १५/३/६/६ दुवस्खुवसमहे उदतवादिसंपत्ती वा सुहं णाम । तत्थ वेयणीयं मुहूर्त मात्र है।
णिबद्ध तदुप्पत्तिकारणत्तादो। -दुःखोपशान्तिके कारणभृत
द्रव्यादि की प्राप्ति होना, इसे सुख कहा जाता है। उनमें वेदनीय ७. अन्य कर्मोको वेदनीय नहीं कहा जा सकता
कर्म निबद्ध है, क्योंकि वह उनकी उत्पत्तिका कारण है। ध. ६/१,६-१.७१९०/७ वेद्यत इति वेदनीयम् । एदीए उप्पत्तीए सव्व- पं.ध./पू./५८१ सद्योदयभावान् गृहधनधान्यं कलत्रपुत्रांश्च । स्वयमिह कम्माण वेदणीयत्तं पसजदे । ण एस दोसो, रूढिबसेण कुसलसहो करोति जोत्रो भुनक्ति वा स एव जीवश्च ।५८११ -सातावेदनीयके व अप्पिदपोग्गलपंजे चेत्र वेदणीयसहपउत्तीदो। -प्रश्न-'जो उदयसे प्राप्त होनेवाले घर धनधान्य और सी पुत्र वगैरहको जीव वेदन किया जाय वह वेदनीय कर्म है' इस प्रकारकी व्युत्पत्ति के स्वयं ही करता है तथा स्वयं ही भोगता है। द्वारा तो सभी कर्मोंके वेदनीयपनेका प्रसंग प्राप्त होता है ! उत्तर- दे. प्रकृतिबंध/३/३ (अघाती काँका कार्य संसारकी निमित्तभूत यह कोई दोष नहीं, क्योंकि, रूढिके वशसे कुशल शब्दके समान ___ सामग्रीका प्रस्तुत करना है।) विवक्षित पुद्गल पुंजमें ही वेदनीय, इस शब्दकी प्रवृत्ति पायी। वर्णव्यवस्था/१/४ (राज्यादि सम्पदाकी प्राप्तिमें साता वेदनीयका जाती है। जमे 'कुशल' शब्दका अर्थ 'कुशको लानेवाला' ऐसा होने- ___व्यापार है)। पर भी वह 'चतुर' अर्थ में प्रयोग होता है, इसी प्रकार सभी कर्मोंमें वेदनीयता होते हुए भी वेदनीय संज्ञा एक कर्म विशेषके लिए
९. उपघात नाम कर्म उपरोक्त कार्यमें सहायक है
ध. ६/१६-१,२८/१६/५ जीवस्स दुक्खुप्पायणे असादावेदणीयस्स बावारो ध.१०/४.२,३,३/१६/६ वेदणा णाम सुह-दुक्खाणि, लोगे तहा संवबहार- चे, होदु तत्थ तस्स वावारो, किंतु उवधादकम्मं पि तस्स सहकारिदंसणादो। ण च ताणि सुहदुक्खाणि वेयणीयपोग्गलबंधं कारणं होदि, तदुदयणिमित्तपोग्गलदव्यसंपादणादो। -जीवके दुःख मोत्तण अण्णकम्मदवे हितो उपज्जति, फलाभावेण बेयणीय- उत्पन्न करने में तो असातावेदनीय कर्म का व्यापार होता है। [फिर कम्माभावप्पसंगादो । तम्हा सव्यकम्माणं पडिसेहं काऊण यहाँ उपघात कर्मको जीव पीड़ाका कारण कैसे बताया जा रहा है ] : पत्तोदयवेयणीयदव्वं चेव बेयणा त्ति उत्तं । अण्णं कम्माणमु- उत्तर-तहाँ असाता वेदनीयका व्यापार रहा आवे, किन्तु उपधातदयगदपोग्गलक्खंधो बेदणा ति किम₹ एत्थ ण घेप्पदे । कर्म भी उस असातावेदनीयका सहकारी कारण होता है, क्योंकि, ण, एदम्हि अहिप्पाए तदसंभवादो । ण च अण्णम्हि उजुसुदे उसके उदयके निमित्तसे दुःरखकर पुदगल द्रव्यका सम्पादन होता है। अण्णस्स उजुसुदस्स संभवो, भिण्ण विसयाणं णयाणमेयविसयत्तविरोहादा। -वेदनाका अर्थ सुख दुख है. क्योंकि, लोकमें वैसा व्यवहार
१०. सातावेदनीय कथंचित् जीवपुद्गल विपाकी है देखा जाता है। और वे सुख-दुख बेदनीय रूप पुदगलस्कन्धके सिवा घ.६/१,६-१,१८/३६/२ एवं संते सादावेयणीयस्स पोग्गलविवाइत अभ्य कर्म द्रव्योंसे नहीं उत्पन्न होते हैं, क्योंकि, इस प्रकार फलका होइ ति णासंकणिउज, दुक्खबसमेणुप्पण्ण सुवस्थियकणस्स दुक्रवाअभाव होनेसे वेदनीय कर्मके अभावका प्रसंग आता है। इसलिए विणाभाविस्स उवयारेणेव लसुहसण्णास्स जीवादो पुधभूदस्स हेदुत्तप्रकृत में सब कर्मों का प्रतिषेध करके उदयगत वेदनीय द्रव्यको ही णेण मुत्ते तस्स जीव विधाइत्तमुहहेदुत्ताणमुबदेसादो। तो वि जीववेदना ऐसा कहा है। प्रश्न-आठ कर्मोका उदयगत पुद्गलस्कन्ध पोग्गल बिवाइत्तं सादावेदणीयस्स पायेदि ति चे ण, इत्तादो। वेदना है. ऐसा यहाँ क्यों नहीं ग्रहण करते-दे. वेदना । उत्तर-नहीं, तहोबएसो णस्थि त्ति चेण, जीवस्स अस्थित्तण्णहाणुववत्तीदो तहोवक्योंकि, वेदनाको स्वीकार करनेवाले अजुसूत्र नयके अभिप्रायमें वैसा देसस्थित्त सिद्धीए। ण च सुह-दुक्ख हेउदवसंपादयमण्णं कम्ममस्थि मानना सम्भव नहीं है। और अन्य अजुसूत्रमें अन्य अजुसूत्र सम्भव त्ति अणुवलं भादो। - [सुखके हेतुभूत बाह्य सामग्री सम्पादतमें
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तेदनीय
वेदान्त
सातावदनीयका व्यापार होता है। इस व्यवस्थाके माननेपर सातावेदनीय प्रकृतिके पुद्गल विपाक्त्वि प्राप्त होगा, ऐसी भी आशका नही करनी चाहिए, क्योकि दु खके उपशमसे उत्पन्न हुए दुख के अविनाभावी उपचारसे ही सुख सज्ञाको प्राप्त और जीवसे अपृथग्भूत ऐसे स्वास्थ्यके क्णका हेतु होनेसे सूत्र में साताबेदनीय कमके जीवविपाकित्वका और सुख हेतुत्वका उपदेश दिया गया है। यदि कहा जाय कि उपर्युक्त व्यवस्थानुसार तो सातावेदनीय कर्म के जीवविपाकीपना और पुद्गल विषाकीपना प्राप्त होता है, सो भी कोई दोष नही है, क्योकि, यह बात हमें इष्ट है। यदि कहा जाये कि उक्त प्रकारका उपदेश प्राप्त नही है, सो भी नहीं, क्योकि, जीवका अस्तित्त्व अन्यथा बन नही सक्ता है, इसलिए उस प्रकार के उपदेशको सिद्धि हो जाती है। सुख और दुखके कारणभूत द्रव्योका सम्पादन करने वाला दूसरा कोई कर्म नहीं है, क्योकि वैसा पाया नहीं जाता।
दे० अनुभाग/३/३ (घातिया कर्मोके बिना वेदनीय अपना कार्य करनेको समर्थ नहीं है, इसलिए उसे घातिया नहीं कहा गया है।)
१४. वेदनीयके बाह्य व अन्तरंग व्यापारका समन्वय ध. १३/५,५,६३/३३४/४ इत्यसमागमो अणि?त्यविओगो च सुहं णाम ।
अणिठ्ठत्थ समागमो इट्ठत्थ वियोगो च दुख णाम। = इष्ट अर्थके समागम और अनिष्ट अर्थ के वियोगका नाम सुख है। तथा अनिष्ट अर्थ के समागम और इष्ट अर्थ के वियोगका नाम दुख है। और मोहके कारण बिना पदार्थ इष्टानिष्ट होता नही है।-दे० राग/२/५ । घ. १५/३/६/६ सिरोवेयणादी दुक्खं णाम । तस्स उवसमो तदणुप्पत्ती
वा दुक्खुवसमहेउदबादि संपत्ती वा सुहं गाम । तत्थ वेयणीयं णिबद्भ, तदुप्पत्तिकारण तादो। सिरकी वेदना आदिका नाम दुख है। उक्त वेदनाका उपशान्त हो जाना अथवा उसका उत्पन्न ही न होना, अथवा दुखोपशान्तिके कारण भूत द्रव्यादिक्की प्राप्ति होना, इसे सुख कहा जाता है। उसमें वेदनीय कर्म निबद्ध है। दे० वेदनीय/१० (दु खके उपशमसे प्राप्त और उपचारसे सुख संज्ञाको प्राप्त जीवके स्वास्थ्यका कारण होनेसे ही साता वेदनीयको जीव विपाकी कहा है अन्यथा वह पुद्गल विपाकी है।) दे० अनुभाग/३/३,४ ( मोहनीय कर्म के साथ रहते हुए वेदनीय धातिया __वव है, अन्यथा वह अघातिया है)। दे० सुख/२/१० (दु ख अवश्य असाताके उदयसे होता है, पर स्वाभाविक
सुरव असाताके उदयसे नहीं होता। साता जनित सुख भी वास्तवमें दुःख ही है।) दे० वेदनीम/३ (बाह्य सामग्री के सन्निधान में ही सुरव-दुख उत्पन्न होता है।)
+वेदनीय कम जीव विपाकी है-दे, प्रकृति बन्ध/२।
११. अघाती होनेसे केवल वेदनीय वास्तव में सुखका विपक्षी नहीं है प ध/उ/१११४-१११५ कर्माष्टकं विपक्षि स्यात मुनस्यैक्गुणस्य च ।
अस्ति किचिन्न कमकं तद्विपक्षं तत पृथक् ॥१११४। वेदनीय हि कम कमस्ति चेतद्विपक्षि च । न यतोऽस्यास्त्यघातित्वं प्रसिद्ध' परमागमात् ।१११५। - आत्माके सुख नामक गुणके विपक्षी वास्तव में आठो हो कर्म है. पृथक्से कोई एक कर्म नही ।१११४। यदि ऐसा कहो कि उसका विपक्षी एक वेदनीय कर्म ही है तो यह कहना भी ठीक नहीं है, क्योकि, परमागममें इस वेदनीय कर्मको अघातियापना प्रसिद्ध है ।१११५ -( और भी दे मोक्ष/३/३)
१२. वेदनीयका व्यापार कथंचित् सुख-दुःखमें होता है ष ख १४सू ३, १५/पृष्ट ६, ११ वेयणीय सुहदुक्खम्हि णिबद्ध। सादासादाणमप्याणम्हि णिबधो १३ वेदनीय सुख व दुखमें निबद्ध है।३। सातावेदनीय और असाता वेदनीय आत्मामें निबद्ध
प्र. सा /त. प्र/७६ विच्छिन्न हि सदसद्वेद्योदयप्रच्यावितसद्वद्योदयप्रवृसतयानुभवत्वादुभूतविपक्षतया। -विच्छिन्न होता हुआ असाता वेदनीयका उदय जिसे च्युत कर देता है, ऐसे सातावेदनीयके उदयसे प्रवर्तमान होता हुआ अनुभवमें आता है, इसलिए इन्द्रिय सुख विपक्षकी उत्पत्तिवाला है। दे अनुभाग/३/४ ( वेदनीय कर्म कथ चित् घातिया प्रकृति है।) दे. वेदनीय/१/३ ( साता सुखका अनुभव कराता है और असातावेदनीय दुखका ।) १३. मोहनीयके सहवर्ती ही वेदनीय कार्यकारी है अन्यथा नहीं
* अन्य सम्बन्धित विषय१. वेदनीय कर्मके उदाहरण ।
-दे० प्रकृतिबन्ध/३। २. साता असाताका उदय युगपत् भी सम्भव है।
-दे० केली /४,११,१२, । ३. वेदनीय प्रकृतिमें दसों करण सम्भव है। -दे० करण/२ ॥ ४. वेदनीयके बन्ध उदय सत्व ।
-दे० वह वह नाम । ५ वेदनीयका कथंचित् घाती-अघातीपना। -दे० अनुभाग ३ । ६. तीर्थकर व केवलीमें सात्ता असाताके उदय आदि सम्बन्धी।
-दे० केवली/४। ७ वेदनीयके अभावसे सासारिक सुख नष्ट होता है। स्वाभाविक सुख नहीं।
-दे० सुख/२/११॥ ८ असाताके उदयमें औषधियॉ आदि भी सामथ्यहीन हो जाती है।
-दे० कारण/III/५/४ वेदान्त
ध १३/५,४,२४/५३/२ वेदिदं पि असादवेदणीय ण वेदिदं. सगसहकारिकारणघादिकम्माभावेण दुक्खजणणसत्तिरोहादो। - असाता वेदनीयसे वे दित होकर भी ( केवली भगवान् ) वेदित नही है, क्योकि अपने सहकारिकारणभूत घाति कर्मों का अभाव हो जानेसे उसमे दुखको उत्पन्न करनेकी शक्ति मानने में विरोध है। -और भी दे० केवली/ ४/१२/१।
१ वेदान्त सामान्य
सामान्य परिचय प्रवर्तक, साहित्य व समय जैन व वेदान्तकी तुलना द्वैत व अद्वैत दर्शनका समन्वय भर्तृप्रपंच वेदान्त
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वेदान्त
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१. वेदान्त सामान्य
१. वेदान्त सामान्य
१. सामान्य परिचय
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२ शंकर वेदान्त या ब्रह्माद्वैत
शंकर वेदान्तका तत्त्व विचार माया व सृष्टि इन्द्रिय व शरीर पंचीकृत विचार मोक्ष विचार प्रमाण विचार
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| भास्कर वेदान्त या द्वैताद्वैत सामान्य विचार तत्व विचार | मुक्ति विचार
स्या म/परि च/४३८ १. उत्तर मीमासा या ब्रह्ममीमासा ही वेदांत है। वेदो के अन्तिम भागमे उपदिष्ट होनेके कारण ही इसका नाम वेदान्त है। यह अद्वैतवादी है । २. इनके साधु ब्राह्मण ही होते है । वे चार प्रकार के होते है-कुटीचर, बहूदक, हस और परमहस । ३ इनमें से कुटीचर मठमे रहते है, त्रिदण्डी होते है, शिवा व ब्रह्मसूत्र रखते है। गृहत्यागी होते है । यजमानोंके अथवा क्दाचित अपने पुत्रके यहाँ भोजन करते है। ४ बहूदक भी कुटीचरके समान है, परन्तु ब्राह्मणो के घर नीरस भोजन लेते है। विष्णुका जाप करते है, तथा नदी में स्नान करते है। । हस साधु ब्रह्म सूत्र व शिरवा नहीं रखते। कषाय वस्त्र धारण करते है, दण्ड रखते है, गॉवमे एक रात
और नगरमें तीन रात रहते है। धुआ निकलना वन्द हा जाय तब ब्राह्मणो के घर भोजन करते है । तप करते है और देश विशेष में भ्रमण करते है। ६. आत्मज्ञानी हो जानेपर वही हस परमह स कहलाते है। ये चारो वर्गों के घर भोजन करते है। शकरके वेदान्तकी तुलना Bradley के सिद्धान्तोसे की जा सकती है। इसके अन्तर्गत समयसमयपर अनेक दार्शनिक धाराएँ उत्पन्न होती रही जोअद्वतकाप्रतिकार करती हुई भी किन्ही-किन्ही बातोमे दृष्टिभेदको प्राप्त रही। उनमेंसे कुछके नाम ये है-भतृ प्रपच वेदान्त (ई श ७), शकर वेदान्त या ब्रह्माद्वैत (ई. श८), भास्कर वेदान्त, रामानुज वेदान्त या विशिष्टाद्वैत (ई श ११), माध्ववेदान्त या द्वैतवाद (ई श.१२१३), बल्लभ वेदान्त या शुद्धाद्वैत (ई श १५), श्रीकण्ठ बेदान्त या अविभागद्वैत (ई श. १७)।
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रामानुज वेदान्त या विशिष्टाद्वैत सामान्य परिचय तत्त्व विचार ज्ञान व इन्द्रिय विचार सृष्टि व मोक्ष विचार प्रमाण विचार
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२. प्रवर्तक साहित्य व समय
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| निंबाकं वेदान्त या द्वैताद्वैतवाद सामान्य विचार तत्व विचार शरीर व इन्द्रिय
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| माध्व वेदान्त या द्वैतवाद सामान्य परिचय तत्त्व विचार द्रब्य विचार गुण कर्मादि शेष पदार्थ विचार सृष्टि व प्रलय विचार मोक्ष विचार कारण कार्य विचार शान व प्रमाण विचार
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स्या. म /परि च /४३८ १ वेदान्तका क्थन महाभारत व गीतादि प्राचीन ग्रन्थोमे मिलता है। तत्पश्चात औडलोमि, आश्मरथ्य, कासकृत्स्न, काष्णजिनि, बादरि, आय और जैमिनी वेदान्त दर्शन के प्रतिपालक हुए। २ वेदान्त साहित्यमे भादरायणका ब्रह्मसूत्र सर्व प्रधान है। जिसका समय ई० ४०० है। ३. तत्पश्चात बोधायन व उपवर्यने उनपर वृत्ति लिखी है। ४ द्रविडाचार्य टक व भतृ प्रपच (ई. श.७) भी टीकाकारोमें प्रसिद्ध है। ५ गौडपाद ( ई०७८०) उनके शिष्य गोविन्द और उनके शिष्य शक्राचार्य हुए। इनका समय ई० ८०० है । शकराचार्य ने ईशा, केन, कठ आदि १० उपनिषदोपर तथा भगवद्गीता व वेदान्त सूत्रोपर टोकाएँ लिखी है। ६ मण्डन और मण्डन मिश्र भी शकरके समकालीन थे। मण्डनने ब्रह्म सिद्धि आदि अनेक ग्रन्थ रचे । ७ शकरके शिष्य सुरेश्वर (ई०८२०) थे। इन्होंने नैष्कर्य सिद्धि, वृहदारण्यक उपनिषद भाष्य आदि ग्रन्थ लिखे। नैष्कर्म्य आदि के चित्सुख आदिने टीकाएँ लिखी। ८ पद्मपाद ( ई० ८२०) शकराचार्यके दूसरे शिष्य थे। इन्होने पचपद आदि ग्रन्थोकी रचना की। ६ वाचस्पति मिश्र (ई०८४०) ने शकर भाष्यपर भामती और ब्रह्मसिद्धिपर तत्त्व समीक्षा लिखी। १० सूरेश्वरके शिष्य सर्वज्ञात्म मुनि (ई०१००) थे, जिन्होने सक्षेप शारीरिक नामक ग्रन्थ लिखा। ११ इनके अतिरिक्त आनन्दबोध ( ई० श० ११-१२) का न्याय मरकन्द और न्याय दीपावली. श्री हर्ष (ई० ११५०) का खण्डन खण्ड खाद्य, चित्सुखाचार्य (ई०१२५०) की चित्सुखी, विद्यारण्य (ई. १३५०) को पंचशती और जीवन्मुक्तिविवेक , मधुसूदन सरस्वती ( ई० श०१६ की) अद्वैत सिद्धि, अप्पय दीक्षित ( ई० श० १७ ) का सिद्धान्त लेश और सदानन्दका बेदान्त सार महत्त्वपूर्ण ग्रन्थ है।
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| शुद्धाद्वैत (शैव दर्शन) सामान्य परिचय तत्व विचार सृष्टि व मुक्ति विचार
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वेदान्त
२. शंकर वेदान्त या ब्रह्माद्वैत
है। इसी में घिरा हुआ चैतन्य उपचारसे जीव कहलाता है, जो क्र्ता, भोक्ता, सुख, दुख, जन्म मरण आदि सहित है। ५ इस शरीर युक्त चैतन्य (जीव) में ही ज्ञान, इच्छा व क्रिया रूप शक्तियॉ रहती है । वास्तवमे (चैतन्य ) ब्रह्म इन सबसे अतीत है । ६. जगत इस ब्रह्मका विवर्तमात्र है। जो जल-बुद्बुद्धत् उसमें से अभिव्यक्त होता है और उसीमे लय हो जाता है।
१. जैन व वेदान्तकी तुलना
(जैनमत भी किसी न किसी अपेक्षा वेदान्तके सिद्वान्तोको स्वीकार करता है, सग्रह व व्यवहारनयके आश्रयपर विचार करनेसे यह रहस्य स्पष्ट हो जाता है। जैसे-पर सग्रह नयकी अपेक्षा एक सत् मात्र ही है इसके अतिरिक्त अन्य किसी चीजकी सत्ता नहीं। इसी का व्यवहार करनेपर यह सत् उत्पाद व्यय धौव्य रूप तीन शक्तियोसे युक्त है, अथवा जीव व अजीव दो भेद रूप है। सत् ही वह एक है, वह सर्व व्यापक, ब्रह्म है। उत्पाद व्यय धौव्य रूप शक्ति उसकी माया है। जीव ब अजीव पुरुष व प्रकृति है। उत्पादादि त्रयसे ही उसमें परिणमन या चंचलता होती है। उसीसे सृष्टिकी रचना होती है । इत्यादि ( दे० साख्य ) इस प्रकार दोनोमे समानता है। परन्तु अनेकान्तवादी होनेके कारण जेन तो इनके विपक्षी नयोको भो स्वीकार करके अद्वेतके साथ द्वेत पक्षका भो ग्रहण कर लेते है। परन्तु वेदान्तो एकान्तबादी होनेके कारण द्वेतका सर्वथा निरास करते है। इस प्रकार दोनोमे भेद है। वेदान्तवादो सग्रहनयाभासी है। (दे० अनेकान्त/२/६) ।
४. द्वैत व अद्वैत दर्शनका समन्वय प.वि.//२६ द्वैतं ससृतिरेव निश्चयवशादद्वेतमेवामृत, संक्षेपादुभयत्र जनियतमिदं पर्यन्तकाष्ठागतम् । निर्गत्यादिपदाच्छनै' शबलितादन्यसमालम्बते. य' सोऽसज्ञ इति स्फुट व्यवहते ब्रह्मादिनामेति च ॥२६॥ -निश्चयसे द्वेत ही ससार तथा अद्वेत ही मोक्ष है, यह दोनोके विषयमें सक्षेपसे कथन है, जो चरम सोमाको प्राप्त है। जो भव्य जीव धीरे-धीरे इस प्रथम (द्वेत ) पदसे निकलकर दूसरे अद्वैत पदका आश्रय करता है वह यद्यपि निश्चयत' वाच्य वाचक भावका अभाव हो जानेके कारण सज्ञा (नाम) से रहित हो जाता है, फिर भी व्यवहारसे वह ब्रह्मादि (पर ब्रह्म परमात्मा आदि ) नामको प्राप्त
करता है। दे. द्रव्य/४ वस्तु स्वरूप में द्वेत व अद्वेतका विधि निषेध व उसका
समन्वय । दे उत्पाद/२ (नित्य पक्षका विधि निषेध व उसका समन्वय )1 ५. मर्तृप्रपंच वेदांत स्या. म./परि-च/पृ. ४४० भर्तृ प्रपंच नामक आचार्य द्वारा चलाया गया। इसका अपना कोई ग्रन्थ इस समय उपलब्ध नहीं है । भतृप्रपंच वैश्वानरके उपासक थे। शकरकी भाँति ब्रह्मके पर अपर दो भेद मानते थे।
२. माया व सृष्टि (तत्त्व बोध ), (भारतीय दर्शन ) १. सत्त्वादि तीन गुणोकी साम्यावस्थाका नाम अव्यक्त प्रकृति है। व्यक्त प्रकृतिमे सत्व गुण ही प्रधान होनेपर उसके दो रूप हो जाते है-माया व अविद्या । विशुद्धि सत्त्व प्रधान माया और मलिन सत्त्व प्रधान अविद्या है। २. मायासे अवच्छिन्न ब्रह्म ईश्वर तथा अविद्यासे अवच्छिन्न जीव कहाता है। ३. माया न सत् है न असत, बल्कि अनिर्वचनीय है । समष्टि रूपसे एक होती हुई भी व्यष्टि रूपसे अनेक है। मायावच्छिन्न ईश्वर सकल्प मात्रसे सृष्टिको रचना करता है। चेतन्य तो नित्य, सूक्ष्म व अपरिणामी है । जितने भी सूक्ष्म व स्थूल पदार्थ है वे मायाके विकास है। त्रिगुणोकी साम्यावस्थामें माया कारण शक्तिरूपसे विद्यमान रहती है। पर तमोगुणका प्राधान्य होने पर उसकी विक्षेप शक्तिके सम्पन्न चैतन्यसे आकाशकी, आकाशसे वायुकी, वायुसे अग्निकी, अग्निसे जलकी, और जलसे पृथिवीकी क्रमश उत्पत्ति होती है। इन्हे अपचीकृत भूत कहते है। इन्हीसे आगे जाकर सूक्ष्म व स्थूल शरीरोकी उत्पत्ति होती है। ४. अविद्याकी दो शक्तियाँ है--आवरण व विक्षेप। आवरण द्वारा ज्ञान की हीनता और विक्षेप द्वारा राग द्वेष होता है।
२. शंकर वेदांत
१. शकर वेदांतका तत्त्व विचार षड्दर्शन समुच्चय/६८/६७); ( भारतीय दर्शन ) १. सत्ता तीन प्रकार
है-पारमार्थिक, प्रातिभासिक व व्यावहारिक। इनमे से ब्रह्म ही एक पारमार्थिक सत् है । इसके अतिरिक्त घट, पट आदि व्यावहारिक सत् है। वास्तबमें ये सब रस्सीमे सर्पको भॉति प्रातिभासिक है। २. ब्रह्म, एक निर्विशेष, सर्वव्यापो, स्वप्रकाश, नित्य, स्वयं सिद्ध चेतन तत्त्व है। ३. मायासे अवच्छिन्न होनेके कारण इस के दो रूप हो जाते है-ईश्वर व प्राज्ञ । दोनोमें समष्टि व व्यष्टि, एक व अनेक, निशुद्ध सच्च व मलिन सत्त्व, सर्वज्ञ व अल्मज्ञ, सर्वेश्वर व अनीश्वर, समष्टिका कारण शरीर और व्यष्टिका कारण शरीर आदि रूपसे दो भेद है। ईश्वर, नियन्ता, अव्यक्त, अन्तर्यामी, सृष्टिका रचयिता व जोवों को उनके कर्मानुसार फलदाता है। ४. साख्य प्ररूपित बुद्धि व पॉचो ज्ञानेन्द्रियोसे मिलकर एक विज्ञानमय कोश बनता
३. इन्द्रिय व शरीर (तत्त्व बोध ), ( भारतीय दर्शन ) १ आकाशादि अपंचीकृत भूतोके पृथक-पृथक् सात्त्विक अंशोसे क्रमश श्रोत्र, त्वक, चक्षु, जिहा, और घाण इन्द्रियकी उत्पत्ति होती है। २. इन्ही पॉचके मिलित सात्त्विक अशोमे बुद्धि, मन, चित्त व अहंकारकी उत्पत्ति होती है। ये चारो मिलकर अंत करण कहलाते है। ३. बुद्धि व पाँच ज्ञानेन्द्रियोके सम्मेलको ज्ञानमय कोष कहते है। इसमें घिरा हुआ चैतन्य ही जीव कहलाता है। जो जन्म मरणादि करता है। ४. मन व ज्ञानेन्द्रियोके सम्मेलको मनोमय कोष कहते हैं। ज्ञानमय कोषकी अपेक्षा यह कुछ स्थूल है । ५. आकाशादिके व्यष्टिगत राजसिक अंशोसे पाँच कर्मेन्द्रियाँ उत्पन्न होती है । ६. और इन्ही पाँचोके मिलित अंशसे प्राणकी उत्पत्ति होती है। वह पाँच प्रकारका होता है-प्राण, अपान, व्यान, उदान और समान। नासिकामें स्थित वायु प्राण है, गुदाकी
ओर जानेवाला अपान है, समस्त शरीरमें व्याप्त व्यान है, कण्ठमें स्थित उदान और भोजनका पाक करके बाहर निकलनेवाला समान है। ७. पाँच कर्मेन्द्रियो व प्राणके सम्मेलसे प्राणमय कोष बनता है। ८. शरीरमे यही तीन कोष काम आते है। ज्ञानमय कोषसे ज्ञान, मनोमय कोषसे इच्छा तथा प्राणमय कोषसे क्रिया होती है। ६ इन तीनो कोषोके सम्मेलसे सूक्ष्म शरीर बनता है। इसीमें वासनाएं रहती है। यह स्वप्नावस्था रूप तथा अनुपभोग्य है। १०. समष्टि रूप सूक्ष्म शरीरसे आच्छादित चैतन्य सूत्रात्मा या हिरण्यगर्भ या प्राण कहा जाता है तथा उसीके व्यष्टि रूपसे आच्छादित चैतन्य तैजस कहा जाता है । ११. पचीकृत उपरोक्त ५च भूतोसे स्थूल शरीर बनता है। इसे ही अन्नमय कोष कहते है। यह जागृत स्वरूप तथा उपभोग्य है। वह चार प्रकारका है-जरायुज, अण्डज, स्वेदज, व उद्भिज (बनस्पति)। १२. समष्टि रूप स्थूल शरीरसे आच्छादित चैतन्य वैश्वानर या विराट कहा जाता है। तथा व्यष्टि रूप स्थूल शरीरसे आच्छादित चैतन्य विश्व कहा जाता है।
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वैदान्त
४. रामानुज वेदान्त या विशिष्टाद्वैत
१. पंचीकृत विचार (तत्त्व बोध), (भारतीय दर्शन) प्रत्येक भूतका आधा भाग ग्रहण
करके उसमे शेष चार भूतोके १/८-१/८ भाग मिला देनेसे वह पचीकृत भूत कहलाता है। जैसे-१/२ आकाश+१/८ वायु+१/८ तेजस +१/८ जल + १/८ पृथिवी, इन्ही पचोकृत भूतोसे समष्टि व व्यष्टि रूप स्थूल शरीरोको उत्पत्ति होती है।
५. मोक्ष विचार (तत्त्व बोध ); ( भारतीय दर्शन ) अविद्या वश ईश्वर व प्राज्ञ. सूत्रात्मा
व तेजस, वैश्वानर व विश्व आदिमे भेदकी प्रतीति होतो है। तत्त्वमसि ऐसा गुरुका उपदेश पाकर उन सर्व भेदोसे परे उस अद्वैत ब्रह्म की ओर लक्ष्य जाता है। तत्र पहले 'साऽहं' और पीछे 'अह ब्रह्म'को प्रतीति होनेसे अज्ञानका नाश होता है। चित्त वृत्तियाँ नष्ट हो जाती है। चित्प्रतिबिम्ब ब्रह्मसे एकाकार हो जाता है। यही जीव व ब्रह्मका ऐक्य है। यही ब्रह्म साक्षात्कार है। इस अवस्थाकी प्राप्तिके लिए श्रवण, मनन, निदिध्यासन, व अष्टाग योग साधनकी आवश्यकता पडती है। यह अवस्था आनन्दमय तथा अबाड़मनसगोचर है। तत्पश्चात् प्रारब्ध कम शेष रहने तक शरीरमें रहना पड़ता है। उस समय तक वह जीवन्मुक्त कहलाता है। अन्तमें शरीर छूट जानेपर पूर्ण मुक्ति हो जाती है।
६. प्रमाण विचार (भारतीय दर्शन) १. प्रमाण छह है-प्रत्यक्ष. अनुमान, उपमान,
आगम, अर्थापत्ति व अनुपलब्धि। पिछले चारके लक्षण मीमांसकों वत है। चित्त वृत्तिका इन्द्रिय द्वारसे बाहर निकलकर विषयाकार हो जाना प्रत्यक्ष है। पर ब्रह्मका प्रत्यक्ष चित्त वृत्तिसे निरपेक्ष है। २ इस प्रत्यक्षके दो भेद है-सविकल्प व निर्विकल्प अथवा जीवसाक्षी व ईश्वर साक्षी अथवा ज्ञप्तिगत व ज्ञेयगत अथवा इन्द्रियज व अतीन्द्रियज । सविकल्प व निर्विकल्प तो नैयायिको वत है। अन्त'करणको उपाधि सहित चैतन्यका प्रत्यक्ष जीव साक्षी है जो नाना रूप है। इसी प्रकार मायोपहित चैतन्यका प्रत्यक्ष ईश्वर साक्षी है जो एक रूप है । ज्ञप्तिगत स्वप्रकाशक है और ज्ञेयगत ऊपर कहा गया है। पॉचों इन्द्रियोका ज्ञान इन्द्रिय प्रत्यक्ष और सुख-दुखका वेदन अतीन्द्रिय प्रत्यक्ष है। ३, व्याप्ति ज्ञानसे उत्पन्न अनुमतिके कारणको अनुमान कहते है। वह केवल अन्वय रूप ही होता है व्यतिरेक रूप नही। नैयायिकोकी भॉति तृतीय लिग परामर्शका स्वीकार नहीं
करते। ३. भास्कर वेदान्त या द्वैताद्वैत
१. सामान्य परिचय स्या./सं म./परि-च./४४१ ई. श १० में भट्ट भास्करने ब्रह्मसूत्रपर भाष्य रचा। इनके यहाँ ज्ञान व क्रिया दोनो मोक्षके कारण है। ससारमे जीव अनेक रहते है । परन्तु मुक्त होनेपर सब ब्रह्ममें लय हो जाते है। ब्रह्म व जगत में कारण कार्य सम्बन्ध है, अत दोनो ही सत्य है।
२. तत्त्व विचार (भारतीय दर्शन) १. मूल तत्त्व एक है । उसके दो रूप है-कारण ब्रह्म व कार्य ब्रह्म । २, कारण ब्रह्म एक, अखण्ड. व्यापक, नित्य, चैतन्य है और कार्य ब्रह्म जगत स्वरूप व अनित्य है। ३. स्वत' परिणामी होने के कारण वह कारण ब्रह्म ही कार्य ब्रह्ममें परिणमित हो जाता है। ४. जीव व जगत्का प्रपञ्च ये दोनों उसी ब्रह्मकी शक्तियाँ है। प्रलयावस्थामें जगत्का सर्व प्रपञ्च और मुक्तावस्थामें जीव
स्वयं ब्रह्ममें लय हो जाते है। जीव उस ब्रह्मकी भोवतृशक्ति है और आकाशादि उसके भोग्य । १. जीव अणु रूप व नित्य है। कर्तृत्व उसका स्वभाव नहीं है । ६.जड़ जगत् भी ब्रह्मका ही परिणाम है। अन्तर केवल इतना है कि जीवमें उसकी अभिव्यक्ति प्रत्यक्ष है और उसमें अप्रत्यक्ष।
३.मुक्ति विचार (भारतीय दर्शन) १. विद्याके निरन्तर अभ्याससे ज्ञान प्रगट होता है और
आजीवन शम, दम आदि योगानुष्ठानोके करनेसे शरीरका पतन, भेदका नाश, सर्वज्ञत्वकी प्राप्ति और कर्तृत्वका नाश हो जाता है। २. निवृत्ति मार्ग के क्रममें इन्द्रियाँ मनमे, बुद्धि आत्मामें और अन्तमें वह आत्मा भी परमात्मा लय हो जाता है। ३. मुक्ति दो प्रकार की है-सद्योमुक्ति व क्रममुक्ति। सद्योमुक्ति साक्षात ब्रह्मको उपासनासे तत्क्षण प्राप्त होती है। और क्रममुक्ति, कार्य ब्रह्म द्वारा सत्कृत्योके कारण देवयान मार्गसे अनेको लोकोमें घूमते हुए हिरण्यगर्भ के साथ-साथ होती है। ४. जीवन्मुक्ति कोई चीज नही। बिना शरीर छूटे मुक्ति असम्भव है। ४. रामानुज वेदान्त या विशिष्टाद्वैत
१. सामान्य परिचय (भारतीय दर्शन) यामुन मुनिके शिष्य रामानुजने ई. १०५० में श्री भाष्य
व वेदान्तसारकी रचना द्वारा विशिष्टाद्वैतका प्रचार किया है । क्योकि यहाँ चित् व अचित्को ईश्वरके विशेष रूपसे स्वीकार किया गया है । इसलिए इसे विशिष्टाद्वैत कहते है। इसके विचार बहुत प्रकारसे निम्बार्क वेदान्तसे मिलते है। (दे, वेदान्त/५ )
२. तत्त्व विचार भारतीय दर्शन
तत्त्व
चि.
चित्.
अचित्
अचिव
ईश्वर
बद्ध
मुक्त नित्य शुद्धसत्त्व मिश्रसत्त्व सच्वशून्य
स आत पर युह विभव अन्तर्यामी अर्वावतार संकर्षण प्रद्य म्न अनिरुद्ध मुख्य गौण
१. मम बुद्धिसे भिन्न ज्ञानका आश्रयभूत, अणु प्रमाण, निरवयव, नित्य, अव्यक्त, अचिन्त्य, निर्विकार, आनन्दरूप जीवात्मा चित है। यह ईश्वरको बुद्धिके अनुसार काम करता है। २. संसारी जीव बद्ध है इनमें भी प्रारब्ध कर्मका आश्रय लेकर मोक्षको प्रतीक्षा करनेवाले दृप्त
और शीघ्र मोक्षकी इच्छा करनेवाले आर्त है। अनुष्ठान विशेष द्वारा बैकुण्ठको प्राप्त होकर वहाँ भगवान्की सेवा करते हुए रहनेवाला जीव मुक्त है। यह सर्व लोको में अपनी इच्छासे विचरण करता है। कभी भी ससारमें न आनेवाला तथा सदा ईश्वरेच्छाके आधीन रहनेवाला नित्य जीव है। भगवान्के अवतारके समान इसके भी अवतार स्वेच्छासे होते हैं। ३. अचिव जड तत्त्व व विचारवान होता है। रजतम गुणसे रहित तथा आनन्दजनक शुद्धसत्त्व है । बैकुण्ठ धाम तथा भगवान्के शरीरोके निर्माणका कारण है। जड है या अजड़ यह नहीं कहा जा सकता। त्रिगुण मिश्रित तथा बद्ध पुरुषों के ज्ञान व आनन्दका आवरक मिश्रसत्त्व है। प्रकृति, महत,, अहंकार, मन,
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वेदान्त
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५. निम्बार्क वेदान्त या द्वैताद्वैत वाद
५. प्रमाण विचार भारतीय दर्शन
प्रमाण
इन्द्रिय, विषय, व भूत इस होके परिणाम है । यही अविद्या पा माया है। त्रिगुण शून्य तथा सृष्टि प्रलयका कारण काल सत्त्वशून्य है। ४. चित् अचित तत्त्वोका आधार, ज्ञानानन्द स्वरूप, सृष्टि व प्रलय कर्ता, भक्त प्रतिपालक व दुष्टोका निग्रह करनेवाला ईश्वर है। नित्य आनन्द स्वरूप व अपरिणामी 'पर' है। भक्तोकी रक्षा व दुष्टोका निग्रह करनेवाला व्यूह है। सकर्षणसे सहार, प्रद्य म्नसे धर्मोपदेश व वर्गोंकी सृष्टि तथा अनिरुद्धसे रक्षा, तत्त्वज्ञान व सृष्टि होती है। भगवानका साक्षात अवतार मुख्य है और शक्त्यावेश अवतार गौण । जीवोंके अन्त करणकी वृत्तियोका नियामक अन्तर्यामी है और भगवान्की उपास्य मूर्ति अर्चावतार है।
प्रत्यक्ष
अनुमान
शब्द
। ___ प्रत्यक्ष सविकल्प निर्विकल्प बेद पुराण ऐतिहा
अर्वाचीन अनर्वाचीन
इन्द्रियज अनिन्द्रियज
३. ज्ञान व इन्द्रिय विचार
(भारतीय दर्शन) १. ज्ञान स्वयं गुण नही द्रव्य है । सुख, दुःख, इच्छा, प्रयत्न ये ज्ञान के ही स्वरूप हैं। यह नित्य आनन्द स्वरूप व अजड़ है। आत्मा संकोच विस्तार रूप नहीं है पर ज्ञान है। आरमा स्व प्रकाशक और ज्ञान पर प्रकाशक है। अचित के ससर्गसे अविद्या, कर्म, व वासना व रुचिसे वेष्टित रहता है। बद्ध जीवोका ज्ञान अव्यापक, नित्य जीवोंका सदा व्यापक और मुक्त जीवोंका सादि अनन्त व्यापक होता है। २. इन्द्रिय अणुप्रमाण है। अन्य लोको मे भ्रमण करते समय इन्द्रिय जीवके साथ रहती है। मोक्ष होनेपर छूट जाती है।
स्वयंसिद्ध दिव्य १. यथार्थ ज्ञान स्वत' प्रमाण है। इन्द्रियज्ञान प्रत्यक्ष है। योगज प्रत्यक्ष स्वयसिद्ध और भगवत्प्रसादसे प्राप्त दिव्य है। २. व्याप्तिज्ञान अनुमान है। पाँच अवयवोका पक्ष नहीं। ५.३, वा २ जितने भी अवयवोसे काम चले प्रयोग किये जा सकते है। उपमान अर्थापत्ति आदि सब अनुमानमें गर्भित है।
अवमान है। पांच बार भगवत्प्रसाद इन्द्रियज्ञान ।
४. सृष्टि व मोक्ष विचार
बस्थामे मान ज्ञानेन्द्रिय का प्रलय पर्यन्त महा इन्द्रियाँ
(भारतीय दर्शन) १ भगवान् के संकल्प विकल्पसे मिश्रसत्त्वकी साम्यावस्थामे वैषम्य आनेपर जब वह कर्मोन्मुख होती है तो उससे महत अहंकार, मन ज्ञानेन्द्रिय व कर्मेन्द्रिय उत्पन्न होती है। मुक्त जीवोकी छोडी हुई इन्द्रियाँ जो प्रलय पर्यन्त संसारमें पड़ी रहती है, उन जीवोके द्वारा ग्रहण कर ली जाती है जिन्हे इन्द्रियों नहीं होती। २. भगवान के नाभि कमलसे ब्रह्मा, उनसे क्रमश देवषि, ब्रह्मर्षि,
प्रजापति, १० दिक्पाल, १४ इन्द्र, १४ मनु, ८ वसु, ११ रुद्र, १२ आदित्य, देवयोनि, मनुष्यगण, तियंग्गण, और स्थावर उत्पन्न हुए (विशेष दे. वेदान्त/६ ।। ३. लक्ष्मीनारायणको उपासनाके प्रभावसे स्थूल शरीर के साथ-साथ सुकृत दुष्कृतके भोगका भी नाश होता है। तब यह जीव सुषुम्ना नाडीमे प्रवेश कर ब्रह्म-रन्ध्रसे निकलता है। सूर्यको किरणोके सहारे अग्नि लोकमे जाता है। मार्गमे-दिन, शुक्ल पक्ष, उत्तरायण व सवत्सरके अभिमानी देवता इसका सत्कार करते है। फिर ये सूर्यमण्डलको भेदकर पहले सूर्यलोक्में पहुंचते है। वहाँसे आगे क्रम पूर्वक चन्द्रविद्यु द वरुण, इन्द्र व प्रजापतियो द्वारा मार्ग दिखाया जानेपर अतिवाहक गणोके साथ चन्द्रादि लोकोसे होता हुआ वैकुण्ठकी सीमामें 'विरजा' नामके तीर्थ मे प्रवेश करता है। यहाँ सूक्ष्म शरीरको छोडकर दिव्य शरीर धारण करता है, जिसका स्वरूप चतुर्भुज है। तब इन्द्र आदिको आज्ञासे वैकुण्ठमे प्रवेश करता है। तहाँ 'एरमद' नामक अमृत सरोवर व 'सोमसवन' नामक अश्वत्थ को देखकर ५०० दिव्य अप्सराओसे सत्कारित होता हुआ महा मण्डपके निकट अपने आचार्य के पलंगके पास जाता है। वहाँ साक्षात भगवानको प्रणाम करता है । तथा उसकी सेवामे जुट जाता है । यही उसकी मुक्ति है।
५. निम्बार्क वेदान्त या द्वैताद्वैत वाद
१. सामान्य परिचय ई श. १२ में निम्बार्काचार्यने स्थापना की। वेदान्त पारिजात, सौरभ व सिद्धान्त रत्न इसके प्रमुख ग्रन्थ है। भेदाभेद या द्वैताद्वैत वादी है। इनके यहाँ शूद्रोको ब्रह्म-विद्याका अधिकार नहीं । पापियोको चन्द्रगति नहीं मिलती। दक्षिणायणमें मरनेपर विद्वानोको ब्रह्म प्राप्ति होती है। यमालयमें जानेवालोको दुखका अनुभव नही होता। विष्णुके भक्त है। राधा-कृष्णको प्रधान मानते है। रामानुज वेदान्तसे कुछ मिलता-जुलता है।--दे. वेदान्त/४ । २. तत्त्व विचार १. तत्त्व तीन है-जीवात्मा, परमात्मा व प्रकृति । तीनोको पृथक्-पृथक् माननेसे भेदवादी है और परमात्माका जीवात्मा व प्रकृतिके साथ सागर तरंग बत् सम्बन्ध माननेसे अभेदवादी है। २. जीवात्मा तीन प्रकारका है सामान्य, बद्ध व मुक्त । सामान्य जीव सर्व प्राणियोमें पृथक्-पृथक् है। बन्ध व मोक्षकी अपेक्षा परमात्मा पर निर्भर है। अणुरूप होते हुए भी इसका अनुभवात्मक प्रकाश सारे शरीरमे व्याप्त है, आनन्दमय नहीं है पर नित्य है। शरीरसे शरीरान्तरमें जाने वाला तथा चतुर्गतिमे आत्मबुद्धि करने वाला बद्ध-जीव है। मुक्त जीव दो प्रकारका है-नित्य व सादि। गरुड आदि भगवान् नित्य मुक्त है। सत्कर्मों द्वारा पूर्व जन्मके कर्मोंको भोगकर ज्योतिको प्राप्त जीव सादि मुक्त है। ईश्वरकी लीलासे भी कदाचित् सक्लप मात्रसे शरीर उत्पन्न करके भोग प्राप्त करते है। पर ससारमें नही रहते । ३ परमात्मा स्वभावसे ही अविद्या अस्मिता, राग-द्वेष, तथा अभिनिवेश इन पाँच दोषोसे रहित है। आनन्द स्वरूप, अमृत, अभय, ज्ञाता, द्रष्टा, स्वतन्त्र, नियता विश्वका व जीबोको जन्म, मरण, दुःख, सुखका कारण, जीवोको कर्मानुसार फलदायक, पर स्वयं पुण्य पाप रूप कर्मोसे अतीत, सर्वशक्तिमान है । जगत्के आकार रूपसे परिणत होता है। वैकुण्ठमें भी जीव इसीका ध्यान करते है। प्रलयावस्था, यह जीव
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वेदान्त
६. माध्य वेदान्त या द्वतवाद
इसी में लीन हो जाता है। ४. प्रकृति तीन प्रकार है-अप्राकृत, प्राकृत और काल । तीनो ही नित्य व विभु है। त्रिगुणोसे अतीत अप्राकृत है । भगवान् का शरीर इसीसे बना है । त्रिगुण रूप प्राकृत है। ससारके सभी पदार्थ इसीसे बने है। इन दोनोसे भिन्न काल है। ३. शरीर व इन्द्रिय पृथिवीसे मास व मन, जलसे मूत्र, शोणित व प्राण; तेजसे हड्डी, मज्जा व वाक् उत्पन्न होते है। मन पार्थिव है। प्राण अणु प्राण है तथा अवस्थान्तरको प्राप्त वायु रूप है। यह जीवका उपकरण है। इन्द्रिय ग्यारह है-पाँच ज्ञानेन्द्रिय, पाँच कर्मेन्द्रिय, और मन । स्थूल शरीरकी गरमीका कारण इसके भीतर स्थित सुक्ष्म शरीर है। (विशेष दे० वेदान्त/२ )।
६. माध्व वेदान्त या द्वैतवाद
१. सामान्य परिचय ई. श. १२-१३ मे पूर्ण प्रज्ञा माध्व देव द्वारा इस मतका जन्म हुआ। न्याय सुधा व पदार्थ सग्रह इसके मुख्य ग्रन्थ है। अनेक तत्त्व माननेसे भेदवादी है। २. तत्त्व विचार पदार्थ १० है - द्रव्य, गुण, कर्म, सामान्य, विशेष, विशिष्ट, अंशी, शक्ति, सादृश्य व अभाव । ३. द्रव्य विचार १. द्रव्य दो-दो भागोमें विभाजित है--गमन प्राप्य, उपादान कारण, परिणाम व परिणामी दोनो स्वरूप, परिणाम व अभिव्यक्ति। उसके २० भेद है--परमात्मा, लक्ष्मी, जीव, अव्याकृतआकाश, प्रकृति, गुणत्रय, महत्तत्त्व, अह कार, बुद्धि, मन, इन्द्रिय, तन्मात्रा, भूत, ब्रह्माण्ड, अविद्या, वर्ण, अन्धकार, वासना, काल तथा प्रतिबिम्ब । २, परमात्मा-यह शुद्ध, चित्स्वरूप, सर्वज्ञाता, सर्व द्रष्टा, नित्य, एक, दोष व विकार रहित, सृष्टि, सहार, स्थिति, बन्ध, मोक्ष आदिका क्ता, ज्ञान शरीरी तथा मुक्त पुरुषसे भी परे है। जीवो ब भगवान् के अवतारोमे यह ओत-प्रोत है। मुक्त जीव तो स्वेच्छासे शरीर धारण करके छोड देता है। पर यह ऐसा नहीं करता। इसका शरीर अप्राकृत है। ३ लक्ष्मी-परमात्माकी कृपासे लक्ष्मी, उत्पत्ति, स्थिति व लय आदि सम्पादन करती है। ब्रह्मा आदि लक्ष्मीके पुत्र है। नित्य मुक्त व आप्त काम है। लक्ष्मी परमात्माकी पत्नी समझी जातो है। श्री, भू, दुर्गा, नृणी, हो. महालक्ष्मी, दक्षिणा, सीता, जयती, सत्या, रुक्मिणी, आदि सब लक्ष्मीकी मूर्तियाँ है। अप्राकृत शरीर धारिणी है। ४. जीवब्रह्मा आदि भी ससारी जीव है। यह असख्य है। अज्ञान, दुख, भय आदिसे आवृत है। एक परमाणु प्रदेशमें अनन्त जीव रह सकते है। इसके तीन भेद है-मुक्ति योग्य, तमो योग्य व नित्य ससारी। ब्रह्मा आदि देव, नारदादि ऋषि, विश्वामित्रादि पितृ, चक्रवर्ती व मनुष्योत्तम मुक्ति योग्य ससारी है। तमो योग्य संसारी दो प्रकार है-चतुर्गुणोपासक, एकगुणोपासक है। उपासना द्वारा कोई इस शरीरमे रहते हुए भी मुक्ति पाता है। तमोयोग्य जीव पुन' अपि चार प्रकार है-दैत्य, राक्षस, पिशाच तथा अधम मनुष्य । नित्य ससारी जीव सदैव सुख भोगते हुए नरकादिमे घूमते रहते है। ये अनन्त है। ५. अब्याकृत आकाश-यह नित्य व विभु है, परन्तु भूताकाशसे भिन्न है। वैशेषिकके दिक् पदार्थ बत है। ६. प्रकृति
जड, परिणामी, सत्त्वादि गुणत्रयसे अतिरिक्त, अव्यक्त व नाना रूपा है। नवीन सृष्टिका कारण तथा नित्य है। लिग शरीरकी समष्टि रूप है। ७ गुणत्रय-सत्व, रजसू व तनस् ये तीन गुण है। इनकी साम्यावस्थाको प्रलय कहते है । रजो गुणसे सृष्टि, सत्त्व गुणसे स्थिति, तथा तमोगुणसे सहार होता है। ८ महतत्रिगुणोके अंशो के मिश्रण से उत्पन्न होता है । बुद्धि तत्त्वका कारण है। अहंकार-इसका लक्षण साख्य बत् है। यह तीन प्रकारका है-वैकारिक, तेजस ब तामस । १०. बुद्धि- महत्से बुद्धि की उत्पत्ति होती है। यह दो प्रकार है-तत्त्व रूप व ज्ञान रूप। ११. मनस्-यह दो प्रकार है-तत्त्वरूप व तत्त्व भिन्न । प्रथमकी उत्पत्ति वंकारिक अह कारसे होती है। तत्त्व-भिन्न मन इन्द्रिय है। वह दो प्रकार है-नित्य व अनित्य । परमात्मा आदि सब जीवोके पास रहनेवाला नित्य है। बद जोवोका मन अचेतन व मुक्त जीवोका चेतन है। अनित्य मन बाह्य पदार्थ है। तथा सर्व जीवोके पास है। यह पाँच प्रकार है-मन, बुद्धि, अहकार, चित व चेतना। मन सकल्प विकल्पात्मक है। निश्चयात्मिका बुद्धि है। परमे स्वको मति अहंकार है। स्मरणका हेतु चित्त है। कार्य करनेकी शक्ति स्वरूप चेतना है। १२ इन्द्रियतत्त्वभूत व तत्त्वभिन्न दोनो प्रकारकी ज्ञानेन्द्रियों व कर्मेन्द्रियों, नित्य व अनित्य दो-दो प्रकारकी है। अनित्य इन्द्रियाँ तैजस अह कारकी उपज है। और नित्य इन्द्रिया परमात्मा व लक्ष्मी आदि सब जोबोके स्वरूप भूत है। ये साक्षी कहलाती है। १३. तन्मात्रा-शब्द स्पर्शादि रूप पॉच है। ये दो प्रकार है। तत्त्व रूप व तत्त्व भिन्न । तत्त्व रूपकी उपज तामस अह कारसे है। (सांख्य वत)। १४. भूत-पाँच तन्मात्राओसे उत्पन्न होने वाले आकाश पृथिवी आदि पाँच भूत है । (साख्य वत) । १५. ब्रह्माण्ड-- पचास कोटि योजन विस्तीर्ण ब्रह्माण्ड २४ उपादानोसे उत्पन्न होता है। विष्णुका बीज है। घडेके दो कपालो बत् इसके दो भाग है। ऊपरला भाग 'यौ' और निचला भाग 'पृथिवी' कहलाता है। इसी मे चौदह भुवनोका अवस्थान है । भगवान्ने महत् आदि तत्त्वोके अशको उदरमें रखकर ब्रह्माण्डमे प्रवेश किया है। तव उसकी नाभिमें कमल उत्पन्न हुआ, जिससे चतुर्मुख ब्रह्माकी उत्पत्ति हुई। तत्पश्चात् देवता. मन, आकाश आदि पाँच भूतोकी क्रमशः उत्पत्ति हुई। १६ अविद्या-पाँच भूतोके पश्चात् सूक्ष्म मायासे भगवान्ने स्थूल अविद्या उत्पन्न की, जिसको उसने चतुमुखमें धारण किया। इसकी पाँच श्रेणियाँ है-मोह, महामोह, तामिस्र, अन्ध तामिस्र, तथा तम, विपर्यय, आग्रह, क्रोध मरण, तथा शार्वर क्रमश इनके नामान्तर है। १७. वर्णतत्त्व-सर्व शब्दोंके मूल भूत वर्ण ५१ है। यह नित्य है तथा समवाय सम्बन्धसे रहित है। १८. अन्धकार-यह भाव रूप द्रव्य है। जड प्रकृतिसे उत्पन्न होता है। इतना धनीभूत हो सकता है कि हथियारोंसे काटा जा सके । १६. बासना-स्वप्नज्ञानके उपादान कार को वासना कहते है। स्वप्न ज्ञान सत्य है। जाग्रतावस्थाके अनुभवोसे वासना उत्पन्न होती है, और अन्त'करणमें टिक जाती है। इस प्रकार अनादिकी वासनाएं संस्कार रूपसे वर्तमान है, जो स्वप्नके विषय बनते है। 'मनोरथ' प्रयत्न सापेक्ष है और 'स्वप्न' अदृष्ट सापेक्ष। यही दोनोमें अन्तर है । २० काल-प्रकृतिसे उत्पन्न, क्षण लब आदि रूप काल अनित्य है, परन्तु इसका प्रवाह नित्य है। २१. प्रतिविम्ब - बिम्बसे पृथक, क्रियावान्, तथा बिम्बके सदृश प्रतिबिम्ब है। परमात्माका प्रतिबिम्ब दैत्यो में है। यह दो प्रकार है-नित्य व अनित्य । सर्व जीवो में परमात्माका प्रतिबिम्ब नित्य है तथा दर्पणमे मुखका प्रतिबिम्ब अनित्य है । छाया, परिवेष, चन्द्रचाप, प्रतिसूर्य, प्रतिध्वनि, स्फटिक्का लौहित्य इत्यादि भी प्रतिबिम्ब कहलाते है।
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वेदान्त
६. माध्व वेदान्त या द्वैतवाद
४. गुण कर्मादि शेष पदार्थ विचार १. द्रव्यके लिए दे० उपरोक्त शीर्षक । २. दोषसे भिन्न गुण है। यह अनेक है -जैसे रूप, रस, गन्ध, स्पर्श, सख्या, परिमाण, सयोग, विभाग, परत्व, अपरत्व, द्रवत्व, गुरुत्व, लघुत्व, मृदुत्व, काठिन्य, स्नेह, शब्द, बुद्धि, सुख, दुख, इच्छा, द्वेष, प्रयत्न, धर्म, अधर्म, सस्कार, आलोक, शम, दम, कृपा, तितिक्षा, बल, भय, लज्जा, गांभीर्य, सौन्दर्य, धैर्य, स्थैर्य, शौर्य, औदाय, सौभाग्य आदि । रूप, रस, गन्ध, स्पर्श व शब्द ये पाँच गुण पृथिवी में पाक्ज है और अन्य द्रव्योमे अपाकज । ये लोग पीलुपाक वाद (दे० वैशेषिक ) नही मानते। ३ पुण्य पापका असाधारण व साक्षात् कारण कर्म है, जो तीन प्रकार है... विहित. निषिद्ध और उदासीन । वेद विहित क्रियाएँ विहित कर्म है । यह दो प्रकार है-फलेच्छा सापेक्ष 'काभ्य
र्म तथा ईश्वरको प्राप्त करनेके लिए 'अकाम्य' कर्म । काम्य कर्म दो प्रकार है-प्रारब्ध और अप्रारब्ध । अप्रारब्ध भी दो प्रकार हैइष्ट व अनिष्ट । वेद निषिद्ध कार्य निषिद्ध कर्म है। उत्क्षेपण, अपक्षेपण, आकुचन, प्रसारण, गमन, भ्रमण, बमन, भोजन, विदारण इत्यादि साधारण म उदासीन कर्म है। कर्म के अन्य प्रकार भी दो भेद है-नित्य और अनित्य । ईश्वर के सृष्टि सहार आदि नित्य कर्म है। अनित्य वस्तु भूत शरीरादिके कार्य अनित्य कर्म है। ४ सामान्यदो प्रकारका है-नित्य और अनित्य । अन्य प्रकारसे जाति व उपाधि इन दो भेदो रूप है । ब्राह्मणत्व आदि जाति सामान्य है। और प्रमेयत्व जीवत्व आदि उपाधि सामान्य है। यावद्वस्तु भावि जाति नित्य सामान्य है और ब्राह्मणत्वादि यावद्वस्तु भावि जाति अनित्य सामान्य है। सर्वज्ञत्व रूप उपाधि नित्य सामान्य है और प्रमेयपादि अनित्य सामान्य है। ५ देखने में भेद न होनेपर भी भेदके व्यवहारका कारण गुण गुणीका भेद विशेष है। नित्य व अनित्य दो प्रकार का है। ईश्वरादि नित्य द्रव्योमें नित्य और घटादि अनित्य दव्योमे अनित्य है। ६ विशेषणाके सम्बन्धसे विशेषका जो आकार वही विशिष्ट है । यह भी नित्य व अनित्य है। सर्वज्ञत्वादि विशेषणोसे विशिष्ट परब्रह्म नित्य है और दण्डेसे विशिष्ट दण्डी अनित्य । ७ हाथ, बितस्ति आदिसे अतिरिक्त पट, गगन आदि, प्रत्यक्ष सिद्ध पदार्थ अशी है। यह भी नित्य व अनित्य दो प्रकार है। आकाशादि नित्य अशी है और पट आदि अनित्य । ८. शक्ति चार प्रकार है।-अचिन्त्य शक्ति, सहज शक्ति, आधेय और पद शक्ति। परमारमा व लक्ष्मी आदि की अणिमा महिमा आदि शक्तियाँ अचिन्त्य है । कार्यमात्रके अनुकूल स्वभाव रूप शक्ति ही सहज शक्ति है जैसेदण्ड आदिमे घट बनानेकी शक्ति । यह नित्य द्रव्योमे नित्य और अनित्य द्रव्योमे अनित्य होती है। आहित या स्थापित आधेय शक्ति कहलाती है जैसे प्रतिमामे भगवान् । पद व उसके अर्थ में वाच्य वाचकपनेकी शक्ति पदशक्ति है। वह दो प्रकार है -मुख्या 4 परमुख्या। परमात्मामें सब शब्दोकी शक्ति परमुख्या है, और शब्द में केवल मुख्या। यह उसके सहश है'ऐसे व्यवहारका कारण पदार्थ 'सादृश' कहलाता है। यह नाना है। नित्य द्रव्यमे नित्य और अनित्य द्रव्यमे अनित्य है। १०. ज्ञानमें निषेधात्मक भाव 'अभाव' है। वह चार प्रकार है-प्राक्, प्रध्वस, अन्योन्य व अत्यन्त । कार्यकी उत्पत्तिसे पूर्व अभावको प्रागभाव, उसके नाश हो जानेपर प्रध्वंसाभाव है। सार्वकालिक परस्परमें अभाव अन्योन्याभाव है। बह नित्य व अनित्य दो प्रकार है । अनित्य पदार्थोमें परस्पर अभाव अनित्य है और नित्य पदार्थोमें नित्य । अप्रामाणिक वस्तुमे अत्यन्ताभाव-जैसे शशशु ग।
५. सृष्टि व प्रलय विचार १, सष्टिका क्रम निम्न प्रकार है-इच्छा युक्त परमात्मा 'प्रकृति'के गर्भमें प्रवेश करके उसके त्रिगुणोमे विषमता उत्पन्न करनेके द्वारा उसे
कार्योन्मुख करता है। फल स्वरूप महदसे ब्रह्माण्ड पर्यन्त तत्त्व तथा देवताओकी सृष्टि होती है। फिर चेतन अचेतन अशोको उदरमें निक्षेपकर हजार वर्ष पश्चात नाभिमें एक कमल उत्पन्न होता है, जिससे चतुर्मुख ब्रह्मा उत्पन्न होते है। ब्रह्माके सहस्र वर्ष पर्यन्त तपश्चरणसे प्रसन्न परमात्मा पचभूत उत्पन्न करता है, फिर सूक्ष्म रूपेण चौदह लोकोका चतुर्मखमें प्रवेशकर स्थूल रूपेण चौदह लोकोको उत्पन्न करते है। बादमे सब देवता अण्डके भीतरसे उत्पन्न होते है । (और भी दे वेदान्त ४) २. धर्म सकट में पड़ जानेपर दश अवतार होते है-मत्स्य, कूर्म, वराह, नृसिह, वामन, राम, परशुराम, श्री कृष्ण, बुद्ध. कतकी । श्रीकृष्ण स्वयं भगवान् है और शेष अवतार परमात्माके अश। ३. प्रलय दो प्रकार है-महाप्रलय व अवान्तर प्रलय । महाप्रलयमे प्रकृतिके तीन गुणोका व महत आदि तत्त्वोका तथा समस्त देवताओका विध्वस, भगवान् के मुखसे प्रगटी ज्वालामे हो जाता है। एक बट के पत्रपर शून्य नामके नारायण शयन करते है, जिनके उदरमे सब जीव प्रवेश करके रहते हैं। अवान्तर प्रलय दो प्रकार है- दैनंदिक तथा मनुप्रलय। दैनन्दिक्में तीनो लोकोका नाश होता है। पर इन्द्रादिक महर्लोकको 'चले जाते. है। मनुप्रल यमे भूलोकमे मनुष्यादि मात्रका नाश होता है. अन्य दोनो लोकोके वासी महर्लोकको चले जाते है ।
६. मोक्ष विचार १. भक्ति, कीर्तन, जप व्रतादिसे मोक्ष होता है। वह चार प्रकार हैकर्मक्षय, उत्कान्तिलय, अचिरादि मार्ग और भोग। इनमें से नं.२ व ३ वाला मोक्ष मनुष्योको ही होता है, देवताओं आदिको नही। २ अपरोक्ष ज्ञान उत्पन्न होनेपर समस्त नवीन पुण्य व पाप कर्मोंका नाश हो जाता है। कल्पो पर्यन्त भोग करके प्रारब्ध कर्मका नाश होता है। प्रारब्ध कर्म के नाशके पश्चात सुषुम्नानाडी या ब्रह्मनाडी द्वारा देहसे निकल कर आत्मा ऊपर उठता है । तब या तो चतुर्मुख ( ब्रह्मा) तक और या परमात्मा तक पहुँच जाता है। यही कर्मक्षय मोक्ष है। अत्यन्त दीर्घ कालके लिए देव योनिमें चले जाना अतिक्रान्ति मुक्ति है, यह वास्तविक मुक्ति नहीं। क्रम मुक्ति-उत्तरोत्तर देहोमे क्रमश लय होते-होते, चतुर्मुखके मुखमे जब जीव प्रविष्ट होता है तब ब्रह्माके साथ-साथ विरजा नदीमे स्नान करनेसे उसके लिग शरीरका नाश हो जाता है । इसके नाश होनेपर जीवत्वका भी नाश समझा जाता है।-(विशेष दे० वेदान्त/६ )। ४. भोगमोक्षअपनी-अपनी उपासनाकी तारतम्यताके अनुसार सामीप्य, सालोक्य, सारूप्य, और सायुज्य, इन चार प्रकारके मोक्षोंमे ब्रह्मादिकोंके भोगोमे भी तारतम्यता रहती है, पर वे ससारमें नही आते। ७. कारण कार्य विचार
कारण दो प्रकार है-उपादान व अपादान या निमित्त । परिणामी कारणको उपादान कहते है । कार्यकी उत्पत्तिसे पूर्व वह सत है और उत्पत्तिके पश्चाव असत् । उपादान व उपादेयमें भेद व अभेद दोनों है। गुण क्रिया आदिमें अभेद है और द्रव्यके साथ न रहनेवालोमे भेद व अभेद दोनो।
८.ज्ञान व प्रमाण विचार १ आत्मा, मन, इन्द्रिय व विषयोंके सन्निकर्षसे होनेवाला आरमाका परिणाम ज्ञान है। वह सविकल्प ही होता है। ममता रूप, व अपरोक्ष रूप। ममता रूप ससारका और अपरोक्ष रूप मोक्षका कारण है। तथा वैराग्य आदिसे उत्पन्न होता है। ऋषिलोग अन्तष्टि, मनुष्य बाहा दृष्टि और देवता लोग सर्वदृष्टि है। २. स्व प्रकाशक होनेके कारण ज्ञान स्वत. प्रमाण है। वह तीन प्रकार है-प्रत्यक्ष अनुमान व शब्द । ३. प्रत्यक्ष आठ प्रकार है- साक्षी, यथार्थ
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वेदान्त
वैक्रियिक
ज्ञान, तथा छ' इन्द्रियोसे साक्षात् उत्पन्न ज्ञान । ४. अनुमान तीन प्रकार है-केवलान्ययी, केवलव्यतिरेकी और अन्वयव्यतिरेकी। पाँच अवयवोका नियम नही। यथावसर हीनाधिक भी हो सकते है। शब्द-दो प्रकार है-पौरुषेय व अपौरुषेय । आप्तोक्त पौरुषेय है और वेद वाक्य अपौरुषेय है ।
७. शुद्धाद्वैत ( शैव दर्शन)
१. सामान्य परिचय ई श. १५ में इसकी स्थापना हई। वल्लभ, श्रीकण्ठ व भास्कर इसके प्रधान संस्थापक थे। श्रीकण्ठकृत शिवसूत्र व भास्कर कृत वार्तिक प्रधान ग्रन्थ है। इनके मतमें ब्रह्मके पर अपर दो रूप नहीं माने जाते। पर ब्रह्म ही एक तत्त्व है। ब्रह्म अशी और जड व अजड जगत् इसके दो अंश है।
२. तत्त्व विचार १.शिक ही केवल एक सत्र है। शंकर वेदान्त मान्य माया व प्रकृति
सर्वथा कुछ नहीं है। उस शिबकी अभिव्यक्ति १६ प्रकारसे होती है-परम शिव, शक्ति, सदाशिव, ईश्वर, शुद्धविद्या, माया, मायाके पाँच कुंचक या कला, विद्या. राग, काल, नियति, पुरुष, प्रकृति, महात् या बुद्धि, अहकार, मन, पाँच ज्ञानेन्द्रिय, पाँच कर्मेन्द्रियों, पाँच तन्मात्राएँ, और पाँच भूत। उनमें से पुरुष आदि तत्त्व तो सांख्यवत् है। शेष निम्न प्रकार है।-२. एक व्यापक, नित्य, चैतन्य, स्वरूप शिव है। जड व चेतन सबमें यही ओतप्रोत है। आत्मा, परमेश्वर व परासं वित् इसके अपरनाम है । ३ सृष्टि, स्थिति व सहार (उत्पाद, धौव्य व्यय) यह तीन उस शिवकी शक्तियाँ है । सृष्टि शक्ति द्वारा वह स्वय विश्वाकार होता है। स्थिति शक्तिसे विश्वका प्रकाशक, संहार शक्तिसे सबको अपने में लय कर लेता है। इसके पाँच भेद है-चित्, आनन्द, ज्ञान, इच्छा व क्रिया। ४. 'अहं' प्रत्यय द्वारा सदा अभिव्यक्त रहनेवाला सदाशिव है। यहाँ इच्छा शक्तिका प्राधान्य है।५. जगतकी क्रमिक अभिव्यक्ति करता हुआ वही सदाशिव ईश्वर है। यहाँ इद अह' की भावना होनेके कारण ज्ञान शक्तिका प्राधान्य है । ६ 'अहं इद' यह भावना शुद्धविद्या है। ७. 'अहं' पुरुष रूपमे और 'इदं प्रकृति रूपमें अभिव्यक्त होकर द्वैत को स्पष्ट करते है यही शिवकी माया है। ६. इस मायाके कारण वह शिव पाँच कचुकोमें अभिव्यक्त होता है। सर्व कांसे असर्व कर्ता होनेके कारण कलावान है, सर्वज्ञसे असर्वज्ञ होनेके कारण विद्यावान, अपूर्णताके बोधके कारण रागी, अनित्यत्वके बोधके कारण काल सापेक्ष तथा सकुचित ज्ञान शक्तिके कारण नियतिवान् हो जाता है। ६. इन पाँच क चुकोसे आवेष्टित पुरुष संसारी हो जाता है।
1. सृष्टि व मुक्ति विचार १. जैसे वट बीजमें वट वृक्षकी शक्ति रहती है वैसे ही शिवमें ३५
तत्त्व सटा शक्तिरूपसे विद्यमान है। उपरोक्त क्रमसे बह शिव ही संसारी होता हुआ सृष्टिकी रचना करता है। २. पाँच कचुकोसे आवृत पुरुषकी शक्ति सकुचित रहती है । सूक्ष्म तत्त्वमें प्रवेश करनेपर वह अपनेको प्रकृतिके सूक्ष्म रूपके बराबर समझता हुआ 'यह मै हूँ' ऐसे द्वैतकी प्रतीति करता है। इस प्रती तिमें 'यह' और 'मैं' समान महत्वबाले होते है । तत्पश्चात् 'यह मै हूँ' की प्रतीति होती है। यहाँ 'यह' प्रधान है और 'मैं' गौण । आगे चलकर 'यह' "भै' में अन्तर्लीन हो जाता है। तब 'मै हूँ' ऐसी प्रतीति होती है। यहाँ भी मै' और 'हूँ' का द्वैत है । यही सदाशिव तत्त्व है । पश्चात् इससे भी सूक्ष्म भूमिमें प्रवेश करनेपर केवल 'अहं'की प्रतीति होती है यही शक्ति तत्त्व है।
यह परम शिवको उन्मीलनावस्था है। यहाँ आनन्दका प्रथम अनुभव होता है। यह प्रतीति भी पीछे परम शिवमें लीन होनेपर शून्य प्रतीति रह जाती है। यहाँ वास्तवमें सर्व चिन्मय दीखने लगता है। यही वास्तविक अद्वैत है। ३. जबतक शरीर में रहता है तबतक जीवन्मुक्त कहाता है। शरीर पतन होनेपर शिवमें प्रविष्ट हो जाता है। यहाँ आकर 'एकमेवाद्वितीयं नेह नानास्ति किंचन' तथा 'सर्व खल्विदं ब्रह्म का वास्तविक अनुभव होता है। वेदिका-पर्वत नदी द्वीप आदिको घेरे रहनेवाली दीवारको वेदिका
कहते है। लोकमे इनका अवस्थान व विस्तार-दे० लोक/७ । वेदिका बद्ध-कायोत्सर्गका एक अतिचार-दे० व्युत्सर्ग/१ । वेदिम-द्रव्य निक्षेपका एक भेद-दे० निक्षेप/VRI वेदी-Boundary wall -दे० लोक ३/११७६/४॥ वेद्य-दे० वेदना/१। वेलंब-मानुषोत्तर पर्वतका एक कूट व उसका रक्षक एक भवनवासी
देव-दे० लोक/५/१०१ वेश्या - वेश्या गमन निषेध-दे० ब्रह्मचर्य/३। वैकालिक-गो जी |जी. प्र/३६७/980/६ विशिष्टा' काला विकालास्तेषु भवानि वै कालिकानि । दश वै कालिकानि वर्ण्यन्तेऽस्मिन्निति दशवैकालिकं तच्च मुनिजनानां आचरणगोचरविधि पिण्डशुद्धिलक्षणं च वर्ण यति। -विशेषरूप कालको विकाल कहते है। उस कालके होनेपर जो होते है वे बैकालिक कहलाते है। इसमें दश वैकालिकका प्ररूपण है, इसलिए इसका नाम दशवकालिक प्रकीर्णक है। इसमें मुनियों के आचार व आहारकी शुद्धता और लक्षणका प्ररूपण है। वैक्रियिक-देवो और नारकियोके चक्षु अगोचर शरीर विशेषको वै क्रियिक शरीर कहते है। यह छोटे बडे हलके भारी अनेक प्रकारके रूपों में परिवर्तित किया जा सकता है। किन्ही योगियोको ऋद्धिके बलसे प्रगटा वैक्रियिक शरीर वास्तवमे औदारिक ही है। इस शरीरके साथ होनेवाला आत्म प्रदेशोंका कम्पन वैक्रियिक काययोग है और कुछ आत्मप्रदेशोंका शरीरसे बाहर निकल कर फैलना वैक्रियिक समुद्धात है।
वैक्रियिक शरीर निर्देश वैक्रियिक शरीरका लक्षण । बैक्रियिक गरीरके भेद व उनके लक्षण । वैक्रियिक शरीरका स्वामित्व । कौन कैसी विक्रिया करे। वैक्रियिक शरीरके उ. ज. प्रदेशोंका स्वामित्व । मनुष्य तिर्यचोंका वैक्रियिक शरीर वास्तबमें अप्रधान है। तियच मनुष्योंमें वैक्रियिक शरीरके विधि निषेधका समन्वय। उपपाद व लब्धि प्राप्त वैक्रियिक शरीरोंमें अन्तर । वैक्रियिक व आहारकमें कथंचित् प्रतिघातीपना । इस शरीरकी अवगाहना व स्थिति ।-दे वह वह नाम पाँचौ शरीरोंमें उत्तरोत्तर सूक्ष्मता। -दे शरीर/१।
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वैक्रियिक
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१. वैक्रियिक शरीर निर्देश
वैक्रियिक शरीर नामकर्मका बंधउदय सत्व।
-दे. वह वह नाम । वैक्रियिक शरीरको संबातन परिशातन कृति।
(-दे. घ. १/४,९,५४/३५५-४५१) विक्रिया ऋद्धि।
-दे.ऋद्वि/३॥
वैक्रियिक व मिश्र काययोग निर्देश वैक्रियिक व मिश्र काय योगके लक्षण । वैक्रियिक व मिश्र काययोगका स्वामित्व । पर्याप्तको मिश्रयोग क्यों नही। -दे. काय/३ । भाव मार्गणा इष्ट है।
-~-दे. मार्गणा। इसके स्वामियोके गुणस्थान मार्गणास्थान जीव समास आदि २० प्ररूपणाएँ।
-दे, सत् । इसके स्वामियोंके सत् संख्या क्षेत्र स्पर्श काल अन्तर भाव व अल्पबहुत्व। -दे. वह वह नाम । इस योगमें कर्मोका बन्ध उदय सत्त्व ।
-दे. वह वह नाम । वैक्रियिक समुद्घात निर्देश
वैक्रियिक समुद्घातका लक्षण । * | इसमें आत्मप्रदेशोका विस्तार। -दे. वे क्रियिक/९/८ |
इसकी दिशा व अवस्थिति। -दे. समुद्रात ।
इसका स्वामित्व। * इसमें मन वचन योगकी सम्भावना। --दे. योग/४।
३. वैक्रियिक शरीरका स्वामित्व त. सू /२/४६,४७ औपपादिक वै क्रियिकम् ॥४६॥ लब्धिप्रत्ययं च ।४७।
वे क्रियिक शरीर उपपाद जन्मसे पैदा होता है । तथा लब्धि (ऋद्धि ) से भी पैदा होता है। रा. वा /२/४६/८/१५३/२३ वै क्रियिक देवनारकाणाम, तेजोवायुकायिकपञ्चेन्द्रियतिर्यमनुष्याणा च केषाचित् । -देव नारकियोको, (पर्याप्त) तेज व वायु कायिकोको तथा किन्ही किन्ही ( पर्याप्त ) प चेन्द्रिय तिर्यंचो व मनुष्योको वै क्रियिक शरीर होता है। (गो. जी./मू./ २३३/४६६)। ध, ४/१.४.६६/२४६/३ तेउक्काइयपज्जत्ता चेव बेउब्बियसरीर उठावे ति, अपज्जत्तेसु तदभावा । ते च पज्जत्ता कम्मभूमीसु चेव होति त्ति । -तेजस्कायिक पर्याप्तक जीव ही वैक्रियिक शरीरको उत्पन्न करते है, क्योकि अपर्याप्तक जीवोमे वैक्रियिक शरीरके उत्पन्न करनेकी
शक्तिका अभाव है। और वे पर्याप्त जीव कर्मभूमि में ही होते है। दे. शरीर/२ ( पाँचो शरीरोके स्वामित्वको ओध आदेश प्ररूपणा/.)।
१. कौन कैसी विक्रिया करे रा. वा/२/४७/४/१५२/६ सा उभयी च विद्यते भवनवासिव्यन्तरज्योतिष्ककल्पवासिनाम्। वैमानिकाना आसर्वार्थ सिधे प्रशस्तरूपकत्व विक्रियेव। नारकाणा त्रिशूलचक्रासिमुद्गरपरशुभिडिवालाद्यनेकायुधैकत्वविक्रिया न पृथक्त्वविक्रिया आ षष्ठया । सप्तम्या महागोकीटकप्रमाणलोहितकुन्थुरूपैकत्वविक्रिया नानेकप्रहरणविक्रिया, न च पृथक्त्वविक्रिया। तिरश्चा मयूरादीना कुमारादिभावं प्रतिविशिष्टै कत्वविक्रिया न पृथक्त्वविक्रिया। मनुष्याणा तपोविधादिप्राधान्यात प्रतिविशिष्टै कत्वपृथक्त्वविक्रिया । भवनवासी व्यन्तर ज्योतिषी और सोलह स्वर्गोके देवोके एक्रव व पृथक्त्व दोनों प्रकारको विक्रिया होती है। ऊपर अवेयक आदि सर्वार्थ सिद्धि पर्यन्तके देवोके प्रशस्त एकत्व विक्रिया ही होती है। छठवे नरक तकके नारकियोके त्रिशुल चक्र तलवार मुद्गर आदि रूपसे जो विक्रिया होती है वह एकत्व विक्रिया ही है न कि पृथक्त्व विक्रिया। सातवें नरकमें गाय बराबर कीडे लोह आदि रूपसे एकत्व विक्रिया हो होती है, आयुधरूपसे पृथक् विक्रिया नही होती। तिर्यचोमें मसूर आदिके कुमार आदि भावरूप एकत्व विक्रिया ही होती है पृथक्त्व बिक्रिया नहीं होती। मनुष्योके तप और विद्याकी प्रधानतासे एकत्व व पृथक्त्व दोनो विक्रिया होती है। घ.६/४,१,७१/३५५/२ णेरइएसु उबियपरिसादणकदी णस्थि पुधविउब्बणाभावादो। नारकियोमे वैक्रियिक शरीरकी परिशातन कृति नहीं होती, क्योकि उनके पृथक विक्रियाका अभाव है। गो. जी./जी. प्र.२३३/४६७/३ येषां जीवानां औदारिकशरीरमेव विगूर्वणात्मक विक्रियात्मक भवेत् ते जीवा अपृथग्वि क्रियया परिणमन्तीत्यर्थ । भोगभूमिजा' चक्रवर्तिनश्च पृथग विगूर्वन्ति । जिन जीवोके औदारिक शरीर ही विक्रियात्मक होते है अर्थात् तिर्यच और मनुष्य अपृथक् विक्रियाके द्वारा ही परिणमन करते है। परन्तु भोगभूमिज और चक्रवर्ती पृथक विक्रिया भी करते है।
५. वैकियिक शरीरके उ. ज. प्रदेशोंका स्वामित्व ष. खं. १४/५,६/सूत्र ४३१-४४४/४११-४१३ उक्कस्सपदेण वे उव्वियसरीरस्स उक्कस्सय पदेसग कस्स ।४३१॥ अण्णदरस्स आरणअच्चुदकप्पवासियदेवस्स बावीससागरोवमद्विदियस्स ।४३२॥ तेणे पढमसमयआहारएण पढमसमयतम्भवत्येण उक्कस्रजोगेण आहारिदो ।४३३॥ उक्कस्सियाए वड्ढोए वढिदो।४३४। अतोमुहूत्तेण सव्वलहूं सव्वाहि पज्जत्तीहि पज्जत्त पदो ॥४३॥ तस्स अप्पाओ भासद्धाओ 1४३६। अप्पाओ मणजोगद्धाओ ।४३७ णस्थि अविच्छेदा ४३८१ अप्पदरं
१. वैक्रियिक शरीर निर्देश
१. वैक्रियिक शरीरका लक्षण स सि /२/३६/१६१६ अष्टगुणैश्वर्ययोगादेकानेकाणुमहच्छरीरविविधकरणं विक्रिया, सा प्रयोजनमस्येति वैक्रियिकम् । =अणिमा महिमा आदि आठ गुणोके ( दे, ऋद्धि/३) ऐश्वर्यके सम्बन्धसे एक, अनेक, छोटा, बडा आदि नाना प्रकारका शरीर करना विक्रिया है। वह बिक्रिया जिस शरीरका प्रयोजन है वह बै क्रियिक शरीर है। (रा.वा /२/३६/६/१४६/७); (ध. १४१,१,५६/२६१/६) ष वं. १४/५,६/मू. २३८/३२५ 'विविहइड्ढिगुणजुत्तमिदि वेउधियं । ५३८ । - विविधगुण ऋद्धियोसे युक्त है (दे० ऋद्धि/३), इसलिए वैक्रियिक है ।२३८। (रा. वा./२/४६/८/१५३/१३), (दे० व क्रियिक/ २/१)।
२. विक्रियाके भेद व उनके लक्षण रा. वा./२/४७/४/१५२/७ सा द्वेधा-एकत्वविक्रिया पृथक्त्वविक्रिया
चेति । तत्रैकरब विक्रिया स्वशरोरादपृथग्भावेन सिहव्यावहसकुररादिभावेन विक्रिया। पृथक्त्वविक्रिया स्वशरीरादन्यत्वेन प्रासादमण्डपादिविक्रिया।वह विक्रिया दो प्रकारकी है-एकत्व व पृथक्त्व । तहाँ अपने शरीरको ही सिंह व्याघ्र हिरण हंस आदि रूपसे बना लेना एकत्व विक्रिया है और शरीरसे भिन्न मकान मण्डप आदि बना देना पृथक्त्व विक्रिया है।
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वैक्रियिक
२. वैक्रियिक व मिथकाययोग निदेश
विउविदो।४३६। थोवाबसेसे जीविदब्बए त्ति जोगजब मज्झरसुवरिमतोमुत्तद्वमच्छिदो ।४४०। चरिमे जोवगुणहाणि हाणं तरे आवलियाए असखेज दिभागमचित्रदो।४४१। चरिम चरिमसमए उकस्सजोग गदो ।४४२॥ तस्स चरिमसमयतब्भवत्यस्स तस्स वे उधियसरीरस्स उकस्सपदेसम्म ।४४३। तवदिरित्तमणुक्कस्स ।४४४। ष. ख १४/4/सूत्र ४९३-४८६/४२४-४२१ जहण्णवे उदिषयसरीरस्स जहण्णय पदेसग कस्स 1४८३। अण्णदरस्स देवणेरझ्यस्स असण्णिपच्छायदस्स १४८४। पढमसमयआहार यस्स पढमसमयतम्भवस्थस्स जहण्णजोगिस्स तस्स वे उब्बियसरीररस जाणय पदेसम्म १४८५॥ तब्बदिरिन मजहण्णं ।।८६ - उत्कृष्ट पद की अपेक्षा व क्रियिकशरीरके उत्कृष्ट प्रदेशाग्रका स्वामी कौन है।४३१। जो बाईस सागरकी स्थितिवाला आरण, अच्युत, क्लपवासी अन्यतरदेव हे 1४.२१ उसी देवने प्रथमसमयमें आहारक और तद्भवस्थ होकर उत्कृष्ट योगसे आहारको ग्रहण किया है ।४३३। उत्कृष्ट वृद्धि से वृद्धिको प्राप्त हुआ है 1४३४सर्वलम् अन्तर्मुहर्तकाल द्वारा सत्र पर्याप्तियोमे पर्याप्त हुआ है।४३५। उसके बोलने के काल अल्प है।४३६। मनायागके काल चल्प है।४३७। उसके अविच्छेद नहीं है ।४३८। उसने अल्पतर विक्रिया को है।४३६। जीवितव्यके स्तोक शेष रहनेपर वह योगयवमध्यके ऊपर अन्तर्मुहर्त काल तक रहा ।४४०। अन्तिम जीवगुणहानिस्थानान्तरमे आव लिके असंख्यातवे भागप्रमाण काल तक रहा ।४४१. चरम और द्विचरम समयमें उत्कृष्ट योगको प्राप्त हुआ।४४२। अन्तिम समयमे तद्भवस्थ हुआ, वह जीव वै कियिक शरीरके उत्कृष्ट प्रदेशाप्रका स्वामी है।४४३। उससे व्यतिरिक्त अनुत्कृष्ट है ।४४४। जघन्य पदको वेदि यिक शरीरके जघन्य प्रदेशाग्र का स्वामी कौन है ।४८ असज्ञियोमे आकर उसन्न हुआ जो अन्यतरदेव और नारकी जीव है 11 प्रथम समयमे आहारक और तद्भवस्थ हुआ जघन्य योगवाला बह जीव वै क्रियिक शरीरके प्रदेशाग्रका स्वामी है।४८५। उससे अन्यतर अजयन्य प्रदेशाग्र है ।४८६।
६. मनुष्य तिर्यचोंके वैक्रियिकशरीर अप्रधान हैं ध १११.१.६८/२६६/६ तिर्यञ्चो मनुष्याश्च बे क्रियिकशरीरा श्रूयन्ते तत्कय घरत इति चेन्न, औदारिकशरीर द्विविध विक्रियात्मवमविक्रियात्मकमिति । तत्र यतिक्रियात्मक तद्वै कियिक मिति तत्रोक्त न तदत्र परिगृह्यते विविधगुण द्धर्व भावात् । अत्र विविधगुणात्मक परिगृह्यते, तच्च देवनारकाणामेव । =प्रश्न-तियं च और मनुष्य भी वैक्रियिक शरीरवाले सुने जाते है, ( इसलिए उनके भी 4 क्रियिक काययोग होना चाहिए)। उत्तर-नही, क्योकि, औदारिक शरीर दो प्रकारका है, विक्रियात्मक और अवि क्रियात्मक । उनमे जो विक्रियात्मक औदारिक शरीर है वह मनुष्य और तियंचोके वे कि. यिक रूपमें कहा गया है । उसका यहॉपर ग्रहण नहीं किया है, क्योकि उसमें नाना गुण और ऋद्धियोका अभाव है। यहॉपर नाना गुण और ऋद्धियुक्त वैक्रियिक शरीरका ही ग्रहण किया है और वह देव और नारकियोके ही है ता है । (ध १/४.१.६६/३२७/१२) ध १/१,१,६६/३२७/१२ णरिश तिरिक्खमणुस्सेम वेउब्वियसरीर, एदेसु वे उब्वियसरीराणामकम्मोदयाभावादो। = तिर्यच व मनुष्यो के वैजियिक शरीर सम्भव नहीं है, क्योवि, इनके क्रियिकशरीर नामकर्मका उदय नही पाया जाता। ७. तिर्यच व मनुष्यों में वैक्रियिक शरीरके विधिनिषेधका । समन्वय रा. वा /२/28/0/१५३,२५ आह चदक -- जीवस्थाने योगभङ्ग सप्तविध काययोगस्वामिप्ररूपणायाम-"औदारिकाययोग औदारिकमिश्रकाययोगश्च तिर्य डमनुष्याणाम, क्रियिक काययोगो वे क्रियिकमिश्र काययोगश्च देवनारकाणाम्" उक्त , इह तिर्थ मनुष्याणाम
पीत्युच्यते, तदिदमार्षविरुद्धमिति, अत्रोच्यते-न, अन्यत्रोपदेशात् । व्याख्याप्रज्ञप्तिदण्डवेषु शरीरभङ्ग वायोगैदारिक्ये क्रियिक्त जसकामणानि चत्वारि शरीराण्युकानि मनुष्याणा पञ्च । एवमप्यार्प योस्तयोविरोध , न विरोध , अभिप्रायकत्वात् । जीवस्थाने सर्वदेवनारकाणा सर्व काल वै क्रियिकदर्शनात तद्योगविधिरित्यभिप्राय , नेव तिर्यगमनुष्याणा लब्धिप्रत्यय वे क्रियिक सर्वेषा सर्वकालमस्ति कादाचित्कस्वात् । व्याख्याप्रज्ञप्तिदण्डवे पु त्वस्तित्वमात्रमभिप्रेत्यातम् । प्रश्नजीव स्थानके योगभग प्रकरणमे तिर्यंच और मनुप्योके औदारिक और आदौरिकमिश्र तथा देव ओर नारक्यिोके ये क्रियिक और ये क्रियिकमिश्र काय योग बताया है (दे वैक्रियिक/२), पर यहाँ तो तिर्यच
और मनुष्योके भो वे क्रियिकका विधान किया है। इस तरह परस्पर विराध आता है। उत्तर-व्याख्याप्रज्ञप्ति दण्डक के शरीर भ गमे वायुकायिकके आदारिक, वै क्रियिक, तेजस और कार्माण ये चार शरीर तथा मनुष्योके आहारक सहित पाँच शरीर बताये है (दे शरीर/ २/२)। भिन्न-भिन्न अभिप्रायोसे लिखे गये उक्त सन्दर्भोमे परस्पर विरोध भी नहीं है। जीवस्थानमे जिस प्रकार देव और नारकियोके सर्वदा वे क्रियिक शरीर रहता है, उस तरह तिर्यच और मनुष्यो के नही होता, इसलिए तिर्थच और मनुष्यो के वै क्रियिक शरीरका विधान नहीं किया है। जब कि व्याख्या प्रज्ञप्तिमे उसके सदभावमात्रसे ही उसका विधान कर दिया है।
८. उपपाद व लब्धिप्राप्त क्रियिक शरीरोमें अन्तर रा वा /२/४७/३/१५२/१ उपपादो हि निश्चयेन भवति जन्मनिमित्त
सात, लब्धिस्तु कादाचित्को जातस्य स्त उत्तरकाल तपोविशेषाद्य पेक्षत्वादिति, अयमनयोर्विशेष । = उपपाद तो जन्मके निमित्तवश निश्चित रूपमे होता है और लब्धि क्सिीके ही विशेष तप आदि
करनेपर कभी होती है। यही इन दोनोमे विशेष है। गा जी /भाषा/५४३/६४८/३ इहा ऐसा अर्थ जानना-जो देवनिकै मूल शरीर तौ अन्यक्षेत्रवि तिष्ठ है अर विहारकर क्रियारूप शरी. अन्य क्षेत्र विषैतिष्ठ है। तहा दोऊनिके बीचि आरमाके प्रदेश सूच्य गुनका असल्यातवा भागमात्र प्रदेश ऊँचे चौडे फेले है अर यह मुरब्यताको अपेक्षा संख्यात योजन ल वे कहे है ( दे वेक्रियिक/३)। बहुरि देव अपनी-अपनी इच्छात हस्ती घोटक इत्यादिक रूप विक्रिया कर ताको अवगाहना एक जीवको अपेक्षा सख्यात धनागुल प्रमाण है । (गा जी /भाषा५४८/६५७/१८)
९. वैक्रियिक व आहारक शरीरमें कथंचित् प्रतिघातीपना स सि./२/४०/१६३/११ ननु च क्रियिकाहारकयोरपि नास्ति प्रति घात । सर्वत्राप्रतिघाताऽत्र विवक्षित । यथा तेजसकार्मणयोरा लोकान्तात् सर्वत्र नास्ति प्रतिघात न तथा ये क्रियिकाहारकया =वै क्रियिक और आहारक्का भी प्रतिघात नही होता, फिर यहाँ तैजस और कामण शरीरको हो अप्रतिघात क्यो कहा ( दे शरीर, १५) उत्तर-इस मूत्रमे सर्वत्र प्रतिधातका अभाव विवक्षित है जिस प्रकार तैजस ओर कार्मा शरीरका लोकपर्यन्त सर्वत्र प्रतिधार नहीं होता, वह बात वै क्रियिक ओर आहारक शरीरको नहीं है।
२. वैक्रियिक व मिश्रकाययोग निर्देश
१. वैक्रियिक व मिश्रकाययोगके लक्षण प म /प्रा1१/६५-६६ विविहगुणइढिजुत्त बेउव्वियमहब विकिरि,
चेव । तिस्से भव च णेय बउब्वियकायजोगो सो 18५। अतोमुहूत्त. मज्म बियाण मिस्स च अपरिपुण्णो त्ति। जो तेण सपओगो वैउवियमिस्सकायजोगो सो 1841 -विविध गुण और ऋद्धियोसे युक्त, अथवा विशिष्ट क्रियावाले शरीरको बै क्रियिक कहते है। उसमें
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वैक्रियिक
हिश
उत्पन्न होनेवाला जो योग है, उसे वैक्रियिककाययोग जानना चाहिए वे क्रियिक शरीरकी उत्पत्ति प्रारम्भ होनेके प्रथम समय मे लगाकर शरीर पर्याप्त पूर्ण होने अन्तर्मुहूर्त के मध्यवर्ती अपरिपूर्ण शरीरको वै क्रियिकमिश्र काय कहते है । उसके द्वारा होनेवाला जो सयोग है ( दे. योग / १ ) वह वै क्रियिकमिश्र काययोग कहलाता है। अर्थात देव नारकियोंके उत्पन्न होनेके प्रथम समय से लेकर शरीरपर्याप्त पूर्ण होनेतक कार्मणशरीरकी सहायतासे उत्पन्न होनेवाले क्रियायोगको वैकिसिकमिश्र काययोग कहते है (ध १/
1
१.१.३६/ १६२-१६३/२६९) गो जी // २३२ - २२४/४१६४१७ ) घ १ / १.१.३६/२६९६ तदमहम्मद समुत्पन्नपरिस्पन्येन योग क fromrusोग | कामगमे क्रियस्वन्द समुपवीर्येण योग वैक्रियिकमिश्रकाययोग । उस ( वै क्रियिक) शरीरके अवलम्बन से उत्पन्न हुए परिस्पन्द द्वारा जो प्रयत्न होता है उसे वैक्रियिक काययोग कहते है। कार्मण और वैक्रियिक वर्गणाओं के निमित उत्पन्न हुई शक्ति जो परिस्पन्दके लिए प्रयत्न होता है, उसे ये काययोग कहते है। गोजी/जी/ २२३/४१२/१५ वेकिक
६०४
परिणमनयोग्य
शरीरवर्गणास्कन्धाकर्षणशक्ति विशिष्टात्मप्रदेशपरिस्पन्द स बैगू
विककाययोग इति ज्ञेय ज्ञातव्य । अथवा वै क्रियिककाय एव वैक्रियिककाययोग कारणे कार्योपचारात् । गो.जी./जी./२२४/४६८ / १ वै किकिकामिश्रेण सह या सप्रयोग कर्म नोकर्माकर्षणशक्तिसगतापर्याप्तकाल मात्रात्मप्रदेश परिस्पन्दरूपो योग स मे किविककाय मिश्रयोग अपर्याप्तयोगे निधकाययोग इत्यर्थक्रिय शारीरके अर्थ तिस शरीररूप परिणमने योग्य जो आहारक वर्गणारूप स्कन्धोके ग्रहण करनेकी शक्ति, उस सहित आत्मप्रदेशों के चंचलपनेको वैक्रिलिक काययोग कहते है । अथवा कारणमें कार्यके उपचारसे वैक्रियिक काय हो वैकियिक काय योग है । वै क्रियिक कायके मिश्रण सहित जो संप्रयोग अर्थात् कर्म व नोकर्मको ग्रहण करनेकी शक्ति, उसको प्राप्त अपर्याप्त कालमात्र आत्म- प्रदेश के परिस्पन्दनरूप योग, वह बैकिfre मिश्र काययोग है। अपर्याप्त योगका नाम मिश्रयोग है, ऐसा तात्पर्य है।
२. वैविक व श्रियोगका स्वामित्व
१. ख./१/११/१४ कायजोगो मिस्साजोग देवराणं । ( ३८ / २६६) । वेउव्वियकायजोगो सण्णिमिच्छाइठिप्पहूडि जाव असंजदसम्माइट्ठिति । ( ६२/३०५) । वेउव्त्रियकायजोगो पज्जन्त्ताण उयिमिस्सकायजोगो अपज्ज(७७/३१७) | देव और नारकियोके वैकिकिकाययोग और वैकिविक मित्रकाययोग होता है । वैकिविकका योग और बैकिकमिकाययोग सही मिध्यादृष्टिसे लेकर असयत सम्यग्दृष्टि तक होते है । ६२ । वैक्रियिककाययोग पर्याप्तकोके और बैंकिगायोग अपर्याप्त को होता है 1001 और भी दे० किमि०/२/३ ) ।
३. वैकियिक समुद्घात निर्देश
१. वैक्रिषिक समुद्रातका लक्षण
9.
=
रा. वा./१/२०/१२/७७/१६ एकरवपृथक्त्वनानाविधविक्रियशरीरवाकूप्रचारप्रहरणादिविक्रियायोजन वैककिसमुद्वास' एकाव पृथक् आदि नाना प्रकारको विक्रियाके निमित्त से शरीर और वचनके प्रचार, प्रहरण आदिको विक्रियाके अर्थ वैक्रियिक समुद्रघात होता है ।
घ. १/१.३.२/२८/
यसरी
उमाद पाम वराननेसामावियमागार घडियागारेण । = वैक्रियिक शरीर के उदयवाले देव और नारकी जीवोका अपने स्वाभाविक आकारको छोड़कर अन्य आकारसे रहने तकका नाम वैक्रियिक समुद्धात है ।
प. ०/२६.१/२६६/१० विविद्वित्स माह सखेज्जास खेज्जीय पाणि सरीरेण ओहिय अट्ठाणं वेडव्विादोनाम |
विविध दियोके माहात्म्य संख्यात व असंख्यात योजमोको शरीरमें व्याप्त कर के जीवप्रदेशों के अवस्थानको वैक्रियिक समुद्रात कहते है।
द्र
। =
स./टी./१०/२०/२ सशरीरमपरित्यज्य किमपि विकर्तुमारप्रदेशाना महिर्गमन मिति विक्रियासमुद्धात किसी प्रकारको विक्रिया उत्पन्न करनेके लिए अर्थात् शरीरको छोटा बडा या अन्य शरीर रूप करनेके लिए मूल शरीरका न त्याग कर जो आत्माका प्रदेशों का बाहर जाना है उसको 'विक्रिया' समुद्घात कहते है । वैखरी वाणी० भाषा
वैजयंत
१ विजयार्धको दक्षिण व उत्तर श्रेणीके दो नगर । - दे० विद्याधर । २ एक ग्रह - दे० ग्रह । ३. एक यक्ष-दे० यक्ष । ४. स्वर्ग के पच अनुत्तर विमानों में से एक । -- दे० स्वर्ग / ३.५ । ५ जम्बूद्वीपकी वेदिकाका दक्षिण द्वार-दे० लोक/३/११ वैजयंती
वैधम्य
-
-
१. अपर विदेहके सुप्रभ क्षेत्रकी प्रधान नगरी । - दे० लोक२/२२ नन्दीश्वर द्वीपको पश्चिम दिशामें स्थित एक बा - दे० लोक ५ / ११1३. रुचक पर्वत निवासिनी दिवकुमारी देवी व महत्तरिका - दे० लोक / ५ /१३ | वैदूर्यलोके अन्त मे सम्म सागर द्वीप -३० सोक/७/१ २ सुमेरू पर्वतका अपर नाम का है दे० सुमेरु ३. महा हिमालका एक फूट उसका रक्षक देव ३० लोक/२/४४. ह्रद स्थित एक कूट - दे० लोक /५/७ । ५ मानुषोत्तर पर्वतका एक ट०/२/२००६. रुपक पकाएक ट० लोक ५/१३० सोधर्म स्वर्गका १४० स्वर्ग/५/३। वैतरणी - १. नरककी एक नदी २ भरतक्षेत्र आर्य खण्डकी एक नदी-३० मनुष्य वैतरणी अरकुमार जातिका एक भवनवासी देव दे० अर वैताढ्य - भरत और ऐरावत क्षेत्रके मध्यमे पूर्वापर लम्बायमान विजया पर्वतको सभा ३२ विदेहों १२ विजयार्थीको वेताक्य कहते है । हैमवत आदि अन्य क्षेत्रके मध्य शब्दवान् आदि कूटाकार पाते है दे० लोक ६.७।
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।
1
वैतृष्णा — दे० उपेक्षा |
वैतृष्ण्य --- समताका पर्यायवाची -३० सामायिक/१ । दे० वैदर्भ - भरत क्षेत्र आर्य खण्डका एक देश-दे० मनुष्य / ४ । वैदिक दर्शन वैदिक दर्शन व उनका विकासक्रम ३० दर्शन वैदिश-वर्तमान भेलसा नामक ग्राम (यु. अ.प्र. ३६ / प. जुगल किशोर)। वैद्यसार आ. पूज्यपाद (ई. श. ५) कृत आयुर्वेद विषयक संस्कृत ग्रन्थ० पूज्यपाद
वैधर्म्य- - १. स भं, त. / ५३/३ - वैधम्यं च साध्याभावाधिकरणावृत्तित्वेन निश्चितत्वम् साध्यके अभाव के अधिकरणमें जिसका
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वैधम्र्म्यसमा
अवृत्ति जतन रहना निश्चित हो उसको वैध कहते है। २ उदाहरणका एक भेद - दे० उदाहरण |
वैधर्म्यसमा - दे० साधर्म्यसमा ।
वैनयिक - १. वैनयिक मिथ्यात्वका स्वरूप
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स. सि/०/२/३०५/८ सर्वदेवताना सर्वसमयाना च सम्यग्दर्शन वि कम्। - सब देवता और सत्र मतोको एक समान मानना वैनयिक मिथ्यादर्शन है । ( रा वा /८/१/२८/५६४/२१), ( त सा /५/८ ) । घ ८३.६/२०/० अइहिय-पारतियमुहाइ सम्मापि विजयाद ए पाम- सण तमोरवास किले से हो ति अहिजिसो वेइयमिच्छत्तं । =ऐहिक एवं पारलौकिक सुख सभी विनयसे हो प्राप्त होते है, न कि ज्ञान, दर्शन, तप और उपवास जनित क्लेश से, ऐसे अभिनिवेशका नाम वैनयिक मिभ्यारण है।
वसा १०-१२ व तिथे या समुभयो अि सामुखियसीसा सिंहिनो गंगा के यदुव य समया भत्ती य सव्वदेषाणं णमणं द डुव्त्र जणे परिकलिय तेहि मूढेहि |१६| = सभी तीर्थंकरो के तीर्थोमे वैनयिकोका उद्भव होता रहा है। उनमें कोई जटाधारी, कोई मुण्डे, कोई शिखाधारी और कोई मग्न रहे है। चाहे दुष्ट हो चाहे गुणवान् दोनो समानता से भक्ति करना और सारे ही देवोको दण्डवत् नमस्कार करना, इस प्रकारके सिद्धान्तोको उसने लोगो
चलाया |१६|
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भावग्रह वेणइयमिच्छादिट्टी हबइ फुडं तावसो हु अण्णाणी । णिगुण्जणं पि विणओ पउज्जमाणो : हु गयविवेओ विवादो इह मोल किन पुगू रोण गहाई अनुनिय गुणागुणेण य विषय मिच्छत्तनडिए || = वैनयिक मिध्यादृष्टि अभिनेत्री तापस होते है। निर्गुण जनो की यहाँ तक कि कभी विनय करने अथवा उन्हें नमस्कार आदि करनेसे मोक्ष होता है, ऐसा मानते है । गुण और अवगुणसे उन्हे कोई मतलब नही ।
गो /// १००० मणवय कायदा गरि
सुरविणाणि
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दाते पम्म च काय चेदि अम. राजा, ज्ञानी, यति, वृद्ध, बालक, माता, पिता इन आठोकी, मनवचन, काय व दान, इन चारों प्रकारोसे विनय करनी चाहिए। (ह पु / १० / ५६ ) ।
अन ध / २ / ६ / १२३ शिवपूजादिमात्रेण मुक्तिमभ्युपगच्छताम् । नि शक मृतपाठोऽयं नियोग कोऽपि दुविध | ६| शिव या गुरुकी पूजादि मात्र से मुक्ति प्राप्त हो जाती है, जा ऐसा मानने वाले है, उनका दुर्दैव निशक होकर प्राणिवध मे प्रवृत्त हो सकता है । अथवा उनका सिद्धान्त जीवोको प्राणिवधकी प्रेरणा करता है । भा. पा. टी / १३३/२०३/२१ मातृपितृलोकादिविनयेन मोहाचा तापसानुसारिणा प्राविशन्तानि भवन्ति माता पिता राजा यसो आदि विनयसे मोस माननेवाले तासानुसारी मठ १२ होते है ।
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२. विनयवादियोंके ३२ भेद
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रा. वा /८/१/१२/५६२ / १० वशिष्ठपाराशरजतुकर्ण वाल्मीकिरोमहर्षिणिसत्यदत्तासेला पुत्री पमन्यवेन्द्रदत्तायस्थूलादि मार्गभेदात् वैनयिका' द्वात्रिशगणना भवन्ति वशिष्ठ, पाराशर, जतुक बातमीकि, रोमहर्षणि सत्यदत्त, व्यास, एसापुत्र श्रीपमन्यु, ऐन्द्रदत्त, अयस्थूल आदिको मार्गभेद बैक ३२ होते है। (शब ( ४. १/१.१.२/१०८/२), (/६/४,१.४५/
२०/१२/७४/७). २०२/७)।
६०५
वैवावृत्य
ह पु/१०/६० मनोवाक्कायदानाना मात्राद्यष्टक्योगत | द्वात्रिंशत्परिसंख्याता वैनयिक्यो हि दृष्टय 1६०1 = [ देव, राजा आदि आठकी मन, वचन, काय व दान इन चार प्रकारोसे विनय करनी चाहिए- दे० पहले शीर्षक गोक./८८८] इसलिए मन, वचन, काय और दान इन चारका देव आदि आठके साथ सयोग करनेपर वैनयिक मिथ्यादृष्टियोके ३२ भेद हो जाते है ।
★ अम्य सम्बन्धित विषय
१. सम्यक विनयवाद ।
२
- दे० विनय / १/२ ।
द्वादशाग श्रुतज्ञानका पाँचत्रों अंग ।
- दे० श्रुतज्ञान / III |
३. वैनयिक मिथ्यात्व व मिश्रगुणस्थानमे अन्तर । - दे० मिश्र / २ | वैभाविक शक्ति- -दे० विभाव / १ । वैभाषिक - दे० बौद्ध दर्शन ।
वैमनस्क वैमानिक देव वैयधिकरण्य
नरकका पाँच दे० नरक/३/१९४ दे०स्वर्ग /१०
श्लो वा / ४ / २ / ३३ / न्या. / ४५६/५५१/१६ पर भाषाकार द्वारा उद्धृत। युगपदनेकावस्थितिर्वैयधिकरण्यम् एक वस्तु एक साथ दो विरोधी धर्मोके स्वीकार करनेसे, नैयायिक लोग अनेकान्तवादियो पररण्य दोष उठाते है।
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भरा./८२/९ अस्तित्वाधिकरणम्नास्तित्वस्याधिकरणमन्य दिव्यस्त्निास्रियोरिस | [च] विभिन्नकरणवृत्तित्यस्। अस्तिका अधिकरण अन्य होता है और नास्तिका अन्य होता है, इस रीति से अस्तित्व और नास्तित्वका वैयधिकरण्य है। वैयधिकरण्य भिन्न-भिन्न अधिकरण में वृत्तित्वरूप है । [ अर्थात् इस अनेकान्त बादमें अस्तित्व और नास्तित्व दोनो एक ही अधिकरणमे है । इसलिए नैयायिक लोग इसपर वैयधिकरण्य नामका दोष है।]]
वैयाकरणी११ वेषिक दर्शन शब्दार्थ परसे सिद्धान्तका निर्धारण करनेके कारण वैयाकरणी है- दे० वैशेषिक दर्शन। २. वैयाकरणी मरा शब्द समभिरूद्र व एस नाभासी है दे० अनेकान्स/२/६ वैयावृत्य -
१. व्यवहार लक्षण
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८. क श्र./ ११२ व्यापत्तिव्यपनोद पदयो सवाहनं च गुणरागात । वैयावृत्त्य यावानुपग्रहोऽन्योऽपि सर्यामिना । ११२ । = गुणोमे अनुरागपूर्वक संयमी पुरुषो के खेदका दूर करना, पॉव दबाना तथा और भी जितना कुछ उपकार करना है, सो वैयावृत्त्य कहा जाता है। सि./६/२४ / २२६/३ गुणवदु खोपनिपाते निरवयन विधिमा तद पहरण वैयावृत्य।
स.सि /६/२०/४३६/७ कायचेष्टया द्रव्यान्तरेण चोपासनं वैयावृत्त्यम् । = १. गुणी पुरुषो के दुख में आ पडनेपर निर्दोष विधि से उसका दुख दूर करना वैयावृत्त्य भावना है। ( रा. वा /६/२४/६/५३०/४), (चा. सा/२४/९) (स सा./०/२०) (भा.पा./टी./०७/२२१/१) २. शरीरकी चेष्टा या दूसरे द्रव्य द्वारा उपासना करना वैयावृत्य तप है ( रा वा / १/२४/२/२३/१)।
रा. वा./१/२४/१५-१६ / ६२३ / ३१ तेषामाचार्यादीना व्याधिपरीष मनपा प्रामुकोपथियातिपीठस्तरणादिभिर्धमौपकरणे स्तत्प्रतीकार. सम्यक्स्वप्रत्यवस्थापनमित्येवमादि
यास्यम् ॥१५॥ बाह्यस्पोषचभक्तपानावेरसभवेऽपि स्वकायेन श्लेष्मान्तकापकर्षणादि तदानुष्ठानं चा
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व्यास्व
वृष्यमिति यते ।१६। - उन आचार्य आदिपर व्याधि परीषह मिथ्यात्व आदिवा उपद्रव होनेपर उसका प्रासुक औषधि आहारपान आश्रय चौकी तन्ता और सायरा आदि धर्मोपकरणोंसे प्रतीकार करना तथा सम्यक्त्व मार्गमे दृढ करना वैयावृत्त्य है | १५| औषधि आदिके अभाव मे अपने हाथसे खकार नाक आदि भीतरी मनका साफ करना और उनके अनुकूल वातावरणको बना देना आदि भी वृष्य है। (चा सा./१२२/१) । ८.२१/८८/ व्याप यावृष्यम्व्याप्त अर्थात् रागादिसे व्याकुल साधुके विषय मे जो कुछ किया जाता है उसका नाम वैयावृत्य है ।
१५.४.२६/६३/६ व्यादि किया-आपत्ति के समय उसके निवारणार्थ जो किया जाता है वह वैयावृत्य नामका तप है।
६०६
चा सा०/१००/ ३ का दुष्परिणामव्युदासार्थं काव्यारेणापदेदोनच व्यावृत्तस्य सत्कर्म देवशरीरको पीडा अथवा दुष्ट परिणाम को दूर करनेके लिए शरीरकी चेष्टामे, किसा औषध आणि अन्य से अबवा उपदेश देकर प्रवृत्त होना अथवा कोई भी क्रिया करना वैयावृत्य है। (अन ध /७/७८ /७११) । का अ / /४५६ जो उत्रयरदि जदोण उवसग्ग जराड खीणकायाण । यादपि बेायच पो तस्स २५६ - जो मुनि उपसर्गने पीडिता और आदिके कारण जिनको काम क्षीण हो गयी हो । जो अपनी पूजा प्रतिष्ठाको अपेक्षा न करके उन मुनियोका उपकार करता है, उसके वैयावृत्य तप होता है।
निश्चय लक्षण
का / म् /४६० जो ब्रावर मरुवे समदमभावम्मि मुद्र उवजुत्तो । यादो परम विशुद्ध उप्योगमे पुत हुआ जो मुनि शमदम भाव रूप अपने आत्मस्वरूप मे प्रवृत्ति करता है और लोक व्यवहारमे विरक्त रहता है, उसके उत्कृष्ट वैयावृत्त्य तप होता है।
२. वैयावृत्य के पात्रों की अपेक्षा १० भेद
आ / २६० गुगधी उम्काए वरिस सिस्से यहुब्बले साहुगणे कुले सबै समणुण्णेय चापदि ॥३१०१ = गुणाधिकमे, उपाध्यायोमे, तपस्वियों में शिष्योमे, दुर्बलोमे, साधुओमे गणमे, साधुओ के कुलचतुर्विधमे, मनोज़मे, इन दसमे उपद्रव आनेपर वैयावृत्त्य करना कर्त्तव्य है ।
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त. सू./१/२४
आचार्योध्यायतपस्वि शेक्षग्लानगण कुल सघसाधुमनोज्ञानाम् ॥ २४ ॥ - आचार्य, उपाध्याय, उपस्वी, दीस (शिष्य), ग्लान ( रोगी ), गण, कुल, सघ, साधु और मनोज्ञ इनकी वैयावृत्त्य के भेदसे केयाश्य इस प्रकारका है २४ (१३/५४.२६/१/६), (चा. सा./१५०१३), (भा पा/टी./०८/२२४/१६ ) |
२. वैयावृत्य योग्य कुछ कार्य
भ. आ / मू / ३०५-३०६ / ५१६ सेज्जागास णिसेज्जा उबधी पडिलेहणाउहिंदे आहारो सहायक समादी २०५ | अदान तेन सावयरायणदीरागास उमे मेजावरच उतं संगहणारक्खणोवेद | ३०६ | शयनस्थान- बैठनेका स्थान, उपकरण इनका शोधन करना, निर्दोष आहार - औषध देकर उपकार करना, स्वाध्याय अर्थात् व्याख्यान करना, अशक्त मुनिका मैला उठाना, उसे करवट दिलाना बैठाना वगैरह कार्य करना । ३०५ थके हुए साधुके पोव हाथ व अग दबाना, नदीसे रुके हुए अथवा रोग पीडितका उद्या आदि दूर करना, दुर्भिक्ष पीडितको सुभिक्ष देश में
वैयावृत्य
लाना ये सब कार्य यावृत्य कहलाते है आ / ३६१-३१२), (आ / २३०-३४०) ( और भी दे०/१) ( और भी दे० सलेखना / ५) ।
४. वैयावृत्यका प्रयोजन व फल
भ. आ / मू / ३०१-३१०/५२३ गुणपरिणामो सड्ढा बच्छल्लं भत्तिपत्तलभो य। सघाण तवपूगा अव्वोच्छिती समाधी य | ३०६ | आणा सजमसाखिल्लदा य दाण च अविदिगिछा य वेज्जावश्चस्स गुणा पभावणा वज्जपुणाणि । ३१०| गुणग्रहण के परिणाम श्रद्धा, भक्ति, वात्सल्य, पात्र की प्राप्ति, विच्छिन्न सम्यक्त्व आदिका पुन सधान, उपज, तीर्थ, अभ्युच्छिति, समाधि | ३०६ जना, संयम, सहाय. दान. निर्विचिकित्सा, प्रभावना, कार्य निर्वाहण ये वैयावृत्त्यके १८ गुण है (भ. आ. सू./३२४-३२८)। समाध्याधानविचिकित्साभावप्रवचनवात्सस.सि /१/२४/४४०२/१९ त्याद्यभिव्यक्त्यर्थम् | यह समाधिकी प्राप्ति, विचिकित्साका अभाव और ग्रवचन वात्स्यकी अभिव्यक्तिके लिए किया जाता है । ( रा वा / ६ / २४/१७/६२४ / १) ( चा सा./१५२/४ ) । धर्म/७/२ (सकोयावृत्य निर्जराको निमित्त है।
५. वैयावृत्य न करनेमें दोष
२००-३०८/२१ महिलापरिओ
ज्यो देसेण । जदिण करेदि समत्यो सतो सो होदि णिद्धम्मा १३०७ | तिथवरागाको सुविधा अणायारो अप्पापपण
महासमर्थ होते हुए तथा अपने बलको नहाते हुए भी जिनोट वैधवृत्य जो नहीं करता है वह धर्मभ्रष्ट है | ३०७३ जिनाज्ञाका नग, शास्त्र कथित धर्मका नाश, अपना साधुवर्गका व आगमका लाग, ऐसे महादोष वैयावृत्त्य न करने से उत्पन होते है । ३०५ (ओर भी दे साय /- ) | भ.आ./मू./१४६६/१३६३ वेज्ज व बस्स गुणा जे पुत्रं विरेण अक्खादा । तेसि फडियो सो होह जो उवेच्खेज त खवय १९४१६ वैयावृत्य के गुणका पहले शीर्षक न ४ मे) विस्तारसे वर्णन किया है। जो क्षपककी उपेक्षा करता है वह उन गुणोसे भ्रष्ट होता है । १४६६ । ६. वैयावृत्यको अत्यन्त प्रधानता
भ.आ./वि./१२२ / ५४९ पदे गुगा महत्लानागपुदस्स बहुया य । अप्पट ठिदो हु जायदि सज्झाय चैव कुब्बतो ३२६ | आत्मप्रयोजनपर एवं आयने स्वाध्यायमेव कुर्ववैश्यस्तु स्व पर बोद्धरतीति मरते । वैयावृत्य करनेवालेको उपरोक्त (शीर्षक) बहुत स्मोकी प्राप्ति होती है।" स्वाध्याय करनेवाला स्वत की ही आत्मोन्नति कर सकता है, जब कि वैयावृत्त्य करनेवाला स्वयको व अन्यको दोनोको उन्नत बनाता है ( और भी दे, सल्लेखना / ५) ।
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[भ] आ. लारा टीका / ३२६ / २४२/० स्वाध्यायकारिणौऽपि विषपनि पाते स्वाध्याय करनेवालेपर यदि विपत्ति आयेगी तो उसको वैयावृत्त्य वालेके मुखकी तरफ ही देखना पडेगा । दे /३/२-वृत करनेकी प्रेरणा दी गयी है ।
७. वैयावृत्य में शेष १५ भावनाओंका अन्तर्भाव
ध ८ / ३.४१ / ८८ /= जेण सम्मत्त णाण अरहंत बहुसुदभत्ति-पवयणवच्छदिजीव सोज्जाजोगी वेगव वि ताए एवं बिहाएएकाए वि तिरथरणामकम्म बधइ । एत्थ सेसकारणाण जहासभवेण अतभावो वत्तत्रो । जिस सम्यक्त्व, ज्ञान, अरहन्तभक्ति, बहुश्रुतभक्ति एवं प्रवचनवत्सलत्वादिसे जीव वैयावृत्त्यमे लगता है वह बेयावृत्य
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बैर
योग अर्थात् दर्शन विशुद्धतादि गुण है, उनसे सयुक्त होनेका नाम वैयावृत्त्ययोगयुक्तता है। इस प्रकारकी उस एक ही वैयावृत्त्ययोगयुक्तता से तीर्थंकर नामकर्म बँधता है। यहाँ शेष कारणोंका यथासम्भव अन्तर्भाव कहना चाहिए ।
८. वैयावृत्य गृहस्थोंको मुख्य और साधुको गौण है
प्र. सा./मू./२५३-२५४ नाचणमि निसान गुरुमालबुद्धसमयानं । लोगिगजणसभासा ण णिदिदा वा सुहोवजुदा । २५३ | एसा पसत्थभूदा समणाणं वा पुणो घरत्थाण । चरिया परेत्ति भणिदा ताएव परं लहदि सोक्खं ॥२५४
म. सा. / / २५४ एवमेष प्रशस्तचर्या रागसंगमाइगीणः श्रमणानां गृहिणां तु क्रमत परम निर्वाणसौख्यकारणत्वाच मुख्य रोगी, गुरु बाल तथा वृद्ध श्रमणोकी वैयावृत्यके निमित्त शुभोपयोगयुक्त लोकको साथी बातचीत निश्चित नहीं है | २५३॥ यह प्रशस्तभूत चर्या रागसहित होनेके कारण श्रमणोको गौण होती है। और गृहस्थीको क्रमश परमनिर्माण सौख्यका कारण होनेसे मुख्य है ऐसा शास्त्रोंमें कहा है।
* अन्य सम्बन्धित विषय
* एक वैयावृत्त्यसे ही तीर्थंकरत्वका बन्ध सम्भव है
-३० भावना / २०
* सल्लेखनागत क्षपकके योग्य वैयावृत्तको विशेषताएँ -३०
खना - दे० सावध /
+ वैयावृत्यका अर्थ सावध कर्मयोग्य नहीं वैर-साम्यभावके प्रभाव से जाति विरोधी भी जीव अपना पैर छोड
देते है । - दे० सामायिक /३/७ ।
वैरकुमार
बृ. कथा कोष / कथानं १२ / पृष्ठ - इसके पिता सोमदत्तमैं इसके गर्भ में रहनेपर हो दोक्षा लेती थी। इसकी माता इसको ध्यानस्थ अपने पतिके चरणोमे छोड गयी। तब दिवाकर नामके विद्याधर ने इसे उठा लिया । ६१ । अपने मामासे विद्या प्राप्त की । एक विद्याधर कन्यासे विवाह किया और अपने छोटे भाईको युद्ध हराया । ६२-६३। जिसके कारण माता रुष्ट हो गयी, तभी अपने विद्याधर पिता से अपनी कथा सुनकर पिता सोमदत्त के पास में दीक्षा ले ली । ६४-६५। बौद्धोके रथसे पहले जैनोका रथ चलवाकर प्रभावना की।६६७९ वैराग्य
राजा / ७ /१२/४/११/१३ विरागस्य भावकर्म माराग्यम् (विषयोंसे विरक्त होना विराग है । दे० विराग ) विरागका भाव या कर्म वैराग्य है
द्र स / टा. / ३५ / ११२/८ पर उद्धृत - संसारदेहभोगेसु विरतभावो य वैरग्गं । =ससार देह तथा भोगों में जो विरक्त भाव है सो वैराग्य है।
१
दे सामायिक (माध्यस्थ्य, समता, उपेक्षा, बेराग्य, अस्पृहा, वैतृष्ण्य, परमशान्ति, ये सब एकार्थवाची है । ) २. वैराग्य की कारणभूत भावनाएँ
साम्य,
त. सू. /७/१२ जगत्का यस्वभावौ वा संवेगवैराग्यार्थम् | १२ | ससि / ७ / १२ /३० /३ जगत्स्वभावस्तावदनादिनिधनो बेत्रासनमा हरीमृदइनिभ अत्र जीवा अनारिस सारेऽनम्सकाल नानायोनिषुद्र ख भाज भोज पर्यटन्ति । न चात्र किचिन्नियतमस्ति जलबुदबुदापम जीवितम् विद्यन्मेधादिविवारचा भोगसंपद इति। एवमादिणगभावचिन्तनसंसारात्सयेगो भवति । कायस्वभावश्च अनित्यता
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दुखहेतुत्वं निसारता अशुचित्वमिति । एवमादिकायस्वभाव नाद्विषयराग निवृत्ते वैराग्यमुपजायते । इति जगत्कायस्वभावो भावतिथ्यौ । -संवेग और वैराग्य के लिए जगत् के स्वभाव और शरीर के स्वभावकी भावना करनी चाहिए । १२ । जगत्का स्वभाव यथा - यह जगत् अनादि है, अभिधन है, बेत्रासन, महरी और मृदंगके समान है (दे. लोक / २) । इस अनादि संसारमें जोव अनन्त कालतक नाना योनियों दुखको पून' पुन भोगते हुए भ्रमण करते है। इसमें कोई भी वस्तु नियत नहीं है। जीवजसके बुलबुले के समान है, और भोग सम्पदाएँ बिजली और इन्द्रधनुषके समान चंचल है । इत्यादिरूपसे जगत् के स्वभावका चिन्तन करनेसे संसारमें संवेग या भय उत्पन्न होता है। कायका स्वभाव यथा - यह शरीर अनित्य है, दुखका कारण है, निसार है और अशुचि है इत्यादि इस प्रकार कायके स्वभावका चिन्तन करनेसे विषयोसे आसक्ति हटकर वैराग्य उत्पन्न होता है । अत जगत् और कायके स्वभावकी भावना करनी चाहिए । ( रा. वा. / ७ / १२ / ४ / ५३६/१५ ) ।
दे अनुप्रेक्षा (अनित्य अवारण आदि १२ भावनाओका पुनः पुन चिन्त
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इसीलिए वे १२ वैशग्य भावना
जन करना वैराग्य के अर्थ होता है कहलाती है)। ★ सम्यग्दष्टि विरागी है दे, राग/ ६ । वैराग्यमाला - आ. श्रीचन्द्र (ई. १४६८ - १५१८ ) द्वारा रचित एक उपदेशात्मक संस्कृत ग्रन्थ
वैशत्रिक मू आ / भाषा / २७० आधी रातके बाद दो घडी बीत जानेपर वहाँसे लेकर दो घडी रात रहे तबतक कालको वैरात्रिक काल कहते है । वैरिसिंह एक राजा । समय- वि. ६०० ( ई ८४३ ) ( सा. ध / पं आशाधरका परिचय / ६ ) !
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वैशेषिक
वैरोटी - १, भगवान् अनन्तनाथकी शासक यक्षिणी-दे तीर्थंकर / ५ / ३ । २ एक विद्या ( - दे. विद्या) ।
वैवस्वत यम- - इक्ष्वाकु वंशके एक राजा थे ( रामाकृष्णा द्वारा कुशावली ।
शोधित
वैशाख - वृ कथाकोष / कथा नं ८ / पृष्ठ - पाटलीपुत्र नगर के राजा विशाखका पुत्र था । सात दिनकी नव विवाहिता पत्नीको छोड़ मित्र मुनिदत्त मुनिको आहार दानकर दीक्षा ले ली। २८ । स्त्री मरकर - व्यतरी हुई, जिसक उपसर्ग के कारण एक महीना तक उपवास करना पडा । चेलनाने परदा डालकर आहार दिया। अन्त में मोक्ष पधारे | 2 | वैशेषिक - १. सामान्य परिचय
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(वैशेषिक लोग भेदवादी है. ये द्रव्य गुण पर्याय तथा वस्तुके सामान्य व विशेष अशोकी पृथक् पृथक् सत्ता स्वीकार करके समवाय सम्बन्धसे उनकी एकता स्थापित करते है । ईश्वरको सृष्टि व प्रलयका कर्ता मानते है । शिवके उपासक है, प्रत्यक्ष व अनुमान दो प्रमाण स्वीकार करते है । इनके साधु वैरागी होते है | ) २. प्रवर्तक, साहित्य व समय
इस मत के आद्य प्रवर्तक कणाद ऋषि थे, जिन्हे उनकी कापोती वृत्तिके कारण कण भक्ष तथा उलूक ऋषिका पुत्र होनेके कारण औलूक्य कहते थे। इन्होने ही वैशेषिक सूत्रकी रचना की थी। जिसपर अनेकों भाष्य व टीकाएँ प्राप्त है, जैसे- प्रशस्तपाद भाष्य, रावण भाष्य, भारद्वाज वृत्ति। इनमे से प्रशस्तपाद भाष्य प्रधान है जिसपर अनेकों वृत्तियाँ लिखी गयी है, जैसे—मरोवर योगी श्रीधरकृत न्यायकन्दली, उदयनकृत किरणावली. श्री वत्सकृत लीलावती, जगदीश मट्टाचार्यकृत भाग्य वृद्धि तथा शंकर मिश्रकृत
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वैशेषिक
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वैशेषिक
कणाद रहस्य । इसके अतिरिक्त भी शिवादित्यकृत सप्त पदार्थी, लोगाक्षिभास्करकृत तर्ककौमुदी, विश्वनाथकृत भाषा परिच्छेद, तर्कसंग्रह, तर्कामृत आदि वैशेषिक दर्शनके महत्त्वपूर्ण ग्रन्थ है। इनमेसे वैशेषिक सूत्रकी रचना ई. श. १ का अन्त तथा प्रशस्तपाद भाष्यकी रचना ई. श. ५-६ अनुमान की जाती है। [स. म /परि-ग | पृ.४१८) ३. तत्त्व विचार (वैशे. सू अधिकार १-५) (षट दर्शन समुच्चय/६०-६६/६३-६६) (भारतीय दर्शन) १ पदार्थ ७ है-द्रव्य, गुण. कर्म, सामान्य, विशेष, समवाय व अभाव । २. द्रव्य है-पृथिवी, जल, तेजस्, वायु, आकाश, काल, दिक् , आस्मा तथा मनस्। प्रथम ४ नित्य व अनित्यके भेदसे दो-दो प्रकार है और शेष पाँच अनित्य है। नित्यरूप पृथिवी आदि तो कारण रूप तथा परमाणु है और अनित्य पृथिवी आदि उस परमाणुके कार्य है। इनमें क्रमसे एक, दो, तीन ब चार गुण पाये जाते है। नित्य द्रव्योमें आत्मा, काल,दिक व आरमाकाश तो विभुहैऔर मनस् अभौतिकपरमाणु है। आकाश शब्दका समवायि कारण है। समय व्यवहारका कारण काल, और दिशा-विदिशाका कारण दिक् है। आत्मा व मनस् नैयायिकोकी भांति है। (दे. न्याय/१/५) । ३. कार्यका असमवायि कारण गुण है । वे २४ हैरूप, रस, गन्ध, स्पर्श, संख्या, परिमाण, पृथक्त्व, सयोग, विभाग, परत्व, अपरत्व, गुरुत्व, द्रव्यरव, स्नेह, शब्द, ज्ञान, सुख, दुःख, इच्छा, द्वेष, प्रयत्न, धर्म, अधर्म तथा संस्कार । प्रथम ४ भौतिक गुण है, शब्द आकाशका गुण है, ज्ञान से सस्कार पर्यन्त आत्माके गुण है और शेष आपेक्षिक धर्म है। धर्म व अधर्म दोनो गुण जीवोके पुण्य पापात्मक भाग्यके वाचक है। इन दोनोको अदृष्ट भी कहते है । ४. कर्मक्रियाको कर्म कहते है। वह पाँच प्रकारको है-उत्क्षेपण, अवक्षेपण, आकुंचन, प्रसारण, व गमनागमन । वह कर्म तीन प्रकारका हैसत्प्रत्यय, असत्प्रत्यय और अप्रत्यय । जीवके प्रयत्नसे उत्पन्न कायिक चेष्टा सत्प्रत्यय है, बिना प्रयत्नकी चेष्टा असत्प्रत्यय है और पृथिवी आदि जडपदार्थों में होनेवाली क्रिया अप्रत्यय है । ५. अनेक वस्तुओंमे एकत्वकी बुद्धिका कारण सामान्य है । यह नित्य है तथा दो प्रकार है-पर सामान्य या सत्ता सामान्य, अपर सामान्य या सत्ता विशेष । सर्व व्यापक महा सत्ता पर सामान्य है तथा प्रत्येक वस्तु व्यापक द्रव्यस्व गुणत्व आदि अपर सामान्य है, क्योकि अपनेसे ऊपरऊपरको अपेक्षा इनमें विशेषता है। ६. द्रव्य, गुण, कर्म आदिमे परस्पर विभाग करनेवाला विशेष है । ७. अयुत सिद्ध पदार्थों में आधार आधेय सम्बन्धको समवाय कहते है जैसे-द्रव्य व गुणमे सम्बन्ध, यह एक व नित्य है । ८.अभाव चार प्रकारका है प्रागभाव, प्रध्व साभाव, अन्योन्याभाव व अत्यन्ताभाव (दे. बह-वह नाम)। १ ये लोक नैगम नयाभासी हैं।-(दे अनेकांत/२/8) ४. ईश्वर, सृष्टि व प्रलय १ यह लोग सृष्टि कर्ता वादी है। शिवके उपासक है ( दे. परमात्मा/ ३१५) । २. आहारके कारण घट आदि कार्य द्रव्योके अवयवोमें क्रिया विशेष उत्पन्न होने से उनका विभाग हो जाता है तथा उनमेसे संयोग गुण निकल जाता है। इस प्रकार वे द्रव्य नष्ट होकर अपनेअपने कारण द्रव्य परमाणुओमें लय हो जाते है। इसे ही प्रलय कहते है। इस अवस्थामें सृष्टि निष्क्रिय होती है। समस्त आत्माएँ अपने अदृष्ट, मनस् और संस्कारोके साथ विद्यमान रहती है। ३. ईश्वरकी इच्छा होनेपर जीवके अदृष्ट तथा परमाणु कार्योन्मुख होते है, जिसके कारण परस्परके संयोगसे द्विअणुक आदि स्थूल पदार्थों की रचना हो जाती है। परमाणु या द्विअणुको के मिलनेसे स्थूल द्रव्य नही होते त्रिअणुकोंके मिलनेसे ही होते है। यही सृष्टिकी रचना है । सृष्टिकी
प्रक्रियामे ये लोग पीलुपाक सिद्धान्त मानते है-(दे आगे नं. ५)। ४ पूर्वोपार्जित कर्मोके अभावसे जीवके शरीर, योनि, कुल बादि होते है। वही संसार है। उस अदृष्टके विषय समाप्त हो जानेपर मृत्यु और अदृष्ट समाप्त हो जानेपर मुक्ति हो जाती है । ५. पीलुपाक व पिठरपाक सिद्धान्त (भारतीय दर्शन) १ कार्य वस्तुएँ सभी छिदवाली ( Porous ) होती है। उनके छिद्रोमे तैजस द्रव्य प्रवेश करके उन्हे पका देता है। वस्तु ज्यो की त्यो बनी रहती है। यह पिठरपाक है। २, कार्य व गुण पहले समवायि कारणमे उत्पन्न होते है। पीछे उन समवायि कारणोके संयोगसे कार्य द्रब्योकी उत्पत्ति होती है, जैसे-घटको आगमें रखनेसे उस घटका नाश हो जाता है फिर, उसके परमाणु पककर लाल र गसे युक्त होते हैं, पोछे इन परमाणुओके योगसे घडा बनता है और उसमे लाल रंग आता है। यह पीलुपाक है। ६. ज्ञान प्रमाण विचार (वैशे. द./अधिकार 6-8), (षट्दर्शन समुच्चय/६७/६६), (भारतीय दर्शन ) १ नैयायिकोबत बुद्धि व उपलब्धिका नाम ही ज्ञान है, ज्ञान दो प्रकार है-विद्या व अविद्या। प्रमाण ज्ञान विद्या है और संशय आदिको अविद्या कहते है। २ प्रमाण २ है-प्रत्यक्ष, अनुमान । नैयायिको वत इन्द्रिय ज्ञान प्रत्यक्ष है. अनुमानका स्वरूप नैयायिकोबत् है। योगियोको भूत, भविष्यग्राही प्रातिभ ज्ञान आर्ष है। ३. अविद्या-चार प्रकारकी है-संशय, विपर्यय, अनध्यवसाय, तथा स्वप्न । सशय, विपर्यय व अनध्यवसायके लिए दे वह वह नाम निद्राके कारण इन्द्रियों मनमे विलीन हो जाती है और मन मनोवह नाडीके द्वारा पुरीतत नाडीमे चला जाता है। तहाँ अदृष्टके सहारे, सस्कारोव वात पित्त आदिके कारण उसे अनेक विषयोका प्रत्यक्ष होता है। उसे स्वप्न कहते है। ७. साधु चर्या (स म/परि-ग./पृ. ४१०) इनके साधु, दण्ड, कमण्डलु, या तुम्बी, कमण्डल, लँगोटी व यज्ञोपवीत रखते है, जटाएं बढाते है तथा शरीरपर भस्म लगाते है। नीरस भोजन या कन्दमूल खाते है। शिवका ध्यान करते है। कोई-कोई स्त्रीके साथ भी रहते है। परन्तु उत्कृष्ट स्थितिमे नग्न व रहित ही रहते है। प्रात.काल दॉत, पैर आदिको साफ करते है। नमस्कार करनेवालोको 'ॐ नम: शिवाय' तथा संन्यासियोको 'नम. शिवाय' कहते है।
2.वैशेषिकों व नैयायिकों में समानता व असमानता स्या मं./परि-ग./पृ ४१०-४११/-१ नैयायिक व वैशेषिक बहुतसी मान्यताओमे एक मत है। उद्योतकर आदिके लगभग सभी प्राचीन न्यायशास्त्रोंमें वैशेषिक सिद्धान्तोका उपयोग किया गया है। २. पीछे वैशेषिक लोग आत्मा अनात्मा व परमाणुका विशेष अध्ययन करने लगे और नैयायिक तर्क आदिका। तम इनमे भेद पड़ गया है। ३. दोनो हो वेदको प्रमाण मानते है। वैशेषिक लोक प्रत्यक्ष व अनुमान दो ही प्रमाण मानते है, पर नैयायिक उपमान व शब्दको भिन्न प्रमाण मानते है। ४ वैशेषिक सूत्रोमे द्रव्य गुण कर्म आदि प्रमेयकी और न्याय सूत्रोमे तर्क, अनुमान आदि प्रमाणोकी चर्चा प्रधान है । ५. न्याय सूत्र में ईश्वर की चर्चा है पर वैशेषिक सूत्रोमें नहीं। ६. वैशेषिक लोग मोक्ष को नि श्रेयस या मोक्ष कहते है। और नैयायिक लोग-अपवर्ग । ७. वैशेषिक लोग पीलुपाक वादी है और नैयायिक लोग पीठरपाक वादी। * वैदिक दर्शनोंका धमकी ओर विकासक्रम -दे. दर्शन।
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वैश्य
जैन व वैशेषिक मतकी तुलना
e.
वैशेषिको की भाँति जैन भी पर्यायार्थिक व सद्भूत व्यवहार नयकी दृष्टिसे द्रव्यके गुण व पर्यायोको, उसके प्रदेशो को तथा उसके सामान्य व विशेष सर्व भावोको पृथक्-पृथक् मानते हुए द्रव्य क्षेत्र, काल व भाव रूप चतुष्टयसे वस्तु भेट करते है (ENV/४ परन्तु उसके साथ-साथ द्रव्यार्थिक नयको दृष्टिसे उसका विरोधी अभेद पक्ष भी स्वीकार करनेके कारण जैन तो अनेकान्तवादी है (दे नय / V / २.१), परन्तु मेोषिक लोग अभेद पक्षको सर्वथा स्वीकार न करनेके कारण एकान्तवादी है। यही दानोमे अन्तर है । ) वैश्य -म पु / सर्ग / श्लोक - वेश्याश्च कृषिवाणिज्यपशुपा जोविता । ( १६ / १०४] । ऊरुभ्या दर्शयन् यात्राम् असाक्षीद चणि प्रभु जस्वलादियात्राभि या यत । ( १६ / २४४ ) । वणिजोऽर्थार्जनान्न्याय्यात् । ( ३८ / ४६ ) । जो खेती, व्यापार तथा पशुपालन आदिके द्वारा जीविका करते थे वे वेश्य कहलाते थे । ( १६ / १८४ ) । भगवान् ने अपने उरुओसे यात्रा दिखलाकर अर्थात् परदेश जाना सिखनाकर वैश्योकी रचना की सो ठीक ही है, क्योकि, जल, स्थल आदि प्रदेशोमे यात्रा कर व्यापार करना ही उनकी मुख्य आजीविका है । ( १६ / २४४ ) | न्याय पूर्वक धन कमाने से वेश्य होता है । ( ३८/४६ ) ।
वैश्रवण- -१ लोकपाल देवोका एक भेद - दे० लोकपान । २ आकाशोपपन्न देवोमे से एक दे० [देव]/11/२। ३ विपाकी दक्षिण श्रेणीका एक नगर - दे० विद्याधर । ४ हिमवान् पर्वतका एक कूट व उसका रक्षक देव-दे० लोक ५ / ४ । ५. विजयार्ध पर्वतका एक कूट व उसका रक्षक देव - दे० लोक ५/४६ पद्म हृदके वनमे स्थित एक कूट- दे० लोक५ / ७।७ रुचक पर्वतका एक कूट- दे० लोक५/१८ पूर्व विदेहका एक वक्षार व उसका कूट तथा रक्षक देव दे० लोक ३/३१ मानुषोत्तर पर्वतके नार कुमार देव दे० सोच/५/१० ।
६०९
वैश्रवण- १ प पु / ७ / श्लोक - यक्षपुरके धनिक विश्रवसका पुत्र
था । १२६ विद्याधरोके राजा इन्द्र द्वारा प्रदत्त लकाका राज्य किया, फिर रावण द्वारा परास्त किया गया | २४६ । अन्तमें दीक्षित हो गया । २५११ २, म पु / ६६ / श्लोक - कच्छकावती देशके वीतशोक नगरका राजा था |२| तप कर तीर्थंकर प्रकृतिका बन्ध किया और मरकर अपराजित विमानमे अहमिन्द्र हुआ । १४ - १६ । यह मल्लिनाथ भगवानका पूर्वका दूसरा भव है । दे० मल्लिनाथ ।
वैश्वानर - अपर नाम विशालनयन था । यह चतुर्थ रुद्र हुए है- दे० शलाका पुरुष / ७ ।
वैष्णव दर्शन--१. दर्शनको अपेक्षा भेद परिचय
इस
दर्शन में भक्तिको बहुत महत्त्व दिया जाता है। इसके चार प्रधान विभाग है- श्री सम्प्रदाय, हंस सम्प्रदाय, ब्रह्म सम्प्रदाय, रुद्र सम्प्रदाय | श्री सम्प्रदाय विशिष्टाद्वैतवादी है जो रामानन्दी भी कहलाते है । (दे० वेदान्त / ४ ) । हस सम्प्रदाय द्वैताद्वैत या भेदाभेदवादी है । इन्हे हरिव्यासी भी कहते है ( दे० वेदान्त / 111, V)। ब्रह्म सम्प्रदाय द्वैतवादी है इन्हे मध्य या गौडिया भी कहते है (दे० वेदान्त) सम्प्रदाय खात नाही है। इसे विष्णु स्वामी या वल्लभ सम्प्रदाय भी कहते है । वेदान्स ७.
- दे०
२. शक्ति व मति आदिकी अपेक्षा भेद व परिचय शक्तिसंग तन्त्र के अनुसार इसके १० भेद है- वैखानस, श्री राधाबलभी, गोकुलेश, वृन्दावनी, रामानन्दी, हरिव्यासी, निम्बार्क, भागवत, पाचरात्र और वीर वैष्णव । १. वैखानस मुनिके उप
भा० ३-७७
व्यंतर
देशानुसार दीक्षित होनेवाले ये स्मार्त वैष्णव कहे जाते है । २ श्री राम आर्तिक १५०३ ई मे हरिवश गोस्वामी हुए। ये लोग जप, त्याग आदि व्यवहारमे सलग्न रहते है । ३ गोकुलेश कृष्णको केलि या रासलीलाके उपासक है। गौओसे प्रेम करते है। अपने शरीरको सताओ. आभूषणों व मुगदित द्रव्योसे सजाते है । शक्तिके उपासक है । ४ वृन्दावनी विष्णुके भक्त है। अपने पूर्णकाम मानते है। खियाके ध्यान में रहते है | शरीरपर सुगन्धित द्रव्योंका प्रयोग करते हैं । सारूप्य मुत्तिको स्वीकार करते है । ५ रामानन्दी शक्ति शिवके सामरस्य प्रयुक्त आनन्दमे मग्न रहते है। रामानन्द स्वामी द्वारा ई १३०० में इसका जन्म हुआ था । ६ हरिव्यासी विष्णु भक्त व जितेन्द्रिय है । यम नियम आदि अष्टाग योगका अभ्यास करते है । ई १५१० मे हरिराम शुक्लने इसकी स्थापना की थी। ७ निम्बार्क विष्णु भक्त है पूजाके बाह्य स्वरूप नियम पूर्वक लगे रहते है । शरीर एवं वनोंको स्वच्छ रखते है । भागवत विष्णुके भक्त और शिवके कट्टर द्वेषी है । इन्द्रिय बशी है। पाचरात्र शिव के द्वेषी व 'पण्डा' को श्रीकृष्ण के नामसे पूजने वाले है। पचरात्रि चत करते है । १० वीर विष्णु केरल त्रिष्णुके भक्त तथा अन्य सर्व देवताओ के द्वपी है।
सादृश्य-३०
वैनसिक क्रिया - दे० क्रिया/२/- 1 बेसिक बंध - ३००/
वैसिक शब्द - ० व्यंजन
स.सि /१/१८/१९६७ व्यञ्जनमव्यक्त शन्दादिजात । ससि /६/४४/४५५/६ व्यञ्जन वचनम् । १ अव्यक्त शब्दादिके
समूह
को व्यजन कहते है ) ( रा वा / १/१८/-/६६/२७ ) । २. व्यजनका अर्थ वचन है ( वा २/४४/-१६३४/१० ) ।
=
ध १३/५५.४५ / / १/२/२४८ व्यञ्जन खईमात्रकम् । व्यंजन अर्ध मात्रा वाला होता है।
★ व्यंजनकी अपेक्षा अक्षरोंके भेद-प्रभेद--दे अक्षर । ★ निमित्तज्ञान विशेष - दे० निमित्त / २ | व्यंजन संगम नय—०२ व्यंजन पर्याय दे० ३।
व्यंजन शुद्धि- / / ११२/२६१/१० रात्र व्यञ्जनशुद्धिर्नाम
यथा गणधरादिभिर्द्वात्रिंशदोषजितानि सूत्राणि कृतानि तेषा तथैव पाठ | शब्दश्रुतस्यापि व्यजते ज्ञायते अनेनेति ग्रहे ज्ञानशब्देन गृहीतत्वात् तन्मूल ही श्रुतज्ञानं गणधरादि आचार्योंने बत्तीस दोपोंसे रहित सूत्रोंका निर्माण किया है. उनको दोष रहित पढना व्यजन शुद्धि है। शब्द के द्वारा ही हम वस्तुको जान लेते है । ज्ञानोत्पत्ति के लिए शब्द कारण है । समस्त श्रुतज्ञान शब्द की भित्तिपर खड़ा हुआ है । अत शब्दोंको 'ज्ञायतेऽनेन' इस विग्रहसे ज्ञान कह सकते है । - (विशेष दे० उभय शुद्धि ) । जनावग्रह - २०
व्यंतर-भूत, पिशाच जातिके देवोंको जैनागम मे व्यतर देव कहा गया है । ये लोग वैक्रियिक शरीरके धारी होते है। अधिकतर मध्यलोकके सुने स्थानोंमें रहते है। मनुष्य व तियंचोके शरीर में प्रवेश करके उन्हें लाभ हानि पहुँचा सकते है। इनका काफी कुछ वैभव ब परिवार होता है।
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व्यंतर
१
१
१
१
२
३
व्यतरोंके आहार व श्वासका अन्तराल । व्यंसके धान व शरीरकी शक्ति विक्रिया आदि।
४
५ व्यंतरदेव मनुष्योंके शरीरोंमें प्रवेश करके उन्हें विकृत
४
व्यंतर देव निर्देश
व्यंतर देवका लक्षण
देवोमेद।
किनर किपुरुष आदिके उत्तर भेद
कर सकते है।
६ व्यतरोंके शरीरोंके वर्णं व चैत्य वृक्ष ।
१
२
३
४
५
- दे० वह वह नाम । व्यंतर मरकर कहाँ जन्मे और कौन स्थान प्राप्त करे ।
दे० जन्म / ६ |
७
,
स्वंतरीका जन्म दिव्य पशरीर, आहार, मुख, दु:ख सम्यक्त्वादि ।
-दे० देन 11/२/२०
- दे० वह वह नाम ।
व्यतकी आयु व अवगाहना । -- दे० वह वह नाम । व्यंतरोंमें सम्भव कषाय, लेश्या, वेद, पर्याप्ति आदि । व्यतरोंगे गुणस्थान, मार्गणास्थान आदि की २० प्ररूपणा | व्यंतरों सम्बन्धी सत् सख्या क्षेत्र स्पर्शन काल अंतर भाव व अल्पबहुत्व ।
व्यंतर इन्द्र निर्देश
व्यतर इन्द्रोंके नाम व संख्या । व्यंतरेद्रोंका परिवार ।
व्यंतरोंमें कर्मोंका बन्ध उदय सत्त्व ।
- दे०
- दे० वह वह नाम ।
- दे० सत् ।
की देवियोंका निर्देश
१६ इन्द्रोंकी देवियोंके नाम व संख्या ।
श्री ही आदि देवियोंका परिवार ।
१० वह वह नाम ।
व्यंतर लोक निर्देश
व्यंतर लोक सामान्य परिचय |
निवासस्थानोंके भेद व लक्षण ।
व्यंतरोंके भवनों व नगरों आदि की संख्या ।
भवनों व नगरों आदिका स्वरूप ।
मध्यलोक व्यन्तरों व भवनवासियोंका निवास मध्यलोकमें व्यंतर देवियोंका निवास ।
द्वीप समुद्रोके अधिपति देव ।
भवन आदिका विस्तार
६१०
१. व्यंतरदेव निर्देश
१. व्यंतरदेवका लक्षण
स.सि./४/११/२४३/१० विविधदेशान्तराणि येषा निवासारले 'व्याम्सरा. इत्यन्वर्था सामान्ययमष्टानामपि विकल्पाना जिनका नाना प्रकारके देशो में निवास है, वे व्यन्तरदेव कहलाते है। यह सामान्य संज्ञा सार्थक है जो अपने आठो ही भेदोंमें लागू है। (रा. वा./४/११/९/२१०/१५) ।
२. व्यंतरदेवोंके भेद
१. व्यंतर देव निर्देश
त. सू / ४ / ११ व्यन्तरा किनर किंपुरुषमहोरगगन्धर्वयक्षराक्षसभूत
पिशाचा. [११] व्यन्तरदेव आठ प्रकार के है- किन्नर, किम्पुरुष, महोरग, गन्धर्व, यक्ष, राक्षस, भूत और पिशाच ( ति.प./६/२५ ); { त्रि. सा. / २५१ ) ।
३. व्यंतरोंके आहार व श्वासका अन्तराल
ति प /६/८८-८६ पलाउजुदे देवे कालो असणस्स पंच दिवसाणि । दोणि चिचय शादन्यो दसमाससहस्स आउम्मि ८८ परियोममाउतो पचमुतेहि एदि उसासो सो अजूदाउजुदे बेतरवम्मि असत्त पाहि = पत्यप्रमाण आयुसे युक्त देवोके आहारका काल दिन, और १०,००० वर्ष प्रमाण आयुवाले देवोके आहारका ५ काल दो दिन मात्र जानना चाहिए व्यन्तर देवो में जो पल्यप्रमाण आयुसे युक्त है वे पाँच मुहूर्त्तोमे और जो दश हजार प्रमाण आयुसे संयुक्त है में सात प्राणो (उपवास निश्वासपरिमित काल विशेष दे० गणित //१/४) में उच्छ्वासको प्राप्त करते है | (वि. स. २०१) ।
४. व्यंतरों के ज्ञान व शरीरको शक्ति विक्रिया आदि ति प / ६ /गा. अब बाहिरिती अजुदारदस्स पंचकोसाणि । उक्किट्ठा पण्णासा हेट्ठोवरि पस्समाणस्स || पलिदो माउ जुतो बेतरदेवो तत्तम्मि उपरिग्मि अमीर जीमणार्थ एक्क लक्ख पलोएदि |११| दसवास सहस्साऊ एक्कसय माणुसाण मारेदुं । पोमेदु पि समत्यो एक्केको बेतरी देवो इस पण्णाधियसय
पमा विभहुत सो खेल गिय सत्ती उक्लनिर्ण खवेदि अण्णत्थ | ३ | पल्लदृदि भाजेहि छक्खाणि पि एक्कपलाऊ | मारेदु पोसेदु तेसु समत्यो ठिदं लोय ॥६४॥ उक्कस्से रूपसदं देवो विकरेदि अजुत्ता उदरे सरुवाणि मज्झिमाण |१| ऐसा बेतरदेवा नियणिय ओहीण जेत्तियं खेत्त । पूर तितेतिय पिपत्वक विवरणले संखेज्जजोयगाणि संखेनाऊ य एक्कसमयेण । जादि असंखे जाणि ताणि असंखेज्जाऊ य । १७७ नीचे व ऊपर देखनेवाले दश हजार वर्ष प्रमाण आयुसे युक्त व्यन्तर देवों के जघन्य अवधिका विषय पाँच कोश और उत्कृष्ट ५० कोश मात्र है ||वस्थोपममा आयुसे युक्त व्यन्तरदेव अवधिज्ञान से नीचे व ऊपर एक लाख योजन प्रमाण देखते है । १६१। दश हजार प्रमाण आयुका धारक प्रत्येक व्यन्तर देव एक सौ मनुष्योंको मारने व पालनेके लिए समर्थ है |२| वह देव एक सौ पचास धनुषप्रमाण विस्तार व बाहय से युक्त क्षेत्रको अपनी शक्तिसे उखाडकर अन्यत्र फेंक सकता है | १३ | एक पत्यप्रमाण आयुका धारक प्रत्येक व्यन्तर देव अपनी भुजाओं से छह खण्डों को उलट सकता है और उनमें स्थित लोगोंको मारने व पालने के लिए भी समर्थ है । ६४ । दश हजार वर्षमात्र आयुका धारक व्यंतर देव उत्कृष्टरूपसे सौ रूपोंकी और अन्य रूपसे साठ रूपकी विक्रिया करता है । मध्यमरूपसे वह देव सातसे ऊपर और सौ से नीचे विविध रूपोंको विक्रिया करता है | १५| बाकी के व्यन्तर देवोमेंसे प्रत्येक देव अपने-अपने अवधिज्ञानों का जितना क्षेत्र है
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व्यंतर
३. व्यंतरोकी देवियोका निर्देश
उतने मात्र क्षेत्रको विक्रिया बलसे पूर्ण करते है ।१६। सरख्यात वर्षप्रमाण आयुसे युक्त व्यन्तर देव एक समय मे सरख्यात योजन और असख्यात वर्धप्रमाण आयुसे युक्त अस रख्यात योजन जाता है ।६)
५. व्यतरदेव मनुप्योंके शरीरों में प्रवेश करके उन्हें विकृत कर सकते हैं भ, आ/मू /११७७/१७४१ जदि वा एस ण की रेज्ज विधी तो तत्थ देवदा कोई। आदाय तं कलेवरमुठिज्ज रमिज्ज बोधेज्ज ।१९७७।
यदि यह विधि न की जावेगी अर्थात् क्षपक्के मृत शरीर के अंग बाँधे या छेदे नही जायेगे तो मृत शरीरमे क्रीडा करनेका स्वभाववाला कोई देवता (भूत अथवा पिशाच ) उसमे प्रवेश करेगा । उस प्रेतको लेकर वह उठेगा, भागेगा, क्रीडा करेगा ।१९७७) स्या,मं/११/१३५/१० यदपि च गयाश्राद्वादियाचनमुपलभ्यते, तदपि तादृश विप्रलम्भकबिभगज्ञानिव्यन्तरादिकृतमेव निश्चेयम् । = बहुतसे पितर पुत्रोके शरीरमें प्रविष्ट होकर जो गया आदि तीर्थ स्थानोमे श्राद्ध करनेके लिए कहते है, वे भी कोई ठगनेवाले विभ गज्ञानके धारक व्यन्तर आदि नीच जातिके देव ही हुआ करते है।
२. व्यंतरेन्द्रोका परिवार ति, ५/६/६८ पडिइदा सामणिय तणुरक्खा हो ति तिणि परिसाओ। सत्ताणीय-पइणा अभियोगं ताण पत्तेय ।६८। - उन उपरोक्त इन्द्रोमेसे प्रत्येकके प्रतीन्द्र, सामानिक, तनुरक्ष, तीनो पारिषद, सात अनीक. प्रकीर्णक और आभियोग्य इस प्रकार ये ८ परिवार देव होते है (और भी दे० ज्योतिष/१/५) । दे० व्यतर/३/१ (प्रत्येक इन्द्रके चार-चार देवियाँ और दो-दो महत्तरिकाएँ होती है।)
प्रत्येक इन्द्र के अन्य परिवार देवो का प्रमाण - (ति. प/६/६६ ७६ ): (त्रि सा /२७६-२८२) ।
| परिवार देवका
नाम
गणना नं० परिवार देवका नाम गणना
१
४००० १६०००
६. व्यंतरोंके शरीरोंके वर्ण व चैत्य वृक्ष
ति ५/६/गा, नं. (त्रि. सा./२५२-२५३)
१ प्रतीन्द्र
सामानिक आत्मरक्ष
अभ्यतर पारि० ५ मध्य पारि० ६ बाह्य पारि०
अनीक
प्रत्येक अनीक्की प्रथम कक्षा
२८००० द्वि० आदि कक्षा दूनी दूनी हाथी (कुल) ३५५६००० सातो अनीक २४८६२००० प्रकोणक
असख्य आभियोग्य व | , (त्रि.सा. किल्विष
११
१०,००० १२,०००
१२
वर्ण ।
नाम गा २५
वर्ण वृक्ष ! नाम । गा.५५-५६, गा २८ । गा २५
५७-५८
गा.
वृक्ष गा २८
किन्नर प्रिय गु किम्पुरुष महोरम | श्याम
सुवर्ण
| यक्ष
राक्षस
अशोक चम्पक नागद्रुम तुम्बुर
श्याम | न्यग्रोध | श्याम कण्टक वृक्ष श्याम तुलसी कज्जन्न कदव
३. व्यंतरोंकी देवियोका निर्देश
गन्धर्व
पिशाच
२.१६ इन्द्रोंकी देवियों के नाम व संख्या (ति ५/६/३५-५४), (त्रि. सा./२५८ २७८ ) ।
गणिका
बल्लभिका
नं० इन्द्रका नाम --
न०१
न०२ .
न०१
नं०२
२. व्यंतर इन्द्र निर्देश
१. व्यन्तरोंके इन्द्रोंके नाम व संख्या ति. प /६/गा ताणं किपुरुसा क्णिरा दुवे इदा ॥३५॥ इय क्पुिरिसाजिंदा सप्पुरुसो ताण सह महापुरिसो।३१ महोरगया। महाकाओ अतिकाओ इंदा ३६गधव्वा । गोदरदी गीदरसा इंदा।४१ ताण वे माणिपुग्णभहिंदा ।४३३ रवरखमइदा भीमो महाभीमो॥४५॥ भूदिदा सरूवो पडिरूवो ।४। पिसाचइदा य कालमहाकाला ।४। सोलसमोम्हिदाण किणरपहुदोग होति ।५०। पढमुच्चारिदणासा दक्षिण इंदा हब ति एदेसु । चरिद उच्चारिदणामा उत्तरइदा पभावजुदा ॥१६॥ (त्रि सा./२७३-२७४) ।
किपुरुष किन्नर
८
देवका
| देवका नाम । दक्षिणेद्र
उत्तर द्र
मधुरा
सुस्वरा सत्पुरुष पुरुषाकाता
महापुरुष पुरुषदर्शिनो ५ महाकाय भोगवती
अतिकाय | भुजगप्रिया गीतरति सुघोषा गीतरस
सुस्वरा | मणिभद्र भद्रा १० पूर्णभद्र | पद्ममालिनी
भोम सर्व सेना महाभीम रुद्रवती
भूतकान्ता प्रतिरूप भूतरक्ता १५ काल कला १६ महाकाल
सुरसा
मधुरालापा अबत सा केतुमती मृदुभाषिणी रतिसेना | रतिप्रिया सोम्याराहिणी नवमी भोगा ही | पुष्पवती भुजगा भोगाभोगवती विमला आनन्दिता पुष्पगधी अनिन्दिता सरस्वती स्वरसेना सुभद्रा नन्दिनी । प्रियदर्शना मालिनी कुन्दा बहुपुत्रा सर्वश्री तारा
उत्तमा रुद्रा
वसुमित्रा भूता रत्नाड्या चनप्रभा महावाह रूपवती बहरूपा अम्बा
सुमुखी सुसीमा
कमला कमल प्रभा सदनिका उत्पला सदर्शना
दक्षिणे द्र । उत्तरेद्र
नाम
पद्मा
किन्नर
१२
क्पुिरुष महोरग
किपुरुष किन्नर यक्ष मणिभद्र सत्पुरुष महापुरुष
| राक्षस भीम महाकाय | अतिकाय भूत स्वरूप गातरति गोतरस पिशाच काल
पूर्ण भद्र महाभीम प्रतिरूप महाकाल
8
गधव
रसा
इस प्रकार किन्नर आदि सालह व्यन्तर इन्द्र है।५॥
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व्यंतर
६१२
४. व्यंतर लोक निर्देश
. श्री ही आदि देवियोंका परिवार ति प/४/गा का भावार्थ- हिमवान् आदि ६ कुन्नधर पर्वतोके पद्म
आदि ६ ह्रदो में श्री आदि ६ व्यतर देवियाँ सपरिवार रहती है। तहाँ श्री देवी के सामानिक देव ४००० (गा १६७४), त्रायस्त्रिा १०८ (गा १६८६), अभ्यतर पारिषद ३२००० (गा १६७८), मध्यम पारिषद ४०,००० (गा १६७६) बाह्य पारिषद ४८००० (गा १६८०), आत्मरक्ष १६००० (गा. १६७६), सप्त अनीकमें प्रत्येक को सात-सात कक्षा है। प्रथम कक्षामे ४००० तथा द्वितीय आदि उत्तरोत्तर दूने-दूने है। (गा १६८३)। हो देवीका परिवार श्रीके परिवारसे दूना है (गा १७२६)। [धृतिका ह्रीसे भी दूना है। ] कीर्तिका धृतिके समान है। (गा, २३३३) बुद्रिका कोतिसे बाधा अर्थात् होके समान। (गा,२३४५) और लक्ष्मीका श्रीके समान है (गा २३६१)।-(विशेष दे० लोक/३/६ )।
३. व्यंतरोंके भवनों व नगरों आदिकी संख्या ति ५/६/गा. एवविहरूवाणि तीस सहस्साणि भवणाणि ।२०। चोदससहस्समेत्ता भवणा भूदाण रबरबसाण पि। सोलससहस्ससवा सेसाण णथि भवणाणि ।२६। जोयणसदत्तियदीजिदे पदरस्स सखभागम्मि । ज ल द त माण बेतरलोए जिणपुराण । -१ इस प्रकारके रूपवाले ये प्रासाद तीस हजार प्रमाण है ।२० तहाँ (खरभागमें ) भूतोके १४००० प्रमाण और (पंकभागमें ) राक्षसोके १६००० प्रमाण भवन है ।२६। (ह. पु/४/६२), (त्रि. सा /२१०), (ज.प/११/ १३६)। २. जगत्प्रतरके सरख्यातभागमें ३०० योजनके वर्गका भाग देनेपर जो लब्ध आवे उतना व्यन्तरलोकमे जिनपुरोका प्रमाण है ।१०२॥
१. भवनों व नगरों आदिका स्वरूप
४. व्यंतर लोक निर्देश
१. व्यंतर लोक सामान्य परिचय ति ५/६/५ रज्जुकदी गुणिदबा णवणउदिसहस्स अधियलवखेण ।
तम्मज्झे तिषियप्पा बेतरदेवाण होंति पुरा राजुके वर्गको १६६००० से गुणा करनेपर जो प्राप्त हो उसके मध्यमें तीन प्रकारके पुर होते है ।।
त्रि. सा /२६५ चित्तबइरादु जावय मेरुदय तिरिय लोय वित्थार ।
भोम्मा हवं ति भवणे भवणपुरावासगे जोग्गे ।२६६। - चित्रा और वज्रा पृथिवीर्की मध्यस धिसे लगाकर मेरु पर्वतकी ऊँचाई तक, तथा तिर्यक् लोकके विस्तार प्रमाण लम्बे चौडे क्षेत्र में व्यतर देव भवन भवनपुर और आवासोमे वास करते है ।२६६।।
का, अ/मू./१४५ 'खरभाय पकभाए भावणदेवाण होति भवणाणि । वितरदेवाण तहा दुण्ह पि य तिरियलोयम्मि १४५६ खरभाग
और पकभागमें भवनवासी देवोंके भवन है और व्यंतरोके भी निवास है। तथा इन दोनोके तिर्यकलोकमे भी निवास स्थान है। ।१४५। (पकभाग-८४००० यो., खरभाग-१६००० यो, मेरुकी पृथिवीपर ऊँचाई-६६००० यो । तीनौका योग =१६६००० यो.। तिर्यक् लोकका विस्तार १ राजु२। कुल घनक्षेत्र-१ राजु२४१६. १००० यो.]।
ति. ५/६/गा का भावार्थ । १. भवनों के बहुमध्य भागमे चार वन और तोरण द्वारो सहित कूट होते है ।११। जिनके ऊपर जिनमन्दिर स्थित है ।१२। इन कूटोके चारो और सात आठ मजिले प्रासाद होते है। ११८। इन प्रासादोका सम्पूर्ण वर्णन भवनवासी देवोके भवनोके समान है ।२०। ( विशेष दे० भवन/४/५); त्रि सा./२६६)। २. आठो व्यतरदेवोके नगर क्रमसे अंजनक वज्रधातुक, सुवर्ण, मन शिलक, वज्र, रजत, हिगुलक और हरिताल इन आठ द्वीपोमे स्थित है।६० द्वीपको पूर्वादि दिशाओमे पाँचपाँच नगर होते हैं. जो उन देवोंके नामोसे अकित है। जैसे किन्नरप्रभ, किन्नरक्रान्त, किन्नरावर्त, किन्नरमध्य ।६१। जम्बूद्वीपके समान इन द्वीपो में दक्षिण इन्द्र दक्षिण भागमें और उत्तर इन्द्र उत्तर भागमें निवास करते है।६२। सम चौकोण रूपसे स्थित उन पुरोके सुवर्णमय कोट विजय देवके नगरके कोटके (दे० अगला सन्दर्भ) चतुर्थ भागप्रमाण है ।६३। उन नगरोके बाहर पूर्वादि चारो दिशाओमें अशोक, सप्तच्छद, चम्पक तथा आम्रवृक्षोके वन है।६४। वे वन १०००,०० योजन लम्बे और ५०,००० योजन चौड़े है।६। उन नगरों में दिव्य प्रासाद है।६६ [प्रासादोका वर्णन ऊपर भवन व
भवनपुरके वर्णनमे किया है।] (त्रि, सा./२८३-२८६)। ह पु.// श्लोकका भावार्थ-विजयदेवका उपरोक्त नगर १२ योजन
चौडा है । चारो ओर चार तोरण द्वार है। एक कोटसे वेष्टित है। ३६७-३६६। इस कोटकी प्रत्येक दिशामे २५-२५ गोपुर है।४००। जिनको १७-१७ मजिल है।४०२। उनके मध्य देवोकी उत्पत्तिका स्थान है जिसके चारो ओर एक वेदिका है।४०३-४०४। नगरके मध्य गोपुरके समान एक विशाल भवन है।४०५। उसकी चारो दिशाओमें अन्य भी अनेक भवन है। ४०६। (इस पहले मण्डल की भाँति इसके चारो तरफ एकके पश्चात एक अन्य भी पाँच मण्डल है)। सभी में प्रथम मडलकी भॉति ही भवनोकी रचना है। पहले, तीसरे व पाँचवे मण्डलोके भवनोका विस्तार उत्तरोत्तर आधा-आधा है। दूसरे, चौथे व छठे मण्डलोके भवनोका विस्तार क्रमश. पहले, तीसरे व पाँचवे के समान है।४०७-४०३। बीचके भवन में विजयदेवका सिंहासन है ।४११। जिसकी दिशाओं और विदिशाओमे उसके सामानिक आदि देवों के सिंहासन है ।४१२-४१५। भवनके उत्तरमे सुधर्मा सभा है ।४१७। उस सभाके उत्तर में एक जिनालय है, पश्चिमोत्तरमें उपपार्श्व सभा है। इन दोनोका विस्तार सुधर्मा सभाके समान है। 1४१८-४१४। विजयदेवके नगरमे सब मिलकर ५४६७ भवम है ।४२०॥ ति. प./४/२४५०-२४५२ का भावार्थ-लवण समुद्रकी अभ्यंतर वेदीके ऊपर तथा उसके बहुमध्य भागमे ७०० योजन ऊपर जाकर आकाशमें क्रमसे ४२००० व २८००० नगरियाँ है।
२. निवासस्थानोंके भेद व लक्षण ति. ५/६/६-७ भवणं भवणपुराणि आवासा इय भवेति तिवियप्पा ।
६। रयणप्पहपुढवीए भवणाणि दीउवहिउवरिम्मि। भवणपुराणि दहगिरि पहूदीणं उपरि आवासा 1७1 -(व्यतरोके ) भवन, भवनपुर व आवास तीन प्रकारके निवास कहे गये है।६। इनमेसे रत्नप्रभा पृथिवीमे अर्थात खर व पक भागमें भवन, द्वीप व समुद्रोके ऊपर भवनपुर तथा द्रह एव पर्वतादिके ऊपर आवास हाते है। (त्रि सा/
२६४.२६५)। म. पु./३१/११३ वटस्थानवटस्थांश्च कूटस्थान कोटरोटजान् । अक्षपाटात्
क्षपाटाश्च विद्धि म साई सर्वगान् ।११३। - हे सार्व (भरतेश)' बटके वृक्षोंपर, छोटे छोटे गड्ढोमे, पहाडोके शिखरोपर, वृक्षोकी खोलो और पत्तोकी झोपडियो में रहनेवाले तथा दिन रात भ्रमण करनेवाले हम लोग्नेको आप सब जगह जानेवाले समझिए।
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व्यंतर
५. मध्यलोक में ग्यन्तरो व भवनवासियोंके निवास
ति./४/गा, नं०
ति प
४/गा
२५
७७
८६
१४०
१४३
१६४
२०५
१६५४
१६६३
中学
१७१२
१७२६
१७३३
१७४५
рово
१७६८
१६०२-१६०० पद्म
१८४३
१८४७
१८५१
१६१७
१६८४
१६६४
जम्बूद्वीपको
जगतीका महोरग
अभ्यन्तर भाग
उपरोक्त जगतीका विजय द्वारके विजय ऊपर आकाश में
उपरोक्त ही अन्य द्वारोपर अन्य देव विजया दोनो पा अभियोग्य उपरोक्त श्रेणीका दक्षिणोत्तर सौधर्मेंद्र के वाहन
भाग
वार्थ के कूट
वृषभ गिरिके ऊपर हिमवान्तके १० फूट
२०५३
२०५८
२०६१
२०८४
पद्म हदके
कूट
पद्म हृदके जल में स्थित कूट
२०१२
२०६६ २१०३-२१०८
हरि क्षेत्र में विजयवान् नाभिगिरि चारण
निषेध पर्वतके आठ कूट निषेध पर्वत तिहि व्यतर बाह्य ५ कूट १८३६-२०१६ सुमेरु पर्वतापवनको लोकपाल पूर्व दिशा
सोम
उपरोक्त वनकी दक्षिण दिशा
पश्चिम
स्थान
हैमवत क्षेत्रका शब्दवान् पर्वत
महाहिमवान् पर्वतके ७ कूट
महापद्म के बाह्य ५ कूट
יי
"
"
37
११
१६६८
उपरोक्त वनका बलभद्र कूट २०४२ २०४४ सौमनस गज कूट गजदन्तके ६
"
उपरोक्त वनका बलभद्र कूट सुमेरु पर्वतके नन्दन नेमकी
चारो दिशाओ
11
उत्तर
"1
की वापियोके
चहुँ ओर ९६४३-१६४६] सुमेरु पर्वत के सौमनस पनकी उपरोक्त
चारो दिशाओ में
लोकपाल
गिजदन्त फूट
गन्धमादन गजदन्तके ६ कूट . ८ कूट
माल्यवान 19
देव कुरुके २ यमक पर्वत देवकुरुके १० होने कमल
देवकुल काचनप
देव
दिग्गज पर्वत
अन्तर
वृषभ
सौधर्मेंद्र के परिवार
यम
वरुण
कुबेर
देव
बलभद्र
उपरोक्त लोकपाल
उतर
नगर
नगर
व्यतर सपरिवार श्री भवन देवी
शाली
11
फूटोके नाममाले नगर
व्यंतर
नगर
20
४
भवन
कूटोके नामवाले नगर
नगर
वलभद्र टोके नामवाले देव
पर्वतके नाम होके नामवारी
२११३ अनादि २१२४
नगर
काचन
यम (वाहनदेव)
नगर
श्रेणी
99
भवन
भवन
नगर
बाले देव वाहनदेव
२१३१-२१३५ उत्तर दि
भवन २१५८-२१६० देवकुरुमें शाल्मली वृक्ष व सपरिवार वेणु उसका परिवार
उत्तरकुरु सपरिवार जवृक्ष
भवन
11
35
पुर
४ भवन
39
भवन
पुर
31
"
व
६१३
"
वि.प./
४ / गा.
11
२१६७
२२६६-२३०३ २३०६ - २३११
२३२६
२३३०
२३३६
२३४३
२३५१ २३५६
२६
२३१५- २३२४ पूर्व व अपर विदेहके मध्य व पूर्व पश्चिम स्थित देवशरण्यक
२४५६
우상들은
२४७३ - २४७६
२५३६
२०१६
२७७५
ति. प./५/
गा. ७६.८१
१२५ १३८
१७०
स्थान
देवकुरुके दिग्गज पर्वत उत्तर कुरुके २ यमक
१८०
२०६
२३६
४. व्यंतर लोक निर्देश
व भूतारण्यक वन नील पर्वत के आठ कूट
रम्यक क्षेत्रका नाभि गिरि
रुक्मि पर्वत ७ कूट
हैरण्यवत क्षेत्रका नाभिगिरि
देव
विदेहके कच्छा देशके विजयार्थ बाहनदेव के आठ कूट
वरुण (वाहन देव) भवन पर्वतके नाम
[इसी प्रकार शेष २९ विजया]
विदेहके आठ वक्षारोके तीन- व्यंतर तीन कूट
युगता सपरिवार
रुचकवर
पर्वतकी दिशाओमे चार कूट असख्यात द्वीप समुद्र जाकर द्वितीय जम्बूद्वीप पूर्वदिशा के नगर के प्रासाव
जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश
आदर - अनादर
खोधर्मेन्द्रका
परिवार
कूटोके नामवाले
प्रभास
कूटोंके नामवाले (भरत)
शिखरी पर्वतके १० फूट
ऐरावत क्षेत्र के विजयार्थ पभ
गिरि आदि पर
२४४६ - २४५४ लवण समुद्रके ऊपर आकाश में वेलंधर व भुजग नगर
स्थित ४२००० व २८००० नगर उपरोक्त हो अन्य नगर सणसमुझमे स्थित आठपट लवणसमुद्रमे स्थित मागध व प्रभास द्वीप
मागध
प्रभास
धातकी खण्डके २ इष्वाकार व्यतर पोटीन-तीन कूट
सर्व पर्वत आदि मानुषोर पर्वत १८ कूट
देव
बेघर
नन्दीश्वर द्वीपके ६४ वनोमेसे व्यतर प्रत्येक में एक-एक भवन कुण्डलगिरि १६ फूट कुण्डल गिरिडी चारों दिशाओ में ४ कूट
11
विजय आदि देव
विजय अशोक
२३७
दक्षिणादि दिशाओ मे
वैजयतादि
ति प /५/ सब द्वीप समुद्रोके उपरिम भाग उन उनके स्वामी
५०
कूटोके नामवाले कुण्डलद्वीप के अधिपति
चारो चार दिग्गजेन्द्र
भवनादि
19
::
"
11
19
११
नगर
भवन
:::::::
31
भवन
91
09
11
भवन
नगर
आवास
नगर
भवन
19
नगर
नगर
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व्यंतर
४. व्यंतर लोक निर्देश
६. मध्यलोकमें व्यंतर देवियोंका निवास
ति. प //
ति.प./४/
देवी
स्थान
भवनादि
स्थान
।
देवी
भवनादि
२०५६
२०६२
२०४ | गंगा नदीके निर्गमन स्थानकी दिक्कुमारिया | भवन | २०४३ सौमनस गजदन्त विमलकूट श्रीवत्समित्रा निवास समभूमि
२०५४ विद्य त्प्रभ गजदम्तका स्वस्तिक बला गंगा नदीमे स्थित कमलाकार | बला
..का कनककूट वारिषेणा जम्बूद्वीपकी जगतीमें गंगा नदी | दिक्कुमारी
गन्धमादन गजदन्तपर लोहितकूट भोगवती के बिलद्वारपर
.. , स्फटिक कूट भोगंकृति सिन्धु नदीके मध्य कमलाकार अवना या लवणा
माल्यवान् गजदन्तपर सागरकूट | भोगवती कूट
.. , रजतकूट भोगमालिनी हिमवान् के मूल में सिन्धुकूट सिन्धु
२१७३
| शाल्मलीवृक्ष स्थलकी चौथी वेणु युगलकी हिमवान् पर्वतके ११ मे से ६ कूट | कूटके नामवाली
भूमिके चार तोरण द्वार । देवियों १६७२ पद्म ह्रदके मध्य कमलपर
जम्बूवृक्ष स्थलकी भी चौथी आदर युगलकी १७२८ महा पद्म हृदके ,, ... ह्री
भूमिके चार तोरण द्वार देवियाँ १७६२ तिगिछ......
धृति
|ज.प.// देवकुरु व उत्तरकुरुके २० दहोके | सपरिवार नील- भवन १९७६ सुमेरु पर्वतके सौमनस वनकी मेध करा आदि ८ निवास| ३१-४३ । कमलोंपर ।
कुमारी आदि चारो दिशाओमे ८ कूट
ति. प./५/ रुचकवर पर्वतके ४४ कूट दिक्कन्याएँ | २०४३ | सौमनस गजदन्तका काचन कूट | सुबत्सा
१४४-१७२ .. द्वीप समुद्रोंके अधिपति देव (ति. प/५/३८-४६); (ह, पु./५/६३७-६४६); (त्रि. सा./६६१.६६५) संकेत-द्वो-द्वीप; सा=सागर, --जो नाम इस ओर लिखा है वही यहां भी है।
मलपर
श्री
'
-
ति प./४/३८-४६
ह पु/५/६३७-६४६
त्रि. सा./६६१-६६५
द्वीप या समुद्र
दक्षिण
उत्तर
दक्षिण
उत्तर
दक्षिण
उत्तर
आदर प्रभास प्रिय काल पद्म चक्षु
अनावृत सुस्थित
प्रियदर्शन
अनादर प्रियदर्शन दर्शन महाकाल पुण्डरोक सुचक्षु
पद्म
पुण्डरीक
जंबू द्वी० लवण सा धातकी कालोद पुष्करार्ध मानुष्ोत्तर पुष्कराध पुष्कर सा० वारुणीवर द्वी०
सा क्षीरवर द्वी०
, सा० धृतवर द्वी०
1x1
चक्षुष्मान
सुचक्षु
श्रीप्रभु
वरुण मध्य पाण्डुर विमल प्रभ सुप्रभ उत्तर कनक
विमल सुप्रभ कनक
सा०
क्नक
श्रीधर वरुणप्रभ मध्यम पुष्पदन्त विमल घृतवर महाप्रभ कनकाम पूर्णभद्र महागन्ध नदिप्रभु सुभद्र अरुणप्रभ सर्वगन्ध
कनकप्रभ पुण्यप्रभ
क्षौद्रवर द्वी०
सा०
गन्ध नन्दी
विमलप्रभ महाप्रभ कनकाभ पूर्ण प्रभ महागन्ध नन्दीप्रभ सुभद्र अरुणप्रभ सर्वगन्ध
नदीश्वर द्वी०
गन्ध
नन्दि
भद्र
अरुण
अरुणवर द्वी
सा०
सुगन्ध
चन्द्र अरुण सुगन्ध → कथन नष्ट है -
अरुणाभास द्वी अन्य
जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश
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व्यंतर
८. भवनों आदिका विस्तार
१. सामान्य प्ररूपणा
ति प./६/गा का भावार्थ - १. उत्कृष्ट भवनो का विस्तार और बाहल्य क्रमसे १२००० व ३०० योजन है । जघन्य भवनोका २५ व १ योजन अथवा १ कोश है 1८-१० उत्कृष्ट भवनपुरोका ५१०००,०० योजन और जघन्यका १योजन है | २१ | [त्रि सा / ३०० मे उत्कृष्ट
२. विशेष प्ररूपणा
ति प/४/गा.
२५-२८
३०
३२
७४
७७
१६६
२२५
१६५३
१६७१
१७२६
१७५६
१०३६-३७
१६४४
१६६५
२०५०
२१०७
२१६२
२१८५ २५४०
८०
१४७
१८१
१८५
१८६
१६५
११५ २३२-२३३ ति प / ६ / गा.
७६
स्थान
[जी] जगतीपर जगतीपर
विजय द्वार
विजयार्थ
गंगाकुण्ड
हिमवास
पद्म हद
अन्य हृद
महाहिमवान आदि
पांडुकवन
सौमनस
नन्दन
यमकगिरि
दिग्गजेंद्र
शाल्मली वृक्ष
" स्थल
इष्वाकार
मंदीश्वरके बनोगे रुचकबर द्वी. द्विजम्बूद्वीप विजयादिके
उपरोक्त नगरके
उपरोक्त नगरके मध्य
उपरोक्त नगरके प्रथम दो
मडल
तृ० चतु० मडल चैत्य वृक्षके बाहर
तरोंकी गणिकाओके
भवनादि
भवन
पुर
नगर
प्रासाद
भवन
भवन
भवनं
प्रासाद
पुर
भवन
प्रासाद
भवन
प्रासाद
भवन
नगर
भवन
प्रासाद
33
नगर
६१५
व्यकलनाना या Substraction- (दे० गणित / II / ४१० ।।
व्यक्त राग-३० / ३
व्यक्ति
म्या. सू./२/२/१४ व्यक्तिगुणविशेषायमूर्ति
ज. उ.म.
व्यक्ति
भवनपुरका विस्तार १०००,०० योजन बताया है ।] उत्कृष्ट आवास १२२०० योजन और जघन्य ३ कोश प्रमाण विस्तारवाले है । ( त्रि. सा. / २८-३०० ) । [ नोट - ऊँचाई सर्वत्र लम्बाई व चौडाईकेमध्यवर्ती जानना, जैसे १०० यो लम्बा और ५० यो. चौडा हो तो ऊँचा ७५ यो होगा। कूटाकार प्रासादोका विस्तार मूलमें मध्य २ और ऊपर १ होता है। ऊँचाई मध्य विस्तारके समान होती है।
ज.
उ.
आकार
जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश
चौकोर
कूटाकार चौकोर
11
::::
::::
::::
१
17
"
31
लम्बाई
१०० घ
३०० ध. २०० ध.
X
१२००० यो०
१ को.
X
१ को
२० को
X
१२५ को,
१ को
३१ यो
१२००० यो.
२.यो.
X
X
३००० ध.
३१ यो. १/२ को.
पद्म हदसे उत्तरोत्तर दून। → हिमवानसे उत्तरोत्तर दूना | १५ को १ को. → पांडुवनवासे दुगुने - → सौमनस वालेसे दुगुने - १२५ को. २५० को, ६२३ को. ९३३ को. १/२ को. ३/४ को, निषेध पर्वतवत् ←| ३१ यो, ६२ यो, → गौतमदेव के भवन के समान ← (६००० यो ) ३१ यो १२५ बो
X
→ मध्य प्रासादवत् ←---
४०००यो
चौडाई
1
५० ध
१५० ध. १०० ध २ यो.
६००० यो.
१/२ को
ऊँचाई
७५ ध. २२. १५० ध
४ यो.
३/४ को.
२००० ध
६२३ यो.
३/४ को.
२५० यो.
→ मध्य प्रासादसे आधा ← ३१३ यो.
८४००० यो.
६२३ यो.
१.
ग्रहण
न्या. सू./भा/९/२/६/२४२/१६ व्यक्तिमा करने योग्य विशेषगुणोको आश्रयरूप मूर्ति व्यक्ति है । २. अथवा स्वरूपके लाभको व्यक्ति कहते है।
म्या वि. /वृ/१/१९२/४२६/९६ व्यक्तिरच समान रूपे 'यश्यत इति व्यक्ति" इति व्युत्पते। जो व्यक्त होता है उसे व्यक्ति कहते हैं ऐसी व्युत्पत्ति होने के कारण दृश्यमान रूप व्यक्ति है ।
X
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व्यतिकर
६१२
व्यभिचार
न्या. वि ./१/३४/२५७/१४ अनभिव्यक्ति अप्रतिपत्ति ।- अप्रतिपत्ति
अर्थात वस्तुके स्वरूपका ज्ञान न होना अनभिव्यक्ति है । व्यतिकरस्या मं/२४/२१२/११ येन स्वभावेन सामान्य तेन विशेष', येन विशेषस्तेन सामान्यमिति व्यतिकर । पदार्थ, जिस स्वभावसे सामान्य है उसी स्वभावसे विशेष है और जिस स्वभावसे बिशेष है उसीसे सामान्य है अनेकान्तवादमें यह बात दर्शाकर नैयायिक लोग इस सिद्वान्तमें व्यतिकर दोष उठाते है। स. भ त./८२/८ परस्परविषयगमन व्यतिक्र । == जिस अवच्छेदक स्वभावसे अस्तित्व है उससे नास्तित्व क्यो न बन बैठे और जिस स्वभावसे नास्तित्व नियत किया है उससे अस्तित्व व्यवस्थित हो जाय । इस प्रकार परस्परमें व्यवस्थापक धर्मोंका विषयगमन करनेमे
अनेकान्त पक्षमें व्यतिकर दोष आता है, ऐसा नैयायिक कहते है। व्यतिक्रम-सामायिक पाठ । अमितगति/ह व्यतिक्रम शीलवतेवि
लड्धनम् । -शील व्रतोंका उल्लंघन करना व्यतिक्रम है। व्यतिरेकरा वा./४/४२/११/२५२/१६ अथ के व्यतिरेका । वाग्विज्ञानव्यावृत्तिलिङ्गसमधिगम्यपरस्परविलक्षणा उत्पत्तिस्थितिविपरिणामवृद्धिक्षयविनाशधर्माण गतीन्द्रियकाययोगवेदक्षायज्ञानस यमदर्शनलेश्यासम्यक्त्वादय । -व्यावृत्ताकार अर्थात भेद द्योतक बुद्धि और शब्दप्रयोगके विषयभूत परस्पर विलक्षण उत्पत्ति, स्थिति, विपरिणाम, वृद्धि, ह्रास, क्षय, बिनाश, गति, इन्द्रिय, काय, योग, वेद, कषाय, ज्ञान, दर्शन, सयम. लेश्या, सम्यक्त्व आदि व्यतिरेक धर्म है। प मु/४/९ अर्थान्तरगतो विसदृशपरिणामो ब्यतिरेको गोमहिषादिवत् ।
-भिन्न-भिन्न पदार्थोमे रहनेवाले विलक्षण परिणामको व्यतिरेक विशेष कहते है, जैसे गौ और भेस । दे० अन्वय-(अन्वय ष व्यतिरेक शब्दसे सर्वत्र विधि निषेध जाना जाता है।)
२. व्यतिरेकके भेद पं.ध./पू /भाषाकार/१४६ द्रव्यक्षेत्र काल व भावसे व्यतिरेक चार प्रकारका होता है। विशेष दे० सप्तभंगी। ३. व्यके धर्मों या गुणों में परस्पर व्यतिरेक नहीं है पं.ध./पू /श्लो ननु च व्य तिरेकत्व भवतु गुणाना सदन्वयत्वेऽपि । तद-
नेकत्वप्रसिद्धौ भावव्यतिरेक्त सतामिति चेत् ।१४५॥ तन्न यतोऽस्ति विशेषो व्यतिरेकस्यान्वयस्य चापि यथा । व्यतिरेकिणो ह्यनेकेऽप्येक स्यादन्वयी गुणो नियमाद ।१४६। भवति गुणांश कश्चित् स भवति नान्यो भवति स चाप्यन्य । सोऽपि न भवति तदन्यो भवति तदन्योऽपि भावव्यतिरेक 1१५० तल्लक्षणं यथा स्याज्ज्ञानं जीवो य एष ताश्चि । जीवो दर्शनमिति वा तदभिज्ञानात एव तावाश्च ॥१५॥ प्रश्न-स्वत सत् रूप गुणो में सत् सत् यह अन्वय बराबर रहते हुए भी, उनमें परस्पर अनेक्ताकी प्रसिद्धि होनेपर उनमे भावव्यतिरेक हेतुक व्यतिरेकत्व होना चाहिए ?।१४। उत्तर-यह कथन ठीक नही है, क्योंकि अन्वयका और व्यतिरेकका परस्परमें भेद है। जैसे-नियमसे व्यतिरेकी अनेक होते है और अन्वयी गुण एक होता है ।१४६। [भाव व्यतिरेक भी गुणों में परस्पर नहीं होता है, बल्कि ] जो कोई एक गुणका अविभागी प्रतिच्छेद है, बह वह ही होता है, अन्य नही हो सकता, और वह दूसरा भी वह पहिला नहीं हो सकता, किन्तु जो उससे भिन्न है वह उससे भिन्न हो रहता है ।१५०। उसका लक्षण और गुणोमे भावव्यतिरेकका अभाव इस प्रकार है, जैसे कि जो ही और जितना ही जीव ज्ञान है वही तथा उतना ही जीव एकत्व प्रत्यभिज्ञान प्रमाणसे दर्शन भी है ।१५॥
* पर्याय व्यतिरेकी होती है -दे पर्याया। * अन्वय व्यतिरेकमें साध्यमाधक माव -दे मप्तभगी। व्यतिरेक व्यास अनुमान-दे अनुमान । व्यतिरेको दृष्टांत-दे. दृष्टात । व्यतिरेकी हेतु-दे हेतु। व्यधिकरण-किसी एक धीमे एक धर्म रहता है और अन्य कोई धम नही रहता। तब वह अभावभूत धर्म उस पहले धर्मका व्यधि
करण कहलाता है। जेसे पटत्व धर्म घटत्वका व्यधिकरण है। व्यभिचाररा वा/१/१२/१४५३/५ अतस्मिस्तदिति ज्ञान व्यभिचार' 1 = अतत्को तद रूपसे ग्रहण करना व्यभिचार है।
२. व्यभिचारी हेत्वाभास सामान्यका लक्षण प.मु /६/३० विपक्षेऽप्यविरुद्धवृत्तिरने कान्तिक' १३० =जो हेतु पक्ष,
विपक्ष व सपक्ष तीनोमे रहे उसे अनै कान्तिक कहते है। न्या दी /३/६४०/८६/११ सव्यभिचारोऽकान्तिक (न्या, सूम। १/२/५) यथा-'अनित्य शब्द प्रमेयत्वात' इति । प्रमेयत्वं हि हेतु साध्यभूतमनित्यत्व व्यभिचरति, गगनादौ विपक्षे नित्यत्वेनापि सह वृत्ते । ततो विपक्षाव्यावृत्त्यभावादनै कान्तिक । पक्षसपक्षविपक्षवृत्तिरनै कान्तिक। -जो हेतु व्यभिचारी हो सो अनै कान्तिक है। जैसे-'शब्द अनित्य है, क्योकि वह प्रमेय है', यहाँ 'प्रमेयत्व' हेतु अपने साध्य अनित्यत्वका व्यभिचारी है। कारण, आकाशादि विपक्षमे नित्यन्बके साथ भी वह रहता है । अत विपक्षसे व्यावृत्ति न होनेसे अनेकान्तिक हेत्वाभास है।४०। जो पक्ष, सपक्ष और विपक्षमे रहता है वह अनैकान्तिक हेत्वाभास है।६२।
३. व्यभिचारी हेत्वामासके भेद न्या दो./३/९६३/१०१ स द्विविध -निश्चितविपक्षवृत्तिक' शङ्कितविपक्षवृत्तिकश्च । - बह दो प्रकारका है-निश्चित विपक्षवृत्ति और शकित विपक्षवृत्ति।
४. निश्चित व शंकित विपक्ष वृत्तिके लक्षण प.मु /६/३१-३४ निश्चितविपक्षवृत्तिरनित्य शब्द प्रमेयत्वात् घटक्व ॥३१॥ आकाशे नित्येऽप्यस्य निश्चयात् ।३२३ शङ्कितवृत्तिस्तु नास्ति सर्वज्ञो वक्तृत्वात ।३३। सर्वज्ञत्वेन वक्तृत्वाविरोधात ३४। - जो हेतु विपक्षमें निश्चित रूपसे रहे उसे निश्चित विपक्षवृत्ति अनै कान्तिक कहते है। जैसे-शब्द अनित्य है, क्योकि प्रमेय है जैसे घडा ।३१-३२॥ जो हेतु विपक्षमें सशयरूपसे रहे उसे शकितवृत्ति अनेकान्तिक कहते है। जैसे-सर्वज्ञ नही है, क्योकि, वक्ता है। न्या दी./६/६२/१०१ तत्राद्यो यथा धूमवानय प्रदेशोऽग्निमत्त्वादिति । अत्र अग्निमत्त्व पक्षीकृते सदिह्यमानधूमे पुरोवत्तिनि प्रदेशे वर्तते, सपक्षे धूमवति महानसे च वर्तते, विपक्षे धूमरहितत्वेन निश्चितेऽड्गारावस्थापन्नाग्निमतिप्रदेशे वर्तते इति निश्चयान्निश्चितविपक्षवृत्तिक । द्वितीयो यथा, गर्भस्थो मैत्रीतनय' श्यामो भवितुमर्हति मैत्रीतनयत्वादितरतत्तनयवदिति । अत्र मैत्रीतनयत्व हेतु पक्षीकृते गर्भस्थे वर्तते, सपले इतरतत्पुत्रे वर्तते, विपक्षे अश्यामे वर्तेतापीति शङ्काया अनिवृत्ते शङ्कितविपक्षवृत्तिक । अपरमपि शङ्कित विपक्षवृत्तिकस्योदाहरणम्, अर्हत्सर्वज्ञो ने भवितुमर्ह ति वक्तृत्वात रथ्यापुरुषवदिति । वक्तृत्वस्य हि हेतो पक्षीकृते अर्हति, सपक्षे रथ्यापुरुषे यथावृत्तिरस्ति तथा विपक्षे सर्वज्ञेऽपि वृत्ति सभाव्येत, वक्तृत्वज्ञातृत्वयोरविरोधात । यद्धि येन सह विरोधि तत्खलु तद्वति न बतते। नच
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व्यय
वचनज्ञानयोर्लोके विरोधोऽस्ति प्रत्युत ज्ञानवत एवं वचनमौष्ठव स्पष्ट दृष्टम् ततो ज्ञानोत्पति सर्व वचनापत्ति रिति । १ उनमें पहलेका ( निश्चितविपक्षवृत्तिका) उदाहरण यह है - यह प्रदेश धूमवाला है, क्योकि वह अग्निवाला है।' यहाँ 'अग्नि' हेतु सदिग्ध वाले सामने प्रदेश रहता है और पक्ष रसोईघर में रहता है तथा विपक्ष धूमरहित रूपसे मिश्रित रूप से निश्चित अगारस्वरूप अग्निवाले प्रदेशमें भी रहता है, ऐसा निश्चय हैं, अत: वह निश्चित विपक्ष वृत्ति अनैकान्तिक है । २. दूसरेका ( शंकित विपक्ष वृत्तिका) उदाहरण यह है- 'गर्भस्थ मैत्रीका पुत्र श्याम होना चाहिए, क्योकि मैत्रीका पुत्र है, दूसरे मैत्रीके पुत्रो की सरह' यहाँ 'मैत्रीका पुत्रपना हेतु गर्भस्थ मैत्रीके पुत्र रहता है.
पक्ष दूसरे मंत्री पुत्रो में रहता है और विपक्ष अश्याम गोरे पुत्र भी रहे इस शक्ाकी निवृत्ति न होनेमे अर्थात् विपक्षमें भी उसके रहने की शका बनी रहने से वह शक्ति विपक्षवृत्ति है । ३ शक्ति विपक्षवृत्तिका दूसरा भी उदाहरण है - अहंत सर्वज्ञ नही होना चाहिए, क्योकि
वक्ता है, जैसे राह चलता पुरुष' । यहाँ 'वक्तापन' हेतु जिस प्रकार
अहंसने और समभूत ज्यापुरुषमें रहता है उसी प्रकार सर्वज्ञमें भी उसके रहने की सम्भावना की जाय, क्योकि वक्तापन और ज्ञातापनका कोई विरोध नही है । जिसका जिसके साथ विरोध होता है, वह उसवालेमे नही रहता है, और वचन तथा ज्ञानका लोकमे विरोध नहीं है कि लानी होने चतुराई अथवा सुन्दरता स्पष्ट देखनेमे आती हे । अत विशिष्ट ज्ञानवान सर्वज्ञमे विशिष्ट वक्तापन के होनेमे क्या आप है इस तरह बक्कापनको विपक्षभूत सर्वज्ञमे भी सम्भावना होनेसे वह शक्ति विपक्षवृत्ति नामका भास है।
* उपग्रह आदि व्यभिचार दे नय/11/
व्यय - दे. उत्पाद व्यय धौव्य ।
व्यवच्छेदवावि/१/४६/६ व्यवच्छे निरास - निरा करण या निवृत्ति करना व्यवच्छेद है ।
★ अन्ययोग आदि व्यवच्छेद - दे, एव ।
व्यवसाय
व्यवसायो
न्या. वि. / त्रृ./१/७/१४०/१७ अवसायोऽधिगमस्तदभावो निशब्दस्याभावात्वा विमलादिवत् अधिगम अर्थात् ज्ञानको अवसाय कहते है । उसका अभाव व्यवसाय है, क्योकि, 'वि' उपसर्ग भावार्थ है जैसे विमल' का अर्थ मत रहित है।
१
द्र. स / ४२ / १८१/४ व्यवसायात्मकं निश्चयात्मकमित्यर्थ | व्यवसायाम अर्थात निश्चयात्मक।
दे. अवाय - (अवाय, व्यवसाय, बुद्धि, विज्ञप्ति, आमुंडा, और प्रत्यामुंडा ये पर्यायवाची नाम है ।)
६१७
* कृषि व्यवसायकी उत्तमता दे, समय 41 व्यवस्थारावा./२/२/२६/४३३ / २ अतिष्ठन्ते पदार्थों अनया आकृत्येत्यवस्था, विविधा अवस्था व्यवस्था विविधसंनिवेशो, वेत्राद्यासनाकार इत्यर्थ. । = जिस आकृतिके द्वारा पदार्थ ठहराये जाते है वह अवस्था कहलाती है । विविध अवस्था व्यवस्था है । वेत्रासनादि आकाररूप विविध सन्निवेश, यह इसका अर्थ है । नोट - ( किसी विषयमें स्थितिको व्यवस्था कहते है और उससे विपरीतको अव्यवस्था कहते है । )
व्यवस्था पद
प
भा० ३-७८
व्यवस्था हानि
हानि
व्यवहार - * मनुष्य व्यवहार-दे मनुष्य व्यवहार ।
व्यवहारत्व गुण -
/ /४४८ /६०३ पचविवहार जो विचार बहुसो यदिट्ठक्योहार होइ १४४८ | = पाँच प्रकारके प्रायश्चित्तको जो उनके स्वरूपसहित सविस्तार जानते हैं जिन्होने अन्य आचायको प्रायश्चित देते हुए देखा है, और स्वयं भी जिन्होने दिया है, ऐसे आचार्यको व्यवहारमा आचार्य कहते है। व्यवहारद्रव्यदेन/४/२/४ व्यवहार नयदे नय /\/४-६ । व्यवहार पल्य- दे गणित // २ / ५,६ । व्यवहार सत्य - दे, सत्य / १ । व्यवहाराबलंबी देसा
/ २ ।
व्यसन
1
वि/१/१६.१२ समससुरा वेश्या सेटचीर्यपराहना महापापानि सप्तेति व्यसनानि त्यजेदबुध' । १६ । न परमियन्ति भवन्ति व्यसनान्यपराण्यपि प्रभूतानि त्यक्त्वा सत्पथमपथप्रवृत्तय क्षुद्रबुद्धीनाम् |३२| १ जुआ, मास, मद्य, वेश्या, शिकार चोरी और परखी, इस प्रकार ये सात महापावरूप व्यसन हैं । बुद्धिमान् पुरुषको इन सबका त्याग करना चाहिए। (पं वि /६/१०), (वसु श्रा० / ५६ ); (चा. पा / टी / २१/४३ / १र उद्धृत ), ( ला सं / २ / ११३) । २. केवल इतने ही व्यसन नहीं है, किन्तु दूसरे भी बहुतसे है अल्पमति पुरुष समीचीन मार्गको छोड़कर कुत्सित हुआ करते है |३२|
कारण कि
मार्ग में प्रवृत्त
* अन्य सम्बन्धित विषय
१. वेश्या व्यसनका निषेध
२. परखी गमन निषेध ३. चोरी व्यसन ४. द्यूत आदि अन्य व्यसन व्याकरण- १. आगम ज्ञानमें व्याकरणका २ वैयाकरणी लोग शब्द समभिव एवं अनेकांत/२/१
"
व्याख्या प्रशप्ति
जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश
- दे.
-
1
बह्मचर्य / ३ चर्य। - दे, अस्तेय ।
- दे. वह वह नाम ।
स्थान- दे. आगम / ३ । नयाभासी है।-दे.
व्याकरण- १. आ पूज्यपाद देवनन्दि (ई. श. ५) द्वारा रचित ३००० सूत्र प्रमाण संस्कृत की जैनेन्द्र व्याकरण । टीकायें- पूज्यपाद कृत जेनेन्द्र न्यास, प्रभाचन्द्र नं ४ कृत शब्दाम्भोज भास्कर, अभयनन्दि कृत महावृत्ति, श्रुतकीर्ति कृत पंचवस्तु । (जै / १२ / ३८७) (ती / २ / २३० ) । २ पूज्यपाद (ई. श ५) कृत मुग्धबोध व्याकरण | ३ हेमचन्द्र सूरि (ई १०८८ ११७३) कृत प्राकृत तथा गुजराती व्याकरण । ४ नयसेन ( ई ११२५) कृत कन्नड व्याकरण । (तो /३/२६५) । ५ श्रुतसागर (ई. १४८१-१४६६) कृत प्राकृत व्याकरण । ६. शुभचन्द्र (ई १५१६-१५५६) कृत प्राकृत व्याकरण । व्याख्या- नन्दा भद्रा आदि व्याख्याएँ - दे. बॉचना । व्याख्या प्रज्ञप्ति-५ द्वादशांगका एक भेद - दे. श्रुतज्ञान / III | २. आ अमितगति (ई. १८३-१०२३) द्वारा रचित एक संस्कृत ग्रन्थ । (दे. अमित गति) । ३. आ बप्पदेव (वि. श. ७) कृत ६०,००० श्लोक प्रमाण कर्म विषयक प्राकृत ग्रन्थ (दे. परिशिष्ट ) ।
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व्याघात
व्याघात
घ. ७/२.२.६७/१५१ / ८ अधवा काययोगद्वाखण मणजोगे आगदे नियम माघादिस्सर को चैव जगदो घ. ७/ २.२.१२१/९६०/१० कोस वायादेव एसओ गरि बाधादिदे वि कोधस्सेव समुप्पत्तीदो। = = अथवा काययोगके कालके क्षयसे मनोयोगको प्राप्त होकर द्वितीय समयमे व्याघात ( मरण ) को प्राप्त हुए उसको फिर भी काययोग ही प्राप्त हुआ । क्रोध व्याघात से एक समय नही पाया जाता, क्योंकि, व्याघात ( मरण ) को प्राप्त होनेपर भी न क्रोधकी ही उत्पत्ति होती है।
ल. सा. / भाषा / ६० / १२ / १ जहाँ स्थिति काण्डकघात होइ सो व्याघात कहिए।- (विशेष दे, अपकर्ष ४)
व्याघ्रभूति - एक अक्रियावादी - ३० अक्रियावाद ।
व्याघ्रहस्ती - पुन्नाट सघकी गुर्वावली के अनुसार आप पद्मसेनके शिष्य और नागहस्तिके गुरु थे। - दे. इतिहास / ०/८
व्याघ्री- -भरत क्षेत्र में आर्यखण्डकी एक नदी- दे, मनुष्य / ४ |
व्याज - Interest (ध. ५ / २८)
ध.
व्यापक - ४ / १.३.१/८/२ आगासं गगणं देवप गोगाचरि अवगाहन आधेयं वियापण माघारी भूमिति एयो ।
१. आकाश, गगन, देवपथ, गुलकाचरित (यक्षोंके विचरणका स्थान ), अवगाहनलक्षण, आधेय, व्यापक, आधार और भूमि ये सब नोआगम द्रव्य क्षेत्रके एकार्थवाचक नाम हैं-दे, क्षेत्र / १ / १३ । २ जोव शरीरमे व्यापक है पर सर्व व्यापक नहीं है-दे, जीव / ३ ।
व्यापकानुपलब्धि- अनुमानका एक भेददे अनुमान १
।
६१८
व्यापार
रा. वा./१/१/१/३/२८ व्यावृतिपारा अर्थ प्रापणसमर्थ क्रियाप्रयोग | व्यावृतिपार इस व्युत्पनिके अनुसार अर्थ प्राप्त करनेकी समर्थ क्रिया प्रयोगको व्यापार कहते है ।
प्र. सा /ता, वृ / २०५/२७६/८ चिचमत्कारप्रतिपक्षभूत आरम्भो व्यापार' । = चिचमत्कार मात्र जो ज्ञाता द्रष्टाभाव उससे प्रतिपक्षभूत आरम्भका नाम व्यापार है। व्याप्ति
.
-न्या, दो./३/३६४/१०४/२ व्याप्तिर्हि साध्ये वयादौ सत्येव साधन धूमादिरस्ति, असति तु नास्तीति साध्यसाधन नियतसाहचर्यलक्षणां । एतामेव साध्यं विना साधनस्याभावादविनाभावमिति च व्यपदिश्यन्ते साध्य अग्नि आदिके होनेपर हो साधन प्रमादिक होते है तथा उनके नहीं होनेपर नहीं होते, इस प्रकारके साहचर्यरूप साध्य साधनके नियमको व्याप्ति कहते है । इस व्याप्तिको ही साध्यके बिना साधन के न होनेसे अविनाभाव कहते है । - ( विशेष दे. तर्क ११)
रं व्यतिरेकव्याप्त अनुमान
२, अव्याप्त, अतिव्याप्त लक्षण | ३. अन्वयव्यतिरेक व्याप्त दृष्टान्त
४. अन्वय व्यतिरेक व्याप्त हेतु ।
पं. ध // ८६४ व्याप्तित्वं साहचर्यस्य नियमः स यथा मिथ' । सति यत्र य स्यादेव न स्यादेवासतीह यः १८६४ =परस्पर में सहचर नियमको कहते है इस प्रकार है कि वहॉपर जिसके होनेपर जो होवे और जिसके न होनेपर जो नहीं ही होवें । - ( विशेष दे. तर्क ) * अन्य सम्बन्धित विषय
५ व्याप्त व्यापक सम्बन्ध । ६. कारण कार्यमें परस्पर व्याप्ति ।
- दे. अनुमान । - दे. लक्षण ।
व्युच्छित्ति
व्याप्य - १ व्याप्य व्यापक सम्बन्ध-दे सम्बन्ध । २. व्याप्य हेतु दे हेतु ३. व्याभास असिद्ध व्यामोह - मोपा // २०/२२२/१२ व्यामोह पुत्र मित्रादिस्नेह' । बामाना खीणा वा ओहो वामौह तत्तथोक्तं समाहारो द्वन्द्व । पुत्र कलत्र मित्रादिका स्नेह व्यामोह है । अथवा वाम अर्थात् खियाँका ओमान ओह है बाम ओह ऐसा यहाँपर समास है ।
1
व्यावृत्ति -
न्या. वि. / वृ./२/३१/६३/७ व्यावृत्ति स्वलक्षणानां विच्छेद | लक्षणोंका विच्छेद व्यावृति है। स्या / मं /४/१७/१ व्यतिवृत्तिः सर्वथा व्यवच्छेद | रुपा/मं./१४/१६६० व्यावृति
व्यावृत्तिः,
सजातीयविजातीयैभ्य'
व्यावृति विशेष व अपना मे एकार्थ
विमतिपदार्थे इतर पदार्थ प्रतिषेधः ॥ -सजातीय और विजातीय पदार्थोंसे सर्वथा अलग होनेवाली प्रीतिको व्यावृति अथवा विशेष कहते है। अथमा विक्षित पदार्थ दूसरे पदार्थ के निषेधको व्यावृत्ति कहते हैं । /१/१/२ बाबी है।) व्यास -Diameter ( ध ५ / प्र. २८ ) । - दे, गणित / II / ७ / ४ | व्यास - १. पां. पु. / सर्ग / श्लोक -- भीष्मका सौतेला भाई था। धोवरकी कन्यासे उत्पन्न पाराशरका पुत्र था। ( ७/ ११४-११७) । इसके सीन पुत्र पृतराष्ट्र पाण्डव विदु (७/११०) अपर नाम धृतस्था ( ८/१०)। २. महाभारत आदि पुराणोके रचयिता। समय - अत्यन्त प्राचीन । ३ योगदर्शनके भाष्यकार । समय-ई. श./ ४ (दे० योगदर्शन) । ४. व्यास एलापुत्र एक विनयवादी था। - दे० वैनयिक |
- दे. दृष्टान्त । - दे हेतु । -दे सम्बन्ध |
-दे कारण / I / ३ ।
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जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश
- अपने
व्युच्छित्ति - घ /२/३.४/पृष्ठ / ति एदम्मि गुण ठाणे एदासि प
दीनं बोदो होलि गुगट्ठागाणि तासि पडी मंसामियाणि ति सिद्धीदो किच बोच्छेदो दुवो उत्पादाच्ये वादाच्छेदो उरपाद सत्य अनु विनाश' अभाव नीरूपिता इति यावत् । उत्पाद एवं अनुच्छेद' उत्पादानुच्छेद भाव एव अभाव इति यावत् । एसो व्यट्ठियणयव्यवहारो। ण च एसो एयतेण चप्पलओ, उत्तरकाले अप्पिदपज्जायस्स विणासँग विसिद्दव्यस्थ पुस्तिकाले वि उभा (२०) । अनुत्पादख अनुच्छेदो विनाश अनुत्पाद एवं अनुच्छेद
+
( अनुत्पादानुच्छेद ) असत. अभाव इति यावत्, सत असत्त्वविरोधार। एसो पज्जपियवहारो एवं पूण उप्पावाणुच्छेदम स्सिप जैन सुतकारेण अमामव्यवहारो कदो रोग भागो चै
=
यस विदो सेमेदस्स गंवस्त वसामित्तविचयसम्पा घडदित्ति । 1 पदिति (/) १ इस गुणस्थान में इतनी प्रकृतियोंका मन्वन्तर होता है, ऐसा कहनेपर उससे नीचेके गुणस्थान उन प्रकृतियोंके बन्धके स्वामी है यह स्वयमेव सिद्ध हो जाता है । २ दूसरी बात यह है कि व्युच्छेद दो प्रकारका है- उत्पाशनुच्छेद और अनुत्पादशमुछेर उत्पादका अर्थ सत्व और अनु च्छेदका अर्थ विनाश, अभाव अथवा नीरूपीपना है । उत्पाद ही अनुच्छेद सो उपादानुच्छेद (इस प्रकार यहाँ कर्मधारय समास है। उक्त कथनका अभिप्राय भाव या सत्त्वको ही अभाव बतलाना है । यह द्रव्यार्थिक नयके आश्रित व्यवहार है, और यह सर्वथा मिथ्या भी नहीं है. क्योकि, उत्तरकालमें विवक्षित पर्यायके विनाश से विशिष्ट द्रव्य पूर्वकाल में भी पाया जाता है । अनुत्पादका अर्थ असर और अनुच्छेदका अर्थ विनाश है। अनुत्पाद ही अनु
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ब्युच्छेद
व्युत्सर्ग
च्छेद अर्थात् असत् का अभाव होना अनुत्पादानुच्छेद है. क्योकि सत्के असत्त्वका विरोध है। यह पर्यायार्थिक नयके आश्रित व्यव. हार है । ३ यहॉपर चूकि सूत्रकारने उत्पादानुच्छेद का ( अर्थात् पहले भेदका) आश्रय करके ही अभावका व्यवहार किया है, इसलिए प्रकृतिवन्धका सद्भाव ही निरूपित किया गया है । इस प्रकार इस ग्रन्थका बन्धस्वामित्व विचय नाम संगत है। गो. क./जी. प्र /१४/८०/४ ब बव्युच्छित्तौ द्वौ नयौ इच्छन्तिउत्पादानुच्छेदोऽनुत्पादानुच्छेदश्चेति । तत्र उत्पादानुच्छेदो नाम द्रव्यार्थिक तेन सत्त्वावस्थायामेव विनाशमिच्छति । असत्त्वे बुद्धिविषयातिक्रान्तभावेन वचनगोचरातिक्रान्ते सति अभावव्यवहारानुपपत्ते । तस्मात भाव एव अभाव इति सिद्ध। अनुत्पादानुच्छेदो नाम पर्यायार्थिक' तेन असत्त्वावस्थायामभावव्यपदेशमिच्छति । भावे उपलभ्यमाने अभावत्वविरोधात् । • अत्र पुन' सूत्रे द्रव्याथिकनय. उसादानुच्छेदोऽवलम्बित उत्पादस्य विद्यमानस्य अनुच्छेद. अविनाश. यस्मिन् असौ उत्पादानुच्छेदो नय । इति द्रव्याथिकनयापेक्षया स्वस्वगुणस्थानचरमसमये बन्धव्युच्छित्ति. बन्धविनाश । पर्यायाथिकनयेन तु अनन्तरसमये बन्धनाशः । - व्युच्छित्तिका कथन दो नयसे किया जाता है-उत्पादानुच्छेद और अनुत्पादानुच्छेद। तहाँ उत्पादानुच्छेद नाम द्रव्यार्थिकनयका है। इस नयसे सत्त्वको अवस्थामें ही विज्ञाश माना जाता है, क्योकि बुद्धिका विषय न बननेपर तब वह अभाव वचनके अगोचर हो जाता है, और इस प्रकार उस अभावका व्यवहार हो नहीं हो सकता । इसलिए सदभावमे ही असदभाव कहना योग्य है यह सिद्ध हो जाता है। अनुत्पादानुच्छेद नाम पर्यायार्थिक नयका है। इस नयसे असत्त्वकी अवस्थामें अभावका ज्यपदेश किया जाता है। क्योकि, सदभावके उपलब्ध होनेपर अभावपनेके होनेका विरोध है। यहाँ सूत्र में द्रव्याथिक नय अर्थात् उत्पादानुच्छेद का अबलम्बन लेकर वर्णन किया गया है। उत्पादका अर्थात विद्यमानका अनुच्छेद या विनाश जिसमे होता है अर्थात सद्भावका विनाश जहाँ होता है, वह उत्पादानुच्छेद नय है। इस प्रकार द्रव्यार्थिक नयको अपेक्षासे अपनेअपने गुणस्थानके चरम समयमें बन्धव्युच्छित्ति अर्थात् बन्धका विनाश होता है। पर्यायार्थिक नयसे उस चरम समयके अनन्तर वाले अगले समयमे बन्धका नाश होता है, ऐसा समझना
चाहिए। व्युच्छेद-दे० व्युच्छित्ति । व्युत्सगे-बाहरमें क्षेत्र वास्तु आदिका और अ-पन्तरमे कषाय
आदिका अथवा नित्य व अनियत कालके लिए शरीरका त्याग करना व्युत्सर्ग तप या व्युत्सर्ग प्रायश्चित्त है। व्युत्सर्ग प्रायश्चित्तका अपर नाम कायोमर्ग है जो दैवसिक, रात्रिक, चातुर्मासिक आदि दोषोके साधनार्थ विधि पूर्वक किया जाता है। शरीरपरसे ममत्व बुद्धि छोडकर, उपसर्ग आदिको जीतता हुआ, अन्तर्मुहूर्त या एक दिन मास व वर्ष पर्यंत निश्चल खडे रहना कायोत्सर्ग है। १. कायोत्सर्ग निर्देश
१. कायोत्सगका लक्षण नि सा /म् /१२१ कायाईपरदठवे थिरभाव परिहरत्त, अप्पाणं । तस्स हवे तणुसग्ग जो झायह णिन्विअप्पेण ।१२१३ -काय आदि परद्रव्यों में स्थिर भाव छोडकर, जो आत्माको निर्विकल्परूपसे ध्याता
है, उसे कायोत्सर्ग कहते है । १२१॥ मू. आ /२८ देव स्सियणियमादिसु जहूत्तमाणेण उत्तकालम्हि । जिणगुण चितणजुत्तो काओसग्गो तणुविसग्गो ।२। -दैव सिक निश्चित
क्रियाओमे यथोक्त कालप्रमाण पर्यंत उत्तम क्षमा आदि जिनगुणों की
भावना सहित देहमे ममत्वको छोड़ना कायोत्सर्ग है। रा वा/६/२४/११/५३०/१४ परिमितकाल विषया शरीरे ममत्व निवृत्ति कायोत्सर्ग: । परिमित काल के लिए शरीरसे ममत्वका त्याग करना कायोत्सर्ग है । (चा सा /५६/३)। भा आ/वि /६/३२/२१ देहे ममत्व निरास कायोत्सर्ग । =देहमें
ममत्वका निरास करना कायोत्सर्ग है। यो. सा./अ./१/१२ ज्ञात्वा योऽचेतन काय नश्वर कर्मनिर्मितं । न ___ तस्य वर्तते कार्ये कायोत्सर्ग करोति स. १५२१ -देहको अचेतन,
नश्वर व कर्म निर्मित समझकर जो उसके पोषण आदिके अर्थ कोई कार्य नहीं करता, वह कायोत्सर्गका धारक है। का, अ./मू./४६७-४६८ जलमललित्तगत्तो दुस्सहवाहीसु 'णिप्पडीयारो । मुहधोवणादि-विरओ भोयणसेज्जादिणिरवेक्खो ।४६१ ससरूवचिंतणरओ दुज्जणसुयणाण जो हु मज्झत्थो । देहे वि णिम्ममत्तो काओसग्गो तओ तस्स ।४६८। -जिस मुनिका शरीर जन्ल और मलसे लिप्त हो, जो दुस्सह रोगके हो जानेपर भी उसका इलाज नहीं करता हो, मुख धोना आदि शरीरके संस्कारसे उदासीन हो, और भोजन शय्या आदिकी अपेक्षा नहीं करता हो, तथा अपने स्वरूपके चिन्तनमें ही लीन रहता हो. दुर्जन और सज्जनमें मध्यस्थ हो, और शरीरसे भी ममत्व न करता हो उस मुनिके कायोत्सर्ग नामका तप होता है। नि. सा/ता. वृ./७० सर्वेषां जनानां कायेषु बयः क्रिया विद्यन्ते, सासा निवृत्ति' कायोत्सर्गः, स एव गुप्तिर्भवति। -सब जनोंको कायसम्बन्धी बहुत क्रियाएँ होती है, उनकी निवृत्ति सो कायोत्सर्ग है। वही गुप्ति है। दे० कृतिकर्म/३/२( खडे-खडे या बैठे बैठे शरीरका तथा कषायौंका त्याग
करना कायोत्सर्ग है।)
२. कायोत्सर्गके भेद व उनके लक्षण मू. आ./६७३-६७७ उठ्ठिदउठिद उठ्ठिद णिविठ्ठ उवविठ्ठ-उठिदी
चेव । उवविठ्ठदणि विट्ठो वि य काओसग्गो चदुरठाणो ।६७३। धम्म सुक्क च दुवे झायदि ज्झाणाणि जो ठिदो सतो। एसो काओसग्गो इह उठ्ठिदउठ्दिो णाम ।६७४। अट्ट रुद्द च दुवे झायदि झाणाणि जो ठिदो सतो । एसो काओसग्गो उठ्ठिदणिविठ्दिो णाम ।३७॥ धम्म सुक्क च दुवे झायदि झाणाणि जो णिसण्णो दु । एसो काउसग्गो उबविउठिदो णाम ।६७६। अट्ट रुद च दुवे झायदि झाणाणि जो णिसण्णो दु। एसो काउसग्गो णिसण्णिदणिसण्णिदो णाम ।६७७१ -अस्थितास्थित. उत्थित निविष्ट. उपविष्टोस्थित और उपविष्ट निविष्ट, इस प्रकार कायोत्सर्ग के चार भेद है ।६७३। जो कायोत्सर्गसे खडा हुआ धर्म शुक्ल ध्यानोको चिन्तवन करता है वह उत्थितोत्थित है।६७४। जो कायोत्सर्गसे खडा हुआ आर्त रौद्र ध्यानोको चिन्तवन करता है वह उत्थितनिविष्ट है।६७५। जो बैठे हुए धर्म व शुक्लध्यानोका चिन्तवन करता है वह उपविष्टोत्थित है ।६७६। और जो बैठा हुआ आत रौद्र ध्यानोका चिन्तवन करता है वह उपविष्टोपविष्ट है ।६७७१ (अन.ध.
९/१२३/८३३)। भ. बा./वि/११६/२७८/२७ उत्थितोत्थित, उत्थित निविष्टम्, उपविष्टोत्थित , उपविष्टोपविष्ट इति चत्वारो विकल्पा । धर्मे शुक्ले वा परिणतो यस्तिष्ठति तस्य कायोत्सर्ग' उस्थितोस्थितो नाम । द्रव्यभावोस्थानसमन्वितत्वादुत्थानप्रकर्ष उस्थितोस्थितशब्देनोच्यते। तत्र द्रव्योत्थानं शरीर स्थाणुबदूवं अविचलमवस्थान । ध्येयैकवस्तुनिष्ठता ज्ञानमयस्य भावस्य भावोस्थान। आर्तरौद्रयो परिणतो यस्तिष्ठति तस्य उस्थितनिषण्णो माम कायोत्सर्गः। शरीरोत्थाना
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ब्युत्सर्ग
दुस्थित शुभपरिणामो गतिरूपस्योत्थानस्याभावानियत इत्यु च्यते। अतएव विरोधाभावो भिन्ननिमित्तत्वादृश्यानासनयो एकत्र एकदा यासीन एवं धर्म शुध्यानपरिणतिमुपैति तस्य उरि निषण्णो भवति परिणामोत्यानारायानास्तु Sशुमध्यानपरस्तस्य निषण्णनि । कायाशुभ परिणाम या अनुत्थानात् । =कायोत्सर्ग के उत्थितोत्थित, उत्थित निविष्ट, उपविष्टस्थ और उनविष्टोपविष्ट ऐसे चार भेद रहे है। धर्म न शुक्लध्यान में परिणत होकर जो खड़े होते है उनका कायोत्सर्ग उत्थितोत्थित नामवाला है। क्योंकि द्रव्य व भाव दोनोका उत्थान होनेके कारण यहाँ उत्थानका प्रकर्ष है जो उत्थितोत्थित शब्द के द्वारा कहा गया है। तहाँ शरीरका खम्बेके समान खड़ा रहना द्रव्योत्थान है तथा ज्ञानका एक ध्येय वस्तुमें एकाग्र होकर ठहरना भावोस्थान है आर्त और रौद्रध्यान से परिणत होकर जो खड़े होते है उनका कायोत्सर्गस्थित है। शरीर के उत्थान से उस और शुभ परिणामो की उगटिरूप उत्थानके अभाव से निमिट है। शरीर व भावरूप भिन्न-भिन्न कारण होनेसे परतावस्था और आसनावस्थामे यहाँ विरोध नही है । जो मुनि बैठकर ही धर्म और शुक्लध्यान में बशीन होता है उसका उपविष्टोस्थित कायोत्सर्ग है, क्योकि उसके परिणाम तो खड़े है, पर शरीर नही खडा है। जो मुनि बैठकर अशुभध्यान कर रहा है वह निषण्णनिषण्ण कायोत्सर्ग युक्त समझना चाहिए। क्योंकि, वह शरीरसे बैठा हुआ है और परिणामो से भी उत्थानशील नहीं है।
★ कायोत्सर्ग बैठे व खड़े दोनों प्रकारसे होता है ०/१/२
३. मानसिक व कायिक कायोत्सर्ग विधि
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व. आ./गा वोसरिदबाहुजुगलो चदुर गुलअंतरेण समपादो । सब्बगचलणरहिओ काउसग्गो विसुद्धो दु । ६५० जे केई उवसग्गा देव माणुसतिरक्या ते सते असे काओगे ठियो६५५६ काओसम्म ठिदो चिचिदु इरियावचस्स अतिचार त सम्म समाणित्ता धम्म सुक्क च चितेज्जो | ६६४ | = जिसने दोनो बाहु लम्बी को है, चार अंगुलके अन्तर सहित समपाद है तथा हाथ आदि अगोका चाहन नही है वह शुद्ध कायोत्सर्ग है | ६५० देव मनुष्य, तियंच व अचेतनकृत जितने भी उपसर्ग है सबको कायोसर्वमें स्थित हुआ में अच्छी तरह सहन करता हूँ । ६६५॥ कालो में तिष्ठा ईर्यापथके अतिचारके नाशको चिन्तवन करता मुनि उन सब नियमको समाप्त कर धर्मध्यान और शुक्लध्यानका चिन्तवन करो । १६६४ ( आ /वि/११६/२००/२०), (अन ध /०/०६/८०४) । भ. आ / वि / ५०६ / ०७२६ / १६ मनसा शरीरे ममेदं भावनिवृत्ति मानस कायोत्सर्गप्रलम्भुजस्य चतुरङ्गुलमात्रपादान्तरस्य निश्चताव स्थानं कायेन कायोत्सर्ग. मनसे शरीर में ममेद बुद्धिकी निवृत्ति मानसकायोत्सर्ग है और ( 'मै शरीरका त्याग करता हूँ ऐसा वचनोधार करना वचनकृत कामोत्सर्ग है)। बाहु नोचे छोडकर पार अगुलमात्र अन्तर दोनो पाँवों में रखकर निश्चल खडे होना वह शरीर के द्वारा कायोत्सर्ग है ।
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६२०
जन. ६/२२-२४/८६६ जिनेन्द्रमुदया गाथा ध्यायेत् प्रीतिविकस्वरे ।
पंकजे प्रवेश्यान्त निरुध्य मनसा निलम् | १२ | पृथग् द्विक्षगाथाशचिन्तान्ते रेचयेच्छने । नवकृत्व, प्रयोक्तैव दहत्यह सुधोर्महत् । ॥२३॥ चापसर्गे कार्यों व समाधिक पुण्य शतगुणं चैत्त सहस्रगुणमावहेत् | २४| व्युत्सर्गके समय अपनी प्राणवायुको
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१. कायोत्सर्ग निर्देश
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भीतर प्रविष्ट करके उसे आनन्दसे विकसित हृदयकमलमे रोककर जिनेन्द्र मुद्राके द्वारा णमोकार मन्त्रकी गाथाका ध्यान करना चाहिए | २३ | गाथा के दो-दो और एक अशको पृथक्-पृथक् चिन्तवन करके अन्तमे उस प्राणवायुको धीरे-धीरे बाहर निकालना चाहिए। इस प्रकार नौ बार प्रयोग करनेवालेके चिरसचित महात् कर्मराशि भस्म हो जाती है | २३ | प्राणायाममें असमर्थ साधु वचनके द्वारा भी उस मन्त्र का जाप कर सकता है, परन्तु उसे अन्य कोई न सुने इस प्रकार करना चाहिए। परन्तु वाचनिक और मानसिक जपोके फलमे महान् अन्तर है। दण्डको के उच्चारणकी अपेक्षा सौगुना पुण्य संचय वाचनिक शाप होता है और हजारगुणा मानसिक जापमे |२४|
४. कायोत्सर्गके योग्य दिशा व क्षेत्र
भ. आ // ५५०/०६३ पाचीगोदी चिमुह मिव कुदि गते । आलोयपत्ती काउसग्ग अणाबाधे । ५५०१ = पूर्व अथवा उत्तर दिशाकी तरफ मुँह करके किवा जिनप्रतिमाकी तरफ मुँह करके आलोचना के लिए क्षपक कायोत्सर्ग करता है। यह कायोत्सर्ग यह एकान्त स्थानमें अबाधित स्थानमें अर्थात् जहाँ दूसरोका आनाजाना न हो ऐसे अमार्ग में करता है।
५. कायोत्सर्गके योग्य अवसर
सू. आ / ६८३.६६५ मते पाणे गामतरे यचमाविरिचरिमे पाऊण ठति धीरा घणिदं दुक्खक्खयट्ठाए । ६६३ | तह दिवसिय रादियपविचमाविरिचरिने त सव्य समाजिता धम्म सुक्क च झायेज्जो | ६६५। भक्त पान, ग्रामान्तर, चातुर्मासिक, वार्षिक उत्तमार्थ, इनको जानकर धीरपुरुष अतिशयकर दुखके क्षयके अर्थ कायोत्सर्गमे तिष्ठते है । ६६३ | इसी प्रकार देवसिक, रात्रिक, पाक्षिक, चातुर्मासिक, वार्षिक व उत्तमार्थ इन सब नियमो - को पूर्ण कर धर्मध्यान और शुक्लध्यानको ध्यावे । ६६५ ।
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दे० अगला शीर्षक- ( हिसा आदि पापो के अतिचारोमें, भक्त पान व गोचरीके पश्चात, तीर्थ व निषका आदिको वन्दनार्थ जानेपर स दीर्घ शंका करनेपर, ग्रन्थको आरम्भ करते समय व पूर्ण हो जानेपर के दोषोकी निवृतिके अर्थ कायोत्सर्ग किया जाता है | )
६. यथा अवसर कायोत्सर्गके कालका प्रमाण
सु. ६२४-६६९ बरार मुस्स भिण्मु जणर्य होदि सेसा काम होत अगे ठाणे ६५६। असद देवसिय क पक्खियं च तिणिसया । उस्सासा कायव्या नियमता अप्पमत्तेण । |६५७| चादुम्मासे चउरो सदाई सवत्थरे य पचसदा । काओसग्गुस्सासा पचसु ठाणेसु णादव्वा ६८ पाणिवह मुसावाए अदत्त मेहुण परिग्गहे चे य । अट्ठसद उस्सासा काओसग्गम्हि कादव्वा ॥ ६५६। भत्ते पाणे गामतरे य अरहहत समणसेज्जासु उच्चारे पस्सवणे पणवीस होति उस्सासा | ६६०| उदेसे णिदेसे सज्झाए वंदणेय परिधाणे । ससामुसाखा काओसम्महि कादव्या 1६६१६ कायोत्सर्ग एक उत्कृष्ट और अन्तर्मुहुर्त प्रमाण जघन्य होता है। शेष कामो दिन-रात्रि आदिके भेद बहुत है ||३६|
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म्युत्सर्ग
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१. कायोत्सर्ग निर्देश
उच्छ
अवसर
वास
४००
१०८
दैवसिक प्रतिक्र. रात्रिक पाक्षिक चातुर्मासिक .. वार्षिक
५०० हिंसादिरूप अतिचारोमें गोचरीसे आनेपर निर्वाण भूमि अहंत शय्या - " निषद्यका श्रमण शय्या लघु व दीर्घ शका ग्रन्थके आरम्भमें ग्रन्थकी समाप्ति वन्दना अशुभ परिणाम कायोत्सर्गके श्वास भूल जानेपर
अधिन नोट-सर्व प्रतिक्रमणोंमें यह कायोत्सर्ग वीर भक्तिके पश्चात किया ___ जाता है।
(भ. आ./वि./११६/२७८/२२); (चा. सा/१५८/१); (अन. घ./८/७२-७३/८०१)।
७. कायोत्सर्गका प्रयोजन व फल मू. आ./६६२.६६६ काओमग्ग इरियावहादिचारस्स मोक्खमग्गम्मि। बोसट्ठचत्तदेहा कर ति दुक्खक्खयट्ठाए ।६६२। काओसग्गम्हि कदे जह भिज्जदि अंगुवंगसंधीओ। तह भिज्जदि कम्मरय काउसग्गस्स करणेण ६६६ -ईर्यापथके अतिचारको सोधने के लिए (तथा उपरोक्त सर्व अवसरोपर यथायोग्य दोषोको शोधनेके लिए) मोक्षमार्ग में स्थित शरीरमें ममत्वको छोडनेवाले मुनि दुखके नाश करनेके लिए कायोत्सर्ग करते है।६६२॥ कायोत्सर्ग करनेपर जैसे अंगोपागोकी संधियाँ भिद जाती है उसी प्रकार इससे कर्मरूपी धूलि भी अलग हो जाती है ।६६६। (अन, ध./८/७६/८०४ )। * कायोत्सर्ग व धर्मध्यानमें अन्तर-दे० धर्मध्यान/३ । * कायोत्सर्ग व कायगुप्तिमें अन्तर-दे० गुप्ति/१/७ ।
.. कायोत्सर्ग शक्ति अनुसार करना चाहिए म. आ./६६७,६७१-६७२ बलवीरियमासेज्ज य खेत्ते काले सरीरस हडणं । काओसग्ग कुज्जा इमे दु दोसे परिहर तो।६६७. णिवकूड सविसेस बलाणुरूव क्याणुरूवं च। काओसग्ग धीरा कर ति दुक्रवक्खयहाए ।६७१। जो पुण तीसदिसरिसो सत्तरिवरिसेण पारणायसमो। बिसमो य कूडवादी णिविण्णाणी य सो य जडो ।६७२। -बल और आत्म शक्तिका आश्रयकर क्षेत्र काल और सहनन इनके बलकी अपेक्षा कर कायोत्सर्ग के कहे जानेवाले दोषोका त्याग करता हुआ कायोत्सर्ग करे ।६६७। मायाचारीसे रहित (दे, आगे इसके अतिचार ) विशेषकर सहित, अपनी शक्तिके अनुसार, बाल आदि अवस्थाके अनुकून धीर धुरुष दुःखके क्षयके लिए कात्योत्सर्ग करते है।६७१। जो तीस वर्ष प्रमाण यौवन अवस्थावाला समर्थ साधु ७० वर्षवाले असक्त वृद्धके
साथ कायोत्सर्गकी पूर्णता करके समान रहता है वृद्धकी बराबरी करता है, वह साधु शान्त रूप नहीं है, मायाचारी है, विज्ञानरहित है, चारित्ररहित है और मूर्ख है ।६७२।
९. मरणके बिना कायका त्याग कैसे ? भ. आ./वि./११६/२७८/१३ ननु च आयुषो निरवशेषगलने आत्मा शरीरमुत्सृजति नान्यदा तस्विमुच्यते कायोत्सर्ग इति।" अनपायित्वेऽपि शरीरे अशुचित्वं तथानित्यत्व, अपायित्वं, दुर्वहत्वं, असारत्वं, दु,खहेतुत्व, शरीरगतममताहेतुकमनन्तसंसारपरिभ्रमणं इत्यादिकान्सप्रधार्य दोषान्नेद मम नाहमस्येति सकल्पवतस्तदादराभावात्कायस्य त्यागो घटत एव । यथा प्राणेभ्योऽपि प्रियतमा कृतापराधावस्थिता ह्येक स्मिन्मन्दिरे त्यक्तेत्युच्यते तस्यामनुरागाभावान्ममेद भावव्यावृत्तिमपेक्ष्य एवमिहापि। किच.. शरीरापानिराकरणानुत्सुकश्च यतिस्तस्माय ज्यते कायत्याग'। = प्रश्न-१ आयुके निरवशेष समाप्त हो जानेपर आत्मा शरीरको छोडती है, अन्य समयमें नही, तब अन्य समयमें कायोत्सर्गका क्थन कैसा ? उत्तर-शरीरका विछोह न होते हुए भी, इसके अशुचित्व, अनित्यत्व, विनाशशील, असारस्व, दु.खहेतुत्व, अनन्तससार परिभ्रमणहेतुत्व इत्यादि दोषोका विचार कर यह शरीर मेरा नहीं है और मै इसका स्वामी नहीं हूँ' ऐसा सकल्प मनमें उत्पन्न हो जानेसे शरीरपर प्रेमका अभाव होता है, उससे शरीरका त्याग सिद्ध होता है ! जैसे प्रियतमा पत्नीसे कुछ अपराध हो जानेपर, पतिके साथ एक ही घरमें रहते हुए भी, पतिका प्रेमका हट जानेके कारण वह त्यागी हुई कही जाती है। इसी प्रकार यहाँ भी समझना। २. और भी दूसरी बात यह है कि शरीरके अपायके कारणको हटाने में यति निरुत्सुक रहते है, इसलिए उनका कायत्याग योग्य ही है। १०. कायोत्सर्गके अतिचार व उनके लक्षण भ. आ /वि./११६/२७६/८ कायोत्सर्ग प्रपन्नः स्थानदोषान् परिहरेत् । के ते इति चेदुच्यते। १ तुरग इव कुण्टीकृतपादेन अवस्थानम् २. लतेवेतस्ततश्चलतोऽवस्थान, ३. स्तम्भवत्स्तब्धशरीर कृरवा स्थान, ४. रतम्भोपाश्रयेण वा कुड्याश्रयेण वा मालावलग्नशिरसा वावस्थानम.लम्बिताधरतया, स्तनगतदृष्ट्या वायस इव इतस्ततो नयनोद्वर्तनं कृत्वावस्थानम, ६, खलीनावपीडितमुखहय इव मुखचालनं सपादयतोऽवस्थान, ७. युगावष्टब्धबलीव इव शिरोऽध पातयता, ८, कपित्थफलग्राहीव विकाशिकरतलं, संकुंचिताङ्गुलिपञ्चकं वा कृत्वा, ६. शिरश्चालनं कुर्वन्, १०. मूक इव हुकार संपाद्यावस्थान, ११ मूक इव नासिकया वस्तूपदर्शयता वा, १२. अड्गुलिस्फोटनं, १३. धूनर्तन वा कृत्वा, १४. शबरवधूरिव स्वकौपीनदेशाच्छादनपुरोगं, १५. शृङ्खलाबद्धपाद इवावस्थान, १६. पीतमदिर व परवशगतशरीरो वा भूत्वावस्थानं इत्यमी दोषा. । =१. मुनियोको उत्थित कायोत्सर्ग के दोषोका त्याग करना चाहिए । उन दोषोंका स्वरूप इस प्रकार है-१. जेसे घोडा अपना एक पॉव अकड लॅगडा करके खडा हो जाता है वैसे खड़ा होना घोटकपाद दोष है। २ बेल की भॉति इधर-उधर हिलना लतावक्र दोष है। ३ स्तम्भवत् शरीर अकडाकर खडे होना स्तंभस्थिति दोष है। ४. खम्बेके आश्रय स्तंभावष्टंभ । ५. भित्तिके आधारसे कुड्याश्रित । ६. अथवा मस्तक ऊपर करके किसी पदार्थका आश्रय देकर खडा होना मालिकोदहन दोष है । ७.अधरोष्ठ लम्बा करके खडे होना या, ८. स्तनकी ओर दृष्टि देकर खडे होमा स्तन दृष्टि। ६ कौवेकी भॉति दृष्टिको इतस्तत' फेकते हुए खडे होना काकावलोकन दोष है। १०. लगामसे पीडित घोडेचच मुखको हिलाते हुए खडे होना खलीनित दोष है। ११. जैसे बैल अपने कन्धसे जूयेकी मान नीचे करता है उसपर कन्धे झुकाते हुए खड़ा होना युगकन्धर
पीडित बाल अपने का होना युगकन्ध
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व्युत्सर्ग
६२२
१. कायोत्सर्ग निर्देश
देवहा स्तनाय । मनोदुष्ट १०० मत्स्योत मतम् ।
दोष है। १२. कैथका फल पकडनेवाले मनुष्यकी भॉति हाथका तलभाग पसारकर या पाँचो अंगुलो सिकोडकर अर्थात् मुट्ठी बॉधकर खड़े होना कपित्थमष्टि है। सिरको हिलाते हुए खडे होना सिरचालन दोष है। १३. गंगेकी भाँति हुकार करते हुए खडे होना अंगुलीसे नाक या किसी वस्तुकी ओर सकेत करते हुए खडे होना मूकसंज्ञा दोष है। १४. अंगुली चलाना या चुटकी बजाना अंगुलिचालन है। १५. भौह टेढो करना या नचाना भ्र.क्षेप दोष है। १६. भीलकी स्त्रीकी भाँति अपने गुह्य प्रदेशको हाथ से ढक्ते हुए खडे होना शबरीगुह्यगृहन दोष है। १७. बेडोसे जक्डे मनुष्यकी भॉति खडे होना शस्खलिता दोष है। १८. मद्यपायीवत शरीरको इधरउधर झुकाते हुए खडे होना उन्मत्त दोष है। ऐसे ये कायोत्सर्ग के दोष है ( अन. ध./८/११२-११६, शेष दे० आगे)। चा. सा /१५६/२ व्युत्सृष्टबाहुयुगले सर्वाङ्गचलनरहिते कायोत्सर्गेऽपि दोषा' स्युः। घोटक्पाद, लतावक्र, स्तम्भावष्टम्भ, कुड्याश्रित, मालिकोद्वहनं, शबरीगुह्यगृहन, शृङ्खलित लम्बितं उत्तरित, स्तनदृष्टि , काकालोकनं, खलीनितं, युगकन्धरं, कपित्थमुष्टिः, शीर्षप्रकम्पित, मूकस ज्ञा, अड गुलिचालन, भ्रूक्षेप, उन्मत्तं. पिशाच, अष्टदिगवलोकन, ग्रोवोन्नमन, ग्रोवावनमन, निष्ठीवन, अगस्पर्शनमिति द्वात्रिशद्दोषा भवन्ति । -जिसमे दोनो भुजाएँ लम्बी छोड दी गयी है, चार अगुलके अन्तरसे दोनो पैर एकसे रक्खे हुए है और शरीरके अगोपांग सब स्थिर है ऐसे कायोत्सर्गके भी ३२दोष होते हैघोटकपाद, लतावक्र, स्तभावष्टंभ, कुड्याश्रित, मालिकोद्वहन, शबरीगुह्यगृहन, खलित, लंबित, उत्तरित, स्तनदृष्टि, काकालोक्न, खलीनित, युगकन्धर, कपित्थमुष्टि, शीष प्रक पित, मूकस ज्ञा, अगुलिचालन, भ्रूक्षेप, उन्मत्त, पिशाच, पूर्व दिशावलोकन, आग्नेय दिशावलोकन, दक्षिण दिशावलोकन, नैऋत्य दिशावलोकन, पश्चिम दिशावलोकन, वायव्य दिशावलोकन, उत्तर दिशावलोकन, ईशान दिशावलोकन, ग्रीवोन्नमन, ग्रीवावनमन, निष्ठीवन, और अगस्पर्श । [ इनमें से कुछ के लक्षण ऊपर भ-आ। वि में दे दिये गये है, शेषके लक्षण स्पष्ट है । अथवा निम्न प्रकार है।] अन.ध.//११५-१२१ लम्बित नमनं मूट स्तस्योत्तरितमुन्नम । उन्नभय्य स्थितिर्वक्ष' स्तनदावस्तनोन्नति. १११॥ शोर्षकम्पनम् ।११७ शिर' प्रकम्पित सज्ञा. ।।११८१ . ऊध्वं नयनं शिरोधेर्बहुधाप्यध' ।११। निष्ठीवनं वपु स्पर्शो न्यूनत्वं दिगवेक्षणम् । मायाप्रायास्थितिश्चित्रा वयोपेक्षा विवर्जनम् ।१२०। व्याक्षेपासक्तचित्तत्वं कालापेक्षाव्यतिक्रम। लोभाकुलत्वं मूढत्व पापकर्मक्सर्गता ।१२१॥ -१. शिरको नीचा करके खडे होना लम्बित दोष है । २. शिरको ऊपरको उठाकर खड़े होना उत्तरित दोष है। ३. बालकको दूध पिलानेको उद्यत स्त्रीवत् बक्ष स्थल के स्तनभागको ऊपर उठा कर खडे होना स्तनोन्नति दोष है। ४. कायोत्सर्ग के समय शिर हिलाना शीर्षप्रकम्पित. ५. ग्रोवाको ऊपर उठाना ग्रोवोनयन । ६ ग्रीवाको नीचेकी तरफ झुकाना ग्रीवाधोनयन या ग्रीवावनमन दोष है १११५-११४। ७.थूकना आदि निष्ठीवन । ८. शरीरको इधर-उधर स्पर्श करना वपु स्पर्श। कायोत्सर्गके योग्य प्रमाणसे कम काल तक करना होन या न्यून। १०. आठों दिशाओंकी तरफ देखना दिगवलोकन। ११. लोगोको आश्चर्योत्पादक ढगसे खडे होना मायाप्रायास्थिति । १२. और वृद्धावस्थाके कारण कायोत्सर्गको छोड देना वयोपेक्षाविवर्जन नामक दोष है ।१२०। १३. मनमें विक्षेप होना या चलायमान होना व्याक्षेपासक्तचित्तता। १४. समयको कमीके कारण कायोत्सर्गके अशोको छोड देना कालापेक्षा व्यतिक्रम । १५. लोभ वश चित्तमे विक्षेप होना लोभाकुलता । १६ वर्तव्य अकर्तव्यके विवेकसे शून्य होना मूढता और कायोत्सर्गके समय हिंसादिके परिणामोका उत्कर्ष होना पापक कसर्गता नामक दोष
११. वन्दनाके अतिचार व उनके लक्षण मू. आ./६०३-६०७ अणादिट्ठ' च यद्ध' च पविटु' परिपीडिदं । दोलाइ
यमकुसियं तहा कच्छभरिंगिय ।६०३। मच्छ्रव्वत्तं मणोदूट वेदियाबद्धमेव य। भयदोसो बभयत्त इढिगारव गारवं ।६०४। तेणिदं पडिणिदं चावि पदुट्ठ तज्जिद तधा। सद'च हीलिदं चावि तह तिवलिदकंचिदं।६०५१ दिमदिट्ठ' चावि य सगस्स करमोयणं । आलद्धमणालद्ध' च हीणमुत्तरचूलियं ।६०६। मूगं च दद्दुरं चावि चुलुलिदमपच्छिम । बत्तीसदोसविसुद्ध किदियम्म पउचदे 1६०७१ - अनादृत, स्तब्ध, प्रविष्ट, परिपीडित, दोलायित, अंकुशित, कच्छपरिगित, मत्स्योद्वर्त, मनोदुष्ट, वेदिकाबद्ध, भय, विभ्य, ऋद्धिगौरव, अन्य गौरव, स्तेनित, प्रतिनोत, प्रदुष्ट, तजित, शब्द, हीलित, त्रिवलित, कुचित, दृष्ट, अदृष्ट, सघकरमोचन, आलब्ध, अनालब्ध हीन, उत्तरचूलिका, मूक, दर्दुर, चलुलित, इन बत्तोस दोषोंसे रहित विशुद्ध कृतिकर्म जो साधु करता है, उसके बहुत निर्जरा होती है ।६०३.६०७१ ( चा. सा./१५५/३)। अन.ध./८/६८-१११/८२२ अनावृतमतात्पर्य बन्दनायां मदोधृतिः । स्तब्धमत्यासन्नभाव' प्रविष्ट परमेष्ठिनाम् ।। हस्ताम्या जानुनोः स्वस्य संस्पर्श परिपीडितम् । दोलासितं चलन कायो दोलावत प्रत्ययोऽथवा reu भालेडकुशवदङ्गुष्ठविन्यासोऽडकुशितं मतम् । निषेदुष' कच्छपवद्रिडवा कच्छपरिङ्गितम्।१००ामत्स्योद्वत स्थितिमत्स्योद्वर्तवत त्वेकपाश्वत । मनोदुष्ट खेदकृतिगुर्वायु परि चेतसि ११०१। वेदिबध स्तनोत्पीडो दोभ्याँ वा जानुबन्धनम् । भयं क्रिया सप्तभयाद्विभ्यता विभ्यतो गुरो ११०० भक्तो गणो मे भावीति बन्दारोद्धिगौरवम् । गौरव स्वस्य महिमन्याहारादावथ स्पृहा।१०३। स्याद्वन्दने चोरिकया गुर्वादे स्तेनितं मले। प्रतिनीतं गुरोराज्ञारखण्डन प्रातिकून्यतः ॥१०४। प्रदुष्टं वन्दमानस्य द्विष्ठेऽकृत्वा क्षमा त्रिधा। तर्जितं तर्जनान्येषा स्वेन स्वस्याथ सूरिभिः ॥१०५। शब्दो जल्पक्रियान्येषामुपहासादि हेलितम् । त्रिवलितं कटिग्रोवाइभङ्गो भृकुटिर्नवा ।१०६॥ करामर्शोऽथ जान्वन्त' क्षेपः शीर्षस्य कुञ्चितम् । दृष्ट पश्यन् दिश स्तौति पश्यन्स्वान्येषु सुष्छु वा ।१०७। अदृष्ट गुरुदृड्मार्गत्यागो वाप्रतिलेखनम् । विष्टि सघस्येयमिति धी. संघकरमोचनम् ।१०८। उपध्यात्त्या क्रियालब्धमनालन्धं तदाशया। हीनंन्यूनाधिकं चूला चिरेणोत्तरचूलिका ।१०६। मूको मुखान्तवन्दारोहङ्काराद्यथ कुर्वत । दुर्दरो ध्वनिनान्येषां स्वेन च्छादयतो ध्वनीच ।११०॥ द्वात्रिशो वन्दने गोत्या दोषः सुललितायः। इति दोषोज्झिता कार्या वन्दना निजरार्थिना ।११११-१. बन्दनामें तत्परता या आदरका अभाव अनाहत दोष है, २. आठ मदोके वश होकर अह कार सहित वन्दना करना स्तब्ध दोष है, ३. अहंतादि परमेष्ठियोंके अत्यन्त निकट होकर वन्दना करना प्रविष्ट दोष है, ४. वन्दनाके समय जधाओका स्पर्श करना परिपीडित दोष है, ५. हिडोलेकी भाँति शरीरका अथवा मनका डोलना दोलायित दोष है ।८-६1. अकुशकी भॉति हाथको मस्तकपर रखना अकुशित दोष है, ७.बैठे-बैठे इधर उधर रौंगना कच्छपरिंगित दोष है ।१००1८. मछलीकी भाँति कटिभागको ऊपरको निकालना मत्स्योद्वर्त दोष है. ६. आचार्य आदिके प्रति आक्षेप या खिन्नता होना मनोदुष्ट दोष है ।१०११ १०. अपनी छातीके स्तनभाग मर्दन करना अथवा दोनों भुजाओंसे दोनों घुटने बाँधकर बैठना वेदिकाबद्ध दोष है, ११. सप्तभय युक्त होकर वन्दनादि करना भयदोष, १२. आचार्य आदिके भयसे करना विभ्य दोष है ।१०२। १३. चतु' प्रकार सघको अपना भक्त बनानेके अभिप्रायसे वन्दनादि करना ऋद्धि गौरव, १४. भोजन, उपकरण आदिकी चाहसे करना गौरव दोष है ।१०३३ ११. गुरुजनोसे छिपाकर करना स्तेनित, १६. और गुरुको आज्ञासे प्रतिकूल करना प्रतिनीत दोष है ।१०४।१७, तीनों योगोंसे द्वेषीको क्षमा धारण कराये मिना या
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व्युत्सर्ग
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उसे क्षमा किये बिना करना प्रदुष्ट, और १८. तर्जनी अंगुलीके द्वारा अन्य साधुओको भय दिखाते हुए अथवा आचार्य आदिसे स्वयं तजित होकर वन्दनादि करना तजित दोष है ।१०। १६. वन्दनाके भीचमें बातचीत करना शब्द, २०. वन्दनाके समय दूसरोंको धक्का आदि देना या उनको हँसी आदि करना हेलित, २१, कटि ग्रीवा मस्तक आदिपर तोन बल पड जाना त्रिबलित दोष है ।१०६॥ २२. दोनों घुटनोंके बीच में सिर रखना कुंचित, २३. दिशाओं की तरफ देखना अथवा दूसरे उसकी ओर देखें तब अधिक उत्साहसे स्तुति आदि करना दृष्ट दोष है ।१०७। २४, गुरुकी दृष्टिसे ओझल होकर अथवा पीछेसे प्रतिलेखना न करके वन्दनादि करना अदृष्ट, २५. 'संघ जबरदस्ती मुझसे बन्दनादि कराता है। ऐसा विचार आना 'संघर मोचन दोष है ।१०८।२६, उपकरणादिका लोभ हो जानेपर क्रिया करना आलब्ध, २७. उपकरणादिकी आशासे करना अनालब्ध, २८. मात्राप्रमाणकी अपेक्षा हीन अधिक करना हीन, २६. वन्दनाको थोडी ही देरमें ही समाप्त करके उसकी चूलिका रूप आलोचनादिको अधिक समय तक करना उत्तर चूलिका दोष है ।१०।। १०. मन मनमें पढना ताकि दूसरा न सुने अथवा वन्दना करते करते बीच-बीच में इशारे आदि करना मूक दोष है, ३१. इतनी जोर जोरसे पाठका उच्चारण करना जिससे दूसरोंको बाधा हो सो दुर्दर दोष है ।११०। ३२. पाठको पंचम स्वरमें गा गाकर बोलना सुललित या चलित दोष है । इस प्रकार ये वन्दनाके ३२ दोष कहे (११॥
२. व्युत्सर्ग तप या प्रायश्चित्त निर्देश
१. व्युत्सर्ग तप व प्रायश्चित्तका लक्षण स. सि./६/२०/४३६/- आत्माऽत्मीयसंकल्पत्यागो व्युत्सर्गः। स. सि./९/२२/१४०/८ कायोत्सर्गादिकरणं व्युत्सर्ग। स. सि./६/२६/४४३/१० व्युत्सर्जन व्युत्सर्गस्त्यागः । १. अहंकार और ममकाररूप संकल्पका त्याग करना व्युत्सर्ग तप है। २. कायोत्सर्ग आदि करना व्युत्सर्ग प्रायश्चित्त है। (रा. वा./8/२२/६/६२१/२८); (त. सा./७/२४)। ३. व्युत्सर्जन करना व्युत्सर्ग है। जिसका नाम त्याग है। (रा. वा./६/२६/१/६२४/२६)। घ.८/३,४१/८/२ सरीराहारेसु हु मणवयणपवुत्तीओ ओसारिय ज्झयम्मि एअग्गेण चित्तणिरोहो विओसग्गो णाम । शरीर व आहार में मन एवं वचनकी प्रवृत्तियोंको हटाकर ध्येय वस्तुकी ओर एकाग्रतासे चित्तका निरोध करनेको व्युत्सर्ग कहते है। घ. १३/५,४.२६/६१/२ झाणेण सह कायमुज्झिदूण मुहुत्त-दिवस-पक्खमासादिकालमच्छणं उबसग्गो णाम पायच्छित्तं । कायका उत्सर्ग करके ध्यानपूर्वक एक मुहूर्त, एक दिन, एक पक्ष और एक महीना आदि काल तक स्थित रहना व्युत्सर्ग नामका प्रायश्चित्त है। (चा. सा./१४२३); ( अन.ध./७/११/६६५)। अन ध./७/६४/७२१ बाह्याभ्यन्तरदोषा ये विविधा बन्धहेतव' । यस्तेषामुत्तमः सर्गः स व्युत्सर्गों निरुच्यते ।६४ा बन्धके हेतुभूत विविध प्रकारके बाह्य और अभ्यन्तर दोषोका उत्तम प्रकारसे त्याग करना, यह 'व्युत्सर्ग' की निरुक्ति है।
२. व्युत्सर्ग तपके भेद-प्रभेद मू.आ४०६ दुविहो य विउसग्गो अब्भतर बाहिरो मुणेयम्वो।४०६। व्युत्सर्ग दो प्रकारका है-अभ्मन्तर व बाह्य । (त. सू १/२६); (त. सा./७/२६)। चा,सा/पृष्ठ/पंक्ति अभ्यन्तरोपधिव्युत्सर्ग सद्विविधा-यावज्जीवं, नियत-
कालश्चेति । ( १५४/३)। तत्र यावज्जीव त्रिविध-भक्तप्रत्याख्यानेङ्गिनीमरणप्रायोपगमनभेदात् । (१५४/३)। नियतकालो द्विविध'
२. व्युत्सर्ग तप या प्रायश्चित्त निर्देश नित्यनैमित्तिक्भेदेन । ( १५५/१) अभ्यन्तर उपधिका व्युत्सर्ग दो प्रकारका है-यावज्जीव व नियतकाल। तहॉ यावज्जीव व्युत्सर्ग तीन प्रकार है-भक्तप्रत्याख्यान, इंगिनी, और प्रायोपगमन । नियतकाल दो प्रकारका है-नित्य व नैमित्तिक । ( अन ध /७/६६६८/७२१); ( भा. पा/टी./७८/२२५/१६) ।
३. बाह्य व अभ्यंतर व्युत्सर्गके लक्षण मू. आ./४०६ अभ्यंतरः क्रोधादिः बाह्य क्षेत्रादिक द्रव्यं 1४०६॥
- अभ्यन्तर उपधिरूप क्रोधादिका त्याग करना अभ्यन्तर व्युत्सर्ग है और बाह्य उपधि रूप क्षेत्र वास्तु आदिका त्याग करना बाह्योपधि व्युत्सर्ग है ।४०६। विशेष (दे० ग्रन्थ/२) । स. सि./६/२६/४४३/११ अनुपात्तं वास्तुधनधान्यादि बाह्योपधिः । क्रोधादिरात्मभावोऽभ्यन्तरोपधि। कायत्यागश्च नियतकालो यावज्जीवं वाभ्यन्तरोपधित्याग इत्युच्यते। -आत्मासे एकत्वको नहीं प्राप्त हुए ऐसे वास्तु, धन और धान्य आदि बाह्य उपधि हैं ओर क्रोधादि आत्मभाव अभ्यन्तर उपधि हैं। (इनका त्याग बाह्य व अभ्यन्तर उपधि व्युत्सर्ग है)। तथा नियत काल तक या यावज्जीवन तक कायका त्याग करना भी अभ्यन्तर उपधित्याग कहा जाता है। (रा. वा /8/२६/३-४/६२४/३०); ( त सा /७/२६); (चा. सा/१५४/१); (अन ध०/७/६३,६६/७२०)। चा, सा./१५५/२ नित्य आवश्यकादयः। नैमित्तिक' पार्वणी क्रिया निषद्याक्रियाद्याश्च ।-काय सम्बन्धी अभ्यन्तर व्युत्सर्ग नियत व अनियतकालकी अपेक्षा दो प्रकारका है। तहाँ अनियतकाल व्युत्सर्ग भक्तप्रत्याख्यान, इगिनी व प्रायोपगमन विधिसे शरीरको त्यागनेकी अपेक्षा तीन प्रकारका है । ( इन तीनोके लक्षण दे. सल्लेखना/२)। नियतकाल व्युत्सर्ग नित्य व नैमित्तिकके भेदसे दो प्रकारका है(वे. व्युत्सर्ग/२/२)] इन दोनों में से आवश्यक आदि क्रियाओंका करना नित्य है तथा पर्व के दिनोमें होनेवाली क्रियाएँ करना व निषद्या
आदि क्रिया करना नैमित्तिक है। (अन. ध /9/६७-६८/७२२ ) । भा, पा/टी/२२५/१६ नियतकालो यावज्जीवं वा कायस्य त्यागोऽभ्यन्तरोपधिव्युत्सर्गः । बाह्यस्त्वनेकप्रायो व्युत्सर्ग' | कायका नियतकालके लिए अथवा यावज्जीवन त्याग करना अभ्यन्तरोपधि व्युत्सर्ग है। बाह्योपधि व्युत्सर्ग अनेक प्रकारका है। * बाह्य व अभ्यन्तर उपधि-दे. ग्रन्थ/२। ४. व्युत्सर्गतपका प्रयोजन स सि /8/२६/४४३/१२ निस्संगत्वनिर्भयत्वजीविताशाव्युदासाद्यर्थ, रा, वा./8/२६/१०/६२५/१४ निसङ्गत्व मिर्भयत्वं जीविताशाव्युदासः, दोषोच्छेदो, मोक्षमार्गप्रभावनापरत्वमित्येवमाद्यों व्युत्सगोंऽभि धीयते द्विविध । =नि संगत्व. निर्भयत्व, जीविताशाका त्याग, दोषोच्छेद और मोक्षमार्गप्रभावना, तत्परत्व आदिके लिए दोनों प्रकारका व्युत्सर्ग करना आवश्यक है। (चा. सा./१६६/५), (भा पा /टी /७/२२५/१७)
५. व्युत्सर्गतपके अतिचार भ. आ /वि/४८७/७०७/२३ व्युत्सर्गातिचारः । कुतो भवति शरीरममतायामनिवृत्ति.। = शरीरपरसे ममता हटाना व्युत्सर्ग तप है। परन्तु ममत्व दूर नही करना यह व्युत्सर्ग तपका अतिचार है।
६. व्युत्सर्ग तप व प्रायश्चित्तमें अन्तर रा, वा/8/२६/८/६२५/७ अथ मतमेतत-प्रायश्चित्ताभ्यन्तरो व्युत्सर्गस्ततः पुनस्तस्य वचनमनर्थकमिति; तन्नः किं कारणम् । तस्य प्रतिद्वन्द्विभावात्, तस्य हि व्युत्सर्गस्यातिचारः प्रतिद्वन्द्वी विद्यते, अयं
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व्रत
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पुनरनपेक्ष क्रियते इत्यस्ति विशेष । - प्रश्न-प्रायश्चित्तके भेदो में व्युत्सर्ग कह दिया गया । पुन तपके भेदो में उसे गिनाना निरर्थक है ? उत्तर-ऐसा नही है, क्योकि इनमे भेद है। प्रायश्चित्त में गिनाया गया व्युत्सर्ग, अतिचार होनेपर उसकी शुद्धिके लिए किया जाता है, पर व्युत्सर्ग तप स्वय निरपेक्षभावसे किया जाता है ।
७. व्युत्सर्गतप व परिग्रहत्याग व्रतमें अन्तर रा बा /8/६/६/६२५/१ स्यादेतत्-महावतोपदेशकाले परिग्रह निवृत्तिरुक्ता, तत पुनरिद वचनमनर्थकमिति, तन्न, कि कारणम् । तस्य धनहिरण्यवसनादिविषयत्वात् । प्रश्न-महावतोंका उपदेश देते समय परिग्रहत्याग कह दिया गया। अब तप प्रकरण में पुन व्युत्सर्ग कहना अनर्थक है ? उत्तर-ऐसा नहीं है, क्यो कि, परिग्रहत्याग व्रतमें सोना-चाँदो आदिके त्यागका उपदेश है, अत यह उससे पृथक् है । 4. व्युत्सर्गतप व त्याग धर्ममें अन्तर रा. वा/६/६/१६/१६८/६ स्यान्मत-वक्ष्यते तपोऽभ्यन्तर षड्विधम, तत्रोत्सर्गलक्षणेन तपसाग्रणमस्य सिद्धमित्यनर्थक त्यागग्रहणमिति; तन्न, कि कारणम् । तस्यान्यार्थत्वात् । तद्धि नियतकाल सर्वोत्सर्ग लक्षणम, अय पुनस्त्याग यथाशक्ति अनियतकाल' क्रियते इत्यस्ति भेद । = प्रश्न-छह प्रकार के अभ्यन्तर तपमें उत्सर्ग लक्षणवाले तपका ग्रहण किया गया है, अतः यहाँ दस धर्मोके प्रकरणमे त्यागधर्मका ग्रहण निरर्थक है । उत्तर-नही, क्योकि, वहाँ तपके प्रकरण में तो नियतकालके लिए सत्याग किया जाता है और त्याग धर्म में अनियतकाल के लिए यथाशक्ति त्याग किया जाता है। रा वा./६/२६/७/६२५/४ स्यादेतत-दश विधधर्मेऽन्तरीभूतस्त्याग इति पुनरिद वचनमनर्थ कमिति, तन्ना कि कारणम् । प्रासुकनिरबद्याहारादिनिवृत्तितन्त्रत्वात् तस्या-प्रश्न-दश धर्मोंमे त्याग नामका धर्म अन्तर्भूत है अत यहाँ व्युत्सर्गका व्याख्यान करना निरर्थक है। उत्तर-ऐसा नही है, क्योकि, त्याग धर्म प्रासुक औषधि व निरवद्य आहारादिका अमुक समय तक त्यागके लिए त्याग धर्म है । अत: यह उससे पृथक् है।
* व्युत्सर्ग प्रायश्चित्त किसको कब दिया जाता है व्युदास-दे अभाव ।
--दे. प्रायश्चित्त/४। व्युत्क्रांत-प्रथम नरकका ११ वॉ पटल । दे. नरक/५ । व्युपरत क्रिया निवृत्ति-दे. शुक्लध्यान। व्युष्टि-क्रिया-दे. संस्कार(२। वणमुख-औदारिक शरीर में इनका प्रमाण ।-दे.औदारिक/९/७१ व्रत-यावज्जीवन हिसादि पापोंकी एकदेश या सर्व देश निवृत्तिको बत कहते है। वह दो प्रकारका है-श्रावको के अणुबत या एकदेशवत तथा साधुओके महावत या सर्वदेशबत होते है। इन्हे भावनासहित निरतिचार पाल नेसे साधकको साक्षात या परम्परा मोक्षकी प्राप्ति होती है, अतः मोक्षमार्ग में इनका बहुत महत्त्व है।
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· | व्रत निश्चयसे एक है । ब्यवहारसे पाच है।
-दे छेदोपस्थापना। व्रत सामान्यके भेद । - गुण व शीत व्रतोंके भेद व लक्षण ।
-दे वह वह नाम। व्रतोंमें सम्यक्त्वका स्थान। नि.शल्य व्रत ही यथार्थ है। -दे. व्रती। संयम व व्रतमें अन्तर ।
-दे सयम/२। व्रतके योग्य पात्र । -दे अगला शीर्षक । व्रत दान व ग्रहण विधि। व्रत ग्रहणमें द्रव्य क्षेत्रादिका विचार ।
-दे बत/१/५८ तथा अपवाद/२। व्रत गुरु साक्षीमें लिया जाता है। ७ | व्रतभंगका निषेध ।
कथंचित् व्रतमंग कीपाशा-दे०धर्म/६/४वचारित्र६/४॥ व्रतमंग शोधनार्थ प्रायश्चित्त ग्रहण। अक्षयव्रत आदि कुछ व्रतोंके नाम-निर्देश । अक्षयनिधि आदि व्रतोंके लक्षण। -दे. वह वह नाम । व्रत धारण का कारण व प्रयोजन -दे० प्रत्रिज्या/१/७॥ व्रतकी भावनाएँ व अतिचार प्रत्येक व्रतमें पाँच पाँच भावनाएँ व अतिचार । भावनाओंका प्रयोजन व्रतकी स्थिरता -दे. बत/२/१। पृथक्-पृथक् व्रतोंके अतिचार -दे. वह वह नाम । व्रत रक्षार्थ कुछ भावनाएँ। ये भावनाएँ मुख्यतः मुनियों के लिए है।
कथंचित् श्रावकोंको भी भानेका निर्देश । ५ | व्रतोंके अतिचार छोडने योग्य हैं।
महाव्रत व अणुव्रत निर्देश महाव्रत व अणुव्रतके लक्षण। स्थूल व सूक्ष्मव्रतका तात्पर्य ।
महाव्रत व अणुव्रतोंके पॉच मेद । ४ रात्रिभुक्ति त्याग छठा अणुव्रत है। * | श्रावक व साधुके योग्य व्रत। -दे. वह वह नाम ।
स्त्रीके महाव्रत कहना उपचार है। -दे, वेद/७/५ । | मिथ्यादृष्टिको व्रत कहना उपचार है।
-दे. चारित्र/६/८ | अणवतीको स्थावरघात आदिकी आशा नहीं। | महाव्रतको महाव्रत व्यपदेशका कारण ।
अणुव्रतको अणुव्रत व्यपदेशका कारण । अणुव्रतमें कथंचित् महाव्रतपना। अणुव्रतको महाव्रत नहीं कह सकते।
- दे. सामायिक/३। महाव्रतमें कथंचित् एकदेश व्रतपना। अणुव्रत और महाव्रतके फलोंमें अन्तर ।
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व्रत सामान्य निर्देश व्रत सामान्यका लक्षण। निश्चयसे व्रतका लक्षण। व्यवहार निश्चय व्रतोंमें आस्रव संवरपना ।
-दे. संवर। निश्चय व्यवहार व्रतोंकी मुख्यता गौणता।
-दे. चारित्र/४-७।
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१ व्रत सामान्य निर्देश
१. व्रत मामान्य निर्देश
१. व्रत सामान्यका लक्षण त सु/७/१ हिंसानृतस्तेयाब्रह्मपरिग्रहेभ्यो विरति तद ।। - हिसा,
अमत्य, चोरी, अब्रह्म ओर परिग्रहमे (यावज्जीवन दे भ आ/वि तथा द्र सं/टो) निवृत्त होना व्रत है ।श (घ ८/३,४१/०२/१), (भ. आ/वि/११८५/११७१/१६), (भ आ/वि /४२१/६१४/१६,२०) (द्र सं/टी/३५/१०१/१)। स.सि./७/९/३४२/६ बतमभिसधिकृतो नियम', इदं कर्तव्यमिद न कर्तव्यमिति बा। प्रतिज्ञा करके जो नियम लिया जाता है वह व्रत है ।यथा यह करने योग्य है, यह नहीं करने योग्य है' इस प्रकार नियम करना बत है । (रा वा./७/१/३/५३१/१५), (चा. सा/८/३)। प प्र/टो /२/१२/१७३/५ व्रतं कोऽर्थः । सर्व निवृत्तिपरिणाम । =सर्व
निवृत्तिके परिणामको व्रत कहते है। सा ध/२/८० संकल्पपूर्वक सेव्ये नियमोऽशुभकर्मण । निवृत्ति वत
स्याद्वा प्रवृत्ति शुभकर्मणि 101 किन्ही पदार्थों के सेवनका अथवा हिंसादि अशुभकर्मोका नियत या अनियत काल के लिए संकल्पपूर्वक त्याग करना बत है। अथवा पात्रदान आदि शुभ कर्मो में उसी प्रकार मकल्पपूर्वक प्रवृत्ति करना व्रत है।
४. वतों में सम्यक्त्वका स्थान भ आदि /११६/२७७/१६ पर उद्धृत-पचबदाणि जदीर्ण अणुबदाइ
च देसविरदाण । ण ह सम्मत्तण विणा तौ सम्मत्त पढमदाए । - मुनियोके अहिसादि पच महाव्रत और श्रावकोके पाँच अणुव्रत, ये सम्यग्दर्शनके बिना नहीं होते है, इसलिए प्रथमत आचार्योंने सम्यक्त्वका वर्णन किया है। चा. सा /१६ एव विधाष्टाङ्ग विशिष्ट सम्यक्त्वं तद्विक्लयोरणुवतमहाव्रतयो मापि न स्यात । - इस प्रकार आठ अगोंसे पूर्ण सम्यग्दर्शन होता है। यदि सम्यग्दर्शन न हो तो अणुवत तथा महाबतोका नाम तक नही होता है। अ.ग. श्रा/२/२७ दवीय कुरुते स्थान मिथ्यावृष्टिरभीप्सितम्। अन्यत्र गमकारीब घोरर्युक्तो व्रतैरपि।२७१-घोर व्रतों से सहित भी मिथ्यादृष्टि वांछित स्थानको, मार्गसे उलटा चलनेवालेकी भाँति, अति दूर करता है। दे धर्म/२/६ ( सम्यक्त्व रहित बतादि अकिचित्कर है. वाल मत है। दे, चारित्र/६/८/(मिथ्यादृष्टि के बतोको महाव्रत कहना उपचार है)। दे अगला शीर्षक (पहिले तत्त्वज्ञानी होता है पीछे व्रत ग्रहण करता है)।
२. निश्चयसे वतका लक्षण द्र स/टी (३५/१००/१३ निश्चयेन विशुद्वज्ञानदर्शनस्वभावनिजात्मतत्व
भावनोत्पन्नसुखसुधास्वादबलेन समस्तशुभाशुभरागादि-विकल्पनिबृत्तिब तम् । निश्च यनयकी अपेक्षा विशुद्ध ज्ञानदर्शन रूप स्वभाव धारक निज आत्मतत्त्वकी भावनासे उत्पन्न सुखरूपी अमृतके आस्वादके बलसे सब शुभ व अशुभ राग आदि विकल्पोंसे रहित होना व्रत है। प.प्र./२/६७/१८६२ स्वात्मना कृत्वा स्वात्मनिर्वतन इति निश्च यवतं ।
शोल अर्थात अपने आत्मासे अपने आस्मामें प्रवृत्ति करना, ऐसा निश्चय व्रत। पं.ध./उ./श्लो. सर्वत' सिद्धमेवैतद्वत बाह्य दयाजिषु । बतमन्त' कषायाणां त्यागसैषात्मनि कृपा ७५३। अर्थाद्रागादयो हिसा चास्यधर्मो व्रतच्युति' । अहिंसा तत्परित्यागो व्रत धर्मोऽथवा किल १७५५ । तत. शुद्धोपयोगो यो मोहकर्मोदयाते। चारित्रापरनामैतद्ववतं निश्चयतः परम् ।७५८१-१. प्राणियोंपर दया करना बहिरंग व्रत है, यह बात सब प्रकार सिद्ध है। कषायोंका त्याग करना रूप स्वदया अन्तरंग व्रत है ७५३.२. राग आदिका नाम ही हिसा अधर्म और अबत है, तथा निश्चयसे उसके त्यागका ही नाम अहिंसा व्रत और धर्म है १७५३ ( और भी दे अहिसा/२/१)। ३. इसलिए जो मोहनीय कर्मके उदयके अभावमें शुद्धोपयोग होता है, यही निश्चयनयसे, चारित्र है दूसरा नाम जिसका ऐसा उत्कृष्ट व्रत है ।७५८
५. व्रतदान व ग्रहण विधि भ आ/वि/४२१/६१४/११ ज्ञातजीवनिकायस्य दातव्यानि नियमेन व्रतानि इति षष्ठ स्थितिकल्प । अचेलताया स्थित उद्देशिकरजपिण्डपरिहरणोद्यत' गुरुभक्तिकृतविनीतो व्रतारोपणा) भवति । .. इति व्रतदानक्रमोऽयं स्वयमासीनेषु गुरुषु, अभिमुखं स्थिताभ्यो विरतिभ्यः श्रावकश्राविकावर्गाय बतं प्रयच्छेत् स्वय स्थित' सूरि' स्ववामदेशे रिथताय विरताय बतानि दद्याद । ज्ञात्वा श्रद्धाय पापेभ्यो विरमण व्रतं-जिसको जीवों का स्वरूप मालूम हुआ है ऐसे मुनिको नियमसे व्रत देना यह व्रतारोपण नामका छठा स्थिति कल्प है। जिसने पूर्ण निर्ग्रन्थ अवस्था धारण की है, उददेशिकाहार
और राजपिडका त्याग किया है, जो गुरु भक्त और विनयी है, वह व्रतारोपण के लिए योग्य है। (यहाँ इसी अर्थ की द्योतक एक गाथा उद्धृत की है ) बत देनेका क्रम इस प्रकार है-जब गुरु बैठते है और आर्यिकाएँ सम्मुख होकर बैठती है, ऐसे समयमें श्रावक और श्राविकाओंको गत दिये जाते है। बत ग्रहण करनेवाला मुनि भी गुरुके बायी तरफ बैठता है। तब गुरु उसको बत देते है। ब्रतोंका स्वरूप जानकर तथा श्रद्धा करके पापोंसे विरक्त होना बत है। ( इसलिए गुरु उसे पहले वोंका उपदेश देते हैं-(दे० इसी मूल टीकाका अगला भाग ) । बत दान सम्बन्धी कृतिकर्म के लिए-दे० कृतिकर्म ) । मो मा. प्र/७/३५९/१७ व ३५२/७ जैन धर्मविर्षे तो यह उपदेश है,
पहलें तौ तत्त्वज्ञानी होय, पीछे जाका त्याग करै,'ताका दोष पहिचाने । त्याग किए गुण होय, ताको जान। बहुरि अपने परिणामनिको ठीक करै। वर्तमान परिणामनि हीकै भरोसै प्रतिज्ञा न करि बैठे। आगामी निर्वान होता जानै तौ प्रतिज्ञा करै । बहुरि शरीरकी शक्ति वा द्रव्य क्षेत्र काल भावादिकका विचार करै। ऐसे विचारि पीछे प्रतिज्ञा करनी. सो भी ऐसी करनी जिस प्रतिज्ञात निरादरपना न होय, परिणाम चढते रहै। ऐसी जैनधर्मकी आम्नाय है। सम्यग्दृष्टि प्रतिज्ञा करै है, सो तत्त्वज्ञानादि पूर्वक ही
व्रत सामान्यके भेद त. सू./७/२ देशसर्वतोऽशुमहती ।२१-देशत्यागरूप अणुव्रत और सर्व
स्यागरूप महावत, ऐसे दो प्रकार व्रत हैं । (र. क श्रा./५०) । र. क. श्रा./५१ गृहिणां त्रेधा तिष्ठत्यणुगुणशिक्षानतात्मक चरणं ।
पञ्चत्रिचतुर्भेदं त्रय यथासंख्यमाख्यातं ५११- गृहस्थोका चारित्र पाँच अणुनत, तीन गुणव्रत और चार शिक्षाबत इस प्रकार १२ भेदरूप कहा गया है। (चा, सा./१३/७); (पं वि/६/२४:७/५); (वसु. प्रा./२०७); (सा. घ./२/१६) ।
१. व्रत गुरु साक्षीमें लिया जाता है दे. व्रत/१/५ (गुरु और आर्यिकाओं आदिके सम्मुख, गुरुकी बायीं
ओर बैठकर श्रावक व श्राविकाएँ बत लेते हैं।
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मा० ३-७९
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व्रत
२. ब्रतकी भावनाएँ व अतिचार
मुखावलोकन, जिनरात्रि, ज्येष्ठ, णमोकार पैतीसी, तपो विधि, तपो शुद्धि, त्रिलोक तीज, रोट तीज, तीर्थर वत, तेला व्रत त्रिगुणसार, त्रेपन क्रिया, दश निनियानी, दशलक्षण, अक्षयफलदशमी, उडंड दशमी, चमक दशमी, छहार दशमी. झावदशमी, तमोर दशमी, पान दशमी, फल दशमी, फूलदशमी, बारा दशमी. भण्डार दशमी, मुगन्ध दशमी, सौभाग्य दशमी, दीपमालिका, द्वादशीबत, काजी बारस, श्रावण दशमी, धनकलश, नवविधि, नक्षत्रमाला, नवकार व्रत, पचपोरिया, आकाश पंचमी, ऋषि पंचमी, कृष्ण पंचमी, कोकिल पंचमी, गारुड पंचमी, निर्जर पंचमी, श्रुतपंचमी, श्वेत पंचमी, लक्षण पंक्ति, परमेष्डीगुण बत, पल्लव विधान, पुष्पांजली, बारह तप, बारह बिजोरा, बेला, तीर्थकर बेला. शिवकुमार बेला, षष्ठम बेला, भावना व्रत, पंचविंशति-भावना, भावना पच्चीसी, मुरजमध्य, मुष्टि-विधान, मेघमाला, मौन व्रत, रक्षा बन्धन, रत्नत्रय, रविवार, दुग्धरसी, नित्यरसी, षट्रसी, रुक्मणी, रुद्रवसंत, लब्धिविधान, वसन्तभद्र, शीलवत, श्रुतज्ञानव्रत, पच-श्रुतज्ञान, श्रुतस्कन्ध. षष्ठीव्रत, चन्दन षष्ठी, षोडशकारण, सकट हरण, कौमार सप्तमी, नन्दसप्तमी, निर्दोष सप्तमी, मुकुट सप्तमी, मोक्षसप्तमी, शीलसप्तमी, समक्ति चौबीसी, समवशरण, सर्वार्थसिद्धि, भाद्रवन-सिंह-निष्क्रीडित, सुखकारण, सुदर्शन, सौवीर भुक्ति। नोट-[इनके अतिरिक्त और भी अनेको बत-विधान प्रसिद्ध है, तथा
इनके भी अनेकों उत्तम-मध्यम आदि भेद है। उनका निर्देश-दे० बह-वह नाम।
मत, रक्षा चासो, सुरजमध्य, भावना बत
दे बत/१/७ ( गुरु साक्षीमें लिया गया वत भंग करना योग्य नहीं)। दे. सस्कार/२ (व्रतारोपण क्रिया गुरुकी साक्षीमें होती है)।
७. बत मंगका निषेध भ. आ/मू /१६३३/१४८० अरहंतसिद्धकेवलि अविउत्ता सवसंघसविखस्स । पञ्चक्रवाणस्स कदस्स भंजणादो वरं मरणं ।१६३३। पचपरमेष्ठी, देवता और सर्व संघकी साक्षीमें कृत आहारके प्रत्याख्यानका त्याग करनेसे अच्छा तो मर जाना है ।१६३३। (अ ग. श्रा./ १२/४४)। सा ध./७/१२ प्राणान्तेऽपि न भक्तव्यं गुरुसाक्षिश्रितं व्रतं । प्राणान्तस्तरक्षणे दुखं बतभङ्गो भवे भवे ।।२। प्राणान्त होनेकी सम्भावना होनेपर भी गुरु साक्षी में लिये गये व्रतको भग नहीं करना चाहिए। क्योंकि, प्राणों के नाशसे तो तरक्षण ही दुःख होता है, पर व्रत भंगसे
भव-भवमे दुख होता है। दे. दिग्बत/३ (मरण हो तो हो पर व्रत भंग नहीं किया जाता)। मो मा. प्र/७/पृष्ठ/पंक्ति-प्रतिज्ञा भंग करनेका महा पाप है। इसतें
तौ प्रतिज्ञा न लेंनी ही भली है। (३५१/१४) ।...मरण पर्यन्त कष्ट होय तो होहु, परन्तु प्रतिज्ञा न छोडनी । ( ३५२/५) ।
वत भंग शोधनार्थ प्रायश्चित्त ग्रहण सा, ध/२/७६ समीक्ष्य बतमादेयमात्तं पाव्य प्रयत्नतः । छिन्नं दोस्तमादाद्वा प्रत्यवस्थाप्यमञ्जसा ७६) द्रव्य क्षेत्रादिको देखकर बत लेना चाहिए, प्रयत्नपूर्वक उसे पालना चाहिए। फिर भी किसी मदके आवेशसे या प्रमादसे व्रत छिन्न हो जाये तो उसी समय प्रायश्चित्त लेकर उसे पुनः धारण करना चाहिए।
९. अक्षयव्रत आदि कुछ व्रतोंके नाम निर्देश ह. पु/३४/श्लो, नं.-सर्वतोभद्र (१२), बसन्तभद्र (१६), महासर्वतो-
भद्र (५७), त्रिलोकसार (५६), वज्रमध्य (६२), मृदङ्गमध्य (६४), मुरजमध्य (६६), एकावली (६७), द्विकावली (६८), मुक्तावली (६१), रत्नावली (७१), रत्नमुक्तावली (७२), कनकावली (७४), द्वितीय रत्नावली (७६), सिंहनिष्क्रीडित (७८-८०), नन्दीश्वरवत (८४), मेरुपक्तिवत (८६), शातकुम्भवत (८७), चान्द्रायण व्रत (१०), सप्तसप्तमतपोबत (११), अष्ट अष्टम वा नवनवम आदि वत (६२), आचाम्ल वर्द्धमान व्रत (६५), श्रुतवत (१७), दर्शनशुद्धि वत (१८), तप' शुद्धि बत (६६), चारित्रशुद्धिबत (१००), एक कल्याणवत (११०), पंच कल्याण व्रत (१११), शील कल्याणकवत (११२), भावना विधिवत ( ११२), पंचविंशति कल्याण भावनाविधि बत (११४), दुखहरण विधि बत (११८), कर्मक्षय विधि बत ( १२१), जिनेन्द्रगुण संपत्ति विधि व्रत ( १२२), दिव्य लक्षण पंक्ति विधिवत (१२३), धर्मचक्र विधि व्रत, परस्पर कल्याण विधि व्रत.(१२४) । (चा. सा/१५१४१ पर उपरोक्तमेसे केवल १० व्रतोंका निर्देश है)। वसु श्रा/श्लोक नं.-पंचमी व्रत (३५५), रोहिणीबत (३६३),
अश्विनी बत ( ३६६), सौख्य सम्पत्ति क्त (३६), नन्दीश्वर पंक्ति व्रत ( ३७३), विमान पंक्ति व्रत ( ३७६)। बत विधान संग्रह-[उपरोक्त सर्वके अतिरिक्त निम्न बोका अधिक उल्लेख मिलता है ।]-अक्षयनिधि, अनस्तमी, अष्टमी. गन्धअष्टमी, निशल्य अष्टमी, मनचिन्ती अष्टमी, अष्टाह्निका, आचारबर्धन, एसोनव, एसोदश. कंजिक, कर्मचूर, कर्म निर्जरा, श्रुतकल्याणक, क्षमावणी, ज्ञानपच्चीसी, चतुर्दशी, अनन्त चतुर्दशी, कली चतुर्दशी, चौतोस अतिशय, तीन चौबीसी, आदिनाथ जयन्ती, आदिनाथ निर्वाण जयन्ती, आदिनाथ शासन जयन्ती, वीर जयन्ती, वीर शासन जयन्ती, जिन पूजा पुरन्धर, जिन
२. व्रतकी भावनाएं व अतिचार
१. प्रत्येक व्रतमें पाँच-पाँच भावनाएँ व अतिचार त. सू.//३२४ तत्स्थै र्यार्थ भावना पञ्च-पञ्च ।३। बतशीलेपु पश्च-पश्च
यथाक्रमम् ।२४। -उन बतोको स्थिर करनेके लिए प्रत्येक वतकी पाँच-पाँच भावनाएं होती है।३। व्रतों और शीलोमे पाँच-पाँच अतिचार है जो क्रमसे इस प्रकार है ।२४। (विशेष देखो उस-उस वतका नाम)। (त. सा./४/६२)। त. सा./४/८३ सम्यक्त्ववतशीलेषु तथा सल्लेखनाविधी। अतोचाराः प्रवक्ष्यन्ते पञ्च-पञ्च यथाक्रमम् ।। -सम्यक्त्व व्रत शील तथा सब्लेखनाकी विधिमें यथाक्रम पाँच-पाँच अतिचार कहते है।
२. व्रत रक्षणार्थ कुछ मावनाएँ त. सू./0/8-१२ हिंसादिष्विहामुत्रापायावद्यदर्शनम् । दुवमेव
वा १०१ मैत्रीप्रमोदकारुण्यमाध्यस्थानि च सत्त्वगुणाधिकक्लिश्यमानाविनेयेषु ।११। जगत्कायस्वभावौ वा संवेगवैराग्याथं ॥१२॥ =१ हिंसादि पाँच दोषों में ऐहिक और पारलौकिक अपाय और अवद्यका दर्शन भावने योग्य है ।। अथवा हिंसादि दुःख ही है ऐसी भावना करनी चाहिए ।१०। २. प्राणीमात्रमें मैत्री, गुणाधिकों में प्रमोद, क्लिश्यमानोमें करुणा वृत्ति, और अविनेयों में माध्यस्थ भावकी भावना करनी चाहिए ।११। (ज्ञा./२७/४); ( सामायिक पाठ/अमितगति/१) । ३. सवेग और वैराग्यके लिए जगत्के स्वभाव और शरीरके स्वभावकी भावना करनी चाहिए ।१२।-(विशेष दे० वैराग्य )।
३. ये भावनाएँ मुख्यतः मुनियों के लिए हैं त. सा./४/६२ भावना संप्रतीयन्ते मुनीना भावितात्मनाम् ।२। ये पाँच-पाँच भावनाएं मुनिजनोंको होती हैं।
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व्रत
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३. महाव्रत व अणुव्रत निर्देश
सा ध./४/५ विरति स्थूलवधादेर्मनोवचोऽङ्गकृतकारितानुमते । क्वचिदपरेऽप्यननुमते पञ्चाहिसाद्यणुवतानि स्यु 11 - स्थूल वध आदि पॉचो स्थूल पापोका मन वचन कायसे तथा कृत कारित अनुमोदनासे त्याग करना अणुवत है। प. ध /उ /७२०-७२१ तत्र हिसानृतस्तेयाब्रह्मकृत्स्नपरिग्रहात् । देशतो 'विरति प्रोक्त गृहस्थानामगुब्रतम् १७२०। सर्वतो विरतिस्तेषा हिंसादीना ब्रत महत् । नैतत्सागारिभि कतुं शक्यते लिङ्गमर्हताम् ॥७२॥ = सागार व अनागार दोनो प्रकारके धर्मो मे हिसा झूठ चोरी कुशील और सम्पूर्ण परिग्रहसे एक देश विरक्त होना गृहस्थोका अणुवत कहा गया है ।७२०। उन्ही हिंसादिक पाँच पापोका सर्वदेशसे त्याग करना महावत कहलाता है। यह जिनरूप मुनिलिग गृहस्थोके द्वारा नही पाला जा सकता ।७२१ ।
१. कथंचित् श्रावकों के लिए भी भानेका निर्देश ला. सं.//१८४-१८६ सर्वसागारधर्मेषु देशशब्दोऽनुवर्तते । तेनान-. गारयोग्याया कर्तव्यास्ता अपि क्रिया. १८४। यथा समितय' पञ्च सन्ति तिस्त्रश्च गुप्तय । अहिसावतरक्षार्थ कर्तव्या देशतोऽपि त. १८॥ न चाशड्क्यमिमा. पञ्च भावना मुनिगोचरा' । न पुनर्भावनीयास्ता देशतोव्रतधारिभि ।१८७। यतोऽत्र देशशब्दो हि सामान्यादनुवर्तते । ततोऽणुवतसज्ञेषु व्रतत्वान्नाव्यापको भवेत् ।१८८) अलं विकल्पसकल्पै कर्तव्या भावना इमा । अहिसावतरक्षार्थ देशतोऽणुवतादिवत १८४ा माल गृहस्थोके धर्म के साथ देश शब्द लगा हुआ है, इसलिए मुनियोके योग्य कर्तव्य भी एक देशरूपसे उसे करने चाहिए ।१८४। जैसे कि अहिसावतकी रक्षाके लिए श्रावकको भो साधुकी भॉति समिति और गुप्तिका पालन करना चाहिए ।१८। यहाँपर यह शका करनी योग्य नहीं कि अहिसावतकी 'समिति, गुप्ति आदि रूप' ये पाँच भावनाएँ तो मुनियोका कर्तव्य है, इसलिए देशवतियोको नही करनी चाहिए ।१८७। क्योकि यहाँ देश शब्द सामान्य रीतिसे चला आ रहा है जिससे कि यह बतोकी भॉति समिति गुप्ति आदिमे भी एक देश रूपसे व्यापकर रहता है ।१८८। अधिक कहनेसे क्या, श्रावकको भी अहिंसाव्रतकी रक्षाके लिए ये भावनाएं अणुव्रतको तरह ही अवश्य करनी योग्य है ।१८। -(और भी दे० अगला शीर्षक ) ।
५. व्रतोंके अतिचार छोड़ने योग्य हैं सा. ध/४/१५ मुञ्चन् बन्धं बधच्छेदमतिभाराधिरोपणं । भुक्तिरोध
च दुर्भावाद्भावनाभिस्तदाविशेत् ॥१॥ =दुर्भावसे किये गये बध बन्धन आदि अहिसा बतके पाँच अतिचारोको छोडकर श्रावकोको उसकी पाँच भावनाओरूप समिति गुप्ति आदिका भी पालन करना
चाहिए। बत-विधान संग्रह पृ २१ पर उधृत-"वतानि पुण्याय भवन्ति जन्तोनं सातिचाराणि निषेवितानि। शस्यानि किं वापि फलन्ति लोके मलोपलीढानि कदाचनापि : =जीवको ब्रत पुण्यके कारण से होते है, इसलिए उन्हे अतिचार सहित नही पालना चाहिए, क्या लोकमें कहीं मल लिप्त धान्य भी फल देते है। दे० व्रत/१/७,८ ( किसी प्रकार भी व्रत भग करना योग्य नहीं। परिस्थिति वश भग हो जाने अथवा दोष लग जानेपर तुरत प्रायश्चित्त लेकर उसकी स्थापना करनी चाहिए।)
२. स्थूल व सूक्ष्म व्रतका तात्पर्य सा. ध /४/६ स्थूल हिसाद्याश्रयत्वात्स्थूलानामपि दुई शा। तत्त्वेन वा प्रसिद्धत्वाद्ववादि स्थूलमिष्यते।६। = हिसा आदिके स्थूल आश्रयोके आधारपर होनेवाले, अथवा साधारण मिथ्यादृष्टि लोगोमें प्रसिद्ध, अथवा स्थूलरूपसे किये जानेवाले हिसादि स्थूल कहलाते है । अर्थात् लोक प्रसिद्ध हिसादिको स्थूल कहते है, उनका त्याग ही स्थूल बत है। -विशेष दे० शीर्षक न.६। दे, श्रावक/४/२ [मद्य मांस आदि त्याग रूप अष्ट मूल गुणोमें व सप्त व्यसनोमें ही पाक्षिक श्रावकके स्थूल अणुव्रत गभित है।]
३. महावत व अणुव्रतोंके पाँच भेद भ आ./मू /२०८०/१७६६ पाणवधमुसावादादत्तादाणपरदारगमणेहि ।
अपरिमिदिच्छादो वि य अणुव्वयाइ विरमणा -प्राण वध, असत्य, चोरी, परस्त्री सेवन, परिग्रहमें अमर्यादित इच्छा, इन पापोंसे विरक्त होना अणुव्रत है ।२०८०। चा पा./मू /३० हिसाविरइ अहिसा असच्चविरई अदत्तविरई य । तुरियं अब भविरई पचम संगम्मि विरई य। -हिसासे विरति सो अहिसा और इसी प्रकार असत्य विरति, अदत्तविरति, अब्रह्मविरति और पाँचवी परिग्रह विरति है।३०॥ मू. आ./४ हिसाविरदी सच्च अदत्तपरिवज्जण च अभं च । सगविमुत्ती
य तहा महव्वया पच पण्णत्ता ।४। =हिसाका त्याग, सत्य, चोरीका त्याग, ब्रह्मचर्य, और परिग्रहत्याग ये पाँच महावत कहे गये है।४। दे. शीर्षक नं १-[अणुव्रत व महावत दोनो ही हिसादि पाँचों पापोके त्यागरूपसे लक्षित है।
४. रात्रिभुक्ति त्याग छठा अणुव्रत है स. सि./७/१/३४३/११ ननु च षष्ठमणुव्रतमस्ति रात्रिभोजनविरमणं
तदिहोपसंख्यातव्यम् । न, भावनास्वन्तर्भावात् । अहिसावतभावना हि वक्ष्यन्ते । तत्रालोकितपानभोजनभावना' कायति। -प्रश्नरात्रिभोजनविरमण नाम छठा अणुव्रत है, उसकी यहाँ परिगणना करनी थी। उत्तर-नहीं, क्योकि, उसका भावनाओं में अन्तर्भाव हो जाता है। आगे अहिंसावतकी भावनाएँ कहेगे। उनमें एक आलोकित पान-भोजन नामको भावना है, उसमे उसका अन्तर्भाव होता है। (रा वा/७/१/१२/५३४/२८)। पाक्षिकादि प्रतिक्रमण पाठ में प्रतिक्रमणभक्ति-'आधावरे छठे अणुव्वदे सब भते ! राईभोयणं पच्चक्खामि । - छठे अणुव्रत-रात्रिभोजनका प्रत्याख्यान करता हूँ। चा सा/१३/३ पचधाणुवतं राज्यभुक्ति. पष्ठमणुव्रतं । पाँच प्रकारका अणुव्रत है ओर रात्रिभोजन त्याग' यह छठा अणुव्रत है।
३. महाव्रत व अणुव्रत निर्देश
१. महाव्रत व अणुवतके लक्षण चा. पा./मू (२४ थूले तसायबहे थूले मोषे अदत्त थूले य। परिहारो परमहिला परिगहार भपरिमाण ।२४। -स्थूल हिसा मृषा व अदत्तग्रहण का त्याग, पर-स्त्री तथा बहुत आरम्भ परिग्रहका परि
माण ये पाँच अणुव्रत है ।२४। ( वसु श्रा/२०८) । त. सू./७/२ देशतर्वतोऽगुमहती ।२। - हिसादिकसे एक देश निवृत्त
होना अणु-वत और सब प्रकारसे निवृत्त होना महाव्रत है। र क. श्रा/५२, ७२ प्राणातिपात वितथव्याहारस्तेयकाममूच्छेभ्य, । स्थूलेभ्य पापेभ्यो व्युपरमणमणुवतं भवति ॥५२॥ पञ्चाना णपाना हिसादीनां मनोवच काये ।- कृतकारितानुमोदै स्त्यागस्तु महावत महतो ।७२। = हिसा, असत्य, चोरी, काम (कुशील ) और मूळ अर्थात परिग्रह इन पाँच स्थूल पापोसे विरक्त होना अणुव्रत है ।५२। हिंसादिक पाँचों पापोंका मन, बचन काय व कृतकारित अनुमोदनासे त्याग करना महापुरुषोका महावत है ।५३।
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व्रत प्रतिम
तथे वासश्यबचनपरिहारेऽपि सत्यवचनप्रवृक्तिरस्ति । तथैव चादत्तादानपरिहारेऽपि दत्तादाने प्रवृत्तिरम्तीत्येकदेश प्रवृत्त्यपेक्षया देश बतानि तेषामेर देशवताना त्रिगुप्तिलक्षण निविकापसमाधिकार त्याग । -प्रश्न-प्रसिद्ध अहिसादि महाव्रत एकदेशरूप से ह गये । उत्तर-अहिसा, मत्य और अचौर्य महावतामे यद्यपि जीव घातकी, असत्य बोलनेकी तथा अदत्त ग्रहणकी निवृत्ति है, परन्त जीवरक्षाकी, सत्य बोलने और दत्तग्रहणकी प्रवृत्ति है। इस एकदेश प्रवृत्तिको अपेक्षा ये एक देशवत है। त्रिगुप्तिलक्षण निविकल्प समाधि कालमे इन एक देशबतोका भी त्याग हा जाता है [ अर्थात् उनक विकल्प नही रहता। -दे० चारित्र/७/१०] [प. प्र/टी./२/५२
१७३/७), (दे० सवर/२/३)। दे० धर्म/३/२ [ बत व अवतसे अतीत तीसरी भूमिका ही यथार्थ वर
५ अणुवतीको स्थावर घात आदिकी भी अनुमति नही है क पा. १/११/गा ५५/१०५ सजदधम्मकहा बिय उवासमाण सदार
संतोसो। तसत्रह विरईसिवरवा थावर घादो त्ति णाणुमदो ५५ - सयतधर्मको जो कथा है उसमे श्रावको को ( केवल ) स्वदारसतोष
और त्रसबध पिरतिकी शिक्षा दी गयी है । पर इससे उन्हे स्थावर घातकी अनुमति नहीं दी गयी है। सा घ,/४/११ यन्मुक्त्यमहिसैव तन्मुमुक्षुरुपासक । एकाक्षवध
मप्युज्झा स्थानावगंभोगकृत ।११। = जो अहिसा ही मोक्षका साधन है उसका मुमुक्षु जनोको अवश्य सेवन करना चाहिए । भौगोपभोगमें होनेवाली एकेन्द्रिय जीवो की हिसाको छोडकर अर्थात् उससे बचे शेष एकेन्द्रिय जीवोकी हिसाका त्याग भी अवश्य कर देना चाहिए।
१. महाव्रतको महाव्रत व्यपदेशका कारण भ,आ./म /११८४/११७० साधे ति जंमहत्य आयरिइदा च ज महल्लेहि। ज च महल्लाइ सय महव्वदाइ हवे ताइ ।११८४1- महान् मोक्षरूप अर्थकी सिद्धिं करते है।महान तीर्थंकरादि पुरुषोने इनका पालन किया है. सब पापयोगोका त्याग होनेसे स्वत महान् है, पूज्य है, इसलिए इनका नाम महावत है ।११८४। (मू आ /२६४), (चा पा /म् /३१)।
७. अणुव्रतको अणुव्रत व्यपदेशका कारण स सि /७/२०/३५८/६ अणुशब्दोऽल्पवचन । अणूनि घतान्यस्य अणुव्रतोऽगारीत्युच्यते । कथमस्य व्रतानामणुरवम्। सर्वसावानिवृत्त्यसभवात्। कुतस्तह्यसौ निवृत्त । त्रसप्राणिव्यपरोपरोपणानिवृत्त अगारीत्याद्यमणुवतम् । स्नेहमोहादिवशाद् गृहविनाशे ग्राम विनाशे बा कारणमित्यभिमतादसत्यवचनानिवृत्तो गृहीति द्वितीयमणुव्रतम् । अन्यपीडाकर पार्थिवभयादिवशाद वश्य परित्यक्तमपि पददत्त तत प्रतिनिवृत्तादर श्रावक इति तृतीयमणुवतम् । उपात्ताया अनुपात्तायाश्च पराङ्गनाया सङ्गानिवृत्तरतिगृहीति चतुर्थमणुवतम् । धनधान्यक्षेत्रादीनामिच्छावशात कृतपरिच्छेदो गृहीति पचममणुबतम् । - अणु शब्द अल्पवाची है। जिसके व्रत अणु अर्थात अल्प है, वह अणुव्रतवाला अगारी कहा जाता है। प्रश्न-अगारीके व्रत अल्प केसे है। उत्तर अगारीके पूरे हिसादि दोषोका त्याग सम्भव नही है, इसलिए उसके व्रत अल्प है। प्रश्न-तो यह किसका त्यागी है । उत्तर-यह त्रसजीवोकी हिसाका त्यागी है, इसलिए इसके पहिला अहिसा अणुव्रत होता है। गृहस्थ स्नेह और मोहादिके वशसे गृहविनाश और ग्रामविनाशके कारण असत्य वचनसे निवृत्त है इसलिए उसके दूसरा सत्याणुव्रत होता है। श्रावक राजाके भय आदिके कारण दूसरेको पीडाकारी जानकर बिना दी हुई वस्तुको लेनेसे उसकी प्रीति घट जाती है, इसीलिए उसके तीसरा अचौर्याणवत होता है । गृहस्थ के स्वीकार की हुई या बिना स्वीकार को हुई परस्त्रीका सग करनेसे रति हट जाती है, इसलिए उसके परस्त्रीत्याग नामका चौथा अणुवत होता है। तथा गृहस्थ धन, धान्य और क्षेत्र आदिका स्वेच्छासे परिमाण कर लेता है, इसलिए उसके पाँचवा परिग्रहपरिमाण अणुवत होता है । (रा. वा /७/२०/-1५४७/४ )।
८. अणुव्रतमें कथचित् महानतपना दे. दिग्बत, देशव्रत-[की हुई मर्यादासे बाहर पूर्ण त्याग होनेसे श्रावक-
के अणुव्रत भी महाव्रतपनेको प्राप्त होते है।' वे. सामायिक/३ [ सामायिक कालमे श्रावक साधु तुल्य है।]
९. महाव्रतमें कथंचित् देशवतपना इ.सं./टी./१०/२३०/४ प्रसिद्धमहावतानि कथमेकदेशरूपाणि, जातानि । इति चेदुच्यते-जीवघातनिवृत्ती सत्यामपि जीवरक्षणे प्रवृत्तिरस्ति।
१०. अणु व महाव्रतोंके फलों में अन्तर चा, सा /६/६ सम्यग्दर्शनमणुव्रतयुक्त स्वर्गाय महाव्रतयुक्त मोक्षाय च ।
- अणुबत युक्त सम्यग्दर्शन स्वर्गका और महाबत युक्त मोक्षक कारण है। व्रतचर्या क्रिया-दे, सस्कार/२ । व्रत प्रतिमार.क श्रा/१३८ निरतिक्रमणमणुव्रतपञ्च कमपि शील सप्तकं चापि । धारयते
नि शल्यो योऽसौ वतिना मतो बतिक ११३८। जो शल्य रहित होता हुआ अतिचार रहित पाँचो अणुबतोको तथा शील सप्तक अर्थात तीन गुणवतो और चार शिक्षाबतोको भी धारण करता है, ऐसा पुरुष व्रतप्रतिमाका धारी माना गया है। (व. श्रा/२०७ ), (का. आ./मू/३३०), (द्र, स/टी/४/१६५/४)। सा ध/४/१-६४ का भावार्थ-पूर्ण सम्यग्दर्शन व मूल गुणो सहित निरतिचार उत्तर गुणोको धारण करनेवाला बतिक श्रावक है ।। तहाँ अहिसाणुव्रत गौ आदिका वाणिज्य छोडे। यह न हो सके तो उनका बन्धनादि न करे। यह भी सम्भव न हो तो निर्दयतासे बन्धन आदि न करे ।१६। कषायवश कदाचित अतिचार लगते है ।१७। रात्रि भोजनका पूर्ण त्याग करता है ।२७१ अन्तराय टालकर भोजन करता है ।३०। भोजनके समय ।३४॥ व अन्य आवश्यक क्रियाओके समय मौन रखता है ।३८। सत्याणुव्रत-झूठ नहीं बोलता. झूठी गवाही नही देता, धरोहर सम्बन्धी झूठ नहीं बोलता परन्तु स्वपर आपदाके समय झूठ बोलता है।३९। सत्यसत्य, असत्यसत्य, सत्यासत्य तो बोलता है पर असत्यासत्य नही बोलता।४० सावद्य वचन व पाँचो अतिचारोका त्याग करता है ।४। अचौर्याणुव्रत कहीपर भी गडा हुआ या पड़ा हुआ धन आदि अदत्त ग्रहण नहीं करता ।४८। अपने धनमें भी सशय हो जानेपर उसे ग्रहण नहीं करता ।४६॥ अतिचारोंका स्याग करता है ।१०। ब्रह्मचर्याणुव्रत--स्वदारके अतिरिक्त अन्य सब स्त्रियोका त्याग करता है ।५१-५२। इस व्रतके पाँचो अतिचारोका त्याग करता है।८। परिग्रहपरिमाणवत--एक घर या खेतके साथ अन्य घर या खेत जोडकर उन्हे एक गिनना, एक गाय रखनेके लिए गर्भवती रखना, अपना अधिक धन सम्बन्धियोको दे
देना इत्यादि क्रियाओका त्याग करता है ।६।। सा. ध./५/१५.२३ भोगोपभोग परिमाण व्रतके अन्तर्गत सर्व अभक्ष्यका त्याग करता है ।१५-१६। १५ प्रकारके खर कर्मोका त्याग करता है ।२१-२३॥ सा.ध./६/१८-२६ अनवद्य व्यापार करे ।१८। उद्यानमें भोजन करना, पुष्प तोडना आदिका त्याग करे ।२०। अनेक प्रकारके पूजन विधान आदि करे।२३। दान देनेके पश्चात स्वय भोजन करे ।२४। आगम चर्चा करे ।२६।
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व्रत शुद्धि
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व्रती
*बत व अन्य प्रतिमाओंमें अन्तर
-दे. वह वह नाम। व्रत शुद्धि-दे. शुद्धि। वतारोपण योग्यता-दे. व्रत/१/५ । व्रतावरण क्रिया-दे. सस्कार /२ । व्रतीस. सि./६/१२/३३०/११ व्रतान्यहिसादीनि वक्ष्यन्ते, तद्वन्तो बतिन ।
--अहिंसादिक बतोका वर्णन आगे रेगे। ( कोशमें उनका वर्णन व्रतके विषयमें किया जा चुका है)। जो उन व्रतोसे युक्त है वे व्रती कहलाते है । (रा. वा./६/१२/२४५२२/१४ ) ।
२. व्रतीके भेद व उनके लक्षण त. सू./9/१६ अगार्यनगारश्च ।१३। उस ब्रतीके अगारी और अनगारी
ये दो भेद है। स. सि /६/१२/३३०/१२ ते द्विविधा । अगार प्रति निवृत्तीत्सुक्या संयता' गृहिणश्च संयतासयता' । -वे व्रती दो प्रकारके है-पहले वे जो घरसे निवृत्त होकर संयत हो गये है। और दूसरे गृहस्थ
संयतासंयत । (रा. वा६/१२/२/५२२/५१)! त. सा./४/७१ अनगारस्तथागारी स द्विधा परिकथ्यते। महायता
नगार स्यादगारी स्यादणुवत ७१। वे व्रती अनगार और अगारीके भेदसे दो प्रकारके है। महाबतधारियोको अनगार और अणुप्रतियोको अगारी कहते है। (विशेष दे. बह वह नाम अथवा साधु व श्रावक) २. व्रती निःशल्य ही होता है भ आ./मू /१२१४/१२१३ णिस्सलेलसेव पृणो महब्बदाइ सव्वाई। बदमुवहम्मदि तोहि दुणिदाणमिच्छत्तमायाहि ।१२१४। -शल्य रहित यतिके सम्पूर्ण महावतो का सरक्षण होता है। परन्तु जिन्होने शल्योका आश्रय लिया है, उनके बत माया मिथ्या व निदान इन तीनसे नष्ट हो जाते है।
त सू./७/१८ नि शल्यो व्रती।१८। -जो शल्य रहित है वह व्रती
है। (चा, सा./७/१)। स. सि 19/१८/३५६18 अत्र चोद्यते-शल्याभावान्नि शल्यो बताभिसबन्धाद वती, न निश्शल्यत्वाद वती भवितुमर्हति । महिदेवदत्तो दण्डसम्बन्धाच्छत्री भवतीति । अत्रोच्यते-उभयविशेषण-- विशिष्टस्येष्टत्वात् । न हिसाधु पर तिमात्रव्रताभिसबन्धाद् व्रती भवत्यन्तरेण शल्याभावम् । सति शल्यापगमे व्रतसंबधाइ व्रती विवक्षितो यथा बहुक्षीरघृतो गोमानि ति व्यपदिश्यते । बहु क्षीरघृताभावारसतीष्वपि गोषु न गोमास्तथा सशल्यत्वात्सरस्वपि व्रतेषु न व्रती। यस्तु नि शल्य' स व्रती। = प्रश्न-शल्य न होनेसे नि शल्य होता है और व्रतोके धारण करनेसे व्रती होता है । शल्यरहित होनेसे बती नहीं हो सकता। जैसे-देवदत्तके हाथमें लाठी होनेसे वह छत्री नही हो सक्ता ? उत्तर-वती होनेके लिए दोनो विशेषणोमें युक्त होना आवश्यक है। यदि किसीने शन्योका त्याग नहीं किया
और केवल हिसादि दोषोको छोड दिया है तो वह व्रती नहीं हो सक्ता। यहाँ ऐसा व्रती इष्ट है जिसने शल्योका त्याग करके व्रतोको स्वीकार किया है । जै से जिसके यहाँ बहुत घी दूध होता है, वह गाय वाला कहा जाता है। यदि उसके घी दूध नहीं होता और गायें है तो वह गायवाला नहीं कहलाता। उसी प्रकार जो सशल्य है, व्रतोके होने पर भी वह व्रती नही हो सकता। किन्तु जो नि शल्य है वह व्रती है । (रा. वा./७/१८/५-७/५४६/४ )। ज्ञा /१६/६३ व्रती नि शल्य एव स्यात्सशल्यो बतघातकः...६३ =व्रती तो निशक्य ही होता है। सशक्य व्रतका घातक होता है। (भ, आ /वि /११६/२७७/१३) । अ ग. श्रा/७/१६ यस्यास्ति शक्य हृदये त्रिधेयं, प्रतानि नश्यन्त्यखिलानि तस्य। स्थिते शरीरं ह्यबगाह्य काण्डे, जनस्य सौख्यानि कुतस्तनानि ।१३। जिसके हृदयमें तीन प्रकारकी यह शल्य है उसके समस्त ब्रत नाशको प्राप्त होते हैं । जैसे-मनुष्य के शरीरमें बाण घुसा हो तो उसे सुख कैसे हो सकता है ।११। * सब व्रतोंको एक देश धारनेसे व्रती होता है मात्र एक या दोसे नहीं-दे. श्रावक/३/६ ।
इति तृतीयः खण्डः
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[परिशिष्ट]
भाव जिस प्रकार अमितगति कृत पंचसंग्रह पर दिखाई देता है उस प्रकार इस पर दिखाई नहीं देता है। इस पर से यह अनुमान होता है कि गोमट्टसार की रचना डड्ढा कृत पंचस ग्रह के पश्चात हुई है। (जै /१/३७२-३७५)।
पंचसंग्रह-इस नाम के चार ग्रन्थ प्रसिद्ध है,-दो प्राकृत गाथाबद्ध हैं
और दो संस्कृत श्लोकबद्ध । प्राकृत वालो मे एक दिगम्बरीय है और एक श्वेताम्बरीय । ३२५ । इन दोनों पर ही अनेको टीकायें हैं। संस्कृत वाले दोनों दिगम्बरीय प्राकृत के रूपान्तर मात्र होने से । ।३२६। दिगम्बरीय हैं। पांच पांच अधिकारो में विभक्त होने से तथा कमेस्तव आदि आगम प्राभृतों का संग्रह होने से इनका पंचसंग्रह' नाम सार्थक है । ३४३ । गोमट्टसार आदि कुछ अन्य ग्रन्थ भी इस नाम से अपना उल्लेख करने में गौरव का अनुभव करते है। इन सबका क्रम से परिचय दिया जाता है।
१. दिगम्बरीय प्राकत पंचसंग्रह-सबसे अधिक प्राचीन है। इसके पांच अधिकारों के नाम है-जीवसमास, प्रकृतिसमुत्कीर्तना, कर्मस्तव, शतक और सप्तितका। षट् खण्डागमका और कषायपाहुडका अनुसरण करने वाले प्रथम दो अधिकारों में जीवसमास, गुणस्थान मार्गणा स्थान आदि का तथा मूलोत्तर कर्म प्रकृतियों का विवेचन किया गया है। कर्मस्तव आदि अपर तीन अधिकार उस उस नाम वाले आगम प्राभृतों को आत्मसात करते हुए कर्मों के बन्ध उदय सत्त्व का विवेचन करते है । ३४३ । इसमें कुल १३२४ गाथायें तथा ५०० श्लोक प्रमाण गद्य भाग है। समय-इसके रचयिताका नाम तथा समय ज्ञात नहीं है । तथापि अकलंक भट्ट (ई.६२०-६८०) कृत राजबार्तिक में इसका उल्लेख प्राप्त होने से इसका समय वि. शं.८ से पूर्व ही अनुमान किया जाता है।३५१ । (जै १/पृष्ठ) । डा. A.N.Up. ने इसे वि श १.८ में स्थापित किया है । (पं. स./प्र.३४)।
५-६ पंचसंग्रह की टीकायें-५ दिगम्बरीय पचसंग्रह पर हो टोकाये उपलब्ध है। एक वि.१५२६ की है जिसका रचयिता अज्ञात है। दूसरी वि. १६२० की है । इसके रचयिता भट्टारक सुमतिकीति है । ४४८ । परन्तु भ्रान्तिवश इसे मुनि पद्मनन्दि की मान लिया गया है। वास्तव में ग्रन्थ में इस नाम का उल्लेख ग्रन्थकार के प्रति नहीं, प्रत्युत उस प्रकरण के रचयिता की ओर संकेत करता है जिसे ग्रन्थकर्ता भट्टारक सुमतिकीर्ति ने पद्मनन्दि कृत 'जलदीव पणति' से लेकर ग्रन्थ के 'शतक' नामक अन्तिम अधिकार में ज्यों का त्यो आत्मसात कर लिया है । ४४६। पंचसंग्रह के आधार पर लिखी गयी होने से भले इमे टीका कहो, परन्तु विविध ग्रन्थों से उद्धृत गाथाओ तथा प्रकरणों की बहुलता होने से यह टीका तो नाममात्र ही है । ४४८ । लेखक ने स्वयं टीका न कहकर 'आराधना' नाम दिया है । ४४५। चूर्णियों की शैली में लिखित इसमें ५४६ गाथा प्रमाण तो पद्यभाग है और ४००० श्लोक प्रमाण गद्य भाग है। (जै./९/पृष्ठ संख्या), (ती/३/३७६)। ६. इन्हीं भट्टारक सुमतिकीर्ति द्वारा रचित एक अन्य भी पचसंग्रह वृत्ति प्राप्त है। यह वास्तव में अकेले सुमतिकीर्ति की न होकर इनकी तथा ज्ञानभूषण की साझली है । वास्तव में पंचसंग्रह की न होकर गोमट्टसार को टीका है. क्योंकि इसका मूल आधार 'पचसंग्रह' नहीं है. मलिक गोमट्टसार की 'जीवप्रबोधिनी' टीका के आधार पर लिखित 'कम प्रकृति' नामक ग्रन्थ है। ग्रन्धकार ने इसे 'लघुगोमट्टसार अपर नाम - संग्रह' कहा है । समय-वि. १६२० । (जै /१/४७१-४८०)।
२. श्वेताम्बरीय प्राकत पचसंग्रह-श्वेताम्बर आम्नाय का प्राकृत गाथाबद्ध यह ग्रन्थ भी दिगम्बरीय की भांति । अधिकारों में विभक्त है। उनके नाम तथा विषय भी लगभग वही हैं । गाथा संख्या १००५ है । इसके रचयिता चन्द्रर्षि महत्तर माने गए हैं, जिन्होंने इस पर स्वयं ८००० श्लोक प्रमाण 'स्वोपज्ञ' टीका लिखी है। इसके अतिरिक्त आ.मलयगिरि (वि.श.१२)कृत एक संस्कृत टीका' भी उपलब्ध है। मूल ग्रन्ध को आचार्य ने महान या यथार्थ कहा है । ३५१ । समय-चन्द्रर्षि महत्तर का काल वि. श. १० का अन्तिम चरण निर्धारित किया गया है । ३६६ । (दे. चन्द्रर्षि), (जै /१/३५१ ३६६)।
__ अन्यान्य पंचसंग्रह-इनके अतिरिक्त भीपंचसग्रह नामक कई ग्रन्थों का उल्लेख प्राप्त होता है। जैसे 'गोमट्टसार' के रचयिता श्री नेमिचन्द्र सिद्धान्त चक्रवर्ती ने उसे 'पंचसंग्रह' कहा है श्रीहरि दामोदर वेल कर ने अपने जिनरत्न कोश में 'पचसग्रह दीपक' नाम के किसी ग्रन्थ का उल्लेख किया है. जो कि इनके अनुसार गोमट्टसार का इन्द्र वामदेव द्वारा रचित सस्कृत पद्यानुवाद है। पांच अधिकारों में विभक्त इसमें १४६८ पद्य हैं। ( सं./प्र. १४ A.N. Up.).
३-४. संस्कत पंचसंग्रह-दो उपलब्ध हैं। दोनों ही दिगम्बरीय प्राकृत पंचसंग्रह के संस्कृत रूपान्तर मात्र है। इनमें से एक चित्रकूट (चित्तौड) निवासी श्रीपाल मत डड्ढा की रचना है और दूसरा आ अमित गति की। पहले में १२४३ और दूसरे में ७०० अनुष्टुप पध हैं, और साथ साथ क्रमशः १४५६ और १००० श्लोक प्रमाण गद्य भाग है। समय-आ अमितगति वाले की रचना वि. स. १०७३ में होनी निश्चित है । डड्ढा वाले का रचनाकाल निम्न तथ्यों पर से वि १०१२ और १०४७ के मध्य कभी होना निर्धारित किया गया है। क्योकि एक ओर तो इसमें अमृतचन्द्राचार्य (वि. ६६२-१०१२) कृत तत्त्वार्थसार का एक श्लोक इसमें उद्धृत पाया जाता है और दूसरी ओर इसका एक श्लोक आ जयसेन नं.४ (वि १०५०) में उद्धृत है। तीसरी ओर गोमट्टसार (वि. १०४०) का
पद्धति टीका-इन्द्रनन्दी कृत श्रुतावतार के कथनानुसार आ. शाम
कुण्ड ने 'कषायपाहुड' तथा 'षटखण्डागम' के आद्य पाँच खण्डों पर 'पद्धति' नामक एक टीका लिखी थी, जिसकी भाषा संस्कृत तथा प्राकृत का मिश्रण थी, परन्तु शामकुण्ड क्योंकि कुन्द कुन्द का ही कोई बिगड़ा हुआ नाम प्रतीत होता है इसलिए कुछ विद्वानों का ऐसा अनुमान है कि आ. कुन्द कुन्द कृत 'परिकम टीका' का ही यह कोई अपर नाम है । (जै./१/२७४) ।
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________________ परिशिष्ट 632 व्याख्या प्रज्ञप्ति परिकम टोका-इन्द्रनन्दी कृत तावतार के कथनानुसार आ काल में होने की सूचना उपलब्ध होने से इनको हम वि. श. 12 के कुन्दकुन्द ने पटवण्डागम के आद्य 5 खंडों पर 12000 श्लोक प्रमाण पूर्वार्ध में स्थापित कर सकते है / 360 / (जै./९/पृष्ठ संख्या)। इस नाम की एक टीका रची थी / 264 / धवला टीका में इसके उद्धरण प्राय 'जीवस्थान' नामक प्रथम खड के द्वितीय अधिकार महाबन्ध-३०,००० श्लोक प्रमाण यह सिद्धान्त ग्रन्थ आ भूतबली महाबन्ध-... 'द्रव्य प्रमाणानुगम' में आते है, जिस पर से यह अनुमान होता है (ई. 66-156) द्वारा रचित षट्वंडागम का अन्तिम खंड है, जो कि इस टीका में जीवों की सख्या का प्रतिपादन बहूलता के साथ अत्यन्त विशाल तथा गम्भीर होने के कारण एक स्वतन्त्र ग्रन्थ के किया गया है। धवलाकार ने कई स्थानों पर 'परिकर्म सूत्र' कहकर रूप में प्रसिद्ध हो गया है। विबरणात्मक शैली में अति विस्तार युक्त इस टीका का ही उल्लेख किया है, ऐसा प्रतीत होता है / 268 / तथा सुबोध होने के कारण किसी भी आचार्य ने इस पर कोई टीका कुन्द कुन्द की समयसार आदि अन्य रचनाओं की भांति यह ग्रन्थ नहीं लिखी / आ. वीरसेन स्वामी ने भी खंडों पर तो विस्तृत गाथाबद्ध नहीं है, तदपि प्राकृत भाषाबद्ध अवश्य है। प. कैलाशचन्द टीका लिखी, परन्तु इस षष्टम खंड पर टीका लिखने की आवइसे कुन्दकुन्द कृत मानते हैं / (जै /१/पृष्ठ संख्या)। श्यकता नही समझी। (जै./१/१५२)। इस ग्रन्थ में स्वामित्व भागा भाग आदि अनुयोग द्वारों के द्वारा विस्तार को प्राप्त प्रकृति, स्थिति, बप्पदव-इन्द्रनन्दि कृत श्रुतावतार श्लोक न.१७१-१७६ के अनुसार अनुभाग व प्रदेश बन्ध का और उनके मन्धकों तथा 'बन्धनीयों का भागीरथी और कृष्णा नदी के मध्य अर्थात धारवाड या बेलगांव विवेचन निबद्ध है। (जै./१/१५३) / इस ग्रन्थ की प्रारम्भिक भूमिका जिले के अन्तर्गत उत्कलिका नगरी के समीप 'मगणवल्ली' ग्राम में 'सत्कर्म' नाम से प्रसिद्ध है, जिस पर 'सत्कर्म पत्रिका' नामक आ शुभनन्दि तथा शिवनन्दि (ई श 2-3) से सिद्धान्त का श्रवण व्याख्या उपलब्ध है / (दे. सत्कर्म पब्जिका)। करके आपने कषायपाहुड सहित. षटव डागम के आद्य पाच खंडों पर 60,000 श्लोक प्रमाण और उसके महाबन्ध नामक षष्टम विशेषावश्यक भाष्य-आ जिनभद्र गणी क्षमाश्रमण द्वारा रचित खंड पर 8000 श्लोक प्रमाण व्याख्या लिखी थी। (जै /1/2711, यह एक विशालकाय सिद्धान्त विषयक श्वेताम्बर ग्रन्थ है / ग्रन्थ (तो./२/६५) / इन्होने षट्ख डागम से 'महाबन्ध' नामक षष्टम खंड समाप्ति में इसका समाप्ति काल वि 666 बताया गया है। परन्तु पं. को पृथक करके उसके स्थान पर उपर्युक्त 'ब्याख्या प्रज्ञप्ति' का सुखलाल जी के अनुसार यह इसका लेखन काल है। ग्रन्थ का रचना संक्षिप्त रूप उसमे मिला दिया था। समय-इनके गुरु शुभनन्दि को काल उसमे पूर्व लगभग वि, 650 में स्थापित किया जा सकता है। बी नि श 5 का विद्वान कल्पित करके डा नेमिचन्द्र ने यद्यपि (जै./२/३३१)। बी. नि श.५-६ ई. श. 1) में प्रतिष्ठित किया है, परन्तु इन्द्रनन्दि कृत श्रुतावतार के अनुसार ये वि. श. 7 (ई. श 6-7) के विद्वान है। व्याख्या प्रज्ञप्ति-षटखण्डागम के छ' खंडों से अधिक वह अति रिक्त खड जिसे आ, भूतबली ने छोड दिया था, और जिसे आ. बप्पदेव (वि श.७) ने 60,000 श्लोक प्रमाण व्याख्या लिखकर मरूयागार-कर्म प्रकृति/२६३,सित्तरि या सप्ततिका / 3181, पूरा किया था / बाटग्राम (बडौदा) के जिनमन्दिर में इसे प्राप्त करके पचसंग्रह / 360 / आदि श्वेताम्बर ग्रन्थों के टीकाकार एक प्रसिद्ध हो श्री बीरसेन स्वामी ने 'सत्कर्म' नाम से धवला के परिशिष्ट रूप स्वेताम्बराचार्य / समय-'कर्मप्रकृति' की टीकाये गर्गर्षि (वि.श 10) एक अतिरिक्त रखड की रचना की थी। (दे सत्कर्म) (इन्द्रनन्दि और पचसग्रह की रचना गुजरात के चालुक्यवंशी नरेश के शासन- श्रुतावतार श्ल 173-181); (जै /1/276), (ती/२/६६) / समाप्त जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश