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मालव
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यद्रशाचिचर भुङ्क्ते नीचे तिजमनमान ज्वरभरम् | ११ | भद्रं मार्दवज्राययेन नि नपति पुन करोति मानाविनोत्थानाय मनोरथ १२ क्रियेत गर्न संसारे न भूयते नृपोऽपि चेदे कुमियनेये वा भवत् १ ॥ प्राच्याने दयुगीमामय परमगुणग्रामसमृद्धयसिद्धा - नद्वाध्यायन्निरुन्ध्यन्निरुन्ध्यान्म्रदिमपरिणत शिर्मदं दुर्मदारिम् । छेत्तु दौर्गत्यदु ख प्रवरगुरुगिरा सगरे सवतास्तै, क्षेप्तु कर्मारिचक्र सुहृदमिव शितैर्दीपयेद्वाभिमानम् | १४ | माई बानिनि पो मायाक्षिति गत योगाम्बुर्नयमेोऽन्तर्व गर्व पर्वत हता मनोऽवर्णमिवापमानमभितस्तेऽर्क की स्तथा मायातिगरजाद पटि सहस्राणि तार तरसोनन्दनियादिराट् परमर मानवमोचयेव तम्यम्माई यमाप्नुयाद स्वयमिमं चोच्छिद्य तद्वच्छिवम् । १६ । = कर्मोदय जनित कुल आदिके अतिरेककी चित्रविचित्रता के निमित्तमे व्यक्ति अपनेको उत्कृष्ट समझता है, सो पर्थ है, क्योंकि कभी-कभी अपने पुत्रोंके द्वारा भी उसका मान मर्दन कर दिया जाता है || कर्तव्य अकर्तव्य आदिका विवेक नष्ट करके अहंकाररूप अन्धकारको प्राप्त व्यक्ति अभीष्ट मार्गको छोड़कर कुमार्गका आश्रय लेता है |१०| पुण्य कर्मका उदय होनेपर व्यक्ति अत्यन्त अहकार करने लगता है और यह भूल जाता है, कि नीच गतियो आदिमें अपमान पाना इस अहंकारका ही फल है | ११ | मानको समूल नष्ट करनेवाला यह मार्दव धर्म जयवन्त हो । १२ । अरे । साधारण जनकी बात तो दूर रही, राजा भी मरकर पापकर्म के उदयसे विष्टामें कीडा हो जाता है | १३| आत्माका अत्यन्त अपाय करनेवाला यह मान प्रबल शत्रु है, मार्दव धर्मके द्वारा साधुजनोंको सदा इसे नाश करना चाहिए। अथवा यदि मान ही करना है तो अपनी व्रतादिरूप प्रतिज्ञापर करे जिससे कि धर्मके शत्रुओंका सहार हो । १४ मार्चसे गर्व रूप पर्वतका चूर चूर हो जाता है | १५ | अहकार के कारण भरत चक्रवर्तीके पुत्र अर्ककीर्तिको कितना अपमान सहना पडा तथा सगर चक्रवर्ती ६०,००० पुत्रीकी माया मणिकेतु देवने क्षणभर में भस्म कर दी। अत जिस प्रकार भरतराजने बाहुबलि कुमारका मान दूर करने के लिए प्रयत्न किया उसी प्रकार साधुजन भी सदा भव्यजनोंका अहंकार रूप भूत दूर करनेका प्रयत्न करते रहे । १६ ।
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४. मार्दव धर्मकी महिमा
रा. या /६/६/२०/५११/१२ मार्चबोपेतं गुरवोऽनुगृहन्ति, साधवोऽपि सानामन्यन्ते सतश्च सम्यग्ज्ञानादोन पात्रोभवति तत स्वर्गवर्गाला मसिने मनसि प्रतशीतानि नामन्ति साथवश्चैनं परित्यजन्ति । तन्मूला सर्वा विपद । = मार्दव गुणयुक्त व्यक्तिपर गुरुओका अनुग्रह होता है । साधुजन भी उसे साधु मानते है। गुरुके अनुग्रह सम्यग्ज्ञान आदिकी प्राप्ति होती है और उससे स्वर्गादिसुख मिलते है। मलिन मनमें व्रत शीलादि नहीं ठहरते, साधुजन उसे छोड देते है । तात्पर्य यह कि अहकार समस्त विपदाओकी है। (चा. सा / ६१/२) ।
* दश धर्म-दे० धर्म/
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मालव भरतक्षेत्र आदेश दे० मनुष्य ४
मालवा - १. भरतक्षेत्र दक्षिण आर्यखण्डका एक देश - दे० मनुष्य / ४२, वर्तमान मालवा प्रान्त सौराष्ट्र के पूर्व में स्थित है। अनम्ती उज्जैन दशपुर (मन्दसौर), धारानगरी (धार), इन्द्रपुर (इन्दौर) आदि इसके प्रसिद्ध नगर है (मपू./प्र ४६ प पन्नालाल ३. मालवा देश के राज्यवश - दे० इतिहास / ३/३ । मालांग — एक प्रकारके कल्पवृक्ष है - दे० वृक्ष / १ मालारोहण -: आहारका एक दोष दे० आहार/11/४/२.
वसतिकाका एक दोष दे० वसतिका |
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मिथ्याकार
मालिकोद्वहन — कायोत्सर्गका अतिचार - ३० व्युत्सर्ग | १ | माल्य, विजयार्ध की उत्तर श्रेणीका एक नगर दे० विद्याधर | १. २ भरतक्षेत्र पश्चिम खण्डका एक देश-३० मनुष्य माल्यवती - भरतक्षेत्र पूर्वी एक नदी दे० मनुष्य /
माल्यवान् - १. एक गजदन्त पर्वत-दे० लोक / ५ / ३ । २. माल्यवान् गजदन्तका एक कूट व उसका रक्षक देव दे० लोक ५/४३ उत्तरकुरुके १० होनेसे दो- दे० लोक ५/५०४ यदुवंशी अन्धकवृष्णि के पुत्र हिमवालुका पुत्र तथा नेमिनाथ भगवाका चचेरा भाई -३० इतिहास / १०।
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माषफल - तोलका एक प्रमाण- दे० गणित / I / १ । माषवती - भरतक्षेत्र मध्य आर्य खण्डकी एक नदी । - दे० मनुष्य / ४ ।
मास - कालका एक प्रमाण -- दे० गणित / I/१/४ | मासैकवासता - भ.आ./ वि /४२१/६२६/७ ऋतुषु षट्सु एकैकमेव मासमेकत्र वसतिरम्यदा विहरति इत्ययं नयम स्थितिय एकत्र चिरकालावस्थाने नित्यमुद्गमदोषं च न परिहर्तुक्षम । क्षेत्रप्रतिबद्धता, सातगुरुता, असस्ता, सौकुमार्य भावना, शतभिक्षाग्राहिता च दोषा । = वसन्तादिक छहो ऋतुओमेंसे एकेक ऋतु में एक मास पर्यन्त एक स्थानमें मुनि निवास करते है और एक मास विहार करते हैं, यह वीं स्थिति कल्प है। एक ही स्थानमें चिरकाल रहनेसे उद्गमादि दोषोंका परिहार नही हो सकता। ग्सतिकापर प्रेम, सुखमें लम्पटता, आलस्य, सुकुमारताकी भावना आदि दोष उत्पन्न हो जाते है। जिनके हाँ पूर्व में आहार लिया था उनके हॉ ही पुनरपि आहार लेना पडता है। इसलिए मुनि एक स्थान में चिरकाल तक नही ठहरते ।
माहियक - भरतक्षेत्र दक्षिण खण्डका एक देश-३० मनुष्य / ४ महेंद्र - १, स्वर्गो में चौथा कल्प — दे० स्वर्ग / ३१ । २. कुण्डल पका एक कूट- दे० लोक /२/१२.
मितसंभाषण - रावा./१६/५/५६४/१८ मितमनर्थ कबहु प्रलपनरहितम् । अनर्थक बहुप्रलाप रहित वचन मित है। (चा. सा./६७/१) । मित्र - ६० संगति । २ सौधर्म स्वर्गका ३० वॉ पटल । -२० स्वर्ग/५ । मित्रक
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शिवकोटि आचार्य के
-पुन्नाटसघ की गुर्वावलीके अनुसार आप बलदेवके शिष्य तथा सिंहबल के गुरु थे- दे० इतिहास ७/८ । मित्रनंदि- १. भगवती आराधना के कर्ता गुरु थे। समय-ई वा १ का पूर्व चतुर्थांश (भज./म. २-३/प्रेमीकी) २.म. / ५६ / श्लोक नं. भरत क्षेत्रके पश्चिम विदेह क्षेत्र में यह एक राजा था ।६३॥ दीक्षा धारण कर अनुत्तर विमान में देव हुआ ॥७०॥ मित्रवीर पुन्नाटसंघकी गुर्वावली के अनुसार आप मन्दरार्य के शिष्य तथा मलके गुरु थे। समय नि. २६० (ई.६२)
- दे० इतिहास / ७ / ८
मिथिला - विदेह देश में स्थित दरभंगा जिला ( म पु . / प्र ५०/
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पं. पन्नालाल ) ।
मिथ्या अनेकान्त - दे० अनेक. न्त / १ ।
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मिथ्या एकांत-दे० एन्ट/१ मिथ्याकार-दे० समाचार |
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