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मार्गप्रभावना
८.२० प्ररूपणाओंका १४ मार्गणाओंमें अन्तर्माव
(ध. २/१, १/४१४/२) ।
सं०
१
२
अन्तर्मान्य
प्ररूपणा
पर्या जीवसमास
प्राणउच्छ्वास
वचनबल
मनोमल
कायबल
आयु इन्द्रिय
संज्ञा
आहार
भय
मैथुन
परिग्रह
उपयोग
साकार
अनाकार
मार्गणा
काय व
इन्द्रिय
काय व
इन्द्रिय
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योग
गति
ज्ञान
कषाय मैं
माया व लोभ
क्रोध व मान
वेद मार्गण
लोभ
ज्ञान दर्शन
हेतु
एकेन्द्रिय आदि सूक्ष्म बादर तथा उनके पर्याप्त अपर्याप्त भेदोंका कथन दोनो में समान है।
तीनो प्राण पर्याप्तियो के कार्य है ।
'योग' मन वचन कायके बलरूप है ।
दोनों अविनाभाषी है
इन्द्रिय ज्ञानावरणपशमरूप है।
संज्ञामें राग या द्वेष रूप है । आहार संज्ञा रागरूप है । भय संज्ञा द्वेषरूप है।
संज्ञा स्त्री आदि वेद के तीव्रोदय रूप है।
परिग्रह लोभका कार्य है ।
साकारोपयोग ज्ञानरूप है । अनाकारोपयोग दर्शनरूप है।
* अन्य सम्बन्धित विषय
२. मार्गणाएँ विशेष ।
२. २० प्ररूपणा निर्देश ।
१. १४ मार्गणाओं में २० प्ररूपणाएँ । ४. १४ मार्गणाओंसद संख्या क्षेत्र स्पर्शन काल
अन्तर भाव अल्पबहुत्व ये ८ प्ररूपणाएँ । ५. मार्गणाओंमें कर्मोंका बन्ध उदय सत्त्व ।
- दे० वह वह नाम ।
- दे० प्ररूपणा ।
--दे० सत् ।
दे० वह वह नाम । - दे० वह वह नाम ।
मार्गप्रभावना - दे० प्रभावना । मार्गवाद६- घ. १२/१२.३०/२००/११ एते मार्ग. एतेषामाभासाश्य अनेन कथ्यन्त इति मार्गवाद. सिद्धान्त । ये पाँच प्रकारके मार्ग (दे० मार्ग ) और मार्गाभास जिसके द्वारा कहे जाते है वह सिद्धान्त मार्गवाद कहलाता है ।
मार्ग सम्यक्त्व - दे० सम्यग्दर्शन / I / १ |
मार्गोपसंयत ३० समाचार मार्दव
ना. ब. ०२ कुलरूवजादिबुद्धि
नवसीले गारवं किचि जो अवि
कुदि समणो मद्दधम्म हवे तस्स | ७२ ॥ =जो मनस्वी पुरुष कुल, रूप, जाति, बुद्धि तप, शास्त्र और शीलादिके विषय मे थोडा सा भी घमण्ड नही करता है, उसके मार्दव धर्म होता है । ( स. सि. ६ / ६ / ४९२/२), (रा. १/६/६/२/५१२/२४), (भ. आ. ४१/९५४/ १३); (स. सा./६/१५); (चा. सा /६९/४)।
२९८
मार्दव
मा मृदुवा] भाग मान है।
ससि ६/९/१४/१५ ( रा वा ६/१८/१/५२६ / २३ ) ।
का
मि
२१४ उसमणाजमहाल उस मरकरी अप्पा जो हीलदि मद्दवरयण भवे तस्स | ३६५ == उत्कृष्ट ज्ञानी और उत्कृष्ट तपस्वी होते हुए भी जो मद नहीं करता वह मार्दव रूपी रत्नका घारी है।
२. मार्दव धर्म लोक लाज आदिले निरपेक्ष है।
भ. आ / वि. / ४६ / १५४ / १३ जात्याद्यभिमानाभावो मानदोषानपेक्षश्च कालपाश्रममा जाति आदि के अभिमानका अभाव मार्दव है । लोकभयसे अथवा अपने ऐहिक कार्योंमें वाधा होनेके भय से मान न करना सच्चा मार्दव नहीं है ।
३. मार्दवधर्म पालनार्थ कुछ भावनाएँ
भ.आ./मू./१४२०-१४३० को एक माणो सोप पत्तस्स । उञ्चत्ते य अणिच्चे उवट्ठिदे चाबि णीचत्ते । १४२७ । अधिगेसु बहुसु संतेसु ममादो एत्थको मह माणो । को विभओ वि बहुसो पसे उम्म्म उच्चसे । १४२१ जो अवमानकारणं दो परिहरइ णिच्चमा उत्तो । सो णाम होदि माणी ण गुणचण माणेण । | १४२६ । इह य परतय लोए दोसे बहुगे य आवहदि माणो । इदि अप्पणी गणित्ता माणस्य विणिग्गहं कुज्जा | १४३०| मै इस संसार मे अनन्तबार नीच अवस्थामे उत्पन्न हुआ हूँ। उञ्चत्व व नीचत्व दोनों अनित्य है, अत उच्चता प्राप्त होकर पुनः नष्ट हो जाती है और नीचता प्राप्त हो जाती है । १४२७| मुझसे अधिक कुल आदि विशिष्ट लोग जगत् में भरे पड़े है । अत मेरा अभिमान करना व्यर्थ है । दूसरे ये कुल आदि तो पूर्व कालमें अनेक बार प्राप्त हो चुके है, फिर इनमें आश्चर्य युक्त होना क्या योग्य है ? ११४२८ । जो पुरुष अपमान के कारणभूत दोषोका त्याग करके निर्दोष प्रवृत्ति करता है वही सच्चा मानी है, परन्तु गुण रहित होकर भी मान करनेसे कोई मानी नही कहा जा सकता | १४२६ | इस जन्ममे और पर जन्म में यह मानकषाय बहुत दोषोको उत्पन्न करता है, ऐसा जानकर सत्पुरुष मानका निग्रह करते है | १४३०
पं.वि./१/८७-८८ तद्धार्यते किमुत बोधदृशा समस्तम् । स्वप्नेन्द्रजालसदृशं जगदीक्षमाणे ७| कास्था सद्मनि सुन्दरेऽपि परितो दन्दामानाग्निभि., कायादौ तु जरादिभि प्रतिदिनं गच्छत्यवस्थान्तरम् । होतो दिशमिन स्वद्विवेकले गर्वस्यावर कुतो ऽत्र घटते भावेषु सर्वेष्वपि । ज्ञानमय चक्षु से समस्त जगत्को स्वप्न अथवा इन्द्रजाल के समान देखनेवाले साधुजन क्या उस मार्दव धर्मको नहीं धारण करते है । ८७॥ सब ओरसे अतिशय जलनेवाली अग्नियोसे खण्डहररूप अवस्थाको प्राप्त होनेवाले सुन्दर गृहके समान प्रतिदिन वृद्धत्व आदिके द्वारा दूसरी अवस्थाको प्राप्त होनेवाले शरीरादि बाह्य पदार्थोंमें नित्यताका विश्वास कैसे किया जा सकता है। इस प्रकार सहा विचार करनेवाले साधुके निर्मल विवेकयुक्त हृदयमें जाति, कुल एवं ज्ञान आदि सभी पदार्थोके विषय में अभिमान करने का अवसर कहाँसे हो सकता है ' ८
अन ध / ६ / ६-१६/५७२ हृत्सिन्धुर्विधिशिल्पिकल्पित कुलाद्युत्कर्ष हर्षोमिभि, किर्मीर क्रियता चिराय सुकृतां म्लानिस्तु पुंमानिनाम् । मानस्यात्मभुवाचि कृषचिदपि स्योत्कर्ष संभावनं तयेऽपि विषेशरेयमिति धिग्मानं पुमुत्प्लावनम् || गर्व प्रत्यग्नगकवलिते विश्वदीपे विस्फुरितदुरित दोषमह सोइ मसि इतर जन्तुराप्तेषु भूयो भूयोऽस्यावपि सज्जति हो स्पेरसुमार्ग एव ॥१०॥ जग पैस्मिन्सति विधी काममनिशं स्वतन्त्र न क्वास्मीत्यभिनिविशतेऽह कृतितम' । कुधीर्येनादत्ते किमपि तद
।
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