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मार्गणा
उनका प्रत्यक्ष नही हो सकता है। और भी दे० गतिमार्गणामे भावगति इष्ट है-दे० गति/२/५. इन्द्रियमार्गणामें भावइन्द्रिय इष्ट हैदे० इन्द्रिय/३/१; वेद मार्गणामें भाव वेद इष्ट है-दे० वेद/२; संयम मार्गणामें भाव स यम इष्ट है-दे० चारित्र/३/८ । सयतासंयत/२; लेश्यामार्गणामें भावलेश्या इष्ट है-दे० लेश्या/४ ।
मार्गणा ध. १३/५,५.५०/२८२/८ गतिषु मार्गणास्थानेषु चतुर्दशगुणस्थानोपलक्षिता जीवा मृग्यन्ते अन्विष्यन्ते अनया इति गतिषु मार्गणता श्रुतिः = गतियोमे अर्थात मार्गणास्थानोमें (दे० आगे मार्गणाके भेद ) चौदह गुणस्थानोसे उपलक्षित जीव जिसके द्वारा खोजे जाते है, वह गतियों में मार्गणता नामक श्रुति है। दे, आदेश/१( आदेश या विस्तारसे प्ररूपणा करना मार्गणा है )।
२. चौदह मार्गणास्थानोंके नाम १. ख ११/१,१/सू. ४/१३२ गइ इंदिए कार जोगे वेदे कसाए णाणे संजमे दसणे लेस्साए भविय सम्मत्त सण्णि आहारए चेदि ।२। गति, इन्द्रिय, काय, योग, वेद, कषाय, ज्ञान, संयम, दर्शन, लेश्या, भव्य, सम्यक्त्व, संज्ञी और आहारक, ये चौदह मार्गणास्थान है। (ष. खं. ७/२,१/मू.२/६); (बो. पा./मू./३३); (मू. आ./११६७), (पं. सं./ग्रा./१/५७); (रा. वा./8/७/११/६०३/२६); (गो जी./मू./ १४२/३५५), ( स. सा./आ./५३); (नि. सा./ता. वृ./४२); (द्र.सं./ टी./१३/३७/१ पर उद्धृत गाथा)।
३. सान्तर मार्गणा निर्देश एक मार्गणाको छोडनेके पश्चात पुन' उसीमें लौटनेके लिए कुछ कालका
अन्तर पड़ता हो तब वह मार्गणा सान्तर कहलाती है। वे आठ है। पं.सं./प्रा./१/५८ मणुया य अपज्जत्ता वेउत्रियमिस्सहारया दोणि । महमो सासाणमिस्सी उवसमसम्मो य संतराअट्ठ - अपर्याप्त मनुष्य, वैक्रियकमिश्र योग, दोनों आहारक योग, सूक्ष्मसाम्परायसंयम,सासादन सम्यग्मिथ्यात्व, और उपशमसम्यवत्व ये आठ सान्तर मार्गणा होती हैं।
६. सब मार्गणा व गुणस्थानों में आयके अनुसार ही
व्यय होता है ध.४/१, ३,७८/१३३/४ सव्वगुणमग्गणट्ठाणेसु आयाणुसारि वओवसंभादो । जेण एईदिएसु आओ संखेज्जो तेण तेसिं वएण वितत्तिएण चेव होदन्न । तदो सिद्धं सादियबंधगा पलिदोवमस्स अस खेजदि भागमेत्ता ति। -क्योकि सभी गुणस्थान और मार्गणास्थानोमें आयके अनुसार ही व्यय पाया जाता है, और एकेन्द्रियोंमें आयका प्रमाण संख्यात ही है, इसलिए उनका व्यय भी संख्यात ही होना चाहिए। इसलिए सिद्ध हुआ कि सराशिमें सादिबन्धक जीव पज्योपमके असंख्यातवें भागमात्र ही होते है। ध. १५/२६२/४ केण कारणेण भुजगार-अप्पदरउदीरयाणं तुल्लत्तं उच्चदे।
जत्तिया मिच्छत्तादो सम्मामिच्छत्तं गच्छति तत्तिया चेव सम्मामिच्छतादो मिच्छत्तं गच्छति । जत्तिया सम्मत्तादो सम्मामिच्छत्तं गच्छति तत्तिया चेव सम्मामिच्छत्तादो सम्मत्त गच्छति । -प्रश्न-भुजगार व अल्पतर उदीरकोकी समानता किस कारणसे कही जाती है ? उत्तर-जितने जीव मिथ्यात्मसे सम्यग्मिथ्यात्वको प्राप्त होते है. उतने ही जीव सम्यग्मिथ्यात्वसे मिथ्यात्वको प्राप्त होते हैं। जितने जीव सम्यक्त्वसे सम्यग्मिथ्यात्वको प्राप्त होते है उतने ही सम्यग्मिथ्यात्वसे सम्यक्त्व को प्राप्त होते है (इस कारण उनकी समानता है)। दे. मोक्ष/२ जितने जीव मोक्ष जाते है, उतने ही निगोदसे निकलते
७.मार्गणा प्रकरणमें प्रतिपक्षी स्थानोंका भी ग्रहण क्यों
४. मागेणा प्रकरणके चार अधिकार ध.१/१,१,४/१३३/४ अथ स्याज्जगति चतुभिर्गिणा निष्पाद्यमानोपलभ्यते । तद्यथा मृगयिता मृग्यं मार्गणं मार्गणोपाय इति । नात्र ते सन्ति, ततो मार्गणमनुपपन्नमिति। नैष दोषः, तेषामप्यत्रोपलम्भाद: तद्यथा, मृगयिता भव्यपुण्डरीक' तत्त्वार्थश्रद्धालु वः, चतुर्दशगुणस्थानविशिष्टजोवा मृग्य, मृग्यस्याधारतामास्कन्दन्ति मृगयितु करणतामादधानानि वा गत्यादीनि मार्गणम, विनेयोपाध्यायादयो मार्गणोपाय इति । प्रश्न-लोकमें अर्थात् व्यावहारिक पदार्थों का विचार करते समय भी चार प्रकारसे अन्वेषण देखा जाता है-मृगयिता, मृग्य, मार्गण और मार्गणोपाय। परन्तु यहाँ लोकोत्तर पदार्थके विचारमे वे चारो प्रकार तो पाये नहीं जाते है, इसलिए मार्गणाका कथन करना नहीं बन सक्ता है। उत्तर--यह कोई दोष नही है, क्योंकि, इस प्रकरण में भी चारों प्रकार पाये जाते है। वे इस प्रकार है, जीवादि पदार्थों का श्रद्धान करनेवाला भव्य-पुण्डरीक मृगयिताहै, चौदह गुणस्थानोसे युक्त जीव मृग्य है, जो इस मृग्यके आधारभूत है अर्थात् मृगयिताको अन्वेषण करने में अत्यन्त सहायक है ऐसी गति आदि मार्गणा है तथा शिष्य और उपाध्याय आदिक मार्गणाके उपाय है । ( गो. जी./जी. प्र./२/२१/१०)।
ध. १/१,१,११५/३५३/७ ज्ञानानुवादेन कथमज्ञानस्य ज्ञानप्रतिपक्षस्य
संभव इति चेन्न, मिथ्यात्वसमवेतज्ञानस्यैव ज्ञानकार्यकारणादज्ञानव्यपदेशात पुत्रस्यैव पुत्रकार्याकरणादपुत्रव्यपदेशवत् । ध. १/१.१.१४४/३६५/५ आम्रवनान्तस्थनिम्बानामानवनव्यपदेशवन्मिथ्यात्वादीना सम्यक्त्वव्यपदेशो न्याय । प्रश्न-ज्ञान मार्गणाके अनुवादसे ज्ञानके प्रतिपक्षभूत अज्ञानका ज्ञानमार्गणामें अन्तर्भाव कैसे सभव है । उत्तर-नही, क्योंकि, मिथ्यात्वसहित ज्ञानको ही ज्ञानका कार्य नही करनेसे अज्ञान कहा है । जैसे- पुत्रोचित कार्य को नही करनेवाले पुत्रको ही अपुत्र कहा जाता है । अथवा जिस प्रकार आम्रबनके भीतर रहनेवाले नीमके वृक्षोको आम्रवन यह संज्ञाप्राप्त हो जाती है, उसी प्रकार मिथ्यात्व आदिको सम्यक्त्व यह संज्ञा देना उचित ही है। ध, ४/१,४,१३८/२८७/१० जदि एवं तो एदिस्से मग्गणाए संजमाणवादवबदेसो ण जुज्जदे । ण, अब णिबवण व पाधण्णपदमासेज्ज संजमाणुबाढवबदेसजुत्तीए । प्रश्न-यदि ऐसा है अर्थात् संयम मार्गणामें संयम सयमासंयम और असंयम इन तीनोका ग्रहण होता है तो इस मार्गणाको संयमानुवादका नाम देना युक्त नही है। उत्तरनही, क्योंकि, 'आम्रवन' वा 'निम्बवन' इन नामोके समान प्राधान्यपदका आश्रय लेकर 'सयमानुवादसे' यह व्यपदेश करना युक्तियुक्त हो जाता है।
५. मार्गणा प्रकरणमें सर्वन माव मार्गणा इष्ट हैं ध. १/१,१,२/१३१/६ 'इमानि' इत्यनेन भावमार्गणास्थानानि प्रत्यक्षीभूतानि निर्दिश्यन्ते । नार्थ मार्गणास्थानानि । तेषा देशकालस्वभावविप्रकृष्टानां प्रत्यक्षतानुपपत्ते । - 'इमानि' सूत्रमे आये हुए इस पदसे प्रत्यक्षीभूत भावमार्गणा स्थानोका ग्रहण करना चाहिए। द्रव्यमार्गणाओंका ग्रहण नही किया गया है, क्योकि, द्रव्यमार्गणाएँ देश काल और स्वभावकी अपेक्षा दूरवर्ती है, अतएव अल्पज्ञानियोको
जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश
भा०३-३८
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