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मतिज्ञान
२. बहु व बहुविध ज्ञानोंमें अन्तर
स. सि /१/१६/११३/७ बहुबहुविधयो के प्रतिविशेष: यावता बहुष्वपि बहुत्वमस्ति बहुविधेष्वपि बहुत्वमस्ति एकप्रकारानेकप्रकारकृतो विशेष ।
राना ११/१६/६४/९६ उच्चदर्शनात् । यथा कश्चित् महनि शास्त्राणि मौचेन सामान्यार्थेनाविशेषितेन व्याचष्टेन तु महमिि तायें कश्चिस तेषामेव महूना शास्त्राणा बहुभिरर्थे परस्परातिशययुक्त बहुविकल्पैर्व्याख्यानं करोति तथा ततादिशब्दग्रहणाविशेषेऽपि यत्प्रत्येकं ततादिशब्दानाम् एकद्वित्रिचतु सख्येया संख्येयानन्तगुणपरिणतानां ग्रहणं तद् बहुविधग्रहणम्, यत्ततादीनां सामान्यग्रहणं तद बहुग्रहणम् =) - प्रश्न - - बहु और बहुविधमें क्या अन्तर है, क्योंकि बहु और बहुविध इन दोनोंमें बहुतपना पाया जाता है। उत्तर-- इनमें एक प्रकार और नाना प्रकारकी अपेक्षा अन्तर है। अर्थात् बहु प्रकारभेद इष्ट नही है और बहुविध प्रकारभेद इष्ट है । - जैसे कोई बहुत शास्त्रोंका सामान्यरूपसे व्याख्यान करता है। परन्तु उसके बहुत प्रकार के विशेष असे नहीं और दूसरा उन्हीं शास्त्रों की बहुत प्रकारके अर्थों द्वारा परस्पर में अतिशययुक्त बनेक विकल्पोंसे व्याख्याएँ करता है उसी प्रकार तत आदि शब्दोंके ग्रहण विशेषता न होते हुए भी जो उनमें से प्रत्येक तत आदि एक दो, तीन, चार, सख्यात, असंख्यात और अनन्त गुणरूपसे परिणत शब्दोका ग्रहण है सो बहुविध ग्रहण है और उन्हीका जो सामान्य ग्रहण है, वह ग्रहण है। ३. बहु विषयक ज्ञानकी सिद्धि
बर्ते
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रा. बा./१/१२/२००/१२/१५ मनग्रहाद्यभावः प्रत्यर्थमावलिष्यादिति वेदः नः सर्वदेकप्रत्ययप्रसाद] [२] अतरचानेकार्य प्राहिविज्ञानस्था त्यन्तासभवात् नगरव नस्कन्धावारप्रत्ययनिवृत्ति' । नेता' संज्ञा कार्यनिवेश्य तस्माल्लोक्सभ्यवहारनिवृत्ति किंव, नानाप्रत्ययाभावात । यक मनोऽनेकप्रख्ययारम्भकं सबै कप्रत्ययोSनेकार्यों भविष्यति, अनेकस्य प्रत्ययस्यैकारसंभवात् ननु सर्व कार्यमेकमेव ज्ञानमिति जत 'इदमस्मादन्यत' इत्येष व्यवहारो न स्यात् । किंच, आपेक्षिकसंव्यवहारविनिवृत्तेः |४| मध्यमाप्रदेशिन्योर्युगपदनुपलम्भाद तद्विषयहस्वव्यवहारो विनि किंच, संशयाभावप्रसङ्गात् 121 एकार्यविवर्तिनि विज्ञाने स्थाणी पुरुष वा प्राप्रत्ययजन्य स्याद, नोभयो प्रतिज्ञातविरोधात् । किच, ईप्सित निष्पत्त्यनियमात् । ६ चैत्रस्य पूर्ण कलशमा लिखतः अनेक विज्ञानोत्पाद निरोधक्रमे सति अनियमेन निष्पत्ति स्वाद ... किच, द्वित्र्यादिप्रत्ययाभावाच 101-- यतो विज्ञानं द्वित्रान ग्राहकमिति । प्रश्न -- जब एक ज्ञान एक ही अर्थको ग्रहण करता है, तब बहु आदि विषयक अवग्रह नहीं हो सकता । उत्तर--नहीं, क्योंकि, इस प्रकार सदा एक ही प्रत्यय होनेका प्रसंग आता है । १. अनेकार्थग्राही ज्ञान का अत्यन्ताभाव होनेपर नगर, वन, सेना आदि यविषयक ज्ञान नहीं हो सकेगे ये संज्ञाएँ एकार्थविषयक नहीं है, अत समुदायविषयक समस्त लोकव्यवहारोका लोप ही हो जायेगा। २ जिस प्रकार ( आप बौद्धोके हॉ) एक मन अनेक ज्ञानोको उत्पन्नकर सकता है, उसी तरह एक ज्ञानको अनेक अर्थोको विषय करनेवाला माननेमें क्या आपत्ति है । ३. यदि ज्ञान एकार्थग्राही ही माना जायेगा तो 'यह इससे अन्य है' इस प्रकारका व्यवहार न हो सकेगा । ४. एकार्थग्राहिविज्ञानवादमें मध्यमा और प्रदेशिनी अंगुलियोंमें होनेवाले ह्रस्व, दीर्घ आदि समस्त व्यवहारोका लोप हो जायगा । ५ संशयज्ञान अभावका प्रसंग आयेगा, क्योकि या तो स्थाणुका ज्ञान होगा या पुरुषका ही । एक साथ दोनो का ज्ञान न हो सकेगा । ६. किसी भीष्ट अर्थ की सम्पूर्ण उत्पत्ति नहीं हो सकेगी। पूर्ण कलशका चित्र
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४. एक बहु आदि विषय निर्देश
बनानेवाला चित्रकार उस चित्रको न बना सकेगा, क्योकि युगपत् दो तीन ज्ञानोके बिना वह उत्पन्न नहीं होता । ७. इस पक्ष में दो तीन आदि बहुसख्या विषय हो सकेंगे, क्योकि वैसा माननेपर कोई भी ज्ञान दो तीन आदि समूहो को जान ही न सकेगा। उपरोक सर्व विकल्प (१/४.१.४५/९४३/३) (म. १३/१.२.१२/२१५/३) । घ. १३/५-५.३५/२३६/६ यौगपद्येन महाभावात् योग्यप्रदेशस्थि
महतपर्क न प्रतिभासेत न परिदियमानार्थमेदाद्विज्ञानभेद', नानास्वभावस्यैकस्यैव त्रिकोटिपरियन्तुविज्ञानस्योपसम्भावन शक्तिभेदो वस्तुभेदस्य कारणम् पृथक् पृथगर्थक्रियाक वाभावात्तेषां वस्तुत्वानुपपत्ते, ८. एक साथ बहुतका ज्ञान नहीं हो सकने के कारण योग्य प्रदेशोंमे स्थित अंगुलिप चक्का ज्ञान नही हो सक्ता (भ./९.६ १,१४/११/२) १. जाने गये अर्थ में भेद होनेसे विज्ञान में भी भेद है', यह कहना भी ठीक नहीं है; क्योंकि नाना स्वभाववाला एक हो त्रिकोटिपरिणत विज्ञान उपलब्ध होता है । १०. 'शक्ति भेद वस्तुभेदका कारण है' यह कहना भी ठीक नहीं है; क्योंकि, अलग-अलग अर्थ क्रिया न होनेसे उन्हे वस्तुभूत नहीं माना जा सकता । ( अतः बहुत पदार्थों का एक ज्ञानके द्वारा अवग्रह होना सिद्ध हैं)।
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६/४.१.४२/१४१/६ प्रतिद्रव्यभिन्नानां प्रत्ययानां कथमेकरममिति चेकमेकीनां परियभेदेन बहुत्वमादधानानामेकत्वविरोधात् । प्रश्न - ११. प्रत्येक द्रव्यमें भेदको प्राप्त हुए प्रत्ययोंकि एकता कैसे सम्भव है ? उत्तर - नहीं, क्योकि, युगपत एक जोव द्रव्यमें रहनेवाले और ज्ञेय पदार्थोंके भेद से प्रचुरताको प्राप्त हुए प्रयोकी एकतामे कोई विरोध नहीं है।
४. एक व एकविध ज्ञानोंके लक्षण
रावा/१/११/१६/६३/३० अपधोत्रेन्द्रियावरणक्षयोपशमपरिणाम आत्मा ततशब्दादीनामन्यतममल्पं शब्दमवगृह्णाति । तदादि शब्दानामेकविधावग्रहणात् एकविधमवगृह्णाति । ( एवं प्राणाद्यवग्रहेष्यपि योज्यम् ) । - अल्प श्रोत्रेन्द्रियावरण के क्षयोपशमसे परिणत आत्मा तत आदि शब्दों से अन्यतम शब्दको ग्रहण करता है, तथा उनमें से एक प्रकारके शब्दको ही सुनता है। इसी प्रकार अन्य इन्द्रियों में भी लागू कर लेना ।
ध. ६/१,६-१,१४/पृ./पंक्ति एक्कस्सेव वत्युवलंभो एयावग्गहो । ( १९ / ४)। एवपयारग्गगमेयविहावमाहो (२०/१) 1- एक ही वस्तु उपलम्भको एक अवग्रह कहते है और एक प्रकारके पदार्थ का १/४.१.४५ / ९५१/३.१५२/३ );
ग्रहण करना एकविध अग्रह है। (
( गो, जो./जी. प्र./३१९/६६७/
(ध. १३/५.५.३५/२३६/१०, २३७/८ ), १२ ) ।
५. एक व एकविध ज्ञानों में अन्तर
घ. ६/१,६-१,१४/२०/२ एय- एयविहाण को विसेसो उच्चदे - एगस्स महणं यावग्गहो, एगजाईए हिरण्यस्स महू या महणमेयविहाबग्गहो । प्रश्न- एक और एकविधमें क्या भेद है। उत्तर-एक व्यक्तिरूप पार्थका ग्रहण करना एक अवग्रह है और एक जाति स्थित एक पदार्थका अथवा बहुत पदार्थोंका ग्रहण करना एकविध यह है . १/४.१.४३/१५२/३ ) ( १३/५.१.२२/२३०/-) ।
६. एक विषयक ज्ञानकी सिद्धि
घ. ६/९१-९२४/१२/४ अगेयंतमत्युवरंभा एयाम्हो परिथ बह अस्थि, एपिज्जदे एतग्गायमाणस्सुलभा इदि से ण एस दोस्रो, एयवस्थाओ अबोहो एमावग्गही उयदि प विहिपहिधम्मा' रामस्य सत्थ अमेयाम महो होम |
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