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मतिज्ञान
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४. एक बहु आदि विषय निर्देश
किन्तु विहिपडिसेहारद्वमेय बत्थू, तस्स उवलंभो एयावरगहो । अणेय- वत्थुविसओ अवबोहो अणेयावग्गहो। पडिहासो पुण सम्वो अणेयतविसओ चेय, विहिपडिसेहाण मण्णदरस्सेव अणुवलंभा। प्रश्न-वस्तु अनेक धर्मात्मक है, इस लिए एक अवग्रह नही होता। यदि होता है तो एक घरमक वस्तुकी सिद्धि प्राप्त होती है, क्योकि एक धर्मात्मक वस्तुको ग्रहण करनेवाला प्रमाण पाया जाता है । उत्तर१. यह कोई दोष नहीं है, क्योकि, एक वस्तुका ग्रहण करनेवाला ज्ञान एक अवग्रह कहलाता है। तथा विधि और प्रतिषेष धर्मोके वस्तुपना नही है, जिससे उनमे अनेक अवग्रह हो सके। किन्तु विधि और प्रतिषेध धर्मों के समुदायात्मक एक वस्तु होती है, उस प्रकारकी वस्तुके .उपलम्भको एक अवग्रह कहते है । २. अनेक वस्तुविषयक ज्ञानको अनेक अवग्रह कहते है, किन्तु प्रतिभास तो सर्व ही अनेक धोका विषय करनेवाला होता है, क्योकि, विधि और प्रतिषेध. इन दानोमेंसे किसी एक ही धर्मका अनुपलम्भ है, अर्थात इन दोनोमेंसे एकको छोड़कर दूसरा नहीं पाया जाता, दोनो ही प्रधान अप्रधानरूपसे साथ-साथ पाये जाते है। ध. १३/५,५,३५/२३६/१० ऊवधिो-मध्यभागाद्यवयवगतानेकत्वानुगकस्वोपलम्भान्नैक प्रत्ययोऽस्तीति चेत्न, एवं विधस्यैव जात्यन्तरीभूतस्यात्रैकत्वस्य ग्रहणात। -प्रश्न-३ चूकि ऊर्ध्व भाग, अधोभाग और मध्यभाग आदि रूप अवयवोमे रहनेवाली अनेकतासे अनुगत एकता पायी जाती है, अतएव वह एक प्रत्यय नही है । उत्तर-नहीं, क्योकि, यहाँ इस प्रकारकी ही जान्यन्तरभूत एकताका ग्रहण किया है।
.. क्षिप्र व अक्षिप्र ज्ञानोंके लक्षण स सि./१/१६/११२/७ क्षिप्रग्रहणमचिरप्रतिपत्त्यर्थ । -क्षिप्र शब्दका ग्रहण जल्दी होनेवाले ज्ञानको जतलानेके लिए है। (रा. वा./१/१६/
१०/१३/१६)। रा.वा/१/१६/१६/६४/२ प्रकृष्टश्रोत्रेन्द्रियावरणक्षयोपशमादिपारिणामिकत्वात् क्षिप्र शब्दमवगृह्णाति । अल्पश्रोत्रेन्द्रियावरणक्षयोपशमपारिणामिकत्वात् चिरेण शब्दमवगृह्णाति । -प्रकृष्ट श्रोत्रेन्द्रियावरणके क्षयोपशम आदि परिणामके कारण शीघ्रतासे शब्दोको सुनता है और क्षयोपशमादिकी न्यूनतामें देरीसे शब्दोको सुनता है । ( इसी प्रकार
अन्य इन्द्रियोपर भो लागू कर लेना ) घ.६/१६-१,१४/२०/३ आसुग्गहणं खिप्पावरगहो, सणिग्रहणमरित्रप्पावग्गहो। -शीघ्रतापूर्वक वस्तुको ग्रहण करना क्षिप्र अवग्रह है और शनैः शनै ' ग्रहण करना अक्षिप्र अवग्रह है । (ध. १/४,१,४५/१५२/४); (ध.१३/५०५,३५/२३७/६) । गो. जी./जी. प्र/३११/६६७/१४ क्षिप्र शीघ पतञ्जलधाराप्रवाहादि ।
अक्षिप्र मन्द गच्छन्नश्वादि । -शीघ्र तासे पडती जलधारा आदिका ग्रहण क्षिप्र है और मन्दगतिसे चलते हुए घोडे आदिका अक्षिप्र अवग्रह है।
८. निःसृत व अनिःसृत ज्ञानोके लक्षण स. सि./१/१६/११२/७ अनिःसृतग्रहण असकलपुद्गलोद्गमार्थम् ।
-(अनि सृत अर्थात् ईषत् नि सृत ) कुछ प्रगट और कुछ अप्रगट, इस प्रकार वस्तुके कुछ भागोंका ग्रहण होना और कुछका न होना, अनि सृत अवग्रह है । (रा. वा./१/१६/११/६३/१८) । रा. वा./२/१६/१६/६४/४ सुविशुद्धश्रोत्रादिपरिणामात साकल्येनानुचारितस्य ग्रहणात अनि सृतमवगृह्णाति । नि,सृत प्रतीतम् । --क्षयोपशमकी विशुद्धिमें पूरे वाक्यका उच्चारण न होनेपर भी उसका ज्ञान कर लेना अनि मृत अवग्रह है और क्षयोपशमकी न्यूनतामें पूरे रूपसे उच्चारित शब्दका ही ज्ञान करना नि मृत अव पह है।
ध.६/१,६-१,१४/२०/४ अहिमुहअत्थग्गहणं णिसियावग्गहो, अणहिमुह
अस्थग्रहणं अणिसियावग्गहो। अहवा उबमाणोवमेयभावेण गहण णिसियावग्गहो, जहा कमलदलणयणा त्ति। तेण विणा गहणं अणिसियावरगहो। -अभिमुख अर्थका ग्रहण करना नि सृत अवग्रह है
और अनभिमुख अर्थका ग्रहण करना अनि सृत अवग्रह है। अथवा, उपमान उपमेय भावके द्वारा ग्रहण करना नि मृत अवग्रह है। जैसेकमलदल-नयना अर्थात् इस स्त्रीके नयन कमल दल के समान है।
उपमान उपमेय भावके बिना ग्रहण करना अनि मृत अवग्रह है। ध.६/४,१,४१६/पृष्ठ/पंक्ति-वस्त्वेकदेशमवलम्ब्य साक्ष्ये न वस्तुग्रहण
वस्त्वेकदेशं समस्तं वा अबलम्ब्य तत्रासन्निहितवस्त्वन्तरविषयोऽप्यनि सृतप्रत्ययः। (१५२/५)। ..एतत्प्रतिपक्षो नि'मृतप्रत्ययः, तथा क्वचित्कदाचिदुपलभ्यते च वस्त्वेकदेशे आलम्बनीभूते प्रत्ययस्य वृत्ति । (१५३/८)। -वस्तुके एकदेशका अवलम्बन करके पूर्ण रूपसे वस्तुको ग्रहण करनेवाला, तथा वस्तुके एकदेश अथवा समस्त वस्तुका अवलम्बन करके वहाँ अविद्यमान अन्य वस्तुको विषय करनेवाला भी अनि.सृत प्रत्यय है। इसका प्रतिपक्षभूत निसृत प्रत्यय है, क्योंकि, कहीपर किसी कालमें आलम्बनीभूत वस्तुके एकदेशमें उतने ही ज्ञानका अस्तित्व पाया जाता है। (गो. जी./मू./३१२/६६६)। घ १३/५,५३५/पृष्ठ/पक्ति-वस्त्वेकदेशस्य आलम्बनीभूतस्य ग्रहणकाले एकवस्तुप्रतिपत्ति' वस्त्वेकदेशप्रतिपत्तिकाल एव वा दृष्टान्तमुखेन अन्यथा वा अनवलम्बितवस्तुप्रतिपत्ति' अनुसधानप्रत्यय. प्रत्यभिज्ञानप्रत्ययश्च अनि सृतप्रत्ययः । (२३७/११)। एतत्प्रतिपक्षी निःसृतप्रत्यय, क्वचिरकदाचिद्वस्त्वेकदेश एव प्रत्ययोत्पत्त्युपलम्भाव। (२३८/११) ।-आलम्बनीभूत वस्तुके एकदेश ग्रहण के समय में ही एक ( पूरी ) वस्तुका ज्ञान होना, या वस्तुके एकदेशके ज्ञानके समयमें ही, दृष्टान्तमुखेन या अन्य प्रकारसे अनवलम्बित बस्तुका ज्ञान होना, तथा अनुसंधान प्रत्यय और प्रत्यभिज्ञान प्रत्यय-ये सब अनि मृत प्रत्यय है। इससे प्रतिपक्षभूत नि मृतप्रत्यय है, क्योकि, कही पर किसी काल में वस्तुके एकदेशके ज्ञानकी ही उत्पत्ति देखी
जाती है। गो. जी /मू /३१३/६६६ पुक्रखरगहणे काले हरिथस्स य वदणगवयगणे
वा । वत्थ तरचंदस्स य घेणुस्स य वोहणं च हवे ।३१३। = तालाबमें जलमग्न हस्तीकी सूंड देखने पर पूरे हस्तीका ज्ञान होना, अथवा किसी स्त्रीका मुख देखनेपर चन्द्रमाका या 'इसका मुख चन्द्रमाके समान है' ऐसी उपमाका ज्ञान होना; अथवा गवयको देखकर गायका ज्ञान होना, ये सब अनि.मृत अवग्रह है।
९. अनिःसृत ज्ञान और अनुमानमें अन्तर
ध. १३/५,५,३५/२३८/३ अर्वाग्भागावष्टम्भबलेन अनालम्बितपरभागादिघूत्पपद्यमान प्रत्ययः अनुमान किन्न स्यादिति चेत्-न, तस्य लिङ्गादभिन्नार्थ विषयत्वाद। न तावदर्वाग्भागप्रत्ययसमकालभावी परभागप्रत्ययोऽनुमानम्, तस्यावग्रहरूपत्वात् । न भिन्नकालभाव्यप्यनुमानम्. तस्य ईहापृष्ठभाविन' अवायप्रत्ययेऽन्तर्भावात् । प्रश्नअग्भिागके आलम्बनसे अनालम्बित परभागादिकोका होनेवाला ज्ञान अनुमानज्ञान क्यों नहीं होगा। उत्तर-नही, क्योकि, अनुमानज्ञान लिगसे भिन्न अर्थ को विषय करता है। अग्भिागके ज्ञानके समान कालमे होनेवाला परभागका ज्ञान तो अनुमान ज्ञान हो नही सकता, क्योंकि, वह अवग्रह स्वरूप ज्ञान है। भिन्न कोलमे होनेवाला भी उक्त ज्ञान अनुमानज्ञान नहीं हो सकता, क्यो कि, ईहाके पश्चात् उत्पन्न होनेसे उसका अवायज्ञानमें अन्तर्भाव होता है।
जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश
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