________________
मतिज्ञान
१०. अनिःसृत विषयक ज्ञानकी सिद्धि
४. १/४.१.४५/१५२/० न चायमसिद्ध' घटावग्भिागमवलम्ब्य सचि घटप्रत्ययस्य उत्पत्युपलम्भात् क्वचिदर्वाग्भागैकदेशमवलम्ब्य तदुत्युपलम्भात् चिद् गौरिव गवय इत्यन्यथा वा एकवस्त्ववलम्ब्य तत्रामं निहितवस्त्वन्तविषयप्रत्ययोत्पत्युपलम्भात् क्वचिददग्भागकाल एव परभागा मोक्तम्भात् न पायमसिद्ध वस्तुविषयप्रयोत्पश्यन्यानुपपते । न चारभागमात्र वस्तु तत एव अर्थ क्रियाकतृत्वानुपलम्भात् । कचिदेकवर्णश्रवणकाल एव अभिमानविषयप्रत्ययस्युक्तम्भाद स्वाम्यस्त प्रदेशे एकस्पर्शोपलम्भकाल एम रुपयान्तिरविशिष्टप्रदेशास रोपसम्भात कचिदेरसग्रहणकाल एव तदेशास निहितरसान्सर विशिष्टवस्तुपलम्भात् निःसृतमित्यपरे पठन्ति रुपमाप्रत्यय एक एक सगृहीत स्यात् ततोऽसौ नेष्यते । = १ यह प्रत्यय असिद्ध नही है, क्योकि घटके अर्वाग्भागका अवलम्बन करके कही घटप्रस्ययको उत्पत्ति पायी जाती है। कहीं पर अवभाग एकदेशका अवलम्बन करके उक्त प्रत्ययकी उत्पत्ति पायी जाती है। कहीं पर, 'गायके समान गवय होता है। इस प्रकार अथवा अन्य प्रकारसे एक वस्तुका अवलम्बन करके वहाँ समीपमें न रहनेवाली अन्य वस्तुको विषय करनेवाले प्रत्ययकी उत्पत्ति पायी जाती है । कहीं पर अवभागके ग्रहणकाल में ही परभागका ग्रहण पाया जाता है; और यह असिद्ध भी नही है, क्योंकि अन्यथा वस्तु विषयक प्रत्यकी उत्पत्ति बन नहीं सकतो; तथा अवग्भागमात्र वस्तु हो नहीं सकती, क्योंकि, उतने मात्रसे अर्थक्रियाकारित्व नहीं पाया जाता । कहीं पर एक वर्ण के श्रवणकाल में ही उच्चारण किये जानेवाले वर्णोंको विषय करनेवाले प्रत्ययकी उत्पत्ति पायी जाती है। कहींपर अपने अभ्यस्त प्रदेशमे एक स्पर्शके ग्रहणकाल में ही अन्य स्पर्श विशिष्ट उस वस्तुके प्रदेशान्तरोका ग्रहण होता है। तथा कही पर एक रसके प्रकाश ही उन प्रदेशो में नहीं रहनेवाले रसान्तर से विशिष्ट वस्तुका ग्रहण होता है। दूसरे आचार्य निःसृत' ऐसा पढते है। उनके द्वारा उपमा प्रत्यय एक ही सग्रहीत होगा, अत: वह इष्ट नही है । (ध. १३/ ५.५.३८ / २३७/१३ ) '
११. अनिःसृत विषयक व्यंजनावग्रहकी सिद्धि
रा. वा /१/१६/६/७०/१४ अथानि सृते कथम् । तत्रापि ये च यावन्तश्च गुगल" सूक्ष्मानि सृता' सन्ति, सुक्ष्मास्तु साधारणैर्न गृह्यन्ते तेषा मिन्द्रियस्थानावगाहनम् अनितव्यजनावग्रह प्रश्न अनिसृत ग्रहण में व्यंजनावग्रह कैसे सम्भव है ? उत्तर- जितने सूक्ष्म पुद्गल प्रगट है उनमे अतिरिक्तका ज्ञान भी अव्यक्तरूपसे हो जाता है । उन सूक्ष्म ढगलोका साधारण इन्द्रियो द्वारा तो हग नहीं होता है, परन्तु उनका इन्द्रियदेशमें आ जाना ही उनका अव्यक्त ग्रहण है ।
२५७
१२. उक्त अनुक्त ज्ञानोंके लक्षण ससि./१/१६/९९३/९ अनुक्तमभिप्रायेण ग्रहण
जो कहो या बिना कही वस्तु अभिप्राय जानी जाती है उसके ग्रहण करनेके लिए 'अनुक्त' पद दिया है। (रा. मा/२/१२/१२/६३/२० ) । रावा./१/१६/१६/६४/५ प्रकृष्टविशुद्धिश्रोत्रेन्द्रियादिपरिणामकारण
स्वाद एक निर्गमेऽपि अभिप्रायेणे व अनुच्चारित शब्दमयगृहाति "हम भवाद श वक्ष्यति इति अथवा स्वरसंचार प्रा रात्रीन्यासोद्या या महर्शनेनेव अनादि अमृतमेव
गृह्य आवटे शब्द वादयिष्यति इति उक्त प्रतीत = श्रोत्रेन्द्रियके प्रकृष्ट क्षयोपशमके कारण एक भी शब्दका उच्चारण किये बिना अभिप्राय मात्र से अनुक्त शब्दको जान लेता है, कि आप यह कहनेवाले है । अथवा वीणा आदिके तारोको सम्हालते समय
भा० ३-३३
Jain Education International
४. एक बहु आदि विषय निर्देश
ही यह जान लेना कि 'इसके द्वारा यह राग बजाया जायेगा' अनुक ज्ञान है। उक्त अर्थात् कहे गये शब्दको जानना । ( इसी प्रकार अन्य इन्द्रियोमे भी लागू करना ) ।
।
जहा
-
६/११-२०१२/२०१६ नियमित विसिद्ध अत्थर उरगाहो। अधा चलिदिएण धवनत्यगण पाणिदिएण मुदव्यग्णमिचादि अणिमयगुणविदियहणं मह चक्खिदिएण गुडादीण रसस्सग्गहणं, घाणिदिएण दहियादीणं रसग्गहानियादि नियमित गुण विशिष्ट अर्थका करना उक्त अवग्रह है । जैसे -- चक्षुरिन्द्रियके द्वारा धवल अर्थका ग्रहण करना और घाण इन्द्रियके द्वारा सुगन्ध द्रव्यका ग्रहण करना इत्यादि । अनियमित गुणविशिष्ट द्रव्यका ग्रहण करना अनुक्त अवग्रह है । जैसे चरिद्रयके द्वारा रूप देखकर गुड खादिके रक प्रहण करना अथवा घाणेन्द्रियके द्वारा दहीके गन्धके ग्रहणकालमे ही उसके रसका ग्रहण करना (१/१.१.११२/२५०/५) (६/१४/१५१६) ( घ. १३/५.५.३५ / २३८/१२ ) ।
DONG
गो. जी./जी. प्र. / ३११ / ६६७ / १४ अनुक्त अकथित अभिप्रायगत ।" उक्तः अयं घट इति कथितो दृश्यमान । बिना कहे अभिप्राय मात्र से जानना अनुक्त है । और कहे हुए पदार्थको जानना उक्त अनग्रह है जैसे यह पर है' ऐसा कहने पर पटको जानना। १३. उक्त और निःसृत ज्ञानोंमें अन्तर
स.सि./१/१६/११३/८ उक्तनि सृतयो का प्रतिविशेष : यावता सकलनिसरणान्नि सृतम् । उक्तमप्येवंविधमेव । अयमस्ति विशेष, अन्योपदेशपूर्वक ग्रहणमुक्त स्वत एव ग्रहणं निःसृतम्। अपरेषा त्रिनिःसृत इति पाठ से एम वर्णयन्ति शब्दमा मयूरस्य वा कुररस्य वेति कश्चित्प्रतिपद्यते । अपर स्वरूपमेवाश्रित्य इति । प्रश्न- उक्त और नि सृतमें क्या अन्तर है- क्योकि, वस्तुका पूरा प्रगट होना निसृत है और उक्त भी इसी प्रकार है। उत्तरइन दोनोमे यह अन्तर है अन्यके उपदेश पूर्वक वस्तुका ग्रहण करना उक्त है, और स्वत' ग्रहण करना नि सृत' है । कुछ आचार्यो के मत से सूत्रमे 'क्षिप्रानि सृत' के स्थान में 'क्षिप्रनि सृत' ऐसा पाठ है । वे ऐसा व्याख्यान करते है, कि श्रोत्रेन्द्रियके द्वारा शब्दको ग्रहण करते समय वह मयूरका है अथवा कुररका है ऐसा कोई जानता है । दूसरा स्वरूप से ही जानता है। (रा.वा./१/१६/१६/६४/२१) | घ. १ / ४.१.४२ / १५४/६ नि तोरूषो को भेदश्चेन्न उक्तस्य निःसृतानि सृतोभयरूपस्य तेनैकत्वविरोधात । प्रश्न- निःसृत और उक्तमें क्या भेद है। उत्तर- नहीं, क्योंकि, उक्त प्रत्यय नि सृत और अनि सृत दोनो रूप है । अत उसका निसृतके साथ एकत्व होनेका विराध है। ( १३/२२०५/२११/२)।
,
१४. अनुक्त और अनिःसृत ज्ञानों में अन्तर
घ. ६/१.२-१.१४/२०१६ नायमणिरिसदस्स अंतो पददि, एयवरग्यहमकाले दो भूदवस्स्स ओवरिमभागकाले पेय परभागस्य, अंगुलि गहणकाले चेय देवदत्तस्स य गहणस्स अणिस्सिश्वदेसादो] [] अनुत अवग्रह अनि सुरा अवग्रहके अन्तर्गत नहीं है. क्योकि, एक वस्तुकै ग्रहणकालमे ही उससे पृथग्भूत वस्तुका उपरि भाग ग्रहणकालमें ही परभागका और अंगुलि प्रहणकास हो देवदतका ग्रहण करना अनि मृत अवग्रह है ( और रूपका ग्रहण करके रसका ग्रहण करना अनुक्त है । )
१५. अनुक्त विषयक ज्ञानकी सिद्धि
ध.१/४,१,४५/१५४/१न चायमसिद्ध', चक्षुषा लवण-शर्कराखण्ड पलम्भकाल एव कदाचित्तद्रसोपलम्भात् दध्नो गन्धग्रहणकाल एव तद्रसावगते, रूपग्रहणकाल एवं कदाचित्स्पर्शोपसम्भादिहित स्वारस्य,
जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org