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प्रायश्चित
नहीं क्योंकि ऐसे स्थानों में जातोचना करनेसे पककी कार्यसिद्धि नहीं होगी । ५५०० ३ बर्हन्तका मन्दिर, सिद्धोका मन्दिर, समुद्र के समीपका प्रदेश, जहाँ सीरवृक्ष है, जहाँ पुष्प व फलीसे लदे वृक्ष है ऐसे स्थान, उद्यान, तोरण द्वार सहित मकान, नागदेवताका मन्दिर, यक्ष मन्दिर, ये सब स्थान क्षपककी आलोचना सुननेके योग्य हैं । ५५८ | और भी अन्य प्रशस्त स्थान आलोचना के योग्य है, ऐसे प्रशस्त स्थानोगे क्षपकका कार्य निर्विघ्न सिद्ध हो इस हेतु से आचार्य बैठकर आलोचना सुनते है ॥२३६॥
११. प्रायवित्तका प्रयोजन व माहात्म्य
रा. वा / १/२२/१/६२०/२६ प्रमाददोषव्युदास भावप्रसादो नै शक्यस् अस्थावृत्तिमा सयमावाद माराधनमित्येवमादीनां सिद्धयर्थं प्रायश्चित्तं नवविधं विधीयते । == प्रमाद दोष व्युदास, भाव प्रसाद, नि शल्यत्व, अव्यवस्था निवारण, मर्यादाका पालन, संयमकी दृढता, आराधना सिद्धि आदिके लिए प्रायश्चित्तमे विशुद्ध होना आवश्यक है। (भा पा. / टी / ७८ / २२४ / ६ ) | घ. /१३/५.४,२६/ १०/६० कृतानि कर्माण्यतिदारुणानि भवा गा. म विगर्हणेन । प्रकाशनात्समरणारच तेषामस्यन्तगुलोद्धरणं मदामि 1१०1] अपनी ग करनेसे, दोषोका प्रकाशन करनेसे और उनका संवर करनेसे किये गये अतिदारुण कर्म कृश हो जाते है। अब उनका समूल नाश कैसे हो जाता है, यह कहते है | १०| ( का.अ./यू. /४५१-४५२ ) ।
३. शंका समाधान
१. दूसरेके परिणाम कैसे जाने जाते हैं
भ.आ./नि./६२६/०२८/२० क परिणामो ज्ञायते इति चेद सहवासेन तीव्रकोपस्तीमान इत्यादिकं सुज्ञातमेव तत्कार्योपसम्भाव समेष वा परिवृप कोहभवत परिणामोऽविचारसमकालं वृत्तः । - प्रश्न - दूसरेके परिणाम कैसे जाने जा सकते है ? उत्तर - १. सहवाससे परिणाम जाने जा सकते है, २, अथवा उसके कार्य देखने पर उसके तीव्र या मन्द क्रोधादिकका स्वरूप मालूम होता है । ३. अथवा जब तुमने अतिचार किये थे तब तुम्हारे परिणाम कैसे थे', ऐसा उसको पूछकर भी परिणामोंका निर्णय किया जा सकता है। विशेष-दे० विनय /५/१) ।
२. समय प्रायश्चित्तके पृथक् निर्देशकी क्या आवश्यकता तदुभय दे प्रतिक्रमण / २ / २] सभी प्रतिक्रमण नियमसे आलोचना पूर्वक होते हैं। गुरु स्वयं अन्य किसीसे आलोचना नही करता है। इसलिए गुरुसे अतिरिक्त अन्य शिष्योकी अपेक्षा तदुभय प्रायश्चित्तका पृथ निर्देश किया गया है ।
४. प्रायश्वित्त विधान
१. प्रायश्चित्तके योग्य कुछ अपराधोंका परिचय भ./वि./४५०/६७६/८ पृथिवी, आपस्तेजो वायुः... सचित्त द्रव्य... तृणफलकादिर्क अति ससतं उपकरण मिश्र एवं त्रिविधा द्रव्यप्रतिसेवना। वर्षा...अर्ध योजनम्। ततोऽधिक्षेत्रगमनं प्रतिषिक्षेत्रगमनं विरुद्वरागमनं चित्राप्यगमनं ततो रक्षणीया गमन |---उन्मार्गेण वा गमनद अन्त पुरप्रवेश' । अनुज्ञातगृहभूमिगमनम् इत्यादिना क्षेत्रप्रतिसेवना आवश्यककालादयस्मिन्काले आवश्यककरणम्। वर्षावग्रहातिक्रम इत्यादिना कालप्रतिसेवना । वर्ष:, प्रमाद, अनाभोग भयं प्रशेष इत्यादिकेषु परिणामेषु प्रवृत्तिर्भावसेवा पृथ्वी, पानी आदि सचित्त द्रव्य, तृणका सस्तर फलक
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४. प्रायश्चित विधान
वगैरे अचित्त द्रव्य, जीव उत्पन्न हुए है ऐसे उपकरणरूप मिश्राद्रव्य, ऐसे तीन प्रकार के द्रव्योका सेवन करनेसे दोष लगते है यह द्रव्य प्रतिसेवना है । वर्षाकालमे ( मुनि) आधा योजन से अधिक गमन करना, निषिद्ध स्थानमे जाना, विरुद्व राज्यमे जाना, जहाँ रास्ता टूट गया ऐसे प्रदेश मे जाना, उन्मार्ग से जाना, अन्त परमे प्रवेश करना, जहाँ प्रवेश करने की परवानगी नहीं है ऐसे गृह जमीन मे प्रवेश करना यह क्षेत्रति सेबना है । आवश्यक के नियत कालको उल्लघन कर अन्य समय में सामायिकादि करना, वर्षाकाल योगका उल्लेखन करना यह काल प्रतिसेवना है । दर्प, उन्मत्तता, असावधानता, साहस, भय इत्यादि रूप परिणामोमे प्रवृत्त होना भाव प्रतिसेवना है।
२. अपराधोंके अनुसार प्रायश्चित विधान १. आलोचना
रा. वा / १/२२/१०/६१९ / ३६ विद्यायोगोपकरणग्रहणादिषु प्रश्नविनयमन्तरेण प्रवृत्तिरेव शेष इति तस्य प्रायश्चित्तमःलोचनमात्रम् । = विद्या और ध्यानके साधनो के ग्रहण करने आदिमे प्रश्न विनयके बिना प्रवृत्ति करना दोष है, उसका प्रायश्चित आलोचना मात्र है । भाषा/टी ७८/२२३/१४ आचार्यमपृष्ट्वा आतापनादिकरणे पुस्तक पिचादिपरोपकरणग्रहणे परपरोसे प्रमादत आचार्यादिवचनाकरणे सघनाम पृष्ट्वा स्वसंघ गमने देशकालनियमेनावश्यकर्तव्यवत विशेषस्य धर्मवादि उपासनेन विस्मरणे सति पुन करणे अन्यत्राणि चैि आलोचनमेव प्रायश्चितम्। आचार्य के बिना पूछे आतापनादि करना, दूसरे साधुको अनुपस्थितिमें उसकी पीछी आदि उपकरणीका ग्रहण करना, प्रमादसे आचार्यादिको आज्ञाका उल्लघन करना, आचार्य से बिना पूछे सघमे प्रवेश करना, धर्म कथादिके प्रसगसे देश काल नियत आवश्यक कर्तव्य व व्रत विशेषोका विस्मरण होनेपर उन्हे पुन. करना, तथा अन्य भी इसी प्रकारके दोषोंका प्रायश्चित्त आलोचना मात्र है। (अन. ध. /७/५३ भाषा ) ।
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२. प्रतिकमण
रा. वा / १/२२/१०/६२१/३७ देशकालनियमेनावश्यं कर्तव्यमित्यास्थिताना योगानां धर्मकथा दिव्याक्षेप हेतुहिधानेन विस्मरणे सति पुनरनुष्ठाने प्रतिक्रमणं तस्य प्रायश्चितम्। देश और कालके नियमसे अवश्य कर्तव्य विधानको धर्म कथादिके कारण भूल जानेपर पुन करने के समय प्रतिक्रमण प्रायश्चित्त है ।
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ध. १३/५४,२६/६०/६ एदं ( पडिक्कमण पायच्छित्त) कत्थ होदि । अप्पावराहे गुरु हि विणा वट्टमाणम्हि होदि । जब अपराध छोटा सा हो, गुरु पास न हो तब यह प्रतिक्रमण प्रायश्चित्त होता है। भा. पा / टी / ७८/२२३/१८ षडिन्द्रियवागादिदुष्परिणामे, आचार्यादिषु हस्तपादादिस घट्टने, जतसमितिसि स्वपातिपारे वैशुन्यकल हादिकरणे. वैयावृत्यस्वाध्यायादित्रमा गोचरगतस्य सिगोत्थाने अन्यसंक्लेशकरणादौ च प्रतिक्रमण प्रायश्चित्त भवति । दिवसान्ते राज्यन्ते भोजनगमनादौ च प्रतिक्रमण प्रायश्चित्त । = छहों इन्द्रिय तथा वचनादिकका दुष्प्रयोग, आचार्यादिके अपना हाथ-पाँव आदिका टकरा जाना, व्रत, समिति गुप्तिमे छोटे-छोटे दोष लग जाना, वैशुन्य तथा कलह आदि करना वैयावृत्य तथा स्वाध्यायादि प्रमाद करना, गोचरीको जाते हुए लिंगोत्थान हो जाना, अन्यके साथ संक्लेश करनेवाली क्रियाओके होनेपर प्रतिक्रमण करना चाहिए । यह प्रायश्चित्त सायंकाल, पौर प्रा. काल तथा भोजनादिके जाने के समय होता है । ( अन. ध. / ७ / ५३ भाषा ) ।
३. तदुभय
१३/५४६६/१०/११ उभयं नाम पाव दुस्सु मिणदणादिसु स्वप्न देखने आदि प्रायश्चित होता है (सा./९४९/६)।
जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश
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एवं कम होदि अमसरोपर दुभय
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