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प्रायश्चित्त
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२ प्रायश्चित्त निर्देश
नरसोमे दर्शन-ज्ञान व चारित्रको शुद्धि करूंगा, ऐसा जिन्होने अपने मनभे सकल्प किया है, ऐसे मुनि अपना आयु कितना नष्ट हुआ है यह नही जानते अर्थात उनका सशल्य मरण होता है ।५४१। रोग, शत्रु और इनकी उपेक्षा करनेसे ये दृढमूल होते है। पुन, उनका नाश सुरवसे कर नहीं सकते। अथवा जो अतिचार होकर बहुत दिन व्यतीत हो चुके है, उनका स्मरण होता नहीं। जो अतिचार हुए है, उनके सन्ध्या, दिन, रात्रि, इत्यादि रूप काल का स्मरण गुरुके पूछनेपर शिष्योको होता नही, क्योकि अतिचार होकर बहुत दिन व्यतीत हो चुके हैं। इसी प्रकार क्षेत्र, भाव और अतिचारके कारण इनका भी स्मरण नही होता, वे अतिचार स्मृतिज्ञानके अगोचर है। ऐसा कोई आचार्य इस गाथाका व्याख्यान करते है। ४. बाह्य दोषका प्रायश्चित्त स्वयं तथा अन्तरंग दोषका
गुरुके निकट लेना चाहिए प्र, सा /म् /२११-२१२ पयदम्हि समारद्ध छेदो समणस्स कायचेटुम्हि । जायदि जदि तस्स पुणो आलोयणपुब्विया किरिया ।२११। छेदुवजुत्ता समणो समणं ववहारिणं जिणमदम्हि । आसेज्जालोचित्ता उबदिह्र तेण काय १२१२। -यदि श्रमणके प्रयत्न पूर्वक की जानेवाली कायचेष्टामें छेद होता है तो उसे आलोचना पूर्वक क्रिया करना चाहिए ।२११। किन्तु यदि श्रमण छेदमें ( अन्तरंग छेदमें ) उपयुक्त हुआ हो तो उसे जैनमतमे व्यवहार कुशल श्रमणके पास जाकर आलोचना करके ( दोषका निवेदन करके) जैसा उपदेश दें वैसा करना चाहिए ।२१२॥ ५. आत्म भावनासे च्युत होनेपर पश्चात्ताप ही प्राय
श्चित्त है इ. उ /मू /३६ निशामयति नि शेषमिन्द्रजालोपमं जगत् । स्पृहयत्यात्मलाभाय गत्वान्यत्रानुतप्यते ।३१। -योगीजन इस समस्त जगत्को इन्द्रजालके समान देखते है, क्योकि उनके आत्म स्वरूपकी प्राप्तिकी प्रबल अभिलाषा उदित रहती है। यदि कारणवश अन्य कार्य में प्रवृत्ति हो जाती है, तब उसे संताप होता है। ६. दोष लगनेपर प्रायश्चित्त होता है सर्वदा नहीं रा. वा /8/२२/१०/६२२/१ भयत्वरण विस्मरणानवबोधाशक्तिव्यसनादिभिर्महावतातिचारे सति प्राक् छेदाद षड्विधं प्रायश्चित्तं विधेयं । - डरकर भाग जाना, सामर्थ्यकी हीनता, अज्ञान, विस्मरण, यवनादिकोंका आतंक, इसी तरहके रोग अभिभव आदि और भी अनेक कारणोसे महावतोमे अतीचार लग जानेपर तपस्वियोके छेदसे पहलेके छहों प्रायश्चित्त होते है। (चा सा./१४२/१); (अन.ध. ७/५३)। ७. प्रायश्चित्त शास्त्रको जाने विना प्रायश्चित्त देनेका
निषेत्र भ. आमू /४५१ ४५३/६७८ मोत्तूण रागदोसे ववहार पट्ठवेइ सो तस्स । ववहारकरणकुसलो जिणवयणविसारदो धीरो।४५ ववहारमयण तो बवहरणिज्ज च बवहर तो खु । उस्सीयदि भवपंके अयसं कम्मच आदियदि ।४५२। जह ण करेदि तिगिच्छ' वाधिस्स तिरिच्छओ अणिम्मादो। ववहारमयण तो ण सोधिकामो विज्झेइ १४५३। -जिन प्रणीत आगममे निपुण, धैर्यवान, प्रायश्चित्त शास्त्रके ज्ञाता ऐसे आचार्य राग-द्वेष भावना छोडकर मध्यस्थ भाव धारण कर मुनिको प्रायश्चित्त देते है ।४५१) ग्रन्थसे, अर्थसे और मैसे प्रायश्चित्त का स्वरूप जिसको मालूम नही है वह मुनि यदि नव प्रकारका प्रायश्चित्त देने लगेगा तो वह संसारके कीचडमे फंसेगा और जगत्मे
उसकी अकीर्ति फैलेगी ।४५२। जैसे-अज्ञवैद्य रोगका स्वरूप न जाननेके कारण रोगकी चिकित्सा नही कर सकता। वैसे ही जो आचार्य प्रायश्चित्त ग्रन्थके जानकार नहीं है वे रत्नत्रयको निर्मल करनेकी इच्छा रखते हुए भी निर्मल नही कर सकते १४५३॥ ८. शक्ति आदिसे सापेक्ष ही देना चाहिए रा. वा/६/२२/१०/६२२/८ तदेतन्नवविध प्रायश्चित्तं देशकालशक्तिसंयमाद्यविरोधेनाल्पानल्पापराधानुरूप दोषप्रशमनं चिकित्सितवद्विधेयं । जीवस्यासंख्येयलोकमात्रपरिणामा परिणाम विकल्पा. अपराधाश्च तावन्त एव न तेषां ताबद्विकल्प प्रायश्चित्तमस्ति व्यवहारनयापेक्षया पिण्डीकृष्य प्रायश्चित्तविधानमुक्तं । -देश, काल, शक्ति और सयममें किसी तरहका विरोध न आने पावे और छोटा बडा जैसा अपराध हो उसके अनुसार वैद्यके समान दोषोंका शमन करना चाहिए। प्रत्येक जीवके परिणामोके भेदोकी संख्या असंख्यात लोक मात्र है, और अपराधोकी सख्या भी उतनी है, परन्तु प्रायश्चित्तके उतने भेद नही कहे है। ऊपरके लिखे (६ वा १०) भेद तो केवल व्यवहार नयकी अपेक्षासे समुदाय रूपसे कहे गये है। (भ आ./वि./६२६/८२८/२०), ( चा, सा /१४७/२), ( अन, ध/७/६८)। ९. आलोचना पूर्वक ही लिया जाता है भ. आमू./६२०-६२१ एत्थ दु उज्जुगभावा ववहारिदव्या भवति ते
पुरिसा। स का परिहरिदव्वा सो से पट्टाहि जहि विसुद्धा ।।२०। पडिसेवणादिचारे जदि आज पदि तहाकम्म सन्वे । कुव्वं ति तहो सोधि आगमवबहारिणो तस्स ।६२१। जो ऋजु भावसे आलोचना करते है, ऐसे पुरुष प्रायश्चित्त देने योग्य है और जिनके विषय में शंका उत्पन्न हुई हो उनको प्रायश्चित्त आचार्य नहीं देते है। इससे सिद्ध हुआ कि सर्वातिचार निवेदन करनेवाली में ही ऋजुता होती है, उसको ही प्रायश्चित्त देना योग्य है ।२०। यदि द्रव्य, क्षेत्र, काल और भावके आश्रयसे हुए सम्पूर्ण दोष क्षपक अनुक्रमसे कहेगा तो प्रायश्चित्त दानकुशल आचार्य उसको प्रायश्चित्त देते है ।६२१॥ १०. प्रायश्चित्तके योग्यायोग्य काल व क्षेत्र भ. आ/मू /५५४-१५६ आलोयणादिया पुण होइ पसत्थे य सुद्धभावस्स ।
पुठ्वण्हे अवरण्हे ब सोमतिहिरवखवेलाए ।५५४६ णिप्पत्तकंटइल्लं विज्जुदं सुबखरुक्खक्ड्डदड्ढ । सुण्णधररुद्ददेउलपत्थररासिट्टियापुंज ॥५५॥ तणपत्तक्छारिय असुइ सुसाणं च भग्गपडिद वा। रुद्दाण खुद्दाणं अधिउत्ताण च ठाणाणि १५५६। अण्णं व एषमादी य अप्पसत्थ हवेज्ज जं ठाणं । आलोचणं ण पडिच्छदि तत्थ गणीसे अबिग्घत्थ १५५७ अरह तसिद्धसागरपउमसर खीरपुप्फफलभरियं । उज्जाणभवणतोरणपासादं णागजक्रवघर १५५८१ अण्ण च एवमादिया सुपसत्थ हवइ ज ठाण । आलोयणं पडिच्छदि तस्य गणीसे अविरघत्थं ।५५६। -१ विशुद्व परिणामवाले इस धपक्की आलोचना प्रतिक्रमणादिक क्रियाएँ दिनमे और प्रशस्त स्थानमें होती है। दिवसके पूर्व भागमे अथवा उत्तर भागमे, सौम्य तिथि, शुभ नक्षत्र, जिस दिनमे रहते है उस दिन होती है ।५५४) २ जो क्षेत्र पत्तोसे रहित है, कॉटोसे भरा हुआ है, बिजली गिरनेसे जहाँ जमीन फट गयी है, जहाँ शुष्क वृक्ष है, जिसमें कटुरससे वृक्ष भरे है, जो जल गया है, शून्य घर, रुद्रका मन्दिर, पत्थरों का ढेर और ईटोका ढेर है, ऐसा स्थान आलोचनाके योग्य नहीं है ।५५५। 'जिसमे सूखे पान, तृण, काठके पुंज है, जहाँ भस्म पडा है, ऐसे स्थान तथा अपवित्र श्मशान, तथा फूट हुए पात्र, गिरा हुआ घर जहाँ है वह स्थान भी धर्य है। रुद्र देवताओ, और क्षुद्रदेवताओ इनके स्थान भी वर्त्य समझने चाहिए ।१५६। ऊपरके स्थान बय॑ है वैसे ही अन्य भी जो अयोग्य स्थान है, उनमें भी क्षपककी आलोचना आचार्य सुनते
जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश
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