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प्रायश्चित्त
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२. प्रायश्चित्त निर्देश
आत्माका जो उत्कृष्ट ज्ञान अथवा चित्त उसे जो मुनि नित्य धारण करता है, उसे प्रायश्चित्त है ।११६। बहुत कहने से क्या । अनेक कोके क्षयका हेतु ऐसा जो महर्षियोका उत्तम तपश्चरण वह सब प्रायश्चित्त जान ११७ आत्म स्वरूप जिसका अबलम्बन है, ऐसे भावोसे जोव सर्व भावोका परिहार कर सकता है, इसलिए ध्यान सर्वस्व है ।११।। (विशेष विस्तार दे०नि, सा /मू व ता वृ./११३-१२१)। का अ/मू./४५५ जो चितह अप्पाण णाण-सरूव पुणो पुणो णाणी। विकह-विरत्त चित्तो पायच्छित्तं वरं तस्स ४५५। जो ज्ञानी मुनि ज्ञान स्वरूप आत्माका बारम्बार चिन्तन करता है, और विक्थादि प्रमादोसे जिसका मन विरक्त रहता है, उसके उत्कृष्ट प्रायश्चित्त होता है ।४५॥ ३ व्यवहारकी अपेक्षा मू आ./३६१,३६३ पायच्छित्त ति तवो जेण विसुज्झदि हु पुव्वक्यपा।
पायच्छित्त पत्तोति तेण वृत्त । ३६३ पोराणवम्मखमण खिवणं णिज्जरणं सोधणं धुमणं । पुच्छणमुछिवर्ण छिदण ति पायचित्तस्स णामाई 1३६३। - व्रतमें लगे हुए दोषोको प्राप्त हुआ यति जिससे पूर्व किये पापौसे निर्दोष हो जाय वह प्रायश्चित्त तप है ।३६११ पुराने कर्मों का नाम, क्षेपण, निर्जरा, शोधन, धावन, पुच्छन (निराकरण )
उत्क्षेपण, छेदन (द्वैधीकरण ) ये सब प्रायश्चित्त के नाम है ।३६॥ स सि //२०/४३६/६ प्रमाददोषपरिहार प्राय चित्तम् । = प्रमाद जन्य दोषका परिहार करना प्रायश्चित्त तप है। (चा सा /०३७/२) (अन ध०/७/३४)। घ. १३/१४,२६/१६/८ कयावराहेण सस वेयणिवेएण सगावराहणिरायरहण जमणुट्टाणं कीरदि तप्पायच्छित्त णाम तबोकम्म । = सवेग
और निवेदसे युक्त अपराध करनेवाला साधु अपने अपराधका निराकरण करनेके लिए जो अनुष्ठान करता है वह प्रायश्चित्त नामका
तप कर्म है। का.अ./मू./४५१ दोसं ण करेदि सय अण्ण पि ण कारएदि जो तिविह। कुव्वाण पिण इच्छदि तस्स विसोही परा होदि ।४५१। जो तपस्वी मुनि मन वचन कायसे स्वयं दोष नही करता, अन्यसे भी दोष नही क्राता तथा कोई दोष करता हो तो उसे अच्छा नहीं मानता, उस मुनिके उत्कृष्ट विशुद्धि (प्रायश्चित्त ) होती है ।४५१।
२. प्रायश्चित्तके भेद मू. आ./३६२ आलोयण पडिक्मणं उभय विवेगो तहा विउस्सग्गो । तव छेदो मूल पिय परिहारो चेव सद्दहणा ।३६२ = आलोचना, प्रतिक्रमण, तदुभय, विवेक, व्युत्सर्ग, तप, छेद, मूल, परिहार और श्रद्धान ये दश भेद प्रायश्चित्तके है ।३६२। (ध १३/५.४,२६/गा ११/६०) (चा.
सा./१३७/३) ( अन. ध /७/३७ की भाषा अथवा :७-५७)। त स./६/२२ आलोचनप्रतिक्रमणतदुभयविवेकव्युत्सर्गतपश्छेदपरिहारोपस्थापना ।२२। आलोचना, प्रतिक्रमण, तदुभय, विवेक, व्युत्सर्ग, तप, छेद, परिहार और उपस्थापना यह नब प्रकारका प्रायश्चित्त
है ।२२। अन.ध./७/५६ व्यवहारनयादित्थं प्रायश्चित्तं दशात्मकम् । निश्चयात्तदसख्येयलोकमात्रभिदिष्यते 1५६) व्यवहार नयसे प्रायश्चित्तके दश भेद है। किन्तु निश्चयनयसे उसके असरख्यात लोक प्रमाण भेद होते है। ३. प्रायश्चित्तके भेदोंके लक्षण १ तदुभय स सि /8/२२/४४०/७ (तदुभय) संसर्गे सति विशोधनात्तदुभयम् ।
- आलोचना और प्रतिक्रमण इन दोनोका संसर्ग होनेपर दोषोका शोधन होनेसे तदुभय प्रायश्चित्त है। (रा. वा /8/२२/४/६२१/२०) ( अन, ध./७/४८)।
ध. १३/५,४,२६/१०/१० सगावराहं गुरुणमालोचिय गुरुसविखया अवराहादो पडिणियत्ती उभय णाम पायच्छितं । - अपने अपराधकी गुरुके सामने आलोचना करके गुरुकी साक्षिपूर्वक अपराधसे निवृत्त होना उभय नामका प्रायश्चित्त है।
२. उपस्थापना या मूल स. सि/8/२२/४४०/१० पुनर्दीक्षाप्रापणमुपस्थापना। = पुन, दीक्षा वेना
उपस्थापना प्रायश्चित्त है। (रा वा./१/२२/१०/६२१/३४ ) (ध, १३/ ५,४,२६/६२/२) ( च सा /१४४/३) ( अन, ध./७/१५) ।
३ श्रद्धान घ. १३/५,४,२६/६३/३ मिच्छत्तं गतूण ट्ठियस्स महव्ययाणि घेत्तूण अत्तागम-पयत्थसद्दहणा चेव (सदहण ) पायच्छित्त। -मिथ्यात्वको प्राप्त होकर स्थित हुए जीवके महानतोको स्वीकार कर आप्त आगम और पदार्थोका श्रद्धान करने पर श्रद्वान नामका प्रायश्चित्त होता है। (चा सा/१४७/२ ) ( अन ध/७१३७) । २. प्रायश्चित्त निर्देश
१. प्रायश्चित्तको व्याप्ति अन्तरंगके साथ है भ. आ./म./१०५/५६४ आलोचणापरिणदो सम्म सपच्छिओ गुरुसयास। जदि अतरम्मि काल करेज्ज आराहओ होई । --में अपने अपराधोका स्वरूप गुरुके चरण समीप जाकर कहूँगा, ऐसा मनमें विचार कर निकला मुनि यदि मार्गमे ही मरण करे तो भी वह आराधक होता
है।४०। (भ आ /म् /४०६-४०७/५६५) । दे० प्रतिक्रमण/२/२/२ निजात्म भावनासे ही निन्दन गर्हण आदि
शुद्धिको प्राप्त होता है। २. प्रायश्चित्तके अतिचार भ आ./वि /४८७/००७/२० प्रायश्चित्तातिचारनिरूपणा-तत्रातिचारा। आवं पियअणुमाणियमित्यादिकाश्च । भूतातिचारेऽस्य मनसा अजुप्सा । अज्ञानत , प्रमादात्कर्म गुरुत्वादालयाच्चेद अशुभकर्मबन्धननिमित्त अनुष्ठित, दुष्ट कृतमिति एवमादिक प्रतिक्रमणातिचार । उक्तोभया तिचारसमवायस्तदुभयातिचार' । प्रायश्चित्त तपके अतिचार-आकंपित अनुमानित वगैरह दोष (दे० आलोचना/२) इस तपके अतिचार है । ये अतिचार होनेपर इसके विषयमे मनमें ग्लानि न करना अज्ञानसे, प्रमादसे, तीव्र कर्म के उदयसे और आलस्यसे मैने यह अशुभ कर्म का बंध करनेवाला कर्म क्यिा है, मैने यह दृष्ट कर्म किया है, ऐसा उच्चारण करना प्रतिक्रमण के अतिचार है।
आलोचना और प्रतिक्रमणके अतिचारको उभयातिचार कहते है। नोट-विवेक, आलोचना आदि तपके अतिचार -दे० वह वह नाम ।
३. अपराध होते ही प्रायश्चित्त लेना चाहिए भ. आ /मु. व. वि./५४१/७५७ उत्थानिका-जाते अपराधे तदानीमेव कथितव्यं न कालक्षेप कार्य इति शिक्षयति क्ले परे व परदो काह दसणच रित्तसोधित्ति । इय सप्पमदीया गयं पि काल ण याणं ति 1५४१॥ तत सशल्य मरणं तेषा भवति इति। व्याधय., कर्माणि, शत्रवश्चौपेक्षितानि बद्धमलानि पुनर्न सुखेन विनाश्यन्ते। अथवा अतिचारकाल गत चिरातिक्रान्तं नैव जानन्ति । ये हि अतिचारा' प्रतिदिनं जातास्तेषां कालं, संध्या रात्रिदिन इत्यादिक पश्चादालोचनाकाले गुरुणा पृष्टास्तावन्न बकर जानन्ति विस्मृतत्वाच्चिरातीतस्य ।' अपि शब्देन क्षेत्रभावौ वातिचारस्य हेतू न जानन्ति ।. इह स्मृतिज्ञानागोचर इति केषांचिद्वार यानं । - आराधनामे अतिचार होनेपर उसी क्षणमे उनका गुरुके समय कथन करना चाहिए, कालक्षेप करना योग्य नही, ऐसा उपदेश देते है।-१ बल परसो अथवा
जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश
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