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________________ प्राभृतकप्राभृतकज्ञान १५७ प्रायश्चित्त शंका समाधान दूसरेके परिणाम कैसे जाने जा सकते है। २ | तदुभय प्रायश्चित्तके पृथक् निर्देशकी क्या आवश्यकता। प्राभृतकप्राभृतकज्ञान-दे० श्रुतज्ञान/U | प्राभृतक प्राभृतक समास ज्ञान-दे० श्रुतज्ञान/I1 । प्राभृतक समास ज्ञान-दे० श्रुतज्ञान/II । प्रामाण्य-१ न्या वि/टी./१/१२८/४८१/२० प्रमाणर्म प्रामाण्यं परिच्छिन्तिलक्षण । प्रमाणका कर्म सो प्रामाण्य है, वह पदार्थ के निश्चय करने रूप लक्षण वाला होता है। प्रामृष्य- आहार का एक दोष-दे आहार II/४/४ | प्रायश्चित्त-प्रतिरामय लगनेवाले अन्तर ग व बाह्य दोषोकी निवृत्ति करके अन्तर्शोधन करने के लिए किया गया पश्चात्ताप या दण्डके रूपसे उपकास आदिका ग्रहण प्रायश्चित्त कहलाता है, जो अनेक प्रकारका हाता है। बाह्य दोषोका प्रायश्चित्त पश्चात्ताप मात्रसे हो जाता है। पर अन्तरंग दोषोका प्रायश्चित्त गुरुके समक्ष सरल मनसे आलोचना पूर्वक दण्डको स्वीकार किये बिना नही हो सकता है। परन्तु इस प्रकार के प्रायश्चित्त अर्थात् दण्ड शास्त्रमे अत्यन्त निपुण व कुशल आचार्य ही शिष्यकी शक्ति व योग्यताको देखकर देते है, अन्य नही। प्रायश्चित्त विधान प्रायश्चित्तके योग्य कुछ अपराधोंका परिचय । अपराधोके अनुसार प्रायश्चित्त विधान । शूद्रादि छनेके अवसर योग्य प्रायश्चित्त । अयोग्य आहार ग्रहण सम्बन्धी प्रायश्चित्त । -दे० भक्ष्याभक्ष्य/१। | यथा दोष प्रायश्चित्तमें कायोत्सर्गके कालका प्रमाण। -दे० व्युत्सर्ग/१। | भेद व लक्षण | प्रायश्चित्त सामान्यका लक्षण-१ निरुक्त्यर्थ, २. निश्चयकी अपेक्षा, ३ व्यवहारकी अपेक्षा। प्रायश्चित्तके भेद । प्रायश्चित्तके भेदोंके लक्षण । आलोचन, प्रतिक्रमण, विवेक, व्युत्मर्ग, तप व परिहार प्रायश्चित्त सम्बन्धी विषय ।-दे० बह वह नाम । प्रायश्चित्त निर्देश प्रायश्चित्तकी व्याप्ति अंतरगके साथ है। प्रायश्चित्तके अतिवार । अपराध होते ही प्रायश्चित्त लेना चाहिए । बाह्य दोपका प्रायश्चित्त स्वय तथा अन्तरंग दोषका गुरुके निकट लेना चाहिए। शियके दोषोंको गुरु अन्यपर प्रगट न करे। -दे० गुरु/२। | आत्म भावनासे न्युत होनेपर पश्चात्ताप ही प्रायश्चित्त है। दोप लगनेपर प्रायश्चित्त होता है सर्वदा नहीं। प्रायश्चित्त शास्त्रको जाने बिना प्रायश्चित्त देनेका निषेव । प्रायश्चित्त ग्रन्थके अध्ययनका अधिकार सबको नहीं। __ -दे० श्रोता। शक्ति आदिके सापेक्षा ही देना चाहिए। आलोचना पूर्वक ही लिया जाता है। प्रायश्चित्तके योग्यायोग्य काल व क्षेत्र । प्रायश्चिन्तका प्रयोजन व माहात्म्य । १. भेद व लक्षण १. प्रायश्चित्त सामान्यका लक्षण १. निरुक्ति अर्थ रा, या./६/२२/१/६२०/२८ प्रायः साधुलोक , प्रायस्य यस्मिन्कर्मणि चित्त तत्प्रायश्चित्तम् । अपराधो ग प्राय', चित्त शुद्धि, प्रायस्य चित्त प्रायश्चित्तम्, अपराधविशुद्धिरित्यर्थ । प्रायः साधु लोक, जिस क्रियामे साधुओका चित्त हो वह प्रायश्चित्त । अथवा प्राय अपराध उसका शोधन जिससे हो वह प्रायश्चित्त । ध. १३/५४,२६/गा ६/५६ प्राय इत्युच्यते लोकश्चित्त तस्य मनो भवेत् । तच्चित्तग्राहक कम प्रायश्चित्तमिति स्मृतम् ।। प्राय' यह पद लोकवाची है और चित्तसे अभिप्राय उसके मनका है। इसलिए उस चित्तको ग्रहण करनेवाला कर्म प्रायश्चित्त है, ऐसा समझना चाहिए ।। (भ.आ./वि./५२६/७४७ पर उद्धृत गा) नि सा /ता. वृ /११३,११६ प्राय' प्राचुर्येण निर्विकार चित्त प्रायश्चित्तम् ।११३। बाधो ज्ञानं चित्तमित्यनर्थान्तरम् ।११६1 -प्रायश्चित्त अर्थात् प्राय चित्त-प्रचुर रूपसे निर्विकार चित्त ।११३। बोध, ज्ञान और चित्त भिन्न पदार्थ नहीं है ।११६।। अन ध./७/३७ प्रायो लोकस्तस्य चित्त मनस्तच्छाद्विकृरिक्रया । प्राये तपसि वा चित्त निश्चयस्तन्निरुच्यते ।३७। प्राय शब्द का अर्थ लोक और चित्त शब्दका अर्थ मन होता है। जिसके द्वारा साधर्मी और सघमें रहने वाले लोगोका मन अपनी तरफसे शुद्ध हो जाये उस क्रिया या अनुष्ठानको प्रायश्चित्त कहते है । ( का अ/टी./४५१) पद्मचन्द्र काष/पृ २५८ प्रायस् + चित्+क्त। प्रायस्-तपस्या, चित्तनिश्चय । अर्थात निश्चय सयुक्त तपस्याको प्रायश्चित्त कहते है। २ निश्चयकी अपेक्षा नि सा /मू./गा. कोहादिसम्भावयरख पाहुदिभावणाए णिग्गहणं । पायच्छित्त भणिद णिस गुण चिता य णिच्छयदो।११४। उक्किट्ठो जो बोहो णाण तरसेव अप्पणो चित्त । जो धरइ मुणी णिच्च पायच्छितं हवे तरस ।११६। कि बहुणा भणिएण दु वरतवचरणं महे सिणं सव्वं । पायचित्त जाणह अणेयकम्माण खयहेउ ।११७। अप्पसरूवालंबणभावेण दु सव्वभावपरिहार। सक्कदि काउ' जीवो तम्हा झाण हवे सव्यं ।११। -क्रोधादि स्वकीय भात्रोके (अपने विभावभावोके) क्षयादिकी भावना में रहना और निज गुणोका चिन्तवन करना वह निश्चयसे प्रायश्चित्त कहा है ।११४। उसी (अनन्त धर्मवाले) जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.016010
Book TitleJainendra Siddhanta kosha Part 3
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJinendra Varni
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year2002
Total Pages639
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationDictionary & Dictionary
File Size24 MB
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