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प्राणासंयम
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प्राभृतक ज्ञान
च नि शेषं प्रत्यक्षमिव जायते ।१४। स्मरगरलमनोविजय पवनप्रचारचतुर करोति योगी न संदेह ।१०१। -भले प्रकार निर्णय रूप किया है सत्यार्थ सिद्धान्त जिन्होने ऐसे सुनियोने ध्यानकी सिद्धिके तथा मनकी एकाग्रताके लिए प्राणायाम प्रशंसनीय कहा है।१। ध्यानकी सिद्धि के लिए, मनको एकाग्र करनेके लिए पूर्वाचार्योने प्रशंसा की है । इसलिए बुद्धिमान पुरुषोको विशेष प्रकारसे जानना चाहिए, अन्यथा मनको जीतने में समर्थ नही हो सकते ।२। साधुओको अप्रमत्त होकर प्राणवायुके साथ धीरे-धीरे अपने मनको अच्छी तरह भीतर प्रविष्ट करके हृदयकी कणिकामें रोकना चाहिए। इस तरह प्राणायामके सिद्ध होनेसे चित्त स्थिर हो जाया करता है, जिससे कि अन्तर गमें संकल्प विकल्पोका उत्पन्न होना बन्द हो जाता है, विषयोकी आशा निवृत्त हो जाती है, और अन्तरं गमें विज्ञानकी मात्रा बढ़ने लगती है।१०-११। और इस प्रकार मन वश करके भावना करते हुए पुरुषके अविद्या तो क्षणमात्रमे क्षय हो जाती है, इन्द्रियाँ मद रहित हो जाती है, कषाय क्षीण हो जाती है ।१२। प्राणायाम करने बालोके मन इतने स्थिर हो जाते है कि उनको जगतका सम्पूर्ण वृत्तान्त प्रत्यक्ष दीखने लगता है ।१४। प्राणायामके द्वारा प्राण वायुका प्रचार करनेमें चतुर योगी कामदेव रूप विष तथा अपने मनपर विजय प्राप्त कर लिया करता है ।१०११
प्राभूत-१. आहारका एक दोष-दे० आहार/II/४/४५ २. समय प्राभृत या षट् प्राभृत आदि नामके ग्रन्थ-दे० पाहुड । १. पाहुड़ या प्राभूत सामान्यका लक्षण क पा./मु. १,१२-१३/६२६६/३२६ चूर्णसूत्र-पाहडे त्ति का णिरुत्ती।
जम्हा पदेहि पुद (फुड ) तम्हा पाहुडं।। क. पा १/१,१२-१३/१२६७/३२५/१० प्रकृष्टेन तीर्थकरेण आभृतं प्रस्थापित इति प्राभृतम्। प्रकृष्टैराचार्ये विद्या वित्तवद्भिराभृतं धारित व्याख्यातमानीतमिति वा प्राभृतम् । = पाहुड इस शब्दकी क्या निरुक्ति है । चूकि जो पदोसे स्फुट अर्थात व्यक्त है, इसलिए वह पाहुड़ कहलाता है । जो प्रकृष्ट अर्थात तीर्थकरके द्वारा आभृत अर्थात प्रस्थापित किया गया है वह प्राभृत है। अथवा जिनके विद्या ही धन है, ऐसे प्रकृष्ट आचार्योंके द्वारा जो धारण किया गया है, अथवा व्याख्यान किया गया है, अथवा परम्परासे लाया गया है, वह प्राभृत है। सा. सा/ता. वृ/परिशिष्ट/पृ. ५२३ यथा कोऽपि देवदत्तो राजदर्शनार्थ किचित्सारभूतं वस्तु राझं ददाति तत्प्राभृत भण्यते। तथा परमात्माराधकपुरुषस्य निर्दोषिपरमात्मराजदर्शनार्थमिदमपि शास्त्र प्राभृत। कस्मात् । सारभूतत्वात् इति प्राभृतशब्दस्यार्थः।-जिस प्रकार कोई देवदत्त नामका पुरुष राजाके दर्शनार्थ कोई सारभूत वस्तु भेट देता है, उसे प्राभूत कहते है। उसी प्रकार परमात्माके आराधक पुरुषके लिए निर्दोष परमात्म राजाके दर्शनार्थ यह शास्त्र प्राभूत है, क्योकि यह सारभूत है। ऐसा प्राभृत शब्दका अर्थ है।
प्राणासंयम-दे० संयम। प्रातर-मध्य आर्यखण्डका एक देश-दे० मनुष्य/४ । प्रातिहार्य-दे० आहेत। प्रात्ययको क्रिया-दे० क्रिया/३/२। प्राथमिक-Elermentary, Primative (ध./५/पू /२८) । प्रादुष्कार-१. आहारका एक दोष-दे० आहार/11/४/४ ।
२. बसतिकाका एक दोष-दे० वसतिका। प्रादोषिक काल-म. आ /२७० का भावार्थ-जिसमें रातका भाग है वह प्रदोषकाल है अर्थात रातके पूर्वभागके समीप दिनका पश्चिम भाग वह सुबह शाम दोनों कालोमे प्रदोषकाल जानना। प्रादोषिकी क्रिया-दे० क्रिया/३/२। प्राप्ति ऋद्धि-दे० ऋद्धि/३ । प्राप्ति समा जाति-न्या, समु./१/१/७/२६० प्राप्य साध्यमप्राप्य वा हेतोः प्राप्त्याविशिष्टतत्त्वाप्राप्त्यासाधवत्वाच्च प्राप्त्यप्राप्तिसमौ १७ -हेतुको साध्यके साथ जो प्राप्ति कर के प्रत्यवस्थान दिया जाता है, वह प्राप्ति समा जाती है। और अप्राप्ति करके जो फिर प्रत्यवस्थान दिया जाता है, वह अप्राप्ति समा जाति है। (दृष्टान्तजैसे कि पर्वतो वह्निमात् धूमाव' इत्यादि समीचीन हेतुका वादी द्वारा कथन किये जा चुकने पर प्रतिवादी दोष उठाता है कि यह हेतु क्या साध्यको प्राप्त होकर साध्यकी सिद्धि करावेगा क्या अन्य प्रकारसे भी। साध्य और हेतु जन्य दोनो एक ही स्थानमे प्राप्त हो रहे है, तो गायके डेरे और सूधे सीग के समान भला उनमेसे एकको हेतुपना और दूसरेको साध्यपना कैसे युक्त हो सकता है। · अप्राप्तिसमाका उदाहरण यो है कि बादीका हेतु यदि साध्यको नही प्राप्त होकर साध्यका साधक होगा तर तो सभी हेतु प्रकृत साध्यके साधन बन बैठेगे अथवा वह प्रकृत हेतु अकेला ही सभी साध्यको साध्य डालेगा (श्लो. बा.४/न्या /३५३-३५८/४८५ में इसपर चर्चा) । प्राप्य कर्म-दे० कर्ता/१। प्राप्यकारी इंद्रियाँ-दे० इन्द्रिय/२।
२. निक्षेप रूप भेदोंके लक्षण नोट-नाम स्थापनादिके लक्षण-दे० निक्षेप । क. पा.१/१,१३-१४/१२१२-२६६/३२३-३२४ तत्त्थ सचित्तपारडं णाम
जहा कोसल्लियभावेण पट्टविज्जमाणा हयगय बिलयायिया। अचित्तपाहुई जहा मणि-कणयरयणाईणि उवायणाणि । मिस्सयपारडं जहा ससुवण्णकरितुरयाण कोसल्लियपेसणं । २६२। आण तहेउदव्यपट्ठवण पसस्थभावपाहूड । वइरकलहादिहेउदव्यपवणमप्पसत्थभावपाहुड । मुहियभावपाहुडस्स पेसणोबायाभावादो ।२६४। जिणवइणा • उझियरायदोसेण भव्वाणमणवज्जबुहाइरियपणालेण पठविददुवालसगवयणकलावो तदेगदेसो वा। अबर आण दमेत्ति पाहुड । २६कलहणिमित्तगद्दह-जर-खेटयादिदव्यमुवयारेण फलहो, तस्स विसज्जणं कलहपाहुड। - उपहार रूपसे भेजे गये हाथी घोडा और स्त्री आदि सचित्त पाहुड़ है। भेट स्वरूप दिये गये मणि, सोना और रत्नादि अचित्त पाहुड़ है। स्वर्ण के साथ हाथी और घोडेका उपहार रूपसे भेजना मिश्र पाहुड है ।२६२३ आनन्दके कारणभूत द्रव्यका उपहार रूपसे भेजना प्रशस्त नोआगम भाव पाहुड़ है। तथा वैर और कलह आदिके कारणभूत द्रव्यका उपहार रूपसे भेजना अप्रशस्त नोआगम भाव पाहुड़ है। मुख्य नोआगम भाव पाहुड़ (ज्ञाताका शरीर) भेजा नही जा सकता है, इसलिए यहाँ औपचारिक (बाह्य) औपचारिक नोआगमभाव पाहुडका उदाहरण दिया गया है । १२६४। जो राग और द्वेषसे रहित है ऐसे जिन भगवान्के द्वारा निर्दोष श्रेष्ठ विद्वान् आचार्योकी परम्परासे भव्य जनोके लिए भेजे गये बारह अंगोके वचनोका समुदाय अथवा उनका एकदेश परमानन्द दोग्रन्थिक पाहुड कहलाता है। इससे अतिरिक्त शेष जिनागम आनन्दमात्र पाहुड है ।२६५। गधा, जीर्ण वस्तु और विष आदि द्रव्य कलहके निमित्त है, इसलिए उपचारसे इन्हे भी क्लह कहते है। इस कलहके निमित्तभूत द्रव्यका भेजना कलह पाहुड़ कहलाता
है।२६६। प्राभूतक ज्ञान-दे० श्रुतज्ञान/III
जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश
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