________________
प्राणायाम
१५५
२. प्राणायाम निर्देश
कार्यरूपो विकल्पः । स च मोहकारण भवतीति। बायुगरकरय च कार्य न च मुक्तिरिति । यदि मुक्तिरपि भवति तहि वायुधारणाकारकाणामिदानीतनपुरुषाणां मोक्षो कि न भवतीति भावार्थ । पातजलिमतवाले वायु धारणा रूप श्वासोच्छवास मानते है, वह ठीक नहीं है, क्योकि वायु धारणा वाछा पूर्वक होती है, और बाछा है वह मोहसे उत्पन्न विकल्प रूप है, वांछा मोहका कारण है । । वायु धारणासे मुक्ति नही होती, क्योकि वायु धारणा शरीरका धर्म है, आत्माका नही। यदि वायु धारणासे मुक्ति होवे तो व.यु धारणाको करनेवालोको इस दुखम कालमें मोक्ष क्यो न होवे । अर्थात कभी नही होती। ६. प्राणायाम शारीरिक स्वास्थ्यका कारण है ध्यानका
नहीं
ज्ञा/२६/१०.१७ शनै शर्मनोऽजस' वितन्द्रं सह वायुना। प्रवेश्य हृदयाम्भोजकर्णिकाया नियन्त्रयेत ।१०। अचिन्त्यमतिदूर्लक्ष्य तन्मण्डलचतुष्टयम् । स्वर वेद्य प्रजायेत महाभ्यासात्कथचन ।१७१ -- जिस समय पवनको तालुरन्ध्रमे खेचकर प्राणको धारण करें, शरीरमे पूर्णतया थामै सो पूरक है, और नाभिके मध्य स्थिर करके रोकै सो कुम्भक है, तथा जो पवनको कोठेसे बडे यत्नसे बाहर प्रक्षेपण करे सो रेचक है, इस प्रकार नासिका ब्रह्मके जाननेवाले ब्रह्म पुरुषोने कहा है ।१-२। इस पवनका अभ्यास करनेवाला योगी निष्प्रमादी होकर बडे सरनसे अपने मनको वायुके साथ मन्द मन्द निरन्तर हृदय कमलकी कणिकामें प्रवेश कराकर वही ही नियन्त्रण करै ।१०। यह मण्डलका चतुष्टय (पृथ्वी आदि ) है, सो अचित्य है, तथा दुर्लक्ष्य है, इस प्राणायामके बड़े अभ्याससे तथा बडे कष्टसे कोई प्रकार अनुभव गोचर है ।१७। * ध्यानमें प्राणायामका स्थान दे० पदस्थ ध्यान/७/१। ४. प्राणायामके चार मण्डलोंका नाम निर्देश ज्ञा./२६/१८ तत्रादौ पार्थिव ज्ञेयं वारुणं तदनन्तरम् । मरुत्पूर तत' स्फीतं पर्यन्ते बह्निमण्डलम् ॥१८॥ -उन चारोमेसे प्रथम तौ पार्थिव । मण्डलको जानना, पश्चाद वरुण (अप) मण्डल जानना, तत्पश्चात पवन मण्डल जानना और अन्तमे बढे हुए वह्नि मण्डल को जानना। इस प्रकार चारोके नाम और अनुक्रम हैं। * चारों मण्डलोंका स्वरूप-दे० वह वह नाम । ५. मोक्षमार्गमें प्राणायाम कार्यकारी नहीं रा. वा./8/२७/२३/६२७/ प्राणापान निग्रहो ध्यानमिति चेतन, प्राणापान निग्रहे सति तदुभूतवेदनाप्रकर्षात आश्वेत्र शरीरस्य पात, प्रसज्येत । तस्मान्मन्दमन्दप्राणापान प्रचारस्य ध्यान' युज्यते ।- प्रश्नश्वास च्छ्वासके निग्रहको ध्यान कहना चाहिए। उत्तर-नहीं, क्योकि इसमें श्वासोच्छवास रोकनेकी वेदनासे शरीरपात होनेका प्रसग है। इसलिए ध्यानावस्थामें श्वासोच्छ्वासका प्रचार स्वाभा विक होना चाहिए। ज्ञा./३०/४-६ सम्यक्समाधिसिद्धयर्थ प्रत्याहार' प्रशस्यते । प्राणायामेन विक्षिप्त मन स्वास्थ्यं न विन्दति ।४. बायो सचारचातुर्यमणिमाद्यङ्गसाधनम् । प्राय. प्रत्यूहबीज स्यान्मुनेर्मुक्तिमभीप्सतः ।। किमनेन प्रपञ्चेन स्वसदेहातहेतुना। सुविचार्येव तज्ज्ञयं यन्मुक्ते
जिमनिमम 1७संविग्नस्य प्रशान्तस्य वीतरागस्य योगिन' । वशीकृताक्षवर्गस्य प्राणायामो न शस्यसे।। प्राणस्यायमने पीडा तस्यां स्यादातसभव. । तेन प्रच्याव्यते नून ज्ञाततत्त्वोऽपि लक्षित
। -प्राणायाममें पवनके साधनसे विक्षिप्त हुआ मन स्वास्थ्यको नही प्राप्त होता, इस कारण भले प्रकार समाधिकी सिद्धिके लिए प्रत्याहार करना प्रशस्त है।४। पवनका चातुर्य शरीरको सूक्ष्म स्थूलादि करनेरूप अंगका साधन है, इस कारण मुक्तिकी वाचा करनेवाले मुनिके प्राय विध्नका कारण है।६। पवन सचारकी चतुराई के प्रप चसे क्या लाभ, क्योकि यह आत्माको सन्देह और पोडाका कारण है। ऐसे भले प्रकार विचार करके मुक्तिका प्रधान कारण होय सो जानना चाहिए ।७। जो मुनि समार देह और भोगोसे विरक्त है, कषाय जिसके मन्द हैं, विशुद्ध भाव युक्त है, बीतराग और जितेन्द्रिय है, ऐसे योगीको प्राणायाम प्रशंसा करने योग्य नहीं 14। प्राणायाममे प्राणोको रोकनेसे पीडा होती है, पीडासे आर्त ध्यान होता है। और उस आर्त ध्यानसे तत्त्वज्ञानी मुनि भी अपने लक्ष्यसे छुडाया जाता है ।। प प्र./टी./२/१६२ न च परकल्पितवायुधारणरूपेण श्वासनासो ग्राह्य । स्मादिति चेत वायुधारणा तावदी हापूविका, ईहा च मोह
ज्ञा./२६/१००-१०१ कौतुकमात्रफलोऽयं पर पुरप्रवेशो महाप्रयासेन । सिद्धयति न वा कथं चिन्महतामपि कालयोगेन ।१००। • समस्तरोगक्षयं वपु स्थैर्यम् । पवनप्रचारचतुर' करोति योगी न सदेह' ।१०१। = यह पुर प्रवेश है सो कौतुक मात्र है फल जिसका ऐसा है, इसका पारमार्थिक फल कुछ भी नहीं है। और यह बडे-बडे तपस्वियोके भी बहुत कालमे प्रयास करनेसे सिद्ध होता है ।१००। समस्त रोगोका क्षय करके शरीरमें स्थिरता करता है, इसमें कुछ भी सन्देह नही है ।१०१३ प. प्र./टी./२/१६२/२७४/१० कुम्भकपूरकरेचकादिसंज्ञा वायुधारणा क्षणमात्र भवत्येवात्र क्तुि अभ्यासवशेन घटिकाप्रहरदिवसादिष्वपि भवति तस्य वायुधारणस्य च कार्य देहारोगत्वलघुत्वादिकं न च सुक्तिरिति । कुम्भक, पूरक और रेचक आदि वायु धारणा क्षणमात्र होती है, परन्तु अभ्यासके वशसे घडी, पहर, दिवस आदि तक भी होती है । उस वायुधारणाका फल ऐसा है, देह अरोग्य होती है, सब रोग मिट जाते है, शरीर हलका हो जाता है, परन्तु इस वायु धारणासे मुक्ति नहीं होती है। ७. ध्यानमें वायु निरोध स्वतः होता है करना नहीं
पड़ता प प्र/टी /२/१६२/२७४/५ यदायं जीको रागादिपरभावशून्यनिर्विकल्प
समाधौ तिष्ठति तदायमुच्छ्वासरूपो वायु सिकाछिद्रद्वयं वर्जयित्वा स्वयमेवानीहितवृत्त्या तालुप्रदेशे यत् केशात शेषाष्टमभागप्रमाण छिद्र तिष्ठति तेन क्षणमात्रं दशमद्वारेण तदनन्तरं रन्ध्रण कृत्वा निर्गच्छतीति। = जब यह जीव रागादि परभावोसे शून्य निर्विकल्प समाधिमें होता है, तब यह श्वासोच्छ्वासरूप पवन नासिकाके दोनो छिद्रोको छोडकर स्वयमेव अवांछीक वृत्तिसे तालुबाके बालकी अनीके आठवे भाग प्रमाण अति सूक्ष्म छिद्रमें ( दसवे द्वारमै ) होकर बारीक निकलती है, नासाके छेदको छोड़कर तालुरन्धमे (छेदमें) होकर निकलती है। वह संयमीके वायुका निरोध स्वयमेव स्वाभाविक होता है वाछा पूर्वक नहीं।)
८. प्राणायामकी कथंचित् उपादेयता व कारण ज्ञा./२६/श्लोक नं -सुनिर्णीतसुसिद्धान्त · प्राणायाम' प्रशस्यते। मुनिभियान सिद्धयर्थं स्थैर्यार्थ चान्तरात्मन ।१। अत साक्षारस विज्ञथ पूर्वमेव मनीषिभि । मनागप्यन्यथा शक्यो न कर्तृ चित्त निर्जय ॥२॥ शनै शनैर्मनोऽजल वितन्द्र सह वायुना । प्रवेश्य हृदयाम्भोजकर्णिकाया नियन्त्रयेत ।१०। विकल्पा न प्रसूयन्ते विषयागा निवर्तते । अन्त स्फुरति विज्ञानं तत्र चित्ते स्थिरीकृते ।१११ एवं भावयत स्वान्ते यात्यविद्या क्षयं क्षयात । विमदीस्युस्तयाक्षाणि कषायरिपुभि समम् ।१२। स्थिरीभवन्ति चेतांसि प्राणायामावलम्बिनाम् । जगवृत्त
जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org