________________
प्राण
१५४
प्राणायाम
ध्यानाचा शुद्ध प्राणोसे सध्यातव्य इति प्राणसहित शुद
२. निश्चय व्यवहार प्राण समन्वय
१.प्राण प्ररूपणामें निश्चय प्राण अभिप्रेत है ध.२/१,६/१०४/३ दबे दियाणं णिप्पत्ति पडुच्च के वि दस पाणे भणति ।
तण्ण घडदे। कुदो। भावि दियाभावादो। अध दबिदियस्स जदि गहणं कीरदि तो सण्णीणमपज्जत्तकाले सत्त पाणा पोडिदूण दो चेव पण्णा भवति, पंचण्ह दव्वे दियाणामभावादो।-कितने ही आचार्य द्रव्येन्द्रियोकी पूर्णताको अपेक्षा ( केवलो के ) दस प्राण कहते है, परन्तु उनका ऐसा कहना घटित नही होता है, क्योकि सयोगी जिनके भावेन्द्रियाँ नही पायी जाती है। यदि प्राणोमे द्रव्येन्द्रियोका ही ग्रहण किया जावे तो सज्ञी जीवो के अपर्याप्त कालमे सात प्राणो के स्थानपर कुल दो ही प्राण कहे जायेगे, क्योकि उनके द्रव्येन्द्रियोका अभाव है।
२. दश प्राण पुद्गलात्मक हैं जोवका स्वभाव नहीं प्र. सात प्र./१४७ तन्न जोवस्य स्वभावत्वमवाप्नोति पुद्गलद्रव्यनिवृत्तत्वात् । - वह उसका (प्राण जीवका) स्वभाव नहीं है,
क्योकि वह पुद्गल द्रव्यसे रचित है। प्र.सा/ता. वृ/१४५ व्यवहारेण "आयुराद्यशुद्धप्राणचतुष्केनापि सबद्ध
सन् जीवति। तच्च शुद्धनयेन जीवस्वरूप न भवति । = व्यवहार नयसे. आयु आदि चार अशुद्ध प्राणोसे सम्बद्ध होनेसे जीता है। वह शुद्ध नयसे जीवका स्वरूप नही है।
३. दश प्राणों का जीवके साथ कथंचित् भेदाभेद स. सा./ता वृ/३३२ ३४४/४२३/२४ कायादिप्राणै सह कथ चिद् भेदाभेद । कथ । इति चेत्, तप्ताय पिण्डवद्वर्तमानकाले पृथक्त्व कर्तु नायाति तेन कारणेन व्यवहारेणाभेद.। निश्चयेन पुनर्भरणकाले कायादिप्राणा जीवेन सहैव न गच्छन्ति तेन कारणेन भेद । कायादि प्राणोके साथ जीवका कथंचित भेद व अभेद है। वह ऐसे है कि तपे हुए लोहेके गोलेकी भॉति वर्तमान कालमें वे दोनों पृथक नहीं किये जानेके कारण व्यवहार नयसे अभिन्न है। और निश्चय नयसे क्योंकि मरण काल मे कायादि प्राण जीवके साथ नहीं जाते इसलिए भिन्न है। प.प्र./टी /२/१२७/२४४४ स्त्रकीयप्राणहृते सति दुखोत्पत्तिदर्शनादव्यवहारेणाभेद । यदि पुनरेकान्तेन देहात्मनोहेंदा एव तहि परकीयदेहधाते दुरव न स्यान्न च तथा। निश्चयेन पुनर्जीव गतेऽपि देहो न गच्छतीति हेतोर्भेद एव । अपने प्राणोका घात होने पर दुखकी उत्पत्ति होती है अत व्यवहार नयकर प्राण और जीवको अभेद है।
यदि एकान्तगे प्राणोको सर्वथा जूदे माने तो जैसे परके शरीरका घात होनेपर दुख नही होता वैसे अपने देहका घात होनेपर दुख नही होना चाहिए। इसलिए व्यवहार नयसे एकत्व है निश्चयसे नही, क्योकि देहका विनाश होनेपर भी जीवका विनाश नहीं होता है। इसलिए भेद है।
४. निश्चय व्यवहार प्राणोंका समन्वय प्र. सा./त प्र./१४५ अशास्य जीवस्य सहजविज म्भितानन्तज्ञानशक्तिहेतुके त्रिसमयावस्थायित्व लक्षणे वस्तुस्वरूपभूततया सर्वदानपायिनि निश्चयजीवत्वे सत्यपि ससारावस्थायामनादिप्रवाहप्रवृत्तपुद्गलसश्लेषदूषितात्मतया प्राणचतुष्काभिस बद्वत्वं व्यवहारजीवत्वहेतुर्विभक्तव्योऽस्ति । - अब इस जीवको सहज रूप (स्वाभाविक ) प्रगट अनन्त ज्ञान शक्ति जिसका हेतु है, और तीनो कालोमे अवस्थायित्व जिसका लक्षण है, ऐसा बस्तुका स्वरूपभूत होनेसे सर्वदा अविनाशी जीवत्व होने पर भी, ससारावस्थामें अनादि प्रवाह रूपसे प्रवर्तमान पुदगल सश्लेषके द्वारा स्वय दूषित होने से उसके चार प्राणोसे सयुक्तता है, जो कि व्यवहार जीवत्व का हेतु है और विभक्त करने योग्य है।
स्या, मं/२७/३०६/8 ससारिणो दशविधद्रव्यप्राणधारणाद् जीवा' सिद्धाश्च ज्ञानादि भावप्राणधारणाइ इति सिद्धम् । = संसारी जीव द्रव्य प्राणों की अपेक्षासे और सिद्ध जीव भाव प्राणोकी अपेक्षासे जीव कहे जाते है।
५.प्राणोंको जाननेका प्रयोजन पं. का /ता. वृ./३०/६८/७ अत्र शुद्धचैतन्यादिशुद्धप्राणसहित' शुद्धजीवास्तिकाय एवोपादेय रूपेण ध्यातव्य इति भावार्थ, यहाँ शुद्ध चैतन्यादि शुद्ध प्राणोसे सहित शुद्ध जीवास्तिकाय ही उपादेय रूपसे ध्याना चाहिए, ऐसा भावार्थ है। द्र. स /टी./१२/३१/६ अत्रेतेभ्यो भिन्नं निजशुद्धात्मतत्त्वमुपादेयमिति भावार्थः । =अभिप्राय यह है कि इन पर्याप्ति तथा प्राणोसे भिन्न
अपना शुद्धात्मा ही उपादेय है। प्राणत-१. कल्पवासी देवोका एक भेद-दे० स्वर्ग/३ । २. कल्पवासी देवोका स्वस्थान-दे० स्वर्ग/२/२ । ३. कल्प स्वोंका १४वॉ काप -~-दे० स्वर्ग:/३१४ आनतप्राणत स्वर्ग का द्वितीय पटल-दे० स्वर्ग/५/३ प्राणवाद-द्वादशाग श्रुतज्ञानका ११वाँ पूर्व-दे० श्रुतज्ञान/IIII प्राण संयम-दे० संयम । प्राणातिपातध १२/४,२,८.२/२७५/११ पाणादिवादो णाम पाणे हितो पाणीण विजोगो। सो जत्तो मण-बयण-कायवावारादीहितो ते वि पाणादिवादो। पाणादिवादो णाम हिंसाविसयजीववावारो। प्राणातिपातका अर्थ प्राणोसे प्राणियोका वियोग करना है। वह जिन मन, वचन या कायके व्यापारादिकोसे होता है, वे भी प्राणातिपात ही कहे जाते है। प्राणातिपातका अर्थ हिसाविषयक जीवका व्यापार है। प्राणातिपातिकी क्रिया-दे० क्रिया/३ । प्राणापान-दे. उच्छवास । प्राणायाम-श्वासको धीरे-धीरे अन्दर स्वेचना कुम्भक है, उसे
रोके रखना पूरक है, और फिर धीरे-धीरे उसे बाहर छोडना रेचक है। ये तीनो मिलकर प्राणायाम सज्ञाको प्राप्त होते है। जै नेतर लोग ध्यान व समाधिमे इसको प्रधान अंग मानते है, पर जैनाचार्य इसको इतनी महत्ता नही देते, क्योकि चित्तकी एकाग्रता हो जानेपर श्वास निरोध स्वत. होता है।
१.प्राणायाम सामान्यका लक्षण म. पु/२१/२२७ प्राणायामो भवेद् योगनिग्रह शुभभावन' | - मन,
वचन और काय इन तीनों योगोका निग्रह करना तथा शुभभावना रखना प्राणायाम कहलाता है।
२. प्राणायामके तीन अंग ज्ञा /२६/३ त्रिधा लक्षणभेदेन संस्मृत पूर्वसूरिभि । पूरक' कुम्भकश्चैव रेचकस्तदनन्तरम् ।२६। -- पूर्वाचार्योने इस पवनके स्तम्भन स्वरूप प्राणायामको लक्षण भेदसे तीन प्रकारका कहा है--पूरक, कुम्भक और रेचक ।
३. प्राणायामका स्वरूप ज्ञा /२६/8 पर उद्धृत-समाकृष्य यदा प्राणधारण स तु पूरक । नाभिमध्ये स्थिरी कृत्य रोधन स तु कुम्भक ।१। यत्कोष्ठादतियत्नेन नासाब्रह्मपुरातनै । बाहि प्रक्षेपणं वायो स रेचक इति स्मृत ।२।
जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org