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प्राण
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१. प्राण निर्देश व तत्सम्बन्धी शंका समाधान
भावात् । = इन पाँचो इन्द्रियो ( इन्द्रिय प्राणो)का एकेन्द्रिय जाति आदि पाँच जातियो में अन्तर्भाव नही होता है, क्योकि चक्षुरिन्द्रियावरण आदि कर्मोके क्षयोपशमके निमित्तसे उत्पन्न हुई इन्द्रियोकी एकेन्द्रिय जाति आदि जातियोके साथ समानता नहीं पायी जाती है। * उच्छवास व प्राणमें अन्तर-दे० उच्छ्वास । * पर्याप्ति व प्राणमें अन्तर--दे० पर्याप्ति/२ ।
५. आनपान व मन, वचन कायको प्राणपना कैसे है ध.१/१,१,३४/२५६/४ भवन्त्विन्द्रियायुष्काया, प्राणव्यपदेशभाज तेषामाजन्मन आमरणाद्भवधारणत्वेनोपलम्भात । तत्रैकस्याप्यभावतोऽसमता मरणसंदर्शनाच्च । अपि तूच्छवासमनोवचसा न प्राणव्यपदेशो युज्यते तान्यन्तरेणापि अपर्याप्तावस्थाया जीवनोपलम्भादिति चेन्न, तैबिना पश्चाजीवतामनुपलभ्यतस्तेषामपि प्राणत्वविरोधात् ।
प्रश्न-पाँचो इन्द्रियॉ, आयु और काय बल, ये प्राण संज्ञाको प्राप्त हो सकते है, क्योकि वे जन्मसे लेकर मरण तक भव धारण रूपसे पाये जाते है। और उनमें से किसी एकके अभाव हो जानेपर मरण भी देखा जाता है। परन्तु उच्छवास, मनोबल और वचन बल इनको प्राण मज्ञा नहीं दी जा सकती है, क्योकि इनके बिना भी अपर्याप्त अवस्थामे जीवन पाया जाता है। उत्तर-नही, क्योकि उच्छवास, मनोबल और बचन बलके बिना अपर्याप्त अवस्थाके पश्चात पर्याप्त अवस्थामे जीवन नहीं पाया जाता है, इसलिए उन्हे प्राण मानने में कोई विरोध नहीं है।
६. प्राणोंके त्यागका उपाय प्र. सा./मू./१५१ उस्थानिका-अथ पुद्गलप्राणसंततिनिवृत्तिहेतुमन्तरङ्ग ग्राह्यति--जो इ दियादिविजई भवीय उवओगमप्पगं झादि । कम्मे हि सो र जदि किह तं पाणा अणुचर ति ।१५१५ - अब पौद्गलिक प्राणोकी सन्ततिकी निवृत्तिका अन्तर ग हेतु समझाते है-जो इन्द्रियादिका बिजयी होकर उपयोग मात्रका ध्यान करता है, वह कर्मों के द्वारा रंजित नहीं होता, उसे प्राण कैसे अनुसरण कर सकते है। अर्थात् उसके प्राणोका सम्बन्ध नहीं होता। ७. प्राणोंका स्वामित्व १. स्थावर जीवोंकी अपेक्षा स, सि/२/१३/१७२/१० कति पुनरेषा (स्थावराणा) प्राणा । चत्वार' स्पर्शनेन्द्रियप्राणा कायबल प्राणा' उच्छ्वासनिश्वासप्राण' आयुप्राणश्चेति । स्थावरों के चार प्राण होते है-स्पर्शनेन्द्रिय, कायबल, उच्छवास-निश्वास और आयु प्राण । (रा वा/२/१३/३/१२८/१६) (ध, २/१.१/४१८/११), (का. अ./मू १४०)। २. त्रस जीवोंकी अपेक्षा स. सि /२/१४/१७६/६ द्वीन्द्रियस्य तावत् षट् प्राणा', पूर्वोक्ता एव रसनवाक्प्राणाधिका । त्रीन्द्रियस्य सप्त त एव प्राणप्राणाधिका । चतुरिन्द्रियस्याष्टौ त एव चक्षु प्राणाधिका । पञ्चेन्द्रियस्य तिरश्चोऽसज्ञिनो नव त एव श्रोत्रप्राणाधिका । संज्ञिनो दश त एवं मनोबलप्राणाधिका । = पूर्वोक्त (स्पशेन्द्रिय, कायबल, उच्छ्वास, और आयु प्राण इन) चार प्राणोमे रसना प्राण और वचन प्राण इन दो प्राणो के मिला देनेपर दोइन्द्रिय जीवो के छह प्राण होते है। इनमे घाणके मिला देनेपर तीन इन्द्रिय जीवके सात प्राण होते है। इनमें चक्षु प्राण के मिला देनेपर चौइन्द्रिय जीवके आठ प्राण होते है। इनमें श्रोत्र प्राणके मिला देनेपर तिर्यच असज्ञीके नौ प्राण होते है। इनमें मनोबल के मिला देनेपर सज्ञी जीवोके दस प्राण होते है। (रा वा/
२/१४/४/१२६/१), (पं.सं /प्रा./१/४७-४६), (ध. २/१,१/४१८/१), (गो. जी./म् /१३३/१४६ ), ( का अ./म् /१४०) । ३. पर्याप्तापर्याप्तकी अपेक्षा पं सं./प्रा /१/५० पंचवरख-दुए पाणा मण बचि उस्सास ऊणिया सव्वे । कणक्विगंधरसणारहिया सेसेसु ते अण्णेसु।५० -अपर्याप्त पंचेन्द्रिय द्विकमे मन-वचन-बल और श्वासोच्छवास इन तीनसे कम शेष सात प्राप्त होते है। अपर्याप्त चतुरिन्द्रिय, श्रीन्द्रिय, द्वीन्द्रिय तथा एकेन्द्रियके कमसे कर्णेन्द्रिय, चक्षुरिन्द्रिय, घाणेन्द्रिय और रसनेन्द्रिय कम करनेपर छह, पाँच, चार और तीन प्राण होते है। (ध. २/१,१/४१८/१), ( गो जी /मू. व टी/१३३/३४६), (का, अ./ मू /१४१), (प स./स /१/१२६)। ४ सयोग अयोग केवलीकी अपेक्षा दे० केवली/५/१०-१३, १. सयोगकेवलीके चार प्राण होते है-बचन, श्वासोच्छवास, आयु, और काय । उपचारसे तो सात प्राण कहे जाते है। २. अयोगकेवलीके केवल एक आयु प्राण ही होता है। ३. समुद्वात अवस्थामे केवली भगवान के ३,२ व १ प्राण होते है-श्वासोच्छवास, आयु और काय ये तीन, श्वासोच्छवास कम करने पर दो, तथा काय बल कम करनेपर केवल एक आयु प्राण होता है। ८. अपर्याप्तावस्थामें भाव मन क्यों नहीं घ ८/१,१,३५/२५६/८ भावन्द्रियाणामिव भावमनस उत्पत्तिकाल एव सत्त्वादपर्याप्तकालेऽपि भावमनस. सत्त्वमिन्द्रियाणामिव किमिति नोक्तमिति चेन्न, बाह्येन्द्रियैरग्राह्यद्रव्यस्य मनसोऽपर्याप्त्यवस्थायामस्तित्वेऽङ्गीक्रियमाणे द्रव्यमनसो विद्यमाननिरूपणस्यासत्त्वप्रसङ्गात् । पर्याप्तिनिरूपणात्तदस्तित्वं सिद्धये दिति चेन्न, बाह्यार्थस्मरणशक्तिनिष्पत्तौ पर्याप्तिव्यपदेशतो द्रव्यमनसोऽभावेऽपि पर्याप्तिनिरूपणोपपत्ते । न बाह्यार्थस्मरणशक्ते प्रागस्तित्वं योग्यस्य द्रव्यस्योत्पत्ते प्राक् सत्त्व विरोधात् । ततो द्रव्यमनसोऽस्तित्वस्य ज्ञापकं भवति तस्यापर्याप्त्यवस्थायामस्तित्व निरूपण मिति सिद्धम् । = प्रश्न-जीवके नवीन भवको धारण करनेके समय ही भावेन्द्रियोकी तरह भाव मनका भी सत्त्व पाया जाता है, इसलिए जिस प्रकार अपर्याप्त काल में भावेन्द्रियोका सद्भाव कहा जाता है उसी प्रकार वहाँ पर भावमनका सद्भाव क्यो नही कहा। उत्तर नही, क्यो कि, बाह्य इन्द्रियोके द्वारा नही ग्रहण करने योग्य वस्तभत मनका अपर्याप्तिरूप अबस्थामे अस्तित्व स्वीकार कर लेनेपर, जिसका निरूपण विद्यमान है ऐसे द्रव्यमनके असत्त्वका प्रसंग आ जायेगा । प्रश्न-पर्याप्तिके निरूपणसे ही द्रव्यमनका अस्तित्व सिद्ध हो जायेगा। उत्तर१ नही क्योकि, बाह्यार्थ की स्मरण शक्तिकी पूर्ण तामे ही पर्याप्ति इस प्रकारका व्यवहार मान लेनेसे द्रव्यमनके अभावमें भी मन,पर्याप्तिका निरूपण बन जाता है। २ बाह्य पदार्थोवी स्मरण रूप शक्तिके पहले द्रव्य मनका सद्भाव बन जायेगा ऐसा कहना भी ठीक नही है, क्योकि व्य मनके योग्य द्रव्गकी उत्पत्तिके पहले उसका सत्व मान लेनेमे बिरोध आता है। अत अपर्याप्तिरूप अवस्थामे भावमनके अस्तित्वका निरूपण नहीं करना द्रव्यमनके अस्तित्वका ज्ञापक है, ऐसा समझना चाहिए। * गुणस्थान, मार्गणारथान, जीवसमास आदि २० प्ररूपणाओं में प्राणों का स्वामिन-दे० सत् । * प्राणोंका यथायोग्य मार्गणा स्थानों में अन्तर्भाव
-दे० मार्गणा। *जीवको प्राणी हनेकी पिवक्षा-दे० जीव/१/३ ॥
जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश
भा०३-२०
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