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पदस्थध्यान
पदस्थध्यान
मन्त्र है' (ज्ञा /१८/७-८)। ४. माया वर्ण 'ही' (ज्ञा./३८/६७)। ५. 'भवी' (ज्ञा /३८/८१)। ६ 'स्त्री' (ज्ञा /३८/१०)। २.दो अक्षरीमन्त्र-१. 'अहं' (म.पु./२१/२३१), (वसु. श्रा/४६५), (गुण, श्रा/२३३); (ज्ञा सा/२१), (आत्मप्रबोध/११८-११६) (त. अनु./१०१)। २ 'सिद्ध' (ज्ञा./३८/५२) (द्र स /टी./४६)। ३ चार अक्षरी मन्त्र-'अरहंत' (ज्ञा /३८/५१) (द. स /टी/४६)। ४ पंचाक्षरी मन्त्र-१ 'अ सि. आ उ सा.' (वसु श्री /४६६), (गु श्रा/२३४) (त अनु/१०२), (द्र सं/टी./४६) २ ॐ ह्रा ही ह.होह, अ.सि, आ, उ.सा नम (ज्ञा ३८/५५)। ३. 'णमो सिद्धाग' या 'नमः सिद्धेभ्य' (म पु/२१/२३३), (ज्ञा./ ३८/६२)। ५. छ अक्षरी मन्त्र--१. 'बरहंतसिद्ध' (ज्ञा /३८/५०) (इ.स/टी./४६) । २ बर्हद्भ्यो नम (म. पु/२१/२३२) । ३ ॐ नमो अहंते' (ज्ञा,/३८/६३)। ४. 'अहंभ्य, नमोऽस्तु', ॐ नम सिद्धेभ्य' या 'नमो अर्ह सिद्धेभ्य' (त अनु /भाषा/१०८) ६ सप्ताक्षरी मन्त्र-१. णमो अरहताणं' (ज्ञा./३८/४०,६५,८५), (त. अनु /१०४) ।२.नम सर्व सिद्धेभ्यः (ज्ञा./३८/११०) १७. अष्टाक्षरी मन्त्र-'नमोऽईत्परमेष्ठिने' (म पु/२१/२३४) ८ १३ अक्षरी मन्त्रअर्हतसिद्धसयोगकेवली स्वाहा (ज्ञा /३८/५८)।६, १६ अक्षरी मन्त्र'अह सिद्धाचार्योपाध्यायसाधुभ्यो नम' (म. पु./२१/२३५), (ज्ञा। ३८/४८); (द्र.स/टी/४१)। १०.३५ अक्षरी मन्त्र- णमो अरहंताण, णमो सिद्धाण, णमो आइरीयाणं, णमो उवज्झायाण, णमो लोए सबसाहणं (द्र, स./टी/४६)।
५. ध्येयभूत वर्णमातृका व उसकी कमलोंमें स्थापना विधि ज्ञा /३८/२ अकारादि १६ स्वर और ककारादि ३३ व्यंजनपूर्ण मातृका है। ( इनमें 'अ' या 'स्वर' ये दोनो तो १६ स्वरोके प्रतिनिधि है। क.च,ट,त.प, ये पाँच अक्षर कवर्गादि पाँच वर्गों के प्रतिनिधि है। य और श' ये दोनो क्रमसे य,र,ल,व चतुष्क और श,ष,स,ह चतुष्क के प्रतिनिधि है। १ चतुदल कमलमें १६ स्वरोंके प्रतीक रूपसे कर्णिकापर 'अ' और चारो पत्तोंपर 'इ,उ,ए,ओ' की स्थापना करे । ( त अनु /१०३)२, अष्टदल कमलके पत्तोपर 'य,र,ल,व,श,ष,सह' इन आठ अक्षरोंकी स्थापना करें। (ज्ञा /३०/) २. कर्णिकापर 'अह' और आठौं पत्तोपर स्वर व व्यंजनोके प्रतीक रूपसे 'स्वर, क, च,ट.त.प.य,श,' इन आठ अक्षरोकी स्थापना करें। (त.अनु./१०५१०६१३ १६ दल कमलके पत्तोंपर 'अ,आ, आदि १६ स्वरोकी स्थापना करे । (ज्ञा /३८/३) ४ २४ दल कमलकी कणिका तथा २४ पत्तोपर क्रमसे 'क' से लेकर 'म' २५ वर्णों की स्थापना करे। (ज्ञा./ ३८/४)।
३. पदस्थध्यानके योग्य अन्य मन्त्रोंका निर्देश १. ॐ ह्री श्री अहं नम ' (ज्ञा /३८/६०)। २ ह्री ॐ ॐ ही हंस (ज्ञा /३८/८१)। ३ चत्तारि मगलं । अरहन्त गल सिद्धमगल। साहुमगल । केवलिपण्णत्तो धम्मो मगलं । चत्तारि लोगुत्तमा । अरहन्त लोत्तमा। सिद्ध लागुत्तमा। साहु लोगुत्तमा। केवलि पण्णत्तो धम्मो लोगुत्तमा। चत्तारि सरण पव्वज्जामि । अरहंत सरण पबज्जामि । सिद्धसरणं पवजामि। साहुसरणं पब्बजामि। केवलिपण्णत्तो धम्मो सरणं पनजामि (ज्ञा ३८/५७)। ४. ॐ जोग्गे मग्गे तच्चे भूदे भव्वे भविस्से अक्खे पक्रने जिणपारिस्से स्वाहा' (ज्ञा./३८/६१) ५. ॐ ह्री स्वह नमो नमोऽहंताण ही नम' (ज्ञा./३८/६१) ६. पापभक्षिणी मन्त्र-ॐ अर्हन्मुखकमलवासिनो पापात्मक्षयकरिश्रुतज्ञानज्वालासहसप्रज्वलिते सरस्वति मत्पाप हन हन दह दह क्षा क्षी संक्षी क्षक्षीरवरधवले अमृतसंभवे व बहू हूँ स्वाहा । (ज्ञा / ३८/१०४)। ज्ञा./३८/१११ इसी प्रकार अन्य भी अनेको मन्त्र होते है, जिन्हे द्वादशागसे जानना चाहिए।
१. मन्त्रों व कमलोंकी शरीरके अंगोंमें स्थापना दे.ध्यान/३/३ (शरीरमें ध्यानके आश्रयभूत १० स्थान हैं-नेत्र, कान, नासिकाका अग्रभाग, ललाट, मुख, नाभि, मस्तक, हृदय, ताल्लु और भौहे। इनमेसे किसी एक या अधिक स्थानोमे अपने ध्येयको स्थापित करना चाहिए । यथाज्ञा /२८/१०८-१०६ नाभिपङ्कजसलीनमवर्ण विश्वतोमुखम् ।१०८। सिवर्ण मस्तकाम्भोजे साकार मुखपङ्कजे। आकारं कण्ठकबस्थे स्मरोकार हृदि स्थितम् ।१०६/- पचाक्षरी मन्त्रके 'अ' को नाभिकमलमे 'सि' को मस्तक कमल में, 'आ' को कण्ठस्थ कमलमें, 'उ' का हृदयकमलमें,
और 'सा' को मुखस्थ कमल में स्थापित करे। त अनु./१०४ सप्ताक्षरं महामन्त्रं मुख-रन्धषु सप्तम् । गुरूपदेशतो ध्यायेदिच्छत् दूरश्रवादिकम् ।१०४।-सप्ताक्षरी मन्त्र (णमो अरहंताणं) के अवरोको क्रमसे दोनो आँखों, दोनों कानों, नासिकाके दोनों छिद्रों व जिह्वा इन सात स्थानोंमें स्थापित करें। ७. मन्त्रों व वर्णमातृकाकी ध्यान विधि १. अनाहत मन्त्र ('हे' ) की ध्यान विधि ज्ञा /३८/१०१६-२१,२८ कनककमलगर्भ कर्णिकायां निषण्णं विगतमलकलडू सान्द्रचन्द्रशुगौरम्। गगनमनुसरन्तं संचरन्तं हरित्यु. स्मर जिनवरकल्प मन्त्रराजं यतीन्द्र ॥१०॥ स्फुरन्तं भ्रलतामध्ये विशन्त बदनाम्बुजे । तालुरन्ध्रण गच्छन्त सवन्तममृताम्बुभि ।१६। स्फुरन्त नेत्रपत्रेषु कुर्वन्तमलके स्थितिम् । भ्रमन्तं ज्योतिषां चक्रे स्पर्द्धमानं सिताशुना ।१७। संचरन्तं दिशामास्ये प्रोच्छलन्तं नभस्तले। छेदयन्तं कलङ्कीर्घ स्फोटयन्तं भवभ्रमम् ।१८अनन्यशरण' साक्षात्तत्सलोनैकमानस' । तथा स्मरत्यसौ ध्यानी यथा स्वप्नेऽपि न सवलेत ।२०। इति मत्वा स्थिरीभूतं सर्वावस्थासु सर्वथा । नासाग्रे निश्चलं धत्ते यदि वा भ्रूलतान्तरे ।२१ क्रमात्प्रच्याव्य लक्ष्येभ्यस्ततोऽलक्ष्ये स्थिर मन । दधतोऽस्य स्फुरत्यन्तोतिरत्यक्षमक्षयम् ।२८-हे मुनीन्द्र । सुवर्णमय कमलके मध्य में कर्णिकापर विराजमान, मल तथा कलङ्कसे रहित, शरद-ऋतुके पूर्ण चन्द्रमाकी किरणोंके समान गौरवर्ण के धारक, आकाशमें गमन करते हुए तथा दिशाओमें व्याप्त होते हुए ऐसे श्री जिनेन्द्र के सदृश इस मन्त्रराजका स्मरण करें ।१०। धैर्यका धारक योगी कुम्भक प्राणायामसे इस मन्त्रराजको भौहकी लताओंमें स्फुरायमान होता हुआ, मुख कमलमें प्रवेश करता हुआ, तालुआके
४.मूल मन्त्रोंकी कमलों में स्थापना विधि १. सुवर्ण कमलकी मध्य कणिकामें अनाहत ( है ) की स्थापना करके
उसका स्मरण करना चाहिए । (/३८/१०)।२ चतुदल कमलकी कर्णिकामें 'अ' तथा चारो पत्तोपर क्रमसे 'सि.आ उ.सा.' की स्थापना करके पचाक्षरी मन्त्रका चिन्तवन करें। (वसु.श्रा./४६६) ३. अष्टदल कमल पर कणिकामें 'अ' चारो दिशाओवाले पत्तोपर 'सि.आ. उसा,' तथा विदिशाओवाले पत्तोपर दर्शन, ज्ञान, चारित्र व तपके प्रतीक 'द,ज्ञा,चा,त' की स्थापना करे । (वस.श्रा./४६७-४६८) (गुण, श्रा./२३५-२३६)।२. अथवा इन सब वर्गों के स्थानपर णमो अरहन्ताण आदि पूरे मन्त्र तथा सम्यग्दर्शनाय नम , सम्यग्ज्ञानाय नम' आदि पूरे नाम लिखे । (ज्ञा /३८/३६-४०) ३. कर्णिकामें 'अहं' तथा पत्र लेखाओपर पचनमोकार मन्त्रके वलय स्थापित करके चिम्तवन करे (वसु.श्रा,/४७०-४७१); (गु.श्रा /२३८-२३६ ) ।
जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश
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