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पद
योगदान, माथुर या दाक्षिणात्य औदीच्य इत्यादीनि । यदि नामत्वेनामिवक्षितानि भवन्ति कासयोगपदानि यथा, शारद वासन्तक इत्यादीनि । न वसन्तशरद मन्तादीनि तेषां नामपवेऽन्तर्भावात् भावयोगदान कोधी मानी मायावी रा दोनि । न शीलसारस्यनिबन्धनयम सिहाग्निरावणादीनि नामानि सेनामपदेऽन्तर्भावात् न चैतेभ्यो व्यतिरिक्तं नामास्त्यनुपलम्भात् । = गुणोके भावको गौण्य कहते है। जो पदार्थ गुणों की मुख्यतासेव्यमदत होते है वे गोयपदार्थ है। पदार्थ
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पद अर्थाद स्थान या आश्रय जिन नामोके होते हैं उन्हे गौण्यपद नाम कहते है । जैसे—सूर्यको तपन और भास geet अपेक्षा उपन और भास्कर इत्यादि सज्ञाएँ है जिन संज्ञाओं गुणोंकी अपेक्षा न हो अर्थात् जो असार्थक नाम है उन्हे नगण्यपद नाम कहते है जैसे चन्द्रस्वामी सूर्यस्वामी, इन्द्रगोप इत्यादि नाम ग्रहण किये गये द्रव्यके निमित्तसे जो नाम व्यवहार में आते हैं, उन्हें आदानपद नाम कहते है । 'पूर्ण कलश' इस पदको आदानपद नाम समझना चाहिए। इस प्रकार 'अविधवा' इस पदको भी विचारकर आदानपदनाममें अन्तर्भाव कर लेना चाहिए। कुमारी वन्ध्या इत्यादिक प्रतिपक्षनामपद हैं क्योंकि आदानपद में ग्रहण किये गये दूसरे द्रव्यको निमित्तता कारण पडती है और यहाँपर अन्य द्रव्यका अभाव कारण पडता है। इसलिए आदानपदनामोंके प्रतिपक्ष कारण होनेसे कुमारी या वन्ध्या इत्यादि पद प्रतिपक्ष पदनाम जानना चाहिए। अनादिकाल से प्रवाह रूपसे चले जाये सिद्धान्तमापक पदोको अनादिसिद्धान्तपद नाम कहते है जैसे- धर्मास्तिकाय, अधर्मास्तिकाय इत्यादि अपौरुषेय होने सिद्धान्त अनादि है। वह सिद्धान्त जिस नामरूपपदका आश्रय हो उसे अनादिसिद्धान्तपद कहते है। बहुतसे पदार्थोंके होनेपर भी किसी एक पदार्थ की बहुलता आदि द्वारा प्राप्त हुई प्रधानतासे जो नाम बोले जाते है उन्हें प्राधान्यपढ़नाम कहते है जैसे आपन निम्भवन इत्यादि । वनमें अन्य अविवक्षित पोंके रहनेपर भी विमलासे saraarat प्राप्त आम्र और निम्बके वृक्षोंके कारण आम्रवन और निम्बवन आदि नाम व्यवहारमें आते है जो भाषाके भेदो जाते है उन्हें नामपद नाम कहते हैं जैसे-गोड, बान्भ, इमिल इत्यादि । गणना अथवा मापकी अपेक्षासे जो संज्ञाऍ प्रचलित है उन्हें प्रमाणपद नाम कहते है जैसे-सौ हजार मीण, खारी, पल तुला, कर्ष इत्यादि । ये सब प्रमाणपद प्रमेयों में पाये जाते हैं ।.. रोगादिके निमित्त मिलनेपर किसी अवयवके बढ जानेसे जो नाम बोले जाते हैं उन्हें उपचितावनपट नाम कहते है। जैसे गलगंड शिलोप, लम्बकर्ण इत्यादि । जो नाम अवयवोंके अपचय अर्थात उनके छिन्न हो जानेके गिमित्तसे व्यवहारमें आते है उन्हे अपचिताबयवपद नाम कहते है। जैसे- छिन्नकर्ण, छिन्ननासिक इत्यादि नाम !... हम्य, गौथ, दण्डी, छत्रो, गर्भिणी इत्यादि द्रव्य संयोगपद नाम हैं, क्योंकि धन, गूथ, दण्डा, छत्ता इत्यादि द्रव्यके संयोग से ये नाम व्यवहार में आते हैं। असि, परशु इत्यादि द्रव्यसंयोगषद नाम नहीं है, कि उनका आदानपद में अन्तर्भाव होता है। माधुर बालम, दाक्षिणात्य और औदीच्य इत्यादि क्षेत्रसंयोगपद नाम हैं, क्योंकि माथुर आदि संज्ञाएँ व्यवहारमें जाती है। जब माथुर आदि संज्ञाएँ नाम रूपसे विवक्षित न हों तभी उनका क्षेत्रसंयोगपदमें अन्तर्भाव होता है अन्यथा नहीं। शारद वासन्त इत्यादि काल संयोगपद नाम हैं। क्योंकि शरद और वसन्त ऋतुके संयोगसे यह संज्ञाएँ व्यवहार में आती हैं। किन्तु वसन्त शरद् हेमन्त इत्यादि संज्ञाओंका कालयोगपर नामोंमें ग्रहण नहीं होता, क्योंकि उनका नामपद में अन्तर्भाव हो जाता है। क्रोषी मानी, मायावी और लोभी इत्यादि नाम भावसंयोगपद हैं, क्योंकि, क्रोध, मान, माया और लोभ जादि भायोंके निमित्तसे ये नाम व्यवहारमें आते हैं। किन्तु
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पदस्थध्यान
जिनमें स्वभावकी सदृशता कारण हैं ऐसी यम, सिंह, अग्नि और रावण आदि संज्ञाऍ भावसंयोगपद रूप नहीं हो सकती है, क्योंकि उनका नामपद में अन्तर्भाव होता है । उक्त दश प्रकारके नामोंसे भिन्न और कोई नामपद नहीं है, क्योकि व्यवहारमें इनके अतिरिक्त अन्य नाम पाये जाते है । (ध. १/४, १,४५ /१३५ / ४ ), ( क पा. १ / ११ / ६२४ / ३९/९)।
३. श्रुतज्ञानके भेदोंमें कथित पदनामा ज्ञान व इस 'पद' ज्ञानमें अन्तर
घ. ६/१.११.१४/२३/३ कुदो एइस्स पदसणा | सोलहसायचोचीसकोडोओ ऐसी दिखा बहत्तरसव अट्ठासीदिअक्सरे घेण एवं दमुदपदं होदि । एवेहितो उप्पणभावदं पि उदारण पति उच्चदि । - प्रश्न - उस प्रकार से इस ( अल्पमात्र ) श्रतज्ञानके ( पाँचवें भेवकी) 'पद' यह संज्ञा कैसे है उत्तर सोलह सौ चौतीस करोड, तेरासी लाख अठहत्तर सौ अठासी (१६३४-३००) अक्षरोंको लेकर द्रव्य श्रुतका एक पद होता है। इन अक्षरोसे उत्पन्न हुआ भाव श्रुत भी उपचारसे 'पद' ऐसा कहा जाता है । पदज्ञान दे० श्रुतज्ञान/11
पवन
सर्वधन दे० गणित /11/५/
पदविभागी आलोचना - दे० आलोचना /१ । पदविभागी समाचार-३० मार पदसमासज्ञान दे० श्रुतज्ञान / II पवस्यध्यान र जनादिके अक्षर या
हीं' आदि बीज
मन्त्र अथवा पचपरमेष्ठीके वाचक मन्त्र अथवा अन्य मन्त्रोको यथा विधि कमलोंपर स्थापित करके अपने नाभि हृदय आदि स्थानों में चिन्तवन करना पदस्थ ध्यान है। इससे ध्याताका उपयोग स्थिर होता है और अभ्यास हो जानेपर अन्तमें परमध्यानकी सिद्धि होती है ।
१. पदस्थध्यानका लक्षण
द्र. सं / टी / ४८/२०५ में उद्धृत - पदस्थं मन्त्रवाक्यस्थं । -मन्त्र वाक्यों में जो स्थित है वह 'पदस्थध्यान' है ( प. प्र./टी./१/६/६ पर उधृत ); (भा. पा./टी./८६/२३६ पर उद्धृत ) । ज्ञा./२९/१ पदान्यवलम्ब प्रयानि योगिभिधीयते। सत्पदस्थ मतं ध्यानं विचित्रनयपारगैः |१| जिसको योगीश्वर पवित्र मन्त्रोंके अक्षर स्वरूप पदोंका अवलम्बन करके चिन्तवन करते हैं, उसको नयोंके पार पहुँचने वाले योगीश्वरोंने पदस्थ ध्यान कहा है |१|
४६४ माइज्ज उच्चरिऊन परमेट्ठिमंतपयमनसं । एक्रादि निविपयत्यमा मुणेय 1४६४| एक अक्षरको आदि लेकर अनेक प्रकार के पंच परमेष्ठी वाचक पवित्र मन्त्रपदका उच्चारण करके जो ध्यान किया जाता है उसे पदस्थ ध्यान जानना चाहिए |४६४ | ( गुण, श्रा./२३२) (द्र सं मू./४६/२०७ ) 1
द्र. सं /टी./५०-५५ की पावनिका- 'पदस्थध्यान ध्येय भूत मर्ह त्सर्वज्ञस्वरूप दर्शयामीति - पदस्थध्यानके ध्येय जो भी अहंत सर्वज्ञ हैं उनके स्वरूपको दिखाता है (इसी प्रकार गाधा२१ आदिकी पातनिकामैं सिद्धादि परमेष्ठियोंके लिए कही है।) नोट- पंचपरमेष्ठी रूप ध्येय दे०-ध्येय ।
२. पदस्थ ध्यानके योग्य मूलमन्त्रोंका निर्देश
१. एकाक्षरी मन्त्र १. ' (२३) (प्र. सं./टी. ४) २. प्रथम मा./३०/३९) (प्र.सं./टी./४१) १ अनाहत
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