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पदानुसारि द्धि
पदस्थध्यान
५. आत्मा व अष्टाक्षरी मन्त्रको ध्यान विधि ज्ञा /३८-६५-६६ दिग्दलाष्टकसंपूर्ण राजीवे सुप्रतिष्ठितम् । स्मरत्वात्मानमत्यन्तस्फुरद्ग्रीष्मार्कभास्करम् ।१५। प्रणवाद्यस्य मन्त्रस्य पूर्वादिषु प्रदक्षिणम् । विचिन्तयति पत्रेषु वर्ण कैकमनुक्रमाद ।६। अधिकृत्य छद पूर्व सर्वाशासंमुख परम् । स्मरक्ष्यष्टाक्षर मन्त्रं सहस के शताधिकम् ।१७) प्रत्यहं प्रतिपत्रेषु महेन्द्राशाद्यनुक्रमाव। अष्टरानं जपेद्योगी प्रसन्नामलमानस १८-आठ दिशा सम्बन्धी आठ पत्रोसे पूर्णकमलमें भले प्रकार स्थापित और अत्यन्त स्फुरायमान ग्रीष्मऋतुके सूर्यके समान देदीप्यमान आत्माको स्मरण करें ।।५। प्रणव है आदिमें जिसके ऐसे मन्त्रको पूर्वादिक दिशाओमें प्रदक्षिणारूप एक एक पत्र पर अनुक्रमसे एक एक अक्षरका चिन्तबन करै वे अक्षर ॐ णमो अरहताणं' ये है ।६। इनमेसे प्रथम पत्रको मुख्य करके, सर्व दिशाओके सम्मुख होकर इस अष्टाक्षर मन्त्रको ग्यारह सै बार चिन्तवन करै ।१७। इस प्रकार प्रतिदिन प्रत्येक पत्रमे पूर्व दिशादिकके अनुक्रमसे आठ रात्रि पर्यन्त प्रसन्न होकर जपै ।। ६. अन्तमें आत्माका ध्यान करे ज्ञा /३८/११६ विलीनाशेषकर्माण स्फुरन्तमतिनिर्मलम् । स्वं ततः पुरुषाकारंवाङ्गगर्भगतं स्मरेत ।११६ =मन्त्रपदोके अभ्यासके पश्चाव विलय हुए है समस्त कर्म जिसमे ऐसे अतिनिर्मल स्फुरायमान अपने आत्माको अपने शरीरमें चितवन करै ।११६।
छिद्रसे गमन करता हुआ, तथा अमृतमय जलसे भरता हुआ ॥१६॥ नेत्रकी पलकोपर स्फुरायमान होता हुआ, केशोमें स्थिति करता तथा ज्योतिषियोके समूहमे भ्रमता हुआ, चन्द्रमाके साथ स्पर्द्धा करता हुआ।१७। दिशाओमे स चरता हुआ, आकाशमे उछलता हुआ, कलं कके समूहको छेदता हुआ, संसारके भ्रमको दूर करता हुआ ।१८। तथा परम स्थानको (मोक्ष स्थानको) प्राप्त करता हुआ, मोक्ष लक्ष्मीसे मिलाप करता हुआ ध्याय १६॥ ध्यान करनेवाला इस मन्त्राधिपको अन्य किसीकी शरण न लेकर, इसहीमे साक्षाद तल्लीन मन करके, स्वप्नमें भी इस मन्त्रसे च्युत न हो ऐसा दृढ होकर ध्या ।२०। ऐसे पूर्वोक्त प्रकार महामन्त्रके ध्यानके विधानको जानकर, मुनि समस्त अवस्थाओमें स्थिर स्वरूप सर्वथा नासिकाके अग्रभागमें अथवा भौहलताके मध्यमे इसको निश्चल धारण करै ।२१। तत्पश्चात क्रमसे (लखने योग्य वस्तुओसे) छडाकर अलक्ष्यमे अपने मनको धारण करते हुए ध्यानीके अन्तरंगमें अक्षय तथा इन्द्रियोके अगोचर ज्योति अर्थात ज्ञान प्रकट होता है ।२८। (ज्ञा./२६/८२/८३) (विशेष दे. ज्ञा./सर्ग २१)। २. प्रणव मन्त्रकी ध्यान विधि ज्ञा./३८/३३-३५ हुत्कजकर्णिकासीनं स्वरव्यञ्जनवेष्टितम्। स्फीतमत्यन्तदुर्द्धर्ष देवदै त्येन्द्रपूजितम् ।३३। प्रक्षरन्मूनिसंक्रान्तचन्द्रलेखामृतप्लुतम्। महाप्रभावसंपन्न कर्मकक्षहुताशनम् ॥३४॥ महातत्त्वं महाबीजं महामन्त्र महत्पदम् । शरच्चन्द्रनिभं ध्यानी कुम्भकेन विचिन्तयेत् ॥३॥ - ध्यान करनेवाला संयमी हृदय कमलकी कणिकामें स्थिर और स्वर व्यञ्जन अक्षरोंसे बेढा हुआ, उज्ज्वल, अत्यन्त दुर्धर्ष, देव और दैत्योके इन्द्रोंसे पूजित तथा झरते हुए मस्तकमे स्थित चन्द्रमाकी (लेखा) रेखाके अमृतमे आदित, महाप्रभाव सम्पन्न, कर्म रूपी वनको दग्ध करनेके लिए अग्नि समान ऐसे इस महातत्त्व, महाबीज, महामन्त्र महापदस्वरूप तथा शरद्के चन्द्रमाके समान गौर वर्ण के धारक 'ओं' को कुम्भक प्राणायामसे चिन्तवन करे ।३३-३।। ३. मायाक्षर ( ह्रीं) की ध्यान विधि झा./३८/६८-७० स्फुरन्तमतिस्फीतं प्रभामण्डलमध्यगम्। संचरन्तं मुखाम्भोजे तिष्ठन्तं कर्णिकोपरि ६८। भ्रमन्तं प्रतिपत्रेषु चरन्तं वियति क्षणे । छेदयन्तं मनोध्वान्त सबन्तममृताम्बुभिः ६६ वजन्तं तालुरन्ध्र ण स्फुरन्त भूलतान्तरे । ज्योतिर्मयमिवाचिन्यप्रभावं भावयेन्मुनि' ७-मायांबीज 'ह्रीं' अक्षरको स्फुरायमान होता हुआ, अत्यन्त उज्ज्वल प्रभामण्डलके मध्य प्राप्त हुआ, कभी पूर्वोक्त मुखस्थ कमल में संचरता हुआ तथा कभी-कभी उसकी कणिकाके ऊपरि तिष्ठता हुआ, तथा कभी-कभी उस कमलके आठों दलोंपर फिरता हुआ तथा कभी-कभी क्षण भरमें आकाशमें चलता हुआ, मनके अज्ञान अन्धकारको दूर करता हुआ, अमृतमयी जलसे चूता हुआ तथा तालुआके छिद्रसे गमन करता हुआ तथा भौहोंकी लताओंमें स्फुरायमान होता हुआ, ज्योतिर्मयके समान अचिन्त्य है प्रभाव जिसका ऐसे माया वर्ण का चिन्तवन करे।
४. प्रणव, शून्य व अनाहत इन तीन अक्षरोंकी ध्यान विधि ज्ञा /३८/८६-८७ यदत्र प्रणवं शून्यमनाहतमिति त्रयम् । एतदेव विदु' प्राज्ञास्त्रैलोक्यतिलकोत्तमम् ।६। नासाग्रदेशसंलीनं कुर्वन्नत्यन्तनिर्मलम् । ध्याता ज्ञानमवाप्नोति प्राप्य पूर्व गुणाष्टकम् ।८७= प्रणव
और शून्य तथा अनाहत ये तीन अक्षर हैं, इनको बुद्धिमानोंने तीन लोकके तिलकके समान कहा है।६। इन तीनोंको नासिकाके अन भागमें अत्यन्त लीन करता हुआ ध्यानी अणिमा महिमा आदिक आठ ऋद्धियोको प्राप्त होकर, तत्पश्चाव अति निर्मल केवलज्ञानको प्राप्त होता है ।
८. धूम ज्वाला आदिका दीखना ज्ञा /३/७४-७७ ततो निरन्तराभ्यासान्मासै षड्भि स्थिराशयः । मुखरन्धाद्विनिर्यान्तीं धूमवर्ति प्रपश्यति ।७४॥ ततसंवत्सरं यावत्तथेवाभ्यस्यते यदि । प्रपश्यति महाज्वालां नि सरन्ती मुखोदराव ॥७॥ ततोऽतिजातसंवेगो निर्वेदालम्बितो वशी। ध्यायन्पश्यत्यविश्रान्त सर्वज्ञमुखपङ्कजम् ।७६। अथाप्रतिहतानन्दप्रोणितात्मा जितश्रम. । श्रीमत्सर्वज्ञदेवेशं प्रत्यक्षमिव वीक्षते ।७७) -तत्पश्चात वह ध्यानी स्थिरचित्त होकर, निरन्तर अभ्यास करनेपर छह महीनेमे अपने मुखसे निकली हुई धूयेको बतिका देखता है ।७४ यदि एक वर्ष पर्यन्त उसी प्रकार अभ्यास करै तो मुखमेंसे निकलती हुई महाग्निकी ज्वालाको देखता है ।७५। तत्पश्चात अतिशय उत्पन्न हुआ है धर्मानुराग जिसके ऐसा वैराग्यावल बित जितेन्द्रिय मुनि निरन्तर ध्यान करता-करता सर्वज्ञके मुख कमलको देखता है ।७६। यहाँसे आगे वही ध्यानी अनिवारित आनन्दसे तृप्त है आत्मा जिसका और जीता है दुख जिसने ऐसा होकर, श्रीमत्सर्वज्ञदेवको प्रत्यक्ष अवलोकन करता है ७७१
९. पदस्थ ध्यानका फल व महिमा ज्ञा /२८/श्लोक न. अनाहत 'हके ध्यानसे इष्टकी सिद्धि ।२२। ऋद्धि, ऐश्वर्य, आज्ञाकी प्राप्ति तथा ।२७। संसारका नाश होता है ।३०। प्रणव अक्षरका ध्यान गहरे सिन्दूरके वर्ण के समान अथवा मंगेके समान किया जाय तो मिले हुए जगत्को क्षोभित करता है।३६। तथा इस प्रणवको स्तम्भनके प्रयोगमे सुवर्ण के समान पीला चितवन कर और द्वेषके प्रयोगमें कज्जलके समान काला तथा वश्यादि प्रयोगमें रक्त वर्ण और कर्मोके नाश करने में चन्द्रमाके समान श्वेतवर्ण ध्यान करै ।३७१ मायाक्षर ह्रौंके ध्यानसे--लोकाग्र स्थान प्राप्त होता है।८० प्रणव, अनाहत व शून्य ये तीन अक्षर तिहू लोकके तिलक
है।८६। इनके ध्यानसे केवलज्ञान प्रगट होता है । 'ॐ णमो __अरहन्ताणं' का आठ रात्रि ध्यान करनेसे क्रूर जीव जन्तु भयभीत
हो अफ्ना गर्व छोड देते है।। पदानुसारि ऋद्धि-दे० ऋद्धि/२ ।
जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश
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