________________
पुण्या
तारिकतासवेत्पुण्यं
अतसे पुण्यकर्मका आखत्र
उ. सा./४/२१ होता है ।
यो सा./अ./४/२० अर्हदादौ परा भक्ति कारुण्य सर्वजन्तुषु पावने चरणे राग पुण्यबन्धनिबन्धनम् |३७| = अर्हन्त आदि पाँचों परमेष्ठियो में भक्ति, समस्त जीवोपर करुणा और पवित्रचारित्र में प्रीति करनेसे पुण्य बन्ध होता है । शा./३/३-० यमप्रशम निर्वेद चिन्तावम्बितमेयादिभावनारू मन सूते सुभाव 11 विश्वव्यापार निर्मुक्त श्रज्ञाना शुभraare विज्ञेय वच सत्यं प्रतिष्ठितम् ॥५॥ सुगुप्तेन सुकायेन कायोत्सर्गेन वानिशम् । स चिनाति शुभ कर्म काययोगेन संयमी ॥७॥ =यम (बत), प्रशम, निर्वेद तथा तत्त्वोंका चिन्तवन इत्यादिका अबलम्बन हो, एवम् मैत्री, प्रमोद, कारुण्य और माध्यस्थ्य इन चार भावनाओकी जिसके मनमे भावना हो, वही मन शुभास्रव उत्पन्न करता है | ३ | समस्त विश्वके व्यापारोसे रहित तथा श्रुतज्ञानके अवलम्बनयुक्त और सत्यरूप पारिणामिक वचन शुभास्रव के लिए होते हैं । ५। भले प्रकार गुप्तरूप किये हुए अर्थात् अपने वशीभूत किये हुए कायसे तथा निरन्तर कायोरस सबमी गुनि शुभ कर्मको संचय करते है।
२. पुण्य व पाप में पारमार्थिक समानता
१. दोनों मोह व अज्ञानकी सन्तान हैं।
पं. का // १२१ मोहो रागो दोसी चित्तपसादो य जस्स भावम्मि विज्जदि तस्स सुहो वा असुहो वा होदि परिणामो | १३११ = = जिसके भाव में मोह, राग, द्वेष अथवा चित्त प्रसन्नता है उसे शुभ अथवा अशुभ परिणाम होते हैं । ( तहाँ प्रशस्त राग व चित्तप्रसादसे शुभपरिणाम और अप्रशस्तराग, द्वेष और मिथ्यात्वसे अशुभ परिणाम होते है इसी गाथाकी उ. प्र. टीका)।
/ /२/१३ मोसवहॅ हेड जिउ जो गवि जाणइ कोइ सो पर मोहिं करइ जिय पुण्णु वि पाउ वि दोइ ॥ ५३॥ =बन्ध और मोक्षका कारण अपना विभाव और स्वभाव परिणाम है, ऐसा भेद जो नही जानता है, वही पुण्य जौर पाप इन दोनोको मोहसे करता है। (न.च.वृ./ २६१) ।
1
२. परमार्थसे दोनों एक हैं
1
स. सा / आ./ १४५ शुभोऽशुभो वा जीवपरिणाम केवलाज्ञानमयत्वादेकस्तदेकरवे सति कारणामेदाय एवं कर्म शुभोऽशुभ वा गल परिणाम केवसङ्गगलमयत्वादेकस्त देकर सति स्वभावाभेदादेक कर्म शुभोऽशुभ फलपाक के लगलम वादेकस्वे करने सत्यनुभवाभेदावेकं कर्म शुभाशुभ मोक्षन्धमान तु प्रत्येक जीवपुद्गलमयत्वादेकौ तदनेकत्वे सत्यपि केवलपुद्गलमयबन्धमार्गाश्रितत्वेनाश्रयाभेदादेकं कर्म शुभ व अशुभ जोवपरिणाम केवल अज्ञानमय होनेसे एक है, अत उनके कारणमें अभेद होनेसे कर्म एक ही है शुभ और अशुभ गतपरिणाम केवल पुगलमय होनेसे एक है, अतः उनके स्वभाव में अभेद होनेगे कर्म एक है शुभ व अशुभ फलरूप विपाक भी केवल पुद्गलमय होनेसे एक है, अत उनके अनुभव या स्वादमे अभेद होनेसे दोनो एक है । यद्यपि शुभरूप (व्यवहार) मोक्षमार्ग केवल जीनमय और अशुभरूप अन्यमार्ग केवल पुद्गलमय होनेसे दोनो में अनेकता है, फिर भी कर्म केवल पुद्गलमयी बन्धमार्गके ही आश्रित है अत उनके आश्रयमे अभेद होनेसे दोनों एक हैं।
३. दोनोंकी एकतामें दृष्टान्त
स सा./न./१४६ सोमणियं पि णियत मंदि कात्ताय पि जह पुरिसं चदि एवं जी हम ना कवं कम्म ११४६ | जैसे
६१
Jain Education International
२. पुण्य व पाप मे पारमार्थिक समानता
लोहेकी बेडी पुरुषको बाँधती है, वैसे ही सोनेकी बेडी भी पुरुषको बाँधती है। इसी प्रकार अपने द्वारा किये गये शुभ व अशुभ दोनो ही कर्म जीवको बाँधते है वो सायो /०२), (प्र. सा./त. प्र/७७ ); (प.प्र./टी./१/१६६-१६७/२०६/१६) ।
स. सा.आ./९४४/ १०१ एको दूरात्यजति मदिरा मभिमाना दन्य शूद्र स्वयमहमिति स्नाति नित्यं तयैव । द्वावप्येतौ युगपदुदरान्निर्गतौ शूद्रिकाया, शूद्रौ साक्षादपि च चरतो जातिभेदभ्रमेण | १०११ - (शूद्रा के पेट से एक ही साथ जन्मको प्राप्त दो पुत्रोमेंसे एक ब्राह्मणके यहाँ और दूसरा शूद्रके यहाँ पला ( उनमे से ) एक तो 'मै ब्राह्मण हूँ इस प्रकार ब्राह्मणसके अभिमानसे घूरते ही मदिराका त्याग करता है, उसे स्पर्श तक नही करता, और दूसरा 'मै स्वयं शूद्र हॅू' यह मानकर नित्य मदिरासे ही स्नान करता है, अर्थात उसे पवित्र मानता है । यद्यपि दोनो साक्षात शूद्र है तथापि वे जातिभेदके भ्रमसहित प्रवृत्ति करते है । (इसी प्रकार पुण्य व पाप दोनो ही यद्यपि पूर्वोक्त प्रकार समान है, फिर भी माह दृष्टि के कारण भ्रमवश अज्ञानीव इनमें भेद देखकर पुण्यको अच्छा और पापको बुरा समझता है ) ।
स सा./आ./१४० कुशीतशुभाशुभम्या सह रागसंग प्रतिषिद्धी मन्धहेतुत्वाद कुशलमनोरमा मनोरम करेयुनीरागसंसर्गवद-जैसे कुशील मनोरम और अमनोरम हथिनीरूप कुनीकेसाथ हाथीका राग और संसर्ग उसके बन्धनका कारण है, उसी प्रकार कुशील अर्थात् शुभाशुभ कर्मो के साथ राग और ससर्ग बन्धके कारण होनेसे, शुभाशुभ कर्मोंके साथ राग और ससर्ग करनेका निषेध किया गया है ।
-
४. दोनों ही वग्ध व संसार के कारण है।
-
स.सि./१/४/१५/३ ह पुण्यपापग्रहणं कर्तव्य 'नन पदार्थान्येरप्युक्तत्वाद । न कर्तव्यम्, आसवे बन्धे चान्तर्भावाद । - प्रश्न - सूत्र में (सात तत्त्वोके साथ) पुण्य पापका ग्रहण करना चाहिए, क्योंकि पदार्थ नौ है ऐसा दूसरे बाचायोंने भी कथन किया है ? उत्तर - पुण्य और पापका पृथक ग्रहण नहीं करना चाहिए, क्योकि, उनका आस्रव और बन्धमें अन्तर्भाव हो जाता है । ( रा. वा / १/४/२८/२७/३०), (द्र सं./टी./ अधि० २ / चूलिका / पृ. ८१ / १०) घ. १२/४,२८,३/२७६/७ कम्मर्षधो हि गाम सुहासुहपरिणामे हितो जायदे | = कर्मका बन्ध शुभ व अशुभ परिणामोसे होता है ।
न च बृ./२६६.३७६ अग्रह सह चिय कम्मं विपि व्यभावभेग पिय पच्य मोहं संसारा तेण जोवरस | २६६ | भेटुयारे जइया बट्ठदि सो विर्या सुहासुहाधीणो । तझ्या कत्ता भणिदो संसारी तेण सो आदा । ३७६ । कर्म दो प्रकारके है- शुभ व अशुभ। ये दोनो भी द्रव्य व भावके भेदसे दो-दो प्रकारके है। उन दोनोकी प्रतीति मोह और मोहसे जीवको संसार होता है | २६६| जबतक यह जीव भेद और उपचाररूप व्यवहारमें वर्तता है रामक नह शुभ और अशुभके आधीन है। और तभी तक वह कर्ता कहलाता है, उससे ही आत्मा संसारी होता है । ३७६ ।
त सा / ४ / १०४ ससारकारणत्वस्य द्वयोरप्यविशेषत । न नाम निश्चये नास्ति विशेष पुण्यपापयो । १०४ । निश्चयसे दोनों ही ससारके कारण है, इसलिए पुण्य व पापमें कोई विशेषता नहीं है। (चो. सा./ अ / ४/४० ) ।
प्र. सा./त.प्र./ १८१ तत्र पुण्यपुद्गलबन्धकारणत्वात् शुभपरिणाम' पुण्यं, पापपुद् गलबन्धकारणत्वादशुभपरिणाम. पापम् । पुण्यरूप पुद्गल - कर्मके बन्धका कारण होनेसे शुभपरिणाम पुण्य है और पापरूप इगलके बन्धका कारण होनेसे अशुभपरिणाम पाप है।
"
स. सा./आ./१५०, १०३ कर्म सर्वमपि सर्वविदो यह अन्धसाधनमुशन्स्मविशेषाद। तेन सर्वमपि त्यतिषिद्ध ज्ञानमेव मिहितं
जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org