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पुण्य
३ पुण्यकी महिमा व उसका फल ।
४
पुण्य करनेकी प्रेरणा
पुण्यकी इष्टता व अनिताका समन्वय
१
पुण्य दो प्रकारका होता है ।
२
भोगगुरुक ही पुण्य निषिद्ध है योगमूलक नहीं। ३ पुण्यके निषेधका कारण व प्रयोजन ।
पुण्य छोडनेका उपाय व क्रम हेय मानते हुए भी ज्ञानी विषय धर्म करता है। साधुकी शुभ क्रियाओंको सीमा ।
सम्बन्दृष्टिका पुण्य निरीह होता है।
पुण्यके साथ पाप प्रकृतिके बन्धका समन्वय ।
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- दे० धर्म / ६ 1 वचनार्थ व्यवहार-दे० मिध्यादृष्टि / ४ ० साधू/२।
१. पुण्य निर्देश
१. भाव पुण्यका लक्षण
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प्र. सा./मू./१८१ सुपरिणामो पुष्णणं भणियमण्णे परके प्रति शुभपरिणाम पुण्य है । (पं का./त.प्र./ १०८ ) ।
स.सि./१/३/३२० / २ पुनात्यात्मानं पूयतेऽनेनेति मा पुग्यम् ।
जो
आत्माको पवित्र करता है, या जिससे आत्मा पवित्र होता है वह पुण्य है। (रा. ना. ६/३/४/५०० /११) ।
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न. च. वृ./१६२ अहवा कारणभूदा तेसि च वयन्वयाइ इह भणिया । ते खलु पूर्ण पाव जाण इम पवयणे भणियं । १६२॥ उन शुभ वेदादिके कारणभूत जो मतादि कहे गये है, उसको निश्चयसे पुण्य जानो, ऐसा शास्त्रमें कहा है। पं.का./ता.वृ/१००/१०२/- रामपुजापहावश्यकादिरूपो जीवस्य शुभपरिणामो भावपुण्यं दान पूजा पडावश्यकादि रूप जीव के शुभपरिणाम भावपुण्य है। ० उपयोग/11/४ जी बया आदि शुभोगयोग है |१| नहीं पुण्य है | दे० धर्म / १/४ (पूजा, भक्ति, दया, दान आदि शुभ क्रियाओ रूप व्यवमहारधर्म पुण्य है। (उपयोग/२/७), (पुण्य / १२ / ४) ।
२. द्रव्य पुण्य या पुण्य कर्मका लक्षण
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- इष्ट
भ, आ./वि./२८ / १३४ / २० पुण्य नाम अभिमतस्य प्रापक । पदार्थोंकी प्राप्ति जिससे होती हो वह कर्म पुण्य कहलाता है। काता १००/१०२/२ भाग पुण्यनिमितेनोपन सद्यादिशुभप्रकृतिरूप. पुद्गल परमाणुपिण्डो द्रव्यपुण्य भाव पुण्यके निमित्तसे उत्पन्न होनेवाले साता वेदनीय आदि ( विशेष दे० प्रकृतिबन्ध / २ ) शुभकृतिरूप पुगल परमाणु का पिण्डद्वय पुण्य है। खम. / २०/३०२ / १६ पुण्य दानादिक्रियोपार्जनीयं शुभकर्म दान आदि क्रियाओसे उपार्जित किया जानेवाला शुभकर्म पुण्य है। ३. पुण्य जीवका लक्षण
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यू.आ./ / २२४ सम्मलेन सुदेश व विरदीर कसायगिगुणेहि । जो परिणदो सो पुष्णो.. | २३४॥ सम्यक्ख, श्रुतज्ञान, व्रतरूप परि
१. पुण्य निर्देश
णाम तथा कषाय निग्रहरूप गुणोसे परिणत आत्मा पुण्य जीव है । (गो.जी./मू./६२२) । ब्र. सं./मू./३०/१५०
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- शुभ परिणामो से युक्त जीव पुण्य रूप होता है।
४. पुण्य व पाप अन्तरंगकी प्रधानता
भावता पावहमति खलु जीवा ।
आप्त. मो. / २-६५ पाप ध्रुव परे दुखात् पुण्यं च सुखतो यदि । अचेतनाकषाय च ध्येयाता निमित्तत । पुण्य ध्रुवं स्वतो दुखापाप च सुखतो यदि । वीतरागो मुनिविद्वास्ताभ्या युज्ज्यान्निमितत ॥१३॥ विरोधा ना भयैकात्म्य स्याद्वादन्यायविद्विषा । अवाच्यकान्यमिति युज्यते ॥ ६४॥ विशुद्ध पेट स्वपरस्थ सुलाल पुण्यपापासुन स्वा -यदि परका दुख उपजानेसे पाप और परको सुख उपजानेसे पुण्य होने का नियम हुआ होता तो कंटक आदि अचेतन पदार्थोंको पाप और दूध आदि अचेतन पदार्थोको पुण्य हो जाता। और वीतरागी मुनि (यसमिति पूर्वक गमन करते हुए कदाचित द्र जीवोके बधका कारण हो जानेसे बन्धको प्राप्त हो जाते |१२| यदि स्वयं अपनेको ही दुख या सुख उपजानेसे पाप-पुण्य होनेका नियम हुआ होता तो वीतरागी मुनि तथा विद्वानुजन भी बन्धके पात्र हो जाते; क्योकि उनको भी उस प्रकारका निमित्तपना होता है | १३ | इसलिए ऐसा मानना ही योग्य है कि स्व व पर दोनोको सुख या दुखमें निमित्त होनेके कारण, विशुद्धि व संक्लेश परिणाम उनके कारण तथा उनके कार्य ये सब मिलकर ही पुण्य व पापके आसव होते हुए पराश्रित पुण्य व पापरूप एकान्तका निषेध करते है |४| यदि विशुद्धि व सस्तेश दोनों ही स्वव परको सुख व दुःखके कारण न हो तो आपके मतमें पुण्य या पाप कहना ही व्यर्थ है|१५|
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मो पापं जयचन्द / ६०/१०२/२४ केवलमा सामायिकादि निरारम्भ कार्यका भेष धार में तो कि विशिष्ट पुण्य है नाहीं शरीरादिक माह्य वस्तुसी जह है। केवल जहको किया फल तो आमाको लागे नाहीं । विशिष्ट पुण्य तौ भावनिकै अनुसार है |... अतः पुण्यपापके बन्ध में शुभाशुभ भाव ही प्रधान है।
५. पुण्य ( शुभ नामकर्म ) के बन्ध योग्य परिणाम
// ११५ रागो जस्स पत्यो अनुकंपासंसिदो व परिणामो
चितहि किस पूर्ण जीवरस आसवदि ॥ १३४॥ - जिस जीनको प्रशस्त राग है. अनुकम्पायुक्त परिणाम है, और चित्तमें पता का अभाव है उस जीवको पुण्य आस्रव होता है ।
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मू. आ./मू./२३५ पुण्णस्सासवभूदा अणुकपा सुद्ध एव उनओगा । = जीवोपर दया, शुद्ध मन वचन कायकी क्रिया तथा शुद्ध दर्शन ज्ञानरूप उपयोग ये पुण्यकर्म के आसवके कारण है । (क पा. १/११/ गा. २/१०५) ।
सू./६/२१ तद्विपरीत सुभस्य ॥१३॥
स.सि./६/२३/१३७/६ कायवाङ्मनसामृश्वमविसंवादनं द्विसमुचितस्य च विपरीत ग्राह्यम् धार्मिकदर्शन सभ्रमसद्भावोपनयन संसरणाभीरुताप्रमादवर्जनादि' । तदेतच्छुभनामकर्मादिकारणं वेदितव्य काय, वचन और मनकी सरलता तथा अविसंवाद ये उस (अशुभ) से विपरीत है । उसी प्रकार पूर्व सूत्रकी व्याख्या करते हुए च शब्दसे जिनका समुच्चय किया गया है, उनके विपरीत आस्रवोंका ग्रहण करना चाहिए। जैसे- धार्मिक पुरुषों व स्थानोका दर्शन करना, आदर सत्कार करना, सद्भाव रखना, उपनयन, संसारसे डरना, और प्रमादका त्याग करना आदि । ये सब शुभ नामकर्मके आसवके कारण है (रा.वा./६/२३/२/५२८/ २०) (गो.क./ /०/१०४): (त, सा./४/४८) ।
जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश
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