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पिशुलि
पुण्य
पाप रूप ही है । लौकिकजनोके लिए यह अवश्य ही पापकी अपेक्षा बहुत अच्छा है। यद्यपि मुमुक्षु जीवोको भी निचली अवस्थासे पुण्य प्रवृत्ति अवश्य होती है, पर निदान रहित होने के कारण, उनका पुण्य पुण्यानुबन्धी है, जो परम्परा मोक्षका कारण है। लोकिक जीवोंका पुण्य निदान व तृष्णा सहित होनेके कारण पाषानुवन्धी है, तथा ससारमें डुबानेवाला है। ऐसे पुण्यका त्याग ही परमार्थ से योग्य है।
पुण्य निर्देश भावपुण्यका लक्षण । द्रव्य पुण्य या पुण्यकर्मका लक्षण । पुण्य जीवका लक्षण । पुण्य व पापमें अन्तरंगकी प्रधानता । पुण्य ( शुभ नामकर्म ) के बन्ध योग्य परिणाम । पुण्य प्रकृतियोंके भेद । -दे० प्रकृतिबन्ध/२। राग-द्वेषमें पुण्य-पापका विभाग। -दे० राग/२ । पुण्य तत्त्वका कर्तृत्व। -दे० मिथ्यादृष्टि/४ ।
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पिशुलि-गो. जी /भाषा/३२६/७००/१३ का भावार्थ (श्रुत ज्ञानके पर्याय, पर्याय-समास आदि २० भेदोके प्रकरणमे, प्रक्षेपक प्रक्षेपक नामके श्रुतज्ञानको प्राप्त करनेके लिए अनतका भाग देनेकी जो प्रक्रिया अपनायी गयी है) वैसे ही क्रमते जीवराशिमात्र अनंतका भाग दोए जो प्रमाण आवै सो सो क्रमले पिशुलि पिशुलि-पिशुलि
जानने। पिष्टपेसन-दे० अतिप्रसग । पिहित-१ आहारका एक दोष-दे० आहार/II/४/४:२. वसतिका
का एक दोष-दे० वसतिका । पिहितानव-१(ह.पू./२७/८ ) एक दिगम्बर आचार्य, २. एक
जैन मुनि (हपु/२७/६३)। ३ पद्मप्रभ भगवान के पूर्व भवके गुरु (ह पु/६०/१५६) ४ बुद्धकोति ( महात्मा बुद्ध ) के गुरु थे। पार्श्वनाथ भगवान्की परम्परामे दिगम्बराचार्य थे। (द सा/प्रशस्ति/२६ प. नाथूराम प्रेमी) इनके शिष्य बुद्धकीतिने बौद्धधर्म चलाया था (द सा //६-७)। पीठ-दसवे रुद्र थे।-दे० शलाका पुरुष/७ । पीठिका मंत्र-दे० मत्र/१/६ । पीड़ा-दे. वेदना। पीत लेश्या-दे० लेश्या। पुंडरीक-१. छठे रुद्र थे।-दे० शलाका पुरुष/७ । २ अपने पूर्व के
दूसरे भवमे शल्य सहित मर करके देव हुआ था। वर्तमान भवमें छठे नारायण थे। अपरनाम पुरुष पुण्डरीक था। -दे० शलाकापुरुष/४। ३ श्रुतज्ञानका १२वॉ अंग बाह्य-दे० श्रुतज्ञान/III | ४ पुष्करबर द्वीपका रक्षक व्यन्तर देव-दे० व्यन्तर/४।५ मानुषोत्तर पर्वतका रक्षक व्यन्तर-दे०व्यन्तर/४। ६ विजयाध की दक्षिण श्रेणीका एक नगर-दे० विद्याधर । पुंडरीक हद-शिखरी पर्वतस्थ एक ह्रद जिस मेंसे स्वर्ण कूला, रक्ता व रक्तोदा ये तीन नदियाँ निक्लती है। लक्ष्मीदेवी इसमें निवास
करती है-दे० लोक/३।६।। पूंडरीकिणी-रुचक पर्वत निवासिनी दिक्कुमारी देवी। -दे०
लोक/५/१३। पुंडरीकिनी-पूर्व विदेहस्थ पुष्क्लावर्त की मुख्य नगरी । अपरनाम
पुष्कलावती-दे० लोक/५/२ । पुंड्र वर्तमान बगालका उत्तर भाग। अपरनाम गौड्र या पौंड्र।
भरतक्षेत्र पूर्व आर्य खण्डका एक देश-दे० मनुष्य/४ । पुंडवर्धन-पूर्व देशमे एक नगरी है। 'महिमा नगरीका अपरनाम प्रतीत होता है। क्योकि अर्हद्वलि आचार्य द्वारा यहाँ यति सम्मेलन बुलाया गया। और धरसेनाचार्यने महिमा नगरीमें साधुओको बुलानेके लिए पत्र लिखा था। महिमा नगरीवाला साधु सघ और अहं द्वलि आचार्यका साधु सम्मेलन एकार्थवाची प्रतीत होते है। (ध.१/प्र. १४.३१) । पुण्य-क्षौद्रवर द्वीपका रक्षक व्यन्तर देव-दे० व्यन्तर/४ । पुण्य-जीवके दया, दानादि रूप शुभ परिणाम पुण्य कहलाते है। यद्यपि लोकमें पुण्यके प्रति बडा आकर्षण रहता है, परन्तु मुमुक्षु जीव केवल बन्धरूप होनेके कारण इसे पापसे किसी प्रकार भी अधिक नही समझते । इसके प्रलोभनसे बचनेके लिए वह सदा इसकी अनिष्टताका विचार करते है। परन्तु इसका यह अर्थ नहीं कि यह सर्वथा
पुण्य व पापमें पारमार्थिक समानता दोनों मोह व अज्ञानकी सन्तान है। परमार्थसे दोनों एक है।
दोनोंकी एकतामे दृष्टान्त । ४ दोनों ही बन्ध व संसारके कारण है।
दोनों ही दुःखरूप या दुःखके कारण है।
दोनों ही हेय है, तथा इसका हेतु । ७. दोनोंमें भेद समझना अज्ञान है।
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पुण्यकी कथंचित् अनिष्टता पुण्य कथंचित् विरुद्ध कार्य करनेवाला है।
-दे० चारित्र/५/५। संसारका कारण होनेसे पुण्य अनिष्ट है। शुभ भाव कथंचित् पापबन्धके भी कारण हैं। वास्तवमें पुण्य शुभ है ही नहीं। अशानीजन ही पुण्यको उपादेय मानते है। शानी तो पापवत् पुण्यका भी तिरस्कार करते है। शानी पुण्यको हेय समझता है। शानी व्यवहार धर्मको भी हेय समझता है।
-दे० धर्म/2/11 | शानी तो कथचित् पापको ही पुण्यसे अच्छा सम
झता है। | मिथ्यात्वयुक्त पुण्य तो अत्यन्त अनिष्ट है हो।। ९ मिथ्यात्वयुक्त पुण्य तीसरे भव नरकका कारण है।
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| पुण्यकी कथंचित् इष्टता १ पुण्य व पापमें महान् अन्तर है। २ । इष्ट प्राप्तिमें पुरुषार्थसे पुण्य प्रधान है।
जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश
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