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पिच्छिका
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पिशाच
२. पिंडस्थ ध्यानको पाँच धारणाएँ
१.पिंडस्थ ध्यानकी विधिमें पाँच धारणाओंका निर्देश ज्ञा /३७/२-३ पिण्डस्थ पञ्च विज्ञेया धारणा वीरवर्णिता'। सयमी यास्वस्मुढो जन्मपाशान्निकृन्तति ।। पार्थिवी स्यात्तथाग्नेगी श्वसना वाथ वारुणी। तत्त्वरूपवती चेति बिज्ञयास्ता यथाक्रमम 1३ = पिंडस्थ ध्यानमे श्री वर्धमान स्वामीसे कही हुई जो पॉच धारणाएँ है, उनमें सयमी मुनि ज्ञानी होकर ससार रूपी पाशको काटता है ।२। वे धारणाएँ पार्थिवी, आग्नेयी तथा श्वसना, वारुणी और तत्त्वरूपवती ऐसे यथाक्रमसे होती है ।२-३ (त अनु १८३) । २. पाँचों धारणाओंका संक्षिप्त परिचय त. अनु /१८४-१८७ आकार मरुता पूर्य कुम्भित्वा रेफवह्निना। दग्ध्वा स्ववपुषा कम, स्वतो भस्म विरेच्य च ।१८४। ह मत्रो नभसि ध्येय क्षरन्नमृतमात्मनि । तेनाऽन्यत्तद्विनिर्माय पीयूषमयमुज्ज्वलम् ॥१८॥ तत' पञ्चनमस्कार पञ्चपिण्डाक्षरान्वित । पञ्चस्थानेषु विन्यस्तै विधाय सकला क्रियाम।१८६। पश्चादात्मानमहन्त ध्यायेन्निर्दिष्टलक्षणम् । सिद्ध वा ध्वस्त कर्माणममूत ज्ञानभास्वरम् १८७१ - (नाभिकमलकी कणिकामें स्थित ) अर्ह मन्त्रके 'अ' अक्षरको पूरक पवनके द्वारा पूरित और ( कुम्भक पवनके द्वारा) कुम्भित करके, रेफ () की अग्निसे ( हृदयस्थ ) कर्मचक्रको अपने शरीर सहित भस्म करके और फिर भस्मको ( रेचक पवन द्वारा ) स्वयं विरेचित करके 'ह' मन्त्रको आकाशमें ऐसे ध्याना चाहिए कि उससे आत्मामे अमृत कर रहा है और उस अमृतसे अन्य शरीरका निर्माण होकर वह अमृतमय और उज्ज्वल बन रहा है। तत्पश्चात पंच पिडाक्षरों (हाँ ह्री ह.ह्रौ ह्र), से ( यथाक्रम) युक्त और शरीरके पॉच स्थानोंमें विन्यस्त हुए पच नमस्कार मन्त्रोसे-(णमो अरहताण आदि पॉच पदोसे) सकल क्रिया करके तदनन्तर आत्माको निर्दिष्ट लक्षण अर्हन्त रूप ध्यावे अथवा सकलकर्म-रहित अमूर्तिक और ज्ञानभास्कर ऐसे सिद्ध स्वरूप ध्यावे ॥१८४-१८७।-विशेष दे० वह वह नाम ।
३. तत्त्ववती धारणाका परिचय ज्ञा./३७/२६-३० मृगेन्द्रविष्टरारूढ दिव्यातिशयसंयुतम् । कल्याणमहिमोपेत देवदैत्योरगाचितम् ॥२६॥ विलीनाशेषकर्माणं स्फुरन्तमतिनिर्मलम् । स्व तत पुरुषाकार स्वाङ्गागर्भगतं स्मरेत् ।३०।-तत्पश्चात (वारुणी धारणाके पश्चात् ) अपने आत्माके अतिशय युक्त, सिहासनपर आरूढ, कल्याणकी महिमा सहित, देव दानव धरणेन्द्रादिसे पूजित है ऐसा चिन्तवन करै ।२६। तत्पश्चात विलय हो गये हैं आठ कर्म जिसके ऐसा स्फुरायमान अति निर्मल पुरुषाकार अपने शरीरमे प्राप्त हुए अपने आत्माका चिन्तवन रै। इस प्रकार तत्त्वरूपवती धारणा कही गयी।३०। (ज्ञा०/३७/२८) । * अहेन्त चिन्तवन पदस्थ आदि तीनों ध्यानों में
होता है-दे० ध्येय। ४. पिण्डस्थ ध्यानका फल ज्ञा./३७/३१ इत्य विरत स योगी पिण्डस्थे जात निश्चलाभ्यास'। शिवसुखमनन्यसाध्य प्राप्नोत्यचिरेण कालेन ।३१। इस प्रकार पिण्डस्थ ध्यानमें जिसका निश्चल अभ्यास हो गया है वह ध्यानी मुनि अन्य प्रकारसे साधने में न आवे ऐसे मोक्षके सुखको शीघ्र ही प्राप्त होता
है।३१॥ पिच्छिकाभ. आ/मु./१८ रयसेयाणमगहणं मद्दव सुकुमालदा लघुत्तं च । जत्थेदे पच गुणा तं पडिलिहण पसंसति ।१८। जिसमें ये पाँच गुण हैं उस
गोधनोपकरण पिच्छिक गादिकी साधुजन प्रशंसा करते है-धुलि
और पसेवमे मैलीन हो, कोमल हो, कडी न हो। अर्थात् नमनशील हो, और हलकी हो। (म. आ /६१०)।
२. पिच्छिकाकी उपयोगिता भ. आ./मू./१७-१८ इरियादाणणिखेचे विवेगठाणे णिसीयणे सयणे ।
उव्वत्तण परिवत्तण पसारणा उटणामस्से ।।६। पडिलेहणेण पडिलेहिज्जइ चिण्ह च होइ सगपक्खे। विस्सासिय च लिग संजदपडिरूवदा चेव ।१७। जब मुनि बैठते है, खडे हो जाते है, सो जाते है, अपने हाथ और पॉव पसारते है, सकोच लेते है, जब वे उत्तानशयन करते है, कर्वट बदलते है, तब वे अपना शरीर पिच्छिकासे स्वच्छ करते है।६। पिच्छिकासे ही जीव दया पाली जाती है। पिच्छिका लोगोमे यति विषयक विश्वास उत्पन्न करनेका चिह है। तथा पिच्छिका धारण करनेसे वे मुनिराज प्राचीन मुनियो के प्रतिनिधि स्वरूप है, ऐसा सिद्ध होता है ।१७। (मू आ /१११)। मू.आ/8१२,६१४ उच्चार पस्सवण णिसि सुत्तो उट्टिदोह काऊण । अप्पडिलिहिय सुवतो जीववहं कुणदि णियदतु ।।१२। णाणे च कमणादाणणिक्खेवे सयणासण पयत्ते । पडिलेहणेण पडिले हिज्जइ लिग च होइ सपक्खे । (४)। -रातमे सोतेसे उठा फिर मलका क्षेपण मूत श्लेष्मा आदिका क्षेपणकर सोधन बिना किये फिर सो गया ऐसा साधु पीछीके बिना जीवहिसा अवश्य करता है।६६२। कायोत्सर्गमें गमनमे कमडलु आदिके उठानेमें, प्रस्तकादिके रखने में, शयनमें, झूठनके साफ करनेमे यत्नसे पीछीकर जीवोकी हिसा की जाती है,
और यह मुनि मयमी है ऐसा अपने पक्षमे चिह्न हो जाता है ।।१४। पिठरपाक-वैशेषिक दर्शनका एक सिद्धान्त।
यक-आकाशोपपन्न देव-दे० देव/11/३। पित्त-औदारिक शरीरमें पित्त धातु निर्देश-दे० औदारिक१/७ ।
पिपासा-१. पिपासा परीषहका लक्षण स सि /६/६/४२०/१२ विरुद्धाहारगृष्मातपपित्तज्वरानशनादिभिरुदीर्णा शरीरेन्द्रियोन्माथिनो पिपासा प्रत्यानाद्रियमाणप्रतिकारस्य पिपासानलशिखा धृतिनवमृदुघटपूरितशीतलसुगन्धिसमाधिवारिणा प्रशमयत पिपासामहनं प्रशस्यते। -जो अतिरूक्ष आदि विरुद्ध आहार, ग्रीष्म कालीन आतप, पित्तज्वर और अनशन आदिके कारण उत्पन्न हुई तथा शरीर और इन्द्रियोका मंथन करनेवाली पिपासाका प्रतिकार करने में आदर भाव नही रखता और पिपासारूपी अग्निको सन्तोषरूपी नूतन मिट्टीके घडेमे भरे हुए शीतल सुगन्धि समाधि रूपी जलसे शान्त कर रहा है उसके पिपासाजय प्रशसाके योग्य है । (रा वा /8/8/३/६०८/२४ ), (चा सा./११०/३)।
* क्षुधा व पिपासा परीषहमें अन्तर- धा। पिशाच-कायोत्सर्गका एक अतिचार-दे० व्युत्सर्ग/१ । पिशाच-* पिशाचोंके वर्ण परिवार अवस्थानादि
-दे० व्यंतर/१/२। १.पिशाचोंके भेद ति प./६/४८-४६ कुमंडजवरवरकरवससं मोहा तारआ य चोक्खकरवा । कालमहकाल चोक्खा सतालया देहमहदेहा ४८। तुहिअपवयणणामा ... कुष्माण्ड, यक्ष, राक्षस, समोह, तारक, अशुचिनामक काल, महाकाल, शुचि, सतालक, देह, महादेह, तूष्णीक, और प्रवचन नामक, इस प्रकार ये चौदह पिशाचोके भेद है।४८-४६ । (ति सा./ २७१-२७२)।
जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश
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