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पुण्य
३. पुण्यकी कथंचित् अनिष्टता
शिवहेतु.॥१०३। क्योकि सर्वज्ञदेव समस्त (शुभाशुभ) कर्मको अविशेषतया बन्धका साधन कहते है, इसलिए उन्होने समस्त ही काँका निषेध किया है। और ज्ञानको ही मोक्षका कारण कहा है। (प. ध /उ./३७४) । पं. ध /उ./७६३ नेह्य प्रज्ञापराधत्वान्निर्जराहेतुरङ्गत । अस्ति नाबन्धहेतुर्वा शुभो नाप्यशुभावहात ७६३। -बुद्धिकी मन्दतासे यह भी आशंका नही करनी चाहिए कि शुभापयोग एकदेशसे निर्जराका कारण हो सकता है। कारण कि, निश्चयनयसे शुभोपयोग भी ससारका कारण होनेसे निर्जरादिकका हेतु नही हो सकता और न वह शुभ ही कहा जा सकता है।
५. दोनों ही दुःखरूप या दुःखके कारण है स. सा./मू./४५ अट्ठविहं पिय कम्म सव्य पुग्गलमय जिणा विति। जस्स फलं त बुच्चइ दुवं ति विपच्चमाणस्स ।४५ - आठो प्रकारका कर्म सब पुद्गलमय है, तथा उदयमें आनेपर सबका फल दुख है, ऐसा जिनेन्द्र भगवान ने कहा है। (प ध/उ./२४०)। प्र. सा./मू /७२-७५ णरणारयतिरियसुरा भजति जदि देहस भव दुक्ख ।
कि सो महो वा असुहो उबओगो हवदि जीवाण ७ि२। कुलिसाउहचक्कधरा मुहोवोगप्पगेहि भोगेहि । देहादीण विद्धि कर ति सुहिदा इवाभिरदा ।७३। जदि सति हि पुयाणि य परिणामसमुभवाणि विविहाणि । जणयति विसयतण्हं जोवाण देवतान्ताना ७४। ते पुण्ण उदिण्णतिण्हा दुविहा तण्हाहि विसयसोक्वाणि । इच्छन्ति अणुभवति य आमरण दुक्खस तत्ता ।७५॥ = मनुष्य, नारकी, तिर्यच और देव सभी यदि देहात्पन्न दुखको अनुभव करते हैं तो जीबोका वह ( अशुद्ध) उपयोग शुभ और अशुभ दो प्रकारका कैसे हो सकता है ।७२। बज्रधर और चक्रधर (इन्द्र व चक्रवर्ती) शुभापयोगमूलक भोगोके द्वारा देहादिकी पुष्टि करते है ओर भागोमें रत वर्तते हुए सुखो-जैसे भासित हाते है ।७३। इस प्रकार यदि पुण्य नामकी कोई वस्तु विद्यमान भा है तो वह देवो तकके जावाका विषय तृष्णा उत्पन्न करते है ।७४। और जिनकी तृष्णा उदित है ऐसे वे जीव तृष्णाओके द्वारा दु.खी होते हुए मरण पर्यन्त विषयसुखोको चाहते है, और दु खोसे सन्तप्त होते हुए और दुखदाहको सहन न करते हुए उन्हे भोगते है ।७३ ( देवादिकाके वे सुख पराश्रित, बाधासहित और बन्धके कारण होनेसे वास्तवमे दु ख
ही है-दे० मुख/१)। यो.सा./अ./६/२५ वर्मतोऽपि भवो भोगो दत्ते दु खपरम्परा। चन्दनादपि सपन्न' पावक, प्लोषते न किम् ।२५। जिस प्रकार चन्दनसे उत्पन्न अग्नि भी अवश्य जलाती है, उसी प्रकार धर्मसे उत्पन्न भो भोग
अवश्य दु:ख उत्पन्न करता है। पं.घ./उ./२५० न हि कर्मोदय कश्चित् जन्तार्य. स्यात्सुखावह. । सर्वस्य कर्मणस्तत्र वैलक्षण्याव स्वरूपतः ।२५०1 = कोई भी कर्मका उदय ऐसा नही जो कि जीवको सुख प्राप्त करानेवाला हो, क्योकि स्वभावसे सभी कर्म आत्माके स्वभावसे विलक्षण है। मो. मा, प्र./४/१२१/११ दोन्यौ हो आकुलताके कारण है, तातै बुरे ही है। ...परमार्थत जहाँ आकुलता है तहाँ दुख ही है, तातै पुण्यपापके उदयको भला-बुरा जानना भ्रम है। दे० सुरख/१ ( पुण्यसे प्राप्त लौकिक सुख परमार्थ से दु ख है।)
६. दोनों ही हेय हैं तथा इसका हेतु स. सा./मू./१५० रत्तो बधदि कम्म मचदि जीवो विरागस पत्तो। एसो जिणोवदेसो तम्हा कम्मेसु मा रज्ज ।१५०। -रागी जीव कर्म बांधता है और वैराग्यको प्राप्त जीव कर्मसे छूटता है, यह जिनेन्द्र भगवानका उपदेश है। इसलिए तू कर्मोमें प्रीति मत कर ।
अर्थात समस्त कर्मोका त्याग कर । (और भी दे० पुण्य/२/३ मे स.सा./
आ/१४७, तथा पुण्य/२/४ मे स सा/आ/१५०/क १०३)। स, सा /आ./१६३/क.१०६ संन्यस्तमिदं समस्तमपि तत्कर्मव मोक्षाथिना, सन्यस्ते सति तत्र का किल कथा पुण्यस्य पापस्य वा। सम्यक्त्वादिनिजस्वभावभवनान्मोक्षस्य हेतुर्भवत्, नैष्कर्म्यप्रतिबद्धमुद्धतरस ज्ञानं स्वय धावति ।१०।। -मीक्षार्थीको यह समस्त ही कर्ममात्र त्याग करने योग्य है। जहाँ समस्त कर्मोंका त्याग किया जाता है, तो फिर वहाँ पुण्य व पाप ( को अच्छा या बुरा कहने) की क्या बात है। समस्त कर्मोका त्याग होनेपर, सम्यक्त्वादि अपने स्वभावरूप होनेसे, परिणमन करनेसे मोक्षका कारणभूत होता हुआ, निष्कर्म अवस्थाके साथ जिसका उद्धतरस प्रतिबद्ध है, ऐसा ज्ञान
अपनेआप दौडा चला आता है। स सा./आ/१५० सामान्येन रक्तत्वनिमित्तत्वाच्छ्रभमशुभमुभयकर्माविशेषेण बन्धहेतु साधयति, तदुभयमपि कर्म प्रतिषेधयति ।
-सामान्यपने रागीपनकी निमित्तताके कारण शुभ व अशुभ दोनो कर्मोको अविशेषतया बन्धके कारणरूप सिद्ध करता है, और इसलिए (आगम) दोनो कर्मोंका निषेध करता है। प्र. सा./त. प्र./२१२ यतस्तदविनाभाविना अप्रयताचारत्वेन प्रसिद्ध्यद
शुद्धोपयोगसद्भाव षट्कायप्राणव्यपरोपप्रत्ययवन्धप्रसिद्ध्या हिसक एव स्यात् । ततस्तैस्त. सर्वप्रकार शुद्धोपयोगरूपोऽन्तरगच्छेद: प्रतिषेध्यो यैर्यस्तदायतनमात्रभूत. प्राणव्यपरोपरूपो बहिरङ्गच्छेदो दूरादेव प्रतिषिद्ध स्यात। --जो अशुद्धोपयोगके बिना नही होता ऐसे अप्रयत आचारके द्वारा प्रसिद्ध (ज्ञात ) होनेवाला अशुद्धोपयोगका सद्भाव हिसक ही है, क्योकि, तहाँ छह कायके प्राणोके व्यपरोपके आश्रयसे होनेवाले बन्धकी प्रसिद्धि है। (दे० हिसा/१)। इसलिए उन-उन सर्व प्रकारोसे अशुद्धोपयोगरूप अन्तर गच्छेद निषिद्ध है, जिन-जिन प्रकारोसे कि उसका आयतनमात्रभूत परप्राणव्यपरोपरूप बहिर गच्छेद भी अत्यन्त निषिद्ध हो । इ.स./टो./३८/१५६/७ सम्यग्दृष्टेर्जीवस्य पुण्यपापद्वयमपि हेयम् ।
सम्यग्दृष्टि जीवके पुण्य और पाप दोनो हेय है । (पं. का./ता, वृ./१३९/१६४/१४)। पं.ध./उ./३७४ उक्तमाक्ष्य सुखं ज्ञानमनादेयं दृगारमन । नादेय कर्म
सर्व च तद्वद् दृष्टोण्लन्धित. ३७४। जैसे सम्यग्दृष्टिको उक्त इन्द्रियजन्य सुख और ज्ञान आदेय नही होते है, वैसे ही आत्मप्रत्यक्ष होनेके कारण सम्पूर्ण कर्म भी आदेय नही होते है।
७. दोनों में भेद समझना अज्ञान है प्र. सा/मू./७७ ण हि मण्णदि जो एव णत्थि विसेसो त्ति पुण्णपावाणं । हिडदि घोरमपार ससार मोहस छन्नो ७७) ='पुण्य और पाप इस प्रकार कोई भेद नहीं है' जो ऐसा नही मानता है, वह मोहाच्छादित होता हुआ घोर अपार संसारमें परिभ्रमण करता है। (प.प्र./मू/२/५५) । यो सा./अ/१६ सुखदु खविधानेन विशेष' पुण्यपापयो । नित्यं सौख्यमपश्यद्भिर्मन्यते मन्दबुद्धिभि ।। -अविनाशी निराकुल सुखको न देखनेवाले मन्दबुद्धिजन ही सुख व दुखके करणरूप विशेषतासे पुण्य व पापमें भेद देखते है।
३. पुण्यकी कथंचित् अनिष्टता
.. ससारका कारण होनेसे पुण्य अनिष्ट है स सा./मू./१४५ कम्ममसुह कुसील सुहम्मं चावि जाणह सुसील । कह त होदि सुसील ज ससार पवेसेदि ।१४५। -अशुभम कुशील है और शुभकर्म सुशील है, ऐसा तुम (मोहबश) जानते हो।
जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश
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