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प्रेतिक्रमण
अनुभव व रागादि रूप अतिक्रमण दो प्रकारका है- द्रव्य व भाव अप्रतिक्रमण ।
ससा / २९४-२८५ अतीतकाल मे जो पर द्रव्योका ग्रहण " किया था उनको वर्तमानमे अच्छा जानना, उनका संस्कार रहना, उनके प्रति ममत्वभावका होना सो द्रव्य अप्रतिक्रमण है । उन द्रव्योके निमित्तसे जो रागादि भाव ( अतीत कालमे ) हुए थे, उनको वर्तमान में भले जानना, उनका संस्कार रहना, उनके प्रति ममत्व भाव रहना सो भाव अप्रतिक्रमण है ।
२. प्रतिक्रमण विधि
१. आदि व अन्त तीर्थों में प्रतिक्रमणकी नितान्त आवश्यकता
म् आ / ६२८,६३० इरियागोयरसुमिणादिसव्वमाचरदु मा व आचरदु । पुरिमचरिमादु सव्वे सव्वं णियमा पडिकमंदि । ६२८| पुरिमचरिमादु जम्हा चलचित्ता चैव मोहलक्खा य । तो सव्व पडिक्कमण अधलघोडयोि ३० ऋषभदेव और महावीर प्रभुके शिष्य इन सब ईर्यागोचरी स्वप्नादिसे उत्पन्न हुए अतीचारोको प्राप्त हो अथवा मत प्राप्त हो तो भी प्रतिक्रमणके सत्र दडकोको उच्चारण करते हैं ६२॥ आदि अन्तके तोर्थ करके शिष्य चलायमान चित्त वाले होते है, मूढ बुद्धि होते है इसलिए वे सब प्रतिक्रमण दण्डक उच्चारण करते है । इसमें अन्धे घोडेका दृष्टान्त है कि सब ओषधियो के करने से वह सूझता है । ६३० (मु.आ./६२६) (म. आ / वि. / ४२१२ / ६१६/५) | २. शिष्यों का प्रतिक्रमण आलोचना पूर्वक और गुरुका आलोचना के बिना ही होता है
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सू. आ./६१० काऊ म किदिया पहिय अजलीकरणदो आतोचि सुविहिदो गारव माण च मोतून ६१० विनयकर्म करके, शरीर आसनको पीछी व नेत्र शुद्ध करके, अंजलि क्रियामें सुख हुआ निर्मप्रवाशा साधु ऋद्धि आदि गौरव और जाति आदिके मानको छोड़कर गुरुसे अपने अपराधोका निवेदन करे | ६१८ | रा० वा./१/२२/४/६२१/२२ इदमयुक्त वर्तते । 'किमत्रायुक्तम् । अनालोचयत' न किचिदपि प्रायश्चित्तम्' इत्युक्तम्, पुनरुपदिष्टम् – 'प्रति क्रमणमात्रमेव शुद्धिकरम्' इति एतदयुक्तम् । अथ तत्राप्यालोचनापूर्वमभ्युपगम्यते भव्यर्थ ने दोष सर्व प्रति मालोचनापूर्वकमेव किंतु पूर्व गुरुणाम्यनुज्ञात शिष्येव कर्त्तव्यम् इदं पुनर्गुरुणेवानुष्ठेयम् । शका - पहिले कहा है आलोचना किये बिना कुछ भी प्रायश्चित्त नहीं होता और अब कह रहे है कि प्रतिक्रमण मात्र हो शुद्धिकारी है। इसलिए ऐसा कहना अयुक्त है। यहाँ भी आलोचना पूर्वक ही जाना जाता है इसलिए तदुभय प्रायश्चित्तका निर्देश करना व्यर्थ है । उत्तर- यह कोई दोष नही है वास्तव में सभी प्रतिक्रमण आलोचना पूर्वक हो होते है। किन्तु यहाँ इतनी विशेषता है कि तदुभय प्रायश्चित गुरुकी आज्ञा शिष्य करता है । जहाँ केवल प्रतिक्रमणसे दोप शुद्धि होती है वहाँ वह स्वयं गुरुके द्वारा ही किया जाता है, क्योकि गुरु स्वय किसी अन्य से आलोचना नहीं करता ।
३. अल्प दोष में गुरु साक्षी आवश्यक नहीं
घ. १३/५,४,२६/६०/६० ए६ ( पडिक्कमण पायच्छित्त ) कत्थ होदि । अप्पाराहे गुरुहि विणा मागहि होदि जब अपराध छोटा सा हो और गुरु समीप न हो, तब यह (प्रतिक्रमण नामका प्रायश्चित है। चा, सा./१४१/४ अस्थिताना योगाना धर्मकथादिव्याक्षेप हेतुसं निधानेन
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२. प्रतिक्रमण विधि
विस्मरणे सरपालोचन पुनरनुष्ठायकस्य स वेग मिर्वेदपदस्य गुरुविरहित स्यास्यात्पापराधस्य पुनर्न करोमि मिथ्या मे दुष्कृतमित्येवमादिभिषा दर्शन प्रतिक्रमण धर्म कथादिमें कोई विघ्न के कारण उपस्थित हो जानेपर यदि कोई मुनि अपने स्थिर योगोको स जाय तो पहिले आलोचना करते हैं और फिर वे यदि संवेग और वैराग्यमें तत्पर रहे समीपमें गुरु न हो तथा छोटा सा अपराध लगा हो तो मै फिर कभी ऐसा नही करूंगा यह मेरा पापमिष्या हो' इस प्रकार दोषो से अलग रहना प्रतिक्रमण कहलाता है।
४. प्रतिक्रमण करनेका विषय व विधि
यू. आ / ६१६-६१० पडिक मिदन्दव्यं सच्चिसाचित्त मिरिय तिथि प्रेयं च गिहावीय कालो दिवसादिकासह २११६ मि परिक्रमण वह चैन अजमे परिक्रमण कसाएस परिक्रमण लोगे य अप्पसरथे ॥ ६१० सचित अचित मित्ररूप जो त्यागने योग्य द्रव्य है वह प्रसिमित है, पर आदि क्षेत्र है. दिवस मुहूर्त आदि काल है। जिस द्रव्य आदिसे पापास्रव हो वह त्यागने योग्य है । ६१६ । मिथ्यात्वका प्रतिक्रमण, उसी तरह असंयमका प्रतिक्रमण, क्रोधादि कषायोका प्रतिक्रमण, और योगोका प्रतिअशुभ क्रमण करना चाहिए । ६१७ | ०प्रतिक्रमण / २/२ (गुरु समक्ष विनय सहित शरीर व आसनको पीछी व नेत्र से शुद्ध करके करना चाहिए ) ।
दे० कृति कर्म / ४ ( देवसिकादि प्रतिक्रमणमे सिद्ध भक्ति आदि पाठोका उच्चारण करना चाहिए ) ।
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मु. आ./६६३-६६ ते पाणे गारेचनुमासिवरिपरिमेसु । पाऊण ठति धीरा घणिदं दुक्खनखयद्वाए | ६६३० का ओहद चितिदु इरियग्वधस्स अतिचार । तं सव्वं समाणित्ता धम्म सुक्क च पिज्जत दिवसिय पिखियचद्मासिव रिसपरिमे तं सव्वं समाणित्ता धम्मं सुवक च झायेज्जो | ६६५। भक्त पान ग्रामान्तर, चातुर्मासिक, वार्षिक उत्समार्थ जानकर धीर पुरुष अतिशय कर दुखके क्षय निमित्त कायोत्सर्गमे तिष्ठते है ।६६३ ॥ कायोत्सर्गमे मिला. ईधि अतिचारके नाशको चितवन रा मुनि उन सब नियमोको समाप्तकर धर्मध्यान और शुक्लध्यान चिन्तयन करो। ६६४| इसी प्रकार देवसिक रात्रिक, पाक्षिक, चातुवार्षिक उत्समार्थ इन सब नियमोको पूर्ण कर धर्मध्यान और शुक्लध्यान ध्यावै ॥ ६६५॥
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५. प्रतिक्रमण योग्य काल
३० प्रतिक्रमण / १/३ दिन रात्रि, पक्ष, वर्ष व आके अन्तमे देव सिकादि प्रतिक्रमण किये जाते है। )
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अन घ. / १/४४ योगप्रतिक्रमविधि प्रागुक्तो व्यावहारिक । कालक्रमनियमोऽत्र न स्वाध्यायादिवद्यत 1४४| = रात्रि योग तथा प्रतिक्रमणका जो पहले विधान किया गया है, वह व्यावहारिक है क्योंकि इनके विषय का क्रमका अर्थात् सममानुपूर्वीका या काल और क्रमका नियम नहीं है। जिस प्रकार स्वाध्यायादि ( स्वाध्याय, देव वन्दन और भक्त प्रत्याख्यान ) के विषयमे काल और क्रम नियमित माने गये है उस प्रकार रात्रियोग और प्रतिक्रमणके विषय में नही ॥४४॥
★ प्रतिक्रमणमें कायोत्सर्गके कालका प्रमाण
★ प्रतिक्रमण प्रायश्चित्त किसको तथा प्रतिक्रमणके अतिचार
जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश
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- दे० व्युत्सर्ग / १ | कब दिया जाता है,
-- दे० प्रायश्चित /४/२ ।
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