________________
प्रतिक्रमण
1
वह मोचूण बिराह विशेष सो पडिकगण उमर पडिकमणमओ हवे जम्हा | ४| वचन रचनाको छोडकर, रागादि भावोका निवारण करके, जो आत्माको ध्याता है, उसे प्रतिक्रमण होता है। जो (जीव) विराधनाको विशेषत छोडकर आराधनाने वर्तता है, वह (जीव ) प्रतिक्रमण कहलाता है, कारण कि वह प्रतिक्रमण इसी प्रकार अनाचारको छोड़कर आचारमे, उगमार्गका त्याग करके जिनमार्गमे, शल्य भावको छोड़कर नि राज्य भाव से, arrant छोडकर त्रिगुप्ति गुप्तसे, आर्त-रौद्र ध्यानको छोडकर धर्म अथना शुभ ध्यानको मध्यादर्शन आदिको छोड़कर सम्यकदर्शनको भाता है वह जीव प्रतिक्रमण है । (नि सा./मू./८५-१९ ) । भ.आ./वि/१०/४६/१०] कृतातिषारस्य यतस्तद विचारपराङ्मुखतो योगत्रयेण हा दुष्टं कृतं चिन्तितमनुमन्तं चेति परिणाम. प्रतिक्रमणम् । - जब मुनिको चारित्र पालते समय दोष लगते हैं तब, मन बचनयोगसे मैने हा । दुष्ट कार्य किया कराया व करनेवालोंका अनुमोदन किया यह अयोग्य किया ऐसे आत्माके परिणामको प्रतिक्रमण कहते है।
२. निश्चय नयकी अपेक्षा
नि. सा. // उत्तमत्र आदा हि हिदा हदि सुणिवराकम् । तम्हा दु झाणमेव हि उत्तम अट्ठस्स पडिकमणं । उत्तमार्थ ( अर्थात् उत्तम पदार्थ सच्चिदानन्द रूप कारण समयसार स्वरूप ) आत्मामें स्थित मुनिवर कर्मका घात करते हैं, इसलिए ध्यान ही वास्तव में उत्तमार्थ का प्रतिक्रमण है । ८२ । ( न च वृ./ ३४६ ) ति. प./१/४६ पडिकमणं पडिसरणं पडिहरणं धारणा णियत्ती य । जिंदगरुणसोही सम्मति मियादभानगर ४६| निजात्मा भावनासे प्रतिक्रमण, प्रतिसरण, प्रतिहरण, धारणा, निवृत्ति, निन्दन, गई और शुद्धिको प्राप्त हो ॥४६॥ यो सा. ब/२/५० कुताना कर्मणा पूर्व सर्वेषां पाकमी आत्मीय परित्याग प्रतिक्रमणमीर्यते ५०० पहिले किये हुए कमोंके प्रदत्त फलोको अपना न मानना प्रतिक्रमण कहा जाता है ।५०
-
प्र साता २००/२८९/१४ निजामपरिणतिलक्षणा या तु क्रिया सा निश्चयेन बृहत्प्रतिक्रमणा भण्यते । निज शुद्धात्म परिणति है लक्षण जिसका ऐसी जो किया है, वह निश्चय नयसे बृहत्पतिक्रमण कही जाती है ।
३. प्रतिक्रमणके भेद
१. देवसिक आदिकी अपेक्षा
म. आ / १२०,६१३ पढमं सव्वदिचारं विदियं तिविह हवै पडिकमणं । पास्त्र परिचय जानीबुतम च । १२० पडिकमण देवसियं रादिय हरियाणा में मोधव्न पनिलय चादुम्मासय संवारगुप्तमट्ठच । ६१३॥ पहला सर्वातिचार प्रतिक्रमण है अर्थात् दीक्षा ग्रहण से लेकर सब तपश्चरण के कालतक जो दोष लगे हो उनकी शुद्धि करना, दूसरा त्रिविध प्रतिक्रमण है वह जलके बिना तीन प्रकारका आहारका त्याग करनेमें जो अतिचार लगे थे उनका शोधन करना और तीसरा उत्समार्थ प्रमण है उसमें जीवन पर्यंत जलपीनेका त्याग किया था, उसके दोषोकी शुद्धि करना है, ।१२० | अनिपारोसे निवृत्ति होना यह प्रतिक्रमण है वह देवसिक रात्रिक ऐपिक, पाक्षिक चतुर्मासिक, सांवत्सरिक, और उत्तमार्थ प्रतिक्रमण ऐसे सात प्रकार है /११३/ (क. पा १), (२.९/६०० / ९९३/६) ( गो. जी / जी. प्र / ३६७/७१०/३ ) ।
२. द्रश्य क्षेत्र आदिकी अपेक्षा
भ. आ
/११६/२०५ / १४ प्रतिक्रमणं प्रतिनिवृत्ति पोडा भियते नामस्थापनादव्यक्षेत्रकालभावविकल्पेन । केषाचिद्वयाख्यान । चतुर्वि
११६
Jain Education International
१. भेद व लक्षण
धमित्यपरे ।
अशुभसे निवृत्त होना प्रतिक्रमण है, उसके छह भेद है - नाम, स्थापना, द्रव्य, क्षेत्र, काल और भाव प्रतिक्रमण । ऐसे कितने आचार्यों का मत है । कोई आचार्य प्रतिक्रमणके चार भेद कहते है ।
४. नाम स्थापनादि प्रतिक्रमणका लक्षण भ.आ./वि./ ११६/२७५/१४ अयोग्यनाम्नामनुच्चारणं नामप्रतिक्रमणं । • आप्ताभासप्रतिमायां पुरः स्थिताया यदभिमुखतया कृताञ्जलिपुटता, शिरोवनति न कर्तव्यम् एवं सा स्थापना पराभवति स स्थावरस्थापनानामविनाशनं अमई में अतानं वा परिहारप्रतिक्रमण गमोत्पादने षणादोषदुष्टन मसतीनां उपकरणानों, भिक्षाणां च परिहरणं अयोग्याना चाहारादीना, गुदस्य च कारणानां सक्तेाहेतुनां वा निरसने व्यतिक्रमण उदककई मनसस्थावर निचितेषु क्षेत्रेषु गमनादिवर्जनं क्षेत्रप्रतिक्रमणं । यस्मिन्मा क्षेत्रे वसतो रत्नत्रयहानिर्भवति तस्य वा परिहार । ... रात्रिध्यात्रयस्वाध्यायावश्यक कालेषु गमनागमनादिव्यापाराकारणात् कालप्रतिक्रमणं । आर्स शुभपरिणामा पुण्याभूताश्च शुभ परिणामा; इह भावशब्देन गृह्यन्ते, तेभ्यो निवृत्तिभवप्रतिक्रमण इति । अयोग्य नामोका उच्चारण न करना यह नाम प्रतिक्रमण है। आभासी प्रतिमा के जागे खड़े होकर हाथ जोडना, मस्तक नवाना, द्रव्यसे पूजा करना, इस प्रकार के स्थापनाका त्याग करना, अथवा त्रस, वा स्थावर जीवोकी स्थापनाओ का नाश करना, मर्दन तथा ताडन आदिका त्याग करना स्थापना प्रतिक्रमण है |... उद्गमादि दोष युक्त वसतिका, उपकरण व आहारका त्याग करना. अयोग्य अभिलाषा, उन्मत्तता तथा संक्लेश परिणामको बढाने वाले आहारादिका त्याग करना, यह सब द्रव्य प्रतिक्रमण है । पानी, कीचड, त्रसजीव, स्थावर जीवोसे व्याप्त प्रदेश तथा रत्नत्रयकी हानि जहाँ हो ऐसे प्रदेशका त्याग करना क्षेत्र प्रतिक्रमण है |.. रात्रि, तीनों सन्ध्याओमें, स्वाध्यायकाल, आवश्यक क्रियाके कालो में आने जानेका त्याग करना यह काल प्रतिक्रमण है। आर्त रौद्र इत्यादिक अशुभ परिणाम व पुण्यासवके कारणभूत शुभ परिणामका त्याग करना भाव प्रतिक्रमण है ।
1
भ, आ / वि. / ५०६ / ०२९/१४ हा दुष्कृतमिति वा मन प्रतिक्रमणं सूत्रो कचारणं राज्य प्रतिक्रमणं कायेन रादनाचरणं कायतिक्रम - किये हुए अतिचारोका मनसे त्याग करना यह मन प्रतिक्रमण है। हाय मैने पाप कार्य किया है ऐसा मनसे विचार करना यह मन. प्रतिक्रमण है। सूत्रोका उच्चारण करना यह वाक्य प्रतिक्रमण है । शरीर के द्वारा दुष्कृत्योका आचरण न करना यह कायकृत प्रतिक्रमण है। * आलोचना व प्रतिक्रमण रूप उभय प्रायश्चित - दे० प्रायश्चित्त
५. अप्रतिक्रमणका लक्षण
= -
स. सा./ता, वृ/ २०७/३८६/१७ अप्रतिक्रमण द्विविध भवति शानि नाभि ज्ञानिनाति चेति अज्ञानिनाश्रितं यदप्रतिक्रमणं द्विषयकषायपरिणतिरूपं भवति ज्ञानिजी प्रतिक्रमणं तु शुद्धात्मसम्यकू द्वानामानुष्ठानलक्षणं त्रिशुतिरूपं अतिक्रमण दो प्रकारका है ज्ञानीजनों के आश्रित और अहामी जनो के साभित अज्ञानी जनो के आश्रित जो अप्रतिक्रमण है वह विषय कषायकी परिणति रूप है अर्थात हेयोपादेयके विवेकशून्य सर्वथा अत्याग रूप निरर्गल प्रवृत्ति है । परन्तु ज्ञानी जीवोके आश्रित जो अप्रतिक्रमण है। वह शुद्धात्मा के सम्यग्श्रद्धान ज्ञान व आचरण लक्षण वाले अभेद रत्नत्रयरूप या त्रिगुप्ति रूप है ।
स. सा./ता वृ / २८३/३६३/८ पूर्वानुभूत विषयानुभवरागादिस्मरणरूपमप्रतिक्रमणं द्विविधः द्रव्यभावरूपेण-पूर्वानुभूत विषयका
जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org