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प्रणय-गो, जी / जी, प्र. / ३४/६४/६ बाह्यार्थेषु ममत्वरूप प्रणय' । - बाह्य पदार्थनिविषै ममत्वरूप भाव सो प्रणय कहिए स्नेह है ।
प्रणय
प्रणाम दे० नमस्कार ।
प्रणिधान
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-भ. आ /मू / ११६-११८ / २७१ पणिधाणं पि यदुविहं इंदिय णोई दियं च बोधव्वं । सद्दादि इदियं पुण कोधाईयं भवे इदर | ११६ । सहरसरूपगंधे फासे य मणोहरे य इयरे य । नं रागदोसगमणं पंचवि होदि पणिधाण १११० मोहंदियपणिधाण कोधो माथ तव माया य । लोभो य णोकसाया मणपणिधाणं तु त बज्जे ॥ ११८ - प्रणिधान के इन्द्रिय प्रणिधान नोइन्द्रिय प्रणिधान ऐसे दो भेद है। स्पर्श, रस, गन्ध, वर्ग और शब्द मे इष्ट और अनिष्ट ऐसे दो प्रकार के है। इनसे आत्मामें रागद्वेषकी उत्पत्ति होती है, इसको इन्द्रिय विधान कहते है। स्पर्शनेन्द्रिय रसनेन्द्रिय, मारिद्रय, पशुरिद्रिय और भीप्रेन्द्रिय प्रणिधान ऐसे पाँच भेद है ।११६-११७ क्रोध, मान, माया, लोभ, हास्य, रति, अरति, शोक, भय, जुगुप्सा तथा तीनो वेद, इन सर्वके परिणामोको नोइन्द्रिय प्रणिधान कहते है। (मु. आ. / २६६-३०० ) ।
आ/२१८ पाप म सुनि पस तह आपस च समिदीतु यगुती मसत्यं समम्पसस्यं तु । २६८० - प्रणिधानके भी दो भेद है-शुभ और अशुभ पाँच समिति और तीन मूडियो में जो परि णाम है वे शुभ होते हैं और शेष इन्द्रियविषयो में जो परिणाम है। वह अशुभ है | २६८ा
रा. वा./७/३३/२/५५७/७ दुष्ठु प्रणिधानमन्यथा वा दु प्रणिधानम् |२| प्रणिधानं प्रयोग परिणाम इत्यनर्थान्तरम् पाप्रणिधानं दुःप्रणिधानम्, अन्यथा वा प्रणिधानं दु प्रणिधान तत्र क्रोधादिपरिणामवशाल दृष्ठ प्रणिधानं शरीरावयवानाम् अनिभृतमवस्थानम्, वर्ण संस्काराभावाऽर्थागमकत्व चापलादिवाग्गतम्, मनसोऽनर्पितत्वं
यथा प्रणिधानम् - परिणाम प्रयोग व प्रणिधान मे एकार्यबाची शब्द है । दु प्रणिधानका अर्थ दुष्ट या पापरूप प्रणिधान है या अन्यथा प्रणिधानको दुःप्रणिधान कहते है। तहाँ क्रोधादि कषायोके यश होकर दुष्ट प्रणिधान होता है और शरीरका विचित्र विकृति रूपसे हो जाना, निरर्थक अशुद्ध वचनोका प्रयोग करना और मनका उपयोग न लगना ये अन्यथा प्रणिधान है। ( और भी दे० उपयोग / II / ४ / १, २ तथा मनोयोग / ५ ) ।
न्या. सू/टी./३/२/४३ /२०८ / १४ सुस्मृर्षया मनसो सुस्मूषित लिङ्गचिन्तनं चार्थ स्मृतिकारणम् । मनको एक स्थानमें लगानेका 'नाम' प्रणिधान है। प्रणिधि
मायाका एक भेद - दे० माया / २ ) ।
धारणं प्रणिधानं स्मरणकी इच्छा
प्रतर-१. area अथवा ( Particular unit, २ जगत् प्रतर, राजू प्रतर व तिर्यक् प्रतर दे० गणित / I / २ / ७, १/३ ।
प्रतरसमुद्घात - दे० केवली / ७ | प्रतरांगुल (अगुल ) १ ३० गणित //१/२
प्रतरात्मक अनंत आकाश - Infmite Plane area प्रतिकुंचन-पायाका एक भेद-३० मामा / २० प्रतिक्रमण[—asu ga keegaïk-ks - g ज्ञान / IIT /
प्रतिक्रमण व्यक्तिको अपनी जीवन यात्रामें क्या मश पद पद पर अन्तरग व बाह्य दोष लगा करते है, जिनका शोधन एक श्रेयोare लिए आवश्यक है । भूतकालमे जो दोष लगे है उनके शोधनार्थ प्रायश्चित पश्चाताप व गुरुके समझ अपनी निन्दा-गर्दा करना
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प्रतिक्रमण
प्रतिक्रमण कहलाता है । दिन, रात्रि, पक्ष, मास, सवत्सर आदि में लगे दोषों को दूर करने की अपेक्षा वह कई प्रकार है ।
१. भेद व लक्षण
१ प्रतिक्रमण सामान्यका लक्षण
१. निरुक्तयर्थ
स सि./ १ / १२ / ४४० / ३ मिध्यादुष्कृताभिधानादभिव्यक्तप्रतिक्रिम प्रतिक्रमशस् 'मेरा दोष मिथ्या हो' गुरु ऐसा निवेदन करके अपनी प्रतिक्रिया व्यक्त करना प्रतिक्रमण है । ( रा वा./१/२२/३/६२१/१८ ) (तसा /७/२३६)
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गो. जी जी म/ ३६०/०६०/२ प्रतिक्रम्यादिदोषो निराक्रियते अनेनेति प्रतिक्रमणं । प्रमादके द्वारा किये दोषोका जिसके द्वारा निराकरण किया जाता है, उसको प्रतिक्रमण कहते है । २. दोष निवृत्ति
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रा. वा / ६ / २४/१२/२२०/१२ अतीतदोषनिवर्तनं प्रतिक्रमण
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दोषोकी निवृति प्रतिक्रमण है। (स.सा./ता. ९/३०६/०८/१ ) (भा. पा./टी./००/२२९/१४)।
घ. ८/३.४१/०४ / ६ पंचमहय चउरासीदिवखगुणगणक्लखिए समुपकल पखालणं पडिक्कमणं णाम । चौरासी लाख गुणोके समूहसे संयुक्त पाँच महाव्रतो में उत्पन्न हुए मलको धोनेका नाम प्रतिक्रमण है।
भा आम. ४२९/६१२/१२ अपेतादिकल्पस्थितस्य यद्यतिचारी भवेद प्रतिक्रमणं कर्तव्यमित्येषोऽष्टमः स्थितिकल्प - अचलतादि कल्पमे रहते हुए जो मुनिको अतिचार लगते है उनके निवारणार्थ प्रतिकमण करना अष्टम स्थितिकल्प है ।
२. मिथ्यामें दुष्कृत
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मू. आ./२६ दव्वे खेत्ते काले भावे य किदावराहसोहणय । णिदणगरहणजुत्तो मणवचकायेण पडिक ॥२६॥ द्रव्य क्षेत्र, काल और भाव में किया गया जो व्रतमें दोष उसका शोधना, आचार्यादिके समीप आलोचनापूर्वक अपने दोषोको प्रकट करना, यह मुनिराजका प्रतिक्रमण गुण होता है | २६
नि. सा./मू./१५३ वयणमयं पडिकमणं जाण सज्झाउ | १५३। -वचनमय प्रतिक्रमण यह स्वाध्याय जान ।
ध./१२/५.४.२६/६०/- गुरुणमालोचनाएगा सरवेण निव्वेयस्स पुणो न करेमि ति जमराहादो जिस परिक्रमणं नाम पायच्चिन्त । - गुरुओके सामने आलोचना किये बिना सवेग और निर्वेदसे युक्त साधुका फिर कभी ऐसा न करूँगा यह कहकर अपने अपराधसे निवृत्त होना प्रतिक्रमण नामका प्रायश्चित्त है । ( अन ध / ७ / ४७ ) ( भा. पा. / ७८ / २२३ / ५ ) ।
भा. आ / वि / ६ / ३२ / १६ स्वकृतादशुभयोगात्प्रतिनिवृति प्रतिक्रमण = स्वत के द्वारा किये हुए अशुभ योगसे परावर्त होना अर्थाद 'मेरे अपराध मिथ्या होवे' ऐसा कहकर पश्चात्ताप करना प्रतिक्रमण है । २. निश्चय प्रतिक्रमणका लक्षण
१. शुद्ध नयकी अपेक्षा
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सा. सा. ३ कम्म पुत्रक सहाहमणेयस्थिरविसेस ततो णियत्त अप्पयं तु जो सो पडिक्कमणं । ३८३३ = पूर्वकृत जो अनेक प्रकार के विस्तार वाला शुभ व अशुभ कर्म है, उससे जो आत्मा अपनेको दूर रखता है वह आत्मा प्रतिक्रमण है | ३३
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नि सा/मू./८३-८४ मोत्तूण वयणरयण रागादीभाववरणणं किच्चा । अप्पा जो भार्यादि जस्स दु होदित्ति पडिकमणं |३| आराहणाइ
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