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प्रकृतिवाद
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१४. मूळ उत्तर प्रकृतियों में जघन्योत्कृष्ट बन्ध तथा अन्य सम्बन्धी प्ररूपणाओंकी सूची
विषय
नं.
प्रमाण
१ मूल व उत्तर प्रकृतियोकी स्वस्थान व म.अं. १ / ६५परस्थान सन्निकर्ष प्ररूपणा ।
१३२
स्वस्थान व
२ मूल व उत्तर प्रकृतिके द्रव्य, क्षेत्रादि या प्रकृति प्रदेशादि चार प्रकार बन्ध अपेक्षा उत्कृष्ट जघन्यादि रूप परस्थान सन्निकर्ष प्ररूपणए । ३ सर्व असर्व, उत्कृष्ट - अनुत्कृष्ट, जघन्यअजयन्य, आदि अनादि और धनअध व प्रकृति बन्ध प्ररूपणाओकी ओघ आदेश समुत्कीर्तना ।
४ नाना जीवोकी अपेक्षा उत्तर प्रकृतियो म. बं १ / १३३का भंगविचय |
१४०
घ २/३७०४७६
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म. बं.
३१
१/२६
प्रकृतिवाद- - दे० सांख्य दर्शन ।
प्रक्रम दे० उपक्रम ।
प्रक्रिया - Process, १ Operation, (घ. ५/२० ) । प्रक्षेपक - ( गो जी. / भाषा / ३२६ / ७००/८ का भावार्थ- पर्यायसमास ज्ञानका प्रथम भेद विषै पर्याय ज्ञानतें जितने बंधे तिसने जुदे की ' पर्याय ज्ञानके जेते विभाग प्रतिच्छेद है तौहि प्रमाण इस विमहित जानना । यहु जघन्य ज्ञान है इस प्रमाणका नाम जघन्य स्थाप्या । इस जघन्य जीवराशि मात्र अनंतका भाग दीए जो प्रमाण आवै ताका नाम प्रक्षेपक जानना । इस प्रक्षेपककौ जीवराशि मात्र अनतका भाग दीए जो प्रमाण आवै जो प्रक्षेपक प्रक्षेपक जानना । प्रगणना - घ ११ / ४,२,६, २४६/३४९/१० तत्थ पगणणा णाम इमिस्से
मिस्से द्विदीए मंधकारणवाणि दिदिबंधवाणायाणि एत्तियाणि तियाणि होति ति दिदिबंधक सामट्ठाणाणं प्रमाणं परुवेदि । == प्रगणना नामक अनुयोगद्वार अमुक अमुक स्थिति के बन्धके कारण स्थितिबन्धाध्यवसानस्थान इसने इतने होते है, इस प्रकार स्थितिबन्धाध्यवसानस्थानोके प्रमाणकी प्ररूपणा
करता है।
प्रज्ञप्तिरामनाथ की शासक यक्षिणी ०2/2 २. एक विद्या दे० विद्या ।
१.
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प्रज्ञा - प्रज्ञा व ज्ञानमे अन्तर- दे० ऋद्धि /२/७ ।
प्रज्ञाकरगुप्त - एक बौद्ध भ्रमण था धर्मकीर्ति इसके गुरु थे। प्रमाणवार्तिकाकारको इन्होने रचना की थी। समर्थ सं. १६०-७२० (सि.नि./ प्र.२१/१ महेन्द्र ) |
प्रज्ञापन नय दे० नय / I/५ ।
प्रज्ञापरीषहससि /१/१/४२०/४
पूर्वप्रकीर्णकविशारदस्य शब्दन्यायाध्यारण
निपुणस्य मम पुरस्तादितरे भास्करप्रभाभिखद्योतयतिरा नावभासन्त इति विज्ञानमदनिरास प्रज्ञापरिषहजय प्रत्येतव्यः ।
मै अग, पूर्व और प्रकीर्णक शास्त्रोमें विशारद हूँ तथा शब्दशास्त्र, न्यायशास और अध्यात्मशासने निपुण हूँ। मेरे आगे दूसरे जन सूर्य
प्रज्वलित
की प्रभासे अभिभूत हुए द्योतके उद्योतके समान मिलत नहीं सुशोभित होते हैं इस प्रकार विज्ञानमा निरास होना महापरि जय मानना चाहिए (रा मा./१/३/२६/६१२/११) (चा. सा./ १२७/४) ।
२. प्रज्ञा व अज्ञान परपहमें अन्तर
XX
स.सि /१२/१०/२३५/७ प्रज्ञाज्ञानयोरपि विरोधाइयुगपद संभवः ज्ञानापेक्षया प्रज्ञापरिषह' अवधिज्ञानाद्यभावापेक्षया अज्ञानपरिषह इति नास्ति विरोध । - प्रश्न- प्रज्ञा और अज्ञान परीषहमें भी विरोध है, इसलिए इन दोनोंका एक साथ होना असम्भव है ? उत्तरएक साथ एक आमा ज्ञानको अपेक्षा प्रज्ञापरीह और अवधिज्ञान आदिके अभाव की अपेक्षा अज्ञान परीषद रह सकते है, इसलिए कोई विरोध नहीं है (रा. बा./१/१०/३/६१५/१८ ) ।
३. प्रज्ञा व अदर्शन
परीषहमें अन्तर
रा. मा/// ३९/६९३/२
प्रदर्शनमपि ज्ञानाविनाभावीति प्रज्ञापरीषहे तस्यान्तर्भाव प्राप्नोतीति'; नैष दोषः, प्रज्ञायां सत्यामपि क्वचित्तत्त्वार्थ श्रद्धानाभावाद व्यभिचारोपलब्धे । = प्रश्न- श्रद्धान रूप दर्शनको ज्ञानाविनाभावी मानकर उसका प्रज्ञा परीषहमें अन्तर्भाव किया जा सकता है उत्तर-नहीं, क्योंकि कभी-कभी प्रज्ञाके होनेपर भी तत्वार्थ श्रद्धानका अभाव देखा जाता है, अतः व्यभिचारी है।
४. प्रज्ञा व अज्ञान दोनोंका एक ही कारण क्यों
रा. वा०/६/१३/१-२ / ६१४/१४ ज्ञानावरणे अज्ञानं न प्रज्ञेति नः अन्यज्ञानावरणसद्भावे तद्भावात् |१| प्रज्ञा हि क्षायोपशमिकी अन्यस्मित् ज्ञानावरणे सति मदं जनयति न सकलावरणक्षय इति प्रज्ञाज्ञाने ज्ञानावरणे मति प्रादु·स्त इत्यभिसंबध्यते ॥ मोहादिति चेव नः सहभेदानां परिगणितत्वात २- मोहभेदा हि परिगणिता दर्शनचारित्रयामासतुभावेन तत्र नायमन्तर्भवति चारित्रोऽपि प्रज्ञापरीषद्भावाद, ततो ज्ञानावरण एवेति निश्चय कर्त्तव्य' । = १. ज्ञानावरण के उदयसे प्रज्ञा और अज्ञान परीषह होती है । क्षायोपशमिकी प्रज्ञा अन्य ज्ञानावरणके उदयमें मद उत्पन्न करती है, समस्त ज्ञानावरणका क्षय होनेपर मद नही होता । अत प्रज्ञा और अज्ञान दोनो ज्ञानावरणसे उत्पन्न होते है। २. मोहनीयकर्म भेद गिने हुए है और उनके कार्य भी दर्शन चारित्र आदिका नाश करना सुनिश्चित है अत 'मै बडा विद्वान् हूँ । अत यह प्रज्ञामद मोहका कार्य न होकर ज्ञानावरणका कार्य है। क्योंकिचारित्रवालीके भी प्रज्ञापरिषह होती है ।
प्रज्ञापिनी भाषा दे० भाषा
प्रज्ञाश्रवण ऋद्धि - दे० ऋद्धि /२/७६
प्रचय - १. ३० क्रम/ १, २ Common difference, (ज. प./ प्र १०७) ।
प्रचला - दे० निद्रा ।
प्रच्छना - दे० पृच्छना |
प्रच्छन्न
प्रजापाल - सुकच्छ देशके श्रीपुर नगरका राजा था। जिन दीक्षा धारण कर ली थी। आयुके अन्तमें समाधि सहित मरणकर अच्युत स्वर्ग में उत्पन्न हुआ । (म. प्र / ६६ / ६७-७५ ) यह पद्म चक्रवर्तीका पूर्व तीसरा भर है -- दे० पद्म ।
प्रज्वलित तीसरे नरकका छठा पटल दे० नरक/५ ।
आलोचनाका एक दोष-दे० आलोचना /२ ।
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