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बंध
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२. द्रव्य बन्धको सिद्धि
होनेपर उनमे समवायको प्राप्त कर्म स्कन्ध पाये जाते है। इससे जाना जाता है कि जोवप्रदेशोके देशान्तरको प्राप्त होनेपर उनमे कर्मप्रदेश स्थित ही रहते है। ३ छमस्थके किन्ही जीव प्रदेशोका चुकि सचार नही होता अतएव उनमे स्थित कर्म प्रदेश भी स्थित ही होते है। तथा उसी छद्मस्थके किन्ही जोव प्रदेशोका चुकि सचार पाया जाता है अतएव उनमे स्थित कर्मप्रदेश भी संचारको प्राप्त होते है, इसलिए वे अस्थित कहे जाते है।
४. जीवके साथ कौंका गनन कैसे सम्भव है ध, १२/४,२,११,१/३६४/४ कध कम्माणं जीवपदेसेसु समवेदाणं गमणं
जुज्जदे । ण एस दोसो, जोवपदेसेसु जोगवसेण संचरमाणेसु तदपुधभ्रदाण कम्मकावंधाण पि संचरण पडि बिरोहाभावादो। घ.१२/३, २,११, २/३६५/११ अ ह म ज्झमजीवपदेसाण सकोचो विकोचो वा णत्थि त्ति तत्य ठ्ठिदकम्मपदेसाण पि अद्विदत्त णस्थि त्ति । तदो सब्वे जोव पदेसा कम्हि वि काले अट्ठिदा होति त्ति सुत्त. वयणं ण घडदे। ण एस दोसो, ते अट्ठमज्झितजीवपदेसे मोत्तूण सेसजीवपदेसे अरिसदूण एदस्स मुत्तस्स पवुत्तीदो। = प्रश्न-जीव प्रदेशोंमें समवायको प्राप्त कर्मोका गमन कैसे सम्भव है । उत्तर-यह कोई दोष नहीं है, क्योकि योगके कारण जीवप्रदेशोका संचरण होनेपर उनसे अपृथग्भूत कर्मस्कन्धोके भी सचारमें कोई विरोध नही आता ! प्रश्न--यत जोवके आठ मध्यप्रदेशोका कोच अथवा विस्तार नहीं होता अत उनमें स्थित कर्मप्रदेशोका भी अस्थितपना नही बनता और इसलिए सब जीवप्रदेश किसी भी समय अस्थित होते है, यह सूत्र वचन घटित नही होता। उत्तर-यह कोई दोष नहीं है, क्यो कि, जीवके उन आठ मध्य प्रदेशोको छोडकर शेष जीवप्रदेशोका आश्रय करके इस सूत्रको प्रवृत्ति हुई है।
अमुतत्ताणुववत्तीदो। -क्योकि संसारी जीव मूर्त आठ कर्मों के द्वारा अनादि कालीन बन्धनसे बद्ध है, इसलिए वह अमूर्त नहीं
हो सकता । (ध १३/३२/८)। ध १५/३३-३४/१ ण च बट्टमाणबंधघडावणट्ठ जीवस्स वि रूवित्त बोत्त जुत्तं,-मिच्छत्तासजम-कसायजोगा जीवादी अपुधभूदा कम्मइयबगणक्रवधाणं तत्तो पुवभूदाण कध परिमांतरं मंपादे ति। ण एस दोसो, बुत च-राग-द्वेषायूष्मासयोग-वात्मदीप आवर्ते। स्कन्धानादाय पुन परिणमयति ताश्च कर्म तया ।।८। प्रश्नवर्तमान बन्धको घटित करानेके लिए पुद्गल के समान जीवको भी रूपी कहना योग्य नहीं है तथा मिथ्यात्व, अमयम, कषाय और योग ये जीवसे अभिन्न होकर उससे पृथग्भूत कार्मण वर्गणाके स्कन्धोंके परिणामान्तर ( रूपित्व ) को कैसे उत्पन्न करा सकते है ! उत्तरयह कोई दोष नही है। • कहा भी है-ससारमें रागद्वेष रूपी उष्णतासे संयुक्त वह आत्मारूपी दीपक योग रूप बत्तीके द्वारा ( कार्मण वर्गणाके ) स्कन्धो ( रूप तेल ) को ग्रहण करके फिर उन्हे कर्मरूपी ( कज्जल ) स्वरूपसे परिणमाता है। दे० मूर्त/8-१०( कर्मबद्ध जीव व भावकर्म कथ चित मूर्त है।)
५. अमूर्त जीवसे मूर्त कर्म कैसे बँधे १ क्योंकि जीव भी कयंचित् मूर्त है स. सि./२/७/१६१/६ न चामूर्ते कर्मणा बन्धो युज्यत इति । तन्न,
अनेकान्तात । नायमेकान्त' अमूतिरेवात्मेति । कर्मबन्धपर्यायापेक्षया तदावेशात्स्यान्मूर्त. । शुद्धस्वरूपापेक्ष्या स्यादमूर्त ।- प्रश्न-अमूर्त आत्माके कर्मोंका बन्ध नहीं बनता है ? उत्तर-आत्माके अमूर्तत्वके विषय में अनेकान्त है। यह कोई एकान्त नहीं कि आरमा अमूर्ति ही है। कर्म बन्धरूप पर्यायकी अपेक्षा उससे युक्त होनेके कारण कथंचित मूर्त है और शुद्ध स्वरूपकी अपेक्षा कथ चित् अमूर्त है । (त. सा./२/१६), (पं.का /त प्र./२७), (इ. स./टी./७/२०/१)। प. १३/५,३,१२/११/१ जीव-पोग्गलदव्याणममुत्त-मुत्ताण कधमेयत्तण संबधो। ण एस दोमो, ससाराबत्याए जीवाण मसुत्तत्ताभावादो। जदि ससारावस्थाए मुत्तो जीवो, कध णिवुओ सतो अमुत्तत्तमल्लियइ । ण एस दोसो, जीवस्स मुत्तत्तणिबधणकम्माभावे तज्जणिदमुत्तत्तस्म वि तत्थ अभावेण सिद्धाणममुत्तभाव सिद्धीदो।
प्रश्न-जीवद्रव्य अमूर्त है और पुद्गल द्रव्य मूर्त है। इनका एकमेक सम्बन्ध कैसे हो सकता है। उत्तर-यह कोई दोष नहीं है, क्योकि ससार अवस्थामे जोवोके अमुर्तपना नहीं पाया जाता। - प्रश्न-यदि संसारअवस्थामें जीव मूर्त है, तो मुक्त होनेपर वह अमूर्तपनेको कैसे प्राप्त हो सकता है। उत्तर-यह कोई दोष नही है, क्योंकि जीवमे मूर्तत्वका कारण कर्म है अत कर्मका अभाव होनेपर तज्जनित मूर्तत्वका भी अभाव हो जाता है और इसलिए सिद्ध जीवोके अमूर्त पनेकी सिद्र हो जाती है। (यो सा
अ./४/३५)। ध. १३/५,५,६३/३३३/६ मुत्तट्टकम्मे हि अणा दिबंधणबद्धस्स जीवस्स
२ जीव कर्मवन्ध अनादि है स, सि 12/२/३७७/४ कर्मणो जीव. सकषायो भवतीत्येक वाक्यम् । एतदुक्त भवति–'कर्मण ' इति हेतु निर्देश कर्मणो हेतोर्जीव सकषायो भवति नामकर्मस्य कषायलेपोऽस्ति। ततो जीवकर्मणोरनादिसंबन्ध इत्युक्त भवति। तेनामूर्तो जीवो मूर्तेन कर्मणा कथं बध्यते इति चोद्यमपाकृत भवति। इतरथा हि बन्धस्यादिमत्त्वे आत्यन्तिकी शुद्धि दधत सिद्धस्येव बन्धाभाव प्रसज्येत । - 'कर्मणो जीव' सकषायो भवति' यह एक वाक्य है। इसका अभिप्राय है कि 'कर्मण ' यह हेतुपरक निर्देश है। जिसका अर्थ है कि कर्मके कारण जोव कषाय सहित होता है, कषाय रहित जीवके कषायका लेप नहीं होता। इससे जीव और कर्मका अनादि सम्बन्ध है यह क्थन निष्पन्न होता है। और इससे अमूर्त जीव मूर्त कर्मके साथ कैसे बॅधता है इस प्रश्नका निराकरण हो जाता है। अन्यथा बन्धको सादि माननेपर आत्यन्तिक शुद्धिको धारण करनेवाले सिद्ध जीवके समान ससारी जीवके बन्धका अभाव प्राप्त होता है। (रा.बा./८/२/४/५६/२२), (क. पा. १/१,१/४१/५६/३), (त, सा./५/१७-१८) (द्र स./टो./७/२०/४)। प. प्र./मू /१/५६ जीवहे कम्मु अणाइ जिय जणिय उ कम्मु ण तेण । कम्मे जीउ वि जणिउ णवि दोहिं वि आइ ण तेण हा हे आत्मा । जीवो के कर्म अनादि कालसे है, उस जीवने कर्म नहीं उत्पन्न किये, कर्मोंने भी जोव नही उपजाया, क्योंकि जीव कर्म इन दोनोका ही
आदि नही है, किन्तु अनादिके है । पं.का./त प्रे/१३४ अथ निश्चयनयेनामूर्तो जीवोऽनादिमूर्तकर्म निमित्त
रागादिपरिणामस्निग्ध सन् विशिष्टतया मूर्तानि कर्माण्यवगाहते, तत्परिणामनिमित्तलब्धात्मपरिणाममूर्त कर्म भिरपि विशिष्टतयाऽवगाह्यते च । अय त्वन्योन्यावगाहात्मको जीवमूर्त कर्मणोर्बन्धप्रकार. । एकममर्तस्यापि जीवस्य मूर्तेन पुण्यपापर्मणा कथं चिटबन्धो न विरुध्यते ।१३४। निश्चयनयसे अमूर्त है ऐसा जीव, अनादि मूर्त कर्म जिसका निमित्त है, ऐसे रागादि परिणामके द्वारा स्निग्ध वर्तता है, मूर्त कर्मोंको विशिष्ट रूपसे अवगाहता है, और उस परिणामके निमित्तसे अपने परिणामको प्राप्त होते है, ऐसे मूर्तकर्म भी जीवको विशिष्ट रूपसे अवगाहते है। यह जीव और मूर्तकर्मका अन्योन्य अवगाह स्वरूप बन्ध प्रकार है। इस प्रकार अमूर्त ऐसे जीवका भी मूर्त पुण्य-पापके साथ कथंचित् बन्ध विरोधको प्राप्त नही होता।१३४॥
जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश
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