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बंध
गो क/मू / २/३ जीवंगाण अणाइ संबंधो। क्णयोवलेमल वा ताणत्थितं सयं सिद्ध 121 - जिस प्रकार सुवर्ण और पाषाण यद्यपि भिन्नभिन्न वस्तु है, तथापि इनका सम्बन्ध अनादि है, नये नहीं मिले है । उसी प्रकार जीव और कर्मका सम्बन्ध भी अनादि है | २ | इनका अस्तित्व स्वयं सिद्ध है । प/२५ तथानादि स्वतो बन्यो
कुरा के कृत प्रश्नो • जीव और पुद्गल स्वरूप कर्मका अन्ध स्वयं अनादि है. इसलिए किस कारण से हुआ, किसने किया तथा कहाँ हुआ, यह प्रश्न आकाशके फूलकी तरह व्यर्थ है । ( पं. ध / उ / ६, ६-७०) 1
६. मूर्त कर्म व अमूर्त जीवके बन्धमें दृशन्त
बालक्स्य
प्र सा./मू व त प्र / १७४ उत्थानिका - अथैव ममूर्तस्याप्यात्मनो बन्धो भवतीति सिद्धान्तयति - रूवादिएहिरहिदो पेच्छदि जाणादि मादीणि । दव्वाणि गुणे य जधा तह बंधो तेण जाणीहि ॥ १७४ | दृष्टान्तद्वारेणाबालगोपालप्रकटितम् । तथाहि यथा गोपालस्वा पृथगस्थित मुली बलीवर्दा पो जान तश्च न बलीवर्देन सहास्ति मबन्ध विषयभावावस्थितनलीवर्दनिमियामीकरपर्शज्ञानोब उपमहारसाधकत्वस्व तथा लामो नाम पशुस्वान्न कर्मग सहास्ति संबंध एकावगाहमायावस्थित कर्म इगल निगरागद्वेषादिभावसन्ध क 'पुद्गलबन्धव्यबहारसाधकस्त्वस्त्येव । - अब यह सिद्धान्त निश्चित करते है कि आत्मा के अमूर्त होनेपर भी इस प्रकार बन्ध होता है - जैसे रूपादि रहित (जीव ) रूपादिक द्रव्योको तथा गुणोका देखता है और जानता है, उसी प्रकार उसके साथ बन्ध जानो । १७४ | आबालगोपाल सभीको प्रगट हो जाय इसलिए दृष्टान्त द्वारा समझाया गया है । यथा - बाल गोपालका पृथक् रहनेवाले मिट्टी के बैलको अथवा ( सच्चे) बेलको देखने और जाननेपर बेलके साथ सम्बन्ध नहीं है तथापि विषय रूप से रहनेवाला बैल जिनका निमित्त है ऐसे उपयोग रूढ वृषभाकार दर्शन ज्ञानके साथका सम्बन्ध बैलके साथ के सम्बन्ध रूप व्यवहारका साधक अवश्य है । इसी प्रकार आत्मा अरूपित्वके कारण स्पर्श 'शून्य है । इसलिए उसका कर्मगलो के साथ सम्बन्ध नहीं है, तथापि एकावगाह रूपसे रहनेवाले धर्म पुद्गल जिनके निमित्त है, ऐसे उपयोगारूढ राग द्वेषादि भावोके साथका सम्बन्ध कर्म पुद्गलोके साथ के बन्धरूप व्यवहारका साधक अवश्य है ।
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कर्म जीवके साथ समवेत होकर बँधते हैं या असमवेत होकर
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ध. १२/४,२८,२/२७७/११ कम्मइयक्खधा कि जीवेण समवेदा सता गाणावरणीयपनाएण परिणमति अहो असमवेदा । णादिपक्खो णोकम्मवदिरित्तस्स कम्मइयबधस्स कम्मसरूवेण अपरिणदस्स जीवे समवेदस्स अणुवल भादो । विदिओ विपक्खा जुज्जदे, जीवे असमवेदन कम्मरधा गागाबरणीयरूय परिणमगर हादो। अविरोहे वा जीवो संसारावत्थाएं अमुत्तो होज्ज, मुत्तदव्वैहि संबंधाभावादो। ण च एव जीवगमणे शरीरस्स संबंधाभावेण आग
गादो, जौवाटोपुधभूद' सरीरमिदि अणुहवाभावादी च । ण पच्छा दोपणं पि सबंधो, एत्थ परिहारो बुच्चदे - जीव समवेदकाले चैव कम्मइयक्खधा ण णाणावरणीय सरूवेण परिणमति (ति) ण पुव्युत्तदोसा ढुक्क ति । - प्रश्न- कार्मण स्कन्ध वया जीव में समवेत होकर ज्ञानावरणीय पर्याय रूपसे परिणमते है, अथवा असमवेत होकर १ १. प्रथम पक्ष तो सम्भव नहीं है, क्योकि नोकर्म से भिन्न और कर्म स्वरूपसे अपरिणत कार्मण हुआ स्कन्ध जीव में समवेत नही
३. कर्मबन्धमे रागादिभाव बन्धकी प्रधानता
पाया जाता · २. भी गिग नहीं है, क्योंकि जीवमे असमवेत कार्मण स्कन्धोके ज्ञानावरणीय स्वरूपसे परिणत होनेका विरोध है । यदि विरोध न माना जाय तो ससार अवस्थामे जीवको अमूर्त होना चाहिए, क्योंकि, मूर्त द्रव्यों से उसका कोई सम्बन्ध नहीं है । परन्तु ऐसा है नहीं क्योंकि, जीवके गमन करनेपर शरीरका सम्बन्ध न रहनेसे उसके गमन न करनेका प्रेसंग आता है । दूसरे, जीवसे शरीर पृथक् है, ऐसा अनुभव भी नहीं होता । पीछे दोनोका सम्बन्ध होता है, ऐसा भी सम्भव नही है। उत्तरजीवसे समवेत होनेके समयमे ही कार्मण स्कन्ध ज्ञानावरणी स्वरूप से नहीं परिणमते है। तव पूर्वी दोष यहाँ नहीं हूँ कते । ८. कर्मबद्ध जीव चेतनता न रहेगी
१२/४.२.१.६/२०/२ निश्चयण-पोल मनाएका भट्टससरुवस्स कध जीवत्त जुज्जदे । ण. अविणट्टणाण-द सणणाणमुवल भेण जीवत्थित्तसिद्धीदो। ण तत्थ पोग्गलबखधो वि अस्थि, पहाणीकयजीवभावादी । ण च जीवे पोग्गलप्पवेसो बुद्धिकओ चैव, परमत्थेण वितत्तो सिमभेवल भादो । - - प्रश्न- चेतना रहित मूर्त पुद्गल स्कन्धो के साथ समवाय होनेके कारण अपने स्वरूप ( चैतन्य व अ) से रहित हुए जो जीव वीकार करना कैसे युक्तियुक्त है ? उत्तर - नहीं, क्योंकि, विनाशको नही प्राप्त हुए ज्ञान दर्शन के पाये जाने से उसमे जीवत्ववा अस्तित्व सिद्ध है। वस्तुत' उसमे पुद्गल स्कन्ध भी नहीं है, क्योंकि, यहाँ जीव भावको प्रधानता की गयी है। दूसरे, जीवमे पुद्गल स्कन्धोका प्रवेश बुद्धि पूर्वक नहीं किया गया है, क्योंकि, यथार्थत भी उससे उनका अभेद पाया जाता है।
९ बन्ध पदार्थकी क्या प्रमाणिकता
इस
ससि / ८ / २६/४०५ / ३ एवं व्याख्यात सप्रपञ्च बन्धपदार्थ । अवधिमन पके ममज्ञानप्रध्यक्षमा गम्यस्तदुपदिष्टमानुमेयः । प्रकार विस्तार से बन्ध पदार्थं का व्याख्यान किया। यह अवधिज्ञान, मन पर्ययज्ञान, और केवलज्ञान रूप प्रत्यक्ष प्रमाणगम्य है और इन ज्ञानवाले जीवो द्वारा उपदिष्ट आगमसे अनुमेय है ।
१०. विसोपचय रूपसे स्थित वर्गणाएँ ही हैं तसू / ८ / २८ नामप्रत्यया सर्व तोयोगविशेषात्सूक्ष्मै कक्षेत्रावगाह स्थिताः सर्वात्मप्रदेशेष्वनन्तानन्तप्रदेशा |२४| कर्म प्रकृतियोंके कारणभूत प्रतिसमय योग विशेषसे सूक्ष्म, एक क्षेत्रावगाही और स्थित अनन्तानन्तपुद्गल परमाणु सब आत्मप्रदेशो मे ( सम्बन्धको प्राप्त ) होते है । सा./मू./१६८, १७० जगाचा सदो लोगो । हुमेहि बादरेहि य अप्पाग्गेहि जोग्गेहि ११६८ । ते ते कम्मत्तगदा पोग्गलकाया पुणो वि जीवरस । सजायते देहा देहंतरसक्मं पप्पा | १७० - लोक सर्वत सूक्ष्म तथा बादर और कर्मस्वके अयोग्य तथा योग्य पुद्गल स्वन्धो के द्वारा ( विशिष्ट प्रकार से ) अवगाहित होकर गाढ भरा हुआ है । १६८ । ( इसमे निश्चित होता है कि पुद्गल पिण्डोका लानेवाला आत्मा नही है । ( प्र सा. / टी / १६८ ) कर्मरूप परिणत देहान्तररूप परिवर्तन प्राप्त करके पुन पुन जीवके शरीर होते है ।
३. कर्म बन्धमे रागादि भाव बन्धकी प्रधानता १. द्रव्य, क्षेत्रादि की अपेक्षा कर्म बन्ध होता है रा. वा./३/२०/२/२०५/४ द्रव्य-भव क्षेत्र - कालभावापेक्षत्वात् कर्मअन्धस्य द्रव्य, भव, क्षेत्र, काल और भावको अपेक्षासे कर्मका बन्ध होता है ।
जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश
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