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३. कर्मबन्धमें रागादि भावबन्धकी प्रधानता २. अज्ञान व राग ही वास्तवमें बन्ध है
प्रसा./त प्र./१७६ योऽयमपुरागः स खलु स्निग्धरूक्षत्वस्थानीयो भाव
बन्धः । अथ पुनस्तेनैव पौद्गलिक कर्म बध्यत एव । - जो यह राग १. अशान
है वह वास्तव में स्निग्ध रूक्षत्व स्थानीय भावबन्ध है। और उसीसे ससा /मू./१५३ उत्थानिका-अथ ज्ञानाज्ञाने मोक्षवन्धहेतू नियमयति- अवश्य पौद्गलिक कर्म बंधता है । ( प्र सा/ता. प्र /१०८ ) । वदणियमाणि धरता सीलाणि तहा तब च कुव्वता। परमठ्ठबाहिरा प्र. सा/त. प्रे/१७६ अभिनवेन द्रव्यकर्मणा रागपरिणतो न मुच्यते.. जे णिवाणं ते ण विदंति ।१५३। -ज्ञान ही मोक्षका हेतु है और बध्यत एव संस्पृशतवाभिनवेन द्रव्यमणा चिरसंचितेन पुराणेन च अज्ञान ही बन्धका हेतु है यह नियम है-बत नियमको धारण करते न मुच्यते रागपरिणतः। ततोऽवधार्यते द्रव्यबन्धरय साधकतमहुए भी तथा शील और तप करते हुए भी जो परमार्थ से बाह्य है वे
त्वाद्रागपरिणाम एव निश्चयेन वन्धः। =राग परिणत आत्मा नवीन मिर्वाणको प्राप्त नहीं होते। (प ध/उ./१०३५)।
द्रव्यकर्मसे मुक्त नहीं होता।राग परिणत जीव संस्पर्श करने में स सा/आ/३११/क १६५ तथाप्यस्यासी स्थाद्य दिह किल बन्ध' प्रकृ- आनेवाले नवीन द्रव्यकर्मसे और चिरसंचित पुराने द्रव्यकर्मसे तिभि. स खत्वज्ञानस्य स्फुरति महिमा कोऽपि गहन ।१६। इस बँधता ही है, मुक्त नहीं होता। इससे निश्चित होता है कि द्रव्या जगत में प्रकृतियोके साथ यह (प्रगट) बन्ध होता है, सो बास्तवमे अन्धका साधकतम होनेसे राग परिणाम ही निश्चयसे बंध है। अज्ञानकी कोई गहन महिमा स्फुरायमान है।
त. अनु./८ स्युमिथ्यादर्शन-ज्ञान-चारित्राणि समासत' । बन्धस्य हेतवो२. रागादि
ऽन्यस्तु त्रयाणामेव विस्तर ।। = मिथ्यादर्शन-ज्ञान व चारित्र ये
तीनो सक्षेपसे बन्धके कारण हैं । बन्धके कारण रूपमें अन्य जो कुछ पं.का /मू /१२८,१४८ जो खलु ससारत्थो जीवो तत्तो दु परिणामो। परि
कथन है वह सब इन तीनोका विस्तार है ।। णामादो कम्म कम्मादो होदि गदिसु गदी ।१२८, भाव णिमित्तो बधो
द्र, सं./टी/३२/११/१० परमात्मनो...निर्मलानुभूतिस्तद्विपक्षभूतेन भावो रदिरागदो समोह जुदो ।१४८ -१ जो वास्तव में संसार स्थित
मिथ्यात्वरागादिपरिणतिरूपेण वाशुद्धचेतनभावेन परिणामेन बध्यते जीव है, उससे ( स्निग्ध ) परिणाम होता है । परिणामसे कर्म और
ज्ञानावरणादि कर्म । - परमात्माकी निर्मल अनुभूतिसे विरुद्ध कर्म से गतियोमें भ्रमण होता है ।१२८। (पं का./मू /१२६-१३०)। २. बन्धका निमित्त भाव है । भात्र रति-राग-द्वेष मोहसे युक्त है
मिथ्यात्व रागादिमें परिणतिरूप अशुद्ध-चेतन-भावस्वरूप परिणामसे
ज्ञानावरणादि कम बंधते है। ११४८। (प्र.सा./मू./१७६)।
दे० बंध./२/१/१ में ध. १५ ( राग-द्वेषसे संयुक्त आत्मा कर्मबन्ध करता स. सा./५/२३७-२४१ जह णाम को वि पुरिसो णेय भत्तो दु रेणु बहुलम्मि । ठणम्मि ठाणम्मि य करेइ सस्थेहि वायामं ।२३७१ जो सो दुणेह भावो तम्हि गरे तेण तस्स रयबंधो। णिच्छयदो विष्णेयं ३. ज्ञान आदि मी कथंचित् बन्धके कारण हैं ण कायचेट्ठाहि सेसाहि ।२४०॥ एवं मिच्छादिट्ठी वट्टन्तो बहुविहासु चिट्ठासु । रायाई उवओगे कुठबंतो लिप्पइ रयेण ।२४११ = जैसे कोई
स सा./मू /१७१ जम्हा दु जहण्णादो णाणगुणादो पुणोवि परिणमदि। पुरुष ( अपने शरीरमें ) तैलादि स्निग्ध पदार्थ लगाकर और बहुत-सी
अण्णत्तं गाणगुणो तेण दु सो बंधगो भणिदो ।१७१। -क्योंकि ज्ञानधूलिवाले स्थानमे रहकर शस्त्रोके द्वारा व्यायाम करता है ।१३७१
गुण जघन्य ज्ञानगुण (क्षायोपशमिक ज्ञान) के कारण फिरसे भी उस पुरुषमें जो वह तेलादिकी चिकनाहट है उससे उसे धूलिका बन्ध
अन्य रूपसे परिणमन करता है, इसलिए ( यथारख्यात चारित्र अवहोता है, ऐसा निश्चयसे जानना चाहिए, शेष शारीरिक चेष्टाओसे
स्थासे नीचे ) वह ( ज्ञानगुण) काँका बंधक कहा गया है । नहीं होता।२४०। इसी प्रकार बहुत प्रकारकी चेष्टाओमें अर्तता हुआ
दे० आयु/३ (सरागसंयम, संयमासंयम तथा सम्यग्दर्शन देवायुके मिथ्यादृष्टि अपने उपयोगमे रागादि भावोको करता हुआ कर्मरूपी
आखकका कारण है । (पं.ध./3/१०६)। रजसे लिप्त होता है ।२४१। ( अत' निश्चित हुआ कि उपयोगमें जो
दे० प्रकृति बंध/५/७/३ (आहारक शरीरके बंधमें ६-७ गुणस्थानका राग आदिक हैं, वही बन्धके कारण है ।) (यो सा. अ/४/४-५)।
संयम ही कारण है।) मू. आ./१२१६ मिच्छादसण अविरदि कसाय जोगा हवं ति बधस्स। ४. ज्ञानकी कमी बन्धका कारण नहीं, तत्सहमावी कर्म
आऊसज्झत्रसाणं हेदव्यो ते दु णायव्वा ।१२१६३ = मिथ्यादर्शन अविरति, कषाय, योग और आयुका परिणाम-ये कर्मबन्धके कारण
ही बन्धका कारण है जानने चाहिए।
स. सा./आ./१७२ यावज्ज्ञान सर्वोत्कृष्टभावेन द्रष्टुं ज्ञातुमनुचरित क. पा. १/१.१/गा. ५१/१०५ वत्थुपडुच्च त पुण अज्झवसाणं त्ति भणइ
वाशक्त सत् जघन्यभावेनैव ज्ञानं पश्यति जानात्यनुचरति तावत्तबवहारो। ण य बत्थुदो हु बधो बधो अज्झप्पजोएण। यद्यपि वस्तुकी
स्यापि जघन्यभावान्यथानुपपत्त्यानुमीयमानाबुद्धिपूर्वक कर्म कलकअपेक्षा करके अध्यवसान होते है, ऐसा व्यवहार प्रतिपादन करता है. विपाकसद्भावात् पुद्गलकर्मबन्ध स्यात् । - ज्ञानी जबतक ज्ञानको परन्तु केवल वस्तुके निमित्तसे बन्ध नहीं होता, बन्ध तो आत्मपरि
सर्वोत्कृष्ट भावसे देखने, जानने और आचरण करने में अशक्त वर्तता णामो ( रागादि ) से होता है। (स. सा/आ/२६५)।
हुआ जघन्यभावसे ही ज्ञानको देखता है, जानता और आचरण घ. १२/४,२,८,४/२८०/१ ण च पमादेण विणा तियरण साहणट्ट गहिद
करता है, तबतक उसकी अन्यथा अनुपपत्तिके द्वारा जिसका अनुमान बज्झट्ठो णाणावरणीयपच्चओ, पच्चयादो अणुप्पण्णस्स पच्चयत्तविरो
हो सकता है ऐसे अबुद्धिपूर्वक कर्मकल कके विपाकका सद्भाव होनेसे, हादो। -प्रमादके बिना रत्नत्रयको सिद्ध करने के लिए ग्रहण किया
पुद्गल कर्म का बंध होता है। गया बाह्य पदार्थ ज्ञानावरणीयके बन्धका प्रत्यय नहीं हो सकता, ५. जघन्य कषायांश स्वप्रकृतिका बन्ध करनेमें असक्योंकि जो प्रत्ययसे उत्पन्न नहीं हुआ है, उससे प्रत्यय स्वीकार करना
मर्थ है विरुद्ध है। न. च वृ/३६६ असुद्धसंवेयणेण अप्पा बधेइ कम्म णोकम्मं । - अशुद्ध ध. ८/३,२२/१४/७ उवसमसेडिम्हि कोधपरिमाणुभागोदयादो अणंतसंवेदनसे अर्थात रागादि भावोसे आत्मा कर्म और नोकर्मका बन्ध गुणहाणेण वूणाणुभागोदएण कोधसलजणस्स बंधाणुवल भादो । = उपकरता है । (पं.का./ता. वृ./१४७/३१३)।
शम श्रेणीमे क्रोधके अन्तिम अनुभागोदयकी अपेक्षा अनन्तगुण हीन,
जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश
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