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बंध
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४. द्रव्य व भावबन्धका समन्वय
अनुभागोदयसे संज्वलन क्रोधका बन्ध नही पाया जाता । ( इसी प्रकार मान, भाया लोभमे भी जानना)। प्र सा /ता, वृ /१६१२२७/११ परमचैतन्यपरिणत्तिलक्षणपरमात्मतत्त्वभावनारूपधर्म्यध्यानशुक्लध्यानबलेन यथा जघन्यस्निग्धशक्तिस्थानीये क्षीणरागत्वे सति जघन्यरूक्षशक्तिस्थानीये क्षीणद्वेषत्वे च सति जलवालुकयोरिव जोवस्य बन्धो न भवति। - परम चेतन्य परिणति है लक्षण जिसका ऐसे परमारम तत्त्वको भावनारूप धर्मध्यान और शुक्लध्यानके बलसे जसे जघन्य-स्निग्ध, शक्ति स्थानीय क्षीण राग होनेपर, और जघन्य-रूक्ष-शक्ति स्थानीय क्षीण द्वेष होनेपर जल और रेतको भॉति जोबके बन्ध नही होता है । ६. परन्तु उससे बन्धसामान्य तो होता ही है ध ८/३,३६/७७/३, सोलसकसायाणि सामण्णपच्चइयाणि, अणुमेत्तकसाए वि सते तसि बधुबलभादो। -सोलह (ज्ञानावरण, ५ अन्तराय, ४ दर्शनावरण, यश कीति, उच्च गोत्र) कर्म कषाय सामान्यके निमित्तसे बँधनेबाले है, क्योकि, अणुमात्र कषायके भी होनेपर उनका बन्ध पाया जाता है।
७. भावबन्धके अमावमें द्रव्यबन्ध नहीं होता प सा /म् /२७० एदाणि णत्थि जेसि अज्झवसाणाणि एवमादीणि । ते
असुहेण सुहेण व कम्मेण मुणो ण लिप्पति ।२७० - यह ( अज्ञानमिथ्यादर्शन-अचारित्र) तथा ऐसे और भी अध्यबसान जिनके नहीं है वे मुनि अशुभ या शुभकर्मसे लिप्त नहीं होते ।२७०।
८. कर्मोदय बन्धका कारण नहीं रागादि ही है प्र. सा /ता वृ/४३/५६/१२ उदयगता ज्ञानाबरणादि मूलोत्तर कर्म प्रकृतिभेदा स्वकीयशुभाशुभफलं दत्वा गच्छन्ति न च रागादिपरिणामरहिता सन्तो बन्ध कुर्वन्ति । तेषु उदयागतेषु सत्सु कर्मांशेषु मूढोरक्तो दुष्टो व भवति स बन्धनमनूभवति । तत स्थितमेतत् ज्ञानं बन्धकारणं न भवति कर्मोदयेऽपि, किन्तु रागादयो बन्धकारणमिति ।४। प्र. सा./ता वृ/४५/५८/१६ औदयिका भावा बन्धकारणम् इत्यागमवचन तर्हि वृथा भवति । परिहारमाह-औदयिका भावा बन्धकारण भवन्ति, पर किन्तु मोहोदयसहिताः। द्रव्यमोहोदयेऽपि सति यदि शुद्धात्मभावनाबलेन भावमोहेन न परिणमति तदा बन्धो न भवति । यदि पुन. कर्मोदयमात्रेण बन्धो भवति तहि संसारिणा सर्वदैव कर्मोदयस्य विद्यमानत्वात्सर्वदेव बन्ध एव न मोक्ष इत्यभिप्राय । -१, उदयको प्राप्त ज्ञानावरणादि मूलोत्तर प्रकृतिके भेद अपने-अपने शुभ वा अशुभ फल को देकर झड जाते है। रागादि परिणाम होनेके कारण बन्ध नही करते है। परन्तु जा उदयको प्राप्त कर्मांशो में मोही, रागी व द्वेषी होता है वह बन्धको प्राप्त होता है। इसलिए ग्रह निश्चय हुआ कि ज्ञान बन्धका कारण नहीं होता, न ही कमका उदय बन्धका कारण होता है, किन्तु रागादि ही बन्धके कारण होते है । प्रश्न-औदयिक भावबन्धके कारण है, यह आगमका वचन वृथा हो जायेगा। उत्तर-औदयिक भावबन्धके कारण होते है, किन्तु मोहके उदय सहित होनेपर हो। द्रव्य मोहके उदय होनेपर भी शद्वात्म भावनाके बलसे भाव मोहरूपसे परिणमन नही करता है. तो । बन्ध नही हप्ता है। यदि कर्मोदय मात्रसे बन्ध हुआ होता तो ससारो जीबोके सर्वदा ही कर्मका उदय विद्यमान होनेके कारण सदा
ही बन्ध होता रहता, मोक्ष कभी न होती। दे० उदय/३/३,४ ( मोह जनित औदयिक भाव हो भन्धके कारण है अन्य नही । वास्तवमै मोहजनित भाव ही औदयिक है, उसके बिना
सब क्षायिक है।) पंध/उ./१०६४ जले जम्बालवन्नून स भावो मलिनो भवेत् । बन्धहेतु
स एव स्यादव तश्चाट कर्मणाम् ।१०६४। -जलमे काईकी तरह निश्चयसे बह औदयिक भाव मोह ही मलिन होता है, और एक वह भावमोह हो आठो कोके बन्धका कारण है।
९. रागादि बन्धके कारण है तो बाह्यद्रव्यका निषेध क्यों ध १२/४,२,८,४/२८१/२ एवं विववहारो किमठ कीरदे सुहेण णाणा. वरणीयपच्चयपडिबोहणट्ठ कज्जपडिसेहदुवारण कारणपडिसेहटूठं च ।
प्रश्न-इस प्रकारका व्यवहार (घतादि) किस लिए किया जाता है। उत्तर-सुखपूर्वक ज्ञानावरणीयके प्रत्ययोका प्रतिबोध करानेके लिए तथा कार्य के प्रतिषेध द्वारा कारण का प्रतिषेध करनेके लिए भी उपर्युक्त व्यवहार किया जाता है। स. सा /आ /२६५ अध्यवसानमेव बन्धहेतुन तु बाह्यवस्तु । तर्हि किमर्थो बाह्यवस्तुप्रतिषेध । अध्यवसानप्रतिषेधार्थ । अध्यबसानस्य हि बाह्यवस्तु आश्रयभूतं, न हि बाह्यवस्त्वनाश्रित्य अध्यवसानमात्मानं लभते।-अध्यवसान ही मन्धका कारण है, बाह्य वस्तु नही । प्रश्नयदि बाह्यवस्तु बन्धका कारण नहीं है, तो बाह्यवस्तुका निषेव किस लिए किया जाता है। उत्तर-अध्यवसानके निषेधके लिए बाह्यवस्तुका निषेध किया जाता है। अध्यवसानको बाह्यवस्तु आश्रयभूत है, बाह्यवस्तुका आश्रय किये बिना अध्यवसान अपने स्वरूपको प्राप्त नही होता, अर्थात उत्पन्न नहीं होता। ४. द्रव्य व भाव बन्धका समन्वय
१. एक क्षेत्रावगाह मात्र का नाम द्रव्य बन्ध नहीं पं.ध/3/४४ न केवल प्रदेशाना बन्ध सबन्धमात्रत । सोऽपि भावैरशुद्धधै स्यात्सापेक्षस्तद्वद्वयोरिति ।४४- इस प्रकार उन जीव और कर्मोके अशुद्ध भावोसे अपेक्षा रखनेवाला वह बन्ध भी केवल प्रदेशोके सम्बन्ध मात्रसे ही नही होता है।४४। (प.ध./उ./१११)
२. जीव व शरीरकी मिन्नतामें हेतु ध.६/,१,६३/२७१/४ जीवसरीरादो भिण्णो, अणादि-अण तत्तादो सरीरे
सादि-सातभाग्दसणादो, सवसरोरेसु जीवस्स अणुगमदसणादो सरीरस्स तदणुवल भादो, जीवसरीराणमकारणत्त [सकारणत्त] दसणादो। सकारण शरीर, मिच्छत्तादि आसवफलत्तादो, णिकारणो जीबो, जोवभावेण धुबत्तादो सरीरदाहच्छेद-भेदे हि जोवस्स तवणुवलं भादो । १. जीव शरीरसे भिन्न है, क्योकि वह अनादि अनन्त है, परन्तु शरीरमे सादि सान्तता पायी जाती है। २. सब शरीरोमें जीव का अनुगम देखा जाता है, किन्तु शरीरके जीवका अनुगम नही पाया जाता।३ तथा जाव अकारण और शरीर सकारण देखा जाता है। शरीर सकारण है, क्योकि वह मिथ्यात्वादि आस्रवोका कार्य है, जीव कारण रहित है, क्योकि वह चेतन भावकी अपेक्षा नित्य है। ४. तथा शरीरके दाह और छेदन भेदनसे जीवका दाह एव भेदन नही पाया जाता। ३. जीव व शरीरमें निमित्त व नैमित्तिकपना भी कथंचित मिथ्या है ध १/१,१,३३/२३४/१ तह (जोवप्रदेशस्य) भ्रमणावस्थाया तत (शरीरस्य) समवायाभावात् । = जीव प्रदेशोकी भ्रमणरूप अवस्थामें शरीरका उनसे समवाय सम्बन्ध नही रहता। प.ध/पू०/२७०-२७१ अपि भवति बध्यबन्धकभावो यदि वानयोर्न शक्यमिति । तदनेकत्वे नियमात्तबन्धस्य स्वतोऽप्यसिद्धत्वाद १२७०। अथ चेदवश्यमेत निमित्तनै मित्तिकत्वमस्ति मिथ, । न यत' स्वय स्वतो वा परिणममानस्य किं निमित्ततया ।२७१।- शरीर और आत्मामे बन्ध्यबन्धक भाव है यह भी आशका नहीं करनी चाहिए,
जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश
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