________________
बंध
१७७
क्योकि नियमसे दोनोंमे एकस्व होनेपर स्वयं उन दोनोंका बन्ध भी असिद्ध है (२७० ) यदि कहो कि परस्पर इन दोनोमें निमित्त नैमित्तिकपना अवश्य है तो यह भी ठीक नहीं है क्योंकि स्वयं अथवा स्वत परिणममान वस्तुके निमित्तपनेसे क्या फायदा | २७१।
४. जीव व कर्म बन्ध केवळ निमित्त की अपेक्षा है प्रसा./त.प्र./९०४ आत्मनो नोरूपत्वेन स्पर्शशून्यस्नान कर्म सहास्ति संबन्ध एकावगाहभावावस्थितकर्म पुद्गल निमित्तोपयोगाधिरूढ रागद्वेषादिभाव सबन्धः कर्म पुगलबन्धव्यवहार साधकस्त्वस्त्येव । - आत्मा अरूपित्वके कारण स्पर्शशून्य है, इसलिए उसका धर्मो के साथ सम्बन्ध नही है, तथा एकावगाह रूपसे रहनेवाले कर्म जिनके निमित है, ऐसे उपयोगारूढ रागद्वेषादि भामके साथका सम्बन्ध कर्मपुद्गलोके साथके बन्धरूप व्यवहारका साधक अवश्य है ।
निश्चयसे कर्म जीवसे बँधे ही नहीं
स सा./मू / ५७ एएहि य संबंधी जब खीरोदयं मुणेदव्वो ण य हुति तस्स तापि उओगगुणाधिन जम्हाइन वर्णादि भाक दु साथ जीवोका सम्बन्ध दूध और पानीका एक क्षेत्रावगाह रूप सयोग सम्बन्ध है ऐसा जानना । क्योंकि जीव उनसे उपयोगगुणसे अधिक ५] (वा. अनु. ६)
स सा./मू./१६६ पुढबीपिंडसमाणा पुव्वणिबद्धा दुपश्ञ्चया तस्स । कम्मसरीरेण द्रुते बद्धा सव्वे दिगाणिस्स । १ हाउस ज्ञानी के पूर्व नदकर्म समस्त प्रथम मिट्टी के उसके समान है, और वे कार्मण शरीरके साथ बँधे हुए है | १६६ ( पं. ध. /उ. / १०५६ ) ।
६. बन्ध अवस्थामें दोनों द्रव्योंका विभाव परिणमन हो
जाता
पं. ६.४५, १०६ ११० अयस्कान्तीपासुची तयो पृथम् अस्ति शक्तिविभावाख्या मियो बन्धाधिकारिणी ॥ ४५ ॥ जीवभावविकारस्य हेतु स्वातद्द्वारा यथा प्रत्युपकारक १९०३ तन्निमित्ततोऽप्यर्थस्यानिमित्तक १११०१ दोनो जीम और कर्मों में भिन्न-भिन्न परस्परमे बन्धको करानेवाली चुम्बक पत्थर के द्वारा त्रिचनेवाली लोहेको सुईके समान विभावनामकी शक्ति है । ४४1
द्रव्यकर्म जीव ज्ञानादिक भावोंके विकारका कारण होता है, और जीवके भावोंका विकार द्रव्यकर्मके आस्रवका कारण होता है [१०] अर्थाजन वैभाविक भावकेनिमित्त पृथक् भूत का प्रगत ज्ञानावरणादि कर्मरूप परिणत हो जाते है ।११०
वे अशुद्धता ( दोनों अपने गुणोंसे च्युत हो जाते है।
•
७. जीवबन्ध बतानेका प्रयोजन
त्र, सा / ता वृ / १७६/२४३/६ एवं रागपरिणाम एव बन्धकारण ज्ञात्वा समस्त रागा शिविर जात्यागेन विज्ञानदर्शनस्वभानिजाम निरन्तर भावना कर्त्तव्येति । इस प्रकार राग परिणाम ही बन्धका कारण है, ऐसा जानकर समस्त रागादि विकल्पके त्याग द्वारा विशुद्धज्ञान दर्शन स्वभाव है जिसका ऐसे निजात्मतत्त्वमें हो निरन्तर भावना करनी चाहिए।
८. उमय बन्ध बतानेका प्रयोजन
सा./ता वृ./ २०-२२/४८/ पर उद्धृत गा, १ की टीका - अत्रैव ज्ञात्वा सहजानन्दे भावे निजात्मनि रसिः कर्तव्या पि
भा० ३ - २३
Jain Education International
५. कर्म बम्ध के कारण प्रत्यय
•
विरतिरित्यभिप्राय । यहाँ इस प्रकार (उभयबन्धको) जानकर सहज आनन्द एक भिज आत्मस्वभाव में ही रति करनी चाहिए । उससे अर्थात निजात्म स्वभावसे ऐसे परद्रव्यमें विरति करनी चाहिए. ऐसा अभिप्राय है (द्र से टी./३३/६४/१०) । द्र.सं./टी./७/२०/६ अयमत्रार्थः - यस्यैवापूर्तस्यात्मन प्राप्त्यभावादमादिसारे प्रमितोऽय जीव स एवामुर्ती पचेन्द्रियविषयत्यागेन निरन्तर ध्यातव्य | इसका तात्पर्य यह है कि जिस अमूर्त आत्माकी प्राप्ति के अभाव से इस जीमने अनादि संसार में भ्रमण किया है, उसी अमूर्तिक शुद्ध स्वरूप आत्माको यो विषयो
त्याग करके ध्याना चाहिए।
९. उमय बन्धका मतार्थ
पं.का./ता.वृ./२७/११/१३ द्रव्यभावकर्मसंयुक्तस्थानं च सदामुक्तनिराकरणार्थमिति मतार्थो ज्ञातव्य । द्रव्य भाव कर्मके संयुक्तपनेका व्याख्यान आत्माको सदामुक्त माननेवाले सदाशिववादियो निराकरणार्थ किया गया है. ऐसा मतार्थ जानना चाहिए (पं.का./ ता वृ./ १२ / १६२ | ) ( प प्र /टो / १/५६ ) ।
१०. बन्ध टालने का उपाय
स सा./मू./ आ / ७१ जश्या इमेण जीवेण अप्पणी आसवाण य तहेब । नाद होदि विसेसंतर तु तश्या ण बधो से ७१) ज्ञानमात्रादेव बन्धनिरोध' सिध्येत् ।
स. सा. / आ /७१/०४७ परपरिणतिमुज्झत् खंडयभेदवादानिदमुदितमखण्डं ज्ञानमुच्चण्डमुच्चै । ननु कथमवकाश' कर्तृकर्मप्रवृत्ते रिह भवति कथं वा पौद्गल कर्मबन्ध |४७| = जब यह जीव आत्माका और आस्रवोका अन्तर और भेद जानता है तब उसे बन्ध नही होता |७१| ऐसा होनेपर ज्ञान मात्र बन्धका निरोध सिद्ध होता है। परपरिणति को छोड़ता हुआ, भेदके कथनोको तोड़ता हुआ, यह अखण्ड और अत्यन्त प्रचण्ड ज्ञान प्रत्यक्ष उदयको प्राप्त हुआ है । अहो। ऐसे ज्ञानमें परद्रव्य) ककर्म की प्रवृत्तिका अवकाश कैसे हो सकता है। तथा पौद्गलिक कर्मबन्ध भी कैसे हो सकता है ? वि/१२/४८ मद्धो मुक्तो भान याति यदीयेन यथा तदेव पुरमश्नुते पान्थ |४८) = जो जीव आत्माको निरन्तर कर्म से बद्ध देखता है वह कर्मबद्ध ही रहता है, किन्तु जो उसे मुक्त देखता है, यह मुक्त हो जाता है। ठीक है कि जिस मार्ग जाता है उसी मार्गको प्राप्त हो जाता है |
५. कर्म बन्धके कारण प्रत्यय
१. कर्मबन्ध में सामान्य प्रत्ययका कारणपना
/ १२ / ४.२४/२९३/२०५ जाणिव जाग पघटानामि ... योगस्थान है से ही प्रदेशम स्थान है । स.प्रा.४/२९२ जोगा पवपिदेसा हिंदि अनुभाग कायदो | १३जी प्रकृति बन्ध और प्रदेशको योग तथा स्थिति मन्य और अनुभागको क्या करता है (स. सि ८/३/३७६ पर उद्धृत ) ( ध १२ / ४,२, ८, १३ /गा ४ / २०६ ) ( रा. वा. ८/३/६/१०/१०/१६१०) (१३४) ( स ( .२३) (गो क. / / २५० / ३६४ ) ( प स सं /४/२६५) (दे० अनुभाग /२/१) ।
जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org