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बंध
बंधक
१ बन्धके प्रत्ययोंमें मिथ्यात्वकी प्रधानता क्यों
प.ध./उ./१०३७-१०३८ सर्वे जीवमया भावा दृष्टान्तो बन्धसाधक । एकत्र व्यापक कस्मादन्यत्राव्यापकः कथम् ।१०३७१ अथ तत्रापि केषां चित्संज्ञिना बुद्धिपूर्वक । मिथ्याभावो गृहीताख्यो मिथ्यार्थाकृतिसं स्थितः ॥१०३८। - प्रश्न-जबकि सब ही भाव जीवमय हैं तो कहींपर कोई एक भाव (मिथ्यात्व भाव) व्यापक रूपसे मन्धका साधक दृष्टान्त क्यों, और कहीं पर कोई एक भाव (इतर भाव) व्याप्य रूपसे ही बन्धके साधक दृष्टान्त क्यो ? उत्तर-उसमें व्यापक रूपसे बन्धके साधक भावोमें भी किन्ही संज्ञी प्राणियोके बस्तुके स्वरूपको मिथ्याकारमें गृहीत रखनेवाला गृहीत नामक बुद्धिपूर्वक मिथ्यात्व भाव पाया जाता है ।१०३८।
२. प्रत्ययोंके सद्भाव में वर्गणाओंका युगपत् कर्मरूप परिणमन क्यों नहीं ध.१२/४,२,८,२/२७६/६ पाणादिवादो जदि णाणावरणीयबन्धस्स पच्चओ
होज तो तिहबणे ठिद कम्मइयवंधा णाणावरणीयपच्चएण अकमेण किण्ण परिणमते, कम्मजोगत्तं पडिविसेसाभावादो। ण, तिरवणभंतरकम्मइयरवंधेहि देसविसयपच्चासत्तीए अभावादो जदि एक्खेत्तोगाढाकम्मइयरवंधा पाणादिवादादो कम्मपज्जाएण परिणमंति तो सव्ववलोगगयजीवाणं पाणादिवादपच्चारण सब्वे कम्मइयखंधा. अक्कमेण णाणावरणीयपज्जाएण परिणदा होति । पच्चासत्तीए एगोगाहणविसयाए संतीए विण सम्वे कम्मइयवधा णाणावरणीयसरूवेण एगसमएण परिणम ति, पत्त दम दहमाणदहणम्मि व जीवम्मि तहाविहसत्तीए अभावादो। किं कारणं जीवम्मि तारिसी सत्ती णस्थि । साभावियादो।' प्रश्न- यदि प्राणातिपात (या अन्य प्रत्यय ही ) ज्ञानावरणीय (आदि ) के बन्धका कारण है तो तीनों लोको में स्थित कार्मण स्कन्ध ज्ञानावरणीय पर्यायस्वरूपसे एक साथ क्यों नही परिणत होते हैं, क्योकि, उनमें कर्म योग्यताकी अपेक्षा समानता है। उत्तर-नही, क्योकि, तीनो लोकोके भीतर स्थित कार्मण स्कन्धोमें देश विषयक प्रत्यासत्तिका अभाव है। प्रश्न-यदि एक क्षेत्रावगाह रूप हुए कार्मण स्कन्ध प्राणातिपातके निमित्तसे कर्म पर्याय रूप परिणमते हैं तो समस्त लोकमें स्थित जीवोके प्राणातिपात प्रत्ययके द्वारा सभी कार्मण स्कन्ध एक साथ ज्ञानावरणीय रूप पर्यायसे परिणत हो जाने चाहिए। उत्तर-एक अवगाहनाविषयक प्रत्यासत्तिके होने पर भी सब कार्मण स्कन्ध एक समयमें ज्ञानावरणीय स्वरूपसे नही परिणमते है, क्योकि. प्राप्त इंधन आदि दाह्य वस्तुको जलानेवाली अग्निके समान जीव मे उस प्रकारकी शक्ति नही है। प्रश्न-जीवमे वेसी शक्ति न होनेका कारण क्या है। उत्तर-उसमें
वैसी शक्ति न होनेका कारण स्वभाव ही है। ध १५/३४६ जदि मिच्छत्तादिपच्चएहि कम्मइयवग्गणवंधा अट्ठकम्मागारेण परिणमति तो एगसमएण सबकम्मइयवग्गणवंधा कम्मगारेण [कि ण] परिणम ति,णियमाभावादो।ण; दव्व-खेत्त-कालभावे त्ति चदुहि णियमेहि णियमिदाण परिणामुवल भादो। दवेण अभव सिद्धिएहि अणंतगुगाओ सिद्धाणमणंतभागमेत्ताओ चेव बग्गणाओ एगममएण एगजीवादो कम्म सरूवेण परिणम ति ।
प्रश्न-यदि मिथ्यात्वादिक प्रत्ययो के द्वारा कार्मण वर्गणाके स्कन्ध आठ कर्मरूपसे परिणमन करते है, तो समस्त कार्मण वर्गणा के स्कन्ध एक समयमे आठ कर्मरूपसे क्यो नही परिणत हो जाते, क्योकि, उनके परिणमनका कोई नियामक नही है । - उत्तर -नही, क्योकि द्रव्य, क्षेत्र, काल और भाव, इन चार निग्रामको द्वारा नियमको प्राप्त हुए उक्त स्कन्धोका मरूपसे परिणमन पाया जाता है। यथाद्रव्यकी अपेक्षा अभवसिद्धिक जीवोसे अनन्तगुणी और सिद्ध जीवोके अनन्तये भाग मात्र ही वर्गणाएँ एक समयमें एक जीवके साथ कर्म स्वरूपसे परिणत होती है।
५. कषाय और योग दो प्रत्ययोंसे बन्धमें इतने भेद क्यों ध १२/४,२,८,१४/२६०/४ कधं दो चेव पच्चयो अट्ठणं कम्माणं बत्तीसाण पयडि-टूठिदि-अणुभाग-पदेसबंधाण कारणत्त पडिवज्जते। ण, असुद्धपज्जवठिए उजुसुदे अणं तसत्तिसंजुत्तेगदव्यत्थितं पडिविरोहाभावादो।-प्रश्न-उक्त दो ही (योग व कषाय ही) प्रत्यय आठ कर्मोके प्रकृति, स्थिति, अनुभाग और प्रदेश रूप बत्तीस बन्धोंकी कारणताको कैसे प्राप्त हो सकते है। उत्तर-नहीं, क्योकि अशुद्ध पर्यायार्थिक रूप अजुसूत्र नयमें अनन्त शक्ति युक्त एक द्रव्य के अस्तित्व में कोई विरोध नहीं है।
१. अविरति कर्म बन्धमें कारण कैसे ध. १२/४,२,८,३/२७६-२८१/६ कम्मबंधो हि णाम, सुहासहपरिणामेहितो
जायदे, · असंतवयण पुण ण सुहपरिणामो, णो असहपरिणामो पोग्गलस्स तपरिणामस्स वा जीवपरिणामत्तविरोहादो। तदो णासंतवयणं णाणावरणीयबंधस्य कारणं । •ण पाणादिवादपच्चओ वि, भिण्ण जीवविसयस पाण-पाणिविओगस्स कम्मबधहे उत्तविरोहादो। णाणावरणीयबंधणपरिणामजणिदो वहदे पाणपाणिवियोगो बयणकलाबो च । तम्हा तदो तेसिमभेदो तेणेव कारणेण णाणावरणीयबंधस्स तेसि पच्चयत्त पि सिद्ध। -प्रश्न-कर्मका बन्ध शुभ व अशुभ परिणामोंसे होता है। १. परन्तु असत्य वचन न तो शुभ परिणाम है और न अशुभ परिणाम है, क्योकि पुद्गलके अथवा उसके परिणामके जीव परिणाम होनेका विरोध है। इस कारण असत्य वचन ज्ञानावरणीयके बन्धका कारण नहीं हो सकता। .. २. इसी प्रकार प्राणातिपात भी ज्ञानावरणीयका प्रत्यय नहीं हो सकता, क्यो कि, अन्य जीव विषयक प्राण-प्राणि वियोगके कर्म बन्धमें कारण होनेका विरोध है। उत्तर-प्रकृतमें प्राण-प्राणि वियोग और वचन कलाप चूकि ज्ञानावरणीय बन्धके कारणभूत परिणामसे उत्पन्न होते है अतएव उससे अभिन्न है। इस कारण वे ज्ञानावरणीय बन्धके प्रत्यय भी सिद्ध होते है। बंधक-१. बन्धकके भेद नोट-नाम स्थापनादि भेद । दे० निक्षेप।
३. एक प्रत्ययले अनन्त वर्गणाओं में परिणमन कैसे
घ १२/४.२,८२/२२८/१२ कधमेगो पाणादिवासो अणते कम्मइयक्वंधे
गाणावरणीय सरूवेण अक्कमेण परिणमावेदि, बहुसु एक्कस्य अक्कमेण वुत्तिविरोहादो । ण, एयस्स पाणादिवादस्स अण तसत्तिजुत्तस्स तद विरोहादो | प्रश्न-प्राणातिपात रूप एक ही कारण अनन्त कामण स्वन्धोका एक साथ ज्ञानावरणीय स्वरूपसे कैमे परिणमाता है. क्योकि बहुतो में एकको युगपत वृत्तिका विरोध है। उत्तरनही, क्योकि, प्राणातिपात रूप एक ही कारणके अनन्त शक्तियुक्त होनेसे वैसा होने में कोई विरोध नहीं आता।
जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश
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