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मोक्षमार्ग
३. दर्शन ज्ञान चारित्रमे कथचित एकत्व
है, अर्थात् ये कोई तीन पृथक्-पृथक् स्वतन्त्र पदार्थ नही है। ज्ञानी तो एक शुद्ध ज्ञायक ही है ।७ । न. च. वृ./२६३) । साधु पुरुषको दर्शन ज्ञान और चारित्र सदा सेवन करने योग्य है और उन तीनोको निश्चय नयसे एक आत्मा ही जानो।१६। (मो पा./१०५), (ति. प/8/२३); (द्र. स./मू./३६ ।। निश्चयसे मेरा आत्मा ही ज्ञान है, मेरा आत्मा ही दर्शन है, और चारित्र है, मेरा आत्मा ही प्रत्या
ख्यान है, मेरा आत्मा ही सवर और योग है ।२७७१ 4. का./मू./१६२ जो चरदि णादि पेच्छ दि अप्पाणं अप्पणा अणण्णमय ।
सो चारित्त णाणं दसण मिदि णिछिदो होदि । - जो आत्मा अनन्यमय आत्माको आत्मासे आचरता है, जानता है, देखता है, वह ( आत्मा ही) चारित्र है, ज्ञान है, और दर्शन है, ऐसा निश्चित है।
(त अनु./३२)। द. पा/मू /२० जीवादी सहहणं सम्मत्तं जिणवरेहि । पण्णत्तं ववहारा णिच्छयदो अप्पाणं हवइ सम्मत्तं ।२० = जीव आदि पदार्थोका श्रद्धान करना जिनेन्द्र भगवान्ने व्यवहारसे सम्यक्त्व कहा है, निश्चयसे आत्मा ही सम्यग्दर्शन है। (प प्र./मू./१/६६)। यो. सा/अ/१/४१-४२ आचारवेदन ज्ञानं सम्यक्त्वं तत्त्वरोचनं ।
चारित्रं च तपश्चर्या व्यवहारेण गद्यले ४१॥ मम्यक्त्वज्ञानचारित्रस्वभान परमार्थतः । आत्मा रागविनिर्मुक्ता मुक्तिमार्गों विनिर्मल' । 1४२॥ स व्यवहारनयसे आचारोका जानना ज्ञान, तत्त्वोमें रुचि, रखना सम्यक्त्व और तपोंका आचरण करना सम्यकचारित्र है।४१॥ परन्तु निश्चयसे तो, जो आत्मा रागद्वेष रहित होनेके कारण स्वय सम्यग्दर्शन, ज्ञान व चारित्र स्वभावस्वरूप है वही निर्दोष मोक्षमार्ग है ।४२१
स. सा /आ./१५५ मोक्षहेतु' किल सम्यग्दर्शनज्ञानचारित्राणि । तत्र सम्यग्दर्शनं तु जीवादिश्रद्धानस्वभावेन ज्ञानस्य भवनम् । जीवादिज्ञानस्वभावेन ज्ञानस्य भवन ज्ञानम्। रागादिपरिहरणस्वभावेन ज्ञानस्य भवनम् चारित्रम् । तदेवं सम्यग्दर्शनज्ञानचारित्राण्येकमेव ज्ञानस्य भवनमायातम् । ततो ज्ञानमेव परमार्थ मोक्षहेतु ।मोक्षका कारण वास्तव मे सम्यग्दर्शनज्ञान चारित्र है, उसमे जीवादि-पदार्थोके श्रद्वान स्वभावस्वरूप ज्ञानका परिणमन करना सम्यग्दर्शन है, उन पदार्थोंके ज्ञानस्वभावस्वरूप ज्ञानका परिणमन करना सम्यग्ज्ञान है,
और उस ज्ञानका ही रागादिके परिहारस्वभावस्वरूप परिणमन करना सम्यक्चारित्र है। इस प्रकार सम्यग्दर्शन, ज्ञान व चारित्र ये तीनों एक ज्ञानका ही परिणमन है। इसलिए ज्ञान ही परमार्थ मोक्षका कारण कारण है। स. सा/आ./परि/क २६५ के पश्चाद--आत्मवस्तुनो हि ज्ञानमात्रत्वेडप्युपायोपेयभावो विद्यते एव; तस्यैकस्यापि स्वय साधक सिद्धरूपणेभयपरिणामित्वात् । तत्र यत्साधक रूपं स उपाय , यत्सिद्धं रूपं स उपेय । अतोऽस्यात्मनोऽनादिमिथ्यादर्शनज्ञानचारित्रैः स्वरूपप्रच्यवनात्सं सरत' सम्यग्दर्शन ज्ञानचारित्रपाकप्रकर्ष परंपरया क्रमेण स्वरूपमारोप्यमाणस्यान्तर्मग्न निश्चयसम्यग्दर्शज्ञानचारित्रविशेषतया साधकरूपेण तथा · रत्नत्रयातिशयप्रवृत्तसकलकर्मक्षयप्रज्वलितास्वन लितविमलस्वभावभावतया सिद्धरूपेण च स्वय परिणममानज्ञानमात्रमेकमेवोपायोपेयभावं साधयति । आत्मवस्तुको ज्ञानमात्र होनेपर भी उसे उपाय-उपेयभाव है ही। क्योकि वह एक होनेपर भी स्वय साधक रूपसे और सिद्धरूपसे दोनो प्रकार से परिमित होता है। (आत्मा परिणामी है और साधकत्व व सिद्धत्व उसके परिणाम है। तहाँ भी पूर्व पर्याययुक्त आत्मा साधक और उत्तरपर्याययुक्त आत्मा साध्य है । ) उसमे जो साधकरूप है वह उपाय है और जो सिद्धरूप है वह उपेय है । इसलिए अनादिकालसे मिथ्यादर्शनज्ञानचा रित्र द्वारा स्वरूपसे च्युत होनेके कारण ससारमे भ्रमण करते हुए, व्यवहार सम्यग्दर्शन ज्ञानचारित्रके पाकके प्रकर्ष की परम्परासे क्रमशः स्वरूपमें आरोहण करता है। तदनन्तर अन्तर्मग्न जो निश्चय सम्यग्दर्शन ज्ञान चारित्र उनकी तद्रूपताके द्वारा स्वयं साधक रूपसे परिणमित होता है। और अन्तमे रत्नत्रयकी अतिशयतासे प्रवर्तित जो सकल कर्मके क्षयसे प्रज्वलित अस्खलित विमल स्वभाव, उस भावके द्वारा स्वयं सिद्ध रूपसे परिणमित होता है। ऐसा एक ही ज्ञानमात्र उपायउपेयभावको सिद्ध करता है।
१. तीनोंको एक आत्मा कहनेका कारण स. सा./आ/१२/क ६ एकवे नियतस्य शुद्धनयतो व्याप्तुर्यदस्यात्मनः, पूर्ण ज्ञानधनस्य दर्शनमिह द्रव्यान्तरेभ्य पृथक् । सम्यग्दर्शनमेतदेव नियमादात्मा च तावानयं तन्मुक्त्वा नवतन्त्वसंततिमिमामात्मायमेकोऽस्तु न ।६। = इस आत्माको अन्य द्रव्योसे पृथक् देखना ही नियमसे सम्यग्दर्शन है, यह आत्मा अपने गुण पर्यायोमें व्याप्त रहनेवाला है और शुद्धनयसे एक्त्व में निश्चित किया गया है तथा पूर्ण ज्ञानघन है। एवं जितना सम्यग्दर्शन है उतना ही आत्मा है, इसलिए आचार्य प्रार्थना करते है, कि इस नव तत्त्वकी परिपाटीको
छोडकर, यह आत्मा ही हमें प्राप्त हो। दू./सं./मू /४० रयणत्तयं ण बट्टइ अप्पाण मइत्त अण्णइवियम्हि । तम्हा तत्तियमइउ होदि हु मुक्खस्स कारणं आदा। - आत्माको छोडकर अन्य द्रव्योमें रत्नत्रय नहीं रहता, इस कारण उस रत्नत्रयमय आत्मा ही निश्चयसे मोक्षका कारण है। पं. वि./४/१४,१५ दर्शनं निश्चय' पुसि बोधस्तद्वोध इष्यते । स्थितिरत्रैव चारित्रमिति योग, शिवाश्रय १४ा एकमेव हि चेतन्यं शुद्धनिश्चयतोऽथवा। कोऽवकाशो विकल्पाना तत्रारवण्डैकवस्तुनि ॥१५॥ मम आत्मस्वरूपके निश्चयको सम्यग्दर्शन, उसके ज्ञानको सम्यग्ज्ञान, तथा उसी आत्मामे स्थिर होनेको सम्यकचारित्र कहा जाता है। इन तीनोका सयोग मोक्षका कारण होता है ।१४। परन्तु शुद्ध निश्चयकी अपेक्षासे ये तीनों एक चैतन्य स्वरूप ही है, कारण उस एक अखण्ड वस्तुमें भेदोके लिए स्थान ही कहाँ है ॥१५॥
३. ज्ञानमात्र ही मोक्षमाग है बो.पा/मू /२० सजम संजुत्तस्स य सुझाण जोयस्स मोक्खमग्गस्स । णाणेण लहदि लक्व तम्हा णाण च णायव्य । - संयमसे संयुक्त तथा ध्यानके योग्य मोक्षमार्गका लक्ष्य क्योकि ज्ञानसे प्राप्त होता है, इसलिए इसको जानना चाहिए है।
४. तीनोंके भेद व अभेदका समन्वय त. सा.//२१ स्यात् सम्यक्त्वज्ञानचारित्ररूप, पर्यायादेिशतो मुक्तिमार्ग । एको ज्ञाता सर्वदेवाद्वितीयः, स्याद् द्रव्यार्थादेशतो मुक्तिमार्गः ॥२१॥- सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान व सम्यग्चारित्र इन तीनो में भेद करना सो पर्यायार्थिक नयकी अपेक्षासे मोक्षमार्ग है । इन सर्व पर्यायो में ज्ञाता जीव एक ही रहता है। पर्याय तथा जीवमें कोई भेद न देखते हुए रत्नत्रयसे आत्माको अभिन्न देखना, सो द्रव्याथिकनयकी अपेक्षासे मोक्षमार्ग है।
५. ज्ञान कहनेसे यहाँ पारिणामिक भाव दृष्ट है न च वृ /३७३ सद्धाणणाण चरणं जाव ण जीवस्स परमसम्भावो। ता
अण्णाणी मूढो ससारमहोवहि भमइ। -जबतक जीवको निज परम स्वभाव ( पारिणामिकभाव ) में श्रद्धान ज्ञान व आचरण नहीं होता तबतक वह अज्ञानी व मूढ रहता हुआ संसार महासागर में भ्रमण करता है। स, सा./आ २०४ यदेत्तत्तु ज्ञान नामक पदं स एष परमार्थ साक्षान्मोक्षोपायः। न चाभिनियोधिकादयो भेदा इदमेक पर्दामह भिन्दन्ति,
जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश
भा०३-४३
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