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मोक्षमार्ग
३३८ ४. निश्चय व व्यवहारमार्गको मुख्यता गौणता किंतु तेऽपीदमेबैकं पदमभिनन्दन्ति ।= यह ज्ञान नामका एक पद ४. निश्चय व व्यवहारका कथंचित ख्यता गौणता परमार्थस्वरूप साक्षात् मोक्षका उपाय है। यहाँ मतिज्ञानादि (ज्ञानके ) भेद इस एक पदको नहीं भेदते, किन्तु वे भी इस एक
तथा समन्वय पदका अभिनन्दन करते है।
1. निश्चयमार्गकी कथंचित् प्रधानता नि. सा./ता.व./४१ पञ्चाना भावानां मध्ये क्षायिकभाव....सिद्धस्य भवति । औदयिकौपशमिककक्षायोपशमिकभावा. संसारिणामेव
स. सा./आ /१५३ शानमेव मोक्षहेतुः, तदभावः स्वयमज्ञानभूतानामभवन्ति न मुक्तानाम् । पूर्वोक्तभावचतुष्टयं सावरणसंयुक्तत्वात न
ज्ञानिना ..शुभकर्मसद्भावेऽपि मोक्षाभावात् । अज्ञानमेव बन्धहेतुः, मुक्तिकारणम् । त्रिकाल निरूपाधिस्वरूप पञ्चमभावभावनया पञ्चम
तदभावं स्वयं ज्ञानभूतानां ज्ञानिना.. शुभकमसिद्भावेऽपि मोक्षगति मुमुक्षवो यान्ति यास्यन्ति गताश्चेति। पाँच भावोंमेंसे क्षायिक
सद्भावात् । - ज्ञान ही मोक्षका हेतु है, क्योंकि, ज्ञानके अभावमें भाव सिद्धोको होता है और औदयिक औपशमिक व क्षायोपशमिक
स्वयं ही अज्ञानरूप होनेवाले अज्ञानियोके अन्तरंगमें व्रत नियम भाव संसारियों को होते है, मुक्तोंको नहीं। ये पूर्वोक्त चार भाव
आदि शुभ कर्मोंका सद्भाव होनेपर भी मोक्षका अभाव है। अज्ञान आवरण सहित होनेसे मुक्तिके कारण नहीं हैं। त्रिकाल-निरूपाधि
ही अन्धका कारण है, क्योकि, उसके अभावमें स्वयं ही ज्ञानरूप स्वरूप पंचमभाव ( पारिणामिकभाव ) की भावनासे ही मुमुच जन
होनेवाले ज्ञानियोंके बाह्य व्रतादि शुभकर्मोंका असद्भाव होनेपर भी पंचम गतिको प्राप्त करते है, करेगे, और किया है।
मोक्षका सद्भाव है । ( स. सा./आ./१५१,१५२ ) । प्र.सा./त.प्र/२३८ आगमज्ञानतत्त्वार्थ श्रद्धानसंयतत्वयोगपद्य'ऽप्यात्मज्ञानमेव मोक्षमार्गसाधकतममनुमन्तव्यम् ।-आगमज्ञान, तत्त्वार्थश्रद्धान
और संयतत्वकी युगपतता होनेपर भी आत्मज्ञानको ही मोक्षमार्गका इ. दर्शनादि तीनों-चैतन्यकी ही दर्शन ज्ञानरूप सामान्य साधकतम सम्मत करना। विशेष परिणति हैं
नि. सा./ता. वृ/२ 'सम्यग्दर्शनज्ञानचारित्राणि मोक्षमार्गः' इति वच
नात, मार्गस्तावच्छूद्धरत्नत्रयं...। = 'सम्यग्दर्शन ज्ञान और चारित्र पं. का././१५४,१५६ जीबसहावं णाणं अप्पडिहददसणं अण्णाणमयं । मोक्षमार्ग है ऐसा वचन होनेसे मार्ग तो शुद्ध रत्नत्रय है। चरियं च तेसु णियदं अस्थित्तमणिदियं भणिय १५४। चरियं चरदि सगं सो जो परदव्वप्पभावरहिदप्पा। दसणणाणवियप्पं अवियप्प
२. निश्चय ही एक मार्ग है अन्य नहीं चरदि अप्पादो ।१५।-जीवका स्वभाव ज्ञान और अप्रतिहत दर्शन प्र.सा/मू ब.त.प्र/१६६ एवं जिणा जिणिंदा सिद्धा मग्गं स मुट्ठि समणा। है, जो कि अनन्यमय है। उन ज्ञान व दर्शनमें नियत अस्तित्व जो
जादा णमोत्थु तेसिं तस्स य णिव्वाणमग्गस्स :१६६। यतः सर्व एव कि अनिन्दित है, उसे चारित्र कहा है।१५४। जो परद्रव्यात्मक भावों- सामान्यचरमशरीरास्तीर्थकरा अचरमशरीरमुमुश्चश्चामुनै व यथोदितेन से रहित स्वरूपवाला बर्तता हुआ दर्शन ज्ञानरूप भेदकी आरमासे शुद्धारमप्रवृत्तिलक्षणेन विधिना प्रवृत्तमोक्षस्य मार्गमधिगम्य सिद्धा अभेदरूप आचरता है वह स्वचारित्रको आचरता है ।१५६॥
बभूवु. न पुनरन्यथा। ततोऽवधार्यते केवलमयमेक एव मोक्षस्य मार्गों रा. वा./१/१/६२/१६/१६ ज्ञानदर्शनयोरनेन विधिना अनादिपारिणा
न द्वितीय इति ।-जिनेन्द्र और श्रमण अर्थात् तीर्थकर और अन्य मिकचैतन्यजीवद्रव्या देशात स्यादेक्त्वम्, यतो द्रव्यार्थादेशाद्
सामान्य मुनि इस पूर्वोक्त प्रकारसे मार्ग में आरूढ होते हुए सिद्ध हुए यथा ज्ञानपर्याय आत्मद्रव्यं तथा दर्शनमपि । तयोरेव प्रतिनियत
हैं। नमस्कार हो उन्हे और उस निर्वाण मार्गको। सभी सामान्य ज्ञानदर्शनपल्यार्पणाव स्यादन्यत्वम्, यस्मादन्यो ज्ञानपर्यायो
चरमशरीर, तीर्थकर, और अचरमशरीरी मुमुक्षु इसी यथोक्त शुद्धारम ऽन्यश्च दर्शनपर्याय' (ज्ञान, दर्शन चारित्रके प्रकरणमें) ज्ञान और
तत्त्ववृत्तिलक्षण विधिसे प्रवर्तमान मोक्षमार्ग को प्राप्त करके सिद्ध हुए दर्शनमें, अनादि पारिणामिक चैतन्यमय जीवद्रव्यकी विवक्षा होनेपर
हैं, किन्तु ऐसा नहीं है कि किसी दूसरी विधिसे भी सिद्ध हुए हों। अभेद है, क्योंकि वही आत्मद्रव्य ज्ञानरूप होता है और वही
इससे निश्चित होता है कि केवल यह एक ही मोक्षका मार्ग है, दर्शनरूप। जब हम उन उन पर्यायोकी विवक्षा करते हैं तम ज्ञान- दूसरा नहीं। (प्र. सा./म. व त. प्र./८२)। पर्याय भिन्न है और दर्शन पर्याय भिन्न है।।
स. सा./आ./४१२/क. २४० एको मोक्षपन्थो य एष नियतो दृग्ज्ञप्ति
वृत्त्यात्मकस्तत्रैव स्थितिमेति अन्तमनिशं ध्यायेच्च तं चेतति। पं.का./त.प्र./१५४ जीवस्वभावनियतं चरितं मोक्षमार्ग । जीवस्वभावो
तस्मिन्नेव निरन्तरं विहरति द्रव्यान्तराण्यस्पृशन्, सोऽवश्यं समयहि ज्ञानदर्शने अनन्यमयत्वात् । अनन्यमयत्वं च तयोविशेषसामान्य
स्य सारमचिरान्नित्योदयं विन्दति ।२४०। = दर्शन-ज्ञान-चारित्रस्वरूप चैतन्यस्वभावजीवनिर्वृ त्तत्वात । अथ तज्जीवस्वरूपभूतयोनिदर्श
जो यह एक नियत मोक्षमार्ग है, उसी में जो पुरुष स्थिति प्राप्त नयोर्यनियतमवस्थितमुत्पादव्ययधौव्यरूपवृत्तिमयमस्तित्वं रागादि
करता है, उसीका निरन्तर ध्यान करता है, उसीका अनुभव करता परिणत्यभावादनिन्दितं तच्चरितं । तदेव मोक्षमार्ग इति । -जीव
है, और अन्य द्रव्योको स्पर्श न करता हुआ उसीमें निरन्तर स्वभाव नियत चारित्र मोक्षमार्ग है, जीवस्वभाव वास्तव में ज्ञान
विहार करता है, वह पुरुष नित्य-उदित-समयसारको अल्पकाल दर्शन है, क्योकि वे अनन्यमय हैं। और उसका भी कारण यह है कि
में ही अवश्य प्राप्त करता है, अर्थात उसका अनुभव करता है। विशेष चैतन्य (ज्ञान) और सामान्य चैतन्य (दर्शन) जिसका स्वभाव है ऐसे जीवसे वे निष्पन्न है। अब जीवके स्वरूपभूत ऐसे उन
यो. सा./ब/८/८८ एक एव सदा तेषां पन्था' सम्यक्त्वपरायिणाम् । ज्ञान दर्शन में नियत अर्थात् अवस्थित ऐसा जो उत्पादव्ययध्रौव्यरूप
व्यक्तीनामिव सामान्य दशाभेदोऽपि जायते ।८८ -जिस प्रकार वृत्तिमय अस्तित्व, जो कि रागादि परिणामके अभावके कारण
व्यक्ति सामान्य रूपसे एक होता हुआ भी अवस्था भेदसे ब्राह्मण अनिन्दित है, वह चारित्र है। वही मोक्षमार्ग है।
क्षत्रिय आदि कहलाता है, उसी प्रकार मोक्षमार्ग एक होते हुए भी
अवस्थाभेदसे औपशमिक क्षायिक आदि कहलाता है। (दे. सम्यग्दर्शन/I/१); (सम्यग्दर्शनमें दर्शन शब्दका अर्थ कथचित नि. सा./ता. वृ./१८/क ३४ असति सति विभावे तस्य चिन्तास्ति नो
सत्तावलोकन रूप दर्शन भी ग्रहण किया गया है, जो कि चैतन्यकी नः, सततमनुभवाम' शुधमात्मानमेक्म् । हृदयकमलसंस्थं सर्वकर्मप्रसामान्य शक्ति है)।
मुक्त, न खलु न खलु मुक्ति न्यथास्त्यस्ति तस्मात ॥३४॥ -विभाव
जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश
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