________________
मोक्षमार्ग
हो अथवा न हो उसकी हमें चिन्ता नहीं है। स्थित सर्व कमसे विमुक्त, एक बुद्धात्माका ही क्योंकि अन्य किसी प्रकारसे मुक्ति नहीं है, नहीं है। ३. केवल उसका प्ररूपण ही अनेक प्रकारसे किया
-
प्र. सा./त. प्र. / २४२ / क १६ इत्येवं प्रतिपत्तुराशयवशादेकोऽप्यनेकीस्थानिय वृत्तिमचलं लोकस्तमास्कन्दतामास्कन्दत्व चिराद्विकाशमतुलं येनोलसन्त्याश्चितेः | १६ | इस प्रकार प्रतिपादक के वश, एक होनेपर भी अनेक होता हुआ, एकलक्षणताको तथा त्रिलक्षणताको प्राप्त जो मोक्षका मार्ग है, उसे लोक द्रष्टा ज्ञातामें परिणति बाँधकर अचलरूप से अवलम्बन करे, जिससे कि वह उल्लसित चेतनाके अतुल विश्वासको अल्पकालमें प्राप्त हो ।
हम तो हृदयकमल में अनुभवन करते हैं।
मो. मा. प्र. / १० / ३६५ / २० सो मोक्षमार्ग दोय नाहीं । मोक्षमार्गका निरूपण दोय प्रकारका हैं। एक निश्चय मोक्षमार्ग और एक व्यवहार मोक्षमार्ग है, ऐसें दोय मोक्षमार्ग मानना मिथ्या है। (द. पा./पं. जयचन्द / २ ) ।
४. व्यवहारमार्गकी कथंचित् गौणता
न च वृ./३७६ भेदुवयारे जझ्या बट्ठदि सो वि य सुहासुहाघीणो । तइया कत्ता भणिदो संसारो तेण सो आदा १३७६। अभेद रत्नत्रयरूप मोक्षमार्ग के भेद व उपचार में जोव जब तक वर्तता है तब तक वह शुभ व अशुभके आधीन रहता हुआ 'कर्ता' कहलाता है। इसलिए वह आत्मा संसारी है।
स. सा./आ./२७६-२७७ आधारादि शब्दश्रुतं ज्ञानस्याश्रयत्वाज्ज्ञानं, जोवादयो नवपदार्थ दर्शनस्याश्रयत्वादर्शनं षड्जीवनिकायश्चारित्रस्याश्रयत्वाचारित्रमिति व्यवहारः । शुद्धधात्मा ज्ञानाश्रयस्था उज्ञानं, शुद्धात्मा दर्शनाश्रयत्वादर्शनं शुद्धात्मा चारित्राश्रयत्वाचारित्रमिति निश्चयः । तत्राचारादीनां ज्ञानाद्यस्याश्रयत्वस्यानेकान्तिकत्वाद्वयवहारनयः प्रतिषेध्यः । निश्चयनयस्तु शुद्धधस्यामनोज्ञानाद्याश्रयश्वस्यैकान्तिकत्वात्तत्प्रतिषेधकः । तथा हि नाचारादिशब्दश्रुतमेकान्तेन ज्ञानस्याश्रयः शुद्धात्मैव ज्ञानस्याश्रयः । - आचाररोगादि शब्द श्रुतज्ञानका आश्रय होनेसे ज्ञान है, जीवादि नवपदार्थ दर्शनका आश्रय होनेसे दर्शन हैं, और छह atafoकाय चारित्रका आश्रय होनेसे चारित्र हैं, इस प्रकार तो व्यवहार मार्ग है। शुद्धात्मा ही ज्ञानका, दर्शनका व चारित्रका आश्रय होनेसे ज्ञान दर्शन व चारित्र है, इस प्रकार निश्चयमार्ग है। तहाँ आचारांगादिको ज्ञानादिका आश्रयपना व्यभिचारी होनेसे व्यवहारमार्ग निषेध्य है, और शुद्धात्माको ज्ञानादिका आश्रयपना निश्चित होनेसे निश्चयमार्ग उसका निषेधक है। वह इस प्रकार कि आचारांगादि एकान्तसे ज्ञानादिके आश्रय नहीं हैं और शुद्धधारमा एकतिसे ज्ञानका आश्रय है। (क्योंकि आचा रोगादिके सद्भाव में भी अभव्यको ज्ञानादिका अभाव है और उनके सद्भाव अथवा असद्भाव में भी सम्यग्दृष्टिको ज्ञानादिका सद्भाव है ) ।
"
Jain Education International
नि. सा./ता.वृ./ ११ / १२२ श्यक्या विभावमखिलं व्यवहारमार्गरत्नत्रयं च मतिमान्निजतत्ववेदी शुद्धात्मतत्त्वनियतं निजबोधमेकं श्रधानमन्यदपरं चरणं प्रपेदे ॥१२२॥ =समस्त विभावको तथा व्यवहारमार्गके रत्नत्रयको छोड़कर निजतत्त्ववेदी मतिमान पुरुष शुद्धधात्मतत्त्व में नियत, ऐसा जो एक निजज्ञान श्रद्धान व चारित्र, उसका आश्रय करता है।
३३९
४. निश्चय व व्यवहारमार्ग को मुख्यता गौणता
५. व्यवहारमार्ग निश्रयका साधन है
प. प्र./मू./ २ / १४ जं बोल्लइ वबहारु-णउ दंसणु णाणु चरितु । तं परियहि जीव तुहुँ जें परु होइ पवित्तु ॥१४॥ हे जीव ! व्यवहारनय जो दर्शन ज्ञान चारित्र इन तीन रूप रत्नत्रयको कहता है, उसको तू जान। जिससे कि तू पवित्र हो जावे । अराधना सार / ७ / ३० जीवोऽप्रविश्य व्यवहारमार्ग न निश्चयं ज्ञातुमपे - ति शक्तिम्। प्रभाविकाशे क्षणमन्तरेण भानूदयं को वदते विवेकी । - व्यवहारमार्ग में प्रवेश किये बिना जोब निश्चयमार्गको जानने में समर्थ नहीं हो सकता। जैसे कि प्रभात हुए बिना सूर्यका उदय नहीं हो सकता।
त. सा./१/२ निश्चव्यवहाराभ्यां मोक्षमार्गो द्विधा स्थितः । तत्राद्यः साध्यरूपः स्याद द्वितीयस्तस्य साधनम्। निश्चय व्यवहार के भेदसे मोक्षमार्ग दो प्रकार है। तहाँ निश्चयमार्ग तो साध्यरूप है। और व्यवहारमार्ग उसका साधन है। (न.च.वृ./ ३४१ में उद्धृत गाथा नं. २ ); (त. अनु. / २८ ) ( प. प्र./टी./ २ / १२ / १२६/५:२/ १४ / १२६ / १ ) । पं.का./त.प्र./ १५६ न चैतद्विप्रतिषिधं निश्चयव्यवहारयोः साध्यसाधनभावत्वात्सुवर्ण सुवर्ण पाषाणवत् । = ( निश्चय द्वारा अभिन्न साध्यसाधनभावसे तथा व्यवहार द्वारा भिन्न साध्यसाधन भाव से जो मोक्षमार्गका दो प्रकार प्ररूपण किया गया है। इनमें परस्पर विरोध आता हो ऐसा नहीं है, क्योंकि सुवर्ण और सुवर्णपाषाणवत् निश्चय व व्यवहारको साध्यसाधनपना है (अर्थात् जैसे सुवर्ण पाषाण अग्नि के संयोगसे शुद्ध सुवर्ण बन जाता है, वैसे ही जीव व्यवहारमार्ग के संयोग से निश्चयमार्गको प्राप्त हो जाता है। (दे० पं. का./ता.वृ./१६०/२३२/१४); (द्र.सं./टी./३६/१६२/११))+
अन. ध./१/१२/१०१ उद्योतोद्यवनिर्वाह सिद्धि निस्तरण भजनम् । भव्यो मुक्तिपथ भाक्तं साधयत्येव वास्तवम् |२| उद्योत, उद्यव, निर्वाह, सिद्धि और निस्तरण इन उपायोंके द्वारा भेदरत्नत्रयरूप व्यवहार मोक्षमार्गका आराधक भव्य पुरुष वास्तविक मोक्षमार्गको नियमसे प्राप्त करता है।
पं.का./ता.वृ./१०५/१६७ निश्चयमोक्षमार्गस्य परंपऱ्या कारणभूतव्यवहारमोक्षमार्गम् । व्यवहार मोक्षमार्ग निश्चयमोक्षमार्गका परम्परा कारण है।
प. प्र./टी./२/१४/१२८/१० हे जीव ! निश्चयमोक्ष मार्गसाधकं व्यवहारमोक्षमार्ग जानीहि त्वं येन ज्ञातेन कथं भूतो भविष्यसि ।
।
परम्परया पवित्रः परमात्मा भविष्यसि मार्गके साधक व्यवहार मोक्षमार्गको जान। परामें जाकर परमात्मा हो जायेगा ।
हे जीव ! तू निश्चय मोक्षउसको जाननेसे तू पर
६. दोनोंके साध्य साधन मावकी सिद्धि
न च / श्रुत/पृ. ५५ व्यवहारप्रसिद्धयैव निश्चयप्रसिद्धिर्नान्यथेति । सम्यग्द्रव्यागमप्रसाधिततश्वसेवया व्यवहार रत्नत्रयस्य सम्यग्रूपेण सिद्धत्वात् व्यबहारकी प्रसिद्धिके साथ निश्चयकी सिद्धि बतलायी गयी है, अन्य प्रकारसे नहीं, क्योंकि समीचीन द्रव्यागमके द्वारा समीचीन प्रकारसे सिद्ध कर लिये गये तत्त्व के सेवन से व्यवहाररत्नत्रयकी समीचीन सिद्धि होती है।
प. प्र. / टो. / २ /१४/१२/१ अत्राह शिष्यः । निश्चयमोक्षमार्गो निर्वि कल्पः तस्काने सविकल्पमोक्षमार्गे नास्ति कथं साधको भविष्यतीति । अत्र परिहारमाह । भूतने गमनयेन परम्परया भवतीति । अथवा विकल्पनिर्विकल्पभेदेन निश्चयमोक्षमार्गो द्विधा, तत्रानन्तज्ञानरूपोऽहमित्यादि सविकल्पसाधको भवति, निर्विकल्पसमाधिरूपो साध्यो भवतीति भावार्थ: । सविकल्पनिविकल्प निश्चयमोक्षमार्ग
जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org