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मोक्षमार्ग प्रकाशक
मोहनीय
विषये संवादगाथामाह-जं पुण सगयं तच्च' सवियप्पं होइ तह य अवियप्पं । सवियप्पं सासवयं निरासवं विगयसंकप्प । प्रश्न -- 'निश्चय मोक्षमार्ग निर्विकल्प है, उसके होते हुए सविकल्प ( व्यवहार) मोक्षमार्ग नहीं होता। तब वह निश्चयका साधक कैसे हो सकता है। उत्तर-भूतनैगमनयकी अपेक्षा परम्परासे वह साधक हो जाता है। अथवा दूसरे प्रकारसे यों समझ लीजिए कि सविकल्प व निर्विकल्पके भेदसे दो प्रकारका मोक्षमार्ग है। तहाँ 'मै अनन्त ज्ञानस्वरूप हूँ' इत्यादि रूप सविकल्प मार्ग तो साधक होता है और निर्विकल्प समाधिरूप साध्य होता है, ऐसा भावार्थ है । (पं का./
ता वृ/१५६/२३०/१०)। प.का /पं. हेमराज/१६१/२३३/१७ - प्रश्न-जो आप हीसे निश्चय,मोक्षमार्ग होय तो व्यवहार साधन किस लिये कहाँ उत्तर-यह आत्मा अनादि अविद्यासे युक्त है, जन काललब्धि पानेसे उसका नाश होय, उस समय व्यवहार मोक्षमार्गको प्रवृत्ति होती है। (तव) अज्ञान रत्नत्रय (मिथ्यादर्शनादि) के नाशका उपाय- सम्यक रत्नत्रयके ग्रहण करनेका विचार होता है। इस विचारके होनेपर जो (अविद्या ) अनादिका ग्रहण था, उसका तो त्याग होता है और जिस (सम्यग्दर्शन ) का त्याग था, उसका ग्रहण होता है। तरपश्चात कभी आचरणमें दोष होय तो दंडशोधनादिक करि उसे दूर करते है, और जिस कालमें शुद्भधात्म-तत्त्वका उदय होता है, तत्र ग्रहण त्यजनकी बुद्धि मिट जाती है . स्वरूप गुप्त होता है। • तब यह जीव निश्चय मोक्षमार्गी कहाता है। इस कारण ही निश्चय व्यवहार मोक्षमार्गको साध्य-साधन भावकी सिद्धि होती है।
ध, १२/४,२,८,८/२८३/8 क्रोध-मान-माया-लोभ-हास्य-रत्यरति-शोकभय-जुगुप्सा-स्त्रीपुंभपुसक्वेद-मिथ्यात्वाना समूहो मोह. -क्रोध. मान, माया, लोभ हास्य, रति, अरति, शोक, भय, जुगुप्सा, स्त्रीवेद. पुरुषवेद, नपुंसक-वेद और मिथ्यात्व इनके समूहका नाम मोह है। ध. १४/५,६ १५/११/१० पंचविहमिच्छत्तं सम्मामिच्छत्तं सासणसम्मत्त
च मोहो। - पंच प्रकारका मिथ्यात्व. सम्यग्मिथ्यात्व, और सासादनसम्यक्त्व मोह कहलाता है। पं. का/त. प्र./१३१ दर्शनमोहनीयविपाककलुषपरिणामता मोह.. दर्शनमोहनीयके विपाकसे जो क्लुषित परिणाम होता है, वह मोह है। चा सा/६/७ मोहो मिथ्यात्वत्रिवेदसहिता प्रेमहास्यादयः। ५
मिथ्यात्व, त्रिवेद, प्रेम, हास्य आदि मोह है। प्र. सा./ता. वृ //९/१२ शुद्वात्मश्रद्धानरूपसम्यक्त्वस्य विनाशको दर्शन
मोहाभिधानो मोह इत्युच्यते। = शुद्धात्मश्रद्धानरूप सम्यक्त्वके विनाशक दर्शनमोहको मोह कहते है। दे. व्यामोह-(पुत्र कलत्रादि के स्नेहको व्यामोह कहते है)।
..मोहके भेद न. च वृ/२६६,३१० असुह मुह चिय कम्मं दुविहं तं दखभाव भेयगये।
त पिय पद्धच्च मोहं स सारो तेण जीवस्स ।२६६। कज्ज पडि जह पुरिसो इक्को वि अणेकरूवमापण्णो । तह मोहो बहुभेओ णिहिट्ठो पच्चयादी हिं ।३१० = शुभ व अशुभके भेदसे अथवा द्रव्य व भावके भेदसे कम दो प्रकारका है। उसकी प्रतीतिसे मोह और मोहसे संसार होता है ।२६। जिस प्रकार एक ही पुरुष कार्यके प्रति अनेक रूपको धारण कर लेता है, उसी प्रकार मिथ्यात्व अबिरति कषाय आदिरूप प्रत्ययोके भेदसे मह भी अनेक भेदरूप है ।३१०॥ प्र सा./त. प्र/८३ मोहरागद्वेषभेदारित्रभूमिको मोह. | - मोह, राग य
द्वेष, इन भेदों के कारण मोह तीन प्रकारका है।
मोक्षमार्ग प्रकाशक-टोडरमल (ई०१७६६) द्वारा रचित हिन्दी भाषाका अनुपम आध्यात्मिक ग्रन्थ है। यह ग्रन्थ अधूरा ही रह गया, क्योकि, विद्वेषियों की चुगलीके कारण पडितजीको अस
मयमे ही अपना शरीर छोड़ना पड़ा। (ती/४/२८६) । मोक्षशास्त्र-दे० तत्त्वार्थसूत्र। मोक्ष सप्तमीव्रत-७ वर्ष पर्यन्त प्रतिवर्ष श्रावण शु ७ को उपवास
करे। 'ओं ह्रीं श्रीपार्श्वनाथाय नम' इस मन्त्रका त्रिकाल जाप्य करे। (व्रत विधान संग्रह)। मोद क्रिया- दे० संस्कार/२। मोष मन-दे० मनोयोग। मोष वचन--देवचन /१,२। ( असत्य)। मोहप्र. सा./मू./८५ अ? अजधागणं करुणाभावो य तिरियमणुएस। बिसएसु च पसंगो मोहस्सेदाणि लिंगाणि । -पदार्थ का अयथा ग्रहण (दर्शनमोह); और तिर्यच मनुष्योके प्रति करुणाभाव तथा विषयोंकी सगति ( शुभ व अशुभ प्रवृत्तिरूप चारित्र मोह ) ये सब मोहके
३. प्रशस्त व अप्रशस्त मोह निर्देश नि. सा/ता. वृ/६ चातुर्वर्ण्यश्रमणसंघवात्सल्यगतो मोहः प्रशस्त इतरोऽप्रशस्त इति। -चार प्रकारके श्रमण संघ के प्रति वात्सल्य सम्बन्धी मोह प्रशस्त है और उससे अतिरिक्त मोह अप्रशस्त है। (विशेष दे० उपयोग/1/४; योग/१)। दे, राग./२ ( मोह भाव ( दर्शनमोह ) अशुभ ही होता है । ) * अन्य सम्बन्धित विषय १. मोह व विषय कषायादिमें अन्तर।। -दे० प्रत्यय/१। २. कषायों आदिका राग व द्वेषमें अन्तर्भाव। -दे० कषाय/४ । ३. मोह व रागादि टालनेका उपाय। -दे० राग/५॥
प्र. सा /मू. व. त. प्र/३ दव्वादिएसु मूढो भावो जीवस्स हव दि मोहोत्ति।-द्रव्यगुणपर्यायेषु पूर्वमुपवाणितेषु पीतोन्मत्तकस्यैव जीवस्य तत्त्वाप्रतिपत्तिलक्षणो मूढोभाव स खलु मोह । - जीवके द्रव्यादि सम्बन्धी मूढभाव मोह है, अर्थात् धतूरा खाये हुए मनुष्यकी भॉति जोवके जो पूर्व वर्णित द्रव्य, गुण, पर्याय हैं, उनमें होनेवाला तत्त्व-अप्रतिपत्तिलक्षण वाला मूढभाव वास्तवमें मोह है। (स.सा/ आ./५१); (द्र स./टी./४८/२०५४६) ।
मोहनीय-आठों कम में मोहनीय ही सर्व प्रधान है, क्योंकि, जीव
के संसारका यही मूलकारण है। यह दो प्रकारका है-दर्शन मोह व चारित्र मोह। दर्शनमोह सम्यक्त्वको और चारित्रमोह साम्यता रूप स्वाभाविक चारित्रको घातता है। इन दोनोके उदयसे जीव भिथ्यादृष्टि व रागी द्वेषी हो जाता है। दर्शनमोहके ३ भेद हैंमिथ्यात्व, सम्यग्मिथ्यात्व और सम्यक्त्वप्रकृति। चारित्रमोहके दो भेद है-कषायवेदनीय और अक्षाय वेदनीय । क्रोधादि चार कषाय है और हास्यादि ६ अकषाय है।
जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश
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