________________
मोक्षमार्ग
३३६
३. दर्शन ज्ञान चारित्रमें कथंचित् एकत्व
अतरंग तत्त्व, २१. परमतत्व, २२. शुद्धात्मद्रव्य, २३, परमज्योति, २४. शुद्धात्मानुभूति. २५. आत्मद्रव्य, २५. आरमप्रतीति, २७. आत्मसंवित्ति, २८ आत्मस्वरूपकी प्राप्ति, २६. नित्यपदार्थकी प्राप्ति. ३०. परमसमाधि, ३१. परमानन्द, ३२. नित्यानन्द, ३३ स्वाभाविक आनन्द, ३४. सदानन्द, ३५. शुद्भधारमपन, ३६. परमस्वाध्याय, ३७. निश्चय मोक्षका उपाय, ३८. एकाग्रचिन्ता निरोध, ३६. परमज्ञान, ४०. शुद्धोपयोग, ४१. भूतार्थ, ४२. परमार्थ, ४३ पंचाचारस्वरूप, ४४. समयसार, ४५. निश्चय षडावश्यक स्वरूप, ४६. केवल ज्ञानकी उत्पत्तिका कारण, ४७. समस्त कर्मों के क्षयका कारण, ४८. निश्चय चार आराधना स्वरूप, ४६. परमारमभावना रूप, ५०. सुखानुभूतिरूप परमकला, ११. दिव्यकला, ५२. परम अद्वैत. ५३. परमधर्मध्यान, ५४, शुक्लध्यान, ५५. निविकल्पध्यान, १६. निष्कलध्यान, ७ परमस्वास्थ्य, ५८. परमवीतरागता, ५६. परम समता, ६०. परम एकत्व, ६१. परम भेदज्ञान, ६२. परम समरसी भाव-इत्यादि समस्त रागादि विकल्पोपाधि रहित परमासादक सुखलक्षणवाले ध्यानस्वरूप ऐसे निश्चय मोक्षमार्गको कहनेवाले अन्य भी महतसे पर्यायनाम जान लेने चाहिए।
६. निश्चय व व्यवहार मोक्षमार्गके लक्षणोंका समन्वय प. प्र./ /२/४० दंसणु णाणु चरित्तु तमु जो सपभाउ करेइ । एयरहँ
एक्कु वि अस्थि णवि जिणवरु एउ भणेइ।४०। दर्शन ज्ञान चारित्र वास्तवमै उसीके होते है, जो समभाव करता है। अन्य किसीके इन तीनोमें-से एक भी नहीं होता, इस प्रकार जिनेन्द्र देव कहते हैं। प्र.सा./त. प्र./२४० य खलु सकल पदार्थज्ञेयाकारकरम्बितविशदैक
ज्ञानाकारमात्मानं श्रद्धानोऽभवंश्चात्मन्येव नित्यनिश्चला वृत्तिमिच्छन् । 'यमसाधनीकृतशरीरपात्र. ... समुपरतकायवाड्मनो - व्यापारो भूत्वा चित्तवृत्ते. निष्पीड्य निष्पीड्य कषायचक्रमक्रमेण जोवं साजयति खलु सकलपरद्रव्यशून्योऽपि विशुद्धशिज्ञप्तिमात्रस्वभावभूतावस्थापितात्मतत्वोपजातनित्यनिश्चल वृत्तितया साक्षात् संयत एव स्यात् । तस्यैव चागमज्ञानतत्त्वार्थश्रदधानसंयतत्वयोगपद्यात्मज्ञानयोगपद्य सिध्यति । -जो पुरुष सकल ज्ञयाकारोंसे प्रतिबिम्बित विशद एक ज्ञानाकार रूप आत्माका श्रद्धान और अनुभव (ज्ञान) करता हुआ, आत्मामें ही नित्य निश्चल वृत्तिको (निश्चय चारित्रको) इच्छता हुआ, संयमके साधनीभूत शरीरमात्रको पंच समिति आदि (व्यवहार चारित्र) के द्वारा तथा पंचेन्द्रियोके निरोध द्वारा मनवचनकायके व्यापारको रोकता है। तथा ऐसा होकर चित्तवृत्तिमें-से कषायसमूहको अत्यन्त मर्दन कर-करके अक्रमसे मार डालता है, वह व्यक्ति वास्तवमें सकल परद्रव्यसे शून्य होनेपर भी विशुद्ध दर्शनज्ञानमात्र स्वभावरूपसे रहनेवाले आत्म तत्त्वमें नित्य निश्चय परिणति ( अभेद रत्नत्रय) उत्पन्न होनेसे साक्षात् सयत ही है। और उसे ही आगमज्ञान, तत्त्वार्थ श्रद्धान, संयतत्व (भेदरत्नत्रय) की युगपतताके साथ
आत्मज्ञान ( निश्चय मोक्षमार्ग) की युगपतता सिद्ध होती है। 1. सा/त, प्र/२४२ जे यज्ञातृतत्त्वतथाप्रतीतिलक्षणेन सम्यग्दर्शनपर्यायण
झे यज्ञातृतत्त्वलथानुभूतिलक्षणेन ज्ञानपर्यायेण ज्ञेयज्ञातृक्रियान्तरनिवृत्तिसूध्यमाण द्रष्ट ज्ञातृतत्त्ववृत्तिलक्षणेन चारित्रपर्यायेण च त्रिभिरपि यौगपद्य न.. परिणतस्यात्मनो यदात्मनिष्ठरवे सति संयतत्वं तत्पानकवदनेकारमकस्यैकस्यानुभूयमानतायामपि समस्तपरद्रव्यपरावृत्तस्वादभिव्यक्तैकाग्यलक्षणश्रामण्यापरनामा मोक्षमार्ग एवावगन्तव्य' । तस्य तु सम्यग्दर्शनज्ञानचारित्राणि मोक्षमार्ग इति भेदात्मकत्वात्प
र्यायप्रधानेन व्यवहारनयनै काग्र यं मोक्षमार्ग इत्य भेदात्मकत्वाद्रव्यप्रधानेन निश्चयनयेन विश्वस्यापि भेदाभेदात्मक्त्वात्तदुभयमिति प्रमाणेन प्रज्ञप्ति। - ज्ञेयतत्त्व और ज्ञातृतत्त्वकी (अर्थात स्व व परकी) यथावस्थित प्रतीतिरूप तो सम्यग्दर्शन पर्याय, तथा उसी स्वपर तत्त्वकी यथाव स्थित अनुभूति रूप ज्ञानपर्याय, तथा उसीकी क्रियान्तरसे निवृत्तिके द्वारा ( अर्थात् ज्ञेयोंका आश्रय लेकर क्रमपूर्वक जाननेकी निवृत्ति करके ) एक दृष्टिज्ञातृतरव (निजात्मा) में परिणति रूप धारित्र पर्याय है। इन तीनों पर्यायोरूप युगपत परिणत आत्माके आत्मनिष्ठता होनेपर संयतत्व होता है। वह संयतत्व ही एकाग्र्यलक्षणवाला श्रामण्य या मोक्षमार्ग है। क्योंकि वहाँ पानकवत् अनेकात्मक एक (विशद ज्ञानाकार ) का अनुभव होनेपर भी समस्त परद्रव्योसे निवृत्ति होनेके कारण एकाग्यता अभिव्यक्त है। वह संयतत्व भेदात्मक है, इसलिए उसे ही पर्यायप्रधान व्यवहारनयसे 'सम्यग्दर्शन-ज्ञान-चारित्र मोक्षमार्ग है' ऐसा कहते है। वह अभेदात्मक भी है. इसलिए द्रव्यप्रधान निश्चयनयसे 'एकाग्रता मोक्षमार्ग है ऐसा कहते हैं। समस्त ही पदार्थ भेदाभेदात्मक हैं, इसलिए उभयग्राही प्रमाणसे 'वे दोनों अर्थात रत्नत्रय व एकाग्रता) मोक्षमार्ग है, ऐसा कहते है। (त. सा./६/२९) प. प्रा./टी./६६/६४ यथा द्राक्षाकर्पूरश्रीखण्डादिबहुद्रव्य निष्पन्नमपि पानकमभेदविवक्षया कृत्वैक भण्यते, तथा शुद्धात्मानुभूतिलक्षण कनिश्चयसम्यग्दर्शनज्ञानचारित्रैर्षहुभिः परिणतो अनेकोऽप्यात्मारवभेदविवक्षया एकोऽपि भण्यत इति भावार्थः।-जिस प्रकार द्राक्षा कपूर व खाण्ड आदि बहुतसे द्रव्योसे बना हुआ भी पानक अभेद विवक्षासे एक कहा जाता है, उसी प्रकार शुद्धात्मानुभूति लक्षणवाले निश्चय सभ्यग्दर्शन ज्ञान व चारित्र इन तीनोके द्वारा परिणत अनेकरूप वाला भी आत्मा अभेद विवक्षासे एक भी कहा जाता है, ऐसा भावार्थ है। प.ध./उ./०६६ सत्यं सद्दर्शन ज्ञानं चारित्रान्तर्गत मिथः । प्रयाणाम
विनाभावादि त्रयमखण्डित ७६६६ -सम्यग्दर्शन और सम्यरज्ञान चारित्रमें अन्तर्भूत हो जाते है. क्योकि तीनों अविनाभावी है। इसलिए ये तीनो अखण्डित रूपसे एक ही है।
७. अभेद मार्गमें भेद करनेका कारण स. सा./मू./१७-१८ जह णामको वि पुरिसोरायाणं जाणिऊण सद्दहदि । तोत अणुचरदि पुणो अत्थत्थीओ पणत्तण ।१७। एवं हि जीवराया गादवो तह य सद्दहेदव्यो। अणुचरिदबो य पुणो सो चेव दु मोक्खकामेण (१८६ -जैसे कोई धनका अर्थी पुरुष राजाको जानकर श्रद्धा करता है. और फिर उसका प्रयत्नपूर्वक अनुचरण करता है, इसी प्रकार मोक्षके इच्छुक पुरुषको जोवरूपी राजाको जानना चाहिए, और फिर इसी प्रकार उसका श्रद्धान करना चाहिए, और तत्पश्चात उसीका अनुचरण करना चाहिए और अनुभव द्वारा उसमें लय हो जाना चाहिए।
३. दर्शन ज्ञान चारित्रमे कथंचित् एकत्व
१. तीनों वास्तवमें एक आत्मा ही है स सा./मू./७,१६,२७७ ववहारेणुवदिस्सइ णाणिस्स चरित्तद सणं णाणं । णविणाणं ण चरितं ण दंसणं जाणगो सुद्धा ७ दसणणाणचरित्ताणि से विदवाणि साहुणा णिच्चं । ताणि पुण जाण तिण्णिवि अप्पाणं चेव णिच्छयदो ।१६आदा खु मज्झ णाणं आदा मे देसणं चरितं च । आदा पच्चक्रवाण आदा मे संबरो जागो १२७७१ = ज्ञानीके चारित्र, दर्शन, व ज्ञान ये तीन भाव व्यवहारसे कहे जाते हैं, निश्चयसे ज्ञान भी नही है, चारित्र भी नहीं है और दर्शन भी नहीं
जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org