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मोक्षमार्ग
२. निश्चय व्यवहार मोक्षमार्ग निर्देश
- जो आत्मा इन तीनो ( सम्यग्दर्शन सम्यग्ज्ञान व सम्यक् चारित्र) द्वारा, समाहित होता हुआ ( अर्थाद निजात्मामें एकाग्र होता हुआ) अन्य कुछ भी न करता है और न छोडता है ( अर्थात् करने व छोडनेके विकल्पोसे अतीत हो जाता है, वह आत्मा ही निश्चय नयसे मोक्षमार्ग कहा गया है । (त. सा/8/३); ( त अनु./३१)। प, प्र/म् /२/१३ पेच्छइ जाणइ अणुचरइ अपि अप्पउ जो जि । दसणु णाणु चरित्तु जिउ मोक्खहॅ कारणु सो जि । =जो आत्मा अपनेसे आपको देखता है, जानता है, व आचरण करता है वही विवेकी दर्शन, ज्ञान चारित्ररूप परिणत जीव मोक्षका कारण है। (न. च. वृ/३२३), (नि सा /ता वृ./२), (प.प्र./टी /२/१४/१२८/१३), (प का,/ता. वृ/१६१/२३३/८); (द्र, सं./टी/३६/१६२/१०)। प.प्र/टी/२/३१/१५१/१ निश्चयेन वीतरागसदानन्दै क रूपसुख सुधारसास्वाद परिणतनिजशुद्धात्मतत्त्वसम्यग्श्रद्धानज्ञानानुचरणरूपस्याभेदरत्नत्रयस्य ।। -निश्चयसे वीतराग सुखरूप परिणत जो निज शुद्वात्मतत्त्व उसी के सम्यक् श्रद्धान ज्ञान व अनुचरण रूप अभेदरत्नत्रयका स्वरूप है। (नि. सा./ता../२); ( स सा./ता वृ./२/८/१०); (प.प्र./टी/७/२०६/१५): (द सं.टी/अधि २ की चूलिका/
ध.७/२,१,७/गा. शह ओदइया बंधयरा उवसमरखयभिस्सया य मोक्रवयरा । भावो दु पारिणामिओ....३-औदायिक भाव बन्ध करनेवाले है तथा औपशमिक, क्षायिक व क्षायोपशमिक भाव मोक्षके
कारण है। ध ७/२,१,७/पृष्ठ/पंक्ति सम्मद सग-सजमाकसायाजोगा मोक्खकर
जाणि (8/६)। एदेसि पडिववा सम्मत्त् पत्ती देसस जम-संजमअर्णताणुबंधिविसयोजण-दसणमोहक्खरणचरितमोहवसामणुवसत - कसाय - चरित्तमोहक्खवण - रवीणकसाय - सजोगिकेवलीपरिणामा मोक्रवपच्चया, एदेहितो समयं पडि असखेज्जगुणसेडीए कम्मणिज्जरुवलंभादो। (१३/१०)।-बन्धके मिथ्यात्वादि प्रत्ययोसे विपरीत सम्यग्दर्शन, संयम, अकषाय, अयोग-अथवा (गुणस्थानक्रमसे ) सम्यक्त्योत्पत्ति, देशसयम, सयम, अनन्तानुबन्धीविसंयोजन, दर्शनमोहक्षपण, चारित्रमोहोपशमन, उपशान्तकषाय, चारित्रमोह क्षपण, क्षीणकषाय व सयोगकेवलीके परिणाम भी मोक्षके प्रत्यय है, क्योंकि इनके द्वारा प्रति समय असख्यात गुणी कर्मोंकी निर्जरा पायी
जातो है। २. निश्चय व्यवहार मोक्षमार्ग निर्देश
१. मोक्षमार्गके दो भेद-निश्चय व व्यवहार त. सा./६/२ निश्चयव्यवहाराभ्यां मोक्षमार्गों द्विधा स्थित । -निश्चय
और व्यवहारके भेदसे मोक्षमार्ग दो प्रकारका है। (न च. वृ/२८४), (त अनु./२८)।
२. व्यवहार मोक्षमागका लक्षण भेदरत्नन्नय प. का./५/१६० धम्मादीसद्दहणं सम्मत्तं णाणमंगपुठवगदं । चेट्ठा तवं हि चरिया ववहारो मोक्रवमग्गो त्ति ।१६०। धर्मास्तिकाय आदिका अर्थात् षद्रव्य, पंचास्तिकाय, सप्त तत्त्व व नव पदार्थोंका श्रदान करना सम्यग्दर्शन है, अंगपूर्व सम्बन्धी आगम ज्ञान सम्यग्ज्ञान है और तपमे चेष्टा करना सम्यकूचारित्र है। इस प्रकार व्यवहार मोक्षमार्ग है । (म. सा./म् /२७६), (त. अनु/३०)। स. सा./म् /१५६ जीवादीसहहण सम्म' तेसिमधिगमो णाणं । रायादीपरिहरणं चरणं एसो दु मोक्खपहो ।१५। जीवादि (नव पदार्थोंका) श्रद्धान करना सम्यग्दर्शन है, उन ही पदार्थों का अधिगम सम्यग्ज्ञान है और रागादिका परिहार सम्यक्चारित्र है। यही मोक्षका मार्ग है । (म. च. वृ./३२१), (द्र सं./टो./३६/१६२/८); (प. प्र/टी. १२/१४/१२८/१२)। त, सा/8/४ श्रद्धानाधिगमोपेक्षा या पुन' स्युः परात्मना। सम्यक्त्वज्ञानवृत्तात्मा स मार्गो व्यवहारतः। (निश्चयमोक्षमार्ग रूपसे कथित अभेद) आत्मामैं सम्यग्दर्शन सम्यग्ज्ञान तथा सम्यकचारित्र यदि भेद अर्थात् विकल्पकी मुख्यतासे प्रगट हो रहा हो तो सम्यग्दर्शनज्ञानचारित्र रूप रत्नत्रयको व्यवहार मोक्षमार्ग समझना चाहिए। प.प्र./टी./२/३१/१५०/१४ व्यवहारेण वीतरागसर्वज्ञप्रणीतशुद्धात्मतत्त्वप्रभृतिषट् द्रव्यपञ्चास्तिकायसप्ततवनवपदार्थ विषये सम्यक श्रद्धान. ज्ञानाहिसादिवतशील परिपालनरूपस्य भेदरत्नत्रयस्य । -व्यवहारसे सर्वज्ञप्रणीत शुद्धात्मतत्त्वको आदि देकर जो षट् द्रव्य, पंचास्तिकाय, सप्ततत्त्व, नवपदार्थ इनके विषयमे सम्यक श्रद्धान व ज्ञान करना तथा अहिसादि व्रत शील आदिका पालन करना (चारित्र) ऐसा भेदरत्नत्रयका स्वरूप है।
३. निश्चयमोक्षमागका लक्षण अभेद रत्नन्नय पं का /मू./१६१ णिच्छयणयेण भणिदो तिहि समाहिदो हु जो अप्पा। ण कुणदि कि चि वि अण्णण मुयदि सो मोक्रवमग्गो त्ति ।१६१॥
४, निश्चय मोक्षमागका लक्षण शुद्धात्मानुभूति यो, सा /यो /१६ अध्पादसण एक्कु परु अण्णु ण कि पि वियाणि । मोक्ख] कारण जोइया णिच्छ ई एहउ जाणि ।१६। -हे योगिन् । एक परम आत्मदर्शन ही मोक्षका कारण है, अन्य कुछ भी मोक्षका
कारण नहीं। यह तू निश्चय समझ । न. च वृ/३४२ की उत्थानिकामें उद्धृत-णिच्छयदो खलु मोक्खी तस्स य हेऊ हवेइ सम्भावो।" ( सम्भावणयचक्क/३७६ }। निश्चयसे मोक्षका हेतु स्वभाव है। प्र. सा./त, प्र/२४२ एकाग्यलक्षण श्रामण्यापरनामा मोक्षमार्ग एवावगन्तव्य.। एकाग्रता लक्षण श्रामण्य जिसका दूसरा नाम है, ऐसा मोक्षमार्ग ही है, ऐसा समझना चाहिए । ज्ञा./१८/३२ अपारय कल्पनाजालं चिदानन्दमये स्वयम् । य स्वरूपे लय प्राप्त स स्याद्रत्नत्रयास्पदम् ।३२। -जो मुनि कल्पनाके जालको दूर करके अपने चैतन्य और आनन्दमय स्वरूपमे लयको प्राप्त होता है, वही निश्चयरत्नत्रयका स्थान होता है। पं. का./ता, वृ/१५८/२२६/१२ तत स्थित विशुद्धज्ञानदर्शनलक्षणे
जीवस्वभावे निश्चलावस्थानं मोक्षमार्ग इति। अतः यह बात सिद्ध होती है कि विशुद्ध ज्ञान दर्शन लक्षणवाले जीवस्वभावमे निश्चल अवस्थान करना ही मोक्षमार्ग है।
५. निश्चयमोक्षमार्गके अपरनाम द्र. सं/टी/१६/२२/१३ तदेव निश्चयमोक्षमार्गस्वरूपम् । तच्च पर्यायनामान्तरेण कि कि भण्यते तदभिधीयते। ( इन नामोका केवल भाषानुवाद ही लिख दिया है सस्कृत नहीं). इत्यादि समस्तरागादिविकल्पोपाधिरहितपरमाहादै कसुखलक्षणध्यानरूपस्य निश्चयमोक्षमार्गस्य वाचकान्यन्यान्यपि पर्यायनामानि विज्ञ यानि भवन्ति परमात्मतत्त्वविद्भिरिति । -वह (वीतराग परमानन्द सुखका प्रतिभास ही निश्चय मोक्षमार्गका स्वरूप है। उसको पर्यायान्तर शब्दो द्वारा क्या-क्या कहते है, सो बताते है। ---१. शुद्धात्मस्वरूप, २. परमात्मस्वरूप, ३. परमहंसस्वरूप, ४ परमब्रह्मस्वरूप, ५. परमविष्णुस्वरूप, ६. परमनिजस्वरूप, ७. सिद्ध,८. निर जनरूप, ह निर्मलस्वरूप १०. स्वसवेदनज्ञान; ११. परमतत्त्वज्ञान, १२ शुद्धात्मदर्शन, १३, परमावस्थास्वरूप, १४. परमात्मदर्शन, १५. परम तत्त्वज्ञान, १६. शुद्धात्मज्ञान, १७. ध्येय स्वरूप शुद्धपारिणामिक भाव, १८. ध्यानभावनारूप, १६. शुद्ध चारित्र, २०.
जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश
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