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मोक्षमार्ग
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१. मोक्षमार्ग सामान्य निर्देश
सामायिकचारित्रोपपत्ते' । समय एकत्वमभेद इत्यनर्थान्तरम, समय अनेक मार्ग नहीं है। सूत्रमे एकवचनके प्रयोगसे यह बात सिद्ध एवं सामायिकं चारित्र सर्वसाबद्यनिवृत्तिरिति अभेदेन सग्रहादिति । होतो है।
='अनन्त जीव सामायिक चारित्रसे सिद्ध हो गये' यह वचन भी ५. युगपत् होते हुए भी तीनोंका स्वरूप भिन्न है तीनों के मोक्षमार्गका समर्थन करता है। ज्ञानरूप आत्माके तत्त्वश्रद्धानपूर्वक ही समताभावरूप चारित्र हो सकता है। समय, एकत्व और
रा वा /१/१/ वार्तिक/पृष्ठ/ पंक्ति ज्ञानदर्शनयोर्यगपत्पवृत्तेरेकत्वमिति अभेद ये एकार्थवाची शब्द है। समय ही सामायिक चारित्र है।
चेतः न, तत्त्वावायश्रद्धानभेदात् तापप्रकाशकत । (६०/१६/३)। अर्थात् समस्त पापयोगोसे निवृत्त होकर अभेद समता और वीत
ज्ञानचारित्रयोरेक भेदादेकत्वम् अगम्याववोधवदिति चेतः न; रागमें प्रतिष्ठित होना सामायिक चारित्र है।
आशुत्पत्ती सूक्ष्म कालाप्रतिपत्ते उत्पलपत्रशतव्यधनवत/(६३/१६/२३)। प.प्र/टी.२/७२/१९४/१० अत्राह प्रभाकरभट्ट । हे भगवत्, यदि विज्ञान
अर्थभेदाच्च । (६४/१७/१)। कालभेदाभावो नार्थभेदहेतु गतिजात्यामात्रेण मोक्षो भवति तहि सख्यादयो बदन्ति ज्ञानमात्रादेव मोक्ष'
दिवत् । (६५/१७/३) । यद्यपि अग्निके ताप व प्रकाशवत सम्यग्दर्शन
व सम्यग्ज्ञान युगपत् उत्पन्न होते है परन्तु तत्वोका ज्ञान व उनका तेषां किमिति दूषणं दीयते भवद्भिरिति । भगवानाह। अत्र वीत
श्रद्धान रूपसे इनके स्वरूप में भेद है। जैसे अन्धकारमें ग्रहण की गयी रागनिर्विकल्पस्वसंवेदनसम्यग्ज्ञानमिति भणितं तिष्ठति तेन बीतरागविशेषणेन चारित्र लभ्यते सम्यग्विशेषणेन सम्यक्त्वमपि लभ्यते,
माताको बिजलीकी चमकका प्रकाश होनेपर अगम्य जानकर छोड पानकवदेकस्यापि मध्ये त्रयमस्ति । तेषां मते तु वीतरागविशेषणं
देता है, उसी प्रकार ज्ञान व चारित्र यद्यपि युगपत होते प्रतीत होते है
परन्तु वास्तबमे उनमें कालभेद है, जो कि अत्यन्त सूक्ष्म होनेके कारण नास्ति सम्यग्विशेषणं च नास्ति ज्ञानमात्रमेव । तेन दूषणं भवतीति भावार्थ-प्रश्न-हे भगवन् । यदि विज्ञानमात्रमे ही मोक्ष होता है
जाननेमे नही आता जैसे कि सौ कमलपत्रोको एक सुई से बीन्धने (दे० आगे मोक्षमार्ग/३) तो साख्य, बौद्ध आदि लोग ज्ञानमात्रसे
पर प्रत्येक पत्रके बिन्धनेका काल पृथक्-पृथक् प्रतीतिमे नही आता ही मोक्ष कहते है, उन्हे दूषण क्यो देते हो । उत्तर-हमारे हाँ
है। अत' कात की एकताका हेतु देकर ज्ञान व चारित्रमे एक्ता नहीं 'बीतराग निविकल्प स्वसंवेदन सम्यग्ज्ञान' ऐसा कहा गया है। तहाँ
की जा सकती। दूसरे कालका अभेद हो जानेसे अर्थका भी अभेद हो 'वीतराग' विशेषणसे तो चारित्रका ग्रहण हो जाता है और 'सम्यक्'
जाता हो ऐसा कोई नियम नहीं है, जैसे कि मनुष्य गति और उसकी विशेषणसे सम्यग्दर्शनका ग्रहण हो जाता है। पानकवत एकको ही
पचेन्द्रिय जातिका काल अभिन्न होने पर भी वे दोनी भिन्न है। यहाँ तीनपना प्राप्त है। परन्तु उनके मतमें न वीतराग विशेषण है और न सम्यक् विशेषण । ज्ञानमात्र कहते है। इसलिए उनको दूषण
६. तीनों की पूर्णता युगपत् नहीं होती दिया जाता है, ऐसा भावार्थ है।
रा.वा./१/१ वार्तिक/पृष्ठ/ पंक्ति-एषां पूर्वस्य लाभे भजनीयमुत्तरम् ।
(4६/१७/२४)। उत्तरलाभे तु नियत पूर्व लाभ (७०/१७/२६)। द्र, सं/टी/३/१५२/८ (क्रमश:) कश्चिदाह-सदृष्टीना वीतरागविशेषणं तदनुपपत्ति', अज्ञानपूर्वकद्वानप्रसगात् । (७१/१७/२०)। न बा; किमर्थ । रागादयो हेया मदीया न भवन्तीति भेद विज्ञाने जाते सति यावति ज्ञानमित्येतत परिसमाप्यते तावतोऽसंभवात्तयापेक्ष रागानुभवेऽपि ज्ञानमात्रेण मोक्षो भवतीति। तत्र परिहार । अन्धकारे बचनम् । तदपेक्ष्य सपूर्ण द्वादशाङ्गचतुर्दशपूर्व लक्ष्णं श्रुतं केवलं पुरुषद्वयम् एक' प्रदीपहस्तस्तिष्ठति, अन्यः पुनरेक प्रदीपरहित. च भजनीयमुक्तम् । तथा पूर्व सम्यग्दर्शनलाभे देशचारित्रं सयतासंयस्तिष्ठति । स च कूपे पतन सादिकं वा न जानाति तस्य विनाशे तस्य सर्वचारित्रं च प्रमत्तादारभ्य सूक्ष्मसाम्परायान्तानां यश्च यावञ्च दोषो नास्ति । यस्तु प्रदीपहस्तस्तस्य कूपपतनादिविनाशे प्रदीपफल नियमादस्ति, संपूर्ण यथाख्यातचारित्र तु भजनीयम् । (७४/९८७)। नास्ति । यस्तु कूपपतनादिक त्यजति तस्य प्रदीपफलमस्ति । तथा अथवा क्षायिकसम्यग्दर्शनस्य लाभे क्षायिक सम्यग्ज्ञानं भजनीयम् । कोऽपि रागादयो हेया मदीया न भवन्तीति भेदविज्ञानं न जानाति .. सम्यग्दर्शनस्य सम्यग्ज्ञानस्य वा अन्यतरस्यात्मलाभे चारित्रमुत्तरं स कर्मणा बध्यते तावत् । अन्य' कोऽपि रागादिभेद विज्ञाने जातेऽपि भजनीयम् । (७५/१८/२०।- सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान और सम्यक यावदंशेन रागादिकमनुभवति तावदंशेन सोऽपि बध्यत एव, तस्यापि चारित्र में पूर्व पूर्व की प्राप्ति होनेपर उत्तर उत्तरकी प्राप्ति भजनीय रागादिभेद विज्ञानफल नास्ति। यस्तु रागादिभेदविज्ञाने जाते सति है, अर्थात् हो भी और न भी हो। परन्तु उत्तरकी प्राप्तिमें पूर्वका रागादिक त्यजति तस्य भेद विज्ञानफलमस्तीति ज्ञातव्यम् । प्रश्न- लाभ निश्चित है। जैसे जिसे सम्यकचारित्र होगा उसे सम्यग्दर्शन व सम्यग्दृष्टियोको वीतराग विशेषण किस लिए दिया जाता है। सम्यग्ज्ञान होगे ही, पर जिसे सम्यग्दर्शन है उसे पूर्ण सम्यग्ज्ञान और 'रागादिक हेय है, ये मेरे नही है' इतना मात्र भेद विज्ञान हो जानेपर चारित्र हो भी और न भी हो । प्रश्न-ऐसा मानने से अज्ञानपूर्वक रागका अनुभव होते हुए भी ज्ञान मात्रसे ही मोक्ष हो जाता है। श्रद्धानका प्रसग आता है। उत्तर-पूर्ण ज्ञानको भजनीय कहा है न उत्तर-अन्धकारमें दीपक रहित कोई पुरुष कुएं में गिरता है तो कोई कि ज्ञानसामान्यको। ज्ञानको पूर्णता श्रुतकेवली और केवलीके दोष नहीं, परन्तु दीपक हाथ में लेकर भी यदि कोई कुएँ में गिरे तो होती है। सम्यग्दर्शनके होनेपर पूर्ण द्वादशाग और चतुर्दशपूर्वरूप उसे दीपकका कोई फल नहीं है, कुऍमें गिरने आदिका त्याग करना श्रुतज्ञान और केवलज्ञान हो ही जायेगा यह नियम नहीं है। इसी ही दोपकका फल है। इसी प्रकार भेद विज्ञान रहित व्यक्तिको तो तरह चारित्र भी समझ लेना चाहिए। सम्यग्दर्शनके होनेपर देश कर्म बंधते हो है, परन्तु भेद विज्ञान हो जानेपर भी जितने अंशमें सकल या यथारख्यात चारित्र, सथतासंयतको सकल व यथारख्यात रागादिका अनुभव होता है, उतने अंशमें बधता ही है और उसको चारित्र, ६-१० गुणस्थानवर्ती साधुको यथारख्यात चारित्र भजनीय भी उतने अंशमें भेद विज्ञानका फल नही है। जो भेदविज्ञान हो है। अथवा क्षायिक सम्यग्दर्शन हो जानेपर क्षायिक सम्यग्ज्ञान भजजानेपर रागादिकका त्याग करता है उसको ही भेद विज्ञानका फल नीय है । अथवा सभ्यग्दर्शन व सम्यग्ज्ञानमे से किसी एक या दोनोंके हुआ जानना चाहिए।
प्राप्त हो जानेपर पूर्ण चारित्र ( अयोगी गुणस्थानका यथारख्यात १. वास्तवमें मार्ग तीन नहीं एक है
चारित्र ) भजनीय है। या, दी./३/९७३/११३ सम्यग्दर्शनादीनि मोक्षस्य सकलकर्मक्षयस्य
७. मोक्षके अन्य कारणोंका निर्देश मार्गः उपाय न तु मार्गा । इत्येकवचनप्रयोगतात्पर्यसिद्ध। स, सि/१/४/१५/६ मोक्षस्य प्रधानहेतु मबरो निर्जरा च । = मोक्षके -सम्यग्दर्शनादि मोक्षका अर्थात् सकलकर्मके क्षयका एक मार्ग है, प्रधान हेतु संवर निर्जरा है। (रा.ग/१/४/३/२५/६)।
जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश
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