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मोक्षमार्ग
१. मोक्षमार्ग सामान्य निर्देश
* सम्यग्दर्शन, शान व चारित्रमें अन्तर ।
-दे० सम्यग्दर्शन/I/81 ४ तीनोंके भेद व अभेदका समन्वय ।
शान कहनेसे यहाँ पारिणामिक भाव इष्ट है। ६ दर्शनादि तीनों चैतन्यकी ही सामान्य विशेष परि
णति है।
निश्चय व्यवहार मार्ग की कथंचित् मुख्यता
गौणता व समन्वय निश्चयमार्गकी कथंचित् प्रधानता। निश्चय ही एक मार्ग है, अन्य नहीं।
केवल उसका प्ररूपण ही अनेक प्रकारसे किया | जाता है। व्यवहार मार्गकी कथंचित् गौणता। व्यवहारमार्ग निश्चयका साधन है। दोनोंके साध्यसाधन भावकी सिद्धि । मोक्षमार्गमें अभ्यासका महत्त्व। -दे० अभ्यास । मोक्षमार्ग में प्रयोजनीय पुरुषार्थ। -दे० पुरुषार्थ /६ । साधु व श्रावकके मोक्षमार्ग में अन्तर।
-दे० अनुभव/५ । | परस्पर सापेक्ष ही मोक्षमार्ग कार्यकारी है।
__--दे० धर्म/६। निश्चय व व्यवहार मोक्षमार्गमें मोक्ष व ससारका कारणपना।
-दे० धर्म/७। शुभ व शुद्धोपयोग की अपेक्षा निश्चय व व्यवहार मोक्षमार्ग ।
-दे० धर्म । अन्ध पड्गु के दृष्टान्तसे तीनोंका समन्वय ।
-दे० मोक्षमार्ग/१/२/रा. वा.।
द. पा /म् /३० णाणेण दसणेण य तवेण चरियेण संजमगुणेण । चउहि
पि समाजोगे मोक्वो जिणसासणे दिट्ठो।३०। सम्यग्ज्ञान, सम्यग्दर्शन, सम्यक्चारित्र व सम्यक्तप इन चारोके मैलसे ही संयम होता है। उससे जीव मोक्ष प्राप्त करता है। (द. पा./मू /३२) मू. आ./८६८-८६६ णिज्जावगो य णाणं वादो झाण चरित्त णावा हि ।
भवसागर तु भविया तर ति तिहिसण्णिपायेण ।। णाणं पयासओ तवो सोधओ सजमो य गुत्तियरो। तिण्ह पि य संजोगे होदि हु जिणसासणे मोक्रवो ।। =जहाज चलानेवाला निर्यापक तो ज्ञान है, पवनकी जगह ध्यान है और चारित्र जहाज है। इन ज्ञान ध्यान चारित्र तीनोंके मेलसे भव्य जीव संसारसमुद्रसे पार हो जाते है 1८६८) ज्ञान तो प्रकाशक है तपकर्म विनाशक है और चारित्र रक्षक । इन तीनोके संयोगसे मोक्ष होता है 1८६। स. सि./१/१/७/५ मार्गः इति च एकवचन-निर्देश' समस्तस्य मार्गभावज्ञापनार्थ । तेन व्यस्तस्य मार्गत्व निवृत्ति. कृता भवति। अत. सम्यग्दर्शनं सम्यग्ज्ञानं सम्यकचारित्रमित्येतत् त्रितयं समुदित मोक्षस्य साक्षान्मार्गो वेदितव्य । -सूत्रमें 'मार्ग' ऐसा जो एकवचन निर्देश किया है, वह तीनो मिलकर मोक्षमार्ग है', यह बताने के लिए किया है। इससे सम्यग्ज्ञान या सम्यग्दर्शन या सम्यक्चारित्रमें पृथक-पृथक रहते हुए मार्गपनेका निषेध हो जाता है। अत सम्यग्दर्शन सम्यग्ज्ञान और सम्यकचारित्र तीनो मिलकर ही मोक्षका साक्षात् मार्ग है, ऐसा जानना चाहिए। (म. पु./२४/१२०-१२२), (प्र सा /त प्र/२३६-२३७ ); (न्या. दी./३/६७३/११३) । रा. वा./१/१/४६/१४/१ अतो रसायनज्ञानश्रद्धानक्रियासेवनोपेतस्य तत्फलेनाभिसबन्ध इति नि प्रतिद्वन्द्वमेतत्। तथा न मोक्षमार्गज्ञानादेव मोक्षणाभिसंबन्धो; दर्शनचारित्राभावात् । न च श्रद्धानादेव; मोक्षमार्गज्ञानपूर्वक्रियानुष्ठानाभावात् । न च क्रियामात्रादेव, ज्ञानश्रद्धानाभावात् । यतः क्रियाज्ञानश्रद्धानरहिता नि फलेति ।
यतो मोक्षमार्गत्रितयकल्पना ज्यायसीति । उक्तञ्च-हत ज्ञान क्रियाहीन हता चाज्ञानिना किया । धावन् किलान्धको दग्ध' पश्यन्नपि च पडगुल ३ सयोगमेवेह वदन्ति तज्ज्ञा न ह्य'कचक्रेण रथ प्रयाति । अन्धश्च पडगुश्च बने प्रविष्टो तौ सप्रयुक्तौ नगर प्रविष्टौ ।२। - औषधिके पूर्ण फलकी प्राप्तिके लिए जैसे उसका श्रद्धान ज्ञान व सेवनरूप क्रिया आवश्यक है, उसी प्रकार सम्यग्दर्शनादि तीनोंके मेलसे उनके फलको प्राप्ति होती है। दर्शन
और चारित्रका अभाव होनेके कारण ज्ञानमात्रसे, ज्ञानपूर्वकक्रिया रूप अनुष्ठानके अभावके कारण श्रद्धानमात्रसे और ज्ञान तथा श्रद्धानके अभावके कारण क्रियामात्रसे मोक्ष नहीं होती, क्योकि ज्ञान व श्रद्धान रहित क्रिया निष्फल है। इसलिए मोक्षमार्गके तीनपनेकी कल्पना जागृत होती है। कहा भी है-'क्रियाहीन ज्ञान नष्ट है और अज्ञानियोके क्रिया निष्फल है। एक चक्रसे रथ नही चलता, अतः ज्ञानक्रियाका संयोग ही कार्यकारी है। जैसे कि दावानलमे व्याप्त वनमें अन्धा व्यक्ति तो भागता-भागता जल जाता है और लंगडा देखता-देखता जल जाता है। यदि अन्धा और लंगडा दोनो मिल जाये और अन्धेके कन्धोपर लँगडा बैठ जाये तो दोनोका उद्धार हो जायेगा तब लगडा तो रास्ता बताता हुआ ज्ञानका कार्य करेगा तथा अन्धा चलता हुआ चारित्रका कार्य करेगा। इस प्रकार दोनो ही वनसे बचकर नगर में आ सकते हैं। (पं. वि./१/७५), (विज्ञानवाद/२)। ३. सामायिक संयम या ज्ञानमात्र कहनेसे मी तीनोंका ग्रहण हो जाता है
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१. मोक्षमार्ग सामान्य निर्देश
१. मोक्षमार्गका लक्षण त. सू /१/१ सम्यग्दर्शनज्ञानचारित्राणि मोक्षमार्ग. १। सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान व सम्यक्चारित्र इन तीनोंकी एकता मोक्षमार्ग है। २. तीनोंकी युगपतता ही मोक्षमार्ग है प्र सामू /२३७ ण हि आगमेण सिज्झदि सद्दहण जदि वि णत्थि अत्थेसु । सहहमाणो अत्थे असंजदो वाण णिव्वदि ।२३७। = आगमसे यदि पदार्थोंका श्रद्धान न हो तो सिद्धि नहीं होती। पदार्थोंका श्रद्धान करनेवाला भी यदि असंयत हो तो निर्वाणको प्राप्त नहीं होता। मो. पा./मू./५६ तवरहियं जं णाण णाणविजुत्तो तवो वि अकयत्थो। तम्हा णाणतवेणं सजुत्तो लहइ णिव्वाण । -जो ज्ञान तप रहित है और जो तप ज्ञान रहित है, वे दोनो ही अकार्यकारी है। अतः ज्ञान व तप दोनो संयुक्त होनेसे ही निर्वाण प्राप्त होता है।
रा.वा./२/१/४४/१४/१४ 'अनन्ता' सामायिकसिद्धा' इत्येतदपि त्रितयमेव साधयति । कथम् । ज्ञस्वभावस्यात्मनस्तत्त्वं श्रद्धानस्य
जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश
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