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परमाणु
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शास शक्यते तस्यैरूप्रदेशस्थानेकप्रदेशात्मकेन शब्देन सह विरोधदिति । जिस प्रकार परमाणुको परिणामके कारण अव्यक्त गन्धादि गुण है ऐसा ज्ञात होता है उसी प्रकार शब्द भी अव्यक्त है ऐसा नहीं जाना जा सकता, क्योंकि एक प्रदेशी परमाणुको अनेकप्रदेशारमक शब्द के साथ एकत्व ड्रोनेमें विरोध है ।
५. परमाणुको उत्पत्तिका कारण
घ. १४/५ ६ / सू. ६८-६६ / १२० वग्गणणिरुवणिदाए उमा एयपदेसियपरमाणुोग्गलदव्ववग्गणा णाम कि भेदेण किं सघादेण किं भेदसघादेण ह उवरिल्लीणं दव्वाणं भेदेण || = - प्रश्न- वर्गणा निरूपणकी अपेक्षा एक प्रदेशी परमाणु पुद्गल द्रव्य वर्षणा क्या भेदसे उत्पन्न होती हैं, क्या संघातसे होती है, या क्या भेद सघात से होती है। ६८ उत्तर = ऊपर के द्रव्योंके ( अर्थात् स्कन्धों के ) भेदसे उत्पन्न होती हैं। (त सू./५/२०) (स सि / ५ / २७/२६६/२) ( रा वा / ५२७] १/४६४ / १०) ।
६. परमाणुका छोकर्मे अवस्थान क्रम
त. सू./१/१४ एकप्रदेशादिषु भाज्य पुगलानाम् ॥१४ रा. वा. /५/१४/२/४५६ / ३२ तद्यथा - एकस्य परमाणोरेकत्रैव आकाशप्रदेशेऽवगाह, द्वयोरेकत्रोभयत्र च बद्धयोरबद्धयोश्च त्रयाणामेकत्र द्वयोस्त्रिषु च मद्वानामवद्धाना च । एवं संख्येयासंख्येयानन्तप्रदेशानां स्कन्धानामेकसंख्येयास ख्येयप्रदेशेषु लोकाकाशे अबस्थानं प्रत्येतव्यम् । = पुद्गलोंका अवगाह लोकाकाशके एकप्रदेश आदिमें विकल्पसे होता है | १४| यथा- एक परमाणुका एक ही आकाश प्रदेशमें अवगाह होता है, दो परमाणु यदि बद्ध हैं तो एक प्रदेशमें यदि अबद्ध है तो दो प्रदेशोंमें, तथा तीनका बद्ध और अबद्ध अवस्थामें एक दो और तीन प्रदेशोंमें अवगाह होता है। इसी प्रकार बन्धविशेषसे सख्यात असंख्यात और अनन्त प्रदेशी स्कन्धोंका लोकका एक संख्यात और असंख्यात प्रदेशोंमें अवगाह समझना चाहिए। (प्र.सा./त.प्र / १३६) |
७. ढोकस्थित परमाणुओंमें कुछ चकित है कुछ refer
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गो.जी./३/२०३२ पोलह असंखेनादि हवंति चलिदा हु । चरिममहधम्मिय चलाचला होंति पदेसा | पुद्गल द्रव्यविषै परमाणु अर द्वणुक आदि संख्यात असंख्यात अनन्त परमाणुहैं। बहुरि अन्तका महास्कन्धवि के पर माणू अचलित हैं, बहुरि केह परमाणू चलित हैं ते यथायोग्य चंचल हो हैं ।
८. अनन्तों परमाणु आज तक अवस्थित
घ. ६/१.१ १.२६/४६/६ एम-वे तिरिण समयाई काण उस्से मे दादि अनादि अपजनसिदसवे हागावद्वावमानोंका एक, दो, तीन समयको आदि करके उत्कर्षतः मेरु पर्वत आदिमें अनादि-अनन्त स्वरूपसे एक ही आकारका अवस्थान पाया जाता है।
घ. ४/१४.४/गा. ११/३२० बंधर जहुतहेदू सादियमध गादियं चावि १६ | [ अदीदकाले बि सव्जीवेहि सव्यपोग्गलमणं तिभागो सजीवरासीदो अनंतगुणो, सव्वजीवरासिउवरिमवग्गादो अनंतगुणहीण, पोग्गलपुंजो भुमिदो (६.४२/१.२४/३२६/२) - गल परमाणु सादि भी होते हैं, अनादि भी होते है और उभय रूप भी होते हैं |११| अतीत कालमें भी सर्व जीनोंके द्वारा सर्वलोका अगन्तम भाग, सर्व जीवराशिसे अनन्तगुणा, और सर्व जीवराशिके
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३. परमाणुओंमें कथंचित् सावयव निरवयवमा
उपरिम वर्गसे अनन्तगुणहीन प्रमाणवाला पुद्गलपुज भोगकर छोडा गया है । ( अर्थात् शेषका पुद्गल पुज अनुपयुक्त है । ) श्लोमा/२/भाषा/१/३/१२/१४ ऐसे परमाणु अनन्त पड़े हुए हैं जो
तक स्कन्धरूप नहीं हुए और आगे भी न होवेंगे । ( श्लो वा. २ / भाषा / १/५/८-१०/१७३/१० ) ।
९. नित्य अवस्थित परमाणुओंका कथंचित् निषेध रा.वा./४/२५/१०/४६२/११ व चानादिपरमाणुर्नाम दिस्ति भेदादणु ( त सू / ५ / २७ ) इति वचनात् । =अनादि काल से अबतक परमाणुकी अवस्थामें ही रहनेवाला कोई अ नहीं है। क्योकि सूत्रमें स्कन्ध भेदपूर्वक परमाणुओं की उत्पत्ति बतायी है।
१०. परमाणुर्मे चार गुणोंकी पाँच पर्याय होती हैं पं.का./एमरसनगंध दो फार्स संघशरिद द परमाण त वियाणा हि । १= वह परमाणु एक रसवाला, एक वर्णवाला, एक गन्धवाला तथा दो स्पर्शवाला है। स्कन्धके भीतर हो तथापि द्रव्य है ऐसा जानो (ति प/२/१७) (न.च.वृ./१०२), (रा.वा./२/३/६/ २००/२६) (/७/१३) (म.पु. २४/१४० ) ।
रामा /५/२५/१२-१४/४१६/१८ एकरसन गन्धोऽशु. १३ द्विस्पर्शो... | १४ | कौ पुन' द्वौ स्पर्शो । शीतोष्णस्पर्शयोरन्यतर स्निग्धरूक्षयोरम्यतरथ एकप्रदेशत्वाद्वविरोधिनो युगपदनवस्थानम् गुरुलघुमृदुकठिनस्पर्शानां परमाणुष्वभाव, स्कन्धविषयत्वात् । परमाणुमें एक रस, एक गन्ध, और एक वर्ण है। तथा उसमें शोत और उष्णमेंसे कोई एक तथा स्निग्ध और रूक्षमें से कोई एक, इस तरह दो अविरोधी स्पर्श होते हैं। गुरु-लघु और मृदु व कठिन स्पर्श परमाणुमें नहीं गये जाते, क्योंकि वे स्कन्धके विषय है । (नि.सा./ता. . / २०) ।
३. परमाणुओंमें कथंचित् सावयव निरवयवपना १. परमाणु आदि, मध्य व अन्त हीन होता है नि.सा./मू./१६ अचादि अत्तम असं व ईदिए । अविभागी ॐ दम परमाणु बियाणाहि २६
नि. सा./ता.वृ./२६ यथा जीवानां नित्यानित्यनिगोश दिसिद्धक्षेत्रपर्यन्तस्थितानां सहजपरमपारिणामिकभावसमायेण सहजनिश्चयनयेन स्वस्वरूपादप्रच्यवनवत्त्वमुक्तम्, तथा परमाणुद्रव्याणां पञ्चमभावेन परमस्वभावत्वादात्मपरिणतेरामैवादि, मध्यो हि आरमपरिमतेरात्मैव, अन्तोऽपि स्वस्यात्मैव परमाणु स्वयं ही जिसका आदि है, स्वयं ही जिसका अन्त है ( अर्थात जिसके आदिमें, अन्तमें और मध्य में परमाणुका निज स्वरूप ही है) जो इन्द्रियोंसे ग्राह्य नहीं है और जो अविभागी है, वह परमाणु द्रव्य जान | २६ ( स.सि./५/ २५/२१० पर उद्धृत); (ति.प./१/१), (रा.वा./३/१८/६/२००/२५) (रा.वा./५/२५/१/४११/१४ में उधृत ); (ज.प./१३/१६ ): (गो.जी./ जी. प्र./५६४/१००६ पर उद्धृत ) जिस प्रकार सहज परम पारिणामिक भावकी विवक्षाका आश्रय करनेवाले सहज निश्चय नवकी अपेक्षासे fate और अनित्य निगोदसे लेकर सिद्ध क्षेत्र पर्यन्त विद्यमान जोनको निजस्वरूपसे अच्युतपना कहा गया है, उसी प्रकार पंचन भावकी अपेक्षासे परमाणु द्रव्यका परम स्वभाव होनेसे परमाणु स्वयं हो अपनी परिणतिका आदि है, स्वयं ही अपनी परिणतिका मध्य है और स्वयं ही अपनी परिणतिका अन्त भी है।
पं.
स.प्र./०८ परभानीहि मूर्तयनिबन्धनभूता परसगन्धन आवेशमात्रेणैव भिद्यन्तेः वस्तुतस्तु यथा तस्य स एव प्रवेश, आदिः, स एव मध्यं स एवान्तः इति मूर्तस्व कार
वर्ग का परमाणुसे आदेश मात्र द्वारा ही भेद किया जाता है:
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