________________
मनुष्य
२७३
२. मनुष्यगति निर्देश
ध १३/५.५.१४१/१ मनसा उत्कटाः मानुषाः । जो मनसे उत्कट होते है
मानुष कहलाते हैं। नि. सा./ता. वृ/१६ मनोरपत्यानि मनुष्याः । मनुकी सन्तान मनुष्य
है। (और भी-दे० जीव/१/३/१५) दे० मनुज (मैथुन करनेवाले मनुष्य कहलाते है)।
। मनुष्यगतिमें कर्मोंका बन्ध उदय सत्त्व।
-दे० वह वह नाम | क्षेत्र व कालकी अपेक्षा मनुष्योंकी अवगाहना।
-दे० अवगाहना२। मनुष्य गतिके दुःख। -दे० भ आ//१५८६-१५६७ । * | कौन मनुष्य मरकर कहाँ उत्पन्न हो।
-दे० जन्म/६३ मनुष्यगतिमें सम्यक्त्व व गुणस्थान निर्देश सम्यक्त्वका स्वामित्व।
गुणस्थानका स्वामित्व । | जन्मके पश्चात् सम्यक्त्व व संयम ग्रहणको योग्यता।
दे०-सम्यग्दर्शन/I/४ व सयम/२। * मनुष्यणीमें १४ गुणस्थान निर्देश व शंका।
-दे. वेद/६,७।। कौन मनुष्य मरकर कौन गुण उत्पन्न करे।
-दे० जन्म/६। मनुष्योंमें सम्भव कषाय, वेद, लेश्या, पर्याप्ति आदि ।
-दे० वह वह नाम। | समुद्रोंमें मनुष्योंको दर्शनमोहकी क्षपणा कैसे।
मनुष्य लोक मनुष्यलोकका सामान्य स्वरूप व विस्तार । मानचित्र
-दे, लोक/४/२ मनुष्य अढाई द्वीपका उल्लंघन नहीं कर सकता। | अढाई द्वीपका अर्थ अढाई द्वीप और दो समुद्र। * समुद्रोंमें मनुष्य कैसे पाये जा सकते है।
-दे० मनुष्य/३/३। * अढाई द्वीपमें इतने मनुष्य कैसे समावें।।
-वे० आकाश/३ । * मनुष्य लोकमें सुषमा दुषमा आदि काल विभाग
--दे० काल/४। ४ । भरत क्षेत्रके कुछ देशोंका निर्देश।
,, , पर्वतोंका निर्देश । ६ | भारत क्षेत्रकी कुछ नदियोंका निर्देश ।
भारत क्षेत्रके कुछ नगरोंका निर्देश। विद्याधर लोक
-दे० विद्याधर ।
२. मनुष्यके भेद नि. सा/मु./१६ मानुषा द्विविकल्पा' कर्ममहीभोगभूमिसंजाता।
-मनुष्योके दो भेद हैं, कर्मभूमिज और भोगभूमिज । (पं. का./ मू/११८)। त. सू./२/३६ आर्या म्लेच्छाश्च १३६ - मनुष्य दो प्रकारके हैं---आर्य
और म्लेच्छ। भ. आ/वि./७८१/१३६/६ पर उधृत-मनुजा हि चतु प्रकाराः।कर्मभूमिसमुत्थाश्च भोगभूमिभवास्तथा। अन्तरद्वीपजाश्चैव तथा संमूच्छिता इति । मनुष्य चार प्रकारके है-कर्मभूमिज और भोगभूमिज, तथा अन्तर्वीपज व सम्मूच्छिम।। गो. जो./मू /१५०/३७३ समण्णा पंचिदी पज्जत्ता जोणिणी अपज्जत्ता। तिरिया णरा तहावि य पंचिंदियभगदो हीणा ।१०।-तिर्यंच पाँच प्रकारके है-सामान्य तिर्यंच, पर्याप्त, योनिमति, और अपर्याप्त । पंचेन्द्रियवाले भंगसे हीन होते हुए मनुष्य भी इसी प्रकार है । अर्थात मनुष्य चार प्रकार हैं-सामान्य, पर्याप्त, मनुष्यणी और अपर्याप्त। का.अ./मू./१३२-१३३ अज्जब म्लेच्छखंडे भोगमहीसु वि कुभोगभूमीम् । मणुसमा हवंति दुविहा णिन्वित्ता-अपुण्णगा पुण्णा ।१५२१ समुच्छिमा मणुस्सा अज्जवखंडेसु हाँति णियमेण । ते पुण लद्धि अपुग्णा-1१३३।
आर्यखण्डमें, म्लेच्छरखण्डमें, भोगभूमिमें और कुभोगभूमिमें मनुष्य होते है। ये चार ही प्रकारके मनुष्य पर्याप्त और निवृत्त्यपर्याप्तके भेदसे दो प्रकारके होते है ।१३२। सम्मूर्छन मनुष्य नियमसे आर्यखण्ड में ही होते है, और वे लब्ध्यपर्याप्तक ही होते है
२. मनुष्यगति निर्देश
१. ऊर्ध्वमुख अधो शाखा रूपसे पुरुषका स्वरूप अन, घ./४/१०२/४०४ ऊर्ध्वमूलमध शाखामृषयः पुरुष विदुः ।१०२१
ऋषियोंने पुरुषका स्वरूप ऊर्ध्वमूल और अधशाखा माना है। जिसमें कण्ठ व जिलामूल है, हस्तादिक अवयव शाखाएँ हैं । जिह्वा आदिसे किया गया आहार उन अवयवोंको पुष्ट करता है।
१. भेद व लक्षण
१. मनुष्यका लक्षण पं.सं./प्रा./१/६२ मण्णं ति जदो णिच्च पणेण णिउणा जदो दु ये जीवो।
मणउक्कडा य जम्हा ते माणुसा भणिया। यत जो मनके द्वारा नित्य ही हेय-उपादेय, तत्त्व-अतत्त्व और धर्म-अधर्मका विचार करते है, कार्य करने में निपुण है, मनसे उत्कृष्ट हैं अर्थात उत्कृष्ट मनके धारक हैं, अतएव वे मनुष्य कहलाते हैं। (ध. १/१,१,२४/गा. १३०/ २०३), (गो.जी./मू./१४६/३७२ )।
२. मनुष्य गतिको उत्तम कहनेका कारण व प्रयोजन आ, अनु./११५ तपोवल्या देह' समुपचितपुण्योऽजितफलः, शलाटयग्रे यस्य प्रसव इव कालेन गलित। व्यपशुष्यच्चायुष्य सलिल मिव सरक्षितपथ; स धन्यः संन्यासाहुतभुजि समाधानचरमम् ॥११५॥ --जिसका शरीर तपरूप बेलिके ऊपर पुण्यरूप महान् फलको उत्पन्न करके समयानुसार इस प्रकारसे नष्ट हो जाता है, जिस प्रकार कि कच्चे फलके अग्रभागसे फूल नष्ट हो जाता है, तथा जिसकी आयु संन्यासरूप अग्निमें दूधकी रक्षा करनेवाले जल के समान धर्म और
शुक्लध्यानरूप समाधिकी रक्षा करते हुए सूख जाती है, वह धन्य है। का, अ./मू./२६६ मणुवगईए वि तओ मणबुगईए महव्वदं सयलं । मणुवगदीए झाणं मणुव गदीए वि णिव्वाण - मनुष्यगतिमें ही तप होता है, मनुष्यगतिमें ही समस्त महावत होते हैं, मनुष्य गतिमे ही ध्यान होता है और मनुष्य गतिमें ही मोक्षकी प्राप्ति होती है।
जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश
भा०३-३५
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org