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मनुष्य
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४. मनुष्य लोक
३. मनुष्य गतिमे सम्यक्त्व व गुणस्थानोका निर्देश
१. सम्यक्त्वका स्वामित्व ष. ख.१११,शसू. १६२-१६५/४०३-४०५ मणुस्सा अस्थि मिच्छाइट्ठी
सासणसम्माइट्ठी सम्मामिच्छाइट्ठी असंजदसम्माइट्ठी संजदासंजदा सजदा त्ति ।१२। एवमड्ढाइज्जदीयसमुद्देसु ।१६३। मणुसा असजदसम्माइट्ठि-सजदासजदसंजदट्ठाणे अस्थि खहयसम्माइट्ठी वेदयसम्माइट्ठी उबसमसम्माइट्ठी।१६४। एव मणुस-पज्जत्त-मणुसिणीसु ।१६१ - मनुष्य मिथ्यादृष्टि, सासादनसम्यग्दृष्टि, सम्यग्मिध्यादृष्टि, असयत सम्यग्दृष्टि, संयतासंयत और संयत होते है। ।१२। इसी प्रकार अढाई द्वीप और दो समुद्रों में जानना चाहिए। १६३। मनुष्य असंयत सम्यग्दृष्टि संयत्तासंयत और संयत गुणस्थानोंमें क्षायिक सम्यग्दृष्टि वेदकसम्यग्दृष्टि और उपशम सम्यग्दृष्टि होते है ।१६४। इसी प्रकार पर्याप्त मनुष्य और पर्याप्त मनुष्यनियों में भी जानना चाहिए ।१६॥
२. गुणस्थानका स्वामित्व ष, ख.१/१, १ सूत्र २७/२१० मणुस्सा चोहस्सु गुणट्ठाणेस अस्थि
मिच्छाइट्ठी- अजीगिकेवलि त्ति ।२७१ प.खं,१/१,१/सूत्र/६-६३/३२६-३३२ मणुस्सा मिच्छाइटिसासणसम्माइट्ठि-असंजदसम्माइट्ठि-ठाणे सिया पज्जता सिया अपजत्ता महा सम्मामिच्छाइटिठ-सजदासंजद सजद-ट्टाणेणियमापज्जत्ता 1801 एवं मणुस्स-पज्जता 182 मणुसिणीम मिच्छाइट्ठि-सासणसम्माइटि-ट्ठाणे सिमा पज्जत्तियाओ सिया अपज्जत्तियाओ ।।२। सम्मामिच्छाइद्वि-असंजदसम्माइदिठ-संजदासंजदसंजदाणेणियमा पज्जतियाओ।६३. - मिथ्याष्टिको आदि लेकर अयोगि केवली पर्यन्त १४ गुणस्थानोमें मनुष्य पाये जाते है ।२७। मनुष्य मिथ्यावृष्टि, सासादन सम्यग्दृष्टि और असयत सम्यग्दृष्टि गुणस्थानों में पर्याप्त भी होते है और अपर्याप्त भी होते है । मनुष्य सम्यग्मिथ्यावृष्टि, सयतासंयत, और संयत गुणस्थानोमे नियमसे पर्याप्तक होते हैं । (उपरोक्त कथन मनुष्य सामान्यकी अपेक्षा है) मनुष्य सामान्यके समान पर्याप्त मनुष्य होते है ।श मनुष्यनियाँ मिथ्यादृष्टि और सासादनसम्यष्टि गुणस्थानमे पर्याप्त भी होती है और अपर्याप्त भी होती है। मनुष्यनियॉ सम्यग्मिध्याष्टि, असंयतसम्यग्दृष्टि, संयतासंयत और सयत गुणस्थानों में नियमसे पर्याप्तक होती है।३। --(विशेष दे० सत)। दे, भूमि/७ (भोगभूमिज मनुष्य असयत सम्यग्दृष्टि हो सकने पर
भी संयतासंयत ब संयत नही)। दे. जन्म/१६ (सूक्ष्म निगादिया जीव मर कर मनुष्य हो सकता है, संयमासयम उत्पन्न कर सकता है, और रायम, अथवा मुक्ति भी
प्राप्त कर सकता है। दे. आर्यखण्ड [ आर्यखण्डोमे जघन्य १ मिथ्यात्व उत्कृष्ट १८, विदेहके
आर्यखण्डोमें जघन्य ६ उत्कृष्ट १४, विद्याधरों में जघन्य ३ और उत्कृष्ट ५ तथा विद्याएँ छोड देनेपर १४ भो गुणस्थान होते है।। दे. म्लेक्ष [ यहाँ केवल मिथ्यात्व ही होता है, परन्तु कदाचित आर्य
खण्डमे आनेपर इनको व इनकी कन्याओसे उत्पन्न संतानको संयत गुणस्थान भी सम्भव है] ।
क्योकि, विद्या आदिके बशसे समुद्रोंमें आये हुए जीवीके दर्शनमोह
का क्षपण होना सम्भव है। ४. मनुष्य लोक
१. मनुष्य लोकका सामान्य स्वरूप व विस्तार ति.प./४/गा. तसणालीबहुमज्झे चित्ताय खिदीय उपरिमे भागे।
अइबट्टो मणुवजगो जोयणपणदाल लक्खविखंभो।६। जगमज्झादो उपरि तब्बहल जोयणाणि इगिलक्वं । णवचदुद्गखत्तियदुगचउक्केकंकह्मि तप्परिही ७। मुण्णभगयणपणदुगएक्करवतियसुण्णणवणहामुण्ण । छक्के कजोयणा चिय अंककमे मणुवलोयखेत्तफलं ।। अट्ठस्थाणे मुष्णं पंचदुरिगिगयणतिणहणवमुण्णा। अबरछक्केवकेहि अककमे तस्स विदफल ।१०। माणुसजगबहूमज्झे विवादो होदि जबुदीओ त्ति । एक्कजोयणलखव्यिवखंभजुदो सरिसबट्टो १२ अस्थि लवण बुरासी जबुदीवस्स खाइयायारो। समवट्टो सो जोयणबेलक्खपमाण विस्थारो ।२३हा धावसंडो दीयो परिवेढदि लवणजलणिहि सयल । चउलक्खजीयणाई विस्थिण्णो चकवालेणं ।२५२७१ परिवेढे दि समुद्दो कालोदो णाम धादईसंड। अढलक्खजोयणाणि विस्थिण्णो चकवालेणं ।२७१८। पोखरवरोत्ति दीवो परिवेढदि कालजलणि हि सयल । जोयणलबरखा सोलस रु'दजुदो चकवालेणं ।२७४४। कालोदयजगदीदो समतदो अठ्ठलवरखजोयणया गतूणं तं परिदो परिवेढदि माणुमुत्तरो सेलो ।२७४८। चेति माणुस्मुत्तरपरियंत तस्स लंघणविहीणा। मणुआ माणुसखेत्ते वेअड्ढाइज्जउवहिदीवेसु । २६२३। -सनालीके बहुमध्यभागमें चित्रा पृथिवीके उपरिम भागमें ४५००,००० योजन प्रमाण विस्तारवाला अतिगोल मनुष्य लोक है।६। लोक्के मध्यभागसे ऊपर उस मनुष्यलोकका बाहुन्य (ऊँचाई) १००,००० योजन और परिधि १४२३०२४६ योजन प्रमाण है.७ (ध,४/१,३,३/४२/३)3; १६००६०३०१२५००० योजन प्रमाण उसका क्षेत्रफल 1 और १६००६०३०१२५०००००००० योजन प्रमाण उसका घनफल है।१०। उस मनुष्यक्षेत्रके बहूमध्यभागमे १००,००० योजन विस्तारसे युक्त सहश गोल और जम्बूद्वीप इस नामसे प्रसिद्ध पहला द्वीप है ।११। लवणसमुद्र रूप जम्बूद्वीपकीखाईका आकार गोल है। इसका विस्तार २००,००० योजन प्रमाण है ।२३६८ ४००,००० योजन विस्तारयुक्त मण्डलाकारसे स्थित धातकीखण्डद्वीप इस सम्पूर्ण लषणसमुद्रको वेष्टित करता है ।२५२७। इस धातकीखण्डको भी ८००,००० योजनप्रमाण विस्तारवाला कालोद नामक समुद्र मण्डलाकारसे वेष्टित किये हुए है ।२७१८। इस सम्पूर्ण कालसमुद्रको १६००,००० योजनप्रमाण विस्तारसे सयुक्त पुष्करवरदीप मण्डलाकारसे वेष्टित किये हुए है ।२७४४। कालोदसमुद्र की जगतीसे चारों और ८००,००० योजन जाकर मानुषोत्तर नामक पर्वत उस द्वीपको सब तरफसे वेष्टित किय हुए है ।२७४। इस प्रकार दो समुद्र और अढ़ाई द्वीपों के भीतर मानुषोत्तर पर्वत पर्यन्त मनुष्य क्षेत्र है। इसमें ही मनुष्य रहते हैं ।२६२३।-(विशेष दे० लोक/)। त्रि.सा./५६२ मंदरकुलवक्खारिमुमणुसुत्तररुप्पजंबुसामलिसु । सीदी तीसं तु सयं चउ चड सत्तरिसयं दुपणं ५६२- मेरु ५, कुलाचल ३०, गजदन्तसहित सर्व वक्षार गिरि १००, इष्याकार ४, मानुषोत्तर १, विजयाधे पर्वत १७०, जम्बूवृक्ष , शाल्मली वृक्ष, इन विषे क्रमसे ८०, ३०, १०४, ४, १७०, १, ५ जिनमन्दिर हैं।- (विशेष दे, लोक/७)।
२. मनुष्य अढाई द्वीपका उल्लंघन नहीं कर सकता ति. प/४/२६२३ चेति माणुस्मुत्तरपरियंतं तस्स लंधणविहीणा।
मानुषोत्तर पर्यन्त ही मनुष्य रहते हैं, इसका उल्लंघन नहीं कर सकते। (त्रि. सा./३२३) ।
३. समुद्रोंमें मनुष्योको दर्शनमोहकी क्षपणा कैसे ? ध.६/१,६-- ११/२४५/मणुम्भसुपण्णा कवं समुददेसु दंसणमोहमख
वर्ण पवेति । ण, विज्जादिक्मेण तत्थागदाण दमणमोहक्व वणसंभवादो। -प्ररन-मनुष्यों में उत्पन्न हुए जीव समुदो में दर्शनमोहनीयको क्षपणाका कैसे प्रस्थापन करते है। उत्तर- नहीं,
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