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मनुष्य
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४. मनुष्य लोक
स. सि./३/३/२२६/१ नास्मादुत्तर कदाचिदपि विद्याधरा ऋद्धिप्राप्ता ।
अपि मनुष्या गच्छन्ति अन्यत्रोपपादसमुद्धाताभ्याम् । ततोऽस्यान्वर्थसंज्ञा। समुद्धात और उपपादके सिवाय विद्याधर तथा ऋद्धि प्राप्त मुनि भी इस पर्वतके आगे नहीं जा सकते। अत. इसकी संज्ञा
अन्वर्थक है । { रा. वा./३/३५/ १६८/२), (ह. पु/१६१२)। ध.१/१,१,१६३/४०३/११ वैरसंबन्धेन क्षिप्तानां संयतानां संयता
संयतानां च सर्वद्वीपसमुद्रेषु संभवो भवत्विति चेन्न, मानुषोत्तरास्परतो देवस्य प्रयोगतोऽपि मनुष्याणां गमनाभावात् । प्रश्न-रके सम्बन्धसे डाले गये संयत और संयतासंयत आदि मनुष्योंका सम्पूर्ण द्वीप और समुद्रो में सदभाव रहा आवे, ऐसा मान लेनेमें क्या हानि है। उत्तर-नही, क्योकि, मानुषोत्तर पर्वतके उस तरफ देवोंकी प्रेरणासे भी मनुष्योका गमन नहीं हो सक्ता है।
३. भढ़ाई द्वीपका अर्थ अढाई द्वीप और दो समुद्र घ. १/१,१,१६३/४०४/१ अथ स्यादर्धतृतीयशब्देन किमु द्वीपो विशिष्यते उत समुद्र उत द्वावपीति । नान्त्योपान्त्यविकल्पौ मानुषोत्तरात्परतोऽपि मनुष्याणामरितत्वप्रसंगाव । ..नादिविकल्पोऽपि समुद्राणो संख्या नियमाभावत' सर्वसमुद्रेषु तत्सत्त्वप्रसंगादिति । अत्र प्रतिविधीयते । नानन्तापान्त्यविकल्पोक्तदोषा. समाढीकन्ते, तयोरनभ्युपगमात् । न प्रथमविकल्पोक्तदोषोऽपि द्वीपेष्वर्धतृतीयसंख्येषु मनुष्याणामस्तित्व नियमे सति शेषद्वीपेषु मनुष्याभावसिद्धिवन्मानुषोत्तरल प्रत्यविशेषत. शेषसमुद्रेषु तदभावसिद्धे। तत सामाद द्वयोः समुद्रयोः सन्तीत्यनुक्तमप्यवगम्यते। - प्रश्न-'अर्धतृतीय' यह शब्द द्वीपका विशेषण है या समुद्रका अथवा दोनोंका। इनमेंसे अन्तके दो विकल्पोंके मान लेनेपर मानुषोत्तर पर्वतके उस तरफ भी मनुष्योंके अस्तित्वका प्रसंग आ जायेगा। और पहला विकल्प मान लेनेसे द्वीपोंकी संख्याका नियम होनेपर भी समुद्रोंकी संख्याका कोई नियम नहीं बनता है, इसलिए समस्त समुद्रोमें मनुष्यों के सद्भावका प्रसंग प्राप्त होता है। उत्तर-दूसरे और तीसरे विकल्पमें दिये गये दोष तो प्राप्त ही नहीं होते है, क्योकि, परमागममें वैसा माना ही नहीं गया है। इसी प्रकार प्रथम विकल्पमें दिया गया दोष भी प्राप्त नहीं होता है, क्योंकि, अढाई द्वीपमें मनुष्यों के अस्तित्वका नियम हो जानेपर शेषके द्वीपोमें जिस प्रकार मनुष्योंके अभावकी सिद्धि हो जाती है, उसी प्रकार शेष समुद्रो में भी मनुष्योंका अभाव सिद्ध हो जाता है, क्योंकि, शेष द्वीपोंकी तरह दो समुद्रोंके अतिरिक्त शेष ममुद्र भी मानुषोत्तरसे परे है। इसलिए सामर्थ्य से ही दो समुद्रोमें मनुष्य पाये जाते है, यह बात बिना कहे ही जानी जाती है।
४. भरतक्षेत्रके कुछ देशोंका निर्देश ह.पु./१२/६४-७५ का केवल भाषानुवाद-कुरुजांगल, पांचाल, सूरसेन,
पटचर, तुलिंग, काशि, कौशल, मद्रकार, वृकार्थक, सोल्व, आवृष्ट, विगत, कुशाग्र, मत्स्य, कुणीयाद् कोशल और मोक ये मध्यदेश थे ।६४-६॥ वाहीक, आत्रेय, काम्बोज, यवन, आभीर, मद्रक, स्वाथतोय, शूर, वाटवान, कैकय, गान्धार, सिन्धु, सौवीर, भारद्वाज, दोरुक, प्रास्थाल और तीर्ण कर्म ये देश उत्तरकी ओर स्थित थे।६६-६७। खड्ग, अगारक, पौण्ड्र, मल्ल, मस्तक, प्राग्जोतिष, वङ्ग, मगध, मानवतिक, मलद और भार्गव, ये देश पूर्व दिशामें स्थित थे। बाणमुक्त, वैदर्भ, माणव, सककापिर, मूलक, अश्मक, दाण्डीक, कलिंग, ऑसिक, कुन्तल, नवराष्ट्र, माहिषक, पुरुष और भोगवर्धन ये दक्षिण दिशाके देश थे। माल्य कल्लीवनोपान्त, दुर्ग, सूर, कर्बुक, काक्षि, नासारिक, अगत, सारस्वत, तापस, महिम, भरुकच्छ, सुराष्ट्र और नरमद ये सब देश पश्चिम दिशामे स्थित थे । दशार्णक,
किकन्ध, त्रिपुर, आवर्त, नैषध, नैपाल, उत्तमवर्ण, वैदिश, अन्तप, कौशल, पत्तन और विनिहात्र ये देश विन्ध्याचलके ऊपर स्थित थे।६८-७४। भद्र, वत्स, विदेह, कुश, भंग, सैतव और वजखण्डिक, ये देश मध्यदेशके आश्रित थे।७॥ ह.पु./सर्ग/श्लोक-टकण द्वीप। (२१/१०२), कुम्भकटक द्वीप। (२१/१२३); शकटद्वीप (२७/१६), कौशलदेश ( २७/६१), दुर्ग देश (१७/१६); कुशद्यदेश (१८/8)। म, पु./२६/श्लोक न. भरत चक्रवर्तीके सेनापतिने निम्न देशोको
जोता-पूर्वी आर्यखण्डकी विजयमें-कुरु, अवन्ती, पांचाल, काशी, कोशल, वैदर्भ, मद्र, कच्छ, चेदि, वत्स, मुह्म, पुण्ड्र, औण्ड्र, गौड, दशार्ण, कामरूप, काशमीर, उशीनर, मध्यदेश, कलिग, अंगार, बंग, अग, पुंड्र, मगध, मालव, कालकूट, मनल, चेदि, कसेरु और वत्स ।४०-४८। मध्य आर्यखण्डकी विजयमे त्रिकलिग, औद्र, कच्छ, प्रातर, केरल, चेर, पुन्नाग, कूट, ओलिक, महिष, कमेकुर, पाण्ड्य, अन्तरपाण्ड्य ७६-८०। आन्ध्र, कलिग, ओण्ड्र, चोल, केरल, पाण्डय ।६१-६६ म.पु./३०/श्लोक नं. पश्चिमी आर्य खण्डकी विजयमें-सोरठ (१०१ ),
काम्बोज, बालोक, तैतिल, आरट्ट, सैन्धव, वानायुज, गान्धार, वाण ११०७-१०८०-उत्तर म्लेक्षखण्डमें चिलात व आवर्त । (३२/४६)।
५. मरतक्षेत्रके कुछ पर्वतोंका निर्देश ह. पू./सर्ग/श्लोक-गिरिकूट (२१/१०२); कर्कोटक (२१/१२३ ),
राजग्रहमें ह्रीमन्त (२६/४५) वरुण (२७/१२) विन्ध्याचल (१७/३६ )। म. पु./२६/श्लोक-ऋष्यमूक, कोलाहल, माल्य, नागप्रिय ।५५-५७। तैरश्चिक, वैडूर्य, कूटाचल, परियात्रा, पुष्पगिरि, स्मितगिरि, गदा, ऋक्षवान्, बातपृष्ठ, कम्बल, बासवन्त, असुरधूपन, भदेभ, अंगिरेयक, १६७-७०। विन्ध्याचलके समीपमें नाग, मलय, गोशीर्ष, दुर्दर, पाण्ड्य, कवाटक, शीतगृह, श्रीकटन, श्रीपर्वत, किष्किन्ध 1८८-१० म.पु./३०/ श्लोक-त्रिकूट, मलयगिरि, पाण्ड्यवाटक ।२६। सह्य ।।
तुंगवरक, कृष्णगिरि, सुमन्दर, मुकुन्द, ४६-६ विन्ध्याचल ६५॥ गिरनार ६४ म. पु./३३/श्लोक कैलाश पर्वत विजयाधके दक्षिण, लवण समुद्रसे उत्तर व गंगा नदीके पश्चिम भागमें अयोध्याके निकट बताया है।
६. मरतक्षेत्रकी कुछ नदियोका निर्देश ह. पु./सर्ग/श्लोक-हरिद्वती, चंडवेगा, गजवती, कुसुमवती, सुवर्णवती
ये पाँच नदियाँ वरुण पर्वतपर है। (२७/१३) ऐरावती। (२१/ १०२)। म.पु./सर्ग/श्लोक-सुमागधी, गगा. गोमती, कपीवती, रवेस्या-ये नदियाँ पूर्वी मध्य देशमें है, गम्भीरा, कालतोया, कौशिकी, कालमही, ताम्रा, अरुणा, निधुरा, उदुम्बरी, पनसा, तमसा, प्रमृशा, शुक्तिमती, यमुना-ये नदियाँ पूर्व में है। शोन पूर्वी उत्तरमे, बीजा दोनों के बीच में और नर्मदा पूर्वी दक्षिणमें है। (२६/४६-५४ ) । क्षत्रवती, चित्रवतो, मान्यवती, वेणुमती, दशार्णा, नालिका, सिन्धु, विशाला, पारा, निकुन्दरी, बहुवजा, रम्या, सिकतिनी, कुहा, समतोया, कजा, कपीवती, निर्विन्ध्या, जम्बूमती, वसुमती, शर्कराबती, शिप्रा, कृतमाला, परिंजा, पनसा, अवन्तिकामा, हस्तिपानी, कांगधुनी, व्याघी. चर्मण्वती, शतभागा, नन्दा, करभवेगिनी, चल्लितापी, रेवा, सप्तपारा, कौशिकी। (२४/२८-६६)। तैला, इक्षुमती, नरवा, बंगा, श्वसना, वैतरणी, मापवती, महेन्द्र का, शुष्क, सप्तगोदावर, गोदावरी, मानससरोवर, सुप्रयोगा, कृष्णवर्णा, सन्नीरा,
कांगधुनी, व्यायामाला. परिजा, पाया, जम्बमती, सकतिनी, कुहा,
जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश
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